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महाकवि स्वयम्भूदेव विरचित
पउमचरिउ (पद्मचरित) भाग २
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मूले सम्पादक डॉ. एच.सी. भायाणी
अचान डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन, इन्दौर
DI
भारतीय ज्ञानपीठ
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विषय-सूची
७
इक्कीसवीं सन्धि विद्याधर चन्द्रगति द्वारा जनवाके विभीषण द्वारा जनक और दशरथ- Kण :
१३ को मरवाने का असफल प्रयत्न ३
चपलवेगका घोड़ा बनकर
जनकको ले आना दशरथ और अनकका कौतुक
१३
विद्याधर चन्द्रगतिका प्रस्ताव १५ मंगल नगरके लिए जाना, नगरका वर्णन
धनुषयज्ञ द्वारा सीताके विवाहकैकेयीका स्वयंवरम भाकर दशरथ
का निश्चय
स्वयंवरकी योजना का वरण करना
राम-सीताका विवाह युद्ध में दशरथका फैकेयीको दो
१७ वर देना
बाईसवी सन्धि वशरथके पुत्र-जम्म
७ दशरथ द्वारा जिनका अभिषेक १९ जनकके यहां सीता और भा- राती सुप्रभाको शिकायत, मण्डलकी उत्पत्ति, भामण्डलका कंचुकी के बुढ़ापेका वर्णन मपहरण
७ दशरथको विरक्ति और रामको जनक द्वारा शबरोंके विरुद्ध
राज्य देने का निश्चय दशरथ से सहायताकी याचना ९ श्रमण संघका आगमन राम और लक्ष्मणका प्रस्थान १ भामण्डलकी विरह वेदना २३ शवरौके परास्त करने के बाद सीताको बलपूर्वक ले आनेके
जनक द्वारा विदा ११ लिए प्रस्थान नारदका सीतापर कोप, उसका पूर्व भव स्मरण चित्रपट मामण्डलको दिखाना ११ कामावस्थाका नाश भामण्डलका कामासक्त होना ११ अयोध्या जाना
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पउमरिड :
केकेसीका सभामण्डपमें जाना राम द्वारा सेनाकी वापसी ४७ और वर मांगना
२७ दक्षिणकी ओर प्रस्थान ४७ दशरथ द्वारा रामको वनदास २७ । सैनिकों का वियोग-दुख ४७ भरत द्वारा विरोध
चौबीसवीं सन्धि दशरष द्वारा समाधान २९
अयोध्यावासियोंका विलाप ४९ तेईसौं सन्धि
राजा दशरथकी संन्यास लेने की कवि द्वारा फिरसे स्तुति ३१ घोषणा भरतको तिलक कर रामकी
भरतकी हठ वनगमन की तैयारी ३३ दशरथ द्वारा दीक्षा लेना ५५ दशरथकी सत्यनिधा ३३ उनके साथ और भी राजा । रामका अपनी मांसे विदा
दीक्षित र उनका वर्णन मांगना
३५ भरतका विलाप और रामको कौशल्याको मूछी और विलाप ३५ मनाने के लिए प्रस्थान माको समाना-बुझाकर रामका भरतकी रामसे लौटने की प्रस्थान ३५ प्रार्थना
५७ सौताका भी रामफे साथ जाना ३७ राम द्वारा भरतकी प्रशंसा ५७ लक्ष्मणकी प्रतिक्रिया और पिता- कैकेयीका समाधान पर रोष
३९ भरतका लौटकर रामकी माताको रामका लक्ष्मण को समझाना और समझाना
दोनों का एक साथ वनगमन ३९ रामका तापस वनमें प्रवेश ५९ सिद्धवरकूट में विश्राम
भानुष्कबनका वर्णन जिनकी वन्दना
४१ भीलबस्ती में राम और लक्ष्मणरामका सुरति युद्ध देखना ४३ का निवास वीरान अयोध्याका वर्णन ४५ बनके बीचमें प्रवेश रामका गम्भीर नदी पहुँचना तथा चित्रकूटसे दशपुरनगरमें प्रवेश नदीका वर्णन
४५ सीरकुटुम्पिकसे भेंट
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विषय-सूषो पचीसवों सन्धि वसन्तका वर्णन सीरकुम्धिक द्वारा बजकर्ण और लक्ष्मणका पानीकी खोज में जाना ९७ सिहोदरके युद्धका उल्लेख ६५ कूबरनगरके राजाकी जल कीड़ा ९७ विद्युदंग चोरका उपाख्यान ६९ राजाका लक्ष्मणको देखना ९७ सेनाका वर्णम
राजाका कामासक होकर राम और लक्ष्मणका सहस्रकूट
लक्ष्मणको बुलवाना जिनमवन में प्रदेश ७३
दोनों का एक आसनपर बैटना १९ जिनेन्द्रकी स्तुति
दोनोंका तुलनात्मक चित्रण १.१ लक्ष्मणका सिहोदरके नगर में कूबरनरेशका आधिपत्य १०१ प्रथम
बॉलिलामक्री बन्न का सिहोदरकी प्रसन्नता
संकेत सिहोदर द्वारा रामादिको
भोजनको व्यवस्था भोजन कराना
रामको बुलाने जाना १०३ लक्ष्मण द्वारा सिंहोदरको सहायता, राम-सीताका अलंकृत वर्णन १०५ वचकर्णसे युद्ध
जलक्रीड़ाके प्रसाधनोंका वर्णन १०५ युद्ध में बनकणकी हार
भोजन
१०७ নবী যুগীরা। ८५ सुन्दर वस्त्र पहनना १०७ गजकर्णको पकाकर लक्षमणका कूबरनरेशका कल्याणमालाके लोटना
८७ रूपमें अपनी सारी कहानी
बताना छब्बीसौं सम्धि
लक्ष्मणका अभयवान १०९ राम द्वारा साधुवाद ९१ दूसरे सवेरे तीनोंका प्रस्थान १११ विधुदंगकी प्रशंसा
कल्याणमालाका विलाप १११ बजकर्ण और सिहोदरकी मंत्री ९३ वटकर्ण और सिंहोवर द्वारा
सत्ताईसवों सन्धि कायाभोंके पाणिग्रहण का प्रस्ताव९३ विन्ध्याचलकी ओर प्रस्थान ११३ रामका कूपर नगरमें प्रवेश ९५ विन्ध्याचलका वर्णन ११३ .
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रुद्रभूति से मुठभेड लक्ष्मणके धनुषकी टंकारच
विश्वव्यापी प्रभाव
रुद्रभूतिकी जिज्ञासा
भूतिकागमन लक्ष्मणकामाकोश
बालिखिल्य और रुद्रभूति में
मंत्री
राम-लक्ष्मणका तासो पार
करन
रामने सीता देवीको धीरज बैचाया
कपिल ब्राह्मण के घर में प्रवेश
ब्राह्मण देवता से भिड़न्त
प्रख्याति और बट-वृक्षका
वर्णन
अट्ठाईसयों सन्धि
रामका चटके नीचे बैठना और
कृत्रिम वर्षाका प्रकोप
अलंकृत वर्णन
यक्षकी यक्षराज से शिकायत
यक्षराज द्वारा राम-लक्ष्मण की
स्तुति
रामपुरी नगरीका बसाना
नगरीका वर्णन
यक्षका रामसे निवेदन
कपिलको रामसे धन-माचना
पउमचरिउ
११७ मुनिका उपदेश
११७
११९
१२१
१२१
१२३
१२५
१२५
१२७
१२७
१२९
१३१
१३३
LAT
१३३
१३३
१३७
१३९
जनता द्वारा व्रत ग्रहण
लक्ष्मणको देखकर कपिलका
मयभीत होना
१४१
ब्राह्मण द्वारा अर्थकी प्रशंमा १४३
aana f
राम-लक्ष्मण का जीवन्त नगर में
प्रवेश
जीवन्त नगरके राजाके पास
१३९
१४१
राज का अभियान
राजाका लक्ष्मणको सहर्ष
कन्यादान
भरतका लेखपत्र आना
१४५
बनमालाकी आत्महत्या की चेष्टा १४७ गले में फांसी लगाते हो लक्ष्मणका प्रकट होना
१५१
दोनोंका रामके सम्मुख जाना १५१ सैनिकका आक्रमण
१५१
१५३
१४३
रामका गुप्तरूप से अनन्तवीर्यको
हराने का निश्चय
नन्दावर्त नगर में प्रदेश
१५५
तीसवीं सन्धि
भरत विरुद्ध अनन्तवीर्य की
सामरिक तैयारी
१५७
भित्र-भित्र राजाओंको लेखपत्र १५७
१५९
१५
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विषय-सूची
प्रति
प्रतिहार से कह सुनकर उनका रामका उपद्रव दूर करना १९३ दरबारमें प्रवेश
१६१ मुनियोंकी वन्दना-भक्ति १९५ रामका नुत्यपान १६१ लक्ष्मणने शास्त्रीय संगीत अनन्तवीर्यका पतन
प्रारम्भ किया अनन्तनीयको विरक्ति
फिर उपसर्ग
१९७ कई राजाओं के साथ उसका रामका सीताको अभय वचन १९९ दीक्षा ग्रहण
१६७ धनुफ्की देकारसे उपसर्ग दूर रामका जयन्तपुर नगरमें प्रवेश १६९ होना, मुनिको केवलज्ञानको इकतीसवीं सन्धि
देवों द्वारा वन्दना भक्ति २०१ लक्ष्मणको वनमालासे विदा १६९ गोदावरी नदीका वर्णन
ततीसवीं सन्धि क्षोरंजलि नगरका वर्णन १७३ मुनि कुलभूषण द्वारा उपसर्गके हड्डियोंके ढेरका वर्णन १७३ कारणपर प्रकाश डालना २०३ लक्ष्मणका नगरमें प्रवेश १७५ पूर्वजन्मकी कथा २.५ लक्ष्मणका अरिवमनकी शकि
चौतीसवीं सन्धि मेलना
१८१ दोनों में संघर्ष और वनमालाका
रामकी धर्म-जिज्ञासा और बीरमें पड़ना
मुनिका धर्मोपदेश २१९
१८३ मरिदमनकी क्षमा याचना
रामका दण्डकबनमें प्रवेश १८५
२२७ रामका नगरमें प्रवेश
वण्यक अटीका वर्णन
गोकुल बस्तीका वर्णन २२९ बत्तीसी सन्धि
यतियोंको आहारवान वंशस्थ नगर में प्रवेश १८७ आहारका रुषमें वर्णन २३१ मुनियोंपर उपसर्ग १८७ धनका वर्णन
१८९
पैंतीसवीं सन्धि रामका सीताको नाना पुण्य देवताओं द्वारा रस्म-वृष्टि २३३ वृक्षोंका दर्शन कराना १९१ गटायुका उपाख्यान
२२७
१८७
२३१
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१०
पूर्वभव प्रसंग दार्शनिक वाद-विवाद
२३५ लक्ष्मणको रोष
२३५
राजा द्वारा मुनियोंकी प्रन्त्रणा २४३
हनियों द्वारा
डाल २५३
राजाको नारकीय यातना
२४७
जटायुका व्रत ग्रहण करना, रत्नों की आभासे उसके पंख
स्वर्णमय हो जाना
लक्ष्मणका वंशस्थल में प्रवेश
सूर्यहास खड्गकी प्राप्ति
पउमचरिय
छत्तीसवीं स
रथपर राम-लक्ष्मण का लीलापूर्वक
बिहार
क्रौंचनदी के तट पर विश्राम
शम्बूक कुमारका वष सोता देत्रोको चिन्ता
चन्द्रखाका प्रलाप
उसका राम-लक्ष्मणपर आसक्त
होना
कामावस्थाएँ
रामका नीति- विचार
दोनोंका उसे ठुकराना
सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार स्त्रियों का वर्णन
Aatea सन्धि
चन्द्राका विरूप रूप
२४७
२४९
२५१
२५१
२५३
२५३
२५३
२५५
३५९
२५९
२६१
२६१
२६३
२६७
चन्द्रखाका पतिको भत्र हाल
बताना
खरका पुत्रशोक
सुखका प्रारम्भ
लक्ष्मण की शूरवीरता
लक्ष्मणकी विजय
२९७
चन्द्रनखाका बात बनाना
भाइयों में परामर्श
खरकी प्रतिज्ञा
रावणको खबर भेजकर युद्धकी
तैयारी
२६९
२७१
२७३
२०३
૨૭૨
कामवासना उत्पन्न होना सोताका नखशिख वर्णेन
रामसे ईर्ष्या
२७५
२७९
२८१
२८३
अड़तीसवीं सन्धि
रावणके नाम दूषणका पत्र २८३
रावण द्वारा लक्ष्मणको सराहना २८३
सीताको देखकर रावणकी
२८५
२८५
२८७
२८७
रावणका उन्माद
ramfeat
सहायता की
याचना और उसका उत्तर २८९
सिह्नादकी मुक्तिका सुझाव कुमार लक्ष्मणको युद्धक्रीड़ा सिह्नाद सुनकर रामका युद्धमें पहुँचमा
२९१
२९३
२९३
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लक्ष्मणको आशंका और रामको
वापस करनेका प्रवास करना २९५
सीता देवीका अपहरण और
जटायुका संघर्ष
उनतालीसवीं सन्धि
जटायुका पन
सीता देवीका विलाप दशाका विद्याधर द्वारा
प्रतिरोध और उसका पतन २२९ सोता द्वारा रावणका प्रतिरोध ३०१ सीताका नगर के बाहर नन्दन वनमें रह जाना। रावणका
लंका में प्रवेश
लौटकर रामद्वारा सीताकी
खोज
विषय-सूची
जटा से रामको भेंट
जटायुका प्राण त्यागना
रामकी मूर्छा और मुनियोंका
समझाना
रामका प्रत्युत्तर
मुनिका उत्तर
रामका मिलाप
चालीसवीं सन्धि कविको मुनिसुतनाथकी
वन्दना युद्धका वर्णन
२९५
२९७
२१७
३०३
३०३
३०३
३०५
३०५
ક્
३१३
३१५
३१७
३१७
लक्ष्मण शूरवीरता विगतिको लक्ष्मण द्वारा
अभयदान
लक्ष्मणकी तरफ विराधितका
इकतालीसवीं सन्धि
चन्द्रनखाका रावण के पास
११
३१९
जाना
रावणका चन्द्रनखाको
युद्ध
घमासान युद्ध
लक्ष्मण द्वारा लरका न
लक्ष्मण द्वारा राम और सीता देवीकी खोज करना लक्ष्मणका रामको शोकमग्न
३२९
देखना विराधितका रामको समझाना ३३३ तमलंकार नगर में रामका
आश्रय लेना
रदूषण के पुत्र सुण्डा अपनी
मां कहने से विरत होना ३३७
जिनकी स्तुति
३३९
३२१
३२३
३२५
३२७
३२९
३३५
३३९
आश्वासन
२४१
मन्दोदरीका रावणको समझाना ३४३
रावणका सीता से अनुरोध
सीताका प्रति उत्तर
रावणका आक्रोश
३५३
३५५
३५५
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पटमचरित
बयालीसवीं सन्धि रावण का सीताको प्रलोभम ३६५ विभीषणका सीता देवीसे सीताकी भर्त्सना ३६५ संवाद
रायणकी निराशा सीताका यात्मपरिचय और नम्बनबनका वर्णन
हरणकी घटना बताना ३५९ विभीषणका रावणको मशाना३६३ मन्त्रिमण्डलकी चिन्ता और राघका सीताको यानसे लंका विचार-विमर्श घुमाना
३६५ नगरको रक्षाका प्रबन्ध
यणको
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कइराय-सयम्भुएव-किउ
पउमचरिउ
बीअं उज्झाकण्ड
२१. एकवीसमो संधि सायरबुद्धि बिहोसणेण परिपुच्छिउ 'जयसिरि-माणणहाँ । कहें केसष्ठउ कालु अचलु जड जोविउ रज्जु दसा दसाणणही' ॥
[] पभणई सायरनुद्धि भडारउ । कुसुमाउह-सर-पसर-णिवारउ ॥१॥ 'सुणु अकस्वमि रहुत्रसु पहाणउ । दसरहु अत्यि अउजह राणउ ॥२॥ सासु पुत्त होसन्ति धुरन्धर । घासुएव-बलएक घणुद्धर ॥३॥ तेहि हणेवउ रक्खु महारण । अणय-गराहित्र-तणयह कारण ॥४॥ तो सहसत्ति पलितु विहीमणु। पं घय-चढहि सित्तु हुभासणु ॥५॥ 'जाम ण लया-वल्लरि सुका जाम मरणु दसासणे झुकह ॥६॥ सोडमि ताम ताहुँ भय-मीसइँ । दसरह-जणय-पराहिब-सीसई ॥७॥ तो तं वषणु मुणे वि कलियारत । षद्धावणहूँ पधाइड णारउ ॥८॥ 'अज्जु विहीसणु उपरि एसइ । तुम्हहँ विहि मि सिरह सोडेसह ॥९॥
धत्ता दसरह-जणय विणीसरिय लेप्पमड थवेप्पिणु अप्पणउ । णिय, सिरई विजाहर हिँ परियणहाँ करेषिणु चप्पण: ॥१०॥
[३] दसरह-जण वे वि गय तेत्तहें। पुरघरु कउतुमजलु जेत्तहें ॥३॥ जेम्मइ जेस्थु अमग्गिय-लद्धः। सूरकन्त-मणि सुयवह-रदउ ॥२॥
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पारित अयोध्याकाण्ड
इक्कीसवीं सन्धि विभीपणने सागरघुद्धि ( भट्टारक ) से पूछा कि वताइए विजयश्रीको माननेवाले दशाननकी जय, जीवन, राज्य और दशा कितने समय तक अचल रहेगी?
[१] कामके वापोंका निवारण करनेवाले भट्टारक सागरबुद्धि कहते हैं-"सुनो, अयोध्यामें प्रधान रघुवंशका राजा दशरथ है । उसके धनुर्धारी बलदेव और वासुदेव धुरन्धर पुत्र होंगे। उनके द्वारा राजा जनककी कन्याके कारण महारणमें राक्षस मारा जायेगा।" इससे विभीषण एकदम इस प्रकार भड़क उठा, मानो घीके घड़ोंके द्वारा आग सींच दी गयी हो। "जबतक लंकारूपी लता नहीं सूखती, जबतक दशानन तक मृत्यु नहीं पहुँचती, तबतक मैं भयसे भयंकर जनक और दशरथ राजाओंके सिर तोड़ देता हूँ।" तब उसके उन वचनोंको सुनकर कलहकारी नारद--बधाई देने आया ( और बोला) कि आज विभीषण तुम्हारे ऊपर आयेगा और तुम दोनोंके सिर तोड़ेगा।" अपनी लंपमयी मूर्तियाँ स्थापित करवाकर दशरथ और जनक यहाँसे निकल गये । विद्याधरों के द्वारा आक्रमण कर परिजनों (अनुचरों) के सिर ले जाये गये ॥१-१०॥
[२] दशरथ और जनक दोनों वहाँ गये कि जहाँ कौतुकमंगल नगरचर था। जहाँ सूर्यकान्तमणियोंकी आगसे राधा
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पउमचरिउ
जहि जलु चन्दकन्ति- णिज्झरण हिं । सुप्पर पडिय - पुष्क- पत्थर हिं ३ ॥
|
जहिं णेवर - शङ्कारि-चलणेंहि । जहिं परसाय सिहरें हिसिज्ज तहि सुहमइ - शामेण पहाण पिसिर तो महणुनि मनोहर । दणुता दो उपजइ ।
रम्भइ अक्षण-पुष्फ-क्खहिँ ॥४॥ तेन मिचव किंसु किन्नर ॥५॥ णं सुरपुरहों पुरन्दरु रामउ ॥ ६ ॥ सुरकरि-कर कुम्भयल पोहर १७॥ केकय तय काहूँ वणिजइ ॥ ८ ॥
सयल कला कलाय संपण्णी । णं पशक्ल लच्छी अचरणी ||१||
४
.
-
A
ता सम्म मयि वर हरित ।
पाइँ समुद्र-महासिरिह थिय जलवाहिणि प्रवाह समुह ॥ १०॥ ॥
-
।
सो करेणु आरचि विणिग्य देवखन्तहुँ णरवर संघाय हुँ । चिच माल दससन्दण णामहीं सहिं अवसरे विरुद्ध हरिवाहणु । 'करू आहणही कण्ण उद्दालहों । सुरुमइ रहु-सुए विण्णप्पद । माँ जयन्तं अणरजहाँ पन्दणें केक पुरहिं करेपिणु सारहि ।
।
घत्ता
-
[ ३ ]
णं पक्ख महासिरि- देव ||१||
भूगोयर विज्जाहर रायहुँ ||२|| मणहर गइऍ रद्दऍ णं कामहों ॥ ३॥ श्राइउ 'छेटु' भणन्तु स साइणु ॥१ ॥ रथनहूँ जेम तेम महिपालहों ||५|| 'धीरज होहि माम को चप्प || ६ || एउ भणेवि परिलिङ सन्दर्णे ॥७॥ तहिं पयट्टु जहिं सयल महारहि ||८||
-
P
धत्ता
तो वोलिज दसरण 'तूरयर- णिवास्थि-रवियरहूँ | राषि
हि पियऍ पय-छत्तएँ जेत्धु फिरन्तर हूँ ।। ९ ।।
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एकवीसमो संधि गया अनमाँगे प्राप्त हुआ भोजन खाया जाता है। जहाँ चन्द्रकान्तमणियोंके निझरोसे जल पिया जाता है, और बिछी हुई पुष्पसेजोंपर सोया जाता है। जहाँ नूपुरोंसे झंकृत पैरों और अर्चनमें पुष्पोंके स्खलनोंसे रमण किया जाता है । जहाँ प्रासादके शिखरोंपर चन्द्रका उपहास किया जाता है। इसीसे यह कृश और टेड़ा किया जाता है। उसमें शुभमति नामका राजा था को मान लोकमान्य का। उस धुश्री नामकी सुन्दर महादेवी थीं, ऐरावतके समान हाथोंषाली और कुम्भस्तलके समान स्तनोंवाली। उससे द्रोण पुत्र उत्पन्न हुआ और कन्या कैकेयी, उसका क्या वर्णन किया जाये ? समस्त कला-समूहसे परिपूर्ण वह मानो प्रत्यक्ष लक्ष्मी अवतीर्ण हुई थी। उसके स्वयंवरमें हरिवाहन, मेघप्रभ प्रमुख पर इकट्ठे हुए जैसे समुद्रकी महाश्रीके सम्मुख नदियों के प्रवाह स्थित हुए हों ।।१-१०॥
[३] वह हधिनीपर आरूढ़ होकर निकली मानो प्रत्यक्ष महालक्ष्मी देवता हो । नरवर समूह और विद्याधर-मनुष्य राजाओंके देखते-देखते उसने दशरथ नामक राजापर इस प्रकार माला डाल दी, मानो सुन्दरगतिवाली रतिके द्वारा कामदेवपर माला डाल दी गयी हो । उस अवसर हरिवाहन विरुद्ध हो उठा। पकड़ो कहकर, सेना सहित वह दौड़ा। वरको मार डालो, कन्याको छीन लो, उसी प्रकार जिस प्रकार राजासे रत्न छीन लिये जाते है । तब रघुसुत दशरथने शुभमतिसे कहा"हे ससुर, आप धैर्य धारण करें। कौन आक्रमण कर सकता है अनवण्णके पुत्र मेरे जीवित रहते हुए ?" यह कहकर वह रथपर बैठ गया ! कैकेयीको धुरीपर सारथि बनाकर वह वहाँ पहुँचा जहाँ समस्त महारथी थे | तब दशरथने कहा-“जहाँ रविकिरणोंको दूरसे निवारण करनेवाले ध्वज और छन्त्र निरन्तर रूपसे है, हे प्रिये, तुम रथ वहाँ ले चलो" ॥१-२॥
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पउमचरित
[४] से णिसुणे गिरिध विय-जहासाहिब म लि -जण ॥१॥ तेस वि सरहिं परजिउ साहणु। मग्गु स-हेमप्यछु हरिबाहगु ।।२।। परिणिय के विष्णु महा-वरु। चवह अउजापुर · परमेसरु ॥३॥ 'सुन्दरि मग्गु मग्गु जं रुचई। सुहमइ-सुयएँ णवेपिणं कुबइ ॥४। "दिष्णु देव पहै मग्गमि जइयहुँ । णियय-सच्चु पालिजह तहपहुँ' ।।५|| एम घयन्त धण-कण-संकुलें। थियइँ वि पुरे कवतुकमाल ॥६॥ बहु - वासरें हिं अउज्म पइटहै। सइ-धासव इव रमें पट्टिद् ॥७॥ सयल-कला-कलाव-संपण्णा। साम घयारि पुत उप्पण्णा ।।८।।
पत्ता रामचन्दु अपरजियाँ सोमिसि सुमित्तिहें एक्कु जणु । भरहु धुरन्धरु केकहँ सुष्पहहें पुनु पुणु सत्हणु ॥९||
एय चारि पुन तहों रायहाँ। गाई महा-समुष्ट महि-भायहाँ ॥१॥ णा दम्त गिष्याण-गइन्दहाँ। पाई मणोरह सज्मण-विन्दहाँ ।।२।। जाउ वि मिहिला-गयर पइवर। समउ विदेहएँ रज्जें णिविट्ठउ ।।३।। प्ताहूँ विहि मि वर-विमम-वीयउ। मामण्डल उप्पण्णु स-सीयउ ।।॥ पुष्व-वाह समर वि अ-खेवें। दाहिण सेटि हरवि जिउ देखें ।।५।। तहिं रहणंउरचक्वाल-पुर। पहल-धवल-गुह-पङ्कापण्डरें ।।६।। चन्दगद्दे चम्बुज्जल-वयणही। णदणषण-समीवें तहाँ सयणहाँ ॥७॥ घत्ति पिझस्टेण अमरिन्दें। पुष्फवाइहें अलविउ गरिन् ॥८॥
तात्र रजु जणयहाँ तणा उहा महा-वासिऍहिं । बष्वर-सवर-पुलिन्दएँ हिँ हिमवन्त-
विह-संवासिहि ॥९॥
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एकवीसमो संधि [४] यह सुनकर, जिसने पिताको सन्तुष्ट किया है ऐसे पृथुश्रीकी पुत्री कैकेयीने रथवर हाँका। दशरथने भी तीरोंसे सेनाको जीत लिया और हेमप्रभ सहित हरिवाहनको नष्ट कर दिया। कैकेयीसे विवाह कर लिया। उसे महावर दिये । अयोध्यापुरीका राजा कहता है-"हे सुन्दरि, मांग लो, माँग लो, जो अच्छा लगता है।" तब शुभमतिकी पुत्रीने प्रणाम करके कहा, "हे देव, आपने दे दिया। जब मैं माँगू तर आप अपने सत्यका पालन करना ।" इस प्रकार धातचीत करते हुए वे दोनों धम-कणसे परिपूर्ण कौतुकमंगल नगर में रहने लगे । बहुत दिनोंके याद उन्होंने अयोध्या नगरीमें प्रवेश किया तथा इन्द्राणी और इन्द्र के समान अपने राज्यपर प्रतिष्ठित हो गये । दशरथके समस्त कला-कलापसे परिपूर्ण चार पुत्र उत्पश्न हुए। अपराजितासे रामचन्द्र, सुमित्रासे लक्ष्मण, धुरन्धर भरत कैकेयीसे और सुप्रभा रानीसे शत्रुघ्न ।।१-९||
[५] उस राजाके चार पुत्र इस प्रकार थे मानो महीभागके महासमुद्र हों। मानो ऐरावत महागजके दाँत हो, मानो सज्जनसमूहके मनोरथ हों। उधर जनक भी मिथिला नगरीमें प्रविष्ट हुए। समद वह विदेहके राज्य में प्रतिष्ठित हो गये । उन दोनोंके भी सीता सहित श्रेष्ठ विक्रमका बीज भामण्डल उत्पन्न हुआ। बिना किसी विलम्बके,अपने पूर्व बैरकी याद कर किसी देवके द्वारा अपहरण कर वह विजयाधैं पर्वतको दक्षिण श्रेणीमें ले जाया गया। वहाँ प्रचुर सफेद चूनेकी पंकसे धवल रथनूपुरचक्रवाल नगर में चन्द्रमाके समान उज्ज्वल मुखबाले उस स्वजन चन्द्रगति विद्याधर के नन्दनवनके समीप पिंगल नामक अमरेन्द्रने फेक दिया। राजा चन्द्रगतिने उसे रानी पुष्पावतीको सौंप दिया। इसी बीच हिमचन्त और विन्ध्यामें रहनेवाले बर्थर शबर और पुलिन्दो तथा महादवीके निवासियों
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एउमचरित
[६] वोठय जणय-कणय दुप्पेच्छ हि । वम्बर-सवर-पुलिग्दा-मेरठे हि ॥१॥ गरुयासचएँ वाल-सहायहाँ। लेहु घिसजिट, दसरह-रायहीं ॥२॥ तरइँ देवि सो वि सणउमइ । रामु स-लक्खणु ताव विरुष्पह ॥३॥ 'म. जीयन्ते साय सुर चल्लहि। हंगमि वहरि युद्ध कृस्थुरथल्लाहि ॥४॥ बुत्तु पराहिवेण 'तुहुँ चाकड। रम्मा-सम्म-गन्म-सोमाला ॥५॥ किह भालग्गहि गरवर-विन्दहुँ। किह २४ भाहि मत्त-गइन्सहूँ ॥६॥ किर रिउरहहँ महारह बोयहि। किह वर-नुस्य तुराडोयहि ॥७॥ पभणइ रामु 'ताप पल्लाहि । हउँ पहुश्चमि काइँ पयवति ॥८॥
घत्ता कि तमु हणइ ण चालु रवि किं वालु देवग्गि ण सहा वणु । किं करि दलाइ ण वालु हरि किं वालु ण डबा उरगम' ॥९॥
[ ] पहु पछटु पयहिउ राहउ । दूरासंबिय-मेछ-महाहउ ॥१॥ दूसहु सो जि अण्णु पुणु लक्षणु । एक्कु पत्रणु अण्णेक्कु हुआसणु ॥२॥ विषिण मि मिडिय पुलिन्दही साहणे । रहवर-तुरय-जोह-गाय-वाहणे ॥३॥ दीहर-सरे हि वहरि संताधिय । जणय-कणय रण उव्वेहाविय ॥४॥ धाहर समरक्षणे तमु राण्यउ' । वम्बर-सवर-पुलिन्द-पहाप्पड ॥५॥ सेण कुमारहों चूरिउ रहवरु । छिण्णु छन्तु दोहाइड धणुहरू ॥३॥
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एकवोसमी सीध
द्वारा राजा जनकका राज्य ध्वस्त कर दिया गया ||१२||
[ ६ ] जनक और कनक दोनों भाई दुर्दर्शनीय बर्बर, शबर, पुलिन्द और म्लेच्छों द्वारा घेर लिये गये। उन्होंने भारी आशासे, जिनके बालक सहायक हैं, ऐसे राजा दशरथ के पास लेखपत्र भेजा । दशरथ भी नगाड़ा बजवाकर तैयार होने लगे । तब लक्ष्मण सहित राम विरुद्ध हो उठते हैं कि हे पिता, मेरे जीते हुए तुम जा रहे हो। मैं शत्रुको मारता हूँ, आप हाथ ऊँचा कर दें (हाँ भर दें ) तच राजा दशरथने कहा- तुम अभी बालक हो, अभी केलेके खम्भेकी गाभकी तरह सुकुमार हो, तुम अभी राजाओंसे क्या लड़ोगे ? मतवाले हाथियों के समूह - को किस प्रकार भग्न को शत्रुओं पर कैसे ले जाओगे, अपने श्रेष्ठ अश्वको अश्वों तक कैसे ले जाओगे ? तब राम कहते हैं - हे तात ! लौट जायें, जहाँ हम समर्थ हैं, वहाँ तुम क्यों प्रवृत्त हो ? क्या बालसूर्य अन्धकारको नष्ट नहीं करता ? क्या बाल दावाग्नि वनको नहीं जलाती ? क्या बाल सिंह हाथीको चूर-चूर नहीं करता ? क्या बाल सर्प नहीं काटता है ||१-९शा ?
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[७] राजा दशरथ लौट पड़े । जिन्होंने दूरसे ही म्लेच्छोंके महायुद्ध की सम्भावना कर ली है, ऐसे राघवने भी कूच किया । एक तो वह खुद दुःसह थे, और फिर दूसरा लक्ष्मण था । एक पवन था, तो दूसरा आग। वे दोनों ही, जिसके रथचर, घोड़े, योद्धा, गजादि, वाहन हैं, ऐसी म्लेच्छ सेनासे भिड़ गये | लम्बे तीरोंसे उन्होंने शत्रुओंको सन्तप्त कर दिया। उन्होंने जनक और कनक ( दोनों भाइयों ) का उद्धार किया । युद्धके आंगन में तम नामका राजा दौड़ा जो कि बवर, शबर और पुलिन्दोंका प्रधान था । उसने कुमारके रथको चूर-चूर कर दिया। छत्र छिन्न-भिन्न कर दिया और धनुषके दो टुकड़े कर डाछे । तब
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पउमचरित
तो राहण लइजइ घाणेहिँ। णाइणि-पाय काय परिमाणहि ॥७॥ साइणु भग्गउ लग्गु उमगगें हिं। करयले हि ओलम्बिय-खगॅहिं ॥४॥
घत्ता दसहि तुरनहिँ णीसरिउ मिल्लाहिउ भधि भाइवहीं । जाणइ जणय-पराहिण तहिं काले वि अप्पिय राहवहीं ॥९॥
[८] वश्वर-सवर-बरूहिणि मम्गी। जणयहाँ जाय पिहिषि आवग्गी ॥१॥ णाणा-स्यणाहरणहि पुजिव । वासुपर-बलएष विसजिय ॥२॥ सोयह देख रिद्धि पावन्ति । एक्कु दिवसु दप्पणु जोयन्तिहें ॥२॥ पबिमा-छलण महा-मय-गारउ । आरिस-बेसु णिहालिज पारउ ॥३॥ जणय-तणय सहसत्ति पणट्ठी। सोहागमणे कुरङ्गि व तट्ठी ॥५॥ 'हाहा माएँ भासि हिहिर पलु शिवराहियहि ।। अमरिस-कुक्षुचाइय किङ्कर । उक्खय-पर-करवाल-भयकर ॥७॥ मिलें पितेहि कह कह विण मारिख । लेवि अद्भुचन्देहि णोसारिउ ॥८॥
घत्ता गउ स-पराहट देवरिसि पडें पदिम लिहषि सीपहें तणिय । दरिसाविय भामण्डलहों घिस जुत्ति णाइँ गर-धारणिय ॥२॥
[५] दिट्ट जं जें पडें पदिम कुमारें। पञ्चहिँ सरहिँ विधु णं मारें ॥१॥ सुसिय-वयणु घुम्मड्य-णिडालउ । बलिय-अङ्गु मोडिय-भुन-डालज' ॥२॥ बद्ध-केसु पक्लोदिय-वच्छउ । दरिसाविय-दस-कामावस्या ॥३॥ चिन्त पठम-श्राणन्तर लग्गइ। पीयएँ पिय-मुह-दसणु मग्गह ॥४॥ तइपएँ ससई दीह-णीसासे । कण्य चउस्थएँ अर-विष्णा ।।५।। पश्चम वाहें भकुण सुबह । छ?" मुहहाँ पण काह मि रचइ ॥६॥
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एषीसमो संधि
रामने नागिन और नागके आकारवाले बाणोंसे उसे वेध दिया । जिनमें तलवारें अवलम्बित हैं ऐसे करतलोंके द्वारा सेना भग्न हो गयी और उन्मार्गसे जा लगी। युद्धमें भग्न होकर भील राजा अपने दस बोड़ोंके साथ भाग गया। जनक राजाने जानकी उसी समय रामके लिए अर्पित कर दी । ।।१-२॥
[८] बर्बरों और शवरोंकी सेना भाग गयी। जनककी धरती स्वतन्त्र हो गयी । नाना रत्नों-आभरणोंके द्वारा पूजित बासुदेव और बलदेवको विसर्जित कर दिया गया। एक दिन दर्पण देखते हुए देहकी ऋद्धिको प्राप्त सीताने प्रतिबिम्वके छलसे मुनिवेषधारी नारद मुनिको देखा। जनककी पुत्री एकदम भाग खड़ी हुई, सिंहके आनेपर हरिणीकी तरह वह सन्त्रस्त हो उठी । भयरूपी ग्रहसे ग्रस्त सखियोंने 'हा माँ, I €1 माँ' कहते हुए कल-कल ( कोलाहल ) किया । अमर्षसे क्रुद्ध अनुचर अपनी श्रेष्ठ तलवारें उठाये हुए दौड़े। उन्होंने मिलकर नारद - को मारा भर नहीं, केवल धक्के देकर बाहर निकाल दिया | देवर्षि अपमानके साथ पटपर सीताका चित्र लिखकर ले गये । उन्होंने विषयुक्तिकी तरह रामकी गृहिणी ( चित्र रूप में ) भामण्डलको दिखायी ॥१-२॥
११
"
[९] कुमारने जैसे ही पटमें प्रतिमा देखी तो मानो उसे कामदेवने पाँचों तीरोंसे विद्ध कर दिया। शोषित मुख, घूमता हुआ मस्तक, मुड़ता शरीर नष्ट भुजरूपी शाखाएँ, बँधे हुए केश, खुला हुआ वक्षःस्थल, दसों कामावस्थाओंको दिखानेबाला । प्रथम स्थानपर ( सबसे पहले ) उसे चिन्ता हो गयी, दूसरी अवस्था में वह प्रियाका मुखदर्शन चाहता, तीसरी अवस्था में यह दीर्घ निःश्वास से साँस लेता, चौथी अवस्था में ज्वरके चढ़नेसे आवाज करता, पाँचवीं अवस्था में जलन शरीरको नहीं छोड़ती, छठी में उसके मुखको कुछ भी अच्छा
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पउमचरित सत्तम थाणे ग गासु लइ जइ । अट्ठ में गमणुम्माएँहि मिजइ ॥७॥ पवमें पाण-संदेहहाँ दुका। दसमएँ मरहण केम वि चुकाई ||4
घत्ता कहिङ रिन्दहाँ किक्करें हिं 'पहु दुकरु जीवइ पुत्सु सर । काहे वि कपणहें कारणेण सो दसमी कामावाथ गउ ॥९॥
[.] गाग-परामर-कुल-कलियारउ । चन्दगइ पडिपुच्छिड पारज ॥६॥ 'कहि कहाँ तणिय कण कहिं दिही। जा मङ्गु पुत्तही हियएँ पट्टी' ॥२॥ कहइ महारिसि 'मिहिला-राणउ । चन्दकेउ-णामेण पहाणउ ॥३॥ तहाँ सुउ जणड तेरथु मई दिवउ । कपणा-रयणु तिलोय-वरिटूट ॥५॥ तं जह छोड कुमारहों भायहाँ। तो सिय हरइ पुरन्दर-रायहीं' ॥५|| तं णिसुणवि विजाहर-णा। पेसिउ अपलबेउ भसगा ॥६॥ 'जाहि विवेहा-वहट हरेवउ । मइ विवाह-संवन्धु करेषड' ||७॥ गउ सो बन्दगइहें मुगु जोऍवि। इन्दुर हुक्क हरगम होएँवि ॥६॥ कोड्ढ़े चडिउ णराहिउ जाहिँ। दाहिण सेवि पराइउ ताहिं ॥५॥ मिहिलाणाहु मुएप्पिणु जिण-हरें। चबलवेड पहस ह पुरमणहरें ।।१०।।
यत्ता
।
आणिड बणय-णराहिवह णिय-णाहहाँ अमिषड स-रहसँण । चन्दणहसिएँ सो वि गउ सहुँ पुतं विरह-परश्यसेंण ।।११।।
[११] विज्जाहर-गर-णयणाणन्दे हिं। किउ संभासणुविहि मि परिन्दे हिँ ॥३॥ पभण चन्द्रगमणु तोसिय-मणु । 'विणि वि किषण करहुँ सयणतणु ॥२॥ दुहिब तुहारी पुतु महार। होट विवाहु मणोरह-गारउ' ॥३॥ अमरिसु णवर पचविउ जणयहाँ। 'दिपण कण्ण म. दसरह-तणयहो ।।४।।
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एकवीसमो संधि नहीं लगता, सातची अवस्थामें वह एक भी कौर नहीं खाता, आठवीं अवस्थामें जानेके उन्मादसे भर लठता, नर्वी अवस्थामें प्राणोंका सन्देह उत्पन्न हो जाता, दसवीं अवस्थामें किसी प्रकार उसका मरण नहीं चूकता । अनुचरोंने राजासे कहा"हे प्रभु ! तुम्हारे पुत्रका जीना कठिन हैं। किसी कन्याके कारण वह दसवी कामावस्थाको प्राप्त हुआ है ॥१-२॥
ii.j चन्द्रगतिन नाम, नर और अगराक कुलोंमें कलह करानेवाले नारद से पूछा- बताओ यह किसकी कन्या है
और इसे कहाँ देखा है कि जो मेरे पत्रके हृदयमें प्रविष्ट हो गयी है।" महामुनि नारद कहते हैं, "चन्द्रकेतु नामका मिथिलाका राजा है। उसका पुत्र जनक है, वहाँ मैंने त्रिलोकमें विशिष्ट यह कन्यारत्न देखा है ? यदि वह इसकी हो सके तो पुरन्दरराज ( जनक) से सीताका हरण कर लाओ।" यह सुनकर असनको पानेकी इच्छा रखनेवाले विद्याधर राजाने चपलवेग को भेजा कि जाओ विदेहके स्वामीको हर लाओ । मैं उससे विवाह-सम्बन्ध करूँगा।" वह चन्द्रगतिका मुंह देखकर गया। विद्याधर घोड़ा बनकर वहाँ पहुँचा | जैसे ही राजा जनक उस अश्वपर चढ़ा वैसे ही वह दक्षिण श्रेणीपर पहुँचा । मिथिला राजाको जिनमन्दिरमें छोड़कर चपलवेग सुन्दर नगर में प्रवेश करता है। हर्षपूर्वक उसने अपने स्वामीसे कहाकि जनकराजाको ले आया हूँ। वह भी विरहके परवश अपने पुत्रके साथ वंदनाभक्तिके लिए वहाँ गया । ॥१-११॥ - [११] विद्याधरों और मनुष्योंके नेत्रोंको आनन्द देनेवाले दोनों राजाओंने सम्भाषण किया। सन्तुष्ट मन चन्द्रगति कहता है कि "हम दोनों स्वजनत्व कर लें । तुम्हारी कन्या और हमारा पुत्र । मनोरथकारी विवाह हो जाये ।" इससे जनक्रका केवल क्रोध बढ़ा कि “मैंने विजयश्रीरूपी स्त्रीमें आसक्त, शवर
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पउमचरित रामहाँ जयसिरि-रामासत्तहों। सवर-वरूहिणि-त्रिय-गत्तहाँ ।।५।। तहि अबसरें षडिय-अहिंमाणे । बुत्तु गरिन् चन्दपल्याणे ॥६॥ 'कहि विज्जाहरु कहि भूगोयरु। गय-मपय? वडारउ अन्तरू |७|| माणुस-खेनु में नाम कणिहुन । जोविउ तहि कहि तणउ विसि?उ'॥४॥
पत्ता मगइ णराहिउ 'केत्तिएंण जगे माणुस-श्वेत्तु में अग्गलउ । जसु पासिउ तिस्थकर हि सिद्धचणु लभूत केवल' ॥१॥
[१२] एवं णिसुर्णेवि मामण्डल-वप्। बुञ्चइ विजा-वल-माह पपें ॥१॥ 'पगुण-गुणइ अप-दुज्जय-गाव । पुरें अच्छन्ति एत्थु वे चावई ॥२॥ घजावत्त-समुदायत्त। जक्खारक्खिय-रक्खिय-गतइँ ॥३॥ कि मामण्डलेण कि रामें। ताइँ घडावा जो आयामें ॥३॥ परिणउ सोने का ऐउपाणि ii i#पमा परेवि पहु मणियउ ॥५॥ गय स-सरासणु मिहिला-पुरवरु । बङ्क मञ्च आढन्तु सयम्बर ६ ॥ मिलिय परावि जे जगे जागिय । सयक वि धणु-पयाव-भवमाणिय॥७॥ को वि माहि जो ताई चढावह। जक्ख-सहासहुँ मुहू दरिसावा ॥८॥
पत्ता जाम ण गुणहि चहन्ताअहिमायई कर सुह-दसण। अवसें जणही भणिट्ठाइ कुकलत्तइँ जेम सरासणई ॥९॥
[११] अंगरवह प्रलेस भवयाणिय । दसरह-तणय घयारि वि आणिय ॥१॥ हरि-वलएवं पकिय तेत्तहै। सीय-सयम्बर-मण्डउ जेन्हें ॥२॥ दूर-णिवारिय-णरवर-लखें हिँ। धणुहराई अलवियई जक्स हिं ॥३॥ 'अप्पण-भष्पणाई सु-पमाणइ । णिवाडेवि लेहु घर चाव' ॥४॥
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एकवीसमो संधि
सेनाका शरीर चूर-चूर करनेवाले दशरथ-पुत्र रामको कन्या दे दी हैं ।" उस अवसरपर, जिसका अभिमान बढ़ रहा है ऐसे चन्द्रगति राजाने राजा जनकसे कहा - "कहाँ विद्याधर और कहाँ मनुष्य ? गज और मशक में बहुत अन्तर होता है । मनुष्यक्षेत्र के लोग कनिष्ठ होते हैं, वहाँ जीवन भी कहाँका विशिष्ट होता है ?" राजा जनक कहता है कि "विश्व में कहीं भी ऐसा क्षेत्र नहीं हैं, जो मनुष्य क्षेत्रसे श्रेष्ठ हो, कि जिसके पास तीर्थकरोंने सिद्धत्व और केवलज्ञान प्राप्त किया है ?" ॥१-२॥
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[१२] यह सुनकर विधाके बल और माहात्म्यबाले भामण्डल के पिता ने कहा - "लम्बी प्रत्यंचावाले, अत्यन्त दुर्जेयभाववाले दो धनुष इस नगर में हैं, वस्त्रावर्त और समुद्रावर्त; जिनके शरीर यक्ष और राक्षसोंसे सुरक्षित हैं । भामण्डलसे क्या ? और रामसे क्या ? उन्हें जो आयाम के साथ चढ़ा देता है, वही इस कही गयी कन्यासे परिणय कर ले।" राजाके उसी कथनको प्रमाण मानकर वे धनुषों सहित मिथिला नगर गये । मंच बना दिये गये और स्वयंवर प्रारम्भ किया गया । विश्वके जितने नामी-गिरामी राजा इकट्ठे हुए वे सब धनुष प्रतापसे अपमानित हो गये । वहाँ कोई भी नहीं था जो उन धनुषों को चढ़ा सकता और हजारों यक्षोंके लिए मुँह दिखा सकता । जबतक वे धनुष गुणों (डोरी और गुणों) पर नहीं चढ़ते तबतक किसके लिए शुभदर्शन हो सकते हैं ? वे धनुष कुकलत्र की तरह अवश्य ही जनके लिए अनिष्ट होंगे ॥१-२९॥
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[१३] जब समस्त राजा अपमानित हो गये तो दशरथके चारों पुत्रोंको बुलाया गया। बलदेव और वासुदेव वहाँ पहुँचे जहाँ सीता देवीका स्वयंवर मण्डप था। जिन्होंने लाखों नरवरोंको दूरसे हटा दिया है ऐसे यक्षोंने धनुष अर्पित कर दिये कि अपने-अपने प्रमाणके अनुसार श्रेष्ठ धनुषों को चुनकर ले
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पउभचरिट
लाइयह सायर-वजावत्तई। गामहणा इष गुणे हिँ चइन्स ॥५॥ मेखिउ कुसुम-वासु सुस्सस्थे । परिणिय अणय-तणय काकुत्थं ॥३॥ जे जे मिलिय सयम्वर राणा। णिय-णिय णयरहों गय विदाणा ॥७॥ विवसु वारू णक्षत्तु गणेपिणु । छगु जोग्गु गह-दुस्थु णिएप्पिणु ॥८॥
धत्ता जोइसिएहि आएसु किउ 'अट लक्षण-रामहुँ स-रहसहुँ। आग्रहें कपणहें कारणेण होसइ विष्णसु बहु-रक्ससहुँ' ॥९॥
[१] 'ससिपखणेण ससि-वयणियउ। कुवलय-दल-दीहर-णयणियउ ॥१॥ कछ-कोहल-घीणा-वाणियउ।। भट्ठारह कपणउ प्राणियउ ॥२॥ दस लहु-मायरहुँ समप्पियउ लक्षणहाँ अट्ठ परिकप्पिपा ॥३॥ दोणेण विसला-सुन्दरिय। कण्हहाँ चिन्तविय मणोहरिय 11॥ वहदेहि अउज्मा-णयरि णिय ।। दसरहेण महोच्छव-सोह किय ॥५॥ रह तिस-चउहि पावरहि । कुकुम-कपूर-पवस्वरहि ॥६॥ चन्दन-छबोह-दिज्जन्तऍहि। गायण-गीहि गिज्जन्तएँ हि ।।७।। मणिमयर रयड वेहलिउ । मोतिय कणहि रमावलिउ ॥८॥ सोवण्ण-दण्ड-मणि-तोरण । ववई सुरचर-मण-धोरण ॥९॥
স্বা । सीय-वलाई पइसारियई घणे जय-जय कारिजम्सा। थियई अउराम अवचल, रह सोनल-स यं भुञ्जन्वाइँ ॥१०॥
[ २२. बावीसमो संधि] कोसलणन्दण स-कलचे णिय-घरु श्राएं आसामिहि किउ पणु जिगिन्दहों राएं ।
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नेत्रोंवाला
एकपोसमो संधि लें। उन्होंने समुद्रावर्त और वजावतं धनुषोंको होरीपर चढ़ाकर प्राम्यधनुषोंकी भाँति ले लिया। देवसमूहने पुष्पवृष्टि की। रामने जनकपुत्रीसे विवाह कर लिया। जो-जो राजा वहाँ सम्मिलित हुए थे वे दुःखी होकर अपने-अपने नगर चले गये। दिवस, वार और नक्षत्र गिनकर, लग्न योग और ग्रहोंकी दुस्थितिको देखकर, ज्योतिषियोंने आदेश किया कि इस कन्याके कारण हर्ष सहित राम-लक्ष्मणकी जय होगी और अनेक राक्षसोंका विनाश होगा ॥१-९||
[१४] शशिवर्तन राजा चन्द्रमुखी, कुवलय के समान लम्वे नेत्रोंवाली, सुन्दर कोयल के समान वाणीवाली कन्याएँ ले पाया। उनमें से दस छोटे भाइयों को दे दी गयीं और आठ लक्ष्मणके लिए | राजा द्रोणने विशल्या सुन्दरी मनोहर कन्या लक्ष्मणको संकल्पित की। चैदेहीको अयोध्या नगरी ले जाया गया। दशरथने रथ्या, त्रिपथ और चतुष्पथों, केशर और कपूर से महान और श्रेष्ठ चर्चरियों दिये जाते हुए चन्दनके छिड़काबों, गाये जाते हुए गायन गीतोंके द्वारा महोत्सव-शोभा की। मणिमय देहलीकी रचना की गयी । मोतियोंकी कनक ( चूरीसे) राँगोली की गयी । सुरवरोंके मनोंको चुरानेवाले स्वर्णदण्ड और मणिमय तोरण बाँध दिये गये। जिनकी जय-जय की जा रही है ऐसे सीता और रामचन्द्रको नगरमें प्रवेश कराया गया। रतिसुखको भोगते हुए वे दोनों अयोध्यामें अविचल रूपसे स्थित थे । ।।१-१०॥
से इस
गाने विशल्या
या भगरी
कपूर
बाईसवी सन्धि अपने घर आकर दशरथके पुत्र रामने असाढ़की अष्टमीके दिन पत्नीके साथ जिनेन्द्रका स्नानाभिषेक किया।
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पउमचरित
[1] सुर-समर-सहासें हिंदुम्मण । किड हवणु जिणिन्दहोदसरहेण ॥१॥ पट्टवियइँ जिश-तणु-धोषयाइँ। देविहिं दिग्व गान्धोदयाइँ ॥२॥ सुप्पहहें णवर कन्चुछ ण पत्तु । पहु पमणह रहसुमछलियनासु ॥३॥ 'कहें काईणियम्विणि मणे विसग्ण । चिर-चिसिय भित्ति व थिय विवण्ण'४॥ पणवेष्मिणु बुञ्चह सुप्पहाएँ। 'किर का, महु सणिय' कहाएँ ॥५॥ जइहउँ जे पाणवलहिय देव । तो गन्ध-सलिल पावइ ण केम' ॥६॥ तहि अवसर कम लुक पासु। छण-ससि व णिरन्तर-धवलियासु।।७।। गय-दन्तु अयंगम (1) पंड-पाणि । अणियच्छिय-पहु पक्रवलिय-वाणि 1141
पत्ता गरहिउ दसरहँण 'पई कम्इ का चिराषिङ। जलु जिण-बयणु जिह सुष्पहहें दवत्ति ण पाविड' ॥९॥
[२] पणप्पिणु तेण वि वुतु एम। 'गय दिया जोचणु हसिउ देव ॥१॥ पढमाउसु जर धवलम्ति आय । पुणु असई ३ सीस-बलगा जाय ॥२॥ गइ राष्ट्रिय विहडिय सन्धि-वन्ध । ण सुप्पन्ति कग्ण लोयग णिरन्ध ॥३॥ सिम कम्पह मुहें पक्षलाइ वाय । गय दन्त सरीरहों पर छाय ||21] परिगलिड रुहिरु थिउ णवर चम्मु । महु एल्थु ज हुद क अवर जम्मु ।।५॥ गिरि-णर-पषाह ण वहन्ति पाय । गन्धौवउ पायउ फेम राय' ||६|| चपणेण तेण किन पह-वियप्पु । गउ' परम-विसायहीं राम-चप्पु ॥७॥ चञ्चसउलु, जोविऊ कवणु सोक्छु । तं किजाइ सिजई जेण भोक्खु । ८॥
धत्ता सुप्हु महु-विन्दु-समु दुहुँ मेरु-सरिसु पक्षियम्भह । वरि त कम्मु हिउ जं पउ अजरामर लकमइ ।।१।।
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धावीसमो संधि [१] देवोंके साथ हजारों युद्धोंके द्वारा अजेय दशरथने जिनेन्द्रका अभिषेक किया । जिनवरके शरीरके प्रक्षालनका दिव्य गन्धोदक देवियों के लिए भिजवाया गया। केवल सुप्रभाके पास चुकी नहीं पहुँच स बसे उलसिस शरीर राजा कहता है-"हे निम्विनी, तुम उदास क्यों हो? प्राचीन चित्रित दीवालकी तरह विवर्ण क्यों हो?' तब सुप्रभाने प्रणामपूर्वक कहा-"मेरी कथासे क्या? हे देव, यदि मैं भी प्राणप्यारी होती तो गन्धोदक कैसे नहीं पाती।" जो पूर्णिमाके चन्द्रमाके समान निरन्तर धवल मुखवाला था, जिसके दाँत जा चुके थे, जो अजंगम (जड़) था, जिसके हाथमें दण्ड था, जिसने स्वामीको नहीं देखा है, जिसकी वाणी स्खलित है, ऐसा कंचुकी इसी अवसरपर वहाँ पहुँचा। राजा दशरथने उसकी निन्दा की-- "हे कंचुकी, तुमने देर क्यों की जिससे जिनवचनके समान जिनाभिषेकका जल सुप्रभाको जल्दी नहीं मिला।" ||१-५||
[२] उस कंचुकीने मी प्रणाम कर यह निवेदन कियामेरे दिन चले गये हैं, यौवन ढल गया है। प्रथम आयुको बुढ़ापा सफेद करता हुआ आ गया है और वह असती स्त्रीकी तरह सिरसे जा लगा है। गति टूट चुकी है, सन्धि बन्ध विघटित हैं, कान सुनते नहीं हैं और नेत्र निरा अन्धे हैं। सिर काँपता है और. पाणी लड़खड़ाती हैं। दाँत जा चुके हैं और शरीरको कान्ति क्षीण हो चुकी है । रक्त गल चुका है, केवल चमड़ी शेष है। अब पैर पहाड़ी नदीके प्रवाहकी तरह नहीं दौड़ते; हे राजन्, वह गन्धोदक किस तरह प्राप्त करे।" इन शब्दोंसे राजाने अपने मनमें विचार किया और रामके पिता दशरथ अत्यन्त विषादको प्राप्त हुए। सचमुच जीवन चंचल है, कौन सुख है वह किया जाये और जिससे मोक्ष सिद्ध हो १ सुख मधुकी चदकी तरह है और दुःख मेरुपर्वतकी तरह बढ़ता जाता है; वही कर्म
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२
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पउमचरिउ
के दिवसु वि होसष्ठ आरिसाहुँ। कम्युइ-अषस्थ अम्हारिसाहुँ ।।१।। को हुई का महि कहाँ तणउ दुग्छु । सिंहासणु छत्तइँ अधिरु सन्छु ।।२।। जोवणु सरीरु जीविउ धिगत्थु । संसार असारु अणरथु भत्थु ॥३।। विसु विसय वन्धु दिव-वन्धणाहै। घर-दार परिहव-कारणाई ।।४।। सुख सन्तु घिउत्तर अवहरन्ति । जर-मरणहें किक्कर किं करन्ति ।।५।। जीचाउ वाउ हय हय घराय। सन्दण सन्दण गय गय जेणाय ||६|| सणु सणु जें खणखें खयहाँ जाइ। धणु धणुजि गुणेण वि वझुथाइ ।।७।। दुहिया वि दुहिय माया वि माय । सम-माउ लेन्सि फिर तण माय ।।८।।
वत्ता भाय मत
मिला लमति : अप्पुणु तउ करमि' घिउ दसरहुँ एम पियप्पेंवि ॥२॥
[५] तहि अवसरें आइउ सवण-सबघु। पर-समयसमीरण-गिरि-अलघु ॥३॥ दुम्महमह चम्मह-महा-स्सीलु । भय-भङ्गुर-भुअणुचरण-लील ॥२॥ अहि-षिसम-विसय-विस-बेय-समागु | खम-दम-णिसणि-किप-मोक्ख-गमणु१३ तबसिरि-घररामालिनिअङ्ग । कलि-कलुस-सलिल-सोसण-पयङ्गु ॥४॥ तिस्थकर-घरगम्घुरुह-मसरु । किम-मोह-महासुर मायर-डमा ॥५॥ तहि सच्चभूइ णाम साहु । गाणिय-संसार-समुन्याहु ॥६॥ मगहाहिउ विलय-षिरत्त-देह। अघहस्थिय-पुत्त-कलत्त-णेहु ॥७॥
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बाबीसमो संधि अच्छा और हितकारी है कि जिससे अजर-अमर पद प्राप्त किया जा सके ।।१-९॥
[३] किसी दिन इस प्रकार हम-जैसे ज्ञानी लोगोंकी भी कंचुकीके समान अवस्था होगी। मैं कौन ? भूमि कौन ? किसका धन ? सिंहासन और अत्र सब स्थिर है। योपन शरीर और जीवनको धिक्कार है। संसार असार है। अर्थ अनर्थ है। विषय विष हैं । बन्धु दृढ़ बाँधनेवाले हैं, घर और द्वार पराभवके कारण हैं। सुत शत्रु हैं। अर्जित धनका अपहरण कर लेते हैं । बुढ़ापे और मृत्युके अनुचर क्या करते हैं। जीवको आयु हवा है; बेचारे हय आहत होते हैं; स्यन्दन खण्डित हैं, जो चले गये, वे गये, लौटकर नहीं आते। तनु सृष्ण है, जो एक अाणमें नाशको प्राप्त होता है। धन धनुप है, जो गुण ( प्रत्यंचा गुण) से टेढ़ा देड़ा जाता है। दुहिताएँ भी दुष्ट हृदय हैं, माता भी माया होती है । चूँकि समान भाग लेते हैं इसलिए वे भाई हैं। इनको और भी सबको राधबके लिए समर्पित कर मैं स्वयं तप करूँगा । दारथ यह विचारकर स्थिर हो गये ।।१-२||
[४] उस अवसरपर एक श्रमण संघ आया, जो उस अवसरपर परसिद्धान्त रूपी हवाके लिए अलंध्य गिरि था, जो खोटी इच्छा, मद और कामदेवको नष्ट करनेवाला था, जो भयसे पीड़ित भूजनोंका उद्धार करनेवाला था, जो साँपके समान विषम विषयरूपी विषके वेगको शान्त करनेवाला था, जिसने क्षमा और दमकी नसैनीसे मोक्षगमन किया है, जिन्होंने तपश्रीरूपी श्रेष्ठ रमणीका शरीर आलिंगित किया है, जो कलिके कलुपरूपी जलके शोघगके लिए सूर्य है, जो तीर्थ करके चरणकमलोंका भ्रमर है, जिसने मोहरूपी महासुरके नगर में उपद्रव मचाया है, ऐसा एक ऋषिसंध आया। उसमें, जिन्होंने संसारकी थाह माप ली है, जो विषयोंसे विरक्त देह हैं,
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२१
पडसचरिङ
गिग्वाण-महागिरि धीरिमाएँ ।
रयणायर-गुरु गम्भीरमाऍ ॥ ८ ॥
पत्ता
रिसि सङ्घाहिवइ सो आठ भउज्स भारत । 'सिवपुरि-गमणु करि' दसरहहाँ जाइँ हक्कारत ॥९॥
काले ।
पढिएं तर्हि ते मामण्डल मण्डल परिहरन्तु । यदेहि-विरह-वेण सहन्तु । परिहन्ति ण विजाहर-तिबाद । जलद्दणचन्द्र कमल - सेज । वाहिज्जइ विरहें दूसद्देण ।
सासु मुएप्पिणु दीहुदीहु । 'भूगोयरि अमि मण्ड लेवि ।
[ ५ ]
सो पुरे रहणेउरवालें ॥१॥ अच्छा रिसि सिद्धि व संमरन्तु ॥२॥ दस कामावथ्थड क्यन्तु ॥३॥ पडणा-खाण सोयण - किया ॥४॥ दुक्कन्ति जन्ति अणोरण वेज ॥५५॥ पट फिटर केण वि ओसहेण ॥ ६ ॥ पुणवि थिउ थक्केंवि जेम सी ॥७॥ णीसरि सन्साह सणदेवि ॥ ८ ॥
घत्ता
पतु यह पुरु से णिषि जाउ जाईसरु | 'अष्णहिं भव- महण देउँ होन्तु एस् रज्जेसरु ॥९॥
[ ६ ]
संभवि भवन्तरुणिरब सेसु ॥ १ ॥ 'कुण्डलमण्टि गार्मेण राड ॥ २ ॥ पिक्लु णामेण कुबेर भट्ट्टु ॥ ३ ॥ परिवसह कुडीर किर वरा ॥ ४ ॥ सवि मरें वि सुरक्षा कहि मि पत्तु ॥ ५॥ णि देवें जाणइ - जमल- जाउ ॥ ६॥ पुप्फवइहें पहूँ साथ दिष्णु ॥ ७ ॥
मुच्छामि तं ऐक्सेंवि परसु । सदभावें पद्मणि तेण ताउ । हउँ होन्तु पृथु अखलिय-सरट्टु ससिके - दुहिय अवहरेंवि आट उहि मई वहाँ से कलत्त | सुख हड भि षिदेहहें देह आज । वर्गे चलि कण्टेण विण भिष्णु ।
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बावीस संधि
२३
जिन्होंने पुत्र और कलत्र के स्नेहको दूर कर दिया हैं, जो धैर्य में सुमेरु पर्वत और गम्भीरता में महासमुद्र थे, ऐसे संघाधिपति आदरणीय सत्यभूति अयोध्या नगरी में आये और जैसे उन्होंने दशरथको ललकारा कि “शिवपुरीके लिए गमन कर | " ||१९||
[ ५ ] वहाँ वैसा समय आनेपर रथनपुर चक्रवाल नगर"मैं मामण्डल अपना राजपाट छोड़कर, सिद्धिकी याद करते हुए मुनिकी तरह स्थित था— वैदेहीकी विरह वेदनाको सहन करता हुआ तथा दश कामावस्थाओंको दिखाता हुआ । उसे विद्याधर स्त्रियाँ अच्छी नहीं लगती थीं और न ही ज्ञान, खाना, भोजनक्रियाएँ । न जलसे भीगा पंखा, न चन्दन और कमलसेज; एकके बाद एक बैग आते और चले जाते । वह असह्य विरह से व्याधिमस्त था, जो किसी भी औषधिसे दूर नहीं हो सकती थी। लम्बी-लम्बी साँसें लेकर, वहाँ फिर सिंहकी तरह स्थित हो गया। मैं उस मनुष्यनीको अलपूर्वक लेकर भोगंगा ? ( यह सोचकर ) वह साधनसहित तैयार होकर निकला । वह विदग्ध नगर पहुँचा । उसे देखकर उसे जातिस्मरण हो आया कि पूर्व जन्म में मैं यहाँ राजा था ॥ १-२॥
[ ६ ] उस प्रदेशको देखकर वह मच्छित हो गया। अपने निरवशेष जन्मोत्तरको याद कर सद्भावना के साथ उसने अपने पितासे कहा, “यहाँ मैं कुण्डलमण्डित नामका राजा था। मैं यहाँ अस्खलित मान । वहाँ पिंगल नामका कुबेर भट्ट था जो विचारा चन्द्रकेतुकी कन्याका अपहरण कर एक कुटीरमें रहता था। मैंने उसकी उस स्त्रीको छीन लिया । वह भी मरकर कहीं देवत्वको प्राप्त हुआ । मैं भी मरकर विदेहाके शरीर में आया । जानकी के साथ, युगल उत्पन्न हुआ मैं देवके द्वारा ले जाया गया। मैं वनमें फेंक दिया गया। परन्तु मुझे काँटा भी नहीं
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२४
पडमचरिङ
घत्ता
जणु सलु वि ऍड परियाणइ ।
बलिउ तुम्ह जग जणेरु महु मायरि विदेह सस जगह ॥ ८ ॥
[ ७ ]
ग बदहत्तिएँ ते पसु ॥ १ ॥ नहिँ निणवरहवण महाविभू ॥ २ ॥ जहिँ सीय राम-लक्षण -बिलासु ॥३॥ गउ तहिँ भामण्डलु जणणु लेषि ॥ ४ ॥ पुणु गुरु- परिवाडि सषण सङ्घ ॥ ५ ॥ मरह-व-लक्षणेहिं ॥ ६ ॥ जिह हरि-वल-साला साबळेव ॥७॥ तत्रचरणु लय चन्द्रायणेण ॥८॥ घन्ता
वित्तन्तु कद्देष्पिणु गिरवसेसु । वह मदारिस सच्चभूद्द । बहरग्ग-कालु जहिँ दसरासु । तुरण भरह जहिं मिलिय वे वि । जिणु वन्दिउ मोक्ख-वलग्ग जषु । पुणु कि संभालणु समय तेहिँ । सत्तु जाणावि सी भाइ जेम । सुउ परम-धम्मु सुह-भायणेण ।
दसरहु अका-दि किर रामहों रज्जु समप्पड़ । केकयता म उहालऍ धरण व तप ॥९॥
'[.]
रिन्स सोऊ पवज्ज यज्जं । ससा द्रोणरायस्य भग्गाणुराया । स- पालम्व कची- पहा-मिष्ण-गुज्झा । णवासीय वच्छच्छयाछाय - पाणी महा-मोरपिच्छोह संकास- केसा |
स रामा हिरामस्स रामस्स रज्जं ॥१॥ तुला कोटि-कन्तीयालि-पाया|२| श्रणुत्तुङ्ग मारे जा फिश मज्झा ॥ ३० वरालाविणी को इलाखाव- वाणी ॥४॥ अस्स भली पण बेसा ॥ ५ ॥
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वावीसमो संधि लगा । और तुमने मुझे, पुष्पावतीको सादर दे दिया।" समस्त जन यही जानता कि हैं तुम्हारे घर में नही : जनक मेरे पिता हैं । माता विदेहा है, और बहन जानकी है ।।१-८||
७] अपना समस्त वृत्तान्त कहकर भामण्डल उस प्रदेशकी वन्दनाभक्तिके लिए गया जहाँ महामुनि सत्यभूति निवास करते थे और जहाँ जिनवरके अभिषेकको महाविभूति हो रही थी। जहाँ दशरथके वैराग्यका समय था। जहाँ सीता, राम और लक्ष्मणका विलास था। जहाँ भरत और शत्रुघ्न दोनों मिले हुए थे। भामण्डल अपने पिताको लेकर उस स्थानके लिए गया । पहले उसने, जिनका पैर मोक्षसे लगा हुआ है ऐसे इन्द्रभूति जिनकी बन्दना की, फिर गुरुपरम्परासे श्रमणसंघ की। फिर इसने भरत, लक्ष्मण, राम, शत्रुध्नके साथ बातचीत की। उन्हें बताया कि किस प्रकार वह सीताका भाई है, और किस प्रकार राम और लक्ष्मणका अपराधी साला है। पुण्यके भाजन चन्द्रगतिने परमधर्म सुना और तपश्चरण स्वीकार कर लिया। ददारथ दूसरे दिन जब रामको राज्य देते हैं, तब कैकेयी अपने मनमें उसी प्रकार सन्तान हो उठती है, जिस प्रकार ग्रीष्मकाल में धरती ॥१-५।।
[८] राजा दशरथका प्रत्रज्या-यज्ञ और लक्ष्मीसे अभिराम रामके राज्यकी बात सुनकर द्रोण राजाकी बहन ककेयी भग्न अनुरागवाली हो गयी। जिसके पैर नूपुरोंकी कान्तिरूपी लतासे लिप्त हैं, गलेके आभूषण और करधनीकी प्रभासे जिसका गुह्यभाग स्फुटित है, स्तनोंके ऊँचे भारसे जिसका मध्यभाग नीचा है, जिसके हाथ, नव अशोक वृक्ष के पत्तोंकी कान्तिके समान हैं, सुन्दर आलाप करनेवाली कोयलके आलापके समान जिसकी वाणी है, जिसके केश महामयूरकी पूंछके समान हैं, प्रच्छन्न रूपचाली जो कामदेवकी भल्लिकाके समान है, ऐसी
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पउमचरिउ
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गया केकया जत्थ अस्थाण-मम्मी । बरो मगिओ 'णाह सी एस कालो। पिए होउ एवं सओ सावदेवी ।
णरिंग्दो सुरिन्दों व पीढं वलग्गो ॥६॥ महं णन्दणो ठाउ रज्जाणुपाठी ॥७॥ समाचारिभी लक्षणो रामएवो ॥८॥
घत्ता
' तुहुँ पुसुम, तो एसिड पेसणु किनइ । छत बसण, वसुमइ भरहहाँ अप्पिनइ ॥१॥
[९]
सो विन्तद् अधिरु असारु सम्षु ॥ १ ॥ अच्छ तववरण- णिहित- वित्तु ॥२॥ तो लक्खणु लक्खहूँ हणइ अज्जु || ३|| सत्तु हणु कुमारु प सुप्पहा वि ॥४॥ बोलिजइ दसरह - तरुण || ५ || जं कुल चढाइ वरण- पुझें ॥६॥ जं करइ विवक्स पाण-छेउ ॥७॥ गुण-हर्णे हियय-विसूरणेण ||८||
अहवह भरहु वि श्रासष्ण भन्छु । रु परियणु जीवित सरीरु वितु | वह मुवि वासु जह दिष्णु खजु। पण विहउँवि भरहु ण केकया वि। निसुर्णेवि पष्फुल्लिय-मुहेण । 'पुसद्द पुतणु एसिउं जे I जं पिय-जणण आणा-विहेज | किं पुते पुणु पयपूरणेण ।
घत्ता
लक्खगुण बिहाइ तनु भावों सच्चु पयासहों । भरहु महि हाँ जामि ताय वणव्वासहाँ' ॥९॥
[10]
प्रेसरेण
I
ह - महाभरेण ||१||
हकारि भरहु पुणु - युच्च 'त छत्तहूँ त बसणड रज्जु साहेबउ म अपण कज्जु' || २ || तं चयणु सुणवि दुम्मिय-मणेण । धिक्कारित केकय-दणे ||३|| 'तुहुँ साथ चित्धु धिगत्थु रज्जु | मायरि विगत्थु लिरें पडउ वज्जु ॥४॥
उ जाणहुँ महिलहुँ को सहाउ । जोब्वण-मएण पण गणन्ति पाट ||५||
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वावीसमो संधि कैकेयी वहाँ गयी जहाँ आस्थानमार्ग था और उसपर इन्द्रको तरह राजा बैठा हुआ था। उसने वर माँगा--"हे स्वामी, यह वह समय है। मेरे पुत्रको राज्यका अनुपालक नियुक्त कीजिए।" हे प्रिये, ऐसा हो, ( यह कहकर ) उसने गर्वसहित राम और लक्ष्मणको पुकारा। "यदि तुम मेरे पुत्र हो, तो इतनी आज्ञा करना कि छत्र, सिंहासन और धरती भरतको अर्पित कर दो।" ॥१-६॥
[९] अथवा भरत भी आसन्नभव्य है, वह सबको असार और अस्थिर समझते हैं। घर, परिजन, जीवन, शरीर और धनको भी। उनका चित्त तपश्चरण में रखा हुआ है। यदि मैं तुम्हें छोड़कर भरतको राज्य दूं तो लक्ष्मण लाखोंका काम तमाम कर देगा। न मैं, न भरत और न कैकेयी ही। शत्रुध्नकुमार
और सुप्रभा भी नहीं ? यह सुनकर प्रफुल्लमुख दशरथपुत्रने कहा-"पुत्रका पुत्रत्व लसीमें है कि वह कुलको संकट-समूहमें नहीं डालता, जो वह अपने पिताकी आज्ञा धारण करता है
और जो विपक्षका प्राण-नाश करता है । गुणहीन और हृदयको पीड़ा पहुँचानेवाले 'पुत्र' शब्दकी पूर्ति करनेवाले पुत्रसे क्या ?" "लक्ष्मण हनन नहीं करता, आप तप साधे, सत्यको प्रकाशित करें, भरत धरतीका भोग करें; हे पिता, मैं वनवासके लिए जाता हूँ ।" ॥१-९॥
[१०] राजा दशरथने भरतको पुकारा और स्नेहसे भरे हुए उन्होंने कहा, "तुम्हारे छत्र हैं, तुम्हारा सिंहासन हैं, तुम्हारा राज्य है। मैं अब अपने कामको (परलोक ) सिद्ध करूँगा।" यह सुनकर कैकेयीपुत्र ( भरत ) ने दुःखीमनसे धिक्कारा, "हे पिता, तुम्हें धिक्कार है, राज्यको धिक्कार है, माताको धिक्कार है, राज्यके सिरपर वन पड़े। हम नहीं जानते महिलाओंका क्या स्वभाव होता है? यौवनके मदमें वे पापको भी नहीं
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पउमचरित
गड वुमहि तहुँ मि सहा-मबन्धु । किं रामु मुचि महु पट्ट-वन्धु ॥५॥ सप्पुरिस वि चञ्चल-चित्त होन्ति । मणें जुत्ताजुत्त ॥ चिन्तवन्ति ।।७।। मा णिक मुऍवि को लेइ कच्चु । कामन्यहाँकिर कहिँ वणउ सच्चु ॥८॥
अच्छह पुणु वि घरै सन्तुहशु रामु हउँ लक्षणु । अलिउ म होहि तुई महि मुझे मदारा अप्पुणु' ॥९॥
[१] सुय-वपण-विरमें दससन्दणेण। नुह अणरपणहाँ पन्दपेण ॥३॥ 'केकयह रज्जु रामही पवासु। पवम मय एड जर्गे पमासु ॥२॥ तुहुँ पाले घरासर परम-रम्मु । णड आयहाँ पासिष को वि धम्मु ॥३॥ दिला जइवरहुँ महप्पहाणु। सुभ-मेसह-अमयाहार-दाणु ॥४॥ रविपन्नई सील फुसीम-पासु ।। किजा जिणु-पुज्ज महोषवासु ॥५॥ जिण-वन्दण वासपेपरव-करणु । सल्लेहण-कालु समाहि-मरण ॥६॥ एड्छु सम्बहुँ धम्महुँ परम-धम्मु । जो पालइ तहोंसुर-मणुय-जम्मु ॥७॥ संघयणु सुणेवि सइसणेण । घुबह सुहमइ-दोहितएण ॥6॥
वत्ता
'जह वर-वास सुई एड में ताप वडिवजहि । तो तिण-समु गणेवि कलेण केण एवजहि ॥९॥
[१२] तो खेड्ड मुऍविं दसरहँण घुतु । 'जह सबाड तुहुँ महु तणउ पुत्तु ॥१॥ सो किं पन्चजहें करहिं बिग्घु । कुलवंस-धुरन्धरु होहि सिग्घु ॥२॥ केक्यहें सच्चु र्ज दिपणु आसि । तं णिरिणु करहि गुण-स्वय-रासि ।।३।। सो कोशष्ठ-बुष्हिया-दुल्लाण योनिमाइ सोया-घालण ॥४॥ 'गुणु केवल वसुहहें भुत्तियाएँ । किं खणे-खणे उत्स-पत्तिया ॥५॥ पालिज्जउ तायही तणिय बाय । लइ मछु उधरोहें पिहिवि माय' ॥१॥
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बावीसमो संधि गिनतीं । महामदान्ध तुम गीत नहीं समझते, क्या मागे छोड़फर राजपट्ट मुझे बाँधा जायेगा ? सज्जन पुरुष भी चंचल चित्त होते है, मनमें युक्त-अयुचका विचार नहीं करते। माणिक्यको छोड़कर काँच कौन ग्रहण करेगा ! फामान्धके लिए किसका सत्य ? आप घरपर ही रहे, शत्रुघ्न, राम, में और लक्ष्मण ( वनके लिए जाते हैं ) तुम भी झूठे मत बनो, हे आदरणीय ! तुम स्वयं धरतीका उपभोग करो ॥१-२॥
[११] भरतके वचन समाप्त होनेपर, अणरण्णके पुत्र दशरथने कहा-“कैकय ( भरत ) के लिए राज्य, रामके लिए प्रवास, मेरे लिए प्रव्रज्या' यही जगमें स्पष्ट है । तुम परमरम्य गृहस्थ धर्मका पालन करो, इसकी तुलनामें कोई धर्म नहीं हैं ? मुनिपरोंके लिए महाप्रधान श्रुत औषधि, अभय और आहारदान दिया जाये । खोटी सीमाका नाश करनेवाले शोलकी रक्षा की जाये । महान् उपयास, जिनकी पूजा की जाये। जिनकी वन्दना, बारह अनुप्रेक्षाओंका चिन्तन और सल्लेखना कालमें समाधिभरण, यह सब धर्मों में परमधर्म है; जो इसका पालन करता है, उसका देव और मनुष्य जन्म होता है ।" यह वचन सुनकर, शुभमति के नाती भरतने अपने मनसे कहा-दे तात! तुमने जो यह कहा कि गृहवासमें सुख हैं । तो तुम, उसे तृणके समान समझकर किस कारण संन्यास ग्रहण कर रहे हो ॥१-९||
[१२] तब खेद ? छोड़कर दशरथने कहा--"यदि तुम मेरे सच्चे पुत्र हो, तो प्रवज्यामें विघ्न पैदा क्यों करते हो? तुम शीघ्र अपने कुलपंशको धुरीको धारण करनेवाले बनो। कैकेयोको जो सत्य वचन मैंने दिया है, हे गुणरत्नराशि, तुम मुझे उससे उमण करो।" तब कोशलकन्याके प्रिय और सीताके पति (रामने) कहा--"केवल धरतीके भोगमें गुण है; क्षण-क्षणमें उक्ति और प्रतिक्तिसे क्या? पिताके वचनका पालन करना चाहिए ।
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पउमचरित तो एम मणन्ते राहवेण। णिचूढाणेय-महाहवेण ॥७॥ खीरोधमहण्णव-णिम्मलेण। गिष्वाण-महागिरि-अविचछेण ॥८॥
माना पेक्षन्सही जणहाँ सुरकरि-कर-पवर-पवण्डें हिं। पटु णिवद्ध सिरें रहु-सुरंग स य भुव-दण्हें हिँ ॥१॥
[२३. तेवीसमो संधि] तहिं मुणि-सुध्वय तिर वुहयण-कपण-रसायणु । रावण-रामहूँ जुद्ध र णिसुणहु रामायणु ।।
णमिण भडारड रिसह-जिगु । पुणु कव्वहाँ उपरि फरमि माशु ॥१॥ जमें लोयहुँ सुयणहुँ पण्डियहुँ। सदथ-सस्थ परिचडियद्हुँ ।।२।। किं चितई गेहदि सक्कियई। वाण वि जार ण रञ्जिय॥३॥ तो कवणु गदगु अम्हारिस हि। वायरण-विकूण हिं आरिसें हिं॥४॥ कई भरिय अणेय भेय-मरिय। जे सुयण-सास हि आयरिय ॥4॥ चकलाएँ हि कुल हिँ सम्दएँ हिं। पवणुधुअ-पासालु हि ।६।। मारिय-विलासिणि-पकु हि। सुह-कन्दै हिँ सहि खडइ हि ॥७॥ हउँ कि पिण जाणमि मुक्खु मणें । णिय बुद्धि पयासमि तो वि जाणे ॥६॥ जं सयले वि सिहुवर्णे विस्थरिठ। आरम्भिड पुणु राहवचरित ॥९॥
घत्ता भरहहाँ बद्ध पढ़ें तो णिल्यूड-महाहउँ। पणु उज्न मुवि गउ वाण-वासही राहट ॥१०॥
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वाषीसमो संधि
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हे भाई, मेरे अनुरोधसे पृथ्वी ले लो।" तब इस प्रकार कहते हुए अनेक महायुद्धोंका निर्वाह करनेवाले क्षीर समुद्रके समान निर्मल तथा सुमेरुपर्वत के समान अविचल रघुसुत रामने लोगोंके देखते-देखते ऐरावतकी सूँड़के समान प्रचण्ड अपने भुजदण्डों से भरत के सिरपर पट्ट बाँध दिया ॥ १-२ ॥
तेईसवीं सन्धि
मुनिसुव्रत तीर्थकरके उस तीर्थ में राम और रावणका जो युद्ध हुआ जनोंके कानोंके लिए रसायन जस रामायणको सुनो।
i
[१] आदरणीय ऋषभ जिनको प्रणाम कर मैं पुनः काव्यके ऊपर मन करता हूँ । जगमें जिन्होंने शब्दार्थ और शास्त्रोंको मर्दित (पारंगत) कर रखा है, ऐसे सज्जन और पण्डित लोगों के
चित्तको क्या ग्रहण किया जा सकता है ( प्रसन्न किया जा सकता है) कि जो व्याससे द्वारा भी रंजित नहीं हुए । तो फिर हम जैसे चिल्लानेवाले व्याकरणसे हीन लोगों के द्वारा उनका क्या प्रहण ( मनोरंजन ) होगा ? कवि अनेक भेदोंसे भरित हैं, जो सुजनोंके कथनों चकलक कुलक स्कन्धक पवनोद्धत रासालुन्धक मञ्जरीक विलासिनी नक्कुड़ शुभ छन्दों, खडखड शब्दों (??), से सम्मानित हैं। मैं मूर्ख अपने मनमें कुछ भी नहीं जानवा; फिर भी लोगों में मैं अपनी बुद्धि प्रकाशित करता हूँ | जो समस्त त्रिभुवनोंमें विस्तृत हैं उस राघवचरितको मैं आरम्भ करता हूँ । भरतको राजपट्ट बाँधे जानेपर, महायुद्धों का निर्वाह करनेवाले राम अयोध्या नगर छोड़कर, वनवासके लिए चल दिये ॥१-१०॥
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पटमचरित
[२] जं परिवधु पटु परिओसें । जय माल-जय-तूर-णियोसें ।।१।। दसरह-चरण-अपलु जयकारेवि। दाइय-मछरु मणे 'भवहार नि ।।२।। सम्पय रिद्धि विवि अवगणे वि। तासही तणउ सानु परिमण्य वि।।३।। णिग्मउ वल वस्तु णाई हरेप्पिणु । लक्षणो वि लक्षण िलएप्पिणु।।४।। संचल्लेहिं तेहि विहाणड । ठित्त इहामुतु दसरह राण3 14|| हिंधव, गाई तिसूल सां। हरहिवासह धाले ॥६॥ धिगधिगत्यु' जणगुण पोल्लिंड। 'लसिउ कुल-कम वि सुमहल्लउ।।७।। अहवह जह मई सथ्नु प पालिउ । तोणिथ-प्पामु गोउ महँ मलिश ||८|| परि गड रामु ण सच्च विणासिर । सच्चु माइन्तड सन्धहों पासिउ ।।५।। सज्य अम्बरें तयइ दिवायर। सच्चे समजण चुक्कइ सायरु ॥१०॥ सच्चे चाउ बाइ महि पच्चद। सरने भोसहि खयहाँण बाई ॥१३॥
पत्ता जो ण वि पालइ सम्पु मुधे दालियर पहन्तउ । णिषजह णरय-समुहे बसु प्रेम भलिउ यवन्तउ' ॥३॥
चिन्तावषणु णराहिउ जाउँ हिँ। बलुणिय-णिलउ पराइड तावे हि ॥३॥ दुम्मणु पन्तु णिहालिउ मायएँ। पुणु विहरूवि बुत्तु पिय-वायएँ ।।२।। ‘दिय दिवें घहि तुरगम-णाएँ हिँ। अज्जु काइँ अणुवाहणु पाएँहि ॥३॥ दिदि बन्दिपण-विन्दं हि थुम्वहि। अज्ज काइँ थुम्वन्तु ण सुचहि ॥४॥ दिवे दिवे धुम्वहि चमर-सहासें हिं। अज्जु काई तउ को विपा पासे हि ॥५॥ दिवें दिवं लीयहिँ बुधहि राणउ । अज्ज का दीसहि विराणउ ।।६।।
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मनीस्तो कि [२] जयमंगल शब्द, जयतूर्यके घोष और परितोषके साथ जब पट्ट बाँध दिया गया तो दशरथके चरणयुगलका जयकार कर, उत्तराधिकारके मत्सरको अपने मनसे निकालकर, सम्पत्ति ऋद्धि और वृद्धि की अवहेलना कर, पिताके सत्यको मानकर चलदेव ( राम ) जैसे बलका अपहरण कर चल दिये । लक्ष्मण भी अपने लक्षणों को लेकर चल दिये। उनके प्रस्थान करनेपर दशरथ खिन्न होकर अपना मुँह नीचा करके रह गये, जैसे हृदय त्रिशूलसे भिद गया हो। पिताने कहा, "मैंने रामको बनवास क्यों भेज दिया, मुझे धिक्कार हो ? मैंने महान फुल्टक्रमका उल्लंघन किया? अथवा यदि मैं सत्यका पालन नहीं करता, तो मैं अपने नाम और गोत्रको कलंकित करता । अच्छा हुआ राम गये, सत्यका नाश नहीं हुआ। सत्य सबकी तुलनामें महान है ? सत्यसे सूर्य आकाश में तपता है ? सत्यसे ही समुद्र अपनी मर्यादाका उल्लंघन नहीं करता? सत्यसे हवा बहती है। धरती पकती है। सत्यसे औषधि क्षयको प्राप्त नहीं होती। अपने मुँह दाढ़ी रखता हुआ भी जो सत्यका पालन नहीं करता, वह राजा वसुको तरह झूठ बोलता हुआ नरकरूपी समुद्रमें गिरता है ॥१-९|
[३] अबतक नराधिप ( दशरथ ) चिन्तातुर थे, तबतक राम अपने भवन में पहुँचे। मौने रामको उद्विग्न चित्त आते हुए देखा। फिर भी उसने हँसते हुए प्रिय वाणी में उससे कहा, "तुम दिन-दिन घोड़ों और हाथियोंपर चढ़ते हो, आज पैरोंसे आना कैसे ? दिन-दिन बन्दीसमूह के द्वारा तुम्हारी स्तुति की जाती थी, आज स्तुति किये जाते हुए क्यों नहीं सुनाई देते ! दिन-दिन तुमपर हजार चमर दोरे जाते थे लेकिन आज तुम्हारे पास कोई नहीं हैं ? दिन-दिन तुम लोगोंके द्वारा राणा कहे जाते थे, आज तुम खिन्न क्यों हो?" यह सुनकर बलदेव
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पउमरित
सं णिसुणेनि बलेण पनपिउ । 'भरहहाँ सयलु वि रज्जु समपिउ ॥७॥ जामि माएँ दिउ हियवएँ होजदि। जं दुम्मिय तं सच्चु समेजहि ॥८॥
पत्ता जै आउच्छिय माय हा हा पुत्त' मणस्तो । अपराह्य महावि महियौं पदिय स्यन्ती ।।९।।
[] रामे जगणि जं में भाउछिय। णिरु णिचेयण तक्खणे मुष्टिय 112॥ लज्जियाहिं 'हा माग' यणन्तिहिँ ! हरियन्दपोश मित्त रेखान्तिहि ॥२॥... चमरुक्लेवहि किय पडिवायण । दुषम्बु-दुक्खु पुणु जाय स-यण ॥३॥ अङ्गु बलन्ति समुहिय राणो। सप्पि व दण्डाहय विदाणी ॥४॥ णोलक्रवण गोरामुम्माहिय। पुणु वि सदुक्खड मेल्लिय धाहिय ॥५॥ 'हा हा काइँ चुत्तु पर इलहर। दसरह-वंस-दीव जग-सुन्दर ।।६।। पई त्रिणु को पल्ला सुवेसह । पई घिणु को अस्थाण धईस ॥७॥ पइँ विणु को हय-गयहँ चचेसह । पद विगु को सिन्दुऍण रमेसइ ॥८॥ पइँ विशु रायलच्छि को माणइ । पइँ विशु को तम्बोल समाणइ ॥॥ पएँ विणु को पर-बलु मझेसह । पइँ विणु को मइँ साहारेसई' ॥१०॥
घत्ता तं कृवार सुणेवि अन्तेवर मुह-तुपणउ । लक्खणाम-विओएं धाह सुएत्रि परुपणउ ॥११॥
सा प्रत्यन्तर असुर-विम। धीरिय शिय-जणेरि बलहः ॥१॥ 'धोरिय होहि माएँ कि रोवहि । लहि लोयण अपाशु म सोयहि ॥२॥ जिह रवि-किरणहि ससि पा पहावह। तिह माई होन्तें मरहु ण मावइ ॥३॥ ते कज्जे घण-धासें वसेवउ । तायहाँ तणउ सधु पालेवउ ॥३॥ दाहिण-देसें कोविशु थत्ति । तुम्हहँ पासें ए४ सोमित्ति' ॥५॥
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तेवीसमो संधि (राम ) बोले-“भरतको सम्पूर्ण राज्य दे दिया गया है, हे माँ, अब मैं जा रहा हूँ, तुम अपना मन दृढ़ रखना; जो मैंने तुम्हें पोड़ा पहुँचायी, उसे तुम क्षमा करना।” जब रामने माँ से इस प्रकार पूछा तो 'हा-दा' कहती हुई अपराजिता महादेवी रोती हुई धरतीपर गिर पड़ी ।।१-९॥
[४] रामने जब माँसे इस प्रकार पूछा तो वह तत्काल अचेतन होकर मूच्छित हो गयी। हे माँ कहती हुई और रोती हुई दासियोंने हरिचन्दनसे उसे सींचा। चमर धारण करनेवाली स्त्रियोंने हवा की। बड़ी कठिनाई से वह सचेतन हुई । रानी अपना शरीर मोड़ते हुए इस प्रकार उठी, जैसे दण्डात म्लान नागिन हो । लक्ष्मण और रामके बिना व्यथित वह दुःखी होकर पुकार मचान लग:-."हे बलराम, हा-हा, तुमने क्या कहा १ हे दशरथकुलके दीप विश्वसुन्दर राम, तुम्हारे विना पलंगपर कौन बैठेगा ? तुम्हारे बिना कौन दरबारमें बैठेगा? तुम्हारे बिना अश्व और गजपर कौन चढ़ेगा? तुम्हारे बिना कौन गेंदसे खेलेगा ? तुम्हारे बिना राजलक्ष्मी कौन मानेगा? तुम्हारे बिना कौन पानको सम्मान देगा ? तुम्हारे बिना कौन शत्रुसेनाका नाश करेगा? तुम्हारे बिना कौन मझे सहारा देगा?" वह विलाप सुनकर मुखसे त्रस्त अन्तःपुर राम और लक्ष्मणके वियोगके कारण दहाड़ मारकर रो उठा ॥१-११॥
[५] तब इस बीच में असुरोंका मर्दन करनेवाले रामने अपनी माँ को धीरज बँधाया। "हे आदरणीये, धीरज धारण करो, रोती क्यों हो ? आँखें पोंछो । स्वयंको शोकमें मत डालो। जिस प्रकार रविकिरणोंसे चन्द्रमा प्रभावित नहीं होता उसी प्रकार मेरे होते हुए भरत अच्छा नहीं लगता। इसी कारण वनवासमें रहूँगा और पिताके सत्यका पालन करूँगा। दक्षिण देशमें स्थिति बनाकर, लक्ष्मण तुम्हारे पास आयेगा।" यह
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१६
एम भणेपिणु चलिउ तुरतउ । धवल सण- गीलुप्पल - साहिं । सोहण देवि मावइ ।
णं किय-सहत्थु वाहावर । भर रिन्दों णं आणावइ । पुणु पाआर-भुयउ पसरेविणु ।
पउमचरिव
तो परे यणाणन्दें । विणु हालिर |
'तत'
चाव-सिलीमुह-हत्य वेषि समुण्णयमाणा ।
नहीं मन्दिरों रूप तहाँ नाइ विणिसाय पाणा ॥ १२ ॥
बि मन्दिरहों विणिमाच जाणइ । छन्दों णिग्गय गायन्ती । पाइँ कित्ति सम्पुरिस - विमुखी 1 सुल लिय- चलण-जुयल - महन्ती ।
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सलु वि परियणु आउच्छन्त ॥ ६ ॥ घरु सुचन्तर लषण - रामहि ॥७॥ हु चिन्दाइ णावई ॥८॥ दो कहाणि णं दाव ॥९॥ 'हरि-वल जन्त शिवारहि णरषद् ॥ १० ॥ पाइँ णिवार आलिङ्गेणु ॥ ११ ॥
[]
उर-हार-डोर गुप्यन्ती । हेट्ठा-मुह कम-कमलु गियच्छेवि !
राय बारु चलु बोलिए जायेंहिँ । उडिव धगधगन्तु जस- उ । णाइँ भइन्दु महा-घण-गज्जिएँ।
संचलन्तें राहवचन्दे ॥ १ ॥
णं चित्तेण चित संचाकिंत ॥२॥ णं हिमवन्तों गङ्ग महा-प ॥३॥ र्ण सोंणीसरिय विहत्ती ॥ ४ ॥ नाइँ रम्भ जिय-थाहो चुकी ॥ ५ ॥
गय घड भड थद विन्ती || ६ || बहु-सम्बोल - पढें खुप्पन्ती ॥७॥ अवराय - सुमित्ति आउच्छे चि ॥ ४ ॥
घत्ता
विग्गय सीमाएबिसिय हरन्ति णित-भवणहीँ । रामही खुप्पत्ति असणि णाइँ दहवयणहाँ ॥९॥
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लख मणे आरोसि ताहिं ॥ १ ॥ णाएँ विष्ण सित्तु भूम ||२|| सिंह सोमिति कुविङ गर्ने सज्जिएँ ॥ ५ ॥
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सेवीसमो संधि
३७
कहकर राम तुरन्त चले, समस्त परिजनों से पूछते हुए | धवल और कृष्ण कमलोंके समान लक्ष्मण और रामके द्वारा छोड़ा गया घर उसी प्रकार न तो शोभा देता है और न चित्तको अच्छा लगता है, जिस प्रकार सूर्य और चन्द्रमा के बिना आकाश किया है ऊँचा हाथ जिसने ऐसा वह घर मानो चिल्लाता है और मानो रामको स्त्रीहानि बतलाता है । मानो भरत राजाको यह ज्ञात कराता है कि हे राजन्, जाते हुए रामलक्ष्मणको रोको, फिर प्राकाररूपी भुजाओंको फैलाकर और आलिंगन कर जैसे उनको रोक रहा था। जिनके हाथमें धनुप और बाण हैं ऐसे वे दोनों समुन्नतमान इस प्रकार चले जैसे रोते हुए मन्दिर के प्राण ही निकल रहे हों ॥१-१२॥
[ ६ ] तब इस बीच नेत्रोंको आनन्ददायक रामने चलते सीतादेवीका मुख देखा, मानो चित्तने चित्तको संचालित किया हुए हो। जानकी अपने भवनसे इस प्रकार निकली, मानो हिमालय से गंगा नदी निकली हो, मानो छन्दसे गायत्री छोड़ी हो, मानो शब्द से विभक्ति निकली हो, मानो सत्पुरुषसे निकली हुई कीर्ति हो, मानो रम्भा अपने स्थानसे चूक गयी हो। अपने सुन्दर चरणयुगलसे लीलापूर्वक चलती हुई मानो गजघटा भटटाको विघटित करती हुई जा रही हो । नूपुर, हार और डोरसे व्याकुल होती हुई प्रचुर ताम्बूल कीचड़ में निमग्न होती हुई, नीचा मुख कर, चरणकमलोंको देखकर, अपराजिता और सुमित्रा से पूछकर सीतादेवी भी अपने भवनकी शोभाका अपहरण करते हुए निकली जो मानो रामके लिए दुःखकी उत्पत्ति और रावणके लिए वज्र श्री ॥१- ॥
[७] जैसे ही राज्यद्वार रामने पार किया, वैसे ही लक्ष्मण अपने मनमें क्रुद्ध हो उठा। यशका लोभी वह धकधक करते हुए उठा, जैसे बीसे सिक आग हो, जैसे महामेघोंके गरजने -
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पउमचरित
'के धरणिन्द-फणा मणि तोदिउ । के सुर-कुलिस-दण्ड भुगू मोदिङ ॥॥ के पलयाणसें अप्पउ' होइन। के आरुटुउ सणि अपलोड 1411 के रयणाथरु सोसें चि सकिउ। के आइग्रहों नेउ कलकित ॥३॥ के महि-मण्डल बाहहिँ टालिड । के तइलोक-चाकु संचालिड ।।७।। के जिउ कालु कियन्तु महाहवे। को पहु अण्णु जिपम्तएँ राहवें ॥८॥
पत्ता अहवह किं पहुएण भाहु धरेप्पिन अज्ज । रामहो णीलावण्णु देमि सहर) रज्जु ।।९॥
[ ] तो फुरम्स-रत्तन्त-लोयणो। कलि कियन्त-कालो ध मीसणो ||| दुष्णिवार पुष्पार-धारणो । सुउ असन्तु जं एम लक्षणो ||२|| मणइ रामु तहलोफ्क-सुन्दरो। 'पइँ विरुखें किं को वि युद्धरो ।।३।। जसु गडन्ति गिरि सिंह पाएंणं । कवणु गहणु पो मरह राणं ।। कवणु चौजु जं दिवि दिवायरे। अमित चन्दें जल-णिबहु सायरे ||१| सोक्नु मोक्खें दय-धम्मु जिणवरे । विसु भुय वर लील गयवरे ।।३।। धणए रिति. खोहग्गु धम्महे। गइ मराले जय-लच्छि मामहे ॥७॥ पउस्सं च पइँ कुविएँ लक्षणे। मणेवि एम करें धरित तक्खणे ॥६॥
धत्ता 'रज्जे किजइ काइँ सायहाँ सच-विणालें । सोलह वरिलइ जाम वि वस? खण वासे' ।।९।।
[२] एह वोल्क जिम्माइय जाहि। दुक्कु माणु अस्थषणहाँ ताहिं ॥१॥ जाइ सम्म आरस पदीसिय। णं गम-घड सिन्दूर-बिसिय ॥२॥ सूर-मंस-हहिरालि चश्चिय । णिसियरि ब्व आणन्दु पणषिय ॥३॥
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तेषीसमी संधि पर सिंह हो, जानेकी तैयारीपर लक्ष्मण उसी प्रकार कुपित हो
ठा-"किसने धरणेन्द्र के फणामणि को तोड़ा, किसने इन्द्रके वनदण्डको अपने बाहुओंसे मोड़ा ? किसने अपनेको प्रलयानलमें डाल दिया ? किसने क्रुद्ध शनिको देखा, कौन रत्नाकरको शोषित कर (दिसो के रेड कलेपित किया है ? किसने महीमण्डलको अपने बाहुओंसे टाला है ? किसने त्रिलोकचक्रको संचालित किया है ? महायुद्ध में काल और कृतान्तको किसने जीता है ? रामके जीवित रहनेपर दूसरा राजा कौन ? अथवा बहुत कहने से क्या ? आज भरतको पकड़कर, रामको अपने हाथसे असामान्य राज्य दूंगा?" ||१-९॥
[८] तब, जिसके फड़कते हुए लाल-लाल नेत्र थे, जो कलिकृतान्त और कालकी तरह भीषण था, ऐसे दुर्निधार लक्ष्मणको दुर्वार महागजकी तरह उक्त बात कहते हुए सुनकर त्रिलोकसुन्दर राम कहते हैं--"क्या तुम्हारे विरुद्ध होनेपर कोई दुर्धर हो सकता है जिसके सिंहनादसे पहाड़ गिर पड़ता है, उस राजाके द्वारा भरतका क्या ? ग्रहण ? यदि सूर्यमें दीप्ति, चन्द्रमामें अमृत, समुद्र में जलसमूह, मोक्षमें सुख, जिनवरमें जीवदया, साँपमें विष और गजबर में लीला, धनदमें ऋद्धि , काममें सौभाग्य, हंसमें गति, विष्णुने लक्ष्मी और क्रुद्ध होने पर तुममें पौरुप है, तो इसमें आश्चर्यकी क्या बात ?" यह कहकर रामने लक्ष्मणका हाथ तत्काल पकड़ दिया। पिताके सत्यका नाश होनेपर राज्यसे क्या करना ? जबतक सोलह वर्ष हैं, हम दोनों घनवास में रहे ? ।।१-५||
[९] रामने जबतक ये शब्द कहे तबतक सूर्य अस्ताचल पर पहुँच गया। सन्ध्या हो गयी, वह इस प्रकार आरक्त दिखाई दी, मानो सिन्दूरसे विभूषित गजघटा हो। सूर्यके मांस और रक्तावलिसे चचित वह निशाचरीके समान आनन्दसे नाच
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पउमचरित
गलिय सम्हा पुणु स्थणि पराइन । जगु गिलेइ णे सुत्त महास्य ॥४|| कहि मि दिन दीवय-सय बोहिय । फणि-मणिव पजलन्त सु-सोहिय ॥५॥ तित्थु काले णिरु णिच दुग्गमें। पीसरन्ति रमणिहें चम्दुग्गमें ॥ ६॥ वासुपग-
नात महत्वा: सह सामि ॥७॥ रण-भर-णिवाहण णिम्वाहण। णिग्गय णीसाहण णीसाहण ॥८॥ विगयपओलि पयोले वि खाइय। सिद्धकूड जिण-भषणु पराइस ||१|| जे पायार-धार-विपफुरियउ । पोस्थासित्थ-गन्ध-विस्थरियउ ।।१०।। गङ्ग-तरह हैं ससमुज्जल । हिमहरि-कुम्द-चन्द-जस-जिम्मलु।।११॥
धत्ता
सहाँ भवणहाँ पासेहि विविह महान्दुम दिद्वा। पं संसार भएग जिणवर-सरणे पहा ॥१२॥
[१ ] तं णि वि भुयणु भुषणेसरहीं। पुशु किउ पणिवाउ जिणेसरहाँ ॥१॥ जम गय-भय राय-रोस-विलय । अय मयण-महण तिहुवण-तिलय ॥२॥ जब रखम-दम-तव-वय-णियम करण । जय कलि-मल-कोह-कराय-हरण 1॥३॥ जय काम-कोह-अरि-दष्प-दलण। जय जाइ-जरा-मरणत्ति-हरण ॥३॥ जय जय तम-सूर तिलोय-हिय । जय मण-विचिन्त-अक्षणे सहिय ॥५॥ जय धम्म-महारह-वी दिन । जय सिद्धि-धरमण-रपण-पिय ॥६॥ जय संजम-गिरि-सिहगमिय। जय इन्द-णरिन्द-चन्द-णमिय ॥७॥
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तेवीसमो संधि
उठी। सन्ध्या ढल गयी फिर रात्रि आयी, मानो वह सोते हुए महान् विश्वको निगलती है। कहीं वह सैकड़ों दीपोंसे प्रबोधित ( आलोकित ) नागमणिकी तरह प्रज्वलित होती हुई शोभित है। उस अत्यन्त दुर्गमकालमें रात्रि में चन्द्रमाका उदय होनेपर वे चल पड़ते हैं । महाबली वासुदेव और बलदेव ( दोनों ) समानधर्मा, साधर्मी जनके प्रति वात्सल्यभाव रखनेवाले, युद्धभारका निर्वाह करनेवाले स्वयं वानरहित, साधन और प्रसाधनसे शून्य निकल पड़े। जिससे प्रतोलि निकल चुकी है, ऐसी खाईको पारकर वे उस सिद्धकूट जिनभवनमें पहुँचे कि जो प्राकारों और द्वारोंसे विस्फुरित था, जो पोथियों, शास्त्रग्रन्थोंसे भरा हुआ था । गंगाकी लहरोंके समान रंगमें सफेद था, हिमगिरि कुन्द, चन्द्र और यशके समान निर्मल था। उस सिद्धकूट भवनके चारों ओर अनेक प्रकार के महावृक्ष दिखाई दिये, मानो वे संसारके भयसे जिनवरकी शरण में चले गये थे ॥१-१२ ।।
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४१
[१०] भवनेश्वर के उस भवनको देखकर उन्होंने जिनवरको पुनः प्रणाम किया, "रागद्वेष (क्रोध) का नाश करनेवाले आपकी जय हो । हे कामका नाश करनेवाले त्रिभुवनश्रेष्ठ, आपकी जय हो । क्षमा, दम, तप, व्रत और नियमका पालन करनेवाले, आपकी जय हो । पापके मल, क्रोध और कषायका हरण करने वाले, आपकी जय हो । काम, क्रोधरूपी शत्रुओंका दलन करनेवाले, आपकी जय हो । जन्म, जरा और मृत्युको पीड़ाका हरण करनेवाले, आपकी जय हो। हे तपवीर और विश्वहित, आपकी जय हो; हे मनकी विचित्र करुणासे सहित, आपकी जय हो। हे धर्मरूपी महारथकी पीठपर स्थित, आपकी जय हो । सिद्धिरूपी वरांगनाके लिए अत्यन्त प्रिय, आपकी जय हो । संग्रमरूपी गिरिशिखर से उगनेवाले, आपकी जय हो । इन्द्र,
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१२
पउमचरित
जय सत्र-महाभय-हय-दमण | जय जिण-रवि णाणम्वरनामण ॥८॥ जम दुक्किय कम्म-कुमुय-दहण। जय चड-गइ-स्यणि-तिमिर-महण ।।१।। अय इन्दिय-दुरम-दणु-दहण । जय जक्ख-महोरा-धुय-खलण ॥१०॥ जय केवल-किरणुजोय-कर। जय-भचिय-सचिन्दाणन्दयर ॥११॥ अब जय भुचणेक्क-चक्क-भमिय। अय-मोक्ख-महोहरें अस्थमय ॥१२॥
घत्ता मार्वे तिहि मि जहि पदण कविं जिणेसहाँ । पयहिण देषि तिवार पुणु चलियई वण-वासहीं ॥१३॥
[ 1] स्यणि माझे पथइ सहव । ताम णियविदउ परमु महाहबु ॥ १॥ कुछ विन्दइँ पुलय-चिसह. । मिहुण, वलइँ जेम अम्भिह है ॥२॥ 'वलु वलु' एकमेक कोकन्त। 'मरु मरु पहरु पहरु' जम्पन्तह् ॥३॥ सर हुकार साल मेन्लन्तहै। गरुभ-पहारह उरु उडन्त ि॥१६॥ खणे ओवडियई अहर इसन्सई। खणे किलिविण्डि हिण्डि रिसन्नई ।।५॥ खणें वहु वालालुनि करन्तई। खणे णिष्फन्दर सेउ फुसन्त ।।६।। तं पेक्खेपिणु सुरय-महाहा। सीयहें अपणु पजोयइ राहउ ॥७॥ पुणु वि हसम्तइँ केलि करन्तहैं। चलियाँ हट्ट-मग्गु जोयन्त ॥॥
धत्ता
जे वि रमन्ता आसि लक्षण-रामहुँ समि । णाषा सुरथासप्त आवण थिय मुह उवि ।।९।।
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तेवीसमो संधि नरेन्द्र और चन्द्र के द्वारा प्रणम्य, आपकी जय हो । सात महाभयोरूपी अश्चोंका दमन करनेवाले, आपकी जय हो । ज्ञानरूपी आकाशमें विहार करनेवाले हे जिन-सूर्य, आपकी जय हो; पापफर्मरूपी दौको असारेवाले, अपड़ी जय हो । चतुर्गतिरूपी रात्रिके तमका नाश करनेवाले, आपकी जय हो । इन्द्रियरूपी दुर्दम दानवका दलन करनेवाले, आपकी जय हो । यक्षों
और नागोंके द्वारा स्तुत धरण, आपकी जय हो । केवलज्ञानरूपी किरणको आलोकित करनेवाले, आपकी जय हो । भव्यरूपी अरविन्दोंको आनन्द देनेवाले, आपकी जय हो । विश्वमें एकमात्र धर्मचक्रका प्रवर्तन करनेवाले, आपकी जय हो। मोक्षरूपी पर्वतपर अस्त होनेवाले, आपकी जय हो।" इस प्रकार भावपूर्वक जिनेशकी वन्दना कर और तीन प्रकार प्रदक्षिणा देकर फिर वे तीनों वनके लिए चल दिये ॥१-१३||.. ....
[११] जैसे ही राघव रात्रिके मध्य में चलते हैं, धैसे ही, उन्होंने परम महायुद्ध देखा। क्रुद्ध विद्ध और पुलक विशिष्ट मिथुन, सैन्यकी तरह भिड़ जाते हैं। एक दूसरेसे, मुडो मुड़ो, कहते हुए; मर मर, प्रहार कर, प्रहार कर यह बोलते हुए, सर (तीर और स्वर ) हुंकार सार ( हुंकारकी ध्वनि, सुरतिकी ध्वनि ) करते हुए, भारी प्रहारोंसे उरको पीटते हुए, क्षणमें गिरते हुए, अधर काटते हुए, क्षणमें किलकारियों और परिभ्रमण प्रदर्शित करते हुए, भाणमें प्रचुर केश खींचते हुए, क्षणमें निष्पन्द होकर पसीना पोछते हुए । ऐसा वह सुरति महायुद्ध देखकर राम सीताके मुखकी ओर देखते हैं। फिर हँसते हुए,
और कीड़ा करते हुए बाजार-मार्ग देखते हुए वे चले। जो भी उस समय रमण कर रहे थे, सुरतिमें आसक्त वे (मिथुन) राम और लक्ष्मणकी आशंका कर अपना मुंह ढककर स्थित हो गये ।।१-५॥
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पउमचरित
[१२] उजरहे दाहिण-दिसएँ विणिग्गय । णा णिरक्स मत्त महा-ाय ॥१॥ ण सहइ परि वल-लक्षण-मुकी। मुक कु-गारि व पेसण चुकी ॥२॥ पुष्णु थीवन्तर विश्थय-णामहो। तरुवर मिय सुमित्र व रामों ॥३॥ उटिम लिन माल का
निग महल पहल ।।३।। अद्ध-कोसु संपाइय जाहिं। विमल विहाणु चादिसुतावेहिं ।।५।। णिसि-णिसियरिएँ भासि जंगिलियड । णाई पडीघड जड उग्गिलियट ॥६॥ रेहइ सूर-विम्वु उग्गन्सउ । णापइ सुकह-कवु पह-बन्सउ ॥७॥ पच्छाएँ साहणु ताम पधाइट । बहु हलहेइह पासु पराइल ॥८॥ .
घत्ता सीय-सलकरपणु रामु पणमिउ गरवर-विन्देहि । णं बन्दिउ अहिलेएं जिणु वत्तीसहि इन्दं हि ॥९॥
[१३] हेसन्त-तुरङ्गम-वाहणेण । परियरिउ रामु णिय-साहणेण ॥३॥ णं दिस-गउ लोल' पयाँ देन्तु । तं देसु पराइड पारियसु ॥२॥ अण्णु वि धोवन्तरु जाइ जाम । गम्मीर महाणह दिट्ट ताम |॥३॥ परिहन्छ-मरछ-पुछुपछलन्ति । फेणावलि-तोय-तुसार दैन्ति ॥३।। कारपड-दिम्भ-म्भिय-सरोह। घर-कमल-करम्बिय-जलपओह ।।५।। हंसावलि-पक्रष-समुहसन्ति । कालोल-छोल-आचत्त दिन्ति ||६|| सोहइ बहु-वणगय-जूह-सहिय। सिण्डीर-पिण्ड दरिसन्ति अहिय ॥७॥ उच्छलइ थलइ पडिखलइ धाइँ । मल्हन्ति महागय-लीलगाई ।।८।।
घत्ता ओहस्मयर-उन सा सरि भयण-कडक्खिय । दुत्तर-दुष्पइसार णं दुग्गइ दुप्पेक्षिय ।।१।।
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तेवीसमो संधि
१५
[१२] वे अयोध्याकी दायीं दिशाकी ओर इस प्रकार निकल गये, मानो निरंकुश मतवाले महागज हो। राम और लक्ष्मणके द्वारा मुक्त वह नगरी शोभा नहीं देती, वैसे ही, जैसे आज्ञासे चूकी हुई कुनारी। फिर थोड़ी दूरपर प्रसिद्धनाम रामके लिए अच्छे अनचरोकी तरह तमन्नरोंने नमस्कार किया। कोलाहल करते हुए पक्षी उठे मानो बन्दीजन मंगलपाठ पढ़ रहे हो। जबतक वे आधा कोस तक पहुँचे कि तबतक चारों
ओर निर्मल प्रभात हो गया। निशारूपी निशाचरीके द्वारा जो निगल लिया गया था मानो वह जन पुनः उसके द्वारा उगल दिया गया । उगता हुआ सूर्यबिम्ब इस प्रकार शोभा देता है, कि जैसे प्रभासे युक्त सुकविका काव्य हो। पीछे सैन्य उनके पीछे दौड़ा और शीघ्र ही रामके निकट पहुँच गया। नरश्रेष्ठोंने सीता और लक्ष्मण सहित रामको इस प्रकार प्रणाम किया मानो बत्तीसों इन्द्रोंके द्वारा जिनयरको प्रणाम किया गया हो ।।१-९॥ . [१३ ] जिसका अश्ववाहन हिनहिना रहा है, ऐसे अपने सैन्यसे घिरे हुए राम मानो दिग्गजकी तरह लीलापूर्वक पैर रखते हुए उस पारियात्र देश पहुँचे । और भी जैसे वह थोड़ी दूर जाते हैं कि वैसे ही उन्हें गम्भीर महानदी दिखाई दी, वेगशील मत्स्योंकी पूछोंसे उछलती हुई, फेनाबलिके जलकणोंको देती हुई, हंस-शिशुओंके द्वारा काटे गये कमलोंसे युक्त, वरकमलोंसे व्याप्त जलसमूहवाली हंसावलीके पंखोंसे समुल्लसित, लहरसमूहके आवोंको देती हुई, वनगजोंके समूहसे सहित तथा प्रचुर फेन-समूहको दिखाती हुई वह शोभित होती है, उछलती है, मुड़ती है, प्रतिस्खलित होती है, दौड़ती है और महागजकी लीलासे प्रसन्नतापूर्वक चलती हैं। उलटे हुए मगरोंसे भयंकर नेत्रोंसे कटाक्ष करती हुई ऐसी दिखाई दी मानो अत्यन्त कठिन प्रवेशवाली दुदर्शनीय दुर्गति हो ॥१-९||
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पचमचरित
[ 18 ]
सरि गम्भीर नियच्छिय जावहिं । 'तुम्हहिँ प्रवाह आणवडिच्छा । उ सुपिणु दाहिणएसहौं । एम मणेपिशु समर - समस्या | पसरति सहिँ सलिलें मयकरें । सिय अरविन्दह उप्पर परवइ । ओड करावर गयहाँ ।
सयलुवि सेण्णु नियसिड तायें हिं ॥ १७ भरदाँ भिद्ध होह दिपइच्छा ॥२॥ अम्हें हिं जाएव वर्ण-वासह ॥३॥ सायर- बज्जावत्त-विहृस्था ||४|| रामहौं चर्दिय सोय वामऍ करें ॥ ५ ॥ गाव नियय किति दरिसाय ॥६॥ पाई पदासह वण दहनचाहीं ॥७॥
खडु
जलवाहिणि- पुलिणु पत्रष्णउँ । णं भविय हूँ पश्यहाँ उतिपणई ॥ ८ ॥
४६
घत
बलिय पढीचा जोह जे पहु-पछले लग्गा | कु-मुणि कु-बुद्धि कु-सील में पजड़ें मरगा ॥९॥
[ 14 ]
नाव सिद्धि कु-सिद्ध ण पत्ता ॥१॥ खखणें 'हा हा राम' मणन्ता ॥२॥ लोड करेचि के चि पञ्चइया ॥३॥ के विविकाल जोइ वय- धारिष ॥४॥ गम्पिणु तहिँ हरिसेण जिणालऍं ॥ ५ ॥ सळ - कठोर वर- मेदु महीहर ॥ ३ ॥ धीर- सुवीर सच्चे - पियवण ॥७॥ विडल विसाल - रणुम्मिय उत्तम ॥८॥
बोलावेव राय नियता । वलिय के विणीसासु मुअन्ता ! केवि महन्ते दुक्खे लइया । के दितिमुण्डधारि वमारिय के वि पवण-धुय-धवल-विसालऍ । श्रिय पर लपविणु णरवर । विजय- वियद्ध-विओय-विमरण | पुनम पुण्डरीय- पुरिसुत्तम ।
धत्ता
इय एक्क्क पहाण जिणवर-चलण मंषि । संजम - शिवम-गुणेहिं अप्पड थिय स हूँ भू
सेंवि
॥९॥
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तेयीसमो संधि
[१४] जैसे ही उन्होंने गम्भीर नदीको देखा, वैसे ही समूची सेनाको उन्होंने लौटा दिया "कि आप लोग इस समय आज्ञाकी प्रतीक्षा करनेवाले भरतके हृदयसे चाहनेवाले अनुचर होना | अयोध्याको छोड़कर हम लोग दक्षिण देश और बनवासके लिए जायंगे।” यह कहकर सागरावर्त और वसावर्त धनुष हाथमें लिये हुए समरमें समर्थ वे लोग उसके भयंकर जलमें प्रवेश करते हैं, सीता रामके बायें हाथपर चढ़ जाती है मानो कमलोपर शोभा बैठ गयी हो, मानो वह अपनी कीर्ति दिखा रही हो, मानो आकाशको आलोकित करवाती है, मानो रावण के लिए अपनी कन्या दिखाई जा रही हो। शीघ्र ही वे नदीके तटपर ( उस पार ) पहुँच गये, मानो भव्य ही नरकसे उत्तीण हो गये हों। जो सैनिक पीछे लगे थे वे वापस लौट गये, मानो कुबुद्धि, कुमुनि और कुशील व्यक्ति संन्याससे भाग खड़े हुए हो ॥१-९||
[१५] रामका व्यतिक्रम कर राजा इस प्रकार लौट आये, जैसे कुसिद्धोंको सिद्धि प्राप्त न हुई हो। कोई निश्वास छोड़ते हुए लौटे, पल-पलमें, "हा राम, हा राम", यह कहते हुए । कोई महान् दुःखसे भर उठे । कोई केशलोंच करके प्रबजित हो गये। कोई त्रिपुण्ड धारण कर संन्यासी बन गये। कोई व्रतधारण करनेवाले त्रिकालयोगी बन गये | कोई नरवर हवासे प्रकम्पित्त धवल और विशाल हरिषेण-जिनालयमें जाकर संन्यास लेकर स्थित हो गये । शठ, कठोर, वरमेदु, महीधर, विजय, विदग्ध, विनोद, विमर्दन, धीर, सुवीर, सत्य, प्रिय, वर्धन, पुंगम और पुरुषोत्तम, जो विपुल विशाल रणमें उन्मद् और उत्तम थे । यहाँ एक-से-एक प्रधान जिनपरके चरणोंको नमस्कार कर संयम, नियम और गुणोंसे अपनेको विभूषित कर स्थित हो गये ॥१-२।।
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४८
परमचरिड
[ २४, पउवीसमो संधि ]
गएँ वण-वासह) रामें उअन ण चिसहाँ भावइ । थिय णीसास मुअन्ति महि लम्हाल' णावह ॥
[ ] सयल वि जणु उम्माहिज्जन्तर । खाणु वि ण थक्करणामु लयन्त ॥१॥ उन्वेल्लिज्जइ गिजइ लावणु। सुम-जन्म २१३. || : सुह-सिद्धमत-पुराणे हि लक्षणु । श्रीशारेण पविजइ लक्षणु ॥३॥ अण्णु विजं जं किं वि स-सम्खणु | लक्खण-णामें घुबा लक्षणु ॥४॥ का नि जारि सारङ्गि व दुष्पणी। वही चाह मुएवि परुण्णी ॥५॥ का वि पारि जलेह पसाहणु। सं उल्हावा जाण लक्षणु ॥६॥ का वि णारि जं परिहइ कशु। धरइ सु गाउउ जाण लक्षणु ॥७॥ का चि गारि जं जोयइ दप्पणु । अपणु पण पंक्षह मेलचि लक्षाशु ॥८॥ तो एरथग्स, पाणिय-हारिन । पुरे बोल्लन्ति परोप्परु णारित ॥५॥ 'सो पल्लनु तं जें उचहापर। सेज वि सज्जे तं जे पच्छाणउ ॥१०॥
घत्ता सं घर स्यण दाइ तं चित्तयम्मु स-लक्खणु । णपर ण दीसइ माएँ राम ससीय-सलक्खणु ॥१५॥
[२] साम पटु पहह डिपहय पशु-पक्षणे । णा. सुर-दुन्दुही दिण्ण गयणगे ॥१॥ रसिय सय सङ्ख जायं महा-गोग्दलं । टिविल-टपटन्त-धुम्मन्त-वरमन्दलं ॥२।। साल-कंसाल-कोलाहलं काहलं। गीय संगीय गिजन्त-दर-माले ॥३॥
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14
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asaiसमो संधि
चौबीसवीं सन्धि
रामके वनवासके लिए चले जानेपर अयोध्या चित्तको अच्छी नहीं लगती । चरों, उष्ण कालकी भाँति निश्वास देती हुई स्थित थी ।
[१] समस्त जन उत्पीड़ित होता हुआ नाम लेते हुए एक ऋण भी नहीं थकता । लक्खण ( लक्ष्मण ) को उछाला जाता, गाया जाता, मृदंग वाद्य में बजाया जाता, श्रुति सिद्धान्त और पुराणोंके द्वारा, तथा ओंकारके द्वारा लक्ष्मणको पढ़ा जाता । और भी जो-जो सलक्खण ( सलक्ष्मण ) है उसे लक्ष्मणके नामसे लक्षण कहा जाता है। कोई नारी हरिणीकी तरह दुःखी हो गयी, और भारी धाड़ छोड़कर रो पड़ी। कोई नारी जो प्रसाधन पहनती हैं वह उसे शान्ति देता है, वह समझती हैं कि वह लक्ष्मण है, कोई नारी जो कंगन पहनती है उसे प्रगाढ़ता से धारण करती हैं, वह समझती है कि वह लक्ष्मण है । कोई नारी जो दर्पण देखती है उसमें वह, लक्ष्मणको छोड़कर कुछ और नहीं देखती । तब इसी बीच पनिहारिमें भी नगर में आपस मैं यही कहती हैं कि बड़ी पलंग, वही तकिया, सेज भी वही है, वहीं प्रच्छादन ( चादर ) है, वहीं घर, वे ही रत्न, और लक्षण सहित बही चित्र कर्म । हे माँ, फेवल लक्ष्मण सहित राम दिखाई नहीं देते ||१-२॥
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[ २ ] इतनेमें राजा के आँगन में पटु, पट और डडि (?) वाद्य इस प्रकार आहत हो उठे जैसे आकाशके प्रांगण में देवदुन्दु भियाँ बजा दी गयी हों। सैकड़ों शंख बजा दिये गये, महा कोलाहल होने लगा । दिविल टनटनाने लगे और श्रेष्ठ मृदंग घूमने लगे । ताल और कंसालका कोलाहल होने लगा, काहल बज उठा, जिनमें उत्तम मंगल गाये जा रहे हैं, ऐसे गीत गाये
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पउमचरित
उमर-तिरिडिकिया सम्लरी-रउरवं । भम्म-मम्मीस गम्भीर-भेरी-रवं ॥३॥ घण्ट-जयघण्ट-संघट-कारखं । घोल-उल्लोल-हलबोल-मुहलारवं ॥५॥ सेण सदेण रोम-कद्धआ। गोन्दलुशाम-बहु-बदल-अचम्भुआ ॥६॥ सुहन-संघाप सच्चा य थिय पाजे । मेर-सिहरसुणं अमर जिण-जम्मणे ॥७॥ पणइ-फम्फाव-गड-छत्त-का वन्दणं । 'णन्द जय मजय जयहि'चर सणं॥८॥
घता लषरषण-रामहुँ वप्पु णिय-
भिहिँ परियरियउ । जिण-अहिले यहाँ कज्जें णं सुखाइ णीसरियड ॥९॥
[३] जंणीसरिउ राड आणन्दे । वुत्तु गवेप्पिणु भरह-गरिन्दे ॥१॥ 'हर मि देष पई सहुँ पग्वजमि । दुग्गइ-गामिउ रनु ण भुमि ॥२॥ रज्जु असारु वारु संसारहीं। रज सणेण गेइ तम्बारहों ॥३॥ रज्जु भयङ्करु इह-पर-लोयहाँ। रजें गम्मद णिच्च-णिगोयहाँ ॥४॥ रखने होउ होउ मटु सरियड । सुन्दर तो किं पइ परिहरियउ ॥५॥ रज्जु अज्जु कहिउ मुणि-छेयहि । दुट-फलतु व भुसु अणेयहिं ॥६॥ दोसवन्तु मयलन्छण-विम्थु य । यहु-दुक्खाउरु दुग्ग-कुडुम्छु व ॥७॥ तो नि जीउ पुणु रवहाँ कङ्कइ। अणुदिणु भाउ गलम्तु ण लक्खा ॥८॥
पत्ता जिह मछुपिन्दुहें कज्जे करछु ण पेपरखइ कक्करु । सिह जिउ चिसयासन रजें गउ सय-सकर' ॥९॥
[४] 'मज वि तुञ्च का तब-बाएं ॥१॥
भाहु चवन्तु णिचारिउ राएं।
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पउवीसमो संधि जाने लगे। उमरू, तिरिडिक्किया और झल्लरीसे भयंकर, मम्म-मम्मीस और गम्भीर भेरीका शब्द होने लगा। घण्टा और जयघण्टोंके संघर्षणसे दंकारध्वनि होने लगी। घूमते हुए शत्रुओंके कोलाहलसे मुखर शब्द होने लगे। उस शब्दसे, रोमांचरूपी कंचुकसे उद्धत, कोलाहलसे उत्कट, और अत्यन्त आश्चर्यचकित सभी सुभटसमूह प्रांगणमें स्थित हो गये, मानो जिनपरके जन्मके समय मेरु शिखरोंपर देवता इकट्ठे हो गये। प्रणत चारण, नट, छत्रकवि और बन्दीजनोंका-"बढ़ो, जय हो, हे भद्र जय हो, जय हो" शब्द होने लगा। लक्ष्मण और रामके पिता अपने अनुयापि साप घर हुए इस प्रकार निकले मानो जिनका अभिषेक करनेके लिए सुरपति ( इन्द्र) निकला हो ॥१-२||
[३] जब राजा दशरथ आनन्दसे निकला तो भरत राजाने प्रणाम कर कहा, "हे देव, मैं भी आपके साथ संन्यास ग्रहण करूंगा। मैं दुर्गतिगामी राज्यका भोग नहीं करूँगा। राज्य असार और संसारका द्वार है। राज्य एक क्षण में विनाशको प्राप्त होता है। राज्य इस लोक और परलोकमें भयंकर होता है, राज्यसे मनुष्य नित्य निगोदमें जाता है। राज्य रहे । यदि राज्य मधु सदृश सुन्दर होता है, तो आपने उसका त्याग क्यों किया? मुनिसमूहने राज्यको अकाज कहा है जिसका दुष्ट स्त्रीकी तरह अनेक लोगोंने उपभोग किया है। राज्य चन्द्रविम्बकी तरह दोषवाला है। दरिद्रकुटुम्बकी तरह अनेक दुःखोंसे व्याकुल है। तब भी जीव राज्यकी आकांक्षा करता है, प्रतिदिन गलती हुई आयुको नहीं देखता। जिस प्रकार मधुबिन्दु के लिए करभ कठोर नहीं देखता, उसी प्रकार विषयासक्त जीव राज्यके द्वारा सैकड़ों टुकड़ोंको प्राप्त होता है” ॥१-२||
[४] भरतको इस प्रकार कहते हुए राजा दशरथने मना
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परमचरित
आज वि रजु करहि सुहु भुजहि । अज वि विसप-सुक्सु अणुहुअाहि ॥२॥ अज वि तुहुँ तम्बोलु समागहि। आज वि वर-उजाण माणहि ॥३॥ अनु नि अज स-इच्छाएँ मण्डहि । अझ वि वर-विलयउ अबरुण्डहि ॥४॥ आज वि जोग्गल सच्चाहरणहों। अन वि कवणु कालु तव-घरणही ॥५॥ जिण-पवन होइ अइ-दुसहिय । के वाषीस परीसह विसहिय ॥६॥ के जिय बज-कसाय-रिउ दुञ्जय। के आयामिय पञ्च महब्धय ॥७॥ के किउ पञ्चहुँ घिसयहुँ णिग्गहु । के परिसेसिउ सय परिग्गहु ॥८॥ को दुम-मूले वसिड रिसालएँ। को एको घिउ सीयालएँ ॥९॥ के उण्हाल' किंत अत्ताषणु। उ तव-धरणु होइ मीसावणु ॥१०॥
घना भरह म वहिउ-छोल्लि तुई सो अज वि पाल । मुजाहि विसय-सुहाई को पम्बजहँ कालु ॥११॥
तं णिसुणेवि मरहु आष्टुउ। मत्त-गइन्दु प चित्तै बुट्टउ ॥१॥ विरुयउ ताव वणु पर वुत्ता। किं वालहों तब-चरणु ण जुत्तड ॥२॥ किं घालत्तणु सुहे हि ण मुबइ। किं वालहाँ दय-धम्मु ण रुच ॥३॥ किं चाकहाँ पन्चन म होओ। किं वालहों दूलिउ पर-लोओ ॥४॥ कि बालहों सम्मसु म होओ। किं वालहों णव इट-विओओ ||4 सिं वालहाँ जस्मरणु ण दुका। किं वालहौजमु दिवसु वि चुक्कइ॥६॥ तं णिसुणेवि भरहु पिलमरिछन। 'सो किं पहिला पटु परिधिछ ॥७॥ एवहिं सबलु वि रज्जु करेवः । पच्छले पुणु तक-चरणु परेवड' ॥८॥
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चउबीसमो संधि
५३ किया और कहा, " मी तुम्हे तो बातसे क्या ? तुम आज भी राज्य करो और सुख भोगी। आज भी तुम ताम्बूलका सम्मान करो। आज भी वर उद्यानोंको मानो। आज भी अपनी इच्छानुसार शरीरका अलंकरण करो, आज भी तुम वनिताओंका आलिंगन करो, आज भी तुम समस्त आभरणोंके योग्य हो । आज भी तुम्हारा तपका क्या समय है ? जिनप्रत्रज्या अत्यन्त असहनीय होती है। बाईस परीषहोंको सहन किसने किया? अजेय चार कषायरूपी शत्रुओंको किसने जीता ? किसने पाँच महाव्रतोंका पालन किया? पाँच विषयोंका निग्रह किसने किया ? किसने समस्त परिग्रहोंका त्याग किया ? वर्षाकालके समय वृक्ष के नीचे कौन रहा? शीतकालमें अकेला कौन रहा ? उष्णकालमें आतापन तप किसने तपा? यह तपश्चरण अत्यन्त भीषण होता है। हे भरत, तुम बढ़-चढ़कर बात मत करो; तुम अभी बालक हो। विपयसुखोंका भोग करो। यह प्रव्रज्याका कौन-सा समय है ? विषयसुखोंका भोग करो । यह संन्यासका कौन-सा समय है ?" ॥१-११॥
[५] यह सुनकर भरत क्रुद्ध हो उठा। मत्त हाथीकी तरह अपने मनमें क्षुब्ध हो गया । वह बोला, "हे पिता, आपने अनुचित बात कही । क्या बालकके लिए तपश्चरण उपयुक्त नहीं है, क्या बचपन मुखोंसे मुक्त नहीं होता? क्या बालकको दद्याधर्म अच्छा नहीं लगता? क्या बालकको प्रश्नध्या नहीं होती ? बालकका परलोक दूषित क्यों किया? क्या बालकको सम्यक्त्व नहीं होता, क्या बालकको इष्टवियोग नहीं होता? क्या बालकको जन्म और मृत्य नहीं होते ? क्या बालकको यम एक भी दिन छोड़ता है ?" यह सुनकर उसने भरतको डाँदा कि "पहले तुमने राज्यपट्टकी इच्छा क्यों की? इस समय तुम समस्त राज्य करो ? बादमें तुम तपश्चरण करना।" यह
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पउमपरित
छत्ता एम मणेपिणु राउ सकु समप् वि मजहें। भरहहाँ बन्धेचि पटु दसरहु गड पवजहें ॥५॥
सुरषर-वन्दिएँ धवल-विसालएँ । गम्पिणु सिद्ध चइतालएँ ॥१॥ दसरह थिउ पञ्चज लपप्पिणु । पत्र मुहि सिर लोग कोप्पिणु ॥२॥ तेण समाणु सहें लइयर' । चालीसोसर सउ पध्वाहपट ॥३॥ कष्ठा-कदय-मउड अधयारचि । दुचर पत्र महब्वय धार वि | थिय णीसा पाग ण षिसहर। अहवह समय-वाल णं विसहर ॥५॥ णं केसरि मय-मासाहारिय। णं परवार-गमण परदारिय ॥६॥ केण वि कहिउ ताम मरहेसह)। गय सोमिक्सि-राम वण-घासही ॥ तं णिसुणेचि वयण ध्रुय-वाहर । पडिड महीहरो ब्च घनाइउ ॥८॥
घत्ता
जं मुच्छाविड राउ अयल वि जणु मुह-कायरू । पलथापाल-संतत्तु रस वि लम्गुणं सायरु ॥९॥
चन्दणेण पवालिजन्तउ। चमलखेवे हि विजिजन्तर ॥१॥ दुषाव दुक्खु आसासिङ राणउ । जरद-मियख व घिउ विषय ||२|| अधिरल-अंसु-मलोल्लिय-णयणड । एम पजम्पिउ गग्गर-वत्रणउ ॥३॥ गिवडिय अशु असणि आयासहौं। अञ्ज अममलु सरह-वंसहो || अज्जु जाउ ह सूडिय-पक्खउ । दुह-मागणु पर-मुहहँ उधेवरसड ।।५।। अज्जु णयरु सिय-सम्पय-मेलिउ । अजु रज्जु पर-चक्के पेल्लिड ॥६॥ एम पलाउ' करवि सहग्गएँ । राहय-मणणिहें गड ओलग्गएँ ॥७॥ केस-विसण्ठल दिट्ट रुअन्ती। अंसु-पवाह बाद मेमन्ती 110
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घडवीलम संधि कहकर राजा दशरथ अपनी पत्नीके लिए सत्य देकर और भरतको पट्ट बाँधकर प्रवज्या के लिए कूच कर गये ॥१-९||
[६] सुरबरों द्वारा वन्दनीय धवलविशाल सिद्धकूट चैत्यालयमें जाकर दशरथ संन्यास लेकर स्थित हो गये, पाँच मुट्ठी सिरसे केश लोंचकर | उनके स्नेहके कारण उनके साथ एक सौ चालीस लोग प्रबजित हुए | कण्ठा, कदक और मुकुटको उतारकर, कठोर पाँच महाव्रतोंको धारग कर वे अनासंग स्थित हो गये, मानो विषधर (धर्म | विष धारण करनेवाले ) नाग हों, मानो गयमासाहारिय ( गजासका' आहार करनेवाले। एक माह में आहार करनेवाले ) छों, मानो परदारिक हैं जो परदारगमण ( परस्त्री मुक्तिरूपी वचका गमन करनेवाले ) हैं। तब किसीने भरतेश्वरसे कहा कि राम और लक्ष्मण वनवासके लिए गये हुए हैं । यह वचन सुनकर जिसकी बाँह कम्पित हैं, ऐसा भरत वनाहत पर्वतकी तरह गिर पड़ा। जब राजा मूलित हो गया तो मुखसे कातर सभी लोग प्रलयकी ज्वालासे सन्तप्त होकर चिल्लाने स्टगे मानो समुद्र गरज रहा हो ॥१-९॥
[७] चन्दनसे लेप किये जाने और चमरोंके उत्प्रक्षेपणसे हवा किये जानेपर राजा भरत बड़ी कठिनाईसे आश्वस्त हुए। चूढ़े चन्द्रकी तरह वह एकदम म्लान हो गये । अविरल
आँसुओंके जलसे आद्रेनयन और गद्गद वचन वह इस प्रकार बोले-"आज आकाशके ऊपर वन निकल पड़ा। आज झारथवंझाका अमंगल है। जिसका पक्ष नष्ट हो गया है ऐसा मैं आज दुःखभाजन और दूसरों के मुखकी अपेक्षा करनेवाला हो गया हूँ। आज नगर थी और सम्पत्तिसे रहित हैं, आज राज्य शत्रुचक्रके द्वारा पीड़ित है। सभा के सामने, इस प्रकार प्रलापकर, भरत रामकी माताकी सेवामें गया। जिसके केश अस्त-व्यस्त हैं, ऐसी उसे रोते हुए और अथुप्रवाह तथा दहाड़ छोड़ते
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५६
पउमचरिउ
धत्ता
धीरिय मरह गरिन्दे होउ मा
रखें ।
मडु
आगमि लक्षण - राम सेव हि काइ अकज्जै ॥ ९ ॥
[.]
एम भणेषि मरहु संचाले ।
जय-पह पवजिङ ।
तुरिं गवेसह स्थलि ॥१॥ चन्दुगमें उहि पराजित || २ || जीव हो कम्सु जेम अलग्गड ||३|| सोय स-लक्षणु राहउ जेत हें ||४||
दिष्णु स पहु-मगेण पराहिङ लग्गड । चट्टएँ दिवसें पराइ तेहें । छु छुनु सलिलु पिएषि गिरि चलणेंहिँ पडिङ मरहु तग्गय मणु 'थक देव मं जाहि पवासही । ह सतुहणु
।
।
सरवर तीर लयाहरें दिन हूँ ॥५॥ गाईं जिणिन्दह दससयलीय ॥ ६ ॥ होहि तरण्ड दुसरह - सह ||७|| लक्खणु मन्ति सीय महए कि ॥८॥
भितउ वे बि ।
घत्ता
जिह क्खतेंहिँ चम् इन्दु जेम सुर-लोएं |
विह तुहुँ भुजहि रज्जु परिमिड बन्धव- लोएं || १॥
संवय सुर्णे वि दसरह सुएण | सउ माया-पिथ-परम-दासु । अवरोप्यरु ए भालाब जाम । लक्खिज्जइ मरड़ों तणिय माय ।
लिलय विहूसिय बच्छराइ । गं भरहों सम्पय- रिद्धि-विद्धि ।
मरहों सुन्दर सोक्ख-खाणि ।
[
]
अवगृ मरहु इरिखिय- भुएण ||१|| पर मे वि अण्णहाँ चिणड कासु ॥२॥
त्रिइ सय परिथरिय ताम ॥ ॥ ३ ॥ र्ण मय वह मंड भजन्ति आय || ४ || स- पहर अम्बर-सोह पाएँ ||५||
रामों गमों वणिय सिद्धि ॥६॥ णं रामहीँ इट्ठ-कल-दाणि ॥७॥
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चवीसमो संधि
हुए देखा। भरत राजाने धीरज धाया कि हे माँ, मेरा राज्य रहे ? मैं राम और लक्ष्मणको लाता हूँ। तुम व्यर्थ क्यों रोती हो ॥१-९॥
[८] यह कहकर भरत चल दिया। खोज करनेके लिए तुरन्त हाथ ऊँचा कर लिया। शंख बजा दिया गया और विजयका डंका भी मानो चन्द्रमाके उदयापर झपट गरज उहा हो। स्वामी रामके मागेसे राजा भरत उसी प्रकार चला, जैसे जीवके पीछे कर्म लगा हो। छठे दिवस बह वहाँ पहुँचा जहाँ सीता और लक्ष्मण सहित राम थे । शीघ्र ही पानी पीकर निवृत्त हुए सरोवरके किनारे लतागृह में वे उसे दिख गये । उनमें लीन होकर भरत उनके चरणोंपर गिर पड़ा, मानो इन्द्र जिनेन्द्रके चरणोंपर गिर पड़ा हो। ( वह बोला) "हे देव ! टहरिए, प्रवासपर मत जाइए | दशरथवंशकी नौका बनिए। मैं और शत्रुघ्न, दोनों तुम्हारे अनुचर हैं । लक्ष्मण मन्त्री है और सीता महादेवी । जिस प्रकार नक्षत्रोंसे चन्द्रमा, जिस प्रकार सुरलोकसे इन्द्र शोभित होता है उसी प्रकार तुम बन्धुलोकके साथ राज्यका भोग करो” ॥१-२|| __ [९] यह वचन सुनकर दशरथपुत्र रामने अपनी हर्षित भुजाओंसे भरतका आलिंगन कर लिया । तुम माता-पिताके सच्चे दास हो। तुम्हें छोड़कर और किसके पास इतनी विनय है । जबतक दोनों में यह आलाप हो रहा था, तबतक सैकड़ों युवतियोंसे घिरी हुई भरनकी माता इस प्रकार दिखाई दी मानो भटोंको भग्न करती हुई गजघटा आ रही हो, मानो तिलक (तिलक वृक्ष और तिलक ) से विभूषित वृक्षराजी हो, मानो पयोधरों (मेघ और स्तन ) से सहित आकाशकी शोभा हो। मानो भरतकी सम्पत्तिको ऋद्धिवृद्धि हो । मानो रामके गमन ( पनवास ) की सिद्धि हो। मानो भरतकी सुन्दर सुखखान हो।
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पउमचरित
जं मणइ मरा 'मुहूँ आउ आउ। वण-वासही राहउ जाउ जाउ' tell
घत्ता सु-पय सु-सन्धि सु-णाम वयण-वित्ति-विहूसिय । कह वायरणहाँ जेम केकय एग्ति पदीसिय ॥९॥
[१ ] सहुँ सीयएं दसरहणम्दणेटिं। जोकारिय राम-जणणेहि ॥१॥॥ पुणु युवा सीर-चपहरणेण | 'कि आणिउ मरहु अकारण ॥२॥ सुणु माएँ महारउ परम-तच्चु । पालेवउ सायहाँ तणा सक्षु ॥३॥
उ सुरहि गाउ रहवर हि कज्नु । णड सोलह वरिसइँ करमि रजु ॥४॥ अं दिण्णु सच्चु साएं ति-बार! संमइ मि दिण्णु तुम्ह सय-धार' ॥५॥ ऍउ क्यणु भणेपिणु सुह-समिछु । सइँ हाथै भरहहाँ पटु बधु ॥६॥ आउछे वि पर-वल-मय-यटूद्ध । घण-वासही राहउ पुणु पयट्टु ॥७॥ गउ माहु णियसु सु-पुजमाणु। जिण-भवण पसु भिधे हि समाणु ||८||
घन्ता विहुँ मुणि-धवल हुँ पासे भर लड्ड अवग्गहु । 'दिट्टएँ राहवचन्दें महु णिबित्ति हय-रजही' ॥९॥
[११] एम चर्षेवि उच्चलिउ महाइउ । राहव-अणणिहें मवणु पराइउ ॥१॥ विणठ करप्पिा पासु पलुकिउ । 'राममा म, धरै वि ण सकि उ ॥२॥ हउँ तुम्हेवहि आणवडिकड। पेसणयारउ अलग-णियाणव' ॥३॥ धीरवि एम जणणि दणु-दमणहाँ। भरहु णराहिउ गउ णिय मवणही। आणइ हरि हलहरू बिहरन्तइँ। तिणि मि तावस-वाणु संपत्सई ॥५॥
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वडपोसमी संधि मानो रामकी इष्ट-कलन हानि हो । भानो वह कह रही है, "हे भरत ! तुम आओ, और राघव तुम वन जाओ, जाओ। व्याकरणकी कथा कैकेयी आती हुई दिखाई दी। जो सुपद (सु और आदिसे युक्त सुबन्तपद-अच्छे पैर), सुसंन्धि (सन्धिपदौसे सहित-अच्छी तरह गठी हुई ); वचन विभक्ति ( एक-दो आदि वचनों और प्रथमा-द्वितीया आदि विभक्तियोंसे विभूषित-मुखके विभाजनसे विभूषित ) से विभूषित थी ।।१-५||
[१०] सीताके साथ, दशरथपुत्रों-राम और लक्ष्मणने 5 जय-जयकार किया किराने हा --"कारण भरतको लायीं । हे माँ, मेरा परमतत्त्व सुनो। मैं पिताके सत्यका पालन करूँगा । न मुझे घोड़ोंसे काम है, और न रथवरोंसे । मैं सोलह वर्ष राज्य नहीं करूँगा। पिताने जो सत्य तीन बार दिया है, वह मैं तुम्हें सौ बार देता हूँ।" यह कहकर रामने अपने हाथों सुखसे समृद्ध राज्यपट्ट भरतको चाँध दिया । जिनका मार्ग शत्रुसेनासे अवरुद्ध हैं ऐसे राम वनवासके लिए चल दिये | भरत लौटकर आये और अपने अनुचरोंके साथ सुपूज्य जिनमन्दिर पहुँचे। उन दोनों ( भरत और शत्रुघ्न ) ने धवल मुनिवरके पास यह त ले लिया कि रामके देखते ही हम अश्चों और राज्यसे निवृत्ति ले लेगें ॥१-९॥
[११] यह कहकर महाला भरत चला और रामकी भाताके भवनपर पहुँचा । विनय करके वह निकट गया (और बोला)-“हे माँ ! मैं रामको रोक नहीं सका। मैं तुम्हारी आज्ञाकी इच्छा रखता हूँ। मैं तुम्हारा आज्ञाकारी और चरणोंको देखते रहना चाहता हूँ।" इस प्रकार माताको धीरज बंधाकर राक्षसका दमन करनेवाला राजा भरत अपने भवनके लिए गया । जानकी, लक्ष्मण और हलधर तीनो विहार करते हुए तापसवन पहुंचे। वहाँ उन्हें कितने ही जटाधारी तापस दिखाई
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पउमचरित तापस के वि दिव जह-हारिय । कुजण कुमाम जेम जड-दारिय ॥६॥ के वितिदप्ति के वि धाडीसर । कुविय परिन्द जेम पाखीसर ॥७॥ के वि का रुग्स हरया। मे जेम सहधा ॥३॥
वत्ता सहि पइसन्ती सीय लक्षण-राम-विहूसिय । विहिं पाखेहि समाग पुण्णिम प्या पदीसिय ॥९॥
[१२] अण्णु वि थोत्रम्तर विहरन्तई। वणु धाणुक पुणु संपत्तई ॥१॥ हिँ जणवउ मय-मश्थ-णियस्थउ । वरहिण-पिटछ-पसाहिय-हस्थउ ॥२॥ कन्द-मूल-बहु-वणफल-भुञ्जर। सिर-पह-मरल पद गले गुमाउ ॥३॥ जाहिँ जुषहउ छुछु जाय विषाइछ । मयकरि-रय वलयविय-वाहउ ॥४॥ भयकरि-कम्मु करेपिणु उक्खलु । लेवि विसाण-मुसलु अवलुजालु ॥५|| मोतिय-चाउल-एलणोवश्यउ। चुम्बिय-बयणठ मषणभपड ॥६॥ संलेहड वणु मिल्लहुँ केरउ हरि-बलएवं हि किउ विषरेरड ॥७॥
धत्ता तं मैलेंवि वरवाह लोयहिं हरिसिय-देहे हि । छाइय कपषणनाम चन्द्र-सूर जिम मे हि ॥८॥
[३] स-हरि स-मबउ रामु धागुम्छरु। अपणु बि जाम जाइ थोवस्तरु ।। १॥ दिट्ट गोट्ठय पाई सु-चेसई। णं परवड-मन्दिर, सु-चेस ि॥२॥ जुज्झन्सबेकार मुभन्तई। पलिणि-मुणाल-सण्ड तोडमत।३।। कस्थह बच्च-हणई णीसाई। एमइयाई व णिरु गोसाइँ ॥४॥ कस्थइ जणव सिसिरें चचिट। परम-सूह सिरे धरवि पक्षिउ ||५n
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चवीसमो संधि दिये जो कुजन, कुग्राम (खोटे आदमी और गाँवकी तरह ) जड़त्वको धारण करनेवाले (जडहारिय) थे। कोई त्रिदण्डी थे और कोई धाहीस्वर (धाडीसर ) थे, जो कुपित राजाकी तरह, धाडसर (तीर्थ जानेवाले आक्रमणके लिए जोरसे चिल्लानेवाले थे। कोई त्रिशूल हाथमें लिये रुद्र थे, जो महावतकी तरह रुद्रांकुश (त्रिशूल और अंकुश ) लिये हुए थे। लक्ष्मण और रामसे विभूषित सीता देवी वहाँ प्रवेश करती हुई दोनों पक्षोंसे समान पूर्णिमाकी तरह दिखाई दीं ॥१२||
[१२] और भी थोड़ी दूर विहार करनेपर वे धानुष्कोंके वनमें पहुँचे, जो लोग मृगचर्म पहने हुए थे (मय-मत्थणियस्थउ), जिनके हाथ मयूरपंखोंसे प्रसाधित थे, जो कन्दमूल
और तरह-तरह के वनफल खानेवाले थे। जिनके सिरपर वटमाला थी और जो गलेमें गुंजाफल बाँधे हुए थे। जहाँ युवलियोंका शीघ्र विवाद हो जाता है उनकी बाँहें हाथी दाँतके वलयोंसे अंकित थीं। जो हाथियोंके मस्तकको असल बनाकर तथा धवलोज्ज्वल हाथीदाँतका मूसल लेकर मोतियोंके चावल कूटनेवाली थीं। कामसे विह्वल, जिनके मुख धुम्चित हैं। भीलोंके उस वनको राममे उलट-पुलट दिया ( बदल दिया)। अपने घरबारको छोड़कर, हर्षित शरीरवाले उन लोगोंने राम
और लक्ष्मणको उसी प्रकार आच्छादित कर लिया, जिस प्रकार मेघोंके द्वारा सूर्य-चन्द्र आच्छादित कर लिये जाते हैं ॥१-८॥
[१३] लक्ष्मण और पत्नी सीता सहित धनुर्धारी राम जैसे ही थोड़ी दूर जाते हैं तो उन्हें रूपवाले गोठ दिखाई दिये । कहींपर ढेक्का ध्वनि करते हुए कमलिनियोंके मृणाल दण्डोंके समूहको तोड़ते हुए बिना सींगोंके बछड़े थे, जो अत्यन्त प्रत्रजितों (संन्यासियोंके समान ) णीसंग (सींगोंसे रहित परिग्रहसे रहित) थे। कहींपर शिशिरकाल (फागुन) में जनपद इस प्रकार
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સ
पउमचरिय
कथमन्था सन्धिय-मन्थणि । कथ पारि-नियम् सुहासिउ । करथइ डिम्भव परियन्दिजइ ।
कुड़ सद्दु सुरए व विलासिणि ॥ ६॥ पाव कुंडल कुछ मुहवासिठ ॥७॥ अम्माहीरगेड णिजइ ॥ ८ ॥
घत्ता
तं पेक्खपिणु गोड्डु पारीचण परिश्ररिश्र । गाव दहि मिजणेहिं बालन्तणु संमरियउ ॥९॥
[ १ ]
पुणु ऋणु पइसरन्ति आरणउ ॥३॥ तरल-तमाल-ताल-मंणड ||२|| जिणिन्द सास जहास सावय ॥३॥ मइन्द्र कन्धरं जहा स-केसरं ॥४३॥ सुसञ्च-गश्चियं जहा स-वालयं ॥५॥ कुन्तावसे तवं जहा मयासवं ॥ ६ ॥ । महाणहङ्गणं जहा स-सोमयं ॥ ७ ॥ विलासिणी-मुई जहा महारसं ||८||
तं मेलेष्पिणु गोट् श्वण्णउ 1 जं फल-पस - रिद्धि संपुष्णड | वर्ण निणाचं जहा स-धन्दणं । महा-रणणं जहा सवाल परिन्द-मन्दिर जहा स-माउयं । जिणेसहापर्यं जहा महास मुणिन्द अधियं जहास मोक्खयं मिड- विम्वयं जहा मयासयं ।
धत्ता
तं व मेदिता इन्द- दिसए आसणहूँ । मासेंहिँ चउरद्धेहिं चिकू बोकोणइँ ॥९॥
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चवीसमो संधि शोभित था, मानो धान्यके प्रथम अंकुरोंकी नोकोंको अपने सिरपर धारण कर नाव उठा हो । कहींपर दही बिलोनेवालीकी मथानी इस प्रकार शब्द कर रही थी मानो जिस प्रकार विलासिनी कामक्रीड़ामें शब्द कर रही हो। कहींपर नारियों के नितम्बोंसे सुचासित वन ऐसा लगता था मानो कुटज पुष्प मुख सुवासित कर रहा हो । कहींपर बालकको झुलाया जा रहा था और 'हो हो' इत्यादि लोरी गीत गाये जा रहे थे। खियों और परिजनोंसे घिरे हुए उस गोठको देखकर जैसे मन तीनोंको अपने बचपनकी याद आ गयी ॥१-२।।
[१४] स सुन्दा गोरको छोड़कर, फिर बनमें प्रवेश करते हैं, जो फल और पत्तांकी ऋद्धिसे सम्पन्न था । जो तरल तमाल
और ताइवृक्षोंसे आच्छादित था। वह बन जिनालय की तरह चन्दन ( चन्दन वृक्ष, चन्दन) से सहित था, जो जिनेन्द्रशासन की तरह सावय ( श्रावक और श्वापदसे सहित) था । जो महायुद्धके प्रांगण की तरह सवासन ( मांस और वृक्षविशेष) से संयुक्त था, जो सिंहके कन्धेकी तरह केशर ( वृक्षविशेष और अयाल ) से सहित था, जो राजाके मन्दिरकी तरह माग्य ( मंजरी वृक्षविशेप) से युक्त था, जो सुनिबद्ध नृत्यकी तरह ताल (बृक्ष और ताल ) से सहित था, जो जिनेश्वरके स्नानकी तरह महासर ( स्वर और सरोवर ) वाला था, जो कुतापसके तपके समान मदासब' ( मद और मृग) वाला था, जो मुनीन्द्रके जीवनकी तरह मोक्ष (वृक्ष और मुक्ति ) की तरह था, जो महाकाझके प्रांगणकी तरह सोम (चन्द्रमा और वृक्षविशेष ) से सहित था, जो चन्द्रबिम्बकी तरह मद ( मृग और मद ) से आश्रित था, जो विलासिनीके मुखकी तरह महारसवाला था। उस बनको छोड़कर वे पूर्व दिशाको ओर गये । दो माह वे चित्रकूट में रहे ॥१-९||
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६४
पउमचरिउ
[१५]
दसउरपुर- सीमन्तरु पत्तहूँ ||१|| सारस - हंसा कि वग- चुवि || २ || मुनिवर इव सु-हाई सु-पत्तहूँ ||३|| हम किर
संचित एव तुरन्त हूँ । दिट्ट महासन कमल-फरयि । उहूँ सोहन्ति सु-पत्तहूँ । सालिवण पति सुनीं । उच्व दल-दीहर-गहूँ । पक्कय-पव- पीलुप्पल सामेंहिँ । सीरकुडुम्बर मणुस पदीसित । हडहद - फुट्ट - सीसु चल-गयणड ।
णिय वह छलहुँ व दुकलसहूँ ||५|| तहिँ पसन्त हि लक्खण- राम हिं ॥६॥ कुष्णु कुरकु व बाहुत्तासि ॥७॥ पाणकन्तु समुढ श्रयण ॥८॥
घत्ता
सो पासन्तु कुमारें सुरवर-कीर - खण्डे हिं । आणि राम पासु धरेविंस इं भु दण्डेहिं ॥ ९ ॥
[ २५. पंचवीसमो संधि ]
अणुहर-हर्येण दुब्वार-वइरि आयामें । सीरकुडुविउ मम्भीसेंषि पुच्छिउ रा ॥१॥
[] दुइम-दाणविन्द-मण- महाहवेणं ।
भो भो कि पिसन्धुलो बुत्तु राहवेणं ॥३॥
संणिसुकि पंजम्पिङ गहषछ । सीहोरहों भिक्षु हिच्छिउ दसउर-णाहु जिणेसर-मन्तड ।
बजयण्णु णामेण सु-णरषद् ||२|| भरहु व रिसह हाँ आणव ढिच्छिउ ॥ ३ ॥ पियवह पासें जब सन्तउ || १ ||
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पंचवीसमो संधि [१५] विजकूट को छोड़कर दुरूप यशपुरको सीमामें पहुँचे । वहाँ उन्होंने महासरोवर देखा, जो कमलोंसे शोभित था, सारसों और हंसोंको आवली तथा बगुलोंसे चुम्बित था ।
समै सुन्दर पत्तोंवाले उद्यान मुनिवरोंके समान सुफल और सुन्दर पत्रों ( पात्रों और पत्तों) वाले थे। चावलोंसे युक्त शालिवन इस तरह प्रणाम करते हैं, मानो नायक जिनेश्वरको प्रणाम कर रहे हों। इलों ( पत्तों) से लम्बे शरीरवाले गन्नेके खेत अपने (पति/प्रति ) उल्लंघन करनेवाली दुष्कलरके समान प्रतीत होते हैं। कमल और नवनील कमलकी तरह श्याम रामलक्ष्मणको वहाँ प्रवेश करते हुए सीरकुटुम्बक नामक मनुष्य दिखाई दिया, जो व्याधासे त्रस्त हरिणकी तरह था। हडड कर फूटते हुए सिरवाला, चंचल नेत्र, प्राणोंसे नष्ट ? प्रचण्ड मुखवाला? अपने सुरवरके ऐरावतके समान प्रचण्ड मुजदण्डोंसे कुमार भागते हुए उसे पकड़कर राम के पास ले आये ॥१-५।।
पचीसवीं सन्धि दुर्वार शत्रुके लिए समर्थ तथा धनुष है हाथमें जिनके, ऐसे रामने अभय पचन देकर सीरकुटुम्बकसे पूछा।
[१] दुर्दम दानवेन्द्रोंका जिन्होंने महायुद्ध में मर्दन किया है ऐसे रामने कहा, "अरे अरे-अरे ! तुम दुःखी क्यों हो?" यह सुनकर गृहपति कहता है-वभकर्ण नामका मनुष्योंका अच्छा राजा है। वह सिंहरथ का हृदयसे इच्छित उसी प्रकार अनुचर है जिस प्रकार भरत ऋपभके आज्ञाकारी थे। दशपुर• का राजा वनकर्ण जिनभक्त है। प्रियवर्धन मुनिके पास उसने
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पउमचरित जिणवर-पश्चिमअहम् केप्पिण। भपणही पवह ण णाहु मुएप्पिणु ॥५॥ वाम-मन्तिहि कहिउ गरिम्यहाँ । "पइँ भवगपणे विणवह जिणि दहीं॥ संणिसुणेवि वयणु पछ कुखुट। णं खय-का किया विरुद्ध ॥७॥ कोषाणक-पलितु सोहोथरु । गिरि-सिहरें माइन्ध-किसोयह ॥८॥ 'जो माँ मुऍषि कपणु जयकारह । सो किं हय गय र ण हारह ॥९॥
पत्ता अह किंबहुएंण कल्लएँ दिणयरें अस्थम्तएँ । जइ ण वि मारमि तो पइसमि जलणें जलन्तएँ ।
[१] पइज करेवि जाम पहु बाहवे अभनो ।
साम पइटु चोरु णामेण विज्जुलमी ॥१॥ पइसन्ते रयणि मलयालें। अलिउल-कमल-सण्णिह-समा ॥२॥ ते दिछु णराहिब विष्फुरन्तु। पलयाणलो क्च धगधगधगन्तु ॥३॥ रोमञ्च-करचु-कम्युझ्य-देहु । जल-गन्मिणु णं गजन्तु मेहु ॥४॥ सण-बद्ध-परियर-णिवन्धु। रण-मर-धुर-धोरिख दिण्ण-खम्धु ॥५॥ बलिषण्ड-मण्ड-णिड्डरिय-णयणु । दट्ठोठ्ठ सुख-विष्फुरिय-वयणु ॥३॥ "मारेषउ रिउ' जम्पन्तु एम। रषय-काले सणिच्छरु कुविउ जेम ॥७॥ "तं पेपरववि चिन्तइ भुअ-विसाल । कि मारमि णे णं सामिसाल ॥४॥ साहम्मिय-बन्छल किं करेमि। सब्वायरेण गम्पिणु कोमि'' |॥९॥ गउ एम भणे वि कण्टइय-सु । णिधिसखें दस उर-णयरू पतु ॥१०॥
घत्ता छुड्डु अरुणुग्गमें सो विजुलनु धावन्तर । दिछु णरिन्देष्य जस-पुजु णाई आवम्तउ ॥११॥
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पंचवीसमो संधि जिनवरकी प्रतिमा अँगूठे में लेकर यह उपशमभाव लिया है कि जिननाथको छोड़कर वह किसी औरके लिए नमस्कार नहीं करेगा ? लेकिन इतनेमें कुमन्त्रियोंने यह बात नरेन्द्र से कह दी कि वह आपकी उपेक्षा करके जिनेन्द्रको नमस्कार करता है। यह वचन सुनकर राजा बहुत क्रुद्ध हुआ मानो प्रलयकालमें कालानल विरुद्ध हो उठा हो । कोपाग्निसे प्रदीप्त सिंहोदर ऐसा लगता है मानो पहाड़के शिखरपर सिंहशावक हो। ( वह कहता है)-"जो मुझे छोड़कर किसी दूसरेकी जयकार करता है, वह क्या इय, गज और राज्यको नहीं हारेगा? अथवा बहुत कहनेसे क्या ? कल सूर्यास्त तक यदि मैं उसे नहीं मारता, तो स्वयं अग्निमें प्रवेश करूंगा ॥१-१०॥
[२] जब युद्ध में वह अभन्न प्रमु यह प्रतिज्ञा कर रहा था कि तभी विद्युदंग चोर वहाँ प्रविष्ट हुआ। रात्रिके उस भ्रमरकुल और काजलके समान श्याम मध्यकालमें ( मध्य रात्रिमें) प्रवेश करते हुए उसने विस्फुरित राजाको प्रलयानलके समान धधकते हुए देखा। उसका शरीर रोमांचरूपी कवचसे कटीला था, वह मानो सजलमेघके समान गरज रहा था, सन्नद्ध जिसने समूचा परिकर बाँध लिया था। रणभारकी धुरीको उठाने में जिसने अपना कन्धा दिया, जो जबरदस्त डरावने नेत्रोंवाला था, जो अपने ओंठ चबा रहा था, जो अत्यन्त विस्फुरित मुखवाला था, जो 'मैं शत्रुको मारूँगा' इस प्रकार कह रहा था। जो प्रलयकालमें शनिश्चरके समान कुपित था। उसे देखकर बाहुओंसे विशाल वह सोचता है, क्या इसे मार डालूँ, नहीं नहीं, यह स्वामी श्रेष्ठ है ? साधर्मीजनके प्रति वत्सल मैं क्या करूँ ? समस्त आदरके साथ उससे जाकर कहता हूँ। यह विचारकर रोमांचित शरीर वह आधे पलमें दशपुर नगर पहुँच गया। शीघ्र ही अरुणोदय होनेपर दौड़ता हुआ
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पउमचारत
[३] पुरिछा बजावणण सेधि विज्जलको।
"मो भो कहि पयर्ट्स बहु चहल-पुलप्रयङ्गो" ॥१॥ तं णिसुणेपिणु वमण-विसालें। बुबह वजयपणु कुसुमाके ॥२॥ "कामह-णामेण विलासिणि। तु-पभोहर जण-मण-माविणि ॥३॥ तहें भासप्तउ अस्प-विवाउ। कारणे मणि-कुण्डलहँ विसज्जित ॥ पुशु विमाहर-करणु कोप्पिणु। उ सत्त वि पाचार कमेपिणु ॥५॥ किर वर-मवणु पईसमि जाहिँ। पइज करन्तु राउ सुड ता हिं॥4॥ ह क्यणेण तेण बादण्णउ । वह वजयपणु उठण्यन ॥७॥ साहम्मिउ जिण-सासण-दीव उ । पम मणेप्पिणु वलिउ पडीषउ ॥८॥ पुणु वि विथद-पय-छोहे हिँ धाइड । णिविसे सम्हहुँ पासु पराइड ॥९॥
पत्ता किं भोलग्गएँ जाणन्तु वि राप म मुमहि । पाण लएप्पिशु म णासहि रणे जुजहि ॥३०॥
[१] भहवह काई बहु जम्पिएण रामा।
पर-वलें पेस्तु पेक्स उद्यन्ति धूलि-छाया ॥१॥ पेम्खु पेल्नु आवम्तड साहणु। गलगजन्तु महागव-पाहशु ॥२॥ पेक्यु पेक्षु हिंसन्ति सुरझम । जहयले चिउले भमन्ति विहङ्गम ॥३॥ पेक्खु पेक्स चिन्धई धुञ्चन्त। रह-धकई महियले खुप्पम्ताई ॥४॥ पेक्नु पेक्नु वजन्तइँ तूर। णाविह-णिणाय-गम्भीरइ ॥५॥ पेक्खु पेक्सु सय सङ्ग रसन्ता। पाइसक्नुउ सयण हाम्हा ॥६॥ पेक्नु पेक्नु पचलन्तउ गरवह। गह-णवत्त-माझे सणि णाव"॥७॥ दसतर-णाहु णिहाल जा हिँ। पर-बल्ल सयलु बिहावह तावे हि ॥४॥ "साहु साहु" तो पम मणेपिणु । विजुलझु गिड आलिशोपिणु ॥२॥
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पंचवीसमो संधि विधुदंग राजा बजकर्णको आते हुए यशःपुंजकी तरह दिखाई दिया ॥१-२१॥ __ [३] वनकर्णने हँसकर विधु दंगसे पूछा-"अरे अरे, अत्यन्त पुलकित अंग तुम कहाँ जा रहे हो ?" यह सुनकर मुखसे विशाल चोर विद्युदंगने कहा, "कामलेखा नामकी विलासिनी है, जो अत्यन्त ऊँचे स्तनोंवाली और जनमनोंके लिए प्रिय है। अर्थसे हीन मैं उसमें अनुरक्त हूँ। उसने मुझे मणिकुण्डलोंके लिए भेजा है । मैंने विद्याधरका तन्त्र कर सातों परकोटोको लाँधकर जैसे ही उत्तम भवनमें प्रवेश किया, वैसे ही राजाको यह प्रतिज्ञा करते हुए सुना तो मैं उस वचनसे पीड़ित हो उठा। वजकर्णका नाश होना चाहता है। वह साधर्मों और जिनशासनका दीपक है। यह विचारकर मैं वापस आ गया। फिर भी पैरोंके अत्यन्त वेगसे मैं दौड़ा और एक पलमें तुम्हारे पास आ पहुँचा। उसकी सेवासे क्या ? जानते हुए भी हे राजन् ! तुम मूर्ख मत बनो । युद्धमें इस प्रकार लड़ो कि जिससे वह प्राण लेकर भाग जाये ।।१-१०||
[४] अथवा, अधिक कहनेसे हे राजन् ! क्या? देखो देखो, शत्रुसेनासे धूलकी छाया उठ रही है; आती हुई सेनाको देखो देखो; गरजते हुए महागजवाहनको देखो; देखो देखो, घोड़े हीस रहे हैं और विशाल आकाशतल में पक्षी सड़ रहे हैं। देखो देखो, पताकाएँ उड़ रही हैं; रथचक्र धरतीतलपर निमग्न हो रहे हैं; देखो देखो, सूर्य बज रहे हैं, जो नाना शब्दोंसे गम्भीर हैं । देखो देखो, सैकड़ों शंख बज रहे हैं जैसे अपने दुःखसे स्वजन रो रहे हों। देखो देखो चलते हुए राजाको, जैसे प्रह और नक्षत्रोंके बीच शनि हो ।" जबतक रथपुरका राजा देखता है, तबतक समूचा शत्रुसैन्य दिखाई देने लगता है। तब साधुसाधु कहकर, राजा वचकर्ण विद्युदंगका आलिंगन कर, जब
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पउमचरिउ
थि रण भूमि पलावि जानेंहिँ । सयलु वि सेण्णु पराड तायें हिं ॥१०॥
घता
अमरिस कुठे हिँ चउपासेंहिं णरवर-विन्दहिं ।
वेटिड पट्टणु जिम महियलु चहिँ समुद्दहिं ॥११॥
७०
[ ५ ]
किय गय सारि-सज एक्खरिय वर-तुरा कच - णिव जोड़ अमिट्ट पुलइयङ्गा
॥
शुभ
मिट्ट्टु जुज्नु हि धि षकाएँ । अवरोप्यरु वनए-कलषाएँ ॥२॥ बसोह- चंडाविय मयगला ॥३॥ 1-छिण्ण भिण्ण-वला ॥ ४ ॥ पढिपहर - विदुर- विहला ॥५॥ असिस सर-सप्ति-पहरण-धरा ॥ ६ ॥ गुण-दिट्ठिी-मुट्ठि-सन्धिय - सराहँ ॥ ७ ॥ कायर-र-मण-संतावणाएँ ॥ १८ ॥ र वजण सीहोरा ॥९॥
वजन्त- तूर- कोलाहलाएँ मुझे मेक-सर-सवलाएँ । लोट्टाविय-धय मालाउ है । णिङ्करिय-वण-दसियाहराएँ । सुपमाण- चाच- कट्टिय कराएँ । दुग्धो यह लोट्टावणाएँ । जयकारों कारण पुराहूँ ।
घत्ता
विहि मि मिदम्तहिं समरणें दुन्दुहि वजइ ।
विहि मि गरिन्द्र हैं रणें एक्कु वि जिगह पण जिजइ ॥ १० ॥
[]
"हणु हणु [ हणु ]" भणन्ति सम्मम्ति आहह्णन्ति । पड विण ओसरन्ति मारन्ति रणें मरन्ति ॥ १ ॥
उश्य-बसें हिँ पडियरिंगमधहुँ । उहय-वले हिँ बन्ति कबन्ध हूँ ॥ २ ॥ उहष बल हिँ सुसुमूरिय भयवद । उहय चलें हिं छोट्टाविय भव थद ॥३३॥ उहय वलेहिं हयगय विशिषाय । उहय-वलें हिँ कहिरोह पधाय ॥४॥
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पंचवीसमो सधि तक युद्धभूमिमें सज्जित होकर स्थित होता है, तबतक समूचा सैन्य वहाँ पहुँच जाता है। चारों ओरसे अमर्षसे क्रुद्ध नरवर समूहोंसे घिरा हुआ नगर ऐसा लगता है जैसे चार समुद्रोंसे धरतीतल घिरा हो ।।१-१शा
[५] हाथियोंको पर्याणोंसे सजा दिया गया, श्रेष्ठ घोड़ोंको कबच पहना दिये गये। कवच पहने तुम पुलकितांग योद्धा आपस में भिड़ गये। एक दूसरेपर कोलाहल करती हुई सेनाओंमें युद्ध होने लगा। जिसमें बजते हुए नगाड़ोंका कोलाइल हो रहा था, जिसमें मदमाते महागंजोको विभूषासे अंकित किया गया था, जिसमें एक दूसरेपर सब्बल फेके जा रहे थे, भुजाओंसे वक्षस्थल छिन्न-भिन्न हो रहे थे, जिसमें ध्वजमाला कुल नष्ट हो रहा था, जिसमें ( लोग) प्रतिहारोंसे विधुर और विह्वलांग हो रहे थे। जो भयावने नेत्र और चनाते हुए ओठोंवाले थे, जो तलवार, झष, तीर और शक्ति प्रहरणोंको धारण करनेवाले थे, जिन्होंने सुप्रमाणित धनुष हाथोंमें खींच लिये थे, जिन्होंने गुणदृष्टि और मुट्ठीसे सरोका सन्धान कर लिया था, जिसमें गजघटाएँ लोटपोट हो रही थीं, जो कायर नरोके मनों के लिए सन्तापदायक थे ऐसे वकर्ण और सिंहोदरमें विजयके लिए रण हुआ। युद्धरत दोनोंके समर प्रांगण में दुन्दुभि बज उठती है। उन दोनों राजाओं में से युद्ध में एक भी न तो जीतता, और न जीता जाता ।।१-१०॥
[६] वे मारो-मारो कहते हैं, मारते हैं और मार खाते हैं। युद्ध में मरते हैं या मारते हैं, परन्तु एक भी कदम नहीं हटते। दोनों सेनाओंके द्वारा अभिम सेना गिरा दी गयी, दोनों सेनाओंके द्वारा कबन्ध नचाये गये, दोनों सेनाओंके द्वारा ध्वजपट मसल दिये गये, दोनों सेनाओंके द्वारा भटसमूह धराशायी कर दिया गया। दोनों सेनाओंके द्वारा हाथीं और
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पउमचरित उहय-वले हिँ गिनसिय खगाई। उहय घलें हिं वेबन्धि विहाई ॥५॥ उदय-चलें हिं णीसाह तुरई। उहय-चलई पहरण-स्वर-विहुरई ॥३॥ उहय-वलइँ गय-दन्त हिँ मिण्णहूँ। उहय चल िरण-भूमि-णिसण्मा ।।।। ठहय-बल रुहिरोलिय-गतहूँ। -- मुभम्तई ॥८॥ एम एक्ल व संगामही'। अक्खइ सीरकुम्बिउ रामों ॥९॥
घत्ता
सं णिसुणेपिणु मणि-मरणय-किरण-फुरन्सज । दिण्णु ज-हत्येण कण्ड का कबिसुत्ता ॥१०॥
[.] पुणु संचल्ल वे चि वलएष-वासुएवा ।
जाण-करिणि-सहिय गय गिल्ल-गण्ड अवा ॥५॥ घाव-विहस्थ महस्थ महाझ्य। साहसकडु जिणमवणु पराइय ॥२॥ ज इद्याल-घवलन्छुइ-पक्किड । सज्जपा-हियड जेम भकाहिल ॥ जं उसुङ्ग-सिहरू सुर-कित्ति: । षण्ण-विचित्त-चित्त-चिर-चित्तिउ ॥१॥ से जिणभवणु णियवि परितुहर। पयहिण देवि वि-वार पट्टा ॥५॥ तहि धन्दुप्पह-षिम्वु णिहालिउ । जं सुरवस्तर-कुसुमोमालिड ॥६॥ जणागेन्द-सुरेन्द-परिन्दहिं । वन्दिउ मुणि-विजाहर-विन्दहि ॥७॥ दिछ सु-सोहिट सोम्मु सुन्दसणु । अण्णु मिसेय-हमरु सिंहासणु ।।४।। छत्त-तउ असोउ भा-मण्डलु । लच्छि-विहूसिउ वियड-उरस्थल ॥९॥
यत्ता किं वहु ()-चविण अमें को पतिविम्वु उविजह । पुणु वि पीवड सइ णा पाहुबमिजइ ॥१०॥
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पंचवीसमो संधि घोड़े गिरा दिये गये। दोनों सेनाओंके द्वारा रक्तकी धाराए प्रवाहित कर दी गयीं: दोनों सेनाओं द्वारा तलवारें मोड़ दी ली गयी, दोनों सेनाओंसे पक्षी काँप उठे। दोनों सेनाओंके द्वारा तूर्य निःशब्द कर दिये गये, दोनों सेनाएँ प्रहरणोंसे कठोर और विधुर थीं। दोनों सेनाएँ गजदन्तोंसे भिन्न हो गयीं। दोनों सेनाएँ रणभूमिमें स्थित हो गयीं। दोनों सेनाएँ रक्तसे आशरीर हो उठी। दोनों सेनाएँ हुंकार, हक्कार और ललकार रही थीं। इस प्रकार संग्रामके लिए एक पखवाड़ा हो चुका है,"-सीरकुटुम्ब रामसे कहता है। यह सुनकर रामने अपने हाथसे मणि-मरकतकी किरणोंसे विस्फुरित कण्ठा, कटक और कटिसूत्र उसे दिया ।।१-१०॥ ___ [७] फिर दोनों बलदेव और वासुदेव घले । सीतारूपी हथिनीके साथ वे आर्द्रगण्डस्थल गजके समान लगते थे। हाथमें धनुष लिये महाआदरणीय महारथी राम सहनकूट जिनभवनमें पहुँचे, जो इंटोंवाला धवल चूनेसे पुता हुआ था, जो सज्जनोंके हृदयके समान अकलंकित था, जो ऊँची शिखरोंयाला और देवों के द्वारा प्रशंसनीय था, जो वर्णविधित्र चित्रोंसे चिरचित्रित था। उस जिनभवनको देखकर वे सन्तुष्ट हो गये। तीन प्रदक्षिणा देकर वे वहां बैठ गये । वहाँ उन्होंने चन्द्रप्रभकी प्रतिमाको देखा जो कल्पवृक्षके पुष्पोंकी मालासे युक्त थी, जो नागेन्द्र, सुरेन्द्र, नरेन्द्रों, मुनि, विद्याधर-समूहोंके द्वारा बन्दनीय थी तथा जो सुशोभित, सौम्य सुदर्शनीय थी। दूसरे, श्वेत चामर, सिंहासन, छत्रय, अशोक और भामण्डल भी। लक्ष्मीसे विभूषित एवं विकट स्थलवाले उस प्रतिबिम्बकी उपमा किससे स्थापित की जाये। बहुत कहनेसे क्या? फिर भी यह प्रतिकूल बात होगी यदि स्वामीसे स्वामीकी उपमा दी जाये ॥१-१०॥
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पउमचरित
[+] जं जग-णा दिदा वरू-सीय-सरपणा ।
विहि मिजणेहिँ बन्दिओ विविह-वन्दणेहिं ॥३॥ 'जय रिसह दुसह-परिसह-सहण । जप अजिप अधिय-बम्मह-महण ॥२॥ सय संभव संमव-णिहलण। जय अहिणन्दण णन्दिप-चला ॥३॥ जय सुमाइ-भडारा सुमइ-कर। पउमप्पह एउमप्पड-पवर ||४|| अब सामि सुपास सु-पास-हण ।। चन्दम्पह पुष्पा-धन्द-वयण ॥५॥ अब जय पुष्फपन्त पुफ्फचिय। जय सीयल सीयल-सुह-संधिय ॥३॥ जय सेयर सेयंस-मिण । जय वासुपुन पुजिय-चलण ॥७॥ अब विमल-मवारा विमल-मुह । प्राय सामि अणन्त भणन्त-सुह ॥८॥ जय धम्म-जिणेसर धम्म-धर। जब सन्ति-मडारा सन्ति-कर ॥॥ वय कुन्थु महरथुइ-थुम-बलण। जय अर-अरहन्त महम्स-गुण ॥१०॥ जय मलि महल-मल-मलण। मुणि सुष्वम सु-स्थय सुख-मण' ।।११॥
घत्ता वीस वि मिणघर बन्देपिणु रामु पइसाइ । अहिं सीहोयरु त णिलउ कुमार पईसइ ।।१९।।
[१] ताम णरिन्द-वारे घिर धोर-बाहु-जुअली ।
सो पबिहार दिटु सहस्थ-देसि-कुसलो ॥ १॥ पइसन्तु सुहङ्क तें धरिउ केम। णिय-समएं लवणसमुदु जेम ।।२।। तं कुविउ कोरु विप्फुरिय-क्यणु । बिहुणस्तु हस्थ णिरिप-णयणु ।।३।। मणे चिम्तइ बइरि-समुह-महणु ! 'कि मारमि गां गं कघणु गहणु' ॥४॥
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पंचवीसमरे संधि [८] जब राम, सीता और लक्ष्मणके द्वारा विश्वनाथ ( जिनेन्द्र ) देखे गये तो उन्होंने विविध वन्दनाओंसे उनकी थन्दना की, "असह्य परीषह सहन करनेवाले आपकी जय हो, अजेय कामका नाश करनेवाले आपकी जय हो, जन्मका नाश करनेताले सम्भवनाथ यापकी जय हो, नन्दिल चरण अभिनन्दन आपकी जय हो, सुमति करनेवाले आदरणीय सुमति आपकी जय हो, पद्म ( कमल ) की तरह सौरभ ( कीर्विवाले ) प्रवर पद्म नाथ आपकी जय हो, पुष्पोंसे अर्चित पुष्पदन्त आपकी जय हो, जिन्होंने शीतलसुखका संचय किया है ऐसे शीतलनाथ
आपकी जय हो; कल्याण करनेवाले श्रेयांस जिन आपकी जय हो; पूज्य चरण वासुपूज्य आपकी जय हो; पवित्रमुख आदरणीय विमलनाथ आपकी जय हो, अनन्त सुखवाले हे अनन्त स्वामी आपकी जय हो। हे धर्मधारण करनेवाले धर्म जिनेश्चर आपकी जय हो, हे शान्ति विधायक आदणीय शान्तिनाथ आपकी जय हो, जिनके चरण महास्तुतियोंसे संस्तुत हैं ऐसे कुन्थुनाथ आपको जय हो । महान् गुणोंसे विशिष्ट अर अरहन्त आपकी जय हो । बड़े-बड़े मल्लों (कामक्रोधादि)का नाश करनेवाले मल्लिनाथ आपकी जय हो। सुनवोंवाले शुद्ध मन हे सुबत आपकी जय हो।" इस प्रकार बीसों जिनवरोंकी वन्दना कर राम वहाँ बैठ जाते हैं। लेकिन लक्ष्मण इस भवन में प्रवेश करता है जहाँ कि सिंहोदर था !॥१-१२॥
[९] इतनेमें राज्यद्वारपर स्थिर और स्थूल बाहुवाला शब्दार्थ और देशीभाषामें कुशल प्रतिहार दिखाई दिया। प्रदेश करते हुए सुभटको उसने उसी प्रकार पकड़ लिया, जिस प्रकार अपनी मर्यादाके द्वारा लवण समुन्द्र पकड़ लिया जाता है। इससे विस्फुरित मुख वह वीर कुपित हो उठा। हाथ पीटता हुआ भयंकर नेत्र, शत्रसमुद्रका मन्थन करनेवाला वह अपने मनमें
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पउमचरिड
गाउ एम मणवि भुइ-दण्ड-पण्ड । गं मत्त-महागउ गिल-गण्ड ॥५॥ तं दसउर-प्पयरूपइट केम। जण-मण-मोहन्त अणा जेम ।।६।। दुम्मार-वरि-सरा-पाण-पोक !ीसहित मा परिस्सिोर ।।।। वं लवणु लम्खिउ राय-वारें। पबिहार कुसु 'म मंणिपार' ॥८॥ संघषणु सुवि पहठ्ठ वीरु। घाइवाइ-लच्छि-समिय-सरीक ॥९॥
__घत्ता दसउर-णाहण लक्षिजइ पन्तउ सफ्षणु। रिसह-जिणिन्देण णं धम्मु अहिंसा-शक्षणु ॥१०॥
[१ ] हरिसिउ वजयमणु दिटेण लक्खणेणं ।
पुणु पुणणेह-पिग्मरो चविउ सक्षणेणे ॥१॥ 'किं देमि हस्थि रह पुरय-यह। विनछुरिय-फुरिय-मणि-मउड-प ॥२॥ किं पर हि किं स्यणेहिँ कम्यु। किणरवर-परिमिट देमि रज्जु ॥३॥ किं देमि स-विममु पिण्डबासु। किं स-सुउ-स-कम्तउ होमि दासु'॥४॥ तं षषणु सुणे विहरिसिय-मणेण । पडिवुत णराविड लक्षणेण ।५।। 'कहिं मुणिवरु कहि संसार-सोक्छ । कहिं पाव-पिण्टु कहिं परम-मोक्खु ॥६॥ । कहिँ पायउ केत्थु कुटुछ बयणु। कहिँ कमल-सण्ड कहि घिउल गया॥ कहिं मयगले हलु कहिं उन्हें घण्ट । कहिँ पन्धित कहिं रह-तुरप-थट्ट ॥८॥ सं पोलहि जं ण घडाइ कलाएँ। अम्हई चाहिय मुकाम खलाएं ॥९॥
पत्ता
सु९ साहम्मिा त्य-धम्मु करन्तु ण थक्काहि । मोमण मग्गिन सिहुँ जण? देहि जइ सकहि' ॥१०॥
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पंचवीसमा संधि विचार करता है कि क्या मार दूं। नहीं नहीं, इसमें क्या मिलेगा। यह विचार कर, मुजदण्डोंसे प्रचण्ड' वह वहाँसे गया, मानो आर्द्रगण्डस्थलवाला महागज हो। वह उस दशपुर नगरमें किस प्रकार पहुंचा मानो जनमनोंको मोहित करनेवाला कामदेव हो। दुरि मैफलों वैरियोंके प्राणों को चुरानेवाला वह किशोर सिंह के समान निकला । जब राज्यद्वारपर लक्ष्मण देखा गया तो प्रविहारसे कहा गया कि इसे मत रोको । यह वचन सुनकर लक्ष्मीके चिह्नोंसे भूषित शरीर वह वीर वहाँ गया। दशपुरके राजा बजकर्णने लक्ष्मणको आते हुए देखा, मानो ऋषभनाथने अहिंसा लक्षणवाले धर्मको देखा हो ॥१-१०॥
[१०] लक्ष्मणको देखकर वनकर्ण प्रसन्न हुआ । बारबार स्नेह से परिपूर्ण होकर तत्क्षण उसने यही कहा कि "क्या हाथी, रथ या नगरसमूह । या अपूर्व और स्फुरित मणियोंका मुकुटपट्ट । वस्त्रोंसे क्या और रत्नोंसे क्या? क्या मनुष्योंसे परिमित राज्य दे दूं। क्या विभ्रमसहित सुहृद्जन दे दूँ ? क्या पुत्र और पत्नीसहित इनका दास बन जाऊँ ?" यह वचन सुनकर हर्षितमन लक्ष्मणने राजासे कहा, “कहाँ मुनिवर और कहाँ संसार सुख ? कहाँ पापपिण्ड और कहाँ परम मोक्ष ? कहाँ प्राकृत और कहाँ कठोर वचन । कहाँ कमलसमूह और कहाँ विशाल आकाश ? मदमाते हाथीको हल कहाँ और ऊँटके घण्टी कहाँ ? कहाँ हम पथिक और कहाँ रथ और घोड़ोंका समूह ? वह बोलना चाहिए जो कलासे कम न हो, हम लोग दुष्ट भूखसे पीड़ित हैं ? तुम साधर्मी जन हो, दयाधर्म करते हुए कभी नहीं थकते। हम तीन जनोंको, यदि दे सकते हो, तो भोजन दो ।।१-१०॥ १. कहाँ प्राकृतजन और कहां फैचवपूर्ण वचन ।
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पउमचरित
[ 1] बुधइ वजयपणेणं सजल-लोयणे ।
'मग्गिड देमि रज्जु किं गहष्णु भोपणेणं' ॥१॥ एम मणेपिणु अण्णुधाइउ। शिविसे रामहाँ पासु पराइल ॥२॥ खणे कचोल थारू श्रोयारिष । परियस-सिप्पि-सस विस्थारिथ ॥३॥ बहुबिह-खण्नु-पधारे हिनदिड। उच्छु-पण पिव मुह-रसियति ॥१॥ जमाण पिष सुकु सुमन्धर । सिखहाँ सिद्धि-सुई पित्र सिडउ ॥५॥ रेहा भसण-घेल वहाहाहाँ। णाई विणिग्गय समय-समुपदों ॥३॥ अवक-पपसर-कर-फेणुब्बल। पेजावत दिन्सि बल सम्मल ॥७॥ घिय-कहोक-वोल पवहन्सी । सिम्मण-तोय-तुसार मुअन्ती ॥८॥ सालण-सम-सेवाल-करम्विय । हरि-हकहर-जलघर-परिचम्विय १९॥
धत्ता किं बहु-चविण सच्छाउ सलोणु स-विजणु । इट-कलत्तु व तं भुतु जाहिच्छएँ भोयणु ॥५०||
[१२] भुावि रामचन्देष्यं पमणिओ कुमारो ।
'भोरणुपा होइ ऍट उवयार-गरम-भारो ॥१॥ पडिउचयार किं पि विण्यासहि । उभय-वलेंहि अप्पाशु पगासहिं ।।२।। सं सीहोयरु गम्पि णिवारहि । अन्हें रजहाँ सन्धि समारहि ॥३॥ घुबह मरहें दूउ विसजिउ । जउ वजयण्णु अपरजिउ ॥४॥ सेण समाणु कवणु किर विमाहु। जै आयामिउ समरे परिग्गहु ॥५॥ सं णिसुणेवि वयणु रिड महशु । रामछौं चलणे हि पविउ जणणु ॥३॥ "अग कियाथु अज्नु हउँ धण्णव । जे एस देव प. दिपणउ' ॥७॥
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पंचवीसमो संधि
[११] सजल आँखोंसे वज्रकर्णने कहा, "माँगा गया में राज्य दे दूँगा ! भोजन ग्रहण करनेसे क्या ?” यह कहकर उसने अन्न ( भोजन ) उठा लिया और एक पलमें रामके पास पहुँचा। एक पल में कटोरी और थालमें उसे रख दिया गया 1 भोजन पात्र, सीप और शंख फैला दिये गये ।
वह भोजन, अनेक प्रकार भोजनोंसे प्रचुर था, ईखवनकी तरह मुखरस से परिपूर्ण था, उद्यानकी तरह सुगन्धित था, सिद्धके सिद्धि-सुखकी तरह सिद्ध था। रामकी भोजनकी वेला, अमृत समुद्रसे निकली हुई बेला ( वट ) के समान शोभित थी, जो धवल और हर कूट (मा) पीपेथी को चंचल और पल पेयरूपी आवर्त दे रही थी, जो धीरूपी लहरों के समूहसे प्रवाहित हो रही थी, कदीरूपी जलके कणोंको छोड़ रही थी, जो शालनरूपी सैकड़ों शैवालोंसे अंचित थी तथा लक्ष्मण और रामरूपी जलचरोंसे परिचुम्बित थी। अधिक कहने से क्या, प्रिय कलत्र ( प्रिय स्त्रीकी तरह ) कान्तिवाला ( सच्छा ), लवण (सुन्दरता और नमक ), व्यंजन ( अलंकार और पकवान ) से सहित वह भोजन ( राम-लक्ष्मण ने ) भोगा ( खाया, भोग किया ) ।।१ - १० ।।
[१२] भोजन कर रामने कुमार लक्ष्मणसे कहा, "यह भोजन नहीं हूँ यह तो उपकारका भारी भार हैं । इसलिए इसका कुछ प्रत्युपकार करो, दोनों सेनाओंके बीच तुम अपनेको प्रकट करो | जाकर उस सिंहोदरका निवारण करो। आधे राज्यपर सन्धि करवा दो, भरतके द्वारा प्रेषित दूत कहता है कि वज्रक दुर्जेय और अपराजित है। उसके साथ कैसा युद्ध कि जिसने युद्धमें साधन जुटाये हैं।"
यह वचन सुनकर, शत्रुओंका मर्दन करनेवाला लक्ष्मण रामके चरणों में गिर पड़ा कि आज मैं धन्य हूं, आज मैं कृतार्थ
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एम
मणेधि पयट्टु महाइल | मसाइ जेम गरुनज्जैषि ।
पउमचरिउ
गड सीहोर- मवणु पराइ ॥ ८ ॥ संपविहार कर वज्र्जेषि ॥१९॥
धत्ता
तिण-समु मरणेवि अत्थाणु सबलु भवगणे वि । पड्डु भयाण गय-मूहें जेम पाणणु ॥१०॥
[9]
अमरिस कुद्रण बहु-मरिच-मच्छरणं । सीहोरु पलोह जिह णिच्छरणं ॥ १ ॥ कोचरणक-सम-जाल - असें ।
।
लक्षणु क्व संमुहु । चिन्ति 'को वि महा-बलु दीसह जि णिमिस लवि कुमारें । एम विसखि भरह-मरिन्दे । को सुर-करि-विसाण उभ्पाबद्द कोमवाडु करगें क सन्धि करहों परिमुअों मेइणि ।
पुणु पु जोइड गाइँ कयन्ते ||२|| तल तड सिमित थाइ देद्वा-मुहु ॥ २ ॥ णब पणिवा कर णउ वसङ्घ ॥४॥ राउ 'किं बहु-विधायें ||५|| करइ केलि को समय मद्ददे ||६|| मन्दरसेल- सिनको पावइ ॥७॥ वजयष्णु को मारे बि स हियय- सुहरि जिह घर-कामिणि ॥ ॥९॥
||८||
घत्ता
अहवइ णरवइ जड रज्जों अधु ण इष्टहि ।
तो समरणें सर धोरण एन्ति पठिष्द्धहि ॥ १०॥
[ १७ ]
खण वयण- सिओ अहर- विष्फुरन्तो । 'मह मरु मारि मारि हथु हृणु भणन्तो ॥ १ ॥ उट्टिउ पहु करवाल - विहस्थव । दूषहाँ दूवत्तणु दरिसावाँ :
'अ ताम भरहु वोसाथउ ||२|| छिन्दों णासु ससु मुण्डावहीँ || ३ ||
सुहाँ हत्थ विच्छावि भावहों । गहुँ चडियउ णयरें भ्रमाडहों' ॥ ॥
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पंचवीसमी संधि
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हैं कि जो हे देष, आपने आदेश दिया। ( यह कहकर ) इस प्रकार वह आदरणीय चला और सिंहोदरके भवनपर पहुँचा । ( वहाँ ) मतवाले हाथीकी तरह गरजकर और प्रतिहारको हाथ के अग्रभागसे डाँटकर, तिनकेके बराबर समझकर, समस्त दरबारकी उपेक्षा कर उसने उसी प्रकार प्रवेश किया कि जिस प्रकार गजसमूह में सिंह प्रवेश करता है ।।१-१०॥
[१३] अमर्ष से कुद्ध बहुत मत्सरसे भरे हुए उसने सिंहोदरको इस प्रकार देखा जैसे दानिश्चरने देखा हो । क्रोधानलकी सैकड़ों ज्वालाओंसे प्रज्वलित उसने बार-बार इस प्रकार देखा जैसे कृतान्तने देखा हो। जब-जब लक्ष्मण सम्मुख देखता, तबतब शिविर नीचा मुख करके रह जाता। उसने ( सिंहोदरने ) सोचा, कोई महाबलवान दिखाई देता है, जो न तो प्रणाम करता है और न बैठता है । उसीको लक्ष्य बनाकर कुमारने राजासे कहा - " बहुत विस्तारसे क्या ? भरत राजाने यह कहकर भेजा है कि सिंहके साथ कौन क्रीड़ा करता है, ऐरावतके दाँत कौन उखाड़ सकता है, मन्दराचलके शिखरको कौन उखाड़ सकता है ? चन्द्रमाको कौन अपने हाथसे ढक सकता हैं ? वर्णको कौन मार सकता है ? सन्धि कर लो और धरतीका हृदय के लिए शुभकर उत्तम कामिनीकी तरह भोग करों । अथवा हे राजन् तुम राज्यका आधा भाग नहीं चाहते, तो युद्ध के प्रांगण में आती हुई तीरोंकी कतारकी प्रतीक्षा करो" ॥१-१०॥
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[१४] लक्ष्मणके वचनोंसे क्रुद्ध होकर जिसके अधर विस्फुरित हो रहे हैं ऐसा वह सिंहोदर राजा, 'मर-मर, मारो - मारों' कहता हुआ, हाथ में तलवार लेकर उठा । भरत तबतक विश्वस्त बैठे, दूतको दूतत्व दिखा दो, उसकी नाक काटकर सिर मुड़षा दो, हाथ काट लो, धूल लगाकर निकाल दो,
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पडमधरित
संणिसुणेवि समुड़िय गरवर । गलगजास पाइँ णव जवाहर ॥५॥ 'हणुण हणु' मणन्त बहु-मच्छर । पो कलि-काल-किपम्स-सणिन्छर ॥६॥
शिय-समय-बुध रयणायर । उम्मेट पचाइम कुम्बर ७॥ करें करवाल को किया । श्रीग को गि गमावशी मला को वि मपार घाउ चढावह। लामिह मिथसणु दरिसावइ ।।९॥
घत्ता एवं गरिन्दे हि फुरियाहर-मिउहि-करालें हिं। देहिउ लक्षणु पाणणु जेम सियाले हिं॥1॥
[१५] सूरु व जलहरेहि ज वेदिक्षी कुमारो।
उदिङ घर दलन्तु वुवार-घरि-वारो ॥१॥ रोकद वलइ धाइ रिट हम्मद । णं केसरि-किसोरु पवियम्भइ ॥२॥ णं सुरवर गइन्दु मय-विम्मलु । सिर-फमाल तोडन्तु महा-वल्लु ॥३॥ दरमसन्म मणि-मउड परिम्दहुँ । सीड पद्धक्किट जेम गइन्द₹ ।।४।। को वि मुसुमूरिड चूरीड पाएँ हिं। को वि णिसुम्भिउ टकर-पाएँहिं ॥५॥ को कि करग्मे हि गयणे ममाडिउ । को धि रसान्तु महीयलें पाडिउ ॥६॥ को बि जुज्झपिट मेस-सबकएँ। को विकटुवाषित हक-दडहए ॥७॥ गयवस्-लगाय-रसम्भुप्पाई वि। गयण-मागे पुणु भुहि भमा वि ॥८॥ पाइँ जमेण दण्ड पम्मुचाउ। वहरिहि णं खय-काल पडद ॥९॥
धत्ता घालण-सम्मेण भामन्ते पुहद ममाढिय । क्षेण पहनतेण दस सहस णरिन्दहुँ पाडिय ॥१०॥
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पंचसमा संधि
गधेपर चढ़ाकर नगरमें घुमाओ।" यह सुनकर नरश्रेष्ठ गरजते हुए इस प्रकार उठे, जैसे नवजलधर हो। बहुत ईर्ष्यासे भरे हुए और मारो-भारो कहते हुए जैसे वे कलिकाल, यम और शनिश्चर हों, मानो अपनी मर्यादासे चूका हुआ समुद्र हो, मानो महाषतसे रहित महागज दौड़ा हो। कोई अपने हाथमें तलवार निकालता है, कोई भयंकर गदाशनि घुमाता है, कोई भयंकर धनुष चढ़ाता है, और अपने स्वामीकी वफादारी बताता है। जो फड़कने हुए अधरों और भौंहोंसे भयंकर हैं ऐसे राजाओंने लक्ष्मणको उसी प्रकार घेर लिया जिस प्रकार सियारोंके द्वारा सिंह घेर लिया गया हो ॥१-१०॥ __ [१५] या मेघोंके द्वारा सूर्य घेर लिया गया हो। तब दुर्वार शत्रुओंपर आक्रमण करनेवाला वह ( लक्ष्मण ) धरतीको रौंदता हुआ उठा। वह रुकता है, मुड़ता है, दौड़ता है, शत्रुको अवरुद्ध करता है, जैसे किशोरसिंह उछल रहा हो, मानो मदसे विह्वल ऐरावत हो । वह महाबली सिरकमलोंको तोड़ता हुआ मणि मुकुटीको दलित करता हुआ राजाओंके ऊपर उसी प्रकार पहुँचा जिस प्रकार गजराजोंके ऊपर सिंह पहुँचता है। किसीको कुचलकर उसने पैरोंसे चूर-चूर कर दिया, किसीको टक्करोंके आघातसे नष्ट कर दिया। किसीको हाथसे आकाशमें उछाल दिया, चिल्लाते हुए किसीको धरतीपर गिरा दिया। किसीसे मेषको झड़पसे भिड़ गया, कोई हुंकार और चपेट से खिन्न हो गया ? हाथियोंके वाँधनेके खम्भेको उखाड़कर और फिर बाहुओंके द्वारा धुमाकर इस प्रकार छोड़ दिया जैसे यम अपना दण्ड छोड़ दिया हो, मानो शत्रुओंके लिए झयकाल आ नाया हो। आलान-स्तम्भको घुमाते हुए उसने धरतीको धुमा दिया। गिरते हुए उस खम्भेने साथ दस हजार राजाओंको धराशायी कर दिया ॥१-१०॥
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पउमचरिख
[१६] जं पहिवक्वु सयलु णिलिड रूपरषणेणं ।
गयवरें पवग्धणे पहिउ तक्खणेणं ॥१॥ अहिमुडु सीहोपर संचालित । पलय-समुटु णाई बस्थति ॥२॥ सेण्यावत निम्तु गजन्तड । पहरण-तोय-तुसार-मुअन्तउ ॥३॥ तुझ-सुरा-सर-समाउछु । मत्त-महागय-घर-घेलाउनु ॥४॥ उब्भिय-धवल-छत्त-फेणुजलु भय-कलोल-बलस्त-मद्रावल !!५।। रिख-समुद्धर्ज दिट्टु भयकरु ।। सरवणु कुछु णा गिरि मन्या ॥६॥ चलइ धकई परिममइ सु-पञ्चलु। णाई विलासिणि-गणु चालु चञ्चलु ॥७॥ गेण्ह वि पहउ परिन्दु परिन्दें। तुरए सुरउ गइन्दु गहन्दें ॥८॥ रहिए रहिउ रह रहनें । छसे छत्तु धयग्गु धषयगें ॥९॥
घत्ता जउ जज लक्खा परिसका भिडि-मयर । तउ तर दोसइ महि-मण्डल रुण्ड-णिरन्तर ॥१०॥
जं रिउ-उअहि महिउ सोमित्ति-मन्दरेणं ।
सीहोयह पधाइओ समउ कुअरेण ॥१॥ अमिट छ जुज्य विपिण वि जणाहँ। उज्जेणि-णराहिव-सक्सणार ॥२॥ दुपार-वहरि-गेण्हण-मणाहूँ । उग्गामिय-भामिय-पहरणा ॥३॥ मयमत्त-गवन् दारणाहँ 1 पढिवश्व-पक्स-संवारणा ॥४॥ सुरबहुम-सस्थ-तीसावणा। सीहोयर-लक्षण-णरवराहँ ॥५॥
। भुअ-दण्ड-चपद-हरिसिय-मणा ॥६॥ एरथन्तरें सीहोयर-धरेण । उरें पेल्लित लक्षणु गयबरेण ॥७॥ रहसुब्भड पुलय-विसष्ट-देहु । णं सुकं खीलिउ स-जल मेहु ॥८॥
लेवि भुभम थरहरन्त । उपाहिय दन्तिह के वि दन्त ॥५॥ काविड मयगल मणेण तद्छु । विवरम्मुहु पाण छएषि णट्छु ॥१०॥
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च न
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[ १६ ] जब लक्ष्मणने समस्त प्रतिपक्षको नष्ट कर दिया तो, सिंहोदर पट्ट बन्धन नामक गजवरपर चढ़ गया, वह इस प्रकार सम्मुख चला, जैसे प्रलय समुद्र ही उछल पड़ा हो, सेनारूपी आवर्तसे युक्त नित्य गर्जन करता हुआ; प्रहरणरूपी जलके कण छोड़ता हुआ, ऊँचे घोड़ोंरूपी लहरोंसे व्याप्त, मतवाले महागजों के घण्टारूपी तट से संकुल, जठे हुए धवल छत्रोंके फेनसे अवल, ध्वजरूपी लहरोंका महाजल जिसमें चल रहा है ऐसे भयंकर महासमुद्रको जब लक्ष्मणने आते हुए देखा तो वह मन्दराचल पर्वतकी तरह वहाँ पहुँच गया । अत्यन्त दृढ़ वह चलता है, मुड़ता है और इस प्रकार घूम जाता है, जैसे चंचल और चल विलासिनी गण हो । पकड़ने के लिए राजासे राजा, घोड़ोंसे घोड़ा, गजेन्द्रसे गजेन्द्र, रथिकसे रथिक, चकसे चक्र, छत्रसे छत्र और ध्वजाप्रसे ध्यजाम आहत कर दिया गया । भौहोंसे भयंकर लक्ष्मण जहाँ-जहाँ जाता है, वहाँ-वहाँ धरतीमण्डल धड़ोंसे अवच्छिन्न दिखाई देता है ।।१-१०॥
[१७] जब लक्ष्मणरूपी मन्दराचलके द्वारा शत्रुरूपी समुद्र मथ दिया गया तो सिंहोदर अपने हाथीके साथ दौड़ा और लक्ष्मणसे भिड़ गया। जिनका मन दुर्थार शत्रको पकड़नेका है, जो प्रहरणोंको निकालकर घुमा रहे हैं, जो मतवाले गजोंको उखाड़नेवाले हैं, प्रतिपक्ष और पक्षका संहार करनेवाले हैं, सुरघर-बधुओंको सन्तुष्ट करनेवाले हैं, जो अपने मुजदण्डोंसे प्रचण्ड और हर्षित मन हैं, ऐसे लक्ष्मण और सिहोदर राजाओंका युद्ध होने लगा। इसी बीच सिंहोदरको धारण करनेवाले गजवरने हर्षसे उत्कट और पुलकसे विशिष्ट शरीर लक्ष्मणके उरपर इस प्रकार आघात किया; मानो शुक्रने सजल मेघसे क्रीड़ा की हो। उसने अपने हाथसे पकड़कर हाथीके थर्राते हुए बोनों दाँत उखाड़ लिये। अपने मनमें त्रस्त वह महागज
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पउमचरित
धत्ता ताम कुमारग विभाइर-करण करेपिणु । धरिड पराहिउ गय-मस्थर पार थवेप्पिणु ॥1॥
[१] मरवा बीघ-माहि जं धरिट सक्खणेणं ।
केण वि वजयपणहो कहिउ सक्सणं ।।३।। हे गरणाह-गाह अच्छरियउ। पर-बलु पेक्सु केस जजरियउ ॥२॥ कण्ड णिरन्तर सोणिय-अधिक । णाणाविह-विहा परियबिउ ॥३॥ को वि पण्ड-वीरु वलयातउ । भमइ किंयन्तु व रिज-जगसन्तउ ॥३॥ गय-घद मार-धड सुहब पहातउ । करि-सिर-कमल-सण्ड तोरन्तर ।।५।। रोका कोइ छ थाह। खय-कालु समरे परिसह ।।६।। भिडि-मपाल कुरुद समरु । घिउ अवलोयणे णाई सणिरु ॥७॥ ण जाण? किं गणु किं गन्धयु । किं पच्छण्णु को वि सङ धम्धत् ॥६॥ किष्णरु किं मारुनु विजाहरू। किं वम्माणु माणु हरि हलहरु ॥५॥ तेपा महाहवे माण-मइन्दाँ। विणिवाइय दस सहस रिम्दह ॥१०॥ अण्णु वि दुज्जर मच्छर-मरियड । जीव-गावि सीहोयस धरियड ॥१॥
घत्ता एवं होम्सण बलु सयलु वि भाहिन्दोलिन । मन्दर-वीण णं सायर-सलिल विरोलिज ॥१२॥
[१९] ताणसुणेवि को वि परितोसिलो मणं ।
को विणिरहुँ लग्गु उडूण जम्पणेणं ॥१॥ को वि पम्पिङ मग्छर-मरियड । 'चङ्गव जं सीहोयरु धरियउ | RA जो मारेवर घरि सहर । सो परिषदूघु पाड पर-हथें ।।३।। वन्धव-सयहिं परिमित अज्जु 1 बजयण्णु अणुहाउ रज्जु' ।।
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पंचवीसमा साध खिन्न हो गया और पोपले मुखवाला वह अपने प्राण लेकर भागा। तबतक कुमारने विद्याधर करण रचकर, हाथीके सिर, पर पैर रखकर राजा सिंहोदरको पकड़ लिया ॥१-१||
[१८] जीवके लिए प्राइके समान राजाको जष लक्ष्मणने पकड़ लिया तो किसीने तत्काल जाकर वजकर्णसे कहा--"है राजाओंके राजा, आश्चर्य है । देखिए शत्रुपक्ष किस प्रकार क्षतविक्षत हो गया है। यह घड़ोंसे अवच्छिन्न है, रक्तसे शोभिव और नाना प्रकार के पक्षियोंसे घिरा हुआ है। कोई मलयान् प्रचण्डवीर शत्रुसे झगड़ता हुआ यमकी तरह घूम रहा है। गजघटा, भडघटा और सुभदोंको चलाता हुआ, हाथियोंके सिरकमलोंके समूहको तोड़ता हुआ यह रुकता है, पुकारता है, पहुँचता है और ठहर जाता है, मानो युद्धमें झय. काल मँडरा रहा हो। भृकुटियोंसे भयंकर, कठोर ईर्ष्यासे भरा हुआ वह इस प्रकार स्थित हो गया, जैसे शनि हो । हम नहीं जानते कि वह गण ( देव) है या गन्धर्व है या क्या कोई तुम्हारा छिपा हुआ मित्र या बन्धु है। क्या किन्नर, मारुत या विद्याधर है ? क्या ब्रह्मा है ? सूर्य है या वासुदेव या बलदेव है ? उसने महायुद्ध में दस हजार मानमें सिंहाजनरेन्द्रको भी धराशायी कर दिया। और भी मत्सरसे भरे हुए उसने जीवमाही सिंहोदरको पकड़ लिया।" अकेले होते हुए उसने समूची सेनाको आन्दोलित कर दिया है। मानो मन्दराचलकी पीठने समुद्र के जलको विलोड़ित कर दिया हो ॥१-१२||
[१९] वह सुनकर, कोई अपने मनमें सन्तुष्ट हो गया। उठे हुए जंपानसे कोई उसे देखने लगा । कोई मत्सरसे भरकर बोला कि अच्छा हुआ जो सिंहोदर पकड़ा गया । जिसने अपने हाथसे दूसरोंको मारा था वह पापी दूसरेके हाथसे मारा गया। हे वझकर्ण, तुम राज्यका अनुभोग करो।
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परामचरिस
को वि विरुधु पुणु पुणु णिन्दइ । 'धम्म मुएषि पाउ किं पन्दह' ॥५|| को वि भणइ 'जे मग्गिउ भोयणु । दीसा सो स्ले गाई पॅड बम्भणु' ॥३॥ ताम कुमार रिंज उपधाये। चौर पराउलेग पिड बन्धे वि ॥७॥ सासकारु स-दोरु सणेउरु । दुम्मणु दीण-वरणु भन्तेउरु |॥८॥ धाइड अंसु-जलोमिय-णयणा । हिम-हय-कमलवणु घ कोमाणउ ।।९॥
पत्ता केस-घिसन्धुलु मुह-कायरु करुणु रुअन्तउ । थिड चउपासे हि मत्तार-भिक्ख मग्यम्तउ ।।१०।।
[२०]
ताम मणेण सकिया राहवस्स परिणी।
f मय-भीय काणणे चुण्णुरपण हरिणी ॥१॥ 'पेक्नु पेक्षु वलु बलु आवन्तउ । सायर-सलिलु जेम गज्जन्त ॥५॥ सइ घणुहरु म अछि णिचिन्तड । मम्युहु लक्खणु रण अत्यन्त ॥३॥ संणिसुणे वि णिवूढ-महाहवु। जाम चाउ किर गिण्हह राहवु ॥॥ ताम कुमार दिछु सहुँ णारिहि । परिमिउ हस्थि प्रेम गणियारिहिं ॥५॥ तं पेक्वेप्पिणु सुहड-णिसामें। मीय सीय मम्मीसिय रामें ॥६॥ 'पेक्खु केम सीहोयर बउ । सोहेण व सियालु उट्ठछड' ॥७॥ एव वोल्ल किर वइ जाब हि। लक्षणु पासु पराइड तायें हिं ।८।। चलणेहि पडिउ विगावड-मस्थउ । भविङ वाजिणहीं कियजलि-हस्थत ॥९॥
घत्ता 'साहु' भणन्तण सुरभवण-विणिग्गय-णाम । स हूँ भुस-फलिहहि अवडिउ लक्षणु रामें ॥१०॥
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८१
पंचवीसमो संधि कोई विरुद्ध होकर बार-बार निन्दा करता है कि धर्मको छोड़कर वह पापी किस प्रकार आनन्द मनाता है । कोई कहता है कि जिसने भोजन माँगा था, यह उसी ब्राह्मणके समान दिखाई देता है। तष कुमार शत्रुको अपने कन्धेपर चढ़ाकर उसी प्रकार ले गया जिस प्रकार राजकुलके द्वारा चोर ले जाया गया हो । अलंकारोंसे सहित, डोर और नूपुरोंसे सहित, दुर्मन, वचन और आँसुओंसे आनयन अन्तःपुर दौड़ा। वह हिमसे आहत कमलवनके समान था। अस्त-व्यस्त केशराशि, मुखसे कातर और एकदम करुण विलाप करता हुआ, अपने पतिकी भीख माँगता हुआ, उसके चारों पास स्थित हो गया ॥१-१०॥
[२०] तब रामकी पत्नी अपने मनमें शंकित हो उठी। मानो भयभीत कानल में अत्यन्त उदास और खिन्न हरिणी हो । "देखो-देखो राम, आती हुई सेनाको समुद्र जलकी तरह गरजती हुई। धनुष हाथमें ले लो, निश्चिन्त मत बैठे रहे। शायद युद्ध में लक्ष्मणका अन्त हो गया है ।" यह सुनकर महायुद्धका निर्वाह करनेवाले राम जबतक धनुष अपने हाथमें लेते हैं, तबतक कुमार नारियोंसे घिरा हुआ उसी प्रकार दिखाई दिया, जिस प्रकार हथिनियोंसे घिरा हुआ हाथी हो। शत्रुओंका नाश करनेवाले रामने उसे देखकर सीतादेवीको अभय वचन दिया कि "देखो सिंहोदर किस प्रकार बाँध लिया गया है जैसे सिंहके द्वारा सियार उठा लिया गया हो ।" जब तक (पन दोनोंमें) इस प्रकार बातचीत हो रही थी कि तबतक लक्ष्मण पास आया । विकट मस्तक वह चरणों में पड़ गया, उसी प्रकार, जिस प्रकार भक्त हाथ जोड़कर जिनवरके चरणों में पड़ जाता है। देव-भवनों में जिनका नाम प्रसिद्ध है ऐसे रामने 'साधु' कहकर लक्ष्मणको अपने बाहुफलकोंसे आबद्ध कर लिया ॥१-१०||
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पउमचरित
छन्चीसमो संधि
लक्षण-रामहुँ धवलुजल-कसण-सरीर। एक शिका - ।
अवरोप्परु गोलिप-गःहिं। सरहसु साइड देवि सुरम्भ हि ॥ १॥ सीहोयह णमन्तु वहसारिड। साक्षणे वजयण्णु हकारिउ ॥२॥ स? णरवर-जणेण गोसरियउ । णाद् पुरन्धर सुर-परिपरिपउ ॥३॥ रेहड विजुलछु अशुपच्छएँ। परिचा-इन्दु व सूरहों पच्छएँ ॥४॥ सं इटाल-धूलि-धुभ-प्रवल। सहसकूहु गय पस जिणाला ||५|| घडदिसु पयहिण देवि तिवार'। पुणु अहिवन्दण करइ भदारएँ ॥३॥ से पियवक्षण-मुणि एणप्पिणु। पलहौंपा थिउ कुसल मणेपिणु ॥७॥ दसउर-पुर-परमेसर रामें। साहुकारिउ सुहट-णिसाम ॥८॥
घत्ता 'सचा परवड मिच्छत्त-सरहिं पर मिजहि । दिव-सम्मन्तण पर तुच में तुहुँ उमिजहि ॥९॥
[२] सं गिपुणेषि पयम्पिड राएं। 'एउ सख्खु महु तुम्ह पसाएं' ॥१॥ पुशु वि तिळोय-विणिग्गय-गा। विजुका पोमाइड रामें ॥२॥ 'मो दिव-कक्षिण-षिय-वसछत्थक | साहु साहु साहम्मिय-बच्छन ||३॥ सुन्दर किउ जे स्वइ रक्रिसठ। रणें अच्छन्तु ण पाहू उम्बेक्सिर' ४॥ तो एस्थम्सरे चुतु कुमार। 'जम्पिएण किं बहु-विस्थारें ॥५॥ हे दसउर-णरिन्द घिसगइ-सुआ। जिणवर-चलण-कमल-फुलन्धु !!६॥ जो खलु सुगु पिसुणु मच्छरियड। अच्छड़ ऍहु सोहोयरु परियउ ॥७॥ किंमारमि किं अपुशु मारहि। णे तो दय करि सन्धि समारहि ॥८॥
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छन्वीसमो संधि
छब्बीसवीं सन्धि लक्ष्मण और रामके धवलोज्वल श्याम शरीर एकाकार हो गये, मानो गंगा और यमुनाके जल हों।
[१] पुलकित शरीरवाले उन दोनोंने एक दूसरेको सहर्ष आलिंगन देकर प्रणाम करते हुए सिंहोदरको बैठाया और तत्काल वजकर्णको बुलाया। नरकरोंके साथ वह इस प्रकार निकला जैसे देवोंसे घिरा हुआ इन्द्र हो। उसके पीछे विधुदंग चोर ऐसा शोभित हो रहा था, मानो सूर्यके पीछे प्रतिपदाका चन्द्रमा हो । वे ईटोंकी पंक्तियों और ध्वजोंसे धवल सहन्नकूट गये और जिनालयको पाट हुम् । चारों दिशाओं में नीन बार प्रदक्षिणा देकर, फिर वे आदरणीयके लिए अभिवन्दना करते हैं। उन प्रियवर्द्धन मुनिको प्रणाम कर तथा कुशल पूछकर रामके पास बैठ गया । सुभदोंका नाश करनेवाले रामने दशपुरके राजाको साधुवाद दिया। हे राजन् , सत्य मिथ्यात्वके तीरोंसे नष्ट नहीं होता, परन्तु दृढ़सम्यक्त्वमें तुम्हारी उपमा तुम्हीसे दी जा सकती है।।१-२||
[२] यह सुनकर राजा वकाकर्ण बोला, "मेरा यह सब आपके प्रसादसे है।" फिर, जिनका नाम त्रिलोकमें विख्यात है, ऐसे रामने विद्यदंगकी प्रशंसा की, "हे दृढ़, कठोर एवं विकट वक्षस्थलवाले साधर्मी वत्सल, साधु-साधु । तुमने यह सुन्दर काम किया जो राजाकी रक्षा की। युद्ध में होते हुए भी तुमने उपेक्षा नहीं की।" तन इस बीच कुमारने कहा, "कि बहुत विस्तारसे कहनेसे क्या? हे विश्वगतिके पुत्र, जिनवरके चरणकमलोंके अमर दशपुर नरेश, जो स्खल, क्षुद्र, पिशुन, मत्सरसे भरा हुआ यह सिंहोदर पकड़ा हुआ है, इसे क्या मैं मारू, तुम स्वयं क्या मारोगे? नहीं तो दया कर इससे सन्धि कर लो।
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पठमचरित
धत्ता आण-वडिउछाउ ऍहु एवहिँ मिच्खु सुहारउ । रिसइ-जिणिन्दहाँ सेयंस पेसणयारउ' १
[३] पमणह यजयण्णु बहु-जाणउ । 'हउँ पाइक्कु पुणु वि ऍहुँ राणउ ।।३।। पवर एक्कु वा मइँ पाळेवउ । जिणु मेस्केचि अणु ण णमेवा' ॥२॥ तं णिसुणेविशु रूक्षण-रामें हि। सुरवर-मवण-विणिग्गय-मामेहि ॥३॥ दसउरपुर-उज्जेणि-पहाणा। अजयण्ण-सीहोपर-राणा ॥४॥ वेणि वि हत्थे हत्यु पर । संयमग पापिय ॥५॥ अशोभन्दिएँ महि भुक्षाविय। अण्णु वि जिणवर-धम्मु सुणाविय ॥६॥ कामिणि कामलेह कोकाधिय । विजुलअनहीं करयल लाविय ॥७॥ दिपणइ मणि-कुण्डल फुरन्त । चन्दाइस? तेउ हरन्त ॥६॥ ताम कुमारु वुत्तु विक्खाएँ हिं। वजयपा-सीहोयर-राएँ हि ॥९|| लाध-कुवलय-दल-दीहर-पयणहुँ । मयगल-गइ-गमणहुँ सरि-क्ष्यणहुँ।। १०॥ उश-णिलाडालविय-तिलय हुँ । बहु-सोहग्ग-भोग्ग-गुण-णिलयहुँ ॥११॥ विमम-माउन्मिपण सरीरहुँ । तणु-मज्न थण-हर-गम्भीरहुँ ।।३२॥
घन्ता अहिण-रूबहुँ लायण-वण-संपुषणहुँ । लइ भो लक्खण घर तिष्णि सय, तुहुँ कण्णहुँ ||१३||
[३] तं णिसुणेपिणु दसरह-गन्दणु । एम एजम्पिउ हसवि जणदणु ॥१॥ 'अच्छउति-यणु साम बिलवन्तउ । मिसिणि-णिहाउ व रवियर-छित्त॥२॥ मई जाएवउ दाहिण-देसहों। कोकण-मलय-पण्डि-उदेसहाँ ॥३॥ तहि वलहदाँ णिकउ गवेसमि। पच्छऍ पाणिग्रहण करेसमि' एम कुमार पजम्पिङ जंजे। मणे विसण्णु कपणायणु तं जे ।।५।। दड हिमेण व णलिणि-समुष्ठउ । मुह-मुह पाइँ दिग्णु मसि-कुछड ॥६॥
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छम्वोसमो संधि इस समय यह तुम्हारा आज्ञाकी इच्छा करनेवाला उसी प्रकार भृत्य है जिस प्रकार ऋषभजिनेन्द्रका श्रेयांस आज्ञापालन करनेवाला था" ॥१-९||
[३] बहुशानी बजकर्ण पुनः कहता है-"मैं सेवक हूँ, यह राजा है । मैं तो केवल एक प्रतका पालन करूंगा; जिनवरको छोड़कर किसी दूसरेको नमन नहीं करूंगा।' यह सुनकर देवविमानोंमें प्रसिद्धनाम राम और लक्ष्मणने दशपुर और सज्जैनके प्रधानों वकर्ण और सिंहोदर दोनों राजाओंको हाथपर हाथ रखकर हर्षपूर्वक गले मिलवाया । आधी-आधी धरतीका उपभोग कराया तथा जिनधर्म भी सुनाया। कामलेखा कामिनीको बुलवाया और उसे विधुदंगके करतलमें दे दिया। चमकते हुए मणिकुण्डल दे दिये गये कि जो चन्द्रमा और सूर्यका तेज हरण करनेवाले थे। तब विख्यात वनकर्ण और सिंहोदर राजाओंने कुमारसे कहा-"जो नवकुवलयदलके समान लम्बे नेत्रोंवाली हैं, मदमाते हाथीकी गतिवाली और चन्द्रमुखी हैं, जिनके ऊँचे ललाट पर तिलक अंकित है, जो अनेक सौभाग्य, भोग और गुणोंकी घर हैं, जिनका शरीर विभ्रम भाषसे परिपूर्ण है, जिनका मध्य भाग कश है और जो स्तनोंसे गम्भीर हैं ऐसी अभिनव रूपवारी लावण्य और रंगसे परिपूर्ण हे लक्ष्मण, तीन सौ कन्याएँ प्रहण कर लो" ॥१-१३।।
[४] यह सुनकर, दशरथके पुत्र लक्ष्मणने हँसकर यह कहा-"रविकिरणोंसे स्पृष्ट, कमलिनी समूहकी तरह, विलाप करती हुई रहें, मुझे कोकण, मलय और पाण्झ्यदेशको उद्देश्य बनाकर दक्षिण देश जाना है। वहाँ मैं रामके लिए घरकी खोज करूंगा, बादमें (आकर) पाणिग्रहण करूंगा।" कुमारने जय इस प्रकार कहा तो इससे कन्यारत्न अपने मनमें दुःखी हो गया। जिस प्रकार हिमसे कमलिनी-समूह जल जाता है,
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पउभचरिउ जाम नाम रहिं वजन्तें हिं। विवि हि मोहिं गिअम्तेहिं ॥ पन्दिणेहिं 'जय-अप' पमणा हिं। खुजय-धामणेहिं गबनहिं ।।८।। सीय स-लक्षणु षलु पइसारिउ । घीया-इन्दु व जयजयकारिड ||५|| सहि णिवसेणि गादरें रक्षणएँ ! सरसि-अपने पदिसम्णा ॥१०॥
यस्ता जल-णारायण गय दसउरु मुवि महाइप । सही मासहीं तं कुम्वर-णयह पराय ।।११।।
[५] कुम्वर-णयह पराइय जाहि। फग्गुण-मासु पोलिट ता हिं॥१॥ पइड वसन्तु-राज माणन्दें। कोइलु-कलयल-मजरू-सरे ॥२॥ अलि-मिडणे हि वन्दिणेहि पढन्तेहिं । वरहिण-चावणेहि पश्चन्तेंहि ॥३॥ अन्दोला-सय-तोरण-वाहि। दुक्कु वसन्तु अणेय-पयारे हि ॥४॥ कत्थाइ खून-वणइ पल्लषियई। णव-किसलय-फल-फुलन्महियई ।।५।। करथइ गिरि-सिरह विच्छायई। खल-मुह िवमसि घण्णा णाय ।।६।। काय माहव-मासही मेहणि। पिय-विरहेण व ससद कामिणि ||७॥ कस्थइ गिजइ बजइ मन्दल। गर-मिडणेहि पणचिउ गोन्दलु | सं तहों णयरहों उत्सर-पासहि। जण-मणहरु जोयण-दस हिं॥९॥ दिड वसन्ततिला उजाणउ। साण-हियर जेम अ-पमाणड ||१०॥
घत्ता
सुहलु सुबन्धउ शोलन्तु वियावढ-मस्थउ । अग्गएँ रामहाँ ण घिउ कुसुमजलि-हस्थत ॥१॥
[१] तहिं उवषणे पइसे वि विणु खेवें । पमणिउ बासुएनु वलएवें ॥१॥ 'मो असुरारि-बहरि-मुसुमूरण। उसरह-वैस-मणोरह-पूरण ॥रा
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!
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छोसमी संधि
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वैसे ही उनके मुखपर जैसे किसीने मषिकूची फेर दी हो। तबतक बजते हुए सूर्यो, विविध मंगल गीतों, जय-जय कहते हुए बन्दीजनों, नाचते हुए कुब्जकों और वामनोंके साथ सीता और लक्ष्मण सहित रामका प्रवेश कराया गया, दूसरे इन्द्रकी सरह उनका जय जयकार किया गया । उस सुन्दर नगर में निवास कर, आधी रातका अवसर होनेपर आदरणीय राम और लक्ष्मण दशपुर नगर छोड़कर चल दिये । तथा चैत्रमाहमें वे कूवर नगर में पहुंचे ॥१- ११॥
[ ५ ] जब वे कूचर नगर पहुँचे, तब फागुन माह आ चुका था। आनन्दसे वसन्तराज कोयलोंके कल-कल और मंगल शब्द के साथ प्रवेश किया। पढ़ते हुए ( मंगल पाठ करते हुए ) अलिमिथुनों, नाचते हुए मयूररूपी दामनों, आन्दोलित सैकड़ों वोरण द्वारों तथा अनेक प्रकारोंसे वसन्त आ पहुँचा। कहींपर नव किसलय फल और फूलोंसे परिपूर्ण आस्रवन पल्लवित हो पठे, कहींपर गिरिशिखर इस प्रकार कान्तिहीन हो उठे कि दुष्टोंके मुँहकी तरह श्यामवर्ण ज्ञात होते थे। कहीं पर माधव साहकी घरिणी इस प्रकार होती थी जैसे प्रियके विरहसे कामिनी सूख रही हो । कहींपर गाया जाता है, और कहींपर बजाया जाता है ? और मनुष्य युगलोंके द्वारा हर्ष ध्वनि की जाती हैं। उस नगरसे उत्तरकी ओर एक योजनकी दूरीपर, जनोंके लिए सुन्दर, वसंततिलक नामका उद्यान दिखाई दिया. जो सज्जनके हृदयकी तरह सीमाहीन था । सुफल सुगन्धित हिलता हुआ नतमस्तक वह मानो हाथोंमें कुसुमांजलि लेकर राम के आगे स्थित हो ॥१- ११ ॥
[६] बिना किसी विलम्बके उस उपवनमें प्रवेशकर रामने लक्ष्मणसे कहा- "हे असुरारि ( काम ) रूपी शत्रुको चूर चूर करनेवाले तथा दशरथ कुलके मनोरथोंको पूरा करने
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पउमरित
सक्षण कहि मि गवेसहि सं जलु । सजण-हिया जेम जे णिग्मनु |॥२॥ दूरागमणे सीय तिसाहय । हिम-हय-व-लिणि व विच्छाइयो। तं णिसुणे घि घर-दुम-सोवाणहिँ। पडिड महारिसिव्य गुणधाणे हिं ॥५॥ ताप महासरु दिछु रवण्णड । णाणाषिह-तरुवर-संकणउ ।।६।। सारस-हंस कुत्र-पग-पुम्बिउ । गाय-कुवलए-दल-कमल-करम्विउ ॥७॥ तं पेक्लेषि फमारु पचाइन । णिविसे तं सर-तीर पराइउ' ।।६।।
घत्ता पइटु महावलु जण कमल-सण्ड सोडन्तड । माणस-सरवरें गं-गहम्मु कीलन्त ॥९॥
[] लक्खणु जलु भारोहइ जाहिं। कुवर-णयर-णराहिउ ताहि ।।१।। खुद्ध छुद्ध षण-कीलपं णोसरियड । मयण-दिवसें णरष-परिवरियड ।।२।। तरुवर तरुषरें मधु शिव। मधे मछे थिउ जणु समलराउ || मों म आरव परेसर। मेरु-णियम् णाई विमाएर ।।।। मो म भाकावणि वजह ।। महु पिजइ हिन्दोलड गिनई ॥५॥ मचे मळे जणु रसय-विहस्थ । घुम्मा घुलह विषाव-मस्थउ ।।६।। मने मजे कोलन्ति सु-मिरणहैं। णप-मिहुण, कहिं णेह-विराई ।।७।। म मा अग्दोलइ जणवउ । कोहल वासइ माइ बमणड ८॥
घत्ता कुम्वर-माहेण किउ मारोहणु जाहिं। सूरु व चन्दण लक्विजाइ लक्खणु ता हि ।।९।।
[]
कक्षित लक्ला छक्षण भरियउ । णं पञ्चस्व मयणु भवयरिउ ।।१।। रूड णिऍवि सुर-भघणाणन्दहौं। भणु उल्लोलें हिं जा परिन्दहाँ ।।२।।
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छग्वीसमो संधि वाले लक्ष्मण, तुम कहीं भी पानीकी खोज करो, कि जो सजनके हृद्यकी तरह निर्मल हो। दूर तक चलनेके कारण सीता प्याससे पीड़ित है, और हिमसे आहत नवकमलिनीकी तरह कान्तिहीन हो गयी हैं।" यह सुनकर वह पदवृक्षकी सीढ़ियोसे उसी प्रकार चढ़ गया जिस प्रकार महामुनि गुणस्थानों के द्वारा चढ़ जाते हैं ! वहाँ उसने नाना प्रकारले समोसे आच्छादित सुन्दर महासरोवर देखा, जो सारस, इंस, क्रौंच और बगुलोंसे चुम्बित था, तथा नवकुवलयदल और कमलोंसे अंकित था। उसे देखकर कुमार दौड़ा और एक पलमें इस सरोवरके तौरपर पहुँच गया। वह महाबली कमलसमह तोड़ता हुआ जलमें घुसा, मानो मानसरोवरमें महागज क्रीड़ा कर रहा हो ।।१-९॥
[७] जिस समय लक्ष्मण जलको आलोड़ित करते हैं तबतक कूवर नगरका राजा शीध्र वनक्रीड़ाके लिए निकलाकामदेव ( वसन्तपंचमी ) के दिन नरश्रेष्ठोंसे घिरा हुआ । वृक्षवृक्षपर मंच बांध दिये गये । मंच-मंचपर एक-एक व्यक्ति उपलब्ध कर दिया गया। मंच-संचपर नरेश्वर आरूढ़ हो गये, जैसे सुमेरु पर्ववके कटिबन्ध विद्याधर स्थित हो। मंच-मंचपर आलापिनी बज रही है, मधु पिया जाता है, हिंदोल राग गाया जाता है, मंच-मंचपर लोग हाथमें प्याला ( चसक) लिये थे, मंच-मंचपर मिथुन कौड़ा कर रहे थे। कहींपर नवमिथुन (नवदम्पति ) कहीं स्नेहसे हीन होते हैं ? मंच-पंचपर जनपद आन्दोलित था। जैसे ही कूबरनाथने मंचपर आरोहण किया, वैसे ही उसने लक्ष्मणको उसी प्रकार देखा, जिस प्रकार चन्द्रमाके द्वारा सूर्य देखा जाता है ॥१-९॥
[८] लक्षणोंसे भरे लक्ष्मणको उसने इस प्रकार देखा मानो साक्षात् कामदेव अवतरित हुआ हो। देवभवनको
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पउमचरित
मपण-सरामणि रें वि ण सकिउ । वम्महु दस-याणे हिँ पढ़किउ ॥३॥ पहिलएँ कहाँ वि समाणु ण घोझाइ । वीयएँ गुरु णीसासु पमेला ।।४।। सइयएँ सयल अशः परितप्पइ। घउथएँ, करवत्त हिँ कप्पड़ ||५|| पत्र में पुणु पुणु पासेइजह । छट्टएँ वारवार मुच्छिज्जाइ ।।६।। सत्तमें जलु वि अलर ण मावइ । भट्ट, मरण-लील दरिसावइ ।।७॥ गबमएँ पाम पात ग वेम। दस सिर छिमन्तु पहा॥
घत्ता
एम वियम्भिउ कुसुमाउहुँ दसहि मि थाणे दि । सं अपहरियउ जे मुक्छु कुमार पाणे हिं ॥२॥
[१] अंकण्ठ-हिउ जीवु कुमारहों। सण्णएँ वृत्त 'पहिउ हकारहों' ॥ पहु आप्पएँ पाइक पधाश्य । णिनिस, तहाँ पासु पराइय ४२॥ पणवें वि कुसु वि-खण्ड-पहाणउ । 'तुम्हढं का मि कोकाइ राणउ' ॥३॥ #णिसुणे वि उचलिज जणणु । तिहुलण-जण-पय-पस्यणाणम्दणु ॥४॥ षियण पत्रीह देन्सु णं केसरि। छन्द मारकम्त वसुन्धरि ॥५॥ दिट्टु कुमार कुमार एन्तउ । मयणु जेम जण-मण-मोहन्सउ ॥५॥ खणे कलापमालु रोमशिद। णडु जिह हरिस-विसाएँ हि पचिठ॥७॥ पुणु भइसारित हरि अखासणें। भविउ जेम थिउ दिन जिण सासणे ॥८॥
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छबीलमो संधि
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आनन्द देनेवाले उसका रूप देखकर राजाका मन हलचलों से युक्त हो गया। वह कामके धनुषको धारण नहीं कर सका । कामदेव दस स्थानों (दसों अवस्थाओं ) से आ पहुँचा। पहली अवस्था में वह किसी समान व्यक्तिले बात नहीं करता, दूसरी में लम्बे निःश्वास छोड़ने लगता है, तीसरीमें सारे अंग सन्तप्त हो उठते हैं, चौथोमें जैसे करपत्रसे काटा जा रहा हो, पाँचवोंमें बार-बार पसीना आने लगता है, छठी में बार-बार मूर्च्छा आने लाती है, सातों जल या जलसे गाला कपड़ा अच्छा नहीं लगता, आठवीं में वह मृत्युलीला दिखाता है; नौवीं में जाते हुए प्राणोंको नहीं जानतो; दसवी में फटते हुए सिरको नहीं जानती । कामदेव इस प्रकार दसों अवस्थाओंसे बढ़ गया । आश्चर्य यही था कि जो कुमारको प्राणोंने नहीं छोड़ा ||१-९॥
[९] जब कुमार के प्राण कण्ठस्थित रह गये, तो संज्ञा (चेतना) आनेपर कुमारने कहा - "पथिकको बुलाओ ।" प्रभुकी आलासे पथिक दौड़े और आधे पलमें उसके पास पहुँच गये । तीन खण्डकी धरती के स्वामी उससे कहा, "तुम्हें राणा किसी कारण बुला रहे हैं"। यह सुनकर त्रिभुवनके जनोंके मन और नेत्रोंको आनन्द देनेवाला लक्ष्मण इस तरह चल पड़ा, मानो विकट पदसमूह रखता हुआ सिंह हो । भारसे आकान्त घरती काँप उठती है। कुमारने कुमारको आते हुए देखा, फामदेव के समान जनमनको मोहित करते हुए । एक क्षणमें कल्याणमाला रोमांचित हो उठी, नटकी तरह वह हर्ष - विषादसे नाच उठी । फिर लक्ष्मणको उसने आघे आसनपर बैठाया जैसे भव्य जीव जिनशासन में दृढ़तासे स्थित हो । विशेष सुन्दर मंचपर जनार्दन बैठ गया जैसे प्रच्छन्न नव वरण करनेवाले के समान कन्याके साथ मिल गया ||१-५९॥
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पउमचरित
घत्ता
वाटु जणदणु आलीटएँ मञ्चे रवष्णएँ। णव-घरइसु व पच्छणु मिलिङ सहुँ कण्णाएँ ॥२॥
[१०] वे वि वट्ट वीर एक्कासण। चन्दाइच जेम गयणगणें ॥१॥ एक्कु पचण्ड तिखण्ड-पहाण: । अण्णेक्कु वि कुम्वर-पुर-राण ॥२॥ एकहाँ चलण-जुभल कुम्मुम्पाउ । मण्णेक्कहाँ रसुप्पल-बण्पाट ॥३॥ एकहाँ करू (१)-शुभमुसु-विस्था । अाफुमार सुम पचाणण-कद्धि-मण्डलु एकहाँ। पारि-णिसम्ब-चिम्बु अण्णेकहीं ॥५a एकहाँ सुललित सुन्दर भक्ट । अण्णेकहाँ तणु-तिबलि-तात ॥६॥ एकहाँ सोहा वियडु उरस्यछु । अण्णेकहाँ जोग्यणु थण-चकलु ॥७॥ पशहाँ बाहर दोह-विसालउ। अपणेव्हाँ णं मालाह-मालउ ॥४॥ पक्षण-कमलु पपफुलिउ पकहीं। पुण्णिम-बन्द-रुन्तु अणेकहाँ ॥९॥ एकहों गो-कमल विश्परियई। अपणेकहाँ बहु-विम्मम-मरियाई ॥१०॥ एकहीं सिरु वर-कुसुमें हिंवासिउ । अण्णेकहाँ बर-मडड-विहूलिउ ॥११॥
__घत्ता एछु स-लक्षणु लक्षिजइ जणेण असेसें । अण्णेका वि पुणु पच्छण्ण णारि णर-वेसें ॥१२॥
[1] वणु-दुग्गाइ-गाह-अवगाएं। पुणु पुणरुत्ते हि कुश्वर-णाई ॥३॥ णमण-कारपिसउ लक्षण-सरबह । जो सुर-सुन्दरि-णलिणि-सुहका ॥२॥ जो कब्रिय-वपकिन जो भरि करिहिण दोषि सकिउ ॥३॥ जो सुर-सउण-सहा हि माण्डिड । जो कामिणि-था-चाहिं बडि ॥४॥ बहिं तेहएँ सरे सेय-जलोल्लिज । लक्षण-पयण-कमल पप्फुल्लित ॥५॥ कण्ठ-मणोहर-दोहर-णाल। वर-रोमप्र-कश्खु-कण्टालउ ।।६।।
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छब्बीसमो.संधि [१०] दोनों वीर एक ही आसनपर बैठ गये-वैसे ही जैसे सूर्य और चन्द्र आकाशके आँगनमें। एक प्रचण्ड तीन खण्ड धरतीका राजा था, दूसरा कूबर नगरका राना था। एकके घरणकमल कछुएकी तरह उन्नत थे, दूसरेके चरणकमल रक्तकमलकी तरह थे। एकके दोनों ऊर विस्तृत थे, दूसरेके नवनीतकी तरह सुकुमार थे। एकका सिंहकी तरह कटिमण्डल था, जबकि दूसरेका नारीनितम्बके समान था। एकका शरीर सुन्दर और सुललित था, जबकि दूसरेका शरीर त्रिवलीरूपी लहरोंसे ( रेखाओंसे) युक्त था। एकका चिकट वक्षःस्थल शोभित था, जबकि दूसरेका स्तनचक्रोंसे युक्त यौवन था। एक की बाँह लम्बी और विशाल थीं, जब कि दूसरेकी मानो मालतीकी मालाएँ थीं। एकका मुखरूपी कमल खिला हुआ था, जबकि दूसरेका पूर्णिमाके चन्द्रमाके समान सुन्दर था। एकके नेत्रकमल बिखरे हुए थे, जबकि दूसरेके अनेक विभ्रमोंसे भरे हुए थे। एकका सिर श्रेष्ठ कुसुमोंसे सुवासित था, जबकि दूसरेका सिर श्रेष्ठ मुकुदसे विभूपित था । एक लक्षणों सहित, अशेष जनके द्वारा लक्षित किया गया, जबकि दूसरा पुरुषरूपमें प्रच्छन्न स्त्री था ॥१-१२॥
[११] दानवरूपी दुष्टग्रहके प्रह अर्थात लहमणका अवगाइन करनेवाले कूचरनरेशने लक्ष्मणरूपी सरोवरको तिरछे नेत्रोंसे देखा कि जो देवस्त्रियोरूपी कलिनियोंके लिए अत्यन्त सुन्दर था । जो कस्तूरीरूपी कीचड़से पंकिल था, जो शत्रुरूपी गजोंके द्वारा विलोड़ित नहीं किया जा सकता था । जो देवरूपी हजारों पक्षियोंसे मण्डित था, जो कामिनियोंके स्तनरूपी चक्र ( चक्रवाकों) से चढ़ा हुआ था। वहाँ उस सरोवरमें स्वेदरूपी जलसे आने लक्ष्मणका मुखरूपी कमल खिला हुआ था; जो कण्ठरूपी सुन्दर मृणालवाला था, उत्तम
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१०१
पबमचरिब
दसण-सकेसह महर-महादलु । षष-मयरम्दा कण्णाय ॥ कोयण-फलन्धुप-परिघुम्बिन। कडिल-बाल-सेवाक-करवित ॥6॥
धत्ता लक्षण-सरवर हउ भुक्ख-महाहिम-वाएं। से मुह-पार लक्विज कुम्वरसाएं ॥९॥
[१२] जं मुहकमलु दिड ओहुल्लिड । वालिखिल-तणएण पोलिड | १॥ 'हे णरणाहगाह भुवणाहिष। भोयणु भुम्लहु सु-कलर्स पिष ॥२॥ स-गुल्लु स-सोणउ सरसु स-इन्छ । महुरु सुभाधु स-णे सु-पच्छउ ॥३॥ सं भूमि परम पियासणु । परछल कि पि करहु समासणु' ॥४॥ संणिसुणेवि पजाम्पत लक्षणु। अमर-वरङ्गण-णयण-कष्टपखणु ॥५॥ 'उल्हु जो दीसह रुषस्तु रवपण। पसल-बहल-दाल-संकष्णव ।।६॥ आयहाँ विजलें मूकें दणु-दारउ । बच्छह सामिसाल अम्हारत' ॥७॥
धत्ता लक्सप्ण-वळणे हिं बलु कोकिउ पकिउ स-कन्सउ । करिणि-विहूसिउ वणनगइन्दु महन्त ॥6॥
[१३] गुलुगुकन्तु हलहेइ माहगाड । सरुवर-गिरि-फन्दरहों विणिग्गउ ॥१n सेय-पवाह-गलिय-गण्डस्थलु। तोणा-यल-विउल-कुम्मस्थल ॥२१॥ पिच्छावलि-अशिजक-परिमालिउ । किरिणि-मा-मालोमालिउ ॥३॥ विस्थिय-वाण-विसाण-मयङ्करु । थोर-पलम्य-धाहु-लम्बिय-करु ॥४॥ घणुवर-कगणखम्भुम्मूलन। दुष्टारु-मेट्ट-पडिफूलणु ॥५॥ सर-सिकार करन्तु महापाल । तिस-भुक्तएँ खलन्तु विहलबलु ॥६॥
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छम्पोसमो संधि रोमांघरूपी कंचुकसे काँटोंवाला था । दाँतोंरूपी केशर, अधररूपी महादल, षयरूपी मकरन्द और कानरूपी पत्तोंसे युक्त था। लोचनरूपी भ्रमरोंसे चुम्बित तथा कुटिल केशोरूपी शैषालसे अंचित था। भूखरूपी महाहिमवातसे लक्ष्मणरूपी वह सरोवर आहत हो उठा। वह मुखकमल फूबरराजाके
देला म ::१.। [१२] जब मुखकमल झुका हुआ दिखाई दिया तो बालिखिल्यकी कन्याने कहा, "हे नरराजाओंके राजा, विश्वराजा, आप सुकलत्रकी तरह सुन्दर भोजन करें। जो गुल (.मधुरता और गुड़) से युक्त, सलोणु ( सौन्दर्य और नमकसे सहित ), सइच्छ ( इछा और ईखसे सहित ), मधुर सुगन्धित, सस्नेह और पथ्य सहित है। पहले उस प्रियभोजनको कर लें, बाद में कुछ भी सम्भाषण करें।" यह सुनकर देवांगनाओंके नेत्रोंके कटाक्षोंसे देखे गये लक्ष्मणने कहा-"वह जो सुन्दर वृन दिखाई देता है, बहुत-से पत्तों और शाखाओंसे प्रच्छन्न, उसके विशाल मूलमें दनुका नाशक हमारा स्वामी श्रेष्ठ है।" लक्ष्मणके वचनोसे बुलाये गये राम अपनी सीवाके साथ इस प्रकार चले मानो हथिनीसे विभूषित वनगजराज प्रसन्नता. पूर्वक जा रहा हो ।।१-८॥
[१३ ] बलभद्ररूपी महागज गरजता हुआ तरुवररूपी पहाड़ी गुफासे निकला, जिसके गण्डस्थलसे प्रस्वेद प्रवाह गिर रहा है, जिसका तरकस युगलरूपी कुम्भस्थल है। पुंखोकी कतारोंरूपी भ्रमरसमूहसे घिरा हुआ है। जो किंकिणी घण्टियोंकी मालासे शोभित है, जो विस्तृत बाणोंरूपी दाँतोस भयंकर है, स्थूल और लम्चे बाहुरूपी लम्बी सूंड़वाला है, जो धनुषरूपी आधारस्तम्भको उखाड़नेवाला है। जो ऋद्ध दुष्टरूपी महावतके लिए प्रतिकूल है, जो स्वररूपी सीत्कार करता
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खाहि वेस वेन्तु विरुद्र जाणइ - वरणियारि -विह्नसिङ ।
पडमचरिङ
धता
मश्चारुणहाँ उत्तिष्णु असेसु वि राय - गणु (१) ।
मेरु विम्बों णं णिचडिउ गइ तारायणु ॥ ५॥
[
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हरि-कलाणमाल दणु-दलणेंहिँ । 'अच्छ ताव देव जल - कीटऍ एम भणेपिणु दिष्णइँ रहूँ । पठ स- साहण सरवर पाहयले धवल कवल-णखत-विहूसिएँ । उत्यलम्त-सफरि-चल-विज्जुलें । कुवलय-दल- तमोह-दरिसावणें । जल-तर- सुरचाधारम्भिऍ ।
निवर- वयणकुण जिउ ॥७॥ संप्रेक्वेंवि जणवड उबूसिउ ॥ ८॥
* ]
सहिँ हएँ सरे सोिं तरन्तहूँ । पाइँ विमाणइँ सग्गहों पडिय हूँ । स्थिरपणु जहिं जन्तु ण वडियउ स्थिमिहुणु जहिं णेहुण वडिउ
पढिय वे वि वरूएवहाँ चलणें हिं ॥ १ ॥ पच्छऍ मोयणु भुइँ लीलऍ ॥ २ ॥ शल रि-तुणय-प्रणव- दद्धि-पहरहूँ ||३|| फुलमधु-भ्रमन्त - गहमण्डलें ॥४॥ मीण-मयर-कक्कड पोखिएँ ||५|| णाणाविह - विहङ्ग - घण सङ्कुले ॥६॥ सीयर - णियर-वरिस वरिसावर्णे ॥ ७॥ चक- - जोइ सिय- - पवियम्भिएँ || ८ ॥
धत्ता
तहिँ सर पहलें सकल वे वि हरि-लहर । रोहिणि-रणाहिं णं परिमिय चन्द्र-दिवापर ||१||
[ 14 ]
संचरन्ति चाभीयर-जन्तहूँ ||१॥ वण्ण-विचित्त- रयण- वेथडियइँ ||२|| णथि जन्तु जहिं भिक्षुगु ण चडियउ ॥३॥ गरिथ गेहु जो णउ सुरयति ॥ ४ ॥
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छब्बीसमो संधि
१५ हुआ महाबली, प्यास और भखसे विहुलांग और स्खलित होता हुआ विरुद्ध होकर अपनी ही छायापर प्रहार करता हुआ, वह रामरूपी महागज जिनवचनरूपी अंकुशसे रोका जा सका। जानकीरूपी श्रेष्ठ हथिनीसे विभूषित उसे देखकर लोग हर्षित हो उठे। सभी राजसमूह मंचके आरोहणसे इस प्रकार उतर पड़ा, मानो प्रहतारा-गण मेरुनितम्बसे गिर पड़ा हो ।।१-९||
[१४] लक्ष्मण और कल्याणमाला दोनों ही रामके दानवोंका संहार करनेवाले चरणों में गिर पड़े। (और बोले ) हे देव! पहले देवक्रीड़ा हो ले, बादमें लीलापूर्वक भोजन ग्रहण करें।" यह कहकर उसने झलरि, तुणव, प्रणव, दडि और प्रहर बजवा दिये। वे दोनों साधन सहित सरोवररूपी आकाशमें घुस गये, जिसमें भ्रमररूपी घूमता हुआ प्रहमण्डल था, जो धघल कमलरूपी नक्षत्रोंसे विभूषित था। मीन-मकररूपी राशियोंसे युक्त था । जो उछलती हुई मछलीरूपी चंचल बिजलीसे युक्त था। नाना प्रकारके विहंगों रूपी धनोंसे संकुल था, जो कुवलयदलरूपी अन्धकारसमूहको दरसानेवाला था। सीकरसमूहरूपी वर्षाको बरसानेवाला था। जो जलतरंगोंरूपी इन्द्रधनुषोंसे युक्त था तथा अलरूपी ज्योतिषचक्रसे विजम्भित था। ऐसे उस सरोवररूपी आकाशतलमें राम और लक्ष्मण दोनोंने अपनी पत्तियों के साथ इस प्रकार रमण किया, मानो रोहिणी और रण्णाके साथ चन्द्र और दिवाकर हों॥१-९||
[१५ ] उस वैसे सरोवरमें पानी में तैरते हुए स्वर्ण यन्त्र चलते हैं, जैसे स्वर्गसे विमान आ पड़े हों, जो रंगोंसे विचित्र रत्नोंसे विजड़ित थे। उसमें एक भी रत्न ऐसा नहीं था कि जिसमें यन्त्र न जड़ा हो, ऐसा एक भी यन्त्र नहीं था, जिसमें मिथुन न चढ़ा हो, ऐसा एक भी मिथुन नहीं था, जिसमें स्नेह न बढ़ रहा हो। स्नेह भी ऐसा नहीं था जो सुरतिसे समृद्ध न
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पउमचरि
वहिं णर-गारि-वह जस-कीलएँ । कीलन्ता हूँ व्हन्ति सुर-लीलऍ ||५||
सलिलु करगोहिँ अप्फाकन्त हूँ । सुरव-व-घायहँ दरिसन्त हूँ ||६|| व लिएँहिँ बलिएँ हिँ अहिणव- गेऍहिं । अन्धाहिँ सुरय क्खित्तिय भेऍहिं ॥ ७ ॥ छन्देहं वाले हिँ बहु-खय भने हिँ । करणुच्छिते हि णाणा महिं ॥ ८ ॥
-
घत्ता
चोक् स-रागड सिङ्गार-हार-दरिसाबणु ।
पुक्खर जुज्नु व तं जल-कीळण्ड स ल खणु ॥ ९ ॥
वहें जय-जय सर्वे महाय पर । एरन्तरें समरे समयऍण । तणु-लुहाई देवि पहाणऍण ! पप भवणें पसारियहूँ । विस्थारि बिरथरु भोगणउ । रवि पट्ट-विहूसियत । सुरथं पिव सरसु स-तिम्मणव । मु सच्छ मीपणउ ।
[ १
पुणु पिच रू-सार-घर ॥१॥ सिर-मिय कयञ्जखि हृष्यऍ ॥२॥ पुणु तिमिण वि कुष्वर-राणऍण 11३ चाभियर पी बसारियाँ ॥ ४॥ सुकल व इच्छ ण मणउ ॥ ५ ॥ सूर पिन थालालयित ॥ १ ॥ वायरणु व सहइ स - विजणउ ॥ ७ ॥ किउ जग या पारण ॥८॥
]
घप्ता
दिष्णु विषणु दिनहुँ देव बथएँ । सालकर हूँ णं सुकइ-कियइँ हुइ-साथ ॥१॥
।
सीहि मि परिहिया हूँ देवश हूँ दुलह-सम्भहूँ जिण-वयणाएँ व वीहर-यई अस्थाणा व ।
।
[ १७ ]
उबहि-जलाइँ व बहल तर हूँ ॥ १ ॥
पसरिय-पट्टई उच्छ-बणाई व ॥२॥ फुलिप-ढाई उज्जाणाएँ ६ ॥२॥
F
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छम्वीसमो संधि हो, उस जलक्रीड़ामें युषा नरनारी क्रीड़ा करते हैं और वेवलीलासे स्नान करते हैं। हाथोंकी अंगुलियोंसे पानी उछालते है; क्या मृदंग वायके आधात दिखाते हैं, स्खलित होते हुए, मुड़ते हुए--अभिनव गीतों, बन्धों, काम-कटाक्षके नाना भेदों, छन्दों, तालों, अनेक लयों और भंगों, इन्द्रियोंको सींचनेवाले प्रकारोंके द्वारा। वह जलक्रीड़ा पुष्कर-युद्धको (१) तरह चोखी, सराग, सलक्षण ( लक्षणसहित-लक्ष्मणसहित) और श्रृंगारभारको दिखानेवाली थी ॥१-९॥
[१६] जलमें जय-जय शब्दोंके साथ लोगोंने स्नान किया, फिर राम और लक्ष्मण बाहर निकले। इसी बीच युद्ध में समर्थ, तथा जिसने सिरको झुकाते हुए और हाथकी अंजली बाँधी हैं, ऐसे प्रधान नलकूबर राजाने शरीर पोंछनेके लिए वस्त्र देकर, उन तीनोंको प्रच्छन्न भवनमें प्रवेश कराया, और स्वर्णपीठपर उन्हें बैठाया। उन्हें विस्तृत भोजन परसा गया, जो सुकलत्रकी तरह इच्छाका खण्डन नहीं करनेवाला था, राज्यके समान जो पट्टसे विभूषित था, तूर्यके समान थालसे अलंकृत था, सुरतके समान सरस और सतिम्मण ( आर्द्रता और कढ़ी सहित ) था । व्याकरणके समान व्यंजन ( पकवान और व्यंजन वर्ण ) से सहित था। उन्होंने अपनी इच्छासे उस भोजनको किया मानो विश्वनाथने पारणा की हो। उन्हें लेप और देवांग वस्त्र दिये गये, जो सालंकार ( अलंकार सहित ) थे, मानो कविके द्वारा रचित श्रुति शास्त्र हो ॥१-९॥
[१७] उन तीतोंने देवांग वस्त्र पहन लिये जो समुद्रके जलकी तरह वहल तरंगों ( बहुत लहरों-बहुत रेखाओं ) वाले थे, जिनवचनोंकी तरह, जो कठिनाईसे प्राप्त होते थे, ईख वनकी तरह जो प्रसरितपट्ट ( जिनका पट्टा-विस्तार कैला है ) थे, आस्थानकी तरह, जो दीर्घ छेद (सीमा और छेद ) वाले थे,
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परमचरित पिच्छिा कइ-कम्म-पयाई छ । इलुप धारण-गण-यणा ॥१॥ कण्ह. कामिणि-मुह-कमलाईव । बह जिणवर-धम्म-फकाई व ॥५॥ समसुत्ता किष्णर-मिहुगाई व । अह-संमत्तहँ वापरणाई व ॥३॥ तो पट्यन्तर कुम्वर-सारें। ओयारिड सण्णाहु कुमार ॥७॥ सुरवर-कुलिस-मज्म-तणु-अझै। णावह कबुद्ध मुबक भुभो ॥८॥
सिहुमण णाण सुरजण-मण-णयणाणन्द । मोक्षही कारणे संसार व मुक्कु जिणिन्दै ॥९॥
[ ५८ तहिं एकन्स-भवणे परछण्णएँ। जं अप्पाणु पगासिउ कण्णएँ ॥१॥ पुच्छिय राहवेण परिओसें । 'अस्तु का तुहुँ थिय परवेसे ॥२॥ सं णिसुणेपिणु पगलिय-यणी । एम पम्पिय गम्गिर-षषणी ॥३॥ 'रुदभुचि-गामेण पहाण्ड । दुजउ विम्झ-महोदर-राउ ॥॥ तेण धरेपिणु कुन्धर-सारउ पालिखिल्लु णिउ जणणु महारज ॥५॥ ते कर्जे थिय हउँ णर-बेसें। जिहण मुणिजमि जण असेसे' ॥६॥ ने णिमुणेवि वयशु हरि कुछ। णं पश्चाणणु आमिस-लुबउ ॥७॥ अचन्तन्त-णेतु फुरियाहरु । एम पजम्पिड कुरुनु समकार ॥४
पत्ता
'जइ समरमण तं रघभुत्ति पाउ मारमि । दो सहुँ सीय सीराउह गड जयकारमि' ॥१॥
[१९] जंकल्लाणमाण मम्भीसिय । रड पर-धेसु कइड मासासिय ॥१॥ ताप दिवायर गड अस्यवहाँ। लोड पद्धकरणिय-णिय-मवणही ॥२॥
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छवीस संधि
१०९
उद्यानके समान जो फूलों और शाखाओंवाले थे, कवि द्वारा रचित पदोंकी तरह, जो छिद्र ( दोष ) से रहित थे, जो चारणजनके वचनोंकी तरह हलके थे । कामिनीके सुखरूपी कमलकी तरह जो सुन्दर थे, जिनवर धर्मके फलकी तरह जो बड़े थे, किन्नर मिथुनों ( जोड़ों) की तरह जो ( वस्त्र ) समसुत { अच्छी तरह सोये हुए, अच्छी तरह गुथे हुए ) थे, जो व्याकरणकी तरह अथसे लेकर समाप्ति तक पूर्ण थे, तब इसी बीच कूबरनगरके श्रेष्ठ तथा सुरबरके वज्रके मध्यभागकी तरह क्षीणशरीर कुमारने अपना कवच उतार दिया मानो सौंपने अपना केंचुल उतार दिया हो जैसे सरजनोंके मनको आनन्द देनेवाले त्रिभुवनस्वामी जिनेन्द्रने मौक्षके कारण संसार छोड़ दिया हो. ॥१-९२ ॥
[१८] उस एकान्त भवनमें, जब उस प्रच्छन्न कन्याने अपने आपको प्रकट किया तो रामने परितोषके साथ पूछा कि बताओ तुम पुरुषरूपमें क्यों हो ? यह सुनकर जिसकी आँखोंसे पानी बह रहा है, ऐसी वह रुँधी हुई बाणीमें इस प्रकार बोली, "रुद्रभूति नामका विन्ध्यपर्वतका राना प्रधान और दुर्जेय है । वह मेरे पिता कुबरश्रेष्ठ बालिखिल्यको पकड़कर ले गया हैं । इस प्रकारसे मैं पुरुषरूपमें रहती हैं कि जिससे दूसरे पुरुषोंके द्वारा न जानी जाऊँ ।" यह वचन सुनकर लक्ष्मण क्रुद्ध हो गया मानो आमिष ( मांस ) का डोभी सिंह हो । अत्यन्त सन्तप्त नेत्र, फड़कते हुए ओठोंवाला समरसर और कठोर वह इस प्रकार बोला - "यदि मैं युद्धके प्रांगण में उस रुद्रभूतिको नहीं मारता हूँ तो सीतादेवी सहित रामकी जय नहीं बोलूँगा" ॥१-९॥
[ १९ ] जब कल्याणमालाको अभयवचन दिया गया तो शीघ्र उसने आश्वस्त होकर पुरुषरूप ग्रहण कर लिया। इसी
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पउमरिंड णिसि-मिलियरिदस-दिसहिं पधाइय । महिनायणो? बसेवि संपाइय ॥३॥ गह-णखत्त-दन्त-उरस्तुर । उचाहि-जीह-गिरि-दाढा-मासुर | घण-लोयण-ससि-तिलय-विहूसिय । सम्झा-लोहिय-धित-पदीसिय ॥५॥ तिहुयण-वयण-कमल दरिसेप्पिणु। सुतपाइँ रवि-मदन गिलेप्पिणु ॥६॥ साव महावल-बलु विषणासें वि । तालवतें णिय-णामु पगाबिसें ॥७॥ सीपएँ सहुँ घल-कपह विणिग्गय । णितुरक गोसन्दण णिग्गय ॥८॥
पत्ता ताव विहाण रवि उदित अणि-विणासउ । गउ अच्छन्ति व पं दिणयरु आठ गवेसउ ॥९॥
उवि कुबरपुर-परमसरु । जात्र स-हत्य वामह अक्स्वरु ॥३॥ ताच तिलोयहाँ अतुल-पयावहै। सुरवर-भवण-विणिग्गय णायइँ ॥२॥ दुम-दाणवेन्द-आयामहै। दिई लक्षण-रामहुँ गाव ॥३॥ खणे कजाणमाल भुईगय । णिज्यि केलि व खर-पवणाहय ॥७॥ दुक्खु-दुक्ख प्रासासिय' जावें हिं। हाहाकारु पमेल्लिर तावहि ॥५॥ 'हा हा राम राम जग-सुन्दर। लक्खण लपखणलक्ख-सुहतर ॥६॥ हा हा सीएं सोएँ उप्पैक्समि। तिहि मि जगहुँ एकोपिण पेक्खमि ॥७॥ एम पलाउ करन्ति " थक्का। खणे णोसस ससइ खणे कोइ ८
घसा पण खपणे जोयह उदिसु लोयणे हिँ विसाल हिं। वण खणे पाहणइ सिर-कमलु सई भु प-डाऊँ हिं ॥९॥
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सम संधि
१११
atra सूर्यास्त हो गया। लोग अपने-अपने भवनोंके लिए चले गये। निशारूपी निशाचरी दसों दिशाओं में दौड़ी। वरवी और आकाशके ओठोंवाली जो मानो काटने के लिए आयी हो। प्रह और नक्षत्रोंरूपी दाँतों से वह नुकीले दाँतोंवाली थी, समुद्ररूपी जीभ और पर्वतरूपी दादोंसे वह भास्वर थी। मेषरूपी लोचन और चन्द्रमारूपी तिलक से विभूषित थी । सन्ध्याकी लाल आभासे प्रकाशित थी। त्रिभुवनके मुखरूपी कमलको देखकर तथा सूर्य केशवको निगलकर वह जैसे सो गयी । तब, महाबलके बलको स्थापित कर, ताड़पत्रपर अपना नाम प्रकाशित कर, सीता के साथ राम और लक्ष्मण वहाँसे चल दिये। रथ और अश्वके बिना वे निकल गये। तब इतनेमें सवेरे रात्रिका अन्त करने वाला सूर्य उदित हुआ। मानो वे गये, या है, यह खोजने - के लिए दिनकर आया हो ॥१-१९॥
[२०] कूबर नगरका राजा उठकर जबतक अपने हाथसे अक्षरोंको पढ़ता है, तबतक उसने त्रिलोक में अतुल प्रतापवाले, सुरवर भवन में प्रसिद्ध नाम, दुर्दमनीय दानवोंका दमन करनेवाले राम-लक्ष्मणके नामोंको देखा। एक क्षणमें कल्याणमाला मूच्छित हो गयी । प्रखर पवनसे आहत केलेके वृक्ष की तरह गिर पड़ी। बड़ी कठिनाईसे जिस प्रकार आश्वस्त हुई वैसे ही उसने हाहाकार करना शुरू कर दिया। हा राम, जग सुन्दर, लाखों लक्षणोंसे शुभंकर हे लक्ष्मण, हा-हा सीते, मैं देखती हूँ परन्तु तीनों से मैं एकको भी नहीं देखती।" इस प्रकारका प्रलाप करती हुई वह जरा भी नहीं रुकती। एक क्षण में निःश्वास छोड़ती और श्वास लेती, और एक क्षण में पुकारती । क्षण-क्षणमें अपने विशाल नेत्रोंसे चारों दिशाओंको देखती । और क्षण-क्षण में अपनी भुजारूपी शाखाओंसे सिररूपी कमलको पीटती ॥ १-२ ॥
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पदमचरित
सत्सवीसमो संधि
तो सायर-वजाभरार सुर-डामर धिमार णारायण-राहव रणे अजय र्ण मत्त महागय विमल गय ॥
ताणन्त गम्मय दिट्ट सरि। सरि अण-मण-णयणाणन्द-करि ॥१॥ करि-मयर-कराहय-डहय-तड। तस्यद पडन्ति बम्न-मड़ ॥२॥ मर-भीम-णिणाएं गीढ-मय । मय-भीय-समुद्रिय-चकन्हय ॥३॥ इय-हिसिय-गजिय-मत्त-गय । गायवर-अणवस्य विस-मय ।।४॥ मप-मुक्क-करखिय पहा महु। महुयर हण्टन्सि मिलन्ति सहु ॥५॥ तही धाइय गन्धव पवाद-गण । गण-मस्थि-करन्जलि तुट्ट-मण ॥६॥ मगहर कार भुअन्ति वल । बल-कमल-करम्बिय सङ्ग-दल ॥५॥ दल भमर परिहिय केसाहाँ। केसर णिउ गवर जिणेसरहों ॥८॥
घत्ता तो सोराठह-सारमधर सहुँ सीय सलिल पइट गर । सषयार करेप्पिणु रेवयएँ गं तारिय सासण-देवयएँ ॥९॥
[२] पोवन्तरें महिहर भुअण-सिरि। सिरियच्छ दीप विन्माइरि । इरिणबहु ससिपहु कण्णपहु । पिहुलप्पड णिपहु मीणपहु ॥२॥ मुरवी व स-सालु स-सहरू। विसहो उन स-सिख महम्त डा ॥३॥
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समोसमोसा
३११
सत्ताईसवी सन्धि तब असुरोंका विनाश करनेवाले, देवोंके लिए भयंकर सागरावर्त और बनावत धनुष धारण करनेवाले, युद्ध में अजेय लक्ष्मण और राम मानो मत्त महागजकी सरह विन्ध्याचल पर्वतके लिए गये।
[१] इसी बीच उन्हें नर्मदा नदी दिखाई दी, नदी जो कि जनोंके मनों और नेत्रोंको आनन्द देनेवाली थी, जिसके दोनों घट गनों और मगरोंकी दूबोंसे आहत थे, मानो उनपर तड़-तड कर वनाधात हो रहा था; आघातके भयंकर शब्दसे जो भयसे व्याप्त थी। जिससे भयके कारण डरे हुए चक्रवाक और अश्व भाग रहे थे, जिसमें घोड़े हिनहिना रहे थे और मच गज गरज रहे थे। गजवर अनवरत रूपसे मद छोड़ रहे थे जिसमें मदसे मुक्त और मिश्रित मधु बह रहा था। उसपर भ्रमर गुनगुनाते थे और मिलते रहे थे। उसपर गन्धों का प्रवाहे-समूह दौड़ रहा था। गणोंकी अंजलियाँ भरी हुई थीं और वे तुष्ट मन थे। बैल मधुर ढेक्कारकी आवाज कर रहे थे, उनके सींगोंका समूह श्रेष्ठ कमलोंसे अंचित था। केशरके दल ( पराग )में प्रविष्ट हो चुके थे; केशर जो कि केवल जिनेश्वरके लिए ले जायी जाती है। तो सीता देवीके साथ श्रीराम, लक्ष्मण
और लोग पानी में उतरे मानो उपकार कर शासनदेवताके समान नर्मदा नदी ने उन्हें तार दिया ॥१-९।। ___ [२] थोड़ी दूर चलनेपर भुवनकी शोभा विन्ध्याचल रामको दिखाई देता है। इरिणप्रभ, शशिप्रभ, कर्णप्रभ, पृथुलप्रभ, निष्प्रभ और क्षीणप्रभ भी। जो विन्ध्याचल मृदंगकी तरह सताल ( ताड़वृक्ष--ताल ) सधर (वंश और कुटुम्ब ) वृषभकी तरह, ससिंग (सींग और शिखर सहित); महन्तडर
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परमचरिड़
मयणो व महाणल-प-राणु। जलउ स्व ल-वारि महु ग्ब स-वणु lan तहि तेहएँ सेले अहिट्टियई। दुणिमिसई साब समुष्टिय ॥५।। फेोकारइ सिव पायसु रसह। मोसावणु भण्डशु अहिलसइ ।।।। सह-सुणेषि पकम्पिय जणय-सुभ। घिय विहि मि घरेप्पिणु भुहि भुषा॥ 'किं ण सुउ चवन्तु वि को विणरु । हि सउड माणिड वेइ बरु' ॥८॥
__ पत्ता त णिपुणे वि असुर-विमणेण मम्मीलिय सीय जणरणेण । 'सिय लक्षणु घलु पञ्चक्नु बाहक सउण-विसउणें हिं गणु तहिं॥९॥
एस्थन्तरें रहस-समुच्छलिउ। भाहे लाभुति चलिउ ।।१।। ति-सहासें हिं रहवर-गयबरें हिं। तद्गुण-तुरले हि ण वर हिं ।।२।। संचलले विझ-पहाणऍण । लक्खिला जाणइ राणऍण ॥३॥ पप्फुल्लिय-धवल-कमल-षयण । इन्दीवर-दल-दोहर-पायण ॥१॥ सणु मजो जियम् वरखें गरुन । ज णरण-कहक्खिय जगाय-मुअ ॥५॥ उम्मायण-मयणें हिं मोहण हिं। वाणे हि संधीवण-सोसणे हिं ॥३॥ आयलिट सल्लित मुग्छियउ। पुणु दुपख दुपस्नु मोमुच्छिया ॥७॥ कर मोरइ अङ्ग वलह हसह । ऊससह ससह पुणु णीससइ ॥८॥
पत्ता भयाद्य-सर-जज़रिम-तणु पङ्गु पम पजस्पिड कुझ्य-मशु । 'अणिमण्डएँ त्रणव सि वणवसहुँ उहाले वि आणही पासु महु ॥९॥
तं चयणु सुणेपिणु णर-गियरु। उधरित गाई णव-अम्बुहरु ॥१॥ गजान्त-महागय-वण-पवलु। तिश्वग्ग-खम्ग-विजुल-बबलु ॥२॥
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समो संधि
( महा भयानक ), मदनके समान महानलद्ग्ध शरीर था । मेघ के समान सवारि ( जल सहित ); भटके समान, सवण ( व्रण और वन सहित ), था । उस वैसे वनमें जब वे रहने लगे तो खोटे अपशकुन हुए। शृगाल चिल्लाने लगता है, कौआ बोलता है, भयंकर युद्ध चाहता है। स्वर सुनकर सीता काँप उठी और दोनों बाँहोंसे बाँह पकड़कर स्थित हो गयी और बोली, "क्या आपने किसी नरको बोलते हुए नहीं सुना, जैसा शकुन माना जाता है, वैसा वर देता है ।" यह सुनकर असुरोंका मर्दन करनेवाले लक्ष्मणने सीताको अभय वचन दिया कि जहाँ सीता, लक्ष्मण और राम प्रत्यक्ष हैं, वहाँ स्वप्न और दुःस्वप्नकी क्या गिनती ॥१-९१३
[ ३ ] इसी बीच, हर्षसे उछलता हुआ रुद्रभूति आखेटके लिए चला- तीन हजार रथवरों और गजवरों, इससे दूने ऊँचे मनुष्यवरोंके साथ चलते हुए विन्ध्याचलके प्रमुख राजा रुद्रभूतिने जानकीको देखा जो खिले हुए धवल कमलके समान मुखवाली, और नील कमलदलके समान लम्बे नेत्रोंवाली है । मध्य में दुबली-पतली तथा नितम्ब और वक्षमें भारी है। जब उसने सीताको देखा तो वह उन्मादन, मदन मोहन, सन्दीपन और शोपण आदि बाणोंसे आहत, पीड़ित और मूर्छित हो गया। फिर बड़ी कठिनाईसे उसकी मूर्छा दूर हुई। वह हाथ मोड़ता है, शरीर चलाता है, हँसता है, उच्छवास लेवा है, श्वास लेता और फिर निःश्वास लेता है। कामदेवके तीरोंसे जर्जर शरीर वह मिल्लराज कुपित मन होकर इस प्रकार बोला कि उस वनवासिनीको उन बनवासियोंसे बलपूर्वक छीनकर मेरे पास ले आओ ॥ १-२ ॥
9944
[४] नरसमूह, वह वचन सुनकर नवमेघकी तरह बछला जो गरजते हुए महागजोंरूपी धनसे प्रबल और तीखे अग्रभाग
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११६
पउमचरित
हय-पडइ-पगजियनायणयलु। सर-धारा-धोरणि-जल-पहल ॥३॥ घुल-धवन-मृत्त-हिण्डीर-वरु। मण्डलिय-चाव-सुरचाव करु ॥॥ सय-सन्दण-चीन-भयाबहुल ।। लिय यमर-बलाय-पन्ति-विउल ॥५॥ ओरसिय-सदगुदुर-पउरु । तोणार-मोर-णण-गहिरु ॥६॥ ते पेपखें वि गुज-पुज-पायणु।। दहो?-रष्ट्र-रोसिय-वयण ॥७॥ भावजू-तोगु धणुहरु श्रम। शाइड लफ्रखणु लहु लघु-जङ ||4||
घत्ता
सं रिउन्ककाल-त्रिणासयह हलाहे इहें मायर सीयन्दरु । जण-मण-कम्पाघणु स-पवशु हेमन्तु पढकि मामकृणु ॥९॥
आम्फालिउ महुमहणेण धणु। भणु-सहें समुटिउ खर-पषणु ।।१।। सर-पवण-पहय पालघर रखिय। रवियागमे वजासगि पहिय ॥२शा पडिया गिरि सिहर समुपलिय । उच्छलिय चलिय महि मिलिय ॥३॥ जिलिय भुभम विसग्गि मुक्त। गुरुम्त पावर साया दुक ॥४॥ हुमन्ताहि बहल फुलिङ्ग विस। घण सिप्रि-सक्षा-संपुत्र पलित्त ॥५ धगधगधगन्ति मुत्ताहलाई। कहकर कहन्ति सायर-जलाई ॥६॥ हसहसहसन्ति पुलिणन्तराई। जलजलजलन्ति भुअणन्तराई ॥७॥ से धणुहर-सवें णिहरण । रिज' मुक प्याव-मडफरेण ॥८॥
घत्ता मथ-मीय विसाल पर पवर लोहात्रिय हय गथ धर चमर । धणुहर टकार-पवण-पहय रिज-तरुवर णं सम-खण्ड गय ॥१॥
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११७
सत्तचीसमो संधि बाली तलवाररूपी बिजलीसे चपल था। जो आहत नगाड़ोंसे गगनतलको गर्जित कर रहा था, जो सरधाराकी कतारोंसे प्रचुर जलबाला था, जो काँपते हुए धवल छत्रोंरूपी फेनसे श्रेष्ठ था। मण्डलाकार धनुषरूपी इन्द्रधनुष जिसके हाथ में था। जो सैकतों रथयोलोसेसावद था, तशा पोन चमरोंरूपी बलाकाओंकी पंक्तियोंसे विशाल था, जो बजते हुए शंखोंरूपी मेंढकोंसे प्रचुर था, और तूणीररूपी मयूरोंके नृत्योंसे गम्भीर था। ऐसे उस नवमेधको देखकर, मुंजाफल समूह के समान नेत्रवाला, ओठ चबाते हुए रुष्ट और क्रुद्धमुख तरकस बाँधे हुए, अभय, धनुर्धर, लब्धजय लक्ष्मण शीघ्र दौड़ा। शत्रुरूपी कंकालका नाश करनेवाला, रामका भाई लक्ष्मण हेमन्तकी तरह जनमनको कैंपानेवाला, सपवन ( पवन और बाणसे सहित ), सीयवर (ठण्डसे श्रेष्ठ, सीताके लिए उत्तम) वहाँ पहुँचा ।।१-९||
[५] लक्ष्मणने अपना धनुष चढ़ाया। धनुपके शब्दसे तीन हवा उठी। तीन हवासे आहत मेघ गरज उठे। मेघोंकी गजेनासे वाशनि पढ़ने लगे। जब पहाड़ गिरे तो शिखर उछलने लगे । उछलते हुए वे चले और धरती दलित होने लगी। धरती दलनसे साँपोंकी विषाग्नि छोड़ने लंगी, जो मुक्त होकर वह केवल समुद्र तक पहुँची । पहुँचते ही ज्वालाओंने चिनगारियौँ फेकी, उससे प्रचुर सीपी, शंख-सम्पुट जल उठा। मुक्ताफल धक धक करने लगे, सागर जल कड़-कड़ करने लगे। किनारों के अन्तराल हस-ह्स करके फँसने लगे, मुवनोंके अन्तराल जलने लगे। जिसने शत्रुका प्रताय और घमण्ड छुड़वा दिया है, ऐसे उस निष्ठुर धनुष शब्दसे भयभीत अस्त-व्यस्त बड़े-बड़े मनुष्य, हय, गज, ध्वज और चमर लोट-पोट हो गये। धनुषको टंकारकी हवासे आहत होकर शत्रुरूपी वृक्षवरोंके सैकड़ों टुकड़े हो गये ॥१-९॥
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पउमसरित
एस्थन्तर सो विम्माहियह । सहुँ मन्तिहि कामुक्ति पर ॥१ 'इमु काई होज तइलोक-भड । कि मेरु-सिहरु सब-खण्ड गउ ॥२॥ किं दुन्दुहि हय सुस्वर-जाणं ण। किं गज्जत पलय-महाघणे ॥१॥ किं गयण-मगगे सडि सहयडिय । कि महिहरे बजासणि पलिय ॥४॥ कि कालु कयन्त-मितु हसित। किं बलयामुटु समुन्दु रसिड ॥५॥ किं इन्दहीं इन्दफ्तणु टलिउ। वय-रक्खसण कि अगु गिलिउ ॥६॥ किं गउ पायालहाँ भुवणयलु। चम्मण्ड फुटटु किं गयणयालु ॥७॥ किं खय-मारउ ठाणहाँ चलिउ। किं भसणि-णिहाड समुच्छलिट ॥८॥
कि सयल स-सायर चलिय महि कि दिसि-गय कि गजिय उवहि । ऍउ अक्तु महन्तउ अच्छरित कहाँ सौ तिहुअणु थरहरिज ॥५॥
जं णरवह एन चषन्तु सुध। पभणइ सुभुत्ति कण्टइय-मुउ ॥५॥ 'सुणि खमि जं तइकोक-मउ । उ मेर-सिहरू सय-खपढ गाउ ॥२॥ णत दुन्दुहि हय सुरवर-जप्पण। णउ गविउ पलय-महाघणेण ॥३॥ णउ गयण-मग तडि तडयडिय । उ महिहरें बजासणि पडिय ॥४॥ णड कालु कियन्त-मित हसिड । उ वलयामुहु समुदतु रसिउ ॥५॥ पड इन्दहाँ इन्दत्तणु रलिउ । स्वय-रक्ससेण पड जगु मिलिउ ॥६॥ णउ गड पायालहौ भुवणयलु। चम्म फुटतु णउ गयणयलु ॥७॥
उ' खय-मारुउ थाणहाँ चलिउ। उ मसणि-णिहाउ समुच्छलिउ ।।८॥ गाउ सग्रल स-सायर चलिय महि । णड दिसि-गय णउ गजिय उवहि ॥९॥
पत्ता सिय-लक्षण-चल-गुण-धम्तएँण णीसेसु वि जउ धवलन्तऍण । सु-कल जिम अण-मणहरण ऍड गजिउ लमाण पशुहरेंण ||१०||
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मत्तवीसमो संधि [६] इसी अन्तरालमें विंध्याचलका राजा रुद्रभूति अपने मंत्रियोंसे कहता है,–'त्रिलोक में यह भय क्यों हो रहा है । क्या किसी देव जनने दुंदुभि बजायी है ? क्या प्रलयके महा मेघ गरजे हैं? क्या आकाश मार्गमें बिजली तड़-तड़ चमकी है ? या पर्वतपर वफा गिरा है, या कृतान्तके मित्र कालने अट्ठहास किया है ? या वलयामुख समुद्र गरज उठा है। क्या इन्द्रका इन्द्रत्व टल गया है, क्या क्षय रूपी राक्षसने संसारको निगल लिया है, क्या मुवनतल पाताल लोकमें चला गया है। क्या ब्रह्माण्ड या आकाशतल फूट गया है ? क्या प्रलय पवन अपने स्थानसे चल पड़ा है ? क्या वनसमूह उछल पड़ा है ? क्या समुद्र सहित समूची धरती चल पड़ी है ? क्या दिशा गज या समुद्र गरज उठे हैं ? यह बतानो मुझे महान आश्चर्य है कि किसके शब्दसे त्रिभुवन थरौ उठा हूँ ? ।।१-९||
[७] जब राजाको यह कहते हुए सुना, तो पुलकित राहु सुभुक्ति कहता है-"सुनिए, मैं बताता हूँ कि जिससे त्रिलोकको भय उत्पन्न हुआ है। मेरु पर्वतके शिखरके सौ टुकड़े नहीं हुए हैं, और न सुरवरोंने दुटुभि बजायी है । प्रलय महामेघोंने गर्जन नहीं किया है, और न आकाश मार्गमें बिजली कड़की है । महीधर पर वञ नहीं गिरा है, और न कृतांतका मित्र काल हँसा है । वलयाकार समुद्र नहीं गरजा और न इन्द्रका इन्द्रस्व ही अतिक्रान्त हुआ है। न तो विनाशके निशाचरने संसारको निगला है, और न ब्रह्माण्ड या गगनतल ही फूटा है। न तो क्षयपवन अपने स्थानसे चलित हुआ है, और न वनका आघात हुआ है। न तो समुद्र सहित धरती उछली है और न दिशागज । और न समुद्र गरजा है। सीता लक्ष्मण बलराम
और गुणोंसे युक्त, समस्त जगको धवल करते हुए, सुकलत्रके समान विश्वके मनको हरण करनेवाले धनुधर लक्ष्मणके द्वारा
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१२०
सुर्णे व असुर-परायण हुँ । aft असे विवसš । एक्कहाँ मसि निम्मल धवल तणु एक्कड़ों महि- माणदण्ड चलण । एक्कही त म पीसियउ । एक्क लुसिय-सहिउ |
एक्कों मसाणु हेड हलु | एक्क मुह ससिकुन्दुज्जरूठ ।
तिचहिँ पडिउ |
बत्ता
सं वयणु सुणेपिणु विगय-मउ णीसन्दुजु विग्गड णिपुर ।
एवों चलणें हिँ पदिउ किह हियूँ जिपिन्दह इन्दु जिह ॥९॥
[
धगधगधगन्तु |
'शृणु हणु' भगन्तु |
करयल णन्तु । विष्फुरियवयणु ।
पउमचरिउ
[1
जं चिन्ह व ारायणहुँ ॥ १ ॥ सुरभुवणुच्छ लिय-महाजसहुँ ॥२॥ । अण्णेक्कड़ कुवलय- पण करणु ॥३॥ कहीँ हुम-दणु-दलः ॥४॥ अण्क्क कमल विडुसियस ॥ ५॥ सीगहि || ६ ||
महि- माणदण्डु |
सो ऋषि एव ।
जं पद्म पुण
मुक्काल्छु
अक्कहाँ हरु अतुल खलु ॥७॥ भण्णेक्कपण-वण-सामरूड' ॥८॥
विउ ल र्ण साह मज्जायएँ घरिङ ।
वलेण णित्रारियड़ |
]
सं लक्षणु कोवाणले चलि ॥१॥
थरथरथरन्तु ॥ २ ॥
ककि कियन्तु ॥३॥
घत्ता
सुणेपिणु असुल-बलु 'सुणु लक्खण' पचविउ एष वलु । जो ते लिह को जसु बि
॥९॥
महि लिन्छु || ४ ||
गिरियजय ||५||
परदल पचण्डु ॥६॥ 'रिव मेल्लि देव ॥७॥
पुजइहए
||४|
[ 10 ]
१०
||१||
சு इन्दु कष्णारि पु-पुणु विचवि मकर-भरिउ ॥ २॥
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१२१
सत्तबीसमो संधि यह गर्जना की गयी है ।" ॥१-१०॥
[८] हे राजन्, सुनो असुरको परास्त करनेवाले बलभद्र और पासुदेवके जो चिह्न हैं, वे सब चिह्न, जिनका महायश देव भवनमें उछल रहा है, ऐसे इन वनवासियों में हैं। एकका शरीर चन्द्रमाके समान धबल है, दूभरेका नीलकमल और मेघके समान श्याम है। एकके चरण धरतीके लिए मानदण्ड हैं, दूसरेके दुर्दम दानवोंका बलन करनेवाले हैं। एक शरीर मध्यमें कुश है, दूसरेका शरीर कमलोसे विभूपित है। एकका वक्षस्थल सीतासे झोभित हैं, दूसरेका पक्षास्थल सीता (लक्ष्मी) से अनुगृहीत है, एकके पास भयंकर बज और हल है, दूसरेके पास अतुलबल धनुष है। एकका मुख चन्द्रमा और कुन्दके समान उज्ज्वल है; दूसरेका नयघनके समान श्यामल है। यह वचन सुनकर बिगतमद उत्सरहीन बह बिना रथके गया, और अलभद्रके चरणों में उसी प्रकार गिर पड़ा, जिस प्रकार इन्द्र जिनेन्द्र के अभिषेकमें उनके चरणों में गिर पड़ता है ! ॥१-९।।
[९] जब रुद्रमुक्ति चरणों में गिरा तो लक्ष्मपाका कोपानल बढ़ गया। धगधग करता हुआ, और थर-थर करता हुआ मारो-मारो कहता हुआ, मानो जैसे कलि कृतान्त हो । करतल पीटता हुआ, धरतीको रौंदता हुआ, विस्फारित नेत्र भयावह नेत्र, धरतीका मानदण्ड और शत्रुवलके लिए प्रचंड उसने इस प्रकार कहा कि हे देव, शत्रुको छोड़ दीजिए, जिससे इसको मारनेसे मेरी प्रतिक्षा पूरी हो सके ! वह वचन सुनकर अतुल घल बलभद्र इस प्रकार बोले कि जो शस्त्रोको छोड़कर चरणों में आकर गिरता है, उसके मारनेसे किस यशकी निष्पत्ति होगी ॥१-२||
[१०] रामके मना करनेपर लक्ष्मण रह गया, मानो वर गजेन्द्र महावतके द्वारा रोक दिया गया हो, मानो सागर मर्यादासे
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१२१
पउमचरिय
मुकुसुम दुग-जहाँ । of सुकु भवि भव-सागरहो ।
" खुद्द पिसुण तड सिर-कमलु । परि वालिखिल्लु सुऍ वदि कहु । संणिति णिविस मुक्कु पहु । चतु
पुरुडेण चुक्कु णचिड बस्छु ॥३४ यो जीवन्तु ण जाहि महु ॥४ णं जिणदरेण संसार-पहु ॥५॥ उगम || ६ ||
णं
वारणु वारि-विम्वणहीं ॥७॥ ति वालिखिय दुक्खीयरहों ॥
घन्ता
ते भुत्तिक-महुमहण सहुँ कुब्बर-चिंग चयारि जण । थिय जाण तेहिं समाणु किड घउ-साथर परिमिय पुइ जिह ॥ ९ ॥
सहूँ हथे च समुद्वषिय | भरोंपादक वे वि श्रविय । उत्तिण तिष्णि वि महिहरहों ।
मेरुणियम्व किण्णरहूँ ।
विष्णु खेवं ताब पराइयहँ । वरुणहरु रवियर सावियउ |
[ 11 ]
तो बालिखिल- विष्झाहिवड़
अवरोप्यरु णेह - णिवब-मह ॥ ३11
कम-कमले हिँ णिवडिय लहरों । णमिचिणमि जेम चिरु जिणवरहो ॥ २ ॥
उहि समहिं परिचिय || ३ || लहु जिय-जिय-पिलयहुँ पट्टषिय ॥३॥ णं मवियहूँ अब दुक्खोबरहीं ॥५॥ of साहों चवियाँ सुरवरहूँ ॥ ६ ॥ किर महिलु पियन्ति तिसा हूँ ॥७॥ सुकुम्बुवखळ संतावियउ ||८||
1
I
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सत्सवीसमो संधि
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रोक दिया गया हो। मत्सरसे भरा हुआ लक्ष्मण बार-बार बोला-'हे खल क्षुद्र दुष्ट, तेरा सिर कमल केवल इतनेसे बच सका है कि जो तूने रामको नमन किया । तू बन्दी वालिखिल्यको शीघ्र छोड़ दे नहीं तो तू भी मुझसे जीवित नहीं जा सकता।" यह सुनकर पलमात्रमें राजाको छोड़ दिया गया । मानो जिनेन्द्रने संसार पथ छोड़ दिया हो, मानो राहुने चन्द्रमाको छोड़ दिया हो, मानो गरुड़पक्षीने साँपको छोड़ दिया हो, मानो दुर्जन समूहने सजनको छोड़ दिया हो, मानो द्वार निबन्धनसे हाथी छोड़ दिया गया हो। मानो भव्य संसारसमुद्रसे छोड़ दिया गया हो, उसी प्रकार वालिखिल्य दुःखके मध्यसे मुक्त हो गया। रुद्रमुक्ति राम और लक्ष्मण, कूबर नरेशके साथ चारों लोग वहाँ स्थित थे। उनके साथ जानकी ऐसी प्रतीत होती थी, जैसे चार समुद्रोंसे धरती घिरी हुई हो ।।१-९॥ . [११] तब एक दूसरेपर स्नेहसे जिसकी बुद्धि निबद्ध है ऐसा विन्ध्याचलका राजा वालिखिल्य रामके चरणकमलोपर गिर पड़ा, उसी प्रकार जिस प्रकार नमि विनमि, ऋपभ जिनवरके चरणों में गिर पड़े थे। रामने स्वयं उसे अपने हाथसे उठाया, और उसे उसी प्रकार स्थापित कर दिया, 'जिस प्रकार मर्यादा समुद्रको स्थापित करती है। उन दोनोंको उन्होंने भरतका सेवक बनाया । और शीघ्र ही अपने-अपने घर भेज दिया। वे तीनों पहाड़से इस प्रकार उतरे मानो भव्य भवदुःखोदरसे निकल आये हो, मानो मेरुनितम्बसे किन्नर निकल आये हों, मानो स्वर्गसे देव च्युत हुए हों, बिना किसी विलम्बके वे ताप्ती नदीके किनारे पहुँचे। प्याससे पीड़ित वे वहाँ पानी पीते हैं कि जो सूर्यको किरणोंसे नव-उष्ण था, दुष्टोंके द्वारा सताये गये अच्छे कुटुम्बकी भाँति था। दिनकरकी श्रेष्ठ किरणोंसे
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पउमचरित
घत्ता
दिणयर-वर-किरण-झम्बियउ जलु देवि भुएँ हि परि-चुम्बियउ । पहसन्तु भावह मुहहाँ किह अगाणही जिणवर-वयणु सिह ॥१॥
[१२] पुणु मावि तरेप्पिणु णिग्गथई। तिष्ण मि विजा-महागाई ॥ १ ॥ वइदेहि पजम्पिय हरिवनहीं। सुरवस्करि-कर-धिर-कस्यक हो ॥२॥ 'जलु कहि मिगवेसहाँ णिम्मलउ । जं सिसहरु हिम-ससि-सीयका ॥३॥ सं इमामि भविउ व जिग-वय । जिविण जसाधु शु' !! चलु धोरइ 'धीरी होहि घणे। मं कायरु मुह करि मिगणय' ॥५॥ थोषन्तक पुणु विहरन्तएँ हि मल्हन्सें हिं पउ पउ देतऍहि ॥६॥ लक्षिलाइ अरुणगामु पुर। वय-बन्ध-विहसि मिह मुरउ ॥७॥ कप्पद्रुमो व चरिसु सुहलु। णावर व णाडय-कुम्पलु ॥८॥
पत्ता
तं अरुणगामु संपाय मुणियर इव मोक्ष-तिसाइयइँ । सो गउ अणु जेग ण दिहाई धरु कवितहों गम्पि पइट्ठाई ॥१॥
[१३] णिज्झाइउ तं घर दियवरहीं। णं परम-धाणु थिरु जिणबरही ।।१।। गिरफ्नु पिरक्खरु केवलउ। णिम्माशु णिरक्षणु णिम्मलउ ||२|| णिवरधु णिरत्थु पिराहरणु।। णितणु मिसउ णिम्महणु ॥१॥ तहि सेहर भषण पइट्ठा। छुडु जलु पिऍषि णिविठ्ठाई ॥४॥ कुअर इव गुहें आवासियई। हरिणा इव वाहुतासियई ॥५॥
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सप्तमीसमो संधि मिश्रित जल लेकर उन्होंने हाथोंसे चूमा, परन्तु प्रवेश करता हुआ वह मुखको उसी प्रकार अच्छा नहीं लगता, जिसप्रकार कि अज्ञानी व्यक्तिको जिनपरके वचन अच्छे नहीं लगते ॥१-५||
[१२] फिर ने नाशीको पार कर व दिने, कोपीनों ही, विन्ध्य महागज हों। ऐरावत महागजकी सूड़के समान स्थिर करतलवाले लक्ष्मण और रामसे सीता बोली-“कहीं भी स्वच्छ पानीकी खोज करो जो प्यास बुझानेवाला और हिमचन्द्रकी तरह शीतल हो। मैं उसे उसी प्रकार चाहती हूँ जिस प्रकार भव्य जिनवचनको चाहता है, निर्धन निधिको और जमान्ध नेत्रों को।" रामने उन्हें धीरज दिया-हे धन्ये, तुम धैर्य धारण करो, हे मृगनयनी, तुम अपने मुँहको कायर मत करो? थोड़ी दूरपर, विहार करते हुए, प्रसन्नतापूर्वक कदम रखते हुए, अरुण प्रामको इस प्रकार देखा जैसे वयबन्ध' ( उद्यान और चर्म )से विभूषित मुरज हो, वह कल्पवृक्षकी तरह, चारों दिशाओं में सुफल था, नटकी भाँति नाटकमें कुशल था। मोक्षकी सृषासे व्याकुल मुनिवरोंके समान वे उस अरुणग्रामको पहुंचे। वहाँ एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं था जिसके द्वारा वे देखे न गये हों। वे जाकर कपिल द्विजके घर में घुस गये ॥१-५॥
[१३] उन्होंने ब्रामणके उस घरको इस प्रकार देखा, मानो जिनधरका स्थिर परमस्थान हो। वह घर निर्वाणकी तरह, निरपेक्ष निरक्षर केवल ( केवलज्ञान सहित, अकेला ) निर्मान, निरंजन ( अहंकार गौरवसे रहित, पाप, अलिंजरसे रहित) निर्मल, निर्वस्त्र, निरर्थ, निराभरण, निर्धन निर्भक्त ( भक्ति, भोजनसे रहित ), निर्मथन ( विनाशसे रहित ) था। उस वैसे भवनमें उन्होंने प्रवेश किया । और शीघ्र ही पानी पीकर बाहर निकल आये। गुहामें रहनेवाले हाथी अथवा ध्याधासे त्रस्त हरिणकी तरह उब तक वे पक क्षण बैठते हैं, तबतक कुपित
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पउमरिंड
मच्छन्ति ताव तहिं पुकु खणु । दिड ताव पराइउ कुइय-मशु ॥६॥ 'मरु मरु णीसरु-गोसरु' नपdi धूम धगधगा ॥ भय-भीसशु कुरुद्ध सणिच्छरु च ! वगु उपषिस विष्णड विसहरु ध्व ॥॥
धत्ता 'किंकालु कियन्तु मिस परिड कि केसरि केसरग्गे धरित । को जम-मुह-कुहरही णीसरिउ जो भवणे महारएँ पइसरिउ' ॥९॥
[१४] तं वयणु सुणेप्पिणु महुमहशु। आरुख समर-मर-जम्चहणू ॥१॥ पणे धाइड करि थिर-शोर-करु। टम्मूकिउ दियबरु जेम तरु ||२|| उग्गामें वि भामें वि गयागयलें । किर विवह पीवउ धरणियलें ॥३॥ करें धरिउ ताव हलपहरणण। 'मुएँ मुएँ मा हणहि अकारणेण ॥४॥ दिन-बाल-गोल-पसु-सबसि-क्तिय। छ वि परिहरु मेल्लेषि माण-किय' ।।५।। तं णिसुणवि दिग्रवम् लक्षणंण | गं मुक्कु अलवरखणु लम्सणेण ॥६॥
ओसरिट बीस पच्छामुहउ । अनुस-णिरुक्षु णं मन्त्र-गड ॥७॥ पुणु हियएँ विसूरह सणे जै खण। 'सय-खण्ड-खण्ड वरि हूउ रणें ॥४॥
घत्ता वरि पहरित वरि किउ तवचरणु वरि विसु हालाहल वरि मरणु । परि अच्चिर गम्पिणु गुहिल-वणणषि णिविसु विणियलिउ अवुहयणे ॥९॥
[१५] तो तिणि बि एम चवन्ताई। उम्माह' जणही जणता ॥१।। दिण-पच्छिम-पहरे विणिग्गयाइँ । कुअर इव विउल-वणही गया ॥२॥ विरियण्गु रण्णु पइसन्ति जाय । गरगोहु महादुमु दिलु ताप ॥३॥ गुरु चेसु करें वि सुन्दर-सराई। पं विहय पवाघाई अमखरा ॥४॥ बुझण-किसलय क-शा स्वन्ति । पाउलि विहा कि-को भणन्ति ॥५॥
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सत्तवीसमो संधि मन वह द्विज यहाँ आया। "मरो मरो निकलो निकलो,' यह कहता हुआ, आगकी तरह धक-धक करता हुआ; भयसे भयंकर शनिश्चरकी तरह कठोर अत्यधिक विषवाले उदासीन विषधरकी तरह । क्या कतान्त मित्र कालका वरण कर लिया है ? क्या सिंह को उसकी अयालसे पकड़ लिया है, यमके मुख रूपी कुहरसे कौन निकल सका है ? किसने हमारे घरमें प्रवेश किया है ।।१-२॥
[१४] वह वचन सुनकर, युद्धभारका निर्वाहक लक्ष्मण क्रुद्ध हो उठा, मानो स्थिर-थूल सूडवाला गज दौड़ा और द्विजवरको वृक्षकी तरह उखाड़ा. उठाकर आकाशमें घुमाकर फिर वापस उसे धरती तलपर पटके, कि इतने में रामने उसका हाथ पकड़ लिया--"छोड़ो-होड़ो अकारण इसे मत मारो। श्राह्मण, बालक, गाय, पशु, तपम्मी और स्त्री इन छहको मानक्रिया छोड़कर बचा देना चाहिए।" यह सुनकर लक्ष्मणने द्विजवरको उसी प्रकार छोड़ दिया, जिस प्रकार लाभणके द्वारा अलक्षण छोड़ा जाता है। बह वीर पीछे मुख करके हट गया। मानो अंकुशसे निरुद्ध मत्तगज हो। वह अपने मनमें क्षण-क्षण खेद करता है 'युद्ध में सौ टुकड़े हो जाना अच्छा, प्रहार करना अच्छा, तपश्चरण करना अच्छा; हलाहल विष अच्छा, मर जाना अच्छा; गहन वनमें चला जाना अच्छा परन्तु अपण्डितोंके मध्य एक पल भी निवास करना ठीक नहीं ।।१-५॥
[१५] वे तीनों इस प्रकार बातें करते हुए और लोगों में उन्माद पैदा करते हुए, दिनके अन्तिम प्रहरमें निकलकर हाथियोंके समान विशाल पनकी ओर चल दिये । जैसे ही वे विस्मृत अरण्यमें प्रवेश करते हैं, कि उन्हें वटका महावृक्ष दीख पड़ा, जो मानो गुरु ( उपाध्याय ) का रूप धारण कर पक्षियोंको सुन्दर स्वर अक्षर पढ़ा रहा हो । कौआ और किसलय क का
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पउभचरित
पण-कुक्कुट कु-पक्कू आपरन्ति । अण्णु वि कहावि के-कह चवन्ति ॥ ६॥ पिममाइविया को-पकड लचन्ति । कं-शा वप्पीह समुछत्रन्ति ॥७॥ सो तस्वरु गुरु-गणहर-समाणु। फल-पत्त-वन्तु समक्षर-णिहाणु ॥८॥
घत्ता पइसन्तेंहि असुर-विमदणे हि सिरु णावि राम-जणणे हिं। परिवि दुम दसरह-सुएं हि अहिणन्दिउ मणि व स ई मुऍहि ॥९॥
अट्ठावीसमो संधि सीय स-लक्खणु दासरहि सरुवर-मूलें परिट्टिय जावे हि । पसरह सु-कहहें कनु जिह मह-जालु गयणकणे तावे हि ।
पसरह मेह-विन्दु गयणगणे । पसरद जेम सेण्णु समरकणे ॥१॥ पसरइ जेम सिमिरु अण्णाणहाँ । पसरह जेम बुद्धि बहु-जाणहाँ ॥२॥ पसर जैम पाउ पाविट्ठहीं। पसर जेम धम्म धम्मिरहाँ ॥३॥ पसरइ जेम जोण्ह मयवाहहों। पसरह जेम किक्ति जगणाहहाँ ॥|| पसरइ जेम चिम्त भण-श्रीणही। पसरद जेम कित्ति सुकुलोणी ॥५॥ पसरह जेम सदु सुस्तरहीं। पसरइ जेम रासि णहें सूरहों ॥३॥ पसरह जेम दवग्गि वणन्तरें। पसरह जेह-जाल तिह अम्बरें ॥७॥ तसि सत्यदह पदइ घणु गजइ । जाणइ रामहों सरण पवजह ॥४॥
पत्ता
अमर-महाधणु-गहिय-कर मेह-गहन्दें पढ़ें वि जस-लुङ । उपरि गिरम-गराहियाहों पाउस-राउ पाई सण्णवउ ।।१।।
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अट्ठावीसमो संधि बुच्चारण करते हैं, बाजुली विहंग कि की कहते हैं। वनमुर्गा कुकू का उच्चारण करते हैं; और भी मयूर के कै कहता है। (प्रिय माधविका ( कोयल ) को को पुकारती है, घातक कक उच्चारण करते हैं। वह वृक्ष गुरुगणधरके समान फल पत्रोंसे सहित और अक्षरोंका निधान था । असुरोंका विमर्दन करनेवाले झारथ पुत्र राम और लक्ष्मणने उस बनमें प्रवेश करते हुए, सिरसे प्रणामकर प्रदक्षिणाकर अपनी भुजाओंसे मुनिके समान उस पृष्मका अभिनन्दन किया ॥१-२।।
अट्ठाईसची सन्धि जैसे ही सीता-सहित राम और लक्ष्मण तरुवरके मूलमें बैठे, वैसे ही मेघनाल, सुफविके काव्यकी तरह आकाशमें फैलने लगता है।
[१] आकाशके आंगन में मेघ-समूह बैसे ही फैलता है जैसे समरांगण में सैन्य फैलता है। जिस प्रकार अज्ञानीमें अन्धकार फैलता है, जिस प्रकार बहुझानीमें बुद्धिका प्रसार होता है, जिस प्रकार पापिष्ठमें पापका प्रसार होता है, जिस प्रकार
मिष्ठमें धर्मका प्रसार होता है, जिस प्रकार चन्द्रमाकी चाँदनीका प्रसार होता है, जिस प्रकार विश्वनाथकी कीर्तिका प्रसार होता है, जिस प्रकार धनहीनकी चिन्ताका प्रसार होता है, जिस प्रकार सुकुलीनको कीर्तिका प्रसार होता है, जिस प्रकार देवतूर्यके शब्दका प्रसार होता है, जिस प्रकार आकाशमें सूर्यको राशिका प्रसार होता है, जिस प्रकार वनमें दावानलका प्रसार होता है, उसी प्रकार आकाशमें मेघजालका प्रसार होता है। बिजली तड़तड़ गिरती है, मेघ गरजता है, और जानकी रामकी शरण में जाती है। जिसने इन्द्रधनुष अपने हाथमें ले लिया है ऐसा यशका लोभी पावसरूपी राजा मेघरूपी
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परमचरित
जं पाउस-णरिन्दु गलगजिउ । धूलो-रट गिम्मेण विसजिउ ।।१।। गम्पिणु मेह-विन्द भालग्गड। तडि-करचाक-पहारें हिं भग्गउ ॥२॥ जं विवरम्मुहु चलिउ विसाकर । उदिउ 'हणु' मणन्तु उण्डालउ ॥३॥ धगधगधगधगन्तु उद्धाहर । हसहसासहसन्तु संपादउ ।।४॥ जलजफजलजलजल पचलन्तउ। जालावलि फुलिस मेलम्सउ ।।५।। धूमावलि-घयदण्डभेप्पिशु । वर-बालि-स्वग्गु कलेप्पिणु ॥६।। अडसमहसवन्तु पहरन्सउ | तस्वर-रिउ-मढ-यह भजाम्तड ॥७॥ मेह-महागय-पड चिहडन्त । ज उहालुउ दिटु भिद्धन्तड ॥८॥
धत्ता धणु सप्फालिउ पाउसेंण सहि-रकार-फार दुरिसना । चोवि जलहर-वृद्धि हर पीर-सरासणि मुक तुरन्ते ॥५॥
[३] जल-दाणासणि-घाहि धाइर। गिरम-गराहिउ रणे विणिवाह ॥१॥ दधर रवि लग्ग णं सजग। णं पानन्ति मोर ख दुजाण ॥२॥ ण पूरन्ति सरिड अशन्दें। णं कह किलकिलम्ति आणन्दै ॥३॥ ण परडुप विमुछ उग्घोसें। णं चरहिण कवन्ति परिओसें ॥३॥ पण सरवर बहु-सु-जलोलिय । णं गिरिवर हरिसें गोलिय ॥५॥ में डाइविस दरिंग विओए। गंत्रिय महि विधिह-षिणोएं ॥५॥ में अमिट निवापरु दुक्खें। पासरह स्यणि सह सुक्खें ॥७॥ रस-पत्र तह मवणाकम्पिय । 'केण वि बहिट गिम्भु'णं जम्पिय ॥६॥
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भवावीसमो संधि महागजपर चढ़कर मानो प्रीष्म नराधिपके ऊपर ( आक्रमण के लिए) सनद्ध हो ॥१-२||
२] जब पावस राजा गरजा तो ग्रीष्म के द्वारा मुक्त धूलिसमूह जाकर मेघसमूहसे जा लगा। उसे बिजलीरूपी तलदारों के नशा से महकर दिया गया। यह विशाल धूलि समूह जब उलटा मुँह कर चला, तो उष्मकाल, 'मारो' कहता हुआ उठा धक-धक-धक करता हुआ वह दौड़ा । हस-ड्स-हस करता हुआ पहुँचा । जल-जल-जल करते हुए चलता हुआ, ज्वाला. बलियाँ और चिनगारियाँ छोड़ता हुआ, धूमावलिके वजदण्डको उठाकर श्रेष्ठ वातोलिकी तलवारको निकालकर, झड़-झड़झड़ करते हुए प्रहार कर तरुवररूपी भट समूहको मग्न करते हुए मेधरूपी महागजकी घटाको विघटित करते हुए, उष्णकालको जब लड़ते हुए देखा तो बिजलीकी टंकारका विस्तार दिखाते हुए पावसने अपना धनुप चढ़ा लिया। मेघरूपी गजघटाको प्रेरित कर उसने तुरन्त जलरूपी तीरपंक्ति छोटी ॥१-९॥
[३] जलके बाणवजोंके आघातोंसे घायल होकर प्रीष्मरूपी नरेश्वर युद्धमें धराशायी हो गया । उसके पतनसे मैंढक मानो सज्जनोंकी भाँति टर्र-टर्र करने लगा। मयूर नाचने लगे मानो दुष्ट दुर्जन हों। आनन्दसे नदियाँ भर उठी मानो कवि आनन्दसे किलकिला रहे हों। मानी कोयल उद्घोषसे मुक्त हो गयी, मानो मयूर परितोषसे बोल रहे हैं, मानो सरोवर वधुओंके अश्रुजलोंसे आई हो उठे हैं, मानो गिरिवर हर्षसे पुलकित हो उठे। मानो वियोगसे दावानल शान्त हो गया। मानो घरती विविध विनोदोंसे नाच उठी। मानो दिवाकर दुःखसे अस्त हो गया । मानो रात्रि सुखसे प्रवेश कर रही हो । पेड़ लाल पत्तोंवाले हो गये और हवासे प्रकम्पित हो उठे
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परमचरित
वत्ता तहएँ कालें भयाउरएँ धेषिण मि वासुएव-वलपव' । तरुवर-मूलें स-सीय थिय जोगु लपविणु मुणिवर जेम ॥९॥
२
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हरि-वक रुपल-मूल थिय माहिँ । रायमुहु बस्नु पणासें वि ताहि ॥१॥ गड णिय-णियहाँ पासु वेवन्तउ । 'देव देव परिताहि मणन्तउ ॥२॥ 'णउ जाण? किं सुरवर किं पर। किं विजाहर-गण किं किण्णर ॥३॥ भणुधर धोर घडायट उम्में वि। सुस महारउ गिलडणिरुम्म वि' ॥४॥ तं णिसुणेषिणु चयणु महाइड। पूषणु मम्मीसन्तु पधाइउ ॥५॥ विज्झ-महोहर-सिप्टरहों श्राइन। सक्रमण तं उद्देसु पराइड ॥६॥ ताम णिहालिय वेणि वि दुद्धर। सायर-घशावत्त-धणुधर ॥७॥ अवही-णाणु पउञ्ज जाहिं। लसण-राम मुणिय मणेता हि ॥८॥
घन्ता पंक यि हरि-वल वे वि जण पूषण-जक रखें जय-जस-लुन्हें । मणि-कण-धण-जण-पडा पणु किङ णिमिसद्धहाँ श्रद्धं ॥५॥
पुणु रामरि पचोसिय लोएं। गंगारि अणुहरिष पिओएं ॥१॥ दोहर-पन्ध-पसारिप-सलगी। कुसुम-णियस्थ-वस्थ-साहरणी ॥२॥ खाइय-तिवलि-तर-विहूसिय । गोउर-थणहर-सिहर-पदीसिय ॥३॥ बिउझाराम-रोम-रोमचिय। इन्दगोव-सब-अम-निय ॥४॥ गिरिवर-सरिय-पसारिय-बाही। जल-फेणावलि-वलय-सणाही ॥५॥ सरवर-णयण-वपक्षण-अञ्जिय । सुरवणु-मउह-पदीसिय-परिजप ॥६॥
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अट्ठावीसमो संधि मानो धे कह रहे थे कि किसीने प्रीष्मका वध कर दिया। भयातुर उस काल में वासुदेव और बलदेव दोनों, तरुवरके मूलमें सीताके साथ, मुनिवरके समान योग लेकर स्थित हो गये ||१-२॥
४] जब राम और लक्ष्मण वृक्षके नीचे बैठे थे तब गजमुख यक्ष भागकर अपने स्वामीके पास काँपता हुआ 'हे देव, रक्षा कीजिए' यह कहता हुआ गया। "मैं नहीं जानता कि वे सुरवर हैं या कि मनुष्य | क्या विद्याधर गण हैं या कि किन्नर । दो धीर धनुर्धर ऊपर चढ़ आये हैं और हमारे घरको अवरुद्ध कर सो गये हैं।" यह वचन सुनकर आदरणीय पूतन या 'अभय वचन' देता हुआ दौड़ा। विन्ध्यमहीधरके शिखरसे आया और तत्काल उस लक्ष्यस्थान पर पहुँच गया। वहाँ उसने समुद्रावत और वधावत धनुषाको धारण करनेवाले उन दोनों धुरभार होखा । जैसे ही व: अधिकाका प्रधान करता है वैसे ही जान लेता हैं कि ये राम और लक्ष्मण हैं। राम और लक्ष्मण दोनोंको देखकर जय और यशके लोभी पूतन यहने मणि, स्वर्ग, धन और जनसे प्रचुर नगर आधे पलमें निर्मित कर दिया ॥१-९||
[५] फिर, लोगोंने उसे रामपुरी घोषित किया। रचनामें वह नारीको तरह प्रतीत होती थी | जो लम्बे रास्तोंरूपी फैले हुए पैरोंवाली थी, जो कुसुमके पहने गये सोंसे संघृत थी, जो
खाईरूपी त्रिवलि तरंगोंसे विभूषित थी, जो गोपुरके स्तनरूपी शिखरोंको दिखानेवाली थी, जो विपुल उद्यानरूपी रोमोंसे पुलकित थी, इन्द्रगोपरूपी सैकड़ों केझरोंसे अंचित थी, जो गिरिवरकी नदियाँरूपी बाँहें प्रसारित किये हुए थी, जो जलकी फेनापलीरूपी वलयनाभिसे युक्त थी, जिसके सरोवररूपी नेत्र घनरूपी अंजनसे अंचित थे, जिसकी इन्द्रधनुषरूपी
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पउमचरित
देउल-अपण-कमल दरिसेपिणु । पर-मयलम्यण-तिलउ चहेपिरणु ॥७॥ णा णिहालइ दिगयर-दप्पणु। एम विनिम्मंड सबल वि पणु ॥६॥ वइसे वि बलहों पासे वीसस्थर । आलाषा भालावणि-वृत्थउ ॥९॥
पत्ता एकवीस-वर-मुच्छणउ सस वि सर सि-माम दरिसन्तर । 'बुलि महारा दासरहि सुप्पहाड तर' एष भणन्तड ।। १ ।।
सुष्पहाड उच्चारित जाव हि। रामें चलें वि पलोइउ तावे हि ॥१॥ दिछु णयर जं जक्ख-समारिक। णाई णहाणु सूर-विहसिउ ॥२॥ स-घणु स-कुम्भु सन्सवणु स-सङ्कउ । स-युद्ध स-तारउ स-गुरु स-सकाउ ॥३॥ पुण वि पडीवर णयर णिहालिट । णा महावणु सुमोमालिड ॥४॥ णाई सुकइहें कम्बु पयइसिज। णाणरिद-चित्तु बहु-चित्तल ॥५॥ गाई सेण्णु रहचाहँ अमुकद। पाइँ विवाहोहु स-घउक्काउ ।।६॥ पाइँ सुरड चचरि-घरियासठ। णायद हिम्मउ अहिय-छुआलउ ।।७।। अह किं वणिएण खणे जे खणे। तिहुअणे णरिथ जंपि तं पट्टणें ॥६॥
घत्ता
संपेक्खेप्पिणु रामहरि भुअण-सहास-विणिग्गग-णामहौं । मन्ड उज्माउरि-णयह जाय महन्स मन्ति मणे रामाहीं ॥५॥
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अट्ठावीसमो संधि
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भौंहों से प्रकृष्ट अंजनको दिखा रही थी ? देवकुलरूपी सुखकमलौंचो दिखाकर, श्रेदमस को दिनकर
दर्पण देख रही थी। इस प्रकार इस यक्ष ने समूचा नगर बनाया । शमके निकट बैठकर जिसके हाथमें बीणा है, ऐसा वह यह विश्वस्त होकर आलाप करता है - इक्कीस श्रेष्ठ मूर्च्छनाएँ, सात स्वर और तीन प्रामोंका प्रदर्शन करता हुआ, 'है आदरणीय राम ! यह तुम्हारा प्रभात समझो ' यह कहता हुआ ॥१-१०॥
[६] जैसे ही उसने सुप्रभातका उपचारण किया, वैसे ही रामने मुड़कर देखा । यक्ष द्वारा निर्मित वह नगर दिखाई दिया जो आकाशरूपी आँगनके समान सूर्यसे विभूषित था। ( आकाशकी तरह) वह सघन ( धनुष और घनसे सहित ), सकुम्भ (कुम्भ राशि और घड़ासे सहित); सस्यणु (श्रवण नक्षत्र, श्रमण मुनिसे सहित); संसंक (चन्द्रमा, मृगसे सहित ) सुबुध (नक्षत्र और पण्डितसे सहित); सतार (तारे, तारक सहित ), सगुरु ( गुरु नक्षत्र, उपाध्याय और चन्द्रमासे सहित) था। उन्होंने दुबारा लौटकर नगर देखा जैसे कुसुमोंसे व्याप्त महावन हो; जैसे सुकविका पयइतिङ ( पद, प्रजासे युक्त ) काव्य हो । जैसे बहुवित्त (नाना प्रकार के चित्र, अनेक चित्रोंवाला) राजाका चित्त हो । जैसे रथवरोंसे अमुक्त सैन्य हो, जैसे चौक सहित विवाहका घर हो, जो सम्भोगके समान worरीचरियाल (हाथीको ताली और चेष्टा, गीत विशेष और मार्गों से सहित था ) बच्चे की तरह जो अधिक छुआलड (अत्यधिक भूखा, चूनेसे पुता हुआ ) हो । अथवा क्षण-क्षण में उसके वर्णनसे क्या ? जो उस नगर में था, वह त्रिभुवन में भी नहीं था । उस रामपुरीको देखकर हजारों भुवनों में प्रसिद्ध नाम रामके मन में भ्रम हो गया कि शायद यह अयोध्यापुरी
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पडमचरित
[ ] जं किड विम्मउ सासय-लक्खें। बुसु णपिशु पुअण-जाणे ॥१॥ 'तुम्हारउ वण-वसणु णिएप्पिणु। किउ मई पट्टणु माउ धरैप्पिणु' ॥२॥ एम भणेवि सुविस्थय-णामहाँ। दिण्ण सुघोष वीण ते रामहाँ ॥३॥ दिण्णु मउड साहरणु विषणु । मणि कुण्डल कटिसुत्तर काणु ॥१॥ पुणु वि पजम्पिङ जल-पहाणउ । 'हउँ तज मिच्चु देव तुहुँ राणउ' ॥५॥ एव वोल्लु पिम्माइय जावें हिं। कविलें णिहालिउ ताकें हिं॥६॥ जण-मणहरु सुर-साग-समागउ । वास्वपुरहों वि खग्रह माणउ ॥७॥ संपेक्रेवि आसकिउ वम्भणु। कहिं विस्थिष्णु रण्णु कहिं पट्टणु' ॥८॥
घत्ता प्रहरन्तु भय-मारुऍण समिहङ घिवि सणासइ जाहि। मम्मीसन्ति मियकमुहि पुरउ स-माम जक्खि थिय लावें हिं ॥९॥
[८] 'हे दियवर घडवेय-पहाणा। किपण मुणहि रामउरि अयाणा ।। १ ।। जण-मण-बालहु राधव-राणउ । मत्तगइन्दु व पगलिय-दाणङ ॥२॥ तबकुव-ममर-सएहिं ण मुम्बइ । वेइ असेसु विजं जसु रुचाइ ॥३॥ जोयह (?) जिणघर-णामु लएह । सहो कोषिणु पाण, देह ॥४॥ ऍउजं वासव-दिसएँ बिसालर । दीस तिहुअण-सिलउ-जिष्णालज ||५|| सहिं जो गम्पि फरह जयकारू । पाहणं णवरि तासु पइसारु' ॥६॥ तं णिसुणेपिणु दियवर धाड । णिपिसे जिणवर-भवणु पराइड ।।७।। तं चारिससूरु मुणि वन्देवि। विणल करवि अप्पाणउ णिन्दे वि ॥८॥
घत्ता पुच्छिर मुणियरु दियवरण 'दाणही कारणे विशु सम्मने । धन्में लइएं कयणु फलु एउ देव महु भक्ति पयसें ॥९॥
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अट्ठावीसमो संधि नगरी हो ॥१.९।।
[७] जब शाश्वत लक्ष्यवाले रामने विस्मय किया तो पूतन यक्षने नमस्कार कर कहा-"तुम्हारा वनवास जानकर भाव धारण कर मैंने नगरको रचना की" यह कहकर उस यक्षने सुविस्तृतनाम रामको सुघोष नामकी वीणा दी। आभरण सहित मुकुट विलेपन, मणिकुण्डल, कटिसूत्र और कंकण दिये। बह यक्ष प्रमुख फिर कहता है-“हे देव, मैं आपका अनुचर हूँ
और आप राना ।" इस प्रकार जबतक उसने ये शब्द कहे सबतक कपिलको वह नगर दिखाई दिया कि जो जनोंके लिए सुन्दर और देवस्वर्गके समान था। वह इन्द्रपुरीका भी मान स्वपिडत करता था। उसे देखकर ब्राह्मण शंकामें पड़ गया कि कहाँ विस्तीर्ण वन और कहाँ नगर! भयरूपी वासे थर-थर काँपता हु सहक व मिक्षा (नर्स साड़ियाँ) कर भागता है, तबतक 'डरो मत' यह कहती हुई चन्द्रमुखी ममतामथी यक्षिणी सामने आकर स्थित हो गयी ॥१-२॥
[८] "हे चारों वेदों में प्रधान अज्ञानी द्विजवर, क्या तुम रामपुरीको नहीं जानते ? जन मनके प्रिय राघव राजा हैं जो मतवाले हाथीकी तरह प्रगलितदान (मदजल झरनेवाला, दान वेनेवाला) हैं, जो याचकरूपी सैकड़ों भ्रमरोंसे नहीं छोड़े जाते, जिसके लिए जो अच्छा लगता है, वह उसे सब कुछ दे देते हैं। जो जिनवरका नाम लेता है, उनके दर्शन करता है, उसे वे अपने प्राण तक निकालकर दे देते हैं। यह जो पूर्व दिशामें विशाल त्रिभुवनतिलक जिनमन्दिर दिखाई देता है, वहाँ जाकर जो जयकार करता है, नगरमें केवल उसीको प्रवेश दिया जाता है।" यह सुनकर द्विजवर दौड़ा और एक पलमें जिनवर-भवन पहुँचा। वहाँ चारित्रसूरि मुनिकी वन्दना-विनय कर और अपनी निन्दा कर द्विजवरने मुनिवरसे पूछा कि
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पउमचरित
[५] मुणिवद कहें वि लग्गु बिउलाई। किंजणे गणियहि धम्मफलाइ ।। १६॥ धमें महन्यद जय गय सन्दण। पावे भरण-विभोयन्द्रण ॥२॥ धमें सग्गु मोग्गु सोहगु । पाबें रोग्गु सोगु दोहनगु ॥३॥ घम्में रिद्धि विधि सिय संपय । पाचे अरथ-कोण पर विय ॥४॥ धम्मै काय मउड़ कहिसुसा।। पात्रे' णा दालि भुत्ता ॥५|| धम्में रज्जु करम्ति णिहचा। पावे' पर-पेसण-संजुत्ता ॥५॥ धम्में वर-पच्छके सुप्ता। पावें विण-संथार विभुता ॥७॥ धम्मै पर देव चणु वत्ता। पावें पयर-धोर संकता ॥८॥ धम्म णर रमन्ति वर-विलयउ। पावें दूषिउ दुह-णिलबउ ॥१॥ धम्मै सुन्दरु अङ्गु णिवद्धउ । पात्रं पमुलउ चि हिरन्धउ ॥३०॥
पत्ता धम्म-पाव-कप्पदुमहुँ आगई जस-अवजस-बहुलाई । वेण्णि मि असुह-सुहङ्काइँ जाइ पियर लइ ताई फलाई' ॥११॥
[१०] मुणिवर-वयाणे हिं दियवर वासिङ । लइड धम्मु जो जिणवरें मासिड ॥१॥ पत्राणुस्वय लेवि पधाइड । णिय मन्दिर गिविसेण पराइड ॥२॥ गम्पिणु पुणु सोम्म बजरियउ। 'श्रज्जु महम्तु दि अवस्थिङ ३॥ कहि वशु कहिं पहशु कहिं राणउ । कहिं मुणि दिटु अणेगई जाणउ।।३॥ कहिं मन कहिं लख जिण-वयण । वहिरे कपणन्धेण व णयण ॥५॥
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अट्ठावीसमो संधि "बिना सम्यक्त्वके केवल तानके लिए धर्म ग्रहण करनेका क्या फल है, प्रयत्नपूर्वक यह मुझे बताइये" ||१||
[२] मुनिवरने कहना शुरू किया--"क्या तुम लोगोंमें विपुल धर्मफल नहीं देखते । धर्मसे भटसमा अनव गड और रथ होते हैं, पापसे मरण, वियोग और आक्रन्दन । धर्मसे स्वर्गभोग और सौभाग्य मिलता है, पापसे रोग, शोक और दुर्भाग्य । धर्मसे ऋद्धि, वृद्धि, श्री और सम्पत्ति होती है, पापसे मनुष्य अर्थहीन और कर। धर्मसे कटक, मुकुट और कटिसूत्र होते हैं, पापसे मनुष्य दारिद्रयका भोग करता है । धर्मसे निश्चय ही राज्य करते हैं और पापसे दूसरों की सेवासे संयुक्त होना पड़ता है। धर्मसे उत्तम पलंगपर सोते हैं, पापसे तिनकोंकी सेजको भोगना पड़ता है। धर्मसे मनुष्य देवत्व प्राप्त करते हैं, पापसे घोर नरकमें संक्रमण होता है। धर्मसे नर उत्तम घरोंमें रमण करते हैं, पापसे दुर्भग, दुनिलयों में जाना पड़ता है। धर्मसे शरीरको रचना सुगठित होती है, पापसे लँगड़ा, बहिरा और अन्धा होता है। धर्म और पापरूपी कल्पवृक्षोंके इन यश और अपयशसे बहुल, दोनों प्रकारके शुभ-अशुभ करनेवाले जिवने प्रिय फल हैं, उन्हें ग्रहण करों" ॥१-२२॥
[१०] मुनिवर के वचनोंसे द्विजवर सन्तुष्ट हो गया, और जो जिनवरके द्वारा भाषित धर्म था, उसने वह ग्रहण कर लिया। पाँच अणुक्त लेकर वह दौड़ा, और एक पलमें अपने घर पहुँचा । जाकर उसने पिर सोमासे कहा कि "आज मैंने महान आश्चर्य देखा । कहाँ वन, कहाँ नगर और कहाँ राना ? और कहाँ अनेकोंके ज्ञाता मुनिको देखा ? कहाँ मैं, और कहाँ मैंने बहिरेके कान एवं अन्धेके नेत्रोंकी तरह, जिनवचन प्राप्त किये।" यह सुनकर सोमा पुलकित हो उठी । “हे स्वामी !
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पउमचरित के णिसुणेवि सोम्म गोलिय। 'मा? गाह वहि' एम पयोलिय ।।३॥ पुणु संचल्लाई वे वि तुरन्त । तिहुयण-तिकड़ जिणाला पत्त॥७॥ साहु णवेप्पिणु पासें णिविहई। धम्म सुणेपिणु गयर पइट ॥४॥
धत्ता
दिट्ट परिम्दस्थाणु प्यतु जाणइ-मम्दाइणि-परिचडि । णर-णखसहि परियरिङ हरि-घल-चन्द-दिवायरमण्डिड ।।५।।
[ ५] हरि अस्थाण-मग्में ज दिह। दियवरु पाप लएवि पण उ ||३|| पशु कुरष वारणवारहों। पाठु जिणिन्तु च भव-संसारहीं ॥२॥ ण मियख व अवमपिसायहाँ । पठ्ठ वग्गि व जोर-णिहायहाँ ॥३॥ णटु भुअ व गरुड-विहङ्गहौँ । पछु खरो स्त्र मत-मायनहीं ॥४|| गटु श्रणङ्गु ष लालब-गमणहौं । णडु महावणो व खर-पत्रणहाँ ।।५।। पठ्ठ महोहरो ध सुस्कुलिसही। पछु तुरनमो ग्च जम-महिसहो ॥६॥ तिह प्यासन्तु पदीसिड दियवस। मम्भीसन्तु पधाइल सिरिहरू ॥७॥ मण्ड धरेमि' कोण करगाएँ। गम्पि चित्त बल एषहों श्रग्गएँ ॥८॥ दुक्खु दुक्खु अप्पाणउ धीरे नि । सयल महन्भउ मणे अवहेरेषि ।।९।। दुइम-दाणनिन्द-वल-मदहो। पुणु आसीस दिण्ण वसहदहौँ ।।१०।।
घसा
'जेम ससुबु महाजण जेम जिणेसरु सुकिय-कम्में । चन्दकुन्द-जस-णिम्मलण सिह तुहुँ बधु णराहिच धम्म' ॥१॥
[१२] सा एश्यन्तरें पर-वल-माणु। कहकह-सद हसिउ जगरण ॥१॥ भवणे पइट्ट तुहार' जइयहुँ । पइँ अवगणे वि घल्लिय तस्यहूँ ॥२॥ एल्यु काले पुणु दियवर कोसा । विणा करवि पुणु दिग्ण असीसा ॥३॥
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अट्ठावीसमो संधि
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वहाँ जाओ।" वह इस प्रकार बोली। फिर वे तुरन्त वहाँ चले। वे त्रिभुवनतिलक जिनालयपर पहुँचे। मुनिको प्रणाम कर पास बैठ गये । धर्म सुनकर उन्होंने नगर में प्रवेश किया । उन्होंने जानकीरूपी गंगासे युक्त राजाका आस्थानरूपी आकाश देखा, नररूपी नक्षत्रोंसे घिरा हुआ तथा राम और लक्ष्मणरूपी सूर्य-चन्द्रमासे मण्डित ॥१-२।।।
[११] जैसे ही आस्थानमार्गमें लक्ष्मण दिखाई दिया, वैसे ही द्विजवर अपने प्राण लेकर भागा । जैसे सिंहके आक्रमणसे हरिण भागता है, जैसे भरसंसारसे जिनेन्द्र मायाले हैं, भादलरूपी पिशाचसे चन्द्रमा नष्ट होता है, जैसे नीर समूहसे अग्नि नष्ट हो जाती है, जैसे गरुड़ पक्षीसे सर्प नष्ट होता है, जैसे गधा मत्त मातंगसे नष्ट हो जाता है, जैसे काम मोक्षगमनसे नष्ट हो जाता है, जैसे महामेध खरपकमसे नष्ट हो जाता है, जैसे पहाड़ देवबन्नसे नष्ट हो जाता है, जैसे यम महिषसे सुरंगम नष्ट हो जाता है उसी प्रकार द्विजवर पलायन करता हुआ दिखाई दिया । लक्ष्मण उसे अभय वचन देते हुए दौड़े। हाथके अग्रभागमें बलपूर्वक पकड़कर ले जाकर उसे बलदेवके सामने डाल दिया। बड़ी कठिनाईसे अपनेको धीरज बंधाकर मनमें समस्त महाभयकी स्पेक्षा कर उसने पुनः दुर्दमनीय दानवेन्द्रोंके अलका मर्दन करनेवाले रामको आशीर्वाद दिया । जिस प्रकार महाजलसे समुद्र, जिस प्रकार पुण्य कर्मसे जिनेश्वर, उसी प्रकार हे राजन ! तुम भी चन्द्रकुन्दके समान यशसे निर्मल धर्मसे बढ़ो ॥३-११।।। __[१२] तब इसी बीच शत्रुवलका मर्दन करनेवाला लक्ष्मण ठहाका लगाकर हँसा कि “जब हम तुम्हारे घरमें घुसे थे तो तुमने अवहेलना करफे निकाल दिया था। इस समय हे द्विजवर, किस प्रकार तुमने प्रणाम करके आशीर्वाद दिया ?"
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१४२
से किसुणेवि मगर बेयावर । जिह आणन्तु जगह सीचालऍ । इ-वसेण कालु विसषय | मरथु विलासिणि जण-मण-वल
काळ
अधु विषs अथु गुणयन्स
अधु अण अत्थु जगें सूह
अरधु इच्छित भुजड़ रज्जु ।
|
एघ
पट्टणु तिहि मि तेहि आवजिउ । पवर होइ जड़ कम्यु धरसु ।
वाउ मुसु जड रहे
।
खल्लुस्खेत्ते
( वहु-) कर गणेसु
प्रणु दाणेसु
सुर सग्गेसु
अथड़ों को ण वि करह महायद || ४ || एश्यु ण हरिसु विसाठ करे
|१५||
एल्यु ण हरिसु विसाउ करेघउ ॥६॥
I
। अस्य-विडूण दुइ वल्लडु ||७||
- बिहूणु ममइ मगान्त |१८||
घन्ता
'साहु' मा राहवेंण इन्द्रणीक मणि-कञ्चण-खण्डे हिं । कढय-मउड-कडिसुतयहिँ पुजिउ कबिलु स ई भुव- दण्डेहिं ॥ ११ ॥
अस्थ-1
एगुणतीसमो संधि
सुरक्षामर-रिउ-हमरकर कोवपद-घर सहुँ सीयऍ चलिय महाइय । वल- नारायण वे वि जण परितुट्ट-मण जीवम्स-गयरु संपाच्य ॥
अत्थ- विष्णु दीणु गढ़ दूइड ॥ ९ ॥ अघ बिहू किं पिग कउजु' ॥ १० ॥
[ 9 ]
त्रिणयर- विस्तु व दोस-विवजित ॥१॥
हर तुरसुजु
सुरसु ॥२॥
भगु चिरे ॥ ३॥
मलि चन्दे ॥ ४ ॥
दण्ड छते
||५||
पहरु दिवसे
चिन्त झाणे
सीर
॥६॥
॥७॥
||४||
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१३
अट्ठावीसमो संधि यह सुनकर वेदोंका आदर करनेवाला वह ब्राह्मण कहता है कि संसारमें धमका सम्मान कौन नहीं करता। जिस प्रकार लक्ष्मांके घरमें आनन्द होता है, अर्थ वैसा आनन्द देता है। इसमें हर्ष विषाद नहीं करना चाहिए । कालके अधीन कालको भी सहन करना पड़ता है इसमें हर्प-विवाद नहीं करना चाहिए। अर्थ विलासिनियों के समूहको प्रिय होता है। अर्थरहित मनुष्य छोड़ दिया जाता है। अर्थ पण्डित है, अर्थ गुणधान है, अर्थसे रहित व्यक्ति माँगता हुआ घूमता है। अर्थ कामदेव है, अर्थ विश्व में सुभग हैं । अर्थरहित मनुष्य दोन और. दुर्भग होता है। अर्थ अपनी इच्छाके अनुसार राज्यका भोग करता है । अर्थसे रहित व्यक्तिके लिए कोई काम नहीं है। तब साधु कहकर रामने इन्द्रनील मणि और स्वर्णखण्डों, कटकमुकुट और कटिसूत्रोंके द्वारा कपिलकी अपने हाथोंसे पूजा की ।।१-१२।
उनतीसवीं सन्धि देवोंके लिए भयंकर और शत्रुका नाश करनेवाले धनुर्धारी और सन्तुष्ट मन आदरणीय राम और लक्ष्मण दोनों ही सौताके साथ चले और जीवंत नगर पहुँच गये।
[२] वहाँ भी उन्होंने उस नगरको देखा जो सूर्यबिम्बकी तरह दोप-विजित (दोष और रात्रिसे रहित) था । जहाँ केवल कम्प अवजोंमें, घाच घोड़ोंमें, युद्ध सुरतियोंमें, जड (जटामूर्खता) रुद्रोंमें, मलिनता चन्दनमें, खल खेतोंमें, दण्ड छत्रोंमें, अनेक फरोंको ग्रहण करनेवाले दिवसोंमें पहर (प्रहर-प्रहार); धन दानोंमें, चिन्ता ध्यानोंमें, सुर (सुरासुर) स्वर्गों में,
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पउम चरित
काहु गए
अङ्क कन्वेसु ॥२४ बरु वसहेतु वेलु गयणेसु ||
या रुपखेसु माणु मुक्खेसु ॥११॥ महवह किसिट णिव वपिणजइ । जह पर त जि तासु दधमिजइ ॥१२॥
घत्ता
तहों णयरहौं अवरु त्तरेंग कोसन्तरेण उपवणु णामेण पसत्थउ । णाई कुमारहो पनाही पडसम्ताहाँ थिउ णव-कुसुमालि-हत्थड ।।१३॥
[ २ ] तहिंउचवणे थिय हरि-वल जा हिं। मरहें लेहु विसजिल तावे हि ॥१॥ भग्गएँ घित्सु गरेण परिन्दहों। भविउ व बलणे हिं पडिउ जिणिन्दहाँ॥२॥ लाइड महाहरण साई हथें । जिणकर-धम्मु ष मुणिवर-सत्थं ॥३॥ वारि-णिवन्धहीं मुक्कु गइन्दु व । दिट्ट अङ्गु तहिं णहयले चन्दु व या 'रज्जु मुपवि वे वि रिउ-माण। सय वण-वासह) राम-जण गुण ॥५॥ को जाणह हरि करिड आवइ। वहीं वणमाल दंज जसु मावई' ॥६॥ छेहु विवेप्पिणु गरवइ महिहरु । गाई दरेण दट थिउ महिहरु ।।७।। गाइ मियको कमिउ विह। तिह महिहरु परिन्दु मावर्षे ॥६||
जाय चिन्त मणे पुखरहों धरणीधरहाँ सिहिनास-समाल-घण-घपणहाँ । 'लारपणु लक्खण-छक्ख धरु से मुएं वि वर म दिपण कण्णा कि अण्णहों'
सो एस्यन्तरें णयपा-विसालएँ। शालिहुम हियएण विसूरह। सिरे पासेउ घबह गुहु सूसह।
[३]
एह बत्त जं सुय यणमालएँ ।।१।। दुकवं महायइ उप आऊरइ ॥२॥ कर विगुणइ पुणु दहबाहों रूसइ ।।३।।
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गुणीसमो संधि
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फलइ गजोंमें, अंक काव्यों में, डर वृषभेश्वर में, बातूल आकाशमें, वन (वेव-ब्रण) वृक्षों में और ध्यान मुक्त मनुष्यों में था । अन्यत्र ये चीजें नहीं थीं । अथवा हे राजन् ! क्या वर्णन किया जाये यदि वैसा दूसरा हो तो उसकी उपमा उससे दी जाये । उस नगरके उत्तरमें एक कोशकी दूरीपर प्रशस्तनामका उपवन था जो मानो आते हुए और प्रवेश करते हुए कुमारोंके लिए नवकुसुमांजलि हाथ में लिये हुए स्थित था ॥१- १३॥
[२] राम और लक्ष्मण जब उस उपवनमें ठहरे थे, तभी भरतने लेखपत्र भेजा। मनुष्य (दूत) ने उसे राजाके सम्मुख डाल दिया | वह लेखपत्र जिनेन्द्रके चरणों की तरह पढ़ा हुआ था। राजाने स्वयं उसे अपने हाथसे ले लिया, उसी प्रकार, जिस प्रकार मुनियर समूहके द्वारा जिनवरका धर्म ले लिया जाता है, द्वारनिबन्धनसे मुक्त गजेन्द्रकी तरह, उसमें आकाश में चन्द्रमा के समान अंक (अक्षर) देखे, 'शत्रुका मदन करनेवाले राम और लक्ष्मण राज्य छोड़कर वनवास के लिए चले गये हैं। कौन जानता है लक्ष्मण कब लौटे। इसलिए वनमाला उसे दे दो जिसे तुम ठीक समझी ।" लेख ग्रहण कर महीधर राजा ऐसे स्थित हो गया जैसे दावानलसे दग्ध महीघर (पर्वत) हो । जैसे चन्द्रमा राहुके द्वारा अतिक्रान्त हो जाता हैं, उसी प्रकार राजा महीधर । मयूरकण्ठ तमाल और मेघके समान रंगवाले उस राजा के मन में चिन्ता हो गयी कि लक्ष्मण लाखों लक्षणोंको धारण करनेवाला है, उस वरको छोड़कर क्या किसी दूसरेको कन्या हूँ ॥ १- २९ ॥
[३] तब इसी बीच विशाल नेत्रोंवाली बनमालाने जब यह बात सुनी तो एकदम व्याकुल हो गयी। वह हृदयसे दुःख करती है। दुःखसे वह महानदी की तरह भर उठी। उसके सिरमें पसीना चढ़ने लगता है, मुख सूखने लगता है, हाथ
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पदमचरिड
मणु धुगुधुगइ देहु परितप्प। चम्महो णं करवतें कप्पइ ॥॥ ताव णहमाणेण घणु गजिङ। पाई कुमारे दुउ विसजिउ ।।५।। घोरी होहि माएँ र्ण मासिड : कदखा उनमें भावाः ३६६... गरहिउ मेहु तो वि तणु-मझिएँ। दोस वि गुण हवन्ति संसग्गिएँ ॥७॥ 'तुहुँ फिर जप-मण णषणाणन्दणु । महु पुणु जलहर णाई हुभासणु ॥३॥
पत्ता तुमचा दोसु दोसु कुलहों हय-दुह-कुलहों जलें जलपणे पबणे ज जायट । तं पासेउ दाहु करहु णीसासु महु सिण्णि वि दाखवणहाँ आयड ॥९॥
] दोच्छिउ महु पणछु महङ्गणे। पुणु वणमाल' चिन्सिउ णिय-मणे ।।३।। 'किं पइसरमि बलन्त हुआसणें। किं समुः किं रणे सु-मोसणें ॥२॥ किं विसु भुजमि कि अहि चप्पमि । किं अप्पड करवात कप्पमि ॥३॥ किं करियर-दन्तहिं उर मिन्दमि । किं करवाले हिं तिलु तिल चिन्दमि ॥१॥ किं दिस कमि किं पञ्चममि । कहीं अक्खमि कहाँ सरणु पषममि ॥५॥ अहवइ पण काई गमु सजमि । तरुवर-दालएँ पाय विसनमि' ।।६।। एम भणेप्पिशु चलिय तुरन्ती। कश्ली-थद्ध उग्धोसम्सी ॥७॥ गन्ध-धूप-वलि-गुफ्फ-चिहस्थी। लोल चिकन्ति चोसस्थी ।।
पत्ता चाविह-सेणे परियरिय धण णीसरिय 'को विहिं आलिशाणु देसई' । एम घवन्ति पइट्ट वणे रवि-अस्थवणे 'कहि लक्खणु' पाइँ गवेसह ॥५॥
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एगुणतीसमो संधि घुनती है भाग्यको कोसती है। मन धक-धक करता है । देह सन्तप्त होती है। मानो कामदेव करपत्रसे काटता है । इतने में आकाशके आँगनसे धन गरजा, जैसे कुमारने अपना दूत भेजा हो, मानो वह कह रहा हो, हे आदरणीये ! धैर्य धारण करो, यह लक्ष्मण उपवनमें ठहरा हुआ है। तब उस तन्वंगीने मेघको बुरा-भला कहा। संगतिसे दोष भी गुण हो जाते हैं, तुम (मेघ) जनोंके मन और नेत्रोंके लिए आनन्ददायक हो परन्तु हे मेघ, मेरे लिए आगके समान हो। तुम्हारा दोष नहीं है। दोष तुम्हारे इत दुःखकुलका है। तुम जल, आग और पवनसे उत्पन्न हुए हो इसीलिए तुम' प्रस्वेद, जलन और निःश्वास ये तीनों मुझे दिखाने के लिए मोर १-।
[४] उसने मेघकी भर्त्सना की, वह आकाशके आँगनमें नष्ट हो गया। वसन्तमाला फिर अपने मनमें सोचने लगी कि क्या मैं जलती हुई आगमें प्रवेश कर जाऊँ, क्या समुद्र में, क्या भीषण जंगलमें चली जाऊँ ? क्या विष खा लूँ या साँपको चाँप लूँ ? क्या अपनेको करपत्रसे घिरवा लूँ, क्या गजवरके दाँतोंसे हृदय विदीर्ण करवा लू ? क्या तलवारोंसे तिल-तिल छेद लूं ? क्या दिशा लाँध जाऊँ, क्या संन्यास ग्रहण कर लूँ ? किससे कहूँ ? किसकी शरणमें जाऊँ ? अथवा इससे किसके पास जाऊँ ? अथवा, इससे क्या बनेगा ? मैं वृक्षको डालसे प्राणोंका विस. जन करती हूँ ।” यह कहकर वह अशोकवनको घोषणा करती हुई तुरन्त चल दी । जिसके हाथमें गन्ध, धूप, वलि और पुष्प हैं ऐसी वह लीलापूर्वक विश्वस्त रूपसे चलती हुई, चतुर्विध सेनासे घिरी हुई वह धन्या निकली। भाग्यसे कौन आलिंगन देगा, इस प्रकार बोलती हुई वह अशोकवनमें प्रविष्ट हुई। सूर्यास्त होनेपर 'लक्ष्मण कहाँ' जैसे वह यह खोज कर रही हो ॥१-२|
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पडमचरिड
[५] दिनु असोयषष्छु परिअश्चित। जिणवरो न सम्भाव अति पुणु परिषायणु कियर असोयहाँ । 'अपणु ण हह-लोयहाँ पर-लोयहाँ ॥२॥ जन्में जम्मै मुभ-मुश्रा स-सफ्षणु । पिर-मसारु होज महु लक्खा ॥३॥ पुणु पुशु पम णमंसह जाहिँ। स्पणिहें वे पहरा हुय ला हि ॥४॥ सपलु वि साहणु णिहोणालाउ । णावइ मोहण-जालें पेलिउ ॥५॥ णिग्गय पुणु षणमाल सुरन्ती। हार-डोर णेउर हि खलन्ती ॥६॥ हरि-विरहन्धु-पूरें उन्भन्सी । वुषण-कुरति व चिम्मन्ती ॥७॥ णिविस गरगो बलमगी। रमध्य-श्वक गंगोह घलग्गी ॥८॥
धत्ता रेहद दुमें वर्णमाल किह धणे विशु जिह पहवन्ती लक्षण-कङ्किणि । किलिकिछन्ति जोहावाणिय पनि
हि वालऍ कलय पकन्दियड । पण-ढिम्मऊ गं परिवन्दियउ ॥३॥ 'आयघणहाँ वपणु बणस्सइहों। गङ्गाणइ-जउण-सरस्सइहाँ ॥२।। गह-भूय-पिसायहाँ विन्तरहीं। वण-जमखहाँ रक्खहीं खेयरहों ॥३॥ गय-वग्रहों सिहाँ सम्बरहीं।। स्थायर-गिरिवर जलायरहों ॥३॥ गण-गन्धवहीं विजाहरहों।। सुर-सिद्ध महोरग-किरणरहों ।।५।। जम-वन्द कुवेर-पुरन्दरहीं। चुह-भैसइ-सुक-सणिच्छरहों ॥३॥ हरिणकहाँ कहाँ जोइसहाँ। वेगाल-दइवहाँ रखसहौँ ॥७॥ वइसाणर-वरुण-पहाणही। सहाँ एम कहिजहाँ लक्षणहाँ ॥६॥
घत्ता वुखद धीय महाहरहों दोहर-काही वणमाल-गाम भय-वजिष । करखण-पइ सुमरन्सियएँ कन्दन्तिय वध-पाय पाण विसजिय' ॥९॥
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एगुणतीसमो संधि [५] जिनवरके समान सारसे अंचित अशोक वृक्ष उसे दिखा। वह उससे लिपट गयी। फिर उसने अशोक वृक्षसे प्रतिवादन किया, "जन्म-जन्ममें बार-बार लक्षणों सहित लक्ष्मण मेरा प्रिय पति होगा।" बार-बार जब वह इस प्रकार नमस्कार करती, तब तक रात्रिके दो प्रहर बीत गये । समस्त सेना नौद में इस प्रकार मग्न हो गयी, जैसे सम्मोहनके जालसे प्रेरित हो । तुरन्त वनमाला निकल पड़ी, हार, डोर और नूपुरोंसे स्खलित होती हुई। लक्ष्मणके विरहजलमें व्याकुल होती हुई खिन्न हारिणीकी तरह चित्तमें उद्भ्रान्त होती हुई वह आधे पलमें वटवृक्षसे ऐसे जा लगी, मानो रमणके लिए चंचल कोई यार से जा लगी हो । लक्ष्मणकी आकांक्षा रखनेवाली वनमाला वृक्षपर इस प्रकार शोभित हो रही थी कि जैसे मेघोंमें चमकती हुई बिजली हो, या जैसे किलकारियाँ भरती हुई जोडावणिय ?? भीषण प्रत्यक्ष वह यक्षिणी हो ॥१-९॥!
[६] वहाँ उस बालाने इस प्रकार आक्रन्दन शुरू कर दिया मानो वन-गजशिशुने आक्रन्दन शुरू कर दिया हो-'हे बनस्पत्तियो, गंगानदी-यमुना और सरस्वती नदियो, प्रह-भूतपिशाचो, व्यंतरी, वनयझो, राक्षसो, खेचरो, गजमाधो, सिंहो, सांभरो, रत्नाकर गिरिवर जलचरो, गण गन्धर्वो, विद्याधरो, सुरसिद्ध महासाँप किन्नरो, यम स्कन्द कुवेर और पुरन्दरो, बुध-वृहस्पति-शुक्र-शनिश्वरो, चन्द्र-सूर्य-ज्योतिषो, वेताल-दैत्य
और राक्षसो, वैश्वानर-प्रभंजनो, मेरे वचन सुनो और उस लक्ष्मणसे इस प्रकार कहो कि, "लम्बे बाँहोवाले महीधर राजाकी भयसे रहित वनमाला नामकी बेटी कहती है, कि लक्ष्मणपतिका स्मरण करती हुई तथा आक्रन्दन करती हुई उसने वटवृक्षपर अपने प्राण विसर्जित कर दिये" ||१-९॥
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१५.
परमचरित
[ ] एम भणेप्पिशु णयण-विसालएँ । अंसुअ-पास किउ षणमालएँ ॥१॥ सो ले जाई सई मम्मीसावह। णाहूँ विवाह-लील दरिसावह ॥२॥ ण दियबरु वाणही चारित | णा कुमारे इत्यु पसारित ॥३॥ गले लावि हक्लावइ जाहि । कण्ठे परिपालिले वि ता हि ॥ एम पधम्पिड मम्भीसन्तउ। 'हउँ सो लक्षणु लक्षणवन्त ॥५॥ दसरह-सणउ सुमित्तिएँ जायउ । रामें सहुँ वणवासही मायउ' ॥६॥ तं गिसुणे वि विम्भाविय णिय-मणें। कहिलक्षणु कहिं धष्ठिर उववणें ॥७॥ ताम हलाउछु कोछह लग्गट । 'मो भो लक्षण आज कहिं गउ' ।।८॥
पत्ता से पिसुणे चि महिहर-सुअएँ पुलइय-भुन गई जिह णनाविउ णिय-मणु। 'सहल मजोरद अज्जु महु परिहूउ सुहु (2) मत्तारु लधु ज लपवणु' ॥९॥
[८] तो प्रत्यन्तरें भुवणाणन्दें । दिटु जगणु राहषचन्दं ॥१॥ णावह तमु दोषय-सिह-सहियर । णापइ जलहरु विजु-पगहियड ॥२॥ णावइ करि करिणि भासत्तङ । चलल हि पहिउ वलहों स-कल सउ ॥३॥ 'चार चारु मो जयणाणन्दण। कहिं पाई कण्ण ललू रिवमरण' ॥धा तुस्सु कुमार 'विज च सगुणिय । धरणीधरही धीय कि ण मुणिय ॥५॥ जा महु पुष्वयपणा-उबविट्ठी। सा वणमाण पूर वणे विट्ठी' ॥६॥ हरि अफ्फालइ जाच कहाणउ। ताम रसि गय विमल विहाणन ॥७॥ सुहष्ट विउद कुछ पस-लुद्धा। 'केण वि लय कण' पण्णा ॥८॥
वत्ता ताव गिहालिय दुआएँ हिं पुणु रह-गऍहि चाउदिसु चचल-तुरहि। येदिय रणउहँ वे वि जण बल-महुमहण पश्चापापण जेम कुरों हि ॥९॥
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गुणवीसमो संधि
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[७] यह कहकर, नेत्रोंसे विशाल वनमालाने कपड़ेका फन्दा बनाया। वही जैसे उसे अभय वचन देता है, जैसे उसकी विवाह लीला दिखाता है, मानो उसने जिनबरको दानके लिए पुकारा हो, जैसे कुमारने अपना हाथ फैलाया हो। वह (वनमाला) गले में फन्देको लगाकर जैसे ही हिलाती है वैसे ही कुमारने आलिंगन करके उसे कण्ठ में पकड़ लिया और अभय वचन देते हुए यह कहा कि "मैं वही लक्षणोंवाला लक्ष्मण हूँ, सुमित्रा से उत्पन्न, दशरथका पुत्र रामके साथ वनवास के लिए आया हुआ हूँ ।" उकर वह अपने विवि हुई। इतने में हलायुध, (राम) पुकारने लगते हैं-लक्ष्मण कहाँ ? ओ लक्ष्मण कहाँ गये हो, आओ। यह सुनकर, जिसकी बाँहें पुलकित हैं ऐसी महीधरकी कन्याने नटकी तरह अपने मनको नचाया कि मेरा शुभ मनोरथ आज सफल हुआ कि जो मैंने पति लक्ष्मण पा लिया ||१-९ ॥
[4] तब इसी बीच राघवचन्द्र लक्ष्मणको देखा । वह, अपनी पत्नी के साथ रामके चरणों में इस प्रकार गिर पड़ा जैसे दीपशिखां के साथ तम हो, जैसे बिजलीसे गृहीत बादल हो, मानो हथिनी में आसक्त हाथी हो । रामने कहा - "हे नयनान्दन शत्रुमर्दन लक्ष्मण, सुन्दर-सुन्दर । यह कन्या तुमने कहाँ प्राप्त की ।" कुमार बोला – “विश्वाके समान गुणवती, महीधर राजाकी इस कन्याको क्या नहीं जानते ? जो मुझे पूर्वजन्म में कही गयी थी, उस वनमालाको मैंने वनमें देखा ।" लक्ष्मण इस प्रकार जबतक कथानक कहता है, तबतक रात चली गयी और विमल सवेरा हो गया। सुभट जाग गये और यशके लोभी वे क्रुद्ध हो गये कि 'कन्या कौन ले गया'। वे तैयार हो गये। तब तक दुर्जेय उन्होंने पुनः रथगजों और चपल अश्वोंसे चारों दिशाओं में देखा, और रणमुखमें उन दोनों राम-लक्ष्मणको
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पउमचरित
अग्भिटु सेण्णु कलयल करन्तु | "जिह खाइय रुपण तिहहणु' मणन्तु ॥१॥ सं-वयशु सुणेपिणु हरि पलित्तु । उद्धाइड सिहि णं घिऍण सित्तु ॥२॥ एखाल्लर लक्खणु बलु अणन्तु । भालगु तो वि तिण-समु गणन्तु ॥३॥ परिसक्का यह घलाह वलड्। तरुधर उम्मू वि सेण्णु दलह ॥५॥ इवाइ मिहद पाइन सुरक्ष। महि कमइ ममइ भामइ रहन ॥५॥ अवगाहइ सास इ धरह जोह। दलवह लोहा गयवरोह ॥६॥ विणिवाइय पाइय सुहड़-घट्ट। कडुआविय विवरामुह पयह ।।७।। णासन्ति के विजे समरे बुक्क । कायर-पार-कर-पहरण मुक ||॥
घत्ता
गम्पिणु ऋहिउ महीहरहों 'एकहीं परहों आवट्ट सेण्णु भुव-दण्डएँ । जिम णासहि जिम मिलु समरे विहिँ एकु करेंवणमाल लक्ष्य वलिमण्डएँ'॥९॥
[१०] ते वरणु सुप्पिणु थरहरम्नु । धरणीधरु धाइड विप्फुरन्तु ॥१॥ आरूहु महारहें दिण्णु सक्छ । सणधु कुक्षु जय-लकिछ-कन्सु ॥२॥ तो दुजय दुद्धर हुपिणवार। 'हणु ह' मणत णिग्गय कुमार ॥३॥ वणमाल-कुसुम-कल्लाणमाल। जयमाल-सुमाल-सुक्ष्ण माल || गोपाल-पाल इय अट्ट भाइ। स₹ राएं व गह कुइय णाई ।।५।। एत्यन्तर रण बहु-सस्कोण। हकारिड लक्षणु महिहरेण ॥३॥ 'वल वलु समरगणें देहि शुजछ । णिय-णामु गोतु कहें कबशु सुज्छु' ॥७॥
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यो संधि
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उसी प्रकार घेर लिया जिस प्रकार हरिणोंके द्वारा सिंह घेर लिया गया हो ॥ १ ॥
[९] कलकल करती हुई तथा जिस प्रकार कन्या ली, उस प्रकार प्रहार करो कहती हुई सेना भिड़ गयी । यह वचन सुनकर लक्ष्मण आगबबूला हो उठा। वह दौड़ा जैसे घीसे सींची गयी आग हो । अकेला लक्ष्मण था सेना अनन्त थी । तब भी वह तिनकेके बराबर समझता हुआ उससे भिड़ गया । वह चलता है, ठहरता है। मुड़ता हैं, वृक्ष उखाड़कर सेनाको चूर-चूर करता है । उछलता है, भिड़ता है, अइबोंको गिराता है। धरतीका उल्लंघन करता है घूमता है, और चक्को घुमाता है । अवगाहन करता है, संकुचित होता है, योद्धाओंको पकड़ता हैं। गजसमूहको चूर-चूर कर लोटपोट कर देता है । सुभटसमूहको उसने आघात कर गिरा दिया। वह कटु हो उठी और विपरीत मुख होकर चली गयी। जो युद्धमें चूक गये वे भाग गये । कायर लोगों के हाथसे अस्त्र छूट गये । किसीने जाकर महीधरसे कहा, "एक आदमीके बाहुदण्डसे सेना नष्ट हो गयी । युद्धमें इस प्रकार लड़िए कि उसे नष्ट कर सको, दैवयोगसे वह एक हाथमें बलपूर्वक वनमालाको लिये हुए हूँ" ॥१-२९॥
घर
[१०] यह वचन सुनकर थर-थर काँपता हुआ राजा महीमाता हुआ दौड़ा। वह महारथपर बैठा और शंख बजा दिया | विजयलक्ष्मीका आकांक्षी बहु क्रुद्ध होकर तैयार होने लगा । तब दुर्जय, दुर्भर, दुर्निवार कुमार 'भारो मारो' कहते हुए निकले । बनमाल, कुसुममाल, कल्याणमाल, जयमाल, सुमाल सुवर्णमाल, गोपाल और पाल, ये आठ भाई राजाके साथ ऐसे जान पड़ते थे मानो नौ ही ग्रह कुपित हो उठे हों । इस बीच अत्यन्त मत्सर से भरे हुए महीधरने युद्धमें लक्ष्मणको ललकारा कि मुड़-मुड़ो, युद्ध-प्रांगण में मुझे युद्ध दो । अपना
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पचमचरिङ
पंणिणे वि वोलिड हच्छिगेहु । 'कुल-गामही अवसर कवणु पहु ॥ ८ ॥
घन्त्ता
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णिड किंवा मिलिटस
!
पहर पहरू रडुकुष्ठ- न्दणु रुच्छिहरु तर जीवहरु परवड मड्डु खक्खणु णामु' ॥ ९ ॥
[ " ]
कुलु णामु कहिउ जं सिरिहरेश | षणु वत्तवि महिहें महोदरेण ॥ १ ॥ सुरकरि कर-सम-भुअ-क्षरेण । अवरुण्डि णेह महाभरेण ॥२॥ हवि करें कि अपरायणासु । स दिष्ण कण्ण नारायणासु ॥३॥ मरूतु महीहरु एक रहें । अट्ट वि कुमार अणेक रहें ॥४॥ थिय सवल सीय अण्णे रहें ॥ ५॥ चमतहिँ खुजय- वामणेहिं ॥ ६ ॥ कंसालेहिं ताहिं महहिं ॥ ७ ॥ लीलऍ अस्थाणें बट्टाई ॥ ८ ॥
चणमाल स-लक्खण एकरहूँ । पहु-पद-स-वनावणेहिं । उच्छाएँ हिँ धवलेहिं महहिं । आणन्दे जयरें पइट्टाइँ ।
w
घत्ता
सहुँ चणमालएँ, महुमहणु परिमुट मणु र्ज बेद्दह जन्तु पदीसिउ । कोहि मङ्गलुगन्तऍहिं चन्तयें हिं जिणु जम्मणे जिह से हूँ भू सिउ ॥ ९ ॥
तीसमो संधि
तहिँ अवसरे आणन्द-भरें उच्छाह करें जयकारों कारणें मिष्किल । मरदद्दाँ उप्पर उबलिङ रहमुच्छलिङ गरु मन्दावत्त-णराहिङ ॥
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सम संधि
नामगोत्र बताओ कि तुम कौन हो ? यह सुनकर लक्ष्मीका वर लक्ष्मण बाला कि कुल और नाम (पूछनेका) का यह कौन-सा अवसर है ? जैसा तुमने सोचा है ग्रहार करो, प्रहार करो, क्या तुमने यह विचार नहीं किया कि जिसका बड़ा भाई राम है। रघुकुलका पुत्र लक्ष्मीका धारण करनेवाला और तुम्हारे जीवनका हरण करनेवाला, हे राजन् ! मेरा नाम लक्ष्मण है ।।१-५।।
१५५
[११] जब श्रीधर (लक्ष्मण) ने अपने कुलका नाम लिया तो महीधर ने धरतीपर धनुष फेंककर पेरावतकी सूँड़के समान स्नेहपूर्ण बाहुपंजरसे उसका आलिंगन कर लिया। अग्निको साक्ष्य बनाकर उसने अपराजित लक्ष्मणको कन्या दे दी । महीधर एक रथपर आरूढ़ हुआ। दूसरे रथपर आठ कुमार बैठे | लक्ष्मण सहित वनमाला एक रथपर बैठी । और राम सहित सीता एक और रथपर स्थित थी। पटु-पटह-शंख और बधावनों, नाचते हुए कुब्जक वामनों, उत्साह-धवल और मंगल गीतों, कंसाल-ताल और मृदंगों के साथ वे आनन्दपूर्वक नगर में प्रविष्ट हुए, और लोलापूर्वक दरबार में बैठे। सन्तुष्ट मन लक्ष्मण वनमाला के साथ वेदी पर जाते हुए ऐसा दिखाई दिया, जैसे मंगल गाते हुए और नाचते हुए लोगोंने जिस प्रकार जन्मके अवसर पर जिनको स्वयं भूषित किया हो" ॥१-९॥
तीसवीं सन्धि
आनन्दसे भरे हुए तथा उत्साहवर्धक उस अवसर पर विजयके लिए वेगसे उछलता हुआ नन्दावर्तका निर्वय राजा (अनन्तवीर्य) भरतके ऊपर आक्रमण करता है ।
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पक्षमचरित
[ ] जो मरहहाँ दूउ विसज्जियउ। भाइड सम्माण-विषमायड ॥१॥ बहु णन्दावस-णराहियहाँ। वजरिउ अणन्तवीर-णियहाँ ॥२॥ 'हउँ ऐक्नु केम विच्छारिपउ। सिह मुपवि कह घिण मारिया ॥३॥ सो भरहु ण इच्छ सन्धि रण। जे जाणही तं चिन्तयहाँ मणे ॥३॥ अण्णु वि उमसन्धे झाइयउ। सहुँ सेपणे विश पराइयड ॥५॥ तहि गरबह वालिखिल्लु वलिउ। सीहोयस वजयण्णु मिलिड ॥६॥ सहि रुपभुति सिरिवच्छ-धरु। मममुसि सुभुत्ति विभुसि-करु ॥७॥ अपरेहि मि समउ समावडिउ। पेक्लेसहि कल्ल' अभिडिउ' |८॥
धन ताम अणन्तवीरु खुहिङ पहजारूहिउ 'जई कल्लएँ भरहु ण मारमि । तो रहन्त-महाराहाँ सुर-साराहों णड घलण-जुवलु जयकारमि' ॥९॥
पइजारूड णराहिउ जाहि। साहशु मिलिउ असेसु षि ताहिं ॥१॥ केहु लिहेप्पिणु जग-विक्खायहाँ। तुरिउ विसजिउ महिहर-रायहाँ ॥२॥ अग्गएँ वित्तु वक्षु लम्पिक्कु व । हरिणक्खरहिँ लोणु णण्डिक्कु व ॥३॥ सुन्दरु पत्तवस्तु वर-साहु व 1 णाव-बहुल सरिङ्ग-पवाहु व ॥४॥ दिट्ट राम तहिं आय अणन्त वि। सल्ल-विसष्ठ-सीह विशन्त वि ॥५॥ दुजय-अजय-विजय-जय-जगमुह । परसबूल-विउल-गयायमुह ॥६॥ रुड्वच्छ-महिवच्छ-महद्धय । चन्दण-चन्दोयर-गरुडबूय ॥७॥ केसरि-मारिखण्ड-जमघण्टा । कोकण-मलय-पण्डियाणा ॥८॥ गुज्जरसार-वङ्ग-मङ्गाला । पइविय-पारिपत्त-पश्चाला ॥२॥ सिन्धव-कामरूवनाम्भीरा। तजिय-पारसीय-परतीरा ॥१०॥
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तीसमो संघि
[१] जो दूत भरतके लिए भेजा गया था, सम्मानहीन होकर वह चला आया । शीघ्र उसने नन्दावर्तके नराधिप अनन्तवीर्य नृपसे कहा --- " देखिए मैं कैसा अपमानित किया गया हूँ, सिर मूँड़कर किसी प्रकार मारा-भर नहीं गया। वह भरत युद्धमें सन्धि नहीं चाहता। जो ठीक समझो उसका अपने मनमें विचार करो | एक और आपका बैरी सेना सहित विन्ध्याचल तक आ पहुँचा है । वहाँ नरपति बालिखिल्य मुद्द गया है (बदल गया है), सिंहोदर और वज्रक मिल गये हैं। यहाँ रुद्रभूति, श्रीवत्सधर, मरुभूति, सुभुक्ति और विमुक्तिकर आदि दूसरे राजा भी हैं। दूसरोंके साथ आकर, तुम देखोगे कि वह कल लड़ेगा ।" तब अनन्तवीर्य क्षुब्ध हो गया। उसने प्रतिज्ञा की कि यदि कल मैं भरतको नहीं मारता तो सुरश्रेष्ठ आदरणीय अरहन्तके चरणकमलका जयकार नहीं करूँगा ।।१-९॥
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[२] जैसे ही राजाने प्रतिज्ञा की, वैसे ही अशेष सेना आ मिली। लेख लिखकर शीघ्र ही विश्वविख्यात महीधर राजाके लिए भेजा गया। चोरकी तरह बँधा हुआ वह पत्र आगे डाल दिया गया । वह (पत्र) व्याधकी तरह हरिणक्खरों (हरि - सिंह के नखों, चित्र-विचित्र अक्षरों) से व्याम था । श्रेष्ठ साधुकी तरह सुन्दर पत्तवन्त (पत्र - पात्रसे युक्त ) था । गंगा नदी के प्रवाह के समान गायबहुल (नावों नामोंसे प्रचुर ) था । राजा वहाँ आये और अनन्तवीर्यसे मिले । शल्य, विशल्य, सिंहविक्रान्त, दुर्जय, अजय, विजय, जय, जयमुख, नरशार्दूल, विपुलगज, गजमुख, रुद्रवत्स, महीवत्स, महध्वज, चन्दन, चन्द्रोदर, गरुडध्वज, केशरी, मारिचण्ड, यमघण्ट कोंकण, मलय, पांड्य, आनर्त, गुर्जर, गंग, बंग, मंगल (मंगोल), पइविय, पारियात्र, पांचाल, सैन्धव, कामरूप
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पड़मचरित
मरकण्णाड-लाह-जालन्धर । अपर वि जे एकेक पदाणा ।
काहीर-कीर-खस-बावर ॥११॥ केण गणेपिणु सक्रिय राणा ॥१२॥
ताम राहिउ कसण-सणु थिङ विमाण-मणु गं पडिउ सिरस्थले वन्नु । 'किह सामिय-सम्माण-भरु विसहिउ दुखुरु किद्द भरहों पहरित मनु' ॥१३॥
[३] जे परवड मणे चिन्तावियउ। हलहरु एमन्त-पक्रय थियउ ॥३॥ अट्ट वि कुमार कोकिय खणेण। वहदेहि भाय सहुँ लक्खणण ॥२॥ मेहले प्पिणु मन्तिउ मन्तणउ । बलु भणइ 'म दरिसहाँ अप्पणउ ॥३॥ रह-तुरय-महागय परिहर वि। तिय-धारण-गायण-बेसु करें वि ॥४॥ तं रिउ-अस्थाणु पईसरहौँ । णचन्त अगन्तवीर धरहौं' ॥५॥ तं वाणु मुणे वि परितुट-मण।। थिय कामिणि-वेस कियाहिरण ॥६॥ वलए जोइड पिय-वनणु । कि होइ ग होइ वेस-गहणु ॥७॥ 'लाइ सुन्दरि ताच तिट पयरें। अम्हें हिं पुणु जुज्मेवल समरे' ॥८॥
वत्ता लग्ग कढाएँ जणय-सुय कण्टइय-भुथ 'लहु णरबर-गाह ण एलहि । मह मेहले घि मासुर' रण-सासुरएँ मा कित्ति-बहुभ परिणेसहि ॥९॥
खेड्ड करें वि संचल्ल महाइय। णिविसे णन्वाध पराइय ॥१॥ दिट्टु जिणाल खण परिमोवि । समग गाएँ विधाएँ विणा चि ॥२॥ सोय ठवें वि पट्ट पुर-सरवरें। रहवर-तुस्य-महागय-जलयरें ।।३।। देउल-वहल-धवल कमलायरें। पदणवण-घण-तीर लयाहरें ॥४॥ चार-विलासिणि-गणिणि करम्विएँ । छप्पपणय-छप्पय-परिघुम्बिएँ ३५॥
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तीसमो संधि गम्भीर, वजिक ? पारसीक, परतीर, मरु, कण्याड, लाट, जालन्धर, टक्क, आभीर, कीरखस और बब्बर तथा दूसरे भी जो एक-एक प्रधान राजा थे | कौन उन राजाओंकी गणना कर सकता था। तब श्याम शरीर राजा महीधर विमन मन हो गया मानो उसके सिरपर वम पड़ा हो । (वह सोचने लगा) स्वामी (अनन्तवीर्य) के सम्मानभारको तथा भरतके दुर्धर प्रहारको आज मैं किस प्रकार सहन करूँ ? ॥१-१३॥
[३] जब राजा महीधर अपने मन में विचार करने लगा तो राम एकान्त पक्ष में स्थित हो गये। एक क्षणमें उन्होंने आठों मुगानों को बुला दिया : मागने :थ सी:, श्री आयी। मन्त्रियों और मन्त्रणाओंको छोड़कर रामने कहा--"अपनेको प्रकट मत करो। रथ, घोड़ों और महागजोंको छोड़कर स्त्री, चारण और गायकका रूप बनाकर शत्रुके उस दरबार में प्रवेश करो और नृत्य करते-करते उस अनन्तवीयको पकड़ लो।" यह वचन सुनकर वे सन्तुष्ट मन हो गये। वे स्त्रीके वेष बनाकर
और आभरण पहनकर स्थित हो गये । 'हे सुन्दरी लो तबतक तुम नगरमें रहो हम लोग फिर युद्ध में लड़ेंगे।' पुलकित बाहुवाली सीता कदाक्षसे कहती है-“हे नरनाथ, तुम जल्दी नहीं आओगे। मुझे छोड़कर तुम भारवर युद्धरूपी ससुराल में कीर्तिरूपी वधूसे विवाह मत कर लेना" ॥१.२॥
[४] वे आदरणीय खेल करते हुए चलें और पल-भरमें नन्दावर्त पहुँच गये। उन्हें जिनालय दिखाई दिया, एक क्षण उसकी प्रदक्षिणा कर तथा आगे गा-बजा-नाचकर, वहाँ सीताको स्थापित कर वे उस नगररूपो सरोवरमें प्रविष्ट हुए, जिसमें रथवर, तुरग और महागजरूपी जलचर थे, देवकुलरूपी धवल कमलोंका समूह था, नन्दनवनरूपी सघन तीर लतागृह थे ! सुन्दर विलासिनीरूपी कमलिनियोंसे जो कुचित
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१२०
सजण निम्मक-सब्किालकिऍ । कामिणि-ल-मण-मत्थल्लिएँ । सहिँ तेहऍ पुर- सरवरें दुज्जय ।
पठमचरित्र
संजय सुवि परिहार गड 'पहु एसई गायण आया हूँ । जाणहुँ किं विज्जाहरहूँ । अइ-सुसरहूँ जण-मण-मोहइँ | तं वय सुवि पराहिण | परिहारु पचाइ सुद्ध मणु । तं दणु सुचि समुष्टिय |
पता
कामिणि- वेस कियाहरण विहसि
वयण गय पत संस्थु पडिहारु |
सुबह 'आयहूँ चारण हूँ मरहों तहूँ जिए कहें जिन बेड पसाए || ९ ||
पिसुण- घयण- घण- पशुपक्किएँ ॥ ६ ॥ नरवर-इंस समूहिं अमेलिऍ ॥ ७ ॥ लीलऍ जाई पट्ट दिसागय ||८||
[]
। विष्णन्तु णराहिउ र अजय ॥ १॥ फुड माणूस मेण बाबाइँ १२ ॥ किं गन्धब्बई किं किण्णरहूँ ॥३॥ मुणिबरहु मिमण-संखोहण ॥४॥ 'दे दे पदसा' त्तु मिर्षेण ॥५॥ 'पसरह' मणन्तु कपट-तणु ॥ ३ ॥ णं दस दिसि वह एकहि मिलिय ॥७॥
घत
पठ परिन्द्रस्थाण-वर्णे रिड-रु-वणें सिंहासण- गिरिवर- मण्डिएँ । पोढ-विकासिणि-रूप-पहले वर-वेल्लह अइ-बीर-सीह-परिचट्टिएँ ॥ ८ ॥
तर्हि तेहऍरि अस्थाण-वर्णे । दिय-राहि दिडु किह । आरम्मिड अमाएँ पेक्खणउ । सुरयं पित्र यन्धकरण-पत्ररु ।
[६]
इह
खणें 11917 मियकु जिह ॥ २ ॥
पाणण जेम खत्तहँ म सुकलंस व सबलु सलल ||३|| कवं पिव छन्द - सद्-गहिरु ॥ ४ ॥
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तीसमो संधि था, जो विटरूपी भ्रमरोंसे परिधुम्धित था, सज्जनरूपी निर्मल जलसे अलंकृत था, दुष्ट वचनरूपी सघन कीचड़से पंकिल था जिसमें कामिनियोंके चंचल मनरूपी मत्स्य उछल रहे थे, जो नरवररूपी सैकड़ों हंसोंसे अपरित्यक्त था, ऐसे नस नगररूपी सरोवरमें वे अजेय, दिशागजकी तरह लीलापूर्वक धुसे । कामिनी रूपधारी आभूषण पहने हुए और हँसमुख वे गये और वहाँ पहुँचे जहाँ प्रतिहार था । वे कहते हैं-'हम भरतके चारण है इस प्रकार कहो कि जिससे वह प्रवेश दे दे ॥१-९॥ ___[५] यह वचन सुनकर प्रतिहार चला गया। उसने युद्ध में अजेय राजासे निवेदन किया, "हे स्वामी ! ये गानेवाले आये हुए हैं, स्पष्ट रूपसे मनुष्य रूपमें हैं, मैं नहीं जानता कि ये क्या विद्याधर हैं ? क्या गन्धर्व हैं कि या किन्नर हैं ? अत्यन्त सुन्दर स्वरकाले जनमनका मोहन करनेवाले और मुनिवरोंके भी मनोंको क्षुब्ध करनेवाले ।" यह वचन सुनकर राजाने कहा-'उन्हें प्रवेश दो' ! प्रविहार सन्तुष्ट होकर दौड़ा, पुलकित शरीर यह कहता हुआ कि प्रवेश करिए | यह शब्द सुनकर वे लोग इस प्रकार चले मानो दसों दिशापथ एक जगह मिल गये हो । जो शत्रुरूपी वृक्षोंसे सघन था, सिंहासनरूपी गिरिवरसे मण्डित था, जो प्रौढ़ विलासिनीरूपी लताओंसे प्रचुर था, वररूपी बेलफलसे युक्त था तथा अति वीर्यरूपी सिंह से मदित था ऐसे उस राजाके दरवाररूपी बनमें उन्होंने प्रवेश किया॥१-८||
[६] उस वैसे शत्रु-दरबाररूपी वनमें सिंहकी तरह वे एक क्षणमें घुस गये। नन्दावत के राजाको उन्होंने इस प्रकार देखा जैसे नक्षत्रोंके बीच चन्द्रमा हो। अप्रजने नृत्य प्रारम्भ कर दिया, जो सुकलत्रकी सरह सबल (मोड़-राम सहित), और सलक्षण (लक्षण-लक्ष्मण सहित) था। सुरतके समान बन्ध और
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१६२
रण पिवस-साल-सहिउ । जिह जिह उग्वेल्ल हल-वह
मय्यर सर संखोहियउ ।
बलु पढ अणन्तवीरु सुइ ।
·
-
जामण रणमुहें उत्थर ताम अयाण मुवि छलु
पउमचरिय
जुजनं पिव
विहति अप्पाणु मिग-बिहु व गेएं 'की सीई समय की
राय-सेप-सहिउ ॥ ५ ॥ णवेश जणु ॥ ६ ॥ मोहियउ ॥७॥
राह चन्दु मणेण ण कम्पिट | 'भो भो परवइ भरहु णमन्त हुँ । यो पर बल समुद्दे महणाय । जो पर-बल-गयहिँ चन्द्राय । जो पर-बल-रणिहिं हंसायद । जो पर-वल-भुनें गढायइ । जो पर-वल-घणी पचणाय ।
।
घसा
पहरशु धरइ पहूँ जोवगाहु सहुँ राऍहिँ । परिहरें त्रि बलु पष्ड भरहन्यरिन्दों पाहिँ ॥ ९ ॥
[0]
पुणु पुणरुतेहिँ एक पजम्पिउ ॥१॥ कवणु पराहन किर अणुजन्तहुँ ॥ २ ॥ जो पर-बल-मियतें ग्रहणाय ॥३॥ जो पर-वल- गइन्हें सोहाय ॥ ४ ॥ जो पर चल- तुझे जो परवल वणोहें जो पर-बल-पषणो
महिंसा
॥५॥ जहणाय६ ॥ ६ ॥
धरायड़ १७॥
जो पर-बल-धरीदें बजाय ॥८॥
घप्ता
संजिव विरुद्धऍण मणे कुद्रण अवीरें अहर-फुरन्ते । रतुप्पल-दुरु-लोणेण जग मोयणेण णं किउ अवलोड कियन्ते ॥९॥
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तोसमो संथि
१५ करण क्रियाओंसे प्रवर था, काव्यको तरह छन्द और शब्दसे गम्भीर था। अरण्यके समान वंश और तालसे भरपूर था, युद्धफे समान राग और स्वेदसे सहित था। राम ज्यों-ज्यों उद्वेलित होते लोग वैसे-वैसे अपनेको झुकाते जाते । कामदेवके तीरोंसे क्षुब्ध यह उसी प्रकार मुग्ध हो गया, जिस प्रकार गेयसे मृगसमूह मुग्ध हो जाता है। राम पढ़ते हैं लक्ष्मण सुनता है कि कौन सिंहके साथ क्रीड़ा करता है। जबतक रणमुखमें हथियार नहीं उछलता और जबतक अन्य राजाओंके साथ, जीवनके लिए ग्राह वह तुम्हें नहीं पकड़वा, तबतक हे मूर्ख ! छल छोड़कर, बलका परित्याग कर, भरत राजाके घरों में गिर जा ॥१-९॥
[राचन्द जाम भी मार ली हुप, बार-बार पुनरुक्तियों के द्वारा इस प्रकार कहा-“हे राजन , भरतको नमस्कार करने और अनुनय करनेमें कौन-सा पराभव ? जो शत्रुरूपी समुद्रका मन्थन करता है, जो शत्रुरूपी चन्द्रको ग्रहणकी तरह लगता है, जो शत्रुरूपी आकाश में चन्द्रमाकी तरह आचरण करता है, जो शत्रुरूपी गजपर सिंहकी तरह आचरण करता है, जो शत्रुरूपी रात्रिके लिए सूर्यके समान आचरण करता है; जो शत्रुरूपी घोड़ेके लिए महिषका आचरण करता है, जो शत्रुरूपी सौंपके लिए गरुड़का आचरण करता है, जो शत्रुरूपी वनसमूहके लिए दावानलका काम करता है, जो शत्रुरूपी मेघसमूहमें पवनका काम करता है, जो शत्रुरूपी पवनके लिए पर्वतका आचरण करता है, जो शत्रुरूपी पर्वतके लिए वनका काम करता है। यह सुनकर मनमें विरुद्ध होकर क्रुद्ध तथा जिसके ओठ फड़क रहे हैं, जिसकी आँखें रक्त-कमलके समान लाल हैं, ऐसे राजा अनन्तवीयने इस प्रकार देखा मानो विश्व है भोजन जिसका ऐसे यमने देखा हो ॥१-९॥
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३६४
पउमचरित
[ ]
- भीसणु अमरिस- कुश्य- देहु । करें असिवरु छेड् ण लेइ नाम । सिरें पाठ देवि चोरु व विधु । रिङ 'चम्पेंचि पर-बल-सद्दयवट्टु । एयन्तरें महुमहणेण वृतु । तं सुर्णेवि परोप्पर रिs चवन्ति एनडिय बोल्ट पडिवकर जाम । जे गिलिय आसि पुर- खसेण ।
।
तावन्ते आय पासु
समुट्टिङ जेम मेडु ॥१॥ वि रामे धरिङ ताम ॥ २ ॥ णं वारणु वारि-निवन्धेनु ॥३॥ जिण-भवणहाँ सम्मुहुवलु स्यट् ॥४॥ 'जो कुछ तं मारमि णिरुतु ॥५॥ 'किं एय परकम तियहँ होन्ति' ॥ ६ ॥ पर दस वि जिणालट पत्त वाम ॥७॥ णं मुक पडीवा भय-वसेण ॥८॥
घन्ता
विमण- मणु गय-गन-गमणु वहु-हार-दौर- पन्त । हीं नहीं कहीं देश भर
गज्जन्तु हें उ
चणियायणेण 1
।
जं एव कुतु 'जइ भरहों होहि सुभिच्चु अज्जु । तं वय सुर्णेवि परलोय मीरु 'पाडेवर जो चटणेहिँ पिच्सु । चलिमण्डऍ तव चरणेण जो वि संजय सुष्पिणु तु रामु । पुणe हिं युष्मद्द 'साहु साहु' । सो यि संवाह रइक राउ |
।
[ ५ ]
पहु प्रभणिउ दुसरह गन्दमेण ॥1॥ तो अज्जु बि लड् अप्पण्ड रज्जु' ॥२॥
बिसेष्पिणु भगइ अणन्तवीरु ॥३॥ तहाँ केस पडीवड होमि मिच्छु ॥४॥ पाडेवउ पायहिँ भरहु तो वि' ॥ ५ ॥ 'सव में तुज्नु भड़वीरु णासु ॥ ६॥ हक्कारि सहीं मुड सहस्रबाहु ||७|| अणुवि भरहों पाक्कु जाउ ॥ ८ ॥
धत्ता
रिड मेल्लेपिणु इस वि जण गय तुट्ठ मण दावत्त-राहिच जिणें करें वि मइ दिक्ख
णिय-जयक पराद्व्य जायें हिं तानें हिं ॥ १ ॥
समुट्टि
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1
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तीसमो संधि [८] भयसे भयंकर, अमर्षसे क्रुद्ध शरीर वह मेघकी तरह गरजता हुआ उठा, और जबतक वह हाथमें असिवर ले या न ले, तबतक रामने आकाश में उड़कर उसे पकड़ लिया। उसके सिरपर पैर रखकर चोरकी तरह से बाँध लिया, मानो महागज आलान स्तम्भमें क्षुब्ध हो । शत्रुसेनाको चकनाचूर करनेवाले राम शत्रुको चाँपकर जिनमन्दिरके सामने लौटे। इसी बीच लक्ष्मणने कहा--"जो आता है उसे मैं निश्चित रूपसे मारूंगा।" यह सुनकर शत्रु आपसमें कहते हैं क्या इस प्रकारका पराक्रम स्त्रियों में होता है ? जबतक प्रतिपक्षने इतने बोल कहे थे कि वे दसों आदमी जिनालय पहुँच गये, मानो जो नगररूपी राक्षसके द्वारा निगल लिये गये थे, वे भयके कारण फिर छोड़ दिये गये। तब गजपति विमन-मन, बहुत-से हार-डोरको निमग्न करता हुआ अन्तःपुर, युद्धोंके विजेता उन रामके पास आया "पतिकी भीख दो" यह माँगता हुआ॥१-९।।
[९] जब वनिताजनने इस प्रकार कहा, तो दशरथके पुत्र रामने राजा अनन्तवीर्यसे कहा, "यदि तुम आज भी भरतके सच्चे सेवक होते हो तो तुम आज भी अपना राज्य ले सकते हो ।" यह सुनकर परलोक भीरु अनन्तवीर्य हँसकर कहता है"मैं नित्य जिसे अपने पैरोपर डाले रहा हूँ, उलटा उसका मैं अनुचर कैसे बन ? तो भी मैं तपश्चरणके द्वारा बलपूर्वक भरतको अपने पैरोंपर डालूँगा।” यह वचन सुनकर राम सन्तुष्ट हुए (और बोले ) तुम्हारा नाम अतिवीर्य सच ही है। पुनरुक्तियोंमें उन्होंने कहा 'ठीक ठीक'। उन्होंने उसके पुत्र सहस्रबाहुको बुलाया। वह राज्यपरम्पराका राजा बना दिया गया । एक
और भरतका सेवक हो गया। शत्रुको छोड़कर वे दसों लोग चले गये और सन्तुष्ट मन जब अपने नगर पहुँचे तबतक नन्दा
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पउमचरित
[१] पुत्थम्सरें पुर-परमेसराहँ । दिक्खाएँ समुदिउ सउ णराहँ ॥१॥ सद्ल-विउल-वरवीरभा। मुणिमा-सुमह-समन्तमा ॥२॥ गहबद्धय-मयरन-पचण्ड । चन्दण-चम्दोयर-मारिचण्ड ||३॥ जयघपट-महळ्य-चन्द-सूर । जय विजय-अजय-दुजय-कृफूर इस एत्तिय पहु पषश्य लेल्थु । लाहण-पत्र जप-णन्दि जेस्थु ॥५॥ थिय पश्च मुदि सिर लोउ देवि। सई वाहहि आहरण मुएवि ॥६॥ णीसंग घि थिय रिसि-सह-सहिय । संसार वि भव-संसार-रहिय ॥७॥ जिम्माण वि जीव-सपहुँ समाग । गिग्गन्ध वि गन्ध-पयस्थ-जाण ॥
वत्ता इय एकेक पहाण रिसि भव-तिमिर-ससि तव-सूर महावय-धारा । छट्टम-दस-वारर्से हिं बहु-उवबसे हि अप्पाखवन्ति भनारा ।।२।।
[१] तव चरण परिट्विउ जं जि राउ। तहाँ चन्दण्ण-हृत्तिएँ मरहु आउ ।।३।। से दिटु मढ़ास्ट तेथ-पिण्ड। जो सोह-महीहरें धन-दण्टु ॥२॥ जो कोह-हुवासणे जल-पिहाड़। जो मयण-महाघणे पलय-बाउ ॥३॥ जो दप्प-गहन्द महा-मइन्दु । जो माण-भुमरमें वर-पगिन्दु ॥३॥ सो मुणिधर दसरह-गन्दणेण । पन्दिउ णिष-गरण-णिन्दणेण ॥५it मो साछु साहु गम्भीर धीर । पइँ परिय पहजाऽणन्तवीर ॥६॥ जं पाडिक हउँ चलणेहि देव । तं तिहुश्रणु काराधियउ सेव ।।७।। गड एम पर्ससे घि मरहु राउ। णिय-णयह पत्सु साहण-सहाड ।।८।।
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तीसमो संधि घर्तका राजा अनन्तवीर्य जिनेन्द्र में अपनी मति कर दीक्षाके लिए उठ खड़ा हुआ ॥१-९॥
[१०] इसी बीच दीक्षाके लिए नगरके परमेश्वर सौ आदमी उठ खड़े हुए । शार्दूल, विपुल, वर-वीरभद्र, मुनिभद्र, सुभद्र, समन्तभद्र, गरुडध्वज, मकरध्वज, प्रचण्ड, चन्दन, चन्दोदर, मारिचण्ड, जयघण्ट, महध्वज, चन्द्र, सूर्य, जय, विजय, अजय, दुर्जय और कुकर, ये इतने राजा वहीं प्रत्रजित हुए कि जहाँ लाहन पर्वतपर जयनन्दी थे। सिरमें पाँच मुट्ठी केश लौंचकर, वाहनोंके साथ आभूषणोंको छोड़कर, वह स्थित हो गये । अनासंग होते हुए भी वे मुनिसंघके साथ थे। संसारमें रहते हुए भी भव-संसारसे रहित थे। मानरहित होकर भी सैकड़ों जीवोंके समान थे। निर्ग्रन्थ होकर भी ग्रन्थोंके पद-अर्थों के ज्ञाता थे। इस प्रकार एकसे एक प्रधान ऋषि, मवरूपी अन्धकारके लिए चन्द्र, तप, सूर्य और महाव्रतीके धारक थे। छह आठ और दस दिनोंवाले उपवासोंसे ये आदरणीय अपना क्षय करने लगे ॥१-२||
[११] जब राजा अनन्तवीर्य तपमें स्थित हो गया तो भरत राजा 'उसकी बन्दनाभक्तिके लिए आया। उसने तेजपिण्ड भट्टारकको देखा जो मोहरूपी महीधरके लिए वनदण्ड थे। जो कोपरूपी आगके लिए जलसमूह थे। जो कामरूपी मेधके लिए प्रलय पवन थे। जो दपरूपी महागजके लिए महामृगेन्द्र थे, जो मानरूपी सर्पराजके लिए श्रेष्ठ गरुड़ थे। दशरथके पुत्र भरतने अपनी गहां और निन्दाके साथ उन मुनिवरको वन्दना की-हे गम्भीर धीर ! बहुत ठीक, बहुत ठीक | हे अनन्तवीर्य ! तुमने अपनी प्रतिज्ञा पूरी की, हे देव, जो तुमने मुझे भी अपने चरणों में गिरा लिया और उस त्रिभुवनसे भी सेवा करवायी।" भरत इस प्रकार प्रशंसा करके चला गया; सेना है सहायक
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पडमचरित
घसा हरि-बल पइठ जयन्तपुर धण-कण-पजरें जय-मक-दूर-वमा हिं। कारखणु लक्षणवम्तियएँ णिय-पसियएँ अबगूलु स इंभु व-बाले हिं॥९॥
एकतीसमो संधि
धग-धण्ण-समिद्धहों पुहइ-पसिद्धहाँ जण-मण-णयणायन्दणहों। वण-वासही जन्तेहि रामाणम् हि किट उम्माड पट्टणहो ।।
छुहुन्छ? उहय समागम-लुई। रिसि-कुलद व परमागम-लुछ हूँ ॥७॥ छुडु छुटु अवरोपपरु अणुरसइँ। सना-दिवायर व अणुरसइँ ।।२।। छुड्डू छुड अहिणव-व-वरहसः ।। सोम-पहा इब सुन्दर-चित्त ॥३॥ छुड छुडु चुग्थिय-सामरसाइ। फुल्लन्धुय इष लुद्ध-रसा ॥३॥ ताम कुसारें जयण-विसाला । जस्तै भाउच्छिय वणमाला ॥५|| 'हे मालूर-पवर-पीवर-भणे। कुवलय-दल-गपफुशिलय-लोअगे।1६॥ हंस-माण गय-लील-विलासिणि। चन्द-बयणे णिय-प्णाम-पगासिणि॥७॥ जामि कन्हें हउँ दाक्षिण-देसहों। गिरि-किकिम्ध-णयर-उसही' ॥॥॥
घसा
सुरवर-वरइत्ते पाव-वरइत्त जं आउष्णिय णियय क्षण । ओहुल्लिय-धयणी पगलिथ-पयणी थिय हेहामुह विमण-मण ॥९॥
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एकतीसमो संघि
१९ जिसकी ऐसा वह, अपने नगर चला गया । राम और लक्ष्मणने जयमंगल तूर्योके कोलाहलोंके साथ धन-कणसे प्रचुर जयन्तपुर नगरमें प्रवेश किया। लक्ष्मण, लक्षणवती अपनी पत्नीके द्वारा स्वयं बाहुरूपी डालोंसे आलिंगित किया गया ॥१-२||
इकतीसवीं सन्धि राम लक्ष्मणने धन-धान्यसे समृद्ध पृथ्वीमें प्रसिद्ध जनोंके मन और नेत्रोंको आनन्द देनेवाले उस नगरका वनवासको जाते हुए त्याग कर दिया।
[१] उस समय दोनों (वनमाला और लक्ष्मण) समागमके लोभी थे । ऋषिकुलकी तरह वे परमागम ( परम आगम-एक दूसरेका आगमन ) के लोभी थे । शीघ्र वे एक दूसरेसे अनुरक्त हो उठे। वे सन्ध्या और दिवाकरकी तरह अनुरक्त थे । वे दोनों अभिनव वधूवर सोम और प्रभाके समान सुन्दर चित्रा थं । जिन्होंने रक्त-कमल ( मुख कमल) का चुम्बन किया है, ऐसे भ्रमरोंके समान दोनों शीघ्र लुब्धरस थे। इतनेमें प्रस्थान करते हुए कुमारने विशाल नेत्रवाली वनमालासे पछा "हे वेरुफलकी तरह पीवर स्तनोवाली, कुवलय दलके समान खिले हुए नेत्रोंवाली, इंसगामिनी, गजगतिकी लीलासे विलसित, अपना नाम स्वयं प्रकाशित करनेवाली चन्द्रमुखी वनमाले, मैं किष्किन्धा पर्वतको लक्ष्य बनाकर दक्षिण देशके लिए जाता हूँ। सुरवरसे वर प्राप्त करनेवाले नव-बरने जब अपनी पत्नीसे पूछा तब गलितनयन, मुरझाये हुए चेहरे वाली विमान मन वह अपना मुख नीचा करके रह गयी ॥१-२||
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पठमचरित
कन्नस-पहलुप्पोल-सणा। महि पवालिय अंसु-पवाहे ॥१॥ 'त्तिउ विरुवा माणुस-लोड। जंजर-जम्मण-मरण-
विओड' ॥२॥ घीरिय लक्षण पश्यन्तरें। 'रामही णिलउ करेषि वणन्तरें ॥३॥ कहहि मि दिणे हि पडीब आधमि । सयल स-सायर महि भुञ्जामि || जह पुणु कहावि तुल-लग्गें णायउ। हउँ ण होमि सोमिसिएँ जायउ ॥५॥ अपणु वि रयणिहें जो भुञ्जन्तउ । मस-भक्ति महु भज्जु पियन्तउ ॥६॥ जीव वहन्तक असिड यवन्तड । पर-वणे पर-फलत्त अणुरसत ॥७॥ धो. माएँ हि शिराउ । तोगते संजुनाट ८||
मह एम वि णावमि वनणु ण यावमि तो णिब्धूड-महाहवहाँ । गाव-क्रमल-सुकोमठ प्रान-पह-उजल छिस पाय म. राहवहाँ' ॥९॥
। [३] दणमाल जिया वि भगमाण गय लक्षण-राम सुपुज्जमाण ॥ ३ ॥ थोवन्तरें मछुस्याल देन्ति । गोला-पाइ दिह समुष्वहन्ति ॥२॥ सुंसुभर-घोर-घुरुघुरुहुरम्ति । करि-मयरड्डोहिय-हुहुमुहन्ति ।।३।। विग्मीर-सर-मडलिउ दन्ति । ददुरय-रडिय-दुरुदुरुतुरन्त ॥४॥ कालोलुलोलहिं उबहम्सि । उम्पोस-घोस-धत्रयवधवन्ति | पडिखळण-वकण-खलखलखलन्ति । सलखलिय-पलक-सहक देम्ति ॥ ससि सङ्क-कुन्द-धवलोजमरण । कारण्डड्डाविय-डम्बरेण ||७||
घत्तर
फेगावलि-वकिय घलयालतिय णं महि-कुलपहुणबह तणिय । जलणिदि-भत्तारहीं मोत्तिय-हारही पाह' पसारिन दाहिणिय ||८||
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एकतीसमो संधि
१७७ [२] काजल और वाष्पके उत्पीड़नसे युक्त आँसुओंके प्रवाह से उसने धरतीको प्लावित कर दिया। मनुष्य-लोकमें यही बुरी बात है कि जो उसमें जरा, जन्म, मरण और वियोग हैं । इसी बीच लक्ष्मणने उसे धीरज बंधाया कि बनान्तर में रामका घर बनाकर कुछ ही दिनोंमें मैं वापस आ जाऊँगा, और तुम्हें समुद्र सहित समूची धरतीका उपभोग कराऊँगा। यदि मैं कहकर भी तुलालग्नमें नहीं आऊँ तो मैं सुमित्रासे पैदा हुआ नहीं। और भी, रात्रिमें भोजन करते हुए मांस भक्षण, मधु
और मद्य पीते हुए, जीवोंका वध करते हुए, झूठ बोलते हुए, दूसरेके धन और स्त्री में अनुरक्त होते हुए, मनुष्य इन व्यसनोंसे जो पाप भोगना है पापसे समस्त होऊँ। यदि में इस प्रकार भी नहीं आता और तुम्हें मुख नहीं दिखाता तो, जिन्होंने महायुद्धोंका निर्वाह किया है, ऐसे राघवके नवकमलोंके समान कोमल तथा नखप्रभासे उज्ज्वल चरणोंको में छता हूँ ॥१-२||
[३] इस प्रकार भग्न होती हुई वनमालाको नियन्त्रित कर पूज्यमान राम लक्ष्मण चले गये। थोड़ी दूरपर उन्हें मत्स्योंसे उछाल देती हुई और बहती हुई गोदावरी दिखाई दी। शिशुमारोंके घोर घुर-घुर शब्दसे घुरघुराती हुई, गज और मगरोंसे आलोड़ित इह-इह करती हुई, फेनसमूहका मण्डल देती हुई, मेंढकोंकी रटन्तसे दुर-दुर करती हुई, लहरोंके उल्लोलसे बहती हुई, उद्घोषके घोपसे घव-घव करती हुई: प्रतिस्खलन और मुड़नेसे खल-खल करती हुई, जिसने हंसाको उड़ानेका आडम्बर किया है, ऐसे चन्द्र, शंख और कुन्द पुष्पके समान धवल निर्झरसे स्खलित चट्टानों को झटका देती हुई, जिसके पास मोतीका हार है, ऐसे समुद्ररूपी पतिके लिए प्रसारित फेनावलिसे वक्र तथा बलयसे अंकित जो मानो धरतीरूपी कुलवधूकी दायीं बाँद,
पूज्यमानता हुई और असे पुरसुराता महका मण्डल इसे बहत
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परामचरित
[ ] थोषन्सर वकणारायणेहि। खेमजलि-पट्टणु वि तेहिं ॥१॥ अरिदमणु जाहिज वसइ बेस्थु । श्रश्चनु पयम्छु ण को वि तेस्थु ॥९॥ रज्धेसरु जो सम्वहँ परिछ । सो पहु पहिगाह मि मूलं दिट ॥३॥ णह-मासुरु जो लगूल-दीहु। सो मायहि मि लाइट सौहु ॥४॥ जो दुश्म-दाणष-सिमिर-चूरू। सो तिय-मुहयवहाँ उसइ सूर ||५|| जं राय त छसह मि छितु। जं सुहहँ त कुछ मि वितु ||६| वहाँ णयरहों थिउ अवरुत्तरेण । उमाणु अब-कोसन्तरेण ||७|| सुरसेहरु णामें जगें पयासु । णं अग्ध-विहत्या घिउ बलासु ॥८॥
घत्ता तहिं तेहएँ उचवणे णव-तरुवर-घणे जहिं अमरिन्दु रह करह। महिं णिलड करेपिणु वे वि थचेषिणु लक्खणु णयरें पईसरइ ।।९।।
[५] पइसन्त पुर-बाहिर कराल । मड-मडय-पुजु दीसह विसालु ।।१।। रसि-सङ्घ कुन्द-हिम-डुन्छ-धवलु। हरहार-हंस-सरयम-विमलु ॥२॥ तं पेरलें वि लहु हरिसिय-मप्पेण । गोवाल पपुग्छिय लक्षणेण ।।३।। 'इह दीसइ काई महा-पयण्ड । पंणिम्मलु हिमगिरि-सिहर-खण्ड'। से णिमुनि गोदहि एम। 'कि एह वत्त प ण सुअ देव ॥५॥ अरिदमण-धीय जिन्दपउम-णाम । मद्ध-घर-संधारणि जिह दुणाम ||२|| सा अझ वि अच्छई घर-कुमारि । पचास काई भाइय कुमारि ॥७॥ तह कारण जो जो मरद जोहु । सो धिष्पइ तं हरि पहु ॥
घत्ता जो घई अधगणे वि तिण-समु मपणे घि पञ्ज वि सत्तिउ धरह गरु । पदिषप्रष-वियहष्णु जयणाणन्दणु सो पर होसह ताहें वरु' ॥९॥
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एकतीसमो संधि
हो ॥१-८॥
[४] थोड़ी दूर जानेपर राम और लक्ष्मणने वहाँ क्षेमाजलि नगर देखा । जहाँ अरिदमन नामका अत्यन्त चण्ड और प्रचण्ड राजा रहता था, वहाँ बैसा दूसरा कोई नहीं था । वह राज्येश्वर सबमें वरिष्ठ था, वह राजा पथिकांके मूल में भी देख लेता था। नखोंसे भास्वर, और लाल (पूछ अस्त्रविडोष) से दीर्ष यह मातंगोंके द्वारा (गजों-गुण्डों) सिंहकी तरह ग्रहण किया जाता था। जो दुर्दम दामयोंके शिविरको चूर-चूर करनेवाला था, वह सूर (सूर्य) स्त्रियोंके मुखरूपी चन्द्रको त्रस्त करनेवाला था । उस नगरके अपर-उत्तर (वायव्य) कोणमें आधे कोशकी दूरीपर उद्यान था। सुरशेखर नामका विश्व में प्रसिद्ध जो उद्यान मानो रामके लिए हाथमें अर्घ लेकर स्थित था । नववृक्षोंसे सघन उस वैसे उद्यानमें कि जहाँ अमरेन्द्र रतिक्रीड़ा करता है, घर बनाकर राम और सीता, दोनोंको वहाँ रखकर लक्ष्मण नगरमें प्रवेश करता है ।।१-५॥
[५] प्रवेश करते ही उसे नगरके बाहर भटशवोंका भयंकर और विशाल समूह दिखाई देता है, जो शशि, शंख, कुन्द, हिम, दूध के समान धवल था । शिवके हार, हंस और शारदीय मेघके समान विमल था। उसे देखकर हर्षित सन लक्ष्मणने झीन एक गोपालसे पूछा-“यह महाप्रचण्ड क्या दिखाई देता है, मानो निर्मल हिमगिरि-शिखर खण्ड हो।" या. सुनकर गोपालने कहा- "हे देव, क्या यह बात आपने नहीं सुनी । अरिदमनकी जितपद्मा नामकी पुत्री है। दुर्नामकी तरह वह भट समूहका संहार करनेवाली है। घह आज भी वर-कुमारी है। जैसे वह प्रत्यक्ष कु-मारि ही आधी हो । उसके कारण जो योद्धा मरता है वह यहाँ डाल दिया जाता है; यह वही हड्डियोंका पहाड़ है। जो नर अपनी अवहेलना कर और तिनकेके बराबर समझते हुए
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१७४
तं चयणु सुणेपिणु दुष्णिदार । वि-पय- कोई हिं पुशु पयट्टु । करइ कप्पदुम दिट्ट वेण । काथह मालइ कुसुमइँ खिवन्ति । कत्थइ लक्खड़ सरवर विचित्त । करधड़ गोरसु सब्वहँ रसा हूँ । कत्थड भाषा दशन्ति केम । कम नमकिन
i
of a क्कार 'एदि एहि ।
पउमचरिउ
[1]
रोमटिड खणें लक्ाण-कुमारु ॥१॥ णं सरि मय गल - मध्य जट्टु ॥ १॥ णं पन्थिय थिय णयरासपूर्ण ॥३॥ सीस व सुकइहॅजसु विभिसरन्ति ॥४॥ raगाहिय सीयल हि सुमित्त ॥५॥ पौणिम्गज माणु हरेचि ताहुँ ॥ ३॥ दुखण-वुध्यणे हिं जैस ॥ ७ ॥ सुयण
पंाश्य पसं
जेम ॥८ ॥
भी लक्षण लड्डु जिय पउम केहि ॥९॥
प्यारम्भ-वयर्णे दोहिय-जय गिलिउ जण
परभुऍहिं पुरणाइँ सेण । कत्थइ कुम्मा सहु णाहिँ । कथा सारि समुद्र-यंस । कर धय-बट णचन्ति एम । कत्थद्द लोहारे हिँ लोहखण्ड |
धत्ता
देउख-दादा-मासुरेंण । असुर - विमद्दणु एम्तड गयर - जिला रेंण ॥ १० ॥
मलेवि कुमारु । परिहारु वुत्तु 'कहि गम्पि एम ।
[ ७ ]
अरुटि लक्षणु नाइँ ते ॥१७ र्ण ड णाणावि गाडएहिं ॥१२॥ लाइव सु-कुलीण विशुद्ध-वंस || ३ || चरि अम्हि सुरायर सर्गे जेम ॥ ॥ ४ ॥ पिट्टिइ परऍ व पावपिण्डु ||५|| शिविसेण पराइड रायवारु ॥६॥६ बरु बुच्चाइ आइ एक्कु देव ||७||
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एकत्तोसमो संधि पाँचों शक्तियोंको धारण करता है, प्रतिपक्षका मर्दन करनेवाला नेत्रोंके लिए आनन्ददायक वह उसका पर होगा" ॥१-९||
[६) यह वचन सुनकर दुनिवार कुमार लक्ष्मण एक पलमें पुलकित हो उठा। वह विकट पदः क्षोभोंके साथ पुनः चला, मानो मैगल महागजका नाश करनेवाला सिंह हो । कहीं उसने कल्पवृक्ष देखे, मानो नगरकी आशासे पथिक ही वहाँ ठहर गये हों। कहींपर मालतीके पुरुष बिखरे हुए थे जैसे शिष्य सुकविका यश बिखरा रहे थे। कहींपर विचित्र सरोवर दिखाई दे रहे थे, सुमित्रसे शीतल जस में उसने अवगाहन किया। कहींपर सब रसोंका गोरस था मानो वह उनका मान हरणके लिए ही मिल आगाहोपर ईसारे देव इस प्रकार जलाये जा रहे थे जैसे दुर्जनोंके दुर्वचनोंसे सज्जनोंको जलाया जा रहा हो । कहींपर रहटें इस प्रकार घूम रही थीं कि जिस प्रकार संसारी रांसारमें घूमते हैं। मानो, उसकी (नगरकी) ध्वजा बुला रही थी कि लप्रमाण आओ आओ, शीघ्र जितपद्माको लो लो। जिसका द्वाररूपी उद्भट मुख है, जो देवकुलरूपी दाढ़ोंसे भास्वर है, बावड़ियाँ जिसके नेत्र हैं, ऐसे नगररूपी निशाचरने आते हुए असुर संहारक जनार्दनको निगल लिया ॥१-१०॥
[७] उस नगरने अपनी प्राकाररूपी भुजाओंसे जैसे लक्ष्मणका आलिंगन कर लिया । कहींपर रस्सियों के साथ घड़े थे मानो नादोंके साथ नाना नट हों। कह पर उत्तम वंशके महागज थे, जैसे सुकुलीन और विशुद्ध वंझके मनुष्य हो, कहींपर ध्वजपट इस प्रकार नृत्य कर रहे थे, जैसे स्वर्गमें सुरसमूहके समान हमी श्रेष्ठ हों। कहींपर लुहारोंके द्वारा लोहखण्ड, नरकमें पापपिण्डकी तरह पीदे जा रहे थे। उस बाजार मार्गको छोड़कर कुमार एक पलमें राजद्वारपर पहुँच गया । वह प्रतिहारसे कहता है, “जाकर यह कहो कि वर कहता है कि एक
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जिपमहं माण- मरट्ट-दलणु । रिठ-संघा यहाँ संघाय करेणु
पउमचरित
पर-वल-मसक्कु दरियारि-दमणु ॥८॥ स सत्तिर्हि तुज्झु विपति हरणु ॥९॥
घत्ता
(अह ) किं बहुएं जम्पिऍण निष्फल-चविग्रॅण युम हि तं मरिम | दस-बीस ण पुच्छ लउ वि पछि पञ्च सत्तिहिं को गणु' ॥ १० ॥
लक्खणु पासु पराइड जं जे । 'को जियपउम कवि समथु । केण सिरेण पछिउ घज्जु । क्रेण णु छिन्तु करों । केण वसुम्धरि दारिय पाएँ ।
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[+]
संणिसुणेवि गज पडिहारु तेरथु । सह-मण्डवें सो अरिंदमणु जेथु ॥ १ ॥ पणवेष्पिणु वुह तेज राज | 'परमेसर विष्णत्तिएँ पसाउ ॥१॥ मञ्जु कार्ले चोइ भाउ एक्कु । किं कुसुमाउहु अतुलिय-याउ । तरों व भक्ति का वि । सो वह एम जियपउम लेमि । तं सुिर्णेवि पण सत्तुमशु । पडिहारे सरि भाउ कण्डु ।
or
हुँ कि अक्कु मिश्र सक्कु || ३ ॥ पर पञ्च वाण णउ एक्कु वाउ ॥४॥ फिल्इ ण रुच्छ भङ्गहों कवि ||५|| किं पचति दस सति घरेमि ||६|| 'पेवरषमि कोषकद्दि वरइसु कबणु ।। ।। अलच्छि - पसाहिउ जुवार- राहु ॥८॥
घत्ता
एहिँ ।
अच्चुष्भड पयर्णे हिं दीहर-गयणे हिं णरवइ-विन्दहिँ लक्षित लक्खणु एन्त स रुक्राणु जेम मइन्दु महागऍं हिं ॥ | १ ||
[3]
सुणिवेण इसे पिणु से जे ॥ १ ॥ केण हुवासणें ढोइड हत्॥२॥ क्रेण कियन्तु विधाइड अज्जु ॥ ३ ॥ केण सुरिन्दु परजिउ भोगों ॥४॥ केण पलोडिड दिग्गज षाएं ॥ ५ ॥
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एकतीस संधि देव आया है जितपद्मा के नाम आकारको पूरा करनेवाला, परबलका घातक, गर्वित शत्रुका दमन करनेवाला, शत्रु-समूहका संहार करनेवाला, और शक्तियों के साथ तुम्हारी भी शक्तियों का हरण करनेवाला । बहुत कहने और निष्फऱ कहने से क्या, उस अरिदमन राजासे कहना कि यह दस बीसकी नहीं पूछता है, सौ शक्तियोंकी इच्छा रखता है । पाँच शक्तियों के ग्रहणकी क्या बात ? ॥२- १०।।
[८] यह सुनकर प्रतिहार वहाँ गया कि सभामण्डपमें जहाँ अरिदमन था। उसने प्रणाम कर राजासे पूछा - "परमेश्वर, निवेदनके लिए आज्ञा ? कालसे प्रेरित एक सुमट आया हुआ है। मैं नहीं जानता कि वह सूर्य चन्द्र या शक क्या है। क्या वह अतुलित प्रताप कामदेव हैं। परन्तु उसके पास एक धनुप और पाँच वाण नहीं हैं। उस मनुष्यकी कोई नयी भंगिमा है । उसके शरीर से शोभा कभी भी नहीं हटती । वह इस प्रकार कहता है कि मैं जितपद्मा लूँगा। पाँच क्या, मैं इस शक्तियाँ ग्रहण करूँगा ?” यह सुनकर अरिदमन कहता है - " देखता हूँ । बुलाओ कौन वर है ?" प्रतिहारके द्वारा बुलाया गया लक्ष्मण आया, विजयलक्ष्मीको प्रसाधित करनेवाला और विजयका आकांक्षी । अत्यन्त उत्कट सुखवाले, दीर्घ नेत्रोंवाले, अजेय नरपतिवृन्दों द्वारा लक्षणोंसे सहित लक्ष्मण इस प्रकार देखा गया, मानो गजराजों द्वारा सिंह देखा गया हो" ॥१-२॥
[९] जब लक्ष्मण पास आया तो राजाने उससे हँसकर कहा – “जितपद्माको लेने में कौन समर्थ हैं। किसने आगमें हाथ डाला हैं। किसने सिरसे की प्रतीक्षा की है। किसने आज कृतान्तको घायल किया है। किसने हाथके अमभागसे आकाशको हुआ है। किसने भोगसे इन्द्रको पराजित किया हैं । किसने धरतीको पैरसे विदीर्णं किया है, किसने घाव से दिग्गजको
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पउमचरिट
केण सुरेहहाँ मनगु बिसाणु । केप तलप्पएँ पाडिउ भाणु प्र६॥ लकित केण समुदु असेसु। के फण-मण्ड चूरिउ सेसु ॥७॥ केण पहाणु वधु पडेण । मेरु-महागिरि टालिज केण ॥८॥
घत्ता जिह तुहुँ सिह अण्ण वि गोसावपण वि गरुय गझिय पहुय गर । महु सत्ति-पहारहिं रणे दुरावाहि किय सय-सार दिव पर' ॥९॥
[१०] अरिदमणे भहु जं अहिखित् । महुमहु जेम दवरिंग पलितु ॥१॥ 'हउ जियपवम लपवि समषु । म जि हुआसणे कोइर इत्यु ॥२॥ म. जि सिरेण पहिच्छिउ वनु । म जि कियन्तु वि घाइउ भञ्ज ॥३॥ भइँ जि जहाणु छिसु करगे। म जि सुरिन्दु परजिव भोग्गें ॥४॥ भइ जि वसुन्धरि दारिय पाएं। मह नि पलोडि दिग्गड घाएं ॥५॥ म. जि सुरहहों मग्गु पिसाशु। म जि तलप्पएँ पाहिउ माशु ॥५॥ हफिल मई जि समुदधु भसेसु। म फण-मण्ड पूरिज सेसु ॥७॥ मई जि पहाणु बन्धु पडेण । मेरु महागिरि टालिड श्रेण ॥४॥
घत्ता
हउँ तिहुअण-वामरु हउँ अजरामरु हउँ तेत्तीसहुँ रणे अजउ । खेमजकि-राणा भत्रुह अयाणा मेलि सत्ति जइ सप्ति तउ' ॥९॥
[ ] से णिसुपणे चि खेमजलि-राणड । उटिउ गलगजन्तु पहाणड ॥३॥ सत्ति-विहरुधउ लत्ति-पगासणु। धगधगधगधगन्सु स-छु भासणु ॥२॥ अम्बरें तैय-पिण्ड णउ दिणया। णिय-मजाय-चक्षु णड सायद ॥३॥ जणे अणवस्य-दाणु पाउ भयगल । परमण्डल-विणासु ण मण्डलु ॥४॥
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एकसीसमो संधि लोट-पोट किया है। किसने ऐरावतका दाँत उखाड़ा है ? किसने 'तलाहार से सूर्यको गिराया है, किसने अशेष समुद्रका उल्लंघन किया? किसने फणमण्डपपर शेषनागको चूर-चूर किया ? किसने कपड़ेसे इवाको बाँधा ? मेरुरूपी महागिरि किसने टाला। जैसे तुम वैसे ही दूसरे भी सामान्य हैं। बहुत-से लोग खूब गरजे परन्तु रणमें दुर्वार मेरे शक्ति-प्रहारोंसे वे केवल सौ टुकड़े किये गये देखे गये" ॥१-२॥
[१०] अब अरिदमनने सुभपर इस प्रकार आक्षेप किया तो लक्ष्मण दावानलकी तरह भड़क उठा-"मैं ही जितपद्मा लेने में समर्थ हूँ। मैंने ही आज यमपर आघात किया है। मैंने ही हाथके अग्रभागसे आकाशको छुआ है। मैंने ही आज सुरेन्द्रको भोगमें परास्त किया है। मैंने ही धरतीको पैरसे विदीर्ण किया है। मैंने ही आघातसे दिमाजको लोट-पोट किया है। मैंने ही ऐरावतके दाँतको भग्न किया है। मैंने ही तल-प्रहारसे सूर्यको गिराया है। मैंने ही अशेष समुद्र लाँधा है। मैंने ही फणमण्डपपर शेषनागको चूर-चूर किया है। मैंने ही कपड़ेसे हवाको बाँधा है | और मैंने महागिरि मेरुको टाला है। त्रिभुवन भयंकर मैं ही अजर, अमर, और संतीस करोड़ देवताओंमें अजेय हूँ। हे अज्ञानी अपण्डित क्षेमंजलि राना शक्ति छोड़ो, यदि तुममें शक्ति हो" ॥१-९||
[११] यह सुनकर प्रधान क्षेमंजलि राना गरजता हुआ चठा । जिसके हाथमें शक्ति है, ऐसा शक्तिका प्रकाशन करने वाला वह धक-धक करती हुई आग सहित ऐसा लगता था, मानो जैसे आकाशमें तेजपिण्ड सूर्य हो, जैसे अपनी मर्यादासे त्यक्त समुद्र हो, जैसे अनवरत मद जल झरनेवाला मैगल हो, जैसे शत्रुमण्डलका नाश करनेवाला माण्डलिक राजा हो,
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१८.
पडमचरित
रामायणही मज्ने गउ रामणु। भीम-सरीरु ण मीमु भयावणु ॥५॥ तेण विमुक सचि गोविन्दहीं। हिमवन्तें गङ्ग समुददों ॥३॥ धाय धगधगन्ति समरङ्गो। तडि तडयन्ति णह-भक्षण ॥७॥ सुरवर पहें वोल्लन्ति परोप्पर । 'एण पहारे जीवह दुकर' ॥६॥
घत्ता एश्यन्तरें कहें जय-अस-सण्हें धरिप सन्ति पहिण-करेण । संकेयहाँ दुको थाणहाँ चुकी णाषइ पर-तिय पर-परेण ॥९॥
[ २ धरिम सत्ति जं समरें समाथें । मेलिब कुसुम-वासु सुर-सस्थं ॥११॥ पुण्णिम-नाम्दु रुन्द मुह-सोमहँ। केण वि कहिउ गम्पि जियपोमहे ॥२॥ 'सुन्दरि पेषल पेकखु जुजमन्त। गोषी का घि मणि परइसाहों ॥३॥ जा उ ताएं सन्ति विसज्जिय। लाग हर) असइ प्वालजिय ॥४॥ गर-ममरेण पण अकलाउ। पर सुम्वेवळ तुह मुह-पकड' ॥५॥ संणिसुणेप्पिशु विसिय-वयणएँ। णष-कुवलय-दल-दीहर-पायणएँ ॥५॥ आल-गवास जो अन्तर-पड। णाई सहरमें फेडिउ मुह-बहु ॥७॥ लक्षणु जयण-कसविस्थउ कम्पाएँ । णं जुग्मन्तु णिवारिउ सपणएँ ॥४॥ ताम कुमार दिदा सुदंसणु । धवलहरम्बर मुह-समलम्छणु ॥५॥ सुह-पक्वते सुनोगे सुहकमा पयणामेलउ जाउ परोप्परु ॥ १०॥
घत्ता एस्थन्तरे दु? मुशार हु अण्णेक सत्ति पारेण । संधि परिय सरा, वाम-करग्गै णावह णव-बहु णव-वरण ॥११॥
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एकतीसमो संधि
ሃረማ
जैसे रामायण के मध्य में रावण हो, मानो भीम शरीर भयानक भीम हो । उसने लक्ष्मणके ऊपर शक्ति छोड़ी। मानों हिमालयने समुद्रपर गंगा छोड़ी हो, वह शक्ति धक-धक करती हुई समरांगण में इस प्रकार दौड़ी मानो नभके आँगन में बढ़-तड़ करती हुई विद्युत् हो । आकाशमें देवता आपस में बातें करते है - इसके प्रहार से जीवित रहना मुश्किल है। इसी अन्तराल में जय और यशके अभिलाषी लक्ष्मणने उस शक्तिको अपने दायें हाथपर धारण कर लिया। उसी प्रकार जिस प्रकार संकेत स्थानसे चुकी हुई परस्त्री परपुरुषके द्वारा ग्रहण कर ली जाती है ॥१-२९॥
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[१२] युद्ध में समर्थ लक्ष्मणने शक्ति धारण कर ली तो सुरसमूहने पुष्पवर्षा की। किसीने जाकर पूर्णेन्द्र के समान सुन्दर मुख और कोमल जितपद्मा से कहा - "हे सुन्दरि, देखो देखो, युद्ध करते हुए वह भी कितनी अनोखी भंगिमा है ? तुम्हारे पिताने जो शक्ति छोड़ी हैं वह लज्जाहीन असती की तरह उसके हाथसे जा लगी है। इस मनुष्यरूपी भ्रमरके द्वारा केवल तुम्हारा अकलंक मुख रूपी कमल घूमा जायेगा ।" यह सुनकर हँसते हुए सुख तथा नवकुवलय दलके समान दीर्घ नेत्रोंवाली उसने झरोखे में जो अन्तरपट था, उसे जैसे अपने हाथसे मुखपटकी तरह हटा दिया । कन्याने लक्ष्मणको नेत्रोंसे इस प्रकार कदाक्षित किया मानो संकेतसे युद्ध करने के लिए मना किया हो । तबतक कुमारने धवल गृहरूपी आकाश में सुदर्शनीय सुखरूपी चन्द्र देखा। शुभ नक्षत्र, शुभ योग में उनका आपस में शुभंकर नेत्र-मिलाप हो गया। इसी बीच उस दुष्टने क्रुद्ध होकर एक और शक्ति छोड़ी। उसे भी सर है अग्रभागमें जिसके ऐसे बाएँ हाथसे इस प्रकार उसने रोक लिया जैसे नव-बधूको नववरने रोक लिया हो ।। १-११॥३
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पउमचरिउ
["]
अणेक मुद्द बहु-मच्छरे । स हि दाहिण -कहिँ हुद्ध लेण अणेक विसजिय धगधगन्ति । सदि भरिय एन्ति नारायणेण । णं महिहरु देवणन्दणेण ।
पम्मुक पधाय णस्वरासु । सविसा पून्ति णिरुद्ध केम
एस्थत देवहिँ लक्खणासु । अरिदम ण सोहर सत्ति-हीथु ।
जाणि गाई पुरम्बुरेण ॥ १ ॥ अवरुण्डिय वेस व कारण ॥२॥
सहि-सिंह जाला-सम मुअमित ॥३॥ वाम गोरि च विणणेण ॥ ४ ॥ पचमिय मुक्त बहु-मच्छर ॥ ५ ॥ र्ण कम्स सुन्तों सुहयरासु ॥ ६ ॥ । णव सुरय-समागम जुवइ जेम ॥७॥ सिरें मुक्क पढोवड कुसुम-वासु ॥८॥ - कुपुरिंसु व थिव सत्ति - हीणु ॥ ५ ॥
स्वल
घत्ता
हरि रोमश्चिय णु सह स-पहरणु रण- मुहें परिसकन्तु कि । रतुप्पल लोयणु रस-यस- मोघणु पाउहु वेयालु जिह ॥ १०॥
[ १४ ]
समरङ्गणें असुर-परायणे ।
अरिदमणु कुत्तु नारायणेण ॥१॥
'खल खुद पिसुण मच्छरय राय । महूँ जेम पविच्छ्रिय पञ्च घाय ॥२॥
सिंह तुहु मि पचिच्छहि एक सन्ति । जइ अस्थि का वि मणे मणुस - सत्ति ॥ ३ ॥ किर एम पि हजइ जाम । जियपडसऍ घसिय गाल वाम ॥४॥ 'मो साहु साह र
रिक्स जे समरें परमिट समशुं ।
में पहरु बेच दइ जणण-भित् ॥ ५ ॥
पहूँ मुऍ विष्णु वर कवणु ॥ ६ ॥
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एक्तीसमो संधि [१२] अत्यधिक ईर्ष्यासे भरे हुए उसने एक और शकि छोड़ी जैसे पुरन्दरने वाशनि छोड़ी हो। उसे उसने वायी काँखमें इस प्रकार चाँप लिया जैसे कामुकने वेश्याको आलिंगित किया हो। उसने एक और धक-धक करती शक्ति छोडी, मानो सैकड़ों ज्वालाएँ छोड़नेवाली आगकी ज्वाला हो। आती हुई ससे भी नारायणने उसी प्रकार धारण कर लिया, जिस प्रकार शियजीके द्वारा वामार्धमें पार्वती धारण की जाती हैं। तब बहुमत्सरवाले देवकी पुत्र अरिदमनने पाँचवीं शक्ति फैकी जो मानो महीधर हो । छोड़ी गयी वह, उस नरपरके पास इस प्रकार दौड़ो जैसे माना कान्ता शुभंकर पांसके पास दोड़ी हो। किन्तु कुमारने अपने दाँतोंसे उसे उसी प्रकार रोक लिया जिस प्रकार नबसुरतागममें युवती रोक ली जाती है । इसी मध्य देवोंने लक्ष्मणके ऊपर फिरसे कुसुमवर्षा की। वह अरिदमन शक्तिहीन होकर नहीं सोह रहा था, वह दुष्ट पुरुषकी तरह शक्तिहीन होकर स्थित हो गया था । पुलकित शरीर, अष संहित, रणमुखमें बलवा हुआ इस प्रकार शोभित था, जैसे जिसकी आँखें रक्त कमलके समान हैं, रस मज्जा जिसका भोजन है, पेसा पाँच आयुधवाला देताल हो ॥१-१०॥
[१४] समरांगणमें असुरोंको पराजित करनेवाले लक्ष्मणने अरिदमनसे कहा--"स्वल, क्षुद्र, दुष्ट, मत्सरसे भरे राजन् , जिस प्रकार मैंने पाँच आघातोंको सहन किया है, उसी प्रकार तुम भी एक शक्तिको झेलो यदि तुम्हारे मनमें थोड़ी भी मनुष्य शक्ति है।" यह कहकर जैसे ही वह प्रहार करता है कि जितपभाने उसके गले में माला डाल दी। और बोली-रणमें दुदर्शनीय बहुत ठीक, बहुत ठीक, हे देव प्रहार मत करो, पिताकी भीख दो जो तुमने युद्धमें अरिदमनको पराजित कर दिया तो तुम्हें छोड़कर और कौन मेरा वर हो सकता है ?"
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पउमचरित सं क्यणु सुणेप्पिणु लक्षणेण । भाउडर वित्त तरलणेण ॥७॥ मुगाई गउ अरिदमण-पासु। सहसक्नुषपणविउ जिणवरासु ॥४॥
'जं अमरिसकुद जय-जस-लुखें विप्पिड किड तुम्हेहि सहुँ । अण्णु वि रेकारिउ कह वि र मारित तं महसेजहि माम महु' ॥९॥
हेमजलिपुर-परमेसरेण सोमित्त बुभु र लेसरेण ॥1॥ 'किं जम्पिएण षष्टु-अमरिसे। लइ लाइव कप पहूँ पररिसेण ॥२॥ तुहुँ दोसहिं दणु-माहप्प-चप्पु । कहें कवणु गोत्तु का माय वप्पु' ॥३॥ महुमहशु पोजिउ 'णिसुणि राय । महु दसरहु साउ सुमित्ति माय ॥४॥ अण्णु वि पयडउ इसषक्कु सु । बड्डारउ जिह तरुवरही पंसु ॥५॥ वे अगह लाखम-राम माय । वणवासही रज्जु मुएवि आय ॥६॥ उजाणे सुहारएँ असुर-मदु। सहुँ सीयएँ भन्छह राममदु' ७॥ वयणेण तेण कण्टइउ राउ। संचालु णवर साहण-सहान ॥८॥
पत्ता जण-मण-परिमोसे तूर-णिघोस पपरवाह कहि मिण माइयउ । जहिं रामु स-मनउ पाहु-साइजउ तं उसु पराइयउ ॥९॥
[१ ] एस्थरतरें पर-वल-भर-णिसामु। उहिउ जण-णिव णिएवि राम ।।१॥ फरें धणहरु ले ण के जाम । सकलस्ता लक्षण दिनु ताम ॥२॥ सुरवा ब स-मजउ रहे णिविटु । अण्णेक्कु पासें अरिदमणु विल ॥३॥ सन्दणहों तरेपिणु दुण्णिवाह। रामहाँचकणे हि पिपरिउ कुमार ॥४॥ जियपउम स-विग्मम पउम-गयण । एउमरिछ पफुच्चिय-पउम-वषण॥५॥ पडमहों पय-पउमें हिं परिय कण्य । तेण षि सु-पसत्यासीस दिषण ।।६।।
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एकतीसमो संधि लक्ष्मणने यह वचन सुनकर तत्काल आयुध डाल दिये। मुक्त शस्त्र वह अरिदमनके पास गया और उसी प्रकार प्रणाम किया, जिस प्रकार इन्द्र जिनवरको प्रणाम करता है। जो अमर्षसे क्रुद्ध जय, यशके लोभी मैंने तुम्हारे साथ बुरा बरताव किया और भी रे रे करके बोला, और किसी प्रकार मारा-भर नहीं दे रहा, आप इस बोध मा गममा ? :१..? __ [१५] क्षेमंजलीके परमेश्वर राज्येश्वरने लक्ष्मणसे कहा"बहुत क्षमायुक्त प्रलापसे क्या, लो तुमने कन्या अपने पौरुषसे दी । तुम दानवोंके माहात्म्यको चाँपनेवाले दिखाई देते हो। कहो, कौन गोत्र हो, कौन पिता और माता है ?” लक्ष्मण बोला-'हे राजन् सुनिए, दशरथ मेरे पिता हैं और सुमित्रा मेरी माँ है । और भी प्रसिद्ध इक्ष्वाकु वंश है। तरुवरके वंशके समान बड़ा वंश । हम दो भाई राम और लक्ष्मण राज्य छोड़कर वनवासके लिए आये हैं ।" तुम्हारे उद्यानमें असुरोंका मदन करनेवाले रामभद्र विद्यमान हैं।" इन शब्दोंसे राजाको रोमांच हो आया । केवल सेनाके साथ वहाँ चल दिया। जनमनको परितोष देनेवाले सूर्यके घोषसे राजा कहीं भी नहीं समा सका | अपनी बाँहोंका भरोसा रखनेवाले राम जहाँ पत्नी सहित थे, यह वहाँ पहुँचा ।।१-२|| ___ [१६] इसी बीच शत्रु सेनाके योद्धाओंका नाश करनेवाले राम जनसमूह देखकर उठे। जबतक वह अपने हाथमें घनुष लें या न लें, तबतक उन्होंने लक्ष्मणको स्त्री सहित देखा। रथमें यह पत्नी सहित, इन्द्रकी तरह बैठा हुआ था। उसके पास एक और अरिदमन दिखाई दिया। दुनिवार कुमार रथसे उतरकर रामके चरणोंमें गिर पड़ा। कमलनयनी, स्वच्छ खिले हुए कमलके समान मुखवाली विलास सहित जितपद्मा रामके चरणकमलोंपर गिर पड़ी। उसने
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पउमचरिज
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एस्थत मानें कि खेउ । पडु पह पहय किय-करूपकेहिँ ।
are र चढाव रामएड ॥७३ उच्छा [हिं धषले हिँ सङ्गले हिं ॥ ८ ॥
घत्ता
रहें एक निविट्ट यरे पट्टई सीय-बड़े बलवन्ता हूँ । नारायणारि विधियाँ पारि वि र सई मुअन्तई ॥९॥५
F
बत्तीसमो संधि
हलहर-चकहर परचक्क-हर जिणघर-सासर्गे अणुराइ | सुणि उवसग्गु जहिं विहरन्त तहिँ वलस्थलु णय पराय ॥
[ 9 ]
ताम चिसन्धुलु पाणकम् । दुम्मणु दीण-वयणु विद्वाणउ ।
पक्ष- सण्डु व हिम-पचणाहर | ures णासन्तु पदसि । 'कड़ों में मज्जनों मं महों। साम दिडु ओखण्डिय - माण | शेण तु 'भं परें मईसह ।
हिड्ड असेसु वि जणु णासन्त ॥१॥ गड विच्छ व गलिय-विसाणउ ॥ १ ॥ पण विहु व फणिमणि-शोडिउ । गिरि-निवहु व वज्जासणि फोडिड ॥३॥ उमड-वयणु समुम्मिय- वाइड ॥४॥ सहवच पुणु मम्मोसि ॥५॥ अम अभड मज सयलु विवजह ' ॥ ६ ॥ गासन्तव बंसल -राणउ ॥७॥ विष्णिमि पाण लघुष्पिणु णास ॥८॥
घता
एति एत्थु पुरे गिरिवर - सिहरें जो बट्टह्न जाउ भयक६ ।
सेण महन्तु दर णिवदन्ति तर मन्दिर जन्ति सय-सरु ॥९॥
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बत्तोसमी संधि भी सुप्रशस्त आशीर्वाद दिया। इसी बीच ससुरने खेद नहीं किया। रामदेवको स्वर्ण रथपर पढ़ाया । पटु-पटह बजा दिये गये। किया गया है कल-कल जिनमें ऐसे उत्साह धवल और मंगल गीतोंके साथ वे एक रथमें बैठे । बलवान् सीताराम नगरमें प्रविष्ट हुए । लक्ष्मण और जितपद्मा भी । चारों ही राज्यका स्वयं उपभोग करते हुए स्थित हो गए ।।१-९||
बत्तीसवीं सन्धि जिनवर शासनके अनुरागी एवं परचक्रका हरण करनेवाले राम और लक्ष्मण, जहाँ मुनिवरपर उपसर्ग हो रहा था, विहार करते हुए उस वंशस्थल नगर पहुंचे।
[१] इतने में अस्त-व्यस्त प्राणोंसे नष्ट होते हुए सभी लोग भागते हुए दिखाई दिये। वे अत्यन्त दुर्भन और दीनमुख थे। जिसके दाँत गिर चुके हैं ऐसे विक्षत हाथ के समान, जिसका फनमणि टूट चुका है, ऐसे नागसमूहके समान; वाशनिसे चूर-चूर हुए, गिरिसमूहके समान, हिमपवनसे आहत कमलसमूहके समान, जनसमूह म्लानमुख था। जब रामने व्याकुल मुख और हाथ ऊपर किये हुए जनपदको भागते हुए देखा तो उन्होंने फिरसे अभय वचन दिया---"अभय, अभय, समस्त भय छोड़ दो' इतने में उन्होंने अखण्डित मानवाले वंशस्थलके राजाको भागते हुए देखा। उसने कहा-"आप लोग नगरमें प्रवेश न करें, तीनों अपने प्राण लेकर भाग जायें। यहाँ इस नगरमें गिरिवरके शिखरपर जो भयंकर नाद उठता है उससे बड़ा डर है, वृक्ष गिर पड़ते हैं, और मकानोंके सौ-सौ टुकड़े हो जाते हैं ॥१-५॥
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पउमचरित
[ २ ]
ऐंड दीसह गिरिवर- सिहरू जेन्धु । वात्रोटि धूलि दुग्बाइ एइ । घर ममह समुहद्द सीह-जाउ । तें जें णास सलु कोउ । तं णिसुणेवि सीय गणें कम्पिय । 'अहहुँ देखें देसु भमन्तहुँ । सं णिसुणेवि मजड़ दामोयरु | विहि मि जाम करें अतुल-पयावहूँ।
जाम बिद्दि मि जय - लच्छि परिद्विय । तोणीरहिं णाराय अहिट्टिय ॥ ९ ॥ शाम माएँ तुहुँ कहाँ संकहि । विहरु बिहरु मा मुहु ओवहृदि ॥ १०॥
घत्ता
धीरें विजय सुय कोषण्ड-भुय संचक्क वे वि बल-केसव | सग्गहीँ अवयरिसद् परिपरि इन्द-पडिन्द सुरेस घ ॥११॥
पहन्त भयङ्करो । वो व सिन-दोहरो ।
कहि जॅ भीम-कन्दरो ।
उवसग्गु भय होई तेरथु ॥१॥ पाहण पठन्ति महि थरहरेइ ॥ २॥ वरसन्ति मे विडइ णिहाव ॥३॥ मं तुम्ह थि उड्डु उच्चसग्गु होउ ' ॥४॥ मीय-विसन्धुल एव पजम्पिय ॥ ५ ॥ कवणु पराड किर णासन्त हुँ' ॥ ३ ॥ 'बोलि काई माएँ पहूँ कायरु ॥७॥ सायर वज्जावत्तहुँ घावहूँ ||८||
[2]
कहिं जि वन्तचन्दणी | कहिँ कि दिह-कारया | कहिँ जि सीह गण्डया कहिं जिमत्त-विमरा । कहिं जि दाढ-भासुरा । कहिँ जि पुच्छ-दीहरा ।
कहिं जि थोर कन्धरा ।
झसाल- छिपण-ककरो १.५ ॥
यि महोहरो ॥ २५ झरन्तणोर- णिज्जारो ||३|| तमाळ-वाद-वन्दनी ॥४॥ लवन्त मत्त मोरया ||५|| धुणन्त-पुरुष्ठ-तुण्डया ॥ ६ ॥ गुलुग्गुळन्ति कुअरा ॥ ७ ॥ घुग्घुरन्ति सूथरा ||८|| किलिक्लिन्ति वाणरा ॥ ९ ॥ परिख्यमन्ति सम्वरा ॥ १० ॥
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बत्तीसभी संधि [२] जहाँ यह गिरिवरका शिखर दिखाई देता है, वहाँ भयंकर उपसर्ग हो रहा है। यहाँसे तूफान, धूल और दुर्षात आता है। पत्थर गिर पड़ते हैं, और धरती काँप उठती है। धरती घूमती हैं । सिंहनाद होता है। मेघ बरसते हैं ! आघात पड़ता है। इसी कारण समस्त लोक भाग रहा है। तुमपर वह उपसर्ग न हो।" यह सुनकर सीता अपने मनमें काँप गयी । भयसे अस्त-व्यस्त होकर, वह इस प्रकार योली, "एक देशसे दूसरे देश घूमते हुए और भागते हुए हम लोगोंका कौन-सा पराभव ?" यह सुनकर लक्ष्मणने कहा-'हे आदरणीये, आप कायर-जैसी बात क्यों करती है ? जबतक हम दोनोंके हाथों में अतुल प्रताप समुद्रावर्त और वावर्त धनुष हैं, जबतक दोनों विजय लक्ष्मीसे प्रतिष्ठित हैं और जननक तरकसोंमें तीर अधिष्ठित हैं, हे माँ, तबतक तुम्हें किससे आशंका है ? विहार करो, विहार करो। अपना मुँह टेढ़ा मत करो।" जनकसुताको धीरज देकर, धनुष जिनके हाथमें हैं ऐसे वे बलराम और केशय चले; जैसे स्वर्गसे अवतरित इन्द्राणीसे सहित इन्द्र, प्रतीन्द्र और सुरेश हो ॥१.११।।
[३] पथके भीतर उन्होंने भयंकर झसालोंसे छिन्न(?) और कठोर महीधर देखा जो बैलके समान अंगों ( सींग और शिखरों) से दीर्घ था, जो कहींपर भीमगुफाओंवाला, और कहीपर झरते हुए जलसे युक्त निझरवाला था, कहींपर रक्त चन्दन, तमाल, ताल और पीपल के वृक्ष थे, कहींपर भालू दिखाई दे रहे थे और कहींपर बोलते हुए मत्त मोर । कहाँपर अपने पूँछरूपी दण्डोंको धुनते हुए सिंह और जड़े थे। कहींपर मदुसे निर्भर गज आवाज कर रहे थे। कहींपर दाढ़ोंसे भयंकर सुअर घुर-घुर कर रहे थे । कहींपर लम्बी पूंछवाले वानर किलकारियाँ भर रहे थे। कहींपर स्थूल कन्धोंवाले साम्भर घूम रहे थे ।
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पटमचरिड
काई जि तुम-अजया। हगारि-तिक्खसिया ।।११॥ कहि मि आणणुण्णया । कुरा बुण्य-काणया ॥११॥
चता
हिं तेहएँ सइलें तस्वर-बहले भारूड वे वि हरि-हालहर। जाणइ-विजुल' धवलुजलएँ विश्चय माइ णय जालाहर ॥१३॥
[ ] पिडुल-णियाम्प-विम्य-रमणीमहें। राहउ दुम दरिसाव सोयह ।।३।। ऍहु सो धणे गरगोह-पहाणु। जहिं रिसहहाँ उप्पण्णड णाणु ॥२॥ हु सो सत्तवानु कि म मुणित । अजिबल-णाण-देहु जहिं पथुणिउ ॥२॥ हु सो इन्दवच्टु सुपसिड। जहिं संभव-जिणु पाण-समिछउ ॥१॥ ऍहुँ सो सरलु सहल संभूउ। अहिणन्दणु स-णाणु अहि हभड ॥५॥ एं पीथई। सीएँ सलापर। सुमाइ स-
म दु जाई जाब व॥ पछु सो सास सीएँ णियच्छित । पउमप्पड सणाणु जहि अछिड ७॥ ऍहु सो सिरिसु महमु जाणइ । णाणु सुपासें भणे वि जगु जाणइ ॥६॥ ऍहु लोणागरुषस्तु चन्दप्पहें। णाणुष्पत्ति ओरधु चन्दप्पडें ॥९॥ Jहु सो मालइसक्नु पदीसिउ। पुप्फयन्सु जहिणाण-विहूसित ॥१०॥
पत्ता हुँ सो पक्खतह फल-फुल्छ-मरु तेन्युइ-समाणु युद-प्यासहुँ । जहिं परिहूमा संभूबाई सीयल सेयंसहुँ ॥११॥
[५] ऐंह सा पारलि सुहरू सुपत्ती। घासुपुञ्जें जहिं णाणुप्पत्ती ॥३॥ ऐसु सो जम्बू एड्डु असल्थु । विमलापतहुँ णाण-समरधु ।।२।। उहु पहिवपण-गदि सुपसिदा। धम्म-सन्ति जहिं णाय-समिद्धा ॥३॥ उछु साहार-तिल दीसन्ति । कुन्धु-मरहुँ अहिं णाणुप्पत्ति ॥३॥
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बत्तीसमो संधि
कहीं पर विशाल शरीर और पैने सींगवाले महिष थे, और कहींपर मुखसे उन्नत और कहीं पर भीतकर्ण हरिन थे। ऐसे तरुबरोंसे प्रचुर उस शैलपर आरूद, तथा धवल उज्ज्वल जानकीरूपी बिजली से शोभित राम और लक्ष्मण नवजलधरके समान जान पढ़ते थे ।। १-१३।।
थे ।
[ ४ ] जो विशाल नितम्ब बिम्बोंसे रमणीय है ऐसी सीता देवीके लिए राघव वृक्ष दिखाते हैं- "हे धन्ये, यह विशाल पीपलका पेढ है कि जहाँ ऋषभनाथको ज्ञान उत्पन्न हुआ था । क्या तुम नहीं जानती, यह वह सत्यवन्त वृक्ष हैं, जहाँ केवलज्ञान शरीरवाले अजितनाथकी खूब स्तृति की गयी थी। यह वह प्रसिद्ध इन्द्रवृक्ष है जहाँ सम्भवनाथ ज्ञानसे समृद्ध हुए यह वह सफल सरल वृक्ष है, जहाँ अभिनन्दन ज्ञानसे युक्त हुए थे । हे सीता, सुन्दर छायावाला प्रियंगु वृक्ष है जहाँ सुमविनाथ ज्ञानशरीरबाले हुए थे। हे सीता, यह वह सालवृक्ष देखो जहाँ केवलज्ञान से युक्त पद्मप्रभु स्थित थे । हे जानकी, यह वह शिरीष वृक्ष है जहाँ सुपार्श्वने ज्ञानसे विचारकर जगको जाना था । हे चन्द्रमाके समान प्रभावाली, यह वह नाग वृक्ष है कि जहाँ चन्द्रप्रभको ज्ञानको उत्पत्ति हुई थी। यह वह मालती वृक्ष दिखाई देता है, जहाँ पुष्पदन्त ज्ञानसे विभूषित हुए थे | यह वह फल-फूलोंसे भरा हुआ तेंदुकीके समान कल्पवृक्ष है कि जहाँ दुःखका नाश करने वाले शीतलनाथ और श्रेयांसनाथको केवलज्ञान उत्पन्न हुआ था ॥१- ११ ॥
[ ५ ] यह वह अच्छे फलों और पतोंवाला पाटली वृक्ष हैं जहां वासुपूज्यको ज्ञानकी उत्पत्ति हुई थी। यह वह जम्बू वृक्ष है, और यह वह अश्वत्थ वृक्ष है जहाँ विमल और अनन्तनाथ ज्ञानसे समृद्ध हुए थे । ये वे सुप्रसिद्ध दधिवर्ण और नन्दी वृक्ष हैं कि जहाँ कुन्धु और अरहनाथको ज्ञानकी उत्पत्ति हुई थी।
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पउमचरित ऍहु सो तरु कश्चि-पहाणु। मल्लिजियाहाँ अहिं केवल गाणु ।।५|| ऍड्ड सो चम्पउ विपण णियस्थित । मुणि सुष्वउ स-णाणु जहि अछि।॥६॥ इय सचिम-सरु इन्दु वि बन्दइ। जणु कामेण तेण अहिणम्दई' ॥७॥ एम चवन्त पत्त वल-सक्षण । जहि कुलमसण-वेसविहुसण ८tl दिवस चयारि अणक-वियारा । पडिमा-जोगें थक महारा ॥१॥
घप्ता बेन्तर-घोणसे हिँ भासीषिसे हि अहि-विरिछय-वेदिक-सहासें हिं। पेत्रिय वे विजण मुह-लुखु-मण पासण्डिय जिस पसु-पास हि ॥१०॥
दिदा असेसु वि अहि-णिहाउ। बलएउ भयकह गराहु जाउ ॥१॥ तोणीर-पक्खु वदेहि-चम्बु । पपस्खुजल-स-रोमश्व-वन्धु ॥२॥ सौमित्ति-घियड-विप्फुरिय-वषणु । णाराय-तिकख-खिडरिष-णय ।।३।। दोषिण वि कोवण्ड, रुपण दोषि । घिउ राहउ भोसणु गरछु होवि ॥४॥ संजयण-कडवं वि दुग्गमेहिं। परिचिन्तिउ कञ्जु भुजमेहि ॥५॥ 'लड्डू पास? किं णर-संगमेण । खग्जेसहुँ गरुड-विहामेण ॥६॥ एस्थम्तर बिहनिय महि मयम्ध। गय खयहोणा मुणि-कम्मवन्ध ७॥ मय-भीष विसम्थुल मणेण सट्ट। खर-पत्रण-पहय घण जिह पण? ८॥
पत्ता वेल्लो सक्कलची बसस्थलही विसहर-फुहार-कराकहाँ। जाय पगास रिसि णह सूर-ससि उम्मिल्ल णाई घण-जाकहाँ ।।५।।
[७] अहि-णियहु जं जें गउ सोसरे वि । मुणि वन्दिय जोग-भक्ति करें वि ॥१॥ जे भव-संसारारिह दरिय। सिव-सासय-मणहाँ आइतुरिम ॥२॥
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तोमो संधि
यह वह मुख्य अशोक वृक्ष है ज मल्लिनाथको केवलज्ञानका उत्पत्ति हुई थी। क्या इस चम्पक वृक्षको तुमने नहीं देखा कि जहाँ मुनि सुव्रत ज्ञान सहित स्थित थे । इन उत्तम वृक्षों की वन्दना इन्द्र भी करता है, इसी कारण लोक भी इनका अभिनन्द करता है ।" ऐसा कहते हुए राम और लक्ष्मण वहाँ पहुँच, जहाँपर कुलभूषण और देशभूषण मुनि थे, कामको नष्ट करनेवाले जो चार दिनसे वहाँ प्रतिमायोग में स्थित थे । व्यन्तरों, आशीविष साँपों बिच्छुओं और लताओंके द्वारा वे दोनों मुनि उसी प्रकार घिरे हुए थे, जिस प्रकार सुखके लोभी मन पाखण्डीपशुपाशों से घिरे हुए हों ॥१-१०॥
[६] जब रामने समस्त सर्प-समूह देखा तो वह भयंकर गरुड़ बन गये। तूणीर जिनके पंख थे, जानकी चोंच थीं, पुंखोंसे उजले तीर ही रोमांच कंच था, लक्ष्मण ही विकट तमतमाता हुआ मुख था। तीरोंके तीखे डरावने नेत्र थे, और दोनों ही धनुष दो कान थे, इस प्रकार राम गरुड़ बनकर स्थित हो गये। उन्हें अपनी आँखोंसे देखकर उन दुर्गम साँपोंने अपना काम सोचा, कि शीघ्र भाग चलें, इस मनुष्य संगमसे क्या ? गरुड़ पक्षीके द्वारा हम लोग क्या खा लिये जायेंगे। इसी बीच मदान्ध साँप विघटित हो गये। वे मुनियोंके कर्मबन्धकी तरह नाशको प्राप्त हुए । भयभीत अस्त व्यस्त और मनसे सन्त्रस्त वे उसी प्रकार नष्ट हो गये, जिस प्रकार प्रबल पचनसे आइत मेघ नष्ट हो जाते हैं। लताओंसे व्याप्त, साँपों की फूत्कारोंसे भयंकर उस वंशस्थल में मुनि उसी प्रकार प्रकाशित हुए जिस प्रकार आकाशके घनजाल में से सूर्य चन्द्रमा प्रकाशित होते हैं ? ॥ १-२॥
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[७] जब वह सौंपसमूह छूट गया तो उन्होंने योगभक्तिसे सुनिकी बन्दना की, "जो संसाररूपी से डरे हुए हैं,
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१५४
पउमचरिउ
विहिँ दोसहि जेण परिम्महिय । जि-जरा-मरणेंहिं रक्षिय जे घडगइ घटकसाय महण | जे पश्च महषय दुघर-घर | छत्तीस गुण द्विगुणै हिँ पत्रर । जिय जेहि समय सत वि णरय ।
कम-मय-दमण ।
मानें तिहि मि जण हिँ धम्मज पुप्फच्चयि हुन्-लयवते हिँ । रामु सुधीस वीण अल्फाळ | जा रामउरिहिँ आसि खष्णी । लक्खणु गाइ सलक्खणु गेउ । एकवीस वर सुरूण-ठाणहूँ 1 - विवाल दस दिट्टिउ बाजीस लहुँ ।
ताल-1
पण जाण ।
विहिं वजिय विहिँ साहिं सहिथ ॥ ३ ॥ सण चारित णाण सक्रिय ॥४॥
घन्ता
एकतर
गुण- भरिय पुणु बन्दिय बल- गोविन्द हिं । गिरि-मन्दिर- सिहरें वर-बेइहरें जिण जुबलु व इन्द-पढिन्देहिं ॥ १० ॥
[
च - मङ्गलकर घसरण-मण ॥५॥ पद्रिय दोल- मिणासर ॥ ६ ॥ छजीव- निकाय हुँ खन्ति कर अ सत्त सिक्कर अणवरण ॥८॥ अट्टविह गुणढी- सरसवण ॥९॥
८
]
।
किउ चन्द्रण-रसेण सम्मजणु ॥१॥ पुणु आ गेट मुणि-गतें हिं ॥२॥ जाविरहु मिथिलाहूँ चाल ॥३॥ तू विपूयण-जक्र दिणी ॥३॥ सप्त विसर ति-गाम-सर-मेड ॥५॥ एषणपचास विसर ताण ॥६॥
1
दरस अनुभाव जा जागड़ १७ ॥ मरहें मरह-गविहूँ आई ॥ ८॥
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मनीमानो समि जिन्हें शिवके शाश्वत् गमनकी जल्दी है, जो दोनों प्रकारके दोषोंके द्वारा ग्रहण नहीं किये जाते, जो दोनों प्रकारके दोषोंसे रहित हैं, दोनों ध्यानोंसे युक्त हैं, जन्म, बुढ़ापा और मृत्यु चीनोंसे रहित हैं, दर्शन, ज्ञान और चरित्रसे सहित है, जो चारों गतियाँ और चार कषायोंका नाश करनेवाले हैं, जो चार मंगलोंको करनेवाले तथा जिनका मन चार कल्याणोंकी शरणमें है। जो कठोर पाँच महाव्रतोंको धारण करनेवाले हैं, पाँच इन्द्रियोंके दोषोंको दूर करनेवाले हैं। जो छत्तीस गुण-ऋद्धिके गुणोंसे प्रवर हैं तथा छह प्रकारके जीव-निकायोंके प्रति शान्ति रखनेवाले हैं। जिन्होंने भयसे युक्त सातों नरकोंको जीत लिया है, जो अनवरत सात प्रकारके कल्याणोंको करनेवाले, दुष्ट आठ कर्मों और आठ मदोंका दमन करनेवालं हैं तथा आठ गुण
और ऋद्धियोंसे परिपूर्ण हैं। इस प्रकार एकसे एक श्रेष्ठ और गुणोंसे परिपूर्ण उन मुनियोंकी राम और लक्ष्मणने फिरसे वन्दना की। उसी प्रकार, जिस प्रकार मन्दराचलके शिखर पर उत्तम वेदिका गृहमें इन्द्र-प्रतीन्द्रके द्वारा बाल की वन्दना की जाती है ॥१-१०॥
[८] उन तीनों लोगोंने धर्मार्जन किया। उन्होंने भाव पूर्वक धन्वन-रससे उनका सम्मान किया । शुद्ध कमलोंसे पुष्पार्चा की। और फिर उन मुनि-भक्तोंने गान प्रारम्भ किया। राम सुघोष नामकी वीणा बजाते हैं, कि जो मुनिवरोंके बित्तोंको भी चलायमान कर देती है, जो रामपुरीमें पूतन यक्ष द्वारा सन्तुष्ट होकर उन्हें दी गयी थी । लक्ष्मण लक्षणोंसे युक्त गीत गाते हैं। सातों ही स्वर तीन आम और स्वरभेदसे युक्त | इक्कीस वरमूर्च्छनाओंके स्थान तथा उपचास स्वर तानें । ताल-त्रितालपर सीता नाचती हैं। वह नव रस और आठ भावों, दस दृष्टियों और बाईस लयोको जानती है कि जो भरत मुनिके द्वारा भरत
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पउमचरित
घता भाव जणग्र-सुय बउलट्टि भुग दरिसति पण बाहि। दिणयर-अस्थवर्णों गिरि-गुहिल-वणे उषसा समुहिट ताहि ॥१॥
[२] सो कोवग्गि-करम्बिय-हास। दिई णश्यलें भसुर-सहास. ॥१॥ अगणाई विष्फुरियाहर-वयण। अपण, रतुम्मिहिलय-जयणं है ॥२॥ अपण पि पिशवप। माणइँ णिम्मंस चुप्पेकसइँ ॥३॥ अण्ण पहें गवन्ति विषस्थइ । अण्ण तहि चामुण्ड-विहत्थई ।।४॥ भग्णई कवास, वेयालर। ऋत्तिय-मडय-काइँ विकरालाई १५॥ अग्ण मसि-वणाई भपसरथई। णर-सिर-माल-कचाल-विहस्य ॥६॥ अण्णाई सोणिय-महर पियन्ताहै। णचन्तइँ घुम्मन्त-घुलन्त ॥७॥ अपणई किलकिलन्ति च-पासें हिं। अण्णइ कहकहन्ति उवहासें हिं ।।८॥
घत्ता अण्ण, मीसगाई दुपरिसण 'मरु मारि मारि' जम्पन्तहूँ । देसविहसणहँ कुलमसणहँ आयई उपसा करम्तहूँ ।।९।।
[१०] पुणु आपण अण्णपण-पसारे हि। तुका विसहर-फण-फुकारे हि ॥१॥ अग्ण, जम्बुव-सिव-फेकारें हि। वसह-मडक्क-मुक्क-हेकारे हि ॥२॥ भग्णा, करिवर-कर-सिकार हि। सर-मन्धिय-अणु-गुण-टवारे हि॥३।। अण्ण. गद्दाह-मण्डल-सदेहि। अग्णइ बहुविव-भेसिय-गर्दै हिँ ॥४॥ अण्ण गिरिवर-तरुवर-नाएँ हि। पाणिय-पाहण-पवणुप्पाएं हिं ॥५॥ अण्णा भमरिस-रोस-फुरन्त। णयणे हि भग्गि-फुलिम मुगन्तई ॥३॥ अण्ण दह-जयणई सय-चयगई। अण्णा सहस-मुहई बहु-जयण ॥७॥ तहि तेइ वि काले मइ-विमलहुँ । तो वि ण चलिउ माशु मुणि-धवल हुँ॥८॥
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पत्तीसमो संधि नाट्य शास्त्रमें गवेषित हैं। जबतक सीताः अपनी चौसठ मुजाओंका प्रदर्शन करती हुई भावपूर्वक नाचती है, तबतक दिन अस्त होनेपर गिरिके गहन घनमें उपसर्ग उठ खड़ा हुआ ।।१-९॥
[९] क्रोधाग्निसे युक्त हासवाले हजारों असुर आकाशतलमें दिखाई दिये। दूसरे फड़कते हुए अधरों और मुखवाले थे। दूसरे लाल-लाल खुली हुई आँखोवाल थे। दूसरे-दूसरे पीले शरीर और आँखोंवाले थे। दूसरे-दूसरे मांसरहित अत्यन्त सुगौलीय थे। दूसरे के सही होकर आगःशमें नाच रहे थे। दूसरे वहाँ हाथमें चामुण्ड लिये हुए थे। दूसरे कंकाल और वेताल थे, विकराल जो कटारी और शव हाथमें लिये हुए थे। दूसरे काले रंगके अत्यन्त अप्रशस्त थे, वे मनुष्योंकी मुण्डमाला
और कपाल अपने हाथमें लिये हुए थे। दूसरे चारों ओर किल्लकिलाकर हंस रहे थे, दूसरे उपहासोंसे ठहाका लगा रहे थे । दूसरे अत्यन्त भयंकर 'मर-मारो-मारों' कह रहे थे । इस प्रकार वे देशभूषण और कुलभूषण मुनिपर उपसर्ग कर रहे थे ।।१-९॥ ___ [१०] फिर, दूसरे-दूसरे, दूसरे प्रकारों तथा विषधर फनकी फूत्कारोंके साथ पहुंचे। दूसरे जम्बू और शृगालकी आषाजों, बैल-समूहके द्वारा छोड़ी गयी ढेक्का-ध्वनियों, दूसरे गजवरोंकी सीत्कार ध्वनियों, सर सन्धान और धनु-गुण-टंकारों, दूसरे गर्दभों और कुत्तोंके शब्दों, दूसरे तरह-तरह के डरानेवाले शब्दों, दूसरे गिरिषरों और तरुवरोंके आघातों, पानी-पत्थर और पवनके उत्पातोंके साथ पहुंचे। दूसरे अमर्ष और क्रोधसे स्फुरित होते हुए, दूसरे आँखोंसे आगकी चिनगारियाँ छोड़ते हुए, दूसरे दसमुख और सौ मुखवाले, दूसरे हजार मुखौ और बहुत-से नेत्रोंवाले वहाँ आये। उस वैसे समय भी, बुद्धिसे निर्मल उन श्रेष्ठ मुनियोंका ध्यान विचलित नहीं हुआ।
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पउमचरित
बहरु सरन्सा पाइरन्ताई सम्बल-हुलि-हल-मुखलग्गै हिँ। का मापणउ भीसावपाउ दस्सिाविउ र्ण बहु-महिं ॥२॥
उघसरगु जिवि हरिसिय-मणे हि । णीस हि वस्त्र-णारायणे हि ॥१॥ मम्मीसें वि सोय मदावलें हिं। मुणि-चलण-धराविय करपलें हिं ॥२॥ धणुछ विहि मि अफालियरें। पं सुर-मवणइ संचालियर ॥३॥ बुण्णा भय-मीय-विसावलहूँ। रसियई णहरल-महियल ि॥४॥ सं सदा सुणे वि भासकियइँ । रिउ-चित्त माण-कलाड़ियई ॥५॥ धणुहर-दहा हि वहिरियहै। नइ खल-खुर घरियर ॥६॥ णं अट्ठ वि कम्मइँ णिजिस । णं पोन्दियाँ परजियई ॥७॥ शं पासें वि गयद् परीसह।। विह असुर-सहासई सहई ।।
घाता छुद्ध छु णट्वाइँ भय-सवाई मेक्लेप्पिणु मरला माणु | ताप भण्डाराहुँ वथ-धारा| उप्पणड केवल-गाणु ॥९॥
[१२] ताव मुणिन्दहुँ गाणुप्पत्तिएँ। आय सुरासुर-बन्दणहत्तिएँ ॥१॥ जेहि कित्ति सहलोके पगासिय । जोइस वेन्तर मवण-णिवासिय ।।१।। पहिलउ मावण सपा-णिण। बेन्ता वयफालिय-सः ॥३॥ जोइस-रेव चि सीह-णिणाएँ।। कप्पामर जयघण्ट-णिणाएँ ॥३॥ संघलिए घड-देवणिकाएं। छाइड 'पाहुणं घण-संघाएँ ॥५॥ बहट विमाणु विमाणे चपिउ। वाहणु वाहण-णिबह-प्रदघिड ॥६॥ तुर तुरङ्गमेण ओमाणिउ । सन्दणु सन्दणेण संदाणिउ ॥७॥ गयवर गयवरेण पडिखलियउ। लगवि मउ मउ उछलियर ॥८॥
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बत्तीसमो संधि
१९९ वे वैरका स्मरण करते हुए, सचल-हुलि-हल और मूसलके अप्रभागसे इस प्रकार प्रहार कर रहे थे, मानो काल नाना भंगिमाओंसे अपना भयंकर भीषण रूप दिखा रहा था ।।१-९।।
[११] उपसर्ग देखकर हर्षित मन और शंका रहित राम और लक्ष्मण ने सीता देवीको म न वि., और मुनि चरणोंको पकड़े हुए अपने हाथोंसे दोनों धनुषोंको आस्फालित किया। उससे मानो देवविमान चलायमान, खिन्न, भयभीत
और अस्तब्यस्त हो गये-मानो आकाशतल और महीतल गूंज उदे। उस शब्दको सुनकर, मानसे कलंकित शत्रुओंके चित्त आशंकित हो उठे। धनुषकी टंकारसे अहरे, दुष्ट और क्षुद्र शत्रु भाग गये, मानो जैसे आठों कर्म जीत लिये गये हों, मानो जैसे पाँचों इन्द्रियाँ पराजित हो गयी हों, मानो परीषष्ठ भाग खड़े हुए हों उसी प्रकार वे असा हजारों असुर भाग खड़े हुए। वे मत्सर और मान छोड़कर तथा भयसे त्रस्त होकर भाग खड़े हुए । इतने में आदरणीय उन व्रतधारण करनेवालोंको केवलज्ञान उत्पन्न हो गया।१-२३
[१२] उन मुनीन्द्रोंको ज्ञाम उत्पन्न होनेपर, सुर-असुर वन्दना भक्ति के लिए आये। जिनके द्वारा उनकी कीर्ति त्रिलोकमें प्रकाशित हुई । ज्योतिप, व्यन्तर और भवनबासी (देव आये)। पहले भवनवासी देव शंखनिनादके साथ, व्यन्तर देव तूर्योके आस्फालन शब्द के साथ, ज्योतिष देव सिंहनिलादके साथ और कल्पवासी देव जयघाण्ट शब्दके साथ चले। चारों देवनिकायोंके चलनेपर आकाश इस प्रकार आच्छादित हो गया मानो मेघसमूहसे आच्छादित हो गया हो। विमान विमानसे टकराकर चलता है | वाहन वाहन-समूहसे टकरा जाता है, अश्य अश्वसे झुक गया, रथ रथसे अवरुद्ध हो उठा, गजवर गजवरसे स्खलित हो गया, मुकुट मुकुटसे लगकर उछल
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पउमचरिच
घत्ता
भावें पेलियड मय-मेलियड सुर-सादणु लीकऍ आवश् लोपहु मूढा त छुड़ा हुँ णं धम्म-रिद्धि दरिसाव
[ १३ ]
साहिउ जण-मण-यन-सुहावउ ॥ १ ॥ गुरुगुहन्तु वत्सीसहिँ चपणे हिं ॥ २ ॥ पाइँ सुवण-वि-पिहाण ॥ एक में परि सरवरु ॥ ४ ॥ कम लिणि एक-एक पिण्णी ॥५॥ पाहूँ वती सणाकहूँ ॥ ६ ॥ पसें पसें हाइ मित्तहूँ ॥७॥ पुणु जि परिहिड तेण नि भागें ॥८॥ वन्दणहसिएँ आउ पुरन्दरु ||९|| गुरुपोमा दिण-बन्देहिं ॥ १० ॥
ताव पुरन्दरेण अइराखंड | सोह दिन्तु उसी-यहिँ । ar as age विसाणहूँ । एककऍ विसाणे जण मणहरु । सरें सर्वे सर परिमाणुष्णी । एक पडमिणिहें विसाल हूँ । कमले कमले बत्तीस कि पहूँ । वन्द्रि जम्बूदीप माणें । तहिं दुग्धो च वि सुर-सुन्दर । पुर सुरिन्दों यणामन्देहिँ ।
घन्ता
देवहीँ दाणवहीँ खल- मानवहाँ रिसि चलणेहिं केव पण लग्गहीं । जेहिं तवन्तऍहिं अचलगतऍहिँ इन्दु त्रि अवगारिङ सम्महों ॥११॥
[ * ]
जिणवर-खळण-कमल-दल संयहं । केवल-गाण-पुन किस देवहिं ॥ १ ॥ म पुरन्दरु 'अह अह लोयहों। जह सक्रिय जर मरण- विश्रोष हों ॥२॥ जणित्रिष्णा च नानामह । तो कि कहो जिणषर-मवणहीं ॥ ३ ॥ पुतु कल नाव मर्णे चिन्हों । जिजवर चिम्बु ता कि ण चित्रवहाँ ॥ ४ ॥ सिहों जाच मासु मयरासणु । किण चिन्तवह ताव जिणसासणु ॥५॥ चिन्तहीँ जान रिद्धि सिय सम्पय किण चिन्त वहीँ ताब जिणवर-पय ॥ १ ॥
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वो सभी संधि
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पड़ा। भावोंसे प्रेरित भयसे रहित सुरसेना लीलापूर्वक आती है, मानो वह मुर्ख लोगोंका अन्धकार दूर करनेके लिए धर्मऋद्धिका प्रदर्शन कर रही हो ॥ १-२ ॥
[१३] इतनेमें इन्द्रने जनोंके मनों और नेत्रोंको अच्छा लगनेवाला ऐरावत सजाया । वह गज अपने चौंसठ नेत्रोंसे अत्यन्त शोभित हो रहा था, अपने बत्तीस दाँतोंसे गरज रहा था, उसके प्रत्येक मुखमें आठ-आठ दाँत थे-जैसे स्वर्णरचित निधान हों। एक-एक दतिपर जनोंके लिए सुन्दर एक-एक सरोवर प्रतिष्ठित था । प्रत्येक सरोवर में सरके प्रमाणकी एक चन्नदिनी उत्पन्न हुई थी एक-एक कमलिनीपर विशाल और नाल सहित बत्तीस कमल थे। प्रत्येक कमलमें बत्तीस पत्ते थे । प्रत्येक पत्तेपर उतनी ही (अर्थात् बत्तीस ) नर्तकियाँ थीं। वह जम्बूद्वीप के प्रमाणका था । फिर वह उस स्थान से प्रस्थित हुआ । उसपर चढ़कर सुरसुन्दर इन्द्र उस गजसे वन्दना भक्तिके लिए आया । इन्द्र के सामने नेत्रोंके लिए आनन्ददायक चारणसमूह गुरुकी प्रशंसा की। हे देवो, दानवो और दुष्ट मनुष्यो, तुम मुनिवरके चरणोंकी सेवा क्यों नहीं करते, अचल तप करते हुए जिनके लिए इन्द्र भी उतरकर आया ।।१ - ११ ।।
[१४] तब जिनवरके चरणकमलों की सेवा करनेवाले देवोंने उनके केवलज्ञानकी पूजा की। इन्द्र कहता है, "हे हे लोगो, यदि तुम जरा, मरण और वियोग से आशंकित हो यदि चार गतियोंसे उदासीन हो तो तुम जिनवर के मन्दिर में क्यों नहीं पहुँचते । जिस प्रकार तुम पुत्र कलत्र और खीकी चिन्ता करते हो, उस प्रकार तुम जिनवरकी प्रतिमाका चिन्तन क्यों नहीं करते। जिस प्रकार मांस और कामकी चिन्ता करते हो उस प्रकार जिनवरके शासनकी चिन्ता क्यों नहीं करते। जिस प्रकार ऋद्धि, लक्ष्मी और सम्पत्तिकी चिन्ता करते हो उस प्रकार
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पउभचरित
चिम्साही ताव रूट धणु जोवणु। धण्णु सुवष्णु अण्णु घर परिषणु ॥७॥ चिम्तहाँ बाप वलिड भुव-पक्ष । कि ण चिन्तवहाँ साव परमपरक ॥६॥
घन्ता
पेक्षहु धम्म-फल चउरावल्लु पयहिण ति थार देवाविउ । स. भु धणेसरही परमेसरहों अस्थाएँ सेव कराषित' ॥२॥
तेत्तीसमो संधि
उपसएँ णाणे पुच्छह रतु-तणड । 'कुलभसण-देव किं घसा ऋउ' ॥
[ ] तं णिसुणे वि पमणइ परम-गुरु ! 'सुशु जश्वथाणु णामक पुरु ॥३॥ सहि कासव-सुरव महामविय। एयारह-गुणथाणग्यचिय ॥२॥ एलोवर किक्कर पुरवइहें। ण सुम्बुरु-गारय सुरवइहें ॥३॥ हम्मन्तु विहामु लुखएँ हिं। परिरपिरखड तेहिं पघुद्ध हिं ॥४॥ खगवद तुणु वहुकाण मुउ । विमाचल मिल्लाहिवाह हुउ ॥५॥ लो कासय-सुरव चे वि मर चि। थिय अभियसरहाँ घरें ओमर वि ॥६॥ उवनोदादेवि दोहले हिं। उप्पण्णा वड्डेहि सोहले हि ॥७॥ वापउ भायज वन्धुजणु । किउ उद्य-मुहय णामहशु बा८॥
पत्ता
अमर-कुमार छुद्ध सग्गही पदिय । पाणस-हस्थ जोवण-नाएं घडिय ॥१॥
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तेत्तीसमो संधि जिनवरके चरणकमलोंकी चिन्ता क्यों नहीं करते। जिस प्रकार रूप, धन और यौवनकी चिन्ता करते हो, धान्य, सुवर्ण, अन्न, घर और परिजनोंको चिन्ता करते हो, जिस प्रकार तुम्हें अपने बलिष्ठ बाहुपंजरकी चिन्ता है, उसी प्रकार परमाक्षरोंकी चिन्ता क्यों नहीं करते ?" स्वयम्भू कवि कहता है कि धर्मका फल देखो चतुरंग सेना तीन बार प्रदक्षिणा देती है, और भुवनेश्वर-परमेश्वरकी अथक सेवा करती है ।।१-९।।
तैंतीसवीं सन्धि ज्ञान उत्पन्न होनेपर रघुपुत्र पूछते हैं-'हे. कुलभूषण देव, किसने उपसर्ग किया?
[१] यह सुनकर परम गुरु कहते हैं-सुनो यक्षःस्थान नामका एक नगर था | उसमें कश्यप और सुरव नामक महाभव्य, ग्यारह प्रतिमाओंके धारी थे । के नगरके राजाके एकसे-एक बड़कर अनुचर थे। मानो इन्द्र के तुम्बर और नारद हों। शिकारियोंके द्वारा मारे जाते हुए एक पक्षीका उन प्रबुद्धोंने रक्षा की। खगपतिका पुत्र बहुत समय बाद मरकर विन्ध्याचलमें भिल्लराजा हुआ । वे कश्यप और सुरव भी मरफर अमृतस्वरके घरमें अवतरित होकर स्थित हो गये। वे 'उपयोगा देवीसे बड़े दोहलों और सोहरोंके साथ उत्पन्न हुए | बन्धुजन बधाई देने आये। उनके नाम उदित-मुदित रखे गये। ज्ञानरूपी अंकुश जिनके हाथमें है, ऐसे वे यौवनरूपी गजपर आरूढ़ हो गये, मानो शीघ्र ही स्वर्गसे अमरकुमार आ पड़े हों ।।१-९।।
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: ... ..: .:. : : . . . .. पज़मचारठ . . .
[२] तो पउमिणिपुर-परमेसरहीं। परिसाविय विनय-महोहरहों ॥५॥ वेण विणिय-सुअाँ जयम्धरहों। किय किदर बडिय-रणमरहीं ॥२॥ अच्छन्ति जाम भुसन्ति लिय। तो ताम जणेरही गमण-किय ॥३॥ पट्टविउ गरिन्अमियसरु । भइममि-सेह-रिन्छोलि-धरु ॥३॥ वसुभूइ सहेजउ तासु गर। तें गबर पाण-विच्छोड कल ॥५॥ पल पलहिउ भणे वि। से उइय-मुश्य तिण-समु गणेपि ।।३॥ लो उठवाएषि सहुँ जियइ । अमिनोवमु अहर-पाणु पियाह ।।७।। परियाणे वि जेहे दुचरित। वसुभूइहें जीविउ अवहरिउ ।।८।।
धत्ता प्पण्ण विश्नों होपिणु पलिया । पुम्वचिउ कम्मु सम्वहीं परिणषइ ।।९॥
जय सम्बय-पवरूनाणु जहिं। रिसि-सा पराइ ताब तहिं ।।। किय रुपा रुक्ने आवास-किय । णं रुक्मे रुक्ल प्रवण सिय १२॥ संजाय अई फोमलत्। अहियाँ पापा फुलाई फलई ॥३॥ रिसि स्वख व अविचल होचि थिय । किसलएँ परिबेवाद्धि किप ॥४॥ रिसि रूपय सवाम ताव लविय । रिसि रुख प मूक-गुणग्धविय ॥५॥ रिसि रुक्ष घ आसपालनाहिय । रिसि रुक्ष व मोमब-फलसमाहिय ॥६॥ गउ पान्दणवणिउ तुरन्तु सहि । सो विजय-माहीहर-राउ जहि ।।७।। "परमेसर केसरि-विच हिँ। उजाय लइउ प्राइ-पुन हि ।।।।
धत्ता पारन्तहों मन्यु उम्मग्गिम करें कि । रिसि-सीह-किसोर (च) थिय वणे पडसर वि" !
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तेत्तीसमो संधि [२] वे पश्मनीपुरके परमेश्वर विजयपर्वतको दिखाये गये । उसने भी उन्हें जिसका युद्धभार बढ़ रहा है, ऐसे अपने पुत्र जयन्धरका अनुचर बना दिया। इस प्रकार वे जब लक्ष्मीका उपभोग करते हुए रह रहे थे, तो उनका पिता कहीं बाहर गया। राजाके द्वारा अतिमि-लेख पंक्तिको धारण करनेवाले अमृतस्वरको भेजा गया। उसके साथ वसुभूति ब्राह्मण गया । लेकिन उसने उसके प्राणोंका अन्त कर दिया। वह लौट आया। वह मर गया' यह कहकर उन उदित-मुदितको तृपके समान समझउपयोगा देवीके साथ रहने लगा। उसका अमृतोपम अधरपान करने लगा। बड़े भाई (उदित)ने यह दुश्चरित जानकर वसुभूतिके जीवनका अपहरण कर लिया। वह विन्ध्याचलमें मिल्लपति होकर जन्मा। सबका पूर्वकृत कर्म परिणमित होता है ॥१-१॥
[३] जहाँ जयपर्वत नामका उदान था, इतने में वहाँ ऋषिसंघ पहुंचा। उसने एक-एक वृक्षके नीचे आवास किया, मानो पृक्ष-वृक्षपर श्री अवतीर्ण हुई हो । उनके ( वृक्षोंके ) अंग कोमल हो गये। पत्ते, फूल और फल अधिक हो गये। मुनि भी वृक्षकी तरह अविचल होकर स्थित हो गये....... किसलयोंने उन्हें ढक लिया ।........मुनि भी वृक्षके समान तपनके तापसे सन्तप्त थे। मुनि वृक्षकी तरह मूल गुणों (मुनियोंके मूलगुणों; जड़ों और तनोंसे ) सहित थे। मुनि वृक्षकी तरह आलवाल ( परिग्रह 1 क्यारी )से रहित थे। मुनि वृनकी तरह फल (मोझरूपी फल) से सहित थे। नन्दन वनका वनपाल शीघ्र वहाँ गया जहाँ विजय पर्यंत राजा था, ( और बोला ) "हे परमेश्वर, सिंहके समान पराक्रमवाले यतिश्रेष्ठोंने उद्यान ले लिया है। मेरे मना करनेपर भी, मार्गका अतिक्रमण कर वे मुनि सिंह के किझोरकी भाँति वनमें प्रवेश कर स्थित है," ||१-५॥
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२०६
[ * ]
संणि विरचइ गयउ तहिँ । श्रवासिड महरिसि सम्धु जहिं ॥१॥ वोलाषिय अह "अहो मुणिवरतें। अहहाँ क्याण- परमक्खरहों ॥२॥ परमप्पड अप्पर होषि धिउ । कण केण रिसिवेसु किउ ॥ ३ ॥ अदुल कहें विभशुभसण | के कब्जे विणों अध्पणउ ॥४॥ कहाँ करेड परम-मोक्ष-गमणु । वरि माणिक मणहरु तरुणिषंणु ॥ ५ ॥ सच्छा आय अङ्गहूँ । stee - आहरणाई जोगाएँ ॥ ६ ॥ विष्णिहूँ आएँ डियरूहूँ । हय-गय-रह-वाहण-पचल ॥७॥ सायण रुवई जोग्वणहूँ । फिल हूँ गहूँ तुम्हहँ त ॥८॥
घमचरिउ
धत्ता
सुपसिद्ध होऍ एकेदिवस कल | पुन्हाण किसेसु सयल गिरस्थ गठ" ॥९॥
तो मोक्ष-रुख़-फल-बद्रणेण । "पइँ अप्प का विनय | कहीं वरु कहो पुत कळताहूँ । स- विमाण जाणहूँ जग्गाई । वणवण्ण हूँ बीषिय जोब्बणहूँ ।
।
सण वसुन्धरि घजाई । आयहिं वहुहिं बेयारिय हूँ । सुरवहिँ सहासई पाडिया हूँ ।
[4]
महिपालु युत्तु मइव ॥१॥ अच्छहि सुह-मुषख- करयिउ ||२|| धय चिन्ध चामर छता हूँ ॥ ३ ॥ रह तुख्य- महकाय- दुग्गाई || ४ || जठ फील्ड पाहूँ उबवण ॥५॥
कासु विहन्ति आएँ ॥ ६ ॥ वस्माहँ लक्ख मारियहूँ ||७|| चव - विडियइँ ||८||
घत्ता
एव अपरे व काळे कवलु किय ।
लिय कहीं समाणु एक्कु षि पउ ण गय" ॥९३॥
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२७०
सेत्तीसमो संधि [४] यह सुनकर राजा वहाँ गया कि जहाँ वह महामुनि-संघ ठहरा हुआ था। उसने कहा-"अरे, मुनिवरो! अपण्डित, अज्ञान परमाक्षरो ! तुम स्वयं परमात्मा बनकर स्थित हो। तुमने किस लिए यह मुनि-वेष बनाया ? अत्यन्त दुर्लभ मनुष्यशरीर पाकर किस कारण अपना विनाश करने में लगे हो । परम मोक्षगमन किसका ? अच्छा है यदि सुन्दर तरुणीजनको मानो | तुम्हारे ये सुन्दर कान्तिवाले अंग, सोलह आभूषणोंके पहनने के योग्य हैं। विस्तीर्ण ये कटितल। अश्व-ज-रथ आदि वाहनोंके लिए समर्थ हैं। इस प्रकार तुम्हारा लावण्य रूप और यौवन निष्फल गये। लोकमें प्रसिद्ध एक भी बात तुमने नहीं की। माता-पिताका सब कष्ट व्यर्थ गया" ॥१-५||
[५] तब मोक्षरूपी वृझके फलको बढ़ानेवाले मतिवर्द्धन मुनिने कहा--"तुम अपनेको विडम्बित क्यों कर रहे हो । सुखदुःस्वसे सने बैठे रहो । किसका घर, किसके पुत्र-कलन ? ध्वजचिह्न-चमर और छत्र । विमान सहित योग्य यान, रथ, अश्व, महागज और दुर्ग, धन-धान्य, जीवन, यौवन, जल-कीड़ा, पान और उपचन, आसन, धरती और वन, ये किसीके सहायक नहीं होते। इनके द्वारा बहुत-से विदीर्ण हुए हैं, लाखों पण्डित मारे गये हैं। हजारों सुरपति गिराये गये हैं । सैकड़ों चक्रवर्ती उखाड़ दिये गये हैं। ये और दूसरे भी, काल के द्वारा कवलित हुए हैं। लक्ष्मी किसीके भी साथ एक कदम नहीं गयी" [१-९॥
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पउमचरिद
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परमेसर पुणु बि पुशु वि कहइ । “जिउ तिष्णि अवस्थउ उपहा ॥१॥ उप्पत्ति-जरा-मरणावसरु। पहिएड में णिषन्तु उ देह-घरु ।।२।। पुगाल-परिमाण-सुन धरॅवि। कर-चलण चयारि खम्म फरेंवि ॥३॥ बहु-अस्थि जि अन्तहिं बक्कियउ । मासिटु धम्म-शुह-पक्कियउ ॥३॥ सिर-कलसालटिल संचरह। माणुसु वर-भवणहाँ अणुहाइ ॥५॥ तरुणत्तणु शाम साम यहह। पुणु पच्छएँ जु-भाड छहा ॥६॥ लिक कम्पह जम्पद ण वि वयणु । सुणन्ति फण्ण ण णियह पायणु ॥७॥ ण बहम्ति चलण करन्ति कर । अर-जजरिहोइ सरीक पर ॥॥
घसा पुणु पच्छिम-काले णिव देह-धए । जिड सेम विहान उड्काइ मुवि तरु ।।९।।
संणिसुणे वि णरवइ उवसमिउ । णिय-मान्दणु णिय-पऍ समिमिड॥ ॥ अपुणु पुणु माव-गाइ-गहिउ । णिवन्तु णराहिष-सय-साहिउ ॥२॥ सहि उप-मुहम णिग्गन्ध थिय । कर-कमले हिं केसुप्पाद किय ॥३॥ पुणु सवण-साघु तहाँ पुरवरहीं। गड पम्दणहत्तिएं जिणवरही ॥४॥ सम्मेगहों सन्त जन्म चलिय। पछु छड्वें वि उप्पण पलिय ॥५॥ ते उदय-मुख्य दुइ णियलिय। वसुभूइ-भिल्ल पहिलहें पडिय ॥५॥ भाइड धाणुक्त वड-वहरु । गुलाहल-णयशु पोय-सहरु ॥७॥ पुष्पेकछ-पछु घिर-योर करु । अफालिम पशुहरु गहिर-सरु ॥८॥
पत्ता यहर ण कुहन्ति होन्ति ण जन्जर हड इणइ णिरुसु सप्त-मवन्तर ि॥५॥
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तेत्तीसमो संधि [६] परमेश्वर बार-बार कहते हैं, 'यह जीव तीन अवस्थाएँ धारण करता है। पहले उत्पत्ति जरा और मरणावसरवाला देहरूपी घर निबद्ध होता है। पुद्गल परिमाणरूपी सूत्र लेकर, हाथ पैररूपी चार खम्भे बनाकर, फिर बहुत-सी इड़ियोंको
आँतोंसे ढककर, मांस और हड्डियोंको चर्मरूपी चूनेसे सान दिया गया है। सिर रूपी कलझसे अलंकृत वह चलता है । इस प्रकार मनुष्य वर-भवनका अनुकरण करता है। किसी प्रकार वारुण्यको बिताता है। फिर बाद में जीर्णभावको प्राप्त होता है; सिर काँपता है, शब्द तक नहीं बोल पाता, कान सुनते नहीं, आँखें देखती नहीं। पैर चलते नहीं और हाथ काम नहीं करते । मेवनी बुद्रापले जर्जर हो जाता है। फिर अन्तिम समय शरीररूपी घर ढह पड़ता है, और जीव लसी प्रकार उड़ जाता है, जिस प्रकार वृक्ष छोड़कर पक्षी राष्ट्र जाता है ॥१-९॥
[७] यह सुनकर राजा विजय शान्त हो गया। उसने अपने पुत्रको अपने पदपर नियुक्त कर दिया। वह स्वयं भावरूपी ग्राहसे गृहीत होकर सो राजाओंके साथ दीक्षित हो गया । वहाँ उदित-मुदित भी निम्रन्थ हो गये। उन्होंने अपने कररूपी कमलोंसे बाल उखाड़ लिथे । फिर यह श्रमणसंघ उस नगरसे जिनवरोंकी वन्दना-भक्ति के लिए गया। सम्मेद शिखर तक जातेजाते वे उदित-मुदित मुड़ गये । तथा राजाको छोड़कर उन्मार्गसे चल पड़े। वे दोनों भूले-भटके वसुभूति भीलके गाँवमें पहुँचे । बद्ध बैर वह धनुर्धारी, गुंजाफर के समान आँखोंवाले, शराब पिये हुए, दुदर्शनीय स्थिर और स्थूल वक्षवाले उसने अपना गम्भीर स्वरबाला धनुष आस्फालित किया 1 शत्रुताएँ (बैर) नष्ट नहीं होती और न जीर्ण होती हैं । सात जन्मान्तरोंमें भी आहत व्यक्ति मारता है, ( मारनेवालेको ) ||१-२||
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हकारि विणि विदुरेण । संचारिमरवणय रहो ।
पउमचरित
[4]
"
तं सुर्णेवि महावय धारण "मं मोहि थाहि अण्णों मवहीँ
।
।
तहिं हयूँ बिहु समाषडिएँ । थिङ खन्धु समद्धे चिं एककु जणु जो पुण्य भवन्तरे पक्खिय | से बुइ "लोहा ओसरहि ।
जिय-वयर-बर- विरुद्धएण ॥१॥ कहिँ गम्मइ एवहिँ मडु मरहौं" ॥२॥
""
पावास पर पाठ करेंत्रि । वसुभूइ-भिल्लु वण-जण-परें । णामेण अशुद्ध दुरि । दुलहाँ यि कुल-पन्वग्रहों । ते सुइय तासु जि सणय । गिरि-वीर महोहि हिर-गुण | पामक्किय स्वर्ण- -त्रिचित्त रह । छविस सलेह करें वि । जगन्तु अशुरु डामरिख ।
धीरिड लहुवड वडारपुर्ण ॥ ३ ॥
11
उबसभा सहणु भूसणु तत्रहों ॥
अधुरन्धरें गरुअ-मारे पडिएँ ॥५॥ मिल्लाहिर अमुद्ध रण- मणु ॥६॥ पुरें जाणें परिरक्खियड ॥ ७ ॥ को मार रिसि तु महु मरहि" ॥ ८ ॥
T
वोलाविय तेण कालान्तरेण मय । दय चर्डे वि पिसेणि लीलऍ सम्गु गय ॥ ९ ॥ [ ९ ]
बहु कालु पारस - तिरियहिँ फिरेंषि ॥ १॥ पट्टों उप्पण्णु अरिट्टरें ॥२॥ कणय पह-जणणि जणिय- हरिसु ॥३॥ पण परव पियब्वयहीँ ॥ ४ ॥ विष्णाण कला-पर-पार-गये ॥५॥ पय- पालण रज-कज- गिरण ॥३॥ पउमावसु ससि-सूर-पह ॥ ७ ॥ गड सग्गु विचध्वज तहिँ मरें वि ॥ ८ ॥ रणे रण-विचित्र धरिउ ॥९॥
बता
पहिं तेहि छड्डाविय, डमर ।
डुन अवर-भवेण अग्गिकेट अम्मद ॥ १० ॥
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सेतीसमो संधि
२१. [८] अपने शत्रुके वैरसे विरुद्ध उस दुर्धरने उन दोनोंको ललकारा-"अरे नर और वनचरोंको संचारित करने में समर्थ मुझसे इस समय मरो, कहाँ जाते हो?" यह सुनकर महाबत धारी बड़े भाईने छोटे भाईको धीरज बँधाया "डरो मत, स्थिाः नमो, टपसा सह-: काला धूसरे सवा आभूषण है।" उस वैसे संकट के आनेपर अन्धाधुन्ध घोर भारके आ पहनेपर, एक व्यक्ति अपने कन्धे उठाकर स्थित हो गया, उद्धार करनेकी इच्छा रखनेवाले एक भील राजाने जो कि पूर्व जन्मान्तरमें पक्षी था और यक्षस्थान नगरमें जिसकी रक्षा की गयी थी, कहा-"हे शिकारी, तू इट जा। मुनिको कौन मारता है। तू मुझसे मारा जायेगा।" इस प्रकार उसने हमें छुड़वा दिया। कालान्तरमें वह मर गया और दयाकी नसैनी. से चढ़कर वह लीलापूर्वक स्वर्ग गया ।।५-२।।
[९] पापाशय वह वसुमति भीलराज प्रचुर पाप कर बहुत समय तक नरक और तिर्यच गतिमें घूमकर धनजनसे प्रचुर अरिष्टपुर नगर में जन्पन्न हुआ। नामसे अनुद्धर, अत्यन्त दुदर्शनीय, अपनी माँ कनकप्रभाको हर्ष उत्पन्न करनेवाला। वे उदितमुदित भी, दुर्लध्य अपने कुलरूपी पर्वत राजा प्रियव्रतके पुत्र हुए। जो विज्ञान और कलाकी चरम सीमाको प्राप्त करनेवाले थे। पहाड़की तरह गम्भीर, महोदधिके समान गम्भीर गुणवाले, प्रजाका पालन करनेवाले एवं राजकाजमें निपुण, रलरथ और विचित्ररथ नामसे अंकित, पद्मावतीके पुत्र, चन्द्रमा और सूर्यके समान प्रभाषाले । छह दिनकी संलेखना कर राजा प्रियव्रत वहाँ मरकर स्वर्ग गया। झगड़ा करते हुए भयंकर अनुद्धरको युद्धमें रत्नरथ और विचित्ररथने पकड़ लिया। उन प्रचण्डोंने डमरको छुड़वा दिया। वह दूसरे जन्ममें अग्निकेतु देव हुआ ॥१-१०॥
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पउमचरित
[१०] बहु-काले रपण-विचित्तरह। सट करें विमरवि परिभमें वि पह ॥१॥ उप्पपण वे चि सिस्थपुरें। कण-कण-अण-धण-पय-पडरें ॥२॥ विमलग्गमहिसि-खेमकरहुँ। अवरोप्परु णयण-सुरई ॥३॥ कुलभसणु पढमु पुत् पचरु । लड्डु देसषिसणु एक्कु अवरु |॥॥ अण्णु वि उप्पण्ण एक दुहिय । कमलोच्छच सन्द-चन्द-मुहिय ॥५॥ बेणि मि कुमार साहहि णिमिय । भापरियहाँ कहाँ वि समुहलचिय ॥६॥ पढमाण जुवाण-भाई चडिय। गं दइवें वे अणङ्ग पढिय ॥॥ विस्थय-वच्छयल पम्प-भुभ। णं गम्गहाँ इन्द-पडिन्द चुन्न ॥८॥
कमलोच्छष ताम कहि मि समावदिय । णे चम्मह-भल्लि हियएँ शान्ति पदिय ॥९॥
[ 1] कुलमसण-देसविहसणहुँ। णिय-वहिणि-रूव-पेसिप-मणा ॥१॥ पडिहाइ सम्दश-लेव-छवि। धवलामल-कोमल-कमलु ण वि ॥२॥ गवि जलु अलर दाहिण-पवणु । कुसुमाउहेण ण परिउ कवणु ॥३॥ पेक्खेपिपणु पयइँ सु-कोमल हैं। ण सहन्ति रूप-रत्तप्पलहूँ | पेपरनेकि थणषट सक्कलई उचिट्ट करिकुम्मस्थलइ ॥५॥ पेक्षेपिशु मुहु पालहें तणउ। पडिहाइ ण चन्दशु चन्दिणउ ॥६॥ लोयण रूवे पनुताई। ढोरा इव करमें खुसाइँ १०॥ पेषस्वेपिणु केस-कलाउ भणे। सुहन्ति मोर णचन्त प्रणें ॥६॥
पत्ता दिष्ठि-विस बाल सप्पहाँ अणुहरछ । जो जोह को वि सो सपलु चि मरइ । ९॥
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देतीसमो संक्षि
११३ [१०] बहुत समय के बाद, रत्मरथ और विचित्ररथ धामी सपकर, पथपर परिभ्रमण कर और मरकर अन्नकण स्वर्ण जन धन और प्रजासे प्रचुर सिद्धार्थपुरमें उत्पन्न हुए, एक दूसरेके लिए शुभंकर अग्रमहिषी विमला और क्षेमकरसे । कुलभूषण पहला पुत्र था और बड़ा था। एक और छोटा देशभूषण पुत्र हुआ। उसके एक और कन्या उत्पन्न हुई-कमलोत्सवा नामकी सुन्दर चन्द्रमुखी। दोनों कुमार शाला ले जाये गये
और किसी आचार्यको सौंप दिये गये। पढ़ते हुए वे योपनको प्राप्त हो गये, मानो दैवने दो कामदेवोंको गढ़ दिया हो। विशाल वक्षःस्थल और प्रलम्ब बाहु वे ऐसे लगते थे मानो स्वर्गसे इन्द्र और प्रतीन्द्र ध्युत हुए हों। इतने में कमलोत्सवा कहींसे उन्हें दिखाई पड़ गयी मानो कामदेवकी मल्लिका ही, शीघ्र उनके हृदयपर गिरी हो ।।१-२||
[११] अपनी बहनका रूप देखनेका जिनका मन है, ऐसे कुलभूषण और देशभूषणको चन्दन लेपकी छवि अच्छी नहीं लगती थी, और न ही धवल अमल कोमल कमला न जल ही, और न जलाई दक्षिण पवन । यताओ कामदेवके द्वारा कौन नहीं प्रबंचित किया गया। उसके सुकोमल पद देखकर कान्तिसे लाल कमल उसे अच्छे नहीं लगते। रसके गोल-गोल स्तन देखकर हाथीके कुम्भस्थलं जूठन मालूम होते थे । स बालाका मुख देखकर चन्दन और चाँदनी अच्छी नहीं लगती। उसके रूपमें गड़े हुए नेत्र कीचड़में फैले हुए. ढोरके समान थे। उसके केशकलापको देखकर वनमें नाचते हुए मोर. अक्छे नहीं लगते। उसकी दृष्टिका विष बालसर्पका अनुकरण करता है। जो कोई उसे देख लेता है. वह मरने लगता है ॥१.२।
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पडमचरित
[१ ] सहि अबसरे पणइहिं पहु मणिड । खेमकर नुहुँ जमणि अणि ॥१॥ नाएँ मरिश धण्णा ए ! सालोव दहिस जास पवर ॥२॥ मुल-देस बिहसण जमल सुय । तं णिसुणे वि णा कुमार मुग ॥३॥ हय-यिय का चिन्तबसि राहूँ। पारिजाइ जेहिं महन्तु कुहु ॥३॥ खल-खुद दुक्किम-मारा। णारइय गरय-पइसारा ॥५॥ गय-बाहि-दुपरण-सकाराई। सिथ-सासय-गमण-णिचारा ॥६॥ तित्थकर-गणहर-णिन्दियई । परउ खहि पञ्च-वि-इन्दियह ॥७॥ रूपेण पय? मीणु रसण । मिगु सवर्ण भसप्लु गन्धवसण ॥८॥
घचा
फरिसेण विणासु मत्त-गइन्दु गउ । जो सेवा पञ्च वहाँ उत्तारु कर ॥९॥
[१३] तो किय णिबित्ति परिणेवाही। सावजु रज्ज भुम्जेवाहाँ ॥५॥ पारमधु पयाणउ तष-पहेंण । णिय-हमएण महारहेण ॥२॥ विहि पिण्णाणिय उप्पारऍण। दुइट-कम्म-पच्छाइण ॥३॥ हन्दिय-तुरह-संचालिऍण । सविह-धाउ-बन्धालिऍण ॥४॥ चल-चलण-चक्क-संजोइगण । मण-पक्कल-सारहि-चोइऍण ॥५॥ तव-संजम-णियम-धम्म-मरण। आइय णिय-णिय-तणु-रहवरेण ॥६॥ श्रिय परिमा-जोग, गिरि-सिहरें। सो अग्गिकेट तेहएऽवसरें ॥४॥ संचलित महङ्गणे कहिँ वि जाम 1 गइ भम्हह उपपरि सलिल ताम ॥८॥ पुटवभउ सरेंवि कोह जलिर। बिउ रुन्धेवि पाहयले किलिकिलिल ५॥ उपसगु जाम पारम्भियउ । बहु-रूहि गयणे वियस्मियड ॥१॥
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तेतीसमी संधि
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[१२] उस अवसरपर बन्दीजनोंने राजासे कहा - "हे क्षेमंकर! सचमुच तुम्हीं मातासे उत्पन्न हुए हो। तुम्हीं पृथ्वीपर एकमात्र धन्य हो जिसकी प्रवरको जामको सुन्दर कन्या हूँ !" यह सुनकर कुलभूषण और देशभूषण दोनों जुड़वा कुमार मानो मर गये । "हे इतहृदय, तुम क्या सोच रहे हो ? इससे तुम महान् दुःख प्राप्त करोगे ? ये इन्द्रियाँ खल भुद्र पाप करनेवाली, नारकीय नरक में प्रवेश करानेवाली, रोगव्याधि और दुखोंको बुलानेवाली, शिवके शाश्वत गमनका निवारण करनेवाली है। तीर्थकर और गणधरोंके द्वारा निन्दित इन पाँच इन्द्रियों में (हे मेरे मन तुम ) मत सनो । रूपसे पतंग, रस से मछली, शब्दसे मृग, गन्धके यशसे भ्रमर, स्पर्श से मतवाला राज विनाशको प्राप्त होता है। लेकिन जो पांचों इन्द्रियोंका सेवन करता है, उसका निस्तार कहाँ ?" ॥१-९२॥
[१३] तब उन दोर्मोने विवाह तथा पापमय राज्यके भोगने से निवृत्ति ( संन्यास ) ले ली। उन्होंने तपके पथपर अपने शरीररूपी रथ द्वारा जाना शुरू कर दिया। कि जो विधिरूपी (विधातारूपी) विज्ञानी के द्वारा उत्पादित है, दुष्ट आठ कर्मों से प्रच्छादित है, इन्द्रियरूपी घोड़ोंसे संचालित है, सात प्रकारकी धातुओंसे बँधा हुआ है, चंचल चरणरूपी चक्रोंसे संयोजित है, मनरूपी मुख्य सारथि से प्रेरित है, तप-संयम-नियम और धर्मके भारसे भरा हुआ है; ऐसे अपने-अपने शरीररूपी रथवर से हम लोग (यहाँ ) आय; और पर्वत के शिखरपर प्रतिमायोगसे स्थित हो गये। उस अवसरपर वह अग्निकेतु आकाशके प्रांगण से कहींके लिए चला। हमारे ऊपर से जाते हुए वह स्खलित हो गया । पूर्वजन्मके वैरकी याद कर वह क्रोधसे प्रज्वलित हो उठा। आकाशमें अवरुद्ध होकर वह किलकारी भरने लगा । जैसे उसने उपसर्ग प्रारम्भ किया वह अनेक
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पउमचरित पतिवण्णएँ तहिं तेहऽवसरें। बदन्तएँ गुरु-उनसम्ग-भरें ॥११॥ तुम्हह में पहा सट्टाह। असुरई धणु-रवण पणहाई ॥१२॥
पत्ता तो अम्हह वपु कालन्तरण मुउ । सो दीसह पत्थु गारटु देउ हुउ ॥१३॥
[१४] तो गर परिश्रोसिय-मणण! वे विजउ दिपणउ तफ्षणेण ॥१॥ राहवहाँ साहबाइणि पछर। लपवणहाँ गरबाइणि अवर ॥२॥ पहिलारी सत्त-सएँ हिं सहिय । अशुपच्छिम तिहि स हि अहिय ॥३॥ तो कोसल-सुऍण सु-दुलहॅण। कुछइ वहदेही-बल्लहण ॥४॥ 'अच्छन्तु साव तुम्हहुँ जें घर। भवसर पडिवपणे पसाउ फरें ॥५॥ सहुँ गरु समासणु करें वि। गुरु पुग्छिन पुणु चलण हि धरवि ॥६॥ 'अम्हहुँ हिण्डसहुँ धरणि-बाहे। जं जिम होसइ त तेम कह ॥७॥ कुलभूसणु अक्खह हलहरहीं। 'बलु को चि पाहिण-सायरहों ॥८॥
धत्ता मंगाम-सया विहि मि जिणेवाई। महि-खण्ड सिणि स ई भुजेवाइँ ॥१॥
चउत्तीसमो संधि
कैवलें केवलीहें उप्पपणएँ घरविह-देव-णिकाय-पवण्याएँ। पुष्छद रामु महावय-धारा 'धम्म-पाव-फलु काहि भवारा "
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२१०
सउत्तोसमी संधि रूपों में आकाश में फैलने लगा; उस वैसे कठिन अवसरपर, उस भारी उपसर्गके होनेपर, तुम्हारे प्रभावसे वे त्रस्त हुए, और धनुषकी टंकारसे असुर भाग खड़े हुए। तब हमारे पिता कालान्तरमें मर गये । वही इस समय गरुड़देव के रूपमें उत्पन्न हुए दिखाई दे रहे हैं ॥१-१३॥
[१४] तब उस गरड़ने परितोषित मनसे तत्काल दो विद्याएँ दी । रामके लिए प्रवर सिंहवाहिनी, और लक्ष्मणके लिए दूसरी गरुड़वाहिनी । उनमें पहली सात सौ शक्तियों के साथ थी, दूसरी तीन सौ शक्तियोंके साथ | तब दुर्लभ कौशल्याके पुत्र और जानकीके पति राम कहते हैं, "तब तक आप अपने घर रहें और अवसर आनेपर हम पर कृपा करें।" इस प्रकार गरुड़से सम्भाषण कर और गुरुके चरणोंको पकड़कर रामने फिर पूछा-"धरणी पथपर घूमते हुए हम लोगोंका जिस प्रकार जो होगा, वह उस प्रकार बताइए।" कुलभूषण रामसे कहते हैं-"दक्षिण समुद्रके अलका उल्लंघन कर तुम दोनों सैकड़ों संग्राम जीतोगे और तीन खण्ड धरतीका स्वयं भोग करोगे" ॥१-९॥
चौंतीसवीं सन्धि
केषलीको केवलज्ञान उत्पन्न होने, और चार प्रकारके देवनिकायोंके घले जानेपर राम महानतोको धारण करनेवाले कुलभूषण देशभूषणसे पूछते हैं-हे आदरणीय, धर्म और पापका फल बताइए।"
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२१८
पजमचरित
का फलु पञ्च-महत्वपहुँ। भणुप्रय गुणवय-सिक्खावय? ॥५॥ का फलु लाइ अणमि । उपवास-पोसव संथविऐं ॥२॥ फल कहूँ जीव सम्मीखियएँ। परहणे परदारे अहिं सियएँ ॥३॥ काइँ फलु सच्चे बोलिएण। अलिअक्षरेण आमेशिएंण ॥४॥ का फलु जिणवर-अशियएँ। दर-विडले घरासणे रश्चियएँ ॥५॥ काइँ फलु मासे छपिडण । रत्तिरित देहें दरिद्वाण ॥३॥ का फल जिण-समजणण। यलिन्दीबङ्गार-बिलेवण ॥७॥
घत्ता किं चारिसे णाणे व दसणे अण्णु पससि जिगषर-सासणें । के फल होइ मण-विधारा संविण्णासें कि कहहि मण्डारा ॥४॥
पुणु पुणु घि पडीवड मणइ पलु । 'कहें सुक्रिय-दुनिय-कम्म-फलु ॥१॥ कम्मेण केण रिङ-उमर-कर । सयरायर माह भुञ्जन्ति र ॥॥ कम्मेण केण पर-चक्र-घर । रह-तुरब-गएँ हिं बुज्यन्ति गर ।।३।। परियरिय सु-णारिहिं णरचर हिँ।। विजिनमाण वर-नाम हिं ॥४॥ सुन्दर सन्द मन्द जिह ।। जोह हिं जोड़ घुज्झन्ति किह ॥५॥ कम्मेण केण किय पॉलय । जर कुण्ट मण्ट बहिरन्धलय ||६|| काणीप दीण-मुह-काय-सर । शाहिल मिल्छ णाहल सर ॥७॥ दालिद्दिय पर-पेसणहै कर । क कम्म उपजन्ति पर ॥८॥
धत्ता
धीर-सरीर वीर तव-सूरा सम्ब? जीव आसाजरा । इन्दिय-पसवण पर-उपपारा ते कहिं णर पावन्ति महारा ॥९॥
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समो संधि
२१९
[१] पाँच महाव्रतों का क्या फल है, अशुत्रत, गुणत्रत और शिक्षायतका क्या फल है १ अनर्थदण्ड व्रत लेनेका क्या फल होता है ? उपवास और प्रोषघोपवास करनेका क्या फल होता है ? जीवोंको अभय देनेका क्या फल हैं ? परधन और परस्त्रीकी हिंसा न करनेका क्या फल है ? सच बोलनेका क्या फल हैं ? झूठे वचन छोड़नेका क्या फल हैं? जिनवरकी पूजा करनेका क्या फल है ? जिनके सम्मार्जन, नैवेद्य, दीपांगार और विलेपनसे क्या फल होता है ? चारित्र, ज्ञान, व्रत और दर्शनमें क्या फल है । अन्यके द्वारा प्रशंसित तथा जिनवर शासन में जो फल है, हे कामदेवका नाश करनेवाले आदरणीय, उसे आप विस्तार से बताइए ? ।।१-८||
·
[२] राम पुन: पुन: बार-बार कहते हैं- 'पुण्य-पाप, कर्म-फल को बताए । किस कर्मसे मनुष्य शत्रुके लिए भयंकर सचराचर धरतीका भोग करते हैं। किस कर्मके उदयसे शत्रु चक्रको धारण करनेवाले होते हैं। तथा रथ, घोड़े और गजके द्वारा जाने जाते हैं । सुन्दर नारियों और नरवरोंसे घिरे हुए, श्रेष्ठ चामरोंसे हवा किये जाते हुए मनुष्य होते हैं ? सिंहके समान स्वच्छन्द और सुन्दर योद्धा योद्धाओंसे किस प्रकार युद्ध करते हैं। किस धर्म से मनुष्य पंगु, कुबड़ा, बौना, बहिरा और अन्धा होता है | कानीन, दीन मुख, शरीर और स्वरवाला, व्याधिग्रस्त, भील, नाहल, शवर, दरिद्र, दूसरोंकी सेवा करनेवाला किन कमोंसे स्पन्न होते हैं। धीरशरीर, वीर, तपशूर सब जीवोंकी आशा पूरी करनेवाले, इन्द्रियों को शान्त करनेवाले, और परोपकारी, हे आदरणीय, ऐसे मनुष्य कहाँ पाये जाते हैं ? ||१९||
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१२०
पउमचरित
के बि अण्ण पर दुइ-परिचता। देवलोएँ देवत्तणु पचा ॥३॥ चन्दाइच-राहु-अङ्गारा। अहाँ अण्ण होन्ति कम्मारा ॥२॥ हंस-स-मेस-महिस-विस-कुम्जर। मोर-तुरङ्गा-रिजल-मिग-सम्बर ॥३॥ बह देवहुँ जें मजा संमा। तो किं कर वाहण दमा In ऍहु जो दीसह कुलिस-प्पहरणु । सहसणयणु महावष-वाहणु ३५॥ गिजा किष्णर-मिगुण-सहासें हिं। सुरवर जय भणम्ति घउपासें हिं ॥६॥ हाहा-हनुम्बुरुणारा। सेजा-तेण्णा जसु चकारा ॥७॥ चित्तको वि मुरब पडिपेलाइ । रम्म तिलोप्तिम सह उग्वेला ॥८॥
घत्ता अपणु असुर-सुर? अब्भन्तर मोक्नु जेम थिउ सम्पहुँ उम्परें। दोसह जसु एबहु पछुतणु पत्तु फलेण कण इन्दत्तणु' ॥९॥
सं वयणु सुणे वि कुलसणेण । कन्दप्प-दप्प-विद्धसणेण ॥३॥ सुणु अक्षमि बुबइ सेण वलु। आयपणहि धम्माँ सणउ फलु ॥२॥ महु मज्जु मंसु जो परिहर ।। छजीव-णिकरयहाँ दय करह ॥३॥ पुणु पच्छह सालेहण मरई। सो मोक्ख-महा-पुरे पडसरह ॥४॥ जो घहुँ दरिसावह पाणिवह। अण्णु वि मह-मसरों तणिय कह ॥५॥ सो जोणी खोणि परिम्भमा चउरासी लक्ष जाम कमाइ ॥३॥ ऍउ सुकिय दुक्किय कम्म-फलु। सुणु पवहिं पञ्चहाँ तणउ फलु ||७॥ तुल-सोलिय महि स-महोहरिय। स-सुरासुर स-घण स-सायरिय ।। ८॥
पत्ता वरुण कुषेर मेरु कइलामु वि सुल-तोलिउ तइलोक्कु असेसु वि। सो वि ण गरुवसणउ पगासिउ सषु स-उसर सबह पासिउ ॥९॥
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૨૨૧
चडतोसमी संधि [३] दुखसे रहित, दूसरे कोई मनुष्य देवलोकमें देवत्वको प्राप्त होते हैं। चन्द्र-सूर्य और राहु-मंगल, कर्म करनेवाले अन्यसे अन्य हो जाते हैं । इंस, मेष सहित महिष, वृषभ और गज, मयूर, घोड़ा, रीछ, मृग और साम्भर जो यदि देवोंके मध्यमें उत्पन्न होते हैं तो चे किस कारणसे पाइन हुए हैं ? यह जो वन हथियार दिखाई देता है, इन्द्र और ऐरावत हाथी है । जो हतारों किन्नर जोड़ोंके द्वारा गाया जाता है, बड़े-बड़े देव जिसके चारों ओर जय-जय बोलते हैं; हा-हा हू-हू बोलते हुए तुम्बर नारद तेज्ज और तेण्ण जिसके चाकर हैं। जिसके यहाँ चित्रांग भी मृदंग बजाता है ? रम्भा, तिलोत्तमा और इन्द्राणी, जो स्वयं असुरा और सुरों के भीतर उसी प्रकार स्थित है, जिस प्रकार मोक्ष सबके ऊपर स्थित है। जिसकी प्रभुता इस प्रकार दिखाई देती है वह इन्द्रत्व फल किस कर्मके फलसे प्राप्त किया जाता है ॥१-२॥
E] यह वचन सुनकर कामके दर्पका ध्वंस करनेवाले कुलभूषणने कहा, "हे राम सुनो, जिस प्रकार धर्मका फल कहा जाता है उसे सुनो। जो मधु, मद्य और मांसका परित्याग करता है, छहों निकायोंके जीवोंपर दया करता है, फिर बादमें संल्लेखनापूर्वक मरता है, वह मोक्ष महापुरी में प्रवेश करता है । जो प्राणिवध दिखाता है, और मधुमासकी कथा करता है, वह योनि योनि घूमता है, और चौरासी लाख योनियों में जाता है । यह सुकृत और दुष्कृत कर्मका फल है । अब सत्यका फल सुनिए-महीधर, सुरासुर, धन और सागर सहित तुलापर दौली गयी धरती; वरुण, कुबेर, मेरु, कैलाश और तुलापर तौला गया अशेष त्रिलोक भी हो, उनसे गुरुत्व प्रकाशित नहीं होता। सबकी तुलनामें सस्थ सबसे ऊपर है. ॥१-२।।
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२२२
परमचरित
[५] जो सखद ण चवह कापुरिसु। सो जीवई अण्णव सिण-सरिसु ॥१॥ जो पर पर-दग्बु ण अहिलसह। सो उत्तिम-सम्ग-लो घसइ ॥२॥ जो घइ रतिक्षिण मुढ-मणु । चोरम्मु ण धकाइ एकु खणु ॥३॥ सो हम्मइ छिज्जा मिखा घि। कपिजह सूले मरिज वि ।।४।। जो दुबरु वम्मचेर धरह। वहाँ जमु आक्टूड किं करइ ॥५॥ ओ धइँ नै जोणि चारु रमइ। सो पकएँ भमरु जेम मरह जो करइ णियित्ति परिग्गहहौँ। सो मोक्यहाँ जाइ सुल्नु वहाँ ७॥ जो घर अधिगहु परिगहों। सो जाइ पुरहों समतमपहा ॥६॥
वत्ता अहबइ णिणिजइ केसिड एककहाँ वयहाँ फलु एसिड । जो घइँ पञ्च वि धरइ बगाई तासु मोक्नु पुरिछाइ काइँ ॥२॥
[६] फलु पत्तिउ पञ्च-महम्चयहीं। सुणु एहि पञ्चाणुञ्चयही ।।१।। जो करह पिरन्तर जीव-दया । पविरल असच्चु सम्बट मि सया ॥२॥ किस हिस अहिंस सत्तरिय । ते णरय-महाण-उत्तरिय ॥३॥ जे पर स-दार-संतुट्ठ-मण । परहण-परणारा-परिहरण ॥४॥ अपरिग्गाद-दाण-करण पुरिस । है हेन्सि पुरन्दर-समसरिस ॥५|| फल एत्तिट पञ्चाणुग्वय हुँ। सुशु एहि तिहि मि गुणवयहुँ ॥१॥ दिस-पचक्लाणु पमाण-बउ । खल-संगहु जासु पा वढियउ ॥७॥
घत्ता
इप तिहिं गुणवएहिं गुणवन्त अच्छष्ट सग्गे सुहई भुअन्तउ। मासु ण लिहि मि मौं एडवि गुण तहाँ संसारहों केज' कहिं पुश ॥६॥
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चीसमो संधि
२२३
[५] जो कायर पुरुष सत्य नहीं बोलता वह लोगोंके बीच तिनकेके बराबर है। जो मनुष्य दूसरे बनकी आशा नहीं करता, वह उत्तम स्वर्गलोक में निवास करता है । जो रातदिन मूर्ख मन है, चोरी करते हुए एक क्षण नहीं थकता बहु मारा छेदा और भेदा जाता है । काटा जाता और शूलीपर चढ़ाया जाता है। जो दुर्धर ब्रह्मचर्य धारण करता है, यम भी उससे रूठकर क्या कर सकता है ? जो उस सुन्दर योनिमें रमण करता है, वह कमलमें भ्रमर की तरह मृत्युको प्राप्त होता है। जो परिग्रहको निवृत्ति करता है०त करता है। जो परिभ्रह से अतृप्त रहता है वह तमन्तमप्रभा नरकमें जाता है । अथवा कितना वर्णन किया जाये, एक-एक व्रतका इतना फल होता है, जो पाँचों व्रत धारण करता है उसके मोक्ष के विषय में क्या पूछना १ ॥१-२।।
[६] पाँच महात्रतों का इतना फल है । अब पाँच अणुव्रतोंका फल सुनिए । जो निरन्तर जीवदया करता है, कभी-कभी असत्य परन्तु सदा सच बोलता है, थोड़ी हिंसा, किन्तु अहिंसा अधिक करता है, वह नरकरूपी महानदी पार कर लेता है। जो मनुष्य अपनी पत्नी से सन्तुष्ट मन हैं, परधन और परनारीका परि हार करते हैं, जो अपरिग्रह और दान करनेवाले पुरुष हैं वे इन्द्रके समान होते हैं । पाँच अणुव्रतों का इतना ही फल हैं। अब तीन गुणव्रतोंका फल सुनिए । दिशा- प्रत्याख्यान
त, ( दिग्व्रत ) भोगोपभोग परिमाण व्रत ले लिया, और जिसका दुष्टों का संग नहीं बढ़ा। इस प्रकार तीन गुणव्रतों से गुणवान् व्यक्ति सुखभोग करता हुआ स्वर्ग में जिसके तीनोंमें से एक भी गुण नहीं है उसके संसारका अन्त नहीं 2112-411
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२२
परमधरित
[-] फल एनिट निहिलिगणमई। मु एव चन-सिक्खापयहुँ ।।५।। जो पहिलउ सिक्खायउ धरह। जिणषरें सिकाल-वन्दण करइ ॥२॥ सो णरु उपना जहिं जें जहि । वन्दिशह लोहि तहि जें बर्हि १२॥ जो घर पुणु बिसयासत्त-मशु। परिसही चि पप पेच्या जिण-मवणु। ४ ॥ सो सावद माण सावय। भणुहरइ णवर वण-साषय? ॥५॥ लो बोबड सिक्षादड जरद्ध । पोसह-उपवास-सयई कर ॥६॥ सो पारु देवत्तशु अहिलसह । सोहम्म बहुव-मजन रमह ॥७// जो तइयर सिक्खाबउ धरह । वसिहि आहारदा करह ॥८॥ अण्णु वि सम्मत्त-मार बहई। देवसणु देवलोएँ कहइ ॥९|| जो चाउथउ लिक्खाबड धरह ।। सपणासु करेपिणु पुशु मरह ॥३०॥ सो होइ तिलोयही वडियउ। णउ जम्मण-मरा-विओअ-भउ ॥१३॥
पत्ता सामाइड उम्मघासु स-मोयणु पच्छिम-काले अण्णु सल्लेहणु । चउ सिक्खावयाई जो पालइ सो इन्दहाँ इन्दसणु दालइ ।।१२॥
[८] ऍड फलु सिक्खावएँ संथविएँ। सुणु एबहिँ कहमि अणधमिएँ ।।१॥ वरि वधु मंसु वरि मनु महु । चरि अलिड वयणु हिसाएँ सहुँ ॥२॥ वरि जीविउ गउ सरीरु सहमिठ। उ स्याणेहि मोयणु अहिलमिड ॥३॥ पुष्यण्णउ गण-गन्धन्वयहुँ । मजहर सम्बहुँ दंषयहुँ ॥३॥ अवराहट पियर-पियामहहुँ । णिसि रक्खस-मय-पेय-माहहूँ ॥५।। प्रिंसि-मोगणु-जेण ण परिहरिउ। मणु तेण काइ ण समायरिट ॥६॥ किमि-कोह-पय-सय असई। कुसरीर-कुजोणिहि सो बसह |
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उतोसमी संधि
२१५
[७] तीन गुणव्रतों का इतना ही फल है । अब चार शिक्षा व्रतोंको सुनिए । जो पहला शिक्षाव्रत धारण करता है, जिनवरकी तीन काल बन्दना करता है, वह मनुष्य जहाँ-जहाँ उत्पन्न होता है, वहाँ वहाँ लोगों द्वारा उसकी वन्दना की जाती है । जो विषयों में आसक्त-मन है, जो घर के भी जिनमन्दिरको नहीं देखता, वह श्रावकों के भीतर श्रावक नहीं है, यह केवल वनशृगालोंका अनुकरण करता है। जो दूसरे दूसरे शिक्षाव्रतको धारण करता है, सैकड़ों प्रोषधोपवास करता है, वह मनुष्य देवत्वको प्राप्त करता है, और सौधर्म स्वर्ग में बहुतों के साथ क्रीड़ा करता है। जो तीसरा शिक्षाव्रत धारण करता है, तपस्वियोंके लिए आहारदान देता है, और भी सम्यक्त्वका भार वहन करता है; वह देवलोकमें देवत्व प्राप्त करता है । जो चौथा शिक्षाश्रत वारण करता है और फिर संन्यास धारण कर भरता है वह तीनों लोकोंमें बड़ा होता है उसे जन्म, जरा, मरण तथा बियोगका भय नहीं रहता। सामायिक, भोजन सहित उपवास, और अन्तिम समय संलेखना करता है। इस अकार जो चार शिक्षाव्रतों का पालन करता है वह इन्द्रके इन्द्रत्व टाल सकता है ॥१-१२ ।।
[2] शिक्षाव्रतका इस प्रकार फल कहनेके बाद सुनो अब अनर्थदण्ड बताता हूँ । खाया हुआ मांस अच्छा, मधु और मय अच्छा, हिंसा से सहित झूठ वचन अच्छा, गया हुआ जीवन अच्छा, गिरा हुआ शरीर अच्छा, लेकिन रात्रिमें चाहा गया भोजन अच्छा नहीं । पूर्वामें गण गन्धर्वोका, मध्याह्नमें सब देवोंका, अपराह्न में पितर- पितामद्दोंका, रात्रिमें राक्षस, भूत-प्रेत ग्रहोंका भोजन होता है। जिसने रात्रिका भोजन नहीं छोड़ा, बताओ उसने क्या नहीं किया ? वह सैकड़ों कृमियों, कोटों और पतंगोंको खाता है तथा खोटे शरीर और योनियोंमें
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२२६
पउमचरित्र
जो घई णिसि-भीषणु उम्मदछ। बिमलत्तणु शिमल-गोतु लहह' ॥४॥
धत्ता
सुअउ ण सुण ण दिवउ देक्षह केणवि वोचिड कहाँ षि ण अक्रमइ । मोमण मदणु चउस्थत पासाइ सो सिव-सासय-गमणु णिहाला ॥५॥
[५] परमेसरू सुद्छु एम कहा। जो जं मग्गइ सो तं लहइ ।।१॥ सम्मप्सह को वि को वि वयह। कों वि गुण-गण-धयण-रयण-सयई ॥२॥ तपचरणु इजा पस्थिवेण। सस्थल-प्पयर-णराहिण ।।३।। गय पन्दणहति करेवि सुर। जाणइ धरिनइ धम्म-धुर ॥४॥ राहवेंण वि षयह समिरिठयह 1 सुरु-दिगई सिरण परिच्छियई ॥५॥ वडणवर ण थाइ लक्षणहो। वालुलपह-णरय-णिरिपखगहों ॥६॥ तहि सिणि विकष्ट वि दिवस थिय । जिण-पुज्जन जिण-गवण कियाई ॥७॥ णिग्गन्थ-सयाँ मुआवियई। दीणहँ दाणवेवावियई ॥४॥
घत्ता निहुअण-जण-मण-णायणाणन्दहाँ घग्दणहत्ति करेवि जिणिन्दहों। जागइ-हरि-दलहरई पहिहइ तिणि वि दपदारण्णु पइट्टई ॥१॥
[१०] दिट्ट महाडइ णाई विलासिणि। गिरिवर-थणहर-सिहर-पगासिणि ॥an पश्चाणण-गह-णियर-वियारिय। दीहर-सर-लोयण-विष्कारिप ॥१॥ कन्दर-दरि-मुह-कुहर-विहसिय । सरबर-रोमावलि-सिय ॥३॥ चन्दण-अगरगन्ध-विविद्धिक्किय । इन्दगोव-कुकुम-चचिक्किय ॥४॥ अहवह किं बाहुणा विस्थाएँ। ण णइ गय-पय-संचारें ॥५॥ उज्झर-मुरवपफालिय-स। परहिण-थिर-सुपरिट्टिय-कन्वें ॥६॥
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घउसोसमो संधि रहता है, जो रात्रिभोजन छोड़ देता है, वह विमल शरीर और विमल गोत्र प्राप्त करता है। जो सुना हुआ भी नहीं सुनता, देखा हुआ भी नहीं देखता, किसीके द्वारा कहे गये को किसीसे नहीं कहता, भोजनमें मौन ( चौथा अनर्थ दण्ड ) का पालन करता है, वह शिचके लिए शाश्वत गमनको देखता है ।।१-९।।
[९] परमेश्वर अच्छी प्रकारसे यह कहते हैं. जो जिस अतको मागता है, वह उस मिलता है। कोई सम्यक्त्वको, कोई अत्तोंको, कोई गुणगणों और शब्दरूपी सैकड़ों रत्नोंको ग्रहण करता है । वंशस्थल नगरके राजाने तपश्चरण प्रहण कर लिया । देवता वन्दनाभक्ति करके चले गये। जानकीने धर्मको धुरी शीलवत ग्रहण कर लिया। राधवने भी व्रतोंको चाहा, और गुरुके द्वारा प्रदत्त उन्हें सिरसे स्वीकार कर लिया। लेकिन बालुकाप्रभ नरकका निरीक्षण करनेवाले लक्ष्मणके पास कोई व्रत नहीं ठहर सका। वे तीनों कई दिनों तक वहाँ ठहरे, तथा जिनपूजा और जिनाभिषेक करते रहे। सैकड़ों दिगम्बर मुनियोंको आहार करवाया और दोनोंको दान दिलवाया । इस प्रकार त्रिभुवनके जनोंके मनों और नेत्रोंको आनन्द देनेवाले जिनेन्द्रकी वन्दनाभक्ति कर सीता, लक्ष्मण और रामने प्रस्थान किया और वे तीनों दण्डकारण्यमें पहुँचे ।।५-९।। __ [१०] वह महाटवी उन्हें विलासिनीकी तरह दिखाई पड़ी। जो गिरिवरके स्तनरूपी शिखरोको प्रकाशित कर रही थी, जो सिंहोंके नखसमूहसे विदारित थी, जो दीर्घ सरोवररूपी नेत्रोंसे विस्फारित थी, जो गुफा घाटियोंके मुख कुहरसे विभूषित और वृक्षरूपी रोमावलिसे शोभित थी। चन्दन और अगरुगन्धसे सुवासित थी, इन्द्रगोपरूपी ( वीरबहूटी) केशरसे चर्चित थी। अथवा अधिक विस्तारसे क्या! मानो वह हाथियोंके पैरके संचार, निर्झररूपी मृदंगोंके शब्द, मयूरोंके
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११८
परमचरित ममरि-विष-उवगीय-वमाले। अहिणव-पल्लव-कर-संचाः ॥७॥ सीहोरासिटिम-महान नायर ह-िगवना ॥४॥
घत्ता तहाँ भरमन्तरें अमर-मणोहरु णयण-कक्लिड एक्कु झधाहरु । तहिं रह करें वि घियह सच्छन्दई जोगु कएविशु जेम मुणिन्दई ॥९॥
[1] तेहिं तेहएँ वणे रिड-इमर करु । परिममइ समुदायत-धर ॥१॥ भारण्ण-गइन्दै समारुहइ । घण-गोवज वण-महिसिउ दुइ ॥२॥ तं खीरु चि चिरिडिहिल्लु महिउ । जाणइहें समप्पइ धिय-सहिउ ॥३॥ स वि पक्षावह घण-हण्डियहि। वण-धपणन्दुले हि सुकण्टिऍहिं ॥४॥ जाणाविह-फल-रस-तिम्मणे हिं। करवम्द-करोहिं साकणे हि ॥५॥ इय विविह-मक्ख भुगताई। घण-वासें तिहि मि अच्छन्ताहुँ ॥६॥ मुणि गुप्त-सुगुत्त ताव महय। असुदाणिय दोड-महत्वाइस ॥७॥ कालामुह-कावालिय भगद। मुणि संकर रावण तवसि गुरव ॥८॥
पत्ता वन्दाइरिय भोय पब्वइया हवि जिह भूइ-पुस-पच्छविया । ते झर-जम्मण-मरण्य-विधारा षण-चरियएँ पइसन्ति मधारा ॥१॥
[ २ ] शं पइसन्त पदीसिय मुणिवर। सापय जिह तिह पणविय तरुवर ॥१॥ मलि-मुइलिय खर-पवणायम्पिय । 'थाहु थाहु' णं एम पसम्पिय ॥२॥ के वि सुम-प-भारु मुन्ति । पाय-पुजणं विहि मि करम्ति ॥३॥
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पड़तीसमो संधि स्थिर और अच्छी तरह प्रतिष्ठिव छन्द, मधुकरीरूपी नियोंके कोलाइल तथा अभिनव पल्लासपी हामोदे संचाइनो गानो बह नृत्य कर रही थी। सिंहोंकी गर्जनाओंसे उठा हुआ कलकल शब्द ऐसा लगता था, मानो वह मुनिसुव्रत तीर्थकरका मंगलपाठ पढ़ रही थी। इसी बीच में उन्होंने देवोंके लिए सुन्दर एक लतागृह देखा। वहाँ इच्छापूर्वक रति करने के लिए वे ठहर गये, जैसे योग ग्रहण कर मुनीन्द्र ही ठहर गये हों ।।१-९॥
[११] वाहाँ उस प्रकारके बनमें शत्रुके लिए भयजनक समुद्रावर्तको धारण करनेवाला (लक्ष्मण ) घूमता है। जंगली हाथियोंपर चढ़ता है। वनकी गायों और भैसोको दुहता है। वह दूध, दही और मही, घी सहित जानकीको सौंपता है। वह भी सघन इंडियों में बनधान्योंके फटके गये चावलों तथा नाना प्रकारके फल रसोंसे आई करविन्द और करीरों, सालनोंसे उसे पकाती । इस प्रकार विविध प्रकारके भक्ष्योंका भोजन करते हुए, और वनवासमें वहाँ रहते हुए, वहाँ मुनि गुप्त और सुगुप्त आये। वे दोनों जीवदयाका दान करनेवाले और महाप्रती थे। वे कालामुख ( एक सम्प्रदाय | त्रिकालभोगी), कापालिक ( एक सम्प्रदाय | कामसे दूर ), भगव (भगवा वसधारी। शानवान् ), मुनि शंकर ( शिव । सुख देनेवाले); तपन ( सूर्य । तपस्या करनेवाले); तपस्वी और गुरु थे। जो वन्दनीय आचार्य और भोगसे प्रत्रजित थे तथा हविकी तरह भूति (धूल ऐश्वर्य ) से प्रसछादित थे । जन्म, जरा और मरणका निवारण करनेवाले वे आदरणीय वनचर्याके लिए निकलते हैं ॥१-९||
[१२] जब उन्होंने मुनिको प्रवेश करते हुए देखा तो वृक्षोंने श्रावकोंकी तरह बन्हें प्रणाम किया। भौरोंसे गूंजते हुए और प्रखर हवासे हिलते हुए उन्होंने मानो 'ठहरिए ठहरिए' कहा । कोई पृक्ष कुसुमप्रभारको छोड़ रहे थे, कोई मानो उन दोनोंकी
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पउमचरिउ
१३०
वो चिंण थक महवय धारा । रिस पेक्प्रेष्पिणु सीय विणिष्य 'राहच पेक्खु पेक्तु भच्छरियर । वलु वयण संण गो विजयसँग साहु-गय चालिय दिष्ण तिवार धार सलिलेण वि । पुष्करखय-यति- दीवारेंहिँ ।
।
।
रामसमें पइसन्ति मचारा ॥४॥ णं पश्वख महावणदेवच ॥५॥ साहु-शुमलु चरियऍ पोसरियड' ॥ ६॥ 'दाहु बाहु' सिरुणये वि पर्वलिउ ॥ ७ ॥ किउ सम्मनणु पाप पखालिय ॥ ८ ॥ कम घचि गोसीर - रसेण वि ॥९॥ एमपयषि अटु पयारें हिं ॥ १० ॥
घता
वन्दिय गुरु गुरु मत्ति करेवि लग्ग परीसवि सोयाएवि ।
मुह पिय श्ररुद्ध पच्छ मण माविणि भुत्त पेख कामुऍ हिँ व कामिणि ॥ १५ ॥
५
[92]
दिष्णु पाणु पुणु सुहद्दों पियारउ । सिद्ध सिधु जेम सिद्धोहर । पुणु अग्मिदिष्णु हियइच्छित सुइँ पुणु साल हूँ विचित्त हूँ । दिई पुणु तिम्मण मणिहइँ । पच्छ सिसिय स मच्छरु सुबउ । पुणु मय- सलिल दिष्णु सोयाकड | लीलऍ जिमि मारा जायें हिं ।
चारण-भोग्गु जेम हलुवार ॥१॥ जिणवर-आउ जेम भइदीहउ ॥ १ ॥ जिह सु-कलन्तु सु णेहु-स-इ ॥ ३ ॥ ति पाई विलासिणि-चित्तहूँ ॥ ४ ॥ अहिणव-कह-श्रयणा व मिट्ठइँ ॥५॥ बुद्ध-कल जेम अहद ॥ ६ ॥ पर जिण वयणु पाव पक्वालउ ॥ ७ ॥ पच्छारित प्रदरिक्षित तायें हिं ॥८॥
घता
दुन्दुष्टि गन्धवाउ स्यणावलि साहुकारु अष्णु कुसुमाञ्जलि | पुण्ण-पचित्त हूँ सालय- अहं पञ्चदिच्छरियाँ सह भूअहूँ ॥९॥
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२५१
घडतीसमो संधि पादपूजा कर रहे हों। तब भी महानतोंके धारी वे वहाँ नहीं ठहरे | आदरणीय वे रामके आश्रम में प्रवेश करते हैं। मुनिको देखकर सीता बाहर आयी, मानो प्रत्यक्ष वनदेवी हो। (बोली) "राम! देखो देखो, आश्चर्य है वो साधु चयांके लिए निकले हैं।" इन शब्दोंसे राम पुलकित हो गये, और अपना सिर झुकाकर बोले-"ठहरिए ठहरिए ।' इस प्रकार विनयरूपी अंकुशके द्वारा साधुरूपी महागज मोड़ दिये गये । रामने उनके पैरोंका सम्मान और प्रक्षालन किया । तीन बार जलकी धारा छोड़ी। गायके दूधके रससे पैरोंको शोभित किया। पुष्प, अक्षत, नैवेद्य, दीप और अग्नि इस प्रकार आठ प्रकारसे पूजा कर गुरुकी बन्दना की, और फिर भारी भक्ति कर सीता देवी उन्हें परोसने लगी। मुखके लिए मधुर और अच्छे पेयका उन्होंने उसी प्रकार उपभोग किया, जिस प्रकार कामुकोंके द्वारा मनभाविनी कामिनीका भोग किया जाता है ।।१-११।। __ [१३] मुखको प्यारा लगनेवाला फिर उन्हें पान दिया जो मुनियोंके योग्य और हलफा था, जो सिद्धि चाहनेवाले सिद्धकी तरह सिद्ध था, जिनवरकी आयुकी तरह अत्यन्त दीर्घ था। फिर ( अग्गिमउ ).......दिया, जो सुकलनकी तरह हृदयसे इच्छित, स्नेह और इच्छासे परिपूर्ण था; फिर शुद्ध और विचित्र सालन दिये गये, जो विलासिनियोंके चित्तोंकी तरह तीखे थे। फिर मनपसन्द कढ़ी दी गयी जो अभिनव कविके वचनोंके समान मीठी थी। बाद में शुद्ध तथा दुष्ट स्त्रीकी तरह अत्यन्त गाढ़ा मट्ठा दिया गया। फिर शीतल, सुगन्धित जल दिया गया, मानो पापोंको धोनेवाला जिनवचन हो । जब आदरणीय मुनि लीलापूर्वक भोजन कर रहे थे, तभी पाँच आश्चर्य प्रकट हुए । दुन्दुभि, गन्धपवन, रत्नावली, साधुकार और कुसुमांजलि पुण्यसे पवित्र शाश्वत् दूतोंकी तरह ये पाँचों आश्चर्य स्वयं प्रकट हुए।।१-९॥ .
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पङमचरित
पंचतीसमो संधि
गुस-सुगुप्तहँ सणेण पहाचे रामु स-सीय परम-सम्मा। देखें हिं दाण-रिद्धि खणे दरिसिय बल-मन्दिर वसुहार परिसिय ॥
. ! ]. जाय महाप स्यण सु-पगास। लक्खहँ तिणि सय पञ्चास ।।१॥ बरिसें वि रपण-घरिसु सई हथे। रामु पसिउ सुरवर-सस्र्थे ॥२॥ 'सिडवणे पावर एक्कु घलु भण्णउ । विवाहारु जेण वणे दिण्णउ' ॥३॥ मणे परिसूदइँ श्रमर-सयाई । सपणे दाणे किजह काई ॥१॥ आपण परिड मुवणु सयरायरू । अपणे धम्मु कम्म पुरिसायरु॥५॥ अपणे रिद्धि-विन्द्वि वसुभट। अण्णे पेम्मु विलासुस-विरमा ६॥ अण्ण गेड वेज सिक्खरु । श्रपणे जाणु शाणु परमक्खा ॥७॥ अण्णु मुएघि अणु किं दिजह । जेण महन्तु मोगु पाविजन ॥८॥
घत्ता
अण्ण-सुवण्ण-कण्ण-गोदागहुँ मेइणि-मणि-सिद्धन्स-पुराणहूँ। सम्बहुँ अण्ण-दाणु उच्चासणु पर-सासणहुँ जेम जिग-सासणु' ॥१॥
दाण्य-रिद्धि पेक्लेषि खगेसरु णवा जडाइ जाउ माईसरु ॥१॥ गग्गर-वयणउ मुणि-अणुराएँ। पहउ गाई सिर मोग्गर-वाएँ ॥२|| जिह जिह सुमरह णियय-भवन्तरु । सिंह तिह मेलइ अंसु गिरन्तर ॥३॥ 'भई पावेण तिलोयाणन्दहुँ । पञ्च-सयई पोलियई मुणिग्दहुँ' ॥४॥ एम पहाउ करन्तु विहाउ। गुरू-चलणेझिं परिड मुछगड ॥१॥
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पंचतीसमो संधि
२५३
२१३
पैतीसवीं सन्धि
गुप्त और सुगुम्न मुनियोंके प्रभाव, राम और सीताके परम सद्भावसे देवोंने एक क्षणमें दानकी ऋद्धिका प्रदर्शन किया। उन्होंने रामके घर में धनकी वर्षा की।
[१] साढ़े तीन लाख अत्यन्त मूल्यवान रत्नोंकी वृष्टि हुई । अपने हाथों रत्नोंकी वर्षा कर सुरबर-समूहने रामकी प्रशंसा की-"त्रिभुवनमें एक अकेले राम धन्य है कि जिन्होंने वनमें दिव्याहार दिया, जिससे सैकड़ों देवता अपने मनमें सन्तुष्ट हुए, दूसरे दानसे क्या ? अन्नसे ही सचराचर विश्व स्थित है, अन्नसे ही धर्म-कर्म और पुरुषार्थ होता है, 1 अन्नसे ऋद्धिवृद्धि और अच्छे कुलमें उत्पत्ति होती है। अन्नसे है। सविभ्रमप्रेम और विलास होता है। अन्नसे गेय-वेद और सिद्धाक्षर होते हैं । अन्नसे झान-ध्यान और परमाभर होते हैं । अतः अन्नको छोड़कर, और क्या दिया जाये कि जिससे बड़ा भोग प्राप्त हो । अन्न, स्वर्ण, कन्या और गोदान, भूमि, मणि, सिद्धान्त, पुराण सबमें अन्नदानका स्थान सबसे ऊपर है, उसी प्रकार, जिस प्रकार परशासनमें जिनशासनका ॥१-९॥
[२] दान-ऋद्धि देखकर खगेश्वर जटायुको केवल पूर्वजन्मका स्मरण हो आया । मुनिराजके अनुरागसे गद्गद वचन असे जैसे किसीने मोंगरेसे सिरपर आघात कर दिया हो। जैसेजैसे वह अपने भवान्तरकी याद करता है, वैसे-वैसे निरन्तर वह अश्रुधारा छोड़ने लगता है, "मुझ पापीने त्रिलोकको आनन्द देनेवाले पाँच सौ मुनियों को पीड़ित किया," इस प्रकार प्रलाप करता हुआ वह पक्षी मूच्छित होकर मुनिके चरणोपर गिर
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पडमचरित
पप-पाखालण-जलेंणासासिउ । राहवचन्दं पुणु उचयासिउ ॥३॥ सीप, कुतु 'पुत्तु महु एवहिं। छुषु बन्दउ छुडु धरउ सुखे हि' nu साव रयण-उजो भिषणा । जाय पक्ष चामीयर-वण्णा ॥४॥
घत्ता विद्यम चम्चु णील-णिह-काट पय-हलिय-षष्ण मणि-एटउ । तक्खणे पश्न-वण्णु णिव्वबियर बोयर्ड स्यण-पुञ्ज णं पडियउ ॥५॥
[1] मा विहि मि पयाहिण देहन्तज । णडु जिह हरिस-विसा हि जन्तड ॥३॥ दिनु पक्खि ज णयणापन्दश् । भणह णवेप्पिणु दसरह-जन्दषु ॥२॥ 'हे मुणिवर गयणगण-गाभिय। खड़गइ-बुक्स-महाणह-गामिय ॥३॥ कद्धि राजेण केण सच्छायड। पक्खि सुवपण-वण्णु ज जायस' ॥१॥ संणिभुणेवि घुसु णीसमें। 'सथल्लु वि उत्तिम-पुरिस-पसझे ।।५॥ पर हलुचो वि होई गरुमार। सक्लुपि सेक-सिहरें बहार ॥५॥ मेरु-णियम् तिणु वि हेमुजलु। सिपिउडेसु जलु वि मुसाहलु ॥७॥ तिह बिहा मणि-रयाएँ । जाउ सुवपण-वण्णु मुणि-तोएँ ॥८॥
। घत्ता सं णिसुणेवि दयणु असगा पुच्छिउ पुणु पिणाहु णरणा । 'विहलालु घुम्मन्तु विहाड कवणे कारणेण मुच्छेगाउ' ॥९॥
[ ] भणइ ति-णाण-पिण्ड-परमेसरु । 'पहु विहज आसि रसय ॥३॥ पट्टणु दपदाउर भुञ्जम्तड । दण्डर णाम बउबर भन्सट ॥२॥ एक-दिवस वारवि, चलियउ। तावतिकाल-जोगि मुणि मिलियउ॥३॥ विज अत्तावणे लम्विय-वाहर। अविचल मेस जेम दुरगाहन ॥१॥
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पंचतीसमो संधि
२३५
पड़ा। पैरोंके प्रक्षालन- जलसे आश्वस्त होकर रामने फिर उसे सान्त्वना दी। सीताने कहा - " इस समय तुम मेरे पुत्र हो, तुम शीघ्र बढ़ो और सुख धारण करो ।" इतने में रत्नों के प्रकाशसे आलोकित उसके पंख सोने के हो गये। चोंच विद्रमकी, कण्ठ नीलमणिके समान, पैर वैदूर्यमणियोंके और पीठ मणियोंकी । वह पक्षी शीघ्र पाँच रंगोंवाला हो गया, मानो दूसरा ही रत्नपद ना पड़ा हो
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[[३] भाव से दोनों मुनियोंकी प्रदक्षिणा देते हुए और नटकी भाँति हर्ष-विषादको प्राप्त होते हुए, नेत्रोंके लिए आनन्ददायक उस पक्षीको अब रामने देखा तो दद्दारथ-पुत्र राम प्रणाम करके पूछते हैं, "हे आकाशगामी चार गतिरूपी महानदीको झुका देनेवाले मुनिवर, बताइए किस कारण सुन्दर कान्तिवाला यह पक्षी स्वर्णवर्णका हो गया ।" यह सुनकर उन अनासंग मुनिने कहा, "उत्तम मनुष्यकी संगतिसे सभी छोटे आदमी बड़े आदमी बन जाते हैं उसी प्रकार जिस प्रकार वृक्ष भी पर्वतकी घोटीपर बड़ा दिखाई देता है । मेरु पर्वत के कटिनितम्बपर तृण भी हेमकी तरह उज्ज्वल दिखाई देता है। सीपीके सम्पुट में जल भी मोती हो जाता है। उसी प्रकार मुनिके प्रक्षालन-जल और मणिरत्नों के प्रकाशसे स्वर्ण वर्ण हो गया ।" यह वचन सुनकर, असत्को पाने की इच्छावाले नरनाथ रामने पूछा"बिलांग घूमता हुआ यह पक्षी किस कारण से मूर्किछत हुआ" ॥१-२॥
[४] तीन ज्ञान शरीरवाले परमेश्वर कहते हैं - यह पक्षी (पहले) राज्येश्वर था और दण्डपुर नगरका उपभोग करता था । दण्डक नामका यह राजा बौद्धोंका भक्त था । एक दिन बहु शिकार के लिए चला कि इतनेमें उसे त्रिकालयोगी मुनि मिले। वह आतापिनी शिलापर हाथ लम्बे किये हुए स्थित थे, सुमेरु पर्वतकी
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考建有
पउमचरिउ
संपेक्षा
महव्वलु ।
" अवसु अजय अवसवणु अमङ्गल ॥५॥
एम
रोसें मुणिवर कण्ठे काऍषि । ६ ॥
चवन् विसहरु वावि । गढ जिय-जय णराहिउ जानें हिं । थिउ णीसङ्गु गिरोहें तायें हिँ (स "एड को वि फेडेसह जयहुँ । लम्वियथुच्चामि तद्दयहुँ” ॥ ८ ॥
घत्ता
जावण्णे दिवसें पहु आवड तं जें मकारड सहिं जें विहाबद्द । गलऍ अङ्गम-मदमिवन्दर कण्ठाहरणु गाइँ भइव ॥९
[4]
विदि मुणि-केसरि । फेडेंवि विसहर कण्ठा-मअरि ॥१॥ "बोलहि परमेसर सत्र चरमेण काइँ तवणेसर ||२||
I
जो झायहि सो गयउ अतीत ॥३॥ आयों कि पमाणु किं खणु ” ॥ ४ ॥ मुनिवर चर्चेदि लग्गु णयवाएँ ॥ ५ ॥
बोला
२षणिउ सरोरु जीउ खप्प- मेराठ । तुडु मि खण्डि पाsन चि सिद्धराणु सचल रिस् घुषु राएँ । " जर पुणु सो ज्जें पक्खु वोल्टेव खणित या यार वि होस
। ता खण-सद्दु ण उच्चारेबल ॥ ६ ॥ खण-सहों उच्चारुप दीसह ॥७॥
घता
अघरि घमाणु अघणम्सउ खणिएँ खणिउ खणन्तर-मेतड । सुपर्णे सुण्ण-वयणु सुष्णाणु सम्बु गिरस्थ वजहुँ सासणु" ॥८॥
खण-पण णिरुतरू जायउ | "तो बहूँ सम्दु अस्थि अं दीसइ
[4]
पुणु वि पवोलिड दम्बय-रायड ॥१॥ । पुणु तवचरणु कासु किज्जेस" ॥२॥
B
1
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पंचतसभो संधि
२३७
तरह अविचल एवं दुर्भाह्य उन्हें देखकर वह महाबली एकदम कुछ हो उठा । "आज अवश्य अपशकुन और अमंगल क्षेना।" यह कहते हुए एक साँप मारकर क्रोधसे मुनिवरके गलेमें डालकर, जब राजा अपने नगर गया तभी मुनिवर यह निरोध ( निश्चय या प्रतिक्षा ) करके बैठ गये कि जबतक कोई इसे नहीं हटाता, तबतक मैं अपने हाथ ऊँचे किये हुए स्थित हूँ । जब एक और दिन राजा यहाँ आया, उसने उन आदरणीयको वहीं देखा । गलेमें बँधा हुआ साँपका शत्रु कण्ठाभरणके समान शोभित था ॥ १-९॥ [५] जब उसने उन मुनिसिंहको अविचल देखा तो विषधरकी उस कण्ठामंजरीको हटाकर उसने कहा - " हे तपनेश्वर परमेश्वर ! बोलो तपश्चरणसे क्या ? शरीर क्षणिक है और जीव क्षणमात्र है जिसका तुम ध्यान करते हो, वह अतीत हो गया । तुम भी क्षणिक हो, आज भी तुम्हें सिद्धत्व प्राप्त नहीं है। इसका क्या प्रमाण है, और क्या लक्षण हैं ?" राजाने जो कुछ कहा यह सब व्यर्थं था। सुनिवरने नयवादसे कहना प्रारम्भ किया, "यदि तुम उसी पक्षको बोलोगे तो तुम क्षण शब्दका भी उच्चा रण नहीं कर पाओगे ? 'क्षकार' भी क्षणिक होगा और णकार भी, इस प्रकार 'क्षण' शब्द का उच्चारण दिखाई नहीं देता । अघटित, अघटमान और अघटन्त ( घटित नहीं हुआ, घटित नहीं होता हुआ, घटित नहीं हो रहा ), क्षणिक, क्षणिकके द्वारा क्षणान्तर मात्र रह जायेगा । शून्य वचन और शून्यासन, इस प्रकार बौद्धोंका सारा शासन व्यर्थ हैं" ॥१-८॥
[६] क्षण शब्द से निरुत्तर होकर राजा दण्डकने फिर कहा - "यदि जो दिखाई देता है वह सब हैं तो तपश्चरण किसके लिए किया जाता है ।" यह सुनकर कवियों में श्रेष्ठ और वादियोंके लिए वागीश्वर मुनिराजने कहा - "हे राजन् !
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पउमचरित
संनिसुणेपि मग सुणोसरु । "अम्हइँ राय ण वोलš एवं । अस्थि णस्थि दोणि वि पडिबजड़ें तं णिसुणेवि भणह दणुार | अस्थि ण अस्थि शिव-संदेहो । पुफु विमत्त करि पुणु पञ्चाणणु । खतिउ बसु सुदु पृणु वम्भणु ॥८॥
जो कइ-गवब वाह वाईसरु ॥ ३ ॥ आइऍहिं हसिज जेवं ॥ ४ ॥ । तुहुँ जिह णउ वाएँ जहुँ" ॥५॥ "जाणिउ परम-पलु तुम्हारउ ॥६॥
पुशु धचलउ पुणु सामल - देहो ॥७॥
"P
२३८
घत्ता
भणिउ भारत " किं विरथाएँ एक्कु चोर विरु धरि तारें । गोवा-मुह णासच्छि गविदुर सीसु लएन्द कहि भिण दिद्वउ ॥ ९॥
अब एम का संदे जे अस्थि तहिँ अस्थि मणेष सच्छन्देण राहिउ भाषिट । साहुहुँ पच्च स्वयइँ भरियाई । यो एयम्य जम-मण- भाषिणि पुणु मयवज्रणु पुतु महन्त ।
I
[ ७ ]
अस्थि
५१॥ । जहिं ण अस्थि तहिं णथि भणेव" ॥१॥ इ धम्मु पुगु मुणि पाराविव ॥५॥ णिसुन तेसद्धिविवरियाई ॥४॥ कुइय खणड़े दुण्णय - सामिणि ॥ ॥५॥ " णरवइ जाउ निगेसर - मचल ॥६॥ घत्ता
।
सो बरि मन्तु किंपि मन्तिज जेण गवेसण पहु काराव
जिगहरे सम्बु दम्बु पुजिज्जइ । साहुहुँ पञ्च सहूँ माराबद्द" ॥ ७ ॥
[ 2 ]
जिनहरें सभ्वु दब्बु पुजाविउ ॥१॥ "तुम भण्डारु मुणिन्देहिं हरियव" ॥२॥ हसिय पुणु पुणु सीह - मिणाएँ ॥३॥ पश्चिम महिय गह गहूँ ||४||
एक-दिवसें तं तेम करावि । समवर्णेण णिवहाँ वजरियड । वेण्डराएँ । " पत्तिय सेक - सिहरें समवत हूँ ।
तें
I
I
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पंचतीसमो संधि
२१९ हम लोगोंसे ऐसा न कहिए, कि जिस प्रकार नैयायिकोंके साथ उपहास किया जाता है। हम अस्ति और नास्ति, दोनों पक्षोंको स्वीकार करते हैं। तुम्हारे समान झणिकवादसे इम भग्न नहीं होते।" यह सुनकर दानवों का नाश करनेवाला ण्डक राजा कहता है कि तुम्हारा श्रेष्ठ पक्ष जान लिया। है, नहीं है, में नित्य सन्देह है। फिर धवल, फिर श्यामल शरीर, फिर मतवाला हाथी और फिर सिंह । अत्रिय, वैश्य, ब्राह्मण और शूद्र । इसपर भट्टारकने कहा, "विस्तारसे क्या ? एक चोरको तलवारने बहुत समयसे पकड़ रखा है। ग्रीषा, मुख, नाक, आँख द्वारा गवेषित सिर ले लेनेपर भी कहीं दिखाई नहीं देता ॥१-९॥
[७] अथवा इस सन्देहसे क्या? निःसन्देहभावसे अस्ति भी है, और नास्ति भी है। जहाँ अस्ति है वहाँ अस्ति कहना चाहिए, और जहाँ 'अस्ति' नहीं है, वहाँ नास्ति कहना चाहिए। स्वतन्त्रतासे राजाने विचार किया। उसने जैनधर्म स्वीकार कर लिया। उसने पाँच सौ साधुओंको आश्रय दिया, और प्रेसठ शलाका पुरुषों के चरित सुने । तब इसी बीच दुर्नयोंकी स्वामिनी, जन-मनको अच्छी लगनेवाली रानी आधे पलमें कुपित हो गयी। उसने अपने बड़े पुत्र मयवर्धनसे कहा कि राजा जिनेश्वरका भक्त हो गया है। तो अच्छा है कि कोई मन्त्र (उपाय) किया जाये, जिनमन्दिर में सब धन इकद्रा कर दिया जाये, जिससे राजा उसकी खोज करायेगा और पाँच सौ ही सावुओंको मरवा देगा ॥११॥
[4] एक दिन उसने वैसा ही करवाया। जिनमन्दिरमें सब धन इकट्ठा करवा दिया। मयवर्धनने राजाले कहा"तुम्हारा खजाना मुनियोंने हर लिया है ।" इस कथनसे राजा दण्डक हँस पड़ा और बार-बार उसने सिंहनादमें कहा"विश्वास करो कि शैलशिखरपर कमलपत्र होते हैं, विश्वास
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१४०
पति विवरिय च दिवायर | पत्तिय हे हवति कुलपव्वन । पतिय उपवीस कि जिनवर। परिय गड तेसडि पुराण हूँ । सोलह सामग्गहूँ उत्पत्तिप ।
पउमचरिउ
पत्तिय परिभ्रमन्ति स्वणापर ||५|| प्रतिय एकहिँ मिलिय दिसा-गय ॥६॥ पत्तिय पत्र चक्रव ण कुलयर ॥७॥ पञ्चेन्दिय पविणा हूँ ॥ ८ ॥ मुणि चोरन्ति मन्ति मं पत्तिय" ॥९॥
घन्ता
जे र पोलिट कहवारे मन्तिर मन्तु पुणु वि परिवारें ।
"लडु रिसिह एकु दरिसाषहुँ पुणु मदवि-पासु नहसार हुँ ||१०||
[3]
1
अवर्से से पुर-परमेमरु | एम भवि पुणु वि कोकाविड । शेण समाजच जण सण-भाषिणि । तो एस्थत गोलिय-सणु । पण पेक्खु पेक्तु मुणि-कम्महुँ । ढुक्कु पमाणहाँ बोलि जं महूँ ॥ ५॥ मूढा अवुह ण वुजाहि अज वि । हिउ मण्डार जाव हिय मज वि ॥ ५ ॥
मुणिवर घल्लेसह रज्जेसह " ॥ १॥ सक्खों मुणिवर- वेसु धराविउ ॥ २ ॥ लग्ग वियारेंहिँ दुष्णय-स - सामिणि ॥३॥ गड जिय शिवहाँ पासु मयबद्धणु ||४||
7
घन्ता
जाणतो वि तो वि मणें मूढड णरवड कोव - गइन्दारुड | दिण्णाणसी णरवर-विन्दहुँ भरियाँ पञ्च वि सय मुणिन्द हुँ ॥७॥
पहु-भसें धरिय मडारा । जे कलिकलुस-काय विचारा ।
जे चारित पुरहों पागारा जे पोस भण-वियारा ।
[ 10 ]
जे वेन्दिय पसर- णिवारा ॥ १ ॥
जे संसार - घोर उतारा ॥२॥
जे
कमल-बुद्ध-दणु-दारा ॥ ३ ॥ जे मविमायण-अभुद्धारा ॥ ४ ॥
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पंचतीसभी संधि
२॥
करो कि महीतलपर प्रह-नक्षत्र होते हैं, विश्वास करो कि सूर्य
और चन्द्रमा उलटे होते हैं, विश्वास करो कि समुद्र घूमते हैं, विश्वास करो कि कुलपर्वत आकाशमें होते हैं, विश्वास करो कि चौबीस जिनपर नहीं होते, विश्वास करो कि चक्रवर्ती
और कुलकर नहीं होते, विश्वास करो कि मठ पुराण नहीं होते, पाँच इन्द्रियाँ नहीं होती, पाँच ज्ञान नहीं होते; सोलह स्वर्ग नष्ट होते हैं और भग्न होते हैं । लेकिन मुनि चोर होते हैं, हे मन्त्री ! इसपर विश्वास मत करो।" जब राजाने कई बार इस तरह कहा तो परिवारने पुनः मन्त्रणा की कि “हम लोग शीघ्र ही एक मुनिरूप दिखाय और उसे महादेवीके पास बैठायें ॥५-१०॥
[९] अवश्य ही राज्येश्वर पुरपरमेश्वर मुनिवरोंको निकलवा देगा।" इस प्रकार विचार कर उसने पुन: किसीको पुकारा और तत्क्षण उसका मुनिरूप बनाया। उसके साथ जनमनको अच्छी लगनेवाली दुर्नयस्वामिनी विकारों के साथ जा लगी। सब इसी बीच पुलफित्त शरीर, भयवर्धन अपने राजाके पास गया ( और बोला ), "राजा : देखो-देखो, जो मैंने कहा था इसका सबूत मिल गया। मूर्ख और अपण्डित तुम आज भी नहीं समझते जब कि भण्डार भी हर लिया गया, और भार्या भी हर ली गयी।" राजा मनमें जानता था तब भी वह मूर्ख कोपरूपी गजेन्द्रपर चढ़ गया। राजपुरुषोंको उसने आज्ञा दी। पाँच सौ ही मुनीन्द्र पकड़ लिये गये ॥१-७॥
[१०] राजाके आदेशसे वे मुनि पकड़ लिये गये जो कि पाँच इन्द्रियोंके प्रसारका निवारण करनेवाले थे। जो कलि, कलुष
और कषायोंका विदारण करनेवाले थे, जो घोर संसारसे पार करनेवाले थे, जो चारित्ररूपी नगरके, प्राकार थे, जो कर्मरूपी आठ दुष्ट दानवोंका नाश करनेवाले थे, जो अनासंग और काम१६
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२४२
पउमरिट
जे सिस-सासम-सुह-हकारा ।
जे गारठ-पमाय-विणिवारा १५॥ जे दालि-भव-वयकारा । सिद्धि-धरकण-पाण-पियारा ॥६॥ जे वापरण-पुराग जागा । सिद्धम्तिय एकेक-पहाणा ॥७॥ से तेहा रिसि जन्तें छुहायिय । रसमसकसमसन्त पीलाविय ॥८॥
पत्ता पज वि सय पीलाविय जाहिं मुणिवर घेफ्णि पराविय ला हिं। घोर-वीर-तवचरशु सपशु आता सव-तवा पियु ॥५॥
[३१] केण वि ताम वुत्तु "मं पइसाहाँ। बेणि वि पाण लएप्पिणु णासही ॥१॥ गुरु तुम्हारा आवई पाविय। राएं जन्त छु नि पोलाविय" ॥२॥ त णिसुणेवि एच्छु मुणि कुड। शंखम-कालें कियन्तु विरुदड ॥३॥ घोरु रउद्दु दाणु आअरिउ । बउ सम्म सयतु संचूरिट 114॥ भष्पापपाशु वित्तित। सम्पण छार-पुजु परिअत्तिः ॥५॥ जो कोषागल तेण विमुकट। गउ भयरहों सथतम्मुहु हुशार ॥६॥
घत्ता
पट्टणु चाउदिसु संदीविउ स-धरू स-राउलु जालालोषिउ । जज कुम्म-सहसें हि विपह विहि-परिणामें जल विहिप्पइ ॥
[१२] पट्टणु दङ्लु असेसु घि जाहिं। खक जम-जोह पराविय तावे हि ॥५॥ ते तइलोक्कु पि जिणे वि समस्था । असि-घण-सङ्खल-णियल-विहरया॥२॥ फक्कड-कविल केस भीसाचण। काल-क्रियन्त लीस्त्र-दरिसाषण ॥३॥ कसण-सरीर वीर फुरियाधर। पिल-णयण प्रसर-मोग्गर-धर ॥४॥
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पंचतीसमो संधि
२४५
देवको नाश करनेवाले थे, जो भव्यजनोंका अभ्युद्धार करनेवाले थे, जो शिवके शाश्वत सुखको निमन्त्रण देनेवाले थे, जो गर्व
और प्रमादको दूर करने वाले थे, जो दारिद्रय और दुःखका अय करनेवाले थे, जो सिद्धिरूपी उत्तम अंगनाके प्राणप्रिय थे, जो व्याकरण और पुराणोके जानकार थे, सिद्धान्तके जानकार एकसे एक प्रमुख थे। उस राजाने ऐसे उन मुनियोंको यन्त्रमें अलवा दिया, रक और मांसके कसमसाते हुए वे उसमें पेर दिये गये । जब पाँच सौ मुनि पेर दिये गये तो दो मुनि वहाँ पहुँचे-घोर वीर तपश्चरणका आचरण कर तथा आतापिनी शिलापर तपरूपी सूर्य तपकर ।।१-९||
[११] तत्र फिसीने उनसे कहा, "तुम लोग यहाँ प्रवेश मत करो, दोनों अपने प्राण लेकर, शीघ्र भाग जाओ। तुम्हारा गुरु आपत्ति पा रहा है। राजाने यन्त्रमें डालकर उन्हें पीड़ित किया है ।" यह सुनकर एक मुनिका मन ऋद्ध हो उठा, मानो भयकालमें यम विरुद्ध हुआ हो । उसने घोर आतध्यान किया, अपना व्रत और सम्यक्त्व सब नष्ट कर दिया। उसने अपनेसे अपनेको विभक्त किया, और तत्क्षण उसने अग्निपुंजकी रचना की। उसने जो कोपाग्नि छोड़ी वह नगरके सम्मुख पहुंची। नगर चारों दिशाओंसे जल उठा, एवं धरती और राजकुलके साथ वह आगकी ज्वालाओंकी लपेट में आ गया। हजारों घड़ोंसे जो-जो पानी डाला जाता, भाग्यके परिणामसे पानी भी जल उठता ॥१-७॥
[१२] जब अशेष नगर जलकर खाक हो गया तब दुष्ट यमयोद्धा वहाँ पहुँचे । तलवार, घन, श्रृंखला और निगड जिनके हाथमें थे, ऐसे वे त्रिलोकको भी जीतने में समर्थ थे । जो कठोर कपिल केशोंवाले भयंकर, काल और धमकी लीलाका प्रदर्शन करनेवाले, श्याम-शरीर वीर, फड़कते हुए ओठोंकाले, पीले
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परमचरित जोह-ललन्त दन्त-उपन्तुर। उम्भव-नियर-दाउ भय-मासुर ॥५॥ जम-पहि तेहिं कन्दम्तड। णरबह णिउ स-मन्ति प-कलत्ता ॥१॥ गम्पिणु जमरायहाँ जाणाविध। एणमुणिम्द-णिवहु पीलाविढ" ॥७॥ सं णिसुणेपिणु कुछड पयाषद । “तीहि मि दरिसावहाँ गल्यावह" ॥८॥
धत्ता पहु-माएसे दुण्णय सामिणि पत्तिय छट्टहिं पुढविहिं पाविणि । जहिं खुषखइँ भइ-धोर-रउदइ णवराउसु वाघोस-समुदई ॥९॥
[१३] अण्णोपण जेत्थु हक्कारित गणेष कारणारिन् । अपणोणेण दल वि दलनहिड। अपणोपणेण हणे षि णिचहिउ ॥२॥ अण्णोपण तिसूल मियाउ। भणगोषणे दिसा-वलि दिग्णउ ॥३॥ मपणोषणेप कडा पमेलिस। अगोषणेण हुआसणे पेल्लिज ॥३॥ अण्णोण्णेण बहतरणि तिट । अण्णीगणेण धरवि णिमन्तिड ॥५॥ अण्णोण्णण सिला अपकालिट। अपणोण्णण दुहाएँ हि फालिड ॥६॥ भगणोण्णेण धरै चि आवीलिंड। अण्णोषणेण वस्थु जिह पीलिउ ॥७॥ भण्णोपणेण घरह दलियत । अग्णोण ग्यव जिह मिलियड अण्णोपणेण वि कुवे पमुक्कल। पणोपणेण धरेपिणु सकळ ॥९॥
घसा अण्णोणेण पकोइङ रागें अपणोण्णेण विद्यारिउ खागें । अण्णोण्णेण गिलिना जेथु दुपय-सामिणि पत्तिय तेस्थु ॥१०॥
[१५] अपणु वि कियउ जेण मन्तित्तणु। वसिड प्रसिपलवणे अलक्खणु ॥३॥
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पंचतीसमो संधि नेत्रोंवाले असर और मोंगर धारण किये हुए, जीभ लपलपाते हुए, निकले हुए दाँतोंवाले, उद्भट और विकट दाढीवाले, तथा भयसे भास्वर थे। उन यमदूतोंके द्वारा, चिल्लाता हुआ वह राजा, मन्त्री और स्त्रीके साथ ले जाया गया। जाकर उन्होंने यमराजको बताया, “इसने मुनिसमूहको पीड़ा दी है।" यह सनकर प्रजापति कुपित हो उठा कि इन तीनोंको भारी आपत्ति दी। प्रभुके आदेशसे पापिनो दुनयम्वामिनी छठे नरक में डाल दी गयी जहां कि अत्यन्त घोर और भयंकर दुःख थे और आयु केवल बाईस सागर प्रमाण थी॥१-॥
[१३] जहाँ एकके द्वारा दूसरा इकारा जाता था, एकके द्वारा दूसरा प्रहारसे कुचला जाता था, एक दूसरेको चूर-चूर करनेके लिए चूर हो जाते, एक दूसरेको मारने के लिए प्रवृत्ति की जाती। एक दूसरेके द्वारा त्रिशूलसे विदीर्ण किया जाता | एक दूसरे के द्वारा दिशाबलि दी जाती; एक दूसरे के द्वारा कड़ाहमें छोड़ा जाता; एक दूसरेके द्वारा आगमें ढकेला जाता, एक दूसरेके द्वारा वैतरिणी में डाल दिया जाता । एक दूसरेके द्वारा पकड़कर ले जाया जाता। एक दूसरेके द्वारा चट्टानपर पटका जाता, एक दूसरेके द्वारा दो टुकड़े कर दिये जाते। एक दूसरेके द्वारा पकड़कर पीड़ित किया जाता। एक दूसरेके द्वारा वस्तुकी सरह पीड़ित किया जाता। एक दूसरेके द्वारा घरट्टमें चूर-चूर कर दिया जाता। एक दूसरेके द्वारा कुँएमें फेंक दिया जाता। एक दूसरेके द्वारा प्रकरकी तरह एक दूसरेसे मिला दिया जाता। एक दुसरेके द्वारा पकड़कर रोक लिया जाता । एक दूसरेके द्वारा रागसे देखा जाता, एक दूसरेके द्वारा सलवारसे विदीर्ण किया जाता । एक दूसरेके द्वारा जहाँ एक दुसरेको निगल लिया जाता । विश्वास करो, दुर्नय-स्वामिनी वहाँ है ॥१-१०॥
[१४] और भी जिसने मन्त्रित्व किया था उस लक्षणहीनको
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पउमचरिउ
जहि विणु मिसिल परिसर | अष्णु त्रिभगिष्णु णिष्फरिसउ ॥२॥
जहिं तेलोह - रुवल कण्टाला | दुग्राम कुण्णिरिक्ष दुललिया । जहिँ णिवदन्ति वा फल-पत्त
।
असि पसल अमराळ विसाठा ॥ ३ ॥ णाणाविह-पहरण-फल- भरिया ॥४॥ तहिँ हिन्दन्ति निरन्तर गत हूँ ॥ ५॥ पुणु वहसरणि गपि पट्टउ ॥ ६ ॥ रख-वस-सीशिय संस-समिद्धउ मण्ड वियाविड पूर्व विमिस्स ॥ ८ ॥
॥
॥
तं तेहरवणु मुऍषि पणउ । जहि ते सलिल व दुग्गन्ध उण्ड खारु तोरु अद विरस |
घन्ता
इय संताव- दुस्पेसल खणे खणें उपान्तु मरन्त । थि सप्तमऍ रएँ मवदणु मेइनि नाम मेरु गणणु ॥ ९॥
[ 14 ]
ताव विरुद्ध एहिँ दकारिउ ।
रबद्द पारस्पएिँ पञ्चारि ॥ १॥
1
"मद मरु संमरु दुधरियाई । जाइँ आसिप संचारिया || २ || पञ्चसयहूँ मुणिवरहुँ हवाइँ । लड़ अणुहुअहि साइँ दुहाई ॥३॥ एमपि खग्र्गेहिँ विष्णव । पुणु वाणेंहिँ मलेहिं भिण्णउ ॥ ४ ॥ पुणु ति तिलु करवते हिं कष्पित। पुणु गिद्धहुँ सिव-सागहुँ अपि ॥ ५ ॥ पेलाडि म गइन्देहिं । पुणु वेदावि पण्णय - त्रिदेहिं ॥ ६ ॥ पुणु खण्डिड पुणु जस्तै छुदावित । अधु सहासु चार पीकाविड ॥ ७ ॥ दुक्खु पु कह वि किळेस हिँ । परिभ्रमन्तु मव- जोणि- सहरसें हिं ॥ ८ ॥ एत्थु विशुजाउ यि काणणें । एवहिं अच्छा तुम्ह रणे ॥
घसा
ताव पविख मच्छुचाविउ 'किइ महूँ सवण-सब्धु संताधिउ | एतिय मर्से अम्भुदरगड महु सुधहों वि जिणवरु सरपड' ॥१०॥
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पंचतीसमो संधि
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भस आसपत्र वनमें डाल दिया गया जहाँ कि सृण भी बाणके समान था और अग्निके समान पत्ते भी, अत्यन्त कठोर । जहाँपर काँटेवाले तैलोह वृक्ष हैं। तलवारकी तरह पत्तेवाले, प्रचुर
और विशाल । दुर्गम, दुदेर्शनीय, दुर्ललित नाना प्रकार के अत्रोंके फलोंसे भरे हुए। वे फल और पत्ते जहाँ भी गिरते हैं, वहाँ लगातार एक दूसरेके शरीर छेद डालते हैं। उस वैसे असिपत्र वनको देखकर वह भागा, और जाकर चैतरिणी नदीमें घुस गया । जहाँ कि अत्यन्त दुर्गधित जल बहता है-रस, वसा, रक्त रससे सच ना,, और अन्य दिल जल है। पीपसे मिश्रित जिसे जबर्दस्ती पिलाया जाता है । इस प्रकार सन्ताप और दुःखसे सन्तप्त जहाँ झण-क्षणमें उत्पन्न होता हुआ और मरता हुआ वह मयवर्धन सातवें नरकमें तबतक स्थिव रहेगा कि जबतक आकाश प्रांगण और सुमेरु पर्वत रहेगा ॥१-९॥ __ [१५] तव नारकियोंने विरुद्ध होकर राजाको ललकारा, "मर-मर, अपने उन दुश्चरितोंकी याद कर, कि जिनका तूने आचरण किया था । तुमने पाँच सौ मुनियोंको मारा । लो अब उन दुःखोंको भोगी।" यह कहकर उन्होंने तलवारसे टुकड़े टुकड़े कर दिये; फिर तीरों और भालोंसे भिन्न-भिन्न कर दिया। फिर तिल-तिल करपत्रोंसे काटा। फिर गीधों, गाल, कुत्तोंको दे दिया। फिर मत्त गजेन्द्रों के नीचे दबाया गया। फिर नागसमूहोंसे घिरवाया गया। फिर खण्डित कर दिया और यन्त्रमें डाल दिया। इस प्रकार पाँच सौ बार उसे पीड़ा पहुँचायी। फिर दुःस्त्रपूर्वक किसी प्रकार अनेक कष्टोंके साथ हजारों योनियों में परिभ्रमण करता हुआ, वह इस नृपकाननमें पक्षी हुआ है, और इस समय तुम्हारे आँगनमें स्थित है। तब वह पक्षी अपने मनमें पश्चात्ताप करता है कि मैंने श्रमण संघको सन्ताप क्यों
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२१८
पउमचरित
[१३] जं आयण्णिड पक्खि-मवन्तरु | जाणइ कम्तै पमपिउ मुणिवरु ॥१॥ 'तो बरि अम्हहुँ वय घडाबहु । पक्विह सुहय-पन्थु दरिसाबहु' ॥२॥ सं वलएषहाँ पाय दुषिणु। पलाएर पुि ॥. दिण्ण पहिच्छिय तिहि मिजणेहिँ । पुणु अहिणन्दिय एक-मणेहिं ॥१॥ मुणिवर गय यासही जाहिं। लक्खणु मवणु पराइड ताहि ||
राहव एड का अद्यारिप । जं मन्दिरणिय-रयण हिं भरियज'। ९३ तेण वि कहिउ सञ्चु जं वित्त । 'म आहार-दाण-फलु पसउ' ।।७।। सक्षण पश्चरिउ परिसिउ। मेहँ हि जिह अणवरउ परिसिउ ॥८॥
पत्ता रामही वयगु सुणेवि अण्णन्तें गेहवि मणि-रायण बलवन्त । वड-पारोह-कमेहि पचण्ठे हि रहवा खिश सयंभुव-दण्ड हि ॥२॥
छत्तीसमो संधि
रहु कोडावण मणि-रषण-सहासें हिं परियउ । गयणहाँ उछल वि णे दिणपा सम्वणु पश्यित ॥
[.] सहि तेहएँ सुन्दर सुप्पयाँ। भारण्ण-महागय-जुस-रहें ॥१॥ धुरे खरखणु रहवर दासरहि। सुस्कील पुणु विहरन्ति महि ॥२॥ तं कण्हवण-णइ मुवि गम। वणे कहि मि णिहालिय मत गय ॥३॥ कल्प वि पञ्चाणण गिरि-गुहेहि। मुत्तावलि विक्खिरन्ति पहेंहि ॥॥
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२११
छत्तीसमो संधि पहुँचाया । उतने मात्र से मेरा उद्धार हो गया। मरने के बाद भी मुझे जिनवरकी शरण है ॥१-१०॥
[१६] जब रामने पक्षोके भवान्तर सुने तो उन्होंने मुनिवर से कहा-'तो अच्छा है हमें भी प्रत दीजिए और पक्षीके लिए भी सुभग पथको दिखायें ।" रामके उन शब्दों को सुनकर, पाँच अणुव्रतोंका उच्चारण कर, मुनि ब्रत दिये। उन तीनोंने भी उन्हें स्वीकार कर लिया। एक मनसे उन्होंने पुनः मुनिका अभिनन्दन किया । जबतक मुनि आकाश मार्गसे चले गये, तबतक लक्ष्मण घर आ पहुँचा । उसने कहा, "राम, यह क्या आश्चर्य है कि जो अपना घर रत्नोंसे भर गया है।" उन्होंने भी जैसा वृत्तान्त था, सब बता दिया कि मैंने आहारदानका फल प्राप्त किया है। तत्क्षण उन्होंने पाँच आश्रर्य प्रदर्शित किये कि जिस प्रकार मेघोंने अनवरत वर्षा की थी ! रामके वचन सुनकर नलवान् लक्ष्मणने मणिरत्नोंको इकट्ठा कर लिया, वटवृक्ष प्रारोह और जड़ोंके समान दृढ़ प्रचण्ड अपने भुजदण्डोंसे उन्होंने रथवरको रचना की ।।१-२॥
छत्तीसबों सन्धि
हजारों मणिरत्नोंसे रचित तथा कुतूहल उत्पन्न करनेवाला वह रथ ऐसा मालूम होता था मानो आकाशसे उछलकर दिनकररूपी रथ गिर पड़ा हो।
[] जंगली हाथियोंसे जुते हुए उस सुन्दर कान्तिवाले रथवरकी धुरापर लक्ष्मण और भीतर राम (बैठकर) फिर देवलीलाके साथ धरतीपर भ्रमण करने लगते हैं । उस कृष्णवर्ण
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२५.
परमचरित
कत्थ वि लाषिय सउण-सय । णं श्रष्ठवि र वि पाण गर ॥५॥ काध वि कलाप णचम्ति वण। णाघड् णहावा जुषा-जणें ॥३॥ काय इ हरिण भय-मीया। संसारहों जिह एण्याइयाई ॥७॥ काय वि णामाबिह-रूप रख-राइ । णं महि-कुलबहुअहें रोम-राइ ॥६॥
घत्ता सहाँ दण्ण दः गएँ ८५५ जाति जामें कोणइ घिर-गमण पणाई वर-कामिणि ॥९॥
कोणाइ तीरेण संसियाँ। लय-मण्ट गम्पि परिट्रिय ॥१॥ छुड जें छुटु जें सरयहाँ आगमणे। सम्छाथ महादुम जाय चणें ॥२॥ णव-पलिणिहें कमल विहसिया । णं कामिणि-वयण पहसियर ।।३।। घवलेण णिरन्सर-णिगऍण। घण-कलसें हिं गयण-महग्गऍण ॥३॥ अहिसिश्चेवि तक्रवणें वसुह-सिरि । णे थविय अबाहिणि कुम्महि ।।५।। नहिं तेह" सर सुहाषणएँ। परिममइ बणणु काणणएँ ॥९॥ कोबण्ड-सिलीमुहाहिय-करु। गजन्त-मत-मायङ्ग-धरु ॥७॥ व साम सुसन्धु वाद अइ। जो पारियाय-कुसुमम्महिउ ॥८॥
घन्ता कदिउ भमक मिह ते वार सुद तु सुअन्धे । धाइड महुमहणु जिह गउ गणियारिह गम्धे ॥५॥
थोवातरें परिलोसिय-मणेण । वसस्थलु लक्षित लक्षणेण ॥१॥
सयण-बिन्दु आषासियर। णं मराउलु वा तासियउ ॥२॥ भगणेक-पासे कोडावणउ | जम-जीह जेम भासावण ॥३॥ गपणणे खग्गु णिहाफियङ।। णाणाबिह-कुमुमोमालियन ॥४॥ करखणहाँ णाई अम्भुन्तुर । णं सम्खुकुमारहों जमकरण ॥५॥ तं सूरहासु णामेण असि । जसु ते णिय पह मुअा ससि ॥६॥
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छत्तीसमो संधि की नदी (कृष्णानदी) को छोड़कर दे चले । वन में कहींपर उन्होंने मत्त गज देखे। कहींपर सैकड़ों पक्षी उड़े मानो उस अटबीके प्राण ही उड़कर जा रहे हो। यनमें कहीं मयूर नृत्य कर रहे थे।....कहीं पर हरिण इस प्रकार भयभीत थे, जसे संसारसे भयभीत संन्यासी हों । कहींपर, नाना प्रकारकी दृक्षराजी मानो धरतीरूपी कुलवधकी रोमराजी हो । उस दण्डक वनके आगे कौन्च नामकी नदी दिखाई दी जैसे स्थिर गमनवाली उत्तम कामिनी हो ॥१-९॥
[२] क्रौंच नदीके किनारे-किनारे होते हुए वे एक लतामण्डपमें जाकर बैठ गये । शीघ्र शरद् ऋतुके आनेपर वनमें महाद्रुम सुन्दर कान्तिवाले हो गये । नवनलिनियों के कमल इस प्रकार विकसित थे मानो स्त्रियोंके हँसते हुए मुख हो । निरन्तर निकलते हुए धवल आकाशरूपी महागजने अपने मेघरूपी कलशोंसे उसी क्षण अभिषेक कर....उस सुहावनी शरद् अतुमें जो अपने हाथमें धनुष और तीर लिये हुए हैं तथा जो गरजते हुए हाथियोंको पकड़ लेता है ऐसा लक्ष्मण बनमें भ्रमण करने लगा। इतनेमें सुगन्धित वायु आयी जो पारिजात पुष्पोंसे उत्पन्न थी। उस सुगन्धित वायुसे भ्रमरकी तरह आकर्षित होकर, लक्ष्मण उसी प्रकार दौड़े जिस प्रकार हथिनीकी गन्धसे हाथी दौड़ता है ।।१-२॥ _[३] थोड़ी ही दूरपर सन्तुष्ट मन लक्ष्मणने वंशस्थलको इस प्रकार देखा मानो सज्जनसगृह ठहरा हुआ हो, मानो व्याधसे त्रस्त पशुसमूह हो । एक वंशस्थल (बाँसोंका झुरमुट) के पास आकाहसमें उसने यमकी जीभकी तरह भयंकर, कुतूहल उत्पन्न करनेवाला, नाना प्रकार के फूलोंसे अंचित खड्ग देखा। जो मानो लक्ष्मणका उद्धार करनेवाला, मानो शम्बुकुमारके लिए यमकरण था। यह सूर्यहास नामकी तलवार थी जिसके
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पउमचरित
जसु धारहाँ काल-दिति षसह। जसु काल कियस्तु वि जमु तसह॥७॥ बलत्यु पसानिन - विना पार कर लत्तु जिह ॥८॥
पत्ता पुणु कीलन्तऍण असिषत्ते हउ सरथल । ताव समुच्छले वि सिरु पखिउ स-मउडु स-कुपहलु ॥२॥
[४] जं दिट्छ विवाइट सिर-कमलु। सिरिवच्छे विहुणिउ भुय-जुअलु ॥३॥ 'चिम्मई णिशारणु वहिउ परु। बत्तीस वि लक्षण-लख-धरु' ॥२॥ पुणु जाम णिहालइ बस-वणु। पर-रुपडु दिदछु फन्दन्त-तणु ॥३॥ ते पेक्खें वि चिम्तइ खरंगधर । “घिउ माया स्त्र को वि स ॥४॥
3 एम मणेपिणु महुमहणु। णिविसेण परायड गिय-भवणु ॥५॥ राहवेण चुत्तु 'भो सुहष्ट-ससि । कहिँ लधु खग्गु कहिं गयउ असि॥६॥ सेण वि सं सयलु वि अक्सियउ । सस्थल जिद्द धणे लक्खियड ॥७॥ जिह क्षु खग्गु तं अतुल-बलु । जिह खुविउ कुमारहों सिर-क्रमलु 14॥
पत्ता घुबई राहणा में पुतिय मुहिषएँ साडिय । असि सावण्णु णवि पई जमहौं जीह उपपारिय' ॥१॥
जे पहिय भीसण वत्त सुय । वेवम्ति पम्पिय जणय-सुय ॥१॥ 'लय-मण्डपें विउलें णिविष्टाहुँ । सुहु णाहि वणे वि पइटाहुँ ॥२॥ परिममइ जणदणु नहिं में जहिं । दिवें दिवे कदमरमु तहि ज तहिं ॥३॥ कर-चलण-देह-सिर-एण्डणाहुँ। णिविण्ण माएँ हउँ भण्डहुँ ॥३॥ हताएँ दिग्णी केहाहुँ। कलि-काल-किपम्तहुँ जेहा ॥५॥
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अनोखी अभि
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तेजसे चन्द्रमा अपनी प्रभा छोड़ देता था, जिसकी धारमें कालदृष्टि बसती थी, जिससे काल कृतान्त और यम भी त्रस्त था। उस तलवारको लक्ष्मणने अपना हाथ फैलाकर उसी अकार ले लिया, जिस प्रकार दूसरे पुरुषके पास जानेवाली स्त्रीको पकड़ लिया जाता है। फिर उसने खेल करते हुए तलवार से जब वंशस्थलको आहत किया तो उससे मुकुट और कुण्डलों सहित सिर उछलकर गिर पड़ा ||१-९ ॥
[४] जब लक्ष्मणने गिरे हुए सिररूपी कमलको देखा तो उसने अपने दोनों हाथ पीटे (और सोचा कि मुझे धिक्कार है कि मैंने अकारण ही बत्तीस लक्षण धारण करनेवाले इस मनुष्यका वध कर दिया। फिर जैसे ही वह वंशस्थल देखता है, वैसे ही उसने फड़कते हुए शरीरवाले मनुष्य-धढ़को देखा। उसे देखकर खड्गधारी लक्ष्मण विचार करता है कि 'मायारूप में यह कोई आदमी था।' यह सोचकर लक्ष्मण चला गया और एक पल में वह अपने घर पहुँचा | रामने पूछा - "हे सुभट चन्द्र! तुम कहाँ गये थे, और यह तलवार तुमने कहाँ प्राप्त की ।" लक्ष्मणने भी यह सारा वृतान्त कह सुनाया कि जिस प्रकार उसने वंशस्थल देखा था, जिस प्रकार वह अतुलबल खड्ग प्राप्त किया था और जिस प्रकार कुमारका सिररूपी कमल काटा था। रामने कहा- "व्यर्थ इसको तुमने नष्ट किया । यह सामान्य आदमी नहीं हैं, तुमने यमकी जीभ उखाड़ ली हैं" ॥१-२॥
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[५] जब जनकपुत्रीने यह बात सुनी तो वह काँपती हुई बोली- "विशाल लतामण्डप में बैठे हुए और वनमें प्रवेश करने के बाद भी सुख नहीं है । लक्ष्मण जहाँ-जहाँ भी भ्रमण करते हैं वहाँ कुछ न कुछ विनाश करते रहते हैं। जिनमें हाथपैर, शरीर और सिरका खण्डन है ऐसे युद्धोंसे हे माँ विरक्त हो सठी हूँ। मुझे पिताने ऐसे लोगोंको सौंप दिया कि जो काल
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पउमचरित
तं धयणु सुणेपिणु भगाइ हरि। 'जह राशु ण पोरिसु होइ परि ।।६।। जिम दाणे जेम सुकात्तणेण। जिम भावहेण जिम कित्तणेण ॥७॥ परिभमइ कित्ति सम्यहों णरहों। धवलन्ति भुवशु जिह जिगपरहों ॥८॥
घत्ता श्रायहुँ एत्तियहुँ जसु एक्कु चि चित्त ण मावड् । सो भार िमुड पनि जारी गरे वागा' । २
एस्यन्तरें सुरसंतावणहो। बहु वहिणि सहोयर रावणहाँ ॥१॥ पायालल-लकेसरहों। धण पाण-पियारो वहाँ परहाँ ॥२॥ बन्दादि णाम रहसुच्छलिय। णिय-पुत्तहो पासु समुवलिय ॥६॥ 'लइ बारह-परिसद भरियाइ । घउ-दिवसें हिं पुणु सोत्तरिया ॥३॥ अण्णा सहि दिवसहि करें बहह । तं खग्गु भजु गहें णिग्घडई' ।।५।। सो एष चवम्ती महुर-सर । बलि-दीवशास्त्र-गहिप-कर ॥५॥ सज्जय-मण-गयणाणन्दणही। गय पासु पस णिय-णन्दणहाँ॥७॥ शाणन्तरे असि-दलबहियउ। सस्थलु दिनु णिपट्टियः ॥८॥
पत्ता दिट्टु कुमार-सिर स-सउडु मणि-कुण्डल-मण्उिउ । जन्ते हि किण्णरें हिँ घर-कणय-कमल निजउ ।।२।।
[] सिर-कमल णिएप्पिा गीड़-भय । रोमन्ती महियले मुच्छ-गय 112॥ कादन्ति रुवन्ति स-धेयणिय । णिजीच जाय णिचेयणिय ॥२॥ पुणु दुवस्तु दुपतु संघरिय-मण । मह-काया दर-मलिय-णपण॥३॥ णं मुच्छए किट सहियत्तणड़ । ज रनिषट जीबु गवणमण Hu पुणु उ8 वि विहुणइ भुभजुअलु। पुणु सिर पुणु पहाट वच्छयल ॥५॥ पुणु कोइ पुणु धाइहिं रह 1 पुणु दोसर णिहालाइ पशु पहा ॥६॥
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तोलमो संधि
२५५ और यमकी तरह हैं।" यह शब्द सुनकर लक्ष्मण कहते हैं"यदि राजा होकर भी पौरुष नहीं है, जिस प्रकार दानसे, जिस प्रकार सुकवित्वसे, जिस प्रकार शस्त्रसे, जिस प्रकार कीर्तनसे सब मनुष्योंकी कीर्ति परिभ्रमण करती है और जिस प्रकार जिनवरसे मुरन धवल होते हैं। इन इतनों में से जिसके मनमें एक भी बात अच्छी नहीं लगती, वह जन्मा हुआ भी मृत है, व्यर्थ ही यम उसे ले जाता है ।।१-९॥
[६] इसी बीच देवोंके लिए सन्तापदायक रावणकी सगी छोटी बहन, पाताललकाके लंकेश्वर उस खरदूषणकी प्राणप्यारी पत्नी चन्दनना हर्षसे जलती हुई, आपने पुत्र सम्हः कुमार) के पास चली (यह सोचती हुई कि) "लो, चार दिन ऊपर बारह वर्ष हो गये हैं, दूसरे दिन वह तलवार हाथमें आ जायेगी, वह तलवार आज हाथसे गिर जायेगी।" मधुर स्वरवाली वह इस प्रकार कहती हु, नैवेद्य, दीप, अग्नि हाथमें लेकर सज्जनोंके मनको आनन्द देनेवाली गयी और अपने पुत्रके पास पहुँची। उस बीच में उसने तलवारसे छिन्न-भिन्न पड़ा हुआ वंशस्थल देखा । उसने कुमारका मुकुट और कुण्डलोंसे शोभित सिर देखा मानो जाते हुए किन्नरोंके द्वारा छोड़ा गया श्रेष्ठ स्वर्णकमल हो ॥१-५॥
७] सिरकमलको देखकर भयभीत रोती हुई वह मूर्षिछत हो गयी | वेदनासे व्याकुल आक्रन्दन करती और रोती हुई वह निर्जीव और निश्चेतन हो गयी। फिर बड़ी कठिनाईसे उसने अपने मनको रोका। उसका मुख कातर था, और आँखें भयसे बन्द थीं। मानो मूर्छाने उसकी बहुत बड़ी सहायता की कि जो उसने जाने की इच्छा रखनेवाले जीवकी रक्षा की। वह उठकर फिर अपने हाथ पीटने लगती है। फिर सिर पीटती है और यक्षःस्थल पीटती है । फिर पुकारती है, फिर धाड़ मारकर
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पठमधारित
पुणु उहइ पुणु कन्द कगा। पुणुश्त हि अप्पर आइगह ॥७॥ पुणु सिह अफालइ धरणियहें। रोषन्ति सुर रोवन्ति पहें ॥६॥
पत्ता जे चउदिसे हि थिय णिय हाल पसारधि तहषर । 'मा रुव घन्दहि' णं साहारन्ति सहोयर ॥९॥
[८] अप्पापड सो चि ण संधवह। रोवन्ति पुणु वि पुणु उट्टवइ ॥१॥ 'हा पुत्त विराज्झहि सहहि मुहु। हा विरुप गिदएँ सुत्तु सुहुँ ।।२॥ हा किण्णासायहि पुस मई। हाकिं दरिसाविय माय पइँ ॥३॥ हा उपसंहारहि रू लड्डु । हा पुत्त देहि पिय-धयणु महु ॥४॥ हा पुत्त काइँ किउ रुहिर-बडु। हा पुस एहि उच्छन्ने बह ।।५।। हा पुत्त लाइ मुहें मुह-कमलु। हा पुस एहि पिउ थण-जुअलु ॥६॥ हा घुस देहि आलिङ्गणड जे पञ्चमि धणे घद्रावणा ॥७॥ णव-मासु छुन्धु जं मइँ उमेरे । तं सहल मनोरट अज्जु जण ॥८॥
पत्ता हा हा दड्ड चिहि कहि णियड पुग्नु कहाँ समि । काइँ कियन्त किउ हा दहब कवण दिस लामि ।।९।।
[१] का अन्जु श्रमालु विहिं पुरहँ। पायाललक-सवाउरहूँ ।।१।। हा भन्नु घुक्नु बन्धव-जणहाँ। वा अपजु पडिय मुअ राषणहाँ ॥२।। हा अज्जु खरहाँ रोबाधणउ । हा प्रअ रिउ घद्धावणउ ||३|| हा अज्नु फुट्टु कि ण जमहाँ सिरु । हा पुप्त णिवारिउ मह मि चिरु ॥ से लागु ण सावण्णही गरहीं। पर होइ अबू-चकेसरही ॥५|| किं तेण जि पाडिउ सिर-कमलु। मणि-कुपहल-मपिढयाण्डपलु' ॥६॥
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छसोसमो संधि
३५०
रोती है। फिर दिशाएँ देखती है और फिर गिर पड़ती है। फिर पठती है, फिर कन्दन करती है, बोलती है, फिर उक्त प्रकारोंसे अपनेको आहत करती है। फिर धरती पथपर अपने सिरको पीटती है। उसके रोनेपर आकाशमें देव रो पड़ते हैं। जो वृक्ष चारों दिशाओं में अपनी शाखाएँ फैलाये हुए खड़े थे, वे मानो "हे चन्द्रनखा तुम रोओ मत" (यह कहकर) सहोदरोंकी तरह सहारा दे रहे थे ।।१-९॥
[८] फिर भी यह स्वयंको सहारा नहीं दे पा रही थी । वह रोती और बार-बार खड़ी होती हे पुत्र होशमें आओ, मुंह पोछो, हा, यह तुम भयंकर नींद में सो गये। हे पुत्र, तुम मुझसे क्यों नहीं बोलते ? हा तुमने माताको यह क्या दिमाया ? हा, तुम शीघ्र अपना रूप समाप्त करो। हे पुत्र, शीघ्र मुझसे प्रिय वचन कहो, हे पुत्र, तुमने अपने वस्त्र रक्तरंजित क्यों कर लिये ? हे पुत्र, आओ और मेरी गोदमें चढ़ो, हे पुत्र, मेरे मुँहपर अपना मुखकमल लाओ। हे पुत्र आ, और मेरा स्तन युगल पी। हे पुत्र, आलिंगन दो कि जिससे मैं वनमें बधाई नाच सकूँ। जिसे मैंने अपने पेट में नौ माह रखा, तो उस मेरे मनोरथको आज सफल करो। हे दग्ध विधाता मेरा पुत्र कहाँ, किसके पास खो ? कृतान्त तुमने यह क्या किया? हा देव किस दिशाका मैं उल्लंघन करूँ ॥१-२||
[९] आज दोनों नगरों-पाताललंका और लंकापुरका अमंगल हो गया । हा, आज बान्धवजनोंका दुःख हो गया।हा, आज रावणकी भुजा दूट गयी । हा, आज खरके लिए रोना आ गया, हा, आज सत्रुके लिए बधाई आ गयी । हा, आज यमका सिर क्यों नहीं फूट गया ? हे पुत्र, मैंने पहले ही मना किया था कि वह खड्ग किसी मामूली आदमीका नहीं है, वह केवल अर्धचक्रवर्तीका है | क्या उसीने तुम्हारा मणिकुण्डलोंसे मण्डित
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१५८
पउमचरित
पुण पुणु रिसाव सुरयणहों। रवि-हुभवह-वरुण-पहजहाँ ॥७॥ अहाँ देवहाँ पालुज रक्खियउ। सच्चे हिं मिलेवि उपेसिषयड ॥८॥
पत्ता
तुम्हई दोसु गावि महु दोसु जाह मणु ताडि । मन्छ, म मह गानुगोसारित ॥२॥
[१ ] एत्यन्तर सोएँ परियरिय । डि जिह निह पुणु मच्छर-मस्मि ॥१॥ णिकरिय-यण विरफुरिय-मुह । विकराल णा वय-काल-जुह ॥२॥ परिवयि रषि-मण्डलें मिलिय। जम-जीह जेम गहें फिलिपिलिय ॥३॥ 'ज घाइउ पुत्तु महु-सणउ। खर-णन्दणु रावण-मायणः ॥ ४ ॥ तही जीवित जह ण अज्जु हरमि । तो हुवाह-पुन्जे पईसरमि' ||५|| इय पहज करेपिणु चन्दहि । किर वले वि पलोबा जाम महि | लय-मण्डव लक्रियय वे वि गर । धरणि उब्भिय उभय कर ॥७॥ सहि एक्कु दिल करवाल-भुउ । 'लई एण जि हउ महु सणउ सुउ ॥uk
पत्ता एण जि असियण गियमस्थहौँ कुल-पायारहों । स? वैसश्यलॉग सिह पाढिन सम्वुकुमारहों ॥९||
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[ 1] जं दिट्ट कणन्तरे वे वि गर। गउ पुत्त-विनोउ कोज वर ॥१॥ आयामिय विरह-महामण । गच्चाविय मगरलय-गण ॥३॥ पुलबजाइ पासेहमइ वि। परितप्पा जर-बेइजह वि ।।३।। मुग्छिनई उम्मुकिछजाइ वि। शुरुण विवाहिँ मजद वि ॥५॥ 'परि एउ रूड उवसंघरमि। सुर-सुन्दरु कग्ण-वेसु करमि ॥५॥ पुणु जामि एस्थु उम्बर-मवणु। परिणेसह अवसे एक्कु जाणु' ॥६॥
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छत्तीसमो संधि
२५९ गण्डस्थलवाला सिरकमल गिरा दिया। बार-बार वह देवजनोंको उसे दिखाती हैं । हे सूर्य, अग्नि, वरुण और पवन ! देवताओ! आप लोगोंने मेरे बच्चेको नहीं बचाया? सबने मिलकर उसकी उपेक्षा की ? इसमें तुम्हारा दोष नहीं है देवताओ, मेरा ही दोष है जिसने शायद दूसरे जन्ममें किसी दूसरेको सताया होगा ॥५-५॥ _ [१०] इसके बाद शोकसे घिरी हुई, जिस प्रकार नर्तकी,
मी प्रकार मत्सरसे भरी हुई, डरावने नेत्रोंवाली, विस्फुरित मुख, प्रलयकालकी आगके समान विकराल वह बढ़ती हुई
आकाशमण्डलसे जा मिली। यमकी जीभकी तरह आकाश में फिलकारियाँ भरती हुई। जिसने मेरे पुत्र स्वरके नन्दन और रावणके भानजेको मारा है, यदि मैं आज उसके जीवनका अपहरण नहीं करती तो मैं अग्निसमूहमें प्रवेश कर लूंगी, यह प्रतिज्ञा कर, चन्द्रनखा जैसे ही पीछे मुड़कर धरती देखती है वैसे ही उसने लतामण्डपमें दो मनुष्य देखे जो मानो धरतीके दो हाथ ऊपर उठे हुए थे। वहाँ एकके हाथ में करवाल दिखाई दी। तो इसी ने मेरे पुत्रकी हत्या की है। इस तलवारके द्वारा वंशस्थल के साथ ही, नियममें स्थित कुलकी दीवार शम्बुकुमारका सिर तोड़ा है ॥१-२॥
[११] जब उसने वनके भीतर दो आदमियोको देखा तो उसका पुत्रशोक चला गया। विरहरूपी महाभटने उसपर चढ़ाई कर दी। कामरूपी नटने उसे नचाना शुरू कर दिया। वह रोमांचित हो उठती है। पसीना-पसीना हो जाती है । सन्तप्त हो उठती है और उवरसे पीड़ित हो उठती है। वह मृच्छित होती है, उन्मूच्छित होती है। रुन-रुन शब्द करती है, विकारोंसे भग्न होती हैं। अच्छा है, मैं अपना यह रूप छिपा लूँ । देवोंके लिए सुन्दर कन्यारूप बनाती हूँ और फिर इस टता.
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पउमचरित
हियइपिछड' तक्षणे छड किड । णं कामही कोड (1) 0 ति विहिउ ॥७॥ गय तहि जहि तिणि विजगविणे । पुशु पाहहिं स्वहिं ला खण ५६॥
धत्ता पभणइ जणय-सुय 'वल पेक्खु कण्ण किह रोवइ । जं कालन्तरिड तं दुफ्छु णाई उक्कोचाई' ॥१॥
[१२] रोखम्ती मलहरेंण। हक्काघि पुग्छिय इलहरेंण ॥३॥ 'कहि सुन्दरि रोवहि काइँ तुहुँ। किं पहिड किं पि णिय-सयण-वुहु ॥२॥ कि केण पि कहि त्रि परिमविप। तं वाणु सुचि पाक विथ ॥३... . हर पाविणि दीण दयावणिय । णिन्वन्धष रुमि घराय णिय ॥४॥ वण भुस्लो उ जाणाम दिसउ । ण जाणमि कवणु सु विसउ ॥२॥ कदि गछमि चाचूहें पडिय। महु पुण्णेहिं तुम्ह समावलिय ॥६॥ जइ श्रम्ह हुँ उपरि अस्थि मणु | तो परिणउ विषह वि एक्कु जणु ॥७॥ चयः सुधि हुलाउहण । किय णक्यकोही राहवण |
घत्ता करमल विषाणु मुह किय वक मह सिरु चालिड । 'मुम्दर ण होइ बहु सौमित्तिहँ क्यणु णिहालिउ ॥९॥
[ १३ ] जो जरघई अह-परमाण-करु। सो पत्तिय अत्थ-समस्थ-हरु ॥१॥ ओ होह उवायणे वच्छला। सो पत्तिय विसहरु केवला ॥२॥ जो मित्त अकारण एई घरु। सो पत्तिय दुद्छु कलत्त-हरु ॥३॥ जो पन्थिर अलिय-सणेहियउ। सो पत्तिय घोह अगेहियउ ॥४॥ जो णरु अस्थक ललि-कह। सो सत्तु णिसाड जीव हरु ॥५॥ जा कामिणि कषद-चाच कुणह। सा पग्लिय सिर-कमलु पि लुणाइ ॥६॥
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छसोसमी संधि
५६५ भवनमें जाती हूँ। अवश्य ही एक आदमी विवाह कर लेगा। उसने तत्क्षण मनपसन्द रूप बना लिया। उसने जो रूप किया वह कामदेवको भी कुतूहल उत्पन्न करने वाला था। वह वहाँ गयी जहाँ तीनों लोग थे ! भिर मह या भर में दहाड़ मारकर रोने लगी। जनकसुता सीता बोली, "राम, देखो कन्या क्यों रोती है ? जो समयसे छिपा हुआ था, वह दुःख मानो इसे उद्वेलित कर रहा है" ॥१-२॥ __ [१२] पापका हरण करनेवाले बड़े भाई रामने रोती हुई, उससे पूछा, "हे सुन्दरी, तुम क्यों रोती हो, क्या तुम्हारे ऊपर कोई स्वजनका दुःख आ पड़ा है ? या फि क्या कहीं किसीने तुम्हारा पराभव किया है ?' यह वचन सुनकर बाला बोली, "हे राजन् , पापिनी दीन दया करने योग्य, बन्धुहीन घेचारी, मैं रोती हूँ | अनमें भूल गयी हूँ। मैं दिशा नहीं जानती । यह भी नहीं जानती कि कौन-सा देश और विषय (प्रान्त ) है ? कहाँ जाऊँ, चक्रव्यूह में पड़ गयी हूँ। मेरे पुण्योंसे तुम मुझे मिल गये। यदि हमारे ऊपर तुम्हारा मन हा तो दोनों में से एक मुझसे विवाह कर ले।" यह वचन सुनकर रामने अपना नाखून खोद लिया। ( मना कर दिया)। मुंहपर हाथ रख लिया । भौहें टेढ़ी कर ली, और सिर चलाया। किसी चीजमें अति अच्छी नहीं होती। उन्होंने लक्ष्मणका मुख देखा ॥१-९||
[१३] जो राजा अत्यन्त सम्मान करनेवाला होता है, विश्वास करो कि वह अर्थ और सामर्थ्यका हरण करनेवाला होता है। जो मित्र अकारण घर आता है, विश्वास करो कि वह दुष्ट स्त्रीका अपहरण करनेवाला होता है। जो पथिक रास्तेमें अधिक स्नेह करता है विश्वास करो कि वह स्नेहहीन चोर है । जो मनुष्य लगातार चापलूसी करता है वह निश्चयसे जीयका हरण करनेवाला शत्रु है । जो कामिनी कपदपूर्ण चाटुता
॥
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२६२
जा कुलबहु सवर्हे हि वबहरहु । जा कण्ण होत्रि पर
रु वर ।
ਸਰਬ
सापयित्रिय हूँ करइ ॥७॥ सः किं बसी परिहरइ ॥ ८ ॥
प्रसा
र नूह
आयहुँ अहहु मिजो लोइड धम्मु सिंह खुद त्रिष्प
- कुण्डल दरिद । अन्तु - णिवा सुन्दरेण ।
बीसम्भ |
प पऍ लम्भइ ॥ ९ ॥
[४]
सम्पणु घेरा सण मुद्देण । 'महु अस्थि मज्ज सुमणोहरिय | एव समास अक्खिराउ | हउँ लेमि कुमारि स लक्खणिय जल-अङ्गय वट्ट-थण । रहि इन्द्र णिरिणिय । जा उण्णय मार्से मिला ति । काय िस गग्गर तावसिय ।
सो मिति बुत्तु सीरा ॥३॥ लहू लखण बहु लक्खण- भरिय ॥ २ ॥ कण्हेण वि मनें उक्ल विखयड ॥ ३ ॥ जा आपमें सामु समि ॥४॥ दोहर-कर-लि-यण ॥५॥ चामीयर-वरण सपुजनिय १६ ।। साहो ति पुरा माययि ॥७॥ सम-चलणङ्गुलि अचिराउसिय || ८ ||
जा हंस- वंस - बरवीण-सर ।
महु-पण महा-घण- छाय-थर ॥९॥
जड़ें वामएँ कर दोन्हि सय । गोड घरु गिरिवरु अहब सिक ।
सु-ममरणाहि सिर-ममर-धण ( ? ) । सा बहु-सुथ बहु-घण बहु-सयण ॥ १० ॥ मीणारविन्द विस-दाम-धय ॥ ११ ॥ सु पसरथ स-कलण सा महिल ॥ १२ ॥ रोमावलि बलिय भुयञ्जु जिह ॥ १३ ॥ मुसाहल - सम-दन्तसरें ॥ १४ ॥
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छसोसमो संधि
२॥ करती है, जिात हो कि सिनरूपी मामलको काटनेवाली होती है; जो कुलवधू कसमोंसे व्यवहार करती है ( बात-बातमें कसम खाती हैं ) विश्वास करो कि वह सैकड़ों विदुरूपताएँ करनेयाली होगी। जो कन्या होकर परपुरुषका वरण करती है, वह क्या बड़े होनेपर ऐसा करनेसे विरत हो जायेगी। इन आठों ही बातों में जो मूढ़ मनुष्य विश्वास करता है लौकिक धमकी तरह वह शीघ्र पग-पगमें अप्रिय प्राप्त करता है ।।१-२||
[१४] कमलमुख रामने विचारकर लक्ष्मणसे कहा"मेरी सुन्दर पत्नी है। हे लक्ष्मण, तुम लक्षणोंसे युक्त बहू ले लो।" जब उन्होंने संक्षेप में इस प्रकार कहा तो लक्ष्मणने भी अपने मनमें विचार किया (और कहा)-मैं भी लक्षणोंसे युक्त कुमारी ग्रहण करूँगा जो कि सामुद्रिक शास्त्रमें कही गयी है। जो जाँघों और ऊरओंसे अभंग हो, गोल स्तनोवाली हो, जिसके हाथ, नख, अंगुलियों और नेत्र लम्चे हो। लाल चरणोंवाली, गजेन्द्रकी तरह दर्शनीय तथा स्वर्ण रंगकी पूजनीय हो। जो नासिका और ललाटमें उन्नत हो, वह तीन पुत्रोंकी माँ होती है। कौए के समान पैरों और गद्गद स्वरवाली तपस्विनी होती है। जो पैरों में समान अँगुलियोंवाली होती है वह कम आयुवाली होती है। जो हम, बाँसुरी, वीणाके स्वरवाली, मधुके समान रंगवाली, महामेघोंकी कान्तिको धारण करनेवाली, शुभ भ्रमरके समान नाभि और सिरवाली, भ्रमरके समान स्तनबाली (??) होती है, वह अनेक पुत्रों, स्वजनों और अत्यधिक धनवाली होती है। जिसके बारने करतलमें सदैव मछली, कमल, वृष, दाम और ध्यज, गोपुर, घर, गिरिवर अथवा शिला हो, सुप्रशस्त मा महिला लक्षणवती होती है। चक्र, अंकुझ और कुण्डलको कारण फरनेवाली जिसकी रोमावलि सौंपकी तरह मुड़ी हुई हो. पथचन्द्रके समान सुन्दर ललाट, और मोतीके समान अपने दाँतों
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२६०
पउमचरित
पत्ता भाएँ हिँ लवणे हि सामुएं वणि [य] सुणिजह । चक्काहिवहाँ तिय बच्वइ पुत्तु उप्पजइ ॥१५॥
[ ५] बहु राहम एह अलक्षणिय । हउँ मणमिण लक्षणेण मणिय ॥१॥ जशोरु-करेहि समंसलिय । चल-लोयण गमणुसापलिय ॥२॥ कुम्मुण्णय-पय विसमलिय। धुन-कषिक-केसि खरि पनुलिय(?)॥३॥ सम्बा -समुट्टिय-रोम-रह । तहें पुरुवि भत्तारु वि मरइ ॥ ४॥ कवि-लश्छाय मउँहाबलि-मिलिय । सा देव निरुत्तर झेन्दुलिय ॥५॥ दालिसिणि तिमिर-लोयणिय | पारेवयच्छि जण-भोजणिय ।।६।। विरसउह-दिष्टि विरस उहा ला दुकायम हो। ५५ ||७|| णासमा थोरै मशरण । सा लजिय कि बहु-विरथरेण ॥ ८॥ कहि-विहुर-णाहि (?) मुह-मासुस्थि । सा रपरससि बहु-भय-मासुरिय ॥९॥ कडु-अनिय मत-गइन्द-छवि। हउँ एहिय परिणमि कण्ण णवि ॥ १०॥
घत्ता
पभणइ चन्दहि किं णियय-सहावें लजमि । जह हउँ णिसिमरिय वो पहमि अम्ल सई भुमि' ॥११॥
सत्ततीसमो संधि
बन्दपहि भल जिम एम पगजिय 'मरु मरु भूयहुँ देमि वलि' । णिय-रूवें पतिय रण-रसें अड्डिय रावण-रामहुँ गाइ कलि ॥
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सत्तलीसमो संधि
२१५
,
के अन्तर से ( वह लक्षणवत होती है। ) सामुद्रिक शास्त्र में वर्णित किया जाता है कि इन लक्षणोंसे युक्त स्त्री चक्रवर्तीकी पत्नी होती है और उससे चक्रवर्ती पुत्र होता है ॥१-१५।।
[१५] लक्ष्मणने कहा कि मैं कहता हूँ, हे राम, यह स्त्री लक्षणोंसे 'शून्य है । जाँधों, उरस्थल और हाथोंसे यह मांसल हैं। इसके चंचल नेत्र हैं । यह चलने में जल्दी करती है। इसके पैर कछुएकी तरह उन्नत हैं। अँगुलियाँ विषम हैं। हिलते हुए कपिल केशोंवाली। इसके समूचे शरीरपर रोमराजी उठी हुई हैं । इसके पुत्र और पति भी मर जायेंगे। जिसकी कमर कलंकयुक्त हैं, और भौंहें भी मिली हुई हैं, हे देव ! वह निश्चयसे वेश्या होगी । तीतर के समान लोचनवाली दरिद्र होती है। कबूतर के समान आँखोंवाली लोगोंका भोजन करनेवाली होती है । कौए के समान दृष्टिवाली और कौए के समान स्वरवाली केवल दुःखोंकी पात्र होती हैं । स्थूल और मन्थर नामिकामवाली वह दासी होती है, बहुत कहने से क्या ? कमर तक बालोंवाली मसली नाभि और मुखवाली, अनेक भयोंसे भास्वर वह (भारी) राक्षसी होती हैं । कटु अंगोंवाली, गजेन्द्र के समान छविवाली इस कन्याका मैं करण नहीं करता हूँ। तब चन्द्रनखा कहती हैं---"क्या अपने स्वभाव से लज्जा करूँ, यदि मैं निशाचरी हूँ तो आज मैं अपने हाथोंसे तुम्हारा भोग करूँगी" ॥१-११||
सैंतीसवीं सन्धि
लज्जासे रहित चन्द्रनखाने गरजकर इस प्रकार कहा"मरो सरो, भूतोंको अन्यि देती हूँ ।" अपने रूपसे बढ़ती हुई, वह ऐसी लगी मानो युद्ध के उत्साहसे सहित राम और रावणकी कलह हो ।
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पडमचरिद
[ ] पुणु पुणु वि पवढिय किलिकिछति । जाहापलि-बाला-सय मुन्ति॥॥ मय-मीरण कोषाणल-सणाह । पं धरऐं समुग्मिय पधर चाह ॥२॥ णाह-सरि-रवि-कमलहों कारणस्थि। अहवह णं मुद्धारणस्थि ॥३॥ णं घुसला भम्भ-चिरिड्डिहिल्लु। तारा-वुख्खुव-सय-विहिरिएलु ॥४॥ ससि-लोणिय-पिपब केवि धाइ। गह-हिम्मही पोहउ देइ णा ॥५॥ माहवह किं पहुणा विस्थरेण । णं पाहयल-सिल गेण्डा सिरेण॥६॥ णं हरि-बल-मोत्तिय-कारणेण 1 महि-गयण-सिप्पि फोडइ खणेण॥७॥ बलए बुबह 'वच्छ वा सुहुँ बहुयह परियई पेच्छ पेच्छ॥८॥
घत्ता चन्दणहि पम्पिय सिणु षि ण कम्पिय 'कन सम्गु हा पुत्तु जिह । तिणि वि खजान्तइ मारिनन्त है रक्खेजहाँ अप्पाणु तिह ॥५॥
वणेण तेण असुझावणेण । करवाल परिसिध महुम हेण ॥१॥ दक-कढिण-कोरुप्पीलणेपण। अलि-अट्ठावीलणेण ॥२॥ & मण्डलगु थरहरह केम। भत्तार-मएं सुकलतु जेम ॥३॥ अणवस्य-मबमा गर-णिसुम्भे । तहिं दारिमन्तें गइन्य कुम्भे ॥१॥ जो चाहिं मोत्तिय-णियफ ला । पासव-फुलिङ्ग बहु क वलम्गु ॥५॥ संतेहउ पग्गु लएवि तेण । विजाहरि पमणिय लक्षणेण ॥६॥ 'जै लाइड सीसु तुह पदणासु । करवालु एउ. सूरदासु ॥७॥ बइ अस्थि को वि रण-सर-समाथु । तहों सम्बहाँ उम्मिन धम्म-हथु ॥४॥
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सस्तीसमो संधि
२६५ [२] फिर-फिर बढ़ती हुई वह किलकारियाँ भरती हैं। ज्यालावलीकी सैकड़ों ज्वालाओंको छोड़ती है। भयसे भयंकर कोएज्वालासे सहित वह ऐसी जान पड़ती थी मानो धराने अपनी प्रवर बाँह उठा ली हो, या तो आकाशरूपी नदीके रविरूपी कमलके लिए अथवा मानो मेघोंके उद्धारके लिए। मानो वह, जिसमें तारारूपी सैकड़ा बुदबुद बिलाये गये हैं ऐसे मेंरुपी दहीको बिलोती है, चन्द्रमारूपी लोनीपिण्डको लेकर दौड़ती है, जैसे बह ग्रहरूपी बालकके लिए पीठा दे रही हो । अथवा बहुत विस्तारसे क्या ? मानो वह आकाशरूपी शिलाको अपने सिरके ऊपर ले रही है। मानो लक्ष्मण और रामरूपी मोतीके लिए वह एक क्षणमें आकाश और धरतीरूपी सीपको फोड़ना चाहती है । रामने तब कहा-“हे वत्स वत्स, तुम वधूके चरितको देखो देखो।" तिनके बराबर भी नहीं काँपते हुए चन्द्रनखा बोली- "खड्ग उठाओ। जिस प्रकार तुमने पुत्रका बध किया, उसी प्रकार तुम तीनों खाये मारे जाते हुए अपनेको बचाओ।" ॥१-५॥
[२] उस अशुभ वचनके कारण लक्ष्मणने तलवार दिखा दी। दृढ़ कठिन कठोर उत्पीड़न है जिसमें ऐसे अंगूठेके आपीड़नसे, वह तलवार उसी तरह थरथरा उठती है, जिस प्रकार पतिके भयसे अच्छी खी। जो अनवरत मद झरता है, तथा जो मनुष्योंका नाश करने वाला है, ऐसे गजेन्द्रके गण्डस्थल के विदीर्ण होने पर, तलबारकी धाराओं में जो मोतीसमूह लग गया था, वह ऐसा लगता था, सानो प्रस्वेद के कण बहूको लग गये हों। इस प्रकार अपने उस खगको लेकर लक्ष्मण विद्याधरीसे बोला-"जिसने तुम्हारे पुत्रका सिर काटा है यह बद्द सूर्यहास तलवार है। यदि कोई युद्धका भार उठाने में समर्थ हो, तो उन सबके लिए धर्मका हाथ उठा हुआ है।" तब खरकी पत्नी
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२६८
खर-धरिकिऍ
पदमचरि
चुतु 'ण होइ कज्जु । को वारह मार मह मि वज्जु' ॥३॥
घत्ता
सा एव मणेपिणु गलगज्जेपिणु चलणेंहिँ अप्फादेवि महि । खर दूसण-वीरहुँ अतुल सरीरहुँ गय वारें चन्दणहि ॥ १०॥
[]
-रा
जलहर जिह सिंह बरिसन्ति णयण ॥ १ ॥ णं चन्द्रण-लयहँ भुअङ्ग खा ॥२॥ अप्पाणु विचारिs जिय हे हिं ॥ ३ ॥ णं क - कलस कुङ्कम विठिति ॥ ॥ ॥ खरसंग रावण भविति ॥५॥ णं मन्दोयरिहं सुपुरिस- हाणि ॥ ६ ॥ निविसेण पत्र पायाळलक ॥७॥ खरमण पट्ट मारि ॥८॥
वस वधाइ दण-वरण | सम्बन्ति लम्ब कडियल समग्ग । वीया-मयलञ्ण-सणिहेहिँ । रुहिरोडिय ण-विष्यन्त-रत्त । णं दाव क्षण-राम-किसि ।
णं णिलिवर - लोयहाँ दुक्ख-खाणि । घणं हे पहारन्ति सङ्क | निय मन्दिर बाहाचन्ति णारि ।
पत्ता
वारु सुणेपिणु धण पेक्खेपिराएँ क्लेंवि पलोइयउ ।
तिहुय संघारें वि पलउ समारेंचि णाइँ कियन्तें जोउ ॥ ९॥
[ * ]
कूवारु सुर्णेवि कुल-भूस
।
।
कहें केणुप्पाड जमहाँ जय कहि केण कियन्तहाँ कियड मरयु कहि केण व पवणेण पष्णु । *हि केण भिष्णु वजेण वज्जु । कहि केण भाणु उण्हेण सति ।
पिपुच्छय दूसणेण ॥ १॥
कहें केा पजोहड काल- जय ॥२॥
कहि केण क्रिषड विस- कन्द-चरणु ॥ ३ ॥ कहि केण दख्ख जलण जणु ॥४॥ कहि क्रेण धरि कहि केण समुद्र
जल जला अज्जु ॥ ५ ॥ तिसाऍ खविउ ॥ ६ ॥
L
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ससतोसमी संधि
२६९ बोली-"इससे काम नहीं बनेगा, आज कौन मुझपर आक्रमण कर सकता या मुझे मार सकता है।" वह इस प्रकार कहकर गरजकर पैरोंसे धरती चौपकर, अतुल शरीरवाले खरदूषण वीरों के पास क्रन्दन करती हुई गयी ॥१-१०॥
[३] दीनमुख वह रोती हुई पहुँची। जिस प्रकार मेघ, उस प्रकार आँखें बरसाती हुई। लम्बे समग्र कटितल तक लटकती हुई केशराशि ऐसी मालूम होती थी, मानो चन्दनलतासे साँप लटके हुए हों। द्वितीयाके चन्द्रमाके समान अपने नखोसे उसने स्वयंको विदारित कर लिया । रक्तकी धाराओंसे उसके स्तन लाल हो गये; मानो केदारसे रंगे हुए स्वर्ण कलश हो । मानो वह राम और लक्ष्मणकी कीर्ति दिखा रही हो, मानो खरदूषण और रावणको भवितव्यता हो, मानो निशाचर लोकके लिए दुःखकी खान हो। मानो मन्दोदरीके एकपको हन हो, जागो लंकामें प्रवेश करती हुई शंका हो, वह एक पलमें पाताललंका पहुँच गयी। वह स्त्री अपने घर में धाड़ मारकर इस प्रकार रोने लगी, मानो खरदूषण के लिए भारीने प्रवेश किया हो।" क्रन्दन सुनकर, त्रीको देखने के लिए राजाने मुड़कर इस तरह देखा, मानो त्रिभुवनके संहार और प्रलय करने के लिए कृतान्तने ही अवलोकन किया हो ॥१-९।।
[४] उमका क्रन्दन सुनकर कुलभूषण दूपणाने चन्द्रनखासे पूछा, "बताओ किसने यमके नेत्र निकाले हैं, बताओ किसने कालका मुख देखा है ? बताओ किसने कृतान्त का मरण किया है। बताओ किसने वृषभ और काबिकेयके परको पकड़ा। बताओ किसने पवनसे पवनकों धोंगा है ? बताओ आगसे
आगको किसने दग्ध किया हैं ? बताओ वनसे वनको किसने छिन्न किया है। बताआ किसने जलको जलसे आज प्रहण किया है ? वताओ उष्णतासे किसने सूर्यको तपाया है,
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२७०
पउमचरित
काहि केण खुखिड फणि-मणि-णिहाउ । कहें केप सहिउ सुर-कुकिम-घाज॥७॥ कहि केण हुआसणें सम्प दिष्ण । का कण इसाणण-पाय छिपण ॥४॥
पत्ता चन्दहि पोलिय अंसुजलोलिय 'अण-बल्लहु महु तणस सुर। श्रोलगाइ पाणे हिं विणय-प्रमाणे हि णरबह सम्युकुमार मुड ॥२॥
[५] भायपणे वि सम्युकुमार-मरणु। संतान-सोय-विभीय-करणु ॥१॥ पपिरल-मुह पाह-मरन्त-णयणु दुक्खाउरु दर-ओठुल-वया ॥२॥ खरु रुयह स-दुक्खइ अतुल-पिण्ड । हा अज्जु पछिउ महु पाहु-दण्ड ॥३॥ हा अजु जाय मण गअ सङ्क। हा अज्नु सुग्ण पायालला ॥४॥ हा णग्दण सुर-पत्राणणासु। कबणुत्तर देमि दसाणणासु ॥५॥ एस्थमतरें ताम तिमुण्ड-धारि। बहु-बुद्धि पजमिन वम्भयारि ॥६॥ 'हे गरबा मूडा अहि काइँ। संसार भमम्स हुँ सुन-सया ॥७॥ आया मुभाई गया जा। को सफाइ राय गणेवि ताई ॥
घत्ता
कहाँ बरु कहाँ परियणु कहाँ सम्पय-धणु माय बप्पु कहाँ पुत्तु सिर । के कर्जे रोवहि अप्पड सोयहि भव-संसारहाँ पर किय' ॥२॥
[६] जंदुक्खु दुख्नु संघिउ राउ। पडिबोलि णिय-घरिणिएँ सहाउ ॥१॥ 'कहे केश वहिउ महु तण उ पुत्तु' । तं धयणु सुणे वि धणिआएँ घुसु ॥२॥ 'सुणु णरव दुग्गमें दुग्यवेसें। दुग्धोइ-घट्ट-घट्टण-पसें ॥३॥ पहाणण-लक्नुपरणय-फराले। सहि नेहा दण्डय-धणे विसाले ॥४॥ घे मणुसु दिट्ट सोडोर बीर। महारविन्द-सण्णिह-मरीर ॥५॥ कोवण्ड-सिलीमुह-गहिय-हस्य । पर-बल-बल-उस्यलण-समस्थ ॥६॥
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सत्ततीसमो संधि यताओ किसने प्याससे समुद्रका क्षय कर दिया है ? बताओ किसने नागमणिसमूहको उखाड़ा है ? अताओ देववनका
आघात किसने सहन किया है ? यताओ किसने आगको ढंक दिया है ? बताओ किसने दशाननके पैर छिन्न किये हैं ? तब अश्रुजलसे गीली होकर चन्द्रनखा बोली, "हे राजन् , मेरा जनप्रिय पुत्र शम्बुकुमार बिनयके समान अपने प्राणोंको लेकर मर गया ॥१-२॥
[५] सन्ताप, शोक और वियोग उत्पन्न करनेवाला शम्बुकुमारका मरण सुनकर, मुंह फाइकर, आँसुओंसे आँखें भरकर दुःखसे परित, कुछ मुँह नीचा किये हुए. खर अपने दुःखसे रोता है-"हा, आज अतुल शरीर मेरा वाहुदण्ड गिर पड़ा । हा, आज मेरे मन में भारी शंका उत्पन्न हो गयी; हा, आज पाताल लंका सूनी हो गयी। हे पत्र, देवरूपी सिंहों का नाला करनेवाले दशाननको मैं क्या उत्तर दूं।" इसी बीच में त्रिपुण्डधारी बहुबुद्धि ब्रह्मचारी बोला, "हे मूख राजा ! रोते क्यों हो, संसारमें भ्रमण करते हुए तुम्हारे जो सैकड़ों पुत्र हुए मर गये और चले गये, उन्हें कौन गिन सकता है ? किसका घर ? किसके परिजन, किसका सम्पत्ति-धन, किसके पिता, माता तथा नी ? किस कारण तुम रोते हो, शोक करते हो, भवसंसारका यही क्रम है ? ॥१-९॥
[६] जब बड़ी कठिनाईसे राजा आश्वस्त हुआ तो उसने हायपूर्वक पूछा, "बताओ, मेरे पुत्रका वध किसने किया ?" यह वचन सुनकर धन्या बोली-“हे राजन्, सुनिए । जो दुर्गम और दुष्प्रवेश्य हैं, जिसमें गजसमूह के संघर्ष के प्रदेश हैं तथा जो लाखों सिंहोंके क्षयसे विकराल है, ऐसे उस विशाल दण्डक बनमें मैंने दो प्रचण्ड बीर देखे है, जो मेघ और कमलके समान शरीरवाले हैं, जिन्होंने धनुष-बाण अपने हाथों में ले रखे हैं, जो शत्रुसेनाके बलको परास्त करने में समर्थ हैं। उनमें एक
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२७२
पटमचरिड
तहि एक्कु विद्दु तियसहुँ भसज्ज । तें साइट खग्गु हउ पुतु मम ॥७॥ अण्णु वि अवलोवहि देव देव। कक्खोर वियारिड पेक्स्सु केव ॥६॥
धत्ता
वणे धरै वि स्यन्तो धाह मुअन्ती कह बि ण मुत्त तेण गरेण । णिय-पुण्णे हि चुकी णह-मुह-लुको लिणि जेम सरें कुजरेंग' ॥१॥
तं क्यणु सुणे वि वहु-जागरहि। उथलक्षिय भगणे हिं राणपहिं ॥१॥ 'मार-पवर-पीवर-थणाएँ। पर एयह कम्मई अत्यणाएँ ॥२॥ मम्छुद्ध ण समिच्छिय सुपुरिसेण | अप्पर विवस वि आय तेण ॥३॥ एरथन्तरे णिचह्न णिएड जाम। गह-णियर-वियारिय दिट्ट ताच ॥४॥ किंसुय-लय म आरत-वग्ण। रत्तुप्पल-माल घ ममर-छपण ||५|| तहिं अहरु दिट्ट दमणगा-मिष्णु । णं पाक-तवणु फरगुणें उइण्णु ॥६॥ से णवण-कइपरवि खरु विरुद्ध । पं केसरि मयगल-गन्ध-लुद्धु ॥७॥ मडु मिडडि-भयङ्करु मुह-कराल । णं जगही समुहिन पलय-कालु ॥८॥
अमर वि आकम्पिय एम पजम्पिय 'कहाँ उपरि आरुट् टु खरु' । रहु खजिउ अरुण सहुँ ससि-वरुणें 'महँ वि गिलेसह णषर जर' ॥१॥
[ ४ ] उटुन्से ट्विउ भढ-णिहाउ। अस्थाण-खोहु णिविसेण जाउ ॥१॥ चूरन्त परोप्परु सुहड हुक ।। णं जलणिहि णिय-मज्जाय-बुक ॥१॥ सीसेण सोसु पण पट्ट। चलणेण पलणु कर कर-णिहट्दु ॥३॥
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सन्नतीसमो संधि
२७३ देवताओं के लिए भी असाध्य दिखाई दिया। उसने खड्ग ले लिया है और मेरे मला किया है देवदेव, और भी देखिए, किस प्रकार उसने मेरी काँख और पक्षःस्थल विदीर्ण कर दिया है। धाड़ मारकर रोती हुई भी वनमें पकड़कर उस मनुष्यने किसी प्रकार मेरा भोग-भर नहीं किया, अपने पुण्योंसे, नखानसे विदीर्ण होनेपर भी उसी प्रकार बच गयी, जिस प्रकार सरोवरमें कमलिनी हाथीसे बच जाती हैं ॥१-२||
[७) उसके वचन सुनकर बद्भुत जाननेवाली दूसरी रानियोंने समझ लिया कि मालूर के समान विशाल और स्थूल स्तनोंवाली इसी कुलटाके ये काम हैं । शायद उस पुरुषने इसे नहीं चाहा होगा इसीलिए यह अपनेको क्षत-विक्षत करके आयी है। इसी बीच जब राजा देखता है तो उसे नवसमूह-धिदारित वह दिखाई दी। पलाश लताको तरह वह लाल रंगवाली थी, लाल कमलोंकी मालाकी तरह भ्रमरोंसे आच्छन्न थी। दाँतोके अग्रभागसे काटा हुआ उसका अधर ऐसा दिखाई दिया मानो फागुनके माह में बालसूर्य उदित हुआ हो। जसके नेत्रकटाक्षसे खर एकदम विरुद्ध हो उठा मानो मैगल हाथीकी गन्धसे सिंह लुब्ध हो उठा हो । भौंहोसे भयंकर और मुंहसे कराल वह सुभट ऐसा लग रहा था मानो विश्व के लिए प्रलय उठ आया हो। देवता भी काँप उठे और इस प्रकार बोले कि आज खर किसके ऊपर क्रुद्ध हुआ है। रथ खड़ा कर दिया गया। अरूप शशि और वरुणके साथ मैं भी (खर) उस आदमीको सिर्फ निगलकर रहूँगा ।।५-२||
[4) उसके उठते हा योद्धा समूष्ट उठ खड़ा हुआ । पलमात्रमें दरबार में क्षोभ उत्पन्न हो गया । एक दुसरेको चूर-चूर करते हुए योद्धा पहुँच मानो समुद्रग्ने अपनी मर्यादा छोड़ दी हो । सिरसे सिर, पट्टसे पट्ट, चरणसे चरण, हायसे हाथ भिड़ गये
१८
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२७४
पउमचरिउ
मेहलु मेहल - गिवण मम् ॥ ४ ॥ ओहाषण-भार्णे ण वि णमन्ति ॥ ५ ॥ पढियो वि ण उट्टर मडु भरेण ॥ ६ ॥ चिडफड सण्णज्झन्ति जोड़ ॥ ७ ॥ सो होम रायहाँ तणिय आण ॥८॥
पत्ता
में कज्जु विणासही नाम बईसहों जो अभि-रय मण्ड हरइ | सिर खुद्द कुमार विज्ञा-पारहों सी कि सुम्महिं ओवरड् ॥ ९ ॥
उण मज तुवि लग्गु । उद्धन्ति के षि तिण-समु गणन्ति अहम को विणि रामेण ।
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दूसणेण शिवार व कोह 'जड़ पर वि देहु आरूसमाण ।
माणव दुमाह-गाहु | लोक-भुषग्गल-भड तक |
[9]
तो घरि किन महु तणिय बुद्धि गाव वि ण चह विष्णु तारपूर्ण । एक गम्णुि काहूँ रहि । सन्तेषि महाएँ बिस चढहि । असारदि कुटु भुषणेकवीरु । जग केसरि अरि-कुल-पय-कालु ।
णरवद्द असहायहाँ णत्थि सिद्धि ॥ १ ॥ जलशुविण जल विष्णु माकण ॥ २ ॥ रमणारे सम् खिसाएँ मरहि ॥ ३ ॥ जिर्णे भविए वि संसारें पढहि ॥ ४ ॥ सुरवर-पहरण- चड्डिय सरीक ||५|| पर-बल-बगलामुडु भुभ-विसालु ॥६॥ सुरकरि-कर-सम-थिर-थोर- वाहु ॥10॥ दुरिसण मीलण जम- सडक ॥८॥
धत्ता
तहाँ तिहुअण-माँ सुर-मण-सह शिवस-विन्द-संतावणहाँ । गड सम्व सुहग्गद्द पहँ लगाइ गप्पि कहिजा रावण ॥९॥
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सत्ततीसमो संघि
२७५
मुकुट से मुकुट टूटने लगे। मेखलाएँ मेखलासमूहसे टूटने लगी। कितने ही योद्धा उठते हैं, तिनकेके बराबर समझते हुए, दैन्य या मानके कारण ममस्कार नहीं करते । अथवा कोई योद्धा दैन्य के कारण नमस्कार करता भी है तो खड़ा हुआ यह सेनाके भारके कारण उठ नहीं पाता। क्रोधसे भरे हुए और अहंकारसे तैयार होते हुए योद्धाओंको दूषणने मना किया"तुम्हें राजाकी शपथ (आज्ञा) है, यदि तुमने क्रुद्ध होकर, एक भा कदम आगे बढ़ाया। तुम कार्य मत बिगाड़ो । तबतक चुप बैठो। जो बलपूर्वक तलवाररूपी रत्नका अपहरण करता है, विद्याम पारंगत कुमारका सिर काट लेता है क्या वह तुम-जैसे लोगों के द्वारा मारा जा सकता है ।।१-९|
[२] इसलिए अच्छा है कि तुम मेरी बात मानो। हे राजन्, असहाय व्यक्तिकी मंसारमें सिद्धि नहीं होती। बिना तारकके नाय नहीं चलती। बिना वाके आग भी नहीं जलती । तुम अकेले क्यों जाते हो ? समुद्र होते हुए भी तुम प्यासे मरते हो । महागज होते हुए भी बैलपर चढ़ते हो । जिनकी पूजा करते हुए भी संसारमें पड़ते हो। जिसका यम सारथि है और जो स्पष्ट रूपसे विश्व में एकमात्र वीर है, इन्द्र के बझसे जिसका शरीर निर्मित हैं, जो विश्वका सिंह और शत्रुकुलके लिए प्रलयकाल है, जो शत्रुसेनाक लिए बड़वानल है, बाहुओंसे विशाल है; जो दुर्दम दानवरूपी ग्राहोंको पकड़नेवाला है, जो ऐरावतकी सूंडके समान स्थिर और स्थूल बाहुवाला है, जो त्रिलोककी भटशृंखलाको तोड़नेवाला है, दुर्दर्शनीय भीषण और यमकी तरह आघात पहुँचानेवाला है । ऐसे उस त्रिभुवनमल्ल, देवमन में पीड़ा उत्पन्न करनेवाले देवोंको सन्तापदायक रावणसे जाकर कहा जाये कि शम्बुकुमार शुभगति को प्राप्त हुआ है और अब आप पीछा करें (आक्रमण करें)" ॥१-९||
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पडमचरित
[१ ] आवणे वि त वृक्षण ना ! म मरर पदोहित गुपक्ष-श्रा ॥ 'धिति लमिलाइ सुपुरिसाई। पर एय है कम्म कुपुरिसाहुँ ॥२॥ साही जीउ देहन्थु जाव। किह गम्मइ भगणहाँ पासु ताव ॥३॥ जाण जीवे मरिएवउँ ज । तो बरि पहरिज वर-वइरि-पुम्जे ॥१॥ जलभह साकार लोएँ अजरामर को विमा -कोएँ ॥५॥ जिम मिडिउ अ अरि-घर-समुहें। जिम जणिय मणोरह सयण-विन्द ॥६॥ जिन असि-सब्धल-कोनहि मिण्णु ! जिम जस-पहउ तइलोके दिण्णु ॥७॥ जिम तीसाविउ सुर-णिहाउ। जिम महु मि अन्जु खय-कालु भाउ॥८॥
भत्ता
निम सत्तु-सिलायले पहु-मोणिय-जले भुउ परिहव-पहु अपणउ । जिम स-धउ स-साहा स-मडु सम्पहरणु गड णिय-पुस्तहाँ पाहुणउ ॥९॥
[1 ] नं णिसुण घि णिय-कुल-भूसणेश । लहु लेछु विसजिउ दूसणेण ॥१॥ सणधु बरु वि वहु-समर-सूरु । सप्फाले वि व मंगाम-तूरु ॥२॥ बिहइफड मत माद्ध, * त्रि। सम्माण-दाणु रिणु संभरेवि ॥३॥ कण वि करण करबालु गहिङ । कण वि धणुहरु तोगीर-सहिड ॥४॥ केण विमुमण्दि मोग्गरु पचाख । केश वि हुलि केण वि घिसदण्टु ।। ५.१६ गाणाबिह-पहरण-पहिय-शस्थ । सपणद्ध सुहट रण-भर-समत्थ ॥६॥ जसरिउ सेग्गु परिहर वि सङ्क। ण वमेवि लग्म पायाल-लङ्क ॥६॥ रह-तुस्य-गइन्न गरिन्ध-विन्द । णं सु-कइ-मुहहों णिग्गन्ति सा ॥८॥
घत्ता
घर-ल- गु इरिस-पसाहणु अमरिस-अ-दर घाइड | गयानक लीयज' गाना वीयउ जोइस-चक्कु परायः ॥५॥
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सप्ततीसमो संधि
१०] दृषणके उन वचनोंको सुनकर गुंजाके समान आँखोंवाला खर कड़ककर बोला, "धिक्कार है, सज्जन पुरुषोंको इससे शर्म आनी चाहिए। ये केवल कुपुरुषों के कर्म हो सकते हैं। जबतक जीव अपने शरीरमें स्थित होकर स्वाधीन है, सबतक इसे दूसरे के पास क्यों जाना चाहिए। जब उत्पन्न हुए जीवको मरना ही है, तो अच्छा है कि शत्रु-समूह पर प्रहार किया जाये कि जिससे दुनियामें साधुकार मिले, मन्यलोकमें अजर-अमर कोई नहीं है । जिस प्रकार शत्रुरूपी समुद्र में आज भिड़ा, जिस प्रकार स्वजनसमूहके मनोरथोंको पूरा किया, जिस प्रकार तलवार, सबल और भालोंसे विदीर्ण किया, जिन प्रकार निलोकमें यशका डंका बजाया, जिस प्रकार आकपडामें देवसमूहको सन्तुष्ट किया, जिस प्रकार मुझे भी क्षयकाल प्राप्त हुआ, जिस प्रकार शत्रुरूपी चट्टानपर प्रचुर रक्तरूपी जल में अपना पराभवरूपी पट धोया, जिस प्रकार ध्वज, साधन, भट और प्रहरपके साथ अपने पुत्रका अतिथि बनकर गया ॥५-१।।
[११] यह सुनकर अपने कुल-भूषण दूषणने झीन लेख भेजा । अनेक युद्धोंमें शूर खर भी सेनामें संग्राम तूर्य बजाकर तैयार हो गया। कोई योद्धा अपने स्वामीके सम्मान दान और ऋणकी याद कर तैयार हो गये। किसीने तलवार ले ली। किसीने तरकस सहित धनुष ले लिया। किसीने भुशुण्डि और प्रचण्ख मोगर ले लिया। किसीने हुलि और किसीन चित्रदण्ड । इस प्रकार नाना प्रकारके हथियार अपने हाथमें लिये हुए तथा युद्धके भारमें समर्थ सेना शंका छोड़कर निकल पड़ी मानो पाताललंका ही कोलाहल करने लगी हो ? रथ, घोड़े, हाथी
और नरेन्द्रसमूह ऐसे मालूम होते थे, मानो सुकविके मुख से शब्द निकल रहे हो। हर्षसे अलंकृत खर-दूषणकी सेना क्रोधसे भरकर दौड़ी। आकाशमें व्याप्त वह ऐसी मालूम हुई कि जैसे
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२७५
पउमचरि
[ १ ]
जं दिट्ट्टु हदणु-शिहाउ । 'मॅट' दीसह काहूँ परा-मगें ।
वलए बुत्त सुमिति- जाउ ॥१॥ किं किष्णरणिवहुव चलित सभा ॥ २ ॥ किं पवर पक्खि किं घण त्रिसह । किं वन्दण-इन्तिएँ सुर पयट्ट' ॥३॥ वरा सुणेपिणु भद्द विहु । 'मल दासइ वद्दाहि उ चिन्हु ॥ ४ ॥ कुठे लग्ग मधु को वि तासु ॥५॥ हक्कारित लक्खणु खरेंण साम ||६|| तिह पाव परिकहि एन्त याज ॥ ७ ॥ सिंह पहरु पहरु पुरणालि पुस' ॥ ८ ॥
खगोण बिवाइड मोसु जासु । अवरोप्यरु ए आलाव जाव । 'जिह सम्बुकुमारहों' कम पाण। जिह कहउ लग्यु पर णारि सुप्त
घत्ता
एकेक पाहुण समाण हुँ चउदह महम समावडिय । यजेस मद्दन्दहोंरिव गोविन्दों हकारेपिशु भिडिय ॥९॥
[ 12 ]
जोकारिच रामु जगणेण ॥ १ ॥ | ह ँ धरभि संष्णु मिग-जू हु जेन ॥२॥ राग्वेल एज भ्रणुद्दर-सहाउ ॥३॥ । आसोस दिष्ण सी उद्देण ॥ ४ ॥ करें लग्गड जयप्र- सिरि- बहुअ वदेहि मिय रिउ मद्दणेण ॥ ६ ॥ 'पश्चिन्दिय भग्ग जिणेण जेम ||७|
मच्छ ॥ ५॥
तर सम्म मरण मण काय नाय || ८||
पुत्यन्तरें महकभरण | 'तुर्डे सीय पयले रक्तु देव । अम्बेल करेसमिसीह णाव । तं वम सुविविसिय मुद्देण 'जसवन्तु विराट होहि चच्छ तं सेवि णिमित्तु जणणेण । तं शिसुवसीय युतु एम। नावीस परीसह च कसाय |
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२७९
सत्ततीसमो संधि दूसरा ज्योतिषचन आ पहुँचा हो ॥१-१०॥
[१६] जब आकाशके आँगन में दानवसमूह दिखाई दिया तो बलदेवने लक्ष्मणसे पूछा, "नभके अग्रभागमें यह क्या है ? क्या स्वर्गसे किन्नरसमूह चल पड़ा है ? क्या कोई महान् पक्षी हैं ? या विशिष्ट मेघखण्ड है ? क्या बन्दनाभक्ति के लिए. देवसमूह जा रहा है ?” यह शब्द सुनकर लक्ष्मणने कहा"हे राम, यह शत्रुओका चिह्न दिखाई दे रहा है। जिसका सिर तलमारसे गिरा दिया गया है, शायद उसका कोई आदमी पीछा कर रहा है।” जबतक उनमें आपसमें ये बाते हो रही थी कि इतनेमें खरने लक्ष्मणको ललकारा कि जिस प्रकार तूने शम्बुकुमारके प्राण लिये उसी प्रकार अब हे पाप, इन आते हुए थाणोंको स्वीकार कर । जिस प्रकार सड्गको लिया है, और दूसरेकी स्त्री ( चन्द्रनखा) का उपभोग किया है हे पुंश्चलीपुत्र, उसी प्रकार प्रहार कर, प्रहार कर । खरके समान एकसे एक प्रधान चौदह सौ बोद्धा टूट पड़े। जिस प्रकार हाथी सिंहसे, उसी प्रकार वे ललकारकर लक्ष्मणसे भिड़ गये ||१-५|| _ [१३] इसी बीच में योद्धाओंको चकनाचूर करनेवाल लामणने रामका जय-जयकार किया और कहा, "हे देव, आप प्रयत्नपूर्वक सीताको रक्षा करें; मैं मृगोंके झुण्डकी तरह सेनाको पकड़ता हूँ। जन्न मैं सिंहनाद करूँ, तब धनुधेर सहायक आप आना।" यह वचन सुनकर हँसते हुए मुख से श्रीरामने उसे आशीर्वाद दिया-हे वत्स, शम्बी और चिरायु होनी । स्वकार विजय लक्ष्मीरूपी वधू तुम्हारे हाथ लगे।" यह सुनकर शत्रुका मर्दन करने वाले लक्ष्मणने चैदेहीको प्रणाम किया। यह सुनकर सीताने इस प्रकार कहा-"जिस प्रकार जिनेन्द्रने पाँच इन्द्रियों, बाईस परीषह और चार कषायों, जरा, जन्म और मरण तथा मन, वचन और कायका नाश किया, जिम
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१८.
एउमचरिउ
घत्ता
जिल्ह भग्गु परम्मुहु र कुसुमाउहु लोहु मोहु मउ माणु खलु । तिह तुहुँ भनेवहि समरें जिणेजहि सबलु वि वहरिहि ताउ बलु॥९॥
[ १५ ] भासीस-घयणु तं लेवि नेण। अप्फालिउ घणुहरु महुमहेण ॥१॥ ते स वहिरिउ जगु असेमु । थरहरिय घसुम्धरि दरिउ सेसु ॥२॥ वरल वरपण वे वि मिडमित जाय । हकारित हरि तिसिरेण साव ॥३॥ ने भिडिय परोपर हणु भणन्त । गं मत्त महागय गुलुगुलन्त | णं केसरि घोरोसलि देन्त । वाणेहि वाण छिन्दन्ति एन्त ॥५॥ मोग्गर-खुरुप्प-कग्णिन एडन्ति । जीवे हि जीव णं खयहाँ जन्ति ॥ ६॥ परथन्तर अतुल परकमेण । श्रद्धेन्द्र मुक्कु पुरिसोत्तमेण ॥७॥ तही नितिरउखुकुण कह वि भिषणु । धणुहर पाहिउ धन-दण्ड छिण्णु ॥८॥
अण्णुण्णु पुणुप्पुणु समरें बहुगुणु जं जं तिसिरउ लेवि धणु । तं तं उण्टइ खणु वि संइ दइव-विहूणहाँ जेम धणु ।।९।।
[१५] धणुहरु सरु सारहि छप्स-गुण्ड्छ। जं वाहि किउ स्य-खण्ड-खण्डु ।। १॥ सं अमरिस-कुद्धे दुद्धरेण । संभरिय विज विजाहरेण ॥२॥ अप्पाणु पदरिंसिर वद्धमाणु। तिहिं वयणे हि सिहि सोसें हिंसमाशु३: पहिला सिंह कक-कविल-केतु । पिङ्गल-लोअणु किय-पाल-घेसु ॥४॥ वीबउ सिरु षयणु वि पत्र-जुवाणु । उब्भिपा-विय-भासुरि-समाणु ॥५|| तइयउ सिर धवला घपल-वाणु । फुरियाहरु दर-णिडुरिय-यणु ।।३।। दुरिसणु मोसणु विय-दाछु । जिण-भसङ जिणवर-धरम-पाच ॥७॥ एथन्सर पर-बल-मरण । वच्छत्यले विन्धु जणदणेग ॥८॥
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सत्ततीसमो संधि
२८.
प्रकार युद्ध में पराङ्मुग्न काम दुष्ट, लोभ, मोह, मद और मानका नाश किया, उसी प्रकार समम्त शत्रुओंको नष्ट करो और उनका बल जीतो" ॥१-९॥
[१४] इन आशीर्वचनोंको लेकर लङ्गमगने अपना धनुष आस्फालित किया । उसके शब्दसे सारा संसार बहरा हो गया। धरती काँप उठी। और शेषनाग डर गया। जबतक खर और लक्ष्मण लो हैं, तक िसरने को मारा। 'मारो' कहते हुए वे दोनों आपसमें भिड़ गये, मानो गरजते हुए महागल हों। मानो भयंकर गरजना करते हुए सिंह हों। वे आते हुए बाणों का छेदन करने लगे। मोगर खुरपे और कर्णिक गिरने लगे, भानो जीवोंसे जीव क्षयको प्राप्त होने लगे। इसी यीच, अतुलपराक्रमी पुरुषोत्तम मणने अर्धेन्दु छोड़ा उससे त्रितिर उछल गया, किसी प्रकार बह रखण्डित नहीं हुआ। अनुप गिरा दिया गया और ध्वजदण्ड लिन्न-भिन्न हो गया । बार-चार निसिर बहुगुण धनुष लेता, लक्ष्मण उसे छिन्न-भिन्न कर देता, यह एक क्षण भी नहीं ठहरता, उसी प्रकार, जिस प्रकार भाग्यविहीन व्यक्तिका धन ।।१-२|| ___ [१५] धनुष सर सारधि और छत्र दण्ड, जब तीरों के द्वारा सौ-सौ टुकड़े कर दिये गये, तो अमर्षसे ऋद्ध दुर्धर विद्याधरने अपनी विद्याका स्मरण किया। उसने अपनेको बढ़ता हुआ बताया. तीन मुखों और तीन सिरोंसे समान | पहला सिर कठोर कपिल केशवाला था। पीली आँखोंवाला और बाल सायाला! दूसरा सिर और सम्ख नवयुवक था। निकली हुई भयंकर असुरिसे सहित, नीसा सिर धवन और धवल मुख था। फड़कते हुप भरों और आधे डरावने नेत्रोंवाला। दुर्दशनीय भीषण विकट दाढीवाला जिन भक्त और जिनवरके धर्म में एकनिष्ठ । इसी बीच शत्रुवल मर्दन करनेवाले लक्ष्मणने
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एउमपरित
घत्ता णाराएँ हि मिन्दें वि सीसइँ छिन्दै वि रिख महि-मण्डले पाडियउ । सुरखरें हिं पञ्चगडेहि सह भुष-दण्डहिं कुसुम-वासु सिर पानियड ॥९॥
अदृप्तीसमो संधि तिसिरउ लक्खणेण समरजणे धाइड जाहि । तिहुश्रण-उमर-करु इधयणु पराइट सा हिं॥
लेहु विसजिउ जो सुर-सोहहों। अगएँ पडिउ गम्पि दसगीवहाँ ।। १४ पहिउ पपा बहु-दुक्रवहँ मारु 1 गाइँ णिलायर-कुल-संधार ॥२॥ णा मयङ्कर कलहहाँ मल। णाई दसाणण-मस्था-सूल ॥३॥ लेहें कहिउ सध्यु अहिणाणे हि । 'सम्बुकुमार उलगड पाणे हिं ॥४॥ अपणु वि खग्ग-रयणु उदालि । खर-धरिणिह हियवउ विद्यारिउ ॥५॥ तं णिसुणेपि वे वि अपभूसण। पर-वले मिडिय गम्पि खर-दूसण ॥६॥ णारि-नमणु णिरुवमु सोहग्राउ । अच्छह रावण तुझ्नु जे जोग्गड' ॥७॥ लेहु णि बि अस्थाणु विसजेंद्रि। पुष्फविमाणे चहिउ गलगन्ज वि ॥८॥ करें करवाल करेपिणु धाइर। णिविसे दण्डारण्णु पराइड ॥९॥
घत्सा साव जणरणेण सरदसण-साहणु रुदउ । थिउ चरा बलु पहें णिचलु संसऍ छुद्धउ ॥१०॥
तो एरथन्तरें दोहर-गयणे । लक्खागु पोमाइउ दाहषयणे ॥१॥ 'वरि एकल्लयो षि पत्राणणु। उ सार-णिबहु वुण्णाणणु ॥२॥ वरि पल्लो चि मयलञ्णु । ण य गरवत्त-णिवा णिलछणु ॥३॥
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पडतीसमो संधि
२८३ उसे वक्षःस्थल में बंध दिया। तीरोंसे छेदफर सिरोंको भेदकर उसने, शत्रुको धरतीपर गिरा दिया। देवश्रेष्ठोंने अपने प्रचण्ड हाथोंसे लक्ष्मण के सिरपर पुष्पवर्षा की ॥१-९||
अड़तीसवीं सन्धि जन लामणने त्रिसिरको युद्ध के मैदान में मार दिया, तब त्रिभुवनके हिार भय उत्पन्न करनेवाल: गवा डाँ पहुँच' ।
[१] जो लेख भेजा गया था, वह जाकर सुरसिंह रावणके सामने पड़ा हुआ था। वह इस प्रकार पड़ा हुआ था जैसे अनेक दुःखोंका भार हो, जैसे निशाचर-कुलका संहार हो, जैसे कलह की भयंकर जड़ हो, जैसे दशाननके सिरका दर्द हो। लेखपत्रने अभिज्ञानसे सब बता दिया कि शम्बुकुमार प्राणोंसे जा लगा है, और खड्गरत्न छीन लिया गया है। खरकी पल्लीके छुदयको विदारित कर दिया है, यह सुनकर यझो. भूषण खर और दूषण जाकर शत्रु सेनासे भिड़ गये हैं। वहाँ अनुपम और सुभग नारीरत्न है, हे रावण, वह तुम्हारे योग्य है।" लेख पत्र पढ़ कर, और अपना आस्थान छोड़कर, रावण गरजकर पुष्पक विमानमें बढ़ गया, और हाथमें तलवार लेकर दौड़ा; एक पलमें कह दण्डकारण्य पहुँच गया। तत्र लक्ष्मणने खर-दूषणकी सेनाको अबरुद्ध कर दिया। संशयमें पड़ी हुई चतुरंग सेना आकाटामें निश्चल बह गयी ।।५-१०|
[२] तब इसी बीच दीर्घनयन दशमुखने लक्ष्मणकी महासा की-'अकेला भी, सिंह अच्छा, ( बुणगानन) मृग समूह अच्छा नहीं | अकेला भी मृग लांछन ( चन्द्रमा) अच्छा, परन्तु लोहन
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१८४
वरि एकलओ कि रयणाय । यरि एकलओ वि षड्सारु । उह सहस एक्कु जो रुम्म पेक्खु फेम परस्तु पईसह ।
पउमचरिउ
ra अलवा हिणि-नियरु स- विष्वरु ॥४॥ उवण- बिटु स-फ्लु - गिरिवरु ॥५॥ सो समरण मह मि णिसुम्भ ॥ ६ ॥ धणुहरु सरु संधाणु ण दीसह ॥७॥
।
घन्ता
हि गय हि सुरय णहि रहबर णहि धय-दण्डइँ |
वरि पड़ता हूँ दीसन्ति महिय रुग् ॥ ८ ॥
[
]
हरि परन्तु पसंसि जावें हिं ।
जाइ परायणक विषय तायें हिं ॥१॥
सुक-कह व सु-सम्धि सुसन्धिय । सु-पय सु-वगण सु-सद सुन्वद्रिय ॥ २ ॥ किस मज्झा बिम्बे सु-विरार ॥३॥ पम्पिटिरिन्छोडि विलिणी ॥४॥ मग उरम्भ-निशुम्भण ॥५॥ णं माणस सरें वियसि पक्क ||६||
थिरकलहस-गमण गड्-मन्थर । मावलि मगरहरुसण्णी ।
अहिणव-हुए- पिण्ड पीण- स्थण |
福
रेहइ वरण-कमलु अफलङ्कर ।
सु-ललिय- कोयण कलिय-पसष्णहुँ । णं वरइत मिलिय वरकण्णहं ॥
घोल पुट्टिहिं देणि महाइजि ।
चन्दण-लब िल णं णाणि ॥ ८४ ॥
सो एयन्त मिश्र कूल-दीव | 'fter एक्कु सहल पर एग्रहों ।
घत्ता
किं बहु पिएँ तिहिँ भुवर्णेहिं अं जं चन । वे गिम्मि अङ्ग ॥९॥
[ ४ ]
रामु पसि पुणु दहगीवें ॥१३२ जसु सुहवत्तणु गउ परियहों ॥२॥
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अट्टतीसमो संघि
२८५
रहित तारा-समुह अच्छा नहीं, रत्नाकर अकेला । अच्छा, विस्तारवाला, नदियोंका समूह, अच्छा नहीं। अकेली आग अच्छी, परन्तु गिरियर और वृक्षोंसे सहित वन-समूह अच्छा नहीं। एक जो चौदह हजार को रोक लेता है, वह युद्धके मैदान में मुझे भी मार देगा। देखो प्रहार करता हुआ कैसा प्रवेश करता है, धनुष सर और संधान दिखाई नहीं देता । न हाथी, न छोड़े, न रत्नवर और न ध्वजदण्ड केवल महीतलपर गिरते हुए धड़ दिखाई पड़ते हैं ।।१-८॥
[३] जब वह प्रहार करते हुए लक्ष्म गकी प्रशंसा कर रहा था, तभी उसे सीता दिखाई दी, जो सुकविकी कथाकी तरह सुन्दर सन्धियोंसे जुड़ी हुई थी, सुन्दर पद (चरण और पद); सुवचन (सुन्दर बोली और वचन), सुशब्द ( सुन्दर शब्दों वाली); और सुबद्ध (अच्छी तरह निबद्ध) श्री। स्थिर कलहंस के समान चलनेवाली, गतिमें मन्थर, मध्यमें कृश, नितम्ब में अत्यन्त विस्तारवाली, नाभिप्रदेशसे निकली हुई रोमराजि इस प्रकार थी मानो चींटियोंकी कतार विलीन हो गयी हो । जो अभिनव (हुड) शरीर | पीन स्तनोंवाली थी मानो उर रूपी खम्भोंको नाश करनेवाला मतवाला गज हो । 'इसका कलंक रहिन मुख कमल शोभित है, मानो मानसरोवर में कमल खिला हुआ हो। सुन्दर लोचन ऐसे है गानो ललित प्रसन्न श्रेष्ठ कन्याओंको वर मिल गये हों। उसके पुट्टी पर वेर्णः इस प्रकार व्याप्त हैं मानो नन्दन लताओंसे नागिन लिपटी हुई हो। अधिक कहनेसे क्या तीनों मुबन में जो-जो श्रेष्ठ है उन सयको मिलाकर मानो विधाताने उसके शरीरकी रचना की है ।।१-९||
[४] इस के अनन्तर अपने कुलके दीपक रावणने रामजी प्रशंसा की। "केवल इसका जीवन सफल है कि जिसका सुभगत्व
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१००
पउमचरित
जेण समाणु एह धण जम्पइ । मुह-मुहेप तम्बोलु समपाइ ॥३॥ हस्थ हस्थ धरै वि आलावद। स्थलग-जुअलु उच्य घडावह ।।। जं आलिइ वलथ-सणाहहिं ।। मालइ-माला-कोमल-वाहहिं ॥५|| जं पेलापह-यण-माय. हि। मुह परिचुम्बइ णाणा-महि ॥६॥ जं अवलोयह जिम्मल-साहिं। णयणहिं विमम-भरिय-विया हि जं अणुहुन्नर इच्छेवि पिय-मणे। सासु मालु को सयले वि तिहुमणे ॥८॥
55
पत्ता धषण एहु णरु जसु पुह णारि हियइच्छिय । जाब ण लइय मई कउ अङ्गहों ताघ सुइच्छिय' ||५||
सीय णिएवि जाउ उम्माहर। दहमुहम्मह-सर-पहराहउ ।। पहिलऐं वयणु पियारेहि भनाई। पेम्म-परम्बसु कहाँ वि ण लजह १२५ बीयएँ मुह-पासेउ वलगइ । सरहसु गाढालिगणु मगइ ||३|| ताय' अह विरहाणलु तप्पड। काम-नाहिल पुणु पुणु जम्पइ ॥१॥ चउथ जीससन्तु उ अकद । सिरु संचालइ भउँहर वकः ॥५॥ पञ्चमें पञ्चम-झुणि आलावइ । विहस वि दन्त-पम्ति परिसाषह ॥३॥ छट्टएँ अङ्ग वलइ कर मोहड्। पुणु दाहीयउ लएपिणु तोडदा॥ घदृष्इ तलवेल सत्समयहाँ। मुष्ठउ एनित जन्ति अट्ठमयहाँ ॥८॥ पवमद वहइ मरगहों दुका। दसमएँ पाणहि कह व प मुक्कउ ।।९॥
घत्ता
दहमुहु 'दहमुहें हिं जाण किर भातुएँ भुलभि' । अप्पर संभवह 'णं णं सुर-कोयहाँ सज्वमि' ॥१०॥
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असम संधि
'चरम सीमापर पहुँचा हुआ है, जिसके साथ यह कन्या बात करती है, बार-बार उन्हें पान समर्पित करती हैं। हाथमें हाथ लेकर बात करती है। चरण युगलको अपनी गोद में रखती है। जो वह बलयोंसे सहित, मालती माला के समान कोमल बाहोंसे आलिंगन करती हैं, जो स्वनरूपी महागजों से प्रेरित करती हैं, जो नाना भंगिमाओंसे मुखका चुम्बन करती है, जो स्वच्छ तारिकाओं वाले विश्रमभरित विकारवाले नेत्रोंसे देखती है, जो अपने मनमें चाहकर अनुभोग करती है, ऐसे उस रामका समस्त त्रिभुवन में कोई प्रतिद्वन्द्वी नहीं हैं । यह मनुष्य धन्य है जिसकी यह मनपसन्द स्त्री हैं, जब तक मैं इसे नहीं लेता, तब तक शरीरको सुख कहाँ ? ॥११- ९॥
[५] सीताको देखकर रावणको उन्माद होने लगा। रावण
के तीरीक्षा प्रहार हो गया। पी अवस्था में उसका मुख विकारोंसे भग्न हो जाता है, प्रेमके वशीभूत वह किसी से भी लज्जित नहीं होता। दूसरीमें मुखसे पसीना निकलने लगा । और वह हर्षपूर्वक प्रगाढ़ आलिंगन माँगने लगता | तीसरी में बहू विरहानलसे अत्यधिक संतप्त हो उठता । कामसे ग्रस्त होकर वह बार-बार बोलता | चौथी में निःश्वास लेते हुए नहीं थकता | सिर हिलाता और भौंहोंको टेढ़ी करता । पाँचवीं में पंचम स्वरमें अलाप करता और हँसकर अपनी दन्तपंक्ति दिखाता। छठी में शरीरको मोड़ता और हाथ मोड़ता फिर दाढ़ीको पकड़कर नोचता। सातवीं अवस्था में तड़फने लगता । आठवीं में मूर्च्छा आती और जाती। नौवींमें मृत्यु निकट आ पहुँची । दसवीं अवस्था में वह प्राणोंसे किसी प्रकार मुक्त भर नहीं हुआ। दसमुख अपनी संस्तुति करता है, "मैं दसमुखोंसे जानकीका बलपूर्वक आलिंगन करूँगा, नहीं नहीं सुरलोकको
जित करूँगा " ॥१-२०१
२८७
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पडमचरित
तो एरथगता सुर-सप्तासे । चिम्ति एकु उवाउ दसासें ॥१॥ अवलोयणिय विज मणे माझ्य। वे आपसु' भणन्ति पराय ।।२।। 'किं घोहण महोवहि घोमि । किं पायालु णहमणे छोमि ॥३॥ किं सहुँ सुरहिं सुरेन्दु परजामि । कि मपरदय-पुरिनाउ मामि ॥ ४॥ किं जम-महिस-सिङ्गु मुसुमूरमि। कि संसह फणिमणि संचूरमि ||५|| किं तवस्त्रयही दाद उप्पाढमि। काल-क्रियम्त-घयणु किं फामि ॥६॥ किरविरह-तुरामा उद्दालमि। कि गिरि मेरु करम्गे टालमि ॥७॥ किं तहलोक चक्छु संघारमि। कि अस्थाएँ पलउ समारमि' ॥६॥
घत्ता
बुत्तु दसाणणण 'एक्केण वि ण वि महु कन्जु । सं संकेउ कहें जें हरमि पह तिय अज्जु ॥९॥
[७] दहवयही वयण सु-पुजएँ। पणिउ पुणु अवलोपि विजए॥१॥ 'जाब समुहावत् करेनहाँ । वजावत्तु भाउ अण्णेशों ॥२॥ जायगंड वाणु करें एकही। वायवु वारुगधु अण्योकहाँ ।।३।। जाम सीह गम्मीरु करेकहीं। करयल चकाउहु असोकहीं ।।४।। तात्र णारि को हरर दिसेवहुँ । मपाएँ चासुगुम-वलपवहुँ ॥|| इय पच्छपण वसन्ति वणन्तरं । सही-सुरिसह अधमन्सर ||६|| जिम चवीस अब गोवद्धण। पर कैसव राम व सषण ||७||
पत्ता
ओए भवट्ठम इय वासुएव वलएव । जाव पव द्विय रणे तिय ताम इजाइ केन ||८||
[ ] अहवइ एण काइँ मुणे रावण। एह णारि तिहुअण-संतावण ॥३॥ लाइ छ६ जइ अजरामस वहि । लइ लइ जड़ टप्पण पयहि ।।२।।
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अष्ट्रवीसमो संधि [६] माता को बाम वाले रावणने एक उपाय सोचा। उसने अवलोकिनी विद्याका अपने मनमें ध्यान किया। वह 'आदेश दो' कहती हुई पहुँची, और बोली, "क्या छूटसे समुद्रको पी लूँ ? क्या पातालको आकाशमें लौटा हूँ? क्या देवों के साथ इन्द्रको जीत । क्या कामदेव नगरीके गजको भग्न कर दूँ? क्या यमके भैसेके सींग चकनाचूर कर दूँ ? क्या शेषनागके फणमणिको चूर-चूर कर दूं। क्या तक्षककी दाढ़ अखाड़ लूँ? क्या काल और यमके मुखको फाड़ डालू ? क्या रविरथके घोड़ोंको छीन लूँ ? क्या गिरि या पहाड़को अपने हाथके अग्रभागसे टाल दूँ? क्या त्रिलोकचक्रका संहार कर दूँ ? क्या अविलम्ब प्रलय मचा दूँ ?" दृशानन बोला "इनमें से मुझे एकसे भी काम नहीं हैं.? ऐसा कोई संकेत बताओ, जिससे आज मैं इस लीका अपहरण कर सकू" ॥१-२॥
[७] दसमुखका मुख देखते हुए आदरणीय अवलोकिनी विद्याने कहा-"जबतक एकके हाथमें समुद्रावर्त और दूसरेके हाथ में वधावत धनुष हैं। जबतक एकके हाथमें आग्नेय बाण है और दूसरेके हाथमें वारुण और बायन्य बाण हैं, जबतक एकके हाथमें गम्भीर हल है, और दूसरेके हाथमें चक्रायुध है, तबतक...वासुदेव और बलदेवसे बलपूर्षक सीताका अपहरण कौन कर सकता है ? ये वेषठ महापुरुषों में से हैं, जो यहाँ बनान्तरमें प्रच्छन्न रूपसे रह रहे हैं। जिनवर चौबीस, आवे अर्थात् बारह चक्रवती, नय बलदेव, नौ नारायण और नौ प्रतिनारायण | उनमें से ये आठव बलदेव और वासुदेव हैं। जबतक तुम्हारे मनमें लड़नेकी इच्छा नहीं है, तबतक उस स्त्रीको तुम कैसे ले सकते हो ? ॥१-८॥
[८] अथवा इससे क्या ? हे रावण! तुम सुनो--यह स्त्री त्रिभुवनको सतानेवाली है। यदि तुम अजर-अमर हो, वो इसे
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पउमचरित
ला ला बइ बतागु खण्डहि। लइ लइ बह जिण-सासणु छगडहि ॥३॥ कह ला जइ सुरवरहुँ प अहि । ललई जा णस्यहीभमु सजा ।।३। लहलह जन परलोड ण जाणहि । लइ लइ जहणिय-आउ म माणहि ॥५॥ छाई कई जाणिय-रज्जु ण इहि । लइ लाइ अई जम-सासणु पेलहि ॥६॥ लइ लइ जइ णिविपणउ पाणहुँ । लइ लइ बह उरु उहि वाणहुँ ॥७॥ सं जिसुणेवि वयणु असुहावन। अइ-मरणाउह पभणइ रावणु ॥ ८॥
घसा 'माणषि एह तिय जंजिन एक मुहुत्तः । सिव-सासय-सुहहाँ तहाँ पासिउ एउ बहुत:' ॥९॥
[५] विसयासत-चित्तु परियाणे यि । विजएँ, बुत्तु णिहत्तद जाणें वि ॥२॥ 'णिमुगि दसाणण पिमुणमि भेउ । वेगह वि अस्थि एका सकेट ॥२॥ एहु जो दीसइ सुहछु रणझणें। वापरन्तु खर-दूसण-साहणे ॥३॥ एयही सोझगाउ आयपण वि। ह-कलानु व तिण-समु मपणे वि॥७॥ धावह सीह जेम ओराले वि। वजावर पाउ अफालेवि ॥५॥ तुहुँ पुणु पच्छ धण उहालहि । पुष्फ-धिमार्गे छह वि संचालहि' ॥६॥ तं णिसणेपिणु पभागाउ राउ परे धई पई में करेव पाड || पहु-आपमें विज पधाइन । पिगिस तं संगामु पराइन ||८||
वत्ता
लक्षणु गहिय-सरु जं णिसुगिज गाउ मयकरु । धाइउ दासरहि णहं मधणु णाई अव-जलहरू ॥९॥
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भहतीसमो संधि लो लो। यदि तुम्हे कुमार्गमें जाना है, तो इसे लो लो। यदि अपना बड़प्पन खण्डित करना चाहते हो तो इसे लो लो। यदि जिनशासन छोड़ना चाहते हो तो इसे लो लो। यदि सुरवरोसे लज्जित नहीं होते तो इसे लो लो। यदि तुम नरकके लिए अपना गमन सज्जित करना चाहते हो तो इसे लो लो। यदि परलोक नहीं जानते हो, तो इसे लो लो। यदि अपनी आयुको तुम नहीं मानते तो इसे लो लो। यदि अपने राज्य को नहीं चाहते तो इसे लो लो। यदि यमशासन देखना चाहते हो तो इसे लो लो। यदि अपने प्राणोंसे विरक्त हो तो इसे लोलो यदि बाणोंसे उड़ना चाहते हो, तो इसे ला लो।" इन असुहावने। शब्दोंको सुनकर कामदेवसे अत्यन्त व्याकुल होकर रावण कहता है--"यही एक मनुष्यनी स्त्री है जो यदि एक मुहूर्त के लिए जिला देती है, तो उस शिवके शाश्वत सुखकी तुलनामें मेरे लिए यही बहुत हैं" ॥१-२|
[९] रावणके विषयासक्त चित्तको पहचानकर और निश्चित जानकर विद्याने कहा-“हे दशानन सुनो, भेद बताती हूँ 1 उन दोनों के बीच एक संकेत है, या जो युद्धके मैदानमें सुभट दिखाई देता है, जो खर-दूषणकी सेनामें युद्धरत है। इसका सिंहनाद सुनकर अपनी प्रिय पत्नीको तिनकेके समान समझकर यह मिहके समान गरजकर और अपना वनावर्त धनुष अस्फिालित कर दौड़ेगा। तुम फिर बाद में धन्या (सीता) को उड़ा लेना, और पुष्पक विमानमें डालकर उसे चला देना ।" यह सुनकर राजाने कहा-"तो तुम जल्दी नाद करो।” स्वामीके आदेश से विद्या दौड़ी और एक पलमें संग्राम स्थलपर पहुँची। जिसमें लक्ष्मणका स्वर गृहीत है, ऐसा सिंहनाद जब सुनाई दिया तो राम धनुष सहित ऐसे दौड़े जैसे आकाशमें नवमेध हो ॥१-२।।
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पउमचरिख
[१०] मोसणु सोह-णाउ णिसुपिणु। धणुहरू करें सजोड कापिणु ॥१॥ तोणा-जुबलु लएवि पधाइउ । 'मझुडु लकषाणु रणे चिणिवाइज'॥२॥ कुढे लगन्ने समें सुणिमित्त है। सउणु ण देन्ति होन्ति दु-णिमितह् ॥ ८ ॥ फुरह स-धाहर वामउ लोयणु। पचाइ दाहिण-पवाणु अझपखणु॥ ३ ॥ बायसु विरसु रसइ सिव कम्बइ। अगाएँ कुहिणि भुभामु छिन्दः॥५॥ जम्बू पङ्गुरन्त उदाहय । गाई गितारा सत्रण पराइय ॥६॥ दाक्षिणेण पिङ्गलय समुहिय । ण णव गह विवरीय परिट्रिय ॥७॥ तो वि वीस अवगगण वि घाउ 1 तमपणे ते सङ्गामु पराइड ॥६॥
घन्ता दिवइ राहत्रेण लक्षण-सर-हसें हिं खुडियई। गमण-महासरहाँ सिर-कमलई महिमले परियई ॥५॥
[1] दिटु रणगणु राहयचन्द। रमिड वसन्तु गाई गोबिन्द ॥१॥ कुण्डल-कडय-मउड़-फल-दरिसिय | दागु-दवणा-मञ्जरिम पद रसिय ॥२॥ गिद्धावलि-किया-चक्कन्दोल। परवर-सिरसाएपिणु केल: ॥३॥ रणे खेल्लन्ति परोप्पर चच्चरि । पुणु पियन्ति मोगिय-कायरि॥४॥ तेहउ समरस्वमन्तु रमन्तउ । लक्खणु पोमाइड बहरन्त ॥५॥ 'साहु वच्छ पर तुयु जि लाइ। अण्णहाँ काम पुर पहिवाइ ॥६॥ पर इक्वाउ-बसु उन्नलिउ जस-पडउ तिहुआ अहालिर॥॥ सं पिणेपिणु भणइ महाइउ । विरुअउ कि रेय जाइ॥ ८॥
घत्ता मेस्लेवि जणय सुय किं राहत्र थागहों चलिया । अ५E मज्म मगु हिय जाणइ केगा वि छलिया' ॥५॥
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अट्टतीसमो संधि
[१०] भीषण सिंहनादको सुनकर, धनुषको अपने हाथमें सज्जित कर, तथा तरकम युगल लेकर राना मोडे, माया लक्ष्मण युद्ध में मारे गये हैं रामका पीछा करते हुए शकुन शुभ निमित्त नहीं दे रहे थे, दुनिमिस हो रहे थे । चाँह सहित उनका बायाँ नेत्र फड़क रहा था। लक्षणहीन दक्षिण पवन बह रहा था। कौआ विरस बोल रहा था । शृंगाल रो रहा था । आगे साँप मार्ग काट रहा था। सियार लँगड़ाता हुआ दौड़ा, जैसे मना किये जानेपर स्वजन आ गये हों। दायीं ओरसे नाग उठा। आकाशमें नवों ग्रह विपरीत स्थितिमें प्रतिष्ठित हो गये । तब वह वीर इन सबकी उपेक्षा करता हुआ दौड़ा, और एक क्षणमें उस संग्रामभूमि में पहुँच गया । रामने लक्ष्मणके तीररूपी हंसोंके द्वारा तोड़े गये, आकाशरूपी महासरोवरके सिररूपी कमलोंको धरतीतलपर पड़ा हुआ देखा ॥१-२||
[११] राघवचन्द्रने युद्ध प्रांगणको इस प्रकार देखा जैसे लक्ष्मणने बसन्त क्रीड़ा की हो। जिसमें कुण्डल-क्रट क-मुकुटरूपी फल दिखाई पड़ रहे थे, दनुरूपी दमन मंजरी दिखाई दे रही थी, गीधोंकी कतारों द्वारा नरवरोंक सिररूपी गेदोको लेकर चक्राकार आन्दोलन किया जा रहा था, युद्धमें परस्पर चर्चरी खेल खेला जा रहा था, और फिर रक्तरूपी मदिराका पान किया जा रहा था, ऐसे उस युद्धरूपी वसन्तमें रमण और प्रहार करते हुए लक्ष्मणकी रामने प्रशंसा की-“हे वत्स, साधु, यह केवल तुम्हें शोभा देता है, और दूसरे किसके लिए यह उपयुक्त हो सकता है ? तुमने इक्ष्वाकु कुलको आलोकित किया है । तुमने अपने यशका लंका तीनों लोकोंमें बजाया है।" यह सुनकर आदरणीय लक्ष्मण कहता है-“हे देव, यह बहुत बुरा किया जो आप आये । हे राम, जनकसुताको छोड़कर आप उस स्थानसे क्यों चले ? मेरा मन कहता है कि सीता हर ली
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पउमचरित
[ १२ ] पुणरवि सुश्च मसाय-वपण। हज कमि णाउ किउ अपणे ॥१॥ तं णिसुणेवि णियत्तइ जा हिं। सीया-हरणु पकिट ता हि ॥२॥ आउ दसाणणु पुष्फ-विमाणे। णाई पुरन्दर सिधिया-जाणे ॥३॥ पासु पक्किा राहव-धरिणि । मत-गइन्दु जेम पर-करिणि ॥४॥ उभय-कर हि मंचालिय-धाणहाँ। णाई सरीर-हाणि अप्पाणहाँ ॥५॥ णा, कुलही मवित्ति हकारिय। लकह सक पाइँ पहसारिय ॥६॥ गिसियर-लोयहाँ बज्जासणि । णा मयकर-राम-सरासणि ॥७॥ णं जस-हाणि साणि बहु-दुकान परलोय-दिपिसिन बस "
पत्ता तरपणे रावणेश बोहउ विमाणु आयासहों। काले कुन्द्र प्य हिब जीवित वण-वासही ॥५॥
चलित विमाणु जं जे गयपक्षण। सीमाएँ कलुणु पकन्दिउ तखणे॥१॥ सं कूवाह सुणेवि महाइड। धुणे घि सरोरु जहाइ पधाइज ॥२॥ पहउ दसाणणु चन्चू-धाएं हि। पनुक्खे हि णहर-णिहाएँ हिं ॥३॥ एक-चार ओससइ ग जायें हिं। सयसघ-बार महापछ सावे हि ।।४।। जाद घिसण्टुलु वरि-घियारणु चन्दहासु मण सुमाइ पहरणु ॥५॥ सीय वि घरह मिया वि रक्षइ । लाइ उविसु गयणकडाइ ॥६॥ दुवम्यु-बुस्खु त धीरवि अप्पड । कर-
गिर-द-ऋविण-तलप्पज ॥७॥ पहर विहङ्गु पबिउ समरनणें। देखें हिं फलथल कियउ जहङ्गणे ॥४॥
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अद्वतीसमो संधि गयी हैं, किसीने छल किया है।" ॥१-९||
[१२] मरकतमणिके रंगवाले लक्ष्मणने फिर कहा, "मैंने नाद नहीं किया किसी दूसरेने किया है ।" यह सुनकर राम जमवक वापस आते हैं तबतक सीताहरण आ पहुँचता है। दशानन पुष्पक विमानमें आया, जैसे इन्द्र अपने शिविकायानमें आया हो । वह रामकी पत्नी के निकट पहुंचा, जिस प्रकार मतवाला गजेन्द्र हथिनांके पास पहुंचता है। उसने दोनों हाथोंसे सीता को, अपनी झरीरहानिके समान उस स्थानसे उठा लिया, जैसे उसने अपने कुटकी भवितव्यताको ललकारा हो, जैसे लंका नगरीमें शंकाका प्रवेश कराया हो, मानो निशाचरलोकके लिए, वाशनि हो। जैसे रामका भयंकर धनुष हो। मानी यशकी हानि और अनेक दुखोंकी खान हो । मानो मूखोंके लिए परलोककी पगडण्डी हो । रावण तत्काल विमानसे उसे ढोकर आकाश में ले गया मानो क्रुद्ध कालने वनवासी रामका जीवन अपहत कर लिया हो।॥१-९।।
[१३] जैसे आकाशके आँगनमें विमान चला सीता देवीने तरक्षण आक्रान्दन शुरू कर दिया। उस आक्रन्दनको सुनकर आदरणीय जटायु अपना शरीर धुनता हुआ दौड़ा आया। उसने चोचोंके आघात और नखोंके निघातसे दशाननको आहत कर दिया। एक बार वह जबतक आश्वस्त होता, तबतक यह उसपर सौ-सौ बार झपटता। शत्रुओंका विदारण करनेवाला राषण अस्त-व्यस्त हो जाता है, वह मनमें चन्द्रहास तलवारकी याद करता है। वह सीताको भी पकड़ता है और अपने अंगकी रक्षा करता है। चारों दिशाओंमें देखता है, और लज्जित होता है। उसने बड़ी कठिनाईसे अपनेको धीरज बंधाया और हाथका कठोर दृढ़ कठिन शॉपढ़ मारा। पक्षी समरांगणमें गिर पड़ा । आकाशमें देवोंने कल-कल निनाद
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२९६
परमचरित
घत्ता
पहिउ जबाइ रण वर-गहर-विहुर-कन्दन्त । बाप्पह-हरि-वलहुँ तिगिह मि चित्तई पाहन्तउ ॥९॥
[१४] पबिउ जडाइ ज ज फन्दन्त। सीग्रएँ किट अन्दु महन्सड ॥2॥ 'अहाँ अहाँ देवही रणे दुवियष्टढहाँ। णिक परिहास ण पालिय सपनहीं ॥२॥ वरि सुहडतणु चञ्चू-जीवहाँ । जो अभिट्टु समरें दसगीवहीं ॥३॥ पउ तुम्हें हिं रक्खिड वकृत्तणु। सूरही तणउ दिठ्ठ सूरतणु ॥ ४ ॥ सवा घनु नि चन्द-नाहिल्लङ। पम्मु वि सीतिर हरु घुम्महिलङ॥५॥ घाउ वि धवलत्तणेण दमिजइ। धम्मु कि रण्ड-सपदि लइ जइ ॥६॥
वरुणु वि होह सहा सीयलु। तासु कहि मि कि सर पर-बलु ॥७॥ · इन्दु वि इन्दवहेण रमिजाई । को सुरवर-सपढ़ें हिं रखिल ॥६॥
यत्ता जाउ कि अम्पिय जगे अपणु ण अन्भुद्धराउ । राहउ इह-मवहाँ पर-लोयहाँ जिणवरु सरणउ' ॥९॥
[१५] पुणु वि पलाव करन्ति ण थकाइ । 'कुठे लाउ लगउ जो सका।।१॥ हउँ पारेण पुण अवगणे चि। णिय तिहुअणु अ-मणूसड़ मपणे वि' ॥२॥ पुण वि कलुणु कन्दन्ति पयः । 'ऍहु अवसरु सप्पुरिसह) व ॥३॥ अह मह कवणु पोइ कन्दन्ती। लपवण-राम चे वि जइ हुम्ती ॥४॥ हा हा दसरह माम गुणोहि । हा हा जणय जणय अवलोयहि ॥५॥ हा अपराइ' हा हा केकह। हा सुप्पड़े सुमित्त सुग्घर-मह ॥६॥ हा सत्तहण मरह भरसर हा भामण्डल माइ सहोबर ॥७॥ हा हा पुशु वि राम हा फक्तण । को सुमरमि कहाँकहामि असतण॥८॥
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अट्टतीसमो संधि
किया । तीव्र प्रहारसे दुःखी और आक्रन्दन करता हुआ जटायु रण में जानकी, लक्ष्मण और राम तीनोंके चित्तको गिराता हुआ गिर पड़ा ॥१-९॥
[१४] जब तड़फता हुआ जटायु गिर पड़ा तो सीताने खूब आक्रन्दन किया। अरे-अरे, दुर्विदग्ध धूर्त देवोंके युद्ध में अपने परिहासको भी तुम रक्षा नहीं कर सके । इस चंचुजीवी पक्षीका सुभटत्व श्रेष्ठ है कि जो युद्ध में दशाननसे भिड़ गया। तुम अपने बड़प्पनकी रक्षा नहीं कर सके। मैंने सूर्यका भी सूर्यष देख लिया। सचमुच चन्द्रमा भी चन्द्रग्रहीत है, ब्रह्मा ब्राह्मण हैं, शिव दुष्ट महिला है (अर्ध नारीश्वर होने के कारण ), वायु भी चपलतासे दमित कर लिया जाता है। धर्म भी सैकड़ों रॉड़ों के द्वारा ले लिया जाता है। वरुण भी स्वभावसे शीतल होता है । शत्रुसेनाको उससे क्या शंका हो सकती है ? इन्द्र भी
आकाशपथसे रमण करता है, इस प्रकार देवसमूहके द्वारा किसकी रक्षा की जा सकती है ? कहनेसे क्या, जगमें दूसरा अभ्युद्धार करनेवाला नहीं है। इस लोकमें मेरे राम शरण है, और परलोकमें जिनवर ॥१-९॥ ___ [१५] फिर भी सीता प्रलाप करती हुई ठहर नहीं रही थी। "जो हो सके तो पीछे लगो, पीछे लगो।" मैं इस पापीके द्वारा अपमानित कर और त्रिभुवनमें मनुष्यहीन समझकर ले जायी गयी हूँ। वह फिर भी करुण विलाप करती हुई कह रही थी कि सत्पुरुषके लिए यही अवसर है। अथवा यदि राम और लक्ष्मण दोनों होते तो कौन मुझे क्रन्दन करते हुए इस प्रकार ले जाता! हा गुणसागर ससुर दशरथ, हा पिता जनक देखो। हा अपराजिता! हा कैफेयी ! हा सुप्रमा! हा सुन्दर मति सुमित्रा! हा शत्रुघ्न, भरतेश्वर भरत | हा सहोदर भाई भामण्डल । हा-हा फिर राम, हा लक्ष्मण । किसे स्मरण करूँ और
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२९
पउमचरित
घत्ता को संथवइ मई को सुद्धि कहाँ दुक्खु महन्तउ । जहिं अहिं जामि हउँ तं तं जि परसु पलिनड' १९॥
[१६] तहि अवसर वन्ने सु-विउलाएँ। दाहिण-छवण-समुदहाँ कूलएँ ॥१॥ अस्थि पचण्ड्ड एकालिमाटर। . उर-रहाल इन्ध रण वृतरु ॥२॥ मामलहों वलिउ ओलग्गएँ। सुअ कन्दन्ति सोष तामगएँ ॥३॥ चलिउ विमाणु तेण परिपक्वहीं। णं सिय का वि भणा मह रक्सहो॥४॥ लक्षण-राम वे वि हक्कारह । भामण्डलही णामु उच्चारइ ॥५॥ मन्छुड एह सोय एदु रावणु।। अण्णु ण पर-कलत-संहावा ॥६॥ अच्छउ णिवहीं पासु जाएवउ । एण समाशु अज्जु जुम्झेवठ' ॥७॥ एम मणेवि तेण हकारित। 'कहिँ तिय लेघि जाहि' पञ्चारिउ॥८॥
धत्ता 'विहि मि भिडन्ताहुँ जिह हणइ एक्कु जिह हम्मई । गेगहें वि जणाय-सुय वलु बलु कहि रात्रण गम्मइ' ॥९॥
[१७] वषिड दसा,गु तिहुश्रण-कण्टउ । सीहही सीहु आम अभिट्टा ॥१॥ जेम गइन्दु महन्दहों घाउ । मेहही मेछु आम उद्धाइन ॥२॥ मिबिय महाबल विजा-पाणे हिं। वे वि परिष्ट्रिय सिविया-जाणे हि ॥३॥ वे वि पसाहिय णाणाहरण हिं। वेणि विषावरति णिय करणेहि ॥ वेणि वि घाय देन्ति अवशेप्पर । म विरुद्ध मामण्डल-किङ्करु ॥५॥ वर-करवालु फरेषिणु करयलें। पहउ इसाणणु बियढ-उरस्थीं ॥५॥ पहिउ घुलेपिपणु जण्हुच-जोत्तेहि। लहिरु पदरिसिब दसहि मि सोसहि॥७॥ पुणु घिमाहरेण पञ्चारित । 'सुरषर-समर-सऍहि म-णिधारिउ॥॥ गहुँ सो रावणु सिहुवपण-कण्ट । एक्क धाएँ गबर पलोहिउ' ॥९॥
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अट्टतीसमा संधि
२१९ यह अलमण किसे बताऊँ । मुझे कौन सान्त्वना देता है ? कौन सुधि है ? किसे इतना बड़ा दुःख है। मैं जहाँ-जहाँ जाती हूँ, वह, यही प्रदेश जल रहा है ॥१-९||
[१६] उस अवसरके आ पड़नेपर दक्षिण लषणसमुद्र के विशाल किनारेपर जिसके हाथमें श्रेष्ठ तलवार है ऐसे रणमें दुधर एक प्रचण्ड विद्याधर था। वह भामण्डल की सेवामें जा रहा था। इसनेमें आगे उसने सीताको आक्रन्दन करते हुए सुना । उसने शत्रुकी ओर विमान मोड़ा। मानो कोई स्त्री कह रही है कि मेरी रक्षा करो। वह राम और लक्ष्मण दोनोंको पुकारती है । भामण्डलका नाम लेती है । शायद यह सीता, और यह रावण है। क्योंकि पर-नीको सतानेवाला दूसरा नहीं हो सकता। राजा { भामण्वुल ) के पास जाना रहे आज इसके साथ मुझे लड़ना चाहिए-यह विचार कर उसने पुकारा और ललकारा कि तुम स्त्री लेकर कहाँ जाते हो ? दोनोंके लड़नेपर, जिस प्रकार एक मारता है और जिस प्रकार दूसरा मारा जाता हैं। हे रावण, मुड़ो-मुडो, सीताको लेकर कहाँ जाते हो ॥१-९।।
[१७] त्रिभुवन कण्टक रावण मुड़ा, और जिस प्रकार सिंह सिंहसे भिड़ जाता है, जिस प्रकार गजेन्द्र गजेन्द्र पर आघात करता है, जिस प्रकार मेघके ऊपर मेघ दौड़ता है उसी प्रकार महायली राषण और विद्याधर भिड़ गये। दोनों शिविकायानों में प्रतिष्ठित थे। दोनों नाना आभरणोंसे प्रसाधित थे। दोनों अपने अस्त्रोंसे प्रहार कर रहे थे । दोनों एक दूसरेपर आक्रमण कर रहे थे । भामण्डलका अनुचर विद्याधर अपने मन में विरुद्ध हो उठा। अपने हाथमें श्रेष्ठ तलवार लेकर उसने रावणके विशाल-वक्षास्थलपर आघात कर दिया। घुटनोंके जोतोसे)घूमकर गिर पड़ा । दसों स्रोतोंसे रक्त बहता दिखाई दिया । विद्याधर पुनः बोला; "क्या तुम सैकड़ों देवयुद्धोंमें दुनिबार त्रिभुवन
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पउमचरित
पत्ता चेयणु लहवि र भडु टुिट कुरुह स-मच्छरु । तहों विजाहरहाँ थिउ रासिहि णा सणिकर ॥१०॥
[१८ ] उठिंड वीसपाणि अलि लेन्तड। गाइँ स-विज्नु मेहु गजन्सउ ॥१॥ विजा-छेउ कवि विज्ञाहरें। बत्ति अम्यूदीबन्भन्तर ॥२॥ पुणु दससिरु संचल्लु स-सीयंउ । गहरले गाई दिवायरु वीयउ ॥३॥ मज्म समुदही जयसिरि-मागणु। पुणु घोल्लेवएँ लग्गु दसागणु ॥४॥ 'काइँ गहिल्लिएँ मई ण समिछहि । किं महएघि-पटु ण समिच्छहि ॥५॥ किं णिकष्टड रज्जु महे। पुरक काय सगुन । कि महु कंण वि भग्गु मडपफर । किं दूहउ किं कहि मि असुन्दर' ॥७॥ एम भणेंवि आलिङ्गइ जावे हिँ। जणय-सुयएँ णिन्मच्छिउ ताबें हि॥
बत्ता 'दिवस हि थोच हि सु? रावण समरे जिणेवर । अम्ह हुँ वारियएँ राम-सरे हिँ अलि चड' ॥९॥
[ १५ ] णिटुर-वयणे हिं दोच्छिा जाहिं । दहमुहु हुअउ विलक्खड ताव हि।। ५॥ 'जह मारमि तो एह ण परमि। बोल्ला सत्रु हसेषिणु अरमि॥२॥ अघसें के दिवसु इ इच्छेसह। सरहसु कण्ठ-गहणु कोसइ ॥३॥ 'अण्णु वि महूँ शिय-वर पालेव्वउ । माष्टएँ पर-कलत्तु ण लएम्वउ' ॥ एम भणेवि चलिउ सुर-ढामरु। लङ्क पराइड लख-महावस ॥५॥ सीथएँ वुत्तु 'ण पइसभि पट्टण। अच्छभि एल्धु विउलें णन्दणवणे ॥६॥ जाव ण सुणमि स मत्तारहौं। ताय णिविन्ति मज्नु आहारहीं '॥७॥ तं णिसुर्णेवि उबवणे पइसारिप । सीसव-रुक्ख-मूळे घसारिन ॥॥
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महतीसमो संधि
३०. फण्टक वही रावण हो । एक ही आघातमें तुम केवल लोट-पोट हो गये :" चेतना पाकर कठोर और ईर्ष्यालु रावण जठा युद्धमें जैसे उस विद्याधरकी राशियोंमें शनिश्चर हो ।।१-१०॥
[१४] रावाद लेकर कारा और निजी सहित गरजता हुआ मेघ हो । विद्याधरकी विद्याका छेदन कर उसे जम्बूद्वीपके भीतर फेंक दिया। रावण फिर सीताके साथ चला, जैसे आकाशमें दूसरा चन्द्रमा हो । विजयश्रीको मानने वाला रावण समुद्रफे मध्य में फिर सीतासे कहने लगा-"हे पगली, तुम मुझे क्यों नहीं चाहती। महादेवीफे पट्टकी इच्छा क्यों नहीं करती। निष्कण्टक राज्यका भोग क्यों नहीं करती । सुरत-सुखका भोग क्यों नहीं करतीं । क्या किमीने मेरे मानको भंग किया है ? क्या मैं दुर्भग या अमुन्दर हूँ।" यह कहकर जैसे ही यह आलिंगन करता है, वैसे ही जनकसुता सीताने उसकी भर्त्सना की-'हे रावण, तुम थोड़े ही दिनों में युद्धमें जीत लिये जाओगे। हमारे मना करने पर भी तुम समके तीरोंके द्वारा आलिगित होओगे ॥१-५||
[१९] जब उसने कठोर वचनों में निन्दा की तो रावण बहुत दुःखी हुआ ! “यदि मैं इसे मार डालता हूँ तो मैं इसे देख नहीं सकूँगा। इसलिए सब बोलोंको हँसकर टालते रहता हूँ । अवश्य ही किसी दिन यह चाहेगी और इधपूर्वक कण्ठ ग्रहण करेगी। और मुझे भी अपने व्रतका पालन करना चाहिए । बलपूर्वक दुमरेकी स्त्रीको ग्रहण नहीं करना चाहिए।" यह कत्र कर देवताओंके लिए भयानक वह चला। जिमने महावर प्राप्त किये हैं ऐसा वह लंका पहुँचा । सीता बोली--"मैं नगर में प्रवेशा नहीं करती। मैं इसी विशाळ नन्दन वन में बहती हूँ। जबतक मैं अपने पतिकी वार्ता नहीं सुनती. तबतक मैं आहारसे मिश्रृत्ति ग्रहण करती हूँ ।" यह सुनकर रावणने उसे उपवन में प्रवेश
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१०१
पउमचरित
घसा
मेत्रि सीय वर्णे गड रावणु घरहों तुरन्त । वहिं महिं थिउ रज्जु स ई सुअन्तर ॥१॥
गुणचालीant संधि
कुठे लग्गोपणु लम्हों वस्तु जाम पढीवर आषष्ट । से जि पाहरु तं वि तरु पर सीय ण अप्पर दाव ॥
श्रीसीय वणु अचयजिय ।
मेह-त्रिन्दु बिउ । णं मोय लवण-सुप्ति- रहिउ । दति-विषजिड क्रिविण धणु
।
पुणु जोअइ गुहिले हिँ पइसरेंवि पुणु जोवइ गिरि-विवरम्तरेंहिँ । सामन्त दिडु जडाह वर्णं ।
पुणु दिष्ण तेण सुद्ध वसु-हारा । जं सारभूय जिण सासनहीं ।
[]
णं
'सरहु
रुच्छि - विसनियर ॥१॥ णं सुणिवर वय अन्वच्छलउ ॥ १ ॥
अरहन्त विम्बु णं अवसति ॥ ३ ॥
·
तिह सीय चिह्नण दिदु वणु ॥ ४ ॥
1
।
थिय जागइ जाणह ओसरे वि ||५|| थिय जाणइ सिक्केंषि कन्दरेंहिँ ॥ ६ ॥ संसूत्ति पढिड र ॥ ७ ॥
घन्ता
पहर - विदुर-घुम्मन्त-तणु जं दिछु पवित्र मिलियउ । साहस राहण हिय जान केण वि खलियड ॥८॥
[२]
उब्बारेंवि पञ्च णमोकारा ॥ १ ॥ जे मरण-सहाय भव्य - जगहों ॥२॥
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पुगुणचालीसमो संधि कराया और शिंशपा वृक्ष के नीचे उसे मैठा दिया। सीताको बनमें छोड़कर, राषण तुरन्त अपने घर गया, तथा धवल और मंगल गीतोंके द्वारा संस्तुत वह स्वयं राज्यका भोग करने लगा ||१९||
उनतालीसवीं सन्धि लक्ष्मण की खोज कर राम अर वापस आते है तो वहीं लताघर है, वही घृक्ष हैं । परन्तु सीता अपनेको नहीं दिखाती । __ [१] बिना सीताका वह वन अपर्जित दिखाई दिया, मानो लगसे विसर्जित कमल हो, मानो विजलीके बिना मेघविन्दु हों, मानो वात्सल्यभावसे रहित मुनिके वचन हो, मानो लवणयुक्तिसे रहित भोजन हो । मानो अवसित जिनप्रतिबिम्ब हो, मानो दानसे रहित कृष्णका धन हो। सीतासे रहित वन रामको इसी प्रकार दिखाई पड़ा। राम फिर लताओंमें घुम कर देखते हैं, वह जानते हैं कि जानकी इनमें छिपकर वठी है। फिर वह पहाड़ोंके विरोंके भीतर देखते हैं. वह जानते हैं कि जानकी गुफाओं में छिपकर स्थित है। उसके बाद बनमें उन्हें जटायु दिखाई दिया, नष्ट हो गया है शरीर जिसका, ऐसा वह युद्ध में पड़ा हुआ था। प्रहारोंसे विधुर जिसका दारीर घूम रहा है, ऐसे निर्दलित जटायु पक्षीको जय
रामने देखा तो वह तभी समझ गये कि जानकी हर ली गयी है, और किसीने छल किया है ।।१-८||
[-] फिर उन्होंने उसे (पक्षीको) पाँच णमोकार मन्त्रका (उच्चारण कर आठ मूलगुण दिये कि जो जिनशासन के सार
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परमचरित
लद्देहि जेहिं दिन होइ मइ 1 लखेहि जेहिं परलोय-गाइ ॥३॥ लखेहि जेहिं संमवइ सुहु । लादेहि जेहि णिज्जरइ दुहु ॥४॥ ते दिगण विहकहीं शहण | किय-णिसियर-गियर-पराहण ॥५॥ 'जाजहि परम-सुहागण । अणरणाणसवीर-पहॅण' ॥६॥ तं वयणु पश जि सम्बायोग । माटु माग मिमजिल हमरण .!! जं मुड जहा हिय जगय-सुभ। धाहाविउ उठमा करें वि भुल 1॥८॥
घत्ता 'कदि हउँ कहिँ हरि कहिं परिणि कहिं धरु कहि परियणु छिगणउ । भूय-वलिञ्च कुटुम्बु जगे हय-दइर्वे कह विक्षिा ॥९॥
[३] चल एम भणेवि पमुनिछयउ। पुणु चारण-रिसिहि णियच्छियउ ॥१॥ चारण चि होनित अट्टविह-गुण। जेणाण-पिण्जु सीलाहरण ॥२॥ फल-फुल-पस-गह-गिरि-गमण ।। जल-तन्तुअ-जा-संचरण ॥२॥ सहिं वीर सुधीर विसुख-मण ! गह-चारण आइय वेषिण जण ॥६॥ ते अपही-णाणे जोइयड । रामही कलात विछोइयउ ॥५॥ आजरें वि गल-गम्भीर-झुणि। पुणु लग्ग सवेव मेंह-मुगि ॥६॥ 'भो घरम-देह सासय-गमण । काले रोचहि मूठ-मण ||७|| तिय दुकानहुँ खाणि विओय-णिहि। तहें कारण रोवहि काइँ विहि ॥८॥
घत्ता कि पइँ ण सुश्य एह कह छनीव-णिकाय-क्ष्यावरु । जिह गुणवह-अणुअत्तर्गेण जिणयासु जाड वणे वागरू' ॥९॥
[४] जं णिसुणिज' को वि चवन्तु पहें। मुच्छा-बिहलालु धरणि-वहैं ॥१॥ 'हा सीय' मगन्तु समुट्टियर। चत-दिसउ णियन्तु परिहियर ॥२॥
॥५॥
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एगुणचालीसमो संधि
१०५ भूत हैं और भव्यजनों के लिए मृत्युके समय अत्यन्त सहायक हैं। जिनको अंगीकार करनेसे मति दृढ़ होती है, जिनको ग्रहण करनेसे परलोक गति मिलती है, जिनको प्रहण करनेसे सुख सम्भव होता है, जिनको ग्रहण करनेसे दुश्वकी निर्जरा होती है, ऐसे मूलगुण, जिन्होंने निशाचर समूहका नाश किया है, ऐसे रामने उस पक्षीको दिये (और कहा). तुम परम सुखावह अनरण और अनन्तवीर्यके पथपर जाना। समस्त आदरके साथ उन वचनोंको सुनकर उस पक्षिराजने शीघ्र अपने प्राणोंको छोड़ दिया।" जब जटायु भर गया और सीत। अपहृत कर ली गयी तो राम अपने दोनों हाथ ऊपर कर धाड़ मारकर रोने लगे। मैं कहाँ ? लक्ष्मण कहाँ ? गृहिणी कहाँ, घर कहाँ ? परिजन छिन्न-भिन्न हो गये। हत दैबने भूतबलिको तरह मेरा कुटुम्ब जगमें तितर-बितर कर दिया ॥१-९||
[३] यह विचार कर, राम मूच्छित हो गये। फिर उन्हें चारण मुनियोंने देखा । चारण मुनि भी, वे जो आठ गुणोंवाले होते हैं। जो ज्ञान शरीर और शीलाभरण वाले होते हैं। ऐसे वीर सुधीर और त्रिशुद्ध मन आकाश में विचरण करनेवाले दो मुनिजन आये। उन्होंने अवधिज्ञानसे जान लिया कि रामको स्त्रीका वियोग हो गया है । (आकाशसे) उतरकर गलेसे गम्भीर ध्यानमें जेठे मुनि कहने लगे, "हे मोक्षगामी चरम शरीर और मूढमन राम, तुम किस कारण रोते हो। स्त्री दुःखकी खान और वियोगको निधि होती है। उसके कारण तुम क्यों रोते हो। क्या तुमने यह कथा नहीं सुनी कि किस प्रकार छहों निकायोंके जीवोंके प्रति दया रखनेवाला जिनदास गुणवतीकी अनुपीड़ासे बनमें बन्दर हुआ ।।१-९।।
[४] जब रामने किसीको कहते हुए सुना तो धरती तल पर मृळसे विह्वल वह हा सीता' यह कहते हुए उठे। और चारों
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पडमचरित
गं करि करिणिहें पिच्छोइयउ। पुणु गयपा-मागु भवलोइयड ॥३॥ सहि ताव जिहालिय विणि रिसि । संगहिय जेहिं परलोय-किसि ॥४॥ ते गुरु गुरु-मति करेवि धुय । 'हो धम्म-विधि सिरि-णमिय-भुय ॥५|| गिरि-मेह-समाण जेस्थु दुहु । तहे कारण रोषष्टि का तुहुँ ॥६॥ स्थल तियमइ जेण ण परिहरिय। वहाँ गरम-महाणइ दुतरिय ॥७॥ रोषन्ति एम पर कप्पुरिस। तिण-समु गणन्ति जे सप्पुरिस ॥८॥
धत्ता
तियमह वादे अणुहाइ खाणे खणं दुक्खन्ति ण थाइ । हम्मइ जिण-घयणरेसहण जे जम्भ-पए वि ग दुक ॥९॥
[५] तं षयणु सुणेपिणु भणइ बल । मेल्लन्तु णिरन्सरु अंसु-जलु ।। 5 ।। 'सम्मन्ति गाम-वरपरणई। सीग्रल-विजलई णदण-वण ॥२।। लमन्ति तुरङ्गम मत्त गय। रह ऋणय-दण्ड-धुन्चमात-घर ॥३॥ लमन्ति मिशधर भाग-कर। लभइ अणुारों वि स-भर धर i al लकभइ धरु परियणु वन्धु-जणु । लन्म सिय सम्पय दबु धणु ॥५॥ लठभइ तम्बोलु पिलेवाणउ। लभइ हियइच्छिउ भोयण ॥६॥ लभ भिकारोलम्बियउ। पागि कप्पूर-करम्विया ॥७॥ हिमच्छिउ मणहरू पियवया । पर एहण लाभह निय-रयणु ॥८॥
घत्ता जोन्त्रणु सं मुह-कमलु तं सुरज लबट्टण-हस्थङ । जेग ण मागिइ एस्थु जगें सही जीविउ सब्यु णिरत्थड ॥१||
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गुणचालीस संधि
ស
दिशाओं में देखते हुए ऐसे स्थित हो गये, मानो हाथी हथिनी से वियुक्त हुआ हो, फिर उन्होंने आकाशमार्गको देखा । तब उन्होंने उन दो मुनियोंको देखा कि जिन्होंने नी संगृहीत की थी। उन गुरुओं की गुरुभक्ति कर रामने स्तुति की। ( उन्होंने कहा ) जिसकी भुजाएँ श्रीसे नमित है ऐसे हे राम तुम्हारी धर्मवृद्धि हो, जहाँ सुमेरु पर्वतके समान दुःख है, उस कारण के लिए तुम क्यों रोते हो ? दुष्ट स्त्री बुद्धिको जिसने नहीं छोड़ा उसके लिए नरक रूपी महानदी दुस्तर हो जायेगी। इस प्रकार केवल कापुरुष रोते हैं परन्तु सत्पुरुष इसे तृणके बराबर समझते हैं । श्रीमति व्याधिका अनुकरण करती है, वह क्षणक्षण में दुःख देती है, जरा भी नहीं थकती । वह जिनवचन रूपी औषधिसे मारा जाता है, और फिर सैकड़ों जन्मों भी नहीं आती ||१||
[५] यह वचन सुनकर राम, निरन्तर अश्रुधारा छोड़ते हुए बोले - "ग्राम और श्रेष्ठ नगर प्राप्त किये जा सकते हैं, शीतल विशाल नन्दन वन प्राप्त किये जा सकते हैं। घोड़े और मनवाले महागज प्राप्त किये जा सकते हैं, रथ स्वर्णदण्ड और उड़ते हुए ध्वज प्राप्त किये जा सकते हैं, आज्ञाकारी भृत्यवर प्राप्त किये जा सकते हैं, उपभोग करने के लिए पर्वतों सहित धरती प्राप्त की जा सकती है, घर परिजन और बन्धुजन प्राप्त किये जा सकते हैं, खो, सम्पत्ति द्रव्य और धन प्राप्त किया जा सकता है, ताम्बूल और विलेपन प्राप्त किया जा सकता है, हृदय - इच्छित भोजन प्राप्त किया जा सकता है, भृंगार में रखा हुआ कपूर से मिश्रित जल प्राप्त किया जा सकता है, मनपसन्द प्रियवचन प्राप्त किये जा सकते हैं, परन्तु यह स्त्रीरत्न नहीं प्राप्त किया जा सकता। वह यौवन, वह मुखकमल घछ सुरत और वर्तल हाथ, जिसने नहीं माने, इस दुनिया में उसका
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पामचरिड
[३] परमैसरु पमणइ बल वि मुहु। "तिय-रयाणु पसंसहि काइँ सुहुँ ॥१॥ पेक्खन्तहुँ पर वष्णुज्जलउ। अक्मासरे रुहिर-चिलिविलउ ॥२॥ बमाध-देहु घिणि-विदलउ । पर घमें इङ्गहँ पोदलङ १३॥ मायाम जन्तें परिममछ। भिषण णव-गाडिहि परिसवइ ॥३॥ कम्मल-गण्टि-सम-सिकिरिड । रम-बम-सोणिय-काम-मरित ॥५॥ बहु-मस-रासि किमि-कोड-हर। यह वरिट भूमोहें भर ॥६॥ आहारहाँ पिसिनउ सीरियड । गिसि मडउ दिवसें संजीवियउ ॥७॥ णीलासूसासु कान्ताहुँ। गउ जम्मु जियन्त-मरता? ॥८॥
घन्ता मरण-काले किमि-कप्परिउ जे पेक्खें वि मुहु पङ्किजइ । घिणिहिणन्तु मश्रिणय-सएँ हिं ते तेहउ केम रमिजद ॥५॥
[ • ] सं चक्षण-शुअलु गइ-मन्थरड । सउहि खजन्तु भयङ्करउ ।।।। ते सुरय-णियम्बु सुहावण । किमि-विलविलन्तु चिलिसावण ॥२॥ तं णाहि-पएसु किसोयरउ । खजन्त-माणु थिउ मासुरज ॥३॥ तं जोन्त्रशु अवरुपडण-मणा । सुजन्तु णपर भीसावणठ ॥४॥ सं सुन्दरु वय णु जियन्ताहुँ। किमि-कपिउ पावर मरम्ताहुँ ॥५॥ से अहर-पिम्बु वाणुजलउ । लञ्चन्तु सिहं चिणि-बिलाइ ॥६॥ सं णयण-जुअलु चिलभम-माउ । विच्छायउ काहिं कप्परिट ॥७॥ सो चिर-मार कोड्डाषणउ'। उन्तु णवर भीसाधणउ ॥८॥
घत्ता तं माणुसु हं मुह-कमलु ते थण त गानालिझाए । णवर धरेषिणु णासउड्डु बोलेप3 "घिधि चिलिसावणु" |॥९॥
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एगुमचालीसमो संधि समस्त जीवन निरर्थक है ॥१-९॥
[६] तब परमेश्वर अपना मुँह मोड़कर कहते हैं-"तुम स्त्रीरत्नकी प्रशंसा क्यों करते हो, देखने में देवा मोर होता है, परन्त भीतर रक्तसे लिपटा हुआ है । घृणित और अस्पृश्य दुर्गन्धित देह जो केवल चमड़े के द्वारा हदियोंकी पोटली है। मायामय यन्त्रसे बह घूमता है, नौ नाड़ियोंसे रचित वह स्रवित होता रहता है। आठ कर्मोंकी सैकड़ों गाँठोंसे गथा हुआ । रस, वसा और रक्तकदमसे भरा हुआ। प्रचुर मासका ढेर तथा कृमियों और कीटोंको धारण करनेवाला । खाटकी दुश्मन, और भूमिका भार | भोजन के लिए पोषण और सन्धान करता है। रातमें मृतक और दिनमें जीवित है। निःश्वास और श्वास लेते हुए जीते और मरते हुए जन्म चला जाता है । मृत्युकालमें कृमियोसे काटे गये जिसे देखकर मुख टेढ़ा कर लिया जाता है, जो सैकड़ों मक्खियोंसे घिनधिनाता हुआ है ऐसे उस शरीरका किस प्रकार रमण किया जाता है ।।१-९॥
[७] गतिसे मन्थर वह चरणयुगल पक्षियों के द्वारा खाया जाता हुआ भयंकर हो उठता है। वह सुहावना सुरसिनितम्ब कृमियोंसे किलबिलाता हुआ है। वह कृशोदर और नाभिप्रदेश खाया जाता हुआ भयावना हो जाता है । आलिंगनके मनवाला यह यौवन क्षीण होता हुआ केवल भीषण हो जाता है। जीते समयका वह सुन्दर मुख मरते समय केवल कृमियोंसे काटा जाता है, रंगमें उजला वह अधरबिम्ब सियारोंके द्वारा लुचित किया जाता है। विभ्रमसे भरित वह कान्तिहीन नेत्रयुगल कौओंसे खाया जाता है । कुतूहल उत्पन्न करनेवाला वह केशभार उड़ता हुए केवल भयंकर होता है । यह मनुष्य, वह मुखकमल, वे स्तन, वह प्रगाढ़ आलिंगन? (इन सयको देखकर) लोग अपनी नाक (नासापुट) बन्द कर कहते हैं-छि छिः,
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११०
पउमचारेड
[८] तहि तह रस-वस-पूय-भरें। गव मास पसवा देह-धरै ॥१॥ गध-पाहि-कमलु उस्थटल जहिं । पहिलउ में पिण्ड-संवन्धु तहिं ॥२॥ दस-दिवसु परिदिउ रुहिर-जलें। कणु जेग पइपण धरणियलं ॥३॥ विहि दसररोहि समुद्वियउ। र्ण जले विगहीरु परिष्ट्रियउ ॥४॥ तिहिं दलरत्तेहि बुब्धउ घडिउ । f सिसिर-गि म पडिउ ॥५॥ दसरत चउत्थएँ वित्थरिक। णावइ पबलकुल गोसारेउ ॥६॥ पश्च में दसरसे जाव बलिउ। णं सूरण-कन्दु चउफसिउ ॥७॥ दस-दसरतेंचि कर-चरणम-सिक ! वी my] भरी थिम ! ८ !! णवमासिउ देहही गोसरिज। बदन्तु पहोवर वीसरिउ ॥९॥
पत्ता जेण दुवार भाइयउ सो त परिहर हि ण सका। पन्तिहिं जुत्त बल्लु जिह भव-संसार ममन्तु ण यश ॥१०॥
[९] ऍड जाणे वि धीरहि अप्पगा। करें कङ्कणु जोबधि दपणा ॥१॥ चटगह-संसार भमन्तएंग। आवन्त जन्ता-मरन्तएँग २॥ जग जीये की ण स्वापियउ ३ को गरुम धाह ण मुआविया ॥३॥ को कहि मि णाहिं संताविया । को काहि मि ण आवह पाविया ॥३॥ को कहिण दलको कहिण मुउ । को कहिण भमिड को कहिण मङ॥५॥ कहि ज वि भोयणु कहिण वि सुरउ । जम जीजहों कि पि ण वाहिरउ ॥ ॥ सइलोक्छु कि असिड असन्शएंण । महि सथल दन मन्तऍण ॥७॥
पत्ता सायर पीड पियन्सऍण अंसुएँ हिं अम्त मरियउ । हह-कलेवर-संचऍण गिरि मेरु सो घि अन्तरिपउ ॥८॥
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३19
एगुण चालोसमो संधि
३१ घिनौना है ॥१-५॥
[८] उस वैसे रस, वसा और पीपसे भरे हुए देहरूपी घरमें ( जीवको ) नौ माह बसना पड़ता है। जहाँ नवनाभिरूपी कमल उभरता है (नरा ) पहला शरीरसम्बन्ध वहीं होता है। दस दिन तक रुधिररूपी जल में रहता है, उसी प्रकार, जिस प्रकार धरतीपर कण पड़ा रहता है। फिर बीस रातमें वह अंकुरित होता है, मानो जल में फेन उत्पन्न हुआ हो, तीस रात में वह बुद्बुद बन जाता है, मानो केशरमें बफकण जम गया हो। चार दिन में उनका विस्तार दोसा, जैसे पालका अंकुर निकल आया हो। पचास दिनमें बह मुड़ता है तो जैसे मानो चारों ओरसे सूक्ष्म जमीकन्द फल गया हो। फिर सौ दिनमें कर, चरण और सिर बनते हैं, फिर चार सौ रातोंमें शरीर स्थिर होता है, इस प्रकार नौ माह में शरीरसे बाहर निकल आता है । और बड़ा होकर उलटा उसे भूल जाता है । यह मनुष्य जिस द्वारसे आता है, उसे भी वह छोड़ नहीं सकता। पंक्ति में जुते हुए बैल की तरह वह भवसंसारमें भ्रमण करता हुआ थकता नहीं है ।।१-१०॥
[९] यह जानकर अपनेको धीरज दो। हाथका कंगन और दर्पण देखो। चार गतिबाले संसारमें घूमते हुए, आते हुए, उत्पन्न होते और मरते हुए, जीवके द्वारा जगमें कौन नहीं रुलाया गया, किसके द्वारा भारी धाड़ नहीं छोड़ी गयी। कौन कहाँ बिलकुल नहीं सताया गया। किसने कहाँ आपत्ति नहीं पायी । कौन कहाँ नहीं दग्ध हुआ, और कौन कहाँ मरा नहीं ? किसने कहाँ भोजन नहीं किया और कहाँ सुरति नहीं की। इस प्रकार जगमें जीवसे कुछ भी बाहर नहीं है। खाते हुए उसने त्रिलोक खा डाला और जलते हुए समस्त धरती जला डाली। पीते हुए समुद्र पी डाला, और रोते हुए आँसुओंसे
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૨
पउमचरिय
[,]
अहवान् किं वहु-चविण राम । हु जिह सिंह वहु-वन्तरे हिं । सासीय बि जोणि-सहिँ आय ।
भवे भूमि मयङ्करं तु मिताम ॥१॥ जर जम्मण-मरण-परम्परे हिं ॥२॥ तुहुँ कहि मि वष्णु सा कहि मि माय ॥ २ ॥
हुँ कहि मि भासा कहि मि बहिनि तुहुँ कहि मिरएँ सा हि मिस ।
कहि दिइ सा कहि मि घरिनिव तुहुँ कहि मि महिहिं मा गयण-मम्॥ ५
तुहुँ कहि मिणारिसा कहि मि जोडु । किं सविणा-रिद्धिहें करहि मी ॥ ६ ॥
जगन्तु मम जगु निश्वसेसु ॥3 ॥ तो माणुसु माणुसेण ॥ ८ ॥
उम्मेदट्ट विओोभ- गइन्दरसु ।
जण धरि जिण वणण ।
घता
एम भणेविणु वे वि मुणि गय कहि मि हण-पन्थें । रामु परिट्टिङ किचिणु जिह धणु कुक्कु लए िस हस्थे ॥९॥
विरहाल जाल पलितन्तणु । सब संसारेंण अस्थि सुड्डु 1
[ 19 ]
चिन्ते लग्गु विसरण- मणु || १|| सच गिरि-मंरु लमाणु दुहु ॥ २ ॥ सदर जीविउ जल-विश्दु-लउ ॥३॥
सखंड जर-अम्मण-मरण-मउ |
कहाँ घरु कहाँ परियणु बन्धु-जणु । कहीं माय-वधु कहाँ सुद्दि-लयणु ॥ ४ ॥ कहो पुतु मिस कहीं क्रिर वरिणि । कहीं भाय सोयर कहाँ वहिणि ॥ ५ ॥ फलु जाव ताम्र बम्धच सयण । आवासिय पायवें जिह सउण' ॥६॥ रोवन्तु पीचर वीसरिङ ||७||
एम मणेपिणु णीसरिं
।
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पगुण चालीसमो संधि उसे भर दिया। इदियों और कलेवरके संघयसे सुमेरु पर्वतको भी उसने ढक दिया।" ||१-८॥
[१०] हे राम, अथवा बहुत कहनेसे क्या ? इस भयंकर संसारमें, जिस प्रकार नट बहुरूपान्तरोंमें, उसी प्रकार तुम जरा, जन्म और मरणकी परम्पराओंमें घूमे हो। वह सीता सैकड़ों योनियों में आयी है। कहीं तुम उसके पिता बने हो, कहीं वह तुम्हारी माँ बनी है | तुम कहीं भाई बने हो, और यह कहीं बहन भी बनी है | तुम कहीं भी उसके पति बने हो, और वह कहीं तुम्हारी गृहिणी बनी है। तुम कहीं भी नरकमें थे,
और कहीं वह स्वर्गमें थी। तुम कहीं भी धरती पर थे और वह कहीं भी आकाशमार्गमें थी। वह कहीं भी नारी थी, और तुम कहीं भी योद्धा थे । तुम स्वप्नकी ऋद्धिपर मोह क्यों प्रकट करते हो ? बिना महावतका यह वियोगरूपी गजेन्द्रेश झगड़ा करता हुआ समस्त जगमें घूम रहा है। यदि इसे जिनवचनरूपी अंकुझसे नहीं पकड़ा जाये तो मनुष्य के द्वारा मनुष्य खा लिया जायेगा।" यह कहकर वे दोनों आकाशमार्गसे कहीं चलें गये । केवल राम ही कृपणकी भाँति एक, धन ही (धन्या और रुपया-पैसा) अपने हाथ में लेकर बैठे रह गये ||१-५||
[११] तब बिरहानलकी ज्वालासे सन्तप्त शरीर राम उदास मनसे विचार करने लगे कि सच है कि "संसार में सुख नहीं है। सच है कि संसारमें दुःख सुमेरु पर्वतकी तरह है। सच है. कि जरा, जन्म और मृत्युका भय है। सच है कि जीवन जलकी बूंद बराबर है। किसका घर, किसके षन्धुजन-परिजन ? किसके माँ-बाप । और किसके सुधी सज्जन ? किसके पुत्र और मित्र, और किसको गृहिणी। किसका सहोदर भाई और किसकी बहन । जबतक फल (कर्मफल) है, तब तक बन्धु और स्वजन हैं जिस प्रकार वृक्षपर पक्षी बसे हुए हैं।" राम यह
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३१४
पडमचरित
घत्ता
णिणु लक्षण-जियर अण्ण मिना-साम्मे हि मनः । राहत भमइ भुअङ्ग जिह वर्ण 'हा हा सीय' भणन्तउ ||८||
[ २] हिण्डन्तें भग्ग-महप्फरेंण । वण-देवय पुचिश्य हलहरेण |1|| 'स्वगणे खणे वेयारहि काई महूँ। कहें कहि मि दिट जइ कन्त पई ॥२॥ बलु एम मणेपिणु संचलिउ । तावस्गएँ घण-गइन्दु मिलिउ ।।३।। 'हे कृक्षार कामिणि-गह-गमण। कह कहि मि दिट्ट जह मिगणयण'Hal णिय-पहिरवेण घेयारियउ। जाणइ सीयएँ हकारियड ॥|| करथइ दिहँ इन्दीवर जाणइ धण-णयणई दोहर ।।६।। करथा असोय-तरु हलिउ। जाणइ धण-वाहा-ढोलिया ||७|| वणु सथल गवेस वि सम्बल महि । पल्लट्टु पडीवउ दासरहि |||
पत्ता तं जि पराइउ गिय-भवणु जहि अच्छि आसि लयस्थले । चाव-सिलिम्मुह-मुक्क-कर बलु पडिउ स ई भु द-मण्ड ॥२॥
चालीसमो संधि दसरहे-तव-कारणु सम्बुद्वारण वजयण्ण-सम्मय-भरिन । जिणवर-गुण-कित्तणु सीय-सइत्तणु तं णिसुण राहाव-चरिउ ।
[ ]
ध्रुवकं सं सन्तं गयागसं घीस संताव-पाव-संतास (१) । बारु-रुचा-रएणं बंदे वेवं संसार-चोर-लोसं ॥१॥
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चाकोसमो संधि
३१५
कहकर निकल गये । परन्तु रोते हुए फिर उसे उलटे भूल गये । निर्धन, लक्ष्मणसे रहित और भी अनेकों मुक्त रा मुजंगकी तरह बनमें 'हा सीता, हा सीता' कहते हुए भ्रमण करते हैं ||१८||
[१२] भग्नमान और भ्रमण करते हुए रामने वनदेवता से पूछा - "मुझे क्षण-क्षण में क्यों दुखी कर रहे हो । बताओ यह तुमने मेरी कान्ता देखी हो ।" यह कहकर वह आगे बढ़े ही थे कि उन्हें एक मत्त गज मिला। उन्होंने कहा "अरे मेरी कामिनी की तरह सुन्दर गतिवाले गज, क्या तुमने मेरी मृगनयनीको देखा हूँ ?" अपनी ही प्रतिध्वनिसे प्रताड़ित होकर वह यहीं समझते थे कि मानो सीता देवीने ही उन्हें पुकारा है। कहीं वह नील कमलोंको अपनी पत्नीके विशाल नयन समझ बैठते, कहीं हिलते हुए अशोक वृक्षको वे यह समझ लेते कि सीतादेवीकी बाँह हिल-डुल रही है । इस प्रकार समस्त धरती और वनकी खोज करके राम वापस आ गये, और वह अपने सुन्दर लतागृह में पहुँचे । अपना धनुष-बाण ( उतारकर ) एक ओर रखकर वह धरतीपर गिर पड़े ॥१-९॥
चालीसवीं सन्धि
जो दशरथके लपका कारण हैं, जिसमें सबका उद्धार है, जो वाकर्ण के सम्यक्त्व से भरित है, जिसमें जिनवरका गुण कीर्तन है, सीताका सतीत्व है, ऐसे उस 'राघवचरित' को सुनो।
[१] जो शान्त हैं, दोषोंसे रहित हैं, बुद्धिके अधीश हैं, सन्ताप और पापको सन्त्रास देनेवाले हैं, जो सुन्दर कान्ति से रत हैं, घोर संसारका शोषण करनेवाले हैं, ऐसे उन देव (मुनि
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१६
पउभचरिंट
असाहणं । कसाय-सोय-साहां ॥२॥ अवाहणं । पमाय-माय-बाहणं ॥३॥ अवन्दणं। तिलोय-लोय-वन्वर्ण ॥४॥ अपुजा । सुरिन्दराय-पुजणं ॥५॥ मसासणं । तिलोय-केय-सासणं ॥६॥ अवारण । अपेय-मेष-वारण ॥७॥ अणिन्दियं। जय-प्पहुँअणिन्दियं ॥॥ महत्तम् । पचण्ड-चम्महन्तयं ॥५॥ रवणयं । घणालि-वार-वगणयं ||१०||
घत्ता मणि-सुन्षय-सामिउ सुह-गइ-गामिड तं पणवेप्पिणु दिढ-मणण । पुणु कहमि महव्वल खर-दूसण-बल जिह आयामिउ लक्खगण ॥१५॥
हिय एत्तहें विसीय एत्त वि विओड महन्तु राहये ।
हरि एत्त वि भिडिउ एन वि विराहिउ मिलिउ आहवी ॥१॥ ताव तेरधु भीसावणे वणे। एकमेक-हकारणे रणे ॥२॥ कुरुख-दिहि-वणुकभरे भड़े। विरहए महा-विस्थ घडे ॥३॥ वावरन्त-भय-भासुरे सुरे। सुरे मजार-पहराउरे उरे ॥५॥ असि-सबाहु-पडियाफरे फरे। जम्पमाण-कनुअखरे खरे ॥५॥ दलिय-कुम्म-विलाए गए। सिरु धुणाविए आहप हप ॥६॥ रुहिर-बिन्दु-चश्चिक्किए किए। सायरे ब्घ सुर-मन्धिप थिए ॥७॥ कत्त-दण्ड सप-खण्ड-खण्डिए। हा-रुक-विच्छ-मण्डिए ॥६॥ तहिं महाहवे धोर-दारणे । दिर बीरु पहरन्तु साहणे ॥९॥
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चालीसमो संधि सुव्रत) की मैं बन्दना करता हूँ | जो साधनरहित हैं, जो कषाय और शोकका नाश करनेवाले हैं, जो बाधारहित हैं, प्रमाद और मायाके बाधक हैं, जो दुष्टोंसे अवन्दनीय हैं और 'अलोक-लोक द्वारा बन्दनीय हैं। जो दुष्टोंसे अपूज्य हैं, परन्तु इन्द्रराजके द्वारा पूज्य हैं । जो शासन (उपाध्याय) से रहित है, फिर भी त्रिलोकके पण्डितोंके शासक हैं। जो वर्जनाओंसे रहित हैं, फिर भी अपेय पेयों (मद्य मधु) का वारण करनेवाले हैं। जो निद्रारहित हैं, विश्वके प्रभु हैं, अनिन्दित हैं, जो महान् अन्तवाले हैं, और प्रचण्ड कामदेवका हनन करनेवाले हैं । जो सुन्दर है, जो मेघ, अलि और केशके रंगके समान हैं। ऐसे जो शभगतिगामी मुनिसुव्रत स्वामी है उन्हें प्रणाम कर, अब पुनः कहता हूँ, कि किस प्रकार लक्ष्मणने महाषलवाले खरदूषणके बलको परास्त किया ॥१-११॥
२] यहाँ सीताका अपहरण कर लिया गया। और यहाँ रामको महान् वियोग हुआ । यहाँ लक्ष्मण युद्ध में भिड़ गया,
और यहाँ युद्ध में विराधित मिला । तबतक इस भयंकर वनमें, जिसमें एक दूसरेको हकारा जा रहा है, जिसमें कठोर दृष्टि और वचनोंसे योद्धा उद्भट हैं, जिसमें विस्तृत सैन्य समूह रचित हैं, जिसमें चेष्टा करते हुए देव भयसे भास्वर हैं, जर्जर अंग होनेपर भी, जो प्रहारके लिए अपने हृदयमें आतुर हैं । जिसमें तलवार और बाहुओं सहित तलवारें पड़ी हुई हैं, जिसमें अत्यन्त कठोर और तीव शब्द बोले जा रहे हैं, जिसमें गजोंके मम्तक टूट चुके हैं और शरीर विगलित हैं, सिरोंके काँपनेसे जिसमें अश्व आहत है, जो रक्त बिन्दुओंस इस प्रकार लग रहा है, जैसे देवोंके द्वारा मथा गया समुद्र हो, जिसमें छत्रों और दण्डोंके सौ-सौ टुकड़े हो चुके हैं। जो हडियों और धड़ोंके समूहसे आच्छादित है, ऐसे उस घोर भयंकर महायुद्ध में
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परमचरिख
पत्ता तिल तिलु कप्परियई उरें जजरिय िरत्तर फुरियाणणाई । दिइँ गम्भीर सह-सरीरइँ सर-सल्लियाँ सवाहणई ॥३०॥
[३]
को वि सुभमु स-तरामु को त्रि सजाणु सल्लिओ।
को वि पडन्तु दिछु आयासहीं सक्षण सर-मिरछिमओ ॥१॥ भडो को वि दिट्टो परिच्छिन्न-गतो । स-दन्ती स-मम्ती स-चिम्धो स-सी॥२॥ भड़ो को विषावल्ल-भल्लेहि भिषणो। मलो की षि कप्पद्वुमो जेम छिगणो ॥३॥ मो को वितिक्वग्ग-णाराय-विहो।महा-सस्थवन्तो व्य सस्थेहि विन्द्रो ॥४॥ भडोको वि कुन्द्राणको विष्फुरन्तो । मरन्तो बिहकार-सकार देतो ॥५॥ भडो को विभिण्णो सदेही समस्यो । एमुज्छाविप्रो को वि कोरण्व-हस्थो।।६॥ मुलओ को वि को नुब्भोजीपमाणो । चलछामर-स्ट्रोह-विजि जमाणी ॥७॥
सा-कदमे मदवे को वि खुसो । वलन्तो वलन्तो नियन्तेहि गुप्तो ॥८॥ महो को विभिगो खुसप्पेहि एस्ती । णियन्तो कुसिछो कप सिद्धिंण पत्तो ॥९॥
पत्ता लक्खण-सर-मरियउ अधुच्चरियउ खर-दूसण-बलु दिट्ट किह । साहार ण वन्धइ गमणु ण सन्धद पवलड कामिणि-पम्मु जिह ॥१०॥
[ ]
दुबई परधण-परकलत्त-परिसेसहुँ परपल-सपिणवायहुँ ।
एक लक्षणेण विणिवाइय सत्त सहास राय? ॥१॥ जीवन्त भद्धएं वहरि-सेपण। अनुएँ दलवष्टि महि:णिसणें ॥२॥ सहि अबसरे पक्र-जसाहिएण। जोक्कारित यिण्ड चिराहिएण ||३||
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चाकोसमो संधि
५०९
सेनाके भीतर, वह बीर प्रहार करता हुआ दिखाई दिया। जो तिल-तिल काट दिये गये हैं, जो उरमें जर्जर हैं, जो लाल-लाल आँखोंवाले और स्फुरित मुखबाले हैं, जो तीरोंसे भेदे गये हैं, ऐसे वाहन सहित गम्भीर सुभट-शरीर दिखाई दिये ॥१- १०॥
[१] कोई सुभट अहिए, कोई बावराहित पोहो गया। कोई लक्ष्मणके तीरोंसे खण्डित होकर आकाशसे गिरता हुआ दीख पड़ा। कोई सुभट अपने हाथी, मन्त्री, चिह्न और छत्र के साथ छिन्न शरीर दिखाई दिया। कोई योद्धा बाबल्ल और भालोंसे विदीर्ण हो गया। कोई भट कल्पवृक्षकी तरह छिन्न हो गया। कोई भट तीखे अग्रिम तीरोंसे विद्ध हो गया । महाशस्त्रोंवाला भी कोई सुभट शस्त्रोंसे विद्ध हो गया। ऋद्धमुख और विस्फुरित होता हुआ कोई भट मरते हुए भी हक्कारउक्कार दे रहा था। कोई समर्थ योद्धा अपने शरीर सहित छिन्न हो गया। कोई धनुष हाथमें लिये हुए मूर्च्छित हो गया । कोप से उद्भट चंचल चामरोंकी कान्तिसे हवा किया जाता हुआ जीवित ही मर गया। कोई घनी बसा कीचड़ में फँस गया, उसमें स्खलित होता और मुड़ता हुआ अपनी आँतों में ही उलझ गया। कोई आता हुआ सुभट खुरुपोंसे काट दिया गया । अन्तको प्राप्त होता हुआ भी कुसिद्धके समान सिद्धिको प्राप्त नहीं हो रहा था। लक्ष्मणके तीरोंसे आक्रान्त आधा बना हुआ सैन्य इस प्रकार दिखाई दे रहा था कि मानो वह नचल कामिनी- प्रेम के समान, न तो अपने-आपमें ढांढस चाँपा रहा धा, और न जानेका सन्धान कर रहा था ॥ -
[४] परधन और परखियोंको समाप्त करनेवाले शत्रुसैन्यके लिए सन्निपात के समान सात हजार राजाअंकि सैन्यको अकेले लक्ष्मणने मार गिराया। आधे शत्रुसैन्यके जीवित रहने और आवेके चकनाचूर होकर धरतीपर सो जानेपर, उस अवसर
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'पाइकों वह पहु कालु | कहिओ सि सि जो चारणेहिँ । सं सहछ मणोरह अज्जु जाय । यि जणनि हउँ गवभत्थु जइ सहुँ ताऐं महु पाक-पवरु | समर - महभय-भीसणेहिं ।
पचमचfte
हउँ चितु देव सामिसाल ॥ ४ ॥ सो क्खि सि लई लांग मेहिं ॥५॥ जं विट्ट सुहारा वे घि पाय ||५|| । विणिवाइड पिल मधु तड तड ॥ ७ ॥ उद्दालिउ समलङ्कार- जयरु || || सङ्खु पुष्व व वर- दूसणेहिं ॥ ५ ॥ घन्ता
विराहित 'पटु पसाउ महु पेसणहौँ ।
जय रुच्छ्रि-पसा हिउ भणइ तु खरु आयामी रणउ णामहि हउँ अमिट में दूसणहीं ॥१०॥
Nu
[4]
दुबई
संणिसुणेवि क्यणु विजाहरु सम्भोसिउ कुमारेण । 'बरु साब जाव रिड पामि एके सर पहारेण ॥ १ ॥
एउ सेण्णु खर-ण-र । वाणें हिं करमि अज्जु विवरे ॥२॥ लायमि सम्बु कुमार पन्थें ॥३॥ तमलङ्कार-णय मुञ्जावम' ॥ ४॥ चलहिं पठि सीसें लाएँ विकरु ॥५॥ पुच्छिउ मन्ति विमाणा ||६||
रुपणमस्तु कियञ्जलि-हरथव || || णं खय-काल कियन्तों मिकि ||८|| 'किं पढ़ें वइरि कमाविण दिड ||९||
घन्ता
स उ स वाहणुस पहु सहस्थे । सुज्नु वि जम्म-भूमि दरिलाषमि । हरिचवणेंहिं हरिसिङ विजाहरु । तावखरेण समरें पिम्बू हें । 'दीसह कणु एहु वीरधट । बाहुबले चलेण विवलिंगड | पण मन्ति विमाणं पट्ट
।
णामेण विराहि पवर-जसाहिद बियड-बच्छु थिर-धोर-भुउ | अगुराहा णन्दणु स-बलु सन्सन्दणु एँहु सो चन्दीभरही सुख ||१०||
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पोशनी संधि
पर, प्रवर यशके अधिपति विराधितने लक्ष्मणका जय-जयकार किया, "यह अब सेवकका समय है, हे देव! मैं भृत्य हूँ और आप स्वामीश्रेष्ठ हैं, चारण मुनियोंके द्वारा जो कहा हुआ था, उसे आज मैंने अपने नेत्रोंसे देख लिया है। आज मेरा मनोरथ सफल हो गया है कि जो मैंने तुम्हारे दो चरण देखे । जब मैं अपनी माँके गर्भ में था, तब मेरे पिता मार डाले गये । तात के साथ, मेरा आज्ञाकारी श्रेष्ठ समलंकार नगर छीन लिया गया । इस कारण समरके महाभयसे भीषण खरदूषण के साथ मेरा पूर्व वैर हैं ।" इस (प्रकार) विजयलक्ष्मी से प्रसाधित विराधित कहता है- 'मुझ सेवकपर प्रसाद हो । युद्धमुखमें तुम खरको परास्त करना, मैं दूषण से लड़ गा ॥१- १० ॥
"
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[५] इन शब्दों को सुनकर कुमारने विद्याधरको अभय वचन दिया- "तुम तबतक बैठो कि जबतक मैं एक सर-प्रहार में शत्रुको मार गिराता हूँ । खरदूषण के इस सैन्यको आज मैं तीरोंसे छिन्न-भिन्न करता हूँ। अपने हाथ से मैं ध्वज, वाइन और स्वामी सहित उसे शम्बुकुमारके पथपर लाता हूँ । तुम्हारी जन्मभूमि भी दिखाऊँगा और उस तमलंकार नगरका भोग कराऊँगा ।" लक्ष्मणके इन शब्दोंसे विद्याधर हर्षित हो गया । वह अपने हाथ सिरपर रखकर चरणोंपर गिर पड़ा। तब युद्धका निर्वाह करनेवाले (समर्थ) विमानपर बैठे हुए खरने मन्त्री से पूछा - "यह कौन मनुष्य है जो विश्वस्त होकर हाथोंकी अंजलि बाँधकर प्रणाम कर रहा हैं। बाहुबल और बलसे विशिष्ट बलवाला वह इस प्रकार मिल गया है, मानो क्षयकाल कृतान्तसे मिल गया हो ।" तब विमानमें बैठा हुआ मन्त्री कहता है - "क्या तुमने शत्रुको कभी नहीं देखा ? नामसे विराधित, यह प्रवर यशका स्वामी है । विशाल वक्षःस्थल
२१
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३२२
पउमचरित
दुवई मन्ति-णिवाण विहि मि अवरोप्पर ए आलाष जाहिं। विगहु-विराहिएहि आयामिड पर-वलु सयलु सा हि ॥१॥
तो खरोऽरिभरणेण | कोशिओ जण इष्येण ॥२॥ एतहे स-सन्दणेण । सोऽशुराह-गन्दणेण ॥३॥
आहवे समस्थएण। चाय-वाण-इत्थएण ॥४॥ गुज-वाण-लोयणे। मीसागावलोयणेण ॥५॥ कुम्भि -कुम्भ-दारणेपण । पुरुत-बहर-कारणेग ॥६॥ दूसणी जसाहिवण। कोकिआ विराहिएण ॥७॥ पहुचे (?) हो हपस्स । चोओ गो गयस्स ॥६॥ वाहिओ रहो रहस्स। धाइओ जरो परस्स ॥९॥
घत्ता स-गुख-स-सपणाहइँ कवय-सणाहर सप्पहरणई स-चाहण। णिय-वह सरेषिपणु हकारेपिणु मिष्टिय वेणि मि साहणई ॥१०॥
[७ ]
दुवई सेफ्णहाँ मिडिट सेण्णु दूसणहाँ विराहिउ खाहाँ कक्षणो । हाय पडु पलह तूर किउ कलयलु गल-गम्भौर-मोसणो ॥ १ ॥
हिं रण-संगमे। कुपण-नुरण में ॥२॥ रह गयनोन्दले। वनिय मन्दले ॥३॥ मड-ऋडमाणे। मोडिय-सन्दणे ॥१॥ जरवर-दण्डिएँ। किन-किलिविपिडणें ॥५॥ त्राला-लुधिरें। रह-सथ-खचिएँ ॥६॥ तहिं अपरायण | ' खर-णारायण ॥७॥ मिडिय महष्चल वियड-उरस्थल ॥८॥ वे वि समच्छर। वे वि भयकर ॥९॥
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चालीसमो संघि
१२६
और स्थिर स्थूल बाहुबाला । अनुराधाका पुत्र, सेना और रथ सहित यह चन्द्रोदरका वह पुत्र है || १-२ |
[६] मन्त्री और राजामें जब इस प्रकार आपस में बातचीत हो रही थी तबतक लक्ष्मण और विराधितने समस्त शत्रुसैन्यको घेर लिया। तब शत्रुओंका सफाया करनेवाले लक्ष्मणने खरको ललकारा। और यहाँ जिसके पास रथ है, जो अनुराधाका पुत्र है, जो युद्ध में समर्थ है, धनुष और तीर जिसके हाथ में हैं, जिसके नेत्र गुंजाफलकी तरह लाल हैं, जिसका अवलोकन भयंकर है, जो गजकुम्भोंका विदारण करनेवाला है; जो यशका राजा है, ऐसे विराधितने पूर्व बैरके कारण दूषणको ललकारा। आओ, घोड़ेपर घोड़े, गजपर गज प्रेरित कर दिये गये। रथपर रथ चला दिये गये, आदमीपर आदमी दौड़े! अक तैयार, कवचोंसे सन्नद्ध, प्रहरणों और वाहनोंसे सहित दोनों सैन्य अपने शत्रुको यादकर और इकारकर भिड़ गये || १ - ५ ||
[७] सैन्य से सैन्य भिड़ा विराधित दूषणसे और लक्ष्मण खरसे । पटु, पटह, तूर्य ब्रज उठे । गल-गम्भीर और भीषण कोलाहल होने लगा | जिसमें अश्व त्रस्त हैं, स्थों और हाथियोंकी भीड़ हैं, मृदंग बज रहे हैं, योद्धाओं का संहार हो रहा है. रथ मोड़े जा रहे हैं, श्रेष्ठ नर दण्डित किये जा रहे हैं, फिलिबिडी (?) की जा रही है, केशलोंचे जा रहे हैं, सैकड़ों रथ खचे हुए हैं, ऐसे उस रणसंग्राम में अपराजित खर और लक्ष्मण भिड़ गये 1 दोनों महाबली और विकट उरस्थलवाले थे। दोनों ईष्यसे भरे हुए थे। दोनों भयंकर थे। दोनों अकायर ( बहादुर ) थे ।
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१२४
पउमचरिठ
के वि अकायर। पेवि जसापर १08 वे वि महकमल । वि अणुम्भव ॥११॥ वे वि धणुर । वेगिण वि दुलर ॥१२॥
घसा पेण्णि वि जस-लुद्धा मरिस-कुद्धा तियण-मल्ल समावडिय । अमरिन्द-दसाणण विष्फुरियाणण या परोप्पर अमिडिय ॥१६॥
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दुवई खाम जणणेण भद्धेन्दु विसजिउ र मयकरो । खय-काले कालु उन्नाइउ तिहुअण-जण-रण्यकरी ॥१॥
संचालु वाणु। णयल-समाणु ॥२॥ रिउ-रहहाँ हुक्कु। खरु.कह वि चुक्क ।।३॥ सारहि वि मिष्णु। अय-दण्ड विषणु ॥1 अणुहरु वि भगा। कस्थ विप लगा ॥५॥ पादित विमाणु। विजएँ समाणु ॥६॥ खरु विरहु जाउ । घिउ असि-सहाउ ॥७॥ धाइच नुरन्तु । मुह-विष्फुरन्तु ॥८॥ एत्तहँ वि तेण । पारायणेण ॥९॥ तं सूत्रहासु । किउ करें पगासु ॥१०॥ अभिनवे नि । असिबर लेवि ।।११॥
यत्ता गरिह-याणे हि गिय-विण्णाणे हि वानरनित असिपाहिय-कर । फसणाय दीसिय विम्जु-विहूसिय प णव-पारसे श्रम्वुहर ।।१२॥
हरिय व उद्ध-सीण्ड सीह व लागृल-बलग्ग-कम्धरा । पिठुर महिएर व बह-स्वार समुह य महि व दुखरा ॥१॥
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चालीसमो संधि
३२५ दोनों यशके आकर थे। दोनों ही महाभट थे। और अनुद्धत थे। दोनों घनुधर थे। दोनों दुर्धर थे। दोनों ही यशके लोभी अमर्षसे क्रुद्ध और त्रिभुवनमल्ल इस प्रकार भिड़ गये, मानो तमसमाते हुए मुखवाले अमरेन्द्र और दशानन आपस में भिड़ गये हों ॥१-१३॥
[८] तब लक्ष्मणने युद्ध में भयंकर अर्धन्दु शस्त्र छोड़ा, मानो त्रिभुवनजनका झय करनेवाला काल ही क्षयकाल में दौड़ा हो ।
आकाशके समान बाण चला। शत्रुके रथके पास पहुँचा। खर किसी प्रकार बच गया। सारथि आहत हो गया । श्वज दण्ड छिन्न-भिन्न हो गया। धनुष भी भग्न हो गया। किसी प्रकार लगा-भर नहीं। चिमान गिरा दिया विद्याके साथ । खर रथहीन हो गया। केवल तलवार है सहायक जिसकी, ऐसा रह गया । वह तुरन्त दौड़ा अपना मुख तमतमाला हुआ । यहाँ भी अस लक्ष्मणने उस सूर्यहासको प्रकाशरूपमें अपने हाथमें ले लिया । दोनों तलवार लेकर आपसमें भिड़ गये । नाना प्रकारके स्थानों और अपने-अपने विज्ञानोंके साथ, जिन्होंने हाथ में तलवारें प्रहण कर रखी हैं, ऐसे वे दोनों युद्ध करने लगे। वे ऐसे जान पड़ रहे थे, मानो नवपावसमें बिजलीसे विभूषित, श्याम अंगवाले मेघ दिग्याई दे रहे हों ॥१-१२||
[२] ऊपर जिसकी सूंड उठी है ऐसे हाथ के समान, जिसको पूंछ कन्धेसे लगी हुई है, ऐसे सिंह के समान, निष्ठुर पहाड़ के समान, अत्यन्त खारे समुद्र के समान, साँपके समान अत्यन्त
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पउमचरित अस्मिथ वे वि सोपोर वीर। संगाम-धीर ॥२॥ एस्थम्तरें अमर-वरणाहूँ। हरिलिप-मण्णा ॥३॥ भवरोप वोलासाव हुय। 'कहों गुण पहूष' fi सं णिसुणे वि कुवलय-णयणियाएँ। ससि-वयजियाएँ ॥५॥ णिठमच्छिय भच्छर अच्छराएँ। बहु-मखसएँ ॥६॥ 'बरु मुरषि अण्णु किं को चि सूरु । पर-सिमिनचूरु ॥७॥ अण्णोक्क पजम्पिय तस्षणेण । 'सहुँ लश्खणेण ॥८॥ खरु गबहु किह किन समा। जो अपरमाणु ॥९॥ एस्यन्तरें णिसियर-कुल-पहखें। खरु पहउ गौवें ॥१०॥
घत्ता
कोवागल णाड कटि-कपटाला दसण-सकेसरु अहर-दल । महुमहण-सरग्गै असि-पाहर खुप्टेंवि घत्तिउ सिर-कमलु ॥११॥
[..]
पत्तहुँ लक्षणेण विणिवाइड मिसियर-लेपण-झारओ । प्रत्तहें दूसण किउ विरह विराहिउ पिणि वारी ॥१॥ छुड छुल्लु समरें परजित साहणु। रहनाप-वाहणु ॥२॥ छुद्ध युद्ध जोबनाहि आयामिड । पर-बल-सामिड ॥२॥ छुछ छुद्ध चिहुरहँ हत्थु पसारित। कह चि ण मारिउ ॥ ४ ॥ साव खरहों सिरु खुडेवि महाइड। लक्षणु धाइड ॥५॥ गिन-माहणे मम्मीस करतउ । रिद कोकन्तद्ध ॥६॥ दुसाण एहरु पहर जह सहि। अहिमुहु थकहि ॥७॥ सं णिसुणेषि वाणु भासद्दष्ट । चित्ते दुद्दउ ।।८॥ बल्डि णिसिन्दु गहन्दु व सीहहों। रण-सय-लोहहों ॥२॥
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चालीसमा संघि दुर्धर वे दोनों भिड़ गये। दोनों ही प्रचण्ड वीर और संग्रामधीर थे। इसी बीच जिनका मन हर्षित है, ऐसी देवांगनाओंमें परस्पर वार्तालाप होने लगा कि किसमें अधिक गुण हैं. ? यह सुनकर, जिसके नेत्र कुवलयके समान हैं, जिसका मुख चन्द्रमाके समान है, ऐसी अत्यन्त ईयासे भरी हुई एक अप्सराने दुसरीकी मत्सेना की कि शत्रुशिविरको चूर-चूर करनेवाले खरको छोड़कर नमःोई दूसरा भी है ? गम औरन्ने पौरन काहा--"लक्ष्मणके साथ खर (गधे)की समानता किस प्रकार की जा सकती है, जो कि कभी घटित नहीं हो सकतीं।" इसी बीच निशाचर कुलका प्रदीप खर गरदन में आहत हो गया । कोपरूपी अनल जिसकी नाल है, कटि जिसका कण्टालय है, दशन जिसका पराग है, अधर जिसके पत्ते हैं, ऐसा सिररूपी कमल, लक्ष्मणके सरामने सिरूपी नख के अग्रभागसे काटकर फेंक दिया ॥१-१२।।
१८] यहाँ लष्मणने निशाचर सेनाके अष्ठ व्यक्ति (खर) को धराशायी कर दिया। इधर दूषणने विराधितको विरथ कर दिया और उसे हटा दिया। शीघ्र ही उसने युद्ध में सेना, रथ, गज और वाहनोंको पराजित कर दिया । जीवका माइक और शत्रुसेनाका स्वामी दूषण झीन हो झुका । शीघ्र ही उसने केझोंक लिए हाथ फैलाया? किमी प्रकार उसे मारा-भर नहीं । तबतक खरका सिर काटकर आदरणीय लक्ष्मण दौड़ा । अपनी सेनाको अभयदान देता हुआ. शत्रुको ललकारता हुआ कि "दूपण, यदि हो सके तो प्रहार करो, प्रहार करो, या नीचा मुल करके रहो।' यह वचन सुनकर दूषण क्रुद्ध हो गया, वह चित्तमें दुष्ट हो गया। निशाचरराज मुड़ा ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार गजेन्द्र सैकड़ों युद्धोंमें प्रसिद्ध सिंहके ऊपर मुड़ा हो ।
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पउमचरि
घत्ता
दस सन्दण-जाएं वर-णाराएं विषय- उत्स्थळे विषु अरि । रेवा-जल-वाहें सयर-सणाई गाइँ विचारित विष्नहरि ||१०|
[]
दुबई
उदूधुअ-पुच्छ-सूण्ड-वेषण्ड-रसन्तय-मरा वाहणं पारिएँ अतुल - मलें खरें दूसणें पडियमसेस साहणं ॥ १ ॥
सत्त सहास भिन्तें मारिय | चदह सहस गरिन्दहुँ बाहय । मण्डि इणि परवर- सेंहिं । कथइ रत्तारत पड़ोसिय तोरन्तरेंरह गम वाहणें । दिण्णानन्द मेरि अणुराएँ । 'सन्दोअर - सुअ महु करें वुशउ । जाव गवेपमि भाइ महार |
दूसणेण सहुँ सत्त धियारिय ॥ २ ॥ र्ण कप्पस व विनिघाय ॥ ३ ॥ नाव सस्य छोछ सयवत्ते हि ॥ ३ ॥
हूँ विलासिणि घुसिण- विहूसिय॥५॥ कलयलु बुद्ध विराहिय साहणं ॥ ६ ॥ रणु परिचित दसरह जाएँ ॥ ७ ॥ नाम महाहवें अच्छु मुहुत्सउ ॥ ८ ॥ सहुँ वदेशिएँ पाण-पिंभार ॥९॥ धत्ता
मारेवि जिणु जयकारें त्रि लक्षणु रामद्दों पासु गड । तिघाएँ जम-पह लाएँवि का कियन्ताँ सम्मुह ॥ १०॥
- चूण
}
तत्र क्रिष्ण डालओ गिरि बम-सूडिओो अपाणि च महवो । चलो सुमित-पुत्तिणं ।
[१२] दुबई
हलहरु
क्विज संया-सोय- णिभरी । घत्तिय तो बाण महि-मण्डले कर-पश्चित्त- धणुहरो ॥१॥ विओोष-सोय-दत्त । करिव भग्ग-दन्त ॥ २ ॥
फणिव मिलओ ॥३॥ ससि व्व राहु-डिओ ॥१॥ वर्ण विसष्ण देहओ ॥५॥ पपुच्छिभ तुरन्तिणं ॥ ६ ॥
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चालोमो संधि
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दशरथ के पुत्र लक्ष्मणने श्रेष्ठ तीरसे शत्रुको उसके विशाल वक्षःस्थलपर आइत कर दिया, मानो मगरोंसे युक्त रेबानदीके जलप्रवाहने विन्ध्याचलको विदीर्ण कर दिया हो ॥१- १०॥
I
[११] अतुल मल्ल खर और दूषणके गिर जानेपर, जिसमें उठे हुए पुच्छदण्डवाले मस वाहन जोर-जोर से चिल्ला रहे है ऐसा अशेष सैन्य भी पराजित हो गया। लड़ते हुए उसके साथ सात हजार लोग मारे गये, और दूषणके साथ सात हजार विदारित हुए। इस प्रकार चौदह हजार राजा मारे गये, मानो वे समान दिये गये हो। राजा छत्रों से धरती ऐसे मण्डित हो गयी, जैसे कमलोंसे शरद लक्ष्मी शोभित होती हैं । कहीं भूमि रक्तसे आरक्त दिखाई दी मानो केशरसे विभूषित विलासिनी हो तो इसी बीच में, जिसके रथ और गज वाहन है ऐसी विराधितकी सेनामें कल-कल उठा। जिसमें आनन्दकी भेरी बजायी गयी हैं ऐसे रणकी, लक्ष्मणने परिक्रमा की। ( वह बोला ) "हे चन्द्रोदर पुत्र, तुम मेरा कहा करो | एक मुहूर्त के लिए तुम युद्धमें तबतक रहो कि जबतक मैं वैदेही सहित अपने प्राणप्यारे भाई को खोज लूँ ।" खरदूपणको मारकर, जिनका जयकार कर लक्ष्मण रामके पास गया, मानो त्रिभुवनका घात कर उसे यसपथपर लाकर कालकृतान्तके सम्मुख गया हो ॥१-१०॥
[१२] लक्ष्मणने रामको सीताके शोकसे परिपूर्ण देखा । धरतीमण्डलपर तूणीर, वाण और दाथसे छोड़ा गया धनुष पड़ा हुआ था । वियोग शोक सन्तप्त चह भग्नदन्त गजके समान, हिन्नडाल पेड़के समान, फणसमूहसे रहित सर्पके समान, वज्र से नष्ट गिरिके समान, राहुसे पीड़ित चन्द्रमाके समान, बिना पानी के मेघ के समान वनमें विषण्ण देह थे ।
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पउमचरित
"on दीसए विहाओ। स-सीयो कहिं गो' ॥७॥ सुणेवि तस्स अम्पियं। तमश्पिर्य ण जं रियं ॥६॥ 'बजे विण? जाणई। ण को वि वत्त जाणाई ॥१॥
पत्ता
जो पक्षि रणेऽजाउ दिण्णु सहेजा ३ सो वि समरें संघारियउ । केणात्रि पचपडे दिव- अ-दगहें णेवि तलप्पएँ मारियड' ॥१०॥
[१३]
दुबई ए आलाव जाव घट्टन्ति परोप्पर राम-लक्खणे ।
ताव बिराहिओ वि वल-परिमिल पनु सहि जि तमस्य ॥॥ तो साव कियाक्लि-हस्थएण । महिनी मीणामिय-मस्थएण ||२|| वलए णमिज विजाइरेण । जिणु जम्मा जेम पुरन्दरण ।।३।। श्रासीस देवि गुरु-मलहरेण । सोमिसि पपुसिलाउ हलहरेण ॥४॥ 'सहुँ सेगणे पणमिउ कवणु पह। सारा-परिमिउ हरिणदेह' ॥५॥ सं घयणु सुणेपिणु पुरिस-सीहु । थिस्-थोर-महाभुअ-फलिह-दीहु ॥६॥ सम्भावें रामही कहइ एम । 'चन्दोथर-गन्दणु पहुं देव ॥७॥ खर-दूसणारि महु परम-मित्त । गिरि मेरु जेम घिर-थोर-चित्तु' ॥ ८॥ तो एम पसंसें वि तक्षणेण हिय जाणइ' अविखार लक्खागेण ॥९॥
धत्ता कहिं कुर्दै लगोसमि कहि मि गवेसमि दइने परम्मुहें किं कमि । बलु सीया-सोपं सरह विभाग एण मरन्त हउँ मरमि' ॥१०॥
[ १४ ]
सं णिसुणेवि षयगु चिन्ताचित चन्दोयरहों णन्दयो । विमणु विसण्य-देहु गह-पौडिउ शं सारङ्गा-हन्छणो ॥१॥
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३३१
चालीसमो संधि सुमित्राके पुत्रने तुरन्त रामसे पूछा, “जटायु दिखाई नहीं देता, सीताके साथ वह कहाँ गया हुआ है ।” उसके कथनको सुनकर रामने जो कुछ कहा, वह प्रिय नहीं था। सीता वनमें नष्ट हो गयी है । खप्तकी षार्ता कोई भी नहीं जानता। जो रगमें अजेय था और जिसने सहायता की थी, वह पक्षी भी युद्ध में मारा गया। किसीने प्रचण्ड दृढ़ भुजदण्डसे ले आकर तल प्रदेश पर मार दिया है।-२०||
[१३] जब राम और लक्ष्मण में परस्पर यह वार्तालाप हो रहा था तबतक विराधित भी अपनी सेनासे घिरा हुआ तत्काल यहाँ पहुँचा । तब जिसने हार्थोकी अंजलि की है तथा महीपीठपर अपना मस्तक झुकाया है ऐसे विद्याधरने बलदेवको उसी प्रकार नमन किया, जिस प्रकार जन्म के समय इन्द्र के द्वारा जिनभगवानको नमन किया जाता है। भारी मलको हरनेवाले रामने आशीर्वाद देकर लक्ष्मणसे पूछा-"जिसने सेना सहित प्रणाम किया है यह कौन है, मानो तारोंसे घिरा हुआ पर्वत हो।" यह सुनकर, स्थिर और स्थूल महाभुजरूपी फलकसे विशाल पुरुपश्रेष्ठ प्रक्ष्मण सद्भाव के साथ राम से इस प्रकार कहता -- हे देव, यह चन्द्रोदरका पुत्र हैं। खरदूषणका शत्रु और मेरा परम मित्र, पहाड़ की तरह स्थिर और स्थूल चित्त । तब इस प्रकार प्रशंसा कर तत्काल लक्ष्मणने कहा कि सीताका अपहरण कर लिया गया है। कहाँ पीछे लगूं ? कहाँ खोजूं, देवके विमुख होनेपर क्या करूँ, राम सीताक वियोगमें मरते हैं, इनके मरनेपर मैं मरता हूँ ॥१-१०॥
[१४] यह सुनकर चन्द्रोदरका पुत्र चिन्तामें पड़ गया। विमन और मलिन देह वह ऐसा लगता था मानो राहुसे पीड़ित
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३६२
पदमचारिय
'जं जं किं पि वत्थु ए एषि काल कि
तं तं णिष्फलु कहिं अवरुम्ममि ॥२॥ द्विणो विवरि व सेवित ॥३॥
सङ्गमि खेविड । होड म होउ तो चि ओळग्गमि । सुणि जिह जिण दिन चलणाहँ रुग्गमि । ४ ॥ होस ५॥
विहित कालु बिणजे
एम मणेवि त्तु नारायणु । ताव गवेसहुँ जाम णिहालिय' । साइणु दस दिसेहिं संचलित । जोइस चक्कु णाइँ परियत्तउ |
-
'कुठें लग्गेवर केत्ति कारणु ॥ ६ ॥ लहु सण्णाह मेरि अप्फालिय ॥॥७॥ आउ पढीच जय सिरि-मेहिल ॥८॥ सिस सिद्धि ण पत्त ॥५९॥
घत्ता
त्रिजाहर- साह स-धड स-वाह थिउ हेवामुह चिमण मणु 1 हिम-वाएँ दमग्ररन्ददउ गं कोमाण कमल-वणु ॥ १० ॥
[१५]
दुबई
चुतु विराहिए 'सुर-वासरे तिहुअण-जय-भयात्रणे । वणें त्रिण होइ वर पणे मुऍ जीवन् सन् ॥ १ ॥
मनुक्कु वह चि असि स्णु लेवि । जहिं अच्छन्द भाशुकशु | घणवाणु जहिँ अवश्य कुमारु । हवन्सु णी णलु जस्त्रचन्तु । अङ्गङ्गय-गयय-गववस्थ जेत्थु | वणेण ण लक्षणु विरुधु । 'सुखविरुद्धेहिं मयज्ञमहि
को जीवइ जनमुपसरेत्रि ॥ २ ॥ पञ्चासुठु मठ भारिच्चि अभ्णु ॥ ३ ॥ हम डुब्नवारु ॥४॥ सुग्गी समर-भर-हन्तु ॥५॥ नहीं वन्धु वह त्रि को इस एन्धु' | ६ ॥ गय-गन्धे णाइँ मइन्दु कु ॥७॥ किं रुम्मद सीहु कुरङ्गमेहि ॥ ८ ॥
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चालीसमो संधि
चन्द्रमा हो । "मैं जिस-जिस किसी भी बम्की शरण में जाता हूँ वह वह निष्फल हो जाती है, मैं कहाँ सहारा हूँ। इसे छोड़कर समय किस प्रकार बिताऊँ ? निर्धन होते हुए भी बड़ेकी सेवा करना अच्छा हो या न हो, तो भी मैं इनकी सेवा करूँगा । जिस प्रकार मुनि जिनकी सेवा करते हैं, उसी प्रकार मैं दृढ़ता से इनके चरणों में लगता हूँ। विधाता कितने समय तक प्रताड़ित करेगा ? अवश्य ही किसी दिन लक्ष्मी होगी ?" यह विचारकर नारायणने कहा- "खोज करना कितना काम है ? तबतक हम खोजें कि जबतक मिल जाये।" शीघ्र संग्राम भेरी बजवा दी गयी। सेना दसों दिशाओं में चली। विजयश्री से मेल करनेवाला वह ( विराधित ) वापस आ गया, जैसे ज्योतिषचक्र वापस आया हो, मानो सिद्धत्व सिद्धि प्राप्त नहीं हुआ हो। ध्वज और वाहनों सहित विवर सैन्य विमन मन होकर नीचा मुख करके इस प्रकार रह गया मानो हिमवातसे आहत मकरन्दसे भरा मुरझाया हुआ कमल वन हो ॥१- १०||
[१५] बिराधितने कहा-खरदूषण के मरनेपर, और देवोंके लिए भयंकर, त्रिभुवनजनके लिए भयावह रावण के जीवित रहनेपर बनमें रहना सम्भव नहीं है । शम्बूकका वध कर असिरत्न लेकर, तथा यमके मुख में प्रवेश कर कौन जीवित रह सकता है, जहाँ इन्द्रजीत, भानुकर्ण, पंचमुख, मय, मारीच, दूसरा मेघवाहन और अक्षयकुमार हैं । सहस्रमति और दुर्निवार विभीषण, हनुमान, नील, नल, जाम्बवन्न और समरभार उठानेवाला सुग्रीव है। जहाँ अंग, अंगद, गवय, गवाक्ष हैं, वहाँ उसके भाईका वध करनेके लिए यहाँ कौन रहता है।" इन शब्दोंसे लक्ष्मण विरुद्ध हो उठा, जैसे गजगन्ध से सिंह विरुद्ध हो उठा हो । क्या अच्छी तरह क्रुद्ध गजों और हरिणोंके द्वारा सिंह
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पडमचरित रोमग्गु वि वक्ण होह जेहि। किं गिलि पर-साहिं गहणु तेहिं ॥५॥
पत्ता
से परवाइ भक्खिय रावण-पक्खिय ते वि रण णिवमि । छुछु दिन्तु णिवत्तउ जुन्यु महन्त दूसण-पन्य पट्टमि' ॥१०॥
[१६]
दुवई मण उगो दि एस
लिनिय लोग। तमलकार-णयह पइसेप्पिणु जाणइ तहिं गवेस?' ॥३॥ वलु मयणेण तेश, सहुँ साहणेण, संचल्दिउ । गाई महासमुद्छु, जलयर-उदु, उत्थलिउ ॥२॥ दिपाणन्द-मेरि, पडिवल-खेरि, खरविनिय । णं मगरहर-वेल, कल्लोलचोलं, गलाजिय ॥३।। अम्मिय कणय-दण्ड, धुन्चन्त धवल, धुअन्धयबद्ध । रसमसकसमसन्त-, तरसडयन्त-, कर गय-घड ॥४॥ कस्थह खिलिहिलन्त, हय हिलिहिलस, गोसरिया । चञ्चल-बाल-चवल, चलवलय पवल, पम्परिया ॥५॥ करथइ पहें पय, दुग्धो-अष्ट, मय-भरित्रा। सिर गुमुगुमुगुमन्त-युमुचुमुचुमन्स, चशरिया ॥६॥ चन्दण-घल-परिमलामोय-सेय-क्रिय कदम। रह-
स्नुपन्त-व-विस्थक-छडय-मई-महमें ॥७॥ एम पयट्टु सिभिरु, गं बहल-निमिरु, उद्धाइड । समलकार-णयरु णिमिलन्सरेण संपाइउ ॥2॥ पय-विरहेण रामु, अइ-खाम-खामु, शीणनउ । विय-मग्गेग तेण, कन्तहें चणेण, णं लग्गउ ॥ ५॥
पत्ता दहवयणु स-प्लोया पाणहूँ मीयउ मछुदु पसह गठ्ठ खलु । मेइणि विहारवि मगु समार वि णं पायाले पइटु वलु ॥१०॥
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चालीसमो संधि
v
अवरुद्ध किया जा सकता है ? जिनके द्वारा रोमका अप्रभाग भी टेढ़ा नहीं किया जा सकता, उन निशाचर समूहोंके द्वारा क्या ग्रहण ? जो राजा रावण पक्ष के कहे जाते हैं, उन्हें भी मैं युद्धके प्रांगण में करूंगा। शं ही निश्चयसे उन्हें महान युद्ध देता हुआ दूपणके पथपर भेज दूँगा | ॥१- १० ||
[१६] विद्याधर विरावित फिर इस प्रकार कहता है, "यहाँ रहकर हम क्या करेंगे ? तमलंकार नगर में प्रवेश कर, जानकी की वहाँ खोज करेंगे।" इन शब्दोंसे, राम सेना के साथ वहाँ इस प्रकार चले जैसे जलचरोंसे रौद्र महासमुद्र ही उछल पड़ा हो । खरसे रहित ! शत्रुको क्षोभ उत्पन्न करनेवाली आनन्दभेरी बजा दी गयी मानो लहरोंके समूहबाली समुद्रकी बेला ही गरज उठी हो । स्वर्णदण्ड उठा लिये गये । धवल ध्वजपट उड़ने लगे । गजघटाएँ रसमसाती और कसमसाती हुई तड़तड़ करने लगीं। कहीं खिलखिलाते और हिनहिनाते हुए घोड़े निकलने लगे । चंचल, चटुल और चपल चल-वलय से प्रवल उन्हें कवच पहना दिये गये। कहीं मदसे भरी हुई, जिसके सिरपर भ्रमर गुन-गुन और चुमघुम कर रहे हैं ऐसी गजघटा : पथपर चल पड़ी। जिसमें चन्द्रनवल परिमलके आमोदके पसीने से कीचड़ मची हुई है, तथा रथके गढ़ते हुए चक्रोंसे निरुद्ध भटका मर्दन किया जा रहा है, ऐसे पथपर शिविर चला, मानो प्रचुर अन्धकार दौड़ा हो। वह उस तमलंकार नगर एक पलके भीतर पहुँच गया । अत्यन्त क्षम राम प्रियाके विरहसे क्षीणशरीर होकर ऐसे लगते थे, मानो कान्ताके उसी मार्ग से जा लगे हों । प्राणोंसे भयभीत सीता सहित दुष्ट रावण शायद यहां तो नहीं भाग आया, मानो इसीलिए धरती विदीर्ण कर रास्ता बनाकर रामने पाताललोक में प्रवेश किया ॥१-१-० ॥
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उमति
. . .
[१]
दुवई ताव पचण्ड यीरु खर-दूसण-णन्दणु सपिणवारणी ।
सो सपणहें वि सुण्ड पुर-वारें परिटिड गहिय-पहरणो ।।१।। जं थक्कु सुण्ड रण मुहें रउन्दु । उन्लाइउ राहव-बल-समुधु ॥२॥ णवर कलयलाराघु उहि दोहिं मि सेण्णेहिं अभिमाणेहि जायं च जुज महा-गोलाम-धोरारुणं मुक-हाहारवं ॥३॥ विरसिय-सय-सङ्घ-कसाब-कोलाहलं काहलं-ट्टरी-इल्लरीमहलल्लोल-नजन्तभम्भीस-मेरो सरुवा-हुद्धछाउल ॥ ॥ पसहिय-गय-गिफल-फलोत-जन्त-मम्मीर-भोसावणोरालिमेल्लन्त-रुण्टन्त, घरा-जु पाडियं मेट्ठ-पाइकय मिण्ण-वच्छत्यलं ॥५॥ सललिय-रह-चक्क-रखोणी-पस्नुपन्त-धुप्पन्त-चिन्धावलि-हेमदगडुजलं-चामरुस्कोह-विनिमार्ण स-जोहं महासन्दणावीढयं ॥६॥ दिलिहिलिय-तुरङ्गमुन्धुण्या-कपणं पलं सन्चल महा-दुजयं दुचरं दुणिरिक्ख मही-मण्डलायस-देन्तं हया पलं ।।७।। हुलि-हरू-मुसलग्ग-कोन्तेहि अद्धन्दु-सूलेहिं पावल-मलेहि णारायसल्लेहि भिर्ण कराले ललन्तन्त-मालं अ-सीसं कबन्धं पणवावियं ॥८॥
घत्ता नहिं सुन्द-विराहिय समर-जसाहिय अवरोष्पर वस्छन्त-कलि । पहरन्ति महा-रण मइणि-कारण भरहेसर-बाहुबलि ||९॥
[१]
दुबई चन्दणहाएँ ताव मुज्झन्तु णिवारिड णियय-णन्दयो ।
'दीस ओहु जोहु खर-दूस-सम्युकुमार-महणो ॥ १॥ जुझबर सुन्द ण होइ कानु जीवन्तहँ होसइ अण्णु रज्जु ॥२॥
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. चालोसमो संधि
[१७] तबतक खरदूषणका जो प्रचण्ड वीर पुत्र सुण्ड था, उनका निवारण करनेवाला, वह तैयार होकर अस्त्र लेकर नगरके द्वारपर स्थित हो गया। जब भयानक युद्ध-मुख में सुण्ड स्थित हो गया तो रामका बलरूपी समुद्र दौड़ा। कल-कल शब्द उठा। युद्ध करती हुई दोनों सेनाओंके बीच जिसमें हाहा शब्द किया जा रहा है, जो बजाये गये शतशंखों और कंसालोंके कोलाइलसे पूर्ण है, काहल, टहरी, झल्लरी, मर्दल, उत्कट बजती हुई भंमीस, भेरी, सरंजा और हुडुक्कासे व्याप्त है, प्रसाधित गजोंके गण्डस्थलसमूह गरजते हुए गम्भीर भयानक आवाज छोड़ते हुए और बजते हुए घण्टोसे जो युक्त है, जिसमें महावत और पैदल सैनिक गिरा दिये गये हैं, वक्षःस्थल छेद दिये गये हैं, जो लीलापूर्वक रथचक्रों, धरतीमें गड़ते
और हिलते हुए चिह्नावलियों, स्वर्णदण्डोंसे उज्ज्वल है, जिसमें चामरसे हवा की जा रही है, जो योद्धाओं सहित है, जिसमें रथोंकी बड़ी-बड़ी पीठे हैं ऐसा युद्ध होने लगा। जो हिलते हुए अश्वोंके ऊँचे कानोंवाला है, जो चल, चंचलांग
और अत्यन्त दुर्जेय है, दुर्धर दुदर्शनीय है, अश्वौंका ऐसा बल महीमण्डलपर आवर्त दे रहा था। हलिहल-मूसलाम, कोंतों, अधेन्दु, शूलों, बावल्ल और भालों, सीरों, शल्योंसे जो विदीर्ण
और भयंकर है, जिसमें आँतोंकी माला झूल रही है, और बिना सिरके धड़ जिसमें नचाये जा रहे हैं। जिनमें एक दूसरेपर कलह बढ़ रहा है, ऐसे युद्धयशके अधिपति सुण्ड और बिराधित, पस महायुद्धमें धरतीके लिए प्रहार करने लगे भानो भरत और बाहुबलि ही प्रहार कर रहे हों ।।१-२।। ___ [१८] तब चन्द्रनखाने युद्ध करते हुए अपने पुत्रको मना किया कि "वरदूषण और शम्बुकुमारका वध करनेवाला योद्धा यह है। हे सुण्ड, युद्ध करनेसे काम नहीं होगा। जीवित रहनेपर
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३३८
पउमचरिउ
रंगम्णु सुर-पाणणासु ओरड सुण्ड वयण रोण |
धु स-विराहि पर राम ! खर-दूषण - मन्दिरें पसरेषि | साहारुण वन्धइ कहि मि रामु । रह-तिक चटके हिं परिभ्रमन्तु । गड ताम जाम जिण भवणु-दिडु
कुवारढ करहु दसाणणासु ||३|| गज एक पराइड सकखणेण ॥ ४ ॥
कामिणि जणु मोहन्तु कामु ||५|| चन्दोयर- पुत्तहीँ रज्जु देवि ॥ ६ ॥ यह देहि-विओोएँ खामुखामु ॥७॥ दहिय-विहार-मत्र परिहरन्तु ॥ ८ ॥ परिभषि अहमत
इछु ॥९॥
घन्ता
जिपत्ररु निजाऍ वि चित्ते झाऍषि जाइ पिरारिउ विलम | माहिं भाएँ हिँ थोच-सहा सें हिँ थुअउ स मं भुवणाहि
॥ १०॥
सम्बुकुमार वीरे अत्यन्तएँ । दूरोसारिये सुन्द-महवलें । पत्थएँ असुर-मल्लें सुर- डामरें। पर-वल-वल- पवाणाहिन्दोल । मुक्तकुस-मयमक-गलथल्लणें ।
एकचालीस मो संधि
खर- सण गिर्लेषि चन्दणहिहें सित्ति ण जाय । खयाल छुह रावणही पडीची धाय ॥
[1]
खर- तूसण-संगा में समत्तम् ॥१॥ तमलङ्कार-यरु गएँ हरि-वलें ॥२॥ लङ्काहिवें बहु-ल-महावरें ॥३॥ बरि-समुद्द-रद-विरोलणें ॥४॥ दाण- रणझुण हस्थस्थलणें ॥५॥
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एकचालीस मो संधि
३.३९
दुसरा राज्य मिल जायेगा। अच्छा है जाकर देवसिंह रावणसे. तुम पुकार करो " इन शब्दोंसे कुमार सुण्ड हट गया। वह लंका गया, वहाँ तत्काल पहुँच गया । यहाँ विराधितके साथ राम प्रविष्ट हुए मानो कामिनीजनको मुग्ध करता हुआ काम हो । खरदूषण के भवन में प्रवेश कर चन्द्रोदरके पुत्र विराधितकी राज्य देकर, राम किसी भी प्रकार ढाढ़स नहीं बाँधते । वैदेहीके बियोग में वह अत्यन्त क्षीण थे। रथ्या तिमुहानी, चौमुहानियोंमें परिभ्रमण करते हुए, लम्बे बिहार और मठ छोड़ते हुए वह जब गये तो उन्हें जिनमन्दिर दिखाई दिया। उसकी परिक्रमा कर वह भीतर प्रविष्ट हुए। जिनवर के दर्शन कर, चित्तमें ध्यान कर उनकी अत्यन्त विमल मति हो गयी । अपभ्रष्ट (आ) भाषाओं तथा हजारों स्तोत्रोंसे बनपति रामने स्वयं स्तुति की ॥ १-१०६
इकतालीसवीं सन्धि
खरदूषणको न करके भो चन्द्रनखाको तृप्ति नहीं हुई, मानो वह फिर क्षयकालकी भूखके समान रावणके पास दौड़ी।
→
[१] शम्बुकुमार वीरका अन्त और खरदूषण संग्राम समाप्र होनेपर, सुण्डके महात्रको दूर हटा दिये जानेपर, लक्ष्मण और रामके वमलंकार नगर जानेपर, यहाँ असुरोंमें मल्ल, देवोंके लिए भयानक, बहुत-से महावरोंको प्राप्त करनेवाले, शत्रुचलके बलरूपी पचनको आन्दोलित करनेवाले, रूपी समुद्रका बिरोलन करनेवाले, अंकुशसे मुक्त मतवाले गजको गर्मियों
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१४.
पउमचरिड विडिय-भर-पर-किय-ऋडमरणें । फामिणि-जण-मख-णयणाणम्दणें ॥५॥ सोयएँ सहु सुरषर-सतावणे। कुछ फुड लक पइट्टएँ रावण स७॥ तहि अवसर चन्दहि पराइय । णिस्य कम-कमले हिंदुह-घाइय॥८॥
घत्ता सुम्बुकुमार मुउ खर-दूसण जम-पहें लाइय । पई जीवन्तएँ ण एही अवस्थ हउ पाइय' ॥९॥ .
[ २ ] तं चन्दहिहें वयण दयावणु। णिसुणे वि थिट हेहामुहु राधणु ॥१॥ गं भयलम्छणु णिप्पहु जापा। गिरि व दवग्गि-दइट्स पिच्छायउ ॥२॥ णं मुणिवर चारिस-विभट्ट । भघिउ व भव-संसारही तटूट ॥६॥ वाह भरत-णग्राणु मुह-कायरु । गण गहिड णं हूउ दिपायरु ॥३॥ दुक्खु बुक्खु दुखणामल्लिउ । लयण-सणेहु सरन्तु पवोल्छिउ 14|| 'घाइड जेण सम्वु खरु दूसणु। सं पटवमि भ जमसासणु ॥६॥ अहवह एण का माहप्पें । कोण मरद अपूरे मप्पे ॥७ धीरी होहि पमायहि खोओ। कालु ण जम्मण-मरण-विभोओ ॥८॥
घत्ता को वि ण वजमउ जाएँ जी भरिएवर ! अम्हें हिं तुम्हें हि मि खर-दूसण-पहें जाएबउ ॥९॥
धीरेंचि णियय पहिणि सिय-मागणु । स्यणिहि गउ सोषणएँ दसाणा ॥१॥ घर-पहर के चडिड हलेसरु । गिरि-सिहर मइन्दु स-फेसर ॥२॥ गं विसहरु णीसासु मुअन्सउ । णे सजणु खल-लेइज्जन्तर ॥३॥
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३४१
एकचालीस संधि
देनेवाले, दान और युद्धके प्रांगण में हाथ उठानेवाले, विघटित भटसमूहको धूर-चूर करनेवाले, कामिनीजनोंके मनोंके लिए आनन्दक, सीताके साथ, सुरबरको सन्ताप पहुँचानेवाले लंकाराज रावणके शीघ्र लंका में प्रवेश करनेपर ठीक इस अवसरपर चन्द्रनखा पहुँची। दुःखकी मारी वह (रावणके) चरण कमलोंपर गिर पड़ी। शम्बुकुमार मर गया। खरदूषण यम-पथपर पहुँचा दिये गये, आपके जीते हुए मेरी यह अवस्था, रक्षा कीजिए ||१२||
[२] चन्द्रनखाके दया उत्पन्न करनेवाले वचन सुनकर रावण अपना मुख नीचा करके ऐसा रह गया, मानो चन्द्रमा निष्प्रभ रह गया हो, मानो दावानलसे दग्ध कान्तिहोन गिरि हो, मानो चारित्रसे भ्रष्ट मुनिवर हो । भवसंसारसे ग्रस्त भव्य जीवके समान, जिसकी आँख आँसुओं से भरी हुई हैं ऐसा कातर मुख हो गया मानो राहु ग्रह से प्रसित दिवाकर हो । बड़ी कठिनाईसे वह अपनेको दुःखसे छुड़ा सका। स्वजनके स्नेहको स्मरण करते हुए वह बोला--"जिसने शम्बुकुमार, खर और दूपणका घात किया है, उसे आज है मशासन के लिए भेज दूँगा । अथवा इस बड़प्पनसे क्या ! अथवा अधूरे माप ( समयमान) में कौन नहीं मरता ? तुम धीरज धारण करो, और शोक छोड़ो। जन्म, मरण और वियोग किसे नहीं होते । ( संसार में ) कोई भी का बना नहीं है । उत्पन्न हुआ जीव मरेगा ही। हमें और तुम्हें भी खरदूषणके पथपर जाना होगा ।" ॥१-९॥
[३] लक्ष्मीको माननेवाला दशानन अपनी बहनको समझाकर रात्रि में सोनेके लिए गया । लंकेश्वर उत्तम पलंग पर चढ़ा, मानो गिरिशिखरपर अवाल सहित सिंह चढ़ा हो, मानो निःश्वास छोड़ता हुआ विषधर हो, मानो दुष्टके द्वारा खेत्र
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पउमचरित
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सीया-मोई मोहिउ राय। गाय पाया पडद सुभाशु शशइ हसइ वियारे हि मजइ । णिय-भूम जि पढीपड लजह ॥५॥ दसण-प्पाग-चरित-विरोहउ । इह-लोयहाँ पर-लोपहों दोहर ॥६॥ मलण-परव्यासु एउप आण। जिह संघारु करेसह जाण ॥७॥. अस्ताइ मयण-सरे हिं अज्जरियउ। खर-दूसण-प्पाड मि वीसरियड ॥८॥
घत्ता चिन्स दहवयणु 'अणु धण्णु सुवण्णु समरथङ । रज्जु वि जीविउ वि विष्णु सीयएँ सव्वु णिरस्थड' ||९||
[४] तहि अवसर आइय मन्दोवरि । सीब हौं पासु व सीह-किसोपरि ॥५॥ वर-गणियारि व लीला-गामिणि । पियमाहविय व महुरालाविणि ॥२॥ सार िव विष्फारिय-गयणी। सत्तावीसंजोयण-वयणी ॥३॥ कलहसिक थिर-मन्थर-गमणी । लच्छि व तिय-स्त्रे जुरवणी ॥१॥ अह पोमागिह अणुहरमाणी। जिह सा तिह पद वि पउराणी ॥५॥ सिंह सा तिह एह वि वहु-जाणी। जिह सा तिह पुछ वि बहु-माणी॥६॥ जिह मा तिह एह वि सुमणोहर । जिह सा तिष्ठ एह वि पिय-सुन्दर ॥७॥ जिह सा तिह एह वि मिण सासण। जिह सा सिंह ह वि ण कु-सासण॥८॥
घत्ता किं बहु जम्पिएण उमिजद काहे किसायरि । णिय-पहिछन्दण धिय सइँ जे गाइ मन्दोरि ॥९॥
[५] तहिं पह पघि रज्जसरि। पभणिय लङ्कापुर-परमेसरि ॥१॥ 'अहाँ दहमुह दहवयण दसाण। अहाँ दस सिर दसास. सिय-माणग ॥२॥ अहो गइलोक-चच-चूडामणि । वइस्-िमहीहर-सर-वजासणि ॥३॥
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एकचालोसमो संधि
३
प्राप्त हुआ सज्जन हो। सीताके मोहमें मोहित रावण सुहावन। गाता है, बजाता है. और पढ़ता है। नाचता है, हँसता है, विकारोंसे नष्ट होता है, अपने ही से वह लज्जित होता है। दर्शन, ज्ञान और चारित्रका विरोधी, इहलोक और परलोकमें दुर्भाग्यजनक कामदेवके अधीन वह यह नहीं जानता कि जानकी किस प्रकार उसका संहार कर देगी। वह कामदेव के तीरोंसे जर्जर था। वह खरदूषणका नाम भी भूल गया। दशानन सोचता है कि धन-धान्य स्वर्ण-सामर्थ्य राज्य और जीवन भी, सीताके बिना सब व्यर्थ है ।।१-९॥
[४] उस अवसरपर मन्दोदरी आयी, जैसे सिंहके पास सिंहनी आदी हो । शिनीली बार हीलाके साथ चलनेवाली, कोयल की तरह मधुर बोलनेवाली, हरिगीकी तरह, बड़ीबड़ी आँखोंवाली और चन्द्रमाके समान मुखवाली, कलहंसिनीकी तरह स्थिर और मन्द गमन करनेवाली, अपने स्त्रीरूपसे लक्ष्मीको उत्पीड़ित करनेवाली, अथवा इन्द्राणीका अनुकरण करती हुई, जैसी वह, वैसी ही यह प्रमुख रानी थी । जैसी वह वंसी यह बहुत ज्ञानवाली थी, जैसी वह, वैसी यह बहुत अभिमानिनी थी। जैसी वह, वैसी यह मनोरम थी, जैसी यह वैसी यह अपने प्रियके लिए सुन्दर श्री, जिस प्रकार वह, उसी प्रकार यह जिनशासन में थी। जिस प्रकार वह, उसी प्रकार यह कुशासनमें नहीं थीं । बहुत कहनेसे क्या? उस" कृशोदरीकी उपमा किससे दी जार ? मन्दोदरी जैसे अपने प्रति-उपमानके समान स्थित श्री ।।१-९।।
[५] वहाँ पलंगपर चढ़कर राजेश्वरी लंकापरमेश्वरी बोली, "अहो दशमुख, दहावदन, दशानन, 'अरे दसिर, नझमुख और श्रीको माननेवाले, अहो त्रिलोऋचक्रचूड़ामणि, शत्रुरूपी
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३४४
पउमचरित
वीसपाणि णिसियर-णरकेसरि। सुर-मिग-वारण दारण-अरि-करि ॥३॥ पर-णरवर-पाथार-पलोडण। दुइम-दाणव-बल-दलबट्टण ॥५॥ जझ्य? मिदिउ रणङ्गणे इन्दहीं। जाउ कुल-क्खउ' सआण-पिन्दहीं ॥५॥ तहिं वि काले पइँदुक्खु ण णायट । जिद खर-दूसण मरणे जायउ' ॥७॥ नगद पडी मिनिरलाई सुधार करइ भवराहो ॥८॥
घता
तो हउँ कहमि तउ उ सर-तूषण-सुषम्युमा । एचिउ डाह पर जं मई वहदेहि । इच्छई' ॥९॥
तं णिसुणेवि वयणु ससिवयगएँ । पुणु वि हसेवि वुत्तु मिगणयण" ।।१॥ 'अहो दहगीच जीच-संतापण। एहु अनुसु युनु प रावण ॥२॥ कि जम अयस-पशु आमालहि । अमय विसुद्ध देस किं मइलहि ॥३॥ किं पाइयहाँ पर ण बीहहिं । पर-धणु पर-कलत्तु जे ईहहि ॥४॥ जिगवर-सासणे पत्र विरुख। दुइ जा गिन्ति अविसुद्ध है ॥५॥ पहिला बहु छजीय-णिकायहुँ। वीयउ गम्मइ मिठायायहुँ ॥२॥ तइयउ जं पर-दब्लु लइ जह। वउथर पर-कालत्तु से विज्जड़ ॥७॥ पञ्चमु णउ पमाणु घरवारहों। हिँ गम्मई भव-संसारहों ॥४॥
घत्ता
पर-लोएँ वि पण सुहइह-लोएँ वि अयस-पडाइय । सुन्दर होद ण तिय ऍय-वेस जमउरि आइय' ॥१॥
पुणु पुणु पिछल-णियम्ब किसीयर । मणइ हिमयत्तणेण मन्दोपरि ॥१॥ 'जं सुहु कालकूड विसु खालहुँ । जे मुह पलयाणलु पइसम्तहुँ ॥२॥
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एकचालीसमो संधि
३४५ पर्वस के लिए तीन बजाशनि, बीस हाथवाले निशाचर सिंह, देवरूपी मृगोंका निवारण करनेवाले, शत्रुरूपी गजको विदीर्ण करनेवाले, शत्रुमनुष्योंके प्राकारोंको नष्ट करनेवाले, दुर्दम दानव बलका दलन करनेवाले रावण, जब तुम इन्द्रसे युद्ध के प्रांगणमें लड़े थे तब सज्जनसमूहका नाश हुआ था। उस समय भी तुम्हें उतना दुःख नहीं हुआ था कि जितना खरदूषणके मरने के समय हुआ।" इसपर निशाचरनाथ उलटा कहता है-"हे सुन्दरी, यदि इसे अपराध न मानो तो मैं तुमसे कहता हूँ कि खरदूषणका दुःख नहीं हैं । मुझे तो केवल इस बातका दाह है कि सीता मुझे नहीं चाहती ॥१५॥ ____ [६] यह वचन सुनकर चन्द्रमुखी और मृगनयनी मन्दोदरीने हँसकर कहा, "अहो जीवोंको सतानेवाले दशग्रीव, रावण ! तुमने यह अत्यन्त अनुचित बात कही। दुनियामें अपने अपयझका डंका क्यों बजबाते हो, दोनों विशुद्ध कुलोको क्यों मैला करते हो, क्या नारकियोंके नरकसे तुम्हे डर नहीं लगता कि जो तुम दूसरोंके धन और स्त्रीकी इच्छा करते हो, जिनवरके शासनमें पाँच चीजे अत्यन्त विरुद्ध और अविशुद्ध मानी गयी हैं। इनसे (जीव ) नित्थरूपसे दुर्गतिमें जाता है। पहली है छह निकायके जीवोंका वध करना। दूसरी मिथ्यावादमें जाना । तीसरी है कि जो दूसरेका धन लिया जाता है, चौथा है कि परकल्म्रका सेवन किया जाता है। पाँचवीं है कि गृहद्वारको प्रमाण लिया जाना। इन चीजोंसे जीवको भवसंसारमें घूमना पड़ता है। परलोकमें भी सुख नहीं है और इस लोकमें अपयशकी पताका फैलती है । स्त्री सुन्दर नहीं होती इसके रूपमें यमनगरी ही आ गयी है." ॥१-९॥
[७] विशाल नितम्बोंवाली कुशोदरी बार-बार हृदयसे कहती है-"जो सुख कालकूट विष खाने में है, जो सुख प्रलया
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३४६
जं सुहुत्र-संसारै ममन्त हुँ ! जै सुम-सास पेष्टन्तहुँ । सुहु एयाण-मुह कन्दरें | जं मुहु फणिमाणिक्कु खुहन्त हुँ । जाणतो वि तो वि जड़ वच्छहि ।
जं
सुहु पखाणण दाखन्तरे ॥ ५५ ॥ तं सुदु एह पारि भुअन्तहुँ | ५ || सो कजेण क्रेण महूँ पुच्छहि ॥७॥
स पासि किं को वि वलियढ । जेण पुरन्दरो वि पविखलियड ॥ ८
पउमचरिउ
जे जसु भाव अवि असुन्दर
धत्ता
नहीं सं अणुराउ ण भज्नड़ |
सुहुत्र॥१७ असिपअन्तहुँ ॥४॥
।
तहु दिट्छु एक्कु मर्दै सुणिवरु । तासु पार्से वउ उ ण मअम अव एण काहूँ मन्दोभरि । जइ मग्गहि धागु षण्णु सुनण्णठ ज आरहितुरङ्ग गइन्देहिँ । जन माहि णिक्कण्टउ रज्जु ।
[<]
मणिय णारि विरिलिय- पायर्णे ॥१॥
तं शिसुषि वयणु दवयर्णे । 'जयहुँ गयउ आसि अचलिन्दहों । वन्दण- हसिऍ दरम-जिणिन्दशों ॥२॥ गाउँ अणन्तवीरु परमेसरु ॥१३॥
पहुँ करें तं छज्ज' ||९||
[
तं निसुर्णेवि वयणु दहवथनहीं । 'हो हो सच्चु को जग दूह |
मण्डऍ पर कलन्तु पउ अमि ॥ ४ ॥ जइ जम्दन्ति नियहि खङ्कारि ॥५॥ राउल रिद्धि- विद्वि-संपण्ण ॥ ६॥ जइ बन्दिज्जइ, घणि वन्दे हिं ॥ ७ ॥ जकिर माँ विजियन्तण कज्जु ॥ ८ ॥
घ
सयन्ते रहो जइ इच्छद्दि र रण्डत्तणु ।
तो वरि जाणइ सम्दोयरि करें दूअत्तणु ॥१॥
]
पणिय मन्दोयर पुरि मयणहीं ॥१॥ पहूँ मेहलंबिणु अण्णु प सूहउ ॥२॥
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एकमालीसमो संधि नल में प्रवेश करने में है, जो सुख भवसंसारमें परिभ्रमण करने में है, जो सुख नारकियों के बीच निवास करने में है, जो सुख यम. शासनको देखने में है, जो सुख असिपंजरपर है, जो सुख प्रलयानलकी मुखगुहा में है, जो सुख सिंहकी दाढ़के भीतर है, जो सुख नागफनसे मणि तोड़ने में है, वहीं सुख इस नारीका भोग करने में है। जानते हुए भी यदि तुम इसकी इच्छा करते हो, तो मुझसे किस कारण पूलते हो। तुम्हारी तुलनामें कौन बलवान् हैं कि जिसने पुरन्दरको भी प्रतिस्खलित कर दिया। जिसको जो आ पड़ता है ( अच्छा लगता है उससे उसका अनुराग कम नहीं होता। यद्यपि असुन्दर ही हो लेकिन राजा जी करता है वह शोभा देता है" ॥१-९||
[८] यह वचन सुनकर विशालनधन रावणने अपनी पत्नीसे कहा-"जब मैं सुमेरु पर्वतपर गया हुआ था परम जिनेन्द्रकी वन्दना-भक्ति के लिए, तब मैंने वहाँ एक मुनिके दर्शन किये थे उनका नाम अनन्तपरमेश्वर था। उनके पास जो ब्रत लिया था, उसे नष्ट नहीं करूंगा। मैं बलपूर्वक दूसरेकी स्त्रीका भोग नहीं करूंगा। अथवा हे मन्दोदरी, इससे क्या ? यदि तुम लंका नगरीको आनन्दित्त देखना चाहती हो, यदि तुम धनधान्य और स्वर्ण माँगती हो, तथा ऋद्धि और वृद्धिसे सम्पन्न राजकुल माँगती हो, यदि घोड़ों और गजेन्द्रोंपर चढ़ना चाहती हो, यदि तुम वन्दीजनोंसे बन्दनीय होना चाहती हो, यदि निष्कंटक राज्य चाहती हो और यदि तुम्हें मेरे जीवित रहनेसे काम है? यदि तुम समूचे अन्तःपुरको राँड़ नहीं देखना चाहती तो हे मन्दोदरी, तुम जानकीसे मेरा दूतकार्य करो।" ||१-९||
[] रावणसे उन शब्दोंको सुनकर कामदेवकी नगरी मन्दो. दरी बोली, "हो-हो, संसारमें सब लोग दुर्भग हैं, तुम्हें छोड़कर
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५५८
. पडमचरित सुर करि-अहिसिनिय-सिय-सेविह। जो आएसु देहि महएविरें ॥३॥ एवं वि करमि तुम्हारस वुना। पहु-छन्द्रेण अजुनु वि जुत्तउ' ॥४॥ ए आलाव परोप्परु जाहिं। रयणि चड पहरा हा सा हि ।।५।। अमागुग्गमें अरचन्त-किसोया। सीय इंगर मम्मोस ।।६।। सहुँ अन्तउरेण उद्धृसिय । गणियारि व गणियारि-विहूसिय ॥७॥ वणु गित्राणरवणु संपाइय। राहव-घरिणि सेल्धु मिसाइप ॥४॥
प्रत्ता वे वि मणोह रिउ राषण-रामहुँ पिय-गारिउ । दाहिण-उत्तरण णं दिस-गइन्द-गणियारित ॥५॥
{१.] राम-चरिणि जं सिट किसोयरि। हरिसिय णिय-मणेण मन्दोयरि ॥१॥ 'अहिणवणारि-स्यणु अक्वणगउ । एड ण जागहुँ कहिँ उपपणउ ॥२॥ साहु मि कामुक्कोयण-नगर। मुणि-मण-मोहणुणयण-पियारउ ॥३॥ साहु साहु णिउणाऽसि पयावद । तुह विषणाम-सन्ति को पावइ ॥ ॥ अह कि विरभरण वा-बोट'। सह कामो वि पढङ्ग कामिल्लएँ ॥५॥ करणु गहणु तो ला-राए'। एम पसंमै वि मण भणुराएं ॥३॥ पिय-बयणेहि दसाणण-पसिएँ। बुच्चइ राम-वरिणि विसन्ति ॥७॥ कि बहु-जम्मिएण परमेसरि। जीविउ एक्कु सहलु वउ सुन्दरि ॥८॥
घत्ता सुरवर-उमर-करु तहलोक्क-चक्र-संताचणु । का अस्थि तउ जहँ प्राणपडिछाड रावणु' ॥९॥
[1] इन्दह-माणुअण्ण-घणवाहण । अक्षय-मय-मारिच्च-विहीसण ॥३॥ जे चलणेहि विचहि आरूसें वि । तं सीसेण लम्ति भसेस वि स२॥
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एकचाकीसमो संधि
३४५ दूसरा कोई सुन्दर नहीं है, जो ऐरावतसे अभिषिक्त श्रीसे सेवित है ऐसी इस महादेवाके लिए जो आदेश देते हो इस समय तुम्हारा कहा करूनी, मयोंकि इस स्वार्थ के कारण अयुक्त भी युक्त होता है।" इस प्रकार जब उनमें वार्तालाप हो रहा था कि तबतक रात्रिके चार प्रहर समाप्त हो गये। सूर्योदय होनेपर अत्यन्त कृशोदरी मन्दोदरी सीता देवीकी दूती बनकर गयी। अन्तःपुरके साथ विभूषित वह हथिनियोंसे शोभित इथिनीके समान थी । वह देवोंके लिए सुन्दर नन्दनवनमें पहुँची और रामक्री गृहिणी सीता देवीको देखा। रावण और राम, दोनोंको प्रिय स्त्रियाँ सुन्दर थीं, मानो दक्षिण और उत्तर दिशाओंके दिग्गजोंकी हथिनियाँ हो ।।१-१|| । [१०] जब कृशोदरी रामकी स्त्रीको देखा तो मन्दोदरी अपने मनमें बहुत हपित हुई । (वह सोचती है ) यह अभिनव नारीरल अवतीण हुआ है, नहीं मालूम यह कहाँ उत्पन्न हुआ है, यह देवताको काम-कुतूहल उत्पन्न करनेवाली, मुनिमनको मोहित करनेवाली और नेत्रों के लिए प्रिय है। साधु-साधु ! प्रजापति तुम बहुत निपुण हो। तुम्हारी निर्माणशक्तिको कौन पा सकता है ? अथवा विस्तार और बहुत बोलनेसे क्या ? स्वयं कामदेव कामार्द्रतामें पड़ जाता है तो लंकाराजकी तो बात क्या है ? इस प्रकार अपने मन में प्रशंसा कर, अनुरागपूर्वक प्रिय शब्दोंमें हँसते हुए, दशाननकी पत्नी रामकी गृहिणीसे कहती है"हे परमेश्वरी, बहुत कहनेसे क्या? हे सुन्दरी, केवल तुम्हारा ही एक जीवन सफल है। सुरवरोंको भय उत्पन्न करनेवाला, त्रिलोकचक्रके लिए सन्तापदायक, रावण जहाँ तुम्हारी आनाकी इच्छा रखता है, वहाँ तुम्हारे पास क्या नहीं है ! ॥१-२|| __ [११] इन्द्रजीत, भानुकर्ण, घनवाहन, अक्षय, मय, मारीच और विभीषण, जो तुम रूठकर अपने चरणोंसे ठुकरा दोगी,
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पउमचरित
अण्णु वि सयलु एड अन्तेउरु। सालङ्कारु सन्दौर स-णेउरु ॥३॥ अट्ठारह सहास वर-विलयहुँ । णिश्च-पसाहिय-सोहिय-तिलयहुँ ॥॥ पायहुँ सव्वहुँ तहुँ परमेसरि। गोसावषणु रन्जु करि सुन्दरि ॥॥ रावणु मु धि अपणु को चङ्गर। रावणु मुऍवि कवणु-तणु-अहङ ॥६॥ रावणु मुएंचि अण्णु को सूरड। पर-बल-महशु कुलासा-पूरउ ।।॥ रावणु भएँ वि अपणु को वलिया । सुरवर-णियह जेण पविखलियत ॥४ रावणु मुवि अणु को भस्लउ । जो तिहुयणहाँ माल एक्कालउ ॥९॥ रावणु मुऐं वि अण्णु को सूह। जापेक्वेवि मयणु वि दूसउ :॥
धत्ता तहाँ कसरहों वलय-हर दोहर-जयणडों । भुजहि सयल महि महएवि होहि दहषयणहों' ॥१॥
[ १२ ] तं तह कडुअ-वयणु आयपणवि। रावणु जीविउ विण-समु मणे थि॥१॥ सोल-बलेण पलिय पाई कम्पिय | रूस वि णिटलुर घयण पम्पिय ॥२॥ 'हले हल का काइँ पर युत्तउ । उत्तिम-णारिह एड पप जसड ॥३॥ किह दइवहीं दूअत्तणु किंजइ । एण णाई महु हासङ दिग्जह ॥४॥ मम्बुद्ध नहुँ पर-पुस्ति-पइन्डो। ते कज्जें महुँ देहि दुबुद्धि ॥५॥ मस्थऍ पडउ वज्जु तहाँ जारहों। हर पुणु भसिवन्त मत्तारही' ॥३॥ सीयाँ वयणु सुणे वि मणं डोलिय । णिसियर-णाह-णारि पडिवोल्लिय ॥७॥ 'जइ महावि-पट्ट ण पहिलाह। जह लशाहिउ कह चि ग इच्छहि ॥
चत्ता तो कन्दन्ति पई तिल तिल करवस हि कप्पन । अपणु महत्तऍण णिसियर, विहों वि अप्पह' ||९||
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एकचालीस संधि
वह ये सब अपने माथेपर लेंगे। और भी यह समूचा अलंकार, हार और डोर सहित अन्तःपुर हैं, जो नित्य प्रसाधित और शोभित तिलक अठारह हजार श्रेष्ठ स्त्रियाँ हैं, इन सबकी तुम परमेश्वरी हो । हे सुन्दरी, असामान्य राज्य करो। रावणको छोड़कर और कौन अच्छा है । रावणको छोड़कर और कौन शरीर से कामदेव है । रावणको छोड़कर और कौन शूरवीर, शत्रुसेनाका नाश करनेवाला और कुलाशाको पूरा करनेवाला है ! रावणको छोडकर दूसरा कौन बलवान् है, कि जिसने सुरवरसमूहको प्रतिस्खलित कर दिया। रावणको छोड़कर और कौन भला हैं कि जो त्रिभुवन में अकेला मल्ल हैं। रावणको छोड़कर दूसरा कौन सुभग है कि जिसे देखकर काम भी दुभंग है ? कुब arra समान दीर्घ नेत्रवाले लंकेश्वर दशाननकी तुम महादेवी बन जाओ और समस्त धरतीका भोग करो" ॥१- ११ ॥
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[१२] उसके उन कटु वचनोंको सुनकर, रावण और अपने जीवनको तिनकेके बराबर समझकर झील के बलसे बलवती बड़ जरा भी नहीं काँपी | क्रुद्ध होकर वह निष्ठुर वचन बोली"हाहा, तुमने क्या-क्या कहा। उत्तम स्त्रियोंके लिए यह उपयुक्त नहीं है । तुम्हारे द्वारा रावणका दूतत्व कैसे किया जा रहा है, इससे जैसे मुझे हंसी आती है। शायद तुम किसी परपुरुषमें इच्छा रखती हो, उसी कारण मुझे यह दुर्बुद्धि दे रही हो । उस यारके सिरपर बज्र पड़े। मैं अपने पति भक्ति रखती हूँ ।" सीता के बचन सुनकर मन्दोदरीका मन काँप गया, निशाचरनाथको वह पत्नी बोली, “यदि तुम महादेवी पट्टकी इच्छा नहीं रखती, यदि लंकाराजको किसी भी तरह नहीं चाहती तो आकन्दन करती हुई तुम करपत्रोंसे तिल-तिल काढी जाओगी, और भी एक मुहूर्त में विभक्त कर निशाचरोंको सौंप दी जाओगी ।।१-२॥
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पउमचरिठ
[१३] पुणुपुणुरुचे हि जणयहाँ धीयरें। णिभच्छिय मन्दोपरि सीयएँ ।।३।। 'केतिउ वारवार बोलिन। चिन्तिब मणेण त किया ।।२।। बा वि अम्ज़ करवस हि कप्पहाँ । जइ विधवि सिव-सागही अपहों ।। अइ वि बलम्ते हुभासणे मेल्लहों। जइ वि महग्गय-दन्ते हि पेशहाँ ॥५॥ तो वि सलहों वहाँ दुशिय-कम्महीं । पर-पुरिसहों विविसि इह जम्मही ॥५॥ एक्कु जि णिय-मत्तारु पहुबह। जो जय-सच्छिएँ खणु वि ण मुबह।। जो असुरा-सुर-अण-मण-बल्बहु । तुम्हारिसहुँ कुणारिहि दुल्लहु ॥७॥ जो णरवर-मइन्दु भीसावणु। भणु-लगुल-लोक-दरिसाषणु ॥८॥
धत्ता
सर-णहरारुण धणुवेय-लाषिय-जीई । दहमुह-मस-गउ फाडेवउ राहब-सोहे' ||५||
[१] रामण-रामचन्द-रमणीयहुँ । जाम दोल्ल मन्दोबरि-सीयहुँ ॥१॥ नाव दुसाणणु सयमेवाइड हस्थि व गङ्गा-णि पराइउ ||२|| मसल व गम्ब-लुद्ध विहडफड। जाणइ-षयण-कम-रस-लम्पट ||३|| करयल धुणइ झुणइ बुकार1 खेहु कोवि देवि पञ्चार ॥॥ विष्णत्तिएँ पसाउ परमेसरि । हउँ कषणेण हीणु सुर-सुन्वरि ।।५।। किं सोहग्गे भोग्गै कणड । किं पिरुयउ कि अस्थ-विहणउ ॥६॥ कि लाषणे घणं हीणड । किं संमाणे दाणे रणे दीणड ॥७॥ को करनेण फेण ण समिच्छति । जें महवि-पटु ण पहिच्छहि ।।
पत्ता राहव-गेहिणिएँ णिम्भच्छिड णिसियर-राण । 'ओसर दहषयण दुहुँ अम्हहुँ जणय-समाणउ ॥९॥
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एकमालीसमो संधि [१३] जनककी बेटी सीताने बार-बार उक्तियोंसे मन्दोदरीकी भर्त्सना की- "बार-बार तुम कितना बोल रही है" मनमें तुमने जो सोचा है वह तुम करो। यद्यपि आज करपत्रोंसे काटो, यद्यपि पकड़कर शृगाल और श्वानोंको सौंप दो, यद्यपि जलती हुई आगमें डाल दो, यद्यपि महागजके दाँतोंसे कुचल दो, तो भी, उस दुष्ट पापकर्मा परपुरुषसे इस जन्ममें मेरी निवृत्ति है | मुझे एक ही अपना पति पर्याप्त है कि जो विजयलक्ष्मीके द्वारा एक पलके लिए भी नहीं छोड़ा जाता। जो असुर, सुर और जनों के मनका प्रिय है, वह तुमजैसी खोटी स्त्रियों के लिए दुर्लभ है, जो भीषण नरवररूपी सिंह है, जो धनुषरूपी पूंछकी लीलाका प्रदान करने वाला है, जो तीररूपी नखोंसे अरुण हैं, जिसकी धनुषरूपी लपलपाती हुई जीभ है, ऐसे रामरूपी सिंहसे, रावणरूपी मत्तगज चीर दिया जायेगा" ।।१-९।।
[१४] रावण और रामचन्द्रको रमणियों (त्रियों) मन्दोदरी और सीता देवी में जब बातें हो रही थी तभी रावण स्वयं आया, उसी प्रकार, जिस प्रकार गंगाके तटपर हाथी आ गया हो । गन्धलुब्ध व्याकुल भ्रमरके समान जानकीके मुखरूपी कमलरसका लम्पट, वह अपने करतल धुनता है, ध्वनि करता है, बुदबुढ़ाता है, क्रीड़ा कर देवीको पुकारता है- "हे देवी, बिनतीसे प्रसाद करो, हे सुरसुन्दरी, मैं किससे हीन हूँ, क्या मोग और सौभाग्य में कम हूँ। क्या कुरूप हूँ या अर्थ रहित हूँ? क्या सौन्दर्य और वर्णमें हीन हूँ ? क्या सम्मान, दान और रणमें दोन हूँ ? बताओ किस कारणसे तुम मुझे नहीं चाहती, किस कारण तुम महादेवीपट्टकी प्रतिइच्छा नहीं करती । “राघवकी पत्नीने निशाचरराजाकी भत्सना की--"हे रावण, तुम हट जाओ, तुम मेरे पिताके समान हो ।" ॥१-९||
२३
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२५
पउमचरित
जाणन्तो वि तो वि से सुजाहि । गेहें विपर-कलत्त कहिं सुजमहि ।। जाम ण अयस-पहहु उभासद । जाम ण लक्षाणयाँ विणासह ।।२।। जाम ण लपवण-सीह विरुज्झइ । जाम ण राम-कियन्तु विज्म ॥३॥ जाम प सरवर-धोरणि सन्धह। जाम तोणा-झुअलु णिवा || जाब ण वियस-उरस्थलु मिन्दाइ। जाब ण पाहुदण्ड त छिम्दइ ||५|| सरवरें हसु जेम दल-विमलर। जाव ण तोडइ दस-सिर-कमलइ ।।६।। जाम ण गिद्य-पम्ति गिबह । जाम पण णिसियर-बलु भावइ १७॥ जाम ण दरिसावह धय-चिन्ध । जाम करणे पञ्चन्ति कवन्धर ॥८॥
घन्ता जाम " आइयणें कपिजाहि वर-णाराहि । ताव गराहिवद पड राहयचन्दहाँ पायहिं ॥५॥
[ १५ ] नं णिसुणवि आरुह्य दसाणणु। जवणे गनमाणे वागणु ॥ilk कोवाणल-पलितु लकेसह । चिन्तह विजाहर-परमेसा ॥२॥ 'किं जम-सासण-पन्थें लायमि । कि उसग्गु जिपि दरियामि ॥३॥ अवये भत्र-बसेण इच्छेसाइ। महु मयणग्गि समुल्हावेसह' ॥४॥ तहि अबसरे स-तुरअ स-रहरु। गड उरधवणहाँ ताम दिवायरु ॥५॥ आय रति णाणाविहरूब हि। अट्टहास मेलिन्त हिं भूएहि ॥६॥ खर-साणउल-विराल-सियाले हिं। बहु-चामुण्ड-हाड-वेया हि ॥७॥ रवरयस-सीह-वग्य-भय-मण्हें हि। मेस-महिस-धस-तुरय-णिलण्ड हि॥८॥ सं उवसग्गु णिएवि मयावणु। ती विण सीयह सरणु दसाणणु ॥१॥ वोरु उद्दु क्षाणु संचूर हिं। थिय मणे धम्म-झागु भाकर वि॥१०॥
घत्ता
'जाव ग णीसरिय उवसग-भयहाँ गम्मीरही। ताक णिवित्ति महु चविह-आहार-सरीरहों ॥११।।
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एकचालीस संधि
३५५
[१५] जानते हो, तो भी मोहको प्राप्त होते हो, परस्त्रीको ग्रहण कर क्या शुद्धि होती है। जबतक तुम्हारा अपयशा डंका नहीं बजता, जबतक लंका नगरी नाशको प्राप्त नहीं होती, जबतक लक्ष्मणरूपी सिंह षिरुद्ध नहीं होता, जबतक रामरूपी यम नहीं जान पाता, जबतक वे तीरोंकी पंक्तिका सन्धान नहीं करते, जचतक वे तरकस युगल नहीं बाँधते, जबतक विकट उरःस्थलका वे भेदन नहीं करते, जबतक उनका बाहुदण्ड
तुम्हारा छेदन नहीं करता. जबतक सरोवर में इसके समान दलों से विमल दससिररूपी कमलोंको वे नहीं तोड़ते, जबतक गीध पक्ति नहीं पटती, जबतक निशाचर बल नहीं नष्ट होता, जबतक वे ध्वजचिह्नों को नहीं दरसाते, और जबतक रणमें कबन्ध नहीं नचते, जनतक श्रेष्ठ तीरोंसे युद्ध में काटे नहीं जाते, तबतक है नराधिप, तुम राघवचन्द्र के पैर पड़ लो । " ॥१-५।।
[ १६ ] यह सुनकर रावण क्रुद्ध हो गया । मानो मेघके गरजने पर पंचानन हो । क्रोधरूपी ज्वालासे प्रदीप्त लंकेश्वर विद्याधर- परमेश्वर दशानन सोचता है- क्या यमशासन के पथपर भेज दूँ ? क्या कुछ भी उपसर्ग दिखाऊँ ? अवश्य ही यह भयके वशसे मुझे चाहने लगेगी, और मेरी कामज्वालाको शान्त कर देगी । उस अवसर पर तबतक अपने अश्व और रथवर सहित दिवाकर अस्तको प्राप्त हो गया। नाना रूपोंवाले अट्टहास करते हुए भूतों, खर, इवानकुल, विडाल, शृगालों, अनेक चामुण्ड· रुण्डों और बेतालों, राक्षस, सिंह, बाघ, हाथी, गैंडों, मेत्र, महिष, वृषभ, तुरंग और नृसमूहोंके साथ रात आयी । उस भयानक उपसर्गको देखकर, तो भी सीता के लिए रावण शरण नहीं था । घोर रौद्र ध्यानको चूर-चूर कर अपने मनको धर्मध्यान आपूरित कर (प्रतिज्ञा ले ली ) - जबतक गम्भीर उपसर्ग-भय से मैं मुक्त नहीं होती, वचतक मेरी चार प्रकार
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३५
पढमपरित
[ -] पहय पोस पणासें दि जिग्गय । हस्थि-हड व सूर पहराहय ॥१॥ णिसिपी प गय भोगान लिय। भगा-गप्पर माण-कसक्रिय ॥१॥ सूर-भएण णाई रणु मेहसें चि। पइसह गया कवाह पेहले वि॥३॥ दोषा पमलन्ति जे सपणे हिं। नजिसि बलेंवि जिहालइ गयणेहिं ॥३॥ इटिउ रवि अरविन्दान्दउ । णं महि-कामिणि-केरउ अदउ ॥५॥ गं सम्माएँ निसउ रिसाविउ । खुकरहें जस-पुम्नु पहाविउ ॥६॥ गं मम्भोस वेन्तु चर-पत्ति। पच्छ णाहँ पधाइड रसिह ॥७॥ नं जग-मवणहो वोहिउ दोवड़। णा पुशु चि पुणु लो जे पखावट ॥८॥
घसा
शिष्टुअण-रस्खलहों दावि दिसि-बहु-मुह-कन्दरु । उबरें पईसरे विसीय गवेसा दिणयह ॥९॥
[ १८ ] रमणिहे तिमिर-णियरन भग्गएँ। शिव रावणहाँ आय ओलग्गएँ ॥१॥ मय-मारिश-विहोसण-राणा। भवरें घि भुवणेकॉक-पहाया ॥२॥ खर-दूसण-सोएण णयाप्पण। णं णिक सर वर पञ्जाणण ॥३॥ णिय-णिय-आसणेहि थिय अविचल । भाग-बिसाण णाई घर मयगल ॥४॥ मम्ति-महल्लएहि एस्थत्तरें। णिसुप्पिय साय अन्ति पढम्तरें ॥५॥ मण विहीखणु 'ऍडु को रोवइ । वारवार अप्पाणउ सोमइ ।।६।। णावइ पर-कमसु विच्छौहउ'। पुणु दहवयणहाँ वयणु पजोइड ॥॥ 'मम्छुडु ए काम तुह केरङ । अण्णही कासु चित्त विवरेस्ट' ॥६॥ तं णिसुधि सीय आसासिय। कलयण्ठि व पिय-वय हिं भासिय९॥ एछ दुजगहों मज को समण। जिम्ब-कणहाँ अन्भन्तरें घान्द ॥१०॥
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एकचालीसमो संधि
३५७ आहार शरीरसे निवृत्ति ॥१-१॥
[१७] सूर्यके प्रहारोंसे आहत होकर इस्तिपदाके समान रात्रिके प्रहर नष्ट होकर चले गये। निशाचरीके समान घोड़ेकी नाकके समान वक्र, भग्नमानवाली और मानसे कलंकित रात्रि सूरके भयसे जैसे रण छोड़कर किवाड़ोंको खोलकर नगरप्रवेश करती है। शयनकक्षोंमें जो दीप जल रहे थे, मानो रात्रि अपने नेत्रोंसे मुड़कर देख रही थी। कमलोंको आनन्द देनेवाला सूर्य उठा मानो धरतीरूपी कामिनीका दर्पण हो ? मानो सन्ध्याने अपना तिलक प्रदर्शित किया हो, मानो सुकविका यश चमक रहा हो, मानो रामकी पत्नीको अभय देते हुए जैसे रात्रि के पीछे दौड़ा हो, मानो विश्वरूपी भवनमें दीपक जला दिया गया हो। जैसे वह बार-बार वहीं प्रदीप्त हो रहा हो । त्रिभुवनरूपी राक्षसको दिशारूपी वधूकी मुखरूपी गुफाको फाड़कर और उदर में प्रवेश कर मानो दिनकर सीतादेवीको खोज रहा है ।।१-२||
[१८] रात्रिके अन्धकारसमूहरूपी रजके नष्ट होनेपर राजा रावणकी सेवामें आये | मय, मारीच, विभीषण राजा, और भी दूसरे विश्व के एकसे एक प्रधान राजा, खरदूषणके शोकसे नतानन ऐसे लगते थे मानो बिना अयालबाले श्रेष्ठ सिंह हों। सब अपने-अपने आसनोंपर निश्चल बैठ गये मानो जिनके दाँत टूट गये हैं, ऐसे मतवाले गज हों । इसी बीच मन्त्रियोंसे महान् राजाओंने पटके भीतर सीता देवीको रोते हुए सुना। विभीषण कहता है-"यह कौन रो रहा है, बार-बार अपनेको शोकमें डाल रहा है, जान पड़ता है यह कोई वियुक्त परस्त्री है ।" फिर उसने रावणका मुख देखा, (और कहा) "शायद यह तुम्हारा कर्म है ? और किसका चित्त विपरीत हो सकता है ?" यह सुनकर सीसा आश्वस्त दुई, और कोयल के समान मीठे
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पजमचरित
बसा
पिंहुरे समाचडिएँ ऍहु को साहम्मिय-पच्छलु । जो म धीरव पुवाड कासु स हे भुध-चलु' ॥१॥
बायालीसमो संधि
पुणु वि विहीसQण तुम्घयण हिं रावणु दोच्छछ । तेस्धु पडन्तरेण आसपणउ होएं वि पुच्छइ ।
'अक्लहि सुन्दरि वत्त भिन्ती । कहि आगिय नहुँ शुरथु स्त्रम्सी ॥१॥ कासु धीय कहि को मुम्हह पई'। अवख बाहन्तु विहीसणु ॥२॥ 'कवणु मसुरु कहि को तुह देवरु । अस्थि पसिद्ध को तुह माय ॥३॥ सप्परियण कहि सुहुँ एकचली 1 अक्सहि केम वणसर भुल्ली ॥१॥ के काजग वष्यवासु पट्टी । चक्केसरण केम तुहुँ दिट्टी ॥५॥ किं माणुसि कि खेयर-णन्दिप्पी। किं कुमील कि सीलाही भायणि ॥६॥ अण्णु चि कवणु तुम्ह देसरता। कहादि विचार विणियय-फहन्तर'॥७॥ एम विहोसण-धयण सुविणु। लग कहेग्मएँ जिम णिसुणइ जा॥८॥
पत्ता
'अह किं बहुएण लहुअ वहिगि भामण्डलहों। हउँ सीयाएवि जणयहाँ मुअ गेहिणि वलहों ॥१॥
वन्धे वि राय-पटु मरहेसहो। तिणि विसंघल्लिय वणवासीं ॥१॥ सीहोयरहों मढफर मम् वि। दसउर-णाहहाँ णिय-मणु रु. ॥२॥
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बायालीसमो संधि शब्दों में बोली-"दुर्जनोंके बीच, यह सज्जन कौन हैं; नीमके वनके बीच में चन्दन । संकट आ पड़नेपर साधर्मीजन वत्सल यह कौन है ! जो मुझे धीरज देता है, इतना स्वयम्भूबल किसका है ?" ॥१-१२॥
बयालीसवीं सन्धि
फिर भी विभीषण बुरे शब्दों में रावणकी निन्दा करता है, और वह परदे के निकट होकर पूछता है__[१] "हे सुन्दरी ! तुम निधान्त होकर बात कहो । यहाँ, रोती हुई तुम्हें कौन लाया। तुम किसकी बेटी हो। तुम्हारा पति कौन है ?" चिन्ता धारण करता हुआ विभीषण कहता है-"कौन तुम्हारा ससुर है, बताओ कौन तुम्हारा देयर है, तुम्हारा प्रसिद्ध भाई कौन है। तुम अपने परिजनों के साथ हो, या अकेल्दी । बताओ वनमें तुम अकेली किस प्रकार भूल गयी। किस कारण तुम वनवासके लिए प्रविष्ट हुई। चक्रेश्वर रावणने तुम्हें किस प्रकार देखा ? तुम मनुष्यनी हो या विद्याधरपुत्री। क्या दुराचारिणी हो, या झीलकी भाजन । और भी तुम्हारा कौन-सा देशान्तर है ? विस्तारसे अपनी कहानी बताओ।" विभीषणके वचन सुनकर, बद्द, इस प्रकार कहने लगी कि जिससे लोग सुन लें। “अब बहुत कहनेसे क्या? मैं भामण्डलकी छोटी बहन हूँ। मैं सीता देवी, जनककी पुत्री और रामकी गृहिणी हूँ ॥१-२॥
[२] भरतेशको राजपट्ट बाँधकर तीनों वनवामके लिए चल दिये । सिंष्टोदरका मान भंग कर दशपुर राजाका नृपमन रंजित
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२६.
. पङमचरित
पुणु कल्याणमाल मम्भीसें वि। णम्मय मेहले वि विम्स पईसेवि ॥३॥ रुभुति णिय-अलग हि पावि । वालि खिल्लु णिय-जयरहों धाहें वि॥॥ रामउरिहिं चढ़ मास सेप्पिण। धरणीधरहों धीय परिणेपिणु ॥५॥ फेच वि अश्वीरहों योरपाणु । पइसरेवि खेमालि-पटश ॥५॥ तेस्धु वि पञ्च पहिच्छे वि सत्तिड । सन्तुदवाणु मसि-चपणु पवित्ति: ।।७।।
हरि-सीय-चलाइँ आयइँ सजई आइयई। गं मत्त-गयाइँ दण्डारण पराइयाँ ।।८।।
[३] तहि मि काले मणि-गुस-सुगुप्सहँ । संजम-णियम-धम्म संजुसहँ ॥ ॥ वर्ण आहार-दाणु दरिसावें वि । सुरघर-स्यण-वरिसु परिसा विधा॥ पक्लिहें पक्ख सुषण्ण समारं वि | सम्वुकमारु वीरू संघार वि ।।३।। अच्छहुँ जाव तेत्थु वण कौलए। एक कुमारि आय णीय-लीला |४ पासु वकिय करिणि व करिणही । पुणु णिलन भणह 'म परिणहाँ "॥५॥ वल-णारायणेहि उपलक्खिय । पुणु थोवन्तरें जाय चिलक्षिय ||६|| गय खर-दूसणाहुँ कुवारहि। भिडिय ते विसहुँ समरें कुमार हि ॥
घत्ता किं मुक्कु ण मुफ्कु सोह-माउ रणे लक्खणण । तं सद्दु सुणेवि रामु पधाइन तकखणेण ॥८॥
[४] गज लक्षणहाँ गधेसर जावें हिं। हउँ अवहरिय णिसिम्दे तायें हिं॥१॥ भन्नु घि अण-मण-यणाणन्दहौं । पासु प्येहु मइँ राषचन्दहो' ॥२॥ लहस गाउँ जं दसरह-जगहुँ । हरि-हरूहर-मामपाल-तणयहुँ ॥३॥ चिनु विहासण-रायहाँ डोलिलउ । 'तुम्हें हि मुयउ सुथाउज वोल्लिउ ॥ ३॥ तेह आंज आसि विणिवावि । णघर जियन्ति मन्ति उप्पावि ॥५॥ सुक्कु पमाणही मुणिवर-भासिड | जिह "खट लक्षण-रामद्दों पासिउ"॥६॥
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वायाकोसमो संधि
३६१
कर फिर कल्याणमालाको अभय बचन देकर, नर्मदा छोड़कर, विन्ध्याचल में प्रवेश कर, रुद्रभूतिको अपने चरणोंमें झुकाकर वालिखिल्यको उसके नगरमें स्थापित कर रामपुरी में चार माह् बसकर, धरणीधरकी बेटी से विवाह कर, अतिवीर्यको वीरता चूर-चूर कर, क्षेमांजलि नगर में प्रवेश कर, वहाँपर भी पाँच शक्तियों को स्वीकार कर, अरिंदमन राजाका मुख काला कर, लक्ष्मण-सीता और राम विजयके साथ इस प्रकार आये और दण्डकारण्य में पहुँचे, मानो मत्तगज हों ॥१-९॥
[३] उसी समय, संयम नियम और धर्मसे संयुक्त मुनिगुप्त और सुगुप्तको बनमें आहार दान देकर, देवरत्नोंकी वर्षा करवाकर, पक्षी (जटायु) के पंख स्वर्णमय कराकर, वीर सम्बुकुमारको मारकर जब हम लोग वहाँ (दण्डकारण्य में) क्रीड़ांके लिए रह रहे थे, एक कुमारी अपनी लीलासे आयी । जैसे हथिनी हाथो के पास, वैसे ही वह पास पहुँची। फिर वह निर्लज्ज बोली- 'मुझसे विवाह करो।' राम और लक्ष्मणके द्वारा तिरस्कृत होकर, फिर थोड़ी दूर जाकर वह बिलख उठी । वह अपने विलापोंके साथ खरदूषण के पास गर्यो । वे भी कुमारोंके साथ युद्धमें लड़े । युद्ध में लक्ष्मण सिंहनाद किया या नहीं, वह शब्द सुनकर राम उसी क्षण दौड़े ॥१-८॥
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[४] जब तक वह लक्ष्मणकी खोज करने गये, तबतक निशाचरेन्द्र के द्वारा मैं हर ली गयी। आज भी जनोंके मनों और नेत्रोंको आनन्द देनेवाले राघवचन्द्रके पास मुझे ले जाओ ।" इस प्रकार जब सीता देवीने दशरथ और जनक, लक्ष्मण-राम और भामण्डलका नाम लिया तो विभीषण राजाका मन काँप उठा, ( वह बोला ) – कि "जो कुछ कहा गया है, वह तुम लोगोंने सुना । सुना । मैं उन्हें मारकर आया था, लेकिन नहीं, वे तो भ्रम उत्पन्न कर जीवित हैं। लो मुनिवर के कथनका प्रमाण आ
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पउमचारड
एवं वि करहि महारउ दुप्सउ । उत्तिम-पुरिसहुँ एउप जुसउ ७॥ एक्कु विणासु अण्णु लजिज्ज । धिखिकार लो पाविजह ॥6॥
धत्ता
णिय-किसिहें राम सायर-रसण-स्खलन्तियहै। में माहि पाय तिहुयणे परिसमन्तियाँ ॥९॥
।
[५] रावण जे रमन्ति परदारई। दुवई से पावस्ति अपार ॥१॥ अस्तेि सप्त गरम भर-भोसण । हसहसहसहमम्स सन्दुवासण ॥२॥ हुहुहुहुहुहुहुहम्त स-उपदछ । सिमिसिमिसिमिसिमन्त-किमि-कदम।३। रयणि-सफर-पालुय-पङ्क-पह। धूमप्पह-तमपह-तमतमपह ॥४॥ सहि असराल कालु अच्छेवर। पहिला उवहि-पमाणु मिवेवट ॥५॥ तिणि सत्स वीस रउर। सत्तारह बावीस समुराई ॥६॥ पुणु तेतीस-जलहि-परिमाणई। जहिं दुक्रवइँ गिरि मेरु-समाणहूँ ॥७॥ जो पुणु णरउ णिगोड सुणिजह । मइणि जाव ताव तहिं हिजइ ॥६॥ ते कम्जे पर-दारु ण रम्मइ । संमिजद जं सुगहि गम्मइ' ॥९॥
पत्ता आरुटु दसासु 'किं पर-दारही एह किय । तिहुँ खण्डहुँ माझे अक्नु पराय कवण्य तिय' ॥१॥
तो अवहेरि करेवि विहीसण । चहिउ महम्गएँ सिजगविह्वसप्पं ॥१॥ सीय षि पुष्फ-विमाणे चहाविय । पटणे हष्ट-सोह दरिसाविय ॥२॥ संचलउ प्णिय-मण-परिओसें । मल्लरि-पडह-तूर-णिग्घोसें ॥३॥ 'सुन्दरि पेक्खु महारत पट्टणु । वरुण-कुवेर-बोर-दलबष्णु ॥३|| सुन्दरि पेक्खु पेयख चा-बारई। णं कामिणि-वयप स-विचार ॥५॥
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बयालीस संधि
३६३
पहुँचा | चूँकि तुम्हारा विनाश राम और लक्ष्मणके पास है. इसलिए इस समय भी तुम हमारा कक्षा हुआ करो । उत्तम पुरुषोंके लिए यह अच्छी बात नहीं। एक तो विनाश होगा और दूसरे लजाये जाओगे, और लोक द्वारा धिक्कार पाओगे । हे राजन् ! त्रिभुवनमें फैलती हुई, समुद्र से लेकर पृथ्वी तक स्खलित होती हुई, अपनी कीर्तिके आधारको नष्ट मत करो ।” ॥१-२॥
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[4] "हे रावण, जो परखीका रमण करते हैं, वे अपार दुखको पाते हैं । जहाँ अग्नि सहित हस हस करते हुए भयभीषण सात नरक हैं, हु-हु करते हुए उपद्रव सहित तथा सिमसिमाते हुए कृमि कर्दम से युक्त, रत्न, शर्करा, बालुका, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा और तम तमःप्रभा नरक हैं वहाँ बहुत समय रहना पड़ता है, पहले नरक में एक सागर प्रमाण जीना होता है । उसके बाद तीन, सात, दस, ग्यारह, सत्तरह और बाईस सागर प्रमाण, फिर तैंतीस सागर प्रमाण । वहाँ सुमेरु पर्वत के समान दुःख होते हैं। और फिर जो नरक निगोद सुना जाता है, वहाँ जबतक धरती हैं तबतक लीजना पड़ता है। इस कारण परस्त्रीका रमण नहीं करना चाहिए | वह करना चाहिए जिससे सुगतियों में जाया जाये ।" ( इसपर ) दशानन कुद्ध हो उठा, "क्या परस्त्रोंकी यह क्रिया है; बताओ तीन खण्डों के मध्य, कौन स्त्री परायी है ? ॥१- १० ॥
[६] तब विभीषणकी उपेक्षा कर रावण महागज त्रिजगभूषणपर आरूढ़ हो गया। सीताको भी पुष्पक विमानपर चढ़ा लिया, और उसने नगर में उसे बाजारकी शोभा दिखायी । वह अपने मनके परितोष और झल्लरी, पटड़ तथा तूर्यके निर्धोषके साथ चला। बोला - "हे सुन्दरी ! हमारा नगर देखी, जो वरुण, कुबेर आदि वीरोंका नाश करनेवाला हैं । हे सुन्दरी !
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पउमचरिउ
३६४
- सुन्दरि पेक्रस पेक्खु घय छलहुँ। सुन्दरि पेष महास्व राखलु । सुन्दरि करहि महारज बुत । सुन्दरि करि पसाउ लाइ चेलिङ ।
घसा
महु जीवित देहि वोल्लहि षणु सुहाषणउ | रायवर खन्धे लहू महए िपसाहणउ
१०॥
सम्पदन्तु इय सेजऍ 'केति यिय-रिद्धि मदावहि । एवं जं रावण रज्जु तुहार । जं पट्टणु सोमु सुदंशु |
|
एड जं सउलु ण- सुहरु । जं दावा खणें जोन एउ जं कण्ठड ड स मेहल रहबर-तुरय- गइन्द्र-सयाइ मि |
पफुलियाँ जाइँ समयसम् ॥६॥ हीर- गहणु मणि खम्भ रमाउलु ॥७॥ लह चूडउ कण्ठ कहिसूस 14 चला घोड हरिकेलि ॥१॥
[]
दोच्छिउ रावणु राहव-भज्जएँ ॥१॥ अप्पर जवाहों मजा दरिलावहि ॥ २ ॥ तं महु तिण-स सं महु म
-समाणु हलुआर ॥ ३ ॥
पाएँ जमसासणु ॥ ४ ॥
तं महु णाइँ मसाणु भयङ्करु ॥५॥
से
महु महों जाएँ विस भोयणु ॥१६॥ सील-विहँ तं मलु केवलु ॥ ॥ आहिं मसु पुणु गणु ण काष्ट मि ॥८॥ घत्ता
समधिकारें जहिं चारितहों खण्ड | कि समलहणेण महु पुणु सोलु जें मण्ढणउ ॥ ९ ॥
[ 2 ]
जिह जिह विषय आपण पूरई । 'विहिते देइ जं विद्दिषउ । उम्मेण क्रेण संखोदिउ ।
सिंह हि रावणु हियएँ विसूरह ॥१॥ किं व जाइ जिलाऍ लिहियर ॥ २ ॥ जाणन्तो वि तो चि जं मोहिउ ॥ ३ ॥
विधि अलिमियकुमारि विलोणी । बुग्ण-कुरङ्गि जेम मुह दोणी ॥४॥
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बायालीसमो संधि
३१५ चारद्वार देखो, जैसे ये धिकार सहित कामिनीके मुख हो। सुन्दरी ! देखो-देखो ध्वजछत्र, जैसे खिले हुए कमल हों। सुन्दरी ! देखो-देखो हमारा राजकुल जो हीरोंसे गम्भीर और मणि खम्भोंको शोभासे युक्त है। हे सुन्दरी ! तुम हमारा कहना करो, यह 'चूड़ा, कण्ठा और करधनी लो। हे सुन्दरी ! प्रसाद करो और चीनी, लाट, घोट और हरिकेल वख लो। मुझे जीवन दो । सुहावने वचन बोलो, गजषरके कन्धेपर चढ़ो और महादेवीका प्रसाधन स्वीकार करो" ||१-१०॥
[७] इस प्रकार सम्पत्ति दिखाते हुए उस रावणकी, आर्या रामपल्लीने भर्सना की-"तुम अपनी कितनी ऋद्धि मुझे दिखाते हो ? इसे अपने लोगोंके मध्य दिखाओ। हे रावण, यह जो तुम्हारा राज्य है वह मेरे लिए तिनके समान हलका है । यह जो सौम्य और सुदर्शनीय नगर है, वह मेरे लिए यमशासनके समान है। यह जो नेत्रोंके लिए शुभंकर राजकुल है, वह मेरे लिए मानो महा भयंकर मरघट हैं। यह जो झण-क्षणमें यौवन दिखाते हो, वह मेरे मनके लिए मानो विष-भोजन है । यह जो कण्ठा, मेखला सहित कटक है वह शील विभूषणवालोंके लिए केवल मल है। जो सैकड़ों रथवर, तुरग, गजेन्द्रादि है इनमें से मेरे लिए कोई गण्य नहीं हैं। उस स्वर्गसे भी क्या जहाँ चारित्र्यका गपडन है। यदि मेरे पास शीलका मण्डन है तो कुछ भी प्राम करनेसे क्या ? ॥१-९||
[4] जैसे-जैसे रावणको अभिलषित आशा पूरी नहीं होती, वैसे-वैसे वह हृदयमें दुःस्त्री होने लगता है--विधाता उतना ही देता है कि जो विहित है। हे मूर्ख, क्या ललाटमें लिखा हुआ कहीं जाता है । मैं किस कमके द्वारा सुब्ध हूँ, यह जानते हुए भी, जो मैं मोहित हूँ। मुझे धिक्कार है कि मैंने कुमारीकी अभिलाषा की, जो मुखसे दीन-दुखी हरिणीके समान है।
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पङमचरित
माथहें पासिउ जाउ सु-वेसड। म घरें अस्थि भणेयउ वेसउ' ॥५॥ एवं विनितु चित्तु साहार वि। दुक्ख दुक्खु मण-पसरु णिवारे वि ॥१॥ सीपएँ समउ से पामेल्लें वि । तं गिग्वाणरमणु बणु मेडल दि ॥७॥ णरवर-विन्द हि परिमिउ दहमुह । संचलिउ णिय-णयरिहे अहिमुहु ॥४॥
घन्ता गिरि दिइ तिकूड सपा-भगवण-सुभाउ । रवि-विम्महो दि जे महि-कुलवहुभएँ थण ॥९॥
[५] णं धरु धरहूँ गम्भु णोसरियउ। सतहि उबवणेहिँ पस्थिरियर ॥१॥ पहिलउ वणु णामेण पहष्णट। सज्जप-हियर जेम विस्थिण्ण ॥२॥ वीराज जण-मण-णयणाणन्दणु । णाव जिपवर-विम्वु स-चन्दणु ॥३॥ तड्यर वणु सहसेउ सुहावड। जिणवर-सासण गाईस-सायउ॥४॥ घउथ वणु णामेण समुझाउ । वग-वलाय-कारणढ-सकोबाउ ॥५|| चारण-वणु पञ्चम रवण्णड । चम्पय-निलय-उल-संपाउ ॥६॥ छट्टउ वणु णामेप्प णिवोहर। महुअर-रुणुरुण्टन्तु सुसोहउ ॥५॥ सत्तमु घणु सीयल सछायउ। पमठमाणु णाम-विक्खायड ८॥
धत्ता तहिं गिरिवर-प? सोहइ लवाणयरि किह। थिय गयघर-खन्थें गहिय-पसाहण बहुम जिह ॥५॥
[१०]
- पत्ता ताप तस्थु णिजझाइय बावि असोय-मालिणी। हेमवपण स-पभोहर मणहर गाइँ कामिणी ॥१॥ चउ-दुवार-बउ-गोउर-बाउ-तोरण-रवणिणया । सम्पय-तिक्षय-वउल-णारा-स्वर-णिया ।।२।।
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बायालीसमो संधि
३१. इसकी तुलनामें सुन्दर वेशवाली अनेक रूपवाली स्त्रियाँ मेरे घरमें हैं। इस समय विचित्र चित्तको सहारा देकर बड़ी कठिनाईसे मनके प्रसारका निवारण कर सीवाके साथ क्रीडाका परित्याग कर, उस देवरमण वनको छोड़कर नरवर राजाओंसे घिरा हुआ रावण, अपनी नगरीके सम्मुख चला। जनके मनों
और नेत्रों के लिए सुहारना वह नगर ऐसा लगता था मानो धरतीरूपी कुलवधूने अपना स्वन रविरूपी बालकके लिए दे दिया हो ॥१-९॥
[२] वह पर्वत मानो धरतीका निकला हुआ मध्यभाग था। घह लंका नगर सात उपवनोंसे घिरा हुआ था। पहला वन पइग्ण नामका था, जो सज्जनके हृदयके समान विशाल था। जनके मन और नेत्रोको आनन्द देनेवाला दूसरा जिनवर के बिम्बकी तरह सचन्दन ( चन्दन वक्ष और चन्दनसे सहित ) था। तीसरा शुभसेतु वन शोभित था जो जिनवर शासनके समान ससावर ( श्वापदों और श्रावकोंसे सहित) था । चौथा समुच्चय नामका वन था, जो बकषलाका कारण्ड' और कौंच पक्षियोंसे युक्त था । पाँचवाँ सुन्दर चारण वन था, चम्पक, तिलक और बकुल वृक्षोंसे संछन्न । छठा निबोहउ वन था जो मधुकरों से गूंजता हुआ शोभित था। सातवाँ सुन्दर छाया वाला शीतल प्रख्यात नाम प्रमद जयान था। उस गिरिवरकी पीठपर लंका नगरी इस प्रकार शोभित है. जैसे प्रसाधन कर वधू गजवरके कन्धेपर बैठी हो ॥१–९||
[१०] तब उसने अशोकमालिनी नामकी बाधड़ी देखी, सुनहले रंग यह जैसे सपयोधर ( जल, स्तन धारण करनेवाली) सुन्दर कामिनी हो । वह चार द्वारों और गोपुरॉसे सुन्दर थी, चम्पक, तिलक, बकुल, नारंग और लवंग वृक्षोंसे आच्छादित
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३६८
पचमचरिउ
पिसें बहने वेष्पिण गउ दसाणणो । विजमाणु विरहेण सिंधु विमणु दुम्मणो ||३|| मयण- त्राण - जजरिषठ जरिङ कुवार वार | दूहुआ आवम्ति जन्ति सववार चारभो ॥४॥ यहिँ खर- मधुर हिं मुह सूसह विसूरए । छोहें छोड़ें वित्तएँ जूभारो जूर ॥५॥ सिरु धुणेइ कर मोड अवलेह कम्पए । अहरु लेखि णिज्ा । यह कामसरेण जम्पर ॥ ६ ॥ गाइ वाइ उग्वेल्लह हरिस विसाय दानए । वारवार मुछिइ मरणात्रस्य पाच ॥७॥ चन्दणेण सिखिख चन्दण के दिज्जए । चामरेहिं विजिगर तो वि मणेग चिजए ॥८॥ बत्ता
किं रावणु एक्कु जो जो गरुआ गजियद । जिण-धवलु मुवि कामें को पग पर जियउ ॥९॥ [ 9 ]
थिएँ दसागणं विरह - भिम्मले । 'एस्धु मल्ल को कुऍ खणे । हिउ सम्बु जे बूसणो खरो । माइ मन्ति सहसमनामयं । लक्षणेण सह साहणेण वा । दुसरे दुसार सारे । रावणस्य पवन् वल महा । किं सुएण दूसणेण सम्णा ।
जाय चिन्त वर-मन्त्रि मण्डले ॥१॥ सिधु जासु असि स्वणु तखणे ॥ २॥ होइ कु-इण सावष्णु सो मरो' ॥३॥ 'कवणु गहणु एक्क्रेण रामेण ॥४॥ रह-तुरनाय वाहणेण वा ॥५॥ कहिँ पसु विच भयङ्करे ॥ ६॥ अभि वीर एक्केक दूसहा ।।७।। सायरो किमाहु विन्दुणा ॥८॥ घन्ता
तं वयणु सुबि बिस चि पञ्चामुहु भणइ | 'किं दुश्वर एक्कु जो एक्कुजे सहसा हाइ ॥ ३ ॥
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मायालीसमो संधि थी। उस प्रदेशमें सीतादेवीको प्रतिष्ठित कर दशानन चला गया-विरह से झीण, विसंस्थुल विमन और अत्यन्त दुमैन । कामदेवके बाणोंसे जर्जर और व्वरयुक्त जिसे निवारण करना कठिन है। सैकड़ों बार दूतियाँ आती हैं और जाती हैं । कठोर और मधुर शब्दोंसे उसका गुख सूखता है, वह खिन्न होता है, क्षोभ-क्षोभमें वह गिरता है, जुआड़ीकी तरह पीड़ित होता है। वह सिर धुनता है, हाथ मोड़ता है, शरीर मोहता है, कौंपता है। अधर पकड़कर ध्यानमग्न हो जाता है । कामके स्वरमें बोलता है । गाता है, बजाता है, हर्ष-विषाद दिखाता है, पारबार मूच्छित होता है, मरण-अवस्थाको दिखाता है । चन्दनसे सींचा जाता हैं, चन्दन लेप दिया जाता है । चामरोंसे हवा की जाती है फिर भी मनसे झूरता रहता है । एक रावण क्या, जोजो गर्वसे गरजा है. जिनवरश्रेष्ठको कोडकर भाग देदो हार कौन पराजित नहीं हुआ। ॥१-९।। __ [१५] रावणके विरह-विह्वल होनेपर श्रेष्ठ मन्त्रिमण्डल में चिन्ता व्याप्त हो गयी कि उस लक्ष्मणके कुपित होनेपर, यहाँ प्रतिमल्ल कौन है कि जिसे एक क्षणमें असिरत्न सिद्ध हो गया, जिसने शम्बु, दूषण और खरको मार डाला, पृथ्वीपर वह कोई सामान्य मनुष्य नहीं है। सहस्रमति नामका मन्त्री कहता है-"रामके द्वारा, अथवा साधन सहित लक्ष्मणके द्वारा, अथवा रथ, तुरग, गजवाहनोंके द्वारा, दुस्तर और लहरोंसे भयंकर कठिनाईसे संचरण योग्य सागर और जलों में कैसा ग्रहण ( प्रवेश)? रात्रणकी सेना महा प्रबल है। उसमें एक-एक वीर दुःसह हैं । दूषण या शम्बुके मर जानेसे क्या ? शृंदसे समुद्रका क्या होता है ? यह वचन सुनकर. और इंसफर पंचानन ( मन्त्री ) कहता है-.-"क्या कहते हो, एक है ? जो एक हैं वह हजारोंको मारता है ।" ||१-९||
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३१०
पउमचरित
अपणुएं गिसुभ बत्त मई एहिय । रावण-मन्दिर जीसन्देहिय ॥१॥ जे जे परवाह के इ कहदय । जम्बवणल-सुग्गीवशाय ॥२॥ समज विराहिएण वण-सेवहुँ।। मिलिया वासुए व-बलएव हुँ' ॥३॥ सं णिसुणेवि दसाणण-मिरचें । दुबई पञ्चामुहु मारिपचे ॥३॥ 'एह मजुत्त पस पई अक्खिय। रावणु मुवि ण अण्णहाँ पक्षिय॥५॥ का वि अणकुसुम बलवन्तहों। दिण्णी खरेण धीय हणुवन्तहाँ ॥३॥ है कि माम-वहरु वीसरियउ। जे पडिवप मिलाइ मय-वरियड'॥७॥ तो एस्थातरे मण विहीसणु । 'केत्तिा चबा घयणु सुण्यासणु ॥८॥ एवहिं सो उबाल चिन्तिज्जइ। लम-णाटु जंग रविवजह ॥५॥ एम भणेवि चारिसु ताडिय । पुर भासालिय विज्ञ भमातिय ॥३०॥
घत्ता तियसहु मि दुलघु दिनु माया-पायारु किउ । जोसच णिसिम्दु रज्जु स यं भुजन्तु थिउ ॥११॥
अउज्झा कण्डं समत्तं !
आइचुएवि-पडिमोषमाएँ आइच्चश्विमाए ( ? ) । वीअमउन्मा-ऋपटु सयम्भु-धरिणी केहवियं ॥
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________________ पायालीसमो संधि [12] "किसी दूसरेसे मैंने यह बात सुनी है कि रावणके भवनमें निःसन्देह जो जो राजा हैं और कितने ही कपिध्वजी हैं, जाम्बवन्त, नल, सुग्रीव, अंग, अंगद आदि; वे विराधितके साथ वनवास करनेवाले बलदेव और वासुदेवसे जा मिले हैं।" यह सुनकर दशाननके अनुचर मारीचने मन्त्रीसे कहा-“यह तुमने अयुक्त बात कही। रावणको छोड़कर तुम किसी दूसरेका पक्ष मत लो। खरके द्वारा कोई अनंगकुसुम नामको कन्या बलवान हनुमानके लिए दी गयी है यह क्या ससुरका वैर भूल गया जो डरकर शत्रुपक्षसे मिल जायेगा ?" तब इसी बीच विभीषण कहता है.---"तुम खाली वचन कितना कहते हो ! इस समय वह कार्य करना चाहिए कि जिससे लंकाके राजाको बचाया जा सके।" इस प्रकार कहकर उसने चारों दिशाओं और नगर में आशाली विद्या घुमवा दी। देवोंके लिए भी दुलंध्य दृढ माया प्राकार बनवा दिया और स्वयं निशाचरराज निःशंक राज्य भोगने लगा // 1-11 // आदित्यदेवीकी प्रतिमासे उपमित स्वयम्भूकी पत्नी श्रादित्याम्बाके द्वारा लिखाया गया दूसरा अयोच्या काण्ड समाप्त हुआ |