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अष्ट्रवीसमो संधि [६] माता को बाम वाले रावणने एक उपाय सोचा। उसने अवलोकिनी विद्याका अपने मनमें ध्यान किया। वह 'आदेश दो' कहती हुई पहुँची, और बोली, "क्या छूटसे समुद्रको पी लूँ ? क्या पातालको आकाशमें लौटा हूँ? क्या देवों के साथ इन्द्रको जीत । क्या कामदेव नगरीके गजको भग्न कर दूँ? क्या यमके भैसेके सींग चकनाचूर कर दूँ ? क्या शेषनागके फणमणिको चूर-चूर कर दूं। क्या तक्षककी दाढ़ अखाड़ लूँ? क्या काल और यमके मुखको फाड़ डालू ? क्या रविरथके घोड़ोंको छीन लूँ ? क्या गिरि या पहाड़को अपने हाथके अग्रभागसे टाल दूँ? क्या त्रिलोकचक्रका संहार कर दूँ ? क्या अविलम्ब प्रलय मचा दूँ ?" दृशानन बोला "इनमें से मुझे एकसे भी काम नहीं हैं.? ऐसा कोई संकेत बताओ, जिससे आज मैं इस लीका अपहरण कर सकू" ॥१-२॥
[७] दसमुखका मुख देखते हुए आदरणीय अवलोकिनी विद्याने कहा-"जबतक एकके हाथमें समुद्रावर्त और दूसरेके हाथ में वधावत धनुष हैं। जबतक एकके हाथमें आग्नेय बाण है और दूसरेके हाथमें वारुण और बायन्य बाण हैं, जबतक एकके हाथमें गम्भीर हल है, और दूसरेके हाथमें चक्रायुध है, तबतक...वासुदेव और बलदेवसे बलपूर्षक सीताका अपहरण कौन कर सकता है ? ये वेषठ महापुरुषों में से हैं, जो यहाँ बनान्तरमें प्रच्छन्न रूपसे रह रहे हैं। जिनवर चौबीस, आवे अर्थात् बारह चक्रवती, नय बलदेव, नौ नारायण और नौ प्रतिनारायण | उनमें से ये आठव बलदेव और वासुदेव हैं। जबतक तुम्हारे मनमें लड़नेकी इच्छा नहीं है, तबतक उस स्त्रीको तुम कैसे ले सकते हो ? ॥१-८॥
[८] अथवा इससे क्या ? हे रावण! तुम सुनो--यह स्त्री त्रिभुवनको सतानेवाली है। यदि तुम अजर-अमर हो, वो इसे