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पडमचरित
तो एरथगता सुर-सप्तासे । चिम्ति एकु उवाउ दसासें ॥१॥ अवलोयणिय विज मणे माझ्य। वे आपसु' भणन्ति पराय ।।२।। 'किं घोहण महोवहि घोमि । किं पायालु णहमणे छोमि ॥३॥ किं सहुँ सुरहिं सुरेन्दु परजामि । कि मपरदय-पुरिनाउ मामि ॥ ४॥ किं जम-महिस-सिङ्गु मुसुमूरमि। कि संसह फणिमणि संचूरमि ||५|| किं तवस्त्रयही दाद उप्पाढमि। काल-क्रियम्त-घयणु किं फामि ॥६॥ किरविरह-तुरामा उद्दालमि। कि गिरि मेरु करम्गे टालमि ॥७॥ किं तहलोक चक्छु संघारमि। कि अस्थाएँ पलउ समारमि' ॥६॥
घत्ता
बुत्तु दसाणणण 'एक्केण वि ण वि महु कन्जु । सं संकेउ कहें जें हरमि पह तिय अज्जु ॥९॥
[७] दहवयही वयण सु-पुजएँ। पणिउ पुणु अवलोपि विजए॥१॥ 'जाब समुहावत् करेनहाँ । वजावत्तु भाउ अण्णेशों ॥२॥ जायगंड वाणु करें एकही। वायवु वारुगधु अण्योकहाँ ।।३।। जाम सीह गम्मीरु करेकहीं। करयल चकाउहु असोकहीं ।।४।। तात्र णारि को हरर दिसेवहुँ । मपाएँ चासुगुम-वलपवहुँ ॥|| इय पच्छपण वसन्ति वणन्तरं । सही-सुरिसह अधमन्सर ||६|| जिम चवीस अब गोवद्धण। पर कैसव राम व सषण ||७||
पत्ता
ओए भवट्ठम इय वासुएव वलएव । जाव पव द्विय रणे तिय ताम इजाइ केन ||८||
[ ] अहवइ एण काइँ मुणे रावण। एह णारि तिहुअण-संतावण ॥३॥ लाइ छ६ जइ अजरामस वहि । लइ लइ जड़ टप्पण पयहि ।।२।।