SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 321
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पगुण चालीसमो संधि उसे भर दिया। इदियों और कलेवरके संघयसे सुमेरु पर्वतको भी उसने ढक दिया।" ||१-८॥ [१०] हे राम, अथवा बहुत कहनेसे क्या ? इस भयंकर संसारमें, जिस प्रकार नट बहुरूपान्तरोंमें, उसी प्रकार तुम जरा, जन्म और मरणकी परम्पराओंमें घूमे हो। वह सीता सैकड़ों योनियों में आयी है। कहीं तुम उसके पिता बने हो, कहीं वह तुम्हारी माँ बनी है | तुम कहीं भाई बने हो, और यह कहीं बहन भी बनी है | तुम कहीं भी उसके पति बने हो, और वह कहीं तुम्हारी गृहिणी बनी है। तुम कहीं भी नरकमें थे, और कहीं वह स्वर्गमें थी। तुम कहीं भी धरती पर थे और वह कहीं भी आकाशमार्गमें थी। वह कहीं भी नारी थी, और तुम कहीं भी योद्धा थे । तुम स्वप्नकी ऋद्धिपर मोह क्यों प्रकट करते हो ? बिना महावतका यह वियोगरूपी गजेन्द्रेश झगड़ा करता हुआ समस्त जगमें घूम रहा है। यदि इसे जिनवचनरूपी अंकुझसे नहीं पकड़ा जाये तो मनुष्य के द्वारा मनुष्य खा लिया जायेगा।" यह कहकर वे दोनों आकाशमार्गसे कहीं चलें गये । केवल राम ही कृपणकी भाँति एक, धन ही (धन्या और रुपया-पैसा) अपने हाथ में लेकर बैठे रह गये ||१-५|| [११] तब बिरहानलकी ज्वालासे सन्तप्त शरीर राम उदास मनसे विचार करने लगे कि सच है कि "संसार में सुख नहीं है। सच है कि संसारमें दुःख सुमेरु पर्वतकी तरह है। सच है. कि जरा, जन्म और मृत्युका भय है। सच है कि जीवन जलकी बूंद बराबर है। किसका घर, किसके षन्धुजन-परिजन ? किसके माँ-बाप । और किसके सुधी सज्जन ? किसके पुत्र और मित्र, और किसको गृहिणी। किसका सहोदर भाई और किसकी बहन । जबतक फल (कर्मफल) है, तब तक बन्धु और स्वजन हैं जिस प्रकार वृक्षपर पक्षी बसे हुए हैं।" राम यह
SR No.090354
Book TitlePaumchariu Part 2
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages379
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy