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________________ बावीस संधि २३ जिन्होंने पुत्र और कलत्र के स्नेहको दूर कर दिया हैं, जो धैर्य में सुमेरु पर्वत और गम्भीरता में महासमुद्र थे, ऐसे संघाधिपति आदरणीय सत्यभूति अयोध्या नगरी में आये और जैसे उन्होंने दशरथको ललकारा कि “शिवपुरीके लिए गमन कर | " ||१९|| [ ५ ] वहाँ वैसा समय आनेपर रथनपुर चक्रवाल नगर"मैं मामण्डल अपना राजपाट छोड़कर, सिद्धिकी याद करते हुए मुनिकी तरह स्थित था— वैदेहीकी विरह वेदनाको सहन करता हुआ तथा दश कामावस्थाओंको दिखाता हुआ । उसे विद्याधर स्त्रियाँ अच्छी नहीं लगती थीं और न ही ज्ञान, खाना, भोजनक्रियाएँ । न जलसे भीगा पंखा, न चन्दन और कमलसेज; एकके बाद एक बैग आते और चले जाते । वह असह्य विरह से व्याधिमस्त था, जो किसी भी औषधिसे दूर नहीं हो सकती थी। लम्बी-लम्बी साँसें लेकर, वहाँ फिर सिंहकी तरह स्थित हो गया। मैं उस मनुष्यनीको अलपूर्वक लेकर भोगंगा ? ( यह सोचकर ) वह साधनसहित तैयार होकर निकला । वह विदग्ध नगर पहुँचा । उसे देखकर उसे जातिस्मरण हो आया कि पूर्व जन्म में मैं यहाँ राजा था ॥ १-२॥ [ ६ ] उस प्रदेशको देखकर वह मच्छित हो गया। अपने निरवशेष जन्मोत्तरको याद कर सद्भावना के साथ उसने अपने पितासे कहा, “यहाँ मैं कुण्डलमण्डित नामका राजा था। मैं यहाँ अस्खलित मान । वहाँ पिंगल नामका कुबेर भट्ट था जो विचारा चन्द्रकेतुकी कन्याका अपहरण कर एक कुटीरमें रहता था। मैंने उसकी उस स्त्रीको छीन लिया । वह भी मरकर कहीं देवत्वको प्राप्त हुआ । मैं भी मरकर विदेहाके शरीर में आया । जानकी के साथ, युगल उत्पन्न हुआ मैं देवके द्वारा ले जाया गया। मैं वनमें फेंक दिया गया। परन्तु मुझे काँटा भी नहीं
SR No.090354
Book TitlePaumchariu Part 2
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages379
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size6 MB
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