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एकचालीस संधि
वह ये सब अपने माथेपर लेंगे। और भी यह समूचा अलंकार, हार और डोर सहित अन्तःपुर हैं, जो नित्य प्रसाधित और शोभित तिलक अठारह हजार श्रेष्ठ स्त्रियाँ हैं, इन सबकी तुम परमेश्वरी हो । हे सुन्दरी, असामान्य राज्य करो। रावणको छोड़कर और कौन अच्छा है । रावणको छोड़कर और कौन शरीर से कामदेव है । रावणको छोड़कर और कौन शूरवीर, शत्रुसेनाका नाश करनेवाला और कुलाशाको पूरा करनेवाला है ! रावणको छोडकर दूसरा कौन बलवान् है, कि जिसने सुरवरसमूहको प्रतिस्खलित कर दिया। रावणको छोड़कर और कौन भला हैं कि जो त्रिभुवन में अकेला मल्ल हैं। रावणको छोड़कर दूसरा कौन सुभग है कि जिसे देखकर काम भी दुभंग है ? कुब arra समान दीर्घ नेत्रवाले लंकेश्वर दशाननकी तुम महादेवी बन जाओ और समस्त धरतीका भोग करो" ॥१- ११ ॥
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[१२] उसके उन कटु वचनोंको सुनकर, रावण और अपने जीवनको तिनकेके बराबर समझकर झील के बलसे बलवती बड़ जरा भी नहीं काँपी | क्रुद्ध होकर वह निष्ठुर वचन बोली"हाहा, तुमने क्या-क्या कहा। उत्तम स्त्रियोंके लिए यह उपयुक्त नहीं है । तुम्हारे द्वारा रावणका दूतत्व कैसे किया जा रहा है, इससे जैसे मुझे हंसी आती है। शायद तुम किसी परपुरुषमें इच्छा रखती हो, उसी कारण मुझे यह दुर्बुद्धि दे रही हो । उस यारके सिरपर बज्र पड़े। मैं अपने पति भक्ति रखती हूँ ।" सीता के बचन सुनकर मन्दोदरीका मन काँप गया, निशाचरनाथको वह पत्नी बोली, “यदि तुम महादेवी पट्टकी इच्छा नहीं रखती, यदि लंकाराजको किसी भी तरह नहीं चाहती तो आकन्दन करती हुई तुम करपत्रोंसे तिल-तिल काढी जाओगी, और भी एक मुहूर्त में विभक्त कर निशाचरोंको सौंप दी जाओगी ।।१-२॥