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________________ ३19 एगुण चालोसमो संधि ३१ घिनौना है ॥१-५॥ [८] उस वैसे रस, वसा और पीपसे भरे हुए देहरूपी घरमें ( जीवको ) नौ माह बसना पड़ता है। जहाँ नवनाभिरूपी कमल उभरता है (नरा ) पहला शरीरसम्बन्ध वहीं होता है। दस दिन तक रुधिररूपी जल में रहता है, उसी प्रकार, जिस प्रकार धरतीपर कण पड़ा रहता है। फिर बीस रातमें वह अंकुरित होता है, मानो जल में फेन उत्पन्न हुआ हो, तीस रात में वह बुद्बुद बन जाता है, मानो केशरमें बफकण जम गया हो। चार दिन में उनका विस्तार दोसा, जैसे पालका अंकुर निकल आया हो। पचास दिनमें बह मुड़ता है तो जैसे मानो चारों ओरसे सूक्ष्म जमीकन्द फल गया हो। फिर सौ दिनमें कर, चरण और सिर बनते हैं, फिर चार सौ रातोंमें शरीर स्थिर होता है, इस प्रकार नौ माह में शरीरसे बाहर निकल आता है । और बड़ा होकर उलटा उसे भूल जाता है । यह मनुष्य जिस द्वारसे आता है, उसे भी वह छोड़ नहीं सकता। पंक्ति में जुते हुए बैल की तरह वह भवसंसारमें भ्रमण करता हुआ थकता नहीं है ।।१-१०॥ [९] यह जानकर अपनेको धीरज दो। हाथका कंगन और दर्पण देखो। चार गतिबाले संसारमें घूमते हुए, आते हुए, उत्पन्न होते और मरते हुए, जीवके द्वारा जगमें कौन नहीं रुलाया गया, किसके द्वारा भारी धाड़ नहीं छोड़ी गयी। कौन कहाँ बिलकुल नहीं सताया गया। किसने कहाँ आपत्ति नहीं पायी । कौन कहाँ नहीं दग्ध हुआ, और कौन कहाँ मरा नहीं ? किसने कहाँ भोजन नहीं किया और कहाँ सुरति नहीं की। इस प्रकार जगमें जीवसे कुछ भी बाहर नहीं है। खाते हुए उसने त्रिलोक खा डाला और जलते हुए समस्त धरती जला डाली। पीते हुए समुद्र पी डाला, और रोते हुए आँसुओंसे
SR No.090354
Book TitlePaumchariu Part 2
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages379
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size6 MB
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