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________________ 1 वाषीसमो संधि २१ हे भाई, मेरे अनुरोधसे पृथ्वी ले लो।" तब इस प्रकार कहते हुए अनेक महायुद्धोंका निर्वाह करनेवाले क्षीर समुद्रके समान निर्मल तथा सुमेरुपर्वत के समान अविचल रघुसुत रामने लोगोंके देखते-देखते ऐरावतकी सूँड़के समान प्रचण्ड अपने भुजदण्डों से भरत के सिरपर पट्ट बाँध दिया ॥ १-२ ॥ तेईसवीं सन्धि मुनिसुव्रत तीर्थकरके उस तीर्थ में राम और रावणका जो युद्ध हुआ जनोंके कानोंके लिए रसायन जस रामायणको सुनो। i [१] आदरणीय ऋषभ जिनको प्रणाम कर मैं पुनः काव्यके ऊपर मन करता हूँ । जगमें जिन्होंने शब्दार्थ और शास्त्रोंको मर्दित (पारंगत) कर रखा है, ऐसे सज्जन और पण्डित लोगों के चित्तको क्या ग्रहण किया जा सकता है ( प्रसन्न किया जा सकता है) कि जो व्याससे द्वारा भी रंजित नहीं हुए । तो फिर हम जैसे चिल्लानेवाले व्याकरणसे हीन लोगों के द्वारा उनका क्या प्रहण ( मनोरंजन ) होगा ? कवि अनेक भेदोंसे भरित हैं, जो सुजनोंके कथनों चकलक कुलक स्कन्धक पवनोद्धत रासालुन्धक मञ्जरीक विलासिनी नक्कुड़ शुभ छन्दों, खडखड शब्दों (??), से सम्मानित हैं। मैं मूर्ख अपने मनमें कुछ भी नहीं जानवा; फिर भी लोगों में मैं अपनी बुद्धि प्रकाशित करता हूँ | जो समस्त त्रिभुवनोंमें विस्तृत हैं उस राघवचरितको मैं आरम्भ करता हूँ । भरतको राजपट्ट बाँधे जानेपर, महायुद्धों का निर्वाह करनेवाले राम अयोध्या नगर छोड़कर, वनवासके लिए चल दिये ॥१-१०॥
SR No.090354
Book TitlePaumchariu Part 2
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages379
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size6 MB
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