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१८.
पडमचरित
रामायणही मज्ने गउ रामणु। भीम-सरीरु ण मीमु भयावणु ॥५॥ तेण विमुक सचि गोविन्दहीं। हिमवन्तें गङ्ग समुददों ॥३॥ धाय धगधगन्ति समरङ्गो। तडि तडयन्ति णह-भक्षण ॥७॥ सुरवर पहें वोल्लन्ति परोप्पर । 'एण पहारे जीवह दुकर' ॥६॥
घत्ता एश्यन्तरें कहें जय-अस-सण्हें धरिप सन्ति पहिण-करेण । संकेयहाँ दुको थाणहाँ चुकी णाषइ पर-तिय पर-परेण ॥९॥
[ २ धरिम सत्ति जं समरें समाथें । मेलिब कुसुम-वासु सुर-सस्थं ॥११॥ पुण्णिम-नाम्दु रुन्द मुह-सोमहँ। केण वि कहिउ गम्पि जियपोमहे ॥२॥ 'सुन्दरि पेषल पेकखु जुजमन्त। गोषी का घि मणि परइसाहों ॥३॥ जा उ ताएं सन्ति विसज्जिय। लाग हर) असइ प्वालजिय ॥४॥ गर-ममरेण पण अकलाउ। पर सुम्वेवळ तुह मुह-पकड' ॥५॥ संणिसुणेप्पिशु विसिय-वयणएँ। णष-कुवलय-दल-दीहर-पायणएँ ॥५॥ आल-गवास जो अन्तर-पड। णाई सहरमें फेडिउ मुह-बहु ॥७॥ लक्षणु जयण-कसविस्थउ कम्पाएँ । णं जुग्मन्तु णिवारिउ सपणएँ ॥४॥ ताम कुमार दिदा सुदंसणु । धवलहरम्बर मुह-समलम्छणु ॥५॥ सुह-पक्वते सुनोगे सुहकमा पयणामेलउ जाउ परोप्परु ॥ १०॥
घत्ता एस्थन्तरे दु? मुशार हु अण्णेक सत्ति पारेण । संधि परिय सरा, वाम-करग्गै णावह णव-बहु णव-वरण ॥११॥