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________________ छन्वीसमो संधि छब्बीसवीं सन्धि लक्ष्मण और रामके धवलोज्वल श्याम शरीर एकाकार हो गये, मानो गंगा और यमुनाके जल हों। [१] पुलकित शरीरवाले उन दोनोंने एक दूसरेको सहर्ष आलिंगन देकर प्रणाम करते हुए सिंहोदरको बैठाया और तत्काल वजकर्णको बुलाया। नरकरोंके साथ वह इस प्रकार निकला जैसे देवोंसे घिरा हुआ इन्द्र हो। उसके पीछे विधुदंग चोर ऐसा शोभित हो रहा था, मानो सूर्यके पीछे प्रतिपदाका चन्द्रमा हो । वे ईटोंकी पंक्तियों और ध्वजोंसे धवल सहन्नकूट गये और जिनालयको पाट हुम् । चारों दिशाओं में नीन बार प्रदक्षिणा देकर, फिर वे आदरणीयके लिए अभिवन्दना करते हैं। उन प्रियवर्द्धन मुनिको प्रणाम कर तथा कुशल पूछकर रामके पास बैठ गया । सुभदोंका नाश करनेवाले रामने दशपुरके राजाको साधुवाद दिया। हे राजन् , सत्य मिथ्यात्वके तीरोंसे नष्ट नहीं होता, परन्तु दृढ़सम्यक्त्वमें तुम्हारी उपमा तुम्हीसे दी जा सकती है।।१-२|| [२] यह सुनकर राजा वकाकर्ण बोला, "मेरा यह सब आपके प्रसादसे है।" फिर, जिनका नाम त्रिलोकमें विख्यात है, ऐसे रामने विद्यदंगकी प्रशंसा की, "हे दृढ़, कठोर एवं विकट वक्षस्थलवाले साधर्मी वत्सल, साधु-साधु । तुमने यह सुन्दर काम किया जो राजाकी रक्षा की। युद्ध में होते हुए भी तुमने उपेक्षा नहीं की।" तन इस बीच कुमारने कहा, "कि बहुत विस्तारसे कहनेसे क्या? हे विश्वगतिके पुत्र, जिनवरके चरणकमलोंके अमर दशपुर नरेश, जो स्खल, क्षुद्र, पिशुन, मत्सरसे भरा हुआ यह सिंहोदर पकड़ा हुआ है, इसे क्या मैं मारू, तुम स्वयं क्या मारोगे? नहीं तो दया कर इससे सन्धि कर लो।
SR No.090354
Book TitlePaumchariu Part 2
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages379
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size6 MB
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