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________________ तेवीसमो संधि उठी। सन्ध्या ढल गयी फिर रात्रि आयी, मानो वह सोते हुए महान् विश्वको निगलती है। कहीं वह सैकड़ों दीपोंसे प्रबोधित ( आलोकित ) नागमणिकी तरह प्रज्वलित होती हुई शोभित है। उस अत्यन्त दुर्गमकालमें रात्रि में चन्द्रमाका उदय होनेपर वे चल पड़ते हैं । महाबली वासुदेव और बलदेव ( दोनों ) समानधर्मा, साधर्मी जनके प्रति वात्सल्यभाव रखनेवाले, युद्धभारका निर्वाह करनेवाले स्वयं वानरहित, साधन और प्रसाधनसे शून्य निकल पड़े। जिससे प्रतोलि निकल चुकी है, ऐसी खाईको पारकर वे उस सिद्धकूट जिनभवनमें पहुँचे कि जो प्राकारों और द्वारोंसे विस्फुरित था, जो पोथियों, शास्त्रग्रन्थोंसे भरा हुआ था । गंगाकी लहरोंके समान रंगमें सफेद था, हिमगिरि कुन्द, चन्द्र और यशके समान निर्मल था। उस सिद्धकूट भवनके चारों ओर अनेक प्रकार के महावृक्ष दिखाई दिये, मानो वे संसारके भयसे जिनवरकी शरण में चले गये थे ॥१-१२ ।। . ४१ [१०] भवनेश्वर के उस भवनको देखकर उन्होंने जिनवरको पुनः प्रणाम किया, "रागद्वेष (क्रोध) का नाश करनेवाले आपकी जय हो । हे कामका नाश करनेवाले त्रिभुवनश्रेष्ठ, आपकी जय हो । क्षमा, दम, तप, व्रत और नियमका पालन करनेवाले, आपकी जय हो । पापके मल, क्रोध और कषायका हरण करने वाले, आपकी जय हो । काम, क्रोधरूपी शत्रुओंका दलन करनेवाले, आपकी जय हो । जन्म, जरा और मृत्युको पीड़ाका हरण करनेवाले, आपकी जय हो। हे तपवीर और विश्वहित, आपकी जय हो; हे मनकी विचित्र करुणासे सहित, आपकी जय हो। हे धर्मरूपी महारथकी पीठपर स्थित, आपकी जय हो । सिद्धिरूपी वरांगनाके लिए अत्यन्त प्रिय, आपकी जय हो । संग्रमरूपी गिरिशिखर से उगनेवाले, आपकी जय हो । इन्द्र,
SR No.090354
Book TitlePaumchariu Part 2
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages379
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size6 MB
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