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पउमचरिय
मुकुसुम दुग-जहाँ । of सुकु भवि भव-सागरहो ।
" खुद्द पिसुण तड सिर-कमलु । परि वालिखिल्लु सुऍ वदि कहु । संणिति णिविस मुक्कु पहु । चतु
पुरुडेण चुक्कु णचिड बस्छु ॥३४ यो जीवन्तु ण जाहि महु ॥४ णं जिणदरेण संसार-पहु ॥५॥ उगम || ६ ||
णं
वारणु वारि-विम्वणहीं ॥७॥ ति वालिखिय दुक्खीयरहों ॥
घन्ता
ते भुत्तिक-महुमहण सहुँ कुब्बर-चिंग चयारि जण । थिय जाण तेहिं समाणु किड घउ-साथर परिमिय पुइ जिह ॥ ९ ॥
सहूँ हथे च समुद्वषिय | भरोंपादक वे वि श्रविय । उत्तिण तिष्णि वि महिहरहों ।
मेरुणियम्व किण्णरहूँ ।
विष्णु खेवं ताब पराइयहँ । वरुणहरु रवियर सावियउ |
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तो बालिखिल- विष्झाहिवड़
अवरोप्यरु णेह - णिवब-मह ॥ ३11
कम-कमले हिँ णिवडिय लहरों । णमिचिणमि जेम चिरु जिणवरहो ॥ २ ॥
उहि समहिं परिचिय || ३ || लहु जिय-जिय-पिलयहुँ पट्टषिय ॥३॥ णं मवियहूँ अब दुक्खोबरहीं ॥५॥ of साहों चवियाँ सुरवरहूँ ॥ ६ ॥ किर महिलु पियन्ति तिसा हूँ ॥७॥ सुकुम्बुवखळ संतावियउ ||८||
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