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________________ सत्सवीसमो संधि १२३ रोक दिया गया हो। मत्सरसे भरा हुआ लक्ष्मण बार-बार बोला-'हे खल क्षुद्र दुष्ट, तेरा सिर कमल केवल इतनेसे बच सका है कि जो तूने रामको नमन किया । तू बन्दी वालिखिल्यको शीघ्र छोड़ दे नहीं तो तू भी मुझसे जीवित नहीं जा सकता।" यह सुनकर पलमात्रमें राजाको छोड़ दिया गया । मानो जिनेन्द्रने संसार पथ छोड़ दिया हो, मानो राहुने चन्द्रमाको छोड़ दिया हो, मानो गरुड़पक्षीने साँपको छोड़ दिया हो, मानो दुर्जन समूहने सजनको छोड़ दिया हो, मानो द्वार निबन्धनसे हाथी छोड़ दिया गया हो। मानो भव्य संसारसमुद्रसे छोड़ दिया गया हो, उसी प्रकार वालिखिल्य दुःखके मध्यसे मुक्त हो गया। रुद्रमुक्ति राम और लक्ष्मण, कूबर नरेशके साथ चारों लोग वहाँ स्थित थे। उनके साथ जानकी ऐसी प्रतीत होती थी, जैसे चार समुद्रोंसे धरती घिरी हुई हो ।।१-९॥ . [११] तब एक दूसरेपर स्नेहसे जिसकी बुद्धि निबद्ध है ऐसा विन्ध्याचलका राजा वालिखिल्य रामके चरणकमलोपर गिर पड़ा, उसी प्रकार जिस प्रकार नमि विनमि, ऋपभ जिनवरके चरणों में गिर पड़े थे। रामने स्वयं उसे अपने हाथसे उठाया, और उसे उसी प्रकार स्थापित कर दिया, 'जिस प्रकार मर्यादा समुद्रको स्थापित करती है। उन दोनोंको उन्होंने भरतका सेवक बनाया । और शीघ्र ही अपने-अपने घर भेज दिया। वे तीनों पहाड़से इस प्रकार उतरे मानो भव्य भवदुःखोदरसे निकल आये हो, मानो मेरुनितम्बसे किन्नर निकल आये हों, मानो स्वर्गसे देव च्युत हुए हों, बिना किसी विलम्बके वे ताप्ती नदीके किनारे पहुँचे। प्याससे पीड़ित वे वहाँ पानी पीते हैं कि जो सूर्यको किरणोंसे नव-उष्ण था, दुष्टोंके द्वारा सताये गये अच्छे कुटुम्बकी भाँति था। दिनकरकी श्रेष्ठ किरणोंसे
SR No.090354
Book TitlePaumchariu Part 2
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages379
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size6 MB
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