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पउमचरित
घत्ता
दिणयर-वर-किरण-झम्बियउ जलु देवि भुएँ हि परि-चुम्बियउ । पहसन्तु भावह मुहहाँ किह अगाणही जिणवर-वयणु सिह ॥१॥
[१२] पुणु मावि तरेप्पिणु णिग्गथई। तिष्ण मि विजा-महागाई ॥ १ ॥ वइदेहि पजम्पिय हरिवनहीं। सुरवस्करि-कर-धिर-कस्यक हो ॥२॥ 'जलु कहि मिगवेसहाँ णिम्मलउ । जं सिसहरु हिम-ससि-सीयका ॥३॥ सं इमामि भविउ व जिग-वय । जिविण जसाधु शु' !! चलु धोरइ 'धीरी होहि घणे। मं कायरु मुह करि मिगणय' ॥५॥ थोषन्तक पुणु विहरन्तएँ हि मल्हन्सें हिं पउ पउ देतऍहि ॥६॥ लक्षिलाइ अरुणगामु पुर। वय-बन्ध-विहसि मिह मुरउ ॥७॥ कप्पद्रुमो व चरिसु सुहलु। णावर व णाडय-कुम्पलु ॥८॥
पत्ता
तं अरुणगामु संपाय मुणियर इव मोक्ष-तिसाइयइँ । सो गउ अणु जेग ण दिहाई धरु कवितहों गम्पि पइट्ठाई ॥१॥
[१३] णिज्झाइउ तं घर दियवरहीं। णं परम-धाणु थिरु जिणबरही ।।१।। गिरफ्नु पिरक्खरु केवलउ। णिम्माशु णिरक्षणु णिम्मलउ ||२|| णिवरधु णिरत्थु पिराहरणु।। णितणु मिसउ णिम्महणु ॥१॥ तहि सेहर भषण पइट्ठा। छुडु जलु पिऍषि णिविठ्ठाई ॥४॥ कुअर इव गुहें आवासियई। हरिणा इव वाहुतासियई ॥५॥