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________________ १२५ सप्तमीसमो संधि मिश्रित जल लेकर उन्होंने हाथोंसे चूमा, परन्तु प्रवेश करता हुआ वह मुखको उसी प्रकार अच्छा नहीं लगता, जिसप्रकार कि अज्ञानी व्यक्तिको जिनपरके वचन अच्छे नहीं लगते ॥१-५|| [१२] फिर ने नाशीको पार कर व दिने, कोपीनों ही, विन्ध्य महागज हों। ऐरावत महागजकी सूड़के समान स्थिर करतलवाले लक्ष्मण और रामसे सीता बोली-“कहीं भी स्वच्छ पानीकी खोज करो जो प्यास बुझानेवाला और हिमचन्द्रकी तरह शीतल हो। मैं उसे उसी प्रकार चाहती हूँ जिस प्रकार भव्य जिनवचनको चाहता है, निर्धन निधिको और जमान्ध नेत्रों को।" रामने उन्हें धीरज दिया-हे धन्ये, तुम धैर्य धारण करो, हे मृगनयनी, तुम अपने मुँहको कायर मत करो? थोड़ी दूरपर, विहार करते हुए, प्रसन्नतापूर्वक कदम रखते हुए, अरुण प्रामको इस प्रकार देखा जैसे वयबन्ध' ( उद्यान और चर्म )से विभूषित मुरज हो, वह कल्पवृक्षकी तरह, चारों दिशाओं में सुफल था, नटकी भाँति नाटकमें कुशल था। मोक्षकी सृषासे व्याकुल मुनिवरोंके समान वे उस अरुणग्रामको पहुंचे। वहाँ एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं था जिसके द्वारा वे देखे न गये हों। वे जाकर कपिल द्विजके घर में घुस गये ॥१-५॥ [१३] उन्होंने ब्रामणके उस घरको इस प्रकार देखा, मानो जिनधरका स्थिर परमस्थान हो। वह घर निर्वाणकी तरह, निरपेक्ष निरक्षर केवल ( केवलज्ञान सहित, अकेला ) निर्मान, निरंजन ( अहंकार गौरवसे रहित, पाप, अलिंजरसे रहित) निर्मल, निर्वस्त्र, निरर्थ, निराभरण, निर्धन निर्भक्त ( भक्ति, भोजनसे रहित ), निर्मथन ( विनाशसे रहित ) था। उस वैसे भवनमें उन्होंने प्रवेश किया । और शीघ्र ही पानी पीकर बाहर निकल आये। गुहामें रहनेवाले हाथी अथवा ध्याधासे त्रस्त हरिणकी तरह उब तक वे पक क्षण बैठते हैं, तबतक कुपित
SR No.090354
Book TitlePaumchariu Part 2
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages379
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size6 MB
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