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________________ २७० सेत्तीसमो संधि [४] यह सुनकर राजा वहाँ गया कि जहाँ वह महामुनि-संघ ठहरा हुआ था। उसने कहा-"अरे, मुनिवरो! अपण्डित, अज्ञान परमाक्षरो ! तुम स्वयं परमात्मा बनकर स्थित हो। तुमने किस लिए यह मुनि-वेष बनाया ? अत्यन्त दुर्लभ मनुष्यशरीर पाकर किस कारण अपना विनाश करने में लगे हो । परम मोक्षगमन किसका ? अच्छा है यदि सुन्दर तरुणीजनको मानो | तुम्हारे ये सुन्दर कान्तिवाले अंग, सोलह आभूषणोंके पहनने के योग्य हैं। विस्तीर्ण ये कटितल। अश्व-ज-रथ आदि वाहनोंके लिए समर्थ हैं। इस प्रकार तुम्हारा लावण्य रूप और यौवन निष्फल गये। लोकमें प्रसिद्ध एक भी बात तुमने नहीं की। माता-पिताका सब कष्ट व्यर्थ गया" ॥१-५|| [५] तब मोक्षरूपी वृझके फलको बढ़ानेवाले मतिवर्द्धन मुनिने कहा--"तुम अपनेको विडम्बित क्यों कर रहे हो । सुखदुःस्वसे सने बैठे रहो । किसका घर, किसके पुत्र-कलन ? ध्वजचिह्न-चमर और छत्र । विमान सहित योग्य यान, रथ, अश्व, महागज और दुर्ग, धन-धान्य, जीवन, यौवन, जल-कीड़ा, पान और उपचन, आसन, धरती और वन, ये किसीके सहायक नहीं होते। इनके द्वारा बहुत-से विदीर्ण हुए हैं, लाखों पण्डित मारे गये हैं। हजारों सुरपति गिराये गये हैं । सैकड़ों चक्रवर्ती उखाड़ दिये गये हैं। ये और दूसरे भी, काल के द्वारा कवलित हुए हैं। लक्ष्मी किसीके भी साथ एक कदम नहीं गयी" [१-९॥
SR No.090354
Book TitlePaumchariu Part 2
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages379
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size6 MB
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