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संणि विरचइ गयउ तहिँ । श्रवासिड महरिसि सम्धु जहिं ॥१॥ वोलाषिय अह "अहो मुणिवरतें। अहहाँ क्याण- परमक्खरहों ॥२॥ परमप्पड अप्पर होषि धिउ । कण केण रिसिवेसु किउ ॥ ३ ॥ अदुल कहें विभशुभसण | के कब्जे विणों अध्पणउ ॥४॥ कहाँ करेड परम-मोक्ष-गमणु । वरि माणिक मणहरु तरुणिषंणु ॥ ५ ॥ सच्छा आय अङ्गहूँ । stee - आहरणाई जोगाएँ ॥ ६ ॥ विष्णिहूँ आएँ डियरूहूँ । हय-गय-रह-वाहण-पचल ॥७॥ सायण रुवई जोग्वणहूँ । फिल हूँ गहूँ तुम्हहँ त ॥८॥
घमचरिउ
धत्ता
सुपसिद्ध होऍ एकेदिवस कल | पुन्हाण किसेसु सयल गिरस्थ गठ" ॥९॥
तो मोक्ष-रुख़-फल-बद्रणेण । "पइँ अप्प का विनय | कहीं वरु कहो पुत कळताहूँ । स- विमाण जाणहूँ जग्गाई । वणवण्ण हूँ बीषिय जोब्बणहूँ ।
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सण वसुन्धरि घजाई । आयहिं वहुहिं बेयारिय हूँ । सुरवहिँ सहासई पाडिया हूँ ।
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महिपालु युत्तु मइव ॥१॥ अच्छहि सुह-मुषख- करयिउ ||२|| धय चिन्ध चामर छता हूँ ॥ ३ ॥ रह तुख्य- महकाय- दुग्गाई || ४ || जठ फील्ड पाहूँ उबवण ॥५॥
कासु विहन्ति आएँ ॥ ६ ॥ वस्माहँ लक्ख मारियहूँ ||७|| चव - विडियइँ ||८||
घत्ता
एव अपरे व काळे कवलु किय ।
लिय कहीं समाणु एक्कु षि पउ ण गय" ॥९३॥
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