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परमचरित
[५] जो सखद ण चवह कापुरिसु। सो जीवई अण्णव सिण-सरिसु ॥१॥ जो पर पर-दग्बु ण अहिलसह। सो उत्तिम-सम्ग-लो घसइ ॥२॥ जो घइ रतिक्षिण मुढ-मणु । चोरम्मु ण धकाइ एकु खणु ॥३॥ सो हम्मइ छिज्जा मिखा घि। कपिजह सूले मरिज वि ।।४।। जो दुबरु वम्मचेर धरह। वहाँ जमु आक्टूड किं करइ ॥५॥ ओ धइँ नै जोणि चारु रमइ। सो पकएँ भमरु जेम मरह जो करइ णियित्ति परिग्गहहौँ। सो मोक्यहाँ जाइ सुल्नु वहाँ ७॥ जो घर अधिगहु परिगहों। सो जाइ पुरहों समतमपहा ॥६॥
वत्ता अहबइ णिणिजइ केसिड एककहाँ वयहाँ फलु एसिड । जो घइँ पञ्च वि धरइ बगाई तासु मोक्नु पुरिछाइ काइँ ॥२॥
[६] फलु पत्तिउ पञ्च-महम्चयहीं। सुणु एहि पञ्चाणुञ्चयही ।।१।। जो करह पिरन्तर जीव-दया । पविरल असच्चु सम्बट मि सया ॥२॥ किस हिस अहिंस सत्तरिय । ते णरय-महाण-उत्तरिय ॥३॥ जे पर स-दार-संतुट्ठ-मण । परहण-परणारा-परिहरण ॥४॥ अपरिग्गाद-दाण-करण पुरिस । है हेन्सि पुरन्दर-समसरिस ॥५|| फल एत्तिट पञ्चाणुग्वय हुँ। सुशु एहि तिहि मि गुणवयहुँ ॥१॥ दिस-पचक्लाणु पमाण-बउ । खल-संगहु जासु पा वढियउ ॥७॥
घत्ता
इप तिहिं गुणवएहिं गुणवन्त अच्छष्ट सग्गे सुहई भुअन्तउ। मासु ण लिहि मि मौं एडवि गुण तहाँ संसारहों केज' कहिं पुश ॥६॥