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पउमचरिउ
जहि जलु चन्दकन्ति- णिज्झरण हिं । सुप्पर पडिय - पुष्क- पत्थर हिं ३ ॥
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जहिं णेवर - शङ्कारि-चलणेंहि । जहिं परसाय सिहरें हिसिज्ज तहि सुहमइ - शामेण पहाण पिसिर तो महणुनि मनोहर । दणुता दो उपजइ ।
रम्भइ अक्षण-पुष्फ-क्खहिँ ॥४॥ तेन मिचव किंसु किन्नर ॥५॥ णं सुरपुरहों पुरन्दरु रामउ ॥ ६ ॥ सुरकरि-कर कुम्भयल पोहर १७॥ केकय तय काहूँ वणिजइ ॥ ८ ॥
सयल कला कलाय संपण्णी । णं पशक्ल लच्छी अचरणी ||१||
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ता सम्म मयि वर हरित ।
पाइँ समुद्र-महासिरिह थिय जलवाहिणि प्रवाह समुह ॥ १०॥ ॥
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सो करेणु आरचि विणिग्य देवखन्तहुँ णरवर संघाय हुँ । चिच माल दससन्दण णामहीं सहिं अवसरे विरुद्ध हरिवाहणु । 'करू आहणही कण्ण उद्दालहों । सुरुमइ रहु-सुए विण्णप्पद । माँ जयन्तं अणरजहाँ पन्दणें केक पुरहिं करेपिणु सारहि ।
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घत्ता
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णं पक्ख महासिरि- देव ||१||
भूगोयर विज्जाहर रायहुँ ||२|| मणहर गइऍ रद्दऍ णं कामहों ॥ ३॥ श्राइउ 'छेटु' भणन्तु स साइणु ॥१ ॥ रथनहूँ जेम तेम महिपालहों ||५|| 'धीरज होहि माम को चप्प || ६ || एउ भणेवि परिलिङ सन्दर्णे ॥७॥ तहिं पयट्टु जहिं सयल महारहि ||८||
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धत्ता
तो वोलिज दसरण 'तूरयर- णिवास्थि-रवियरहूँ | राषि
हि पियऍ पय-छत्तएँ जेत्धु फिरन्तर हूँ ।। ९ ।।