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पंचतीसमो संधि
२१९ हम लोगोंसे ऐसा न कहिए, कि जिस प्रकार नैयायिकोंके साथ उपहास किया जाता है। हम अस्ति और नास्ति, दोनों पक्षोंको स्वीकार करते हैं। तुम्हारे समान झणिकवादसे इम भग्न नहीं होते।" यह सुनकर दानवों का नाश करनेवाला ण्डक राजा कहता है कि तुम्हारा श्रेष्ठ पक्ष जान लिया। है, नहीं है, में नित्य सन्देह है। फिर धवल, फिर श्यामल शरीर, फिर मतवाला हाथी और फिर सिंह । अत्रिय, वैश्य, ब्राह्मण और शूद्र । इसपर भट्टारकने कहा, "विस्तारसे क्या ? एक चोरको तलवारने बहुत समयसे पकड़ रखा है। ग्रीषा, मुख, नाक, आँख द्वारा गवेषित सिर ले लेनेपर भी कहीं दिखाई नहीं देता ॥१-९॥
[७] अथवा इस सन्देहसे क्या? निःसन्देहभावसे अस्ति भी है, और नास्ति भी है। जहाँ अस्ति है वहाँ अस्ति कहना चाहिए, और जहाँ 'अस्ति' नहीं है, वहाँ नास्ति कहना चाहिए। स्वतन्त्रतासे राजाने विचार किया। उसने जैनधर्म स्वीकार कर लिया। उसने पाँच सौ साधुओंको आश्रय दिया, और प्रेसठ शलाका पुरुषों के चरित सुने । तब इसी बीच दुर्नयोंकी स्वामिनी, जन-मनको अच्छी लगनेवाली रानी आधे पलमें कुपित हो गयी। उसने अपने बड़े पुत्र मयवर्धनसे कहा कि राजा जिनेश्वरका भक्त हो गया है। तो अच्छा है कि कोई मन्त्र (उपाय) किया जाये, जिनमन्दिर में सब धन इकद्रा कर दिया जाये, जिससे राजा उसकी खोज करायेगा और पाँच सौ ही सावुओंको मरवा देगा ॥११॥
[4] एक दिन उसने वैसा ही करवाया। जिनमन्दिरमें सब धन इकट्ठा करवा दिया। मयवर्धनने राजाले कहा"तुम्हारा खजाना मुनियोंने हर लिया है ।" इस कथनसे राजा दण्डक हँस पड़ा और बार-बार उसने सिंहनादमें कहा"विश्वास करो कि शैलशिखरपर कमलपत्र होते हैं, विश्वास