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पउमचरित पतिवण्णएँ तहिं तेहऽवसरें। बदन्तएँ गुरु-उनसम्ग-भरें ॥११॥ तुम्हह में पहा सट्टाह। असुरई धणु-रवण पणहाई ॥१२॥
पत्ता तो अम्हह वपु कालन्तरण मुउ । सो दीसह पत्थु गारटु देउ हुउ ॥१३॥
[१४] तो गर परिश्रोसिय-मणण! वे विजउ दिपणउ तफ्षणेण ॥१॥ राहवहाँ साहबाइणि पछर। लपवणहाँ गरबाइणि अवर ॥२॥ पहिलारी सत्त-सएँ हिं सहिय । अशुपच्छिम तिहि स हि अहिय ॥३॥ तो कोसल-सुऍण सु-दुलहॅण। कुछइ वहदेही-बल्लहण ॥४॥ 'अच्छन्तु साव तुम्हहुँ जें घर। भवसर पडिवपणे पसाउ फरें ॥५॥ सहुँ गरु समासणु करें वि। गुरु पुग्छिन पुणु चलण हि धरवि ॥६॥ 'अम्हहुँ हिण्डसहुँ धरणि-बाहे। जं जिम होसइ त तेम कह ॥७॥ कुलभूसणु अक्खह हलहरहीं। 'बलु को चि पाहिण-सायरहों ॥८॥
धत्ता मंगाम-सया विहि मि जिणेवाई। महि-खण्ड सिणि स ई भुजेवाइँ ॥१॥
चउत्तीसमो संधि
कैवलें केवलीहें उप्पपणएँ घरविह-देव-णिकाय-पवण्याएँ। पुष्छद रामु महावय-धारा 'धम्म-पाव-फलु काहि भवारा "