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________________ पंचतसभो संधि २३७ तरह अविचल एवं दुर्भाह्य उन्हें देखकर वह महाबली एकदम कुछ हो उठा । "आज अवश्य अपशकुन और अमंगल क्षेना।" यह कहते हुए एक साँप मारकर क्रोधसे मुनिवरके गलेमें डालकर, जब राजा अपने नगर गया तभी मुनिवर यह निरोध ( निश्चय या प्रतिक्षा ) करके बैठ गये कि जबतक कोई इसे नहीं हटाता, तबतक मैं अपने हाथ ऊँचे किये हुए स्थित हूँ । जब एक और दिन राजा यहाँ आया, उसने उन आदरणीयको वहीं देखा । गलेमें बँधा हुआ साँपका शत्रु कण्ठाभरणके समान शोभित था ॥ १-९॥ [५] जब उसने उन मुनिसिंहको अविचल देखा तो विषधरकी उस कण्ठामंजरीको हटाकर उसने कहा - " हे तपनेश्वर परमेश्वर ! बोलो तपश्चरणसे क्या ? शरीर क्षणिक है और जीव क्षणमात्र है जिसका तुम ध्यान करते हो, वह अतीत हो गया । तुम भी क्षणिक हो, आज भी तुम्हें सिद्धत्व प्राप्त नहीं है। इसका क्या प्रमाण है, और क्या लक्षण हैं ?" राजाने जो कुछ कहा यह सब व्यर्थं था। सुनिवरने नयवादसे कहना प्रारम्भ किया, "यदि तुम उसी पक्षको बोलोगे तो तुम क्षण शब्दका भी उच्चा रण नहीं कर पाओगे ? 'क्षकार' भी क्षणिक होगा और णकार भी, इस प्रकार 'क्षण' शब्द का उच्चारण दिखाई नहीं देता । अघटित, अघटमान और अघटन्त ( घटित नहीं हुआ, घटित नहीं होता हुआ, घटित नहीं हो रहा ), क्षणिक, क्षणिकके द्वारा क्षणान्तर मात्र रह जायेगा । शून्य वचन और शून्यासन, इस प्रकार बौद्धोंका सारा शासन व्यर्थ हैं" ॥१-८॥ [६] क्षण शब्द से निरुत्तर होकर राजा दण्डकने फिर कहा - "यदि जो दिखाई देता है वह सब हैं तो तपश्चरण किसके लिए किया जाता है ।" यह सुनकर कवियों में श्रेष्ठ और वादियोंके लिए वागीश्वर मुनिराजने कहा - "हे राजन् !
SR No.090354
Book TitlePaumchariu Part 2
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages379
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size6 MB
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