SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 265
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ छसोसमो संधि ३५० रोती है। फिर दिशाएँ देखती है और फिर गिर पड़ती है। फिर पठती है, फिर कन्दन करती है, बोलती है, फिर उक्त प्रकारोंसे अपनेको आहत करती है। फिर धरती पथपर अपने सिरको पीटती है। उसके रोनेपर आकाशमें देव रो पड़ते हैं। जो वृक्ष चारों दिशाओं में अपनी शाखाएँ फैलाये हुए खड़े थे, वे मानो "हे चन्द्रनखा तुम रोओ मत" (यह कहकर) सहोदरोंकी तरह सहारा दे रहे थे ।।१-९॥ [८] फिर भी यह स्वयंको सहारा नहीं दे पा रही थी । वह रोती और बार-बार खड़ी होती हे पुत्र होशमें आओ, मुंह पोछो, हा, यह तुम भयंकर नींद में सो गये। हे पुत्र, तुम मुझसे क्यों नहीं बोलते ? हा तुमने माताको यह क्या दिमाया ? हा, तुम शीघ्र अपना रूप समाप्त करो। हे पुत्र, शीघ्र मुझसे प्रिय वचन कहो, हे पुत्र, तुमने अपने वस्त्र रक्तरंजित क्यों कर लिये ? हे पुत्र, आओ और मेरी गोदमें चढ़ो, हे पुत्र, मेरे मुँहपर अपना मुखकमल लाओ। हे पुत्र आ, और मेरा स्तन युगल पी। हे पुत्र, आलिंगन दो कि जिससे मैं वनमें बधाई नाच सकूँ। जिसे मैंने अपने पेट में नौ माह रखा, तो उस मेरे मनोरथको आज सफल करो। हे दग्ध विधाता मेरा पुत्र कहाँ, किसके पास खो ? कृतान्त तुमने यह क्या किया? हा देव किस दिशाका मैं उल्लंघन करूँ ॥१-२|| [९] आज दोनों नगरों-पाताललंका और लंकापुरका अमंगल हो गया । हा, आज बान्धवजनोंका दुःख हो गया।हा, आज रावणकी भुजा दूट गयी । हा, आज खरके लिए रोना आ गया, हा, आज सत्रुके लिए बधाई आ गयी । हा, आज यमका सिर क्यों नहीं फूट गया ? हे पुत्र, मैंने पहले ही मना किया था कि वह खड्ग किसी मामूली आदमीका नहीं है, वह केवल अर्धचक्रवर्तीका है | क्या उसीने तुम्हारा मणिकुण्डलोंसे मण्डित
SR No.090354
Book TitlePaumchariu Part 2
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages379
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy