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________________ ११७ सत्तचीसमो संधि बाली तलवाररूपी बिजलीसे चपल था। जो आहत नगाड़ोंसे गगनतलको गर्जित कर रहा था, जो सरधाराकी कतारोंसे प्रचुर जलबाला था, जो काँपते हुए धवल छत्रोंरूपी फेनसे श्रेष्ठ था। मण्डलाकार धनुषरूपी इन्द्रधनुष जिसके हाथ में था। जो सैकतों रथयोलोसेसावद था, तशा पोन चमरोंरूपी बलाकाओंकी पंक्तियोंसे विशाल था, जो बजते हुए शंखोंरूपी मेंढकोंसे प्रचुर था, और तूणीररूपी मयूरोंके नृत्योंसे गम्भीर था। ऐसे उस नवमेधको देखकर, मुंजाफल समूह के समान नेत्रवाला, ओठ चबाते हुए रुष्ट और क्रुद्धमुख तरकस बाँधे हुए, अभय, धनुर्धर, लब्धजय लक्ष्मण शीघ्र दौड़ा। शत्रुरूपी कंकालका नाश करनेवाला, रामका भाई लक्ष्मण हेमन्तकी तरह जनमनको कैंपानेवाला, सपवन ( पवन और बाणसे सहित ), सीयवर (ठण्डसे श्रेष्ठ, सीताके लिए उत्तम) वहाँ पहुँचा ।।१-९|| [५] लक्ष्मणने अपना धनुष चढ़ाया। धनुपके शब्दसे तीन हवा उठी। तीन हवासे आहत मेघ गरज उठे। मेघोंकी गजेनासे वाशनि पढ़ने लगे। जब पहाड़ गिरे तो शिखर उछलने लगे । उछलते हुए वे चले और धरती दलित होने लगी। धरती दलनसे साँपोंकी विषाग्नि छोड़ने लंगी, जो मुक्त होकर वह केवल समुद्र तक पहुँची । पहुँचते ही ज्वालाओंने चिनगारियौँ फेकी, उससे प्रचुर सीपी, शंख-सम्पुट जल उठा। मुक्ताफल धक धक करने लगे, सागर जल कड़-कड़ करने लगे। किनारों के अन्तराल हस-ह्स करके फँसने लगे, मुवनोंके अन्तराल जलने लगे। जिसने शत्रुका प्रताय और घमण्ड छुड़वा दिया है, ऐसे उस निष्ठुर धनुष शब्दसे भयभीत अस्त-व्यस्त बड़े-बड़े मनुष्य, हय, गज, ध्वज और चमर लोट-पोट हो गये। धनुषको टंकारकी हवासे आहत होकर शत्रुरूपी वृक्षवरोंके सैकड़ों टुकड़े हो गये ॥१-९॥
SR No.090354
Book TitlePaumchariu Part 2
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages379
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size6 MB
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