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पउमचरिउ
रंगम्णु सुर-पाणणासु ओरड सुण्ड वयण रोण |
धु स-विराहि पर राम ! खर-दूषण - मन्दिरें पसरेषि | साहारुण वन्धइ कहि मि रामु । रह-तिक चटके हिं परिभ्रमन्तु । गड ताम जाम जिण भवणु-दिडु
कुवारढ करहु दसाणणासु ||३|| गज एक पराइड सकखणेण ॥ ४ ॥
कामिणि जणु मोहन्तु कामु ||५|| चन्दोयर- पुत्तहीँ रज्जु देवि ॥ ६ ॥ यह देहि-विओोएँ खामुखामु ॥७॥ दहिय-विहार-मत्र परिहरन्तु ॥ ८ ॥ परिभषि अहमत
इछु ॥९॥
घन्ता
जिपत्ररु निजाऍ वि चित्ते झाऍषि जाइ पिरारिउ विलम | माहिं भाएँ हिँ थोच-सहा सें हिँ थुअउ स मं भुवणाहि
॥ १०॥
सम्बुकुमार वीरे अत्यन्तएँ । दूरोसारिये सुन्द-महवलें । पत्थएँ असुर-मल्लें सुर- डामरें। पर-वल-वल- पवाणाहिन्दोल । मुक्तकुस-मयमक-गलथल्लणें ।
एकचालीस मो संधि
खर- सण गिर्लेषि चन्दणहिहें सित्ति ण जाय । खयाल छुह रावणही पडीची धाय ॥
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खर- तूसण-संगा में समत्तम् ॥१॥ तमलङ्कार-यरु गएँ हरि-वलें ॥२॥ लङ्काहिवें बहु-ल-महावरें ॥३॥ बरि-समुद्द-रद-विरोलणें ॥४॥ दाण- रणझुण हस्थस्थलणें ॥५॥