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________________ अट्ठावीसमो संधि १४१ वहाँ जाओ।" वह इस प्रकार बोली। फिर वे तुरन्त वहाँ चले। वे त्रिभुवनतिलक जिनालयपर पहुँचे। मुनिको प्रणाम कर पास बैठ गये । धर्म सुनकर उन्होंने नगर में प्रवेश किया । उन्होंने जानकीरूपी गंगासे युक्त राजाका आस्थानरूपी आकाश देखा, नररूपी नक्षत्रोंसे घिरा हुआ तथा राम और लक्ष्मणरूपी सूर्य-चन्द्रमासे मण्डित ॥१-२।।। [११] जैसे ही आस्थानमार्गमें लक्ष्मण दिखाई दिया, वैसे ही द्विजवर अपने प्राण लेकर भागा । जैसे सिंहके आक्रमणसे हरिण भागता है, जैसे भरसंसारसे जिनेन्द्र मायाले हैं, भादलरूपी पिशाचसे चन्द्रमा नष्ट होता है, जैसे नीर समूहसे अग्नि नष्ट हो जाती है, जैसे गरुड़ पक्षीसे सर्प नष्ट होता है, जैसे गधा मत्त मातंगसे नष्ट हो जाता है, जैसे काम मोक्षगमनसे नष्ट हो जाता है, जैसे महामेध खरपकमसे नष्ट हो जाता है, जैसे पहाड़ देवबन्नसे नष्ट हो जाता है, जैसे यम महिषसे सुरंगम नष्ट हो जाता है उसी प्रकार द्विजवर पलायन करता हुआ दिखाई दिया । लक्ष्मण उसे अभय वचन देते हुए दौड़े। हाथके अग्रभागमें बलपूर्वक पकड़कर ले जाकर उसे बलदेवके सामने डाल दिया। बड़ी कठिनाईसे अपनेको धीरज बंधाकर मनमें समस्त महाभयकी स्पेक्षा कर उसने पुनः दुर्दमनीय दानवेन्द्रोंके अलका मर्दन करनेवाले रामको आशीर्वाद दिया । जिस प्रकार महाजलसे समुद्र, जिस प्रकार पुण्य कर्मसे जिनेश्वर, उसी प्रकार हे राजन ! तुम भी चन्द्रकुन्दके समान यशसे निर्मल धर्मसे बढ़ो ॥३-११।।। __[१२] तब इसी बीच शत्रुवलका मर्दन करनेवाला लक्ष्मण ठहाका लगाकर हँसा कि “जब हम तुम्हारे घरमें घुसे थे तो तुमने अवहेलना करफे निकाल दिया था। इस समय हे द्विजवर, किस प्रकार तुमने प्रणाम करके आशीर्वाद दिया ?"
SR No.090354
Book TitlePaumchariu Part 2
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages379
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size6 MB
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