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________________ २११ छत्तीसमो संधि पहुँचाया । उतने मात्र से मेरा उद्धार हो गया। मरने के बाद भी मुझे जिनवरकी शरण है ॥१-१०॥ [१६] जब रामने पक्षोके भवान्तर सुने तो उन्होंने मुनिवर से कहा-'तो अच्छा है हमें भी प्रत दीजिए और पक्षीके लिए भी सुभग पथको दिखायें ।" रामके उन शब्दों को सुनकर, पाँच अणुव्रतोंका उच्चारण कर, मुनि ब्रत दिये। उन तीनोंने भी उन्हें स्वीकार कर लिया। एक मनसे उन्होंने पुनः मुनिका अभिनन्दन किया । जबतक मुनि आकाश मार्गसे चले गये, तबतक लक्ष्मण घर आ पहुँचा । उसने कहा, "राम, यह क्या आश्चर्य है कि जो अपना घर रत्नोंसे भर गया है।" उन्होंने भी जैसा वृत्तान्त था, सब बता दिया कि मैंने आहारदानका फल प्राप्त किया है। तत्क्षण उन्होंने पाँच आश्रर्य प्रदर्शित किये कि जिस प्रकार मेघोंने अनवरत वर्षा की थी ! रामके वचन सुनकर नलवान् लक्ष्मणने मणिरत्नोंको इकट्ठा कर लिया, वटवृक्ष प्रारोह और जड़ोंके समान दृढ़ प्रचण्ड अपने भुजदण्डोंसे उन्होंने रथवरको रचना की ।।१-२॥ छत्तीसबों सन्धि हजारों मणिरत्नोंसे रचित तथा कुतूहल उत्पन्न करनेवाला वह रथ ऐसा मालूम होता था मानो आकाशसे उछलकर दिनकररूपी रथ गिर पड़ा हो। [] जंगली हाथियोंसे जुते हुए उस सुन्दर कान्तिवाले रथवरकी धुरापर लक्ष्मण और भीतर राम (बैठकर) फिर देवलीलाके साथ धरतीपर भ्रमण करने लगते हैं । उस कृष्णवर्ण
SR No.090354
Book TitlePaumchariu Part 2
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages379
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size6 MB
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