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सत्ततीसमो संधि
२८.
प्रकार युद्ध में पराङ्मुग्न काम दुष्ट, लोभ, मोह, मद और मानका नाश किया, उसी प्रकार समम्त शत्रुओंको नष्ट करो और उनका बल जीतो" ॥१-९॥
[१४] इन आशीर्वचनोंको लेकर लङ्गमगने अपना धनुष आस्फालित किया । उसके शब्दसे सारा संसार बहरा हो गया। धरती काँप उठी। और शेषनाग डर गया। जबतक खर और लक्ष्मण लो हैं, तक िसरने को मारा। 'मारो' कहते हुए वे दोनों आपसमें भिड़ गये, मानो गरजते हुए महागल हों। मानो भयंकर गरजना करते हुए सिंह हों। वे आते हुए बाणों का छेदन करने लगे। मोगर खुरपे और कर्णिक गिरने लगे, भानो जीवोंसे जीव क्षयको प्राप्त होने लगे। इसी यीच, अतुलपराक्रमी पुरुषोत्तम मणने अर्धेन्दु छोड़ा उससे त्रितिर उछल गया, किसी प्रकार बह रखण्डित नहीं हुआ। अनुप गिरा दिया गया और ध्वजदण्ड लिन्न-भिन्न हो गया । बार-चार निसिर बहुगुण धनुष लेता, लक्ष्मण उसे छिन्न-भिन्न कर देता, यह एक क्षण भी नहीं ठहरता, उसी प्रकार, जिस प्रकार भाग्यविहीन व्यक्तिका धन ।।१-२|| ___ [१५] धनुष सर सारधि और छत्र दण्ड, जब तीरों के द्वारा सौ-सौ टुकड़े कर दिये गये, तो अमर्षसे ऋद्ध दुर्धर विद्याधरने अपनी विद्याका स्मरण किया। उसने अपनेको बढ़ता हुआ बताया. तीन मुखों और तीन सिरोंसे समान | पहला सिर कठोर कपिल केशवाला था। पीली आँखोंवाला और बाल सायाला! दूसरा सिर और सम्ख नवयुवक था। निकली हुई भयंकर असुरिसे सहित, नीसा सिर धवन और धवल मुख था। फड़कते हुप भरों और आधे डरावने नेत्रोंवाला। दुर्दशनीय भीषण विकट दाढीवाला जिन भक्त और जिनवरके धर्म में एकनिष्ठ । इसी बीच शत्रुवल मर्दन करनेवाले लक्ष्मणने