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खाहि वेस वेन्तु विरुद्र जाणइ - वरणियारि -विह्नसिङ ।
पडमचरिङ
धता
मश्चारुणहाँ उत्तिष्णु असेसु वि राय - गणु (१) ।
मेरु विम्बों णं णिचडिउ गइ तारायणु ॥ ५॥
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हरि-कलाणमाल दणु-दलणेंहिँ । 'अच्छ ताव देव जल - कीटऍ एम भणेपिणु दिष्णइँ रहूँ । पठ स- साहण सरवर पाहयले धवल कवल-णखत-विहूसिएँ । उत्यलम्त-सफरि-चल-विज्जुलें । कुवलय-दल- तमोह-दरिसावणें । जल-तर- सुरचाधारम्भिऍ ।
निवर- वयणकुण जिउ ॥७॥ संप्रेक्वेंवि जणवड उबूसिउ ॥ ८॥
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सहिँ हएँ सरे सोिं तरन्तहूँ । पाइँ विमाणइँ सग्गहों पडिय हूँ । स्थिरपणु जहिं जन्तु ण वडियउ स्थिमिहुणु जहिं णेहुण वडिउ
पढिय वे वि वरूएवहाँ चलणें हिं ॥ १ ॥ पच्छऍ मोयणु भुइँ लीलऍ ॥ २ ॥ शल रि-तुणय-प्रणव- दद्धि-पहरहूँ ||३|| फुलमधु-भ्रमन्त - गहमण्डलें ॥४॥ मीण-मयर-कक्कड पोखिएँ ||५|| णाणाविह - विहङ्ग - घण सङ्कुले ॥६॥ सीयर - णियर-वरिस वरिसावर्णे ॥ ७॥ चक- - जोइ सिय- - पवियम्भिएँ || ८ ॥
धत्ता
तहिँ सर पहलें सकल वे वि हरि-लहर । रोहिणि-रणाहिं णं परिमिय चन्द्र-दिवापर ||१||
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संचरन्ति चाभीयर-जन्तहूँ ||१॥ वण्ण-विचित्त- रयण- वेथडियइँ ||२|| णथि जन्तु जहिं भिक्षुगु ण चडियउ ॥३॥ गरिथ गेहु जो णउ सुरयति ॥ ४ ॥
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