Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
THE FREE INDOLOGICAL
COLLECTION
WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC
FAIR USE DECLARATION
This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. TFIC tries to address these needs too. Our intent is to aid all these repositories and digitization projects and is in no way to undercut them. For more information about our mission and our fair use guidelines, please visit our website.
Note that we provide this book and others because, to the best of our knowledge, they are in the public domain, in our jurisdiction. However, before downloading and using it, you must verify that it is legal for you, in your jurisdiction, to access and use this copy of the book. Please do not download this book in error. We may not be held responsible for any copyright or other legal violations. Placing this notice in the front of every book, serves to both alert you, and to relieve us of any responsibility.
If you are the intellectual property owner of this or any other book in our collection, please email us, if you have any objections to how we present or provide this book here, or to our providing this book at all. We shall work with you immediately.
- The TFIC Team.
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
OOOOOOOOOOOO!
जैनाचार्थ-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री - घासीलालजी महाराज - विरचितया प्रमेयद्योतिकाख्यया व्याख्यया समलङ्कृतं हिन्दी - गुर्जर भाषाऽनुवादसहितम्
POCRAC
CONTACTICAR
॥ श्री - जीवाभिगमसूत्रम् ॥
(द्वितीय भागः )
नियोजक'
संस्कृत - प्राकृतज्ञ - जैनागमनिष्णात- प्रियव्याख्यानि पण्डितमुनि श्री कन्हैयालालजी - महाराजः
-
प्रकाशक
पालनपुरनिवासि - श्रेष्टिश्री - रसिकलाल मणीलाल महेता तत्पुत्र प्रदत्त - द्रव्यसाहाय्येनं
अ० भा० श्वे० स्था० जैनशास्त्रोद्धार समितिप्रमुखः श्रेष्ठि- श्री शान्तिलाल मङ्गलदासभाई - महोदयः
० राजकोट
प्रथमा - आवृत्ति
प्रति १२००
विक्रम संवत्
}
२०२९
LANOVOVANOVAYOYOY
वीर - संवत्
२४९९
मूल्यम् - रू० ३०-००
VIODICARROTROPICHCHEDDICTACSP Colg
ईसवीसन
१९७३
QAY
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
મળવાનું ઠેકાણું : શ્રી અ. ભા. વે, સ્થાનકવાસી
જૈનશાદ્ધાર સમિતિ, है. गठिया का , २००४ सेट, (सौराष्ट्र)
Pablished by : Shri Akhil Bharat S. S. Jain Shastroddhara Samiti, Garedia Kuva Road, RAJKOT, (Saurashtra ), W. Ry, India.
ये नाम केचिदिह नः प्रथयन्त्यवज्ञां, जानन्ति ते किमपि तान् प्रति नैप यत्नः। उत्पत्स्यतेऽस्ति मम कोऽपि समानधर्मा, कालो ह्ययं निरवधिर्विपुला च पृथ्वी ॥१॥
हरिगीतच्छन्दः करते अवज्ञा जो हमारी यत्न ना उनके लिये। जो जानते हैं तत्त्व कुछ फिर यत्न ना उनके लिये ॥ जनमेगा मुझसा व्यक्ति कोई तत्त्व इससे पायगा । है काल निरवधि विपुलपृथ्वी ध्यान में यह लायगा ॥१॥
भूख्य ३. 30-00
પ્રથમ આવૃત્તિ પ્રત ૧૨૦૦૦ વીર સંવત્ ૨૪૯ વિક્રમ સંવત્ ૨૦૨૯ ઈસવીસન ૧૯૭૩
मुद्र: મણિલાલ છગનલાલ શાહ નવપ્રભાત પ્રિન્ટીંગ પ્રેસ,
ઘીકાંટા રેડ, અમદાવાદ,
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जिवाभिगमसूत्र भांग दूसरे की विषयानुक्रमणिका अनं. विषय
पृष्ठाङ्क तीसरी प्रतिपत्ति उ. १ १ नैरयिक जीवों का निरूपण २ रत्नप्रभा पृथ्वीके भेदों का निरूपण
११-१७ ३ प्रत्येक पृथिवी में रहे हुवे नरकावासों का निरूपण
१७-२३ ४ रत्नप्रभा पृथ्वीके खरकांड आदिका एवं अन्य पृथ्वी में
रहे हुवे घनोदध्यादि के बाहल्य का निरूपण २३-३१ ५ रत्नप्रभा पृथ्वी के क्षेत्रच्छेद का कथन
३२-४७ ६ रत्नप्रभा पृथ्वी के संस्थानका निरूपण
४७-५३ ७ सातों पृथिवीयां लोकको स्पर्शनेवाली है या अलोकको स्पर्शकरती है? ५३-६५ ८ सातों पृथ्वीके घनोदधि धनवात, तनुवातके तिर्यग्वाहल्यकानिरूपण ६५-९३ ९ जीवों की उत्पत्ति का निरूपण १० प्रति पृथ्वीके विभाग पूर्वक उपरके एवं अधस्तन
___ चरमान्त के अन्तर का कथन ११०-१४३ ११ रत्नप्रभादि पृथ्वीयों के परस्पर में अगली२ पृथिवीवियों को लेकर पूर्व पूर्वकी पृथिवीका बाहल्य एवं विस्तार सेतुल्यखादिका निरूपण १४३-१५१
दुसरा उद्देशा १२ प्रत्येक पृथ्वी में कितने कितने नरकावास होनेका कथन .१५२-१७१. १३ नरकावासों के संस्थान-आकार का निरूपण
१७२-१८६ १४ नरकावासों के वर्णगन्ध आदिका निरूपण
१८६-१९८ १५ नरकावासों के महत्व-विशालपनेका निरूपण
१९८-२०७ १६ नरकावास किं द्रव्यमय याने किसके बने है ?
२०७-२११ १७ नारक जीवों की उत्पत्ति का निरूपण
२११-२४२ १८ प्रत्येक नारक जीवों के संहनन का निरूपण
२४२-२५२ १९ नारक जीवों के उच्छवास आदिका निरूपण
२५२-२७० २० नारकों के क्षुधा एवं पिपासा आदिका निरूपण २७०-२८६ २१ नारकों के नरकभव दुःख के अनुभवनका निरूपण २८७-३२७ २२ नारकों की स्थितिकालका निरूपण
३२७-३४१ २३ नरक में पृथिव्यादि के स्पर्शादिका निरूपण
३४२-३५८ तीसरा उद्देशा २४ नैरयिकों के पुद्गल परिमाणका निरूपण
३५९-३७४
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
तिर्यग्योनिक अधिकारको प्रथम उद्देशक २५ तिर्यग्योनिक जीवों का निरूपण
३७५-३९९ २६ पक्षियों की लेश्या आदिका निरूपण
३९९-४२० २७ गंधाङ्गो का निरूपण
४२०-४३० २८ स्वस्तिक आदिक विमानो का निरूपण
४३०-४४५ तिर्यग्योनिक अधिकारका दूसरा उद्देशा २९ संसारसमापनक जीवों का निरूपण
४४५-४५३ ३० भेदसहित पृथिवी आदि के स्थित्यादिका निरूपण ४५३-४७३ ३१. अविशुद्ध एवं विशुद्ध लेश्यावाले अनगार का निरूपण ४७३-४८१ ३२ सम्यक्-क्रिया एवं मिथ्याक्रिया ये दो क्रिया एक काल में एक जीव में होने का निषेध
४८१-४८८ तीसरा उद्देशा ३३ भेदसहित मनुष्यों के स्वरूपका निरूपण
४८९-४९६ ३४ दक्षिणदिशाके मनुष्यों के एकोक द्वीपका निरूपण
४९६-५०२ ३५ एकोहक द्वीपके आकार आदिका निरूपण
५०२-५३८ ३६ एकोरुकद्वीप में रहे वृक्षों का निरूपण
५३८-५६५ ३७ एकोकद्वीप में रहनेवाले के आकारादिरूप आदिका निरूपण ५६५-५९३ ३८ एकोषकद्वीप की मनुष्य स्त्री के रूप आदिका निरूपण ५९३-६१६ ३९ एकोरुफद्वीपस्थ जीवों के आहार आदि का निरूपण ६१६-६३८ ४० एकोहकद्वीप में इन्द्रमहोत्सव आदि महोत्सव विषय प्रश्नोत्तर ६३८--६६२ ४१ एकोरुकद्वीप में डिव-डमर कलह आदि विषयका निरूपण ६६२-६८१ ४२ आभापिक द्वीपका निरूपण .
६८१-६८५ ४३ हयकर्ण द्वीपका निरूपण
६८५-७१६ ४४ देवों के स्वरूपका निरूपण
७१६-७३९ ४५ उत्तर दिशा में रहे हुवे अनुरकुमार देवों का निरूपण ७३९-७४६ ४६ नागगकुमारों के भवनादिद्वारों का निरूपण
७४७-७७१ ४७ वानव्यन्तर देवों के भवन आदिका निरूपण
७७१-७८५ ४८ ज्योतिपिक देवों के विमान आदि का निरूपण
७८५-७८९ ४९ द्वीप एवं समुद्रों का निरूपण
७९०-८०४ ५० जगती के उपरके पमवरवेदिका का निरूपण
८०४-८२८ ५१ वनपण्ड आदिका वर्णन
८२८-९०२ ॥समाप्त ॥
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
શ્રી રસિકલાલ મણીલાલભાઈ મહેતા
જન્મ : તા. ૧૫ નવેમ્બર-૧૯૨૧
સ્વર્ગ વાસ
: તા. ૨૨ જુલાઈ-૧૯૭૨
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
પાઘમુરબ્બીશ્રીએ
શેઠ શ્રી શાતિલાલ સગળ સભાઈ અનદાવાદ
સ્વ. સુધીરભાઇ જયતીલાલ ઝવેરી મુ.
શઠશ્રી રામજીભાઈ શામજીભાઈ વીરાણી-રાજકાટ,
(૨.) રોશ્રી શામજીભાઈ વેલજીભા વીરાણી-રાજકાટ
(સ્વ.) શેઠશ્રી છગનલાલ શામળદાસ ભાવસાર અમદાવાદ
बच्चे बेठेला लालाजी किशनचंदजी सा. जोहरी उमेला सत्र चि. महेतावचन्दजी सा. नाना- अनिलकुमार जैन दोयत्ता दिल्ही
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
आवमुरब्बीश्रीओ
1
.
.
hinetAALIandiaturer
o
t
dhunt
.
A
.
શ્રીમાન શેઠ પોપટલાલ માવજીભાઈ
મહેતા, જામજોધપુર
श्रीमान् शेठ धनराजजी पन्नालालजी
जांगडा, मु. जालना
*
AY
Annat
PR
शेठश्री मिश्रीलालजी लालचंदजी सा. लणिया : प्रभुदाससा मुसलमाशी तथा शेठश्री जेवंतराजजी अमदावाद
રાજકેટ
:
55
Marathi
.
SARimsh
A
.
.
-
-
दानवीर शेठश्री अगरचन्दजी भेरुदानजी सा.सेठिया, मु वाकानेर
स्वः श्रीमान् शेठश्री मुकनचंदजी सा
वालया पाली मारवाड
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
આમુર-ખશ્રીએ
(૧) શેઠશ્રી હરખચંદ કાલીદાસ વારિ
ભાણવડ
(સ્વ.) શેઠશ્રી દિનેશભાઇ કાંતિલાલ શાહુ
અમદાવાદ.
રોશ્રી જેસિંગભાઈ પાચાલાલભાઇ
અમદાવાદ
(સ્વ.) શેઠ ૨ગજીભાઈ માહનલાલ શાહ
અમદાવાદ.
સ્વ, શેઠશ્રા જીવરાજભાઈ સ્કૂલચંદભાઇ ધ્રાંગધ્રા
સ્વ. શેઠશ્રી આત્મારામ માણેકલાલ અમદાવાદ
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
પટેલ ાસાભાઇ ગાપાલદાસ સુ સાણંદ (જી. અમદાવાદ)
આદ્યમુખીશ્રીએ
शाहजी श्री मोडीलालजी गलुन्डिया मुः उदयपुर
»
સ્વ. શેઠ માણેકચઢ તેમ મુ. માંગલ
૧ અમીર ભાઈ તથા ૨ ગીરધરભાઈ માંડવિયા મુ. બે ગલેર
મદ્રાસવાલા સ્વસ્થ ન્યાયમૂતિ રતીલાલભાઈ ભાયચંદભાઈ મહેતા
श्रीमान् शेठ कानुगा श्री घीगडमल्जी अहमदाबाद
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
આદ્યમુરબ્બીશ્રી
સ્વ, શેઠશ્રી હરિલાલ અનેાપ શાહે
लात
श्रीमान् शेठ सा. चीमनलालजी सा. ऋषभचदजा सा. अजीतवाले ( सपरिवार )
मच्चे बेठेला मोटाभाइ श्रीमान मूलचंदजी जवाहरलालजी बरडिया माजुमां बेला भाई निभीलालजी बरडिया उमेला सौनी नानाभाई पूनमचंदजी वरडिया
स्व. शेठ ताराचंदजी साहेब गेलडा मद्रास.
शेठ कीशनलालजी फुलचंद सा० बेंगलोरवाळा
श्रीमान सेठी खींवराजजी सा. चोरडिया
मु. मद्रास
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
આમુરબ્બીશ્રીઓ
CAM
P'
-tan...
!
पारख छोगमलजी मुलतानमलजी शेठ रघुनाथमलजी, शेठ वावुलालजी ,, पन्नालालजी, शेठ सुगनचंदजो
ભાનુભાઈ રેશવલાલ ભણસાલી
પાલનપુર-મુંબઈ
Regrets
.
NARE
त
tv
थीमान लालाजी हजारी लालजी
झवेरी-देहली
श्री लक्ष्मीचंदजी जसकरणजी अधेरी
पालनपुर
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
आमुरव्वीश्रीओ
શ્રીમન્ શેઠ મણીલાલ પાપટલાલ વેરા અમદાવાદ, જન્મ તા. ૧૦-૬-૧૯૦૪
શ્રી વૃજલાલ દુર્લભજી પારેખ રાજકા
રોશ્રી મણીલાલ જેઠુભાઇ પાલનપુરવાળા
श्रीमान् शेठ लालाजी कपूरचन्दजी नाहटा, मु. देहली
કાહારી હરગાદિ જેદ્રભાઈ રાજકોટ.
શ્રીમાન્ લાલાજી કપુરચંદજી નાહટા દેહુલીવાલા
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
आद्यमुरव्वीश्रीओ
Ema
-
(સ્વ.) શેઠશ્રી ધારશીભાઈ મણલાલ
પારસી
श्रीमान् शेठ जगजीवनभाई रतनसीभाई माय बगडिया, मु. दामनगर
L
GE
h
FEAT..
67
.
iteranamainar.
kuvaritain.
.44
६
5
. N
.
20
।
३. श्री विनामार
वाराणी
AMSAwak
शेठश्री देवचंदभाई फोजीलालभाई
बलाणी-सुरत
અમુલખભાઈ મલકચંદ પાલનપુરવાલા
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
શ્રી રસિકલાલ મણીલાલ મહેતાની જીવન-ઝરમર
મદ્રાસના અગ્રગણ્ય નાગરિક, વિશાળ એવી પ્રજ્ઞા–મેધાથી મંડિત વ્યાપાર ઉદ્યોગપતિ શ્રી રસિકલાલ મણીલાલ મહેતાનું વ્યક્તિત્વ અનેકવિધ ક્ષેત્રમાં સબળતાને વર્યું હતું, અને એટલે જ કદાચ એમની પાસે સ્વાનુભવના અને ધર્યના પ્રસંગેની તે ખાણ હતી.
ઉત્તર ગુજરાત-બનાસકાંઠા ધાનેરામાં ૧૯૨૧ ના ૧૫મી નવેમ્બર દિવાળીના દિવસના પૂર્વમાં તેમને જન્મ થયે હતો. પિતાનું નામ મણભાઈ, માતાનું નામ પારૂબેન.
પિતાશ્રી મણીભાઈ હીરાના વેપારમાં હતા. તેમના બંધુ ચંદુભાઈની સાથે મણલાલ ચંદુલાલ એન્ડ કુ.” ની સ્થાપના કરી હતી. તેમાંથી છૂટા થયા બાદ હાલની જાણીતી “મણીલાલ એન્ડ સન્સ કુ. ની તેમણે સ્વતંત્ર સ્થાપના કરી હતી.
શ્રી રસિકભાઈએ પ્રાથમિક શિક્ષણ મદ્રાસમાજ મેળવ્યું હતું. ૧૯૩૮ માં મેટ્રીકયુલેશન પાસ કર્યા બાદ વ્યાપારમાં જોડાયા હતા. ઉમદા ખ્વાહિશે સાથે વેપારમાં પ્રવેશ કર્યો ત્યારે શી ખબર કે બીજે જ વર્ષે માતાના અવસાન રૂપ વિટંબણું કુટુંબ ઉપર આવી પડશે . ૩૮ વર્ષની વયે પારૂબેનનું અવસાન થયું ત્યારે રસિકભાઈની ઉમ્મર ફક્ત ૧૮ વર્ષની હતી.
૧૮ વર્ષના યુવાનની કર્તવ્ય, સહનશક્તિ અને ધીરજની કસોટી કરવા પર કુદરતે મીટ માંડી હોય તેમ પિતાશ્રીની તબિયત પણ લથડતી ચાલતી હતી. તેમની સેવા, સંભાળ સારવારની જવાબદારી પણ રસિકભાઈની ઉપર આવી પડી એમણે આ જવાબદારીને હિંમત પૂર્વક ઉઠાવી લીધી એટલુંજ નહિ, તે સાથે વ્યાપારી જ્ઞાનાનુભવની પ્રતિમા કચાશ રહેવા ન પામે તે પણ એમણે લક્ષમાં રાખ્યું.
લગ્ન ઈ. સ. ૧૯૪૦ મા ધર્મપત્નીનું નામ જયાબેન રસિકભાઈનું દામ્પત્ય જીવન ખૂબજ સુખી હતુ. પતિ પત્ની બને એકમેકના પૂરક થયા. એવું સંતોષી અને આનંદી જીવન ગુજાર્યું.
યુદ્ધ સમયે, મદ્રાસ ખાલી થવાના સ જે ઉપસ્થિત થયા એ વેળાએ કેટલેક સમય પાલનપુરમાં ગાળ્યું. એ વખતે મદ્રાસ, કારાકુડી વિ. દક્ષિણ ભારતના સ્થળોએ એમની ધંધાકીય પ્રવૃત્તિ અંગે આવાગમન તે ચાલુજ રહેલું. ૧૯૪પમાં તેમના જયેષ્ઠ પુત્ર શૈલેશનો જન્મ પાલનપુરમા થયા. આ અરસામાં યુદ્ધ પૂરું થતાં મદ્રાસનું રહેઠાણ પુનઃ ચાલુ કર્યું. પિતાશ્રીની માદગી પણ વધુ જોર પકડતી ચાલી. ૧૪૭ માં ૧૫ વર્ષની વયે તેઓ અવસાન પામ્યા. એ વખતે ભાઈશ્રી રસિકભાઈની ઉમર ૨૬ વર્ષની અને નાના ભાઈ રજનીકાંતની ઉમ્મર ૨૩ વર્ષની હતી.
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
પિતાશ્રીના સ્વર્ગવાસથી કૌટુમ્બિક જવાબદારી સવિશેષ પ્રમાણમાં આવી પડી. તે ઉંચકતા ઉચકતા સ્વમળે અને આપ સુઝથી તેમજ પિતાશ્રીએ જે ધ ધાકિય શિક્ષણ સેવ્યું હતુ તેના આધારે હિંમતભેર અને નિષ્ઠાપૂર્વક ઝવેરાતના ધ ધામા ગતિ–પ્રગતિ કરતા રહ્યા, એટલુ જ નહિ સાથે ખીજા ઉદ્યોગે પધા સ્થાપવાના પણ સપ્રમાણ રસ લીધે, અને પરિશ્રમ ઉઠાવ્યેા. આના અનુક્રમે ૧૯૫૩ મા યુરોપ પ્રવાસ કર્યાં તેના ફળસ્વરૂપ યુરોપની કેટલીક કંપનીએ સાથે એજન્સી વિગેરે ધંધાદારી સંબંધ સ્થાપ્યા, આ ગાળા દરમ્યાન એમની મનેભૂમિમાં કેટલીક આતરરાષ્ટ્રિય યોજનાએ પણ આકાર લઈ રહી હતી. ત્યાર બાદ ૧૯૫૫-૫૬ માં ભારત જુનીયર ચેમ્બરના સંસ્થાપક અને અગ્રણી સભ્ય તરિકે આતરરાષ્ટ્રિય જુનિયર ચેમ્બરની વિશ્વ પરિષદ માં તેમને નિમ ત્રણ મળ્યું . આ અધિવેશન એડિનબરા (સ્વેટલેન્ડ) માં ચેાજવામાં આવ્યુ હતુ. અત્રેની જુનિયર ચેમ્બરનુ' પ્રતિનિધિત્વ ઉત્તમ કક્ષાએ પાર પાડી તેને માટે વિશ્વ સંસ્થા તરફથી ચાર્ટર (Charter) પણ હાસલ. કરી આવ્યા.
પરિષદના અધિવેશનનુ કાય` પૂરૂ થયા ખાદ તેમાથી પરવારીને એમણે ફરી યુરોપના પ્રવાસ કર્યાં. નાખેલ પારિતાષિકના વિજેતા સ્થાપક આલ નાખેલે સ્થાપેલી વિશ્વવિખ્યાત કે પની ડાયનેમીટ નેાખેલ (Dynamit Nobel) ની એજન્સી દક્ષિણ ભારત માટે પ્રાપ્ત કરી સાથે બીજી અનેક એજન્સીએ ખાસ કરીને દેશના ઔદ્યોગિક વિકાસને અનુલક્ષીને મેળવી પાછા આવ્યા.
આ પ્રકારના માહ્યજીવનની કે વ્યાવહારિક જીવનની પ્રવૃત્તિએ વિશાળ પટ પર પથરાયેલી હેાવા છતા એમના આંતર-જીવનની સંસ્કાર વાટિકા તે જ્ઞનાદ્વારની પ્રખળ ભાવનાથી મહેકી રહી હતી. જૈનધમ, જૈનદન, પક્ષાપક્ષ રહિત સર્વાંગી અને સમગ્રષ્ટિવાળી ધાર્મિક વિચારણા તેમના આતરમનથી કઢિ વિખુટી ન હાતી પડી. સંપ્રદાયના વાદ કે મતમતાતરમા પડયા વિના ધર્માંને આચરણમાં મૂકવામાંજ તેમના ભાવ વધારે રહ્યો હતા. શ્રી શ્વેતાંબર સ્થાકવાસી જૈન સંસ્થાએની ધાર્મિક પ્રવૃત્તિએમાં તે હમેશા સક્રિય હતા. પાલનપુર આય’ખીલ શાળાના આજીવનસૃષ્ટી તરીકે જિન શાસનના સુયોગ્ય પગલે ચાલ્યા હતા. ૧૯૪૯ માં ભરાયેલ અખિલ ભારતીય શ્વેતાંબર સ્થાનક વાસી જૈન કેન્ફરન્સ માં સ પૂર્ણ રીતે અને ધર્મ રસમાં એકાકાર થઈ ગયા હતા. એ તેમની આધ્યાત્મિક વિકાસ દૃષ્ટિના દ્યોતક પ્રસ ગ કહી શકાય. એમની માદગી વખતે પણ ધાર્મિક ચર્ચા અને નવકાર મ ત્રમાજ એમનું રટન હતુ. સામાજિક ક્ષેત્રે જોતા રસિકભાઈને શિક્ષણ–કેળવણીની ખામતમાં વધુ રસ હતા. મદ્રાસની કેટલીક નામાકિત અને પ્રથમ પંક્તિની સ સ્થાએ ગણાય છે તેમાં શ્રી શ્વેતાખર સ્થાનકવાસી જૈન એજ્યુકેશનલ સેાસાયટીનું પણ સ્થાન
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
આવે છે. આ સંસ્થાની કા વાહક સમીતીના સભ્ય પદે ચૂંટાયા પછી ધીમે ધીમે આજ સ ́સ્થાના સહમત્રી પદે પહોંચ્યા તે એમની નિર'તર સેવા અને કાર્યોંત્સાહને કારણે હતું. શ્રી અમેાલકચંદ ગેલડા જૈન હાઇસ્કુલના મંત્રી પદેથી પણ એમણે સેવાઓ આપી છે. આ હાઇસ્કુલે જે વિજ્ઞાન પ્રદર્શન યોજ્યું હતુ અને શાળાના ઇતિહાસમાં જે મહત્વનું સીમાચિહ્ન બનીને રહ્યું છે તે રસિકભાઇના મંત્રીપદને આભારી હતુ
ખીજા સામાજિક ક્ષેત્રે પણ એમણે સુંદર નામના મેળવી હતી. સામાન્ય માનવીથી શરૂ કરીને વિશિષ્ટ ધંધાદારી કે ઉદ્યોગપતિ હર કેઇ વ્યક્તિને એમના સમાગમમાં આનંદ થતા. એમની નિખાલસતા એ એમનુ ભારે આણુ હતુ. અને એટલેજ સાવ વિભિન્ન પ્રકારની સ સ્થાઓનુ` કામ, તેને લગતી પ્રવૃત્તિઓમાં સમકક્ષ રસ લઈ, કરી શત્રુતા. ઇન્ડીયન વેજીટેરીયન કોંગ્રેસ’ ના સ્થાપક સભ્ય તરીકે મુલ્યવાન સેવા આપી હતી. (Indian councin of cultural relations) ના માનનીય સભ્ય હતા તથા ‘Hospitality Association ' ના ઉપપ્રમુખ પદે હતા.
રસિકભાઈએ એમની સામાજિક સેવા પ્રવૃત્તિઓના ભરચક દમાણમાં પણ વ્યાપાર ધંધાની અવગણના કરી ન હતી. સ્વતંત્ર તથા ભાગીદારીમાં ભિન્નભિન્ન વ્યાપાર ઉદ્યોગેાના ઉમેરા કર્યાં હતા. આ વિકાસ સાધવામાં એમના વિદેશ પ્રવાસોના અનુભવ અને ધંધાકિય સુઝે મહત્વનું જ્ઞાન અર્પણ કર્યું હતું. પાંડીચેરીમાં સાઇકલ તથા રેાલર ચેઇનની ફેકટરી. મદ્રાસમાં સીમેન્ટ તથા સીમેન્ટ પેઇન્ટના ઉદ્યોગ તેમજ એજન્સીઓ અને ઇન્પો એફપેટ અને શે, એ સઘળા વ્યાપાર ઉદ્યોગેાએ એમને યશ અને અર્થ ખન્નેની પ્રાપ્તિ કરી આપી હતી.
૧૯૬૦ માં ફરી યુરોપ અમેરિકાની યાત્રા કરી. Far Eaet American Council' ના સભ્યપદે નિયુક્ત થયા. આંધ્ર ચેમ્બર ઓફ કામ”ની કા વાહક સમિતિમા ચુટાયા અને તે દ્વારાજ રેલ્વે એડવાઇઝરી એડ” પેટ્રસ્ટ’ વિગેરેના માનનીય સભ્ય તરીકે તેમની નિમણુંક કરવામાં આવી. એ તમામ હાદાઓ પરથી તેમણે આપેલી સેવાઓ એમની સમીક્ષક શક્તિ, સામાના બિંદુને સમજવાની તથા માન આપવાની દૃષ્ટિ તથા ભલમનસાઇ ખરી પણ ગેરવ્યાજખી ભલામણેા સામે અવાજ ઉઠાવવાની સ્પષ્ટ વકતૃત્વતાને કારણે આદરપાત્ર કરી હતી. અને તેથીજ ૧૯૬૬ માં Indian International Trade fair . તરફથી તેઓને daiıraTnaekog’માં અભ્યાસ માટે પ્રતિનીધિ તરીકે જવાનું આમંત્રણ મળ્યું હતું. આમ એમના પ્રતિભાશાલી વ્યક્તિત્વની પાંખડીએ એક પછી એક ખુલ્યે જતી હતી, તેવામાં ૧૯૬૭ના જાન્યુઆરીમાં પ્રથમવાર ‘હાર્ટ એટેક’ આળ્યે, તેથી ૧૯૬૮માં જ્યારે ઇન્ટરલેાકન (સ્વીટ
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
લેડમાં) માં જાયેલી વિશ્વ પરિષદમાં ભાગલેવાનું નિમંત્રણ મળ્યું ત્યારે નાદુરસ્ત તબિયતના કારણે તેમનાથી નિયંત્રણને સ્વીકાર કરી શકાશે નહિ.
નાદુરસ્ત તબિયત હોવાને કારણે પણ સ્થાનિક પ્રવૃત્તિઓ તદન બંધ કરી શક્યા નહિ ૧૯૬૯ મા તેમને “આંધ ચેમ્બર ઓફ કોમર્સ ના પ્રમુખ પદે ચૂંટવામાં આવ્યા. એ સ્થાને તેમણે બે વરસ સુધી કામગીરી બજાવી. તે
SER, દરમ્યાન વ્યાપારી આલમની વિવિધ સમસ્યાઓને સરકાર સમક્ષ રજુ કરવામાં અદમ્ય ઉત્સાહ દાખવ્યે તેમના સૂચિત ઉકેલેનું રહસ્ય રહેતું વધુ ઉત્પાદન અને આમજનતાની સુખ વૃદ્ધિ. તેમને અભ્યાસ વિષય હતે અર્થશાસ્ત્ર અને કરવેરા. સરકાર તરફથી તેમને “Regional Board of direct taxes” ના સભ્યપદે નિમવામાં આવ્યા હતા. સાથે તેઓ “All India Manufacturers Association ” ના મદ્રાસ બેડની કાર્યવાહક સમિતિમાં તે હતા. આમ હૃદય રોગના હુમલા પછી પણ એમણે સંસ્થાકીય પ્રવૃત્તિઓમાં તે સક્રિયતા દાખવ્યાજ કરી. શરીર પર માઠી અસર તે ચાલુજ રહી ને બે મહિનાની માંદગીને અંતે ૧૯૭૨ ના જુલાઈની રરમી તારીખે તેમને સ્વર્ગવાસ થયે એ માંદગી દરમિયાન પણ તેમની ધાર્મિક પ્રવૃત્તિઓમાં એકદમ વધારે તેજ રહ્યો. ધર્મના પુસ્તક અને ચર્ચા ચાલુ રાખી. છેવટ સુધી નવકાર મંત્રનું રટણ ચાલુજ હતું
કુટુમ્બી જનોએ વત્સલ પિતા અને વડિલ, જ્ઞાતિજનોએ પ્રભાવશાળી વ્યક્તિત્વ, સમાજે સંન્નિષ્ઠ કાર્યકર અને દાતા તથા વ્યાપારી આલમે બુદ્ધિમાન કાર્યદક્ષ પ્રતિનીધિ અને માર્ગદર્શક ગુમાવ્યા. હાર્દિક દુખ સાથે અંતિમ એજ મહેચ્છા કે સ્વર્ગસ્થ આત્મા પરમ સુખને પ્રાપ્ત કરે.
મંત્રી શ્રી શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ,
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्री वीतरागाय नमः ॥ श्री जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री घासीलालवतिविरचिताया प्रमेयधोतिकाख्यया व्याख्यया समलङ्कृतम्
हिन्दी-गुर्जरभाषानुवादसहितम् ॥श्री जीवाभिगमसूत्रम् ॥
(द्वितीयो भागः)
तृतीया प्रतिपत्तिः प्रारभ्यतेद्वितीया प्रतिपत्ति निरूपिता ततोऽवसरमा तृतीयां पतिपति निरूपयति तत्र नरयिकादि चतुर्विधसंसारसमापन्नकजीवेषु प्रथमं नैरयिकपरूपणामाह'तत्थ णं जे ते' इत्यादि ।
मूलम्-तत्थ णं जे ते एवमासु चउठिवहा संसारसमावण्णगा जीवा ते एवमासु तं जहा-गैरइया तिरिक्खजोणिया मणुस्सा देवा ।। से किं तं गेरइया? गेरइया सत्तविहा पन्नत्ता तं जहा-पढम पुढवी जेरइया दोच्चा पुढवी णेरइया, तच्चा पुढवी णेरड्या, घउत्थी पुढवी णेरड्या, पंचमी पुढवीणेरइया, छटी पुढवी णेरड्या सत्तमी पुढवी नेरइया॥ पढमाणं भंते ! पुढवी किं नामा किं गोत्ता पन्नत्ता? गोयमा ! णामेणं धम्मा गोत्तेणं रयणप्पभा। दोच्चा णं भंते! पुढवी किं नासा कि गोत्ता पन्नता? गोंयमा! णामेणं वसा गोतेणं सकरप्पभा। एवं एएणं अभिलावेणं सव्वासिं पुच्छा, णामाणि इमाणि सेला तच्चा, अंजणा चउत्थी रिट्ठा पंचमी मघा छट्ठी माघबई सत्तमा जाव तमतमा गोत्तेणं पन्नत्ता ॥ इमाणं भंते ! रयणप्पभा पुढवी केवइया बाहल्लेणं पन्नत्ता ? गोयमा ! इमाणं रयणप्पभा पुढवी असीउत्तरं जोयणसयसहस्सं बाहल्लेणं पण्णत्ता। एवं एएणं अभिलावेणं इमा गाहा-अणुगंतव्वा
जी० १
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
1
जीवामिगमसूत्रे
'असीयं बत्तीसं अट्ठावीसं तहेव वीसं च । अट्ठारस सोलसगं' अट्टुत्तरमेव हिट्टिमिया' ॥ सू० १॥ छाया - तत्र ख ये ते एवमाहुतुर्विधाः संसारसमापनका जीवास्ते एवमाहुः तद्यथा नैरविकास्तिर्यग्योनिका मनुष्या देवाः । अथ के ते नेरयिकाः ? नैरयिकाः सप्तविधाः प्रज्ञप्ता स्तद्यथा- प्रथम पृथिवी नैरथिकाः द्वितीय पृथिवी नैरयिकाः तृतीय पृथिवी नेरयिका चतुर्थपृथिवीनैरयिकाः पञ्चमपृथिवीनैरयिकाः षष्ठ पृथिवीनैरयिकाः सप्तम पृथिवीनैरयिकाः । प्रथमा खल भदन्त । पृथिवी कि नाम्नी कि गोत्रा प्रज्ञप्ता ? गौतम | नाम्ना धर्मा गोत्रेण रत्नप्रभा । द्वितीया खलु भदन्त । पृथिवी किं नाम्नी किं गोत्रा मज्ञप्ता ? गौतम ! नाम्ना वंशा गोत्रेण शर्कराभा । एवम् एतेन अभिलापेन सर्वासां पृच्छा नामानि इमानि शैला तृतीया, अञ्जना चतुर्थी, रिष्टा पश्चमी गधा पष्ठी माघवती सप्तमी यावत् तमस्तमा गोत्रण प्रज्ञप्ता ? इयं खल भदन्त ! रत्नप्रभा पृथिवी कियता बाहल्येन मझता ? गौतम ! इयं खल रत्नप्रभा पृथिवी अशीरयुत्तरं • योजनशतसहस्रं बाल्येन प्रज्ञप्ता । एवमेतेनाभिलापेन यं गाथा-
!
'अशीति द्वात्रिंशदष्टाविंशति स्तथैव विंशतिथ | अष्टादश पोडशैकमष्टोत्तरमेवाधस्तना ॥१॥
My
टीका- 'तत्थ' तत्र तेषु दशसु प्रतिपत्तिमत्सु मध्ये 'जे ते' ये ते आचार्याः 'एवमाहंस' एवमाहु: - एवमाख्यातवन्तः, किमाख्यातवन्त स्तत्राह - ' चउव्हिा' तीसरी प्रतिपत्ति का प्रारंभ
द्वितीय प्रतिपत्ति का निरूपण करके अब सूत्रकार तृतीय प्रतिपत्ति का निरूपण करते हैं उसमें नैरधिकादि चार प्रकार के संसार समापक जीवों में प्रथम नैरचिकों की प्ररूपणा करते है
'तस्थणं जे ते एवाहंसु चषिहा संचारसजावण्णा जीवा' ३० टीकार्थ- 'तत्थ णं' इन दश प्रतिपत्ति वादियों के बीच में 'जे ते एवमाहंषु' जिन आचार्यों ने 'एवमाहंसु' ऐसा कहा है कि 'चडव्विहा
ત્રીજી પ્રતિપત્તિને પ્રાર’ભ
શ્રીજી પ્રતિપત્તિનું નિરૂપણ કરીને હવે સૂત્રાર ત્રીજી પ્રતિપત્તિનુ નિરૂપણ કરે છે તેમાં નૈરયિક વિગેરે ચાર પ્રકારના સ’સાર સમાપન્નક જીવામાં પહેલાં નૈરયિકાનું નિરૂપણ કરવામાં આવે છે.
८८
तत्थ णं जे वे एषमाहंसु चउव्विद्दा संसार समावन्नगा जीवा " त्याहि. टीडार्थ--'तत्थ णं' मा दशप्रहारनी प्रतिपत्ति वाहियाभां " जे वे एवमाहंसु' ने मायाये मे अधु छे, " चउव्विहा संसारख मावन्नगा
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयोतिका टीका प्र. ३ . १ नैरयिकजीवनिरूपणम्
"
इत्यादि, 'चउच्चिदा' चतुर्विधा चतुः प्रकारकाः, 'संसारसमावन्नगा जीवा' संसारसमापन्नका जीवाः 'ते एकमासु' ते भावाय एवम् वक्ष्यमाणप्रकारेण जीवसंख्पाविषये आहु:- कथितवन्तः । चारुर्विध्यमेव दर्शयति- 'तं जहा ' । इत्यादि, 'वं जहा ' aur - 'जेरया' नैरथिकाः, 'तिरिक्खजोगिया' तिर्यग्योनिकाः, तथा - मणुस्सा' मनुष्याः, तथा - 'देवा' देवाः तथा च नारकतिर्यङ्मनुष्यदेवभेदेन संसारसमापन्नका जीवाश्चतुर्विधाः प्रज्ञप्ता इति । चतुर्विधजीवेषु मध्ये प्रथमं नारकं ज्ञातुं पश्यन्नाह - 'से कि वं' इत्यादि, 'से किं तं जेरइया' अथ के ते नैरयिकाः नारकाणां कि लक्षणं कियन्तश्च भेदा इति प्रश्नः, उत्तरयति'रया सबिहा पण्णता' नैरचिकाः सवविधाः - सप्तधकारकाः प्रज्ञप्ताः कथिता इति । सप्तविधमेवमेव दर्शयति- 'तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा' तद्यथा'पढमा पुढची रया' प्रथम पृथिवीनैरयिकाः प्रथमायां रत्नप्रमापृथिव्यां समुदद्भवा नारकाः प्रथमपृथिवीनारका इत्यर्थः 'दोच्या पुढवी नेरइया' द्वितीय पृथिवीनैरयिकाः द्वितीयस्यां शर्कराभापृथिव्यां समुद्भवा नैरयिकाः द्वितीयसंसारसमावन्नणा जीवा' संसार समापनक जीव चार प्रकार के हैं 'ते एमासु' उन्होंने इस सम्बन्ध में ऐसा कहा है- 'णेरड्या तिरिवखजोणिया, मणुस्सा, देवा' नैरथिक (१) तिर्यग्योनिक (२) मनुष्य (३) और देव (४) इक तरह नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव के भेद से संसारी जीव चार प्रकार के कहे गये हैं ।
'से किं तं णेरइया' हे भदन्त ! नारकों का क्या लक्षण है और कितने उनके भेद हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं- 'रया सत्तविहा पन्नत्ती' हे गौतम! नैरविक सात प्रकार के कहे गये है 'तं जहा-' जैसे- 'पढमा पुढवी णेरइया' प्रथम पृथिवी के नैरधिक- रत्न प्रभा नाम की पहिलि पृथिवी में उत्पन्न हुए नैरयिक 'दोच्चा पुढवी नेरहया' द्वितीय पृथिवी जीवा " संसारी लो यार अहारना ४ह्या छे, " एवमाहं " तेमोथे या सौंभ'धमां खेवु ं ऽधुं छे. जे 'रइया तिरिक्खजोणिया मणुस्सा देवा' नैरथि४ (१) तिर्यग्योनिङ (२) मनुष्य (3) मने देवे। (४) आ रीते नार४, तिर्यय मनुष्यो અને દેવેના ભેદથી સસારી જીવા ચાર પ્રકારના કહેલા છે.
" से किं तं रइया" हे भगवन् नारअनु शुक्षय हे ? सा प्रश्नना ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમસ્વામીને કૅડેછેકે " रइया सत्तविहा पण्णत्ता" हे गीतभ नैरयि । सातप्रहारता ह्या छे, "तं जहा " ते भाभ- 'पढमा उत्पन्नथयेसा नैरयि । १, शर्माशयमा पृथ्वीम
पुढवी रइया' पडेली रत्नप्रभा नामनी पृथ्वीमा 'दोच्चा पुढवी रइया' श्रील पृथ्वीना नैरथि। मेटखे
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमसूत्रे
पृथिवीनैरयिका इत्यर्थः । 'तच्चापुढवी णेरइया' तृतीय पृथिवीनैरयिका स्तृतीयस्यां पृथिव्यां समुद्भवा नारका स्तृतीय पृथिवीनारका इत्यर्थः ' चउत्थी पुढवी 'रइया' चतुर्थ पृथिवीनैरयिकाः चतुर्थ्यां पृथिव्यां समुद्भवा नारका चतुर्थपृथिवी नारका इत्यर्थः ' पंचमी पुढवी णेरइया' पञ्चम पृथिवीनैरयिकाः पञ्चम्यां पृथिव्यां समुद्भवा नैरयिकाः पञ्चमपृथिवी नैरयिका इत्यर्थः । 'छट्ठी पुढवी णेरड्या ' पष्ठपृथिवी नैरयिकाः षष्ठयां पृथिव्यां समुद्भवाः नैरयिकाः 'सत्तमी पुढवी रइया' सप्तमपृथिवी नैरयिकाः सप्तम्यां पृथिव्यां समुद्भवा नैरयिकाः सप्तम पृथिवीनैरयिका इत्यर्थः तथा च नारक पृथिवीनां सप्तविधत्वात्तदाश्रिता नारक जीवा अपि सप्तप्रकारका भवन्ति आधारभेदेनाधेयभेदस्यावश्यकत्वादिदि । सम्प्रति प्रति पृथिवीनाम, गोत्रं वक्तव्यमिति तत्र - नाम गोत्रप्रतिपादनार्थमाहके नैरथिक - द्वितीय शर्करा प्रभा पृथिवी में उत्पन्न हुए नैरयि २, 'तच्चा पुढवी णेरइया' तृतीय पृथिवी नैरयिक-तृतीय वालुका प्रभा पृथिवी में उत्पन्न हुए नैरयिक ३, 'चउत्धी पुढवी रह्या' 'चतुर्थी पृथिवी नैरयिक- चौथी पङ्कप्रभा पृथिवी में उत्पन्न हुए नैरयिक ४, 'पंचमी पुढवी
रइया' पांचवीं पृथिवी के नैरयिक पांचवीं धूमप्रभा पृथिवी में उत्पन्न हुए नैरयिक५, 'छट्ठी पुढवी रया छठी पृथिवी के नैरविक छठी - तमा पृथिवी में उत्पन्न हुए नैरयिक ६, और 'सत्तमी पुढवी रइया' सातवीं पृथिवी के नैरधिक सातवीं तमतमा पृथिवी में उत्पन्न हुए नैरयिक७, इस तरह नारक पृथिवीयों की सप्त प्रकारता से तदाश्रित नारक जीवों में भी सप्त प्रकारता कही गई है क्योंकि आधार के भेद से आधेय में भी भेद हो जाते हैं अब इनमें प्रत्येक पृथिवी के नाम और गोत्र उत्यन्न थयेला नैरयि । ' तच्चा पुढवी णेरइया' त्री पृथ्वी ने वासुप्रला નામની છે તેમાં ઉત્પન્ન થયેલા નૈરિયકા ૩, उत्थी पुढची पेरइया' येथी चंअला नाभनी पृथ्वीभां उत्पन्न थयेला नैरथि। ' पंचमी पुढवी णेरइया' પાંચમી પૃથ્વી જે ધૂમપ્રભાનાંમની પૃથ્વી છે, તેમાં ઉત્પન્ન થયેલા નૈરિયકા ૫, 'छुट्टी पुढवी रइया' छुट्ठी पृथ्वी ? तभानाभनी पृथ्वी है, तेमां उत्पन्न थयेला नैरयि ६ मने 'सत्तमी पुढवी पेरइया' सातभी तभस्तभा नामनी પૃથ્વીમાં ઉત્પન્ન થયેલા નૈરયિકો ૭, આરીતે સાત પ્રકારની નારક પૃથ્વી ઠાવાથી તેમાં રહેવાવાળા નારકજીવા પણ સાત પ્રકારના કહ્યા છે. કેમકે—આધારના ભેદથી આધેયમાં પણ ભેદ આવી જાય છે.
C
હવે આ પ્રત્યેક પૃથ્વીના નામ અને તેના ગેાત્રતુ' કથન કરવામાં આવે
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ सू.१ नैरयिकजीवनिरूपणम् 'पढमाण' इत्यादि, 'पढमाण भंते ! पुढवी' प्रथमा खलु भदन्त ! पृथिवी 'कि नामा' किं नाम्मी किमनादिकाल प्रसिद्वान्वर्थरहित नामवती 'किं गोत्रा किमन्वर्थयुक्त नामवती 'पन्नता' मज्ञप्ता-कथितेति प्रश्ना, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'णामेणं धम्मा गोत्तेणं रयणप्पभा' नाम्ना धर्मा गोत्रण रत्नप्रभा तयाचा रस्नानां प्रभा बाहुल्यं यत्र सा रत्नप्रभा रत्नबहुलेत्यर्थः । 'दोच्चाणं भंते ! पुढवी' द्वितीया खल्ल भदन्त ! पृथिवी 'कि नामा किं गोत्तापन्नत्ता' किं नाम्नी कि गोत्रा च प्रज्ञप्तेति प्रश्ना, मगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'णामेणं वंसा गोत्तेणे सक्करप्पभा' नाम्ना द्वितीया पृथिवी वंशा कथ्यते गोत्रेण च शर्कराप्रपा प्रज्ञप्ता, शर्कराणां प्रभा-बाहुल्यं यत्र सा शर्कराप्रमा शर्करा बहुलेत्यर्थः ‘एवं एएणं अभिलावेणं सवासिं पुच्छा' एवम् कहते हैं-'पढमाणं भंते ! पुढची किं नामा कि गोत्ता' हे भदन्त ! प्रथम पृथिवी किल नाम वाली है ? किस गोत्र वाली हैं? क्या वह अनादि काल से प्रसिद्ध अन्धर्थ रहित नाम वाली है ? या अन्वर्थ युक्त नाम वाली है ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रक्षु कहते हैं-'गोधमा ! नामेणं धम्मा गोत्तेणं रयणप्पभा' हे गौतम! प्रथम पृथिवी नाम से धर्मा है और गोत्र से रत्न प्रभा है क्योंकि रत्नों की प्रमा अर्थात् बाहुल्य यहां रहता है इसलिये यह सार्थक गोत्र घाली है 'दोच्चाणं भंते पुढची किं नामा कि गोत्सा पन्नत्ता' हे भदन्त ! द्वितीय पृथिवी किस नाम वाली और किस गोत्र वाली है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! नामेणं वंसा-गोत्तेणं सकरप्पमा' हे गौतम ! द्वितीय पृथिवी नाम से वंशा है और गोत्र से शर्करामभा है क्योंकि यहां पर शर्करा की पभा का बाहुल्य है 'एवं एएणं छे. 'पढमा णं भते ! पुढवी किं नामा किं गोत्ता' सन् ५७दी पृथ्वीनु'शु નામ છે? અને તેનું શેત્ર શું છે? શું તે અનાદિકાળથી પ્રસિદ્ધ અન્તર્થ રહિત-વિનાના નામવાળી છે ? અથવા અવર્થ ગ્યનામવાળી છે ? આ પ્રશ્ન न। न्तरमा प्रभु गौतम स्वामी ४ छ है ‘गोयमा! णमेणं घम्मा गोत्तेणं રચનqમાં” હે ગૌતમાં પહેલી પૃથ્વીનું નામ છે, અને તેનું ગોત્ર રત્નપ્રભા છે. કેમકે રનની પ્રભા અર્થાત તેમાં રત્નનું અધિકપણું રહે છે. તેથી તે साथ गात्रवाणी छे. 'दोच्चा णं भंते ! पुढवी किं नामा किं गोता पण्णत्ता' है ભગવન બીજી પૃથ્વીનું શું નામ છે ? અને તેનું ગોત્ર શું છે? આ પ્રશ્નના उत्तरमा प्रसु ४३ छे 'गोयना ! नामेणं वंसा गोत्तेणं सकरप्पभा' गीतमा બીજી પૃથ્વીનું નામ વંશા છે, અને તેનું ગોત્ર શર્કરા પ્રભા છે. કેમકે ત્યાં शरानी प्रभानु मधिल पा २ छे. 'एवं एएणं अभिलावेणं सव्वासिं
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
___ जीवामिगमस्से उपरिदर्शितामिलापेन प्रकारेण सर्वासां पृथिवीनां पृच्छा यथोक्तरूपेण सर्वत्र प्रश्नः करणीय इत्यर्थः । तथाहि-'णामाणि इमाणि' नामाणि आसां सप्तानां पृथिवीनाम् इमानि तथाहि-'सेला' इति नाम तृतीयस्याः 'अंजणा चउत्थी' अञ्जनेतिनाम चतुर्थ पृथिव्याः। 'रिता पंचमी' रिप्टेति नाम पञ्चम-पृथिव्याः। 'मघा छट्ठी' मधेवि नाम षष्ठी पृथिव्याः। 'माघवती सत्तमा' माधवती च सप्तम पृथिव्याः नाम भवति 'जाब तमतमा गोत्तेणं पन्नता' यावत् तमस्तमः प्रभा गोत्रेण मज्ञप्ता अत्र यावत्पदेन प्रथमा गोत्रेण रत्नममा द्वितीया गोत्रेण शर्करापमा, तृतीया गोत्रेण वालुकाप्रभा चतुथीं गोत्रोण पङ्कमभाः पञ्चमी गोत्रोण धूमप्रभा अभिलावेण सव्वाप्ति पुच्छा' इसी प्रकार तृतीयादि पृथिवीयों के सम्बन्ध में भी प्रश्न करना चाहिये । ___ 'णामाणि' इत्यादि इनके नाम इस प्रकार है-'सेला'-यह तृतीय पृथिवी का नाम है 'अंजणा' यह चतुर्थी पृथिवी का.नाम है.'रिट्ठा' यह पंचमी पृथिवी का नाम है 'मघा' यह छठी पृथिवी का नाम है 'माघवती' यह सातवीं पृथिवी का नाम है 'जाव तमतमा गोतेणं पन्नत्ता' यावत्पद से यहां ऐसा समझाया गया है कि 'रत्नप्रभा' यह प्रथम पृथिवी का गोत्र है 'शरा प्रभा' यह द्वितीय पृथियो का गोत्र है 'चालु का प्रभा' यह तृतीय पृथिवी का गोत्र है 'पङ्कप्रभा' यह चतुर्थी पृथिवी का गोत्र है 'धूम प्रमा' यह पंचमी पृथिवी का गोत्र है 'तमः प्रभा' यह छठी पृथिवी का गोत्र है और 'तमस्तमः प्रभा' यह सातवीं पृथिवी का gછા' આજ પ્રમાણે ત્રીજી, એથી વિગેરે પૃથ્વીના સંબંધમાં પણ પ્રશ્ન પૂછવા જોઈએ
___णामाणि' त्याहि तेना नामी भाप्रमाणे छे. 'सेला 'श्री पृथ्वीनु नाम शता छ. ' अंजणा ' याथी पृथ्वीनु नाम ना . ' रिष्टा' पांयभी पृथ्वीन नाम रिटा छे. ' मघा ' छी पृथ्वीनु नाम भधा से प्रभार छे. • माधवती ' सातभी पृथ्वीनु नाम माधवती छे. जाव ' तमतमा गोत्तेणे Homત્તા” યવાદથી અહિયાં એવું સમજવું જોઈએ કે “રત્નપ્રભા એ પહેલી પૃથ્વીનું નેત્ર છે “શર્કરામભા” એ બીજી પૃથ્વીનું ગોત્ર છે. “વાલુકાપ્રભા” એ श्रीछ पृथ्वीनु मात्र छे. '५५मा' से याथी पृथ्वीनु गोत्र छ. 'धूमप्रमा' એ પાંચમી પૃથ્વીનું ગોત્ર છે. “તમ પ્રભા’ એ છઠી પૃથ્વીનું નેત્ર છે અને સમક્તમપ્રભા એ સાતમી પૃત્રીનું ગોત્ર છે. તેના આલાપકે આ પ્રમાણે છે.
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेrधोतिका टीका प्र. ३ सू.१ नैरयिकजीवनिरूपणम्
षष्ठी गोत्रेण तमः प्रभा - एतदन्त पृथिव्याः ग्रहणं भवतीति । आळायकाचेत्थम् - 'तच्चाणं भंते ! पुढवी किं नामा कि गोता ? गोयमा ! नामेण सेळा, गोत्रोण वालयमा चउत्थी ते ! पुढवी कि नामा किं गोता ? गोयमा ! नामे अंनणा गोत्तेण पंकप्पा |४| पंचमाणं भंते! पुढवी किंनामा किं गोता ? गोयमा ! नामेगं रिट्ठा गोते धूमप्पा ५ । छट्टाणं भंते! पुढवी कि नामा किं गोता ? गोयमा ! नामेणं मघा गोत्रोणं तमप्यमा ।६ सत्तमाणं भंते ! पुढची किं नामा कि गोत्ता ? गोयमा ! नामेणं माघवई गोत्तणं तमनमप्यमा ७।' इवि व्याख्या- 'तच्चाणं भंते! पुढवी' तृतीया खलु भदन्त ! पृथिवी 'किं नामा किं गोत्ता पत्रता' किं नाम्नी कि गोत्रा च प्रज्ञप्ता १ भगवानाह - हे गौतम | नाम्ना शैला गोत्रेण बालुकाममा, बालुकायाः मभा बाहुल्यं यत्र सा वालुका बहुलेत्यर्थः 'चउत्थी भंते! पुढवी' चतुर्थी खल भदन्त ! पृथिवी 'किं नामा किं गोत्ता पत्ता' किं नाम्नी किं गोत्रा च प्रप्ता भगवानाह - हे गौतम! नाम्ना अञ्जना गोत्रेण पङ्कपमा पङ्कस्य प्रभा - बाहुल्यं यत्र सा पङ्कभा पङ्कवहुलेत्यर्थः 'पंचतीर्ण भंते! पुढवी' पञ्चमी खल भदन्त । पृथिवी 'किं नामा कि गोत्ता पन्नत्ता' कि गोत्र है । आलापक इस प्रकार होते हैं- जैसे- 'तच्चाणं' इत्यादि । 'तच्चाणं भंते! पुढवी कि नामा कि गोत्ता' हे भदन्त ! तृतीय पृथिवी का क्या नाम है और कौन गोत्र है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं 'गोयमा' तृतीय पृथिवी नाम से शेला है और गोत्र से बालुका प्रभा है क्योंकि बालुका की प्रभा बाहुल्य यहां पर है 'वस्थीणं भंते! पुढवी कि नामा किं गोता' हे भदन्त । चतुर्थी पृथिवी किस नाम वाली और किस गोत्र वाली है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं - 'गोयमा' हे गौतम! चतुर्थी पृथिवी नाम से तो अञ्जना है और गोत्र से पङ्कप्रभा है क्योंकि पङ्क कीचड का बाहुल्य यहां रहता है 'पंचमीर्ण भंते । पुढवी' हे भरन्त ! पांचवीं भडे ' तच्चाणं' छत्यादि 'तच्चाणं भंवे ! पुढवी किं नामा किं गोत्ता ' હે ભગવન્ ત્રીજી પૃથ્વીનું શુ નામ છે ? અને તેનુ ગેાત્ર શુ છે ? આ प्रश्नना उत्तरभां अलु गौतम स्वामीने अछे 'गोयमा !' हे गौतम! श्रील પૃથ્વીનું નામ શૈલા છે. અને તેનુ' ગાત્ર વાલુકાપ્રભા' છે કેમકે તેમાં વાલુકાની अलानु अधियाशु रहे छे, 'चउत्थी णं भंते! पुढवी किं नामा किं गोत्ता' હે ભગવન્ ચેાથી પૃથ્વીનું શુ નામ છે? અને તેનુ' ગાત્ર શુ છે ? આ પ્રશ્નના उत्तरमा अनु ! 'गोयमा ! ' ' हे गौतम! थोथी पृथ्वीतुं नाम संनना ' એ પ્રમાણે છે. અને તેનુ' ગાત્ર ‘ પકપ્રભા ' છે, કેમકે તેમાં પંક એટલે કે अहवतु अधिङ पालु रहेतुं छे. ' पंचमीण भंते ! पुढवी ' हे भगवन् पांयभी
•
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमसूत्रे
नाम्नी कि गोत्रा च मज्ञप्ता, भगवानाह - 'गौतम ! नाम्ना शिटा गोत्रेण धूमप्रभा धूमस्येव प्रभा यस्याः सा धूमगभा । 'छट्टीणं भंते ! पुढची' पाठी खलु भदन्त ! पृथिवी 'कि नामा कि गोत्ता पन्नता' किं नाम्नी कि गोत्रा च मशष्ठा, भगवानाह - हे गौतम! नाम्ना मघा गोत्रेण तमःप्रभा तमसोऽन्धकारस्य ममा बादल्य यत्र सातमः प्रभा बहुलेत्यर्थः । 'सत्तमी णं भंते ! पुढी' सप्तमी खलु भदन्त ! पृथ्वी 'किं नामा कि गोत्ता' किं नाम्नी कि गोत्रा च मज्ञप्ता, भगवानाह - हे गौतम ! नाम्ना माघवती गोत्रेण तमस्तमः प्रभा, तमस्तमसः प्रकृष्टतमसः प्रभाबाहुल्य यत्र सा तमस्तमः प्रभा प्रकृष्टतमो बहुलेत्यर्थ तदुक्तम्- |
धम्मा वंसा सेळा अञ्जगरिया मघाय माघवई । सत्तणं पुढवीणं एए नामाउ नावा ॥१॥
पृथिवी किस नाम वाली और किस गोत्र वाली है ? उत्तर में प्रभु कहते कहते हैं - हे गौतम! पांचवी पृथिवी नाम से रिष्टा है और गोत्र से धूमप्रभा है- क्योंकि धूम के प्रभा जैसी प्रभा यहां रहती है । 'छट्टेणं भंते पुढवी' हे भदन्त ! छठवीं पृथिवी किस नाम वाली और किम गोत्र वाली है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-गौतम ! छटवीं पृथिवी नाम से मघा है और गोत्र से तमः प्रभा है क्योकि यहां अन्धकार की प्रभा का बाहुल्य रहता है 'सत्तमीगं भंते! पुढवी' हे भदन्त ! सातवीं पृथिवी किस नाम वाली और किस गोत्र पाली है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं - हे गौतम ! सातवीं पृथिवी नाम से माघवती है और गोत्र से तमस्नमः प्रभा है- क्योंकि यहां पर गाढ अन्धकार का बाहुल्य होता है जैसे कहा
.
પૃથ્વીનુ' શું નામ છે ? અને તેનુ ગેાત્ર કયું છે ? તેના ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે छे 'गोयमा' ! हे गौतम! पांयमी पृथ्वी नाम रिष्ठा छे अने तेनुं गोत्र
(
ધૂમપ્રભા ’ છે. કેમકે ધૂમાડાની પ્રભા જેવી પ્રભાનુ 'छट्टीणं भंते ! पुढवी' हे भगवन् छठी पृथ्वीतुं गोत्र शुद्ध छे ? या प्रश्नना उत्तरमा अनु उहे छे છટ્ઠી પૃથ્વીનુ નામ મઘા છે. અને અંધકારની પ્રભાનું વિશેષ પશુ રહે છે
તેનુ ગાત્ર
<
'सत्तमीणं भंते! पुढवी '
હે ભગવન્! સાતમી પૃથ્વીનુ શુ નામ છે? मने तेनु गोत्र शु छे ? तेना उत्तरमा अनु डे छे } 'गोयमा !' हे गीतभ સાતમી પૃથ્વીનું નામ 'भाधवती !' थे प्रभाये छे. अने तेनु गोत्र तभस्तभ પ્રભા એ પ્રમાણેનું છે. કેમકે તેમા ગાઢ અંધારાની વિશેષતા રહેલી છે. જેમ
અધિપણ તેમાં રહે છે
शु नाम है ? अने तेनु
'गोयमा !' हे गौतम! ‘તમઃપ્રભા’ છે. કેમકે તેમાં
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ सू.१ नैरयिकजीवनिरूपणम्
रयणा सक्कर बालुय पंका धूमा तमाय तमतमाय स्वतण्डं पुढवीणं एए गोचा मुणेयया ॥२ 'धर्मा वंशा शैला अञ्जनारिष्टा लघा च माधवति । सप्तानां पृथिवीला तानि नामानि तु ज्ञातव्यानि ॥१॥ . रत्ना शारा बालुका पङ्का धूमा तमा च तमस्तमा ।
सप्तानां पृथिवीनामे शनि गोत्राणि ज्ञातव्यानि ॥२॥ इतिच्छाया । सम्प्रति प्रति पृथिवी बाहुल्यदमिधातुमाह-'इमाणं मंसे ! इत्यादि, 'इमाणं भंते ! इयं खलु भदन्त ! 'ह्मणप्पमा पुढी' रत्नप्रभा पथमा नारकपृथिवी 'केवइया व हल्लेणं पन्नता' भियता वाहत्येन स्थौल्पेन प्रज्ञप्तेति प्रश्ना, भावा. नाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'इमाणं रयणप्पभा पुढवी' इयं खल्लु रत्नपमा पृथिवी 'असी उत्तरं जोयणसवसहस्सं बाहल्लेणं पन्नत्ता' अशीत्युत्तरं योजनशतसहस्र वाइल्येन प्रज्ञप्ता-कथिता, अशीति योजनसहस्रा. धिकैकलक्षयोजनपरिमितं रत्नपमा पृथिव्याः स्थूलत्वमित्यर्थः । 'एवं एएणं है-'धम्मा वंशा, लेला' इत्यादि । तात्पर्य यह है-धर्मा, वंशा, शेला, अचना, रिष्टा, मघा एवं माघवती ये सात पृथिवियों के क्रमशः ७ सात नाम है, तथा रत्ला, शर्कश, बालुका, पका, धूमा, तमा और तमस्तमा, ये छाल पृथिवियों के प्रमशः ७ सात गोत्र हैं।
अब सूत्रकार हर एक पृथिवी का बाहुल्य-स्थूलता-मोटाइ कहते है-'इमाण भंते ! रयणपभा पुढथी केवइया बाहल्लेणं पमत्ता' हे भद. न्त ! यह रत्नप्रभा पृथिवी कितनी मोटाइ वाली है ? उत्तर में भगवान कहते हैं 'असी उत्तर जोयण सयसहस्सं वाहल्लेण पन्नत्ता' हे गौतम ! प्रथम पृथिवी की मोटाई एक लाख अस्सी हजार योजन की है एवं ४थुछ है 'धम्मा वंखा खेला' त्याहि म गाथानु ता५य धर्मा
शा, शमा, मना, Pिष्टा, मघा, भने माधवती, सात पृथीयाना भश: सात नाभा छे. तथा २त्ना, शश, वायु, ५४, धूमा, अन तमा. અને તમસ્તમાં આ સાત પૃથ્વીના ક્રમશઃસાત ગોત્ર છે.
હવે સૂત્રકાર દરેક પૃથ્વીનું બાહુલ્ય અધિકપણું, અર્થાત્ સ્કૂલપણાનું ४थन ४२ छे. 'इमाणं भंते ! रयणप्पभा पुढवी केवइया काहल्लेणं' हे समपन् मा રત્નપ્રભા પ્રવી કેટલી વિસ્તાર વાળી કહેલી છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભ गीतमस्वामीन छ है 'असी उत्तर जोयणखयसहस्सं वाहल्लेणं पन्नता' હે ગૌતમ! પહેલી પૃથ્વીને વિસ્તાર એક લાખ એંસી હજાર એજનને છે, “gs
जी० २
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
जीवामिगमा अभिलावेणं' एवं रत्नप्रभा वाहुल्याभिलापेन 'इमा गाहा' इयं गाथा-द्वितीयादि । तत्तत्पृथिवी बाहल्यप्रतिपादिका 'अणुगंतव्या' अनुगन्तव्या अनुसरणीया, तथाहि-'असीयं' इत्यादि, 'असीय' इति रत्नप्रभा पृथिव्या बाहल्यं सूत्र एवं कथितम् १। द्वितीय शर्कराममा पृथिव्याः 'बत्तीस' इति द्वात्रिंशत्सहस्रयोजनाभ्यधिकशतसहायोजनपरिमितं बाल्यम् २ । तृतीय वालुकाममा पृथिव्याः 'अट्ठावीसं' इनि-अष्टाविंशति सहस्त्ररोजनाम्यधिकैकशतसहस्त्रयोजनपरिमितं बाहम्यम् ३ । 'सहेब' तथैव-तेनैव प्रकारेण चतुर्थ पङ्कममा पृथिव्याः 'वीसंच' इति विशति सहस्रयोजनाभ्यधिकशतसहस्रपरिमितं वाइल्पम् ४ । पञ्चम धूमममा पृथिव्याः 'अट्ठारह' इति-अष्टादश सहस्रयोजनास्यधिकशत सहस्रयोजन परिमितं बाहल्यम् ५ । षष्ठतमः यमा पृथिव्याः 'सोलसगं' पोडशसहस्रथोजनाभ्यधिकशत सहस्रयोजनपरिमितं वाहल्या ६ । सप्तम तमस्तमा प्रभा पृथिव्याः 'अछुत्तरमेव हिडिमिया' भधस्तनाया अष्टसहस्रयोजनाभ्यधिकशत सहस्रयोजन परिमितं वाहल्यमस्तीति । एवं सर्दासां पृथिवीनां बाहल्यमदगन्तव्यमिति ॥१॥ एएणं अभिलावण' इसी तरह इस अभिलाप के अनुसार 'इमा गाहा भणुगंतव्चा इस गाथा का अनुगमन करना चाहिये-वह गाथा-इस प्रकार है-'असीयं धत्तीसं' इत्यादि इस गाथा का तात्पर्य ऐसा है-प्रथम पृथिवी की बोटाई एक लाख अस्सी हजार योजन की है दूसरी पृथिवी की मोटाई एक लाख बत्तीस हजार योजन की तीसरी पृथिवी की मोटाई एक लाख अठाईस हजार योजन की है चौथी पृथिवी की मोटाई एक लाख धीच हजार योजन की है पांचही पृथिवी की मोटाई एक लाख अठारह हजार योजल की है छठी पृथिवी की मोटाई एक लाख सोलह हजार योजन की है तथा लातवी पृथिवी की मोटाई एक लाख आठ हजार योजन की है। स० ॥१॥ एएणं अभिलावेणं' मे०४ शत मा समिक्षा५ प्रमाणे 'इमा गाहा अणुगंतव्वा' म गाथातु सतुगमन-मनुस२५ ४२ . ते गाथा मा प्रभागेनी छे. 'अस्रीयं बत्तीस' त्याहिम थातुं तात्५ मे छे हैं पसी पृथ्वीना વિસ્તાર એક લાખ એંસી હજાર જન પર્યત છે. બીજી પ્રથ્વીનો વિસ્તાર એકલાખ બત્રીસ હજાર એજનને છે. ત્રીજી પૃથ્વીને વિસ્તાર એક લાખ અઠયાવીસ હજારજનને છે એથી પૃથ્વીનો વિસ્તાર એકલાખ વીસ હજાર
જનને છે. પાંચમી પૃથ્વીને વિસ્તાર એક લાખ અઢાર હજાર જનને છે. છઠી પૃથ્વીને વિસ્તાર એક લાખ સેળ હજાર એજનને છે. તથા સાતમી પૃથ્વીને વિસ્તાર એકલાએ આઠ હજાર જનો છે. | સૂ ૧ |
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेययोतिका टीका प्र. ३ . २ रत्नप्रभा पृथिव्याः मेदनिरूपणम्
मूलम् - इमा णं भंते ! रयणप्पभा पुढदी कहविहा पन्नत्ता, गोयमा ! तिचिहा पन्नता तं जहा खरकंडे पंकबहुले कंडे आव बहुलेकंडे इमीसे णं भंते! रयणप्पसा पुढवीण खरकंडे कइ विहे पन्नत्ते गोयमा ! सोलसविहेपन से से जहा - रयणकंडे बहरे२, बेरुलिएर, लोहियक्खकंडे ४, मसारले ५, हंसगब्भे६, पुल ए७, सोगंधिएट जोतिर से९ अंजणे १० अंजणपुलए ११, स्थप१२, जायरूये १३, अंके १४, फलिहे १५, रिटेकंडे १६, इसीसे णं भंते । रयणप्पभाष पुढवीए रणकंडे कवि पण्णत्ते गोयमा ! एगागारे पत्ते एवं जाव रिट्टे । इमीसेर्ण भंसे ! रयणप्पमा फुटवीय पंकबहुले कंडे कइ विहे पन्नत्ते ? गोयमा ! गागारे पन्नते । एवं आबबहुले कंडे कड़विहे पन्नत्ते ? गोयमा ! एगागारे पन्नत्ते । सकरप्पभाणं भंते ! पुढवी कइ विहा पन्नता ? गोयमा ! एगागारा पन्नता एवं जाव आहे सन्तमा ॥सू० २॥
छाया - इयं खलु भदन्त ! रत्नमया पृथिवी कविविधा प्रज्ञप्ता ? गौतम ! त्रिविधा मज्ञप्ता घथा - खरकाण्डम् १, पबहुलं काण्डम् रे, अन्हुलं काण्डम् ३, अस्यां खलु भदन्छ ! रत्नममापृथिव्यां खरकाण्ड कविविधं प्रज्ञप्तम् ? गौतम ! षोडशविधं प्रज्ञप्तम् । तद्यथा - रत्नकाण्डम् १, ६२, बैडूर्यम् २, कोहिताक्षम् ४, मसारगल्लम् ५, गर्भम् ६, पुलकम् ७, सौगन्धिक, ८, ज्योतीरसम् ९, अञ्जनम् १०, अञ्जनपुकाकम् ११, रजतम् १२, जातरूपम् १३, अङ्कम् १४, स्फटिकम् १५, रिष्टंकाण्डम् १६, एतस्यां खलु भदन्त ! रत्नप्रभा पृथिव्यां रत्नकाण्ड कतिविध प्रज्ञप्तम् ? गौतम ! एकाकारं ज्ञप्यम् । एवं यावद्रिष्टम् । एतस्यां खलु भदन्त ! रत्नप्रभा पृथिव्यां पङ्कबहुलं काण्ड कतिविधं मम् ? गौतम ! एकाकारं प्रज्ञप्तम् । एवमबहुलं काण्ड कविविधं मज्ञप्तम् १ गौतम ! एकाकारं प्रज्ञप्तम् । शर्कराममा खलु भदन्त ! पृथिवी कतिविधा मज्ञप्ता? गौतम ! एकाकारा मज्ञप्ता एवं यावदधः सप्तमी ||०२||
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमसूत्रे
टीका- 'इमा णं भंते ।' इयं खलु भदन्त | 'रयणप्पभा पुढची' रत्नमभा पृथिवी ' कइविहा पन्नत्ता' कतिविधा - कतिप्रकारका प्रवता - कथितेति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'तिविध पन्नत्ता' त्रिविधात्रिपकारिका प्रज्ञप्ता - कथिता, मकारत्रयं दर्शयति 'तं जहा ' इत्यादि, 'तं जहा ' तद्यथा - 'खरकंडे' खरकाण्डम् काण्ड नामविशिष्टो भूभाग खरं कठिनम् तथा च कठिन भूमागः खरकाण्डम् | 'पङ्कचहुले कंडे' पबहुलं काण्ड द्वितीयम्, पङ्कस्य कर्दमस्य बहुलता - आधिक्यं विद्यते यत्र तादृशं काण्डं पबहुलं काण्डमिति । 'आवबहुले कंडे' अबहुलं काण्डम् अपो जलस्य बाहुल्य माविक्यं विद्यते यत्र तादृर्श काण्डमन्बहुलं काण्डम् तत्तृतीयमिति, वदेनं खरकाण्ड पङ्कत्रहुलकाण्डा
१२.
अब सूत्रकार रत्नप्रभा आदि पृथिवी सम्बन्धी भेदों के प्रकार कहते हैं'इमाणं भंते ! रयण पभा पुढवी षड् विहा पन्नत्ता' - इत्यादि ।
1
टीकार्थ- गौतम ने प्रभु से ऐसा पूछा है- 'माणं भेते ! रयणप्पभा पुढवी कहविहा पत्ता 'हे भदन्त ! यह रत्नप्रभा पृथिवी कितने प्रकार की कही गई हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं - 'गोधमा । तिविहा पन्नत्ता' 'हे गौतम! रत्नप्रभा पृथिवी तीन प्रका की कही गई है 'तं जहा' जैसे'खरकंडे' खरकाण्ड विशिष्ट भूभाग का नाम काण्ड है कठिन का नाम खर है तथाच - कठिन जो भूभाग है वह खरकाण्ड है 'पंक बहुले कंडे' इस काण्ड में पड़ - कीचड़ की बहुलता है इसलिये इस काण्ड का नाम 'पङ्क बहुखकाण्ड' ऐसा कहा है वहुले कंडे' इस काण्ड में पानी की अधिकता है इसलिये इसे आवहुलकाण्ड कहा है इस तरह खरહવે સૂત્રકાર રત્નપ્રમા વિગેરે પૃથ્વીએના ભેદોનું કથન કરે છે 'इमाणं भंते रयणप्पभा पुढवी कइविहा पण्णत्ता' इत्याहि
टीडार्थ-गौतभस्त्राभीमे प्रभुने सेवा प्रश्न पूछयो छे 'इमा णं भंते ! रयreter पुढवी कविद्दा पण्णत्ता' हे लगवन् मा रत्नप्रमा पृथ्वी डेंटला प्रार नी उही छे ? या प्रश्नना उत्तरमा अनु छे 'गोयमा ! तिविहा पण्णत्ता' - गौतभा रत्नप्रला पृथ्वी त्रयु अारनी उड्डी छे. 'त जहा' ते त्रयु अारो 'खरकंडे' 'अर अँड विशिष्ट लूलागनु नाम डांड, नेपथानु નામ પર છે. તેથી કઠણુ એવા જે ભૂસાગ-પૃથ્વીના પ્રદેશ હોય તે ખરકાડ 'डेवाय छे. 'पंकबहुले कडे' ने मां य हव विशेषपयामां होय तेने પક બહુલ કાંડ' કહે છે. તેથી આ કાંડનુ નામ પંક બહુલ કાંડ એ પ્રમાણે छे.' 'आवबहुले कडे' ने अंडमां पाली अधिया होय तेवा अंडने 'छे. आ रीते भरमांड, उठ, अने हुडना
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ लू.२ रत्नामाथिव्याः मैदनिरूपणम् बहुकाण्ड भेदेन रत्नयमा पृथिवी विविधा भवतीति । 'इमीसेणं भंते' एतस्या खल्नु भदन्त ! 'रयणपमा पुढबीए' रत्नप्रभा पृथिव्याम् 'खरकंडे कइविहे पन्नचे' खरकाण्ड कतिविधं कतिपकारक प्रज्ञप्तं कथितमिलि प्रश्ना, भगवानाह'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'सोलसबिहे पन्नत्ते' पोडशविधं पोडश प्रकारकं प्रज्ञप्तं कथिसम् ? षोडशविध भेदं दर्शयति-तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा' तथया-'रयणकंडे' रत्नकाण्डम्. रत्नानि-मर्कतादीनि तस्मधान काण्डं रत्नकाण्डं प्रथमम् १॥ 'वइरे' वज्रम्-काण्डपदस्य मत्येकस्मिन् अन्वयस्तेन बनकाण्ड मित्यर्थः वनमिति हीरकम् वज्रपान काण्डं वनकाण्डं द्वितीयम् २ । 'वेरुलिए' वैड्यकाण्डं वैडूर्यरत्नप्रधानकं काण्डं वैडूर्यकाण्डं तृतीयत् ३ । 'लोहियक्खे' लोहिताक्ष काण्डम्-लोहिताक्षरत्नाधान काण्ड लोहिताक्षकाण्डं चतुर्थम् ४ 'मसारमल्ले' काण्ड, पङ्ककाण्ड, और अब्बहुलकाण्ड के भेद से रत्नप्रभा पृथिवी तीन प्रकार की होती है 'इमीले भंते ! रयणप्पमा पुढवीए खरकंडे काविहे पत्ते' हे भदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी को जो खरकाण्ड है वह कितने प्रकार का कहा गया है ? उत्तर में प्रश्री कहते है-'गोयमा! सोलसविहे पन्नत्ते' हे गौतम ! खरकाण्ड लोलह प्रकार का कहा गया है 'तं जहा' जैसे-'स्यणकंडे' रत्नकाण्ड यह रत्नकण्ड मरमत आदि रत्नों की प्रधानता वाला है । 'वहरे शज काण्ड काण्ड पदका प्रत्येक के साथ अन्धय है अतः यहां वन्न शब्द के साथ काण्ड शब्द का योग कर लेना चाहिये इस तरह बज्र काण्ड बज्र-हीरे का नाम है धन की प्रधा. नातावाला काण्ड बज्र काण्ड दूसरा काण्ड है। 'वेरूलिए' वैडूर्य काण्ड-इस काण्ड में वैडूर्य रत्नों की प्रधानता है 'लोहियाक्खकंडे' लोहिताक्षकाण्ड मेथी २त्नप्रभावी तर प्रानी थाय छे. 'इमीसे ण रयणप्पभापुढवीए खर कंडे कइविहे पन्नत्ते' हे सगवन् ! २५ पृथ्वीनारे २४i छ त કેટલા પ્રકારને કહેવામાં આવેલ છે. આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે છે કે 'गोयमा! सेलसविहे पण्णत्त' 3 गीतमा ५२४is सो मारने ४ छे. 'तं जहा' ते | मा प्रमाणे छ. 'रयणकंडे' २५is; मा २is भ२४ विगैरे रत्नानी प्रधानतावणे! छे. 'वइरे' qasis, ris पहने ४२४नी સાથે સંબંધ રહે છે. તેથી અહિયાં વજી શબ્દની સાથે કાંડ શબ્દને વેગ કરવાથી વાકાંડ એ પ્રમાણે કહેવાય છે. વજી એ હિરાનું નામ છે, વજીની પ્રધાનતા વાળા પ્રદેશનું નામ વજી કાંડ કહેવાય છે. વજા કાંડ એ બીજો કાંડ છે, 'वेरुलिए' पैडूय ४is-Hisभा पंड्य २ल्नाल, प्रधानपा २हेछ, 'लोहिय
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमस्त्र मसारगल्लकाण्डं पश्चमम् ५, 'हंसगम्भे सगर्भ काण्ड पप्ठम् ६ । 'पुलर' पुलक काण्डम्, सप्तमम् ७ 'सोगंधिए' सौगन्धिक काण्डमष्टमम् ८ 'जोतिरसे' ज्योतीरसकाण्डं नवमम् ९ 'अंजणे' अञ्जनकाण्डं दशमा १० 'अंजणपुलए अञ्जनपुलाक काण्डमे कादशम् ११ 'रयते' रजतकाण्डं द्वादशम् १२ 'जायरू' जातरूप काण्डं त्रयोदशम् १३ 'अंके' अङ्ककाण्डं चतुर्दशम् १४ 'फलिहे' स्फटिककाण्डं पञ्चदशम् १५ रहे कंडे' रेिण्टरत्नकाण्डं पोडशम् १६ एतानि सर्वाणि स्वस्वना. मख्यातानि रत्नान्ये, तदेतत् पोडश प्रकारक खरकाण्डं भवतीति । 'इमीसेणे इस काण्ड में लोहिताक्ष नाम के रस्ना की प्रधानता है 'मसारगल्छे। मसारशल्ल काण्ड-इस काण्ड में मदार गल्लरत्नों की प्रधानता है। 'हंसगठभे हंगसाण्ड-यह हलगर्भ रत्न की प्रधानता वाला उठवा काण्ड है 'पुलए' पुलमाण्ड यह लातवां काण्ड है 'सोगं. थिए' सोगान्धका-यह आठवां काण्ड है 'जोतिरसे' ज्योतिरस. काण्ड-यह नौधा काण्ड है अंजणे' अञ्जन काण्ड, यह दशवां काण्ड है 'अंजा पुलाए' अंजनपुलाफकाण्ड यह ग्यारहवां काण्ड है 'रयए' रजतकाण्ड-यह घारहवां काण्ड है 'जायख्वे' जातरूप काण्ड यह तेरहवां काण्ड है 'अंके' अङ्ककाण्ड-यह चौदहवां काण्ड है 'फलिहे' स्फटिककाण्ड-यह पन्द्रहवां काण्ड है और 'रितु कंडे' रिष्टकाण्ड यह सोलहवां काण्ड है ये सब अपने नाम से प्रसिद्ध रत्न है । इस प्रकार क्खकडे' सोडित's is a Hi Tोडिताक्ष नामना रत्नानु प्रधान रहेछ 'मसारगल्छे' भसा२axis-41 13Hi असार २त्नानु प्रधान पा रा छ. 'हसगम्भे अगम ४is-24t isi साल सत्तार्नु अधि:પણું રહેલું છે. આ હંસગર્ભની પ્રધાનતા વાળા છઠા કાંડનું નામ છે. 'पुलए' Jus sis मा सातमाsis छे. 'सोगंधिए' मा सोधि४४ नमन। मामे xis छ. 'जोतिरसे' नपमा isनु नाम यातिरस ४is ये प्रमाणे छ. 'अंजणे' मन मा शमे xis छ. 'अंजण पुलर' मायाम xis
नाम ' ना ' छे. 'स्यए' मारमi isनाम '२raxis, मे प्रमाणे नु छ. 'जायसवे' तेरमा उनाम त३५ मे प्रभारी छ. 'अंक' योहमा disi नाम म४ से प्रभातु छे 'फलिहे' ५४२मा ४is नाम xिis से प्रभायो छे. 'रितु कंडे' साणमा नाम 'टिis' से प्रभानु छे. આ સઘળા કાંટે પિત પિત ના નામથી પ્રસિદ્ધ રને છે. આ રીતે આ ખર કાંડ સળ પ્રકારને કહેલ છે.
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ सू.२ रत्नप्रभापृथिव्याः भेदनिरूपणम् भंते' एतस्यां खलु भदन्त ! 'रयणप्पभा पुढवीए' रत्नप्रभा पृथिव्यास् 'रयणकंडे' रत्नकाण्डम् 'काविहे पन्नत्ते' कतिविधम्-कति धकारक प्रज्ञप्तं कथितमिति प्रश्नः भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोषमा' हे गौतम ! 'एगागारे पन्नत्ते' एकाकारं रत्नकाण्डं प्रक्षप्तं कथितम् । 'एपं जाव रितु एवं रत्नकाण्डवदेव शवद् वज्ररत्नादारभ्य रिष्टरत्नकाण्डपर्यन्तमपि एकाकारमेव भवति यावत्पदेन वज्रकाण्डादारभ्य स्फटिकमाण्डपर्यन्तस्य संग्रहो भवति तथा च-सर्वमेव रत्नकाण्डादारभ्य रिष्टरत्नकाण्डपर्यन्त काण्ड मेकरकारमेव भवतीति भावः ॥१॥ ___ 'इमीसे णं संसे ! तस्यां खल्ल गृहन्त ! 'स्यणप्पमा पुढीप' रत्नप्रभापृथिव्याम् 'पंकबहुले कंडे कइबिहे पन्नते' एमबहुलं काण्डं ऋतिविधं कति प्रकारकं घज्ञप्तं कथितमिति प्रश्नः, अगवानाह-'गोयसा' इत्यादि, 'गोयमा' से खरकाण्ड सोलह १६ प्रकार का है। 'हनीसेण भंते' हे भदन्त ! इस 'रयणप्पभाए पुढ श्रीए' जत्नप्रभा पृथिवी में जो 'रघणकंडे' रत्नकाण्ड है वह 'काविहे पण्णत्ते' कितने प्रकार का कहा गया है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा' हे गौतम ! 'एगाणारे पन्नत्ते' रत्नकाण्डएक प्रकार का ही कहा गयो है । 'एवं जाव रिडे' इसी प्रकार से थावत् रिष्टकाण्ड भी एक प्रकार का ही कहा गया है ऐसा जानना चाहिये यहां यावत्पद से 'वज काण्ड से लेकर स्फटिकक्षाण्ड-तक के चौदह १४ काण्डों का संग्रह हुआ है । तथा च-रत्नकाण्ड से लेकर रिष्टकाण्ड तक के समस्त ही काण्ड एक प्रकार के ही हैं । 'हनीले णं भले!' हे भदन्त ! इस रयणप्पभा पुढवीए' रत्नप्रभा पृथिवी में 'पंकवहुले कंडे कह बिहे पन्नत्ते' जो दूसरा पङ्क बहुलकाण्ड है-वह कितने प्रकार का कहा गया
'इमीसे णं भंते सावन मा 'रयणप्पभाए पुढवीए' २त्नप्रभा पृथ्वीमा २ 'रयण कंडे' २त्न छ, त 'कइविहे पण्णत्ते' 21 प्रारना । छे. मा प्रशन उत्तरमा प्रभु हे छ'गोयमा!' गीतमा 'एगागारे पन्नत्ते' २नाई मे प्रहारने १ ४ा छे. 'एवं जाव रिटे' से प्रमाणे यावत् रिटsis પણ એકજ પ્રકારને કહેલ છે. તેમ સમજવું અહિયાં યાવત્પદથી વજીકાંડથી લઈને સફટિકકાંડ સુધીના ચૌદ ૧૪ કાંડેને સંગ્રહ થયો છે. તથા રત્નકાંડથી
न Pिexis सुधाना साडी मे४१ प्रारना छे. 'इमीसे णं भंसे है भगवन् 'रयणप्पभा पुढवीए' २त्नप्रभा पृथ्वीमा 'पंकवहले कडे कइविहे पण्णत्त' બીજે જે પંક બહુલકાંડ છે. તે કેટલા પ્રકારને કહ્યો છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रभु ४३ छे , 'गोयमा !' गौतम! ५४ मतxis 'एगागारे पण्णत्ते से
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवाभिगमसूत्र हे गौतम ! 'एगागारे पन्नत्ते' एकाकारमेक पकारक्षमेव पदबहुलं फाडं प्रज्ञप्तं कथितमिति । 'एवं आवबहुले कंडे' एवं हे सहन ! एतस्यां रत्नप्रमाप्रथिव्या मबहुलं काण्डम् 'कविहे एन्नत्ते' कतिविधं कतिपकारकं प्रज्ञातं करितमिति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! हयागारे पन्नत्ते' एकाकारम्-एकप्रकारकमेव अनाहुलं काण्ड प्राप्त कविमिति । 'सरकरप्रमाणं भंते ! पुढवी' शर्कराममा खल्लु मदन ! पृथिवी करिहा पन्नता' फगिविधाकतिप्रकारका प्रज्ञप्ता-कथितेति प्रश्ना, भगवानाह-'गोयमा' हे गौतम ! 'एगा. गारा पन्नत्ता' शर्करामभा पृथिवी एकामाग-एझकारिका प्रज्ञप्ता-वितेति । 'एवं जाव अई सत्तमा' एवं शर्करापभावदेव यावद् बालका-प-धृत-उमः ममा पृथिवी, स्थाऽधः सप्तम्यपि एकाकारा ज्ञातव्याः सर्वत्र प्रशनः उत्तरश्च स्वयमेवोहनीयम् तथाहि-चालुकाप्रभा खलु भदन्त ! पृथिवी कतिप्रकारका है ? उत्तर में प्रशुश्री कहते है-'गोय!' हे गौतम ! पंकयकाण्ड 'एगागारे पत्नत्ते' एक प्रकार का ही कहा गया है। 'एवं अव्यहळे कंडे' इसी प्रकार से हे गौतम ! जो रत्नप्रभा पृथिवी में अबहुलकाण्ड है वह भी 'एगागारे पन्नत्ते' एक प्रकार का ही कहा गया है 'सकराभाणं पुढवी फहविहा पन्नत्ता' हे भदन्त ! जो शर्कराप्रभा पृथिवी है वह कितने प्रकार की कही गई है ? उत्तर में प्रनुश्री कहते है-'गोषमा ! 'एगागारा पन्नत्ता' हे गौतम ! शर्कराप्रभा पृथिवी एक प्रकार की ही कही गई है। 'एवं जाव अहे लत्तमा' इसी प्रकार से यावत् घालुकामभा, पडप्रभा तमःप्रभा पृषिधी और अधः सप्तमी पृथिवी भी एक प्रकार की ही कही गई है। यहां सर्वत्र प्रश्न और उत्तर स्वयं उद् नावित करलेना चाहिये, जैसे-वालुकाप्रभा पृथिवी हे बदन्त ! कितने प्रकार की कही गई है ? हे गौतम ! चालु काममा पृथिवी एक प्रकार की कही गई है। प्रारना ४३३ छे. 'सरप्पभाण पुढरी कइविहा पण्णत्ता' मान शश પ્રભા પ્રવી કેટલા પ્રકારની કહી છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગીતમ स्वामीन है 'गोयमा! एगागारा पण्णत्ता' 3 गौतम ! शरामा पृथ्वी मे २ नी०४ ४ी छे. 'एवं जाव अहे सत्तमा' मा प्रभाये यावत्वयु પૃથ્વી, પંક પ્રભા પૃથ્વી અને અધઃ સપ્તમી પૃથ્વી પણ એક જ પ્રકારની કહી છે. અહિયાં તેના સંબંધમાં પ્રશ્ન અને ઉત્તર વાક સ્વયં સમજી લેવા. જેમકે હે ભગવદ્ વાલુકા પ્રમા પૃથ્વી કેટલા પ્રકારની કહી છે? હે ગૌતમ! વાલુકાકક્ષા પૃથવી એક પ્રકારની જ કહી છે. ફરીથી ગૌતમસ્વામી પૂછે છે કે હે
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ २.३ प्रतिपृथिव्याः नरकावाससंख्यानिरूपणम् १७ प्रज्ञप्ता ? गौतम ! एकाकारा एकप्रकारका प्रज्ञप्ता, पङ्कपमा खल भदन्त ! पृथिवी कतिप्रकारा प्रज्ञप्ता ? गौतम ! एकाकारा-एकमकारा प्रज्ञप्ता इत्यादि रूपेण यावद् अधः सप्तम्या प्रश्न मुत्तरश्च स्वर में व निर्माय विज्ञातव्यमिति ॥२॥
सम्प्रति-प्रतिपृथिवी नरकावाससंख्या प्रतिपादनायाऽह 'इमीसे ण' इत्यादि,
मूकम्-इमीले णं मंते ! रपणप्पभा पुढवीए केवइया निरयावासलयसहस्सा पन्नता ?। गोयमा! तीसं निरयावाससयसहस्सा पन्नत्ता ? एवं एएणं अभिलावेणं सव्वासि पुच्छा, इमा गाहा अणुगंतव्बातीसा य पणवीसा पण्णास दसेव, तिषिण य हवंति । पंचूण लयतहल्सं पंचेव अणुत्तरा गरगा ॥१॥
जाव अहे सत्तमाए पंच अणुत्तरा महइमहालया महागरगा पन्नत्ता तं जहा-काले१, महाकाले२, रोरुए३, महारोरुए४, अपइटाणं५। अस्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे घणोदहीति वा घणवाएइ वा तणुवाएई वा
ओवासंतरेइ वा? हंता अस्थि एवं जाव अहे सत्तमाए ।सू०३॥ __छाया-एतस्यां खलु भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां कियन्ति निरयावासशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! निशन्निरयावासशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि । एव मेतेनाभिलापेन सर्वासां पृच्छा, इमा गाथा अनुगन्तव्या
त्रिंशच्च पञ्चविंशतिः पञ्चदश दशैव, प्रयश्च भवन्ति ।
पश्चोनशतसहसं पञ्चैवानुत्तरा नरकाः ॥१॥ यावदधः सप्तम्यां पश्चानुत्तरा महन्महाळया महानरकाः मज्ञप्ताः, तद्यथापङ्कप्रभा पृथिवी हे भदन्त ! कितने प्रकार की कही गई है ? हे गौतम ! पङ्कप्रभा पृथिवी एक प्रकार की ही कही गई है। इत्यादि रूप से यावत अधः सप्तमी पृथिवी तक स्वयं ही प्रश्न कर के उसका उत्तर कर लेना चाहिये ॥स्व० २॥ ભગવાન પંક પ્રભા પૃથવી કેટલા પ્રકારની કહી છે? ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે છે કે
ગૌતમ! પંકપ્રભા પૃથ્વી એક પ્રકારની જ કહી છે. ઈત્યાદિ પ્રકારથી યાવત અધઃસપ્તમી પૃથ્વી સુધી પિતેજ પ્રશ્ન કરીને તેને ઉત્તર સમજી લેવું જોઈએ. તે સૂ. ૨ |
जी०३
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीयामिगमको कालो १ महाकालो २ रौरवो ३ महारौरवो ४ ऽमतिष्ठान: ५ अस्ति खलु भदन्त । एतस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्या अधो धनोदधीति वा, घनवात इति वा, वनुवात इति वा अवकाशान्तरमिति वा ? हन्त, अस्ति । एवं यावद्धः सप्तम्या: ॥३॥
टीका-'इमीसे णं भंते' एतस्यां खल भदन्त ! 'ररणप्पमाए पुढवी रत्नप्रभा नारक पृथिव्याम् 'फेवड्या' किरान्ति कियसंख्यकानि 'निरयावास. सयसहस्सा पन्नत्ता' निरयावासशतसहस्राणि प्रज्ञतानि-कथितानीति प्रश्नः भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'तीसं नीरयावाससयसहस्सा पन्नत्ता' त्रिशनिरयावा सशतसहस्राणि प्राप्तानि, रानप्रमापृथिव्यां शिल्लक्षपरिसिता नैरयिकावासा भवन्तीत्यर्थः 'एवं एएणं मिलावण' एवमेतेनाभिलापेन 'सन्यासि पुच्छा' सर्वासा नारक पृथिवीन पृछा, सर्वा एव
अघ सूम्मकार प्रत्येक पृथिवी में जितने नरकावास है उनकी संख्या प्रकट करते हैं
'इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए'-इत्यादि ।
टीक्षार्थ-गौतम ने प्रभुश्री से ऐसा पूछा है-'इमीसे गं भंते !'हे भदन्त ! इस 'रयणप्पभा पुढवीए' रत्नप्रभा पृथिवी में केवया निरस्या. वाससयसहस्सा पन्नत्ता' कितने लाख नरकावास कहे गये हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा! तीसं निरयावाससपसहस्सा पभत्ता' हे गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथिवी में तीस लाख नरकावास कहे गये हैं। 'एवं एएणं अभिलावेणं सव्वेसि पुच्छा' यहां 'जाव अहे सत्तमाए' इस आगे आनेवाले पदका यहां संबंध है। इसी प्रकार से शराप्रभा पृथिवी से लेकर अधः सप्तमी पृथिवी पर्यन्त समस्त पृथि
હવે સૂત્રકાર પ્રત્યેક પૃથ્વીમાં જેટલા નરકાવાસ છે. તેની સંખ્યા प्रट ४२ छ, 'इमीसे णं भंते रयणप्पभाए पुढवीए' त्यादि
___ -भीतभस्वामी प्रभुने मे पछे छे । 'इसीसे णं भंते !' भगवन् मा 'रयणप्पभा पुढवीए' २त्नमा पृथ्वीमा केवळइया निरयावाससयसहस्सा पमत्ता' કેટલા લાખ નરકાવાસે કહેવામાં આવ્યા છે. આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમ स्वामी ४ छ 'गोयमा! तीस निरयावाखसयसहस्सा एण्णत्ता' गौतम! मा २८नमा पृथ्वीमा श्रीस म ना२४ावासे ४ह्या छे. 'एवं एएण अभिकावेणं सव्वेसि' पुच्छा' माडिया 'जाव अहे सचमाए' मा भागना पहाना અહિયા સંબંધ છે. એ રીતે શર્કરા પ્રભા પૃથ્વીથી લઈને અધઃસપ્તમી પૃથ્વી
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेययोतिका टीका प्र. ३ . ३ प्रतिपृथिव्याः नरकावास संख्या निरूपणम्
नारक पृथिवीरधिकृत्य नारकवासविषयकः प्रश्नः यथा - '१मी से णं भंते । सकरप्पभार पुढवीए केवइया निरयाबास सय सदस्सा पन्नत्ता' एतस्यां ख भदन्त ! शर्कराप्रभा पृथिव्यां कियन्ति निरयावासातसहस्राणि पक्षप्तानि एवमेव बालुकापभा पङ्कमभा घूमप्रभा तमा तमस्तमा पृथिव्यामपि प्रश्नः उन्नेतव्यः उत्तरञ्च सर्वत्र वक्ष्यमाणगाथानुसारेण कर्तव्यष्ट् अतएवाह - 'इमा गाहा अणुगंतव्या' इयं गाथा अनुगन्तव्या 'जाब अहे समाए' इत्यग्रेन संबन्धः, एषा पृच्छा शर्कराप्रभात अभ्य अधः सप्तमी पृथिवी पर्यन्तं कर्त्तव्येति भावः तथाहि - गाथा - 'तीसाय' इत्यादि, 'तीसाय पण्गवीसा' त्रिंशत् पञ्चविंशतिः 'पण्णरसद सेव' पञ्चदश दशेव' वियों के सम्बन्ध में प्रश्न करना चाहिये - अर्थात् - रत्नप्रभा पृथिवी में जिस प्रकार से नरकावासों के होने का प्रश्न किया गया है वैसा ही शर्करा आदि पृथिवियों में कितने लाख नरकावास कहे गये हैं- ऐसा प्रश्न करना चाहिये - तथाहि - 'हमी से णं भंते सकरप्पभाए पुढवीए केवहया निरयावासायसहस्त्रा पन्नन्ता' हे भदन्त ! इस शर्कराप्रभा पृथिवी में कितने लाख नरकावास कहे गये है ? इसी प्रकार से बालुका प्रभा में, पङ्कप्रभा में धूमप्रभा में तमःप्रभा में और अधः सप्तमी तमस्तमाप्रभा पृथिवी में भी कितने २ लाख नरकावास कहे गये हैं ? ऐसा प्रश्न करना चाहिये और इस प्रश्न का उत्तर इस गाथा के अनुसार कहना चाहिये - वह गाथा ऐसी है - 'तीसाय' इत्यादि ।
"
इस गाथा के अनुसार प्रथम पृथिवी में तीस लाख नरकावास हैं द्वितीय पृथिवी में पचीसलाख नरकापास हैं तृतीय पृथिवी में - बालुकाપન્ત સઘળી પૃથ્વીાના સંબંધમાં પ્રશ્ન કરવા જોઈએ. અર્થાત્ રત્નપ્રભા પૃથ્વીમાં જે પ્રમાણે નરકાવાસે હોવાના સંબંધમાં પ્રશ્ન કર્યાં છે, એ જ પ્રમાણે ના પ્રશ્ન શર્કરા પ્રભા વિગેરે પૃથ્વીએમાં કેટલા લાખ નરકાવાસે કહ્યા છે? या रीतने। प्रश्न ४२वे। लेड थे. गोन आहे हे 'इमीसेणं भंते ! सक्करप्पभाएँ पुढवीए केवइया निरयावास सयहस्सा पण्णत्ता' हे भगवन् या शरायला પૃથ્વીમાં કેટલા લાખ નરકાવાસેા કહેવામાં આવ્યા છે. આજ રીતે વાલુકાअलाभां, यह अभामां, धूमप्रलाभां तमः प्रलाभां, भने अधः सप्तभी तभस्तभा પ્રભા પૃથ્વીમાં કેટલા કેટલા લાખ નરકાવાસે કહેલા છે ?આ પ્રમાણેના પ્રશ્ન કરવા જોઈએ અને આ પ્રશ્નના ઉત્તર આ નીચે આપવામાં આવેલ ગાથા अभावे अहेवाले थे. ते गाथा मा अमानी छे. 'तीखाय' इत्यादि
આ ગાથામાં કહ્યા પ્રમાણે પહેલી પૃથ્વીમાં ત્રીસ લાખ નરકાવાસે છે. ખીજી પૃથ્વીમાં પચ્ચીસ લાખ નરકાવાસા છે. ત્રીજી પૃથ્વીમાં એટલે કે વાલુકા
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवाभिगम सूत्रे
२०
'तिष्णिय हवंति' त्रयो भवन्ति 'पंचूणसय सहस्सं' पञ्चोनशतसहस्रम् 'पंचेच अणुत्तरा परगा' पश्चैवानुत्तरा नरकाः, तथाहि - रत्नप्रभार्या त्रिंशच्छतसहस्राणि नरकावासाः १। शर्करामभायाम् पञ्चविंशतिः शव सहस्राणि नारकावासाः २ । वालुकाममार्यां पञ्चदशशतसहस्राणि नरकावासाः । पङ्कममार्या दशशतसहस्राणि नारकावासः ४ धूमप्रभायां त्रीणिशत सहस्राणि नारकावासा भवन्ति ५ तमः प्रभायां पश्चनमेकं शतसहस्रं निरयावासा भवन्ति ६ अनुत्तरा नरकाः पञ्चैत्र भवन्ति । तत्राधः सप्तम्यां पृथिव्यां पञ्च अनुत्तरा नरकाः महानरकाः सन्ति, इति गाथार्थ : 'जाव आहे सत्तमाए ' यावदधः सप्तम्याम् यावत्पदेन शर्करामभायां बालुकाप्रभायां पङ्कप्रभार्यां धूममायां तमःमभायाम् अधः सप्तम्यां तमस्तमः प्रभायां पूर्वोक्तगाथानुसारेण नरकावासा विज्ञेयाः । अत्राधः सप्तम्यां नारकपृथिव्याम्, 'पंच अणुत्तरा महामहालया महाणरगा पन्नत्ता' पञ्चानुत्तरा महमहालया महानरकाः प्रज्ञप्ताः - कथिताः, 'तं जहा ' तद्यथा 'काले कालनामकः प्रथमः ' महाकाले' महाकालनामको द्वितीयः, 'रोरुए' रौरवः - रौरव नामक स्तृतीयः, 'महारोरुए' महारौ श्रुतुर्थ' 'अप्पट्टाणे' अप्रतिष्ठान नामकः प्रभा में पन्द्रह लाख नरकावास हैं चतुर्थ पङ्कमभा पृथिवी में दशलाख नरकवास हैं। पंचमी पृथिवी - धूमप्रभा पृथिवी में तीनलाख नरकावास हैं। छठी-तमः प्रभा पृथिवी में पांच न्यून एकलाख नरकावास हैं । सातवीं पृथिवी में अधः सप्तम पृथिवी में अनुत्तर नरक पांच ही होते हैं । 'जाव अहे सत्तमाए' यावत् अधः सप्तमी पृथिवी में पाँच अनुत्तर महानरकावास कहे गये है । ये पांच अनुत्तर नरकावास बहुत ही अधिक विस्तारवाले हैं इनके नाम इस प्रकार से हैं - 'काले' १ काल, ' महाकाले' २ महाकाल, 'शेरुए' रौरव ३, 'महारोरुए' ४ महारौरव और पांचवां 'अप्पतिहाणे' अप्रतिष्ठान ये पांच अनुत्तर महानरकावास सातवीं पृथिवी में होते हैं । अवस्तन पृथिवी
-
પ્રભા પૃથ્વીમાં પંદર લાખ નરકન્નાસે છે, પાચમી ધૂમપ્રભા પૃથ્વીમાં ત્રણ લાખ નરકવાસા છે. છઠ્ઠી તમઃપ્રભા નામની પૃથ્વીમાં પાચ કમ એકલાખ નરકવાસે छे. सातभी अधःसप्तभी पृथ्वीमां यांय अनुत्तर नरवासी छे, 'जाव 'असत्तमाए ' यावत् अधः सप्तभी पृथ्वीमां यांय अनुत्तर भड्डा नरडावासी કહેલા છે. આ પાંચ અનુત્તર નકાવાસેા ઘણા વધારે વિસ્તાર વાળા છે, તેના नाभेो या अभाचे छे. 'काले' अस १ 'महाकाल' भडाअण, २, 'रोरुए' शैश्व 3, 'महारोरूप' भडारौर, मने ययिभु' 'अप्पतिठाणे' अप्रतिष्ठान थ, मा પાચ અનુત્તર મહાનરકાવાસ સાતમી પૃથ્વીમા હાય છે. અધસ્તન પૃથ્વીમાં
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र. ३.३ प्रतिपृथिव्याः नरकावास संख्या निरूपणम् २१
पञ्चमः ५। ते एते महानरकाः तमस्तमाभिधावामधः सप्तम्यां पृथिव्यां ज्ञातव्याः । तत्र अधः सप्तम्यां पृथिव्यां ये कालादयो महानरकाः सन्ति तेषाममतिष्ठाननामक महानरको मध्ये वर्त्तते तस्य चतुर्दिक्षु अन्ये चत्वारो महानरकाः पूर्वादिदिक् क्रमेण भवन्ति । उक्तञ्श्च
'पुव्वेण होइ कालो अवरेणं अप्पट्ट महाकालो । रोरुदादिण पासे उत्तरपासे महारोख ' ॥१॥ छाया -- पूर्वेण भवति कालोऽपरेणापतिष्ठस्य महाकालः । रौरवो दक्षिणपार्श्वे उत्तरपा महारौरवः || १|| इतिच्छाया ॥ अस्या अर्थः- अप्रतिष्ठाननामक महानरकस्य तमस्वमा संबन्धिनः पूर्वभागे काल नामको महानरकः, तथा अप्रतिष्ठानस्य पश्चिममागे महाकालनामको महानरको भवति दक्षिणपार्श्वे रौरवः, उत्तरपार्श्वे महारौरवनामको महानरकः । सम्मति - प्रति पृथिवी घनोदध्यादीमस्तित्व प्रतिपादनार्थमाह- 'अस्थि णं भंते' इत्यादि, 'अस्थि णं भंते' अस्ति खल मदन्त ! 'इमी से रयणप्पभाए पुढवीए' में जो काल आदि महानरकावास हैं वे अप्रतिष्ठान नामक महानरक के पूर्व आदि दिशाओं में हैं - तदुक्तम्
'पुवेण होइ कालो अवरेणं अप्पट्ट महाकालो । रोरु दाहिणपात्रे उत्तरपासे महारोरू ||१||
•
अप्रतिष्ठान नाम के महानरक की पूर्व दिशा में काल नाम नरका वास है । पश्चिम दिशा में महाकाल नामका नरकावास है । दक्षिणदिशा में रौरव नामका नरकावास है और उत्तर दिशा में महारौरव नामका नरकावास है ॥ १ ॥
अब सूत्रकार प्रत्येक पृथिवी में घनोदधि आदि के अस्तित्व का प्रतिपादन करते हैं - इस में गौतम ने प्रभुश्री से ऐस पूछा है- 'अस्थि णं કાળ વિગેરે જે મહાનરકાવાસો છે. તે અપ્રતિષ્ઠાન નામના મહાનરકની પૂ વિગેરે દિશાઓમાં છે તેજ કહ્યું છે
'पुवेण होई कालो, अवरेण अप्पट्टमहाकालो । रोख दाहिणपाचे, उत्तरपासे महारोरू ॥ १ ॥
અપ્રતિષ્ઠાન નામના મહાનરકની પૂર્વ દિશામાં કાળ નામના નરકાવાસ છે. પશ્ચિમદિશામાં મહાકાળ નામના નરકાવાસ છે. દક્ષિણ દિશામાં કૌરવ નામના નરકાવાસ છે. અને ઉત્તર દિશામાં મહારૌરવ નામના નરકાવાસ છે. ।।૧।। હવે સૂત્રકાર દરેક પૃથ્વીમાં ઘનાદધિ વિગેરેના અસ્તિત્વનુ' પ્રતિપાદન ४रे छे. आमां गौतम स्वामी असुने येवु छे छे है 'अत्थि णं संवे ! इमीसे
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवाभिगमसूत्रे
२२
-
एतस्या रत्नप्रमाया पृथिव्याः 'आहे' अधा-अधोभागे 'घणोदही वा' घनोदधिरिति वा घनः कठिनीभूत उदधिः- उदक समूह इति घनोदधिः सकिमेतस्याः प्रत्यक्ष उपलभ्यमानाया रत्नमभायाः पृथिव्या अधोभागे विद्यते किम् ? 'घणवाएइ वा' घनवात इति वा, घनः पिण्डीभूतो वायुरिति घनवातः स चास्यावो विद्यते किम् ? 'तणुवाएइ वा' तनुत्रात इति वा 'ओवासंतरे वा' अवकाशान्तरमिति अवकाशान्तरं शुद्धं गगनं तदस्या अधो- विद्यते किमिति प्रश्नः भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'हंता अस्थि' इन्त अस्ति हे गौतम! रत्नमाया बोमागे घनोदधिरप्यस्ति घनत्रातोऽपि विद्यते तनुवावोऽपि विद्यते अवकाशान्तरमपि विद्यते एवेति भावः । ' एवं जात्र अ सतमाए' एवं रत्नप्रमाया अधोभागे यथा घनोदधि प्रभृतयः सन्ति तथैव यावच्छर्कराप्रभा वालुकाप्रभा, भंते! इमी से रयणपभाए- पुढवीए अहे घणोदहौवा घणवाएर वा तणुवाद वा ओबासंतरेह वा १ ॥ हे भदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी के अधोभाग में घनोदधि, है क्या ? घनवात है क्या ? तनुवात है- क्या ? अवकाशान्तर शुद्ध आकाश है क्या ? कठीन भूत उदक का नाम घनोदधि है पिण्डी भूत वायु का नाम घनवात है । इस प्रश्न के उत्तर में प्रभुश्री कहते है - 'गोपमा । हंता, अस्थि' हे गोतम ! इस रश्नप्रभा पृथिवी के अधोभाग में घनोदधि भी है। घनवात भी है । तनुवात भी है और अवकाशान्तर - शुद्ध आकाश भी है ' एवं जाव अहे सत्ताए' इसी प्रकार का घनोदधि आदि के अस्तित्व का कथन 'यावत् तमस्तमः प्रभा पृथिवी के अधोभाग तक में जान लेना चाहिये । यास्पद से रत्नप्रभा के अधोभाग में घनोद्धि आदि का सद्भाव प्रकट किया है उसी प्रकार से शर्करा प्रभा के अधोभाग में वालुका प्रभा के रयणमा पुढवीए अहे धगोदहोइवा, घणत्राएइवा, तणुत्रापइवा, ओवासंतरेइवा' हे भगवन् मा रत्नप्रला पृथ्वीना नायेता लागमां धनाहधी के શુ? ઘનવાત છે શું ? તનુવાત છે? અવકાશાન્તર શુદ્ધ આકાશ છે? કઠેબ્રુ અનેલા પાણીનું નામ નેાધિ છે. પિંડાકાર થયેલ વાયુનુ નામ ઘનવાત છે. सा प्रश्नना उत्तरमा अनु है 'गोयमा! हंता अस्थि' हे गौतम! भा રત્નપ્રભા પૃથ્વીની નીચેના ભાગમાં ઘનેદિધપણુ છે, ઘનવાતપણ છે તનુત્રાત पशु छे, भने सुवाशान्तर शुद्ध आभिशपथ छे. 'एवं जाव अहे सत्तमाए ' ધનેકવિ વિગેરેના અસ્તિત્વનું કથન યાવત્ તમıમા પ્રમા પૃથ્વીના નીચેના ભાગ સુધીમાં સમજવું, અહિયાં યાવપદથી રત્નપ્રમા પૃથ્વીના નીચેના ભાગમાં નેઇષિ વિગેરેને સદ્ભાવ પ્રગટ કરેલ છે એજ રીતે શરાપ્રભા પૃથ્વીના
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
अमेयद्योतिका टीका प्र.३ २.४ खरकाण्डादि धनोध्यादेोहल्यम् २३ पङ्कप्रभा, धूमप्रभा, तमः प्रभा तमस्तमःममा पृथिवीनामधो मागेऽपि धनोदध्यादयः सन्त्येवेति भावः ॥सू०३॥ __पृथिवीगत खरकाण्डादीनां, शेषकाकार शर्कराप्रभादि षट् पृथिवीगत घनोदध्यादीनां च बाहल्यं प्रतिपादयत्राह-'इमीसे णं भंते' इत्यादि, . मूलम्-इमीसे गं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए खरकंडे केवइयं बाहल्लेणं पन्नत्ते ? गोयमा ! सोलल जोयणसहस्साई बाहल्लेणं पन्नत्ते ॥ इमीले णं भंते ! रयणप्पभाए पढवीए रयणकंडे केवइयं बाहल्लेणं पन्नत्ते ? गोयमा! एकं जोयणसहस्स बाहल्लेणं पन्नत्ते । एवं जाव रिटे। इसीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए पंकबहुले कंडे केबइयं बाहल्लेणं पन्नत्ते? गोयमा ! चउरालीइ जोयणसहस्लाइं बाहल्लेणं पन्नत्ते? इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए आवबहुले कंडे केवइयं बाहल्लेणं पन्नत्ते, गोयमा ! असीइ जोयणसहस्साई बाहल्लेणं पन्नत्ते । इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए घणोदही केवइयं बाहल्लेणं पन्नत्ते ? गोयमा! वीलं जोयणसहस्लाई बाहल्लेणं पन्नत्ते। इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढबीए घणवाए केवइयं बाहल्लेणं पन्नते ? गोयमा! असंखेज्जाई जोयणसहस्लाइं बाहल्लेणं पन्नत्ते । एवं तणुवाए वि ओवासंतरे वि। सकरप्पभाए णं भंते ! पुढवीए घणोदही केवइयं अधोभाग में, पङ्कप्रभा के अधोभाग में धूमप्रभा के अधोभाग में तमःप्रभा के अधोभाग में और तमस्तमः प्रभा पृथिवी के अधोभाग में भी इनका सदभाव है स्तू० ॥३॥
નીચેના ભાગમાં, વાલુકાપ્રભા પૃથ્વીના નીચેના ભાગમાં, પંકપ્રભા પૃથ્વીના નીચેના ભાગમાં, ધૂમપ્રભા પૃથ્વીના નીચેના ભાગમાં, તમઃપ્રભા પૃથ્વીના નીચેના ભાગમાં, અને તમસ્તમાં પ્રભા પૃથ્વીને નીચેના ભાગમાં પણ ઘનોદધિ વિગેરે ને સદુભાવ સમજ. એ સૂ. ૩ !
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामि गम
।
बाहल्लेणं पन्नत्ते ? गोयमा ! वीसं जोयणसहस्लाई बाहल्लेणं पन्नत्ते । सक्करपभाए घणवाए केवइयं बाहल्लेणं पन्नत्ते ? गोयमा ! असंखेज्जाई जोयणसहस्लाई बाहल्लेणं पन्नत्ते । एवं तणुवाए वि ओवा संतरे वि । जहा लक्करप्पभात् पुढवीए एवं जाव अहे सत्तमाए ॥ सू० ४ ॥
छाया - एतस्याः खलु भदन्त । रत्नप्रभायाः पृथिव्याः खरकाण्ड कियद् बाल्येन प्रज्ञप्तम् ? गौतम | पोडश योजन सहस्राणि बाहल्येन मनप्तम् । एतस्याः खलु भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्याः रश्नकाण्ड' कियद् बाल्येन मतम् ? गौतम ! एकं योजनसहस्रं वाइल्येन प्रज्ञप्तम् एवं यावद्विष्टम् । एतस्याः खलु भदन्त ! रत्नममायाः पृथिव्याः पङ्क - बहुलं काण्ड कियद बाहल्येन मज्ञप्तम् ? गौतम ! चतुरशीति योजनसहस्राणि बाहल्येन प्रप्तम् । एतस्याः खल भदन्त ! रत्नमभा
पृथिव्याः अवहुतकाण्डं कियद् वाहल्येन मज्ञप्तम् १ गौतम | अशीतियोजन सहस्राणि बाहल्येन प्रज्ञप्तम् । एतस्याः खलु भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्याः घनोदधिः कियान् वाहव्येन मचप्तः ? गौतम ! विंशतिर्योजन सहस्राणि बाहल्येन प्रज्ञप्तः । एतस्याः खल भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्याः वनवातः क्रियान् वाइल्येन प्रज्ञप्तः ? गौतम ! असंख्येयानि योजन सहस्राणि वाइल्येन प्रज्ञप्तः । एवं तनुत्रावोऽपि, अवकाशान्तरमपि । शकैरामसायाः खलु भदन्त । पृथिव्या घनोदधिः कियान बाहल्येन मज्ञप्तः ? गौतम ! विंशतिर्योजन सहस्राणि बाहल्येन प्रज्ञतः । शर्कराभायाः खलु मदन्त । पृथिव्याः बनवाः क्रियान् वहल्येन प्रज्ञतः १ गौतम ! असंख्येयानि योजन सरस्राणि वाइल्येन मनः । एवं तनुवातोऽपि, अवकाशान्तरमपि । यथा- शर्कराममायाः पृथिव्याः एवं याददधः सप्तम्याः ||१||
,
२४
अब सूत्रकार रत्नप्रभा पृथिवी के खरकाण्ड आदि का तथा यांकी की एकाकार शर्करा प्रभा आदि छह पृथिवियों में रहे हुए घनोदधि आदि का बाहल्य-मोदपना कहते हैं
'इमी से णं भंते ! रयप्पभाए पुढवीए खरकंडे' इत्यादि
હવે સૂત્રકાર રત્નપ્રભા પૃથ્વીના ખરકાંડ વિગેરેનું તથા બાકીની એકાકાર શકરાપ્રભા પૃથ્વી વિગેરે છ પૃથ્વીયેામાં રહેલા ઘનાદધિ વિગેરેનુ બાહુલ્ય અર્થાત્ વિસ્તારનુ” કથન કરે છે.
'इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए सरकंडे' ४त्याहि
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५
trafist टीका प्र. ३ सू.४ खरकाण्डादि घनोदध्यादेर्वाहत्यम्
• टीका- 'इमी से णं भंते । एवस्थाः पत्यक्षत उपलभ्यमानायाः खलु भदन्त ! 'श्यणप्पभाए पुढवीए' रपमायाः पृथिव्याः सम्बन्धि त्रिषु काण्डेषु प्रथमं यत् 'खरकंडे' खरकाण्डं तत् 'केवयं' कियत् 'वाइल्लेगं पन्नत्ते' वाढल्येन स्थौल्येन मज्ञप्तम् कियद्वाहयं - खरकाण्डमिति प्रश्नः भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि 'गोयमा' हे गौतम! 'सोलस जोयग सहस्ताई' पोडश पोजन सहस्राणि 'बाहरलेणं' पण्णत्ते' वाइल्येन प्रज्ञप्तम् रत्नममा सम्बन्धि खरकाण्ड पोड प्रयोजन सहस्रवाहयेन युक्तं भवतीति भाव: 'इमीसेणं भंते' एतस्या खलु भदन्त ! 'रयणष्पभाए पुढate' रत्नमभाषाः पृथिव्याः षोडशविध खरकाण्ड सम्बन्धि प्रथमं यत् 'रयणकंडे' रत्नकाण्ड' तत् 'केव' किवद 'वाइल्लेणं पन्नते' वादल्पेन प्रज्ञप्तम् इति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! एक्कं जोयणसहस्सं ' एकं योजनसहस्रम् ' बादल्लेगं पण्णत्ते' वाइल्येन प्रज्ञप्तम् - कथितमिति ? ' एवं
टीकार्थ- इसमें गौतम ने प्रभुश्री से ऐसा पूछा है है भदन्त ! 'इमीसे रयणपभाए पुढवीए खरकंडे' इस रत्नप्रभा पृथिवी के तीन काण्डो में से पहला जो खरकाण्ड है वह 'केवहय बाहल्लेणं पन्नन्ते' कितनी मोटाई वाला है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोमा !' हे गौतम | रत्नप्रभा पृथिवी का जो खरकाण्ड है वह सोलह हजार योजन की मोटाईवाला है 'हमी से णं भंते । रयणप्पभाए पुढवीए रथणकंडे केवहयं बाहल्लेणं पन्नत्ते' हे भदन्त । इस रत्नप्रभा पृथिवी का जो खरकाण्ड सोलह प्रकार का कहा है उसका पहला भेद जो रत्नकाण्ड है वह कितनी मोटाई वाला है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'गोषमा एक्कंजोयणसहस्स' हे गौतम! रत्नप्रनो पृथिवी का जो रत्नकाण्ड है वह
ટીકા-આ સૂત્ર દ્વારા ગૌતમસ્વામી પ્રભુને એવું પૂછેછેકે હે ભગવન્ 'इम से रयणप्पभाए पुढवीर खरकंडे' मा रत्नपला पृथ्वीना वायु अंडा पैडी पडेतेा ? रांड छे, ते 'केवइय बाहल्लेणं पन्नत्ते' डेंटला विस्तारने। उद्यो छे ? या प्रश्नना उत्तरमा प्रभु गौतम स्वाभीने छे ! 'गोयमा!' हे गौतम! રત્નપ્રભા પૃથ્વીને જે ખકાંડ છે, તે સેાળ હજાર ચેાજનના વિસ્તાર वाजेो ४ह्यो छे. इरीथी गौतम स्वामी अभुले पूछे छे! 'इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीप रयणकंडे केवइयं वाइल्णं पन्नत्ते' हे भगवन् या रत्नप्रला પૃથ્વીના જે ખરકાંડ છે, તે કેટલી મેટાઇ (વિસ્તાર) જાડાઈ વાળે! કહ્યો છે ? या प्रश्नना उत्तरमा प्रभु उसे छेडे 'गोयमा ! एक्क जोयणसहस्स' हे गौतम ! રત્નપ્રભા પૃથ્વીને જે રત્નકાંડ છે, તે એક હજાર ચેાજનની જાડાઈ-વિસ્તારવાળા
जी० ४
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६
-
जीयामिगम जाब रिटे' एवं यावद्विष्ट काण्ड, अत्र यावत्पन, वन २
गोहिताक्ष, मसारगल्ल ५ इंसगम ६ पुल ७ सौगन्धिक ८ ज्योतीरसांचनपुलक १० रजत ११ नारूपाङ्क १२ १३ स्परिझान्न १४ काण्डानां संग्रहो भवति, तयार यथा रत्नप्रभा पृथिका खरकाण्ड सम्बन्धि रत्न काण्ड योजनमहस्रबाहल्येन युक्तं कथितं तथैव वजमाण्डादारभ्य रिष्ट रत्नकाण्डान्त सर्वाण्यापि काण्डानि एकक योजनसहस्रपरिमितवाहल्येन युक्तानीति मा । 'इमीसे णं भंते' एतस्याः खलु भदन्त ! 'रयणप्पभा पुढवीए' रत्नपमा पृथिव्याः संबन्धि यत् द्वितीयम् 'पंकबहुले कंडे' पंकबहुलं काण्डम् नत् 'केवइयं कि पद 'वाहल्ले में पन्नः' बाहल्येन प्रान्तम् एक हजार योजन की मोटाई वाला है ? 'एवं जाव रितु' इसी प्रकार से चावत् हिष्टकाण्ड तक के जोसोका काण्ड है ये सब भी एक २ हजार योजन की मोटाई वाले है १६ इस प्रकार खरकाण्ड आदि सब काण्ड पूरा लोलह हजार यो मन कालो जाता है। यहां यावत् शब्द से 'वज्राण्ड २, बेडूय काण्ड ३, लोहिताक्ष काण्ड ४, मसारगल्लकाण्ड ५, हम गलकाण्ड ६, पुल काण्ड ७, सौगंधिककाण्ड ८,ज्योति रसकाण्ड ९, अचमकाण्ड १०, अञ्जनपुलामकाण्ड ११, रजतकाण्ड १२, जातरूपाण्ड १३, अङ्ककाण्ड १४, और स्फटिकाण्ड १५, इन काण्डों का ग्रहण हुआ है और सोलहवां रिपकाण्ड है १६।
___'इमीले पं. भंते !' हे अदन्न ! इस रघणपभा पृढ बीए पंकबहुले कंडे' हे भगवन् इस रत्नप्रभा पृथिवी का जो दूसरा एकाकार पंक बहुलकाण्ड है वह 'केवइयं शाहलेणं पन्नत्ते' कितनी मोटाई वाला कहा ४घी छे. 'एव जाब रिट्रे' मे४ प्रमाणे यावत रिट सुधीन। २ सण isi છે, તે બધાજ એક એક હજાર જનની જાડાઈ-વિસ્તારવાળા છે ૧૬, આ પ્રમાણે બરકાંડ વિગેરે બધાજ કાંડે પૂરા સોળ હજાર એજનના થઈ જાય છે. અહિંયાં યાવત્ શબ્દથી “વાકાંડાર, વૈર્યકાંડા૩, લેહિતાક્ષકાંડા, મસાર Mearis५' xise' 'Yexism' 'सोधिsi.' 'ज्योतिरसsise' “અંજનકાંડ ૧૦ “અંજન પુલાકાંડ ૧૧” “રજતકાંડ ૧૨ જાતરૂપ કાંડ ૧૩
અંકકાંડ ૧૪ અને “ફટિકકાંડ આ કાંડ ગ્રહણ કરાયા છે. અને સળગે રિભ્રકાંડ છે. તેમ સમજવું
'इमीसे णं भंते!' है भगवन् मा 'रयणष्पभाए पुढवीए पंकवहुले कंडे' २.नमा पृथ्वीनी मारे ४४१२ ३ महुस४ छे, ते 'केवइयं वाहल्लेण" કેટલી જાડાઈવિસ્તાર વાળે કહ્યો છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમસ્વામીને
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
A
२७
प्रतिका टीका प्र. ३ सू.४ खरकाण्डादि घनोदध्यादेर्बाहल्यम्
भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'वउरसीति जोयण सहस्साई बाहल्लेगं पन्नत्ते' चतुरशीति योजन सहस्राणि बाहल्येन प्रज्ञप्तम् इति । 'इसीसे गं भंते' एतस्याः खलु मदन्तव । ' रयणप्पमाए पुढवीए' रत्नप्रभायाः पृथिव्याः यत्तृतीयम् 'आववहुले कंडे' अहलं काण्डं तद 'केवइयं बाहल्लेगं पन्नत्ते' कियद बाल्येन प्रज्ञप्तमिति मनः, भगवानाह - 'जोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'असीइ जोयण नहस्साई बाहल्लेणं पन्नते' अशीतिर्योजन प्रहस्त्राणि वाइल्येन प्रज्ञप्तमिति ।
अत्र रत्नमभा पृथिव्याः प्रथम खरकाण्डस्य बाहल्यं षोडशहस्र योजनपरिमितम् - १६००० । द्वितीय पङ्कबहुलकाण्डस्य बाहल्यं चतुरशीतिसहस्रयोजन परिमितम् ८४००० | तृतीयान्बहुलकाण्डस्य बाहल्यम् अशीतिसहस्रयोजन परिमितम् गया है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं - 'गोपमा ! चउरासी जोपण सहस्लाई बाहल्लेणं पनन्ते 'हे गौतम । इस रस्नप्रभा पृथिवी का जो पङ्क बाहुल काण्ड है वह चौरासी हजार योजन की मोटाईवाला कहा गया है ।
'इमी से णं भंते !' हे भदन्त ! इस 'रवणप्पभाए पुढबीए' रत्नप्रभा पृथिवी का जो तोरा 'आब बहुले कंडे' अन्यहुलकाण्ड है- वह 'केव इयं धारणं पन्नत्ते' कितनी मोटाई वाला कहा गया है ? उसर में प्रभु कहते है - 'गोमा । असीहजोयणसहरुलाई बाहल्लेणं पत्रन्ते' हे गौतम । इस रत्नप्रभा पृथिवी का जो तीसरा अम्पलकाण्ड है वह अस्सी हजार योजन की मोटाई थाला कहा गया है यहाँ रत्नप्रभा पृथिवी का जो खरकाण्ड है उसकी मोटाई सोलह हजार (१६०००) योजन की है। इसका दूसरा जो पङ्कपहल काण्ड है उसकी मोटाई 'गोयमा ! चउरसीइ जोयणसहस्वाइ' बाहल्लेणं पन्नन्ते' हे गौतम! આ રત્નપ્રભા પૃથ્વીને જે પક બહુલ કાંડ છે, તે ચાર્થાંશી હજાર ચાજનના વિસ્તાર- જાડાઈવાળા કહેવામાં આવેલ છે.
'इमी से णं भंते' डे लगवन् भी 'रयणप्पभाए पुढवीए' रत्नप्रसा पृथ्वीना त्रीले 'आबबहुले कंडे' सम्मडुल अंड छे ते 'केवइय' बाहल्लेण पन्नत्ते' डेटला વિસ્તાર-જાડાઈ વાળા કહ્યો છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમ સ્વામીને 'गोयमा ! अखीइ जोयणसहस्साई बाहल्लेण पन्नत्ते' हे गौतम! या रत्नप्रसा પૃથ્વીના ત્રીજે જે આખ્ખહુલકાંડ છે, તે એંસી હજાર ચાજનની જાડાઈવાળા કહ્યો છે. અહિયા રત્નપ્રભા પૃથ્વીના પહેલા જે ખરકાંડ છે. તેની જાડાઈ ૧૬૦૦૦ સાળ હજાર ચેાજનની છે. અને તેના ખીજો કાંડ જે પંક અહુલ કાંડ છે, તેની
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमसूत्रे
૨૮
८००००, इति सर्व संकलनमा रत्नप्रभा पृथिव्या वाहल्यमशीति सहस्राधिक लक्षममाणस् १८०००० भवतीति । 'इमीसे णं भंते' एतस्याः खलु भदन्त ! 'रयणमा पुढवीए' रत्नममायाः पृथिव्या अधः 'घणोदही' वनोदधिः 'केवर्य' कियान् वाइल्लेणं पन्नत्ते' बाहल्येन प्रज्ञप्त इति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'वोसं जोयणसहस्साई वाइल्लेणं पन्नते' विंशतिजनसहस्राणि वाढल्येन प्रज्ञप्तो घनोदधिः । 'इमी से णं भते !' एतस्याः खल भदन्त ! 'रयणप्पभाए पुढवीए' रत्नप्रभायाः पृथिव्याः घनोदघेरधः 'घणवाए' घणवातः सः 'केवइयं' कियान् 'वाइल्लेणं पन्नते' बाहल्येन प्रज्ञप्त इति प्रश्नः, चौरासी हजार (८४०००) योजन की है । तीसरा जो अव्यहुलकाण्ड है उसकी मोटाई अस्सी हजार (८००००) योजन की है इस तरह इन सब काण्डों की मोटाई को मिलाकर इस रत्नप्रभा पृथिवी की मोटाई एक लाख अस्सी हजार (१८००००) योजन की होती है।
'इमीसे णं भंते! स्यणप्पभाए पुढवीए' हे भदन्त । इस रत्नप्रभा पृथिवी के नीचे जो 'घणोदही' घनोदधि है वह 'केवइयं बाहल्लेणं पद्मत्ते' कितनी मोटाई वाला कहा गया है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं - 'गोधमा ! बीमं जोयणसहस्लाई बाहल्लेणं पन्नत्ते' हे गौतम! इस रत्नप्रभा पृथिवी के नीचे जो घनोदधि है वह बीस हजार योजन की मोटाई वाला कहा गया है यह घनोदधि रत्नप्रभा पृथिवी के अधो भाग में व्यवस्थित है 'हमी से णं भंते : रयणप्पभाए पुढवीए घणवाए' हे भदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी के घनोदधि के नीचे जो घनत्रात है वह 'केवइयं જાડાઈ-વિસ્તાર ૮૪૦૦૦ ચાર્યશીહજાર ચૈાજનની કહેલ છે. ત્રીને જે મુખ્હુલ માંડ છે, તેની જાડાઇ-વિસ્તાર એ.સી હજાર ૮૦૦૦૦ ચેાજનની કહી છે, આ રીતે આ બધા કાડાની જાડાઈ-વિસ્તાર મેળવતાં આ રત્નપ્રભા પૃથ્વીની જાડાઇ વિસ્તાર ૧૮૦૦૦૦ એક લાખ એસી હજાર ચેાજનની થઈ જાય છે. 'इमोसे ण' भवे! रयणप्पभाष पुढवीए' हे भगवन् मा रत्नप्रभा पृथ्वीनी नाये थे 'षणोदही' धनहिधि छे, ते 'केवइय' काल बाहल्लेण पन्नत्ते' टा વિસ્તાર વાળા કહ્યો છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમ સ્વામીને કહે છે
'गोयमा ! घी' जोयणसहस्वाइ' बाहल्लेणं पन्नत्ते' हे गौतम! भा रत्न પ્રભા પૃથ્વીની નીચે જે ઘનેધિ છે, તે વીસ હજાર ચૈાજનના વિસ્તારવાળા કહેલ છે. આ ઘનેદધિ રત્નપ્રભા પૃથ્વીના નીચેના ભાગમાં વ્યવસ્થિત थे, 'इमीसे णं भवे ! रयणप्पभाष पुढवीप घणवाए' हे लगवन् मा रत्नप्रभा
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रगतिका टीका प्र. ३.४ स्वरकाण्डादि घनोदध्यादेहल्यम्
२६
भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'असंखेज्जाई जोयणसहस्सा बाहल्लेणं पन्नत्ते' असंख्येयानि योजन सहस्त्राणि वादल्पेन प्रज्ञप्तः घनोदधेरधस्तात् असंख्येययोजन सहस्रपरिमित वाइल्येन घनवातः प्रज्ञप्तः, घनोदघेरधस्तात् असंख्येयोजन सहस्रपरिमितः वाइल्येन घनवातः प्रज्ञप्तः इत्यर्थः । ' एवं तणुवाए वि ओबासंतरे वि' एवं यथा - रत्नपमा सम्बन्धि घनवातो घनोदधेरधस्वात् असंख्येययोजनवाइल्येन विद्यते तथा-वनवातस्यापि अधोदेशे रत्नप्रभा संबन्धी तनुत्रतोऽपि असंख्येययोजनसहस परिमित बाहल्येन प्रज्ञप्तः एवं तनुवातस्यापि अधोभागे रत्नममा संवन्धि अवकाशान्तरम संख्ये ययोजन सहस्र ररि मितं बाहल्येन विद्यते इति भावः ।
रत्नापृथिवी संबन्धि घनोदधि घनत्रात तनुवावावकाशान्वराणां बाहल्यं दर्शा शर्करा सम्बन्धि घनोदध्यादीनां बाल्य दर्शयितुमाह- 'सक्करप बाहल्लेणं पन' farनी मोटाई वाला कहा गया है ? उसर में प्रभु कहते हैं 'गोधना ! असंखेजाई जोगणसहरुलाई बाहल्लेणं पनन्ते' हे गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथिवी का जो घनबात है वह असंख्यात हजार योजन की मोटाई वाला कहा गया है यह घनत्रात घनोदधि के नीचे हैं । 'एवं तgare दि ओवलंतरे चि' इसी तरह घनवात के नीचे तनुवात है और यह भी असंख्यात हजार योजन की मोटाई वाला है तथा - तनुवात के नीचे अवकाशान्तद-शुद्ध आकाश है वह भी असंख्यात हजार योजन की मोटाई वाला है । इस प्रकार से रत्नप्रभा सम्ब न्धी घita, घनवाल, सनुशत, और अवकाशान्तर इनकी मोटाई दिखाकर अब सूत्रकार शर्करा प्रभा सम्भन्धी घनोदधि आदि को की मोटाई दिखलाते हैं- इसमें गौतम ने प्रभु से ऐसा पूछा है- 'सक्करप्प
पृथ्वीना धनादधिनी नीथे ने धनवात छे ते 'केवइयं बाहल्लेण पन्नत्ते' टला विस्तारवाणो ह्वेस छे. या प्रश्नमा उत्तरमा अलुछे ते 'गोयमा ! असखेज्जाइ' जोयणसहस्साइ बाल्लेणं' पन्नत्ते' हे गौतम! भा रत्नप्रला पृथ्वीना ने ઘનવાત છે. તે અસંખ્યાત હજાર ચૈાજનના વિસ્તાર વાળા કહ્યો છે. આ धनवात धनादृधिनी नीथे छे. 'एव' तणुत्रापवि, ओवस तरे वि' से प्रभा ઘનવાતની નીચે તનુવાત છે અને તે પણ અસ ́ખ્યાત હજાર ચેાજનના વિસ્તાર વાળા છે. તથા તનુવાતની નીચે અવકાશાન્તર શુદ્ધ આકાશ છે. આ પ્રમાણે રત્નપ્રભા સંબંધી ઘનેાધ, ઘવાત, તનુવાત, અને અવકાશાન્તર, એના વિસ્તાર બતાવીને હવે સૂત્રકાર શરાપ્રભા પૃથ્વી સ'ભ'ધી ઘનેષિ વિગેરે ના વિસ્તાર બતાવે છે. આમાં ગૌતમ સ્વામી પ્રભુને એવું પૂછે છે કે
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०
जीवाभिगम सूत्रे
भाएणं भंते' इत्यादि, 'सक्करप्पभाषणं भंते ! पुढवीए' शर्कराममायाः खलु भइन् ! पृथिव्याः ' वगोदही केवइयं वाइल्लेणं पन्नत्ते' घनोदधिः कियान बाहल्येन प्रज्ञप्त इति प्रश्नः, भगवानाह - ' गोचमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'वीसं जोयणसहस्सा ई' विंशतियजनसहस्राणि 'वाइल्लेणं पण्णत्ते' बाहरयेन मज्ञप्तो घनोदधिरिति । 'सक्करप्पभाषणं भंते! पुढवीए' शर्कराप्रभायाः खलु भदन्त । पृथिव्याः 'घनवाते केवइयं बाहल्ले गं पन्नत्ते' घनवातः क्रियान् वाइल्येन मज्ञप्तः, इति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'असंखेज्जाई जोयण सहस्लाई' असंख्येयानियोजनसहस्राणि 'बाहल्लेणं पन्नत्ते' बाहल्येन प्रज्ञप्तः, शर्कराप्रभा सम्बन्धि घनवातोऽसंख्येययोजन सहस्रपरिमित बाल्यतो घणोदधे (धोदेशे विद्यते इत्यर्थः । ' एवं तणुवाए वि ओवासंतरे वि'
भाणं ते! पुढवीए' हे भदन्त ! शर्कराप्रभा पृथिवी का जो 'घणोदही' घनोदधि है वह 'केवइयं बाहल्लेणं पण्णत्ते' कितनी मोटाई वाला कहा गया है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोपमा ! बीस जोपण सहस्साई बाहल्लेणं पन्नत्ते' हे गौतम! शर्करा प्रभा पृथिवी का जो घनो. दधि है वह 'बीसं जोयण सहस्ताई' बीस हजार योजन की मोटाई बाला कहा गया है । 'सक्काप्पभाषणं भंते! पुढबीए' हे भदन्त ! शर्करा प्रभा पृथिवी का जो 'घन वाते' घनवास है वह 'वयं बाहल्लेणं पनते' कितनी मोटाई वाला कहा गया है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं'गोयना ! 'असंखेजाई जोयणसहरुलाई बाहल्लेणं पन्नत्ते' हे गौतम! शर्करा प्रभा पृथिवी का जो घनवाल है वह असंख्यात हजार योजन की मोटाई वाला कहा गया है यह घनवात घनोदधि के नीचे के भाग में
'करपभाए णं अंते! पुढवीए' हे भगवन् शर्कराप्रमा पृथ्वीना ने 'घणोदही' धनादधि छे, ते 'के वइयं बाहल्लेणं पन्नत्ते' डेटा विस्तार वाणी उद्यो है? भा प्रश्नमा उत्तरमा प्रभु गौतम स्वामीने हे 'गोयमा' वीसं जोयणसहरसाई बाहल्लेणं पन्नत्ते' हे गौतम! शरायला पृथ्वीने ने धनविधि छे, ते वीस डेन्जर ચેાજનના વિસ્તાર–જાડાઇ વાળા કહેલ છે. ફરીથી ગૌતમસ્વામી પ્રભુને પૂછે છે } 'सक्कर पभाए णं भंये ! पुदवीए' हे लगवान् श२प्रला पृथ्वीन े 'घनवायें' धनत्रात छे. ते 'केवइयं बाहल्लेणं पण्णत्ते' ऐसा विस्तारना ह्यो है ? भा अश्नना उत्तरभां अलु ! छे! 'गोयमा ! असंखेज्जाई जोयणम्रइस्साई बाइल्लेणं पन्नत्ते' हे गौतम! शरायला पृथ्वीना ने धनवात हे, ते असंख्यात डुलर ચૈાજનના વિસ્તારવાળા કહ્યો છે. આ ઘનવાત, ઘનેાધિની નીચેના ભાગમાં છે,
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेययोतिका टीका प्र.३ सू.४ खरकाण्डादि घनोदध्यादेहिल्यम् ३१ एवं घनवातवदेव तनुवातोऽपि धनवातस्याधोदेशेऽसंख्येषयोजनसहस्रबाहल्येन विद्यते तथा-तनुवातस्यापि अधोदेशेऽप्रकाशान्तरमसंख्येय योजन बाहल्येन प्रज्ञप्तम् 'जहा सक्करपभा पुढवीए एवं जाव अहे सत्तमाएं यथा शरामभाया एवमधः सप्तमी पृथिवी पर्यन्तं घरोदधि घनवात तनुरातावकाशान्तराणां. तर दधोदेशे तेन तेन बाहल्येन युक्त ज्ञातव्यमिति ॥४॥ . मूलम् -इमीले णं भंते ! रयणप्पाए पुढवीए असीइ उत्तर जोयणलयसहस्सा बाहल्लाए खेत्तच्छे एणं छिजमाणीए अस्थि हैं एवं तणुवाए वि ओवासंतरे वि' घनबात की तरह तनुवात भी जानना चाहिये और अवकाशान्तर भी जानना चाहिये इसी तरह घनवात के अधोभाग में यह तनुवाल है और वह असंख्यात हजार योजन की मोटाई वाला है लशा-तनुवात के अधोभाग में अबकाशान्तर है और यह भी असंख्यात योजन की मोटाई वाला है 'जहा सकरप्पभा पुढवीए एवं जाय अहे सत्तमाए' जिप्त प्रकार से शर्कग प्रभा पृथिवी के घनोदधि आदि की मोटाई और अवकाशान्तर की मोटाई कही गई है उसी प्रकार रखे यावत्-अधः सप्तमी पृथिवी तक की पृथिवियों के घनोदधि आदि की और अलाशान्तों की मोटाई जाननी चाहिये घनोदधि अपनी २, पृथिवियों के अधोभाग में है धनवात घनोदधि के अधोभाग में हैं और तनुबान धनवाल के अधोभाग में हैं अवकाशान्तर तनुवान के अधोभाग में हैं। ॥१०४॥ 'एव तणुवाएवि ओवासंतरे वि' धनवात प्रभारी तनुपात ५ छे तेम समજવું અને અવકાશાતર પણ એજ પ્રમાણે એટલે કે ઘનવાતના કથન પ્રમાણે " छ, त सभा
આ રીતે ઘનવાતની નીચેના ભાગમાં આ તનુવાત છે, અને આ અસંખ્યાત હજાર એજનના વિસ્તારવાળે છે. તથા તનુવાતની નીચેના ભાગમાં भquन्तर छ, भन त ५ असvयात येना विस्तारवाणु छ. 'जहा सक्करप्पभा पुढवीए एवं जाव अहे सत्तमाए' हे प्रमाणे शरामा सीना ઘને દધિ વિગેરે વિસ્તાર અને અવકાશાન્તરને વિરતાર કહેલ છે. એજ પ્રમાણે યાવત્ અધઃસપ્તમી પૃથ્વી સુધીની પૃથ્વીના ઘનોદધિ વિગેરેનો અને અવકાશાતને વિસ્તાર સમજીલે. ઘોદધિ પિતાપિતાની પ્ર.ના અધભાગમાં છે, ઘનવાત, ઘોદધિની નીચેના ભાગમાં છે. અને તનવાત ઘનવાત ની નીચેના ભાગ માં છે. અને અવકાશાસ્તર તનુવાતની નીચેના ભાગમાં છે. સૂ. ૪
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमले दवाइं वण्णओ कालनीललोहियहालिद्दसुकिल्लाई, गंधओ सुरभिगंधाई, रसओ तिलकडुयकसायअविलमहुराई, फासओ कक्खडसउयगरुयलहुयलीयउलिणणिहलुक्खाई, लंठाणओ परिमंडलवतंस चउरल आययसंठाणपरिणयाइं अन्नमन्नवाई अण्णमण्णपुठ्ठाइं अन्नमन्न ओगाढाई अण्णमपण सिणेह पडिबद्धाइं अण्णमपण घडताए चिटुंति ? हंता अस्थि ॥ इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए खरकंडस्स सोलस जोयणसहस्स बाहल्लस्त खेत्तच्छेएणं छिजमाणस्स अस्थि व्वाइं वण्णओ काल जाव घडताए चिटुंति ? हंता अस्थि । इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए रयणनामगस्त कंडस्ल जोयणसहस्स बाहल्लस्ल खेत्तच्छेएणं छिन्नमाणस्स तं चेव जाव हंता अत्थि। एवं जाव रिट्रस्प्त ॥ इमीले णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए पंकबहुलस्त कंडस्स चउराशीइ जोयणसहस्स वाहल्लस्स खेत्त० तं चेव, एवं आवत्र हुलस्त वि असीइ जोयणलहस्स वाहलस्स खेत्तच्छेएणं तहेव ॥ इमीसे गं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए घणोदहिस्स वीसं जोयणलहस्स बाहल्लस्स खेत्तच्छेएणं तहेव । एवं घगनायस्स असंखेज्जजोयणसहस्ल वाहल्लस्त तहेव । ओवासंतस्स वि तं व ॥ सकरप्पभाए गं भंते ! पुढवीए बत्तीसुत्तरं जोयणसयसहस्स बाहल्लाए खेत्तच्छेएणं छिज्जमाणीए अत्थि दव्वाई वण्णओ जाब घडत्ताए चिटुंति ? हंता अस्थि । एवं घणोदहिस्स वीस जोयणसहस्स बाहल्लस्स, घणवातस्स असंखेजजोयणसहस्स बाहल्लस्स, एवं जाव ओवासंतरस्त, जहा सकरप्पभाए एवं जाव अहे सत्तमाए ॥सू० ५॥
-
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेययोतिका टीका प्र. ३ सू.५ नमनापृथिव्याः क्षेत्रच्छेदः
३३
,
छाया - एतस्याः खलु भदन्त । रत्नममायाः पृथिव्या अशीत्युत्तरयोजनशतं - सहस्रवाहल्यायाः क्षेत्रच्छेदेन छिद्यमानायाः सन्ति द्रव्याणि वर्णतः कालनीलकोहितहारिद्रशुक्लानि, गन्तः सुरभिगन्धानि दुरभिगन्धानि, रसतः तिक्तकटुक कषायाम्लमधुराणि स्पर्शतः करू शमृदुकगुरुरुकघुकशीतोष्ण स्निग्धरूक्षाणि, संस्थानतः परिमण्डल वृत्तपत्रवतुरस्रायत संस्थानपरिणतानि, अन्योन्यवद्धानि, अन्योन्यस्पृष्टानि, अन्योन्यावगाढानि, अन्योन्यस्निग्व प्रतिबद्धानि, अन्योन्यघटतया तिष्ठन्ति ? हन्त सन्ति । एतस्याः खल्ल भदन्त ! रत्नपमायाः पृथिव्याः खरकाण्डस्य षोडशयोजनसहस्र बाहल्यस्य क्षेत्रच्छेदेन छिद्यमानस्य सन्ति द्रव्याणि वर्णतः कालयावत् घटतया तिष्ठन्ति ? हन्त सन्ति । एतस्याः खलु भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्याः रत्ननाजकस्य काण्डस्य योजनसहस्रवाहल्यस्य क्षेत्रच्छेदेन छिद्यमानस्य तदेव यावत् दन्त सन्ति ? एवं यावद्रिष्टस्य । एतस्याः खलु भदन्त | रत्नप्रभायाः पृथिव्याः पङ्कवहुलस्य काण्डस्य चतुरशीतियोजन सहस्रः वाल्यस्य क्षेत्र तदेव | raneesस्थापि अशीतियोजन सहस्रवाहल्यस्य । एतस्याः खलु भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्याः घनोदधेविंशतियोजन सहस्रवाहपस्य क्षेत्रच्छेदेन तथैव । एवं घनवातस्यासंख्येययोजनसह सवल्यस्य तथैव, अवकाशान्तरस्यापि ददेव । शर्कराममायाः खल्ल भदन्त ! पृथिव्याः द्वात्रिंशदुत्तरशतसहस्रवा हलवायाः क्षेत्रच्छेदेन छिद्यमानायाः सन्ति द्रव्याणि वर्णतो यावद घटतया तिष्ठन्ति ? हन्त, सन्ति । एवं घनोदथेविंशति योजनसहस्रवाहल्यस्य, घनवातस्यासंख्येययोजन सहस्रवाहलयस्य एवं यादवकाशान्तरस्य । यथा शर्क - राममायामेवं यावदधः सप्तम्याम् ||सु० ५||
"
टीका- 'इषी से णं' भंते' एतस्याः खल भदन्त ! 'रयणप्पभाए पुढवीए' रत्नमभायाः 'अती उत्तरजोयणस्यसहस्स वाहल्लाए' अशीत्युत्तर योजनशतसहस्र इमीसे णं भंते । रमणभाष पुढवीए असीइउत्तर जोषण' इत्यादि । सू० ||५||
टीकार्थ - गौतम ने इस सूत्र द्वारा प्रभु से ऐसा पूछा है - ' हमीसे पणं भंते । रयणपभाए पुढवीए' हे भदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी के जो कि 'असी उत्तर जोगणसच सहस्सबाहल्लाए' एक लाख अस्सी 'इसीसे णं भंते! रयणप्पभार पुढत्रीए असीइउत्तर जोयण' त्रियाहि टीडार्थ-गौतमस्वाभीो' मा सूत्रद्वारा अलुनेोवु पूछयु' छे ! 'इमीसे णं भंते! रयणप्पभार पुढवीए' हे भगवन् या रत्नप्रमा पृथ्वीना है ने 'असीइ इत्तर जोयणाय सहस्स चाइल्लाए' साम में सीडलर १८०००० येोजननेो
जी० ५
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमसूत्रे
૪
चाहल्यायाः, अशीतिसहस्र योजनोत्तरे कलक्षवादल्यायाः 'खेतच्छे रणं' क्षेत्रच्छेदेन केवळया प्रतरकाण्डविभागेन 'छिनमाणीए' छिद्यमानायाः' - विभज्य - मानायाः 'अस्थि' सन्ति अस्तीति निपातोऽत्र बहुवचनार्थगर्भः, 'दवाई ' द्रव्याणि सन्ति | 'वण्णओ' वर्णतः 'कालनीललोहियालिकिकलाई' कालनीक लोहित पारशुक्लानि तानि द्रव्याणि वर्णतः काळानि - कालगुणोपेतानि - एवं नीकादिष्वपि ज्ञातव्यम् नीलानि लोहितानि हारिद्राणि शुक्लानि 'गंध सुरभिगन्धानि दुरभिगन्धानि 'रसओ वित्तकडुय कसाय अंबिलमहुराई' रसतः तिक्तरसानि कटुकानि कषायाणि अम्लानि मधुराणि 'फासओ' स्पर्शतः 'कक्खडमउयगरुयल हुयसीयउ सिणणिद्धलुकखाई ' कर्कशानि मृदूनि गुरुकाणि लघुकानि शीतानि उष्णानि स्निग्धानि रूक्षाणि, 'संठाणओ परिमंडल बहतंस चउरंस आयय संठाणपरिणयाई' संस्थानतः परिमण्डलानि वृचानि व्यस्राणि हजार (१८००००) योजन के पिण्ड हो 'खेत्तच्छेएणं छिजमाणीए' केवलज्ञानी की बुद्धि से जब हम प्रतर काण्ड रूप से विभाग - खण्ड खण्ड करते हैं तो इनके 'दव्वाई' क्रय 'दण्णओ' वर्ण की अपेक्षा 'कालनील लोहिय हालिदसुकिल्लाई अस्थि' क्या कृष्ण वर्ण वाले, नीले वर्ण वाले, लाल वर्ण वाले, पीछे वर्ण वाले और शुक्ल वर्ण वाले होते हैं ? 'गंध' गंध की अपेक्षा 'सुभिगंधाई दुगंधा' क्या वे सुरभिगंध वाले और दुरभिगंध वाले होते हैं ? 'ओ' रस की अपेक्षा क्या वे 'तिल कडुप रुसायअंबिलमहुराह' तिक्त, कटुक, कषाय, अम्ल और मधुर रस बाछे होते हैं ? 'फासओ कक्खड, मध्य, गरुय, लहुय, मीय- उक्षिण- मिद्ध-लक्ख. ६" स्पर्श की अपेक्षा क्या वे कर्कश, मृदु, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष स्पर्श वाले होते हैं ?
पिंड छे, 'खेत्तच्छेए णं छिज्जमाणीए' ठेवणज्ञानीनी मुद्धिधी न्यारे तेना अंतर अंड पाथी विलाज भेटते हैं खंड, अंड उरवामां आवे छे, तो ते 'दव्वाइ द्रव्य 'वण्णओ' वर्षानी अपेक्षाथी 'काल नील लोहिय हालिद सुक्किल्लाई अस्थि' શુ કૃષ્ણે કાળાવ વાળું નીલવણુ વાળુ' લાલગણુ વાળું પીળાવ વાળુ અને શુકલ
तां सहववाणु होय है? गंधओ' गंधनी अपेक्षा थी 'सुभिगंधाई, दुभि गंधाई' शु ं ते सुश्ली नाम सुगंधवाणु होय के ? उ हुरभिनाम दुर्ग 'धताणु-डाय छे? ‘रसओ' रसनी अपेक्षाथी शु' ते ' तित्तत्रयकसायअ बिलमहुराई" तिउतू, ४टुडे, उषाय, तुरा शुभ् मांटा भने भधुर भीठा रसवाणु होय छे ? 'फासओ कक्खड मध्य गहय, लहुय, सीय उसिण णिद्ध लुक्खाइ" स्पर्शनी अपेक्षाथी शुं ते ४४, भृ, गु३, लघु, शीत, उष्णु स्निग्ध भने ३क्ष स्पर्श' वाजु
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र. ३ सू.५ रत्नप्रभापृथिव्याः क्षेत्रच्छेदः
३५
"
चतुरस्राणि आयतानि, एतावत्संस्थानपरिणतानि - कथंभूतानि एतानि सर्वाणि तत्राह - 'अन्नमन्न' इत्यादि, 'अन्नमन्न बधाई' अन्योऽन्यं संबद्धानि 'अण्णमण्ण पुट्ठाई' अन्योऽन्यं स्पृष्टानि, अन्योन्यं परस्परं स्पृष्टानि - स्पर्शयुक्तानि तथा'अण्णमण्ण ओगाढाई' अन्योन्यावगाढानि अन्योऽन्यं परस्परमवगाढानि, यत्रेक द्रव्यमवगाढं तत्र अन्यदपि द्रव्यं देशतः क्वचित् सर्वतोऽवगाढमित्यर्थः ? 'अण्णमण्णसिणेहप डिवाइ" अन्योऽन्यं स्नेहमतिवद्धानि अन्योन्यं परस्परं स्नेहेन चिक्कगत्वेन प्रतिबद्धानि - मिलितानि येनैकस्मिन् चाल्यमाने गृह्यमाणे वाऽपरमपि चलनादि क्रियोपेतं भवति । तथा-'अण्णमण्य घडवाए चिद्वति' अन्योन्य घटतया तिष्ठन्ति, अन्धोन्यं परस्परं घटते संबध्नन्ति द्रव्याणि यत्र तत् अन्योन्य'संठाणभो - परिमंडल- वह-तंसे- चउरंस- आयय-कंठाण परिणयाई' संस्थान की अपेक्षा क्या वे परिमंडल संस्थान वाले, वृत्त संस्थान वाले, यस संस्थान वाले, चतुरस्र संस्थान वाले और आयत संस्थान वाले होते हैं ? 'अन्न मन्न बदवाह' ये सब द्रव्य आपस आपस में एक दूसरे से सम्बद्ध हैं क्योंकि ये सब द्रव्य एक ही स्थान पर रहते हैं 'अन्न मन्न पुट्ठाइ" तथा आपस में ये एक दूसरे के साथ स्पृष्ट हैं 'अण्ण मण्ण ओगाढाइ ' जहां एक द्रव्ध अवगाढ है वहीं पर दूसरा द्रव्य कहीं एक देश से और कहीं सर्वदेश से अवगाढ होता है 'अपण मण्णसिणेह पडिबधाई' ये आपस में स्नेह गुण को लेकर प्रतिवद्ध रहते हैं । मिले हुए रहते हैं इली कारण एक के चलायमान होने पर अथवा गृहीत होने पर दूसरा द्रव्य भी चलनादि क्रियोपेत होता है 'अण्ण मण्णघडत्ताए विद्वेति ये खब द्रव्य एक दूसरे में समुदाय रूप से
9
डाय छे ? 'संठाणओ परिमंडलवदूत' सचउरंस आयय संठाण परिणयाइ સંસ્થાનની અપેક્ષાથી શું તે પરમંડલ સંસ્થાનવાળું, વૃત્તસંસ્થાનવાળુ, ચશ્ર’ ત્રણુ સંસ્થ નવાળું, ચતુરસ્ત્રસંસ્થાનવાળુ, અને આયત સંસ્થાનવાળુ હાય છે? 'अन्नमन्न पुट्ठाइ" तथा परस्परमां मे थे मीलनी साथै स्पृष्ट भणेस थे. 'अग्गमण्ण ओगाढाइ' नयां और द्रव्य अवगाढ थयेस छे, त्यांत जीभुं द्रव्य પણ કયાંક એક દેશથી અને કયાંક સદેશથી અવગાઢ થઇને રહે છે, અન્ मा सिणेह पडिवद्धाइ' से परस्परमां स्नेह शुशु वशात् मधायेस रहे छे, અર્થાત્ મળેલ થઇને રહે છે. એજ કારણથી એકના ચલાયમાન થવાથી અથવા ગ્રહણ થવાથી ખીજું, દ્રવ્ય પશુ ચલન વિગેરે ક્રિયા વાળું થાય છે. ‘અન્ मणडत्ताप चिति' मा गषा द्रव्यो ! भीलनी साथै समुदाय यथाथी
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमत्रे
घटम्, अथवा अन्योन्यं परस्परं घटाः समुदायरचना यत्र तत् अन्योन्यघटम्, तस्य भावोऽन्योन्यघटता तथा अन्योऽन्य घटतया परस्परसमुदायतया तिष्ठति किमिति प्रश्नः, भगवानाह 'हंता अस्थि' इन्त इति स्वीकारे तथा च हे गौतम ! सन्त्येव यथा त्वया पृष्टानि तानि वचैव सन्तीत्यर्थः 'इमीसेणं भंते' एतस्याः खलु भदन्त ! 'रणभार पुढवीए' रत्नमभायाः पृथिव्याः 'खरकंडस्स' खरनामकाण्डस्य 'सोलस जोयणसहरल बाहल्लरस पोडश योजनाहल्यस्य 'खेच. च्छेएण छिन्नमाणस्स' क्षेत्रच्छेदेन केवलि बुधचा प्रतरविभागेन छिद्यमानस्य मिलकर क्षीर नीर की तरह अविभक्त होकर समाए रहते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभु कहते हैं— 'हंता, अस्थि' हां गौतम ! इस एक लोख अस्सी हजार योजन की मोटाई वाली रत्नप्रभा पृथिवी के जब केवली के ज्ञाना से क्षेत्रच्छेद के रूप में विभाग करते हैं तो उन २, विभाग के आश्रित द्रव्य वर्ण की अपेक्षा पांवों वर्ण वाले होते हैं, गंध की अपेक्षा सुरभि दुरभिगंध वाले होते है रसकी अपेक्षा पांचों रसों वाले होते हैं स्पर्श की अपेक्षा आठों स्पर्शो वाले होते हैं संस्थान की अपेक्षा परिमंडल आदि पांचों संस्थान वाले होते हैं और अन्योन्य सम्बद्ध आदि विशेषण वाले होते हैं और परस्पर समुदाय रूप से रहते हैं ।
'इमी से णं भंते! रयणप्पभाए पुढचीए' हे भदन्त । इस रत्नप्रभा पृथिवी का जो सोलह हजार मोटाई वाला खर काण्ड है उसके 'खेत्त મળીને ક્ષીર નીરની માફક અવિભકત થઈને અર્થાત્ જુદા પડયા વિનાના એક રૂપ થઈને સમાઇ રહે છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમસ્વામીને કહે છે है 'हंता अस्थि' । गौतम! आ खेडसाम में सी सुतर योजनना विस्तार વાળી રત્નપ્રભા પૃથ્વીના જ્યારે કૈવલીના જ્ઞાનથી ક્ષેત્ર છેઃપણાથી વિભાગ કરવામાં આવે છે, તે તે તે વિભાગેાના આશ્રિત દ્રવ્યે વર્ષોંની અપેક્ષાથી પાંચ વણુ વાળા હોય છે. ગધની અપેક્ષાથી સુરભિ દુમ અર્થાત્ સુગંધ અને દુર્ગધ વાળા હાય છે. રસની અપેક્ષાથી પાંચે પ્રકારના રસેાવાળા હાય છે. સ્પર્શની અપેક્ષાથી કશ વિગેરે આઠે પ્રકારના સ્પર્શાવાળા હાય છે. સંસ્થાન ની અપેક્ષાથી પિરમંડલ વિગેરે પાંચે સંસ્થાન વાળા હાય છે અને અન્ય અન્ય સબદ્ધ વિગેરે વિશેષણેાવાળા હોય છે. અને પરસ્પર સમુદાય પણાથી રહે છે,
'इमीसे णं भंते ! रयणपसाप पुढवीए' हे भगवन् या रत्नप्रभा पृथ्वीना सोण डलर योनना विस्तारवाणी भरांड नामनी अंड हे तेना 'खेतच्छेवण
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ रु.५ रत्नप्रभापृथिव्याः क्षेत्रच्छेद 'अस्थि दवाई" सन्ति द्रव्याणि 'वण्णमओ' वर्णतः 'काल जार घडताए चिट्ठति' काल यावत् घटतया तिष्ठन्ति, वर्णतः कालानि नीलानि लोहितानि हारिद्राणि शुक्लानि, गन्धवः सुरभिगन्धानि दुरभिगन्धानीति, रसतस्तिक्तरसानि कटु कानि कषायाणि अन्लानि मधुराणि, स्पर्शतः कर्कशानि मृदुनि गुरु काणि लघुनि शीतानि उष्णानि स्निग्धानि रूक्षाणि, संस्थानतः परिमण्डलानि वृत्तानि एस्राणि चतुरस्राणि आयतानि एतावत्संस्थानपरिणतानि यावद् घटत्या तिष्ठन किमिति यावत्पदघटित प्रश्ना, भगवानाह-'हंता अत्थि' हन्त समीति । 'इमीसे णं भवे । एतस्याः खल भदन्त ! 'रयणप्पसाए पुढवीए' रत्नममायाः पृथिव्याः ‘र रणणामगस्स कंडस्स' रत्ननामकस्य काण्डस्य 'जोयणसहस्सवाहल्लस' योजनसहस्रबाहच्छेएण छिजमाणस्त' केवली की बुद्धि से प्रतर भाग के रूप मेंखण्ड करने पर जो उसके आश्रित द्रव्य हैं वे क्या 'वाओ काल. जाव घड़त्साए चिटुंत' वर्ण की अपेक्षा कृष्ण आदि वर्ण वाले होते हैं गन्ध की अपेक्षा-सुरभि दुभि गंध वाले होते हैं क्या ? रस की अपेक्षा तिक्तरस आदि वाले होते हैं क्या? स्पर्श की अपेक्षा कर्कश आदि स्पों वाले होते है क्या? तथा-संस्थान की अपेक्षा परिमंडल आदि संस्थान वाले होते हैं क्या? परस्पर सम्बन्ध आदि रूप होकर परस्पर समुदाय रूप से रहते हैं क्या? इस तरह से पूर्वोक्त जैसा यह प्रश्न है इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'हंता, अहिष' हां गौतम ! वे द्रव्य पूर्वोक्त कथनानुसार होते हैं।
इमीलेणं भंते ! रयणप्पभाए पुढबीए स्थण जामगरल कंड हल हे छिज्जमाणस्व' जीना मुद्धिथी अतर विभागना ३३ ५' ४२ाथ तना माश्रयथा २२ रे द्रव्य छ, ते शु' 'वण्णमओ काल, जाव, घडताए चिदंति' વર્ણની અપેક્ષાથી કૃષ્ણ-કાળા વિગેરે વર્ણ વાળા હોય છે.? ગંધની અપેક્ષાથી સુરભિ, દુરભિ, સુગંધ અને દુર્ગંધવાળા હેય છે? રસની અપેક્ષાથી તિકતરસ વિગેરે રસેવળા હોય છે? સ્પર્શની અપેક્ષાથી કર્કશ વિગેરે સ્પર્શવાળા હોય છે? તથા સંસ્થાનની અપેક્ષાથી પરિમંડલ વિગેર સંસ્થાનવાળા હોય છે ? પરસ્પરમાં સંબદ્ધ વિગેરે પણુથી પરસ્પરમાં સમુદાય પણાથી રહે છે? આ પ્રમાણે પહેલાંની માફક આ પ્રશ્ન પૂછેલ છે. આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમ स्वामीन ४छे 'हंता अत्थि' । गौतम! ते द्रव्य पूर्वहित प्रश्न पश्यना - ४थन प्रमाणे हाय छे.
'इमीसे गं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए रयणणामगस्स करस्स' 8 सन् !
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमसूत्र ल्यस्य 'खेत्तच्छेएणं छिज्जमाणस्स तं चेव जाव' क्षेत्रच्छेदेन छिद्यमानस्य तदेव यावद छिद्यमानस्य द्रव्याणि किं वर्णतः कालादि पञ्चवर्णोपेतानि, गन्धतः मुरमिदुरभिगन्धयुक्तानि, रसतस्तिक्तादि पञ्चरसोपेतानि, स्पर्शतः कर्कशाधष्टस्पर्शयुक्तानि, संस्थानतः परिमण्डलादि एश्वसंस्थान परिणतानीति प्रश्नः, भगवानाह'हंता अस्थि' हन्त सन्धीति । 'एवं जाब रिट्ठस्स' एवं याचद्रिष्टस्य रत्नप्रभायां रत्नकाण्डस्य यथा-वर्णादिना परिणामो दर्शितस्तथैव वज्रकाण्डादारभ्य रिष्टकाण्डपर्यन्त स्थितकाण्डद्रव्याणां वर्णादिना तथा परिणामवत्वं ज्ञातव्यमिति । 'इमीसे भदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी का जो रत्न नाम का फाण्ड हैं कि जिसकी मोटाई 'जोषणसहस्रू बाहलस्स' एक हजार योजन की हैं उसके क्षेत्र. च्छेद से प्रतर विभाग के रूप में खण्ड २, करने पर जो इसके आश्रित द्रव्य है वे क्या वर्ण की अपेक्षा कालादिवर्ण दाले होते हैं ? गन्ध की अपेक्षा सुरभि गन्ध वाले होते हैं क्या? रस की अपेक्षा-तिक्त आदि रस वाले होते हैं क्या ? स्पर्श की अपेक्षा-कर्कशादि स्पर्श वाले होते हैं क्या? और संस्थान की अपेक्षा परिमंडल आदि संस्थान वाले होते हैं क्या ? परस्पर संबद्ध आदि होते हुए परस्पर समुदाय रूप से रहते है क्या ? इसके उत्तर में प्रभु करते हैं-'हंता, अत्थि' हा गौतम! उसके आश्रित द्रव्य, रूप, गन्ध, स्पर्श और संस्थान वाले आदि पूर्वोक्तानु. सार होते हैं । 'एवं जाव रिहस्स' रत्नप्रभा के रत्नकाण्ड के द्रव्य के रूप, गंध, रस आदि से युक्त होने के कथन की तरह वज्रकाण्ड रिष्टः काण्ड तक के द्रव्यों का वर्ण गंध, रस, स्पर्श संस्थान रूप से परिणाम
मा २(नमा पृथ्वीनारे २risis नामना छ, विस्तार 'जोयण सहस्स वाहल्लस्स' से 8२ योनी छे. तेना क्षेत्रहथी प्रतिविमा पाया ખંડ ખંડ કરવાથી તેના અશ્રિત જે દ્રવ્ય છે તે શું વર્ણથી કાળ વિગેરે વર્ણવાળું હોય છે? ગધની અપેક્ષાથી સુરભિગંધવાળું કે દુરભિગંધવાળું હોય છે? રસની અપેક્ષાથી તિકત વિગેરે રસવાળું હોય છે ? સ્પર્શની અપેક્ષાથી કર્કશ વિગેરે સ્પર્શવાળું હોય છે? અને સ સ્થાનની અપેક્ષાથી પરિમંડલ વિગેરે સંસ્થાનવાળું હોય છે? પરસ્પર મળીને પરસપર સમુદાય પણુથી રહે छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभु गौतभाभीन ४ छ । 'हंता अत्थि' है। ૌતમ ! તેના આશ્રયથી રહેલ દ્રવ્ય રૂ૫, ગંધ, રસ, રશ અને સંસ્થાન विगेरे पूर्वरित ४थन प्रभायेनु डाय छे. 'एवं जाव रिद्वस्स' २नमा पृथ्वीना રત્નકાંડના દ્રવ્ય રૂપ, રસ, ગંધ, વિગેરેથી યુક્ત હવાના કથન પ્રમાણે વજી કંડ, રિઝકાંડ સુધિના દળે વણ, ગંધ, રસ, રૂપ સંસ્થાન પણાથી
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रद्योतिका टीका प्र.३.५ रत्नप्रभा पृथिव्याः क्षेत्रच्छेदः
RE
णं भंते । एतस्याः खल भदन्त ! 'रयणप्पसार पुढवीए' रहनघभायाः पृथिव्याः 'पंकबहुलस्स कंडस्स' पङ्कबहुलनामकस्य काण्डस्य 'चउरासीह जोयणसहरस वाहएकस्स' चतुरशीतियोजन सहस्र बाहल्यस्य 'खेतच्छे रण तं चेव' क्षेत्रच्छेदेन च्छिद्यमानस्य द्रव्याणि वर्णतः काळादिना, गन्धतः सुरभ्यादिना, रसवस्तिकादिना, स्पर्शतः कर्कशादिना, संस्थानतः परिमण्डलादिना परिणतानि भवन्ति किमिति प्रश्न: हन्स सन्तीति पूर्ववदेवोत्तरम् एवं आवबहुलस्स वि असीह जोयणसहस्सबाद्दल्लस्स' एवं-पङ्कबहुलकाण्डवदेव रत्नमायां पृथिव्यां विद्यमानस्यान्वहुलस्यापि अशीतियोजनसळत्रबाहल्यस्य क्षेत्रच्छेदेन छिद्यमानस्य द्रव्याणि वर्णतः होता है इत्यादि कथन जानना चाहिये ।
'इमी से णं भंते । रयणध्वभाए पुढवीए पंक बहुलकण्डस्स चउरासी योजणसहस्स बालस्व' हे भदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी के पचहुलकाण्ड के जो कि चौरासी हजार योजन की मोटाई वाला है 'खेत्तच्छे'एणत चेव' जब केवली की बुद्धि से क्षेत्रच्छेद के रूप में विभाग करते हैं तो उनके द्रव्यों का परिणाम वर्ण की अपेक्षा कालादि रूप से, गंध की अपेक्षा सुरभि आदि रूप से, रत की अपेक्षा तिक्तादि रूप से, स्पर्श की अपेक्षा फर्कशादि रूप से और संस्थान की अपेक्षा परिमंडल आदि रूप से होता है क्या ? तथा परस्पर संदन आदि होते हुए रहते हैं क्या ? इसके उत्तर में प्रभु कहते है- 'हंता अस्थि' हां गौतम होता हैं 'एवं' आब बहुलहरू वि असीड जोयजलस्स बाहलस्स' इसी प्रकार से अस्सी हजार योजन की मोटाई वाले अन्बहुल પરિણામવાળા હાય છે. વિગેરે પ્રકારનું કથન સમજવું,
'इमीसे णं भंते! रयण पभाष पुढवीए पंकबहुलक डस्स चउराधी जोयणसहस्ख बाइल्टस्स' हे भगवन् या रत्नमला पृथ्वीना पहुड के यार्याशी डेर योन्ननी लडाई वाणी छे. 'खेत्तच्छेण तं चेव' ऐवजीनी युद्धिथी જ્યારે ક્ષેત્રચ્છેદના રૂપમાં વિભાગ કરવામાં આવે તેા તેના દ્રવ્યેનુ પરિણામ વની અપેક્ષાથી કાલાદ્વિપણાથી, ગધની અપેક્ષાથી સુરભિ વિગેરે પણાથી રસની અપેક્ષાથી તિક્તાદિ પણાથી સ્પર્શીની અપેક્ષાથી કશાદિ પણાથી અને સંસ્થાનની અપેક્ષાથી પરિમડલ વિગેરે રૂપથી હાય છે ?
या प्रश्नना उत्तरभां अलु गौतमस्वामीने हे छे 'ह'ता अस्थि' | गौतम ! ते प्रभाषे होय छे. 'एव' आव वहुलस्सवि असीइ जोयणसहस्य बाहસરલ' આ પ્રમાણે એસી હજાર કૈાજનની જાઈવાળા અખ્ખહુલકાંડના ક્ષેત્ર
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवाभिगमस्ये कालादिना गन्धतः सुरभ्यादिना, रसतः सिक्तादिना, स्पर्शतः फर्कशादीना, संस्थानतः परिमण्डलादिना, परिणतानि भवन्ति किमिति प्रश्ने हन्त सन्तीत्युत्तरं ज्ञातव्यमिति । 'इमोसे णं भंते' एतस्याः खलु भदन्त ! 'रयणप्यमाए पुढवीए' रत्नपभायाः पृथिव्याः 'घणोदहिस्स वीसं जोयणसहस्स बाहल्लस्स' घणोदधे. विशतियोजनसहस्र शाहल्यस्य 'खेत्तरछेएण तहेव' क्षेत्रच्छेदेन तथैवेति क्षेत्रच्छेदेन छिद्यमानस्य सन्ति द्रव्याणि तानि वर्णतः कालादिना, गन्धतः सुरभ्यादिना, रसवस्तिक्तादिना, स्पर्शतः फर्कशादिना, संस्थानतः परिमण्डलादिना, परिणतानि काण्ड के क्षेत्रच्छेद से विभाग करने पर उनके आश्रित द्रव्य वर्ण की अपेक्षा कालादि रूप से, गंध की अपेक्षा सुरभि-दुरभि आदि रूप से, रस की अपेक्षा लिक्तादि रूप ले और स्पर्श की अपेक्षा कर्कशादि रूप से तथा संस्थान की अपेक्षा परिमंडल आदि रूप से परिणत होते हैं
और परस्पर संबद्ध आदि होते हुए समुदाय रूप से रहते हैं____ 'इमीले णं भंते' हे भदन्त ! इस 'रथणप्पभाए पुढवीए' रत्नप्रभा पृथिवी के नीचे 'घणोदहिस्स वीसं जोयणसहस्स पाहल्लस्स' जो घनोदधि है कि जिनकी मोटाई २, बीस हजार योजन की है उसके जय केवली की वुद्धि से क्षेत्रच्छेद के रूप में विभाग करते है तो वे उसके द्रव्य वर्ण की अपेक्षा कालादि रूप में, गन्ध की अपेक्षा सुरभि दुरभि गंध के रूप में, रस की अपेक्षा तिक्तादि रूप में स्पर्श की अपेक्षा कर्कश आदि रूप में और संस्थान की अपेक्षा परिमंडल आदि रूप में परिणत होते हैं क्या ? तथा परस्पर संबद्ध आदि होते रहते हैं क्या? तो उत्तर में प्रमु कहते हैं-हां गौतम ! वे उस उस रूप में परिणत होते हुए परस्पर संब
છેદથી વિભાગ કરવામાં આવે તેના આશ્રયથી રહેલ દ્રવ્ય વર્ણની અપેક્ષાથી કાળા વિગેરે પણાથી ગંધની અપેક્ષાએ સુરભિ, દુરભિપણુથી રસની અપેક્ષાએ તીખા, કડવા વિગેરે રૂથી અને સ્પર્શની અપેક્ષાથી કર્કશ વિગેરે રૂપથી તથા સંસ્થાનની અપેક્ષાથી પરિમંડલ વિગેરે રૂપથી પરિત થાય છે. અને પરસ્પર સંબદ્ધ વિગેરે થઈ સમુદાયપણાથી રહે છે.
'इमीसे णं भंते !' है भगवन् मा 'घणोदहिस्स वीसं जोयणसहस्स बाहल्लस्स' २ घनधि छे, रेनी ना विस्तार २० डार योजना छ, તેના જ્યારે કેવલીની બુદ્ધિથી ક્ષેત્ર છેદનપણાથી વિભાગ કરવામાં આવે તે તેના દ્રવ્ય વર્ણની અપેક્ષા કાળાદિ રૂપથી ગંધની અપેક્ષાથી સુરભિ દરભિ ગંધપણુથી રસની અપેક્ષાથી તીખા વગેરે રૂપે, સ્પર્શની અપેક્ષાથી કર્કશ વિગેરે રૂપથી
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ सू.५ रत्नप्रभापृथिव्याः क्षेत्रच्छेदः किमिति प्रश्नस्य हन्त सन्तीति पूर्ववदेवोत्तरमिति । 'एवं घणवायस्स असंखेज्जजोयणवाहल्लस्स तहेव' एवं घनोदधिवदेव रत्नमभायां घनोददेरथो विद्यमानस्य धनवातस्यासंख्येययोजनसहस्रबाहल्यस्य क्षेत्रच्छेदेन छिद्यमानस्य सन्ति द्रव्याणि वर्णतः कालादिना, गन्धतः सुरभ्यादिना, रसतस्तिक्तादिना, स्पर्शतः फर्कशा. दिना, संस्थानतः परिमण्डलादिना परिणतानि किमवि प्रश्नस्य हन्त सनीत्युत्तरं पूर्ववदेव ज्ञातव्यमिति, एवं तनुवातस्यापि घनवाताधो विद्यमानस्या संख्येय योजनसहस्रबाहल्यस्य क्षेत्रच्छेदेन छिद्यमानस्य सन्ति द्रव्याणि तानि द्ध आदि होकर रहते हैं 'एवं घणवायरल असंखेज जोयण वाहल्लस्स तहेव' इसी तरह घनोदधि के नीचे विद्यमान जो घनवात हैं कि जिसकी मोटाई असंख्यात हजार योजन को है उसके जप क्षेत्रच्छेद के रूप में विभांग करते हैं तो उसके द्रव्य वर्ण की अपेक्षा कालादि रूप में गंध की अपेक्षा सुरभि आदि के रूप में, रस की अपेक्षा तिक्तादि के रूप में और स्पर्श की अपेक्षा कर्कश आदि स्पर्श के रूप में तथा संस्थान की अपेक्षा परिमंडल आदि में परिणत हुए परस्पर संघद्ध आदि होकर रहते हैं। इसी तरह से घन वात के नीचे विद्यमान असंख्यात हजार योजन की मोटाई वाले तनुवात के क्षेत्रच्छेद के रूप में विभाग करने पर भी वे उसके द्रब्य पाँच वर्णरूप में, दो गंधरूप में, पांच रस
અને સંસ્થાનની અપેક્ષાથી પરિમંડલ વિગેરે પણામાં પરિણમે છે.? તથા પરસ્પર સંબદ્ધ વિગેરે થઈને રહે છે? એજ પ્રમાણે ઘનેદધિની નીચે વિદ્યમાન છે ઘનવાત છે, કે જેની પહોળાઈ જાડાઈ અસંખ્યાત હજાર જનની છે, તેના જ્યારે ક્ષેત્રરઠેદના રૂપમાં વિભાગ કરવામાં આવે તેનું દ્રશ્ય વર્ણની અપેક્ષા થી કાળા વિગેરે રૂપથી ગંધની અપેક્ષાથી, સુરભિ, દુરભિરૂપથી, રસની અપેક્ષા થી કર્કશ વિગેરે પ્રકારથી તથા સંસ્થાનની અપેક્ષાથી પરિમંડલ વિગેરેમાં પરિણત થઈને પરસ્પર સંબદ્ધ આદિ થઈને રહે છે. એ જ રીતે ઘનવાતની નીચે વિદ્યમાન અસંખ્યાત હજાર એજનની પહોળાઈ જાડાઈ વાળા નવાતના ક્ષેત્રછેદથી વિભાગ કરવામાં આવે તે પણ તેમાં રહેલ દ્રવ્ય પાંચ વર્ષ રુપ થી બે ગંધપણાથી, પાંચરસપણથી, આઠસ્પર્શપથાથી અને પરિમંડલ વિગેરે પાંચ સંસ્થાન પણાથી પરિણમે છે, એજ પ્રમાણે રતનપ્રભામાં તનુવતિની નીચે
जी०६
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
४२
जीवामिगम वर्णतः कालादिना गन्धतः सुरस्यदिना, रमतस्विकाविना, स्पर्शतः शादिया संस्थानतः परिमण्डलादिना परिणतानि किमति प्रश्नस्य हन्त सन्तीति पूर्ववदेव उत्तरमिति । 'ओवासंतरस्स वि तं चेव' अवकाशान्तरस्यापि तदेव, रत्नप्रभायां तनुवातो विद्यमानस्यासंग्येय योजनसहनवाहल एस्थावकाशान्तरस्प क्षेत्रच्छेदेन छियमानस्य सन्ति न्याणि तानि वर्णतः कालादिना, गन्धतः सुरभ्यादिना, रसतास्तिक्तादिना, स्पर्शतः कशा दिना, संस्थानतः परिमण्डलादिना परिणतानीति प्रश्नस्य हन्त सन्तीति पूर्ववदेव उत्तरमिति । 'सरकरपमाए ण भते ! पुढवीए' शर्कराप्रमायाः खलु भदन्त । पृथिव्याः 'बत्तीसरनोयणसयसहरस. बाहल्लाए' द्वात्रिंशोत्तर योजनशतसहस्रबाहल्यायाः 'खेत्तच्छेएण छिन्नमाणीए' रूप में, आठ स्पर्श रूप में और परिमंडल आदि ध संस्थान रूप में परिणत होते हैं। इसी तरह ते रत्नप्रभा में तनुज्ञात के नीचे विद्यमान और असंख्यात हजार योजन की मोटाई-बाले असामान्तर के आदि पहले की तरह जान लेना चाहिये, क्षेत्रच्छेद के रूप में जय केवली की बुद्धि से विभाग परते है तो उसके द्रव्य वर्ण की अपेक्षा कालादि रूप से, गन्ध अपेक्षा की सुरभि आदि रूप से, रस की अपेक्षा तिक्तादि रूप से, स्पर्श की अपेक्षा सर्कश आदि रूप से और संस्थान की अपेक्षा परिमंडल आदि रूप से परिणत होते हैं आदि सबही कथन पूर्वोक्त जैसा जनना चाहिये 'सका पभाषण भंते ! पुढबीए' हे भदन्त | शर्करा प्रभा पृथिवी के जो 'इत्तीलुत्तर जोशण सरस्सपाहल्लरस' एक लाख बत्तीस हजार योजन की मोटाई वाली है उसका 'खेत्तच्छे एण जि. રહેલ અને અસંખ્યાત હજાર જનની પહોળાઈવાળા અવકાશાન્તર વિગેરેના ક્ષેત્રચ્છેદથી વિભાગ કરવામાં આવે વિગેરે પહેલા કા પ્રમાણે સમજી લેવું જોઈએ. અર્થાત્
ક્ષેત્રચહેદપણાથી જ્યારે કેવળની બુદ્ધિથી વિભાગ કરવામાં આવે, તે તે એનું દ્રવ્ય વર્ણની અપેક્ષાથી કાળાદિપણાથી ગંધની અપેક્ષાથી સુરભિ વિગેરે પ્રકારથી, રસની અપેક્ષાથી તીખા, કડવા, વિગેરે પ્રકારથી સ્પર્શની અપેક્ષાથી કર્કશ વિગેરે રૂપે અને સંસ્થાનની અપેક્ષાથી પરિમંડલ વિગેરે પ્રકારથી थाय छे. विजेरे मधु४ घन पडता घL प्रमाणेनुसमा 'सक्करप्पभाए णं भवे ! पुढवीए' 8 लगवन् श६२प्रमा पृथ्वीना २ 'वत्त सुत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लस' से दाम त्रीस १२ याननी पडा पाणी छे, तेना 'खेतच्छेएणं छिज्जमाणीए' क्षेत्रपाथी न्यारे विमा ४२वामा
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ .५ रत्नप्रभापृथिव्याः क्षेत्रच्छेदः क्षेत्रच्छेदेन छिद्यमानायाः 'अस्थिब्वाई" सन्ति द्रव्याणि 'वण्णी जाव घडताए चिट्ठति' वर्णतः कालानि नीलानि लोहितानि हारिद्राणि शुक्लानि, गन्धतः सुरभिगन्धानि दुरभिगन्धानि, रसतास्तिकानि कटुकानि कषायाणि अम्लानि मधुराणि, स्पर्शतः कर्कशानि मृदूनि गुरुकाणि लघुकानि शीतानि उष्णानि स्निग्धानि रूक्षाणि, संस्थानतः परिमण्डलानि वृत्तानि यस्राणि चतुरस्त्राणि आयतानि, लैः परिणतानि अन्योन्य बद्धानि अन्योन्य स्पृष्टानि अन्योऽन्यावगाढानि अन्योऽन्यस्नेहबद्धानि अन्योऽन्य घटतया तिष्ठन्ति, इति प्रश्ना, भगवानाह-'हंता अत्थि' हन्त गौतम ! शर्कराप्रभाश्रितानि तानि द्रव्याणि यथोक्तविशेषणयुक्तानि भवन्त्येवेत्युत्तरम् । 'एवं घणोदहिस्स दीसं जोयणसहस्सवाहल्लस्स' मणीए' क्षेत्रच्छेद के रूप में जो विभाग भरते है तो उसके द्रव्य क्या 'वण्णओ जाव घडताए चिट्ठति वर्ण की अपेक्षा काल, नील, लोहित, हारिद्र और शुक्ल रूप से, गंध की अपेक्षा सुरभि दुरभि गंध रूप से, रस की अपेक्षा, तिक्त, कटुक कपाश, अम्ल एवं मधुर रस रूप से स्पर्श की अपेक्षा कर्कश, मृदु, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध और रुक्ष रूप से तथा संस्थान की अपेक्षा परिमंडल, वृत्त, वस्त्र, चतुरस्त्र,
और आयत लम्बे रूप से परिणत होते हैं क्या? क्योंकि ये द्रव्य अन्योन्य बद्ध होते हैं, अन्योन्य स्पृष्ट होते हैं, अन्योन्य अवमाढ होते हैं, अन्योन्य स्नेह गुण से बद्ध होते हैं तथा परस्पर में अविभक्त होकर मिले रहते हैं। इस प्रश्न के उत्तर में प्रभु कहते हैं-हाँ गौतम ! शर्करा प्रभा पृथिवी के आश्रित वे द्रव्य यथोक्त विशेषणों से युक्त होते ही हैं। 'एवं घणोदहिस्ल वीसं योजणसहसह बाहलम' इसी प्रकार भाव, तातना द्र०यना 'वण्णओ जाव घडताए चिटुंति' पनी अपेक्षाथी નીલ, લેહિત, હારિદ્ર, અને શુકલ સફેદ પણાથી ગંધની અપેક્ષાથી સુરભિ દુરભિ ગંધપણાથી રસની અપેક્ષાથી તીખા, કડવા, કષાય તુરા અમ્લ, ખાટા અને મધુર મીઠા રસથી રપશની અપેક્ષાથી કર્કશ, મૃદુ ગુરૂ, લઘુ, શીત સ્નિગ્ધ, અને રૂક્ષપણાથી તથા સંસ્થાનની અપેક્ષાથી પરિમંડલ, વૃત્ત, સ્ત્ર ચતુરસ, અને આયત લાંબાપણાથી પરિણુત થાય છે ? કેમકે આ દ્રવ્યો પરસ્પર બદ્ધ હોય છે. પરસ્પર અવગાઢ હોય છે. પરસ્પર સ્નેહ ગુણથી બદ્ધ હોય છે. તથા પરસ્પરમાં અવિભક્ત થઈને મળીને રહે છે. ૨
આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે હા ગૌતમ ! શર્કરા પ્રભા પૃથ્વીને આશ્રિત થઈ રહેલા તે દ્રવ્ય યકત વિશેષણેથી યુકત હોયજ છે. ‘एवं प्रणोदहिस्स वीसं जोयण सहस्त्रबाहल्लस्स' मे प्रमाणे A२मा पृथ्वीनी
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगम एवं शर्कराधभाव देव शर्कराप्रभातोऽधो विद्यमानस्य घनोदविंशति योजनसहल. बादल्यस्य क्षेत्रच्छेदेन छिद्यमानस्य सन्ति द्रव्याणि यानि वर्गतः कालादिना, गन्धतः सुरभ्यादिना, रसतस्तिक्तादिना, स्पर्शतः कर्कशादिना, संस्थानतः परिमण्डलादिना परिणतानि अन्योन्यवदादि विशेषणविशिष्टानि अन्योन्य घटतया तिष्ठन्तीति प्रश्नस्य पूर्ववदेव हन्त सन्तीति भगवत उत्तरं ज्ञातव्यम् इति । ___एवं घगवातस्स असंखेज्जजोयणसहस्सवादल्लम्स' एवं घनोदधिवदेव घनोदधेरधोभागे विद्यमानस्य घनवातस्यासंख्येययोजनसहवाइल्यस्य क्षेत्र शर्करा प्रभा के नीचे विद्यमान घनोदधि के जो बीस हजार योजन की मोटाई वाली है क्षेत्रच्छेद के रूप में जो विभाग करते हैं तो यहां जो द्रव्य हैं वे वर्ण की अपेक्षा कालादि रूप से गंध की अपेक्षा सुरभि आदि रूप से, रस की अपेक्षा तिक्त आदि रूप से, स्पर्श की अपेक्षा कर्कश आदि रूप से और संस्थान की अपेक्षा परिमंडल आदि रूप से क्या परिणमित होते हैं क्या ? क्योंकि तगत द्रव्य अन्योन्य बद्ध आदि विशेषणों वाले होते हैं। इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं हां गौतम! शर्करा प्रभा के घनोदधि के आश्रित द्रव्य-वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और संस्थान रूप से परिणत होते हैं। और अन्योन्य संबद्ध आदि विशेषणों वाले होते हैं । 'एवं घशवायस्त असंखेन्ज जोयण सहस्त माह ल्लस्स' इसी तरह से शर्करा प्रभा के घनोदधि के नीचे रहे हुए घन. घात के जो असंख्यात हजार योजन की मोटाई वाला है क्षेत्रच्छेद के નીચે રહેલ ઘને દધિના કે જે વીસ હજાર એજનની પહોળાઈ વાળે છે, તેના ક્ષેત્રચ્છેદ પણાથી જ્યારે વિભાગ કરવામાં આવે, તે શું ત્યાં જે દ્રવ્ય છે, તે વર્ણની અપેક્ષાથી કાળા વિગેરે રૂપે ગંધની અપેક્ષાથી સુરભિ. દુરભિગંધપણાથી, રસની અપેક્ષાથી તીખા કડવા વિગેરે પણાથી સ્પર્શની અપેક્ષાથી કર્કશ વિગેરે પણાથી અને સંસ્થાનની અપેક્ષાથી પરિમંડલ વિગેરે પણાથી શું પરિણત થાય છે? કેમકે તેમાં રહેલ દ્રવ્ય અન્ય બદ્ધ વિગેરે વિશેષ વાળું હોય છે. આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે હા ગૌતમ! શર્કરા પ્રજાના ઘનેદધિના આશ્રયે રહેલ દ્રવ્ય, વર્ણ, ગંધ, રસ, સ્પર્શ, અને સંસ્થાન પણાથી પરિણત થાય છે. અને અન્ય સંબદ્ધ વિગેરે વિશેષાવાળું હોય છે. ___ 'एच' घणवायत्स, असखेज जोयणसहस्सबाहल्लरस' से प्रभार શર્કરપ્રભાના ઘોદધિની નીચે રહેલા ઘનવાત કે જે અસંખ્યાત હજાર જનની પહેળાઈ વળે છે, તેના ક્ષેત્રપણાથી વિદ્યાગ કરવામાં આવે છે તેમાં
હે ગૌતમ. શરાબ
પરિણત થય
રહેલ દ્રવ્ય, વર્ણ, ગ . આ
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमैयद्योतिका टीका प्र.३ २.५ रत्नममापृथिव्याः क्षेत्रच्छेदः च्छेदेन छिद्यमानस्य सन्ति द्रव्याणि यानि वर्णतः कालादिना गन्धतः सुरभ्यादिना, रसतस्तिक्तादिना, स्पर्शतः कर्कशादिना संस्थानतः परिमण्डलादिना परिणतानि भवन्तीति प्रश्नस्य इन्त गौतम ! सन्तोति मगवत उत्तरं ज्ञातव्यमिति। 'एवं जाव ओबासंतरस्स' एवं यावदवकाशानरस्प, हे भदन्त ! यावत्पदेन घनदातस्याधो विद्यमानस्यासंख्येययोजनसहस्रबाहल्यस्य तनुवावस्य क्षेत्रच्छेदेन छिद्यमानस्य सन्ति द्रव्याणि वर्णतः कालादिना याश्च संस्थानतः परिमण्डलादिना परिणतानि अन्योन्य वदानि विशेषग विशिष्टानि अन्योन्य घटतया तिष्ठन्तीति प्रश्नस्य इन्त गौतम ! सन्तीति भगक्त उत्तरं रूप में विभाग करने पर तद्दत द्रव्य क्या वर्ण की अपेक्षा कालादि रूप से, गंध की अपेक्षा सुरभि आदि रूप से, रस की अपेक्षा तिक्त. रस आदि रूप से, स्पर्श ही अपेक्षा पर्कश आदि रूप से और संस्थान की अपेक्षा परिमंडल आदि ले परिणत होते हैं क्या और अन्योन्य संबद्ध आदि विशेषणों वाले होते हुए रहते हैं क्या? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-हां, गौतम! वे सद्गत द्रव्य वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और संस्थान आदि से परिणत आदि पूर्वचन होते है। इसी तरह शर्करा प्रभा के घनवात के नीचे स्थिन तलुवात के जो कि असंख्यात हजार योजन की मोटाई वाला है केली की बुद्धि ले क्षेत्रच्छेद के रूप में विभाग करने पर तद्गत द्रव्य क्या वर्ण की अपेक्षा कालादि रूप से, गंध की अपेक्षा सुरभि आदि रूप से, रस की अपेक्षा कर्कश आदि રહેલ દ્રવ્ય શું વર્ણની અપેક્ષાથી કાળા વિગેરે પણુથી, ગંધની અપેક્ષાથી સુરભિ વિગેરે રૂપથી રસની અપેક્ષાથી તીખા કડવા રસ વિગેરે પ્રકારથી સ્પર્શની અપેક્ષાથી કર્કશ વિગેરે રૂપથી અને સંસ્થાનની અપેક્ષાથી પરિમંડલ વિગેરે પણાથી પરિણત થાય છે. અને અન્યોન્ય સંબદ્ધ વિગેરે વિશેષણવાળે થઈને રહે છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે છે કે હા ગીતમાં તેઓ તેમાં રહેલ દ્રવ્ય, વર્ણ, ગંધ, રસ, શ, અને સંસ્થાન વિગેરેથી પરિણત વિગેરે પૂર્વવત્ હોય છે. એ જ પ્રમાણે શર્કરપ્રભાના ઘનવાતની નીચે રહેલ તનુવાત, કે જે અસંખ્યાત હજાર યોજનની પહેળાઈ વાળો છે, તેના કેવળીની બુદ્ધિથી ક્ષેત્રછેદથી વિભાગ કરવામાં આવે તો તેમાં રહેલ દ્રવ્ય, શું વર્ણની અપેક્ષાથી કાળાદિ પણાથી ગંધની અપેક્ષાએ સુરભિ વિગેરે રૂપથી રસની અપેક્ષાથી તીખા વિગેરે રૂપથી સ્પર્શની અપેક્ષાથી કર્કશ વિગેરેપણાથી અને સંસથાનની અપેક્ષાથી પરિમંડલ વિગેરે રૂપે પરિણમે છે. વિગેરે પૂર્વવત કથન સમજી લેવું.
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
દ
जीवामिगमसूत्रे
प्रतिपत्तव्यम् । एवं तनुवावस्याधोभागे विद्यमानस्यावकाशान्तरस्यासंख्येय। योजनास्य क्षेत्रच्छेदेन छिद्यमानस्य सन्ति द्रव्याणि यानि वर्णतः कालादिना यावत्स्थानतः परिमण्डलादिना परिणतानि द्रव्याणि वर्णगन्धरसस्पर्शसंस्थानयुक्तानि अन्योन्य वद्धानि विशेषणयुक्तानि अन्योन्य घटतया तिष्ठन्ति किमिति प्रश्नस्य हन्त गौतम । भवन्त्येव तानि द्रव्यानि तथाविधानीत्युत्तरं ज्ञेयम् 'जहा सक्करप्पभाए एवं जाब अहे सत्तमाए' यथा शर्कराप्रभायां घणोदधि घनदात तनुत्रातावकाशान्तराणां क्षेत्रच्छेदेन छिद्यमानानां यानि तद्वत द्रव्याणि वर्णतः काळादिना यावत्संस्थानतः परिषण्डलादि परिणतानि अन्योन्य बद्धादि
रूप से और संस्थान की अपेक्षा परिमंडल आदि रूप से परिणत आदि पूर्ववत् होकर रहते हैं, ऐसा कथन पूर्ववत् जान लेना । इसी प्रकार असंख्यात हजार योजन की मोटाई वाले अवकाशान्तर के जो कि तवा के नीचे स्थित है क्षेत्रच्छेद के रूप में विभाग करने पर तगत तनुवात जो द्रव्य हैं वे वर्ण की अपेक्षा कालादि रूप से, गंध की अपेक्षा सुरभि दुरभि गंध रूप से, रस की अपेक्षा निक्त आदि रस रूप से, स्पर्श की अपेक्षा कर्कश आदि रूप से और संस्थान की अपेक्षा परिमंडल आदि रूप से परिणमित होकर आदि पूर्ववत रहते हैं ऐसा जानना चाहिये
'जहा सकरपभाए एवं जाव अहे सत्तमाए' जिस प्रकार शर्करा प्रभा के घनोद्धि, घनवात और तनुवात और अवकाशान्तर है, इन सब के क्षेत्रच्छेक रूप में विभाग करने पर तदन्तर्गत द्रव्यों का वर्ण की अपेक्षा कालादि रूप से, यावत् संस्थान की अपेक्षा परिमंडल
એજ પ્રમાણે અસંખ્યાત હજાર ચેાજનની પહેાળાઇ વાળો અવકાશાન્તર કે જે તનુવાતની નીચે છે. તેના ક્ષેત્રòદ પશુાથી વિભાગ કરવાથી તેમાં રહેલ જે દ્રવ્ય છે. તે વર્ણની અપેક્ષાથી કાળા વગેરે રૂપે ગધની અપેક્ષાથી સુરક્ષિ દુરભિ ગધપણાથી, રસની અપેક્ષાથી તીખા, કડવા, વિગેરે પણાથી સ્પર્શીની અપેક્ષાથી કર્કશ વિગેરે પ્રકારથી અને સંસ્થાનની અપેક્ષાથી પરિમ‘ડલ વિગેર રૂપે પરિણતિત થઇને વિગેરે પહેલા કહેલ પ્રકારથી રહે છે, તેમ સમજવું
'जहा सक्क पभाए एवं जाव अहे समाए' ? प्रभा शर्माश अलामां ધનધિ, ઘનવાત, તનુવાત અને અવકાશાન્તર છે એ બધાના ક્ષેત્રચ્છેઃ પણાથી (વભાગ કરવાથી તેમાં રહેલ દ્રબ્યુનું વર્ણની અપેક્ષાથી કાલાદિ રૂપે યાવત્ સંસ્થાનની અપેક્ષાથી પરિમ ́ડલ વિગેરે પણાથી પત્તુિત થવાના સબ ધમાં
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
trafont टीका प्र. ३ . ६ रत्नप्रभा पृथ्व्याः संस्थाननिरूपणम्
४७
विशेषणानि अन्योन्य घटतया तिष्ठन्ति तेषामवस्थानं व्याख्यातं तथैव बालुकाप्रभा पङ्कममा धूमप्रभा तमःप्रभा तमस्तमः प्रभास्वषि घनोदधि घनवात तनुवातावकाशान्तर सम्बन्धि द्रव्यविषयेऽपि प्रश्नोत्तरेण व्यख्यातव्यमिति । प्रकारस्तु सर्वत्र पूर्ववदेव तव्य इति संक्षेपः ||५||
सम्पति रत्नप्रभा पृथिवीनां संस्थान प्रतिपादनार्थमाह- 'इमाणं भंते' इत्यादि । मूलम् - इमाणं भंते! रयणप्पा पुढवी किं संठिया पन्नत्ता ? गोयमा ! झल्लरी संठिया पन्नत्ता । इमीसे णं भंते! स्यणप्पभाए पुढवीए खरकंडे किं संठिए पन्नत्ते ? गोयमा ! झल्लरी संठिए पन्नत्ते । इमीसे णं भंते! रयणप्पभाष पुढवीए रयणकंडे किं संठिए पन्नत्ते ? गोयमा ! झल्लरी संठिए पन्नत्ते । एवं जाव रिट्ठे । एवं पंकबहुले वि, एवं आबबहुले वि, घणोदही वि, घणवाए वि, तणुवाए वि, ओवासंतरे वि सव्वे झल्लरी संठिए पन्नत्ते । सक्करप्पभाणं भंते! पुढवी किं संठिया पन्नत्ता ? गोयमा ! झल्लरी संठिया पन्नता । सक्करप्पभाए पुढवीए घणोदही किं संलिए पन्नले ? गोयमा ! झल्लरी संठिए पलत्ते,
आदि रूप से परिणमित होना आदि कहा गया है उसी प्रकार से बालुका प्रभा, पङ्क प्रभा, धूम प्रभा, तमः प्रभा और तमस्तमः प्रभा, इन पृथिवीयों में भी वर्तमान घनोदधि, घनवात, तनुवात और अबकाशान्नर सम्बन्धी द्रव्यों का वर्ण की अपेक्षा कालादि रूप से, यावत् संस्थान की अपेक्षा परिमंडल आदि रूप से, परिणमन आदि होता है, ऐसा जानना चाहिये इस सम्बन्ध में आलाप प्रकार सर्वत्र पहिले के जैसा ही बनाना चाहिये | ० ||५||
अथन यु छे. पेन प्रभाथे वासुप्रला, प्रला, धूमप्रभा, तःला भने તમસ્તમપ્રભા આ પૃથ્વીયેટમાં રહેલા ઘનેાધિ, ઘનવ:ત તનુવાત, અને અવકાશાન્તર સખ"ધી દ્રષ્ચાનુ' વની અપેક્ષાથી કાળાદિ રૂપથી, યાવત્ સ ંસ્થાનની અપેક્ષાથી પરિમંડલ વિગેરે પાથી પરિણમન વિગેરે થાય છે તેમ સમજવુ' આ સબંધમાં માલાપકોના પ્રકાર બધેજ પહેલાં કહ્યા પ્રમાણે સમજી લેવે. સ્ પા
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवाभिगम सूत्रे
४८
एवं जाव ओबासंतरे, जहा सकरप्पभाए वत्तव्वया एवं जाव
अहे समाए वि ॥ सू० ६ ॥ सन्तमाए
1
छाया - इयं खलु भदन् ! रत्नप्रभा पृथिवी किं संस्थिता प्रज्ञप्ता ? गौतम ! झल्लरी संस्थिता प्रज्ञप्ता । एतस्याः खलु भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्याः खरकाण्ड' कि संस्थितं प्रज्ञप्तम् ? गौतम ! झल्लरी संस्थितं प्रज्ञप्तम् । एतस्याः खलु भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्याः रत्नकाण्ड' किं संस्थितम् प्रज्ञसम् ? गौतम | झल्करीसंस्थितं प्रज्ञयम्, एवं यावद्विष्टम् । एवं पंकवहुलमपि, एवमब्बहुलमपि, घनोदधिरपि, घनवातोऽपि तनुवावोऽपि, अवकाशान्तरमपि, सर्वः झल्लरी संस्थितः प्रज्ञप्तः । शर्क रामभा खलु भदन्त ! पृथिवी किं संस्थिता प्रज्ञप्ता ? गौतम ! झल्लरीसंस्थिता प्रज्ञप्ता शर्कराप्रमायाः पृथिव्याः घनोदधिः किं संस्थितः प्रज्ञः १ गौतम | झल्लरी संस्थितः मज्ञप्तः । एवं यावदधः सप्तम्या अपि ॥ ० ६ ॥
टीका- 'इमाणं भंते' इयं खलु भदन्त ! ' रयणप्पमा पुढवी' रत्नप्रभा पृथिवी 'किं संठिया' कि संस्थिता कीदृशेन संस्थानेन संस्थिता इति किं संस्थिता कीदृशे संस्थानेन संस्थानवती 'पन्नत्ता' प्रज्ञप्ता कथितेति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'झल्लरीसंठिया पन्नत्ता' झल्लरी संस्थिता मज्ञप्ता कथिता झल्लरीव संस्थिता विस्तीर्णवलयाकारत्वात् । एवमस्या एव रत्नप्रमायाः यत् खरकाण्डं तस्य संस्थानं
-
'इमो भंते! रयणसभा पुढवी किं संठिया पन्नत्ता' इत्यादि ।
टीकार्थ- गौतम ने यहां प्रभु से ऐसा पूछा है- 'इमाणं भंते! रयणप्पभा पुढवी किं संठिया' हे भदन्त ! यह जो रत्नप्रभा पृथिवी है वह किस प्रकार के स्थान वाली कही गई है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-घोषमा ! झल्लरीमंठिया पनसा' हे गौतम! यह रत्नप्रभा पृथिवी झल्लरी- झालर के जैसे-गोलाकार संस्थान वाली कही गई है। क्योंकि यह विस्तीर्ण चलय के आकार वाली है
'इमाण' भंते! रयणप्पभा पुढची कि सठिया पन्नत्ता' इत्यादि ટીકાય-ગૌતમ સ્વામીએ આ સૂત્રદ્વારા પ્રભુને એવું પૂરેલ છે કે ‘માળ भते ! रणप्पा पुढवी किं सठिया' हे लगवन् ? मा रत्नला पृथ्वी छे, તે કેવા પ્રકારના સંસ્થાન વાળી કહેલ છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમ स्वाभीने हुडे छे ! 'गोयमा ! झल्लरी खंठिया पण्णत्ता' हे गौतम! भा રત્નપ્રભા પૃથ્વીના અલ્લરીઝ લરના આકાર જેવી અર્થાત્ ગાળાકાર સ`થાનવાળી *હેવામાં આવી છે કેમકે આ વિસ્તારવાળા વલય-મલાયાના આકાર જેવી છે,
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ २.६ रत्न भापृथ्व्याः संस्थाननिरूपणम् ४९ . पृच्छति-'इमीसे गं' इत्यादि, 'इसीसे णं भंते' अस्याः खलु भदन्त ! 'रयणपभाए पुढवीए' रत्नपभायाः पृथिव्याः 'खरकंडे' खरकाण्डम् 'किं संठिए पण्णत्ते' कि संस्थान कीदृशसंस्थानयुक्तं प्रज्ञप्तम् ? 'गोयमा !' हे गौतम ! 'झल्लरी संठिए पण्णत्ते' झल्लरी संस्थानं झल्लाकारं प्रज्ञप्तम् । 'इमीसे णं भंते' एतस्याः खलु भदन्त ! 'रयणप्पभाए पुढवीए' रत्नपभायाः पृथिव्याः 'रयणकंडे' रत्न. काण्डम्, 'कि संठिए पन्नत्ते' तत् रत्नकाण्ड किं संस्थितं कीदृक् संस्थानयुक्तं प्रज्ञप्तं कथितमिति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा !' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'अल्लरीसंठिए पनत्ते' झल्लरी संस्थितं रत्नकाण्डस्यापि विस्तीर्णवलयाकारत्वादेवेति १ । 'एवं जाच रिडे' एवं रत्नकाण्ड यथा झल्लरी संस्थितम्, तथैव वनकाण्डादारभ्य यावद्रिष्टकाण्ड मिति बन्नकाण्डम् २, चैडूर्यकाण्डम् ३, लोहिताक्ष.
इमीसेणं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए खरकंडे कि संठिए पण्णत्ते' हे भदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी में जो खरकाण्ड है वह कि संठिए पन्नत' किम संस्थान वालो कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! झल्लरी संठिए पन्नत्ते' हे गौतम ! इस रत्न प्रभा पृथिवी में जो खरकाण्ड है वह झल्लरी के जैसा आकार वाला कहा गया है क्योंकि यह भी विस्तीर्ण वलय के आकार जैसी है 'इमीसे गं भंते ! रयणप्पभाए पुढपीए रयणकंडे किं संठिए पन्नत्ते ? ' हे भदन्त ! इस रत्नप्रभा प्रथिवी में जो रत्न झाण्ड है वह कैले आकार वाला कहा गया है ? 'गोयमा! झल्लरी संठिए पन्नत्ते' हे गौतम ! वह झालर के जैसे आकार दाला कहा गया है ‘एवं जाव रिटे' रत्न काण्ड की तरह यावत् रिष्टकाण्ड भी झल्लरी के आकार जैसा ही कहा गया है यहां
"मीसे गं भंते। रयणप्पभाए पुढवीए खरकडे किं सठिए पण्णत्ते' हे भगवन मा २त्नप्रभा पथ्वीमा २ प२४ , ते 'किं सठिए पन्नत्ते' या संस्थान पाणी ४३४ छ ? ॥ प्रशन उत्तम प्रभुशीतमस्वामीने ४ छ है 'गोयमा ! मल्लरी सठिए पन्नते है गीतम! मा २त्नमा पृथ्वीमा २ ५२i छे. ते ઝલરી-ઝાલરના જેવા ગોળ આકારવાળો કહ્યો છે. કેમકે આ પણ વિસ્તૃત मसोयाना भा२ २ ४४ छ. 'इमीसेणं भते ! रयणग्पभाए पुढवीए रयण. कड़े किं सठिए पन्नत्ते १' हे भगवन् ! २त्नप्रभा पृथ्वीमा २ २is છે, તે કેવા આકારવાળો કહેલ છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે છે કે 'गोयमा! ज्ञल्लरी सठिए पन्नत्ते' 8 गौतम ! ते आसरना मा२ वागे मारवाणी इस छ ? 'एवं जाव रिट्रे' २९नडन ४थन प्रमाणे यावत रिट કાંડપણ ઝાલરના આકાર જેવાજ આકારવાળો કહેલ છે. અહિંયા યાવત શબ્દથી
जी०५
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
५०
जीवामिगमसूत्रे
काण्डम् ४, मसारगल्लकाण्डम् ५, हंसगर्भ काण्डम् ६, पुलककाण्डम् ७, सौगन्धिककाण्डम् ८, ज्योतीरस काण्डम् ९, अञ्जनकाण्डम् १०, अञ्जनपुलककाण्डम् ११, रजतकाण्डम् १२, जातरूपकाण्डम् १३, अंक काण्डम् १४, स्फटिककाण्डम् १५, एवं रिष्टकाण्ड चेति सर्वाणि षोडशापि काण्डानि झल्लरी संस्थानसंस्थितान्येवेति ज्ञातव्यम् । ' एवं पंnagले वि' एवं खरकाण्डादिवदेव रत्नप्रभा पृथिव्याः यद् द्वितीयं पंकबहुलं काण्ड तदपि झल्लरी संस्थानसंस्थितमिति ज्ञातव्यम् | 'एवं आवत्रहुले वि' एवमहुलमपि पंकबहु काण्डवदेव रत्नप्रभा पृथिव्यां विद्यमान काण्डं तृतीयमपि झल्लरी संस्थान संस्थितमिति ज्ञातव्यम् । 'घणोant fa' घणोदधिरपि रत्नमभाया अधोभागे वर्तमानो घणोदधिरपि झल्करी संस्थानसंस्थित एवेति ज्ञातव्यम् । 'घणवाए वि' वनवातोऽपि घणोदधेरधस्ताद्विद्ययावत् शब्द से वज्र काण्ड २, बैडूर्यकाण्ड ३, लोहिताक्षकाण्ड ४, मसारगल्लकाण्ड ५, गर्भकाण्ड, पुलाककाण्ड ७, सौगन्धिककाण्ड ८, ज्योतिरस काण्ड ९, अञ्जन काण्ड १०, अञ्जन पुलाक ११, रजत काण्ड १२, जातरूप काण्ड १३, अङ्क काण्ड १४, स्फटिककाण्ड १५, और रिष्ट कोण्ड १६, ये सब सोलह ही काण्ड झल्लरी के जैसे आकार वाले कहे गये हैं।
'एवं पंकबहुले वि' खरकाण्ड आदि की तरह ही रत्नप्रभा पृथिवी में जो दूसरा बहुल काण्ड है वह भी झल्लरी के जैसे ही आकार वाला ही कहा गया है ' एवं ' आवबहुले वि' इसी प्रकार से रत्नप्रभा पृथिवी में जो अब्बहुल भाग है वह भी झल्लरी के जैसे
आकार वाला कहा गया है 'घणोद्धि बि' रत्नप्रभा पृथिवी के अधोभाग में वर्त्तमान घनोदधि भी झल्लरी के जैसे ही आकार वाला
વાકાંડ ૨, વૈતૃČકાંડ ૩, લેાહિતાક્ષકાંડ ૪, મસારગલ્લકાંડ પ, હુ'સગ કાંડ ૬, પુલાકકાંડ છ, સૌગ ધિકકાંડ ૮, જ્યાતિરસકાંડ ૯, અંજનકાંડ ૧૦, અંજન પુલાકકાંડ ૧૧, રજતકાંડ ૧૨, જાતરૂપકાંડ ૧૩, અંકકાંડ ૧૪, સ્ફટિકકાંડ ૧૫, અને ષ્ટિકાંડ ૧૬, આ બધાજ સેાળે કાંડા અ લરના આકાર જેવા આકાર વાળાજ કહેલા છે.
'एव' प'कबहुले वि' मांडे विशेरेना उथन प्रभाले ४ २त्नला पृथ्वीभां ખીને જે પકખર્ડુલકાંડ છે, તે પણુ ઝાલરના જેવા આકારવાળેાજ કહેવામાં आवे छे. 'एवं अब्बहुले वि' मे प्रमाणे रत्नप्रभा पृथ्वीभां मण्डुलमंड हे ते पशु सरना आर लेवा भागवाणी हे 'घणोदहि वि' २त्न પ્રભા પૃથ્વીની નીચેના ભાગમાં રહેલ ઘનેાધિ પણ ઝાલરના જેવા આકાર वाणोन उड्रेस थे, 'घणवापवि' धनेहिधिनी नीथेना भागभां धनवातयशु मे भ
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योति का टीका प्र.३ सू.६ रत्नममापृथ्व्याः संस्थाननिरूपणम् मानो घनवातोऽपि झल्लरी संस्थित एच । 'तणुवाए वि' तनुवावोऽपि धनवातस्याधस्ताद् विधमानस्तनुशतोऽपि झल्लरी संस्थित एवेति ? 'ओवासंतरे वि' अवकाशान्तरमपि रत्नप्रभायामेव तनुवातादधो विद्यमानमवकाशान्तरमपि झल्लरीसंस्थितमित्यवगन्तव्यमिति, किंबहुना 'सव्वे विझल्लरी संठिए पन्नत्ते' सर्वेऽपि पंकबहुलादारभ्यावकाशान्तरपर्यन्तः प्रस्तावः झल्लरी संस्थितः प्रज्ञप्तः । 'सक्करप्पभाणं भंते ! शर्करापमा खलु भदन्त ! 'पुढवी' पृथिवी 'किं संठिया पन्नत्ता' कि संस्थिता कीदृश संस्थानयुक्ता प्रज्ञप्ता-कथितेति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'झल्लरी संठिया पन्नत्ता' झल्करी संस्थिता प्रज्ञप्ता विस्तीर्ण वलयाकारत्वादिति । शर्करामभायाः संस्थानं प्रदश्यं शर्कराममाया अधोकहा गया है। 'घणवाए वि' घनोदधि के अधोभाग में वर्तमान धनवात भी इसी प्रकार के आकार वाला कहा गया है। 'तणुवाए वि' घनवात के अधोभाग में वर्तमान तनुवात भी झल्लरी के जैसे ही आकार वाला कहा गया है। 'ओवासंतरे कि तमुवान वलय के अधो. भाग में वर्तमान अवकाशान्तर भी झल्लरी के जैसे ही आकार वाला कहा गया है। 'सव्वे वि झल्लरी संठिए पन्नत्ते' इस विषय में अधिक क्या कहा जावे पंकबहुल काण्ड से लेकर अवकाशान्तर पर्यन्त सब ही झल्लरी के जले ही आकार वाले कहे गए हैं ___ 'सकरप्पभाणं भंते ! पुढची' हे भदन्त ! शर्कराप्रभा नाम की जो पृथिवी है वह 'कि संठिया' कैले आकार वाली हैं ? उत्तर में प्रभु कहते है-'गोयमा! झल्लरी संठिया पन्नत्ता' हे गौतम ! शर्करा प्रभा नाम की जो पृथिवी है वह भी झल्लरी के जैसे ही आकार वाली है। क्यों प्रभारी आसरना (२ २ २ ४ छे. 'तणुवाए वि' धनपातनी નીચેના ભાગમાં રહેલ જે તનુવાત છે, તે પણ ઝાલરના આકાર જે કહેલ छ, 'ओवासतरे वि' तनुवात पदयना नीयन मागमा २७८ मशान्तर ५ सरना सवार २१२ वाणु वामां मारा छे. 'सव्वे वि झल्लरी मठिए पन्न' मा समयमा विशेष शुं ४उपाय ? मईथी सन અવકાશાન્તર પર્યન્ત બધાજ કાંડે ઝાલરના આકાર જેવા આકારવાળા કહ્યા છે. ___'सक्करप्पभाए णं भंते ! पुढवी' 8 लगवन् शराप्रमानामनी २ पृथ्वी . कि सठिया' वा मारवाणी छे ? म प्रश्न उत्तरमा प्रस, छड
गोयमा ! झल्लरी संठिया पन्नत्ता' 3 गौतम ! शराममा पृथ्वी पथ
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवाभिगमने विद्यमानस्य घनोदधेः संस्थान दर्शयितुमाह-सकरप्पभाए' 'इत्यादि, 'सकरप्पभाए पुढबीए' शर्करामभायाः पृथिव्याः 'घणोदही किं संस्थितः पक्षप्त:-कथित इति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'झल्लरी संठिए पन्नत्ते' शर्करोपभायाः घनोदधिः झल्लरी संस्थानसंस्थित एक प्रज्ञप्तः विस्तीर्णवलयाकारत्वादेवेति । एवं जाव ओवासंतरे' एवं यावदवकाशान्तरम्, यावत्पदेन घनवात तनुवातयोः संग्रहः तथा च शर्करामभाऽधोविद्यमानधनवाततनुवाता वकाशान्तरमेतत् सर्व झल्लरी संस्थितमेवेति ज्ञेयम् । 'जहा सकरप्पमाए इत्तम्बया कि यह भी विस्तीर्ण वलय के जैसी-है 'सकरभाए पुढवीए घणी. दही किं संठिया' हे भदन्त ! शर्करा प्रभा पृथिवी के अधोभाग में जो घनोदधिवात बलय है वह कैसे आकार वाला है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं गोयमा 'हे गौतम ! 'झल्लरी संठिए पन्नत्त शर्कराप्रमा पृथिवी के अधो भाग में अवस्थित जो घनोदधि वातवलय है वह भी झल्लरी के जैसे ही आकार वाला है। क्योंकि इसका जो आकार है वह विस्तीर्ण वलय के जैसा ही है। 'एवं जाव ओवासंतरे' इसी तरह से यावत् अवकाशान्तर तक कथन जानना चाहिये जैसे-शर्करा प्रभा गत जो घनोदधि वातवलय है-सो उस घनोदधि वातवलय के नीचे वर्तमान जो घनवांत बलय है वह, और इस घनवात वलय के नीचे वर्तमान जो तनुवान वलय है वह एवं इस वातवलय के नीचे वर्तमान जो अवकाशान्तर है वह सष झल्लरी के जैसे ही आकार वाले हैं ऐसा जानना चाहिये 'जहा सकरप्यभार वत्तम्बया एवं जाव अहे असरना 2411२ २११ मा२पाणी ४डी छे. 'सक्करप्पभार पुढवीए घणोदही कि संठिया' ७ सगवन् २४२५मा पृथ्वीना नीयन लारामा २२ घनधि વાતવલય છે. તે કેવા આકાર વાળે છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે છે કે 'गोयमा !' 3 गौतमो 'झलरी संठिए पन्नत्ते' २४२प्रमा पृथ्वीनी नायना ભાગમાં રહેલ જે ઘનેદધિ વાતવલય છે, તે પણ ઝાલરના જેવાજ આકાર पाणी छे. भ. तो मा२ विस्तृत मायाना वा छे. 'एवं जाव ओषा संतरे' ये ४ प्रमाणे यावत् म न्त २ सुधिनु थन सभा नभई શર્કરામભામાં રહેલ જે ઘોદધિ વાતલય છે, તે ઘને દધિ વાત વલયની નીચે રહેલ જે ઘનવાત વલય છે, તે અને એ ઘનવાત વલયની નીચે રહેલ જે
તનુવાત વલય છે, તે અને એ તનુવાત વલયની નીચે રહેલ જે અવકાશાસ્તર - છે. તે બધા ઝાલરના આકાર જેવાજ ગોળ આકારવાળા છે. તેમ સમજવું.
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ १.६ रत्नप्रभापृथ्व्याः संस्थाननिरूपणम् ५३ एवं जाव आहे सत्तमाए वि' यथा शर्कराप्रभायाः संस्थानविषये वक्तव्यता तथैव बालकामभा पंकप्रभा धूमप्रभा तमःप्रभा तमस्तमःप्रमाणामपि पृथिवीनां संस्थानविषये वक्तव्यता ज्ञेया, सर्वाऽपि नारकपृथिवी झल्लरी संस्थितैति। एवं वालुकाप्रभात आरभ्य तमस्तमा पृथिवी पर्यन्ताः सर्वा अपि पृथिव्यः झल्लरी संस्थिताः, तथा तत्सम्बन्धि घनोदधि धनवार तनुवातावकाशान्तराण्यापि झल्लरी संस्थितान्येवेति ज्ञातव्यमिति ॥६॥
ननु सप्ताऽपि एताः पृथिव्यः सर्वासु किमलोकस्पर्शिन्यो नवे ? ति उच्यतेनालोकस्पर्शिन्यः किन्तु लोकस्पशिन्य एव उक्तश्च--
नविय फुसंति अलोगं चउसु वि दिसामु सव्व पुढवीओ' इति नापि च स्पृशन्ति अलोकम्, चतुसृष्वपि दिक्षु सर्व पृथिव्या, इतिच्छाया एतदेव दर्शयति-'इमीसे थे' इत्यादि,
मूलम्-इसीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए पुरथिमिल्लाओ चरिमंताओ केवइयाए अबाहाए लोयंते पण्णत्ते ? गोयमा! दुबालसएहिं जोयणेहिं अबाहाए लोयंते पन्नते, एवं सत्तमाए वि' जिस प्रकार की यह संस्थान विषयक वक्तव्यता शर्करा प्रभा के सम्बन्ध में कही गई है उसी तरह की वक्तव्यता बालु काप्रभा, पङ्कप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा, और तमस्तमःप्रभा के भी संस्थान के सम्बन्ध में है ऐसो जानना चाहिये क्योंकि ये सब पृथिवीयाँ झल्लरी के जैसे ही आकार वाली हैं। इसी प्रकार बालु का प्रभा से लेकर तम स्तमा पृथिवी लक के जो घनोदधि, घनयात, तनुवात एवं अवकाशान्तर हैं वे सब भी झल्लरी के जैसे ही आकार वाले है यह भी खतः समझ लेना चाहिये सू० ॥६॥
'जहा सक्करप्पभाए वत्तव्वया एव जाव अहेखत्तमाए वि' २ २' આ સંસ્થાન સંબંધી કથન શર્કરામભા પૃથ્વીના સંબંધમાં કહેલ છે, એ જ પ્રમાણેનું કથન વાલુકાપ્રભા, પંકપ્રભા, ધૂમપ્રભા, અને તમતમાં પ્રભાના સંસ્થા ના સંબંધમાં પણ સમજવું કેમકે આ બધી પ્રથ્વી ઝાલરના આકાર જેવાજ આકારવાળી છે. એ જ પ્રમાણે વાલુકાપ્રભ પૃથ્વીથી લઈને તમસ્તમાં પૃથ્વી સુધીના જે ઘનેદધિ, ઘનવાત, તનુવાત અને અવકાશાન્તર છે તે બધા પણ ઝાલરના આકાર જેવાજ ગેળ આકારવાળા છે. તેમ રવતા સમજી લેવું. છે સૂ, હું છે
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवाभिगम सूत्रे
दाहिणिल्लाओ पच्चत्थिमिल्लाओ उत्तरिल्लाओ । सकरप्पभाए पुढची पुरथिमिल्लाओ चरिमंताओ केवइयाए अब हाए लोयंते पन्नते ? गोयमा ! तिभागूणेहिं तेरसहिं जोयणेहिं लोयंते पन्नत्ते, एवं चउद्दिसिं पि । बालुयप्पभाए अबाहाए पुढवी पुरथिमिल्लाओ पुच्छा, गोयमा ! सतिभागेहिं तेरसेहिं जोयणेहिं अवाहाए लोयंते पन्नत्ते, एवं चउद्दिसिं पि । एवं सव्वालिं चउसु वि दिलास पुच्छियव्वं । पंकप्पभाए पुढवीए चोदसहिं जोयणेहिं अबाहाए लोयंते पन्नत्ते । पंचमाए तिभागूणेहिं पन्नरसहिं जोयणेहिं अवाहाए लोयंते पन्नत्ते । छट्टीए सतिभागेहिं पन्नरसहिं जोयणेहिं अबाहाए लोयंते पन्नन्ते । सत्तमीए सोलसहिं जोयणेहिं अबाहाए लोयते पन्नत्ते । एवं जाव उत्तरिल्लाओ ॥ इमीसे णं भंते ! रयणप्पाए पुढवीए पुरत्थिमिल्ले चरिमंते कइविहे पन्नत्ते ? गोयमा ! तिविहे पन्नते तं जहा घणोदहिवलए घणवायवलए तणुवायवलए ॥ इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए दाहिणिल्ले चरिमंते कवि पन्नसे ? गोयमा ! तिविहे पन्नत्ते तं जहा - एवं जाव उत्तरिल्ले, एवं सव्वासिं जाव अहे सत्तमाए उत्तरिल्ले सु०७
لام
छाया--एतस्याः खल्ल भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्याः पौरस्त्यात् चर मान्तात् कियत्या अवघिया लोकान्दः प्रज्ञप्तः ? गौतम ! द्वादशभिर्योजन - स्वाधया लोकान्तः मज्ञप्तः एवं दाक्षिणात्यात् पाश्चात्यादौत्तरात् । शर्क राममायाः पृथिव्याः पौरस्त्यात् चरमान्तात् कियत्पावधिया लोकान्तः प्रज्ञप्तः ? गौतम | त्रिमागोने त्रयोदशभियोजनैरवाधया लोकान्तः प्रज्ञप्तः, एवं चतुर्दिक्ष्वपि । वालुकाममायाः पृथिव्याः पौरस्त्यात् पृच्छा, गौतम ! सत्रिभागे स्त्रयोदशभियोंजनैरवाधया लोकान्तः प्रज्ञप्तः, एवं चतुर्दिक्ष्वपि एवं सर्वासां चतसृष्वपि दिशास प्रष्टव्यम् । पङ्कप्रभायाः पृथिव्याः चतुर्दशभिः योजनेश्वाधपा लोकान्तः प्रज्ञप्तः । पञ्चम्या त्रिभागोनैः पञ्चदशभि यजनैरबाधया लोकान्तः प्रज्ञप्तः । षष्ठयाः
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ १.७ सप्तापिपृथिव्या लोकस्वशिन्योनवेति सत्रिभागैः पञ्चदशमि योजनैरवाधया लोकान्तः प्राप्तः । सप्तम्याः षोडशमि योजनैरवाधया लोकान्तः प्रज्ञप्तः । एवं यावदोत्तरात् । एतस्याः खलु भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्याः पौरस्त्यः चरमान्तः कतिविधः प्रज्ञप्तः ? गौतम ! त्रिविधः तद्यथा-घनोदधिवलयः घनवातरलयः तनुवातबल यः । एतस्याः खलु भदन्त ! रस्नपभायाः पृथिव्याः दाक्षिणात्यश्चरमान्तः कतिविधः प्रज्ञप्तः ? गौतम त्रिविधः प्रज्ञप्तः तद्यथा-एवं यावदोत्तरं, एवं सर्वासां यावद्ध सप्तम्या औत्तरः ॥२०७।।
टीका--'इमीसे णं भंते' एतस्याः खलु भदन्त ! 'रयणप्पमाए पुढवीए' रस्नप्रभायाः पृथिव्याः 'पुरथिमिल्लाओ' पौरस्त्यात् पूर्वदिग्भाविनः, 'चरिमं ताओ' चरमान्तात्-अन्तिमभागात् 'केवइयाए' कियत्या-कियत्परिमितया 'अवाहाए' अवाधया-अपान्तरालरूपया 'लोयंते' लोकान्त ऽलोकावधि परिच्छिन्नः 'पन्नत्ते' प्रज्ञप्तः ? इति प्रश्नः भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, गोधमा' हे गौतम !
शंका-ये सातों ही पृथिवीयां क्या समस्त दिशाओं में अलोक का स्पर्श करती हैं या नहीं करती हैं ? ___ उत्तर-ये सातों ही पृथिवीयां समस्त दिशाओं में अलोक का स्पर्श नहीं करती है-जैसे कहा है-'नविय फुति अले.गं, च उसुवि दिसासु सव्व पुढवीओ' इत्यादि । किन्तु लोक का ही स्पर्श करती है इसी बात को अब सूत्रकार प्रकट करते हैं-'इमीसे गं भंते' इत्यादि।
टीकार्थ-'इमीसे ण भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए पुरथिमिल्लामो चरिमंताओ केवइए अवाधाए लोयंते पण्णत्ते' हे भदन्त ! जो यह रत्नप्रभा नाम की पृथिवी है उस पृथिवी के पूर्व दिशावर्ती चस्मान्त से कितनी दूर पर लोकान्त-लोक का अन्तभाग कहा गया है ? उत्तर में प्रभु
શંકા-આ સાતે પૃથ્વી સઘળી દિશાઓમાં અલેકને સ્પર્શ કરે છે ? नथी १२ती ?
ઉત્તર–આ સાતેય પૃથ્વી સઘળી દિશાઓમાં અલકને સ્પર્શ કરતી नथी. २म घुछ है 'नवि य फुसति अलोग, चउसु दिसासुवि सव्व पुढवीओ' त्याह
પરંતુ લેકનેજ સ્પર્શ કરે છે. એજ વાતને હવે સૂત્રકાર પ્રગટ કરે છે. 'इमीसे ण भते !' त्या
टी -'इमीसे ण भते रयणप्पभाए पुढबीए पुरथिमिल्लाओ चरिमताओ केवइए अमाधाए लोयते पण्णत्ते' है सावन् ! २ नमनी ने पृथ्वी છે એ પૃથ્વીની પૂર્વદિશાના ચરમાંથી કેટલે દૂર લેકાન્ત–લેકને અંત
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगम
५६
'बालम एहिं जोयोर्हि' द्वादशभि योजनैः - द्वादशयोजन परिमितया 'अवाहाए अवाधया 'लोयते' लोकान्तोऽलोकान्तादवग्भागः 'पनत्ते' प्रज्ञप्तः कथितः, अयं भावः- रत्नमभायाः पृथिव्याः पूर्वस्यां दिशि चरमपर्यन्ताद परतः अलोकाद अपान्तरालं द्वादशयोजनानि, 'एव दाढणिल्लाओ, पञ्च्चत्थिमिल्लाओ उत्तरिल्लाओ' एवम् दक्षिणस्यामपि द्वादशयोजनानि अपान्तरालम् पश्चिमदिग्भागेऽपि द्वादशयो जनानि अपान्तरालम्, एवमुत्तरदिग् विभागेऽपि द्वादशयोजनानि अपान्तरालम् । दिग्ग्रहमुपलक्षणम् तेन विदिवपि द्वादशयोजनानि अपान्तरालं ज्ञातव्यमिति । शेषाणां शर्करा प्रभादितमस्तमः ममापर्यन्तानां पृथिवीनां सर्वासुदिक्षु विदिक्षु च
कहते हैं - 'गोमा ! दुबालसएहिं जोयणेहिं बाधाए लोयते पण्णत्ते' हे गौतम । रत्नप्रभा नामकी पहली पृथिवी के पूर्व दिशावर्ती चरमान्त से बारह योजन के बाद लोक का अन्त- अलोक कहा गया है तात्पर्य इसका ऐसा है कि-रत्नप्रभा पृथिवी की पूर्व दिशा में जो चरमान्त हैउससे आगे और अलोक के पहिले बारह योजन प्रमाण अपान्तराल हैं यहीं से अलोक प्रारम्भ होता है अलोक की मर्यादा का प्रारम्भ होना ही लोक का अन्त है । ' एवं दाहिणिल्लाओ, पचत्थिमिल्लाओ, उत्तरल्लाओ' इसी प्रकार दक्षिण पश्चिम और उत्तर दिशा में भी बारह बारह योजन का अपान्तराल है । यह दिशा सम्बन्धी अपान्तराल कथन उपलक्षण रूप है इससे यह भी जानना चाहिये कि विदिशाओं में भी इतना ही अपान्तराल हैं विदिशाओं में भी इस अपान्तराल दूरी के बाद ही अलोकाकाश का प्रारंभ होता है इस रत्नप्रभा
४ह्यो हे ? या प्रश्नना उत्तरमां अलु उडे हे ! 'गोयभा ! दुवालसहि' जोय हि अवाधार होय ते पण्णत्ते' हे गौतम! रत्नअला पृथ्वीनी पूर्व दिशाभां રહેલ ચરમાંતથી ખાર ચેાજન પછી લેાકના અંત અલેાક કહ્યો છે. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે રત્નપ્રસા પૃથ્વીની પૂર્વ દિશામાં જે ચરમાન્ત છે, તેનાથી પછી અને અલેાકની પડેલાં ખાર ચૈાજન પ્રમાણુ અપાન્તરાય છે. ત્યાંથી જ અલેકના પ્રારભ થાય છે. અલાકની મર્યાદાનુ' પ્રારંભ થવું એજ લેાકને अ ंत छे 'एव' दाहिणिल्लाओ, पच्चत्थिमिल्लासो, उत्तरिल्लाओं से प्रभा દક્ષિણ દિશામાં પશ્ચિમ દિશામાં અને ઉત્તર દિશામાં પણ ખાર માર ચૈાજનને અપાન્તરાલ છે. આ દિશા સંધિ અપાન્તરાલનું શ્રૃથન ઉપલક્ષણુથી કહેલ છે, તેથી એમ પણ સમજવુ` કે-વિદિશાઓમાં પણ એટલું જ અપાન્તરાલ છે.
7
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रद्योतिका टीका प्र०३ सु. ७ सप्तापि पृथिव्य : लोकस्पर्शिन्यो नवेति ५७ पूर्वादिदिक् चरमपर्यन्ताल्लोकान्तः क्रमेणाधोऽधारित्रमागोनेन, त्रिभाग इति तृतीयो भाग विभागः । एकस्य योजनस्य त्रयोभागाः कल्पितव्याः तेषु भागेषु एक तृतीयो भाग स्तृतीयोऽशस्त्रिभाग उच्यते, तेन तृतीय, भागन्यूनेन एकेन योजनेन योजनस्य भावत्रयमध्याद् भागद्वयेनाऽधिकैरधिकैयजने ज्ञातव्यः, तथाहि - शर्करामभा पृथिव्याः सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च चरमपर्यन्ताल्लोकान्तस्य अन्तराल, त्रिभागोनानि त्रयोदश योजनानि, योजनस्य भाग-त्रय मध्याद्भाग द्वयसहित द्वादशयोजानीत्यर्थः । वालुका प्रशायाः पृथिव्याः सत्रिभागानि प्रयोदशयोजनानि । पूर्वोक्तेषु भागद्वयसहितद्वादशयोजनेषु भागद्वयसंमेलनेन तृतीयभागसहितानि पङ्कमथायाः परिपूर्णानि चतुर्दशयोजनानि, एवं धूमपृथिवी के अतिरिक्त शेष शर्करामभा से लेकर अधः सप्तमी पर्यन्त सब पृथिवियों की सब दिशाओं में और सब विदिशाओं में पूर्व आदि दिशाओं के चरम पर्यन्त भाग से लोकान्त क्रमले नीचे नीचे त्रिभाग अर्थात् एक योजन के तीन भाग किये जावे, उन तीन भागों में एक जो तृतीय - तीसरा आण अर्थात्- तीसरा अंश है वह त्रिभाग कहलाता है ऐसे त्रिभाग न्यून एक योजन से अर्थात् योजन के तीन भाग में से दो भाग से अधिक योजनों से जान लेना चाहिये, जैसे रत्नप्रभा पृथिवी से लोकान्त का अपान्तराल बारह योजन का होती है उसके नीचे शर्करा प्रभा पृथिवी की सब दिशा विदिशाओं में पूर्वं आदि के चरम पर्यन्त भाग से लोकान्त का अपान्तराल तृतीय भाग न्यून तेरह थोजन का अर्थात् वारह योजन के ऊपर योजन के વિદિશાઓમાં યક્ષુ આ અપાન્તરાલ જેટલા દૂર પછી જ અલેાકાકાશના પ્રારંભ થાય છે. આ રત્નપ્રભા પૃથ્વી શિવાય ખાકીની શાપ્રભા પૃથ્વીથી લઈને અધઃસપ્તમી પૃથ્વી સુધી મુધીજ પૃથ્વીચેાની બધી દિશાઓમાં અને વિદિશાઓમાં પૂર્વ વિગેરે દ્વિશાઓના ચરમ સુધિના ભાગથી લેાકાન્ત ક્રમથી નીચે નીચે ત્રિભાગ અર્થાત્ એક ચાજનના ત્રણ ભાગ કરવામાં આવે, એ ત્રણ ભાગે પૈકી જે ત્રીને ભાગ અર્થાત્ ત્રીજો અંશ છે, તે ત્રિભાગ કહેવાય છે. એવા ત્રિભાગથી ન્યૂન એક ચૈાજનથી અર્થાત્ ચેાજનના ત્રણ ભગોમાંથી એ ભાગોથી વધારે ચેાજનવાળો સમજવા. જેમકે રત્નપ્રભા પૃથ્વીથી લેાકાન્તના 'તરાલ ખાર ચાજનનેા હાય છે. તેની નીચે શરપ્રભા પૃથ્વી ઋષીજ દિશા અને વિદિશાએમાં પૂર્વ દિશા વિગેરેના ચરમાન્ત સુધીના ભાગથી લેાકાન્તને અપાન્તરાલ ત્રીજા ભાગથી યૂન તેર ચેાજનનેા છે, અર્થાત્ ખાર ચેાજન
जो० ८
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमसूत्रे
प्रभाया विभागोनानि पञ्चदशयोजनानि, तमःप्रभायाः सत्रिभागोनानि पश्ञ्चदशयोजनानि अधः सप्तम पृथिव्याः परिपूर्णानि षोडशयोजनानि । तदेवाह - सूत्रकारः 'सकर पभाएणं' इत्यादि, सकरप्पभाषणं भंते ! पुढवीए' शर्कराममायाः खलु भदन्त ! पृथिव्याः द्वितीय नारक पृथिव्याः 'पुरत्थिमिल्लाओ चरिमंताओ' पौरस्त्यात् पूर्वदिग्भाविनश्वरमान्तात् 'केवइयाए भवाहा' कियत्या अवाधया अपान्तराललक्षणया 'लोयंते पण्णत्ते' लोकान्तभागः दो भाग acet शर्करा प्रभा पृथिवी में लोकान्त का अपान्तराल योजन के दो भाग सहित बारह योजन का हो जाता है |२| इसी प्रकार वालुकाप्रभा पृथिवी की सब दिशा विदिशाओं में लोकान्त का, अपा न्तराल तृतीय भाग सहित अर्थात् पूर्वोक्त दो भागों से सहित बारह योजन में दो भाग मिलाने पर तीसरे भाग सहित तेरह योजनों का हो जाता है | ३| इसी रीति से पङ्कप्रभा पृथिवी के पूरे चौदह योजन का अपान्तराल हो जाता है |४| धूमप्रभा पृथिवी में तृतीय भाग न्युन पन्द्रह योजन का अपान्तराल हो जाता है |५| तमाप्रभा पृथिवी में तृतीय भाग सहित पन्द्रह योजन का हो जाता है | ६ | एवं अधः सप्तमी पृथिवी में जाकर लोकान्त का अपान्तराल पूरे सोलह योजनों का हो जाता है ||७|
५८
अब इसी बात को सूत्रकार स्पष्ट करते हैं- 'सक्करप्पभाएणं' इत्यादि ।
'करण्यभाए णं भंते ! पुढबीए पुरथिमिल्लाओ चरिमंताओ hare अवाहाए लोयंते पण्णत्ते' हे भदन्त ! शर्करा पृथिवी के पूर्व दिग्भागवत चरमान्त से कितनी दूर परलोक का अन्त कहा गया है ?
ઉપર તેરમા ચેાજનના એ ભાગથી વધારે શર્કરાપ્રભા પૃથ્વીમાં લેાકાન્તને અપાન્તરાલ ચેાજનના બે ભાગ સાથે ખાર ચેાજનના થાય છે. ૨, એજ પ્રમાણે વાલુકાપ્રભા પૃથ્વી બધી દિશા વિદિશાએમાં લેાકાન્તને અપાન્તરાલ ત્રીજા ભાગ સહિત અર્થાત્ પૂર્વક્તિ તેરમાં ચેાજનના બે ભાગ માર ાજનમાં મેળ વવાથી ત્રીજા ભાગ સહિત તેર ચેાજનનેા થઈ જાય છે. ૩, એજ પ્રમાણે ૫ ક પ્રભા પૃથ્વીમાં પૂરા ચૌદ ચેાજનના અપાન્તરાલ થઈ જાય છે. ૪. ધૂમપ્રભા પૃથ્વીમાં ત્રીજા ભાગથી ન્યૂન પન્નુર ચેાજનને અપાન્તરાલ થઇ જાય છે. ૫, તમઃપ્રભા પૃથ્વીમાં ત્રીજા ભાગ સહિત પદર ચૈાજનના થઈ જાય છે. ૬, અને અધઃ સપ્તમી પૃથ્વીમાં જઇને લે કાન્તને અપાન્તરાલ પૂરા સેાળ ચેાજનનેા થઇ જાય છે. હવે આ ઉપરાક્ત થનને જ સત્રકાર વિશેષ સ્પષ્ટતાથી કહે છે, 'सक्करपभाए णं' त्याहि
'सक्करपभाषणं भते पुढवीए पुरत्थि मिल्लाभो चरिमताओ केवइए आबहाए कोयते पण्णत्ते' हे भगवन् शरला पृथ्वीना पूर्व हिग्भागवत थरभांतथी बे
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टोका प्र.३ सू. सप्तापि पृथिव्य लोकस्पशिन्यो नवैति ५९ मज्ञप्तः-कथितः, शर्करापमा पृयिव्याः पूर्वभागे कियदरे लोकान्तो भवति, इति प्रश्नः, भगवानाह-गोयमा' इत्यादि, 'गोयषा' हे गौतम ! 'तिमागणेहि तेरस जोयणेहि त्रिभागन्यूनैस्त्रयोदशभियोजनैः 'अबाहाए' अबाधया 'लोयंते पन्नत्ते' लोकान्तः प्रज्ञप्त:-कथितः शर्करा प्रभायाः पूर्वदिशि अलोकात्पूर्व त्रिभागोनत्रयो. दशयोजनस्य व्यवधान भवति त्रिभागोनत्रयोदशयोजनान्तरमलोकस्य स्थिति. रित्यर्थः । 'एवं चउद्दिसिपि' एवं पूर्व दिगूभागे यावरकमन्तरं कथितं तावत्कमेवान्तरं दक्षिणदिशि पश्चिदिशि उत्तरदिशि, सर्वासु विदिक्ष्वपि भिमागोन त्रयो. दश योजनस्यैव व्यवधानम् त्रिमागोन त्रयोदशयोजनाद्दुरे अलोकाकाशो भव. तीति भावः । 'वाल्लयप्पभाए .पुढवीए' बालुकाप्रमायाः पृथिव्या: 'पुरस्थि. मिल्लाओ पुच्छा' पौरस्त्यात् पृच्छा, हे भदन्त ! बालुकाममायाः पृथिव्याः पौरस्त्यात् चरमान्तात् किरत्याऽबाधया लोकान्तः प्रज्ञात इति प्रश्न:, भगवानाह'गोयमा' इत्यादि, 'गोयगा' हे गौतम ! 'सतिभागेहि तेरसहिं जोयणेहि इसके उत्तर प्रभु कहते हैं-'तिभागूणेहि तेरस जोयणेहिं अबाधाए लोयते पण्णत्ते' हे गौतम ! तृतीय भाग कम तेरह योजन की दूरी पर दो भाग सहित बारह योजन की दूरी पर-लोक का अन्त कहा गया है। 'एवं चदिसि वि' शर्कराप्रभा के पूर्व दिग्भाग में जितना यह अन्तर कहा गया है-इतना ही अन्तर शर्कशप्रभा के दक्षिण दिग्भाग में और उत्तर दिग्भाग में तथा विदिशाओं में भी जानना चाहिये
'बालुप्पभाए पुढवीए पुरथिमिल्लाओ पुच्छा' हे भदन्त ! बालुका प्रभा के पूर्व दिग्भावी चरमान्त से कितनी दूर पर लोक का अन्त कहा गया है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-गोयमा! सतिभागेहिं तेरसहि
६२ सोनामत ४ छ १ मा प्रश्नन। उत्तरमा प्रभु है 'तिभागूणेहि तेरसजोयणेहिं अबाधाए लोय ते पण्णत्ते' 8 गौतम ! त्रीमाथा ४८ तर यौन २ मे माग सहित मा२ या४। २ । मत छे. 'एव' घउदिसि वि' श६२मा पृथ्वीनी शिम रेटयु मा मत२ छु 2. એટલુંજ અંતર શકરપ્રભા પૃથ્વીની દક્ષિણ દિશામાં, પશ્ચિમ દિશામાં અને ઉત્તરદિશામાં તથા વિદિશાઓમાં પણ સમજવું.
बालुयप्पभाए पुढवीए पुरिस्थिमिल्लाओ पुच्छा, समपन् पाप्रमाना પૂર્વ દિશામાં આવેલા અરમાન્સથી કેટલે દૂર લેકને અંત કહ્યો છે? આ प्रश्न उत्तरमा प्रभु गौतमस्वामीन ४ छ है 'गोयमा ! सतिभागेहिं रसहि
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवाभिगमने सत्रिमार्ग 'त्रयोदशभियोजनः 'अबाहाए' अबाधया 'लोयंते' लोकान्तः ‘पन्नत्ते' प्रज्ञप्तः कथित इति । 'एवं चउद्दिसिपि' एवं यथा वालुका प्रभाया पूर्वे चरमान्ते सत्रिभाग त्रयोदशयोजनानि आपान्तरालम् तथैव चतुर्दिक्ष्वपि तावत्ममाणे व अपान्तरालं ज्ञातव्यम् वालुकाममाया दक्षिणस्यां दिशि, पश्चिमाया मुत्तरस्यां दिशि च. सत्रिभाग त्रयोदशयोजनात् रेऽसोकाकाशो भवतीति भावः । एवं सवासि चउमुवि दिसामु पुच्छियवं' एवं यथा वालुका प्रभा पृथिव्या व्यवधानविषयकः प्रश्नः कृत स्तेनैव रूपेण सर्वासां पृथिवीनां पङ्कप्रभा धूमप्रभा तमः प्रभातमस्तमः प्रमाणां चतसृष्वपि दिक्षु विदिक्षु च प्रश्नः कर्तव्य इति । अध भगवान् पङ्कपमादि पृथिवीनां विषयेऽपान्तरालं दर्शयति-पंकप्पभाए' इत्यादि, 'पंकप्पभाए' पङ्क जोयणेहिं अबाधाए लोयंते पण्णत्ते' हे गौतम! बालुकाप्रभा के पूर्व दिग्भावी चरमान्त ले तृतीय भाग सहित तेरह योजन के बाद लोक का अन्त कहा गया है 'एवं चउद्दिसिंवि' इसी तरह का अन्तर घालुका प्रभा के दक्षिण दिग्भाग में, पश्चिम दिमाग में और उत्तर दिग्भाग में हैं ऐसा समझना चाहिये
एवं सव्वासिं चउस्सु दिदिसास्लु पुच्छिप, जैसा हा प्रश्न बालुका प्रभा पृथिवी के चारों दिशाओं में अलोक के व्यवधान के सम्बन्ध में किया गया है वैसा ही प्रश्न शेष पृथिनियों की चारों दिशाओं में भी अलोक के व्यवधान -दूरी में-कर लेना चाहिये तथा च पंकप्रभा और तमस्तमाप्रभा की चारों दिशाओं में ऐसा प्रश्न करना चाहिये इसी प्रश्न को लेकर भगवान् पङ्कप्रभा आदि पृथिचियों का अपान्त. राल दिखलाते हैं-'पंकप्पभाए' इत्यादि । हे भदन्त ! पङ्कप्रभा, धूमजोयणेहि अवाधाए लोय ते पण्णत्ते ३ गौतम ! वायुसमानी पूर्व दिशामा આવેલા ચરમાંતથી ત્રીજા ભાગ સહિત તેર જન પછી લેકને અંત કહેલ छ. 'एव चउद्दिसिवि' मा प्रभानु मत२ पासमा पृथ्वीनी हक्षिय દિશામાં, પશ્ચિમ દિશામાં અને ઉત્તર દિશામાં છે તેમ સજવું.
.. 'एवं सव्वासिं चउसु वि दिसासु पुच्छियव्य वायुसा पृश्वीनी यारे દિશાઓમાં અલકના વ્યવધાનના સંબંધમાં જે પ્રમાણે આ પ્રશ્ન કર્યો છે. એજ પ્રમાણેને પ્રશ્ન બાકીની પૃથ્વીની ચારે દિશાઓમાં અલેકના વ્યવ પાનના સંબંધમાં કરી લેવું જોઈએ.
પંકપ્રભા અને તમસ્તમાં પ્રભાની ચારે દિશાઓના સંબંધમાં એજ પ્રમાણેને પ્રશ્ન કરવો જોઈએએજ પ્રશ્નને લઈને ભગવન પંકપ્રભા
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ पृ.७ सप्तापि पृथिव्या लोकस्पर्शिन्यो नवैति ६९ प्रभायाः पृथिव्याः पूर्वादि चतुर्विनवति चरमान्तात् 'चउद्दसहिं जोयणेहिं चतु. दशमियाँजनैः 'अवाहाए लोयते पनत्ते' अबाधया लोशान्तः प्रज्ञप्तः चतुर्दशयोजनात् परखोऽलोकाकाशो भवतीति भावः । 'पंचमाए' पञ्चम्याः धूमनभायाः पृथि. व्याः पूर्वादि चतुर्दिगवतिचरमान्यात् 'तिभागणेहिं पनरसहिं जोयणेहि' त्रिभागौन स्तृतीय भागहीनः पञ्चदशभिः योजनेः 'अबाहाए' बाध्या 'लोयंते' लोकान्तः 'पनत्ते' प्रज्ञप्तः 'छट्ठीए सतिभागेहिं पन्नरसहि जोयणेहि' षष्ट्याः प्रभा, तमःप्रभा और तमस्तमःप्रभा की पूर्व दिशा के चरमान्त से कितनी दूर लोक का अन्त रूप-अलोक है ? तो इसके उत्तर में क्रमशः ऐसा आलापक कहना चाहिये-हे गौतम ! 'पंचपाए चउद्दसहि जोय. णेहि अबाहाए लोयते पणत्ते' पङ्कप्रभा की पूर्व दिशा के चरक्षान्त से चौदह योजन से आगे लोक का अन्त है इसी प्रकार से शेष दक्षिण पश्चिम उत्तर दिशाओं के चरमान्त से चौदह योजल आगे लोक का अन्त है ऐसा जानना चाहिये। 'पंचमाए' पांचवी पृथिवी जो धूमप्रभा है उसके पूर्व दिग्भागवर्ती घरमान्त से कितनी दूर पर लोक का अन्त हैं ? तो इसके उत्तर में प्रभु कहते है-हे गौतम् ! 'तिभागूणेहिं पारसहि जोयणे हि अबाधाए लोयंते पनत्ते पांचवी पृथिवी जो धूमप्रभा है उसके पूर्व दिग्भागवर्ती एवं दक्षिण पश्चिम उत्तर दिग्वती चरमान्त मे तीसरा भाग कम पन्द्रह योजलों के आगे लोक का अन्त होता है। 'छट्ठीए सतिभागेहिं पन्नरसहि जोयणेहि अबाधाए लोयंते पन्नत्ते छठी विगरे पृथ्वीयानु अपात मताव छे. 'पंकप्पभाए' त्याहि समपन् પકભા. ધૂમપ્રભા, અને તમસ્તમપ્રભાની પૂર્વદિશાના ચરમાંથી કેટલે દૂર લેકના અન્ત રૂપ અલોક છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં ક્રમશ એ અલાપક ह मे भीतम ! 'पंकप्पभाए चउहसहि जोयणेहि अवाहाए लोयते पण्णत्ते' ५४मानी पूनियन य२मा तथा यौह योन पछी बनी मत છે. એ જ પ્રમાણે બાકીની દક્ષિણ, પશ્ચિમ ઉત્તર દિશાઓના ચરમાન્તથી ચૌદ योन पछी ने। मत छे. तम सभा 'पंचमाए' पांयमी २ धूमप्रमा પૃથ્વી છે, તેની પૂર્વ દિશામાં રહેલ ચરમાન્તથી કેટલે દૂર લેકને અંત કહ્યો छ १ २प्रश्न उत्तर प्रभु ४ छ ७ गौतम ! 'तिभागूणेहि पन्नरसहि जोयणेहि अबाधाए लोय ते पन्नत्ते' पांयमी २ धूमयमा पृथ्त्री छे, तेनी દિશામાં રહેલ અને દક્ષિણ, પશ્ચિમ, ઉત્તર વિગેરે દિશામાં આવેલ ચરમાન્ત થી ત્રીજા ભાગકમ પંદર જન પછી લેકને અંત કહ્યો છે.
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
દરે
जीवामिगमसूत्रे
पृथिव्या स्तमः प्रभायाः पूर्वादि चतुर्दिग्वर्निचरमान्तात् सत्रिभागैः पञ्चदश भिर्योजनैः 'अवाहाए' अवाधवा 'लोयंते पन्नत्ते' लोकान्तः मज्ञप्तः - कथित इति । 'सत्तमीए' सप्तम्याः - तमन्तमः प्रभायाः पृथिव्याः पौरस्त्यात चरमान्तात् 'सोलसहिं जोयणेहि' पोडशभियोजन : 'अवाहाए लोयंते पन्नत्ते' अवाधया लोकान्तः प्रज्ञप्तः कथित इति 'एवं जात्र उत्तरिल्लाजो' एवं यावदुत्तरतः, यथा सप्तम पृथिव्याः पौरस्त्यात् चरमान्तात् पोडरायोजनदूरे लोकान्तो भवति तथैव दक्षिणपश्चिमोत्तरचरमान्तेभ्यः पोडशयोजनदूरे लोकान्तो भवतीति ।
अथैतानि रत्नप्रभादितमस्तसान्त प्रथिवीनां द्वादशादि योजन प्रमाणान्यपान्तराकानि तानि किमाकाशरूपाणि घनोदध्यादि व्याप्तानि वा तत्रोच्यते धनो पृथिवी के पूर्व दिग्भागवत चरमान्त से, दक्षिण दिग्भागवत चरमान्त से पश्चिम दिग्भागवत चरमान्त से और उत्तर दिग्भागवत एवं विदिशाओ के चरमांत से तृतीय भाग सहित पन्द्रह योजन के आगे लोक का अन्त है 'सत्तमीए सोलसएहिं जोयणेहिं अबाधाए बोयंते पन्नत्ते एवं जाव उत्तरिल्लाओं' इसी तरह सातवीं पृथिवी के पूर्व दिग्भागवर्ती चरमान्त से, दक्षिण दिग्भागवत चरमान्त से, पश्चिम दिग्भा. गवर्ती 'चरमान्त से और उत्तर दिग्भागवत चरमान्त से एवं विदिशाओं के चरमान्त से पूरे सोलह योजन के बाद लोक का अन्त हैं
अब प्रकार इस बात को प्रकट करते हैं कि - रत्नप्रभा पृथिवी से लेकर तस्तान् पृथिवियों का जो अलोक तक बारह आदि योजनों का अन्तराल कहा गया है वह क्या आकाश रूप है या घनो
'छट्टीए सातिभागेहि पन्नरसहि जोयणेहि अबाधाए लोयते पण्णत्ते' छुट्टी પૃથ્વીની પૂર્વદિશામાં આવેલ ચરમાન્તથી, દક્ષિણ દિશામાં આવેલ ચ૨માન્તથી પશ્ચિમ દિશામાં આવેલ ચરમાન્તથી અને ઉત્તર દિશામાં આવેલ ચરમાન્તથી અને વિદિશાઓના ચરમાન્તથી ત્રીજાભાગ સહિત પંદર ચૈાજન પછી લેાકના मत छे. 'सक्षमीप सोलसएहि, जोयणेहि, अशधाए लोयते पन्नते एवं नाव उत्तरिल्लाओं' सेल प्रमाणे सातमी पृथ्वीनी पूर्व दिशाभां भावेश ચરમાન્તથી, દક્ષિણ દિશામાં આવેલા ચરમતથી, પશ્ચિમ દિશામાં આવેલ ચરમાન્તથી અને ઉત્તર દિશામાં આવેલ ચરમાંતથી અને વિદિશાઓના ચરમાન્તથી પૂરા સેાળ ચેાજન પછી લેાકના મત કહ્યો છે.
હવે સૂત્રકાર એ વાત પ્રગટ કરે છે કે રત્નપ્રભા પૃથ્વીથી લઈને તમતમાં સુધીની પૃથ્વીચેનુ' જે અલાક સુધી ખાર વિગેરે ચીજનાનુ અંતરાલ કહ્યું છે, તે શું આકાશરૂપ છે ? અથવા ઘનેાધિ વિગેરેથી વ્યાસ છે ? આ પ્રશ્નના
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ २.७ सप्तापि पृथिव्याः लोकस्पशिन्यो नवेति ६३ दध्यादिव्याप्तानि तत्र कस्मिन् अपान्तराले कियान् घनोदध्यादिरिति प्रतिपाद नार्थमाह-' इमी से णं' इत्यादि, 'हमी से णं भंते' एतस्याः खलु भदन्त ! 'रयणमार पुढवीए' रत्नप्रभायाः पृथिव्या 'पुरस्थिभिल्ले चरिमंते' पौरस्त्यः पूर्वदिग् भावीचरमान्तोऽपान्तराळलक्षणः सः 'कइविहे पत्ते' कतिविधः - कति प्रकारकः मज्ञप्तः - कथित इति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि' 'गोमा' हे गौतम | 'तिविहे पन्नत्ते' त्रिविध त्रिपकारकः प्रज्ञप्त - कथितः 'तं जहा ' तद्यथा - 'घणो after' घनोदधिवलय:- वलयाकार घनोदधिरूपः 'घणवायवलए' घनवातदलयः वलयाकार घनवातरूप इत्यर्थः 'उणुवायचलाए' नुगतवलपः वलयाकार तनुदधि आदि से व्याप्त हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं कि यह अन्तराल घनोदधि आदि से व्याप्त है इस विषय में गौतम ने प्रभु से ऐसा पूछा है- 'इमोसे णं भंते ! स्यणप्पभाए पुढवीए' हे भदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी का पूर्व दिग्भागवत जो चरमान्त है सो वहां तक और अलोक से पहिले जो अपान्तराल है वह 'कविहे पनन्ते' कितने प्रकार का कहा गया है ? रत्नप्रभा पृथिवी से पूर्व दिशा की ओर बारह योजन आगे जाने पर ठीक यहीं से अलोक का प्रारम्भ हो जाता है इसी तरह से अन्यत्र भी ऐसा ही समझना चाहिये सो यह जो रत्न प्रभा पृथिवी से अलोक प्रारम्भ होने के पहिले २, बीच का जो व्यव धान स्थान है उसमें क्या है ? ऐसा इस प्रश्न का भाव है इस प्रश्न का उत्तर दिया गया है कि 'गोवमा ! तिविहे पनते' हे गौतम ! वह अपान्तराल तीन प्रकार का कहा गया है- 'घणोदहिवलए' वलयाकार ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે છે કે તે અ તરાલ ઘનેદધિ વિગેરેથી વ્યાપ્ત છે. તે સંબધમાં गौतमस्वाभीयो अलुने मे पूछयु हे 'इमी से णं' भते ! रयणप्पभाए पुढवीए' डे लगवन् मा रत्नप्रला पृथ्वीनी पूर्व दिशामां भावेल ने अरमान्त छे, त्यां सुधी मने मोनी पडेसां ने अयनरास छे ते 'कइविहे पण्णत्ते' કેટલા પ્રકારના કહેલ છે ? રત્નપ્રભા પૃથ્વીથી પૂદિશા તરફ માર ચેાજન આાગળ જતાં ખરાખર ત્યાંથીજ અલેાકના પ્રારભ થાય છે. એજ પ્રમાણે અન્યત્ર પણ એજ પ્રમાણેનુ કથન સમજવું.
તે આ રત્નપ્રભા પૃથ્વીથી અલાકના પ્રારંભ થતાં પહેલાં વચ્ચેનું જે વ્યવધાન સ્થાન છે, તેમાં શું છે ? આ પ્રમાણેના આ પ્રશ્ન પૂછવાના હેતુ छे, खाना उत्तरमां अलु हे छे ! 'गोयमा ! तिविहे पण्णत्ते' हे गौतम! मे अथान्तरास ॠथु अञ्जानु' इहेस हे 'घणोदहिवलए' वसयाअर धनोऽधि,
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवाभिगमने चातरूप इत्यर्थः । 'इसीसे णं भंते' एतस्याः खलु भदन्त ! 'रयणप्पभाए पुढबीए' रत्नप्रभायाः पृथिव्याः 'दाहिणिल्ले' चरिमंते' दाक्षिणात्य दक्षिणदिशि विद्यमानः चरमान्तोऽपान्तराललक्षण:, 'काबिहे पन्दत्ते' कतिविधा-कति. प्रकारका प्रज्ञप्त:-कथित इति प्रश्ना, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! "तिविहे पन्नत्ते' विविध स्त्रिमकारकः प्रज्ञा 'तं जहा जाव उपरिल्ले' तद्यथा यादोत्तर:-उत्तर दिग्भावी, यावत्पदेन घगोदधिवलयरूपो धनवातवलयरूप स्तलुनातवलयरूश्चेति, हे सदन्त ! रत्नपथायाः पाश्चात्यश्वरमान्तः कति. विधः प्रज्ञप्तः हे गौसम 1 विविध प्राप्त स्तथा घनोदधिवलयरूपो घनबालवलयरूप स्तनुबात दलयरूपश्च । हे भदन्त ! रत्नभाया उत्तरदिगू विभाग चरमान्तः कतिविधः प्रज्ञप्तः हे गौतम ! त्रिविधः प्रज्ञप्तः तद्यथा-घनोदधि वलयरूपी घनोदधि 'धनवायचलए' बलयाकार घनवात 'तणुवायवलए' और वल. याकार लनुवात अर्थात् इस अपान्तराल स्थाल में ये तील वात वलय हैं अन्यत्र भी ऐसा ही भाव जानना चाहिये। __ 'इमीले णं भंते ! रघणप्पभा पुढबीए दाहिणिल्ले चरिमंते काविहे पण्णते' हे भदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी का दक्षिण चरमान्त रूप अपान्तराल कितने प्रकार का कहा गया है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं'गोयमा! तिषिहे पन्नत्ते' हे गौतम! वह तीन प्रकार का कहा गया है 'तं जहा' तद्यथा-घनोदधि रूप, घनवात रूप और तनुयात रूप 'एवं जाव उत्तरिल्ले' इसी तरह रत्नप्रभा पृथिवी का जो पश्चिम दिग्वती अपान्तराल है वह भी इन्हीं लीन वात वल रूप है-लथा उत्तर दिग
'घणवायवलए' वसया२ धनवात 'तणुवायवलए' तथा सया॥२ तनुमात અર્થાત આ અપાન્તરાલ રૂપ સ્થાનમાં આ ત્રણ વાતવલય આવેલા છે. અન્યત્ર પણ એજ પ્રમાણને ભાવ સમજ.
'इमोसे ण भंते ! रयणप्पा पुढबीए दाहिणिल्ले चरिम'ते कइविहे पण्णचे' હે ભગવનું આ રત્નપ્રભા પૃથ્વીને દક્ષિણ ચરન્યાત રૂપ અપાન્તરાલ કેટલા महान ४ छ ? म प्रश्नना उत्तरमा प्रभु ४ छ , 'गोयमा ! तिविहे पन्नत्ते' हे गौतम ! त्रय प्रा२ने ४९स छ. 'त जहा' ते मा प्रभार छ. धनाधि३५, धनवात३५ अने तनुपात३५ ‘एवं जाव उत्तरिल्ले मे प्रमाणे રત્નપ્રભા પૃથ્વીની જે પશ્ચિમ દિશામાં આવેલ અપાન્તરાલ છે તે પણ આ ત્રણે વાત વલય રૂપ છે, તથા ઉત્તર દિશામાં આવેલ જે અપાન્તરાલ છે, તે પણ
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयोतिका टीका प्र. ३ सू.८ सप्तपृ. घनोदध्यादीनां तिथग्बाहल्यम्
६५
घनवातवलयरूप स्तनुवातवलयरूपचेति । ' एवं सव्वासि जाव अहे समाए उत्तरिल्ले' एवं रत्नघभायाश्चतुर्षु दिग्भागेषु यथा त्रयश्चरमान्ताः घनोदधि घनवात तनुवातरूपाः कथिता स्तेनैव प्रकारेण शर्करामभावालुकाममा पङ्कप्रभा धूमप्रभा तममभा अधः सप्तम्याः चतुर्षु दिनुविभागेषु प्रत्येकं त्रयः त्रयः घनोदधिधनवात तनुषात रूपाथरमान्तास्त्रिमकारका वक्तव्या इति ॥ सू०७||
सम्मति रत्नप्रभावित आरभ्य तमस्तमाममा पर्यन्तानां प्रथिवीनां घनोदधि घनवावातानां तिर्यग वाद्दल्यं प्रतिपादयितुकामः प्रथमं रत्नममा प्रथिव्याः घनोदधिलक्ष्य तिर्यगू वाहत्यमानमाह - 'इसीसे गं' इत्यादि,
कम् - इमीसे णं भंते । रयणप्पभाए पुढवीए घणोदहि-' ! वलए केवइए बाहल्लेणं पण्णत्ते, गोयमा ! छ जोयणाई बाहल्लेणं पन्नत्ते । सक्करप्पभाष पुढवी घणोदहिवलए केवइए बाहल्लेणं पन्नते ? गोयमा ! सति भागाई छ जोयणाई बाहल्लेणं पन्नत्ते । बालुयप्पभाए पुच्छा, गोयमा ! तिभागूणाई सत्तजोयणाइं बाहल्लेणं पन्नते । एवं एएणं अभिलावेणं पंक
भाए सत्त जोयणाई बाहल्लेणं पन्नन्ते । धूमप्पभाए सतिभागाई सत्तजोयणाई बाहल्लेणं पन्नत्ते । तमप्पभाए तिभागूवर्ती जो अपान्तराल है वह भी इन्हीं तीन वत वलय रूप है 'एव' सव्वासि जाय अहे सप्तमाए उत्तरिल्ले' जिस प्रकार से रत्नप्रभा पृथिवी के चारों दिग्भागों के ४ अपान्तराल तीन तीन वातवलय रूप कहे गये हैं उसी प्रकार से शर्कराप्रभा के वालुकामभा के पङ्कप्रभा के, धूमप्रभा के तमः प्रभा के और अधःसप्तमी पृथिवी के चारों दिशाओं में जो अपान्तराल प्रकट किये गये हैं- वे सब भी तीन २, वातवलय रूप है ऐसा जानना चाहिये | सृ० - ॥७॥
मात्र वात वसय ३५ छे. 'एव सव्वासि जाव अहेत्तमाए उत्तरिल्ले' मे પ્રમાણે રત્નપ્રભા પૃથ્વીની ચારે દિશાના ૪ અપાન્તરાલ ત્રણ ત્રણ વાતલય રૂપ કહ્યા છે. એજ પ્રમાણે શર્કરાપ્રભા પૃથ્વીના, વાલુકાપ્રભા પૃથ્વીના, પુંકપ્રભા પૃથ્વીના ધૂમપ્રભા પૃથ્વીના તમપ્રભા પૃથ્વીના, વાલુકાપ્રભા પૃથ્વીના સાતમી પૃથ્વીની ચારે દિશાએમાં જે ચાર અપાન્તરાલેા કહ્યા છે, એ સઘળા ત્રણ ત્રણ વાતલય રૂપ છે તેમ સમજવુ. !! સૂ. છ !!
जी० ९
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
जोधामिगमसूत्रे णाई अठ्ठजोयणाई। तमतमप्पभाए अट्ठजोयणाई॥ इमीसे णं भंते ! रयणप्पसाए पुढबीए धणवायवलए केवइए बाहल्लेणं पन्नत्ते ? गोयमा ! अद्धपंचलाई जोयणाई वाहल्लेणं पन्नत्ते । सकरप्रभाए पुच्छा, गोयमा ! कोसूणाई पंचजोयणाई वाहल्लेणं पन्नत्ते । एवं एएणं अभिलावणं वालुयप्पभाए पंचजोषणाई बाहल्लेणं पन्नत्ते । पंकप्पभाए सकोसाइं पंचजोयणाई वाहल्लेणं पन्नत्ते । धूमप्पभाए अद्धछटाई जोयणाई वाहल्लेणं पन्नत्ते। तमप्पसाए कोसूणाई छजोषणाई वाहल्लेणं पण्णन्ते । अहे सत्तमाए छजोयगाई बाहल्लेणं पन्नत्ते ॥ इमीले णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तणुवायवलए केवइए बाहलेणं पन्नत्ते? गोयमा! छक्कोसे बाहल्लेणं पन्नते । एवं एएणं अभिलादेणं लकरप्पभाए सतिभागे छक्कोले बाहल्लेणं पन्नत्ते । बालयप्पभाए तिभागूणे सत्तकोले बाहल्लेणं पन्नत्ते । पंकप्पाए पुढबीए सत्तकोसे वाहल्लेणं पन्नते । धूमप्पाए लतिभागे सत्तकोसे। तमप्पभाए तिभागूणे अट्टकोसे बाहल्लेणं पन्नते । अहे सत्तमाए पुढवीए अटकोले बाहल्लेणं पन्नत्ते ॥ इमीले णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए घणोदहिवलयस्ल छ जोयणबाहल्लस्स खेत्तच्छेएणं छिज्जमाणस्स अस्थि दवाइं वण्णओ काल जाब हंता अस्थि । सक्करप्पमाए णे भंते ! पुढवीए घणोदहि वलयस्स सतिभाग छ जोयणबाहलल्स खेत्तच्छेषणं छिजमाणस्ल जार हंता अस्थि । एवं जाव अहे सत्तमाए जं जस्स बाहल्लं ॥ इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए घणवायवलयस्स अद्धपंचमजोयणबाहलस्स खेत्तच्छेएणं छिजामाणल्स जाव ईता अत्थि ॥ एवं जाव
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
A
प्रद्योतिका टीका प्र. ३ . ८ सप्तपुं. घनोदध्यादीनां तिर्यग्बाहल्यम्
FORMELY WON
अहे सन्तमाए जं जस्स बाहलं । एवं तणुवायवलयस्स वि जाव' अहे लत्तमाए जं जस्स बाहलं । इसीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवी घणोदहिवलए कि लंटिए पन्नत्ते ? गोयमा ! वहे वलयागारसंठाणसंठिए पन्नत्ते । जेणं इस रयणप्पलं पुढदि सव्वओ समंता परिक्खित्ताणं विटुइ एवं जाव अहे सतमाए पुढवीए घणोदहिवलए, णवरं अप्पणप्पणं पुढविं संपरिक्खिवित्ताणं चिट्टइ । इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाष पुढषीए घणवायवलए किं संठिए पन्नले ? गोयमा ! बट्टे वलयागारे तहेब जाव जेणं इमीसे णं रथणपभार पुढवीए घणोदहिवलयं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ताणं चिट्टह । एवं जाय अहे सत्तमाए घणवायवलए ॥ इसीसे णं रयणप्पभाए पुढबीए तणुवाच वलए किं संठिए पन्नत्ते ? गोयमा ! वहे वलयगारसंठाणसंठिए जाव जेणं इमीसे णं रयणसभा पुढवीए घणवायवलयं सव्वओ समता संपरिक्खिताणं चिटुइ, 'एवं जाव अहे सत्तमाए तणुवाचवलए ॥ इमाणं भंते! रयणप्पा पुढी केवइया आयामविवखंभेणं पण्णत्ता ? गोयमा ! असंखेजाई जोयणसहरुलाई आयाम विक्खंभेणं, असंखेजाई जोयणसहस्साइं परिवखेवेणं पण्णत्ता । एवं जाव अहे सत्तमा, इमाणं भंते! रयणप्पभा पुढवी अंते य मज्झे य सव्वत्थ समा बाहल्लेणं पन्नत्ता । एवं जाव अहे सत्तमा ||सु० ८॥
छाया——-एतरयाः खल्ल भदन्त ! रत्नममायाः पृथिव्या घनोदधिवलयः क्रियान् वाइल्येन प्रज्ञप्तः ? गौतम । पयोजनानि बाहल्येन प्रज्ञप्तः । शर्करामभायाः पृथिव्याः घनोदधिवलयः कियान् बाहल्येन प्रज्ञप्तः १ गौतम ! सत्रिभागानि षड्योजनानि बाहल्येन भज्ञवः । बालुकापभावाः पृच्छा, गौतम ! त्रिभागो- नानि योजनानि बाहल्येन प्रज्ञः । एवमेतेनामिलान पंकप्रसायाः सप्तयोजनानि बाल्येन मज्ञप्तः । धूममभायाः सत्रिभागानि सप्तयोजनानि बाहल्येन मज्ञतः समःम मायाःत्रिमागोनानि अष्टयोजनानि । तमहतमःममाया अष्टुयोजनानि ।
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवाभिगम एतस्याः खलु भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्याः धनवातवलयः कियान् बाहल्येन प्रज्ञप्तः ? गौतम ! अर्द्धपश्चमानि योजनानि वाहल्येन प्रज्ञप्तः। शर्करामभायाः प्रच्छा, गौतम ! क्रोशोनानि पञ्चयोजनानि वाइल्येन प्रज्ञप्तः । एवमेतेन अमिलापेन बालकामभायाः पश्चयोजनानि बाहल्येन प्रज्ञप्तः । पङ्कपमाया: सक्रोशानि पञ्चयोजनानि वाइल्येन प्रज्ञप्तः । धूमप्रभायाः अर्द्धषष्ठानि योजनानि बाइल्येन प्रज्ञप्तः। तमाम भायाःक्रोशोनानि षट्योजनानि वाइल्येन प्रज्ञप्तानि । अधः सप्तम्याः षड्योजनानि वाहल्येन प्रज्ञप्तः । एतस्याः खल भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्याः तनवातवलयः कियान् वाहल्येन प्रज्ञप्तः ? गौतम ! षट्क्रोशान् वाइल्येन प्रज्ञप्तः। एवमेतेन अभिलापेन शर्कराप्रभायाः सत्रिभागान् षट्क्रोशान् वाहल्येन प्रज्ञप्तः। वालुकाममायाः त्रिभागोनान् सप्तकोशान् बाहल्येन प्रज्ञप्तः पङ्कममायाः सप्तक्रोशान् वाहल्येन प्रज्ञप्तः । धूमममायाः सत्रिभागान् सप्तक्रोशान् तमामभायाः त्रिभागोनान् अष्टक्रोशान् वाइल्येन प्रज्ञप्तः अधः सप्तम्याः पृथिव्या अष्टक्रोशान वाल्हयेन प्रज्ञप्तः। एतस्यां खल्लु भदन्त ! रत्नप्रभायां प्रथिव्यां धनोदधिवलयस्य पड्योजन वाहल्यस्य क्षेत्रच्छेदेन छियमानस्य सन्ति द्रव्याणि वर्णतः काल यावत् हन्त सन्ति । शर्करामभायां खलु भदन्त ! पृथिव्यां घनोदधिवलयस्य सत्रिभागपइयोजन बाहल्यस्य क्षेत्रच्छेदेन छिद्यमानस्य यावद् हन्त सन्ति । एवं यावद्धः सप्तम्याः यदू यस्य वाहल्यम् । एतस्यां खलु भदन्त ! रत्नप्रभापृथिव्यां धनवातवलयस्याईपश्चमयोजनवाइल्यस्य क्षेत्रच्छेदेन छिद्यमानस्य यावद् हन्त सन्ति । एवं यावदधः सप्तम्या यद् यख्य बाइल्यम् । एवं तनुवातवलयस्यापि यावदधः सप्तम्यां यद्यस्य बाहल्यम् । एतस्याः खल भदन्त ! रत्नपभायाः पृथिव्या घनोदधिवलयः किं संस्थितः प्रज्ञप्तः ? गौतमः ! वृतः वलयाकारसंस्थानप्तस्थितः प्रज्ञप्तः । यः खलु इमां रत्नममा पृथिवीं सर्वतः समन्तात् संगरिक्षिप्य खलु तिष्ठति । एवं यावदधः सप्तस्याः पृथिव्या घनोदधि वलयः नवरम् आत्मीयालीयां पृथिवी संपरिक्षिप्य खलु तिष्ठति । एतस्याः खलु भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्या घनवाचवलयः किं संस्थितः प्रज्ञप्तः ? गौतम ! वृत्तः वलयाकारः तथैव यावद् खलु एतस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्या घनोदधिवलयं सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्य खलु तिष्ठति । एवं यावदधः सप्तम्या घनवातवलयः । एतस्याः खलु भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्यास्तनुवातवलयः किं संस्थितः प्रज्ञप्तः ? गौतम ! वृत्तः वलयाकारसंस्थानसंस्थितः यावद् यः खलु एतस्या रत्नप्रभा पृथिव्याः घनवातवलयं सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्य खलु तिष्ठति । एवं यावदधः
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रद्योतिका टीका प्र.३ ६.८ सप्तंपृ. घनोदध्यादीनां तिर्यग्ग्राहलयम्
દૂર
सप्तम्यास्तनुवातवलयः । इयं खलु भदन्त । रत्नप्रभा पृथिवी कियती आयामविष्कम्भेण प्रज्ञप्ता ? गौतम | असंख्येयानि योजन सहस्राणि आयाम विष्कम्भेण असंख्येयानि योजन सहस्राणि परिक्षेपेण मज्ञप्ता । एवं यात्रदधः सप्तमी । इयं खलु भदन्त ! रत्नप्रभा पृथिवी अन्ते च मध्ये च सर्वत्र समा बाहल्येन प्रज्ञप्ता ? इन्त गौतम ! इयं खलु रत्नप्रभा पृथिवी अन्ते च मध्ये च सर्वत्र समा बाहल्येन प्रज्ञप्ता । एवं यावदधः सप्तमी ॥८॥
टीका- 'इमी से णं भंते । एतस्याः खलु भदन्त ! 'स्यणप्यभाए पुढवीए' रत्नप्रभायः पृथिव्याः 'घणोदहिवलए' घनोदधिवलयः रत्नप्रभा पृथिव्याः दिक्षु विदिक्षु च चरमान्ते घणोदधिवलय इत्यर्थः 'केवइए' वाहल्लेणं पन्नत्ते' कियान् कियत्परिमितः बाहल्येन मज्ञ-कथित इति प्रश्नः भगवानाह - 'गोयमा ' इत्यादि, 'गोमा' हे गौतम! 'छ जोयणाणि बाहल्लेणं पन्नत्ते' षड्योजनानि षड्योजन परमितः बाहल्येन घनोदधिवलयः प्रज्ञप्तः - कथित इति । सकरप्पभाए पुढate' शर्करामभायाः पृथिव्याः घणोदधिवलए' घनोदधिवलय: 'केवइए
'इमी से णं भंते! रयणपभाए पुढचीए' - इत्यादि ।
टीकार्थ - गौतम ने प्रभु से ऐसा पूछा है-'इमीले णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए' हे भदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी का 'घनोदहिवलए' घनोदधि वलव - रत्नप्रभा पृथिवी की समस्त दिशाओं और विदिशाओं के चरमान्त में जो घनोदधि वलय है - वह 'केवहए बाहल्लेण पश्नत्ते' तिर्यग बाहुल्य की अपेक्षा कितना मोटा कहा गया है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं - 'गोमा ! छ जोयणाणि बाहल्लेणं पण्णत्ते' हे गौतम! वह तिर्यग्वाहत्य की अपेक्षा छह योजन का मोटा कहा गया है'सक्करपभाए पुढबीए घनोदधि वलए केवहए बाहरणं पत्ते' हे भदन्त ! शर्करा पृथिवी का घनोदधि वलय तिर्यग्वाहत्य की अपेक्षा
'इमी से ण' भंते! रयणप्पभाष पुढवीए' त्याहि टीडार्थ गौतमस्वाभीमे प्रभुने मे पूछयु छे 'इमीसे णं भवे ! रयणप्पभाए पुढवीए' हे लगवन् भा रत्नप्रभा पृथ्वीनो 'घणोदहिवलए ' ઘનેઽધિવલય રત્નપ્રભા પૃથ્વીની સઘળી દિશાઓ અને વિદિશાઓના ચાન્તમાં ? धनदधिवसय छे, ते 'केवइर बाहल्ले णं' पन्नत्ते' तिर्यग्यायनी अपेक्षाओ टो मोटो आहेस छे ? 'गोयमा ! छ जोयणाणि बाहल्लेण पन्नत्ते' डे गौतम ! ते तिर्यग्मादयती अपेक्षाधी येोजननी भोटाई वाणो उडेल छे. 'सक्कर प्रभा पुढवी घणोदधिवलए केवइए बाहल्लेण पन्नत्ते' हे भगवन् शराअभा
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
•
जीवामिगमसूत्रे
म.
,
वाइल्लेणं पन्नत्ते' क्रियान् तिर्यग्वाद्दल्येन प्रज्ञप्तः- कथित इति मश्नः भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम | 'सविभागाई छ जोयणाई' सत्रिभामानि - तृतीयसागेन सहितानि पयोजनानि 'बादल्लेणं' विर्य बाहश्येन 'पन्नत्ते' प्रज्ञप्तः - कथित इति । 'वालुपमाए पुच्छा' वालुकाममायाः पृच्छा, हे भदन्त । बालुकाममायाः पृथिव्या घनोदधिवलयः क्रियान् तिर्यग्वाहल्येन मक्षप्त इति पृच्छा - प्रश्नः संगृह्यते भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'शोमा' हे गौतम 1 'विभागूणाई सतजोयणाई वाल्लेणं पन्नते' त्रिभागोनानि तृतीय मागेन हीनानि समयोजनानि तिर्यग् वाइल्येन पज्ञप्तः कथितो वालुकाममाया घडोदधिवळय इति । एवं एएवं अभिलावेगं ' पंरुपए सनजोग्णाई बाहल्लेणं पण्णत्ते' एवं यथोक्तेन अमिलापेन प्रकारेण पङ्कपमायाः घणोदधिः सप्तयोजनानि तिर्यग् वाइल्येन प्रज्ञः, हे भदन्त ! पपमायाः पृथिव्याः घनोदधिवन्यः क्रियान् तिर्यग्वाल्येन प्रज्ञप्वः ? हे गौतम । पङ्काभायाः घनोदविलयः सप्तयोजनानि कितना मोटा कहा गया है ? उत्तर में प्रभु करते हैं - 'गोला ! सतिभागाई छ जोयणा' वह योजन के तृतीय भाग सहित छह योजन का कहा गया है 'बालुयपभाए पुच्छा' हे भदन्त ! बालुका प्रभा पृथिवी का घनोदधि क्लच तिर्यगवाहस्य को अपेक्षा कितना मोटा कहा गया है ? उत्तर में प्रभु करते हैं- 'गोमा ! विभागूनाइ खत्तजोगाई दाहल्लेणं पनन्ते' हे गौतम! यह योजन के तृतीय भाग कम सात योजन का मोटा कहा गया है- अर्थात् योजन के दो भाग सहित छह योजन का मोटा तिर्यग बाहल्य की अपेक्षा कहा गया है 'एच' एएवं अभिलावेणं पंचप्पभाए सत्तजोषणाएं बाहल्लेण नत्ते' इसी प्रकार से पङ्कनभा का जो घनोदधि वलय है वह भी निर्यबाहल्य की अपेक्षा सात પૃથ્વીના ઘનાદવિવલય તિગ્માહત્યની અપેક્ષાથી કેટલા માટે કહેલ છે ? या प्रश्नमा उत्तरमा प्रभु गौतमस्वामीने हे 'गोयमा ! सतिमोगाइ छ जोयणाइ” ते येोन्नना श्री लाग सहित छ योजना से छे. 'वालु भाए પુષ્કા' હું ભગવન્ વાલુકાપ્રભા પૃથ્વીના ઘનેદધિ તિગ્માહત્યની અપેક્ષાએ भेटलो भोटो डेस छे ? मी प्रश्नमा उत्तरमा अडे हे 'गोयमा ! तिभागुणाई खत्तजोयणाई बाहल्लेणं पन्नत्ते' हे गौतम! आ योनना श्रील ભાગથી ઓછા સાત ચેાજનની સાટાવાળા કહેલ છે. અર્થાત ચેાજનના એ आग सहित छ योन्नती मोटाई तिर्यग्यायनी अपेक्षाथी उडे छे. 'एव' एरण अभिलावेण पंकल्पभाए सत्तजोयणाई बाहल्लेण पन्नत्ते' खेभ प्रभा ૫કપ્રભા પૃથ્વીના જે ઘનેાધિવત્રય છે. તે પણ તિગ્માહત્યની અપેક્ષાથી
B
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ ४.८ सप्तपृ. घनोदध्यादीनां तियग्वाहत्यम् ७१ तिर्यग्वाहल्येन प्राप्त इति भावः । 'धूमपभाए सतिभागाई सत्तजोयणाई पनत्ते' धूममभायाः पत्रिभागानि तृतीयभागेन सहितानि सप्तयोजनानि प्रज्ञप्तः, हे भदन्त ! धृममभायाः पृथिव्याः धनोदधिवलयः कियान तिर्यमाल्येन प्रज्ञप्तः ? हे गौतम ! धूपमभायाः घनोदधिरलयः सत्रिभागानि सप्तयोजनानि प्रज्ञप्त इति भावः । ततप्पभाए तिभाषणाई अठ्ठजोयणाई' तमसाया निभायोनि अष्टयोजनानि, हे भदन्त ! समाप्रमायाः षष्ठ पृथिव्याः घनोदधिवक्रायः कियान तिर्यग्बा. हल्येन प्रज्ञप्तः १ हे गौतम ! तमामभायाः पृथिव्याः घणोदधिवलयः त्रिभागोनानि तृतीय भागहीनानि अष्टयोजनानि तिर्यम्बाहल्येन मज्ञप्त इति । तमतमपभाए अनोषणाई' तमस्तमाप्रभाया अष्टयोजनानि, हे भदन्त ! समस्तम्भमाया पृथिव्याः घनोदधिरलयः किवान तिर्यग्वाहल्येन प्रज्ञप्त: ? गौतम ! तमस्तमा योजन का मोटा कहा गया है 'धूमपाए लति भागाई सत्त जोय. गाई पनन्ते' धूमप्रभा पृथिवी का जो छनोदधि वातवलय है वह तिर्यग्याहत्य की अपेक्षा कितना मोटा कहा गया है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'हे गौतम! धूमप्रभा पृथिवी का जो धनोदधि बलय हैं वह तृतीय भाग सहित खाल थोजन का कहा गया है 'तमप्पाए तिमा. गूणाई अट्ठजोयणाई' हे सदन्त ! छठी तमाममा पृथिवी का जो घनोदधि बलय है वह पियवाहल्य की अपेक्षा शितना मोटा कहा गया है ? उत्तर में प्रभु शहते हैं-हे गौतम । लमःप्रभा पृथिवी का जो घलोदधि वलय है वह योजन झा तृतीय भाग कम आठ योजन को तिर्यग्वाहल्य की अपेक्षा मोटा कहा गया है 'तमतमप्पभाए अयोज. णाई' हे भदन्त ! सातवीं पृथिवी जो तमरतमा प्रक्षा है उसका घनो. दधिवलय तिर्यग्बाहल की अपेक्षा कितना मोटा कहा गया है ? उत्तर में सात यासननी मोटा वाणा हो है. 'धूमपाए सतिभागाइ सत्त जोयणाई पन्नत्ते' धूमला पृथ्वीना २ घनधि पातसय छ, त તિર્યબાહલ્યની અપેક્ષાથી કેટલો વિશાળ કહેલ છે. આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભ ગૌતમ સ્વામીને કહે છે કે હે ગૌતમ ! ત્રીજા ભાગ સહિત સાત જનને
हे छे 'तमप्पभाए तिभागूणाई अट्र जोयणाइ' . मगवन् ७28 तमामा પૃથ્વીને જે ઘનેદધિ વલય છે તે તિર્યંબાહથેની અપેક્ષા કેટલે વિશાળ કહેલ છે ? ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે છે કે હે ગૌતમ! તમ પ્રભા પ્રત્રીને જે ઘોદધિવલય છે તે જનના ત્રીજા ભાગ કમ આઠ ચીજનને તિર્યબાહલ્યની अपेक्षाथी विस्तार वाणी हुय छे. 'तमतमप्पभाए अजोवणाई है पर સાતમી પૃથ્વી કે જે તમસ્તમા નામની છે, તેને ઘનોદધિવલય તિર્યાહલયની
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
২
जीवामिगमसूत्रे
मभायाः पृथिव्या घनोदधिवलयोऽष्टयोजनानि तिर्यग्वाइल्येन मइप्त इति भावः ।
अथ रत्नप्रभादि पृथिवीनां घनवातस्य वाहलयमाह-' इमी से णं' इत्यादि, 'इमीसे णं ये' एतस्याः खलु भदन्त ! 'स्यणप्पमाए पुढीए' रत्नप्रभायाः पृथिव्याः 'घणवायवळए' घनवातवलयः 'केवइयं बाहल्लेण पन्त्रत्ते' कियान तिर्यग्वाहत्येन प्रप्त इति मनः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोय' हे गौतम! 'अद्धपंचमाः" अर्द्धपंचमानि सार्द्धानि चत्वारि इत्यर्थः 'जोयणाई' योजनानि 'बाहल्लेणं' बाहल्येन तिर्यग्वाद्दल्येन प्रज्ञप्त इति । 'सक्करपभाए पुच्छा' शर्करामलायाः पृच्छा, हे भदन्त ! एतस्याः शर्करा प्रभायाः पृथिव्याःघनवातवलयः शियान तिर्यग्वारल्येन मतप्तः ? इति प्रश्नः पृच्छया संगृह्यते भगवानाह - 'गोमा' इत्यादि, 'गोवमा' हे गौतम ! प्रभु कहते हैं - हे गौतम! तमस्तमःप्रभा पृथिवी का जो घनोदधि वलप है वह तिर्यग्वाल्य की अपेक्षा आठ योजन का कहा गया है।
अब रत्नप्रभा पृथिवियों के घन वात का माहत्य कहते हैं- 'इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए घनवायवलए केवइयां पाहल्लेणं पन्नत्ते' हे भदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी का जो घनवातवलय है वह तिर्यगूबाहल्य की अपेक्षा कितना मोटा कहा गया है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! अद्ध पंचमाई जोयणाई याहस्वेणं पन्नत्ते' हे गौतम! वह अर्द्ध पञ्चम अर्थात् साढे चार योजन का तिर्यग्वाहत्य की अपेक्षा मोटा कहा गया है। ' सकरप्पमाए पुच्छा' हे मदन्न ! इस शर्कराप्रभा पृथिवी का घनवातवलय तिर्यग्रबाहल्य की अपेक्षा कितना मोटा कहा गया है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं - 'गोधमा ! कोसूणाई पंचजोयणाई बाहल्लेणं पन्नत्ते' हे અપેક્ષાથી કેટલે વિશાળ કહેલ છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે હે ગૌતમ! તમસ્તમપ્રભા પૃથ્વીનેા જે ઘનેધિવાતવલય છે, તિય આાહેલ્થની અપેક્ષાથી આઠ ચેાજનના કહ્યો છે.
તે
હવે રત્નપ્રભા વિગેરે પૃથ્વીચેાના ઘનવાતના માહલ્યનું કથન કરે છે. 'इमी से ण' भवे ! रयणप्पाभार पुढत्रीए घणवायवलए केवइयां बाइल्लेणं पन्नन्ते' હું ભગવન્ આ રત્નપ્રભા પૃથ્વીને જે ઘનવાતવલય છે, તે તિગ્માહુલ્યની અપેક્ષાથી કેટલે વિશાળ કહ્યો છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમસ્વામીને हे 'गोयमा ! अद्ध पंचमाई जोयणाई बाहल्लेणं पन्नत्ते' हे गीतभ ! તે અ પંચમ અર્થાત્ સાડાચાર યાજનના તિય આાહેલ્થની અપેક્ષાથી વિશાળ ह्यो छे. 'सक्करत्पभाए पुच्छा' हे भगवन् मा शशला पृथ्वीना ने ઘનવાત વલય છે, તે તિગ્માહલ્યની અપેક્ષાથી કેટલેા વિશાળ કહેલ છે ? उत्तरभां प्रभु ४हे छे } ‘गोयमा ! कोसूणाई' प'चजोयणाइ' बाहल्लेणं पन्नत्ते' डे
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ ७.८ सप्तपृ. धनोध्यादीनां तिर्यग्वाहल्यम् ७३ 'कोमणाई पंचजोरणाई बाहल्लेणं पन्नत्ते'क्रोशोनानि क्रोशैकेन हीनानि पञ्चयोजनानि शर्कराप्रमाया घनवासबलय विर्यबाहल्येन प्रज्ञप्त इति । 'एवं एएणं अभिलावेणे' एवम् एतेन पूर्वोक्तेन अभिलाषेन-मालाकम सारेण 'बालुगप्पभाए पंचजोयणाई बाहल्लेणं पन्नत्ते' बालुकाधमायाः पञ्चयोजनानि चाहल्येन प्रज्ञप्ता, हे भदन्त ! एतस्या वालुकाममाया घनाखवलयः कियान तिर्यम्वाइल्येन प्राप्तः १ भगवान आह-हे गौतम ! बालुकाममाया घनदाखवलयः पञ्चयोजनानि विर्यग्बाहल्येन पक्षप्तः, इति भावः । 'पंक्रममाए सकोसाई पंचजोयणाई बाहल्लेणं पण्णत्ते' पङ्कममायाः सक्रोशानि क्रोशमहितानि पञ्चयोजनानि बाहल्येन प्रज्ञप्ता, हे भदन्त । एतस्याः पङ्कममायाः पृषिव्याः घनवातवलयः कियान् तिर्यग्बाहल्येन प्रज्ञप्त इति पश्ना, भगवानाइ-हे गौतम ! पक्का भायाः पृथिव्याः घनवासवलयः क्रोशकाधिक पञ्चयोजनानि तिर्यवाहल्येन प्रज्ञप्त इतिभावः । 'धूमप्पभाए अद्धगौतम! शर्कराला का धन नासवलय तिर्यग्वाहल्य की अपेक्षा एक कोश कम पांच योजन का मोटा कहा गया है एवं एएणाभिलावेणं' इसी आलापक प्रकार से ऐसा भी प्रश्न करना चाहिये-हे भदन्त ! पालुकाप्रभा का जो वातवलय है वह तिर्थरबाहल्य की अपेक्षा कितना मोटा कहा गया है उत्तर में प्रभु कहते हैं-गीतम! 'वालुयप्पाए पंचजोयणाई बाहल्लेणं पण्णत्ते' बालुकाप्रभा का घनबोलवलय तियग्बाहल्य की अपेक्षा पांच योजन का मोटा कहा गया है 'पंकप्पाए सक्कोसाइपंचजोयणाई पाहल्लेणं पन्नते' हे भदन्त ! पंकप्रभा पृथिवी के घनयातबलय तिर्यगपाहल्य की अपेक्षा शिलना मोटा कहा गया है ? उत्तर में प्रभु कहते है-पपमा का धनवातवलय एक कोश अधिक पांच योजन का मोटा लियबाटल्य की अपेक्षा कहा गया है 'धूम्मप्प. भाए अद्ध छटाई जोयणाई बाहल्लेणं पन्नत' धूमप्रभा पृथिवी का घनवात वलय ॥५॥ अर्द्धषष्ठ अर्थात् साढे पांच योजन का मोटा तिर्य ગૌતમ! શરામભાને ઘનવાતવલય તિર્યબાહલ્યથી અપેક્ષાથી એક કેસ કમ पाय योजना ४९ छे. 'एवं एएणाभिलावेण” मे प्रमाणे मा मापन પ્રકારથી એ પણ પ્રશ્ન કરે જોઈએ કે હે ભગવન વાલુકાપ્રભા પૃથ્વીનો છે ઘનવાતવલય છે, તે તિર્યબાહત્યની અપેક્ષા કેટલો વિશાળ કહેલ છે? આ अशा तरमा प्रल छ । गीतम! 'वालुयप्पभाए पंचजोयणाई बहलेण पम्नत्ते' पाप्रमाना बनात सय छ, त तिमाहत्यानी मपेक्षाथी पांय योगना हेर छ 'पंकप्पमाए सक्कोसाइपंचजोयणाईबाहल्लेण' पन्नते હે ભગવન પંકપ્રભા પૃથ્વીને ઘનવાતવલય તિર્યંબાહલ્યની અપેક્ષાએ કેટલે
जी० १०
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
७४
जीवामिगमने छटाई जोयणाई वाहल्लेणं पन्नत्ते' धृा प्रभायाः पृथिव्या घनदातबल्योऽर्द्धपाठानि-सार्धनि पञ्चयोजनानि वाहल्येन प्रज्ञप्तः । 'तमप्पभाए कोसूणाई छ जोयणाई वाहालेण पछत्त' एस्याः तमायभायाः पृथिव्या घनवातवलयः क्रोशोनालि पड्योजनानि वाइल्येन प्रज्ञप्ता । 'अहे सत्तमाए छ जोयणाई वाह
लेण एकत्ते' एतस्या एवसत्तस्याः पृथिव्याः घनदातवलयः षड्योजनपरिमितो वाइल्येन प्राप्त इति॥
सम्पति-रत्नप्रभादि पृथिवीनां तनुवातवल्यस्य नियंग वाइल्यपरिमाणप्रतिपादनार्थवाह-'इमीसे गं' इत्यादि, 'इमीले गं भंते' एतस्याः खल्ल भदन्त ! 'रयणप्पमाए पुढबीए' रत्नप्रभाया प्रथिव्याः ‘हणुवायक्लए' तनुवातवलय: 'केवइए बाहल्लेणं पन्नत्ते' कियान् तिर्यग् बाइल्येन प्रज्ञप्त:-कथित इति ग्याल्य की अपेक्षा कहा गया है। 'तमप्पभाए कोहणाई छजोयणाई पाइलेणं पचत्ते' तमामा पृथिवी का घनवात वलय तिर्यग्याहल्य की अपेक्षा एक कोश कम छह योजन का मोटा कहा गया है। 'भहे सत्तमए छजोयणाई पाहल्लेणं पण्णत्ते' अधः सप्तमी पृथिवी का घनवात वलय तिर्यग्वाहल्य की अपेक्षा छह योजना का मोटा कहा गया है
नव रमप्रभा आदि पृथिषियों के सतुवात के वाहल्य का प्रमाण कहते हैं-'इसीले णं भंते ! रक्षण पाए पुढचीए तणुवायवलए केवइए पाहल्लेणं पाते हे भदन्त ! रत्नप्रभा पृथिवी में जो तलुवातवलय है
વિશાળ કહ્યો છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે પંકપ્રભાને ઘનવાતવલય એક કેસ અધિક પાચ જનને તિબાહલ્યની अपेक्षाथी उस छे. 'धूमप्पभाए अद्ध छटाइं जोयणाई बाइल्लेण पन्नत्ते' ધૂમપ્રક્ષા પૃથ્વીને ઘનવાતવલય ૫ | અર્ધ ષષ્ઠ અર્થાત્ સાડા પાંચ એજનને विश तियाय-1 अपेक्षाथी हेपामां मारे . 'तमप्पभाए कोसूणाई क जोयणाइ वाइल्लेण पन्नत्ते' ता पृथ्वीना धनवातसय तिय मायनी अपेक्षाथी से श ४भ छ योननी वि डर छे. 'अहे सत्तमाए छ जोषणाई वाहल्लेण पन्नत्ते' मसती पृथ्वीन बनवातसय तिय मायनी અપેક્ષાથી છ એજનને વિશાળ કહ્યો છે.
હવે રત્નપ્રભા વિગેરે પૃથ્વીના તનુવાતના બાહલ્યનું પ્રમાણું કહે છે 'इमोसेण भाते ! रयणप्पभाए पुढवीए तणुवागवलए केवइए वाहल्लेण पन्नत्ते'
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेवयोतिका टीका प्र. ३ सू.८ सप्तपृ. घनोदध्यादीनां तिर्यग्वाह
प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गोंय ! 'छक्कोसे वाल्लेणं पन्नत्ते' पट्क्रोशान् बाहल्येन प्रज्ञप्त स्वनुवादलय इति । इति एवं एएवं अभिलावेणं' एवमेतेन अमिलापेन आलापक प्रकारेण 'सकरस्पभाष सतिभागे छक्को सेबाहल्लेणं पन्नत्ते' शर्कराममायाः पृथिव्या स्तनुवादवलयः सत्रिभागान कोशस्य तृतीयभागसहितान् षट्कोशान बाहल्येन प्रज्ञप्त इति । 'बालयप्यभार विभागणे सत्तको से बहल्लेणं पण्णत्ते' बालुकामयायाः पृथिव्या स्वावल त्रिभागीनान् क्रोशस्य तृतीयभागहीनान् सडक्रोशान् बाहल्येन प्रज्ञा | 'पंकष्पभाए पुढवीए सत कोसे वाल्लेणं पणत्ते' पङ्कमभायाः पृथिव्या स्वनुवासवलयः सप्तक्रोशान बाहल्येन प्रज्ञप्त इति । 'धूमभाए सतिभागे सरकोसे' धूमप्रभायाः पृथिव्या स्तनुत्राः सत्रिभागान् क्रोशान वाइल्येन प्राप्त इति । 'तप्पभाए पुढवी विभागणे अट्टको से बाहल्लेणं एनत्ते' मःमाया स्वातवलयः स्त्रिभागोनान् अष्टक्रोशान् बाहल्येन प्रज्ञप्त इति । 'अह सतमार पुढनीए वह तिर्यग बाल्य की अपेक्षा कितना मोटा कहा गया है ? उत्तर में प्रभु कहते है- 'गोला ! छक्को से बाहरलेणं पन्नते' हे गौतम! रत्नप्रभा पृथिवी में जो वातबलय है वह तिर्यग्वाहत्य की अपेक्षा छह कोश का मोटा कहा गया है। 'एवं एएणं अभिलावेणं' इसी अभिलाप प्रकार से शर्कराप्रभा का तनुवात बलध तिर्यग्वाहत्य की अपेक्षा कोश के तृतीय भाग सहित छह कोश का मोटा कहा गया है वालुका प्रभा में बात चल तिर्यगूबाहल्य की अपेक्षा कोश के तृतीय भाग कम सात कोश का मोटा कहा गया है 'पंरूपभाए पुढवीए सत्तको से बाहल्लेणं पत्ते' पङ्कश्वा पृथिवी का तलुवात वलय तिर्यग्बाहल्य की अपेक्षा लाम फोश का मोटा कहा गया है 'धूम्याप सातिभागे હે ભગવન્ રત્નપ્રભા પૃથ્વીમાં જે તનુજાતવલય છે, તે તિગ્મહત્યની અપેક્ષાથી કેટલી વિશાળતાવાળા કહ્યો છે ?
ग्मा अश्नना उत्तरमां प्रभु गौतमस्वामीने हे छे 'गोयमा ! छक्कोसे बाहल्लेण पन्नत्ते' हे गौतम! रत्नप्रभा पृथ्वीमां के ततुवातवसय छे, ते तिर्यग्मायनी अपेक्षाथी छ असनी विशाणताबाजी हेलो, 'एव' एएण' अभिलावेण' मे प्रभा मा अलिसारथी शर्माशाला पृथ्वीनो तनुवातवाय નિયુગ્માહત્યની અપેક્ષાથી કાસના ત્રીજા ભાગ સહિત છ કેાસની વિશાળતા વાળો કહ્યો છે. વાલુકાપ્રભામાં તનુવાતવલય તિય માહુલ્યની અપેક્ષાથી કાશના श्रील लागथी इस सात असनी विशालता वाणो उडेल हे. 'पंकल्पभाए पुढवीए सत्तकोसे बाइल्लेणं पन्नत्ते' अला पृथ्वीनो तंतुवातवसय तिर्यमाहुल्यनी अपेक्षाथी सात अशनी विशालता वाणी अडेस छे, 'धूमप्पभाए सतिभागे
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवाभिगम
७६
अकोसे बाहरलेणं पण्णत्ते' अधः सप्तम्याः पृथिव्या स्तनुवातवलयः परिपूर्णान्
- अष्टक्रोशान् बाहल्येन प्रज्ञप्त इति । उक्तश्च
'छच्चे व १ अद्ध पंचम २जोयण सट्ठे३ च होइ रयणाए । उदही १ घण२ वणुवाया३ जहासंखेण निदिट्ठा ॥ १ ॥ सतिभाग १ गाउयं २ च विभागो गाउयस्सर वोद्धव्वो । arya rai अहो अहो जाव सत्तमिया ॥२॥ 'पढेवार्द्ध पश्चमयोजनं सार्द्धं च भवति रत्नायाः । उदधि घन तनुवाता यथासंख्येन निर्दिष्टाः || १|| सत्रिभागगव्यूतञ्च त्रिभागो गव्यूतस्य बोद्धव्यः । आदि ध्रुवे प्रक्षेपsaisat यावत् सप्तम्याः ||२|| इतिच्छाया । अस्य गाथाद्वयस्यायं भावः- 'छच्चेव' इत्यादि । पट् १, अर्द्ध पश्चमानि २, सार्द्धयोजनं ३ चेति क्रमशो रत्नप्रभा पृथिव्यां घनोदधेः १, घनवातस्य२, तनुससकोसे' धूमप्रभा पृथिवी का तनुयातवलय तृतीय भाग सहित सात कोश का तिर्यग्वाहत्य की अपेक्षा मोटा कहा गया है।
'तमप्पभाए पुढसीए अट्ठको से बाहल्लेणं पन्नन्ते' तमतमा पृथिवी का तनुवात वलय कोश के तृतीय भाग फन आठ कोश का तिर्यग्बाल्य की अपेक्षा मोटा कहा गया है 'अहे समाए पुढवीए अट्ठ कोसे बाहरलेणं पन्नत्ते' सातवीं पृथिवी का तनुवात वलय तिर्यग्याल्प 'की अपेक्षा आठ कोश का मोटा कहा गया है। जैसे अन्यत्र कहा है'छच्चेव' इत्यादि गाथा ||२||
इन दो गाथाओं का आचार्य इस प्रकार है- 'छच्चेव' इत्यादि । रत्नप्रभा के घनोदधि पृथिवों के बाहल्प का प्रमाण 'छच्चेव' छह सत्तकोसे' धूभयला पृथ्वीने। तनुवातवसय श्रील लाग सहित सात असना विशाण तिर्यग्यायनी अपेक्षाथी उस है. 'तमनभाए पुढवीए अट्टका से बाहल्ले णं पन्नत्ते' तभप्रभा पृथ्वीनो तनुवातवाय प्रेस गार्डना त्रीन लागथी उभ माठ गाङनो तिर्यग्माहुल्यनी अपेक्षा अडेस छे. 'अहे सत्तमा पुढवीए अट्ठकोसे बाहल्लेण' पन्नत्ते' 'सातभी पृथ्वीनो तनुवातवाय तिर्यग्यायनी अपेक्षाथी આઠ કાષની વિશાળતા વાળો કહેલ છે. જેમકે ખીજે કહ્યુ છે કે 'छठचेव' इत्याहि गाथा २
या मे गाथाना अर्थ' मा प्रभाये 'छच्चेव' इत्यादि
रत्नप्रभा पृथ्वीना धनोऽधिना माझ्यतु' प्रभा] 'छच्चेव' ७ येोन्नतु'
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ सू.८ सप्तपृ. घनोदध्यादीनां तिर्यग्वाहल्यम् वातस्य३ च बाहल्यमाणं भवति, तथाहि-रत्नप्रभापृथिव्यां घनोदधेनोहल्यम् 'छच्चे' षड्योजनानि१, धनवातस्य 'अद्ध पंचम' अर्द्धपश्चमानि-साद्ध चतुर्योंजनानि बाहल्यम्२, तनुवातस्य बाहल्यम् 'जोयणसङ्घ' अईयोजनेन सहित मेकं योजनम्-षट्कोशा नित्यर्थः, एतदरस्लपमा पृथिवीगत घनोदधिधनबात-तनुवातबाहल्यानां तत्तत्प्रमाणमादिध्रुवं परिकल्याग्रेऽधोऽधः शर्कराप्रभादि सर्वपृथिवीना पूर्व पूर्व पृथिवीगत घनोदध्यादि बाइल्यममाणेऽत्रामस्थित गाथोक्तप्रमाणं क्रमशः प्रक्षिप्याग्रेऽग्रे स्थित पृथिवीगत घनोदध्यादि बाइल्यमाणं कर्त्तव्यम् ॥१॥ तदेव प्रक्षेप्य प्रमाणं द्वितीयनाथया प्रदर्शयति-'सति भाग' इत्यादि, रत्नप्रभा पृथिवीगत घनोदधि बादल्यममाणे 'लतिभाग लत्रिभागमिति योजनस्य तृतीयं योजन का है ? घनवात के बाहल्थ का प्रमाण 'अद्धपंचम' साढे चार योजन का है।२। और तनुपात का प्रमाण 'जोयणसड़े डेढ योजन अर्थात् छह कोश का है।३। इन घनोदधि-घनवात-तनुवात के बाहल्य का जो प्रमाण है उसको आदि ध्रुव-मुख्य-मानकर आगे आगे नीचे नीचे की शर्करा प्रभा आदि अधः सप्तमी पर्यन्त पृथिवीयों में पूर्व पूर्व पृथिवी गत घनोदधि आदि के बाहल्य प्रमाण में इस आगे कहे जाने वाली गाथा में कहे हुए प्रमाण को क्रम ले घनोदधि आदि के थाहल्य प्रमाण में मिला मिलाकर आगे आगे की पृथिवी स्थित घनोदधि आदि का बाहल्य प्रमाण कर लेना चाहिये ॥१॥ अघ दूसरीगाथा से वही मिलाने योग्य प्रमाण को दिखलाते हैं-'लतिभाग' इत्यादि। रत्न पभा पृथिवी के धनोदधि बाहल्य के प्रमाण में 'सतिभाग
यु छे. धनपातन माडल्यनु प्रभा 'अद्धपचम' सा यार यो ननु ' छे, २, भने तनुवात प्रभार 'जोयणसड्ढे' 316 याननु अर्थात छ पर्नु છે. આ ઘોદધિ ઘનવાત, તનુવાતના બાહ"નું જે પ્રમાણ છે તેને આદિ યુવમુખ્ય માનીને આગળ આગળ નીચે નીચેની શર્કરામભા પૃથ્વી વિગેરે અધઃ સપ્તમી પૃથ્વી પર્વતની પૃથ્વીમાં પહેલી પહેલી પૃથ્વીમાં રહેલ ઘોદધિ વિગેરેના બહત્યના પ્રમાણમાં આ આગળ કહેવામાં આવનારી ગાથામાં કહેવામાં આવેલ પ્રમાણુને કમથી ઘોદધિ વગેરેના બાહલ્ય પ્રમાણમાં મેળવીને પછી પછીની પૃથ્વીમાં રહેલ ઘને દધિ વિગેરેના બાહત્યનું પ્રમાણ કહેવું જોઈએ. ૧ છે
वे भी गाथामाथी से भqan anय प्रभा मताव छ. 'सतिभाग त्यादि २त्नप्रसा पूवान धना मायना प्रभारमा 'सतिमाग'
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
७
‘जीवाभिगम भागं प्रक्षिप्य प्रक्षिप्य क्रमशोऽग्रेऽग्रे शर्कराप्रसादि सर्वपृथिवीगतघनोदधि वाहल्यप्रमाणं ज्ञातव्यम् ॥१॥ एवम् 'गाउयं' इति गव्यूतम्-एक क्रोशं रत्न. प्रमा पृथिवीगत घनवातवाहल्ये पक्षिप्य प्रक्षिप्य क्रमशोऽग्रेऽग्ने शरामभादि सर्व पृथिवीगत धनवातबाइल्यममाणं ज्ञातव्यम् २ । एकमेव 'तिमागो गाउ. यस्त' इति विभागो गव्यूतस्य, इति गव्यूतस्य को शस्य त्रिभागः तृतीयो भागः प्रक्षेपणीय इति रत्नप्रपा पृथिवीगत तजुबात बादल्ये क्रोशस्य तृतीयं भाग प्रक्षिप्य प्रक्षिप्य क्रमशोऽऽऽग्रे शर्वराप्रमादि सर्व पृथिवीगत तनुवातवाहल्य प्रमाणं ३ ज्ञातव्यमिति गाथाद्वय भावार्थ इति ।
सम्प्रति -एतेषु धन दध्यादिवलयेषु वर्णाद्युपेत पारितत्वमतिपादनार्थ. माह-'इमीसे णं मते ! एतस्याः खलु भदन्त ! 'रयणप्पभाए पुढवीए' रत्नयोजन के तीन भाग करके उनमें का तीसरा भाग मिलावे, इस प्रकार योजन का तीसरा भाममिला मिलाकर क्रमशः आगे आगे की शर्करा प्रभादि लष पृथिविधों का घनोदधि प्रमाण जान लेना चाहिये ।। इसी प्रकार 'गाउस' इति गव्यून-एक कोश रत्नमाला पृथिवी के पाहल्य प्रमाण में मिलाकर क्रमशः आगे आगे की शर्करा प्रभादि सब पृथिवियों के घनवात के बाहल्य का प्रमाण जान लेना चाहिये ।२। इसी प्रकार 'तिभागो गाउघस्ल' रत्नप्रभा पृथिवी गत तनुवात के पाहल्य प्रमाण में कोश का तीसरा भाग मिला मिलाकर क्रम से आगे आगे की शर्करा प्रभादि सघ पृथिषियों का तनुवात बाहल्य प्रमाण जान लेना चाहिपे ।३। यह दोनों गाथाओं का भावार्थ हुआ।
अब सूत्रकार इन घनोदधि आदि वात वलय में कृष्णवर्णादि वाले જનના ત્રણ ભાગ કરીને તે પૈકીને બીજો ભાગ મેળવવો. આ રીતે એજનને ત્રીજો ભાગ મેળવીને કમશગળ આગળની શર્કરપ્રભા વિગેરે सघणी पृथ्वीयानु धनाधिनु प्रभार सम सेयु१, मेरी प्रमाणे 'गाउय" ઈતિ ગબૂત એક ગાઉ. રત્નપ્રભા પૃથ્વીના બાલ્ય પ્રમાણમાં મેળવીને ક્રમશ પછી પછીની શર્કરપ્રભા વિગેરે સઘળી પૃથ્વીના ઘનવાતના બાહલ્યનું प्रमाण सभ७ वनस, २, मेरी प्रमाणे 'तिभागो गाउयस्स' २त्नाला પૃથ્વીમાં રહેલ તનુવાતના બાહલ્ય પ્રમાણમાં ગાઉનો ત્રીજો ભાગ મેળવવાથી કસથી પછી પછીની શરામભા વિગેરે સઘળી પૃથિવિયેના તનુવાતના બાહલ્યનું પ્રમાણ સમજી લેવું (૩) આ રીતે આ બને ગાથાઓને ભાવાર્થ છે.
હવે સૂત્રકાર ઘનેદધિ વિગેરે વાતવલયમાં કૃષ્ણ વર્ણ વિગેરે વાળું દ્રવ્ય छ, १ से वात प्रगट ३ छे.
'इमीसे ण भंते' त्याह है मगवन् मा २नमा पृथ्वीना २ घनधि
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेय द्योतिका टीका प्र. ३६.८ स्तपृ. घनोदध्यादनां तिर्यग्वाहत्यम्
७९
$
प्रभायाः पृथिव्याः 'घनोदधिव्यरस' छ जोयण बालास' षड्योज्न बाल्यश्य 'खेतच्छेएण छिज्जमाणरस' क्षेत्रच्छेदेन छिद्यमानस्य 'अस्थि दव्वाई' सन्तिद्रव्याणि 'वण्णओ काल जाव' वर्णतः काल यादव वर्णतः कालनीललोहितद्दारिद्र शुक्लानि, गन्धतः सुरभिगन्धानि दुरभिगन्धानि रसतः वितकटुकषायाम्ल मधुराणि स्पर्शतः वर्कश पदुकगुरुकधुक शीतोष्ण स्निग्धरूक्षाणि, संस्थानतः परिमण्डल्वृत्तः यत्र चतुरस्त्रायातसंस्थानपरिणतानि अन्योन्यबद्धानि अन्योन्य स्पृष्टानि अन्योन्यावगाढानि अन्योन्यरनेप्रतिवद्धानि अन्योन्य घटवया द्रव्य है यह बात प्रकट करते हैं- 'हमीले णं भंते !' इत्यादि । हे भदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी का जो घनोदधि बलम है कि जिसकी 'छतोयण
tears' छ योजन की मोटाई है क्षेत्रच्छेद से विभाग करने पर तगत द्रव्य 'वण्णओ काल जाव' क्या वर्ण की अपेक्षा कृष्ण वर्ण वाले नील वर्ण वाले, लोहित - लाल वर्ण वाले, पीले वर्ण वाले और शुक्ल वर्ण वाले होते हैं ? गन्ध की अपेक्षा के सुरभि दुरभिगन्ध वाले होते हैं ? रस की अपेक्षा तिक्त, कडु, कषाय, अम्ल एवं मधुर रस वाले होते हैं ? स्पर्श की अपेक्षा वे कर्कश, मृदुक, गुरुरु, लघुक, शीत, उष्ण, स्निग्ध, और ख्क्ष स्पर्श वाले होते हैं क्या ? तथा संस्थान की अपेक्षा वे परिमंडल वृत्त पत्र चतुरस्र आयत संस्थान वाले होते हैं क्या? ये द्रव्य अन्योन्य षद्ध होते हैं क्या ? अन्योन्य स्पृष्ट होते हैं क्या ? अन्योन्य अवगाढ होते हैं ? स्नेह गुण से अन्योन्य बद्ध होते हैं क्या ? तथा वे अविभक्त होकर ये अन्योन्य घन - समुदाय रूप
वलय हे, } ? 'छजोयण बाहरलस्' छ योन्दननो विशाल छे. तेना क्षेत्र छेथी विभाग श्वामां आवे तो तेमां रडेस द्रव्य 'वण्णओ काल जाव' વની અપેક્ષથી કૃષ્ણવણુ વાળુ' પીળાવ વાળુ અને શુકલનામ સફેદ વણુ વાળુ હાય છે ? ગધની અપેક્ષાથી સુરભિ દુરભિ ગંધવાળુ હાય છે ? રસની અપેક્ષાથી તે તીખુ, કડવુ' તુરૂ, ખાટું, અને મીઠારસવાળુ હાય છે ? પની अपेक्षाथी ते हुश, भृड, गु३, मधु, शीत उष्णु, स्निग्ध अने ३क्ष स्पर्शवाणु હાય છે ? તથા સસ્થાનની અપેક્ષાથી તે પમિડલ ગેળ ઝાલરાકાર ચતુરસ, આયત સંસ્થાનવાળુ' હાય છે ? આ દ્રબ્યા અચૈન્ય અદ્ધ હૈાય છે ? અન્યેાન્ય સૃષ્ટ હાય છે ? અસૈન્ય અવગાઢ વાળું હાય છે ? સ્નેહગુગ્રંથી અન્યેાન્ય બદ્ધ હૈાય છે? તથા પરસ્પરમાં અવિભક્ત થઈને આ અન્યાન્ય ઘન સમુદાયાથી મળેલું રહે છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમસ્વામીને
ત્ર્યસ
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
८.
-
जीवामिगमस्ते तिष्ठन्ति किमिति प्रश्नः, भगवानाह-हे गौतम ! 'हंता यत्थि' हन्त सन्ति यथा स्वया पृष्टानि तथैव तादृशानि तानि द्रव्याणि तिष्ठन्ति, इलि । 'सक्करभाए ण भंते ! पुढवीए' शर्कराममायाः खलु भदन्त ! पृथिव्याः 'घणोदहिवलयरस सतिभाग छनोरणवाइलस्स घनोदधिवलयस्य सविभाग पड्योगनवाइल्यस्य 'खेतच्छेएण छिज्जमाणस जाब' क्षेत्रच्छेदेन छिद्यमानम्य सन्ति द्रव्याणि, वर्णतः कालादीनि, गन्धतः सुरभिदुरभिगन्धानि, रसत:-विक्तादीनि, स्पर्शतः कर्कशादीनि, संस्थानतः परिमण्डलसंस्थानपरिणतानि, अन्योन्यवद्धादिविशेषणयुक्तानि अन्योन्य समुदायरूपेण तिष्ठन्ति किम् ? भगानाह-हे गौतम ! 'हंता अस्थि' से मिले रहते हैं क्या ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'हंता, अस्थि' हा गौतम! तद्गत द्रव्य तूने जैसा पूछा है उसी प्रकार से इन पूर्ण क्त विशेषणों वाले होते हैं। 'लकरप्पमाए णं भंते ! पुढबीए घणोदधि वलयास सतिभाग छ जोयणधाहल्लास खेत्तच्छेएण छिन्नमाणस जाव' हे भदन्त ! शर्करा प्रभा पृथिवी का जो घनोदधि वात वलय है कि जिसकी योजन के तृतीय भाग सहित ६ योजन की मोटाई है उसके क्षेत्रच्छेद से विभाग करने पर तद्त द्रव्य वर्ण की अपेक्षा क्या कृष्ण आदि वर्ण से परिणत होते हैं क्या? गंध की अपेक्षा सुरभि दुरभि गंध से परिणत होते हैं क्या ? रस की अपेक्षा तिक्तादि रस रूप से परिणत होते हैं क्या ? स्पर्श की अपेक्षा फर्क शादि स्पर्श से परिणत होते हैं क्या? तथा संस्थान की अपेक्षा वे परिमंडल आदि संस्थान ४९ छ 'हता भत्यि' हा गौतम ! तभा २स द्र०य तमे २ शत प्रश्न કરેલ છે, એજ પ્રકારનું એટલે કે આ પૂર્વોક્ત વિશેષવાળું હોય છે.
'सक्करप्पभाए ण भते ! पुढवीए घणोदधिदलयस्स सतिभाग छ जोयणपाहल्लस्स खेत्तच्छेएण छिज्जमाणस्स जाव' सन् २मा पृथ्वीनार ઘદધિ વાત વલય છે, કે જેની વિશાળતા યોજનના ત્રીજા ભાગ સહિત ૬ છ જનની છે તેના ક્ષેત્રછેદથી વિભાગ કરવામાં આવે તેમાં રહેલ દ્રવ્ય વર્ણની અપેક્ષાથી શું કૃષ્ણ વિગેરે વર્ણવાળું હોય છે ? ગધની અપેક્ષાથી સુરભિ, સુરભિ ગંધથી પરિણત હોય છે? રસની અપેક્ષાથી તીખા, કડવા રસવાળું હોય છે? સ્પર્શની અપેક્ષાથી કર્કશ વિગેરે સ્પર્શથી પરિણત હોય છે? તથા સંસ્થાનની અપેક્ષાથી પરિમંડલ વિગેરે સંસ્થાનપણથી પરિણત થાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે હે ગૌતમ! 'हंसा अस्थि, ते पूरित विशेष पाहाय छ
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ स्तु.८ सप्तपृ. धनोध्यादीनां तिर्थग्वाहल्यम् हन्त सन्तित थाविधानि द्रव्याणि इति । एवं जाव अहे सत्तमाए जं जस्स बाहल्लं' एवं यावदधा सप्तस्याः ययक्ष्य बाहल्यम् हे भदन्त ! बालकामभायाः तृतीय पृथिव्याः घनोदधिदल यस्य विभागोनलनुयोजनबाहल्यस्य क्षेत्रच्छेदेन छिद्यमानस्य सनिक द्रव्याणि, वर्णतः कालादि पञ्चवर्ण द्विगन्ध पञ्चरसाष्टस्पर्शयुक्तानि पञ्चसंस्थानपरिपतानि अन्योन्य संद्धादि विशेषणयुक्तानि परस्परं समुदायरूपेण तिष्ठन्ति किम् ? इति प्रश्न:, भगवानाह-हे गौतम ! सन्ति तानि द्रव्याणि तथाविधानीति । पकाया पृथिव्याः खलु भदन्त ! घनोदधिवलयस्य सप्तरूप से परिपन्न होते हैं या ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभु कहते हैं'हे गौतम! बेहना अछि पूनोक्त विशेषणों वाले होते हैं। 'एवं जाव अहे समाए जंजाल बाहललं' इसी तरह से आगे भी ऐसा ही पूछना और प्रसु की ओर से दिया गया उत्तर ऐसा ही जालना-जैसेहे भदन्त ! बालामा पृथिवी का जो घनोदधि वात बलय है कि जिसकी मोटाई योजन के तृतीय भाग कम सात योजल की है उसके क्षेत्रच्छेद ले विनाश करने इन लगत द्रव्य क्या वर्ण की अपेक्षा कालादि रूप ले मन्च की अपेक्षा सुरथि दुलि गन्ध रूप से रस की अपेक्षा तिक्त आदि रस रूप को स्पर्श को अपेक्षा कर्कश आदि स्पर्श से तथा -संस्थान की अपेक्षा परिमंडल आदि संस्थान्य रूप से परिणत एवं अन्योन्य संबद्ध आदि विशेषणों वाले होकर परस्पर समुदाय रूप से रहते हैं क्या? इसके उत्तर में प्रभु कहते है-हां गौतम ! तद्गत द्रव्य पूर्वोक्त विशेषणों के रूप में परिणत होते हैं। हे भदन्त ! पङ्कप्रभा
_ 'एव जाव अहेसत्तमाए जं जस्स बाहल्ल' गे प्रमाणे पानि विषय સંબંધમાં પણ એવા જ પ્રશ્નો પૂછવા જોઈએ અને તેના ઉત્તરે પણ એજ પ્રમાણે સમજવા. જેમકે હે ભગવન વાલુકા પ્રભા પૃથ્વીને જે ઘને દધિવાત વલય છે, કે જેની વિશાળતા જનના ત્રીજા ભાગ કમ સાત જનની છે, તેના ક્ષેત્ર
છેદથી વિભાગ કરવામાં આવે તેમાં રહેલ દ્રવ્ય વર્ણની અપેક્ષાથી કાળા વિગેરે વર્ણ પણાથી, ગંધની અપેક્ષાથી સુરભિ, દુરભિ ગંધ પણાથી રસની અપેક્ષાથી તીખાડવા વિગેરસરૂપે, સ્પર્શની અપેક્ષાથી કર્કશ વિગેરે સ્પર્શથી તથા સંસ્થાનની અપેક્ષાથી પરિમંડલ વિગેરે સંસ્થાન પણાથી પરિણત થાય છે ? તથા અન્ય બદ્ધ વિગેરે વિશે વાળું થઈને પરસ્પર સમુદાય પણાથી રહે છે ?
આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમ સ્વામીને કહે છે હા ગીતમ! તેમાં રહેલ દ્રવ્ય, પૂર્વોક્ત વિશેષણથી પરિણત થાય છે. હે ભગવન પંકપ્રભા પૃથ્વીનું જે
जी० ११
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
जीवाभिगमन योजनवादल्यस्य क्षेत्र छेदेन छिद्यमानस्य सन्ति द्रव्याणि पूक्तिस्वरूपाणि विम् हे गौतम ! सन्ति । धृतमभायाः घनोदधिवलयस्य सत्रिभागसप्तयोजनवाहल्यस्य क्षेत्रच्छेदेन छिद्यमानस्य सन्ति द्रव्याणि पूर्ववत् किम् ? हन्त गौतम ! सन्ति ताशाति बानि । लम:प्रभायाः घनोदधिवलयस्य विभागोनाष्टयोजन वाहल्यरय क्षेत्ररछेदेन विद्यमानस्य सन्ति द्रव्याणि पूर्ववत् किम् ? सन्त गौतम ! पृथिवी का जो घोधि बलय है कि जिलकी मोटाई तिर्यग्वाहल्य की अपेक्षा पूरे साल योजल की है उलके क्षेत्रच्छेद से विभाग करने पर तगत द्रब्ध क्या पूछोक्त रूप वाले अर्थात् वर्ण की अपेक्षा कृष्णादि वर्ण रूप से अन्ध की अपेक्षा लुरभि दुरनिगाध रूप से, रस की अपेक्षा तिक्त आदि रह रूप से, स्पर्श की अपेक्षा कर्कश आदि स्पर्श रूप से, एवं संस्थान की अपेक्षा परिमंडल आदि संस्थान रूप से परिणत तथा अन्योन्य संबद्धादि विशेषणों से युक्त होते हैं क्या ? उत्तर में प्रभु कहते है-शं मौतम! के पूर्वोक्त विशेषणों वाले होते हैं। हे भदन्त ! धूमप्रभा पृथिवी का जो घनोदधि वातवलय है कि जिसकी मोटाई तिर्यग्बाहल्य की अपेक्षा योजन के तृतीय भाग सहित सात योजन की है उसके क्षेत्रच्छेद से विभाग करने पर तद्गत द्रव्य क्या पूर्वोक्त विशेषणों वाले होते हैं क्या ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-हां, गौतम! पे पूर्वोक्त विशेषणों वाले होते हैं। हे भदन्त ! तमममा पृथिवी का जो घनोदधि वान वलय है कि जिसकी मोटाई तिर्यग्वाहल्फ की अपेक्षा पोजन के तृतीय भाग फल आठ बोजन की है उसके क्षेत्रच्छेद से ઘનેદધિ વલય છે, કે જેની વિશાળતા તિબાહલ્યની અપેક્ષાથી પૂરા સાત ચેજનની છે. તેના ક્ષેત્રદથી વિભાગ કરવાથી તેમાં રહેલ દ્રવ્ય, પૂર્વોક્ત પ્રકારવાળું અર્થાત વર્ણની અપેક્ષાથી કાળા વિગેરે વર્ણરૂપે, ગંધની અપેક્ષાથી સુરલિ, સુરભિ ગંધપણાથી, રસની અપેક્ષાથી તીખા વિગેરે રસ પણુથી, સ્પર્શની અપેક્ષાથી કર્કશ વિગેરે સ્પર્શ પણુથી અને સંરથાનની અપેક્ષાથી પરિણત આદિ સંસ્થાન પણથી યુક્ત હોય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે હે ગૌતમ! એ પર્વોક્ત વિરોષણવાળું હોય છે. હે ભગવન ધૂમપ્રભા પૃથ્વીને જે ઘોદધિવાત વલય છે. કે જેની વિશાળતા તિર્યખાહિત્યની અપેક્ષાથી યોજનના ત્રીજા ભાગ સહિત સાત જનની છે, તેના ક્ષેત્રછેદથી વિભાગ કરવાથી તેમાં રહેલ દ્રવ્ય, શું પૂર્વોકત વિશેષણોવાળું હોય છે ? હે ભગવદ્ તમપ્રભા પૃથ્વીને જે ઘોદધિવાત વલય છે, કે જેની વિશાળતા તિર્યબાહુલ્યની
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमैयद्योतिका टीका प्र.३ लू.८ सप्तपृ. घनोध्या रीनां तिर्यग्वाहल्यम् ३ सन्ति । तमस्तमःप्रभायाः घनोदधिवलयस्याष्टयोजनाहरमस्य क्षेत्रच्छेदेन छिद्यमानस्य सन्ति द्रव्याणि पूर्ववत् किम् ? हन्त गौतम ! सन्ति तानि तादृशानीति । अथ धनवातस्य स्वरूपमाह-'इनीसेण भंते । एतस्याः खल रणभाए' रत्नप्रभायां पृथिव्याम्' घणवायलयस घनवासनलपल्य 'आर पंचमजोयण बाह
लस्स' अर्द्धपञ्चम योजन बहल्यस्य साईचतुयोजनबाहल्यस्य 'खेत्तच्छेएण छिज्ज माणस्स जाव क्षेत्रच्छेदेन छिद्यमानस्य सन्ति द्रव्याणि, सर्व वर्ण गन्धरसस्पर्शसंस्थान परिणतानि तथा अन्योन्य संबद्धादिविशेषणयुक्तानि परस्पर समुदायरूपेण तिष्ठन्ति विभाग करने पर लदत द्रव्य पूशक्त विशेषणों वाले होते हैं क्या ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-हाँ मौत! वे पूर्वोक्त विशेषणों वाले होते हैं। हे भदन्त ! तमस्तनाप्रभा पृथिवी में जो धनोदधिवलय है कि जिसकी मोटाई लियरबाहल्य रूप से परे आठ योजन की है उसके क्षेत्रच्छेद से विभाग करने पर सदाश्रिम द्रव्य क्या पूर्ववत् विशेषणों से युक्त होते हैं ? इसके उत्तर में प्रशुश्री कहते हैं-हां गौम! वे पूर्वोक्त विशेषणों वाले होते हैं अब घनबात का स्वरूप कहते हैं-'इमीले णं भंते ! रयणप्पभाए पुढबीए घणवायलयन हे अदन्त ! रत्नप्रभा पृथिवी में जो धनवात बलय है कि जिलकी मोटाई ४॥) योजन की है उसके क्षेत्रच्छे से विभाग करने पर सदन द्रवध क्या सब प्रकार के वर्ण गंध रस स्पर्श से युक्त परिमंडलादि संस्थानों से परिणत तथा अन्योन्य संघद्धादि विशेषणों से युक्त होकर परस्पर लनुदाय रूप से रहते हैं क्या? इसके
અપેક્ષાથી એજનના ત્રીજા ભાગથી કમ આઠ જનની છે, તેના ક્ષેત્રછેદથી વિભાગ કરવાથી તેમાં રહેલ દ્રવ્ય શુ પૂર્વોક્ત વિશેષણોવાળું હોય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે હા ગતમ! તે પૂર્વોક્ત વિશેષણોવાળું હોય છે. હું ભગવદ્ તમસ્તમપ્રભા પૃથ્વીમાં જે ઘોદધિ વલય છે, કે જેની વિશાળતા તિર્યંમ્બાહલ્ય પણાથી પૂર આઠ જનની છે, તેના ક્ષેત્રછેદથી વિભાગ કરવાથી તેમાં રહેલ દિવ્ય, પૂર્વોક્ત વિશેષણવાળું હોય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે છે કે હા ગૌતમ! તે પૂર્વોક્ત વિશેષણોવાળું હોય છે.
हवे धनातनु २५३५ सूत्राR 2012 ४२ छे. 'इमीलेण भवे ! रणणप्पभाए पुढवीए घणवायवलयस्व' सावन मा २१५मा पृथ्वीमा २ धनवातसय छ, જેની વિશાળતા જ સાડા ચાર જનની છે, તેના ક્ષેત્રછેદથી વિભાગ કરવામાં આવે તેમાં રહેવું દ્રવ્ય, બધા પ્રકારથી વર્ણ, ગંધ, રસ, સ્પર્શથી યુક્ત પરિમંડલ વિગેરે સંસ્થાનેથી પરિણત તથા અન્ય સંબદ્ધ વિગેરે વિશેષ
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवाभिगमधुत्रे
किम् ? इति प्रश्नः, भगवानाह - हे गौतम ! 'हंता अस्थि' हन्त सन्ति, ' एवं जाव अहे समाए जं जस्स वाइल्लं' एवं यथा रत्नम भाश्रित घनवातस्य अर्द्ध पञ्चमयोजन प्रमाणवाहल्यस्य क्षेत्रच्छेदेन छिद्यमानस्य वर्णाद्युपेत द्रव्यास्तित्वं प्रतिपादितम् एंवमेव शर्कराप्रभात आरभ्याधः सप्तमी पृथिवी पर्यन्ताश्रित घनवातवलयस्य यस्यां पृथिव्यां यद् यस्य घनवातस्य वाहत्यं भवदि तत्तद्विषये तदनुसारेण प्रश्न उत्तरं च बोध्यम् । तथाहि - द्वितीय शर्करामभा पृथिव्याः क्रोशोन पञ्चयोजन वाल्यस्य तृतीयाया वालुकाममा पृथिव्याः पञ्च योजनवाहल्यस्य, चतुर्थ्याः पंकप्रभा पृथिव्याः सक्रोश पञ्चायोजन बाहल्यस्य, पञ्चम्याः धूमप्रभा पृथिव्याः सार्द्ध पञ्चयोजन बाहल्यस्य षष्ट्यास्तमः प्रभा पृथिव्याः क्रोशोन पड्योजन वाल्यस्य सम्याः परिपूर्ण पड्योजन बाहल्यस्य क्षेत्रच्छेदेन छिद्यमानस्य
उत्तर में प्रभु कहते हैं - 'हंता अस्थि' हां गौतम ! वे पूर्वोक्त विशेषणों से युक्त होते हैं । 'एवं जाव अहे सत्तमाए जं जस्स बाहल्ल' इसी प्रकार शर्कराप्रभा से लेकर अधः सप्तमी पृथिवी पर्यन्त आश्रित जो घनवात वलय है कि जिसकी तिर्यग्वाहत्य की अपेक्षा जितनी मोटाई हो वह समझ लेना चाहिये जैसे शर्कराप्रभा पृथिवी में एक कोश कम पांच योजन की मोटाई है, बालुकाप्रभा में पांच योजन की मोटाई है, पङ्कप्रभा में एक कोश अधिक पांच योजन की मोटाई है, धूम प्रभा में ५ || साडे पांच योजन की मोटाई है, तमःभा में एक को कम छह योजन की है और तमस्तमः प्रभा में पूरे छह योजन की मोटाई है उसके क्षेत्रच्छेद से विभाग करने पर उस उसमें रहे हुए द्रव्य लव प्रकार के वर्ण गंध रस और स्पर्शो से युक्त, तथा परिमंडलादि संस्थानों से परि
ચુકત થઈને પરસ્પર સમુદાય પણાથી રહે છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ गौतमस्वाभीने हे छे है 'हता अस्थि' हा गौतम ! तेथेो मे यूवेति विशेषये। वाजा होय छे 'एवं जात्र अहे सत्तमाए ज जस्स वाइल्लं' भेट प्रभाबे शश પ્રભા પૃથ્વીથી લઇને અધઃસક્ષમી પૃથ્વી પન્ત તેના આશ્રિત જે ઘનવાત વલય છે, કે જેની તિય ગ્બાહુલ્યની અપેક્ષાથી જેટલી વિશાળતા હાય તેટલી સમજી લેવી. જેમકે શર્કશપ્રભા પૃથ્વીમાં એક ગાઉ ઓછા પાંચ ચેજિનની છે વાલુકાપ્રભા પૃથ્વીમાં પાંચ ચેાજનની વિશાળતા છે. પ'કપ્રભા પૃથ્વીમાં એક ગાઉ અધિક પાંચ ચૈાજનની છે. ધૂમપ્રભા પૃથ્વીમાં સાડા પાંચ યેાજનની છે. તમઃ પ્રભા પૃથ્વીમાં એક ગાઉ કમ છ ચેાજનની છે. અને તમસ્તમપ્રભામાં પૂરા ૭ ૬ ચેાજનની વિશાળતા છે. તેના ક્ષેત્રચ્છેદથી વિભાગ કરવાથી તેમાં તેમાં રહેલા દ્રગૈા બધા પ્રકારના વણુ. ગંધ, રસ, અને સ્પર્ઘાથી ચુત, તથા
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेययोतिका टीका प्र. ३ छू.८ सप्तपृ. घनोदध्यादीनां तिर्यग्बाहल्यम्
कालचर्णा पेल द्रव्यास्तित्व ज्ञातव्यम्, अयमेव भाव: ' एवं जाव अहे सत्तमाए जं जस्स वाइल्लं' इति प्रकरणस्येति । एवं तणुवायवलयस्स विजाब अहे सत्चमाए जं जस्स वाइल्लं' एवं तनुत्रातवलयस्यापि यावदधः सप्तम्याः यद् यस्य वाहल्यम्, अयं भावः- यथा रत्नप्रभाव आरभ्य सप्तमपृथिवी पर्यन्त घणोदधि घनवातवळयस्य तत्तद्वाहल्ययुक्तस्य क्षेत्रच्छेदेन छिद्यमानस्य वर्णाद्युपेतद्रव्यास्तिस्वम् अन्योन्य संबद्धादित्वं च निरूपितम् एवमेव रत्नप्रभात आरभ्य यावदधः सप्तमी पृथिवी पर्यन्त पृथिवीगत वनुषातवलयस्यापि तत्तद्वाहल्योपेतस्य क्षेत्रच्छेदेन छिवमानस्य वर्णाद्युपेत द्रव्यास्तित्वादि प्रतिपादनीयम् तथाहि वाल्पपमाणम् - रत्नप्रमाया स्तनुत्रात लक्ष्य षट्क्रोशं वाइल्यम् १, शर्कराप्रभायाः सत्रिभाग षट्क्रोशं क्रोशस्य तृतीयभाग सहिए षट्क्रोशं बाहल्यम् २, णत, एवं अन्योन्य संबद्धादि विशेषणों से युक्त परस्पर समुदाय रूप से रहते हैं, ऐसा जानना चाहिये। ' एवं तपुचायवलयस्स वि जाव अहेषत्तमाए जं जस्ल बाहल्ले' जिस प्रकार से रत्न प्रभा से लेकर सातवीं तमस्तमः प्रभा पृथिवी तक में आश्रित घनोदधि और धनवात जो अपने अपने बाल्य से युक्त है उनके क्षेत्रच्छेद से विभाग करने पर उन उन में रहे हुए द्रव्य का वर्णादि युक्त होना कहा गया है उसी प्रकार रत्नप्रभा पृथिवी से लेकर सानवीं तमस्तमःप्रभा पृथिवी पर्यन्त अपने अपने बोहल्य से युक्त उनके क्षेत्रच्छेद से विभक्त तनुवात वलय में रहे हुए द्रव्यों का भी वर्णादि वाला होना जान लेना चाहिये । जैसे तनुवात की मोटाई प्रथम पृथिवी में छह कोश की कही गई है द्वितीय शर्करा पृथिवी में एक कोश के तृतीय भाग सहित छह પરિમડલ વિગેર સસ્થાનાથી પશ્ચિત અને અન્યાન્ય સબદ્ધાદિ વિશેષણાથી યુકત પરપરમાં સમુદાય પણાથી રહે છે. તેમ સમજવું,
9
' एवं ' तणुवायवलयस्स वि जाव अहे खत्तमाए जौं जस्स बाहाल्ल" ने પ્રમાણે રત્નપ્રભા પૃથ્વીથી લઇને સાતમી તમસ્તમપ્રભા પૃથ્વી સુધીમાં તે તે પૃથ્વીના આશ્રિત ઘનેાધિ અને ઘનવાત કે જે પાત પેાતાના બાહુલ્યથી યુકત છે. તેના ક્ષેત્રભેદથી વિભાગ કરવાથી તેમાં રહેલા દ્રબ્યાને વર્ણાદિથી યુક્ત હાવાનું કહેલ છે. એજ પ્રમાણે રત્નપ્રભા પૃથ્વીથી લઈને સાતમી તમસ્તમા પ્રભા પૃથ્વી પન્ત પાતપાત'ના માહુલ્યથી યુક્ત તેના ક્ષેત્રચ્છેદથી વિભાગ કરેલા તનુવાત વલયમાં રહેલા દ્રવ્યેનુ પણ વર્ણદિવાળા હેાવાનુ સમજવું જેમ તનુવાતની વિશાળતા પહેલી પૃથ્વીમાં છ ગાઉની કહી છે, બીજી શર્કરાપ્રભા પૃથ્વીમાં એક ગાઉના ત્રીજા ભાગ સહિત છ ગાઉની કહેલ છે
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवाभिगम
૯૬
वा काममाया स्त्रिभागोन सक्रोशं वाइल्यम् ३, पङ्कप्रमायाः परिपूर्णसप्तक्रोशंवाल्यम् ४, धूमप्रभायाः सत्रिभागसप्तकोशं बाद्दल्यम् ५, तमः प्रभाया विभा गोनाष्टक्रोशं वाइल्पम् ६, अधः सप्तम्याः पृथिव्यास्तनुचातवलयस्य परिपूर्णाष्टक्रोश वाहल्यम् ७, एवं यद् यस्याः पृथिव्यास्तनुवातरलयस्य बाहल्यं तस्य क्षेत्रच्छेदेन छिद्यमानस्य द्रव्येषु सर्व वर्ण गन्धरसस्पर्शसंस्थानास्तित्व मन्योन्यसंवद्धादित्वं च बोध्यम् इति ।
सम्मति - घनोदध्यादीनां संस्थानप्रतिपादनार्थमाह-' इमी से णं' इत्यादि, 'हमी से णं भंते' एतस्याः खलु मदन्त ! ' रयणप्पसार पुढवीए' रत्नप्रभायाः
कोश की कही गई है बालुका प्रभा में कोश के तृतीय भाग कम सात फोश की कही गई है, पंक या में सात कोश की कही गई है, धूम प्रभा में कोश के तृतीय भाग सहित सात कोश की कही गई है, तमः प्रभा पृथिवी में कोश के तृतीय भाग कम आठ कोश की कही गई है और अधः सप्तमी में पूरे आठ कोश की कही गई है उन उनको क्षेत्रच्छेद से विभाग करने पर लगत द्रव्य वर्ण की अपेक्षा कृष्णादि पांच वर्णों से युक्त गंध की अपेक्षा सुरभि दुरभि गन्ध युक्त रस की अपेक्षा तिक्त आदि पांचों रसों से युक्त स्पर्श की अपेक्षा कर्कश आदि आठों स्पर्शो से युक्त और संस्थान की अपेक्षा परिमंडल आदि संस्थान रूप से परिणत हैं, तथा अन्योन्य संबद्धादि विशेषणों से युक्त होकर परस्पर समुदाय रूप से रहते हैं, ऐसा जानना चाहिये ।
વાલુકાપ્રભા પૃથ્વીમાં ગાઉના ત્રીજા ભાગથી કમ સાત ગાઉની કહી છે. પ પ્રભા પૃથ્વીમાં સાત ગાઉની કહી છે ધૂમપ્રભા પૃથ્વીમાં ગાઉના ત્રીજા ભાગ સહિત સાત ગાઉની કહી છે. તમઃપ્રભા પૃથ્વીમાં કેાશના ત્રીજા ભાગથી કમ સ્માર્ટ ગાઉની કહી છે. અને અધઃસપ્તમી પૃથ્વીમાં પૂરા માટે, ગાઉની કહી છે. તેના તેના ક્ષેત્રઅેદથી વિભાગ કરવાથી તેમાં રહેલ દ્રશ્ય વર્ણની અપેક્ષાથી કાળા વગેરે પાંચ વણુથી યુકત, ગધની અપેક્ષા સુરભિ દુરભિ ગ ́ધથી યુક્ત, રની અપેક્ષાથી તીખા વિગેરે રસેાથી યુકત, સ્પની અપેક્ષા ક શ વિગેરે આઠ સ્પશથી યુકત અને સંસ્થાનની અપેક્ષાથી પરિમલ વિગેરે વિશેષણેાથી પરિણત થાય છે. તથા પરસ્પરમાં સમૃદ્ધ વિગેરે વિશેષશેાથી યુકત થઈને પરસ્પર સમુદાયપણાથી રહે છે. તેમ સમજવુ',
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
e
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ सू.८ सप्तपृ. धनोध्याीनां तियंग्वाहल्यम् ८७ पृथिव्याः 'घणोदहिवलए कि संठिए पन्नत्त' घनोदधिवलयः किं संस्थिता कीदृश संस्थानदान प्रज्ञप्तु:-कथित इति प्रश्नः, भगवानाह-गोयया' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'वहे' वृत्तः 'दलयामारसंठाणसंठिए पचते' वलयाकारसंस्थानसंस्थितः यज्ञप्तः, वृत्तः-चक्राकारचतुलो यस्य-मध्यभुपिरस्य वृत्तविशेषस्याकार आकृति वलयाकारः स इस संस्थानमिति वलयाकारसंस्थानं तेन संस्थानेन संस्थितः, इति इलयाकारसंस्थान संस्थित इति । कथं पुनरिदं ज्ञायते यदयं घनोदधि वलयो बलयाकारसंस्थानसंस्थित इति तत्राह-'जेणं' इत्यादि, 'जे ण इमं रयणप्पमं पुढब' येन खल्ल कारणेन इमा रत्नममा पृथिवीम् 'सचओ समंता' सर्वतः समन्तात् सर्वासु विक्षु विदिक्षु च 'संपरिविवत्तान' संपरिक्षिप्य
अव सूत्रमार घनोदधि आदिकों के संस्थान को दतिपादन करते हैं-इसमें गौतम ने प्रभु से ऐसा पूछा है-'इनीले णं भंते ! रमणप्पभाए पुढवीए घणोदहिवलए कि संठिए एनत्ते' हे सदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी का जो घनोदधि बलय है उसका संस्थान कैसा कहा गया है ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयला! बट्टे वलयागार संठाणसंठिए पन्नत्त' हे गौतम ! रत्नप्रभा पृथिवी के घलोदधि बलय का संस्थान वलय के आजार जैसा गोल मध्य भाग खाली ऐसा कहा गया है हे सदन्त ! यह कैले ज्ञात होता है कि धनोदधि यलय का आकार वलय जैसा गोल मध्य भाभा में खाली ऐला आकार जैसा है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'जे णं इम स्थणप्प पुढर्षि समभो समंता' हे गौतम्ब ! जिस कारण ले इल रत्नप्रभा पृथिवी को यह घनोदधि वलय चारों दिशाओं में एवं विदिशाओं में संपरिखित्ता'
હવે સૂત્રકાર ઘને દધિ વિગેરેના સંસ્થાનું પ્રતિપાદન કરે છે. તેમાં गौतमस्वामी प्रभुने मे पूछ्यु छ , 'इमीले णं भते ! रयणप्पभाए पुढवीए घणोदहीवलए कि सठिए पन्नत्ते' हे भवन् ! मा २रनमा पृथ्वीना જે ઘોદધિવલય છે, તેનું સંસ્થાન કેવું કહ્યું છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ गौतमस्वामीन छ है 'गोयमा ! बढे वलयागारसठिए पन्नत्ते' गौतम ! રત્ન પ્રભા પૃથ્વીના ઘને દધિવલયનું સંસ્થાન વલય મલયાના આકાર જે ગોળ પણ અધ્યભાગમાં ખાલી એ કહેલ છે. હે ભગવદ્ ઘને દધિને આકાર બેલેયા જે ગોળ અને મધ્ય ભાગમાં ખાલી એ છે, તે કેવી રીતે જાણી शय छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभु गौतमस्वामीन. ४३ छे , 'जे ण इम' यणप्पभ पुठवि सवओं समता' है गौतम ! २५॥ २९नप्रमा पृथ्वीन मा
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवाभिगमन
% 3D
सामस्त्येन वेष्टयित्वा खल्ल 'चिट्ठई' तिष्ठति-वर्तते तेन कारणेन वलयाकारसंस्थानसंस्थितो घनोदश्विलय इति ज्ञायते । “एवं जाव अहे सत्तमाए पुढपीए घनोदधिलए' एवं यावदधः सप्तम्याः पृथिव्याः घनोदधिरलया, यथा रत्नप्रमा पृथिव्याः घनोदधिवलयो वलयाकारसंस्थालसंस्थितः तथैव शर्करामभा वालका प्रभा पङ्कप्रभा धूमप्रभा तमःममा तमस्तसम्ममा पृथिवीचामपि घनोदधिक्लयोदलयाकारसंस्थानसंस्थित एव ज्ञातव्या, 'नदरं अरणप्पणं पुढविं संपरिक्खिताणं चिः' नवरमिति विशेषत्वयम्-यद् घनोदधिवलयः आत्मीयात्मीयां शर्कराममातोऽधः सप्तमी पर्यन्तं स्वस्त्र सम्बन्धिनीं पृथिवी संपरिक्षिप्य 'खलु अच्छी तरह से परिवेष्टित कर के ठहरा हुआ है, इस कारण यह ज्ञात होता है कि यह घनोदधि वलय वलय के आकार हा गोल है 'एवं जाव अहे सतमाए पुढवाए घनोदहिवलए' रत्नप्रभा पृथिवी का घनोदधि वलय जिस प्रकार ले दलयाकार के संस्थान से संस्थित कहा गया है उसी तरह ले शर्करा प्रभा पृथिवी का पङ्कप्रभा पृथिवी का, धूम प्रभा पृथिवी का, तमः प्रभा पृथिवी ला, और तमस्तमः प्रभा सातवीं पृथिवी का घनोदधि बलम भी वलयाकार के संस्थान से संस्थित कहा गया है ऐसा जानना चाहिये 'नवरं अप्पणप्पणं पुढविं संपरिक्खित्ताण चिट्ठा परन्तु इस कथन में ऐसी विशेषता जाननी चाहिये कि घनोदधि अपनी अपनी पृथिवी को घेरे हुए है जिस प्रकार से रत्नप्रभा पृथिवी का वनोदधिषलय रत्न प्रजा पृथिवी के चारों ओर से हुए हैं उनी प्रकार से शर्करा पृथियी का घनोदधि वलय धनाविलय यारे हिशासामा भने विहशमां सपरक्खित्ता' सारी शत વીટળાઈને રહેલ છે, તે કારણથી એમ જણાય છે કે આ ઘને દધિ વલય मायाना २२ २३ गण थे, ‘एवं जाव अहे सत्तमाए पुंढवीए घणोदही वलए' २नमा पृथ्वीना धनाधि पसय म मायाना આકાર જેવા સંસ્થાનથી રહેલ કો છે, એ જ પ્રમાણે શકરા પ્રભા પૃથ્વીને, ધૂમપ્રભા પૃથ્વીને, તમપ્રભા પૃથ્વીને, અને તમસ્તમપ્રભા પૃથ્વીના ઘનેદવિલય પણ બયાના આકર જેવા સંસ્થાનથી યુક્ત કહેલ છે. તેમ समा. 'नवर अप्पणप्पण पुढवि सपरिक्खित्ताण चिइ' ५२'तु ॥ ४थनमा એવું વિશેષ પણે સમજવું જોઈએ કે તે બધા ધનેદધિ પિતાપિતાની પૃથ્વીને ઘેરીને રહેલા છે જેમ રત્નપ્રભા પૃથ્વીને ઘનેદધિ વલય રત્નપ્રભા પૃથ્વીને ચારે તરફથી ઘેરીને રહેલ છે, એજ પ્રમાણે શકરપ્રભા પૃથ્વીને ઘોદધિ
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र. ३ ०८ सप्तपृ. घनोदध्यादीनां तिर्यग्बाहल्यम्
८९
तिष्ठति । चथा- वलयाकार संस्थानप्रतिपादनसमये शर्कराममायाः पृथिव्या घनोदधिबलयः शर्करा पृथिवीं सर्वयः समन्तात् संपरिक्षिप्य तिष्ठतीति वक्तव्यं तथा बालुकाप्रभाषा घनोदधिवलयो वालुकामां पृथिवी संपरिक्षिप्य तिष्ठतीत्यादि रूपेग यावत् तस्य मभा पृथिवीगत घनोदधिवलयः सप्तमीं तमस्तम:प्रभां पृथिवीं संपरिक्षिप्य तिष्ठतीति वक्तव्यमिति । 'इमी से णं भंते' एतस्याः खल भदन्त ! ' रयणप्पमाए एढनीए' रत्नप्रभायाः पृथिव्याः 'घगवायचलए' Trademat घनोद धेरधस्ताद्विद्यमानः 'किं संठिए पन्नत्ते' कि संस्थितः कीदृश संस्थानसंस्थितः प्रज्ञप्तः - कथित इति प्रश्नः भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोमा' हे गौतम! ' वळयागारे' वृत्तो वलयाकारः संस्थानसंस्थितः मज्ञप्तः कथ ज्ञायते यदयं वाढवलयो वलयाकार संस्थानसंस्थित इति, तत्राह - 'तहेब' शर्करामा पृथिवी को चारों ओर घेरे हुए हैं, वालुकाप्रभा पृथिवी का घनोदधि वलय बालुकाप्रभा पृथिवी को चारों ओर से घेरे हुए हैं, इत्यादि रूप से अपनी अपनी पृथिवी को घेरे हुए सामवीं पृथिवी तक के घनोदधि तक जानना चाहिये
'हमीले णं भंते!' हे भदन्त ! इस 'स्यणप्पभाए पुढवीए घनवाय वलए किं संठिए पन्नत्ते' रत्नप्रभा पृथिवी का जो घनवात वलय है उसका संस्थान - आकार कैला है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं - 'गोयमा !' हे गौतम! वह 'बट्टे वलयागार संगणसंठिए' वलय के मध्य के आकार ( भीतर के ) जैसा गोल आकार वाला कहा गया है। हे भदन्त ! यह कैसे ज्ञात होता है कि रत्नसा पृथिवी का घनवातवलय वलय के मध्य के आकार जैसा गोल आकार वाला कहा गया है ? तो इसके उत्तर વલય શકરાપ્રભા પૃથ્વીને ચારે તરફથી ઘેરીને રહેલા છે. વાલુકાપ્રભા પૃથ્વીના ઘનેધિવલય તાલુકાપ્રભા પૃથ્વીને ચારે તરફથી ઘેરીને રહેલ છે. ઈત્યાદિ પ્રકારનું કથન પાતપેાતાની પૃથ્વીને ઘેરીને સાતમી પૃથ્વી સુધીના ઘનેાધિ પન્ત સમજવું
'इमीसे ण' भते ! हे भगवन् भा 'रयणप्पभार पुढवीए घणवायवलए कि' संठिए पन्नत्ते' रत्नप्रला पृथ्वीनो ने धनवातवसय छे तेनुं संस्थान अर्थात् आहार व छे ? या प्रश्नमा उत्तरमा प्रभु ! 'गोयम! !' गौतम । वट्टे वलयागारस' ठाणस ठिए' मलोयाना मध्यभागनी वथमाना भार જેવા ગાળ આકારવાળા કહેલ છે. હે ભગવન્ એ કેવીરીતે જાણી શકાય કે રત્નપ્રભા પૃથ્વીના ઘનવાતવલય ખલેાયાના મધ્ય ભાગના આકાર જેવા ગાળ भारना डेत छे । म प्रश्नना उत्तरमा अलु हे हे हे 'तद्देव' हे गीतर्भ ।
जी० १२
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमले इत्यादि, 'तहेब जाव जे णं इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए घणोदहिवलए' तथैव यावद् येन एतस्याः खलु रत्नप्रभायाः पृथिव्याः सम्बन्धि घनोदधिवलयम् 'सव्वओ समता' सर्वतः समन्तात् सर्वासु दिक्षु विविक्षु च 'संपरिक्खिचाणं चिटई' संपरिक्षिप्य खल्ल सासस्स्येन वेष्टयित्म खलु तिष्ठति तरमाज्ञायते यदयं धनवातो वलयाकर संस्थान संस्थित इति । एवं जार अहे सत्तमाए धणवायवलए' एवं रत्नपक्ष घनदातरुदेव शर्कराणमा वालुकाममा धूमप्रभा तमाममा तमस्तमा ममा सम्बन्धिनो घनवादवलया अपि तत्तद् घणोदधि सामस्त्येन परिवेष्टय स्थिता अतो वलयाकारसंस्थिता एवेति भावः । 'मी से णं भंते' एतस्याः खलु भदन्त । 'स्यणप्पभाए पुढवीए' रत्नमभायाः पृथिव्याः 'तणुवायवलए कि संठिए पन्न' तनुवातवलयः कीदृश संस्थानेन संस्थितः यज्ञप्त इति प्रश्ना, भगवानाइ-'गोयमा में प्रभु कहते हैं 'तहेव०' हे गौतम। यह घनवात बलय रत्न प्रभा सम्बन्धी घनोदधिधलय को चारों ओर से वेष्टित करके रखा हुआ है भतः ज्ञात होता है कि यह क्लय के मध्य के आकार जैसा गोल आकार वाला है 'एवंजाब अहे ससमाए घणवायवलए' इसी तरह आकार कथन शर्करा प्रभा के पालुका प्रभा के, पङ्क प्रभा के, तमः प्रभा के और तमस्तमाप्रभा के घनात वलयों का भी कर लेना चाहिये ये सब घनसात वलय अपनी २ पृथिवी के घनोदधि बलय को चारों भोर से परिवेष्टित धार के रखे हुए हैं। अतः ज्ञात होता है कि ये सब घनवातवलय वलयाकार संस्थान हे संस्थित है।
इमीले णं भंते ! रयणप्पनाए पुढबीए तणुवायवलए कि संठिए पत्ते' हे भदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी का जो तलुवात वलय है वह कैसे
આ ઘનવાતવલય રનપ્રભા પૃથ્વી સંબંધી ઘનેદધિવલયને ચારે તરફથી વીંટળાઈને રહેલ છે. તેથી એમ જાણી શકાય છે કે આ બલોયાના મધ્યભાગ ना मा२ वो 10 मारना छे. 'एवं जाव आहे पत्तमाए, घणवायवठए' એજ પ્રમાણેના આકાર સંબંધીનું કથન શર્કરામભાના, વાલુકાપ્રભાના, પંકપ્રભાના, ધૂમપ્રભાના, તમઃ પ્રભાના, અને તમસ્તમપ્રભા પૃથ્વીના ઘનવાતવલા સંબંધમાં પણ સમજી લેવું. આ સઘળા ઘનવાતવલ પિતાપિતાની પૃથ્વીના ઘનાદધિ વલયને ચારેતરફથી વીંટળાઈને રહેલા છે. તેથી એમ જણાય છે કે આ બધા જ ઘનવાતવલય બલોયાના આકાર જેવા સંસ્થાનથી રહેલા છે.
'इमीसे ण' भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तणुवायवलए कि सठिए पन्नत्त' હે ભગવનું આ રત્નપ્રભા પૃથ્વીને જે તનુવાતવલય છે, તે કેવા આકારવાળે
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योर्तिका टीका प्र.३ सू.८ सप्तपृ. धनोप्यादीनां तिर्यग्वाहल्यम् इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'वटूटे जलयागारसंठाणसंठिए' वृत्तो वलयाकारसंस्थानसंस्थितः प्रज्ञप्तः । कथं ज्ञायते तत्राह-'जेणं इमीसे रयणाभाए पुढवीए' येन करणेन एतस्या रत्नमायाः पृथिव्याः 'घणवायवलयं सवमो समंता' घनवातवलयं सर्वतः समन्तात् सर्वासु दिक्षु चिदिक्षु च 'संपरिक्खिताणं चिटई' संपरिक्षिप्य सामस्त्येन वेष्टयित्वा तिष्ठति तस्मादसं तनुबाबवलयो वळयाकारसंस्थित इति । एवं जाव अहे सत्तमा वणुवायक्लए' एवं रत्नपमा तलुवातवलयवदेव शर्करापमा वालुकापमा पङ्कप्रभा धूमममा तमाममा तमस्तमम्ममा सम्बन्धिनोऽपि तनुवातवलया वलयकारसंस्थानसंस्थिता नीयानि स्वीयानि धनवातदलयानि सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्य तिष्ठन्तीति ज्ञातव्यम् इति ॥ आकार वाला कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! वढे वलयाकारलंठाणसंठिए पनसे' हे गौतम ! रत्नप्रभा पृथिवी का जो तनुवातबलय है वह बलय के मध्य का-भीतर का जैसा आकार गोल होता है-वैसे ही गोल आकार वाला कहा गया है 'जे णं' क्यों कि वह 'हसीसे रयणपभापुढवीए घणवायथलयं सन्धओ समंता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठ' रत्नप्रभा पृथिवी के घनवातवलय को चारों ओर से परिवेष्टित करके रहा हुआ है इस स्थिति में इसका पूर्वोक्त थलया. कार जैसा ही आकार हो जाता है एवं जाच अहे समाए तणुवातवलए' इसी तरह के आकार घाले शर्कराप्रभा के, बालुकाप्रभा के, पङ्कपभा के, धूमप्रभा के, तनःप्रभा के और तमस्तमःप्रभा के जी तनुवा. तवलय हैं वे भी वलयाकार संस्थान से संस्थित हैं ऐसा जानना चाहिये। छ १ २ प्रश्न उत्तरमा प्रभु गीतमस्वामीन ४ छ । 'गोयमा ! वट्टे वलयाकारसठाणसठिए पन्नत्ते गौतम ! २त्नप्रा लीना २ तनुपातसय છે, તે બયાના મધ્યભાગના આકાર જે ગોળ છે. એટલે કે અંદરના पोसार मानव . 'जे ण' म त 'इमीसे रयणप्पभा पुढवीए घणवायवलए सव्वओ समता स परिकिखत्ता ण चिदुई' मा २त्नमला પૃથ્વીના ઘનવાતવલયને ચારે તરફથી વીંટળાઈને રહેલ છે. આ સ્થિતિમાં तनो पूर्वहित सोयाना मा४२ ४ar मा२ थर्ड तय छे. 'एव जाव अहे सत्तमाए तणवातवलए' मे०४ प्रमाणुना मवाणी शराला रवाना વાલાપ્રભ પૃથ્વીને પંકપ્રભા પૃથ્વીને ધૂમધા પૃથ્વીને, તમપ્રભા પૃથ્વીને અને તમતમાં પૃથ્વીને જે તનુવાતવલય છે, તે પણ બલોયાના આકાર જેવા સંથાનથી યુકત છે તેમ સમજવું,
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमसूत्रे
अथ रत्नमभादि पृथिवीनामायामविष्कम्भपरिमाणमाह- 'इमा णं भंते ' इत्यादि, 'इमा णं भंते । रयणप्पभा पुढवी' इयं खलु भदन्त ! रत्नप्रभा पृथिवी 'केवइया आयाम विक्खभेणं पण्णता' कियता आयामविष्कम्भेण आयामदेर्ध्य विष्कम्भः विस्तारः, ताभ्यामायामविष्कम्माभ्यां महप्ता- कथितेति प्रश्नः, मगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, गोयमा' हे गौतम! 'असंखेज्जाई जोयणसहस्साई आयामविवखंभेणं' असंख्येयानि योजनसहस्राणि आयामेन देर्येण तथा विष्कभेण विस्तारेण असंख्यानि योजनसहस्राणि रत्नममा मज्ञप्ता । 'असंखेज्जाई जोयसहस्साइं परिक्खेवेणं' असंख्यानि योजनसहस्राणि परिक्षेपेण परिधिना 'पन्नत्ता' प्रज्ञता - कथिता इति । ' एवं जाव हे सत्तमा' एवं यावदधः सप्तमा, शर्कराप्रभाव आरभ्य तमस्तमःपमा पर्यन्ताः पृथिव्याः असंख्येयानि योजन सह
'इमा णं भंते! रयणप्पभा पुढवी केवहया विक्खंभेणं पन्नत्ता' है भदन्त ! यह रत्नप्रभा पृथिवी आयाम-लम्बाई विष्कम्भ-चौड़ाई में कितनी कही गई हैं ? अर्थात्- कितनी लम्बाई चौड़ाई वाली कही गई है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं - 'गोयमा ! असंक्खेज्वाई जोयण सहस्साई आयामथिक्खंभेणं' हे गौतम! यह रत्नप्रभा पृथिवी असंख्यात हजार घोजनों की लम्बी चौड़ी कही गई है। लम्बाई में भी असंख्णत हजार योजन की कही गई है और चौड़ाई में भी असंख्यात हजार योजन की कही गई है । तथा 'असंक्खेज्जाई' जोपणसहस्सा परिक्खेवेणं पन्नत्ता' इसकी परिधि भी असंख्यात हजार योजन की कही गई है। 'एवं जाव अहे स्वत्तमा' इसी तरह शर्करामला पृथिवी से लेकर
'इमा 'ण' भते । रयणप्पभा पुढवी केवइया विक्खंभेण पन्नत्ता' है ભગવત્ આ રત્નપ્રભા પૃથ્વી આયામ લખાઇ—વિષ્ક’ભ-પહેાળઇમાં કેટલી કહે વામાં આવી છે ? અર્થાત કેટલી લખાઈ પહેાળાઇ વાળી કહેવામાં આવી છે? या प्रश्नना उत्तरभां प्रभु गौतमस्वामीने हे 'गोयमा ! अस खेडजाइ जोयणसहस्साई आयामविसंभेनं' डा गौतम! आ रत्नअला पृथ्वी असंख्यात હજાર ચેાજનથી લખાઇ પહેાળા) વાળી કહેલ છે. લખાઈમાં પણ અસ`ખ્યાત હજાર ચેાજનની કહી છે અને પહેાળાઈમાં પણુ અસખ્યાત હજાર ચેાજનની डेल छे. तथा 'अस खेज्जाई जोयणसहस्वाई परिक्खेवेणं पण्णत्ता' આની परिधि पशु असभ्यात इतर योजननी उसके 'एव' जाव अहे सत्तमा ' એજ પ્રમાણે શાપ્રભા, પૃથ્વીથી લઈને સાતમી પૃથ્વી પન્તની બધી પૃથ્વીચાની લંબાઇ પહેાળાઈ અને પરિધિનુ પ્રમાણુ સમજવુ,
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ स्लू.९ जीवोत्पत्तिविषयनिरूपणम् स्राणि आयाम विष्कम्भेग तथा परिक्षेपेण प्रज्ञप्ता इति भावः । 'इमाणं भंते रयण. प्पभा पुढवी' इयं खल्लु भदन्त ! रत्नपभा पृथिवी 'अंते य मज्झेय सवस्थ' अन्ते च मध्ये च सर्वत्र 'समा बाहल्लेणं पन्नता' समा-तुल्या एकरूपेत्यर्थः बाहल्येन पिण्ड भावेन प्रज्ञप्ता-कथितेति प्रश्नः भगवानाह-'हंता गोयमा इन्त गौतम ! 'इमा णं रयणप्पभा पुढवी' इयं खलु रत्नपभा पृथिवी, 'अंते यज्ञ सम्वत्थ समा बहल्ले ण' अन्ते मध्ये सर्वत्र समा तुल्यैव बाहल्येनेति । 'एवं जाव अहे सत्तमा' एवं रत्नप्रभावदेव शर्करामभात आरभ्य यावत् अधः सप्तमी तमस्तमा पृथिवी अन्तेमध्ये च सर्वत्र बाहल्येन समैव विज्ञेयेति ॥८॥
मूला-इमीले णं भंते ! रयणप्पभा पुढवीए सव्वजीवा उववण्णपुव्वा सव्वजीवा उबवण्णा ? गोयमा ! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए सन्यजीवा उववण्णपुवा नो चेव णं सातवीं पृथिवी तक की पृथिवियों की लम्बाई चौडाई और परिधि का प्रमाण जानना चाहिये। ___'इमाण भंते ! रयणप्पभा पुढवी अंतेय मज्झेय सव्यत्य समा पाहल्लेण पन्नत्ता' हे भदन्त ! यह रत्नप्रभा पृथिवी या अन्त में और मध्य में सर्वत्र पिण्ड भाव की अपेक्षा समान-घराबर-एक सी-कही गई है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'हला गोयमा !' हां गौतम ! यह रत्नप्रभा पृथिवी अन्त में, सर्वत्र मोटाई की अपेक्षा एकसी कही गई है 'एव जाप अहे सत्तमा' रत्नप्रभा की तरह शर्कराप्रभा से लेकर अधः सप्तमी भी तमस्तमाप्रमा तक की पृथिवियां अन्त में और मध्य में सर्वत्र वाहल्य की अपेक्षा अपने २ में एकसी कही गई हैं ऐसा जानना चाहिये । १० ॥८॥
'इमाणं भंते ! रयणप्पभा पुढवी अतेय मज्झे य सव्वत्थ समा बाहल्ले णं पन्नत्तो' सगवन् ! रत्नप्रभा पृथ्वी सन्तमा मन मध्यमा मधेर પિંડભાવની અપેક્ષાથી સરખી બરાબર એક સરખી કહી છે? આ પ્રશના ઉત્તરમાં प्रभु ४ छ 'हंता 'गोयमा!' &। गौतम ! म २त्नप्रभा पृथ्वी मतभा, मध्यमा म सधै विस्तारनी मपेक्षाथी मे सभी ४३ छे. 'एव जाव महेसत्तमा' मा २त्नमा पृथ्वीनी रेभ शरामा वीथी बन मधाससभी તમતમા પૃથ્વી સુધીની પૃથ્વી અન્તમાં અને મધ્યમાં બધેજ બાહુલ્યની અપે. ક્ષાથી પોતપોતાનામાં એક સરખી કહેવામાં આવેલ છે. તેમ સમજી લેવું સૂ. ૮
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमसूत्र सव्वजीवा उबवण्णा, एवं जाव अहे सत्तमाए पुढवीए ॥ इमाणं भंते ! रयणप्पमा पुढवी सव्वजीवहिं विजढपुव्वा, सव्वजीवहिं विजढा ? गोयमा ! इमाण रयणप्पभा पुढवी सव्वजीवेहिं विजढपुवा नो चेव णं सव्वजीवविजढा, एवं जाव अहे लत्तमा । इसीसे गं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए लव्वपोग्गला पविठ्ठपुवा सव्वपोग्गला पविट्ठा ? गोयमा ! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए सबपोग्गला पविट्ठपुवा णो चेव णं लव्यपोग्गला पविटा, एवं जाव अहे सत्तमाए पुढवीए इमाणं भंते! रय गप्पसा पुढवी सव्वपोग्गलेहिं बिजढपुव्वा सव्व. पोग्गला विजढा ? गोयसा ! इला शं रयणप्पभा पुढवी सम्वपुग्गलेहिं विजढ पुवा नो वेव णं सव्वपोग्गलेहिं विजढा, एवं जाव अहे सत्तमा ॥ इमा गं भंते ! रयणप्पभा पुढवी किं सासवा असासया ? गोयमा ! सिय सासया, सिय असासया॥ से केणट्रेणं भंते ! एवं वुच्चइ सिय सासया सिय असासया ? गोयमा! दक्ट्रयाए सालया क्षणपज्जवेहिं गंधपज्जवेहि रसपज्जवेहिं फासपज्जवहिं असासया, से तेणट्रेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ तं चेव जाव सिय सासया सिय असिया, एवं जाव अहे सत्ता । इमा णं भंते ! रयणप्पभा पुढवी कालओ केवञ्चिरं होइ ? गोयमा ! ण कथाइ ण आली ण कथाइ अस्थि, ण कयाइ ण भबिस्सइ ॥ भुविं च भवइय अविस्सइ य धुश णियया सासया अश्खया अव्वथा अवटिया णिचा, एवं जाव अहे सत्तमा।सू०९।
छाया-एतस्यां खलु भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां सर्वे जीवा उत्पन्नपूर्वाक, सर्वे जीवा उत्पन्नाः ? गौतम ! एतस्यां खलु रत्नमभायां पृथिव्यां सर्वे जीवा उत्पन्नपूर्वाः नो चैव खलु सर्वजीवा उत्पन्नाः । एवं यावदधः सप्तम्यां पृधिव्याम् ।
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ २.९ जीवोत्पत्तिविषयनिरूपणम् इयं खल भदन्त ! रत्नप्रभापृथिवी सर्वजीवः परित्यक्तपूर्वा, सर्वनीवैः परित्यक्ता ? गौतम ! इयं खल्लु रत्नप्रभा पृथिवी सर्वजीवैः परित्यक्तपूर्वा, नो चैव खलु सर्वजीव परित्यक्ताः, एवं यावद्धः सप्तमी । एतस्यां खलु भहन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां सर्वपुलाः शविष्टपूर्वाः सरपुद्गलाः प्रविष्टाः ? गौतम ! एतस्यां खलु रत्नम मायां पृथिव्यां सर्वपुदलाः पविष्टपूर्वाः नो चैव सई पुद्गला: पविष्टाः, एवं यावधः सप्तम्याम् । इयं खलु भदन्त ! रत्नपमापृथिवी सर्वपुद्गलैः परित्यक्तपूर्वी सर्वपुद्गलाः परित्यक्ताः ? गौतम ! इयं खल्ल रत्तपमापृथिवी सर्वपुद्गलैी एरित्यक्तपूर्वा, नो चैन खल्लु सर्वपुद्गलैः परित्यक्ता, । एव यावदधः सप्तमी । इयं खलु भदन्त ! रत्नपमा पृथिवी किं शाश्वती शाश्वती ? गौतम ! स्यात् शाश्वती स्यादशास्वती । तत्केनार्थेन भदन्त ! एव मुच्यते-स्यात् शाश्वती स्थादशाश्वती ? गौतम ! द्रव्यार्थतमा शाश्वती वर्णपर्याय गन्धर्यायः रसपर्यायः स्पर्शपर्यायैरशाश्वती तत्तेनार्थेन गौतम ! एक मुच्यते तदेव यावत् स्यात् शाश्वती स्यात् अशाश्वती । एवं यावदधः सप्तमी । इयं खलु भदन्त ! रत्नमभापृथिवी काळतः कियच्चिरं भवति ? गौतम | न कदापि नासीत् न कदापि नास्ति न कदापि न भविष्यति, अभवच्च भवति च भविष्यति च ध्रुवा नियता शाश्वती अक्षया अव्यया अवस्थिता नित्या, एवं यावदधः सप्तमी ।०९।।
टीका- 'इमीसे णं भंते !' एतस्यां खलु भदन्त ! 'रयणप्पमाए पुढचीए' रत्नप्रभायां पृथिव्याम् 'सन्नजीवा' सर्वजीवा सामस्त्येन 'उपचण्णपुवा' उत्पन्न पूर्वाः पूर्वमुत्पन्ना इति उत्पन्नापर्वाः काळक्रमेण, तथा-'सबजीवा उचवण्णा' सर्व जीवा उत्पन्ना युगपदस्यां रत्नममायामिति प्रश्न: भगवानाह-'गोयमा'
'इमीसेणं भंते ! रयणप्पभाए पुढचीए लक्ष जीवा उववण्णपुव्वा इत्यादि सू०॥२॥
टीकार्थ-गौतम ने इस सूत्र द्वारा प्रभु से ऐसा पूछा है-इसीलेणं भंते। रयणप्पभाए पुढवीए सध्यजीवा लपवण्णपुघा, सत्र जीवा उपवण्णा' हे भदन्त ! रत्नपभा पृथिवी में क्या क्रम २ से-समय २. पर-पहिले समस्त जीव उत्पन्न हुए हैं या युगपत् समस्त जीव उत्पन्न
'इमीसे गं भंते ! रयण'पभाए पुढचीए सव्व जीवा उववण्ण पुव्वा' त्याह
ટીકાઈ-ગૌતમસ્વામી આ સૂત્ર દ્વારા પ્રભુને એવું પૂછે છે કે 'इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए सव्वजीवा उववण्णपुव्वा, सच जीवा उववण्णा'सावन मारत्नप्रभा पृथ्वीमा भपूर्व अर्थात् समये सभये पडसा સઘળા જી ઉત્પન્ન થયા છે ? અથવા એક સાથે સઘળા જી ઉત્પન્ન થયા છે? અર્થાત ભૂતકાળમાં સઘળા છે ત્યાં રત્નપ્રભા પૃથ્વીમાં નારકપણાથી ઉત્પન્ન થાય છે કે નથી થયા ?
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमले
इत्यादि, गोयमा' हे गौतम ! इसीसे गं स्यणप्पभाप. पुढवीए' एतस्यां खलु रत्नप्रभायां पृथिव्याम् 'सच जीवा' सर्वजीवाः प्रायो वृतिमाश्रित्य सामान्येन 'उदवनपुव्वा' उत्पन्नपूर्वाः कालक्रमेग संसारस्य अनादित्वात् 'जो चेव णं' नो चैव खल्लु-न पुनः 'सबजीवा उवबन्ना उत्पन्ना: युगपत् सकल जीवाना मेककालं रत्नममायामेव नरामरनारकादि भेदाभावसंगात्, न चैवं संभाति जगत्स्व. भावस्य तथाविधत्वात् इति । एवं जाव आहे सत्तमाए पुढी' एवं रत्नममावदेव यावदधः सप्तस्यां पृथिव्यां मतिपत्तव्यम् । एवं पङ्कमभात आरभ्य तमस्तमा पर्यन्त पृथिव्यां जीवाना मुत्पाद पकारस्तन्निषेध प्रकारश्च स्वयमेव ज्ञातव्य हए है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयना! इसीसेणं रयणप्पनाए पुढपीए सच जीवा उववन्नपुच्चा, णो चेव णं सम्बजीना उपचण्णा' हे गौतम! इस रत्नप्रभा पृथिवी में समस्त जीव प्रायः करके कर २ कर उत्पन्न हो चुके हैं, परन्तु एक साथ सघ जीव उत्पन्न नहीं हुए हैं। क्यों कि एक साथ-एक काल में समस्त जीवों का उत्पाद यदि रत्नप्रभा पृथिवी में हुआ मान लिया जावे तो नर, अमर, नारक और तिर्यश्च रूप भेद का अभाव मानना पडेगा परन्तु ऐसा तो सम्भावित होता नहीं है क्यों कि जगत का स्वभाव विचित्र है एवं जाव अहे सत्तमाए पुढवीए' इसी तरह से यावत् अधः सप्तमी पृथिवी तक की समस्त पृथिवियों में भी समस्त जीव कालक्रम से ही उत्पन्न होते है युगपत् सब जीव वहां उत्पन्न नहीं हुए हैं ऐसा जानना चाहिये इस विषय में आलापक इस प्रकार करना चाहिये -हे भदन्त ! शर्कराप्रभा पृथिवी
RAL प्रश्न उत्तरमा प्रभु गौतम स्वामीन ४ छ है 'गोयमा ! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए सव्वजीवा उववन्नपुव्वा, णो चेव णं सव्वजीवा उववण्णा' હે ગૌતમ ! આ રતનપભા પૃથ્વીમાં સઘળા જ પ્રાયઃ કમે કરીને ઉત્પન્ન થયા છે પરંતુ એકી સાથે સર્વ જી ઉત્પન્ન થયા નથી કેમકે એકીસાથે એક કાળમાં સઘળા જીવને ઉત્પાદ–ઉત્પત્તી જે રતનપ્રભા પૃથ્વીમાં થયો છે, તેમ માની લેવામાં આવે, તે નર, અમર, નારક, અને તિર્યંચ રૂપ ભેદને અભાવ માનવે પડશે. પરંતુ એવું તે સંભવતુ નથી, કેમકે જગતને સ્વભાવ वियित्र छे एवं जाव अहे सत्तमाए पुढवीए' मेरी प्रमाणे अधःससभी पृथ्वी પર્વતની સઘળી પૃથ્વીમાં પણ સઘળા જી કાળ કમથીજ ઉત્પન્ન થાય છે, યુગપત સૌ જીવે ત્યાં ઉત્પન્ન થયા નથી. તેમ સમજવું
આ વિષયમાં આલાપકે આ નીચે પ્રમાણે કરવા જોઈએ હે ભગવદ્ મા શર્કરામભા પૃત્રીમાં શું સઘળા જી કાલક્રમથી ઉત્પન્ન થયા છે? અથવા
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोंतिका टीका प्र.३ सू.९ जोवोत्पत्तिविषयनिरूपणम् इति । 'इमाणं भो ! रयणप्पमा पुढवी' इयं खलु भदन्त ! रत्नप्रभा पृथिवी 'सध्ध जीवेहि सर्वजीवः सांच्यावहारिक 'विजह पुव्वा' कालक्रमेण परित्यक्तपूर्वा, तथा-'सम जीवेहि' सर्व नोवैः युगपत् 'बिनढा' परित्यक्ता किमिति प्रश्नः, भगवालाह- गोयला' इत्यादि, गोधमा' हे गौतम ! 'इमाणं रयणप्पमापुढवी' इयं खलु रत्नाभा पृथिवीमायो वृत्तिमाश्रित्य 'सव्धजीवेदि' सर्वजीवैः कालक्रमेण __ 'विजढपुवा परित्यक्तपूर्वी 'जो चेत्रणं सम्यजीवविजढा' नो चैव खल्ल न तु
में क्या समस्त जीन कालकान र उत्पन्न हुए है या युगपद् उत्पन्न हुए हैं ? उत्तर में मनु कहते हैं-हे गौतल! कालकान से ही प्राय: करके समस्त जी शरमा पृथिवी में उत्पन्न हो चुके हैं-एक साथ समस्त जीव उत्पन्न नहीं हुए ई-शशि इस मान्यता ले नर अमर (देवता) आदि रूप जो सेह है वह घन नहीं सकता है इसी तरह से घालुकामभा में भी हमारा जीव कालक्रमाले प्रायः करके उत्पन्न हुए हैं, युगपत् समस्त जीव वहां उत्पन्न नहीं हुए हैं ऐसा जानना चाहिये इसी तरह का प्रश्न और उसका उत्तर रूप सथन पंचप्रभा से लेकर तमस्तममा पर्यन्त शेष पृथिवियों में भी उत्पाद प्रकार और निषेध प्रकार जान लेना चाहिए 'इमाण संते ! रयणप्पा पुढवी सम्धजीवेहि विजहदा' हे भदन्त ! बह रत्नप्रभा पृथिवी क्या कालक्रम से सर्व जीवों ने पहले छोडी है था युगपत् लर्व जीवों ने छोड़ी है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! इमाण रयणप्पभा पुढवी सन्जीवहिं विजढ पुचा जो चेवण सव्वजीव विजढा' हे गौतम ! यह रत्नप्रभा पृथिवी યુગપતું એકી સાથે ઉત્પન્ન થયા છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે છે કે હે ગૌતમ! કાલકમથીજ ઘણુકરીને શર્કરામભા પૃથ્વીમાં સઘળા છે ઉત્પન્ન થયા છે. કેમકે આ માન્યતામાં નર, અમર દેવ) વિગેરે જે ભેદે છે. એજ પ્રમાણે વાલુકાપ્રભ પૃથ્વીમાં પણ સઘળા કાળકમથી પ્રાયઃઉત્પન્ન થયા છે. યુગપત્ એકી સાથે સઘળા છે ત્યાં ઉત્પન્ન થયા નથી તેમ સમજવું. એજ પ્રમાણેને પ્રશ્ન અને તેના ઉત્તર રૂપ કથન પંકપ્રભા પૃથ્વીથી લઈને તમતમપ્રભા પૃથ્વી પર્યરતની બાકીની પૃથ્વીમાં પણ ઉત્પાદ ઉત્પત્તીને પ્રકાર भने निषेध प्र४२ सभ देव नसे. 'इमा ण भते! रयणापभा पुढवी सव्व जीवेहि विजढपव्वा' समवन् । २त्नप्रभावी भयी मासे પહેલાં છેડી છે? અથવા યુગપતુ એકી સાથે બધા એ છેઠી છે ? આ प्रश्न उत्तरमा प्रभु गौतम स्वामीन / छ 'गोयमा ! इमाणं रयणप्पभा
जी० १३
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवाभिगमसूत्रे
युगपत् सर्वजीवैः परित्यका सर्वजीवैरेककालपरित्यागस्यासंभवात्, तथाविधनिमित्ताभावादिति । ' एवं जाब असत्तमा' एवं रत्नप्रभावदेव यावदधः सप्तम्यामपि सर्वजीव परित्यक्तस्वात्यत्वे ज्ञातव्ये आला एयकारश्च स्वयमेव ऊहनीय इति । 'इमीसेणं अं | रणप्पा पुढवीए' एतस्यां खल्ल भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्याम् 'सन्नपोग्ला पवित्रा' सर्वे पुद्गला लोकाकाशोदरुर्तिनः काळक्रमेण प्रविष्टपूर्वाः सद्भावेन परिणतपूर्वाः किम् दथा- 'सन्दोला पविचा' प्रायः कर के समस्त जीवों ने क्रमशः ही छोडी है समस्त जीवों ने युगपत् नहीं छोडी है क्योंकि तथा प्रकार के के अभाव से एक काल में समस्त जीवों द्वारा उ-पृथिवी का परित्याग करना नहीं हो सकता है 'एवं जाब अहे सन्तमा' जिस प्रकार से रत्नप्रभा पृथिवी समस्त जीवों ने क्रमशः ही छोडी है युगपत् नहीं छोडी है उसी प्रकार से शर्करा पृथिवी, वालुकाप्रभा पृथिवी, पङ्कप्रभा पृथिवी, धूमप्रभा पृथिवी, तपःप्रभा पृथिवी, और तमस्तमः प्रभा पृथिवी भी सब जीवों ने कालक्रम से ही छोडी है - युगपत् नहीं छोडी है ऐसा जानना चाहिए इस सम्बन्ध में आलाप प्रकार स्वयं ही उद्भाबित कर लेना चाहिए ।
'इमी से ण' रयणप्पभाए पुढपीए सव्व पोग्गला पचिपुवा' हे भदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी में क्या समस्त पुद्गल - लोकाकाशवर्ती समस्त पुद्गल कालक्रम से प्रविष्ट हुए हैं ? तद्भव से रत्नप्रभा रूप पुढवी सव्वजीवेद्दि विजढपुव्वा णो चेद णं सव्वजीवा विजढा' हे गौतम! આ રત્નપ્રભા પૂરવી પ્રાયઃ કરીને સઘળા જીવાએ ક્રમશ: છેડી છે. સઘળા જીવાએ એકી સાથે છેાડી નથી. કેમકે તથા પ્રકાર નિમિત્તના અભાવથી એક કાળ માં સધળા જીવેા દ્વારા એ પૃથ્વીના ત્યાગ કરવા તે બની શકતું નથી. 'पवं जाव अद्दे सत्तमा ! ? प्रभाबे रत्नप्रभा पृथ्वी सुवणा लवशे भ પૂર્વીક છેાડી છે, એકી સાથે બધાજ જીવાએ દેડી નથી. એજ પ્રમાણે શકરા પ્રભા પૃથ્વી, વાલુકાપ્રભા પૃથ્વી, પકપ્રભા પૃથ્વી, ધૂમપ્રભા પૃથ્વી, તમઃપ્રભા પૃથ્વી અને તમસ્તમા પૃથ્વ પણ મધા જીવાએ કાળ ક્રમથીજ છેાડી છે, એકી સાથે છેડી નથી. તેમ સમજવુ'. આ વિષયમાં આલાપના પ્રકાર સ્વયં નાવીને संभल सेवे..
'इमीसे ण रयणप्पा पुढवीए खव्व पोग्गला पविट्ठपुव्वा' हे भगवन् આ રત્નપ્રભા પૃથ્વીમાં સઘળા પુદ્ગલે-લેાકાકાશમાં રહેલા સઘળા પુદ્દગલા કાલ ક્રમથી પ્રવેશ્યા છે ? કે તદ્દભાવથી આ રત્નપ્રભા પૃથ્વી પણાથી પરિવ્રુત થયા છે ? અથવા એકી સાથે પ્રવેશ્યા છે ?
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयोतिका टीका प्र. ३.९ जीवोत्पत्तिविषयनिरूपणम्
२९
सर्वपुलाः एककालं तद्भावेन प्रविष्टपूर्वाः किमिति प्रश्नः भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोमा' हे गौतम! 'हमी से णं स्यणप्पसार पुढवीए' एतस्यां खल रत्नप्रभायां पृथिव्याम् 'सव्यपोग्गला पविपुण्दा' लोकोदरवर्तिनः सर्वे पुद्गलाः प्रविष्टपूर्वाः तदभावेन परिणतपू: संसारस्यानादित्वात् 'को चेव णं सव्वषोग्गला पविट्ठा' नैव खलु न पुनरेककालं सर्वपुलाः प्रविष्टा स्तद्भावेन परिणताः, सर्वपुद्गलानां तद्भावेन परिणतौ रत्नप्रभाव्यतिरेकेणान्यत्र सर्वत्र पुद्गलाभावप्रसङ्गात् न चैवं संभवति तथा जगत्स्वाभाव्यादिति । ' एवं जाव अहे सत्तमा ' एवं यावदधः सप्तभ्याम् एवं रत्नप्रभा पृथिवीयदेव सर्वासु शर्करादि पृथिवीषु
से - परिणत हुए हैं ? या युगपत् प्रविष्ट हुए हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते है - 'गोपमा ! हमीसेणं रथणयभाए पुढचीए सम्म पोग्ला पचिट्ठ पुग्दा' हे गौतम! इस रत्नप्रभा पृथिवी में समस्त लोकवर्ती पुल क्रमशः प्रविष्ट हुए हैं 'नो चेत्र सन्च पोगला पषिद्वा' वे एक साथ सभी पुद्गल वहां प्रष्टि नहीं हुए हैं क्योंकि यदि एक ही साथ समस्त पुद्गल रनंप्रभा पृथिवी में प्रविष्ट हुए हैं ऐसी बात मान ली जावे तो फिर शर्करा - प्रभा आदि पृथिवियों में पुलों का प्रवेश हुआ नहीं माना जा सकता है अतः यही मानना चाहिए की समस्त पुलों का प्रवेश रतप्रभादि पृथिवियों में क्रमशः ही हुआ है- अर्थात् क्रम्म २ से ही समस्त पुद्गल जगत के स्वभाव की विचित्रता होने से रत्नप्रभा आदि रूप से परिणत हुए हैं 'एच' जाब अहे सतना' रत्नप्रभा पृथिवी के विषय में जैसे कहा गया है वैसे ही शर्कराजमा पृथिवी से लेकर सातवीं
या अश्नना उत्तरमां अलु गौतमस्वामीने उहे छेडे 'गोयमा ! इमीसेण रयणप्पभाए पुढवी खन्त्र पोग्गला पविट्ठपुव्वा' हे गौतम! श्री रत्नभলা पृथ्वीमां सघणा सोम्वर्ति युगो उस यूत्र अवेशेला छे, 'नो चेव सव्व पोग्गला पविट्ठा' त्यां तेथे मधा मेडीसाथै प्रवेशेला नयी सडे ले भेड साथै સઘળા પુદ્દગલો રત્નપ્રભા પૃથ્વીમાં પ્રવેશેલા છે, એ વાંત માની લેવામા આવેતે પછી શર્કરાપ્રભા વિગેરે પૃથ્વીચામાં પુદ્ગલાના પ્રવેશ થયે તેમ માની શકાય તેમ નથી. તેથી એમજ માનવું જોઈએ કે બધાજ પુદ્ગલાના પ્રવેશ રત્નપ્રભા વિગેરે પૃથ્વીયેામાં ક્રમથી જ થયેલ છે. અર્થાત્ કમક્રમથીજ સઘળા પુદ્ગલે જગતના સ્વભાવની વિચિત્રપણાથી રત્નપ્રભા વિગેરેપણાથી પરિણત થયેલ છે. ' एवं ' जाव अहे वत्तमा' रत्नप्रभा पृथ्वीना समंधमां ? प्रभाषेनु' स्थन
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
१००
जीवाभिगमस्त्र क्रमण वक्तव्यं यावदधः सप्तम्याम् एवं रत्नप्रभापृथिवीवदेव सर्वासु शर्करादि पृथिवीषु क्रमेण वक्तव्यं यावदधः सप्तम्यां पृथिव्याम् आलापमकारः स्वयमेयोहा नीयः। 'इमाणं भंते ! रयणप्पमा पुढवी' इयं खलु रत्नप्रभा पृथिवी 'सन्नपोग्गलेहिं विजढपुत्रा' सर्वपुद्गलैः लोकोदरचबिभिः कालक्रमेण परित्यक्तपूर्वा, तथा-'सयपोग्गलेहिं विजढपुवा' सर्वपुद्गलैरेककालं परित्यक्ता किमिति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयसा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'इलार्ण रयणप्पभापुढवी' इयं खलु रत्नप्रभापृथिवी कालक्रमेण सर्वपुद्गलैः परित्यक्तपूर्वा संसारस्थानादित्वात् 'णो चेव ण सम्बपोग्गले हि विजहा' न तु सर्वपुद्गलैरेककालं परित्यक्ता, सर्वपुद्गलै रेककालपरित्यागे तस्या रत्नपभायाः सर्वधा स्वरूपाभावपसक्तेः, न चैतत्संभवति पृथिवी तक में ही समस्त पुद्गलों का प्रवेश-उनका उस २ रूप से परिणमन-क्रमशः ही हुआ है युगपत् नहीं हुआ है ऐसा कह लेना चाहिये यहां आलाप प्रकार स्वयं ही उभाक्तिक लेना चाहिये 'इमाण भंते ! रयणप्पभा पुढधी सन्द पोग्गल्लेहिं विजढपुन्छा' हे भदन्त ! यह रत्नप्रभा पृथिवी समस्त पुद्गलों ने कालक्रम से छोडी है ? या युगपत्-एक ही काल में सब पुद्गलों ने छोडी है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! 'इमाण रचणप्पभा पुढबी०' हे गौतम ! यह रत्नममा पृथिवी काल क्रम से ही समस्या पुद्गलों ने छोडी है-युगपत् नहीं छोडी है क्योंकि एक ही काल में समस्त पुदलों ने इसे छोडा है ऐल्ला मान लिया जावे तो फिर रत्नप्रभा पृथिवी के स्वरूप का अभाव प्रसक्त होना है परन्तु ऐसा तो है नहीं क्यों कि जगत् का स्वभाव शाश्वत है इस बात को કરવામાં આવેલ છે, એ જ પ્રમાણે શર્કરાપ્રભ પૃથ્વીથી લઈને સાતમી પૃથ્વી પર્યતમાં પણ સઘળા પુદ્ગલેને પ્રવેશ તેઓને તે તે પણુથી પરિણમન કમથીજ થયેલ છે. યુગ૫ થયેલ નથી. તેમ સમજવું આ સંબંધમાં અલાપ
२ स्वयं मनावी सभ सेवा य. 'इमाणं भंते ! रयणप्पभा पुढवी सव्व पोग्गलेहिं विजढपुव्वा' है सावन् ! २मा २त्नप्रभा पृथ्वी ॥धा पुगताको કાલક્રમથી છેડી છે? કે યુગપતુ એકી સાથે છેડી છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रभु गौतमत्वामीन ४ छ -'गोयमा ! इमाणं रचणप्पभा पुढवी.' गौतम આ રત્નપ્રભા પૃથ્વી કાળક્રમથીજ બધા પુદગલોએ છેડી છે. એકી સાથે છોડી નથી. કેમકે એકજ કાળમાં બધાજ પદગલેએ આ પૃથ્વીને છેડી છે, તેમ માનવામાં આવે તે પછી રતનપ્રભા પૃથ્વીના સ્વરૂપને અભાવ પ્રાપ્ત થાય છે. પરંતુ એવું તે છે જ નહીં. કેમકે જગતનો સ્વભાવ શાશ્વત છે, આ વાત વયં સૂત્રકાર હવે પછી કહેવાના છે.
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
प्रमैयद्योतिका टीका प्र.३ रु.९ जीवोत्पत्तिविषयनिरूपणम् तथा जगत्स्वाभाव्यतः शाश्वतस्वस्य वक्ष्यमाणत्वादिति । एवं जाय अहेसत्तमा' एवं यावदधः सप्तमी, एवं रत्नप्रभावदेव एकैका शर्करामभादिरूपा क्रमेण वक्तव्या यावदधः सप्तमी पृथिवीति ।
'इमाणं भंते ! रयणपमाढवी' इयं खलु भदन्त ! रत्नप्रभा पृथिवी, 'कि सासया असासया' कि शाश्वती अथवा अशाश्वतीति प्रश्नः, भगवानाह'गोयमा' इत्यादि, 'गोथमा' हे गौतम! 'सिय सासया' स्यात् कस्यचिन्नयस्य अभिप्रायेण शाश्वती इयं रत्नप्रभा "सिय असासया' स्यात् कस्यचिन्नयस्याभिप्रायेण अशाश्वतीयं रत्नप्रभापृथिवीति । न शाश्वतत्वमशाश्वत विरुद्धधर्मः स च कथमेकन संमदे दित्याशयेन शङ्कने-'से केणद्वेणं' इत्यादि, ‘से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ' तत्केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते यत् 'सिय सासया सिय असासया' स्यात् शाश्वती स्थादशाश्वती चेति अवान्तरपश्नः, भगवानाह स्वयं सूत्रकार आगे कहने वाले हैं। 'एवं जाच अहे सत्तमा' इसी तरह का समस्त पुद्गलों द्वारा छोडने का यह कथन शर्करा आदि छह पृथिवियों में भी जान लेना चाहिये। ___'इमाण भले ! रयणप्पभा पुढवी किं लावया अलासया' हे भद: न्त ! यह रत्नप्रभा पृथिवी क्या शाश्वत है ? या अशाश्वत है ? उत्सर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा लिया सासधा लिय अलासया' हे गौतम ! यह रत्नमभा पृथिवी किसी अपेक्षा शाबिन है और किसी अपेक्षा अशाश्वत है जब शाश्वत धर्म और अशाश्वत धर्म परस्पर में विशुद्ध है-तो फिर यहां आप इन दोनों धर्मों को युगपत् कैसे प्रतिपादित करते हो? इसी अभिमाय को ले कर गौतम ने प्रभु से ऐसा पूछा है-'से केणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ-लिय स्वासया लिय असालया' हे भदन्त ! ऐसा
एवं जाब अहे सत्तमा' से प्रभार सघका युगल द्वारा छ। पार्नु આ કથન શકરપ્રભા વિગેરે છએ પૃથ્વીયોમાં પણ સમજવું જોઈએ.
'इमाणं भंते ! रयणप्पभा पुढवी किं साखया अस्वासया' 3 सावन मा રત્નપ્રભા પૃવી શું શાશ્વત છે? કે અશાશ્વત છે?
या प्रश्न उत्तरमा अल गौतमत्वामीन हे छ 'गोयमा । सिय सासया सिय अखासया' हे गौतम ! ! २नमा पृथ्वी अपेक्षा शाश्वत છે અને કેઈ અપેક્ષાથી અશાશ્વત છે. જ્યારે શાશ્વતધર્મ અને અશાશ્વતમ પરસ્પર વિરૂદ્ધ છે, તે પછી અહિયાં આપ આ બને ધર્મોનું એકી સાથે કેવી રીતે પ્રતિપાદન કરે છે ? આ અભિપ્રાયને લઈને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુને मे पछयु छ 'से केणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ सिय सासया सिय भसाम्रया'
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
.
जीवाभिगमसूत्र
'गोयमा' इत्यादि, 'शोयला' हे गौतम ! 'दबयाए सासा' द्रव्यार्थतयाशाश्वती, तन द्रव्यं सर्वत्रापि सामान्य मुख्य द्रवति-गच्छति तान् तान् पर्यायान् विशेषानिति द्रव्यम् इति द्रव्यपद व्युत्पत्ते द्रव्यमेव अर्थस्ताविका पदार्थों यस्य न तु पर्यायः स द्रव्यार्थः द्रव्यमानास्तित्वतिपादको नय विशेषस्तस्य भावो द्रव्यार्थता तया द्रव्यमानास्तित्व पतिपादकनयाभिप्रायेण रत्नप्रभा शाश्वती द्रव्याथिंकनयमतपर्शलोचनायामे विधाकारस्य रत्नप्रभाराः सर्वदामावादिति ॥
आप किस प्रकार कहते हैं कि रत्नप्रभा पृथिवी-किसी नय के अभिप्राय की मान्यता के अनुसार-शाश्वन है और किसी अपेक्षा-किसी नय के अभिप्राय के अनुसार अशाश्वत है ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभु कहते हैं-गोयना ! दबट्टयाए सालया' हे गौतम! रत्नपभा पृथिवी द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा शाश्वती है-क्योकि इस नय का विषय केवल शुद्ध द्रव्य ही होता है-द्रव्य का ही नाम सामान्य है जो उन २ पर्यायों को प्राप्त करता है-उन पर्यायो में जाता है-उसी का नाम द्रव्य है ऐली द्रव्य शब्द की व्युत्पत्ति है यह द्रव्य ही जिसका विषय होता है वह द्रव्यार्थिक है इस तरह द्रव्य मात्र के अस्तित्व का प्रतिपादक जो मय है यह नय क्षेवल एक द्रव्य को ही तात्विक पदार्थ मानता है पर्याय को नहीं अतः इस लय के अभिप्राय के अनुसार रत्नप्रभा पृथिची शाश्वत है क्योंकि रत्नप्रभा पृथिवी का ऐसा
હે ભગવન આપ એવું શા કારણથી કહે છે કે રતનપ્રભા પૃથ્વી કેઈ અપેક્ષા અર્થાત્ કોઈ એક નાની માન્યતા પ્રમાણે શોધન અને કેઈ અપેક્ષા એટલેકે કઈ નયના અભિપ્રાયની માન્યતા પ્રમાણે અશાશ્વત છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रभु ड छ 'गोयमा ! दबट्टयाए साप्सया' हे गीतम! २नमा पृथ्वी દ્રવ્યાર્થિકનયની માન્યતા પ્રમાણે શાશ્વતી છે. કેમકે આ નયનો વિષય કેવળ શુદ્ધ દ્રવ્ય જ હોય છે. દ્રવ્યનું જ નામ સામાન્ય છે. જે તે તે પર્યાને પ્રાપ્ત કરે છે તે તે પર્યામાં જાય છે. તેનું જ નામ દ્રવ્ય છે. આ પ્રમાણે ની દ્રય શબ્દની વ્યુત્પત્તિી છે. આ દ્રવ્યજ જેનો વિષય હોય છે, તે દ્રવ્યાર્થિક કહેવાય છે. આ પ્રમાણે દ્રવ્ય માત્રના અસ્તિત્વનું પ્રતિપાદન કરવાવાળે જે નય છે, તે દ્રવ્યાર્થિક નય કહેવાય છે. આ નય કેવળ દ્રવ્યને જ તાત્વિક પદાર્થ માને છે. પર્યાયને નહીં તેથી આ નયની માન્યતા પ્રમાણે રત્નપ્રભા પૃથ્વી શાશ્વત છે. કેમકે રત્નપ્રભા પૃથ્વીને એ આકાર હમેશાં વિદ્યસાન
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
-
-
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३१.९ जीवोत्पत्तिविषयनिरूपणम्
१०३ रत्नप्रभायाः शाश्तत्वे कारण मभिधाय तस्या अशाश्वतत्वे कारणं दर्शयति'दण्णएज्जवेहि वर्णपर्यायैः कालनीललोहितपीतशुक्ल, रिसपज्जडेहि' रसपर्यायस्तितष टु षायाम्लमधुरैः 'गंधपज़्जवेहि सन्धपर्यायैः सुरभिदुरभि भेदभिन्नः ‘फासपज्ज वेहि स्पर्शपर्यायैः क.कश मृदुगुरुलघु शीतोष्णानिधरूपैः 'असासया' अशाश्वती अनित्येत्यर्थः तेषां वर्णगन्धरलरपर्शपर्यायाणां पतिक्षणं कियस्कालान्तरं वा अन्यथा सनात अतावस्ये व चानिस्यत्वात । न चैवं द्रव्यावच्छेदेन नित्यत्वस्य पर्यायाछरेन चानित्यत्वस्य स्वीकारे विभिन्नाधिकरणे द्वयोः समावेशाद् कथं नित्यानित्यत्तयोरेक त्राधिकरणे समन्मयः नित्यत्यावआकार सर्वदा घिद्यमान रहता है तथा--'पण पज्जवेहिं' कृष्ण, नील, लोहित, पीन, और मुक्त रूप वर्ण पर्यायों की अपेक्षा 'रन पज्जवेहि' तिक्त, कटुक, पाथ, अम्ल एवं अधुर रूप र पर्यायों की अपेक्षा, 'गंध पज्जवेहि सुरभि एवं दुरभि रूप गंध पर्यायों की अपेक्षा तथा-'फाल पज्जवहि' कर्कश, मृदु, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध एवं रूक्ष रूप स्पर्श पर्यायों की अपेक्षा यह रत्नपना पृथिवी 'असामया' अशाश्वत है-अनित्य है क्योंकि धर्ण गन्ध रल और स्पर्श की पर्याय हरएक क्षण में अथवा किसनेक समय पाद अन्ध २ रूप से बदलती रहती है। इस तरह का परिवर्तन होना ही अनित्य है __शंका-नित्यता द्रव्य के आश्रय ले है और अनित्यता पर्याय के आश्रय से है अतः नित्यता और अनिस्बत्ता के अधिकरण जब मिन २, हैं तो फिर इनमें एकाधिकरणता कैले आ सकती है ? २९ छे. नथा-'वण्णपज्जवेहि' ४०], नीस, साहित, ala, पी। मने सई ३५ व पर्यायानी अपेक्षाथी 'रसपद्धज वेहिं' तामा, ४॥ तुरा, माटा भने भी मेवा २सना पर्यायानी अपेक्षाथी 'गघ पज्जवेहि' सुमि अने दुनि ३५ धना पर्यायानी अपेक्षाथी तथा 'फास पज्जवेहिं' 'श, भृड, गु३' रधु, શીત, ઉષ્ણ, સિનગ્ધ અને રૂક્ષ રૂપ સ્પર્શના પર્યાની અપેક્ષાથી આ રત્ન प्रमा पृथ्वी, 'असासया' अशाश्वत अर्थात् मनित्य छे. उमप, मध, २स, અને સ્પર્શનાં પર્યાયે દરેક ક્ષણે અથવા કેટલાક સમય પછી બીજા બીજા રૂપ થી બદલાયા કરે છે. આ પ્રમાણેનું પરિવર્તન થવું તેનું નામ જ અનિત્ય પણું છે.
શકા–નિત્યપણું દ્રવ્યના આશ્રયથી છે, અને અનિત્યપણું પર્યાયના આશ્રયથી છે. તેથી નિત્યપણું અને અનિત્યપશાનું અધિકરણ જ્યારે જુદુ જુદ છે. તે પછી તેમાં એક અધિકરણપણું કેવી રીતે આવી શકે છે?
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०५
जीवाभिगमसूत्र छेदक द्रव्यस्यैव नित्यत्वाधिकरणत्वात्तथा अनित्यत्वावच्छेदक वर्णादि पर्यायस्यैव चानित्यत्वाधिकरणत्वादिति वाच्यं, द्रव्यपर्याययो रेकान्त भेदरानभ्युपगमेन कथंचिद् भेदाभेदयोरेवाभ्युपगमादिति। अन्यथा द्रव्यपर्याययोरेकान्तभेदे उभयोरपि असत्रापाताद, तथाहि-एरपरिकल्पितं द्रव्यमसत् पर्यायरहितत्वात्, नवपुराणत्वपर्यायशून्य गगनकुसुमवत्, वालस्यादि पर्याय शून्य बन्ध्यासुतवद्वा तथा परपरिकल्पिताः पर्याया असन्तः द्रव्यव्यतिरिक्तत्वात् बन्ध्यालुतगतवालत्वादि पर्यायवदिति, तदुक्तम्-- ___ 'द्रव्यं पर्यायवियुतं पर्णका व्यजिताः।
क् कदा केन किं रूपा दृष्टा मानेन केन ना ॥१॥ इति । उत्तर-ऐसी आशंका इसलिये उचित नहीं है कि द्रव्य और पर्याय ये जुदे २, नहीं माने गये हैं क्योंकि सिद्धान्तकारों ने इनमें कथंचित् भेदाभेदात्रफता स्वीकार की हैं यदि यह सिद्धान्त स्वीकार नहीं किया जाय और एकान्त रूप से सर्वथा रूप से इनमें-भेद ही स्वीकार किया जाय तोल द्रव्य की लत्ता सिद्ध हो सकती है और न पर्याय की ही जो इस बात को मानता है कि द्रव्य पर्याय से भिन्न है तो उसके वह द्रव्य की सत्ता इसलिये नहीं बनती है कि वह नव पुराण आदि पर्यायों से शून्य गगन कुसुम की तरह पर्यायों से रहित होने के कारण असत् हो जाता है अथवा-शालत्व आदि पर्यायों से शून्य बन्ध्यासुत की तरह वह होजाता है इसी तरह द्रव्य ले भिन्न होने के कारण पन्ध्यासुनगन घालत्व आदि पर्यायों की तरह पर्याय भी असत् रूप हो जाती है । तदुक्तम्
ઉત્તર–આવી શંકા એ માટે એગ્ય નથી કે દ્રવ્ય અને પર્યાય આ જુદા જુદા માન્યાનથી કેમકે સિદ્ધાંતકાએ આમાં કથંચિત ભેદ અને અભેરાત્મકપણને સ્વીકાર કર્યો છે, જે આ સિદ્ધાંત સ્વીકારવામાં ન આવે અને એકાન્ત પણાથી અર્થાત નિશ્ચિતપણાથી સર્વ પ્રકારથી તેમાં ભેદ જ માનવામાં આવે તે દ્રવ્યની કે પર્યાયની સત્તા સિદ્ધ થઈ શકતી નથી જે આ વાતને માને છે, કે દ્રવ્ય પર્યાયથી જુદું છે, તે તેના આ દ્રવ્યની સત્તા એ માટે બનતી નથી કે તે નવા પુરાણા વિગેરે પર્યાથી શૂન્ય આકાશ પુષ્પની જેમ પર્યાથી રહિત હોવાના કારણે અસત થઈ જાય છે અથવા બાલપણા વિગેરે પર્યાથી શૂન્ય વંધ્યાસુતની માફક તે થઈ જાય છે એ જ પ્રમાણે દ્રવ્યથી ભિન્ન હેવાના કારણે વંધ્યાસુતમાં રહેલ બાલપણા વિગેરે પર્યાની માફક પર્યાય પણ અસત્ રૂપ થઈ જાય છે, એજ કહ્યું છે
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेrद्योतिका टीका प्र. ३.९ जीवोत्पत्तिविषयनिरूपणम्
१०५
उपसंहरन्नाह - 'से तेणट्टेणं' इत्यादि, 'सेतेद्वेगं गोयमा ! एवं वच्चह ' सत्तेनार्थेन तेन कारणेन गौतम ! एवं मुच्यते- 'तं चैव जात्र सिय सासया सिय असासया' यत् स्यात् - कदाचित् रत्नप्रभा शाश्वतीस्या दशावती इति । ' एवं जाव आहे सत्ता' एवं रत्नप्रभायां यथा शाश्वतत्वमशाश्त्रवत्वमुभयमपि द्रव्यपर्यायभेदेन कथितं तथैव शर्करामभाव आरभ्यायःसप्तमी पृथिवी पर्यन्तं शाश्वतत्वमशाश्वतस्वमुभयमपि व्यवस्थापनीयम् अलापमकारश्च सर्वत्र स्वयमेवोहनीय इति ॥
'द्रव्यं पर्यायवियुतं पर्यायाः द्रव्यवर्जिता ।
क कदा केन किं रूपा:-दृष्टा मानेन केन वा ॥१॥
अर्थात- पर्याय रहित द्रव्य और द्रव्य रहित पर्याय क्या कहीं कभी किसी ने किसी प्रमाण से देखे हैं क्या ? ॥ उपसंहार करते हैं'से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं वुच्चद्द' इस कारण हे गौतम! मैंने ऐसा कहा है कि 'तं चैव जाव लिय असासया' रत्नप्रभा पृथिवी कथंचित् शाश्वत है और एक कथंचित् अशाश्वत है 'एवं' जाव आहे सत्तमा ' जिस प्रकार से ने विविक्षा को लेकर रत्नप्रभा पृथिवी को शाश्वत और अशाश्वत कहा गया है इसी प्रकार से शर्करापभा से लेकर सातवीं पृथिवी तक की पृथिवियों को भी शाश्वत और अशाश्वत नय विदिक्षा के अनुसार कर लेना चाहिये इस सम्बन्ध में आलाप प्रकार स्वयं ही उद्भाविन कर लेना चाहिये
'द्रव्यं पर्यायवियुत, पर्याया. द्रव्यवर्जिताः
क्व कदा केन किं रूपा, द्रष्टा मानेन देन वा ॥
१ ॥ અર્થાત્ પર્યાય રહિત દ્રવ્ય અને દ્રવ્ય રહિત પર્યાય કાંઇ પણ કેઇએ કયારેય પણ કે ઈ પણ પ્રમાણથી દેખ્યા છે ? !! ૧ !!
हुवे । स्थनने। उपस डार ४२त सूत्रार ! छे ! 'से तेणट्टेणं गोयमा एवं वुच्चइ' भी अणुथी हे गौतम | हुं वुहुछु 'त' चेत्र जात्र सिय अम्चाखया' रत्नप्रमा पृथ्वी पृथति शाश्वत छे अने उचित अशाश्वत है, ' एवं जाव अहे सत्तमा' । थे अभाना नयनी विवक्षा नो स्वीजर अरीने રત્નપ્રભા પૃથ્વીને શશ્વત અશાશ્વત કહેવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણે શર્કરાપ્રભા પૃથ્વીથી લઇને સાતમી પૃથ્વીપનની સઘળી પીચાને શાશ્વત અને અશાશ્વત નયવિવક્ષા પ્રમાણે કહેવી જોઇએ. આ સંબંધમાં તેના માલાપકાના પ્રકાર સ્વયં અનાવીને સમજી લેવા જોઈએ,
પણ
जो० ० १४
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमसे इह खलु यद्वस्तु यावत्संभवारदं तच्चे गायतं कालं भाइ'यति तदा तदपि शाश्वत मुच्यते यथा शास्त्रान्तरेषु 'आरटाई पुढवी सासया' आकल्पस्थायिनी पृथिवी शाश्वती, इत्यादि, तदिह संशयो जायते-किमयं रत्नपभादि पृथिवी कि सकलकालावस्थायितया शाश्वती अथवा यत्किश्चित्कालावस्थायितया शाश्वती यथा शास्त्रान्तरीयैः कथयते-आगलास्थायिनी प्रक्षित्री शाश्वती इति, एतार संशयमपात प्रश्नयनाह-'इमा णं' इत्यादि, 'इमा णं भंते ! रयणमा पुढवी' इयं खल भदन्त ! रत्नप्रभा पृथिवी 'काल भो केवञ्चिरं होई' काळत: कियविरं भवति-कियत्कालं तिष्ठतीति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'न कयाइ ण बासी' न कदापि न आसीद ना द्वयं प्रकृतमर्थ ब्रूते'
शंफा-हे भवन्त ! जो वस्तु जितने समय तक रहती है-वह उतने समय के अनुसार शाश्वन कहलाती है-जैसे-अन्य सिद्धान्त कारों ने आकल्प स्थायी पृथिवी को शाश्वा कहा है-तो इसमें यह संशय होता है कि यह रत्नप्रभा पृथिवी लकल फालों में अबस्थायी होने से शाश्वत है या अन्य सिद्धान्तकारों की तरह कुछ काल तक स्थायी होने से शाश्वत है ? अतः इसी आशंका को हृदय में धारण कर गौतम ने प्रसु से पूछा है-'इमाणं भंते ! रयणा पुढवी कालो केवच्चिरं होई' हे भदन्त ! यह रत्नप्रभा पृथिवी काल की अपेक्षा कितने काल तक स्थायी रहती है ? तो इस आशंका के उत्तर में प्रमु कहते हैं-'गोयमा! न कपाद ण आलो' हे गौतम! यह रत्नप्रभा पृथिवी कभी नहीं थी-ऐली बात नहीं है-यहां ये दो नञ् प्रकृत अर्थ
શંકા–હે ભગવન જે વસ્તુ જેટલા સમય પર્યન્ત રહે છે, તે એટલા સમય માટે શાશ્વત કહેવાય છે જેમકે બીજા સિદ્ધાંતોએ આકપ સ્થાયી પૃથ્વીને શાશ્વત કહી છે તે આમાં એ સશપ થાય છે કે રત્નપ્રભા પૃથ્વી બધાજ કાળમાં રહેનારી હેવાથી શાશ્વત છે, અથવા અન્ય સિદ્ધાંતકારોના કથન પ્રમાણે કંઈક કાલ સુધી સ્થાયી હોવાથી શાશ્વત છે? તેથી આ શંકાને भनमा धा२य ४शन गोतमस्वामी प्रसुने से पूछ्यु छ , 'इमाणं भंते रयणप्पभा पुढवी काल ओं केवच्चिर होई' मगवन् मा २नमा पृथ्वी કાળની અપેક્ષાએથી કેટલ કાળ સુકી સ્થાયીપણાથી રહે છે? આ શંકાના उत्तरमा प्रसु गौतम सामान डे 2 है 'गोयमा । न कयाइ ण आसी' 3 ગમમ! આ રત્નપ્રભા પૃથ્વી કયારે પણ ન હતી એવી વાત નથી અહિયા આ વાક્યમાં આવેલા નિષેધાર્થક બે નજ્ઞ પ્રકૃત અર્થ પ્રગટ કરવા માટે આપ્યા
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रद्योतिका टीका प्र.३ ६.९ जीवोत्पत्तिविपयनिरूपणम्
१०७
इति नियमात् अभावाभावस्य प्रकृत प्रतियोगिरूपार्थबोधकतया न कदपि ना सीत् रत्नप्रभा, अपितु सर्वदासीत् इत्यर्थः एतावता अतीतकालिक सच्चे रहनप्रमाया आवेदितम् अनादित्वात् । यदि कदाचित् पूर्वकाले असत्वं भवेत्तदा अनादित्वमेव न स्यात् । न विद्यते आदिः कारणं यस्य सोऽनादिरिति निर्वचनात् पूर्वकालिक समावेदितं भवतीति । 'ण कयाइ णत्थि' न कदापि नास्ति सर्वथैव वर्तमानकालचिन्तायां भवत्येवेति भावः सहा भावाद अस्त्येवेति । 'ण कयाइण भविस्स' न कदापि न भविष्यति अपितु भविष्यच्चिन्तायां सर्वदेव भविष्यति अनन्तत्वाद् | नास्ति अन्यो विनाशो यस्य सोऽनन्त इति व्याख्यानेन सर्वदा अवस्थानात् इत्येवं रूपेण कालत्रयेऽपि निषेध द्वारेण रत्नप्रभायाः सच्चं प्रदर्श को प्रकट करने के लिये प्रयुक्त हुए हैं-क्योकि यह नियम है कि गत दो नव्- 'न' - प्रकृत अर्थ का कथन करते हैं- अतः इस कथन के अनु सार यह रत्नप्रभा पृथिवी सर्वदा ही थी ऐसा समर्थित होता है इससे भूतकाल में इस रत्नप्रभा पृथिवी की सत्ता समर्थित हो जाती है क्यों कि यह रत्नप्रभा पृथिवी अनादि काल से है यदि भूतकाल में इसमें असत्व माना जावे तो फिर इसमें अनादिता नहीं बन सकती है जिसका आदि कारण नहीं होता है उसे ही अनादि कहा जाता है 'ण कयाइ पस्थि' तथा - यह रत्नप्रभा पृथिवी वर्तमान काल में नहीं हैकिन्तु यह वर्तमान काल में भी है क्योंकि इसका सदाकाल सद्भाव कहा गया है। 'ण कयाह ण भविस्सह' तथा - यह रत्नप्रभा पृथिवी भविष्यत्काल में नहीं होगी ऐसी भी नहीं है किन्तु भविष्यत् काल में भी रहेंगी क्योंकि यह अनन्त है -जिलका अन्त-विनाश नहीं
-
છે કેમકે એવા નિયમ છે કે વાકયમાં આવેલ એ નક્ ‘ન’ પ્રકૃત ચાલું અને પ્રગટ કરે છે તેથી આ કથન પ્રમાણે આ રત્નપ્રભા પૃથ્વી સદા હતી એવુ સમન થાય છે. તેથી ભૂતકાળમાં આ રત્નપ્રભા પૃથ્વીની સત્તાનું સમર્થન થઇ જાય છે.તેમકે આ રત્નપ્રભા પૃથ્વી અનાદિ કાળથી વિદ્યમાન છે. જો ભૂતકાળમા તેનુ' અસત્ય માનવામાં આવે, તેા પછી તેમાં અનાદિપણુ` આવી શકતુ નથી मेनुं माहिर होतु नथी तेने मनाहि उडेवाय छे. 'ण कयाइ णत्थि तथा भा રત્નપ્રભા પૃથ્વી વર્તમાન કાળમાં નથી, તેમ નથી પરંતુ આ વર્તમાન કાળમાં પણ ४. 'ण कयाविण भविस्सइ' तथा या रत्नप्रभा पृथ्वी भविष्य आजमां नहीं હાય તેમ પણ નથી. પરંતુ ભવિષ્ય કાળમાં પશુ તે રહેશે. કેમકે આ અનંત અંત વિનાની છે, જેના અંત વિનાશ ન ઢાય તેજ અનંત કહેવાય છે આ
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
-
-
--
१०८
जीवामिगमसूत्र यता सार्वकालिक सत्यकथनात् शाश्वतत्वं प्रदर्शितमिति । नास्तित्वप्रतिषेध द्वारेण शाश्वतत्वं विधाय सम्मति-विधिमुखेन अस्तित्वं प्रदर्शयति-'भुवि च' इत्यादि, 'भुदि च भवाय भविस्सइय' अभूत् पूर्वज्ञाले रत्नप्रभा भवति च वर्तमानकाले अपि विधते, भविष्यति चानागनकालेऽपि स्थास्यतीति चेति । एवं भूत वर्तमान भविष्यद्य त्रिकालवर्तित्वात् 'धुरा' धुवा इयं रत्नममा । यत एष ध्रुग अतए । 'णियया' नियता निस्तावस्याना, धर्मास्तिकायादिवत् कदापि स्वावस्थानात् न प्रच्यवति । नियतत्वादेव च 'सासमा' शाश्वती प्रलयामावाद् अस्याः शश्वद्धाः । शाश्वतत्वादेव चानवस्तगङ्गा सिन्धु प्रवाह प्रवृत्तावपि पद्मपाण्डरीकहूद इवान्तर पुद्गलापचयेऽपि अन्यतर पुद्गल पचयाभावात् 'अक्खया' होता है-वही अनन्त कहा जाता है इस तरह यह रत्नप्रभा पृथिवी त्रिकालावस्थायी है-अतः इसमें शाश्वतता है इस प्रकार निषेध मुख से रत्नप्रभा में विशाल वर्ती सत्य का कथन सा शाश्वतता दिखलाई अब विधिमुख से वे इलमें अस्तित्व का कथन करते हैं-'भुर्विच भवद च, भविस्सइय' यह रत्नप्रभा पृथिवी पूर्वकाल में थी, वर्तमान काल में है, और भविष्यत् काल में रहेगी इस रीति से यह भूत, वर्तमान और भविष्यत् काल में अस्तित्व विशिष्ट होने से 'धुवा ध्रुव है, ध्रुव होने से यह 'णियया' धर्मास्तिकायादि द्रव्यों की तरह कभी भी अपने स्थान से चलिग नहीं होती है नियत होने से यह 'सासया' शाश्वत है क्योकि इसका प्रलय नहीं होता है। शाश्वत होने से ही यह अक्षय-विनाश रहित है-जैसे पद्महूद और पुण्डरीक हूद गंगाરીતે આ રત્નપ્રભા પૃથ્વી ત્રણે કાળમાં રહેવાવાળી છે. તેથી તેમાં શાશ્વતપણું છે આ પ્રકારના નિષેધ મુખથી રત્નપ્રભા પૃથ્વીમાં ત્રિકાલવત્તિ સત્વ બતાવીને શાશ્વતતા બતાવવામાં આવેલ છે.
वे विधिभुमथी तो मामा मस्तित्वनु ४थन ३२ छ 'भुविध, भवइ य, भविस्सइ य' । २(नामा पृथ्वी पडेसाती , पतभानमा छे, અને ભવિષ્યકાળમાં રહેશે. આ રીતે આ ભૂત, વર્તમાન, અને ભવિષ્યકાળમાં मस्तित्ववाजी पाथी 'धुव' ध्रुप छे. अने ध्रुव उपाथी 'नियया' घस्तिय વિગેરે દ્રવ્યની જેમ કોઈ પણ વખતે તે પિતાના સ્થાનથી ચલાયમાન થતી नथी. मने निश्चित पथीत 'सासया' यावत छे भ? तो प्रक्षय થતું નથી. શાશ્વત હેવાથીજ તે અક્ષય અવિનાશી છે. જેમ પદ્મ કમળ સરોવર અને પુંડરીક સરોવર ગંગા અને સિધુ નદીના પ્રવાહમાં પ્રવૃત્તિ
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयोतिका टीका प्र. ३.९ जीवोत्पत्तिविषयनिरूपणम्
१०९
namrataratasता। अक्षयत्वादेव च 'अव्यया' अव्यश व्ययो विनाशस्तद्रहिता मानुषोत्तराद्वहिः समुद्रवत् । अव्ययत्वादेव ' अवद्विया' अवस्थिता स्व प्रमाणावस्थिता सूर्यमण्डलादिवत् । एवं सदाऽयस्थानेन चिन्त्यमाना 'विच्च । ' नित्या अमच्यातानुत्पन्न स्थिरेकरूपा जीवस्थ रूपवत् अथवा धुवादयः शब्दा इन्द्रशक्रादिवत् पर्यायशब्दाः नानादेराज विनेयानुग्रहार्थमुपन्यस्ता इति न पौनरुक्त्यमिति । सिन्धु नदियों के प्रवाह में प्रवृत्ति वाले है फिर भी अक्षय है क्योंकि उनमें से अन्यतर पुलों के विघटन होने पर भी अन्यतर पुगलों द्वारा उनका उपचत्र होता रहता है इसी प्रकार रत्नप्रभा पृथिवी में से अनेक पुलों का विघटन होता रहता है और अनेक पुलों द्वारा उसका उपचक होना रहता है । अक्षय होने से ही यह 'अश्या' मानु षोत्तर से बाहर में समुद्रों की तरह अव्यय है अर्थात् विनाश से रहिन है । और अव्यय होने से ही यह 'अवद्वेषा' अवस्थित है - सूर्य मण्डलादि की तरह यह अपने प्रमाण में सदा स्थित है और अपने प्रमाण में सदा स्थित होने से ही यह 'पिच्चा' जीव स्वरूप की तरह अप्रच्युत, अनुपन हिथर एक रूप है अथवा ध्रुवादिक ये सब शब्द - इन्द्र, शक, पुरन्दर आदि शब्दों की तरह पर्याय शब्द है । इनका जो यहाँ उपन्यास किया गया है तो वह अनेक देशों के भित्र २, देशों केविनेयों को समझाने के निमित्त से किया गया है अतः इनके कथन में पुनरुक्ति दोष नहीं आता है ।
વળા છે, તે પશુ અક્ષય છે. કેમકે તેમાંથી અન્યતર પુગલે ના વિઘટન થવા છતા પણ અન્યતર પુદ્ગલે દ્વારા તેના ઉપચય થતા રહે છે. એજ પ્રમાણે રત્નપ્રભા પૃથ્વીમાંથી અન્યતર પુદ્ગલાનું વિઘટન થતું રહે છે અને અનેક પુદ્ગલેા દ્વારા તેને ઉપચય થતા રહે છે. अचय होवाथी या 'अन्वया' भानुषोत्तरथी महारना समुद्रोनी प्रेम अव्यय છે. અર્થાત્ વિનાશ રહિત છે. અને અવ્યય હાવાથી ०४ मा 'अवढिया' અવસ્થિત છે. સૂર્ય મંડલ વિગેરેની જેમ તે પેાતાના પ્રમાણમાં સદા સ્થિત રહેવાથી જ આ નિરવા' જીવ સ્વરૂપની જેમ ઋપ્રચ્યુત, અનુત્પન્ન સ્થિર એક રૂપ છે. અથવા વાદિક શ્રા બધા શબ્દો ઇન્દ્ર, શક્ર, પુર ંદર વિગેરે શબ્દોની માફક પર્યાય શબ્દ છે. તેને એ આ ઉપાસ-કથન કરવામાં આળ્યેા છે તે આ અનેક દેશેાના અર્થાત્ જુદા જુદા દેશેાના વિનયેા નામ શિષ્યને સમજાવવા માટે જ કરવામાં માન્યેા છે. તેથી તેના કથનમાં પુનરૂક્તિદોષ
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमस्त्र 'एवं जाव अहे सत्तमा' एवं यावदधः सप्तमी। तथाहि-शराममा खल भदन्त ! कालतः कियच्चिरं भवति ? गौतम ! न कदापि नाभूत्, न कदापि न भवति, न कदापि न भविष्यति, अपितु पूर्वमपि अभूत वर्तमानेऽपि भवति। अनागतेऽपि भविष्यत्ये। ध्रुवा नियता शाश्वती अक्षया अव्यया अवस्थिता नित्या, इत्येवं रूपेण शर्कराप्रमात आरभ्य बालुकापमा धूमप्रभा पङ्कप्रपा तमाममा तमस्तमः मभासु शाश्वतत्यादिकं प्रदर्शनीयम् इति मु० ॥९॥
सम्मति-मतिपृथिवि विभाग उपर्यधस्तनचरमान्तयोरन्तरं प्रतिपादयितु. माह-'इमीसे णं' इत्यादि,
मूलम्-इमीले णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए उवरिल्लाओ परिमंताओ हेठिल्ले चरिमंते एएणं केवइयं अवाधाए अंतरे पन्नत्ते ? गोयमा ! असीउत्तरं जोयणसयसहस्सं अवाधाए अंतरे पन्नते। इमीसे णं संते ! रयणप्पभाए पुढवीए उवरिल्लाओ चरिमंताओ खरस्त कंडस्स हेठिल्ले चरिमंते एएणं केवइयं अबाधाए अंतरे पन्नते ? गोयमा! सोलसजोयणसहस्साई अबाघाए अंतरे पन्नत्ते। इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए _ 'एजाब अहे-सत्तमा' इसी तरह का कथन यावत् अधः सप्तमी पृथिवी में कर लेना चाहिये जैसे-हे भदन्त ! साल की अपेक्षा शर्कराप्रभा पृथिवी शाश्वत है या अशाश्वत है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं हे गौतम! शर्करावमा पृथिवी किसी अपेक्षा शाश्वत है, और किसी अपेक्षा अशाश्वत के इत्यादि-रूप से जैसा कथन रत्नप्रभा पृथिवी के प्रकरण में किया गया है-वैसा ही वह सघ कथन यहां पर भी कह लेना चाहिये और ऐसा ही यह कथन सातवों पृथिवी तक कहते जाना चाहिये । सू० ॥८॥ मावती नथी. 'एवं जाव अहे मृत्तमा' मा प्रभारी अथन यावत् मधाससभी પૃથ્વી પર્યક્ત કરવું જોઈએ. જેમકે હે ભગવદ્ કાળની અપેક્ષાથી શર્કરામભા પૃથ્વી શાશ્વત છે? કે અશાશ્વત છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે હે ગૌતમ ! શર્કરામભા પૃથ્વી કેઈ એક અપેક્ષાથી શાશ્વત છે અને કઈ અપેક્ષાથી અશાશ્વત છે. ઈત્યાદિ પ્રકારથી જે પ્રમાણેનું કથન રન પ્રભા પૃથ્વીના પ્રકરણમાં કરવામાં આવ્યું છે, એ જ પ્રમાણેનું કથન અહિંયાં પણ કહેવું જોઈએ અને એજ પ્રમાણેનું કથન સાતમી પૃથ્વી પર્યન્ત કહેવું જોઈએ કસૂ, ા
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका ठीका प्र. ३ सू.१० प्रतिपृथिव्याः उपर्यधस्तनचरमान्तयोरन्तरम् १११ उवरिल्लाओ घरिमंताओ रयणस्स कंडस्स हेठिल्ले चरिमंते एएणं केवइयं अबाधाए अंतरे पन्नत्ते ? गोयमा ! एकजोयणसहस्सं अबाधाए अंतरे पन्नत्ते । इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए उवरिल्लाओ वरिमंताओ वइरस्स कंडस्स उदरिल्ले रिमंते एसणं केवइयं अबाधाए अंतरे पन्नत्ते ? गोयमा ! एकं जोयणसहस्सं अबाधाए अंतरे पन्नत्ते । इमीले णं भंते ! रयणपभाए पुढवीए उवरिल्लाओ घरिमंताओ वइरस्स कंडस्स हेठिल्ले चरिमंते एएणं केवइयं अबाधाए अंतरे पन्नत्ते ? गोयमा ! दो जोयणसहस्साइं अबाधाए अंतरे पन्नते । एवं जाव रिट्स्स उवरिल्ले चरिमंते पन्नरस जोयणसहस्साई, हेठि - ल्ले चरिमंते सोलस जोयणसहस्साइं । इमीसे णं भंते ! रयणभाप पुढवीए उवरिलाओ चरिमंताओ पंकबहुलस्स कंडस्स उवरिल्ले चरिमंते एसणं अबाधाए केवइयं अंतरे पन्नत्ते ? गोयमा ! सोलस जोचणसहस्साइं अबाधाए अंतरे पन्नन्ते । हेठिल्ले चरिमंते एवं जोयणसहस्सं || आवबहुलस्स उवरिल्ले चरिसंते एकं जोयणसयस हस्तं हिठिल्ले वरिमंते असी उत्तरं जोयण-सयस हस्तं ॥ घणोद हिस्स उवरिल्ले चरिमंते असी उत्तर जोयगसयसहस्सं, हेठिल्ले चरिमंते दो जोयणसय सहरलाई । इमीसे of भंते! रयणप्पा पुढवीए उवरिल्लाओ चरिमंताओ घणवायस्स उवरिल्लं चरिमंते दो जोयणसहस्साई हेट्टिले चरिमंते असंखे जाई जोयणसय सहस्साई । इमीसे णं संते ! रणपभाए पुढवीए उवरिल्लाओं चरिमंताओ तणुवायस्स उवरिल्ले चरिमंते असंखेजाई जोयणसय सहस्लाई अवाहाए अंतरे, हेठिल वि असंखेजाई जोयणसय सहस्साइं । एवं ओवासंतरे वि ।
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमसूत्रे
दोचाए भंते! पुढवीए उवरिल्लाओं चरिमंताओ हेटिले चरिमंते एस णं केवइयं अबाधाएं अंतरे पन्नत्ते ? गोयमा ! बत्तीसुत्तरं जोयणस्य सहर अबाहाए अंतरे पन्नत्ते । सक्करपभाए पुढवीए डवरिल्लाओं चरिमंताओ घणोद हिस्स हेटिल्ले चरिते वावष्णुसरं जोयणसयस हस्तं अबाहाए । घमवायस्स असंखेजाई जोयणसयलहस्साई पन्नताई । एवं जाव ओवा संतरस्स बि, जाव अहे सत्तमाए, नवरं जीसे जं बाहलं तेण गोदही संबंध बुद्धीए । सकरपभाए अणुसारेण घणोदहि सहिताणं इमं पमाणं । वालुयप्पभाए अडयालीसुत्तरं जोयणसयलहस्तं । पंकप्पभाए पुढवीए चत्तालीसुत्तरं जोयणसयसहस्सं । धूमप्पभाए पुढवीए अट्ठतीसुतरं जोयणसयसहस्सं । तमाए पुढवीए छत्तीसुतरं जोयणलयसहस्सं । अहे सत्तमाए पुढत्रीए अट्ठावीसुन्तर जोयणसयलहस्सं जाव अहे सत्तमाए र्ण भंते! पुढवीएलओ चरिमंताओ उवासंतस्स हेठिले रिमंते केवइयं अबाहाए अंतरे पन्नन्ते ? गोयमा ! असंखेजाई जोयणस्यसहरुलाई अबाहार अंतरे पन्नते ॥ सू० १० ॥
1
११२
छाया - एतस्याः खलु भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्या उपरितनाच्चरमान्तात् अपम्ननथरमान्तः एतत् खलु कियद् अवाधवा अन्तरं प्रज्ञप्तम् ? गौतम ! अशीत्युत्तर योजनशतसहस्रम् भवाया अन्तरं मतम् । एतस्याः खल भदन्त !
नप्रमाया पृथिव्या उपरितनाद् चरमान्तात् खरस्य काण्डस्याधस्तनश्चरमान्तः, एतत् खल कियत्या अवाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम् । तस्याः खलु भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्या उपरितनात् चरमान्तात् रत्नस्य काण्डस्याधस्तनश्चरमान्तः, एतत् खल कियत् अबाध अन्तरं प्रज्ञप्तम् ? गौतम । एकं योजनसहस्रमवाधया अन्तरं मज्ञप्तम् । एतस्पाः खलु भदन्त ! रत्नपमायाः पृथिव्या उपरितनात् चरमान्तात् वज्रस्य काण्डस्योपरितनथरमान्तः, एतत्खलु कियत् अवाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम् गौतम ! एकं योजनमहस्रम् अवावया अन्तरं मज्ञप्तम् । एतस्याः खलु भइन्व
?
!
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ २.१० प्रतिपृथिव्याः उपर्यधस्तनचरमान्तयोरन्तरम् ११३ रत्नपभायाः पृथिव्या उपरितनात् चरमान्तात् वज्रस्य काण्डस्याधस्तनश्वरमान्त: एतत्खल अबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम् ? गौतम ! द्वे योजनसहरी अबाधया अन्तरं माप्तम् । एवं यावद्रिष्टस्योपरित नश्वरमान्तः पञ्चदशयोजनसहस्राणि, अधस्तनवरमान्तः षोडशयोजनसहस्राणि । एतस्याः खलु भदन्त ! रत्नपभायाः पृथिव्याः उपरितनात् चरमान्तात् पङ्गबहुलस्य काण्डस्योपरितनश्वरमान्तः एतत् खल्ल कियद् अबाधया अन्तर प्रज्ञप्तम् ? गौतम ! षोडशयोजनसहस्राणि अबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम् । अधस्तनश्वरमान्न एकं योजनशतसहस्त्रम् । अबहुलस्योपरितन. श्वरमान्त एकं योजनशतसहस्रम्, अधस्तनश्वरमान्त: अशीत्युत्तरं योजनशतसहस्रम्। घनोदधेरुपरितनश्वरमान्तः, अशीत्युत्तरयोजनसहसम्. अघस्तनश्वरमान्तो द्वे योजना शतसहस्से । एतस्याः खलु भदन्त ! रत्नपभायाः पृथिव्या उपरितनाच्चरमान्तात् घनवातस्योपरितनश्वरमान्तो वे योजनशतसहस्र, अधस्तनश्वरमान्तः असंख्येयानि योजनशतसहस्राणि । एतस्याः खलु भदन्त ! रत्नप्रभाया पृथिव्या उपरितनावरमान्तात् तनुवातस्य उपरितनश्वरमान्तः, असंख्येयानि योजनशतसहस्राणि । अवधिया अन्तरम्, अधस्तनोऽपि असंख्पेयानि योजनसहस्राणि एचमवकाशान्तरमपि । द्वितीयायाः खलु भदन्त ! पृथिव्या उपरितनात् चरमान्तात् अधस्तनश्वरमान्तः, एतत् खलु कियदबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम् ? गौतम ! द्वात्रिंशदुत्तरं योजनशतसहस्रम् अबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम् । शर्करामभायाः पृथिव्या उपरितनास्चरमा. न्तात् घनोदधेरधस्तनश्वरमान्तो द्विपश्चाशदुत्तरं योजनशतसहस्रमबाधया घनवातस्यासंख्येयानि योजनशतसहस्राणि यज्ञप्तानि एवं यावदवकाशान्तरस्यापि यावदधः सप्तम्याः । नवरं यस्याः यद् वाहल्यं तेन घनोदधिः संवन्धयितव्यो बुद्धया । शर्करामभाया अनुसारेण घनोदधि सहितानामिदं प्रमाणम् । बालुका भभाया अष्टचत्वारिंशदुत्तरं योजनशतसहस्रम् ३ पङ्कमभायाः पृथिव्या श्चत्वारिंशदुत्तरं योजनशतसहस्रम् ४, धूमपभायाः पृथिव्या अष्टत्रिंशदुत्तरं योजनसहस्रम् ५ तमःप्रभायाः पृथिव्याः पत्रिंशदुत्तरं यं जनशनर हस्रम् ६ अधः सप्तम्याः पृथिव्या अष्टाविंशत्युत्तरं योजनशतसहस्रम् ७ ।
यावदधः सप्तम्या: खल भदन्त ! पृथिव्या उपरितनाच्चरमान्तात अवकाशा न्तरस्याधस्तनश्वरमान्तः कियद् अवाधया अन्तरं प्राप्तम् ? गौतम ! असंख्येयानि योजनशतसहस्राणि अब धया अन्तरं प्रज्ञप्तम् ॥१०॥
अब सूत्रकार प्रत्येक पृथिवी के विभाग से उपरितन अधरतन घरमान्त का अन्तर प्रतिपादन करते हैं
હવે સૂત્રકાર દરેક પૃથ્વીના વિભાગ પૂર્વક ઉપરિત–ઉપરના અધસ્તન, અને ચરમાન્ડના અંતરનું પ્રતિપાદન કરે છે
जो० १५
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमसूत्रे
टीका--' इमीसे णं भंते!' एतस्याः ख भदन्त ! 'स्यणप्पभाए पुढवीए' रत्नमभायाः पृथिव्याः 'उवरिल्लाओं चरिताओ' उपरितनाव चरमान्यात् । देशावस्थितभागात्- रत्नमभाया पारम्भभागादित्यर्थः 'हेठिल्ले चरिमंते' अधस्तनः अधोभागविद्यमान थरमान्तः रत्नभाया अन्तिम भाग इत्यधी 'ए' एतत् खलु एतयोर्द्वयोश्वरमान्तयोर्मध्यक्षेत्ररूपम् एतदिति अन्तरस्य विशेषम् अतः पुंम्ल निर्दिष्टस्यापि नपुंसकत्वेन विपरिणामः सूत्रे तु यत्वात् पुलिङ्गनिर्देश: 'केवयं अवाहाए' कियत् अबाधया अन्तरत्व व्याघातरूपया 'अंतरे पन्नत्ते' अन्तरं व्यवधानं प्रज्ञप्ते कथितम् रत्नप्रभौया आदि भागा दन्तभागः कियद्दुरे भवतीति प्रश्नः भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम | 'असी उत्तर जोयणसय सहस्ते' अशीत्युत्तरं योजनशतसहस्रं - अशीति सहस्राधिक लक्षयोजनम् (१८००००) अवाधया 'अंतरे' अन्तरम् आद्यन्तभागयोर्व्यवधानम् 'पन्नत्ते' प्रज्ञप्तं कथितम् ॥ सामान्यतो रत्नमभायामुपरितनाथस्तनचरमान्तयो मध्येऽन्तरं पद विशेषतोऽस्याः काण्डत्रयस्याऽन्तरं दर्शयितुमाह- 'हमी से णं
,
११४
'इमीसे णं भंते ! रणपभाए पुढबीए'- इत्यादि ।
टीकार्थ- गौतम ने इसमें प्रभु से ऐसा पूछा है- हे भदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी के उपरितन चरमान्त से नीचे का जो वरमान्त है वह कितना दूर है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं - 'गोधमा । असी उत्तर जोयण सपलहस्से अवाधार अंनरे पनन्ते' हे गौतम! रत्नप्रभा पृथिवी के उपरित चरमान्त से नीचे का जो चरान्त है वह एक लाख अस्सी हजार योजन दूर है अर्थात् एक लाख अस्सी हजार योजन का बाल्य पिण्ड है । इस प्रकार से सामान्य रूप में रत्नप्रभा के उपरितन और अधस्तन चरमान्तों में अन्तर प्रकट कर अब विशेष रूप से इसके
'इमीसे णं ते । रयणभाष पुढवीए' इत्याहि
ટીકા –ગૌતમસ્વામીએ આ સૂત્ર દ્વારા પ્રભુને એવું પૂછ્યુ છે કે હે ભગવન્ આ રત્નપ્રભા પૃથ્વીના ઉપરિતન ચરમાન્તથી નીચેના જે ચરમાન્ત છે તે કેટલેા विशाण हे ? या प्रश्नना उत्तम प्रभु गौतमस्वामीने हे छे 'गोयमा ! असी उत्तर जोयणसहस्सं अवाधार अंतरे पण्णत्ते' हे गौतम | रत्नप्रभा पृथ्वीना ઉપરના ચરમાન્તથી નીચેને જે ચરમાન્ત છે, તે એક લાખ એ’સી હજાર ચેાજનની વિશાળતાવાળે છે અર્થાત્ એક લ ખ એંસી હજારના તે માહત્ય પિ’ડ ४. આ પ્રમ છે. સામાન્ય પણાથી રત્નપ્રભાના ઉપરિતન અને અધસ્તન ચરમાન્તાનુ અંતર તવી ને હવે વિશેષ માંતર પ્રગટ કરે છે, આામાં ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુને એવુ પૂછ્યું છે કે પ્રકાર થી તેના ત્રણ કાંડાનું
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ सू.१० प्रतिपृथिव्याः उपर्यधस्तनचरमान्तयोरन्तरम् ११५ भंते' इत्यादि, 'इमीसे णं भंते' एतस्याः खल्लु 'रयणप्पभाए' रत्नप्रभायाः 'उरिल्लाओ चरिमंताओं' उपरितनात् चरमान्तात् 'खरल्स इंडस्स हेठिल्ले चरिमंते' खरस्य काण्डस्याधस्तनश्वरमान्तः 'एलणं' एक्स्खलू केवयं अवाहाए अंतरे पन्नत्ते' । कियत् अधया अन्तरं-वधानं प्रज्ञप्तम् ? इति प्रश्नः भग. वानाह-गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'सोलस जोयणसहस्साई अंत. रे पन्नते' पोडशयोजनसहस्त्राणि अन्तरं प्रज्ञप्तम्-कथितम्, खरकाण्डस्य प्रत्येक मेकैक सहस्रयोजल भमित तभेदरूप रत्नकाण्डादि पोडशमकारकात्मकत्वात् । 'इमी से णं भंते' एतस्याः ख अ भदन्त ! 'स्यणप्रभाए' रत्नप्रभायाः पृथिव्याः 'उवरिल्लाओ चरिमंताओ' उपरितनात् चरमान्तात् 'रयणस्स कंडस्स' खरकाण्डप्रभेदरूपस्य रत्ननामा प्रथमकाण्डस्य यः 'हे ठिल्ले चरिमंते' अधस्तनोऽधः तीन काण्डों का अन्तर प्रकट करते हैं-इसमें गौतम ने प्रभुसे ऐसा पूछा है-मीले भंते ! रयणासाए पुढोए उवरिल्लाओ चरिमंताओ खरस्स कंडस्ल हेठिल्ले प्वरिमंते एल णं वय अबाधाए अंतरे पन्नत्त' हे भदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी के उपरितन चरमान्त से खरकाण्ड का अधस्तन चरमान्त अवाधाले अर्थात् विभाग पूर्वक प्रत्येक का कितना अन्तर है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! स्लोलसजायण सहस्साई अंतरे पन्नत्ते' हे गौतम ! रत्नप्रभा पृथिवी के ऊपर के चरमान्त से खरकाण्ड के अधस्तन चरमान्त लक लोलह हजार योजन का अन्तर है क्योंकि अपने विभाग रूप प्रत्येक एक एक हजार योजन के रस्नकाण्ड आदि सोलह काण्ड वाला है 'इमीलेण अंते ! रयणपभाए पुढवीए उवरिल्लाओ चरिमंताओ' हे पदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी के उपरितन चरमात से रयणस कंडस' रत्नकाण्ड के 'हेटिल्ले 'इमीसे गं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए उबरिल्लाओ चरिमताजी, खरस्स हेठिल्ले चरिभंते एएणं केवइयं अवाधाए अतरे पन्नत्त' 8 सावन मा रत्नमा પૃથ્વીના ઉપરિતન ચરમાન્તથી બરકાંડના અધસ્તન–નીચેના ચુરમાન્ત સુધીમાં વિભાગપૂર્વક દરેકનું કેટલું અંતર કહેલું છે ? આ પ્રશ્નના उत्तरमा प्रसु गीतसस्वामीन. ४३ छ, 'गोयमा ! सोलस जयणसह. स्माइं अतरें पन्नत्ते' के गौतम ! २त्नमा पृथ्वीना GRना यभान्तथी બરકાંઠના અસ્તિનચરમાન્ત પર્યન્ત સેળ હજાર જનનું અંતર કહેલું છે. કેમકે તે પોતાના વિભાગ રૂપે દરેક એક એક હજાર યોજનના રત્નકાંડ વિગેરે से ४istणे छे. 'इमीखे णं भंते ! रयण पभार पुढबीए उवरिल्लामा चरिमताओ
सावन मा २त्नला पृथ्वीना ०५२ना . य२मान्तया रयणस्स' कडस्स'
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगम प्रदेशवतीचरमान्त:-चरमपर्यन्तः 'एस गं' एतत् खलु 'केवइयं अवाहाए' कियत अवाघया कियद् योजनप्रमाणं अन्तरम् अबाधया अन्तरत्व व्याधातरूपया 'अंतरे पन्नत्ते' प्रज्ञप्तं कथियम् रत्नममा पृथिव्याः खरकाण्डस्य विभागरूपं रत्नकाण्डनामकं यत् प्रयम काण्डं तस्य य उपरितन चरमान्तस्तदपेक्षया एतस्य अधस्तनश्वरमान्त एतयोरन्तरं कियद् योजनप्रमाणमवाधया कथितमिति प्रश्नः, भगवानाह'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'एक जोएणसहस्सं अबाधाए अंतरे पन्नत्ते' एकं योजन महस्रमवाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम्, खरकाण्ड विभागभूतानां चरिमंते' नीचे के चरमान्त तक 'एस ण केवयं अवाहाए अंतरे पण्णत्ते' कितना अन्तर कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा। एक जोयणसहस्सं प्रवाहाए अंतरे पण्णत्ते' हे गौतम ! रत्नप्रभा पृथिवी के उपरितन चश्मान्त से रत्न काण्ड के नीचे के चरमान्त तक एक हजार योजन का अन्तर कहा गया है क्योंकि खरकाण्ड के विभाग भूत रस्नकाण्डादि सोलहों काण्ड प्रत्येक एक एक हजार का होता है। 'इमीसे ण भंते ! रयणप्पभा पुढवीए उवरिल्लाओ चरिमंताओ वहरस्स कंडस्त उवरिल्ले चरिमंते एसण केवड्यं अयाधाए अंतरे पण्णत्ते' हे भदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी का जो उपरितन चरमान्त है उससे द्वितीय धज्रकाण्ड के उपरितन चरमान्त तक कितना अन्तर कहा गया है? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! एक जोयणसहस्त अषाधाए अंतरे पण्णत्ते' हे गौतम ! रत्नप्रभा पृथिवी के उपरितन चरमानत से २९४i3ना 'हेठिल्ले चरिमते' नायना यारभत सुधी 'एवणं केवइय अबाहाए मंतरे पण्णत्त' र मत२ उपमा मावस छ १ मा प्रशन उत्तरमा प्रभु गीतमाभान ४ छे , 'गोयमा ! एक जोयणसहस्स अबाहाए तरे पण्णत्त' 8 गीतम! २त्नप्रभा पृथ्वीना 6५२ना २२मान्तथी २त्नांनी नीयता ચરમાન્ત સુધીમાં એક હજાર યોજનાનું અંતર કહેવામાં આવેલ છે. કેમકે બરકાંડના વિભાગ રૂ૫ રતનકાંડ વિગેરે ૧૬ સોળે કાંડે કે જે દરેક એક એક હજાર એજનના હોય છે.
'इमीसे ण भंते ! रयणप्पभा पुढवीए उवरिल्लाओं चरिमंताओ वइरस्स कंडस्म उवरिल्ले चरिमते एलणं केवइय अबाधाए अंतरे पन्नत्ते सन् ! २त्नप्रमा पृथ्वीना જે ઉપરિતન ચરમત છે. તેનાથી બીજા વાકાંડના ઉપરિતન ચરમાંત સુધી કેટલું અંતર કહેવામાં આવેલ છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે 'गोयमा! एक जोयणसहस्स सषाधीए अतरे पण्णत्ते' हे गौतम! २ना जाना
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र. ३ सू.१० प्रतिपृथिव्याः उपर्यधस्तनचंर मान्तयोरन्तरम् ११७ रस्नकाण्डादीनां षोडशानामपि प्रत्येक मेकसहस्त्रयोजन प्रमाणत्वात् । 'मीसेणं भंते' एतस्थाः खलु भदन्त ! ' रयणप्पभाए पुढवीए' रत्नप्रमायाः पृथिव्याः 'उवरिल्ला ओ चरिमंताओं' उपरितनात् चरमान्तात् 'वइरस्स फंडस्स' वज्रस्यवज्रनामक द्वितीयकाण्डस्य 'उरिल्ले चरिमंते' उपरितन वरमान्तः 'एस णं' एव रखल 'केवइयं अवादाए' कियद् अवाधया 'अंतरे पनचे' अन्तरं व्यवधानं मज्ञ प्तम्, रत्नप्रभा पृथिव्या रत्नकाण्डस्य प्रथमस्य य उपरितन वरमान्तस्तदपेक्षया एतस्या एव पृथिव्याद्वितीयस्य वज्रकाण्डस्य य उपरितनो भागः एतयोः कियद अन्तरमिति प्रश्नः भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयथा' हे गौतम! एक्कंजोयणसहस्से अबाहार अंतरे पन्नत्ते' एकं योजनसहस्रमबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तमिति, रत्नकाण्डाधस्तनचरमान्तस्य वज्रकाण्डोपरितनचरमान्तस्य च परस्पर संलग्नतया उभयत्रापि तुल्यप्रमाणत्वादिति । 'इमी से णं भंते! रयणष्पभा पुढवीए' एतस्याः खलु भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्याः 'उपरिल्लाओ चरिमंताओ' उपरितनात् चरमान्तात् ' वइरस्स कंडस्स हेठिल्ले चरिमंते' वजकाण्डस्याधस्तन श्वरमान्तः 'एस णं' एतत्स्वल 'केवइयं अवादाए अंतरे पन्नत्ते' कियत् अबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तुम् रत्नकाण्डस्योपरितनश्चरमान्त वज्रकाण्डस्याधस्तनश्चरमान्तयोरन्तराले कियद् योजनममाणमन्तरं विद्यते इति प्रश्नः भगवानाह - 'जोयम । ' इत्यादि, गोयमा' हे गौतम | 'दो जोयणसहस्साई अवाहाए अंतरे पत्ते' द्वे योजनसह अवाधवा अन्तरं प्रज्ञम् रत्नकाण्डस्योपरितनचर मान्तात् वज्रकाण्डद्वितीय वज्रकाण्ड के उपरितन तक एक हजार योजन का अन्तर कहा गया है । 'हमी से णं भंते ! रयणप्पभा पुढवीए'. हे भदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी के 'उवरिलाभो चरिमंताओ' उपरितन चरमान्त से 'वहरस्स कंडस्स हेठिल्ले चरिमंते' वज्रकाण्ड का जो अधस्तन चरमान्त है वहां तक कितना अन्तर कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं'गोयमा ! दो जोगणसहस्साई अबाधाएं अंतरे पन्नत्ते' हे गौतम ! रत्नप्रभा पृथिवी के उपरितन चरमान्त से वज्रकाण्ड के अधस्तन चरमान्त ઉપરના ચરમાન્ડ સુધીમાં એક હજાર ચેાજનનુ' અતર કહેવામા આવેલ છે. 'इमी से णं भंते! रयणपनाए पुढवीए' हे भगवन् मा रत्नला पृथ्वीना 'उवरिल्लाओ चरिमंता मॉ' २' थरनांतयी 'बइरस हेट्ठिल्ले चरमते, वडा ने अत्रस्तन ચરમાન્ત છે, ત્યા સુધીમાં કેટલુ' અંતર કહેવામાં આવેલ છે. આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ गौतमस्वामीने हे हे हे 'गोयमा ! दो जोयणसहस्साई अबाधाए अंतरे पन्नते' ગૌતમ રત્નપ્રભા પૃથ્વીનાં ઉપરના ચરમાન્તથી વાકાંડના નીચેના ચરમાંત સુધીમાં
•
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमस्टे स्थावस्तन वरमान्तयोमध्ये द्विसहस्रयोजनस्यान्तरं भवति, प्रत्येककाण्डस्यैकसहस्रयोजनप्रमाणत्वेन द्वयोः काण्डयोद्विसहस्त्रयोजन सद्भावात् । एवं प्रतिकाण्डे दो-दो आलापको वक्त०ौ, काण्डस्याधस्तनचरमान्ने चिन्त्यमाने प्रत्येकस्मिन् योजनसहस्त्र वृद्धिः करणीया, यावद्रिक्तकाण्डस्याधस्तनचरमान्ते चिन्त्यमाने पोडश योजनसहस्राणि अबाधयाऽन्तरं प्रज्ञप्तमिति स्तरमेव सूत्रकारो वक्ष्यति, देव दर्श
यति-'एवं जाब रिद्वस्त उपरिल्ले चरिमंते पनरमजोयणसहस्साई एवं यावद्विष्टका __ण्डस्योपरितने चरमान्ते रत्नकाण्डस्योपरितनात् चरमान्तात् रत्नकाण्डस्योपरितनाद तक दो हजार योजन का अन्तर कहा गया है। अर्थात् रत्नकाण्ड के उपरितन चरमान्त से वन काण्ड के अधस्तन तक यीच में दो हजार योजन का अन्तर है। क्योंकि प्रत्येक काण्ड का एक एक हजार योजन का प्रमाण होने से दो काण्डों का दो हजार योजन हो जाते हैं इम तरह हर एक काण्ड में दो दो आलापक कह लेना चाहिये जब काण्ड के अधस्तन चरमान्त का विचार हो तो वहां एक एक हजार योजन की वृद्धि कर लेनी चाहिये इस तरह अन्तिम जो सोलहवां रिष्टकाण्ड है उसके अधस्तन चरमान्त का जय विचार आता है तो घहां सोलह हजार योजन की वृद्धि करने में आ जाती है, अतः जब रिष्टकाण्ड का अधस्तन चरमान्त का विचार होता है तो वहां पर सोलह हजार योजन का अन्तर आ जाता है। इस बात को सूत्रकार स्वयं स्पष्ट करते हैं-'एवं जाव रिट्ठर उवरिल्ले चरिमंते पारस जोयश सहस्लाई' इसी तरह रत्नकाण्ड के उपरितन चस्मान्त से रिष्ट વચમાં બે હજાર એજનનું અંતર કહે છે કેમકે દરેક કાંડ એક એક હજાર
જન પ્રમાણ હેવ થી બે કાંડેનું અંતર બે હજાર એજનનું થઈ જાય છે. આ રીતે દરેક કાડેનું અંતર બે હજાર એજનનું થઈ જાય છેઆ રીતે દરેક કડેમાં બબે આલાપકે કહેવા જોઈએ જ્યારે કાંડને અસ્તન ચરમતને વિચાર કરવાનું હોય તો ત્યાં એક એક હજાર એજનની વૃદ્ધિ કરી લેવી જોઈએ. આ રીતે છે જે સોળમે રિઝકાંડ છે, તેના અધસ્તન ચરમતને જ્યારે વિચાર કરવામાં આવે છે તે ત્યાં સોળ હજાર જનની વૃદ્ધિ કરવામાં આવે છે. તેથી જયારે રિટકાંડના અધસ્તન ચરમાંતને વિચાર કરવામાં આવે ત્યારે ત્યાં સોળ હજાર જનનું અંતર આવી જાય છે. આ વાત સ્વયં सूत्र२ २५०४ ४२ छे. 'एव जाब रिद्वास उपरिल्ले चरिमते पन्नरसजोयण 'सहस्वाइ' मा रीते. २is 6५२ना यरमांतथी रिट'उनी ५२ना २२मांत
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेगद्योतिका टीका प्र.३ ७.१० प्रतिपृथिव्या: उपर्यधस्तनचरमान्तयोरन्तरम् १९९ घरमान्ताव पञ्चदशयोजन सहस्त्राणि अन्तरं भवति, 'हे ठल्ले चरिमंते सोळसजोयण सहस्साई' रत्नकाण्डस्योपरितनचरमान्ताद रिष्टकाण्डस्य योऽधस्तनश्वरमान्तस्तयोमध्ये षोडशयोजनसहनमन्तरं भवतीति । अयं भावः रत्नममायां त्रीणि खरकाण्ड पङ्काहुल काण्डाकाण्डानि कथितानि तत्र प्रथमे खरकाण्डे पोडशान्तरकाण्डानि रत्न १ बज २ वैडूर्य ३ लोहिताक्ष ४ मसारगल्ल ५ हंसगर्भ६ पुलक७ सौगन्धिक ८ ज्योतीरसा ९ जना १० अनपुलक ११ रजत १२ जात १३ रूपाङ्क १४ स्फटिक १५ रिष्ट १६ रत्ननामकानि कथितानि, तत्र रत्नपभायाः खाकाण्डस्योपरितनचरमान्तात् रत्नकाण्डस्याधस्तनचरमान्ते वनकाण्ड काण्ड का उपरितन चरमान्त तक पन्द्रह हजार योजना अन्तर होता है 'हेटिल्ले चरिमंते सोलस जोयणसहस्साह और रत्नकाण्ड के उपरितन घरमान्त से रिष्टकाण्ड का जो अधस्तन चरमान्त है वहां तक सोलह हजार योजन का अन्तर हो जाता है । तात्पर्य यह हैरस्नप्रभा पृथिवी में तीन काण्ड हैं-(१) खरकाण्ड (२) पङ्कबहुलकाण्ड
और (३) अब्बहुलकाण्ड-जलकाण्ड पहिले खर काण्ड में सोलह अवान्तर काण्ड हैं-इनके नाम ये हैं-रत्नकाण्ड १, वज्रकाण्ड २, वैडूर्यकाण्ड ३, लोहिताक्षकाण्ड ४, मसार-गल्ल काण्ड ५, हंसगर्भकाण्ड ६, पुलककाण्ड ७, सौगन्धिकाण्ड ८, ज्योतिरसकाण्ड ९, अञ्जनकाण्ड १०, पुलककाण्ड ११, रजतकाण्ड १२, जातरूपकाण्ड १३, अङ्ककाण्ड १४, स्फटिककाण्ड १५, और सोलहवां रिष्टकाण्ड १६ । इनमें रत्नप्रभा के खरकाण्ड के उपरितन चरमान्त से रत्न काण्ड के अधस्तन वरमान्त सुधी ५१२ १२ योशनतुं मत२ थाय छे. 'हे ढिल्ले चरिमते सोलस जोयणसहस्साई भने २४i3ना ५२न। यभातथी रिट isना ? मरतन नायना ચરમાંત છે, ત્યાં સુધીમાં સોળ હજાર રોજનનું અંતર થઈ જાય છે.
કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે ઉત્નપ્રભા પૃથ્વીમાં ત્રણ કાંડા આવેલા છે. બરકાંડ (૧) પંકબહુલકાંડ (૨) અબહુલકાંડ (૩) પહેલા ખરકાંડમાં બીજા સોળ અવાંતર કાંડ આવેલા છે. તેના નામે આ નીચે પ્રમાણે છે રત્નકાંડ (1) taxis (२) वैय°४i3 (3) alsilasis (४) मसाRAxis (५) स. समi3 (6) Ja४is (७) सौगघिis (८) न्ये २४४i3 (6) Artis (१०) ५३४is (११) २४dxis (१२)०11३५४४ (१3) Axis (१४) २६.2 કાંડ (૧૫) અને સેળભે રિષ્ણકાંડ (૧૬) આમાં રત્નપ્રભા પૃથ્વીના બરકાંડના પરિતનું અર્થાત્ ઉપરના ચમાન્તથી રત્નકાંડના અધસ્તન ચરમાન્તમાં અને
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमसूत्रे Fatafatened च एकयोजन सहस्रस्यान्तरं भवति, रत्नप्रमाया उपरितन चरमान्तात् द्वितीयस्य वज्रकाण्डस्याधरततचरमान्ते योजन सहस्त्रद्वयस्यान्तरं भवति, ततो रत्नभाया उपरितन चरमान्तात् वेड नामक तृतीय काण्डस्यास्वनवरमान्ते त्रियोजनसहस्रान्तरं भवति, एवं प्रत्येकस्मिन् काण्डे अधोऽधवरमान्ते वर्तमाने एकैकस्य योजनसहस्रस्य वृद्धि कर्त्तव्या, ततश्व तृतीय काण्डस्थास्तने चरमान्ते रत्नभाया उपरितनचरमान्तात् योजनसहस्रत्रयस्यान्तरं चतुर्थaferentण्डस्य अधरतने चरमान्ते योजनसहस्र चतुष्टयस्यान्तरं भवति एवं क्रमेण एकैकवृद्धया अन्तिमे पोडशे रिष्टकाण्डे उपरिचरमान्ते पञ्चदशयोजन सहस्रस्यास्तचरमान्ते च षोडशयोजन सहस्रस्यान्तरं भवति । एषां खरकाण्ड विभागरूपाणां रत्नादिरिष्ट पर्यन्तानां षोडशानामपि काण्डानां प्रत्येकस्यैकैक
१२०
1
और वज्राण्ड के उपरितन चरमान्त में एक हजार योजन का अन्तर है, रत्नप्रभा के उपरितन चरमान्त से द्वितीय वज्रकाण्ड के अधस्तन घरमान में दो हजार योजन का अन्तर है रत्नप्रभा के उपरितन चरमान्त से वैडूर्य नामके तृतीय काण्ड के अवस्तन चरमान्त में तीन हजार योजन का अन्तर है इस तरह नीचे नीचे रहे हुए प्रत्येक काण्ड में एक २ हजार योजन की वृद्धि करनी चाहिये तृतीय काण्ड के अध स्तन चरान्त में रत्नप्रभा के उपरितन चरमान्त से तीन हजार योजन का अन्तर है। चतुर्थ लोहिताक्षकाण्ड के अधस्तन चरमान्त में चार हजार योजन का अन्तर है इस क्रम से एक २, की वृद्धि करते २, अन्तिम रिष्टकाण्ड के उपरिनन चरमान्त में पन्द्रह हजार योजन का अन्तर आ जाता है और इसके अधस्तन चरमान्त में सोलह हजार का अन्तर आ जाता है । क्योंकि इन खरकाण्ड के विभाग रूप रत्नकाण्ड વાકાંડના ઉપરના ચરમાંતમાં એક હજાર ચૈાજનનું અંતર છે. રત્નપ્રભા પૃથ્વીના ઉપરિતન નામ ઉપરના ચરમાંતથી વૈદ્ન નામના ત્રીજા કાંઠના અધરતન ચરમાંતમાં ત્રણ હજાર ચેાજનનું અવતર કહ્યુ છે. આ રીતે નીચે નીચે રહેલા દરેક કાંડમાં એક એક હજાર ચૈાજની વૃદ્ધી કરવી જોઇએ ત્રીજા કાંડનાં અધતન ચરમાંતમાં રત્નપ્રભાના ઉપરિતન ચરમાંતથી ત્રણ હજાર ચેાજનનું અંતર છે. ચેથા લેાહિતાક્ષક'ડના અધસ્તન ચરમાંતમાં ચાર હજાર ચેાજનનું અંતર છે. મા ક્રમથી એક એકને વધારતા વધારતા છેલ્લા કાંડના ઉપરના નીચેના ચરમાંતમાં પંદર હજાર ચેાજનતું અંતર અવી જાય છે અને તેની નીચેના ચર્માંતમાં સાળ હજારનું અંતર આવી જાય છે. કેમકે આ ખરકાંડના વિભાગ
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र. ३ सू.१० प्रतिपृथिव्याः उपर्यधस्तनच रमान्तयोरन्तरम् १२१ सहस्रयोजनप्रमाणत्वात् ।
तदेवं रत्नप्रमायाः पृथिवयाः प्रथमस्य खरकाण्डस्य रत्नकाण्डादि रिष्टकाण्डान्त षोडश विभागयुतस्य परस्ारमन्दरं दर्शयित्वा रत्नप्रभापृथिष्या उपरितनचरमान्तात् तदीयद्वितीय पङ्कबहुलकाण्डस्य अन्तरं दर्शयितुमाह - 'इमी से णं' इत्यादि, 'इमी से णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए' एतस्याः खलु भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्याः 'उरिल्लाओ चरिमंताओ' उपरितनात् चरमान्तात् 'पिंक'बहुलास कंडस्स' पङ्कबहुलनामक द्वितीयकाण्डस्य 'उवरिल्ले चरिमंते' उपरितने रमा 'एस के इयं अवादाए अंरे पश्नत्ते' एतत्खलु कियत् अवाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम् रत्नममाया उपरितनश्चरमान्तः एवं पङ्कवहुलकाण्डस्य उपरितनश्चरमान्तः एतयोर्मध्ये कियद योज नकमन्तरं भवतीति प्रश्नः भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, से रिटकाण्ड पर्यन्त सोलहों काण्डों में प्रत्येक काण्ड एक एक हजार योजन का होता है।
इस प्रकार रत्नप्रभा पृथिवी का जो खरकाण्ड है जिसके रत्नकाण्डे आदि के भेद से सोलह अवान्तर भेद हैं उनका आपस में यह अन्तर प्रकट किया अब रत्नप्रभा पृथिवी का जो द्वितीय काण्ड पङ्गबहुलकण्डे है उसका अन्तर प्रकट करते हैं - इसमें गौतम ने प्रभु से ऐसा पूछा 'इभी से णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए उवरिल्लाओ चरिमंताओ पंक बहुल्लस्स कंडस्स उवरिल्ले चरिमंते एसणं केवइए अषाहाए अंतरे पनसे' हे भदन्न ! इस रत्नप्रभा पृथिवी के उपरितन चरमान्त से पङ्कबहुलकाण्ड का जो उपरितन चरमान्त है उनमें कितना अन्तर है ? રૂપ રત્નકાંડથી વિષ્ણુ કાંડ પન્ત સાળે કાંડામાં દરેક કાંડા એક એક હજાર ચેાજનના છે.
આ રીતે રત્નપ્રમા પૃથ્વીના જે ખરકાંડ છે, કે જેના રત્નકાંડ વિગેરે ભેદથી સેાળ અવાન્તર ભેદે છે. તેઓનુ પરસ્પરમાં આ અંતર પ્રગટ કરીને હવે રત્નપ્રભા પૃથ્વીને જે ‘પ‘કમહુલ’ નામના બીજે કંઠ છે, તેનુ અંતર પ્રગટ કરે છે. આ સમધમાં ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુને એવું પૂછ્યું છે કે 'इमी से णं भते ! रयणप्पभाए पुढवीए उवरिल्लाओं चरिमंताओ पंकबहुलास उवरिल्ले वरिमते एस णं केवइए अब हाए अंतरे पन्नत्ते' हे भगवन् मा રત્નપ્રભા પૃથ્વીને ઉપરિતન નામ ઉપરના ચરમાંતથી પંક અહુલકાંડની ઉપરના જે ચરમાંત છે, તેમાં કેટલુ અ ́તર કહ્યું છે? આ બેઉની વચમા કેટલુ અંતર આવેલુ' છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે
मी० १६
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२२
जीवाभिगमसूत्रे
'गोयमा' हे गौतम! 'सोलस जोयणसदस्साई अदए अंरे पत्ते' पोडशयोजन सहस्राणि अवाया अन्धरं व्यवधानं पज्ञतम् । खरकाण्डस्यान्तिमं विभागकाण्डं रिष्टरत्नकाण्डं तस्यावस्वनचरमान्त रत्नप्रभोपरितनचर मान्तात् पोडशयोजन सहस्रान्तरेण कथितः रिष्टकाण्डाऽधस्वन चरमान्व पङ्कबलोपरितन चरमान्तौ परस्परं संलग्न अत उभयोरपि तुल्यप्रमाणमेवान्तरं भवतीति । 'हेठिल्ले घरिमंते एक्कं जोयणसयसहस्स' रत्नममाया उपरितनात् चरमान्तात् पङ्कत्रहुलस्याधस्तनश्वरमान्तः एकं योजनशतसहस्रम् रत्नममोपरिचरमान्तात् पङ्कवहुलकाण्डस्याधस्तनचरमान्त एक योजना सहस्रमन्तरं भवतीति ज्ञातव्यम् । यतो
'गोयमा ! सोलस जोयणसरस्साई भवाहाए अंतरे पन्नत्ते' हे गौतम! इन दोनों के बीच में सोलह हजार का अन्तर है । खरकाण्ड का अन्तिम काण्ड रिष्ट रत्नकाण्ड है इसके अधस्तन चरमान्त में रत्नप्रभा के उपरितन चरमान्त से सोलह हजार योजन का अन्तर कहा गया है। क्योकि रिष्ट रत्नकाण्ड का अधस्तन चरमान्त और पहल का उपरितन चरमान्त ये दोनों आपस में लगे हुए हैं - मिले हुए है। इसलिये दोनों में बराबर अन्तर है । 'हेडिल्ले चरिमंते एक्कं जोयण सपसहस्सं' रत्नप्रभा के उपरितन चरमान्त से पङ्गचहुल का जो अधस्तन चरमान्त है वह एक लाख योजन के अन्तर का है। अर्थात् रत्नप्रभा के उपरितन चरमान्त से पङ्कवहुलकाण्ड का अवस्तन चरमान्त एक लाख योजन के अन्तर वाला है। क्योंकि रत्नप्रभा पृथिवी का खरकाण्ड सोलह हजार १६००० योजन का है और पङ्कचहुलकाण्ड चौरासी
'गोयमा ! सोलस सहरसाई अबहाए अंतरे पन्नत्ते' हे गौतम! आमन्नेनी વચમાં સેાળ હજાર ચેાજનનું અંતર આવેલું છે. ખરકાંડને છેલ્લે કાંડ ષ્ટિકાંઠ છે. તેના અધસ્તન ચરમાંતમાં રત્નપ્રભા પૃથ્વીના ઉપરના ચરમાંતથી સેાળ હજાર ચાજનનું અંતર કહેલ છે. કેમકે ષ્ટિકાંડનુ અધસ્તન ચરમાંત અને પંક મહુલનું ઉપરિતન ચરમાંત આ એક પરસ્પરમાં લાગેલા છે. અર્થાત્ મળેલા छे. तेथी मे मेऽभां मराभर अंतर खावेलु छे, 'हेट्ठिल्ले चरिमंते एक जोयण सय सहसं' રત્નપ્રભા પૃથ્વીના ઉપરના ચરમાંતથી પ ક બહુલકાંડનુ જે અધસ્તન નીચેનુ ચરમાંત છે, એ એક લાખાજનના 'તરનું' છે. અર્થાત્ રત્નપ્રભાના ઉપરના ચરમાંતથી પંક બહુલકાંડનું અધસ્તન ચરમાંત
એક લાખ ચેાજનના અંતરવાળુ છે. કેમકે રત્નપ્રભા પૃથ્વીનેા પ્રકાંડ ૧૬૦૦૦૬
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३.१० प्रतिपृथिव्याः उपर्यधस्तनचर मान्तयोरन्तरम् १२३ रत्नप्रभा पृथिव्याः खरकाण्डं षोडशसहस्त्र योजनपरिमितम् (१६०० ) पङ्कबहुलकाण्डं च चतुरशीतिसहस्र (८४००० योजन परिमितमिति द्वयोर्मोलने भवति - एकं योजनशतसहस्रमिति । 'आवबहुलस्स उवरिल्ले चरिमंते एक्कं जोयण सय सदस्सं' एतस्या एव रत्नप्रभायाः अब्बहुलस्य तृतीयकाण्डस्योपरितनश्चरमान्तः रत्नप्रभाया उपरितन चरमान्तात् एकं योजनशतसहस्रमन्तरं भवति, यतः पङ्कक्हुलकाण्डस्याधस्तन चरमान्तः, अब्बहुलकाण्डस्योपरितनचरमान्तश्थ, एतौ द्वौ चरमान्तौ पर - स्परं संलग्न, अतएव द्वौ तुल्यप्रमाणौ विज्ञेयौ । 'हेठिल्ले चरिमंते असीह उत्तरं जोयण सय सहस्स' अन्बहुलस्याधस्तनचरमान्तः रत्नममाया उपरितनचरमा - न्वात् अशीत्युत्तरं योजनशतसहस्रम् अशीतिसहस्र योजनोत्तरमेक लक्षयोजनमन्तरं हजार ८४००० योजन का है, इन दोनों को मिलाने से एक लाख योजन हो जाते हैं । 'आवबहुलस्स उवरिल्ले चरिमंते एक्कं जोषण सय सहस्लं' इस्सी रत्नप्रभा के अब्बहुल तृतीय काण्ड का जो उपरितन वरमान्त है वह रत्नप्रभा के उपरितन चरमान्त से एक लाख योजन के अन्तर में हैं ।
इसीलिये अञ्चल तृतीय काण्ड के उपरितन चरमान्त से रत्न - प्रभा के उपरितन चरमान्त तक एक लाख योजन का अन्तर कहा गया क्योंकि पंकबहुल का नीचे का और अप्रूवल का उपर का चरमान्त परस्पर संलग्न मिले हुए हैं इसलिये दोनों तुल्य प्रमाण वाला है । 'है. द्विल्ले चरिमंते असी उत्तरं जोयण सघसहस्से' अन्बहुल काण्ड का जो अधस्तन चरमान्त है यह रत्नप्रभा के उपरितन चरमान्तं से एक लाख अस्सी हजार योजन का अन्तर कहा गया है रत्नप्रभा पृथिवी
સાળ હજાર ચેાજનનેા છે. અને પંક બહુલકાડ ૮૪૦૦૦, ચાર્યાશી હજાર योगनने। छे. या येउने भेजववाथी को साथ योजन था लय छे. 'आव बहुलस्स उवरिल्ले चरिमते एकं जोयणसयसहस्स' मा रत्नअला पृथ्वीना અમહુલકાંડ કે જે ત્રીજો કાંડ છે, તેને જે ઉપરને ચરમાંત છે, તે રત્નપ્રભા ના ઉપરના ચરમાંતથી એક લાખ ચેાજનના અ ંતરમાં છે. તેથીજ અખ્ખહુલ નામના ત્રીજા ક્રાંડના ઉપરના ચશ્માંતથી રત્નપ્રભા પૃથ્વીના ઉપરના ચરમાંત સુધી એક લાખ ચેાજનનું અંતર કહેવામાં આવેલ છે. કેમકે પાક અહુલની નીચેના અને અબ્બહુલકાંડની ઉપરના ચરમાંત અન્યાન્ય મળેલા હાય છે. તેથી ते भन्ने समान प्रभानुवाणा छे. 'हेट्ठिल्ले चरिमते ! असीइउत्तर जोयण प्रथमहस्स' असठांडना ने अधस्तन शुभांत छे, ते रत्नपला पृथ्वीना ઉપરના ચરમાંતથી એક લાખ એંસી હજાર ચાજનના અ'તરવાળા કહેલ છે,
XE
+
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवाभिगमने
भवति, परिपूर्ण रत्नप्रभा पृथिव्या एतावत्प्रमाणवादल्यवत्वात् ।
अयं भावः-रत्नप्रभा पृथिव्याः परिपूर्णः पिंड:-अशीतिसहस्र योजनोपरक शतसहस्र (१८००००) परिमितो भवति, अत्र रत्नप्रभा पृथिव्यां त्रीणि काण्डानि खरकाण्डं-पङ्कबहुळकाण्डम्-अब्बहुलकाण्डं चेति, काण्डत्रयरूपा रनममा पृथिवी भवति, तत्र प्रथमं खरकाण्डम् पोडशसहस्रयोजनपरिमितम् १६००० पङ्कबहुलकाण्डम् चतुरशीतिसहस्रयोजनपरिमितम् ८४०००' अब्बहुळकाण्डं चअशीतिसहस्रयोजनपरिमितम् ८००००, एपां त्रयाणां मीलने-१६०००+ ८४०००+८००००=१८००००, भवति-अशीतिसहस्र योजनोत्तरमेकं शतसहसं रत्नप्रभा पृथिव्याः पिण्ड इति । एतस्या एव रत्नमभाया उपरितनचरमान्तात् 'घणोदहिस्स उवरिल्ले चरिमंते असीइ उत्तर जोयणमयसहस्सं' घनोदधेरुपरितन को पिण्ड एक लाख अस्सी हजार योजन का है इसीलिये यहां इतना अन्तर प्रकट किया गया है। यहां तात्पर्य ऐसा है-रत्नप्रभा पृथिवी का परिपूर्ण पिण्डपाहल्य एक लाख अस्प्ती हजार योजन का होता है। इस रत्नप्रभा पृथिवी में तीन काण्ड हैं-एक खरकाण्ड १ दूसरा पङ्क बहुलकाण्ड २ और तीसरा अध्यहुलकाण्ड है ३। अर्थात् रत्नप्रभा पृथिवी तीन काण्ड रूप है। उन तीन काण्डों में पहला खरकाण्ड है वह सोलह हजार १६००० योजन का है १ । दूसरा पंकयठुलकाण्ड चौरासी हजार ८४००० योजन का है २ । और तीसरा अषबहुल काण्ड अस्सी हजार ८०००० योजन का है ३। इन तीनों को मिलाने पर-१६००८+८४००+८००००=१८०००० एक लाख अस्सी हजार રત્નપ્રભા પૃથ્વીને પીંડ એક લાખ એંસી હજાર યોજન છે. તેથી અહિયાં से मत२ प्रगट यु छे.
આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે રત્નપ્રભા પૃથ્વીનું પરિપૂર્ણ પિંડ, બાહલ્ય એક લાખ એંસી હજાર એજનનું થાય છે. આ રત્નપ્રભા પૃથ્વીમાં वर ४ भावना छे. तभा पहो। म२४७, १, भीन्न ५ मईasis (२). અને ત્રીજો અહુલ કાંડ છે. (૩) અર્થાત્ રત્નપ્રભા પૃથ્વી ત્રણ કાંડ રૂપે છે. એ ત્રણ કાંડમાં પહેલે જે ખરકાંડ છે, તે ૧૬૦૦૦ સોળ હજાર,
જનને કહ્યો છે (૧) બીજે પંકબહુલકાંડ ૮૪૦૦૦ ચેર્યાશી હજાર જનને છે. (૨) અને ત્રીજે જે અમ્બલ કાંડ છે તે ૮૦૦૦૦ એંસી હજાર જનन छ. (3) मा ऋोयने मेणवतi १६०००-८४०००, यायांशी M२ सन ૮૦૦૦૦ એંસી હજારને મેળવતાં ૧૮૦૦૦૦ એક લાખ એંસી હજારનું રત્નપ્રભા ૫થ્વીનું બાહલ્ય પિંડ થઈ જાય છે,
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योति का टीका प्र.३ ३.१० प्रति पृथिया: उधतनेचरमान्तयोरन्तरम् १२५ श्वरमान्तः, अशीतिसहस्रयोजनोत्तरेकयोजनशतसहस्रमन्तरं भवति, अब्बहुलकाण्डाधस्तनचरमान्तस्य घनोदपुपरितनचरमान्तस्य च परस्परं संलग्नतया उभयत्रापि तुल्यममाणत्वादिति । 'हेठिल्ले चरिमंते दो जोयण सयसहस्साई' घनोदधेरधस्तनचरमान्त:-रत्नप्रभोपरितनचरमान्तात् द्वे योजनशतसहस्रे लक्ष द्वययोजनमन्तरं भवति । घनोदधेविंशतिसहस्रयोजनप्रमाणत्वात् । अयं माव:अशीतिसहस्रयोजनोत्तरैकशतसहस्त्र (१८००००) योजनप्रमिते रत्नप्रभा पृथिवी बाहल्यं धनोदधेविंशतिसहस्रयोजनानां (२००००) संमेलने भवतः द्वे योजनशतसहस्रे, इतो रत्नप्रभा पृथिव्या उपरितनचरमान्तात् घनोदधेरधस्तन चरमान्तस्य का रत्नममा पृथिवी का बाहल्य-पिण्ड हो जाता है । 'घणोदहिस्स उवरिल्ले चरिमंते असीइ उत्तर जोयणसयसहस्सं' रत्नप्रभा के उपरितन घरमान्त से घनोदधि के उपरितन चरमान्त भी एक लाख अस्सी हजार योजन का अन्तर वाला है क्योंकि अब्बलकाण्ड का जो अधस्तन चरमान्त है वह और घनोदधि का जो उपरितन चरमान्त है वह आपस में मिले हुए हैं इस कारण इनमें आपस में अन्तर आता नहीं है। 'हेहिल्ले चरिमंते दो जोयणसयसहस्सं घनोदधि बलय का जो अधस्तन चरमान्त रत्नप्रभा के उपरितन चरमान्त इन दोनों में दो लाख योजन का अन्तर है क्योंकि घनोदधि का प्रमाण बीस हजार योजन का होता है। तात्पर्य यह है कि-रत्नप्रभा पृथिवी के एक लाख अस्सी हजार योजन के बाहल्य मे घनोदधि वाहल्य के बीस हजार योजन मिलाने से दो लाख योजन हो जाते है इसलिये रस्नप्रभा के उपरितन चरमान्त से घनोदधि का अधस्तन चरमान्त दो
'घणोदहिस्स उवरिल्ले चरिम ते असीइ उत्तर जोयणसयसहस्सं २(नखानी ઉપરનું ચરમાંત પણ એક લાખ એંસી હજાર એજનન અંતરવાળું છે. કેમકે અમ્બહુલકાંડની નીચેને જે ચરમાંત છે તે અને ઘને દધિની ઉપર જે ચરમાન્ત છે. તે અન્ય મળેલા છે. તે કારણથી તેનામાં અંતર આવતું नथीः 'हेट्रिल्ले. चरिम ते दो जोयणसयसहस्सं' धनाधि पसयन। मस्तन નીચેને ચરમાંત, અને રત્નપ્રભા પૃથ્વીની ઉપરના ચરમાન્ડ આ બંનેમા બે લાખ જનનું અંતર છે.
કહેવાનુ તાત્પર્ય એ છે કે રત્નપ્રભા પૃથ્વીના એક લાખ એંસી હજાર એજનના બાહમાં ઘનોદધિના બાહલ્યના વીસ હજાર જન મેળવતા બે લાખ જન થઈ જાય છે. તેથી રત્નપ્રભા પૃથ્વીના ઉપરના અરમાન્તથી,
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवाभिमस्त्र द्वि शतसहस्न (द्विलक्ष) योजनमन्तरं कथित मिति । बिनोदधेहिल्यं सर्व पृथिवीषु विशतिसहस्रयोजनप्रमितमेव भवतीति बोध्यम् । 'इमीसे णं भंते ! रयण पभाएपुढवीए' एतस्या खलु रत्नपभायाः पृथिव्याः 'उवरिल्लाओ चरिमंताओ' उपरितनाच्चरमान्तात् 'घणवायरस उरिल्ले चरिमंते दो जोयणसहस्साई धनवातस्योपरितने चरमान्ते द्वे योजनशतसहस्रमन्तर कथितम् घनोदध्य. धस्तन चरमान्त घनवातोपरितनचरमान्तयोः परस्पर संलग्नतया उभयत्रापि तुल्पप्रमाणस्य सभावात् 'हेठिल्ले चरिमंते असंखेज्जाई जोयणसयसहस्साई' एतस्यैव घनवातस्याधस्तन श्वरमान्तः असंख्येयानि योजनशतसहस्राणि अन्तरं भवतीति ज्ञातव्यम् । 'इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए' एतस्याः खलु भदन्त ! रत्नमभायाः पृथिव्याः 'उवरिल्लाओ चरिमंताओ' उपरितनाच्चरमान्ताद तणुवायस्स, तनुवातस्य, 'उवरिल्ले चरिमंते' उपरितनश्वरमान्तः 'असंखेज्जाई लाख योजन का कहा गया है। सातों पृथिवियों के घनोदद्धि का बाह. ल्य प्रमाण बील पीस हजार योजन का होता है, ऐसा जानना चाहिये। 'इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए उवरिल्लाओ चरिमंताओ घणवायरस उवरिल्ले चरिमंते दो जोयणसयसहस्साई' रत्नप्रभा पृथिवी के उपरितन घरमान्त ले घन वात के उपरितन चरमान्त तक का अन्तर दो लाख योजन का है क्योंकि घनोदधि का अधस्तन चरमान्त और घनपात का उपरितन चामान्त ये दोनो आपस में मिले हुए हैं अतः इनमें कोई अन्नर नहीं है। 'हेडिल्ले चरिमंत असंखेन्जाइं जायणसयसहस्साई' तथा रत्नप्रभा पृथिवी के उपरितन चरमान्त से घनवान वलय का जो अधस्तन चरमान्त है वहां तक असंख्यात लाख योजनों का अन्तर है। 'इमीसे भंते ! रयणपभाए पुढबीए उवरिल्लाभो चरिमंताओतणुवायस्ल उरिल्ले चरिमंते ઘનોદધિની નીચેનુ અરમાન્ત બે લાખ રોજનનું કહેલ છે સ તે પૃથ્વીના ઘને દધિનુ બાહલ્ય પ્રમાણ વીસ હજાર એજનનુ જ થાય છે. તેમ સમજવું.
'इमीसे णं भंते ! रयणापभाए पुढवीए उवरिल्लाओ चरिमताओ घणयायस्स उबरिल्ले चरिम ते दो जोयणसयसहस्साई' २त्नप्रभा पृथ्वीना ५२ना ચરમાતથી ઘનવાના ચરખાત સુધીનું અતર બે લાખ જનનું છે. કેમકે ઘનોદધિની નીચેનું ચરભાત અને ઘનવાતનું ઉપરનું ચરમાન એ બેક પરસ્પરમાં મળેલા છે. તેથી તેમાં કંઇ પણ અંતર હેતું નથી.
'हेदिल्ले चरिम ते ! असंखेज्जाई जोयणसयसहस्साई तथा मा रत्नप्रभा पीना ઉપરના ચરમાંતી ઘનવાતનું જે નીચેનું ચરમાં છે, ત્યાં સુધી અસંખ્યાત લાખ योगनतुं तर छे, 'इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए उवरिल्लाओ परिमतामो
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र. ३ सू० १० प्रतिपृथिव्याः उपर्यधस्तनचरमान्तयोरन्तरम् १२७ जोयण सय सदस्साई अवाहाए अंतरे पन्नत्ते' असंख्येयानि योजनशतसहस्राणि अवधिया अन्तर' प्रज्ञप्तम् 'हेठिल्ले वि असंखेन्जाई' जोयणसय सहस्लाई तनुवातस्याधस्तनचरमान्तोऽपि असंख्येयानि योजनशतसहस्राणि अन्दर प्रज्ञप्तमिति 'एवं ओवासंतरे वि' एवमवकाशान्तरमपि रत्नप्रभायाः पृथिव्या उपरितनाच्चरमाअसंख्येययोजनशतसह न्वात् अवकाशान्तरस्योपरितनश्चरमान्तः, एतद् स्रमन्तरं भवतीति ॥
प्रथम रत्नप्रभा पृथिवी विषयकमन्तरं प्रतिपाद्य सम्मति द्वितीय शर्कराप्रमादि पृथिवी विषयमन्तरं दर्शयितुमाह - 'दोच्चाए णं' इत्यादि, 'दोच्चारणं भंते' असंखेज्जाई जोयणसयसहस्साह' अबाधाए अंतरे पनन्ते' इस रत्न - प्रभा पृथिवी के उपरितन चरमान्त से तनुवात वलय का जो उपरितन चरमान्त है वहां तक असंख्यात लाख योजनों का अन्तर है. 'हेल्ले वि असंखेज्जाहूं जोयणसय सहस्साई' इसी तरह से सनुचात का जो अधस्तन चरमान्त है वहां तक भी रत्नप्रभा पृथिवी के उपरितन चरमान्त से असंख्यात लाख योजनों का अन्तर है । ' एवं ओवासंतरे वि' इसी तरह से रत्नप्रभा पृथिवी के उपरितन चरमान्त ले रत्नप्रभा पृथिवी सम्बन्धी अवकाशान्तर का जो उपरितन चरमान्त है वहाँ तक असंख्यात लाख योजन का अन्तर है तथा अवकाशान्तर का जो अधस्तन चरमान्त है यहां तक भी असंख्यात लाख योजन का अन्तर है ।
इस तरह प्रथम नारक पृथिवी के घनोदवि आदिकों का अन्तर प्रकट करके अब द्वितीय शर्कराप्रभा पृथिवी का अन्तर सूत्रकार प्रकट
तणुत्रायस उवरिल्ले चरिमते अस खेज्जाई जोयणाय वहस्साई अबाधार अंतरे જન્નત્તે' આ રત્નપ્રભા પૃથ્વીના ચરમાન્તથી તનુવાતવલયનુ જે ઉપરનું' ચરમાન્ત छे, त्यां सुधी अस ंख्यात सा योगननु अंतर हे 'हेट्टिल्ले वि अस खेज्जाहूं जोयणचय सहस्साइ" मेन प्रमाणे तनुवात वसयो ने अधस्तन नीयेनेो यरभान्त છે. ત્યાં સુધી પણ રત્નપ્રભા પૃથ્વીના ઉપરના ચરમાંતથી અસંખ્યાત લાખ
ननुम ंतर छे. ' एवं ओवास तरे वि' से प्रभाषे रत्नप्रभा पृथ्वीना ઉપરના ચરમાન્તથી રત્નપ્રભા સંબધી અવકાશાન્તરનું જે ઉપરનું ચરમાત છે. ત્યાં સુધીમાં અસંખ્યાત લાખ ચૈાજનાનુ અંતર છે તથા અવકાશાન્તરનુ` જે નીચેનું ચરમાંત છે, ત્યાં સુધી પણ અસંખ્યાત લાખ ચેાજનનું અંતર છે. આ રીતે પડેલી નારક પૃથ્વીના ઘનેદધિ વિગેરેનું અંતર મતાવીને હવે ખી શકરપ્રભા પૃથ્વીનું અંતર સૂત્રકાર પ્રગટ કરે છે. આમાં ગૌતમ
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
। १२८
जीवाभिगमस्ये
द्वितीयस्याः शकराममायाः खलु भदन्त ! 'पुढवीए' पथिव्याः 'उवरिल्लाओ चरिमताओ' उपरितनाव चरमान्तात 'हे ठिल्ले चरिमते' अधस्तनश्वरमान्त: 'एस' एतत् खल्ल 'केवई अबाहाए रे पन्नत्ते' कियत अवाधया अन्तर प्राप्तमिति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'बत्तीसुतरं जोयण सयसहस्सं' द्वात्रिंशदुत्तर-द्वात्रिंशत्सहस्राधिकं योजनशतसहस्र-योजनलक्षम् १३२००० 'अवाहाए अतरे पन्नत्त' अवाधण अन्तर प्रज्ञप्तम-कथितम् । शर्करा प्रभा पृथिवी द्वात्रिंशत् सहस्रोत्तरेकलक्षयोजनपरिमिता स्वपिण्डरूपेणाऽन्तीति भावः । 'सक्करप्पभाए पुढवीए उवरिल्लाओ चरिमंताओ' शकममायाः पृथिव्या उपरितनाच्चरमान्ताव 'घणोदहिस्स हेठिल्ले चरिमंते' धनोदधेरधस्तनश्वरमान्तः 'चावण्णुत्तर द्विपञ्चाशत सहस्रोत्तरम्, 'जोयणसयसहस्सं' योजनशतसहस्रम् करते हैं-इममें गौतम ने प्रभु से ऐमा पूछा है-दोच्चारणं भते । पुत. बीए उवरिल्लाओ चरिमंताओ हेडिल्ले चरिमंते एसणं केवयं अंगरे पण्णत्ते' हे भदन्त ! शकराप्रभा नाम की जो द्वितीय पृथिवी है-उसके उपरितन चरमान्त से उमके अधस्तम चरमान्त तक कितना अन्तर है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा । बत्तीसुत्तर जोयणसयमहस्स' हे गौतम ! द्वितीय शकराप्रभा पृथिवी के उपरितन चरमान्त से उसका अधस्तन चरखान्त एक लाख यत्तीस हजार योजन का है क्योंकि शर्कराप्रभा पृथिवी एक लाख बत्तीस हजार योजन के पिण्ड वाली है 'सकरप्पभाए पुढधीए' हे भदन्त ! शकराप्रभा पृथिवी के उपरितन चरमान्त से घनोदधि के नीचे के चरमन्त तक कितना अन्तर है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'सकरप्पभाए पुढवीए उरिल्लाओ चरिमंताओं पाभी प्रभुने मे पूछे छे , 'दोच्चाएणं भते ! पुढवीए उबरिल्लाओ चरिम ताओ हेडिल्ले चरिम ते । एस णं केवइए अबाधाए अतरे पण्णते' मगन् શકરા પ્રભા નામની જે બીજી પ્રવી છે, તેના ઉપરના ચરમાંત સુધી કેટલું भतर ४थु छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभु ४ छ, 'गोयमा ! बत्तीसुचर जोयणसयसहस्स' गौतम ! मी २४२२मा पृथ्वीना ५२ना यरमातथा તેની નીચેનું અરમાન્ત એક લાખ બત્રીસ હજાર જનનું છે. કેમકે શર્કરા प्रमा पृथ्वी से aw मत्री SM२ यातनना पियाजी छे. 'सकरप्पभाए पुढवीए' मगवन् राप्रमा पृथ्वीना ५२ना २२मातथा धनाधिना નીચેના ચરમાંત સુધી કેટલું અંતર કહ્યું છે? ગૌતમસ્વામીના આ પ્રશ્નના उत्तरमा प्रभु ४ छ है 'सक्करप्पभाए पुढवीए उवरिल्लाओ चरिमताभी
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ २.१० प्रतिपृथिव्याः उपर्यधस्तनचरमान्तयोरन्तरम् १२९ 'अबाहाय' अबाधया अन्तर प्रज्ञप्तम् घनोदधेशितिसहस योजनप्रमाणत्वात् । 'घणवायरस असंखेज्जाई जोयणसयसहस्साई पन्नत्ते' शर्करामभोपरितनात् घरमान्तात् घनवातस्याधस्तन श्चमान्तः असंख्येययोजनशतसहस्रमन्तरं प्रज्ञप्तम् । 'एवं जाव उवासंतरस्स वि' एवं यथा-धनवातस्यासंख्येययोजनशतसहस्रपन्तर तथैव शर्क राममाया उपरितनाश्चरमान्तात् तनुवावस्थावकाशान्तरस्य चाधस्तन परमान्तोऽसंख्येययोजनशनसहस्त्रमन्तर भवतीति ज्ञातव्यम् । कियत्पृथिधी पर्यन्तमित्याह-'जाव' इत्यादि । 'जाव अहे सत्तमाए' यावदधः सप्तम्यां अधः सप्तमी पृथिव्याः अन्तरयकरणपर्यन्तमित्यर्थः । ननु एतत्सर्व शर्कराममा घणोदहिस्स हेडिल्ले चरिमंते बावण्णुत्तरं जोषणसयसहस्सं' हे गौतम ! शर्कराप्रभा पृथिवी के उपरितन चरमान्त से घनोदधि का जो अपस्तन घरमान्त है वह एक लाख पावन हजार योजन के अन्तर से है-अर्थात् वहां से यहां तक एक लाख पावन हजार योजन का अन्तर है क्योंकि घनोदधि का प्रमाण बीस हजार योजन का होता है 'घणवायस्स असंखेज्जाई जोयणसयसहस्साई तथा-रत्नप्रभा के उपरितन घरमान्त तक असंख्यात लाख योजन का अन्तर है 'एवं जाव उवा. संतरस्स वि' इसी तरह से शर्कराप्रभा पृथिवी के उपरितन परमान्त से लेकर तनुवात बलय के अधस्तन चरमान्त तक और अव. काशान्तर के अधस्तन चरमान्न तक असंख्यात लाख योजन का अन्त. राल कहना चाहिये कितनी पृथिवी तक कहना चाहिये ? इस पर कहते है-'जाव अहे सत्तमाए' जिस प्रकार शर्करप्रभा के विषय में अन्तर घणोदहिस्स हेदिल्ले चरिम ते बावण्णुत्तरं जोयणसयसहस्स” ले गौतम ! શર્કરપ્રભા પૃથ્વીના ઉપરના ચરમાંતથી ઘોદવિ પૃથ્વીને જે નીચેને ચરમાંત છે, તે એક લાખ બાવન હજાર જનની અંતરે છે અર્થાત્ ત્યાંથી અહિયા સુધીમાં એક લાખ બાવન હજાર એજનનું અંતર છે. કેમકે ઘનેદવિનું प्रभा वास २० M२ ननु छे. 'घणवायत्स असं खेज्जाइं जोयणसयसहस्साई' तथा २नमाना ५२॥ २२मान्त सुधीमा सभ्यात are याननु मत२ छे. 'एव जाव उवासंतरस्म वि' ०४ प्रमाणे शराला પૃથ્વીના ઉપરના ચરમાન્તથી લઈને તનુવાતવલયના નીચેના ચરમાત સુધી અને અવકાશાન્તરની નીચેના ચરમાંત સુધી અસંખ્યાત લાખ જનનું અંતરાલ કહેવું જોઈએ કેટલી પૃથ્વી સુધી તે કહેવું જોઈએ તે બાબતમાં કહે છે કે 'जाव अहे सत्तमाए' २ प्रभारी राई २१ पृथ्वीना समयमा मतनु. ५४२६५
जी. १७
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीयामिगम
१३०
पृथिवी विषयकान्तरमकरणवदेव ज्ञातव्यम् किचिदन्यया वा ? तत्राह - 'नगर' इत्यादि, 'नवर' जीसे जं वाइल्लं तेण वगोदही संबंवेगो बुद्धीए' नवरं यस्याः पृथिव्याः यद्वाल्यं कथितं तेन बाहल्येन घनोदधिः संबन्धरितव्यो बुद्धचा ।
यस्याः पृथिव्या यावत्परिमितं भवति तेन बाहल्येन सह वनोदधि वाहत्य स्य सम्बन्धः स्वयुद्धचा कर्त्तव्यः, यथा - यस्याः पृथिव्या यद् वारल्यं भवति तस्मिन् बाल्ये घनोदधि वाल्यं सर्व पृथिवीगत घनोदधि वाल्यस्व विंशतिसहस्र जनपरिमितत्वेन सर्व पृथिवी वाटल्य घनोदधेविंशतिसहस्रयोजनक वाढल्य प्रक्षेपणीयमिति भावः । तदेव मूत्रकारः स्वयं मदर्शति- 'सक्करप्पमाए' प्रकरण कहा है उसी प्रकार घालुकावा से लेकर अधः सप्तमी पृथिवी पर्यन्त का भी यथोक्त कम से अन्तर जानना चाहिये इस पर प्रश्न होता है कि क्या शर्कराप्रभा के जैसा ही अन्तर कहना चाहिये अथवा कुछ अन्तर से ? इस पर कहते है- 'नवरं जीसेजं पाहल्लं तेण घणोदही संबंध बुद्धीए' यहां अन्तर यह है कि जिस पृथिवी का जितना चाहल्य मोटापन कहा गया है उसमें घनोदधि का बाहल्य मोटापन अपनी बुद्धि से मिला देना चाहिए
अर्थात् जिस पृथिवी का जितना प्रमाण का वाटल्य होता है उसमें घनोदधि का बाल्य जो सब पृथिवियों के घनोदधि का प्रमाण पीस हजार योजन का होता है वह बीस हजार योजन मिला देना चाहिये । किस पृथिवी का घनोदधि सहित कितना कितना प्रमाण है ? इस बात को सूत्रकार कहते हैं- 'सक्क पभाए' इत्यादि ।
કહ્યુ છે, એજ પ્રમાણે વાલુકાપ્રભા પૃથ્વીથી લઇને અધસપ્તમી પૃથ્વી પન્ત નું અંતર પણ પૂર્વોક્ત ક્રમ પ્રમાણે સમજવુ'. આ સંબંધમાં પ્રશ્ન એ ઉપસ્થિત થાય છે કે શુ શરપ્રભા પૃથ્વના અતર પ્રમાણેનું જ અંતર देवानु छे ? ४ ३४ ३२२ छे ? या संधमा सूत्रार 'नजर' जीसे जं बाहल्ल' तेण वर्णोदी संबधेयत्रो बुद्धीए' या संमधभां अंतर २३२ એ છે કે જે પૃથ્વીનું જેટલું. બાહુલ્ય મેટાપણું કહેલ છે, તેમાં ધનાધિનુ બાહુલ્ય મેટાપણુ પોતપોતાની બુદ્ધીથી મેળવી લેવુ' જેઈએ. અર્થાત્ જે પૃથ્વીનું જેટલા પ્રમાણુનુ ખાતુલ્ય થાય છે, તેમાં ઘનેાધિનું બાહુલ્યું કે જે બધી પૃથ્વીાના ધનેાધિનું પ્રમાણ વીસ હજાર ચૈાજનનુ થાય છે. તે વીસ હજાર મેળવી દેવુ જોઇએ. કઈ પૃથ્વીનુ ઘનેાદિષ હિન કેટલુ કેટલું પ્રમાણ हे ? मे संभंधमां सूत्रार स्वयं हे 'सक्कर पभाए' त्यिाहि
3=
ܝܬܒ܂
55
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योंतिका टीका प्र.३ सू.१० प्रतिपृथिव्या उपयधस्तनचरमान्तयोरन्तरम् १३१ इत्यादि । 'सक्करपभाए अणुमारेण घणोदहि सहिताणं इमं पमाणं' शर्करामभाया पृथिव्या अनुसारेण घनोदधि सहितानामिदं प्रमाणमन्तरस्य ज्ञातव्यम् । तदेवाह सूत्रकार:-'बालयप्पमाए' इत्यादि । 'बालुशप्प माए अडयालीसुतरं जोयणसय. सहस्स' बालकाप्रभायाः पृथिव्या घनोदधि सहिताया अष्ट चत्वारिंशत्सहस्रोत्तरं योजनशतसहस्रम् उपरितनाधस्तन चरमान्तयोमध्येऽन्तरम् तथाहि-चालुकापभायां बाहल्यम्-अष्टाविंशति सहस्रोत्तरं योजनश सहस्रम्, तस्मिन् घनोदधेविंशतिसहस्रयोजनानां प्रक्षेपणे भवति धनोदधि सहिताया वालुकाप्रमाया बाहल्यम्भष्टचत्वारिंशत्सहस्रयोजनोत्तरं योजनशत सहस्रंबालुकाममाया उपरितनाच्चरमान्ताद् घनोदधेरधस्तन चरमान्तस्यान्तर प्रमाणमिति ३ अनयैव रीत्या-'पंकप्प
'सकरप्पभाए अणुसारेणं' जिस प्रकार छार्कराप्रभा पृथिवी में कहा है, उसके अनुसार 'घणोदहि सहियाणं' घनोदधि के सहित पालुकामभा से लेकर अधः सप्तमी तक की पृथिवियों का 'इमं पमाणं' यह अन्तर प्रमाण है-उन बालुकाप्रभादि पृथिचियों का अन्तर प्रमाण यहाँ सूत्रकार स्वयं प्रकट करते हैं-'बालुयप्पभाए' इत्यादि । 'बालय प्पभाए अडयालीसुत्तरं जोषणलयमहरले' धनोदधि के पाहल्य सहित तीसरी वालुका प्रभा पृथिवी के उपरितन चरमान्त से घनो दधि के अधस्तन चरमान्त का अन्तर एक लाख अड़तालीस हजार पोजना का है, जैसे बालुका प्रभा का बाहल्य एक लाख अठाईस हजार , पोजन का है उसमें घनोदधि के बाहल्य के बीस हजार योजन मिलाने से घनोदधि सहित बालुका प्रभा का एक लाख अङतालीस हजार योजन का पालुकाप्रभा के ऊपरितन चदमान्त ले घनोदधि के अधस्तन चरमान्त
'सक्कर'पभाए अणुसारेण' २ प्रमाणे शरामा पृथ्वीमा ४ामा मा छ, ते प्रमाणे 'घणोदहि सहियाणं' धनाधिनी साथै वातुप्रमा पृथ्वीथी अधःससभी सुधिनी पृथ्वीयाना 'इमं पमाणं' अतरनु मा પ્રમાણ છે. તે વાલુકાપ્રભા વિગેરે પૃથ્વીનું અંતર અહિયાં સૂત્રકાર સ્વયં प्रगट ४२di ४९ छ 'वालुयप्पभाए अडयालीसुत्तरं जोयणस्यसहस्सं' धनाधि ના બાહલ્ય સહિત ત્રીજી વાલુકાપ્રભા પૃથ્વીની ઉપરના ચરમાંતથી ઘને દધિની નીચેના ચરમાન્તનું અંતર એક લાખ અઠયાવીસ હજાર જનનું છે તેમાં ઘને દધિના બાહુલ્યના વીસ હજાર જન મેળવવાથી ઘોદધિ સહિત વાલુકા પ્રભા પૃથ્વીનું એક લાખ અડતાલીસ હજાર એજનનું અંતર કાલુકાપ્રભાની ઉપરના ચરમાંતથી ઘોદધિની નીચેના ચરમતનું થઈ જાય છે. ૩,
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३५
जीवामिगमसूत्रे
भार पुढची चत्तालीमुत्तरं जोयणसयसद्दस्सं' चतुर्थ्याः पङ्कममायाः पृथिव्या घनोदधि सहिताया उपरितनाच्चरमान्तात् घनोदवेरधस्तन अरमान्तः एतच्चखारिंशत्सहस्रपोजनोत्तर' योजनशतसहस्रमन्तरम्, तत्र पङ्कममाया वाल्यं विंशतिसहस्रयोजनोत्तरशतसहस्रयोजनममितम् तस्मिन् घनोदधेर्विंशतिसहस्रयोजन वाइल्य प्रक्षिप्यते, तेनायाति घनोदधि सहितायाः पङ्कमभा पृथिव्या उपरितनाच्चरमान्तात् घनोदधेरथस्तन वरमान्वपरिमाणं चत्वारिंशत्सहस्र योजनान्तर योजनशतसहस्र मिति ४ । 'धूमप्पभार पुढवीए अनीसुत्तर जोयणसयसहस्सं । धूमप्रभायाः पृथिव्या घनोदधि सहिताया उपरितनाच्चरमान्तात् घनोदघेरथस्तनचरमान्तः एतत् अष्टत्रिंशत्सहस्रयोजनोत्तर' योजनशतसहस्त्रमन्तरम्, तत्र धूमका अन्तर होजाता है ३ । इसी रीति के 'पंकप्पभाए पुढवीए ताली सुत्तरं जोयणसय सहस्सं' पंकप्रभापृथिवी का घनोदधि सहित का इन दोनों के बीच में एक लाख चालीस हजार योजन का अन्तर है, जैसे पंकप्रभा पृथिवी का बाल्य एकलाख बीस हजार योजन का है उसमें घनोद का वीस हजार योजन मिलाने से पंकप्रभा के उपरितन रमान्त से घनोदधि के अधस्तन घरमान्त तक का एक लाख चालीस हजार योजन का अन्तर हो जाता है ४ | 'धूमप्पभाए पुढवीए अट्टतीसुत्तरं जोयण सघसहस्सं' घनोदधि सहित धूमप्रभा पृथिवी का अन्तर प्रमाण अडतीस हजार योजन अधिक एक लाख योजन का है जैसे धूमप्रभा पृथिवी का बाहल्य अठारह हजार योजन अधिक एक लाख योजन का है उसमें घनोदद्धि के बीस हजार योजन मिलाने से धूमप्रभापृथिवी के उपरितन चरमान्त से घनोदधि के अधस्तन चरमान्त का
शेन प्रमाणे 'पंकप्पभाए पुढवीए चत्तालीसुत्तरं जोयणवयसहस्सं' थंड પ્રભા પૃથ્વીના ઘનાષિ સહિતના આ બન્નેની વચમાં એક લાખ ચાળીસ હજાર ચેાજનનું અંતર છે, જેમકે 'કપ્રભા પૃથ્વીનુ માહેલ્થ એક લાખ વીસ હજાર ચેાજનતુ છે. તેમાં ઘનેાધિના વીસ હજાર ચે.જન મેળવવાથી પંકપ્રભા ની ઉપરના એક લાખ ચાળીસ હજાર ચેાજનનું અંતર થઈ જાય છે. (૪)
'धूमभार पुढवीए अट्ठतीसुत्तरं जोयणसयसहस्सं' धनाधि सहित घूमપ્રભા પૃથ્વીન અંતરનું' પ્રમાણુ આડત્રીસ હજાર ચેાજન અધિક એક લાખ ચેાજનનુ છે. તેમાં ઘનેાધિના વીસહજાર ચૈાજન મેળવવાથી ધૂમપ્રભા પૃથ્વીના ઉપરના ચરમાન્તથી ઘનેાધિની નીચેના ચરમાંતનુ' અંતર આડત્રીસ હજાર ચેાજન ઋષિક એક લાખ ચૈાજનતુ' થઈ જાય છે. 1 પ્ ।
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ सू.१० प्रतिपृथिव्या उपयधस्तनचरमान्तयोरन्तर १३३ प्रभायाः पृथिव्या बाहल्यम् अष्टादशसहस्र योजनोत्तरशतसहस्त्रयोजनपरिमितम् , तस्मिन् घनोदधे विंशतिसहस्रयोजनबाहल्यं प्रक्षिप्यते तेनायाति यथोक्तं धनो. दधि सहिताया धूममभा-पृथिव्या उपरितनाच्चरमान्तात् घनोदधेरचस्तन चरमातस्य अन्तरममाणमिति ५। 'तमार पुढवीए छत्तीमुत्तरं जोयणसयसहस्सं तमामभायाः पृथिव्या घनोदधि सहिताया उपरितनाच्चरमान्तात् घनोदधेरधस्तन श्वरमान्तः, एतत् त्रिशत्सहस्रयोजनोत्तरं योजनशतसहस्रमन्तरम् । तत्र तमामभायाः पृथिव्या बाहल्यम्-पोडशसहस्रयोजनोत्तरशतसहस्रयोजनपरिमितम्, तस्मिन् घनोदधेविंशति सहस्रपोजनबाहल्यं प्रक्षिप्यते तेनायाति यथोक्तं घनोदधि सहिताया स्तमःप्रभा पृथिव्या उपरितनचरमान्तात् घनोदधेरधस्तनचरमान्तस्यान्तरप्रमाणमिति ६ । 'अहे सत्तमाए पुढवीए अट्ठावीसुत्तर जोयणस्सयसहस्सं' अधः सप्तम्या स्तमस्तमः प्रभायाः पृथिव्याः घनोदधि सहिताया उपरितना
चरमान्ताद घनोदधेरधस्तनश्वरमान्तः एतत् अष्टाविंशति सहस्रयोजनोत्तर योजनशतसहस्रमन्तरम् । तत्र तमस्तमम्प्रभा पृथिव्या वाहल्यम् अष्टसहस्रयोजनो. अन्तर अडतीस हजार योजन अधिक एक लाख योजन का हो जाता है ।५। 'तमाए पुढवीए छत्तीसुत्तरं जोयणलयसहस्सं' घनोदधि सहित तमामभा पृथिवी का परस्पर छस्तीस हजार अधिक एक लाख योजन का अन्तर है, जैसे तमाप्रभा पृथिवी का बाहल्य सोलह हजार योजन अधिक एक लाख योजन का है उसमें घनोदधि के बीस हजार योजन मिलाने से तमःप्रभा पृथिवी के उपरितन चरमान्त से घनोदधि के अधस्तन परमानत का छत्तीस हजार अधिक एक लाख बोजन का अन्तर होता है ६ 'अहे सत्तमाए पुढ बीए अठ्ठावीसुत्तरं जोषण सपसहसंघनोदधि सहित अधासप्तमी पृथिवी को परस्पर अन्तर अठाईल हजार योजन अधिक एक लाख योजन का है, जैसे अधः सप्तमी पृथिवी
___ 'तमाए पुढबीए छत्तीसुत्तर जोयणसयमहस्स' धनापि सहित तमः प्रमा પૃથ્વીનું અંતર પરસ્પર છત્રીસ હજાર અધિક એક લાખ જનનું છે. જેમકે તમઃ પ્રભા પૃથ્વીનું માહત્ય સેળ હજાર જન અધિક એક લાખ એજનનું છે, તેમાં ઘને દધિના વીસ હજાર જન મેળવવાથી તમઃ પ્રભા પૃથ્વીના ઉપરના ચરમન્તથી ઘોદધિની નીચેના ચરમાન્તનું અંતર છત્રીસ હજાર અધિક એક १५ योगननु थाय छ. । । 'अहे सत्तमाए पुढवीर अट्ठावीसुत्तर जोयणसय सहस्सं' धनाधि सहित अधःससभी पृथ्वीनु ५२२५२ मत२ २५४यावीस १२
જન અધિકએક લાખ જનન છે. જેમકે અધઃસપ્તમી પૃથ્વીનું અંતર આઠ હજાર યોજન અધિક એક લાખ જનનું છે. તેમાં ઘનધિના વીસ હજાર જન
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
__ जीवामिगमक्ष त्तरशतसहस्रयोजनपरिमितम् तस्मिन् घनोदधेविंशति सहस्रयोजन पाइल्यं प्रक्षिप्यते, तेनायाति यथोक्त धनोदधि सहिताया स्तमस्तमाममा पृयिव्या उप रितनाच्चरमान्ताद घनोदधेरधस्तनचरमान्तस्यान्तरममाणमिति ७ । कित्पर्यन्त. मिदमन्तरप्रकरणं वाच्यम् ? तत्राह-'जात्र' इति, 'जाव' यावत्, अत्र यावत्पदेन तृतीय वासकाममा पृथिवीत आरभ्याधः सप्तमी पर्यन्त पृथिवीनां घननात-तनु वातावकाशान्तरमूत्राणि संग्राह्याणि, तानि च उपरितनाधस्तनचरमान्तानामन्तराणि असंख्येय शतसहस्रयोजनत्वेन व्याख्येयानि, एषु अधस्तन पृथिव्या अवकाशान्तरस्याधस्तन चरमान्त सूत्रं सुत्रकारः स्वयमेव प्रदर्शयति-'अहे सच. माए णं भंते' इत्यादि, 'अहे सत्तगाए णं भंते ! पुढवीए' अधः सम्पाः खल फा आठ हजार योजना अधिक एक लाख योजन का है उसमें घनोदधि के बील हजार मिलाने से अधस्तन थिवी के उपरितन चरमान से घनोदधि के अधस्तन चरमान्त का अन्तर अट्ठाईस हजार योजन अधिक एक लाख योजन का हो जाता है।
यह अन्तर प्रकरण कहां तक कहना चाहिये ? इस पर कहते हैं'जाव' इति 'जाच' यावत् यहां यावत्पद से तीसरी पालु ताप्रभा पृथिवी से लेकर अधःसप्तमी तक की पृथिवियों के धनवात तनुवान और अब काशान्तर के सूत्रों का संग्रह करना चाहिये। उन सूत्रों का 'उपरितन अधस्तन चरलान्तों का अन्तर असंख्यात शतसहस्र योजनों का होता है। ऐसा शख्शन करना चाहिये । इनमें अधःसप्तमी पृथिवी गत अवकाशान्तर के अधस्तन घरमान्त का अन्न सूत्र सूत्रकार स्वयं दिखलाते हैं-'अहे सत्तमाए णं भंते' इत्यादि । गौतमने प्रभु से ऐसा મેળવવાથી નીચેની પૃથ્વીના ઉપરના ચરમાનથી ઘનોદધિના અધસ્તન ચરમાનનું અંતર અઠયાવીસ હજાર જન અધિક એક લાખ જનનુ થઈ જાય છે !
આ અંતર સંબંધી પ્રકરણે કયાં સુધી કહેવું જોઈએ ? તે સંબધમાં सूत्र४२ 'जाव' त्यहि सूत्र वा। ४९ . 'जाव' यावत महिया यात्५४थी ત્રીજી વાલુકાપ્રભા પૃથરીથી લઈને અધઃસપ્તમી પૃથ્વીના ઘનવાત, તનુવાત અને અવકાશ'ન્તર સંબંધી સૂત્રને સંગ્રહ કર જોઈએ. તે સૂત્રોના ઉપરિતન, અધતન ચરમાન્તનું અંતર અસંખ્યાત શતસહસ્ર રોજનું થાય છે. એ પ્રમાણે વ્યાખ્યાન સમજી લેવું તેમાં અધ: સપ્તમીમાં આવેલ અવકાશાન્તર ना मरतन यरमांतनु भत२ सूत्र सूत्रा२ २१ मतावे छे. 'अहेसत्तमाए णं भंते !' त्यात - शीतभावामी मे प्रभुने मे ५७यु छ ? 'महे सत्तमाए ण भते !पुढवीप'
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ २.१० प्रतिपृथिव्याः उपर्यधस्तनचरमान्तयोरन्तरम् १३५ भदन्त ! पृथिव्याः 'उपरिल्लाओ चरिमंताओ उपरितनात् चरमान्तात् 'ओवा. संतरस्स' अवकाशान्तरस्य 'हेठिल्ले चरमंते' अधस्तनश्वरमान्त 'केवइयं अबाहाए अंतरे पन्नत्ते' कियत्यया अवाधया अन्तरं प्रज्ञप्तमिति प्रश्नः, भगवालाह-गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'असंखेज्जाई जोयणसम्सहस्साई' असंख्येयानि योजनशतसहस्राणि 'अवाहाए अंतरे एनत्ते' अवाधया अन्तरं प्रज्ञप्तमिति । ।
तृतीयस्याः खलु भदन्त ! वालुकाममायाः पृथिव्या उपरितन चरमान्ता. दधस्तनचरमान्त एतदन्तर कियद् अवाधया प्रज्ञप्तम्, भगवानाह-हे गौतम ! अष्टाविंशतिसहस्राधिकं योजनशतसहस्रमबाधयाऽन्तर प्रज्ञप्तम् । हे भदन्त ! बालकापभायाः पृथिव्या उपरितन चरमान्तात् घनोदधेरुपरितनचरमान्त एतदपूछा है- 'अहे सत्तमाए णं भते पुढवीए' हे भदन्त ? इस अधःसप्तमी पृथिवी के 'उवरिल्लाओ चरिमंताओ' उपरितन चरमान्त ले 'उवासं तरस्स हेटिल्ले चरिभते' अवकाशान्त का अधःस्तन चरमान्त 'केवड्यं अपाहाए अंतरे पण्णत्ते' अधाधा से कितने अन्तर पर है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं 'गोयमा' हे गौतम 'असंखेजाइं जोयणस्थलहस्साई. असंख्यात लाख योजन अबाधा से अन्नर कहा गया है ! आलापक प्रकार इस प्रकार से है
तृतीय चालुकप्रभा पृथिवी के उतरितन चरमान्त से उसी के अधस्तन घरमान्त तक कितना अंतर कहा है ? इस के उत्तर में प्रभुश्रीने कहा हे गोतम बालुकाप्रभा पृथिवी के उपरितन चरमान्त से लेकर उसी के अधस्तन चरमान्त तक एक लाख अठाईस हजार योजल का अन्तर है क्योंकि बालुकाप्रभा पृथिवी की मोटाई एक लाख अठाईस हजार योजन है सावन अधः सभी पृथ्वीना 'उवरिल्लाओ चरिमंताओ' ५२ना यसमातिया 'उवासंतरस्स हेडिल्ले चरिमंते' अशान्तनु नीयनु य२मान्त 'केवइयं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते' माथी डेटा मत२५२ मा छे ? मा प्रश्न उत्तरमा प्रभु गौतमत्वामीन ४९ छ है 'गोयमा !' गौतम । 'असं खेज्जाइ जोयणसयसहस्साई' असण्यात etv योन समाधाथी अतर કહેવામાં આવેલ છે. તેના આલાપકનો પ્રકાર આ નીચે પ્રમાણે છે - ત્રીજી વાલુકાપ્રભા પૃથ્વીના ઉપરના ચરમાન્તથી તેનાજ નીચેના ચરમાન્ત સુધીમાં કેટલું અંતર કહ્યું છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે છે કે હે ગૌતમ! વાલક પ્રભા પૃથ્વીની ઉપરના ચરમાન્ડથી લઈને તેના જ નીચેના ચરમાન્ત સુધી એક લાખ અયાવીસ હજાર એજનનું અંતર કહ્યું છે. કેમકે વાલુકાપ્રભા
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
-
-
जीवामिगमन तरं कियद् अबाधया पक्षप्तम् ? भगवानाह-हे गौतम | अष्टाविंशति सहसाधिक योजनशतसहस्रमवाधगऽन्तरं प्रज्ञप्तम् बालकाममाया अधस्तन चरमान्त घनोदधेरुपस्तिनचरमान्तयोः परस्पर संलग्नतया तुल्यममाणत्वभावात् रे भदन्त ! वालुकाममाया: पृथिव्या उपरितनचरमान्तात् घनोदधेरुपरितन. चरमान्त एतदनरं कियद् अबाधण पापम् भगवानाह-हे गौतम ! अष्टावित्र सिंहस्राधिकं योजनशतसहस्रमवाधयाऽन्तरं प्रज्ञप्तम् चालकामभाया अधस्तन चरमान्त घनोदधेरुपरितन चरमान्तयोः परस्पर संलग्न या तुल्यप्रमाणत्व भावाद हे भदन्त । वालुकाममाया उपरितन चरमान्तात् घमोदधेरघस्तनचरमान्त एतद. न्तर कियद् अवधिया प्रज्ञप्तम् ? भगवानाह-हे गौतम ! अष्टचत्वारिंशत्सहस्रोत्तरं की कही गई है। हे भदन्त ! घालुकाप्रमा के उपरितन चरमान्त से घनोदधि का उपरितन चरमान्त कितने अन्तर पर है। प्रभु कहते हैयह भी एकलाख अठाईस हजार योजन का है क्योंकि यालुकाप्रमा का अधस्तन चरमान्त और घनोदधि का उपरितन चरमान्त परस्पर सलग्न होने से घोलु काप्रभा के थाहल्य के तुल्य प्रमाण कहा गया है।
गौतम प्रभु से पूछते हैं-हे भदन्त ! बालुकाप्रभा के उपरितन चरमान्त से घनोदधि का जो अबस्तन चरमान्त हैं। उनमें कितनी अन्तर है ? तो इसके उत्तर में प्रभु ने ऐसा कहा है कि हे कि हे गौतम! पूर्वोक्त नियम के अनुसार तृतीय पृथिवी की एक लाख अट्ठाईस हजार योजन की मोटाई में घनोदधि की बीस हजार योजन की मोटाई मिलाकर यह अन्तर निकल आता है कि बालुकाप्रभा के उपरितन चरमान्त પૃથ્વીની પહે બાઈ એક લાખ અઠયાવીસ હજાર જન કહેવામાં આવી છે. હે ભગવન વાલુકાપ્રભા પૃથ્વીના ઉપરના ચરમાન્તથી ઘને દધિની ઉપર ચરમાન્ત કેટલા અંતર પર આવેલ છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે છે કે આ પણ એક લાખ અઠયાવીસ હજાર ચોજનના અંતર પર છે. કેમકે વાલુકાપ્રભા ની નીચેને ચરમાન્ત અને ઘને દધિની ઉપર ચરમાંત પરસ્પર મળેલા હોવાથી વાલુકાપ્રભાના બાહલ્યની બરોબરનું પ્રમાણ કહેલ છે. ગૌતમસ્વામી પ્રભુને પૂછે છે કે હે ભગવન વલુકાપ્રભા પૃથ્વીના ઉપરના ચરમાંતથી ઘને દધિને નીચેને જે ચરમાન્ત છે, તેનું કેટલું અંતર કહેલ છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે છે કે હે ગતમ! પૂર્વોક્તનિયમ અનુસાર ત્રીજી પૃથ્વીની એક લાખ અઠયાવીસ હજાર એજનની વિશાળતામાં ઘનધિની વીસ હજાર યે જનની વિશાળતા મેળવવાથી આ અંતર મળી આવે છે, કે વાલુકાપ્રભાની ઉપરના
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयोतिका दीक्षा प्र. सु. १० प्रतिपृथिव्याः उपर्यधस्तनचरमान्तयोरन्तरम् १३७ योजनशतसहस्रन बाधयाऽन्वर प्रज्ञप्तम्, हे भदन्त । वालुकाप्रभाग उपरितन चरमान्तात् तस्योपरिचरमान्य एमदन्दर किनत् अवावया प्रज्ञप्तम्, हे गौवन | अष्टस्टिस्राधिकं योजनशतसहस्रपन्न प्रज्ञप्तम् हे महन्त ! वातावकाशान्तयोरुपरितनाधस्तनचर मान्दः, एतत् किदन्तर मन्तर है मौत ! प्रत्येकसंख्येवयोजनशतसहस्राणि अन्तर मज्ञप्तमिति ३ । पङ्कमयाः पृथिव्या उपरियन चरमान्यादधस्तन चर मान्तः, से घनोदधि का जो अपमान बरसात है वह एक लाख अड़तालीस हजार योजन के जन्तर में है
घनवातस्याधान वनान्यः
हे भदन्त । वालुप्रा के उपरितन चरमान्त से घत्रवात के उपरितन चरव्यान्त कितना अभार है ! उत्तर में प्रभु कहते हैंहे गौतम! बालुवामा के उपरिचरमात से घनवास के उपरितन चरमान्त तक एक लाख अालीन हजार योजन का असर है ऐसा कहने का कारण यही है कि यहीं पर वनोदधि का अवस्त घरमात समाप्त होता है । और तुम का उपरितन चरजान्त प्रारम्भ होता है । हे भदन्त ! घनवान का अवसान चश्मान्त तनुवा और आकाशान्तर के उपरित अन चालक कलुकामा के उपस्ति परमान्त से कितना अन्तर है ! तो मन के उत्तर में प्रभु कहते हैं । हे गौतम वहां तक प्रत्येक का असंख्यान लाख योजन का अन्तर है । इसी तरह से पंप्रभा के सम्बन्ध में भी रखी घोटाई को लेकर उपरितन ચરમાન્તથી એક ઘનાદિધના જે નીચેના ચરમાન્ત છે, તે એક લાખ અડતાલીસ હેશ્વર ચૈાજનના અંતર પર છે.
હું ભગવન્ વાલુકાપ્રભા પૃથ્વીના ઉપરના ચરમાન્તથી ઘનવાતના ઉપરના ચરમાન્ત સુધીમાં કેટલુ અંતર કહ્યું છે ! આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમ સ્વામીને કહે છે કે હે ગૌતમ! વાલુકાપ્રભ'ની ઉપરના ચરમાન્તથી ઘનવાતની ઉપરના ચરમાન્ત સુધીમાં એક લાખ અડતાલીસ હજાર ચેાજનનુ' અતર કહ્યું ત્યાંજ ઘનેાધિની નીચેનું' ચરમાત સમાસ છે. એમ કહેવાનું કારણ એ છે થાય છે. અને તનુવાતની ઉપરના ચરમાન્તને પ્રારંભ થાય છે, ફરીથી ગૌતમસ્વામી પૂછે છે કે હું ભગવન્ ! ઘનવાતની નાચેને ચરમન્ત અને તનુવાત અને અવકાશાન્તરની ઉપરના નીચેના ચરાન્ત સુધી વાલુકાપ્રભાની ઉપરના ચરમાન્તથી કૈટલું અતર કહ્યુ છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે હે ગૌતમ ! ત્યાંથી ત્યાં સુધીમાં દરેકનું અસખ્યાત લાખ ચેાજનનુ અ ંતર કહ્યું છે. ૩ ! એજ પ્રમાણે પ કપ્રભા પૃથ્વીના સંબંધમાં પણ એની વિશાળતાં
जी० १८
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३८
जीवामिगमसूत्रे
एतत् किदवाया अन्तरं प्रज्ञप्तम् ? भगवानाह = हे गौतम! विंशतिसहस्राधिकं योजनशतसहस्रमवाधयाऽन्तरं प्रज्ञप्तम्, हे भदन्त ! पङ्कमभायाः पृथिव्याः उपरितनचरमान्तात् घनोदघेरुपरितन चरमान्त एतदन्तरं कियद् अवाधया मज्ञप्तम् ? हे गौतम! विहस्रोत्तरं योजनशतसहस्रमवाधयाऽन्तरं महप्तम्, पङ्कममाया अधस्तचरमान्त- घन े दधेरुपरितन चरमान्तयोः परस्परं संलग्नतया तुल्यप्रमाणत्वात् । हे भदन्त ! पपभाया उपरितनचरमान्तात् घनोदधेरधस्तन चरघरमान्त से उसी के अधस्तन चरमान्त तक का अन्तर जानना चाहियेतथा घनोदधि के अधस्तन चरमान्त तक का अन्तर एवं घनवात के उपरितन तनुवात के उपरितन चरमान्त तक का अन्तर, और इनके अधस्तन चरमान्त तक का अन्तर तथा अवकाशान्तर के उपरितन अधस्तन चरणान्त तक का अन्तर निकाल लेना चाहिये-जैसे - हे भदन्त ! पङ्कप्रभा के उपरितन चरमान्त से उसी के अधरतन चरमान्त तक कितना अन्तर है ? हे गौतम | पंकप्रभा के उपरितन चरमान्त से उसी के अधस्तन चरमान्त तक एक लाख बीस हजार योजन का अन्तर है क्योंकि इस पृथिवी की मोटाई इतनी ही कही गई है। हे भदन्त ! पंकप्रभा के उपरितन चरमान्त से घनोदधि का उपरितन चरमान्त में कितना अंतर है ? हे गौतम बही एक लाख बीस हजार योजन का है। क्योंकि पंकप्रभा का अधस्तन भाग और घनोदधि का उपरितन भाग परस्पर संलग्न है । हे भदन्त ! पंकप्रभा के उपरितन चरमान्त से
પહેાળાઈના સબધમાં ઉપરના ચરમાન્તથી તેનીજ નીચેના ચરમાન્ત સુધીનું મ'તર સમજવુ', તથા ઘનેાધિની નીચેના ચરમાન્ત સુધીનુ' અતર અને ઘનવાતની ઉપરના અને તનુવાતના ઉપરના ચરમાન્ત સુધીનું ક્ષ્મતર અને તેની નીચેના ચરમાન્ત સુધીનું અતર તથા અવકાશ,ન્તરની ઉપર ના અને નીચેના ચરમાન્ત સુધીનું અન્તરસમજી લેવું જોઈએ જેમકે હે ભગવન્ ! પંકપ્રભા પૃથ્વીની ઉપરના ચરમાન્તથી તેની નીચેના ચરમાન્ત સુધીમાં કેટલુ અંતર કહ્યુ' છે. ? આપ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે છે કે હે ગૌતમ ! પ ́ક્રપ્રભા ની ઉપરના ચરમાન્તથી તેની નીચેના ચરમાંત સુધીમાં એક લાખ વીસ હજાર ચેટજનનું અ ંતર કહેલુ છે. કેમકે આ પૃથ્વીની વિશાળતા એટલીજ કહેવામાં આવી છે. હું ભગવન્ પ્રભા પૃથ્વીની ઉપરના ચરમન્ત થી ઘનેાધિની ઉપરના ચરમાન્ત સુધીમાં કેટલું અંતર કહ્યું છે ? હૈ ગૌતમ ! એજ એક લાખ વીસ હજાર યેાજનનું અતર કહ્યું છે. કેમકે પપ્રભા પૃથ્વીની નીચેના ભાગ અને નૈષિની ઉપરના ભાગ
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र. ३ सू.१० प्रतिपृथिव्या. उपर्यधस्तनचरमान्तयोरन्तरम् १३९ मान्तः, एतदन्तर कियद् अवधिया मज्ञप्तम् ? भगवानाह - हे गौतम ! चत्वारिंशत्सहस्रोत्तर' योजनशतसहस्रमवाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम् । घनवातस्योपरितन चरमान्तोऽपि चत्वारिंशत्सहस्रोत्तर' योजनशतसहस्रमन्तरं भवति, द्वयोः परस्परं संलग्नत्वात् । एवं घनवातस्याधस्तन चरमान्तः दनुवतावाकाशान्तराणामुपरितनाधस्तचरमान्तः एतद् असंख्येययोजनशतसहस्रमन्तर प्रज्ञप्तम् ||४||
घनोदधि के अवस्तन चरमान्त तक कितना अन्तर है ? गौतम ! पंक प्रभा के उपरितन चरमान्त से घनोदधि के अधस्तन चरमान्त तक एक लाख चालीस हजार योजन का अन्तर है यहां घनोद्धि की मोटाई बीस हजार योजन की उसकी मोटाई में मिलाकर यह उत्तर दिया गया है । हे भदन्त ! पंकप्रभा के उपरितन चरमान्त से घनवात के उपरितन चरमान्त तक कितना अन्तर है ? हे गौतम एक लाख चालीस योजन का अन्तर है । क्योंकि घनोद्धि का अधस्तन चरमान्त और धनवात का उपरितन चरमान्त परस्पर संलग्न है । हे अदन्त ! पंकप्रभा के उपरितन चरमान्य से घनवात के अधस्तन चरमान्त तक कितना अन्तर है ? गौतम | यहां असंख्यात लाख योजन का अन्तर है । है भ त! पंकप्रभा के उपरितन चरमान्त से सजुवात और अवकाशान्तर के उपरितन अधस्तन चरम्यान्त तक कितना अन्तर है ? गौतम ! दोनों के उत्तर में वहां से यहां तक भी असंख्यात लाख योजन का अन्तर है ।
પરપર મળેલા છે. હે ભગવન પંકપ્રભા પૃથ્વીની ઉપરના ચરમાન્તથી ઘનેાષિની નીચેના ચર્માન્ત સુધીમાં કેટલુ' અતર કહ્યુ' છે ? કે ગૌતમ ! ૫કપ્રભાના ઉપરના ચરમાન્તથી ઘનેાધિની નીચેના ચશ્માન્ત સુધીમાં એક લાખ ચાળીસ હજાર વૈજનનું અંતર કહ્યુ છે. અહિંયાં ઘનાદધિની પહેાળાઈ વીસ હજાર ચૈાજનની તેની પહેાળ,ઇમા મેળવીને આ ઉત્તર કહેલ છે. હું ભગવત્ ક પ્રસાની ઉપરના ચરમાન્તથી બનવાતની ઉપરના ચરમાન્ત સુધી કેટલું અંતર કહ્યુ છે ? હે ગૌતમ! એક લાખ ચાળીસ હજાર ચેાજનતુ અંતર કહેલ છે, કેમકે ઘનાષિની નીચેના ચરમાત અને ઘનાતની ઉપરના ચરમાન્ત પરસ્પર મળેલા છે. હે ભગવત્ પંકપ્રક્ષા પૃથ્વીની ઉપરના ચરમાન્તથી ઘનવાતની નીચેતા ચરમાન્ત સુધીમાં કેટલું અતર કહ્યુ છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે છે કે હે ગૌતમ ! આ સ મધમાં અસંખ્યાત લાખ ચેાજનનું અંતર કહ્યું છે, હું ભગવન્ ૫કપ્રભા પૃથ્વીની ઉપરના ચરમાન્તથી તનુવાત અને અવકાશાન્તર ની ઉપરના અને નીચેના ચરમાન્ત સુધીમાં કેટલું અંતર હે ગૌતમ ! આ મને પ્રશ્નના ઉત્તરમાં ત્યાંથી અહિ સુધી
•
કહ્યુ છે? ઉત્તર અસખ્યાત લાખ
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४०
जीवामिगमस्त्र धूममभायाः पृथिव्या उपस्तिनमान्लाद अधस्तनचरमान्तः कियत् अवाधया एतदन्तर मज्ञप्तम् हे गौतम ! अप्टादशसहसोनर योजनशतसहस्रमन्तर घज्ञप्तम् । हे भदन्त ! धूममभाया उपरितनचरवान्तः एतत् कियदन्तरं - प्रज्ञप्तम् ? हे गौतम ! अष्टादशमहलोत्तर शोजनशतसहरन पहार प्रान्तम् । हे भदन्त ! धूममभायाः पृथिव्या उपरिवनचरमान्तात् घनोदधेरचरन्तनचरमान्तः एतद कियद अबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम् ? हे गौरा ! अष्टशिवसहस्रोत्तर योजनशतसहस्त्रमन्तर मज्ञप्तम् । अध्या एन लपविलचस्मान्ताद् घनवारस्योपरितनचरमान्तेऽपि अष्टनिंगसहस्रोत्तरं योजनशतराहसमेवान्ताद, घनोदध्यधस्तनचरमान्त घनदातोपरितनचरमान्तयोः परस्पर संलग्नत्वात् । बनवातस्याधस्तनहे सदन्त ! धूमला पृथिवी के उपरिक चश्मान्त से उत्तीशे अधस्तन 'घरमान्त तक का कितना अन्तर है ? गोनम ! यही एक लाख अठारह हजार योजल का अन्तर है। सदन्त ! धूमला के उपरितन चस्मान्त
से घलोदधि के अधस्तन बरसान्त कितना अन्तर है ? हे गौतम | • यहां अन्तर एक लाख अड़तीस हजार योजल का मामाले शाहल्य में घनोदधि के बीस हजार योजन जिलाने से इतना हो जाता है । हे अदन्त धूरप्रभा के उपरिरल परमानले धनधात उपरितन चरमान्त तक कितना अन्तर है ? अलिन! यहां एक लाख अडतीस हजार योजन शक्षा अन्तर है क्योकि धूमप्रभा के घनोदधि का पतन परजान्त और घनवाल का उपस्किन घरमाल लद है। जहन ! धूलमभा के उपरितन घलान्त ले धनवान अधस्तन चलान्त और तनुवात
જનનું અંતર કહેલ છે. પ્રશ્ન હે ભગવન્ધૂમ વભા પૃથ્વીની ઉપરના ચરમાતથી તેની નીચેના ચરમાન્ડ સુધીમાં કેટલું અંતર કહેલ છે? ઉત્તર હે ગૌતમ ! આ સબંધમા એક લાખ અઢાર હજાર જનનુ અંતર કહ્યું છે. પ્રશ્ન-હે ભગવન ધૂમપ્રભા પૃથવીની ઉપરના ચરમ નથી ઘોદધિની નીચેના ચરમાન્ત સુધીમાં કેટલું અંતર કહેલ છે? ઉત્તર હે ગૌતમ! ખાતું અંતર એક લાખ અડતાલીસ હજાર જનનું કહ્યું છે. કેમ કે ધૂમપ્રભા પૃથ્વીના બાહલ્યમાં ઘને દધિના વીસ હજાર જન મેળવવાથી આ પ્રમાણે થાય છે. પ્રશ્ન-હે ભગવન્ ધૂમપભા પૃથ્વીની ઉપરના ચરમાન્ડથી નીચેના ઘનવાતના ઉપરના ચરમાન્ત સુધીમાં કેટલું અંતર કહ્યું છે? ઉત્તરહે ગૌતમ! આ સંબંધમાં એક લાખ આડત્રીસ હજાર એજનનું અંતર કહ્યું છે, ૧૩૮૦૦૦ કેમકે ધૂમપ્રભા પૃથ્વીની નીચેને ચરમાન્ત અને ઘનવાતની ઉપરના ચરમાન મળેલા છે. પ્રશ્ન-હે ભગવન્ ધૂમપ્રભા પૃથ્વીની ઉપરના ચરમાતથી બનવાતની નીચે
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________
mins
. प्रमेयद्योति कायका प्र.३ ३.१० प्रति पृथिया: उपयधस्तनचरमान्तयोरन्तरम् १४१ चस्मान्तः, तनुवातासकाशान्तरयोरुपरितनाधस्तनचरमान्तः प्रत्येक्रमसंख्येययोजनशतसहस्र पन्तर ज्ञातव्यम् ५! नमःमभायाः पृथिव्या उपस्तिनचरमान्तात अधस्तन वरमान्तः, एन क्रियदन्तरं भज्ञासम् हे गौतम! पोडश सहस्वान्तर योजनशतसहस्तपन्तर प्रज्ञप्सम् एतदेवान्तर तमामाया उपस्तिनवरमान्तात् घनोदधेरुपरितनचरमान्तेऽपि झेपर डायोः परस्पर संग्नतया तुल्यामाणत्वादिति।।
तमामभाया. उपरितनचरमानना घनोदधेश्धस्तनचरमान्तः, एतत् कियद् अबाधयाऽन्तरमिति प्रश्नः । समवानाह-पत्रिंसहस्त्रयोजनोत्तर योजनशतसहतके अधस्तन चरमान्त तक कितना अन्तर है ? यहां दोनों के अन्तर में असंख्यात लाख योजन शहना चाहिये हे भदन्त ! धूमप्रसा के उपरितन चरमान्त ने अपनाशान्तर के उपरितन अधस्तन चरसान्त तक कितना अन्तर है। हे गौतम ! यहाँ पर श्री असंख्शात लाख योजन का अन्तर है। हे भदन्त ! तमाममा पृथिवी के उपरितन चरलान्त से अधस्तम चरमान्त तक कितना अन्तर है ? गौतम ! समप्रभा पृथिवी के उपरितन चरमान्त से अधस्तन चस्मान्त तक ऽनन्तर एक लाख सोलह हजोर का है तथा—यही अन्तर तमःप्रभा के उपरितन बरसान्त से घनोदधि के उपरितन चरमालमी एक लाख लोलह हजार योजन का अन्तर है। तमाममा पृथिवी के उारितन चरमान्त ले वहां के घनोदधि का जो अधस्तनचरमान्त है। यहां तक शितना अन्तर है ? गौतम ! ચરમાન્ત અને તનુવાતની નીચેના ચરમાન્ત સુધીમાં કેટલું અંતર કહ્યું છે? ઉત્તર-હે ગૌતમ ! આ બન્નેના અંતરમાં અસંખ્યાત ચીજનનું અંતર કહેવું જોઈએ. પ્રશ્ન–હે ભગવન્ ધૂમપ્રભાની ઉપરના ચરમાન્તથી અવકાશાન્તરના ઉપર નીચેના ચરમાન્ત સુધીમાં કેટલું અંતર કહ્યું છે ? ઉત્તર-હે ગૌતમ આ સંબંધમાં પણ અસંખ્ય લાખ જનનું અંતર સમજવું.
પ્રશ્ન-હે ભગવન તમ પ્રભા પૃથ્વીના ચરમાથી નીચેના ચરમન્ત સુધી કેટલું અંતર કહેલ છે ?
ઉત્તર-હે ગૌતમ! તમપ્રભા પૃથ્વીની ઉપરના અરમાન્તથી નીચેના ચરમાન્ત સુધીમાં એક લાખ સેળ હજાર યેાજનનું અંતર કહ્યું છે. તથા આજ પ્રમાણેનું અંતર તમ પ્રભા પૃથ્વીની ઉપરના ચરમાતથી ઘને દધિના ઉપરના ચરમાનત સુધીમાં પણ એક લાખ સોળ હજાર જનનું અંતર સમજવું
પ્રશ્ન-તમપ્રભા પૃથ્વીના ઉપરના ચરમાતથી ત્યાંના ઘનાદષિની નીચેનો જે ચરમાન્ત છે. ત્યાં સુધીમાં કેટલું અંતર કહ્યું છે ?
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
________________
ર
जीवामिगम सूत्रे
मन्तरं भवतीत्युत्तरम् । तमःमभाया उपरितनचरमान्तात् घनवातस्योपरितनचरमान्तस्यापि अन्तरमेतावदेव ज्ञातव्यम् - पत्रिंशत्सहस्रोत्तरमेकं लक्षमिति । तमः प्रमाया उपरितनचरमान्तात् घनवातस्याधस्तन चरमान्तः तनुवातावकाशान्तरयोरुपरितनाधस्तन चरमान्ताथ प्रत्येकमसंख्येय योजनशतसहस्रमन्तरं ज्ञातव्यमिति ६ | मदत | अधः सप्तम्याः पृथिव्या उपरितनचरमान्ताद्वस्तन चरमान्तः, एवत् कियदन्तरं प्रज्ञप्तम् ? हे गौतम ! अष्टसहस्रयोजनोत्तर' योजनशतसहस्रमन्तरं प्रज्ञप्तम् अधः सप्तम्या उपस्तिनचरमान्तात् घनोद घेरुपरितनचरमान्तः एतत् अष्टपत्रोत्तरं योजनशतसहस्रमन्तरं भवति ।
-
अधः सप्तमपृथिव्या उपरितनचरमान्तात् घनोदघेरधस्तनचरमान्तः एतत् तमः प्रभा पृथिवी के उपरितन चरमान्त से घनोदधि के अवस्तन चरम तक अन्तर एक लाख छत्तीस हजार योजन का है तमःप्रभा पृथिवी के उपरितन चरमान्त से घनवात के उपरितन चरमान्त तक भी इतना ही एक लाख छत्तीस हजार योजन का अन्तर है तथा तमः प्रभा पृथिवी के उपरितन चरमान्त से घनवात के अधस्तन चरमान्त तक अन्तर असंख्यात लाख योजन का है । और इतना ही अन्तर अवकाशान्तर के उपरितन अवस्तन चरमान्त तक है । हे भदन्त ! अधःसप्तम पृथिवी के उपरितन चरमान्त से उसके अधस्तन तक कितना अन्तर है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं हे गौतम! अधःसप्तमी पथिवी के उपरितन चरमान्त से इसी के अधस्तन चरमान्त तक अन्तर एक लाख आठ हजार योजन का है तथा अधःसप्तमी पृथिवी के उपरितन चरमान्त से
4
ઉત્તર-હૈ ગૌતમ ! તમઃપ્રભા પૃથ્વીની ઉપરના ચરમાન્તથી ઘનેાદિષની નીચેના ચરમાન્ત સુધીમાં એક લાખ છત્રીસ રજાર ાજનનું અ`તર કહ્યુ છે. પ્રશ્ન-તમ:પ્રભા પૃથ્વીના ઉપરનાં ચરમાન્તથી ઘનવાતના ઉપરના ચરમાન્ત સુધીમાં આટલુજ એટલે કે એક લાખ છત્રીસ હજાર ચેાજનનુ અંતર કહ્યું છે. તથા ત્તમઃપ્રભા પૃથ્વીના ઉપરના ચરમાન્તથી ધનવાતની નીચેના ચરમાન્ત સુધીમાં અસંખ્ય લાખ ચેાજનતુ અંતર કહેલ છે. અને એટલુ જ અંતર અવકાશાન્તર ના ઉપર અને નીચેના ચરમાન્ત સુધીમાં કહ્યું છે. પ્રશ્ન-હે ભગવન્ અધઃસપ્તમી તમસ્તમા પૃથ્વીની ઉપરના ચરમાન્તથી એની નીચેના ચરમાંત સુધીમાં કેટલુ અંતર કહ્યું છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે હે ગૌતમ ! અધ:સમી તમસ્તમા પૃથ્વીની ઉપરના ચરમાતથી તેની નીચેના ચરમાંત સુધીમાં એક લખ અદયાત્રીસ હજાર ચૈાજનનું અંતર કહેલ છે.
પ્રશ્ન-અધઃસપ્તમી તમસ્તમાં પૃથ્વીની ઉપરના ચરમાંતથી ઘનેાધિની
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ ७.१० प्रतिपृथिव्या. उपर्यधस्तनचरमान्तयोरन्तरम् १५३ कियद् अबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम् भगवानाह-हे गौतम ! अत्र धनोदधेः प्रमाण संमेलनेन अष्टाविंशतिसहस्रयोजनोत्तरं योजनशतसहस्रमन्तरं प्रज्ञप्तम् । अध:सप्तम्याः पृथिव्या उपरितनचरमान्तात् घनवातस्योपरितनचरमान्तोऽपि अष्टाविंशतिसहस्रोत्तरमेकं लक्षम् । घनोदधेरधस्तनचरमान्तस्य घनवातस्योपरितनचरमान्तस्य च-द्वयोः परस्परं संलग्नत्वा तुल्यप्रमाणस्वामिति ।
..एवं धनवातस्याधस्तनचरमान्तस्य तनुवातावकाशान्तरयोरुपरितनाधरतनचरमान्तानां च प्रत्येकमसंख्येययोजनसहस्त्रमन्तरं भवतीति ज्ञातव्यम् ॥१०॥
सम्पति-रत्नप्रभादि पृथिवीनां परस्परमग्राग्नेन पृथिवीमपेक्ष्य पूर्दपूर्व पृथिव्या बाहल्यविस्ताराभ्यां तुल्यत्वादिकं प्रतिपादयन्नाद-इमाणं भंते' इत्यादि।
मूलम्-इमाणं भंते ! रयणप्पभा पुढवी दोच्चं पुढविं पणिहाय बाहल्लेणं किं तुल्ला विसेसाहिया संखेजगुणा ? वित्थरेण किं तुल्ला विसेसहीणा संखेजगुणहीणा ? गोयमा! इमाणं रयणघनोदधि का उपरितन चरमान्त कितने अन्तर में हैं ? हे गौतम एक लाख आठ हजार योजन का है। अधासप्तम पृथिवी के उपरितन चरमान्त से घनोदधि के अधस्तन चरमान्त तक अन्तर एक लाख अठाईस हजार योजन का है अधःसप्तमी पृथिवी के उपरितन चारमान्त तक भी अन्तर एक लाख अठाईस हजार योजक का है। आधसप्तमी पृथिवी के उपरितन चरमान्त से धनवात के अधस्तन चरमान्त तक अन्तर असं. ख्यात लाख योजन का है। तथा इतना ही अन्तर तलुवात के उपरितन अधस्तन चरमान्त तक है इसी प्रकार अवकाशान्तर के भी उपरितन अधस्तन चरमान्त तक भी असंख्यात लाख योजन का अन्तर है। ऐसा स्पष्टीकरण इस कथन का है। सूत्र ॥१०॥ ઉપરના ચરમાંત સુધીમાં કેટલા જનનું અંતર કહેલ છે? ઉત્તર-હે ગૌતમ! એક લાખ અઠયાવીસ હજાર એજનનું અંતર કહેલ છે. પ્રશ્ન–અધઃસપ્તમી તમસ્તમાં પ્રવીની ઉપરને ચરમાતથી ઘને દધિની નીચેના ચરમાંત સુધીમાં કેટલું અંતર કહેલ છે ? ઉત્તર-હે ગૌતમ ! એક લાખ અઠયાવીસ હજાર એજનનું અંતર કહ્યું છે. અધઃસપ્તમી પૃથ્વીની ઉપરના ચરમાત સુધીમાં પણ અસંખ્યાત લાખ એજનનું અંતર કહ્યું છે. તથા એટલું જ અંતર તનુવાતની ઉપરના અને નીચેના ચરમાંત સુધીમાં કહેલ છે. આજ પ્રમાણે અવકાશાતરની ઉપરના અને નીચેના ચરમાન્ત સુધીમાં પણ અસંખ્યલાખ જનનું અંતર સમજવું. એ પ્રમાણેનું આ કથનથી સ્પષ્ટી, કરણ કરેલ છે. જે સૂ ૧૦ |
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४४
जीयाभिगमसूत्रे
प्पभा पुढवी दोचं पुढत्रिं पणिहाय वाहल्लेणं नो तुहा विसेसाहिया नो संखेज्जगुणा, विस्थारे नो तुल्ला विसेसहीणा जो संखेजगुणहीणा । दोच्चा णं भंते ! पुढवी तचं पुढवि पणिहाच बाहल्लेणं किं तुल्ला एवं चैव भाणियन्नं । एवं तच्चा चउत्थी पंचमीछट्टी | छुट्टी णं ते! पुढवी सततं पुर्व पणिहाय बाहल्लेणं किं तुल्ला विमाहिया संखेजगुणा एवं चैव भाणियव्वं । सेवं भंते ! सेवं संते ! ॥
रइय उद्देसओ पढो ॥ सू० १२॥
छाया -- इयं खलु भदन्त । रत्नप्रभा पृथिवी द्वितीयां पृथिवीं प्रणिधाय बाहल्येन किं तुल्या विशेषाधिका संख्येपगुणा ? विस्तरेण कि तुल्या विशेषहीनासंख्येयगुणहीना ? गौतम ! इयं खलु रत्नममा पृथिवी द्वितीयां पृथिवीं प्रणिधाय वाहल्येन नो तुल्या विशेषाधिका नो संख्येयगुणा, विस्तारेण नो तुल्या विशेषहीना नो संख्ये गुणहीना । द्वितीया खलु भदन्त ! पृथिवी तृतीयां पृथिवीं प्रणिधाय वाल्येन किं तुल्या एवमेव मणितव्यम् । एवं तृतीया चतुर्थी पञ्चमी षष्टी । षष्ठी खय मदन्छ ! पृथिवी सप्तमीं पृथिवीं प्रणिधाय बाहल्येन कि तुल्य विशेषाधिका संख्येयगुणा एवनेव भणितव्यम् । तदेवं महत्व ! तवं भदन्त !०११||
टीका- 'इमा णं ते! रचणयमा पुढची इयं खलु भदन्व ! रत्तप्रभा पृथिवी 'दोच्चं पढवि पणिहाय' द्वितीयां शर्करापृथिवीं प्रणिधाय धाश्रित्य द्वितीय
अब रत्नप्रभादि पृथिवियों का परस्पर अगली - भगली पृथिवियों को लेकर पूर्व पूर्व की पृथिवी का वाहत्य और पिस्मार से तुल्यत्वादि प्रतिपादन करते हैं
'हाणं भंते ! रणप्पा पुढवी दोच्चं पुढ' इत्यादि ॥ सू० ११॥ टीकार्थ- इसमें गौतल ने प्रभु से ऐसा पूछा है-'हमा णं भंते ! रणध्या पुढवी' हे दन्त यह प्रभा पृथिवी 'दोच्चं पुढवि
1
હવે રત્નપ્રભા વિગેરે પૃથ્વીયેા પરસ્પર
પછી પછીની પૃથ્વીઓને લઇને પહેલાં પડેલાંની પૃથ્વીનુ માહલ્ય અને વિસ્તારથી સમાનપણાનું પ્રતિપાદન કરે છે,
'इमाण भंते ! रयण पभा पुढची दोच्चं पुढवि' त्याह टीकार्थ—माभां गौतमस्वाभीये प्रभुने मेनुं पृछ्यु छे रयणप्पा पुढवी' हे भगवन् ! आ रत्नप्रभा पृथ्वी 'दोच्चं पुढविं पणिहाय'
'इमाणं भंते!
Page #165
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र. ३ स्. ११ सप्तापि पृथ्वीनां परस्परापेक्षया बाहल्यम् १४५ पृथिव्यपेक्षयेत्यर्थः ' बाहल्ले णं' बाहल्येन बहलताया भावो बाहल्यं पिण्डभाव स्तेन पिण्डभावात्मकबाहल्येन 'किं तुल्ला बिसेसाहिया संखेज्जगुणा' कि तुल्या - सहशी विशेषाधिका संख्येयगुणाधिका वा भवतीति वाल्य मधिकृत्य प्रश्न त्रयम् । ननु रत्नप्रभा पृथिवी अशीति सहस्रोत्तरैक शतसहस्त्र योजन बाहल्या, शर्करापृथिवी च द्वात्रिंशत्सहस्रो तरेक रात सहस्त्रयोजनबाहल्येति सर्वपृथिवीनां बाहल्य पूर्वसूत्रेऽनुपदमेव भगवता प्रदर्शितमिति सत्यपि अर्थावगमेऽस्य वाल्यविषयक प्रश्नत्रयस्य नैरर्थक्यमेन भवतीति सत्यम् प्रश्नो द्विविधो भवति - ज्ञ प्रश्नः अज्ञप्रश्नश्व, ज्ञपश्नः स घोच्यते, यः स्वस्यार्थावगमे सम्यपि मन्दबुद्धि विनेयजनव्या. मोहापनोदाय क्रियते, अज्ञ प्रश्नय सः, या स्वस्यानर्थावगये सति वज्जिज्ञासाथै
पणिहाय' द्वितीय शर्करा प्रभा पृथिवी को आश्रित करके 'वाल्लेणं किं तुल्ला विसेलाहिण, संखेज गुणा " घोटाई में क्या परावर है ? था विशेषाधिक है ? या संख्यात गुणी अधिक है ? यहाँ कोई शंका करता है कि रत्नप्रभा पृथियी एक लाख अस्सी हजार योजन बाहल्य वाली है और शर्करामा पृथिवी एक लाख बत्तीस हजार योजन की है, इस प्रकार सब पृथिवियों का बाहल्य इसी सूत्र के पूर्व सूत्र में भगवान ने बतला दिया है तो इस विषय का अर्थबोध होने पर भी ये बाहल्य विषय के तीन प्रश्न यहां निरर्थक होते हैं। हां तुम्हारा यह कथन ठीक हैं परन्तु प्रश्न दो प्रकार का होता है- एक प्रश्न और दूसरा अज्ञ प्रश्न, ज्ञप्रश्न वह कहलाता है जो अपने जानते हुए भी समीपस्थ मन्द बुद्धि
श्रील शर्करायला पृथ्वीनो आश्रय उरीने 'बाहल्लेणं संखेन्जगुणा' होणाभां शु मणिर छे ? अथवा સંખ્યાતગણી વધારે છે ? આ સ'બંધમાં કાઈ શંકા એક લાખ એસી હાર ચૈાજન ખાલ્યવાળી છે, અને શર્કરાપ્રભા પૃથ્વી એક લાખ મત્રીસ હજાર ચૈાજન માહુલ્યની છે. આ રીતે બધી પૃથ્વીચેનુ ખાહુલ્ય આ સૂત્રની પહેલા સૂત્રમાં ભગવાને બતાવેલ છે. તે આ વિષયને અ મેધ થવા છતા પણુ જે ખાહુલ્યના સમ ́ધમાં ત્રણ પ્રશ્ન કરવામાં આવ્યા છે તે અહિયાં નિરથ ક જણાય છે. ઉત્તર-હા તમારૂં' આ કથન મરીजर छे. परंतु प्रश्नो मे अारना हाथ है. ये 'ज्ञ प्रश्न भने जीले 'ज्ञ' પ્રશ્ન' ના પ્રશ્ન એ કહેવાય છે કે જે પાતે જાણવા છતાં પણ બધા સમીપમાં રહેવાવાળા મંદ બુદ્ધિવાળા વિનયશીલ શિષ્યની શંકાના નિવારણ માટે પૂછવામા
जी० १९
किं तुल्ला विसे साहिया विशेषाधि हो ? अथवा કરેકે રત્નપ્રભા પૃથ્વી
Page #166
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४६
जीवाभिगमसूत्रे
क्रियते । अत्रेदं प्रश्नत्रयं ज्ञत्रिपकं मन्दबुद्विविनेयजनदोधार्य गौतमेन कृतमिति नात्रास्य प्रश्नश्यस्य नैरर्थवचमिति । कथमेतज्ञायते यदेतत् प्रश्न त्रयं विषयकम् ? इति चेत् स्वाववोधाय तत्रैवाग्रे घनान्तरोपन्यासात् ।
अथ विस्तारविषये प्रश्न माह तथाहि - ' वित्यरेणं' विस्तरेण विष्कम्भेण 'तुल्ला विसेसहीणा संखेज्नगुणहीणा' तुल्या सहशी विशेषहीना संख्येयगुणहीना वा भवतीति नः । भगवानाह 'गोयमा' इत्यादि, 'गोवमा' हे गौतम! प्रश्नः, 'इमा णं स्यणप्पसा पुढची' इयं खलु रत्नप्रभा पृथिवी 'दोच्चं पुढवि पणिहाय' द्वितीयां शर्करामभा पृथिवीं प्रणिधाय - माश्रित्य तदपेक्षयेत्यर्थः । ' बाहल्लेन' विनीत शिष्य की शंका निवारण के लिये पूछा जाय । और जो अपने नहीं जानते हुए जिज्ञासा बुद्धि से पूछा जाय वह अज्ञ प्रश्न कहा जाता है । यहां जो गौतम स्वामी ने प्रश्न किया है वह मन्द बुद्धि विनेय शिष्य के जानने के लिये किया गया होने ले यह ज प्रश्न है इसलिये यह निरर्थक नहीं है । यह कैसे जाना जाय कि यह ज्ञ प्रश्न है ? इसका उत्तर यह है कि- अपने जानने के लिये यहीं पर आगे दूसरा प्रश्न विस्तार जानने के लिये पूछा जा रहा है इससे सिद्ध होता है कि यह ज्ञ प्रश्न है। अब विस्तार के विषय में कहते है- 'बित्यरेणं किं तुला, विसेसहीणा, संखेज्ज गुण हीणा' तथा विस्तार की अपेक्षा यह उस से तुल्य है ? या विशेष हीन है ? या संख्यात गुणहीन है ? प्रभु इस प्रश्न के उत्तर में कहते हैं- 'गोयमा' इमा रणभा पुढची 'हे गौतम! यह रत्नप्रभा पृथिवी 'दोच्चं पुढदि पणिहाय' द्वितीय पृथिवी की अपेक्षा
-
આવે. અને જે પાતે ન જાણુવા થી જીજ્ઞાસા-જાણવાની ઈચ્છાથી પૂછવામાં આવે તે ‘અજ્ઞ' પ્રશ્ન કહેવાય છે. અહિયાં ગૌતમસ્વામીએ જે પ્રશ્ન પૂછેલ છે, તે મદ મદ્ધિ વિનય શીલ શિખ્યાની સમજ માટે પૂછેલ હાવાથી આ પ્રશ્ન 'ज्ञ' प्रश्न छे. तेथी मा अथन निरर्थ नथी.
એ કેવી રીતે સમજી શકાય કે ઓ 'જ્ઞ' પ્રશ્ન છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તર એ છે કે પેાતાને સમજવા માટે અહિયાં જ આગળ ખીન્ને પ્રશ્ન વિસ્તારના સંબધમાં પૂછવામાં આવેલ છે. તેથી નિશ્ચિત થાય છે કે આ 'જ્ઞ' પ્રશ્ન છે. वे विस्तारना सभधभां वामां आवे छे. ' वित्थरेण' कितुल्ला ! विसेसहीणा, स खेज्जगुणहीणा' तथा विस्तान्नी अपेक्षाथी थे तेनी जरोमर છે ? અથવા વિશેષ હીન છે ? કે સખ્યાત ગુણથી રહિત છે ? આ પ્રશ્નના उत्तरमां अलु हे छे } 'गोयमा ! इमाणं रयणप्पभा पुत्री' हे गौतम! २अभी पृथ्वी 'दोच्च' पुढविं पणिहाय' मील पृथ्वी रतां 'वाइल्णं णो तुल्ला'
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ २.१९ सप्तापि पृथ्वीनां परस्परापेक्षया बाहल्य॑म् १५७ वाहल्येनापि पिण्ड भावेन ‘णो तुल्ला-सदृशी न भवति रत्नप्रभाया अशीतिसहस्रो. त्तरलक्षयोजनमानत्वात् शर्करामभायाश्च द्वात्रिंशत्सहस्रोत्तरलक्षयोजनमानत्वात् किन्तु शर्कराप्रमापेक्षया रत्नपमा बाहल्येन विशेषाधिका भवति, किन्तु 'नों संखेज्जगुणा' संख्येयगुणाधिका न भवति रत्नपभाया अष्टचत्वारिंशत्सहस्रयोजनमात्रस्यैवाधिक्येन संख्येयगुणत्वाभावात् इति । 'वित्थारेणं नो तुल्ला' रत्नपमा पृथिवी शर्करा प्रभापृथिव्यपेक्षया विस्तारेण विष्कम्भेनापि न तुल्या किन्तु'दिसेसहीणा' विशेषहीना किन्तु 'णो संखेनगुणहीणा' संख्येयगुणहीना न, अस्या हीनत्वे संख्येयगुणत्दामावाद, प्रदेशादि वृद्धया प्रवर्द्धमाने तावतिक्षेत्रे शर्करापभाया एव वृद्धिसंभवादिति 'दोच्चा णं भंते ! पुढनी द्वितीया खल्लु शर्कराममा 'बाहल्लेण णो तुलो' मोटाई में बराबर नहीं है क्योंकि रत्न प्रभा पृथिवी की मोटाई एक लाख अस्सी हजार योजन की है और शर्करा प्रभा की मोटाई एक लाख बत्तील हजार योजल की है अतः आपस में दोनों में समानता नहीं है प्रत्युत शर्करा प्रला की अपेक्षा रत्नप्रभा पृथिवी ही मोटाई में विशेषाधिक है यह कि संख्यात गुणी अधिक उसकी अपेक्षा इसलिये नहीं हो सकती है कि शर्करा प्रभा की अपेक्षा इसकी मोटाई केवल अडतालीस हजार योजन ही अधिक है 'विस्थरेण नो तुल्ला' रत्नप्रभा पृथिवी शर्कराप्रभा की अपेक्षा विस्तार में भी बराबर नहीं हैं किन्तु यह विशेष हीन ही है 'णो खेज्ज गुणहीणा' इसलिये वह संख्यात गुण हीन नहीं है क्योंकि प्रदेश आदि की वृद्धि से प्रवर्धमान उसने ही क्षेत्र कार्करा प्रभा की वृद्धि होती है।
दोचनाणं मंते ! पुढची तच्चं पुढदि पणिहाय कि बाहल्लेण तल्ला પહોળાઇથી બરાબર નથી. કેમકે રત્નપ્રભા પૃથ્વીની પોળાઈ એક લાખ એસી હજાર જનની છે. અને શર્કરપ્રભા પૃથ્વીની પહોળાઈ એક લાખ બત્રીસ હજાર જનની છે. તેથી પરસ્પરમાં બનેમાં સરખાપણું નથી. બલકે શર્કરા પ્રભા કરતાં રત્નપ્રભા પૃથ્વીની પહેબઈ વિશેષાધિક છે. આ કારણથી તેના કરતાં સંખ્યાત ગણી વધારે તે થઈ શક્તી નથી. શર્કરપ્રભા કરતાં તેની પહોળાઈ ४१७ मतालीम २ यान पधारे छे. 'वित्थरेण' नो तुल्ला' २त्नप्रसा પવી શર્કરા પ્રભા પૃથ્વી કરતાં વિસ્તારમાં પણ બરાબર નથી. પરંતુ તે વિશેષ डीन छ. 'णो संखेज्जगुणहीणा' तथा ते ज्यात गुहीन नथी. महे પ્રદેશ વિગેરેની વૃદ્ધિથી વધતા એટલાજ ક્ષેત્રમાં શર્કરા પ્રભા પૃથ્વીની વૃદ્ધિ થાય છે
'दोच्चा णं भंते ! पुढवि पणिहाय कि बाहल्लेणं तुल्ला एवं चेव भाणि
Page #168
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
A
जीवाभिगमध्ये क्रियते। अद प्रश्नत्रयं ज्ञविषकं मन्दबुद्धिविनेयजनबोधार्य गौतमेन कृतमिति नावास्य प्रश्नत्रयस्य नरर्थवयामिति । कथमेतज्ज्ञायते यदेवत् प्रश्न त्रयं जविषयकम् ? इति चेत् स्वायबोधाय तवाग्रे प्रश्नान्तरोपन्यासात् । __अथ विस्तारविपये प्रश्न माह-तथाहि-'वित्थरेणं' विस्तरेण विष्फम्मेण 'तल्ला विसेसहीणा संखेनगुणहीणा' तुल्या-महशी विशेपहीना संख्येयगुणहीना चा भवतीति प्रश्नः । भगवानाह 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'इमा णं रयणप्पया पुढवी' इयं खलु रत्नममा पृथिवी 'दोच्चं पुर्वि पणिहाय' द्वितीयां शर्कराममा पृथिवीं प्रणिधाय-माश्रित्य तदपेक्षयेत्यर्थः । 'वाहल्लेणे' विलीन शिष्य की शंका निवारण के लिये पूछा जाय । और जो अपने नहीं जानते हुए जिज्ञासा बुद्धि से पूछा जाय वह अज्ञ प्रश्न कहा जाता है। यहां जो गौतम स्वामी ने प्रश्न किया है वह मन्द बुद्धि विनेय शिष्य के जानने के लिये किया गया होने से यह ज्ञ प्रश्न है इसलिये यह निरर्थक नहीं है । यह कैसे जाना जाय कि यह ज्ञ प्रश्न है ? इसका उत्तर यह है कि-अपने जानने के लिये यहीं पर भागे दूसरा प्रश्न विस्तार जानने के लिये पूछा जा रहा है इससे सिद्ध होता है कि यह ज्ञ प्रश्न है। अप विस्तार के विषय में करते है- 'बियरेणं किं तुल्ला, विसेलहीणा, संखेज्ज गुण हीणा' तथा-विस्तार की अपेक्षा यह उस से तुल्य है ? या विशेष हीन है ? या संख्धान गुणहीन ई ? प्रभु इस प्रश्न के उत्तर में कहते हैं-गोयना' इमाम स्थापभा पुढवी 'हे गौतम ! यह रत्नप्रभा पृथिवी 'दोच्च पुढदि पणिहाय' वितीय पृथिवी की अपेक्षा આવે. અને જે પિતે ન જાણવા થી જીજ્ઞાસા-જાણવાની ઈચ્છાથી પૂછવામાં આવે તે “અજ્ઞ' પ્રશ્ન કહેવાય છે. અહિયાં ગૌતમસ્વામીએ જે પ્રશ્ન પૂછેલ છે, તે મંદ બુદ્ધિ વિનય શીલ શિષ્યની સમજ માટે પૂછેલ હોવાથી આ પ્રશ્ન '' प्रश्न छे. तथा मा ४थन निरय नथी.
એ કેવી રીતે સમજી શકાય કે એ “જ્ઞ પ્રશ્ન છે? આ પ્રશ્નને ઉત્તર એ છે કે પોતાને સમજવા માટે અહિંયાં જ આગળ બીજો પ્રશ્ન વિસ્તારના સંબંધમાં પૂછવામાં આવેલ છે. તેથી નિશ્ચિત થાય છે કે આ “સ” પ્રશ્ન છે
6 विस्तारना समयमा वामां आवे छे. 'वित्थरेण कितुल्ला ! विसेसहीणा, स खेज्जगुणहीणा' तथा विस्तानी अपेक्षाथी से तनी मम२ છે ? અથવા વિશેષ હીન છે ? કે સંખ્યાત ગુણથી રહિત છે ? આ પ્રશ્નના उत्तरमा प्रभु के छ है 'गोयमा ! इमाणं रयणप्पभा पुदयी' गौतम ! मा २५मा पृथ्वी 'दोच्च पुढवि पणिहाय' भी पृथ्वी १२ता 'वाहल्लेणं णो तुल्ला'
‘’ પ્રશ્ન છે ?
પૂછવામાં આવી જા માટે અહિ
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र. ३ . ११ संप्तापि पृथ्वीनां परस्परापेक्षया बाहल्यम् १४७ चाहल्येनापि पिण्डपावेन 'णो तुल्ला - सदृशी न भवति रत्नप्रभाया अशीतिसहस्रोतरलक्षपोजन मानत्वात् शर्कराममायाश्व द्वात्रिंशत्सहस्रो तरलक्ष योजनमानत्वात् किन्तु शर्कराप्रमापेक्षया रत्नप्रभा बाहल्येन विशेषाधिका भवति किन्तु 'नों संखेज्जगुणा' संख्येयगुणाधिका न भवति रत्नपमाया अष्टचत्वारिंशत्सहस्रयोजनमात्रस्यैवाधिक्येन संख्येयगुणत्वाभावात् इति । 'विस्थारेणं नो तुल्हा' रत्नप्रभा पृथिवी शर्करा प्रभापृथिव्यपेक्षया विस्तारेण विष्कम्भेनापि न तुल्या किन्तु - 'विसेसहीणा' विशेषहीना किन्तु 'णो संखेज्जगुणहीणा' संख्येयगुणहीना न, अस्या हीनत्वे संख्येयगुणत्वाभावाद, प्रदेशादि वृद्ध्या प्रवर्द्धमाने तावतिक्षेत्रे शर्कराप्रभाया एव वृद्धिसंभवादिति 'दोच्चा णं भंगे ! पुढी' द्वितीया खल शर्करामभा 'बाहल्लेण णो तुला' मोटाई में बराबर नही है क्योंकि रहन प्रभा पृथिवी की मोटाई एक लाख अस्सी हजार योजन की है और शर्करा प्रभा की मोटाई एक लाख बत्तील हजार योजन की है अतः आपस में दोनों में समानता नहीं है प्रत्युत शर्करा प्रभा की अपेक्षा रत्नप्रभा पृथिवी ही मोटाई में विशेषाधिक है यह कि संख्यात गुणी अधिक उसकी अपेक्षा इसलिये नहीं हो सकती हैं कि शर्करा प्रभा की अपेक्षा इसकी मोटाई केवल अडतालीस हजार योजन ही अधिक है 'विस्थरेण नो तुला' रत्नप्रभा पृथिवी शर्कशप्रभा की अपेक्षा विस्तार में भी बराबर नहीं है किन्तु वह विशेष हीन ही है 'जो खेज्ज गुणहीना' इसलिये वह संख्यात गुण हीन नहीं है क्योंकि प्रदेश आदि की वृद्धि से प्रवर्धमान उतने ही क्षेत्र में शर्करा प्रभा की वृद्धि होती है ।
दोना णं ते! पुढची तच्च पुढचं पणिहाय कि बाहरलेणं तुल्ला પહેાળાઈથી ખરાબર નથી. કેમકે રત્નપ્રભા પૃથ્વીની પહોળાઇ એક લાખ એ સી હજાર ચાજનની છે. અને શર્કરાપ્રભા પૃથ્વીની પહેાળાઇ એક લાખ બત્રીસ હજાર ચેાજનની છે. તેથી પરસ્પરમાં ખન્નેમાં સરખાપણું નથી અલ્કે શરા પ્રભા કરતાં રત્નપ્રભા પૃથ્વીની પહેળઇ વિશેષાધિક છે. આ કારણથી તેના કરતાં સખ્યાત ગણી વધારે તે થઈ શકતી નથી. શાપ્રભા કરતાં તેની પહેાળાઇ ठेवण अडतासीन डलर योजन वधारे छे. 'बित्थरेण' नो तुल्ला' रत्नप्रभा પૃથ્વી શકરાપ્રભા પૃથ્વી કરતાં વિસ્તારમાં પશુ ખરેખર નથી, પરંતુ તે વિશેષ डीन छे. 'जो सखेज्जगुणहीणा' तेथी ते संख्यात गुलुहीन नथी. भिडे પ્રદેશ વિગેરેની વૃદ્ધિથી વધતા એટલાજ ક્ષેત્રમાં શર્કરાપ્રભા પૃથ્વીની વૃદ્ધિ થાય છે 'दोच्चाणं भंते! पुढषि' पणिहाय किं बाहल्लेणं तुल्ला एवं चैव भाणि -
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४
जीवाभिगमसूत्रे पृथिवी भदन्त ! 'तच्चं पुढवि पणिहाय' तृतीयां वालुकाममा पृथिवीं प्रणिधायअश्रित्य 'किं वाहल्लेणं तुल्ला एवं चेव माणियचं किं वाहल्येन पिण्डमावेन तुल्या, एवमेव मणितव्यम् यथा द्वितीयां पृथिवीमाश्रित्य प्रथमाया स्तुल्यत्वादि कथनं कृतं तथैवात्रापि सर्व वक्तव्यम् तथा-हे भदन्त ! तृतीयां वालकाममा पृथिवीमाश्रित्य शर्कराममा पृथिवी किंवाहल्येन तुल्या विशेषाधिका संख्येय. गुणाधिका वा तथा द्वितीया पृथिवी तृतीयां पृथिवीम पेक्ष्य विस्तारेण किं तुल्या विशेषगुणहीना संख्येयगुणहीना वा भवतीति प्रश्नः, भगवानाह-'हे गौतम ! इय द्वितीया शर्कराप्रमा पृथिवी हतीया माश्रित्य वाहल्येन न तुल्या किन्तु विशेषा. धिक्का न तु संख्येयगुणाधिका, शर्करा पृथिवी बाहल्येन द्वात्रिंशत्महस्रोचर लक्षयोजनममाणा भवति बालकापमा तु अष्टाविंशतिसहस्रोत्तरलक्षयोजन प्रमाणा, अतः बालुकापमावाहल्यापेक्षया शर्कराममा वाइल्यस्य न तुल्यत्वम् किन्तु विशेषाधिकत्वमेव नतु संख्येयगुणाधिकत्वमिति । तथा विस्तारेगापि शर्कराममा एवं चेव भाणिय 'हे भदन्त ! द्वितीय शराममा पृथिवी क्या तृतीय चालुका प्रभा पृधिवी की मोटाई की अपेक्षा में बराबर है ? रत्नप्रभा की तरह यहां भी कहना चाहिये या विशेषाधिक है ? या संख्यात गुणी अधिक है ? तो इसके उत्तर में प्रभु कहते है-हे नीतम ! तृतीय चालुका प्रभा पृथिवो की अपेक्षा हितीय शर्करा प्रमा पृथिवी घराबर नहीं है किन्तु विशेषाधिक है हितीय पृषिधी की मोटाई तृतीय पृथिवी की अपेक्षा संख्यात गुणी नहीं है इसी तरह विस्तार में भी वह तुल्य नहीं है विशेष हीन है एतावता यह संख्यात गुण हीन नहीं है शर्करा प्रभा को मोटाई एक लाख बत्तीस हजार योजन की है और वालुका प्रभा यव्व' है मापन भी शभा पृथ्वी, शु १ श्री वासुमा पृथ्वीना પહોળાઈની અપેક્ષાએ બરોબર છે ? રત્નપ્રભા પૃથ્વી પ્રમાણેનું કથન આ સંબંધમાં પણ કહેવું જોઈએ અથવા વિશેષાધિક છે? કે સંખ્યાત ગુણ અધિક છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે હે ગૌતમ! ત્રીજી વાલુકા પ્રભા પૃથ્વી કરતાં બીજી શર્કરા પ્રભા પૃથ્વી બબર નથી. પરંતુ વિશેષાધિક છે. બીજી પૃથ્વીની પહોળાઈ ત્રીજી પૃથ્વી કરતાં સંખ્યાતગણી નથી. એજ પ્રમાણે વિરતારના સંબંધમાં પણ તે તુલ્ય નથી વિશેષાહીન છે. એથી જ તે સંખ્યાત ગુણહીન નથી. શર્કરપ્રભા પૃથ્વીની પહોળાઈ એક લાખ બત્રીસ હજાર જનની છે. અને વાલુકાપ્રભા પૃીની પહેળાઈ એક લાખ અઠયાવીસ હજાર એજનની છે. તેથી પહેળાની અપેક્ષાથી શર્કરા પ્રભા પૃથ્વીમાં વાલુકા
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेययोतिका टीका प्र. ३ . ११ सप्तापि पृथ्वीनां परस्परापेक्षया बाहल्यम् १४९ बालुकाप्रभाया विस्तारापेक्षया नो तुल्या, किन्तु विशेषहीना संख्येयगुणहीना | ' एवं तच्चा चउत्थी पंचमी छुट्टी' एवं तृतीय चतुर्थी पञ्चमी षष्ठी, अयं भाव:हे भदन्त ! तृतीया वालुकाममापृथिवी चतुर्थी पङ्कममा माश्रित्य बाहल्येन किं तुल्या विशेषाधिका संख्येयगुणाधिका वा तथा विस्तारेण तुल्य विशेषगुणहीना संख्येयगुणहीनावेति प्रश्नः, भगवानाह - हे गौतम ! इयं तृतीया बालुकाप्रभा पृथिवी चतुर्थी पङ्कममामाश्रित्य बाहल्येन न तुल्या किन्तु विशेषाधिका न तु संख्येयगुणाधिका बालुकाममा तृतीया पृथिवी वाढल्येनाष्टाविंशति सहस्रोत्तरलक्षयोजनममाणा भवति, पङ्कपमा चतुर्थी पृथिवी तु विंशति सहस्त्रोत्तरलक्षयोजनममाणा भवति अतो न तुल्या किन्तु विशेषाधिका, न संख्ये यगुणाधिकेति । हे भदन्त ! चतुर्थी पङ्कप्रमापृथिवी पञ्चमीं धूमप्रभा पृथिवीमाश्रित्य बाहल्येन कि तुल्या विशेषाधिका संख्येयगुणाधिका वा तथा विस्तारेण तुल्या विशेषगुणहीना वा ? हे गौतम! इयं चतुर्थी पङ्कप्रभा पञ्चमीं धूमममा माश्रित्य बाहल्येन न तुल्या किन्तु विशेषाधिका न संख्येयगुणाधिका । चतुर्थपृथिव्याः विंशतिसहस्रोत्तरलक्षयोजनमानत्वात् पञ्चम्यास्तु अष्टादशसहस्रो चरळक्षयोजनमानत्वात् तथा विस्तारेण पञ्चमीपृथिव्यपेक्षयाऽपि चतुर्थी पङ्कमभा न तुल्या किन्तु विशेषहीना की मोटाई एक लाख अठाईस हजार योजन की है इसलिये मोटाई की अपेक्षा शर्करा प्रभा में बालुका प्रभा की अपेक्षा विशेषाधिकता हो आती है संख्यात गुणाधिकता या तुल्यता नहीं आती है । तथा-विस्तार की अपेक्षा भी शर्करा प्रभा वालुका प्रभा की अपेक्षा तुल्य या संख्यात गुण अधिक नहीं है किन्तु विशेष गुणाधिक ही है। 'एवं तच्चा चन्तथी, पंचमी छट्ठी ' इसी तरह चतुर्थी की अपेक्षा तृतीय पंचमी की अपेक्षा चतुर्थी छठ की अपेक्षा पंचम, और सातवीं की अपेक्षा छठी पृथिवी विशेषाधिक हैं । तुल्य या संख्यात गुगांधिक नहीं हैं। इन पृथिवियों की मोटाई इस प्रकार से हैं
પ્રભા પૃથ્વી કરતા વિશેષાધિક પણુ,જ આવે છે. સખ્યાત ગુણુ અધિક પણુ અથવા તુધ્ધપણું', આવતું નથી. તથા વિસ્તારની અપેક્ષાથી પણ શરાપ્રભા પૃથ્વી વાલુકાપ્રભા પૃથ્વી કરતાં તુલ્ય અથવા સખ્યાતગુણુ અધિક નથી. પરંતુ विशेष गुणाधिः ४ छे. 'एव' तच्चा, चउत्थी पंचमी छुट्टी' ४ प्रभा ચેાથી પૃથ્વી કરતાં ત્રીજી, પાંચમી પૃથ્વી કરતા ચેથી છઠ્ઠી પૃથ્વી કરતાં પાંચમી અને સાતમી પૃથ્વી કરતાં છઠ્ઠી પૃથ્વી વિશેષધિક જ છે. તુલ્ય અથવા સખ્યાત ગુરુષિક નથી. આ પૃથ્વીચેની પહેાળાધ આ પ્રમાણે છે.
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवाभिगमसूत्र न संख्येयगुण हीना। हे भदन्त ! पञ्चमी धूमधमा पष्ठी तमः ममामाश्रित्य बाहल्येन किं तुल्या विशेषाधिका संख्येयगुणाधिका वा तथा विस्तारेण तुल्या विशेषहीना संख्येयगुणहीना वा हे गौतम ! इयं पञ्चमी धूपपमा बाहल्येन षष्ठों तमामामाश्रित्य न तुल्या किन्तु विशेषाधिका न संख्येयगुणाधिका पञ्चम्या अष्टादशसहस्त्रोत्तरलक्षयोजनप्रमाणत्वात् षष्ठयास्तु षोडशहरोत्तरलक्षयोजन मानत्वात् तथा विस्तारेण न तुल्या किन्तु विशेषहीना न संख्येयगुणहीनेति । अथ षष्ठ पृथिवीविपये मूत्रकारः स्वयमाह-'छट्ठी णं भंते' इत्यादि, 'छट्ठीणं संते ! पुढची पष्ठी खलु भदन्त ! तमामा पृथिवी 'सचमं पुढविं पणि. हाय सप्तमी तमस्तम ममा पृथिवीं प्रणिधाय-आश्रित 'वाहल्लेणं कितुल्ला विसेसाहिया संखेज्जगुणा' बाहल्येन कि तुल्या विशेषाधिका संख्येयगुणा वा एवं चेत्र भणिया' एवमेव पूविदेव प्रश्नोत्तरादिकं भणितव्यम् तथाहि-विस्तारण तुल्या विशेषहीना वा ? हे गौतम ! इयं षष्ठी तमःप्रमा पृथिवी सप्तमीमपेक्ष्य वाहलल न तुल्पा किन्तु विशेषाधिका न संख्येयगुणाधिका पष्टयाः पृथिव्याः
रत्नप्रभा पृथिवी की मोटाई एक लाख अस्सी हजार योजन की है. द्वितीय पृथिवी की मोटाई एक लाख बत्तीस हजार योजन की है. तृतीय पृथिधी की मोटाई एक लाख अठाईस हजार योजन की है. चतुर्थ पृथिवी की मोटाई एक लाख बीस हजार योजन की है. पांचवीं पृथिवी की मोटाई एक लाख अठारह हजार योजन की है. छठवीं पृथिवी की मोटाई एक लाख सोलह हजार योजन की है. लालबीं पृथिवी की मोटाई एक लाख आठ हजार योजन की है.
इस पर ले माह 'अच्छी तरह से जाना जा सकता है कि द्वितीय पृथिवी की अपेक्षा ले प्रथम पृथिवी विशेषाधिक है, तृतीय की अपेक्षा
રત્નપ્રભા પૃથ્વીની પોળાઈ એક લાખ એ સી હજાર જનની છે. બીજી શર્કરામભા પૃથ્વીની પહોળાઈ એક લાખ બત્રીસ હજાર એજનની છે. ત્રીજી પૃથ્વીની પહોળાઈ એક લાખ અઠયાવીસ હજાર એજનની છે. ચોથી પૃથ્વીની પોળાઈ એક લાખ વીસ હજાર જનની છે. પાંચમી પૃથ્વીની પહોળાઈ એક લાખ અઢાર હજાર જનની છે. છઠી પૃથ્વીની પહોળાઈ એક લાખ સેળ હજાર એજનની છે સાતમી પૃપીની પહેળાઈ એક લાખ આઠ હજાર યોજનની છે.
આના ઉપરથી એ સારી રીતે સમજી શકાય છે કે બીજી પૃથ્વી કરતાં પહેલી પૃથ્વી વિશેષાધિક છે. ત્રીજી પૃથ્વી કરતાં બીજી પૃથ્વી વિશેષ ધિક છે
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ २.११ सप्तापि पृथ्वीनां परस्परापेक्षया बाहल्यम् १५१ पोडशसहस्रोत्तरलक्षयोजनमानत्वात् सप्तम्यास्तु अष्टसहस्रोत्तरलक्षयोजनमानत्वात् तथा विस्तारेण न तुल्या किन्तु विशेषहीना न संख्येय गुणहीनेति । 'सेवं भंते ! सेव भंते ! त्ति' तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति, हे महन्त ! रत्नपभादीनां पृथिवीनां प्रमाणे यद् देवानुपियेण कथितम् तत्सर्वम् एत्रमें आप्तबचनस्य तथैव सत्यस्वादिति कथयित्वा मौनो भगवन्तं वन्दते नमस्पति वन्दित्वा नास्यित्वा संगमेन तपप्ता भात्मानं भावयन् विहरतीति ।।११।। इति श्री विश्वविख्यात-जगदल्लम-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषा
कलिललितकलापालापकथाविशुद्धगधपचानकग्रन्थ निर्मापक, वादिमानमर्दक-श्रीशाहच्छत्रपति कोल्हापुरराजमदत्त'जैनाचार्य' पदभूपित --के ल्हापुरराजगुरुबालब्रह्मचारि-जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर पूज्य श्री घासीलालचतिविरचितस्य श्री जीवाभिगमसूत्रस्य प्रमेयद्योतिका ख्यायां व्याख्यायां तृतीयमतिपत्तौ
प्रथमोद्देशकः समाप्तः ॥ द्वितीय विशेषाधिक है-चतुर्थी की अपेक्षा तृतीय विशेषाधिक है पंचमी की अपेक्षा चतुर्थी पृधियी विशेषाधिक है छठी पृथिवी की अपेक्षा, पांचवीं पृथिवी विशेषाधिक है। एवं सातवीं की अपेक्षा छठी विशेषाधिक है और विस्तार की अपेक्षा के तुल्य नहीं हैं किन्तु विशेष हीन है वह भी संख्यात गुण हीन नहीं हैं। यही इस पत्र का कथन है। सूत्र ॥१०॥ जैनाचार्य जैनधर्मविधाकर पूज्यश्री घासीलालजीमहाराजकृन 'जीवाभिगमसूत्र' की प्रमेयद्योति का नामक व्याख्या में
॥ तृतीय प्रतिपत्ति का प्रथम उद्देशक समाप्त ॥३-१॥ ચેથી પૃથ્વી કરતાં ત્રીજી પૃથ્વી વિશેષાધિક છે. પાંચમી પૃથ્વી કરતાં ચોથી પૃથ્વી વિશેષ ધિક છે. છઠી પૃથ્વી કરતાં પાંચમી પૃથ્વી વિશેષાધિક છે અને સાતમી પૃથ્વી કરતાં છઠી પૃથ્વી વિશેષાધિક છે. અને વિસ્તારની અપેક્ષાથી તુલ્ય નથી પરંતુ વિશેષ હીન છે. તે પણ સંખ્યાત ગુણ હીન નથી. એજ આ સૂત્રનું કથન છે. તે સૂ ૧૧ જૈનાચાર્ય જૈનધર્મદિવાકર પૂજયશ્રીઘાસીલાલજી મહારાજકૃત ‘જીવભિગમસૂત્રની પ્રમેયોતિકા નામની વ્યાખ્યામાં ત્રીજી પ્રતિપત્તિને પહેલે ઉદ્દેશ સમાપ્ત ૩-૧
Page #174
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवाभिगमसी अथ तृतीयप्रतिपत्तौ द्वितीयोदेशकः पारभ्यते-- मूकम्-कह भंते ! पुढवीओ पन्नत्ताओ ? गोयमा ! सत्त पुढवीओ पन्नत्ताओ तं जहा-रयणप्पभा जाव अहे सत्तमा ॥ इसीले णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए अलीइ उत्तरजोयणलयसहस्स बाहल्लाए उरि केवइयं ओगाहित्ता हेहा केवइयं वजित्ता मज्झे केवइए केवइया निरयावाससयसहरला पन्नत्ता? गोयमा ! इमीले णं रयणप्पसाए पुढीए असी उत्तर जोयणसयसहस्त बाहल्लाए उवरि एगं जोयणसहस्सं ओगाहित्ता एट्ठा वि एगं जोयणसहस्सं वजेता मञ्झे अडसत्तरी जोयणसयलहरुसं, एत्थ णं रयणप्पसा पुढवी रयाणं तीसं निरयावासलयसहस्साई भवंति त्ति मक्खायं ॥ तेणं णरगा अंतो. वटा बाहिं चउरंसा जाव असुभा णरएसु वेयणा । एवं एएणं अभिलावेणं उवजिऊणा भाणियव्वं गणप्पयानुसारेणं, जत्थ जं बाहल्लं जत्थ जत्तिया वा नरयावास्नसयसहस्ला जाव अहे सत्तमाए पुढवीए । अहे सत्तमाए f० मज्झे केवइए केवइया अणुत्तरा महइ महालया सहाणिरया पन्नत्ता एवं पुच्छियव्वं वागरेयत्वं पि तहेच ॥सू० १२॥
छाया--कति खलु भदन्त ! पृथिव्यः पज्ञप्ता ? गौतम ! सप्त पृथिव्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यया-रत्नपभायावदधः सप्तमी। एतस्याः खलु भदन्त ! रत्न प्रभायाः पृथिव्या अशीत्युत्तरयोजनशतसहस्र वाहल्याया उपरि कियद् अवगाय अधस्तात् कियद् वर्जयित्वा मध्ये कियति कियन्ति निरयावासशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! एतस्याः खलु रत्नमभायाः पृथिव्या अशीत्युत्तरयोजनशतसहस्रवाहल्याया उपरि एक योजनसहसमवगाहा अधस्तादपि एकं योजनसहस्र वर्जेयित्वा मध्येऽष्टमपतियोजनशतलहरे अत्र खलु रत्नपभा पृथिवी नैरयिकाणा त्रिंशन्निरयावासशतसहस्राणि भवतीत्याख्यातम् । ते खलु नरका अन्तो वृत्ता बहि: श्चतुरस्रा यावदशुभा नरकेषु वेदनाः । एवमेतेनाभिलापेन उपयुज्य मणितव्यम्
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ २.२ सू.१२ कस्यां पृथिव्यां कति नरकावासाः १५३ स्थानपदानुसारेण । यत्र यद् बाहल्यं यन यावन्ति वा नरकाबासशतसहस्राणि यावदधः सप्तम्या: पृथिव्याः अधः सप्तम्याः मध्ये कियत् कति अनुत्तरा महन्महालया महानिरयाः प्रज्ञप्ता एवं व्य व्याकतव्यमपि तथैव ॥१२॥
टीका--'कइणं मंते !' कति-कित्संख्षकाः खलु भदन्त ! 'पुढवीओ' पृथिव्यः पन्नताओ' प्रज्ञप्ता:-कथिताः, यद्यपि पृथिव्या संख्या पूर्व कथिता एव तथापि एतद्विषये किञ्चिद्विशेषपभिध'तुं पुनः भवचनम्, तदुक्तम्---
'पुचभणियं पिज पुन भन्नड तस्थ कारण मस्थि । पडि से होय अणुण्णा कारण विसेसोवलंभो वा ॥१॥ पूर्वमणितमपि यत् पुन भरते तत्र कारणमस्ति।
भतिषेधे नुज्ञा कारणविशेषोपलम्मश्चेतिच्छाया॥ यत्र पूर्व प्रतिपादितस्यैव पुनः क्षयनं क्रियते तत्र प्रतिषेधानुज्ञाकारणविशेपाणां वा उपलरमा ज्ञातव्य इति प्रश्ना, अगामाह-'गोयामा' इत्यादि, गोयमा
दुस। उद्देशे का प्रारंभतृतीय प्रतिपत्ति प्रथम उद्देशक खलास हुआ अब सूत्रकार द्वितीय उद्देशक प्रारम्भ करते हैं। इसमें किल पृथिवी के क्षित प्रदेश में कितने नरकावास है इस विषय का प्रतिपादन करते है।
'कह ण भंते ! पुढचीओ पन्नत्ताओ-इत्यादि ॥
टीकार्थ-गौतमतले प्रभुले देला पूछा है-'कह णं भंते ! पुढवीभो पण्णत्ताओ' हे भदन्त ! पृधिशीयां हिलनी कही गई है ? यद्यपि पृथिवि., यों की संख्या के सम्बन्ध में कथन पहिले किया जा चुका है-परन्तु यहां जो इस विषय में पुनः प्रश्न किया गया है यह इसमें विशेषता प्रतिपादन करने के लिये किया हैतदुक्तम्-'पुन्छ भणियपि' इत्यादि
__elan शान प्रारमત્રીજી પ્રતિપત્તીને પહેલે ઉદ્દેશ સમાપ્ત કરીને હવે સૂત્રકાર બીજા ઉદેશાને પ્રારંભ કરે છે. આ બીજા ઉદ્દેશામાં કઈ કઈ પૃથ્વીના કયા પ્રદેશમાં કેટલા નરકાવાસે છે ? આ વિષયનું પ્રતિપાદન કરે છે.
'कइण भते ! पुढवीओ पण्णत्ताओ' छयालि
ट -गीतमस्वामी प्रसुन येवु छे छे, 'कणं भंते ! पुढवीओ पण्णत्ताओ' 8 भगवन् पृथ्वीय। ४८दी वाम मावी छ ? ने पृथ्वीयोनी સંખ્યાના સંબંધમાં પહેલા કથન કરવામાં આવેલ છે પરંતુ અહિંયાં આ સંબંધમાં જે ફરીથી પ્રશ્ન કરવામાં આવેલ છે, તે તેમાં વિશેષપણાનું પ્રતિપાદન કરવા માટે કરેલ છે.
४ घुछे 'पुच भणियापि' त्याla जी० २०
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५४ .
जीवामिगम हे गौतम ! 'सत्त पुढवीओ पन्नत्ताओं' सप्तसंख्यकाः पृथिव्यः प्रज्ञप्ता:-कयिता इति, सप्त-भेदान् दर्शयति-तं नहा' इत्यादि, 'तं जहा' तद्यथा-'रयणप्पमा जाव अहे सत्तमा' रत्नप्रभा यावधः सप्तमी यावत्पदेन शर्कराप्रमा बालुका. प्रभा पङ्कप्रभा धूमप्रभा तमाममा तमस्तमःममा इति भेदात् सप्त नरकपृथिव्यः मज्ञप्ता इति । 'इमीसे णं भंते ! रमणप्प माए पुढीए' एतस्याः खलु भदन्त ! रत्नमभायाः पृथिव्याः 'अतीउत्तर जोयणसयसहप्स बाहल्लाए' अशीतिसहस्रोचर. योजनयतसहस्रबाहल्योपेतायाः उवरि' उपरि-उपरितनभागात् 'केवाय' कियत्म. माणम् 'ओगाहिचा' अगाह्य-उपस्तिनभागात् क्रियदतिक्रम्येत्यर्थः 'हा' अधस्तात् 'केवइयं' शियसमागम् 'वज्जित्ता' वर्जयित्वा-परित्यज्य 'मझे' मध्ये
पूर्व में कहा गया विषय यदि दुवारा पूछा जाता तो उसमें कोई न कोई कारण विशेष अवश्य होता है अतः गौतम से प्रभु उत्तर के रूप में कहते हैं
'गोयमा!'हे गौतम ! 'सत्त पुढवीभो पन्नताओ 'पृथिवियां सात कही गई हैं। 'तं जहां जो इस प्रकार है-'रयणप्पभा जाव आहे सतमा' रत्नप्रभा यावत् अधः सप्तमी इस तरह से 'रत्नप्रभा शर्करा प्रभा, पालुकाप्रमा, पङ्कप्रभा धूमप्रभा, और तमस्तमःप्रभा' ये सात पृथिवियां हैं। 'इमीसे णं भंते । रयणप्पभाए पुढवीए' हे भदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी के जो कि 'असी उत्तर जोयण सय सहस्स पाहल्लाए' एक लाख अस्सी हजार योजन की मोटी है 'उरि' उपरितन भाग से 'केवइयं ओगाहित्ता' कितनी दूर जाने पर और 'हेट्ठा केवइयं वजित्ता' नीचे का कितना भाग छोडकर 'मज्झे केवाए 'वीच में कितने योजन
પહેલાં કહેવામાં આવેલ વિષય જે ફરીથી પૂછવામાં આવે છે તેમાં કંઈને કંઈ વિશેષ કીરણ જરૂર હોય છે તેથી ગૌતમસ્વામીને પ્રભુ ઉત્તર આ पताछ 'गोयमा ! 8 गौतम ! 'सत्त पुढवीओ पण्णताओ' पृथ्वीये सात
पामा मावेस छे. 'त' जहा' मी प्रमाणे छे. 'रयणप्पभा जाव अहे सत्तमा' રતનપ્રભા પૃથ્વી યાવત્ અધસપ્તમી આ પ્રમાણે રત્નપ્રભા, શર્કરા પ્રભા, તાલુકા પ્રભા, પંકપ્રભા, ધૂમપ્રભા, તમ પ્રભા અને તમસ્તમપ્રભા આ સાત પૃથ્વીયો छे. 'इमीसे णं भवे रयणप्पभाए पुढवीए' मापन मा नमा पृथ्वीना है २ 'असीउत्तरजोयणसयसहस्स बाहल्लाए, के साथ सेसी डलर योगन नी विundl पाणी छ, 'उबरि' 6५२ना मागथी 'केवइयं ओगाहित्ता' खे ६२ गया पछी भने 'हेटा केवइय वजित्ता' नीयता मात्र छ।ड़ी छे
Page #177
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रद्योतिका टीका प्र. ३ . २. सू.१२ कस्यां पृथिव्यां कति नरकावासो:
'hare' कियति कियत्परिमिते भागे 'केवइया' कियन्ति 'निरयावासस्यसहस्सा पद्मत्ता' नरकावासशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि - कथितानीति प्रश्नः भगवानाह - 'गोयमा', इत्यादि' 'गोयमा' हे गौतम ! 'हमीसे णं स्यणप्पमा पुढवीर' एतस्याः खल रत्नप्रभा पृथिव्याः 'अतीउत्तर जोयगसचसहस्स वाइल्लाए' अशीतिसहस्रोत्तरयोजन सहस्रबाहल्पयुक्ताया: 'उवरि एगं जोयणसहस्स' उपर्युकं योजनसहस्रम् 'ओगाहिता' अवगाह्य 'ट्ठा वि एवं जोयणसहस्सं वज्जिता ' अधस्तनादपि एक योजनसह वर्जयित्वा 'मज्झे' मध्ये 'अत्तरि जोयणसय सदस्से' अष्टसप्ततिसहखाधिके योजनसहस्रे 'एस्य णं' अत्र एतस्मिन् इयत्परिमिते क्षेत्रे खल 'श्रयणप्पभा में' केवइया निरयावाससय सहस्त्रा पन्नत्ता 'कितने नरकावास कहे गये हैं? अर्थात् एक लाख अस्सी हजार योजन की मोटाई वाली जो प्रथम पृथिवी कही गई है उसके ऊपर तथा नीचे के कितने २ हजार योजन छोड़कर बाकी के मध्य भाग में कितने लाख नरकावास है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं- 'गोयमा ! हमीसेणं स्थणप्पा पुढवीए असी उत्तर जोयणसय सहस्स बाहल्लाए' हे गौतम ! एक लाख अस्सी हजार योजन की मोटाई चली इस रत्नप्रभा पृथिवी के 'उवरि एगं जोयणarti ओगाहिता' ऊपर के एक हजार योजन को अवर्गीह कर अर्थात् एक हजार योजन को छोडकर एवं 'हेडा वि एगं योजण सयसहस्सं वजित्ता' नीचे के भी एक हजार योजन को छोडकर 'मज्झे अडसन्तरि जोयण रूप सहस्सा' एक लोख ७८ अठहत्तर हजार योजन में 'रयणप्पभाए पुढवी नेरघाण' रत्नप्रभा पृथिवी के नारकों के
>
'मज्जे केवइए' वयमां डेंटला योन्नसां 'वेवइया निरयावाखसय सहस्सा पन्नत्ता કેટલા નરકવારો કહેવામાં આવ્યા છે? અર્થાત્ એક લાખ એડેંસી હજાર ચૈાજનની પહેાળાઇવાળી જે પહેલી પૃથ્વી કહેલ છે, તેની ઉપર અને નીચેના ભાગમાં કેટલા કેટલા હજાર ચાજનેાથેાડીને બાકીના મધ્યભાગમાં કેટલા લાખ નરકવાસે કહેલ છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે 'गोमा ! इमीसे ण' रयणप्पभा पुढवीए असी उत्तर जोयणचयसहस्सबाहल्लाए' એક લાખ એંસી હજાર ચૈાજનની પહેાળાઈવાળી આ રત્નપ્રભા પૃથ્વીના 'वर एग' जोयणसहस्त्र ओगाहित्ता' उपरना शेड डलर योन्नने वा हित उरीने अर्थात् मेड इन्भर योजनने छोडीने अने 'देष्टा वि एग' जोयणसय सहस्त्र वज्जित्ता' नीयेभां पशु शेड डलर थोक्नने छेडीने 'मज्झे असत्तरि जोयणखयग्रहस्वा' मे साथ ७८ मध्येोतेर हलर योन्जनमा 'श्यणप्वभाव
Page #178
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५६
जीवाभिगम सूत्रे
1
'पुढवी नेरयाणं' रत्नमभा पृथिवी नैरयिकाणां योग्यानि 'ठी नरकावाससय. सहस्साई' त्रिंशन्नरकावासशतसहस्राणि 'भवंति त्ति मक्खायें' भवन्तीति आख्यातम् मया शेषैश्च तीर्थ करे, एताखा सर्व तीर्थकृतास विसंवादिवचनता मवेदितेति । 'कि प्रकारकास्ते नारकाः ? इत्याह- ' तेणं णरगा' ते खल्ल नरका: 'अंतो वहा ' अन्तः 'मध्यभागे वृत्ताः वृत्ताकाराः 'वहिं चउरंसा' वहि: - वहिर्भागे चतुरस्राः चतुष्कोणाः इदं पीठो परिवर्त्तिनं मध्यभागमधिकृत्य कथितम् सकलपीठायपेक्षया तु आव लिका प्रविष्टा वृत्तपत्रचतुरस्र संस्थानाः पुष्पावकीर्णास्तु नानासंस्थाना ज्ञातव्याः । एतत् स्वयमेवाग्रे कथयिष्यते, 'अहे खुरपसंठाणसंठिया जात्र असुमा' अधः क्षुरपसंस्थानसंस्थिताः यावदशुभाः अत्र यावत्पदेन - 'णिच्चधयार'योग्य 'तीस नरकावालसयस हस्लाई' तीस लाख नरकावास 'भवंति तिमrखायं' मैने तथा शेष तीर्थकरों ने ऐसा कहा है। इस - कथन से समस्त तीर्थंकरों के वचनों में अधि संवादिता प्रकट की गई है वे नरकावास दिस प्रकार के है ? उत्तर में कहते है- 'तेणं' परगा 'अतो वहा बहि चउरंसा' वे नरका वास मध्य में गोल है और बहिर्भाग में चकोर आकार वाले हैं यह पीठ के ऊपर से वर्तमान जो मध्य भाग - गोल है उसको लेकर कहा गया है तथा - सकल पीठादि की अपेक्षा से तो आवलिका प्रविष्ट नरकावाल तिकोण, चौकोर संस्थान वाले कहे गये हैं, और जो पुष्पाकीर्ण नरगादास है वे अनेक प्रकार के संस्थान वाले हैं। 'नाव अलुमा' यहां यावत् पद से 'अहे खुरप्प
ए
पुढवी नेरइयाणं' रत्नप्रला पृथ्वीना नारने योग्य 'तीस नरकावासस्यi gig' alu AIY नवास 'भवंवित्ति मक्खाय' थाय छे, तेभ में तथा બાકીના બધાજ તીથ કરાએ કહેલ છે. આ કથનથી સઘળા તીર્થંકરાના વચનામાં અવિસ’વાદિ પણુ' પ્રગટ કરવામાં આવેલ છે. અર્થાત્ એક વાકયતા ખાતાવેલ છે. તે નરકવાસે કેવા પ્રકારના છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે છે કે
1
'ते णं णरगा अंतो वट्टा बहि चउरसा या नरवासेो मध्यमां गोण छे, अने
心
- બહારના ભાગમાં ચાર ખુણુાના આકાર વાળા છે. પીઠના ઉપરના ભાગમાં
1
રહેલ મધ્યભાગ ગાળ છે. તેને લઇને કહેલ છે તથા સકળ પીઠે વિગેર ની અપેક્ષાથી તેા આવલિકામાં પ્રવિષ્ટ નરકાવાસ ત્રિકાણ, ચતુષ્કાણુ, સંસ્થાન વાળા હાવાનું કહેલ છે, અને જે પુષ્પાવકીણુ નરકાવાસ છે, તે બધા અનેક •પ્રકારના સંસ્થાનવાળા કહેવામાં આવેલ છે. આ વાત સૂત્રકાર સ્વયં હવે પછી . - प्रगट खाना छे 'जाव असुभा' गाडिया यावत् पथी 'अहे खुरप्पस' ठाण
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ १.१३ कस्यां पृथिव्यां कति नरकावासा १५७ तमसा ववगयगहचंदमूरणक्खत्तजोइसपहा, मेयरसा पूयरु हरमंसचिक्खिल्ल लित्ताणुलेपणतला असुई बीमस्या परमदुनिभूगंधा काऊ अगणि वन्नाभा कक्खड फासा दुरहियासा' एतदन्तमकरणस्य संग्रहो भवति । एतेषामयमर्थः-अधस्तले. क्षुरपस्येव 'उस्तरा' इति प्रसिद्ध पहरणविशेषस्येव यत् संस्थानमाकारविशेष'स्तीक्ष्णता लक्षणः तेन संस्थिता इति क्षुरप्रसंस्थानसंस्थिताः, तथाहि-तेषु नरकावासेषु भूमितले मसृणाभावात् शर्करिले क्षेत्रे पादेषु न्यस्यमानेषु शर्करा मात्रसंस्पर्शेऽपि क्षुरपणे पादाः कृत्यन्ते, खथा-णिच्चंधयारतमसा' नित्यान्धकारतामसा नित्यान्धकाराः उद्योताभावतो यत्तमस्तेन तमसा नित्यं सर्वकालम् अन्धकारो येषु ते नित्यान्धकारतामसाः अथवा-निल्यान्धकारेण-सर्वकालान्धकार संठाणसंठिया, णिच्चधयारतमसा वचायगहचंदस्रनखत जोहसपहा, मेयवसा पूयरुहिरसंसचिक्खिल्ललिताणुलेषणतला असुह बोभस्था परमदुन्भिगंधा काऊ अगणिवन्नाभा फक्खडफासा दुरहि. यासा' इस पाठ का संग्रह हुमा है। इसका अर्थ इस प्रकार से है-'अहे-खुरप्पलं ठाण खठिया' नीचे के भाग में थे नरकावास क्षुग जैसे-तीक्ष्ण आकार वाले हैं इसका तात्पर्य ऐसा है कि इन नरकावासों का जो भूमितल है वह मसूण-चिकना नहीं है किन्तु कंकरीला है अतः जब उस पर नारकी पैर रखते हैं तो उन्हें ऐसा लगता है कि जैसे क्षुरा की तीक्ष्ण धार से ही उनका पैर छिद गया है। नरकावासों में उद्योत का अभाव रहता है इस्ली ले उनमें सर्वदा गाढ अन्धकार बना रहता है नित्यान्धकार पद ले सूत्रकार ने यह सूचित किया है कि जैसा सठिया, णिच्च धयारतमसा वगयगह-चद-सूर-नक्खातजोइसपहा, मेयवसा पूयरुहिर मसचिक्खिल्ललित्ताणु लेवणतला, असुबीभस्था परमदुभिगधा काउ अगणिवण्णाभा कक्खडफाखा दुरहियाखा' मा पाइने 6 यये छ. આને અર્થ આ પ્રમાણે છે. । 'अहे खुरप्पस'ठाणसठिया' नीयना मागमा ! नवासी क्षुश-छ। (અસ્તરા) ના જેવા તીણ આકારવાળા છે. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે આ નરકાવાસોનો જે ભૂમિ ભાગ છે, તે મસૃણ–ચિકણે નથી પરંતુ કાંકરીયાલ છે. તેથી નારકીયો જ્યારે તેના પર પગ મૂકે છે. ત્યારે તેઓને એવું સમજાય છે કે એરંતરાની તીણી ધારથી તેઓના પગ કપાઈ ગયા ન હોય તેમ લાગે છે.
- નરકાવાસમાં પ્રકાશનો અભાવ રહેલ છે તેથી જ તેમાં હરહંમેશાં ગાઢ અંધારૂજ રહ્યા કરે છે. નિત્યાન્વકાર, એ પદથી સૂત્રકારે એ સૂચવ્યું છે કે
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५८
जीवामिगम भावेन तामसा:-तमोमयाः तत्र यद् अपवरकादिषु तमोऽधकारो भवेत्, केवलं स वहिः सूर्यपकाशे मन्दतमो भवति किन्तु नरकेषु तीर्थकरजन्म दीक्षादि काम. व्यतिरेकेणान्यदा सर्वकालमपि प्रकाशलेशस्यापि अभावतो जात्यन्धस्येव मेघ. च्छन्नकालार्द्धरात्रातीव बहुलतरोऽन्धकारो भवति, तत उक्तम्-नित्यान्धकार तामसाः नरकाः, तमश्च तत्र नरके सर्वदेवावरियतमुद्योतकारिणां तत्र अमावाद, तथाचाह- 'ववगयगडचंदमूरणक्खतजोइसपहा' व्यागतग्रहचन्द्रसूर्य नक्षत्र ज्योतिषपयाः व्यपगतः क्निष्टो ग्रहचन्द्रमूर्यनक्षत्ररूपाणामुपलक्षणत्वात्तारारूपाणां च ज्योतिष्काणां पन्था मार्गों येषु ते व्यपगतग्रहचन्द्रसूर्यनक्षत्रज्योतिष्कपथा जहां मर्त्यलोक में कोठरी आदि में अन्धेरा घना रहता है और सूर्य के प्रकाश में वह मन्द तम होता रहता है-ऐसा अन्धकार वहां नहीं होता वहां तो लिर्फ तीर्थ कर के जन्म समय में एवं दीक्षादि के समय में ही अन्धेरा कुछ समय के लिये दूर हो जाता है पाकी के और सब लमयों में वहां उद्योग लेश्यावाले पदार्थों के अभाव होने से जास्यन्ध पुरुष की दृष्टि में जैसा गाढ अन्धेरा छाया रहता है और जैसा अन्धेरा मेघों से युक्त वर्षाकाल की अर्द्धरात्र के समय में होता है इसी तरह का बहलतर अन्धकार वहां नरकावासों में छाया रहता है अर्थात् वहां नित्य गाढ अंधेरा छाया रहता है इस बात की पुष्टि करते हैं 'बधगयगह चंद सूरनक्खत्त जोइसपहा' इसका तात्पर्य यही है कि वहां पर ग्रह, चन्द्र सूर्य, नक्षत्र, तारा इन ज्योतिष्कों का रास्ता नहीं है ये प्रकाश शील पदार्थ वहां नहीं हैं। तथा वहां की भूमि જેમ અહિયાં આ મૃત્યુલેકમાં ગુફાયરા વિગેરેમાં અંધારૂં બન્યું રહે છે અને સૂર્યના પ્રકાશમાં મંદતમ થઈ જાય છે, એ અંધકાર ત્યાં હેત નથી. ત્યાં તે કેવળ તીર્થકરેના જન્મ સમયે અને દીક્ષા વિગેરે સમયે જ થોડા સમય માટે જ અંધારું દૂર થઈ જાય છે. બાકીના બધાજ સમયમાં પ્રકાશક લેથાવાળા પદાર્થોનો અભાવ હોવાથી જાત્કંધ પુરૂષની દષ્ટિમાં જે પ્રમાણે ગાઢ અંધકાર છવાઈ રહેલ છે અને મેઘ-વાદળાઓવાળી ચોમાસાની અદ્ધિરાત્રિમાં જેમ અંધકાર હોય છે. એ જ પ્રમાણે બહલતર અંધકાર ત્યાં નરકવામાં છવાઈ રહે છે. અર્થાત ત્યાં હરહંમેશાં ગાઢ અંધારું જ છવાઈ રહે છે. એ વાતની पटि सूत्रा२ ४९ छ है 'ववगयगहचदसूरनक्वत्तजोइसपहा' मा કથનનું તાત્પર્ય એ જ છે કે ત્યાં આગળ ગ્રહ, ચંદ્ર, સૂર્ય, નક્ષત્ર, તારા આ
તિષ્ક દેને પ્રવેશવાને રસ્તે જ નથી. અર્થાત પ્રકાશ કરનાર પદાર્થોને
Page #181
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.२ सू.१२ करयां पृथिव्यां कति नरकावासा १५९ नरकाः सूर्यादिप्रकाशरहिता इत्यर्थः, तथा- मेंयवसापूयरुहिरमंसचिक्खिल्ल लित्ताणुलेवणतला' स्वभावत एव सम्पन्नः मेदो वसा पूतिरुधिरमांस: चिविखल्ला -कर्दमः तेन लिप्तमुपलिप्तम् अनुलेपेन सकृत् लिप्तस्य पुनः पुनरुपलेपेन वलंतद्तभूमितलं येषां ते मेदो वसा पूतिरुधिरमांसचिविखल्ललिप्तानुलेपनतला नरकाः, अतएव 'असुई अशुचय:-अपवित्राः 'बीभत्था' बीभत्साः दर्शनेऽपि अतिजुगुप्त्सोत्पत्तेः 'परमदुभिगंधा' परमदुरभिगन्धाः मृतगवादिक लेवरेभ्योऽपि अतीवानिष्ट दुरभिगन्धाः । 'काऊ अगणि वन्नामा' कापोताग्निवर्णामाः लोहे धम्यमाने यादृकपोतो बहुकृष्णरूपोऽग्नेर्ग:, अयमर्थ:-लोहे धम्यमाने यादृशी कृष्णवर्ण रूपाग्निज्वाला विनिर्गच्छति ताशी आमा वर्ण वरूपं येषां ते कापोताग्निवर्णाभाः । तथा 'कक्खडफासा' कर्व शरुपीः कर्कशोऽति दुःसहोऽसि का तल भाग स्वभावतः मेद-वशा-चर्वी पूति (रसी) पीप-रुधिर और मांस जनित कीचड से सनी रहती है बार २, उपलिप्त होती है अत: वह अशुचि अपवित्र है इसलिये वह वीभत्स देखने में बड़ी भारी ग्लानि दायक होती है उससे ऐसी अनिष्ट गन्ध दुर्गन्ध निकलती रहती है कि जैसी दुर्गन्ध मरे हुए गाय आदि जानवरों के कलेवर-शरीर में से निकलती रहती है उन नरकावासों की आमा-कान्ति-वर्ण-स्वरूप ऐसी होती है कि जैसी लोहे को लाल करते समय अग्नि की ज्वाला होती है। लोहे को भट्टी में लाल करते समय अग्नि की ज्वाला अत्यन्त कृष्ण रूप घाली हो जाती है इसलिये यहां 'काऊ अगणिवन्नाभा' ऐसा विशेषण दिया गया है 'कक्खड फासा' यहाँ कर्कश स्पर्श असि ત્યાં અભાવ જ છે તથા ત્યાંની પૃથ્વીને તલભાગ સ્વભાવથી જ મેદવશા-ચબી પતિ, પીપ પરૂ, લેહી. અને માંસના કાદવથી જ વ્યાપ્ત બની રહે છે. અને વારંવાર ઉપલિસ ખરડાયેલ થતી રહે છે. તેથી એ અશુચિ નામ અપવિત્ર છે. તેથી તે બીભત્સ ભયાનક બીહામણું અને દેખવામાં ઘણજ ભારે ગ્લાનિકારક હોય છે. તેમાંથી એવી અનિષ્ટ ગંધ અર્થાત દુર્ગધ નીકળતી રહે છે, કે મરેલા ગાય વિગેરે જનાવરોના કલેવર-શરીરમાંથી નીકળ્યા કરે છે. તે નરકાવાસની આભા કાંતિ, વર્ણ સ્વરૂપ, એવી હેય છે કે જેવી કાંતિ લોખંડતે અગ્નિમાં તપાવવાના સમયે અગ્નિની જવાલા હોય છે. અર્થાત ખંડને ઠીમાં લાલ કરતી વખતે અગ્નિની જવાલા કાળા વર્ણવાળી થઈ જાય છે, તેથી અહિંયાં 'काठ अगणिवण्णाभा' 'भाभानु विशेष मापामा मावेस छ 'कक्खड
Page #182
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६०
जीवामिगमत्र पत्रस्येव स्पर्णी येषां ते कर्कशप, एक 'दुरहियासा' दुरध्यासाः दुःखेन अध्यास्यन्ते-सह्यन्ते इति दुरध्यासाः, 'अमुभा' अशुभा दर्शनतो नरकाः, तथा-गन्धरसस्पर्शशब्दै रशुभाः-अतीदासातरूपा, 'णरएम वेयणा' नरकेपु वेदना इति । एवं एएणं अभिलावेणं उवजुंजिण भाणियन्नं णाणपएयाणुसारेणं' एवमेतेनामिलापेन-आलापकप्रकारेण उपयुज्य-सम्पविविच्य भणितव्यम्-वक्तव्यम् स्थानपदानुसारेण प्रज्ञापनाया द्वितीय स्थानपदे (पृ-२४३ -२५३) यथा कथितं ददनुसारेणैव 'जत्थ जं वाहल्लं' यत्र यस्यां पृथिव्यां यत् यावस्कं बाहल्यम् 'जत्थ जत्तिया वा' यत्र यस्यां यावन्ति वा 'नरयावाससयपत्र की तरह अतिः माह होना है त एव वे नरकाचा 'दरहियासा' घडे दुःख के साथ २. लहन घि.थे-भोगे जाते हैं। ये 'असुभा' देखने में अशुभ होते हैं। तथा इन नरकों में जो गन्ध होता है वह, जो रस होता है वह, और जो स्पर्श होता हे वह सब अशुभ ही होता है शुभ नहीं होता है यहां जो जीवों को वेदना होती है वह भी अत्यन्त असात रूप ही होती है, 'एवं एएणं अभिलावेणं उपखंजिऊण भाणियव्वं ठाणप्प याणुमारेणं' इसी प्रकार से और भी बाक्षी समस्त पृथियों में अच्छी तरह से विवेचन करके कथन करलेना चाहिये जैसा कि इस सम्बन्ध में कथन प्रज्ञापना के द्वितीय स्थान पद में किया गया है 'जत्थ जे पाहल्लं' इस तरह प्रज्ञापना के द्वितीय स्थान पद के अनुसार जहां जिस पृथिवी में जो जसी बाहल्य-मोटाई-कहा गया है और 'जस्थ जन्तिया वानरयावास फासा' महिना ४४ २५श गसिपत्रनी तसवारनी घार २१॥ ५i314 ઝાડની જેમ અત્યંત દુઃસહ અર્થાત્ અસહય હોય છે. અને તેથી જ તે न२४पासे 'दुरहियांसा' मत्यत हुप पू सहन ४२य छ अर्थात् मथी सोगवी शय तवा हाय छे. ते न२४पासे 'भसुभा' वाम अशुल डाय छे તથા આ નરકમાં જે ગંધ હોય છે, તે અશુંભ જ હોય છે. અને જે રસ હોય છે તે તથા જે સ્પર્શ હોય છે તે બધાજ અશુભ હોય છે શુભ હેતા નથી. અહિંયા જી ને જે વેદના થાય છે તે પણ અત્યંત અશાતા રૂપ જ राय छ 'रएण अभिलावेणं उवजु जिउण भाणियच ठाणप्पयाणुसारेणं' मा પ્રમાણે બીજી બાકીની સઘળી પૃથ્વીના સંબંધમાં સારી રીતે વિવેચન કથન કહેવું જોઈએ. જેમકે આ સંબંધમાં પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના બીજા સ્થાન પદમાં ४थन ४२वामां मावस छे. 'जत्थ जे बाहल्ल' मा प्रभ प्रज्ञापन सूत्रना બીજા સ્થાન પદમાં કહ્યા પ્રમાણે જ્યાં જે પ્રવીમાં જેનું જે પ્રમાણેનું બાહથ पणा वामां आवेस छ, भने 'जत्थ जचिया वा नरयावासयसहस्सा'
Page #183
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६१
1 मे यद्योतिका टीका प्र.३ उ. २०१२ करयां पृथिव्यां कति नरकावासाः सहस्सा' नरकावासशतसहस्त्राणि तानि सर्वाणि स्थानपदानुसारेणोपयुज्य वक्त व्यानि, कियrपर्यन्ë वक्तव्यानि तत्राह - 'जान' इत्यादि, 'जाव अहे सत्तमाएं पुढवीए' यावदधः सप्तस्याः पृथिव्या नरकावासा वर्णिता स्तावत्पर्यन्तमित्यर्थः अथाधः सम्या नरकावासान् सूत्रकारः प्रदर्शयति- 'अहे समाए' इत्यादि, 'अहे सत्तमाए' इत्यस्यालापकमकारो यथा - अहे समाए णं भंते ! पुढवीए अठुत्तरसयस हरसवाहल्लाए उबरं केवइयं योजाहिता हा केवइयं वज्जेता यज्झे' अधः सप्तम्याः खलु भइन्छ ! पृथिव्या अष्टोत्तरशतसहस्रवाहल्यापा उपरि कियत्कम् अगाध पत्रः कियत्कं वर्जयित्वा मध्ये 'केवइए' कियति - फिल्ममाणे क्षेत्रे 'वाया' किमन्तः 'अणुसरा' अनुसरा नोसर येभ्यस्ते अनुत्तराः सर्वोत्कृष्टा अतएव 'महइ महानग' महातिमहालया :- अतिविशाळा, अतएव 'महानिरया' महादिरया महानरका ः ब्रताः ? ' एवं पुच्छिबच्चे' एवं - पूर्वोक्त
सपसहरुला' जहाँ जितने लाख मरकाबार कहे गये हैं वहां वह सब अच्छी तरह feere arके 'जाय जहे लसमाए पुढबीए' यावत् अधः सप्तम पृथिवी तक कहलेना चाहिये
अब सूत्रकार अधः शतमी पृथिवी के नरकावासों को कहते हैं'अहे वत्तमाए' इत्यादि । 'आहे तसलाए' हे भदन्त अधातमी पृथिवी के जिसका बाहल्य एक लाख आठ हजार योजन का है उसके उपर के भाग में कितना जयाह करके अर्थात् कितना भाग छोडकर तथा नीचे का कितना भाग छोडवर 'मझे' मध्य के कितने खाली भाग में कितने 'अनुत्तरा' अनुसार सर्वोत्कृष्ट अत्यन्त विशाल
Pets
જમાં જેટલા લાખ નરકાવાસે કહેવામાં આવેલ હાય, ત્યાં તે બધા જ સારી शेते विचार पुरीने 'जाद अहे सत्तमा पुढवीर' यादत् अधःससभी मेटॅले તમસ્તમા નામની સાતમી પૃથ્વી સુધી કહી લેવું જોઈએ.
હવે સૂત્રકાર અધસપ્તમી પૃથ્વીના નરકાવાસેતું કથન કરે છે ‘છો सत्तमाए' छत्यादि
'अहे सत्तमाए'. डे लगवन् अधः सप्तभी पृथ्वीना डे नेतुं माहस्य कोठ લાખ આઠ હજાર ચેાજનનુ' છે, તેની ઉપરના ભાગમાં કેટલું' અવગ'હન કરીને अर्थात् टसेो भाग छोडीने तथा नीयेनेो डेंटला लाग छोडीने 'मज्झे' सुने वयमांना मेटला जाडी लाभां टया 'अणुतरा' अनुत्तर सर्वोत्कृष्ट अत्यंत વિશાળ ઘણુા માટા અને તેથી જ 'महानिरया' भहा २४ उडेला ?
नो० २१
3
S
*1=
Page #184
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमत्रे
१६२
प्रश्नानुसारेण प्रष्टव्यम् प्रश्नः कर्त्तव्यः, 'वागरेण्यंपि तदेव' व्याकर्त्तव्यं तथैव उत्तरमपि तथैव दातव्यम् यथा - अधः सप्तम्याः पृथिव्या अष्टसहखोत्तरशतसहस्त्रयोजनवाहल्यतः उपर्यधोभागात् प्रत्येकं सार्द्धद्विपञ्चाशत् सहस्रयोजनानि क्वामध्ये त्रिसदस्रयोजनममिते शुपिरभागे 'काल महाकालरौख महारौरवा' प्रतिष्ठानाभिधाः पश्च महानरकावासाः सन्ति इत्येवं रूपेण उत्तरं दातव्यम् तदालापका वेत्थम्
'सक्करपभाए णं भंवे ! पुढचीए बत्तीसुत्तरजोयणसय सहस्सबाहल्काप उवरि केवइयं ओमाहित्ता हा केवइयं वज्जेत्ता छझे चैव केवइए केवइया निरया
बहुत बडे अतएव 'महानिरया' महानरक कहे गये हैं ? एवं पुच्छि यच्च इस प्रकार प्रश्न करलेना चाहिये । तथा-" वागरेयव्वंपि तदेव" इसका उत्तर सी यहाँ जितने प्रमाण के मध्यभाग में जितने नरकावास है अर्थात् अधः सफमी पृथिवी के एक लाख आठ हजार योजन के वाल्य में से साढे वाचन हजार उपर के भाग को और इतने ही नीचे के भाग को छोडकर बीच के तीन हजार योजन के पोलाण में पांच महानरकावाल है काल १ महाकाल २ रौरव ३ महारौरव और बीच में पांचवां अप्रतिष्ठान नरक ५ हैं इस प्रकार से कह देना चाहिये आलापक इस प्रकार हैं- 'सक्करप्पभाषणं भंते पुढवीए यत्तीसुत्तर जोयण सपसहरुसबाहल्लाए' हे भदन्त ! एक लाख बत्तीस हजार पोजन की मोटी शर्कराप्रभा नाम की द्वितीय पृथिवी के 'उवरि केवइयं
-}
' एवं ' पुच्छियव्व" मा रीते प्रश्न पूछी सेवेो लेो. तथा 'वागरेय पि સંદેવ' તેના ઉત્તર પણ અહિંયાં જેટલા પ્રમાણવાળા મધ્યભાગમાં જેટલા મરકાવાસ છે, અર્થાત્ અધઃસપ્તમી પૃથ્વીના એક લાખ આઠ હજાર ચેાજનના માહલ્યમાંથી સાડા બાવન હેજાર ઉપરના ભાગને અને એટલાજ નીચેના ભાગને કાઢીને વચલા ત્રણ હજાર ચેાજનના પેાલાજીમાં પાંચ મહાનરકાવાસે છે. તે या अभाये है. मल १, भहाण २, रोख उ, भडाशैरव ४, अने वयभी પાંચમું ઋપ્રતિષ્ઠાન ૫ નામનું નરક છે. આ પ્રમાણે કહેવું જોઈએ. તેના भासाया था प्रभाये हे 'सक्करप्पभाए णं पुढत्रीए बत्तीसुधरणोयण स्वयंमहस्सा हल्लाए' से भगवन् शे साथ अत्रीस उन्तर योजननी विशाजता वाणी शशप्रभा नामनी मील पृथ्वीनी 'उचरिं केवइयं ओगांहित्ता हेट्ठा केवइय बजेता मज्झे केवइए केवइया णिरयावास सय सदस्सा पण्णत्ता' (५२ भने नीथेनो
3
Page #185
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र. ३ . २ सू० १२ कस्यां पृथिव्यां कति नरकावासी: २६३ वासयसहस्सा पद्मत्ता ! गोयमा ! सकरप्पभाए णं पुढवीए बत्तीसुत्तरजोयणसहस्सबाहल्लाए उवरि एगं जोयणसहस्सं ओगाहित्ता देट्ठा एवं जोयणसहस्स वजेता मज्झे तीसुत्तर जोयणसमुहस्से, एत्थ णं सकरापुढवी नेरहया णं वीसा नरयावास सय सदस्सा भवतीतिमवखायं, ते णं णरगा अंतो वहा जाय असुमा नरपसु वेयणा' ।
भोगाहिता हेट्ठा केवइयं वज्जेता मज्झे केवहए केवढ्या णिरयावास सयसहस्सा पण्णत्ता 'ऊपर नीचे के कितने हजार योजन क्षेत्र को छोड कर बांकी के मध्य भाग में कितने लाख नरकावास कहे गये है ? 'गोयमा ! सक्करपभाएणं पुढवीए बत्तीसुत्तर जोयणसयमहरूस बाहल्लाए उयरिं एवं जोवणसयसहस्सं ओगाहित्ता हेट्ठा एक्कं जोयणसहस्सं वज्जेत्ता मज्झे तीसुत्तरजोपणसय सहस्से एस्थेन सक्कर प्प मापुढवी गैरइयाणं बीला णरयावास सयसहस्सा भवतीति मक्खायें' हे गौतम! एक लाख बत्तीस हजार योजन की मोटीशर्कराप्रभा नाम की द्वितीय पृथिवी के ऊपर नीचे के एक-एक हजार योजन प्रमाण क्षेत्र को छोडकर एक लाख तीस हजार योजन परिमित मध्य के क्षेत्र में शर्कराप्रभा पृथिवी के नैरयिकों के योग्य बीस लाख नरकावास कहे गये हैं । ये सब नरकावास मध्य में गोल है यावत् देखने में अशुभ हैं। इसमें नहा असाता रूप वेदना हैं इत्यादि सब व्याख्यान रत्नप्रभा प्रकरण के जैसा ही सर्वत्र कर लेना चाहिये
કેટલા હજાર ાજન છેડીને બાકીના મધ્ય ભાગમાં કેટલા લાખ નરકાવાસે કહ્યા છે? આ अश्नना उत्तरमां अलु गौतमस्वामी ने 'गोयमा सक्करप्पभाषण पुढवीए बत्तीसुत्तर जोयणखयच्च हस्सबाहल्लाए उवरिं एगं जोयणसयस इस्स ओगाहिता हेडा पक्कं जोयणसहस्स बज्जेचा मो तिसुत्तर जोयणखयसहा से एत्थ ण सक्करपभाए पुढवी णेरइयाणं पीसा णराव ससयसहस्सा भवतीतिमक्खाय" हे गौतम! भे४ सा અત્રીસ હજાર ચેાજનની વિશાળતાવાળી શર્કર પ્રભા નામની મીજી પૃથ્વીની ઉપર નીચે ના એક એક હજાર ચેાજન પ્રમાણુ ક્ષેત્રને છેાડીને એક લાખ વીસ હુંજાર મધ્યના ક્ષેત્રમાં શર્કરાપ્રભા પૃથ્વીના નૈયિકાને ચેાગ્ય એવા વીસ લાખ નરકાવાસે કહ્યા છે. આ બધાજ નારકાવાસે મધ્યમાં ગાળ છે. યાવત જોવામાં અશુભ છે. તેમાં મહા અસાતા રૂપ વેદના છે. ઇત્યાદિ સઘળું વ્યાખ્યાન રત્નપ્રભા પૃથ્વીના પ્રકરણમાં કહ્યા પ્રમાણેનું ખધેજ સમજી લેવુ
+
Page #186
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवाभिगमले . . 'बालयप्पभाए-णं भंते ! पुढबीए-अहाचीसुत्तरजोराणसयसहस्सबाहल्लाए उपरि केवइयं ओगाहित्ता हेहा केवइयं वज्जित्ता सज्झे केवाया निश्यावाससयसहस्सा पन्नत्ता ? गोयमा ! बालयप्पाए पुढवीए अठ्ठावीनुत्तर जोरणसयसहस्स वाहल्लाए उवरि एग जोयमसहस्सं ओगाहित्ता हेवा गं जोयणसहस्सं वज्जित्ता मज्झे छब्बीसुत्तरे जोयणसयसहस्से,एत्थ णं बालुयप्पमापुढनी नेरहया णं पण्णरस निरयावाससयसहस्सा भवंति त्ति मक्खाय, ते णं णरमा जाच अनुभा नरएस वेयणा'
'पंकप्पभाए णं भसे ! पुढवीए वीसुत्तर जोगणलयलदरस वाहल्लाए उवरिं केवइयं ओगाहित्ता हेहा केवइयं बज्जित्ता मज्जे केवइए नेइया निरयावाससयसहस्सा पन्नत्ता ? गोयमा ! पंकप्पभाए णं पुढबीए वीसुत्तरजोयणसयसहस्स
बालुप्पभाएणं मते! अहाबीलुत्सर जोपपलवसहरसबाहल्लाए उरि केवाय ओमाहिता हेहा क्षेवयं जित्ता मज्झे कोषइए
केवइयं निरयावासलचालहरूमा पसा-गोयला! बालुचप्पभाए __ - पुढवीए अट्ठावीसुत्तर जोधणलघलहल्लमारल्लाए उचलं एग जोय
सहस्सं भोगाहित्ता हेवा एवं जोयणसहर बजित्ता मज्झे ' छन्वी सुत्तरे जोषणयलहरूले एस्थण चालुप्पभा पुढची नेरल्याण
पण्णरसनिरथाबालतमहाला अवंतीति भदखाय' हे भदन्त ! पालु. 1 काममा पक्षियों जो कि एक लाख अठाईस हजार योजन की मोटी है उसके ऊपर नीचे के एक २ हजार भोजन के क्षेत्र को छोडकर बीच के एक लाख छन्नीस हजार योजन प्रमाण अध्यक्ष के क्षेत्र में बालुका प्रभा पृथिवी नेमिकी के योग्य पन्द्रह लाख नरकासाला है। ये नरक यावत् अशुभ हैं इन ने अतिशय माता रूप वेदना है।
'वालुयप्पभाए ण भ वे ! पुढवीए द्वावीसुत्तर जोयणस्यसहस्स वाहल्लाए - वरि. केवइय' ओमाहिता हेहा केवइयं वन्जिता नज्ज्ञे केवइचा निरयावास सयसहस्सा पण्णता ? गोयमा वालुयप्पभाए पुढवीए अदावीसुत्तर जोयणसयसहस्सवाहल्लाए उवरि एगं जोयणसयसहस्सओगाहित्ता हेट्टा एग जोयणसहस्स वज्जिता मज्ज्ञे छव्वीसुत्तरे जोयणप्तयसहस्खे एवण वालुयप्पभा पुढवी नेरइयाण पण्णरस निरयावासप्तयखहरसा भवतीति मक्खाय' हे सगवन् वाला પૃથ્વી કે જે એક લાખ અઠયાવીસ હજાર એજનની પહોળાઈ વાળી છે. તેની ' ઉપર નીચેના એક એક હજાર જન ક્ષેત્રને છેડીને વચમાંના એક લાખ
છવીસ હજાર એજન પ્રમાણવાળા મધ્યના ક્ષેત્રમાં વાલુકાપ્રભા પૃથ્વીના રિયિકેને ચગ્ય પંદર લાખ નરકાવાસે છે. આ બધા નરકે યાવતુ અશુભ છે. તેમાં અત્યંત અશાતારૂપ વેદના છે.
Page #187
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योंतिका टीका प्र.३ उ.२ .१२ क्रस्यां पृथिव्यां कति नरकावासा १६५ बाहल्लाए उरि एग जोयणसबसहसा ओगाडित्ता हेद्वात्रि एग जोयणसहस्सं वज्जित्ता मज्झे अहारमुत्तरे जोयणसयसहस्से, एत्य णं पंकप्पभा पुढवी नेरइयाणं दस निरयावाससयसहस्सा सवंतीति सबखायं, तेणं गरगा जाव अजमा णरएनु वेयणा' ___'पंकप्पमाएणं भंते ! पुढबीए कीलुत्तर जोयण सय सहस्त पाहल्लाए उरि कैवइथं ओणाहित्ता हेहा केवइथं वजित्ता मज्झे केवइया गिरयावासलयलहरसा पणता ? मोघमा ! पंकपमाएणं पुढवीए वीसुत्तर जोयण लयलहस्स हाहल्लाए उर्ति एगं जोयण लथसहस्सं
ओगाहित्ता हेट्ठा वि एज जोक्षणलहरू बज्जित्ता मज्झे मटार सुनरे जोषणयसहस्से एस्थणं पंकप्पमा पुढवी रयाणं दस निश्चावास. सयलहरूसा भवतीति अक्खायं' हे बदन्त ! एक लाख बीस हजार योजन की मोटी पङ्कपमा पृथिवी के ऊपर और नीचे कितने हजार योजन क्षेत्र को छोडकर बीच के भाग में कितने नरकाचास हैं ? हे गौतम! एक लाख पीस हजार योजन की मोटी पङ्कप्रमा पृथिवी के ऊपर नीचे के एक एक हजार योजन के क्षेत्र को छोडहर बीच के एक लाख अठारह हजार योजन क्षेत्र में पङ्करभा पृथिवी के नैरपिका के दस लाख नरकावास्स हैं। तेणं जरगा जाव अनुहा, गरए वेधणा' ये नरक यावत् अशुभ हैं इन नरकों में महा अलात रूप वेदना है।
'पकप्पभाए ण भते ! पुढवी ए वीसुत्तर जोयणसयसहस्ख बोहल्लाए उबरि केवइय ओगाहित्ता हेट्टा केवइय वज्जित्ता मज्झे केवइए केवड्या शिरयावास सयसहस्सा पण्णत्ता गोयमा ! प फप्पभाए ण पुढवीए वीसुत्तरजोयणसयसहस्सवाहल्लाए उरि एग जोयणसयसहस्व जोगाहिता हा वि एग जोयणसहस्स वज्जित्ता मज्झे अद्वारसुत्तरे जोयणस यसहस्से पत्थ ' पकप्पभा पुढवीए णेरइयाण दस निरयावाससयसहस्सा भवतीति मक्खाय' मापन એક લાખ વીસ હજાર એજનની વિશાળતાવાળી પંકપ્રભા પૃથ્વીની ઉપર અને નીચે કેટલા હજાર જન ક્ષેત્રને છેડીને વચલા ભાગમાં કેટલા નરકા વાસે છે? હે ગૌતમ ! એક લાખ વીસ હજાર જનની વિશાળતાવાળી પક પ્રભા પૃથ્વીની ઉપર અને નીચેના એક એક હજાર એજનના ક્ષેત્રને છોડીને - વચલા એક લાખ અઢાર હજાર જન ક્ષેત્રમાં પંકપ્રભાના નૈરયિકના દસ सामन२वास छे. 'वेण परगा जाव असुहा णरएसु वेयणा' मा नरहे। થાવત્ અશુભ છે. અને આ નરકમાં મહા અશાતા રૂપ વેદના રહેલ છે.
Page #188
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगम 'धूमप्पमाए णं भंते ! पुढवीए अट्ठारमुत्तरजोयणसयसहस्सवाहल्लाए उरि केवइयं ओगाहेत हेहा केवइयं वज्जेत्ता मज्झे केवइए केवइया निरया. वाससयसहस्सा पन्नत्ता, गोयमा ! धूमप्पमाए णं पुढवीए अहारसुत्तरजोयणसयसहस्स बाहल्लाए उवरि एग जोयणसहस्सं ओगाहेत्ता हेढा एग जोयणसहरसं वज्जेत्ता मज्झे सोलसुत्तरे जोयणसयसहस्से, एस्थ णं धूमप्पमा पुढवी नेरइया में तिमि नेरइयावाससयसहस्सा भवंति त्ति मक्खायं, तेणं गरगा अंतो चहा जाव असुमा नरएसु वेयणा'।
'तमप्पभाए णं भंते ! पुढवीए सोळसुत्तरजोयणसयसहस्सपाहल्लाए उपरि केवइयं ओगाहेत्ता हेहा केवश्यं वज्जेत्ता मज्ज्ञे केवइए केवइया नरगाबाससयसहस्सा पन्नत्ता ? गोयमा ! तमप्पमाए णं पुढवीए सोलमुत्तरजोयण' सयसहस्सवाहल्लाए उपरि एगं जोयणसहस्सं ओगाहेत्ता हेहा एणं जोयणसहस्सं रज्जेत्ता मज्ज्ञे चोदसुत्तरे जोयणसहस्से, पत्थ णं तमा पुढवी नेस्याणं एगे पंचूणे नरयावाससयसहस्से भवतीति मक्खायं ते ण नरगा अंतो वहा जाव असुमा नरगेमु वेयणा'। ___'धूमप्पभारणं भते । पुढवीए' इत्यादि । धूमप्रभा पृथिवी की मोटाई एक लाख अठारह हजार योजन की है इस में से ऊपर नीचे एक-एक हजार योजन क्षेत्र को छोडकर पीच के एक लाख सोलह हजार योजन के क्षेत्र में तीन लाख नरकावास हैं इन में धूमप्रमा पृथिवी के नैरयिक रहते हैं।
समाप्रभा पृथिवी की मोटाई एक लाख सोलह हजार योजन की है इसमें से एक-एक हजार उपर नीचे का छोडकर वाकी के बीच के क्षेत्र में-एक लाख चौदह हजार योजेन प्रमाण क्षेत्र में समाप्रभा पृथिवी के नैरयिका के पांच कम एक लाख नरकाचास हैं।
'धूमप्पभाए. ण भते | पुढवीए' या धूमप्र पृथ्वीनी विता એક લાખ અઢાર હજાર જનની છે. તેમાંથી ઉપર નીચેના એક એક હજાર જન ક્ષેત્રને છેડીને વચલા એક લાખ સોળ હજાર જનના ક્ષેત્રમાં ત્રણ લાખ નરકાવાસે છે. તેમાં ધૂમપ્રભા પૃથ્વીના નરયિકે રહે છે.
તમપ્રભા પૃથ્વીની વિશાળતા એક લાખ સેળ હજાર ચોજનની છે. તે પૈકી એક એક હજાર ઉપર નીચેના ક્ષેત્રને છોડીને બાકીના વીમાના ક્ષેત્રમાં એક લાખ ચૌદ હજાર જન પ્રમાણુ ક્ષેત્રમાં તમપ્રભા પૃથ્વીના નૈરયિકના પાંચ કમ એક લાખ નારકાવાસે છે.
Page #189
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेययोतिका टीका प्र. ३ उ. २ सू.१२ कस्यां पृथिव्यां कति नरकावासा:
'अहे सतमार णं भते ! पुढवीए अट्टोचर जोयणसय सदस्सबाहल्लाए उरिं केवइयं ओगाहित्ता, हेट्ठा के त्रयं वज्जेता मज्झे केवre केवहया अणुतरा, महमहालया महानरगावासा पन्नत्ता ? गोयमा ! अहे सतमार पुढचीए अदुत्तर जोयणसय सहस्स वाइल्लाए 'उवरिं अद्धतेवरणं जोयणसहस्साई ओगाऐसा हा वि अद्धतेवण्णं जोयणसहस्साई वज्जिता मझे तिसु जोयणसहस्सेसु प्रस्थ णं अहे सत्तम पुढची नेरइयाणं पंच अणुत्तरा महइमहाला महा निरया पनता तं जहा - काले महाकाले रोरुए महारोरुए मज्झे अप्पाट्टाणे, ते णं महानरगा अंतो वट्टा जाव असुभा नरगेसु वेयणा' ||
१६७
छाया - शर्करामभायाः ख भदन्त ! पृथिव्याः द्वात्रिंशत्सहस्त्रोत्तर योजन - शतसहस्राल्ययुकाया उपरितनभागे कियदवशाद्य अधस्ताद् वर्जयित्वा मध्ये एव कियत्ममाणं क्रियन्ति नरकाचासशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि, भगवानाह - हे गौतम ! शर्कराममायाः खलु पृथिव्या द्वात्रिंशत्सहस्रो चरयोजनसह सत्रा हल्यो येताया उपरि एकं योजनसहस्रमवगाह्यधस्तादेकं योजनसहस्रं वर्जयित्वा मध्ये त्रिंशत्सहस्रोत्तरयोजनशतसहस्र. अत्र खल शर्करामभा पृथिवी नैरयिकाणां योग्यानि विंशति र्नरकावासशतसहस्राणि भवन्तीत्याख्यातं तीर्थकरैः, ते खलु नरका अन्त मध्यभागे वृत्ताकारा यावदशुभा नरकेषु वेदना ।
बालकाभायाः खलु भदन्त ! पृथिव्या अष्टाविंशत्युतर योजनशतसहस्रवाहल्याया उपस्तिनमागे कियदवगाह्याधस्तात् कियद्वर्जयित्वा मध्ये कियत्प्रमाणं
།י
अधः सप्तमी पृथिवी की मोटाई एक लाख आठ हजार योजन की है इसमें से ऊपर नीचे के साढेवावन- सादेवाचन ५२||) हजार योजन प्रमाण क्षेत्र को छोडकर बीच के तीन हजार योजन क्षेत्र में पांच महा नरकाचास हैं। ये नरकावास बहुत ही अधिक विशाल हैं । इनके नाम काल, महाकाल रौरव महारौरव और अप्रतिष्ठान हैं अप्रतिष्ठान सब के मध्य में हैं पृथिवियों के बाहल्य के परिमाण को नरकावास के स्थानभूत मध्य भाग के परिमाण को और नरकावासों की संख्या को प्रकट करने वाली ये चार गाथाएँ हैं—
અધઃસપ્તમી પૃથ્વીની વિશાળતા એક લાખ આઠ હજાર ચેાજનની છે.
તેમાંથી ઉપર નીચેના સાડા ખાલન સાડા બાવન હજાર ચૈાજન પ્રમાણવાળા
こ
ક્ષેત્રને છેાડીને વચલા ત્રણ હજાર ચૈાજનના ક્ષેત્રમાં પાંચ મહા નરકાવાસે આવેલા છે. આ નરકાવાસેા ઘણાજ વધારે વિશાળ છે. તેના નામે આ પ્રમાણે ४. अस १, महाभस २. शैव उ, महारौरव ४ भने अप्रतिष्ठान प, ते પૈકી અપ્રતિષ્ઠાન નામનું નરકાવાસ સૌની મધ્યમાં છે પૃથ્વીચેાના માહત્યના પિરમાણુને તથા નરકાવાસના સ્થાનભૂત મધ્યભાગના પરિમાણુને અને નરકાવાસેાની સખ્યાને બતાવવા વાળી આ નીચે આપેલ ચાર ગાથાઓ છે.
Page #190
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६८
जीवाभिगमसूत्रे
क्रियन्ति निरयावास शतसहस्राणि ज्ञवानि ? हे गौतम! वालुकाममायाः पृथिव्या अष्टाविंशत्युत्तर योजनशतसहस्रवाहलयोपेताया उपरि एकं योजनसहस्रमवगाह्य अधस्तादेकं योजनसहस्रं वर्जयित्वा मध्ये पइविंशतिमहत्रोत्तरे योजनशतसहस्रे । अत्र खलु वालुकाममा पृथिवी नारकाणां पश्चदशनियावास महस्राणि सवन्तीत्याख्यातं तीर्थकरैः, ते खलु नरका यावदा नरकेषु वेदना ॥
पङ्कपमायाः खलु भदन्त पृथिव्याः विंशति सहस्रोत्तरयोजनमतसहस्त्रबाहल्योपेताया उपरि कियदवणाबाधस्तात् कियद्वर्जयित्वा मध्ये क्रियमाणकं कियन्ति निरयावासशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि गौतम ! पङ्कपमायाः खलु पृथिव्या विंशतिसहसोत्तर योजनशतसहस्र वाल्ययुक्ताया उपर्युकं योजनसह समयगाद्य अवस्तादवि एकं योजनसहस्त्र वर्जयित्वा मध्ये अष्टादशोत्तरयोजनशतसहस्रे, अत्र खलु पङ्कप्रभा पृथिवी नैरयिकाणां दश निरयावासशतसहस्राणि भवन्तीत्याख्यातम् ते खल नरका यावदशुमा नरकेषु वेदना इति ॥
'धूमप्रभायाः खलु भदन्त । पृथिव्या अष्टादशसहस्रो तरयोजनशतसहस्र बाहल्ययुक्ताया उपरितनभागे किपदवगाह्य अधस्ताद् वर्जयित्वा मध्ये कियंत् कियन्ति नरकावासशतसहस्राणि एज्ञप्तानि, भगवानाह - हे गौतम ! धूमप्रभायाः पृथिव्या अष्टादशसहस्र तर योजनसहस्र वाहल्ययुक्ताया उपस्तिनेमागे एक योजन सहस्रमवगाह्य अधस्तादवि एकं योजनसहस्रं वर्जयित्वा मध्यभागे पोडशसहत्रोत्तर योजनशतसहस्रे, अत्र खलु धूमममा नैरविकाणां योग्यानि त्रीणि नरकावास शतसहस्राणि भवन्तीत्याख्यातं तीर्थकरैरिति, ते खलु नरका अन्तर्भागे वृत्ताकारा यावत् अशुमा नरकेषु वेदना इति ।
तमःप्रमायाः खलु भदन्त ! पृथिव्याः षोडश सहस्रोत्तरयोजनशतसहस्रबाहल्ययुक्ताया उपरितनभागे कियदवगा अधस्तात् कियद्वर्जयित्वा मध्ये कियत्प्रमाणं कियन्ति नरकासशतसहस्राणि प्रक्षानीति प्रश्नः भगवानांद - हे गौतम । तमःपभायाः खल्ल पृथिव्याः पोडशसहस्रोंत्तर योजनशतसहस्त्रबाहल्य युक्ताया उपरितनभागे एकं योजऽसहस्रमवगाह्य अधस्ता देकं योजन सहस्रं वर्जयित्वा मध्ये चतुर्दशसहस्रोत्तर योजनशतसहस्रे, अत्र खलु तनःप्रभा पृथिव्याः पोडशसहस्रोत्तर योजनशतसहस्रबाहल्ययुक्ताया उपरितनभागे एकं योजनसेवा - स्वादपि एक योजन सहस्र वर्जयित्वा मध्ये नरकावास शतसहस्रे, अत्र खड़ तमा पृथिवी नैरयिकाणामेकं पश्ञ्चोननरकावासशतसहस्रं भक्तीत्याख्यातम् ते खलु नरका अन्तर्मध्ये भागे वृत्ताकारा यावदशुभा नरकेषु वेदना इति ॥
अधः सप्तम्याः खलु श्रदन्त ! पृथिव्वा अष्टोत्तरयोजनशतसहस्रवाहल्य युक्ताया उपरितनमागे किदवगाह्य अस्ताव कियवर्जयित्वा मध्ये कियत्प्रमाणं
Page #191
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ १.१२ कस्यां पृथिव्यां कति नरकाबासा' १६९ कियन्तः अनुत्तरा महन्महालया महानरकाबासाः प्रज्ञप्ता इति प्रश्नः भगवानाहहे गौतम ! अधः सप्तभ्याः पृथिव्या अष्टोत्तर योजनशतसहस्रबाहल्याया उपरितनभागे बिपञ्चाशद् योजनसहस्त्राणि अवगायाधस्तादपि अत्रिपञ्चाशद् योजनसहस्राणि वर्जयित्वा मध्ये त्रिषु योजनसहनेषु अत्र खलु अधःसप्तमी पृथिवी नैरयिकाणां पश्चात्ता महन्महालया हानिरयाः प्रज्ञप्ताः तद्यथा कालों महाकालो रौरयो बहारोस्लो मोऽप्रतिष्ठानमामकः। ते खलु महानरका अन्तर्मध्य भागे वृत्ताकारा याबदशुभा महानाकेषु वेदना इति । ___ रत्नप्रभादि पृथिवीनों बादल्यपरिमाण-तद्गत नरकाचा योग्य माध्यमिक शुषिरभागपरिमाणलरावाससंरूपाषादका इशाश्चतस्लो गाथा: सन्तितथाहि-असीयं वत्ती अठावीसं तहेश वीसं च ।
अट्ठारस सोलसगं अटुसरखेच हे हिमया ॥१॥ अडसत्तचत्तीसं छत्रीसं चेव सयसहसं तु । अट्ठारस सोलसगं चोदव पहियं तु छट्टीए ॥२॥ अतिवृष्ण सहस्सा उरि अहे बज्जऊणतो भणिया । मज्झे वितु सहस्तेषु होति निश्या तमतमाए ॥३॥ तीसाय पणवीला पण रस चेक सय सहस्साई। दिल्लि य पंचूोग पंचेन अणुचरा निस्या' ॥४॥ अशीतं द्वात्रिंशतमष्टाविंशतं तव विंशतं च।
अष्टादशं षोडशकमष्टोत्तरसेवाधस्तना, ॥१॥ अनेन क्रमशो रस्नमादीनां पाहल्यमानं कथितम् तथा
अष्ट सप्ततिश्च निशव षड्विंशतिश्च शतसहसं तु ।
अष्टादश पोडशक चतुर्दशमधिक तुषष्ठयाम् ॥२॥ 'असीयं यत्तील-इत्यादि ॥१॥ "अडससच तील इत्यादि ॥२॥ "अद्धति सहस्सा" इत्यादि ॥३॥ "तीला व पणनीता" ॥४॥ इन चारों गाथाओं का अर्थ स्पष्ट है उनमें प्रथम गाथा में सातों
'असीय बत्तीसं' इत्याह ॥ १ ॥ 'अडसत्तरच तीस त्याहि ॥ २ ॥ 'अद्धतिवण्ण सहस्ला' याहि ॥ ३ ॥ 'तीसाय पणवीसा' छत्याहि ॥ ४ ॥ આ ચારે ગાથાઓને અર્થ સ્પષ્ટ જ છે. તેમાં પહેલી ગથામાં સાતે जी०, २२
Page #192
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७०
जीवामिगमसूत्रे
अर्द्ध त्रिपञ्चाशत्सहस्राणि उपर्यधो वर्जयित्वा ततो भणिताः । मध्ये त्रिषु सहस्रेषु भवन्ति निरया स्तमस्तमायाम् ॥ ३ ॥
आभ्यां गाधाद्वयाभ्यां सप्तसु पृथिवीपु मध्यगतशुपिरभागपरिमाणं कथिनम्, त्रिंशच्च पञ्चविंशतिः पञ्चादश चैव शतसहस्राणि । त्रीणि च पल्योनमेकं
पृथिवियों को मोटाई कही गई है - जैसे- एक लाख अस्सी हजार योजन की मोटी प्रथम पृथिवी १। एक लाख बीस हजार योजन की दूसरी पृथिवी २| एक लाख अठाईस हजार योजन की तृतीय पृथिवी ३। एक लाख बीस हजार योजन की चतुर्थ पृथिवी ४। एक लाख अठारह हजार योजन की पांचवी पृथिवी ५। एक लाख सोलह हजार योजन की छठी पृथिवी ६। और एक लाख आठ हजार योजन की सातथी पृथिवी है ७| ॥ १॥ दूसरी और तीसरी गाथा में मध्य क्षेत्र का परिमाण कहा है। जैसे प्रथम पृथिवी में एक लाख अठहत्तर हजार योजन प्रमाण का मध्य भाग पोलाण है १। द्वितीय पृथिवी में एक लाख तीस हजार योजन का मध्य भाग है । तीसरी पृथिवी में एक लाख छब्बीस हजार योजन प्रमाण का मध्य भाग है ३। चौथी पृथिवी में एक लाख अठारह हजार योजन प्रमाण का मध्य भाग है ४ | पांचवी पृथिवी में एक लाख सोलह हजार योजन का मध्य भाग है ५। छटी पृथिवी में एक लाख
પૃથ્વીચેાની વિશાળતા ખતાવી છે. જેમકે એક લાખ એંસી હજાર ચેાજનની વિશાળતાવાળી પહેલી પૃથ્વી છે. ૧, એક લાખ ખત્રીસ હજાર ચેાજનની વિશાળતા વાળી ખીજી પૃથ્વી છે. ૨, એક લાખ અઠયાવીસ હજાર ચેાજનની વિશાળતા વાળી ત્રીજી પૃથ્વી છે. ૩, એક લાખ વીસ હજાર ચેાજનની વિશાળતા વાળી ચેાથી પૃથ્વી છે. ૪, એક લાખ અઢાર હજાર ચાજનની વિશાળતા વાળી પાંચમી પૃથ્વી છે. ૫, એક લાખ સેાળ હજાર ચેાજનની વિશાળતા વાળી છઠ્ઠી પૃથ્વી છે. ૬, અને એક લાખ આઠ હજાર ચૈાજનની વિશાળતા વાળી સાતમી પૃથ્વી છે. ૭, ૫ ૧ ૫ મીજી અને ત્રીજી ગાથામાં ‘મધ્યક્ષેત્રનું પ્રમાણુ ખતાવેલ છે જેમકે પહેલી પૃથ્વીમાં એક લાખ અઢયેાતર હજાર ચેાજન પ્રમાણુના મધ્ય ભાગ-પલાણુ છે. ૧, બીજી પૃથ્વીમાં એક લાખ વીસ હજાર ચેાજનના મધ્યભાગ છે. ૨, ત્રીજી પૃથ્વીમાં એક લાખ છવ્વીસ હજાર ચૈાજન પ્રમાણુના મધ્ય ભાગ છે ૩, ચેાથી પૃથ્વી! એક લાખ અઢાર હજાર પ્રમાણના મધ્યભાગ છે. ૪, પાંચમી પૃથ્વીમાં એક લાખ સાળ હજાર ચેાજનના મધ્યભાગ છે. પછટ્ઠી પૃથ્વીમાં એક લાખ ચૌદ હજાર
Page #193
--------------------------------------------------------------------------
________________
or orar9
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ ७.१२ कस्यां पृथिव्यां कति नरकांवाला: ७१ पञ्चैवानुत्तरा निरयाः ॥४.। अनेन सप्तानां पृथिवीना नरकाबाससंख्या प्रतिपादिता तत्पदंशक कोष्ठक यथा
॥ रत्नयमादि सप्तपृथिवीनां बाहल्यादि प्रमाणकोष्ठकम् ॥ संख्या। पृथिवी नाम बाहल्यम् मध्यभागोलाण नरकावास संख्या
(लाख-हजार) । (लाख) रत्नममापृथिवी १,८०००० १,७८००० ३०,००००० शर्करामभापृथिवी १,३२००० १,३०००० २५,००००० बालुकापमापृथियो १,२८००० १,२६००० १५,००००० पङ्कममापृथिवी १,२०००० १,१८००० १०,००००० धूमयमापृथिवी |१,१८००० | १,१६००० तमाममापृथिवी १,१६००० | १,१४००० ९९९९५ तमस्तमःमभापृथिवी १, ८०००
३०००
॥मू० १२॥ चौदह हजार योजन को मध्य भाग है ६। और हाती अधालप्तमी पृथिवी में तील हजार योजन का मध्य भाग है ७॥शा०२-२॥ बौथी गाथा में उपरोक्त मध्य भाग में रहे हुए संख्या कही गई है जैसे-प्रथम पृथिवी में तील लाख लरकावास है १ । द्वितीय पृथिवी में पचीस लाख नरकावास है २। तृतीय पृथिवी में पन्द्रह लाख नरकाबास है ३। चौथी पृथिवी में दस लाख नरकामास है ४ पांचवों पृथिवी में तीन लाख नरकावास है ५। छठी पृथियों में पांच कम एक लाख नरकायास है। और सातवीं अधःपनमी पृथिवी में पांच सहा नरकावास ७ इन सब को कहने वाला कोष्ठक टीका में देख लेना चाहिये । सूत्र-१२॥
જનને મધ્યભાગ છે. ૬. અને સાતમી અધઃ સપ્તમી પૃથ્વીમાં ત્રણ હજાર योजना भयला छे. ॥ .. २-३ ॥
ચેથી ગાથામાં ઉપર કહેલ મધ્યભાગમાં રહેલા નરકાવાસેની સંખ્યા બતાવવામાં આવી છે. જેમકે પહેલી પૃથ્વીમાં ત્રીસ લાખ નરકાવાસો છે. ૧, બીજી પૃથ્વીમાં પચ્ચીસ લાખ નરકાવાસે છે. ૨, ત્રીજી પૃથ્વીમાં પંદર લાખ નરકાવાસે છે. ૩. એથી પૃથ્વીમાં દસ લાખ નરકાવાસ છે. ૪, પાંચમી પૃથ્વીમાં ત્રણ લાખ નરકાવાસે છે. પ, છઠી પૃનીમાં પાંચ કમ એક લાખ નરકાવાસ છે , અને સાતમી જે અધઃસપ્તમી નામની પૃથ્વી છે, તેમાં પોચ નરકાવાસે છે. આ બધા કથનને બતાવવા વાળું કોષ્ટક ટીકામાં આપવામાં આવેલ છે, તે જીજ્ઞાસુઓએ તેમાંથી એઈ વિચારી લેવું. એ સૂ. ૧૨
Page #194
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७२
_जीवामिगमसूत्रे सम्भति-नरकावाससंस्थानातिपादनार्थमाह-'इमीसे णं' इत्यादि,
मूलम्-इमीसे णं भंते ! रयणप्पलाए पुढवीए णरगा कि संठिया पन्नत्ता ? गोयमा ! दुबिहा पन्नत्ता तं जहा-आवलियप्पविटा य आवलिय बाहिराय, तत्थ ण जे ते आवलियपविटा ते तिविहा पन्नत्ता तं जहा वट्टा तंला चउरला, तत्थ णं जे ते अवलियबाहिरा ते नाणासंठाणसंठिया पन्नता, तं जहाआयकोदृसंठिया पिठ्ठ पयणगसंठिया कंदु संठिया लोहीसंठिया कडाह संठिया थालीलंठिया पिठरणसंठिया (किमियडसंठिया) किन्नपुडगसंठिया उडवसंठिया सुरवसंठिया सुयंगठिया नंदिमुयंगसंठिया आलिंगकलंठिया सुशोलतंठिया दद्दर य संठिया पणवलंठिया पडहलंठिया भेरीसंठिया झल्लरीलंठिया कुतुंवकसंठिया, नालिसंठिया। एवं जाव तमाए। अहे सत्तलाए गंभंते ! पुढवीए णरगा कि लठिया पन्नता ? गोवसा! दुविहा पन्नत्ता तं जहा बद्दे श तलाय । इसीले णं मंते ! रयणपसाए पुढवीए गरगा केवइयं बाहलेणं पलता ? गोपमा ! लिलि जोयणसहस्साई बाहल्लेणं पन्नत्ता तं जहा हेहा घणासहस्सं मज्झे. झुसिरा सहरूलं उरि संकुइया सहलं, एवं जाव अहे सत्तमाए। इमीले णं भंते ! रयणप्पलाए पुढबीए णमा केवइयं आयामविखंभेणं केवइयं परिकलेवेनं पन्नता ? गोयना ! दुविहा पन्नत्ता तं जहा संखेजवित्थडाय अराखेजवित्थडाथ, तत्थ णं जे ते संखेजवित्थडा ते गं संखेज्जाई जोवणलहरूलाई आयाम विखंभेणं, संखेज्जाइं जोयणसहस्साई परिकलेवेणं पन्नत्ता तत्थ णं जे ते असंखेज्जवित्थडा ते णं असंखेनाई जोयणसहस्साई आयामविक्खंभेणं अलंखेज्जाई जोयणसहस्साइं परिक्खेवेणं
Page #195
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ सू.१३ नरकावाससंस्थाननिरूपणम् १७३ पन्नत्ता, एवं जाव तमाए। अहे सत्तमाए णं भंते ! पुच्छा गोयमा! दुविहा पन्नता तं जला-संखेज्जवित्थडे य असंखेज्ज वित्थडा य, तत्थ णं जे ते संखेज्जवित्थडे से णं एवं जोयणसयसहस्सं आयामविखंभेणं, तिन्नि जोयणत्यसहस्साइं लोलसलहस्साइं दोन्निय लत्तावीले जोषणसए तिन्नि कोसेय अट्टावीप्तं च धगुसरं तेरसय अंगुलाई, अद्धंगुलमं च किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं पन्नत्ता । तत्थ णं जे ते असंखेज्ज वित्थडा ते णं असंखेज्जाइं जोयणसहस्साइं आयासविक्खंभेणं, असंखेज्जाइं जोयणसहस्साई परिक्खेवेणं पन्नता ॥सू०१३॥
छाया-एतस्यां खलु भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां नरकाः किं संस्थिताः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! द्विविधाः प्रज्ञप्ता स्तधया भावलिकामविष्टाश्च आवलिकावाह्याश्च । तत्र खलु ये ते आवलिका प्रविष्टास्ते त्रिविधाः प्रज्ञप्ता-स्तधथा-वृत्तास्पताश्चतुरस्राः। तत्र खलु ये ते आचलिका बाह्यास्ते नानासंस्थानसंस्थिताः मज्ञप्ता, तद्यथा-अयकोष्ठ संस्थिताः १, पिष्टपचनक संस्थिताः २ कन्दुसंस्थिता ३, लोही (लोडी) संस्थिवाः ४, कटाह संस्थिताः ५ स्थाली संस्थिताः ६ पिठरकसंस्थिताः७ किमियडसंस्थिता ८ कीर्णपुटक संस्थिताः ९ उटज संस्थिताः१०, मुरजसंस्थिताः ११ मृदङ्गसंस्थिताः १२, नन्दीमृदङ्ग संस्थिताः १३ आलिङ्गक संस्थिताः १४, सुघोषसस्थिताः १५, ददरकसंस्थिताः १६, पणवसंस्थिताः १७ पटहसंस्थिताः १८, भेरी संस्थिताः १९ झल्करीसंस्थिताः २० कस्तुम्बकसंस्थिताः २१, नाडीसंस्थिताः२२ एवं यावत्तमायाम् । अधःसप्तम्यां खलु भदन्त ! पृथिव्यां नरकाः किं संस्थिवा मज्ञप्ताः गौतम ! द्विविधाः प्रज्ञप्ता स्तद्यथा-वृत्ताश्च व्यसाथ।
एतस्यां खल मदन्त ! रत्नपमायां पृथिव्यां नरकाः कियत्काः वाहत्येन प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! त्रीणि योजनसहस्राणि बाहल्येन प्रज्ञप्ताः तद्यथा-अधस्तने घनाः सहस्रम् मध्ये शुपिराः सहस्रम् उपरि संकुचिताः सहस्त्रम् । एवं यावदधः सप्तम्याः। एतस्याः खलु मान्त ! रत्नभायाः पृथिव्याः नरकाः कियका आयामविष्कम्भेग कियत्काः परिक्षे पेग प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! द्विविधाः प्रज्ञप्ताह तद्यथा-संख्येय विस्तराखासंख्येयविस्तराव, तत्र खलु ये ते संख्ये यविस्तरास्ते
Page #196
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७४
जीवाभिगमस्त्रे खल्ल संख्येयानि योजनसहस्राणि आयाम-विष्कम्भेण, संख्येयानि योजनसहस्राणि परिक्षेपेण प्रज्ञप्ताः । तत्र खलु ये ते असंख्येयविस्तरास्ते खलु असंख्येयानि योजनसहस्त्राणि आयामविष्कम्भेण । असंख्येयानि योजनसहस्राणि परिक्षेपेण प्रज्ञप्ताः। एवं यावत्तमायाम् । अधः सप्तम्यां खलु भदन्त ! पृच्छा, गौतम ! द्विविधाः प्रज्ञप्ताः तद्यथा-संख्येसविस्तरश्चासंख्येयविस्तराव, तत्र खलु यः संख्येयविस्तरः स खलु एवं योजनश सहस्र मायामविष्कम्भेग त्रीणिशतसहस्राणि षोडशसहस्त्राणि द्वे सप्तविंशत्यधि के योजनशवे, या क्रोशाश्च अष्टविंशश्च धनुः शतं त्रयोदशवाङ्गुलानि, अर्द्धाशुलश्व किञ्चि द्विशेषाधिक परिक्षेपेण प्रज्ञप्तम् । तत्र खलु ये ते असंख्येय विस्तरास्ते खलु असंख्ये यानि योजनसहस्राणि आयामविष्कम्भेण असंख्येयानि योजनसहस्राणि परिक्षेपेण प्रज्ञप्ताः ॥१३॥
टीका-'इमीसे णं भंते ! रयणप्पमाए पुढवीए' एतस्यां खलु भदन्त ! रत्नममाया-प्रयमनार कपृथिव्याम् ‘णरगा किं संठिया पन्नत्ता' नरकाः किं संस्थिताः प्रज्ञप्ताः ? रत्नममा सम्बन्धिनकाणां संस्थान कीदृशं भवतीति प्रश्न: भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'दुविहा पन्नत्ता' रत्नप्रभा नरकाः द्विविधा:-द्वि प्रकारका पक्षप्ता-कविताः द्वैविध्यं दर्शयति-तं जहा'
अप सूत्रकार लरकावासों के संस्थान का कथन करते हैं'इनीसेणं भंते ! रयणपाए' पुढचीए-इत्यादि ।
टीकार्थ-गौतम ने प्रभु से ऐसा पूछा है-'इमीसे गंभंते ! रयणप्प. भाए पुढवीए “हे भदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी के नरक' किं संठिया पत्ता 'कैसे संस्थान वाले कहे गये हैं ? अर्थात् रत्नप्रभा पृथिवी सम्बन्धी जो नरक हैं उनक्षा आकार फैला है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोथमा दुविहा पन्नत्ता हे गौतम ! प्रथम पृथिवी में जो मरकामाल है-वे दो प्रकार के कहे गये हैं-'तं जहा' जैसे-'आवलिया
हवे सूत्रा२ न२४पासाना संस्थानानु थन ४२ छे. 'इमीसे ण' भते एयणप्पभाए पुढबीए' या
टी12---गीतभस्वामी प्रसुने पूछयु छ ? 'इमीसे ण भते ! श्यणप्पभाए पुढवीए' साप मा रत्नप्रभा पृथ्वीना न२। 'किं संठिया पण्गत्ता' કેવા સંસ્થાનવાળા કહ્યા છે? અર્થાત્ રત્નપ્રભા પૃથ્વીમાં જે નરકાવાસે છે. તેને આકાર કેવા પ્રકારને છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમસ્વામીને ४९ छ है 'गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता' 3 गौतम ! पडेली पृथ्वीमा २ नर । छ, त में प्रा२ना ४डवामा मावस छे. 'त जहा' तसे । भाप्रमाणे
Page #197
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ म्यु.१३ नरकावालसंस्थाननिरूपणम् १७५ इत्यादि, 'तंजहा' तद्यथा-आबलिया पविष्टाय' आवलिका पविष्टाश्च 'आवलिया बाहिराय' आवलिका वाह्याश्च, उमयनापि च शब्दो उभयेषामशुभत्य तुल्यता सूचकौ, तत्रापलिका प्रविष्टा नाम अष्टासु दिक्षु समश्रेण्यवस्थिताः आलिकामु श्रेणीषु प्रविष्टा व्यवस्थिता इति आवलिका पविष्टाः । 'तत्थ णं जे ते आवलियपविद्या' तत्र खलु ये ते नरका आवलिका अवलिकायां श्रेण्या व्यवस्थिताः 'ते तिविहा पन्नत्ता' ते आपलिका प्रविष्टा नरकास्त्रिविप्रालिप्रकारका प्रज्ञप्ता कथिता वैविध्यं दर्शयति-'तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा' तबधा- बट्टा तंला चउरंसा' वृत्ता
यसाधतुरस्मा श्वतुकोणाः चतुर्व पि भागेषु समरूपेणावस्थिता इति । 'तत्थ णं जे ते आवलिया बाहिरा तन खलु ये ते नरका आबलिका बाह्याः 'ते णाणा. पविहाय आवलिया घाहिराय' आवलिका प्रविष्ट और आधलिका पाह्य यहां जो दोनों पदों के साथ '' का प्रयोग किया गया है वह दोनों में समान रूप से अशुभता है इस बात को सूचित करने के लिये किया गया है जो नरकादास आठ दिशाओं में सम्मणि में अवस्थित हैं वे नरकादास आवलिका प्रविष्ट हैं। आयलिका शब्द का अर्थ श्रेणी है। इस श्रेणि में जो व्यवस्थित होते हैं वे पालिका प्रविष्ट है।
'तत्थ णं जे ते आवलियम्पष्टिा ते तिविहा पत्ता इन में जो अवलिका प्रविष्ट नरक है वे तीन प्रकार के कहे गये हैं
'तं जहा' जैसे-'वट्टा तला' 'वृत्त-गोल-ज्यस्त्र-तिखूटे, और चतुरस्त्र. चौखूटे 'तत्थ णं जे ते आजलिथा वाहिश' तथा जो आवलिका प्रविष्ट से भिन्न प्रालिका पात्य नरहाबोस हैं वे 'जाणासंठाणसंठिया छ. 'आवलियपविद्वाय आवलिया बाहिराय' मावलि प्रविष्ट भने मालिक બાહ્ય. જ્યાં જે બે પદોની સાથે “ર” શબ્દનો પ્રયોગ કરવામાં આવ્યું હોય તે બનેમાં સમાનપણાથી અશુભપણું છે, એ વાતને સૂચવવા માટે કરવામાં આવેલ છે. જે નરકાવાસ આઠ દિશાઓમાં સમશ્રેણી માં રહેલા છે. તે નરકા વાસ આવલિકા પ્રવિષ્ટ કહેવાય છે. આવલિકા શબ્દનો અર્થ શ્રેણી છે. આ श्रेणीमा २ व्यवस्थित डाय छ, त माlast प्रविष्ट वाय छ 'तत्थ णं जे ते आवलियप्पविट्टा ते तिविहा पन्नत्ता' २ गावति प्रविष्ट न२४ छे. ते त्र प्रश्न वामां मावस छे. 'त जहा' ते ३ । मा प्रमाणे छे. 'वट्टा तसा चउर'सा' वृत- यव-निए भने यस या२ भूपाणु 'तत्थ ण जे ते आवलिया बाहिरा' मां २ मावा प्रविष्टया ही मेट , ति मान२४पासे छे ते 'णाणास ठाण मठिया पन्नत्ता' भने प्रारना २मा
त जहा' ते मा प्रभारी
Page #198
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७६
जीवाभिगमसूत्रे संठाणसंठिया पन्नत्ता' ते आवलिका वाह्या नका नानासंस्थान संस्थिताः प्रज्ञता:-कथिताः 'जहा' तघधा-'अयको संठिया' अयः कोष्ठ संस्थिताः अयः कोष्ठोलोहमयः कोष्टतद्वन्द संस्थिताः इत्यय कोष्ठमंस्थिता इति १।।
'पिट्ठपयणग संठिया' पिष्टपचनसंस्थिताः, यत्र सुरानिणाय पिष्टादिकं पच्यते तत् पिष्टपचनकं तद्वत् संस्थिता इति पिएपचन:संस्थिताः २, तथा-कंद् संठिया' कन्दुसंस्थिताः कन्दुः कान्दविकस्य मिष्टा नाकपात्रम् तत् संस्थिताः ४ 'कडाह संठिया' कटाहसंस्थिताः-फटाहः शाशादिपायका पात्र विशेष: तद्वत् संस्थिता इति र टाइस स्थिताः ५ 'थाली संटिश स्थाली ओदनादि पाचनपात्रं तहत् संस्थिता इति स्थाली संस्थिताः ६ 'पिटरसंठिया' पिठरक यन प्रभूतजन योग्यं धान्यादिकं पच्यते तद्वत् संस्थिता इति पिठरकसंस्थिता ७ 'किमिया संठिया' 'कुमिकसंस्थिताः' जीवविशेष युक्ताः इदं पदं पुस्तकान्तरे न लभ्यते पन्नत्ता' अनेक प्रकार के आहारों वाले है-तं जहा' जैसे-'अयको? संठिया' कितनेक लोहे के कोष्ठ के जैसे आकार वाले हैं कितनेक पिट्ठ पयणग संठिया सदिरा बनाने के लिये जिसमें पिष्ट आदि पकाया जाता है उस वर्तन के जैले आकार वाले हैं 'कंदु संठिया' कितनेक कन्दु-हलधाई के पास पात्र के जैसे आकार वाले हैं 'लोही संठियो' कितनेक-लोही-लया के जैसे आकार घाले हैं किनेक 'कडाह-मंठिया' कटाह-कडाही-के जैसे आसार हाले हैं 'धाली-संठिया' शितनेक थाली-ओदन पकाने के बरतन के जले आकार वाले हैं। कितनेक 'पिटरग संठिया जिसमें बहुत अधिक मनुष्यों के लिये लोजन आदि पकाया जाता है ऐसे पिठरक के जैसे आकार वाले हैं कितने कि मियग संठिया' कृमिक जैसे-आफार वाले हैं यह पद कहीं कहीं नहीं
छ 'अयकोट खट्टिया' 32s an'! ना वा मारवाणा. टals 'पिट्ट पयणग संठिजा' महिश हो३ मनावा माटे मां पिण्ट-सोट विगेरे शंधवामां आवे छे. ते वासना वा मानहाय छे. 'कद सठिया' કેટલાક કહું કદઈના રાંધવાના પાત્રના આકાર જેવા આકાર વાળા હોય છે 'लोहीस ठया' tals साढी-तवाना वा मारवा छे. 26 'कडाहा संठिया' याना वा मा १२१ हाय छे. 'थाली मठिया ४८क्षा ભાત બનાવવાના વાસણના આકાર જેવા આકારવાળા હોય છે, અને 218 'पिटरग संठिया' मा १५ रे भायुसे। भाटे सासन सामयी मनावी सय त ४ि२ वा मारवाणा डाय छे, Beans 'किमियग सठिया' भिरपा मारणा डाय. मा ५६४८मा अथामा भाकामा
Page #199
--------------------------------------------------------------------------
________________
बताः 'या' सुरजमा म
प्रमेयद्योतिका ठीका प्र.३ उ.२ सू.१३ नरकावाससंस्थाननिरूपणम् १७७ 'किन्नपुडगसंठिया' कीर्णपुटकसंस्थिताः 'उडय संठिया' उटजसंस्थिता, उटजस्तापसाश्रमस्तद्वत् संस्थिताः९ । 'मुस्यसठिया' मुरजसंस्थिताः, मुरजो वायविशेषः तद्वत संस्थिता इति मुरजसंस्थिताः १० 'सुयंगठिया' मृदजसंस्थिताः । मृदङ्गोऽपि वायविशेष एव तहत् संस्थिताः ११ । 'नंदीमुरंग संठिया' नन्दीमृदङ्गसंस्थिताः १२ 'मालियरसंठिया' आलिंजरसंस्थिताः आलिंजरो सन्षयो मुरजस्तद्वत् संस्थिता इति आलिंजरसंस्थिताः १३ 'सुघोससंठिया' सुघोषसंस्थिताः सुधोषो देवलोकप्रसिद्धो घण्टा विशेष आलोचविशेषो वा तद्वत् संस्थिताः १४ 'दहरयसंठिया' दर्दरकसंस्थिताः दो नाधविशेष स्तद्वत् संस्थिताः १५ 'पणवसंठिया' पणो वाचविशेषो लोकप्रसिद्ध स्तद्वत् संस्थिता इति पणवसंस्थिता: १६ 'पडह संठिया' पटह संस्थिताः पटहो बाविशेषो लोकपसिद्ध है कितनेक-'किन पुड संठिया कीर्ण पुटक के जैसे आकार वाले हैं कितनेक 'उडा संठिया बडज झोपड़ी थापखाश्रम-के जैले आकार वाले हैं। कितनेक 'सुरवलंठिया' सुरज-वाद्यविशेष-से जैले आकार वाले हैं कितनेक 'मुयंगठिया वृदङ्ग-बाधविशेष -के जैसे आकार घाले हैं। शितनेक-नंदीयंगठिया' नन्दी मृदंग के समान स्थित हैं। कितनेक 'आलिंजर संठिया' आलिंजर-मिट्टी के बने हुए मृदंग के समान आकार वाले है अर्थात् कोठो के जले कितनेक 'सुघोलसंठिया' सुघोष-देवलोक प्रसिद्ध सुघोष घंटा के जैसे आकार वाले हैं कितनेक 'दद्दरय संठिया' दईरनाम के वाद्यविशेष के जैसे आकार वाले हैं। 'पणव संठिया' कितनेक पण नामक वाद्यविशेष के जैसे आकार वाले है छोटा नगारा कितनेक 'पटह संठिया' पटह (ढोल) नाम के वायविशेष भावद नथी. 218 'किन्न पुडगसठिया' ही घटना वा मा२ - हाय छे टमा 'उडयसठिया' -जुपडी-तापसामना 24 मा.२. पापा डाय छ. als 'मुरयसठिया' भृग-वाचविशेषना २१! माहार वाणा डाय छे. ४८मा 'नदीमुयंगसठिया' नही भूगना २१ मारवाणा छे. सन are आलिंजरसठिया' मावि२-माटिना मनावर मृगना આકાર જેવા આકારવાળા છે. એટલે કે કોઠીના આકાર જેવા છે मनट 'सघोसठिया' सन 18 सुघोष वसभी प्रसिद्ध सुघोष नामना टन २१ मा १२१1 छ. ४८४ 'पदरयसठिया' ४६२नामना पाचविशेषना वा म२वामा छे. 'पणवस ठिया' als ५ नामना वाचविशेष २१ मा डाय छे. 21 'पटह सठिया' पट:- नामना वाचविशेषना २१ मारवाणा हाय छे. ४८८४ 'भेरीसठिया' लेशनमिना वाचविशेषना 24 मार पाणा
जी० २३
Page #200
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवाभिगम सूत्रे
१७८
एव तद्वत् संस्थिता इति पटहसंस्थिताः १७ 'भेरीसंठिया' भेरी ढका वद्वत् संस्थिता इति भेरी संस्थिताः १८ 'झलरी संठिया' झल्लरी संस्थिताः झल्लरी - चर्मावनद्धा विस्तीर्णवलकारा वायविशेषरू त संस्थिता इति झलरी संस्थिताः १९ 'कुत्थुवग संठिया' कुस्तुम्नकः -- वाद्यविशेष स्वद्वत् संस्थिता इति कुस्तुम्बक - संस्थिताः २० 'नाली संठिया' नाडी घटिका तद्वत् संस्थिता इति नाडीसंस्थिताः २१ नरका रत्नमायामिति ।
अत्र द्वे संग्रहमा - 'जयको १ पिटूपयणग-२ कंद ३ कोटी ४ कडाह ५ संठाणा । थाली ६ पिटरग ७ किष्णग ८उडर ९ मुरवे १० मुयंगे य ११ ॥१॥ नदि सुयंगे १२ आलिंग १३ घोने १४ दद्दरे १५ च पणवे १६ य | पडहगे १७ भेरी १८ झल्लार १९ कुत्थु वग२० नाडि ठाणा ॥२॥
अय: कोष्ठक - पिष्टपचनक - कन्दु - छोहि-चटाह - संस्थानाः । स्थाली-पिठरक - फीर्णक- उटजो रजो मृदङ्ग ||१|| नन्दिमृङ्गः आलिङ्गः सुघोषः दर्दरव पणरथ । पटहक भेरी झल्लरी कुत्थुवा नाडीयानाः इति ॥
'एवं जाब तसाए एवं' यावत् नाममा पर्यन्तम् । एवं यथा रत्नप्रभाया नरकाः कथितास्तथैव शर्कराभा वालुकाममा पद्म धूपभा दमः प्रभानामपि नरका के जैसे आकार वाले हैं। कितने 'भेरी संटिया' भेरी नामक वाद्य विशेषके जैसे आकार वाले है जितनेक 'झोली इंठिया' चमडे से मडी हुई विस्तीर्ण वलयासर झल्लरी नामक वाय विशेष के जैसे आकार वाले हैं। 'कुम्भुं संठिया' किसनेक कुस्तुंवक वाद्य विशेष के जैसे आकार गये हैं। मिलनेक 'नाडी इंडिया' नाडी -जल घटिका से जैसे आकार वाले है २१। यहां दो संग्रह गाथाएं हैं'rents' इत्यादि, इनका अर्थ उपर प्रमाण समझदेवें ।
'एवं जाय तमाए' जिस प्रकार से रत्नप्रभा के नरक कहे गये हैं उसी तरह से तमा पृथिवी तक कह देव चाहिये जैसे- शर्कराभा, वालुकाममा, पङ्कपमा, धूमप्रभा और तमःप्रभा के नरकों का भी कथन
छे. डेटलाई 'झलरी सठिया याभडाथी भठेची विस्तृत सेयानी भार જેવા ઝાલર નામના વાદ્યવિશેષના જેવા કાર वाजा हे 'कुत्थु वगसठिया' उeals, स्तुवाद्यविशेषता वा 'आरवाजा हे 'नाडी सठिया ' નાડી જલઘટિકાના જેવા આકારવાળા છે ૨૧ા આ સબધમાં એ સ’ગ્રહે गाथाओ छे. 'अयकोट्टे' इत्यादि खाना अर्थ पर उस प्रहारथी सम सेवा. ' एवं नाव तमाए' ? प्रमाणे रत्नअला पृथ्वीना नरहे। उडेला छे. એજ પ્રમાણે તમા નામની પૃથ્વી સુધી કથન કરવું જોઇએ. અર્થાત્-શર્કરા પ્રભા વાલુકાપ્રભા પુકપ્રભા, ધૂમપ્રભા, અને તમઃપ્રભના નરકાનું પણ થત
Page #201
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ. २ . १३ नरकावास संस्थाननिरूपणम्
હ
वक्तव्याः, आलापपकारस्तु एवम् - 'सक्करप्पभार णं भंते ! पुढवीए नरगा किं संठिया पन्नता ? गोयमा ! दुबिहा पन्नत्ता, तं जहा - आचलियप्पविट्ठा य आवलिय वाहिरा य, तस्थ णं जे ते आवलियपविट्ठा से तिविहा पत्ता तं जहा वट्टा तसा चउरंसा ? तत्थ णं जे ते आवलिए बाहिरा ते णं णाणासठाणसंठिया पन्नत्ता तं जहा - अयकोठिया' इत्यादि, एवं बालकाममा पङ्कममा घृगममा तमःममा सूत्रालापका अपि स्वयमेवोहनीयाः ।
"
अधः समीपृथिवीविषयकं सूत्र सूत्रकारः स्वयमेव दर्शयति- 'अहे सत्तमाए ' इत्यादि, 'अहे समाए णं भंते! पुढवीए' अधः सप्तम्यां खलु भदन्त ! पृथिव्याम्, 'नरमा कि संठिया फनत्ता' नरकाः किं संस्थिताः किलिय संस्थिता मज्ञप्ताः १ इवि प्रश्नः, भगवानाह - 'नोमा !' इत्यादि, 'गोमा' हे गौय ! 'दुविधा पनवर' द्विविधाः - द्विपकारकाः प्रावा- कथिताः 'तं जहा ' तद्यथा'बट्टे यशाव' वृत्तो वृत्ताकार व्यस्नाथ । अधः सप्तम्यां पृथिव्यां ये नरकाः करलेना चाहिये यहां आलाप प्रकार 'सकामारणं भंते पुढचीए 'रमा' हत्यादि स्वयं करना चाहिये
अःसप्तमी पृथिवी के नरकों के कथन के सम्बन्ध में नकार स्वयं ही कथन करते हैं-इप नौगम ने प्रभु से ऐसा पूछा है- 'अहे तत्समाएणं भंते ! पुढ वीर गश्ता किं संठिया पन्नत्ता' हे भदन्त ! अधःसप्तमी पृथिवी के नरक किस आकार वाले कहे गये हैं ? उत्तर में प्रभु कहते है - 'गोषमा ? दुर्दिश पनसा' हे गौतम! अधः सप्तमी पृथिवी के नरक दो प्रकार के कहे गये है- 'तं जहा' जैसे 'वद्वे व तलाव' एक वृत-गोलाकार है और चार वस्त्र तिबूटे क्योंकि पृथिवी
धुं लेाभे तेना सास अमर प्रभाछे - 'सक्करप्पभाएणं भंते ! पुढवीए णरगा' इत्यादि प्रहारथी स्वयं मनावीने समल देवा.
खेवु
અધઃસપ્તમી પૃથ્વીના નરકાના કથન સમધમાં સૂત્રકાર સ્વયં કથન १रे छे. आमां गौतमस्वामी अलु ने छे छे! - 'अहे खत्तमाएणं भंते ! पुढवीए परगा कि संठिया पन्नत्ता' से लगवन् अधः ससभी पृथ्वीना नरहे। કેવા આકારવ ળા હાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમસ્વામી ને કહું छे – 'गोयमा ! दुविहा पन्नत्ता' हे गौतम! अध सप्तभी पृथ्वीना नर બે પ્રકારના કયા છે.
'तं जहा' ते या प्रभावे छे. 'वट्टे य खाय' ४ वृत्त गो भाव. जु અને ચાર બ્યસ' ત્રિકેણુકાર છે. કેમકે-અધઃસપ્તમી પૃથ્વીમાં જે નરકે છે
Page #202
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमसूत्रे
१८०
सन्ति ते आवलिका प्रविष्टा एव न तु आवलिका वाह्याः आवलिका प्रविष्टा अपि काळमहाकालादयः पञ्चैव नाधिकाः, तत्र मध्ये अप्रतिष्ठाननामाभिधानो नरकेन्द्रो वृत्ताकारः, सर्वेपामपि नरकेन्द्राणां वृत्ताकारत्वात् शेषास्तु चत्वारः काळमहाकालरौरवमहारौरवाः पूर्वादिषु दिक्षु वर्तमानास्ते च व्यस्राः, अतएवोक्तं वृत्तश्च व्यस्रावेति ।
सम्प्रति-नरकावासानां वाहल्यप्रतिपादनार्थमाह-' इमी से णं' इत्यादि, 'इमी से णं भंते! रयणभाए पुढवीए' अस्यां खलु भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्याम् 'नरगा केवइयं बाहल्लेणं पन्नत्ता' नरकाः कियत्काः बाहल्येन वहळस्य भावो बाल्यं पिण्डभावः तेन बाहल्येन प्रज्ञप्ताः कथिताः ? इति नरकवाल्यविषयकः प्रश्नः सूत्रे 'केवइयं' इति प्राकृतत्वादेकवचनम्, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, में जो नरक हैं वे आवलिका प्रविष्ट ही है आवलिको बाह्य नहीं हैं। आवलिका प्रविष्ट होने पर भी वे पांच ही है अधिक नहीं । इनमें जो अप्रतिष्ठान नामक नरकावास है वह इनके मध्य में है और यह गोलाकार वाला है क्योंकि जितने भी नरकेन्द्र हैं वे सब गोल आकार वाले ही होते हैं। बाकी के और जो चार नरकावास हैं-काल, १ महाकाल, २ रौरव ३ और महा रौरव ४ ये पूर्व आदि चार दिशाओं में हैं ।
अब सूत्रकोर नरकावासों की मोटाई प्रकट करते हैं - इसमें गौनम ने प्रभु से ऐसा पूछा है-
'इमी से णं भंते । रयणभार पुढवीए' हे भदन्त ! इस रत्नममा पृथिवी में 'नरणा' जो नरक हैं वे 'केवहयं बाहल्लेणं पत्ता' कितनी मोटाई वाले कहे गये है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - उत्तर - 'गोयमा !
તે આવલિકા પ્રવિષ્ટ જ છે. આવલિકા બાહ્ય નથી આલિકા પ્રવિષ્ટ હાવા છતાં પણ તે પાંચ જ છે. વધારે નથી તેમાં જે પ્રતિષ્ઠાન નામનું નરકેન્દ્ર छे. ते मानी मध्यभां हे अने ते गोण आश्वाणु हे प्रेम-भेटला નરકેન્દ્રો છે. તે અધા ગોળ આકારવાળા જ હાય છે. બાકીના ખીજા જે ચાર નરકાવાસો છે. જેમકે-કલ ૧ મહાકાલ ૨, રૌરવ ૩ અને મહારૌરવ ૪ ચારે પૂર્વ વિગેરે ચારે દિશાઓમાં છે.
આ
હવે સૂત્રકાર નરકાવાસેાની વિશાળતા પ્રગટ કરે છે.-તેમાં ગૌતમસ્વામી એ પ્રભુને એવું પૂછ્યું છે કે
'इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए' हे भगवन् ! या रत्नप्रभा पृथ्वीभां 'नरगा ? नरहै छे. ते 'केवइयं वाइल्लेगं पन्नत्ता', डेंटली विशालता वाणा કહેવામાં આવેલ છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમ સ્વામીને કહે છે કે
Page #203
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेययोतिका टीका प्र. ३ . २ सु. १३ नरकाचाससंस्थाननिरूपणम्
१८१
'गोमा' हे गौतम! " तिनि जोयणसहस्साई बाहल्लेणं पन्नत्ता' त्रीणि योजनसहस्राणि बाहल्येन नरकाः मक्षप्ताः कथिता इति । 'तं जहा ' तद्यथा - हेडा घणा सदस्स"
स्तने पादपीठे घनानिचिताः सहस्रम् योजनासहस्रम् 'मझे खुसिरा सहस्स' मध्ये पीठस्योपरि मध्यमागे सुषिराः सहस्रं योजनसहस्रम् ' उपि संकुइया सहस्स' उपरि संकुचिताः शिखराकृत्या संकोचमुपगता योजनसहस्रम् तत एवं सङ्ककनया नरकावासानां त्रीणि योजनसहस्राणि बाहल्यतो भवन्तीति । ' एवं जाव अहे सत्तमाए एवं यावदधः सप्तम्याम् एवं शर्कराप्रमात आरभ्य सप्तमपृथिवी पर्यन्तम् । प्रतिपृथिव्यां नरकावासानां त्रीणि सहस्राणि बाहल्येन भवन्तीति ज्ञातव्यानि । तदुक्त मन्यत्रापि --
'हा घणासहरसं, उपि संकोचतो सहस्सं तु ।
मझे सहस् सुसिरा, विनि सहस्सुस्सिया नरया ॥१॥
तिनि जोयणा सहस्लाई बाहल्लेण पन्नत्ता' हे गौतम! ये नरक तीन हजार योजन की मोटाई वाले कहे गये है । 'तं जहा ' 'जैसे-'हेडा घणासहस्सं' ये अधस्तनपादपीठ में एक हजार योजन तक घनरूप से निचित है । 'मज्झे खुसिरा सहस्स' पीठ के ऊपर में मध्यभाग में ये एक हजार योजन तक सुषिर (खाली) हैं तथा - ' उपि संकुइया सहस्से' ऊपर में शिखर के जैसे एक हजार योजन तक ये संकुचित होते गये हैं। इस प्रकार से ये मोटाई में तीन हजार योजन के हो जाते हैं । ' एवं जाय अहे सताए' इसी तरह से शर्कशप्रभा से लेकर अधः सप्तमी पृथिवी तक हर एक पृथिवी में वहां के नरकावासों की मोटाई तीन २ हजार योजन की है-ऐसा जानना चाहिये, अन्यत्र भी ऐसा ही कहा गया है
'गोयमा ! तिन्नि जोयणसहस्साई बाहल्लेणं पन्नता' हे गौतम! भान२४ डेन्जर योजननी विशाणता वाजा सा छे. 'तं जहा' ते या अभाये 'हेट्ठा घणसहस्स' ते नीथेनी पाहथीहसां मेड डेलर योन्जन सुधी धनयथाथी निथित-नाभ रडेला छे, 'मज्झे सुखिरा सहरसं' पीना उपरना मध्य लागभां ते ! उत्तर योजन सुधी सुषिर (माती) छे. तथा 'उप संकुइया सहरसं' ઉપરમાં શિખરનાજેવા એક હજાર યોજન સુધી તે સંકુચિત થતા ગયા છે. या रीते मा विशाजताभां श्रायुभर योना था लय छे. 'एवं जाव अहे સત્તમાર્ આજ પ્રમાણે શકરાપ્રભાં પૃથ્વીથી લઈને અધઃસસમી પૃથ્વી સુધી દરેક પૃથ્વીમાં ત્યાંના નરકાવાસોની વિશાળતા ત્રણ હજાર યોજનની છે. તેમ સમજવુ અન્યત્રપણ એમજ કહ્યું છે.
Page #204
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमसूत्रे
१८२
'अधस्तनाद् घनाः सहस्रमुपरि संकोचतः सहस्रं तु ।
मध्ये सहस्र शुपिराः त्रीणि सहस्राणि उच्छिाः । इतिच्छाया' सम्पति-नरकावासानामायामविष्कम्भ प्रतिपादनार्थमाह-मीसे णं मंते । इत्रादि, 'इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढबीए' एतस्यां खलु मदन्त ! रत्न. प्रभायां पृथिव्याम् ‘णरगा' नरकाः 'केवइयं आयामविखंभेणं' कियत्का आयाम विष्कम्भेण किं प्रमाणा आयामविष्कम्भेण, आयामश्च विष्कम्भश्चेति समाहार स्तेन 'केवइयं परिक्खेवेणं पन्नत्ता' कियत्काः परिक्षेपेण प्रज्ञप्ता:-करिता नरका इति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'दुविहा पनचा' द्विविधा:-द्विमकारका नरकाः प्रज्ञप्ता:-कथिताः 'तं जहा' तद्यथा-'संखेज्ज विस्थडाय' संख्येय विस्तराश्च संख्येयः-संख्येययोजनप्रमाणो विस्तारो येषां
'हेटाघणा सहस्सं उपि संकोचतो सहस्सं तु। मज्झे सहस्सं सुसिरा तिन्नि सहस्सुसिया नरया ॥१॥
इस गाथा का अर्थ स्पष्ट है। अथ सूत्रकार नरकाबासों का आयाम और विष्कम्भप्रतिपादन करते है
इस में गौतमने प्रभुश्री से पूछा है-'इमीसे गं भंते । रयणप्पभाए पुढ बीए' हे भइन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी में जो 'नरगा' नरक हैं वे 'केवइयं आयाम विक्खंभेणं' कितनी लम्बाई घाले एवं चौडाई वाले कहे गये हैं और 'केवइयं परिक्खेवेणं पन्नत्ता' कितना इनका परिक्षेप-घेरा कहा गया हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! दुविधा पन्नसा' हे गौतम! प्रथम पृथिवी में दो प्रकार के नरक कहे गये
हेढा घणासहस्सं उपि संकोचतो सहस्संतु । सझे सहस्स सुसिरा तिन्नि सहस्सुसिया नरया ॥१॥ આગાથાને અર્થ સ્પષ્ટ જ છે – હવે સૂત્રકાર નકાવાસોના આયામ અને વિધ્વંભનું પ્રતિપાદન કરે છે
मामा गौतम स्वामी से प्रभु २ मे पूछे छ है-'इमीसे णं भवे ! रयणप्पभाए पुढबीए' 3 भगवन् मा २नमा पृथ्वीमा २ 'नरगा' ते न२। छे. a 'केवइयं आयामविक्खंभेणं' सीमा व अन ती पडेगा ani डस छ ? मन 'केवइयं परिक्खेवेण पण्णत्ता' भन तेन परिक्ष५ घरा। दो
छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभु ४४ छ है-'गोयमा! दुविहा पण्णत्ता 3 गीतम! पडेसी पृथ्वी से प्रारना न२४ ४७स छ. 'तं जहा' मा प्रमाणे
Page #205
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.२ २.१३ नरकावालसंस्थाननिरूपणम् १८३ ते संख्येयविस्ताराः 'असंखेनविस्थडाय' असंख्येयविस्ताराच असंख्येयः असंख्येय योजनप्रमाणो विस्तारो येषां ते असंख्येययोजनविस्ताराः, तथा च संख्येयविस्तृतासंख्येय वितृतभेदेन नरका द्विविधा भरन्ति । 'सस्थ णं जे ते संखेज्जवित्थडा' तत्र-तयोयोमध्ये ये नरकाः संख्येयविस्ताराः 'ते णं संखेज्जाई जोयणसहस्साई ते खल संख्येयानि योजनसहस्राणि, 'आयामविक्खंभेणं' आयामविकम्भेण प्रज्ञप्ताः कथिता इति । 'तत्थ णं जे ते असंखेज्जवित्थडा ते ण तत्रद्वयोमध्ये खलु ये नरका असंख्येय विस्तारास्ते खल 'असंखेज्जाई जोयणसहस्साई आयामविवभेणं' असंख्येयानि योजनसहस्राणि आयामविष्कम्भेण 'असंखेज्जाई जोयणसहस्साई परिक्खेवेण पन्नत्ता' असंख्पेयानि योजनसहस्राणि परिक्षेपेण प्रज्ञप्ता इति । 'एवं जाव तमाए' एवं रत्नममायाँ यथाभायामविडम्म परिक्षेपनर कावासाः प्रदर्शिता स्तथैव शर्कराप्रभात आरभ्य तमःपभापर्यन्त पृथिवीहैं-'तं जहा' जैसे-'संखेज्ज वित्थडा य असंखेन विवडाय' संख्यात योजन के विस्तार वाले और असंख्यात योजन के विस्तार वाले 'तत्य णं जे ते संखेज्ज वित्थडा' इन में जो संख्यात योजन के विस्तार वाले नरक हैं वे 'संखेज्जाई जोयणसहस्साह" संख्यात हजार योजन के 'आयामविक्खंभेणं' लम्बे चौडे हैं । 'तत्थ णं-जे ते असंखेज्ज वित्थडा ते णं असंखेजाई जोयणसहस्साह-आयम विक्खंभेणं' और जो असंख्यात योजन के विस्तार वाले हैं वे असंख्यात योजन के लम्बे चौडे हैं । तथा इनकी परिधि भी असंख्यात हजार योजन की है एवं जाव तमाए' जिस प्रकार रत्नप्रभा पृथिवी में वहां के नरकों की लम्बाई चौडाई और परिधि का प्रमाण कहा गया छ.-'संखेज्जवित्थड़ा य असंखेजवित्थडा य' यात योजना विस्तारवाया सने मस ज्यात यातना विस्तारवाणा 'तत्थ णं जे वे संखेन्जवित्थडा' तमारे
भ्यात योगन विस्तारकामा छ, नर। छ त सधा संखेज्जाइं जोयणसयसह. स्साई' सभ्यात तर योगनना 'आयाम विक्खंभेणं' in ५। छे. 'तत्थ णं जे ते असंखेज्जवित्थडा तेणं असंखेज्जाई जोयणसहस्साइ आयामविखंभेणं' मन જે અસંખ્યાત યોજનાના વિસ્તાર વાળાં છે. તેઓ અસંખ્યાત યોજનના લંબાઈ પહોળાઈવાળા છે. તથા તેની પરિધિ પણ અસંખ્યાત હજાર યોજનની छ. “एवं जाव तमाए' २ प्रम. २त्नप्रभा पृथ्वीमा त्यांना न२ौनी मा પહેળાઈ અને પરિધિનું પ્રમાણ કહ્યું છે. એ જ પ્રમાણે શર્કરામભા પૃથ્વીથી
Page #206
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमसूत्रे
ફ્¥
संबन्धिनां नरकावासानामपि आयामविष्कम्भपरिक्षेपाः वक्तव्याः, आलापकमकारस्त्वेवम्- 'सकरप्पभाए णं भंते | पुढवीए नरगा केवइयं आयामविवखं भेणं केवइयं परिक्खेवेणं पन्नता ? गोयमा ! दुविधा पन्नता, ते जहा संखेन्ज- वित्थडाय असंखेज्ज वित्थडाय, तत्थ जे ते संखेज्जविस्थडा ते णं संखेज्जाई जोयणसहसा आयाम विक्खंभेणं सखेज्जाई जोयणसहस्लाई परिवखेवेणं पन्नता तत्थ णं जे ते असंखेज्जवित्थडा ते णं असंखेज्जाई जोयणसहस्साई आयाम विक्खभे असंखेनाई जोयणसहस्साइं परिक्खेवेणं पण्णत्ता' ।
शर्कराममायां खलु भदन्त ! पृथिव्याम् नरकाः कियत्का आयामत्रिष्कभेण किया परिक्षेपेण मज्ञप्ताः १ गौतम ! द्विविधाः प्रज्ञप्ता स्वद्यथा - संख्येयविस्ताराचा संख्येयविस्ताराच । तत्र ये खल्ल संख्ये विस्तारा स्ते खल संख्येयानि योजन सहस्राणि आयामविष्कम्भेण, संख्येयानि योजनरूहस्राणि परिक्षेपेण मज्ञप्ताः, तत्र खलु ये ते असंख्येयविस्तारा स्ते खलु असंख्येयानि योजन सहहै इसी तरह से शर्करामभा से लेकर तमः प्रभा पृथिवी तक के नरका वासों की लम्बाई चौडाई और परिधिका भी प्रमाण जानना चाहिये । इस सम्बन्ध में आलापक प्रकार - 'सक्करपभाएणं भंते! पुढवीए नरगा' इत्यादि टीका में देख लेना चाहिये ।
सूत्र-पाठ का अर्थ रत्नप्रभा पृथिवी के नरकावासों की लम्बाईचौड़ाई एवं परिधि के सम्बन्ध में जैसा कहा गया है वैसा ही वह अर्थ यहां पर भी शर्कराप्रभा पृथिवी के नरकों की लम्बाई चौडाई और परिधि के सम्बन्ध में भी कह लेना चाहिये । इसी प्रकार से बालुकाप्रभा, पङ्कप्रभा, धूमप्रमा, और तमःप्रभा के नरकों की लम्बाई चौडाई एवं परिधि के प्रमाण के सम्बन्ध में भी सूत्रपाठ स्वयं उभावित कर
લઈને તમઃપ્રભા પૃથ્વી સુધીના નરકાવાસોની લખાઇ પહેળાઇ અને પરિ ધિતું પ્રમાણુ પણુ સમજી લેવું આ સંખ ́માં આલાપ પ્રકાર આપ્રમાણે છે– 'सक्करपभारणं भंते! पुढवीए नरगा' इत्यादि अठार टीममां आपवामां आवत છે. તે ત્યાંથી સમજી લેવે। આ સૂત્રપાઠનો અર્થ આપ્રમાણે છે-રત્નપ્રભા પૃથ્વી ના નરકાવાસેાની લખાઈ પહેાળાઈ અને પરિધીના સખમાં જેમ કહેવામાં આવેલ છે. એજ પ્રમાણેના અર્થ અહિયાં આ શક`રાપ્રભા પૃથ્વીના નરકેની લંબાઈ પહેાળાઈ અને રિષિના સંબધમાં પણ સમજી લેવે જોઇએ. એજ પ્રમાણે વાલુકાપ્રભા પકપ્રભા ધૂમપ્રભ, અને તમ;પ્રભાના નરકોની લખાઈ પહેાળાઈ અને પરિધિના પ્રમાણુના સબંધમાં પણ સૂત્રપાઠ સ્વયં બનાવીને
Page #207
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ सा.१३ नरकावाससंस्थाननिरूपणम् १८५ स्राणि आयामविष्कंभेण, असंख्येयानि योजनसहस्राणि परिक्षेपेण मज्ञप्ता इति. च्छाया । एवमेव बालकाधमा एकममा धूपक्षमा तमःप्रथा मूत्राण्यपि स्वयमेवोहनीयानि । अधः लप्सीविषये पत्रकार लयमाह-'अहे सत्तमाए ' इत्यादि, 'अहे सत्तमाए ण संते ! पुन्छ।' अनासप्तम्यां खलु भदन्त ! पृच्छा हे भदन्त ! अधः सप्तम्यां पूणियां ये बनकर ते किया कि मलाणा आयामविष्कम्भेण कियकाः-शिवल्परिनिता परिक्षण प्राप्ता इति प्रश्नः पृच्छया संगृह्यते भगवाना-गोयना' इत्यादि, लोरमाहे गौतम ! 'दुविदा पबचा' अध: सप्तमीनरका विविधा:-हिमकारकाः प्रज्ञापा - कथिताः तं जहा' तबथा-'संखे. ज्जवित्थडेय संख्येषविस्तृतच असंखेजस्थिडाय' असंख्येयविस्तृताश्च 'तत्य गं जे ते संखेज्जवित्थडे' तर दोर्मध्ये सास संख्येयविस्तृतः 'से णं एक जोयण. सयसहस्सं आयामविक्रमेण स खल्वे योजनशतसहनमायामविष्कम्भेण 'तिलि जोयणस्यसहसलाई त्रीणि योजनशतमात्राणि 'सोलससहस्साई षोडशलेना चाहिये । अधः सप्तमी के विषय में सूत्रकार स्वयं कहते है___'अहे मसलाए णं भले खूछा " हे महन्त ! अधः सप्तली पृथिवी में जो नरक वे कितनी लम्बाई बाले, विलिनी-चौडाई वाले और कितनी परिधिवाले हैं ? हलके उत्तर में प्रमुश्रीने कहा है 'गोयसा ! दुविहा पन्नत्ता' हे गौतम ! अधः हसभी पृथिवी में जो नरक है वे दो प्रकार के हैं-'लं जहा' जैले-'संखेज्जविस्थडे य, असंखेज्जविस्थडा य' संख्यात विस्तार वाला एक और मसंख्यात बिस्तार धाले चार 'तस्थ णं जे ते संखेजचित्क्षडेनमें जो महक संख्यात विस्तार वाला है वह एक अप्रतिष्ठान नरक ही है रणं एकक जोयण सयसहस्सं आयोमविक्खंभेणं' हा एक लाख थोजन की लम्बाई चौडाई वाला है-तथा સમજી લેવો. અધઃ સપ્તમીના સંબંધમાં સૂત્રકાર સ્વયં કહે છે.
"अहे उत्तमाए णं भंते ! पुच्छा' हे भगवन् मध सभी पृथ्वीमा न२ छ, તે કેટલી લંબાઈ વાળા, અને કેટલી પહેળાઈ વાળા અને કેટલી પરિધિવાળા છે? मा प्रश्न उत्तरमा प्रभु ४ छ है 'गोयमा ! दुविहा पन्नत्ता' ले गौतम ! मधासमी पृथ्वीमा २ न२४ छे, ते मे २ना छे. 'त जहा' ते 21 प्रभारी छ.-'सखेज्जवित्थडेय असखेजवित्थडाय' सध्यात विस्तारवाणु मे। भने सध्या विस्तार वाद या२ 'तत्थ णं जे ते सखेज्जवित्थडे' wiरे न२ सयात विस्तारवाणु . ते मे २५तिहान न२४४ छ 'सेण' एक जोयणसयसहस्सं आयामविक्ख भेणं' ते ari यानी मा पापा
जी० २४
Page #208
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमध्ये सहस्त्राणि दोनिजोयणसए सत्तावीसाहिए वे योजनशते सप्तविंशत्यधिके 'सिनि. फोसेय' अयः क्रोशाः 'अट्ठावीसं धणु तय' अष्टाविशं धनुश्शतम् 'तेरस अंगुलाई त्रयोदशाइगुलानि 'अद्वंगुलं य किंचि विसेसाहिय' अर्दागुलश्च फिश्चि द्विशेषा. धिकम् 'परिक्खेवेणं पन्नत्ते' परिक्षेपेण प्रज्ञस्तः कथित इति । 'तत्य णं जे ते असंखेज्ज वित्थडा' तत्र खलु ये ते असंख्ये यविस्तृताः 'ते णं असंखेन्नाई जोयणसहस्साई आयामविक्रखंभेणं' ते खलु असंख्येयविस्तता नरकाबासाः असं ख्येशानि योजनसहस्राणि आयामविष्कम्भेण 'असंखेज्जाई जोयणसहस्पाई परिक्खेघेणं पन्नत्ता' असंखपेयानि योजनसहस्राणि परिक्षेपेण पहप्ताफथितास्ते नरकावासा इति ॥मू०१३॥
सम्पति-नरकाबासानां वर्णगन्धस्पर्श प्रतिपादनार्थमाइ-'इयोसेणं इत्यादि, __ मूळम्-इमीसे गं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया केरिसया वण्णेणं पन्नत्ता ? गोयमा ! काला कालोभासा गंभीर लोमहरिसा भीमा उत्तासणया परमकिण्हा वपणणं पन्नत्ता, एवं जाव अहे सत्तमाए । इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढ वीए नरगा केरिसगा गंधेणं पन्नत्ता? गोयमा! से जहा इसकी परिधि-'तिन्नि जोधणसयसहस्सा सोलसमहस्साई दोनिजोधणसए सत्तावीसाहिए तिन्ति कोलेय अट्ठावीसं धणुमयं तेरस अंगुलाई अद्धगुलं च किंचि बिखेलाहियं तीन लाख सोलह हजार दो सौ लत्ताईस योजन तीन कोश, एक सौ अट्ठाईस धनुष, साढे-तेरह अंगुल से कुछ अधिक है तथा-'तत्थ णं जे ते असंखेज्ज जोयण विस्थडा' जो नरक असंख्यात योजन के विस्तार वाले है-वे चार है वे असंख्यात हजार योजन के लम्बे चौडे हैं। तथा-इनकी परिधि भी असंख्यात हजार योजन की है। सूत्र ॥१३ । वाणु छे. तथा तनी परिधि 'तिन्नि जोयणम इस्साई सोलससहस्साई दोन्नि जोयणसए सत्तावीसाहिए तिन्नि कोसेय अदावीस धणुमय तेरसगुलाई अद्धगुलं च किंचि विसेखाहिय' त्रय वाम सोप २ असो सत्यापीस यापन ત્રકસ એકસો અઠયાવીસ ધનુષ સાડાતેર આગળથી કંઈક વધારે છે. તથા । 'तत्थ णं जे ते अस खेज्जजोयणवित्थडा' तमा न२४ असभ्यात यानना વિસ્તાર વાળા છે. તે ચાર છે. તે અસંખ્યાત જનની લંબાઈ પહોળાઈ વાળે છે. તથા–તેની પરિધિ પણ અસંખ્યાત હજાર જનની છે. સૂક–૧all
Page #209
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ सू.१४ नरकावासानां वर्णादिनिकपणम् णामए अहिमडेइ वा गोमडेइ वा सुणगमडेइ वा मजारमडेई मणुस्लमडेइ वा महिसमडेइ वा मुसगमडेइ वा आसमडेइ वा हत्थिसडेइ वा सीह मडेइ वा वग्घमडेइ वा विगमडेइ दीविय मडेइ वा, मय कुहिय विरविण? कुणिम वावण्ण दुभिगंधे असुइ विलीणविगय बीभत्थ दरिसणिज्जे किमिजालाउलसं सत्ते। भवे एयारूवे सिया ? जो इण? सलट्टे, गोयमा ! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढबीए परगा एलो अणितरमा वेच अकंत तरगा चेव जाव अमणामतरगा चेन्न गंधेणं पन्नता, एवं जाव अहे सत्माए पुढवीए ॥ इमीले जे भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए णरया केरिसया फालेणं पल्लत्ता ? गोयमा! ले जहां णामए अलिपत्तेइ वा खुरपत्तेइ बा कलंबचीरिया पत्तेइ वा लत्तरगइ दा कुंत उगेइ वा तोमरम्गेइ वा नारायगेइ वा सूल ग्गेइ वा लउलग्गेइ वा भिंडिपालग्गेइ वा सूचिकालावेइ वा कवियच्छूबइ वा विंचुय कंटएइ वा इंगालेइ वा जालई वा मुम्सुरेइ वा अञ्चित्ति वा अलाएइ वा सुद्धागणीइ वा, भवेषयों रूवे लिया ? जो इणट्रे समटे, गोयमा ! इमीले णं स्मणप्पभाए पुढवीए गरमा एत्तो आणिट्रतरा चेव जाव असणामतरगा चेव फासेणं पन्नत्ता । एवं जाब अहे सत्तमाए पुढवीए ॥सू०१४॥
छाया-एतस्यां खल्ल भदन्त ! रत्नप्रमायां पृथिव्यां नरकाः कोशा वर्णन मज्ञशा ? कालीः कोलाभासाः गम्भीररोमहर्षाः भीमा उत्त्रासनका परम कृष्णा वर्णन मज्ञप्ताः। एवं यावद्धः सप्तम्याम् । एतस्यां खच्च रत्नप्रभायां पृथिव्याम् । नरकाः कीदृशा गन्धेन प्रज्ञप्ता: ? गौतम ! स यथा नामकः अहिमृत इति वागोमृत इति वा शुनकमृत इति वा मार्जारमृत इति वा मनुष्यवृत्त, इति वा महिपमृत इति वा मृषामृतं इति वा अश्वमृत इति वा हस्तिमृत इति वा सिंहमृत इति वा व्याघ्रमृत इति वा वृकमृत इति वा द्वीपिकमृत इति वा मृतकुषित
Page #210
--------------------------------------------------------------------------
________________
Réé
जीवामिगमसूत्रे
चिरविनष्ट कुणिमव्यापन्न दुरभिगन्धः, अशुचिविलीन विगतवीभत्सदर्शनीयः कृमिजाला कुळ संसक्तः । भवेयुरेतद्रूपाः स्याद् ? नायमर्थः समर्थः गौतम । एवस्यां खल रत्नप्रभायां पृथिव्यां नरका इतोऽनिष्टतरा एवं अकान्ततरा एवं यावदमनोऽमतरा एव गन्धेन मझप्ताः । एवं यावदधः सप्तम्यां प्रथिव्याम् । एतस्यां खलु भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां नरकाः कीदृशाः स्पर्शेण घज्ञप्ताः ? गौतम ! तद यथा नामकम् 'असि पत्रमिति वा क्षुरपत्रमिति वा कदम्बचीरिकापत्रमिति वा शक्त्यग्रमिति वा कुन्ताग्रमिति वा तोमरायमिति वा शूलाग्रमिति वा ळगुडायमिति वा, सिण्डिपालायमिति वा चिलाप इति वा कपिकच्छुरिति वा वृश्चिकपटक इति वा अङ्गार इति वा ज्वालेति वा सुम्सुर इति वा अचिरिति वा, अलादमिति वा शुद्धाग्निरिति वा भवेयुरेतद्रूपाः स्यात् ? नायमर्थः समर्थ, गौतम 1 एतस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां ना इतोऽनिष्टतरा व यावदमनiseaराएव स्पर्शेण प्रज्ञा', एवं यावदधः सप्तस्यां पृथिव्या मिति | ० ||१४||
टीका- 'इसीसे णं भंते ! रचणप्पभाए पुढवीए' एतस्यां खलु भदन्त ! रत्नप्रमायां पृथिव्याम् 'नेरइया केरिया कण्णं पद्मया' नरकार कीदृशाः किं रूपाः वर्णेन प्रज्ञप्ताः - कथिताः ? नरकाणां वर्णः कीदृशो भवतीति मनः भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोपमा' हे गौतम | 'काला' काला:!
अब सूत्रकार इन नरकावासों के वर्णगन्ध और स्पर्श कैसे हैंइसका वर्णन करते हैं-
C
'इमीले ण भंते ! रखनन्नभार पुढचीए - हरपादि सू० ॥१४॥
टीकार्थ - यहां गौतमने प्रभुश्री से ऐसा पूछा है- 'हमी से णं भंते । रयणप्पभाए पुढचीए नेरवा केरिसया पण्णेणं पन्नसा' हे भदन्त । इस रनप्रभा पृथिवी के नरकावास कैसे वर्ण वाले कहे गये हैं ?
1
अर्थात् रत्नप्रभा पृथिवी के तरकों का वर्ण केसा है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं ।
હવે સૂત્રકાર આ નરકવાસોના વર્ણ, ગ, અને સ્પર્શ કેવા છે. ? તેનું वन रे छे. - ' इमी से णं भते ! रयण पभाए पुढवीए' छत्याहि टीअर्थ -मा सूत्रद्वारा गौतमस्वाभीमे अलुते मेवु णं भवे ! रयण'पभाए पुढवीर नेरइया केरिया कण्णेण આ રત્નપ્રભા પૃથ્વીના નરકાવાસ કેવા વર્ણવાળા કહેલા છે ? અર્થાત્ રત્નપ્રભા પૃથ્વીના નરકાના વર્ણ કેવા છે ? अलु उडे छे है-'गोयमा ! काला कालाभासा, गंभीरलोमहरिस्रा, भीमा,
छ्यु छे - 'इमीसे पन्नत्ता' हे भगवन्
આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં
Page #211
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका नं. ३ उ. २ खू.१४ नरकावासानां वर्गादिनिरूपणम्
कृष्णवर्णा नरका इति । तत्र कोऽपि निष्प्रतिभतया मन्दकालोऽपि आशक्येत ततस्तदा व्यवच्छेदार्थ विशेषणान्तरमाह - 'कालोमासा : ' कालः कृष्णोऽत्रभासः - प्रतिभाविनिर्गमो येभ्यस्ते कालावभासः कृष्णप्रभापटलोपचिता इत्यर्थः । aara 'गंभीरलोमहरिसा' गम्भीरलोमहर्षा :- गम्भीरः अवीवोत्कटः रोमहर्षोरोमोमो भयवशाद्येभ्यस्ते गम्भीरलोषहर्षाः, अयं यावः एवं खलु ते कृष्णाच भासा पद्दर्शनमात्रेणापि नारकजन्तूनां भयसंपादनेन सततं रोमहर्षमुत्पादयन्तीति यत एवमतः 'भीमा' भीमाः - अतीवभयानकाः । यतो भीमा अतएव 'उत्तारणया '
'मोषमा ! काला, कालोभासा, गंभीर लोमहरिया, सीमा, उत्ता सणया, परम किव्हा वष्णे णं पण्णत्ता' हे गौतम! रत्नप्रभा पृथिवी के नरक - नरकावास - काले, कालावभासवाछे, जिन्हें देखते ही रोम खडे हो जावें ऐसे भयंकर त्रास उत्पन्न करनेवाले और परमकृष्ण
,
वर्णवाले कहे गये हैं ।
अर्थात- नरक का वर्ण काला है - इसलिये इन्हें कृष्ण कहा गया है वर्ण में काले होने पर भी कितनेक पदार्थ कृष्णवर्णरूप से नहीं चमकते हैं-सोयें नरक ऐसे नहीं हैं क्यों कि ये स्वरूपतः भी काले हैं और कालेरूप से ही ये मरते हिं-अतः भी इन्हें कृष्णावभास कहा गया है इस से यह समझाया गया है कि ये कृष्णप्रभा समूह से उचित हैं ।
इन्हें देखते ही नारक जीवों के शरीर के भय के मारे रोम २, खडे हो जाते हैं-ऐसी भयोत्पादक इनकी कृष्ण प्रभा है । ये भयानक - इसी कारण से नारफजीयों के अन्तःकरण सदा भयभीत पने रहते हैं । इनके आगे और भी जितने कृष्णवर्णवाले पदार्थ है-वे सब
C
उत्तास्रणया, परमकिण्हा वण्णेण पण्णत्ता' हे गौतम! रत्नप्रभा पृथ्वीना नरो નરકાવાસો કાળા અને કાલાવભાસવાળા, જેને જોતાંજ રૂવાડાં ઉભા થઈ જાય એવા ભયકર, ત્રાસ ઉત્પન્ન કરવાવાળા અને અત્યંત કૃષ્ણવ વાળા કહેલા છે અર્થાત્ આ નરકના વધુ કાળો છે. તેથી તેને કૃષ્ણ કહેવામાં આવેલ છે. વર્ષોથી કાળા હૈાવા છતાં પણ કેટલાક પદાર્થોં કૃષ્ણવર્ણ પશુાથી ચમકતા નથી તેથી તેને કૃષ્ણાવભાસ કહેલ છે. આ કથનથી એમ સમજાવવામાં આવેલ છે કે- કૃષ્ણુવ વાળી પ્રભાસમૂહથી યુકત છે.
આને જોતાંજ નારકજીવાના શરીરના રૂવાંડાએ ભયને લીધે ઉભા થઈ જાય છે. આ રીતે ભય ઉત્પન્ન કરવાવાળી તેએની કૃષ્ણવર્ણવાળી કાંતી છે. આ ભયાનક છે. અને તેજ કારણથી આ નારક જીવાના અંતઃકરણેા હંમેશાં
Page #212
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवाभिगमने उत्मासनकाः उत् त्रास्यन्ते-भयभीतान्त:करणाः क्रियन्ते नारका एमिरिति उत त्रासनाः ते एव उत्त्रासनकाः । किंबहुना 'दण्णेण परम किण्हा' वर्णेन परमकुष्माः पन्नत्ता' वर्णमधिकृत्य नाकाः परमकृष्णाः यतः परं न किमपि भयानक कृष्णमस्तीति भावः । एवं जाब अहे सत्तमाए' एवं यावदधः सप्तम्याम्, रत्नममा वदेव शर्करापमा बालुकापमा पङ्कममा धूमप्रभा तमम्ममा तमस्तमप्रभास्वपि वर्णमधिकृत्यातीव भयानका नरका प्रतिपादनीया।। ___ अतः परं गन्धमधिकृत्याह-इमीसे णं भंते' इत्यादि, 'इसीसे णं भंते ! रयणयमाए पुढवीए' एतस्यां खल्ल भदन्त ! रत्नममायां पृथिव्याम् 'गरगा के रिसया गंधेणं पन्नत्ता' नरकाः कीदृशा गन्धेन प्रज्ञप्ता:-कथिता:? नरके कीशो गन्धो भवतीति प्रश्ना, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि 'गोयमा' हे फीके मालूम पड़ते हैं-ऐले ये अति परम कृष्णवर्णवाले हैं । 'एवं जाव अहे सत्समाए' रहल मला के लरकावासों के वर्ण के सम्बन्ध में जैसा यह कथन किया गया है वैसा ही शर्करा प्रभा, वालुका प्रभा, पक्षप्रमा, धूमप्रमा, तमाप्रभा और तमतमा प्रभा इन पृथिवियों के नरकावासों के वर्ण के सम्बन्ध में भी कथन करलेना चाहिये आर्थात् इन पृधिवियों के भी नरकायास झाले, कालावभासदाले आदि पूर्वोक्त विशेषणयुक्त हैं।
अब गन्ध को लेकर कथन करते हैं-'इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए परगा' हे भदन्त ! इस्ल रत्न प्रभा पृथिवी के नरक । 'केरिसया. गंधेणं पन्नत्ता' किस प्रकार के गन्धवाले कहे गये हैं ? इसके उत्तर में प्रभु
ભયભીત બન્યા રહે છે. આની આગળ બીજા જેટલા કાળા વર્ણવાળા પદાર્થો છે, તે બધાજ ફીકા જણાય છે એવા આ અત્યન્ત પરમ કાળાવ વાળા છે. 'एव' जाव अहे सत्तमाए' २नमा पृथ्वीना न२पासोना पना समयमा જે પ્રમાણે આ કથન કરવામાં આવેલ છે એજ પ્રમાણેનું કથન શર્કરા પ્રભા વાલુકાપ્રભા, પંકપ્રભા, ધૂમપ્રભા, તપઃપ્રભા અને તમસ્તમપ્રભા આ પૃથ્વી યોના નારકાવાસના વર્ણના સંબંધમાં પણ કથન કહેવું જોઈએ અર્થાત્ આ પૃથ્વીના નરકાવાસમાં પણ કાળ, કાલાવભાસ વાળા, વિગેરે પૂર્વોક્ત વિશેષણ વાળા છે.
डवे गन्न समयमा ४थन ४२१मां मावे छे. 'इमीसेण भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए णरगा' 3 भगवन् मा २नमा पृथ्वीना न 'केरिसया गधेणं पन्नत्ता' वा प्रारना ५ वा छ१ मा प्रलना 6त्तरमा प्रभु
Page #213
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ ५.१४ नरकावासानां वर्णादिनिरूपणम् १९१ गौतम ! ‘से जहा नामए' स यथानामकः 'अहिमडेवा' अधिमृत इति वा अहिमृतः मृतसर्पशरीर इत्यर्थः मृतात् सर्पशरीराद याशो गन्धः प्रादुर्भति तागो गन्धो नरकाणामिति, एवं सर्वत्रापि योजनीयम् । 'गोमडेइ वा' गोमृत इति वा, 'सुगगमडे ग' शुभकमृत इति बा, 'मज्जारमडेइ वा' मानारपृत इति वा 'मणुस्स मडेइना' मनुष्यमृत इति वा 'महिसम डेइ ।' महिषमृत इति वा 'मृसगमडेइ वा' मूषकमृतइति वा 'याममडेइ का' अश्वमृत इति वा 'हथिम डेइ वा हस्ति मृतइति बा, सीहमडे का' सिंहमृत इति वा, 'ग्यम डेहवा याघ्रमृत इति वा, 'विगमडेइ वा वृस्मृत इति वा, 'दीविय मडेइ बा' द्वीपस्मृत इति वा, द्वीपकश्चित्रका सर्वत्र अहिश्चासौ मृतश्चेत्यहि मृत इति रूपेण विशेषण समासः । इह सधोमृतं शरीरं न दुर्गन्धि भवति तबाह-'मय कुहियचिरविण? कहते हैं-'गोयमा! से जहानामए अहिडेह हा गोमडे वा सुणामडेह छा' हे गौतम ! जैसा सर्प का मृतकलेवर होता है, गाय का मृतकलेचर होता है, कुत्ते का मन कलेवर होता है, 'मज्जारमडेइ वा बिल्ली का मृतकलेवर होता है, 'मणुसलमडेइ वा मनुष्य का मृतशलेवर होता है, 'महिलमडे वा' असे का मनकलेवर होता है, 'मुसगमडेइ वा मूषक का मृतकलेवर होता है । 'आलमडेह वा घोडे का मृतकलेचर होता है। हथिडेह वो हाथी का मृतकलेसर होता है, 'सीहाइवा सिंह का मृतकलेवर होता है, 'वग्घमडेइ वा व्याघ्र का मृतकलेवर होता है, 'विगमडेइ वा वृक का मृतकलेवर होता है। 'दीषियमडे वा' चित्ता का मृनकलेव होता है और ये सब मृतकलेवर 'भयकुहिध चिरचिट्ठगौतम स्वामी ने छ, 'गोयमा ! से जहानामए अहिमडेइ वा गोमडेइ वा सुणगमडेइवा' हे गीतम! भरेसा साप २ प्रमाणे सेवन शरीर हाय छ, મરેલી ગાયનું જેનું કલેવર શરીર હોય છે, મરેલા કૂતરાનું શરીર જેવું હોય છે, 'मज्जारमडेइवा' भरेती मीनु २ प्रभायेनु शरी२ छ।य 'मणुम्स मडेइवा' भरेता मनुष्यनुरे प्रभानु शरीर हाय छ, 'महिसमडेवा' भरेकी सनु रेवु शरीर डाय छे 'मुसगमडेइ वा' भरेता मनु शरी२ २ य छे. 'आसमडेइ वा' भरेता क शरीर केय छ, 'हत्थिमडेइ वा' मरे हाथीनु २ शरीर हाय छ, 'सीह मडेइवा' भरे सिंह ने शरी२ डाय छे. 'वघडेडवा' भव। पाचन २९. शरीर डाय छ, 'दिगमडेवा' ५ मा १३नु रेवु शरी२ सय छे, 'दीवियमडेइवा' भरेता दीपानुरे शरीर
Page #214
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवाभिगमसूत्रे
१९२
"
कुणावण दुभिगंध' मृतकुथितदिनष्ट कुणिण्व्यापन्न दुरभिगन्धः मृतः सन् कुथित पूतिभावं समाप्तः एतावच्छ्नावस्थामात्र गर्यो ऽपि भवति न च स तथा दुर्गन्ध तत्राह - 'चिर' इत्यादि, चिरग्निष्टः- चिरकालच्तस्यां माप्यस्फुटित इत्यर्थः सोऽपि तथा दुरभिगन्ध न यति तत्राह - 'कुणिय' इत्यादि, व्यापन्नं विशीर्णीभूतं शटितं कुणिमंगांसं यस्य स मृत कुथिचिरविनष्ट कुणिमव्यापन्नः । अतएव दुरभिगन्धः दुरभिः - सर्वेषामाभिमुख्येन दुष्टो गन्धो यस्यासौ दुरभि गन्धः । ' असुहविलीण विगय बोभस्थ हरिसणिज्जे' अशुचि विलीन विगतवीभत्सा दर्शनीयः, अशुचिरपवित्रषः विलीनो मनसः कलिमल परिणाम हेतु विगतं विनष्टं यदभिमुखतया प्राणिनां गतं गमनं यस्मिन् स तथा तथा वीभत्सया निन्दया दर्शनीयो द्रष्टु योग्य इति बीभत्ला दर्शनीयः ततो विशेषण समासः, अशुचिविलीन विगतबीभत्सा दर्शनीय: । 'किमिनाला उलसंसत्ते' कृमिजाळा कुळसंसक्तः परस्परसबद्धतया संरुक्तः सन् कृमिजाला कुलोजात इति कृमिजाला कुणिम यावण्ण दुस गंधे' मानो धीरे २, बृज - फूलकर सड़ गये हों, और जिनमें से दुर्गन्ध आरही हो और इसी कारण जो । 'असुह विलीण विजयी भन्दरिसणिज्जे' अशुद्धि छूने योग्य न रहे हों मन में अत्यन्त ग्लानि के उत्पादक बने रहे हों, जिनके सन्मुख जाना भी कोई नहीं चाहता हो, अथवा जिनके पास से होकर भी कोई निल ना नहीं चाहना हो, जो बीभत्सा से ग्लानि से देखे जाने के योग्य बन रहे हों 'किमिजालाउलसंतत्ते' एवं जिस में कीडों का समूह बिलबिला रहा हो इस पर गौतम ! पूछते हैं-'भवे एवारूवे सिया' तो क्या है भदन्त ! जैसी दुर्गन्ध इन अहिमृतक आदि के सडेगले कलेवर की होती है तो क्या ऐसी ही दुर्गन्ध उन नरकों में होती है ?
होय छे, भने याञधा भरेसाना शरीश 'मय कुहियचिरविणट्ट कुट्टिमवावण्ण दुभिग घे' माना है धीरे धीरे सीने सडी गयेसा होय, सडीने झटी गया होय, मने नेमांथी हुर्गन्ध भावती होय भने मेन अरथी ने 'असुइ विलीण विगय बीभत्थदरिस जिज्जे अशुन्थि - अपवित्र स्पर्श वा योग्य न होय, તેમજ મનમાં અત્યંત ગ્લાની ઉત્પન્ન કરાવનારા બન્યા હૈાય, અને જેની પાંસે જવા પણ કાઈ ઈચ્છતા ન હૈાય અથવા જેની પાંસે થઇને કેાઈ નીકળવા પણુ ઇચ્છતા ન હેાય, જેએ ગ્લ નીથી દેખવાને ચેાગ્ય બન્યા હોય ક્રિમિનારાઇસ सत्ते' भने ঈमां डीडामानो समुहय मरणही रहयो होय 'भवे एयारूवे सिया' ગૌતમ સ્વામી પૂછે છે કે જે પ્રમાણેની દુન્ય આ મરેલા સર્પ વિગેરેના
Page #215
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र. ३ उ. २ सू. १४ नरकावासानां वर्णादिनिरूपणम् १९३ कुलसंसक्तः । एतावति कथिते सति गौतम आह- 'भवे एयारूवे सिया' भवेदेतावद्रूपः स्याद-कदाचित् भयेयुरेत् द्वशः यथोक्तविशेषणविशिष्टाः अहिमृतादिरूपा गन्धेनाधिकृता नरकाः सूत्रे च बहुवचनेषु एकवचनं प्राकृतत्वादापस्थाद्वेति । भगवानाह - 'नो इण्डे सण्डे' नायमर्थः समर्थः उपपन्नो यतोऽस्यां रत्नप्रभा पृथिव्यां नरका हतो यथोक्त विशेषणविशिष्टाहिमृतादेरप्यधिका अनिष्टतराः, एतदेव दर्शयति- 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे नौतन ! 'इमोसे णं स्यणप्पभार पुढदीए' एतस्यां खल रत्नप्रदायां पृथिव्याम् 'णरणा एतो अणिद्वतरगा
'नरका इतोऽनिष्टतरा एव अहिमृतादितोऽपि अधिका नरका अनिष्टतराः । तत्र किञ्चिदरम्यमपि कस्याऽपि अनिष्टतरं भवति रुचीनां वैचित्र्यात् तत आह'अकंततरमा चेव' अबान्ततरा एव नरका: । 'जाव अमणामतरा चेव' यावदमनोsमतरा एक, यावत्पदेनाविपतरा अमनोज्ञा एतयोर्ग्रहणं भवति । तत्राकान्तमपि वस्तु कस्मैचित्यं भवति यथा शूकरस्याशुचिवस्तु तत्राह - अप्रियतरा एव न इसके उप्सर में प्रभु कहते हैं 'णो इण्डे लमट्टे' यह अर्थ समर्थ नहीं है क्यों कि 'गोमा ! हमीसे णं रचणप्पभाए पुढवीए गरना एत्तो अनि तरका वेव' हे गौतम । इससे भी अनंतगुनी अधिक दुर्गन्ध वहां कही गई है इस रत्नप्रभा पृथिवी में जो नरक है वे इस अहि आदि मृत हुए सडेगलेशरीर की दुर्गन्ध से भी अनिष्ट तर दुर्गन्धवाले होते हैं। किसी को अनिष्ट पदार्थ भी रम्घ होना है।
के
अतः ये नरक ऐसे नहीं हैं ये तो एकान्ततः 'अकंमतरकाचेव' अरम्य ही हैं' । 'जाय अमणामतराचेव' यावत् मन को रूचे ऐसे नहीं हैं अकाल ही है । यहां यावत् पद से 'अप्रियतरा अमनोज्ञा' इन दो સડેલા, ગળેલા, શરીરની હાય છે, એવીજ દુર્ગન્ધ એ નરકામાં હાય છે ? આ प्रश्नना उत्तरसां प्रभु गौतम स्वामीने हे छे है- 'णो इणट्टे समट्टे' मा थिन अशभर नथी डेभ} - 'गोयमा ! इमीसेणं रयणभाए पुढवीप परगा एत्तो अणिट्टतरका चेव' हे गौतम ! या उपर वर्णवेस भरेला सर्पाहिना सडेला, गणेसा મૃતશરીરાકરતાં પણુ અનંતગણી વધારે દુગંધ એ નરકામાં હાય છે. આ રત્નપ્રભા પૃથ્વીમાં જે નરક છે, તે બધા આ મરેલા સર્પ વિગેરે ના સડેલા, ગળેલા, શીરાની દુધ કરતાં પણ અનિષ્ટતર-ખરામમાં ખરાખ દુર્ગંધ વાળા હાય છે. કોઈને અનિષ્ટ પદાથ પણ રમ્ય-સુંદર લાગે છે. પણ આ નરકા એવા नथी या नरो तो ठेवण 'अकंततरकाचेव' असुंदर ४ छे. 'जाव अमणा मतराचेत्र' यावत् भनने असे तेवा होता ४ नथी. अांत है. महियां यावत् पद्दथी 'अप्रियतरा मनोज्ञा' मा मे यह ग्रह ४शयां हे तेथी भाषघा
जी० २५
Page #216
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमस्त्र कस्यापि प्रिया इति भावः । अतएव अमनोज्ञा अमनोऽमतराः 'गंधेणं पन्नचा' गन्धेन इत्थं भूता नरकाः पासप्ता:-कथिता इति। 'एवं जाव अहे सत्तमाए पुढवीए' एवं यारधा सस्तम्यां पृथिव्याम् यथा रत्नप्रभा नरका अहिमृतादेरपि अधिकतरा गन्धेन कथिता स्तथैव शर्करापमा बालुकाममा पङ्कममा धूमममा तमाममा तमस्तमममा नरका अपि अहिमृतादेरपि अधिकतरा गन्धेन ज्ञातव्या इति भावः ।
पर्श मधिकृत्याह-'इमीसे गं' इत्यादि, इत्यादि, 'इमीसे णं भंते । रयणप्पभाए पुढबीए' एतस्यां खलु रत्नपभायां पृथिव्याम् 'णरगा केरिपदों का ग्रहण हुआ है । इसीलिये ये अप्रियतर और मनोऽनुकूल नहीं हैं । अप्रियतर पद यह प्रकट करने के लिये दियागया है कि अमान्त पदार्थ भी शूकर को विष्टा की तरह प्रिय होता है-तो ऐल्ले थे नरक नहीं हैं ये तो सर्वथा अप्रिय तर ही हैं-किसी को भी प्रिय नहीं है।
'गंधेणं पन्नत्ता' इस प्रकार के विशेषणों वाले ये नरक पूर्वोक्त विशेषणों वाली दुर्गन्ध ले भी अधिक. दुर्गन्धवाले हैं। 'एवं जाव अहे सत्तमाए पुढवीए' इसी तरह से शर्करा प्रभा के, बालुका प्रभा के, पङ्कप्रभा के, धूमप्रभा के, तमःप्रभा के और तमस्तमः प्रमा पृथिवी के नरक के भी अहिमृतकादि के कलेवरों की दुर्गन्ध से भी अधिक दुर्गन्ध वाले हैं ऐसा कथन करलेना चाहिये । ___ अब उन नरकों के स्पर्श के विषय में कहते हैं-'इमीसे गं भंते ! અપ્રિયતર–અત્યંત અપ્રિય છે અને મનને અનુકૂલ હોતા નથી. અપ્રિયતર એ પદ વાત પ્રગટ કરે છે કે- એકાંત પદાર્થ પણ સૂકરને વિષ્ટા જેમ પ્રિય હોય છે, તેમ કંઈ તેવા પ્રકારના પ્રાણી ને તે પ્રિય હોય છે, પણ આ નરકે એવા એટલે કે કેઈને પણ પ્રિય લાગે તેવા હોતા નથી. આ તો હમેશાં અપ્રિયતર જ હોય છે. અર્થાત તે કોઈને પણ પ્રિય હોતા નથી,
___ 'गंधेण पन्नत्ता' मावा प्रा२ना विशेष मा न२३ से ५3ai ४ था ५ वधारे ५४ती दुग पाडाय छे. 'एवं जाव अहेसत्तमाए पुढवीए' मा प्रमाणे श२१ प्रमा पृथ्वीना, वायु प्रमा पृथ्वीना, પંકપ્રભા પૃથ્વીના, ધૂમભા પૃથ્વીના, તમપ્રભા પૃથ્વીના, અને તમસ્તમાં પૃથ્વીના નરકેના શરીર મરેલા સપદિના શરીરની દુર્ગધથી પણ વધારે પડતી દુર્ગધ વાળા હોય છે. આ પ્રમાણેનું કથન સમજી લેવું જોઈએ.
6वे सूत्रा२ ये नना १५ ना मधमा ४थन ४२ छे. 'इमीसे गं
Page #217
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेययोतिका टीका प्र०३ उ. २ ० १४ नरकावासानां वर्णादिनिरूपणम्
१९५
सया फासेणं पन्नत्ता' नरकाः कीदृशाः स्पर्शेन प्रज्ञप्ता इति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोवमा' हे गौतम! 'से जहाणामए' तद् यथानामकम् 'असिपत्ते वा' असिपत्रमिति वा असिः खनं तस्य पत्रं तद्वत् तीक्ष्णम् 'खुरपते वा' क्षुरपत्रमिति वा क्षुरपत्रम् नापितस्य केशच्छेदकसाधनविशेषः, 'कलंब चिरिया पत्ते वा' कदम्बचीरिकापत्रमिति वा कदम्बचीरिका तृणविशेषः दर्भादपि rata छेदः (area ) इति - लोकप्रसिद्धः | 'सतग्गे वा' शक्त्यग्रमिति वा, शक्तिः प्रहरणविशेषः तदग्रमिति वा 'कुंग्गेइ वा' कुन्ताग्रमिति वा 'तोमरग्रोह वा' तोमराग्रमिति वा कुन्ततोमरावषि प्रहरणविशेषौ तदग्रमिति वा । 'नारायग्गेइ वा' नाराचाग्रमिति वा, 'सलग्गेइ वा' शूलाग्रमिति वा । 'लउलग्गेइ वा' लगुडाग्रमिति वा 'मिडियालग्गेइ वा भिण्डिवालाग्रमिति वा मिण्डिमालः प्रहरणविशेषः तमिति वा 'सूचिकळावे ना' सूचिकलाप इति वा सूचीनां कलापः समूहरयणभाए पुढवीए णरगा केरिया फासे णं पन्नता' हे भदन्त । इस रत्नप्रभा पृथिवी में जो नरक हैं वे किस प्रकार के स्पर्शचाले हैं ? उत्तर में प्रभु करते हैं - 'गोवा ! से जहानाबए अलिपत्ते व ' हे गौतम ! जैसा असिपत्र तलवार का 'खुरपते या' थुरा की धार का 'कलं चीरिया पन्ते वा कदम्बचीरिका पत्र, यह एक नुकीली धारवाला घास होता है उसका 'सत्तग्गेह वा' शक्ति नामके प्रहरण विशेष की धार का 'कुंग्गेइ वा' भालाकी धार का, 'तोमरग्गेह वा' तोमर शस्त्र विशेष की धार का 'नारायग्गेह वा' बाण के अग्र'भाग का 'लग्गेया' शूल के अग्रभाग का, 'लउलग्गेह वा' लगुड के अग्रभाग का 'भिडिवालग्गे वा' भिण्डिवाल के अग्रभाग का, 'सूचिकलावा' सूईयों के समूह के अग्रभाग का, 'कवियच्छूह वा' करें
1
भंते ! रयणप्पभाष पुढवीए णरगा फेरिखया फाणं पण्णत्ता' हे भगवन् भा રત્નપ્રભા પૃથ્વીમાં જે તરા છે. તે બધા કેવા પ્રકારનાં સ્પવાળા હોય છે ? या प्रश्न ना वित्तरमां अलु गौतमस्वाभीने हे हे हे- 'गोयमा । से जहा नामए असिपत्ते वा' हे गौतम! असिपत्र- तलवारना वो स्पर्श होय छे, तेवा तथा 'खुरपत्तेइवा' अस्तरानी धारने। 'कलंत्रचोरियापत्तेर्इ वा' उद्वध्मश्रीરિકા પત્ર એટલે કે આ એક તીક્ષ્ણ ધારવાળા પાનવાળુ ઘાસ હાય छे. ते 'सत्तग्गेइवा' शक्ति नामना आयुध विशेषनी धारने। 'कु' तग्गेइव!' लालानी धारना ‘तोमरग्गेइवा' तोमर नामना शस्त्र विशेषनी धारना 'नारायभ्गेइ वा' मागुना अग्रभागना 'सूरुगोइ वा' शूहना अग्रभागना 'लडलग्गेइ वा' सगुड- साडीना अथलागतो 'भिंडिपालभ्गेइ वा' लिडियसना अभलागने। 'सूचिकलावेइ वा' साधना नूडाना अथभागना 'कवियच्छूह वा'
Page #218
--------------------------------------------------------------------------
________________
__ जीवामिगमसूत्र स्तद्वदिति वा 'कवियच्छूति वा' कपिकच्छूरिति चा, कपिकच्छु:-कण्डजनको. वल्ली विशेष: 'कवाछु इति लोकमसिद्ध विच्छुय कंटएति वा' वृधिक कण्टक इति वा 'इंगालेति वा' अङ्गार इति वा, अङ्गारो निधूमाग्निः। 'जालेह वा ज्वाला -इति वा ज्वालाऽनळसंवद्धा 'मुम्मुरेइ वा' मुमुर इति वा मुर्मुरः फुफकादौ ममृण्णाग्निः। अच्चीति वा' अचिरिति वा, अर्चिरनलविच्छिन्ना ज्वाला। 'अलाएइ वा, अलातमिति वा, अलातमुल्मुकम् । 'सुद्धागणीइ वा' शुद्धाग्निरितिवा, शुद्धाग्निरयः पिण्डायनुगतोऽग्निविधुतादिर्वा इति शब्दः परस्परसमुच्चये इह कस्यापि नरकस्य स्पर्श: शरीरावयवच्छेदकः, परस्य भेदकोऽन्यस्य व्यथाजलकोऽपरस्य दाहकः इत्यादि सास्यप्रतिपयर्थ मसिपत्रादीनां नानाविधानाचका 'विच्छुयटए वा' वृश्चिक के डंक बा, 'इंघालेति वा' निधूम अग्निका, 'जालेह वा' ज्याला ता 'मुम्नुरेइ वा' मुर्मुर अग्नि का, 'अच्चीति बा' अनिविच्छिन्न ज्वाला का 'अलाएक वा' अलात जलते हुए काष्ट की अग्नि का, 'सुद्धागणीइ वा शुद्ध अग्नि-तपे हुए लोह पिण्ड की अग्नि का या विद्युत आदि पा जैसा स्पर्श होता है गौतम! पूछते है ? तो क्या 'भवेयारले लिया हे मदन्त ! ऐसा ही स्पर्श उन नरकों का होता है ? यहां जून में सर्वत्र इति शब्द उपमाभूत वस्तुके स्वरूप की परिसमाप्ति का सूचक है तथा 'वर' शब्द परस्पर में समुच्चय कांबाचक है इसलिये वहां किलो नरक का स्पर्श शारीर के अश्ययो का छेदक होता है किसी नरक का स्पर्श शरीर के अवयवों का भेदक होता है किसी नरक का स्पर्श व्यथा जलक होता है शिली नरक का स्पर्श दाह४२यन। (हनी) 'विच्छुयकंटए वा' वी.11 3 मन! 'इंगालेति वा' मा. राना २५शन। 'जालेइ वा' मनिनी ritain'मुस्मुरेइ वा' भुभ मानिन। 'अच्चीति वा' अनिविछिन्न गनिनी raana 'भलाएइ वा' सातनाम And anी मनिन। 'सुद्धागणीइ वा' शुद्ध मनि-मर्थात तपेक्षा લોખંડના પિંડના અગ્નિને અથવા વીજળી વિગેરેને જે સ્પર્શ હોય छ, 'भवेएयारूवे सिया' गीतमस्वामी प्रभु ने पूछे छे 3-3 लापन मेवा
સ્પર્શ આ નરકનો હોય છે? અહિયાં સૂત્રમાં બધે ઈતિ શબ્દ ઉપમાભૂત વસ્તુસ્વરૂપની પરિસમાપ્તિ સૂચક છે. તથા “વા” શબ્દ પરસ્પરમાં સમુચ્ચયને વાચક છે. તેથી અહિયાં કઈ પણ નરકાવાસને સ્પર્શ શરીરના અવયને છેદક હેય છે. કેઈ નરકાવાસનો સ્પર્શ શરીરના અવયને ભેદક હોય છે. કે નરકાવાસને સ્પર્શ વ્યથા જનક હોય છે. કેઈ નરકાવાસને
Page #219
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योंतिकाटीका प्र.३ उ.२ सू.१४ नरकाशासानां वर्णादिनिरूपणम् १९७ मुपादानमिति । एतावति उक्ते भगवति गौतमः माह-'भवेएयाख्थे सिया' भवेयुरेतावद्रूपाः स्यात्-कदाचित् यथोक्त विशेषणविशिष्टासिपत्रादिरूपाः स्पर्शनाधिकृता नरकाः किम् ? भगवानाहम्णो इणढे समडे नायमर्थः समर्थः-उपपन्ना, 'गोयमा' हे गौतम ! 'इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए णरगा' एतस्यां रत्नममायां पृथिव्यां नरकाः 'एत्तो अणितरा चेव जाव अमणालतरगाव फासेणं पन्नत्ता' इत:-असि पत्रादितोऽपि अनिष्टतरा अकान्ततरा अघियतरा अमनोज्ञसरा अमनोऽ मतराश्चैव स्पर्शन मज्ञप्ताः कथिता इति । 'एवं जाब अहे सत्तमाए पुढवीए' एवं यावदधः सप्तम्यां पृथिव्याम् रत्नपमा पृथिवी नरकवदेव शकरापमा वालकापमा जनक होता है-इत्यादि रूप ले समता दिखाने के लिये नाना प्रकार के इन उपमानभृत पदार्थों का यहां ग्रहण किया है । अत: जब गौतम ने प्रभु से पूछा कि जैसा इन उपमानभून अस्तिपत्रादिकों का स्पर्श होता है तो क्या ऐसा ही स्पर्श इन नरको का होता है ? तो इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं 'जो इणले सम' यह अर्थ समर्थ नहीं हैं क्योंकि 'गोयमा !' हेगौतम ! 'इमीले रचणप्पभाए पुढवीए णरगा' इस रत्नप्रभा पृथिवी के नरक 'इतोणितरा चेव जाच अप्रणामतरका चेष फासे गं पन्नत्ता' इन अलि पत्रादिकों के अग्रभागले भी अनिष्टतर अकान्ततर अप्रियतर, अमनोमतर, अपने स्पर्श से कहे गये हैं।।
एवं जाव आहे सत्तमाए' रत्न प्रमा पृथिवी के नरकों की तरह ही शर्कराप्रभा, बालुकाप्रमा, परमा, धूमप्रभा, तमाममो और સ્પર્શ દાહજનક હોય છે. ઈત્યાદિ પ્રકારથી સમતા બતાવવા માટે અનેક પ્રકારના આ ઉપમારૂ૫ બનેલા પદાર્થો અહિંયાં ગ્રહણ થયેલ છે. તેથી જયારે ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુને એવું પૂછયું કે-આ ઉપમા રૂપ અસિપત્ર વિગેરેનો જે સ્પર્શ હોય છે, શું એ જ સ્પર્શ આ નરકાવાસાને હોય છે ? गौतमस्वामीन । प्रश्न उत्तरमा प्रभु छ है-'णो इणटे समटे' मा ४थन १२१५२ नथी. म 'गोयमा' ! 8 गौतम ! 'इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए णरगा' 24२नमा पृथ्वीना न२४पास! 'इचों अणिद्वतराचेव जाव अमणाम तराचेव फासे णं पण्णत्ता' २॥ मसिपत्र विगेरेना मागता५'४२di પણ અત્યંત અનિષ્ટતર અકાંતતર, અપ્રિયતર, અમનેમતર, એ તેને સ્પર્શ કહેલ છે.
‘एवं जाव अहेसत्तमाए पुढवीए' २त्नप्रभा पृथ्वीना न२४पासनी म જ શર્કરામભા, વાલકાપ્રભા પંકપ્રભા ધૂમપ્રભા તમઃપ્રભા, અને તમસ્તમ પ્રભા પૃથ્વીના નરકાવાસે પણ અસિપત્ર વિગેરેના પેશકરતાં પણ અનિષ્ટ
Page #220
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवाभिगमसूत्रे पङ्कपमा धूमप्रपा तमाप्रभा तमस्तमःप्रभा पृथिवी नरका अपि पत्रादितोऽपि अधिकतरा अनिष्टा अकान्ता अप्रिया अमनोज्ञा अमनोऽमतरा ज्ञातव्याइति ॥१४॥
सम्पति-नरकावासानां महत्त्वं कथयितुमाह-इमीसे ण' इत्यादि,
मूलम्-इमीले णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नरका के महालिया पन्नत्ता ? गोयमा ! अयण्णं जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीव समुदाणब्अंतरए लव्वखुड्डाए बट्टे तेल्ला पूर्वसंठाणसंठिए बट्टे रहचकवालसंठाणसंठिए बट्टे पुक्खरकपिणयासंठाणसंठिए बट्टे पडिपुण्णचंदसंठाणलंठिए एवं जोयणसयसहस्सं आयामविकखंभेणं जाव किंचि विलेसाहिए परिक्खेवणं, देवेणं महडिए जाव महागुआगे जाव इणामेव इणामेव त्ति कह इमं केवल. कप्पं जंबुद्दीवं दीवं तिहिं अच्छरानिवाएहि ति सत्तखुत्तो अणुपरिवाहिताणं हवमागच्छेज्जा, सेणं देवेताए उकिटाए तुरिथाए चलाए चंडाए सिग्याए उद्धृयाए जवणाए छेगाए दिशाए देवगईए वीतिवयमाणे वीतिवयमाणे जहन्नेणं एगाहं वा दुयाहं वा तिआहं वा उक्कोसेणं छम्मासं वीतिवएज्जा, अत्थेगइए वितिवएज्जा अत्थेगइए नो वितिवएज्जा ए महालयाणं गोयमा ! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए णरगा पन्नत्ता । एवं जान अहे सत्तमाए । नवरं अहे सत्तमाए अत्थेगइयं नरगं वीतिवएज्जा, अत्थेगइए नरगं नो वीतिवएजा ॥सू०१५॥
छाया-अस्यां खल्ल भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां नरकाः कियन्महान्तः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! अयं खल्नु जम्बूद्वीपो द्वीपः सर्वद्वीपसमुद्राणां सर्वाभ्यन्तरः तमस्तमःप्रभा पृथिवी के नरक भी असिपत्र आदि के स्पर्श से भी अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अननोज्ञ और अमनोयतर स्पर्शवाले कहे गये हैं ऐसा जानना चाहिये ॥०१४॥ અકાંત, અપ્રિય, અમનેશ, અને અમને મતર સ્પર્શ કહેવામાં આવેલ છે. તેમ સમજવું સૂ૦૧૪
Page #221
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९९
प्रमेययोतिका टीका प्र. ३ उ.२०१५ नरकावासानां विशालत्व निरूपणम् सर्वक्षुल्लको वृत्तस्तैलापूपसंस्थानसंस्थितो वृतो रथचक्रशर संस्थान संस्थितः घृतः पुष्करकर्णिका संस्थानसं स्थितो वृत्तः परिपूर्ण चन्द्रसंस्थानसंस्थितः एकं योजनशतसहस्रमायामविष्कम्भेण यावत् किञ्चिद्विशेषाधिकः परिक्षेपेण, देवः खलु महद्धिको यावन्महानुभागो याचत् एतदेव एतदेवेति कृत्वा इमं केवलकल्पं जम्बूद्वीपं द्वीपं त्रिभिरप्सरसोनिपातैः त्रिसप्तकृत्वो ऽनुपरिवर्त्य हञ्चपागच्छेत् स खलुदेव: तयोत्कृष्टया त्वरितया चपळया चण्डा शीघ्रया उद्धृतया जवनया छेकया दिव्यया देवगत्या व्यतिव्रजन् व्यत्विजन जघन्येन एकाईना द्वयवा त्र्यहं वा, उत्कर्षेण षण्मासान् व्यतिव्रजेत् तत्रैककान् व्यतिव्रजेत् तत्रैवान् नो व्यतिव्रजेत्, एतावन्तो महान्तो गौतम । एतस्यां रत्नममायां पृथिव्यां नरकाः मज्ञप्ताः । एवं यावदधः सप्तम्याम् । नरमधः सप्तम्याम् । अस्त्येककं नरकं व्यतिव्रजेत् । अस्त्येककान् नरकान् नो व्यतिव्रजेत् ॥१५॥
टीका--' इमी से णं भंते' एतस्यां खलु भदन्त ! ' रयणप्पमाए पुढचीए गरगा' रत्नप्रभायां पृथिव्यां नरका: 'के महलिया पन्नत्ता' नरका नरकावासाः कियन्महान्तः कियत्ममाणा महान्तः प्रज्ञताः- कथिताः, पूर्व हि असंख्येययोजन विस्तृता नरका इति कथितम्, तच्चासंख्येयत्वं नावबुद्ध्यते इति पुनरपि कृतः प्रश्न इति । अत एव अत्रोत्तरं भगवान उपमया कथयति - 'गोयमा' इत्यादि,
ro सूत्रकार नरकावासों के महत्व का कथन करते हैं
'इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढचीए नरका के महालया - ' इत्यादि ॥ १५ ॥
टीकार्थ- 'इमी से णं भंते! रयणप्पभाए पुढबीए' हे भदन्त ! इस रत्न - प्रभा पृथिवी में 'नरना' जो नरकावास हैं वे 'के महालया पनत्ता' कितने बडे हैं ? यद्यपि पहिले असंख्यात योजन के बिहार वाले नरकावास है ऐसा कह दिया गया है । परन्तु वह असंख्येयता क्या है इस बात को समझाने के लिये ही यह प्रश्न किया गया है । प्रभुश्री उपमा द्वारा
હવે સૂત્રકાર નરકાવાસેાની મેાટાઇનું કથન કરે છે.
'इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नरका के महालया' त्याहि
टीडार्थ - 'इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए' हे भगवन् ! या रत्न प्रमापृथ्वीमा 'नरगा' ? नरवासी छे, ते मधा 'के महालया पन्नत्ता કેટલા વિશાળ છે ? જો કે પહેલાં અસખ્યાત ચૈાજનના વિસ્તારાળા નરકાવાસેા છે, તેમ કહી દેવામાં આવેલ છે. પરંતુ તે અસભ્યેય પક્ષુ શું છે ? એ વાત સમજાવવામાટે જ આ પ્રશ્ન પૂછવામાં આવેલ છે.
Page #222
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमस्त्रे 'गोयमा' हे गौतम ! 'अयणं जंबुद्दीवे दीवे' अयं खलु यत्र वयं संस्थिता जम्बू द्वीपो द्वीपः, अष्ट योजनोच्छित या रत्नमय्या जब्बा-जम्बू-प्रदर्शनया उपलक्षितो द्वीपो जम्बूद्वीपः 'सन्दीपसमुदाणं' सर्वद्वीपसमुद्राणां धातकीखण्डलवणा दीनाम् 'सब्वमंतर' सर्वाभ्यन्तरः सर्वेपामादिभूतः 'सव्वखुड्डाए' सर्वक्षुल्लकः सर्वेभ्यो द्वीपसमुद्रेभ्यः क्षुल्लका-हस्व इति सर्वक्षुल्लक तथाहि-सर्वे लवणादयः समुद्राः सर्वे धातकीखण्डादयोद्वीपाः अस्याज्जम्बूद्वीपादारभ्य प्रवचनोरन क्रमेण द्विगुणा द्विगुणायामविष्कम्मपरिधि मन्तस्ततोऽयं जस्टीयः शेपसर्वद्वीपसमुद्रापेक्षया लघुर्भवतीति । तथा-'' वृत्तः वृत्ताकारः, यतः 'तेलला पूर्वसं ठाणसंठिए' तेलापूपसंस्थानसंस्थितः, तैलेन एकाऽपूपस्तकापूगः तेटेन परिपक्वोऽपूप: मायः परिपूर्णवृत्तो भवति न तथा घृतेन पत्र इति तेलविशेषणम् तेलापूपबत् संस्थानमिति तैलापूपसंस्थानम्, तेन तैलापूपसंस्थानेन संस्थित इति तैलापूपसंस्थानसंस्थितः। तथा-'वट्टे' वृत्तो वृत्ताकारः, यतः 'रहचक्कवालसंठाणसंठिए' रथचक्रवालसंस्थानस स्थित:-रथचक्रसदृश वृत्ताकार तथा 'बट्टे' वृत्तः यत:-'पुक्खरकण्णिया संठाणसठिए' पुस्करकर्णिका संस्थानस स्थितः कमलइस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते हैं-'गोयमा ! अयणं जम्बूद्दीवे दीवे' हे गौतम ! यह जम्बूद्वीप नाना जो द्वीप है कि जहां हम लोग रहते है और जो 'सव्वदीवसमुदाणं सधान्तरए' समस्त द्वीप और समुद्रों के मध्य में वर्तमान सब से प्रथम है 'लय खुड्डाए' तथा सब द्वीप समुद्रों से जो छोटा है 'चट्टे' गोलाकार है इसीलिये 'तेल्लापूर्वसंटाण संठिए' जिनका संस्थान तैल, पके हुए पुरे के जैसा है अथवा यह ऐसा 'घट्टे' गोल है जैसा कि 'रहचवालसंठाणसटिए' रथ का पहिया गोल होता है। अथवा यह ऐसा वत' गोल है 'पुक्खर कपिणया संठाणसठिए' शि जैसा पुष्कर-कमल कर्णिका के समान आकर
भाद्वारा तन उत्त२ सापता महावीर प्रभु के छ -'गोयमा ! अयणं जंबुद्दीवे दीवे में गौतम ! नमूद्वी५ नामना २ ॥ द्वीप छे, ज्यां भाप २डीने छीमे भने २ द्वीप 'सव्वदीवसमुदाणं सव्वभं तरए' सघीय मने समुद्रोनी मध्यमा सीथी ५। २२स छ. 'सव्व. खुड्डाए' तथा मादी५ समुद्रात २ नाना छे. 'वटे' गा.२ . तथा 'तेल्लापूस ठाणसठिए' तु सस्थान सभा पावसा का अर्थात् भासवाना ने छे म त ते मे 'वढे' नाम । छे ४-'रहचक्क वालस ठाणसठिए' २थर्नु पै २ सय , तेवा गारवाणा हाय छे. अथवा ते मे 'वर्त्त हेतi ाण छ है-'पुक्खरमणियास ठाण
Page #223
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमे यद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ १.१५ नरकावासानां विशालत्वनिरूपणम् २०१ फलिकादद् गोलाकार तथा-'वट्टे' वृत्तो वृत्ताकार: 'परिपुण्ण चंदसं ठाणसं ठिए'; परिपूर्णचन्द्र संस्थानसस्थिता-पौर्णमासी चन्द्रतुल्यसंस्थानेन. संस्थितः-अनेक प्रकारकोपमानोपमेयभावो नानादेशजविनेयपतिपत्यर्थः। 'एक जोयणसय. सहस्सं आरामविखंभेग' एक योजनशतसहस्लमायामविष्कम्भेण-दैयविस्ताराभ्यां लक्षयोजनमषितम् 'जार किंचिविसे साहिए परिवखेवेणं' यावत् किश्चिविशेहोता है अधक्षा यह 'घट्टे' ऐला गोल है कि जैसा पडिपुण्ण चंद ठाणसठिए' पूर्णिमा का पूर्ण सन्द्र गोल होता है 'एका जोगणसय. सहस्स आधाषिदख मेगा जाड किंचिविलेलाहिए परिक्खेवेण', यह एक लाख योजनशालच्या चौडा है चावत् त्रिगुण ले कुछ अधिक परिधि से परिवेष्ठित है। इस जम्बूद्वीप का नाम जम्बूद्रीय इसलिये. हुआ है कि इसके ठीक बीच में अनादि अनन्त एक जम्बू सुदर्शन नामका वृक्ष है यह प्रायोजन पक ऊंचा है और रस्सालय है । जम्बू बीप के बाद लक्षणसमुद्र और लशुद्र को घेरे हुए दीप और द्वीपों को, घेरे हुए समुद्र है यह जम्बूद्वीप उन द्वीप समुत्रों ने सब से पहिला द्वीप है और जल स्वबो पीच में है। इसका आकार गोल है यहां जो तैल में पके हुए पूए के जैसा अथवा रथ के पहिये जैसा, पुष्कर कणिका के जैसा, या परिपूर्ण चन्द्र के जैसा हलका आकार गोल भिन्न भिन्न उपमानों द्वारा प्रश शिया है वह भिन्न २, देशों के विनेय (शिष्य) संठिए' म ४०४२-ॐभनी जीन! 2411२॥ २१मा२पाणु सोय छे. अथातोमा वदे श गोण हाय -रेवा गाजा२-'पडिपुण्णचंद. संठाणसलिए' हिमान। यद्र। 1 मा२पाणी डाय छे. 'एक जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं जाव किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं' माद्वीप એક લાખ જનની લંબાઈ પહોળાઈ વળે છે યાવત્ ત્રણ ગણાથી કંઈક વધારે પરિધિથી વીટળાએલ છે. આ જંબુદ્વીપનું નામ જબુદ્વીપ એ પ્રમાણે થવાનું કારણ એ છે કે તેની બરોબર મધ્યમાં અનાદિ અને અનંત એક જંબૂ સુદર્શન નામનું વૃક્ષ છે તે આઠ જનની ઊંચાઈવાળું છે. તથા રત્ન મય છે. જંબુદ્વિપ પછી લવણ સમુદ્ર છે. અને સમુદ્રને ઘેરેલા દ્વીપો અને દ્વીપને ઘેરેલ સમદ્ર છે. આ પ્રમાણે અસંખ્યાત દ્વીપ અને સમુદ્રો છે. આ જબૂદ્વીપ એ દ્વિપ સમુદ્રોમાં સૌથી પહેલ દ્વીપ છે. અને તે બધાજ દ્વીપની મધ્યમાં છે. આ બધી પનો આકાર ગેળ છે. અહિંયાં જે તેલમાં પકવેલા પુવા (માલપુવા) જે તથા રથના પૈડા જે તથા કમળની કળીના જેવો અથવા પૂર્ણ ચન્દ્રમાના જે તેને ગોળ આકાર છે તેમ જુદી જુદી ઉપમાઓ આપીને કહેલ છે, તે જુદા જુદા દેશના વિનેય કહેતાં શિષ્ય સમુદાયને સમ
जी० २६
Page #224
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०२
जीवामिगमसूत्रे
पाधिक परिक्षेपेण, अत्र यावत्पदेन जग्वृद्वीपपरिक्षेपवर्णनं संग्राह्यम्, यथाहिश्रीणि योजनशतसहस्राणि, पोडशस् हखाणि द्वे योजनशते विशे त्रयः क्रोशाः अष्टाविंशं धनुः शतं त्रयोदश अंगुलानि अद्धगुलं च किश्चिद्विशेपाधिक परिक्षेपेण जम्बूद्वीपः प्रज्ञप्त इति । एतत्प्रमाणक सम्पूर्ण जम्बूद्वीपं यो महर्द्धिको देवः त्रिचप्पुटिकाकलमात्रेण एक विशविवारान पर्यटित्वा परावर्तते एतादृशो देवः स्वस्य सर्वोत्कृष्टया गत्या यदि एकद्वित्रिदिवसान यावत् उत्कृष्टतः पण्मासपर्यन्तं तेषां नरकाणामुल्लंघने प्रवृत्तो भवेत् तथापि तस्य देवस्य के पश्चिमरकाणामुल्लंघनं भवेत् केषाञ्चित्तु न वा भवेदित्येतावन्तो नरकाः सन्तीति प्रमाणोपमानार्थं प्रथमं जनों को समझाने की अपेक्षा से कहा गया है यह जम्बूद्वीप एकलाख योजन का लम्बा चौडा है इसकी परिक्षिका प्रमाण यावत्पद संगृहीत हुआ वह प्रमाण इस प्रकार हैं-तीन लाख बोलह हजार दो सौ सत्ताईस योजन तीनकोश एक सौ ठाईस धनुष साढ़े तेरह अंगुल से कुछ अधिक हैं। यहां जो तेल में तले हुए पूए की उपला गोलाई में कही है उसका कारण ऐसा है कि तेल में पका हुआ पुआ बिलकुल गोल हो जाता है।
इस प्रमाण वाले जम्बूद्वीप का जो महर्द्धिकदेव तीन चुटकी बजाने का काल मात्र में इक्कीसवार पर्यटन करके लौट आ सके ऐसा शक्तिमान् देव अपनी सर्वोत्कृष्ट गति से यदि एक दो तीन दिन पर्यन्त उत्कृष्ट से छह मास पर्यत उन नरकों का पर्यटन- उल्लंघन करता रहे तौ भी वह देव कितनेक जन नरकावासों का उल्लंघन कर सकता है और कितनेक नहीं भी कर सकता है, इतने बडे ये नरक है, इस प्रमाण જાવવા માટે કહેવામાં આવેલ છે. આ જમૃદ્રીપ એક લાખ ચેાજનની લંબાઇ પહેાળાઈ વાળા છે યાવત્પદથી સગ્રહીત થયેલ તેની પરિચિતું પ્રમાણુ પ્રમાણેનું છે, ત્રણ લાખ સેળ હજાર ખસે। ત્યાવીસ ચેાજન ત્રણ (કેશ) ગાઉ એકસેા અઠયાવીસ ત્રનુષ સાડા તેર આંગળથી કઇંક વધારે છે. આ કથનમાં ગેાળાકાર બતાવવા તેલમાં તળેલા માલપુવાની ઉપમા પતાવી છે, તેનુ કારણ એ છે કે તેલમાં પકાવવાથી તે એક દમ ગાળ બની જાય છે. આ ઉપર બતાવેલા પ્રમાણુવાળા જ દ્રીપનુ' જે મહષ્ટિક દેવ છે તે ત્રણ ચટિ વગાડે તેટલા કાળમાત્રમાં એકવીસવાર પરિક્રમણ કરીને પાછા આવી જાય એવી શક્તિવાળા દેવ પેાતાની સર્વોત્કૃષ્ટ ગતિથી જો એક મથવા એ અથવા ત્રણુ દિવસ પન્ત અને ઉત્કૃષ્ટથી છ માસ પન્ત તે નરકાવાસેતુ ઉલ્લંઘન કરતા રહે તે પણ તે દેવ કેટલાક નરકાવાસેતુ' ઉલ્લંધન કરી શકે
Page #225
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्यौतिका टीका प्र. ३ उ. २ सं.१५ नरकावासानां विशालत्वनिरूपणम् २०३ जम्बूद्वीपस्य प्रमाणं संगृहीतम् एतदेव प्रदर्शयति- 'देवे णं' इत्यादि, 'देवेणं' देवः खलु कल्पितः 'महिडिए जाव महाणुभागे' महर्द्धिको यावन्महानुभागः तत्र महतीऋद्धिः विमानपरिवारादिका विद्यते यस्य स महर्द्धिकः, तथा - महाद्युति शरीरा भरणविषया यस्य स महाद्युतिकः तथा महाबलः- महद् बलं शरीरः प्राणो यस्य स महाबलः, तथा - महायशाः महद्यशः - ख्यातिर्विद्यते यस्य स महायशाः तथा 'महे सक्खे' महेश:- महान् ईश: ईश्वर इत्याख्या यस्य स महेशाख्यः अथवा ईशन मीशः भावे घञ् प्रत्यये ऐश्वर्यमित्यर्थः ततः ईवन मैश्वर्यम् आत्मनः ख्याति अन्तभूतयतया ख्यापयति यति स ईशारूपः महांश्चासौ ईशाख्यश्चेति महेशाख्यः अथवा - 'महासोक्खे' महासौख्यः, महत्सौख्यं यस्य प्रभूतोदयवशात् स महासौख्यः तथा - 'महाणुभागे' महानुभागः - महान अनुभागो विशिष्ट वक्रयादिकरणके उपमित करने के लिये यहां पहले जम्बूद्वीप के प्रमाण संग्रह किया गया है। इसी बात को मन्त्रकार प्रकट करते हैं- 'देवेणं' इत्यादि । 'देवेण' were are महाणुभावे जाव णामेवत्ति कटु इमं केवलकप्पं जम्बूद्दीचं दीवं तिहिं अच्छरानिवारहिं तिखत्तखुत्तो अणुपरियहिप्ताणं स्वत्रमागच्छेज्जा । ऐखे हल जम्बूद्वीप को कोई विमान परिवार आदि महती ऋद्धिवाला शरीर आभरण की महाद्युतिवाला बहुत अधिक शारीरिक बलवाला, बहुत बडी ख्यातिवाला, तथा - 'महासक्खे' एवं जिसकी ख्याति 'वह बहुत बडा ऐश्वर्यवाला है ऐसी हो रही है अथवा 'महालोक्खे' महासुख वाला 'महाणुभागे' विशिष्ट वैक्रियादि करने की अचिन्त्य शक्तिवाला, ऐसा देव यावत् तीन चुटकी
.
છે, અને કેટલાક નરકાવાસાનું ઉલ્લંઘન નથી પણ કરી શકતા. એટલા માટા તે નરકાવાસે છે. આ પ્રમાણુને પહેલાં ઉપમિત (ઘટાવા) કરવા માટે પહેલાં અહિંયાં જમૂદ્રીપના પ્રમાણુનેા સગ્રહ કરેલ છે હવે સૂત્રકાર એજ વાત 'देवेण' त्यिाहि सूत्रपाठ द्वारा अरे छे.
'देवेण' महढिए जाव महाणुभावे जाव इणामेव इणामेवत्ति कट्टु इम केवलकप्प' जंबूदीव दीवं तिहिं अच्छरानिवाएहिं तिसत्तक्खुत्तो अणुपरियट्टित्ताणं इव्वमागच्छेज्जा' येवा माजूद्रीपते हैं। विमान परिवार विगेरे भोटि ઋદ્ધિવાળા, શરીર આભૂષણુની મહાદ્યુતિવાળે, અત્યંત વધારે શારીરિક બળ वाणी, अत्यंत भेटण्यातिवाणी, तथा 'महासक्खे' लेनी ज्याति 'माया भोटा सैश्वर्य वाणेो छे. शेवी होय अथवा 'महासोक्खे' भासुमवाणी 'महाणुभागे'
Page #226
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवाभिगमन विषयाऽचिन्त्या शक्तिः विद्यते यस्य स महानुभागः एतानि-महर्द्धिक इत्यादीनि नानाविशेषणानि देवस्य सामर्थ्यातिशयप्रतिपादकानि एतादृशो देवः 'जाव' यावत्, इति चप्पुटिकात्रयकरण कालावधि प्रदर्शनपरम् 'इणामेव इणामेवति कटु' एवमेव एवमेवेति कृत्वा, इति कृत्वेति विशेपणं हस्तदर्शित चप्पुटिका प्रयकरण सूचकम् । 'इमं केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं' इमं केवलकल्पं परिपूर्ण जम्ब द्वीपं द्वीपम् 'तिहिं अच्छरानिवाएहि' त्रिमिरप्सरो निपातः, अप्सरा निपातो नाम चप्पुटिका ततश्च तिमभिश्चप्पुटिकाभिरित्यर्थः चप्पुटिकाश्च कालोपलक्षणम्, ततो यावताकालेन-तिस्रश्चप्पुटिकाः पूर्यन्ते तारत्कालमध्ये इत्यर्थः 'तिसत्तक्खुत्तो' 'त्रिसप्तकृतः एकविंशतिवारान् 'अणुपरिवट्टित्ताण' अनुपरिवर्त्य-सामस्त्येन परि• भ्रम्य खलु हबमागच्छेज्जा' हव्वं शीघ्रमागच्छेन् ‘से पं देवे' स खलु देवः स एतादृशगमनशक्तियोग्यो देवः 'ताए' तया देवजनपशिद्धयां 'उक्किट्ठाए' उत्कृष्टया प्रशस्तया 'तुरियाई स्वरितषा-शीघ्रसंचरणात् त्वरितया, त्वरासञ्जाता अस्यामिति त्वरिता तया त्वरितया शीघ्रतरमेव तया पदेशान्वराक्रमणं भवतीति 'चवलाए' चालया चपलेन विधुदिव चपला तया 'चंडाए' चण्डया क्रोधाविष्टस्येव श्रमासंवेदनाद चण्डेन चण्डा तया चण्डया, 'सिम्घाए' शीघ्रा निरन्तरं शीघ्रत्वगुणयोगात्-शीघ्रया 'उद्धृयाए उद्धृत्या वातचालिनुस्य रजसो दिगन्तव्यापितेव यां गतिः सा उधूता या उद्धृनया अयवा उधृतपा-दातिशयेनेत्यर्थः 'जवबजाने में जितना समय लगता इतने समयमं केवलकप्पं
जवुद्दीवं दी इस के बलशल्प-बम्पूर्ण-जम्बूद्वीप को ति सत्तखुत्तो' ' 'इक्कीस बार 'अणुपरिट्टित्ता गं' परिभ्रमण करके शीघ्रता से आ जाते हैं 'सेणं देवे' ऐल्ली उस गलनमाक्तिले युक्त बह देश 'ताए' उस देव जवन प्रसिद्ध 'उक्किाए' उत्कृष्ट-प्रशासन तुरिझाए' वेगवती 'चपलाए' चपल 'चंडाए' चण्ड क्रोध से युक्त हुए पुरुष के जैली प्रचण्ड 'खिग्घाए' शीघ्र 'उधूताए' उद्धृत-चलते समय जिल्लक नारा धूलि उठ २ कर વિશિષ્ટ વૈકિય વિગેરે કરવાની અચિંત્ય શક્તિવાળે એ દેવ ચાવત્ ત્રણે
पटि पामो रस समय मागे . या समयमा 'इम केवलकप्प जद्दीव दीव' मा Bण ४६५ अर्थात् स पूरी दीयन 'तिसत्तक्खुत्तों' मेवीस पा२ 'अणुपरियट्टित्ताण' परिभ्रमण शन शातिथी मावी लय छे 'से ण देवे' मेवी गमन शतिवाणी येत. व 'ताए' ते वन प्रसिद्ध 'उक्किट्टाए' उत्कृष्ट प्रशस्त 'तुरियाए' गाणी 'चवलाए' या 'चडाए' 43 मर्यात् धारा ३१ना २वी प्रय' सिग्चाए' शीध्र 'उद्धृताए' मधूत अर्थात् જેના ચાલવાના સમયે ધૂળ ઉડે એવી અથવા જે ગતિમાં ચાલવાનું અભિમાન
Page #227
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्रे.३ उ.२ सू.१५ नरकावासानां विशालत्वनिरूपणम् २०५
*णाए' जवनया परमोत्कृष्टवेगपरिणामोपेता जवना तया जवनया-अथवा 'जइण. याए' जितया विपक्षजेतृत्वेनेति । 'छेगाए' छेकया निपुणया 'दिव्चाए' दिव्ययादिवि-देवलोके भवा दिव्या तया दिव्यया 'देवगईए' देवगत्या देवसम्बन्धिन्या. गत्या 'वितीचयमाणे चितीवयमाणे' व्यतिव्रजन २ तान् नरकान् उल्लंघयन् २ 'जहन्नेणं' जघन्येन 'एगाहं वा दुयाहं वा तियाहं वा' एकाहं वा एकम् अहर्यावन द्वयहं वा व्यहं वा-द्वित्रिदिन पर्यन्तं यावत् 'उक्कोसेणं' उत्कर्पग 'छम्मासे' षण्मासान् यावत् नरकान् 'वीइवएज्जा' व्यतित्रनेत्-उल्लंघयेत् तथापि तेषु नरकेषु मध्ये 'अत्थेगइए वीइवएज्जा' अरत्येककान् कांश्चननरकान् 'वीइवएज्जा' व्यतिव्रजेत्-उल्लंघय परतो गच्छेत् 'अत्थेगइए नो वीइवएजा' तथा-अस्त्येककान् यत् उपरोक्तयाऽपि गत्या षण्मासानपि यावनिरन्तरं गच्छन् एककान् काश्चननरकान् नो व्यतिव्रजेत् नो ल्लंघय परतो गच्छेत् अतिषभूतायामतया तेषां नरउडे ऐसी अथवा जिस गति में चलने का अभिमान भराहो ऐसी 'जघणाए' परमोत्कृष्ट वेगशालिनी-अथवा 'जहणाए' विपक्षजनों की गति को भी परास्त करनेवाली 'छेगार' छेक-निपुण-'दिच्चाए' दिव्यदेवलोक सम्बन्धिनी 'देवगाइए' देवगति से 'विश्वयमाणे २' बार २ अतिक्रमण करता हुआ 'जहन्नेणं' कम से कम 'एगाई वा दुयाहं वा तियाहं वा एक दिन, दो दिन और तीन तक और 'उक्कोसे गं' अधिक से अधिक 'छम्मासे छह महिने तक 'बीइवएज्जा' वे निरन्तर उल्लंघन करता रहे-तो 'अत्थेगइए वीइवएज्जा' हो सकता है कि वह कितने नरकाबासों को पार करलके और 'अत्थे गइए नो वीइवएना' कितने नरकाबालों को पार नहीं भी कर सके। क्योंकि उन नरकावासों की लम्बाई बहुत ही अधिक घडी है अतः मयुंजय, मेवी 'जवणाए' परमोटापाणी अथवा 'जइणाए' शत्रुपंक्षनी तिन ५२७ ४२वावाणी 'छेगाए' निपुथु 'दिव्वाए' लय पक्षा समधिनी 'देवगइए' हेवशतिथी 'विइयवयमाणे विइवयमाणे' पारपार Ba: धन ४२di ४२di 'जहन्नण' माछामा सोछ'एगाह वा दुयाहवा. तियाहं वा' थे हिस, मे विस, भने ३ हपस सुधी मने 'उकोसेणं' वधारेमा धारे 'छम्मा छ महीना सुधा 'वीइवएज्जा' तसा निरंतर SEAधन ४२ता २९ तो 'अत्थेगहए वीडव एज्जा' भनी श तटसा नवासाने पार ४१ श. भने 'अत्यगइए नो वीइवएज्जा' मा न२४वासाने पार न प ४ श? કેમકે એ નરકાવાસોની લખાઈ ઘણું વધારે મેટી છે. તેથી તેને પાર
Page #228
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमंसूत्रे
२०६
काणामन्तस्य प्राप्तुमशक्यत्वादिति । 'ए महालयाणं गोयमा' एतावन्तः पूर्वोक्तोपमानेन उपमिता महान्वो हे गौतम! 'इमीसे णं रयणप्पभार पुढवीए' एतस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्याम् 'णरगा पण्णत्ता' नरकाः प्रज्ञप्ताः । ' एवं जाव अहे सत्तमाए' एवं यावदधः सप्तम्याम् - यथा रत्नप्रभायां नरकाः महत्त्वेन प्रतिपादितास्वथैव शर्करापभात आरभ्य यावत्सप्तमी पृथिवी पर्यन्त नरका अपि महत्वेन ज्ञातव्याः । 'णवरं अहे सत्तमाए' नवरमेतावद्वैलक्षण्यम् यद् अधः सप्तम्याम् 'अत्थे इयं नरगं वीइव रज्जा' अस्त्येककन रकम प्रतिष्ठानाख्यं व्यतिव्रजेत् अप्रतिष्ठाननामक नरकरूप लक्षयोजनायामविष्कम्भतया तदन्तस्य प्राप्तुं शक्यत्वात् 'अत्ये गए नरगे नो बीइवएज्जा' अस्त्येककान् नरकान अपतिष्ठानादितरान् नो
उनका अन्त पाना उसे छह महिना तक भी निरन्तर उपरोक्त देवगति से लांघ वाले देव को भी अशक्य है । 'ए महालाया णं गोपमा ! इमीले णं रचणभाए पुढवीए णरगा पण्णत्ता' अतः हे गौतम | ऐसी उपमाबाले इतने बडे विस्तारवाले नरक इस रत्नप्रमा पृथिवी में कहे गये हैं' । 'एवं जाब अहे सत्तमाए' रत्नप्रभा पृथिवी में जैसे ये नरकावास बहुत बडे विस्तारवाले कहे गये हैं- उसी प्रकार से शर्कराप्रभा से लेकर अधः सप्तमी पृथिवी तक जो नरकावास है वे भी ऐसे ही महाविस्तार वाले कहे गये हैं । 'नवरं' अधः सप्तमी में जो विशेषता हैयह इस प्रकार - 'अहे सत्तमाए अस्थेगइयं नरगं वीहवएज्जा अत्थे गइए नरगे नो वीवएज्जा' अधः सप्तमी पृथिवी में जो एक लाख योजन का लम्बा चौडा अप्रतिष्ठान नामका नरकावास है उसका तो वह उल्लंघन પામવે। તે છ માસ પર્યન્ત નિર'તર ઉપર હેવામાં આવેલ દેવ ગતિથી उसौंधन ४२वावावाणा हेवने पशु अशज्य है. 'ए महालयाणं गोयमा ! इमीसेण रथणपभाए पुढर्व ऍ णरगा पण्णत्ता' तेथी हे गौतम! शेवी उपभावाजा भने भेटला मोटा विस्तारवाणा नरडावासो मा रत्नप्रभा पृथ्वीमां ह्या छे. ' एवं ' जाव अहे सत्तमाए' २त्नप्रभा पृथ्वीमां या न२४वासी प्रेम या विशाण ४॥ છે, એજ પ્રમાણે શકરાપ્રભા પૃથ્વીથી લઈને અધઃસપ્તમી પૃથ્વી સુધીમાં જે નરકાવાસ છે, તે બધા પણ એવાજ પ્રકારની મહાવિશાળતાવાળા કહ્યા છે, 'नवर" अधःससभी पृथ्वीभां के विशेषता छे, ते या प्रभा है,
'अहे सत्तमा अत्थे गइयं नरग वीइवएज्जा अत्थेगइए नरगे ना वोइवएज्जा' અધઃસપ્તમી પૃથ્વીમાં એક લાખ ચેાજનની લંબાઇ પહેાળાઇ વાળુ' જે પ્રતિષ્ઠાન નામનું નરકાવાસ છે. તેનુ' ઉલ્લઘનતા તે કરી શકે છે, પરંતુ અસખ્યાત
Page #229
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ स.१६ किं द्रव्यमया नरका इति निरूपणम् २०७ व्यतिवनेत तेषाममतिष्ठानेतराणां कालमहाकाल रक्कमहाशैरकाणां चतुर्णीनारकाणाम् अतिमभूताऽसंख्येययोजन कोटि कोटी प्रमाणत्वेनान्तस्य प्राप्तुमशक्यत्वादिति ॥१५॥ सम्प्रति-किं द्रव्यमया नरका इति घरूपणार्थमाह-'इमी से णं' इत्यादि,
मूलम्-इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए जरगा किं मया पण्णात्ता ? गोयमा! सक्वइरा मया पन्नत्ता। तत्थ णं नरएसु बहवे जीवा य पोग्गला य अवक्रमति बिउक्कमति चवंति उवबज्जति, सासयाणं ते णरगा दक्ट्रयाए, वण्णपजवेहि गंध पज्जवहिं रसपज्जवेहि फासपज्जवेहि असासया एवं जाव अहे सत्तमाए ॥सू०१६॥
छाया-एतस्यां खलु भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां नरकाः किं मयाः मज्ञप्ताः ? गौतम ! सर्वे वज्रमयाः प्रज्ञप्ताः तत्र खलु नरकेषु बहवो जीवाश्च पुद्गलाश्च अवक्रामन्ति व्युत्क्रामन्ति च्यवन्ते उत्पयन्ते, शाश्वताः खलु ते नरकाः द्रव्यार्थतया, वर्णपर्यायगन्धपर्यायः रसपर्यायैः स्पर्शपर्यायैरशाश्वताः । एवं यावदधः सप्तम्याम् ॥१६॥
टीका-'इमीसे णं भंते । एतस्यां खलु भदन्त ! 'रयणप्रभाए पुढवीए' कर सकता है पर जो असंख्यात कोडा कोडे योजन के विस्तारखाले अन्य चार नरकावास हैं उनका वह देव उल्लंघन नहीं कर सकता है वे चार नरकावास काल, महाकल रौरव और महारौरव हैं ॥१५॥
ये नरकाचाल किस वस्तुमय-किसके बने हुए हैं-ऐसा स्त्रकार प्रतिपादन करते हैं--
'इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए णरगा-इत्यादि ॥१६॥
टीकार्थ--गौतम ने प्रभु से ऐसा पूछा है-'इमीसे णं भंते ! रयणકેડા કેડિ એજનના વિસ્તારવાળા, બીજા જે ચાર નરકાવાસે છે. તેનું ઉલ્લઘન તે દેવ કરી શકતા નથી તે ચાર નરકાવાસોના નામ આ પ્રમાણે છે. ४० १, भाडाद २, शै२१ 3. मने महाशैरव ४ ॥ सू. १५ ॥ - આ નારકાવાસે કઈ વસ્તુમય અર્થાત્ શેના બનેલા છે? સૂત્રકાર હવે से मताव छ 'इमीसेणं भते रयणप्पभाए पुढवीए णरगा' इत्यादि
ट -गौतमस्वामी प्रभुने मे ५७युछ है 'इमीसे णं भते !
Page #230
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवाभिगमसूत्रे
२०८
रत्नप्रभायां प्रथमनारक पृथिव्याम् 'नरगा किं मया पन्नत्ता' नरकाः किं मया किं द्रव्यमयाः प्रज्ञता : - कथिता इति प्रश्नः भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोमा' हे गौतम ! 'सन्नवर / मया पन्नत्ता' सर्व वज्रमया:- सर्वात्मना वज्रमयाः वज्रद्रव्यमयाः प्रज्ञप्ताः कथिताः वज्रवदति कठिना नरका भदन्तीति । 'वत्थ णं नरएस' त खलु तेषु रत्नमभानरकेषु 'वहवे जीवा व पौग्गका य' बढ्यो विविध प्रकाराः जीवाश्च स्वरवादस्पृथिवी कायिकरूपाः पुद्गलाच 'अवकमंति विउक्कमंति' अपक्रामन्ति - च्यवन्ते व्युत्क्रामन्ति समुत्स्वन्ते - एवदेव शव्दद्वयं यथाक्रमं पर्यायद्वयेन विवृणुते - 'चयंति उबवज्जति' च्यवन्ते उत्पद्यन्ते । अयं भावः - एके जीवाः पुद्गलाश्च यथायोगं नरकाद् गच्छन्ति तथा अपरे जीवाः यथाक्रमं नरः केषु आगच्छन्ति । यस्तु प्रतिनियतसंस्थानादिरूप आकारः स तु तदवस्थ एव
भाए पुढबीए' हे भदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी में जो 'नरगा' नरकावास है वे 'किमया' किस वस्तुमय है ? किस वस्तु के घने है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं- 'गोयमा ! सव्ववदरामया पन्नत्ता' हे गौतम | रत्नप्रभा पृथिवी के नरक सर्वात्मना वज्रमय है-वज्र के बने हुए हैं- वज के जैसे अति कठिन हैं 'तत्थ णं नरएस पहवे जीवाय पोग्गलाय अवक्कमंत विकमंति' उन नरको में अनेक खरविनश्वर बादरपृथिवीकायिक जीव और पुद्दल 'अवक्क्रम्मंति-विकमंति' आते जाते रहते हैं, 'चयंति उववज्जंति' यही बात इन दो पदों द्वारा प्रकट की. गई है इससे यह समझाया गया है कि अनेक जीव वहां से बाहर निकलते रहते हैं और अनेक जीव वहां आकर के उत्पन्न होते रहते हैं इसी तरह से अनेक पुद्गल यहां से बिछुडकर बाहर आ जाते हैं और रयणभाष पुढजीए' हे भगवन् मा रत्नप्रला पृथ्वीमां ने 'जागा' नरडावास छे, ते मधा किं मया' वस्तुभय छे ? अर्थात् वस्तुथी मनेला छे ? मा प्रश्नना उत्तरमां अलु गौतमस्वामीने छे! 'गोयमा ! सव्व वइरामया पन्नत्ता' हे गौतम ! २त्नप्रभा पृथ्वीना नरडावासो सर्वात्मना अर्थात् सर्व પ્રકારથી વજામય છે. અર્થાત્ વના બનેલા છે. અને વા. જેવા અત્યંત ४४५ छे, 'तत्थ णं नरपसु बहवे जीवा य पोग्गला य अवक्कमति विउक्कम ति' नरप्रभां मने भर- विनश्वर माहर पृथ्वी अवि भने युगस 'अंगक्क मति विउक्कमति' भावता ता रहे छे. 'चयंति उववज्जेति' से वात भा એ ક્રિયાપદો દ્વારા પ્રગટ કરવામાં આવી છે. આ કથનથી એમ સમજાવવામાં આવેલ છે કે અનેક જીવે ત્યાં આવીને ઉત્પન્ન થતા રહે છે. એજ પ્રમાણે અનેક પુટ્ટુગલે ત્યાંથી વષ્ટિને નીકળીને બહાર આવી જાય છે, અને ખહારના
Page #231
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ ७.२.१६ किं द्रव्यमया नरका इति निरूपणम् २०९
भवति । 'एतदाशयेनैवाह - 'सासवाणं ते नरगा दव्वट्टयाए' शाश्त्रता नित्याः खल ते रत्नप्रभानरका द्रव्यार्धतथा प्रतिनियत तथाविध संस्थानादिरूपतया । किन्तु 'वण्णपज्जवेर्हि' वर्णत्रययैः कालनीललोहितपीतशुक्लपर्यायैरित्यर्थः तथा-'गंधपज्जवेहिं' गन्धपर्यायैः सुरभि दुरभि गन्धपर्यायैरित्यर्थः 'रसपज्जवेहिं' रसपर्यायै तिक्तकटुकषायाम्लमधुरययैरित्यर्थः, तथा फालपज्जवेर्हि' कर्कश मृदुकगुरुकबंधुकशीतोष्ण स्निग्धरूक्षस्पर्शपर्यायैः पुनरेते नरकाः 'अमासया' अशाश्वताः बाहिरी अनेक पुल यहां पहुंच जाते है । क्योंकि जीव और पुद्गल ये दो ही गति क्रिया और स्थिनि क्रियाशील है । परन्तु - 'साखयाणं ते परगा दबाए' वे नरक क्रव्यार्थ दृष्टि से शाक्त है- क्योंकि उनके संस्थान आदि कोई परिवर्तन नहीं होता है । वह तो उनका प्रतिनियत ही बना रहता है 'दण्णवज्जवेहि गंग पज्जवेहिं राजवेहि फासपज्जवेदिलालां' क्रार्य दृष्टि से ये शाश्वत है ऐसा यह कथन एकान्तरूप से नहीं है किसी अपेक्षा ये अशाश्वत भी हैं - यही बात इस सूत्र द्वारा स्पष्ट की गई है। कृष्ण, नील, लोहित पीत और शुक्ल इन रूप पर्यायों से बग्ध पर्शयों से रक्ष पर्यायों से और स्पर्श पर्यायों से वे अशाश्वत भी हैं। कृष्ण शुक्ल आदि रस की पर्याये हैं सुरभिगन्ध और दुरभिगन्ध ये गन्ध की ये है तिक्त, कटु, कषाय, आम्ल और मधुर ये रस की पर्यायें हैं और फर्कश, मृदुक, गुरुक, लघुक शीत, उष्ण, स्निग्ध, रूक्ष ये स्पर्श की पर्याये है।
અનેક પુદ્ગલ ત્યાં પહોંચી જાય છે. કેમકે જીવ અને પુગલ આ એ જ द्रव्यं गति दिया उसने स्थिति हियाशील छे. परंतु 'सासयाणं ते परगा दव्व याए' ते नरावासे । द्रव्यार्थ दृष्टिथी शाश्वत छे. भट्ठे तेखाना संस्थान વિગેરેમાં કઇ પણ પરિવર્તન થતું નથી. તે તે તેની પ્રત્યે નિયતજ અન્યા २हे छे. 'वण्णपज्जवेहि गंधपज्जवेहिं रसपज्जवेहिं फासपज्जवेहिं असासया' દ્રષ્યા દૃષ્ટિથી તે શાશ્વત પણ છે. એ પ્રમાણેનું આ કથન એકાન્તરીતે નથી. કઈ અપેક્ષાથી એ અશાશ્વત પણ છે, એજ વાત આ સૂત્રપાઠ દ્વારા સ્પષ્ટ કરવામાં આાવી છે. કૃષ્ણ, નીલ, લેાહિત લાલ પીત-પીળા અને શુકલ કહેતાં શ્વેત સફેદ આ વર્ણ રૂપી પાંચેાથી આ બધા અશાશ્વત પણ છે, કૃષ્ણ, શુકલ, વિગેરે રસના પર્યાય છે. સુરભિગંધ અને દુરભિગધ આ गौंधना पर्याये। छे, तीच्या, उडवा, उषाय-तुरा, अभ्-जाटा भने भधुर ४ तां भीठा या रसना पर्याय। छे. तथा श, भृटु, गु३, सधु, शीत, उष्णु स्निग्ध અને રૂક્ષ આ સ્પ`ના પાંચા છે.
जो० २७
Page #232
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१०
जीवाभिगमसूत्रे
अनित्याः, नरकगतवर्णादीनामुत्पादविनाशेऽपि नरका न एकान्तोऽनित्याः सर्वदा स्थास्नु स्वभावस्य द्रव्यरूप विद्यमानत्वाद नापि सर्वया नित्या एव विनश्वर स्वभावानां वर्णगन्धरसस्पर्शानामपगमात् किन्तु स्थश्चित स्वद्रव्यरूपेण नित्यः, तथा कथञ्चित् auratलस्पर्श पर्यायरूपेणानित्य इति नित्यानित्यत्वरूपाभ्यांसंमितित्वात्मवाहरूपेण नित्या पुत्र नरकाः ॥
तद्गत
'एवं जाव आहे सत्ता' एवं रत्नमात्रदेव शर्करामभा वालुकाममा पङ्कप्रभा पभा तथा प्रभास्पति तारकाणां वज्रमयत्वं तत्र जीवानां पुद्गलानां चोत्पादविनाशौ क्रयरूपेण नित्यत्वं पर्यायरूपेणानित्यत्वं ज्ञातव्यमिति । नरक वर्णादियों का उत्पाद विनाश होने पर भी नरक एकान्त सेनि नहीं है क्यों िवदा स्थिर स्वभाववाला द्रव्य विद्यमान रहता है और नश्वर स्वभाववाले वर्ण, गन्ध, रस, और स्पर्श इनके परिणयन होने से वे एकान्ततः नित्य भी नहीं हैं अतः इस कथन से उन में कथंचित् नित्यता और अनित्यता प्रकट की गई है। अर्थात् द्रव्य से नित्य हैं और पर्यायार्थिकनय से ये अनित्य है। ' एवं जाए अहे समाए' इसी तरह से शर्कराभा के बालुकाप्रभा के, पङ्कप्रभा के धूभा के, तमःप्रभा के और तमस्तमःप्रभा के नरक भी वज्रमय है वहां जीवों का और पुद्गलों का आना जाना बना रहता है। और वे नरक सब द्रव्यार्थ दृष्टि से नित्य है और पर्याय दृष्टि से अनित्य है ये न सर्वधा नित्य हैं और न सर्वथा अनित्य ही हैं। आलाप प्रकार प्रथम पृथिवी के नरक प्रकरण में कहे गये अनुसार ही तमस्तमा
નરકમાં આવેલ વધુ આદિકાની ઉત્પત્તિ અને વિનાશ થવા છતાં પણુ નરકાવાસ એકાન્તે અનિત્ય નથી, કેમકે સદા સ્થિર સ્વભાવવાળું દ્રવ્ય વિદ્યમાન રહે છે. અને તદ્ગત તેમાં રહેલ વિનશ્વર સ્વભાવવાળા, વણુ, ગંધ, રસ, અને સ્પના પરિણમન થવાથી તે બધા એકાન્તતઃનિત્ય પશુ નથી. તેથી આ કથનથી તેમાં કથાચિત્ નિત્યપણુ અને કથ'ચિત્ અનિત્યપણુ' પ્રગટ કરવામાં આવેલ છે. અર્થાત્ દ્રબ્યાર્થિ કનયના મતથી નિત્ય છે. અને પર્યાયા િકનયના भतथी अनित्य हे 'एव' जाव अहे सत्ताए' मा प्रभा शरायला पृथ्वीना વાલુકાપ્રભા પૃથ્વીના, પંકપ્રભા પૃથ્વીના, ધૂમપ્રભા પૃથ્વીના, તમઃપ્રભા પૃથ્વીના અને તમસ્તમાપ્રભા પૃથ્વીના નરકાવાસે પણ વમય છે. ત્યાં જીવાતું અને પુદ્ગલેતું આવવુ' જવું ખન્યુ' રહે છે. અને એ મધા નરકે દ્રવ્યાથ દૃષ્ટિથી નિત્ય છે, અને પર્યાય સૃષ્ટિથી અનિત્ય જ છે, તેના આલાપાના પ્રકાર પહેલી
Page #233
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमैयद्योतिको टीका प्र.३ उ.२ लू.१७ नारकजीवोत्पातनिरूपणम् आलापप्रकारस्तु 'इमीसे गं भंते ! सक्करप्षमाए पुढवीए नरना कि मया पन्नचा' इत्यादि, एवं क्रमेण तमस्तमान्तपृथिव्यामालापप्रकारः स्वयमेवोहनीय इति ।१६॥
सम्मति-नारकजीवानामुपपातं दर्शयितुमाह-'इमीसे णं' इत्यादि, ___ मूलम्-इमीसे णं भंते ! रयणप्पसाए पुढवीए नेरइया कओहिंतो उववज्जति किं असणीहितो उपबति सरीसिवे. __ हिंतो उववज्जंति पक्खीहितो उववज्जति चउप्पएहितो उवव
ज्जति उरगहितो उववज्जति इत्थियाहिंतो उववज्जति मच्छमणुएहितो उक्वज्जति ? गोयमा अलपणीहितो उपबति जाव मच्छमणुएहितो उबवज्जति लेसासु इमाए गाहाए अणुगंतवा असण्णी खलु पढसं, दोच्चं च स्तरीलदा तइय पक्खी। सीहा जंति अत्थि, उरगा पुण पंचमि जति ॥१॥ छट्टिं च इस्थियाओ मच्छा सणुशाय लामि जति । जाव अहे सत्तमाए पुढवीए नेरड्या णो असणीहितो उववज्जति जाब जो इत्थियाहिलो उवबज्जति सच्छसणुस्तहितो उववज्जति ॥ इमीले णं संते! स्थणप्पभाए पुढवीए गेरइया एकं समएणं केवइया उक्वज्जति ? गोयला ! जहानेणं एक वा दो वा तिलि बा उक्कोलेणं संखेज्जा वा असंज्जा वा उपवज्जति । एवं जार अहे लतमाए। इसीसे संत! रथणप्पभाए घुटनीए लेरड्या रूलए सनए अवहीरसाणा अबहीरमाणा केवइयं कालेणं अपहिया लिया ? भोयमा! तेणं असं. पर्यन्त पृथिजियों के आलापक स्वयं उद्भावित कर लेना चाहिये जैसे. 'इमीले णं भंते ! सक्करप्पभाए पुढवीए नरमा किं मघा पत्ता इत्यादि सूत्र ॥१६॥ પૃથ્વીના નારકાવાસના પ્રકરણમાં કહ્યા પ્રમાણે જ તમતમાં પૃથ્વી પર્યન્તની पृथ्वीयाना माताजी स्वयं मनावी सभा मे. रेमो 'इमीसे णे भवे । सकरप्पभाए पुढवीए नरगा किसया पण्णत्ता' त्याहि ॥ सू. १६ ॥
Page #234
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१२
जीवाभिगमसूत्र खेजा समए समए अवहीरमाणा अवहीरमाणा असंखेज्जाहिं "उस्सप्पिणी ओसप्पिणीहिं अवहीरति नो वेवणं अवहिया सिया जाव अहे सत्तमा ॥ इमीले णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइयाणं के महालिया सरीरोगाहणा पन्नत्ता ? गोयमा! दुविहा सरीरोगाहणा पन्नन्ता तं जहा-भवधारणिज्जा य उत्तरवेउव्वियाय तत्थ णं जा ला अवधारणिज्जा सा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोलणं सत्तधणूई तिन्नि य रयणीओ छच्च अंगुलाई, तत्थ णं जा ला उत्तरवेउव्विया सा जहन्नेणं अंगुलहस संखेज्जइभागं उक्कोलेणं पण्णरसवणूई अड्डाइज्जाओ रयणीओ। दोच्चाए सवधारणिज्जा जहन्नेणं अंगुलासंखेज्जभागं उक्कोलेणं पण्णरसधणू अड्डाइज्जाओ स्यणीओ, उत्तरवेउविया जहन्नेणं अंगुलस्त संखंज्जइमागं उबोलणं एकतीसं धणूइं एका रयणी। तच्चाए अवधारणिज्जा एकतीसं धणूई एक्का स्थणी, उत्तरवेविया वासाट्ट धणूइं दोन्नि रचणीओ। चउत्थीए भवधारणिज्जा बाट्रिं धणूई दोपिणच रपणीओ। उत्तरवेउव्विया पणवीलं धणुसरं पंचसीए अवधारणिज्जा पणवीसं धणुसयं उत्तरवे उत्रिया अड्डाइनाई जणुलवाई। छट्ठीए भवधारणिज्जा अवाइज्जाई घणुलगाइं उत्तरवेउब्बिया पंचधणुसयाई । सत्तमाए भनधारणिज्जा पंचधालयाई उत्तरवेडव्विया धणुसहस्सं ॥सू० १७॥
छाया--एतस्यां खल्लु भदन्त ! रत्नप्रभा पृथिव्याम् नैरयिकाः कुत उत्पद्यन्ते किमसंज्ञिभ्य उत्पयन्ते सरीसपेभ्य उत्पधन्ते पक्षिभ्य उत्पद्यन्ते चतुष्पदेभ्य उत्पद्यन्ते उरगेभ्य उत्पद्यन्ते स्त्रीभ्य उत्पद्यन्ते मत्स्यमनुजेभ्य उत्पधन्ते ? गौतम ! असंज्ञिन्य उत्पद्यन्ते मत्स्यमनुजेभ्य उत्पद्यन्ये शेपासु अनया गाथया अनुगन्तव्याः ।
Page #235
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयोतिका टीका पं.३ उ.२ ६.१७ नारकजीवोत्पातनिरूपणम्
२१३
!
t..
'असंज्ञिनः खलु प्रथम, द्वितीयां च सरीसृपाः, तृतीयां पक्षिणः, सिंहा यान्ति चतुर्थी मुरगाः पुनः पञ्चमीं यान्ति ॥ १ ॥ षष्ठीं च स्त्रियो मत्स्या मनुजाश्च सप्तमीं यान्ति ॥ यावदधः सप्तम्यां पृथिव्यां नैरविका नो असंज्ञिभ्य उत्पन्ते यावद् नो स्त्रीय उत्पद्यन्ते मत्स्यमनुजेभ्य उत्पद्यन्ते । एतस्यां खलु भदन्त । रत्नमभायां पृथिव्यां नैरयिका एकसमयेन कियन्त उत्पद्यन्ते ? गौतम ! जघन्येनैको बावा-त्रयो वा उत्कर्षेण संख्येया वा - असंख्येया बोत्पद्यन्ते । एवं यावदधः सप्तम्प्राम् । एतस्यां खलु भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैरयिकाः समयं समयम् अपहियमाणा अपहियमाणाः कियत्कालेनापहृताः स्युः १ गौतम ! ते खलु असंख्येयाः समये समये अपह्रियमाणा अपहियमाणा असंख्येयाभि रुत्सर्पिण्यसर्पिणीभिरपहियन्ते नैत्र खलु अपहृताः स्युः, यावदधः सप्तमी । एतस्यां खल भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैरयिकाणां कियन्महती शरीरावगाहना प्रज्ञप्ता, गौतम ! द्विविधा शरीरावगाहना मज्ञप्ता, तद्यथा - अवधारणीया उत्तरक्रिया च, तत्र खल या सा भवधारणीया सा जघन्येन अड्गुलस्यासंख्येयभागम् उत्कर्षेण सप्तधनूंषि तित्र रश्नयः षट्चाङ्गुलस्य संख्येयमानम् उत्कर्षेण पञ्चदश धनूंषि सार्द्धद्विरत्नी । द्वितीयस्यां अवधारणीया जघन्येनाङ्गुला संख्येयभाग मुरकर्षेण पञ्चदश धनूंषि सार्द्धद्विरत्निः, उत्तरक्रिया जघन्येनाङ्गुलस्याऽसंख्येयभागमुत्कर्षेणैकत्रिंशद् धनूंषि एक्का रग्निः वृती अवधारणीया एकत्रिंशद् धनूंषि एका रत्न', उत्तरक्रिया द्वाषष्टि धनूंषिद्व रत्नी । चतुर्थ्यां भवधारणीया द्वापष्टिर्धनृषि द्वे च रत्नी- उत्तरक्रिया पञ्चविशति धनुः शतम् । पश्चम्यां भवधारणीया पञ्चदिशति धनुः शतम् उत्तरक्रिया सार्द्धद्विधनुः शतानि षष्ठयां अवधारणीया सार्द्ध द्वे धनुः शते, उत्तरक्रिया पञ्च धनुः शतानि । सप्तम्यां भवधारणीया पञ्च धनुः शतानि उत्तरक्रिया धनुः सहस्रम् ||६०१७।।
टीक - 'इमीणं ते!' एतस्यां खलु भदन्छ ! ' रयणप्पभाए पुढवीए' रत्नप्रभायां पृथिव्यास् 'नेरइया' तैरयिका, कमर्दितो उववज्जं वि' कुतः - कस्मा
अब लुप्रकार नारक जीवों का उपपात दिखाते हैं'इमीखे णं भंते ! रणभाए पुढवीए-इत्यादि ॥ १७॥ टीकार्थ -- गौतम ! ने प्रभुश्री से ऐसा पूछा है- 'इसीसे णं भंते !
હવે સૂત્રકાર નારકજીવેાના ઉપપાત-ઉત્પત્તી બતાવે છે.
'इमीसे णं भंवे ! रयणभार पुढवीए' इत्यादि
टीडार्थ—गौतमस्वाभीगे अलुने मे पूछयु छे 'इमोसे णं भते !
Page #236
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१४
जीवाभिगमसूत्रे त्तस्थानादागत्य अत्र - नरकावासे समुत्पद्यन्ते 'कि असण्णीहिंतो उववज्जंति' किमसंज्ञिभ्य आगत्य आगत्योत्पद्यन्ते, अथवा - 'सरीसिवेहिंतो उववज्र्ज्जति' सरीसृपेव आगत्योत्पद्यन्ते, अथवा 'पक्खीहितो उववति' पक्षिभ्य आगत्योत्पद्यन्ते अथवा - 'चउप्परहितो उववजेति' चतुष्पदेभ्य आगत्य उत्पद्यन्ते, अथवा - 'उरगेर्हितो उववज्जंति' उरगेभ्यः सर्पेभ्य अगत्योत्पद्यन्ते, अथवा - 'इत्थियाहिंतो उववजंति' स्त्रीभ्य आगत्योत्पद्यन्ते, अथवा 'मच्छमणुए हिंतो उववज्जंति' मत्स्यमनुष्येभ्य आगत्योत्पद्यन्ते नरकावासे नरकाः ? इति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! ' असण्णीहिंतो उववज्जंति' असंज्ञिभ्यः संमूच्छिम पञ्चेन्द्रि येभ्य आगत्यात्र - प्रथम पृथिव्या मुत्यद्यन्ते नारकाः, 'जाव मच्छमणुर्हितो वि रयणमा पुढबीए नेरइया' हे भदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी के नरकवासों में नैरयिक जीव 'कओहिंतो उर्ववज्जंति' किस स्थान से किस गति से आकर के उत्पन्न होते हैं? 'किं असण्णीहिंतो उववज्जंति' या असंज़ियों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? 'सरीसिवेंहिंतो उबवज्र्ज्जति' या सरीसृपों-सुजा से सरककर चलनेवाले गोहनेवला आदि में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? या 'पक्खीहिंतो उववज्जंति' चतुपदों में से आकरके उत्पन्न होते हैं ? या 'उरगेहिंतो उववज्नंति' वर्षो में से आकर के उत्पन्न होते हैं ! या 'इत्थिवाहितो उववज्जंति' स्त्रियों में से आकरके उत्पन्न होते हैं ? या 'मच्छमणुरहितो उवयज्जंति' मत्स्य एवं मनुष्यों में से आकरके उत्पन्न होते हैं ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'गोयमा ! असण्गीहिंतो उबवज्जंति जाव मच्छ प्रणुरहितो वि उयवज्जति' हे गौतम ! रनप्रभा पृथिवी के नरकावासों
रयणप्पभार पुढवीए नेरहया' डे लगवन् ! म २ नअला पृथ्वीना नरावासोभां नैरयि को 'कओहिंता ववज्जंति' या स्थानभांथी मने अर्ध गतिभाषी भावीने उत्पन्न थाय छे ? 'कि' असण्णीहिता उववज्ज'ति' शु' असं ज्ञीया भांथी भावीने उत्पन्न थाय छे ? 'सरीसिवेहिंता उववज्जति' अथवा सरीसृपे। ભુાએથી ચાલવાવાળા ઘા, નાળીયા વિગેરેમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? अथवा 'पक्खीहिता उववज्ज'ति' घोषणा प्राणीयेोभाथी भावीने उत्पन्न थाय हे ? अथवा 'उरगेहितेा उववज्जति' सर्योभांथी भावीने उत्पन्न थाय छे ? अथवा 'इत्थियाहिता उववज्जति' स्त्रियामांथी भावाने उत्पन्न थाय हे ? अथवा 'मच्छमणुएहि तो उववज्जति' मत्स्य मने मनुष्याभांथी भावीने ઉત્પન્ન થાય છે ? આ प्रश्नना उत्तरमां अलुश्री उडे हे 'गोयमा ! असण्णीहिंतो उववज्ज'ति' जात्र मच्छमणुरहितो वि उववज्जति हे गौतम! २त्नप्रभा પૃથ્વીના નરકાવાસોમાં નૈરિયક જીવા અસ’જ્ઞીચામાંથી પણ આવીને
Page #237
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ २.१७ नारकजीवोत्पातनिरूपणम् उपवज्जति' सरीसपेभ्योऽपि आगत्य रस्नममायामुत्पद्यन्छे नारकाः पक्षिभ्योऽपि आगत्योत्पधन्ते चतुष्पदेभ्योऽपि आगत्योत्पद्यन्ते उरगेभ्योऽपि आगत्योत्पधन्ते, स्त्रीभ्योऽपि आगत्योत्पद्यन्ते, मत्स्यमनुष्येभ्योऽपि आगत्य रत्नप्रमाणं नारकाः समुत्पद्यन्ते इति । 'सेसामु इमार गाहाए अणुगंतव्वा' शेषासु-शर्कराममा प्रभृ. तिषु पृथिवीषु अनया गाथश-वक्ष्यमाण सार्द्धगाथया नारकाणां समुपद्यमानता अनुगन्तव्या-अनुसरणीया 'असन्नी खल्ल पढम' इत्यादि, 'असणी खलु पढमं' असंझिनः खलु संपूछिम पञ्चेन्द्रियाः खलु पथयां नरकपृथिवीन गच्छन्ति १, में नैरयिक जीव असंज्ञियों में से श्री आकर के उत्पन्न होते हैं और यावत् मत्स्यों और मनुष्यों में से आकरके भी उत्पन्न होते है, एके. न्द्रिय से लेकर असंज्ञो पश्चेन्द्रिय तक के समस्न जीव समूच्छिम ही होते हैं इसलिये सामान्यरूप से यहां ऐसा कह दिया गया है कि असंज्ञी जीव नरकों में-प्रथम नरक के नरकासालों में-उत्पन्न होते हैं इसी तरह से सरीसृपों-सरकार चलनेवालों में से भी आकर के जीव प्रथम नरक के नरकावासों में नारक रूप से उत्पन्न होते हैं पक्षियों में से, चतुष्पदों में से, उरमों में से, स्त्रियों में से, और मत्स्यों एवं मनुष्यों में से, आकर के जीव यहां प्रथम नरक के नरकावासों में उत्पन्न होते हैं । वाकी की पृथिवियों के नरकावासों में उत्पन्न होने के सम्बन्ध में यह डेढ गाथा है-वह इस प्रकार है
'असण्णी खलु पढम' इत्यादि । जो असंज्ञी पञ्चन्द्रिय जीव है वे तो प्रथम पृथिवी के ही नरकावासों में नारक रूप से उत्पन्न होते हैं आगे की पृथिवियों के नरका ઉત્પન્ન થાય છે. અને યાવત્ મત્સ્ય અને મનુષ્યમાંથી આવીને પણ ઉત્પન્ન થાય છે. એક ઈદ્રિયવાળા જીવોથી લઈને અસંજ્ઞી પંચેન્દ્રિય સુધીના સઘળા
સંમૂર્ણિમજ હોય છે. તેથી સામાન્ય પણુથી અહિયાં એ પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે. કે અસંજ્ઞીજી નરકાવાસોમાં એટલે કે પહેલા નરકના નરકાવાસમાં નારપણાથી ઉત્પન્ન થાય છે. પરિક્ષામાંથી, ચેપગા પ્રાણીમાંથી, સર્પોમાંથી, સ્ત્રિમાંથી અને માછલીઓમાંથી તથા મજુમાંથી આવેલા જીવ આ પહેલી નરકના નરકાવાસમાં ઉત્પન્ન થવાના સંબંધમાં આ દેઢ ગાથા ४ही छ. ते सा प्रभारी छे. 'असन्नी खलु पढम' छत्या.
એટલે કે જે અસંણી પંચેન્દ્રિય જીવે છે, તેઓ તે પહેલી પૃથ્વીના નરકાવાસમાં જ નારપણાથી ઉત્પન્ન થાય છે. તે પછીની પૃથ્વીના નરકા
Page #238
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवाभिगमन खल्ल शब्दोऽवधारणे, तथा च-यदि असंज्ञिनो नरले गच्छन्ति तदा मयमामेव नरकपृथिवीं गच्छन्ति न तु परत इति न तु ते संमृच्छिम पञ्चेन्द्रिया एत्र प्रथमा. मिति गर्भनसरीसृपादीनामपि उत्तर पटकपृथिवीगामिनामपि तत्र नमनादितिएवमुत्तर पृथिव्यादावपि अवधारणं भावनीयमिति । 'दोच्वं च सरीसिवा' द्वितीयामेव शर्करापभाक्ष्यां पृथिवी यावगच्छन्ति सरीसपा गोधानकुललपादयो गर्भयुक्रान्ता न परत इति । 'तत्यपक्खी' तृतीयां वालुकाप्रमारटयां पृथिवीं यावत् प्रथमपृथिवीत आरतृतीय पृथिदीपर्यन्त पक्षिगो धादयो गच्छन्तीति । 'सीहा जति चाथि चतुर्थी मे पृथिती यावत् पङ्कन पारपां पृथिरी यावत् सिंहा बालों में वे उत्पन्न नहीं होते हैं ऐसा अवधारण यहां पाधा में रहे हुए खलु पद से किया गया है इससे यह निपेत्र नहीं समझना चाहिये कि सरीसृप आदि आगे की छहों पृधिधियों में जाने वाले प्रथम पृथिवी के नरकावासों में उत्पन्न नहीं होते है ये मुरीप आदि यहां पर भी उत्पन्न हो सकते हैं--
यही विषय इस गाथा द्वारालमझाया गया है-'दोच्चं च सरीसिवा' सरीसृप-गोधा नकुल आदि गर्भज पञ्चेन्द्रिय जीव शराप्रभा पृधिवी तक के ही लरकावासों में नारक रूप से उत्पन्न होते हैं। इससे आगे की पृथिवियों के नरकाघासों में ये नारक रूप से उत्पन्न नहीं होते है। 'तय पक्खी पालुझावमा पृथिवी तक केही नरवालों में पक्षी गृद्ध आदि पञ्चन्द्रिय गर्भज पक्षि नारक रूप से उत्पन्न होते हैं इससे
आगे की पृथिवियों के नरक्षावालों में ये नारक रूप से उत्पन्न नहीं होते। 'सीदा जति च उत्थी' चौथी जो पडुप्रभा नाम की पृथिवी है વાસમાં તેઓ ઉત્પન્ન થતા નથી આ પ્રમાણેનો અર્થ આ ગાળામાં આપેલ 'खलु' ५४थी ४२पामा मात छे. तेथी सेवा निषेध सभा नहीं है सशसु५ વિગેરે પછીની છએ પૃથ્વીમાં જવાવાળા પહેલી પૃથ્વીના નરકાવાસોમાં ઉત્પન્ન થતા નથી. આ સરીસૃપ વિગેરે તેમાં પણ ઉત્પન્ન થઈ શકે છે. એજ વિષય આ નીચે આપવામાં આવેલ ગાથા દ્વારા સમજાવવામાં આવેલ છે. 'दोच्च च सरीसिवा' सरीस५ था, नाणीया वि३ । पायद्रियावाणा જી શર્કરા પ્રભા પૃથ્વી સુધીના નરકવામાં જ નારકપણાથી ઉત્તપન્ન થાય છે. તે પછીની પૃથ્વીના નારકાવામાં તેઓ નારકપણાથી ઉત્પન્ન થતા નથી. 'तईय पक्खी'
पाला पृथ्वी सुधीना न२४पासोमा ५ पक्षी जाय विरे પાંચ ઈદ્રિયવાળા ગર્ભજ પક્ષી નારકાપણાથી ઉત્પન્ન થાય છે. તે પછીની पृथ्वीयाना ना२पासमा तमा ना२४ाथी उत्पन्न यता नथी. 'सीहा जंति
Page #239
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ सू.१७ नारकजीवोत्पातनिरूपणम्
२१७ यान्तीति । 'उरगा पुण पंचमि जति पञ्चमी धूमप्रभाख्यां पृथिवीमेव यावद् उरगा यान्ति इति । 'छष्टिं च इत्थियाओ' षष्ठी तमाममाख्यां पृथिवीमेव यावत् खियः स्त्रीरत्नाद्या महाराध्यबसायिन्यो गच्छन्तीति । 'मच्छामणुयाय सत्तमि जंलि सच्ची समस्तमां पृथिवीं यावदू मत्स्या मनुजा अति कराध्यवसा. यिनो महापापकारिणो यान्ति-गच्छन्तीति गाथार्थः । 'जाव' इति यावत्,यावस्प देन षष्ठी पृथिवीपर्यन्तं यत्नममा पृथिवीषदेवालापकाः कर्तव्याः, अधः सप्तम्या आलापकं तु सुत्रकार सममेव क्ष्यति । तथाहि-सकर एमाए णं भंते ! पुढवीए नेरइया किं असशीहितो उसजति जाब मच्छपणुए हितो उपवज्जति गोयमा! नो अप्सनीहितो उपजतिसरी लिहितो उज्जति जाब मच्छमणुरहितो उववज्जति' वहीं तक के बरवालों में सिंह मरकर नारक रूप से उत्पन्न होता है 'उरगो पुण पंचम जति' कप पानी पृथिवी तरु के हीन नरक्षावासों में नारक रूप से उत्पन होता है ॥१॥ ___ 'छडिंच इत्थियाओ' छठी पृथिवी तक ही स्त्री नारक रूप से उत्पन्न होती है और बच्छा मणुमा य नुतमि जति' महा शुभ अध्यवसाय वाले मत्स्य और मनुष्य सातवी पृथवी तक जाते है । यह गाथा का अर्थ हुभा ॥१॥ इली कथन के अनुसार 'जाव' यावत्पद से छठी पृथिवी तक रत्नप्रभा पृथिवी की तरह आलाप बना लेना चाहिये । अधासप्तमी के विषय में सूत्रकार स्वयं आगे रहेंगे। आलापक इस प्रकार 'सकरप्प भाएण भंते! पुढवीए णे या किं अक्षणी हिंता उववज्जंति, जाव मच्छमनुएहितो उवषति' हे बदन्त ! शर्कराममा पृथिवी के नरका चउत्थी' ५४मा नामनी रे याधी की छे त्या सुधीना १ न२बासमा सिंह भरीने ना२७५थी उत्पन्न थाय छे. 'उरूगा पुण पंचमि जति' स५ પાંચમી પૃથ્વી સુધીના નરકાવાસમાં જ નારકપણાથી ઉત્પન્ન થાય છે. જે ૧ |
'छट्टि'च इत्थियाओ' छी पृथ्वी सुधी १ स्त्री ना२४५थी सत्पन्न याय छ भने 'मच्छा मणुया य सत्तमि जति' मा पशुम मध्यवसाय पण મસ્યા અને મનુષ્ય સાતમી પૃથ્વી સુધી જાય છે. આ ગાથાનો અર્થ થયે ( ૧ છે આ કથન પ્રમાણે જ “જ્ઞાવ” યાવદથી છઠી પૃથ્વી સુધી રત્નપ્રભા પૃથ્વીની જેમ આલાપકો સમજી લેવા. અધઃસપ્તમી પૃથ્વીના સંબંધમાં સૂત્રકાર સ્વયં હવે પછી કથન કરશે. તેના આલાપને પ્રકાર આ પ્રમાણે છે 'सकरप्पभाए णं भंते ! पुढवीए णेरइया कि असण्णीहि तो उसवजति जाव मच्छ
जी० २८
Page #240
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१८
जीवामिगमस्ये (शर्कराममायां खलु भदन्त ! पृथिव्यां नरयिकाः किमसंदिस्य उत्पधन्ते यावन्मत्स्य मनुष्येभ्य उत्पधन्ते ? गौतम ! नो असंज्ञिभ्य उत्पद्यन्ते किन्तु सरीसृपेभ्य उत्पद्यन्ते यावन्मत्स्यमनुष्येय उत्पधन्ते इति ।) 'बालुपप्पमाए णं भंते ! पुढवीए नेरड्या कि अण्णी हितो उपवज्जति जाव मच्छमणुएहितो उपवज्जति ? गोयमा ! नो ऽसण्णीहितो उववज्जति नो सरीसिवे हितो उवदज्जति पक्खोहितो उवचज्जति, जाव मच्छमणुरहितो उपवज्जति' 'वालुकाममायां खलु भदन्त ! पृथिव्यां नैर. यिकाः किमसंज्ञिभ्य उत्पद्यन्ते यावन्मत्स्यमनुष्येभ्य उत्पधन्ते गौतम ! नो वालों में नरथिक क्या असंज्ञी जीवों में से आकर के उत्पन्न होते हैं या यावत् मत्स्य एवं मनुष्यों में से आकर के उत्पन्न होते है ? इसके उत्तर में प्रलु कहते है-'गोयमा णो असन्नीहितो उववज्जति सरीसिवेहितो उपवज्जति जाय मच्छमणुएहितो उज्जति' हे गौतम ! शर्करामभा पृथिवी के नरकावासों में नारक जीव असंज्ञियों में आकर के उत्पन्न नहीं होते हैं-किन्तु संज्ञी सरीसृपों में से आकर के उत्पन्न होते हैं
और यावत् मत्स्य एवं मनुष्यों में से आकर के उत्पन्न होते हैं। _ 'घालुथप्पभाएणं भंते ! पुढवीए णेरइया कि असणीहितो उववजंति, जाव मच्छमणुएहितो उववज्जति'हे भदन्त ! पालुकाप्रभा पृथिवी के नरकावासों में नैरयिक क्या असंज्ञी जीवों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? या धावत् मत्स्य या मनुष्यों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? मणुएहि तो उववज्जति' भगवन् शशमा पृथ्वीना न२४पासोमा नयि। शु અસંસી છમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા યાવત મત્સ્ય અને મનુષ્યમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમસ્વામીને घडे छ 'गोयमा! णो असन्नीहितो उववज्ज ति सरीसिबेहिं तो उववज्जति जाव मच्छमणुएहि तो उववज्जति' 3 गौतम ! शशमा पृथ्वीना न२વાસમાં નારક છો અસંશિમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થતા નથી. પરંતુ સંજ્ઞા અર્થાત સરીસૃપમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે. અને ચાવત મત્સ્ય અને મનુષ્યમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે. _ 'वालुयप्पभाए णं भंते ! पुढवीए णेरइया कि' असण्णीहितो उनवज्जति जाव मच्छमणुएहितो उववज्जति', सावन् वायुप्रमा पृथ्वीना न२४पासामा ઉત્પન્ન થવાવાળા નરયિકે શું અસંશી જેમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા યાવત મત્સ્ય અથવા મનુષ્યમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે હે ગૌતમ! વાલુકાપ્રભા
Page #241
--------------------------------------------------------------------------
________________
पक्षियाति यावत् म
त ! पुढवीए मत हे लदन्त
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ २.२ २.१७ नारकजीवोत्पातनिरूपणम् असंज्ञिभ्य उत्पधन्ते नो सरीसृपेभ्य उत्पधन्ते किन्तु पक्षिभ्य उत्पधन्ते यावन्मत्स्य मनुष्येभ्य उत्पधन्ते' 'पंकप्पभाए णं भंते ! पुढचीए नेरइया, कि असण्णीहितो उक्वग्जंति जाव मच्छमणुएहितो उपवज्जति ? गोयमा! नो असन्नीहिती उवव. ज्जंति, नो सरीसिवेहिंतो उववज्जति, नो पक्खीहितो उज्जति, चउप्पएहितो उववज्जति । 'पङ्कप्रभायां खलु भदन्त ! पृथिव्यां नैरयिकाः किम् असंज्ञिभ्य उत्पधन्ते यावन्मत्स्यमनुजेभ्य उत्पद्यन्ते, गौतम नो असंज्ञिभ्य उत्पधन्ते नो सरीसृ. पेभ्य उत्पद्यन्ते नो पक्षिम्य उत्पयन्ते किन्तु चतुष्पदेभ्य उत्पधन्ते । एवमुत्तरोत्तर उत्तर प्रभु कहते हैं हे गौतम ! बालुकाप्रभा पृथिवी के नरकावासों में नैरयिक 'नो असणीहितो उवधज्जति नोसरीसिवेहिलो उववज्जति' असंज्ञी जीवों में से आकर के उत्पन्न नहीं होते है, और न सरीसृपों में से आकर के उत्पन्न होते हैं किन्तु 'पक्खीहितो उपवज्जति, संज्ञी पक्षियों में से आकर के उत्पन्न होते हैं। 'जाब मच्छसणुएहितो उववति' यावत् मत्स्य और मनुष्यों में से आकर के उत्पन्न होते हैं। 'पंचप्पभाएणं भंते ! पुढवीए नेरहया कि अलण्णीहितो उववज्जति जाव मच्छमणुएहितो उववज्जत्ति' हे बदन्त ! पङ्कप्रभा पृथिवी के नरकावासों में नरयिक क्या असंज्ञी जीवों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? या पावत् मत्स्य में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? या मनुष्यों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-हे गौतम ! पङ्कममा पृथिवी के नरकाचाखों में रयिक असंज्ञी जीवो में से आकर के उत्पन्न नहीं होते हैं वरीसृपों में से Yवाना न२४पासमा नेवि! 'नो असण्णीहितो उवबज्जति नो खरीसिवेहितो उववज्जति' मसी माथी मावीन पन्न यता नथी. मला सशसयामाथी यावी यत्पन्न यता नथी. परतु' 'पक्खीहिंतो ! उवष. ज्जति' सज्ञी पक्षियामाथी भाबीन उत्पन थाय छे 'जाँव मच्छमणुएहितो उपद ज्जति' यावत् भय भने मनुष्यामाथी मावी न थाय छे ‘पकप्पभाए णं भंते ! पुढवीए नेरइया कि असण्णीहितो उववज्जति जाव मच्छमणुएहि तो उवव. ज्जति' भगवन ! पाथिवीना न२१.से. मात्पन्न वा नयि। શું અસંસી જીવોમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા મનુષ્યમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? ગૌતમસ્વામીના આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે છે કે હે ગૌતમ ! પંકખભા પ્રથવીના નરકાવાસમાં ઉત્પન્ન થવાવાળા નરયિકે અસંસી જમાંથી આવીને ઉપન્ન થતા નથી. તેમજ સરીસૃપામાંથી આવીને પણ ઉત્પન્ન થતા નથી. પરંતુ ચેપગા સિં હેમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે, યાવત
में
Page #242
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमस्ने प्रथिव्यां पूर्व पूर्व जीव मतिषेधसहितोत्तरपृथिको प्रतिपेधस्तावद्वक्तव्यः यावद षष्टयां पृथिव्यां स्त्रीभ्य आगत्य नारका उत्पद्यन्ते नत्वधाःसप्तम्याम् इति, स्त्रीणामधः सप्तमी पृथिवीगमननिषेध इति । ____ अधःसप्तमी सूत्रं तु एवम् -'अहे सत्तमाएणं भवे ! पुढवीए' अधासतम्या खल भदन्त ! पृथिव्याम् 'नेरइया किं असण्णी हितो उबवति जाय मच्छमणुस्सेहितो उववज्जति' नारकाः किम् असंज्ञिभ्य उत्पधन्ते सरीसृपेभ्य उत्पद्यन्ते, पक्षिभ्य उत्पद्यन्ते चतुष्पदेभ्य उत्पद्यन्ते, अथवा स्त्रीभ्य उत्पद्यन्ते-मत्स्य मनुज्येभ्यो दोत्पधन्ते इति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे आकर के उत्पन्न नहीं होते हैं पक्षियों में से आकर के उत्पन्न नहीं होते हैं किन्तु चतुष्पद-सिंहो में से आकर के उत्पन्न होते है यावत् मत्स्यो में से आकर के उत्पन्न होते हैं।
इस तरह आगे २, की पृधिषियों के नरकावासों में पूर्व पूर्व के जीवों का प्रतिषेध सहित उत्तर की पृथिवी का प्रतिषेध वहां तक करना चाहिये कि जहां छठी पृथिवी के नरकावासों में स्त्रियों में से आकर के जीव नारक रूपले उत्पन्न होते हैं, किन्तु अघासतनी में नहीं, ऐसा स्त्रियों का अधालप्तमी में जाने का मतिवेध आ जाता है । अध:सप्तमी पृथिवी का सूत्र इस प्रकार से है-'अहे लत्तमाएणं भंते ! पुढवीए नेरइया कि अखण्णीहितो ववज्जति,जाब मच्छवणुपस्तिो उबवज्जति' हे भदन्त ! अधासप्तमी पृथिवी के नरकाबालों में नैरषिक श्या असंज्ञी जीवो में से आकर के उत्पन्न होते है ? या यात मत्स्यों से आकर के उत्पन्न होते हैं ? या मनुष्यों में से आशर के उत्पन्न होते हैं ? यहां મસ્યામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે. અને મનુષ્યોમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે. આ પ્રમાણે પછી પછીની પૃથ્વીના નરકાવાસમાં પૂર્વ પૂર્વના નિષેધ સહિત પછીની પૃથ્વીને પ્રતિષેધ ત્યાં સુધી કરવે કે જયાં સુધી છઠી પૃથ્વીના નેરકાવાસોમાં સ્ત્રિમાંથી આવીને જીવ નારકપણાથી ઉત્પન્ન થાય છે. પરંતુ અધઃસપ્તમી પૃથ્વીમાં થતા નથી. આ પ્રમાણેને પ્રતિષેધ સ્ત્રિને સાતમી અધઃસપ્તમી પૃથ્વીમા ઉત્પન્ન થવાના સંબંધમાં નિષેધ આવી જાય છે. અધઃસપ્તમી પૃથ્વીના समयमा मानीय प्रमाणे सूत्रा : ४९स छे. 'अहे सत्तमाए ण भंते ! पुढवीए नेरइया कि असण्णीहितो उपवजति जाव मच्छमणुएहिं तो उववज्जति' હે ભગવદ્ અધઋસમી પૃથ્વીના તરકાવામાં ઉત્પન્ન થવાવાળા નરયિકા શું? અસંી છમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા યાવત મસ્યામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા મનુષ્યમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ?
Page #243
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ सू.१७ नारकजीवोत्पातनिरूपणम् २२१ गौतम ! 'नो असणीहितो उपवति, जाव नो इत्थियाहिती उबवज्जति मच्छमणुस्सेहितो उवचज्जति' नो असंज्ञिभ्य उत्पद्यन्ते न वा सरीसृपेभ्य उत्पधन्ते, नवा पक्षिभ्य उत्पधन्ते न वा चतुष्पदेभ्य आगत्य उत्पधन्ते, न वा उरगेभ्य आग. त्योत्पधन्ते, न वा स्त्रीभ्य आगत्योत्पधन्ते किन्तु सप्तमी पृथिव्यां नारकाः मत्स्य मनुष्येभ्य आगत्य सम्मुत्पद्यन्ते इति ॥
सम्पति-एकस्मिन् समये कियन्तो नारकाः अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यायावत् शब्द से ऐसा पाठ गृहीत हुवा है-'या सरीसृपों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? या पक्षियों में से आकर के उत्पन्न होते ? या चतुष्पदों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? या उरगों में से आकर के उत्पन्न होते हैं या स्त्रियों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? या मत्स्यों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? या मनुष्यों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? इसके उत्तर में प्रभुकहते हैं-'गोयना! णो अलण्णीहितो उववनंति' अधासप्तमी पृथिवी के नरकों में नैरषिक जीव असंज्ञी जीवों में से आकर के उत्पन्न नहीं होते है, न सहीसृपों में से आकर के उत्पन्न होते हैं न पक्षिण में से आकर के उत्पन्न होते हैं न चतुउपदों में से आकरके उत्पन्न होते हैं नलों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? न स्त्रियों में से आकर के उत्पन्न होते हैं किन्तु मत्स्यों में से और मनुष्यों से आकर के उत्पन्न होते है।
અહિયાં યાવત્ શબ્દથી આ પ્રમાણેને પાઠ ગ્રહણ કરાવે છે. “સરીસૃપોમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા પક્ષિામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા ચેપગે પ્રાણિમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે કે સમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે અથવા સ્ત્રિમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે, અથવા મામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા મનુષ્યમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે?
गीतमा मीना सा प्रश्न उत्तरमा प्रभु छ 'गोयमा! णो असण्णीहितो उववज्जति' अधःससभी पृथ्वीना न२पासमा नै२१४ । અસંજ્ઞી જીવોમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થતા નથી. તેમજ સરીસૃપોમાંથી આવીને પણ ઉત્પન્ન થતા નથી કે પશ્ચિમથી આવીને ઉત્પન્ન થતા નથી. અથવા ચોપગા પ્રાથિમાંથી આવીને પણ ઉત્પન્ન થતા નથી. અથવા . સર્પોમાંથી આવીને પણ ઉત્પન થતા નથી. કે સ્ત્રિોમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થતા નથી. પણ મ–માછલાએ માંથી અને મનુષ્યમથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે.
Page #244
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२२
जीवामिगमसूत्रे
त्यन्ते इति निरूपणार्थमाह- 'इमी से णं' इत्यादि, 'इमीसे णं भंते !' एतस्यां खलु मद्दन्त | 'रयणप्पभार पुढवीए' रत्नप्रभायां पृथिव्याम् 'नेरहया एगसमएणं केवइया उपज्जेति' नैरयिका एकसमये कियन्त उत्पद्यन्ते ? इति प्रश्नः, भगवा नाह - 'गोमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम | 'जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिभि वा' जघन्येन एको वा, द्वौ वा त्रयो वा एकसमयेऽस्यां रत्नममायां नारकाः समुत्पद्यन्ते 'उक्को से णं संखेज्ना वा असंखेज्जा वा उत्रवज्जंति' उत्कर्षेण संख्येया वा असंख्येया वा उत्पद्यन्ते एकसमयेनास्यां रत्नप्रमापृथिव्यां नारकां' इति । 'एवं जाव अहे सत्तमाए' एवं यावदधः सप्तम्याम् अनालापकप्रकारचेत्थम् - शर्कराममायां खलु भदन्त । पृथिव्यां नारका एकसमये कियन्त उत्पद्यन्ते हे गौतम ! जघन्येन एको वा द्वौदा त्रयो वा एकसमये
अब सूत्रकार एक समय में इस रत्नप्रभा पृथिवी में कितने नारक उत्पन्न होते हैं इसका निरूपण करते है- 'इमीसे णं भंते । रथणप्पभाए पुढवीए नेरइया' हे भरन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी में नेरपिक 'एसमरणं केवइया उववज्जंति' एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं, उप्र में प्रभु कहते हैं- 'गोमा ! जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्निया' हे गौतम | रत्नप्रभा पृथिवी में नैरधिक एक समय में कम से कम एक, अथवा दो अथवा तीन तक उत्पन्न होते हैं और 'उक्को सेणं संखेज्जा वा असंखेज्जा वा उचचज्जंति' अधिक से अधिक संख्यात भी उत्पन्न होते है और असंख्यात भी उत्पन्न होते है । 'एवं जाव अहे सत्ताए' इसी तरह का एक समय में उत्पत्ति विषयक कथन शर्कराणमा से लेकर अधःसप्तमी पृथिवी तक कर लेना चाहिये अर्थात् शर्कराप्रभा पृथिवी
હવે સૂત્રકાર એક સમયમા આ રત્નપ્રભા પૃથ્વીમા કેટલા નારક જીવા छत्पन्न थाय छे ? यो वातनुं नि३पशु अरे छे. 'इमीसे णं भंते ! रयणपभाए पुढवीए नेरइया' हे भगवन् मा रत्नप्रला पृथ्वीमा नैरथि। ' एगसमएण' केवइया उववज्जंति' ! समयमा डेटा उत्पन्न थाय छे ? या प्रश्नना उत्तरभा अलु गौतमस्वामीने छे 'गोयमा, ! जहणेणं एक्को वा दो वा तिन्निवा' હે ગૌતમ ! રત્નપ્રભા પૃથ્વીમાં નારક જીવે એક સમયમાં એછામાં ઓછા शे! अथवा मे अथवा त्रयु सुधी उत्पन्न थाय छे भने 'उक्कोसेणं सरखेज्जा वा असं खेज्जा वा उववज्जति' वध रेभां पधारे सभ्यातपण उत्यन्न थाय छे याने असभ्यातयषु उत्पन्न धाय छे. 'एवं जाव अहे सत्तमाए' मा प्रभाषेनुं એટલે કે એક સમયમાં ઉત્પન્ન થવા સબધનું કથન શાપ્રભા પૃથ્વીથી લઈને આધસસમી પૃથ્વી પન્તમાં પણુ કરી લેવું જોઇએ, અર્થાત્ શકે રાપ્રભા
Page #245
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र. ३ उ. २ सू. १७ नारकजीवोत्पातनिरूपणम्
समुत्पद्यन्ते उत्कर्षेण संख्येया या असंख्येया वा समुत्पद्यन्ते । वालुकामयागं खल भदन्त ! पृथिव्यामेक समये नारकाः कियन्त उत्पद्यन्ते है गौतम ! जघन्येनैको वा द्वौ वा त्रयो वा समुत्पद्यन्ते उत्कर्षेण संख्येया वा असंख्येया वा एकसमये नारकाः समुत्पद्यन्ते । हे महन्त । पङ्कप्रभायां चतुर्थ पृथिव्यामेकसमये नारकाः sease ? हे गौतम! जघन्येन एको वा द्वौ वा श्योका समुत्पद्यन्ते उत्कर्षेण संख्या वा असंख्येया वा एकसमयेन नारकाः समुत्पश्यन्ते, एवं धूपमा तमःपणा तपस्तपःपमा पृथिवीण्यपि जघन्योत्कर्षामेकसमये नारकोणां समुत्पादो ज्ञातव्यः, एतदाशयेनैत्र कथितम् -' एवं जाब अहे सत्तमा इति । साम्प्रत प्रतिसमय मे कैकनारकापहारेण सकलनारकापहारकालमानं विचिन्तयन्नाह - 'इमी से णं भंसे' इत्यादि
'इमी से णं भंते । एतस्यां खलु भदन्त | 'रयणनभाए पुढवीए' रत्नमभायां पृथिव्याम् 'नेरइया' नैरयिकाः 'समए समए' समये समये प्रति समयमित्यर्थः 'अवहीरमाणा अवदीरमाणा' अपह्रियमाणा अरहियमाणाः, 'केवइयका लेणं
२२३
में भी एक समय में कम से कम नारक एक या दो या तीन तक उत्पन्न होते हैं और अधिक से संख्यात भी उत्पन्न होते है और असंख्यात भी उत्पन्न होते हैं। इसी तरह से बालुकाप्रभा आदि पृथिवियों में भी समझ लेना चाहिये इसी आशय से लेकर सूत्रकार ने 'एवं जाव आहे सत्तमाए' ऐसा कहा है ।
अब प्रति समय एक एक नारक के निकाले जाने पर समस्तनारकों का अपहरण कोल का विचार करते हुए कहते है- 'इमीसेणं इत्यादि' 'हमसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया समए समए' हे भदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी में से यदि नारक जीव प्रति समय 'अव પૃથ્વીમાં પણ એક સમયમાં આછામાં ઓછા એક અથવા બે અથવા ત્રણુ નારક સુધી ઉત્પન્ન થાય છે અને વધારેમાં વધારે અસંખ્યાત પણ ઉત્પન્ન થાય છે या अभिप्रायने सहने सूत्रारे 'एवं जाव अहे खत्तमाए' या प्रभाये सूत्रપાઠ કહ્યો છે,
હવે પ્રતિસમયે એક એક નારકને બહાર કહેાડવામાં આવે તેા સઘળા નારકાને મહાર કહાઢવામાં કેટલેા સમય લાગે ? તે અપહેરણુ કાળના વિચાર ४२तां सूत्रार हे छे 'इमीसे णं' त्याहि
'इमी से णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीर नेरइया समए समए' हे भगवन् भा रत्नप्रला पृथ्वीभांथी ने ना२४ भवने प्रतिसमये 'अवहीरमाणा अवहीरमाणा' तमांथी महार हाडवामां आवे तो ते मधा त्यांथी 'केवइयालेण अवहिया
Page #246
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
-
-
२२४
जीवामिगम अवहियासिया' कियता कालेन अप हताः स्युरिति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'तेणं असंखेज्जा समए समए अबहीरमाणा अव. हीरमाणा' ते खलु नारका असंख्येयाः समये समये प्रतिममयम् अपहियमाणा अपहियमाणाः 'असंखेज्जाहिं उस्सपिणी ओसप्पिणी हि अवहीति' असंख्येयामि रुत्सविण्यवसारिणीभिरहिएन्ते 'णो चेवणं अवढियासिया' नैद खल अपहतास्युः यदि पतिममयसंख्यात संख्यया असंख्येयोत्सपिण्यवसायिणी कालेस्तेपामपहरणं हीरमाणा अबहीरमाणा' निकाले जावे तो वे सब वहां से 'केवय कालेणं अक्षझिया लिया कितने साल के बाद कितने काल में पूरे निकाले जा सकते हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं
'गोयमा! तेणं असं खेज्जा समए समए अवहीरमाणा अवहीरमाणा असं खेज्जा हिँ उस्तप्पिणी ओसपिणीहि अवहीरंति' हे गौतम ! प्रथम पृथिवी के नारकियों में से यदि एक एक समय में असंख्यात २ नारकी निकाला जावे तो इस तरह करते २ असंख्यात उत्सर्पिणी और असंख्यात अपलर्पिणी काल भले ही समाप्त हो जाते पर वहां से पूरे नारकी नहीं निकाले जा सकते हैं-अर्थात् प्रति समय वे असंख्यात २ की संख्या में वहां से निकाले जाव और यह निकालने का काम असंख्यात उत्सर्पिणी अवपिणी तक भी चालू रहे तो भी वे वहां से पूरे नहीं निकल सकते हैं। 'जो चेवणं अवाहिया सिया' इस तरह से उनका वहां से निकालना हुआ नहीं है और न भविष्य में भी ऐसा सिया'
१ ५ पछी अर्थात हेरा पू३५२। १९१२ ४७ सय मा प्रश्न उत्तरमा प्रभु गौतभावामीन ४ छ है 'गोयमा ! तेण असंखेज्जा समए समए अवहीरमाणा अवहीरमाणा अस खेज्जाहि उत्सप्पिणी ओसप्पिणीहिं अवहीरंति' 3 गीतम! यसरी पृथ्वीना नरयिमाथीने से समयमा અસંખ્યાત અસંખ્યાત ઉત્સર્પિણ અને અસંખ્યાત અસંખ્યાત અવસર્પિણું કાળ ભલે પૂરો થઈ જાય તે પણ તે ત્યાંથી પૂરેપૂરા નારકી બહાર કહાડી શકાતા નથી. અર્થાત્ પ્રતિસમયે તેઓને અસંખ્યાત અસંખ્યાતની સંખ્યામાં ત્યાંથી બહાર કહાડવામાં આવે અને આ રીતે બહાર કહાડવાનું કામ અસંખ્યાત ઉત્સર્પિણ અને અસંખ્યાત અવસર્પિણ કાલ પર્યન્ત તે રીતે બહાર કહાડવાનું ચાલુ જ રહે તો પણ તેઓ ત્યાંથી પૂરેપૂરા બહાર કહાડી શકાતા નથી. જો चेव णं अपहियों सिया' भाशते तेमाने त्यांथी १४२ ४७वानु थयु नथा. અને ભવિષ્યમાં પણ તેમ થશે પણ નહીં અને વર્તમાનમાં પણ તે રીતે થતું
Page #247
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र. ३ उ. २ स्. १७ नारकजीवोत्पातनिरूपणम्
२२५
कुर्यात् तदा ते सर्वे नारका नरकाद् नोदवृत्ता भवेयुरितिभावः । ' जाव अहे सतमाएँ' यावदधः सप्तम्याम् एवं रत्नप्रभावदेव शर्करामभा बालकामभा पङ्कपमा धूमप्रभाः तमःमभा तसस्तमात्रा पृथिवीष्वपि यदि प्रतिसमयमसंख्याता नारका अपहृता भवेयुस्तदा असंख्यातोत्सर्पिण्यवसर्पिणी कालेनापि नारकाणां ततो निःसारणं न संभवतीति ज्ञातव्यमिति ॥
सम्मति नारकाणां शरीरवरिमाणपतिपादनार्थमाह- 'हमी से णं भंते 1 इत्यादि, 'इसीसे णं भंते' एतस्यां खलु भदन्त ! 'स्यणप्पभाए पुढवीए' रत्न मायां पृथिव्याम् 'नेरइयाण के महालिया सरीरोगाहणा पत्रत्ता' 'नेरयिकाणां fareedairaniना मज्ञता - कथितेति प्रश्नः भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि होगा - वर्तमान में भी ऐसा होना नहीं है- परन्तु ऐसा जो कहा गया है वह उनकी असंख्यात संख्या को पुष्ट करने के लिये ही कहा गया है 'जाव अहे खसमाए' रत्नप्रभा के नारकों की तरह ही शर्कराप्रभा बालुकाप्रभा, पङ्कप्रया, धूमप्रभा, तमःप्रभा, और तमस्तमःप्रभा पृधिवियों में से भी यदि प्रत्येक समय में असंख्यात उत्सर्पिणी काल और असंख्यात अवसर्पिणी काल भी समाप्त हो जावे पर वे जीव वहां से कभी भी पूरे नहीं निकाले जा सकते हैं ।
-
अथ नारकजीवों के शरीर का परिमाण प्रतिपादन करते हैं'इमीसे णं भंते!' हे मदत ! इस 'रयणपभाए पुढवीए' रत्नप्रभा पृथिवी में 'नेरयाण के महालिया सरीरोगहणा पन्नत्ता' नेरधिक जीवों की शरीरवगाहना कितनी बड़ी कही गई है ? उत्तर में प्रभु कहते हैंનથી, પરંતુ આ જે કથન કરેલ છે, તે તેઓની અસંખ્યાત સંખ્યાને પુષ્ટ ४२वा भाटे ४ हे छे. 'जाब असत्तमाए '
રત્નપ્રભા પૃથ્વીના નારકેાના કથન પ્રમાણે જ શર્કરાપ્રભા, વાલુકાપ્રભા, પકૅપ્રભા, ધૂમપ્રભા, તમ પ્રભા અને તમસ્તમપ્રભા પૃથ્વીયેામાં પણ જો પ્રત્યેક સમયમાં અસંખ્યાત અસખ્યાત નારક જીવાને બહાર કહેાડવામાં આવે તે તેવી રીતે બહાર કહાડતાં કહાડતાં ભલે અસંખ્યાત ઉત્સર્પિણીકાળ અને અસંખ્યાત અવસર્પિણી કાળ પણ સમાપ્ત થઈ જાય પરંતુ તે જીવા ત્યાંથી કયારેય
પણ પૂરા મહાર કહાડી શકતા નથી.
હવે નારક જીવેાના શરીરનાં પરિમાણુ પ્રમાણુનું भावे छे. 'इमीसे ण' भते !' हे भगवन् । रत्नअला के महालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता' हे भगवन् नैरयि અવગાહના કેટલી મેાટી કહેલ છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં जो० २९
પ્રતિપાદન કરવામાં पृथ्वीमा 'नेरइयाणं लवाना शरीरोनी ગૌતમસ્વામીને
પ્રભુ
Page #248
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२६
जीवाभिगमने 'गोयमा' हे गौतम ! 'दुविहा सरीरोगाणा पन्नता' द्विविधा-द्वि प्रकारका मारकजीवानां शरीरावगाहना प्रज्ञप्ता कयिता द्वैविध्यं दर्शयति-'तं जहा' इत्यादि तं जहा' तद्यथा-'भवधारणिज्जाय उत्तरवेउन्धियाय' भवधारणीया चोत्तर क्रिया च तत्थ पंजा सा भवधारणिज्ना' तत्र तयोर्द्वयोरवगाहनयोर्मध्ये या सा भवधारणीया शरीरावगाहना नारकाणाम् 'सा जहन्नेण अंगुलस्स असंखेज्जइ भाग' सा शरीरावगाहना अंगुलस्यासंख्येषभागप्रमाणा भवति । 'उक्कोसे ण सत्तधणूइं तिनि रययणीओ छच्च अंगुलाई उत्कग भवधारणीया शरीरावगाहना सप्तधनूं पि रिस्रो रत्नयः षड् अंगुलानि सप्तधनूंपि, तिस्रो रत्नया-त्रयो हस्ता इत्यर्थः षट्परिपूर्णानि अंगुलानि एतावत्यमाणा भवतीति । 'तत्य ण नासा उत्तरवेउनिया' त त्योर्मध्ये खलु याला उत्तरक्रिया 'साजहन्नेणं अंगुलस्स संखेजा भाग सा जघन्येन अंगुलस्य संख्येयमागममाणा भवति, 'उक्कोसे ण पनरस. गोयना ! दुविहा सरीरोगाहणा पन्नत्ता' हे गौतम ! नैरयिक जीवों की शरीरावधाहना दो प्रकार की कही गई है-'तं जहा 'जैसे- 'भवधा. रणिज्जा घ उत्सरवेबिया य' भवधारणीया और उत्तर वैक्रिया 'तस्थ णं जामा भषधारणिज्जा' इन में जो भवधारणीया शरीराव गाहना है वह 'जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जाभार्ग' जघन्य से अंगुल के असंख्पात भाग रूप होती है 'उसमोसेणं सत्तषणूइं तिन्नि य रयणीभो छच्च अंशुलाई और उस्कृष्ट से वह सात धनुष तीन हाथ पूरे छ अंगुल प्रमाण होती है। 'तत्थ णं जे से उत्तरवेउब्धिया' तथा जो उत्तर वैक्रिया रूप शरीराव नाहना है वह 'जहन्नेणं अंगुलस्त संखेज्जइ भाग' जघन्य से अंगुल के संरुपातचे भांग रूप है और 'उक्कोसेणं' ४९ छ , 'गोयमा ! दुविहा सरीरोगाहणा पन्नता' गीतम ! १२वि वाना शरीशनी भगाना मे ४२नी ४ी छ. 'त' जहा' ते मे प्रा। मा प्रमाणे छ, 'भवधारणिज्जा य उत्तरवेठब्विया य' अवध.२०ीय सने भी उत्तरवैष्ठिय भ हना छे. 'तत्य णं जा सा भवधारणिज्जा' मा २ सवधारणीय शरीरासान छे, ते 'जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग” “धन्यथा भोगिन मसण्यातमा मा ३५ सय 'उक्कोसेणं सत्तधणूई तिन्नि य रयणीयो उच्च अगुलाइ' भने टथी सात धनुष त्र हाथ भने ५२२ छ मांग प्रमाणुनी हाय छे. 'तत्थ णं जे से उत्तरवेउव्विया' मा उत्तर वठिय३५ शरीराना छ, ते 'जहण्णेणं अंगुलस्म संखेन्जइभाग' धन्यथी मांगणना भ्यातमा भाग ३५ छ, भने 'उकोसेणं' अष्टथी ‘पन्नरस
Page #249
--------------------------------------------------------------------------
________________
"२२७
प्रमेयद्योतिको टीका प्र.३ उ.२ ६.१७ नारकजीवोत्पातनिरूपणेम् धणूई अड्राइज्जायो रयणीओ' उत्कर्षेण पञ्चदश धनूंषि सा द्वे रत्नी पञ्चदशधनु द्वौं इस्तौ एका वितस्तिरेतावत्पमाणा भवतीति । 'दोच्चाए' द्वितीयायां शर्कराप्रभा पृथिव्यां ये नारकास्तेषां शरीरावगाहना 'भवधारणिज्जा जहन्नओ अंगुलासंखेज्जइमार्ग' या भवधारणीया सा जघन्यतो अंगुलासंख्येयभागप्रमाणा भवति 'उक्कोसेणं पण्णरसधण्इं अडाइजाओ रयणीओ' उत्कर्षेण पञ्चदशधषि साढ़े द्वे रत्नी, 'उत्तर वेउन्चिया जहन्नेण अंगुलस्स संखेज्जइमागं' उत्तस्वैक्रियाशरीरावगाहना जघन्येनागुलस्य संख्येयभागप्रमाणा भवति, 'उक्कोसेण एक्कतीसंधणूई एक्का रयणी' उत्कग एकत्रिंशद्धनूंषि एका रनिः,एतावत्यमाणा भवतीति । तच्चाए' तृतीयस्यां वालुकाममा पृथिव्यां ये नारकास्तेषां शरीरावगाहना-भवधारणिज्जा एकतीस धणूई एक्का रयणी' अवधारणीया शरीरावगाहना जघन्येनाङ्गलासंख्येयभागप्रमाणाः उत्कर्षेणेकत्रिशद् धनपि एका रनिः 'उत्तरवेउन्धिया बासद्धि धणूई दोन्नि रयणीयो' उत्तरक्रिया शरीरावगाहना जघ. उत्कृष्ट से 'पनरसवणूई अड्डाहज्जाओ रयणीओ' बह पन्द्रह धनुष ढाई हाथ प्रमाण 'दोच्चाए' द्वितीय शर्कराममा पृथिची में जो नारक है उनकी भवधारणीयशरीरावगाहना जघन्य से तो अंगुल के असंख्यात भाग रूप हैं और उत्कृष्ट से 'पण्णरलधणूई अड्डाइज्जाओ रचणीओ' पन्द्रह धनुष ढाई हाथ की है. तथा-यहां जो उन्तरक्रिया रूप शरीरा वगाहना है वह 'जहन्ने' जघन्य से तो अंगुल के संख्यात वे भाग है और 'उक्कोसेणं' उस्कृष्ट ले 'एकतीसं धणूई एका स्थणी' एकतीस धनुष एक हाथ है 'तच्चाए' तृतीय पृथिवी जो बालुकायमा है उसमें भारकों की भषधारणीय शरीरावगाहना बह जघन्य ले तो अंगुल के असंख्यात वें भाग रूप है और उत्कृष्ट से इकलीस धनुष एक हाथ धणूई अड्ढाइज्जाओ रयणीओ' ५४२ धनुष गढी ५ अमानी छ. 'दोच्चाए' भी श४२मा पृथ्वीमा २ ना२३॥ ॐ, तनी अqधारणीय शरी. વગાહના જઘન્યથી તે આંગળના અસંખ્યાતમા ભાગ રૂપ છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી 'पण्णरस धणूई अड्ढाइजाओ रयणीओ' ५४२ धनुष मने मढी सायनी छ. तथा रे उत्तर वैयि नामनी शरीराबाईना छ, ते 'जहन्नेणं' न्यथा तो मांना सातमi Hu ३५ छ, भने 'उक्कोसेण' थी 'एक्कतीस धणूई एक का रयगी' मेत्रीस धनुष भने मे लायनी छे. 'तच्चाए' श्रील વાલુકા પ્રભા નામની જે પૃથ્વી છે, તેમાં નારકની ભવધારણીય શરીરવગાહ ના જઘન્યથી તે આગળના અસંખ્યાતમા ભાગ રૂપે છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી એક
Page #250
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२८
जीवाभिगमसूत्रे न्यतोऽङ्गुलस्य संख्येयभागप्रमाणा, उत्कर्पण द्वापष्टिधपि द्वे रत्नी एता. वत्यमाणा भवतीति । 'चउत्थीए' चतुर्थ्यां पङ्कममायां पृथिव्यां ये नारकारतेषां शरीरावगाहना-'भवधारणिज्जा वासद्विधाई दोन्नि य रयणीओ' अवधारणीया शरीरावगाहना जघन्यतोऽगुळासंख्येयभागममाणा उत्कर्षेण द्वापष्टिधनू पि द्वे च रत्नी । 'उत्तरवेउब्धिया पणवीसं धणुपयं' उत्तरक्रिया जघग्यतोऽङ्गुळस्य संख्येयभागप्रमाणा उत्कण पञ्चविंशत्यधिकं धनुःशवमिति । 'पंचमीए' पञ्चम्यां धूमप्रमायां ये नारकास्तेषां शरीरावगाहना 'भवधारणिज्जा पणवीसं धणुसयं' भवधारणीया जघन्यतोऽगुलस्यासंख्येयभागममाणा भवति, उत्कर्षेण पञ्चविंशत्यधिक धनु शतम् 'उत्तरवेउबिया अट्टाइल्जाई रूप है तथा यहां उत्तर वैक्रिय रूप जो शरीरावगाहना है वह जघन्य से तो अंगुल के संख्यातवें भागरूप है और उत्कृष्ट से घासठ धनुष और दो हाथ अर्थात् साढे बासठ ६२॥ धनुष है।
'चउत्थीए' चतुर्थ पङ्कप्रभा पृथिवी में जो नारक हैं उनके शरीर की भवधारणीय अवगाहना जघन्य से तो अंगुल के असंख्यातवें भाग रूप है और उत्कृष्ट से वह ६२ पासठ धनुष दो हाथ की हैं तथा -उत्तर वैक्रिय रूप जो शरीरावगाहना है वह जघन्य से तो अंगुल के संख्यातवें भाग रूप है और उत्कृष्ट से पह १२५ एक सौ पच्चीस धनुष की है 'पंचमीए' पांचवी जो धूमप्रभा पृथिवी है उसमें रहने वाले नारकों की भवधारणीय रूप शरीरावगाहना जघन्य से तो अंगुल के असंख्यातवें भाग रूप है और उत्कृष्ट से वह १२५ एक सौ पचीस धनुष प्रमाण है लथा-उत्तर वैनिय रूप शरीरावगाहना जघन्य ત્રિીસ ધનુષ અને એક હાથ પ્રમાણુની છે. તથા અહિંયાં જે ઉત્તરક્રિયરૂપ શરીરવગાહના છે, તે જઘન્યથી તે આગળના સંખ્યામાં ભાગ રૂપ છે અને અને ઉત્કૃષ્ટથી બીસઠ ધનુષ અને બે હાથ અર્થાત્ સાડા બાસઠ ધનુષની છે. 'उत्थीए' याथी ५५मा पृथ्वीमा २ नार। हे, तेगाना शरीरनी वधार શ્રેય અવગાહના જઘન્યથી ૬૨ બાસઠ ધનુષ અને બે હાથની છે. અને ‘ઉત્તર વૈક્રિયરૂપ જે અવગાહના છે, તે જઘન્યથી તો આંગળના સંખ્યાતમાં ભાગ રૂપે છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી તે ૧૨૫ એકસેપચ્ચીસ ધનુષની છે. 'पंचमीए' पायमी २ भरमा नामनी पृथ्वी छ, तभा २डेवानानी ભવધારણયરૂપ શરીરવગાહના જઘન્યથી તે એક આંગળના અસંખ્યાતમાં ભાગ રૂપ છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી તે ૧૨૫, એકસો પચીસ ધનુષ પ્રમાણની છે. તથા ઉત્તર વૈક્રિયરૂપ શરીરવગાહના જઘન્યથી એક આંગળના સંખ્યાતમાભાગ ३५ छ भने थी मढीसो धनुष थे. 'छद्रीए' ७४ी तमसा नामनी पृथ्वीमा
Page #251
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेययोतिका टीका प्र. ३ उ.२ सु. १७ नारकजीवोत्पातनिरूपणम्
२२९
धणुसयाई' उत्तरक्रिया जघन्यतोऽङ्गुलस्याऽसंख्येयभागममाणा उत्कर्षतः सार्द्धतृतीयानि धनुःशतानीति । 'छट्टीए मवधारणिज्जा अड्डाइज्जाई घणुसयाई' षष्ठयां नारकपृथिव्यां नारकाणां भवधारणीया शरीरावगाहना जघन्येनाङ्गुलासंख्येयभागप्रमाणा, उत्कर्षेण सार्द्ध द्वितीयानि धनुः शतानीति || ' उत्तर वेउब्विया पंचधणुसयाई' उत्तर वैक्रिया जघन्येनाङ्गुलस्य संख्येययभागममाणा, उत्कर्षेण पश्च धनुः शतानीति । 'सतमाए भवधारणिज्जा पंचधणुसयाई' सप्तम्यां तमस्तमा पृथिव्यां नारकाणां भवधारणीया शरीरावगाहना जघन्यतोऽङ्गुलस्यासंख्येयभाग प्रमाणा, उत्कर्षेण पञ्चधनुः शतानि 'उत्तरवेउच्चिया धणुसहस्से' उत्तरबैक्रिया जघन्यतोऽङ्गुलस्य संख्येयभागप्रमाणा, उत्कर्षतो धनुः सहस्रं भवतीति ॥
से अंगुल के संख्यातवें भाग रूप है और उत्कृष्ट से वह सार्द्ध तृतीय धनुःशत - ढाइ सौ धनुष रूप है. 'छडीए' तमःप्रभा पृथिवी में नारक जीवों की भवधारणीय शरीरावगाहना जघन्य से अंगुल के असंख्यातवें भागरूप है और उत्कृष्ट से यह २५० ढाई सौ धनुष है तथा उत्तर वैक्रिय रूप शरीरावगाहना जघन्य से तो अंगुल के संख्यातवें भाग रूप है और उत्कृष्ट से ५०० पांच सौ धनुष प्रमाण है 'सत्तमाए भवधारपिज्जा पंचधणुसयाई' सातवीं पृथिवी में भवधारणीय शरीरावगाहना जघन्य से अंगुल के असंख्यातवें भाग रूप हैं और उत्कृष्ट से वह ५०० पांच सौ धनुष रूप है, तथा - 'उत्तरवे उध्विया' उत्तर वैक्रिय रूप शरीरावगाहना जधन्य से तो अंगुल के संख्यातवें भाग रूप है और उत्कृष्ट से एक हजार धनुष रूप है.
નારકીય જીવેાની ભવધારણીય શરીરાવગાહના જઘન્યથી તેા એક આંગળના અસંખ્યાતમા ભાગ રૂપ છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી તે ૨૫૦ ખસેા પચાસ ધનુષ પ્રમાણુની છે. તથા ઉત્તરવૈકિય રૂપ શરીરાવગાહના જઘન્યથી તા એક આંગળના સખ્યાતમા ભાગ રૂપ છે. અને ઉત્કૃષ્ટ અવગાહના ૫૦૦ પાંચસે ધનુષ प्रभाणुनी छे. 'सत्तमाए भवधारणिज्जा पंच धणुसयाई' सातभी पृथ्वीमां भव ધારણીય શરીરાવગાહના જઘન્યથી એક આંગળના અસંખ્યાતમ ભાગ રૂપ છે याने उत्सृष्टथी ते ५०० पांयसे। धनुष प्रभाणुनी छे तथा 'उत्तरवे उब्विया ' ઉત્તર વૈક્રિયા રૂપ શરીરાવગાહના જઘન્યથી તેા એક આંગળના સંખ્યાત ભાગ રૂપ છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી એક હજાર ધનુષરૂપ છે.
Page #252
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
- -
२३०
जीवाभिगमसूत्रे अत्र रत्नप्रभादि पृथिवीगन नारकाणां मतिप्रतरं भवधारणीयशरीरस्योत्कृष्ट वगाहनापमाणपतिपादकं गाथादशकं यथा
'त्यणाए पढमपयरे, इत्थतिय देह उस्सए प्रणियं । छप्पन्नंगुळ सड़ा, पयरे पयरे हवइ वुड़ी ॥१॥ सो चेन य वीयाए, पढमे पयरंमि होइ उस्सेहो ? हस्थतिय लिन्नि अंगुल, पयरे पयरे य वुडीय ॥२॥ एक्कारसमे पयरे, पण्णरस घणि दोणि रयणीओ। पारस य अंगुलाई, देहपमाणं तु विन्नेयं ॥३॥ सो चेव य तइयाए, पढमे पपरम्मि होइ उस्सेहो । सत्तय रयणी अंगुल गुणवीसंसड्युड़ीय ॥४॥ पयरे पयरे य तहा नवमे पयरीम होइ उस्सेदो । धणुयाणि एगतीसं, एका रयणीय णायन्ना ॥५॥ सो चेव च उत्थीए, पढमे पयरम्मि होइ उस्सेहो । पंचधणु वीस अंशुल, पयरे पयरे य वुडोय । ६।। जाव सत्तमए पयरे, नेरइया तु होइ उस्से हो । बासट्ठी धणुयाई, दो णि य रयणीय वौद्धन्वा ॥७॥ सो चेव पंचमीए पढमे पयरम्मि होइ उस्सेहो । पण्णरस धणूणि दोहत्य सङ्घ पयरेसु बुट्टोय ॥८॥ तह पंचमए पयरे, उम्सेहो घणुमयंतु पणवीसं । सो चेत्र य छट्ठीए, पढमे पयरस्मि होइ उस्सेहो ।९। बासहि धणु य सड्रा, पयरे पयरे य बुड्रीय ।
छठ्ठीए सइअपयरे, दो सय पण्णा-या होति ॥१०॥ छाया-लाया. प्रथममतरे, हस्तत्रिक देहोच्छ्राये भणितम् ।
षट् पञ्चाशदगुलानि सानि, प्रवरे पतरे भवति वृद्धिः ॥१॥ स एव च द्वितीयायाः पथमे पतरे भवति उत्सेधः । हस्तत्रिकं त्रीणि अंगुळानि, प्रतरे पतरे च वृद्धिश्च । २॥ एकादशे प्रतरे पञ्चदश धन्पि द्वे रत्नी। द्वादश चालानि देहप्रमाणं तु विज्ञेयम् ॥३॥ स एव च तृतीयाया प्रथमे प्रतरे भवति उत्सेधः । सप्त च रत्नयः, अङ्गुलानि एकोनविंशतिः सार्द्धा वृद्धिश्च ।।४॥ पतरे प्रतरे च तथा, नवमे प्रतरे भवति उत्सेधः । धनुष्काणि एकत्रिंशत्, कए। रत्निश्च ज्ञातव्या ॥५॥
Page #253
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीकाप्र.३ उ.२ सू.१७ नारकजीवोत्पातनिरूपणम् २३१
स एव चतुर्थाः, प्रथमे पतरे भवति उत्सेधः । पञ्च धषि विशतिरनुलानि प्रवरे प्रतरे च वृद्धिश्च । ६ । यावत्मप्तमे पतरे, नैरयिकाणां तु भवलि उत्सेधः । द्वापष्टिधनुष्काणि, द्वे च रत्नी च बोद्धये ॥७॥ स एव पञ्चम्पार, प्रवरे भवति उत्सेधः । पश्चदश धषि, द्वौ हस्तौ साद्धौ प्रतरेषु वृद्धिश्च ।।८।। तथा पञ्चमके प्रतरे, उत्सेधो धनुः शतं तु पञ्चविंशष्ट । स एव च षष्ठयाः, पथमे प्रतरे मदति उत्सेधः ॥९॥ द्वाषष्टिः धषि च सा , शतरे प्रवरे य वृद्धिश्च ।
षष्ठया तृतीया रे, द्वे शते पञ्चाशते भवतः ॥१० । प्रत्येक पृथिव्याः प्रतरसंख्या यथा-१ .रत्नमाया त्रयोदशपतराः १३, २ शर्कराप्रभायामेकादश प्रतरा: ११, ३ बालुकापमा नवपतरा: ९४ पङ्कममायां सप्तपतराः ७, ५-धूमममायां पञ्चमतर: ५, ६-समापमायां जया प्रतराः __ यहां रत्नप्रभा आदि पृथिवियों में रहे हुए नारकों की प्रत्येक प्रतर की भवधारणीय जघन्य मध्यम उत्कृष्ट अवगाहना के प्रमाग को कहने वाली दश गाथाएं हैं जो टीका में दी गई है 'रघणाए पढरपघरे' इत्यादि
प्रत्येक पृथिवी की प्रतरसंख्या इस प्रकार है -रत्नप्रभा में १३ तेरह प्रतर है १, शर्कराप्रभा में ११ ग्यारह प्रतर है २, चालुकाप्रमा में ९ नौ प्रतर है ३, पंकप्रभा में ७ सात प्रतर हैं ४, धूमप्रभा में ५, पांच है ५, तमाप्रभा में ३ तीन प्रतर है ६, और सातवीं तमस्तमःप्रभा में एक ही प्रतर है ७ इन सातों पृथिवियों के नारथों की अमाहना
અહિયાં રત્નપ્રભા વિગેરે પૃથ્વીમાં રહેલા નારકેની દરેક પ્રતરની ભવધારય જઘન્ય, મધ્યમ, અને ઉત્કૃષ્ટ અવગાહની ના પ્રમાણને બતાવવા વાળી દસ ગાથાઓ છે. કે જે ગાથાઓ ટીકમાં આપવામાં આવેલ છે. 'रयणाए पढमपयरे' या
દરેક પૃથ્વીના પ્રતરની સંખ્યા આ પ્રમાણે છે – પહેલી રત્નપ્રભા પૃથ્વીમાં તેર પ્રતિરો છે. ૧, શર્કરા પ્રભા પૃથ્વીમાં અગીયાર પ્રતરે છે ૨, વાલુકાપ્રભા પૃથ્વીમાં ૯ નવ પ્રતરે છે ૩, પંકપ્રભા પૃથ્વીમાં સાત પ્રતિરો છે ૪, ધૂમ પ્રભા પૃથ્વીમાં પાંચ પ્રતરે છે. ૫, તમઃપ્રભા પૃથ્વીમાં ૩ ત્રણ પ્રતો છે ૬, અને સાતમી તમતમા નામની પૃથ્વીમાં એક જ પ્રતર છે. ૭, આ સાતે
Page #254
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३२
जीवाभिगमचे
३, ७-तमस्तमःमभायामेकः पतरः १ इति । सर्व पृथिवीगतनारकाणामवगाहना द्विविधा भवति भवधारणीया उत्तरक्रिया च, तुत्र भवधारणीयाऽवगाहना जघन्यतोऽङ्गुलस्यासंख्येयभागममाणा उत्तरवैक्रियाऽवगाहना च जघन्यतोऽगुलस्य संख्येयमागप्रमाणेति विशेषः। भवधारणीया उत्तरक्रिया चेति द्वे अपि अवगाहने उत्कृष्टतः सर्व पृथिवीगत नारकाणां पूर्व पूर्व पृथिवीगताव गाहनात उत्त रोत्तर पृथिवीषु स्वस्वापेक्षया द्वि गुणा द्विगुणाऽवगन्तव्येति । अत्रोत्कृप्टतो भवधारणीयावगाहनामाश्रित्य परिप्रतरगतनारकानगाहना प्रतिपादिकानां पूक्ति गाथानामयं भावःदो प्रकार को होनी है-एक भवधारणीय दूमरी उत्तरवैक्रिय । इन में जो भवधारणीय अवगाहना है वह सयों की जघन्य से अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण की होती है और जो उत्तरवैक्रिय अवगा. हना है वह सबों की जघन्य से अंगुल के संख्शातवें भाग प्रमाण को होती है यह इन दोनो में विशेष है सघ पृथिवियों के नारकों की भवधारणीय और उत्तर वैक्रिश ये दोनों अवगाहनाएं पूर्व पूर्व की पृथिवी के नारकों की अवगाहना से आगे आगे की पृथिवियों में अपनी अपनी, अपेक्षा से दुगुणी, दुगुणी होती चली जाती है, ऐसा समझलेना चाहिये। ___ अब यहां उत्कृष्ट से भवधारणीय अवगाहना को लेकर प्रत्येक प्रतर के नारकों की अवगाहना का प्रतिपादन करने वाली जो दश गाथाएं है उनका भाव इस प्रकार है 'रयणाए' इत्यादि ।
પૃથ્વીના નારકની અવગાહના બે પ્રકારની હોય છે. એક ભવધારણીય અને બીજ ઉત્તર વૈક્રિય. તેમાં જે ભવધારણીય શરીરવગાહના છે, તે બધાની જઘન્યથી એક આંગળના અસંખ્યાતમા ભાગ પ્રમાણની હોય છે. અને જે ઉત્તર વૈક્રિય શરીરવગાહના છે, તે બધાની જ ઘન્યથી આગળના સંખ્યાતમાં ભાગ પ્રમાણની હોય છે. આ બંનેમાં વિશેષતા છે બધી પૃથ્વીના નારકીચેની ભવધારણીય અને ઉત્તરક્રિય આ બેઉ અવગાહનાથી પછી પછીની પૃથ્વીચમાં પિત પિતાની અપેક્ષાથી બમણી બમણી થતી જાય છે. તેમ સમજવું.
હવે અહિયાં ઉત્કૃષ્ટથી ભવધારણીય અવગાહનાને લઈને દરેક પ્રતના નારકોની અવગાહનાનું પ્રતિપાદન કરવાવાળી જે દસ ગાથાઓ છે. તેનો ભાવ मतावामा मावे छे. रेभ. 'रयणाए' इत्यादि
Page #255
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.२ ६.१७ नारकजीवोत्पातनिरूपणम् .... २३३
रत्नप्रभायाः प्रथमपतरे नारकाणामवगाहना इस्तत्रयप्रमाणा, इत आरभ्य मतरे प्रतरे 'छप्पन्नंगुल सड़ा' सार्द्ध षड् पश्चाशदगुलानि संवऱ्या संवर्ध्य प्रयोदशस्वपि प्रतरेषु नारकाणामवगाहना ज्ञातव्या । एवं क्रमेण संवर्द्धनेनान्तिमे प्रयोदशतमे पतरे सप्तधनूंषि त्रयो हस्ताः षट्चाङ्गुलानि समायान्ति ॥१॥ एवं 'सों वेव
रत्नप्रभा पृथिवी के पहले प्रतर में नारकों की अवगाहना तीनहाथ की होती है। इससे आगे के बारइ प्रतों में प्रत्येक प्रतरमें 'छप्पन्नंगुल. सट्टा'साढे छप्पन (५६।।) अंगुल बढाढा कर बारहों प्रतरों की अवगा. हना कर लेनी चाहिये । ऐले करते करते अन्तिम तेरहवें प्रतर में जाकर उत्कृष्ट अवगाहना सात धनुष तीन हाथ और छह अंगुल की आ जाती है वह इस प्रकार है-पत्नप्रभा के प्रथम प्रतर में तीन हाथ की अवगाहना होती है १, दूसरे प्रतर में एक धनुष एक हाथ और साढे आठ अंगुल की २, तीसरे प्रतर में एक धनुष तीन हाथ लतरह अंगुल की ३, चौथे प्रतर में दो धनुष दो हाथ और डेढ अंगुल की ४, पांचवें प्रतर में तीन धनुष और दश अंगुलकी ५, छठे प्रतर में तीन धनुष दो हाथ और साढे अठारह अंगुल की ६, सातवें प्रतर में चार धनुष एक हाय और तीन अंगुलको ७, आठवें प्रतर में चार धनुष तीन हाथ और साढे ग्यारह अंगुलकी ८, नौवे प्रतर में पांच धनुष एक हाथ और बीस अंगुलकी ९, दशवें प्रतर में छह धनुष और साढे चार अंगुलकी १०,
રત્નપ્રભા પૃથ્વીના પહેલા પ્રતરમાં નારકેની અવગાહના ત્રણ હાથની डाय छ, a पछीना ॥२ प्रतरामा हरे प्रतशमा 'छप्पन्नंगुलसढा' ५६॥ साउ છપ્પન આગળ વધારીને બારે પ્રતની અવગાહના અલગ અલગ સમજી લેવી. તેમ કરતાં કરતાં છેલ્લા તેરમા પ્રતરમાં જઈને ઉત્કૃષ્ટ અવગાહના સાત ધનુષ ત્રણ હાથ અને છ આંગળની થઈ જાય છે. તે આ પ્રમાણે છે રત્નપ્રભા પૃથ્વીના પહેલા પ્રતરમાં ત્રણ હાથની અવગાહના હોય છે. ૧ બીજા પ્રતરમાં એક ધનષ એક હાથ અને સાડા આઠ આંગળની છે. ૨' ત્રીજા પ્રતરમાં એક ધનુષ ત્રણ હાથ અને સત્તર આંગળની છે. ૩, ચોથા પ્રતરમાં બે ધનુષ અને બે હાથ અને દેઢ આગળની છે. ૪, પાંચમા પ્રતરમાં ત્રણ ધનુષ અને દસ આંગળની છે. ૫, છઠ પ્રતરમાં ત્રણ ધનુષ બે હાથ અને સાડા અઢાર આંગળની છે. ૬, સાતમાં પ્રતરમાં ચાર ધનુષ એક હાથ અને ત્રણ આંગળની છે. ૭ આઠમાં પ્રતરમાં ચાર ધનુષ ત્રણ હાથ અને સાડા અગ્યાર આંગળની છે. ૮, નવમાં પ્રતરમાં પાંચ ધનુષ એક હાથ અને વીસ આગળની છે. ૯. દસમાં પ્રતરમાં છ ધનુષ અને સાડા ચાર આંગળની છે. ૧૦ અગીયારમાં પ્રસરમાં
जी० ३०
Page #256
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामि गमसूत्रे
२३४
rature' इत्यादि, रत्नप्रभायात्रयोदशतममत रममाणैव, शर्कराममायाः प्रथमे वडवनाहना-पटङ्गुलाधिक त्रिहस्तोत्तराणि सप्तधनपि इत्येवं प्रमाणा भवति, संत- इथं आरभ्यास्यामवगाहनायाम् प्रतिपतरम् 'हस्थतिय तिन्नि अंगुला ' ' हस्तत्रयं-यों हस्ताः त्रीणि अंगुलानि प्रक्षिप्यन्ते |२| तेनास्य अन्तिमे एकादशे * मंतरे पञ्चदश धनूंषि द्वौ हस्तौ द्वादशङ्गुलानि, इत्येवं प्रमाणाऽवगाहना मंत्रति ।
"परि" प्रतर में छह धनुष दो हाथ और तेरह अंगुलकी ११, बारह वे प्रतर में सात धनुष और माढे इक्कीस अंगुलकी १२, और अन्तिम के तेरहवें अंतर में जाकर सूत्रोक्त सात धनुप तीन हाथ और पूरे 'छह अंगुलकी रेनप्रभा पृथिवी के नारकों की भवधारणीय अवगाहना त्कृष्ट से होती है । यह रत्नप्रभा के नारकों की उत्कृष्ट अवगाहना कही गई है || १ ||
"
अब शर्कराभा पृथिवी के विषय में कहते हैं 'सो 'चैव य यीयाए ' हत्यादि ।
fre
ॐ
forge CE
जो रत्नप्रभ में तेरहवें प्रतर में जितने प्रमाण की अवगाहना fre कही है, वही अवगाहना-सात धनुष तीन हाथ छह अंगुल - शर्कराप्रभा पृथिवी के प्रथम प्रतर में होगी, फिर इस अवगाहना के प्रमाण में ' इत्थतिय तिनि अंगुलं' तीन हाथ और तीन अंगुल आगे आगे के
"
1
- હવે શકાપ્રભા પૃથ્વીના સખ ધમાં ''सों चैव य बीयाएं' त्याहि
-
छ धनुष मे हाथ तेर आगजनी है. ११, मारभा अतरभां सात धनुष અને સાડાએકવીન્ન આંગળની છે. ૧૨, અને છેલ્લા તેરમા પ્રતરમાં સૂત્રોક્ત સાતધનુષ ત્રણ હાથ અને પૂરા છ આંગળની રત્નપ્રભા‘પૃથ્વીના નારકોની ભવ ધારણીય અવગાહના ઉત્કૃષ્ટથી થાય છે. આ રીતે રત્નપ્રભા પૃથ્વીના નારકાની उत्सृष्टमवगाहना ही छे, ॥१॥
15 J
કથન કરવામાં આવે છે.
રાજા રત્નપ્રભા પૃથ્વીના તેરમા પ્રતરમાં જેટલાં પ્રમાણુની અવગાહના કહેવામાં આવી છે. તેજ પ્રમાણેની અવગાહના સાત ધનુષ ત્રણહાથ અને છ આંગળની
t
શર્કરા પ્રભા પૃથ્વીના પહેલા પ્રતરમાં થાય છે. પછી આ અવગાહનાના प्रभाशुभां : इत्थतिय विन्नि अंगुलं' श्रथः हाथ भने नभांगण पछी पछीना દરેક પ્રતરમાં મેળવતા જવુ ોઈએ.
શા
આ રીતે મેળવવાથી દેલ્લા અગીયારમા તરમાં પંદર ધનુષ એ
-
-
L
Page #257
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योति का टीका प्र.३७.२ सू.१७ नारकजीवोत्पातनिरूपणम् . ... .. २३५ : प्रत्येक प्रतर. में मिलाते. जाना चाहिये ॥२॥ ऐसे मिलाने से अन्तिम ग्यारहवें प्रतर में पन्द्रह धनुष दो हाथ और - घारह अंगुल अर्थात् एकवितरित क्योंकि बारह.अंगुलकी एक-वितस्ति-वेंत होती है। वह अतिप्रतर.की. अवगाहना, इस प्रकार है दूसरी शर्करापमा पृथ्वी के प्रथम प्रतर मे सात धनुष तीन हाथ छह अंगुल की, अवगाहना होती हैं १, दूसरे प्रतर में आठ धनुष दो हाथ और नौ अंगुलकी २ तीसरे प्रतर; में नौ धनुष एक हाथ और बारह अंगुलझी,३.चौथे प्रत्तर में दस धनुष
और पन्द्रह अंगुलकी -४, पांचवें प्रतर में दस धनुष तीन हाथ और: अठारह अंगुलकी, ५, छठे प्रतर, में ग्यारह धनुष, दो हाथ औरइक्कीस अंगुलकी ६, सातवें प्रतर में थारह धनुष और दो हाथ की .
आठवें प्रतर में तेरह धनुष एक हाथ और तीन अंगुलकी ८,.नौवें, प्रतर में चौदह धनुष और छह अंगुल की ९, दसवें प्रतर में चौदह धनुष तीन हाथ और नो अंगुल की १०, एवं अन्त के ग्यारहवें प्रतर में सूत्रोक्त पन्द्रह धनुष दो हाथ और बारह अंगुल अर्थात् एक वित्तस्ति की होती है ११॥ यह दूसरी शर्कराप्रभा पृथिवी के नारकों की उत्कृष्ट अवगाहना कही गई है २ ०३॥ - , - ... .. . . हाथ, भने मा२ .ins अर्थात् मे वितस्ति () म. मा२, मांस, जनी मे. वितस्तिनाम वेत थाय छे. ते ६२४ , प्रत२नी माना. मा, પ્રમાણે થાય છે –શર્કરા પ્રભા પૃથ્વીના પહેલા પ્રતરમાં સાત ધનુષ ત્રણ હાથ અને છ આંગળની, અવગાહના થાય છે. ૧, બીજા પ્રતરમાં આઠ ધનુષ મેં હાથ અને નવ આંગળની ૨, ત્રીજા પ્રતરમાં નવ ધનુષ એક હાથ, અને બાર આગળની ૩, ચોથા પ્રતરમાં દસ ધનુષ અને પંદર આંગળની ૪, पाया , प्रत२मा . इस धनुष नय हाय . मने मढ२ मांगजनी, સાતમા પ્રતરમાં બાર ધનુષ અને બે હાથની ૭, આઠમા પ્રતરમાં તે ધનુષ એક હથિ અને ત્રણ આંગળની ૮, નવમા પ્રતરમાં ચૌદ ધનુષ છે અને છે આગળની , દસમા પ્રતરમાં ચૌદ ધનુષ ત્રણ હાથ અને નવ આંગળની, ૧૦, અને છેલ્લા અગીયારમા પ્રતરમાં સૂત્રમાં કહ્યા પ્રમાણે પંદર ઘનુષ બે હાથ અને બાર આગળ અથૉત્ એકવિતતિ નામ વેંતની હોય છે. ૧૧, આ અવગાહના બીજી શરામભા પૃથ્વીના નારકેની ઉત્કૃષ્ટથી કહેવામાં मावत छ. २ ॥ 1. 3 ॥
Page #258
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमत्रे
T
शगा. ३|| 'सो चेवं य- वइयाए ' इत्यादि । स एव द्वितीया पृथिव्या अन्तिमैका - दर्शतममतरमरूपिताऽवगाहना प्रमाण उत्सेधः तृतीय पृथिव्या वालुकाप्रमायाः प्रथमे प्रतरे भवति, अस्मिन् प्रमाणे 'सत्त य रयणी अंगुळ गुणवीसस बुड्डीय ' सप्त च रत्नयः सार्द्धानिएकोनविंशत्यङ्गुलानि प्रतिपतरं संवर्ध्यन्ते |8| तेनान्ति मे नवमे तरे एकत्रिंशदधनपिएको हस्तः इत्येवं प्रमाणाऽवगाहना जायते ३ ।
1
अब तीसरी वालुकाममा पृथिवी के विषय में कहते हैं- 'सो चेव य तयाए' इत्यादि जो द्वितीय पृथिवी के अन्तिम ग्यारहवें प्रतर में जितना अवगाहना का प्रमाण बताया है पन्द्रह धनुष दो हाथ बारह अंगुल - वही प्रमाण तीसरी बालुकाप्रभा पृथिवी के प्रथम प्रतर में होता है, इस प्रमाण 'सत्त य रयणी अंगुल गुणवीसं सड्डू' सात हाथ साढे उन्नीस अंगुल आगे आगे के प्रति प्रतर में मिलाते जाना चाहिये ॥ गा०४ ॥ ऐसे मिलाते जाने से अन्तके नौवे प्रतर में इकतीस धनुष एक हाथ की अवगाहना हो जाती है ३|| वह प्रति प्रतर की अवगोहना इस प्रकार है - इसके प्रथम प्रतर में पूर्वोक्त पन्द्रह धनुष दो हाथ और बारह अंगुल की अवगाहना होती है १, इसके बाद दूसरे प्रतर में सत्रह धनुष दो हाथ और साढ़े सात अंगुल की २, तीसरे प्रतर में. उन्नीस धनुष दो हाथ और तीन अंगुल की ३, चौथे प्रतर में इफीस धनुष एक हाथ और साढे बाईस अंगुल की ४, पाचवें प्रनर में तेइस धनुष एक हाथ और अठारह अंगुलकी ५, छठे प्रतर में पचीस धनुष
હવે ત્રીજી વાલુકાપ્રભા પૃથ્વીના સંબધમાં કથન કરવામાં આવે છે. છો 'चैव य तइयाए' त्याहि मील में पृथ्वीये ना हेला अगीयारमां प्रतरभां भेटतुं અવગાહના તુ' પ્રમાણુ ખતાવવામાં આવેલ છે, એટલે કે પદર ધનુષ એ હાથ અને ખાર આંગળ કંહ્યુ છે. એજ પ્રમાણુ ત્રીજી વાલુકાપ્રભા પૃથ્વીના પહેલા પ્રતરમાં थाय छे. या प्रभाष 'सत्त य रयणी अंगुलगुणवीसं सहूढं' सात हाथ साडा योगથ્રીસ ૧૯ા આંગળ પછી પછીના દરેક પ્રતરમાં મેળતા જ જવું જોઈએ. ગા. ૪ા આ પ્રમાણે મેળવતા જતાં છેલ્લા નવ પ્રતરમાં એકત્રીસ ધનુષ એક હાથની અવશાહના થઈ જાય છે. ૩ !! એ દરેક પ્રતરની અવગાહના આ પ્રમાણે છે. તેના પહેલા પ્રતરમાં પહેલાં કહ્યા પ્રમાણે પદર ધનુષ એ હાથ અને ખાર આંગળની અવગાહના થઈ જાય છે. ૧, તે પછી ખીજા પ્રતરમાં સત્તર ધનુષ એ હાથ અને સાડા સાત આંગળની ૨, ત્રીજા પ્રતમાં ૧૯ એગણીસ ધનુષ એ હાથ અને ત્રણ આંગળની, ૩, ચેાથા પ્રતરમાં એકવીસ ધનુષ એક હાથ અને સાડા ખાવીસ
Page #259
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ २.१७ नारकंजोवोत्यातनिरूपणम् गा. ५। 'सो चेव चउत्थीए' इत्यादि । स एव तृतीय पृथिव्या अन्तिम नवमपतर प्रदर्शित उत्सेधश्चतुर्था, पङ्कममायाः प्रथमे प्रतरे भवति ततोऽस्मिन् प्रमाणे 'पंचधणुवीस अंगुल' पश्चधषि विंशतिरङ्गुलानि प्रतिप्रतरं वर्द्धयेत् ।गा. ६। एवं क्रमेण वद्धिते सति सप्तमेऽन्तिमे प्रतरे द्वापष्टिर्धनषि द्वौ हस्तौ, इत्येवं प्रमाणाऽवगाहना पङ्कपमानारकाणां समायाति ४। गा. ७। 'सो चेव पंचमीए' इत्यादि, एक हाथ और साढे तेरह अंगुल की ६, सातवें प्रतर में सताईस धनुष एक हाथ और नौ अंगुलकी ७, आठवें प्रतर में उनतीस धनुष एक हाथ और साढे चार अंगुलकी ८, ऐसे अन्त के नौवें प्रतर में इकतीस धनुष और एक हाथ की सूत्रोक्त उत्कृष्ट भवधारणीय अव. गाहना तीसरी वालुकाप्रभा पृथिवी के नारकों की होती है ।।३।गा०५।। ___ अब चौथी पंकप्रभा पृथिवी के विषय में कहते हैं-'सो चेव पस्थीए' इत्यादि।
जो इसके अन्तिम नौवे प्रतर में जितना अवगाहना का प्रमाण कहा गया है-इकतीस धनुष एक हाथ-वही प्रमाण चौथी पंकप्रभा के प्रतर में होता है, इसमें प्रत्येक प्रतर को लेकर आगे आगे के प्रतर में-'पंच. घणु वीस अंगुल' पांच धनुष बीस अंगुल मिलाते जाना चाहिये. ॥ग०६॥ ऐसे क्रम से मिलाने पर अन्त के सातवें प्रतर में-बासठ धनुष दो हाथ की अवगाहना हो जाती है, वह इस प्रकार पंकप्रभा के प्रथम રરા આગળની ૪, પાંચમા પ્રતરમાં ત્રેવશ ધનુષ એક હાથ અને અઢાર આંગળની પ, છઠા પ્રતરમાં પચીસ ધનુષ એક હાથ અને સાડા તેર ૧૩ આંગળની , સાતમા પ્રતરમાં સત્યાવીસ ધનુષ એક હાથ અને નવ ૯ આંગળની ૭, આઠમાં પ્રતરમાં ઓગણત્રીસ ધનુષ, એક હાથ અને સાડા ચાર આંગળની ૮, છેલ્લા નવમા પ્રતરમાં એકત્રીસ ધનુષ અને એક હાથની સૂત્રોક્ત ઉત્કૃષ્ટ ભવપારણીય અવગાહના ત્રીજી વાલુકાપ્રભા પૃથ્વીને નારની હોય છે. ૩ ગા. ૫ છે
हव याथी ५मा पृथ्वीना समयमा अपामा मा छे. 'सो चेव. चउत्थीए' त्यादि
આના છેલ્લા નવમાં પ્રતરમાં જેટલા અંતરનું પ્રમાણ કહ્યું છે, એટલે કે એકત્રીસ ધનુષ એક હાથનું એજ પ્રમાણ ચોથી પંકપ્રભા પૃથ્વીના પહેલા પ્રતરમાં થાય છે. તેમાં દરેક પ્રતરને લઈને પછી પછીના પ્રતરમાં 'पंच घणुवीस अंगुल' पांय धनुष पीस मांग मेजवता नये. ॥गा. ૬ છે આ ક્રમથી મેળવતાં છેલ્લા સાતમા પ્રતરમાં બાસઠ ધનુષ બે હાથની અવગાહના થઈ જાય છે. તે આ પ્રમાણે છે. પંકપ્રભા પૃથ્વીના પહેલા પ્રતરમાં
Page #260
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३८
'जीवामिगमसूत्रे'
स एव चतुर्थ पृथिव्या अन्तिम सप्तम प्रतरमदर्शित एक उत्सेधः पञ्चम्याः धूममा पृथिव्याः प्रथमें प्रवरे भवति, ततोऽस्मिन् प्रमाणे 'पण्णरस घणूणि दो हत्य सड' पञ्चदशधनूंषि सार्द्धा' द्वौ इस्तौ प्रतिमतरं संवर्द्धयेत् । गा. .८ एवं वृद्धच. पञ्चमे प्रपञ्चविंशत्यधिकं धनुः शं धूनपभा पृथिवीनारकाणामवगा - प्रतर में इकतीस धनुष एक हाथ की अवगाहना होती है १ दूसरे प्रतर में छतीस धनुष एक हाथ और बीस अंगुल की २, तीसरे प्रतर में इक़तालीस धनुष दो हाथ और सोलह अंगुल की ३, चौथे प्रतर में छीयालीस are धनुष तोन हाथ और बारह अंगुलं की ४, पांचवें प्रतर में बावनधनुष और आठ अंगुल की ५, छठे प्रतर में सतावन धनुष एक हाथ और चार अंगुल की ६, और अन्त के सातवें प्रतर में सूत्रोक्त बासठ धनुष और दो हाथ की उत्कृष्ट अवगाहना हो जाती है ७०७ ॥ अब पांचवीं धूमप्रभा पृथिवी के विषय में कहते हैं- 'सोचेव- पंचमीए' इत्यादि ।
F
"
चौथा परप्रभा पृथिवी के अन्तिम के सातवें प्रतर में जो अवगाहना का प्रमाण कहा गया है- बासठ धनुष और दो हाथ - वही प्रमाण पांचवीं धूमप्रभा पृथिवी के प्रथम प्रतर में होता है इस के आगे आगे के प्रत्येक प्रतर में 'पण्गरस वर्णाणि दो हस्थसड' प्रन्द्रह धनुष और अढाई हाथ मिलाते जाना चाहिये । गा०८ | ऐसे मिलाते जाने पर धूमप्रभा के
4d
એકત્રીસ ધનુષ એક હાથની અવગાહના હાય છે. ૧, મીજા પ્રતરમાં છત્રીસ ધનુષ એક હાથ અને વીસ આંગળની. ૨, ત્રીજા પ્રતરમાં એકતાળીસ ધનુષ એ હાથ અને સેાળ આંગળની, ૩ ચેાથા પ્રહરમાં છેતાલીસ ધનુષ ત્રણ હાથ અને ખાર માંચળની. ૪, પાંચમા પ્રતરમાં ખાવન ધનુષ અને આઠ આંગળની ૫, છટ્ઠા પ્રતરમાં સત્તાવન ધનુષ એક હાથ અને ચાર આંગળની ૬, અને છેલ્લા સાતમા પ્રતરમાં સૂત્રમાં કહ્યા પ્રમાણે ખાસઠ ધનુષ અને બે હાથની ઉત્કૃષ્ટ અવગાહના થઈ જાય છે. છ ! ગા. ૭
હવે પચમી ધૂમપ્રભા પૃથ્વીના સંબધમાં કથન કરવામા આવે છે. 'सो चेव पंचमीए' इत्यादि
ચેથી પ’કપ્રભા પૃથ્વીના છેલ્લા સાતમા પ્રતરમાં જે અવગાહનાનુ` પ્રમાણુ કહેલ છે. જેમકે ૬૨ ખાસઠ ધનુષ અને એ હાથ, એ જ પ્રમાણે પાંચમી ધૂમપ્રભા પૃથ્વીના પહેલા પ્રતરમાં થાય છે, તેનાથી પછી પછીના દરેક પ્રતરમાં 'पण्णरस धणूणि दो हत्थ सङ्कट' थंडर धनुष भने अढी हाथ भेजवता वु જોઈએ. ॥ ગા, ૮ ॥ આવી રીતે મેળવતા જતાં ધૂમપ્રભાના છેલ્લા પાંચમા
Page #261
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ २.१७ नारकजीवोत्पातनिरूपणम् हना प्रमाणं समागच्छति || 'सो चेव य छट्ठीए' इत्यादि, स एव = एतावत्पमाण एवोत्सेधः षष्ठया स्तमःममा पृथिव्याः प्रथमे मतरे भवति ततोऽस्मिन् प्रमाणे 'बासद्विधणुय सट्टा' सार्दानि द्वापष्टि धनूषि प्रतिमतरं संवयन्ते. ततः समायाति अन्त के पांचवें प्रतर में नारकों की भवधारणीय उत्कृष्ट अवगाहना एक सौ पचीस धनुष की आ जाती है। वह प्रति प्रतर की अवगाहना इस प्रकार है- - - - - - - - --- " - ' धूमप्रभा के प्रथम प्रतर में पूर्वोक्त बासठ धनुष और दो हाथ की होती है इस के आगे मरे प्रतर में अठहत्तर धनुष और एक वित. 'स्ति अर्थात् घारह अंगुल की २, तीसरे प्रतर में तिनवे ९३ धनुष
और तीन हाथ की ३, चौथे प्रतर में एक सौ नौ धनुष एक हाथ और 'एक वितस्ति' अर्थात् बारह अंगुल की ४, और अन्त के पांचवें प्रतर में धूमप्रभा पृथिवी के नारकों की भवधारणीय उत्कृष्ट अवगाहना एक 'सौ पचीस धनुष की आजाती है। ' 'अब छठी तमाप्रभा पृथिवी के विषय में कहते हैं-'सोचेव य छट्टीए' इत्यादि। " पांचवीं धूमप्रभा पृथिवी के अन्त के पांचवे प्रतर में जो अवगाहना
को प्रमाण-एक सौ पचीस धनुष है वही प्रमाण छठी साप्रा पृथिवी 'के प्रथम प्रतर में होता है ॥गा०९॥ इसमें 'बालविधणुयलडा' साढे પ્રતરમાં નારકેની ભવધારણીય કૃષ્ટ અવગાહના એક પચ્ચીસ ૧૨૫, ધનુષની થઈ જાય છે. તે દરેક પ્રતરની અવગાહના આ પ્રમાણે છે.
ધૂમપ્રભા પૃથ્વીના પહેલા પ્રતરમાં પૂર્વોક્ત ૬૨ બાસઠ ધનુષ અને બે હાથની થાય છે. ૧, તે પછી બીજા પ્રતરમાં અઠોતેર ધનુષ અને એક વિતસ્તિ (વંત) અર્થાત્ બાર આંગળની. ૨, ત્રીજા પ્રતરમાં ૯૩ ત્રાંણ ધનુષ અને ત્રણ હાથની ૩, ચોથા પ્રતરમાં ૧૦૯ એકસે નવ ધનુષ એક હાથ અને એક વિતતિ અર્થાત બાર આંગળની ૪, અને છેલ્લા પાંચમાં પ્રતરમાં ધૂમપ્રભા પૃથ્વીના નારકની ભવધારણીય ઉત્કૃષ્ટ અવગાહના ૧૨૫ એકસો પચીસ ધનુષની થઈ જાય છે. ૫,
वे दही तमामा पृथ्वीना Aधमा थन ४२वामां आवे छे. 'सो चेव छट्ठीए' त्याह * પાંચમી ધૂમપ્રભા પૃથ્વીના છેલા પ્રતરમાં જે અવગાહનાનું પ્રમાણ ૧૨૫ એકસે પચીસ ધનુષ છે એજ પ્રમાણ છઠી તમપ્રભા પૃથ્વીના પહેલા भतरमाथाय छ, ।। गा, ६ ॥
Page #262
--------------------------------------------------------------------------
________________
7
जीवामिगमसूत्रे
२४०
तमःपमा पृथिव्या अन्तिमे तृतीयप्रतरे नारकाणामवगाहना पञ्चाशदधिके द्वे शते धनुषाम्, इत्येवं ममाणा भवति ६ । इति गाथादशकस्य भावार्थः । गा. १० ॥
सप्तम्यामधःसप्तम्यां तमस्तमःप्रभा पृथिव्यामेक एव प्रतर इति षष्ठ पृथिवी गतावगाहनाममा णतो द्विगुणाऽत्रत्यानां नारकाणामवगाहना भवतीति समायाति पञ्चधनुः शत प्रमाणा सप्तम पृथिवी नारकाणामवगाहनेति ।
बासठ (६२||) धनुष आगे आग के प्रत्येक प्रतर में मिलाते जाना चाहिये, ऐसे मिलाने पर अन्तके तीसरे प्रतर में तमःप्रभा पृथिवी के नारकों की भवधारणीय उत्कृष्ट अवगाहना दो सौ पचास अर्थात् ढई सौ धनुष की हो जाती है। प्रति प्रकार की अवगाहना इस प्रकार -तमःप्रभा पृथिवी के प्रथम प्रतर में अवगाहना एक सौ पचीस धनुष की होती है, १, एवं दूसरे प्रतर में एकसौ साढे सतासी (१८७) धनुष की होती है २, अन्तिम के तीसरे प्रतर में दो सौ पचास २५० ) अर्थात् ढाई सौ धनुष की हो जाती है ३, ' यह दश गाथाओं का भावार्थ हुआ |०१० ।
आगे सातवीं तमस्तमःप्रभा पृथिवी में एक ही प्रतर होता है उसमें रहे हुए नारकों की भवधारणीय उत्कृष्ट अवगाहना छठी पृथिवी के नारकों की उत्कृष्ट अवगाहना से दूनी अर्थात् पांचसौ धनुष की होती है ऐसा जान लेना चाहिये 'मातों पृथिवियों के नारकों की प्रत्येक
मां 'बासट्टिघणुयमड्ढा ' साडी मास ( (२शा) धनुष पछी पछीना દરેક પ્રતરમાં મેળવતા જવુ' જોઈએ એવી રીતે મેળવતાં છેલ્લા ત્રીજા પ્રતરમાં તમ:પ્રભા પૃથ્વીના નારકેાની ભવધારણીય ઉત્કૃષ્ટ અવગાહના ખસેા પચાસ ૨૫૦ અર્થાત્ અઢીસા ધનુષની થઈ જાય છે. દરેક પ્રતરની અવગાહના આ પ્રમાણે છે. તમઃપ્રભા પૃથ્વીના પહેલા પ્રતરમાં ૧૨૫ અસે પચીસ ધનુષની અવગાહના થઈ જાય છે. ૧, અને ખીજા પ્રતરમાં ૧૮૭૫ એકસે સાડી સત્યાસી ધનુષની થાય છે. ર, અને છેલ્લા ત્રીજા પ્રતરમાં ૨૫૦ ખસે. પચાસ અર્થાત્ અઢીસે ધનુષની થઈ જાય છે. ૩, આ પ્રમાણે દસ ગાથાઓને ભાવાથ
थाय छे. ॥ था. १० ॥
સાતમી તમસ્તમાપ્રભા પૃથ્વીમાં એકજ પ્રતર હાય છે. તેમાં રહેલા નારકાની ભવધારણીય ઉત્કૃષ્ટ અવગાહના છઠ્ઠી પૃથ્વીના નારાની ઉષ્કૃટ અવગાહનાથી બમણી અર્થાત્ પાંચસેા ધનુષની હોય છે, તેમ સમજવુ' ‘સાતે પૃથ્વીચેના નારકાની દરેક પૃથ્વીના દરેક પ્રતરની ભવધારણીય ઉત્કૃષ્ટ અવગા
Page #263
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४१
mr
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.२ ख.१७ नारकजीवोत्पातनिरूपणम्
(१) रत्नप्रभापृथिवी नारकाणां प्रतिमतरावगाहना कोष्ठकम् मतर सं.
| २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९१०/१११२ १३ धनूषि हस्ताः अंगुलानि ०८॥ १७१॥१०/१८॥३१॥२०४॥ १३/२१॥ ६
(२) शर्करारभाषथिवी नारकाणां प्रतिमत रावणाहना कोष्ठकम् प्रतर सं. १२ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९/१० ११ ।। धनषि ८, ९/१०१०/११/१२/१३/१४/१४ १५ हस्ता अंगुलानि ०/१२/१५.१८२१ ० ३, ६, ९/१२वितस्ति
"wG
(३) बाल्लुकाधमापृथिवी नारकाणां प्रतियतरमवगाहना कोष्ठम् मतर सं. १/२ ३ ४ ५ ६ ७ ८ धनषि २५/१७१९२१ २३२५ २७२९/३१ हस्तार अंगुलानि १२७॥ ३२२॥१८१३॥ ९४॥ ०
(४) पङ्कप्रभापृथिवी नारकाणां मतिपतरमवशाहना कोष्टकम् प्रतर सं. १/२ ३ ४ ५ ६ ७ धनूषि ३१३६/४१/४६५२५७६२ हस्ताः अंगुलानि ०२०/१६ . २) ८४ _(५) धूमप्रभाथिवी नारकाणां प्रतिप्रतरमवगाहना कोष्ठकम् मतर सं.
३ | ४ धन षि इस्ताः अंगुलानि ०१२ वितस्ति ०१२ वितरित .
पृथिवी के प्रत्येक प्रतर की भवधारणीय उत्कृष्ट अवगाहना बताने वाले कोष्ठकों को टीका में देख लेना चाहिये હના બનાવવા વાળું કેક સંસ્કૃત ટીકામાં આપવામાં આવેલ છે તે ત્યાંથી જોઈને સમજી લેવું.
जी० ३१
Page #264
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४२
(६) तमः प्रभापृथिवी नारकाणां प्रतिप्रतरमवगाहना कोष्ठकम्
१
સ્
३
| १२५१८७ ॥ २५०
०
०
मतर स. धनूंषि
हस्ताः अंगुलानि
( 9 ) तमस्वमः ममापृथिवी नारकाणामेकस्मिन् प्रतरेऽवगाहना कोष्ठकम्
प्रवर सं.
धनपि हस्ताः अंगुलानि
१
५००
०
जीवाभिगमने
०
०
एवा भत्रधारणीय शरीरापेक्षया उत्कृष्टाऽवगाहना, उत्तरक्रिया तु सर्वत्र भवधारणीयोत्कृष्टावगाहनाऽपेक्षया द्विगुणप्रमाणा सर्वत्र ज्ञातव्या तेन रत्नप्रभा पृथिवीत आरस्य द्विगुण द्विगुणीकरणेन सवति सप्तम्यां दमस्तमः प्रभायां पृथिव्यां नारकाणामुत्तरवै क्रियोत्कृष्टाऽवगाहना धनुःसहस्रममाणेति । इत्यवगाहना प्रकरणम् ॥ म्रु० १७ |
सम्पति-नारकजीवानां संहनन प्रतिपादनार्थमाह- 'इमी से णं' इत्यादि, मूलम् - इसीसे णं भंते । रयणप्पभाए पुढवीए नेरइयाणं सरीरया किं संघयणी पन्नत्ता, गोयमा ! छण्हं संघयणाणं असंघयणी, वट्ठी णेव छिरा णवि पहारू व संघयणं मत्थि,
यह अवधारणीय शरीर की अपेक्षा उत्कृष्ट अवगाहना कही गई है, उप्सर वैकिय शरीर की उत्कृष्ट अवगाहना भवधारणीय शरीर की उत्कृष्ट अवगाहना से दुगुणी दुगुणी सब पृथिवियों में समझ लेनी चाहिये । ऐसे द्विगुण द्विगुण-दूनी २, होते हुए सातवीं तमस्तमःप्रभा पृथिवी के नारकों की उत्तर वैक्रिय उत्कृष्ट अवगोहना एक हजार योजन की हों जाती है ॥सूत्र १७ ॥
આ ભવધારણીય શરીરની અપેક્ષાએ ઉત્કૃષ્ટ અવગાહના કહેવામાં આવી છે. ઉત્તર વૈક્રિય શરીરની ઉત્કૃષ્ટ અવગાહનાથી ખમણી, ખમણી બધી પૃથ્વીયેામાં સમજી લેવી જોઇએ. એ પ્રમાણે ખમણી ખમણી થતાં થતાં સાતમી તમતમા પ્રભા પૃથ્વીના નારકાની ઉત્તર વૈક્રિય ઉત્કૃષ્ટ અવગાહના એક હજાર ચેાજનની थई लय छे, ॥ १७ ॥
Page #265
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमे यद्योतिका टीका प्र.३ २.२ २.१८ नारकजीवानां संहनननिरूपण २४३ जे पोग्गला अणिटा जाव अमणामा ते तेसिं. सरीरसंघायत्ताए परिणमंति, एवं जाव अहे सत्तमाए । इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइयाणं सरीरा किं संठिया पन्नत्ता ? गोयमा! दुविहा पन्नत्तातं जहा भवधारणिज्जा य उत्तरवेउव्विया य, तत्थं जे ते भवधारणिजाते हंडसंठिया पन्नत्ता, तत्थ णं जे ते उत्तरवेउब्विया ते इंडसंठिया पन्लत्ता, एवं जाव अहे लत्तमाए.॥ इमीसे गंभंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइयागं सरीरमा करित्या वण्णेणं पन्नत्ता ? गोयमा! काला कालोभासा जाव परल किण्हा वणेणं पन्नत्ता, एवं जाव अहे सत्तमाए ॥ इमीलेणं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइयाणं सरीरया केरिलया गंधेणं पन्नत्ता ? गोयमा ! से जहा जामए अहिमडेइ वा तं चेव जाव अहे सत्तमाए ॥ इमीसे गं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइयाणं सरीरया केरिसया फासेणं पन्नत्ता, गोयमा ! फुडितच्छवि विच्छवया खर फरुस झाम झुासरा फासेणं पन्नत्ता एवं जावं अहे सत्तमाए ॥सू०१८॥
छाया--एतस्यां खल भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैरयिकाणां शरीराणि कि संहननानि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! षण्णां संहनना मसंहननानि, नैवास्थि, नैव. शिराः नापि स्नायवा, नैव संहननमस्ति, ये पुद्गला अनिष्टा राबदमनोऽमाः ते तेषां शरीरसंघात तया परिणमन्ति । एवं यावदधः सप्तरूपाम् । एतस्यां खल्लु भदन्त ! रत्नप्रभाशं पृथिव्यां नैरयिकाणां शरीराणि किं संस्थितानि प्रज्ञप्तानि, गौतम ! द्विविधानि तद्यथा-भवधारणीयानि चोत्तरवैक्रियाणि च, तत्र खलु. यानि तानि भवधारणीयानि तानि हुण्डसंस्थितानि प्रज्ञप्लानि, तत्र खल्ल यानि तानि उत्तरवैक्रियाणि तान्यपि हुण्डसंस्थितानि मज्ञप्तानि एवं यावदधः सप्तम्याम् । एतस्यं खलु भदन्त ! रत्नमभायां पृथिव्यां नैरयिकाणां शरीराणि कीदृशानि वर्णेन प्रज्ञप्तानि ! गौतम ! काळानि कालावभासानि यावत् परमकृष्णानि वर्णन मज्ञप्तानि । एवं यावदधासप्तम्याम् । एतस्यां खच भदन्त ।
Page #266
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमसूत्रे रत्नभायां पृथिव्यां नैरयिकाणां शरीराणि कीदृशानि गन्धेन प्रज्ञप्तानि ? गौतम स यथानामा अहिमृत इति वा, तदेव यात्रदधः सप्तम्याम् । एतस्यां खलु भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां नरयिकाणां शरीराणि कीदृशानि स्पर्शन प्राप्तानि ? गौतम ! स्फटितच्छवि विच्छवयः खरपरुपमाममपिराणि स्पर्शेन मनप्तानि । एवं यावदधः सप्तम्याम् ॥१० १८॥
टीका--'इमीसे णं भंते' एतस्यां खलु भदन्त ! 'रयणप्पभाए पुढवीए' रत्नप्रभायां पृथिव्याम् 'नेरइयाणं नैरयिकाणाम् 'सरीरया कि संघयणी पन्नत्ता' शरीराणि कि संहननानि-कीदृशसंहननयुक्तानि भवन्तीति प्रश्ना, भगवानाइ'गोयमा' इत्यादि, गोयमा ! हे गौतम ! 'उण्हं संघयणाणं असंघयणा' पण्णासंहननानामसंहननानि नारकशरीराणि भवन्तीति । नारकशरीराणि कुतः संहननवन्ति न भवन्ति तत्राह-'णेवट्ठी' इत्यादि, 'णेवट्ठी' नैवास्थि, नारकशरीरे
अघ स्त्रकार नारक जीवों का संहनन प्रकट कहते हैं
'हमीले णं भंते ! रघणप्पभाए पुढवीए नेरयाणं सरीरया किं संघषणी' -इत्यादि सूत्र-१८
टीकार्थ-गौतम ने प्रभु से ऐसा पूछे है-'हमीसे गं भंते !' हे भदन्त ! इस 'रयणप्पभाए पुढवीए' रत्नप्रभा पृथिवी में 'सरीरया' नैरकियों के शरीर कि संघयणी पन्नत्ता' किल संहनन थाले कहे गये हैं? 'गोयमा छह संघयणाणं असंघयणा' उत्तर में प्रभु कहते है-हे गौतम ! नारकों के शरीर छह संहननों के बीच में से किसी भी एक संहनन वाले नहीं कहे गये हैं। क्योंकि नारकों के शरीर संहनन से हीन होते हैं। ये संहनन से हीन क्यों होते हैं ? इसका कारण का कथन करते हुए सूत्रकार कहते हैं-'णेवट्ठो' नारक के शरीर में हड्डियां नहीं हैं 'णेव छिरा'
वे सूत्रा२ ना२४ वाना सहनननु नि३५ रे छ. 'इमीसे ण भते ! यणप्पभाए पुढवीए नेरइयाणं सरीरया किं संघयणी' त्यादि
टीआय-गीतमस्वामी प्रसुन से पूछ्यु छ 'इमीसे णं भंते ! 3 महन्त ! म 'रयणप्पभाए पुढवीए' २नमा पृथ्वीमा 'सरीरया' नयिाना शरी। 'कि' संघयणी पण्णत्ता' या सडननवाणा हेछ ? 'गोयमा ! छह समयणाणं असं घयणा' मा प्रश्न उत्तरमा प्रभु ४३ छे गौतम! નારકોના શરીરે છ સંહનને પૈકી કઈ પણ એક સંહનનવાળા હોતા નથી. કેમકે નારકેના શરીરે સંહનન વિનાના હોય છે. તેઓ સંહનન વિનાના भ डाय छे. मे स मां तनु १२ मतापता सूत्र२ ४ छ ॐ 'णेवट्ठी'
-
Page #267
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रेमैयद्योति का टीका प्र.३ उ.२ सू.१८ नारकजीवानां संहनननिरपणम् २४५ अस्थीनि न भवन्ति 'णेब छिरा' नैव शिरा भवन्लि 'गावि पहारू नापि स्नायवो भवन्ति 'णेव संघयणमस्यि' नैव संहननमस्ति-यत्रैच शरीरे अस्थ्यादीनि भवन्ति तत्रैव संहननमपि भवति नारकशरीरे अशावभावात संहननाभावो भवतीति । संहननाभावे तेषां शरीराण्येव कथमित्याशङ्कायामाह-'जे पोग्गला' इत्यादि, 'जे पोन्गला अणिहा जाव अमणामा' ये पुद्गला अनिष्टा यावदमनोऽमा:, यावत्पदेनाकान्ता अपिया अमनोज्ञाः एषां विशेषणानां संग्रहो भवतीति । 'ते ते सिं संघायत्ताए परिणमंति' ते पुद्गला अनिष्टादि विशेषयुक्ताः तेषां नारकाणां शरीरसंघातत्या शरीराकारेण परिणमन्ति अनिष्टादिविशेषणयुक्ताः पुद्गलाः नारकाणां शरीराकारेण परिणमन्ति किन्तु तत्र शरीरे अस्थ्यादीनामभावेन संहननं शिराएँ नहीं होती हैं। णचि पहारु' स्नायुएं नहीं होती है । 'णेच संघयण मरिध' इसलिये नारफों का शरीर संहनन ले हीन कहा गया है क्योकि जिस शरीर में अस्थि आदि होते है वहीं पर संहनन होता है. नारको के शरीर में अस्थि आदि हैं नहीं इस कारण वहां संहनन का अभाव है
शंका-यदि नारको के शरीर संहनन से हीन हैं तो फिर वे शरीर पवाच्य कैले हो सकते हैं ?-इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'जे पोग्गला अणिहा, जाव अमणामा' हे गौतम ! जो पुद्गल अलिष्ट यावत् अमनो ऽम होते हैं वे 'तसिं सरीर संघयत्ताए परिणमंति' उनके शरीर रूप से परिणलते हैं। यहां यावत्पद से 'अशान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ' इन पदों का संग्रह हुआ है. तात्पर्य कहने का यही है कि यद्यपि नारकों का नाहीना शरीशमा म हाता नथी. 'णेवछिरा शिराम हाती नथी. 'णवि पहारू' स्नायुयो हात नथी. 'णेवसघयणमत्थि' तथा ना२है। ને શરીરે સંવનન વિનાના કહેવામાં આવેલ છે. કેમકે જે શરીરમાં હાડકા વિગેરે હોય છે, ત્યાં જ સંહના હૈય છે. નારકેના શરીરમાં હાડકા વિગેરે હતાજ નથી તે કારગુથી તેએાને સંહનનને અભાવ કહેલ છે.
શંકા–જે નારકેના શરીરે સંહનન વિનાના છે, તે પછી તેઓ શરીર એ પદથી યુકત કેવી રીતે હોઈ શકે ?
सा प्रश्न उत्तरमा प्रभु ४ छ है 'जे पोगाला अणिवा जाव अमणामा है गौतम ! २ पुस अनिष्ट यावत् ममनाय हाय छे, तो 'वेसि सरीरसंघायत्ताए परिणमति' तयाना शरी२३२ परिमे छे. महियां यावर५४ था 'अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ' 21 पहने। सब थय। छे.
કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે જે કે નારકના શરીરો સંહનન નામ કર્મ ના ઉદયના અભાવમાં હાડકા વિગેરેના અભાવમાં સંહનન વાળા દેતા નથી.
Page #268
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४६
जीवाभिगमन वन ऋषमादिजन्यतममपि न साति इति । 'पत्रं जाव अहे सत्तमाए' एवं यावद अधः सप्तस्यास् यथा रत्नप्रभा नारकाणां शरीराणि संहननवन्ति न भवन्ति तथैव शर्करापभा वालुकाममा पङ्कपमा धूमपभा तम:पमा तमस्तमःममा नारकाणामपि शरीराणि संहनन निशिष्टानि न भवन्ति आथ्यादीनाममावादिति । शरीर संहनन नामकर्म के उदय के अभाव से अस्थि आदिकों के अनाव में छनन वाला नहीं होता है-परन्तु फिर भी उनके वैक्रिय शीर होता है, क्योंकि नारकों के शरीर रूप से जितने अनिष्ट आदि विशेषण बाले पुनल हैं वे सम परिणमते रहते है । ऐली व्याप्ति नहीं है कि जहां २, शारीर होता है यहां २, संहनन होता है क्योंकि देवों के शरीर छोने पर भी संहनन नहीं होता है संहनन का सम्पन्ध संहनन नाम धर्म के उदयाधीन है और शरीर का सम्बन्ध शरीर नाम कर्म के उदयाधीन है-शरीर पांच होते हैं और संहनन छह होते हैं वज ऋषभनानाच आदि इनके भेद हैं। इनमें से एक भी संहनन इनके नहीं होता है। एवं जाव असत्तमाए' जिस प्रकार से रत्नप्रभा पृथिवी के नरकाचालों में रहने वाले नारकजीवों का शरीर संहनन रहित होता है उसी प्रकार से शहराप्रभा, द लुकामभा पङ्कप्रभा धृमप्रभा तमाप्रभा और तमस्तमप्रभा के नरकाबासों में रहने वाले नारक जीवों का भी शरीर संहनन से हीन होता है ऐसा जानना चाहिये इस तरह लमस्त पृधिषियों के नारकों का शरीर संहनन वाला नहीं होता છતાં પણ તેઓને વૈક્રિય શરીર હોય છે. કેમકે નારકોના શરીર પણાથી જે કોઈ અનિષ્ટ વિગેરે વિશેષ વાળા પુદગલો હોય છે, તે બધા તેઓના શરીર રૂપે પરિણમતા રહે છે. એવી વ્યક્તિ નથી કે જ્યાં જ્યાં શરીર હેય ત્યાં ત્યાં સંહના હોય છે. કેમકે દેવેને શરીર હોવા છતાં પણ સંહના હેતા નથી સંહનને સંબંધ સંહનન નામ કર્મને ઉદયાધીન છે. શરીર પાંચ પ્રકારના હોય છે. અને સંહનન છ પ્રકારના હોય છે વજી, ઇષભ, નારા, વિગેરે તેને ભેદે છે. આ સંહનને પિકી એક પણ સિંહનન નારકે ને छातु नथी. 'एव जाव अहेसत्तमाए' २ प्रभा २(नमा पृथ्वीना न२४पासोमा રહેવાવાળા નારક છેના શરીરે સંહનન વિનાના હોય છે, એ જ પ્રમાણે શર્કરાપભા, વાલુકાપ્રશ, પંકપ્રભા, ધૂમપ્રભા તમ પ્રભા અને તમતમપ્રભાના નરકાવામાં રહેવાવાળા નારક ના શરીર પણ સંહનન વિનાના હેય છે. તેમ સમજવું. આ રીતે સઘળી પૃથ્વીના નારકોના શરીરે સંહાન
Page #269
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ २.१८ नारक जीवानां संहनननिरूपणम् २४७
सम्पति-नारकाणां संस्थानमतिपादनार्थमाह-'इसी से एं' इत्यादि, 'इमीसे णं भंते' एतस्यां खलु भदन्त ! 'रयणप्पभाए पुढीए' रत्नमायां पृथिव्याम 'नेरइयाणं सरीरा कि संठिया पन्नत्ता' नैरयिकाणां शरीराणि झिं संस्थितानिकीदृशसंस्थानयुक्तानि प्रज्ञशानि-कथितानीति प्रश्न:, भगवानाह'गोरमा' इत्यादि 'मोयमा' हे गोला ! 'दुविहा पन्नता' नारकाणां शरीराणि द्विविधानि द्विप्रकारकाणि प्रज्ञतानि-कथितानि 'तं जहा' तयथा 'भत्रधारपिज्जाय' अवधारणीयानि च 'उत्तर देउपिया य' उत्तरक्रियाण च 'तत्थ ण जे ते भववारणिज्जा' त्रतयोर्मध्ये यानि तानि शरीराणि भवधारणीयानि 'ते हुडसंठिया पन्नता तानि हुण्ड संस्थितानि-हुण्ड संस्थान युक्तानि प्रज्ञप्तानि, भधारणीयानि नारक.मनस्वाभा. है चाहे यह अवधारणीय शारीर हो, चाहे उत्तर बैंक्रिय रूप शरीर हो।
अघ सूत्रकार नारक जीवों का शरीर कि संस्थान वाला होता है-इस बात का कथन करते है इसमें गौरभ ले प्रभु खे ऐसा पूछा है. 'इमीसे णं भंते ! रयणपाए पुढीए' हे अदन्त ! सस्त रत्नप्रभा पृथिली के नरकावासों के नैयिकों के शरीर किल्ल संस्थान वाले होते है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! दुविहा पन्नत्ता' हे गौतम । नारकों के शरीर दो प्रकार के कहे गये हैं-'तं जहा' जैसे अवधारणिज्जा य उत्तर वेब्धियाय' एक भवधारणीय शरीर और दूसरा उत्तर वैक्रिय शरीर 'तत्ध गंजे ते भवधारणिज्जा' इनमें जो नारकजीवों के अवधार. णीय शरीर हैं वे 'हुंड संठिया पन्नत्ता' हुण्डक संस्थान वाले होते हैंजो शरीर मारक भव की प्राप्ति होते ही प्राप्त होता है वह शरीर भवधारणीय शरीर है और यह वैक्रिय शरीर ही है नारकजीयों के हुण्डक વાળા હોતા નથી, ચાહે તે ભવધારણીય હોય કે ચાહે ઉત્તર કિય રૂ૫ શરીર હોય ?
હવે સૂત્રકાર નારકોના શરીરો કયા સંસ્થાન વાળા હોય છે. એ વાતનું કથન કરે છે. આ સંબંધમાં ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુને એવું પૂછયું કે 'इमीसे गं भंदे ! रयणप्पभाए पुढवीए' सगवन् मा २त्नमा पृथ्वीना न२३१. વાસેના નૈરયિકેના શરીરે કયા સંસ્થાન વાળા હોય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रभु गौतमत्वामीन छ 'गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता' हे गौतम ! ना२४
वन शशश में प्रा२ना अपामा मावस छे. 'तं जहा' ते मे २ मा प्रभाव छ, 'भवधारणिज्जाय उत्तर वेउब्धियाय' से अवधारणीय शरी२ सन भी उत्तर वैश्यि शरीर 'तत्थ णजे ते भवधारणिज्जा' ते १२ न.२४
पधारणीय शशश छे, तमे। 'इडसठिया पन्नत्ता'९४४ स२५ नपा હોય છે જે શરીર નારકભવની પ્રાપ્તિ થતાં જ પ્રાપ્ત થાય છે, તે શરીરને
Page #270
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४८
जीवामिगमस्थे व्यादवश्यं हुण्डनामकर्मोदयाद हुण्ड संस्थानानि सवन्तीति । 'तस्थणं जे ते उत्तरवेउब्धिया ते वि इंडसंठिया एन्नत्ता' तत्र खस यानि उत्तरक्रिपाणि शरीराणि तान्यपि यद्यपि 'शुभमहं वैक्रिय करीष्यामीति' चिन्तयन्ति तथापि तथामवावामाव्यतो हुण्ड संस्थाननामकोदयतः उत्पाटित सकललोमपिच्छकपोतपक्षिण इव हुण्डसंस्थानान्येव भवन्तीति । एवं जान अहे सत्तमाए' एवं वावधः सप्तभ्याम् यथा रत्नमभानारकाणां द्विविधान्यपि शरीराणि हुण्डसंस्थितानि तव शर्करापमा वालुकाममा एकपमा धूमममा तमाममा तपस्तुमाप्रमानारकाणां भवधारणी. यानि उत्तम्व क्रियशरीराणि हुण्डसंस्थानानि सवन्तीति ज्ञातव्यम् इति । संस्थान नालफर्म के उदर ले मह अवधारणीय शरीर हुण्डक संस्थान घाला ही होता है 'तस्थ णं जे ते उत्तादेउविधा ते विहुंडसं च्या पन्नत्ता' सथा-जो उत्तर वैक्रिय रूप शीर होता है वह भी 'हुंडसंठिया पन्नत्ता' हुण्डल संस्थान वाला ही होता है इस कारण वे नारक जीव 'हम शुभ विक्रिया करें 'ऐसा विचार तो करते हैं परन्तु उनके द्वारा हुंड संस्थान नोम धर्म के उदय के कारण अशुभ विक्रिया ही की जाती हैं-इसमें उनका वह उत्तर दक्रिय रूप जिल के शरीर से समस्त रोम और पंख उखाड दिये गये हो ऐसे कतर के जला हुंड स संस्थान वाला ही होता है। ‘एवं जाव अहे लत्तमाए' जिस प्रकार से रत्नप्रभा के नारकों के दोनों प्रकार के शरीर हुण्डस संस्थान वाले होते हैं उसी प्रकार से शर्कराप्रमा, चालुकाप्रभा, पंप्रमा, धूमप्रभा, तमःप्रभा और तमस्तमः ભવધારણીય શરીર કહેવાય છે. અને તે ક્રિય શરીર જ છે. નારક જીને હુંડક સંસ્થાન નામ કર્મના ઉદયથી આ ભવધારણીય શરીર હંડકસંસ્થાન पाणु ४ हाय छे 'तत्थ णं जे ते उत्तरवेउव्विया ते वि हुंडसठिया पणत्ता' तथा रे उत्तर वैठिय ३५ शरीर डाय छे, ते ५ 'डसठिया पण्णत्तो' હંડક સંસ્થાનવાળું જ હોય છે. આ કારણથી તે નારક છે “અમે શુભ વિકિયા કરીએ ૧છે એ વિચાર તે કરે છે, પરંતુ તેઓ દ્વારા હુંડસંસ્થાન નામ કર્મના ઉદય થવાને કારણે અશુભ વિકિયા જ કરી શકાય છે. તેમાં તેઓના તે ઉત્તરક્રિયશરીર કે જે શરીરમાંથી સઘળા રૂંવાડા અને પાંખ ઉખડી દેવામાં मादेस हाय सेवा उतरना २१ हु७४ संस्थान प ४ डाय छे. 'एव' जाव अहेसत्तमाए' २ प्रभो २त्नप्रमा पृथ्वीना नारी भन्ने प्रारना શરીર હુડક સંસ્થાન વાળા હોય છે, એ જ પ્રમાણે શર્કરપ્રભા, વાલુકાપ્રભા પંકપ્રભા, ધૂમપ્રભા, અને તમસ્તમપ્રભા, પૃથ્વીના નારકોને પણ બંને પ્રકારના
Page #271
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र. ३ उ.२ ६.१८ नारकजीवानां संहनननिरूपणम्
-२४९
सम्पति - नारकाणां शरीरेषु वर्णषतिपादनार्थमाह-' इमी से णं' इत्यादि, 'इमी से णं भंते' एतस्यां खलु भदन्त ! 'स्यजपमार पुढवीए' रत्नम भार्या पृथिव्याम् 'नेरयाणं' नैरविकाणास 'सरीरया केरिसया वण्णं पन्नत्ता' शरीराणि कीटशानि वर्णेन ज्ञतानि - कथिनीति प्रश्नः भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'ntent' t alar ! 'कालाकापाता जाव परमकिण्डा बण्योगं पचता' काळानि कलासानि यात गम्भीरलोनपीणि भीमानि उत्रासनकानि परमकृष्णानि नारकाणां शरीराणि वर्णेन मज्ञानि ' एवं जाव अहे सत्ताए' एवं यावदधः सप्त प्रभा पृथिवी के नारकों के भी दोनों प्रकार के शरीर हुण्डक संस्थान वाले होते हैं- ऐखा जानना चाहिये.
अब नारकों के शरीर के वर्ण कैसे होते हैं- इसका कथन सुत्रकार करते है
गौतम प्रभु से ऐसा पूछते है 'इमीले णं भंते! रथणप्पभाए पुढीए' हे ! इस रत्नप्रभा पृथिवी के नरकावालों के 'नेरयाणं सरी केरिया पण्णं पण्णसा' नैरधिकों के शरीर वर्ण से कैसे होते है- अर्थात् कैसे वर्ण वाले होते हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं - 'गोघमा ! कोला, कालो भाषा, जाब परमकिन्दा वण्णेणं पन्नसा' हे गौतम! प्रथम पथिवी के नरकावालों के नारकजीवों के शरीर वर्ण की अपेक्षा काले कृष्णप्रभा वाले देखते ही शरीर में रोगटे खडे कर देने वाले, भयजनक और परम कृष्ण होते हैं । 'एवं जाव अहे सत्तमाए' इसी શરીરા હુડક સંસ્થાનવાળા હોય છે, તેમ સમજી લેવું હવે નારકાના શરીરશના વણુ` કેવા હેાય છે उथन उरे छे.
એ સંધમાં સૂત્રકાર
या समधसां गौत स्वासी प्रभुने मे पूछ्यु' हे 'इमीसेण संवे ! रयणप्पभाए पुढवीए' हे भगवन् या रत्नला पृथ्वीना नरडावासीभां रहेवावाणा 'नेरइया णं' सरीरा के रिसया वण्णेणं पण्णत्ता' नैरयिोना शरीरो हेवा वा વાળા હાય છે ? એટલે કે તેના શરીરાના વણુકવા હોય છે ? આ પ્રશ્નના उत्तरभां प्रभु उडे छेडे 'गोयमा ! काला कालोभासा, जाव परमकिण्हा वण्णे ण' पण्णत्ता' हे गौतम ! पहेली पृथ्वीना नरवास मां रडेवावाजा नार लवा ના શરીરના વધુ કાળા, કાળી કાંતી વાળા કે જેને જોવાથી જ શરીરના રૂંવાડા ઉભા થઈ જાય એવા અને ભયકારક અત્યંત કૃષ્ણુ કાળા હાય છે. 'एव' जाव अहे सत्तमाए' ४ प्रभा मी पृथ्वीथी सहने अधःससभी
जी० ३२
2
Page #272
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५०
जीवामिगमस्ने म्याम् यथा रत्नमभानारकशरीराणि वर्णन कालकालावमासादि विशेषणयुक्तानि तथैव शर्कराप्रभात आरम्य तमस्तमा पृथिवीनारकशरीगण्यपि कालादि वर्णयुक्तानि ज्ञातव्यानीति । इसी से ण संते' एदस्यां खलु भदन्त ! 'रयणप्पभापुढवीए' रत्नप्रभा पृथिव्याम् 'नेरइयाण सरीश्या केरिसमा गंधेणं पन्नत्ता' नैरयिकाणां शरीराणि कीरशानि गन्धेन प्रज्ञप्तानि, भगवानाच-गोयसा' हे गौतम! 'से जहाणामर अहिमडे दवा तं चेव जाब अहे सत्तमा स यथा नायकोऽहिमृत इति वा तदेव यावदधः सप्तमी, अहिट मादितोऽपि अधिकतर दुर्गन्धयुक्तानि नारकशरीराणि एवमेव यावद्धः सप्तमी नारकशरीराण्यषि दुर्गन्धयुक्तानि ज्ञातव्यानि । तरह के द्वितीय पृथिवी से लेपर सनी पृथिवी तक के नरकावासों में रहने वाले नारकजीकों के शीर होते हैं ऐया जानना चाहिये 'इमी से णं भंते ! श्यणप्रसाए पुढवीए नेरइयाणं सरीरया केविलवा गंधेणं पन्नत्ता' हे भदन्त ! इस रत्नाना पृषिली के नैरमिकों के शरीर गंधकी अपेक्षा कैसे होते हैं ? अर्थात् प्रथम पृथिवी के नैरमिको के शरीर कैसी गन्धवाले होते हैं ? ऐसा इस प्रश्न का सारांश है-इस पर गौतम से प्रभु कहते हैं-'गोयमा! से जहानामए अहिडेइया तं चेव जाच आहे सत्तमा' हे गौतम | जैसा पहिले कहा जा चुका है कि अधि-सर्प आदि के मृतक कलेवर से जिल प्रकार की दुर्गन्ध आती है उससे भी अधिक अनिष्टनर आदि विशेषणों वाली दुर्गन्ध इन नारकों के शरीर से आती है इसी प्रकार का काथल दुर्गन्ध के सम्बन्ध में यहां पर भी समझ लेना चाहिये. પૃથ્વી સુધીના નરકાવાસમાં રહેવાવાળા નારક જીવોના શરીર હોય છે. તેમ सभा 'इमीसे णं रयणप्पभाए पुढबीए नेरइया णे सरीरया केरिसया गंधेणं पण्णता' भगवन् ! म २त्नप्रसा पृथ्वीना नैयिाना शरी। धनी भપેક્ષાથી કેવા હોય છે? અર્થાત્ પહેલી પૃથ્વીના નૈરયિકોના શરીર કેવા ગંધ વાળા હોય છે.? આ પ્રમાણેના આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં ગૌતમસ્વામીને પ્રભુ કહે छ है 'गोयमा! से जहानामए अहिमडेइ वा त चेव जाव अहेसत्तमा' 3 ગૌતમ! જે પ્રમાણે પહેલાં કહેવામાં આવેલ છે કે-અહિ–અર્થાત મરેલા સાપ વિગેરેના શરીરમાંથી જેવા પ્રકારની દુર્ગધ આવે છે, તેનાથી પણ વધારે અનિષ્ટ. તર વિગેરે વિશેષ વાળી દુર્ગધ આ નારક જીવના શરીરોમાંથી આવે છે, એજ પ્રમાણેનું દુગ"ધ વિષયનું તે કથન આ પ્રકરણમાં પણ સમજી લેવું.
તમ! જે
થી જેવા પ્રકારની
નારક
Page #273
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमैयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ ४.१८ नारकजीवानां संहनननिरूपणम् २५५
'इमीसे गं भते ! रयणप्पसाए पुढबीए' एतस्यां खलु भदन्त । रत्नप्रभा पृथिव्याम् 'नेरइयाण सरीरया' नैरयिकाणां शरीराणि केरिसया फासेणं पन्नत्ता' कीदृशानि स्पर्शन प्राप्तानि भगबानाह-'गोयमा इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'फुडियच्छविविच्छवया' स्फुटितच्छवि विच्छ वयः' प्रथमच्छवि शब्दस्त्वग्वाची द्वितीयश्च्छायाशची, तथा च स्फुटिवया राजिशतसंकुलया त्वचा विच्छत्यो विगतच्छाया इति स्फुटितच्छविविच्छचयः । 'खरफरुसझामझुसिरा' खरपरुषमाम शुषिराणि खराणि अतएव अतिशयेन परुषाणि ध्मामानि दग्धच्छायानि शुषिराणि-शुषिरशत कलितानि ततः पदद्वयस्य पदद्वयेन विशेषणसमासः सुपक्वे.
तथा इसी प्रकार की अनिष्टलर आदि पूर्वोक्त विशेषणों वाली दुर्गन्ध द्वितीय पृथिवी के नैरथिों से लेकर अघालतमी पृथिवी के नारकों के शरीर से आती है ऐला जानना चाहिये. ___'इमीले भंते स्थनष्पाप पुढचीए नेरहयाणं सरीरया केरिलया फालेणं पण्णत्ता' हे महन्त ! पल रस्लममा पृथिवी के नैरपिकों के शरीर स्पर्श से कैसे होते है ? अर्थात् प्रथम पृथिवी नैरयिकों के शरीर का स्पर्श केला होता है ! उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! फुहिच्छवि विच्छषया' हे गौतम ! प्रथम पृथिवी के नैरयिकों के शरीर जितकी स्वचा के ऊपर सैकडो झुरियां पड रही है और इसी से जो छायाकान्ति से रहित हो रहा है. लथा-'खरफरूम' जिसका स्पर्श एसष कठोर है सैड़ों जिहले छेइ हो रहे हैं और जिलकी छाया-कान्ति जली हुई वस्तु की जैसी है-इस प्रकार के स्पी-पठोर सर्श वाले होते हैं।
તથા આવાજ પ્રકારની અનિષ્ટતર વિગેરે પૂર્વોક્ત વિશેષ વાળી ગંધ બીજી પૃથ્વીના નૈરવિકથી લઈને અધઃસપ્તમી પૃથ્વીના નારકના શરીરેभांधी मावे . तम समय,
'इमीसे ण भंते ! स्यणप्पभाए पुढत्रीए नेरचाण' सरीरया फेरिस्था फासेण पण्णत्ता' है लगन् । २त्नसावीन नैयिाना शरीश २५शथी કેવા હોય છે? અર્થાત્ પડેલી પૃથ્વીના નિરયિાના શરીરને સ્પર્શ કેવો હોય છે?
॥ प्रक्षन इत्तरमा प्रसुजीतस्वाभीने छ , 'गोयमा । फ़डिय च्छविविच्छविया' हे गीतम | पहेली पृथ्वीना नया शरीरे रेयानी ચામડી ઉપર સેંકડે ઝુરિયા-ઉઝરડાં કરચલી પડેલી હોય અને તેથી જ જેઓ siतिनानाय, तथा सर फरून. रेन। २५० ५३५ ठार छे. मन मां સેંકડે છેદ થઈ રહ્યા હોય છે, અને જેની છાયા-કાંતિ બળેલી વસ્તુના જેવી હોય
Page #274
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
२५२
जीवामिगमस्से ष्टका संतप्तघ्मामतुल्यानि इति भावः 'फासेणं पन्नत्ता' स्पर्शन प्राप्तानि एवं जाव अहे सत्तमाए' एवं यावदधः सप्तम्याम् रत्नमभावदेव शर्करामभात आरभ्य तमस्तमा पर्यन्त नारकाणां शरीराणि पूर्ववदेव स्पर्शन ज्ञातव्यानीतिभावः ॥१८॥ . सम्पति-नारकाणामुच्छ्वासादि मतिपादनार्थमाह-इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए' इत्यादि, - मूलम्-इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइयाणं केरिसया पोग्गला ऊसासत्ताए परिणति ? गोयमा ! जे पोग्गला अणिट्टा जाव अमणामा ते तेलिं उल्लासत्ताए परिणमंति, एवं जाव अहें सत्तसाए एवं आहारस्ल वि सत्तसु वि। इमीसे णं रयणप्पभाए पुढीए नेरझ्याणं का लेस्लाओ पन्नत्ताओ? गोयमा ! एका काउलेमा पन्नता । एवं सरप्पभाए वि । वालुरप्पभाए पुच्छा, गोवला! दो लल्लाओ पन्नत्ताओ, तं जहा-नीललेस्सा कापोयलेस्सा र, तत्थ जे कापोयलेस्सा ते बहुतरा जे नीललेस्सा ते थोवा । पंकप्पसाए पुच्छा, एक्का -नीललेस्सा पन्नत्ता । धूमपाए पुच्छा गोयला ! दो लेस्ताओ पन्नत्ताओ तं जहा-किण्हलेल्ला र नीललेला य ले बहुतरगा जे नीललेस्ता ते थोक्तरगा जे कण्हलेस्सा। तमाए पुच्छा, गोयमा ! एका कण्हलेस्सा, अहे लत्तलाए एका परम कण्हलेस्ला ॥ इलीले णं भंते! रथणापमाए पुढचीए नेइया कि सम्मदिट्टी मिच्छादिही सम्मालिच्छादिही ? गोयना ! सम्मट्टिी 'एवं जाब अहे सत्तमाए' इसी तरह के जठोर पर्श वाले द्वितीय पृथिवी से लेकर अधः सप्तमी पृथिवी तक के नारकों के शरीर ह ऐला जानना चाहिये।।सूत्र॥१८॥
छे, मा। प्रा२ना २५शवा सात टी२ २५शा हाय ॐ. 'एवं जाव अहे सचमाए' मा। १२ ।२ २५शामील वीथी सन मधासभा પૃથવી સુધીના નારકેના શરીરે હોય છે. તેમ સમજવું. એ સૂ. ૧૮ !
Page #275
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५३
प्रमेयद्योतिका टोका प्र. ३ उ.२ सू.१९ नारकाणामुच्छ्वासादिनिरूपणम् मिच्छाद्दिट्टी वि सम्मामिच्छादिट्टी वि एवं जाव अहे सत्तमा ए ॥ इमीसे णं भंते! रयणप्पभा पुढवीए नेरइया किं नाणी अन्नाणी ? गोमा ! णाणि विअन्नाणी वि जे नाणी ते नियमा तिष्णाणी तं जहा - आभिणिबोहियनाणी सुषणाणी ओहिणाणि जे अन्नाणी ते अत्थेगइया दु अन्नाणी अत्थेगइया ति अन्नाणी जे दु अन्नाणी ते नियमा महअन्नाणी य सुयअन्नाणी य, जे ति अन्नाणी ते नियमा मह अन्नाणी सुथ अन्नाणी विभंगनाणी वि । साणं णाणी वि अन्नाणी वि तिष्णि, एवं जाव अहे सन्तमाए ॥ इमी से णं रयणप्पसार पुढवीए नेरइया किं मणजोगी व जोगी कायजोगी ? गोयमा ! तिणि वि एवं जाव अहे सत्तमाए ॥ इमी से णं भंते! स्यणप्पभाष पुढवीए नेरहया किं सागारोवउत्ता अणागारोवउत्ता ? गोममा ! लागारोव उत्ता वि अणागारोवउत्ता वि एवं जाव अहे सतनाए ॥ इमीले णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया ओहिणा केवइयं खेत्तं जाणंति पासंति ? गोयमा ? जहन्नेणं अजुडगाउयाई उकोसेणं चत्तारि गाडयाई ॥ सकरप्पभाए पुढवीए नेरइया जहणं तिन्नि गाउयाई उक्कोसेणं अट्ठाई, एवं अद्धद्धगाउयं परिहायह जाप अहे समाए जहन्नेणं अद्धगाउयं उक्कोसेणं गाउयं ॥ इमी से णं स्यणप्पभाए पुढवीए नेरइयाणं कइ समुग्धाया पन्नता ? गोयला ! चत्तारि समुग्धाया पन्नत्ता, तं जहा - त्रेयणा ससुरवार, कसायसमुग्धाए, मारणातिय समुग्धाए । एवं जाव अहे समाए ॥ सू० १९ ॥
Page #276
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवाभिगमसे . छाया-एतस्यां खलु भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैरयिकाणां कीदृशाः पुद्गला उच्छ्वासत्या परिणसन्ति ? गौतम ! ये पुद्गला अनिष्टा यावदमनोऽमारते तेषामुच्छ्वासतया परिणमन्ति एवं यावदधः सप्तम्याम् । एमाहारस्यापि सप्त. स्वपि एतस्यां खलु भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां नरयिकाणां पतिलेश्याः प्राप्ताः गौतम ! एका कापोतलेश्या प्रज्ञप्ता । एवं शर्कराममायामपि, बालकाममायां पृच्छा गौतम ! द्वे लेश्ये प्रज्ञप्ते तद्यथा-नीललेश्या कापोतलेक्सा च । तत्र ये कापोतलेश्यास्ते बहुतराः, ये नीललेश्यास्ते स्तोकाः पङ्कनमायां पृच्छा गौतम ! एका नीललेश्या प्रज्ञप्ता । धूमप्रभायां पृच्छा गौतम ! द्वे लेश्ये घज्ञासे, तद्यथा-कृष्णलेश्या च नीललेश्या च, ते बहुतराः ये नीललेश्याः, ते लोकतराः ये कृष्ण छेश्याः । तमायां पृच्छा, गौतम ! एका कृष्णलेश्या । अयः सप्तम्यामेका परम कृष्णलेश्या । एतस्यं खलु भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैरयिकाः किं सम्यगदृष्टयो मिथ्याष्टयः सम्यमिथ्या दृष्टयः ? गौतम ! सम्बयोऽपि मिथ्यादृष्टयोऽपि सम्यग्रमिथ्यादृष्टयोऽपि, एवं यावदधः सप्तम्याम् । एतस्यां सलु भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैरयिकाः किं ज्ञानिकोऽज्ञानिनः १ गौतय ! ज्ञानिनोऽपि अज्ञानिनोऽपि ये ज्ञानिनाते नियमत स्त्रिज्ञानिनः तमा-भाभिनिवाधिक ज्ञानिनः श्रुनज्ञानिनोऽवधिज्ञानिना, ये शानिनस्ते सन्त्येकके द्वयज्ञानिनः सन्त्येकके व्यज्ञानिनः ये द्वयज्ञानिनस्ते नियमाद मत्यज्ञानिनश्च श्रुताज्ञानिनश्च, थे व्यज्ञानि. नस्ते नियमात मत्यज्ञानिनो श्रुताज्ञानिनो निसङ्गज्ञानिनोऽपि, शेषाः खलु ज्ञानिनोऽपि अज्ञानिनोऽपि, त्रयो यारधः सप्तभ्याम् ॥ एतस्यां खल रत्नप्रभायां पृथिव्यां नरयिकाः किं मनोयोगिनो बचोयोगिनः काययोगिनः ? गौतम ! योऽपि, एवं यावदधः सप्तभ्याम् । एतस्यां खलु भदन्त ! रत्नमभायां पृथिव्यां नैरयिकाः किं साकारोपयुक्ता भाकारोपयुक्ताः ? गौतम ! साकारोपयुक्ता अपि, अनाकारोपयुक्ताअपि एवं यावदधः सप्तम्याम् । एतस्यां खलु रत्नममायां पृथिव्यां नैरविका अवधिना कियत् क्षेत्र जानन्ति पश्यन्ति ? गौतम ! जघन्येन अर्द्ध चतुर्थनव्यूतानि उत्कर्षेण चत्वारिगव्यूतानि । शरामभायं पृथिव्यां नैरयिकाः जघन्येन त्रीणि गव्यूतानि उत्कर्षे णार्द्ध चतुर्थानि एवमगिव्यूतं परिहीयते यावदधः सप्तस्मां जघन्येनार्द्धगव्यूत मुत्कर्षण गव्यूतम् । एतस्यां खलु भदन्त ! रम्नप्रभायां पृथि नैर्शयकाणां कति समुद्घाताः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! चत्वारः समुद्वाताः प्रज्ञप्ताः तद्यथा-वेदना समुद्घातः कषाय समुद्घातो, मारणान्तिक समुद्घातो, वैक्रियासमुद्घातः एवं पावधः सप्तम्याम् ॥५०१९॥
Page #277
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीकाप्र.३ उ.२ ६.१९ नारकाणामुच्छ्वासादिनिरूपणम् २०५
टीका--'हमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए' एतस्यां खल्ल भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्याम्, 'मेरइयाणं' नैरयिकाणाम् ‘के रिपया पोग्गला' कीदृशाः पुद्गला 'उस्सासत्ताह परिणमंलि उच्छ्वासतया-श्वासोच्छ्वासरूपेण परिणमन्ति-परिणामं प्राप्नुवन्ति ? इति प्रश्ना, भगबानाह-'गोयमा' इत्यादि, गोयमा' हे हे गौतम ! 'जे योग्गला अणिहा जाय अरुणामा' ये शुद्गला अनिष्टा यावदआकान्या अप्रिया अशुभा अननोज्ञा अरनोऽमाः, तत्र न इष्टाः न अभिलषिता इत्यनिष्टाः तत्रानिष्टमपि निश्चित् सर्वस्यै अनिष्टं न भ ति सच्वैिचित्र्य दतः
अन्य स्त्रकार नारकजीयों के उच्छ्वास आदि का कथन करते हैं 'इमीले गं अंते ! बघणपाए पुहबीए गैर इथाणं रिलया पोग्गला' इत्यादि खून १९
टीक्षार्थ-गौलब्ध ने प्रलु ले ऐल्ला पूछा है-'इमीले ण भंते ! रयणप्प. भाए पुढबीए' हे अदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी के 'नेरइयाण नैरयिकों के 'केरिलया पोग्गला' कैले पुगल 'उस्लासतया परिणमंति' उच्छ्रवास रूप से श्वासोच्छूशाल रूप ले परिणत होते है ? अर्थात् किस प्रकार के पुद्गल नारक जीवों के श्वासोच्छ्वाल रूप से परिणलते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं 'गोयमी ! जे पोराला अणिट्टा जाच अमणामा' 'हे गौतम ! जो पुल अनिष्ट शाश्त्-अकान्त अप्रिय, अशुभ, अम. नोज्ञ और मोऽस, जिन्हें ग्रहण करने की मन से भी इच्छा नहीं होती हैं-ऐले पुद्गल हो नारक जीदों के श्वासोच्छ्वाल रूप से परिणमते
હવે સૂત્રકાર નારક જીના ઉચ્છવાસ વિગેરેનું કથન કરે છે. 'इमीसे णं भवे ! रयणप्पभाए पुढबीए णेरइयाणं केरिस्रया पोग्गला त्या
Ni-गौतमस्वाभीमे प्रभुश्रीन मे ५च्यु. इमीसे ण भते ! रयणप्पमाए पुढवीए' है मगन मा २(नमा पृथ्वीना ‘णेरइया ' नैरविहीन 'केरिसया पोग्गला' 3 मारनी पुगत 'उस्सासतया परिणमंति' २७पास પણથી એટલે કે શ્વાસોચ્છવાસ રૂપે પરિણમે છે ? અર્થાત કેવા પ્રકારના પુદ્ગલે નારકજીના શ્વાસોચ્છવાસ પણાથી પરિણમે છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रभुश्री गौतमस्वामीन डे छे ? 'गोयमा ! जे पोग्गला अणिट्टा जाव अमणामा' હે ગૌતમ જે પગલે અનિષ્ટ યાવત્ અકાંત, અપ્રિય, અશુભ, અમને જ્ઞ અને અમનેમ કે જેને ગ્રહણ કરવાની ઈચ્છા મનમાં પણ હોતી નથી. એવા પુદ્ગલેજ નારક જીના શ્વાચ્છવાસ રૂપે પરિણમે છે. જે ઈષ્ટ નહોય
Page #278
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमes
२५६
BALANCER
आकान्ताः, तत्राक्रान्तमपि किञ्चिव कस्मैचिद्रोचते गया शुकस्य वाहअप्रिया अशुभाः अन एवामनोज्ञः अमनोमाः मनमापि पारं ग्रहीतुमयेोग्याः, यद्यपि समानार्थकाः माय एते शब्दा रतथापि बहुदेशज विनेय योगय पर्धक्येन हैं। जो इष्ट नहीं होते हैं वे पुल अनिष्ठ है वे अनिष्ट भी सब को अनिष्ट ही हो सो योनी नहीं की विचि त्रता से अनिष्ट वस्तु भी इष्ट होनी हुई देखी जाती ः वे पहल ऐसे नहीं है इस बात की स्पष्ट करने के लिये 'अन्त' यह पद दिया गया है वे हल जो नारफ जीनों के श्वास रूप से परि जमते हैं वे ऐसे अनिष्ट नहीं है कि किन्हीं नारक जीवों को इष्ट अभिलषित भी हो क्योंकि वे सर्पधा अन्त होते हैं इसलिये वे अनिष्ट ही होते हैं । यदि फिर भी उस पर को कहा जाय कि जो कोई पदार्थ अन्त भी होता है यह भी २, जीवों को रचना हुआ देखने में आता है जैसे शहर को अकात विष्टा रुचती है मो ऐसी कल्पना कोई यहां करलें इन पासष्ट करने के लिये 'अमिय' यह पद दिया है इस प्रकार के ये अशुभ यावन् असनोम पुद्गल नारक जीवों के श्वासोच्छ्रयास रूप से परिणमते हैं। यद्यपि ये सब शब्द समान अर्थ वाले हैं - तब भी इन जो यह स्वतंत्र रूप से प्रयोग करने में आया है उसका कारण भिन्न २, देशों के दिनों को समझा
તેવા પુદ્ગલેા અનિષ્ટ કહેવાય છે અને તે અનિષ્ટ પણ બધાનેજ અનિષ્ટ હોય તેમ બનતું નથી કેમકે રૂચિની વિચિત્રતાથી અનિષ્ટ વસ્તુ પણ કેટલાકને દૃષ્ટ હાય તેમ દેખવામાં આવે છે. જેથી તે પુદ્ગલેા એવા હાતા નથી એ વાત સ્પષ્ટ કરવા માટે માન્ત' આ પદને પ્રયાગ કરવામાં આવેલ છે તે પુદ્ગલે કે જે નાક જીવેાના શ્વાસેછવાસ પણાથી પરિણમે છે. તે એવા અનિષ્ટ હાતા નથી કે કેાઈ કાઇ નારક જીવેાને ઇષ્ટ અભિલષિત પશુ હાય, કેમકે તે સર્વથા અકાંત હોય છે. તેથી તે પુદ્ગલેા અનિષ્ટજ હોય છે. તે પણ કો આનાપર એમ કહેવામાં આવે કે જે કેાઇ પટ્ટા એકાન્તપણુ રાય છે, તે પશુ કાઈ કે.ઇ જીવાને રૂચતા હાય તેમ જોવામાં આવે છે. જેમકે શૂકરને અકાન્ત એવી વિષ્ટા રૂચિકર હાય છે. તા કેાઈ અહિયાં એવી કલ્પના ન કરીલે એટલા માટે ‘ક્ષત્રિય' એ પદના પ્રયાગ કરવામાં આવેલ છે આવા પ્રકારના આ અશુભ, યાવત્ અમનેડમ એવા પુગલે નારકજીવેાના શ્વાસે ચ્છવાસ પણાથી પરિણમે છે, જો કે આ બધા શબ્દો સમાન અથ વાળા છે, તા પણ તેના સ્વતંત્ર પણાથી અદ્ગિયાં જે પ્રયાગ કરવામાં આવ્યેા છે, તેનું કારણ જૂદા જૂદા દેશના
Page #279
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.२ सू.१९ नारकाणामुच्छ्वासादिनिरूपणम् २५७ उपात्ताः अथवा नारकै रुच्छ्वासतया परिगृहीत पुद्गलानामस्यन्तदुष्टश्व ज्ञापनायेति। 'ते तेसिं उसासत्ताए परिणमंति' ते उपरिदर्शिता अनिष्टवादि विशेषणयुक्ताः पुद्गला स्तेषां नारकाणाम् उच्छशासतया उच्छ्वासनि श्वासरूपेण परिण. मन्ति-परिणामं माप्नुवन्तीति । 'एवं जार अहे सलमाए एवं यारद्धः सप्तम्याम् रत्नप्रभानाररूवमेव शर्कराममा बालु काममा पक्षप्रभा धूमममा तमःप्रभा तमम्तमः प्रभानारकाणामपि श्वासोच्छ्वासल्या परिगृह्म नाणाः पुनला अनिष्टा अप्रिया अशुमा अमनोज्ञा अमनोऽमा एवेति ज्ञाव्याः । एवं आहारस्स वि सत्तमु वि' एवमेव वासतया परिणत पुद्गलदेव आहारतया परिणताः पुद्गला अपि अन्ष्टिना है अथवा-नारकजीबो द्वारा श्वासोच्छ्वास रूप ले गृहीतए पुद्गल अत्यन्त दुष्ट-बुरे ही होते हैं-किसी भी प्रकार से हममें अदुष्टता नहीं है इस बात को समझाने के लियेहन समानार्थी शब्दों को कहा गया है 'ते तेलि उस्लामस ए परिणति' ऐले थे पूर्शत विशेषणों वाले पुदगल नारक जीवों के उच्छ्शाम निश्वास रूप से परिणत होते हैं । 'एवं जाव अहे सत्समाए' रत्नप्रभा पृथिवी के नारकों के जैसे शर्कशप्रभा बालु साप्रमा, पङ्कप्रभा, धूमप्रभा तमाप्रभा और तमत्तमामा पृथिवी के मारकों के भी श्वासोच्छ्वास रूप से गृहीत हुए पुशल प्रोक्त विशेषणों वाले ही होते हैं ऐसा जानना चाहिये 'एवं आहाररूस वि सत्तलु शि' जिस प्रकार से श्वासोच्छ्वास रूप से परिणल हुए पुढाल पूर्वोक्त अनिष्टादि विशेषणों धाले होते हैं उसी प्रकार से प्रथम रत्नममा पृथिवी से लेकर सातवीं तमશિષ્ય જનેને સમજાવવા માટે કહેલા છે. અથવા નારક છે દ્વારા શ્વાસો૨છવાસ રૂપે ગ્રહણ કરાયેલા પુદ્ગલે અત્યંત દુષ્ટ-ખરાબ જ હેય છે. કેઈ પણ પ્રકારથી તેમાં આદુષ્ટ પણું આવતું નથી એ વાત સમજાવવા માટે આ समान अथवा शह द्या छ. 'ते तेसिं उसासत्ताए परिणमति' सेवा मा પૂર્વોક્ત વિશેષવાળા પગલે નારક જીવોના ઉચ્છશ્વાસ અને નિઃશ્વાસ રૂપથી परित थाय छे. 'एवं जाव अहे सतमाए' २त्नप्रभा पृथ्वीना नारीना ४थन प्रमाणे राप्रपा, पाला , ५:प्रमा, धूमप्रमा, तभ:प्रमा, भने तभस्तमः પ્રભા પૃથ્વીના નારકેના શ્વાસોચ્છવાસથી ગ્રહણ કરાયેલા પુદ્ગલે પણ પૂર્વોક્ત विशेषो वा हाय छे. तम सभा'. 'एवं आहारस्स वि सत्तसु वि' જે પ્રમાણે શ્વાસોચ્છવાસ પણાથી પરિણમેલા પુદ્ગલે પહેલા કહેલા અનિષ્ટ વિગેરે વિશેષણે વાળા હોય છે, એ જ પ્રમાણે પહેલી રત્નપ્રભા પૃથ્વીથી લઈ
जी० ३३
Page #280
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५८
जीवामिगमत स्वादियुता एव रत्नप्रभात आरभ्य तमस्तमा पृथिवी पर्यन्तमिति । आलापप्रकार: श्वेत्थम्-हे भदन्त । रत्नप्रमा नैरयिकाणां श्रीशाः पुद्गला आहारतया परिणता भवन्ति ? हे गौतम ! ये पुद्गला अनिष्टा अकान्सा अभिया अशुमा अमनोना अमनोऽ. मास्ते सेपामाहारतया परिणता भवन्ति, एवमेव शर्कराममात आरभ्य यावत् साता पृथिवी नारकाणामपि आश्य ह पुनला जान्ला अधिया अशुभा अनोज्ञा अमनोऽमा ज्ञात्वा इति सत्रालापमकार लयमेहनीयः।
सम्प्रति लेक्श प्रतिपादनार्थ शाह-मीले इत्यादि, 'इमीसे णं भंते !" एतस्यां खल्ल भवन्त ! 'रयगमाए पुढी रानभायां पृथिव्याम् 'नेरयाणं स्तनःप्रभा पृथिवा तक के जीप के आहार रूप से जो पुदगल परिणत होते है वे भी अनिष्ट आदि पूर्वोत विशेषण: बालेसी होते हैं। यहां आलाप प्रकार ऐसा है-हे भदन्त ! रत्तामा पृथिवी के नैरयिकों के को पुद्गल आहार रूप ले परिणमित्त होते हैं ? उत्ता, प्रभु ने ऐसा ही कहा है कि हे गौतम ! जो पुदगल अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अशुभ, अमनोज्ञ और अमनोऽम ही पुदगल उनके आहार रूप से परिणत होते हैं। इसी तरह से आहारूप से परिणत हुए पुद्गल द्वितीय पृथिवी से लेकर लालवी पृथिवी नारकों के होते हैं ऐसा जानना चाहिये रस काम्पन्ध में आलाप प्रजार सर्वत्र स्वयं ही उद्भावित कर लेना चाहिये। __अब लेश्या का प्रतिपादन किया जाता है-'हमीण भंते। रयणप्पभाए पुढचीए नेरयाणं कलेताओ पन्नताओ' हे भदन्त ! ને સાતમી તમતમપ્રભા પૃથ્વીના કથન સુધીના નાર, જીને આહારપણાથી જે પુદ્ગલે પરિણત થાય છે, તે બધા પણ અનિષ્ટ વિગેરે પૂર્વોક્ત વિશેષ વાળા જ હોય છે. તેના આલાપક પ્રકાર આ પ્રમાણે છે હે ભદન્ત ! રન પ્રભા પૃથ્વીના નૈરયિકને કેવા પુદ્ગલે આહાર પણાથી પરિણત થાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે છે કે હે ગૌતમ ! જે પગલો અનિષ્ટ, અકાન્ત અપ્રિય, અશુભ, અમનોજ્ઞ, અને અમને દમ હોય છે. તેજ પગલે તેમના આહાર પણાથી પરિણમે છે.
એજ પ્રમાણે આહાર રૂપે પરિણમેલા પુદ્ગલે બીજી પૃથ્વીથી લઈને સાતમી પૃથ્વી સુધીના નારકને હોય છે તેમ સમજવું આ સંબંધમાં આ લાપકનો પ્રકાર બધે જ સ્વયં બનાવીને સમજી લે.
હવે લેગ્યાના સંબંધમાં પ્રતિપાદન કરવામાં આવે છે. આ સંબંધમાં गौतमस्वामी प्रभुने ५छे छे , 'इमीसे णं भते ! रयणप्पभाए पुढवीए ‘नेरइया
Page #281
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५९
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ. २ . १९ नारकाणामुच्छ्वासादिनिरूपणम् कलेस्साओ पन्नताओ' 'नैरयिकाणां कवि-कियत्संख्यकाः लेश्याः प्रज्ञप्ताःकथिताः ? इति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' हत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'एक्का काउलेस्सा पत्ता' एका एकैव कापोतलेश्या प्रज्ञप्ता रत्नप्रभा नारक जीवानामेका कापोतलेश्या भवतीति । 'एवं सकरप्पभाष वि' एवं शर्कराप्रभायामवि' यथा रत्नममा नारकाः कापोसलेश्यावन्तस्तथैव शर्कराममा नारका अपि कापोतले यान्तो भवन्तीति । 'बालुरप्पभाए पुच्छा' व'लुकाममायां पृच्छा हे भदन्त ! बालुकाप्रभायां तृतीयनस्वष्टथिव्यां नारकाणां कतिलेश्या भवन्तीति पृच्छया संगृह्यते मनः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! दो लेस्साओ पन्नताओ' वालुकाममा नारकाणां द्वे लेये भवतः 'लं जहा ' तद्यथा'नीललेस्सा काउलेस्ता व' नीललेश्या कापोतलेश्या च 'तत्थ जे काउलेस्सा वे बहुतरणा' तत्र यो पर्मिध्ये ये कालेश्यास्ते बहुत अधिक उपरितन इस रत्नप्रभा पृथिवी के नैरों को कितनी लेइयाएं कही गई है ! उत्तर में प्रभु करते हैं-'गोयला एक्का काउलेस्सा पन्नसा' 'हे गौतम! रत्नप्रभा पृथिवी के नैरमिकों के केवल एक ही कापोत लेश्या कही गई है - ' एवं क्रप्पभाए वि' इसी प्रकार से शर्कराप्रभा के नारकजीवों के भी केवल एक कामेत बेश्या ही होती है 'बोलु. यप्पभाए पुच्छा' हे भदन्त ! बालुकाप्रभा के नेरयिकों के कितनी लेश्याएं होती है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं- 'गोयना ! दो बेस्साओ पन्नत्ताओ' 'हे गौतम! बालुकाप्रमा के नैरविकों के दो लेश्याएं होती है-' तं जहा' जैसे- 'नील येस्ला काउलेस्सा व' 'नील लेश्या और कापोत लेश्या' 'तत्थ जे कारबाला से बहुतरा' इनमें जो कायोत लेश्या वाले ही वे अधिक है- क्योंकि उपरितन मस्तटवर्ती नारकों को
ण' कइ लेखाओ पन्नताओ' हे गन्न मानिसला पृथ्वीना नैरयिाने કેટલી લેયાએ કહી હૈ ? આા પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમસ્વામીને ગૃહે છે કે 'गोयमा ! एक्का काउलेस्सा पण्णत्ता' हे औतम ! नया पृथ्वीना नैरयिठाने ठेवणो यो बेश्या ही छे 'एव' सक्करप्पभाए वि' से प्रभा શર્કરાપ્રભા પૃથ્વીના નારજીને પણ કેળ એક કાપેાત લેશ્યાજ હાય છે. 'वालुयप्पभाए पुच्छा' हे 'लहत वामाला पृथ्वना नैरयिठाने हेरली देश्याम होय हे ? आा अनवा उत्तरमां है 'गोयमा ! दो लेस्सा ओ पन्नत्ताओ' हे गौतम! वासु अला पृथ्वीना नैरयिोने में बेश्य थे। होय है. 'त' जहा' ते या प्रमाणे छे 'नीललेस्सा का उल्लेस्टा य' नीलसेश्या मने तोश्या, ' तत्थ जे काउल्लेस्सा से बहुतरा' सभां ने प्रयत
Page #282
--------------------------------------------------------------------------
________________
૨d
जीवाभिगमस्ते मस्तटवतिनां नारकाणां कापोत लेश्याकलात् तेषां चातिभूयस्कस्वादिति । 'जे नीललेस्सा वंतो पन्नत्ता ते थोवा ये नीललेश्यावन्तः यज्ञप्तास्ते स्तोकाः कापोतले. श्यापेक्षया न्यूना इति। 'पंकप्पभाए पुच्छा' पङ्कमभायां पृच्छा हे भदन्त ! पङ्कममा पृथिवी नारकाणां कतिलेश्या भवन्तीति पृच्छया संगृह्यते इति प्रश्नः, भगवानाइ'गोयमा' हे गौतम ! 'एक्का नीललेस्सा एन्नत्ता' एका नीललेश्या पङ्कपमा नारकाणां भवति, सा च तृतीय पृथिवीगत नीललेश्यापेक्षया अविशुद्धतरा भवतीति । 'धूमप्पभाए पुच्छा' धूप्रममायां पृच्छा हे भदन्त ! धूनमभानारकाणां कतिलेश्या भवन्तीति प्रश्नः, भगवानाह-गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'दो लेस्साओ पन्नत्ताओं द्वे लेश्ये मज्ञप्ते ' जहा' तद्यथा-'किण्हलेस्साय नील. लेस्साय कृष्णलेश्या च नीललेश्या च 'ते बहुतरगा जे नीललेस्सा' ते बहुतरा कापोत लेश्या होती हैं और ये उपरितन प्रस्तटवतो नारक अधिक है। तथा 'ये नील लेश्यावन्तः' जो नारक यहां नील लेश्या वाले हैं वे कापोत लेश्यावालों की अपेक्षा न्यून-कल है-'पंकप्रभाए पुच्छा' 'हे भदन्त ! पङ्कममा पृथिवी के नारकों के कितनी लेश्याएं होती है ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभु कहते है-'गोयमा! एक्का नीलोस्वापन्नत्ता 'हे गौतम पङ्कप्रभा के नारकों के केवल एक नील लेश्या ही होती है। वह तीसरी पृथिवी की नीललेश्या की अपेक्षा अविशुद्ध होती है ! 'धूमप्पभाए पुच्छा' हे भदन्त ! धूमप्रभा के नैरमिकों के कितनी लेश्याएं होती हैं ? 'गोयमा' हे गौतम! धूमप्रभा के नैरथिको के दो लेस्लाओ पन्नात्ताओ' 'दो लेश्चाएं होती हैं। 'तं जहा' जैसे '
किलेस्साय नीललेस्ला य' कृष्ण લેશ્યાવાળા હોય છે, તેઓ વધારે છે, કેમકે ઉપરના પ્રતટમાં રહેવાવાળા નારકેને કાપત લેશ્યાજ હોય છે. અને તેવા આ ઉપૂરના પ્રસ્તટમાં રહેવાવાળા नारस। मधिर छ. तथा 'ये नीललेश्यावन्तः' २ नार। नील वेश्यावा હોય છે, તેઓ કપિલેશ્યાવાળા નારકની અપેક્ષાએ ન્યૂન-થોડા છે.
प कप्पभाए पुच्छा' सगवन् ५४मा पृथ्वीना नारान सी वेश्याम हाय छ ? L प्रश्न उत्तरमा असु ४ ॐ ॐ 'गोयमा! एक्का नील लेस्सा पन्नत्ता' है गीतम! ५४मा पृथ्वीना नान. १७ २४ नीत वेश्यार હોય છે. અને તે ત્રીજી પૃથ્વીની નીલ વેશ્યાની અપેક્ષાએ અવિશુદ્ધ હોય છે. 'धूमप्पभाए पुच्छा' ७ सावन मप्रमा पृथ्वीना नरयिन टी श्यामा डाय छे? उत्तरमा प्रभु ४९ छे है 'पोयमा गौतम ! धूमप्रमा पृथ्वीना नरयिोन 'दो लेस्साओ पण्णताओ' में वेश्यामे। ही छे. 'तजहा' त मे श्यामी मा प्रमाणे छे. 'किण्हलेस्सा य नीललेस्सा य' में वेश्या मन
Page #283
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र:३ उ.२ .१९ नाएकाणामुच्यासादिनिरूपणम् २६१ ये नीललेश्याः धूमपभायां नीललेश्या नारका अधिकाः सन्ति ते थोवतरगा जे कण्हलेस्सा' ते स्तोकतराः सन्ति ये कृष्णलेश्याः भावना प्राग्वदेव, 'तमाए पुच्छा' तमायां पृच्छा हे भदन्त ! तमःप्रमानारकाणां कतिलेश्या भवन्तीति पृच्छया संगृह्यते प्रश्नः, अगवानाइ-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'एक्का किण्हलेस्सा' एका कृष्णलेश्या भवति तमाममा तारकाणाम, साच धूमप्रमा पृथिवीगत कृष्णलेश्यापेक्षया अदिशुद्धतरा सवति 'अहे. सत्तमाए एका परमकिण्हलेस्सा' हे सदन्त अब सप्तमी नारकाणां कतिलेश्या भवन्ति हे गौतम ! अध:सप्तमी नारकाणामेंका परम कृष्णलेश्या भवति तदुक्तम्
'काऊ दोन तइयाए मीसिया नीलिया चउत्थीए । पंचमियाए मीसा कण्हा तत्तो परम कण्हा ॥१॥ कापोती द्वयो स्तृतीयस्यां मिश्रा नीला च चतुर्थ्याम् ।
पञ्चम्या मिश्रा कृष्णा ततः परम कृष्णा ॥१॥ इतिच्छाया । लेश्या और नीललेश्या 'ले मातरक्षा जे नीललेला हल से धूमप्रभा पृथिवी लीललेश्वो बाले नारक अधिक हैं और ते थोवतरका जे कण्हलेस्ला 'कृष्ण लेश्या बोले जीव काल है। भावना पूर्ववत् समझ लेना चाहिये । 'तमाए पुच्छ।' 'हे भदन्त ! तमामा पृथिवी के नैरयिकों के कितनी लेश्याएं होती हैं ? 'गोधमा : एक्का झिण्ह लेस्ला' एक कृष्ण लेश्याही होती है और यह कृष्णलेशा धूमप्रभा गत कृष्णलेश्या की अपे. क्षा अविशुद्धतर होती है। 'अहे सताए एकका परम किण्ह लेस्ला' हे भदन्त ! अधः लप्तमी पृथियी के नारकों के शितली लेश्याएं होती है ? हे गौतम ! अधः ससमी पृथिवी के नारको के केवल एक परम कृष्ण लेश्या ही होती है। तदुक्तम्-'कहो.' इत्यादि अर्थात रत्नप्रभा और शर्कराप्रभा, इन दोनो धिषियों में कापोत लेश्या होती है, मी नीलेश्या 'ते बहुतरका जे नीललेस्सा' माथी धूमप्रमा पृथ्वीमा नील वेश्यावा ना धारे ७५ छ. २५ने 'वे थोवतरका जे कण्हलेसा' लेश्या વાળા નારક જીવો ઓછા હોય છે. આની ભાવના પહેલા કહ્યા પ્રમાણે સમજવી.
'तमाए पुच्छा' है गन् तमासा पृथ्वना नैरयिह सी वेश्यावामा डाय छे ? 'गोयमा एक्का किण्हलेस्सा' हे गीतम ! ये पर वेश्या । તેમને હોય છે અને આ કૃષ્ણ લેશ્યા ધૂમપ્રભ પૃથ્વીમાં કહેલી કૃષ્ણલેશ્યાની अपेक्षा अविशुद्धतर डाय छे. 'अहे सत्तमाए एक्षा परमकिण्हलेस्सा है ભગવન અધઃસપ્તમી પૃથ્વીના નારકને કેવળ એક પરમ કૃણ લેશ્યાજ હોય
Page #284
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवाभिगमन सम्पति-नारकाणां सररग्दृष्टिखादि विशेषप्रतिपादनार्थमाह-इमीसे गं'इत्यादि, 'इमीसे णं भंते' एतस्यां खल भदन्त ! 'रयणप्पमाए पुढवीए' रत्नप्रभागं पृथिव्याम् 'नेरहया' नैरयिकाः किं सम्मादिही मिच्छादिट्टी सम्मामिच्छादिट्टी' किं सम्यग्दृष्टयो मिथ्यादृष्टयो वा सम्पमिथ्या (मिश्र) दृष्टयो वा भवन्तीति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'सम्नविट्ठी वि पिन्छादिट्ठी वि सम्मामिच्छादिट्ठी वि' रत्न पभानारकाः सम्यग्दृष्टयोऽपि मन्ति मिथ्यादृष्ट योऽपि भवन्ति, सम्पमिथ्यादृष्टयोऽपि यवन्तीति । पवं जाब अहे सत्तमाए' एवं तीसरी वालुकाप्रभा में मिश्र नील और कापोत घे दो लेश्याएं होते हैं। चौथे पंकप्रभा पृथिवी में नील होती है। पांचवी घूमप्रया पृधिवी में मिश्र-कृष्ण लेश्या और नीलेश्या ये नोटेचाएं होती है। छठी तमा. प्रभा पृथिवी में कृष्ण लेघा और स्थानों में परमकृष्ण लेश्या होती है।।
अब नारकों की दृष्टि विषय के में कहते-हमीणं भं!' हे भदन्त! इस 'स्यणप्पभाए पुढी' रत्नप्रभा पृथिवी में रहने वाले 'नेरहया' नैरयिक कि समादिही, मिच्छादिट्टी सम्मानिच्छादिट्टी' क्या सम्पग्दृष्टि होते हैं ! या मिथ्याष्टि होते हैं ? या निष्टि ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! सम्मदिही घिमिच्छादिही वि' हे गौतम ! प्रथम पृधिवी गत नेररिक सम्पदृष्टि होते हैं मिथ्या दृष्टि भी होते हैं और मिश्रदृष्टि भी होते हैं 'एवं जाश अहे सत्तमाए' इसी तरह छ तदुक्तम् 'काउदो०' त्या मर्थात् २न ५सा, गने शरामा मा मे પૃથવીયે માં કાપત લેસ્યા હોય છે. અને ત્રીજી વાલુકાપ્રભા પૃથ્વોમાં મિશ્ર રીતે નીલ અને કપિત એ બે કેશ્યાઓ હોય છે. ચોથી પંકખભા પૃથ્વીમાં નીલ ગ્લેશ્યા હોય છે. પાંચમી ધૂમપ્રભા પૃથ્વીમાં મિશ્ર એટલે કે કૃષ્ણ વૈશ્યા અને નીલ વેશ્યાઓ બે વેશ્યાઓ હોય છે. છઠી તમપ્રભા પૃથ્વીમાં કૃષ્ણ લેશ્યા અને સાતમી તમતમા નામની પૃથ્વીમાં પરમ કૃષ્ણ લેશ્યા હે ય છે ૧૫
हवे नारनी हल्टिन समयमा ध्यन वामां भाव छ 'इमीसे ण भते । भगवान् श्म! 'रयणप्पभाए पुढवीए' २त्नसा पृथ्वीमा २७दावाणा 'मेग्इया' नैरपि । 'कि सग्मादिदी, मिच्छादिद्री सम्मामिच्छादिदी' शु अभ्यय દષ્ટિ વાળા હોય છે ? કે મિ દૃષ્ટિ વાળ હોય છે? અથવા સમ્યગૂ મિથ્યા દષ્ટિવાળા એટલે કે મિશ્ર દષ્ટિવાળા હોય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ४९ छ 'गोयमा ! सम्मदिवो, वि मिच्छादिवो वि, सम्मामिच्छ दिट्ठी वि' छ ગૌતમ ! પહેલી પૃથ્વીમાં રહેલા નરયિક સમ્યગ્ર દષ્ટિવાળા પણ હોય છે, મિથ્યા દૃષ્ટિવાળા પણ હોય છે, અને મિશ્ર દષ્ટિવાળા પણ હોય છે. '
Page #285
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२.१९ नारकाणामुन्छवासादिनिरूपणम् २६३ यावदधः सम्यम् रत्नपनानारयदेव शर्करामभा वालका प्रभा पक्षमा धूमप्रभा तमम्ममा तमस्त मःममा नारकाः सम्म गूदृष्टयोऽपि भवन्ति मिथ्यादृष्टयोऽपि भवन्ति । सम्यमिथ्या (मिश्र) दृष्टयोऽपि भवन्तीति भावः।
सम्पति-ज्ञानिवज्ञानिय दर्शयति-'इसीसे ण' इत्यादि, 'इमीसे णं भंते !" एतस्यां खल भदन्त ! 'रयणप्पभाष पुढीए' रत्नमाणं पृथिव्याम् 'नेरइया कि लाणी अन्नाणी' नरधिकाः किं जानिनो भवन्ति अज्ञानिनो वा भवन्तीति प्रश्न: भगवानाह-'गोशा' इत्यादि, 'गोयबा' हे गौतम ! 'पाणी दि अन्नाणी वि' ज्ञानिनोऽपि भान्ति अज्ञानिनोऽपि भवन्ति रत्नप्रभा नगरका इति । 'जे नाणी ते मियमा तिन्नाणी' तत्र ये ज्ञानिनस्ते नियमत्तस्त्रिज्ञानिना, 'जहा' तद्यथा'आभिणियोहियनाणी' आमिनिवोधिक ज्ञानिनः 'सुयनाणी' श्रुतज्ञानिनः 'ओहिनाका कान चिनीय पृथिवी से लेकर अचलप्तमी पथिवी तक के नारकों के सम्बन्ध भी जानना चाहिये अर्थात् द्वितीय पृथिवी के नैरपिकों से लेकर बालवीं पुधियी लक के नैयिक सम्पदृष्टि भी होते हैं मिया दृष्टि भी होते हैं और निष्टि भी होते है। ___ अब नैचिको का ज्ञान अज्ञान द्वार कहते हैं-'इमीले णं अंते रयणपभाए पुढची ह नेरइया कि भाणी अन्नागी' हे अदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी के नेथिक कशा झाली होते हैं ? घा अज्ञानी होते है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयना ! गाणी चि अन्नाणी वि' हे मौतम ! इस रत्नप्रभा पृथिवी के नैरयिक ज्ञानी भी होते और अज्ञानी भी होते हैं। 'जे नाणी ते निश्मा लिन्नाणी' जो ज्ञानी होते हैं वे नियम से तीन ज्ञान
जाब अहे खत्तमाह' मा प्रमाणे थन पी थीथी बने माससमा પૃથ્વી સુધીના નારકેના સંબંધમાં પણ સમજવું અર્થાત્ બીજી પૃથ્વીના નૈરયિકેથી લઈને સાતમી પૃથ્વી સુધીના નિરયિકે સમ્યમ્ દષ્ટિ વાળા પણ હોય છે. મિથ્યાષ્ટિ વાળ પણ હોય છે અને મિશ્ર દષ્ટિ વાળા પણ હોય છે.
હવે નરયિકોના જ્ઞાન અને અજ્ઞાન દ્વારના સંબંધમાં કથન કરવા માં આવે છે. मा समां गीतमस्वामी प्रसुने पूछ में 'इमीसे गं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए मेरडया कि नाणी अन्नाणी' सगवन् मा रत्नप्रभा पृथ्वीना नहि। જ્ઞાની હોય છે? કે અજ્ઞાની હોય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમસ્વામીને
छ, 'गोयमा ! णाणी वि अण्णाणी वि' है गौतम! 24। प्रमा पृथ्वीना नैरपि। ज्ञानी पर हाय , मन अज्ञा-१ ५९ डाय छ 'जे नाणी ते नियमा तिन्नाणी' गौतम । २ साना हाय छे, त। नियमथा. र ज्ञान वाणा डाय छे. 'त जहा' ते ३ ज्ञान मा प्रभारी छे. रेभ. 'आसि.
Page #286
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६४
जीवामिगमस णीय' अवधिज्ञानिनश्च 'जे अन्नाणी' येत्यज्ञानिलः, अत्थे गया दुअन्नाणी' सन्त्ये. कके द्वन्यज्ञानिनः 'अत्थे गइया ति अन्नानी' सन्त्येकके व्यज्ञानिना 'जे दुअन्नाणी ते नियमा मइ अन्नाणी य सुय अन्नाणीय' तत्र ये हृयज्ञानिनस्ते नियमतो मत्य ज्ञानिनः श्रुनाज्ञानिनश्च ये अमंजिपञ्चन्द्रिये भ्य उत्पधन्ते ते अपर्याप्तावस्थायां द्वय ज्ञानिन: शेप काले तु तेषामपि यज्ञानिता 'जे ति अन्नाणी विभंगनाणी वि' ये त यज्ञानिनः ते निएमा मरअन्नाणी सुय अन्नाणी ते नियमो मत्यज्ञानोलः श्रुनाज्ञानिनो विभङ्ग मानिने ऽपि भवन्तीति । सेसा पं वाले होते हैं-'तं जहा' जैसे-'भिपिशवोहियनाणी, सुचनाणी, ओहि. नाणी' मतिज्ञान वाले होते . शुनज्ञाल बाले होते हैं और अवधि ज्ञान वाले होते है। 'जेनाणी' और जो ज्ञ.नी होते हैं वे 'अत्थेग. इया दुअन्नाण्णी ' जितने को दो अज्ञाल वाले होते है 'अत्थेगड्या ति अन्नाणी' और कितनेक तील प्रज्ञान झाले होते हैं। 'जे दुअन्नाणी' जो नारक दो अज्ञान वाले होते है-के नियमा मह अन्नाणी य सुय अन्नाणी य' नियम ले एक मतिअज्ञानवाले और दूसरे श्रुत अज्ञानबोले होते हैं तथा-'जे ति अन्नाणी ले नियमा-सह अल्लाणी, सुय अन्नाणी विभंगानाणी दिजो लारकी तीन अज्ञान वाले होते हैं वे नियम से मति अज्ञान दाले होते हैं, शुल अजाल क्षाले होते हैं, और विभंज्ञान वाले होते हैं । जो जीव असंजी पञ्चेन्द्रियों में से आकर के उम्पन्न होते हैं ये अपर्याप्तावस्था में ही दो अज्ञान वाले होते है और पीछे के समय में नो वे भी तीन अज्ञान वाले हो जाते हैं । इसीलिये कितनेक नारकी दो अज्ञान बाले होते हैं ऐला कहा गया है । 'सेसाण णियोहिय नाणी, सुयनाणी, ओहिनाणी' भतिज्ञान वा हाय छे. श्रुतज्ञान वाणा डाय छ, भने अवधिज्ञानी वा हाय छ 'जे अन्नाणी' भने रेया अज्ञानी डाय छ, तेसा नियमथी 'अत्थे गइयो नि अन्नाणी' भने मात्र अज्ञानवा डाय छे, 'जे दु अण्णाणी' २ ना मे अजान वाणा हाय छ, त। 'नियमा मइ अन्नाणी य सुय अन्नाणीय' नियमथी २१ मति मज ना सने श्रुत अज्ञान पास छे. 'जे ति अन्नाणी ते नियमा मइ अन्नाणी सय अण्णाणी विभग नाणी' २ ना२४ीयो ३ अन डाय छे. तेया नियमयी मति अज्ञान વાળા હોય છે, શ્રત અન્નાન વાળા હોય છે અને વિર્ભાગજ્ઞાન વાળા હોય છે. જે અસંગી પંચેન્દ્રિમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે, તેઓ અપર્યાપ્ત અવસ્થામાં જ બે અજ્ઞાન વાળા હોય છે. અને પછીના સમયમાં તે તેને પણ ત્રણ અજ્ઞાનવાળા થઈ જાય છે. તેથી જ કેટલાક નારદીયો બે અજ્ઞાનવાળા હોય છે. તેમ કહેવામાં આવ્યું છે.
Page #287
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३उ.२ सू.१९ नारकाणामुच्छ्वासादिनिरूपणम् २६५ णाणी वि अन्नाणी वि तिमि जाव अहे सत्तमाए' शेषः खलु ज्ञानिनोऽपि अज्ञानिनोऽपि त्रीणि यावदधः सप्तम्याम् इति, शेषाः शर्कराप्रभात आरभ्य अधःसप्तमी पर्यन्त षट् पृथिवीस्थितनारका ज्ञानिनोऽपि सन्ति अशानिनोऽपि सन्ति, तत्र 'तिम्नि' इति तेषां ज्ञानानि नियमात् त्रीणि भवन्ति तथैव अज्ञानान्यपि च तेषां नियमात् त्रीण्येव 'अत्थेगइया दुअन्नाणी' इति वक्तव्यम् इति विशेषः । तथाहिशर्करापृथिवी वालुकाममा पङ्कपमा धृमममा तमःममा तमस्तमःप्रभा नारकाः नियमाव त्रिज्ञानिनोऽपि व्यज्ञानिनोऽपि भवन्ति आलापप्रकारश्वत्थम् । तथाहिशर्करापमा पृथिवी नारका खलु भदन्त ! कि ज्ञानिनोऽज्ञानिना, गगनाह गौतम ! शानिनोऽपि अज्ञानिनोऽपि शर्करायभायामपि सम्यग्दृशां मिथ्याशांच भाषाव तम ये ज्ञानिनस्ते नियमात् विज्ञानिनः तद्यथा-भाभिनिवोधिकज्ञानिनः श्रुतज्ञानिनो. ऽवधिज्ञानिनश्च, ये अज्ञानिनस्ते नियमाव व्यज्ञानिनो मत्यज्ञानिनः श्रुताज्ञानिनो णाणी वि, अन्नाणी वितिन्नि जाव आहे सत्तमाए' इसी प्रकार से शर्करा प्रभा के, बालुकाप्रभा के पंचममा के, धूमप्रभा के तमामभा के और तमस्तमःप्रभा पृथिवी के नारक जीव भी ज्ञानी और अज्ञानी दोनों होते हैं यदि वे ज्ञानी होते हैं तो नियम से तीन ज्ञान काले होते है।
और यदि अज्ञानी होते हैं तो तीन अज्ञान वाले होते । इस सम्बन्ध में आलाप प्रकार प्रथम पृथिवी में जैसा आलाप प्रकार कहा गया है वैसा द्वितीय पृथिवी आदि शब्द लगाकर स्वयं उद्भावित कर लेना चाहिये परन्तु द्वितीय शर्करप्रभा पृथिवी से लगाकर जप्तमी पृथिवी तक के नारकी में 'इनमें कितनेक दो अज्ञान वाले होते हैं 'ऐसा कथन नहीं करना चाहिये क्योंकि यह कथन असंज्ञी जीवों से आकर जो जीव नारक पर्याय से उत्पन्न होता है उसकी अपेक्षा से किया गया
_ 'सेसाणं नाणी वि अण्णाणि वि तिन्नि जाव अहे सत्तमाए' मा प्रभारी શર્કરામભાના, વાલુકાપ્રભાના, પંકપ્રભાના, ધૂમપ્રભાના, તમ પ્રભાના અને તમ સ્તમપ્રભા પૃથ્વીના નારક જીવ પણ જ્ઞાની અને અજ્ઞાની હોય છે જે તેઓ જ્ઞાની હોય છે, તે તેઓ નિયમથી ત્રણ જ્ઞાનવાળા હોય છે અને જે અજ્ઞાની હોય છે, તે ત્રણ અજ્ઞાનવાળા હોય છે. આ સંબંધમાં આલાપકેન પ્રકાર પહેલી પૃથ્વીમાં જે પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે, તે જ પ્રમાણે બીજી પૃથ્વી, અને ત્રીજી પૃથ્વી વિગેરે શબ્દ લગાવીને સ્વયં સમજી લેવા. જોઈએ પરંતુ બીજી શર્કરા પ્રભા પૃથ્વીથી લઈને સાતમી પૃથ્વી સુધીના નારકામાં “તેઓમાં કેટલાક બે અજ્ઞાન વાળા હોય છે. આ પ્રમાણેનું કથન કરવું ન જોઈએ. કેમકે આ કથન સંગી જીમાંથી આવીને જે છે નારકપર્યાયથી ઉત્પન્ન થાય છે, તેની અપેક્ષાથી
जी०३४
Page #288
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६६
जीवाभिगमने
विभङ्गज्ञानिनश्च संशिपञ्चेन्द्रियेभ्य एवागस्य शर्करामभायामुत्पादात् ? एवं वालुकाप्रभा पङ्कप्रभा धूममभा तमप्रभा पृथिवीप्यपि नारकाणां नियमात्स्त्रिज्ञानित्वं निय मात् व्यज्ञानित्वं च ज्ञातव्यम्, सर्वत्र संशिपचेन्द्रियेभ्य एवागत्योत्पादभावात् । तमस्तमःप्रभा पृथिवी नारकाः खलु यन्त । किं ज्ञान्निोऽज्ञानिनो वा गौतम | ज्ञानिनोऽपि अज्ञानिनोऽपि सारणमपि संहिपञ्चेन्द्रियेभ्य एवागन्य उत्पादात् तत्र ये ज्ञानिनस्ते नियमाद् विज्ञानियः जाभिविरोधिज्ञानिनः अवज्ञानिनोऽवधिज्ञानिनदेवि ये त्वज्ञानिनस्ते नियमात् ज्ञानिनः तद्यथा - मत्यज्ञानिनः श्रुवाज्ञानिः विभङ्गज्ञानिनचेति ।
सम्प्रति---योगप्रतिपादनार्थमाह- 'उपसेणं' इत्यादि, 'स्मीसे णं भंते!' एतस्यां खलु भदन्त ! 'रयणप्पमा पुडी' रत्नमायां पृथिव्याम् 'किं मणहै परन्तु द्विलीपादिक पृथिदी से लेकर सातवीं पृथिवी तक के नारक संज्ञी पञ्चेन्द्रियों में से ही आकर से स्पन्न होते हैं, अतः इन समस्त पृथिवियों के नारक कार्य और अज्ञानी भी होते हैं' 'ऐसा जब कहा जाता है तो इस अवस्था में ये नियम से तीन मति श्रुत अवधिज्ञान वाले होते हैं जो ज्ञानी होते हैं वे नियम से मतिअज्ञानी श्रुतअज्ञानी और विभंगज्ञानी होते हैं ऐसा ही कहना चाहिये किन्तु 'अत्थे या दुअन्नापी' कितनेक दो अज्ञान वाले होते हैं 'ऐसा नहीं कहना चाहिये क्योंकि रत्नप्रभा के शिवाय की सब पृथिवियों में नारक तीन अज्ञान वाले होते हैं।
अब योग का प्रतिपादन करते है - ' हमीसे णं भंते! रयणष्पभाए पुढबीए' हे भदन्त । इस रखना पृथिवी के 'रेरा' 'नैरयिक 'किं
કરવામાં આવેલ છે. પરંતુ ખીજી પૃથ્વીત્ર લઈને સાતમી પૃથ્વી સુધીના નારકજીવા સ'ની પચેન્દ્રિચામાથી જ આવીને ઉત્પન્ન થાય છે. તેથી આ સઘળી પૃથ્વીચેના નારકા જ્ઞાની અને આજ્ઞાની હાય છે. એમ જયારે કહેવામાં આવે છે, તેા આ અવસ્થામાં આ નિયમથી મતિજ્ઞાન શ્રુતજ્ઞાન અને અવધિજ્ઞાન એ ત્રણ જ્ઞાનવાળા હાય છે. અને જેએ અજ્ઞાની હાય છે તેઓ નિયમથી મતિ જ્ઞાનવાળા, શ્રુત અજ્ઞાન વાળા, અને વિભંગજ્ઞાનવાળા હોય છે. शोभ ? महेवु लेोि. परंतु 'अत्थे गइया दुअन्नाणी' डेटा मे अज्ञान વાળા હોય છે, તેમ કહેવું ન જોઈએ કેમકે રત્નપ્રભા પૃથ્વી સિવાયની બધીજ પૃથ્વીચેામાં નારકે ત્રણ અજ્ઞાનવાળા હોય છે
हवे योजना संघभां प्रतिपादन वामां आवे छे 'इमीसे णं भंते ! रयणप्पमाए लगवन् मा रत्नअला पृथ्वीना 'नेरइया' नैरयि है।
Page #289
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ सू.१९ नारकाणामुच्छ्वासादिनिम्पणम् २६७ जोगी वइजोगी कायजोगी' कि मनोयोगिनो वचोयोगिनः काययोगिनो वेति प्रश्नः, भगवानाद -'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'तिणि वि' प्रयोऽपि हे गौतम ! रत्नपभानारका मनोयोगिनो भवन्ति वचोयोगिनोऽपि भवन्ति काययोगिनोऽपि भवन्तीति । एवं जाव अहेसत्तमाए' एवं यावधः सप्तम्याम् रत्न. प्रभा नारकवदेव शर्करामभात भारभ्य समस्तमापर्यन्त नारका मनोयोगिनोऽपि भवन्ति वचो योगिनोऽपि भवन्ति काययोगिनोऽपि भवन्तीति ज्ञातव्यमिति ।
सम्पति--साकारानाकारोपयोगं दर्शायमाह-'इमी से णं भंते !' एतस्या खल्ल भदन्त ! 'रयणपसाए पुढबीए नेरइया' रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैररिकार 'कि सागारोपउत्ता अणागारोवउत्ता' नि साकारोपयोगयुक्ता भवन्ति अनाकारोप. योगयुक्तावा भवन्तीति भश्ना, भगवाना-गोया' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'सागारोवउत्तालि अनागारोषउत्ताविसाकारोफशेगयुक्ता अपि भवन्ति रत्नप्रभानारका स्तथा अनाकारोपयुक्ताभलिभान्तीति । एवं जाव अहेसत्तमाए' एवं याव मणजोगी, वहजोगी शायजोगी' या मनोगोगी होते है ? या बचनयोगी होते हैं या काययोगी होते है ? उत्तर में पशु शहते है-'गोयमा तिपिण वि' हे गौतम ! प्रथम पृथिवी के नैवधिक तीनों योग वाले होते हैं। - 'एवं जाव अहे समतमाए' इसी तरह ले द्वितीय पृथिवी के नयिकों से लेकर सातवीं पृथिवी तक के नैरविश भी तीनो योग वाले होते है।
अध्ध सूत्रकार उपयोग कार का काम करते हैं। रत्नप्रभा पृथिधी के नैरथिक 'कि सामारोबउत्ता अमानदेव इत्ता' क्या लाकारोपयोग झाले होते हैं ? या अमाहारोपयोग बाले रोते है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोथमा! सागारोवउत्ता वि अनागारोव सत्ता वि' हे गौतम! रत्नप्रभा पृथिवी के जीव सासारोपयो बाले भी होते हैं और अनाज्ञारोपयोग वाले भी होते हैं। 'एवं जाच अहे जसमा इसी तरह से यावत् अधासप्तमी 'कि मणजोगी, वइजोगी, काय जोगी' शु मनया डायर અથવા વયન વેગવાળી હોય છે ? કે કણ ગવાળા હોય છે ? આ પ્રશ્નના उत्तरमा प्रभु ४१ छ गोयमा ! तिणि वि' 3 गौतम ! पी पीना नयि ।। णे ये डाय छ 'एष जान अहे सत्तमार' सारी प्रभाग બીજી પ્રીના નિરયિકોથી લઈને સાતમી પૃથ્વી સુધીના નિરયિકે પણ ત્રણે પ્રકારના યોગવાળા હોય છે.
प्रमा कीना नैरायटी के सागरात्र उत्ता अणागारोव उत्सा' सा१२ ઉપગવાળા હોય છે ? કે અનાકાર ઉપ વાળા હોય છે. આ પ્રશ્નના ઉત્તરસ્યાં प्रभुश्री ४ छ -'गोयमा ! सागरोन उत्ता वि अनागारोव उत्ता वि' गौतम રત્નપ્રભા પૃથ્વીના નારક છ સાકાર ઉપગવાળા પણ હોય છે, અને અનાકાર 62 डाय छे. 'एवं' जाव अझे खत्तमाए मार प्रमाणे यावत
Page #290
--------------------------------------------------------------------------
________________
૨૬૮
जीवांभिगमसूत्रे
दधः सप्तम्याम् रत्नमभानारकवदेव शर्कराप्रभा वालुकाममावङ्कपमा धूमप्रभा तमः प्रभा तमस्तमःप्रभा नारका अपि साकारोपयोगयुक्ता भवन्ति अनाकारोपयोगयुक्ता -अपि ज्ञानापेक्षया साकारोपयुक्ता दर्शनापेक्षया अनाकारोपयुक्ता भवन्तीति भावः । नैरयिकाः कियत्परिमितं क्षेत्र जानन्ति पश्यन्तीत्याह - 'इमी से णं भंते । रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया' एतस्यां खलु भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैरयिका: 'ओहिणा केवइयं खेत्तं जाणंति पासंति' अवधिज्ञानेन कियत् क्षेत्रं जानन्तीति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, गोयमा' हे गौतम! 'जहन्ने णं अट्टगाउयाई' अर्द्ध चतुर्थानि सार्द्धानि त्रीणि गव्यूतानि 'उक्को सेणं चचारि गाउयाई' उत्कर्षेण चत्वारि गव्यूतानि जानन्ति पश्यन्तीति चेति । 'सकरपभाए पृथिवी तक के नारक जीव भी दोनों प्रकार के उपयोग वाले होते हैंऐसा जानना चाहिये अर्थात् द्वितीय पृथिवी के नैरयिकों से लेकर सप्तमी पृथिवी के नैरयिक भी दोनों प्रकार के उपयोग वाले साकारो पयोग वाले और निराकारोपयोग वाले होते हैं। ज्ञान की अपेक्षा साकारोपयोग वाले होते हैं और दर्शन की अपेक्षा अनाकारोपयोग वाले नारक होते हैं ।
अब रथिकों के ज्ञान के विषय में कहते हैं- 'इमीसे णं भंते! रणमा पुढीए नेरइया' हे भदन्त । इस रत्नप्रभा पृथिवी में नैरथिक 'ओक्षिणा' अवधिज्ञान से 'केरहयं खेत्तं जाणंति पासंति' कितने क्षेत्र को जानते हैं और कितने क्षेत्र को देखते हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं'गोयमा ! जहनेणं अट्टगाउयाई उक्कोसेणं चत्तारि गाउयाई' हे गौता पृथिवी में नैरचिक कम से कम अवधिज्ञान से साढ़े तीन ३॥ कोश तक के पदार्थों को जानते हैं और उत्कृष्ट से चार कोश तक અધઃસપ્તમી સુધીના નારક જીવે પણ મને પ્રકારના ઉપચૈાગ વાળા એટલે કે બીજી પૃથ્વીના નૈરિયકાથી લઈને સાતમી પૃથ્વી સુધીના નૈરિયા સાકાર ઉપચાગવાળા પણુ હોય છે. અને અનાકાર ઉપચાગવાળા પણુ હાય છે. હાય છે. જ્ઞાનની અપેક્ષાએ સાકારે પચેગ વાળા હાય છે, અને દશનની અપેક્ષાએ અનાકારે પયેાગવાળા હાય છે.
-
हुवे नैरयिना ज्ञानना संधमां थन वामभावे छे 'इमीसे णं भवे रयणभार पुढदीए नेरइया' हे भगवन् भा 'योहिणा' अवधि ज्ञानथी 'केवइय' खेत्त जाणंति पासंति' डेंटला क्षेत्रने आये રત્નપ્રભા પૃથ્વીમાં નૅરિયકો છે, અને કેટલા ક્ષેત્રને દેખે છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમસ્વાંમીને ४ 'गोयमा ! जहणणेणं अद्धट्ट गाउया उक्के सेण चत्तारि गाउयाई' से
Page #291
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ सू.१९ नारकाणामुच्छ्वासादिनिरूपणम् २६९ पुढवीए' शर्करामभायां पृथिव्याम् 'जहन्नेणं लिन्नि गाउयाई जघन्येन त्रीणि गव्यूतानि, 'उक्कोसेणं अधट्ठाई उत्कर्षेण अद्ध चतुर्थानि 'एवं अद्धद्धगाउयं परिहाया' एवमर्धाधगव्युतं परिहीयते परिहरणीयमित्यर्थः 'जाव अहेसत्तमाए' यावदधः सप्तम्याम् ।
तथाहि--३ बालुकापभायां जघन्येल-साईयोजनद्वयम्. उत्कण त्रीणियोजनानि, ४ पङ्कमभायां जघन्येम द्वे योजने, उत्कण सार्द्ध द्वे योजने, ५-धूम. प्रभायां जघन्येन सार्द्ध योजनमेकम् उत्कर्षेण द्वे योजने, ६-तमामभायां नारका जघन्येन एकं योजनम् उत्कर्षेण सार्द्ध मेक योजनं यावत् अवधिज्ञानेन जानन्ति पश्यन्ति च । अधः सप्तमपृथिव्यां नारकाः 'जहन्नेणं अद्धगाउयं' जघन्येनाई गव्य॒तम् 'उक्कोसेणं गाउयं' उत्कर्षेण गव्यूतमिति ।
सम्पति-नारकाणां समुद्धातं दर्शयितुमाह-'इमीसे णं' इत्यादि, 'इमीसे ण भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइयाण' एतस्यां खलु भदन्त ! रत्नप्रभायां के पदार्थों को जानते हैं। 'सक्कर पभाए पुढवीए' हे भदन्त ! शर्कग. प्रभा पृथिवी के नैरयिक अवधिज्ञान से कितने क्षेत्र को जानते है और देखते हैं ? 'गोयमा! जहन्नेणं तिनि भाउयाई उक्कोसे णं अदूधट्ठाई हे गौतम! शर्कराप्रभा के नैधिक अवधिज्ञान से कम से कम तीन कोश तक के पदार्थों को जानते है और उत्कृष्ट से साढे तीन कोश तक के पदार्थों को जानते हैं । 'वं अद्धद्धमाउयं परिहायति' इस तरह अधः सप्तमी पृथिवी तक आधा आधा कोश कम करते जाना चाहिये. इस प्रकार से सप्तमी पृथिवी के नैयिक जघन्यसे आधे कोश तक के और उस्कृष्ट से एक कोश तक के पदार्थों को अपने अवधिज्ञान द्वारा जानते हैं। ___ अब समुद्घात का कथन करते है-'इमीले णं भंते । रयणप्पभाए ગૌતમ ! રત્નપ્રભા પૃથ્વીમાં નૈરયિકે ઓછામાં ઓછા ૩ સાડાત્રણ ગાઉ સુધીના પદાર્થોને અવધિજ્ઞાન નથી જાણે છે, અને ઉત્કૃષ્ટથી ચ ર ગાઉ સુધીના पहा न त छे. 'सक्करप्पभाए पुढवीए' . मगवन श सा पानी रयिती भवधिज्ञानथी टक्षा क्षेत्रने तो छ १ मन हे छ १ गोयमा ! जहण्णेण तिन्नि गाउयाई उक्झासेण' अद्ध द्वाई गौतम शरामा पृथ्वीना નૈરયિકો અવધિજ્ઞાનથી ઓછામાં ઓછા ત્રણ ગાઉ સુધીના પદાર્થોને જાણે છે. मन Bथा सा त्र 18 सुधीन। यहाान तो छ. 'एवं अद्धद्धगाउ' परिहायति' मा प्रमाणे अघासतभी पृथ्वी सुधी मधे मधे 16 छ। ४२ જવું જોઈએ. એ રીતે સાતમી પૃથ્વીના નૈરયિકે જઘન્યથી અર્ધા ગાઉ સુધી અને ઉકષ્ટથી એક ગાઉ સુધીના પદાર્થોને પિતાના અવધિજ્ઞાન થી જાણે છે.
वे सभुधात द्वारनु ४थन ४२वामां मा छे. 'इमीसे ण भंते । रयण
Page #292
--------------------------------------------------------------------------
________________
2७०
जीवाभिगमसूत्रे
पृथिव्यां नैरविकाणाम् 'कइ समुग्धाया पन्नत्ता' कति समुद्धाताः प्रज्ञप्ता इति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोरमा' इत्यादि, गोयमा' हे गौतम । चत्तारि समुग्धाया पद्मत्ता' चत्वारः समुद्घाताः प्रज्ञप्ताः कथिताः 'तं जहा ' तद्यथा - ' वेयणा समु Jare' वेदना समुद्घातः 'कसाय समुग्धाए' कपाय समुदघाउः ' मारणं तिचसमुमुग्धार' मारणान्तिकसमुद्घातः 'वेउब्वियसमुग्धाए' बैंकियसमुद्धाराचेति । ' एवं जाव असत्तमाए' एवं यावदधः सप्तम्याम् रत्नप्रभानारकरदेव शर्करामभावालुकाप्रभा पङ्कपमा धूमममा तमःप्रभा तमस्तमःप्रभा नारकाणामपि वेदनाकपाय मारणान्तिक वैक्रियाख्याश्चत्वारः समुद्घाता भवन्तीति ॥५० १९ ॥
सम्प्रति-- रत्नप्रमादिनारकाणां क्षुपिपासादि स्वरूपं दर्शयितुमाह- 'हमी से णं भंते' इत्यादि ।
मूलम् - इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया केरिस खुहप्पिवासं पचणुब्भवमाणा विहरति ? गोयमा ! एगमेणस्ल णं रचणपमा पुढवी तेरइयस्स अलग्भावपट्टे- पुढवीए नेरइया णं' हे भदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी में नैरचिकों के 'कई समुग्धाया पन्नत्ता' कितने समुद्धात कहे है ! उत्तर में प्रभु कहते हैं - 'गोमा । चत्तारि समुग्धा पण्णत्ता' हे भदन्त । इस रत्नप्रभा पृथिवी के नैरयिकों के चार समुद्धात कहे गये हैं' 'तं जहा' जो इस प्रकार से है'वेपणा समुग्धाए, कसायसमुग्याए मारणंतिय समुग्याए, बेडव्यियसमुग्धाए' वेदना समुद्धात, कषाय समुद्धात मारणान्तिक समुद्धात और वैकिय समुद्धात 'एवं जाव अहे सत्तमाए' इस प्रकार से यावत् शर्कराप्रभा के, बालुकाया के, पंकप्रभा के, धूमप्रभा के, समः प्रभा के और तमस्तमः प्रभा के नारक जीवों के भी आदि ये चार समुद्धात होते हैं । १९ ।
पमार पुढवीए नेरइयाणं' हे भगवन् था रत्नल पृथ्वीभां नैरथिने 'कइ समुग्धाया पण्णत्ता' 'हैटा समुद्घातेो मुडेवामां भाव्या हे ? या प्रश्नमा उत्तरभा अलु डे छे हैं 'गोयमा ! चत्तारि समुग्धाया पण्णवा' हे गौतम! भारत्न अला पृथ्वीना नैरयिाने यार समुदघात वामां आव्या छे, 'त' जहा' ते या अभाषे छे. 'वेयणासमुग्धार, कसायसमुग्याए, मारणं तियसमुग्वार, वेड व्जियममुग्धाएं' वेदना समुद्घात, षाय सभुद्धात, भारशान्ति सभुद्वघात मने वैट्ठिय समुद्घात. एवं जाव अहे सत्तमा प्रभा यात्रत् शश પ્રભાના, વાલુકાપ્રભાના, પંકપ્રભાના, ધૂમપ્રભાના, તમઃસ્તમાપ્રભ!ના નારક જીવે તે પણ પહેલાના આ ચાર સમુદ્શાતા હોય છે. ! સૂ. ૧૯ u
Page #293
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ ७.२४.२० नारकाणां क्षुत्पिपासास्वरूपम्
बणाए सव्यपोग्गले वा सन्चोदही वा आसयंसि पक्खिवेज्जा णो वेव से रयणप्पा पुढवी नेरइए तित्ते वा सिया वितण्हे वा सिया एरिया णं गोयमा ! रयणप्पभाए नेरइया खुहप्पि - वाएं पच्चणुभवमाणा बिहरंति, एवं जात्र अहे समाए ॥ इमीले णं भंते! रयणप्पभाए पुढत्रीए नेरइया कि एगतं पभू विउक्लिए पुहुतं पि पभू विउब्वित्तए ? गोयमा ! एगतं पि पभू पुहु पिपसू विउत्रिए एगलं विउच्वेमाणा एवं महं मोग्गररुवं वा एवं सुसुंढि करवस असि सत्ती हलगदामुसलचकणाराय कुंततोमरसूललउडभिंडमालाय जाब भिंडमालरूवं 'वा, पुहु विउमाणा मोग्गररुवाणि वा जाव भिंडमालरुवाणि वा ताई संखेजाई णो असंखेबाई, संबद्धाई तो असंबद्धाई, सरिसाई नो असरलाई विउव्वंति, विउटिवत्ता अण्णमण्णस्स कार्य अभिमाणा अभिहणमाणा वेयणं उदीरेंति, उज्जलं विउलं पगाढं कक्कलं कडुयं फरुलं निठुरं चंडं तिव्वं दुक्खं दुग्गं दुरहियाएं, एवं जाव धूमप्पभाष पुढवीए । छट्टु सत्तमासु पणं पुढवीसु नेरइया बहुमताई लोहिय कुंथु रुवाई बइरामइतुंडाई गोमय कीडसमाणाई विउव्वंति, विउबित्ता अन्नमन्नस्स कार्य समतुरंगे माणा खायमाणा खायमाणा सयपोराग किमिया विव चालेमाणा चालेमाणा अंतो अंतो अणुष्पविसमाणा अणुपविमाणा वेषणं उदीरेंति उज्जलं जाव दुरहियासं ॥ इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया किं सीयं वेयणं वेदेति उलिणं वेयणं वेदेति सीयउसिणं वेयणं वेदेति ? गोयमा ! णो सीयं वेयणं वेदेति उसिणं देयणं वेदेति नो सीतोसिणं वेदेति, वेदेति, ते अप्पयरा उण्हजोणिया एवं जाव वलय
२७१
Page #294
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७२
जीवाभिगमसूत्रे
थोवतरगा जे सीयवेयणं सीयंपि वेयणं वेदेति
प्पभाए, पंकप्पभाए पुच्छा गोयमा ! सीयं पि वेयणं वेदेति उसिणं पिवेयणं वेदेति जो सीओसिणं वेयणं वेदेति ते बहुतरगा जे उसिणं वेयणं वेदेंति, ते वेदेति । धूपभाए पुच्छा गीयमा ! उसिणं पि वेयणं वेदेति णो सीओसिणं वेयणं वेदेति ते बहुतरगा जे सीयं देयणं वेदेति ते थोक्तरगा जे उसिणं वेयणं वेदेति । तमाए पुच्छा गोयमा ! सीयं वेयणं वदेति नो उसिणं वेयणं वेदेति नो सीओसिणं देणं वदेति एवं अहे सत्तमाए णवरं परससीयं ॥ सू० २०॥
छाया -- एतस्यां खलु भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां नेरयिकाः कीदृशं पिपा प्रत्यनुभवतो विहरन्ति ? गौरम ! एकैकस्य खलु रत्नप्रभा पृथिवी नैरयिकस्यासद्भावप्रस्थापना सर्वपुद्गलान् वा सर्वोदधीन वा आस्यके प्रक्षिपेत् नेत्र खल रत्नप्रभा पृथिवी नैरविस्तृप्तो वा स्यात् वितृष्णो वा स्यात् ईदृशं खलु गौतम ! रत्नप्रभायां नैरयिका क्षुत्पिपासं प्रत्यनुभवन्तो विहरन्ति । एवं याव दधः सप्तम्याम् । एतस्यां खलु भदन्त । रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैरयिकाः किमे कत्वं प्रभवो विकुत्रितुम् पृथक्त्वमपि प्रभवो विकुवितुम् ! गौतम ! एकत्वमपि प्रभवः पृथक्त्वमपि प्रभवो विकुर्वितुम् एकत्वं विकुर्वन्तं एकं महमुद्गरूपं वा एवं मुषण्टिकरपत्रासि शक्ति हलगदमुशच्चक्रनाराच कुन्ततोमरशुललगुड भिण्डमालानि च यावत् भिण्डमालरूपं वा पृथक्त्वं विकुर्वन्तो मुद्गलरूपाणि वा यावद् मिण्डमालरूराणि दा तानि संख्येयानि नो असंख्येयानि संबद्धानि नो असंबद्धानि सदृशानि नो असदृशानि विकुर्वन्ति, विकुर्वित्वा अन्योऽन्यस्य कायममिघ्नन्तोऽभिघ्नन्तो वेदनामुदीरयन्ति, उज्वलां विपुलां प्रगाढां कर्कश कटुक परुपां निष्ठुरां चण्डां तीव्र दु:खां दुर्गा दुरधिमद्याम् । एवं यावद धूमप्रभाय पृथिव्याम् । पष्ठी सप्तम्योः खलु पृथिव्योः नैरयिकाः बहूनि महान्ति लोहित कुन्धुरूपाणि वज्रमयतुण्डानि गोमय कीटसमानानि विकुर्वन्ति, विकुर्वित्वा अन्योऽन्यस्य कार्यं समतुरङ्गायमाणाः खादयन्तः शतपर्वक्रमय इव चलन्तः चलन्योऽन्तरन्तः अनुपविशन्तो वेदनामुदीरयन्ति, उज्ज्वलां यावद दरधिसाम् । एतस्य खलु भदन्त | रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैरयिकाः किं शीत वेदनां वेदयन्ति उष्णां वेदनां वेदयन्ति शीतोष्णां वेदनां वेदयन्ति ? गौतम ! नो शीतां वेदनां वेदयन्ति उष्णां वेदनां वेदयन्ति नो शीतोष्णां वेदनां वेदयन्ति । (ते अल्पतरा उष्ण यो निका
Page #295
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीकाप्र.३ उ.२ स.२० नारकाणां क्षुत्पिपासास्वरूपम् वेदयन्ति एवं यावद् वालुकाममायाम् ? पङ्कममायां पृच्छा गौतम ! शीतामपि वेदनां वेदयन्ति उष्णामपि वेदनां वेदयन्ति नो शीतोष्णां वेदनां वेदयन्ति । ते बहुतरकाः ये उष्णां वेदनां वेदयन्नि ते स्वोकतरकाः ये शीत वेदनां पेदयन्ति धूमप्रभायां पृच्छा गौतम ! शीतामपि वेदनां वेदयन्ति उष्णॉमपि वेदनां वेदयन्ति नो शीतोष्णां वेदनां वेदयन्ति ते बहुतरकाः ये शीतवेदन वेन्यन्ति ते स्तोकतरका ये उष्णवेदनां वेदयन्ति । दमायां पृच्छा गौतम ! शीवां वेदनां वेदयन्ति नो उष्णां वेदनां वेदयन्ति, एवमधा सप्तम्याम् नवरं परमशीताम् ॥२०॥ ___टोका--'इमीसे णं भवे !' एतस्यां खलु भदन्त ! 'रयपप्पमाए पुढवीए' रत्नप्रभायां पृथिव्याम् 'नेरइया' नैरयिकाः 'रिसयं' कीशीस्- किमी कारिकाम् 'खुइप्पिवासं' क्षुत् पिपाप्ताम्-क्षुधां भोजनेच्छाम् पिपासा-मलेच्छास् 'पच्चणु
भवमाणा' प्रत्यनुभवन्तः प्रत्येक क्षुध पिपासा च वेदयमानाः 'विहरंति' विहरन्ति-तिष्ठन्तीति प्रश्नः भगवानाह-गोयमा' इल्यादि, 'गोयया' हे गौतम ! 'एगमेगस्त ण रयणप्रभा पुढवी नेरइयल्स' एकैशस्य खलु रत्नप्रभा पृथिवी नैरयिकस्य 'असमाचपडवणाएं' असझावस्थापनश-असद्भावकल्पनया ये केचन पुद्गला वा उदधयो वा इति शेषः, 'सब्य पोग्गले बा सचो___ अप नारकों की क्षुधा और पिपासा आदि के स्वरूप का सूत्रकार कथन करते हैं___ 'इमीले णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेइया के रिश्वयं पिलायं' 'इत्यादि । सूत्र ॥२०॥
टीकार्थ-गौतम!ने प्रभु से ऐसा पूछा है-'इमीले णं भंते ! स्थापनाए पुढवीए' हे भदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी में नैरयिक बैली क्षुधा और प्यास का अनुभव कहते हैं ? उत्तर प्रभु कहते हैं -गोषमा! एगमेग. स्सणं रयणप्पभा पुढवी नेरइयरस' हे गौतम ! एक रत्नप्रभा पृधिशी के नैरयिक के 'असम्भावपट्टवणाए' असत् कल्पना कर के 'लव्धपोराले
હવે નારક ની સુધા અને પિપાસા તરસ વિગેરેના સ્વરૂપનું સૂત્રકાર ४थन ४२ छे. 'इमीसे णं भंते रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया केरिसय खुइप्पिवाय ४० ___टीआय-गौतमस्वामी प्रसुन मे पूछे छे । 'इमीसेणं भवे ! रयणप्पभाए. पुढवीए' सावन मा २त्नप्रभा पृथ्वीमा नेविटी वा ४२नी भूम भने तरसना अनुभव ४२ छ १ मा प्रश्नना उत्तरमा प्रभु ४३ छ 'गोयमा ! एगमेगस्मणं रयणप्पभा पुढवी नेरइयस्स' है गौतम । मे २त्नप्रभा पृथ्वीना नयि. धोनी 'असभावपटवणाए' मसत ४५ना श. 'सव्वपोगलेवा स्त्रयोदही वा'
जो ३५
Page #296
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
२७४
जीयामिगम दहीवा' सर्व-पुद्गलान् वा सोधीन् वा 'आत्यंसि आस्थके-मुखे 'पक्खि वेज्जा' मक्षिपेत्-निक्षिपेत् दधादिति यावत् तथापि 'जो चेवणं से रयणप्पभा पुढवी नेरइए' नैव खच स रत्नप्रभा पृथिवी नरयिकः "तित्ते वा सिया' तृप्तीश-विगतक्षुधः स्यांत 'वितण्हे वा सिया' वितृष्णो विनापिपासा का स्यात् सर्वान् वा पुद्गलान् सर्शनपि समुद्रान् यदि एक बार सजीवस्य मुखे मक्षिपेत् तथापि नारकस्य क्षुधा पिपामा वा न विधा सदति, दया भस्मक टोपदृपितोदरस्य बहुभक्षणेनापि तृप्तिन यति एतरापि जन्तगुणा नारकागां क्षुधापिपासा च भवतीतिभावः । 'परिसयाण गोयमा एनाशी ग्वलु गौतम ! 'रयणप्पभाए गैरइया' रत्नप्रभायां नैरयिकाः 'खुहपिपासं पच्चणु प्रत्रमाणा विहरति भुत् पिपासा था सजादहीवा' समस्त पुरकों को और समस्त समुद्रों को 'आसयंसि' मुख में 'पक्खिवेजा' यदि डाल दिया जाये तो भी 'णोचेव णं से रयणप्पभा पुढवीणेरहए' रत्नपभा पृधियी शा नैरपिक 'तत्ते वा सिया' तृप्त क्षुधा रहित नहीं हो सकता है शिमण्हे वा सिया' वितृष्ण-प्यास रहित नहीं हो सकता है तात्पर्य इस कथन का ऐसा है कि नरक में नारक जीवों को इतनी अधिक भूख व प्यास लगती है कि उनके मुख में जितनी पुद्गल , वे सब डाल दिये जाने और जितने समुद्र है वे सब उडेल दिये जावे तो भी हनको भूग्व व प्यास नहीं वुश सकती है जिस प्रकार भस्मक व्याधि से युक्त पुरुषों को बहुत अन्न भक्षण कर जाने पर भी तृप्ति नहीं होती है नार जीपों को तो इससे भी अनन्त गुणी अधिक भूख और प्यान होती है 'एरिसयाणं गोयमा' हे गोतम ! इस प्रकार की 'रयणप्पभाए नेरहया' रत्नमभा के नैरयिक सधा पुगतान मन सघणा समोर 'आमयंसी' भुममा 'पविखवेन्जा' २ नमामा भाव तो ५१ ‘णो चेव णं से रयणप्पभा पुढवी णेरइए' २प्रमा पृथ्वीना नयि। 'तित्त वा सिया' तुस यता नथी 'वितण्हे वा सिया વિતૃણુ તરસ-રહિત પણ થતા નથી. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે કરમ નારક જીવને એટલી વધારે ભૂખ અને તરસ લાગે છે. કે તેના મુખમાં જેટલા પુદ્ગલે હોય છે. તે બધાજ નાખવામાં આવે અને જેટલા સમુદ્રો હાય છે તે બધા ઠાલવવામાં આવે તે પણ તેઓની ભૂખ અને તરસ શાંત થતા નથી. જેમ ભસ્મક વ્યાધિવાળા પુરૂષને ઘણું જ સન્ન ખાઈ જવા છતાં પણ તૃપ્તિ થતા નથી. નારક જીવેને તે તેનાથી પણ અનન્ત ગણી વધારે ભૂખ અને તરસ હોય छे. 'एरिसयाणं गोयमा ! हे गौतम | 241 प्रा२नी 'रयणप्पभाए गैरइया' २न प्रभा सीना नैयि?। 'खुहसस्पिवास' पच्चणुव्भवमाणा विहरति' भूभ सन तरसना भनुम ४२ना १ २ छे. 'एवं जाव अहे सत्तमाए' मा प्रभार भूभ भन
Page #297
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ ०२० नारकागां क्षुत्पिपासास्वरूपम् . २७५ प्रत्यनुभवन्तो विहरन्ति-तिष्ठन्तीति । एवं जाव अहे सत्तमाए' एवं यावदधा सप्तम्याम्, रत्नममा पृथिवी नारकरदेव शर्कराममा बालकाममा पङ्कममा धूमप्रमा तमःप्रभा तमस्तमःप्रमा पृथिवीनारकाणां प्रत्येकैकस्य मुखे यदि सर्वान् समुद्रान् सर्वाश्च पुद्गलान् प्रक्षिपेत्तदा तेषां क्षुत्पिपासे नोपशाम्यत इतिभावः आलापकसूत्राणि सर्व पृथिव्यां स्वय में बोहनी मानि।
सम्पति नारकाणां वैक्रियशक्ति दयितुमाह-'इसीसे गं' इत्यादि, 'इमीसे णं भंते' एतस्यां खल्ल भदन्त ! 'रयणचार पुढवीए' रस्नपभायां पृथिव्याम् 'नेरइया' नैरयिकाः प्रत्येकं किम् ‘एगत्त' एबू विउवित्तए' एकत्वं प्रभवो विकृषितुम् एकं रूपं विकुक्तुिं प्रभवः किम् अथवा-'हत्तपि पभू विउवित्तए पृथकत्वमपि प्रभवो विकुक्तुिम्, अत्र पृथक शमी नानावाची तथा च-प्रभूतानि अनेका 'खुपियासं पच्चणुठभवाना विति' भूख प्यास का अनुभव करते हुए रहते हैं। 'एवं जाव हे तमाए' इसी प्रकार का कथन भूख
और प्यास के लगने के सम्बन्ध में रस्नममा पृथिवी के नारकों की तरह द्वितीय पृथिवी के लैथिको से लेकर सप्तमी पृथिवी के नैरपिकों तक में कर लेना चाहिये इन प्रभार से 'हे गौतम । नरकों में नारक जीय ऐसी भूख व प्यास की वेदना का अनुभचन करते हैं। इस सम्बन्ध में समस्त प्रविधियों के-भिन्न २ पृथिन्धियों के लैरधिकों के भूख और प्यास की वेदना के अनुबन करने में-भालाप प्रकार स्वयं ही उद्भाषित कर लेना चाहिये।
अब नारकों की वैकिछ शक्ति का वर्णन करते हैं-'इमीसे णं रयणप्पभाए पुढचीए मेरइया' हे अदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी के नयिक क्या 'एगत्तं पन बिचित्तए' पकाप की विकुर्वणा करने में समर्थ हैं ? इसर में प्रभु कहते हैं -गोयला! एगत्तपि पभू તરસ લાગવાના સંબધનું કથન રત્નસા પૃથ્વીના નારકોની જેમ બીજી પૃથ્વીના તરવિકથી લઈને સાતમી પૃથ્વી સુધીના નૈરયિકના સંબંધમાં સમજી લેવું આ પ્રમાણે હે ગૌતમ ! નારક જીવ નરર્કમાં આવા પ્રકારની ભૂખ અને તરસની વેદનાને અનુભવ કરે છે આ સંબંધમાં સઘળી પૃથ્વી ના એટલે કે જુદી જુદી પ્રથ્વીમાં નિરકોની ભૂખ અને તરસની વેદનાને અનુભવ કરવામાં તેના આલાપકોને પ્રકાર સ્વયં બનાવીને સમજી લેવું જોઈએ.
हवे नानी वय तिनुपएन ४२वामा भाव छ 'इसीसे ण रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया' हे मावन् ! मा रत्नप्रभा पृथ्वीना नैBिी 'पगत्तं पभू ! विउवित्तए' मे ३५नी विमा ४२वामा समय छ १ मा प्रश्ना
Page #298
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमसूत्रे
૨૦૨
न्यपि रूपाणि विकुर्वितं प्रभवः किमिति प्रश्नः - भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'एगत्तं विषभू पुहुतं पि पभू विउवित्तए' एकत्वमपि एकमपि रूपं विकुर्वितुं वस्ते नारकास्तथा प्रथक्त्वमपि नानारूपाण्यपि विकुर्वितुं प्रभवः - समर्थास्ते नारका भवन्तीति । तत्र - 'एगत्तं विउव्वैमाणा' एकत्वमेकं रूपं विकुर्वन्तः 'एगं महं मोग्गररूनं वा' एकं महन्मुद्गररूपं वा - मुद्गरो लोकप्रसिद्धएव 'एवं मढि मुपटि रूपं वा मुण्ढिः शस्त्रविशेषः, 'करवत्त' करपत्र रूपं वा 'अ' असि पत्ररूपं वा 'सती' शक्तिरूपं वा 'हल' हरूपं वा 'गदा' गदारूपं वा 'मुसल' मुशकरूपं वा 'चक्क' चक्ररूपं वा 'णाराय' नाराचरूपं वा वाणरूपमित्यर्थः 'कुंद्र' कुन्तरूपं वा 'तोमर' तोमररूपं वा 'मूळ' शुलरूपं वा 'लाउड' लगुडरूपं वा 'भिंडमालाय' भिण्डमालानि वा 'जाव भिंडमालवं वा' यावद पुट्टन्तविप' हे गौतम! रत्नप्रभा के प्रत्येक नैरचिक एक रूपकी भी विकर्षणा करने में समर्थ हैं और अनेक रूपों की भी विकुर्वणा करने में समर्थ हैं। यहां पृथक्त्व शब्द 'अनेक' का वाचक है । 'एगत्तं विउब्वेमाणा' जब वे नारक एक रूप की विकुर्वणा करते हैं तब 'एगं महं मोग्गररुवं वा' वे एक विशाल मुहर की भी विकुर्वणा कर सकने में समर्थ होते हैं 'एवं मुसुदि' यवं मुषण्टि मुसल रूप शस्त्र विशेष की भी विकुर्वणा कर सकने में समर्थ होते है 'करवत' करपत्र - करोंत की भीणि करने में समर्थ होते हैं 'असिपत्र रूवं वा' असिपत्र -तलवार-की भी विकुर्वणा कर सकने में समर्थ होते है 'सत्ती' शक्ति रूप शत्र विशेषकी भी विकर्वणा सकने में समर्थ होते हैं 'चक्क- नारा य-कुंत-तोमर-लूल-लउड मिडिमाला ' चक्र की नाराच याण की
By
उत्तरसां प्रभुश्री कुडे छे - 'गोयमा ! एगत्तंदिपभू पुहुत्तंपि पभू' हे गीतभ ! રત્નપ્રભા ના દરેક નૈરયિક એક રૂપની વિકણા કરવામાં સમથ છે. અને અનેક રૂપાની વિધ્રુણા કરવામાં સમય છે. અહિંયા પૃથકત્વ શબ્દ’અનેક’ ने 'हेवावा? छे. 'एमत्तं विवेमाणा' ल्यारे ते नारो मे ३पनी विश्र्वथा ५३ छे, त्याने 'एग मह मोग्गररूव' वा' तेथेो मे विशाण भुहूगरनी शु विठुवा श्री शम्वामां समर्थ' होय छे. 'एव' मुख'दि' से प्रभावे भुसुंढि भुसा ३५ शस्त्र विशेषनी या विकुर्वाणा री शषाभां समर्थ होय छे 'करवत' કરપત્ર એટલે કે રવતની પણુ વિષુવ ા કરી શકવામાં સમથ હાય છે 'सत्ती' शक्ति३५ शख विशेषनी विदुर्वा वामां य समर्थ होय हे 'चक्क नाराय फुंत - तोमर - सूल-लउड़ - भिंडिमालाय' रानी, नाराय माशुनी. त
Page #299
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेययोतिका टीका प्र. ३ उं. २ . २० नारकाणां क्षुत्पिपासास्वरूपम्
२७
भिण्डमालरूपं वा भिण्डमाळ : शखजातिविशेषः यावत्पदेन मुसण्डिवदादारभ्य भिण्डिमाळपर्यन्तं रूपं वा इति पदं संयोजनीयम् तच्च संयोज्य प्रदर्शितमेव । महरादि मिण्डमाळावरूपं विकुवितुं समर्था भवन्ति नारका इति । अत्र मुद्गरादि नामसंग्राहिका गाथा-
'मुग्गर मुढि करवत्त असि सचि हल गया मुसल चक्का | नाराय कुंततोमर सूलउड मिडमालाय' ॥१॥ मुद्गरमुषण्टि करपत्रासि शक्ति हलगदा मुशल चक्राणि । नाराच कुन्ततोमर शूल लगुड भिण्डिमालानि च ॥ १॥ इतिच्छाया 'पुहुत्तं विउमाण' पृथक्त्रम् - अनेकरूपाणि चिकुरन्तः 'मोग्गरवाणि वा जाव मिडिमारुवाणि वा' मुद्गरूपाणि वा करपत्ररूपाणि वा असिरूपाणिबा, शक्तिरूपाणि वा, हलरूपाणि वा गदारूपाणि वा मुशलचक्रनाराच कुन्ततोमर शूलगुड मिण्डिमालरूपाणि वा 'वाई' कानि मुद्गरादि भिण्डिमालान्त रूपाणि 'संखेज्जा' नो असंखेज्जाई' संख्येयानि नो न तु असंख्येयानि संख्या- कुन्त-भाले तोमर की, शलकी, लकुट - लाठी की और मिण्डिमाल नामक शस्त्र विशेष की 'जाब सिंडमाल रूपं वा' यावत् भिण्डिमाल रूप की - यावत्-मुसुण्ढि पद से लेकर सिण्डिमाल तक सब शस्त्रों के रूपकी विकुर्वणा कर सकने में समर्थ होते हैं ।
,
'पुत्तं विषमाणा' जब ये नारक अनेक रूपों की विकुर्वणा करते हैं - तब वे 'मोग्गररुवाणि या जाब भिण्डिमाख्याणि वा' अनेक मुद्गर रूपों की यावत् - अनेक सुषुण्ढि रूपों की अनेक करपन रूपों की अनेक असिरूपों की अनेक शक्ति रूपों की, अनेक हल रूपों की अनेक गदा रूपों की, अनेक मुसल, चक, बाराच, कुन्त, तोमर एक प्रकार का वाण शूललगुड और चिण्डिमाल रूपों की विकुर्वणा कर सकने
ભાલા, તામર, ની. શુલની, લકુટ કહેતાં લાકડીની અને બિંદિપાલ નામના शस्त्र विशेषनी 'जाव मिडिमालव वा' यावत् मिडिभात उचनी यावत् भुसुढी પદથી લઈને ભિક્રિપાલ સુધીના મધાજ આના રૂપાની વિકણા કરીશકવામાં સમથ હાય છે.
'पुहुत्तं विव्देमाणा' क्यारे ते नारो भने ३योनी विठुवा अरे छे. त्यारे तेथे 'मोग्गररूत्राणि वा जाव भिण्डिमालरुवाणि वा' मने मुद्दगर इयोनी યાવત્ અનેક સુઢિ રૂપાની અનેક કરવતાના રૂપે ની અનેક તલવારાની અનેક શક્તિયેાની અનેક હળેાની અનેક ગદ્યાએની અનેક મુસલ, ચક્ર, નારાચ, કુત તેામર એટલે કે એક પ્રકારના માણુની શૂલ, લાકડી અને ભિ'ડિપાલેાની વિક
Page #300
--------------------------------------------------------------------------
________________
શિ82,
जीवाभिगमन तीतानि सिदृशकरणे असंख्येयकरणे वा ताशशक्तेरभावादिति तानि पुनः-संव दाई नो असंवद्धाइ,' संबद्धानि स्वात्मनः गरीरसंलग्नानि न गसंवद्वानि स्वशरीरात् पृथगू भूतानि, स्वशरीरात् पृथग्भूतकरणे सामोमावादिति 'सरिसाई नो अमरिसाई' सदृशानि-स्वशरीर तुल्यानि नो असहशानि विरूपाणि विरूपकरणे सामाभावात् 'विउव्वंति' विकुर्वन्ति "विउवित्ता' विकुर्वित्ता 'अण्ण मण्णस्स' अन्योऽन्यस्य 'काय अभिषणमाणा अभिहणमाणा' कायं-शरीरम् अभिनन्तोऽमें समर्थ होते हैं। ताई संखेन्जाइं नो असखेलाई' ये मुद्गरादि रूपों से लेकर भिण्डिमाल तक के रूपों की जो नारक विकुर्वणा करते हैं वे संख्यात रूपों की दिकुर्वणा करते हैं असंख्यात रूपों की विकुणा नहीं करते हैं-अर्थात् नारक के अनेक रूपों की जो नारफदिणा करते हैं वे उनके विक्रुर्वित रूप संख्यात ही हो सकते है-असंख्यात नहीं होते हैं क्यो कि असंख्यात रूपों को विकुर्वित करने की उनमें शक्ति नहीं होती है 'संबद्धाई नो असंबद्धाई' ये विकृमि हुए रूप उन नारक जीवों के शरीर से संबद्ध होते हैं 'नो असंरद्धाई' असंबद्ध नहीं होते हैं । अर्थात् शरीर से अलग नहीं होते हैं। क्योंकि शरीर से पृथक् भूत करने में उल में सामर्थ्य का अभाव रहता है-'सरिसाई नो असरिसाई ये उनके द्वारा विर्षित किये रूप उनके ही अपने शरीर के तुल्य होते हैं असश -विरूप नहीं होते हैं क्योंकि विरूप करने की उनमें शक्ति का अभाव है 'विउवित्ता अण्णमण्णस्स कार्य अभिहणमाणा अभिहणमाणा देयणं q ४॥ शाम सभ डाय छे. 'ताईसंखेन्जाई नो अस खेज्जई' मा સુગર વિગેરેથી લઈને સિંદિપાલ સુધીના રૂપની જે નારકે વિકૃણા કરી શકવામાં સમર્થ હોય છે, તેઓ સખ્યાત રૂપની વિકૃણા કરે છે. અસંખ્યાત રૂપની વિકુવા કરતા નથી. અર્થાત્ જે નારકે અનેક રૂપોની વિમુર્વણુ કરે છે. તે તેઓએ વિકવિત કરેલા રૂપે સંખ્યા જ હોય છે. અસંખ્યાત હતા નથી કેમકે અસંખ્યાત રૂપોની વિમુર્વણા કરવાની તેઓમાં શક્તી જ હતી नथी. 'सबद्धाइ नो अस बद्धाइ' । विदित ४२वामा सावता ३२॥ से ना२४ वाना शरीरथी समाय छ 'नो अस बद्धाइ' मसात नथी. અર્થાત્ શરીરથી જુદા હોતા નથી. કેમકે શરીરથી જુદા કરવામાં તેઓમાં साभाय न ममा २ छे. 'सरिसाइनो असरिसाइ' मा तेसो द्वारा विनित કરવામાં આવેલા રૂપે તેમના પિતાના શરીરની બરાબર હોય છે અસદશ १३५ खाता नथी. 3 १ि३५४२पानी तमामा शतिनाममा छे. विउवित्ता
Page #301
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.१ उ.२ सु. २० नारकाणां क्षुत्पिपासास्वरूपम्
२७९
मिनन्तः 'वेषणं उदीरेति' वेदनामुदीरयन्ति, कीदृशीं वेदनामुदीरयन्ति तत्राह'उज्जलं' इत्यादि, 'उज्जलं' उज्ज्वलाम्- दुःखरूपल्या जाज्वल्यमानाम् सुखले शेनापि वर्जितामित्यर्थः पुनः किंभूतां तत्राह - 'पगाढां' प्रगाढाम् प्रकर्षेण प्रदेश व्यडिया अतीव समवगाढम् 'कर्कशाम् कर्कशामिव कर्कशाम् - कठोराम, अयं भावः यथा कर्कशः पाषाण संघर्षः शरीरस्य खण्डानि चोटयन्ति एवमात्ममदेशान चटयन्तीव वेदना संजायते सा कर्कशा हां फर्कशास् 'ड्यं' कटुकाम् षटुकामित्र काम्, पित्तप्रकोप परिकलितवपुषो रोहिणीं वटुकद्रव्- मिवो भुज्यमानाम् अतिशयेनापीतिजनिकामिति । 'फरुसं' परूपां मनसोऽतीव रूक्षताजनिउदीरेति' एक अनेक रूपों की विकुर्वणा करके ये आपस में एकदूसरे के रूपों के साथ उसे लड़ाकर शरीर में चोट पहुंचा कर वेदना उत्पन करते हैं वह वेदना 'उज्जलं' सुख के लेश से भी वर्जित होने के कारण अत्यन्त दुःख रूप से उन्हें जलाती रहती है 'पगाढ' मर्म प्रदेशों में प्रवेश कर के समस्त शरीर में व्यापक हो जाती है अतः वह प्रत्येक प्रदेश में समवगाढ होती है 'ककस' बहुत अधिक कठोर होती हैजैसे कर्कशपाषाणखण्ड का संघर्ष शरीर के अवयवों को तोड देता है उसी तरह से यह वेदना भी आरन प्रदेशों को तोड सी देती है, अतः उसे यहां कर्कश कहा गया है। 'कडुयं कटुक यह वेदना इसलिये कही गई है कि यह पित्त प्रकोप वाले व्यक्ति को जैसे खाई गई रोहिणी - औषधि विशेष - अप्रीति जनक होती है उसी प्रकार से वह वेदना अप्रीति जनक होती है 'फरुसं' वह नारकों के मन में अतीव रूक्षता की
अण्णमणस्व कार्य अभिहणमाणा अभिद्दणमाणा वेयणं उदीरेति' अने इयोनी વિકા કરીને તેઓ પરસ્પરમાં એક બીજાના રૂપાની સાથે તેને वडावीने शरीरमां न पहाडीने बेहना उत्पन्न करे छे. ते वेहना 'उज्जलं ' સુખનાલેશથી પણુ રહિત હૈાવાના કારણે અત્યંત દુઃખ રૂપે તેને माती रहे छे 'पगाढां' भर्भ प्रदेशोभां प्रवेश रीने समस्त शरीरमां व्याप्त छे. 'ककस' धली वधारे उठोर होय छे. नेम : श पत्थरना टुडाना સ'ઘર્ષ શરીરના અવયવને તેડી નાખે છે, એજ પ્રમાણે તે વેદના પણ आत्मप्रदेशाने तोडी नाचे छे. तेथा अडियां तेने आहेत हे 'कडुयं' તે વેદનાને કટુ એ માટે કહી છે કે તે પિત્તપ્રકોપ વાળી વ્યક્તિને ખાવામાં આવેલ રે.હિણી (વનસ્પતિ વિશેષ) :અપ્રીતિકારક હાય છે, એવી જ તે વેદના प्रीतिभारम् होय छे. 'फरुस' ते नारोना भनभां अत्यंत ३क्षता ४न होय
Page #302
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमत्रे
Par
૨૮૦
काम् । 'निदुरं' निष्ठुराम्-अशक्यमतीकाराम् । 'चडे' चण्डाम् रौद्राध्यवसायहेतुत्वात् रुद्राम् 'वि' शेत्राम् - अनिशानितीम् दुवख' दुःखाम्- दुःखरूपाम् 'दुग्ग' दुर्गान् दुर्लभ्याम् अव 'र' दुरधिमवाम्-दुःखेन सोढुं योग्याम् एतादृशों वेदनां ते नारका अनुभवन्तीति पूर्वेणान्वयः एवं जाव धूरप्पमा' एवं' यादद् धूमायां पृथिव्याम् एवं नारदेन शर्कराममा वालुकाममा जनक होती है उसका इलाज - प्रतिकार नहीं हो सकता है इसलिये यह निष्ठुर होती है उसके होने पर नारक जीवों के परिणामों में अत्य न्त रुद्रताआजाती है इस कारण यह पत्र होनी है 'तिचं' स वेदना से अधिक और कोई वेदना नहीं है- वेदना की पराकाष्ठा रूप होती है - इसलिये इसे तीव्र कहा गया है 'क्वं' यह वेदना सुख के ऐश से भी वर्जित होती है - इसमें केवल दुःख का ही साम्राज्य अत्यन्त दुःख भरा रहता है, अथवा यह स्वयं कृख रूप होती है इसलिये इसे दुःख कहा गहा है 'दुग्गं' इससे जब तक जीव नरक में रहता है तब तक छूट नहीं सकता है अत: इसे दुर्ग दुर्लय कहा गया है, 'दुरहि यासं' इसे नारक जीव प्रसन्न जिस से नहीं भोगते हैं किन्तु वडी कठिनता के साथ दुरध्यवसाय पूर्वक भोगते है यह दुख से सहन करने योग्य होने से दुरधिमा है ऐसे विशेषणों वाली वेदना को वे नारक जीव आयु पर्यन्तवन करते रहते हैं एवं जाव धूमप्प भाए' છે. તેના ઉપાય અર્થાત્ પ્રતીકાર થઇ શકતેા નથી. તેથી તે નિષ્ઠુર હોય છે. તે હાવાથી નારક જીવાના પરિણામમાં અત્યંત રૂદ્રતા આવી જાય છે તેથી ते थंड हवाय 'तिव्व' मा बेहनाथी भोटी ओ देहना होती नभी. अर्थात् मा बेहनानी पराठा ३५ य हे. तेथी तेने तीव्र अड़ी छे. "दुक्खं"
આ વેદના સુખના લેશથી પણુ વર્જીત હાય છે. આમાં કેવળ દુઃખનું જ સામ્ર'જપ ભયુ` હોય છે. અથવા આ વેદના સ્વય' દુઃખ રૂપ હાય છે. તેથી तेने हुः मे प्रभा डे हे 'दुर्गा' तेथी ल्यां सुधी व नरम्भां रहे थे, ત્યાં સુધી છૂટી શકતા નથી. તેથી તેને દુ` અર્થાત્ દુ ય કહેલ છે 'दुरहियास " ना२४ वे प्रसन्न वित्तथा तेने लोगवता नथी, परंतु घाटी ઋણુાઇથી દુરધ્યવસાય પૂર્વક ભાગવે છે. તેથી તે દુઃખથી સહન કરવા ચેાગ્ય હાવાથી ‘દુષિસહય’ છે. આવા વિશેષશેાવાળી વેદનાને એ નારક જીવા આ ચુખ્ય સમાપ્ત થતાં સુધી ત્યાં રહીને સહન કરતા રડે છે.
'एवं नाव धूमपभाए' આજ પ્રમાણે નારક જીવે, શકરાપ્રભા,
Page #303
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिकारीका प्र.३ उ.२ सु.२० नारकाणां क्षुत्पिपासास्वरूपम् २८१ पङ्कममा पञ्चमी धूमपमा पृथिवीष्वपि नारकाणामतिशयितवेदना वेदफत्वं ज्ञातव्यमिति भावः । 'छ? सचमासु णं पुढची' षष्ठ सप्तम्यां पुनः पृथिव्योः तम:प्रभा तमस्तमामभयोः 'नेरइया' नैरयिकाः 'बहुमहंताई' बहुनि-अनेकानि महान्ति 'लोहिय कुंथुरूबाई' लोहित कुन्थु रूपाणि रत्तवर्णानि कुन्थुजातिक जीवानि 'वहरामयतुडाइ” बननय तुण्डानि-बज्र पस्कठोर तीक्ष्ण मुखानि गोमय फीडसमाणाई' गोमय कोटसमानानि नारशाः 'विउति' चिकुर्वन्ति-वैकिंच. क्रियया निष्पादयन्ति विउडिसा विकुर्विवा 'अन्नसन्नरस' अन्योऽन्धक्ष्य-परस्परस्य 'कार्य' कार्य-शरीरम् 'समतुरंगेगाणा' समतुशायमाणा - तुस्ना याचे रन्त:-अश्वा इवान्योन्य मारोहन्त इव इत्यर्थः 'खायमाणा खायमाणा' खादयन् । खादयन्त एकेऽन्यान् 'सयपोराग किमियावित्र' शतपर्वकमन इज वंश कृस्य च इसी तरह नारक जीव शर्कशपमा, बालुकाप्रमा, पंकप्रभा और धूमप्रभा में भी अतिशयित वेदना को भोगते हैं। 'छलतम्बाखु णं पुढवीसु' छठी और सातवी पृथवी में 'नेरहया नयिक जीव 'बहुमहं ताई लोहिय कुंथुरूवाई पथरालय तुडाई' अनेक बडे २, रक्तवर्णवाले कुन्थु जीवों के रूपों के जैसे-लालवर्ण के और यार तुंडाई' जिनका मुख वज्र का ही मानों ना हुआ ला है ऐले शरी कि जो 'गोमय कीडसमाणाई' गाय के गोबर के कीडे के जेले होते है विकुर्वणा करते हैं विउब्धिता' शारीरों की रिर्वणा करके अन्नमनस्स कार्य' फिर परस्पर में एक दूसरे के शरीर पर 'लातुरगेमाणा' घोडे की तरह सवार होकर अर्थात् चढकर खायमाणा २' उसे परस्पर में पारंवार काटते हैं-वटका भरते है 'सयपोराकिभियाइच एवं शतવાલુકાપ્રભા, પંકપ્રભા, અને ધૂમપ્રભા પૃથ્વીમાં પણ અત્યંત વેદના ભેગવતા २९ छे. 'छटुसत्तमासु णं पुढवीसु' ७२४ी भने सातभी पृथ्वीमा 'नेरइया' नैयि
। 'बहुमताई लोहियकुंथुरूवाई वयरामयतुंडाइ” भने मोटा मोटा सता २गना थुनामनवाना ३२alaj नाम 'वयरामयतुंडाई माना
नुभुम 4000१ मनछे, सेवा शरीशनी २ 'गोमयकीडसमाणाई" ગાયના છાણના કીડા જેવા હોય છે. તેવા જીવોની વિમુત્રા કરે છે, "विउव्वित्ता' तवा शरीरानी विए। रीन. 'अन्न मन्नस्स कायं' ते पछी ५२ २५२मां मे मीताना शरी२ ५२ 'समतर गेमाणा' घानी म सदार धन भयात् यढीन 'खायमाणा खायमाणा' ५२२५२ तेन वारंवार ४२३ छे. शर्थात म मरे छे. 'सयपोरागकिमियाइव' सन से माही पाणी शेनानी भा३: 'चालेमाणा चालेमाणा' १२ ने मह२ सनसनाट ४२ता था। सी जय
जी० ३६
Page #304
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीयामिगमसूत्र अथवा शत पर्व इक्षु स्तथा चेक्ष कृपय इव 'चालेमाणा चालेमाणा अंतो हो' अन्तरन्तः शरीरस्य मध्यभागेन संचरन्त संचरन्त एकम्य शरीरदेशेऽनुमविशन्तस्ते मारकाः 'वेयणं उदीरयंति उज्जलं जाब दुरहियास' वेदना मुदीरयन्ति उज्वला यावत्-विपुलां प्रगाढां कर्कश स्टक एमपी कण्डां विटुगं तीनां दुर्गा दरधिसमा. मिति, एतादृशी वेदनामुहीरयनि-यात पष्ठ सप्तम पृथिवी नारका इति ।
सम्पति-क्षेत्रस्य भावनांवेदना प्रतिपादयनि-'श्रीसे णं इत्यादि, 'इमी से णं भंते ।' रयणप्पभाए पुढबीए' एल बल भदन्त ! न्नममायां पृथिव्याम् 'नेरइया' नरयिकाः कि सीयं देणं ति किगीतां वेद वेदयन्ति अथवा 'उसिण वेरणं वेदेति' उष्ण वेदना बेदयति मात्रा-सीय उमिण वेयणं वेदेति' शीतोष्णवेदना वेदयन्तीति जना अगार-गोगमा' इत्यादि, 'गोयमा रे गौतम ! 'णो सीयं वेरणं वेदेति' नो शीशरा वेदनां वेदयन्ति, किन्तु 'उसिन पर्ववाली इक्षु के किडेकी चाटेमणा भीतरी भीतर सन. सनाहट करते हुए घुल जाते है इससे वे 'वेषण उदीरपंति' उज्वल आदि पूर्वोक्त विशेषणों वाली वेदना को उसे उत्पन्न करते हैं यही पात 'उज्जलं जाव दुरहियासं' हम मृत्रपट द्वारा प्रकट की गई है।
अय सूत्रकार क्षेत्र स्वभावज वेदना का कथन करते हैं ।
'इसीसे णं भंते ! रयणप्रभाए पुनीए नेरइया' हे भदन्त । इम रत्नप्रभा पृथिवी के नैरपिक 'शि की वेयणं वेदें नि उसिणवेयणं वेदेति' क्या शीतवेदना को भोगते है ? या उपनवेदना को भोगते हैं। या 'सीय उसिणवेयणं वेति' शीतोष्ण वेदना को भोगते हैं इस प्रकार के गौतम के प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान् कहते हैं 'गोयमा! जो सीयं वेचणं वेदेति' हे गौतम ! दे ना जीव शीनवेदना का वेदन छे. तेथी तमा 'वेयण उदीरयति' Gara (मेरे पास विशेषणवाणी वेदना २ जत्पन्न ४रावे छे. मे पात 'उज्जलं जाव दुरहियास' मा सूत्र દ્વારા પ્રગટ કરવામાં આવી છે.
वे सूत्रा२ क्षेत्र मावाणी वनाना समयमा थन ४२ छे. 'इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया के सामन् सा रत्नमा पृथ्वीना नै । 'किं सीयवेयणं वेदेति उसिणवेयण वेदेति" शुशीत वहनातुं वहन ४२ छ, Bहना नाग १ मथ4। 'सीय उसिणवेयणं वेदेति' ताण वेदनान सागव छ । गौतमकाभाना 20 प्रश्न उत्तर मापता प्रभु / छ 'गोयमा ! पो मीयं वेयणं वेदेति' गौतम ! ना२३। शीत वहनानु' वहन ४२ता नयाः
Page #305
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमैयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ सू.२० नारकाणां क्षुत्पिपासास्वरूपम् २८३ वेयणं वेदेति' उष्णां वेदनां वेदयन्ति ते हि नारकाः शीतयोनिकाः योनिस्थानानां केवलहिमपुञ्जसदृश शीतपदेशात्मकत्वात् योनिस्थानव्यतिरेकेण चान्यत्सर्वमपि भूम्यादि खदिराङ्गारादपि महामतप्तम् अतस्ने उष्णामेव वेदनामनुभवन्तीति । 'नो सीओसिणं वेयणं वेदेति' नानि शीतोष्णवेदना वेदयन्ति शीतोष्ण स्वभावतया नरकेषु मूलतोऽपि असंभवादिति । 'एवं जाब बालुयप्पभाए' एवं यावद् बालकाममायाम् रत्नममानारकत्रदेव शर्कराममा वालुकाप्रभा नारका अपि न शीतवेदनां वेदयन्ति किन्तु उष्णामेच वेदनां वेदयन्ति, नापि शीतोष्णवेदनां वेदयन्तीति ॥ __'पंकप्पभाए पुच्छ।' पकषमायां पृच्छा हे सदन्त ! पङ्कममा चतुर्थ पृथिवी नारकाः किं शीतवेदनां वेदयन्ति किं वा उष्णवेदना वेदयन्तीति पृच्छया संगृह्य ते प्रश्नः, भगवानाह-मायमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'सियं वेयणं वेदें वि उसिणीप वेवणं वेति' शीतामपि वेदनां वेदयन्ति नहीं करते हैं किन्तु सिणवेषणं वेदेति बे उष्णवेदना का वेदन करते हैं ये लारक यद्यपि शीतयोनिक होते हैं क्यों की इनके उत्पत्तिस्थान केवल हिमानी-हिमलंतति के तुल्य शीत प्रदेशारमक होते हैं परन्तु इन से व्यतिरिक्त जो और लभ स्थान आदि हैं वे सब खैर के अङ्गार से भी अधिक उष्ण होते हैं-असावे केवल एक उष्ण वेदना को ही भोगते हैं । शील या 'नो स्लीयोलिणं वेदेति' शीतोष्ण वेदना को नहीं भोगते हैं । 'पंक्षप्पसाए पुच्छ।' हे अदन्त ! पङ्कमभा नाम की जो चतुर्थ पृथिवी है उसके नाक क्या शीत वेदना का अनुभवन करते हैं ? या उष्णवेदना का अनुसंधान करते है ? था शीतोष्ण रूप से मिली हुई वेदना का अनुभव करते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं परंतु 'उसिणवेयणं वेदेति' तस। BY वनानु वेहन रे छ. मे नान કે શીતાનિ વાળા હોય છે. કેમકે તેનું ઉત્પત્તિસ્થાન હિમાની હિમસંહતિ જેવા શીત પ્રદેશાત્મક હોય છે. પરંતુ તેના સિવાયના જે બીજા સ્થાને છે. તે બધા ખેરના અંગારાથી પણ વધારે ઉષ્ણ હોય છે. તેથી તેઓ કેવળ એક 6 वनात गवे छे. 31 मथवा 'सीयोसिणं णो वेदेति' शीत वेदना सागवता नथी. 'पकप्पभाए पुच्छा' लगवन् ५४मा नामनी रे यथा પૃથ્વી છે, તેમાં રહેવાવાળા નારકે શું શીત વેદનાને અનુભવ કરે છે ? કે ઉષ્ણ વેદનાને અનુભવ કરે છે ? અથવા શીતેoણ વેદનાને અનુભવ કરે છે ? मा प्रश्न उत्तरमा प्रा गौतमत्वामी ४ छ 'गोयमा ! मीय विषयणं
Page #306
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमसी नरकाबासभेदेन पङ्कप्रभा नारकाः तथोप्णामपि वेदनां वेदन्ति, नरकावास भेदेनेच किन्तु 'नो सीओसिणवेयणं वेदेति' नो नैव शीतोष्णवेदनां वेदयन्ति । 'ते बहुतरगा जे उसिणं वेयणं वेदेति' तत्र ते बहुतरका ये उष्णां वेदना वेद. * यन्ति प्रभूतवराणां शीतयोनित्वात् । 'ते थोवतरगा जे सीयं वेयणं वेदेति' ते स्तोकतरा ये शीत वेदनां वेदयन्ति अल्पतराणामुष्णयोनित्वादिति । धूमप्पमाए पुच्छा' धूपममायाँ पृच्छा हे भदन्त ! धूमप्रभा नारकाः कि शीतवेदनां वेदयन्ति
उष्ण वेदनां वा, शीतोष्णवेदनां वा वेदयन्ति इति प्रश्नः भगवानाइ-गोयमा' ___ इत्यादि, 'गोयला' हे गौतम ! 'सीयंपि वेषणं वेदेति' शीतामपि वेदनां वेदयन्ति
-गोयला लीपि वेधणं वेदेति उलिणपि वेधणं वेदेति' हे गौतम वे - नारक नरकाबास के भेद से शीत वेदना का भी अनुभवन करते है : और उली प्रकार नरकावास के भेद से ही उष्णवेदना का भी अनु- लवन काले हैं-पर 'जो स्लीतोलिणं वेषणं वेदेति' शीतोष्ण वेदना : का अनुभमन नहीं करते हैं । 'ते बहुनरमा जे उसिणं वेयणं वेदेति'
ऐसे कारक जीव यहां अधिक है जो उष्णवेदना का अनुभवन करते - है क्योंकि प्रभूततर नारक जीवों की योनि शीत होती है । तथा 'ते
थोवतरमा जे लीयं वेषणं वेदेति' जो नारक जीन शीतवेदना का अनुः - भवन करते है वे स्तोक तर-बहुत घोडे-हैं। क्योंकि यहां अल्पतरों
की उष्णोनि होती है। 'धूमपरमाए पुच्छा' हे भदन्त ! धूमसभा के . नारक दया शीतवेदना का अनुभवन करते हैं या उष्णवेदना का अनु.
भवन करते है ? था शीतोष्णरूप लिश्र वेदना का अनुभवन करते हैं ? - वेदेति उसिणंपि वेयण वेदेति' है गौतम ! ते नारी न२४वासना लेथा शीत - વેદનાને પણ અનુભવ કરે છે. અને એ જ પ્રમાણે નરકાવાસના ભેદથી જ
6 नाना ५y मनुल ४२ छे. परतु णो सीयोसिणं वेयणं वेदेति' शीत वेहनाने। मनुस ४२ता नथी. 'ते बहुतरगा जे उसिणं वेयण वेदे ति' એવા નારક છે ત્યાં વધારે છે કે જેઓ ઉણ વેદનાને અનુભવ કરે छ. म अभूतत२ ना२४ वानी योनी शीत लीय छ, तथा 'ते थोवतरगा जे सीय वेयण वेदेति' २ ना२४ । शीत वहनाना अनुभव ४२ छे. तमा સ્તકતર અર્થાતુ ઘણુ શેડ હેય છે કેમકે અહિંયા અ૯૫તની ઉણની હોય છે.
_ 'धूमप्पभाए पुच्छा' है सावन धूमप्रमा पृथ्वीना ना२४ ७ शुशीत વેદનાને અનુભવ કરે છે? અથવા ઉણ વેદનાને અનુભવ કરે છે? શીશ્ન રૂ૫ મિશ્ર વેદનાને અનુભવ કરે છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે છે કે
Page #307
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रद्योतिका टीका प्र. ३ उ.२ स्तु.२० नारकाणां श्रुत्पिपासास्वरूपम्
૨૮
'उसिपि वेयणं वेदेति' उष्णामपि वेदनां वेदयन्ति 'नो सीतोसिणं वेयणं वेदेंति' नो शीतोष्णवेदनां वेदयन्ति, 'ते बहुतरगा जे सोयवेयणं वेदे वि' ते बहुतरका ये शीतवेदन वेदयन्ति बहूनामु'णयोनित्वात् 'ते योत्रवरगा जे उणिवेयणं वेदेति' ते स्वोकतरा ये उष्णवेदनां वेदयन्ति अल्पउराणां शीतयोनित्वात् । 'तमाए पुच्छा' तमःमभायां पृच्छा, हे भदन्त नः प्रभा नारकाः किं शीतवेदनां वेदयन्ति उष्णवेदनां वा वेदयन्ति शीतोष्णां वा वेदनां वेदयन्तीति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयता' हे गौतम! 'सीयं वेषणं वेदेति' शीतां
उत्तर में प्रभु कहते हैं - 'गोपमा ! सीतंपि देयणं देवेंति, उसिणंपि वेण वेदेति' हे गौतम! धूमप्रभा के नारक शीतवेदना का भी अनुभ वन करते हैं, उष्णवेदना का भी अनुभव करते हैं परन्तु 'नो सीतोसि णं वेषणं वेदेति' शीतोष्णरूप मिश्रवेदनाका अनुभवन नहीं करते हैं 'ते बहुतरगा जे सी वेषणं वेदेति' जो शीत वेदना का अनुभवन करते हैं ? ऐसे नारक जीव बहुतरक है क्योंकि यहां बहुत नारक जीवों की योनी उष्ण होती है, तथा 'ते थोक्तरणा जे उक्षिणवेदणं वेदेति' जो उष्ण 'वेदनाको अनुभवन करते हैं वे स्मोकर है क्योंकि यहां अल्पतर नारक जीवों की योनि शीत होती है 'तमाए पुच्छा' हे भदन्त ! तमः प्रभा पृथिवो के नैरयिक क्या शीत वेदना का अनुभवन करते हैं ? या उष्णवेदना का अनुभव करते हैं ? या शीतोष्णवेदना का अनुभव कहते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'गोमा । सीयं वेधणं
'गोयमा । सीतंपि वेयग' वैदेति, उसिपि वेयण' वेदेति' हे गौतम! धूभअला પૃથ્વીના નારકા શીત વેદનાને પણ અનુભવ કરે છે, ઉષ્ણુ વેદનાને પણ अनुभव रे है, परंतु 'णो सोतोखिणं वेय्णं वेदेति' शीतोष्य ३५ बेहनाना अनुभव उरता नथी. 'ते बहुतरगा 'जे खीयवेयणं वेदेति' थे। शीत वेहना ના અનુભવ કરે છે, એવા નારક જીવા બહુતરક છે. કેમકે અહિંયા મહુતરક लवोनी उपयुयोनी होय छे तथा 'वे थोक्तरगा जे. उखिणदेयण वेदे 'ति' જેએ ઉષ્ણુવેદનાના અનુભવ કરે છે. તેએ સ્નેકતર છે. કેમકે અહિયાં અલ્પતર નારક જીવાની ચેનિ શીત હાય છે.
'तमाए पुच्छा' हे गलवन् तभःप्रमा पृथ्वीना नैरायेो शुं शीत वेहनाने! અનુભવ કરે છે ? ઉષ્ણવેદનાના અનુભવ કરે છેકે શીતાણુ વેદનાના અનુભવ કરે ४१ मा प्रश्नना उत्तर भां अलु गौतमस्वामीने हे छे 'गोयमा | सीय' वेयण'
Page #308
--------------------------------------------------------------------------
________________
H
AR
-Aa
२८६
जीवामिगमले वेदनां वेदयन्ति, तमःप्रमानारकाः । 'नो उसिणं वेयणं वेदेति' नो उप्णां वेदनां वेदयन्ति 'नो सीयोसिणं वेयणं वेदेति' नो शीतोष्ण वेदनां वेदयन्ति, तमाममा नारकाणां सर्वेषामुष्ण योनित्वात् योनिस्थान व्यतिरेकेण चान्यस्य सर्वस्यापि नरक भूम्यादेमहाहिमानी तुल रत्वादिति । 'एवं अहे सतमाए नपरं परमयीय एवं तमःप्रभानारकरदेव अधःसप्तमीनारका अपि शीतामेत्र वेदनां वेदयन्ति न तु उष्ण वेदनां न वा शीतोष्णाम् नारं शीतामपि परमशीताम् तमापृथिवीत स्तमस्तमापृथिव्यां शीतवेदनाया अतिप्रबलत्वादिति ॥२०॥ वेदेति' हे गौतम यहां के नारक शीत वेदना का अनुभवन करते हैं 'जो उलिणं वेधणं वेदेति' उष्णवेदना का अनुभवन नहीं करते है
और 'णो सीतोसिणं वेरणं वेदेति न शीतोष्णरूप निवेदना का अनु. भवन नहीं करते हैं । क्यों कि तमाप्रभा पृथिवी के समस्त नारकों की उष्ण योनि होती है यहां योनिस्थान के सिवाय अन्य और सय नरक भूमि आदि महाहिम के तुल्य होते है । 'एवं अहे लत्तमाए नवरं परमसीयं तमाभा नारक की तरह ही अघ सप्तमी पृथिली के नारक भी केवल एक शीत वेदना का ही वेदन करते है। उष्णवेदना या नहीं। और न शीतोष्णरूप मिश्रवेदना का ही । यहाँ विशेष इतना है किसप्तम पृथिवी के नारकों को जो शीनवेदना का अनुभव होता है सो यह शीत तम:प्रभा पृधिवी में जो शीत है उसकी अपेक्षा बटन अधिक होती इस पृथिवी में वहां की अपेक्षा शीतवेदना अति प्रवल है। सू०२०॥ वेदेति गोतमा त्यांना न २0 शी1 वहनाना अनुभव ४२ छे. 'णो उक्षिण देयण घेदेति' S नानी अतुम ४२ता नथी. मने ‘णो सोचोसिणं वेयण वेदेति' શીતેણુ રૂપ મિશ્ર વેદનાને અનુભવ પણ કરતા નથી. કેમકે તમપ્રભા પૃથ્વીના સઘળા નારકોની ઉણની હોય છે. અહિયાં નિષ્ણશિવાય બીજુ બધું જ ४यन मेट है ना२४ भूमि समधी ४थन महिमानी प्रमाणे डाय छे. 'एवं आहे सत्तमाए नवर परमसीय" तम:प्रभा पृथ्वीना ना२४ &। प्रभारी । અધઃસપ્તમી પૃથ્વીના નારક છે પણ કેવળ એક શીત વેદનાનું જ વેદન કરે છે. ઉoણ વેદનાને અનુભવ કરતા નથી અને શીતોષ્ણ રૂ૫ મિશ્રવેદનાનું પણ વેદન કરતા નથી. અહિયાં એ જ વિશેષતા છે કે સાતમી પૃથ્વીના નારને જે શીત વેદનાને અનુભવ થાય છે તો તે શીત વેદના તમ પ્રજા પૃથ્વીમાં જે શીત વેદના છે, તેની અપેક્ષાએ ઘણું વધારે હોય છે, આ પૃથ્વીમાં તમ પ્રભા પૃથ્વી કરતા શીત વેદના ઘણજ પ્રબળ હોય છે. સૂ. ૨૦ છે
Page #309
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.२ २.२१ नारकाणां नरकभवानुमवननिरपणम् २८७ सम्पति-नारकाणां नारकभवानुभवपतिपादनार्थमाह 'इमीसे गं' इत्यादि,
मलम्-इमीसे णं अंते ! रयणप्पमाए पुढवीए नेरइया केरिसयं णिरयभवं पञ्चणुभवमाणा विहरंति ? गोयमा ! तेणं तत्थ णिचं भीया, णिचं तसिया, णिञ्चं छुहिया, णिञ्चं उविगा, णिच्चं उपप्पुआ, णिच्छ बहिया, णिच्चं परममसुझमउलमणुबद्धं निरयभ पच्चणुभवसाणा विहरति एवं जाव अहे सत्तमाएणं पुढचीए पंच अणुत्तरा सहइमहालया सहाणरगा पन्नत्ता तं जहा-काले१ महाकाले २, रोरुए३, महारोरुए ४, अप्पइट्टाणे५, तत्थ इमे पंच महापुरिसा अणुत्तरेहिं दंडसमादाणेहिं कालमासे कालं किच्चा अप्पइहाणे णरए औरइयत्ताए उबवण्णा, तं जहा-रामे जमदग्निपुत्ते१, दढाऊलच्छइ पुत्ते२, वसूउवरिघरे३, सुभूम कोरवे४, बभदत्ते चुलाणसुए५, । ते ण तत्थ गेरइया जाया काला कालोमासा जाव परमकिण्हा वपणेणे पन्नत्ता, तं जहा-तत्थ वेयणं वेएंति उज्जलं विउलं जाव दुरहियासं । उलिणवेयणिज्जेखणं भंते ! णिरएसु नेरइया करिसयं उसिणवेयणं पच्चणुब्भवमाणा विहरंति ? गोयमा ! से जहा नामए कम्मारदारए सिया तरुणे बलवं जुगवं अप्पायके थिरम्गहत्थे दढपाणिपायपासपिटुंतरोरुसंघायपरिणए लंघणपवणजवणवग्गणपमदणसमत्थे तलजमलजुयल फलिहणिभबाहु, घणणिचिय वलियवट्टखंधे चम्मेदृगदुहणमुट्ठिय समाहय णिचियगत्तगत्ते उरस्सबलसमण्णागए छेए दक्खे कुसले णिउणे मेहावी णिउणसिप्पोवगए एगं महं अयपिंडं उदगवारसमाणं गहाय तं ताविय ताविय कोट्टिय कोट्टिय उभिदिय उभिदिय चुणिय चुण्णिय जाव एगाहं वा दुयाहं वा तियाहं वा उक्को
Page #310
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८८
oram
जीवामिगमस्ते सेणं अद्धमास वा संहणेजा सेणं तं सीयं सीईभुयं अओमएणं संदंसएणं गहाय अलमारपटक्षणाए उसिणवेदणिज्जेसु परएसु पक्खिवेजा, लेणं लं उम्किसिध णिमिसियंतरेणं पुणरवि पच्चुद्धरिस्सामि तिकट्ठ पविशयमेव पासेज्जा पविलीणमेव पासेज्जा पविद्धत्थमेव पासेजा गो छेद संचाएइ अविरयं वा अविलीणं वा अनिद्धत्थं वा पुणरवि पच्चुद्धरित्तए । से जहाकामत्तमायंगे दिवए कुंजरे टिहायण पढमसरयकालसमयसि वा चरमनिदाध कालसरयाशिदा उहाभिहए तण्हाभिहए दवग्गिजालाभिहए आउरे सुलिए पिपासिए दुबले किलंते एकं महं पुक्खरिणि पालेजा चाडकणं समतीरं अणुपुव्वसुजाय वप्पगंभीर सीयल जलं संघण्ण पत्तभिसमुणालं. बहुउप्पलकुमुय णलिण सुभगसोगंधिय पुंडरीय महापुंडरीय सयपत्त सहस्तपत्त केसरफुल्लोवचियं छप्पय परिभुगमाणकमल अच्छविमलसलिलपुण्णं पडिहत्थगनसलमच्छकच्छभं अणेगसउणगणमिहुणयवि रइय सदुन्नइय महुरस्सरनाइयं तं पालइ, पासित्ता तं ओगाहइ ओगाहित्ता से णं तस्थ उण्हं पि पविणेज्जा तण्हं पि पविणेजा, खुहं पि पविणेजा जर पि परिणेजा दाहं पि पविणेजा णिदाएज वा पयलाएज्ज वा लई वा रई दा धिइंवा मइंवा उक्लभेज्जा, सीए सीयभुए संकलमाणे साया लोक्ख बहुलेया वि विहरिज्जा, एवामेव गोयमा ! असम्भावपटवणाए उसिणवेयणिज्जेहितो रएहितो रइए उबट्टिए ससाणे जाई इमाई मणुस्सलोयसि भवंति गोलियालिंछाणि वा सोडियालिंछाणिवा लिंडियालिंछाणि वा अयागराणि वा तंबागराणि वा तउयागराणि वा सीसागराणि वा रूप्पागराणि वा सुबन्नागराणि वा हिरण्णागराणि
Page #311
--------------------------------------------------------------------------
________________
अमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ सू.२१ नारकाणां नरकभवानुभवननिरूपणम् २८२ वा कुंभारागणीइ वा मुसागणीइ वा इट्टयागणीइ वा कवेल्लुयागणीइ वा लोहारंबरीसेइ वा जंतवाडचुल्लीइ वा गोलियांलिंछागणीइ वा सोंडियालिंछागणीइ वा लिडियालिंछागणी वा णलागणाइ वा तिलागणीइ वा तुसागणीइ वा तत्ताई 'समजोइभुयाइं फुल्लंकिंसुयसमाणाई उक्कासहस्साई वि णिम्मुयमाणाइं जालासहस्साई पमुच्चमाणाई इंगालसहस्साई पक्खिरमाणाई अंतो अंतो हुहुयमाणाई चिटुंति, ताई पासइ, ताई पासित्ता ताई ओगाहेइ, ओगाहित्ता से णं तत्थ उपहंपि पविणेजा तण्हं पि पविणेज्जा खुईपि पविणेज्जा जपि (पविणेज्जा दाहंपि पविणेज्जा णिहाएज्ज वा पयलाएज्ज वा सई वा रई वा धिई वा मई वा उक्लभेज्जा, सीए सीयभुए संकसमाणे संकममाणे सायासोक्खबहुले यावि विहरेज्जा, भवेयारूवा सिया ? णो इणटे समझे गोयमा !
उसिण वेयणिज्जेसु रएसु नेरइया एत्तो अणितरियं व । उसिणवेयणं पच्चणुभवमाणा विहरंति ॥ सीयवेयणिज्जेसु णं भंते ! णिरएसु नेरइया केरिलया सीयवेयणं पच्छणुब्भवमाणा विहरंति ? गोयमा ! से जहा णामए कम्मारदारए सिया तरुणे . जुगवं बलवं जाव सिप्पोवगए एगं महं अयपिंड दगवार
समाणं गहाय ताविय ताविय कोट्टिय कोट्टिय जहन्नेणं एगाई वा - दुयाहं वा तियाहं वा उक्कोलेणं मासं वाहणेजा लेणं उसिणं उसिणभुयं अयोमएणं संदसएणं गहाय असम्भावपटवणाए सीयवेयणिज्जेसु नरसु एक्खिवेज्जा, से तं उम्मिलिय निमिसियं
तरेण पुणरवि पच्चुरिस्सामी तिकटु पविरायमेव पासेज्जा, । तं चेव णं जाव णो चेव णं संघाएज्जा, पुणरवि पच्चुद्धरित्तए,
Page #312
--------------------------------------------------------------------------
________________
२९० . .
जीवामिगमस्ये से णं से जहाणामए मत्तमायंगे तहेत्र जाव सोक्खबहुले यावि "विहरेज्जा, एवामेव गोयमा! असभावपटवणाए सीयवेयणेहितो पोरएहितो नेरइए उबटिए समाणे जाई इहं माणुस्सलोए हबंति, से जहा-हिमाणि वा हिलपुंजाणि वा हिमपडलाणि-वा हिमपडलपुजाणि वा तुसाराणि वा तुलारपुंजाणिवा हिमकुंडाणि वा. हिमकुंडपुजाणि वा लीयाणि वा ताई पासइ पासित्ता ताई
ओगाहइ ओगाहिता से णं तत्थ लीय पि पविणेज्जा, तण्हंपि पविणेज्जा, खुहपि पविणेजा जरंपि पविणेज्जा दाहपि पविणेज्जा निहाएज्ज पयलाएज्ज वा जाव उसिणे उलिणभुए संकममाणे संकलमाणे साया सोक्खबहुले यावि हरेज्जा, भञ्या रूवा सिया? णो इगट्टे सनटे; गोयमा ! सीयवेयणिज्जेसु नरएसु नेरइया एत्तो अणिटलरियं घेवसीय वेयणं पञ्चणुभवमाणाविहरति।सू. २१॥ - छाया-एतस्यां खल भदन्त ! रत्नपभायां पृथिव्यां नैरयिकाः कीदृशं निरयमा प्रत्यनुभवन्तो विहरन्ति गौतम ! ते तत्र नित्यं भीताः नित्यं प्रस्ताः नित्य क्षुधिताः नित्यमुद्विग्नाः नित्यमुप्लुताः नित्यं वधिकाः नित्यं परममशुभ. मतुलमनुबद्ध निरयभवं प्रत्यनुभवन्तों विहरन्ति । एवं यावदधासप्तम्यां खल पृथिव्यां पश्चानुत्तरा महन्महालया महानरकाः प्रज्ञप्ता, तद्यया-कालो महाकालो रौरवो महारौरवोऽपतिष्ठानः । तत्रेमे पश्चहापुरुषा अनुत्तरैर्दण्डसमादानः कालमासे कालं कृत्वाऽप्रतिष्ठाने नरके नैरयिकतया उत्पन्नाः, तद्यथा-रामो जदग्निपुत्री१, -हदायुः लच्छकिपुत्र: २, वसुः उपरिचर: ३, सुभूमः कौरच्या ४, ब्रह्मदत्तश्चुलनी
मुनः ५, ते खलु तत्र नैरयिकाः जाताः काळाः कालावभासा यावत् परमकृष्णा . वर्णेन प्राप्ता, तद्यथा-ते खलु तत्र वेदना वेदयन्ति उज्ज्वलां विपुलां यावद् दुरधिसमाम् । उष्णवेदनीयेषु खलु भदन्त ! नरकेषु नैरयिकाः कीदृशीमुष्ण वेदना प्रत्यनुभवन्तो विहरन्ति ? गौतम ! स ययानामकः कर्मकारदारकः स्यात् तरुणो वळनान् युगवान् अल्पात स्थिराग्रहस्तः दृढपाणिपादपार्श्व पृष्ठान्तरोह ।' संघात्परिणतः लखन प्लवनजवनवर्गणमदनसमथः, तलयमलयुगल परिघनिभवा । हु: घननिचित बलिसवृत्तस्कन्धा, चर्मेष्टक घणमुष्टिका समाहतनिचितगात्रगाना,
Page #313
--------------------------------------------------------------------------
________________
214
2
-
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उं. २ लु.२१ नारकानां नरकभवानुभवननिरूपणम् २९१ औरसबलसमन्वागनः छेको दक्षः षष्ठः कुशलो निपुणः सेधावी निपुण शिल्पोपगतः, एक महदयःपिण्डमुदकमानं गृहीत्वा तं खापयित्वा तापयित्वा कुट्टमित्रां कुंयित्वा उद्भिद्योद्भिद्य चूर्णयित्वा चूर्णयित्वा यावदेका वा द्वयहं वा त्र्यहं चा उत्कर्षेण अर्द्धमासं या संहन्यात्, अथ खल तं शीतं शीतीभूतमयोमयेन संदेशन गृहीत्वा असद्भाव प्रस्थापनया उष्णवेदनीयेषु नरकेषु प्रक्षिपेद, स खलु तम् उन्मपित्त निमिषितान्तरेण पुनरपि मत्युद्धरिष्यामीतिकृत्वा प्रविवरमेव पश्येत् वा प्रविलीनमेव पश्येत् प्रविष्त्रस्तमेव पश्येत् नैव खलु शक्नुयात्, अविखरं वा अत्रिati वा, भविश्वर वा पुनरपि प्रत्युद्धर्तुम् । स यथा वा मत्तमातङ्गः द्विपकः कुञ्जरः षष्टिहायनः प्रथमशरत्कालसमये वा, चरमनिदाघकालसमये वा, उष्णाभिहतः तृषामिद्दतो दावाग्निज्वालाहित: आतुर शुषितः पिपासितो दुर्बळ क्लान्तः, एकां महतीं पुष्करिणीं पश्येत् चतुष्कोणां समवीरा मानुपूय सुजातप्रगम्भीरश्री तळजलाम् संछन्नपत्रविमृणाला, बहूत्पलकुमुदन लिनसुभग सौगन्धिकपुण्डरीकं - महापुण्डरीक शतपत्रसहस्रपत्र केसरफुल्लोपचिताम् पट्पदपरिभुज्यमानकसलाम् अच्छविमलसलिलपूर्णाम् पडिइत्य भ्रमन्मश्स्यकच्छपास अनेक शकुन गणमिथुन कविरचित शब्दोन्नतिक मधुरस्वरनादिवा, व पश्यति तां दृष्ट्वा तामवगाहेत, अवगाद्य स खलु तत्रोष्णमपि प्रविनयेत् तृषामपि प्रचिनयेत् क्षुधामपि विनयेत् ज्वरमपि विनयेत् दाहमपि प्रविनयेत् निद्रायेत वा प्रचलायेव वा स्मृति वा रतिं वा धृति वा मर्ति वा उपभेत शीतः शीतीभूतः संक्रामन् संक्रामन् सातासौख्यवहलापि विहरेत्, एवमेत्र गौतम । असद्भाव प्रस्थापनया उष्णवेदनीयेभ्यो नरकेभ्यौ, नैरयिक उद्वृत्तः सन् यानि इसानि मनुष्यलोके भवन्ति, गौडिकालिछानि वा शौंडिका छानिवा, लिण्डिकालिछानिवा, अय आकरा इति वा, ताम्रांकरी इति वा, पुकारा इति वा, सीसकाकरा इति वा, रूपयाकरा इति वा सुवर्णाकरा इति वा हिरण्याकरा इति वा काराग्निरिति वा, मुषाग्निरिति वा इष्टकाग्निरिति वा कवेलुकानिरिति वा लोहकाराम्बरीष इति वा यन्त्र पाकचुल्लीरिति जा, गौडिकालि-, छानिरिति वा क्षौण्डिकलिंछग्निरिति वा, लिण्डिकालिंछा ग्निरिति वा नलाग्निरिति बा, तिलाग्निरिति वा, उपाग्निरिति वा तज्ञानि समज्योतिर्भूतानि फुल्लकिंशुकसमानानि उल्कासहस्राणि विशुन्यमानानि ज्वालासहस्राणि प्रमुच्यमानानि अङ्गार सहस्राणि पविक्षरन्ति अन्तरन्त हूयमानानि विष्ठन्यि तानि पश्यन्ति । तानि दृष्ट्वा तानि अवशात तानि अथवा स खलु वत्रोष्णमपि प्रविनयेत् क्षुधामपि प्रचिनयेत् ज्वरमपि विनयेत् दाइघपि विनयेत्, निद्रायेत वा प्रचलायेत वा स्मृति वा रति वा धृतिं वा मति वा उपलभेत शीतः शीतीभूतः संक्रामन् संक्रामन् साता
V
Page #314
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमदे
२५२
"
Fr,
सौख्यवापि विहरेत् । भवेदेतदूवा स्याद् ? नायमर्थः समर्थः गौतम | उष्णवेदनीयेषु नरके नैरथिका इतोऽपि अनिष्टतरामेव उष्णवेदनां मत्यनुभवन्तो विहरन्ति श्रीवेदनीयेषु खलु मदन्त ! निरयेषु नेरयिकाः कीदृशीं शीत वेदनां मत्यनुभवन्तो विहरन्ति ? गौतम ! स यथानामकः कर्मकारदारकः स्यात् तरुणो युगवान् वळवान् यावत् शिल्पोपगतः, एक महान्तमयः । पिण्डं दकवार समानं गृहीत्वा तापयित्वा तापयित्वा कुहयित्वा कुट्टयित्वा जघन्येन एकाहं दा द्वयहं वा त्र्यहं वा उत्कर्षेण मार्स वा इन्यात् स खलु तम् उष्णमुष्णीभूतमयोमयेन संदंशकेन गृहीत्वा असद्भाव प्रस्थापनया शीव वेदनीयेपु नरकेट प्रक्षिपेत् स तमुन्सिपितनिमिषितान्तरेण पुनरपि प्रत्युद्धरिष्यामीति कृत्वा प्रविवरमेव पश्येत् तमेव खलु यावत् नैव खल्ल शक्नुयात् सुनरपि प्रत्युद्धर्तुम् स खलु स यथा नामको मत्तमातङ्गः तथेत्र यावत् सौख्य बहुश्रापि विहरेत् । एवमेव गौतम । असद्भाव प्रस्थापनया शीतवेदनीयेभ्यो नरकेभ्यो नैरयिक उद्वृत्तः सन् यानीमानि इदमनुष्य कोकेषु भवन्ति तद्यथा हिमानि बा- हिमपुञ्जानि वा हिमपटलानि वा हिमपटळपुञ्जानि वा उपाराणि वा तुपारपुखानि वा हिमकुण्डानि वा हिमकुण्डञ्जानि तानि शीतानि वा तानि पश्यति दृष्ट्वा तानि अवगाहते अवगाह्य स खलु दत्र शोतमपि प्रविनयेत् तृपामपि मविनयेव वामपि विनयेत् ज्वरमपि मविनयेव दाहमपि पविनयेत निद्रायेतवा मचलायेत वा-यावत् उष्णः उष्णभूतः संक्रमन् शातासौख्यबहुळश्वापि विहरेत् । भवेदे तवा स्यात् ? नायमर्थः समर्थः । गौतम ! शीतवेदनीयेषु नरकेषु नैरचिका इतोऽपि अनिष्टतरामेव श्रीवेदनां प्रत्यनुभवन्तो विहरन्ति ॥ सू० २१॥
टीका - - ' इसी से णं भते ।' एदस्यां खल भदन्त ! ' रयणप्पभाए पुढवीए' रत्नप्रभायां पृथिव्याम् : 'नेरइया' नैरयिक जीवाः 'केरिसयं णिरयमवं' कीदृशं - किमाकारक नैरयिकभवम् 'पच्चणुवमवगाणा' प्रत्यनुभवन्तः प्रत्येकं वेदयमानाः
अब सूत्रकार नारक जीवों के नारकभव का अनुभव प्रतिपादन करते है
'इमी से णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए नेरद्दया केरिस' इत्यादि २१ टीकार्य - गौतम ने प्रभुश्री ऐसा पूछा है - 'इमीले णं भंते !' हे अदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी में नैरयिक जीव 'केरिसयं निरयभवं'
હવે સૂત્રકાર નારક જીવેાના નારકભવના અનુભવનું પ્રતિપાદન ને છે 'इमीसेणं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया केरिसय" त्याहि
टीअर्थ- गौतमस्वाभीमे अनेोवु पूछयु छे! 'इमीखेणं' भंते!' ३ भगवन् भा रत्नप्रला पृथ्वीमां नैरयि वो 'फेरिसय णिरयभव" ठेवा अा
Page #315
--------------------------------------------------------------------------
________________
मेयद्योतिकाटीका प्र.३ उ.२ सू.२१ नारकाणां नरकर्भयानुभवननिरूपणम् २९३ हरन्तीति-तिष्ठन्तीति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे तम! 'तेणं तत्थ णिच्चं मीता' ते खल्लु नारका स्तन-रत्नप्रभानरके नित्यम्वकाले क्षेत्रस्वभावज महानिविडान्धकारदर्शनतो भीताः सर्वतः समुपजात कृत्वात् । तथा-णिञ्च तसिया' नित्यं प्रस्ताः नित्यम्-सर्वकालं क्षेत्रस्वभावम हानिविडान्धकारदर्शनतस्त्रस्ता:-अतिशयेन भयमीता:-परमधार्मिकदेव परस्पदीरित दुःखसंपातमयाद बासमुत्पन्नाः । तथा-'णिच्चं छुहिया' नित्यं सर्व (लं क्षुधिता:-क्षुधया व्याप्ताः। तथा-'णिच्चं उविगा' नित्यं सर्वकालमु. (ग्नाः परमाथामिकदेव परस्परोदीरित दुःखानुभवतः तद्गतावासपराङ्मुख. वत्ताः तया-पिच्चं उपप्पुआ' नित्यं-सर्वकालम् उपप्लुता उपालवेनोपेताः कस प्रकार के होकर नैरथिक अब का पच्चणुभवलाणा विहरंति' अनुभव करते है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते है 'गोयमा! तेणं तत्थ गच्च भीता' हे गौतम ! वे नारक वशं नरक में सर्वदा भयभीत होकर त्रि स्वभाव से जन्य महागाढ अन्धकार के देखने से चारो ओर शङ्का
त होकर-तथा-णिच्चंतसिता' सर्वदा क्षेत्र स्वभाव से जन्य अन्धकार के देखने से घबडाये हुए होकर अथवा-परमाधार्मिक देषों के परा आपस में एक दूसरे के पूर्वभवीय वैरो को प्रकट करने के कारण 'दला लेने रूप कष्टो के आने से दुखित होकर तथा-'पिच्चं इहिया' सर्वदा भूख से पीडिन होकर 'पिच्चं उबिग्गा' सर्वदा द्विग्न होकर-खेद खिन्न होकर-परमाधार्मिक देवों द्वारा आपस में बाद कराये गये पूर्वभवों के वैरों के कारण एक दूसरे के आवास से राइमुखचित्त होकर नित्य 'उपप्पुआ' उपद्रव युक्त होकर उस गिच्च २ना ७२ नयि सपना 'पच्चणुभवमाणा विहरति' अनुभव ४२ छे, मा प्रशन उत्तरमा प्रभु गौतमस्वामीन छ है 'गोयंमा ! ते णं 'तत्थ, णिच्चं भौता' है. गौतम! ते ना२। त्यो नसभा सहा मयभीत 40ने क्षेत्रमाथी થવા વાળા મહા ગાઢ અંધકારને લેવાથી ચારે બાજુની શંકા યુકત યઈ ને तया 'णिच्चं तसिता' सहरी क्षेत्रवसायी थापाणामधाराने नवाथी समકરાયેલા થઈને અથવા પરમાધાર્મિક દેવે દ્વારા પરસ્પર એક બીજાના પૂર્વભવ ના વૈને પ્રગટ કરવાના કારણે બદલે લેવા રૂપ દુખ આવવાથી દુઃખિત ' तथा 'पिच्चं कहिया ईमेशा भूभथी पाउछन 'जिच्चं उव्विग्गा सहा ઉદ્વિગ્ન થઈને અર્થાતું ખેદ ખિન્ન થઈને પરમધાર્મિક દેવે દ્વારા પરસ્પર યાદ કરાવવામાં આવેલ પૂર્વભવના વેરના કારણે એકબીજાની રહેઠાણથી પરા सुभ चित्तपात याने नित्य 'उपप्पुना उपद्रवा! थने ते 'णिच्चं परमम.
Page #316
--------------------------------------------------------------------------
________________
- जीवामिगम ने तु ईपदपि मुखमासादयन्ति । तथा-'णिच्चं वहिया' नित्यं वधिकाः, तथा'णिच्वं परममसुभमउलमणुबद्धं नित्यं-सर्वकालम् परममशुभमतुलम्-अशुभस्पेन अनन्यसदृशमताधारणम् अनुबद्धम् अशुभत्वेन निरन्तरमुपचितम् एताया 'निरयमवं' नारकमवम् 'पच्चनुभवमाणा' प्रत्यनुमवन्त:-प्रत्येकं वेदयमाना। 'विहरंति' निहान्ति-निष्ठन्ति । एवं जाव' एवं यावत् यात्पदेन रापभाव आरभ्य सप्तम नरकपर्यन्तमेव दुःखं प्रत्यनुभवन्तो नारकास्तिष्ठन्ति अधासप्तम्या च क्ररकर्माणः पुरुषा उत्पधन्ते नान्ये उत्पधन्ते तदेव दर्शयति-'भो सत्तमाए णं पुढवीर' अधःसप्तम्यां पृथिव्याम् 'पंच अणुत्तरा' पश्चानुत्तरा अतीपदुःसानुभव उत्कृष्टाः 'महति महाळया महाणरगा पन्नत्ता' महन्महाळया महानरकाः प्राप्ताः परममसुभम उलमणुषद्धम्' हमेशा परम अशुभरूप एवं जिसकी तुलना नहीं हो सकती ऐसे अनुथद्ध-निरन्तर परम्परा से ही अशुभ रूप से चले आये हुए 'निरयमवं' नारक के भवको 'पच्चणुभव माणो विहरंति' भोगते हैं। 'एवं जाव अहे सत्समाए णं पुढवीए' इसी प्रकार से नारक जीव द्वितीय पृथिवी से लेकर सप्तम पृथिवी तक के नरकावासों में नारक के भक्ष को भोगते हैं। अधः सप्तमी पृथिवी में जो मनुष्य सर्वो. स्कृष्ट प्रकर्ष प्राप्त कर कर्म करते हैं वे ही उत्पन्न होते हैं अन्य जीव नहीं। यही बात सूत्रकार ने 'अहे सत्तमाए णं पुढवीए पंच अणुत्तरा महतिमहालया महाणरगो पन्नत्ता' इस सूत्रपाठ द्वारा स्पष्ट की है अधा सप्तमी पृथिवी में पांच ही अनुत्तर महानरक है ये बहुत ही विशाल हैं। यहां पर नारक जीव बहुत ही अधिक दुःखों का अनुभव करते हैं। सुभम उलमणुबद्धम्' मे ५२भ अशुभ ३५ मन रेनी तुलना - सती નથી એવા અનુબદ્ધ નિરંતર પરમ્પરાથી જ અશુભ પણાથી આવેલા "निरयभव' ना२६ सपने 'पच्वणुभवमाणा विहर'ति' सागवे छे, “एवं जाव 'अहे संचमाए ण पुन्वी' मा०४ प्रमाणे ना२४ । मी० पृथ्वीया धन સાતમી પૃથ્વી સુધીના નરકાવાસોમાં નારકના ભવને ભેગવે છે. - ' ' અધઃસપ્તમી પૃથ્વીમાં જે મનુષ્યો સત્કૃષ્ટ પ્રકર્ષ પ્રાણ ફૂર કર્મ કરે छ । पन्न थाय छे. मी त्या पन यता नथी. मे वात सूत्रधारे 'अहे सत्तमाए णं पुढवीए पंच अणुचरा महतिमहालया महाणरगा पन्नत्ता' આ સૂત્રપાઠ દ્વારા સ્પષ્ટ કરેલ છે. અધસપ્તમી પૃથ્વીમાં પાંચ જ અનુંત્તર મહાનરક છે, તે ઘણાજ વિશાળ છે. ત્યાં નારક જીવે ઘણા મોટા દુઃખને अनुमप ४२ छे, ते मनुत्तर महानना नामी मा प्रभार छे. 'काले' -१
Page #317
--------------------------------------------------------------------------
________________
%
D
प्रमेयधोतिका ठीका प्र.३ उ.२ २.२१ नारकागां नरकभवानुभवननिरूपणम् २९५ कथितार, 'तं जहाँ तद्यथा-'काले' काल:-कामनामको महानरकः, 'महाकाले महाकालनामको महानरका, 'रुरुए शैरवनामकः 'महारुए' महारौरवनामकर, इमे चत्वारो नरकाः समस्तमममायाः सप्तम्या दिक्षु वर्तन्ते, मध्येतु 'अप्पति. हाणे माविष्ठाननामको महानरको विद्यते । 'तस्थ' तत्र-अपतिष्ठाननामके महा. नरके 'इमे वक्ष्यमाणस्वरूपा वक्ष्यमाणनामधेयाश्च 'पंचमहापुरिसा' पञ्चमहापुरुषाः "मणुत्तरेहि अनुत्तरी सर्वोत्कृष्ट प्रकर्षमाप्तः 'दंडसमादाणेहि दण्डसमादान: समादीयते कर्म एभिरिति समादानि कर्मोपादानहेतवा दण्डाएव-मनोदण्डादयः । पाणव्यपरोपणाध्यवसायरूपाः समादानि इति दण्डसमादानि, तैर्दण्डसमादान: "काळमासे कालं किच्चा' कालमासे कालं कृत्वा 'सस्थ बरतिद्वाणे नरए अपति. ननामके नरके 'नेरइयत्ताए' नैरयिकतया उत्पन्नाः। के ते पश्चोत्पन्नास्तत्राहइनके नाम हैं 'काले १, काल २, 'मछाकाले' महाकाल 'रोरुए ३, रौरव 'महारोरुए' ४, महा रौरव और 'अप्पहटाणे' ५, अप्रतिष्ठान' इनमें यह अप्रतिष्ठान नरक सातवी पृथिवीं के मध्य में है और काल आदि चार महानरक उसकी चारों दिशाओं में हैं। सातवी में ये वक्ष्यमाण स्वरूप थाले 'पंचमहापुरिसा' पांच महा पुरुष 'अणुत्तरे' अनुत्तर-जिन से अधिक
और दण्ड समादान नहीं हो सकते हैं ऐसे 'दंडसमादाणेहि' 'दंडसमा • दानैः' इन दण्ड समादानों के प्रभाव से अर्थात् कर्मों की सर्वोत्कृष्ट स्थिति और सर्वोत्कृष्ट अनुभागबंध कराने वाले प्राणि हिंसा आदि के अध्यवसाय रूप कारणों के प्रभाव से 'कालमासे कालं किच्चा' मृत्यु के अवसर पर मरण करके 'तत्थ अप्पतिठाणे' उस अप्रतिष्ठान नामके निरकावास में उत्पन्न हुए हैं। तात्पर्य कहने का यही है कि सातवी पृधि
स, 'महाकाले' २. मह1810 'रोरुए' ३ शे२१ 'महारोरुए' ४ महारी२१ अपइदाणे"५ मप्रतिष्ठान मामा मामति न न२४ सातमी पृथ्वीना मध्यमा છે. અને કાર્લ વિગેરે ચાર મહા નરકે તેની ચારે દિશાઓમાં છે. સાતમી
घामामा वामां भावना२ २१३५ वा 'पंचमहा पुरिसा' पांच मही ..."३५ अर्णत्तरे। अनतर पट नाथा धारे भान न डाय
भपा 'द उपमादाणेहि' दडसमादानः' ते 3 समानाना प्रक्षाथी अर्थात् કોની સર્વોત્કૃષ્ટ સ્થિતિ અને સંસ્કૃષ્ટ અનુભાગબંધ કરાવવાવાળા પ્રાણિહિંસા ' (वारेना मध्यवसाय ३५ ४१२॥ना प्रभाया 'कालमासे काल किच्चा मित्र
नामसरे भरण पामीन 'तत्थ अप्पइटाणे' त मप्रतिष्ठान नभनी निवास - मां- उत्पन्न यया छ:- .. .
: આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે સાતમી પૃથ્વીનાં આ અપ્રતિષ્ઠાને નામ
Page #318
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५ ) . . . . . "
जीवामिगमसी जहाँ तद्यथा-'रामे जमदग्निपुत्ते' रामो जमदग्निपुत्र परशुराम स्यया वर्ग सच्छरपुत्ते ढायुः लच्छातिपुत्रः वाउचरिचरे :-मुराजा उपरिचरा बसु.
जाहिं देवताधिष्ठिताकाशस्फटिक सिंहासनोपविष्ट सन् भाकाशेप्फटिकमयावं सिंहासनस्यादर्शनती लोकेष्वेवं प्रसिद्धिर्मगमत्-सत्यवादी खरष सुराणा मामात्ययेऽपि बलीकं न भापते ततः सत्यापजितदेशात मातिहार्यः एबमपरिमोकाशे चरतीति सच कदाचित् कालान्तरे हिंसवेदार्थमरूपकस्य पर्वतस्य पधर्मघी के इस अप्रतिष्ठान नाम के नरकावास में ही मनुष्य जाते हैं कि जिनके मन पचन और काय की प्रवृत्ति रात दिन संलिष्ठ एनी रहती है प्राणियों के प्राण लेने आदि कुकृत्यों में जो रात दिन त्रियोग त्रिरण द्वारा निरत रहते हैं ऐसे मनुष्यों को ही उनके वे कर्तव्य कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति को और अनुभागधन्ध का बन्ध कराते हैं फिर वे मरण फर नारक रूप से उत्पन्न होते हैं। अप्रतिष्ठान महानरक में जो पांच 'महापुरुष उत्पन्न होते हैं उनके नाम इस प्रकार से है-'रामे जमदग्गियुत्ते जमदग्नि का पुत्र राम-परशुराम 'दढाऊ लच्छा पुत्ते लच्छाति पुत्र दृदायु 'वस्तु उपरिचरे' उपरिचर वसुराज 'सुभूमे कौरव्वे कौरव्य सुभूम और 'भदन्ते चुलणी सुते' चुलनी का पुत्र ब्रह्मदस वसुराजा के विषय में ऐसा कथानक है कि वसुराजा जिस स्फटिक के सिंहासन पर बैठता था वह आकाश के जप्सा बिलकुल शुभ्र था और देवताधिष्ठित था अता देखने वालों को ऐसा लगता था कि वह सुरोज सत्य के प्रभाव से ' ના નરકાવાસમાં એ જ મનુષ્ય જાય છે. કે જેના મન, વચન અને કાયાની -
પ્રવૃત્તિ રાતદિવસ સંકિલષ્ટ બની રહે છે. પ્રાણિના પ્રાણ લેવા વિગેરે કલ્યામાં જેઓ રાત દિવસ ત્રણ વેગ અને ત્રણ કર દ્વારા પ્રવૃત્ત રહે છે એવા મનુષ્યને જ તેઓને તે કર્તવ્ય કર્મોની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિને અને એનુભા
બંધને બંધ કરાવે છે તે પછી તેઓ મરીને નારકપાયી ઉત્પન્ન થાય છે, અપ્રતિષ્ઠાન નામના મહાનરકમાં જે પાંચ મહા પુરૂષે ઉત્પન્ન થાય છે. તેઓ ना नामी मा प्रभाए छ. . 'रामे जमदग्निपुत्ते', महनना- रामर शुराम 'दढाउ लच्छइमुत्ते' ६२छातिना पुत्र हटायु वसु उवरिपरे'- परियर बरा१ 'सुभूमे कौरव्वे' २०य सुभम भने बभदत्ते. चुलणी सुठे' युझनामा પુત્ર બ્રહ્મદત્ત. વસુરાજાના સંબંધમાં એવી કથા છે કે વસુરાજા જે સ્ફટિકમા સિંહાસન પર બેસતા હતા તે આકાશના જેવું એકદમ સફેદ હતું. અને વિતાએથી યુક્ત હતું જેથી જેવાવાળાઓને એવું લાગતું હતું કે વસુરાજા
Page #319
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ २.२१ नारकाणां नरकभवानुभयननिरूपणम् २९५ मिगृह्य . सम्यग्दृष्टेनारदस्य पक्षमनभिगृहणन्. अलीकवादित्वात् प्रकुपित देवताः जपेटाहता सिंहासनाद परिभ्रष्टो रौद्रध्यानमभिरूढः सप्तम पृथिव्यामप्रतिष्ठान नामकनरक माप्तवान् इति । 'लुथूमें कौरवे सुभूमः कौरव्यः 'वंमदत्ते चुलणी मुपू' अमदत्तश्चू कनीसुतः। 'तेणं तत्थ णेरइया जाया' ते खलु परशुरामादयः तत्राप्रतिः प्ठाननाम के नरके नैरयिका जाताा, 'काला कालोभासा जाव परमतिण्हा वण्णेणं - आकाश में अधर बैठा है क्योंकि यह जनता में सत्य वादीरूप से प्रसिद्ध
या जनता इसे ऐसा ही समझती थी कि यह प्राण भले ही चले जावें पर असत्य नहीं बोलता हैं इसने अपने सत्य के प्रभाव से देवताओं को भी जीत लिया है इसलिये इनके सिंहासन आकाश में अधर रहते थे। एक समय की बात है कि पर्वत और नारद में अज शब्द को लेकर विवाद छिड गया पर्वत अज शब्द का अर्थ बकरा करता था और नारद अज .. शब्द का अर्थ तीन वर्ष का पुराना धान्य करता था। जब उसके पास
अज शब्द के अर्थ का निर्णय कराने के लिये दोनों पहुंचे तब चलुने भी अज शब्द का अर्थ बकरा रूप पर्वत के पक्षका ही समर्थन किया एवं सम्यग्दृष्टि नारद के पक्षका तिरस्कार किया पर्वत का असस्पक्ष अहणा करने के कारणे देवता ने उसे असत्य वादी जानकर थप्पड़ों से पीटा और सिंहासन ले नीचे पटक दिया तो वह रौद्र ध्यान से सरकार सातवीं पृथिवी के अप्रतिष्ठान नाम के नरक में नारकी को पर्याय से उत्पन સત્યના પ્રભાવથી આકાશમાં અદ્ધર બેઠેલા છે. કેમકે તે વસુરાજા લોર્કમાં , સત્યવાદી તરીકે પ્રસિદ્ધ હતું. તેને એમજ સમજતા હતા કે પ્રાણ જવા છતાં પણ આ વસુરાજા જૂઠું બોલતા નથી. તેણે પોતાના સત્યના પ્રતાપથી દેવને પણ જીતી લીધા હતા. તેથી તેઓ આ વસુરાજાના સિંહાસન ને આકાશમાં અદ્ધરજ રાખતા હતા. એક વખતે પર્વત અને નારદ આ બંનેને અજ' શબ્દની બાબતમાં વિવાદ ઝઘડે ઉત્પન્ન થયે, પર્વત અજ શબ્દને અર્થે બકરો એ પ્રમાણે કરતો હતો, અને નારદ “અજ' શબ્દનો અર્થ ત્રણ વનું જુનું ધાન્ય નામ અનાજ એ પ્રમાણે કરતા હતા જ્યારે આ બને “અ” શબ્દના અર્થનો નિર્ણય કરાવવા માટે વસુરાજા પાસે આવ્યા ત્યારે વસુરાજાએ પણ “અજ' શબ્દનો અર્થ બકરા રૂપ પર્વતના પક્ષનું જ સમર્થન કર્યું. અને સમ્યગ્દષ્ટિ એવા નારદના કથનનો તિરસ્કાર કર્યો. પર્વતના અસત્પક્ષ ગ્રહણ કરવાના કારણે દેવોએ તેને અસત્યવાદી સમજીને થપ્પડ મારી અને સિંહાસનની નીચે ફેંકી દીધા તેથી તે રૌદ્રધ્યાનથી મરીને સાતમી પૃથ્વીના અપ્રતિષ્ઠાન નામના નરકમાં નારકીના પર્યાયથી ઉત્પન્ન થયે. આ બધા
जी० ३८
Page #320
--------------------------------------------------------------------------
________________
२९२
.
जीवामिगमस्र पन्नचा काळ कालावभासा यावत् परमकृष्णा वणेन प्राप्ता: कथिताः, अब पावत्पदेन 'गभीरलोमहरिसजणणा, भीमा, उत्तासणया' इत्येपी संग्रहः । गम्भीर लोमहर्षजनकाः, भीमाः, उत्नासनकाः इतिच्छाया। काला, कृष्णाः, काला अपि केचित् पूर्णतया काला न भवन्तीत्यत माट-कालावभासा:-कृष्णकान्ति फलिताः, गम्भीरकोमहर्षजना गम्भीराध ते भीषणस्वाद रोमहर्षजनना: रोमा. शोत्पादकाश्चेति लोमहर्पजननाः, तमं हेतुमाह-भीमाः भयङ्करा, अतएव उत्सासनकाः उत्नासजनका इति । 'तं जहा' तद्यथा-तन्नरकगत वेदनारदरूपं यथा-'ते तस्थ ते परशुरामादयः तमाप्रतिष्ठाननामके नरके 'वेयणं वेदेति' वेदना वेद. यन्ति, कीशी वेदना वेदयन्ति तपाह-'उज्जलं' इत्यादि, 'रज्जलं' उज्ज्वला दुःखरूपतया जाज्वल्यमानाम् 'विउलं' विपुलां मकलशरीरव्यापिता विस्तीर्णाम् हो गया ये सब नारक जीव वहां कृष्ण वर्ण पाले उत्पन्न हुए यहां 'काले कालोमाले जाव परमफिलहा चणेणं पण्गला' यां यावत्पद से 'गंभीरलोभरिमजणणा भीमा उत्तासणिया' इन पदो का ग्रहण होता है अर्थात् वे वर्ण से काले होते हैं वे मात्र पाले ही नहीं उनकी कांति भी काली होती है भीषण होने से उनको देखते ही शरीर में रोमाञ्च खडे होने लगते हैं क्यों कि वे रहे भीम भपजनक होते हैं इमी से वे देखने वालों को उत्त्रास उत्पन्न करने वाले होते हैं। वे वर्ण से: परम अन्य कृष्ण पणे वाले कहे गये हैं। तद्यथा' वहां की वेदना इस प्रकार की होती है-उन परशुराम आदिको ने उज्ज्वल आदि वक्ष्यमाण विशेषणों वाली वेदना का अनुभदन दारना होता । इस उज्ज्वल, विपुल, प्रगाढ आदि वेदना के विशेषणों का अर्थ पहिले इसी प्रकरण में स्पष्ट लिख दिया गया है-जैसे-उज्ज्वल-दुख रूपले जाज्वल्यमान, ना२४ छ। त्यो ४ प ा त्पन्न आया. 'काले कालोभासे परमकिण्हा वण्णेण पण्णत्ता' पहिया यावत्पथी 'गंभीरलोम हरिजणणा भीमा उत्तासणिया' मा पहोना संग्रह थये। छे. अर्थात् तसा पाथी होय छे. तेथे। ફક્ત કાળા જ હોય છે, તેમ નહીં પણ તેઓની કાંતી પણ કાળી જ હોય છે. તેઓ ભીષણ હોવાથી તેને જોતાંજ શરીરમાં રોમાંચ ઉભા થઈ જાય છે. કેમકે તેઓ એકદમ ભયંકર ભય ઉત્પન્ન થાય તેવા હોય છે. તેઓ વર્ણથી પરમ કહેતાં અત્યંત કાળ વર્ણવાળા હોવાનું કહ્યું છે. “તદ્યથા તે આ પ્રમાણે ત્યાંની વેદના આવા પ્રકારની હોય છે. તે પરશુરામ વિગેરે એ ઉજજવલ વિગેરે વયમાણ વિશેષાવાળી વેદનાને અનુભવ કરે છે. અર્થાત્ ભગવે છે. આ ઉજવલ, વિપુલ, પ્રગાઢ, વિગેર વેદનાના વિશેષ અર્થ પહેલા આજ પ્રકરણુમાં સ્પષ્ટ કરવામાં આવેલ છે. જેમકે ઉજજવલ દુઃખ રૂપે જાજવલ્યમાન
Page #321
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.२.२१ नारकाणां नरकभवानुभवननिदपणम् २९९ प्रगाढाम्-प्रकर्षण मार्गप्रदेश व्याक्तियाऽजीव समवगाहाम् कर्कशाभिव वर्कशाम् यथा-कर्कशः पाषाणसङ्घर्पः शरीरस्य खण्डानि नोटयति एबमात्मप्रदेशान् नोटयतीव या वेदया जाय सा कथा ताम्, कटुकामि। कटु काम्-पित्तप्रकोप - परिकलितशरीरस्य रोहिणी कटुव्यमिव उपशुज्यमानाम् अतिशयेनामीतिजनिकाम् परुषां मनसोऽजीव शैक्ष्य ननिकाम् निष्ठाम् अशक्यमतीकारता दुर्मेधा, चण्डां रुद्राध्यवसायज्ञारणत्वात् तीव्राम्-अतिशारिनीम् दुःखां दुःखरूपाम् दुर्गा दुर्लयाम् दुरधिसह्याताशी वेदनामपतिष्ठाननर के परशुरामादयो देदयन्तीति। - सम्प्रति-नरकेषु उष्ण वेदनायाः स्वरूपममिधातुमाह-'उसिणवेषणिज्जेस' इत्यादि, 'उसिण वेयणिज्जेस्नु णं मंते ! जिरएनु' उष्णदेवनीयेषु खल्ल भदन्त ! विपुल-सकल शरीर व्यापी होने से विस्तीर्ण, प्रगाढ वर्म देश व्यापी
होने से अत्यन्त प्रवाढ, कर्कश-जैले-कर्कश पाषाण के संघर्षण ' से शरीर के टुकडे हो जाते हैं उसी प्रकार आत्म प्रदेशों को तोडने जैसी ___ कटुक-पित्त प्रकोप वाले शरीर वाले को रोहिणी बलस्पति जो अत्यन्त ' कटु होती है उसी प्रकार अधीति जनक, पुरुष-मन में रूक्षता उत्पन्न
करने वाली निष्ठुर उल्लको प्रतीकार न होने से दुर्भच बण्ड रौ अध्यवसाय उत्पन्न करनेवाली नीत्र-अतिशय वाली दुःख दुःखरूप दुर्ग दुर्ल. वय, दुरधिसह्य-सहने में कठिन इस प्रकार की वेदना को अप्रति. ष्ठान नरक में परशुराम आदि अनुभव करते हैं।
सूत्रकार अब नरकों में उपनवेदना का स्वरूप प्रकट करने के लिये कहते हैं-इसमें गौतम ने प्रभु से ऐसा पूछा है-'उलिणवेणिज्जेसु વિપુલ, સકળ શરીરમાં વ્યાસ રહેવાવાળું, એટલે જ વિતરણું પ્રગાઢ, મર્મ દેશમાં વ્યાપ્ત થયેલ હોવાથી અત્યંત સમવગાઢ, કર્કશ જેમ કઈશ એવા પત્થરના સંઘર્ષણથી શરીરના ટુકડા થઈ જાય છે, એ જ પ્રમાણે આત્મપ્રદેશને તાડવા જેવી, કટુ, પિત્તના પ્રકોપ વાળાના શરીરને રોહિણી નામની વનસ્પતિ કે જે અત્યંત કડવી હોય છે. અને તેથી તે જેમ અપ્રિય લાગે છે, તેવી જ રીતે અપ્રીતિકારક અને પુરૂષના મનમાં રૂક્ષતા ઉત્પન્ન કરવાવાળી, નિષ્ફર તેને પ્રતીકાર સામને થાય તેવી ન હોવાથી દુર્ભેદ્ય, ચન્ડ રૌદ્ર અધ્યવસાય ઉત્પન્ન કરાવવાવાળી, તીવ અતિશય દુઃખ રૂપ, દુર્ગ દુર્લય, દુરધિસહય સહન કરવામાં અત્યંત કઠણ આવા પ્રકારની વેદનાને પરશુરામ વિગેરે અપ્રતિષ્ઠાન નામના નરકમાં અનુભવ કરે છે. '' इवे सूत्रधार नहीमा वहनानु २१३५ मता। माटे ४थन ४२ छे. । भामां गौतभस्वामी प्रभुन स च्यु छ'उसिणवेयणिज्जेसु णं भंते !
Page #322
--------------------------------------------------------------------------
________________
३००
जीवामिगममी निरयेषु 'नेरइया केरिसयं उसिणवेयणं' नैरयिकाः कोशी गणवेदनाम् परशु.
मवमाणा विहरति' प्रत्यनुभवन्तः प्रत्येक वेद पगानाः विहरन्ति-दिष्ठन्तीति प्रश्ना, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतन ! 'से नहा नामए' स यथानामक--अनिर्दिष्टनामशः कथित् 'कम्मारदारए मिया' कारदारकोछोहकारदारका-लोहयापुर: स्यात् कीदृशः मः ? निदार रम्य विशेषणान्यार 'तरुणे' तरुणः - मजदमानवयाः । बल बलान बलं शारीरिक सामथ्र्य नदम्या: स्तीति पकवान शारीरिक बलमिशिष्ट इत्यर्थः 'जुगव' युगवान युगं समदुःपमादिकालः स स्वेन रूपेण विद्यते यस्य न दोपदुष्टः स युगवान् अयं भावा-कालो. पद्रवोऽपि सामर्ष विघ्नहेतुर्मवति स चास्य नास्तीति महिपत्य युगवानिति विशेषणम् 'अप्पायंके' अल्पातयः अपातको वा अल्पमोऽत्रागाववाचकः ततण भंते ! णेरइएस्तु' हे भवन्त ! जिन नरकों से उण वेदना का अनुभ वन होता है उन लरकों में 'नेरक्ष्या के ग्लियं उजिणवेवणं पच्चणुमय माणा विहरंति' नैरविक जीव केसी उनवेदनाफा अनुभवन करते हैं ? इसके उत्तर में प्रलु काते हैं-'गोषमा! से जहाणामए फम्मारदारए सिया' हे धौलम ! जेल्ले कोई लहार का पुत्र हो और वह 'तमणे' जवान हो 'पलव' शारीरिक सामर्थ से शुक्रुझो 'जुग' लुपमाघम यादि काल में उत्पन्न हुआ हो 'युगवान्'ऐसा कहने का तात्पर्य यह फि इसकाल में कोई उपद्रव नहीं होता है अतः उपद्रयाभाव से शातीरिक सामथ्र्य का विकास ही होता है सोपद्रवकाल में शारीरिक सामर्थ्य हा विकास नहीं होता प्रत्युत वह सामय के विकास विन्न का हेतु ही होता हैं। 'अप्पायके' अल्प आतङ्क बालासो-अर्थात् स्वरादि रोग से मर्वधा णेरइएसु' हे भगवन् रे नीमा नानो भनुम धाय छ त नरीमा 'नेरईया केरिसय उसणवेयण पच्च गुभवमाणा विहरंति,
न
वी ઉધ વેદનાને અનુભવ કરે છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમસ્વામીને
छ, 'गोयमा 1 से जहा नामए कम्मारदारए सिया' गीतमा भई सवारने पुत्र डाय मने ते 'तरूणे' युवान डाय 'बलवं' शारीरि सामथ्य की युत लाय, 'जुगव, सुषम सुषम विगेरे Hi SNA ये डाय, 'युगवान्' એમ કહેવાનું કારણ એ છે કે તે કાળમાં કોઈ પણ ઉપદ્રવ થતો નથી. તેથી ઉપદ્રવના અભાવમાં શારીરિક સામર્થ્યને વિકાસજ થાય છે. ઉપદ્રવવાળી સમયમાં શારીરિક સામર્થ્યનો વિકાસ થતો નથી. પરંતુ તે સમર્થ્યના વિકાસમાં विन १२९१ ३५ ९.५ छ 'अपायके' ५६५ भात पाणी डाय अर्थात् ताव
Page #323
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.२ खु.२१ नारकाणां नरकभवानुभवननिरूपणम् ३०१ शाल्पः सर्वथा अविद्यमान आतङ्को ज्वरादिर्यस्य असो अल्पातङ्कः अथवा-अपअपगत आतङ्को रोगो यस्मात् सोऽपातङ्क: "विरग्महत्थे स्थिरी अग्रहस्तो यस्य स स्थिराग्रहस्तः 'दढपाणिपाय पास पिलुतरोरुपरिणर' दृढपाणिपादपार्श्व पृष्ठान्त. रोरुपरिणतः दृढानि अतिनिविडच्यापन्नानि पाणिपादपाश्च पृ ठान्तरोरूणि परिणतानि यस्य स दृढपाणिपाश्व पृष्ठान्तरोरुपरिणतः तथा-'लंघणपवणजवणंवर्गण पमहण समत्थे' लङ्घन प्लवनजवनममदनसमर्थः, तत्र लंघने- अतिक्रमणे
लंबने-मनाक् पृथुतर विक्रमगति ममने कूदने था, जवने-अतिशीघ्रगती प्रमदने-कठिनस्य वस्तुनश्चूर्णीकरणे समर्थः इति लंघनप्लवनजवनमार्दनसमर्थः। तलूजमळ जुगल बहुफलिहणिभवाहू' तलयमलयुगलपरिघनिमबाहुः तलेतितलौ-तालवृक्षौ, त्योधमलयोः समकक्षोः युगलं- युगसम् तथा परिधः-अर्गला. लोहसंबद्धहस्तमगाणो विशालाकारो लगुडविशेपो वा, तिन्निभौ तत्तुल्यौ कठिनी पाहू-भुजी यस्य स तथा आयत विशाल बलिष्ठ बाहुरित्यर्थः 'घणणिचिय बलियवदृखंधे' धननिचित बलितहत्तस्कन्धः धनमति येन निचितौ-निविडतरचयमापनौ दलिताविक वलितों वृत्तौ गोलाकारों स्कन्धौ यस्य स धननिचितवलित रहित हो, यहां अल्प शब्द अभावका वाचक है "शिरग्महत्थे' जिसके दोनों हाथ दृढयाने स्थिर हो कंपते न हों 'दढपाणिपादपासपिनोपरिणए' जिसके पाणिपाद दोनों पार्श्वभाग और पृष्ठान्नर एवं दोनों जांचे खूचर मजबूत हो, 'लघणपवणजव गवग्गण पमण लमत्थे बोलांघने में चतुर हों कूदने में होशियार हों, जल्दी २, चलने में मजबूत हों, कठिन से कठिन वस्तु को भी जो चूर्ण २, कर देता हो 'तलजमलजुगल पह 'फलिहणिभवाह' दो ताल वृक्ष के जैसे सरल लम्चे पुष्ट हाथों वाला ही 'घणचियवलियवदृखंघे' दोनों कंधे जिसके पुष्ट और गोल हो વિગેરે રોગથી સર્વથા રહિત હોય એટલે કે હમેશાં નિરોગી રહ્યો હોય અહિયાં भ०५ श६ अमापन पाय छे. 'थिरगाहत्थे' रेना मन्ने साथी स्थिर हाय अर्थात् पायभान यता न जाय, '६ढपाणिपादपासपिटुतरोमपरिणए' रेना याel કહેતાં હાથ પાદ નામ ૫ગ બને પડખાં અને પૃષ્ઠ ભાગ તથા બને જા भूम भभूत हैय, 'घण रवणजवणवग्गणपमद्दण समत्थे' २ धन हता કૂદવામાં સમર્થ હોય, ઉતાવળથી ચાલવામાં મજબૂત હે ય કઠણ વસ્તુને પણ જે यूरेथू२॥ ४नाम हाय, 'तलजमलजुगलबहुफलिहणिभवाह' मेताना आ3 पा स२१ अन तथा सुट खायावा हाय 'घणणिचियवलियवद्रखंधे ना बन्ने भयो पुष्ट भने डाय 'चम्भेट्टगदुहणमुट्ठिय समाय
Page #324
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमसूत्रे
૩૦૨
वृत्तस्कन्धः तथा—'चम्मेदृगदुहणमुट्ठिय समाइयणिचियगगते' चर्मेटक दुघणमौष्टिक समाहतनिचितगात्र गात्रः, तत्र चर्मेष्टकम् - इष्टकाखण्डादि पूर्णचर्म कुतुपः दुघण: - मुद्गरः, गोष्टिकं =मुष्टपरिमितं चर्मरज्जुपोतं पापा गोल्कादि, तैः चर्मेष्ट कघणौष्टिकैः समाहतानि सम्यगाहतानि व्यायामसमये ताडितानि अतएव निचितानि निविडानि दृढाणि गत्राणि - अङ्गानि यत्र तादृशं गात्रं शरीरं यस्य स स चर्मेष्टकरण मौष्टिकसमादवनिचितमात्रगात्रः । तथा - 'उरस्सवळसमण्णागए' औरसवलसमन्दागतः - उरसि भवमौरसम् आन्तरं यदूवलं- सामर्थ्यातिशय:, तेन समन्वागतः - समनुप्राप्त इति आन्तर सामर्थ्ययुक्त इत्यर्थः । 'छेप' छेको द्वासप्तति कलासु पण्डितः 'दक्खे' दक्षः - कार्याणामविलम्बितकारी । 'डे' प्रष्टः- वाग्मी हितमितभाषीत्यर्थः । 'कुसले' कुशलः - सम्यक् क्रियापरिज्ञानवान् । 'णिउणे' निपुणः - चतुरः । 'मेधावी' येधावी - परस्पराव्याहत पूर्वापरानुसन्धान दक्षः, अतएव 'निउणसिप्पोवगए' निपुणशिल्योपगतः निपुणं यथा भवति एवं शिल्पं क्रियासु कौशलमुपगतः प्राप्तो निपुणशिल्पोपगतः । एतादृशविशिष्टः यदि 'म्मेग दुरणमुहिय समारयणिचियगत्त गत्ते 'जिसका शरीर चमडे की बर्त के प्रहारों से मुहरों के प्रहारों से एवं मुष्टि के प्रहारों से खूब परिपुष्ट हो गया हो ऐसे पहलवान मनुष्य की तरह जिसका शरीर पुष्ट हों 'उरस्सपलसमण्णागए' जो आन्तरिक उत्पाद और वय से युक्त हो 'छेए' ७२ कलाओं में निपुण हों, ' दक्खे' कार्यों का अविलम्पकारी हो 'पडे' पृष्ठ - वाग्मी - हितमित भाषी हो 'कुसले ' कर्त्तव्य कार्यों का जिसे समीचीन रूप से ज्ञान हो 'णिउणे' निपुण हो 'मेहावी' परस्पर में अव्याहत ऐसे पूर्वापर के अनुसन्धान करने में दक्ष हो 'णिउणसिप्पोचगए' अच्छी तरह से जिसे हर एक क्रियाओं में -- पूर्ण रूप से कुशलता प्राप्त हो चुकी हो - ऐसा वह लुहार का दारक
णिचियगत्तगत्त' नेतुं शरीर ચામડીના ચામુકના પ્રહારથી, મુદ્રાના પ્રહારાથી અને મુષ્ટિકાઓના પ્રહારથી ખૂમજ પરિપુષ્ટ થયેલ હોય એવા पहेलवान मनुष्यनी नेम नेनुं शरीर पुष्ट होय, 'उरस्सवलसमण्ण, गए' २ આન્તરિક ઉત્સાહ અને વીર્ય થી યુકત હાય, છે' ખેતેર છર કળાઓમાં નિપુણુ हाय ‘दक्खे' 'अर्थ' '१२वामां दक्ष थतुर होय, 'पट्टे' वारंभी हित भने मित भाषी होय, 'कुमले' व्यय ने सारीरीते ज्ञान होय, 'जिंउणे' निपु होय, 'मेहावी' परस्परंभां संभाष सेवा पूर्वोपरनुं अनुसंधान ४२वाभां दक्ष होय, 'णि सिंप्पोवगए' ने हरे प्रभां पद्याथी दुशणता प्राप्त ' एवं मह अयपिंड' से४- धान
यूडी होय, मेवा से सारने पुत्र
Page #325
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ २.२ खू.२१ नारकाणां नरकभवानुभवननिरूपणम् ३०३ 'एग-महं अयपिंड' एक म्हान्तमयः पिण्डम् - कियत्परिमितमित्याह-'उदगवार, समाण गहाय' उदकवारफसमानं मलपूर्ण लघुघटपरिमितं गृहीत्वा-समादाय 'त' तम् अयः पिण्डम् 'ताविय ताविय' तापयित्वा तापयित्वा 'कोट्टिय कोहिय' ।
तो घनेन कुदृयित्वा कुट्टयित्वा 'उभिदिय-उभिदिय' उद्धिध उद्भिद्य-द्विधा द्विधा कृत्वा 'चुणिय चुण्णिय चूर्णयित्वा चूर्णयित्वा-तस्य 'सक्षम सूक्ष्मतरपूर्ण हत्या 'जहन्ने] एगाहं वा, दुयाहं वा; तियाई वा जघन्येन एकाई वा, यह.बी, ज्यहं वा, 'उकोसेणं अद्धमास' उत्कर्षणाद्धमासं-पञ्चदशदिनानि यावत् 'संहणेज्जा' 'एगं महं अयपिड' एक बडे भारी लोहे के गोले को 'उदगवार समाण गहाय' जल से भरे हुए छोटे से घोडे के समान लेकर 'तं ताविय २' उसे पार २, अग्नि में तपावे तपाकर फिर वह उसे कोट्टिय.कोट्टिय' बार २, हथोडे से कूटे-कूटकूटकर 'उभिदिय २' जब यह चौड़ा हो जाये तब उसे काटे-काटकर 'चुणिय' २, उसका चूर्ण करें-चूर्णकर 'जन्नेणं एगाहंवा दुयाहंया तियावा' कम से कम एक दिन दो दिन
और तीन दिन 'उकोसेणं' और अधिक से अधिक अद्धमासं'. पन्द्रह दिन तक 'संहणेज्जा' इसी तरह से वह करता रहे-अर्थात् उस गोले को वह अग्नि में तपावे कूटे, चौड़ा करे, चूर्ण करे और फिर उसका गोला धनावे-इस तरह करने से वह एक बहुत ही अधिक मजबूत लोहे का गोला बन जावेगा बाद में उसे कम से कम तीन दिन तक और अधिक से अधिक पन्द्रह दिन तक ठण्डा होने के लिये रखा सारे मे मना गणाने 'उद्गवारसमाणं गहाय' पाणथा सामे नाना पानी भा३४ ने 'तं ताविय २' तेन वारवार निमा ता तपापीन पछी त तर 'कोट्टिय कोट्टिय' पार पा२ थीथी ट गने तेवी शत टीन 'उभिदियर' ल्यारे पाणु थ य त्यारे तेन ॥ मने अचान 'चुणियर' तेनुं यू मनाव यु मनावीन. 'जहणेण एगाहवा दुयाहवा तिया. हवा' माछामा माछा मे हिपस में हिस, मने रहिस सुधा उक्कोसेणं' भ veथी थेटले पधारेभा पधारे 'अद्धमास' ५१२ हिस सधा 'संहणेज्जा' मा प्रभार ४२ते। २९ अर्थात् ॥ गणाने ते दुपारना छ। અગ્નિમાં તપાવે, કૃટે, તેને પહેલું બનાવે ચૂરો કરે અને તે પછી પાછે તેનો ગળો બનાવે આ પ્રમાણે કરવાથી તે એક ઘણે માટે અને મજબૂત લોખંડનો ગોળ બની જશે. તે પછી ઓછામાં ઓછા ત્રણ દિવસ સુધી અને વધારેમાં વધારે ૧૫ પંદર દિવસ સુધી તેને ઠંડું પાડવા રાખી મૂકવામાં આવે. આ
Page #326
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवाभिगमशे सहन्यान-संहतं कुर्यात् पुनः पिण्डितं कुर्यात् 'से गं ते स खल तम् अयः पिण्डम् सीत' शीतम् स च पिण्डो वहिनिष्कासनमात्रेणापि संभवेदत आह-सोतीपूत! शीतिभूतं सर्वात्मना शीतत्वेन परिणतम् 'अयोमरणं संबंसपणं गहाय' अयोमयेन मोहनिर्मितेन संदंशकेन तमयः पिण्डं गृहीत्वा 'असन्मावपटवणार' असद्भाव मस्थापनया असद्भावकल्पनया नैतदभूत् न भवति न भविष्यति वा केवल मस.
भूतमेव कल्प्यते इति 'उसिणं वेयणिज्जेसु नरपस पक्खिवेज्जा' उष्ण वेदनीयेषु मरकेतु तमयःपिण्डं प्रक्षिपेत् । ‘से ण त स खलु तमयापिण्डम् 'उम्मिसियः णिमिसियंतरेण उन्मिपित निमिपितान्तरेण 'पुणरवि पच्चुरिस्सामीति कटु' पुनरपि प्रत्युद्धरिष्यामि पतितं नरके अयःपिण्डं पुनरपि निःसारयिष्यामीति कृत्वा यावता अन्तरेण यारता व्यवधानेन निमेपोन्मेपो नियेते तावदन्तरममाग्रहने देवे-इस तरह वह चिलकुल ठण्डा हो जायेगा-ठंडा हो जाने पर फिर वह उस गोले को 'अयोमपण संदंसरण गहाय लोहे की साडसी से पकडकर 'असम्भावपक्षणाए' असर कल्पना से-यदि ऐसा कभी नहीं हुआ है न होगा न होता है-परन्तु अपने मन की कल्पना से ऐसी कल्पना कर लेना चाहिये-और उस कल्पना के अनुसार संडासी द्वारा पकडे हुए, उस लोहे के गोले को वह 'उसिणवेदणिज्जेतु नरएसु पविखवेज्जा' उष्ण वेदना थाले नरकों में रख देवे 'से ण त मिसिय णिमिसियतरेण' रखते समय वह ऐसा विचार कर लेवे कि मैं इसे अभी २, पलक मारकर 'उघाडते ही 'पुणरवि पच्चुद्धरिस्सामीतिः कट्टु' उठा लउंगा-इस विचार से वह उसे वहाँ रख देता है परन्तु निमिषोन्मेप करने के बाद ही ज्यों ही वह उसे निकालने के लिये प्रमाणे ते मिEge 831 ५ही नय त्या२ ५छी-३ ते णाने 'अयोमए ण संसाणं गहाय' सामनी सांउसीथी पीने 'असम्भावपट्टवणाए' मस४६५नाथी જો કે આ પ્રમાણે કઈ વખત થયું નથી. અને થશે નહીં તેમજ થતું પણ નથી પરંતુ પોતાના મનની કલ્પનાથી એવી કલ્પના કરી લેવી જોઈએ અને तेना प्रमाणे सांसीथी ५: सोमनी गणेत 'उसिण वेदणि
जेसु नरएसु पक्खिवेज्जा' BY नाव नाभा राभवामी आव 'से. णं त उम्मिसिय णिमिसियतरेण' मन तवी शते रामती मते ते । वियार ४३६ हु माने. हम भ भारे तेस्वामi or 'पुणरवि पाचु दुघरिस्सामीतिकटु' sidhava से विद्यारथी ते ते गणाने त्यां भूटी। છે, પરંતુ નિમેષ કર્યા પછી જ જ્યારે તે એ ગોળાને બહાર કહુડવા
Page #327
--------------------------------------------------------------------------
________________
दारक
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.उ.२ ५.२१ नारकाणां नरक श्वानुभवननिरूपणम् ३०५ णेन कालेनातिक्रान्तेन पुनरपि नरकादयःपिण्डं निःसारयिष्यामीति कृत्वा यावदृष्टुं प्रवर्तते तावत् 'पविरायमेव पासेज्जा' मचितरं प्रस्फुटितमेवायापिण्ड पश्येत् । यदि वा 'पश्लिीणमेव पासेज्जा' पविलीनमेव नवनीवादिवत् सर्वथा गमि. तमेव पश्येत् यदि वा 'पविद्धत्यमेव पासेज्जा' विध्वस्तमेव सर्वथा भस्मसाभूत. मेन पश्येत् 'णो चेवणं संचाएंति' नैव खलु शक्नुयात्-समर्थों भवेत् तमयापिण्ड नरकासमुद्धर्तुम् अचिरात्तम् 'अविरायं वा अवितरम्, अमस्फुटितं वा, 'अदिलीण का अवलीनं वा 'अविद्धत्थं वा' अविश्वस्तं वा 'पुणरवि पच्चुद्धरितए' पुनरपि मायुद्धतम्, तत्र सोऽयःपिण्ड उन्मेषनिमेष मात्रकालेनैव तद्गतोष्णप्रभावान्नवनीतमिव विलीनं भवति, एतादृशी खल्लु उष्ण वेदनीयेषु नरकेषु उष्णवेदना भवतीति । देखता है कि इतने ही में वह गोला वहां 'पदिरायमेव पासेज्जा' यहाँ टुकडे २, रूप में होता हुभा उसे दिखाई पड़ता है अथवा-वह नवनीत मक्खन आदि की तरह सर्वथा गलता पिघलता हुआ प्रतीत होता है 'पविद्धमेष पालेका अधका-भस्मरूप अवस्था को प्राप्त हुआ वह उसे दिखाई देता है अतः वह लुहार दारक 'जो चेक्षण संचाएंति' उस अयापिण्ड लोहपिण्ड को वहां से निकालने में असमर्थ हो जाता है'अविरायषा' जल्दी से अथवा अप्रस्फुटितरूप से 'अविलीणंवा' अविलीन रूप से अखंड रूप से-जैसा वह गोला था उस रूप से-'अविद्धत्थंवा एवं साषितरूप से 'पन्चुरित्तए' पुनःनिकालने के लिये उस गोले को। ऐसी उष्णवेदना उष्णता वाले नारकों में हैं। तात्पर्य यह है कि वह लुहार दारक जब उस लोहे के गोले को उष्ण वेदना वाळे नरकों में निमेषो. भाट पियारे छ, aanwir तो त्या 'पविरायमेव पासेज्जा' त्या ४४॥ કડાના રૂપમાં થયેલે તેને નજરમાં આવે છે. અથવા તે નવનીત કહેતાં माम विरेनी रेभ. सर्वथा तो पानी माय छे. 'पविद्ध मेव पासेज्जा અથવા તે ભરમ રૂપ અવસ્થાને પ્રાપ્ત થયેલ છે તેની નજરમાં આવે છે. તેથી ते दुखरनी पुत्र ‘णो चेव णं स'चाएंति' ते मना पिउने त्यांचा ४ापामा भसमय थ नय छे. 'अविराय वा' हीथा मा मप्रस्फुटित ३५था 'अविलीण वा' भनिदान पाथी अर्थात् मम ३५थी २३ त गाना हा ते ५४२थी 'अविद्वत्थंवा' भने स२॥ पाथी 'पच्चुद्धरित्तए' ફરીથી તે ગોળને કહાડવામાં અસમર્થ થાય છે. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે તે લુવારને છોકરે જ્યારે તે લેખંડના ગેળાને ઉષ્ણવેદનાવાળા નારકોમાં નિમેષેમેષ માત્ર કાળ સુધીના ફાળ માટે પણ મૂકે છે, અને તેટલો કાળ
जी० ३१
असमनवा अवत
Page #328
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
-
जीवामिगमस !!' अस्यैवार्थस्य स्पष्टतरभावनार्थ दृष्टान्तान्तरमार-'से जहावा' इत्यादि से बहा या मत्तमातंगे' स यथा वा मचमाताः , अन्न 'से' शब्दः सफलजनमसिद्धा पथेति दृष्टान्तत्वोपदर्शने, वा शब्दो विफलते अयं-बाधान्तो विवक्षितार्यप्रति पाये ज्ञातव्य इति विकल्पभावना मतमातम इत्यन्न मत प्रति महफब्ति इत्यर्थः मानगो हस्ती । अत्र मातङ्गोऽन्स्य जोऽपि संमपति ततस्तदा शंकाब्युदासार्थ नाना. देशजविनेयजनानुग्रहाय वाऽऽ-'दिए' द्विपक:-ठाभ्यां मुखेन करेण च पि. बीवि द्विपकः 'मूलविभुजादयः' इतिक परययः । एतादृशः 'कुंजरे' कुराको पृथिव्यां जीर्यतीति कुञ्जर:-अथवा-कुम्च-बने रमते इति कुचरः 'सहिहायणे' पष्टिहायनः पष्टिः-पष्टिसंख्यका हायना वर्षाणि विषन्ते यस्य स पष्टिहायनः षष्टि वर्षायुष्कः 'पढम सरयकालसमयसि वा प्रथमशरकालमये वा शरत्काळस्य
मेषमान काल त के लिये भी रख देता है और यह उस काल के निर्गत हो जाने पर जब उसे उसी रूप में पुनः निकालने को तैयार होता है तो वह उल गोले को उसी रूप में करा से नहीं निकाल सकता है क्यों कि वह वहां रखते ही मक्खन के जला गल जाता है और पिघल जाता है इतनी अधिक उष्णता उन उण वेदना पाले नरकों में है इली दृष्टान्त को समर्थ करने के लिये यह दुमरा दृष्टान्त-ऐसा है-'से जहा जाए वा मत्तमातंगे' जैसे कोई मदोन्मत्त हस्ती होमातग ले यहाँ चाण्डाल नहीं लेना चाहिये किन्तु-'कुंजरे' कुंजर-गजहाथी ही लेना चाहिये-इसी बात को प्रतट करने के लिये 'कुंजर' शब्द का प्रयोग किया गया है क्योंकि माता नाम चाण्डाल का भी है और वह मत्त मातङ्ग सहिछायणे' ६० साठ वर्ष का हो और जब वाह ‘पढमसरयकाल समयंसिषा' प्रथम शरत्काल के समय में अर्थात् પૂરો થતાં જ્યારે તે તેને એ રૂપે જ બહાર કહાડવા તૈયાર થાય છે, તે તે એ ગેળાને એ રૂપે ત્યાંથી કહાડી શક્તો નથી. કેમકે તે ત્યાં મૂકતાં જ માખણની જેમ ગળી જાય છે, અને પીગળી જાય છે. એવી અધિક ઉષ્ણતા તે ઉણુવેદનાવાળા નારકમાં છે. આ દૃષ્ટાંતને પુષ્ટ કરવા માટે બીજું દૃષ્ટાન્ત
आयता सूत्रा२ ४९ छ है 'से जहा नामए वा मत्तमात गे' म ई મદોન્મત્ત હાથી હોય, માતંગ શબ્દથી અહિંયા ચંડાલ ગ્રહણ કરવાનું નથી, परतु 'कुंजरे' ४२ ४di थी। यहय ४२॥य छे. से बात मता માટે જ કુંજર શબ્દનો પ્રચોગ કરવામાં આવેલ છે. કેમકે માતંગ ચડાળને ५५ ४उवामां आवे छे. मन त भत्त भात 'संहिहायणे' १० साल का हाय भने न्यारे त 'पढम सरय कालसमय सि वा' पडता २२ । समयमा
Page #329
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रद्योतिका टीका प्र. ३ उं. २ ३.२१ नारकाणां नरकभवानुभवननिरूपणम् ३०७ प्रथमे समये आश्विनमासे इत्यर्थः इह ऋतवः सूर्यऋच गृह्यन्ते ते च द्विद्विमासममाणा भवन्ति, यत उक्तम् -' एगंतरिया मासा' एकान्तरितौ मासौ एक मासमन्वरे मुक्ता द्वितीये मासे ऋतुः समाप्तिमुपैति । तथाहि प्रथमः मावृट् ऋतुर्भवति, स च एक ज्येष्ठमासमन्दरे मुक्त्वा द्वितीये आषाढमासे प्रावृड् ऋतु समाप्तिमुपैति । तथाहि - प्रथमः मावृद, ज्येष्ठाषाहरूपः द्वितीयो वर्षारात्रः श्रावणभाद्रपदरूपः तृतीयः शरत्, आश्विन कार्त्तिकरूपः चर्थी हेमन्तः मार्गशीर्षपौषरूपः पञ्चमो वसन्तः - माघ फाल्गुनरूपः षष्ठो ग्रीष्मः - चैत्र वैशाखरूपः । तदुक्तम् - "पाउस वासारतो सरओ हेमंतदसंवनिम्हो य । एए खलु छप्पिरिक जिणवर दिट्ठामए सिद्धा' 'पाडू वर्षारात्रः शरद् हेमन्तो वसन्तो ग्रीष्मश्च । एते खलु पत्र ऋतवो जिनवर दिष्टा मया शिष्टाः' इतिच्छाया' 'चरम निदाघकालसमयंसि वा' चरमनिदाघकालसमये वा, चरम निदाघकाळसमयो ग्रीष्म ऋतोरन्तिममासः - आषाढमासस्तस्मिन् चरमनिदाघकालसमये आश्विन मास में यहां ऋतु शब्द से सूर्य ऋतु का ग्रहण होता है । वे दो दो मासो की होती है-जैसे कहा है- 'एतरिया मासा' एक मास के अन्तर से दूसरे मास में ऋतु समाप्त होती है । यहां पहली ऋतु प्रावृट् माना गया है, वह एक ज्येष्ठ मास को छोडकर दूसरे आषाढ मास में समाप्त होता है अर्थात् पहला ज्येष्ठ आषाढ का प्रावृट् ऋतु दूसरा श्रावण भोद्रवद वर्षा ऋतु, तीसरा आश्विन कार्तिक शरत् ऋतु चौथा मार्गशीर्ष पौष हेमन्त, पांचवां माघ फाल्गुन वसन्त और छठा चैत्र वैशाख ग्रीष्म ऋतु होता है। कहा भी है- 'पाउसवासारतो' अथवा 'चरम निदाघकालसमसि वा' निदाघ- ग्रीष्म ऋतु के चरम अन्तिम
અર્થાત્ આસે। મહિનામાં અહિયાં ઋતુ શબ્દથી સૂર્ય ઋતુ ગ્રહણ થાય છે. रमने ते सूर्य ऋतु मम्मे सासनी होय छे, म 'एग तरिया माखा' मे માસના અંતરથી બીજા મહીનમાં એક ઋતુ પૂરી થાય છે. અહિંયા પ્રવૃર્દૂ ઋતુને પહેલી માનવામાં આવેલ છે. તે પ્રાવૃત્ ઋતુ એક જેઠ માસને છેડીને ખીજા અષાઢ માસમાં પૂરી થાય છે. અર્થાત્ જેઠ અને અષાઢ એ માંસની પ્રાÇ ઋતુ, ખીજી શ્રાવણુ અને ભાદરવામાં વર્ષાઋતુ, ત્રીજી આસે અને ક્રાતિક એ બે માસમાં શરતૢ ઋતુ, ચેાથી માગશર અને પેાષ માસમાં હેમન્ત જંતુ, પાંચમી મહા અને ફાગણુ માસમાં વન્ત ઋતુ, અને છઠ્ઠી ચૈત્ર વૈશાખ भासभां ग्रीष्म ऋतु होय छे, छे ! 'पाउसवांसारतो' अथवा 'चरम निदाघकालत्रमयंसिवा' निदाघ ग्रीष्म ऋतुना यरभ हेत अन्तिम समये
Page #330
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०८
जीवामिगमा 'उपहामिहए' उष्णाभिहता- सूर्यखरकिरणप्रतापपरिभूतः, अतएकोणः सूर्यकिरणैः प्रतसागतया शोषणभावतः 'तहासिहर' कृपाभिहतः तत्रापि पानीयगवेषणार्थमिस्ततः स्वेच्छया परिभ्रमतः कश्चिद्दावाग्निमत्यासत्तं गमनतः 'दशग्निष्यालाभिहतः अतएव 'आउरे' आतुर! क्वचिदपि स्वास्थ्यमलममानः सन् थाकुळः 'मुसिर' शुपितः सर्वाङ्गपरितापसंमवेन गलतालुशोपणभावात् शुपितः। 'पिवासिए' पिपासिता-असाधारणपावेदना समुन्छळनार पिपासितः, अत एव 'दुबले' दुर्वल: शारीरमानसावष्टम्मरहितत्वाद् बलहीनः, अतएव 'किलंते' क्लान्ता-ग्लानिमुपगतः एतादृशः कुञ्जर: 'एगं म्हं पुक्खरणि' एकां महती पुष्करणीम् पुनरपि किं विशिष्टा तबाह-'चाउकोणं' चतुकोणाम् चरवार समय में अर्थात् ज्येष्ठ मास में 'उहाभिहए' धूपसे तप्त होकर-सूर्य की तीक्षा प्रताप से परिभूत होकर 'तहाभिहए' 'प्यास से आकुल व्याकुल हो जाता है-तब वह अपनी इच्छाले पानी की गवेषण करता हुआ इधर से उधर फिरने लगता है इधर-उधर फिरता हुआ वह हाथी जो जंगल में लगी हुई अग्नि से परितप्त हो चुका है,-पीडित-हो-चुको है-किसी भी तरह से जिले चैन नहीं पड रही है जिसके 'सुसिए' कण्ठ
और ताल दोनों सूख गये हैं 'पिवासिए' असाधारण तृषा वेदना से जो बार बार तडफडा रहा है 'दुव्वले शारीरिक स्थिरता और मानसिक स्थिरता से जो एक तरह से रहित सा हो चुका है और इसी से जिसका
शरीर किलते' अपने शरीर के भार को वहन करने में ग्लानिका अनु 'भव करने लगा है जय 'एगं महं पुक्खरणि' एक विशाल पुष्करिणी को 'पासई' देखता है कि जिसके 'चाउकोणं' चार कोण है 'समती' जिसका अर्थात् २४ महिनामा 'उण्डाभिहए' ताथी तपान सूर्य ना तय तथी ५२स पाभा 'तण्डाभिहए' तरशथी व्या छ तय छे. त्यात तानी ઈચ્છાથી પાણીની શોધ કરતાં કરતાં આમ તેમ ફરવા મંડે છે. આમ તેમ ફરતાં ફરતાં, તે હાથી કે જે જંગલમાં લાગેલ આગને લીધે ખૂબજ તપાય માન થયેલ છે, પીડા ૫ પે છે, જેને કોઈ પણ પ્રકારે ચેન પડતું નથી અને २ना 'सुमिए' गणु भने ताण अन्न गया साय, भने 'पिवासिए' असाधारण तरसनी वहनाथी २ वारवार ततो २ छे, 'दुव्बले' शारी२३ સ્થિરતા અને માનસિક રિથરતા વિનાને બની ગયો હોય, અને તેથીજ જેનું शरी२ 'किल ते' याताना मारने पहनपुरवामां मानीना भनुम ४२वा सास्युडाय, त अवस्थामा न्यारे 'एग महं पुक्खरणि, भे मोटी रयीन मथात् सशवरने 'पास' मे छ, न 'च उक्कोणं' या२ भूधामो छे. 'समतीर'
क
Page #331
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ रु.२१ नारकाणां नरकभवानुभवननिरूपणम् ३०९ कोणाः यस्या स्ताम् चतुष्कोणाम् 'समतीरं' समतीरम् सम-विषमोन्नतिवर्जित सु वावतारं तीरं-टं विद्यते यस्यां पुष्करिण्यां तो समनीराम्-'आणुपुव्व 'मुजायगंभीरसीतलजलं' आनुपूय॑ सुजातवमगम्भीरशीतलजलाम्-आनुपूयेण नीच नीचै स्तरभावरूपेण न तु एकहेलयैव कचिद्गतरूपा करिदुन्नतिरूपा इत्यर्थः, मुष्ठु अतिशयेन यो जातो वमः-केदारो जलस्थानं तत्र गम्भीरम् अतएव शीतलं जलं यस्यां सा आनुपूयमुनातकप्रगम्मोरशीतलजला ताम् । 'संछण्ण पत्तमिसमुणालं' संछनपत्रबिसमृणालाम् तत्र-संछन्नानि-जलोपरि आस्वतानि पत्र विस्मृणालानि यत्र सा नाम्, इह विप्समृणाळसाहचर्यात् पत्राणि-पशिनी पाणि ज्ञातव्यानि, तत्र'बिसानि-कन्दाः मृणालानि-पद्मनालाः । तथा-'बहु उप्पलकुमुदलिण मुमगसोगंधियपुंडरीयमहापुंडरीयसयपत्तसहस्स पत्तोसर फुल्लोवचियं' बहूत्पलकुमुदन. लिनसुभगसौगन्धिकपुण्डरीकमहापुण्डरीकशतपत्रसहस्रपत्रैः केसर:-केशरपधानः फुल्ल विकशित रुपचिता इति बहूत्पलकुमुदनलिनसुभगसौगन्धिकपुण्डरीक महा. पुण्डरीकशतपत्रप्तहस्रपत्र केशरफुल्लोपचिता तां पुष्करिणी तथा-'छप्पयपरिभुः जमाणकमलं' षट् पदपरिभुज्यमान कमलाम् षटू एभ्रमरैः परिभुज्यमानानि तीर विषम उन्नत प्रदेशों से विहीन है सुख पूर्वक जिससे-होकर उस पुष्करणी (बावडी) में प्रवेश किया जासकता है 'आणुपुतुजायवप्प. गंभीरशीतलजलं' क्रमशः जो गहरी होती गई है जलस्थान जिसका बहुत गभीर है अत एव जिसका जल बहुत ही ठंडा हो रहा है, 'संछण्णपत्त. भिसमुणालं' जिसमें कमल पत्र और कृणाल ले जल ढका हुआ है वह उप्पलकुमुदणलिगभगसोगंधियपुंडरीय सयपत्तसहस्सपत्तकेसरफुलोचियं' जो विकसित अनेक उत्पलों से अनेक कुमुदों से अनेक नलिनों से सुन्दर और सुगन्धित अनेक पुण्डरीको ले, अनेक महापुण्डरीकों से और शतपत्रसहस्र पत्रों के प्रफुल्लित केशरों से युक्त हो જેના કિનારાએ ઉન્નત પ્રદેશ વિનાના અથતુ સમ સરખા હેય, કે જે પુષ્કરિણી (44)नी मह२ प्रवेश ४२१। सूप ५ ४ ४७ शय, तवा डाय तर 'आणुपुवसुजायवप्पगभीरसीतलजल' मश: 2631 थती आई हाय मने ove સ્થાન જેનું ઘણું જ ગંભીર અર્થાત ઉડે છે, અને તેથી જ જેનું પાણી ઘરા १ .२हेतु है।य, 'संछण्णपत्तभिसमुणाल' रेनी मनु पाथीभरा पत्र मने भृ या 15 रघु डाय, 'बहु उप्पलकुमुदणलिणसुभगसोगंधियपुडरीय महापुडरीय सयपत्तसहस्सपत्तकेसरफुल्लोवचिय' २ भावना मन भायी, અનેક કુમુદેથી, અનેક નલીથી, સુંદર અને સુગંધિત અનેક પુંડરીકેથી અનેક મહા પુંડરીકેથી અને ખીલેલા શતપત્ર અને સહસ્ત્રપત્રના કેશથી
Page #332
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमत्रे
११०
कमलानि उपलक्षण त्वात्कुमुदादीनि यस्यां पुरकरिण्यां वापिका सा पपदपरिभुज्यमानकमला ताम्, वया - 'परिहत्य मर्मतसच्छकच्छी' परिहत्य भ्रमन्मत्स्यकच्छपाम् परिहत्थोऽतिरेकताः - अतिपभूताः भ्रनन्तो मत्स्यकच्छपा यस्यां सा तथा ताम्, ' अच्छविमलसलिल' अच्छविमलसलिलपूर्णाम् अच्छेत स्वतः स्फटिकवत् शुद्धेन विमलेन आगन्तुकमलरहितेन सकिलेन जलेन पूर्णा इति अच्छविमलसलिलपूर्णा ताम् तथा - 'अणेग सउणिगणमिण य विरइय सदुन्नइय महरसरनाइयें' अनेकशकुनिगणमिथुनक विरचित शोन्नतिक 'मधुरस्वरनादिवाम् अनेकैः शकुनिगण मिथुन कैर्विरचिते rिataa: स्वेच्छया प्रवृत्तेः शब्दोनविक्रम् उन्नतशब्दं मधुरस्वरं नादितं यस्यां सा तथा ताम्र, 'तं' ताम् - एतादृशविशेषणयुक्ताम् पुष्करिणीम् 'पास' पश्यति 'वं पासिता तं ओगाat' तां पुष्करिणीं दृष्ट्वातामवगाहते 'ओगाहिता' अगाह्य तां पुष्करिणीम् 'से णं तत्थ उहपि पविणेज्जा' स खलु मत्तमातङ्गः तत्र पुष्करिण्या मवगाहनेन शरीरस्य उष्णं परिदाहमपि मविनयेत् - प्रकर्षेण सर्वात्मना अपनयेत् तथा'तिरपि पविणेज्जा' तृपामपि प्रविनयेत् जलपानेन, तथा - 'खुपि परिणेज्जा' रही है तथा 'छप्पयपरिभुज्जमाणकमलं' जिस पुष्करिणी - वावडोके कमलों के ऊपर भ्रमर गुञ्जार कर रहे हैं 'परिह्यभ्रमंत मच्छकच्छ में' जिसमें अधिक रूप से मत्स्य और कच्छर इधर ले उधर घूम रहे हैं ' अच्छविमलसलिलवणं' | स्वच्छ और निर्मल पानी जिसमें भरा हुआ है 'अगसउगिगण मिट्टगपचिरइय, सदुभ यमहुरसरनाइयं' जो अनेक जोडा युक्त पक्षियों के समूह के मधुर स्थर चहचहाने से किये गये जोर २, के शब्दों से शब्दायमान हो रही है उसको 'पास' देखता है 'पासित्ता' ऐसे विशेषणों वाली उस पुष्करिणी को देखकर वह मत्त हाथी 'तं ओगाहई' उसमें प्रवेश करता है "ओगाहिता' और प्रवेश करके 'से णं तत्थ उपपि पविणेज्ज' उससे
1
युक्त भनेस होय, तथा 'छप्पयपरिभुज्जमाणकमल' ने पुण्डरी - वावडीना रभक्षीय म्भणोनी उ५२ अमराये। गुलख ४री रह्या होय, 'परिहत्थमभं तमच्छकच्छभ' જેમાં વધારે પ્રમાણમાં માંછલાએ અને કાચમાએ! આમ તેમ ફરતા હાય, ""अच्छ विमलसलिलपुष्णं' २१२४ भने निर्माण थाली नेमां सुछे, 'अणेग
मणिगणमिणपविरइय सदुन्नइयमहरसरनाइयं' नेमां पक्षियोना भने लेडाએના સમૂહ હાય અને તેઓના મધુર સ્વરાના ધ્વનિથી શબ્દાયમાન બનેલ डाय सेवा सरोवरने 'पासई' लुवे अने ते 'पासित्ता' भावा विशेषवाणा ते સરોવરને જોઇને તે મત્ત એવા હાથી તું ખોળા તેમાં પ્રવેશ કરે છે, અને
Page #333
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीकाप्र.३ ३.२ सू.२१ नारकाणां नरकभवानुभवननिरूपणम् ३११ झुधापपि पविनयेत् प्रत्यासन्न तटवत्तिशल्लक्यादि किशळ्यपक्षणात् तथा-'जरखि पविणेजा ज्वर परितापजनितमपि प्रविनयेत-अपनयेत् । 'दाईपि पविणेज्जा दाहमपि मचिनयेत् परिदाहनुत्पिपासावगमाव। 'निदाएज्ज वा पयलाएज्जवा एवं सकल क्षुधादि दोषापगमतः मुखादिभावेन निद्रायेत वा मचलायेत वा, सत्राः निद्रावान् निद्रावान् इव भवतीति विप्पत्यया विवक्षायां निद्रादिभ्यः कर्मणि पंचप्पत्ययः, एवं प्रचलाशब्दादपि निद्रादेराकृतिगणत्वादिति। तत्र सुख प्रबोधा स्वापोवस्था निद्रा, ऊर्ध्वस्थितस्यापि या पुनश्चैतन्यमस्फुटीकुर्वती निद्रा समुपजायते सा प्रचलेति । एवं च क्षणमात्र निद्रालामतः अति स्वस्थी भृतः 'सइंवा स्मृति वा-पूर्वानुभूतस्मरणम् 'रई बा' रति वा तदवस्थाऽऽसतिरूपाम् 'धिई वा वह अपनी गर्मी को अच्छी तरह ले शान्त कर लेता है और 'तिण्हपि पविणेज्जा' तृषा को वुझा लेता है तथा 'खुहंपि पविणेज्जो' तटके पास के शल्लकी तृणजातिविशेष आदि के किसलयों (कूपलों) के भक्षण से क्षुधा को भी दूर कर देता है 'जरंपि पविणेज्जा' एवं परिताप जनित ज्वर को भी नष्टकर देता है 'दाहंषि पविणेज्जा' और परिदाह, क्षुधा, पिपाला के शान्त हो जाने से यह शरीर में व्याप्त हुई गर्मी को दूर कर देता है निदाएज्ज वा पयलाएज्जवा 'इस तरह से जब उसके शरीर में शीतलता का अनुभवन होने लगता है तो वह वहीं पर निद्रा लेने लग जाता है अई निमी लितनेत्रों से प्रचला वाला बन जाता है जिसमें चेत रहे और सुख पूर्वक निद्रा भी आजावे उस अवस्थाका नाम निद्रा है और खडे २ पुरुष के चैतन्य को आच्छादित करती हुई निद्रा जैसी घूर्णता आती है वह प्रचला 'ओगाहित्ता' तमा प्रवेश ४शन से गं तत्थ उण्ह पि पविणेज्जा' तनाथी से साथी पातानी भी न सारी शत शत शत छ. तथा 'खुहपि पविणेज्जा' કિનારાની પાસેના શલકી એક જાતનું ઘાસ વિગેરેને કિસલયે (પ)ને ખાઈને पातानी सू५ ५ २ ४री हे छे. 'जर पि पविणेज्जा' तम परितापथी येत मरना ना ४श हे छ. 'दाह पि पविणेज्जा मने परिहास, भूम, तरसना, શાનત થઈ જવાથી તે શરીરમાં વ્યાપ્ત થયેલ ગામને પણ દૂર કરી દે છે. 'निहाएज्जवा पयलाएज्जवा' मा शत न्यारे तना शरीरमा अने। अनुभव થવા માંડે છે, ત્યારે તે ત્યાંજ નિદ્રા લેવા માંડે છે. અર્થાત ઊંઘી જાય છે, તથા અર્ધ મચેલી આંખોથી પ્રચલા યુકત બની જાય છે જેમાં જાગ્રતા રહે અને સુખ પૂર્વક નિદ્રા પણ આવી જાય તે અવસ્થાનું નામ નિદ્રા છે. અને ઉભા ઉભા પુરૂષના ચૈતન્યને આચ્છાદિત કરતી થકી નિદ્રા જેવી આંખો ઘેરાય છે તેને પ્રચલા કહે છે, આ રીતે ક્ષણે માત્ર નિદ્રા પ્રાપ્તિથી રવસ્થ થયેલ
Page #334
--------------------------------------------------------------------------
________________
३१२
जीवामिगमसूत्र धृति या-चित्तस्वास्थयम् 'मई वा' मति वा सम्यगीहापोहरूपाम् उवल. भेज्जा'- उपलभेत-माप्नुयात् ततः 'सीए' शीतः वायशरीरशीती भावात् 'सीई खू, शीतीभूतः शरीरान्तरपि निवृतीभूतः सन् 'संकममाणे' सम्-एकीमावेन मत्-गच्छन् 'सायासोक्खबहुले यावि विहरिन्जा' सातासौख्यरहुलथापि. सांस भाछाद स्तस्यधानं सौख्यं न तु अभिमानजनित मालादविरहितम. सारसौख्यवहुलश्चापि विरहेद-स्वेच्छया परिभ्रमेदिति । 'एवामेव गोयमा.. एवम्-अनेन पूर्वकथित दृष्टान्तमकारेण हे गौतम! 'सम्भावपक्षणाए'. असद्भाव प्रस्थापनया-असद्भावकल्पनया नेदं यक्ष्यणाणमभृत केवलं नरकगतोष्णवेदनाशः याथार्थ पतिपत्तये असत्कल्प्यने इत्यर्य:, 'उसिण है। इस तरह क्षण माझी निद्रो के लाभ से स्वस्थ हुआ वह हाथी 'सइंया' अपनी स्मरण शक्ति को 'रतिषा' आनन्द को 'घिइंचा' धैर्य को चित्त की स्वस्थता को-'उचलभेज्जा' पा लेता है जय गर्मी से हाथी आकुल व्याकुल हो रहा था तो उस स्थिति में उसकी स्मृति रति आदि सय मन्द पड गये थे अब जब उसे चैन प्राप्त हुभो तो यातें उसे यदि आने लगो चित्त में प्रफुल्लता आ गई और मन में धैर्य जग गया इस तरह शरीर में शीतलता के प्रभाव से 'सीयभूए' स्वयं शीती भूत हुआ वह गजल 'संकममाणे २, 'अप वहां से चल देता है और 'साया सोक्खाबहुलेयाधि विहरिज्जा' चित्त में जगी हुई एक प्रकार की आइल द रूप प्रसन्नता रूप सुख परिणति से अपने आपको अनन्द विभोर मानने लगता है और इटलाता हुआ इधर उधर घूमने लगता है. 'एयामेय गोयमा।' इसी तरह से हे गौतम ! 'असमाव पटवणाए' त हाथी 'सइवा' चातानी भर शान्तिन रति वा' मान घिई वा धेन शित्तनी स्वस्थताने 'उबलभेज्जा' पाम छ, न्यारे सभी था त हाथी माण વ્યાકુળ થયો હતો ત્યારે એ સ્થિતિમાં તેની સ્મૃતિ રતિ વિગેરે મંદ થઈ ગયા હતા. અને જ્યારે તેને આ રીતે ચેતન પ્રાપ્ત થયું ત્યારે તેને અનેક વાતે યાદ આવવા લાગી ચિત્તમાં પ્રફુલ પણું આવી ગયું અને મનમાં ઘેર્યું भावी भयु' मा शत मा शरीरमा ४ा प्रमाथी 'सीयभूए' पोत शाती भूत प्ये ते ०४२१४ 'स'कममाणे, सकममाणे ते त्यांचा यावा तागे छे. अन् 'सायासोकख बहुलेया वि विहरिता' चित्तमा नगदी से ५४नी અહલાદ રૂપ પ્રસન્નતા રૂપ સુખ પરિણતીથી પિતે પિતાને આનંદ રૂપ માનવા गे-छे. मने माता मत माम तम २१। साग 'एवामेव गोयमा !' का प्रमाणे गौतम! 'असन्भावपट्ठवणाए' असष्टू भाव ४६पनाने सन
Page #335
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ ७.२ ५.२१ नारकाणां नरकभवानुभवननिरूपणम् ३१३, वेगिज्जेहितो णरएहितो' उष्णंवेदनीयेभ्य नरकेभ्या, 'रइए उन्बष्टिए समाणे. नैरविकोऽनन्तरमुर्तितो विनिर्गतः सन् 'जाई इमाई भरसलोनाल भयंति' यानीमानि, इह मनुष्यलों के स्थानानि भवन्ति लघयामोलिवालिछाणि वा सोंडिया लिंछाणि वा लिंडिया लिंछाणिका' गौलिकालिंछानि या सौण्डिका लिछानि वा-लिण्डिया लिंछाति वा 'मिछ' शब्दोऽत्रदेशीयः अग्निस्थानवाचकः, तेन गोलिका लिंछानि झुडपाकस्थानि, शौण्डिकालिंछानि-जयपाकस्थानानि, लिण्डिकालिछानि-लिण्डिका-राजापुरीपं तस्वबन्धि बहि स्थानानि 'अयाधराणि ना' अप आकरा इति का यह मानार्थ मय उस्काल्पते ते अय आकराः, एकमेव ताम्राशराबीलामणि पस्पं ज्ञातव्यम् । 'तंबागराणि वा' ताम्राकरा इति वा 'तउयामराणिका' अप्यारा इति वा 'सीसागराणि वा' सीससासरा इति वा सागराणि ' सध्याका प्रति वो, असाच कल्पना को लेकर विसावेणिज्जेदितो पहाण वेदना झाले नरकों ने 'मेहए उहिए जाणे जिला हुआ नायिक 'जाइं इमाईमणुमलोग अचंति' जो मनुष्य लोक अति - ता के स्थान है-जैह-मालिया लिंछाणिवा टिकालिछाणि क्षा लिडिया लिंछाणि हा गौडिका लिंछ शौण्डिका लिन्छ, लिण्डिा लिंछ अर्थात्-गुड पक्षाने की भट्टी, मध पकाने की भी बरी पीडीभी अग्निका स्थान ऐले स्थानों में उष्मता बहुत अधिक होती है. 'अागा णिवा' लोहे को गलाने के भट्टे 'शायराणि या 'अयमा सारये को गलाने के भट्टे 'तलयागणिया रांगे को गलाने के गहे 'लीला ' शीशे को गलाने के भट्टे 'धाराणिक्षा चांदी को गलाने के भद्दे 'सुनना गराणि वा सोने को गलाने के भट्टे हिरण्णागराणि वा हिरण कच्चे 'उसिणवेयणिज्जेहितो णरएहितो' 6. वहना वाणानीमाथी नेहए उच्चदिए समा'णे नीउणे नै२यि४ 'जाई इमाई सणुस्खलोगंसि भवंति' २ मा मनुष्य बमा सत्यतताना स्थान से भो 'गोलिया लछाणि वा खोडिया लिछाणिवा लिंडिया लिछाणिवा' dille छ, Aill, ASule, અર્થાત ગોળ બનાવવાની ભઠી, મદ્ય બનાવવાની ભઠી, બકરીની લી ડીના मनिनुस्थान, वा स्थानमा म पधारे २भी हाय छे' 'अयागराणि वा' सामने पानी सही 'त'बागराणि दो' अथवा तमा२ गाणवानी माटी 'तउयागराणि वा' संगने मागणवानी बदही 'सीसागराणि वा' सीसान सागवानी की सप्पागराणि वा' हीन भागवानी सही 'सवण्णागरा णि वा सोनान वानी ही 'हिरण्णागराणि वा' डिएयतां यां सोनाने
जी ४०
Page #336
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीयामिगमने 'मुवनागराणि वा' सुवर्णाकरा इति वा 'हिरण्णागराणि वा' हिरण्याकरा इति वा, भग्निस्थानानि निरूप्य अग्निस्वरूपं निरूपयति-'कुंभारागणीड वा' कुम्भका. राग्निरिति वा कुम्भकारस्य माण्डपाकाग्नि 'मुमागणीइ या' मृपारिनरिति वा 'मूषा' इति धातुगालनपात्रं तद्गताग्नि दयामणीइ वा पुष्टकाग्निरिति वाइष्टकापाकाग्निवा 'कवेल्लुयागणी वा' कवेल्लुकारिनरिति श-कवेल्लुकपाकाग्निर्वा 'लोहांवरीसेइ वा लोहकाराम्बरीप इति वा सम्परीपः कोष्ठका 'भट्टी' इति प्रसिद्धः 'जंतवाडचुल्लीइवा' यन्त्र पाटक चुल्ही इतिश यात्र-शुपीडनयन्त्रम् तत्पधाना पाटकः यत्र चुल्ही यत्र इक्षुरसः पच्यते 'गोलियामिछागणीड वा' गौण्डिकालिंछाग्निरिति वा-गुडपाक स्थानानि सोडिया लिंछागणी वा शौण्डिकलिंछाग्निरिति वा, मधपाकस्थानाग्नि की 'लिडिया लिंछागणीइ वा' लिण्डिकालिंछाग्निरिति वा अजापुरिषस्थानगताग्निी 'डारणोड सन्डाग्निरिति वा नड:-अन्त विवर न्डशः तम्याग्निी 'तिसारणीइ का लिाग्निसोने को गलाने के भद्दे, अग्नि के स्थानों को कह पार अब अग्नि का स्वरूप कहते हैं 'कुभागाराणिवा 'कुंभ-वर्तन-के भट्टे की अग्नि 'मुलागणी इवा' 'मृषा'-धातु गलाने का पान उलकी अग्नि 'टयागणीइवा' ईटों को पकाने वाले भेटेकी अग्नि 'कवेल्लया नीचा' 'कवे. ल्लु-खपरा को पकाने के आवा की अग्नि 'लोहायरीलेइया लोरे को गलाने वाले लुहार के भट्टी की अग्नि' 'जंतवाड चुल्लीहा ' ईक्षु-गन्ने के-रसको पकाने की अग्नि 'गोलिया लिंछागणी या गुड पकाने के स्थान की अग्नि 'सोडिया लिंछागणीइवा 'शौडिक अग्नि मद्य पक्षाने की अग्नि लिंडिया लिंछागणीइवा' चकरी की लिंडी की अग्नि' णडा. गणीइवा 'नडाग्नि नडवंश की अग्नि तिलागणीइवा तिल की अग्नि ગાળવાની ભઠી, આ રીતે અગ્નિને સ્થાને કહીને હવે અગ્નિના સ્વરૂપનું કથન अरे छे. 'कुंभागाराणि वा' स. मेट है वासाने ५४.५वानी महीन भान 'मुमागणीइ वा' भूषा मेट घातुन सागवान महान मनि 'इट्टियागणीइवा' टीने ५४वा साना मनि 'कवेल्लुयागणीइ वा' ४वेषु नजीया ५४वानी महीन पनि 'लोहांवरीसेइ वा al'ने भाजपा साना सानो भनि 'जतवाल चुल्लीइ वा' क्षु सडीना २सने ५४१वानी मन 'गोलिया लिंछागणीइ का' गण मना वधानी सटहीन भनिन, 'सोडिथा लिछागणोड वा' dist माग्न मर्थात भय मनापानी पीना अनि 'लिडिया लिचगणीइ वा' मरीनी साहाना भान 'णडागणीइ वा' ननि अर्थात शनी माग्न पतिला
अग्नि 'लोहायरीया
के रसको पलहार के भट्टी की
Page #337
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ सू.२१ नारकाणां नरकभवानुभवननिरूपणम् ३६५ रिति वा 'तुसागणीइ वा तुषाग्निरिति वा 'तत्ताई' इत्थंभूतानि यानि स्थानानि मनुष्यलोके तानि तप्तानि बलि संपत स्तप्तीभूतानि तानि च कानिचित् अय आकर प्रभृतीनि कदाचिदुष्ण स्पर्शमात्राण्यपि संभवन्ति ततो विशेष प्रतिपादनार्थमाह-'समजोइभ्याई' ज्योतिः समभूतानि प्रखरवनिसंपर्कात् साक्षादग्निवर्णानि जातानि, एतदेव सादृश्येन दर्शयति-'फुल्लकिसुयसमाणाई' फुल्लकि शुकसमानानि प्रफुल्लपलाशकुसुमतुल्यानि 'उक्कासहस्साई विणिम्मुयमाणाई' उल्कासहस्राणि विनिर्मुच्यमानानि ये मूलाग्नितो वित्रुटय अग्निकणाः प्रसर्पन्ति ते उल्का इति कथ्यन्ते तासां साहस्रोणि प्रमुञ्चन्ति, 'जालासहस्साई पमुच्चमाणाई' ज्वालासहस्त्राणि प्रमुच्यमानानि 'इंगालसस्साई पविक्खरमाणाई अङ्गार 'तुलाचणीहवा तुषकी अग्नि इत्यादि' 'तत्ताई ये सब स्थान मनुष्य लोक में बहि के संपर्क से संतप्तषने हुए रहते हैं. इनमें कितनेक लोहे के गलाने के भट्टे आदि रूप स्थान-उष्ण स्पर्श मात्र वाले भी होते है, अतः इनकी विशेषता दिखलाते हैं वे स्थान और वे अग्नि किस प्रकार के होते हैं ? तो कहते हैं-'लमजोइभूयाई ये साक्षात् अग्नि केही स्थानापन्न हो रहे है। इनका जो वर्ण है वह 'फुल्लकिसुयसमाणाई' फूले हुए किंशुक पलास के फूल जैसे लाल २ प्रतीत होता है 'उक्का खहरुलाई विणिमाघमाणाई' जो हजारों उल्काओं (मूल अग्नि से टूट टूट कर स्फुलिंग को निकाल रहे) 'जाला सहस्लाई पमुच्चमा. णाई थे स्थान हजारों ज्वालाओं का ही मानों वमन कर रहे हैं 'इंगाल सहरुलाई परिक्वरमाणाई' हजारों अंगारों को ही अपने गणीइ वा' तनी AS 'तुसागणीइ वा' तुषनी मन त्याहि 'तत्ताई' मा બધા સ્થાને મનુષ્યલકમાં અગ્નિના સંપર્કથી તપેલા રહે છે. આમાં કેટલાક લેઢાને ઓગાળવાના ભઠા વિગેરે રૂપ સ્થાને ઉષ્ણુ સ્પર્શ માત્ર વાળા પણ હોય છે. તેથી તેની વિશેષતા બતાવતાં તેવા સ્થાને અને તેવી અગ્નિ કેવા
आना हाय छे ! मताव छे. 'समजोइभूयाई त थानो साक्षात् भनिना स्थानापन डाय छे. तो वर्ष , ते 'फुल्लकिमयसमाणाई" al કિંશુક–પલાશને ફૂલે જેવા અર્થાત્ કેસુડાના જેવા લાલ લાલ દેખાય છે, 'उक्कासहस्साई बिणि मुयमाणाई" रे | Gets (भूण निकी छूटेसा ति) मनोने महा२ ४९ छे. 'जालासहस्साई पमुच्चमाणाई' આ સ્થાને હજારે જવાલાઓને જ જાણે વમન કરતા ન હોય તેવા લેય છે, 'इंगालसहस्साई' पविक्खरमाणाई' 8 मारामान पातानी माया
Page #338
--------------------------------------------------------------------------
________________
%D
जीवामिगमध्ये सहस्राणि विक्षरंति 'अंतो अंतो हूहूयमाणाई' अन्तरन्तहहूयमानानि अतिशयेन जाज्वल्यमाननि 'चिट्ठखि' तिष्ठति 'ताई पालइ' तानि-उपर्युक्तविशेषणविशिष्टस्थानानि पश्येत् स नारकः, 'ताई पासित्ता ताई ओगाइ' तानि स्थानानि दृष्ट्वा तानि स्थानानि अवगाहते 'ताई ओगादित्ता' तानि स्थानानि अवगाह्य 'से णं तत्य उण्हपि पविणेज्जा' स खलु नारक स्तन स्थानेषु उष्णमपि नरकोष्ण वेदना जेनित बहिःशरीरस्य परिखापमपि प्रविनयेत्-विनाशयेदिति। 'तण्हंपि पविणेज्मा तृष्णामपि प्रविनयेत् 'खुहपि पविणेज्जा' क्षुधामपि प्रविनयेत् 'जरंपि पविणेना' अपरं शरीरान्तः परितापयपि प्रविनयेतू 'दापि पविणेज्जा' दाइमपि भीतर ले लिमाल रहे हैं 'अंतोअंतो हूहू आमाणाई' भीतर ही भीतर मानों ये हू हू शब्द करते हुए जल रहे हैं-'ताई पास ऐसे विकट गर्मी की दाह रूप दला को उत्पन्न करने वाले इन स्थानों को यदि उष्ण वेदना वाले लाको क्ष नारकी देख लेता है और 'पासिता देखकर वह 'ताई मोगाइ' उनले ले शिली एक स्थान में प्रवेश कर जाता है 'ताई ओगाहिला' वहां प्रवेश करके ले गं तस्य उपहषि परिणेजा यह नारकी वहां पर भी अपनी एक अन्य्द उच्छा वेदना को दूर कर सकता है अर्थात् इन स्थानों में भी उसे उE वेदना के आगे शीत का ही अनुभव होता है नरक जन्या उष्ण बेदना सा पाव शरीर में परिताप नहीं होता है. यह बल लण्हं व पक्षिणेजा हवा-धाला को भी नष्ट कर देता है, 'मुह पक्षिणेज्जा' अपनी क्षुधा को भी शान्त कर लेता है. 'जरंपि पविणेज्जा अपडे शरीर के तीतर रहे हुए परिताप रूप धर को भी ५२ ४६11 २काय, 'भंतो अंतों हूयमाणाई' ४२२. म १२ नये ताडू शहे। ४२ता ३२ता मणी २४ा डाय 'ताई पासई' अवा विट અગ્નિના દાહ રૂપ વેદનાને ઉત્પન્ન કરવાવાળા આ રથાનેને જે ઉણુ વેદના वापस लौना ना२ये न से सने पालिता' लेधन ते 'ताई' ओगाई' तमाथी १४ मे स्थानमा प्रवेश लय छे. 'ताई ओगाहित्ता' त्या प्रवेश ४श से णं तत्थ उह पि पविणेजा' ते नाही त्या ५ पोतानी न२४०४न्य ઉણ વેદનાને દૂર કરી શકે છે. અર્થાત આ સ્થાનમાં પણ તેને તે ઉષ્ણુ વેદનાની આગળ શીત વેદનાને જ અનુભવ થાય છે. નરક જન્ય ઉવેદનાને परिता५ मा शरीरमा थने नथी. ते त्या तहपि पविणेज्जा' तरसने ५९ न११ ४१ छ. 'खुहं पि पक्षिणेज्जा' पातानी भूमने ५Y शांत ४री छ, 'जरंपि पविणेज्जा' पोताना शरीरनी ४२ २७ता परिता५ ३५ १२ने पर
Page #339
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेश्योतिका का प्र.३ उ.२ ७.२१ नारकागां नरक मानुभवननिरूपणम् ३२७ पविनयेत् । नरकगतोष्णस्पर्शान् अय आकरादि गलोण स्पर्शस्यातीय मन्दत्वेन तदपेक्षयाज शरीरपरिवापापनोदः संभवत्येवेति ततश्च 'निहाएज्ज वा पयलाएज्ज वा' स नारको निद्रायेत वा प्रचलायेल वा तपादि दोपापमयेन निद्रादीनां संभवात् ततश्च-'सई वा रई वा धिई वा मई वा उबलज्जा ' स्मृति वा रति वा दूर कर लेता है. 'दापि पविणेज्जा' और दाह को भी शान्त कर लेता हे यद्यपि ऐसा होता नहीं हैं न भी हुआही है और न कभी आगे होगा भी परन्तु नरकों में बारह जीव को कितनी अधिक उत्कट उष्ण वेदना का अनुभव होता है और वह उष्णता वहांशितनी है यह बात इस कथन से प्रतीति पथ में आ जाती है अतः सूनसार हे इललिये यह बात यहां असत्कल्पना कर के हामझाई है।इलो को सष्ट करने के लिये उन्होंने 'अखभाव पट्टयणाए' ऐसा सच से पहिले स्त्र में पद रखा है । तात्पर्य इस कथन का केवल यही है कि अय आकार (लोहा गरम करने की भट्ठी)
आदि गत जो उष्ण स्पर्श है, यह उस्ल नरक की माता के आगे अत्यल्प है-मन्द है इसी लिये शरीर परिताप आदि नष्ट हो सकता है जब उस नारकी को इन स्थानों में भी उस मातङ्ग के जैली शीतलला का अनुभवन होता है तो वह णिहाएज्ज वा क्षणिक निद्रा का भी सुख प्राप्त कर लेता है 'पघलाएज्ज या' अथवा खडे २ वहीं पर ॐध भी लेता है। इस तरह कीअवस्था हो जाने पर फिर वह 'सई का रइंदाधिई वा मईवा उपल. ६२ ४श छे. 'दाहपि पविणेज्जा' मन. ६.४२ प शांत ४ी है. है આમ થતું નથી. તેમ કયારે પણ તેમ થયું નથી. તેમ હવે પછી તેમ થશે પણ નહીં પરંતુ નરકોમાં નારક જીવને કેટલી વધારે ઉત્કૃષ્ટ ઉષ્ણવેદનાને અનુભવ થાય છે. અને તે ઉણપણે ત્યાં કેટલું છે ? એ વાત આ કથનથી જાણવામાં આવી જાય છે. તેથી સૂત્રકારે આ વાત અસત્કલપના કરીને સમपीछे. तर २५८ ही पता। माट तेशामे 'असम्भावपटवणाए' मा પ્રમાણેનો પાઠ સૌથી પહેલાં સૂત્રમાં કહ્યો છે. આ પંથનનું તાત્પર્ય કેવળ એ જ છે કે અય આકર (ખંડને ગરમ કરવાની ભઠી) વિગેરેમાં રહેલ જે ઉષ્ણ સ્પર્શ છે, તે એ નરકનીઉષ્ણતા આગળ અત્યંત અલ્પ હોય છે. અર્થાત મંદ છે. તેથી શરીરના પરિતાપ વિગેરે નાશ પામી જાય છે. જ્યારે એ નારકીને આ સ્થાનમાં પણ એ માતંગના જેવી શીતળતાને અનુભવ થાય છે, त्यारे ते "णिदाएज्ज वा, क्षलि निद्राना ५] मनुस पास शनिद्र.३पी सुम asa छ.भावी मानी अवस्था थ य त्यारे ते 'सई वा रई वा धिई वा
Page #340
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमसूत्रे धृतिं वा मर्ति वा उपलभेतल नारकः, ततः - 'सीए' शीतः 'सोई भूए' शीती भूतोऽतिशयेन शान्तः 'संकममाणे संकममाणे' संक्रामन् संक्रामन् 'साया सोक्ख बहुलेयावि' सातासौख्य बहुलचापि 'विहरेज्जा' बिहरेदित स्वतः परिभ्रमेदिति । एतावत् कथिते भगवति गौतमः पृच्छति - ' भवेयारूवा सिया' भवेदेवद्रूपा वेदना स्यात् संभाव्यते एतद् यथा भवेद् उष्णवेदनीयेषु नरकेषु एतद्रूपा उष्ण वेदनेति । भगवानाह - ' णो णट्टे समट्ठे' नायमर्थः समर्थः 'गोयमा' हे गौतम ! कोऽर्थो न समर्थ: स्तत्राह - 'उसिणवेयगिज्जेसु नरपसु' उष्ण वेदनीयेषु नरकेषु स्थिता ये 'नेरइया' नैरथिकास्ते 'एतो अणितरियं चेव उसिणवेथणं पच्चणुभवमाणा विहरंति' इतोऽनिष्ट रिकामेव उष्ण वेदनां प्रत्यनुभवन्तो विहरन्ति इतोऽनन्तरं प्रतिपादिताया भेज्जा' अपनी भूल हुई स्मृति को, थोडी बहुत शान्ति को चित्त की स्वस्थता रूप घृति को एवं मति को भी पा लेता है अतः 'सीए सीती भूए' शीत रूप हुआ और शीतीभूत हुआ-अपने आप में शान्ति का अतिशय रूप से अनुभव करता हुआ वह नारक संरुममाणे संक्रममाणे' वहां से हट कर 'सायासोक्खबहुले याचि विहरेज़्जा' साता और सुख बहुल स्थिति वाला बन जाता है प्रभु के इस प्रकार के कहने पर गौतम ने प्रभु से ऐसा पूछा हे भदन्त ! 'भवेयारूवे खिया' तो क्या उन उष्ण वेदनीय नरकों में इस प्रकार की उष्ण वेदना है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं- 'णो इण्डे समट्टे' हे गौतम । यह अर्थ समर्थ नहीं है क्योंकि 'उणिवेणिज्जेसु नरपसु नेरइया' उष्ण वेदना वाले नरकों में स्थित नैरधिक 'एन्तो अणिमरियं चेव उक्षिणवेधणं पञ्चणुभवमाणा
ईवा उपलभेज्जा' पोतानी लुसी स्मृतिने थोडी घड़ी शांतीने वित्तनी स्वस्थता ३५ धृतिने मने भतिने पशु याभे हे. तेथी 'सीए सीतीभूए' शीत ३५ थयेल અને શીતભૂત થયેલ પાતે પેાતાનામાં શાંતિના અતિશયપણાથી અનુભવ કરતા भड़े। छव ते ना२४ व 'संकममाणे संक्रममाणे' त्यांथी हटीने 'सायासोक्खबहुले થાવિ વિરેન સાતા અને સુખ બહુલ સ્થિતિવાળા બની જાય છે. પ્રભુએ
આ પ્રમાણે કહેવાથી ગૌતમસ્વામી પ્રભુને એવુ' પૂછે છે કે હું ભગવન્ 'भवेयारूवेसिया' तो शुद्ध मा उष्युवेदना बाजा नारीभां भाषा प्रहारनी बेहना छे ? या प्रश्नना उत्तरमां अलु उडे छे ! 'णो इणट्टे खमट्टे' हे गौतम! मा अर्थ मरोभर नधी उभ 'उसिगवेयणिज्जेसु नरए नेरइया' Gवेदना बाजा नरम्भसां रहेला मैरथि है। 'एत्तो अणितरिय चेव उसिणवेयण पच्चणुभवमाणा विहरंति' पूर्वोस्त बेहनाथी पशु वधारे अनिष्टतर सेवी उष्णुवेनाना
Page #341
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.२ खु.२१ नारकाणां नरकभवानुभवननिरूपणम् ३१९ अय आकरादिरूपाया उष्णवेदनाया अनिष्टन्तरिकामेव अप्रियतरिकामेव अमनोज्ञनरिकामेव अमनोऽमतरिकामेव उष्ण वेदना प्रत्यनुभवन्त:-प्रत्येकं वेदयमानातिष्ठन्तीति हे गौतम ! दृष्टान्तमात्रमय आकरादिकं प्रदर्शितम् नतु तस्सदृशीमेववेदनां वेदयन्ति किन्तु ततोऽपि अधिकतरामिति भावः ।।
सम्पति-शीतवेदनीयेषु नरकेषु शीतवेदनास्वरूपं प्रतिपादयति-सीयवेयणिज्जेसु' इत्यादि, 'सीय वेयणिज्जेसु णं भंते ! नरएम' शीतवेदनीयेषु खलु भदन्त ! नरकेषु 'रइया' नैयिकाः 'रिमयं सीवेरण' कीदृशीं-हिमा. विहरलि'इल पूरित वेदना से अधिक अनिष्टतर उष्ण वेदना को भोगले हैं । अर्थात् ऊपर ले जो अब आफारादि अन्य अर्थात् लोहे
आदि की भट्ठी से उत्पन्न हुई उष्ण वेदना का प्रतिपादन किया गया है उससे अत्यन्त अनिष्ट अप्रिय अमनोज्ञ और अमनोऽम ऐसी उष्ण वेदना को प्रत्येक नारक भोगता है। यह जो अभी हे गौतम | अथ आकशदि जन्य वेदना प्रदर्शित की गई है वह तो एक दृष्टान्तापात्र है। अतः अय आकरादि जैसी ही वेदना का अनुभवन नहीं करते हैं किन्तु इससे भी अधिकतर उष्ण वेदना का वे अनुजवन करते हैं। अतः पूर्वोक्त उष्ण वेदना को वे ठंडक के रूप में ही मालेगें। ___ अव्य सूत्रकार शील वेदना बाले नरकों में शीत वेदना केली होती है-इसका प्रतिपादन करते हैं- इसमें गौतम ! ने प्रभु से पूछा है किहे भदन्त ! 'सीतवेदणिज्जेसु णं भंते ! नरएस्सु रहया केरिस मीत वेश्णं' शीत वेदना वाले नरको में नारक कैसी शीत वेदना का पच्च અનુભવ કરે છે. અર્થાત ઉપર જે અય આકર વિગેરેથી થવાવાળા અથત લેખંડના ભઠી વિગેરેથી ઉત્પન્ન થયેલ ઉષ્ણ વેદનાનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે, તેનાથી પણ અત્યંત અનિષ્ટ, અવિય, અમનોજ્ઞ, અને અમનોમ એવી ઉણવેદના દરેક નારકે ભેગવે છે. હે ગૌતમ! જે આ હમણાં અય આકર વિગેરથી થવાવાળી વેદના વર્ણવી છે, તે તે એક દષ્ટાન માત્ર છે. તેથી અય આકર વિગેરેના જેવી જ તે વેદનાને અનુભવ કરતા નથી. પરંતુ તેનાથી પણ વધારે આવી ઉણ વેદનાને તેઓ અનુભવ કરે છે, તેથી પૂર્વોક્ત ઉષ્ણ વેદનાને તેઓ ઠંડક જેવી જ માનશે.
હવે સૂત્રકાર શીતવેદના વાળા નારકમાં શીતવેદના કેવી હોય છે તે સંબંધમાં કથન કરે છે. શીત વેદનાના સંબંધમાં ગૌતમરવાની પ્રભુને એવું ५ छ है भगवन् 'सीतवेदणिज्जेसु ण भंते ! नरएसु नेरइया केरिसय सीत वेयण' शीतवहनावाणा नरमा नार। 8वी शीतवहनाना 'पच्चणुभवमाणा
Page #342
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२०
-
जीयामिगमले कारिकां शीतवेदनाम् 'पच्च णुभनमाणा' प्रत्यनुसनम्ना-प्रत्येकं वेदयमानाः विहरन्ति-तिष्ठन्ति इति गील वेदनाविषयका प्रश्नः, भगवानाह-'से जहाणामए' इत्यादि, ‘से जहाणार एस राधा नाम:--अनिर्दिष्टनामकः कधिय 'कम्मार. दारए' कर्मकारदारका-लिपिहारकः रिया' स्वान् कथं भूतः कर्मकारदारकाति तद्विगेषणानि कथयति-तरुणेरण:-द्धमानदया:, 'जुग युगवान् युगसुपमदुप्पमादिकालः सा स्वेन रूपेण यत्यारित न होपाष्टः स युगवान 'दल क्ल. चात् बलं सामर्थ्य तहान 'जानिपो' या सिल्पोपगता, अन यावत्पदेन उष्ण वेदनीयनक प्रयोक्तान्ति गर्याणि विशेषणानि संग्राहाणि, तथाहिथल्पातङ्कः स्थिराग्रान्त: हाणिपादपाइपृष्टान्तरोरुपरिणतः, लड्यनप्लवन जनगणप्रसदनसमर्थः, तल यमलयुगल रिनिभवाह घननिचितुवन्ति वृत्त स्पन्धः चर्मेष्टर द्रुघणमौष्टिक समाहनिनितगात्रमात्र: औरसबल समन्वागत: छेका दक्षः प्रष्ठः कुशलः निपुगः निपुण शल्पोपगत इति । एषां पदानामर्थ उष्णवेदनीयनरकवेदनाप्रकरणे निलोकनीया, एतादृशः स कर्मकारदारका 'एगं गुठभक्षमाणा विहरति अनुभव करते ? के उत्तर में प्रभु कहते हैं-से जहाणामए असारदाला लिया' हे गौतम ! जैसे कोई लुहार का लड़का हो और कर पूर्वोक्त जैले विशेषणों वाला हो अर्थात् 'तरुणे' तरूण हो 'जुगन्' उपनामादिल में उत्पन्न हुआ हो 'पलवं' वल. शाली हो आतङ्कः चिकील जिलके हाथों से अग्रभाग स्थिर हो कम्पन शील न होवाध और पैर तथा दोनों पाव भोग एवं पृष्ठ तथा उस जिसके खून पुश हो, इत्यादि रूप से जहा इसमा वर्णन पहिले उष्ण वेदनीय नरक से प्रकरण में जिया जा चुका -वैसा यह लुहार का लड़शाहो अब वह एक बहुत बडे लोहे के पिण्ड को पानी के कलश के विहरति' मनुसष ४२ छ १ मा प्रश्नना उत्तरमा पसु से जहाना मए कम्मारदारए सिया' है गौतम ! म अ सवारने छ।४३। डाय, भने ते ५४ वर्ष व्या प्रमाना विश! पणे ११य स्यात् 'तहणे त३२ डाय 'जुग' सुषम हुषादि mi Eurन ये हाय 'बलव' पन् હેય આતંકવગર નિરોગી હોય અને જેના હાથે ના અગ્રભાગ સ્થિર હોય કાંપતા ન હૈય, હાથ, પગ અને બને પડખા તથા પૃષ્ઠભાગ અને ઉરૂ જેના ખૂબ પુષ્ટ હેય ઈત્યાદિ પ્રકા થી જે પ્રમાણેનું આ સંબંધનું વર્ણન પહેલાં ઉsણ વેદનીય નરકના પ્રકરણમાં કર્યું છે, એ જ પ્રમાણેના વર્ણન પ્રમાણેના લવારને કરે છે, અને તે એક ઘણુ મોટા લેખંડના પિંડને પાણીના
Page #343
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र. ३ उ. २.२१ नारकाणां नरकभवानुभवननिरूपणम् ३२१ महं अयपिंडं' एकं महदयः पिण्डस् 'दनवारसमाणं' उदकवारसमानम् लघुपानीय घटमानम् 'गाय' गृहीत्वा अनायासेन 'ताविय ताविय' तापयित्वा तापयित्वा 'कोट्टियकोट्टिय' कुट्टयित्वा कुहयित्वा 'जहणेणं एगाहं वा दुयाई वा दियाई वा' जघन्येन एका वा द्वयहं वा त्र्यहं वा यावत् कुट्टयेत् तमयःपिण्डस् 'उको सेणं मासं हणेज्जा' उत्कर्षेण मात्रपर्यन्तं हन्याद वतः 'से णं तं उरिणं उसिणभूयं' सकर्मकारदारकः खलु तमयःपिण्डम् उष्णम् स चायः पिण्डः उष्णो वाह्यप्रदेशमात्रापेक्षयापि स्यादत आह- 'उविणभूर्य' उष्णीभूतं सत्यवाऽग्निवर्णभूतम् 'अयोमरण संसरण गहाय' अशेमयेन - लोह निर्मितिन संदंशकेन गृहीत्वा 'असभावपट्टवणाए' अमद्भावमस्थाननया- असमावकल्पनया 'सीवेयपिण्जे सु नरपसु षक्खिवेज्जा' शीतवेदनीयेषु नरकेषु मक्षिपेत् अत्युष्णको पिण्डस् 'सेतं उम्मिसिय निमिसियमंतरेणं' स कर्मकारदारकः तं तमयःपिण्डं चरके प्रति जैसा लेकर एक बडी भारी लोहे की मट्टीते बर २ तपावे, और तप तपा कर फिर उसे बार २, कूटे इस तरह यह कम से कम एक दिन तक, दो दिन तक तीन दिन तक और अधिक से अधिक एक महीना तक करता रहे इस तरह भीतर बाहर दोनों रूप से उप्प हुआ वह जयः पिण्ड ऐसा दिखने लगे कि मानों यह एक अग्नि का गोला ही है तब उल्ले वह ' अयोमरण संसएणं गहाय' लोहे की लंडाली से पराडकर बानो 'सीयवेयणिज्जेसु नरएस पक्खिवेजा' शीत वेदना वाले नरकों में डाल दे डालते ही वह फिर ऐसा विचार करे कि मैं इसे 'मिलिय निषिसिय मंतरेण पुणरवि पच्चद्धरिस्लामि' वहां से अभी अभी नेत्र की पलक के झपने में और उघडने में जितना समय लगता है हतने फाल
·
કલશની માફક ઉપાડીને એક ઘણી માટી લેાઢાની ટ્ઠિમાં તેને વારંવાર તપાવે અને તપાવી તપાવીને તે પછી તેને વારવાર ફૂટ આ રીતે ઓછામાં ઓછા એક દિવસ સુધી અથવા ત્રણ દિવસ સુધી અથવા વધારેમાં વધારે એક મહીના સુધી તે પ્રમાણે કરતા રહે આ પ્રમાણે અંદર અને બહાર બન્ને ખાજુ ગરમ થયેલ તે લેખડને પિ'ડ એવા દેખાય કે જાણે આ એક અગ્નિના જ गोणी छे. त्यारे तेने ते बुहार 'अयोमपण सदंखएणं गहाय' बोसडनी सांडसीथी अम्डीने भानो ! 'सीयवेय णिज्जेसु नरपसु पक्खिवेज्जा' शीत વેદના વાળા નારકામાં નાખીદે અને તેને નાખતાંજ પાછે એવે વિચાર કરે हु' माने 'उम्मिसिय निमिसिय मतरेण पुणरवि पच्चद्धरिस्सामि' माने હમણાંજ આંખનું મટકુ મારે તેટલામાં જ એટલે કે આંખ મીચીને ઉઘાડે
जी० ४१
Page #344
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगम मुम्मेषनिमेषान्तरेणैव यावता कालेन निमेषोन्मेष स्तावता कालेनवाय:पिण्डम् 'पुणरवि' पुनरपि पच्चुद्धरिस्सामित्ति कटु' प्रत्युद्धरिष्यामि नारकात् झटित्येव निष्कासयिष्यामीति कृत्वा पश्यति तावत् 'पविरायमेव पासेज्जा' वितरं प्रस्फु. टितमेव पश्येत् 'तं चेव णं जाव णो चेवणं संचाएज्जा पच्चुद्ध रित्तए' तदेव खल्लु यावत् अत्र यावत्पदेन-'पविलीणमेव पासेज्जा पविद्धत्यमेव पासेज्जा' इति पदयोः संग्रहो ज्ञातव्यः, तत्र-भविळीनमेव गलितमेव पश्येत् प्रविध्वस्तमेव पश्येत् नैव खलु शक्नुयात्-समयों भवेत् तमयं पिण्डं नरकात्मत्युद्धर्तुम् । पुनरपि दृष्टान्त माह-'सेणं' इत्यादि, 'से णं से जहाणायए लत्तमायंगे' यथा वा स खल्लू स यथा नामको मत्तमातङ्गः कश्चित्कुञ्जरः 'तहेव जान सोखबहुले याबि विहरेज्जा' तथैव यथा उष्णवेदनीयनरकवेदनाप्रकरणे कुअरविशेषणानि भोक्तानि तान्येव विशेषणानि अत्रापि ग्राह्याणि, कियपर्यन्त मित्याह 'जाव' यावद स कुञ्जर: सौख्यवहुलश्चापि विहरेत, तथाहि
'सहिहायणे पढमसरयकालसमयसि चरमणिदाघसमयहि उहासिहए तण्हा भिहए दवाग्गिजालाभिहए आउरे मुलिए पिवासिए दुबले दिलते एगं महई के बाद निकाल लेता हूं तो इतने काल में ही वह शीत वेदना वाले नरकों में डाला गया मंतप्त लोहे का गोला वहां पिघलने और गलने लगा है ऐसा साक्षात् दिखलाई दे सकता है इल तरह वह लुहार का लड़का अघ 'तं चेव णं जाय जो चेव णं संचाए पच्चुस्तिए' उस गोले को वहां से पुनः बाहर निकालने में समर्थ नहीं हो सकता है इस तरह से-यह भी और दूसरा एक दृष्टान्त इसी विषय को पोषण करने के लिये ऐसा है कि-'से णं से जहाणामए मत्तमातंगे कुंजरे जैसे कोई एक मदोन्मत्त गजराज हो और वह ६० साठ वर्ष का हो शरत्काल के प्रथम समय में-अश्विन मास में या चरम निदाघकाल के समय में जेठ તેટલામાં જ આને કહાડી લઉં છું તે એટલા કાળમાંજ તે શીતવેદનાવાળા નરકોમાં નાખેલ તપેલે લેખકનો પીંડ ત્યાં ઓગળવા અને ગળવા માંડ છે. તેમાં તેને સાક્ષાત્ દેખાય છે. આ રીતે લવારને છોકરે તે પછી “ चेव णं जाव णो चेव णं संचाए पच्चद्धरित्तई' से गाजाने त्यांथी पाछ। महार કહાડવાને શક્તિમાનું થતું નથી. એ જ પ્રમાણે આ એક બીજું એક દૃષ્ટાંત આ વિષયને જ સમર્થન કરવા માટે બતાવવામાં આવે છે તે આ પ્રમાણે છે. 'से णं से जहानामए मत्तमातगे कुजरे' भ मे४ महान्मत्त २०१२ હાય, અને તે ૬૦ સાઈઠ વર્ષના હોય, તે શરત કાળના પ્રથમ સમયમાં અર્થાત્ આ મહિનામાં અથવા છેલે નિદાઘ કાળના સમયમાં અર્થાત જેઠા
Page #345
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ सू.२१ नारकाणां नरकवानुभवननिरूपणम् ३२३ पुक्खरिणों पासेज्जा चउक्कोणं समतीरं आणुपुति सुजायवप्पगंभीरसीयनजलं संछण्णपत्तभिसमिणालं बहुप्पलकुसुयणलिण सुभग सोगंध पुंडरीय महापुंडरीय सयपत्त सहस्सपत्त केसर फुल्लोचियं छप्पयपरिभुज्जमाणकमलं अच्छविमल सलिलपुणं परिहत्यममंतमच्छ कच्छभं अणेगसउणिगणमिहुणगविरइ यसदुमायमहुर सरनाइयं तं पासइ, पासित्ता तं ओगाहइ ओगाहिसा से णं तत्य उहंपि पविणेज्जा खुइपि पविणेज्जा जरंपि पविणेज्जा दापि पविणेज्जा, निदाएज्जवा पयलाएज्जवा सईबा रइं वा धिई वा उबलभेज्जा, सीए सीई 'भूए संकममाणे संक्रममाणे सायासोक्खबहुले यावि विहरिज्जा' ___षष्टिहायना प्रथमशरत्कालसमये (आश्विनमासे) चरमनिदाघकालसमय वा (आषाढमासे) उष्णाभिहतः तृषामिहतो दावाग्निज्वालामिहतः आतुरः शुषितः पिपासितो दुर्वलः क्लान्तः एका महतीं पुष्करिणीं पश्येत् चतुष्कोणां समतीराम् आषाढ के समय में-जब वह भी ले अत्यन्त संतप्त हो जाने के कारण पिपालाले आकुल व्याकुल हो कर पानी की तलाश में इधर से उधर चक्कर काटने लगे चक्कर काटते मान लो वह जंगल में लगी हुइ अग्नि के पास अचानक पहुंच जावे-ऐसी स्थिति में गर्मी की वेदना से और प्यास की वेदना ले आकुल बने हुए उस हाथी को उस अग्नि की दाह से संतप्त होने के कारण और क्या अवस्था हो सकती है-तो चाइ उस समय और अधिक घबड़ा जाता है, उसके कण्ठ और तालु तथा ओष्ठ बिलकुल सूख जाते है पहिले से भी अधिक यह पिपासा से बाधित हो जाता है शारीरिक धैर्य और मानसिक पल उस. का विलकुल ढीला पड़ जाता है और एक तरह उत्पन्न रूग्ण, नई जैसी उसकी परिस्थिति बन जाती है इस हालत में पड़ा हुआ वह हाथी અષાઢ મહિનામાં જયારે તે ગરમીથી અત્યંત તપાયમાન થવાના કારણે તરફથી આકુળ વ્યાકુળ થઈને પાની તપાસમાં આમ તેમ ફરવા મંડે અને ફરતા ફરતાં માને કે તે જંગલમાં લાગેલ આગની પાસે અચાનક પહોંચી જાય, આવી પરિસ્થિતિમાં ગરમીની વેદનાથી અને તરસની વેદનાથી આકુળ વ્યાકુળ બનેલા તે હાથીની તે અનિના દાહથી કેવી અવસ્થા થઈ શકે? અર્થાત તે સમયે એ હાથી વધારે ગભરાઈ જાય છે. તેનું ગળું અને તાળવું અને હઠ એકદમ સુકાઈ જાય છે, પહેલાં કરતાં પણ વધારે પડતી તરસથી વ્યાકુળ બને છે. શારીરિક ધીરજ અને તેનું માનસિક બળ એક દમ નરમ પડી જાય છે. એક તરફથી થયેલ રૂણાવસ્થાની જેમ તેની પરિસ્થિતિ બની જાય છે. આ
Page #346
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२४
जीवामिगमसूत्रे
आनुपूर्व्यसु जातवमगम्भीरशीतलजलाम् संछन्न पत्त बिसमृणाल वहूरपलकुम्लुदन लिन सुभगसौगन्धिकपुण्डरीक महापुण्डरीकशतपत्रसहस्रपत्र के सरफुल्लोपचिताम् पट्पदपरिभुज्यमानकमलाम् अच्छविमलसलिलपूर्णां परिहत्य भ्रमन्मत्स्य कच्छपाम् अनेक शकुनिगण मिथुन विरचितशन्दोन्नतिकमधुरस्वरनादिताम् तां ( पुष्करिणी) पश्यति दृष्ट्वा तामवगाहतेऽवगाह्य स खलु तत्रोष्णमपि मवि - नयेत् वपामपि पविनयेत् क्षुधामपि मचिनयेत् ज्वरमपि प्रविनयेत् दाहमपि प्रचिनयेत् निद्रायेत वा मचलायेत वा स्मृति वा रर्ति वा वृर्ति वा मर्ति वा उपकभेत, शीतः शीतीभूतः संक्रामन् संक्रामन् 'साया सोक्खवहुले यात्रि विह रेज्जा' साता सौख्यबहुलः समधिगत परमानन्दयापि विहरेत 'एवामेव गोयमा' जब एक बड़ी भारी पुष्करिणी को कि जिसका वर्णन अभी अभी चतुकोण आदि विशेषणों से किया जा चुका है देखता है और देखकर वह उसमें प्रवेश कर जाता है । प्रवेश करके वह वहां अपनी गर्मी को शान्त करता है प्यास को बुझाता है एवं पास में लगे हुए शल्लकी आदि के पत्तों को खाकर उनसे अपनी भूखको भी शान्त कर लेता है। इस तरह गर्मी जन्य ज्वर से रहित हो जाने के कारण भीतर बाहर में शान्ति के आ जाने से वह वहीं पर क्षण भर के लिये निद्रा भी ले लेता है अथवा प्रचला नाम की निद्रा के आधीन हो जाता है ऊंघ जाता है इस प्रकार से भीतर बाहर में शान्ति के मिल जाने के कारण चवडा जाने से गुंधी हुई स्मरण शक्ति को हर्षोल्लाल रूप रति को, घृति को और पति को वह गजराज प्राप्त कर लेता है । और शीतलता स्वरूप
પરિસ્થિતિમાં પડેલે તે હાથી જ્યારે એક મેટા સરોવરને દેખે કે જેનું વર્ણન પહેલા ચાર પૃણા વાળા વિગેરે વિશેષજ્ઞેા આપીને કરવામાં આવેલ છે. એવા સાવરને કૅખીને તે એ સરાવરમાં પ્રવેશ કરે છે. પ્રવેશ કરીને તે પેાતાની ગરમીને ત્યાં શાંત કરે છે. અને તરસને પણ ખુજાવે છે. તેમજ સરેાવરની પાસે લાગેલાં શક્ષકી વિગેરે વનસ્પતિયાના પાંદડાને ખાઇને તેનાથી પેાતાની ભૂખને પણ શાંત કરે છે. આ રીતે ગરમીથી થયેલ પીડાથી મુક્ત થવાના કારણે અને અંદર તેમજ ખહાર શાંતી આવી જવાથી એકાદ ક્ષણને માટે ત્યાંજ ઉંઘી પણ જાય છે. અથવા પ્રચલા નામની નિદ્રાને આધીન ખની જાય છે. અર્થાત્ ઉંઘી જાય છે. આ પ્રમાણે અંદર અને બહાર શાંતી મળવાના કારણે પહેલાં ગભરાઈ જવાના કારણે ગયેલી સ્મરણુ શક્તિને તેમજ હોલ્લાસ રૂપ રતિને ધૈય ને, અને મતિને તે ગજરાજ ફરીથી પ્રાપ્ત કરીલે
Page #347
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रद्योतिका टीका प्र. ३ उ. २ ० २१ नारकाणां नरकभवानुभवननिरूपणम् ३२५
एवमेव अनेनैव अधिकृत दृष्टान्वोक्तेन प्रकारेण गौतम ! 'असम्भावपट्टत्रणाए ' असद्भाव प्रस्थापनया - असद्भावकल्पनया 'सीयवेयणिरहितो नररहितो' शीवdratreet नरके 'नेरहए उन्नटिए समाणे' नैरथिको नरकाद् उवृत्तः सन् 'जाई' इमाई इहं मणुस्सलोए हवंति' यानीमानि इह मनुष्यलोके भवन्ति शीतप्रधानानि स्थानानि, 'तं जहा तद्यथा - 'हिमाणि वा हिमपुंजाणिवा' हिमा निवा हिमपुञ्जानि वा 'हिमण्डलाणि वा हिमपडलपुंनाणि वा' हिसपटलानि वा हिमपटलपुञ्जानि वा 'तुसाराणि वा तुसारपुंजाणिवा' तुषाराणि वा तुषारपुञ्जानि वा 'हिमकुंडाणि वा हिमकुंडपुंजाणिवा' हिमकुण्डानि वा हिमकुण्डपुञ्जानि वा 'सीयाणि वा सीयपुंजाणि वा' शीतानि वा शीतपुञ्जानि वा 'ताई पासई' तानी हुआ वह अपने स्थान पर महत चाल से चलकर पहुंच जाता है - एवं वहां साता सौख्य मय होकर शेष जीवन को सुखमय निकाल देता है 'एवामेव गोपमा !' इसी तरह से हे गौतम! यह भी असत् कल्पना से समझ लेना चाहिये कि 'सीक्वेवणिएहितो नरपहितो' शीत वेदनावाले नरकों से 'नेरइए उबहिए' कोई नैरभिक उवृत हुआ और उद्घृत होकर (निकलकर) वह 'जाई इमाई इहं मनुस्वलोए एवंति' जो ये मनुष्य लोक में शीत प्रधान स्थान है - जैसे कि 'हिमाणि वा हिम पुंजाणि वा' हिम हिम पुंज, 'हिम पडलाणि वा हिमपडल पुंजाणिवा' हिम पटल, हिम पटल पुंज, 'तुसाराणि वा तुसारपुंजाणिवा' तुषार तुषार, पुंज 'हिम कुंडाणि या हिमकुंडपुंजाणिवा' हिमकुण्ड, हिन कुण्ड पुंज 'सीयाणि वा सीय पुंजाणि' शीत अथवा शीत पुत्र वगैरह 'ताई लम्बाई' पासह' उन सय स्थानों को वह देखे - 'पासिता' और देखकर 'ताई' ओगाहइ' उनमें अब
છે. અને શીતલ સ્વરૂપ બનેલા તે ગજરાજ પેાતાના સ્થાન પર મસ્ત ચાલથી ચાલીને પહોંચી જાય છે, અને ત્યાં શાતા અને સુખમય મનીને માકીના भुवनने सुख पूर्व वीतावे हे. 'एवामेव गोमा !' या प्रभाये हे गौतम! आा चालु असलपना समभवी लेखे 'सीयवेयणिएहिंतो नरपहितो' शीत बेहना वाजा नरोयांथी 'नेरइए उखट्टिए' धनैरयि मडार नीज्ये हाय, भने महार नीम्जीने ते 'जाई' इमाई इह मणुस्सलोए हवति' ने भा भनुष्यसेोऽभां शीतप्रधान स्थान छे, नेमड़े 'हिमाणि वा हिमपुंजाणिवा' हिम हिमयुं 'हिमपडलाणि वा हिमपडल पु जाणिवा' डिभपटा जरइनो गोणी डिभ पटल थुन अरइना गोजाना ढगले 'हिमकु डाणिवा, हिमकुंडपु जाणिवा' हिम मुंड डिभझुंड ४ 'सीयाणिवा खीयपु'जाणिवा' शीत अथवा शीतयुन विगेरे 'ताई' सव्वाई' पास' से अधा स्थानाने ते हे छे, 'पासित्ता' भने हेमीने
Page #348
--------------------------------------------------------------------------
________________
'जीवाभिगमसूत्रे
३२६
मानि लोके शीतस्थानानि पश्यति 'पासिता' दृष्ट्वा 'ताई ओगाह' तानि स्था नानि अवगाहते 'ओगाहित्ता से णं तत्थ सीयांप पविणेज्जा' तानि स्थानानि अवगाह्य स खलु नारकः तत्र स्थाने शीतं नारकशीतमपि मविनयेत् विनाशयेत् 'तहपि पविणेज्जा' तृपामणि प्रविनयेत् 'खुपि पविणेज्जा' क्षुधामपि प्रविनयेत् 'जरीप पविणेज्जा' ज्वरमपि प्रविनयेत् 'दापि पविणेज्जा' दाहमपि प्रविनयेत् नरक वेदनाय नरकसंपर्कसमुत्थितं दाहमपि पारहरेदित्यर्थः, ततः शतित्वादिदोषा पगमवाऽनुत्तरं सुखं लभमानः 'निद्दाएउज वा पयल | एज्ज वा जान उसिने उासण भूए' निद्रायेत वा मचलायेत वा स्मृतिं वा रति वा धृति वा सति वा लभेत ततो नरकगत जाडयापगमात् उष्णः, स च बाह्य प्रदेशमात्रतोऽपि स्यात् तव गाहन करे 'ओगाहिता' अवगा इन कर 'से णं तत्थ सीयं पि पविणेज्जा' वह उनके संपर्क से अपनी नरक जन्य शीत की निवृत्ति करले 'सहं वि पविणेज्जा' तृषा की भी निवृत्ति कर लेता है 'खुहं वि पविणेज्जा' क्षुधा की भी निवृत्ति करले 'जरपि पविणेज्जा' शीतजन्य ज्वर की भां निवृत्ति करले, 'दाहं पि पविणेज्जा' और जो उसके शरीर में शीत वेदलीय नरक के संपर्क से शीतजन्य दाह हो रहि थी उसकी भी निवृत्ति करले, इस तरह शीतता आदि दोषों के नष्ट हो जाने से अनुत्तर सुख को प्राप्त हुआ वह नारक जीव वहां पर थोडी देर के लिये निद्रा भी ले लेवे और प्रचला झीम-भी ले लेवे ( चलते या बैठे बैठे आने वाली निद्रा) तथा स्मृति रति- धृति और मति इन्हें भी प्राप्त कर लेवे इस तरह नरक गत जडता के दूर हो जाने से भीतर से उष्णीभूत हुआ वह नारकी उत्साह संपन्न बने'ताई ओगोहइ' तेभी मवगाई न उरे छे, अर्थात् मी भारे छे. 'ओगाहिता ' गार्डन उरीने 'से णं तत्थ सीयं वि पविणेज्जा' ते तेता सपथी नर भन्य योताना शीतनी निवृत्ति हरीचे छे. 'तव्ह' र पविणेज्जा' तरस पशु शांत ये छे. 'खुहपि पत्रिणेज्जा' लूमने शांत ४री से छे. 'जर' पि पविणेज्जा' शीत ४न्य ज्वरने पशु शांत छे 'दापि पविणेज्जा' भने तेना शरीरभां શીત વેદનીય નરકના સંપર્કથી જે શીત જન્મ્ય દાહ થઇ રહેલ હાય તેની પશુ નિવૃત્તિ કરીલે છે. આ પ્રમાણે શીતલતા વગેરે દેષાના નાશ થવાથી અનુત્તર સુખને પ્રાપ્ત કરેલ તે નારક જીવ ચેાડીવાર માટે જાય અને પ્રચલા અર્થાત્ ચાલતા ચાલતા કે બેઠા બેઠા પશુ લઈલે છે. આ રીતે નરકમાં રહેલ જડતા દૂર થઈ ઉષ્ણુ રૂપ બનેલ આ નારકી ઉત્સાહ યુકત મનીને
ત્યાંજ ઉંઘી પણ આવનારી ઊધ જવાથી અંદરથી ધીરે ધીરે આનદ
Page #349
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रतिका टीका प्र. ३ उ. २ सू.२१ नारकाणां नरकभवानुभवननिरूपणम् ३२७ उष्णभृतोऽन्तरमपि नरकगत जाडयापगमात् जाठोत्साहः 'संकममाणे संकममाणे ' एवं भूतः सन् यथासुखं संक्रामन् संक्रामन् 'सायासोक्ख बहुले यावि विहरेज्जा' साता सौख्यबहुलचापि विहरेत् । एतावति प्रतिपादिते गौतमः प्राह - हे भदन्त ! एतावत्ममाणा नरके शीतवेदना भवेव भगशनाह- हे गौतम । नायमर्थः समर्थः 'सीय वेयणि जेसु नरपसु नेरइया' शीत वेदनीयेषु नरकेषु नरयिकाः 'एत्तो अणिट्ठ तरियं चैव सीयवेयणं' इतोऽपि अनिष्टतरिका मकान्ततरिका ममियतरिका मम. नोज्ञ तरिका ममनोsरिकां शीतवेदनाम् ' पच्चणुभवमाणा विहरंति' प्रत्यनुभवन्तः प्रत्येकं वेदयमाना विहरन्ति तिष्ठन्तीति । सु०२१॥
सम्नति नारकाणां स्थिति प्रतिपादनार्थमाह- 'हमी सेणं' इत्यादि,
मूलम् - इमीले णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइयाणं केवइयं कालं ठिई पन्नता, गोयमा ! जहन्नेण वि उक्कोसेण वि ठिई माणिव्वा जाव अहे सत्तमाए ॥ इमीसे णं भंते ! रयण
RAT
भार पुढवीए नेइया अनंतरं उवट्टिय कहिं गच्छति कहि उववजंति, किं नरइएसु उववजेति किं तिरिक्खजोणिएसु
कर धीरे २ वहां से आनन्द मग्न होकर चल देवे और इस तरह से यह साता सुख बहुल भी हो जावे । इस प्रकार प्रभु के कहने पर पुनः गौतमस्वामी ने उनसे पूछा- तो क्या ऐसी शीत वेदना नरक में होती है ? इसके उत्तर में प्रभु करते हैं - हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। क्योंकि 'सीयनेयणिज्जेसु नरएस नेरहया एन्तोअणि तरियं चेव सीयवेधणं पच्चणुभवमाणा विहरंति' शीत वेदना वाले नरकों में नैरपिक इससे भी अनिष्टतर, अकान्तर अप्रियतर अमनोज्ञतर एवं अमनोऽमतर शीत वेदना को भोगते है । अतः उनको यहां की शीतला उष्णता रूपमें प्रतीत होगी। सूत्र ॥२१॥
મગ્ન થઈને ત્યાંથી ચાલતા થાય છે, અને આ પ્રમાણે તે સાતા અને સુખ પૂણ પણ ખની જાય છે, આ રીતે પ્રભુના કહેવાથી ગૌતમસ્વામીએ ફરીથી પ્રભુને પૂછ્યું કે તેા શુ? એવી શીત વેદ્યના નરકમાં હાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં अनु ! छे ! हे गौतम! आा अर्थ अरेशभर नथी. भिडे 'सीयवे यणिज्जेसु नरपसु पच्चणुभवमाणा विहति' शीत वेहनावाजा नरोभां नैरयि मानाधी પણ અનિષ્ટતર, અન્તિતર. અપ્રિયતર, અને અમનેાડમતર, શીત વેદનાને ભાગવે છે. તેથી તેને અહિની શીતળતા, ઉષ્ણુતાપણાથી જણાશે, ॥ સૂ. ૨૧૫
Page #350
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२८
जीवामिगमस्से उववनंति, एवं उबट्टणा माणिया जहा वकंतीए तहा इह वि जाव अहे सताए ॥१० २२॥
छाया-एतस्यां खल्ल भदन्त ! रत्नप्रभा पृथिव्यां नैरयिकाणां कियन्तं कालं स्थिति: प्रज्ञप्ता ? गौतम ! जघन्येनापि उत्कर्षेणापि स्थितिमाणितव्या यावदधः सप्तम्याम् । एतस्यां खल सदन्न ! रत्नपाभायां पृथिव्यां नैरयिका अनन्तर मुवृत्य कुत्र गच्छन्ति, हुत्यन्ते, किं नरयि पृत्पद्यन्ते किं तिर्यग्यो. निवे पूरयन्ते । एवमहत्तना सणि व्या यथा व्युत्क्रान्तों तथा इहापि यावदधःसप्तम्याम् ॥०२१॥
टीका-'इसीसे णं भंते ! मलयां खलु भदन्त ! 'रयणप्पभाप पुढवीए' रत्नमायां पृथिव्या ‘नेरइयाणं' लेखिकाणाम् 'केन्इयं कालं लिई पनत्ता' कियन्तं कालं स्थितिः यज्ञप्ता-कथितेति नेविसस्थिति विषयकः प्रश्नः, भगवानाह-गोयमा' इत्यादि, 'मोयमा' हे गौतम ! 'जहम्मेण वि उक्कोसेणनि' जघन्येनापि उत्कर्पणापि 'ठिई माणिराया जाव अहे सत्तमाए' स्थितिमणितव्या यावदधः सप्तम्याम् सर्वस्यामेव नारझपृथिव्यां नारकाणां स्थितिवक्तव्या, तथाहि
अघ सूत्रकार नरकों की स्थिति का प्रतिपादल करने के लिये सूत्र कहते हैं-'इनी ले गं अंते ! रक्षणप्पभाए-इत्यादि।
टीझार्थ-गौतमस्वामी ने प्रभु ने पता पूछा है-'इमी से णं भंते!' हे भदन्त ! इस 'रयणप्पभाए पुढबीए' रत्नप्रभा पृथिवी में 'नेरइया णं' नर. यिकों की केवायं कालं ठिई पन्नता' तिने काल की स्थिति कही गई है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-गोधमा!' हे गौतम! यहां नारकों की जघन्य स्थिति और उत्कृष्ट स्थिति दोनों प्रकार की स्थिति होती है अतः दोनों प्रकार की स्थिति यहां पर कर लेनी चाहिये इस तरह प्रथम
હવે સૂત્રકાર નરકની સ્થિતિનું પ્રતિપાદન કરવા માટે કથન કરે છે. 'इमीसे ण भंते ! रयणप्पभाए' त्यादि
य-गीतभस्वामी प्रसुने ये पूछ्यु है 'इमीसे णं भंते !' 3 भगवन् मा 'रयणप्पभाए पुढवीए' रत्नप्रभावामा 'नेरइयाण' नायिनी 'केवइय' काल ठिई पण्णत्ता' टसा नी स्थिति ४ही छे १ मा प्रश्रना उत्तरमा प्रभु गौतभस्वामीन छ गोयमा है गौतम। मडियां નારકેની જઘન્ય સ્થિતિ અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ એમ બન્ને પ્રકારની સ્થિતિ હોય છે તેથી અહિંયાં બન્ને પ્રકારની સ્થિતિનું કથન કરવું જોઈએ. આ પ્રમાણે પહેલી પૃથ્વીના નારકની જઘન્ય સ્થિતિ દસ હજાર વર્ષની છે અને
अपनी से ण
ताधिची में
Page #351
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रद्योतिका टीका प्र.३ उ. २ . २२ नारक स्थितिनिरूपणभू
३२९
- रत्नप्रभा पृथिवीनारकाणां जघन्येन दशवर्षसहस्राणि उत्कर्षेण सागरोषणम् । शर्कराप्रभा पृथिवी नैरयिकाणां जघन्यत एकं सागरोपमम् उत्कर्पत स्त्रीणि सागरों पमाणि, चालुकाप्रभा पृथिवी नैरयिकाणां जघन्येन त्रीणि सागरोपमाणि उत्कर्षतः साप्त सागरोपमाणि । पङ्कमभा पृथिवीनैरचिकाणां जघन्यतः सह सागरोपमाणि उत्कर्षतो दशसागरोपमाणि, धूमप्रभा पृथिवीनैरविकाणां जघन्यतो दशसावरोपमाणि उत्कर्षतः सप्तदशसागरोपमाणि, तमानमा पृथिवी नैरथिकाणां जपन्यतः सप्तदशसागरोपमाणि उत्कर्षतो द्वाविंशति सागरोष्याणि समस्टम मभा पृथिव्यां राणां जघन्येन द्वाविंशतिः सागरोपमाणि उत्कर्षतः त्रयसिंयत्यागपत्राणि । पृथिवी के नारकों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की है और उत्कृष्ट स्थिति एक सागरोपम की है शर्कराप्रमा पृथिवी में जघन्य स्थिति एक सागरोपम की है और उत्कृष्ट स्थिति तीन लागतेपन की है बालुकाप्रभा के नारकों की जघन्य स्थिति तीन लोगो की है और अष्ट स्थिति सात सागरोषध की है पङ्कमा पृथिवी के जघन्य से सान सागरोपम की है और उत्कृष्ट से की है। धूमप्रभा के नारकों की जघन्य स्थिति दल सागरोपम की है और veकृष्ट स्थिति सत्रह सागरोपम की है-मप्रभा पृथिवी के नारकों की जघन्य स्थिति सनद सागरोपम की है और उत्कृष्ट स्थिति बाईस सागरोपम की है तथा अधः सप्तमी पृथिवी के नैरधिकों की जघन्य स्थिति बाईस सागरोपम की है और उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम की है । इस तरह से गए सामान्य रूप से प्रति पृथिवी में नारकों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति का कथन किया है अब हर
नारकों की स्थिति वह दस सागरोपम
ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ એક સાગરાપરની છે શરાપ્રભા પૃથ્વીમાં જઘન્ય સ્થિતિ એક સાગરાપમની છે. અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ ત્રણ સાગરાપમની છે. વાલુકાપ્રભા પૃથ્વીના નાકાની જઘન્ય સ્થિતિ ત્રણ સાગરાપમની છે. અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ સાત સાગરોપમની છે. પ`ક્રપ્રભા પૃથ્વીમાં નારાની જઘન્ય સ્થિતિ સાત સાગરાપમની છે, અને ઉત્કૃષ્ટથી દસ સાગરાપમની છે. ધૂમપ્રભા પૃથ્વીના નારકાની જઘન્ય સ્થિતિ ઇસ સાગરાપમની છે. અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ સત્તર સાગરેાપમની છે તમ પ્રભા પૃથ્વીના નારકની જઘન્ય સ્થિતિ સત્તર સાગરાપમની છે. અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ ૨૨ ખાવીસ સાગરોપમની છે. તથા અધઃસપ્તમી પૃથ્વીના નૈરયિકાની જધન્ય સ્થિતિ ખાવીસ સાગરોપમની છે, અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ તેત્રીસ સાગરાપમની છે. આ પ્રમાણે સામાન્ય પણાથી દરેક-પૃથ્વીચેમાં રહેલા નારકાની જન્ય અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિનું કથન કરવામાં આવેલ છે.
नी० ४२
Page #352
--------------------------------------------------------------------------
________________
P
जीवामिगम तदेवं सामान्यतः मति पृथिवीस्थितिपरिमाणं कथितं यद्येतत्पतिप्रस्तट स्थि. तिपरिमाणं विचार्यते तदा एवं ज्ञातव्य रत्नप्रभा पृथिव्यां प्रथमे प्रस्तटे जघन्या स्थितिः दशवर्षसहस्राणि, उत्कृष्टा तु नवपिसहस्राणि रकममा द्वितीय प्रस्तुटे जघन्या दशवर्षलक्षा स्थिति रुकष्टा नतिर्वपलक्षा, रत्नामा तृतीय प्रस्तटे जघन्यतो नवविवर्षलक्षा, उत्कृष्टतः पूर्वकोटी, रत्ननमा पृथिव्याः चतुर्थमस्तटे जघन्या पूर्वकोटी उत्कृष्टा सागरोपमध्य दशगो मामा, मरक्षा पञ्चमप्रस्तटे जघन्या सागरोपमस्यैको दशभागः उत्कृष्टा द्वौ दशमागो, रत्नप्रमायिन्या: षष्ठ प्रस्तटे जघन्या सागरोपमस्य द्वौ दशमागौं उत्कृष्टा स्त्रयोदशभामा रत्नप्रभा सप्तमे प्रस्तटे जघन्या स्त्रयः सागरोपमस्य दशभागाः उत्कृष्टाश्चत्वारो दशएक प्रस्तट में स्थिति के प्रमाण का कथन किया जाता है-सो घह इस प्रकार से है-रत्नप्रभा में प्रथम प्रस्तट जघन्य स्थिति दस हजार वर्षे की है उत्कृष्ट स्थिति नब्बे (९०) हजार वर्ष की है। रत्नप्रथा के द्वितीय प्रस्तट में जघन्य स्थिलि दल लाल वर्ष की और उत्कृष्ट स्थिति नन्ये लाख वर्ष की है रत्नप्रभा के तीसरे प्रस्तट में जघन्ध स्थिति नब्वे लाख वर्ष की है और उत्कृष्ट स्थिति एक पूर्व कोटि की है रत्नप्रभा के चतुर्थ प्रस्तट में जघन्य स्थिति एक पूर्व कोटी फी और उत्कृष्ट स्थिति एक सागर के दस वे भाग प्रमाण है रत्नप्रभा के पांचवें प्रस्तट में जघन्य स्थिति साधरोपम के दल विभाग प्रमाण है
और उत्कृष्ट स्थिति दो दश भाग प्रमाण है। रत्नप्रभा के छठे प्रस्तट में जघन्य स्थिति सागरोपम के दो दश भाग प्रमाण है और उत्कृष्ट स्थिति त्रयोदश भाग प्रमाण है रत्नप्रमाके सप्तम प्रस्तर में जघन्य स्थिति
' હવે દરેક પ્રસ્તટમાં સ્થિતિના પ્રમાણનું કથન કરવામાં આવે છે. તે આ પ્રમાણે છે. રતનપ્રભા પૃથ્વીના પહેલા પ્રસ્તટમાં જઘન્ય રિથતિ દસ હજાર વર્ષની છે. અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ ૯૦ નેવું હજાર વર્ષની છે રાનપ્રભા પૃથ્વીના બીજા પ્રરતરમાં જઘન્ય સ્થિતિ દસ લાખ વર્ષની છે. અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ નેવું લાખ વર્ષની છે. રત્નપ્રભા પૃથ્વીના ત્રીજા પ્રસ્તટમાં જઘન્ય સ્થિતિ એવું લાખ વર્ષની છે. અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ એક પૂર્વ કેટિની છે. રત્નપ્રભા પૃથ્વીના ચોથા પ્રસ્તટમાં જઘન્ય સ્થિતિ એક પૂર્વકેટિની અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ એક સાગરના દસમા ભાગ પ્રમાણની છે. નકશા પૃથ્વીના પાંચમા પ્રસ્તટમાં જઘન્ય રિથતિ સાગરોપમના દસમાં ભાગ પ્રમાણુની છે. અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ બે દસમા ભાગ પ્રમાણુની છે. રત્નપ્રભા પૃથ્વીના છઠા પ્રસ્તટમાં જઘન્ય સ્થિતિ સાગરોપમના બે દસમા ભાગ પ્રમાણની છે. અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ તેરમા ભાગ રૂપ છે. રતનપ્રભા પૃથ્વીના સાતમા
Page #353
--------------------------------------------------------------------------
________________
T
प्रमेयोति टीका मं.३ उ. २ . २२ नारकस्थिति निरूपणम्
१३१
,
भागाः, रत्नप्रभा पृथिव्याः अष्टमे मस्तटे जघन्याश्चत्वारः सागरोपमस्य दशभागा उत्कृष्टाः पञ्चदशनागाः, रत्नप्रभा नवसे प्रस्तटे जघन्या पश्ञ्च - सागरोपमस्य दशभागाः पृथिव्याः उत्कृष्टा पद, रत्नप्रभा दशमे मस्तटे जघन्या षट् सागरोपमस्य दशभागाः उत्कृष्टा सप्त, रत्नप्रभाया एकादशे प्रस्तटे जघन्याः सप्त सागोपमस्य दशभागाः, उत्कृष्टा अष्टौ रत्नपथाद्वादशमस्टे जघन्या अष्टौ सागरोपमस्य दशभागा उत्कृष्टा नद, रत्नप्रभा त्रयोदशमस्तटे जघन्या नवसागरोपमस्य दशभागा उत्कृष्टा दश, तदेवं परिपूर्णमेकं सागरोपमं भवति रत्नप्रभा नारकाणां स्थितिरिति । एक सागरोपम के यो दश भाग प्रमाण है और उत्कृष्ट स्थिति चार दश भाग रूप है रत्नप्रभा के आठवें प्रस्तर में जघन्य स्थिति सागरीपन के चार दश भोग रूप है और उत्कृष्ट स्थिति पांच दश भाग रूप है रत्नप्रभा के नौवें प्रस्तट में जघन्य स्थिति लोगरोपम के पांच दश भाग है और उत्कृष्ट स्थिति सागरोपम के छह दश भाग रूप है रहनप्रभा के दसवें प्रस्ट में जघन्य स्थिति सागरोपम के छह दश भाग रूप है और उत्कृष्ट स्थिति सागरोपन के सात दश भाग रूप है रत्नप्रभा के ग्यारह में प्रस्तट में जघन्य स्थिति सानरोपम के खास दश भागरूप है और उत्कृष्ट स्थिति सागरीवन के आठ दश भाग रूप हे रत्नप्रभा के बारह वे प्रस्तर में जघन्य स्थिति सागरोपम के आठ दश भाग रूप है और उत्कृष्ट स्थिति सागरोपम के नौ दशभाग रूप है तथा रत्नप्रभा के तेरह वें प्रस्तर में जघन्य स्थिति लागरोपम के नौ પ્રસ્તટમાં જઘન્ય સ્થિતિ સાગરાપમના તેરમા ભાગ પ્રમાણુની છે. અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ ચાર દસ ભાગ રૂપ છે. રત્નપ્રભાના આઠમાં પ્રસ્તટમા જઘન્ય સ્થિતિ સાગરોપમના ચાર દસમાં ભાગ રૂપ છે, અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ પાંચ દસ ભાગ રૂપ છે. રત્નપ્રભાના નવમાં પ્રસ્તટમાં જઘન્ય સ્થિતિ સાગરાપમના પાંચ દસ ભાગ રૂપ છે. અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ સાગરોપમના છ દસ ભાગ રૂપ છે, રત્નપ્રભા પૃથ્વીના દસમા પ્રસ્તટમાં જઘન્ય સ્થિતિ સાગરોયનના છ દેસ ભાગ રૂપ છે. અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ સાગરોપમના સાત દસ ભાગ રૂપ છે. રત્નપ્રભા પૃથ્વીના અગીયારમા પ્રસ્તટમાં જઘન્ય સ્થિતિ સાગરોપમના સાત ઇસ ભાગ રૂપ છે અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ સાગરોપમના આઠ દસ ભાગ રૂપ છે, રત્નપ્રભા પૃથ્વીના ખારમા પ્રતટમાં જઘન્ય સ્થિતિ સાગરોપના 18 દસ ભાગ છે, અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ સાગરોપમના નવ દસ ભાગ રૂપ છે, તથા રત્નપ્રભા પૃથ્વીના તેરમાં પ્રસ્તટમાં જન્ય સ્થિતિ સાગરોપમના નવ ભાગ્ય
·
Page #354
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
"३३२
जीवामिगमले १ (२) शर्कराममायां प्रथमे प्रस्तटे जघन्या स्थितिरेकं सागरोपमम् उत्कृष्टा एकं सागरोपमं द्वौ च सागरोपमस्यैकादशमागो, द्वितीयमस्तटे जघन्या एक सारोपमम् द्वौ च सागरोपमस्यैकादशभागौ, उत्कृष्टा एकं सागरोपमं चत्वारः सागरोपमस्यैकादशभागाः, तृतीयप्रस्तटे जघन्या एकं सागरोपमं चत्वारः सागरो- पमस्यैकादशभागाः उत्कृष्टा एकं सागरोपमं पटू सागरोपमस्यैकादशभागाः, . चतुर्थप्रस्तटे जघन्या एक सागरोपमं पट् सागरोपमस्यैकादशमागाः, उत्कृप्टा । एकं सागरोपममष्टी सागरोपमस्यैकादरामागाः, पञ्चमे प्रस्तटे जघन्या एकं - सागरोपमम् अष्टो सागरोपमस्यैकादशभागाः, उत्कृष्टा एकं सागरोपमं दक्षदशभाग रूप है और उत्कृष्ट स्थिति सागरोपम के दस भाग रूप है इस तरह ले यहां एक परिपूर्ण सागर की उत्कृष्ट स्थिति आजोती है। - २श शप्रभा के प्रथम प्रस्तट में जघन्य स्थिति एक सागरोपम की है और उत्कृष्ट स्थिलि एक सारोपम की और एक सागरोपम के दो ग्यारहाण रूप है मितीय प्रतट में जघन्य स्थिति एक सागरोपम की और एक सागरोपन के दो ग्यारह आग रूप है तथा उत्कृष्ट स्थिति • पूरे एक सागर की और सागरोपम के चार ग्यारह भाग रूप है। तृतीय
प्रस्लट- जघन्य एक साधरोपस की और एक सागरोपम के चार ग्या-रह भाग रूप है और उत्कृष्ट स्थिति एक सागरोपल की है और एक लागतोष के स्यारह भाग रूप है चौथे प्रस्तट में जघन्य स्थिति एक सोनरोपम के छा ग्यारह भाग रूप है. एवं उत्कृष्ट स्थिति एक सागरोરૂપ છે. અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ સાગરોપમના દસ ભાગ રૂપ છે. આ પ્રમાણે અહિયા એક પરિપૂર્ણ સાગરની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ આવી જાય છે.
(૨) શર્કરામલા પૃથ્વીના પહેલા પ્રતટમાં જઘન્ય સ્થિતિ એક સાગરપમની છે. અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ એક સાગરોપમની અને એક સાગરોપમના બે અગીયારના ભાગ રૂપ છે. બીજા પ્રસ્તટમાં જઘન્ય સ્થિતિ એક સાગરોપમની અને એક સાગરેપસના બે અગીયારમા ભાગ પ્રમાણની છે. તથા ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ ‘પૂરા એક સાગરની અને સાગરોપમના ચાર અગીયારમા ભાગ પ્રમાણની છે. - ત્રીજા પ્રતટમાં જઘન્ય સ્થિતિ એક સાગરોપમની અને એક સાગચમના ચાર અગીયારમા ભાગ પ્રમાણની છે. અને ઉષ્ટ સ્થિતિ એક સાગઆપની તથા એક સાગરોપમના છ અગીયારમા ભાગ રૂપ છે. " ચેથા પ્રરતટમાં જઘન્ય સ્થિતિ એક સાગરોપમની અને એક સાગર
જમના છ અગીયારમા ભાગ રૂપ છે. તથા ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ એક સાગરેપમની , છે અને એક સાગરોપમના આઠ અગીયારમા ભાગ રૂપ છે.
Page #355
--------------------------------------------------------------------------
________________
मैयद्योतिका टीका प्र. ३ . २ लू. २२ नारक स्थिति निरूपणम्
३३३
सागरोपमस्यैकादशभागाः, षष्ठे प्रस्तटे जघन्या एकं सागरोपमं दशसागरोपमस्यैकादशभागाः, उत्कृष्टा द्वे सागरोपमे, एकः सागरोपमस्यैकादशभागाः, सप्तमे प्रस्तटे जघन्या द्वे सागरोपमस्यैकादशो भागः, उत्कृष्टा द्वे सागरोपमे त्रयः सागरोपमस्यैकादशभागाः, अष्टमे प्रस्तटे जघन्या द्वे सागरोपमे त्रयः सागरोपमस्य एकादशभागाः, उत्कृष्टा द्वे सागरोपमे पञ्चसागरोपमस्यैकादशभागाः । नवमे मस्त जघन्या द्वे सागरोपमे पश्च सागरोपमस्यैकादशभागाः, उत्कृष्टा द्वे सागरो पमे सप्त सागरोपमस्यैकादशभागाः, दशमे प्रस्तटे जघन्या द्वे सागरोपमे पम की है और एक सागरोपम के आठ ग्यारह भाग रूप हे पांचवे - प्रस्तट में जघन्य स्थिति एक सागरोपम की और एक लागरोपम के आठ ग्यारह भाग रूप है तथा उत्कृष्ट स्थिति एक सागरोपम की और सागरोपम के दश ग्यारह भाग रूप है छठे प्रस्तद में जघन्य स्थिति एक सागरोपन की और लागरोपम के दस ग्यारह भाग रूप है तथा उत्कृष्ट स्थिति दो लागरोपम की और सागरोपम का एक ग्यारह भाग रूप है - सातवें प्रस्तट में जघन्य स्थिति दो सागरोपम की है और सागरोपम का एक ग्यारह भाग रूप है तथा उत्कृष्ट स्थिति दो सागरोपम की है और एक सागरोपण के तीन ग्यारह भाग रूप है आठवे प्रस्ट में जघन्य स्थिति दो सागरोपल की है और एक सागरोपम के तीन ग्यारह भाग रूप है तथा उत्कृष्ट स्थिति दो सागरोपम की है और एक सागरोपम के पांच ग्यारह भाग रूप है नौवें प्रस्तट में जघन्य
પાંચમા પ્રતટમાં જઘન્ય સ્થિતિ એક સાગરાપમની અને એક સાગરાપમના આઠે અગીયારમા ભાગ રૂપ છે. તથા ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ એક સાગરાપમની અને એક સાગરાપમના દસ અગીયારમા ભાગ રૂપ છે,
છઠ્ઠા પ્રસ્તમાં જઘન્ય સ્થિતિ એક સાગરોપમની અને સાગરામના દસ અગીયારમા ભાગ રૂપ છે. તથા ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ એ સાગરાપસની અને સાગરાપમના એક અગીયારમા ભાગ રૂપ છે.
સાતમાં પ્રસ્તટમાં જઘન્ય સ્થિતિ એ સાગરાપમની અને સાગરાપમના એક અગીયારમાં ભાગ રૂપ છે. તથા ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ એ સાગરોપમની અને એક સાગરોપમના ત્રણ અગીયારમાં ભાગ રૂમ છે.
હૅમાં પ્રસ્તટમાં જન્ય સ્થિતિ એ સાગરાપમની અને એક સાગા પમના ત્રણુ અગીયારમાં ભાગ રૂપ છે. તેમજ ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ એ સાગપમની અને એક સાગરોપમના પાંચ અગીયારમા ભાગ રૂપ છે,
Page #356
--------------------------------------------------------------------------
________________
.३३७
जीवाभिगमस्ने सप्त सागरोपमस्यैकादशभागाः, उत्कृष्टा द्वे सागरोपये नवसागरोपमस्यैकादश भागाः । एकादशे प्रस्तटे जघन्या द्वे सागरोपमे नवसागरोपमस्यैकादशभागाः, उत्कृष्टा त्रीणि सागरोपमाणि ।
(३) बालुशामभायां प्रथममस्तटे जघन्या स्थिति स्त्रीणि सागरोपमाणि उत्कृष्टा त्रीणि सागरोपमाणि चत्वारः सागरोपमस्य नवभागाः। द्वितीयमस्तटे जघन्या त्रीणि सागरोपमाणि चत्वारः सागरोपमस्य नवभागाः, उ कृश त्रीणि सागरोपस्थिति दो सागरोपम की और एक सागरोपम के सात राहर भाग रूप है दशवें प्रस्तट-में जघन्य स्थिति दो सागरोपम की है और एक सागरोपम के सात ग्यारह भाग रूप है लक्षा उत्कृष्ट स्थिति दो सागरोपम की है और एक सागरोपम के नौ ग्यारह भाग रूप है लथा-ग्यारहवें प्रस्तट में जघन्य स्थिति दो सागरोपम की है और एक सागरोपन के नौ ग्यारह भाग रूप है और उत्कृष्ट स्थिति तीन सागरोपम की है। यहां ग्यारह प्रस्तट है असः उनमें रहने वाले लारक जीवों की यह स्थिति कही गई है.
३ बालुकाप्रभा में प्रथम-प्रस्तट में जघन्य स्थिति तीन सागरोपम की और मागरोपा के चार नौ भाग रूप है द्वितीय प्रस्तट में-जघन्य स्थिति तीन सागरोपम की और एक सागरोपम के चार नौ भाग रूप है तथा उस्कृष्ट स्थिति तीन सागरोपम की और एक सागरोपम के आठ
નવમાં પ્રતટમાં જઘન્ય સ્થિતિ બે સાગરોપમની અને એક સાગરે ૫મના સાત અગીયારમાં ભાગ રૂપ છે.
દસમા પ્રતટમાં જઘન્ય સ્થિતિ બે સાગરોપમની અને એક સાગરોપમના સાત અગીયારમાં ભાગ રૂપ છે. તથા ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ બે સાગરોપમની અને એક સાગરોપમના નવ અગીયારમા ભાગ રૂપ છે.
અગીયારમાં પ્રતટમાં જઘન્ય સ્થિતિ બે સાગરિશ્મની અને એક સાગરોપમના નવ અગીયારમાં ભાગ રૂપ છે. અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ ત્રણ સાગરે પમની છે. આ શર્કરાપ્રભ પૃથ્વીમાં અગીયાર પ્રતટ છે તેમાં રહેવાવાળા તારક ની આ સ્થિતિ કહેવામાં આવી છે.
૩–ત્રીજી વાલુકાપ્રભા પૃથ્વીના પહેલા પ્રતટમાં જઘન્ય સ્થિતિ ત્રણ સાગરોપમની છે. અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ ત્રણ સાગરોપમની અને સાગર પમના ચાર નવ ભાણ પ્રમાણુની છે,
બીજા પ્રતટમાં જઘન્ય સ્થિતિ ત્રણ સાગરોપમની અને એક સાગરે પમના ચાર નવ ભાગ રૂપ છે. તથા ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ ત્રણ સાગરોપમની અને એક સાગરોપમના આઠ ભાગ પ્રમાણુની છે.
Page #357
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र. ३ उ.२ सु. २२ नारकस्थिति निरूपणम्
३३५
माणि अष्टौ सागरोपमस्य नवभागाः । तृतीय मस्तुटे जघन्या त्रीणि सागरोपमाणि अष्टौ सागरोपमस्य नवभागाः, उत्कृष्टा चत्वारि सागरोपमाणि त्रयः सागरोपमस्य नवभागाः । चतुर्थे प्रस्तटे जघन्या चत्वारि सागरोपमाणि त्रयः सागरोपमस्य नवभागाः, उत्कृष्टा चत्वारि सागरोषमाणि सप्तसागरोपमस्य नवभागाः । पश्चमे जघन्या चरणारि सागरोपमाणि सप्तसागरोपमस्य नवमानाः, उत्कृष्टा पञ्चसागरोपमाणि द्वौ सागरोषमस्य नवसागौ । षष्ठे मस्तटे जघन्येन पञ्चसागरोपमाणि द्वौ सागरोपमय नवभागौ उत्कृष्टा पञ्चसागरोपमाथि पटू सागरोपमस्य नव भागाः । सध्नुमे जघन्या पञ्चमागरोपमाणि पट् सागरोषमस्य नवभागाः, उत्कृनौ भाग रूप है तृतीय प्रस्ट में - जघन्य स्थिति तीन लागरोपम की और एक सागरोपम के आठ नौ भागरूप है. तथा उत्कृष्ट स्थिति चार सागरोपम की और एक सागरोपन के तीन नौ भाग रूप है। चतुर्थ प्रस्तद में जघन्य स्थिति चार लागरोपम की और एक सागरोपम के तीन नौ भाग रूप है और उत्कृष्ट स्थिति चार लागरोपम की और एक सागरोन के सात वौ भाग है । पश्चम प्रस्तट में जघन्य स्थिति चार सागरोपम की और एक सागरोपण के सात नौ भाग रूप है तथा उत्कृष्ट स्थिति पांच सागरोपम की है और सागरोपम के दो नौ भाग रूप है। छठे प्रस्ट में जघन्य स्थिति पांच सागरोपन की और एक सागरोपम के दोनो भाग रूप है और उत्कृष्ट स्थिति पांच लागरोपम की एवं एक लारोपण के छह नौ भाग रूप है। सातवें प्रस्तद - में जघ ત્રીજા પ્રસ્તટમાં જઘન્ય સ્થિતિ ત્રણ સાગરે પમની અને એક સાગરાપંમના આઠ નવ ભાગ રૂપ છે. તથા ઉત્કૃસ્ટ સ્થિતિ ચાર સાગરોપમની અને એક સાગરોપમના ત્રણ નવ ભાગ રૂપ છે.
-
ચેાથા પ્રસ્તટમાં જઘન્ય સ્થિતિ ચાર સાગરેાપમની અને એક સાગરાપમના પણું નવભાગ રૂપ છે. અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ ચાર સાગરોપમની અને એક સાગરાપમના સાત નવ ભાગ રૂપ છે.
પાંચમાં પ્રસ્તટમાં જઘન્ય સ્થિતિ ચાર સાગરાપમની અને એક સાગરાપમના સાત નવ ભાગ રૂપ છે. તથા ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ પાંચ સાગરોપમની અને સાગરોપમના એ નવ ભાગ રૂપ છે,
છઠ્ઠા પ્રસ્તટમાં જઘન્ય સ્થિતિ પાંચ સાગરોપમની અને એક સાગરો. પમના એ નવ ભાગ રૂપ છે. અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ પાંચ સાગરોપમની અને એક સાગરોપમના છ નવ ભાગ રૂપ છે. સાતમા પ્રસ્તટમાં જઘન્ય સ્થિતિ પાંચ
Page #358
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
३३६
जीवामिगमत्र टा षट्र सागरोपमाणि एकः सागरोपमध्य नवभागाः । अष्ट में प्रस्तटे जघन्या षट सागरोपमाणि एकः सागरोपमाय नमो भागः, उत्कृष्टा पट् सागरोपमाणि पञ्च सागरोपमस्य लवभागाः। ननमे प्रस्तटे जघन्या पटू सागरोपमाणि पश्चसागरो पमस्य नव भागाः, उत्कृष्टा परिपूर्णानि सप्त सागरोपमाणि ।।
(४) पङ्कममायां प्रथमे मस्टे जघन्या स्थितिः सप्त सागरोपमाणि उत्कृष्टा सप्त सागरोपमाणि यः सागरोपपस्य सप्त भागाः। द्वितीये प्रस्टे जघन्या सप्त सागरोपमाणि त्रयः सागरोपमस्य सप्तभागाः, उत्कृष्टा सप्त सांगरोपमाणि न्य स्थिति पांच सामोपी और एक सागर के छह नौ भाग रूप है और उत्कृष्ट स्थिलि छह सागरोपल की तथा एक सागरोपम के एक नौवें भाग रूप. जाठ प्रहालट-में जघन्य स्थिति छह सोगरोपम की है और एक लागा के एक नौवें भाग रूप है तथा उत्कृष्ट स्थिति छह सागरोएम और एक सागरोपन के पानी भाग रूप है.
और नौवें प्रस्तट-में जघन्य स्थिति छह सागरोपन की है और एक सागरोपम के पांच नौ मान रूप है। और उत्कृष्ट स्थिति पूरे सात सागरोपम की है। यहां नौ ही प्रस्तर है अत: उनकी यह जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति कही गई है।
४:-पङ्कपभा के प्रथम प्रस्तट-में जघन्य स्थिलि सात सागरोपम की और एफ बामशेपम के तीन सात भाग रूप है। वित्तीय प्रस्तट में जघन्य સાગરોપમની અને એક સાગરોપમના છ નવભાગ રૂપ છે. અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ છ સાગરોપમની તથા એક સાગરોપમના એક નવ ભાગ રૂપ છે.
આઠમાં પ્રસ્તટમાં જઘન્ય સ્થિતિ છ સાગરોપમની અને એક સાગપમના એક નવમા ભાગ રૂપ છે. તથા ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ છ સાગરોપમ અને એક સાગરોપમના પાંચ નવ લાગ રૂપ છે.
નવમા પ્રસ્તટમાં જઘન્ય સ્થિતિ છ સાગરોપમની અને એક સાગર૫મના પાંચ નવ ભાગ રૂપ છે અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ પૂરા સાત સાગરોપમની છે.
અહિયાં નવ જ પ્રસ્ત છે. તેની આ જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટ કિધતિ બતાવવામાં આવી છે.
૪ પંકણભા પૃથ્વીના પહેલા પ્રસ્તટમાં જઘન્ય સ્થિતિ સાત સાગરોપમની અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ સાત સાગરોપમની અને એક સાગરોપમના ત્રણ ભાગ રૂપ છે.
બીજા પ્રતટમાં જઘન્ય સ્થિતિ સાત સાગરોપમની અને એક સાગરે
Page #359
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.२ सह.२२ नारकस्थितिनिरूपणम् --- --- ३३ षद सागरोपमरय सप्तमागाः। तृतीयास्तटे जघन्या सुप्लसागरोपमाणि षट् सागरोपमध्य सप्तभागा, उत्कृष्टा अष्टौ सागरोपमाणि द्वौ सापशेषमस्व सप्त भागौ । चतुर्थ प्रस्तटे जघन्या अष्टौ साघरोपमाणि छौ सागरोषमा सहभागी उस्कृष्टा अष्टौ सागरोपमाणि पञ्च सामोपमस्य सप्तमामाः । पञ्चमे मस्टे जघन्या अष्टौ सागरोपमाणि एचसागरोपपत्य सप्तमागा: उत्कृष्टानब सागरोपमाणि एका सागरोपखस्य सप्तमामा ! पष्ठ पस्तटे जबल्या नर सानोश्वाणि एका सागरोपणस्य सप्तभाणा, उत्कृष्टा नब सागरोपमाणिकरचार सायशे परस्य स्थिति खाला लागाशेपन की और एक हारीमतीम नाम उपा तथा उत्कृष्ट स्थिति साल मारपी और एक सवालोएम के छह सात भाग रूप है। तृतीय-इन में-जन्य स्थिति का सामना की और एक सागरोपस के छह साल का रूप है लालकुट हिलि बाट सागरोपन की और एक साधारपस के भोला पास कर है। तुर्धर प्रस्तट में जघन्य स्थिति आठ हायशेप की और एक सापक के दो सात भाग रूप है. तथा उत्कृष्ट स्थिलि आठ साल की है और-- एक सागरोपल के पांच लाल माल रूप पंच- प्रतट जघन्य स्थिति आठ लागोपन और एका स्वागदोपत्र पांच साल भर पहै तथा उत्कृष्ट स्थिति नौ सामना और एक लापहर के एक मात रूप है. छठे-प्रस्तट जघन्य स्थिति को लागोपलानी और एनस्वागरोपम के एक सात भाग रूप हे लक्षा उत्कृष्ट स्थिति की सामोपपफी મને ત્રણ સાત ભાગ રૂપ છે. તથા ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ સાત સાગરોપમની અને એક સાગરેપમના છ સાત ભાગ રૂપ છે.
ત્રીજા પ્રસ્તટમાં જઘન્ય સ્થિતિ સાગરોપમની અને એક સાગરોપમના છ સાત ભાગ રૂપ છે. તથા ઉત્કૃષ્ટ રિથતિ આઠ વાગરેપમની અને એક સાગરોપમના બે સાત ભાગ રૂપ છે.
ચેથી પ્રસ્તટમાં જઘન્ય સ્થિતિ આઠ સાગરોપમની અને એક રાગરો પમના બે સાત ભાગ રૂપ છે. તથા ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ આઠ સાગરેપમની અને એક સાગરોપમના પાંચ સાત ભાગ રૂપ છે. - પાંચમાં પ્રસ્તટમાં જઘન્ય સ્થિતિ આઠ સાગરોપમ અને એક સાગરો પમના પાંચ સાત ભાગ રૂ૫ છે. તથા ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ નવ સાગરોપમના એક સાત ભાગ રૂપ છે.
છટ્ઠા પ્રતટમાં જઘન્ય સ્થિતિ નવ સાગરોપમની અને એક સાગરોપजी० ४३
Page #360
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
जीवाभिगमको सप्तभागाः । सप्तमें जघन्या नव सागरोपमाणि चत्वारः सागरोपमस्य सप्तभागार, उत्कृष्टा परिपूर्णाणि दर सागरोपमाणि ॥
(५) धूमममायां प्रथमे पस्तटे जघन्या स्थिति दश सागरोपमाणि उत्कृष्टा एकादश सागरोपमागि द्वौ सागरोपमस्य पञ्चभागौ। द्वितीयमस्तटे जघन्या एकादश सागरोपमाणि द्रौ सागरोपमस्य पञ्च भागो उत्कृष्टा द्वादशसागरोपमाणि चत्वारः सागरोपमस्य पञ्चभागः । तृतीय प्रस्तटे जघन्या द्वादश सागरोपमाणि चत्वारः सागरोपमस्य पञ्चभागाः, उत्कृष्टा चतुर्दश सागरोपमाणि एका साग
और एक सागरोपम के चार सात भाग रूप है। सप्तम-प्रस्तट में जघन्य स्थिति नौ सागरोपम की और एक स्लागरोपम के ४ चार सात भाग रूप है तथा उत्कृष्ट स्थिति पूरे दश सागरोपम की है इसमें सात प्रस्तट है।
५ धूमप्रभा के-प्रथम प्रस्तट में जघन्य स्थिति दश सागरोपम की है उत्कृष्ट स्थिति ग्यारह सागरोपम की और एक सागरोपम के दो पांच भाग रूप है द्वितीय प्रस्तट-में जघन्य स्थिति ग्यारह नागरोपम की
और एक सागरोपम के दो पांच भाग रूप है तथा उत्कृष्ट स्थिति बारह सागरोपम और एक सागरोपम के चार पांच भाग रूप है। तृतीय प्रस्तट-में जघन्य स्थिति बारह सागरोपम की और एक सागरोपम के चार पांच भाग रूप है और उस्कृष्ट स्थिति चौदद लोगरोपम की एवं एक सागरोपम के एक पांच भाग रूप है। चतुर्थ-प्रस्तंट में जघन्य મના એક સાત ભાગ રૂપ છે. તથા ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ નવ સાગરોપમની અને એક સાગરોપમના ચાર સાત ભાગ રૂપ છે.
સાતમા પ્રતટમાં જઘન્ય સ્થિતિ નવ સાગરોપમની અને એક સાગરેપમના ૪ ચાર સાત ભાગ રૂપ છે. અને જે કૃષ્ટ સ્થિતિ પૂરા દસ સાગરેપપમની છે. આમાં સાતજ પ્રસ્ત છે.
(૫) ધૂમપ્રભા પૃથ્વીમાં પહેલા પ્રસ્તટમાં જઘન્ય સ્થિતિ દસ સાગરોપમની અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ અગીયાર સાગરોપમની અને એક સાગરોપમના બે પાંચ ભાગ રૂપ છે.
બીજા પ્રસ્તટમાં જઘન્ય સ્થિતિ અગીયાર સાગરોપમની અને એક સાગરોપમના બે પાંચ ભાગ રૂપ છે. તથા ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ બાર સાગરેપમની અને એક સાગરોપમના ચાર પાંચ ભાગ રૂપ છે. . ત્રીજા પ્રસ્તટમાં જઘન્ય સ્થિતિ બાર સાગરોપમની અને એક સાગપમના ચાર પાંચ ભાગ રૂપ છે. અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ ચૌદ સાગરોપમની અને એક સાગરોપમના એક પાંચમાં ભાગ રૂપ છે.
Page #361
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रोपयोतिका टीकाप्र.३ उ.२ सू.२२ नारकस्थिंतिनिरूपणम् रोपमस्य पञ्चभागाः । चतुर्थ प्रस्तटे जघन्या चतुर्दश सागरोपमाणि एका सागरोपमस्य पञ्चभागाः, उत्कृष्टा पञ्चदश सागरोपमाणि त्रयः सागरोपमस्यः पर भागाः । पञ्चम प्रस्तटे जघन्या पञ्चदश सागरोपमाणि त्रयः सागरोपमस्य पत्र भागाः, उत्कृष्टा परिपूर्णालि सप्तदश सागरोपमाणि ॥
(६) तमामभायां षष्ठ पृथिव्यां प्रथमप्रस्तटे जघन्या स्थितिः सप्तदशसागरोपमाणि उत्कृष्टा अष्टादश सागरोपमाणि द्वौच सागरोपलस्य त्रिभागौ ॥ द्वितीय मस्तटे जघन्या अष्टादश सागरोपमाणि द्वौच सागरोपमस्य त्रिभागौ, उत्कृष्टा विंशतिः सागरोपमाणि एका सागरोपमस्य त्रिभागः। तृतीयप्रस्तटे जघन्या विंशतिः स्थिति चौदह सागरोपम की और एक स्लागरोपम के एक पांच भाग रूप है तथा उत्कृष्ट स्थिति पन्द्रह लागरोपन और एक सागरोपम के तीन पांच माग रूप है । पञ्चम प्रस्तट-में जघन्य स्थिति पन्द्रह सागरो.
पम को और एक सागरोपम के तीन पांच भागरूप है तथा- 'उस्कृष्ठ . स्थिति पूरे सत्रह सागरोपस की है। यहां पांच प्रस्तट है।
(६) तमाप्रभा के-प्रथम प्रस्ताट में जघन्य स्थिति सत्रह सागरोपम की है और उत्कृष्ट स्थिति अठारह सागरोपम की एवं सागरोपम के दो तीन भाग रूप है। द्वितीय प्रस्तट में जघन्य स्थिति अठारहासागरोपम और एक सागरोपम के दो तीन भाग रूप है तथा उत्कृष्ट स्थिति बीस सागरोपम की और एक सागरोपम के एक तीन भाग रूप है। तृतीय प्रस्तट में जघन्य स्थिति बीस सागरोपम की और एक सागरोपम
ચેથા પ્રસ્ટતમાં જઘન્ય સ્થિતિ ચૌદ સાગરોપમની અને એક સાગરે પમના એક પાંચ ભાગ રૂપ છે. તથા ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ પંદર સાગરોપમ એને એક સાગરોપમના ત્રણ પાંચ ભાગ રૂપ છે.
પાંચમાં પ્રસ્તટમાં જઘન્ય સ્થિતિ પંદર સાગરેપની અને એક સાગામના ત્રણે પાંચ ભાગ રૂપ છે. તથા ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ પૂરા સત્તર સાગરે પમની છે. આમાં પાંચ જે પ્રસ્ત છે.
(૬) તમઃપ્રભા પૃથ્વીના પહેલા પ્રસ્તામાં જઘન્ય સ્થિતિ સાર સાગર પની છે. અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ અઢાર સાગરેપની અને સાગપમના બે ત્રણ ભાગ રૂપ છે.
બીજા પ્રતટમાં જઘન્ય સ્થિતિ આહાર સાગરોપમની અને એક સાગર પમના બે ત્રણ ભાગ રૂપ છે. તથા ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ વીસ સાગપમની અને એક સાગરોપમના ત્રણ ભાગ રૂપ છે. બીજા પ્રતટમાં જઘન્ય સ્થિતિ વિસ સાગરોપમની અને એક સાગરોપમના એક
Page #362
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४०
जीवाभिगमसूत्रे सागरोपमाणि ॥ (७) सप्तम्यां पृथिव्यां तु एक एव मस्तटोऽत्र जघन्येन द्वाविंशतिः
सागरोपमाणि, उत्कर्पवस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि स्थिति भवति नारकाणामिति ।। .. सम्पति-नैरयिकाणा मुद्वर्तनामाह-'इमीसे णं' इत्यादि, 'इमीसे णं भंते'
एतस्यां खलु भदन्त ! 'श्यणप्पभाए पुढबीए णेरइया' रत्नप्रभापृथिव्यां नैरयिकाः अतरं उबहिय कर्हि गच्छति' अनन्तरमुढत्य-रत्नप्रमाती विनिर्गत्य तदनन्तरं कुत्र गच्छन्ति, 'कहिं उबज्जति कुत्र-कस्मिन् स्थाने उत्पद्यन्ते 'कि णेरइएस्सु उअवजलि कि तिरिक्खनोणिए उववज्जति' किं नैरयिकेपूत्पधन्ते किंवा तिर्ययोनिकेषु उत्पद्यन्ते नारकाः नरकाताः किं पुन नारकगतावेव उत्पधन्ते देवगतौ बोत्स्यन्ते इति प्रश्ना, अविदेशद्वारेण उत्तरयति-'एवं उब्ध. के एक तीन भाग रूप है तथा उत्कृष्ट स्थिति बाईस सागरोपम की है। यहां तीन प्रस्तट है। - ७-नावी पृथिवी सें-एक ही मस्तट है इसलिये यहां जघन्य स्थिति चाईल (२२) सागरोपम की है और उत्कृष्ट स्थिति तेतीस ३३ सागरोपन पी। . अब रचिती दी उतना का कथन करते है -'इनीले ण' इत्यादि
हमीणं संते !' हे सहा ! इस स्थणप्पभाए पुढवीए' रत्नप्रभा प्रथिवी परहया लेषिक अतरं जट्टिय कहिं नञ्छति' सीधे निकलकर कहां जाते हैं कहिं उबवज्जति शं उत्पन्न होते हैं ?' किं णेरहएलु उपजति विं तिरिकालजोगिएसु उज्जति 'क्या वे नरचिों की उपज होते ? पा तिर्यग्बोलिकों में उत्पन्न होते है ? या मनुष्य भक्ति में ही उत्पन्न होते है ? देव गति में उत्पन्न होते हैं ? अति ત્રણ ભાગ રૂપ છે. તથા ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ બાવીસ સાગરોપમની છે. આમાં ત્રણજ પ્રરતટો છે.
(૭) સાતમી પૃથ્વીમાં એક જ પ્રતટ છે. તેથી અહિયાં જઘન્ય સ્થિતિ બાવીસ સાગરેપની છે. અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ તેત્રીસ સાગરેપની છે.
वे नैयिनी जतनाना समयमा ४थन ४२वामां आवे छे 'इमीसे ण' छत्या इमीसे ण म ।' साप मा 'रयणप्पभाए पुढवीए' २त्नप्रसा-पृथ्वीना 'णेरइया' नैरयि त्यांया 'अणतरउवाट्रिय कहिं गच्छति' सीधा नीर यां भनय छ ? 'कहिं उबवज ति' च्या उत्पन्न थाय छ १ 'किं णेरइएसु उववज्जति किं तिरिक्खजोगिएलु उववज्जति' शुतमा विष्ठीमा त्पन्न थाय छ ? તિર્થગેનિકમાં ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા મનુષ્યમાં ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા દેવાતિમાં ઉત્પન્ન થાય છે? અતિદેશ દ્વારા આ પ્રશ્નને ઉત્તર આપતાં પ્રભુ ४३ छ, 'एवं उबट्टणा भाणियबा जहां वक्कतीए तह इह वि जाव अहेस
Page #363
--------------------------------------------------------------------------
________________
રૂછે
प्रमेयद्योति का टीका प्र.३ उ.२ सू.२२ नारकस्थितिनिरूपणम् दृणा' इत्यादि, 'उनबट्टणा भाणियबा जहा इवीए वहा इह वि जात्र अहे सत्तमाए' एवमुद्वर्तना, नारकजीवानां नरकादुष्वृत्तानां अणितव्या। यथा व्यु. स्क्रान्तिपदे तथेहापि याबदधः सप्तख्याल प्रज्ञापनाया व्युत्क्रान्तिपदे येन प्रका. रेणोद्वर्तना कथिता तथैवात्रापि ज्ञातव्या, भज्ञापनाया द्वितीय व्युत्क्रान्ति पदमति विस्तृत विद्यते अतः पाठकैः स्वयमेव तत्मकरणं द्रष्टव्यम् संक्षेपतस्तु इत्थम्रत्नप्रभात आरभ्य यावत् तमाममा पृथिवी नरयिकाः आरयः पृथिवील्य उद्धृत्य नैरयिक देवैकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय संमृच्छिम पञ्चेन्द्रियासंख्येयवर्षायुष्कवर्जेषु शेषेषु उत्पद्यन्ते, तमस्तमा पृथिवीनारकास्तु अनन्तरात्ताः सन्तो गर्भजतियक् पश्चेन्द्रियेष्वेव उत्पद्यन्ते न शेपतिर्यक्षु न बा देवेषु न वा मनुष्येषु इति ॥९० २२॥ देश द्वारा इस प्रश्न का उत्तर देते हुए प्रभु गौतमरवानी से कहते हैं___'एवं उववणाभाणियमा जहा सक्कलीए तह इह थि जाव अहे सत्तमाए' हे गौतम ! जैसा नारकों की उछतमा के सम्बन्ध में प्रज्ञापना के छठे व्युत्क्रान्ति पद में कथन किया गया वैसा ही कथन यहां पर भी कर लेना चाहिये प्रज्ञापन का वह व्युत्क्रान्ति नाम का छठा पद बहुत विस्तृत है अतः जिज्ञास्तुओं को छह प्रज्ञापना में देखना चाहिये संक्षेपतः उसका कथन इस प्रकार से है-रत्नप्रभा ले लेझर लम:प्रभा तक से निकला हुआ नरथिक देव एजेन्द्रिय, विश्लेन्द्रि, संच्छिम पञ्चेन्द्रिय, और असंख्यात वर्ष की आयुबाले जीवों में उत्पन्न नहीं होते हैं। बाकी के तिर्यक मनुष्यों में उत्पन्न होते है तथा अधालप्तमी पृथिवी से निकला हुआ नैरजिक जीव सीधा गर्मज तिर्थक पञ्चेन्द्रियों में ही उत्पन्न होता है शेष तिर्यों में देशों और अनुष्यों में उत्पन्न नहीं होता है । सूत्र ॥२२॥ न्तमाए' गौतम! नानी नाना समा2 प्रभारी प्रज्ञापन। સૂત્રને છઠા વ્યુત્ક્રાંતિ પદમાં જે પ્રમાણે કથન કરવામાં આવેલ છે. એ જ પ્રમાણે કથન અહિયાં પણ કહેવું જોઈએ. પ્રજ્ઞાપના સૂત્રનું તે વ્યુત્ક્રાન્તિ નામનું છઠું પદ ઘણું મોટું છે. તેથી જીજ્ઞાસુઓએ તે પ્રજ્ઞાપના સૂત્રમાં જોઈ લેવું.
સંક્ષેપથી તેનું કથન આ પ્રમાણે છે. રત્નપ્રથા પૃથ્વીથી લઈને તમ પ્રભા પૃથ્વીમાંથી નીકળેલા નૈરયિક જો સીધા નિરયિક, દેવ, એકેન્દ્રિય, વિકલેન્દ્રિય, દ્મભૂમિ પંચેન્દ્રિય અને અસંખ્યાત વર્ષની આયુષ્યવાળા જીમાં ઉત્પન્ન થતા ભથી. તે સિવાયના તિર્યગુ, મનુષ્યમાં ઉત્પન્ન થાય છે. તથા અધ'સપ્તમી પૃથ્વીમાંથી નીકળેલા નૈરયિક જી સી ગર્લજ તિર્યક્ર પંચેન્દ્રિમાં જ ઉત્પન્ન થાય છે. બાકીના તિર્યમાં, દેવામાં અને મનુષ્યોમાં ઉત્પન્ન થતા નથી. સૂ. ૨૨
Page #364
--------------------------------------------------------------------------
________________
રૂછે ?
जीवाभिगमसूत्र सम्प्रति-नरकेषु पृथिव्यादि स्पर्शस्वरूप प्रतिपादनार्थमाह-'इमीसे णं' इत्यादि।
मूलम्-इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया केरिसयं पुढवीफासं पच्चणुब्भवमाणा विहरंति ? गोयमा । अणिष्टुं जाव अमणानं, एवं जाव अहे सत्तमाए। इमांसे ण भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया केरिसयं आउफासं पच्चणुब्भवमाणा विहरंति ? गोयमा ! अणिर्दै जाव अमणाम, एवं जाव अहे लत्तमाए, एवं जाव वण्णप्फइ फासं अहे सत्तमाए पुढवीए । इसाणं भंते ! रयणप्पभाए पुढवी दोच्चं पुढविं पणिहाय समहतिया बाहल्लेणं लव्वखुडिया सव्वतेसु ? हंता, गोयमा ! इमाणं रयणप्पभा पुढवी दोच्चं पुढविं पणिहाय जाव खुड्डिया सव्वतेसु । दोच्चाणं भंते ! पुढवी तच्चं पुढविं पणिहाय सव्वमहतिया बाहल्लेणं पुच्छा, हंता, गोयमा! दोच्चाणं पुढवी जाव सव्व खुड्डिया सव्वं तेसु । एवं एएणं अभिलावेणं जाव छट्ठिया पुढवी अहे सत्तमं पुढविं पणिहाय जावः सव्वखुड्डिया सब्बतेसु ॥ इमीले णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीलाए नरयावाससयसहस्लेसु इकमिकसि निरयावासंसि सव्वे पाणा सव्वेभृया सव्वजीवा सव्वेसत्ता पुढवीकाइयत्ताए जाव वणस्लइकाइयत्ताए रहयत्ताए उववन्नपुवा ? हंता, गोयमा ! असई अहवा अणंतखुत्तो, एवं जाव अहे सत्तमाए पुढवीए, नवरं जत्थ जत्तिया परया। इमीले णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए निरयपरिसामंतेसु जे पुढवीकाइया जाव वणस्सइकाइया ते णं भंते! जीवा महाकम्मतरा चेव महाकिरियतरा चेव महाआसवतरा चेव महावयणतरा चेव ? हंता,
Page #365
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र. ३ . २ ३.२३ नरकेषु पृथिव्यादि स्पर्शस्वरूपम् गोयमा ! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए निरयपरिसामंतेसु तं चैव जाव महावेयणतरा वेव, एवं जाव अहे सत्तमाए ॥ पुढविं ओगाहिता गरगा संठाण मेव बाहलं । विक्खंभपरिक्खेवे वण्णो गंधो य फासो य ॥१॥ तेसिं महालया उपमा देवेण होह कायव्वा । जीवा य पोग्गला वक्षमंति तह लासया निरया ॥२॥ उववायं परिमाणं अवहारुच्चत्तमेव संघयणं । संठाण वण्णगंधा फासाऊसासमाहारे ॥३॥ लेस्सादिट्टी नाणे जोगुवओगे तहा समुग्धाया । तत्तो खुहा पिवासा विव्वणा वेयणा य भए || ४ || उववाओ पुरिसाणं ओवम्मं वेयणाए दुबिहाए । उव्वट्टणं पुढवीउ उबवाओ सव्वजीवाणं ॥५॥ एयाओ संगहणि गाहाओ ॥ सू० २३ ॥ ॥ बीओ उद्देशो समत्तो ॥
छाया - एतस्यां खल भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैरयिकाः कीदृशं पृथिवी स्पर्श प्रत्यनुभवन्तो विहरन्ति ? गौतम ! अष्टिं यावदमनोऽमम् । एवं यावदधः सप्तम्याम् । एतस्यां खलु भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैरयिकाः कीदृशम् अपस्पर्श प्रत्यनुभवन्तो विहरन्ति ? गौतम ! अनिष्टं यावदमनोऽमम् । एवं यावदधः सप्तम्याम् एवं यावद्वनस्पति स्पर्शम् अधः सप्तम्यां पृथिव्याम् । इयं खलु भदन्त ! रत्नप्रभा पृथिवी द्वितीयां पृथिवीं प्रणिधाय सर्वमहती बाहल्येन सर्वक्षुल्लिका सर्वान्तेषु ? हन्त गौतम । इयं खलु रत्नप्रभा पृथिवी द्वितीय पृथिवीं प्रणिधाय यावत् सर्वक्षुल्लिका सर्वान्तेषु । द्वितीया खलु भदन्त ! पृथिवी तृतीय पृथिवीं प्रणिधाय सर्वम्हनी बाहल्येन पृच्छा हन्त, गौतम ! द्वितीया खलु पृथिवी यावत सर्वक्षुल्लिका सर्वान्तेषु एवमेतेनाभिलापेन यावत् पष्ठी पृथिवी अधः सप्तम पृथिव पणिधाय यावत् सर्वक्षुल्लिका सर्वान्तेषु । एतस्यां खलु भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां त्रिशतिनरकावामशतसहस्रेषु एकैकम्मिन् नरकावासे सर्वे प्राणाः सर्वे भूताः सर्वे जीवाः सर्वे सत्त्वाः पृथिवीकायिकतया यावद्वनस्पति कायिकतया नैरयिकतया उत्पन्नपूर्वी ? हे गौतम ! असकृत् अथवा अनन्त
,
૩૦૨
Page #366
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवाभिगमसूत्र कृत्वः । एवं यारधः सारयां पृथिव्याम् नवरं यत्र यावन्तो नरकाः। एतस्या खल्ल भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां नित्यपरिसासन्तेषु ये प्रथिवीकायिका याव द्वनस्पतिकायिका स्ते बल्ल भदन्त ! जीवा महासतरा एव महाक्रियतरा एवं महाश्रयतरा एव महावेहना ? हन्त, नोरम ! एतस्यां खल्ल रत्नमभायां पृथिव्यां नरकपरिक्षामन्तेषु नदेव यादद् महावेदनतरा एक, एवं यावदधः सप्तम्याम् ।
पृथिवीमवयाह्य बरका संस्थानमेव वाइल्यम् । विष्कारपरिक्षणों बन्धश्च रूपश्च ॥१॥ तेषां महत्तायामुपमा वेन अति कर्तव्या। जीवाश्थ पुदला व्युत्कामन्ति तथा शाश्वताः निरयाः ॥२॥ उपधातः परिमाण गपहारोच्छन्दमेव संहन्नम् । संस्थानवर्णगन्धाः स्पगई उच्छ्वास आहार ॥३॥ लेया दृष्टिज्ञानं योगोपयोगी तथा समुद्घाताः । ततः क्षुधा पिपाला विणावेदना च भयम् ॥४॥ उपपात: पुरुषाणा मौषम्यं वेदनायां द्विविधायाः । उद्वर्तना पृथिवीतु उपयातः सर्वजीवानाम् ॥५॥
एताः संबहिणीनाथा ॥२३॥
॥ तृतीयमतिपत्तौ द्वितीगद्देशकः समाप्तः ।। टीका-'हमीसे गं भंते । एतस्यां खलु भदन्त ! 'रयणप्पभाए पुढवीए' रत्नप्रभायां पृथिव्याम् ‘नेरइया' नैरयिका:-नारकजीवा के रिसयं' कीदृशंकिमाकारकम् 'पुढवीफासं' पृथिवीपर्श कर्कशमृद्धत्वादिकम्, 'पच्छणुभवमाणा' प्रत्यनुमवन्तः वेदयमानाः 'विहरति विहरन्ति-निष्ठन्तीति प्रश्न', भगवानाह
अप नरकों में पृथिव्यादि के स्पर्श झा कथन करते हैं'इमी से णं भंते ! रक्षणप्प लाए पुढचीए-इत्यादि।
टीकार्थ-'हनीसे णं अंले' हे भदन्त ! इस 'रथणप्पभाए पुढवीए' रत्नप्रभा पृथिवी, रविण जीव क्षेतिस्वयं पुढवी फासं कैसी पृथिवी स्पर्शका पच्चणुभवमाणा विकरति' अनुभव करते है ? उत्तर में प्रभु
वे ना२ मां पृथिव्याहिना २५शन ४थन ४२वामां आवे छे. 'इमीसेण भते रयणप्पभाए पुढीए' त्यादि
--'इमीसे ण मते ' है सावत् मा 'रयणप्पभाए पुढवीए' मा २नमा पृथ्वीमा नैयि छ। 'रिमय पुढीफास' वी पृथ्वीना २५ । 'पच्चणुभवमाणा विहरति' भनुम ४२ छ ? म प्रश्न उत्तरमा
Page #367
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.२ सू.२३ नरकेषु पृथिव्यादि स्पर्शस्वरूपम् ३५ 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'अणिढे जाव अमणाम' अनिष्टं यावत् -अकान्तमप्रियममनोज्ञममनोऽमं पृथिवीस्पर्श वेदयमानाः तिष्ठन्ति, रत्नप्रमानारका अनिष्टत्वादिगुणोपेतानेव पृथिवीस्पर्शान् प्रत्यनुभवन्ति न 'तु स्वल्पमपि सुखकारणं पृथिवीपर्श संवेदयन्तीति एवं जाव अहे सतगाए एवं यावदधः सप्तम्याम् । एवम्-अनेनैव प्रकारेण शर्कराममात आरभ्य अधः सप्तमी पर्यन्तं नारकास्तत्र तत्र पृथिव्या पनिष्टादि रूपयेव पृथिवीरपर्श गनुभवन्ति । तथाहि-हे भदन्त ! शराममायां पृथिव्यां नारकाः कोदृशं पृथिवीपर्शमनुमनन्ति, हे गौतम । अनिष्टमकान्तमपिय ममनोज्ञ ममनोऽमं पृथिवीपर्शमनु भवन्ति। एवं वालुकाममा-पङ्कप्रभा-धूममभा-तमः प्रमालमस्तमा ममाथिवीवाद कहते हैं-'गोयमा! अणिट्ट जाश असणामं हे गौतम! वहां नारका जीव अनिष्ट यावत्- अकान्त अप्रिय, अमनोज्ञ और अमनोऽय रूप पृथिवी स्पर्श का अनुभवन करते हैं। तात्पर्य कहने का थाती है कि सरक जीडो का स्वयं स्पर्श ही जल अलिष्टत्यादि गुणों वाला होता है तो फिर भूख के कारणभूत पृथिवी स्पर्श का वे अनुभशन कैसे कर सकता है ? अतः उनको थोडे से भी सुख के कारणभूत स्पर्श क्षा संवेदना नहीं होली है 'एवं जाव अहे सत्तमाए' इसी तरह शर्कशप्रभा पृषिषी ने लेकर अधासप्तमी पृथिवी तक के नारक भी सुख के कारण भूत पृथिवी स्वर्श का अनुभवन नहीं करते हैं । अर्थात् वे सच भी अनिष्ट, अकाल, अप्रिय, अमनोज्ञ एवं अलनोऽम्म पृथिवी स्पर्श का अनुभव करते हैं। इस तरह से पृथिवी स्पर्श के लम्बन्ध में शर्कराप्रभा ले अधः सप्तमी प्रभु गौतभस्वामीन ४९ छ ? 'गोयमा ! अणि जाव अमणाम' हे गौतम ! ત્યાં નારક જીવો અનિષ્ટ યાવત્ અકાન્ત, અપ્રિય, અમનેશ, અને અમનેડમ રૂપ પૃથ્વીના સ્પર્શને અનુભવ કરે છે.
આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે નારક અને સ્વયં સ્પર્શજ જયારે અનિષ્ટવાદિ ગુણે વાળો હોય છે, તો પછી સુખના કારણભૂત પ્રથ્વીના સ્પર્શનો અનુભવ તેઓ કેવી રીતે કરી શકે? તેથી તેઓને થોડા એવા सुमना ४१२६५ ३५ २५शन सवहन थ नथी. 'एव जाव अहे खत्तमाए' सेकस પ્રમાણે યાવત્ શર્કરા પ્રભા પૃથ્વીથી લઈને અધઃસપ્તમી પૃથવી સુધીના નારકજી પણ સુખના કારણરૂપ એવા પૃથ્વી સ્પર્શને અનુભવ કરતા નથી. અર્થાત્ તેઓ બધાજ અનિષ્ટ, અકાન્ત, અપ્રિય, અમનેશ, અને અમનેમ પૃથ્વી સ્પર્શને અનુભવ કરે છે. આ પ્રમાણે પૃથ્વીના સંબંધમાં શર્કરા પ્રભા પૃથ્વીથી અધ:સપ્તમી પૃથ્વી પર્યન્તના સૂત્રોના આલાપકેને પ્રકાર સ્વયં બનાવીને સમજી લેવો.
जी० ४४
Page #368
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवाभिगमसूत्रे विविच्य सूत्राणि स्वयमेवोहनीयानीति । 'इमीसे णं भंते ! रयणस्वभाप पुढवीए arter' एतस्यां खलु भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां नारकाः, 'केरिसयं आउ फासं पच्चणुभवमाणा विहरंति' कीदृशं किमाकारकम् अपस्पर्श - जनस्पर्शम त्यनु भवन्तः वेदयमाना विहरन्ति तिष्ठन्तीति प्रश्नः भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोमा' हे गौतम! 'अणि जाव असणाम' अनिष्टम् यावद अकान्तम् अमियम् अमनोज्ञम् अमनोऽमम् अप्स्पर्शमनुभवन्तोऽवतिष्ठन्ते इति । 'एवं जाव असत्तमाए' एवं यावत् शर्कशप्रभा पृथिवीत आरभ्य तमरतमा पृथिवी पर्यन्तं नारकाणामप् स्पर्शोऽनिष्टत्वादिगुणोपेतो ज्ञातव्य इति । ' एवं जाव वणरसइफासं असत्तमाए वीए' एवं यावद्वनस्पति स्पर्श मधःसभ्यां पृथिव्याम् इति । एवम् एवमेव
-
पर्यन्त के सूत्रों का आलाप प्रकार स्वयं ही उद्भादित्त कर लेना चाहिये अब गौतम प्रभु से ऐसा पूछते हैं- 'इमीसे णं भंते । रयणप्पभा पुढवीए नेरइवा' हे भदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी में नैरथिक' के रिसयं आप प्फासं पच्च
भवमाणा' जल स्पर्श कैसा अनुभवते हैं? अर्थात् रत्नप्रभा पृथिवी के नैरयिकों को जल का स्पर्श किस प्रकार प्रतीत होता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं 'गौयमा ! अणि जाव अमणामं' रत्नप्रभा के नैरमिकों को जलका स्पर्श अनिष्ट यावत् अमनोऽम होता है 'एवं जाव अहे सत्तमाए' इसी तरह से द्वितीय पृथिवी के नरयिकों से लेकर अधः सप्तमी पृथिवी तक के जो नैरधिक है उन्हें भी जलका स्पर्श अनिष्ट यावत् अमनोऽम ही होता है 'एवं जाव वणस्सहफा अहे सप्तमाए पुढवीए' इसी प्रकार से घावत् तेज का स्पर्श, और वायु का स्पर्श भी उन्हें अनिष्ट यावत् अमनोऽम
हवे गौतमस्वामी अलुने मे पूछे छे है 'इमीसे णं भते ! रयणप्पभा पुढवीए नेरइया' हे भगवन् भा रत्नप्रभा पृथ्वीभां नैरथिओ। 'केरिस जाउ - फास' पच्चणुभवमाणा' ठेवा ४सना स्पर्शने। अनुभव रे हे ? अर्थात् रत्नप्रभा પૃથ્વીના તૈયિકાને જલના સ્પશ' કેવાપ્રકારથી જાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં अनुश्री गौतमस्वामीने उडे छे है 'गोयमा ! अणि जाव अमणाम' २त्नअला પૃથ્વીના નયિકાને જલના સ્પર્શ અનિષ્ટ યાવત્ અમનેમ હાય છે. ‘વ’ 'जाव अहे सत्तमाए' मा अमाथे मील पृथ्वीना नैरयिअथी सहने अधः सप्तभी પૃથ્વી સુધીના જે નારકજીવા છે. તેમને પણ જલના સ્પર્શ અનિષ્ટયાવત્ અમનેાડમ हाय छे.' एव ं जाव वणस्सइफार्स अहे वत्तमार पुढवीए' मे प्रभा यावत् तेना પશ' અને વાયુને સ્પર્શે પણ તેને અનિષ્ટ યાવત્ અમનેાડમ હાય છે.
Page #369
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योति का टीका प्र.३ उ.२ ३.२३ नरकेपु पृयिष्यादि स्पर्शस्वरूपम् । रत्नप्रभापृथिवीगताप्स्पर्शवदेव शर्कराप्रपा पृथिवीनारका वालुकाप्रमा पृथिवी. नारकाः, पङ्कपमा पृथिवीनारकाः, धूमप्रभा पृथिवीनारकाः, तमः प्रभा पृथिवी नारकाः, अधः सप्तमी पृथिवीनारकाश्चेति सर्वेऽपि नारका स्तत्र तत्र पृथिव्याम् अपस्पर्श तेजः स्पर्श वायुस्पर्श वनस्पतिस्पर्श चानिष्टादिरूपमेष प्रत्यनुभवन्तो विहरन्तीति यावच्छन्दग्राह्यो भावः । अब सूत्राणि स्वयमेवोहनीयानि । नवरं तत्र तेजा स्पर्शस्तु उष्णतापरिगत नरककुडयादि स्पर्शः परोदीरित वैक्रियरूपो वा तेजः स्पर्टी ज्ञातव्यो नतु साक्षाद् बादराग्निकायस्पर्श,नारकपृथिवीषु चादराग्निकायस्याऽभावात् नरकाणा मत्युग्रान्धकारख्याप्तत्वेन तेजः स्पर्शा संभवादिति । होता है तथा वनस्पति कायिका भी स्पर्श उन्हें इसी तरह का अनिष्ठ यावत् अमनोऽम होता है ऐसा यह कथन शर्कराप्रमा पृथिवी के नैरपिकों से लेकर सातवीं तमस्तमा पृथिवी तक के नैरथिकों के सम्बन्ध में भी सम. झना चाहिये अर्थात् शर्करामभा के नैरमिकों को चालुकाप्रभा के नैरयिकों को पङ्कप्रभा के नैरपिकों को धूमप्रभा के नैरयिकों को समाप्रभा के नैरयिकों को और तमस्तमाला के नैरयिकों को तेज का स्पर्श, वायु का. यिक का स्पर्श और वनस्पति क्षायिक का स्पर्श अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय अमनोज्ञ एवं अमनोऽनही होता है। परन्तु यहां इतनी विशेषता जाननी चाहिये-कि बादाग्नि काय तो वहां होता नहीं है इसलिये जो यहाँ तेजः स्पर्श कहा गया है यह उष्णता परिणत नरक कुडय-भित्तिआदि का स्पर्श या दलरों के द्वारा किये वैक्रिय रूप का स्पर्श जानना તેમજ વનસ્પતિ કાયિકને સ્પર્શ પણ તેઓને આજ પ્રમાણે અનિષ્ટ થાવત અમનેમ હોય છે. આ પ્રમાણેનું આ કથન શર્કરા પ્રભા પૃથ્વીથી લઈને સાતમી તમસ્તમાં પૃથ્વી સુધીના નૈરયિકના સંબંધમાં પણ સમજી લેવું.
અર્થાત શર્કરામભા પૃથ્વીના નિરયિકેને વાલુકા પ્રભા પૃથ્વીને નૈરષિકેને, પંકપ્રભા પૃથ્વીના નૈરયિક, ધૂમપ્રભા પૃથ્વીના રિવિકેને, તમપ્રભા પૃથ્વીના નિરયિકેને, અને તમસ્તમપ્રભા પૃથ્વીના નૈરયિકોને, તેજને સ્પર્શ, વાયુકાયિકને સ્પર્શ અને વનસ્પતિકાયિકને સ્પર્શ અનિષ્ટ, અકાન્ત, અપ્રિય, અમને જ્ઞ, અને અમનેમ જ હોય છે. પરંતુ અહિયાં એ વિશેષતા સમજવી કે ત્યાં બાદરાગ્નિ કાયો હોતા નથી. તેથી અહિયાં જે તેજને સ્પર્શ કશો છે, તે ઉતા પરિણત નરક કુડય ભિત્તિ વિગેરેને સ્પર્શ અથવા બિજાઓની માફક કરવા માં આવેલ વૈકિય રૂપની સમજ. કેમકે નારકેના નિવાસસ્થાને અત્યંત ઉગ્ર એવા અંધકારથી વ્યાપ્ત રહે છે. તેથી ત્યાં તેજના સ્પર્શનો समाती नयी
Page #370
--------------------------------------------------------------------------
________________
नीवाभिगमसूत्रे
'इमाणं भंते ! रयणप्पभा पुढवी' इयं खलु भदन्त । रत्नप्रभा पृथिवी 'दोच्चं पुढवि पणिहाय' द्वितीयां शर्कराप्रमापृथिवीं प्रणिधाय - प्रतीत्य 'सव्वमहंतिया बाहल्लेणं' सर्व महती बाहल्येन 'सम्यक्खुडिया सव्यंतेसु' सर्वक्षुद्रिका सर्वान्तेषु द्वितीय पृथिव्यपेक्षया प्रथमा रत्नप्रभा पृथिवीवाहल्येन सर्वमहती सर्वान्तेषु सर्वक्षुद्राकिमिति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'हंता गोयमा' इन् हे गौतम ! 'इमाणं रयणप्पभा पुढवी' इयं खल रत्नप्रभा पृथिवी 'दोच्चं पुढवि पनिहाय जाव सन्बखुडिया सव्यंतेसु' द्वितीयां पृथिवीं प्रणिधाय अपेक्ष्य सर्वमहती बाल्न, सर्वतः क्षुद्रिका सर्वान्तेषु इति ।
३४८
1
यतः -- रत्नप्रभा पृथिव्या बाहल्पम् अशीतिसहस्राधिक लक्षयोजनप्रमितम् शर्कराप्रभायास्तु द्वात्रिंशत्सहस्राधिकलक्षयोजनप्रमितमेव ततो द्वितीय पृथिव्यपेक्षया प्रथमा पृथिवी सर्व महतीत्युक्तम् । आयामविष्कम्भापेक्षया प्रथमा सर्वक्षुल्लिका यतः शर्कराममा द्विरज्जुममाणा इयं रत्नप्रभात एकरज्जु प्रमितैव चाहिये क्योकि नारकों के निवास स्थान अत्युग्र अन्धकार से व्याप्त रहते हैं अतः वहां तेज स्पर्श की असंभवता है ।
'इमा णं भंते रियणप्पा पुढवी दोच्चं पुढर्वि पणिहाय' हे भदन्त ! यह रत्नप्रभा पृथिवी द्वितीय शर्कराप्रभा पृथिवी की अपेक्षा क्या मोटाई में बड़ी है और अन्तर्भागों में अर्थात् लम्बाई चौड़ाई में क्या छोटी है ? इस के उत्तर में प्रभु कहते हैं- 'हंता गोधमा । हां गौतम ! ऐसा ही है क्योंकि 'इमाणं रचणपला पुढवी दोच्चं पुढविं पणिहाय जांच सव्व खुडिया सव्र्वतेषु 'इस रत्नप्रभा पृथिवी की मोटाई एक लाख अस्सी हजार योजन की है और शर्कराभा पृथिवी की मोटाई एक लाख वीस हजार योजन की है तथा रत्नप्रभा पृथिवी की लंबाई चौडाई एक राजू की है और शर्कराप्रभा पृथिवी की लम्बाई चौड़ाई दो राजू की है 'दोच्चाणं भंते पुढवी' हे भदन्त । द्वितीय शर्कराप्रभा पृथिवी
'इमाण' भये ! रयणप्पभा पुढवी दोच्च पुढवि पणिहाय' हे भगवन आ રત્નપ્રભા પૃથ્વી ખીજી શર્કરાપ્રભા પૃથ્વીની અપેક્ષાએ શું વધારે માટી છે? અને બધા અંતર્ભાગામાં અર્થાત્ લંબાઇ પહેાળાઈમાં શુ' નાની છે ? ગૌતમસ્વામી નાં આ प्रश्नना उत्तरमां अलुश्री छे ! 'इमाणं' रयणप्पभा पुढवी दोच्य पुढवि पणिहाच जाव सव्व खुट्टिया सव्व ठेसु' मा रत्नअला पृथ्वीनी मोटाई (વિશાળતા) એક લાખ એંસી હજાર ચેાજનની છે. તથા રત્નપ્રભા પૃથ્વીની લખાઈ પહેાળાઇ એક રાજુની છે, અને શર્કરાપ્રભા પૃથ્વીની લંબાઈ પહેાળાઇ मे शनुनी छे. 'दोच्चाणं भंते ! पुढवी' हे भगवन् खील शहराला पृथ्वी
Page #371
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेययोति का टीका प्र.३ उ.२ स्.२३ नरकेषु पृथिव्यादि स्पर्शस्वरूपम् ३४९ आयामविष्कम्माभ्या मतो द्वितीय पृथिव्यपेक्षया प्रथमा सर्वक्षुद्रिका सर्वान्तभागेषु इति प्रोक्तम् । एवं सर्वपृथिवी प्रकरणे अनाग्रेतन पृथिव्यपेक्षया तत्तत्पृथिव्या अक्तिना पृथिवी बाहल्येन महती, आयामविष्कम्पाभ्यां शुद्रिकेति वाच्यम् । उक्तश्च क्रमशो बाहल्यविषयेपये--'असीयं बचीसं अट्ठावीस तहेव वीसं च ।
अट्ठारस सोलसगं, अछुत्तरमेव हेटिमया ॥१॥ छाया--अशीतिः ८० द्वात्रिंशत् ३२, अष्टविशतिः २८, तथैव विंशतिश्च ।
अष्टादश १८, षोडश १६, अष्टोत्तरमेव अधः सप्तमिका ॥१॥ 'सच्चं पुढविं पणिहाय तृतीया पृथिवी चालुकाप्रमा को अपेक्षा क्या 'सव्वमहंतिया बाहल्लेणं पुच्छा' मोटाई में बड़ी है ? और लम्बाई में छोटी है ? उत्तर में प्रभु कहते है 'गोथमा ! दोच्चाणं पुढवी जाव सन्ध खुडिया सव्वंतेनु' हे गौतम! द्वितीय पृथिवी क्षी अपेक्षा मोटाई में षडी है और लंबाई चौडाई में कम है एवं एएणं अभिलावेणं जाव छट्टिया पुढवी' इस अभिलाप के अनुसार यावत् छठी पृथिवी सप्तमी पृथिवी की अपेक्षा लंबाई चौडाई में कम है ऐसा जानना चाहिये । इस विषय में कहा भी है-'असीयं बत्तीसं' इत्यादि । अर्थात् रत्नप्रभा पृथिवी की मोटाई एक लाख अस्सी हजार की है १, एवं शर्कराप्रभा की मोटाई एक लाख बत्तीस हजार २, वालुकामभा की एक लाख अट्ठा ईस हजार ३, पंकप्रभा की एक लाख बीस हजार ४, धूमप्रभा की एक लाख अठारह हजार ६, तलासा की एक लाख सोलह हजार ६, और 'तच्च पुढवि पणिहाय' त्री वासुमा पृश्वी ४२ता 'सव्वमहतिया वाह. ल्लेग पुच्छा' विशा५यमा शुभाटी छ ? मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री छ । 'गोयमा! दोच्चाण पुढवी जाव सव्व खुट्टिया सन्न तेस' गीतमा બીજી પૃથ્વી ત્રીજી પૃથ્વી કરતા વિશાળતામાં મોટી છે. અને લબાઈ પહોળાઈ . मा माछी छे. 'एवं' एएण अभिलावेणं जाव छद्विया पुढवी' मा मलिना પ્રમાણે યાવત્ છઠ્ઠી પૃથ્વી સાતમી પૃથ્વી કરતા લંબાઈ પહોળાઈમાં ઓછી छ तम समन मा समयमा यु ५५ छ ? 'सीय बत्तीस त्याल અર્થાત્ રત્નપ્રભા પૃવીની મોટાઈ એક લાખ એંસી હજાર એજનની છે. ૧ અને શર્કરા પ્રભા પ્રથ્વીની મોટાઈ એક લાખ બત્રીસ હજાર જનની છે. ર વાલુકાપ્રભ પૃથ્વીના મેટાઈ એક લાખ અઠયાવીસ હજાર જનની છે. ૩ પંકપ્રભા પ્રશ્વીની મોટાઈ એક લાખ વીસ હજાર એજનની છે, ૪, ધમપ્રભા પૃથ્વીની મેટાઈ એક લાખ અઢાર હજાર એજનની છે. પ, તમપ્રભા શ્વીની
Page #372
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामि नमसूत्रे
अत्र गाथोक्त सहस्रयोजनसंख्या लक्षयोजनोपरि विज्ञेया । नारक पृथिवीनामायामविष्कम्भप्रमाणं रत्नप्रभा पृथिवीत आरभ्याग्रे - ग्रे प्रत्येक पृथिव्याः प्रमाणमेकैकरज्जुरूपमधिकमधिकं भवति यावद् अधः सप्तमी यथा प्रथमा रत्नप्रभा पृथिवी आयामविष्कम्भाभ्यामेक रम्जुप्रमाणा, द्वितीया द्विरज्जुपमाणा, तृतीया त्रिरज्जुममाणा, चतुर्थी चतुरज्जुममाणा, पञ्चमी पञ्च रज्जुप्रमाणा, षष्ठी पहू रज्जुप्रमाणा, सप्तमी सप्तरज्जुममाणा । रज्जुश्व असंख्यातसहस्रयोजनममाणो भवति, अतोऽत्रैव तृतीयप्रतिपत्तौ पूर्वमुक्तम्- 'इमाणं भंते! रयणमा पुढची केवइया आयाम विक्खंभेणं पण्णत्ता ? गोयमा ! असंखेज्नाइं जोयणसहस्सा आयामविवखमेणं । असंखेज्जाई जोयणसहस्साई परि क्खेवेण पण्णत्ता, एवं जाव असत्तमा' इति । अत एव पूत्र पूर्वा पृथिवी अमा ग्रेन पृथिव्यपेक्षया सर्व क्षुद्रिका, इत्युक्तम्
1
'दोच्चाणं भंते! पुढी' द्वितीया खल भदन्त । पृथिवी 'तच्चं पुढवि पणिहाय' तृतीयां पृथिवीं प्रणिधाय प्रतीत्य 'सव्वमहंडिया वाल्लेण पुच्छा' अधः सप्तमी तमस्तमा पृथ्वी की मोटाई एक लाख आठ हजार की है ७ | इस प्रकार आगे आगे की पृथिवी की मोटाई कम कम होती जाती है इसलिये आगे आगे की पृथिवी की अपेक्षा पीछे पीछे की पृथिवी की मोटाई अधिक होती है इसलिये 'सर्व महती बाहल्ये' ऐसा कहा है। और लम्बाई चौडाई आगे आगे की पृथिवी की बढती चली जाती है इसलिये आगे आगे की पृथिवी की अपेक्षा पीछे पीछे की पृथिवी की लम्बाई चौडाई कम होती है इसलिये 'सर्व क्षुल्लिका सर्वान्तेषु' ऐसा कहा है । प्रत्येक पृथिवी की लम्बाई चौडाई आगे आगे पृथिवी में एक एक राजू बढता जाता है ऐसे सातवीं अधः सप्तमी तमस्तमा पृथिवी की लंबाई चौडाई सात राजू की हो जाती
३५०
માટાઈ એક લાખ સાળ હજાર ાજનની છે. હું, અને અધઃ સપ્તમી તમસ્તમા પૃથ્વીની મેાટાઈ એક લાખ આઠ હજારÄાજનની છે. ૭, આ પ્રમાણે પછી પછીની પૃથ્વીની સેાટાઇ આછી આછી થતી જાય છે તેથી પછી પછીની પૃથ્વી કરતાં पडेलां पडेलानी पृथ्वीनी मोटाई वधारे होय हे तेथी 'सर्व महती बाहुल्येन' એ પ્રમાણેનુ કથન કરવામાં આવેલ છે. અને લંબાઇ પહેાળાઈ પછી પછીની પૃથ્વીની વધતી જાય છે. તેથી પછી પછીની પૃથ્વી કરતાં પહેલાં પહેલાની पृथ्वीनी सम्मार्थ होणा सोछी से छी थाय छे. तेथा 'सर्वक्षुल्लिका सर्वा એવુ' એ પ્રમાણેનુ કથન કરવામાં આવેલ છે. દરેક પૃથ્વીની લખાઇ પહેાળાઇ પછી પછીની પૃથ્વીમાં એક એક ાજી વધતી જાય છે. એ રીતે સાતમી અધઃ સપ્તમી તમસ્તમા પૃથ્વીની લ ખાઇ પહેાળાઇ સાત રાજુની થઈ જાય છે. એક રાજુનું
Page #373
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीकाप्र.३ उ.२ सू.२३ नरकेषु पृथिव्यादि स्पर्शस्वरूपम् ३५१ सर्वमहती वाहल्येन सर्व क्षुल्लिका सर्वान्तेषु किमिति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'दोच्चाणं पुढवी जाव सब्दवखुइडिया सन्चंतेम' द्वितीया खलु पृथिवी यावत् वतीयां पृथियों प्रतीत्य सर्वमहती बाहल्येन सर्व क्षुल्लिकैव भवति सन्तेिषु इति । 'एवं एएणं अभिलावेणं जाव' एम् एतेनाभिलापेन-पूर्वकथितप्रकारेण, यावत्-इति पष्ठ पृथिव्याः प्रश्न पर्यन्तं वाच्यम् । Staya
नाम षष्ठ पृथिवी प्रश्नो यथा-'छट्ठिया णं भंते ! पुढवी अहे सत्तसं पुढदि पणिहाय सव्यमहलिया बाहल्लेणं सदखुइडिया सव्वं तेछ ?' छाया-षष्ठी ग्वल भदन्त ! पृथिवी अधः सप्तमी पृथिवीं प्रणिधाय सर्वमहती बाहल्येन सर्वक्षुद्रिका सदा तेषु ? इति प्रश्नवाक्यपर्यन्तं यास्पदेन संग्राह्यम् । भगवानुत्तरमाह-'छट्टिया पुढी' इत्यादि, 'छट्टिया पुढत्री अहे सत्तमं पुढवि पणिहाय जाव सबक्खुडिया सम्बतेसु' षष्ठी-तमः प्रभा पृथिवी अधा सप्तमी पृथिवीं प्रणिधाय-प्रतीत्य यावत् सर्वमहतीबाहल्येन सर्वक्षुद्रिका सर्वान्तेषु भवतीति ।
'इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए' एतस्यां खल्ल भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्याम् 'तीसाए णरयावाससयसहस्से मु' त्रिशति नरकावासशतसहस्रेषु 'इक्क• मिकसि निरयवासंसि' एकैकस्मिन् नरकावासे मतिनरके इत्यर्थः 'सम्वे पाणा' सर्वे प्राणाः द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियाः 'सव्वे भूया' सर्वे भूताः वनस्पतिकायिकाः, 'सम्वे जीचा' सर्वे जीवाः पञ्चेन्द्रियाः 'सव्वे सत्ता सर्वे सत्त्वाः पृथिवीकायिकादयः, । है एक राजू असंख्यात सहस्र योजन का होता है इसी बात को भगवान ने इसी सूत्र की इसी तीसरी प्रतिपत्ति में पहले कह चुके हैं वह पाठ टीका में देखलेना चाहिये। 'इमीले णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए' हे भदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी में जो 'तीलाए गरयावाससयसह. स्सेसु' तीस लाख नरकाबान है उनमें 'इकमिकसि निरया वासखि एक २ नरकावास में 'सव्वे पाणा सत्वेभूया' समस्त प्राणी दीन्द्रियतेन्द्रिय और चौईन्द्रिय प्राणी समस्त वनस्पतिकाधिक भून 'लव्ध जीवा' समस्त जीव-पंचेन्द्रिय 'सव्वे सत्ता' एवं समस्त पृथिवी कायिक પ્રમાણુ અસંખ્યાત સહસ્ત્ર જનનું હોય છે. એજ વાતને ભગવાને આ સન્ન ની આ ત્રીજી પ્રતિપત્તીમાં પહેલાં કહેલ છે. એ પાઠ સંસ્કૃત ટીકમાં જોઈ લે. ___'इमोसे गं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए' है भगवन् ! | नाना पृथ्वीमा २ 'तीसाए नरयावाससयसहस्सेसु' त्रीस सास नवास छ तेमां इक्कमिकसि निरयावाससि' मे मे न२४वासभा 'सव्वे पाणा सव्वेभूया' सघणा प्रारिया એટલે કે દીન્દ્રિય, તેઈન્દ્રિય,અને ચૌઈન્દ્રિય પ્રાણી સઘળા વનસ્પતિ કાંયિક भूते। 'सव्वजीवा' संघाव पयन्द्रिय छ। 'सव्वे सचा' भने सपा पृथ्वी
Page #374
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीवाभिगम
यदुक्तम् - प्राणाः द्वित्रिचतुः प्रोक्ताः भूताच तरत्रः स्मृताः । जीवाः पञ्चन्द्रिया ज्ञेयाः शेषाः सच्वा उदीरिताः ॥ १ ॥ ते माणादयः 'वाइयताए' पृथिवीकायिकतया 'जाव वणस्स इकाइयचाप' यावत्-अकायिकतया तेजस्कायिकतया वायुकायिकतया वनस्पतिकायिकतया 'नेरइयत्ताए' नैरविकल्या 'उत्रन पुन्त्रा' उत्पन्न पूर्वा:- पूर्वमुत्पन्ना एते प्राणादयः पृथिव्यादितया नैरयिकल्या वा ? इति प्रश्नः, भगवानाह - 'हंता' इस्यादि, 'हंता गोषमा !' हन्त, गौतम ! 'अपई अदुवा अठखुत्तो' असकृत् - अनेकवारम् अथवा अनन्तकृत्वोऽनन्तात् वारान् पृथिव्यादि कायिकतया नैरविक तया च सर्वे प्राणादयः समुत्पन्न पूर्वाः संसारस्यानादित्वात् । ' एवं जाव अहे सत्तमाए' एवं यावदधः सप्तम्याम् शर्करा प्रभाव आरभ्य सप्तम नरक पृथिवीसत्व 'प्राणा द्वित्रिचतुःषक्ता भूताश्रनरवः स्मृता जीवरा पञ्चेन्द्रियाज्ञेया शेषाः सत्वा उदीरताः 'पुढचिकाइयसाए जाव वणरसहकाइयत्ताए नेरइयताए उबवन्न पुण्या' पृथिवी काधिक रूप से, यावत् अकाधिक रूप से, तेज कायिक रूप से, वायुकायिक रूप से और वनस्पतिकायिक रूप से तथा नैरयिक रूप से पहिले उत्पन्न हो चुके है ? इसके उत्तर में प्रभुः कहते हैं'हंता गोपमा ! असई अदुवा अनंतखुत्तो' हां गौतम | ये सब प्राणादिक जीवा अनेक बार अथवा अनन्त वार पृथिवीशायिक आदि रूप से पहिले रत्नप्रभा पृथिवी के प्रत्येक नरकावास में उत्पन्न हो चुके हैं। क्यों कि संसार अनादि रूप है 'एवं जाय भई सत्ताए' इसी तरह से शर्कराप्रभा से लेकर अधः सप्तमी तमस्तसा पृथिवी तक के नरकों के नरका वासों में समस्त प्राणी आदि पृथिवी कायिक आदि रूप से एवं नैरयिक रूप
३५२
अ४ि सत्वे। ‘प्राणा द्वित्रिचतुः प्रोता भूताश्च तरव. स्मृत्ताः, जीवा पच्चेन्द्रिया ज्ञेया, शेषाः ः सत्वा उदीरिताः, 'पुढविक्का इयत्ताए जाव वणस्सइ काइयत्ताए नेरइयत्ताए उववन्न पुव्वा' 'पृथ्वीमाथि पाथी, यावत् खायि पाथी, वायुभयिष्ठ પણાથી, અને વનસ્પતિ કાયિકપણાથી, તથા નૈરિયક પણાથી, પહેલાં ઉત્પન્ન थर्ध शूझ्यां हे १ मा प्रश्नना उत्तरमां अनुश्री गौतमस्वामीने ४ है है ' 'तागोमया ! असई अदुवा अण तखुत्तो' हा गौतम ! आ સઘળા પ્રાણ વિગેરે જીવા અનેકવાર અથવા અન તવાર પૃથ્વીકાયિક વિગેરે પણાથી પહેલાં રત્ન પ્રભા પૃથ્વીના દરેક નરકાવાસેમાં ઉત્પન્ન થઇ ચુકયા છે કેમકે સસાર અનાદિ ३५ छे. एव ं जाव अहे समाए' मा साथे शरायला पृथ्वीथी सघने અધઃસપ્તમી તમસ્તમા પૃથ્વી સુધીના નરડાના નરકાવાામાં સઘળા પ્રાણી વિગેરે
Page #375
--------------------------------------------------------------------------
________________
यतिका टीका प्र. ३ उ. २ सू.२३ नरकेषु पृथिव्यादि स्पर्शस्वरूपम्
पर्वतेषु नरकेषु सर्वे प्राणादयः पृथिव्यादि कायिकतया नैरयिकतया च असत् अनन्तकृत्वः समुत्पन्नाः, प्रति पृथिवी सूत्राणि स्वयमेवोहनीयानि । 'णवरं जस्थ जत्तिया णरगा' नवरं यत्र यावत्संख्यका नरकावासा स्तत्र पृथिव्यां तावत्संख्यकाः नरकावासाः वक्तव्या इति ।
'इमी से णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए' एतस्यां खलु मदन्त । रत्नममायाँ पृथिव्याम् 'निरयपरिसामंतेयु' नरकाः परिसामन्येषु नरकावासपर्यन्तवचिषु प्रदेशेषु 'जे पुढवीकाइया' ये चादरपृथिवीकायिका: 'जाव वणस्स काइया ' यावत् बादराकायिकाः, बादरवेजस्काविकार, वादर वायुकायिकाः, बादरवनस्पतिकायिका जीवाः 'ये णं भंते! जीवाः ते खलु पृथिवीकायिकादयः जीवाः 'महाकम्मतराचेत्र' महाकर्ततरा एवं महत्मभूतं असावावेदनीयं कर्म येषां तेषां ते महाकर्माणिः, अतिशयेन महाकर्माणो महाकर्मराराः
त्यवधारणे तथा च महाकर्माणः, अतिशयेन महाकर्माणो महाकर्मतः चैवेसे अनेक बार अथवा अनन्तवार उत्पन्न हो चुके हैं ऐसा जानना चाहिये इस सम्बन्ध में शर्करादि छहों पृथिवियों के आलापक सूत्रों का अपने आप कर लेना चाहिये । 'णवरं जस्थ जतिया णरणा' विशेषता केवल इतनी सी ही है कि जहां जिसने नरकावास हैं वहां वे उतने ही कहना चाहिये। 'इमीसे णं भंते । रयणप्पसाए पुढवीप' हे भदन्त । इस रत्नप्रभा पृथिवी में 'निरय परिखामंतेसु' नरकादास के अन्त तक के प्रदेशों मैं 'जे पुढषी काइया जाय वणस्सइकाइया' जो बादर पृथिवी कायिक पावत बादर अष्कायिक बादर तेजस्कायिक, वादर वायु कायिक पादर वनस्पतिकायिक जीव हैं 'ते णं भंते ।' हे भदन्त ! वे पृथिवीकायिका दिजीव 'महाकम्मतरा 'चेव' क्या महाकर्मतर वाले अतिशय अमाता પૃથ્વીદ્રાચિક વિગેરે પૃથ્વી વિગેરે પણાથી અને નૈરયકપણાથી અનેક વાર અથવા
અન તવાર ઉત્પન્ન થઇ ચૂકયા છે, તેમ સમજવું આ સૌંબંધમાં શર્કરા પૃથ્વી विगेरे छयो पृथ्वीयाना मासार्थ है। पोते मनावी समल सेवा. 'णवर' जत्थ अत्तियाँ परगा' विशेषता ठेवण भेटली हे ! क्या बेटसा नरवाओ। छे, त्यांते वा हो,
'मी से णं भवे । रयणप्पभार पुढवीए' हे भगवन् मा रत्नप्रभा पृथ्वीमा 'निरयपरिखाम' तेसु' नरहीवासीना भत सुधीना अहेशोभां 'जे पुढवी काइया जॉब बजेट काइयो' ने बाहर पृथ्वीवि यावत् बाहर अभय जाहर वनस्पति अयि वा छे, 'ते णं भंते ! जीवा' हे भगवन्ते पृथ्वी
| 'महा कम्मतराचेव' शुभा मंतर वाणा भेटते हैं अतिशय अस मी० ४५
Page #376
--------------------------------------------------------------------------
________________
३५१४
जीवामिंगमसूत्रे
त्यवधारणे तथा च महाकर्मतरा एव । कुतो महाकर्मतरा एवेत्यत आह- यतस्ते 'महाकरियतराचेव' महाक्रियतरा एव महती क्रिया माणातिपादिका आसीत पूर्वजन्मनि तद्भवेष्वपि तदध्यवसाया, निवृत्या येषां ते मदाक्रियाः, अतिशयेन महाक्रिया इवि महाक्रियतरा | महाक्रियतरत्वं कुतः ? तत्राह - 'महा आसवतरा'देव' महाश्रचतरा एव, महान्त आश्रचा पाथोपादानदेववः आरम्भादयः पूर्व जन्मनि येषा मासीत् ते महाश्रवाः सहावा एव मereas तदेवं यतो महाकर्मवरी एव वतः 'महावेयणतराचेव' महावेदनवराएव नरकेपुं क्षेत्र वेदनीय कर्म उदय वाले हैं ? 'महा किरियारा चेव' अतिशय महा किया पाठे हैं ? 'महा आसवतरा चेव' अतिशय महा आस्रव वाले हैं ? यहां जो ऐसा प्रश्न किया गया है उस का तात्पर्य ऐसा है कि नरकों में पृथिवी कायिकादि जीव की पर्याय से वही जीव उत्पन्न होता है कि जिसने पूर्व जन्म में प्राणातिपात आदि क्रियाओं के करने में ही अपना जीवन यतीत किया होता है तथा वहां पहुंच कर भी वह जीव रातदिन इन्हें प्राणातिपात आदि क्रियाओं के करने वाले परिणामों वाला बना रहता है - इसलिये उसके इन क्रियाओं के कारण अतिशय महा असाता वेदनीच आदि कर्मों का धन्ध होकर उसमें स्थिति और अनुभाग प्रकृष्टतर पड जाता है । पापोपादान के हेतुभूत आरम्भ आदि इन जीवों के पूर्व भव में हुए है अतः इन्हें महाक्रिया वाला कहा गया है। अतः यही हेतु हेतुअद्भावप्रदर्शित करने के लिये गौतम ने प्रभु से ऐसा प्रश्न किया है. जय वे पृथिवोकाधिक आदि जीव पूर्व भव में ऐसे थे और वर्तमान में तावेद्वतीय उना हियवाजा छे ? 'महा आसवतराचेव' अत्यंत भडाभ સવવાળા છે ? કે જેએએ પૂર્વ જન્મમાં પ્રાણાતિપાત વિગેરે ક્રિયાએ કરવામાંજ પેાતાનુ' સમગ્ર જીવન વીતાવેલુ હાય છે. તથા ત્યાં પહેાંચીને તે જીવા રાત દિવસ એ જ પ્રણાતિપાત વિગેરે ક્રિયા કરવાવાળા પરિણામા વાળા અની જાય છે. તેથી પ્રાણાતિપાત વિગેરે કરવાવાળાને મા ક્રિયાએ કરવાના કારણે અત્યત મહા અસાતા વેદનીય વિગેરે કર્માંના બંધ થઈને તેમાં સ્થિતિ અને અનુભાગ પ્રકૃષ્ટ રીતે પડી જાય છે. પાપા કરવાના કારણભૂત भारम्भ विगेरे भ આ જીવાને પૂર્વભવતાં થયા છે, તેથી તેઓને મહાક્રિયાવાળા કહેવામાં આવે છે. તેથી આજ હેતુ હેતુમાવ ખતાવવા માટે શ્રીગૌતમ સ્વામીએ પ્રભુને આ પ્રમાણેના પ્રશ્ન પૂછ્યા છે. કે જ્યારે તે પૃથ્વીકાયિક વિગેરે જીવા પૂર્વ ભવમાં એવા હતા અને વત માનમાં પશુ તે આ જ
ち
Page #377
--------------------------------------------------------------------------
________________
वेषणतरगा एकपरिसामन्त नभायां पृथिकान में भंते । भगवाना
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ खू.२३ नरकेषु पृथिव्यादि स्पर्शस्वरूपम् ३५५. स्वभावजायाअपि वेदनायाः अति दुःसहलादिति प्रश्ना, भगवानाह-'ता' इत्यादि, 'हंता गोयमा' हन्त गौतम ! 'इमीसे णं भंते ! रयणप्पमाए पुदवाएं" एतस्यां खलु भदन्त ! रत्नममायां पृथिव्याम् 'निरयपरिसामंतेसु' नरकारि सामंतेसु' नरकपरिसामन्तेषु नरकावासपर्यन्तवत्तिषु पदेशेषु 'तं चेव जाव महा. वेयणतरगा चेव' बादर पृथिवीकायिकाः, बादराफायिकाः, वादरतेजस्कायिकार बादर वनस्पतिकायिका जीवा महाकर्मतरा महाक्रियतरा महाश्रवतरा महावेदनतरा एवेति । 'एवं जाच अहे सत्तमार' एवम् अनेनैव प्रकारेण यावद् अधः सप्तम्याम् पराममात आरभ्य अधः सप्तम्या मपि सर्व विज्ञेयम्। । भी वे इसी प्रकार के जीवन से जीते है तो क्या वे उन नरकों के महा वेदनतर क्षेत्र स्वभाव जन्य वेदना के मोक्ता होते हैं ? इसके उत्तर मे प्रभु गौतम से कहते हैं-'हता गोयमा!' हा गौतम ! 'इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढधीए' एल रत्नप्रभा पृथिवी में जो 'निरयपरिसामंतेसु' नरकावाल तक के प्रदेशों में पृथिवीकाधिक ओदि जीव है वे 'तं घेव जाव महा वेषणतरका चेव उसी प्रकार के है-जैसा कि प्रश्न में पूण गया है-अर्थात् महा करें तरह-क्योंकि वे पूर्व में महा क्रिया तर थे, महास्त्रवतर थे और यहां पहुंच कर भी वे ऐसे ही हैं-अतः वे वर्तमान, में वहां महा वेदना वाले ही है। ____ अब सूत्रकार इल तृतीय प्रतिपत्ति के इस वित्तीय उद्देशक में जितने पदार्थ-जितना बषय कहे गये हैं उन सब को संग्रह करके प्रकट करने वाली ये गाथाएं कहते हैंપ્રમાણેના જીવનથી જીવે છે. તે શું તેઓ એ નરકમાં મહાદનતર ક્ષેત્રના સ્વભાવથી થવા વાળી વેદનાને ભેગવવા વાળા બને છે?
मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री गीतमस्वामीन छहता गोयमा " ही गौतम ! 'इमोसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए' मा रत्नप्रसामा 'निरय. परिसाम तेस' न२७वास सुधीना प्रशामा पृथ्थायि विरेछ। छ, तमा ''त' चेव जाव महा वेयणतरका चेव' सेवा प्रारना , २ प्रमाणे प्रल સૂત્રમાં કહ્યા છે. અર્થાત મહાકર્મતર છે. કેમકે તેઓ પૂર્વમાં મહાકિયાવાળા હતા. મહા આસવવાળા હતા, અને ત્યાં પહોંચીને પણ તેઓ એવાજ છે, તેથી તેઓ વર્તમાનમાં ત્યાં મહાદના વાળાજ છે.
હવે સૂત્રકાર આ ત્રીજી પ્રતિપત્તિના આ બીજા ઉદેશામાં જેટલા પદાર્થ અર્થાત જે જે વિષયે કહ્યા છે, તે બધાને સંગ્રહ કરીને બતાવવા વાળી આ गया। ४. छे.. 'पुढवी प्रोगाहित्ता' स्या
Page #378
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
जीवानिए ६. सम्पति-तृतीयातिपत्ते द्वितीयोदेशे यावन्तः पदार्थाः कयिता श्वे संमहणीमाथा इमा, 'पुढवी ओगाहित्ता' इत्यादि, अथमम् 'पुढवीडो नार पूथिव्याः कति भवन्तीति कथनम् तद्यथा-'करणं भंते ! पुढचीओ पमचानों' 'मोयमा.' हे गौतम ! "सचढवीमो पनलाओं' इत्यादि, तदनन्तरम् गोगा. हिसा - णस्गा' इत्यादि, यस्यां पृथिव्यां यदवगा यात्राम भान स्तदभिधेयम् यथा-'इमीसे गं भंते ! रयणप्पमाए पुढवीए असी उत्तर गोषक सहस्स वाइल्लाए उवरि केवयं भोगाहिसा' इत्यादि, 'संठाण मेव मारता संस्थानं वाहल्यं च, प्रतिपादितम् । 'विक्वंभ परिक्खेवे' ततो विष्कम्मपरियो। • - 'पुढवी ओगाहिता-इत्यादि-सब से पहिले इस तृतीय प्रतिपत्तिक द्वितीय उद्देशक में गौतम ने प्रभु से पृथिवियां कितनी है? ऐसा प्रश्न पूछा है-हलके उत्तर में प्रभु ने 'पृथिवियां सात है ऐसा उत्तर दिया है, छित्तीय प्रश्न गौतम ने प्रभु से ऐसा पूछा है कि इस रत्नप्रभा पृषिधी जो-कि एक लाख अस्सी हजार योजन की मोटी है उसमें कितने योजन के ऊपर नीचे के प्रदेश को छोडकर नरकाबास हैं ? प्रभु ने इस उत्तर ऐला दिया है कि हे गौतम ! एक हजार योजन का ऊपर का एक हजार योजन का नीचे का प्रदेश छोडकर बाकी के एक लाख अठहत्तर ७८ हजार योजन की भूमि में नरकाचास हैं । तृतीय प्रश्न गौतम में प्रभु से ऐल्ला पूछा है कि हे अदन्त ! नरक का संस्थान कैसा है ? उत्तर में प्रलु ने कहा है कि हे गौतम ! नरक का संस्थान मृदङ्ग आदि के आसार जला है, छली तरह से नरक की मोटाई कितनी है यह पात - સૌથી પહેલા આ ત્રીજી પ્રતિષીના આ બીજા ઉદેશામાં ગૌતમસ્વામી પ્રભુને પૃથિવી કેટલી છે? એ પ્રમાણેનો પ્રશ્ન પૂછે છે. આ પ્રશ્નના 1 ઉત્તરમાં પ્રભુએ ગૌતમસ્વામીને “સાત પૃથિવિ છે એ પ્રમાણે કહ્યું. છે. ફરીથી ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુને પૂછયું કે હે ભગવન આ રત્નપ્રભા નામથી પહેલી પૃથ્વી કે જે એક લાખ એંસી હજાર એજનના વિસ્તારવાળી, તેમાં કેટલાક એજનના ઉપર નીચે પ્રદેશ છોડીને નરકાવાસે આવેલા છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુએ એવું કહ્યું કે હે ગૌતમ ! એક હજાર ચોક્ત ઉપર અને એક હજાર જનો નીચેનો પ્રદેશ છેડીને બાકીના એક હામ અઠોતેર હજાર જનની ભૂમીમાં નરકાવાસે છે. ૨. * ગૌતમસ્વામીએ ત્રીજે પ્રશ્ન પૂછતાં પ્રભુને કહ્યું કે હે ભગવન નરકનું સંસ્થાન કેવું છે? આના ઉત્તરમાં પ્રભુએ કહ્યું કે હે ગૌતમ ! નરકનું સંથામ મૂદંગ વિગેરેના આકાર જેવું છે. એ જ પ્રમાણે નરકની વિશાળતા કેટલી છે?
Page #379
--------------------------------------------------------------------------
________________
चोलिका सका प्र.३ उ.२ २०२३ नरकेपु पृथिव्यादि स्पर्शस्वरूपम् ३५ मामंधोयफासोय' ततो वर्णो गन्धश्च स्पर्शश्च । 'तेसि महालयाए उमादे वेग
ध्वा तवा तदनन्तरं तेषां नरकाणां महत्तायां देचेन उपमा-सा पर्वमा भवति । 'जीवाय पुग्गलाय ततो जीवाः पुद्गलाश नरकेषु घ्यु-कामन्तीति
साव्यम् । 'वह सासया निरया' तथा शाश्वताऽशाश्वता नरका इति वक्तव्यम् । 'उपचाओ' तत उपपातो नारकाणां वक्तव्य तद्यथा-'इमीसे णं मंते । अयणपर भाए पुढवीए नेरइया को उबवज्जति' इत्यादि, 'परिमाणं तव एकसमयेनोत्प पमानानां नारकाणां परिमाणं वक्तव्यम् 'अवहारुच्चत्त मेव संघयणं ततोऽपहारी नरकादुदत्तनं वक्तव्यो नारकजीवानाम्, तत उच्चत्वं ततः संहननं वक्तव्यम् । 'सैठाणवण्णगंधा फासा उस्सासमाहारे' तदनन्तरं नारकजीवानां संस्थानं वक्तव्ये, सदनन्तरे वर्णगन्धस्पर्शाः वक्तव्याः, तत उच्छ्वासनिःश्वासौं वक्तव्यौ तदनन्तर माहारो वक्तव्यः । 'लेस्सादिलोनाणे तदनन्तरं लेश्यावक्तव्या, सदनन्तरं दृष्टि कही है इसके बाद 'विक्खेंष परिक्खे थे' नरफों का विष्कम चौडाई
और परिधिको प्रमाण क्या है? यह कहा गया है 'घण्णों०' नरक के वर्ण गंध और स्पर्श के सम्बन्ध में कथन किया गया है 'तेसिं महाल. पाए उवमा देवेण होइ कायव्वा' नरक कितने बड़े हैं यह देव का इछास देकर समझाया गया है। 'जीवाथ पुग्णलाय' जीव पुद्गल नरक में जाते हैं, सासया निरया' ये नर शाश्वत हैं 'उथवाओ' एक समय में कितने नारकी वहाँ उत्पन्न होने हैं और यहाँ ले कितने उद्वर्तित होते है भरकावास कितने ऊंचे हैं-नारक जीवों के संहनन होता है या नहीं। इनके संस्थान कौनसा होता है ? इनके शरीर का वर्ण, गंध रस स्पर्श कैसा होता है ? इनको श्वासोच्छ्वाला कैसा होता है ? यह कथन
२ मधमा ५९ ४यन यु छे. ते पछी 'विक्खंभपरिक्खेवे' नाहीना વિખંભ પહોળાઈ અને પરિવિનું પ્રમાણ શું છે? તે સંબંધમાં પણ કથન કર્યું છે. “Toળે. નરકના વર્ણ, ગંધ, અને સ્પર્શના સંબંધમાં કથન કરવામાં
भाव्यु छ. 'तेसि महालयाए उवमा देवेण होह कायव्वा' न२४ मा भोट ? ' समयमा वनुष्टात मापान सभावामां मा०यु छे. 'जीवाय पुरगलाय' ७१ पश। न२४मा लय छे. १ ‘सासया निरयो' मा न२ शाय ? "उववाओ' में समयमा र ना२४ीया त्या 6त्पन्न थाय छ भने त्याला કેટલા નારકો બહાર નીકળે છે ? નરકાવાસ કેટલા ઉંચા છે ? નારકને સંહનન હોય છે? કે નથી હેતુ? તેઓના સંસ્થાને કયા કયા છે? તેઓના શરીરને વર્ણ, ગંધ, રસ અને સ્પર્શ કેવો હોય છે ? તેઓના શ્વાસેચ્છવાસ સિવાય ? આ સંબંધમાં કથન કરવામાં આવ્યું છે. તે પછી આવક.
Page #380
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमसो कव्या. तदन्तरं ज्ञानं वक्तव्यम् । 'जोगुवजोगे तहा समुग्घायां तदनन्तरं योगीमनोवाकायादिवक्तव्या, बदनन्तरं साकारानाकारोपयोगो वक्तव्या, तदनन्तरंसमाधाता वर्णनीयाः। 'तत्तो खुहपिवासा' तदनन्तरं क्षुधा वक्तव्या, तदनन्तरं "पिपासा वक्तव्या 'विउवणा' ततो नारकाणां विकुर्वणा वक्तव्या, तधया-'स्यणप्पभाए पुढवीए नेरइयाणं भंते ! कि एगत्तं पदं विउविचए' इत्यादि, 'वेयमा' बदनन्तरं नारकरणां कीदृशी वेदना भवतीति वक्तव्यम् 'भयं' तदनन्तरं -अयम्। 'उववाओ पुरिसाणं' तदनन्तरं विंशतितमसूत्रोक्तानां जमदग्निपुनरामादीनां पश्चाला पुरुषाणा मधः सप्तम्यामुपपातो वक्तव्यः । 'योवम्म वेयः जाए-दुविहार' तत औपम्यं द्विविधाया वेदनायाः-उष्णवेदनाया: शीतवेदना: याश्च । ततः स्थितिर्वक्तव्या । 'उन्बट्टणा' तत उद्वर्तना वक्तव्या 'पुढवीउ' ततः स्पर्श-पृथिव्यादिस्पशों वक्तव्यः। ततः 'उववाओ सबजीवाण' ततः सर्व जीवाना मुपपातो वक्तव्या, तद्यथा-'इसीसे णं मंते ! रयणप्पमाए पुढवीए तीसाए नयावाससयसहस्सेसु एममेगसि निरयावासंसि सव्वे पाणा सव्वे भूया' इत्यादि, 'एयाओ संगहणिगाहायो' एताः पञ्च संग्रहणी गाथाः कयिता इति।०२२।। .. तृतीयप्रतिपत्तौ द्वितीयो नारकोद्देशकः समाप्तः ॥२॥ किया गया है। बाद में आहार लेश्या दृष्टि ज्ञान योग, उपयोग, समु. द्धात, क्षुधा, तृषा, विकुर्वणा वेदना भय जमदग्नि पुत्र राम आदि पांच पुरुष सातवीं पृथिवी के अप्रतिष्ठान नामके नरकावास में उत्पन्न हुए है यहां यह सब कहा गया है। बाद में वेदना प्रकार स्थिति, उद्वर्तना, वहां के स्पर्श का कथन तथा पृथिव्यादिक रूप से जीवों का उत्पन्न होना यह मष विषय इस उद्देशक में कहा गया है। सूत्र-॥२२॥ "जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजीमहाराजकृत . 'जीवाभिगमसूत्र' की प्रमेयधोतिका नामक व्याख्या में .... - ॥ तृतीय प्रतिपत्ति का द्वितीय उद्देशक समाप्त ॥३-२॥ वेश्या, टि, ज्ञान, योग, उपयोग, समुध.त, क्षुधा, तुषा, विजुवा, ભય, જમદગ્નિ પુત્ર રામ વિગેરે પાંચ પુરૂષ સાતમી પૃથ્વીના અપ્રતિષ્ઠાન નામના નરકાવાસમાં ઉત્પન્ન થયા છે. એ સંબંધમાં કથન કરવામાં આવ્યું છે તે પછી વેદના પ્રકાર, રિથતિ. ઉદ્વર્તના ત્યાના પર્શનું કથન તથા પૃથિવ્યાદિક પણુથી જીવેનું ઉત્પન્ન થવું આ તમામ વિષય આ ઉદેશામાં કહેવામાં આવેલ છે. | સૂ. ૨૩ જૈનાચાર્ય જૈનધર્મદિવાકર પૂજ્યશ્રીવાસીલાલજી મહારાજકૃત “જીવાભિગમસૂત્રની પ્રમેયોતિકા નામની વ્યાખ્યામાં ત્રીજી પ્રતિપત્તિને બીજે ઉદ્દેશ સમાસારા
Page #381
--------------------------------------------------------------------------
________________
'प्रमेयद्योतिका टीका प्र. ३ उ. ३ . २४ नैरयिकाणां पुङ्गकपरिमाणादिकम्
अथ तृतीयोदेशकः
सम्प्रति-तृतीयप्रतिपत्तौ तृतीये है क आरभ्यते तत्रेदमादिमं सूत्रम् - 'हमी से णं भंते । रयणप्पभाए' इत्यादि,
t
2
Ti
मूळम् - इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया केरिसयं पोग्गल परिणामं पच्चणुब्भवमाणा विहति ! गोयमा ! अहिं जाव अमणासं, एवं जाब अहे सन्तमाए । एवं यवं । गोहा - पोग्गल परिणामे १ वेयणा यर लेस्साय३ नाम४ गोए य५ ।। अरई ६ भए य७ सोगेट, खुहा९ पिवासा य१० वाही ये ११ ॥१॥ ऊसासे १२ अणुतावे १३ कोहे१४ माणे य१५ माय- लोभे य१६ १७ चत्तारिय सण्णाओ २१ नेरइयाणं तु परिणामा ॥२॥ एत्थ किर अइवयंति, नरवसहा केसवा जलयराच । मंडलिया रायाणो जे य महारंभ कोडंबी ॥१॥ भिन्नमुहुतो नरपसु होइ तिरिय मणुसु चत्तारि । देवेसु अद्धमासो उक्कोस विउठवणा भणिया ||२|| जे पोग्गला अणिट्टा नियमा सो तेसिं होइ आहारो संठाणं तु जहण्णं नियमा हुंडं तु नायव्वं ॥ ३॥ असुभा वि दवणा खलु नेरइयाणं तु होइ सव्वेसिं । वेउन्त्रियं सरीरं असं घयण हुंडर्सठाणं ४ ॥ अस्साओ उबवण्णो अस्साओ चेव as निरभवं । सव्व पुढवीसु जीवो सव्वेसु ठिइ विसेसेसु।५ उवाणं व सायं नेरइओ देव कम्मुणा वा वि । अज्झवसाणं निमित्तं अहवा कम्माणुभावेणं || ६ || नेरइयाणुप्पाओ उक्कोसं पंचजोयणसयाई । दुक्खेणाभिदुयाणं वेयणसय संपगाढाणं । ७)अच्छिनिमीलियमेत्तं नत्थि सुहं दुक्खमेव पडिबद्धं । नरए नेरइयाणं अहोनिसं पच्चमाणानं ॥ ८ ॥ तेया कम्मसरीरा सुहुमसरीराय जे अप्पज्जता, जीवेण मुक्कमेत्ता वच्वंति सहस्ससो भेयं ॥ ९ ॥ अइसी अइउण्हं अइतण्हा अइखुहा अइभयं वा । निरए नेरइयाणं दुक्खसयाई अविस्ताणं ॥ १०॥ एत्थ य भिन्न
#11
Page #382
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामि मुहचो पोग्गल असुहास होइ अस्साओ। उववाओ अप्पाओ सच्लिरीरा उ बोद्धवा ॥११॥ से तं नेरइया ॥सू० २४॥
॥नारय उद्देसओ तइओ॥ छाया--एतस्यां खलु भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैरयिकाः कीदृशं पुकूल परिणाम मत्यजुमवन्तो विहरन्ति ? गौतम ! अनिष्टं यावदमनोऽमम्, एवं याव. पक्षी सप्तम्याम् । एवं ज्ञातव्यस्, नाथा:-पुगलपरिणामः १ वेदना२ च लेश्या ३
ना ४ गोत्रे ५ च । अरति : ६ भयं ७ च शोका ८, क्षुधा ९ पिपासा १० व्याधिश्च ११॥१, उच्छ्वासः १२ अनुतापः १३, क्रोध्ते १४ मानय १५ माया १६ लोभश्च १७ चत्तस्त्रश्च संज्ञाः १८-२१ नैरयिकाणां तु परिणामाः॥२॥ अब किलातिलब नन्ति, नरषमा केशवा जलचराश्च । माण्डलिका राजानो में प महारम्भकुटुम्बिनः ॥१॥ भिन्नमुहूत्तो नरकेषु भवति तिर्यामनुजेषु चत्वारि ।
वेष्वर्द्धमास उत्कृष्ट विकुणा भणिता ॥२॥ ये पुद्गला अनिष्टा नियमात् स तेगा सपत्याहारः । संस्थानं तु जघन्यं नियमाद् हुण्डं तु ज्ञातव्यम् ।।३।। अभुमानित क्षणा खल नैरयिकाणां भवति सर्वेषाम् । वैक्रियं शरीरमसंहननं हुण्डसंस्थानम् १४ असात उपपन्नोऽसात एव त्यजति निरयभवम् । सर्व पृथिवीषु जीवः सर्वेषु स्थितिविशेषेषु ॥५। उपपातेन वा सात नैरयिको देवकर्मणा वाऽपि । अध्यवसानिमित्त मथवा कर्मानुभावेन ६। नरयिकानुपपात उत्कर्षेण पत्र योजनशतानि । दुःखेनाभिद्रुतानां वेदना शतसंप्रगाढानाम् ॥७। अक्षिनिमीशन मानं नास्ति सुख दुःखमेव प्रतिबद्धम् । नरके नैरयिकाणा महनिर्श - पच्यमाना. नाम् ॥८॥ तेजस कर्मशरीराणि सूक्ष्मशरीराणि च यान्यपर्याप्तानि । जीवन मुक्त मात्राणि व्रजन्ति सहस्रशो भेदम् ॥९॥ अतिशीत मत्युष्ण मवितृष्णाति हुषा. अति भयं वा । नरके नैरयिकाणां दुःख पतानि अविश्रामम् ॥१०॥ अवभिन्न पहूचे पुद्गलाशुमाय भवति उश्वास उपपातः उपपातोऽस्ति शरीराणि तु पोडपनि - नारकोद्देशक स्तृतीयः। ते एते नरयिकाः सू०२४॥ . टीका---'इमीसे णं मंते ! रयणप्पमाए पुढवीए एतस्यों खल भदन्त ! रत्नभायो पृथिव्याम् 'नेरइया' नैरयिकाः 'केरिसर्य' कीदशम्-किमा
तृतीय प्रतिपत्तिका तृतीय उद्देशक 'इमीसे गं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीर णेरड्या'-इत्यादि।
ત્રીજી પ્રતિપત્તિના ત્રીજા ઉદેશાને પ્રારંભ "इमोसे णं भवे ! रयणप्पभाए पुढवीए रया' या
मैदर मशरीराणि काणा महान अभिनिमीत
.
-
Page #383
--------------------------------------------------------------------------
________________
अमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ स.२४ नैरयिकाणां पुद्गलपरिमाणादिकम् ३६ कारकम् 'पोग्गल परिणाम' पुद्गलपरिणामम्-आहार पुद्गलादि विपाकम् 'पच्चणुम्भवमाणा' प्रत्यनुभवन्त:-पेदयमाना विहरंति' विहरन्ति-अवतिष्ठन्ते इति प्रश्ना, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'अणि8 जाब अमणाम' अनिष्टं यावत्-अक्षान्तम् अप्रियम् अपनोज्ञम् अमनोऽसं पुदलपरिणाम वेदयमाना विहरन्तीति । 'एवं जाव अहे सत्तमाए' एवं यावधः सप्तभ्यास, एवं शर्कराममाथिवीतः आरभ्य तमस्तमा पृथिवी पर्यन्त नारका अपि अनिष्ट मकान्तमपियममनोज्ञ पमनोऽयं पुद्गलपरिणामं वेदयमानास्तियन्तीति । एवं नेयवं' एवम्-अनेन प्रकारेण पुद्गलपरिणाममधिकृत्य मैथुन संशापर्यन्तमेक___टीकार्थ-गौतम ने प्रभु ले ऐला पूछा है-'हामीले गं अंते । स्यणप्प भाए पुढवीए' हे भदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवीमें श्या' नैरधिक 'केरिसयं पोग्गलपरिणामं पच्चणुषमाणा विरंति कैले पुरल पहिणाम को-आहारादि पुद्गल विपाफ को ओगते हैं ? उत्तर प्रलु कहते हैं-'गोयमा! अणि8 जाच अक्षणानं' हे गौतम! रत्नप्रभा पृथिवी में नैरयिक अनिष्ट यावत्-अधान्त, अप्रिय, अमनो-और अमनोम प्रगल परिणाम रूप आहार आदि क्षा अनुभव करते हैं-भोगते है एवं जाव अहे सत्तमाए' इसी तरह से नारक जीव छित्तीय शर्करात्रभा पथिवी से लेकर अध: सप्तमी तमस्तमा पृथिवी 'सक शाहारादि का अनुभव करते हैं 'एवं नेयध्वं इसी तरह वेदना १, लेश्या २, नाम ३, गोत्र ४, अरति ५, भय६, शोक ७, क्षुधा ८, पिपाखा ९, व्याधि, १० उच्छपास, ११ अनुताप १२ क्रोध, १३ म.न १४ माया, १५ लोभ १६ आ.
रीय-श्रीगीतमस्वामी प्रसुने मे पूछयु 'इमीसे गं भंते रयणप्पभाए पुढवीए' मापन मा २त्न पृथ्वीमा 'नेरहया' नै२यि । 'दे रिसय पोग्गल परिणाम पच्चणुभवमाणा विहरति' वा पुगत परिणामन मेरो આહાર વિગેરે પુગવિપાકને ભેગવે છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે છે है 'गोयमा ! अणि जाव अमणाम' ७ गोतम ! २त्नमा पृथ्वीमा नयी અનિષ્ટ યાવત્ અકાંત, અપ્રિય, અમને, અને અમનેાડમ મુદ્દગલપરિણામ ३५ माहार विगेश्ना अनुभव ४२ छ. मात् माग छे. 'एवं जाव आहे. पत्तमाए' मा प्रभाव यावत् ना२४७। जी शरामा पृथ्वीथान मधामसभी तमस्तमा पृथ्वी सुधीर मार.२ विगैरे विना मनुल ४२ . 'एवं नेयमेश प्रभारी वहना १, सश्या २, नाम 3, मात्र ४, सति ५, जय ६, શોક ૭, ભૂખ ૮, તરસ ૯, વ્યાધિ ૧૦, ઉચ્છવાસ ૧૧, અનુતાપ ૧૨ોધ ૧૩, માન ૧૪, માયા ૧૫, લેભ ૧૬, આહારે ૧૭, ભય ૧૮, મૈથુન ૧૯, પરિગ્રહ ૨૦,
जी०४६
Page #384
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवक
जीवामि
सुहुतो पोग्गल असहाय होइ अस्ताओ । उववाओ अप्पाओ छितरी उ बोद्धवा ||११|| से तं नेरइया ॥ सू० २४ ॥
॥ नारय उद्देसओ तइओ ॥
छाया-- एतस्यां खलु भदन्त । रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैरयिकाः कीदृशं पुङ्गल परिणामं मत्यनुमन्तो विहरन्ति ? गौतम ! अनिष्टं यावदमनोऽमम्, एवं याव पछी सप्तम्याम् । एवं ज्ञातव्यम्, गाथा:- पुङ्गलपरिणामः १ वेदनार च छेश्या ३
"
नाम ४ गोत्रे ५ च । अरति : ६ भयं ७ च शोकः ८, क्षुधा ९ पिपासा १० व व्याधित्र ११॥१, उच्छ्वासः १२ अनुतापः १३, क्रोध्ते १४ मानश्च १५ माया १६ लोभ १७ चतस्रथ संज्ञाः १८-२१ नैरयिकाणां तु परिणामाः ॥ २॥ यंत्र किकातिलयजन्ति, नस्तृषभाः केशवा जलचराय । माण्डळिका राजानो ये च यारम्भकुटुम्बिनः ||१|| भिन्नमुहूर्त्ती नरकेषु भवति तिर्यमनुजेषु चत्वारि । देवेष्वार्द्धमास उत्कृष्ट विणा भणिता ||२|| ये पुद्गला अनिष्टा नियमात् स तेषां सवत्याहारः । संस्थानं तु जघन्यं नियमाद् हुण्डं तु ज्ञातव्यम् ||३|| अनुमा बिङ र्षणा खलु नैरयिकाणां भवति सर्वेषाम् । वैक्रियं शरीरमसंहननं हुण्डसंस्थानम् ||४|| असात उपपन्नोऽसाव एव त्यजति निरयभवम् । सर्व पृथिवीषु जीवः सर्वेषु स्थितिविशेषेषु ॥५ । उपपातेन वा सातं नैरथिको देवकर्मणा वाऽपि । व्यवसाननिमित्त मथवा कर्मानुभावेन ६। नैरयिकानुपपात उरकर्षेण पत्र बोनशतानि । दुःखेनाभिद्रुतानां वेदना शतसंप्रगाढानाम् ॥७॥ अक्षिनिमीकन मानं नास्ति सुख दुःखमेव प्रतिबद्धम् । नरके नैरविकाणा महर्निशं पच्यमानानाम् ||८|| तेजस फर्मशरीराणि सूक्ष्मशरीराणि च यान्यपर्याप्तानि । जीवन
मात्राणि व्रजन्ति सहस्रशो मेदम् ॥९॥ अतिशीत मत्युष्ण मतितृष्णाऽति सुषाइति भयं वा । नरके नैरयिकाणां दुःख शतानि अविश्रामम् ||१०|| अत्र व मिम्ब युद्धचेः पुद्गल शुभाय भवति उत्रास उपपातः उपपातोऽस्ति शरीराणि तु षोडव्यानि नारकोद्देशक स्तृतीयः । ते एते नैरयिकाः |||म्०२४ ॥
टीका--' इमीसे णं मंते । स्यणप्पभार पुढवीए' एतस्यां खल भदन्छ ! रत्नप्रभायां पृथिव्याम् 'नेरइया' नैरयिकाः 'केरिसयं' की दशम् - किमा तृतीय प्रतिपत्तिका तृतीय उद्देशक 'इमी से णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए गैरइया' - इत्यादि । ત્રીજી પ્રતિપત્તિના ત્રીજા ઉદેશાના માર ખ
'इमीसे णं भंते । रयणप्पभाप पुढवीए णेरया' हत्याहि
4
Page #385
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेययोतिका टीका प्र.३ उ.३६.२४ नैरयिकागां पुद्गलपरिमाणादिकम् .. ३६५ कारकम् 'पोग्गल परिणाम' पुद्गलपरिणामम्-आहार पृगलादि विपाकर पचणुम्भवमाणा' प्रत्यनुभवन्तः-वेदयमाना विहरंति' विहरन्ति-अवतिष्ठन्ते इति प्रश्ना, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौसम ! 'अणिढे जाव अम. णाम' अनिष्टं यावत्-अकान्तम् अप्रियम् अझनोज्ञ अमनोऽसं पुदलपरिणामं वेदयमाना विहरन्तीति । एवं जाब अहे सत्तमाएं एवं यावदधः सप्तम्या, एवं शर्करामभारथिवीतः आरभ्य समस्तमा पृथिवी पर्यन्त नारका अपि अनिष्ट मकान्तमपियममनोज्ञ भमनोऽयं पुद्गलपरिणामं वेदयमानाहिलष्टन्तीति । 'एवं नेयव्वं' एवम्-अनेन प्रकारेण पुद्गलपरिणाममधिकृत्य मैथुन संज्ञापर्यन्तमेक
टीकार्थ-गौतम ने प्रभु ने ऐला पूछा है-'हामीले णं अंते ! स्थाय भाए पुढवीए' हे भदन्त ! इन रस्नममा पृषिची में जेइया' नैरपिक 'करिसयं पोग्गलपरिणामं परचणु भजमा विति' कैले दल परिणाम को-आहारादि पुदल लिपाक को भोगते हैं ? उत्तर प्रलु कहते है-'गोयमा! अणिटुं जाय अमणा' हे गौतम रमप्रभा पृथिवी में नैरयिक अनिष्ट यावत्-अशान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ-और मनोम प्रगल परिणाम रूप आहार आदि का अनुभव करते है-ओगते है एवं जाव अहे सत्तमाए' इसी तरह से नारक जीव छित्तीय शर्करानभा पधिवी से लेकर अधः सप्तमी लमस्तमा पृथिवी तक माहारादि का अनुभव करते हैं 'एवं नेयध्वं' इसी तरह वेदना १, लेच्या २, नाल ३, गोत्र ४, भरति ५, भय६, शोक ७, क्षुधा ८, पिपाला ९, व्याधि, १० उच्छभास, ११ अनुताप १२ क्रोध, १३ मान १४ माया, १५ लोभ १६ आ.
सहाय-श्रीगीतभस्वामी प्रसुन मे पूछयु 'इमीसे णं भंते रयणप्पभाएं पुटवीए' मापन मा २नमा पृथ्वीमा 'नेरइया' नै२थि । 'देरिसय पोग्गलु परिणाम' पच्चणुभवमाणा विहरति' वा मत परिणामने भेट બાહાર વિગેરે પુગવિપાકને ભેગવે છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે છે है 'गोयमा। अणि जाव अमणाम" गौतम ! रत्नमा पृथ्वीमा नाय है। અનિષ્ટ યાવત્ અકાંત, અપ્રિય, અમનેશ, અને અમનેકમ પગલપરિણામ ३५ माहार विश्नो भनुम रे छ. अर्थात् माग छे. 'एवं जाव आहे. पचमाए' मा प्रमाणे यावत् ना२४ मील प्रमा पृथ्वीथी छन અધા સપ્તમી તમસ્તમાં પૃથ્વી સુધી આહાર વિગેરે વિપાકને અનુભવ કરે છે. “gવું नेयम् मे प्रभावन १, वेश्या २, नाम 3, गौत्र ४, २०२ति ५, भय, A13 ७, म ८, तरस, व्याधि १०, २७३३ १५, अनुता५१२, डोप 33, भान १४, भाय। १५, सोम १६, माहार १७, सय १८, भैथुन १६, ५रियड २०,
जी०४६
Page #386
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमत्र विशतिद्वाराणि ज्ञातव्यानि । 'गाहा बत्र विपये संग्रहगाथाद्वयं वर्तते, तथाहि'पोग्गलपरिणामे' इत्यादि । तत्र पुद्गलपरिणासमूत्रं सूत्रकारेणेव प्रतिपादितम्, शेषाणि-वेदना १ लेश्या २ नाम ३ गोत्रा ४ ऽरति ५ सय ६ शोक ७ क्षुधा ८ पिपासा ९ व्याध्यु १० च्छ्वासाजु ११ ताष १२ क्रोध १३ मान १४ माया १५ कोमा १६ हार १७ भय १८ मैथुन १९ परिग्रह २० संज्ञा विषयाणि विशतिः
नाण्यपि.वक्तव्यानि:तथाहि-हे भदन्त ! रत्नप्रभा नारकाः कीदृशीं वेदनां प्रत्यनुभवन्तस्तिष्ठन्तीति हे गौतम ! अनिष्ट शं यायदमनोऽसतरां वेदना प्रत्यनुभवन्त स्तिष्ठन्ति, एवं शर्कराममा वालुकाममा पकपमा धूमप्रभा तमःममा तमस्तमः धमा पृथिवी नारका अपि अनिष्टतरां यावदमनोऽमतरां वेदनामनु भवन्त-स्तिछन्तीति एवमेव प्रतिपृथिविव्यादि सूत्राण्यपि स्वयमेव ऊहनीयानि ।
भौतानि पुद्गल परिणामादि द्वाराणि समधिकृत्य परिग्रह संज्ञापरिणाम वक्तव्यतायां चरमसूत्रं सप्तमनरक पृथिवीलिपयं भवति, तदनन्तरम् 'एत्यकिर' हार १७, भय १८, मैथुन १९, परिग्रह २०, संज्ञाविषयक इन वेदना परि जाम से लेकर परिग्रह संज्ञा परिणाम तक शेष उन्नीस द्वारों के सम्बन्ध में श्री सूत्रों का कथन कर लेना चाहिये जैसे-हे भदन्त ! रत्नप्रभा नरयिक कैसी वेदना का अनुभवन करते हैं ? हे गौतम ! वे अनिष्ट तर थावत् अमनोमतर वेदना का अनुभवन करते हैं। इसी तरह से हर एक पृथिवी में लेश्यादि सम्बन्धी सूत्र भी अपने आप उभावित कर लेना चाहिये यहां इस विषय में दो संग्रह गाथाएं हैं-'पोग्गल परिणाम इत्यादि।
यहां इस पुद्गल परिणाम को अधिकृत करके परिग्रह संज्ञा परिणाम पर्यन्त के पीस छारों की वक्तव्यता मे अन्तिम सूत्र सप्तम नरक पृथिवी સંજ્ઞા સંબંધી આ વેદના પરિણામથી લઈને પરિગ્રહ સંજ્ઞા પરિણામ સુધીના બાકીના ઓગણીસ દ્વારોના સંબંધમાં પણ સૂત્રનું કથન સમજી લેવું. જેમકે ભગવાન રત્નપ્રભા પૃથ્વીના નૈરયિકે કેવી વેદનાને અનુભવ કરે છે, હે ગૌતમ! તેઓ અનિષ્ટતર યાવતું અમને ગમતર વેદનાને અનુભવ કરે છે. એ જ પ્રમાણે હરેક પૃથ્વીમાં લેશ્યા વિગેરેના સંબંધમાં પણું સૂત્રપાઠ પિતે બનાવીને સમજી છે. અહિંયાં આ સંબંધમાં બે ગાથાઓ કહી છે. જે આ પ્રમાણે છે. *
'पोग्गलपरिणामे वेयणा य लेस्साय नाम गोए य;अरइ भएय सोगे खुहापिवासा य वाही य ॥ १ ॥ उस्मासे अणुतावे, कोहे माणे य माय लोभेय, पत्तारि य सरणाओ, नेरइया णं तु परिणामे - ॥ २॥
અહિયાં આ મુદ્દગલ પરિણામ વિગેરે દ્વારેને અધિકૃત કરીને પરિગ્રહઅંજ્ઞા પરિણામની વક્તવ્યતામાં છેલ્લું સૂત્ર સાતમી નરક પૃથ્વીમા છે તે પછી
Page #387
--------------------------------------------------------------------------
________________
'
1
प्रमेययोतिका टीका प्र. ३ . ३ . २४ नैरयिकाणां पुनले परिमाणादिकम्
इति गाथा वक्तव्या । अथ चरमसूत्रोक्त सप्तमनरकपृथिवीमसङ्गात् तत्र दे गच्छन्ति तान प्रतिपादयति- 'एत्य किर' इत्यादि, 'एत्थ' अत्रावः सप्तमश्कपृथिव्याम् 'किर' किलेति पदम् आप्तवच - मेतद् यदग्रे कथ्यते - ' अतिव्रजसि सप्तमनरक पृथिव्यामये वक्ष्यमाणाः पुरुषा गच्छन्तीति-के वे पुरुषाः ये सम नरकपृथिव्यां गच्छन्ति तत्राह - ' नरवसभा' इत्यादि, 'नरवसभा' नरतृषमा:नरेषु वृषभतुल्याः कालभोगादौ अत्यासक्तात् महामहिमबलशालिवाह्रा के ते? इत्याह- 'केसवा' केशवाः वासुदेवाः 'जळच पराय' जलराश्च तन्दुलमरस्य प्रभृतयः 'मंडलिया ' माण्डळिका, वसुप्रभृतयः, 'रायाणी' राजानचक्रवर्त्तिनः सुभूमादयः 'जे य, महारंभकोडुवी' ये च महारम्भकुटुम्बिनः काळ सौ कादयः एते तथा एतत्सदृशाच येऽन्येऽत्यन्तक्रूरकर्मकारिणस्ते सप्तमनरकपृथिव्यां पाहल्यैन के विषय का है, उसके बाद 'पस्थ किर' यह गाथा कहनी चाहिये । अर्थ परम सूत्रोक्त सप्तम नरक पृथिवी प्रसंग से इस सप्तम नरक पृथिवी में जाने वालों को कहते हैं- 'एत्थ फिर' इत्यादि । 'एत्थ' यहां अध सप्तमी पृथिवी में 'अतिवयंति' ये मनुष्य जाते हैं-जो 'नरवसभा' नरवृषभ होते हैं- मनुष्यों में वृषभ के तुल्य होते हैं-भो गादि को में अस्यामुक्त होते हैं- अथवा-वडी भारी महिमा वाले बल के धारी होते हैं। उनके नाम इस प्रकार से है- 'केसवा' वासुदेव 'जलयराय' तन्दुलमस्थ आदि 'मंडलिया' माण्डलिक वसु आदि 'रायाणो' राजा - चक्रवर्ती सुभूम आदि 'जे महारं मे कोडंबी' तथा-जो काल खोकरिक आदि के जैसे महारम्भवाले कुटुम्बी - गृहस्थजन ये सब खप्तम पृथिवी में जाते है तथा इसी 'एत्थ किर' मा गथा उहेवी लेह.
હવે ચરમ સૂત્રમાં કહેલ સાતમી નરક પૃથ્વીના પ્રસંગથી આ સાતમી નરક પુથ્વીમાં જવાવાળાના સબધમાં કથન કરવામાં આવે છે.
'एत्थ किर' इत्याहि. 'एत्थ' अडियां मा अधःससभी पृथ्वीभां 'जति वयति' मा मनुष्या लय हो, है लेयो 'नरवसभा' नर वृषभ होय छे. અર્થાત્ મનુષ્યમાં વૃષભ સરખા હૈાય છે. એટલે કે ભેગાદિકમાં અત્યં'ત આસક્ત હાય છે અથવા અત્યંત માટા મહિમાવાળા મળને ધારણ કરવા वाजा होय छे, तेथे ना नाभी भी प्रभाले छे. 'केसवा' वासुदेव 'जलययि' त'हुसभत्स्य विगेरे 'म'डलिया ' भांडलिङ वसु विगेरे 'रायाण' शब्द रावत, सुभूभ विगेरे 'जे महारभे कोड बी' तथा लेखे। हात सो४र४ विगेरेनी लेवा -મહા માર’ભવાળા કુદ્રુમ્મી ગૃહસ્થજન આ મષા સાતમી પ્રુથ્વીમાં જાય છે,
Page #388
--------------------------------------------------------------------------
________________
飯
जीवामि गम कच्छन्तीति । सम्प्रति नरकेषु तथा प्रस्तावात् तिर्यगादिषु च उत्तरवैक्रियावस्थान- फाक्रमाह- 'भिन्नमुहुतो नरएस होइ' भिन्नमुहूर्ती नरकेषु भवति - भिन्नः - खण्डो इति भिन्नमुहूर्तः, अन्तर्मुहूर्त मित्यर्थः तथा च नरके पूत्कर्षतो विकर्षणा थितिकालो नारकsणामन्तसुंहूर्त्त भवतीति । 'तिरियमणुपसु चत्तारि' विर्यमनुष्येषु चत्वारि तिर्यङ् मनुष्येत्कर्षतो विकुर्वणा स्थितिकालयत्वारि बन्द - 'हनि, 'देवेसु अद्धमासो' देवेपूत्कर्षतो विकुर्वणास्थितिकालोऽर्द्धमास - यावज्ञ पति- 'उको विकुन्त्रणा भणिया' उत्कृष्ट विकुर्वणा तीर्थकरैर्मणिता इति । सम्मति करकेषु आहारादि स्वरूपमाह - 'जे पोग्गला' इत्यादि, 'जे पोग्गला अणिट्ठा मयमा सो तेर्सि होइ आहारो' ये पुद्गला अनिष्टा अकान्ता अमिया अमनोग्रा तरह जो और भी अत्यन्त क्रूरकर्म करने वाले मनुष्य है वे भी प्रायः करके सप्तम नरक-तमस्तमा पृथिवी में जाते है ।
-
-- अब नरकों में और प्रसंगवश निर्यगादिकों में उत्तर वैक्रिय के अवस्थानकाल का सूत्रकार कथन करते हैं- 'भिन्नमुहुत्तो नरएस होइ' नकों में नारक जीव की उत्तर विकुर्वणा की स्थिति का काल उत्कृष्ट अर्थात् एक अन्तर्मुहूर्त्त का है 'तिरियमणुस्सेसु चत्तारि ' -: तिर्यञ्च और मनुष्यों में विकुर्वणा का स्थिति फाल चार अन्तर्मुहूर्त का हे 'देवेषु श्रद्धमासो' देवों में विकुर्वणा का स्थिति काल उत्कृष्ट से अर्धकुमाल तक का है। 'उक्कोलविणा भणिवा' इस तरह का यह विकु र्वणा का उत्कृष्ट से स्थिति फाल तीर्थकरों ने कहा है। अब सूत्रकार २ नरफी में आहार आदि के स्वरूप का कथन करते है- 'जे पोग्गला अणि
१६४
छ
તથા એજ પ્રમાણે બીજા પણુ જે અત્યંતક્ર કર્યાં કરવાવાળા મનુષ્યેા છે, તેઓ પણ ઘણા ભાગે સાતમી નરક-તમસ્તમા નામની પૃથ્વીમાં જાય છે.
હવે સૂત્રકાર નરકામાં અને પ્રસંગવશાત્ તિગૂ વિગેરેમાં ઉત્તર વૈક્રિય +ना अवस्थान अजनुं स्थन ४रे छे. 'भिन्न मुहुच नरएस होई' नराभां नार४ જીવની ઉત્તરવિક જ્ઞાની સ્થિતિના કાળ ઉત્કૃષ્ટની ભિન્ન મુહૂત અર્થાત્ એક अतभुतनी छे. 'तिरिय मणुस्खेसु चत्तारि' तिर्यय भने मनुष्योभां विधु
थाना स्थितिण यर अतर्मुहूर्त है. 'देवेसु अद्धमासो' हेवाभां विड्पंधाना स्थितिक्षण उत्सृष्टथी अर्धा भास सुधीना छे. 'उकोस विकुव्त्रणा भणिया' मा प्रभा मा उत्कृष्टथी विधुर्वखाना स्थितिाण तीर्थ उरे अडेस छे. હવે સૂત્રકાર નરકામાં આહાર, વિગેરેના સ્વરૂપનું કથન કરે છે. ને जोगाला अणिट्ठा नियमा सो तेखि होई आहारो' हे गौतम! नरोमां ने
Page #389
--------------------------------------------------------------------------
________________
T
प्रद्योतिका टीका प्र.३ उं. ३ . २४ नैरयिकाणां पुनले रिमाणादिकम्
Inte
भ्रमनोऽमास्ते एव पुद्गला नारकाणामाहाराय भवन्तीति । 'संठाणं तु जहणं नियमा हुडंतु नायव्वं' संस्थानं तु पुनस्येषां नारकाणां हुण्डं भवति तदपि डुण्ड संस्थानं जघन्यमति निकृष्टं नियमतो भवतीति ज्ञातव्यम्, एतच्च संस्थानं म धारणीयशरीरमधिकृत्य ज्ञातव्यम् उत्तरवै क्रियसंस्थानस्याग्रे वक्ष्यमाणत्वादिति । सम्प्रति विकुर्वणा स्वरूपमाह - 'असुमा' ' इत्यादि 'असुमा बिउव्वणा खलु नेरइयाणं होह सब्वेसिं' अशुमा विकुर्वणा खलु नैरयिकाणां तु भर्वाख सर्वेषाम् सर्वेषामपि नारकजीवाना मशुभैव विकुर्वणा भवति नतु कदाचिदपि शुम, - यद्यपि शुभं विकुर्विष्याम इत्येवं ते नारकाञ्चिन्तयन्ति, तथापि तथाविधप्रतिकूल
हा नियमा सो तेर्सि होइ आहारों' हे गौतम ! नरकों में जो पुल अनिष्ट अकान्त, अप्रिय और अमनोज्ञ तथा अमनोऽम होते हैं-ऐसे पुद्गल ही नारक जीवों के आहार के लिये होते हैं । 'संठाणं तु जहणं नियमा हुडंतु नायai' नारक जीवों का संस्थान नियम से हुंड ही होता है । यह संस्थान भी नियमतः अत्यन्त जघन्य होता है अर्थात् निष्कृष्ट होता है यह संस्थान भवधारणीय शरीर को लेकर ही कहा गया है-क्योंकि उसर वैक्रिय का संस्थान आगे कहा जायगा ।
विकुर्वणा का स्वरूप कथन
'अभी विणा खलु रहयाणं होड़ सव्वेसिं' जितने भी नारक जीव हैं - उन सबके अशुभ ही विकुर्वणा होती है। शुभ विकर्षणा कभी भी नही होती है । यद्यपि ये नारफी ऐसा विचार तो करते हैं कि हम शुभ विकुर्वणा करें-परन्तु तथाविध प्रतिकूल कर्म के उदय
પુદ્ગલા અનિષ્ટ, કાન્ત, અપ્રિય, અને અમનેાજ્ઞ તથા અમનેમ હોય છે. शेवा युड्रगबान ना२४ वाना आहार भाटे हाथ है. 'संठाणं तु जहणणं नियमा हुडंतु नायव्वं' नार लवानुं संस्थान नियमथी हुडे होय . મા હુંડ–બેડોળ સ્થાન પણ નિયમતઃઅત્યંત જઘન્ય હાય છે અર્થાત્ નિકૃષ્ટ હોય છે. આ સંસ્થાન ભવધારણીય શરીરને લઈને જ કહેલ છે. કેમકે ઉત્તર વૈક્રિયનુ' સ’સ્થાન હવે પછી કહેવામાં આવશે.
विठु थाना स्व३५नुं ४थन 'असुभा विउब्वणा खलु णेरइयाणं होई सव्वेसि" જેટલા નારક જીવા છે, તે બધાને અશુભ નિષ્કુ જ હાય છે. કયારેય પણ તેને શુભ વિષુવા હાતી નથી. જે કે આ નારકીયા એવા વિચારત કરે છે કે અમે શુભ વિકુ ણા કરીએ પરંતુ તેવા પ્રકારના પ્રતિકૂળ કર્માંના
Page #390
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमा कमोदयतः तेषां नारफाणा मनिष्टव विकुर्वणा भवतीति । 'वेउन्बियं सरी' वैशियं शरीरं भवति नारकाणाम् तदपि वैक्रिय मुत्तरवैक्रियम् 'असंघयणं' असंहजनम् अस्थयमावेन संहननामावाद उपलक्षणमेतत् भवधारणीयमपि वैक्रियशरीरं सिंहननवनितमेप भवति तथा-'हुंड संठाणं' हुण्डसंस्थानं तत् उत्तर वैक्रियभरीर भवति, हुण्डसंस्थाननाम्न एव अवमत्ययत उदयभावात् । 'जीवो' कपिज्जीव सिव्वाढवी सर्वांट रत्नप्रभादिनरकपृथिवीपु 'सन्चेमु ठिइविसे सेम' सर्वेष्वपि प स्थितिविशेषेषु जघन्यादि रूपेषु 'अस्साओ उववण्णो' असात:--असातोदयप. रिझलितउपपन्नः उत्पत्तिसमयेऽपि पूर्वभवमरणकालानुभृतमहादुःखस्यानुवति भावात् उत्पश्यनन्तरमपि 'अस्सामोचेव' - असात एव-असातोदयकलित एव सकलमपि 'निरयमवं चयइ' निरयभवं त्यजति क्षपयति न तु कदाचिदपि मुखलेशसे उन नारकों के अनिष्ट ही विकुर्वणा होती है। 'वेडग्वियं सरीर नारक जीवों के जो शरीर होता है वह वैक्रिय ही होता है और वह वैक्रिय भी उत्तर वैक्रिय होता है । 'असंघघणं' यह उत्तर वैक्रिय शरीर विना संहननका अस्थि आदि से शुन्य-इसी तरह भवधारणीय क्रिय -शरीर भी संहनन विना का ही होता है। नरको में वह उत्तर वैक्रिय शरीर हुंड संस्थान वेढय अवयव वाला होता है क्योंकि वहां जन्म लेने से ही इनके झुण्ड संस्थान नाम कर्म का उदय रहता है। 'जीवो सब्ध पुढवीसु-सव्वेस्तु ठिह विसेसेसु अस्सामो उववण्णो' कोई जीव समस्तपृथिवियों में और जघन्यादि रूप स्थिति विशेषों में असातोदय युक्त उत्पन्न हुआ, उत्पत्ति काल में भी वह पूर्व भव में मरण काल में अनुलत महा दुःखो की अनुवृत्ति के प्रभाव से उत्पत्ति के अनन्तर भी असाता वेदनीय के उद्य ले युक्त हुआ हो सम्पूर्ण निरयभव को समा. -- यथी नार मनिष्ट विलास डाय छे. 'वेउब्विय सरीर' ना२४ અને જે શરીર હોય છે, તે વૈકિય શરીરજ હોય છે. અને વૈક્રિયમાં પણ समान उत्तरवैष्ठिय शरी२०४ डाय छे. 'असंघयणं' मा उत्तर पश्यि • शरीर સહનના હાડકા વિનાના હોય છે. એ જ પ્રમાણે ભવપારણીય શૈક્રિય શરીર હુંડ સંસ્થાન અર્થાત્ બેઢબ અવયવ વાળું હોય છે. કેમકે ત્યાં જન્મ
वाथा १ मा हु संस्थान नाम भने। वय २९ छे. 'जीवो सब्ध पुढवीसु सम्वेसु ठिइ विसेसेसु अस्साओ उववण्णो' १ सधणी वायोमा અને જઘન્ય વિગેરે રૂપે સ્થિતિ વિશેષમાં અસાતેદય યુક્ત ઉત્પન્ન થયે હેય, અને ઉત્પત્તિ કાળમાં પણ પૂર્વભવમાં મરણ સમયે અનુભવેલ મહા દુખેની
Page #391
--------------------------------------------------------------------------
________________
अमेयचोतिका टीका प्र.३ १.३ १.२४ नैरयिकाणां पुद्गलपरिमाणादिकम् ६७ मास्वादयति इति । ननु कि कदाचित्-सातोदयोऽपि भवति येनेदमुच्यते उत् असातोदयपरिकलित एवोपपन्नोऽसातोदयकलित एव निरपमवं त्यजति' इत्यंत भाइ-'उववाएण' इत्यादि, 'उववाएण व सायं' उपपातेन सातं लभते, उपपातेन इत्यत्र सप्तम्यर्थे तृतीया-तथा चोपपातकाले 'साय' सातं मुखं सातावेदनीय स करता है कभी सुख के लेश मात्र का भी आस्वादन नहीं कर पाता है तात्पर्य ऐसा है कि कितने जीव ऐसे होते हैं जो मसल निरवादि पृथिषियों में और समस्त स्थितियों में अल्लाता वेदनीय के उदय जन्य दुःख को ही भोगा करते है और दुःख ओगते २ ही जीवन समाप्त कर देते हैं। ऐसा क्यों होता है ? तो इसका कारण यहाँ ऐसा कहा गया है कि वे दुःख भोगते २, ही मरते हैं और वही संस्कार उनके साथ जहां वे उत्पन्न जिस स्थिति में होते हैं वहां पर भी जाता है अतः ऐले जीव नरकादि भवों को प्राप्त करके वहां पर भी दुःख भोगते २, ही अपना जीवन पूर्ण कर देते है-वहां उन्हें एक क्षण भी सुख का लेश प्राप्त नहीं होता है तो क्या नरक पृथिवियों में सुखका लेश भी है कि जिसे छेकर आप ऐसा कह रहे हैं? तो इसका उत्तर ऐसा है कि हाँ वहां पर भी सुख का वेदन सातोदय से कोई २, जीव करता है-यही यात "उववाएण व सायं" इस सूत्र पाठ द्वारा समझाई गई है-'उपपातेन" નિવૃત્તિ ન થવાના પ્રભાવથી યુક્ત થઈને જ સમગ્ર નરયિક ભવને સમાસ કરે છે. કયારેય પણ લેશમાત્ર સુખને પણ સ્વાદ લઈ શકતા નથી. ' . આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે કેટલાક જી એવા હોય છે કે જે સઘળી નિરયિક પૃથિવિામાં અને સઘળી સ્થિતિમાં અસાતા વેદનીયના ઉદયથી. થવાવાળા દુખેનેજ ભગવ્યા કરે છે. અને દુઃખ ભોગવતાંજ " પિતાનું જીવન પૂરું કરી દે છે. એવું કેમ થાય છે? તેનું કારણ અહિયાં એવું- પ્રતવે છે. કે તેઓ સુખ ભોગવતાં ભોગવતાં જ મરે છે. અને એજ સંસ્કાર તેઓની સાથે જ્યાં અને જે સ્થિતિમાં તેઓ ઉત્પન્ન થાય છે, ત્યાં પણ જાય - છે. તેથી એવા જ નરકાદિ ભવેને પ્રાપ્ત કરીને ત્યાં પણ દુઃખ ભોગવતાં લાગવતાં જ પોતાનું સમગ્ર જીવન પુરૂ કરી દે છે. તેઓને ત્યાં એક ક્ષણ પણ સુખને એકલેશ પણ પ્રાપ્ત થતું નથી. અર્થાત લેશમાત્ર સુખ પણ તેઓને , त्या भगतु नथी.
તે શું નરક પૃથિવિયામાં લેશમાત્ર પણ સુખ છે કે જેથી આપ આ પ્રમાણે કહે છે ? તેનો ઉત્તર એ છે કે હા ત્યાં પણ સાતેદયથી કે 18 0 सुमनु वदन ४२ छ. मेवात 'उववाएण सायं ५५ हेत!
Page #392
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
जीवामिगमको एमादयं कविद्वेतयते यः प्राग्भवे दाहच्छेदादिव्यतिरेकेण मरणमुपगतोऽनति संक्लिष्टाध्यवसायी समुत्पद्यते तदानीं न तस्य मागभवानुविद्धमाधिरूपं दुःखं नापि क्षेत्रवमावजं नापि परमाधार्मिककृतं नापि परस्परोदीरितदुःखं तत एवंविष. दुःखा मावादसौ सानोदयं कश्चिद्वेदयते इति कथ्य है, 'देव कम्मुणावावि' देव. कर्मणा पूर्वमाङ्गतिकदेव प्रयुक्तया क्रियया स्यादि-गच्छति पूर्वसागतिको देवः उपमाएण'-स्पपात काल में कोई २, नारक साता वेदनीय कर्म के उदय जन्छ मुख का वेदन भी करता है परन्तु ऐसा जीव कैमा होता है-उसके लिये कहा गया है कि ऐसा जीव पूर्वभर में दाह आदि निमित्त के छन् आदि निमित्त के विना-अकाल वरण के साधन जुटाये विना मरण को शाप्त होता है
इल स्थिति में यह भरते समय अतिशय संक्लेश परिणामो वाला नहीं होता है अतः अलि लल्लिष्ट परिणामों वाला नहीं होने से हजीव जय नरक में उत्पन्न होता है तो उसके पूर्वभव के त्यागने में मानसिक दुःख का अभाव रहता है, तथा नरक रूप क्षेत्र के स्वभाव से जन्म दुःख भी उसे नहीं होता है, परमाधार्मिक देवों द्वारा किया गया हुःख भी उसे नहीं होता है और न आपस में उदीरित दुःख भी उसे होता है इस तरह के दुःख के अभाव से कोई २, जीव यहां नरक में
भी खाता के उदय को भोगता है ऐसा कहा जाता है 'देवकम्मुणा वा वि' तथा-कोई पूर्व भव का परिचित जीव हो गया हो और वह अपने ઉત્પત્તીના સમયે કોઈ કોઈ નારક જીવ સાતા વેદનીય કર્મના ઉદયથી થવા વાળા સુખનું પણ વેદન કરે છે પરંતું તેવા છો કેવા હોય છે, તે સંબંધમાં કહ્યું છે કે એ જીવ પરભવમાં દાહ વિગેરે નિમિત્ત વગર, છેદ વિગેરે નિમિત્તવિના, અકાલ મરણના સાધન છૂટવ્યાં વિના મરણ પામે છે. આવી સ્થિતિમાં તે મરણ વખતે અત્યંત સંકલેશ પરિણામે વાળે હેતે નથી. અતિ સંકિલષ્ટ પરિણામોવાળ ન હોવાથી તે જીવ જયારે નરકમાં ઉત્પન્ન થાય છે, તે તેના પૂર્વભવને ત્યાગવામાં માનસિક દુખને આ માવ રહે છે. તથા નરક રૂપ ક્ષેત્રના સ્વભાવથી થવાવાળું દુખ પણ તેને હાતું નથી. પરમાધાર્મિક દેવે દ્વારા કરવામાં આવેલ દુખ પણ તેને હેતું નથી તેમજ પરસ્પરમાં આપેa દુખ પણ તેને હેતું નથી. આ રીતના દુખના અભાવથી કઈ કઈ ત્યાં નરકમાં પણ સાતા વેદનીય કર્મના ઉદયને ભેગવે છે. तमामा मा छे 'देवकम्मुणावा वि' मन छ भने પરિચિત છવ દેવ થઈ ગયે હોય, અને તે પિતાના અવધિજ્ઞાનથી પિતાના
Page #393
--------------------------------------------------------------------------
________________
पमेयोतिका का प्र.३ उ.३ सू.२४ नैरयिकाणां पुद्गलपरिमाणादिकम् ६९, पूर्वपरिचितस्य नरयिकस्य वेदनोपशमनार्थम् । स च वेदनोपशमो देवकृतो मनाक्कालमात्रे एव भवति, तत अर्घ नियमाव क्षेत्रस्वभावजा अन्योन्या वा वेदना प्रवर्तते तथा स्वाभाव्यादिति । 'अज्झत्रसाणनिमित्तं' अध्यवसानिमित्तं सम्यबस्वोत्पादकाले तत ऊर्वकदाचित्तथाविधविशिष्ट शुभाध्यवसायप्रत्ययं कश्चिन्नैर'यिको बाह्यक्षेत्रस्वभावजवेदना सदभावेऽपि सातोदयमेवानुभवति, सम्यक्त्वस्योत्पादकालेहि जात्यन्धस्य चक्षु लोपहन पहान् प्रमोदो जायते तदुत्तरअवधिज्ञान से अपने परिचित को नरको उत्पन्न हुशा जाने तो उस समय में यह देव नरक में अपनी बिक्रिया द्वारा पहुंचकर उल नारक, की वेदना को उपशमाने के निमित्त उस्ले उपदेश देता है तो इससे भी उस नारक के लिये थोडी बहुत कुछ समय के लिये शाम मिल जाती है.यह देवकृत वेदनोपशमरूप शाता उस जीव को चिरस्थायी रूप ले प्राप्त नहीं होती है किन्तु थोडे के समय के लिये ही होती है इसके बाद नियम से उसे क्षेत्र स्वभाव जन्म अथवा दूसरे के द्वारा कृत वेदना होने लगती है। क्योंकि यहां की हालत ही ऐसी है 'अज्झव. साण निमित्तं जप किसी नारक को सम्परत्व-उत्पन्न हो जाता है। तो उसके कारण उस नारक जीव को तथाविध विशिष्ट शुभ अध्य. पसाय निमित्तक सातोदय का ही वहां अनुभव होता है यचापि इसके वाय-क्षेत्र के स्वभाव से जन्य वेदना का सदभाव रहता है तब उसके भीतर में साता का उदय ही प्रतीत होता है जिस प्रकार जात्यन्ध पुरुष को वक्षु के लाभ से परम प्रमोद होता है उली प्रकार के इल नारक યુરિચિતને નરકમાં ઉત્પન્ન થયેલ જાણે તે તે સમયે તે દેવ ત્યા નરકમાં પિતાની વિક્રિયા દ્વારા પહોંચીને તે નરકની વેદનાને શમાવવા માટે તેને ઉપદેશ આપે તે તેનાથી પણ તે નારક જીવને થોડા સમય માટે પણ થોડી ઘણું
ઇક શા મળી જેય છે આ દેવકૃત વેદનપશમરૂપ શાતા તે જીવને - રિસ્થયી પણાથી પ્રાપ્ત થતી નથી. પરંતુ થોડા સમય માટે જ હોય છે. તે પછી નિયમથી તેને ક્ષેત્ર સ્વભાવજન્ય અથવા એક બીજા દ્વારા કરવામાં माना थवा मागेछ भो त्यानी ado वी डाय छे. 'अजमवसा णनिमित्त' ब्यारे 10 ना२४ने सभ्य अत्पन्न थJanयं त ते आरंभुथी में નક જીવને તેવા પ્રકારનું વિશિષ્ટ શુભ અધ્યવસાય નિમિત્તક સાdદયને જ
ત્યાં એવિ થાય છે. જો કે તેના બાહ્યક્ષેત્રના સ્વભાવથી થવાવાળી વેદનાને ” સદ્ભાવ રહે છે, ત્યારે તેની અંદર સાતાને ઉદય જ પ્રતીત થાય છે. જેમ કઈ જન્ય પુરૂષને નેત્રને લાભ થવાથી અત્યંત આનંદ થાય છે એજ
मो. ४७
Page #394
--------------------------------------------------------------------------
________________
६
३७०
- जीवामिगमसूत्रे
काकमपि कदाचिद तीर्थङ्करादिगुणानुमोदनाच्यनुगतां विशिष्टां भावनां भावयतः, सतो. बाह्यक्षेत्र स्वभावज वेदना सद्भावेऽपि अन्तः सातोदयो भवत्येवेति । ' अहवा कम्माणमावेणं' अथवा कर्मानुभावेन कर्मणः- बाह्यतीर्थंकरजन्मदीक्षा केवलज्ञानापवर्ग कल्याणसंभूतिलक्षणवाह्यनिमितमधिकृत्य तथाविधस्य सातावेदनीयस्य कर्मणोऽनुभावेन विपाकोदयेन कश्चित्सातं वेदयते इति ६ । 'वेयणसयपगाढाणं' वेदनाशक संप्रगाढाना वेदनाशवानि अपरिमिता वेदनाः संमगाढानि अवगाढानि येषां ते वेदनाशतसंप्रग ढाः यतो वेदनशत संप्रगाढा स्वतः 'दुक्खेणा भिदुयाणं' दुःखेनाभिद्रुतानाम् यतो वेदनाशत्तसंप्रगाढा अतो दुःखेनाभिद्रुता स्तेषाम् 'नेरइयाणं' नैरथिकाणाम् - नैरयिकजीवानाम् 'उपाओ उक्कोसं पंच जोयणसंयाई' उत्पातः, उत्पातो नाम कुम्पादिषु पच्यमानानां कुन्तादिभिर्भिद्यमा :
-
जीव को भी सम्पक्स के लाभ में परम हर्ष होता है इसके बाद भी उसके कभी २, तीर्थंकर आदि के गुणों की अनुमोदना करने रूप विशिष्ट अव्यवसाय वाली भावना के चितवन करते समय बाह्य क्षेत्र स्वाभाविक वेदना के सद्भाव में भी भीतर में साता का उदय हो ही जाता है 'अहंथा कम्माणुभावेणं' कोई २, नारक तीर्थङ्कर के जन्म, दीक्षा, केवल. ज्ञान और मोक्ष कल्याण के समयरूप बाह्य निमित्त को लेकर तथाविध सातावेदनीय कर्म के विपाकोदय से साता का वेदन करता है ॥६॥, . 'वेयण सय संपगाढाणं' अपरिमित वेदनाओं से युक्त हुए अतएव दुःखोंसे परे गये उन 'नेरयाणुप्पा' नैरयिकों का कुंभी आदि में पचाने से कुन्त-भाला आदि से भेदे जाने से भयत्रस्त होकर ऊपर उछलनां कम से
Y
પ્રમાણે આ નારક જીવને પણુ સમ્યક્ત્વના લાભમાં પરમ હેષ થાય છે. તે પછી પણ તેને કયારેક કયારેક તીર્થંકર વિગેરેના શુથેનું અનુમાદન કરવા. રૂપ વિશેષ પ્રકારના અધ્યવસાય વાળી ભાવનાનુ ચિત્યન કરતી વખતે ખા ક્ષેત્રની સ્વાભાવિક વેદનાના સદૂભાવમાં પણ અંદર સાતાના ઉદય થઈ જ જાય छे. "अहवा कम्माणुभावेणं' ४४ - नार४ तीर्थ करना भीक्षा, ठेवणज्ञान भने भक्ष उदयालुना, समय: ३५ बाह्य निमित्तने धने- "तेवा-अठारंना सात, वहनीय भुना विषा अध्यथी सातानु' वेहन४ ॥ ॥
'ब्रॅंयणव॒यसंपगाढा ण' अपरिमित बेहनाशार्थी युक्त थयेव अतमेव दुःपोथी ५२ येता ते 'नेरइयाणुपाओ' नैरयिडाने हुली विगेरेमां- पथाववाथी, -भांसा विगेरेथी हाई वाथी, अयथा विडवणथहने पर छा भ
1.
Page #395
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
-
प्रमेयद्योतिको टीका प्र.३.२ .२४ नैरयिकाणां पुद्गलपरिमाणादिकम् - ३७१ नानां भयोवस्तानां तथाविधयत्नवशाद् ऊर्ध्वमुत्प्लवनम् स जघन्येन गध्यतमात्रम् उत्कर्षेण तु पञ्चयोजनशतानि भवतीति ७ । दुःखेनाभिद्रुतानामिति, दुःखमेव निरूपयति-'नरए नेरइयाणं' नरके नारकाणांमुष्णवेदनया शीतवेदनया. वा
होणिसं पच्चमाणाणं' अहर्निशं पच्यमानानाम् 'अच्छिनिमीलियमेतं नत्यि मुहै'. अक्षिनिमीलनमात्रमपि सुखं न भवति किन्तु 'दुक्खमेत्र पडिबद्धं' केवलं दुःखमेव प्रतिबद्धम् अनुषद्धं सशानुमतमिति भावः । नरके वसतां नारकाणां रात्रिदिवम् दुःखमेव भवति नतु स्वल्पमपि मुखं भवतीति भावः ८ । अथ यत् तेषां तेषां नारकाणां वक्रि यशरोरं त नरकाणां मरग काले कथं भवति माह-'तेयाकम्म इत्यादि, 'तेयाकम्मसरीरा' तैनस कामगशरीराणि तिष्ठन्ति 'मुहमसरीराय : सूक्ष्मशरीराणि च सूक्ष्मनामकोड्याता पर्याप्ताना मपर्याप्तानां च औझारिक कम एक कोश तक और 'उकोलेणं' अधिक से अधिक पांच सौ योजन तक होता है नरक में नारक जीवों के दुःखों का कथन इस प्रकार से है-नारक जीवों को बरकों में उष्णवेदना और शीतवेदना जन्य दुःख रात दिन-चौधील घन्टे रहता है इसी से वे वहां दुःखों से ओतप्रोत प्रने रहते हैं अतः नेत्र के टिमकारे मात्र भी वहाँ सुख नहीं है क्योंकि दुक्खमेव पडिबद्ध" दुःख ही यहां सदा से अनुगत है इसी कारण 'नरए नेरक्ष्याणं अहोनिसं०' नरक में नारक जीवों का 'पच्चमाणाण' वहां रहते २, रात दिन दुःख ही भोगना पडता है।८। 'तेया कम्म सरीरा' इत्यादि, नारक जीशे के मृत्यु काल के तेजस और कार्मण शरीर रहता है हनके सिवाय वैशिष शरीर बिखर जाता है-तात्पर्य यही है कि-लक्षमनामकर्म के उदय वाले जो पर्याप्त और अपर्यात जीव माछा मे ॥ सुधा मन पधारेभा पधारे 'उक्कोसेणं' पायस योजन सुधा થાય છે. નરકમાં નારક ના દુઃખનું કથન આ પ્રમાણે છે. નારક જીવને નરકમાં ઉણુ વેદના અને શીત વેદનાથી થવાવાળું દુઃખ રાત દિવસ ચોવીસે કલાક રહે છે. તેથી જ ત્યાં નારક દુઃખથી ઓતપ્રોત બનીને રહે છે. તેથી मामना मात्र ५ तमान त्यां सुप मातु नथी. भो 'दुःखमेव पडि बर्द्ध' त्या सहा म०१ २९ छे. तेथी 'नरए नेरइयाण अहोनिस.' न२ मा ना२४ वा 'पच्चमाणा गं' त्या २४ता २ता रात सिम लोग ५९ छे. ॥ ८॥ तेया कम्म सरीरा' छत्याहि ना२४ वान मृत्यु मां તૈજસ અને કર્મણ શરીર રહે છે. તે સિવાય વૈકિય શીર વિખરાઈ જાય છે. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે સૂક્ષ્મ નામ કર્મના ઉદય વાળા જે પર્યાપ્ત
Page #396
--------------------------------------------------------------------------
________________
શ્કર
जीवामिगमस
शरीराणि वैक्रियाहारकशरीराणि च तेषामपि प्रायो मांसचक्षुरप्राद्यतया सूक्ष्मत्वाद तथा 'जे अपज्जेता' यानि अपर्याप्तानि - अपर्याप्तशरीराणि तानि सर्वाण्यपि वरीज्ञान 'जीवेण 'मुक्कमेत्ता वच्चति सहस्तसो भेयं' जीवेन मुक्तमात्राणि सन्ति सह व्रजन्ति विकलितास्तत्परमाणु संघाता भवन्तीत्यर्थः ९ । 'अ सीयं उन्ह' अतिशीत प्रत्युष्णम् 'अइतण्हा अइखुदा अइ भयं वा' अति तृष्णा अवि अति भयं वा 'निरए' नरके 'नेरइयाणं' नैरयिकाणाम् ' दुक्खसपाई अविस्तामं' दुखिशतान्यविश्रामम्, नरके नारकजीवानां सर्वेदेव शीतोष्ण तृष्णा क्षुत्र भयादि रूपयति दुःसह दुःख महर्निशं विश्रामरहित मेत्र भवतीति भावः ॥ १० ॥
X
अथ सूत्रकार उपसंहरन् एतासामेव गाथानामर्थसंग्राहिकां ' गायामाह एत्थ य' इत्यादि, 'एत्थ' अनेन पदेन प्रथमां गाथां स्मारयति पत्र - नरकावासे है उनके औदारिक शरीर एवं वैक्रिय आहारक शरीर सूक्ष्म होते हैं क्योंकि प्राय: करके चर्मचक्षुओं द्वारा ये अग्राह्य होते हैं और अपर्या- शरीर थे अब शरीर वाले जीव उन जीवों द्वारा मुक्त हो चुकते हैं तो हजारों प्रकार के टुकडों के रूप में बनकर बिखर जाते हैं ||९||
'अह खीयं अति उन्हं ०' इत्यादि-नरक में नारक जीवों को अति शीत, अति उष्णता अति तृषा अति क्षुधा, अतिभय ये सब प्रकार के दुःख सदा ही बने रहते हैं ॥१०॥
अब सूत्रकार उपसंहार करते हुए इन गाथाओं का अर्थ संग्रह "करने वाली एक संग्रह गाथा कहते है
'ए' इत्यादि - 'एत्थ' इस प्रथम गाथा से यह समझाया है कि इन 'नरकों में नरवृषभ उत्पन्न होते है ? द्वितीय गाथा द्वारा यह समझाया અને અપર્યાસ જીવા છે, તેને ઔદારિક શરીર અને બૈંક્રિય, આહારક શરીર સૂક્ષ્મ દ્વાય છે. કેમકે પ્રાયઃ-ઘણે ભાગે ચચક્ષુએ દ્વારા તે જોઈ શકાતા નથી. અને અપર્યાપ્ત વિગેરે શરીર ધારી જીવા તે જીવા દ્વારા મુક્ત થઈ જાય તે હજારો પ્રકારના ટુક્ડાએના રૂપમાં અનીને વિખરાઈ જાય છે ! હું 'अइ सीयं अति उन्हें' इत्याहि नरम्भां नारस्लवाने अत्यंत शीत, અત્યંત ઉષ્ણતા, અત્યંત તરસ, અત્યંત ભૂખ અત્યંત ભય આવા પ્રકારના ુઃખા સદાકાળ અન્યાજ રહે છે. ૫ ૧૦ ॥
}
હવે સૂત્રકાર ઉપસંહાર કરતા થકા આ વાળી એક સંગ્રહ ગાથા કહે છે.
ગાથાઓના અથને બતાવવાં
6
'एत्थ त्याहि 'एत्थ' मा पडेली ગાથામાં એ સમજાવ્યુ` છે કે ‘માં નરકામાં ઉત્તર, વિકુલ શાની સ્થિતિ ઉત્કૃષ્ટથી એક અંતમુહૂતની હોય છે;
12.
Page #397
--------------------------------------------------------------------------
________________
यतिका टीका प्र.३ उ.३ रु.२४ नैरयिकाणां पुद्गलपरिमाणादिकम् ३७३ बसपमाः समुत्पद्यन्ते इत्याद्यर्थिका । 'भिन्न हुत्ते' अनेन :पदेन द्वितीयगाया गुरते मिन्नमुहूर्तमन्तर्मुहूर्तादिकालं नरकादिपूत्कृष्टा विकुणा भवतीति 'पोग्गमय' इत्यनेन अनिष्टादिपुगका स्तेषामाहाराय भातीति । 'असुभा' इति पदेन नैरयिकाणा मशुमा विकुर्वणा भवतीति चतुर्थगाथोक्तोऽथों निरूपितः। 'अस्साओ, भनेन सर्वपृथिवीषु असात एव भवतीति पञ्चमीगाथा कयिता 'उववाओ' अनेन देवादिकमणोपपतिकाले सातं भवतीति षष्ठी गाथया कथितम् । 'उप्पाओ' भनेन दुःखाभिद्रतानां नारकाणाम् उत्कर्षण पश्चयोजनशतानि उत्पांतो भवतीति सप्तमगायया प्रदर्शितम् 'अच्छि' इत्यनेन अक्षिनिमीलमात्रमर्षि मुखं न भवति गया है कि नरकों में उत्तर चिकुर्वणा की स्थिति उत्कृष्ट से एक अन्त मुंह की होती है 'पोग्गलाय' आदि तृतीय गाथा द्वारा यह समझाया गया है कि नारकों का आहार अनिष्टादि विशेषणों वाले पुदलों का होता है ३॥ 'असुभा' आदि चतुर्थ गाथा से यह समझाया गया है कि नरयिक जीवों की विकुर्वणा अशुभ ही है ४॥ 'अरलाओं यह पांचवी गोथा यह समझाती है कि नारक जीवों को समस्त पृथिवियों में असा. तो का ही उदय रहता है ५॥ 'उवाओ' छठी गाथा द्वारा यह कहा गया है कि नारक जीवों को पूर्व संगतिक देव की सहायता आदि का. रणों से सातो का भी उद्घ हो जाता है ६॥ 'उप्पाओ' इस सातवीं गाथा द्वारा यह प्रकट किया गया है कि नारक जीवों का नरकावास की कुंभी पाक आदि से इतनी वेदना होती है कि वे कम से कम एक कोश तक और अधिक से अधिक पांच सौ योजन तक उछल पड़ते हैं। 'अच्छि' इस आठवीं माथा द्वारा यह समझाया गया है कि नारकजीवों 'पोग्गलाय' विगैरे श्री था द्वारा २ सभापामा मायुछे नारसना माहार मनिष्ट विगैरे विशेषयोपामा पुगतान डाय छे. ॥ ३ ॥ 'असभी વિગેરે થી ગાથાથી એ સમજાવ્યું છે કે નૈરવિક જીવની વિમુર્વણુ અથભજ होय ॥४॥ अस्याओ' म पांयमी गाथा ये मताव छ ना२४ लान सजी पृथ्वीयोमा मशात हय २७ छे. ॥ ५ ॥ “उववाओ' मा छ81 ગાથા દ્વારા એ કહેવામાં આવ્યું છે કે નારક અને પૂર્વ સંગતવાળા દેવની सहाय विगैरे अरथी शातान ५४ थ तय छे. ॥६॥ 'उप्पामो' આ સાતમી ગાથા દ્વારા એ વાત પ્રગટ કરવામાં આવી છે કે નારક જીવને નકાવાસની કુંભીપાક વિગેરેથી એટલી બધી વેદના થાય છે કે તે ઓછામાં ઓછા એક ગાઉ સુધી અને વધારેમાં વધારે પાંચસે જન સુધી ઉછળે છે. ॥ ७ ॥ 'अच्छि' मा मा४मी गाथा द्वारा से समायुछे ना२३ वान
Page #398
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिग
नारकाणा मित्यष्टमगाथयाऽऽवेदितम् । 'सरीराय' इत्यनेन वैजसकार्मणादि शरीराणि नवमगाथया दर्शितानीति तदेवं नवानां गाधानां संक्षिप्यमाणोऽथोंनयाऽन्तिमया संग्रहणीगाथया निरूपित इति । 'सेत्तं नेरइया' वे एते -नारकाः कथिता इति ॥०२३॥
1
इति श्री विश्वविख्यात जगद्वल्लं' सादिपद भूषित बालब्रह्मचारि - 'जैनाचार्य'
पूज्यश्री- घासीलाल विविरचितायां 'श्रो जीवमिगमसूत्रस्य' प्रमेयचद्योतिका F ख्यायां व्याख्यायां तृतीयमतिपत्तौ तृतीयोदेशकः समाप्तः ॥ ३-३|| - 這
को नरकावास में आँख के झपकाने के काल बराबर भी सुख नहीं है ८|| 'सरीराय' इस नौंवीं गाधा से यह समझाया है कि तैजस कार्मण शारीर के सिवाय सूक्ष्म नाम कर्म के उदघ वाले पर्याप्त और अपर्याप्तों जीवों का ओदारिक शरीर वैक्रिय शरीर और आहारक शरीर सब बिखर जाते हैं - तेजस और फार्मण शरीर जब तक कर्मों का सम्बन्ध है तब तक नहीं विखरते हैं-वे तो जीव के साथ चारों गतियों में रहते है। पूर्वोक्त नवो गाथाओं का संक्षिप्त अर्थ इस दसवीं अन्तिम संग्रह गाथा से दिखला दिया गया है | सूत्र ||२४||
}
1
T
A
"
WEB
जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजीमहाराजकृत 'जीवाभिगमसूत्र' की प्रमेयद्योतिका नामक व्याख्या में तृतीय प्रतिपत्ति में तीसरा उद्देशक समाप्त ॥ ३-३॥
નરકાવાસેમાં આંખનું મટકું મારે એટલા કાળ સુધી પશુ સુખ પ્રાપ્ત થતું नथी. ॥ ८ ॥ 'खरी' आ नवमी गाथामां से सभलव्यु छे तेक्स भने કા'ણુ શરીર સિવાય સૂમનામ કર્મીના ઉદયવાળા પર્યાપ્ત અને અપર્યાયોને હારિક શરીર, વૈક્રયશરીર, અને આહારક શરીર એ બધા શરીરો વિખરાઈ જાય છે. તેજસ અને કામણુ શરીર ત્યાં સુધી વિખરાતા નથી. તે તા જીવની સાથે ચાર ગતિયામાં રહે છે. પુકત નવે ગાથાઓના અથ આ ઇસમી છેલ્લી સંગ્રહ ગાથાથી બતાવવામાં આવેલ છે. ॥ સૂ ૨૪ !
1
1.
જૈનાચાય જૈનધમ દિવાકર પૂજ્યશ્રીઘાસીલાલજી મહારાજકૃત જીવાભિગમસૂત્ર’ની પ્રમેયદ્યોતિકા નામની વ્યાખ્યામાં ત્રીજી પ્રતિપત્તિના ત્રીજો ઉદ્દેશે સમાપ્ત ૧૩–૩।
फ्र
Page #399
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेययोतिका टीका प्र.३ २.३ २.२५ तिर्यायोनिवरूपनिरूपणम् . . उक्तो नारकाधिकार सम्पति-तियंगधिकारो वक्तव्यस्तत्र चेदमादिकं सूत्रम्'से.किं तं तिरिक्खजोणिया' इत्यादि,
ममूल-से किं तं तिरिक्वजोणिया ? तिरिक्खजोणिया पंधविहा पन्नत्ता, तं जहा-एगिदियतिरिक्खजोणिया बेइंदियतिरिक्ख जोणिया तेइंदियतिरिक्खजोणिया चउरिदियतिरिक्खजोणिया पंचिंदियतिरिकखजोणिया य। से किं तं एगिदियतिरिक्खजोणिया ? एगिदियतिरिक्खजोणिया पंचविहा पन्नत्ता तं जहा-पुढवीकाइय एगिदियतिरिक्खजोणिया जाव वणस्सह. काइय एगिदिय तिरिक्खजोणिया। से किं तं पुढबीकाइय एगिदियतिरिक्खजोणिया पुढवीकाइय एगिदिय तिरिक्खजोणिया 'दुविहा पन्नत्ता तं जहा-सुहुमपुढवीकाइय एगिदिय तिरिक्खजोणिया बायरपुढवीकाइय एगिदिय तिरिक्खजोणिया य। से किं तं सुहुमपुढवीकाइय एगिदिय तिरिक्खजोणिया सुहुमपुढवीकाइय एगिदिय तिरिक्खजोणिया दुविहा पन्नत्ता तं. जहा-पज्जत्तसुहुमपुढवीकाइच एगिदिय तिरिक्खजोणिया, अपज्जत्तसुहमपुढवीकाइय एगिदिय तिरिक्ख.. जोणिया, से तं सुहुमपुढवीकाइय एगिदिय तिरिक्खजोणिया। से किं तं बायरपुढवीकाइय एगिदिय तिरिक्खजोणिया ? बायर पुढवीकाइय एगिदिय तिरिक्खजोणिया दुविहा पन्नत्ता त. जहा-पंजत्तबायरपुढवीकाइय एगिदिय तिरिक्खजोणिया अपजत्तवायरपुढवीकाइय एगिदिय तिरिक्खजोगिया। सेत बायरेपुढवीकाइय एगिंदिय तिरिक्खजोणिया। से तं पुढवीकाइयः एगिदिय तिरिक्खजोणिया। से किं तं आउक्काइय पुगिदिय तिरिक्खजोणिया? आउकाइय एगिदिय
Page #400
--------------------------------------------------------------------------
________________
३७६
जीवामिगमा जोणिया दुविहा पन्लत्ता एवं जहेव पुढवीकाइयाणं तहेव आउकाय भेदो एवं जाव वणलइकाइया से त्तं वणस्सइकाइय एगिदिय तिरिक्खजोणिया । से किं तं वेइंदिय तिरिक्खजोणिया? बेइंदिय तिरिक्खजोणिया दुबिहा पन्नता तं जहा-पज्जत्तवेइंदिय तिरिकखजोणिया अपज्जत्तवेइंदिय लिरिक्खजोणिया, से तं वेई. तिरिक्ख जोणिया । एवं जाब चउरिदिया। से किं तं पंचिंदिय तिरिक्खजाणिया ? पचिंदिय तिरिक्खजोणिया तिविहा पन्नत्ता, सं जहा-जलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिया थलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया खयरपंजिदियतिरिक्खजोणिया। से कि तं जलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया ? जलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिया दुविहा पन्नत्ता तं जहा-समुच्छिमजलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया गब्भवकंतियजलयरपंचिंदियतिरिक्खजो. णिया य। से किं तं समुच्छिमजलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया ? संमुच्छिमजलयरपंचिदिय तिरिक्खजोणिया दुविहा पन्नत्ता तं जहा-पजत्तग लमुच्छिमजलयरपींचदिय तिरिक्ख. जोणिया अपज्जत्तग संमुच्छिमजलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया र । से तं संमुच्छिमजलयरपंचिंदिय तिरिक्खजोणिया। से किं तं गन्भवतिय जलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया ? गठभवतिय जलयरपंचिंदिय तिरिक्खजोणिया दुविहा पन्नत्ता ते जहा-पजत्तगगब्भवतिय जलयरपंचिंदिय तिरिक्खजोणियाँ अपजत्तगगब्भवतिय जलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिया। से तं गमवकंतिय पंचिंदिय तिरिक्खजोणिया से कि तं थलयर पंचिंदियतिरिक्खजोणिया ? थलयर पंचिंदियतिरिक्खजोणियां दुविहा पन्नत्ता तं जहा-घउप्पयथलयर
Page #401
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रद्योतिका टीका प्र.३ उ. ३.२५ तिर्यग्योनिस्वरूपनिरूपणम्
परिसप्पथलयरपंचिदियतिरिक्ख
पंचिदियतिरिक्खजोणिया जोणिया य । से किं तं चउप्पयथलचरपंचिदिय तिखिखजोणिया ? चउप्पयथलयरपंचिदिय तिरिषखजोणिया दुबिहा पन्नत्ता तं जहा - संमुच्छिम वउप्पय थलयरपंचिदिय तिरिक्खजोणिया गब्भवइंतियच उप्पय थलयर पंचिदियतिरिवखजोणिया य । जहेब जलयराणं तहेव चउको भेदो से तं उपपद थलयरपंचिदिय तिरिक्खजोणिया । से किं तं परि सप्प थलयरपंचिदिय तिरिक्खजोणिया ? परिसप्प थलवरपंचदिय तिरिक्खजोणिया दुबिहा पन्नता से जहा - उरपरिसप्प थलयरपंचिदिय तिरिक्खजोणिया भुयपरिलप्प थलयर पंचिदिय तिरिक्खजोणिया य । से किं तं उरपरिसृप्प थलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिया ? उरपरिसप्प थलयरपंचिदिय तिरिक्खजोणिया दुबिहा पन्नत्ता तं जहा- जहेव जलयराणं तहेव चडकओ भेदो एवं भुयपरिसप्पाणं वि भाणिपव्वं । से तं भुयपरिसप्पथलयर पंचिदियतिरिक्खजोणिया । से तं थलयरपंचदिय तिरिक्खजोयिया । से किं तं खहयर पंचिदियतिरिक्खजोणिया ? खहयपंचिदिय तिरिक्खजोगिया दुविहा पन्नता तं जहा - संमुच्छिम खहयर पंचिदिय तिरिक्खजोणिया गव्भवतिय खहयर पंचिदिय तिरिक्खजोणिया य । से किं तं संमुच्छिम खहयरपंचिदियतिरिक्खजोणिया ? संमुच्छिम खयरपंविदियतिरिक्खजोणिया दुविहा पन्नत्ता तं जहा - पज्जन्तगसंमुच्छिम खहयर पंचिंदिय तिरिक्खजोणिया अपजतगसंमु'च्छिम खहयरपंचिदियतिरिक्खजोणिया य । एवं गव्भवतिया वि जाव पज्जत्तगगब्भवतिया वि अपजन्तग गन्भवतिया वि ।
1
नी० ४८
३७७
Page #402
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमस्त्र खहयरपंचिंदिय तिरिक्खजोणियाणं भंते ! कहविहे जोणिसंगहे पन्नते ? गोयमा ! तिविहे जोणिसंगहे पन्नत्ते, तं जहा-अंडया पोयया संसुच्छिमा। अंडया तिविहा पन्नत्ता तं जहा-इत्थीपुरिसा णपुंसगा। पोयया तिविहा पन्नत्ता तंजहा-इस्थिपुरिसा णपुंसगा। तत्थ णं जे ते लंमुच्छिमा ते सव्वे णपुलगा ॥सू० २५॥
छाया--अय के ते तिर्यग्योनिकाः ? तियग्यौनिकाः पञ्चविधाः प्रज्ञताः, तद्यथा-एजेन्द्रिय तिर्यग्योनिकाः, द्वीन्द्रियतियग्योनिका स्त्रीन्द्रिय तिर्यग्योनिका श्चतुरिन्द्रियतिर्यग्योनिकाः पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकाच । अथ के ते एकेन्द्रिय विर्यग्योनिकाः ? एकेन्द्रियतियग्यौनिकाः पञ्चविधाः मताः, तद्यथा-पृथिवि कायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः यादद वनस्पतिमायिककेन्द्रियनियम्योनिझाः । अथ के ते पृथिवीकायिकैकेन्द्रियतियंग्योनिकाः ? पृथिवी कायिक केन्द्रियतिर्यग्योनिका द्विविधाः प्रज्ञप्ता, तद्यथा-सूक्ष्मपृथिवीकायिकैलेन्द्रियनियंग्योनिकाः, वादर पृथिवीकायिकैकेन्द्रियतियग्योनिकाच । अय के ते सूक्ष्मपृथिवीकायिक केन्द्रि यतिर्यग्योनिकाः ? सूक्ष्म पृथिवीकायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः द्विविधाः पहप्ता स्तद्यथा- पर्याप्तकसूक्ष्मपृथिविकायिककेन्द्रियतियग्योनिकाः, अपर्याप्तक सूक्ष्मपृथिविकायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकाश्च । ते एते मुक्ष्मपृथिवीकायिकैकेन्द्रियतिय ग्योनिकाः । अथ के ते वादरपृथिवीकायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः १ वादरपृथिवी. कायिकै केन्द्रियतिर्यग्योनिकाः द्विविधाः प्राप्ता स्तद्यथा-पर्याप्तवादरपृथिविकायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिका, अपर्याप्तवादरपृथिविकायिककेन्द्रियतिर्यग्योनिकाय, ते एते वादरपृथिवीकायिकै केन्द्रियतिर्यग्योनिकाः । ते एते पृथिविकायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः । अथ के ते अप्कायिकैकेन्द्रियतियग्योनिशाः ? अकायिककेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः द्विविधाः एवं यथैव पृथिरिकायिकानां तथैव अप्कायिक भेदः, एवं यावद्वस्पतिकायिकाः। ते एते वनस्पति कायिकैकेन्द्रियतियग्योनिकाः। अथ के ते द्वीन्द्रियतियग्योनिका ? द्वीन्द्रियतियग्योनिका द्विविधाः प्रज्ञप्ताः तद्यथा-पर्याप्तकद्वीन्द्रियतिर्यग्योनिका अपर्याप्तद्वीन्द्रियतिर्यग्योनिकाः। ते एते द्वीन्द्रियतिर्यग्योनिकाः । एवं यावच्चतुरिन्द्रियतिथग्योनिकाः। अथ के ते पञ्चेन्द्रियतियग्योनिकाः ? पञ्चेन्द्रियतियग्योनिकास्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-जलचरपञ्चे न्द्वियतिर्यग्योनिकाः, स्थलचरपञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिकाः, खेचरपञ्चेन्द्रियतियग्योनिकाः । अथ के ते जलचरपञ्चन्द्रियतियग्योनिका ? जल वरपञ्चेन्द्रियतियग्योनिकाः द्विविधाः प्राप्ताः, तद्यथा-संमूच्छिमजलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाच गर्भव्युत्क्रा
Page #403
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
प्रमेयद्योतिका येका प्र.३ उ.३ सू.२५ तिर्यग्योनिस्वरूपनिरूपणम् ३७२ न्तिकजलचरपञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिकाश्च । अथ के ते समुच्छिमजलचरपञ्चेन्द्रियतियग्योनिकाः ? संपूच्छिमजलचरपञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिकाः द्विविधि मज्ञप्ताः, तद्यथा-पर्याप्तकसमूच्छिमजलचरपञ्चन्द्रियतिर्यग्यौनिकाः अपर्याप्तकरमूच्छिमजलचरपञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिझाश्च । ते एते संमूच्छिमजलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः । अथ के ते गर्भव्युरक्रान्तिकजलचरपञ्चेन्द्रियतियग्योनिकाः ? गर्भव्यु-क्रान्तिकजलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-पर्याप्तकगर्भव्युत्क्रान्तिकजलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्यो निकाः अपर्याप्तकगर्भव्युत्क्रान्तिकजलचरपञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिकाच, ते एते गर्भव्युत्क्रान्तिकजलचरपञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिकाः, ते एते जलच. पञ्चेन्द्रियतियग्योनिकाः । अथ के ते स्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका ? स्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा चतुष्पद स्थलचरपञ्चन्द्रियतियंग्योनिकाः, परिसर्पस्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाश्च । अथ के ते चतुष्पदस्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः ? चतुष्पद स्थल वरपञ्चन्द्रियतिग्योनिका द्विविधाः मज्ञप्ता, तद्यथा-समूच्छिम चतुष्पद स्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः, गर्भव्युत्क्रातिक चतुष्पद स्थलचरपञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिकाच, यथैव जलचाराणां तथैव चतुष्को भेदः, वे एवं चतुष्पदस्थल चरपञ्चन्द्रियतिथग्योनिकाः । अथ के ते परिसर्प स्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः ? परिसपेस्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका द्विविधाः मज्ञप्ताः, तघया-उर-परिसर्प स्थलचरपञ्चेन्द्रियतियग्योनिकाः, भुजपरिसर्पस्थलचरपञ्चेन्द्रियातयंग्योनिकाच । अथ के ते उम्परिसर्पस्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका ? उर परिसर्पस्थलचरपञ्चन्द्रियनियंग्योनिकाः द्विविधाः प्रज्ञप्ता स्तधया-यथैव जलचराणां तथैव चतुष्को भेदः, एवं भुजपरिसपणामपि भणितव्यम् । ते एते भुजपरिसर्पस्थल परपञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिकाः। ते एते स्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः । अथ के ते खेवरपश्चेन्द्रियविर्यग्योनिकाः ? खेचरपञ्चन्द्रियतियग्योनिका द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-संमृच्छिम खेचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः, गर्भव्युस्का. न्तिक खेवरपञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिकाच । अथ के वे संमूच्छिम खेचरपञ्चेन्द्रियतिय. नोनिशाः संमूछिमरेख वरपञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिकाः द्विविधाः प्राप्ता स्तद्यथा-. पर्याप्तक संमूच्छिमखेवरपञ्चन्द्रियत्तियज्योनिकाः, अपर्याप्तकसमूच्छिमपञ्चन्द्रियतियग्योनिकाश्च । एवं गर्भव्यु क्रान्तिका अपि यावत् पर्याप्तगर्भव्युत्क्रान्तिका अपि अपर्याप्तगर्भव्युत्क्रान्तिका अपि । खेचरपञ्चन्द्रियतिर्यग्योलिकानां भदन्त ! कतिविधो योनिसंग्रहः प्रज्ञप्तः ? गौतम ! विविधो योनिसंग्रहः प्रज्ञप्ता, उद्यथाअण्डजाः पोतजाः संमृच्छिमाः । अण्डला त्रिविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-स्त्रियः पुरुपाः नपुंसकाः। पोतजा स्त्रिवधाः प्रज्ञप्ता, तद्यथा-स्त्रियः पुरुषाः नपुसका। वत्र खल्ल ये ते संमूच्छिमास्ते सर्व नपुंसकाः ॥इति ।। मू० २४॥
Page #404
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमसूत्रे
टीका- ' से किं तं तिरिक्खजोनिया' अत्र 'से' शब्दोऽथार्थकः किंशब्दः प्रश्ने तथाच - अथ के ते तिर्यग्योनिकाः, तिर्यग्योनिकानां कियन्तो भेदा इति प्रश्नः भगवानाह - 'तिरिक्खजोणिया पंचविद्या पन्नत्ता' तिर्यग्योनिकाः पञ्चविधाः प्रज्ञप्ताः, 'तं जहा ' तद्यथा 'एगिदियतिरिक्खजोणिया' एकेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः । 'वेईदियतिरिक्खजोणिया' द्वीन्द्रियतिर्यग्योनिकाः । 'तेइंदियतिरिक्खजोगिया' त्रीन्द्रियतिर्यग्योनिकाः । 'चउरिदियतिरिक्खजोणिया' चतुरिन्द्रियतिर्यग्योनिकाः 'पंचिदियतिरिक्खजोणिया य' पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाच, तथाच - एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय जीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय पञ्चेन्द्रिय भेदात् तिर्यग्योनिकाः पञ्चप्रकारका भवन्तीति । एकेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः कियन्त इति ज्ञातुं मश्नय नाह'से किं तं' इत्यादि, 'से किं तं एर्गिदियतिरिक्खजोणिया' अथ के ते एकेन्द्रि नरकाधिकार कह कर अब सूत्रकार तिर्यगाधिकार का कथन करते हैं'से कितं तिरिक्खजोणिवा' - इत्यादि । सूत्र ||२४||
टीकार्थ - यहां 'से' यह शब्द 'अर्थ' 'अर्थ' में प्रयुक्त हुआ है इस तरह गौतम ने प्रभु से ऐसा पूछा है है भान्त 'से किं तं तिरिक्खजे. निया' तिर्यग्योनिकों के कितने भेद हैं ? उत्तर में प्रभु ने कहा है- 'तिरिक्खजोणिया पंचचिहा पण्णत्ता' हे गौतम । तिर्यग्योनिकों के पांच भेद कहे गये हैं 'लं जहा' जैसे- 'एर्गिदियतिक्ख जोणिघा, वेइंदिय तिरिक्खजो - प्रिया' एकेन्द्रिय तिर्यग्योनिक दो इन्द्रिय तिर्यग्योनिक, 'तेइंदिय तिरिकख ०' तेहन्द्रिय तिर्यग्योनिक 'चरिदियतिरि०' चौइन्द्रिय तिर्यग्योनिक 'पंचिदियति०' और पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक, 'से किं तं एगिंदियति०' हे ચેાથા ઉદ્દેશાના પ્રાર’ભ
નરાધિકાર કહીને હવે સૂત્રકાર આ તિર્યંચના અધિકારનું કથન કરે છે. 'से किं तं तिरिक्खजोणिया ' त्यादि
३८०,
टीटार्थ - मडियां 'से' शब्द 'अर्थ' अर्थभां अयुक्त थयेस छे मा रीते गौतमस्वासीशे अलुने मे पूछयु छे भगवन् 'सेकिं तं तिरिक्ख जोणिचा' तिर्थभ्योनिना टलाई लेहो उद्या हे ? या प्रश्नना उत्तरभां अलुश्री गौतमस्वाभीने ४ है 'तिरिक्खजोणिया, पंचविहा पण्णत्ता' हे गीतभ तिर्यथ योनिता यांय लेट ह्या छे. 'त' जहा' ते भा प्रभाथे छे. 'एगिं “दियतिरिक्खजोणिया, वेइंदियतिरिकखजोणिया' मेड द्रियवाजा तिर्यग्यो निः मने मे द्रियवाजा तिर्यग्योनिः 'तेइ दियतिरि.' त्रषु ४द्रियोवाजा तिर्यग्योनिः 'चउरिदियतिरि.' यार छद्रियेोवाणा तिर्यग्योनि 'पंचिंदिय ति०' અને પાંચ ઇંદ્વિચાવાળા તિય ચૈાનિક.
Page #405
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योति का टीका प्र.३ उ.२ शू.२५ तिर्यग्योनिस्वरूपनिरूपणम् ३८१ यतिर्यग्योनिका,एकेन्द्रियतिरश्चां कियन्तो भेदा इतिपश्ना, उत्तरयति-'एगिदियतिरिक्खजोणिया पंचविहा पन्नता' एकेन्द्रिपतियग्योनिकाः पञ्चविधा:पश्चमकारकाः प्रज्ञप्ता:-कथिता इति । पञ्चभेदान् दर्शयति-तं जहा' तद्यथा'पुढवीकाइयएगिदियतिरिक्खनोणिया' पृथिवीकायिक केन्द्रियतिर्यग्योनिकार 'जाव वणस्सइकाइय एगिदिय तिरिक्ख मोणिसा' याबद्वनस्पति कायिकैकेन्द्रियति. यंग्योनिकाः, यावत्पदेन अकायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः, तेजस्कायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः, वायुकायिकैकेन्द्रियतिर्ययोनिकाश्चेति संग्रही भवति, तथा चं पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिकायिकभेदात् एकेन्द्रियनियंग्योनिकाः पञ्चपका रका भवन्तीति । तत्र प्रथमोपात्त पृथिविकायिकानां भेदं ज्ञातुं प्रश्नयनाइ-'से किं तं' इत्यादि, 'से कि तं' पुढवीकाइय एगिदिय तिरिक्खजोगिया' अथ के ते पृथिवीकायिकैकेन्द्रियतिर्यगयोनिकाः। पृथिवीकायिकैकेन्द्रियतियग्योनिक जीवानां कियन्तो भेदा इतिप्रश्नः, उत्तरयति-'पुढचौकाइय एगिदिय तिरिक्खजो. णिया दुविहा पनत्ता' पृथिवीकायिकैकेन्द्रियतियग्रयोनिका जीवाः द्विविधाःभदन्त ! एगेन्द्रिय तिर्यश्च कितने प्रकार के होते है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं'एगिदियति० पंचविहा पन्नत्ता' हे गौतम ! एकन्द्रिय तिर्थञ्च पांच मकार के होते हैं 'तं जहा' जैसे 'पुढचीकाइयए' पृथिवी कायिक एकेन्द्रिय तिर्यच 'जाव वणस्सइकाइयएगि०' यावत् बनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय तियञ्च यहां यावत्पद से 'अप्कायिक, तेजस्झायिक, वायुसायिक इन एकेन्द्रिय तिर्यञ्चों का ग्रहण हुआ है लेकितं पुढधीशाय एगिदिय०' हे भदन्त । पृथिवी कायिक एकेन्द्रिय तिर्यक योनिक कितने प्रकार के होते है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'पुढवीकाइय एगिदिति दुविधा पण्णसा' हे गौतम ! __'से किं त एगिदिय तिरिवख' लगवन् मे द्रियाणा तिय योनि જીવે કેટલા પ્રકારના હોય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે છે है 'एगि दियति. पंचविहा पण्णत्ता' गीतम ! मेद्रियाणा तिय ययानि ७ पांय प्रा२ना डाय छ, 'त जहा' ते मा प्रमाणे 2. 'पुढवीकाइय एगि. पृथ्वीयि४ मे दियवा तिय य 'जाव वणस्सइ काइय एगि.' यावत् વનસ્પતિ કાયિક એક ઈન્દ્રિયવાળા તિર્થય, અહિયાં યાવત્પદથી “અષ્કાયિક, તેજક્રાયિક, અને વાયુકાયિક, આ એક ઈદ્રિયવાળા તિર્યંચ જ ગ્રહણ ४राया छ ‘से कि त पुढवीझाइयएगि दिय.' हे भगवन् पृथ्वी थि: मे ઈદ્રિયવાળા તિર્યનિક જીવો કેટલા પ્રકારના હોય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रभुश्री ४९ छ है 'पुढवीकाइय एगिदिय ति. दुविहा पण्णत्ता' गौतम !
Page #406
--------------------------------------------------------------------------
________________
३८२
जीवामिगमत्र द्विमकारकाः प्रज्ञप्ताः-शयिता इति । भेइद्वयं दर्शयति-तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा' तद्यथा-'मुहम पुढीकाइय एगिदिय तिरिकालजोणिया मूक्ष्मपृथिवीकारिककेन्द्रियतिथंगेयोनिकाः सूक्ष्मत्वं सूक्ष्मनामकर्मोदयात् । 'बायर पुढवीकाइय एगिदिय तिरिकखजोणिया य' वादर पृथिवीकायिक केन्द्रियतिर्यगमोनिकाच, तथा चसूक्ष्मवादरभेदेन पृथिवीकायिकाः द्विविधा भवन्तीति । 'से कि तं सहम पुटवीकाइय एगिदियतिरिक्खजोणिया' अथ के ते सूक्ष्मपृथिवीकायिकेन्द्रियतिर्यग्यानिकाः ? सूक्ष्मपृथिवीकापिकानां कियन्तो भेनाः ! इति प्रश्ना, उत्तरयति-'मुहमपुढवीकाइय एगिदियतिरिक्खजोणिया दुविधा पण्णता' सूक्ष्म पृथ्वोकायिकेन्द्रियर्यातयेग्योनिका जीवाः द्विविधाः-द्विमकारकाः मज्ञप्ता:-कथिता इति । 'तं जहा' तद्यथा-'पज्जत सुकुमपुढवीकाइय एगिदिय तिरिक्खनोणिया' पर्याप्त मूक्ष्म पृथिवीकायिक केन्द्रियतिथग्यौनिकाः 'अप. पृथिवी काधिक एकेन्द्रिय तिर्यञ्च जीव दो प्रकार के होते हैं-'तं जहा' जैसे 'सुहम पु० एगिदियः सूक्ष्म पृथिवीसायिक एकेन्द्रियतिर्यञ्च और 'वायर पुढवीकाइए० ति०' पादर पृथिवी कायिक एफेन्द्रिय तर्यश्च सूक्ष्म नाम कर्म के उदय वाले सूक्ष्म पृथिवी कायिक एकेन्द्रिय जीव-होते हैं
और बादर नाम कर्म के उद्य वाले वादर पृथिवी कायिक एकेन्द्रिय जीव होते हैं। लेकितं सुहमपु० 'हे भदन्त ! सूक्षम पृथिवी कायिक एकेन्द्रिय जीव शितने प्रकार के होते हैं-उत्तर में प्रभु कहते हैं-'हमपु० एगि. दिय तिरिस्खजो० दुविहा पन्नत्ता' सूक्ष्म पृथिवी कायिक एकेन्द्रिय जीव दो प्रकार के होते हैं 'तं जहा'-जैसे-'पजससुमपु०' पर्याप्त सूक्ष्मपृथिवी कायिक एकेन्द्रिय तियग्यानिक और 'अपनत्त सुहम पु०' 'अपर्याप्त मधम प्रथिवी कायिक एकेन्द्रिय लियंग्योनिक 'ले तं सुहम इस पश्यायिक सद्रियवातिय य ७२ मे २ना डाय छे. 'जहा'
में प्रा। मा प्रभाव छ. 'सुहुम पु, एगिदिय.' सूक्ष्म पृथ्वी थि में दियवाणातिय य भने 'बायर पुढवीकाइय ए. ति.' मा४२ पृथ्वीय से ઈ દિયવાળાતિર્યંચ સુક્રમ નામકર્મના ઉદયવાળા સૂફમ પ્રશ્વીકાલિક ક, ઇટિયવાળા જ હોય છે અને બાદર નામ કર્મના ઉદયવાળા બાદર પૃથ્વીકારિક એક ઈ દ્રિયવાળા જ હોય છે.
से कि त सुहुम' हे भगवन् सूक्ष्म पृथ्वी थि: मेद्रियामा 11 tean .२ना उदय छ १ मा प्रश्नना उत्तरमा प्रभुश्री ४ छ है 'सुहुम पु. एगि दियतिरिक्ख जो. दुविहा पण्णत्ता' सूक्ष्म पृथ्वीथिमेद्रिय. पापा 1 मे ४२न डाय छे. 'त' जहा' रेभ. 'पज्जत्त सुहम पु.' पर्याप्त
Page #407
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.२५ तिर्यग्योनिस्वरूपनिरूपण
३८३ उजत्तसुहमपुढीलाइय एगिदियतिरिक्ख जोणिया' अपर्याप्त सक्षमपृधवीकायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः, तथा च पर्याप्तापर्याप्तभेदेन सूक्ष्म पृथिवीकायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिका द्विविधा अवन्तीति । 'से तं सुहुम पुढवीराइय एगिदितिरिक्खजोणिया से एते सक्षमपृथिवीकारि कैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः सभेदं निरूपिताइति । सक्षमपृथिवीकाचिकैकान् निरूप्य वादरपृथिवीकायिकान् निरूपचितुं प्रनयनाह'से क्षित' इत्यादि से किं तं बादरपुढवीकाइय एगिदिय सिरिक बनोणिया' अथ के ते बादरपृथिवीमायिकैकेन्द्रिगतियंग्योलिकाः, बादरपृथिवीकारिकैकेन्द्रियतिर्यग्यो निकानां कियन्तो भेदा इति मना, उत्तरयति-'वायर पुढवीकाय एनिदिय तिरिक्वजोगिया दुदिहा पन्नत्ता' वादरपृथिवीकारिकै केन्द्रियतिग्यो निकाः द्विविधाः -द्विमन्नारकाः प्रज्ञप्ता-कथिता इति । 'तं जहा' तद्यथा-उजत्त बायर पुढची. काइय एगिदिय तिरिक्खजोणिया' पर्याप्तवादरपृथिविकारिक केन्द्रियतिर्यग्योनिकाः, तथा 'अपज्जत्त बायर पुढवीकाइय एगिदिय तिक्खिजोणिया' अपर्याप्त प्रकार से सूक्ष्य पृथिवी झायिक एकेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीवों के सम्बन्ध में सूत्रकार ने कथन किया है।
अय वादर पृथिवी शायिकों का कथन करते है-इसमें गौतम ने प्रभु से ऐसा पूछा है-'ले कितं शायर पुढवीक्षाध्य एगिदिय तिरिक्खजोगिया' हे भदन्न ! चादर पृथिवीकाधिक एनेन्द्रिय जीव शिनने प्रकार के? उत्तर में प्रभु कहते हैं-शायर पुढवी साहय एगिदियनिरिक्खजोगिया दुधिहा पन्नत्ता 'हे गौतम ! यादर पृथिवी क्षायिक एकेन्द्रिय तिर्थ योनिक जीव भी दो प्रकार के कहे गये हैं-'तं जहां-जैसे-'पजत्तवायर पुढवी काइय एगिदिय तिरिक्खजोणिया' पानि चादर पृथिवीकायिक एके. सूक्ष्म पृथ्वीयि मे द्रियाणा तिय योनि भने 'अपज्जत सुहमः। अपर्याप्त सूक्ष्म १३यि: छद्रिय तियध्ये नि: 'से त सुहम०' આ પ્રમાણે સહમ પૃથ્વીકાયિક એક ઈદ્રિયવાળા તિર્યંગ્યનિક જીના સંબંધમાં સૂત્રકારે કથન કર્યું છે.
હવે પાદર પૃથ્વીકાયિકોનું કથન કરવામાં આવે છે. આમાં શ્રીગૌતમ स्वामीथे असुश्रीने से पूण्य है 'से वित्त वायरपुढवीकाइय एगिदिय तिरिक्खजीणिया' माह२ .१४ यि थे छद्रियवाणा
असरना छ ? भा प्रश्न उत्तरमा प्रमुश्री छे है 'वायर पुढवीकाइय एगि दिय तिरिक्खजोणिय। दाविहा पन्नत्ता' है गौतम ! मा२ पृथ्वीय मेद्रियाणा तिय योनि वेया मे जाना हेवामा मा०या है. 'तजहा' ते मे । मा प्रमाणे छे. 'पज्जत वायर पुढवीकाइय एगि दियतिरिक्खजोणिया' पर्यात
Page #408
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमस्ये चादर पृथिवीकायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः, तथाच-पर्यायापर्याप्तभेदेन वादर. पृथिवीकायिकैकेन्द्रियतियोनिमा द्विविधा भवन्तीति। 'से तं वायरपृथिवीकाइय एगिदिय तिरिक्वजोणिया' ते एते बादस्पृथिवीकायिकैकेन्द्रियतियग्योनिका निरूपिताः । 'से पुढवीकाडय एगिदिय तिरिक्खजोणिया' ते एते पृथिवीज्ञापिकन्द्रिपतियग्योनिकाः भेदयभेदाभ्यां निरूपिता इति ।
पृथिवीय केन्द्रियतिर्यग्योनिकान् भेदाभेदाभ्यां निरूप्य अकायिकान् निरूपयितुं प्रश्यन्नाह-से किं तं आउक्काइय०' इत्यादि. ‘से कि तं आउक्काइय एगिदिय तिरिक्खजोणिया' अथ के ते अमालिकेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः १ अका. यिकानां कियन्तो भेदा भवन्तीति प्रश्न:. उत्तरयति-'आउकाइय एगिदिय तिरिकखजोणिया दुदिहा पन्नता' अफायिकेन्द्रियतियग्यौनिका द्विविधाःद्विप्रकारकाः प्राप्ताः- कथिताः, 'एवं जन पुढनीकाइयाणं तहेव आउकाइयभेओ' एवं यथैत्र पृथिवीकायिकानां भेद:-सधित स्तथैव-तनैव रूपेण अफायिकानान्द्रिय तिर्य ग्यानिक जीव और 'अपजलबाया पुढवी०' अपर्याप्त पादर पृथिवी झायिक एजेन्द्रिय तिर्थ योनिक जीव 'सेत्तं वायर पुढवीकाइय एगिदियरिक्खजोणिया' इस प्रकार ले भेद प्रभेद सहित चादर पृथिवी कायिक एकेन्द्रिय तिर्य योनिक जीव कहे गये हैं।
अप्कायिक जीवों का निरूपण-'ले किं तं आउक्काइय एगिदियति रिक्खजोणिया' हे भदन्त ! अपक्षायिक ऐकेन्द्रिय तिर्यक् योनिक जीव कितने प्रकार के हैं !-आउभाइयएगिदिय०' हे गौतम ! अपकायिक एकेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं-'एवं जहेव पुढवीकाइयाणं हेच आउकापसभेओ' हे गौतम इस सम्बन्ध में जैसे-चार भेद पृथिवीकायिक जीवों के कहे गये है- वैसे वे भेद यहां पर भी कह मा२ पृथ्वी यि मेन्दिय तिय योनि मन 'अपज्जत्त बायरपुढवी०' अपर्याप्त माह२ पृथ्वी यि मेन्द्रिय तिययानि से त' बायर पुढवीकाइय एगि दियतिरिक्खजोणिया' मा प्रभारी २॥ सह प्रमेह सहित माह પૃથ્વીકાયિક એકેન્દ્રિય તિર્યનિક જીવનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું છે,
वे ५५४.यि वातु नि३५ ४२वामां आवे छे. 'से कि त आ उकाइय एगिदियतिरिक्खजोणिया' है सावन म५ अपि सन्द्रिय तिय:ગેનિક જીવ કેટલા પ્રકારના કહ્યા છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમ स्वामीन हे 'आउक्काइय एगिदिय.' हे गौतम । अ५४ायि४ ४
दिया तिर्थयानि 9 में प्रा२ना ४ामा माया छ 'एव जहेव पुढवीकाइयाणं तहेव आउकाइय भेओ' है गौतम ! स भा २ प्रमाणे ના ચાર ભેદ પૃથ્વીકાયિક જીવોના કહ્યા છે, એજ પ્રમાણેના તે ચાર ભેદ
Page #409
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ २.३ रु.२५ तिर्यग्योनिस्वरूपनिरूपणम् मपि चतुष्को भेदो वक्तव्या, तद्यथा-अप्कायिका द्विविधाः प्रज्ञाला सुक्ष्मा अपहा. यिका, बादरा अकायिकाश्च । वृक्षमा अझायिकाः नियन्तो भवन्ति ? सक्षमा अप्कायिका द्विप्रकारका भवन्ति तद्यथा-पर्याप्त सक्षपाकायिका अप्तिसूक्षणाकाइकाच, ते एते सक्षमा कायिकाः। बादशहायिकाः किएतो भवल्लि ? बाद. राष्काषिका द्विविधा मनन्ति तद्यथा-पर्याप्ता वादा कायिकाः, अपर्याप्ता बादराङ्गायिकाः, से एते बादराफारिकाः, ते एते दाइभायिका भेदमभेदाभ्यां निरूपिताः, 'एवं जाब वणसहभाइया एवं बारहनादिकायिकाः तेजस्कामिका कतिविधा प्रज्ञाना: ? तेसहकाविला द्विविधाः प्रज्ञालालघथासूक्ष्माश्च, बादराश्च, तत्र सूक्षा अपि हिविधा भवन्ति तपथा-पर्याप्तामापी प्ताब, ते एते वक्षमतेजस्कायिकाः । बदरा अपि लेनमाविका द्विविधाः प्रज्ञप्ताः पर्यप्तावापर्यास्ताच ते एते वादरतेजरकाचिकाः, ते एते से जकायितः वायुलायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिका कतिविशाः प्रज्ञावा. नायुकाविमा द्विविधा प्राप्ता:लेना चाहिये जैल्ले-अप्कायिक सूक्ष्म अनाधिश और बाद अपनाशिक के भेद से दो प्रकार के होते है बले ही ये सूक्ष काकी पर्याप्त सूक्ष्म अप्कायिक और अपयन सूक्षा कायिकदमै छो प्रकार के होते हैं इली प्रकार पादर अशाबिक ली पर्याप्त और अप यह के भेद से दो भेद वाले होते हैं 'एवं जाश घालामाइया इसी तरह से भेद और पभेदों का कथन लेजरमाथि, वायुम्हाधिक और बनाएतिक कायिक जीवों के लम्बन्ध में भी कर लेना चाहिये सर्थात् ये सघ एकेन्द्रिय जीव स्वक्षमचादर के बेदले दो प्रकार के होते हैं और पर्याप्त एवं अपर्याप्त के भेद ने सूक्ष्मचादर भी दो दो प्रकार के होते हैं इस तरह एकेन्द्रिय जीवों के कुल भेद इस प्रकार बीदर हो जाते हैं। અહિંયા પણ સમજી લેવા જોઈએ. જેમકે અપકયિકના સૂક્ષમ અપૂકાયિક અને બાદર અપ્રકાયિક એ રીતે બે પ્રકાર હોય છે. એ જ પ્રમાણે સૂમ અપૂકાયિક પણ પર્યાપ્તક સૂક્ષ્મ અપકાયિક અને અપર્યાપ્ત સૂકમ અપૂકાયિકના ભેદથી બે પ્રકારના હોય છે, એજ પ્રમાણે બાદર અપૂકાયિક પણ પર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્તના मेथी में प्रारना डाय छे. 'एवं जाव वणस्वइकाइया' से प्रमाणे तर સ્કાયિક, વાયુકાયિક, અને વનસ્પતિકાયિક જીના સંબંધમાં પણ ભેદ પ્રભેદે સહિતનું કથન સમજી લેવું અર્થાત આ બધા એકેદ્રિય સૂમ અને બાદરના ભેદથી બે પ્રકારના હોય છે અને પર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્તના ભેદથી સૂક્ષ્મ બાદર પણ બબ્બે પ્રકારના હોય છે. આ રીતે એક ઈદ્રિયવાળા જ ના બધા મળીને કુલ વીસ ભેદ થાય છે
जी० ४९
Page #410
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवाभिगमसूत्रे
9
·
तद्यथा-सूक्ष्मावायुकायिकाश्च, वादरा वायुकायिकाथ, मक्ष्माः पुनर्हिविधा भवन्ति पर्यावाच, ते एते सूक्ष्ववायुकायिकाः । वादरा अपि द्विविधा भवन्ति पर्याप्ताचार्या, ते पते वादरायुकायिकाः से एते वायुकायिकाः । वनस्पतिका थिकै केन्द्रियतिर्यग्योनिकाः कतिविधाः प्रजा ? वनस्पतिकायिका द्विविधाः प्रज्ञप्ता स्वयथा- सूक्ष्माथ वादराय । अथ सूक्ष्मवनस्पतिकायिकाः कविविधाः प्रज्ञप्ताः १ सूक्ष्मवनस्पतिकारियाः द्विविधाः खष्टा रटद्यथा- पर्या वाचा पर्याप्ताच, ते एते वनस्पतिकारिकाः अथ के ते यादवनस्पतिका यिकाः ? वादरवनस्पतिकायिका द्विविधाः मज्ञप्ताः तद्यथा-पचणायापर्याप्ताय, ते ते वारवनस्पतिकायिका', 'सेवकाइन एर्मिदिय तिरिक्खनोगिया' ते एते वनस्पतिकायिकेन्द्रियतियंग्योनिका ॥
३८६
पृथिव्यादितो वनस्पतिकायिकान्ताने केन्द्रियतिर्यग्योनिज्ञान भेदमभेदाभ्यां निरूप्य द्वीन्द्रिय तिर्यग्योनिकान् निपतुं नाह- 'से किं तं बेइंद्रिय वरि क्खजोणिया' अथ के ते द्वीन्द्रियतिर्यग्योनिकाः द्वीन्द्रियाणां कियन्तो भेदा इति प्रश्न', उत्तरयति - ' वेइंदिय तिरिक्खजोणिया दुविहा पन्नता' द्वीन्द्रियतिर्यग्योनिका द्विविधाः - द्विमकारकाः प्रज्ञताः कथिता इति । 'तं जहा' उद्यथा- पज्जत वेदिय तिरिक्खजोणिया' पर्याप्तका - पर्याप्तता गुणविशिष्टाः द्वीन्द्रियतिर्यग्योनिकाः, तथा - 'अपज्जत्त वेइंदिय तिरिक्खजोगिया' अपयप्तिक द्वीन्द्रियति
दीन्द्रिय तिर्यग्योनिकों का निरूपण-'से कि तं वेद्वंदियतिरिक्खजोणिया' हे भदन्त ! दो इन्द्रियतिर्यग्योनिकों के कितने हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं - 'इंदियतिरिक्खजोणिया दुबिहा पनन्ता' हे गौतम! दो इन्द्रियतिर्यग्योनिक जीव दो प्रकार के होते हैं- 'तंज' जसे- 'पज्जतगवेइं दिपरिक्खजोणिया 'पर्यातक दो इन्द्रियतिर्यग्येनिक और 'भपजतगवेदिय तिरि०' अपर्याप्तक दोहन्द्रय निर्यग्योनिक घरां जैसे एकेन्द्रि
હવે એ ઈદ્રિયવાળા તિય ચૈાનિક જીવાનુ નિરૂપણ કરવામાં આવે છે. सभधभां श्रीजीतभस्वामी अनुश्रीने भूछे छे है 'से किं' त' वेइंदि 'यतिरिक्खजोणिया' हे भगवन् मे इंद्रियावाजा તિય ચૈાનિક જીવાના ईटसा लेहो होय हे ? या प्रश्नमा उत्तरभां प्रलुश्री हे छे. } 'बेइ दिय तिरिक्खजोणिया दुत्रिहा पन्नत्ता' हे गौतम! मे द्रियवाजा तिर्यग्योनि लव એ પ્રકારના ह्या छे. 'त' जहा' भरे 'पज्जत्तग बेइंदिय तिरिक्खजोणिया ' पर्याप्त४ मे छ ंद्रियवाजा तिर्यग्योनिङ भने ' अपज्जत्तगवेइदिय तिरि' अथર્માસક એ ઇ“ચિવાળા તિયગ્યેાનિક જે પ્રમાણે એક ઇન્દ્રિયવાળા પૃથ્વિકાયિક
મા
Page #411
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमैयद्योतिबाटीका प्र.३ उ.३ ६.२५ तिर्यग्योनि स्वरूपनिरूपणम् यंग्योनिका, अत्र पृथिवीकायिकादिवत् सुक्ष्मवादरभेदो न भवति, द्वीन्द्रियादिनां सर्वेषामपि नियमतो वादरनामकोदयस्यैव सद्भावेन सूक्षमस्वाभावेन नियमतो बादरत्वादेवेति । 'से तं वेइंदिर तिरिक्खजोणिया' ते एते द्वीन्द्रियतिर्यग्योनिका भेदेन निरूपिता इति । 'एवं जान चउरिदिया' एवं यावद चतुरिन्द्रियाः, एवं द्वीन्द्रियर्थिग्योनिका इत्र जीन्द्रियतिषग्योनिका श्चतुरिन्द्रियाँतर्यग्योनिकाच पर्याप्तकापर्याप्तभेदेन द्विद्वि प्रकारका ज्ञातव्याः, तथाहि-अथ के ते त्रीन्द्रियतिथग्योनिका ? त्रीन्द्रियतिर्यज्योनिका द्विविधाः प्रज्ञप्ताः तद्यथा-पर्याप्तत्रीन्द्रियतियग्योनिकाश्चार्याक त्रीन्द्रियतिर्यग्योनिकाश्च, ते एते त्रीन्द्रियतिर्यग्योनिका भेदेन निरूपिताः । अश्व के ते चरिन्द्रियतिर्यग्योनिकाः ? चतुरिन्द्रियलियग्यो. निका द्विविधाः प्रज्ञता, सधधा-पर्याप्तचतुरिन्द्रिपतियग्यौनिकाच अपर्याप्तकचतुरिन्द्रियतिग्योनिकाश्च ते एते चतुरिन्द्रियतिर्यज्योनिका भेदेन निरूपिता इति । पृथिव्यादिको प्ले स्वृक्ष बादर भेद कहे है, वैसा भेद यहां नहीं होता है क्योकि हीन्द्रियादि जीवों के सूक्ष्म नामकर्म का उदय नहीं होता है यहां तो बाहर नामकर्म का ही उदय रहता है । 'सेत्तं बेइंदियति०' इस प्रकार ले पर्याय एवं अपर्याप्त भेदों द्वारा द्वीन्द्रिय तिर्यग्योनिको के समय में प्रतिपादन कर के सूचकार 'एवं जाव चारदिया इस सूत्र द्वारा यह समझाले है कि ते इन्द्रिय और चौइन्द्रिय जीवों के भी पर्याप्त
और आपापस ऐले ये दोही भेद होते हैं-इस तरह पर्याप्त तेइन्द्रिय तिर्यग्यानिक और अपम्ति लेहन्द्रिय तिर्यग्योनिक, पर्याप्त चौइन्द्रिय लियग्योनिक और अपर्याप्त बौहन्द्रिय लियंग्योनिक इस प्रकार के भेदों वाले तेन्द्रिय लियोनिक और चौहन्द्रिय तियग्योनिक जीव प्रकट किये गये हैं। વિગેરેમાં સૂક્ષમ અને બાદર એમ બે પ્રકારના ભેદ બતાવવામાં આવેલા છે. એ પ્રમાણેને ભેદે અહિયાં થતા નથી. કેમકે બે ઈદ્રિય વિગેરે અને સૂક્ષમ નામ કર્મને ઉદય હેતે નથી. અહિયાં તે બાદર નામ કમેનેજ ઉદય રહે छे. 'से त बेइंदिय ति.' मा प्रमाणे पर्यात भने २५यतिना मेथी दान्द्रय तिय योनिडाना मा थन ४शन व सूत्रा२ ‘एवं जाव चरिंदिया' 21 સૂત્ર દ્વારા એ સમજાવે છે કે ત્રણ ઈદ્રિ વાળા છે અને ચાર ઈદ્રિવાળા જીને પણ પર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્ત એ પ્રમાણેના બે જ ભેદે હોય છે. આ રીતે પર્યાપ્ત ત્રણ દિયવાળા તિર્યાનિક અને અપર્યાપ્તક ત્રણ ઈદ્રિવાળા તિયાનિક, પર્યાપ્તક ચાર ઈ દ્વિવાળા તિર્યનિક અને અપર્યાપ્તક ચાર ઈદ્વિવાળા તિર્થનિક આ પ્રમાણેના ભેદોવાળા ત્રણ ઈ દ્રિયવાળા તિર્યનિક અને ચાર ઈદ્રિવાળા તિર્થનિક જીવનું કથન કરવામાં આવ્યું છે.
Page #412
--------------------------------------------------------------------------
________________
३८८
जीवाभिगमस्टे चतुरिन्द्रियान्ततियग्योनिकान् भेदमभेदाभ्यां निरूप्य पञ्चेन्द्रियतियग्योनिकान् निरूपयितुं प्रश्नपन्नाह-'से किं तं पंचिंदिय तिरिक्खजोणिया' अथ के ते पञ्चन्द्रियविर्यम्योनिकाः पञ्चेन्द्रि यतियग्योनिकानां कियन्तो भेदा इति प्रश्नः, उत्तरयति-पंचिदियतिरिक्खजोणिया विविहा पन्नत्ता' पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका स्त्रिविधा:-त्रिप्रकारकाः प्रज्ञप्ताः-कथिताः, 'तं जहा' तद्यथा-'जलयरपंचिंदियतिरिक्खनोणिया' जलचर पञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिकाः, जले चरन्ति-गच्छन्ति तिष्ठन्ति वा येते जलचराः जलचराश्च ते पञ्चेन्द्रिययिंग्योनिकाश्चेति जलचरपञ्चन्द्रिय तियज्योनिका इति । स्था-'यलयरपंविदियतिरिक्खजोणिया' स्थलचरपञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकाः, स्थले चन्ति-गच्छन्ति तिष्ठन्ति वा ये ते स्थलचरा, स्थलचराश्च ते पञ्चेन्द्रिपतियंग्योनिकाचेति स्थलचर पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः, 'खहयर___पंचेन्द्रितियंग्यो नि शो का निरूपण-से शितं पंचिदियतिरिक्ख जोगिया.' हे अक्षर ! पंचेन्द्रिच तिश्योनिकों के कितने भेद हैं ? 'पंबिंदियतिश्विरल जोणिया तिकिटा' हे गौतम ! पश्चेन्द्रिय लियंग्योनिक जीच तीन प्रकार के होते हैं-'तंजा' जैसे-'जलयर पाचिदियतिरिक्ख जोनिया, थलमा चिदिति खायर पंकिंदियति०' जलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्थयोनिकस्लल यह पञ्चेन्द्रिय तिर्ययोनिक और खेचर पंचेन्द्रिय तिर्थयोजित, मत्स्य कच्छप नादिजिद जलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्थयोनिक है-योनी इनका निकाहान जन्म ही है-जल से अतिरिक्त स्थान में न से सकते हैं और न ठहर सकते हैं जो जीव स्थल-जमीन-पर चलले फिरते है-धे स्वछ चार हि लथा-जो जीव आकाशले चलते फिरते हैं
હવે પાંચ ઈદ્રિવાળા તિર્યનિક જનું નિરૂપણ કરવામાં આવે छ. 'से किंत पंचिंदिय तिरिक्खजोणिया.' 8 लगन् पयन्द्रिय तियानि જે કેટલા પ્રકારના હોય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને
छ 'पचिंदियतिरिक्खजोणिया विविहा' ५'यन्द्रियतिय श्यनि अy प्र.२॥ sal छ. 'त जहा' ते त्रय प्रजा ॥ प्रमाणे छे. 'जलयरपंचि दियतिरिक्खजोणिया, थलयरप चिदियति० खयरपंचिंदिय तिरिक्खजोणिया' सय२ ५३न्द्रिय तियशनि २५०५२ ५'यन्द्रियतिय श्याનિક અને ખેચર પંચેન્દ્રિય તિર્યનિક. અસ્ય કરછપ વિગેરે છ જલચર પચેન્દ્રિય તિર્યનિક છે. કેમકે તેઓનું નિવાસસ્થાન જલજ છે જલ શિવાયના સ્થાનમાં તેઓ રહિ શકતા નથી. તેમ સ્થિર પણ થઈ શકતા નથી. જે જ સ્થલ કહેતાં જમીન પર ચાલે છે, ફરે છે, તેઓ સ્થલચર કહેવાય
Page #413
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ खू.२५ तिर्यग्योनिस्वरूपनिरूपणम् ३८९ पंचिदियतिरिक्खजोणिया' खेचरपञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिकाः, खे-आकाशे चरन्तिगच्छन्ति ये ते खेचराः खेचराश्च ते पञ्चेन्द्रियति योनिकाश्चेति खेचरपञ्चेन्द्रिय. तिर्यगूयोनिकाः, तथाच-जलचरस्थल वरखेवरभेदात् पञ्चेन्द्रि तिर्ययोनिका त्रिप्रकारका भवन्तीविभावः । 'से किं तं जलसरपंचिदियतिरिक्खजोणिया' __ अथ के ते जलचरपञ्चेन्द्रिपतिर्यग्बोनिका ? जलचस्पञ्चेन्द्रियतिर्यगूयोनिकानां
कियन्तो भेदा भवन्तीति प्रश्नः, उत्तत्यति- 'जलयरपंकिंदियतिरिक्खनो. णिया दुविहा पन्नत्ता' जलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः द्विविधा:-द्विमकारकाः प्रज्ञप्ता:-कथिताः, 'तं जहा' तघथा-संच्छिमजलयरपंचिदियतिरक्खजो. णियाय' समूच्छिमजलचरपञ्चेन्द्रितिश्योनिकाच, तथा-'गब्भवतियजलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया य' गर्मव्युत्क्रान्तिक जलचरपञ्चेन्द्रियतियंगूयोनिकाच तथाच-समूच्छिमगर्भजभेदेन जलचस्पश्चन्द्रियतियग्यौनिका द्विप्रकारका भवन्तीति । 'से कि तं संच्छिमजलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया' अथ के ते संम्र च्छिमजलचरपञ्चेन्द्रियात यग्रयोनिकाः, संमूछि मजलचराणां कियन्तो भेदो वे खेचर पञ्चन्द्रिय तिर्थक हैं। सितंजलयरपंचिंदियति' हे अदन्त ! जलचर पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव कितने प्रकार के होते हैं ? 'जलयर पंचिंदिय तिरिक्ख जोणिया दुविहा पनत्ता' हे गोलम्ब ! जलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव दो प्रसार के होते हैं-जैसे-'संच्छिमजलयर०' संमूछिम जलचर पंचेन्द्रिय लियंग्योनिश और 'अभयकंति०' गर्भज जलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्थग्योनिक जीछ लथा व संभूछिम एवं गर्भज तिर्यग्योनिक के भेद से जलचर पञ्चेन्द्रियलियग्योनिक जीव दो प्रकार है 'से कि संच्छिमाजलघरपंचिदिध्य' हे अदन्त ! समूच्छिम છે. તથા જે છ આકાશમાં ચાલે છે, અને ફરે છે. તેઓ ખેચર પંચેન્દ્રિય તિર્યનિક છે.
___ 'से कि त जलयर पचिदियतिरिवख जोणिया' ७ सपन य२ પંચેન્દ્રિય તિર્યનિક જીવો કેટલા પ્રકારના હોય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रसुश्री गौतमस्वामीन ४९ छ 'जलयर पचि दियतिरिक्खजोणिया दुविहा पण्णत्ता' गीतम! साय२ ५'यन्द्रिय तिय यानि मे मारना ४ा छ. २ 'संमुच्छिम जलघरपबिंदिय तिरिक्ख जोणिया' भूमिछम
सय२ पयन्द्रिय तियानि मते 'गम्भवतियजलयरप चि दिय तिरिक्ख जोणिया' गमन सय२ ५येन्द्रिय तिव्यनिए. तथा सभूरिभ सय२ તિર્થંનિક ના ભેદથી જલચર પંચેન્દ્રિય તિર્લગેનિક જીવો બે પ્રકારના Bाया छ. 'से कि त समुच्छिमजलयरपंचि दियतिरिक्ख जोणिया' के सावन
Page #414
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवाभिगमसूत्रे
इवि प्रश्नः, उत्तरयति - 'संमुच्छि मजल पर पंचिदिय निरिक्खजोगिया दुनिया पन ता' संमूच्छिमजलचरपञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकाः द्विविधाः - द्विमकारकाः प्रज्ञताःकथिताः 'त जहा ' वद्यथा- 'पज्जत्तगसंमुच्छम जलपरपंचिदियतिरिवखजोणिया ' पर्याप्त संमूच्छिमजलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिफा: 'अपज्जत संमुस्लिम जलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिया य' अपर्यापच्छिमजलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाश्च तथाच पर्याप्तकापर्याप्तकभेदेन संमृच्छिमजलचराः द्विमकारका भवन्तीति भावः । 'सेतं संमुच्छिमजकयरपंचिदियतिरिक्खजोयणिचा' ते एते पर्या तापतादिभेदभिन्नाः द्विमकारणाः संमृच्छिम जलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिका निरूपिता इति । 'से किं तं गमवक्कंवियजळयरपंचिदिपतिविख जोणिय ।' अथ के ते गर्भव्युत्क्रान्तिकमल चरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः, गर्भजजळचराणां कियन्तो भेदा इति प्रश्नः, उत्तरयति - ' नवतिय जलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिया दुद्दिहा पणवा' गर्भव्युत्क्रान्ति फजलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः जलचर पश्चेद्रिय तिर्यग्योनिक जीव कितने प्रकार के होते हैं ? 'संमुच्छिम जलघर पंचिदि०' हे गौतम! संमूच्छिदजलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव दो प्रकार के होते है - जैसे- 'पज्जलग समुच्छिम जलपर पंचेन्द्रिय०' पर्याप्त मच्छिम जलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव और 'अपज्जलग संमुच्छिम जलयर' अपर्याप्तक समूच्छिम जलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव 'से कितं भवतिय जलय (०' हे भदन्त | गर्भज जलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव किमने प्रकार के होते है ? 'कंतिय जलयर पंचिदिघ०' हे गौतम! गर्भज जलघर पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव दो प्रकार के होते हैं- 'तं जहा' जैसेસ'સૂચ્છિમ જલચર પંચેન્દ્રિય તિગ્યેાનિક જીવ કેટલા પ્રકારના કહ્યા છે ? उत्तरमां अनुश्री छे 'समुच्छिमजलयर पंचि दिय०' हे गौतम । सभूमि જલચર ૫ ચેન્દ્રિય તિર્યંગ્યેાનિક જીવે એ પ્રકારના કહ્યા છે. જેમકે ‘વૃ ત્ત संमुच्छिम जलचरपंचिदिय तिरिक्खजोणिया पर्याप्त सभूमि सर ययेन्द्रिय तिर्यग्योनि भने 'अगज्जतगस मुच्छिजलयर चिंदिय तिरिफूख जोजिया' अपर्याप्त सभूमि जयर ૫ ચેન્દ્રિય તિય ગ્યે!નિક જીવ 'से किं तं गव्भवतियजलयर पचिदिय तिरिक्ख जोणिया' हे लगवन् ગર્ભજ જલચર પચેન્દ્રિય તિય ચૈનિક જીવેા કેટલા પ્રકારના હાય છે? उत्तरमां प्रभुश्री अछे 'गन्भत्रक' तियजलयरपंचिदिय तिरिक्खजोणिया दुविहा पण्णत्ता' हे गौतम! गर्ल ४सयर पथेन्द्रिय तिर्यग्योनिङ कुवे
३०
-
Page #415
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.२५ तिर्यग्योनिस्वरूपनिरूपणम् द्विविधाः-द्विप्रकारकाः प्रज्ञाप्पा:-कथिता इति । 'तं जहा' तयथा-'पज्जत्तगगमवतिय जलयरपंचिदियतिरिक्खजोगिया पर्याप्त कगर्भव्युत्क्रान्तिकजलचरपश्चे न्द्रियतियग्यो निकाः 'एज्जत्तगगम्भववतिय जलयरएपंचिदितिरिक्खजोणिया' अपर्याप्तऋगभव्युत्क्रान्तिकजल वरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योकाः, तथा च पर्याप्तका प्तकभेदेन गर्भजजलचरा द्विविधा महन्तीति। 'सेत गमावलिय जलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिसा ते एते मन्यन्क्रान्तिबजलचरपञ्चन्द्रियनियंग्यानिका निरूपिता से तं जलापंचिरितिरिवखन जिया' से एसे जलचरपञ्चन्द्रिय तिर्यम्पोनिका जीजा सेवायेदाभ्यां निरूपिता इति ।
जलचरान्निरूपय स्थलचरान् निरूपयितु पश्नयनाह- से किं तं थलयर' इत्यादि, ‘से किं तं थलयर चिदियनिरिक्खजोणिया' अथ के ते स्थल चरयचे न्द्रियतिर्यगोनिकाः १ स्थलचर पञ्चेन्द्रियतिरश्चां कियन्तो भेदा इति प्रश्नः, उत्तरयति-थलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया' दिहा एमत्ता' स्थलचरपञ्चेन्द्रिर'पज्जत्तग भवतिय जल पर तिरिक्ख जोणिया पर्याप्तक गर्भज जलचर पंचेन्द्रिय तिर्थयोनिक्ष और 'अपज्जत्तम गन्भवतिय तिरिक्खजोणिया' अपर्याप्तक गर्भज जलचर पञ्चन्द्रिमा तिर्थयोनिक 'सेत्तं गब्यक्षकोलिश जलयर पंचि०' इल झार से गर्भज जलचर पचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीच दो प्रकार के कई है। ___ अब स्मशार हथलचर पञ्चन्द्रिय तिर्थ योनि जीयों का वर्णन करते है-'से कि तं थलचर पपिदिय तिरिखजोणिया' हे अदन्त ! स्थलचर पञ्चेन्द्रिय लियोनिक जीव शितने प्रकार के है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'थलयर पंचिदिश विवि मोणिया दुविहा पणत्ता' हे गौतम! स्थलचर पञ्चन्द्रिय लियोनिक जीव दो प्रकार के है-'तं जहा' जैसेमे प्रा२ना डाय छे. 'त' जहा' ते मे ५४.२ 241 प्रभाग छ. 'पज्जत्तगगम्भवतिय जलयर पचिदियतिरिकखजोगिया पति Har सय२ ५'यन्द्रियतिय यानि भने 'अपज्जत्तग गम्भवतिय तिरिक्ख जोणिया' मर्यात Tor eA२५ ये न्द्रिय तिय योनि से तंगभवतिय जलयापचिं दियतिरिक्खजोणिया' मा પ્રમાણે આ ગર્ભજ જલચર પંચેન્દ્રિય તિર્યંચેનિક જીવો બે પ્રકારના કહ્યા છે.
હવે સૂત્રકાર સ્થલચર પંચેન્દ્રિય તિર્યનિક જીવોનું વર્ણન કરે છે. तमा गीतमस्वामी सन प
से कि तं थलयर पचि दिय तिरिव स्व. जोणिया' हे भगवन स्वय२ ५'यन्द्रिय तिय यानि लाटता प्रारना ४ा छ१ मा प्रशना बत्तरमा सुश्री गीतमस्वामीन ४ ४ 'थलयर पचि दिय तिरिक्खजोणिया दुविहा पण्णत्ता' हे गौतम । स्थलय२ ५'थेन्द्रिय
Page #416
--------------------------------------------------------------------------
________________
मीक्षाभिगमसूत्र तिर्यग्मोनिका द्विविधा:-द्विप्रकारका प्रज्ञता:-कथिता इति । 'तं जहां तद्यथा'चउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिकाट जोणिया' चतुष्पदस्थलचरपञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिका, तथा-'परिसप्पणलयरपंचिदियतिरिक्वजोणिया' परिपथलचरपञ्चन्द्रिगतिय ग्योनिका, तथा च-चतुइपरिसपभेदेन स्थलचरपञ्चन्द्रिया द्विपकारका भव. न्तीति । 'से किंत उपयशलयरपंविदियतिरिकावजोणिया' अथ के ते चतु. पदस्थलचरपञ्चेन्द्रियतियोनिकाः चतुष्पदस्थल चाणां कियन्तो भेदा इति प्रश्ना, उत्तरयति-'चउपयथलयरपचिदितिरिक्वणिय दुनिता पन्नत्ता' चतुष्पदस्थलचरपञ्चन्द्रियतियागोनिका द्विविधा:-द्विमहारहा: प्रज्ञप्ताः-मथिता इति । तं जहा' तथा-'संमचिम चप्पय श लयरपचिदितिरिक्खजोपिया' संमान्टिम चतुष्पदस्यलच रपञ्चन्द्रियलियम्योनिकाः, तथा-रश दर्शनिय चउपय यलयरपंचिंदियतिरिवखजोणिया य' गभव्युत्क्रान्तिकापाथलचर पञ्चन्द्रियतियग्यो। निकाश्च तशा च संमाछिया भजभेदेन रशलवरच तण्डा हिप्रकारका भवन्तीति । 'घउप्पयथलयर पंचिहिय तिरिवखोजिना चतुष्पद स्थल चर पञ्चन्द्रिय तिर्यग्योनिक और पशिसएशलयर निदिधशिरि०' परिमपन्थलचर पञ्चन्द्रिय लियरोनिक से कितं चरप्पन थलयर रिदिय तिरिक्ख.' हे भदन्त ! चतुष्पद स्थल घर पश्चरिद्र तिर्थ योनिक जीवों के कितने भेद हैं ? 'चउपाय थल यस पंचिदिव लिमि०' गौतम चतुष्पदस्थलचर पञ्चन्द्रिय नियंग्यानिक दो प्रकार के २-जैसे-'संच्छिम उपयधलयर पं०' संमूच्छिम चतुष्पदस्थलचर पञ्चन्द्रिय तिर्थ योनिक और 'गमवक्कंतिय वउपयलयर' गर्भज चतुष्पद स्थलचर पञ्चन्द्रिय तिर्थयो तिय व्यानि व मे. प्रत छ 'तंजहा' म 'चउप्पय थलयर पंचिंदियतिरिवखजोणिया' यतु०५६ (या२ ५ ) स्थसय२ पथेन्द्रिय तिय योनि मन परिमप्प थलचरपचि दियतिरिक्खजोणिया, परिस श्यसय२ ५'यन्द्रिय तिय योनि. शथी श्रीगोतमरवाभी पूछे छे ? 'से किं त चटप्पयथलयरपचि दियतिरिक्खजोणिया' मगन् यतु०५४ स्थलय२ પંચેન્દ્રિય તિર્યનિક ના કેટલા ભેદ કહેવામાં આવ્યા છે? ઉત્તરમાં प्रभुश्री गीतभस्वामीन ४७ छ है 'उपयथलयरपचि दियतिरिवखजोणियादुविहा पण्णत्तो' उ गौतम ! यतुभ्य: स्थसय२ ५'यन्द्रिय तिय यानि छ। में माना - छ. म 'समुन्छिमचउपयथलयरपचि दियतिरिक्खजोणिया' स भूमि यतु५४ स्थाय२ ५'यन्द्रिय तिय ज्यान मन 'गम्भवतिय चउप्पय थलयरप'चिदिय तिरिक्ख जोणिया' Mor यतुष्प४ २०८
Ad५६
तरिक्ख जोणिया
Page #417
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ २.२५ तिर्यग्योनिस्वरूपनिरूपणम् ३९३ 'जहेच जलयराणं तहेब चउक्को भेदो' यथैव जलचराणां चतुष्को भेद: कथित स्तथैव-तेनैव रूपेण स्थळचराणामपि चतुष्को मेदो ज्ञातव्या, तथाहि-प्रथमतश्चतुष्पदा संमृच्छिमगर्भजभेदेन द्विविधा वक्तव्याः, ततः संच्छिमाश्चतुष्पदा पर्याक्षा अपि भवन्ति, अपर्याप्ता अपि भवन्ति, सतो गर्भनचतुष्पदा अधि पर्यापासण्यापाश्चापि भवन्ति, बलव समूच्छिमदर्भज मेन पर्याप्तापित भेदेन च चतुष्पद स्थलचराश्यतुःमकारा भवन्तीति । संचय थलपरपावदियतिरिकखजोणिया' ते एते चतुष्पद स्थलचर एश्चेन्द्रियलियमोनिकाः भेदाभेदाच्या निरूपिला इति ॥
चतुष्पद स्थलचरान निरूप्य परिहर्ष स्थलवान् निस्पयित्प्रनयनाह_ 'से कि लं परिसय थलयपविदियतिरिक्खनोणिया' अश्न के ते परिसर्प स्थलनिक 'जहेव जलघराणं तहेव च को मेमोजिम प्रकार से जलकर जीबों के चार भेद कहे गये हैं उसी प्रकार साल नर जी केली नाद बेद कपा लेना चाहिये जैसे-थलचर चतुष्पद जी के स्तूल भदाले दो प्रकार के होते हैं एक संमूच्छिस और दूसरे वर्ष ज, चतुष्पद है के पर्याप्त भी होते हैं और अपर्याप्त भी होते है। इसी तरह मुकिल चतुष्पद भी पर्याप्त और अपर्याप्त दोनों प्रकार के होते हैं। अतः संच्छिम और भंज के भेद से तथा इनके पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से चतुष्पदस्थलचर जीव चार प्रकार के हो जाते हैं। 'आन्तं चप्पयरलयर पंचिदिय तिरिक्खजोणिया' इस तरह से ये चतुष्पद स्थलचर पञ्चेन्द्रिय लियरपोनिक जीव अपने भेद प्रभेदों ले निरूपित हुए हैं।
परिसर्पस्थलचर निरूपण- किं तं परिपथलय पंचिनिधरिति २२ ५येन्द्रिय तिय व्यानि. 'जदेव जलयराण तहेब चउक्कओ भेओ પ્રમાણે જલચર છના ચાર ભેદે કહ્યા છે એ જ પ્રમાણે થલચર જીવેના પણ ચાર ભેદ કહેવા જોઈએ. જેમકે સ્થલચર ચતુષ્પદ જીવે ના મૂલ બે ભેદ થાય છે. જેમકે એક સંમૂછિ મચતુષ્પદ અને બીજે ગર્ભ જચતુષ્પદ છે. તેઓ પર્યાપ્ત પણ હોય છે. અને અપર્યાપ્ત પણ હોય છે, એ જ પ્રમાણે સંમૂર્ણિમ ચતુષ્પદ પણ પર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્ત એમ બન્ને પ્રકારના હોય છે તેથી સંમૂ૭િમ અને ગર્ભજના ભેદથી તથા તેના પર્યાપતક અને અપર્યાપ્તકનાमहया यतुस्थितयR & या२ प्रारना ४ लय छे. 'से चउपय थलयर पचि दिय तिरिक्ख जोणिया' मा प्रभाव मा यतु यह स्थाय२ ५येन्द्रिय તિયંગ્યનિક જીવનું તેમના ભેદો અને પ્રભેદેથી નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું છે.
હવે પરિસપ સ્થલચર ઇવેનું નિરૂપણ કરવામાં આવે છે. આ સંબંधमा श्रीगोतभस्वामी प्रभुश्रीन पूछे छे , 'से कि त परिसप्पथलयरपचि दिय
जी० ५०
Page #418
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवाभिगमन वरपञ्चेन्द्रियविर्यग्योनिकाः, परिसर्पस्थलचराणां कियन्तो भेदा इति प्रश्ना, उस रयति-'परिसप्पथलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिया दुविहा पन्नत्ता' परिसपस्थलचरपञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिका द्विविधाः-द्विपकारकाः प्रज्ञप्ताः-कविता इति । 'तं जहा' तद्यथा 'उरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खनोणिया' उरः परिसपस्थटचरपञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिकाः, उरसा-वक्षःस्थलेन परिस्पन्ति-गच्छन्तीति उरः परिस:सपादयस्तादृशाश्च ते स्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योतिकाश्चेति ते तया, 'भुयपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्वजोणिया' भुजपरिसपस्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्यौनिकाः, भुजाभ्यां परिसर्पन्ति-चलन्दि इति सुजपरिसपाः गोधानकुलादयः, तादृशाश्च ते स्थलचरपञ्चेन्द्रियतियग्योनिकास्ते तथा, नया च-उर परिसर्पभुजपरिस भेदेन परिसर्प स्थलचरा द्विविधा भवन्तीति । 'से सिं तं उत्परिसप्पथळयरपंचिदियतिरिक्खजोणिया' अथ के ते उर परिसपस्थलचरपश्चन्द्रियतिर्यग्योनिकाः, उर:परिसर्पस्थलचराणां कियन्तो भेदा इति प्रश्ना, उत्तरयति-'उरपरिसप्पथलयरपंचिं
खजोणिया' हे भदन्त ! परिसर्पस्थलचरों के कितने भेद हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'परिसप्पथलयरपंचिदिति०' हे गौतम! परिसपस्थलघरों के दो प्रकार हैं। 'तं जहा' जैसे-उरपरिसप्प थलयर० भुज परिस. प्पयल.' उर:परिसर्पस्थलचर पश्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक और भुज परिसर्प स्थलचर पश्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जो स्थलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च जाती के सहारे चलते हैं-जैसे-सपं आदि वे स्थलचर पञ्चेन्द्रिय उरपरि सर्प है
और अपनी भुजाओं के बल से चलते हैं वे गोधी नकुल आदि भुज परिसर्पस्थलचर है। 'से किं तं उरपरिलप्पथलयर पंचि०' हे भदन्त ! उरःपरिसर्प स्थलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्थयोनिक जीवों के कितने भेद हैं ? तिरिक्ख जोणिया' हे भगवन् । परिस स्थलयराना सा हो या छ ?
या प्रश्न उत्तरमा असुश्री गौतमस्वामी ४ 'परिसप्प थलयर पचि दिय तिरिक्वजोणिया दुविहां पण्णत्ता' : गौतम ! परिस५ स्थायरोना में ही
शा. 'तं जहा' ते मा प्रमाणे छ. म 'उरःपरिसप्प थलयर०, भुजपरिसप्प थलयर.' १२:५रिस स्यय२ पयन्द्रिय तिर्थयानि भने भुस परिस સ્થલચર પંચેન્દ્રિય તિર્યનિક, જે સ્થલચર પંચેન્દ્રિય
તિનિકે છાતીના બળથી ચાલે છે. જેમકે સાપ વિગેરે તેવા સ્થલચર પંચેન્દ્રિય ઉરઃ૫રિસર્ષે છે. અને જેઓ પિતાની ભુજાઓના બળથી ચાલે છે, જેમકે ઘે, નળીયે વિગેરે તેઓ ભુજ પરિસર્ષ સ્થલચર છે.
. 'से कि त उरपरिसप्प थलयर पचि दिय तिरिक्खजोणिया' असगन् ઉર પરિસર્પ સ્થલચર પંચેન્દ્રિય તિર્યનિક જીના કેટલા ભેદો કહ્યા છે?
Page #419
--------------------------------------------------------------------------
________________
मेयधोतिका टीका प्र.३ २.३ सू.२५ तियेग्योनिस्वरूपनिरूपणम् ३२५ दियतिरिक्खजोगिया दुविहा पन्नत्ता' उर परिसर्पस्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका द्विविधाः-द्विपकारका प्रज्ञप्ता:-कथिता इति, 'तं जहा' तद्यथा-'जहेव जलचराणं तहेव चउक्को भेदो' यथैव जलचराणां संमृच्छिमगर्भजपर्याप्तापर्याप्ता इति चतु. को भेदः कथितः, तथैव-तेनैव रूपेण उरःपरिसर्पस्थलचराणामपि संमूछिमगर्भ: जपर्याप्तापर्याप्तेति चतुष्को भेदो ज्ञातव्यः, उरम्परिसः द्विविधा भवन्ति संम. च्छिमा गर्भ नाश्च तत्र संमूच्छिमा अपि पर्याप्तापर्याप्तभेदेन द्विविधा भवन्ति, तथा-गर्भजा अपि पर्याप्ताप्तिभेदेन द्विविधा भवन्ति तदेवं चतुष्को भेदो भवतीति भावः। 'से तं भुनपरिसपथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया' ते एते भुजपरिसर्पस्थल वरपञ्चेन्द्रियतियंग्यौनिकाः भेदाभेदाभ्यां निरूपिता इति । 'से तं थलयरपंचिंदियतिरिक्खनोणिया' ते एते स्थलचरपञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिकाः भेदमभेदाभ्यां निरूपिता इति ॥ उत्तर में कहते हैं-'उरपरिसप्पथलयर पंचिंदिय' हे गौतम ! उरम्परिसर्प स्थलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्थ ग्योनिक जीव दो प्रकार के हैं-'तंजहा' जैसे'जहेव जलपराण' जलचर जीवों के संमूच्छिम और गर्भज के भेद से दो प्रकार बतलाये गये हैं और इन संमूच्छिम गर्भज के पर्याप्त और अपर्याप्त ऐसे दो दो भेद और कहे गये हैं-इसी तरह से उरः परिसो के भी मूल में संमूच्छिम और गर्भज ऐसे दो भेद होते हैं और इनके पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद ले दो दो भेद और हो जाते है-इस प्रकार उर परिसर्पस्थलचरतियंग्योनिकों के चार भेद हो जाते हैं। इसी प्रकार से भुजपरिसों के भी संमूच्छिम और गर्भज के भेद से दो भेद हैं. और इन भेदों के भी प्रत्येक के पर्याप्त और अपर्याप्त ऐसे दो भेद और हैं । ऐसे चार भेद हो जाते हैं। उत्तरमा पुसुश्री ३ छ है 'उरपरिसप्प थलयर पचि दिय' है गीतम! १२:५. रिसपथसयर पथन्द्रिय तिय योनि में प्रा२ना द्या छे. तजहा' त मा प्रभारी छ. म 'जव जलयराणं' सय२७। सभूमि गमन से રીતે બે પ્રકારના કહ્યા છે. અને આ સંમર્ણિમ અને ગર્ભજના પર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્ત એ પ્રમાણેના બન્ને ભેદે બીજા કહ્યા છે. એ જ પ્રમાણે ઉરસ્પરિસર્ષના પણ સંમૂર્ણિમ અને ગર્ભજ એ પ્રમાણેના મૂલ બે જ ભેદે હોય છે. અને તેઓના પર્યાપ્ત અને પર્યાપ્તના બે ભેદથી બીજા બબ્બે ભેદ થઈ જાય છે. એ રીતે ઉર પરિસર્ષ સ્થલચર તિયંગેનિકોના ચાર ભેદ થઈ જાય છે. એ જ પ્રમાણે ભુજ પરિસર્પોને પણ સંમૂચિઠ્ઠમ અને ગર્ભજના ભેદથી બે ભેદ થાય છે. અને એ દરેક ભેદમાં પર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્ત એ પ્રમાણેના બીજા બે ભેદે થાય છે. આ રીતે કુલ ચાર ભેદ થઈ જાય છે,
Page #420
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
जीवाभिगमसूत्र . जलचर स्थलचरान्निरूप्य खेचरपञ्चन्द्रियतियग्योनिकान् निरूपयितुं प्रश्नयन् आह-'से किं तं खहयर' इत्यादि, 'से किं तं खहयरपंचिदियतिरिक्खजो. णिया' अथ के ते खेचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकार, खेचराणां कियन्तो भेदा भव. न्तीति प्रश्ना, उत्तरयति-खहयरपंचिदियतिरिक्खजोगिया दुविहा पन्नत्ता' खेचरश्चपन्द्रियतिर्यग्योनिकाः द्विविधाः-द्विपकारकाः प्राप्ताः-कथिता इति, 'तं जहा' तद्यथा-संमूच्छिमखहयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया' संमूछिमखेचरपञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिकाः, तथा-'गम्भवक्वंतियखहयरपंचिदियतिरिक्खजोणिया य' गर्भव्युत्क्रान्तिकखेचरपञ्चन्द्रियतिर्यग्गोनिकाश्च, तथा च-गर्मजसंमृच्छिमभेदेन खेचरा द्विग्रकारका भवन्तीति । ‘से किं तं संमृच्छिम खहयरपंचिदियतिरिक्खजोणिया' अथ के ते संमृच्छिम खेचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः संमच्छिमखेचराणां कियन्तो भेदा इति प्रश्ना, उत्तरयति- संमृच्छिमखहयरपाचिदियतिरिक्खजोणिया
‘जलचर और स्थलचरों के भेद प्रभेद कहकर अव सूशकार खेचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्यशनि का कथन करते हैं-'ले कि तं खयर पंचिं. दियति' हे अदन्त ! खेचर पञ्चेन्द्रिय नियम्योनिक कितने प्रकार के कहे गये हैं ! 'खबर पंजिदियतिरिक्खजोगिया दुविहा पन्नता' उत्तर में प्रभु कहते हैं-हे गौतम खेचर पञ्चन्द्रिय तिर्यग्घोनिकों के दो भेद हैं'जैसे-समुच्छिमलहवर पंचिदिलि.' संमच्छिन्न पञ्चन्द्रिय तिर्यग्योनिक और 'गमवक लिय खत्थर पंत्रिदिर' गर्भज खेवर पञ्चेन्द्रिय लियोनिक और ले कि तं समुच्छिम खयर पंचिंदिय तिरि०' हे भदन्त ! लंछि खेचद पश्चेन्द्रिय तिर्थरयोनिक कितने प्रकार के हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'लमुच्छिम खयर पंचिंदिय तिरिक्ख जोणिया
જલચર અને સ્થલચરના ભેદો અને પ્રભેદો બતાવીને હવે સૂત્રકાર બેચર પંચેન્દ્રિય તિર્યાનિકેનું કથન કરે છે. આમાં શ્રીગૌતમસ્વામી પ્રભુને मेनु पूछे छ, 'से कि त ख इयरप चिंदियतिरिक्खजोणिया' 3 भगवान् બેચર પંચેન્દ્રિય તિર્યાનિકો કેટલા પ્રકારના હોય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रभु श्रीगीतमाभीने ४९ छ है 'खहयर पचि दिय तिरिक्खजोणिया दुविहा पण्णत्ता', गौतम ! २२ ५.येन्द्रिय तिय योनिडाना मे सेहो थाय छे. रेम ‘स मुच्छिम खहचरपचि दियतिरिक्खजोणिया' सभूरिभ ययन्द्रिय तिय योनिः मते 'गम्भवतिय खहयर पंचिंदियतिरिक्खजोणिया' गमन मेय२ ५येन्द्रिय तिय-योनि४. शथी गौतम स्वामी ५छे छे है ‘से कि त समुच्छिमखहयर पचि दिय तिरिक्खजोणिया' मगन् सभूमि मेयर પંચેન્દ્રિય તિર્યાનિક જી કેટલા પ્રકારના હોય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં
Page #421
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
प्रेमैयद्योति काटीका प्र.३ उ.३ ख.२५ तिर्यग्योनिस्वरूपनिरूपणम् ३९७ दुविहा पन्नता' संमृच्छिमखेचरपञ्चेन्द्रियतिग्योनिकाः द्विविधा:-द्विप्रकारकाः प्रज्ञप्ता:-कथिता इति । 'तं जहा' तयथा-'पज्जत्ता संच्छिमखहयरपंचिदियतिरिक्खजोणिया' पर्याप्तकमूच्छिम खेचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकास्तथा-'अपज्जत्तगसमुच्छिम खहयह चिदियतिरिक्खनोणियाय' अपर्याप्तकसंमृच्छिमखेचरपञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिकाश्च, तथा च-पर्याप्तापर्याप्तमेवेन संमृच्छिा खेचरा द्विविधा भवन्तीति । ते एते संमृच्छिमखेचरा भेहोपभेदाभ्यां निरूपिता इति । 'एवं गन्भवतियाबि' एवं संमूच्छिाखेचरवदेश गर्भव्युत्क्रान्तिकखेचरपञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिका अपि ज्ञातव्याः। शिषपर्यन्त संपूच्छिमप्रकरणान ज्ञातव्यं तत्राह'जाव' इत्यादि, 'जाव पत्तगणवतियाधि अपज्जत्तगणभरतियावि' यावत्पर्याप्तकगर्भव्युत्क्रान्तिका अपि अपातक गर्भव्युत्क्रान्तिका अपि । अयभावः-हे भदन्त ! गर्भज खेवर पञ्चन्द्रियतिय योनिकाः फतिविधा भवन्ति, हे गौतम ! गर्भना द्विविधाः प्रज्ञप्ता, तबथा-पर्याप्तगर्भजखेचराः अपर्याप्तगर्भजखेचराश्चेति । ते एते गर्भजखेचरा निरूपिताः । एते खेचरपञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिका निरूपिता इति ।
सम्पति-खेचराणां प्रकारान्तरेण प्रतिपादनार्थमाइ-खहयर' इत्यादि, दुविहा' हे गौतम ! संसूच्छिन्न खेचर पञ्चेन्द्रिय लिययोनिक दो प्रकार के है-'तं जहा' जैसे-'पजता संनुच्छिन्न खहयर' पर्याप्तक संसूच्छिम खेचर पश्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक और अपजत्ता संच्छिम खयर' अपर्याप्तक संमूच्छिस खेचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यज्योनिक एवं धन्भवतियावि' इसी प्रकार से गर्भज खेचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव भी पर्याप्तक और अपर्याप्तक होते हैं ऐसा जानना चाहिये
अघ खेचर जीवों के दूसरी तरह ले भेदों का प्रतिपादन किया अनुश्री गौतमस्वामीन ४ छ 'समुच्छिम खहयरप चिंदिय तिरिक्खजोणिया दुविहा पण्णत्ता' 3 गौतम ! स भूमि मेयर पयन्द्रिय तिय योनि । में ना जाय छे. 'त' जहा' रेभ. 'पज्जत्तग समुाच्छम खहयर,' पति संभूमि मेय२ ५'यन्द्रिय तिय यानि गने लपज्जात्तग समुच्छिम खहयर.' અપર્યાપ્તક સંમૂચ્છેિ આ ખેચર પચેન્દ્રિય તિર્યંગ્યનિક,
‘एवं गब्भववतिया वि' थे. २५ मारे गम मेयर ५'यन्द्रिय તિર્યનિક જીવ પણ પર્યાપ્તક અને અપર્યાપ્તકના ભેદથી બે પ્રકારના होय छे. तम सभा.
હવે ખેચર જીવના ભેદોનું પ્રતિપાદન બીજા પ્રકારથી કરવામાં આવે છે.
Page #422
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवाभिगमसूत्र 'खहयरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं भंते !' खे वरपञ्चेन्द्रियतिय योनिकानां भद. न्त ! 'काविहे जोणिसंगहे पनत्ते' कतिविधः-कतिपकारकः योनिसंग्रहः योन्या
संपदणं योनिसंग्रहो योन्युपलक्षितंग्रहणमित्यर्थः मज्ञप्ता-कथित इति । भगवानाह__ 'गोयमा' इत्यादि, गोयमा' हे गौतम ! 'तिविहे जोणिसंगहे पन्नत्ते' त्रिविध त्रिपकारको योनिसंग्रहः प्रज्ञप्तः । 'तं जहा' तयथा-'अंडया पोग्या समुच्छिमा' अण्डजा:-अण्डाज्जाता मयूरादयः, पोतना:-बागुल्यादयः, समुच्छिमा:-खञ्ज. रीटादयः। 'अंडया तिचिहा पन्नत्ता' अण्डजा त्रिविधाः प्रक्षता:-कथिताः 'तं जहा' तद्यथा-इत्थीपुरिसा नपुंसगा' स्त्रियः पुरुषाः नपुंसकाः ! पोतया तिविहा जाता है-'खहयर पंचिंदियतिरिक्खजोणिया णं भंते ।' हे भदन्त ! खेचर पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिक जीवों का 'कविहे जोणिसंगहे पण्णसे' योनि संग्रहयोनि रूप से संग्रह कितने प्रकार का कहा गया है ? उत्तर में प्रमुश्री कहते हैं-'गोयमा ! तिविहे जोणिसंगहे पन्नत्ते' हे गौतम! खेचर पञ्चेन्द्रिय तिर्य योनिक जीवों का योनिसंग्रह तीन प्रकार का कहा गया है 'तं जहा' जैसे-'अंडया, पोयया, समुच्छिमा' अण्डज, पोतज, और, संमू. च्छिम इन में जो अण्डे से उत्पन्न होते हैं वे मयूर आदिक अण्डज हैं जो गर्भ से निकलते ही दौड़ने लगते हैं वे वोगुली-चमगादड आदि पोतज हैं और जो माता पिता के संयोग विना ही उत्पन्न होते हैं वे खञ्जरीट पक्षिविशेष आदि संमूर्च्छिम हैं। अंडजा तिविहा 'इन में भी जो अण्डज है-वे तीन प्रकार के होते हैं-'तं जहा' जैसे-'इत्थी, पुरिसा णपुंसगा' श्रीगीतमस्वामी प्रभुने पूछे छे । 'वहयर पचि दिय तिरिक्खजोणिया णं भवे ! भगवन् ! मेयर प येन्द्रिय तिययानि वान। 'कइविहे जोणिसंगहे पण्णत्ते' પેનિસંગ્રહ કેટલા પ્રકારને કહેવામાં આવેલ છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી गीतमस्वामीन ४) 'गोयमा ! सिविहे जोणिसंगहे पन्नत्ते' हे गौतम ! २२ પંચેન્દ્રિય તિર્યનિક જીવને નિસંગ્રહ ત્રણ પ્રકારનો કહેવામાં આવેલ છે. 'त जहा ते ५:१२ २मा प्रभारी छे 'अंडया, पोयया, समुच्छिमा' 1300 પિતજ અને સંમૂરિષ્ઠ મ, આમાં જેઓ ઈડાઓમાંથી ઉત્પન્ન થાય છે તે ઓ અંડજ કહેવાય છે. જેમકે મેર વિગેરે જેઓ ગર્ભમાંથી બહાર આવતં જ દેડવા મંડે છે. તેવા વાળ વિગેરે પિતજ કહેવાય છે. અને માતાપિતાના સંગ વગર જ ઉત્પન્ન થાય છે. તેવા ખંજરીટ-પક્ષિવિશેષ જીવ સંમૂર્ણિમ કહેવાય છે.
__ 'अडजा तिविहा' मामा ५ रेमो भ31 डाय छे, तया ३ ______ ना डाय छे. 'तं जहा' रेभ 'इत्थी पुरिमा णपुसगा' श्री, ५३५, भने
Page #423
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ. ३ सू.२६ पक्षीणां लेश्यादिनिरूपणम्
-
पत्ता' पोतजा स्त्रिविधाः मज्ञप्ताः 'तं जहां' तद्यथात्थी पुरिसाणपुरंसगा' स्त्रिय: पुरुष नपुंसकाश्च । 'तत्य णं जे ते समुच्छिमा से सच्चे णपुंसगा' तत्र तेषु त्रिविधखेचरेषु मध्ये ये ते संमुच्छिमाः पक्षिणस्ते सर्वेऽपि नपुंसका एव भवन्ति संमुच्छिमाना मवश्यं नपुंसकं वेदोदय भावादिति ॥ सु० २५ ||
पक्षीणां लेश्यादिकं दर्शयितुं पश्नयन्नाह - 'एएसि णं' इत्यादि,
1
मूलम् - एएसि णं भंते ! जीवाणं कइलेस्साओ पन्नत्ताओ ? गोयमा ! छल्लेस्साओ पन्नत्ताओ, तं जहा - कण्हलेरसा जाव सुक्कलेस्सा । ते णं भंते ! जीवा किं सम्मद्दिट्टी मिच्छादिट्टी सम्मामिच्छादिट्ठी ? गोयमा ! सम्मद्दिट्ठी विमिच्छादिट्ठी वि सम्मामिच्छादिट्ठी वि । ते णं भंते ! जीवा किं णाणि अण्णाणि ? गोयमा ! णाणि वि अण्णाणी वि तिष्णि णाणाई तिष्णि अण्णाणाई भयणाए । तेणं जीवा किं मणजोगी वयजोगी कायजोगी ? गोयमा ! तिविहा वि । ते णं भंते! जीवा किं सागारोवउत्ता अणागारोवउत्ता ? गोयमा ! सागारोवउत्ता वि अणागारोवउत्ता वि । ते णं भंते! जीवा कओ उववज्जंति किं नेरइएहिंतो उववजंति तिरिक्खजोणिएहितो उववज्र्जति पुच्छा ? गोयमा ! असंखेज्जवासाउय अकम्मभूमिग अंतरदविगवजेहिं तो उववज्जंति तेसि णं भंते! जीवाणं केवइयं कालं ठिई पन्नता ? गोयमा । जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेजइभागं । स्त्री, पुरुष और नपुंसक 'पोतया तिविहा प०' पोतज भी तीन प्रकार के होते हैं- 'तं जहा' जैसे 'इत्थी पुरिसा णपुंगा' स्त्री, पुरुष और नपुंसक 'तत्थ णं जेते संमुच्छिमा ते सव्वे णपुंगा' तथा इन में जो संमूच्छिम खेचर जीव हैं - वे सब नियम से नपुंसक ही होते हैं | ० २५ ॥
३९९
नयु 'पोतया तिविहा पण्णत्ता' पति को पत्र अहारना होय छे, ' जहा 'इत्थी पुरिसा णपुंसगा' स्त्री, ३ष, भने नपुंस, 'तत्थ णं जे दे समासवे पुंसगा' तथा आमां ने छे, ते धान नियमथी नयुसन होय छे. ॥ सू. २५ ॥
सभूमि मेयर
Page #424
--------------------------------------------------------------------------
________________
४००
जीवाभिगमस्थे तेसि पं भंते ! जीवाणं कइ ससुग्घाया पन्नता ? गोयमा ! पंच समुग्घाया पन्नता तं जहा-वेषजालसुग्घाए जाव तेया समुग्घाए । ते णं भले ! जीवा मारणंतिसमुग्घाएण किं समोहया सरंति अलमोहया सरति ? गोयमा ! समोहया वि मरति, असमोहया विसरति ॥ तेणं भले ! जीवा अतरं उवाहिता कहिं गच्छति कहिं उववज्जति ? किं नरइएसु उववजंति तिरिक्खजोणिहसु उवाजांति ? पुच्छा, गोयमा! एवं उवदृणा भाणियमा जहा वकंतीण तहेव । तेलि गं भंते ! जीबाणं कई जाइ कुलकोडीजोणिपसुहस्सयसहस्सा एन्नत्ता ? गोयमा ! बारस जाइ कुलकोडिजोणिपमुहसयसहस्सा पन्नत्ता॥ भुयपरिसप्प थलयरपंचिंदियतिरिवखजोणियाणं भते! कइविहे जोणिसंगहे पन्नन्त ? शायमा ! तिविहे जोणिसंगहे पन्नत्ते तं जहा-अंडया पोयया संमुच्छिमा एवं जहा-खहयराणं तहेव णाणतं जहन्नेणं अंतोमुहुन्तं उक्कोलेणं घुटरकोडी उध्वट्टित्ता दोच्चं पुढविं गच्छति, णव जाइ कुलकोडी जोणीपमुहलयसह स्सा भवंतीति मक्खायं, सेसं तहेव ॥ उरपरिसप्प थलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं भंते ! पुच्छा जहेव भुजपरिसप्पाणं तहेव, णवरं ठिई जहन्लेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुव्वकोडी, उध्वट्टित्ता जाव पंचम पुढविं गच्छति दसजाइ कुलकोडी०॥ घउप्पय थलयरपंचिंदियतिरिकखजोणियाणं पुच्छा गोयमा ! दुविहे पन्नत्ते तं जहा-जराउया, संमुच्छिमाय । से किं तं जराउया ? जराउया तिविहा पन्नता, तं जहा-इत्थीपुरिसा णपुंसगा, तत्थ जं जे ते संमुच्छिमा ते सव्वे णपुंसगा। तेसि
Page #425
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीकाप्र.३ उ.३ २.२६ पक्षीणां लेश्यादिनिरूपणम् ४०१ णं भंते ! जीवाणं कइ लेस्साओ पन्नत्ताओ, से जहा-पक्खीणं णाणत्तं ठिई जहन्नेणं अंतोसुहत्तं उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाई, उव्वट्टित्ता चउत्थि पुढर्वि गच्छंति दलजाइ कुलकोडी । जलयर पंचिंदियतिरिकखजोणियाणं पुच्छा जहा-भुजपरिलप्पा णं, णवरं उव्वट्रित्ता जाव अहे सत्तलिं पुढलिं, अद्धतेरस जाइ कुलकोडी जोणीपमुहसयलहस्सा पन्नता । चरिंदिवाणं भंते ! कइ जाइ कुलकोडी जोणिमुहसयासहरूला पन्नता ? गोशमा ! नवजाइ कुलकोडी जाणीपमुहसबसहरूला भवतीति लमलाया। तेइंदियाणं पुच्छा गोयमा ! अटुजाइ कुल० बाद समक्खाया। बेइंदियाणं भंते ! कह जाइ कुलकोडीपमुहलयसहस्सा पत्ता? गोयमा ! सत्तजाइ कुलकोडी जोणिपमुहसयलहरूसा भवतीति समक्खाया ॥सू०२६॥ .
छाया-एतेषां खल्लु भदन्त ! जीवानां कतिलेश्या यज्ञप्ता ? गौतम ! पडू लेश्या पता:, तद्यया-कृष्णलेश्या यायच्छुकलेश्याः । ते खलु भदन्त ! जीवाः किं सम्यग्दृष्टयो मिथ्या दृष्टयः सम्यग् मिथ्यादृष्टयः ? गौतम ! सम्यग्रहष्टयोऽपि मिथ्यादृष्टयोऽपि सम्यगमिथ्यादृष्टयोऽपि । ते खल्लु भदन्त ! जीराः किं ज्ञानिनो. शानिनः ? ज्ञानिनोऽपि अज्ञानिनोऽपि त्रीणि ज्ञानानि-त्रीणि अज्ञानानि भजनया। ते खलु भदन्त ! जीवाः किं मनोयोगिनो वचोयोगिनः काययोगिनो वा ? गौतम ! त्रिविधा अपि । ते खलु भदन्त ! जीवाः किं साकारोएयुक्ताः, अनाकारोपयुक्ताः ? गौतम ! साकारोपयुक्ता अपि अनाकारोपयुक्ताः, अपि । ते खलु भदन्त ! जीवार कुत उत्पद्यन्ते कि नरयिकेभ्य उत्पद्यन्ते तिर्यग्योनिकेभ्य उत्पद्यन्ते ? पृच्छा गौतम ! असंख्येयवर्षायुष्काकर्मभूमिकान्तरद्वीपकवर्जेभ्य उत्पद्यन्ते । तेषां खछ भदन्त ! जीवानां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? गौतम ! जघन्येनान्तमुहर्तम् उत्कर्षेण पल्योपमस्यासंख्येयभागम् । तेषां खलु भदन्त ! जीवानां कइ समुदघाताः प्रज्ञप्ता ? गौतम ! पञ्च समुद्घाताः प्रज्ञाप्ताः, तद्यथा-वेदनासमुद्घातो यावत्तेजः समुदघातः। ते खलु भदन्त ! जीवाः मारणान्तिकसमुद्घातेन किं समवहता म्रियन्ते असमवहता म्रियन्ते ? गौतम ! समहता अपि नियन्ते असम
जी० ५१
Page #426
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०२
जीवामिगमसूत्र वहता अपि म्रियन्ते । ते खलु भदन्त ! जीवाः अनन्तरमुदत्य कुत्र गच्छन्ति, कुत्रोत्पधन्ते किं नैरयिकेषु उत्पधन्ते तिर्यग्योनिके घूत्पद्यन्ते ! पृच्छा, गौतम ! एव मुद्वर्तना भणितव्या यथा व्युत्क्रान्ती तथैत्र । तेषां खलु भदन्त ! जीवानां कतिजातिकुलकोटियोनिममुखशतसहस्त्राणि मज्ञप्तानि ? गौतम ! द्वादश जाति कुछ कोटि योनि प्रमुखशतसहस्त्राणि प्रज्ञप्तानि । भुजपरिसपस्थटचर पञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिकानां भदन्त ! कविविधौ योनिसंग्रहः अज्ञप्तः ? गौतम ! त्रिविधो योनिसंग्रहः ज्ञप्तः तद्यथा-अण्डजाः पोरजाः संमृच्छिमाः, एवं यथा खेचराणां तश्चैव, नानात्वं जब ये नान्न मुहूर्तमुत्कर्पण पूर्वकोटिः, उदृत्य द्वित्तीयां पृथिवीं गच्छन्ति, नव जाति कुलकोटियोनि प्रमुखशतसहस्राणि भदन्तीत्याख्यातम् शेषं तथैव । उरः परिसर स्थलचरपञ्चन्द्रियतिग्गोनिकानां भदन्त ! पृच्छा, यथैव भुजसाणां तथैव नवरं स्थितिजघन्येनान्तमुहर्तम् उत्कर्पण पूर्वकोटिः॥ उदत्य यावत् पञ्चमी पृथिवीं गच्छन्ति, 'दस जाइकुलकोडि०' चतुष्पद स्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां पृच्छा गौतम ! द्विविधः प्रज्ञासः सघश-जरायुजाः संमूच्छिमाश्च । अथ के से जरायुजाः प्रज्ञप्ताः ? जरायुजाः विविधाः पक्षमा तद्यथा-स्त्रियः पुरुषाः नपुंसकाः तत्र खलु ये ते संमृच्छिमाः ते सर्वे नपुंसकाः । तेषां खलु भदन्त । जीवानां कति लेश्याः प्रज्ञप्ताः ? शेपं यथा पक्षिणाम् नानात्वं स्थितिजघन्येनान्तर्मुहूर्तम् उत्कर्षेण त्रीणि पल्योपमानि उदवृत्य चतुर्थी पृथिवीं गच्छन्ति दशजातिकुलकोटिका जलचरपञ्चन्द्रियत्तियग्यो निकानां पृच्छा यथा भुजपरिसपीणाम् नवरमुदवृत्य यावदधः सप्तमी पृथिवीम् अत्रयोदशजातिकुलकोटियोनिप्रमुखशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि । चतुरिन्द्रियाणां भदन्त ! कतिजातिकुलकोटियो. निप्रमुखशतसहस्राणि ? गौतम | नवजातिकलकोटियोनि प्रमुखशतसहस्राणि भव. न्तीति समाख्यातानि । त्रीन्द्रियाणां पृच्छा, गौतम? अष्टजातिकुल० यावत् समाख्यातानि । द्वीन्द्रियाणां भदन्त ! कतिजातिलकोटि शतसहस्राणि पक्षप्तानि ? गौतम ! सप्तजातिकुलकोटियोनि प्रमुखशतसहस्राणि भवन्तीति समाख्यातानि ॥१० २५॥
टीका-'एएसिणं भंते' एतेषां पक्षिणां खलु भदन्त ! 'जिवाणं कडलेस्साओ पन्नताओ' जीवानां कतिलेश्या:-कियत्संख्यका लेश्याः प्रज्ञप्ला:-कथिता इति
पक्षियों की लेश्यादि का कथन 'एएसिणं भंते ! जीवाणं कालेस्सा ओ-इत्यादि सू० २५॥ टीकार्थ-गौतम ने यहाँ ऐसा पूछा है-'एएसिणं भंते ! जीवाणं
हवे पक्षिसानी वेश्याना मधमा थन ४२वामां आवे छे. 'एएमिण भवे । जीवाणं कइ लेस्साओ पण्णचाओ' त्यहि
ટીકાઈ–શ્રીગૌતમસ્વામીએ આ સંબંધમાં પ્રભુને એવું પૂછયું છે કે
Page #427
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योर्तिका टीका प्र.३ उ.३ सू.२६ पक्षीणां लेश्यादिनिरूपणम् ४०३ प्रश्नः, भगवानाह-'मोयमा' हे गौतम! 'छल्लेस्साओ पनत्ताओ' पहलेश्याः प्रज्ञप्ता:-कथिताः 'तं जहा' तद्यथा-कण्हलेसा जाब मुक्कलेस्सा' कृष्णलेश्यायावच्छुक्कलेश्याः, अत्र यावत्पदेन नीलकापोततेजसपालेश्यानां संग्रहो भवति, पक्षिणांद्रव्यतो भावतो वा सर्वा अपि लेश्या भवन्ति, सथाविधपरिणामसंभवादिति । 'ते णं भंते ! जीवा' ते खल्लु भवन्द ! पक्षिणो जीवाः 'किं सम्मदिट्टि मिच्छा. दिट्टि सम्मामिच्छादिहि' किं सम्यग्दृष्टयो भवन्ति, अथवा मिथ्यादृष्टयो भवन्ति यद्वा सम्यग्मिथ्यादृष्टया (मिश्रष्टयः) भवन्तीति प्रश्ना, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'सम्मदिही वि' पक्षिणः सम्यग्दृष्टयोऽपि भवन्ति 'मिच्छादिट्ठीवि' मिथ्शादृष्टयोऽपि भवन्ति, 'सम्मामिच्छादिट्ठीवि' सम्यग्मिथ्या. दृष्टयः 'मिश्रदृष्टयोऽपि भवन्तीति' 'ते णं भंते जीवा' ते पक्षिणः खलु भदन्त ! कइलेस्साओ पन्नताओ' है भदन्त्य ! इन पक्षियों के कितनी लेश्याएं कही गई ? उत्तर में प्रभुश्री कहते है भाक्ष की अपेक्षा 'गोयमा ! छ लेस्साओ पन्नताओ' हे गौतम! इन पक्षियों के छह लेश्याएं कही गई हैं। 'तं जहा' जैसे-कण्ह लेखा जाय सुकलेस्सा' कृष्ण लेश्या, यावत् नीललेश्या, कापोतलेघा, तेजल लेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या इस प्रकार रहे पक्षियों के द्रव्य की अपेक्षा और भाव की अपेक्षा सभी लेश्याएं होती हैं। क्योंकि इनके इस प्रकार के परिणामों को संभवता हैं। 'ते णं भंते ! जीवा किं सम्मदिट्टी, मिच्छादिट्ठी' हे भदन्त ! वे जीव क्या सम्यग्दृष्टि होते है ? या मिथ्यादृष्टि होते हैं ? या 'सम्मानिच्छादिट्टी मिश्र दृष्टि होते हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोय. मा! सम्माठिी वि' वे सभ्यष्टि भी होते हैं 'मिच्छादिट्टी वि' मिथ्या'एएसि णं भसे ! जीवाणं कइ लेस्साओ पण्णत्ताओ' है मापन ! यक्षिन्माने કેટલી વેશ્યાઓ કહેવામાં આવી છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમસ્વામીને ४ छ । 'गोयमा ! छ लेखाओ पण्णताओं' हे गीतम! २0 पक्षिसाने ७ वेश्यामा वाम मावी छ. 'तं जहा' म 'कण्हलेस्सा जाव सुक्कलेस्सा' કૃષ્ણલેશ્યા નીલલેશ્યા, કાતિલેશ્યા, તૈજસલેશ્યા પલેશ્યા, અને શુકલેશ્યા. આ પ્રમાણે પક્ષિઓને દ્રવ્યની અપેક્ષાથી અને ભાવની અપેક્ષાથી પણ લેશ્યા हाय छे. 'ते णं भंते ! जीवा कि' सम्मदिट्टि' मिच्छादिट्ठी' हे मापन ते । શું સમ્યમ્ દષ્ટિ વાળા હેય છે ? કે મિથ્યા દષ્ટિવાળા હોય છે ? અથવા 'सम्मामिच्छादिदी' मिलिटवाया जाय छ ? म प्रश्न उत्तरमा प्रमुश्री ४ ३ 'गोयया ! सम्मद्धिट्ठी वि' ती सम्यष्टामा ५० डाय छे. 'मिछा दि.
Page #428
--------------------------------------------------------------------------
________________
४०५
जीवामिगमले जीवाः 'किंणाणी अण्णाणी' किं ज्ञानिनो भवन्ति, अथवा अशानिनो भवन्तीति ज्ञानद्वारे प्रश्ना, भगवानाह-'गोयमा' हे गौतम ! 'नाणी वि अन्नाणी वि' ते पक्षिणो जीवा ज्ञानिनोऽपि भवन्ति तथा-अज्ञानिनोऽपि भवन्ति, तिणि नाणाई तिपिण
अण्णाणाई भयणाए' तत्र ये ज्ञानिन स्तेषां त्रीणि ज्ञानानि भवन्ति, तद्यथा-मतिकानं __ श्रुतज्ञानमवधिज्ञानञ्च, तत्र ये अज्ञानिनो भवन्ति तेषां त्रीणि अज्ञानानि भवन्ति मत्य
ज्ञानं श्रुताज्ञानं विभङ्गज्ञानश्चभजनया-विकल्पेनेति। तथाहि-ये शानिनस्ते द्विशानिन त्रिज्ञानिनो वा। येचाज्ञानिनस्तेऽपि द्वन्यज्ञानिन स्यज्ञानिनोवेति भजना। योगद्वारे प्रश्नमाह-'तेणं भंते' इत्यादि, 'ते णं भंते ! जीया' ते पक्षिणः खल भदन्त ! जीवाः किं मणजोगी, वइजोगी फायजोगी' किं मनोयोगिनो भवन्ति वचोयोगिनो दृष्टि भी होते है और सम्माधि' मिश्रदृष्टि भी होते हैं। तेणं मंते ! जीवा किं णाणी अण्णाणी' हे सदन्त ! वे जीव क्या ज्ञानी होते हैं ? या अज्ञानी होते है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा' हे गौतम! वे जीव 'नाणी वि अन्नाणी विज्ञानी भी होते हैं और अज्ञानी भी होते हैं। 'तिनिणाणाई तिन्नि अन्नाणाई लयणाए' इनरें जो ज्ञानी होते है उनके तीन ज्ञान होते हैं-मतिज्ञान, श्रुतज्ञाल और अवधिज्ञान और जो अज्ञानी होते हैं उनके तीन अज्ञान होते हैं मतिअज्ञान, श्रुतप्रज्ञान और विभंगहान वे ज्ञान और अज्ञान इनमें भजना से होते कहे गये हैं। अर्थात्-जो ज्ञानी होते है उनके दो ज्ञान अथवा तीन ज्ञान होते है। जो अज्ञानी होते हैं उनके दो अज्ञाल अथवा तीन अज्ञान होते हैं यह अजना है। 'लेणं भंते ! जीवा किंमणजोगी बहजोगी, कायजोगी' दीवि' भिथ्याष्टिपण५५ डाय छे भने 'सम्मामिच्छादिट्ठी वि' भित्र दृष्टिवाणा डाय छे. 'वे णं भते जीवा कि' णाणी अण्णाणी' 3 लगवन् તે જ શું જ્ઞાની હોય છે? કે અજ્ઞાની હોય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रभु ४९ छ है 'गोयमा' हे गीतम! तेवा ! 'नाणी वि अण्णाणी वि' ज्ञानी ५ हाय है, मन अज्ञानी ५ डाय छे. 'तिन्नि नाणाई तिन्नि अन्नाणाई भयणाए' मामा २॥ ज्ञानी हाय छ, तमान भतिज्ञान, श्रुतज्ञान અને અવધિજ્ઞાન એ ત્રણ જ્ઞાન હોય છે. અને જેઓ અજ્ઞાની હોય છે, તેઓને મતિઅજ્ઞાન, શ્રતઅજ્ઞાન અને વિર્ભાગજ્ઞાન એ ત્રણ અજ્ઞાન હોય છે આ રીતે જ્ઞાન અને અજ્ઞાન તેઓને ભજનાથી હોય છે તેમ સમજવું. અર્થાત જેઓ જ્ઞાની હોય છે, તેઓને બે જ્ઞાન અથવા ત્રણ જ્ઞાન હોય છે, અને જેઓ અજ્ઞાની હોય છે, તેઓને બે અજ્ઞાન અથવા ત્રણ અજ્ઞાન હોય છે. આ રીતે सपना छे. ते ण भते ! जीवा कि' मणजोगी वइजोगी कायजोगी' हे सगवन
Page #429
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र. ३ उं. ३ सु. २६ पक्षीणां लेश्यादिनिरूपणम्
ઈન્દ્ર
भवन्ति काययोगिनो वा भवन्तीति प्रश्नः भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'तिविहा वि' त्रिविधा अपि भवन्ति, ते पक्षिणो मनोयोगिनोऽपि भवन्ति वचोयोगिनोऽपि भवन्ति तथा काययोगिनोऽपि भवन्तीत्युत्त रम् | उपयोगद्वारे प्रश्नमाह - ' ते ' इत्यादि, 'ते र्ण भंते ! जीवा' ते खलु भदन्त ! पक्षिणो जीवाः 'किं सागारोवउत्ता अनागारोवउत्ता' किं साकारोपयुक्ता अनाकारोपयुक्ता वा भवन्तीति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! ' सागारो उत्तावि अनागारोवडचा वि' साकारोपयुक्ता अपि भवन्ति ते पक्षिणो जीवास्तथा - अनाकारोपयुक्ता अपि भवन्तीति । उत्पादद्वारे आह- 'ते भंते! जीवा' ते खलु मदन्त ! पक्षियो जीवश: 'कओ उदवज्जेति' कुतः कस्मारस्थानादागत्य अत्र-पक्षियोनौ समुत्पद्यन्ते, 'किं नेरइए हिंतो उबवज्जंति' कि नैरहे भदन्त ! वे जीव पक्षी क्या मनयोगी होते हैं ? या वचन योगी होते हैं ? या काययोगी होते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु श्री कहते हैं - 'गोयमा ! तिविहा वि' हे गौतम! वे तीनो योगवाले होते हैं । मनोयोग वाले भी होते हैं वचन योग वाले भी होते हैं और काययोग वाले भी होते हैं' 'ते णं भंते! जीवा किं सागारोवसा अनागारोवउत्ता' हे भदन्त ! वे जीव क्या साकारोपयोग वाले होते हैं या अनाकारोपयोग वाले होते हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं 'शोमा ! लागायउता वि अनागारोवत्ता वि' हे गौतम! वे जीव साकारोपयोग वाले भी होते हैं और अनाकारोपयोग वाले भी होते हैं । 'तेणं भंते! जीवा कओ उववज्र्ज्जति' ये भदन्त ! किल योनि में से आकर के यहां जीव पक्षिरूप से उत्पन्न होते हैं ? 'किं नेरइरहितो बच० ' क्या नैरयिकों में से તે જીવા-પક્ષિયે શું મનાયેાગવાળા ઢાય છે ? કે ચનયેગવાળા હાય છે? અથવા કાયચેાગવાળા હાય છે ? આા પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને उ छे ! गोयमा ! तिविहा वि' हे गौतम! तेथे प्राश्ना योगवाजा હાય છે. અર્થાત્ મનેાચેાગવાળા પણ હોય છે, વચનચેગવાળા પણુ હોય છે. અને કાયયેાગવાળા પણુ હાય છે ફરીથી. ગૌતમસ્વામી પૂછેછે કે તે નૅ भते जीवा किं खागारोवत्ता अनागारोवउत्ता' से लगवन् ! ते भवे। शु સાકાર પચેગ વાળા હાય છે ? કે મનાારાપયેગવાળા હાય છે, તે ળ भते जीवा कओ उववज्जंति' हे भगवन् ! ते योनिमांथी भावाने सहियां पक्षि पद्याथी उत्पन्न याय छे ? 'कि' नेरइएहि तो उववजति' शु નૈયિકામાંથી ગાવીને તે જીવા પક્ષિ પણાથી ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા
Page #430
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमसूत्रे
ફે
यिकेभ्य आगत्योत्पद्यन्ते 'तिरिक्खजोणिए हिंदो वनजंति' तिर्यग्योनिकेभ्य आगत्योत्पद्यन्ये ? 'पुच्छा' पृच्छा - प्रश्नः, किं मनुष्येभ्य आगत्योत्पद्यन्ते अथवा - देवगतिभ्य आगत्योत्लद्यन्ते इति पश्नः भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम | 'असंखेजवासाय कम्मभूमिग अंतर दिवगवज्जेर्दितो उववज्जंति' असंख्येयवर्षायुष्काऽकर्म भूमिकान्ठर द्वीपकवर्जेभ्यश्चतुर्गतिभ्य उत्पद्यन्ते, अयं भावःखेचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः नैरयिकेभ्य आगत्य उत्पद्यन्ते, तिर्यग्योनिकेभ्यआगत्योत्पद्यन्ते मनुष्येभ्य आगत्योत्पद्यन्ते देवेभ्य आगत्योत्पद्यन्ते किन्तु असंख्येवर्षायुष्का कर्मभूमिकान्तरद्वीपकमनुष्य तिर्यग्भ्य आगत्य पक्षिषु न समुत्पद्यन्ते तेषां केवल देवगतिमापकत्वात् इति ॥ स्थितिद्वारे प्रश्नमाह- 'तेसिं णं भंते । इत्यादि, 'तेसि णं भते | जीवाण' तषां खलु भदन्त ! जीवानां पक्षिणाम् 'केवडयं कालं ठिई आकर के जीच पक्षिरूप से उत्पन्न होते हैं ? 'तिरिक्खजोणिएहितो उब ० ' तिर्यग्योनि में से आकर के जीव पक्षिरूप से उत्पन्न होते हैं ? या मनुष्यों में से आकर के जीव पक्षिरूप से उत्पन्न होते है । या देवों में से आकर के जीव पक्षिरूप से उत्पन्न होते है ? इस प्रश्न के उत्तर में गौतम ! से कहते हैं - 'गोथमा ! असंखेज्जवासाउथ अम्नभूमिगप्रभु अंतर दीपज्जेदितो उच०' हे गौतम! असंख्यात वर्ष की आयु वाले अकर्म भूमि जीवों को और अन्तर द्वीपज मनुष्य तिर्यञ्चों को छोडकर बाकी नैरथिक तिर्यञ्च मनुष्य और देवों में से आये जीव पक्षीरूप से उत्पन्न होते हैं केवल असंख्यात वर्ष की आयु वाले अकर्मभूमिज जीवों से और अंतरद्वीपज मनुष्य तिर्यञ्चों से आकर पक्षियों में उत्पन्न नहीं होते है क्योंकि वें एक देव गति में ही जाने वाले होते हैं 'लेखि णं भंते | जीवाणं केवइयं कालं ठिई पन्नता' हे भदन्त ! उन तिरिक्त जोणिएहि तो उववज्जति तिर्यग्योनिमेभाथी भावीने पक्षि पाथी ચૈનિકમાથી પણાથી ઉત્પન્ન થાય છે ? કે દેવેમાંથી આવીને જીવ પક્ષિ પણાથી ઉત્પન્ન या प्रश्नना उत्तरमा अलु गौतमस्वामीने आहे हे 'गोयमा ! वासाउय अकम्मभूमिग अंतरदीवग वज्जेहि तो उववज्र्ज्जति ' हे અસંખ્યાત વષૅ ની આયુષ્યવાળા એક ભૂમિના જીવાને અને અંતર દ્વીપ જ મનુષ્ય અને તિય ચોને છેાડીને ખાકીના નૈરયિક તિયચ અને દેવેામાંથી આવેલા
થાય છે ?
अस खेज्ज
गौतम!
つ
જીવે પક્ષી પણાથી ઉત્પન્ન થાય છે કેલ અસંખ્યાત વર્ષની આયુષ્યવાળા અકમ ભૂમિના જીવામાંથી અને અંતરદ્વીપજ મનુષ્ય અને તિય ચામાંથી આવેલા જીવે પક્ષિએમાં ઉત્પન્ન થતા નથી. કેમકે તેઓ દેવ ગતિમાંજ જાય છે, ठिई पण्णा' हे लगवन् ! ते
'तेसि णं भ'ते ! जीवाणं केवइयं काल
Page #431
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रद्योतिका टीका प्र.३ उ. ३ . २६ पक्षीणां लेश्यादिनिरूपणम्
पद्मत्ता' कियन्तं कालं स्थितिः पज्ञप्ता - कथिता इति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'जहन्त्रेणं अंडोमुहुत्तं' जघन्येनान्तमुहूर्त्तमात्रं स्थितिर्भवति पक्षिणाम् 'उक्को सेणं पलिओवमस्स असंखेजइभागं' उत्कर्षेण एल्योपमस्या संख्येवभागम् । समुद्वातद्वारे आह- 'तेसिंणं भने ! जीणं तेषां खल्ल भदन्त ! जीवानाम् 'कइ समुग्धाया पता' कति समुद्धाताः प्रष्ठाः कथिता इति प्रश्न:, भगवानाह - 'पंच समुग्धाया पन्नत्ता' पञ्च समुद्धः ताः प्रज्ञप्ताः, 'तं जहा' तद्यथा'वेणासमुग्धार जान तेयासमुग्धार' वेदना समुद्यातो यावतेज समुद्घातः अत्र यावत्पदेन - कपायमारणान्तिक वैक्रियममुद्धावानां ग्रहणं भवति तथा च-वेदनाकपायमारणान्तिकवैक्रियतैजसाख्याः पञ्च समुद्धता भवन्तीति । ' से णं भंते ! जीवा' ते खलु भदन्त ! जीवाः पक्षिणः 'मारणांतिक समुग्धाएणं किं समोहया मरंति अममोहया मरंति' धारणान्तिकसमुद्घातेन समवहताः सन्तः म्रियन्ते पक्षिजीयों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं' 'गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहतं बकोसेणं पलिओदमस्त असंखे ज्जह भागं' हे गौतम ! उन पक्षिजीवों की स्थिति कम से कम एक अन्तमुहूर्त की और उत्कृष्ट से पत्योपय के असंख्यातवें भाग की कही गई है 'तेसि णं भंते । जीवाणं कह समुग्धाया पन्नता' हे भदन्त ! उन जीवों के कितने समुद्घात कहे गये है ? उत्तर में प्रभु कहते है- 'गोय
पंचमुग्धायापन्नता' हे गौतम! इन जीवों के पांच समुद्घात कहे गये हैं । तं जहा जैसे- 'येघणासमुग्धा ए जाय लेथा समुग्धाए' वेदना समुद्घात यावत् तैजस समुदघास यहां यावत्पद से कषाय समुद्घात, मारणान्तिक समुद्घात और वैकिय समुद्घात इन तीन समुद्घातों का ग्रहण हुआ है 'ते णं भंते ! जीवा मारणंतिय समुग्धा
M
४०७
પક્ષિઓની સ્થિતિ કેટલા કાળની કહેવામાં આવી છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં अनुश्री छेडे 'गोयमा ! जहन्नेणं' अतोमुहुत्त उक्कोसेणं पछिओवमस्स असंखेज्जइ भागं' हे गौतम! ते पक्षि भवानी स्थिति माछामां थेोछी खे અંતમુહૂત ની અને ઉત્કૃષ્ટથી પક્ષેાપમના અસખ્યાતમાં ભાગની છે. ‘ખ્રિ’ णं भते ! जीवाणं कइ समुग्धाया पन्नत्ता' हे भगवन् । ते भवनेि डेटसा सभुद्द्धाता उद्या हे ? उत्तरमा प्रभुश्री गौतमस्वामीने हे छे 'गोयमा ! पंचसमुग्धाया' पण्णत्ता' हे गौतम! आ જીવાને પાંચ સમુધ્ધાત
वामां आव्या छे त जहा' ते या अभाये छे. 'वेयणा समुग्धाए जाव तेयासमुग्धाए' वेढना सभुद्दधात यावत तैक्स समुद्घात, अडियां यावत्यद्दथी જાય સમુદ્ધાત, મારથાન્તિક, સમુદ્દાત અને વૈક્રિય સમુદ્દાત આ ત્રણ
Page #432
--------------------------------------------------------------------------
________________
४०८
जीवामिगमसे असमवहता वा म्रियन्ते इति प्रश्नः, भगबानाह-'गोयमा' हे गौतम ! 'समोहयावि मरंति असमीया वि मरंति' ते पक्षिणो पारगान्तिकसमुद्घातेन समवहता अपि नियन्ते असमवहता अपि नियन्ते इति । उद्वर्तनाद्वारे आह-'ते णं भंते ! जीवा' ते खलु भदन्त ! पक्षिणो जीवाः 'अणंतरं उबहित्ता' अनन्तरं पक्षिभवपरित्यागाद पश्चाउबृत्य 'कहिं गच्छंति कहिं उज्जति' कुत्र गच्छन्ति कुत्रोत्पद्यन्ते कि नेरइएमु उववज्जति तिरिक्श्वजोणिएसु पुच्छा' कि नैरयिकेवृत्पद्यन्ते तिर्यग्यो. निकेषु वा समुत्पद्यन्ते मनुष्यनती वा समुत्पद्यन्ते देवेषु वा समुत्पद्यन्ते इति पश्नः, भगतानाह- 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'एनं उचट्टणा माणियया जहा वक्कंनीए तदेव' एचसुद्वर्तना भणितव्या यथा व्युत्क्रन्तौ प्रज्ञापनायाः एण किं समोहया मरंति, अलमोहया मरंति' हे अदन्त ! वे जीव क्या मारणन्ति समुद्घात कार के भरते हैं ? या विना मारणान्तिक समुदघात के मरते है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयना ! समोहया वि मरंति, अलमोहया चिमति' हे गीतम? वे जीव मारणान्तिक समुद्घात करके भी मरते हैं और बिना मारणान्तिक समुद्रात के भी मरते हैं 'ते णं भंते ! जीवा अणंतरं उन्धट्टित्ता कहिं गच्छंति कहि उपवज्जति' हे भदन्त ! वे जीव भरकर सीधे कहा जाते हैं १ कहां उत्पन्न होते है ? किं रहएस्तु ३०, लिरिक्ख जोणिएसुउ०' क्या नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं या तिर्यग्योनिको में उत्पन्न होते हैं ? अथवा 'मणुस्सेसु' मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते-'गोयमा! एवं उच्चणा आणियचा जहा वकंतीए तहेव' हे गौतम! जिल्ल प्रकार से प्रज्ञापना के छठे व्युत्क्रान्ति पद में समुद्धात अड ४२।१५छे. 'ते ण मते जीवा मारणंतियसमुग्धारण कि समाहया मरंति, असमोहया मरति 8 मावन्ते । शु भारत સમૃઘાત કરીને મરે છે? અથવા મારણાતિક સમુદઘાત કર્યા વિના મારે छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री छे । 'गोयमा! समोहया वि मर ति, असमाया वि मरति' है गौतम! त । भारयान्ति: समुद्धात કરીને પણ મરે છે, અને મારાન્તિક સમુઘાત કર્યા વિના પણ મરે છે, छ. ' भंते ! जीवा अणतर रवट्टिता कहिं गच्छति कई उववज्जति' હે ભગવન ! તે મરીને સીધા ક્યા જાય છે અને કયાં ઉત્પન્ન થાય छ १ 'कि नेरइएसु उववज्जति, तिरिक्खोजिएसु उववज्जत' शुनयिमा उत्पन्न थाय छ १ , तिय योनि भi Gपन्न थाय छ ? अथवा 'मणुरसेसु०' મનુષ્યમાં ઉત્પન્ન થાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે छ ३ 'गोयमा । एवं उव्वट्टणी भाणियबा जहा वक्तीए तहेव' गौतम !
Page #433
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ २.२६ पक्षीणां लेश्यादिनिरूपणम् -- .:--४०९ - षष्ठे व्युत्क्रान्तिकपदे कथिता बथैव-तेनैव प्रकारेण इहापि वक्तव्या, अयं भारःपक्षिभ्य उत्ता जीवाः चतसृष्वपि गतिषु सप्लुत्पद्यन्ते, तथाहि-यदि रयिकेपुत्पद्यन्ते तदा सप्तस्वपि पृथिवीपुत्पद्यन्ते। यदि तिर्यस्पोनिके पुत्पधन्ते सदा एकेन्द्रि: यतिर्यग्योनिकादारभ्य एश्चेन्द्रियतियज्योनिकेषु असंख्येपक्षीयुकेष्वपि त्पा ते यदि मनुष्ये पूत्पद्यन्ते सदा सर्वेषु मनुष्ये पुत्पयनसे, तन्न अर्मभूमिकान्त पिक गर्भव्युत्क्रान्तिकासंख्येयवर्षीयुष्केष्वपि समुत्पद्यते इति ॥ त्यामकरणादजोदतनायामयं विशेषः-पक्षिणामुपादः असंख्य युरेभ्यो मनुष्यतियग्भ्यो न भवति-उद्वर्तनातु असंख्येयवीयुकेषु मनुष्यत्तियक्षु अपि सति, पक्षिणोहि पक्षिलवादुत्त्य असंख्येयवर्षायुकेषु मनुष्यतिर्यक्षु समुत्पयन्से नतु लन आगत्य पक्षिषु समुत्पधन्वे इति भावः । 'तेसिणं भंते । तेषां खलु भदन्त ! 'जीवाणं' जीवानां पक्षिणाम् 'कइ जाइकुल कोडी जोणीरमुहसबसहरमा पनत्ता' ऋतिजाति उतना कही गई है वैसी ही यहां पर भी काट लेनी चाहिये तथा च पक्षियों में से मरा हुआ जीन चारों गलियों में भी उत्पन्न हो जाता है-यदि वह नैरयिकों में उत्पन्न होता है तो तीलरी धिमी तक में उत्पन्न हो सकता है, यदि वह तिर्य गति में उत्पन्न होता है तो इ एकेन्द्रिधतिर्यज्योनिकों से लेकर पञ्चेन्द्रिय दिई योनिकों, उसे भी असं. ख्येय वर्षायुष्य बाले लिचो में भी उत्पन्न हो सकता है यदि वह मनुष्यों में उत्पन्न होता है अर्थात् अख्यात वर्ष की आयुगले मोग भूमि के मनुष्यों में और अन्तर द्वीप के गर्भन मनुष्यों में भी उत्पन्न होता है 'तेसिं णं भंते !' हे भदन्त ! उन पक्षिरूप 'जीवाण' जीदों की 'कति जातिकुलकोडी जोणीपमुहसयसहस्सा पत्ता कितने लाख जाति પ્રમાણે પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના છઠા વ્યુત્ક્રાંતિ પદમાં ઉદ્ધના કહેવામાં આવી છે, એ જ પ્રમાણે અહિયાં પણ ઉદ્વર્તન સમજી લેવી.
તે આ પ્રમાણેની છે. પક્ષીમાંથી મરેલા જે ચારે ગતિમાં ઉત્પન્ન થઈ શકે છે. જે તેઓ નૈરયિકમાં ઉત્પન્ન થાય તે ત્રીજી પૃથ્વી સુધી માં ઉત્પન્ન થઈ શકે છે. અને જે તેઓ તિય ગતિમાં ઉત્પન્ન થાય છે તે એક ઈદ્રિયવાળા તિયાનિકેથી લઈને પંચેન્દ્રિય તિર્યાનિકે માં અને તેઓ માં પણ અસંખ્યાત વર્ષની આયુષ્યવાળા તિર્યંચમાં પણ ઉત્પન્ન થઈ શકે છે. જે તે મનુષ્યમાં ઉત્પન્ન થાય તે બધાજ મનુષ્યમાં ઉત્પન્ન થાય છે. અર્થાત અસંખ્યાત વર્ષની આયુષ્યવાળા ભેગભૂમિના મનુષ્યમાં અને અંતર દ્વીપના ગર્ભજ भनुध्यामा ५५ लत्पन्न थाय छे. 'तेसि णं भवे' 3 भगवन् ते ५क्षि ३५ 'जीवाणं' वानी 'कति जाति कुलाकोडी जोणी पमुहसयसहस्सा पणत्ता'
जी० ५२
Page #434
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
जीवामिगमदो कुलकोटियोनि प्रमुख शतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि, पति किं प्रमाणकानि जाति कुलकोटिनां योनिपमुखालि-योनिश्वाहानि शतसहस्वाणि योनिममुग्वशतसहस्राणि जाति कुलकोटियोनिप्रमुखशतसहस्त्राणि भवन्तीति घश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'वारस जाइकुल कोडी जोणी पशुहसयसहस्सा पन्नत्ता' द्वादश जाति कुल कोटि योनिप्रसुख शवतत्राणि प्रज्ञप्तालि, तत्र जासि कुल कोटि योनिनामयमर्थ:-जातिरिति तिर्यग्जावितस्याः कुलानि कृषिकीटवृश्चिकादीनि इमानि च कुलानि योनिप्रमुखाणि-तथाहि-एकस्यामेव योनौ अनेकानि कुलानि भवन्ति तथाहि-छगणयोनों कृषिकुलं कीटकुलं वृश्चिकुल मित्यादि, अथवा-जातिकुलमित्येकपदं-जातिकुलवोन्योश्च परस्परं विशेषः, एकस्यामेव योनी । कुलकोडी योनि काही गई हैं ? इसके उत्तर में पसुश्री करते हैं-'गोयमा! पारस जाइ कुलकोडी जोगी पहलयलहला पन्नता 'हे गौतम! उनकी बारह लाख योनिममुख कुलकोडी कही गई है। जाति कुल कोटि योनियों का अर्थ इस प्रकार से है-जालि से यहां तिथंग आदि जाति ली गई है और इस जाति के जो कृमि फीट वृश्चिक आदि जीव है वे कुल शब्द से लिये गये हैं। तथा इनकी जो योनि-उत्पत्ति स्थान है वे योनि शब्द से लिये गये हैं। एक ही योनि में अनेक कुल होते हैं। जैसे-छगण-गोबर-रूप योनि में कृषिकुल, फीट कुल एवं वृश्चिक कुल आदि होते देखने में आते हैं । अथवा-जातिकुल यह जब एक पद लिया जाता है और योनि अलग पद लिया जाना है तब जाति कुल और योनि इसमें भिन्नता आजाती है क्योंकि एक ही योनि में કેટલા લાખ જાતી કુલકેટીની કહી છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે हैं 'गोयमा! पारस जाइ कुलकोडी जोणी पमुइसयसहस्सा पन्नता' है गौतम! તેઓની બાર લાખ મેનિપ્રમુખ કુલકેટી કહેવામાં આવી છે. જાત કુલ કેટીને અર્થ આ પ્રમાણે છે. જાતી શબ્દથી અહિયાં તિર્યગૂ વિગેરે જાતી ગ્રહણ કરવામાં આવી છે. અને જાતીના જે કૃમી, કીડા, વૃશ્ચિક વીંછી. વિગેરે જીવે છે, તેઓ કુલ શબ્દથી ગ્રહણ કરવામાં આવ્યા છે. તથા તેઓની જે
નિ ઉત્પત્તિસ્થાન છે, તે નિ શબ્દથી ગ્રહણ કરેલ છે એકજ એનીમાં અનેક કુલ હોય છે. જેમકે છાણ, રૂપ યોનિમાં કૃમિકુલ કીટકુલ, અને વૃશ્ચિક કુલ વિગેરે ઉત્પન્ન થતા જોવામાં આવે છે અથવા જાતિકુલ એ એક પદ જ્યારે ગ્રહણ કરવામાં આવે છે, અને યોનિ, જૂદા પદ રૂપે ગ્રહણ કરવામાં આવે છે, ત્યારે જાતિ કુલ અને નિ એમાં જદાઈ આવી જાય છે. કેમકે એક જ નિમાં અનેક જાતિ કુલોને સંભવ હોય છે. જેમકે એકજ
Page #435
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ ६.२६ पक्षीणां लेश्यादिनिरूपणम्
अनेक जाविकुल संवाद तद्यथा - एकस्यामेव छगणयोनौ कृतिजातिकुलं कीटणातिकुलं वृथिकजातिकुलमित्यादि, एवं चैकस्यामेव योनौ अवान्तर जाति भेदभावादनेकानि योनि प्रवाहाणि जातिकुलानि संभवन्तीत्युत्पद्यन्ते खेचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिजानां द्वादशजातिकुलकोटियोनि प्रमुखशतसहस्राणि । अत्र भवति संग्रहणी गाथा---
'जोणी संगइलेस्सा दिट्ठी नाणे य जोग उनओगे । उपचाय ठिई समुग्धाय चपणं जाई कुल बिदीउ' ॥१॥ योनिसंग्रहलेश्या दृष्टचो ज्ञानं च योगोपयोगौ । उपपावस्थितिसमुद्घाताश्चवनं जातिकुल विधिस्तु ॥ इति च्छाया, ॥ अस्या अर्थ:- खेचरपञ्चेन्द्रयतिर्यग्योनिकानां प्रथमयोनिसंग्रहद्वारं ततो अनेक जातिकुलों का संभव होता है । जैसे- एक ही छगण (गोबर) रूप योनि में कृषि जाति कुल, फीट जाति कुल, वृश्चिक जाति कुल आदि प्रत्यक्ष देखने में आते हैं। इसी तरह एक ही योनि में अवान्तर जाति भेद के सद्भाव से अनेक योनि प्रवाह वाले जाति कुल होते हैं। इस तरह से खेचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनि के जीवों की बारह लाख जाति · कुल कोटि है । इन द्वारों के विषय में संग्रहणी गाधा ऐसी है'जोणी- संगह लेस्सा-दिट्ठी नाणेय जोग उचओगे, उपवाटिई समुग्धाय चयणं जाई कुल बिहीउ ॥१॥
इस गाथा का भाव ऐसा है - खेचर पञ्चेन्द्रियों का प्रथम योfa संग्रह द्वार, फिर बेहया द्वार, फिर दृष्टि द्वार फिर ज्ञान द्वार फिर योग द्वार, फिर उपयोग द्वार फिर उपपात द्वार फिर स्थित द्वार, फिर समु. છાણુ રૂપ ચેનમા કૃમિજાતિસ્કુલ, કીટજાતિકુલ, વાશ્ચિક જાતિકુલ, વિગેરે વિગેરે પ્રત્યક્ષ દેખવામાં આવે છે. એજ પ્રમાણે એક જ ચાનીમાં અવાન્તર જાતિ ભેદના સદ્ભાવથી અને ચેાનિના પ્રવાહવાળા જાતિકુલા હાય છે. આ રીતે ખેચર ૫'ચેન્દ્રિયતિય ચૈાનિક જીવાની ખાર લાખ જાતિકુલ કેટિ છે. આ દ્વારાના વિષયને સગ્રહું કરવાવાળી ગાથા આ પ્રમાણે છે.
'जोणी सांगलेस्सा दिट्ठी नाणे य जोग उवओगे
' उवाच ठिई समुग्धाय, चयणं जाई कुल विहीर' ॥ १ ॥ આા ગાથાના ભાવ એવા છે કે, ખેચર પ'ચેન્દ્રિયાનુ પહેલુ ચેાનિસ ગ્રહ દ્વાર, તે પછી લૈશ્યા દ્વાર, તે પછી દૃષ્ટિદ્વાર, તે પછી જ્ઞાનદ્વાર, તે પછી ચાગદ્વાર, તે પછી ઉજ્યેાગદ્વાર, તે પછી ઉપપાતદ્વાર તે પછી સ્થિતિદ્વાર,
Page #436
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमस्टे लेण्याद्वारं ततो दृष्टिद्वारं ततो ज्ञानद्वारं ततो योगद्वारं तत उपयोगद्वारं तत. उपपातद्वार; ततः स्थितिद्वारं ततः समुद्घातद्वारं ततश्च्यवनद्वारं ततो जातिकुलकोटिद्वारम् । - भुयपरिसप्पथलयरपंचिदिय तिरिक्ख जोणियाणं भंते' भुजपरिसर्पस्थळचर पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां खलु भदन्त ! 'कइविहे जोणि संगहे पन्नत्ते' कति विधः - कतिपकारको योनिसंग्रहः प्रज्ञप्त:-सथितः, इति प्रश्न:, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'तिविहे जोणिसंगहे पन्नत्ते' भुजपरिसणां निविधः-त्रिप्रकारको योनिसंग्रहः प्रज्ञप्त:-कथितः, 'तं नहा' तद्यथा-'अंडया पोयया समुच्छिमा' अण्डजाः पोखजाः संमूच्छिमाश्च । 'एवं जहा खहयराणं तहेव' एवं यथा खेचराणां पक्षिणां लेश्यादिकं कथितं तथैव निरक्शेष भुजपरिसर्पस्थळ चराणामपि वक्तव्यम् । केबलं स्थित्युदर्तनाबुलकोटिषु नानात्वं वक्तव्यम्, तदेव 'दर्शयति-'णाणत्त' इत्यादि, 'जाणतं' नानात्वं पूर्वापेक्षया भेदः, तत्र स्थितिः
द्घाल बार, फिर च्यवन बार और फिर जाति कुल कोटि द्वार है. अर्थात् खेचर पञ्चेन्द्रिय तिर्थोनिक जीवों का इन हारों के द्वारा वर्णन किया गया है।
'भुथ परिसप्पथलबापंचिदिधतिरिक्खजोणियाणं भंते ! 'हे भदन्त ! सुजपरि सर्पपलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकों का 'इविहे जोनिसंगहे पन्नत्ते' कितने प्रकारका छोनिलंग्रह कहा गया है ? इलने उत्तर प्रभुश्री कहते हैं-'गोधमा ! तिषिहे जोणिसंगहे पन्नत्ते' इनका योनिसंग्रह तीन प्रकार का कहा गया है। 'तंजहा' जैसे-'अंडया पोयया, समुच्छिम्ला' अंडज, पोलज और संञ्चिल एवं जहा सहाराण तहेव' जिस प्रकार रहे लेबर पक्षियों के सम्बन्ध में लेश्यादिक द्वार को कथन તે પછી સમુઘાતકાર અને તે પછી જાતિકુલ કેટી દ્વાર છે, અર્થાત્ બેચર પંચેન્દ્રિય ઉતર્યાનિકનું વર્ણન આ ગાથા દ્વારા કરવામાં આવેલ છે.
'सुयपरिसप्प थलयरपचि दिय तिरि खजोणियाणं भवे' 3 मपन् सुर परिस५० श्यय२ पश्यन्द्रिय तिय योनिन 'कइविहे जोणिसंगहे पण्णत्ते' यानिस घडडेट रन १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री गीतमामी ४३ छे है 'गोयमा ! तिविहे जोणिसंगहे पण्णत्वे' हे गौतम ! तमान योनिसंग्रह त्रय प्रारी वामां मावेश छ. 'तं जहा' भई 'अॅडया, पोयया, समुच्छिमा' भ3, पोतन, मन सरिभ ‘एवं जहा सहयराण तहेव' २ प्रमाणे मेयर' पक्षियोना समयमा लेश्या विगैरे દ્વારેનું કથન કરવામાં આવેલ છે, એ જ પ્રમાણે તે સઘળા દ્વારનું કથન
Page #437
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रद्योतिका टीका प्र. ३ . ३ . २६ पक्षीणां लेश्यादिनिरूपणम्
'जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्को सेणं पुन्त्रकोडी' भुजपरिसर्पाणां स्थितिर्जघन्येनान्तर्मुहूर्तम् उत्कर्षेण पूर्व कोटिममाणा भवतीति । उद्वर्त्तना - 'उट्टित्ता दोच्चं पुढवि गच्छति' उद्वृत्य भुजपरिसर्षात् निर्गत्य द्वितीयां शर्कराभां पृथिवों गच्छन्ति उपरि यावत् सहस्रारकल्पं गच्छन्तीति । 'णवजाइकुलकाडी जोणीपमुहसयसहस्सा भवंतीति मक्खाय' तेषां भुजपरिसर्पाणां नवजा विकुक कोटियोनिममुखशतसहस्राणि भवन्ति, इत्येवमाख्यातम् 'सेसं तहेब' शेषं नवरमित्यादिना यत्कथितं तदतिरिक्तं श्यादि द्वारजातं तथैव-पक्षिवदेव भुजपरिसर्पाणामपि ज्ञातव्यमिति ।
४१३
'उरपरिसप्पथलयर पंचिदिय रिक्खजोणियाणं भते ! पुच्छा' उरः परिसर्पस्थलचरपञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकानां खल्ल भदन्त ! कतिविधो योनिसंग्रह प्रज्ञप्तः १ कहा गया है वैसा ही वह सब यहां पर भी कहलेना चाहिये णाणत्तं' केवल स्थिति में वन उर्त्तना में और कुल कोटि में इन द्वारों में भिन्नता है सो अब सूत्रकार इसी बात को प्रकट करते हैं- 'जहन्नेणं अंतोमुद्दत्तं उक्कोसेणं पुरुषकोडी' सुजपरिसर्प तिर्यग्योनिकों की स्थिति जघ न्य तो अन्तर्मुहुत्ते की है और उत्कृष्ट पूर्वकोटि की है, 'उम्बट्टित्ता दोच्च पुढवि गच्छति' सुजपरिवर्प की पर्याय से च्युत होकर ये नीचे को सीधे द्वितीय शर्करा पृथिवी तक जाते हैं । और ऊपर में सहस्रार देवलोक तक जाते हैं 'नवजातिकुल कोडीज जीपमुह सयलहस्सा भवतीतिसमक्खाया' इन भुज परिरूपों की कुल कोटियाँ नौं ९ लाख होती है। 'सेसं तहेव' बाकी का और सब बेश्यादि द्वारों का कथन इन मुजपरिसर्पों के सम्बन्ध का पक्षियों के कथन के जैसा ही है । 'उरपरिसप्पथलयरपंचिदिय तिरिक्खजोणिया णं भंते! पुच्छा' हे भदन्त !
मडिया पाणु समल सेवु. 'जाणते' ठेवण स्थितिद्वार, व्यवनद्वार, उद्वर्तना દ્વાર, અને કુલકૅાટિ દ્વારમાં ભિન્નપણુ આવે છે. જેથી હવે સૂત્રકાર એ જ बात अगर भरे छे. 'जहणेणं अतोमुडुत्त उक्कोसेणं पुव्वकोडी' परिसर्प વાત પ્રગટ કરે તિય ચૈાનિકાની સ્થિતિ જઘન્યથીતેા અંતર્મુહૂત'ની છે, અને ઉત્કૃષ્ટથી પૂ डोटीनी छे. 'उव्वट्टित्ता दाच्च पुढवि गच्छति' परिसर्पानी पर्यायथा व्यवीने તેઓ સીધા નીચેની ખીજી શકરાપ્રભા પૃથ્વી સુધી જાય છે. અને ઉપરમાં सहुसार देवो! सुधी लय हे. 'णव जातिकुल कोड़ी जोणी पमुइसय सहस्सा भवतीतिमखाया' २॥ लुभ परिचर्यानी साथ होय छे. 'सेस' तद्देव' माडीना देश्या द्वार विगेरे सधणा द्वारा संबंध स्थन मा ભુજ પરિસર્યાંના સંબંધના કથન પ્રમાણે જ छे. 'उरपरिसप्पथलयर पंचि
Page #438
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमस्से इति प्रश्नः, उत्तरयति-'जहेव भुपपरिसप्पाणं तहेव' यथैव भुजपरिसणां लेश्यादिकं कथितं तथैव- तेनैव रूपेण उर परिसर्पस्थलचरपञ्चेन्द्रियाणामपि ज्ञातव्यम् । तथाहि-त्रिविधो योनिसंग्रहः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-अण्डजाः, पोतना, समूर्छिमाश्च । शेषद्वाराण्यपि भुजपरिसर्परदेव व्याख्ये यानि । ___यत्र विशेष स्तमाह-'गदर' इत्यादि, 'गवरं ठिई जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं पुचकोडी' नवरं-विशेषस्त्वयम्-उर-परिसपणां स्थितिघन्येनान्तर्मुहूत्तम् उत्कर्षण पूर्वकोटिममाणा भवतीति । 'उहिता जार पंचमि पुढवि गच्छति' उस परिसर्पजीवा उ परिसभ्य उदृत्य पश्चनीं धूममभापृथिवी गच्छन्ति, इति । 'दसजाइकुळकोडी' उर:-परिसपानीवानां दशजातिकुलकोटियोनिप्रमुखशतउरःपरिसर्प स्थलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यक् योनिक जीवों का योनि संग्रह कितने प्रकार का है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'जहेष भुयपरिसप्पा णं तहेव' हे गौतम जैसा योनि संग्रह भुजपरिक्षों का कहा गया है वैसा ही वह यहां पर भी है अर्थात् यहां वहां की तरह योनि संग्रह तीन प्रकार का कहा गया है और वह अंडज, पोतज और संमूच्छिम रूप है। शेष लय द्वार भी भुजपरिसों के जैसे कहना चाहिये जिन बोरों में भिन्नता है उन द्वारों को बाहते हैं-'नवरं' इत्यादि, 'नवरं ठिई जहन्नेणं अंतोनुहुतं उझोसेणं पुचकोडी' यहां उरःपरिसॉं' की स्थिति जघन्य ले एक अन्नर्मुहर्त की और उत्कृष्ट से पूर्व कोटि प्रमाण है 'उध्वहिता जाय पंचमि पुढधि गच्छंति' से मरकर के पांचवी नरक पृथिवी लक जाते हैं - दलजानी लक्षोडी' इनकी कुल कोटियाँ दिय तिरिक्खाणियाणं भसे ! पुच्छा' है मगवन् । ७२.परिसय २५सयर પંચેન્દ્રિય તિર્યનિક જીવને નિસંગ્રહ કેટલા પ્રકાર છે? આ પ્રશ્નના उत्तम असुश्री छ 'जहेव भुयपरिसप्पाणं तहेव' गौतम ! सुपरिसना નિસંગ્રહ જે પ્રમાણે કહેલ છે, એ જ પ્રમાણે તે અહિંયાં પણ સમજ અર્થાત્ ત્યાંની માફક અહિંયા પેનિસંગ્રહ અંડજ, પિતજ, અને સંમૂચ્છિમ એ રીતે ત્રણ પ્રકારને કહેલ છે. તથા બાકીના સઘળા દ્વારે પણ ભુજ પરિ सानी भर सभल सेवा. २ द्वारामा हा मावे छ, ते द्वारा 'नवरं'
याहि सूत्रा द्वारा ४ छे 'नवरं ठिई जहण्णेण अतो मुहुत्तं उक्कोसेणं पुबकोडी' मडिया 8२:५रिसानी स्थिति धन्यथा से मतभुनानी भने यी पूर्व पाटि प्रभानी है. 'उध्वट्टित्ता जाव पचमि पुढवि गच्छति' से भरीने पायभी न२४ पृथ्वी सुधीनय छे. 'दस जाती कुलकाडी.' तमानी
Page #439
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ १.२६ पक्षीणां लेश्यादिनिरूपणम् सहस्राणि भवन्तीति। 'चउपायथलयरपंचिंदियतिरिक्खनोछियाणं पुन्छ।' चतुष्पद स्थलचरपञ्चेन्द्रियमियज्योनिकानां भदन्त ! कतिविधो योनिसंग्रहः प्रज्ञप्त इति प्रश्नः, भगदानाह-'गोयमा' हे गौतम ! 'दुविहे पन्ना द्विविधो-द्वि प्रकारको योनि. संग्रहः प्रज्ञप्त:-कथित इति, 'तं जहा बघथा-'जराउया संमुच्छिमाय' जरायुजाः संमुछिमाश्य, अत्र ये अण्डजव्यतिरिका भन्स्क्रान्तिकारते सर्वे जरायुजा इति ।
अत्र जरायुजपोवजयो रूत्पत्तिस्थानस्य समानत्वात् जरायुजानां बाहल्याच नाम्ना एकत्र गृहीतः पोतमोऽनान्तर्गत इति न विवक्षित इति । 'से कि तं जराउया, दस लाख है। 'चउपयथल पर पबिंदिय तिरिक्खजोणियाण पुच्छा है भदन्त ! चतुष्पदस्थलचर पश्चेन्द्रिय तिर्थग्योनिकों का योनि संग्रह कितने प्रकार का है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! दुविहे पन्नते है गौतम! इनका योनिसंग्रह दो प्रकार का फाहा गया है 'तं जहा' जैसे'जराउया य समुच्छिमाथ' जरायुज्ज और संमूछिन यहां अण्डज से भिन्न जितने भी गर्भज हैं वे था तो जरायुज होते हैं या पोलज होते हैं। चतुष्पदस्थलचर पञ्चन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव अण्डज नही होते है खेचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्बोनिक जीव ही अण्डज होते हैं। इसलिये चतुष्प दस्थलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च जीव या तो गर्मज होगे या पोतज होंगे या संच्छिम होंगे पर यही जो दो प्रकार का योनि संग्रह कहा गया है वह जरायुज और पोतजों का उत्पत्ति स्थान समान होने से तथा जरायुजों की वाहल्यता को लेकर एक जरायुज नाम का भेद ही ग्रहण इसी सामनी छे. 'चउप्पयथलयर पंचि दिय तिरिङ्गखजोणियाणं पुच्छा' હે ભગવન ચતુષ્પદ સ્થલચર પંચેન્દ્રિય તિર્થનિકોને નિ સંગ્રહ કેટલા પ્રકાર ना छ ? या प्रश्न उत्तरमा प्रभु छ । 'गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते' गौतम । तेमानी योनिस यह मे ४ रनो वामां आवेत . त जहाँ' भ 'जराउयाय समुच्छिमाय' युद्ध मन स भूमि मिडियां Anी हा જેટલા ગર્ભજ જીવે છે, તેઓ યાતો જરાયુજ હોય છે, અથવા પિતજ હોય છે.
ચતુષ્પદ સ્થલચર પંચેન્દ્રિય તિર્યંચેનિક જી અંડજ હતા નથી, ખેચર પંચેન્દ્રિય તિર્યનિક જીવેજ અંડજ હોય છે. તેથી ચતુષ્પદ સ્થલચર પંચેન્દ્રિય તિર્યનિક જીવ ગર્ભ જ હોય છે, અથવા પિતજ હેય કે સંમરિસ હોય છે. પરંતુ અહિંયાં જે બે પ્રકારને નિસંગ્રહ કહેલ છે, તે જરાયુજ અને પિતાના ઉત્પત્તિ સ્થાનની સરખા હોવાથી તથા જરાયુજેન બહલપણાને લઈને એક જરાયુજ નામને ભેદ જ ગ્રહણ કરેલ
Page #440
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमस्त्र ___अथ के ते जरायुजाः, जरायुनानां कियन्तो भेदा इति प्रश्ना, भगवानाह'गोयमा' हे गौतम ! 'जराउया तिविड़ा पानता' जरायुजास्त्रिविधा:-भिप्रकारका: प्रज्ञप्ता:-कथिता इति । 'तं जहा' तथथा-'इस्तीपुरिसा णपुंमगा' स्त्रियः पुरुषा नपुसकाश्च । 'तत्थ ण जे ते संच्छिमा से सब्वे णपुंसगा एद' तत्र खलु ये से संम् च्छिमास्ते सर्वेऽपि लघुसका एव भवन्ति नतु त्रिवः पुरुषावेति नियमत स्रोपां नपुं. सकवेदोक्ष्यादिति । 'तेसिणं मते ! जीवाणकाइ लेस्सामी पन्नत्ताभो' तेषां खल भदन्त ! चतुष्पदस्थळचरजीवानां कतिलेश्याः-झियत्संख्यकाः लेवाः प्रज्ञप्ता:करिता इनि पाए: उत्तरपति-'सेसं जहा परवीणं' शेष यथा पक्षिणाम्, किया गया है। पोलज भेट हलके अनर्गत हो ही जाता है इसलिये यहां उल्लकी विवक्षा नहीं की है। इसीलिये यहां से किं तं जराउया' जरायुजों के कितने प्रकार हैं ऐल्ला प्रश्न गौतम ने किया है ! उत्तर में प्रभु कहते हैं-जहाउपातिविता परता' जरायुज तीन प्रकार के कहे गये हैं 'तं जहा' जम्ने-'हस्थी, पुरिसा, णपुलगा' खी, पुरुष
और नपुसक. जरायुज था तोश्री वेद बाले होते हैं या पुरुष वेद वाले होते हैं या नपुंसक वेदवाले होते है-इस तरह से जरायुज जीव तीन प्रकार के कहे गये हैं। 'तस्थ पंजे से समुच्छिमा ते सव्वे णपुंसगा एव' उनमें जो संमूछिय जीव होते हैं वे नियम से नपुंसक ही होते स्त्रीवेद वाले या पुरुषवेद वाले नहीं होते है। तेसि गं भंते ! जीवाणं का लेस्लाओ पनत्तानो' हे अदन्त ! उन चतुष्पद स्थलचर जीवों के कितनी लेश्याएं होती हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'सं जहा पक्खी છે. પિતજ રૂપી ભેટ તેની અંતર્ગત થઈ જ જાય છે. તેથી તેની વિવક્ષા અહીં ४३६ नथी. तथा महियां से किं त जरायुउया' ०४२युलना मा २४क्षा છે? આ પ્રમાણેને પ્રશ્ન શ્રીતમસ્વામીએ પૂછેલ છે આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં असुश्री 'जराउया तिविहा पण्णत्ता' हे गौतम नरायु प प्रारना हाय छे. 'त' जहा' म 'इत्थी, पुरिला, णपुसगा' श्री, धु३५, अन न જરાયુજ કાંતે સ્ત્રીવેદ વાળા હોય છે, અથવા પુરૂષદવાળા હોય છે, અથવા નપુંસક વેદવાળા હોય છે. આ રીતે જરાયુજ જીવે ત્રણ પ્રકારના કહેવામાં
माया छ, 'तत्थ णं जे समुच्छिमा से सव्वे णपुसगा एव' तभी 71 સંમઈિમ જ હોય છે, તેઓ નિયમથી નપુંસક જ હોય છે. સ્ત્રી વેદવળા अथपा ३५वेवाण नथी 'सिणं भरे जीवाणं कई लेस्सायो पण्णत्ताओं' હે ભગવન્તે ચતુષ્પદ સ્થલચર જીને કેટલી લે શ્યાઓ હોય છે ? આ प्रश्न उत्तरमा प्रमुश्री गौतमस्वामीन ४ छ 'सेस जहा पक्खीण' 8
Page #441
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ १.२६ पक्षीणां लेश्यादिनिरूपणम् ४१७ चतुष्पद स्थलचरजीवानां कृष्णनीलादिकाः पडवि लेश्या भवन्ति दृष्टयादि द्वाराणि पक्षिवदेव चतुष्पदस्थलचरजीवानामपि ज्ञातव्यानीति । खेचरापेक्षया चतुष्पदस्थलचराणां यद्वैलक्षण्यं तत् स्वयमेव दर्शयति-जाण तं' इत्यादि, 'णाणत्तं' नानात्वं भेदः, इयम्-'ठिई जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं लिचि पलिओवमाई चतुष्पदस्थलचरपञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिकानां स्थितिर्जघन्येनान्तर्मुहूर्त उत्कर्षण त्रीणि पल्योपमानि । 'उचट्टित्ता चउत्थि पुढवि गच्छंबि' इमे चतुष्पदस्थल चरजीवाः उदृत्य चतुर्थी पङ्कमभापृथिवी पर्यन्त गच्छन्तीति ततः परतरपृथिव्यां तेषां गमनाभावादिति ॥ 'दसजाइकुलकोडी' दसजातिकुलकोटियोनि प्रमुख शतसह.
' हे गौतम ! चतुष्पदथलचर जीवों के कृष्ण वेश्याएं होती हैं। दृष्टि आदि द्वारों सम्बन्धी कथन यहां पक्षि प्रसरण के जैले ही समझना चाहिये पर खेचरों की अपेक्षा जो चतुष्पदस्थ लचर के स्थिति उत्तमा
और योनिसंग्रह इन द्वारों में भिन्नता है-वह इस प्रकार है-'जाणतं' इस सूत्र द्वारा यही बात समझाई जा रही है-ठिई जहन्ने णं अंतोसुकृतं उक्कोसेणं तिमि पलिओवमाई' यहां स्थिति जघन्य ले एक अन्तर्मुहूर्त की है और उस्कृष्ट से तीन पल्योपम की है ये 'उध्वट्टित्ता चउत्थी पुढची गच्छंति' मरकर नीचे को सीधे चतुर्थ धूमप्रभा पृथिवी तक जाले है भागे पथिषियों में नहीं जाते हैं। क्योंकि वहाँ तक जाने के लिये इनमें गमन शक्ति का अभाव है। 'दसजाती कुल कोडी' इनके कुल बहोडी ગૌતમ! ચતુષ્પદ સ્થલચર અને કૃષ્ણલેશ્યા હોય છે અહિયાં દષ્ટિદ્વાર - વિગેરે દ્વારેનું કથન પક્ષિઓના પ્રકરણના કથન પ્રમાણે જ સમજી લેવું પરંતુ ખેચરની અપેક્ષાએ ચતુષ્પદ સ્થલચરોનું સ્થિતિદ્વાર અને ઉદ્વર્તના દ્વારના ४थनमा डेरा छे. ते पाणु मा प्रभाव सभा ‘णाणत्त' से सूत्र द्वारा मे पातनु ४थन ४२८ छे. 'ठिई जहण्णेण अंतोमुहुत्तं उक्कोसेण तिन्नि पलिओवमाई' माहियां तमान स्थिति न्यथी ४ मत इतनी ४६. भने उत्कृष्टया व पक्ष्या५मना छे. तया 'उव्वट्टित्ता चलस्थि पुढवीं गच्छति' भशन सीधा नाय याथी धूमप्रमा पृथ्वी सुधा तय है. તેનાથી આગળની પૃથ્વીમાં જઈ શકતા નથી. કેમકે ત્યાંથી આગળ જવા માટે तेसामा गमनतिन मला छे. 'दस जाती कुलकोडी' तमानी सीटी
जी० ५३
Page #442
--------------------------------------------------------------------------
________________
s
जीवामिगमसूत्रे
खाणि मज्ञप्तानीति ॥ जलचरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा' जलचरपञ्चेन्द्रि यतियग्योनिकानां भदन्त ! कतियोनिसंग्रहः प्रज्ञप्त इति प्रश्नः, उत्तरयति - 'जहा ' इत्यादि, 'जहाभुवपरिसप्पाणं' यथा भुजपरिसर्पस्थलचराणां योनिसंग्रहस्तथा खेचरातिदेशेन लेश्यादिकंच कथित तथैव जलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानामपि ज्ञातव्यम्, तथाहि - जलचरपञ्चेन्द्रियाणां विविधो योनिसंग्रहा मज्ञप्तः स्तद्यथा - अण्डजाः पोतजाः संमुच्छिमाश्च, अण्डजाः पोतजाश्च प्रत्येकं त्रिविधा भवन्ति तद्यथा - स्त्रियः पुरुषाः नपुंसकाथ, तत्र ये ते
छिमस्ते सर्वेऽपि नपुंसका एवेति । लेश्यादिद्वारजातं सर्वमपि खेचरातिदेशेन सुनपरिसर्पवदेव ज्ञातव्यम् । भुजपरिसर्पापेक्षया इदं दैवक्षण्यम्- 'नवरे' नवरं - स्थित्युद्वर्त्तनाजातिकुलकोटिपु नानात्वमस्ति तथाहि--स्थितिर्जघन्येनान्त मुहूर्तम् उत्कर्षतः पूर्वकोटि: । उद्वर्त्तना- 'उच्चट्टित्ता जाव अहे सतमिं पुढर्वि' दशलाख हैं । 'जलघर पंचिदियतिरिक्खजोणिया णं पुच्छा' हे भदन्त ! जलचर पश्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीवों के कितने प्रकार का योनिसंग्रह कहा गया है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं - 'जहा भुयपरिलप्पा' हे गौतम! जैसा योनि संग्रह भुजपरिसर्पस्थलचर तिर्यक् पंचेन्द्रियों के कहा गया है पैसा ही योनिसंग्रह यहां पर भी कहा गया है इस तरह जलचर पंचेन्द्रियों के 'अण्डज, पोतज, और संमूच्छिम' ऐसा तीन प्रकार का योनि संग्रह है- इनमें जो संमूच्छिम होते हैं वे सब नियम से नपुंसक ही होते हैं। यहां लेश्यादि द्वार सब पक्षियों की सदृशता से भुजपरिसर्प के जैसे ही है परन्तु भुजपरिसर्प के कथन की अपेक्षा यहां अन्तर ऐसा है 'णवरं उच्चट्टित्ता जाव अहे सप्तसिं पुढर्वि' कि जलचरों से उद्
સ साथ छे. 'जलयर पंचिंदिय तिरिक्खजोणिया णं पुच्छा' हे भगवन् જલચર પંચેન્દ્રિય તિયૈાનિક વાને ચેાનિસંગ્રહે કેટલા પ્રકારનેા કહેવામાં आवेस हे ? या प्रश्नना उत्तरभां प्रभुश्री गौतमस्वामीने हे हे हे 'जहा भुय परिसप्पाणं' हे गौतम! लुभ्यरिसर्प स्थसयर पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिडोना ચેાનિસ'ગ્રહ જે પ્રમાણે કહેલ છે, એ જ પ્રમાણેના ચેાનિસંગ્રહ અહિંયા પણ સમજી લેવા જોઇએ. આ રીતે જલચર પચેન્દ્રિયાના અંડજ, પાતજ, મને સમૂચ્છિમ એ રીતે ત્રણ પ્રકારના ચેનિસ ગ્રહ હાય છે, તેમાં જે સમૂઈિમ હાય છે. તે બધા નિયમથી નપુંસકજ હોય તે. અહિયાં બધા પક્ષિએના સમાનપણાને લઈને લેફ્યા વિગેરે દ્વારા ભુજપરિસર્પોની જેમજ છે. પરંતુ ભુજપરિસર્પના કથન કરતાં અહિયાં જે જુદાપણું અતાવેલછે, તે નીચેના સૂત્ર
Page #443
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ ३.३ सू.२६ पक्षीणां लेश्यादिनिरूपणम् जलचर पञ्चेन्द्रिय जीवा जलचर पञ्चन्द्रियेभ्य उद्धृत्य यावदधः सप्तम्यां गमनस्य श्रुतत्वात्, ऊध्नं यावत् सहस्त्रारकल्पमिति जाति कुळकोटि:-'अद्धतेरसजातिकुलकोडी जोणिपमुइसयसहस्सा पनत्ता' अर्द्ध त्रयोदशजातिकुलकोटियोनि प्रमुखशत. सहस्राणि प्रज्ञतानि, जलचर पञ्चन्द्रिय जीवानामिति 'चउरिदिया णं भंते।' चतुरिन्द्रियाणां जीवानां भदन्त ! 'कइ जाइकुलकोडी जोणीपमुहसयसहस्सा पनत्ता' कति-कि प्रमाणकानि जाति कुलकोटियोनि प्रमुखशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानीति प्रश्ना, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'नवजाइ कुलकोडी जोणीपमुहसयसहस्सा भवतीति समक्खाया' नव जाति कुलकोटि योनि प्रमुखशतसहस्राणि-नवलक्षाणि समाख्यातानि । 'तेइंदियाणं पुच्छा' त्रीन्द्रियाणां जीदाना मदन्त ! कतिजातिकुलकोटियोनिप्रमुखशतसहस्राणि, प्रज्ञप्तानीति प्रश्नः, भगवानाह-गोयला' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'अट्ठ जाइकुल जाव समक्खाया' अष्ट जाति कुलकोटियोनि प्रमुखशतसहस्त्राणि समाख्यातानीति । 'बेइंदिया णं भंते ! कइ जाई पुच्छा' द्वीन्द्रियजीवानां भदन्त ! कति जाति कुल कोटियोनि वृत हुआ जीव सातवीं पृथवी तक जाता है क्योंकि तन्दुलमत्स्य जो कि महामत्स्य की भृकुटी के बालों में रहता है मरकर सातवीं पृथिवी में जाता है ऐसा शास्त्रों में सुना जाता है । 'अद्धतेरसजाति कुल कोडी योणि पमुहलयसहस्सो पन्नता' जलचर जीवों की कुलकोडी साढे चारह १२॥ लाख हैं 'चरिया णं भंते !' हे भदन्त ! चौइन्द्रिय जीवों की कितनी लाख कुल कोडियां हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा। नव जाइ कुल कोडी जोणी' हे सदन्त ! तेइन्द्रिय जीवों की कितनी लाख कुलकोडी हैं ? 'गोधमा ! अजाइ कुल जाव मक्खाया' हे गौतम! तेइ. पा द्वारा ४९ छे. 'णवरं उबट्टित्ता जाव अहे सत्तमि पुढवि" यरोभाया નીકળેલા જ સાતમી તમસ્તમાં પૃથવી સુધી જાય છે, કેમકે તંદુલમર્યો કે જે મહા મતસ્યની ભમરોના વાળમાં રહે છે. તે મરીને સાતમી પૃથ્વીમાં જાય છે. એ प्रमाणे ४थन ४२वामां मावत छे. 'अद्धतेरस जातिकुल कोडी जोणिपमहसथ. सहस्सा पण्णत्ता' ४सयनी पुस टी १२॥ सा मा२ सामनी छे. चलरि दियाण भते ! हे भगवन् । यार ।द्रियावा वानी तरी टा
मन छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रसु . छे 'गोयमा ! नव जाइ कुल कोडी जोणो. गीतमयार दिये। वासवानी नाम हटी हाय छे. 'तेइंदियाणं पुच्छा' हे सगवन् द्रियावाणा वानी हटी टा सामना डिस छ ? उत्तरमा प्रभुश्री छ 'गोयमा ! अद्रजाइ कुल जाव “मक्खया' गौतम ! दियावाणा वानी मा म उस अटीछे,
Page #444
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमसूत्रे
૪૨૦
प्रमुखशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानीति प्रश्नः, भगवानाह - गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे' गौतम ! 'सत्तजातिकुलकोडी जोणीपमुहसयसहस्सा भवतीति समक्खाया ' सप्तजाति कुळकोटियोनि प्रमुखशतसहस्राणि भवन्तीति समाख्यातानि ||०२६|| इहजातिकुलकोटयो योनिजातिया स्वतो भिन्नजातियाभिधानमसङ्गतो ग्रन्धाङ्गानि भिन्नजातियत्वात् प्ररूपयति- ' कइ णं भ'ते' इत्यादि,
मूळम् – कइ णं भंते! गंधा पन्नत्ता ? कइणं भंते! गंधसया पन्नता ? गोयमा ! सत्तगंधा पन्नत्ता सत्तगंधसया पन्नता । कर्ण भंते! पुप्फ जाइ कुलकोडी जोणीपमुहसयसहस्सा पन्नत्ता ? गोयमा ! सोलस पुष्फजाती कुलकोडी जोणीपमुहसय सहस्सा पन्नत्ता तं जहा - चत्तारि जलयराणं वत्तारि महारुक्खियाणं चत्तारि महागुम्मियाणं । कइ णं भंते! वल्लीओ, कड़ बल्लिया पन्नत्ता ? गोयमा ! चत्तारि वल्लीओ, चत्तारि वल्लीसया पन्नत्ता | कइ णं भंते! लताओ, कइ लयासया पन्नत्ता ? गोयमा ! अट्ठलयाओ, अट्ठलयासया पन्नत्ता । कई पणं भंते! हरियकाया हरियकायस्या पन्नत्ता ? गोयमा ! तओ हरियकाया तओ हरियकायसया पन्नत्ता, फलसहस्सं च विंट - बद्धाणं फलसहस्त्रं च णालवद्वाणं ते सव्वे वि हरियकाय मेव समोयरंति, ते एवं समणुगममाणा, एवं समणुगाहिज्जमाणा न्द्रिय जीवों की आठ लाख कुल कोटियां हैं। 'बेइंदिया णं भंते । कइ जाइ० पुच्छा' हे भदन्त ! दो इन्द्रिय जीवों की कितनी लाख कुलकोटियाँ हैं । 'गोपमा । सन्त जाति कुलकोडीजोणी पमुहसयसहस्सा' हे गौतम! दो इन्द्रिय जीवों की सात लाख कुलकोटी हैं 'इति मक्खाया' ऐसा तीर्थकरों ने कहा है ॥ ० २६||
'वेइंद्रियाणं भवे ! कइजाइ. पुच्छा' हे भगवन् मे 'द्वियोवाणा तीर्थ श्योनिः लवोनी समेटी डेटला साथ उही छे ? उत्तरमां अलुश्री हे छे ! 'गोयमा ! सत्तजाति कुलकोडी जाणीपमुइसय सहस्सा' हे गौतम । मेद्रियोवाना वोनी सात लाभ तोटी छे. 'इति समक्खाया' मा प्रभाचे तीर्थ ४४धु ं छे. सू. २६
Page #445
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमैयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ १.२७ गन्धावस्वरूपनिरूपणम् ४२१ समणुगाहिज्जमाणा, एवं सभणुपेहिज्जमाणा समणुपेहिज्जमाणा, एवं समणुचिंतिज्जमाणा समणुचिंतिज्जमाणा, एएसु घेव दोसुकाएसु समोयरंति तं जहा-तसकाए चेव थावरकाए चेव, एवमेव सपुव्वावरेणं आजीवदितेणं चउरासीति जातिकुल कोडी जोणीपमुहसयसहस्सा भवंतीति मक्खाया ॥सू०२७॥
छाया-कति खलु भदन्त ! गन्धाः प्रज्ञप्ताः ? कति खल्ल भदन्त ! गन्धः शतानि प्रतानि ? गौतम! सप्तगन्धाः प्रज्ञप्ताः सप्तगन्धशतानि प्राप्तानि । कति खल भदन्त ! पुष्यजाति कुलकोटियोनि यमुखशतसहस्त्राणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! षोडश पुष्यजातिकुलकोटियोनि प्रमुखशतसहस्त्राणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-चत्वारि जलचराणां चत्वारि स्थळचराणाम्, चत्वारि महावृक्षाणाम् चत्वारि महागुल्मिकानाम् । कति खलु भदन्त ! वल्लयः कति वल्लीशतानि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! चतस्रो बल्लयः, चत्वारि वरलीशतानि भज्ञप्तानि । कति खलु भदन्त ! लताः कतिलताशतानि प्राप्तानि ? गौतम ! अष्टौ लता, अष्टौ लताशतानि प्राप्तानि । कति खलु भदन्त ! हरितकाया, हरितकायशतानि मज्ञप्तानि ? गौतम ! त्रयो हरितकायाः त्रीणि हरितकायशतानि प्रज्ञप्तानि, फलसहस्रंच बृन्तबद्धानां फलसइस्रं च नालबद्धानाम् ते सर्वेऽपि हरितकायमेव समदतरन्ति ते एवं समनुगम्यमानाः समनुगम्यमानाः, एवं समनुग्राह्यमाणाः समनुग्राह्यमाणा एवं समनुप्रेक्ष्यमाणाः समनुप्रेक्ष्यमाणाः, एवं समनुचिन्त्यमानाः समनुचिन्त्यमानाः, एतयोरेव द्वयोः काययोः समवतरन्ति, तद्यथा-त्रसकाये एव, स्थावरकाये एवं एवमेव सपूर्वापरेण अजीबदृष्टान्तेन चतुरशीति जातिकुलकोटियोनि प्रमुखशत. सहस्राणि भवन्तीत्याख्यातानि ।। सू० २७॥
टीका-काणं भंते ! गंधा पन्नता' कति खल भदन्त ! गन्धा:-गन्धा. मानि प्राप्ताः-कथिताः, यद्यपि गन्धा इत्येवं मुलेपाठस्तथापि गन्धा इत्यत्र
योनि जातीय ये जाति कुल कोटिया है सो इन से भिन्न जाति पालों के अभिधान के प्रसङ्ग को लेकर अब सूत्रकार भिन्न जातीय होने से गन्धाङ्गों की प्ररूपणा करते हैं
'करणं भंते ! गंधा पन्नत्ता-इत्यादि। टीकार्थ-यहां श्रीगौतम ने प्रभुश्री से ऐसा पूछा है-'कइ णं भंते ! गंधा
ચેની જાતીય આ જાતીકુલ કેડિયે કહી છે. તેનાથી જુદી જાતવાળા અભિયાનના પ્રસંગને લઈને હવે સૂત્રકાર ભિન્ન જાતિવાળા હોવાથી ગંધાગાની प्र३५। ४२ छे. 'कणं भते ! गंधा पण्णत्ता' छत्याह
Page #446
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२
जीवामिगमहो
पदैकदेशे पदसमुदायोपचाराद् गन्धाङ्गानीति द्रष्टत्मनि । 'कइ णं भंते ! गंधसया पन्नत्ता' कति खलु भदन्त ! गन्धशतानि-गन्धाङ्गशतानि प्रज्ञप्तानि इति प्रश्ना, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'सत्तगंधा सत्तगंधसया पन्नत्ता' सप्तगन्धाङ्गानि सप्तगन्धाङ्गशतानि प्रज्ञप्तानि तत्र परिस्थूलजातिभेदादिसानि सप्तगन्धाङ्गानि यथा-मूलं १, त्वक् २, काष्ठम् ३, नियासः १, पत्रम् ५, पुष्प ६, फलंचेति । तत्रमूलं मुस्ता वालकोशीरादिः १, त्वकू-सुवर्णछल्लीत्वचाप्रभृतिः २, काष्ठं चन्दनागुरु प्रभृतिः ३, निर्यासः करादिः ४, पत्र-जातिपन्नत्ता' हे भदन्त ! गन्ध-गन्धाङ्ग-'का पन्नत्ता' कितने कहे गये है ? यद्यपि यहां पर मूल में पाठ 'गन्ध' ऐसा है-फिर जो यहां गन्धा रूप अर्थ लिया गया है यह पद में पद् समुदाय से उपचार करने से लिया गया है ? ऐसा यह प्रथम प्रश्न है और दूसरा 'काइ णं भंते ! गंधसया पण्णत्ता' हे भदन्त ! गन्धशत-गन्धाङ्गशत-कितने कहे गये हैं ? यह दुसरा प्रश्न है। उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोधमा! सत्त गंधा,
और सत्त गंधसया पण्णता' हे गौतम ! गन्धाङ्ग सात कहे गये हैं, गन्धाङ्गाशत सात कहे गये हैं अर्थात् सात सौ कहे गये हैं। जैसे-मूल १, त्वक्-छाल-२, काष्ठ ३, निर्यान-४, पत्र-५, पुष्प-६, और फल ७, इन में मुस्ता, वालुका, उशीर, आदि ये मूल शब्द से गृहीत हुए हैं 'सुवर्ण छाल आदि त्वक् शब्द से गृहीत हुए हैं २ चन्दन अगुरु आदि
-भामा श्रीगीतमस्वामी प्रभुश्रीन मे पूछयु छ ? 'काणं भाते ! गंधी पण्णत्ता' मगन् in enामा मावस छ ? ने કે અહિયાં મૂળમાં જંપા એ પ્રમાણેને પાઠ છે, પણ અહિયાં ગંધ શબ્દથી
ધોગ એ પ્રમાણેને અર્થ લેવામાં આવેલ છે, તે પદમાં પદસમુદાયને ઉપચાર કરવાથી લેવામાં આવેલ છે? આ પ્રમાણેને આ પ્રશ્ન છે. અને બીજે प्रश्न 'कह ण भंते ! गंधसया पण्णत्ता' सन् ! गधशत भांगशत ट। કહેવામાં આવેલ છે જે આ પ્રમાણેને આ પ્રશ્ન છે. આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી गीतमस्वामी ४ छ 'गोयमा ! सत्त गंधा सत्तगंधसया पण्णत्ता' गौतम! ગંધાંગ સાત પ્રકારનાં કહેવામાં આવેલ છે. અને ગંધાંગશત પણ સાત જ કહેલા છે. અર્થાત સાતસે કહેલા છે. જેમકે મૂલ, ૧ વ છાલ ૨, કાષ્ઠ ૩, निर्याम ४, ५२५, ०५१, भने ३॥ ७, मामा भुस्ता. पाणु1. शी२, विगेरे મૂળ શાદથી ગ્રહણ કરેલા છે. સુવર્ણ છાળ, વિગેરે વ શબ્દથી ગ્રહણ કરેલ છે ૨ ચંદન અગર વિગેરે કાષ્ઠ શબ્દથી ગ્રહણ થયેલ છે. ૩, કપૂર વિગેરે
Page #447
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेययोतिका टीका प्र. ३ उ. ३.२७ गन्धाङ्गस्वरूपनिरूपणम्
કરફ
पत्रतमालपत्रादिः ५, पुष्प प्रियङ्गुनागर पुष्पादिः ६, फलं जातिफल फलकेकालवंग प्रभृतिः । एते च मूलादयः प्रत्येकं कृष्णनीलादि भेदात् पञ्च पञ्च भेदा भवन्तीति, वर्णश्च क्रेन गुणिताः सन्तः पञ्चत्रिंशद् (३५) भवन्ति गन्धमधिकृत्ये ते सुरभिगन्धदन्त एवेत्येकेन गुणिताः पञ्चत्रिंशदेव (३५) तत्रापि एकैकस्मिन् वर्णभेदे रसरश्च द्रव्यभेदेन विश्वितं प्राप्यते इति सा पञ्चत्रिंशत् संख्या रसपञ्चकेन गुणिता सती पञ्चसप्तत्युत्तरशतं ( १७५) भवन्ति, स्पर्शश्च यद्यपि अष्टौ भवन्ति तथापि गन्धाङ्गेषु यथोक्तरूपेषु प्रशस्याः स्पर्शाः व्यवहारतश्वत्वार एव मृदुलघुशीतोष्णरूपा', ततः पञ्चसप्तत्युत्तरशत स्पर्शचतुष्टयेन गुण्यते तदा जातानि सप्तशतानि ( ७०० ) । तदुक्तम् —
हुए
काष्ठ शब्द से गृहीत हुए हैं ३, कपूर आदि निर्यास शब्द से गृहीत हुए है ४, जाति पत्र, तमाल पत्र आदि पत्र शब्द से गृहीत हुए हैं ५, मिथगु नागर पुष्प आदि पुष्प शब्द से गृहीत है ६, जाति फल एलाफल- कर्कोलक, ऐला - इलायची और लबन आदि पुष्प शब्द से गृहीत हुए है ये सातों ही प्रत्येक कृष्ण, नील आदि पांच वर्णों के भेद से पांच २ भेद वाले होते हैं इस तरह एक एक के पाँच वर्णों की अपेक्षा लेकर पांच पांच भेद हो जाने के कारण ये मूल आदि गन्धाङ्ग पैतीस हो जाते हैं । गन्ध इन में एक सुरभि ही रहता है, अतः इसकी अपेक्षा ये पैंतीस ही रहते हैं ३५ पांच वर्णों की अपेक्षा जिस प्रकार से सात गन्धाङ्गों से पैंतीस भेद ये कहे गये हैं उसी प्रकार से इनमें पांच रस भी पाये जाते हैं अतः पैंतीस को पांच से गुणा करने पर एक लौ पचहत्तर १७५, ये हो जाते हैं । तथा स्पर्श आठ होते हैं किन्तु आठ स्पर्शो में से इन गन्धाङ्गों में चार प्रशस्य નિસ શબ્દથી ગ્રહણ થયેલ છે. ૪, જાતીપત્ર, તમાલપત્ર, વિગેરે પત્ર શબ્દથી ગ્રહણ કરેલ છે. ૫, પ્રિયંગુ નાગર પુષ્પ વિગેરે પુષ્પ શબ્દથી ગ્રહણુ થયા છે. ૬, જાતિકૂળ અર્થાત્ જાયફળ કકેલિક, એલા કહેતાં ઇલાયચી. અને લવિંગ વિગેરે પુષ્પશબ્દથી ગ્રહણ કરાયેલ છે. આ સાતે કૃષ્ણ, નીલ, વિગેરે પાંચ વર્ષોંના ભેદથી પાંચ પાંચ ભેદવાળા હૈાય છે. આ રીતે એક એકના પાંચ વર્ષોની અપેક્ષાથી પાંચ પાંચ ભેદ્ર થવાના કારણે આ મૂળ વિગેરે ગધાંગના પાંત્રીસ ભેદા થઈ જાય છે. આમાં ગંધ એક સુરભિ ગધજ હાય છે. તેથી ગધની અપેક્ષાથી આ પાંત્રીસજ ડેાય છે, પાંચ વર્છાની અપેક્ષાથી જેમ સાત ગ’ધાંગાના આ ઉ૫૨ ૩૫ પાંત્રીસ લેા કહેલા છે એ જ પ્રમણે આમાં પાંચ રસ પણ મળે છે. તેથી પાંત્રીસને પાંચથી ગુગુવાથી ૧૭૫ એકસેા પચેાતેર ભેદે થઈ જાય છે. તથા સ્પશ આઠ હાય છે. પરતુ આઠ સ્પૉંમાંથી આ ગાંગામાં ચાર
Page #448
--------------------------------------------------------------------------
________________
४२४
जीवामिगमसूत्रे
'मूळ १ तय२ कट्टर निज्जास पत्त५ पुप्फ६ फळ७ मेयं गंधंगा । 'वण्णादुत्तरभेया गंधांगसया सुणेयव्वा' १॥
मूळ १ वर फाष्ट३ निर्यास५ पत्र५ पु०१६ फळ७ मेते गन्धाङ्गाः । वर्णादुत्तर भेदानि गन्धाङ्गशतानि ज्ञातव्यानी तिच्छाया ॥
अस्य व्याख्यानरूपं गाथाद्वयम् --
'मुत्था१ सुवण्णछल्लर अगुरु३ वाला४ तमालपत्तं५ च । तहय पियं६ जाइफलं७ च जाइए गंधंगा ॥ १ ॥ गुणणाए सत्तसया पंचर्हि दण्णेहिं सुरभिगंधेणं | रसपणणं तह फासेहिय चउहि मित्तेहि " २ || सुस्ता १ सुवर्णछल्ली २ अगुरु३ वाला ४ तमालपत्र ५ च ॥ तथा च भियगू६ जातिफलं च जात्या गन्धाङ्गानि ॥ १ ॥ गुणनया सप्तशतानि पञ्चनिर्वणैः सुरभिगन्धेन च । : रसपञ्चकेन तथा स्पर्शश्च चतुर्भिर्मित्रैः ॥ २॥ इतिच्छाया मित्रैरिति मित्रभूतैः प्रशस्तैरित्यर्थः ॥
स्पर्श ही रहते हैं अतः एक सौ पचहत्तर को चार से गुणा करने पर सात सौ गन्धाङ्गों के भेद निष्पन्न हो जाते हैं ।
तदुक्तम् - मूलतय-कट्ट - निज्जासपत्त- पुप्फ-फलमेयं गंधंगा । वण्णादुत्तर भेया गंधगया मुणेधन्दा,
मुत्था - सुवण्ण- छल्ली अगुरुषाला तमालपत्तंच । तह यपियंगू जाई फलंच जाईए गंधंगा ॥१॥ गुणणार सत्ता पंचहिं चण्णेहिं सुरभि गंधेणं, रसपण तह फालेहिं चउहि मित्ते (पसस्थे) हिं ॥२॥
પ્રકારના પ્રશસ્ત સ્પર્શી જ રહે છે. તેથી શ્રી ગુણવાથી ગંધાંગેાના સાતસા ભેદ અની ગયા દ્વારા કહેવામાં આવે છે.
એક સેા પચાતુર ૧૭૫ ને ચાર જાય છે. એ જ વાત નીચેની
मूलतय कट्ट निज्जासपत्त पुप्फफलमेय गंधगा वण्णादुत्तरमेया गंध गया मुणेयव्वा, मुत्था सुवण्णछल्ली अगुरुवाला तमालपत्तच तह व पियगू जाई पल च जाईए गंधगा ॥ १ ॥ गुणणाए सत्तसया पंचहि वण्णेहिं सुरभिगं घेणं, रख पण्णवणं तह फासेहिं चउहिं मित्ते (पसत्थे ) हि ॥२॥
Page #449
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
प्रमेयधोतिका टीकाप्र.३ उ.३ स्.२७ गन्धाङ्गस्वरूपनिरूपणम्
४२५ 'कइ भंते ! पुप्फजाइकुलझोडी जोणी पमुहसयसहस्सा पन्नता' कति . खलु भदन्त ! पुष्यजातिकुलकोटियोनि प्रमुखशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि-कथितानीति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'सोलसपुप्फ जाइ कुलकोडी जोणीपमुइसयसहस्सा पन्नता' पोडशपुष्पजातिकुललोटियोनि, प्रमुखशतसहस्राणि प्रज्ञप्यानि-कथितानि । तात्येव दर्शयखि-जहा' इत्यादि, 'तंजहा' तयथा-'चत्तारि जलयराणं चत्वारि कुलझोटियोनिममुखशतसमणि जकचराणां जलजानां कमलादीनां जातिभेदेन अवन्ति, समा-चत्तारि थलवाणं' चत्वारि कुलकोटियोनिप्रमुखशतसहस्त्राणि स्थलचराणां स्थलनासाला कोरण्डका. दीनां जातिभेदेन, तथा 'चत्तारि महारुविखयाणं चत्वारि कुलकोटियोनि ममुग्वशतसहस्राणि महावृक्षाणां मधु कादी वा. 'चत्ताहिमहायुभिमकाण' चत्वानि कुल कोटियोनि प्रमुखशवसहस्त्राणि महागुरिमकानां जात्यादीनां जातिभेदेन भवन्तीति।
इन सब गाथाओं का समर्थ तथा गणिल पहले भाइ चुके है।
'करणं भंते ! पुष्फ जाइ कुलक्षोडी जोणी पाह यस्ता पनत्ता' हे भदन्त ! पुष्पों की कितनी लाख कुलकोडिया काही ई है? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'पोयमा ! होला पुष्फजाइ कुलकोडी जोणी पमुहसयसहस्सा पन्नत्ता' हे गौतम ! पुष्पों को सोलह लाख कुल कोटियां कही गई है। जो इस प्रकार से है-'चत्तारि जलप चार लाख जल में उत्पन्न होने वाले कमलों की 'चत्तारि थलया ण' चर लाख स्थल में उत्पन्न होने वाले कोरण्ट आदि के पुष्पों की 'चत्ताशि महा गुम्मियाण' और चार लाख महा गुलिमक आदि के पुष्पों की कुल कोटियां होती है ये कुल कोटिया जोति के भेद से होती है।
આ બને ગાથાઓને અર્થ તથા ગણિત પહેલાં ઉપર કહેવામાં આવી ગયેલ છે.
श्रीगीतभाभी सपान श्रीमहावीर प्रसुने पूछे छे , 'कहि णं भंते ! पुप्फजाई कुलकोडी जोणीपमुहसयसहस्सा पण्णत्ता' 3 भगवन् पुण्यानी इस કેટિ કેટલા લાખની કહેવામાં આવેલ છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી गौतभस्वामीन छ'गोयमा ! सोलस पुप्फजाई कुलकोडी जोणीपमुहसय महस्सा पण्णत्ता' है गौतम ! योनी सण सामस टीये। रुपामा भावी छे. २ मा प्रभारी छे 'चत्तारि जलयराणं' समi Eपन्न वाणा भणानी या२ दाम 'चत्तारि थलयराणं' स्थभरपन्न थवावा और विरे ध्यानी यारासोटिया. तथा 'चत्तारि महा गुम्मियाणं' या२ सासमा ગુલિમક વિગેરેના પુષ્પોની કુલ કેટી જાતિના ભેદથી હોય છે,
जी० ५४
Page #450
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमस 'का गं मते ? वल्लीओ कइणं दल्लीसया पन्नता' कति खलु मदन्त ! परकया? कतिवल्लीशवानि प्रज्ञप्तानि ? भगवानाह-गोयमा' हे गौतम । 'चत्वारि वल्लीओ' चतस्रो बल्लयः पुष्पादिमूलभेदैः ज्ञातव्याः 'चत्तारि वल्लीसया पनचा' चत्वारि वरलीशवानि अवान्तरजातिभेदेन मक्षप्तानि-कथितानीति । 'कणे भंते ! लयागो पन्नत्ताओ' कति-कियसंख्यकाः ख भदन्त ! लताः प्रज्ञप्ताः, तथा-'कइ लयासया पन्नत्ता' कति लता शतानि मनपानि-कथितानीति घश्ना, भगवानाह-'गोयमा' हे गौतम | 'अलया' अशी लता मूल भेदैः प्रज्ञप्ता, तथा-'अट्ठळया सया पन्नत्ता' अष्टौ लताशतानि आन्तरजातिभेदेन ___ 'फइ णं भंते ! वल्लीओ कह ण वल्लीलयाओ पन्नता हे भदन्त ! पल्लियां-एक प्रकार की लताएं-क्षितनी कही गई है। और बल्लीशत कितने कहे गये हैं ? उत्तर में प्रभु काते हैं-'गोयमा! चत्तारि पल्लीओ' हे गौतम ! चार वल्लियां कही गई है जो कि पुष्पादि के मृल भेदों से कही गई है और अवान्तर जाति के भेद से वल्लिशत बार कहे गये है अर्थात् चार सौ पल्लियों के अचान्तर जाति के भेद कहे गये हैं तापर्य कहने का यही है कि मूल में बल्लियों के भेद तो चार है पर एक एक पल्ली के भेद अवान्तर जाति की अपेक्षा से १०० सौ सौ
और है 'कह लताओ पन्नत्ताओ हे भदन्त ! जलाएं जितनी कही गई है और 'कह लतासया पन्नत्ता' लताशत कितने बहे गये हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा! अट्ट लता' हे गौतम ! मृल में तो लताएं आठ कही गई हैं और 'अट्ठलतासयाप०' एक एक लता के सौ सौ
शथा श्रीजीतमस्वामी प्रभुश्रीन पूछे छे । 'कइ णं भंते ! वल्लीओ कइणं पल्लीसयाओ पण्णत्ताओ' लगवन् ! अर्थात् ४ प्रानी सतासारखा પ્રકારની કહી છે? અને વલલીશત કેટલા કહ્યા છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रभुश्री गौतभस्वामीने ४९ छ , 'गोयमा ! चत्तारि पल्लीओ' गौतम! वहा પુષ્પ વિગેરેના મૂળ ભેદથી ચાર પ્રકારની કહેવામાં આવી છે અને અવાસ્તર જાતીના ભેદથી વલ્લશત ચાર કહેલા છે. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે મૂળ વલિલ-વેલેના ભેદે ચાર જ છે પણ એક એક વેલના અવાન્તર ભેદે જાતીની अपेक्षामे ४ मे से। बीत ५ थाय छे. 'कइलताओ पण्णताओ' 8 भगवन्तामा ४८ प्रारनी वाम मावीले १ भने 'कइलता सया पण्णत्ता' લતાશત કેટલા કહ્યા છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે छ । 'गोयमा! अट्टलता' हे गौतम भूण सताना 18 मे द्या छ भने 'अट्ट लयासया पण्णत्ता' गौतम ! मे से सताना से से लेहो भवान्तर
Page #451
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका ठीका प्र. ३. उ. ३.२७ गन्धाङ्गस्वरूपनिरूपणम्
કરવ
प्रज्ञप्तानीति । ' कह णं भंते ! हरियकाया' कति खलु भदन्त ! हरितकायाः प्रज्ञप्ताः - कथिताः, तथा - 'हरियकायसया पन्नत्ता' कवि हरितकायशतानि प्रज्ञतानि - कथितानीति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोपमा' हे गौतम! 'तओ हरियकाया' यो हरितकायाः, जलजाः स्थलजा : उभयजाच, एकैकस्मिन् शतमवान्तरभेदा भवन्तीति 'त हरियकायसया पन्नत्ता' त्रीणि हरितकायशतानि अवान्तर भेदैः प्रज्ञप्तानि कथितानीति । 'फळसहस्सं च चिट बद्धाणं' फलसहस्रं च वृन्तबद्धानाम् वृन्ताकप्रभृतीनां फलसहस्रं भवन्तीति । 'फलसहस्रं च नालबद्धाणं' फलसहस्रं च नालबद्धानाम् नालं-कन्दोपरिवयवयवविशेषः, तत्र बद्धानि संलग्नानि नालबद्धानि तादृशानि फलानि तेषाम् 'ते सव्वे हरियकायमेव समोयरंति' ते सर्वेऽपि भेदाः तदन्येऽपि तथाविधाः हरितकायमेव समवतरन्ति हरितकाये भेद और अवान्तर जाति की अपेक्षा से कहे गये हैं । 'कइ णं भंते । हरियकाया प०' हे भदन्त । हरित काय कितने कहे गये हैं । उत्तर मैं प्रभुश्री कहते हैं - 'गोयमा ! ओ हरियकाया' हे गौतम! हरितकाय तीन कहे गये हैं- जैसे- जलज, स्थलज और उभयज तथा - 'सओ हरिकासया पण्णसा' हरितकायशत अवान्तर भेदों की अपेक्षा से तीन 'कहे गये हैं - अर्थात् एक एक हरितकाय के सौ सौ और अवान्तर भेद कहे गये हैं इस तरह हरितकाय के तीन सौ भेद हो जाते हैं । फलेसहस्सं बिंबद्धा णं' वृन्ताक आदि जो फल हैं वे सहस्र - एक हजार प्रकार के कहे गये है 'फल लहस्से च नालबद्धा णं' इसी तरह जो नालपद्ध फल हैं वे भी एक हजार प्रकार के कहे गये है । 'ते सव्वे हरिकायमेव समोरंति' ये सब भेद तथा इसी प्रकार के जो और भी हरिलतीना लेहथी हुडेवामां न्याव्या छे, 'कइ णं भते ! हरियकाया पण्णत्ता' हे ભગવત્ તિકાયશત કેટલા કહ્યાં છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને 'गोयमा ! तभो हरियकाया पण्णत्ता' हे गौतम! हरिताय त्रयु ह्या थे. भेसडे भसन, स्थान, भने लय तथा 'तओ हरियकायखया पण्णत्ता' હરિતકાયશત અવાન્તર ભેદેને લઈને ત્રણ કહેવામાં આવ્યા છે. અર્થાત્ એક એક હરિતકાયના સેા સે। અવાન્તર ભેદો કહેવામાં આવ્યા છે. આ રીતે હેરિ तायना श्रणुसे। लेड था लय छे. 'फलसहस्से विटवद्धाणं' वता४ विगेरे ने ફળા છે, તે એક હજારપ્રકારના કહેવામાં આવેલે છે. 'फलसहस्व'च नालबदुषाणं' આ પ્રમાણે જે નાલ ખદ્ધ ફળ છે, તે પણ એક હજાર પ્રકારના કહેવામાં माया छे. 'ते सव्वे हरिकाय मेव समोयरंति' मा બધા ભેઢા અને આના જેવાજે હરિતકાયના ખીજા ભેદો છે, તે બધાજ હેરિતકાયમાં ગણવામાં આવેલા
Page #452
--------------------------------------------------------------------------
________________
। १२८
जीवामिगमस्ते एवान्तर्भवन्ति हरितकायोऽपि वनस्पतौ अन्तर्भवति वनस्पतिरपि स्थावरेषु अन्त. भवति, स्थावरा अपि जीवत्वेन जीवेषु अन्तर्भवन्ति ततः 'ते एवं समणुगम्ममाणा -समनुगम्यमाणा' ते एवं ते हरितकायादयः समनुगम्यमानाः समणुगम्यमाना, जात्यन्तर्भावेन स्वतएव सूत्रतः, तथा-'एवं समणुगाहिज्जमाणा समणुगाहिज्जमाणा' समनुग्राह्यमाणाः समनुप्राह्यमाणाः परेण सूत्रत, एव, तया'समणुपेहिज्जमाणा ,समणुपे हिज्जमाणा' समनुप्रेक्ष्यमाणाः समनुपेक्ष्यमाणा:, अनुप्रेक्षया अर्थालोचनरूपया तथा-'समणुचितिज्जमाणा समणुचिंतिज्जमाणा' समनुचिन्त्यमानाः समनुचिन्त्यमानाः शास्त्रयुक्तिमिः जीवत्वेन सम्यगविचार्यमाणाः सन्त: 'एएसु दोस काएमु समोयति' ते हरितकायादयो जीवा एतयो रेव वक्ष्यमाणगोर्द्वयोः काययोः समवतरन्ति-समाविष्टा भवन्ति, 'तं जहा' तघथा-'तसकाए चेव थावरकाए चेव' त्रसकाये च स्थावरकायेचेति । 'एवमेव' तकाय के भेद हैं वे भी सब हरिलकाय में परिगणित हुए हैं तथा हरितकाय जो है वह वनस्पति में परिगणित हुआ है वनस्पतिकाय स्थावर जीवों में परिमाणित हुआ है स्थावर जीव जीवसामान्य में अन्तर्भूत हुआ है इस प्रकार से वे हरितक्षायादिक सब 'समणु गम्म माणा २' स्वतः ही स्त्र के अनुसार समझे जाकर तथा 'समणुगाहिजखाणा २' पर क्षेबाश खून के अनुसार समझे जाकर 'समणुपेहिज्जमाणा • २१ घार बार अालोचन रूप अनुप्रेक्षा द्वारा विचार किये जाने पर 'लमणु बितिज्जलाणा २' युक्ति प्रयुक्तियों द्वारा अच्छी तरह से भावित किये जाने पर उनके सम्बन्ध में यही प्रतीत हो जाता है-निश्चय हो • जाता है कि ये हरितकयादिक जीव 'एतेसु दोसु काएसु समोयरंति' इन - दो ही कायों में-स्थावरकाथ एवं त्रस काय में ही-अन्तर्भूत हुए हैं। यही बात 'तसकाए चेव थावरकाए चेव' इस पत्र पाठ से प्रकट की છે. તથા હરિતકાયને વનસ્પતિમાં ગણવામાં આવેલા છે. વનસ્પતિકાય સ્થાવર જીવોમાં ગણવામાં આવેલા છે. સ્થાવર જી જીવ સામાન્યમાં અંતર્ભત थया छे. या प्रसारीत सरिताय वि२ मा 'समणुगम्ममाणा समणुगम्म माणा' वा पा२ मथ ना मोष साथे पियार ४२di Rai तथा 'समणुगाहिज्ज माणा २' मीना द्वारा सूत्र प्रमाणे समर 'समणुपेहिन्जमाणा २' पार पार असायन ३५ मनुप्रेक्षा द्वारा विया२ ४२di Rai 'समणुचिंतिज्जमाणा' 'समणुचिंतिज्जमाणा' युटित प्रयुतिये। द्वारा सारी रीत भवित ४२वामा આબેથી તેઓના સંબંધમાં એમજ જણાય છે, અર્થાત્ નિશ્ચય થઈ જાય छ मा रतय विगेरे । 'एतेसु दोसु काए समोयरंति' स्थावाय,
Page #453
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.२७ गन्धाङ्गस्वरूपनिरूपणम् ४२९ एवमेव-उक्तप्रकारेणैव उसस्थावरजीवाधिकाररूपप्रकारेणैव 'सपुवावरेण' 'सपूर्वापरेण पूर्वचापरं चेति पूर्वापरम् पूर्वाप रेण सहितं सपूर्वापरं तेन, पूर्वापरोक्त समस्त जीव पर्यालोचत्रया इत्यर्थः । 'आजीदिलुतेणं' आजीवदृष्टान्तेन, आ-सामस्स्येन जीवा अजीवा सकललोकाभिव्याप्त्या स्थिता बस स्थावररूपा जीवा, तेषां दृष्टान्तेन समस्तलोकव्यापि जीवनिदर्शनेन, तत्र सा-द्वित्रि-चतुस्तियंपञ्चेन्द्रिय-नारक-देव-मनुष्याः स्वस्वापेक्षया अनुक्रमेण प्रत्येक द्वि-द्वि-द्वि-चतु-श्चतु-श्चतु-चतुर्दशलक्षसंख्यामाश्रित्य द्वात्रिंशल्लक्षसंख्यकाः (३२) स्थावरा:-पृथिवी-जल-तेजो-वायु-वनस्पतयः स्वस्वापेक्षयाऽनुक्रमेणप्रत्येकं सप्त-सप्त-सप्त-सप्त-सप्त-चतुर्दिशति लक्षसंख्यामाश्रित्य द्विपञ्चागई है-इस तरह के कथन से-त्रा और स्थावर की योनियों की पूर्वा पर परिगणना से समस्त लोक ले जीवों की चौरासी लाख योनियां हो जाती हैं. यही घात 'एवमेव सपुधावरेण अजीविदिहते णं चउरसीह जाइ कुल कोडी जोणी पमुहलवाहाला अवंती विलमक्खाया' इस सूत्रपाठ द्वारा समझाई गई है-यहाँ ध्याजीव दृष्टान्त से अर्थात् समस्त लोक स्थित जीवों की अपेक्षा से चौरासी लाख जाति कुल कोटियां कही है वह इस प्रकार-स जीव घसीह लाख होते हैं जैसे दो लाख बेइन्द्रिय, दो लाख तेन्द्रिय, दो लाख चतुरिन्द्रिय, चार लाख तिर्यकू पन्द्रिय, चार लाख नारकी चार लाख देव और चौदह लाख मनुष्य जातियां, ऐसे बत्तीस लाख अल जीच है (३२) एवं स्थावर जीव ५२ पावन लाख होते हैं जैसे-सात लाख पृथिवी काय ७, सात लाख भने त्राय मा मे ४ ४ायामा मतभूत थ य छे. मे०४ पात 'तसकाए चेव थावरकाए चेव' २॥ सूत्र५४थी प्रगट ४२वाभा मावेस छ. मा घाना કથનથી બસ અને સ્થાવરોની ચનિયેની પૂર્વાપર ગણના કરવાથી સઘળા જીની यानि ८४००००० यार्याशासाम यानियो य य छे. म४ पात 'एवमेव सव्वावरेण आजीविदिदतेणं चरासीइ जाइ कुलकोडी जाणीपमुहम्र यसहस्सा भवतीति समक्खाया' मा सूत्र द्वारा सभावामां मावी छे.
અહીંયાં અજીવ દષ્ટાંતથી અર્થાત સમસ્ત લેકસ્થિત જીની અપેક્ષાથી ચોર્યાશીલાખ જાતિકુલ કોટિ કહેલ છે તે આ પ્રમાણે છે. ત્રસજીવ બત્રીસ લાખ થાય છે. જેમકે બે લાખ બે ઈદ્રિયવાળા, બે લાખ ત્રણ ઈ દિયવાળા બે લાખ ચાર ઈદ્રિયવાળા, ચાર લાખ તિર્યક, પચેદ્રિય ચાર લાખ નારકી, ચાર લાખ દેવ અને ચૌદ લાખ મનુષ્યની જાતિ આ રીતે બત્રીસ લાખ ત્રસ જીવે છે. તેમજ સ્થાવર જી પણ બાવન લાખ થાય છે. જેમકે સાત લાખ પૃથ્વીકાય ૭.
Page #454
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमसूत्र शल्लक्षसंख्यकाः (३२-५२-८४) इत्येवं समस्तजीव दृष्टान्तेन सर्वे जीवाः 'चउरासीइ जाइ कुल कोडी जोणि पमुहसयसहस्सा भवतीति मक्खाया' चतुरशीति जाति कुल कोटि योनि प्रमुख शतसहस्राणि चतुरशीतिलक्षसंख्यका समस्तजीवानां योनयः सवन्तीति आख्यातं मया अन्यैश्च ऋपमादितीकरिति ।मु०२७१
कुलकोटि विचारणे विशेषाधिकारात विमानान्यपि अधिकृत्य विशेष प्रश्नमाह-अस्थिणं भंते ! विमाणाई' इत्यादि,
स्मूल-अस्थि णं भंते ! बिमाणाई सोत्थियाणि वा लोत्थियावत्लाई सोस्थियप्पभाई सोस्थिय कंताई सोस्थिर वन्नाई सोस्थियलेख्लाइं लोत्थियज्झयाई लोत्थियलिंगाराई सोस्थियकूडाई लोत्थियलिट्टाई सोस्थिय उत्तरवाडि सगाई ? हंता अस्थि । तेणं भंते ! विमाणा के महालया पन्नत्ता ? गोयमा ! जावइएणं सूरिए उदेह, जावइएणं च सूरिए अस्थमइ एवझ्या तिण्णोवासंतराइं अत्यंगइयस्स देवस्ल एगे विक्रमे लिया सेणं देवे ताए उछिटाए तुरियाए जाव दिव्वाए देवगइए वीइवयमाणे वीइक्यमाणे जाव एमाहं वा दुयाहं वा उक्कोसेणं छम्मासा विईवएज्जा, अत्थेगइयं विमाणं विईवएजा अत्थेगइयं विमाणं णो वीईवएजा, ए महालयाणं गोयमा ! ते विमाणा पन्नत्ता। अस्थि गं भंते ! विमाणाई अञ्चीणि अच्चिरावत्ताई तहेव जाव अच्चुतरवार्डसगाई ? हंता अस्थि, ते विमाणा के महालया पन्नत्ता? अज्ञाय ७, सात लाख लेजरकाय ७, सात लाख वायुकाय ७, चोईस लाख बनस्पति काय २४, ऐले पाचन लाख स्थावर काय जीव होते हैं ५२। इस प्रकार बत्तीस और बावन मिलाकर समस्त लोक गत जीवों की चौरासी लाख जातियां हैं (८४८००००) ऐसा मैंने और अगवान ऋषम आदि अन्य सर्व तीर्थंकरों ने कहा है। सूत्र-२७। લાખ અષ્કાય સાત લાખ તેજસ્કાય સાત લાખ વાયુકાય ૨૪ લાખ વનસ્પતિકાય એ રીતે પ૨ લાખ સ્થાવરકાય જીવે થાય છે. આ રીતે ૩૨ બત્રીસ અને પર મેળવવાથી સઘળા લેકસ્થિત જીની ચેશી લાખ જાતિ થાય છે. આ પ્રમાણે મેં તથા ભગવાન શ્રી કષભ વિગેરે સર્વે તીર્થકરોએ કહ્યું છે. મારો
Page #455
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयघोतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.२८ स्वस्तिकादि विमाननिरूपणम् ४३१ गोयमा ! एवं जहा सोस्थियाईणि णवरं एवइयाइं पंचओशसंतराई, अत्थेगइयस्त देवस्ल एगे विकामे लिया, लेलं तं चेव॥ अस्थि णं भंते ! विमाणाई कामाइं कामावत्ताई जाव कामुत्तरवसियाइं ? हंता अस्थि । तेणं भंते! विमाणा के महालया पन्नता ? गोषमा! जहा लस्थीणि, जवरं लत्तओवासंतराइंसेसं तं चैव । अस्थि णे भंते ! विमाणाई विजयाई वेजयंताई जयं ताई अपराजिताइं? हंता अस्थि । तेणे भंते! विमाणा के महालया पन्नता ? गोयमा! जावइए सूरिए उदेइ एवइयाई नवओवासंतराई, सेसं तं चेव । जो चेवणं तं विमाणे वीई वएजा एमहालया णं विशाणा पन्नत्ता समणाउसो ॥सू०२८॥
तिरिक्खजोणिय उद्देसओ पढमो ॥ छाया-सन्ति खल भदन्त ! विमानानि स्वस्तिकानि स्वस्तिकावानि स्वस्तिकपमाणि स्वस्तिककान्तानि स्वस्तिकवर्णानि स्वस्तिकलेश्यानि स्वस्तिकध्वजानि स्वस्तिशृङ्गाराणि स्वस्तिककूटानि स्वस्तिकशिष्टानि स्वस्तिकोत्तरावतसकानि १०, हन्त सन्ति, । तानि खल्ल सदन्त ! विमानानि कियन्महान्ति मज्ञप्तानि ? गौतम ! सावरके खलु सूर्य उदेति यावत्केच सूर्योऽस्तमेति एतावन्ति त्रीणि अवकाशान्तराणि, अस्त्येककस्य देवस्यैको विक्रमः स्याद स खलु देव स्तया उत्कृष्टया त्वरितया यावद् दिव्यया देवगत्या व्यतिवान् यावदेशाहं वा द्वयह वा उस्कपेण षण्मासान् व्यतिव्रजेन् अस्त्येककं विमानं व्यतिव्रजेद, अस्त्येककं विमानं नो व्यतिव्रजेत एतन्महान्ति खलु गौतम ! तानि विमानानि प्रज्ञप्तानि । सन्ति खलु भदन्त ! विमानानि अर्ची वि अचिरावानि तथैव यावद अचिरुत्त रावतंसकानि ? न्त सन्ति । तानि विमानानि कियन्महान्ति मज्ञप्तानि ? गौतम ! एवं यथा स्वस्तिकादीनि नबर मेतावन्ति पञ्चावकाशान्तराणि अस्त्येककस्य देवस्यैको विक्रमः स्यात शेषं तदेव । सन्ति खद अदन्त ! दिमानानि कामानि कामावानि यावत्कामोसरावतंसकानि ? हन्त सन्ति, तानि खल्ल विमानानि कियन्महान्ति प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! यथा स्वस्तिकालि नवर सप्ता रकाशान्तराणि शेष तथैव सन्ति खल्ल भदन्त ! विमानानि विजयानि वैजयन्तानि जयन्तानि अपराजितानि ? हन्त सन्ति, तानि खल्ल भदन्न ! विमानानि कियन्महान्ति मज्ञप्तानि ? गौतम ! यावत्के सूर्य उदेति एवमेवानि नव अवकाशा.
Page #456
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगम तराणि शेपं तदेव नैव खलु तानि विमानानि व्यक्त्रिजेत् एतन्महान्ति सह विमानानि प्राप्तानि श्रमणायुष्मन् ! ॥१० २७॥
॥विर्यग्योनिकोशिशः प्रथमः ।। टीका-'अस्थि णं भंते ! विमाणाणि' अनास्तीति अव्ययपदं वहथे, तथा च सन्ति-विद्यन्ते खलु मदन्त ! विनानानि-विशेषतः पुण्यप्राणिमिमन्यन्तेतद्गत सौख्यानुभवनेन अनुभूयते इखि विमानानि 'सोस्थियाणि स्वस्तिकानि 'सोत्थियावत्ताई' स्वस्तिकावतानि 'सोस्थियप माई स्वस्तिकपमाणि 'सोस्थियक ताई स्वस्तिककान्तानि 'सोस्थियानाई स्वस्तिकवर्णानि 'सोस्थिय लेस्साई' सस स्तिकलेश्यानि 'सोथि ज्झ पाई स्वस्तिकध्वजानि 'सोत्थियसिंमाराई" स्वस्तिकश्टङ्गाराणि 'सोस्थियकूडाई' स्वस्तिस्कूटानि 'सोस्थिपमिट्ठाई' स्वस्तिक
कुल कोटि के विचार में विशेषाधिकार को लेकर गौतम ! विमानों के अस्तित्व को लक्ष्य करके ऐसा पूछ रहे हैं
'अस्थि णं भंते ! विमाणाई सोस्थियानि'-इत्यादि। सूत्र २७
टीकार्थ-यहां 'अस्थि' यह अव्यय पद है और यह घटु अर्थ में प्रयुक्त हुभा है जो पुण्यात्माओं द्वारा विशेष रूप से-अर्थात् तद्गत सौख्य के अनुभवन ले-अच्छे माने जाते हैं वे विमान है यहां गौतम ने प्रभु से ऐसा प्रश्न किया है 'अस्थि गं भंते ! सोधियाणि सोत्थिया पत्ताई' हे भदन्न ! क्या स्वस्तिक स्वस्तिकावर्त, 'मोत्थियपभाई' स्व. स्तिकप्रभा 'सोत्थिय कंताई स्वस्तिक कान्त 'तोत्थिय वनाई' स्वस्तिकवर्ण 'सोस्थियलेस्लाई' स्वस्तिक लेश्या, 'सोधियज्झयाई स्वस्तिकध्वज 'सोस्थिय सिंगाराई' स्वस्तिक शृङ्गार 'लोस्थियकूडाई' स्वस्तिक कूट
કુલકેટિયોને વિચાર કરતાં વિશેષાધિકારને લઈને વિમાનના અસ્તિત્વને देशाने श्रीगौतमस्वामी से पूछे छे 'अस्थि णं भंते ! विमाणाई सोत्थि याणि' त्यादि
ટીકાર્ચ–અહિયાં “કરિ એ અવ્યય પદ છે. અને એ બહુલ અર્થમાં પ્રયુક્ત થયેલ છે. જે પુણ્યાત્માઓ દ્વારા વિશેષપણાથી અર્થાત તદગત સુખના અનુભવનથી સારા માનવામાં આવે તેને વિમાન કહેવામાં આવે છે. આ समयमा श्रीमातभाभी प्रभुश्रीन से ५७यु छ , 'अस्थि णं भंते ! सोस्थियाणि सोस्थियावत्ताई' है लसपन ! शु स्वस्ति, स्वस्तिवत 'सोस्थिय पभाई' वस्ति प्रभा 'सोस्थिय कंताई वस्ति sid 'सोस्थिय वन्नाइ' स्पति वर्ष 'मोत्थिय लेस्साई' स्वस्तिसेश्या, 'सोत्थियज्मयाई' स्वस्तिय १४ 'स्रोत्थियसिगाराइ' २१स्ति शुभा२ 'सोत्थियकूसाई' .
Page #457
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका ठीका प्र.३ उ.३.२८ स्वस्तिकादि विमाननिरूपणम्
४३३
शिष्टानि 'सोत्युत्तरवर्डिसगाई' स्वस्तिकावतंसकानि एतनामकानि विमानानि - सन्ति किमिति भगवतो गौतमस्य दिमानविषये प्रश्न ः भगवानाह - 'हंसा' इत्यादि, 'हंता अस्थि' हे गौतम! इन्व सन्ति यानि विमानानि त्वया पृष्ठानि एकादशनामकानि तानि तथाविधान्येव सन्तीति । पुनर्गोतमः श्नयन्नाह - 'तेणं भंते' इत्यादि, 'ते णं भंते ! चिमाणा के महालया पन्नचा' वानि उपर्युक्त नामhrfa विमान किन्महान्ति - कियत्प्रनामसानि तानि दिमानानि सन्तीति मनः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'जावहरणं रिए उदेजाव रिए अस्थमेइ एवइया विष्णोवासंतराई' यावति क्षेत्रे खलु सूर्य उदेति यावति क्षेत्रे खलु सूर्योऽस्तमेति एतावन्ति उदयक्षेत्रस्त क्षेत्रः पितानि प्रत्येकं त्रीणि अवकाशान्तराणि सन्त्रि जम्बूद्वीपे सर्वोत्कृष्टे दिवसे सर्वाभ्यन्तरे 'सोत्थियसिडाई' स्वस्तिकशिष्ट और 'लोत्थुसा वडिसगाई' स्वस्तिको तरावतंसक इस नामों वाले विमान है क्या ? या इसके उत्तर में प्रभुश्री गौतम से कहते हैं- 'हंसा, अस्थि' हां, गौरव इन नामों वाले पे देवों के विमान हैं 'ते णं भंते । विषाणा के महाला पन्चत्ता' हे भदना ! चे विमान कितने बड़े हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं- 'गोमा | जावइएणं सूरिए प्रदेह जावइरणं सूरिए अत्थमह एवड्या तिष्णोबारा' हे गौतम । सर्वो त्कृष्ट दिन में जितने क्षेत्र में सूर्य उदित होता है और जिलने क्षेत्र में वह अस्त होता है इसने उदय क्षेत्र और अस्त क्षेत्र प्रत्येक क्षेत्र को यहां तीन अवकाशान्तर होने से तिगुना करने पर जितना प्रमाण उस क्षेत्र - का आना है. 'अत्थेगइयस्स देवरस एगे चिकमे लिया' उतना किसी देव का एक विक्रम एक बार में धूम ने का मार्ग होता है जैसे-जम्बूद्वीप में
"
ईड
स्वस्ति 'सोत्थिय सिट्टाइ' स्वस्तिः शिष्ट भने 'सोत्युत्तरवडि सगाई' स्वस्तिકાન્તરાવત સક આ નામેાવાળા વિમાના છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમ स्वाभीने १हे छे 'ह'ता अस्थि' हा गौतम ! मे प्रमाोना नाभोवाणा या देवानां विभाने! छे. 'ते ण ं भंते ! विमाणा के महालया पन्नत्ता' हे भगवन् ! या विमाना ईटला मोटा हे ? या प्रश्नना उत्तरमां अनुश्री मुछे गोयमा ! जावइपणं सूरिए उदेजावपण सूरिए अत्थमइ एवइया तिष्णावास तराइ' हे गौतम सर्वेद्दष्ट हिनभां સૌથી મેાટા દિવસમાં જેટલાક્ષેત્રમાં સૂર્ય ઉગે છે, અને જેટલા ક્ષેત્રમાં સૂર્ય અસ્તથાય છે, એટલા ઉદયક્ષેત્ર અને અસ્તક્ષેત્રમાં દરેક ક્ષેત્રને અહિયાં ત્રણ અવકાશાન્તી હાવાથી ત્રણગણુા કરવાથી તે ક્ષેત્રનું જેટલું પ્રમાણ આવે છે, 'अत्थे इयस्स देवरस एगे विक्कमे सिया' ४४ हेवनुं भेटतुं विभु-फ એકવારમાં ઘૂમવાના માર્ગ થાય છે. જેમ જ બુદ્વીપમાં સૌથી ઉત્તમ દિવસ
मी० ५५
Page #458
--------------------------------------------------------------------------
________________
४३४
जीवामिगमसूत्रे
मण्डले वर्त्तमानः सूर्यो यावति क्षेत्रे उदेति यावति च क्षेत्रेऽस्तमुपयातीति, उदयक्षेत्रमस्तक्षेत्रं चाधिकृत्य यावत्परिमितं क्षेत्र भवति एतावत्प्रमाणं क्षेत्र मेकस्यावकाशान्तरस्य जायते प्रत्येक मेतावत्प्रमाणमधिकृत्य त्रीणि अवकाशान्तराणि सन्ति अत उदयक्षेत्रमस्तमितक्षेत्र चाधिकृतं क्षेत्रद्वयं प्रत्येकमवकाशान्तराणां त्रिकत्वेन त्रिगुणं कर्त्तव्यमिति भावः । ततः किमित्याह - 'अगस्त देवस्स एगे विकमे सिया' अरत्येककस्य देवस्यको विक्रमः - 'क्रमणदविक्षेपे' इतिधातोः क्रमणं क्रमः, विशेषेण क्रमः विक्रमः परिभ्रमणचक्रं त्रिगुणीकृत सूर्योदयास्तमित क्षेत्रप्रमाण मार्गपरिभ्रमणरूपः स्यात् अस्त्येतद् बुद्धचा परिभावनीयमेतद्यथेकस्य विवक्षितस्य देवस्यैकः पूर्वोक्तप्रकारको विक्रमो भवेत् । तत्र जम्बूद्वीपे सर्वोत्कृष्टे दिवसे एतावत् परिमिते क्षेत्रे सूर्य उदेति, तथाहि - सप्तचत्वारिंशत्सहस्राणि द्वेशये त्रिपष्टयधिके योजनाना मेकस्य च योजनस्य एकविंशतिः पष्टिभागाः (४७२६३ - १०) तदुक्तम् --
'सीयालीससहरसा दोण्णिसया जोयणाण तेवडी । इगवीसह भागा कक्कडमासंसि पेच्छनरा ॥१॥ सप्तचत्वारिंशत्सहस्राणि द्वेशते योजनानि विषष्टिः । एकविंशतिः षष्टिभागाः कर्कटमासे मेक्षन्ते नराः ||१|| इतिच्छाया | सर्वोत्कृष्ट दिन में वर्क संक्रान्ति के प्रथम दिन में सैंतालीस हजार दो सौ तेसठ योजन और एक योजन के इक्कीस सातिया भाग (४७२६३३) योजन दूर से सूर्य दिखता है जैसे कहा है
'सीपोलीस सहस्सा दोण्णिा जोयणाण तेवडी' इगवीस सहिभागा कक्कडना संमि पेच्छनरा ॥ १ ॥
अब सैंतालीस हजार दो सौ तेंसठ योजन और एक योजन और एक योजन के इक्कीस साठिया भाग (४७२६३१२) इतने योजन परिमित क्षेत्र को सूर्य के उदय क्षेत्र और अस्त क्षेत्र ऐसा दो क्षेत्र होने से दूना
માં અર્થાત્ કસ ક્રાન્તિના પહેલા દિવસે ૪૭૨૬૩૧ સુડતાલીસ હજાર ખસે ત્રેસઠ ચેાજન અને એક ચેાજનના એક વીસ સાતિયા ભાગ ચૈાજન દૂરથી सूर्य देयाय छे. प्रेम छे
'सीयालीसहस्सा दाण्णिसया जोयणाण तेवट्ठि"
'गवीसा खट्टिभागा कक्कडमासंमि पेच्छनरा ॥१॥
સુડતાલીસ હજાર મસેા ત્રેસઠ યોજન અને એક યોજન તથા એક યોજન એક વીસ સાહિયા ભાગ ૪૭૨૬૩ આટલા યોજનના ક્ષેત્રને સૂર્યનું
Page #459
--------------------------------------------------------------------------
________________
शत एतावताना, एकस्य दलले व्यशीति,
देवे' स-
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ २.२८ स्वस्तिकादि विमाननिरूपणम् ५ ___ एतावत्परिमिते क्षेत्रे एव तस्मिन् सर्वोत्कृष्टे दिवसेऽस्तमुपयाति सूर्य:, तंत एतरक्षेत्रम् उदयास्तमितक्षेत्रयोदिकत्वेन द्विगुणी कृतमुदयास्तमयान्तरालममाणे भवति, तच्चैतावत्-चतुर्नवतिः सहस्राणि पश्चशतानि षविंशत्यधिकानि योजनाना मेकस्य च योजनस्य द्वाचत्वारिंशत् षष्टिभागाः (९४५२६-४३) इति । एतावत् क्षेत्रम् अवकाशान्तराणां त्रिकत्वेन त्रिशुणीकृतम् जायते द्वेलक्षे त्र्यशीतिः सहस्राणि पञ्चशतानि अशीत्यधिकानि योजनानाम्, एकस्य योजनस्य च षट्षष्टि भागा: (२८३५८००) इति एतावतारिमितं देवस्यैकं परिभ्रमणक्षेत्र भवेत् । 'से देवे' सः- पूर्वोक्त क्षेत्रपरिभ्रमणशक्तिसंपन्नो विवक्षितो देवः 'ताए' तयासकलदेवजनमसिद्धया 'उकिटाए' उत्कृष्टया 'तुरियाए' त्वरया 'जाव दिवाएं' चपलया चण्डया शीघ्रया उद्धतया जवना छेऊया दिव्यया 'देवगईर' देवगत्या 'पोतीषयमाणे वीतीवयमाणे' व्यतित्र जन् व्यतिव्रजन्-गच्छन् गच्छन् 'जाब एंगाई करने पर चौरान हजार पांच सौ छब्बीस योजन और एक योजन के बयालीस लाठिया भाग (९४५२६१४) इतने योजन क्षेत्र का परिमाण हो जाता है। यह एक अबकाशान्तर परिमाण है, ऐसे यहां तीन अवकाशान्तर होने से इस क्षेत्र परिमाण को निगुणा करने पर अट्ठाईस लाख तीन हजार पाँच सौ अस्ली योजन और एक योजन के छह सठिया भार (२८३५८०६.) योजन क्षेत्र जो हो जाता है वह एक देवका एक एक विक-श्रमण होता है लेणं देवे' वह देव एक वार में इतने क्षेत्र तक परिभ्रमण करने के सामर्थ्य वाला कोई एक देव 'ताए उक्किट्ठाए तुरियाए जाब दिव्याए' अपनी उस सफल देव प्रसिद्ध उस्कृष्ट स्वरायुक्त चपल, चंड, शीघ्र, उद्धत, जवन, छेश और दिव्य 'देव गईए' देव गति ઉદય ક્ષેત્ર અને અસ્તક્ષેત્ર એમ બે ક્ષેત્ર હોવાથી બમણ કરવાથી ચોરાણુ હજાર પાંચસો છવીસ યોજન અને એક યોજના બેંતાલીસ સાઠિયા ભાગ (૯૪૫૨૬૩) આટલા યોજના ક્ષેત્રનું પ્રમાણુ થઈ જાય છે. આ અવકાશાન્તર પ્રમાણ છે. અહિંયા એવા ત્રણ અવકાશાન્તર હોવાથી આ ક્ષેત્ર પરિણામને ત્રણ ગણા કરવાથી અઠયાવીસ લાખ ત્રણ હજાર પાંચસો રોજન અને એક એજનના છ સાઠિયા ભાગ (૨૮૩૫૮૦) જન ક્ષેત્ર જે થાય છે, તે એક हेरना मे विभ अर्थात भ्रम थ:य छे 'से ण देवे' त पारमा આટલા ક્ષેત્ર સુધી પરિભ્રમણ કરવાના સામર્થ્ય વાળા કેઈ એક દેવ “ उक्किट्ठाए तुरियाए जाव दिव्वाए' पातानी त तदेव प्रसिद्ध ट, स्प युत, २५स, न्य' २08 God पन, छ भने दिव्य देवगईए' देवतिया
-
Page #460
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमध्ये - वा दुयाहं वा' जघन्यत एगाहं वा द्वयाहं वा यावत्, 'उक्कोसेणं छम्मासावीतीवरजा' उत्कर्षेणे पण्मासान् थावत् व्यतिव्रजेद-गच्छेद् । तौवं गमने सः 'अत्येगइयं विमाणं वीतीवरज्जा' अस्त्येक किञ्चन विमानं पूर्वोक्त विमानानां मध्ये व्यतिव्रजेत् उल्लंध्य परतोऽतिक्रामेत, तस्य विमानस्य पारं लभेत तथा-'अत्येगइयं विमाण नो वीतीयएज्जा' अस्त्येककं पूर्वोक्त विमानानां मध्ये किचनविमानं नो व्यतिव्रजेव-नो अतिक्रामेत् नो उल्लंघन पारं गच्छेत् ।। - अयं भावः-उक्त प्रमाणेनापि विक्रयेण परिभ्रमणरूपेण यथोक्तरूपयापि च गत्या पण्मासानपि यावदधिकतो देवो गच्छति तथापि सः तेषां विमानानां मध्ये कल्यचिद्विमानस्य पारं लमते कस्यचिद् विमानस्य पारं न लभते इति । ले 'वीइचवलाणे २' चलता चलता कम से कम एक दिन तक दो दिन तक और उत्कृष्ट ले छह मास तक लगातार चलता है तो ऐसी स्थिति
में भी 'अस्थेमध्य विमाणं बीएजना' वह देव उन विनानों में से . किसी एक विमान को पार कर सकता है-उसे लांघकर वह आगे भी
निकल जाता है और किसी एक विमान को वह लांधकर पार नहीं जा जा सकता है तात्पर्य कहने का यही है कि उक्त विक्रम 'पल' वाला कोई एक
देव अपनी देव प्रसिद्ध गति से छह मास तक भी लगातार चलता रहे लथ भी वह किती २, दिनान के ही पार जा सकता है सय विमानों के पान नहीं जा सकता है 'ए मालया णं ते विमाण गोयमा! पण्णत्ता' हे गौतम ! इतने बडे वे विमान कहे गये हैं।
'बीइवयमाणे वीइक्यमाणे' यासता यासता साछामा माछा मे हिस સુધી બે દિવસ સુધી, અને ઉત્કૃષ્ટથી છ માસ સુધી લાગઠ ચાલતા રહે તે सवा स्थितिमा पY 'अत्थेगइय' विमाण वीतीवएज्जा' ते मे विभानामा થી કઈ એક વિમાનને પાર કરી શકે છે. તેને ઉલંધીને તે આગળ પણ નીકળી જાય છે. અને કેઈ એક વિમાનને તે પાર કરી શકતા નથી. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે આવા પ્રકારના વિક્રમ-બળ વાળે કઈ એક દેવ પિતાની દેવ પ્રસિદ્ધ ગતિથી લાગઠ છ માસ સુધી ચાલતું રહે છે પણ તે કઈ કોઈ વિમાનને જ પાર કરી શકે છે. બધા વિમાનની પાર જઈ શકતા નથી. 'ए महालया णं भते विमाणा गोयमा ! पण्णत्ता' गौतम! ते विमान આટલા મોટા હોવાનું કહેલ છે.
Page #461
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टोका प्र. ३ उं. ३ खू. २८ स्वस्तिकादि विमाननिरूपणम्
४३७
'ए महालया गोयमा ! ते विमाणा पनता' एतावन्महान्ति खलु गौतम । तानि विमानानि प्रज्ञप्तानि - कथितानि इति । ' अस्थि णं भंते ! विमाणाई' सन्ति खल मदन्त । तानि विमानानि 'अचीणि' अर्चिषि - अचिर्नामानि तथा - 'अचिरावत्ताई' अर्चिरावर्त्तानि 'तहेव जाव अच्चु नरवर्डिसगाई' अर्चिरूत्तरावतंसकानि किम् ? अत्र यावत्पदेन अर्चिःप्रमाणि, अर्चिःकान्तानि, अर्चिर्णानि, अर्चिर्लेश्यानि, अर्चि
मानि, अचिः शृङ्गाराणि, अचिःकूटानि पर्विशिष्टानि इत्येतेषां ग्रहणं भवतीति । भगवानाह - 'हंता' इत्यादि, 'हंता गोयमा' हन्त गौतम ! 'अस्थि' सन्ति दे गौतम | अचिरादिनामकानि विमानानि यथोक्तनामगुणविशिष्टानि विद्यन्ते इति ।
'ते विमाणा के महालया पद्मत्ता' तानि अचिनमकादीनि विमानानि कियमेहन्ति-कियत्प्रमाणक महत्त्वयुक्तानि मज्ञानि कथितानीति प्रश्नः, भगवानाह - ' एवं जहा' इत्यादि, 'एवं जहा सोत्थियाईणि' एवं यथा स्वस्तिकादीनि सूर्योद
'अस्थि णं भंते । विमाणाह" हे भदन्त ! क्या ये विमान है 'अच्चीणि'' अर्चि 'अचिरावत्ताह' अदिरावर्त 'तहेब जाव अच्चुत्तरावडिंसगाई' उसी प्रकार यावत् अर्चिः प्रभ, अर्चि कान्त, अर्चिवर्ण, अर्चिलेश्य अर्ध्विज अर्चिः श्रंग, और अर्चिः कूट अविशिष्ट, अर्विरुत्तरावतंसक, ये विमान है क्या ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभु कहते हैं - 'हंता गोयमा ! अस्थि' हां गौतम ! ये विमान है 'ते विमाणा के महालया पण्णत्ता' हे भदन्त ! ये अर्चि अविरावर्त आदि विमान कितने बड़े कहे गये हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं - ' एवं जहा सोत्थिद्यानि' हे गौतम! जैसा कथन स्वस्तिक आदि विमानों की महत्ता के सम्बन्ध में किया गया है, बेसा
श्रीगौतमस्वाभी अनुश्रीने पूछे थे 'अस्थि णं' भ'वे ! विमाणाइ" से लगवन् शु' मा विभानो छे ? 'अच्चीणि' अर्थ जच्चिरावचाई' अर्थिशवत' 'तहेव जाव अच्चुत्तरवडि 'सगाई' मेन प्रभाषे यावत् सर्यिःप्रल, सशिांत अर्थिवर्थ, मयि बेश्य, अश्विन, अर्थिग अने अर्थिछूट, अर्थि:शिष्ट, અર્ચિત્તરાવ'તસગ્મા વિમાને છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે છે કે 'हता गोयमा ! अस्थि' हा गौतम ! या विमाना हे 'ते विमाणा के महालया पण्णत्ता' हे भगवन् मा अयि:यि रावत विगेरे विमानो ऐसा भेटा है ? श्या प्रश्नना उत्तरमां प्रभु हे छे 3 ' एवं ' जड़ा खोत्थियाणि' हे गौतम! स्वस्ति
Page #462
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमपुत्रे
CAPE
यस्तमितक्षेत्रप्रमाणमधिकृत्य यावत्ममाणेन महान्ति कवितानि तावत्ममाणान्येव अर्चीप, इत्यादि विमानान्यपि महान्ति चाध्यानि । 'बरं एवतियाई पंच ओवासंतराई' नवरं - केवलम् अत्रायं विशेषः । एतावत्कानि अत्र एतावतप्रमाणानि पश्चावकाशान्तराणि सन्ति, स्वस्तिकादिविमानमृगेतु त्रीणि अवकाशान्तराणि प्रोक्तानि । 'अत्येगइयस्स देवस्स पुगे विकमे सिया' अस्त्वेककस्य देवस्यैको विक्रमः - परिभ्रमणं स्याद् 'सेसं तं चेव' शेषं तदेव, शेषं शेपसूत्रं तदेव- पूर्वसूत्र. देवाख्येयं यावत् 'एमहालपाणे गोयमा ! ते चिमाणा पनवा' एतावत्ममाणकानि गौतम । विमानानि प्रज्ञनानीति पर्यन्तम् ।
શ્ય
ही कथन इन विमानों की महत्ता के सम्बन्ध में भी कर लेना चाहिये, परन्तु अन्तर इतना है कि 'एवतिशई पंच ओवासंत' यहां पूर्वो क्त प्रमाण वाले पांच अवकाशान्तर होने से जितना क्षेत्र रूप विक्रम ग्रहण किया गया है उतने क्षेत्र को पांच गुणा करने पर 'अत्थे यस्त देवरस एगे कि' इस तरह का इतना क्षेत्र किसी एक देव का एक विक्रम रूप होता है 'सेसं तं चेव' बाकी सन पूर्व की तरह व्याख्यात कर लेना चाहिये अर्थात् एक बार में पूर्वोक्त प्रमाण क्षेत्र तक घूमने की शक्ति वाला कोई एक देव अपनी उत्कृष्ट आदि पूर्वोक्त विशेषणों वाली गति से निरन्तर कम से कम एक दिन तक दो दिन तक और अधिक से अधिक छह मास तक चलता रहे, तब भी वह देव अर्चिः आदि विमानों में से किसी एक विमान को उल्लङ्घन कर उसके पार जा વિગેરે વિમાનાની મહત્ત ના સોંધમાં જે પ્રમાણેનુ કથન કરવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણેનુ કથન આ વિમાનેાની મહત્તાના સબંધમાં પણ કરી लेवु लेामे. परंतु मे मन्नेसो सोटसु मंतर हे 'एवतियाई' पंच भोषास तराइ " मडियां पूर्वोक्त प्रभावाजा पांथ अवशान्तर होवाथी જેટલા ક્ષેત્રરૂપ વિક્રમ ગ્રહણુ કરેલ છે. એટલા ક્ષેત્રને પાચ ગણુ કરવાથી 'अत्थे गइचस्व देवस्स एगे विकमे' मा प्रभाशेतु मासु क्षेत्र है ४ हेव ना मे विभशक्ति होय हे 'सेस' त' चेव' मीनु सणु' उधन पडेला પ્રમાણે કહી લેવુ જોઇએ. અર્થાત્ એક વારમાં પૂર્વોક્ત પ્રમણના ક્ષેત્ર સુધી એળંગવાની શક્તિ વાળા કોઈ દેવ પેાતાની એ ઉત્કૃષ્ટ આદિ પૂર્વોક્ત વિશેષણાવાળી ગતિથી દરાજ આછામાં એાછા એક દિવસ સુધી અથવા એ દિવસ સુધી અને વધારેમાં વધારે છ માસ સુધી ચાલ્યા કરે તે પણ તે દેવ અર્ચિ વિગેરે વિચાના પૈકી કૈાઇ એક વિમાનને એળગીને તેને પાર
Page #463
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ ७.३.२८ स्वस्तिकादि विमाननिरूपणम
४३९
'अस्थि णं भंते । विमाणाई' सन्ति खलु भदन्त ! विमानानि 'कामाई' कामानि - कामनामानि 'कामावचाई' कामावर्त्तानि 'जात्र कामुत्तरवर्डियाइ' यावत्कामोत्तरावतंसकानि अत्र यावत्पदेन कासमभाणि कामकान्तानि कामवर्णानि कामश्वानि कामवनानि कामशृंगाराणि कामकूटानि कामशिष्टानि इत्येषां संग्रदो भवति तथा प हे सदन्त । कामादिनामकानि विमानानि कि सन्ति, इति मनः, भगवानाह - 'हंवा अस्थि' इव गौतम | काम दिनामक नि विमानानि सन्तीति । 'ते गं अंते ! विमाणा के महालया पन्नत्ता' तानि कामा दिनामकानि विमानानि खल भइन् । कियन्महान्ति मज्ञानीति मनः, भगवानाह - 'गोमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'जहा सोत्थियाई' यथा स्वतिसकता है. किसी के पार नहीं भी जा सकता है अर्थात् सब विमानों को उल्लंघन कर पार नहीं जा सकता है । ऐसी विशालता वाले वे अर्चि आदि विमान हैं ।
'अस्थि णं भंते विभाणाहं कामाई' कामावसा जाब कामुत्तरवर्डिसयाई' हे गौतम! क्या काम, काम वर्त्त, यावत् काम सरावक विमानहै ? उत्तर में प्रभुश्री कहते है- 'हंना अस्थि' हां गौतम ! काम कामावर्त्त यावत् कामप्रभ, कामकान्स, कामवर्ण, शमलेश्य, कामध्वज, कामशृंग, कामकूट, काम शिष्ट और कामोत्तराचतंत्रक, ये विमान हैं । 'ते णं भंते! विमाणा के महालया पन्नता' हे भदन्त ! काम कामावर्त्त आदि विमान कितने बड़े कहे गये ? उत्तर में प्रभु कहते हैं- 'गोयमा जहा सोत्थियाइ
,
हे गौतम! जैसे- स्वस्तिक आदि विधान बड़ी भारी विशालता वाले कहे गये हैं- वैसे ही ये भी बहुत बड़ी विशालता वाले कहे गये हैं ।
કરી શકે છે, અને કેટલાકને પાર ન પણ કરી શકે. અર્થાત્ ખા વિમાનેને આળગીને પાર કરી શકતા નથી. આટલી વિશાળતાવાળા આ અચિ વિગેરે વિમાના છે.
'अस्थि णं भंते विमाणाइ कामाई' कामावत्ता जाव कामुतवडिंसयाइ ' डे ભગવન્ શુ' કામ, કામાવત, યાવત્ કામેાત્તરાવત...સક વિમાન છે ? આ પ્રશ્નના उत्तरभा अलु आहे छे 'ए'ता अस्थि' हा गौतम ! अभ, अभावर्त, यावत् अभयल, अभ ंअंत, अभवार्थ उससेश्य, अभध्वन, अभूशृंग, अभट, अभशिष्ट मने अभीत्तरावतस या विभानो छे. 'ते णं भवे ! विमाणा के महालया पन्नत्ता' हे भगवन् ! अभ, अभावर्त, विगेरे विभाना डेंटला भोटा उद्या है ? मा अश्नना उत्तरसां अलु उडे छे 'गोयमा ! जहा सेात्थियाइ" डे ગૌતમ ! જે પ્રમાણે સ્વસ્તિક વિગેરે વિમાના ઘણી મેટ્રિ વિશાળતાવાળા
Page #464
--------------------------------------------------------------------------
________________
म
४५०
जीवामिगमसूत्रे कादिनामकानि विमानानि सन्ति तथैव कामादिनामकान्यपि विमानानि सन्ती त्युत्तरम् । 'णवरं सत्तओवासंवराई सेसं तहेन' नवरमत्र सप्तावकाशान्तराणि. शेष-शेपमत्र तथैव अचिरादि सूबवदेव व्याख्येयम् । स खलु देवस्तानि विमानानि पूर्वोक्तया दिव्यया देवगत्या कश्चित तिव्रजेत् कश्चिद्देवः किञ्चनविमानं व्यतिक्रमेन किञ्चन विमानं नो व्यतिक्रमदित्यादिकं सत्र पूर्वरदेव ज्ञातव्यमिति भावः। ___ 'अस्थि णं भंते ! विमाणाई' गन्ति खन यदन्त ! विमानानि 'विजयाई' विजयनि-विजयनामकानि वेजयंताई वैजयन्तानि 'जयंताई' जयन्तानि 'अपराजियाई अपराजितानि इति प्रश्ना, भगवानाह-'हता अत्यि' हन्त गौतम ! परन्तु यहां इनकी विशालता जानने के लिये 'णवरं यत्त पोषा संतराइ विकमे सेसं लहेच' या मान्य अवकाशान्तर करना चाहिये इस तरह इतने अपक्षाशान्तर एक बार में घूमने की शक्तिवाले देव कम से कम एक दिन तक या दो दिन तक अधिक से अधिक छह मास तक चलता हुआ कोई एक देव उल कामादि विमानों में से किसी एक विमान को ही उल्लड़ सकता है तथा किसी को नहीं भी उल्लंघन कर सकता है। पेसी बड़ी भारी विशालता उन विमानों की है इत्यादि रूप से सब कथन पूर्वोक्त जैसा ही यहां समझ लेना चाहिये. 'अस्थि णं भंते ! विजयाई विमाणाई' हे भदन्त ! क्या विजय मानके विमान है ? 'वेजयंताई धैजयन्त नाम के विमान है 'जयताई' जयन्त नाम के विमान है 'अपराजिया' अपराजित नाम के विमान है ? gan छ. ५ महिया मा विमानानी विशालता तपा माटे 'णवर सत्त आवासंतगई विक्कमे सेसं तहेव' मडियां सात अशान्त डा न. આ રીતે આટલા અવકાશાન્તરો એક વારમાં ઓળંગવાની શક્તિવાળે દેવ ઓછામાં ઓછા એક દિવસ સુધી અથવા બે દિવસ સુધી અને વધારેમાં વધારે છ મહીના સુધી ચાલતે કેઈ દેવ એ કામ વિગેરે વિમાને પિકી કોઈ જ એકાદ વિમાનને જ ઓળંગી શકે છે. તથા કેઈને ઓળંગી ન પણ શકે. અર્થાત કેઈક જ વિમાનને પાર કરી શકે છે, અને કેઈકને પાર ન પણ કરી શકે. આવી ઘણી મોટી વિશાળતા આ વિમાનોની છે. ઈત્યાદિ પ્રકારનું સઘળું કથન પહેલા કહ્યા પ્રમાણેનું સમજી લેવું.
'अस्थि ज भते ! विजयाई विमाणाइ' से समपन् शुविorय नाम विभान छ१ 'वेजय'ताई' वैश्यन्त नामनु विभान छ १ 'जयंताई" यत नामनु विमान छ १ 'अपराजियाइ' ०५५२ त नामनु विभान छ ? मा
Page #465
--------------------------------------------------------------------------
________________
अमेयधोतिका टीका ४.३ उ.३ ५.२८ स्वस्तिकादि विमाननिरूपणम् ४४१. सन्ति विजयादीनि विमालानीति । तेणं भंते ! विमाणा के महालया पन्नत्ता' तानि खलु भदन्त ! विमानानि-विन यादिनामकानि कियन्महान्ति भवन्तीति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोरमा' हे गौतम ! जायइए मूरिए उदेइ' यावरके क्षेत्र सूर्य उदेति इत्यादि भून वं यावत्परिमतं क्षेत्र भवेत् 'एव. इयाण नव ओवासंतराई' एतावन्ति-एतात्पमाणकानि अन नब अवकाशान्तराणि सन्ति 'सेसं तं चेत्र' शेषं तदेव-पूर्वोक्तमेव, तवरके क्षेत्रे कश्चनदेवः देवगत्या उत्कृष्टादिदिव्यदेवगत्या व्यतिव्रजेत् 'नो चेवणं ते विमाणे बीइएज्जा व खलु स देवः तानि विजयादीनि विमानानि व्यतित्रजेन्, पूर्वोक्तविशेषणविशिष्टोऽपि देवा
उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं 'हना अस्थि हां गौमथ ! विजय आदिक विमान हैं। तेण भंते ! विमाणा के महालया पन्नत्ता' हे अदन्त ! ये विजय. वैजयंतादिक विमान कितने बडे अर्थात् विशाल कहे गये हैं ? उत्तर में प्रभु. श्री कहते हैं-'गोयमा !जावइए सूरिए उदेह' हे गौसम ! जितने प्रमाण क्षेत्र में सूर्य का उदय होता है और जितने प्रमाण क्षेत्र में वह अस्त होता है 'एवड्याइं नव ओवामनराई' इतने प्रमाण के यहां नौ अवकाशान्तर होने से उतने प्रमाण क्षेत्र को नौ गुणा करना चाहिये, इलने प्रमाण वाले क्षेत्र में घूमने की शक्ति वाला कोई एक देव अपनी उस उत्कृष्ट आदि विशेषणों वारी दिव्य देव गति से कम ले कम एक दिन अथवा दो दिन अधिक से अधिक छह माल तक चलता रहे लब भी वह देव 'नो चेव णं ते विमाणे वीईवएज्जा' इन विजयादि विमानों में से एक भी विमान को लांच नहीं सकता है। यहां तात्पर्य यह है कि पूर्वोक्त प्रश्न उत्तरमा प्रसुश्री गौतमस्वामीन ४ छ ? 'हता अस्थि, । गौतम ! विore orयत विशेरे विमान। छ. 'वे गं भंते विमाणा के महालया पन्नत्ता' 3 ભગવન આ વિજય વિગેરે વિમાને કેટલી વિશાળતાં વાળા કહેવામાં આવેલ છે? मा प्रश्न 6त्तरमा प्रभुश्री गौतभस्वामीने ४३ 'गोयमा । जावतिए सरिए उदेई' हे गौतम२८ अभाय क्षेत्रमा सूर्य न य थाय थे, मन रेरा प्रमाण क्षेत्रमा ते परत थाय छ, 'एवइयाई नव ओवासंतराइ" એટલા પ્રમાણના અહિયાં નવ અવકાશાન્તર હોવાથી એટલા પ્રમાણ ક્ષેત્રને નવગણું કરવું જોઈએ. આટલા પ્રમાણવાળા ક્ષેત્રમાં ફરવાની શક્તિ વાળ કઈ એક દેવ પિતાની એ ઉત્કૃષ્ટ વિગેરે વિશેષ વાળી દિવ્યદેવગતિથી ઓછામાં
છે એક દિવસ અથવા બે દિવસ અને વધારેમાં વધારે છ માસ સુધી यासत २७ तोपत 'लों चेव गं ते विमाणे वीईवएज्जा' मा विस्य વિગેરે વિમાને પિકી એક પણ વિમાનને ઉલંઘી શકતાનથી, આ કથનનું
जी० ५६
Page #466
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमसूत्रे
પુર
उत्कृष्टादिरूपया दिव्यया देवगत्या व्यतिव्रजेत् स्वस्तिकाचः कामाभिधानानी त्रिविधानां विमानानां मध्ये किचिदूविमानं व्यतित्रजेदपि किन्तु विजयादीनि विवक्षितो देवः कदापि नो पत्रिजेद् विजयादि विमानानि उल्लङ्घयितुं कोऽपि देवो न समीति भावः । 'ए महालयाणं विमाणा पत्ता पतामहान् तानि विमानानि घक्षणानि 'समगाउसो' दे श्रमण ! हे आयुष्मन्निति । अत्रविषये चतस्रः संग्रह गाथाः सन्ति, तथाहि-
'जावर उदे३ सूरो, जावइ सो अधमेह अवरेणं । पण सत्तनवगुणं, काउं पत्तेय पत्तेयं ॥१॥ सीयालीस सहला, दोयसया जोयणाण तेवहा । इगवीस सट्टी भागा कक्कडमाइस्मि पेच्छनरा ॥२॥ एयं दुगुणं काउं, गुणिज्जइतिपणसत्तमाईहि । आगयफलं च ज त कमपरिमाणं वियाणाहि ॥ ३॥ चत्तारि विकम्मे, चंडाईगईहि जंति छम्मा | यि न जंति पार के सिचि सुरा विमाणाणं || ४ ||
1
यावति दूरे क्षेत्रे सूर्य उदेति यावति च दूरे क्षेत्रे स सूर्योऽपरदिशि पश्चिमा यामस्तमेति तावत्यरिमिक्षेत्र प्रत्येकं प्रत्येकस् 'दियपगतनगुणं' त्रि-पञ्च
परिभ्रमण की शक्ति वाला देव अपनी उत्कृष्टादि गति से चलता हुआ स्वस्तिक अर्चि काम इन तीन प्रकार के विमानों में से किसी एक का लंघन कर भी सकता है किन्तु विजयादि विमानों में से किसी एक विमान का भी उल्लंघन करने में समर्थन नहीं हो सकता है, यही यहाँ विशेषता है । 'ए महालया णं चिमणा पन्नत्ता' ऐसी विशालता वाले वे विजयादिक विमान कहे गये हैं 'समणा उसो' हे अमग आयुष्यन् । यहां विमानों के प्रमाण के विषय में चार संग्रह गाधाए हैं वे इस प्रकार 'जावई उदेह सरो' इत्यादि १ - ४॥
ह
તાત્પર્ય એ છે કે પૂર્વક્ત પરિભ્રમણુની શક્તિ વાળા દેવ પેાતાની ઉત્કૃષ્ટ વિગેરે ગતિથી ચાલીને સ્વસ્તિક. અગ્નિ અને કામ આ ત્રણ પ્રકારના વિમાના પૈકી કઈ એક વિમાનનું ઉલ્લંઘન કરી પણ શકે છે, પરંતુ વિજય વિગેરે વિમાના પૈકી ટાઇ એકાદ વિમાનનું ઉલ્લંઘન કરવાને સમર્થ थता नथी सेन गाडियां विशेष पशु छे 'ए महालया णं विभागा पन्नत्ता' આવા પ્રકારની વિશાળતાવાળા એ વિષય વિગેરે વિમાના કહ્યા છે. 'मणाउसो' हे श्रम आयुष्मन् ! मडियां विभानाना प्रभाणुना समधभां यार स ंग्रड गाथाथे। ऐसी है, ते या अमानी छे. 'जावइ उदेइ सूरो' छत्याहि
Page #467
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रद्योतिका टीका प्र. ३. उ. ३ . २८ स्वस्तिकादि विमाननिरूपणम्
રે
सप्त- नव-नव-गुणं क्रमेण कर्त्तव्यम् इति । पूर्वोक्तं क्षेत्रं कियत्परिमितं भवेदिश्याह'सीयालीस सहस्सा' इत्यादि, सप्त- चत्वारिंशत्सहस्राणि, देश, योजनानि एकस्य योजनस्यैकविंशति स्त्रिषष्टिभागाः (४७२६३३) इयत्परिमितं भवति वत्तु कदा भवतीत्याह - 'कक्कडसाइम्मि' कर्कटादौ कर्कसंक्रान्ते रादौ प्रथमदिने भत्रति जम्बूद्वीपे सर्वाभ्यन्तरमण्डले गते सूर्ये सर्वोत्कृष्टे दिवसे 'पेच्छवरारा' मनुष्याः सूर्यप्रेक्षन्ते 'एयं दुगुणं काउ' एतत् क्षेत्रं द्विगुणं कृत्वा उदय-क्षेत्र मस्तक्षेत्र चेति द्वयमाश्रित्य प्रत्येकावकाशान्तरापेक्षया क्रमशः 'विपण सत्तमाईहि' त्रि-पश्च
जितने दूर क्षेत्र में पूर्वदिशा में सूर्य उगता है और जितने दूर क्षेत्र में पश्चिम दिशा में सूर्य अस्त होता है उतने प्रमाण के दोनों क्षेत्रों में प्रत्येक क्षेत्र को 'तिपण सत्तनव गुणं' अर्थात् क्रम से तीन पांच खात और नव से गुनाना चाहिये, वह पूर्वोक्त सूर्योदय और सूर्यास्त के अन्तरालका क्षेत्र कितना होता है जिसको तीन आदि से गुनाया जाय उस क्षेत्र का प्रमाण इस प्रकार है 'सीयालीस लहस्सा' इत्यादि, सैंतालीस हजार दो सौ तेसठ योजन और एक योजन के इक्कीस साठिया भाग (४७२६३३) एक सूर्योदय और सूर्यास्त में एक क्षेत्र का प्रमाण हुआ । यह प्रमाण कब होता है उसके लिये कहते हैं- 'कक्कडमाइस्मि' कर्क, संक्रान्ति के आदि- प्रथम दिन में सूर्य जब सर्वाभ्यन्तर मण्डल में प्रवेश करता है उस समय सर्वोत्कृष्ट - सब से बडा दिन होता है इस दिन सूर्योदय सूर्यास्त के क्षेत्र का इतना प्रमाण होता है । 'एवं दुगुणं कार्ड' अर्थात् इस उदय क्षेत्र और अस्त क्षेत्र ये दो होने से उपर्युक्त क्षेत्र को જેટલે દૂરના ક્ષેત્રમાં પૂર્વાદિશામાં સૂર્ય ઉગે છે. અને જેટલા દૂરના ક્ષેત્રમાં પશ્ચિમ દિશામાં સૂર્ય આથમે છે. એટલા પ્રમાણના અન્ને ક્ષેત્રામાં દરેક क्षेत्रने 'तिपणखत्तनव गुणं' अर्थात् उमश्री त्र, पांच, सात, अने नवथी ગુણવા જોઇએ આ પૂર્વોક્ત સૂર્યોદય અને સૂર્યાસ્તના અંતરાલનું ક્ષેત્ર કેટલુ હોય છે ? જેને ત્રશુ વિગેરેથી ગુણુવામાં આવે એ ક્ષેત્રનુ પ્રમાણ આ પ્રમાણે छे. 'सीयालीस सहस्सा' इत्यादि सुडतालीस सुन्तर से। त्रेसह योनन भने ५४ योगनना ओवीस साहिया लाग (४७२६३१ !) ये सूर्योदय भने સૂર્યાસ્તમાં એક ક્ષેત્રનું પ્રમાણ થયું. આ પ્રમાણે કયારે થાય છે ? તે સબંધમાં उडे छे है 'कक्कड़माइम्मि' ४, अन्तिना पहले हिवसे सूर्य न्यारे सर्वाभ्यन्तर મડલમાં પ્રવેશ કરે છે, તે વખતે સત્કૃષ્ટ અર્થાત્ સૌથી માટે દિવસ હાય छे. ते हिवसे सूर्योदय सूर्यास्तना क्षेत्र खेटर्स प्रभाष छे 'ए' दुगु काउ' અર્થાત્ ઉદયક્ષેત્ર અને અસ્તક્ષેત્ર આ મેહાવાથી ઉપરાક્ત ક્ષેત્રને ખમણુ
Page #468
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमसूत्रे
ધર
सप्तादिभि - त्रिपश्च सप्तनवभिः 'गुणिज्जइ' गुण्यते, एवं गुणनेन 'आगयं फलं च जंतं' यत् आगतं तत् 'कमपरिमाणं क्रमपरिमाणं देवस्य प्रत्येकविमानश्रेण्यां क्रमेण विक्रमेण विक्रमपरिमाणं परिभ्रमण क्षेत्र प्रमाणम्, 'वियाणादि' विजानीहि ॥३॥ चत्तारि वि' चत्वार्यपि स्वस्तिकार्चिः कामविजयादीनि विमानानि 'कमेि दुगुना करना चाहिये वह दुगुना किया ह्रभा क्षेत्र इतना होता है-चौरानवे हजार पांचसौ छब्बीस योजन और एक योजन के यथालीस साठिया भाग (९४५२६-१३) यह प्रमाण एक अवकाशान्तर का हुआ ऐसेप्रत्येक विमान श्रेणि में क्रम से कितने कितने अवकाशान्तर होते हैं सो बताते है - 'तिपणसत्तमाईहिं' तीन पांच सात और नव, ये क्रम से होते हैं। पूर्वोक्त दुगुने किये हुए सूर्योदय सूर्यास्त क्षेत्र को प्रत्येक विमान श्रेणि 'के अवकाशान्तर से गुनाना चाहिये, जैसे-पूर्वोक्त सूर्योदय सूर्यास्त क्षेत्र को स्वस्तिकादि विज्ञान श्रेणि में लीन ले, अर्चिरादि विमान श्रेणि में पांच से कामादि विध्यान श्रेणि में सात से और विजयादि विमान श्रेणि में नौसे गुनाना चाहिये सारांश यह है कि पूर्वोक्त सूर्योदयास्न क्षेत्र (९४५२६ - (०) को तीन से गुनने पर जो फल आता है वह स्वस्तिकादि विमान श्रेणि के प्रकरण में एक देव का विक्रम कहना चाहिये इसी प्रकार पूर्वोक्त सूर्योदयास्त क्षेत्र को पांच से गुना करने पर जो फल आता है वह अर्चिरादि विमान श्रेणि प्रकरण में एक देव का विक्रम कहना
કરવું જોઈએ એ પ્રમાણે મમણું કરવામાં આવેલ ક્ષેત્ર એટલું હોય છે. ચારણું હજાર, પાંચસો છવ્વીસ ચેાજન અને એક ચેાજનના ૪૨ ખેતાલીસ સાઠિયાભાગ (૯૪૨૬૪) આ પ્રમાણુ એક અવકાશાન્તનુ થયુ. આવી દરેક વિમાન શ્રેણીમાં ક્રમથી કેટલા કેટલા અવકાશાન્તર હાય છે. તે ताये छे, 'तिपणसत्तमाईहिं' त्र, पाय, सात भने नव भा उभथी थाय છે. પૂર્વોક્ત બમણા કરવામાં આવેલ સૂર્યોદય અને સૂર્યાસ્તના ક્ષેત્રને દરેક વિમાન શ્રેણીના અવકાશાન્તરથી જીણુવા જોઈએ. જેમ પૂર્વોક્ત સૂર્યદય અને સૂર્યત ક્ષેત્રને સ્વસ્તિક વિગેરે વિમાન શ્રેણીમાં ત્રણથી અર્ચિ વિગેરે વિમાન શ્રેણીમાં પાચથી, કામ વિગેરેવિમાન શ્રેણીમાં સાતથી અને વિજ્યાદ વિજ્ઞાન શ્રેણિમાં નત્રથી, ગુજીવા જોઇએ. કહેવાને સારાંશ એ છે કે પૂર્વોક્ત સૂર્યોદય અને સૂર્યરત ક્ષેત્ર (૯૪પર૬′3) તે ત્રણ થી ગુણુવાથી જે ગુણાંક આવે તે સ્વસ્તિક વિગેરે વિમાન શ્રેણીના પ્રકરણમાં એક દેવનું' વિક્રમ-મલ કહેવુ જોઇએ. એજ પ્રમાણે પૂર્વક્તિ સૂર્યોદય અને સૂર્યાસ્ત ક્ષેત્રને પાંચથી જીણુવાથી જે લ આવે તે અર્ચિ વિગેરે વિમાન શ્રેણીના પ્રકરણમાં એક દેવનું' વિક્રમ સમજવુ. અને એજ સક્રિય અને
Page #469
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
-
-
-
-
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ ५.२८ स्वस्तिकादि विमाननिरुपणम् ४४५ चंडाइगईहि। चण्डादिगतिमिः स्वक्रमः-स्वविक्रमः स्वपरिभ्रमणचक्रैः 'जति छम्मास' षण्मासान् याचवू यान्ति मच्छन्ति 'वहवि य न जति पारं के सिंचि सुराविमाणाणं' तथापि च सुरा देवाः केषाश्चिद् विमानानां विजयादीनां तु पारं न यान्तीति संग्रहगाथा चतुष्टयस्य संक्षेपार्थः । सू० २८।। - तृतीय प्रतिपत्तौ तियग्योनिकाभिधः प्रथमोद्देशकः समाप्तः ।
कथितः प्रथमोद्देशकः इदानी द्वितीयोद्देशकस्यावसरः तत्रेदं प्रथम मूत्रम्, 'कइविहाणं भवे' इत्यादि - मूलम् -कहाविहाणं भंते ! संलारसमापन्नगा जीवा पन्नता? गोयमा ! छविहा पन्नत्ता, तं जहा पुढवीकाइया जाव तसकाइया। से किं तं पुढीकाइया पुढवीकाइया दुविहा पन्नत्ता तं जहा-सुहुमपुढवीकाइया बादरपुढवीकाइया। से किं तं सुहुमपुढवीकाइया? मुहुमपुढीकाइया दुविहा पन्नत्ता तं जहापज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य से त सुहुम पुढचीकाइया । से किं तं चाहिये । एवं उसी सूर्योदयास्त क्षेत्र को लात से गुना करने पर जो फल आता है वह कामादि चिलान श्रेणि प्रकरण में एक देव का विक्रम कहना चाहिये। तथा उसी तरह खयोदयास्त क्षेत्र को नौ से गुणने पर जो फल आता है वह विजयादि विमान श्रेणि प्रकरण में एक देव का विक्रम होता है। ये विजयादि विमान लष ने बड़े हैं इसलिये स्वस्तिक अचि और काम आदि विमानों में तो वह देव किसी किसी विमान को पार भी कर सकता है किन्तु वह देव विजयादि विमानों में से किसी को भी पार नहीं कर पाता है। यह चार संग्रह गाथाओं का अर्थ होता है ।लू० २८॥ तृतीय प्रतिपत्ति में तिर्थयोनिक अधिकार का प्रथम उद्देशक समाप्त સૂર્યરત ક્ષેત્રને સાતથી ગુણવામાં આવે તેનું જે ફળ આવે તે કામ વિગેરે વિમાણ શ્રેણી પ્રકરણમાં એક દેવનું વિક્રમ સમજવું જોઈએ અને એજ પ્રમાણે સૂર્યોદય અને સૂર્યાસ્ત ક્ષેત્રને નવથી ગુણતાં જે ગુણાકાર આવે તે વિજય વિગેરે વિમાન શ્રેણું પ્રકરણમાં એક દેવનું વિકમ થાય છે. આ વિજય વિગેરે વિમાનો સૌથી મોટા હોય છે તેથી વસ્તિક, અચિ અને કામ વિગેરે વિમાનમાં તે તે દેવ કોઈ કઈ વિમાનને ઓળંગી પણ શકે છે, પરંતુ તે દેવ વિજય વિગેરે વિમાન પૈકી કોઈ પણ વિમાનને ઓળંગી શકતા નથી. આ પ્રમાણે આ ચાર સંગ્રહ ગાથાઓને અર્થ થાય છે. એ સૂ ૨૮ ! ત્રીજી પતિપત્તીમાં તિર્યંચેનિક અધિકારને પહેલે ઉદ્દેશ સમાપ્ત ૩-૪
Page #470
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमसूत्रे बायरपुढवीकाइया ? बायरपुढवीकाइया दुविहा पन्नत्ता तं जहा पजत्तगाय अपजत्तगाय, एवं जहा पण्णवणापदे सण्हा सत्तविहा पन्नन्ता, खरा अणेगविहा पन्नत्ता जाव असंखेज्जा से तं वायरपुढवीकाइया से तं पुढवीकाइया । एवं चेव जहा पण्णवापदे तहेव निरवसेसं भाणियव्वं जाव वणप्फइकाइया । एवं जाब जत्थेगो तत्थ सिय संखेज्जा सिय असंखेज्जा सिय अनंता से त्तं बायरवणफइकाइया । से त्तं वणस्सइकाइया ॥ से किं तं तसकाइया, तसकाइया चउव्विहा पन्नत्ता तं जहाबेइंदिया, तेइंदिया, चउरिंदिया, पंचेंदिया । से किं तं वेईदिया ? बेइंदिया अणेगविहा पन्नत्ता, एवं जं चेत्र पण्णवणापदे तं वेव निरवसेसं भाणियव्वं जाव सव्वट्टसिद्धगदेवा से तं अणुतरोवबाइया, ले तं देवा से तं पंचेंदिया, से तं तसकाइया ॥२९॥
छाया - कतिविधाः खलु भदन्त | संसारसमापनका जीवाः प्रज्ञप्ताः गौतम ! पविधाः प्रज्ञप्ताः तद्यथा - पृथिवीकायिकाः, यावत् सकायिकाः । अथ के ते पृथिवीकायिकाः ? पृथिवीकायिका द्विविधाः प्रज्ञप्ताः वयथा- सूक्ष्मपृथिवीकायिकाः, बादरपृथिवीकायिकाच, अथ के ते सूक्ष्मपृथिवीकायिकाः ? सूक्ष्मपृथिवीकायिका द्विविधाः प्रज्ञप्ताः तद्यथा- पर्याप्तकाश्चापर्याप्तकाच, ते एते सूक्ष्मपृथिवीकाचिकाः अथ के ते वादरपृथिवीकायिकाः ? वादरपृथिवीकायिका द्विविधाः मज्ञछाः तद्यथा पर्याप्तकाखापर्याप्त काश्च । एवं यथा प्रज्ञापनापदे, स्निग्धाः सप्तविधाः प्रज्ञप्ताः, खरा अनेकविधाः प्रज्ञप्ताः यावदसंख्याः, ते एते वादरपृथिवी कायिका, ते एते पृथिवीकायिकाः । एवमेव यथा प्रज्ञापनापदे तथैव निरवशेष भणितव्यं यावद्वनस्पतिकायिकाः, एवं यावत् यंत्रक स्तत्र स्युः संख्ये याः असंख्येयाः स्युरनन्दा, ते एते वादरवनस्पतिकायिकाः, ते एते वनस्पतिकायिकाः । अथ के ते कायिकाः ? सकायिकाश्चतुर्विधाः प्रज्ञप्ताः तद्यथाद्वीन्द्रियाखीन्द्रियाश्च रिन्द्रियाः पञ्चेन्द्रियाः । अथ के ते द्वीन्द्रियाः द्वीन्द्रिया अनेकविधाः मज्ञाः एवं यदेव प्रज्ञापदे तदेव निरवशेषं मणितव्यं यावत् सर्वार्थ देवाः । ते एते अनुत्तरोपपातिकाः ते एते देवाः, ते एते पञ्चेन्द्रियाः, एते सकायिकाः ॥ स्र० २९||
ઉદ્
W
-
Page #471
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रtratfant टीका प्र.३ ७.३ ६.२९ संसारसमान्नकजीवनिरूपणम्
टीका- 'कविद्वाणं भंते ।' कतिविधाः खल भदन्न । संसार समावन्नगा जीवा पन्नता' संसारसमापन्नकाः चातुर्गतिकसंसारे विद्यमाना जीवाः प्राणिनः प्रशप्ताः- कथिता इति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'छव्विदा संसारसमान्नगां जीवा पन्नत्ता' संसार समापन्नका जीवाः षड़विधा:पटू प्रकारकाः प्रज्ञप्ताः - कथिताः 'तं जहा ' तद्यथा - 'पुढकया जा उसकाइया' पृथिवीकायिका यावत् सकायिकाः अत्र यावत्पदेना कायिक- तेजस्काविकवायुकायिक- वनस्पतिकायिकानां जीवानां संग्रहो भवति तथा च पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पति त्रसकायभेात् संपारसमापन्नका जीवाः पविधाः प्रज्ञप्ता इति । 'से किं तं पुढवीकाइया' अथ के ते पृथिवीकाइकाः पृथिवीकायिक जीवानां कियन्तो मेदा इति प्रश्नः,
४४७
-
'केह विहाणं भंते! संसारसमापन्नगा जीवा' इत्यादि ।
टीकार्थ- गौतमस्वामी ने प्रभुश्री से ऐसा पूछा है- 'कह विहाणं भंते! संसारसमावन्नगा जीवा पन्नता' हे भदन्त ! संसारी जीव कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं - 'गोयमा ! छविवहां संसारसमावन्नगा जीवा पण्णत्ता' हे गौतम! संसारी जीव छह प्रकार के कहे गये हैं- 'तं जहां' जैसा 'पुढवीकाइया जाब तसकाइया' पृथिवीकायिक यावत् त्र कविक यहां यावत्पद से अष्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकाधिक और वनस्पतिकाधिक इन जीवों का संग्रह हुआ है. तथा च पृथिवीकायिक, अष्कायिक, तेजस्काfus, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रासकाधिक के भेद से संसार समापनक जीव छह प्रकार के कहे गये हैं । 'से किं तं पुढवीकाहा' हे भदन्त ! पृथिवीकायिक जीवों के कितने भेद हैं ? इसके उत्तर में प्रभुश्री
'कइ विहाण' भंते ! संसारसमावण्णना जीवा' इत्याहि
टीअर्थ' - 'श्रीगीतभस्वामी प्रभुश्री ने भेवु छे छे 'कइविहाणं भते ! संसार समावण्णगा जीवा पण्णत्ता' हे भगवन् संसारी पेटला अारना કહેવામાં આવ્યા છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૈતમરવામીને કહે છે કે 'गोयमा ! छव्विहा संसारसमावन्नगा जीवा पण्णत्ता' हे गौतम । संसारी भवे छ अारना उडेवामां मान्या छे. 'त' जहा' प्रेम 'पुढवीकाइया जाव तखकाइया ' પૃથ્વીકાયિક ચાવત્ સકાયિક, અહિયાં યાવત્પદથી અકાયિક, તેજશ્કાયિક, વાયુકાયિક વનસ્પતિકાયિક, અને ત્રસકાયિકના ભેદથી સ’સારસમાપન્નક જીવેા છ પ્રકારના કહેવામાં આવ્યા છે.
'से किं त पुढवीकाइया' हे भगवन् । पृथ्वीश्रयि ल्योना सा लेटा हो या प्रश्नमा उत्तरमा प्रभुश्री गौतमस्वाभीने आहे हे ! 'गोयमा !
Page #472
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमन भगवानाह-'गोयमा' हे गौतम ! 'पुढवीकाइया दुविहा पन्वत्ता' पृथिवीकायिकाः जीवाः द्विविधा:-द्वि प्रकारकाः प्रज्ञप्ता- कथिताः । भेदद्वयं दर्शयति-तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा' तद्यया-'सुहुमपुटवीकाइया' सूक्ष्मपृथिवीकायिका जीवाः, तत्र सुनत्वं सूक्ष्मनामकर्मोदयात् न तु सूक्ष्मत्वम् अल्पत्वम् । 'वायरपुढवीकाइयाय' पादरपृथिवीकायिकाश्च, तब बादरत्वं बादरनामकर्मोदयात् नतु बादरत्वं स्थूलत्व. मिति । 'से कि तं सुहुमपुढवीझाइया' अथ के ते सूक्ष्मपृथिवीकायिकाः, सूक्ष्म पृथि कायिक जीवानां कियन्तो भेदा इति प्रश्ना, भगवानाह-गोयमा' हे गौतम! 'मुहुयपुढवीकाइया दुविहा पन्ना' सूक्ष्मपृथिवीकायिका जीवाः द्विविधा:-द्वि. कहते हैं-'गोयमा ! पुढचीकाइथा दुविहा पन्नत्ता' हे गौतम ! पृथिवी कायिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं-'तं जहा' जैसे-'सुधम पुढवी काइया' एक सूक्ष्म पृथिवी कायिक जीव और दूसरे 'बायर पुढवीकाझ्या घ' घादर पृथिवीकायिक जीव जिन पृथिवीकायिक जीवों के सूक्ष्म नाम कर्म का उदय होता है उन्हें सूक्ष्म पृथिवी कायिक जीव कहा गया है और जिन पृथिवीमायिक जीवों के बादर नाम कर्म का उदय होता है उन्हें बादर पृथिवीकायिक जीव कहा गया है। सूक्ष्म नाम अल्पत्व का भी है और बादर नाम स्थूलत्व का भी है तो इस अल्पत्व से और पादरत्व ले युक्त जो पृथिवी कायिक जीव हैं उन्हें सूक्ष्म पृथिवीकाधिक
और बादर पृथिवीकायिक रूप नहीं कहा गया है 'से किं तं सुहुम पुढवी झाइया' हे अदन्त ! सूक्ष्म पृथिवीकाधिक जीवों के कितने भेद हैं उन्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! सुहुम पुढधीशाश्या दुविहा पण्णत्ता' पुढवीकाइया दुविहा पणत्ता' हे गौतम ! पृथ्व[1148 2 में प्रारना ४वामा माया छे. 'त' जहा' म 'सुहुय पुढवीकाइया' मे सूक्ष्म पृथ्वी ४५४ 01 मने भी 'बायर पुढवीकाइया' मा४२ पृथ्वीयि ७१२ પૃથ્વીકાયિક જીવોને સૂફમનામ કર્મને ઉદય હોય છે, તેઓને સૂમ પૃથ્વી કાયિક જીવે કહેવામાં આવે છે. અને જે પૃથ્વી કાયિક જીવને બાદર નામ કર્મને ઉદય હોય છે, તેમને બાદર પૃથ્વીકાયિક જીવે કહેવામાં આવે છે. સહય નામ અત્યંત અલ્પ વનું પણ છે અને બાદર નામ શૂલપણાનુ પણ છે તે આ અ૯પ પણુથી અને બાદર પણાથી યુક્ત જે પૃથ્વીકાયિક જીવો છે, तत्याने सूक्ष्म पृथ्वी यि भने माहपृथ्वी थि: पाथी वा नथी. 'से कि त सुहुमपुढवीकाया' ले सन् सभी यि वन सा हो zal छ ? सा प्रश्नमा उत्तरमा प्रभुश्री गौतभस्वामी ४ छ , 'गोयमा !
Page #473
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका ठीका प्र. ३ उ. ३ सू.२९ संसारसमापन्नकजीवनिरूपणम्
४४९
प्रकारकाः प्रज्ञप्ताः कथिता इति । 'तं जहा' तथथा- पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य' पर्याप्ताच अपर्याप्ताश्च तथा च पर्यवापर्याप्तभेदेन सूक्ष्मपृथिवीकायिका द्विविधा भवन्तीति भावः । सूक्ष्मपृथिवीकायिकान् उपसंहरन्नाह - 'सेतं' इत्यादि 'सेत्तं सुमढवीकाइया' ते एते सूक्ष्मपृथिवीकायिकाः समेश निरूपिता इति । सूक्ष्मपृथिवीकायिकान निरूप्य 'वादपृथिवीकायिकान् निरूपयितुमाह से कि वायर' इत्यादि, 'से किं तं वाढवीकाइया' अथ के ये व दरपृथिवी'कायिकाः, बादरत्वं वादरकर्मोदयाद वादः पृथिवीकायिकानां कियन्तो मेदा इति प्रश्न, भगवानाह दे गौतम ! 'वायरपुढीकाइया दुबिहा पन्नत्ता' बादरपृथिवीकायिका द्विविधाः - द्विमकारकाः प्रज्ञप्ताः- कथिता इति । 'तं जहा' तयथा'पज्जत्तगा य अपज्जतथा य' पर्याप्तकाश्चाऽपर्याप्तकाश्च तत्र पर्यापतागुणविशिष्टा हे गौतम! सूक्ष्म पृथिवीकायिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं- 'तं जहा ' कैसे - 'पज्जतगाय अपज्जन्तगाय' एक पर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकाधिक और दूसरे अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीवाधिक 'सेत्तं सुहुमपुढवीकाया' इस प्रकार से सक्षम पृथिवीकाधियों के सम्पन्ध में यह विवेचन किया गया है
www
tय बादर पृथिवीकाधिको का निरूपण करते हैं- 'से किं तं वायर पुढवीकारा' हे भदन्त ! बादर पृथिवीकायिक जीव कितने प्रकार के हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-गौनम ! बाघर पुढवी काइया दुबिहा प० ' यादर पृथिवीकाधिक जीव दो प्रकार के हैं 'तं जला' जैसे- 'पज्जतगाय अपज्जगाय' पर्यातक बादर पृथिवीकायिक और अपर्याप्तकरु यादर
मढवीकाइया दुविधा पण्णत्ता' हे गीतम ! सूक्ष्म पृथ्वी अयि भव मे प्रहारना उडेवामां आव्या के 'त' जहा' भड़े 'पज्जत्तगा य अपज्जन्तगा य' એક પર્યાપ્તકસૂક્ષ્મ પૃથ્વીકાયિક અને ખીજા અપર્યાપ્તક સૂક્ષ્મ પૃથ્વીકાયિક સે त हुमपुढवीकाइया' आ પ્રમાશે. સમ પૃથ્વીકાયિકાના સ’બધમાં આ ઉપરોક્તકથન કરવામાં આવેલ છે.
હવે ખાદર પૃથ્વી કાયિકેતુ નિરૂપણ કરવામાં આવે છે. આ સખ‘ધમાં श्रीगीतभस्वाभी अलुश्री ने पूछे छे है 'से किं तं वायरपुढवीकाइया' हे भगवन् ખાદર પૃથ્વીકાયિક જીવા કેટલા પ્રકારના કહેવામાં આવ્યા છે? આ પ્રશ્નના उत्तरमां अनुश्री गौतमस्वाभीने हे छे 'गोयमा ! वायर पुढवीकाइया दुविहा પળજ્ઞ' હૈ ગૌતમ 1 ખાદર પૃથ્વીકાયક જીવાં એ પ્રકારના કહેવામાં આવ્યા छे. ‘त ं जहा’ ?भ} ‘पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य' मे पर्यास बाहर पृथ्वी अयिष्ठ અને બીજા અપર્યાપ્તક ખાદર પૃથ્વીકાયિક જેમને પર્યાપ્તિ નામક ના ઉદય હોય
ली० ५७
Page #474
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमसूत्र पर्याप्ताः, अपर्याप्ततागुणविशिष्टास्तु अपर्याप्ता इति । 'एवं जहा-पण्णवणापदे' । एवमुक्तक्रमेण यथा प्रज्ञापनापदे पृथिवी भेदो वर्णित स्तथैव अत्रापि विज्ञेयः तदेव प्रज्ञापना प्रथमपदं दर्शयति='सहा सत्तविहा पन्नत्ता स्निग्धाः सजविधाः प्रप्तार पृथिव्यो द्विविधाः स्निग्धाश्च खराश्च । तत्र स्निग्धाः सप्तविधाः प्रज्ञप्ताः खरा अणेगविहा पन्नत्ता' खराः पृथिव्योऽनेकविधाः प्राप्ताः 'जब असंखेज्जा' यावद संख्येयाः पृयिव्य इति बादरपृथिवीकायिकान् उपसंहरन्नाह-से तं वायरपुढवी. काइया' ते एवे चादरपृथिवीकायिका निरूपिताः । 'एवं चेव जहा पण्णवणापदे पृथिवीकायिक जिनको पर्याप्ति नाम कर्म का उदय होता है वे पर्यासक हैं और जितके पर्याप्त नाम कर्म का उदय नहीं होता है वे अपर्याप्तक हैं । 'एवं जहा पण्गदणापदे' प्रज्ञापना के प्रथम पद में जिस प्रकार से पृथिवी भेदों का वर्णन किया गया है उसी तरह से वह वर्णन यहां पर भी कर लेना चाहिये प्रज्ञापना के प्रथथ पद में इस सम्बन्ध में ऐसा वर्णन है-'लण्हा सत्तविहा पण्णता लक्षण पृथिवी सात प्रकार की कही गई है अर्थात् श्लक्ष्णा और खर पृथिवी के भेद से पृथिवी दो प्रकार की होती है इन में लक्षणा पृथिवी सात प्रकार की है और 'खरा अणेगविहा' खर पृथिधी अनेक प्रकार की है यावत् 'असंखेज्जा' असंख्यात प्रकार की ई ले तं बायर पुढबीकाइया' इस तरह से बादर पृथिवी कायिक जीवों के सम्बन्ध में यह वर्णन किया गया है ‘एवं चेव जहा છે, તેઓ પર્યાપ્ત કહેવાય છે અને જેમને પર્યાપ્ત નામ કર્મને ઉદય થત नथी तो अपर्या छे. 'एवं जहा पण्णवणापदे' प्रज्ञायना सूत्रना पड़ता પદમાં જે પ્રમાણે પૃથ્વી ચિકેના ભેદેનું વર્ણન કરવામાં આવેલ છે એ જ પ્રમાણેનું તે વર્ણન અહિયાં પણ સમજી લેવું, પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના પહેલા પદમાં પૃથ્વીકાચિકેના ભેદનું વર્ણન કરવામાં આવેલ છે. એ જ પ્રમાણેનું તે વર્ણન અહિયાં પણ સમજી લેવું, પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના પહેલા પદમાં આ સંબંધમાં એવું वन छ है 'सहा सत्तविहा पण्णत्ता' स] पृथ्वी सात प्रा२नी ही छे. અર્થાત્ લક્ષણ અને ખર પૃથ્વીના ભેદથી પૃથ્વી બે પ્રકારની હે ય છે. તેમાં
पृथ्वी सात रनी अवामा भावी छे. सन 'खग अणेगविहा पण्णत्ता' ५२ पृथ्वी मने प्रा२नी ही छ. यावत् 'असंखेजा' असण्यात प्रा२नी छे. 'से तं बायर पुढवीकाइया' मा प्रमाणे मा१२ पृथ्वी थियि श्वाना समयमा मा वन ४२पामा मावत छ ‘एवं चेव जहा पण्णवणा
Page #475
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयोतिका टीका प्र. ३ उ. ३ सू.२९ संसारसमापन्नकजीवनिरूपणम्
४५१
तहेब निरवसेसं भाणियव्यं' एवमेव यथा मज्ञापना पदे कथितं तथैव निरवशेषं भणितव्यम् समग्रमपि घज्ञापना सूत्रस्य प्रथमं प्रज्ञापनाख्यं पदं वक्तव्यमिति । कियत्पर्यन्तं प्रज्ञापनापकरणं वक्तव्यं तत्राह - 'जाव' इत्यादि, 'जाव वणण्फ इकाइया' यावद्वनस्पतिकायिकाः पृथिवीकायिकादारभ्य वनस्पतिकायिकान्तजीवानां भेदो निरूपणीय इति । एवं जाव जत्थे को तत्थ लिय संखेज्जा' एवं यत्रैको जीव स्वत्र
संख्ये याः जीवा भवन्ति, 'सिय असंखेज्जा' यत्रैको जीव स्तत्र ग्युरसंख्येयाः, 'सिय अनंता' स्युरनन्ता जीवा स्तत्र वनस्पतिकायापेक्षयेति । 'सेत्तं वणस्सइकाइया' ते एते वनस्पतिकायिका इति । स्थावरकायिकान् पञ्चविधान् निरूप्य कायिकान् निरूपयति- 'से किं वं उसकाइया' अथ के ते सकायिकाः, पण्णवणा पदे तहेव निरवलेलं आणियच्च' ऐसा ही वर्णन प्रज्ञापना के प्रथम पद में किया गया है । वैसा ही सब वर्णन यहां पर भी कर
ना चाहिये यह वर्णन वहां पर 'जाव वणष्कर काइया' वनस्पतिकायिक तक किया गया है अतः वहां तक का यह वर्णन यहां पर करने को कहा गया है 'एवं जाव जत्थेगो तत्थ सिय संखेज्जा' जहां पर एक जीव होता है - वहां पर संख्यात जीव भी हो सकते हैं। तथा 'सिय असंखेज्जा' असंख्यात जीव भी हो सकते हैं । तथा 'सिय अनंता' अनन्त जीवों के होने का कथन वनस्पतिकायिक जीवों की अपेक्षा से किया गया जानना चाहिये 'से तं वणफइकाइया' यह वनस्पति कायिक जीव का निरूपण हुआ ।
स्थावर कायिक जीवों का निरूपण करके अब सूत्रकार त्रलकायिक जीवों का निरूपण करते हैं इसमें श्रीतम ने प्रभुनी से ऐसा पूछा है
पदे तव निवरसेसं भाणियव्व' ४ प्रभाषेनुं वर्धुन अडियां यषु समल सेवु, लेडोमा वागुन त्यां 'जाव वणफइकाइया' वनस्पति अनि स्थन पर्यन्त કરવામાં આવેલ છે. તેથી ત્યાં સુધીનું આ વન અહિયાં પણુ સમજી લેવુ' तेभ े, 'एवं जाव जत्थेगो तत्थ सिय स खेज्जा' नयां शेड लव होय छे, त्यां संख्यात कवी यासु हो राडे छे तथा 'सिय अनंता' अनंत लवे! પણ હાઈ શકે છે. આ સખ્યાત અસખ્યાત અને અન ત વ હાવાના સબંધનું કથન વનસ્પતિકાયિક જીવાની અપેક્ષાથી કહ્યુ છે તેમ સમજવુ.
'सेत्तं वण फइकाइया' मा अभाये वनस्पति अलिवोनु निश्थ કરવામાં આવેલ છે.
વનસ્પતિકાચિક જીવાતું નિરૂપણુ કરીને હવે સૂત્રકાર ત્રસકાયિક જીવે નુ’ निश्चय रे माभां श्रीगीतमस्वामी प्रभुश्री ने मे' पूछे छे डे ' से कि
Page #476
--------------------------------------------------------------------------
________________
५५२
जीवामिगमन उसका यिकानां कियन्तो भेदा इति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' हे गौतम ! 'तसकाइया चउबिहा पन्नता' सकायिशाश्चतुविधाश्चतुः प्रकारका प्रज्ञप्ता: -कविता इति । 'तं जहा' तद्यथा:-'वेदिया तेइंदिया चउरिदिया पंचें दिया द्वीन्द्रि शास्त्रीन्द्रि पाश्चतुरिन्द्रियाः पञ्चेन्द्रिया इति । 'से कि वेइंदिया' अथ के ते द्वीन्द्रियाः द्वीन्द्रिय जीवानां कियन्तो भेदा इति प्रश्नः, भगवानाइ हे गौतम ! 'इंदिया अणेगविहा पन्नत्ता' द्वीन्द्रियजीवा अनेकविधा:-अनेकप्रकारकाः मनप्ताः-कथिता इति । 'एव चेव पण्णवणापदे तं चेव निरवसेसं भणियन्वं जाव सबसिद्धपदेवा' एवमेव प्रज्ञापना प्रथमे पदे कथितं तथैव निरवशेष- समग्रमपि भणितव्यं वक्तव्यम् यावत् सर्वार्थसिद्धदेवाः, द्वीन्द्रियादारभ्य सर्वार्थसिद्धदेव पर्यन्तानां होपभेदयुक्तानां प्रज्ञापनाप्रकरणवदेव ज्ञातव्यमिति । 'सेत्तं अणु त्तरोववाइया' ते एते अनुत्तरोपपातिका देवा निरूपिताः । ‘से तं देवा' ते एते 'से किं तं तसफाइया' हे अदन्त त्रसकायिक जीवों के कितने भेद हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-हे गौतम! 'तसशाच्या चउब्धिहा पण्णत्ता' प्रसकायिक जीव चार प्रकार के हैं-'तं जहा' जैसे-'वेइंदिया, तेइंदिया, चरिदिया, पंचे दिया' दोइन्द्रिय तेन्द्रिय, चौइन्द्रिय, और पञ्चेन्द्रिय 'से कितं वेइंदिया' हे भदन्त ! दो इन्द्रिय जीवों के कितने भेद हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-हे गौतम ! 'वेइंदिया अणेगविहा पण्णत्ता' दो इन्द्रिय जीवों के अनेक भेद हैं एवं चेव पण्णणा पदे तं चेव निरवसेस भाणियव्वं जाव सव्वट्ठसिद्धगदेवा' इन सब का वर्णन प्रज्ञापना सूत्र के प्रथम पद में किया गया है अतः यह सब वर्णन द्वीन्द्रिय जीवों के वर्णन से लेकर सर्वार्थ सिद्ध के देवों के वर्णन तक का यहां पर प्रज्ञापना से लेकर कर लेना चाहिये वहां इनका वर्णन भेद प्रभेदों तसकाइया' ७ सय सय ७वाना ४८सा हो वा छे. मा प्रश्नना उत्तरमा प्रमुश्रीगीतमस्वामीन है 'गोयमा । तसकाइया चउबिहा पण्णत्ता'
गीतम! साथि । य२ रना ह्या छे. त जहा' रेभ 'बेइंहिया, तेइंदिया, चउरिदिया, पचे दिया' में दिया। वा, त्रय धाद्रिय વાળા જી, ચાર ઈદ્રિય વાળા છે અને પાંચ ઈ દ્રિય વાળા છે 'से कि त वेइदिया' गवन् मेद्रिय वा वाना सा हो ४ा छ १ मा प्रश्रना उत्तरमा असुश्री गोतमत्वामीन 'गोयमा ! वे इंदिया अणेगविहा पण्णत्ता' हे गीतम! मे द्रियवाणा ! मने प्रश्न वा छे. एवं चेव पण्णवणा पदे त चेव निरवसेस भाणियब जाव सम्बद्व सिद्धगदेवा' આ બધા જીનું વર્ણન પ્રજ્ઞાપના સૂત્રમાંથી લઈને કહી લેવું જોઈએ. ત્યાં તેઓનું વર્ણન ભેદ પ્રભેદે સહિત ઘણાજ વિસ્તાર પૂર્વક કરવામાં આવેલ છે.
Page #477
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.२९ संसारसमापनकजीवनिरूपणम् ४.३ देवा निरूपिता इति । 'सेत्तं पंचिदिया' ते एते पञ्चेन्द्रिया जीया निरूपिता इति । 'सेत्तं तसकाइया' ते एते त्रसकापिका जीवा निरूपिता इति ।मू०२९॥
सम्पति विशेषाभिधानाय पुनरपि पृथिवीकायिकमाइ ---'कहविहाणं भंते ! पुढची पन्नत्ता' इत्यादि, ____मूळम्-काविहा णं भंते ! पुढवी पन्नत्ता ? गोयमा ! छब्विहा पुढवी पन्नता तं जहा-सहा पुढवी१, सुद्धपुढबीर, बालुयापुढवी३, मणोसिलापुढवी४, सकरापुढवी५, खरपुढवी६। सण्हापुढवी णं भंते ! केवइयं कालं ठिई पन्नता ? गोचमा ! जहणेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं एगं वाससहरूलं । सुद्धपुढवीणं पुच्छा ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुरा उकोलणं वारसवाससहस्साई । बालुयापुढवीणं पुच्छा गोथमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं बोदलवालसहस्साई भणोसिला पुढीणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोलणं सोलसवाससहस्लाई। सकरा पुढवीणं पुच्छा गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोलेणं अट्ठारसबालसहरूलाई । खरपुढवीणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उकासेणं बावीस वालसहस्साइं। नेरइयाणं भंते ! सहित बहु विस्तार पूर्वक किया गया है । 'सेत्तं अणुत्तरोषधाइया' यह अनुत्तरोषपातिक देवों का वर्णन हुआ। इस तरह से इनका वर्णन हो जाने पर देव वर्णन का प्रकार ण समाप्त हो जाता है और इस प्रकरण की समाप्ति में 'सेत्तं पंचेंदिया' इस सूत्र के अनुसार पंचेन्द्रिय जीवों का भी निरूपण पूर्ण हो जाता है इसकी पूर्णता में 'सेत्तं तसकाइया' सकायिक जीवों का वर्णन भी समाप्त हो जाता है । सू० २९॥
से तं अगुत्तरोबवाइया' मा शत मा अनुत्तरे।५पाति वशनु वन કરવામાં આવ્યું છે. આ અનુત્તરે પપાનિક દેવેનું વર્ણન પુરૂં થતાં દેવ વર્ણન નું પ્રકરણ સમાપ્ત થઈ જાય છે તેમજ આ પ્રકરણની સમાપ્તિમાં રે ૪ तसकाइया' मा प्रभारी सूत्रा४ ४ह्यो छे है यि सानु नि३५६५ સમાપ્ત થાય છે, એ સૂ. ૨૯ છે
Page #478
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
जीवामिगम केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता ? गोयमा! जहन्नेणं दसवाससहस्साई उकोलेणं तेत्तीस सागरोवमाइं ठिई । एवं सव्वं भाणियवं जाव सम्बटू सिद्ध देवेत्ति। जीवेणं भंते! जीव त्ति कालओ केवञ्चिरं होई ? गोयमा ! सव्वद्धं । पुढवीकाइएणं भंते ! पुढवीकाइयत्ति कालओ केवञ्चिरं होई ? गोयमा ! सव्वद्धं एवं जाव तसकाइए ॥ ____ पडुपन्न पुढवीकाइयाणं भंते ! केवइय कालस्ल णिल्ले वा सिया? गोयसा! जहण्णपदे असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं, उक्कोसपदे असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणीहिं । जहन्नपदाओ उक्कोसपदे असंखेज्जगुणा । एवं जाव पडुपन्न वाउकाइया । पडुपन्न वणप्फइकाइयाणं भंते! केवइय कालस्स निल्लेवा सिया? गोयमा! पडुपन्नवणप्फइकाइया जहन्नपदे अपदा उकोलपदे अपदा, पडुपन्न वणप्फइकाइयाणं णत्थि पिल्लेत्रणा । पडुपन्नतसकाइयाणं पुच्छा, जहणपदे सागरोवमसमपुहुत्तस्स उकोसपदे सागरोवमसय पुहुत्तस्त जहणगपदा उक्कोसपदे विलेलाहिया ॥सू०३०॥
छाया- कविविधाः खल्नु भदन्त ! पृथिवी प्रज्ञप्ता ? गौतम ! पइविधा पृथिवीपज्ञप्ताः तचथा-लक्ष्णपृथिवी शुद्धपृथिवी वालुकापृथिवी मन:-शिला पृथिवी शर्करापृथिवी खरपृथिवी । श्क्ष्ण पृथिवीनां भदन्त ! कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? गौउम ? जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम् उत्कर्षेणैकं वर्षसहस्रम् । शुद्ध पृथिवीनां पृच्छा, गौतम! जघन्येनान्तमुहूर्तम् उत्कर्षेण द्वादशवर्षसहस्राणि, बालुका पृथिवीनां पृच्छा गौतम ! जघन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्कर्षेण चतुर्दशवर्षसहस्राणि । मनः शिळापृथिवीनां पृच्छा गौतम ! जघन्येनान्तमुहर्तम् उत्कर्षेण षोडशवर्षसहस्त्राणि । शर्करापृथिवीनां पृच्छा ? गौतम ! जघन्येनान्तर्मुहूर्त मुत्कर्षेणाष्टादशवर्षसहस्राणि । खरपृथिवीनां पृच्छा गौतम ! जघन्येनान्तर्मुहूर्तमुस्कर्षेण द्वाविंशतिःवर्ष सहस्राणि नैरयिकाणां भदन्त ! कियन्तं कालं स्थितिः पज्ञता, गौतम ! जघन्येन
Page #479
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ ५.३० समेदपृथिव्या स्थित्यादिनिरूपणम् ४५५ दशवर्षसहस्राणि उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि स्थितिः । एवं सर्व भणितव्यं यावत्सर्वार्थसिददेव इति । जीवः खलु भदन्त ! जीव इति कालता कियचिरं भवति ? गौतम ! सर्वाद्धाम् । पृथिवीकायिकः खलु भदन्त ! पृथिवीकाइक इति कालतः कियच्चिरं भवति ? गौतम ! सर्वाद्वाम् । एवं यावद त्रम कायिक इति । प्रत्युत्पन्न पृथिवीकायिकाः खलु भदन्त ! कियता कालेन । निले स्युः ? गौतम! जघन्यपदे असंख्याताभि रुत्सपिण्यवसर्पिणीमिः, उत्कृष्टपदे असंखातमिरुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभिः जघन्यपदादुन्कृष्टपदे असंख्येयगुणाः। एवं यावत् प्रत्युत्पन्नवायु: कायिकाः । प्रत्युत्पन्नवनस्पतिकायिका खच भदन्त ! कियता कालेन निर्लेपाः स्युः ? गौतम ! प्रत्युत्पन्न वनस्पतिकायिका जघन्यदे अपदार, उत्कृष्टपदे अपदाः, मत्यु-पन्न वनस्पतिकायिकानां नास्ति निलपना प्रत्युत्पन्नवसकायिकानां पृच्छा जघन्यपदे सागरोपमशतपृयक्त्वेन, उत्कृष्टपदे सागरोपमशतपृथक्त्वेन जघन्यपदादुत्कृष्टपदे विशेषाधिकाः ॥मू०३०॥ ___टोका-'कइविहा णं भंते ! कतिविधा खलु मदन्त ! 'पुढवी पन्नत्ता' पृथिवी प्रज्ञप्ता-कथिता ? इति पश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि 'गोयमा' हे गौतम ! 'छविहा पुढवी पन्नत्ता' पविधा-पप्रकारका पृथिवी घज्ञप्ताकथिता इति, षट्र प्रकारकभेदमेव दर्शयति-तं जहा' इत्यादि, 'त जहा' तयधा'सण्डा पुढवी' इलक्ष्णा पृथिवी इलक्ष्णा चूर्णितलोष्ट तुल्या या पृथिवी सा श्लक्ष्णा
विशेष कथन के निमित्त पुनः सूत्रकार पृथिवो सूत्र का कथन करते हैं
'कह विहाणं भंते ! पुढवी पण्णत्ता-इत्यादि ॥सूत्र-२९॥
टीकार्थ-इस सूत्र द्वारा गौतमस्वामी ने प्रभु से ऐसा पूछा है-'कह विहा णं भंते ! पुढवी ५०' हे भदन्त ! पृथिवी कितने प्रकार की कही गई है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा! छविही पुढवी प०' हे गौतम । पृथिवी छह प्रकार की कही गई है 'तं जहा' जैसे-'सहा पुढवी' श्लक्ष्ण पृथिवी यह पृथिवी चूर्णरूप में होती है जैसा-कि रूनी (लुणा) लगा
વિશેષ કથન કરવા માટે સૂત્રકાર હવે પૃથ્વી સૂત્રનું કથન કરે છે. 'कइविहाणं भते ! पुढवी पण्णत्ता' इत्यादि
ટીકાઈ–આ સૂત્રદ્વારા શ્રીગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રી ને એવું પડ્યું છે કે 'कइविहाणं भते ! पढवी पण मगन पृथ्वीट २नी हेवाभां भावी छ ? म प्रश्न उत्तरमा सुश्री गौतम भीन ४९ छ 'गोयमा ! छविहा पण्णत्ता' गौतम ! पृथ्वी छ प्रा२नी वाम मावी छ 'त' जह!' २म 'सण्हा पुढवी' सय पृथ्वी, मा पृथ्वी यूरा ३५ हाय छे भो
Page #480
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमसूत्र पृथिवीति कथ्यते । 'सुद्धपुढवी' शुद्धपृथिवी पर्वतादिमध्ये विद्यगाना द्वितीया शुद्ध पृथिवीति कथयते । 'वादया पुडवी' वालुका पृथिवी सितारूपा पृयित्री, 'मणोसिला पुढवी' मनःशिला लोकमसिद्धा चतुर्थी पृथिवी 'सक्करा पुढवी' शर्करा पृथिवी शर्करामुरडरूपा लघुपाषाणखण्डकरूपा पृथिवी पञ्चमी । 'खरपुढवी' खरपृथिवी खरा पाषाणादिरूपा षष्ठी एवं च श्लक्ष्ण बालका मनः शिलाशकरा खग पतिभेदात् पट्मकारा पृथिवी भवतीति भावः । अधुना लक्षणादि पृथिवीना स्थितिनिरूपणार्थमाह-'सण्हा पुढवी णं भंते' इलक्ष्णपृथिवीना-उरगपृथिवी जीवानां खल भदन्त ! 'केवयं कालं ठिई पन्नत्ता' कियन्तं कालं कियत्काल पर्यन्तं स्थितिः प्रज्ञप्ता-कथिता इति प्रश्नः, भगवानाह-गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जहन्नेणं अंतोमुहत्त' जघन्येनान्न मुहर्त यावत इलक्ष्य हुआ खाये हुए पत्थर में से स्वतः बालका का चूर्ण होता है 'सुद्ध पुदधी यह पृथिवी पर्वत आदि के मध्य में विद्यमान रहती है 'यालुया प्रढवी' घालुका पृथिवी-यह स्वभावतः घालुका के रूप में होती है 'मणोसिला पुढवी' मनः शिला पृथिवी 'खरपुढवी' खरपृथिवी-यह पृधिवी पाषाण भादि रूप होती है।
इस तरह श्लक्ष्ण. शुद्ध घालुका, मनः शिला, शर्करा और खर इन छह भेदों वाली पृथिवी होनी है।
अब सूत्रधार लक्ष्म आदि पृथिवियों की स्थिति आदि का निरूपण करते हैं. इस गौतम ने प्रभुश्री से ऐसा पूछो है-'सहा पुढवी णं भंते । केवइयं फाल ठिईपगत्ता' हे भदन्त ! लक्षण पृथिवी की स्थिति कितने काल की कही गई है ? उत्तर में प्रभु करते हैं 'गोघमा! जान्ने ण अंतो मुहुतं उकोसेणं एग वामसहस्स' हे गौतम इलक्षण पृथिवी बु! तास पत्यरमाथा पातानी भणे ती यय-यूर। थाय छे 'सुद्धपुढवी' शुद्ध पृथ्वी, त विरेनी सयमा विद्यमान २९ छे. 'वालुया पुढवी' पादु पृथ्वी, मा पृथ्वी स्वाqिzor पादु। रेतीन३५मा हाय छे 'मणोसिला पुढवी मन:शिवा की 'खरपुढवी' ५२ पृथ्वीमा पृथ्वी पाषाय पत्थर રૂપ હોય છે. આ પ્રમાણે લફ, શુદ્ધ; વાલકા, મનઃશિલા, શર્કરા અને ખર આ છ ભેદેવાળી પૃથ્વી હોય છે.
હવે સૂત્રમાર વિગેરે પૃથ્વીની સ્થિતિ આદિનું વર્ણન કરે છે. આ समयमा श्रीगौतभस्वामी प्रभुश्री
छे छे 'सण्हा पुढवी णं भंते। केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता' हे सन् २५६ पृथ्वीनी स्थिति उदा lm ની કહેવામાં આવી છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે 'गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्त उक्कोसेणे एवं वाससहस्स' गौतभा. २०६३
Page #481
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका ठीका प्र. ३. उ. ३ सू.३० सभेदपृथिव्याः स्थित्यादिनिरूपणम् ४५७ पृथिवीनां स्थितिर्भवतीति । 'उक्कोसेणं एवं वाससहस्से' उत्कर्षेणैकं वर्षसहस्रम् वर्ष सहस्रपर्यन्ता उत्कृष्टा स्थिति श्लक्ष्ण पृथिवीनामिति । 'सुद्धपुढो पुच्छा' शुद्ध पृथिवीनां पृच्छा, हे भदन्त । शुद्ध पृथिवीनां शुद्ध पृथित्रीजीवानां क्रियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता इति प्रश्न:, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'जहन्नेणं अंदोमुहुत्तं' जघन्येन न्तर्मुहूर्त्त यावत् स्थितिर्भवति, 'उक्कोसे णं वारसा समस्ताई' उम्कर्षेण द्वादशवर्षसहस्राणि यावत् स्थितिर्भवति शुद्ध पृथिवीनामिति । 'वालया पुढवीणं पुच्छा' बालका पृथिवीनां पृच्छा बाळकापृथिवीनां वालुकापृथिवी जीवानां कियन्तं कालं स्थितिर्भवतीति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'जह नेणं अंतो मुहुतं' जघन्येन अन्तर्मुहूर्त्त यावत् स्थितिर्भवति, 'उक्को सेणं चोदसवामसहस्सं' उत्कर्षेण चतुर्दशवर्षसहस्राणि यावत्स्थितिर्भवतीति । 'मणोसिला पुढवीणं पुच्छा की स्थिति जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त्त की कही गई है और उत्कृष्ट से वह एक हजार वर्ष की कही गई है 'सुद्ध पुढची र्णं पुच्छा' हे भदन्त ! शुद्ध पृथिवी की स्थिति कितने काल की कही गई है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'गोधना । जहन्नेणं अंगोमुत्त' हे गौतम! शुद्ध पृथिवी की स्थिति जघन्य से एक अन्तर्मुहर्त की कही गई और 'उकोसेर्ण वारसवासमहस्लाई' उत्कृष्ट से वह बारह हजार वर्ष की कही गई है 'बालुया पुढरीणं पुच्छ । 'हे भान्त ! बालुका पृथिवी के जीवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-गोयमा ! जहनेणं अंतो मुत्तं' हे गौतम! बालुका पृथिवी के जीवों की स्थिति जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट से 'चोदसवास सहस्सा हूं'
O
પૃથ્વીની સ્થિતિ જ ઘન્યથી એક અંતમુહૂત'ની કહી છે અને ઉત્કૃષ્ટથી તે मेड इन्तर वर्षानी उडेवासां भावी छे. 'सुद्ध पुढवीण' पुच्छा' से लगवन શુદ્ધ પૃથ્વીની સ્થિતિ કેટલા કાળની કહેવામાં આવી છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં अनुश्री छेडे 'गोयमा ! जहणेणं अतोमुहुत्तं' हे गौतम । शुद्ध पृथ्वीनी स्थिति भधन्यथी थे तभुहूर्तनी उही छे भने 'उक्कोसेणं' बारस्रवास खइस्साई' उत्सृष्टथी बार उभर वर्षानी हस छे. 'वालुया पुढवीणं' पुच्छा' હે ભગવન્ વલુકા પ્રભા પૃથ્વીના જીવાની સ્થિતિ કેટલા કાળની કહેવામાં स्भावी हे ? या प्रश्नमा उत्तरमां प्रभुश्री हे 'गोयमा ! जणेणं अतोमुहुत्तं' हे गौतम! वासुप्रला पृथ्वीना छोनी स्थिति धन्यथा खे अंत भांडूनी भने ष्टथी 'च'हसवास सहस्वाई' यह उत्तर वर्षांनी उडेल.
जी० ५०
Page #482
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवाभिगमने
४५८
मनः शिला पृथिवीनां पृच्छा, हे भदन्त । मनःशिला पृथिवीनां मनःशिला पृथिवी जीवानां कियन्तं कालं स्थिति वीति पश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोमा' हे गौतम! 'जह नेणं अंतोगुतं' जघन्ये नान्तर्मुहूर्त स्थितिर्भवतीति, "उक्को सेणं सोळा सहस्सा' उत्कर्षेण पोडशवर्षसहस्राणि यावत् स्थिति भवति मनःशिला पृथिवी जीवानामिति । 'रुकरापुढवीणं पृच्छा' शर्करापृथिवीनां पृच्छा, हे भदन्त ! शर्करापृथिवीनां शर्करापृथिवीजीवानां कियन्तं कालं स्थितिभक्तीति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम । 'जहन्नेणं अंतोमुहुत्त उको सेणं अट्टारमवास सहरसाई' जघन्येनान्तर्मुहूर्त यावरिस्थति र्भवति तथा उत्कर्षेण अष्टादशवर्षाणि स्थितिर्भवतीति । 'खरपुढवणं पृच्छा' खरचौदह हजार वर्ष की कही गई है। 'मगोमिला पुढवीणं पुच्छा' हे भदन्त ! मनःशिला पृथिवी के जीवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं - हे गौतम! मनः शिला पृथिवी के जीवों की स्थिति 'जलनेणं अंनोमुत्तं उक्कोलेणं सोलवा सहरसाई जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त की कही गई है और उत्कृष्ट से वह मोलह हजार वर्ष की कही गई है 'सक्करा पुढवी णं पुच्छा' हे भदन्त ! शर्करा पृथिवी के जीवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? उत्तर मैं प्रभु कहते हैं 'जाणं अंत कोसेणं अहारसवामसहस्साई हे गौतम! शर्करा पृथिवी के जीवों की स्थिति जघन्य से एक अन्त मुहूर्त की कही गई है और उत्कृष्ट से अठारह हजार वर्ष की कही गई है 'खर पुढवीणं पुच्छा' हे भहन्त ! खर पृथिवी के जीवों की स्थिति काल की अपेक्षा कितनी कही गई है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं'मणाखिला पुढवीण पुच्छा' हे लगवन् મન રિ લાપૃથ્વીના જીવાની સ્થિતિ ऐसा अजनी असेल हे ? या प्रश्नना उत्तरमा प्रभु श्री हे 'रोयमा ! जणेणं अतोमुहुत्तं उक्कोसेण खोलसवास सहस्लाइ' हे गौतम! धन्यथी એક અંત કૃતની સ્થિતિ કહી છે, અને ઉત્કૃષ્ટથી સેળ હજાર વર્ષની स्थिति उडेवामां आवी हे 'एक्करा पुढवी णं पुच्छा' हे भगवन् ! शश પ્રભા પૃથ્વીના જીવાની સ્થિતિ કેટલા કાળની કહેવામાં આવી છે ? આ प्रश्नना उत्तरमां अलुश्री गौतमस्वामीने हे छे ! 'जहणणेणं अ तोमुडुत्तं उक्को सेणं अट्ठारसवास सहरलाई' हे गौतम! शर्मराउला पृथ्वीना लोनी स्थिति જઘન્યથી એક અંતર્મુહૂતની અને ઉત્કૃષ્ટથી અઢાર હજાર વર્ષની કહેવામાં भावी छे, 'खर पुढवीणं पुच्छा' से लगवन् भर पृथ्वीना भवानी स्थिति
Page #483
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.३० समेदपृथिव्याः स्थित्यादिनिदपणम् ४५९ पृथिवीजीवानां भदन्छ ! कियन्तं कालं स्थिति भवतीति प्रश्नः, भगवानाह 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! जहन्नेणं वो महत्तं उक्कोसेणं बाबीसं. वास सहस्साइ' जघन्येनान्तमहत्तै यावत् स्थिति भवति तथोकण द्वाविंशतिर्वपसहस्राणि यावत् स्थिति भवतीति । श्लक्ष्णपृथिवीत आरश्य खरान्त पृथिवीनामुत्कर्पस्थिति बिषये संग्रहमाधामाह
'साहाय सुद्ध वाल्लय मणोसिला सकराय खर पुढची। इगवार चोदस सोलसद्वारस बावीस समसहस्सा'
श्लक्ष्णा च शुद्वा बाका च मनःशिला शर्करा च खरपृथिवी। एकद्वादश चतुर्दश षोडशाप्टादश द्वाविंशति समा सहस्त्राणि'इतिच्छाया ।
अपमा-श्लक्षापृथिव्याः एक वर्षसहस्त्रमुकर्षतः स्थिति भवति, शुद्ध पृथिव्या द्वादशवर्ष सहस्त्राणि, बालुका पृथिव्याश्चतुर्दशसहस्राणि, मनःशिलापृथिव्याः षोडशवर्षसहस्त्राणि शकरापृथिव्या अष्टादशवर्षसहस्राणि, खरपृथिव्या द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि, सर्वासासमीषां पृथिवीनां जघन्येनान्तर्मुहुर्तमेव स्थिति भवतीति ज्ञातव्यम् ।। 'गोयमा! जहन्नेणं अंगोमुहत उस्कोलेणं यात्री सं वाससहस्साई हे गौतम ! 'खर पृथिवी के जीवों की स्थिति जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट से घाईस हजार वर्ष की कही गई इस तरह श्लक्ष्ण पृथिवी के जीवों से लेकर खर पृथिवी तक के जीवों की जघन्य स्थिति तो सब की एक अन्तर्मुहूर्त की है पर उत्कृष्ट स्थिति में खिन्नता है जो ऊपर में प्रकट कर दी गई है यही हाल इस गाथा द्वारा समझाई गई है'सहा व सुद्धयालु यमणोलिला सक्करा य खर पुढची। इग यारचोदसतोलसद्वारस बादीलवाललहस्सा इसका अर्थ स्पष्ट है। કાળની અપેક્ષાથી કેટલા કાળની કહેવામાં આવી છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रभुश्री गोतमस्वामी ४ छे , 'गोयमा ! जहण्णेणं अोमुहुत उक्कोसेण बावीस वारसहरमाई गीतम! १२५शीन वानी स्थिति धन्यथा એક અંતમુહૂર્તની અને ઉત્કૃષ્ટથી બાવીસ હજાર વર્ષની કહી છે. આ રીતે &લ પ્રવીના જીથી લઈને ખર પૃથ્વી સુધીના જીની જઘન્ય સ્થિતિ તે બધાની જ એક અંતમુહૂર્તની છે. પરંતુ ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિમાં જૂદાઈ આવે છે. જે ઉપર બતાવવામાં આવી છે એ જ વાત આ ગાથા દ્વારા સમજાવवाम मावी छे.
'सहाय सुद्धवालु य मोसिला, सक्कराय खरपुत्वी ।
गबार चोदर सोलस द्वारस बावीसवास सहस्सा' આ ગાથાને અર્થ ઉપર સ્પષ્ટ કરવામાં આવેલ છે,
Page #484
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवाभिगमसूत्रे
सम्पति स्थितिनिरूपण प्रस्तावात् नैरयिकादीनां चतुर्विंशति दण्डकक्रमेण स्थिति निरूपयितुमाह- 'नेरइयाणं' इत्यादि, 'नेरइयाणं भंते! केवड्यं कालं ठिई पन्नत्ता' नैरयिकाणां भदन्त । कियन्तं कालं स्थितिः मज्ञप्ता- कथिता इति प्रश्न, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जहन्नेणं दसवाससह स्साई हे गौतम ! नारकजीवानां जघन्येन स्थिरिर्दशवर्षसहस्राणि 'उकोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइ ठिई' उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमाणि स्थिति मंत्रतीति । ' एवं सन् भाणि जाव सम्बद्ध सिद्ध देवत्ति' एवमेतत्सर्वं भणितव्यं यावत् सर्वार्थ सिद्धदेव इति एवं प्रज्ञापना चतुर्थस्थितिपदानुसारेण चतुर्विंशति दण्डकक्रमेण तावद्वक्तव्यं यावत् सर्वार्थसिद्धविमानदेवानां स्थितिनिरूपणं भवेदिति । पूर्वोक्तप्रकारेण भवस्थितिनिरूपणा कृता । सम्पति कार्यस्थिति-निरूपणार्थमाह-अत्र
४६०
अब स्थिति निरूपण के प्रस्ताव को लेकर नैरियक आदि को की चौबीस दण्डक के क्रम से स्थिति का निरूपण करते हैं- इसमें गौतम ने प्रभुश्री से ऐसा पूछा है - 'नेरइया णं भंते ! केवइयं कालं ठिई पन्नता' हे भदन्त ! नैरधिक जीवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं 'गोघमा ! जहन्नेणं दस वाघसहस्साई उक्को सेणं तेत्तीसं सागरोवमाई' हे गौतम । नारक जीवों की स्थिति जघन्य से दस हजार वर्ष की कही गई है और उत्कृष्ट से तैंतीस सागरोपम की कही गई है 'एवं सव्वं भाणियन्बं जाव सव्व सिद्ध देवत्ति' इसी तरह चौवीस दण्डक के क्रम से यहां पर प्रज्ञापना गत चतुर्थ स्थिति पद के अनुसार सर्वार्थ सिद्ध गत देवों तक की स्थिति का निरू पण कर लेना चाहिये यह जो स्थिति का निरूपण किया गया है वह
હવે સ્થિતિનું નિરૂપણ કરવા માટેના પ્રસ્તાવને લઇને નરયિક વિગેરની સ્થિતિનું નિરૂપણ ચેાવીસ દ‘ડકના કુમથી કરવામાં આવે છે. આમાં શ્રીગૌતમ स्वामी प्रभुने मे पूछयु छे 'नेरइयाणं भते ! केवइय काळ ठिई पण्णत्ता' હે ભગવન્ નૈરિયક જીવેાની સ્થિતિ કેટલા કાળની કહેવામાં આવી છે? આ प्रश्नना उत्तरमां प्रलुश्री गौतमस्वामीने हे 'गायमा । जहणणेण दसवा सहस्वाईं उक्कोसेणं तेत्तीस सागरे वमाई' डे गौतम | नार लवोनी स्थिति જઘન્યથી દસ હજાર વર્ષની કહી છે અને ઉત્કૃષ્ટથી તેત્રીસ સાગરાપમની 'हेवामां भावी छे. 'एवं सव्व' भाणियव्व' जाव सव्वट्टसिद्ध देवत्ति' मा ४ પ્રમાણે ચેવીસ દડકના ક્રમથી અહિયાં પ્રજ્ઞાપના સૂત્રમાં કહેલ સ્થિતિ પદ પ્રમાણે સર્વો સિદ્ધના દેવા સુધીની સ્થિતિનું નિરૂપણ કરી લેવું જોઈએ, જે આ સ્થિતિનુ' નિરૂપણુ કર્યું" છે, તે ઊસ્થિતિનું જ નિરૂપણ કર્યું છે,
Page #485
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेययोतिका टीका प्र. ३ उ. ३ सु. ३० समेदपृथिव्याः स्थित्यादिनिरूपणम् ४६१ कार्यस्थितिविषये जीवादीनि द्वाविंशतिद्वाराणि मज्ञापनाया अष्टादशे कायस्थितिपदे प्रदर्शितानि तत्संग्राहिके चेमे द्वे गाथे
'जीव १ गइ २ दिय३ कार, ४ जोगे५ वेए६ कसाये७ लेस्साय८ । समत्त ९ नाण १० दंसण, ११ संज६१२ उबओग १३ आहारे १४ || १ || भासग १५ परित १६ पञ्जत १७ सुहुम १८ सण्णो १९ भव२०ऽत्थि चरिमे २२ एएसि पयाणं काय ठिई होई नायव्वा' | २||
( जी 1:, १ गति, २ इन्द्रियं कायः ४ योगो५ वेदः ६ कषायो७ २.१८च । सम्यक्त्वं९ ज्ञान १० दर्शन ११, संयतो १२ पयोगा १ ३हाराः १४ || १॥ भाषक १५ परीत१६ पर्याप्त १७ सूक्ष्म १८ संज्ञि १९ भवा२० स्ति२१ चरिमाश्च२२ भवस्थिति का ही निरूपण किया गया है ।
अब काय स्थितिका निरूपण किया जाता है
यहां काय स्थिति के विषय में जीवादि पाईस द्वार प्रज्ञापना के अठारहवें कार्यस्थिति पद में कहे गये है इनकी संग्राहक दो गाथाए इस इस प्रकार का है ।
'जीवगइदिष काए जोए वेए कसाथ लेस्सा य । सम्मत्तनाण ऋण संजय उनओग आहारे ॥ १ ॥
भाग परिन्त पज्जन्त सुहृम सण्णी भवत्थि चरिमे य । एएसिं तु पयाणं कायठिई होइ नायव्वं ॥ २ ॥
जीव १, गति २, इन्द्रिय ३, फाय, ४, योग ५ वेद ६ कषाय ७ लेपा ८ सम्यक् ९ ज्ञान १० दर्शन ११, संगत १२ उपयोग १३, आहार १४ भाषक १५ परीन १६ पर्यास १७ सूक्ष्म १८ संज्ञी १९ હવે કાયસ્થિતિનું નિરૂપણ કરવામાં આવે છે. અહિયાં કયસ્થિતિના સબંધમાં જીવા
૨૨ બાવીસ દ્વારા પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના અઢારમા કાયસ્થિતિ પદમાં કહેવામાં આવ્યા છે. તેની બે સ`ગ્રહ ગાથાએ આ પ્રમાણે છે.
'जीव गई दिय काए जोए वेए कस. यलेस्साय सम्मत्तनाद सण संजय उवओोग आहारे ॥ १ ॥
भासग परितपज्जत्त सुहुमसण्णी भवऽथि चरिमेय सिं तु पयाणं कायठिई होइ नायव्वं ॥ २ ॥ अव १, गति २, छद्रिय 3, प्राय ४, योग थ, वे ६, उषाय ७, सेश्या ८, सभ्यङ्गत्व ८, दर्शन ११, संयंत १२, उपयोग १३, आहा२ १४, लाषा १५, परीत १६, पर्यास १७, सूक्ष्म १८, संज्ञी १५, अवसिद्धिः २०,
Page #486
--------------------------------------------------------------------------
________________
४६२
जीवाभिगमसूत्र एतेषां तु पदानां कायस्थिति भवतीति ज्ञातव्या' इतिच्छाया ।
द्वाविंशति द्वारनामानि यथा-प्रथमं जीवद्वारम् १, एवं गतिद्वारम्२, इन्द्रियद्वारम्३, कायद्वारस्४, योगहाम्५ वेदद्वारम्६, कपायद्वारम्७, लेश्याद्वारम्८, सम्यक्त्वद्वारम् ९, ज्ञानद्वारम् १०, दर्शनद्वारम् ११, संयतद्वारम् १२, उपयोगद्वारम्१४, भाषकद्वारस् १५ परीव (परिमित) द्वारम् १६, पर्याप्तद्वारम् १७ सूक्ष्मद्वारम् १८ स ज्ञद्वारम् १९ भवसिद्धिकद्वारम् २०, अस्तिकारद्वारम् २ १ चरमद्वारम् २२॥ तत्र प्रथमं जीवद्वारं व्याचष्टे-'जीवेणं भंते ! जीवेत्ति कालमो केवच्चिर होई। जीवः खलु भदन्त ! जी। इति कालतः कियच्चिर भवति अथ कायस्थितिरिति शब्दस्य कोऽर्थः ? तत्रोच्यते कायोनाम जीवस्य विवक्षितः सामान्यरूपो वा पर्यायविशेषस्तस्मिन् स्थितिरिति कायस्थितिः, इदमुक्तं भवति यस्य वस्तुनो येन पर्याये ग जीवत्वलक्षणेन पृथिवीकायादित्वलक्षणेन वा आदिश्यते व्यवच्छेदेन यद् भवसिद्धिक २०, अस्तिकाय २१ और चरम २२ इनमें प्रथम जीव द्वार को कहते हैं-'जोवे गं अंते ! जीवेत्ति कालमो केवञ्चिर होइ' हे भदन्त ! जीव जीवरूप से कितने काल तक रहता है ? अर्थात् जीव की काय स्थिति का काल कितना है ? कायस्थिति शब्द का अर्थ ऐसा है-जीव की सामान्य रूप अथवा विशेष रूप जो विवक्षित पर्याय है उसका नाम काय है इस काय में जो स्थिति है वह काय स्थिति है ऐला कायस्थिति शब्द का अर्थ है भवस्थिति में वर्तमान अव की स्थिति गृहीत होती है और कायस्थिति में जब हक जीव अपनी जीवन रूप पर्याय ले युक्त रहता है तब तक की वह स्थिति विवक्षिम हुई है प्रकृत में जीव की कायस्थिति पूछी गई है सो અસ્તિકાય ૨૧, અને ચરમ ૨૨, આમાં પહેલાં જવાનું કથન કરવામાં भाव छ, 'जीवे ण भ ते ! जीवेत्ति कालओ केवच्चिर होइ' सन् ७१ જીવ થી કેટલા કાળ સુધી રહે છે? અર્થાત્ જીવની કાયસ્થિતિને કાળ કેટલો છે? કાયસ્થિતિ શબ્દનો અર્થ એ છે કે સામાન્યપણાથી કે વિશેષ પણાથી જીવની જે વિવક્ષિત પર્યાય છે તેનું નામ કય છે. આ કાર્યમાં જે સ્થિતિ છે, તે ક સ્થિતિ કહેવાય છે. આ પ્રમાણે કાયસ્થિતિ શબ્દનો અર્થ થાય છે ભવસ્થિતિમાં વર્તમાન ભવની સ્થિતિનું ગ્રહણ થાય છે. અને કાય રિથતિમાં જ્યાં સુધી જીવ પોતાના જીન રૂપ પર્યાયથી યુક્ત રહે છે, ત્યાં સુધીની તે સ્થિતિ વિવક્ષિત થઈ છે. આ ચાલુ પ્રકરણમાં જીવની કાયસ્થિતિ પૂછવામાં આવી છે. તે જે પ્રાણેને ધારણ કરે છે, તે જીવ કહેવાય છે.
Page #487
--------------------------------------------------------------------------
________________
अमेयधोतिका टीका प्र.३ २.३ १.३० समेदपृथिव्या स्थित्यादिनिरूपणम् ४६३ भवनं सा कायस्थितिः । तत्र जीव इति 'पाणधारणे जी पति-प्राणान् धारयति इति जीवः, प्राणाश्च द्विविधाः द्रव्यप्राणा: मात्रमाणाच, तत्र द्रव्यमाणा इन्द्रियप्रभृतयः, तदुक्तम्-'पञ्चेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च, उच्छगस नि शसमथान्य. दायुः । प्राणाः दशैते भगवद्विरुक्तास्तेषां चियोजीकरणं तु हिंसा ।। इति । भावपाणास्तु ज्ञानादयः तैः करणभूतैस्तान्. आश्रित्य तदपेक्षया मुक्तोऽपि मुक्ति स्थितोऽपि जीवः जीवति, जीवः जीति, व्यपदिश्यते, तस्य द्रव्यमाणा भावेऽपि जो प्राणों को धारण करता है वह जीव है प्राण द्रध्य प्राण और भाव माण के भेद से दो प्रकार के कहे गये है पांच इन्द्रिय मन वचन काय ये तीन बल, आयु और श्वासोच्छ्वाम थे दस प प्राण है एवं ज्ञान दर्शन सुख और वीर्य ये चार भाव प्राण है कहा भी है
'पञ्चेन्द्रियाणि त्रिविधं लंच उच्छ्वास निःश्वोसमथान्यदायुः, प्राणा दशैते भगवद्भिक्तास्तेषां शियोजी करणंतु हिंला ॥१॥ 'ज्ञानादयस्तु भाव प्राणा मुक्तोऽपि जीवति सहि' इति ।
पांच इन्द्रियाँ श्रोत्रेन्द्रियादि, तथा मनोबल, बचनचल और कायघल ये तीन बल, तथा श्वासोच्छ्वास और आयु, ये दल प्राण कहे गये हैं। यहां पर सामान्य से प्राणों का ग्रहण हुआ है अतः हर प्राण और भाव प्राण इन दोनों का ही ग्रहण आजाना है इस तरह से जब यह विचार किया जाता है कि 'जीव जीवन रूप अवस्था में सब तक रहता है तो यही प्रभु श्री की ओर से उत्तर मिलना है कि हे गौतम ! जीव जीवन रूप अवस्था में सर्वकाल रहता है ऐमा एक भी દિવ્ય પ્રાણ અને ભાવ પ્રાણના ભેદથી પ્રાણુ બે પ્રકારના કહેલ છે. પાંચઈ દ્રિય, મન, વચન અને કાય આ ત્રણ બળ આયુ અને શ્વાસોચ્છવાસ આ દસ દિવ્ય પ્રાણ છે. અને જ્ઞાનાદિ ભાવ પ્રાણું છે. કહ્યું પણ છે કે
'पञ्चेन्द्रियाणि त्रिविध बलंच उच्छवास निःश्वास मथान्यदायुः प्राणा दशते भगवद्भिक्ता स्तेपां वियोजी करणतु हिंसा ।।
ज्ञ'नादयस्तु भावप्राणा मुक्तोऽपि जीवति स हि इति પાંચ ઈદ્રિયો શ્રોત્રેન્દ્રિય વિગેરે. તથા મનેબલ, વચનબલ અને કાયખલ આ ત્રણ કલ તથા શ્વાચ્છવાસ અને અયુ આ દસ પ્ર ણ કહ્યા છે અહિયાં સામાન્ય પણાથી પ્રાણે હુણ કરાયા છે. તેથી દ્રવ્યપ્ર ણ મને ભ મ ણ આ બને પણ ગ્રહણ થઈ જાય છે. આ રીતે જ્યારે એ વિચાર કરવામાં આવે કે “જીવ જીવન રૂપ અવસ્થામાં કયાં સુધી રહે છે? તે તેને ઉત્તર પ્રભુશ્રી તરફથી એજ મળે છે કે હે ગૌતમ! જીવ, જીવનરૂપ અવસ્થામાં સદા
Page #488
--------------------------------------------------------------------------
________________
কামি भावमाणसद्भावात् । तदुक्तम्-'ज्ञानादयस्तु मारमाणा मुक्तोऽपि जीवति सबै इति । इह च माणविशेषस्थानुपादानेन सामान्यत उभयेपामपि पाणानां संग्रहो भवसि ततथ हे भदन्त ! जीवन पर्यायविशिष्टो जीवः, जीवइत्यनेन रूपेण कालत:फालमधिकृत्य कियच्चिरं भवतीति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' हे गौतम ! 'सम्वद्ध' संसारावस्थायां द्रव्यभावप्राणानधिकृत्य मोक्षावस्थायां च केवलं भावपाणानधिकृश्य सर्वत्रापि जीवनस्य विद्यमानत्वादिति । अथग-जीव इति नैकः प्रतिनिश्तो जीवो विवक्ष्यते किन्तु जीवसामान्यम्, ततः प्राणधारणलक्षण जीवनाभ्युपगमेऽपि न कश्चिद्विरोधः, तथाहि-'जीवे णं भंते' इत्यादि तत्र जीव क्षण नहीं है कि जीव अपनी इस जीवन रूप अवस्था से रहित हो जाय संसार अवस्था में तो यह दर प्राण एवं भाव प्राण इन दोनों प्राणों से जीता रहता है और मुक्त अयस्था में यह केवल ज्ञानदर्शन मुख वीर्यादि भ.व प्राणो से जीता है इसलिये तसार अवस्था में भी
और मुक्त अवस्था में भी यह जीव 'जीव' इस नाम से कहा जाता है अथवा-जीव पद से यहाँ किली एक खास जीव का ग्रहण नहीं हुमा है किन्तु जीव सामान्य का ही ग्रहण हुआ है जीव सामान्य प्राण धारण रूप सामान्य अपने लक्षग से जीता है जिया है और जीता रहेगा इसमें कोई विरोध नहीं आता है अतः ऐसे इन सामान्य जीव की कायस्थिति का काल अनादि अनन्त रूप है। इस प्रकार जीव द्वार की तरह प्रज्ञापना के अठारह वे फायस्थिति नाम के पद में कहे हुए गनि, इन्द्रिय, काय आदि घाईल द्वारों को भी समझलेना चाहिये, इनमें गति કાળ હે છે એવી એક પણ ફાવ્યું નથી કે જીવ પોતાની આ જીવન રૂપ અવસ્થાથી રહિત થઈ જાય, સંસાર અવસ્થામાં તે આ દિવ્ય પ્રાણુ અને ભાવ પ્રાણ અને પ્રાણેથી જીવીત રહે છે. અને મુક્ત અવરથામાં આ કેવળ જ્ઞાનદર્શન સુખ વીર્થ વિગેરે ભાવપ્ર થી જીવે છે. તેથી જ સંસાર અવસ્થામાં અને મુક્ત અવસ્થામાં પણ આ જીવ “જીવ” એ નામથી કહેવાય છે. અથવા “જીવપદથી અહિયાં કે એક ખાસ જીવનું ગ્રહણ થયેલ નથી. પરંતુ જીવ સામાન્ય જ ગ્રડણ થયેલ છે. જીવ સામાન્ય પ્રાણધારણ રૂપ સામાન્ય પિતાનું લક્ષથી જીવે છે જીવા છે, અને જીવતા રહેશે. તેમાં કંઈજ વિરે ધ આવ નથી તેથી એવા આ સામાન્ય જીવની કાયસ્થિતિને કાળ અનાદિ અને અનંત રૂપ છે. આ પ્રમાણે જીવદ્ધારની જેમ પ્રજ્ઞાપન સૂત્રના અઢારમા કાયસ્થિતિ નામના પદમાં કહેલા ગતિ, ઈન્દ્રિય, કાય વિગેરે બાવીસે દ્વારને સમજી લેવા જોઈએ, તેમાં ગતિ પદની અપેક્ષાથી જ્યારે
Page #489
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीका म.३ ३.३ ५.३० सभेदपृथिव्याः स्थित्यादिनिरूपणम् ४६५ . इति जीवन्निति प्राणान् धारयन्नित्यर्थः एतादृशो जीव: काकतः कियचिरं भवतीति, भगवानाह-हे गौतम ! सद्धिाम् जीवसामान्यस्यानाधनम्तत्वादिति। एवं जीवद्वारवत् गतीन्द्रियकायादिद्वारैर्यथा प्रज्ञापनायामष्टादशे कायस्थिति नामके पदे कायस्थितिः कथिता तथाऽत्राऽपि सर्व निरवशेष वक्तव्यम् । . अत्र गतिविषये सूत्राळापकपकारो शत एवं, तथाहि-'नेरइयाणं भंते ! नेरइयत्ति कालओ केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं दसवाससहस्साई उक्कोसेणं तेत्तीस सागरोवमाई । 'तिरिक्ख नोणिएणं भंते! तिरिक्खजोणियति काळ भो केवञ्चिर होइ, 'गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्त उको सेणं अणंतं कालं अर्णता उस्स. की अपेक्षा जब कायस्थिति का विचार किया जाता है-तय वहां पर गति नरक गति, तिर्यग्गति मनुष्य गति और देव गति चार गतियों को लेकर कायस्थिति का विचार किया गया है-यहां थोडा सुत्रालापक का प्रकार दिखलाया जाता है-जैसे 'नेरया णं भंते ! नेरइयत्ति कालो केवच्चिर होई' हे भदन्त ! नैरयिक जी की कायस्थिति का काल कितनी है ? तो इसके उत्तर में प्रभुश्री ने ऐसा कहा है-'गोयमा ! जहन्ने णं दस वाससंहस्सोई उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई" हे गौतम ! नारक जीव की स्थिति काल जघन्य से दस हजार वर्ष का है और उत्कृष्ट से तेतीस सागरोपम का है तिरिक्खजोणिए णं भंते ! 'तिरिक्ख. जोणियत्ति कालओ के वच्चिर होई' हे भदन्त ! तिर्यग्योनिक जीव की कायस्थिति का काल कितना है ? तो इसके उत्तर में प्रभुश्री ने कहा है'गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोलेणं अणंत कालं-अणंना उस्स. पिणी मो ओसदिपणीओ कालओ खेत्तमो अणंना लोगा असंखेज्जा કાયસ્થિતિને વિચ ર કરવામાં આવે છે. ત્યારે ત્યાં ગતિ કહેતા નરક ગતિ તિય ગતિ, મનુષ્યગતિ, અને દેવગતિ આ ચારે ગતિઓને લઈને કાયથિતિને વિચાર કરવામાં આવે છે. અહિયાં છેડે સૂત્રને આલાપ પ્રકાર બતાવવામાં भावे छे. रेभडे 'नेरइयाण भते ! नेरइयत्ति कालओं केवच्चिर होई' भगवन નિરયિક જીવની કાયસ્થિતિને કાળ કેટલે કહેવામાં આવેલ છે ? આ પ્રશ્નના उत्तरमा प्रमश्री गौतभस्वामीछे 'गोयमा ! जहण्णण' दसवासमहस्साई उक्कोसेण तेत्तीस सागरोवमाई' गौतम ! ना२४ पनी यातना જઘન્યથી દસ હજાર વર્ષનો છે, અને ઉત્કૃષ્ટથી તેત્રીસ સાગરોપમને છે. "तिरिक्स्व जोणिएणभ ते ! तिरिक्ख जाणियत्ति काल ओ केबच्चिर होई गवन તિયોનિક જીવની કાયરિથતિનો કાળ કેટલે કહ્યો છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रभुश्री गौतमस्वामी ४ ॐ 'गोयमा ! जहण्णेण अमुहुत्तं उक्कोसेण
जी० ५९
Page #490
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीवामिगमसूत्रे पिणीओसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ अणंसा लोगा असंखेज्जा पोग्गलपरिपट्टा, तेणं पोग्गलपरिपट्टा, आवलियाए असंखेज्जड भागो' इत्यादि ।
सम्प्रति सामान्य पृथिवीकायादिगत कार्यस्थिति निरूपणार्थमाह-' पुढवीकाइरणं ते!" इत्यादि, 'पुढवीकाइरणं अंते' पृथिवीकायिकः खलु मदन्त ! अ पोग्गलपरियट्टा तेय पोग्गल परियहा - आवलियाए असंखेज्जह भागो' गौ । तिर्यग्योनिक जीव की कार्यस्थिति का काले जघन्य से अन्तर्मुहूर्त का है और उत्कृष्ट से अनन्त फाल रूप है यह अनन्त काल अनन्त उत्सर्पिणी और अनन्त अवसर्पिणी रूप होता है क्षेत्र की अपेक्षा और काल की अपेक्षा असंख्यात पुद्गलपरावर्त्त हो जाते हैं ये असंख्यात पुद्गलपरावर्त्त आवलिका के असंख्यातवें भाग प्रमाण रूप होते हैं । इत्यादि इसी तरह से मनुष्य गति और देव गति के भी कायस्थिति का काल कितना है - इस सम्बन्ध में आलाप प्रकार और उनका उत्तर प्रज्ञापना के अठारहवें कार्यस्थिति पद से जान लेना चाहिये तथा जो इन्द्रिय- आदि शेष द्वारों को लेकर कार्यस्थिति का विचार किया गया है वह भी उसी प्रज्ञापना के कार्यस्थिति पद से जान लेना चाहिये ।
४६६
अब सूत्रकार सामान्य पृथिवी कायादि की कार्यस्थिति का विचार करते हैं- इसमें गौतम ने प्रभुश्री के ऐसा पूछा है - 'पुढची काइए णं भंते !
अनंत काल अनंता उस्मलिणीओ ओखप्पिणीओ कालओ खेत्तओ अनंता लागा अस खेज्जा पोग्गल परियट्टा आवलियाए खेस ज्जइ भागो' हे गौतम! તિય ચૈાનિક જીવની કાયસ્થિતિનેા કાળ જઘન્યથી અંત તના છે અને ઉત્કૃષ્ટથી અનતકાળ રૂપ છે આ અનન્તકાળ અનંત ઉત્સર્પિણી અને અનંત અવસર્પિણી રૂપ હાય છે. ક્ષેત્રની અપેક્ષાથી અને કાળની અપેક્ષાથી પરાવત થઈ જાય છે આ અસ ખ્યાત પુદૂંગલપર વ ખ્યાતમા ભાગ પ્રમાણુ રૂપ હાય છે ઇત્યાદિ આજ પ્ર દેવગતિના કાયસ્થિતિના કાળ પણુ કૈટલેા છે ? એ સબ ધ । આલાપના પ્રકાર અને તેના ઉત્તર પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના અઢારમા કાયસ્થિતિ પદમાંથી સમજી લેવા. તથા જે ઈન્દ્રિય વિગેરે બાકીના દ્વારાને લઈને કાયસ્થિતિને વિચાર કરવામાં अव्यो छे, તે પણ એ પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના કાર્યસ્થિતિ પદમાંથી સમજી લેવા. હવે સૂત્રકાર સામાન્ય પૃથ્વીકાય વિગેરેની કાયસ્થિતિના વિચાર કરે छे. आ सभधभां श्रीजीतभस्वाभीमे प्रभुश्री ने मे पूछ् छे पुढवा कारणं भेते ! पुढवीकाइयत्ति कालओ केवच्चिर होई' हे भगवन् पृथ्वी थि
અસખ્યાત પુદ્ગલ આલિકાના અસ ો અનુષ્યગતિ અને
Page #491
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ ६.३० समेदपृथिव्याः स्थित्यादिनिरूपणम् ४६७ पृथिवीकायिक सामान्य रूपोऽत एव जातावेकवचन नतु व्यक्त्ये करवे एकवचन मिति, 'पुढवीकाइयत्ति कालओ केवच्चिर होई' पृथिवीकायिक इति पृथिवीकायिकत्वरूपेण कालतः कियश्चिरं भवतीति प्रश्ना, भगवानाह-गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'सगढ़' सौदा सर्वकालं यावत् पृथिवीकायिकः पृथिवीकायिकरूपेण भवति पृथिवीकायिकसामान्यस्य सर्वदैव सद्भावादिति । 'एवं जाव तसकाइए' एवं यावत् त्रसकायिकः अत्र यावत्पदेन-अप्तेजोवायुचनस्पतिपुढवीकाइयत्ति कालओ केवच्चिरं होई' हे सदन्त ! पृथिवीकायिक जीव पृथिवीकायिक रूप से कब तक रहता है ? अर्थात् पृथिवीकायिक जीव की कायस्थिति का काल शितना है ? इस के उत्तर में प्रभु श्री कहते हैं-'गोयमा ! लक्षद्धं' हे गौतम पृथिवीकायिक जीव पृथिवी कायिक रूप से चर्व काल वर्तमान रहता है यहां पृथिवी शायिन पद से सामान्य पृथिवी काधिक जीव ही ग्रहीत हुआ है और इसी कारणयहां जाति की अपेक्षा से स्त्रकार ने सूत्र में 'पुढशीहाइए' ऐसा एक वचन का प्रयोग किया है व्यक्ति की अपेक्षा लेकर एकवचन का प्रयोग नहीं किया है । ऐले कोई ला भी समय नही हुआ है, और न ऐसा वर्तमान में हैं और न भविष्यत् में ऐला समय रहेगा कि जिसमें सामान्य पृथिवीकायिक जी न रहा हो क है, और न होगा सामान्य पृथिवीकायिक जीव सर्वदा इस संसार में धर्तमान हर एक क्षण में रहता है एवं जाव तसाहए' इसी तरह से सामान्य अकायिक की, सामान्य तेजल काधिक की सामान्य वायुकाधिक की लामान्य नस्पति છે પૃથ્વી કાવિક પણાથી, કયાં સુધી રહે છે ? અર્થાત્ પૃથ્વીયિક જીવની કાયસ્થિતિને કાળ કેટલે કહ્યો છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને ४ छ में 'गोयमा! सव्वद्ध' हे गौतम ! पृथ्वी।यि १ पृथ्वीय પણાથી સર્વકાળ વર્તમાન રહે છે. અહિયાં પૃથ્વીકાયિક પદથી સામાન્ય પૃથ્વીકાયિક જીવેજ ગ્રહણ થયા છે, અને એ જ કારણે અહિયાં જાતિની અપેક્ષાથી એક વચનને પ્રયાગ કરવામાં આવેલ છે. વ્યક્તિની અપેક્ષાથી એક વચનને પ્રયોગ કરવામાં આવેલ નથી. એવો કેઈ પણ સમય થતું નથી, તેમ વર્તમાનમાં પણ એવું નથી. ભવિષ્યમાં પણ આ સમય રહેશે નહીં. કે જેમાં સામાન્ય પૃથ્વીકાયિક જી રહ્યા ન હોય. તેમ નહી હશે. સામાન્ય પૃથ્વીકાયિક જીવે આ સંસારમાં સદા સર્વદા દરેક ક્ષણમાં વર્તમાન રહે છે. 'एव जाप तमकाइए' मा प्रमाणे सामान्य मायिनी, सामान्य
Page #492
--------------------------------------------------------------------------
________________
४६८
जीवामिगमसू
कायिकानां संग्रहो भवति, तथा च- पृथिवीकायिकवदेव अप्तेजोवायुवनस्पतिकायिकानामपि कार्यस्थिति ज्ञतिव्येति, आलापमकारस्तु एवम्- 'आउकाइएणं भंते ! आउकाइयत्ति कालओ केवच्चिरं छोइ ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्को सेणं अनंत काले यता उस्सप्पिणीओ सप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ अनंता लोगा असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा तेयपोग्गलपरियट्टा आवलियाए असंखेज्जइ भागो' इत्यादि, एवमेत्र तेजोवायुवनस्पतित्रसकायिक सूत्राण्यपि ज्ञातव्यानि, सर्वत्राला मकारस्तु स्वयमेवोहनीय इति ।
सम्पति-विवक्षितेकाले जघन्यपदे उत्कृष्टपदेवा कियता कालेनाभिनवा उत्पद्य मानाः पृथिवीकायिकादयो निर्लेपास्युः ? इत्येतन्निरूपणार्थमाह- 'पडुप्पन पुढवीकाइयाण' इत्यादि, 'पडुप्पन्न पुढवीकाइयाणं भंवे' प्रत्युत्पन्न पृथिवी कायिकाः तत्काकायिक जीव की और सामान्य प्रसकायिक जीव की भी काय स्थिति का काल जानना चाहिये इस सम्बन्ध में आलाप प्रकार ऐसा है 'आउ काइए णं भंते ? आउकाइयत्ति कालओ केवच्चिरं होई' गोयमा जहन्ने णं अंतोन्तं उक्को सेणं अनंत कालं अनंता उस्सप्पिणीओसप्पि पीओ कालओ खेत्तभो अनंता लोगा असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा तेय पोग्गलपरियट्टा आवलियाए असंखेज्जइ भागो' इत्यादि । इसी तरह से तैजस्काधिक वायुकायिक और वनस्पतिकाधिक के सम्बन्ध में भी सूत्र जान लेना चाहिये ।
अघ सूत्रकार पूर्वोक्त काल में जघन्य और उत्कृष्ट से पृथिवी कायिकादिजीव कितने काल से निर्लेप होते हैं ? इसका निरूपण कहते हैं- 'पप्पन्न० इत्यादि ।
તેજસ્કાયિકની, સામાન્ય વાયુકાયિકની સમાન્ય વનસ્પતિકાયિક, જીવની, અને સામાન્ય સકાયિક જીવની કાયસ્થિતિનેા કાળ પણ સમજી લેવા. આ સંબધમાં यासायहीनो अडार मा नीचे प्रभा छे. 'आउ काइरणं भवे ! आउकाइयत्ति कालओ केवच्चिर' होई, गोयमा ! जहणेण अतोमुहुत्त उक्कोंसेणं अनंत काल अता उप्पणी ओसप्पिणीओ कालओ खेत्तओ अणता लोगा असर खेज्जा पोगगळ परिय तेयपोग्गलपरियट्टा श्रावलियाए अस खेज्जइभागो' छत्याहि मा प्रभातेÆાયિક, વાયુકાયિક અને વનસ્પતિકાયિકના સંબધમાં પણ સુત્રપાઠ સમજી લેવા. હવે સૂત્રકાર પૂર્વક્તિ કાળમાં જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટ પણાથી પૃથ્વીકાયિક વિગેરે જીવા કેટલા કાળથી નિર્લેપ હાય છે ? આ વિષયનુ' નિરૂપણુ કરવા आटे छे, 'पप्पन्न' इत्यादि
Page #493
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
-
-
-
प्रमैयद्योतिका टीका प्र.३ उ.सू.३० सभेदपृथिव्याः स्थित्यादिनिरूप मम् ४६९ कमुत्पद्यमानाः पृथिवीकायिकजीवाः खलु भदन्त ! 'केवइय कालल्स' कियत्काल स्य 'केवइय कालस्स' इत्यत्र तृतीयार्थे पष्ठी विभक्तिस्तेन कियता कालेन 'मिल्छे वा सिया निलेपाः स्युः भविसमयमेकैकापहारेणापहियमाणाः पृथिवी कायिकाः कियता कालेन सर्ने एव निष्ठामुपयान्तीति प्रश्नः भगानाह-गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जहणपदे' जघन्यपदे यदा सर्वस्तोका भवन्ति तदा-'असं. खेजाहि उस्सपिणीओ सप्पिणीहि' असंख्यातासि रुत्सर्पिण्यवसर्पिणीमिः पृथिवीकायिका निर्लेपा भवन्तीति । 'उक्कोसपए' उत्कर्षपदे यदा सर्वे बहवो भवन्ति तदाऽपि 'असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणीओ सप्पिणीहि' असंख्याताभिरु सपिण्यघसर्पिणीमि निलेपा भवन्तीति। अत्राय विशेष:-'जहन्नपदाओ उनकोसपर असंखेज्जगुणा'
हे भदन्त ! जितने अभिनव पृथिवी कायिक जीव विधक्षित काल में जघन्य और उस्कृष्ट रूप से उत्पन्न होते हैं वे सघ उतने जीव कितने काल के बाद यदि उनमें से एक एक जीव निकाला जावे तो पूरे समाप्त हो जावें ? इसके उत्तर में प्रभु श्री फाहते है-'गोयमा जहन्नपए अस. खेज्जाहिं उस्तप्पिणीओसप्पिणीहिं उस्कोलपदे असंखेजाहिं उस्सपिणि ओसप्पिणीहिं' हे गौतम! जघन्य ले अर्थात् जप एक काल में कम से कम उत्पन्न होते हैं उस अपेक्षा ले यदि उनमें से प्रत्येक समय में एक-एक जीव अपहत किया जावे तो उनके पूरे अपहरण होने में असंख्यात उत्सपिणियां और असंख्यात अवलपिणियां समाप्त हो
હે ભગવન્! જેટલા નવા પૃથ્વીકાયિક જી વિવક્ષિત કાળમાં જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટ પણાથી ઉત્પન્ન થાય છે, તે બધાજ જી કેટલા કાળ પછી તે તેઓમાંથી એક એક સમયમાં એક એક જીવ બહાર કહાડવામાં આવે, તે પૂરે પૂરા બહાર કહાડી શકાય? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે छे है 'गोयमा ! जहन्नपए अस उजाहिं उस्तप्पिणी ओसप्पिणीहि उक्कोसपदे अब खेज्जाहि उस्सपिणी ओसप्पिणीह' गीतम! धन्यथा अर्थात् न्यारे से કાળમાં ઓછામાં ઓછા ઉત્પન્ન થાય છે. તે અપેક્ષાથી જે તેઓમાંથી પ્રત્યેક સમયમાં એક એક જીવ બહાર કહાડવામાં આવે, તે પૂરેપૂરા તેઓને બહાર કહાડવામાં અસંખ્યાત ઉત્સર્પિણ અને અસંખ્યાત અવસર્પિણ પૂરી થઈ જાય છે. એ જ પ્રમાણે ઉત્કૃષ્ટથી અર્થાત્ એક જ કાળમાં જ્યારે તેઓ વધારેમાં વધારે ઉત્પન્ન થાય છે. તે અપેક્ષાથી પણ જો તેમાંથી એક એક સમયમાં એક એક જીવ બહાર કહાડવામાં આવે તે પણ તેઓને પૂરેપૂરા બહાર હાડવામાં અસંખ્યાત ઉત્સપિણી અને અસંખ્યાત અવસર્પિણી
Page #494
--------------------------------------------------------------------------
________________
४७
जीवामिगम जवन्यपदा दुत्कृष्टपदिनो जीवा असंख्येय गुणा अधिका भवन्ति, उत्सपियर सर्पिणीनां जघन्योत्कृष्टपदोक्ता संख्ये यत्वमध्ये जघन्यपदोक्ता संख्येवत्वापेक्षया उत्कृष्टपदोक्ता संख्ये ग्वस्थ असंख्येयगुणाधिकत्वादिति भावः । 'एवं जाव पड़प्पन्न बाउक्काइया' एवं पृथिवीकायिकवदेव यावद् वायुकायिका जीवाः अघ. न्यो कृप्टरदेऽख्येयाभि रुत्सपिण्यवसर्पिणीमि निलेपा भवन्तीति यावत्पदेना. प्तेजः कायिकानां ग्रहणं भवतीति तथा च पृथिवीकायिकादारभ्य वायुकायिक जीयाः जघन्योत्कृष्टाभ्यामसंख्यातामि सत्सपिण्यासपिणीमि निलेपा भवन्तीति जाती हैं हत्ती प्रकार उत्कृष्ट से अर्थात् एक ही काल में जय वे अधिक से अधिक उत्पन्न होते हैं उस अपेक्षा से भी यदि उनमें से भी एक २ समय में एका-एक जीध अपहृत किया जावे तो भी उनके भी पूरे अप. हरण करने में असंख्घात उत्सर्पिणियां और असंख्यात अव सपिणियां समाप्त हो जावें तब वे पूरे अपहृत हो सकते हैं-'जहणपदाओ उक्कोसपए असंखेज्जगुणा' जाधव पद वाले उत्पद्यमान अभिनव पृथिवी कायिक जीवों की अपेक्षा जो उत्कृष्ट पदवी अभिनव पृथिवी कायिक जीव उत्पन्न होते हैं ये असंख्यात गुणे अधिक होते हैं। क्योंकि जघन्य
और उत्कृष्ट पदों में दोनों जगह असंख्घात पद होते हुए भी जवन्यपदोक्त असंख्पाल च की अपेक्षा उत्कृष्ट पदोक्त असंख्यातत्व असंख्यात गुणा अधिक होता है। 'एवं जाव पडप्पन्न वाउमाया' इसी तरह से एक काल में यावत् अभिनय अकाधिक तेजस्कायिक और वायुकायिक जीव घम ले काम और अधिक से अधिक इतने उत्पन्न होते हैं कि उनमें से एक एक स्ललय में एक जीव का अपहरण किया जावे तो पृथिवीकायिक समास थ तय छे त्यारे ते! पूरे ५२। मडार ४6181 शय छ 'जहण्ण पदामो उक्कोसपए अस खेज्ज गुणा' ४-५ ५४वाणापन्न थना। नपा नवा પૃથ્વીકાયિક જીની અપેક્ષાથી જે ઉત્કૃષ્ટ પદ વતી નવા નવા પૃથ્વીકાયિક જી ઉત્પન્ન થાય છે, તેઓ અસંખ્યાત ગણા વધારે હોય છે. કેમકે જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટ પદમાં બન્ને સ્થળે અસંખ્યાત પદ હોવા છતાં પણ જઘન્ય પદમાં કહેલ અસંખ્યાત ચ ની અપેક્ષાએ ઉત્કૃષ્ટ પદમાં કહેલ અસંખ્યાતવ मध्यात वधारे डाय छे. 'एन जाव पडुप्पन्न वाउक्काइया' मे०४ प्रभा એક કાળમાં યાવત્ નવા નવા અપૂકાયિક, તેજરકાયિક અને વાયુકાયિક જીવ ઓછામાં ઓછા એક એક સમયમાં એક એક જીવતું અપહરણ કરવામાં આ અર્થાત્ બહાર કહાડવામાં આવે તે પૃથ્વીકાયિક જીવોની જેમજ
Page #495
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयोतिका टीका प्र.३ उ.३ ७.३० समैदपृथिव्याः स्थित्यादिनिरूपणम् ४७१ 'पडप्पनवणफकाइयाणं भंते' प्रत्युत्पन्नबनस्पतिकायिका तत्काल समुत्पद्यमाना वनस्पतिकायिकाः खलु खलु भदन्त ! 'केवइय-कालस निल्लेबा सिया' कियता कालेन निर्लेपाः स्युः १ इति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'एडुप्पन्नवणप्फइकाइया' प्रत्युत्पन्नास्तस्कालं समुल्षयमाना वनस्पतिकायिकाः, 'जहन्नपदे अपदा' जघन्यपदे अपदाः यता कालेनापयिन्ते इत्येताशपदरहिता एव भवन्ति । वनस्पतिकायिकानामनन्तानन्तत्वादिति । 'उको. सपदे अपया' उत्कृष्टपदे अपदाः, इयता कालेन अपहियन्ते इत्येतादृशपदहिता, जीवों की तरह ही असंख्यात उत्सपिणियां और असंख्यात ही अच सपिणियाँ समाप्त हो जावें तब जाकर वे पूरे अपहन किये जासकते हैं। . 'पडप्पन्नवणफह काइयाणं भंते ! केवाय कालस्त निल्लेश लिया' हे भदन्त ! वनस्पति कायिक जीव जो अभिनव वनस्पति कायिक जीव रूप से अमुक किसी विवक्षित काल में कम से कल उत्पन्न हुए हों और अधिक से अधिक उत्पन्न हुए हो यदि उन्हें एक-एक समय में अपहत किया जावे तो कितने काल में वे अपहृत हो पावें ? इसके उत्तर में प्रभु श्री कहते हैं-'गोयमा ! पडुप्पन्नवणप्फ काइका जहण्ण पदे अपया उक्कोसपदे अपया' हे गौतम! वनस्पतिकाधिश जीव जघन्य से और उत्कृष्ट से अनुक विवक्षित-काल में इतने अधिक उत्प. न्न होते हैं कि 'वे असंख्वात उत्सपिणियों में और असंख्यात अवमपि णियों में अपहृत हो पावें' ऐमा वहां नहीं कहा जा सकता है इसका तात्पर्य यही है कि वनस्पति कायिक जीव अमुभ-विवक्षित-काल में અસંખ્યાત ઉત્સર્પિણી અને અસંખ્યાત જ અવસર્પિણી પૂરી થઈ જાય ત્યારે તેઓ પૂરેપૂરા બહાર કહાડી શકાય છે.
___ 'पडुगन्नवणप्फकाइयाण भते! केवइय काउस्स निल्लेवा मिया' है ભગવાન ! વનસપતિ કયિક જીવ જે અભિનવ વનસ્પતિ કાયિક પણાથી કઈ અમુક વિવક્ષિત કાળમાં ઓછામાં ઓછા ઉત્પન્ન થયા હોય અને વધારેમાં વધારે ઉત્પન્ન થયા હોય તેઓને જે એક એક સમયમાં બહાર કહાડવામાં આવે, તે તેઓ બધા કેટલા સમયમાં બહાર કહાડી શકાય ? આ પ્રશ્નના उत्तरमा प्रभुश्री गौतमस्वामीन ४३ छ गोयमा । पडुप्पन्न वण फकाइया जहण्णपो अपया, उक्कोसपदे अपया' गोतम ! वनस्पति थि: । જધયથી અને ઉત્કૃષ્ટથી અમુક વિવક્ષિત કાળમાં એટલા બધા વધારે ઉત્પન્ન થાય છે. કે તેઓ અસંખ્યાત ઉત્સપિમાં અને અસંખ્યાત અવલપિનીમાં રડાર કહાડી શકાય એ પ્રમાણે કહી શકાતું નથી. આ કથનનું તાત્પર્ય
Page #496
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमस
T
3
उत्कृष्टपदेऽपि भवन् वनस्पतिकायिकानामनन्तानन्तत्वात् । 'दव्यमवण फड़काइयाण नत्थि निल्लेवणा' प्रत्युत्पन्न वनस्पतिकायिकानामनन्तानन्ततया निर्लेपना नास्तीति । 'चडुप्पन्नतसकाइयाणं पुच्छा' मत्युपन्नत्र सकायिकाः खल भदन्त ! कियता कालेन निर्लेपा भवन्तीति प्रश्नः भगवानाह - हे गौतम! 'जहण्णपदे सागरोवमस्य पुहुचस्स' जघन्यपदे सागरोपमशतपृथक्त्वेन निर्लेपा भवन्ति 'उक्कोसपदे सागरोवमसय पुहुस्स' उत्कृष्टपदेऽपि सागरोपमशतपृथवश्वेन निर्लेपा भवन्ति। नवरम् 'जगदा उक्कोसपदे विसेसाहिया' जघन्यपदादुत्कृष्ट सर्वदा अनन्तानन्त उत्पन्न होते रहते हैं। इसी कारण 'पटुत्पन्नवणकर काइया णं नरिथ निल्लेवणा' प्रत्युत्पन्न वनस्पतिकायिक जीवों की निळेपना नहीं होती है क्यों कि वे अनन्तानन्त उत्पन्न होते रहते हैं 'पड़ पत्नतसकाइयाणं पुच्छा' हे भदन्त ! प्रत्युत्पन्न कायिक जीव लेपरfe कितने काल के बाद होते है अर्थात् जिस किसी विवक्षित समय में कम से कम और अधिक से अधिक जितने त्रस कायिक जीव उत्पन्न होते हैं वे यदि एक-एक समय में एक-एक जीव अपहृत किये जावें तो कितने काल में वे पूरे अपहृत हो पावें ? इसके उत्तर में प्रभु श्री कहते हैं - हे गौतम! 'जहण पदे सागरोवममयपुत्तस्स, उक्कोसपदे मागरमलय पुहृत्तस्म' वे प्रत्युन्न त्रस कायिक जीव जघन्य पद में और उत्कृष्ट पद में इतने अधिक होते है कि यदि उन्हें एक-एक समय में एक-एक जीव के अपहृत किया जावे तो पूरे अपहृत करने में सागरोपमशन पृथक्त्व अर्थात् एक सौ सागरोपन से लेकर नौ सौ सागरोपम तक का काल समाप्त हो जावे 'जहन्नपयो उनकोस पर
એ જ છે કે વનસ્પતિ કાયિક જીવ અમુક વિવક્ષિત કાળમાં સદા અનંતાनत उत्पन्न थता रहे छे और 'पडुत्पन्नवण फइकाइयाण नत्थि निल्लेवणा પ્રત્યુત્પન્ન-વર્તમાન કાળમાં ઉત્પન્ન થયેલા વનસ્પતિ કાકિ જીવેાની નિલે પના थती नथी. डेभ} तेथे। अनंतानं'त उत्पन्न थता रहे छे. 'पडुप्पन्नतसकाइयाण પુચ્છા' હું ભગવત્ પ્રત્યુત્પન્ન સકાયિક છત્ર કેટલા કાળ પછી લેપરહિત થાય છે ? અર્થાત્ જે કૈાઇ વિવક્ષિત કાળમાં એછામાં એછા અને વધારેમાં વધારે જેટલા ત્રસ કાયિક થવા ઉત્પન્ન થાય છે, જે તે બધા એક એક સમયમાં મહારકહે દેવામાં આવે, તે તે બધા કેટલા સમયમાં પૂરેપૂરા અહેર કહાડી શકાય ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે હે ગૌતમ जगपदे सागरोवमसयपुहुत्तस्स उकोस्रपदे सागरोत्रमसयपुहुत्तस्स' ते प्रत्युत्पन्न
Page #497
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका म.उ.३ सु.३१ मविशुद्ध-विशुद्धलेश्यानगारनि० ४७३ पदे विशेषाधिका भवन्ति, शतपृथक्त्वस्य सामान्यतया कथनेऽपि जघायपदोक्त शतपृथक्त्वापेक्षया उस्कृष्टपदोक्तशत पृथक्त्वस्य विशेषाधिक त्वादिति ।मु० ३० । __ पूर्वं पृथिव्यादि चतुर्विंशतिदण्डकजीवानां स्थित्यादि भावाः प्रदर्शिताः, साम्प्रतं पूर्वोक्त भाववेत्ताऽनगार एव भवतीति अविशुद्धलेश्य विशुद्धटेश्यानगार वक्तव्यतामाह- 'अविसुद्धलेस्सेणं भंते' इत्यादि,
मूलम्-अविसुद्धलस्सेणं भंते! अणगारे असंमोहएणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेस्सं देवं देविं अणगारं जाणइ पासइ ? गोयमा ! नो इणटे सम?। अविसुद्धलेस्लेणं भंते ! अणगारे असमोहएणं अप्पाणेणं बिसुद्धलेस्सं देवं देविं अणगारे जाणइ पासइ ? गोयमा ! नो इण? सम? । अविसुद्धलेस्से अणगारे समोहएणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेस्सं देवं देविं अणगारं जाणइ पासइ ? गोयमा ! नो इगटे समटे। अविसुद्धलेस्सेणं भंते ! अणगारे समोहएणं अप्पाणेगं विसुद्धलेस्सं देवं देवि अणगारं जाणइ पासइ ? नो इणटे समट्टे । अविसुद्धलेस्सेणं भंते ! अणगारे समोहया समोहएणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेस्सं देवं देविं अणगारं जाणइ पापइ ? नो इणट्रे समझे। अविसुद्धलेस्सेणं विसेसाहिया' जघन्य पद में वे जितने उत्पन्न हुए है उनकी अपेक्षा वे उत्कृष्ट पद में विशेषाधिक तान्न होते हैं क्योंकि मामान्य तया शत पृथक्त्व पद के कहने पर भी जघन्य पद के शत पृथक्त्व की अपेक्षा उत्कृष्ट पद का शत पृत्व विशेषाधिक होता है ॥मू० ३०॥ ત્રસકાયિક છે જઘન્ય પદમાં અને ઉત્કૃષ્ટ પદમાં એટલા વધારે હોય છે કે જે તેઓને એક એક સમયમાં એક એક પણાથી બહાર કહાડવામાં આવે તે પૂરે પૂરા બહાર કહાડવામાં સાગરોપમ શત પૃથવ અર્થાત્ એક સે સાગરેપમથી ૯ઈને નવ સે સ ગરેપમ સુધને કાળ પુરો થઈ જાય 'जहन्नपया उस्कोमपए बिसेसाडिया' धन्य मां ते २८ ५न्न थया छे. તેઓની અપેક્ષાએ તેઓ ઉત્કૃષ્ટપદમાં વિશેષાધિક ઉત્પન્ન થાય છે કેમકે સામાન્ય તયા શતપ્રથફત્વ પદને કહેવા છતાં પણ જઘન્ય પદના તપૃ કુવની અપેક્ષાએ ઉત્કૃષ્ટ પદનું શત પૃથકૃત્વ વિશેષાધિક હોય છે. જે સૂ ૩૦ ||
जो ६०
Page #498
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगम
BL
भंते! अणगारे समोहया समोहरणं अप्पाणेणं विसुद्धलेस्सं देवं देवि अणगारं जाणइ पासइ ? नो इणट्टे समट्टे । विसुद्धले सेणं भंते! अणगारे असमोहरणं अप्पाणं अविसुद्धलेस्तं देवं देवि अणगारं जाणइ पासइ ? हंता जाणइ पासइ, जहा अविसुद्ध लेस्से. णं आलावा एवं विसुद्धलेस्मेण वि छ आलावा भाणियव्वा । जाव विसुद्ध लेस्लेणं भंते! अणगारे समोहरणं विसुद्धलेस्सं देवं देवि अणगारं जाणइ पाएइ ? हंता जाणइ पासइ ॥ सू० ३१॥
1
छाया - अविशुद्धलेश्यः खल भदन्त ! अनगारोऽमवदतेनाssत्मना अविशुद्धलेश्यं देवं देवीमनगारं जानाति पश्यति ? गौतम ! नायमर्थः समर्थः अविशुद्वलेश्यः खलु भदन्त ! अनगारः असमवहतेन आत्मना विशुद्धदेश्यं देवं देवीमनगारं जानाति पश्यति ? गौतम | नायमर्थः समर्थः । विशुद्धलेश्योऽनंगारः समवहतेन आत्मना अविशुद्ध वेश्यं देवं देवीमनगारं जानाति पश्यति ? गौतम ! नायमर्थः समर्थः, अविशुद्धछेशनः खलु भदन्त । अनगारः समवहतेन आत्मना विशुद्धश्यं देवं देवीनगारं जानाति पश्यति ? नायमर्थः समर्थः । अविशुद्धलेश्यः खलु भदन्त ! अनगारः समवद्दता समवदतेन आत्मना अविशुद्धलेइयं देवं देवीमनगार जानाति पश्यति ? नायमर्थः समर्थः । अविशुद्धलेश्यः खलु भदन्त । अनगारः समवहता समवहसेन आत्मना विशुद्धलेश्यं देवं देवीमनगार' जानाति पश्पति ? नायमर्थः समर्थः । विशुद्धदेश्यः खलु गदन्त ! अनगारः असमवहतेनारमना अविशुद्धलेश्यं देवं देवीमनगारं जानाति पश्यति ? हन्त नानाति पश्यति, यथा-अविशुद्ध वेश्येन आलापकाः, एवं विशुद्धले श्येनापि पडाळापकाः भणितव्याः यावद विशुद्धयः खलु भदन्त । अनगारः समवहता समवहतेन आत्मना विशुद्धश्य देवं देवीमनवार जानाति पश्यति ? हा जानाति पश्यति स . ३१ ।
इस से पूर्व पृथिव्यादि चौवीस दण्डक के जेवों के स्थित्यादि भाव कहे गये है पूर्वोक्त स्थित्यादि भावों का जानकार अनगार ही हो सकता है इसलिये अब अविशुद्ध विशुद्ध लेश्या वाले अनगार के विषय में कहते हैं
આની પહેલા પૃથિવી વિગેરે ચાવીસ ઈંકના જીવાની સ્થિતિ વિગેરે ભાવે કહેવામાં આવ્યા છે. તે પૂર્વક્તિ સ્થિત્યાદિ ભાવાને જણવાવાળા અણુગારજ હાય છે. તેથી હવે અવિશુદ્ધ વિશુદ્ધ લૈશ્યા વાળા અણુગારના સ`ખધમાં કથન કરવામાં આવે છે,
Page #499
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.२ ५.३१ अविशुद्ध-विशुद्धलेश्यानगारनि० ४७५
टीका--अविसुद्धलेस्से णं भंते ! अणगारे' अविशुद्धलेश्या, विशुद्धा लेश्या विद्यते यस्य स विशुद्धलेश्यः न विशुद्धलेश्य इति अविशुद्धलेश्यः कृष्णनीलकापोतलेश्यावान् खलु भदन्त ! अनगारः, न विद्यते अगारं-गृहं यस्य सोऽनगारः साधुः 'असमोहएण' अप्तमबहतेन वेदनादि समुद्घातरहितेन 'अप्पाणेणं' आत्मना 'अविमुद्धलेस्सं देवं देविं अणगारं' अविशुद्धलेश्यं-कृष्णादिलेश्योपेतं देवं देवीं वा अनगारम् 'जाणइ पासइ' जानाति-ज्ञानविषयीकरोति, पश्यति दर्शनविषयी. करोतीति मश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा ! हे गौतम ! 'नो इणढे समडे' नायमर्थः समर्थः अविशुद्धलेश्या वत्त्वेन यथावस्थितवस्तु परिच्छेदा'अविसुद्ध लेस्से णं भंते ! अणणारे अलमोहएणं अप्पाणेणं' इत्यादि
टीकार्थ-गौतम ने प्रभु से ऐला पूछा है-'अविसुद्धलेस्ले णं भंते । अणगारे' हे भदन्त ! जो अनगार जिसके-अभार-घर नहीं हो वह अनगार अर्थत-साधु-अविशुद्धि लेश्या वाला है कृष्ण नील कापोत लेश्या वाला है-और 'अनमोहएणं अप्पाणेणं' वेदनादि समुदूधात विहीन आत्मा द्वारा क्या 'अविसुद्धले देयं देहिं अणागर" अविशुद्ध लेश्या वाले-कृष्णादि लेश्या वाले देव को या देवी को यो अनगार को 'जाणइ पालह' ज्ञान द्वारा जानता है और दर्शन द्वारा देखता हैइसके उत्तर में प्रभु श्री कहते हैं-'गोषमा ! णो इणढे समढे' हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् अविशुद्ध लेश्या वाला होने के कारण उस अनगार के यथावस्थित बस्तु को जानने वाले ज्ञान का अभाव कहा गया है इस तरह अविशुद्ध लेश्या वाला अनगार यथार्थ
'अविसुद्धलेस्रेण भखे अणगारे असमोहएण अपाणेण' त्यहि टी-श्रीगीतभस्वामी प्रसुश्रीन मेवु ५७यु 'अविसुद्धलेस्से ण भवे अणगारे' हे साप २ ॥२ मेटले २२ ॥२-५२ न हाय ते અનગાર અર્થાત સાધુ અવિશુદ્ધ વેશ્યાવાળા છે. કૃષ્ણનીલ, કાપત, શ્યાવાળા छ. अने, 'असमोहएण अपाणेणं वना विगेरे सभुधात २डित मामा । 'अविसुद्धलेस्स देव' देवि अणगार' विशुद्ध श्यापात ४० विगैरे वेश्या पावने म२ वीर मया माणुगारने 'जाणइ पासइ' ज्ञान द्वारा तो
છે? અને દર્શન દ્વારા દેખે છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે 'गोयमा ! गो इणटे समढे' 3 गौतम ! २मा म मराय२ नथी. अर्थात् वि. શુદ્ધ વેશ્યાવાળા હોવાથી એ અણુગારને યથાવસ્થિત વસ્તુને જાણવાવાળા શાનને અભાવ કહેલ છે. આ પ્રમાણે અવિશુદ્ધ લેશ્યાવાળે અણગાર યથાર્થ
Page #500
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमस्त्र भावादिति, 'अविसु द्रलेस्सेणं भंते ! अणगारे' अविशुद्धलेश्य:-कृष्णादिलेश्योपेतः खल भदन्त ! अनगार:-साधुः 'असमोहएणं अपाणेण' असमबहतेन-वेदनादि समुद्घातरहितेनाऽऽत्मना 'विसुद्धलेस्सं देवं देवि अणगारं' विशुद्धलेश्यं देवं देवीमनगारं किम् 'जाणइ पासइ' जानाति-पश्यति, इति द्वितीयः प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'नो इणढे समडे' नायमर्थः समर्थः, अविशुद्धलेश्यावत्वेन यथाऽवस्थितवस्तुपरिच्छेदाभावादिति ॥२॥ 'अविमुद्धलेस्से णं भंते ! अणगारे' अविशुद्धः -कृष्णादिलेश्यः खलु भदन्त ! अनगार:-साधुः 'समोहएणं अप्पाणे गं' समवहतेन-वेदनादि समवघातगनात्मना रूप से न अविशुद्ध लेश्या देव को जानता देखना है । 'अविसुद्धलेस्से णं भंते ! अणगारे असमोहएणं अप्पाणे णं विसुद्धलेस्सं देवं देवि अण गारं जाणइ पासई' हे भदन्त ! जो अनगार अविशुद्ध लेश्या वाला है
और वेदनादि समुद्घात से विहीन है ऐसा वह अनगार घेदनादि ममुद्घात रहित आत्मा के द्वारा क्या विशुद्ध लेश्या वाले देव को या देवी को या किसी अनगार को क्यो जानता है और देखता है ? इस के उत्तर में प्रभु श्री कहते है-'गोयमा ! नो इणढे समढे' हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है क्योंकि अविशुद्ध लेश्या वाले यथावस्थित वस्तु को जानने वाले ज्ञान का अभाव रहा करता है । 'अविसुद्धलेस्से णं भंते ! अणगारे समोह एणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेस्सं देवं देवि अणगारं जाणइ पासह' हे भदन्त ! जो अनगार अविशुद्ध लेश्या वाला है-लेश्या की विशुद्धि से विहीन है-परन्तु वेदनादि समुद्घात गत है पाथी भविशुद्ध वेश्यावा हेपने तत। हेमात नथी. अ वसुद्धलेस्सेण भते अणगारे असमोहएणं अप्पाणं विसुद्धलेस्स देव देवि अणगार जाणइ पासइ' है ભગવદ્ જે અતગાર અવિશુદ્ધ વેશ્યાવાળા હોય છે, અને વેદના વિગેરે સમુદ્રઘાતથી રહિત છે. એવે તે અનગાર વેદના વિગેરે સમૃદ્દઘાતથી રહિત આત્મા દ્વારા વિશુદ્ધ વેશ્યાવાળા દેવને અથવા દેવીને અથવા તેવા કોઈ અણુગારને શું જાણે છે? કે દેખે છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને
हे छ , 'गोयम। ! नो इणटे समटे' हे गौतम ! सा मथ मशम२ नथी. કેમકે અવિશુદ્ધ લેણ્યા વાળાને યથાવસ્થિત વસ્તુને જાણવાના જ્ઞાનને અભાવ हाय छे. 'अविसुद्धलेस्सेणं, भते ! अणगारं समोहएणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेस देव देवि अणगारे जाणइ पासइ' है मापन २ सनगार अविशुद्ध वेश्यावाणा હોય છે, વેશ્યાની વિશુદ્ધીથી રહિત છે. પરંતુ વેદના વિગેરે સમુદઘાતવાળા છે,
Page #501
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमैयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ सू.३१ अविशुद्ध-विशुद्धलेश्यानगारनि० ४३७ 'अविसुद्धलेरसं देवं देवि अणगारं' अविशुद्धलेश्यं देवं देवीमनगारम् 'जाणइ पासई' जानाति-ज्ञानविषयीकरोति, पश्यति- दर्शनविषयी करोति, इति प्रश्ना, भगवा नाह-गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'नो इण समढे' नायमर्थ अघि शुद्धलेश्यावयेन यथावस्थित पदार्थप रच्छे स्मशक्यत्शदिति ३ । 'अविसुद्धले से अणगारे' अबेशुद्धलेश्य:-कृष्गादिश्यासहितोऽनगारः 'सम हए णं अपाणेणं' समाह सेन-वेदनादि समुद्घातगते नात्मना 'विसुद्धलेस्सं देवं देषि अणमारं' विशुद्धलेश्यं देवं देवीमनगारम् 'जाणइ पाप्तइ' जानाति सामान्यतः, पश्यति विशेषरूपेणेति प्रश्न:, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'नो इणढे समडे' नायमर्थः समर्थः अविशुदलेश्यतया यथावस्थित वस्तुपरिच्छेदासंभवादिति ४ । 'अविमुद्धलेस्से णं भंते ! अगगारे' अविशु लेश्यः खल्ल भदन्त ! अनगार:-साधुः 'समोहया समोहएगं अप्पाणेणं' समवहता समवहतेनाऽऽत्मना तो क्या वह स्वयं के द्वारा 'अविलुद्धलेस्सं देवं देवि अणगार' आधशुद्ध टेश्या वाले देव को या देवी को था अनगार को क्या जानता है
और देखता है ? इसके उत्सर में प्रभुश्री कहते हैं-'यो इणढे समटे' हे गौतम ! यह अर्थ समर्थित नहीं है इसका कारण लेश्या की विशुद्धता में यथावस्थित वस्तु परिच्छेदक ज्ञान नहीं होता है अविसुद्धलेस्ले अण गारे समोहएणं अप्पाणे विस्सु द्रलेसन देवं देवि अणगारं जाण पाइ' हे भदन्त ! जो अनगार अविशुद्ध देशा वाला है और वेदनादि समुद् घात गत रहा हुवा है तो क्या वह स्वयं के द्वारा विशुद्ध लेश्या वाले देव को या देवी को या अलगार को क्या जानता देखता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-हे गौतन! 'लोणढे समडे' यह अर्थ समर्थित नहीं तो शुते २१य पातानाथी 'अबिसुद्धलेस्स देव देवि अणगार' जाणइ पासइ' અવિશુદ્ધ વેશ્યાવાળા દેવને અથવા દેવીને અથવા અણગારને શું જાણે છે ? भने देणे छ मा प्रश्ना उत्तम प्रभुश्री गौतम भान । छ है जो इणट्रे समट्टे' गौतम ! मा म ५३५२ नथी. तनु ४.६५ देश्यानी विशुद्धिमा यथावस्थित वस्तु पश्छेिद ज्ञान हाल मे ते हेतु नथी. 'अविसुद्धलेस्से अणगारे समोहएण अप्पाण्णं विसुद्धलेस्स देव अणगार जाण पासइ लगपन् જે અણગાર અવિશુદ્ધ વેશ્યાવાળે હેય અને વેદના વિગેરે સમૃદઘત યુકત હોય તે શું તે સ્વયં તેિજ વિશુદ્ધ લેશ્ય વાળા દેવને અથવા દેવીને કે અણુગારને જાણે છે? કે દેખે છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે હે ગૌતમ ! 'नो इण समढ़े भी मथ ॥३॥र नथी, तनु र ६५२ ५उवामा मापी
Page #502
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
जीवामिगमस्त्र GsĆ समबहता समवहतो नाम वेदनादि समुद्घात क्रियाविशिष्टो न तु परिपूर्णसमवहतो नापि सर्वथा असमवहतः 'अविसुद्धलेस्सं देवं देवि अणगारं' अविशुद्धलेग्यं देनं देवि अणगारं' अविशुद्धलेश्यं देवं देवीमनगारम् 'जाणइ पास जानाति सामान्यता, पश्यति विशेषरूपेणेति मश्नः, भगवानाह-'हे गौतम ! 'णो इणटे सम?' नायमर्थः समर्थः अविशुद्धलेश्यतया यथावस्थितवस्तु परिच्छेदस्याशक्यत्वा. दिति ५। 'अविसुद्धलेरसे अणगारे' अविशुद्धलेश्यः खलु भदन्त ! अनगारः, 'समोहया समोहरणं अप्पाणेणं' समवहता समवहतेनाऽऽत्मना 'अविसुद्धलेस्सं देवं देवि अणगारं' अविशुद्रलेश्यं देवं देवीमनगारम् 'जाणइ पासइ' जनाति सामान्यरूपेण, पश्यति विशेषरूपेणेति षष्ठः प्रश्नः, भगवानाइ-'गोयमा' हे गौतम । होतो है कारण इसका ऊपर में बताया जा चुका है। 'अविसुद्धलेस्सेर्ण भंते ! अणगारे समोहया समोहएर्ण अप्पाणेणं अविसुद्धलेस्सं देवं देवि जाण पासह' हे भदन्त ! अनगार अविशुद्ध लेश्या वाला है और वेद नादि समुद्घात क्रिया से कुछ विशिष्ट है वेदना आदि समुद्घात से कुछ रूप से विशिष्ट नहीं भी है ऐसा वह समवहतासमवहतात्मावाला साधु क्या अविशुद्ध लेश्या वाले देव को या देवी को या अनगार को क्या जानता देखता है ? इसके उत्तर में प्रभु श्री कहते है-हे गौतम ! 'नो इणढे समढे' यह अर्थ समर्थ नहीं है क्योकि यथार्थ दर्शन ज्ञानका उसको अभाव रहता है 'अविसुद्धलेस्ते अणगारे समोहया समोहएणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेस्सं देवं देवि अनगारं जाणइ पासा' हे भदन्त ! जो अनगार अविशुद्ध लेश्यावाला है और वेदनादि समुद्घात से विशिष्ट और अविशिष्ट भी है तो क्या ऐसा वह अनगार स्वयं के द्वारा विशुद्ध भयेर छे. ते प्रमाणे सभ दे, 'अविसुद्धलेस्सेणं भाते ! अणगारे समोहया समोहएण अप्पाणेणं अविसुद्धलेरस देव देवि जाणइ पासइ' से भगवन् २ અણુગાર અવિશુદ્ધ વેશ્યાવાળો હોય છે, અને વેદના વિગેરે સમૃદુધાત ક્રિયા થી કંઇક વિશેષ છે, અને કંઈક અંશથી વેદના વિગેરે સમદુઘાતથી વિશેષ ન પણ હોય, એ તે સમવહતાસમવહતાત્મા વાળે સાધુ અવિશુદ્ધ લેશ્યા વાળા દેવને અથવા દેવીને અથવા અણગારને જાણે છે કે દેખે છે ? આ प्रश्न उत्तरभां प्रभुश्री गौतमकामी ४ छ । गौतम ! 'णो इणद्वे समट्टे' समय पर नथी. म यथाथ ४श' ज्ञानना तेन मला हाय छे. 'अविसुद्धलेस्से अणगारे समोहया सम हएणं अपाणेणं अविसुद्धलेस्स
देव' देवि अणगार जाणइ पासई' सावन् ! २ मार विशुद्ध वेश्या - વાળ હોય, અને વેદના વિગેરે સમુદ્રઘાતથી વિશિષ્ટ અને અવિશિષ્ટ પણ
Page #503
--------------------------------------------------------------------------
________________
४१९
प्रमेयद्योतिका टीका प्र. ३ उ. २.३१ अविशुद्ध-विशुद्धलेश्यानगारनि० 'णो इण सम' नायमर्थः समर्थः अविशुद्धलेश्यतया यथावस्थितवस्तु परिच्छे. दस्याशक्यत्वादिति ६ । तदेवमविशुद्धलेsये ज्ञारि साधौ षट् सूत्राणि प्रदर्श्य विशुद्धलेश्ये ज्ञातरि साधौ पट् सूत्राणि दर्शयति- 'वियुद्धले सेणं' इत्यादि, विशुद्धलेस्से णं भंते । अणगारे' विशुद्ध छेश्य:- शुक्ललेायुक्तः अनगार: 'असमत्रहपूर्ण अप्पाणं' असमवहतेन - वेदनादि समुद्घातरहितेन 'अवशुद्धलेस्सं देवं देवि अणगार' अविशुद्धलेश्यं - कृष्णादिलेश्यायुक्तं देवं देवीमनगरम् ' जाणइ पास ' जानाति पश्यति किमिति प्रश्नः, भगवानाह - 'हंता' इत्यादि, 'हंता जाणइ पास '
लेश्या वाले देव को देवी को या अनगार को क्या जानता देखता है ? ऐसा यह छठवां मन है - इसके उत्तर में प्रभु श्री कहते हैं- 'गोयमा ! जो इण्डे समट्टे' हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है- क्योंकि ऐसी स्थिति में उम्य अनगार का ज्ञान यथार्थं वस्तु प्रदर्शक नहीं होता है । इस प्रकार से अविशुद्ध लेश्या वाले ज्ञाता साधु के सम्बन्ध में छह सूत्र को दिखाकर अब विशुद्ध लेश्याबाले ज्ञाता साधु के सम्बन्ध में छह सूत्रों को सूत्रकार द्वारा दिखाया जाता है- 'विसुद्धलेस्से णं भंते! अणगारे असमोहरणं अपाण अविसुद्ध लेस्सं देवं देवि अणगारं जाणइ पास ' इसमें गौतम ने प्रभु से ऐसा प्रश्न किया है कि हे भदन्त ! जो अनगार विशुद्ध लेश्या वाला है- प्रशस्त लेइया वाला है - और वेदनादि समुद्घात से रहित हैं - तो क्या वह स्वयं के द्वारा अविशुद्ध लेवा वाले - कृष्णादि लेश्या वाले देव कों देवी को तथा अनगार को क्या
હાય, તેા શુ' એવા તે અણુગાર સ્વયં વિશુદ્ધ વૈશ્યાવાળા દેવને કે દેવીને અથવા અનગારને જાણે છે? કે દેખે છે? આ પ્રમાણેના આ છઠ્ઠો પ્રશ્ન पूछे छे. या प्रश्नना उत्तरमां अनुश्री गौतमस्वामीने हे छे ! गोयमा ! णो इट्टे समट्टे' हे गौतम! आा अर्थ मरोर नथी प्रेम सेवी स्थितिभां તે અનગારનુ જ્ઞાન યથાર્થ વસ્તુને જાણવાવાળુ હેતુ' નથી આ રીતે અવિશુદ્ધ વૈશ્યાને જાણવાવાળા સાધુના સમધમાં છ સૂત્રેાને બતાવીને હવે વિશુદ્ધ वेश्यावाणा ज्ञाता साधुना संबंध छ सूत्र वामां आवे छे. 'विसुद्वले सेणं भ'ते ! अणगारे असमहणं अप्पाणेणं अविसद्धटेरस देव देवि अणगार जाणइ પાસ' આમાં શ્રીગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને એવા પ્રશ્ન પૂછયે છે કે હે ભગવન્ જે અણગાર વિશુદ્ધ વૈશ્યાવાળા છે, અર્થાત્ પ્રશસ્ત લેશ્યાાળા છે, અને વેદના વિગેરે સમુદ્દાત વિનાના છે, તા શું તે સ્વયં અવિશુદ્ધ લેશ્યાવાળા કૃષ્ણાદિ લેશ્યાવાળા દેવને દેવીને તથા અણુગારને શું જાણે છે ? કે દેખે છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રીને ગૌતમસ્વામીને
Page #504
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगममत्रे हन्त गौतम ! जान ति पश्यति विशुद्धलेश्याकतया यथावस्थित वस्तुविषयकज्ञानदर्शन सावादिति । 'जहा-अविसुद्धलेर सेणं आळावगा एवं विमुद्धलेस्सेण वि छ आलाचगा भाणियबा' यथा-येन प्रकारेणाविशुद्धलेश्यस्य पट मकारका पालापकाः कथिताः, एवं विशुद्धलेश्येनापि पट् प्रकारका आलापका भणितव्याः, कियत्पयन्त. मालापका भणितच्यास्तत्राह 'जाव' इत्यादि, 'जाव विसृद्धलेस्सेणं भते ! अणगारे' यावद् विशुद्रवे ३यः खलु भदन्त ! अनगारः 'समोहया समोहएणं अप्पाणेणे' सम. वहता समवहते न आत्मना 'विसुद्धलेस्सं देवं देवि अणगारं जाणड पासई विशुद्ध छेश्यं देव देवीमनगारं जानाति पश्यति सामान्यविशेषा पामिति प्रश्न:, भगजानता देखता है ? इसके उत्तर में प्रभु श्री कहते हैं 'हंता जाणापासह' हां, गौतम ! ऐसा यह माधु-अनगार कृष्णदि लेश्या वाले देव को देवी को तथा अनगार को जानता देखता है। क्योंकि उसके ज्ञान में यथार्थ वस्तु प्रदर्शकता का सद्भावकारक रेश्यो की विशुद्धि है और वह विशुद्धि उस साधु के ज्ञान में वर्तमान है 'जहा अविसुदलेस्से णं आलावगा एवं विसुद्धलेस्सेण वि छह आलावगा भानियवा' जिस प्रकार से अविशुद्ध लेख्या वाले लाधु के सम्बन्ध में प्रोक्त रूप से छह प्रकार के आलापक कहे गये हैं हमी प्रकार से छह आलापक विशुद्ध लेका बाले साधु के सम्बन्ध में भी काट लेना चाहिये कहां तक जान ना चाहिये लो कहते है 'जाव' वाचत अंगिम आलापक तक अन्तिम आलापक इस प्रकार से है-विसुद्धलेस्से णं भंते ! अणगारे समोरया समोहएणं अप्पाणेणं विसद्धलेस्मं देवं देवि अणगारं जाणइ पासई' हे ४ छ , 'हता जाणइ पासइ' । गौतम 1 मे ते साधु असार ४० લેશ્યાવાળા દેવને દેવીને તથા અણગારને જાણે છે અને દેખે છે. કેમકે તેના જ્ઞાનમાં યથાર્થ વસ્તપ્રદર્શકતાના સદભ વ કારક લેશ્યાની વિશુદ્ધિ છે. भने ते विशुद्धि ते साधुना ज्ञानमा वर्तमान छ 'जहा अवेसुद्धस्सेणं आला. वगा एवं विसुद्धलेस्सेण वि छह आलावगा भाणियव्वा' २ प्रमाणे मविशुद्ध લેશ્યાવાળા સાધુના સંબંધમાં પૂર્વોક્ત પ્રકરથી છ પ્રકારના આલાપકે કહેવામાં આવ્યા છે. એ જ પ્રમાણે વિશુદ્ધ લેશ્યાવાળા સાધુના સંબંધમાં પણ છે આલ પકે સમજી લેવા જોઈએ તે આલાપકે કયાં સુધી સમજવા તે બતાવવા માટે કહે છે જ્ઞા યાવત અંતિમ આલાપક સુધી એ પદ મકેલ છે અર્થાત્ છેલા આલાપક સુધીના સઘળા આલાપ સમજવાં છેલે આલાપક मा प्रभा छ 'विमुद्धलेस्सेणं भते अणगारे समोहया समोहएणं अप्पाणेणं विसुद्धलेस्स देव देवि अणगार' जाणइ पासई' ७ अगवन् विशुद्ध वेश्यावाणा
Page #505
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.३२ सम्यग्मिथ्याक्रिययोरेकदानिषेधः ४८१ वानाह-'हंता' इत्यादि, 'हंता जाणइ पासई हन्त जानाति पश्यति सामान्यविशे. पाम्यामिति । अत्र यावत्पदेन अविशुद्धलेश्यः खलु भदन्त ! अनगारोऽसमबहतेन पात्मना अविशुद्धलेश्यं देवं देवीमनगारंजानाति पश्यति ? हन्त गौतम जानाति पश्यति विशुद्धळेश्याकतया यथावस्थित वातु विषयक ज्ञानदर्शनसद्भावात्,तदुक्तम्
'शोभनमशोभनं वा वस्तु यथावद्विशुद्धलेश्यो जानातीति । एवं चत्वारोऽपि मध्यगा आलापका द्रष्टच्या ज्ञातव्याश्चेति ॥०३१॥
तदेवं यतोऽविशुद्धलेश्यो न जानाति न पश्यति विशुद्धलेश्यस्तु जानाति पश्यति ततः सम्यगमिथ्याक्रिययोरेकदा निषेधमभिदिधित्सुराह-'अण्ण उस्थियाणं भंते !' इत्यादि ।
मूलम्-अण्णउस्थियाणं भंते ! एवमाइक्खंति एवं भासेंति एवं पण्णवेति एवं परूति एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं दो किरियाओ पकरेड. तं जहा-संमत्त किरियं च मिच्छत्तकिरियं च, जं समयं समत्तकिरियं पकरेइ, तं समयं सिच्छत्तकिरियं पकरेड, जं समयं मिच्छत्तकिरियं पकरेइ तं समयं लमत्तकिरियं पकरेइ, संमत्तकिरियापकरणयाए मिच्छत्तकिरियं पकरेइ मिच्छत्तभदन्त ! विशुद्ध लेग वाला अनगार जो कि समवहत असमवात अवस्थावाला है क्या वह स्वयं के द्वारा विशुद्ध लेश्या वाले देव को, देवी को तथा अनगार को क्या जानता देखना है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री ने कहा है कि हे गौतम ! 'हंता जाण: पास' हां ऐसा वह अनगार उस देव को उस देवी को तथा ऐसे उस अनगार को जानता और देखता है, यहां यावत् वीच के पंच आलापक गृहीत हुए हैं । लेश्या की विशुद्धि से ज्ञान में यथार्थ दर्शकतो आती है-इस विषय में ऐसा कहा गया है'शोभनमशोभनंवावस्तु यथावद्विशुद्ध लेश्यो जानाति ॥२-३०॥ અણગાર કે જે સમવહત અને અસમવહત અવસ્થાવાળે છે, તે વિશુદ્ધ વેશ્યા વાળા દેવને દેવીને અથવા અનગારને શું જાણે છે કે દેખે છે? આ પ્રશ્નના उत्तरमा प्रभु श्री गौतमस्वामीन छ । गौतम ! हता जोणइ पासई' હા એ તે અણગાર એ દેવ અને દેવીને તથા એવા અનગારને જાણે છે. અને દેખે છે. અહિયાં યાવત શબ્દથી વચલા પાંચ આલાપ ગ્રહણ કરાયા છે.
લેસ્થાની વિશદ્વથી જ્ઞાનમાં યથાર્થ દર્શકતા આવે છે. તે સંબંધમાં એવું ४[ छ । शोभनमशोभन वा वस्तु यथावद्विशुद्धलेश्यो जानाति ॥सू. ३१॥
जी०६१
Page #506
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
%
--
-
जीवामिगम किरियापकरणयाए संमत्तकिरियं पकरेइ एवं खल्ल एगे जीवे एगेणं समएणं दो किरियाओ पकरेइ तं जहा-संपत्तकिरियंघ मिच्छत्तकिरियं च । से कहमेयं भंते ! एवं गोयमा ! जणं ते अन्लउत्थिया एक्साइक्खंति एवं भासंति एवं पपणवेंति एवं परूवेंति, एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं दो किरियाओ पकरेइ तहेर जाव संमत्तकिरियं च मिच्छत्तकिरियं च। जे ते एवमाहंसु ते णं मिच्छा, अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि जाव परूवेमि, एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं एगं किरियं पकरेइ तं जहा-लसत्तकिरियं दा मिच्छत्तकिरियं वा जं समयं संमत्तकिरियं पकरेइ लो तं समयं मिच्छत्तकिरियं पकरेइ । तं चेव जं समय मिच्छन्तकिरियं पकरे नो तं समयं संमत्तकिरियं पकरेइ, संमत्तकिरियापकरणयाए नो मिच्छत्तकिरियं पकरेइ मिच्छत्तकिरियापकरणयाए लो संमतकिरियं पकरेइ, एवं खल एगे जी एगणं समएणं एग किरियं पकरेइ तं जहासमत्तकिरियं वा मिच्छ सकिरियं वा ॥सू० ३२॥
तिरिकखजोणियं उद्देलओ बीओ समत्तो ॥२॥ छाया-अन्यथिकाः खछ भदन्त ! एवमाख्यान्जि एवं भाषन्ते एवं प्रज्ञापयन्ति, एवं प्ररूपयन्ति, एवं खलु एको जीव एकेन समयेन द्वे क्रिये प्रकरोति तद्यथासम्यक्त्वक्रिया च मिथ्यात्वक्रियां च, यस्मिन् समये सम्यक्त्व क्रियां प्रकरोति तस्मिन् समये मिथ्यात्यक्रियां करोति, यस्मिन साये मथ्यात्वक्रियां प्रकरोति तस्मिन् समये सम्यक्त्वक्रियां प्रकरोति सम्यक्त्तक्रिया प्रारणतया मिथ्यात्वक्रियां प्रकरोति, मिथ्यात्यक्रिया प्रकरणतया सम्यक्त्वत्रियां प्रकरोति । एवं खल्ल एको जीव एकेन समयेन द्वे क्रिये मकरोति-तद्यथा-सम्यक्त्वक्रियां च मिथ्यात्वकियां च, तत्कथमेतद्भदन्त ! एवं ? गौतम ! यत् खलु ते अन्ययूथिका एवमाख्यान्ति एवं भाषन् एवं घज्ञापयन्ति एवं परूपयन्ति, एवं खलु एको जीव एकेन समयेन द्वे किये मकरोति-तथैव यावत् सम्यक्त्वक्रियांच मिथ्यात्वक्रियां च ये ते एवमाहुस्तत् खलु मिथ्या, अहं पुनौतम! एवमाख्यामि यावत्प्ररूपयामि
Page #507
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ ६.३२ सम्यग्मिथ्याक्रिययोरेकदानिषेधः ४८३ एवं खल्ल एको जीब एकेन समयेनैकां क्रिशं करोति तद्यथा-सम्यक्त्वक्रिया वा मिथ्यात्वक्रियां वा, यस्मिन् समये सस्यक्त्वकियां मकरोति नो तस्मिन् समये मिथ्यात्यक्रियां प्रकरोति, तदेव यस्मिन् समये मिथ्यात्वकियां प्रकरोति नो तस्मिन् समये सम्यक्त्वक्रियां प्रकरोति, सम्यक्त्वक्रिया प्रकरणतया नो मिथ्यात्वक्रियां प्रकरोति, मिथ्यात्वनिया प्रकरणतया नो सम्यक्त्वक्रियां प्रकरोति, एवं खलु एको जीव एकेन समयेन एकां कियां प्रकरोति तद्यथासम्यक्त्व क्रियां वा मिथ्यात्वक्रिषां वा ॥३२॥ ____टीका-'अण्ण उत्थियाणं भंते' अन्ययूथिकाः खलु भदन्त ! अन्ययूथिकाःपरतीथिकाः चरकादय:-बौद्धमतबादिन 'एवं आइखति' एवम्-वक्ष्यमाण प्रकारेण आख्यान्ति-आचक्ष से सामान्येन ‘एवं भाति एवं-वक्ष्यमाणप्रकारेण भाषन्ते-स्वशिष्यान् श्रश्ण मत्यभिमुखानवयुद्धया विस्तरेण व्यक्तं कथयन्ति, 'एवं
इस तरह के प्रतिपादन र यही निष्कर्ष निकलता है कि जो अविशुद्ध लेश्या वाला जीव होला है-वह पदार्थ के यथार्थ ज्ञान से विहीन रहता है और जो विशुद्ध छेश्या वाला जीव होता है जह पदार्थ के सम्यग्ज्ञान से युक्त होता है अत: शुद्ध जानना और शुद्ध देखना ज्ञान में लेश्या की विशुद्धि के आधीन है. लेश्या की अविशुद्धि बाला जीव ज्ञान की सस्थक स्थिति से शुन्य रहता है अतः अब सूत्रकार यह प्रकट कर रहे हैं कि लम्थक क्रिया और निशाक्रिया थे दो एक काल में एक जीव में नहीं होती है इसी बात को अन्य तैर्षिकों की प्ररूपणो को बताते हुए स्पष्ट करते हैं-'अण्णउत्थिया ण भंते' इत्यादि ।सू० ३२ ।
टीकार्थ-गौतम स्वामी ने प्रलुश्री से ऐसा पूछा है 'अगउत्थिया णं भंते ! एवम्वाहक्खल्लि हे अदन्त ! अन्यतैपिज्ञोंने ऐसा कहा अपने
આ રીતના પ્રતિપાદનથી એજ સારાંશ નીકળે છે કે જે અવિશુદ્ધ લેશ્યાવાળે હેય છે. તે પદાર્થના યથાર્થ જ્ઞાનથી શૂન્ય રહે છે. અને તે વિશુદ્ધ વેશ્યાવાળે જીવ હોય છે, તે પદાર્થના સમ્યજ્ઞાનથી યુક્ત હોય છે, તેથી શુદ્ધ જાણવું અને શુદ્ધ દેખવું તે જ્ઞાનમાં વેશ્યાની વિશુદ્ધિને આધીન છે.
લેશ્યાની અવિશુદ્ધિવાળે જીવ જ્ઞાનની સમ્યક્ સ્થિતિથી રહિત હોય છે. તેથી હવે સૂત્રકાર સમ્યક્ ક્રિયા અને મિશન કિયા એ બે એક જ કાળમાં એક જીવમાં હોતા નથી. એ વાત અન્ય તીથિકની પ્રરૂપણ બતાपान २५९८ ४२ छ.-'अन्न उत्थिया णं भवे!' त्यादि।
टी-श्रीगीतमस्वामी प्रसुश्रीन मे ५ यु छ ? 'अन्नउत्थिया ण भदे एवगाइक्खति है शव अन्य तीनो गई हुछे, नमागे
Page #508
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमहर्म पण्णवेति' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण प्रज्ञापयन्ति-प्रकर्षेण ज्ञापयन्ति यथा स्वात्मान व्यवस्थितं ज्ञान तथा परेष्वपि आपादयन्तीति । एवं परूवेति' एवं-वक्ष्यमाण प्रकारेण प्ररूपयन्ति । किमाचक्षते किं भापते किं प्रज्ञापयन्ति-कि प्ररूपयन्ति ते परतीथिका इति जिज्ञासायां वक्तव्यार्थ प्रकाशनायाह - 'एवं' इत्यादि एवं खल एगे जीवे एवं खलु एको जीवः 'एगेणं समएणं' एकेन समयेन एकस्मिन् समये इत्यर्थः 'दो किरियाो पकरेंति' द्वे क्रिये मकरोति-क्रियाद्वयं प्रकरोति-संपादयतीति, किं तत् क्रियाद्वयं तत्राह-'तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा' तद्यथा-'सम्मत्त किरियंच' सम्यक्त्वक्रियां च शुभाध्यवसायात्मिकाम् 'मिच्छत्त किरियं च' मिथ्यात्व क्रियां च-अशुभाध्यवसायात्मिकां च । एकेन समयेन क्रियाद्वयं दर्शयति-'जं समयं' इत्यादि, ‘ज समयं सम्मत्तहिरियं एकरेंइ' 'जं समयं प्राकृतत्वात्सप्तम्यर्थे द्वितीया विभक्तिः तथा च यस्मिन् समये सम्यकक्रियां मकरोति, तं समयं मिच्छत् किरियं पकरे' यस्मिन् समये मिथ्यात्वक्रियां करोति शिष्यों को ऐसाही उन्होंने समझाया है, ऐसी ही उन्होंने प्ररूपणो की है और तर्कणा द्वारा ऐसी ही उन्होंने पुष्टि की है-कि 'एगे जीवे, एगे णं समएणं दो किरियाओ पकरेइ' एक जीव एक समय में दो क्रियाओं को करता है 'तं जहां वे दो क्रियाएं ये है-'संमत्त किरियं च मिच्छत्त किरियं च' एक सम्यक्त्व क्रिया है और दूसरी मिथ्यात्व क्रिया है इन में जो सम्यक्त्व क्रिया है वह सुन्दाधवलायरूप है और जो मिथ्यात्व क्रिया है वह असुन्दराध्यवसायल्प है 'जं समयं संमत्त किरियं पकरे। तं समयं मिच्छत्त किरियं पकरेइ जं सायं मिच्छत्तकिरियं पकरेइ तं समयं संमत्तशिरियं पकरेइ' जीव जिस समय में सम्यक्त्व क्रिया करता है उसी समय में वह मिथ्यात्व क्रिया भी करता है और जिस समय में वह मिथ्यास्व क्रिया करता है उसी समय में वह सम्यक्त्व પિતાના શિષ્યોને એવું જ સમજાવ્યું છે, એવી જ તેઓએ પ્રરૂપણ કરી छ, भने त! | माथे सती पुष्टि री छे , 'एगे जीवे, एगेण समएण दो किरियाओ पकरेइ' मे 24 मे समयमों में व्यामा रे छे. 'त जहा' याया प्रभारी छे. संमत्त किरियच मिच्छत्तकिरियं च' એક સમ્યકત્વ ક્રિયા છે. અને બીજી મિથ્યાત્વ ક્રિયા છે. તેમાં જે મિથ્યાત્વ ठिया छ, तमसुन्६२ २५ध्यवसाय ३५ छे. अथात सारी ती नथी. 'ज समयं संमतकिरिय' पकरेइ, त समय मिच्छत्तकिरियपकरेइ, ज समय मिन्छत्तकिरिय' पकरेइ, तं समय ममत्तकिरिय पकरेइ' २ अभय સમ્યકત્વ ક્રિયા કરે છે, એજ સમયે તે મિથ્યાત્વ ક્રિયાપણ કરે છે, અને
Page #509
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ २.३२ सम्यग्मिथ्याक्रिययोरेंकदानिपेधः ४८५ पकरेई' तस्मिन्नेव समये सम्यक्त्वक्रियामपि प्रकरोति । परस्पर सम्बलितोभय नियम पदर्शनार्थमाह-'संमत्त किरिया' इत्यादि, 'संमत्त किरियापकरणयाए' सम्यक्त्व क्रिया प्रकरणतया 'मिच्छ त किरियं पकरेइ मिथ्यात्यक्रिया प्रकरति, तथा'मिच्छ तकिरियापकरणयाए संमत्तकिरियं पकरेई मिथ यात्यक्रिया मिथ्यात्वी चासो क्रिया, प्रकरणतया सम्यक्त्वक्रियां प्रकरोति तदुभयकरणस्वभावस्य तत्तक्रियाकरणात सर्वात्मना प्रवृत्तेः, अन्यथा क्रियाया अयोगादिति । 'एवं खलु एगे जीवे' एवम् उक्तमकारेण खलु एको जीवः 'एगेगं समएणं' एकेन समयेन एकस्मिन्नेव समये 'दो किरियाओ पकरेइ' द्वे क्रिये-क्रियाद्वयं प्रकरोति-'तं जहा' तद्यथा-'संमतकिरियं च मिच्छत्तकिरियं च सम्यक्त्वकियां च मिथ्यात्वक्रियां चेति ‘से कहमेयं भंते ! एवं' तत्कथमेतद् भइन्त ! एवम् हे भदन्त ! अन्य तीथिकैरुज्यमानमेकस्मिन्नेव समये क्रियाद्वयं संभवतीति तेषां कथनं किं सत्यम् ? इति गौतमस्य प्रश्नः, क्रिया भी करता है 'समतकिरिया पकरणयाए मिच्छत्तकिरिय पकरेद, मिच्छत्त किरिया पकरणयाए संपत्तकिरियं पकरेह' सम्पत्व क्रिया के करने के साथ ही मिथ्यात्व क्रिया भी जो करता है एवं मिथ्यात्व क्रिया के साथ ही सम्यक्त्य क्रिया भी करता है क्योंकि ये दोनों क्रियाएं परस्पर में सम्बलित है अतः एक क्रिया के करने में दूसरी क्रिया का होना अनिवार्य है ‘एवं खलु ए जीवे एगेणं समएणं दो किरियाप्रो पकरेइ' इसी कारण एक जीव एक समय में दो क्रियाओं का कर्ता होता है। 'तं जहा संमत्त किरियं च मिच्छन्त किरियं च' एक सम्यक्त्व क्रिया का और दूसरी मिथ्यात्व क्रिया का 'से कहमेय भंते ! एवं' हे भदन्त !जो अन्यतैर्थिकों ने एक जीव को एक समय में दो क्रियाएं જે સમયે તે મિથ્યાત્વ ક્રિયા કરે છે, એજ સમયે તે જીવાત્મા સમ્યક્ત્વ लिया ५ ४२ छ खमत्तकिरियापकरणयाए मिच्छत्तकिरिय पकरेइ, मिच्छत्तकिरिया पकरणयाए समत्तकिरियंपकरेइ' सभ्यत्व लिया ४२वानी साथ જ મિથ્યાત્વ ક્રિયા પણ કરે છે. અને મિથ્યાત્વ ક્રિયાની સાથેજ સમ્યકત્વ ક્રિયા કરે છે. કેમકે આ બે ક્રિયાઓ પરસ્પર સંબંધવાળી છે. તેથી એક
या ४२पामा मील ठियानु रामनिवाय छे. 'एव खलु एगे जीवे एरोणं समरण दो किरियाओं पकरेइ' मे २0 ४ ०१ : समयमा में ठियायान। -४२१। पाण। डाय छ त जहा समतकिरिय च मिच्छत्त किरिय'च' मे४ सभ्यत्व ठिया मन मील मिथ्यात्व याने ४२वापाणे। सोय छे. 'से कहमेय भते! एव" है सावन मन्य तीथि आये से छपने એક સમયમાં બે ક્રિયા કરવા વાળા કહેલ છે, તે શું તેનું એ કથન
Page #510
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवा मिगमसूत्रे
४८६
,
तदेवं गौतमेन प्रश्ने कृते भगवान्प्राह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'जण्णं अन्नउत्थिया एव माइक्वति' यत् खलु अन्ययूथिकाः परतीर्थिका एवम्उक्तप्रकारेण 'आदक्खति' आचक्षते 'एवं भासति' एवं मापन्ते 'एवं पष्णवे 'ति' एवं प्रज्ञापयन्ति ' एवं परूवेति' एवं रूपयन्ति, तदेव दर्शयति- ' एवं एगे जीवे एगेणं समए' एवं खलु एको जीव एकेन समयेन - एकस्मिन्नेव समये 'दोकिरियाओ पकरे:' द्वे क्रिये करोति-क्रियाद्वयं संपादयति 'तत्र जाव संपत्तकिरियं चमिच्छ चकिरियं च ' तथैव यावत् सम्पक्वक्रियां मकरोति तस्मिन्नेव समये मिथ्यात्वक्रियां च मकरोति तथा यस्मिन् समये मिथ्यात्वक्रियां मकरोति तस्मिन्नेव समये सम्यक्त्व कियागपि प्रकरोतीति । 'जे ते एवनासु तं णं मिच्छा' ये ते एवम्-उप युक्तमास्ते मिथ्या-असत्यं कथयन्ति, अथ भगवान् स्वगतं प्रदर्शयति- 'अहं पुणे' इत्यादि, 'अहं पुण गोयमा' अहं पुनः अत्र पुनः शब्दः 'तु' शब्दार्थः तेन अहं तु गौतम ! ' एवं आइक्खामि जाव परूवेसि' एवम् वक्ष्यमाणप्रकारेणाख्याति, भाषे, प्रज्ञापयामि परूपयामि । किमाख्यामि किं भाषे कि प्रज्ञापयासि किं मरूपयामि करने का कहा सो क्या उनका यह कथन संभवित होता है ? इसके उत्तर में प्रभु श्री कहते हैं-'गोधमा । जण्णं ते अन्नउत्थिया एव माहक्वंति एवं भाति, एवं पण्णवेंति एवं पख्वेंति एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं दो किरियाओ पकरेंति तहेब जाव संमत्ततिरियं च मिच्छत्तकिरिय' न हे गौतम । जो उन अन्य तीर्थिकों ने ऐसा कहा है ऐसा व्याख्यान किया है, ऐसी प्रज्ञापना की है और ऐसी प्ररूपणा की है कि एक जीव एक समय में दो क्रियाओं को करता है इस तरह एक ही समय में एक जीव सम्यक्त्व क्रिया भी करता है और मिथ्याक्रिया भी करता है सो ऐसा उनका कहना यावत् प्ररूपण करना सब 'मिच्छा' मिथ्या है-असत्य है 'अहं पुण गोपमा । एवमाइक्खामि
यथार्थ थे ? या प्रश्नना उत्तरमां अनुश्री गौतमस्वाभीने हे हे हे 'गोयमा जण ते अन्नउत्थिया एवमाइक्खंति एवं भासति, एवं पण्णत्रेति एवं परूवेति एवं खलु एगे जीवे एगेण समएण दो किरियाओ पकरेति तद्देव जाव समत्त किरियच मिच्छत्तकिरिय' च' हे गौतम! ते अन्यतीर्थ है। ये येवु उडेल छे, એવું વ્યાખ્યાન કરેલ છે. એવી પ્રજ્ઞાપના કરી છે, અને એવી પ્રરૂપણા કરી છે કે એક જીવ એક સમયમાં એ ક્રિયાઓ કરે છે એ રીતે એક જ સમયમાં એક છત્ર સમ્યકૂન ક્રિયા કરે છે, અને મિથ્યાત્વ ક્રિયા પણ કરે છે. તા એ પ્રમાણેનુ' તેએાનુ' કથન યાવત્ પ્રરૂષણા કરવી તે સઘળું મિથ્યા અસત્ય છે. 'अ' पुण गोयमा ! एवमाक्खामि जान परूवेमि' या संघां हे गौतम !
Page #511
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ ७.३ सू.३२ सम्बग्मिथ्याक्रिययोरेकदानिषेधः ४८७ तमाह-एवं खल एगे जीवे एगेण समएणं एग किरियं पकरेई एवं खलु एको. जीवः एकेन समयेन-एकस्मिन् समये एकामेब क्रियां करोति 'तं जहा' तयधा 'सम्मत्तकिरियं वा मिच्छत्तकिरियं बा' सम्यक्त्वनियां वा शकरोति, मिथ्यात्दकियां वा, प्रकरोति, 'जं समयं संमत्तकिरियं पकरेइ' यरिमन् समये सम्यक्त्व. क्रिया प्रकरोति, 'जो तं समयं मिच्छकिरियं पकरेइ' नो-नैव तस्मिन् समये मिथ्यात्वक्रिया प्रकरोति तथा-'तं चेव जं समय मिच्छत्तकिरियं पकरेइ नो तं समयं संमत्तकिरियं पकरेइ' तदेव-पूर्वोक्तवदेव यस्मिन् समये मिथ्यात्वकियां प्रकरोति नो तस्मिन् समये सम्यक्त्वक्रियां करोति, यस्मात् करणाव सम्यक्त्व. क्रियाकरणसमये मिथ्यात्वक्रियां न करोति मिथ्यात्व क्रियाकरणसमये सम्य. क्वकियां न करोति तस्मात् कारणात् एकस्मिन् समये एकैच क्रिया एकेन जीवेन संपादिता भवतीति । 'संपत्तझिरियाएकरणयाए नो मिच्छत्तकिरियं पकरेइ' सम्यक्त्वक्रिया प्रकरणतया नो मिथ्यात्वक्रियां मकरोति तथा-मिच्छत्त किरियापकरणयाए नो सम्मतकिरियं पकरेइ' मिथपात्वक्रिया प्रकरणतया नो सम्यक्त्वक्रियां मकरोति, किन्तु 'एवं खलु एगे जीवे एगं किरियं पकरेइ' एवं खल्ल एको जीवः एकस्मिन् समये एकामेच क्रियां प्रकरोति 'तं जहा' तद्यथाजाव परवेमि' इस विषय में तो हे गौतम! मेरा ऐसा कहना है ऐला ही व्याख्यान करना है, ऐसी हो मेरी प्रज्ञापना है और ऐसी ही मेरी प्ररूपणा है कि 'एगे जीवे एगेणं सम्पएणं एग शिरियं पकरे' एक जीव एक समय में एक ही क्रिया करता है 'तं जहा' जैसे-'संमत्त किरियं वा मिच्छत्त किरियं वा' या तो वह लम्यस्त्व क्रिया करता है या मिया व क्रिया ही करता है। दोनों क्रियाएं वह युधपत् इमलिये नहीं कर सकता है कि इन दोनों क्रियाओं में आपस में परस्पर परिहार स्थिति लक्षण विरोध है सम्यक्त्व क्रिया के सदभाव में मिथपात्व क्रिया नहीं रहती है और मिथ्यात्व क्रिया के सद्भाव में सम्यक्त्व મારું એવું કથન છે, એવું જ વ્યાખ્યાન છે, મારી એવીજ પ્રજ્ઞાપના છે, અને भारी मेवी प्र३५६॥ छ । 'एव खलु एगे जीवे एगेणं खमएणं एग किरिय पकरेइ' मे से समयमा से लिया ४२ छ. 'त' जहा' भर संमत्तकिरिय वा मिच्छत्तकिरिय वा' सय लिया अथवा मिथ्यात्व ठिया જ કરે છે, એ બને ક્રિયાઓ એકી સાથે એટલા માટે કરી શકતા નથી કે આ બેઉ ક્રિયાઓમાં પરસ્પરમાં પરિહાર સ્થિતિ લક્ષણ વિરોધ છે. સફળ ક્રિયા ના સદૂભાવમાં મિથ્યાત્વ ક્રિયા રહેતી નથી. અને મિથ્યાત્વ ક્રિયાના સદુભાવમાં સમ્યકત્વ ક્રિયા રહેતી નથી. તેથી એક જ જીવાત્મા આ બને ક્રિયાઓ એકી
Page #512
--------------------------------------------------------------------------
________________
છુટત
जीवामिगमसुरे
संपत्तरियं वा मिच्छत्तकिरियं वा सम्यक्त्वक्रियां वा मिध्यात्वक्रियां वेति । सम्यक्त्पक्रिया मिथ्यात्वक्रिययोः परस्परपरिहारावस्थानात्मकतया जीवस्य तदुभयकरण स्वभावत्वायोगात्, अन्यथा - सर्वथा मोक्षाभाव प्रसक्तेः कदाचिदपि मिावस्यानिवर्त्तनादिति । सू० ३२ ||
इति श्री विश्वविख्यात -जगद्दल्लभ- प्रसिद्धवाचक- पञ्चदशभाषाकलितळळितकलापालापकमविशुद्ध गद्यपद्यानैकग्रन्थ निर्मापक,
-
वादिमानमर्दक- श्रीशाहूच्छत्रपति कोल्हापुरराजप्रदत्त - 'जैनाचार्य' पदभूपित - कोल्हापुरराजगुरु - बालब्रह्मचारि - जैनाचार्य - जैनधर्म दिवाकर पूज्य श्री घासीलालवतिविरचितस्य श्री
प्रमेयद्योतिका
जीवाभिगमसूत्रस्य ख्यायां व्याख्यायां तृतीयप्रतिपत्तौ तिर्यगाधिकारे द्वितीयो - देशकः समाप्तः ||२||
1
युग.
क्रिया नहीं रहती है. इसलिये एक जीव इन दोनों क्रियाओं को पत् नहीं कर सकता है । यदि एक जीव एक समय में इन दोनों क्रियाओं का कर्ता माना जावेगा तो मोक्ष का सर्वथा अभाव प्रसक्त होता है क्योंकि मिथ्यात्व की निवृत्ति तो कभी होगी ही नहीं ||३२|| जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजीमहाराजकृत 'जीवाभिगमसूत्र' की प्रमेययोतिका नामक व्याख्या में तृतीय प्रतिपत्ति में तिर्यग्योनिक अधिकार का दूसरा उद्देशक समाप्त ॥३-२॥
વખતે એક સાથે કરી શકતા નથી. જો એક જીવ એક સમયમાં આ બન્ને ક્રિયાઓને કર્તા માનવામાં આવે તે મેાક્ષના સથા અભાવ પ્રાપ્ત થાય છે. કેમકે મિથ્યાત્વની નિવૃત્તિ તે કયારેય થઈ જ શકતિ નથી. સૂ. ૫ ૩૨ ॥ જૈનાચાર્ય જૈનધમ દિવાકર પૂજ્યશ્રીઘાસીલાલજી મહારાજકૃત જીવાભિગમસૂત્ર'ની પ્રમેયદ્યોતિકા નામની વ્યાખ્યામાં ત્રીજી પ્રતિપત્તિના તિય ચૈાનિક અધિકારના मी उद्देश सभाप्त ॥३-२॥
Page #513
--------------------------------------------------------------------------
________________
अमेय धोतिका टीका प्र.३ ४.३.३३ सफेद मनुष्य स्वरूपनिरूपणम् ४८९ ॥ तृतीयोदेशकः ॥
.. व्याख्यातस्तिर्यग्योनिका धिकारः सम्प्रति- मनुष्याधिकार व्याख्यावसरः तत्रेदमादिमं सूत्रम् - से किं तं मणुस्सा' इत्यादि,
मूलम् - से किं तं मणुस्सा ? मणुस्सा दुविहा पन्नत्ता तं जहासंमुच्छिममणुस्लाय गन्भवक्कंतिय मणुस्साय । से किं तं संमुच्छिम मणुस्सा संमुच्छिम मणुस्सा एगागारा पन्नत्ता । कहि णं भंते! संमुच्छिम मणुस्सा संमुच्छंति ? गोयमा ! अंतोमणुस्सखेत्ते जहा - पण्णवणाए जाव से तं संमुच्छिममणुस्सा ॥ से किं तं गन्भवक्कतिय मणुस्सा ? गब्भवतिय मणुस्सा तिविहा पन्नत्ता, तं जहा - कम्मभूमिगा अकम्मभूमिगा अंतरदीवगा । से किं तं अंतरदीवगा ? अंतरदीवगा अट्ठावीसइविहा पन्नत्ता तं जहाएगोरैया, आभासिया, वेमाणिया णंगोलिया (१) हयकण्णां गयकपणा, गोकण्णा, सक्कुलिकपर्णा (२) आयंसमुह, मेंढमुहीं, अयोमुही, गोमुही (३) आसमुहाँ, हत्थिमुहों, सीहमुद्दों, वग्घमुद्दों (४) आपकण्णी, सीहकर्णी, अकण्णी, कण्णपाउरणी (५) उक्कामुही, मेहमुहां, विज्जुमुहौं, विज्जुदंतों (६) घणदंती, लट्टदंती, गूढदंतों, सुद्धत (७) सू० ३३॥
छाया -- अथ के ते मनुष्याः ? मनुष्या द्विविधाः प्रज्ञप्ताः तद्यथा-संमूच्छिम मनुष्याश्च गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्याश्च । अथ के ते संच्छिममनुष्याः ? संमूच्छिममनुष्या एकाकाराः प्रज्ञप्ताः । कुत्र खलु भदन्त । संच्छिममनुष्याः संपू च्छन्ति ? गौतम ! अन्तर्मनुष्यक्षेत्रे यथा प्रज्ञापनायां यावत् ते एते संमूच्छिममनुष्याः । अथ के ते गर्भव्यक्रान्तिक मनुष्याः गर्भन्युकान्तिक मनुष्या त्रिविधाः मज्ञाः तद्यथा - कर्मभूमिका अकर्म भूमिका अन्तरद्वीपकाः । अथ के ते अन्तरद्वीपका अंतरद्वीपका अष्टाविंशतिविधाः मताः, तद्यथा - एकोरुकाः १ आभाषिकाः, २ वैषाणिकाः ३, नाङ्गोलिकाः ४ हयकर्णाः ५, गजकर्णाः ६. गोकर्णाः ७. शष्कुळीकर्णाः ८, आदर्शमुखाः ९. मेंढ (मेणी) सुखाः १०, अयोमुखाः ११, गोमुखा । १२ अश्वमुखाः १३, हस्तिमुखाः १४, सिंहमुखाः १५, व्याघ्रमुखाः १६, अश्वकर्णाः १७, सिंह: १८, अणः १९ कर्णमावरणाः २०, उल्कामुख : २१, मेघ
मी० ६२
Page #514
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमत मुखाः २२, विद्युन्मुखाः २३ विधुदताः २४, घनदन्ताः २५, कष्टदन्ताः २६, गूढदंताः २७,शुद्धदन्ताः सू० ॥३३॥
टीका-'ले किं तं मनुस्मा' अथ के ते मनुष्याः, मनुष्याणां कियन्तो भेदा इति प्रश्नः, उत्तरमाह-'मणुस्सा' इत्यादि, 'मणुस्सा दुविहा पन्नता' मनुष्या द्विविधा.-द्वि प्रकारकाः प्रज्ञप्ताः कथिता-इति, वैविध्यं दर्शयति-तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा' तद्यथा-'संमुरिछसमणुस्साय गम्मदक्कंतियमणुस्साय' संमूछिममनुष्याश्च गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्याश्च, तत्र शुक्रशोणितादि सन्निपातव्यतिरेकेण जायमानाः संमूच्छिमाः शुकशोणितादि सन्निपातेन जायमानाः गर्भजाः, तथा च-गर्भनागर्भजभेदेन मनुष्या द्विविधा भवन्तीति भावः । 'से कि तं समुच्छिममणुस्सा' अथ के ते संमृच्छिममनुष्याः संमृच्छिममनुष्याणां कियन्तो भेदा इति प्रश्नः भगवानाह-समुच्छिम' इत्यादि, 'समुच्छिममणुस्सा
तिर्यग्योनिक अधिकार समाप्त कर अप सूत्रकार मनुष्य के अधि. कार का कथन करते है। 'स्खे किं तं नणुस्ला-इत्यादि ।
टीकार्थ-से किं तं मणुस्सा' हे भदन्त ! मनुष्यों के कितने भेद हैं? । इसके उत्तर में प्रभु श्री कहते हैं-हे गौतम ! 'मणुस्सा दुविहा पण्णत्ता' मनुष्यों के दो भेद हैं 'तं जहां वे इस प्रकार से हैं-'समुच्छिम मणुस्सा य गभवतिय मणुस्सा एक संमूच्छिम मनुष्य
और दूसरे गर्भज मनुष्य इनमें शुक्र शोणित आदि सम्बन्ध के विना जो मनुष्य उत्पन्न हो जाते हैं वे समूच्छिम मनुष्य है। एवं शुक शोणित आदि के सम्बन्ध से जो जीव उत्पन्न होते हैं वे गर्भज मनुष्य हैं, 'से कि तं संच्छिम प्रणुम्सा' हे भदन्त ! संमूछिम मनुष्यों के कितने भेद हैं ? उत्तर में प्रभु श्री कहते हैं-'समुच्छिम मणुस्सा
તિર્યનિક અધિકાર સમાપ્ત કરીને હવે સૂત્રક ૨ મનુષ્યના અધિકારનું ४थन ४२ 2.-'से किं तं मणुस्सा' इत्याहि
___टी -'से कि त मणुस्सा' है मगवन् मनुष्ये ना सा महो ह्या छ १ मा प्रश्नना उत्तरमा प्रभु श्री गौतमत्व.भान हे छे, 'मणुस्सा दुविहा पण्णत्ता' मनुष्य में प्रश्न या छे. 'तजहा' त मे ४३ मा प्रमाणे छे समुच्छिम मणुस्खाय गम्भक ति य मणुस्साय' से सभूछि म मनुष्य भने બીજા ગર્ભજ મનુષ્ય આમાં શુક્ર અને શ્રોણિતના સંબંધ વિના જે મનુષ્ય ઉત્પન્ન થાય છે, તેઓ સંમૂર્ણિમ મનુષ્ય કહેવાય છે. અને શુક્ર શણિતના सम थी २ अरपन्न थाय छे ते गम मनुष्य पाय छे. 'से कि त समुच्छिम मणुस्सा' 3 सपन् । स भूभ मनुष्याना टस हो । छ १ मा प्रसना
Page #515
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमैयद्योतिका टीका प्र.३ उं.३ सू.३३ समेद मनुष्यस्वरूपनिरूपणम् ४९१ एगागारा पन्नत्ता' संमूच्छिममनुष्या एकाकारा:- एकस्वरूपाः प्रज्ञप्ता:-कथिता इति संच्छिममनुष्याणां कुत्रोत्पत्ति भवतीति जिज्ञासु गौतमः पृच्छति-'कहिणं' इत्यादि, 'कहिणं भंते ! संमुच्छिममणुस्सा संमुच्छंति' कुत्र कस्मिन् स्थाने खलु भदन्त ! समृच्छिममनुष्याः संमून्छन्ति-समुत्पद्यन्ते इति प्रश्नः, भगवानाह-गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'अंतोमणुस्सखेत्ते' अन्तर्मनुष्य क्षेत्रो मनुष्य क्षेत्राभ्यन्तरे एव समुत्पद्यन्ते मनुष्याणामेव उच्चारमस्रवणाद्यशुचिस्थानेषु अन्तर्मुहूर्तकालायुष एव कालं कुर्वन्ति 'जह पण्णवणाए जाद से तं समुच्छिममणुम्सा' यथा प्रज्ञापनायां कथितं यावत् ते एते संमूच्छिसमनुष्या इति, समूच्छिसमनुष्याणां विस्तरतो निरूपणं प्रज्ञापनायाः प्रथम प्रज्ञापना पदोक्तानुसारेणैव ज्ञातव्यम्,
अत्र 'जाव' यावर शब्दग्राह्याः प्रज्ञापना सूत्रक प्रथमपदोक्तास्तदालापका: यथा-'पणयालीसाए जोयणलयसहस्सेसु अड्राइज्जेसु दोवसमुद्देसु पण्णरससु कम्म एगागारा पनत्ता' हे गौतम ! संमूच्छिम मनुष्यों के सेद नहीं होते हैंक्योंकि संमुच्छिम मनुष्य एक स्वरूप वाले कहे गये हैं। 'कहिणं भंते ! समुच्छिम मणुस्सा संमुच्छंति' हे भदन्त ! इन समूच्छिम मनुष्यों की उत्पत्ति कहां पर होती है ? उत्तर में प्रशुश्री कहते हैं-'गोयमा ! अंतो मणुस्सखेत्ते' हे गौतम! थे संमूच्छिन मनुष्य मनुष्य क्षेत्र के भीतर ही उत्पन्न होते हैं। तथा मनुष्यों के ही सल सूत्रादिक रूप अशुचि वस्तुओं में ही ये उत्पन्न होते हैं और इनकी आयु केवल एक अन्तर्मुहूर्त की होती है 'जहा पण्णवणाए जाव ले त समुच्छिममनुस्सा संमुच्छिम मनुष्यों के सम्बन्ध में विस्तार से कथन प्रज्ञापना सूत्र के प्रथम पद में किया गया है अतः उसी के अनुसार यहां पर भी इनके सम्बन्ध में कथन समझ लेना चाहिये. यहां पर 'यावत्' शब्द से ग्रात्य प्रज्ञापना मूत्र उत्तरमा प्रसुश्री ४९ छे संमुच्छिम मणुस्सा एगागारा पण्णत्ता' गौतम ! સંમૂર્ણિમ મનુષ્યના કેઈપણ ભેદ હતા નથી. કેમકે સામૂર્ણિમ મનુષ્ય એકજ ५१३५मा पार्नु ४२ छ. शथी श्रीगोतमस्वामी पूछे छे है 'कहिणं भाते ! समुच्छिम मणुस्ता समुच्छिति'सावन मास भूरिभ मनुष्यानि पत्ती ४या याय छ १ प्रश्न उत्तम प्रसुश्री ४९ छ, 'गोयमा ! जतो मणुस्सखेत्ते' હે ગૌતમ ! આ સંમૂર્ણિમ મનુષ્ય મનુષ્ય ક્ષેત્રની અંદર જ ઉત્પન્ન થાય છે. તથા મનુષ્યનાજ મલ મૂત્રાદિ રૂપ અશુદ્ધ વરતુઓમાંજ તેઓ ઉત્પન્ન થાય छ. मन मानु मायुष्य 840 से मतभुडून नुन हाय छे. 'जहा पण्णवणाए जाव से तं समुच्छिमणुस्सा' स भूरिभ मनुष्याना समयमा प्रज्ञायनासूत्रमा વિસ્તારપૂર્વક વર્ણન કરવામાં આવેલ છે, તેથી તે કથન પ્રમાણે અહિયાં પણ તેના સંબંધમાં કથન સમજી લેવું જોઈએ, “થાવત્' પદથી ગ્રહણ કરવામાં
Page #516
--------------------------------------------------------------------------
________________
૪
जीवाभिगमसूत्रे
भूमीसुतीसाए अक्रम्मभूमीसु छप्पन्नाप अंतरदीवेसु गमवक्कतियमणुस्ताणं चैत्र उच्चारेसु वा पासवणेसु वा खेलेसु वा सिंघाणेसु वा वंतेसु बा पित्तेसु वा पूएसु वा सोणिएसु वा सुक्केसु वा सुक्कपोग्गलपरिसाडेसु वा विगयजीवकलेवरे वा थोपुरिससं नोपसु वा नगरनिद्धमणेसु वा सव्वेसु चेव असुद्वा एत्थ णं संमुच्छिषमणुस्सा संमुच्छंति अंगुलस्स असंखेज्जइभागमेare ओगाहणार, असनीमिच्छद्दिट्टी अन्नाणी सव्वादि पज्जतीहि अपज्जत्तगा अंतताउया चेव कालं करेंति' इति । छाया - पञ्चत्वारिंशति योजनशतसहस्रेषु अर्द्ध तृतीयेषु द्वीपसमुद्रेषु पश्चदशसु कर्मभूमिषु त्रिशति अकर्मभूमिषु षट् पञ्चाशति अन्तरद्वीपेषु गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्याणामेत्र उच्चारेषु वा प्रस्रवणेषु वा खेषु सिद्धाणेषु वा वान्तेषु वा वित्तेषु वा पूयेषु वा शोणितेषु वा शुक्रेषु
शुकपरिशाटेषु वा विगत जीव कलेवरेषु वा स्त्रीपुरुपसंयोगेषु वा नगरनिर्धमनेषु वा सर्वेषु चैत्र अशु चेस्थानेषु संमूर्च्छिममनुष्याः संमूर्छन्ति अङ्गुलस्य असंख्येयभाग मात्रपाऽवगाहनया असंज्ञिनो मिथ्यादृष्टयः अज्ञानिनः सर्वाभिः पर्याप्तिभिरपर्याप्तका अन्तर्मुहूर्त्तायुका एव काळं कुर्वन्तीति । एषामर्थश्छायागम्यः । का आलापक इस प्रकार है- 'पणयालीसाए' इत्यादि । सूत्रपाठ का अर्थ यहां कहा जाता है-वे संमूच्छिम मनुष्य मनुष्य क्षेत्र के बीच में पैंतालीस लाख योजन विस्तार वाले अढाई द्वीप समुद्रों में पन्द्रह कर्म भूमियों में तीस अकर्म भूमियों में, छप्पन अन्तर द्वीपों में रहने वाले गर्भज मनुष्यों के ही उच्चार प्रस्रवण खेल सिंघाण वान्त - (वमन) पित्त पूप- (पीप) शोणित शुक्र तथा शुक्र पुगलों के परिशाद-सड.न- में मृतकलेवरों में स्त्री पुरुष के संयोग में तथा नगर के नाले ( गटर) में इन सब अशुचिस्थानों में यहां पर अंगुल के असंख्यात वें भाग मात्र अवगाहना से संमूच्छिम मनुष्य संमूच्छित ( उत्पन्न) होते हैं । वे मावेस अज्ञायना सूत्र यासाय मा अभाये छे. 'पणयालीसाए' त्याहि. સૂત્રપાઠને અર્થ અહિયાં કહેવામાં આવે છે. તે સભૂમિ મનુષ્ય મનુષ્ય ક્ષેત્રની મધ્યમાં ૪૫ પિસ્તાળીસ લાખ ચેાજનવાળા અઢાઇ દ્વીપ સમુદ્રોમાં ૫ દરકમ ભૂમિચેામાં, ત્રીસ એક ભૂમિયેમા છપ્પન અ ંતર દ્વીપામાં રહેવાવાળા ગજ મનુષ્યેાના જ ઉચ્ચાર. પ્રસ્રવણ, ખેલ સિ`ઘાણુ વાન્ત (વમન-ઉલ્ટી પિત્ત धूय (५३) शोषित, (बोडी) शुद्ध-वीर्य तथा शुयुद्धगाना परिवार सडेलाभां મરેલા કલેવર કહેતાં શરીરમાં, શ્રી પુરૂષના સચૈાગમાં તથા નગરના નાળા (ગટર)માં આ બધા અશુચિસ્થાનામાં આંગળના અસખ્યાતમા ભાગ માત્ર અવ शाडनाथी सभूति (उत्पन्न ) थाय छे तेथे असशी मिथ्यादृष्टि, अज्ञानी,,
Page #517
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ १.३३ सभेद मनुष्यस्वरूपनिरूपणम् ४१३ ___ सम्प्रते-गर्भव्युत्क्रान्तिक मनुष्यप्रतिपादनार्थमाह-से कि तं' इत्यादि, 'से किं तं गमवक्कंतिय मणुस्सा' अथ के ते गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्याः गर्भव्यु स्क्रान्तिकमनुष्याणां कियन्तो भेदा इति प्रश्नः, भगवानाह-गम्भवक्कंतिय' इत्यादि, 'गमवक्कैतियमणुस्सा तिविहा पन्नत्ता' गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्या स्त्रिविधा त्रिपकारकाः प्रज्ञप्ता:-कथिताः, तत्र विध्यं दर्शपति-'तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा' तयथा-'कम्मभूमिगा अम्मभूमिगा अंतरदीवगा' कर्मभूमिकाः कर्मभूमिषु भरतैरवतादि पञ्चदशसु क्रमभूमिषु जायमानाः कर्मभूमिका, एवमकम (मिघुहैमवतादि त्रिशद्विधासु भोगभूमिषु जाता अकर्मभूमिकाः, अन्तरद्वीपकाः लक्षणसमुद्रमध्येऽन्तरेऽन्तरे द्वीषा इति अन्तरद्वीया, अन्तरद्वीपेषु षट्पञ्चाशत्संख्य केषु अमज्ञी मिथ्यादृष्टि अज्ञानी और सभी मंचों पर्याप्तियों से अपयाप्त होते हैं वे अन्तर्मुहूर्त की आयु में ही काल कर जाते हैं।
'सेत्तं समुच्छिम मणुस्सा' थे समूर्छिम मनुष्य है।
गर्भज मनुष्यों का विवेचन-से कि तं गम्भ कतिय = णुस्मा' हे भदन्त ! गर्भज मनुष्यों के कितने भेद हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैंहे गौतम! 'गमवक्कंसियमणुस्ता तिविशा पनत्ता' गच्युटकान्तिकगर्भजमनुष्यों के लीन भेद हैं । 'तं जहा' वे भेद इस प्रकार से हैं-'चम्मभूमिगा, अकरमभूग्निगा, अतरदीमगा' फर्म भूमिक, अकर्मभूमि और अन्तरद्वीपक इनमें जो कर्मभूमियों में-भरत ऐरवतादि पन्द्रह क्षेत्रों मेंउत्पन्न होते हैं के कर्मभूमिक, मवन आदि तील अकर्मभूमियों में जो उत्पन्न होते है-वे अकर्मभूमि कहलाते हैं। दो लाख घोजन के विस्तारव ला लवण समुद्र के भीतर भीतर जो द्वीप है, वे अन्तर बीप हैंइन छप्पन अन्तरद्वीपों में जो उत्पन्न होते हैं वे अन्तर द्वीपक मनुष्य हैं। અને બધી પાંચે પર્યામિયથી અપર્યાપ્ત હોય છેઆ અંતમુહૂર્તના આયુષ્યમાં જ ४.१ ४२ छ. 'से त संमुच्छिममणुस्मा' ! स भूमि भनुप्यातुं नि३५९ ४थु छे.
डवे गम भनुध्यान ३५ ४.पामा मावे छ 'से कि त गम्भ वक्क तिय मणुस्सा' 3 भगवन् गम भनुष्याना टसा लेड ह्या छ ? सा प्रश्न उत्तरमा असुश्री गौतमभान छेउ गोतम ! 'गम्भवक्क तिय मणुस्सा तिविहा पण्णत्ता' आम व्युत्पतिx-Mr मनुष्याना त्रय हो yal छ, 'त जहा' ते हो मा प्रमाणे छ 'कम्मभूमिगा, अकम्मभूमिगा, अतरदीवगा' કર્મભૂમિક અકર્મભૂમિક, અને અંતરીપજ, આમાં જેઓ કર્મભૂમિયોમાં એટલે કે ભરત, અરવત, વિગેરે પંદર ક્ષેત્રોમાં ઉત્પન્ન થાય છે. તેઓ કર્મભૂમિક કહેવાય છે બે લાખ એજનના વિસ્તારવ ળા લવણ સમુદ્રની અંદર અંદર જે દ્વિીપ છે, તે અંતરદ્વીપ છે. આ છપન અંતરદ્વીપમાં જેઓ ઉત્પન્ન થાય છે. તેઓ અંતરદ્વીપક મનુષ્ય છે,
Page #518
--------------------------------------------------------------------------
________________
{
કમ
जीवाभिगमसूत्रे
भवा अन्तरद्वीपका इति । एतेषु त्रिषु मनुष्येषु आन्तरद्वीपकमनुष्यभेदान् ज्ञातुं प्रश्नयन्न इ - 'से किं तं' इत्यादि, 'से किं तं अंतरदीवगा' अथ के ते अन्तरद्वीपका ? आन्तरद्वीपकानां कियन्तो भेदा इति प्रश्नः, भगवानाह - 'अंतरfair अहादीस विहा' इत्यादि, 'अंतरदीवगा अट्ठावीस विद्या पन्नत्ता' आन्तरद्वीपका अष्टाविंशति विधा: - अष्टात्रिंशति प्रकारकाः प्रज्ञप्ताः - कथिताः 'तं जहा ' उद्यथा-तेषां नामानि यथा - एकोरुकाः, १ अभापिकाः २, वैपाणिकाः ३, नाङ्गलिका: ४, हयकर्ता. ५, गजकर्णाः ६, गोकणीः७ शष्कुली कर्णाः ८, आदर्शमुखाः ९ मेण्दू 'मेष' मुखा, १०, अयोमुखाः ११, गोमुखाः १२, अश्वमुखाः १३, इस्तिमुखा: १४, विमुखा:१५, व्याघ्रमुखाः १६, अश्वकर्णाः १७, सिंहकर्णाः १८, अकर्णाः १९, कर्णमाचरणा २०, उल्कामुखाः २१, मेघमुखाः २२, विद्युन्मुखाः२३ विद्युद्दन्ता: २४, घनदन्ताः २५, लष्टदन्ताः २६, गूढदन्ताः २७, शुद्धदन्ताः २८ इति ।
इनमें प्रथम अन्तर द्वीप के मनुष्धों का कथन करते हैं- 'से किं तं अंतरदीबगा' हे भदन्त ! अन्तरद्वीपक मनुष्यों के किनने भेद हैं? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - ' अंतर दीवगा अट्ठावीसइदिहा' हे गौतम! अन्तर द्वीपकं मनुष्यों के अठाईस भेद है 'तं जहां' वे भेद इस प्रकार से हैं- 'एगोरुया' इत्यादि । एकोरुक१ 'आभाषिक, २, वैषाणिक, (वैशालिक) ३, नाङ्गोलिक ४, कर्णक ५, गजकर्णक ६. गोकर्णक ७, शकु लीक ८, आदर्शमुख ९, मेद्र - मेषमुख १० अयोमुख ११, गोमुख १२ अश्वमुख १३, हस्तिसुख १४, सिंह मुख१५, व्याघ्रमुख १६, अश्वकर्ण १७, सिंहकर्ण १८, अकर्ण १९, कर्णप्राथरण २०, उल्कामुख २१, मेघमुख २२, विमुख २३, विद्युद्दन्त २४, घनदन्त २५ लष्टदन्त २६, गूढदन्त२७, और
આમાં પહેલાં અંતર દ્વીપના મનુષ્ચાનુ કથન કરવામાં આવે છે. તેમાં गौतमस्वाभी अलुश्रीने पूछे छे 'से किं तं अ ंतरदीवगा' हे भगवन् અતરદ્વીપના મનુષ્યના કેટલા ભેદ કહ્યા છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી गौतभस्वाभीने हे छे 'अतरदीवगा अट्ठावीसइविहा पन्नत्ता' हे गौतम! अंतर द्वीपना मनुष्याना २८ मध्यावीस लेडो उद्या छे, 'त' जहा' ते अध्यावीस लेहे। था प्रभाये छे. 'एगोरुया' इत्यादि मे ४३४ १, आभाषिक २, वैषालि उ, नांगो सिङ ४, हयालु, गहू, गोलु ७, शण्डुसी ४४८, आदर्श, भेटू - भेषभुण १०, ११, गेोभु १२, હસ્તિસુખ ૧૪, સિંહસુખ ૧૫, વ્યાઘ્રમુખ ૧૬, અણુ ૧૭, સિ’હૂંકણુ १८, अर्थ १८, अणु प्रवरा २०, भुभ २१, भेषभुभरर, विधुन्भु 23, વિદ્યુન્ત ૨૪, ધનદત્ત ૨૫, લષ્ટÈન્ત ૨૬, ગૂઢદન્ત ૨, અને શુદ્ધદત ૨૮,
Page #519
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ ३.३९.३३ समेद मनुष्यस्वरूपनिरूपणम्
एतेऽष्टाविंशतिरन्तरद्वीपका याशा एवं यावत्पमाणा यावदपान्तरालगन्त: यन्नामानो हिमवत्पर्वत पूर्वापरदिगव्यवस्थिताः सन्ति, ताशा एब तावत्प्रमाणास्वावदपान्तराळवन्तस्तन्नामान एव शिखरिपर्वत पूर्वापरदिग्व्यवस्थिता अन्येऽपि अष्टाविंशतिरन्तरद्वीपाः सन्तीति मिलित्वा सर्वे षट् पश्चाशदन्तर द्वीपा इति कथ्यन्ते किन्त्वत्र सूत्रोऽत्यन्तसदृशतया व्यक्ति भेदमनपेक्ष्याष्टाविंशति विधा एव आन्तरद्वीपा विवक्षिता इति । तत्र जाता मनुष्या अपि एकोरुकादयः अष्टाविंशति विधाः मोक्ता 'तास्थ्यात्तद्वयपदेशः' इति न्यायात्, यथा पश्चालदेशनिवासिनः पुरुषाः पानाला इति ।
एते अष्टाविंशतिरन्तरद्वीपाः चतुर्मिविभज्यन्ते, ततश्चतुष्टयं चतुष्टयं कृत्वा सप्त चतुष्काणि भवन्ति, तानि च प्रत्येकं स्वस्वक्षेत्र समप्रमाणानि भवन्ति, तानि सप्त यया-एकोरुकादयश्चत्वारः प्रथमं चतुष्कम् १, हरकर्णादयश्चत्वारो द्वितीयं चतुकम् २ । आदर्शमुखादयश्चत्वार स्तृतीयं चतुष्कम् ३ । अश्वमुखादयश्चत्वार चतुर्थ शुद्धदन्त२८, सूत्रोक्त ये अठाईस द्वीप जिस प्रकार के जितने प्रमाण के जितने अपान्तराल वाले और जिस नाम के हिमवान पर्वत के पूर्व पश्चिमदिशा में हैं उसी प्रकार के उतने ही प्रमाण वाले उतने ही अपा. न्तराल वाले और उसी नाम के शिखरी पर्वत के पूर्व पश्चिमदिशा में दूसरे भी अठाईस अन्तर द्वीप फिर हैं, ये सब मिल कर छप्पन अन्तर दीप कहलाते हैं। किन्तु इस सूत्र में इनकी अत्यन्त सदृशता के कारण व्यक्ति भेद को न मानकर अठाईस प्रकार के ही अन्तर द्वीपों की विवक्षा की गई है। __एकोरुक आदि नाम वाले द्वीप हैं मनुष्य नहीं परन्तु उन द्वीपों में रहने वाले होने के कारण 'तास्थयात्तद् व्यपदेशः' इस मान्यतानुसार સૂત્રમાં કહેલા આ અઠયાવીસ ૨૮ દ્વીપ જે પ્રમાણેના જેટલા પ્રમાણુના અપાન્તરાલવાળા અને જે નામના હિમવાન પર્વતના પૂર્વ અને પશ્ચિમ દિશામાં છે, એજ પ્રકારના એટલાજ પ્રમાણવાળા એટલાજ અપાન્તરાલવાળા અને એજ નામના શિખરી પર્વતની પૂર્વ અને પશ્ચિમ દિશામાં બીજા પણ ૨૮ અઠયાવીસ અંતરદ્વીપ ફરીથી કહ્યા છે. આ બધા મળીને કુલ ૫૬ છપ્પન અંતરદ્વીપ કહેવામાં આવે છે. પરંતુ આ સૂત્રમાં તેઓની અત્યંતસમાનતાને કારણે વ્યક્તિભેદને ન માનતાં અઠયાવીસ પ્રકારના જ અંતરદ્વીપની વિવક્ષા કરવામાં આવી છે.
એકરૂક નામવાળા દ્વીપ છે. મનુષ્ય એ નામવાળા હોતા નથી પરંતુ तेवीयामा २७ना। हावान ४.२६'तास्थ्यात् तद् व्यपदेशः' मा मान्यता
Page #520
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९६
जीवाभिगमन चतुष्कम् ४ । अश्वकर्णादयत्वारः पश्चमं चतुष्कम् ५ । उल्कामुखादयश्ववार षष्ठं चतुष्कम् ६ । घनदन्तादयश्चत्वारः सप्तमं चतुष्कम् ७। इति सप्त चतुष्काणि मिलित्वाऽष्टाविंशतिरन्तरद्वीपा: सन्तीति ।मु० ३३॥
अथ दाक्षिणात्यैकोरुकमनुष्याणामेकोरुकीपं पिपृच्छिषुरिदमाह-'कहिणं भंते' इत्यादि,
मलम्-कहिणं भंते ! दाहिणिल्लाणं एगोरुय मणुस्तासं एगोरुय दीवे णमं दीवे पण्णत्ते ? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदस्स पव्वयस्स दाहिणेणं चुल्लहिमवंतस्स वासहरपव्वयस्स उत्तरपुरस्थिंमिल्लाओ चरिमंताओ लवणसमुदं तिन्नि जोयणसयाई ओगाहित्ता एत्थणं दाहिणिल्लाणं एगोरुय मणुस्साणं एगोरुय दीवे णामं दीये पण्णत्ते, तिन्नि जोयणसयाई आयामविश्खंभेणं, नत्र एगूगपण जोयणसयाई किंचि विसेसेणं परिवखेत्रेणं, एगाए पउभवरवेइयाए एगेणं च वणसंडेणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते। साणं पउमबरवेइया अट्ट जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं, पंच धणुसथाइं विक्खंभेणं, एगोरुयं दीवं समंता परिवखवणं पन्नत्ता। तीलेणं पउमवरवेइयाए अयमेयारूवे वण्णावासे पन्नत्ते, तं जहा- बरामया निम्मा एवं वेइया वण्णओ जहा रायपसेणईए तहा भाणियबो| साणं पउमवरवेइया एगेगं वणसंडेणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ता। सेणे वणसंडे देसूणाई दो जोयणाई चम्चालविक्खंभेणं वेइयासमेणं परिक्खेवणं पण्णत्ते, सेणं वणसंडे किण्हे किण्हाभासे, एवं जहा-रायपलेणईए वणसंडे वण्णओ तहव निरवसेसं वहां के मनुष्यों का नाम भी एकोरुक आदि कह दिया गया है जिन प्रकार पंचाल आदि देश वासी पुरुष को पश्चाल शब्द से व्यवहार में कह दिया जाता है ।। मुत्र ३३॥ પ્રમાણે ત્યાંના મનુષ્યના નામે પણ એકરૂક વિગેરે પ્રકારથી કહ્યા છે. જેમ પંચાલ વિગેરે દેશમાં રહેવાવાળા પુરૂષને વ્યવહારમાં પાંચાલ વિગેરે પ્રકારથી કહેવામાં આવે છે. તે જ પ્રમાણેનું આ કથન છે. સૂ. ૩૩ છે
Page #521
--------------------------------------------------------------------------
________________
AND
प्रमेयधोतिका काम.३ ७.३ ७.३३ दाक्षि० मनुष्याणामेकोरुकद्वीपवर्णनम् ४९७ भाणियठवं, तणाणयवाणगंधफासो, सहोतणाणं, वावीओ उप्पायपव्वया पढवीसिलपट्टगाय भाणियवा जाव तत्थणं वह वाणमंतरा देवा य देवीओ य आसयंति जाब विहरति ।सू०३३।
छाया-कुत्र खलु भदन्त दाक्षिणात्यानाम् एको रुकमनुष्याणाम् एकोरुकद्वीपको नाम द्वोपः प्रज्ञप्तः ? गौतम ! जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणे क्षुल्ल हिमवतो वर्षधरपर्वतस्योत्तरपौरस्त्यात् चरमान्तात् कवणसमुद्रं त्रीणि योजनशतानि अवगाह्य अत्र खलु दाक्षिणात्यानामेकोरुकमनुष्याणाम् एकोरुकद्वीपो नाम द्वीपः प्रज्ञप्तः त्रीणि योजनशतानि आयामविष्कम्भेण, नवएकोन पश्चा शानि किश्चिद्विशेषेण परिक्षेपेण, एकया पद्मवरवेदिकया एकेन च वनषण्डेन सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्तः । सा खलु पद्मवरवेदिका अष्टयोजनानि ऊर्ध्वमुच्च स्वेन पञ्चधनुः शतानि विष्कम्भेण एकोहकद्वीपं समन्तात् परिक्षेपेण प्रज्ञप्ता । तस्याः खलु पद्मवरवेदिकाया अयमेर द्रूपो वर्णावासः प्रज्ञप्तः, तद्यथा वज्रमयी नेमिः, एवं वेदिकावर्णको यथा राजप्रश्नीये तथा भणितव्यः । सा खल्लु पद्मवरवेदिका एकेन वनषण्डेन सर्वतः समन्तात् संगरिक्षिप्ता । तत् खलु वनषण्डं, देशोने द्वे योजने चक्रवालविष्कम्भेण वेदिकासयेन परिक्षेपेण प्रज्ञप्तम् । तत् खल्लु वनखण्डं कृष्णं कृष्णावभासम्, एवं यथा राजप्रश्नीये वनषण्ड वर्णक स्तथैव निरवशेषं भणितव्यः । तूणाश्च वर्णगन्धरूपर्शः, शब्द स्तृणानां वाप्पा, उपपात. पर्वताः पृथिवी शिलापट्टकाश्च भणितव्याः यावत् तत्र खल्छु बहवो वानव्यन्तरा. देवाश्च देव्यश्च आसते यावद्विहरन्ति ॥मू०३३॥
टीका-'कहि णं भंते' कुत्र-कस्मिन् स्थाने भदन्त ! 'दाहिणिल्लाणं एगोरुयमणुस्साणं' दाक्षिणात्यानाम् एकोरु मनुष्याणाम् इह एकोरु कादयो मनुष्याः शिखरि पर्वतेऽपि विद्यन्ते, ते च मेरोरुत्तरदिग्वर्तिन इति तव्यवच्छेदार्थ दाक्षि
अष दक्षिण दिशा के एफोरुक मनुष्यों के एकोरुक द्वीप के विषय में कहते हैं-'कहि णं भंते ! दाहिगिल्लाणं एगोरुष मणुस्सा णं इत्यादि
टीकार्थ-श्रीगौतम ने प्रभुश्री से ऐमा पूछ। है-'कहि पं भंते ! दाहि जिल्लाणं एगोरुघमनुस्साणं एगोरुपदीवे णामं दीवे पन्नत्ते' हे भदन्त !
હવે દક્ષિણ દિશાના એકેક મનુષ્યના એકેરૂક દ્વીપના સંબંધમાં अपामा मा छे. 'कहिणं भवे । दाहिणिल्लाणं एगोरूय मणुस्साणं' त्याह
टीय-श्रीगीतभस्वाभास प्रभुश्रीन मे ५७यु ४ 'कहि णं भवे ! दाहिणिल्लाण' एगोरुयमणुस्साण' एगोरुयदीवे णाम दीवे पण्णत्ते' सन् क्षिय
जी० ६३
Page #522
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
जीवामिगमन णात्यानामित्युक्तम् ‘एगोरुपदीवे णामं दीवे पन्लत्ते' एकोरुकद्वीपो नाम द्वीप: मज्ञप्तः-कथितः ? इति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरपर्वतस्यान्यत्रासंभावात् अस्मिन्
जम्बूद्वीपे इति ज्ञातव्यम् मंदरस्स पन्चयस्स दाहिणेणं' मन्दरस्य पर्वतस्य _ 'दक्षिणेन' इत्यत्र पाकृतत्वात्सप्तम्यर्थे तृतीया, तेन येरोदक्षिणस्यां दिशि 'चुल्ल. हिमवंतस्स वासहरपव्ययस्स' क्षुल्ल हिमवर्षधरपर्वतस्य क्षुल्लग्रहणं महाहिमवद्वर्षधरस्य व्यवच्छेदार्थम् 'उत्तर पुरथिमिल्लाओ चरिमंताओं' उत्तरपौरस्त्यात् ईशानकोणगतात् चरमान्तात् 'लवण सप्लुई' लवणसमुद्रम् 'दिन्नि जोयणसयाई' त्रीणि योजनशतानि यावत् 'ओगाहिता' अवगाह्य उल्प अनान्तरे क्षुल्ल. हिमवदंष्ट्राया उपरि 'एयणं' अन खलु 'दाहिणिल्लाणं एगोरुपमणुस्साणं' दक्षिण दिशा में रहने वाले ए कोरुक मनुष्यों का जो एकोरुक द्वीप है वह किस स्थान पर कहा गया है ? एशोरुक मनुष्य शिखरी नाम के पर्वत पर भी रहते हैं तो ये मनुष्य पेरू की उत्तर दिशा में रहने वाले कहे जाते हैं अतः इनका ग्रहण यहां न हो-इस लिये दक्षिण दिशा में रहने वाले एकोरुक मनुष्यों के एकोहक द्वीप के विषय गौतम ने पूछा है इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्त पव्वयस्ल दाहिणेणं चुल्लहिमवंतरल्ल बालश्पवयल उत्तरपुरथिमिल्लाओ चरिमंताओ लवणसमुदं तिनि जोयणसचाई ओलहिता' हे गौतम! जम्बूद्वीप नाम के द्वीप में जो सुमेरु पर्वत है उसकी दक्षिण दिशा में एक क्षुद्र हिमवान् नाम का वर्षधर पर्चर की ईशान विदिशा के चरमान्त से लवण लमुद्र में तीनसो योजन जाने पर 'एत्थ णं दाहिणिल्ला દિશામાં રહેવાવાળા એકેડરૂક મનુષ્યને જે એકરૂક દ્વીપ છે, તે કયા સ્થાન પર કહેવામાં આવેલ છે? એકરૂક મનુષ્ય શિખરી નામના પર્વત પર પણ રહે છે. તે આ મનુષ્ય મેરૂ પર્વતની ઉત્તર દિશામાં રહેવાવાળા એકરૂક મનુષ્યોના એકેડરૂક હપના સંબંધમાં શ્રીગૌતમસ્વામીએ ઉપર પ્રમાણેને પ્રશ્ન ભગવાનશ્રી મહાવીર પ્રભુશ્રીને પૂછયે છે. આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમ स्वामीछे 'गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मदरस्स पव्वयस्स, दाहिणेण चुल्लहिमवतस्स, वासहरपब्धयस्स, उत्तरपुरथिमिल्लाओ चरिम'ताओ लवणममुद्द तिन्नि जोयणसयाई ओगाहित्ता' हे गौतम | भूद्वीप नामना द्वीपमा २ ३५ છે, તેની દક્ષિણ દિશામાં ક્ષુદ્રહિમવાનું નામ વર્ષધર પર્વત છે. આ વર્ષધર પર્વતની ઈશાન દિશાને ચરમાન્તમાં લવણ સમુદ્રમાં ત્રણ યોજના ગયા પછી 'एत्थण दाहिणिल्लाण एगोरुय मणुस्साण' एगोरूयदीवे णाम दीवे पण्णत्ते'
Page #523
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.३३ दाक्षि० मनुष्याणामेकोरुकढीपवर्णनम् ४९९ दाक्षिणात्यानामेकोरुकमनुष्याणाम् 'एगोरुयदी येणाम दीवे पन्नत्ते' एकोहाद्वीपो नामद्वीपः प्रज्ञप्त:-कथितः, स च द्वीपः 'तिन्नि जोयणसयाई आयामविवखंभेणं' त्रीणि योजनशतानि आयामविष्कम्भेण, अनायाभो दैध्यम्, विष्कम्भः-विस्तारः थायामेन विष्कम्भेण चेत्यर्थः 'णव एगण पण्णजोयणसए' नकोनपञ्चाशानिएकोन पञ्चाशदधिकानि नयोजनशतानि किचि विसेसेण परिक्खेवेणं' किश्चि. द्विशेषेण परिक्षेपेण 'एगाए पउमवरवेइयाए' एक या पदमवरवेदिकया 'एगेण च वणसंडेण' एकेन च वनपण्डेन-उपबनेनेत्यर्थः 'सनो समंता संपरिक्खित्ते' सर्वतः समन्तात् चतुर्दिक्षु संपरिक्षिप्त:-परिवेष्टित इति 'साणं पउमवरवेइया' सा खलु पद्मवरवेदिका 'अट्ट जोयपाई उडू उच्चत्तेणं' अष्टयोजनानि ऊर्ध्वमुच्चैः 'पंचधणुसयाई विखंभेणं' पश्चधणुः शतानि विष्कम्भेग-विस्तारेण 'एगोरुयदी' एकोरुकद्वीपम् अभिव्याप्य 'समंता परिक्खेवेणं पन्नत्ता' समन्ताद-चतुर्दिक्षु णं एगोरुष मणुस्ता णं एगोरुय दीवे णाम दीये पण्णत्ते' यहाँ क्षुद्र हिमवान् की दंष्ट्रा के ऊपर दाक्षिणात्य एकोण मनुष्यों का एकोरुक नाम का द्वीप कहा गया है. 'तिनि जोयणलयाई आयामविक्खंभे गं णव एकूणपण्णजोषणलयाई किंचि विलेलेण परिक्खेवेणं एगाए पउमवर वेश्याए एगे णं वणलंडे णं सत्रभो सत्ता संपरिक्खिते' यह द्वीप लम्बाई चौडाई में तीन सौ (३००) योजन का है इसकी परिधि नौ सौ उनचास योजन ९४९ ले कुछ अधिक है इस द्वीप के चारों तरफ एक पनवर वेदिका है। इस पद्मवर वेदिका की चारों दिशाओं में इसे घेरे हुए एक धन है । 'ला णं पउभयरवेझ्या जोयणाई उड़ उच्चत्तेण पंच घणुसचाई विवखंभेणं एगोझा दीवं समंता परिक्खेवे णं पण्णत्ता' यह पद्मवर वेदिका आठ योजल की ऊंची है और पांचसो અહિયાં શુદ્ર હિસવાન પર્વતની દાઢ ઉપર દક્ષિણ દિશામાં રહેવાવાળા એક રૂક मनुष्यान। मे।३४ नाभन द्वीप ४वामा मावेस छे. तिन्नि जोयणसयाई आयामविक्ख भेणं णव एगूणपन्न जोयणसयाइकिंचिविस सेण परिक्खेवेणं एगाए पउमवरवेइयाए एगेग वणसंडेणं सवओ समता संपरिक्खित्ते' २५ द्वीप લંબાઈ પહોળાઈમાં ત્રણસો ૩૦૦ જનને છે. તેની પરિધિ નવો ઓગણ પચાસ ૯૪૯ એજનમાં કંઈક વધારે છે. આ દ્વીપની ચારે બાજુ એક પાવર વેદિકા આવેલી છે. આ પાવર વેદિકાની ચારે દિશાઓમાં તેને ઘેરિને
४ न म भाव छे. 'सा णं पउवरवेदिया सटु जोयणाई उड्ढ उच्चत्तेणं पंच धणुमयाई विक ख भेज एगूरूयवदीव समता परिक्खेवण पण्णता' मा ५५३२
Page #524
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगम ५०० परिक्षेपेण-परिवेष्टनेन प्रज्ञप्ता सा पद्मवरवेदिका ! 'तीसे णं पउमवरवेइयाए' तस्याः खलु पद्मवरवेदिकाया: 'अयमेयारूवे वाणावासे पन्नते' अयमेतावद्रपो वर्णावासः प्रज्ञप्त:-कथितः 'तं जहा' तद्यथा 'बहरामया' वनमयी 'निम्मा' नेमिः-परिधिः ‘एवं वेइया वण्णाओ जहा-रायपसेणईर तहा माणियो' एवम्उक्तपकारेण वेदिकायाः-पद्मवरवेदिकायाः वर्णको-वर्णनं यथा राजमश्नीये कृत स्तथैव भणितव्यः। ___ 'साणं पउमवरवेदिया' सा खलु पदमवस्वेदिका ‘एगेगं वणसंडेगं सबओ समंता संपरिक्खित्ता' एकेन वनषण्डेन सर्वतः समन्तात् चतुदिक्षु संपरिक्षिप्तापरिवेष्टिता ! 'से णं वणसंडे देमूणाई दो जोयणाई चक्कवालविवखंभेण वेइयासमेण परिक्खेवेणं पण्णत्ते' स खलु वनपण्डः देशोने २ योजने चक्रवालविष्कधनुष की चौड़ी है यह एकोरुक द्वीप को चारों आर से घेरी हुई है। 'तीसे णं पउमबर वेदियाए' इस पद्मवर वेदिका का 'अयमेयारूवे वण्णा वासे' वर्णावास-वर्णन-इस प्रकार से है-'तं जहां-जैसे-'वरामया निम्मा' नेमि नीव वज्ररत्न की बनी है 'एवं वेश्या वण्णओ जहा राय पसेणईए तहा भाणिययो' इस वर्णन के सम्बन्ध में कथन 'रायपसेणी' सूत्र में है अतः जैसा इसका वर्णन वहां किया गया है-वैसा ही वह सब यहां पर भी इनका वर्णन कर लेना चाहिये ।। ___'सा णं पउमघर वेदिया एगेर्ण वणसंडेणं सबओ समंता संपरिक्खित्ता' इस पदूमवर वेदिका के चारो ओर एक वनषण्ड है 'से ण वणसंडे देखूणाई दो जोयणाई चक्कचालविक्खंभे ण वेदिया समेण परिक्खेवेणपण्णत्ते' यह वनषण्ड देशऊन कुछ कम-दो योजन વેદિકની ઉચાઈ આઠ જનની છે. અને તેની પહોળાઈ પાંચસે ધનુષની છે. 'एगोरुय दी समता परिक्खेवेण पण्णत्ता' २॥ ५१२ । १३४ द्वीपने च्या३ माथी धेशने २७दी छे. 'तीसेणं पउवरवेदियाए' मा पझ१२ जानु 'अयमेयारूवे वण्णावासे' वास-वन सा प्रमाणे छ 'तं जहा' रेभ 'वइरामया निम्मा' भि परिधि नभय मनसा छे. 'एव वेइया वण्णओ जहा रायपसेणईए तहा भाणियव्यो' भाना वन मधमा 'राप्रश्नीय' सूत्रमा २ अमानु કથન કરવામાં આવેલ છે. એ જ પ્રમાણેનું કથન અહિયાં પણ સમજી લેવું જોઈએ. ___ 'सा ण प उमबरवेदिया एगेण वणसडेण समता संपरिक्खित्ता' या ५१२ वानी यारे से पनप भाव छे. 'से ण वणसंडे देसूणाई दो जोयणाईचक्कबालविक्ख भेण वेदिया समेण परिक्खेवेण पण्णत्ते' मा वन
Page #525
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र. ३ उ. ३ . ३३ दाक्षि० मनुष्याणामेकोरुकद्वीपवर्णनम् ५०१ म्भेण वेदिका समेन - वेदिका तुल्येन परिक्षेपेण प्रज्ञप्तः । ' सेणं वणसंडे किन्दे किण्डोमासे' स खलु वनषण्डः कृष्णः कृष्णावभासः, 'एवं जहा रायपसेणईए वणसंडवण्णओ' एवं यथा राजमश्नीये वनपण्डवर्णकः 'तहेव निरवसेसं भाणिpoi' तथैव निरवशेषं भणितव्यः 'तणाणय वण्ण गंध फासो, सो तणा वावीओ' तृगानाश्च वर्णगन्धस्पर्शः, शब्द स्मृगानाम्, अत्र वृगानां शब्दो वाच्यः अन्यत्र - 'वणसंड वण्णओ तण सदं विगो नेपच्त्रो' इति वर्त्तते । तथा-वाप्यः 'उपोय पन्जा' उपपादपर्वताः 'पुढबीसिलापट्टगाय' पृथिवीशिला काथ 'माणियन्त्रा' भणितव्याः कियत्पर्यन्तमित्याह - 'जाव' इत्यादि, 'जाब तत्थ णं
की गोलाकार चौडाई बाला है । और इसकी परिधि का विस्तार वेदिका के बराबर है। 'से वणसंडे किन्होभासे एवं जहा रायपसेणईए वणवण्णओ तहेव निरवसेसं भाणियन्त्रं' या वन षण्ड बहुत अधिक घन होने के कारण काला दिखता है और प्रकाश भी इससे काला ही निकलता है । इसका इस प्रकार का वर्णन राय सेणी सूत्र में किया गया है सो वह सब वर्णन यहां पर भी कह लेना चाहिये. 'ताणाण य वण्णगंधफासोस हो तणाणं, वादीओ उप्पाय पञ्चया पुढवि सिला पट्टगाय भाणियव्या जाय तत्थ णं बहवे देवाय देवी भो व आसयंति जाव विहरंति' यहां के तृणों का वर्ण, गन्ध, स्पर्श और तृों का शब्द इन सब का तथा वाषिकाओं का और उपपात पर्वनों का और पृथिवी शिला पट्टों का जो कि यहां पर वर्तमान है वह सब वर्णन भी कर लेना चाहिये यावत् यहाँ अनेक वानव्यन्तर देवी एवं देवतां
ષંડ દેશન, કંઈક કમ એ ચેાજનના ગેાળાકાર પહેાળાઈ વાળું છે. અને તેની परिधिना विस्तार वहिनी मरोभर छे. 'से ण वणसंडे किन्हे किन्होभासे एवं जहा रायपसेणइए वणसं डवण्णओ तद्देव निरवसेसं भाणियव्व' या वनषौंड धागु ગાઢ ઉંડુ હાવાના કારણે કાળું દેખાય છે. અને તેના પ્રકાશ પણ કાળેાજ નીકળે છે. તેનુ આ પ્રકારનુ' વર્ણન રાજપ્રશ્નીય સૂત્રમાં કરવામાં આવેલ છે. તે
मधु त्यां वन सहियां पशु समल सेवु' 'तणाण य वण्ण गंध फासो महोतणा णं बहवे देवाय देवीओ य आसयति जाव विहरति महिना तृशाना વણું, ગંધ, રસ, સ્પર્શી અને તૃણેાના શબ્દ આ બધાનું અને વાડિયેનુ' અને ઉપપાત પર તેનું અને પૃથ્વી શિલાપટ્ટાનું કે જે અહિયાં વત માન છે, એ બધાનુ વધુ નપણ કરી લેવુ' જોઈએ, યાવત્ અહિયાં અનેક વાનભ્યન્તર દેવ
Page #526
--------------------------------------------------------------------------
________________
५०२
जीवामिगम वहवे वाणमंतरा देवाय देवीयो य आसयंति जाव विरंति यावत् तत्र बहवो चानव्यन्तरदेवाश्च देव्यश्चासते यावद्विहरन्ति, अत्र यावत्पदेन-'सयंति चिट्ठति निसीयति तुयति हसति रमंति कलंति कील ति मोहंति पुरा पोराणाणसुपरिक्वाणं मुभाणं कडाणं कम्माण कल्लाणं फलवित्तिविसेसं पच्चगुन्मव. माणा' इति संग्राह्यम्,
छाया-शेरते रिष्ठन्ति निषीदन्ति दम्यतयन्ति हमन्ति रमन्ते ललन्ति क्रीडन्ति मुद्यन्ति मोहयन्ति पुरा पौराणानां सुचीर्णानां मुपरिक्रान्तानां शुमानां कृतानां कर्मणां करपाणं फलत्तिविशेष मत्यनुमवन्तः, विहन्तीति सम्बन्धः । तत्र पद्गबरवेदिका वर्णनं वनपण्डवर्णनं मणितृणानां वर्णादिवर्णनम् उत्पात पर्वतानां पृथिवी शिलापट्टकानां च वर्णन रानपश्नीयसूत्रे सर्व विलोकनीयमिति ॥३३॥
मूळम्-एगोरूय दीवस्त णं भंते ! दीवस्त केरिसए आगार भावपडोधारे पन्नते ? गोयमा! एगोरुयदीवस्त पं दीवस्स अंतोबहुतमरमणिजे भूमिभागे पन्नत्ते, से जहा-णामए आलिंग पुक्खरेइ वा एवं लयणिजे भाणियब्वे जाव पुढवी सिलापट्ट. गंसि तत्थ णं बहवे एगोरुयदीवया मणुस्सा य मणुस्सीओ य आलयंति जाव विहरति एगोरुयदीवेणं दीवे तत्थ तत्थ देसे तहि तहिं बहवे उद्दालगा कोदालगा कतमाला णयमाला उठते बैठते हैं, इत्यादि। इल तरह 'आलयंति' इस अन्तिम पद तक व्यन्तर देव और देवियों का वर्णन वहां पर किया गया है सो वह सब वर्णन यहां पर कर लेना चाहिये तात्पर्य यही है कि पद्मवर वेदका का वर्णन और वनपण्ड का वर्णन जैसा आगे जम्बूदीप की जगति के ऊपर की पद्मवर वेदिका और वनषण्ड का वर्णन आने चाला है अतः वहीं से यह जानने में आजायगा ।। सूत्र-३३॥ भने वायो 8131 ४२३॥ मावे छे 6 से छे. त्यादि. मा शत 'आसय ति' આ છેલા પદ સુધી વ્યક્તર દેવ અને દેવીનું વર્ણન અહિયાં કરવામાં આવેલ છે તે તે બધું જ વર્ણન અહિયાં કરી લેવું જોઈએ કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે પદ્મવર વેદિકાનું વર્ણન અને વનખંડનું વર્ણન જેમ આગળ જંબુપિની ઉપરની પાવર વેદિક અને વનખંડનું વર્ણન આવવાનું છે. તે પ્રમાણે ત્યાંના તે વર્ણન પ્રકરણથી આ સમજવામાં આવી જશે. એ સૂ ૩૩
Page #527
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
-
-
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ ३.३ ७.३४ एकोलकद्वीपस्याकारादिनिरूपणम् ५०३ णमाला सिंगमाला संखमाला दंतमाला सेलमालगा जाम दमगणा पन्नत्ता समणाउसो ? कुलविकुलविसुद्धरुखमूला मूलमंतो कंदमंतो जाव बीयमंतो पत्तेहिय पुप्फेहिया अच्छण्ण परिच्छण्णा सीरीए अईव अईव उवसोभेमाणा उबसोभेमाणा चिटुंति एकोरूयदीवेणं दीवे रुक्खा बहवे हेरुयालवणा भेरुया. लवणा मेरुयालवणा सेरुयालवणा लालवणा लत्तवण्णवणापूधफलिवणा खज्जूरिवणा णालिएरिवणा कुलाबिकुल विसुद्ध जाव चिटुंति, एगोरुष दीवेणं तत्थ२ बहने तिलयालवया नगोहा जाव रायरुक्खा णंदिरुक्खा कुलविकुस विसुद्धक्खमूला चिटुंति। एगोरूय दीवेणं तत्थ बहुओ पउमलयाओ जाव सामलताओ णिचं कुसुमियाओ एवं लया वण्णओ जहा उक्वाइए जाव पडिरूवा । एगोरूय दीवेणं तत्थर बहने सेरिया गुम्मा जाव महाजाइगुम्मा ते णं गुम्मा दसद्धवपणं कुसुमं कुसुमंति विधूयगसाहा जे ण वाय विधूयग्गसाला, एगूरूयदावस्त बहुममरमणिज्जभूमिभाग मुक्कपुप्फपुंजोबयारकलियं करेंति, एगोरुय दीवेणं तत्थ२ बरओ वणराईओ पन्नताओ, ताओ णं वणरा. इओ किण्हाओ किण्होभासाओ जाव रस्माओ महामेहणिउरुंबभूयाओ जाव महई गंधद्धणि मुयंतीओ पालादीयाओ४ । एगोरूयदीवे तत्थर बहवे मतंगा नाम दुमगणा पन्नत्ता सम्मणाउसो ! जहा से चंदप्पभ मणिलिलागवर सीधुपवरवारुगी सुजायपत्तपुप्फफलचोयणिज्जाससारबहुदब्बजुत्ति संभारकाल संधियासवा महुमेरगरिटाभदुद्धजाइय पसन्न मेल्लगलयाउ खज्जुरमुद्दिया सारका विलायण सुपक्क खोयरसवर सुरावपणरमगंधफरिसजुत्तबलवीरियं परिणामा मज्जविहित्थ बहुप्पगारा तदेवं
Page #528
--------------------------------------------------------------------------
________________
५०५
जीवामिगमले
ते मत्तगया वि दुमगणा अणेग बहुविविह वीससा परिणयाए मजविहीए उववेशा फलेहिं पुण्णा वीसति कुसविकुस विसुद्धरुखमूला जाव विसति १। एगोरुए दीवे तत्थ तत्थ बहवो भिंगंगया णाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो ! जहा से वारग घडगकरगकलसकक्करिपायकंचणिया उदंबद्धणिसु पइगपारी च सकभिंगार करोडिया सरगपत्तीथालमल्लग चवलिय. दगवारकविचित्तवक मणिवट्टक सुत्ति च'रुपीणया कंचणमणि. रयणभत्तिचित्ता भायणविधीए बहुप्पगारा तहेव ते भिंगंगया वि दुमगणा अणेग बहुगविविहवीससा परिणयाए भायण. विहीए उक्वेया फलेहिं पुन्ना विसति कुसविकुस विसुद्धरुक्ख. मूला जाव विसति२। एगोरुय दीवेणं दीवे तत्थर वहवे तुरियंगा णाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो !, जहा से आलिंगमुयंगपणवण्डहदद्दरग करडिंडिम भंभाहोरंभकण्णियार खरमुहिमुगुंद संखिय परिलविदग परिवाइणि वंसावेणु वीणा सुघोसविवंचि महइकच्छभिरगसगा, तलताल कंसताल सुसंपउत्ता आतोजविहिणिउणगंधव्व समयकुमलेहि फंदिया तिट्टाणसुद्धा तहेव तं तुडियंगया वि दुमगणा अणेग बहुविविहवीसला परिणयाए ततविततघणसुसिराए चउठिवहाए आतोजविहीए उववेया फलेहिं पुण्णा विसदंति, कुसविकुस विसुद्ध रुक्खमूला जाव विसति३। एगोरुय दीवे तत्थर बहवे दीव सीहाणाम दुमगणा पण्णता समणाउसो ! जहा से झंझा विराग समए णवणिहि पइणो दीविया चकवालविंदे पभूयवट्टिपलित्तणेहे धणिउज्जालिय तिमिरमहए कणगणिगरकुसुमिय पालिया
Page #529
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रद्योतिका टीका प्र.३ उ. ३.३४ एकोरुकद्वीपस्याकारादिनिरूपणम् ५०५ तयवणप्पासो कंचणमणिरयणविमलम हरिहतवणिज्जुजल विचित्तदंडाहिं दीवियाहिं सहसा पजलिऊसवियणिद्धतेय दिप्पंत विमलगहगणसमप्पहाहिं वि तिमिरकरसूरपसार उज्जोय बिल्लियाहि जालुजलपहसियाभिरामाहिं सोहेसाणा तहेव ते दीवसिहा विदुमगणा अमेग बहुविविहवसिसा परिणायाए उज्जोयविहीए उक्वेया फलेहिं पुण्णा विसति कुसविकुस विसुंद्ध रुक्खसूला जाब चिति४ | एगोरूय दीवे तत्थ तत्थ बहवे जोइसिया णाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो ! जहा से अचिरुग्गय सरयसूरमंडल पडतउकासहस्स दिष्यंत विज्जुज्जालहुयवहनिधूमजलियनिद्धंतधोयत सतवणिज किंसुया सोयजवाकुसुमत्रिमुउलिय पुंजमणिरयणकिरणजश्च हिंगुलय निगर रूवाइरेगरूवा तहेव से जोइलिया वि दुमगणा अणेग बहुविविहवीससा परिणयाए उज्जोय विहीए उदवेया सुहलेस्सा मंदलेस्सा मंदावलेस्सा कूडायइव ठाणठिया अन्नमन्न समोगाढाहिं लेस्साहिं साए प्रभाए सपदे से सव्व ओसमंताओ भासंति उज्जोर्वेति पभासेंति कुसविकुविसुद्धरुक्खमूला जाव चिति ॥ ३४|
छाया - एकोरूक द्वीपस्य खलु भदन्त । द्वीपस्य कीदृश आकारभावप्रत्यचतारः प्रज्ञप्तः ? गौतम ! एकोरुकद्वीपस्य खलु द्वीपस्यान्त बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, स यथा नामकः आलिङ्ग पुष्कर इखिया, एवं शयनीयं भणितव्यं यावत्पृथिवीशिलापट्टके, तत्र खलु दहन एकोरुक द्वीपकाः मनुष्याथ मनु
श्वास यावद्विहरन्ति । एकोरुकद्वीपे खल्ल द्वीपे तत्र तत्र देशे तत्र २ बहव उद्दालकाः कौद्दालकाः पतकमान्याः नतुमालाः नाटयमालाः गृङ्गमाला शंखमाला दन्तमालाः शैलमालका नाम दुरगणाः भवताः श्रमणायुष्मन ! कुशन्कुिश विशुद्ध वृक्षमूला मुलवन्तः कन्दवन्तो यावद बीजवन्तः पत्रैश्च पुष्पैश्च यच्छन्न प्रतिच्छन्नाfor natarataपशोभमाना उपशोभमानारित्पृन्ति । पकोरूद्वीपे खल द्वीपे वृक्षा बहवो रुकावना भेरुकालवना येरुकालवनाः सेरुकालवनाः सालवनाः सरलवनाः सप्तपर्णचनाः पूगफलीवनाः खजूरीचनाः नारिकेलवनाः कुशधिकश
जी० ६४
Page #530
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवाभिगमसूत्रे
५०६
विशुद्ध वृक्षमूला स्विन्ति । एकोरुद्वीपे खलु तत्र २ वह स्तिanaast न्यग्रोधा यावद्राजवृक्षा नन्दिवृक्षाः कुशनिकुश विशुद्ध वृक्षकास्तिन्ति । एकोरुकद्वीपे खलु तत्र वहन्यः पद्मलता यावत् श्यामलता नित्यं कुसुमिताः, एवं Bar वर्णको यथा यथा औपपातिके यावत् प्रतिरूपाः । एकोरुकद्वीपे खलु तत्र २ बहवः सेरिका गुल्माः यावन्महाजातिगुल्माः, ते खलु गुल्मादशार्द्धवणं कुसृमं कुसुमयन्ति विधूताग्रशाखाः येन वाताविधताप्रवाळाः एकोरुवद्वीपस्य वहुसमरमणीय भूमिभागं मुक्तपुष्पपुञ्जोपचारकलितं करोति । एकोरुकद्वीपे खद तत्र २ बहव्यो वनराजयः मतप्ताः ताः खल वनराजयः कृष्णाः कृष्णावभासाः यावद् रम्याः महामेघनिकुरम्बभूताः यावन्महतीं गन्धवाणीं मुञ्चन्त्य मासादीयाः ४ । एकोरूद्वीपे तत्र तत्र बहवो सताङ्गा नाम द्रुमगणाः प्रज्ञप्ताः श्रमणायुमन् ! यथा ते चन्द्र मर्माणिशिलाकवरसीधु मत्ररवारुणी सुजातपत्रपुष्प फल
!
नियसिसार बहुद्रव्ययुक्ति संभारासन्धितासचा मधुमेरकरिष्टाभदुग्धजाति प्रसन्न मेल्लकशतायुः खर्जूरमृहीकासार कपिशायन सुपरसपर मुरा रसगन्धस्पर्शयुक्त वलवीर्यपरिणामाः, सवविधिना उपेक्षा बहु प्रकारास्तदेवं ते मतङ्गजा अपि द्रुमगणाः अनेक बहुविविधवित्रता परिणतेन मचविधिनोपपेताः फलैः पूर्णाः विलसन्ति कुशविद्वारा विशुद्ध वृक्षका यावतिष्ठन्ति १ । एको के द्वीपे तत्र २ बहवो भृङ्गाका नाम डुगणाः मन्त्रप्वाः श्रवणायुष्मन् यथा वे चार वटककर कलश कर्करीपाद निका उदनीपतिष्ठकपारी चषक भृङ्गार करोटिका सरक परकपात्री स्थळ मल्लक चपति दकवारक विचित्र वर्त्तक शुक्तिचारूपीनकाः काञ्चनमणिरत्नभक्तिचित्रा भोजनविधिना वहुमकारा स्वयैव ते भृङ्गाका अपि द्रुममा अनेक बहुविविधविस्रमापरिणतेन भाजनविधिनोपपेताः फलैः पूर्णा विलसन्धि, कुछत्रिकुश विशुद्धळा यावतिष्ठन्ति२ एकोरूद्वीपे खलु द्वीपे तत्र २ वहवस्त्रुटिताङ्गा नाम द्रुमगणाः पज्ञप्ताः श्रमणायुष्मन् ! यथा ते आलिंग पण पटहदर्दरकरण्ड डिडिममंत्रारम्भकर्णिकार खरमुखी मुकुन्द शंखिक परिलीका घरका परिवादिनी वेगवेणुवीणासुघोषविपञ्ची महती कच्छपी रंगसग तल गाळ कांस्यतालसुसंयुक्ता आतोय विधि निपुणगन्धव समयकुशलैः स्पन्दिताः त्रिस्थानशुद्धास्तथैव ते त्रुटिताङ्गका अपि द्रुमगणा अनेक बहुविधविसापरिणतेन तत नितत घणसुषिरेष चतुर्विधेन जातोयविधिनोपेताः फलैः पूर्णा : विदलन्ति कुशविकुश विशुद्ध वृक्षमूलाः यावतिष्ठन्ति ३ । एकोरू के द्वीपे तत्र तत्र च दीपशीखा नाम द्रुमगणाः प्रज्ञप्ताः श्रमणायुष्मन् ! यथा ते सन्ध्या विरागसमये नवनिधिपते दीपिका चक्रवालवृदे प्रभूतवर्त्ति - प्रदीपैः
Page #531
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रद्योतिका टीका प्र.३ उ.३.३४ पकोरुकद्वीपस्याकारादिनिरूपणम् धणिय उज्ज्वालित तिमिरमर्दकं कनकनिकरकुसुमित पारिजातकवनप्रकाशं कनकमणिरत्नविमलमहा ई त पनी यो ज्वलविचित्र - दण्डादिपिकाभिः सहसा प्रज्वलितोच्छ्रायित स्निग्धतेजोदीप्यमान विमल ग्रहगण सममाभिः वितिमिरकर सूर्य प्रतोद्यतदीप्यमानामिः जालोज्वलमहसिताभिरामाभिः शोभमाना तथैव ते दीपशिखा - अपि द्रुमगणाः अनेक बहुविधदिवसापरिणतेन उद्योतविधिनोपपेताः फलै पूर्णा विलन्ति कुशविकुरा विशुद्धवृक्षमूला यादत्तिष्ठन्ति ४ । एकोकद्वीपे तर बहवो ज्योतिषिका नाम द्रुमगणाः घज्ञताः श्रमणायुष्मन् | यथा अद्वितशरसूर्यमण्डल पर दुल्कासहस्रदीव्य दिद्युज्जाल हुतवह निर्धूमज्वलितनिर्मात ततस तपनीय किंशुकाशोकजपाकुसुमविमुकुलित पुञ्जमणिरत्न किरणजात्य हिगुलक निकररूपातिरेकरूपा स्वचैव ते ज्योतिषिका अपि द्रुमगणा अनेक विविधविसापरिणतेन उद्योत विधिनोपपेताः सुखलेइया मन्दलेश्या मन्दारपलेश्या कूटानीव स्थानस्थिता अन्योन्य समवगाढाभिर्लेश्याभिः स्वकया प्रभया स्वदेशे सर्वतः समन्तात् अवभासते उद्द्योतन्ते घमासन्ते कुशविकुशविशुद्ध वृक्षमूला यावतिष्ठन्ति ॥ सू० ३४ ॥
टीका- ' एगोरूप दीवस्स णं संते !" इत्यादि । 'गोरूप दीवस्स णं भंते । दीवस्स' एकोरुकद्वीपस्य खलु भदन्त । द्वीपस्थ 'केरिसो' कोदृशः 'आयारभाव पडीयारे' आकार भावमत्यवतारः - भूम्यादिस्वरूपप्रकार ः 'पण्णत्ते' मज्ञप्तः कथितः, भगवानाह - 'गोयमा' हे गौतम! 'एगोरूय दीवस्स णं दीवस्स' एकोरुकद्वीपस्य खलु द्वीपस्व 'अंतो बहुसमरणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते' अन्तः मध्यभागे बहुतमरमणीयोऽतिरमणीयः समी भूमिभागः प्रज्ञतः - कथितः । अथ
५०७
'गोरुवदीवस्त संते दीवस्त' इत्यादि ।
टीकार्थ- श्रीमतमस्वामी ने प्रसुश्री से ऐसा पूछा है कि 'एगोरुय दीवस्त्र णं भते ! दीवस्स केरिले आगार भाव पडोबारे पण्णत्ते' हे भदन्त ! एकोरुक नामके द्वीप का आकार भाव प्रत्यवतार भूमि आदि का वर्णन कैसा किया गया है। इसी विषय की उपमा वाचक पदों द्वारा प्रकट करते हैं-' से जहा नामए आलिंग पुक्खरेचा' इत्यादि । वहाँ की जो
'एगोरुय दीवस्त्रणं भवे ! दीवस्स' छत्याहि
३४
टीडअर्थ-श्रीगौतमस्वाभीमे अनुश्रीने येवु पूछयु छे 'एकोरुयदीव स्व णं भवे ! दीवस्स केरिसे आगारभाव पडायारे पण्णत्ते' हे लगवन् ! નામના દ્વીપના આઠાર ભાવપત્યવતાર અર્થાત, ભૂમિ વિગેરેનુ' વધુ ન કેવી રીતે કરવામાં આવેલ છે? આજ વિષયને ઉપમાવાચક પદ્મા દ્વારા પ્રગટ ४२षाभां आवे छे. 'से जहा नामए आलिंग पुखरे वा' इत्याहि त्यांनी
Page #532
--------------------------------------------------------------------------
________________
५०८
जीवाभिगमसूत्र कीदृशः स बहुसमरमणीयो भूमिमागा ? इति तस्सादृश्ये दृष्टान्तानि मदर्शयति से जहाणामए' इत्यादि से जहाणामर' स यथानामकः 'आलिंग पुक्खरेद वा' आलिङ्ग पुष्करइति बा, तत्र-आलिङ्गो मुरजो बाघ विशेषः, तस्य पुष्करं चर्मपुटकं तद्वद् अत्यन्तसमः यादव नानाविधपञ्चवर्णैस्तुणमणिभिश्च उपशोभितः स भूमिभाग इति, अत्र यावच्छदादेवानि पदानि संग्राह्याणि-'मुइंग-पुक्खरेइ वा सरतलेइ वा करतलेइ वा चंदमंडलेश या सूरमंडलेइ वा आयंसमंडलेइ का उम्भचम्मेइ वा उसभवम्मेह वा वराहपरमेइ वा सीहचम्मेइ वा दग्घचम्मेइ वा विगचम्मेइ वा दीवियचम्मेइ वा अणेगसंकुकीलगसहस्सवितते आवड पञ्चावड सेणिपसेणि सोस्थिय सोवत्थिय-पूममाणवद्धमाणमच्छंडग मकरंडाजारभार फुल्लावलि पउ. मपत्त सागर-तरंगवासंतिलय पउमलयभत्तिचित्तेहि सच्छाए सप्पभेहिं सरिसरीएहि समरीइहिं सउज्जोएहि नाणाविह पंचवण्णेहि तणेहि य मणिहि य उदसोहिए' एषां पदानामयमर्थ:-मृदङ्ग पुष्कर इतिवा, तत्र मृदङ्गो मर्दलो लोकपसिद्धस्तस्य पुष्करमिति वा एषु इति शब्दाः सर्वेऽपि स्वस्वोपमाभूत वस्तुपरिसमाप्तिधोतकार, वा शब्दो समुच्चयार्थे । एवमग्रेऽपि विज्ञेयाः ! सरः पानीयेन परिपूर्ण भृतं तडागं, तस्य तलम्-जकोपरितनोभागः, सरस्तलम् । करतलं-मसिद्धस् । चन्द्रमण्डलम्, यद्यपि तत्वदृष्टया उत्तानीकृतकपिस्थाकार-पीठप्रसादापेक्षया वृत्ता-लेखमिति तद्त्तो दृश्यमानो भागो न समदलस्तथापि प्रतिभालते समतल इति चन्द्रमण्डलो. पादानम् । सूर्यमण्डलम्, दृश्यमानसूर्यबिम्बम्, आदर्शमण्डलंदर्पणतलम् । अथ भूमि है वह आलिंग पुष्कर जैसी चिकनी और समतल वाली है आलिङ्ग नाम का वादिन उसका जो बढा हुआ चर्म पुट समतल होता है वैसा है जैसा मृदङ्ग हा मुख चिकना और समतल वाला होता है अथवा पानी से भरे हुए तालाब का पानी के उपर का भाग जैसा समतल
और चिकना होता है. कर हथेली का तलिया जैसा चिकना और सम होता है चन्द्र मण्डल सूर्य मण्डल जैसा होता है आदर्श मण्डल दर्पण जैसा चिकना और समतल वाला होता है-उरभ्रथम ऊरलिया ભૂમિ છે, તે આલિંગ પુષ્કરના જેવી ચીકણી અને સમતલવાળી છે. આલિંગ નામનું વાછત્ર હેય છે. તેને મઢેલું ચામડું જેવું સરખું હોય છે, તેવી સમતલ સરખા તળીયાવાળી હોય છે. મૃદંગનું મુખ જેવું ચિકણું અને સમતલ હેય છે, તેવી સમતલ હોય છે. અથવા પાણીથી ભરેલા તળાવના પાણીને ઉપરનો ભાગ જે સમતલ અને ચિકણે હોય છે, અથવા હાથના તળીયા જે ચિકણે અને સમ હોય છે. ચંદ્રમંડળ અને સૂર્યમંડળ જેવા હોય છે, આદર્શમંડલ અર્થાત્ દર્પણ જે ચિકણે અને સમતલ હોય છે. ઉપભ્રમ
-
Page #533
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेययोतिका टीका प्र. ३ उ. ३ . ३४ एकोरुकद्वीपस्याकारादिनिरूपणम् ५०९ सभूमिभागश्च भिरुपमीयते - ' उरश्च मे वा' इत्यादि, अत्र उरभ्रवर्मत आरभ्य द्वीपिचर्म - पर्यन्तं सर्वत्र 'अणेगसंकुकीलग सहस्सवितत्' इति विशेषणस्य योगः कर्त्तव्यः तथाहि - अनेकैः शङ्कममाणैः कीलकसहस्रैः - मद्ददभिः कीलकैरवाडितं चर्म पायो मध्यक्षामं भवति किन्तु न समवलं ततोमददभिः कीलकः विततं -चितनीकृतं वाडितं सत् चर्म अत्यन्तं बहुसमं भवति तत इदं विशेषणं चर्मसु सर्वत्र योज्यम् । तथाहि अनेक शङ्कु कीलकसहस्रचिततम् एताहराष्ट्र - उरभ्रचर्म, उरभ्रः ऊरणस्तस्य चर्म, एवम् पूर्वोक्त विशेषणविशिष्टं वृपचर्म, वराहचर्म, सिंहचर्म, व्याघ्रचर्म, वृकचर्म - वृकः श्वापदजन्तुविशेषः 'भेडिया' इति प्रसिद्धः तस्यचर्म द्वीपिकचर्म - द्वीपिकः चित्रकः 'चित्रा' इति प्रसिद्धः श्वापदजन्तुविशेषः । एतानि सर्वाणि चर्माणि अनेक शङ्कुकीलकसहस्रविततानि समतलानि भवन्ति तद्वत् rator द्वीपस्यान्तर्गतो बहुसमरमणीयो भूमिभागो भवतीति । पुनः कथम्भूतः स भूमियागः ? इत्याह- 'वणेदि मणिहि य उबसोहिए' तृणैः मणिभिश्च उपशो१ मितः, इयरोग सम्बन्धः । कीदृशैस्तृणैः मणिभिः ? इवि तद् विशेषणानि प्रदर्शन्ते 'आवड' इत्यादि । 'आवड पच्चावड०' इति आवर्त्त प्रत्यावर्त्त श्रेणि मंसेणि स्वस्तिकसौवस्तिक पुष्पमान बर्द्धमानमत्स्याण्डक - मकराण्डकजारमार पुष्पावलिपद्मपत्र सागरतरङ्गवासन्तीला पद्मलताः, एते सर्वे माङ्गलिक चिह्नरूपा आकार विशेषास्तेषां भक्त्या विच्छिरया रेचनया चित्रैः विचित्रैस्तृणैर्मणिभिश्च उपशोभित इति योगः । पुनश्च कीदृशैस्तैः ? इत्याह- 'सच्छादि' सच्छायैः- सभी शोमा छाया अनासो येषां तैः 'सपमेहिं' समः सतीशोमना प्रभा कान्तिर्येषां
अर्थात् भेड़ बैल लूअर सिंह व्याघ्र वृक-भेडिया और चीता इनके धर्म जो बडे बडे फीलो खूबियों से समतल बनाया गया है वैसी वह भूमि आवर्त प्रत्यावर्त्त श्रेणि प्रश्रेणि स्वस्तिक सौचस्तिक पुष्यमान वर्द्धमान मरस्याण्ड मकराण्ड जार मार पुष्पावलि पद्मपत्र सांगर तरङ्ग वासन्ती उता पसता इत्यादि नाना प्रकार के मांगलिक रूपों की रचना से चित्रित ऐसे तथा सुन्दर दृश्य वाले सुन्दर कान्ति सुन्दर ઉરલિયા અર્થાત્ ઘેટા, બળદ, સુવર, સિંહ, વાઘ વૃક ઘેટાની એક જાતઅને ચિત્તો આ બધ ના ચમને જે માટા મેટા એજારાથી સમતળ મનાવવામાં આવેલ હાય, એવી તે ભૂમી આવત, પ્રાવત, શ્રેણી પ્રશ્રેણી સ્વસ્તિક સૌવસ્તિક, पुष्यभान, वर्धमान, भत्स्यांड, भांड नर, भार पुण्यावसी, पद्मपत्र, सागरतररौंग, વાસ'તીલતા, પદ્મલતા વિગેરે અનેક પ્રકારના માંગલિક રૂપાની રચનાથી ચિત્રલા એવા તથા સુંદર દૃશ્યવાળા સુંદરકાંતી વાળા અને સુંદર શે।ભાવાળા ચમકતા ઉજ્જવલ કિરણાના પ્રકાશવાળા, એવા અનેક પ્રકારના પાંચ વર્છાવાળા તૃણેાથી
Page #534
--------------------------------------------------------------------------
________________
५१०
जीवाभिगमसूत्रे
।
वैः, सश्रीकैः सह श्रिया शोषया ये ते स श्रीकास्तैः 'समरीइपहि' समरीचिकैः वहिर्विनिर्गत किरण जालसहितैः, स उज्जोएहि' सोद्यतः- वहिव्यवस्थित प्रत्या सन्न-वस्तुस्वोमप्रकाश करोद घोसहितैः पुनश्च - एवंभूतैः - 'नाणाविह पंचबण्णेहि' नानाविधैः नानाजातीयैः पञ्चवर्णैः - कृष्णनीलादि पञ्चवर्णैः वणैः मणिभिश्च उपशोभितः स एकोरुरु द्वीपस्यान्तो बहुसमरमणीयो भूमिभाग इति । ' एवं सयणिज्जे आणियच्चे' एवं शयनीय सादृश्यमपि भणितव्यम्, तथाहि - 'आईणगरूयतूर णत्रणीय तूलफासमउए सच्चरयणामर अच्छे सहे घट्टे मट्ठे णीरए निम्नले पिंके निक्कंकडच्छाए सप्पमे सस्सिरीए स उज्जोए पासादीए दरिसणिज्जे अमिखवे पडिलवे' छाया आजिनकरुतवूर नवनीत तूळस्पर्शमृदुकः सर्वरत्नमयः अच्छः श्लक्ष्णः घृष्टः सृष्टः नीरजाः निर्मलः निष्पडूः निष्क ङ्कटच्छायः समभः सश्रीकः सोद्योतः प्रासादीयः दर्शनीयः अभिरूपः प्रतिरूपः । एतादृशो भूमिभागः प्रज्ञप्तः । ' जाव पुढविसिलावट्टगंसि' इति, अत्र यावच्छेदेन पृथियौशिलापट्टकवर्णनं ग्राह्यम् । तथाहि - 'तत्थ णं महं एक्के पुढविलाप पण्णत्ते विक्खमायाम उस्सेह सुप्पमाणे किन्हे अंजणघण किवाण कुवलयदलहर को सेब्लाग्गकेस कज्जलंगी खंजण सिंगभेदरिद्वयजंबू फळ असणगसणबंधन नीलुप्पलनिगर अयसि कुसुमप्पमासे मरणयमसारकलित्ते यणकासवणे घणे अट्टसिरे आयंसत छोदमे ईद्दामिय उसभ तुरगणरमनरविगात्राक गरिन्नररुरु सरभच मरकुंज रवणलय पडल्यभत्तिचित्ते आईणगरूप बूर वणीय तूफरिसे सीहा सणसंठिए पासाईए दरिसणिज्जे अभिरूवे पडरूवे, सि वारिसगति' इति संग्राम् एषां व्याख्या - औपपातिक सूत्रस्य पीयूपवर्पिणी टीकायां दशमे सूत्रे द्रष्टव्या, वस्मिन् तादृशे 'पुढवीमिला पहगंसि' पृथिवीशिळा शोभा वाले चमकती हुई उज्जवल फिरणों वाले प्रकाश वाले ऐसे नाना प्रकार के पांच वर्णों वाले तृणों और मणियों से उपशोभित होती रहती है 'एवं सयणिज्जे भणिदव्वे' उसकी शय्या का चिक नाई के विषय में भी वर्णन कर लेना चाहिये-जैसे आजिनक- चिकना चर्म ई बूर मक्खन तूल जैसे स्पर्श वाली कोमल तथा रत्नमय स्वच्छ चिकना घुष्ट सृष्ट निर्मल इत्यादि विशेषण वाला भूमि भाग है । 'पुढवी खिलापट्टगंसि' पृथिवी शिलापट्टक भी है सो इसका भी वर्णन
-
मने भदियोधी, शोभायमान थती रहे छे- 'एव' सयणिज्जे भाणियव्वे' तेना શૈય્યાની ચિકણાઈના સબંધમાં પણ વર્ણન કરી લેવુ જોઇએ જેમકે આ જીનક–ચિકણુ` ચામડું' રૂ, પૂર, માખણ, અને તૂલના સ્પર્શી જેવા કામલ તથા રત્નમય સ્વચ્છ, ચિકણા ઘષ્ટ સૃષ્ટ અને નિલ વિગેરે વિશેષ@ાવાળા भूभिलाग छे. 'पुढवी खिलापट्टग सि' पृथ्वी शिसायट्ट यछे, तो तेनु वान
Page #535
--------------------------------------------------------------------------
________________
इमैयद्योतिका ठीका प्र. ३ उ. ३.३४ एकोरुकद्वीपस्याकारादिनिरूपणम्
५११
पट्टके 'वस्थ णं' तत्र पृथिवीशिल पट्टके खलु 'बहवे एगोख्य दीवया' are ratorद्वीपकाः 'मस्सा अणुस्सीओ य' मनुष्याच मानुष्यथ 'आसयंति - जाव विहरंति' यत्र यावत्पदेन - 'सरांति चिह्नंति निसीयंति तु ति हसंति रमंति छलंति कीलंति मोर्हति पुरा पोराणं चिगाणं खुपरिक्कं नाणं सुभाणं कडाणं कम्माणं कल्लाणं फलवित्तिविसेसे पच्चणुमवमाणा' इति संग्राह्यम् छायाशेरते तिष्ठन्ति निषीदन्ति त्ववयन्ति सन्ति रमन्ते ललन्ति क्रीडन्ति मुह्यन्दि-मोहयन्ति - पुरा पौराणिकानां सुचीर्णानां सुषरिकान्तानां शुभानां कृतानां कर्मणां कल्याणं फलवृत्तिविशेषं प्रत्यनुभवन्तः, इति संग्राम् । एषामर्थः स्पष्ट एव । ' एगोरुप दीवेणं दीवे' एकोरुकद्वीपे खलु द्वीपे 'तत्थ देते तर्हि तहि बहवे तत्र तत्र देशे तत्र तत्र देशावयवे बहवोऽनेके 'उद्दालका कोद्दालका' 'उद्दालकाः वृक्षविशेषाः कोपालका अपि वृक्षविशेषाः 'कतमाचा जयमाला' कृतमालाः नतमाला नामका वृक्षविशेषाः, एवम् 'णमाला सिंगनाला संखमाला देवमाला
मालगा' नर्तमालाः श्रमालाः शंखमाळाः दन्दमाला शैलमाळा: 'णाम औपपातिक सूत्र से कर लेना चाहिये 'तत्थ गं' उस शिलापट्टक पर 'बहवे एगोरुय दीषया मणुस्सा मणुस्तीओ आसति जाव विहरंति' अनेक एकोरुक द्वीपवासी स्त्री पुरुष उठसे बैठते हैं एवं लेटते आराम करते हैं और पूर्वकृत शुभ कर्मों के फलका अनुभव करते हैं 'enter दीये णं' दीवे सत्थ तस्थ देते ताएँ २, पहवे उद्दालका, पोद्दालका कतमाला नरमाला पडमाला सिंगमाला, संखमाला दंतनाला, सेलमालगा णाम दुषगणा पण्णत्ता समणाउसो' हे श्रमणायुष्मन् उस एकोरुक नामके द्वीप में जगह २ पर अनेक उद्दालक नामके वृक्ष, अनेक कोलक नाम वृक्ष, अनेक कृतमाल नाम के वृक्ष, अनेक नसमाल नाम के वृक्ष, अनेक श्रृङ्गमाल नामके वृक्ष अनेक शंखपाल नाम के वृक्ष. पालु औषपाति सूत्रमां प्रभासमल बेवु 'तत्थ णं' ते शिसायट्टम्यर 'बहवे एगोरुय दीवया मणुस्सा मणुस्खीओ आलयति जाव विहरति मे । ३४ દ્વીપમા રહેવાવાળા અનેક મનુષ્યા અને તેની સ્રર્ચા ઉઠતી બેસતી રહે છે. તેમજ સૂતી રહે છે. આરામ કરે છે. અને પહેલાં કરેલા શુભકર્માના અનુભવ
रे छे. 'एगे रूयदीवेण दीवे तत्थ तत्थ देखे तहि तहि बहवे उद्दालका कोद्दालका कतमाला, नतमाला, णट्टमाला, सिंगमाला सखमाला, दांतपाला, सेलमालगो, णाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो' से श्रमायुष्मन् ! श्रम ते ।३४ नामना द्वीपमां સ્થળે સ્થળે આવેલ અનેક ઉદાલક નામના વૃક્ષ, અનેક કાટ્ટાલક નામના વૃક્ષેા, અનેક કૃતમાલ નામના વૃક્ષ, અનેક નત માલ નામના વૃક્ષ, અનેક નમાલ નામના વૃક્ષેા, અનેક શગમાલ નામના વૃક્ષે, અનેક શ'ખમાલ નામના વૃક્ષે
Page #536
--------------------------------------------------------------------------
________________
% 3D
मोवाभिगमने दुमगणा पन्नत्ता समाणाउसो ! एतनामका द्रुमगणाः वृक्षसमूहाः प्रज्ञताः कथितां हे श्रमण ! आयुष्मन् ! इथंभूता एते उमगणाः तत्राह-'कुस' इत्यादि, कुसविकुमविमुद्धरुक्खमूला' कुश विकुशविशुद्ध मूलाः तत्र कुशा:-दर्भार, विकुशा:वल्कलादयस्तुणविशेषास्तै विशुद्ध रहितं वृक्षमूलं तदधोभागो येषां ते तथा 'मूलमंतो कंदमंतो जाव बोयमंतो' ते वृक्षाः मूलवन्तः कन्दवन्तः स्कन्धवन्तः त्वग्वन्त: शाखावन्तः प्रबालवन्तः पत्रवन्तः पुष्एवन्तः फलवन्तो वीजवन्तः, 'पत्तेहि य पुस्फेहि य अच्छण्ण परिछण्णा' पत्रैश्च पुष्पैश्वाच्छन्नमविच्छन्ना:-पत्रपुष्पैः 'आच्छन्न परिच्छन्ना' सर्वतः आच्छादिता पुत्रपुष्पाकीर्णा इत्यर्थः, 'सिरीए अतीव २ उपसोभेमाणा उवसोभेमाणा चिटुंति' श्रिया-शोमया अतीवातीद-अतिशयेन उपशोभमाना उपशोभमानास्तिष्ठन्ति ते वृक्षा इलि, 'एनोरुष बीवेणं दीवे अनेक दन्तमाल नामके वृक्ष, और अनेक शैलमाल नामके वृक्ष है इन वृक्षों का मूल भाग 'कुलधिकुस विसुद्ध हक्खमूला' कुश-और कांश के सद्भाव से सर्वथा रहित है अर्थात् इन वृक्षों के नीचे न घास है और न काश है दर्भ जातिका जो घास है उनका नाम कुश है तथा जो काश जाति का घास होता है उसका नाम विकृश है ये सब वृक्ष 'मूलमतो, कंदम्य तो जाद बीयमंतो' प्रशस्त मूल वाले हैं, प्रशस्तकन्द वाले है, प्रशस्त स्कन्ध वाला है प्रशस्त छाल वाले है प्रशस्त शाखाओं वाले हैं प्रशस्त प्रवालो-कोपलों-वाले ई प्रशस्त पत्तों वाले हैं, प्रश स्त पुष्पों वाले हैं सुन्दर फलों वाले हैं, और सुन्दर बीजों वाले है। 'पत्ते हिय पुप्फेहिय, अच्छपण परिच्छण्णा' ये वृक्ष निरन्तर पत्रों और पुष्पों से लदे रहते हैं 'सिरीए अतीव २, उवलोभेमाणा २, चिति'
અનેક દંતમાલ નામના વૃક્ષો અને અનેક શિલમાલ નામના વૃક્ષે છે. આ વૃક્ષને भूभाग "कुस विकुसविसुद्धरुक्खमूला' पुश-हर्म गने सना समाथी सवथा રહિત છે. અર્થાત્ આ વૃક્ષની નીચે ઘાસ કે ઠાસ હોતા નથી. દર્ભની જાતનું જે ઘાસ હોય તેને કુશ કહે છે અને કાસની જાતનું જે ઘાસ થાય છે તેને विश ४हे छ. मा अधा वृक्ष 'मलमतो, कंदमतो, आव बीयम तो प्रशस्त મૂળવાળા હોય છે. પ્રશસ્ત કંદવાળા હોય છે. પ્રશરત સ્કંધવાળા હોય છે. પ્રશસ્ત છાલ વાળા હોય છે તેમજ પ્રશસ્ત શાખાઓ વાળા હોય છે. પ્રશસ્ત પ્રવાલો. કપાળે વાળા હોય છે પ્રશસ્ત પાનાઓ વાળા હોય છે પ્રશસ્તવાળા હોય છે. સુંદર ફલેવાળા હોય છે. અને સુંદર બીજવાળા हाय छे. 'पत्तेहिय पुप्फेहिय. अच्छण्ण परिच्छण्णा' या वृक्ष निरत२ पत्र। पुण्याथी सहायता २ छ, 'सिरीए अतीव अतीव उपसोभेमाणा उक्सोभेमाणा
HTRA Mai . Hardiलम तो, कदम तो, आधार थाय छ तर
Page #537
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेययोतिका टीका प्र.३ उ.३ ६.३४ एकोलकद्वीपस्थाकारादिनिरूपणम् ५१३ तत्थ बहवे रुक्खा' एको कद्वीपे खलु द्वीपे तत्र बहवो वृक्षाः 'हेरुयालवणा' हेस. सालना:-हेस्तालनामकवृक्षाः, तथा भेरुयालवणा' भेरुतालवना:-भेरुतालनामकक्षाः, मेंरुतालवना:-मेरुतालनामा वृक्षाः, 'सेरुयालवणा' सेरुतालगनाः सेरु. सालनामकक्षाः 'सालवणा' शाक्षाः 'सरळवणा' सरलवृक्षाः, 'सत्तवण्णवणा' सप्तपर्णक्षा: 'पूगफलियणा' पूगफलीवृक्षाः, 'खज्जूरिवणा' खरवृक्षा, 'नारिएरिदणा' नारिकेल वृक्षाः एतेषां वृक्षविशेषाणां वनानि-समुदाया. स्तत्र सन्तीति । कथंभूना एने वृक्षविशेषताह-'कुप्त' इत्यादि, 'कुसविकुस जाव चिट्ठति कुशविकुश विशुद्ध वृक्षमूला मूलवन्तः कन्दवन्तः यावरीजवन्तः पत्रः पुष्पैश्च आच्छन्न प्रतिच्छन्न श्रिया अतीबालीव उपशीभमानास्तिष्ठन्ति इति । अतएव इनकी सुन्दरता अत्यन्त मन को लुभानेवानी घनी रहती है 'एगोरुपदीचे णं दीधे तत्थ बह रुक्खा हेस्यालवणा, भेरुचालवणा, मेरुयालवणा, सेरुषालवणा, सालवणा, सरलवणा, सन्तरणक्षणा' उम एकोहक नाम के द्वीप में जगह २, अनेक वृक्ष तो हैं ही साथ में हेरुनाल के वन भी हैं, भेरुताल के बन है मेरुनाल के वन हैं, सेनाल के वन सालवृक्ष के वन हैं सरलवृक्ष के वन हैं सप्तपर्णवृक्ष के वन हैं 'पूयफलिवणा' पूगफल के-सुपारी के बन है 'खज्जूनिवणा' खजूर के वन हैं और 'नारिएरिवणा' नारिकेल के थन हैं ये सब वन 'कुल विकुसरुक्ख, मृला' वृक्षों के नीचे के भाग में कुश और क्षाश ले सर्वथा रहित हैं । इन वनों के जो वृक्ष हैं वे भी सब प्रकारत मृल वाले हैं, प्रशस्तकन्द वाले हैं, याशत् प्रशस्त बीज चालें है। तथा-पत्रों और पुष्पों से ये सब सर्वदा व्याप्त है। अत एव थे अपनी सुखद सुषत्र शोभा से विशेष चिट्टति' तथा तनु सौय मत्यत भनन सोसावन डाय छे. 'एगोरुयदविण दीवे तत्थ बहवे रुक्खा हेरुयालवणो, भेरुयालवणा, मेरुयालवणा, सेरुयालवणा, सालवणा, सरलवणा, सत्तवण्णवणा' मा ३४ नाभना द्वीपमा स्थणे स्थणे. અનેક વૃત છે જ તેની સાથે હેરૂતાલના વન પણ છે. ભેરૂતલના વન પણ છે. મેતાલના વને પણ છે. સેરતાલના વને પણ છે. સાલ વૃક્ષના વન છે. सस वृक्षान। वन छ. सीप नामना वृक्षाना वा छे. 'पूयफलिवणा' ५ ३० ता सारीना सोना पन छ, 'खज्जरिवणा' भरीवृक्षाना वना छे. 'नारिएरिवणा' नाशयेसना पन छ. मा या वने। 'कुस विकुसरुक्ख मूला' વૃક્ષની નીચેના ભાગમાં કશ અને કાશ વિનાના હોય છે. આ વનમાં જે શક્ષા છે, તે બધાજ પ્રશસ્ત મૂળવાળા છે, પ્રશરત સ્કંદવાળા છે. યાવત્ પ્રશeત બીજ વાળા છે. તથા આ બધા વૃક્ષ પત્ર અને પુખેથી હંમેશાં યુક્ત રહે છે. તેથી જ તે પિતાની સુખકર સુષમાથી વિશેષ પ્રમાણમાં સુહાવના
जी. ६५
-...-
-
-
.
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
--
Page #538
--------------------------------------------------------------------------
________________
५१४
जीवामिगमसूत्रे
'गोरुपदी वेर्ण तत्थ २ बहवे' एकोरुरुद्वीपे खलु तत्र २ बहवः 'तिळयालवया गोधा जाव रायरुक्खा मंदिरुक्ख।' तिलकालवकान्यग्रोधा - यावद् राजवृक्षाः तिलकादयो नन्दिक्षान्ता वृक्षविशेषाः सन्ति, कथं-भूतास्ते वृक्षास्तिलकादयस्तबाह - 'कुस' इत्यादि, 'कुसविकुस - वि० जाव चिट्ठति' कुशविकुश विशुद्ध वृक्षमूला मूलतः कन्दन्तो यावद् वीजवन्तः पचैः पुष्पैराच्छन्न पतिच्छन्नाः श्रिया - तीवातीव शोभमानास्तिष्ठन्तीति । 'एगोरुपदीवेणं तत्थ २ बहूओ पउमलयाजो जाव सामलयाओ' एकोरुकद्वीपे खलु तत्र २ वदन्योऽनेकप्रकाराः पद्मळता यावत् नागलखा अशोकलताः चम्पकलताः चूतळताः वनलताः वासन्तिकालता अतिक्कताः कुन्दलताः श्यामलताः सन्ति ताथ पद्मलताद्याः 'निच्चं कुसुमियाओ' नित्यं कुसुमिताः मयूरिताः स्तवकिताः पल्लविता: गुल्मिताः पुरुष मालावनद्वाः 'एवं लया वण्णओ जहा उनवाईए जाव - पडिहवाओ' एवम् उक्तप्रकारेण लतावर्णनं कर्तव्यम् यथोपपातिक सूत्रे कृतम् वा लताः प्रासादीयाः दर्शनीयाः अधिक रूप में सुनने बने रहते हैं । 'एगोरुय दीवे णं तत्थ बहूओ
मलयाओ, जाव सामलया पिच्चं कुसुमिद्याओं' उस एगोरुक ries द्वीप में अनेक प्रकार की अनेक लताएं भी हैं जैसे- पद्मलताएं यावत् यहां यावत् शब्द से नाग लताओं का, अशोकलताएं तथा चम्पकलता आमलना बनलता वासन्तीलता अतिमुक्तकलता कुन्दलता श्यामलाइनलताओं का ग्रहण हुआ है । ये बताएं नित्य कुसुमित स्तयकित, पल्लविम, गुल्मित और पुष्पमालाओं से व्याप्त रहा करती हैं । 'एवं लतानओ जहा उबयाईए जाव पडिरुवाओ' इस प्रकार से यहाँ लगाओं का वर्णन करलेना चाहिये जैसा कि औपपातिक सूत्र में इन लताओं का बर्णन किया गया है। ये लताएं प्रासादीय हैं, दर्शनीय हैं अभिरूप
मन्या रहे छे. 'एगोरुयदीवेणं तत्थ बहूओ परमलयाओं, जाव सामलयाजो णिच्छ कुसुमियाओ' ते थे। ३४ नामना द्वीपमां ने प्रारती मने वताओ વેલા પશુ હાય છે. જેમકે પદ્મલતાએ, ચાવત્ અહિયાં યાવત્ શબ્દથી નાગ बताओ।, अशोऽबताओ, अभ्यासताओ, साभसताओ, वनसतायो, वासन्ती લતાએ, અતિમુક્તકલતાએ, કુદલતા, અને શ્યામલતાએ આ બધી લતાએ अथ राई छे. आ अधी सताओ। नित्य सुमित, स्तभक्ति, पारित, शुस्मित, अने पुष्पोथी सहा व्याप्त रहे छे. 'एवं लता वण्णओ जहा उनवाइए जाव पड़िरूवाओ' आ रीते मडियां सताओ वार्जुन समल सेवु खोपयाति સૂત્રમાં જે પ્રમાણે આ લતાએનુ વર્ણન કરવામાં આવેલ છે તે પ્રમાણે સમજી લેવુ. આા પી લતાએ પ્રાસાદીય છે, દનીય છે, અભિરૂપ અને
•
Page #539
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ २.२.३४ एकोरुकद्वीपस्याकारादिनिरूपणम् ५१५ अभिरूपाः मतिरूपा इति। 'एमोल्य दीवेणं दीवे तत्थर" एकोषकद्वीपे खल्ल द्वीपे तत्र 'बहवे सेरिया गुम्मा जाय महाजाइशुरुमा' बहवः सेरिकागुल्मा लयमालिकागुल्मा बन्धजीवकगुल्माः यदीयपुष्पाणि सध्यान्हे विकसन्ति, अनोदगुल्माः बीजकगुल्मा बाणगुल्माः कुञ्जगुल्माः सिन्धुचारगुल्माः जातीगुल्मा मुद्गरगुल्माः यूथिकागुल्माः मल्लिकागुल्माः वासन्तिकालमा वस्तुलगुल्मा: सेवालगुल्माः आगस्त्यगुल्माः चम्मकगुल्माः नवनीतिकागुल्माः कुन्दगुल्मा महाजातिगुलाः गुलमानाम इस्त्र स्कन्ध बहुकाण्ड पत्रपुष्प फलोपेताः, एतेषां मध्ये प्रसिद्धाः केचित् देशविशेषतोवगन्तव्या। ते गुल्मा महामेघनिकुरम्यभूताः 'तेणं गुम्मा' ते खलु गुलमा 'दसद्धवणं कुसुमं कुखुमंति' दशार्द्धवर्णम्-पञ्चरण कुसुमं-पुष्पं कुसुनयन्ति-समु. एवं प्रतिरूप हैं। 'एमोस्य दीवे गं दीके लत्थ २, बहवे सेरिया गुम्मा, जाव महाजाति गुस्मा उस एकोहक नाम के हीप में जगह जगह अनेक सेरिका गुल्म (शुच्छे) नमालिशा गुल्म जिनके पुष्प मध्याह्न में खिलते हैं ऐसे बन्धू जीवक गुल्म्द अनोनशुल्म, बीजक गुल्म, बाणगुल्म, कुञ्ज गुल्म सिन्दुवार गुल्म, जाती गुल्म्म, मुद्गर गुल्म, युथिका गुल्म, वासन्तिक्षा गुल्म, वस्तुल गुल्म, शेवाल गुल्म, अगस्त्य गुल्म, चम्पकगुल्न, नवनीतिका गुल्म, कुन्द शुल्म एवं महाजाति गुल्म, है जिनका स्क्षन्ध तो छोटा होता है परन्तु जो पहन काण्डों से-शाखाओं से-युक्त रहते हैं पत्र पुष्प और फलों ले सदा लदे रहते हैं ऐसे वृक्षों का नाम गुल्म है। इनमें कितनेकतो प्रलिछ हैं, और कितनेक वहां २, के देश विशेष ले जान लेना चाहिये। ये गुल्म अत्यन्त सघन होते हैं अता ये ऐले मालूम पड़ते हैं कि जैसे-महामेयों का समूह होते प्रति३५ . 'एगोरुयदीवेणं दीवे तत्थ तत्थ वहवे सेरिया गुम्मा, जाव महा जातिगुम्मा' मा ३, नासाना द्वीपमा स्थणे स्थणे मने से भी નવમાલિક ગુમે, કે જેના પુષ્પ મધ્યાહૂ–બપોરે ખીલે છે, એવા બંધુ જીવકના પુપ, અનેવગુમ, બીજકગુલ્મ, બાણગુમ, કુંજગુભ, સિંદુવાર ગુલ્મ, જાતીગુલ્મ, મુદુગરગુમ, યૂથિકાગુલમ, મલ્લિકાશુભ, વાસંતીકા ગુમ વસ્તુલગુલ્મ, શેવાલગુમ, અગત્યગુલ્મ, ચંપકગુમ, નવનીતિકા ગુ૬મ, કંદગુલમ અને મહા જાતિગુમ છે. જેનું સ્કંધ થડ નાનું હોય પરંતુ જેની શાખાઓ ડાળે ઘણી ફેલાએલી હોય પત્ર, પુષ્પ અને ફળાથી જે સદા લદાયેલ રહે એવા ને ગુલ્મ કહે છે. આમાં કેટલાક તે પ્રસિદ્ધ છે, અને કેટલાક ત્યાંને પિતપિતાના દેશ વિશેષ જાણી લેવા આ ગુમે ઘણજ ગાઢ હોય છે. તેથી તે એવા भाय रेभ महामेछन। समूह डाय, 'तेणगुम्मा दसवण्णकुसुम कुसुमति'
Page #540
--------------------------------------------------------------------------
________________
५१६
जीवामिगमसूत्रे
स्पादयन्ति 'विधूपग्गसाहा' विधूताग्रशाखा: 'जेण वायविधूयमसाला' येन वातविधूता शाखाः येन वातविधूताग्रशाखाः तेन वातविधूतनेन 'एगोख्य दीवस्स बहुसमरमणिज्जं भूमिभागं' एकोरुक द्वीपस्य बहुसमरमणीयं भूमिभागं 'मुकपूफ पुंजीवयार कलियं करें ति' मुक्तपुष्प पुजोपचारकलितं कुर्वन्ति वातविधूताः - वायुकम्पिताः या अग्रशावास्ताभिर्मुक्तो यः पुष्पपुञ्ज :- कुसुम समुदायः स एवोपचारः - प्रकारः तेन कलितं युक्तं कुन्ति इति । 'गोरुयदीवेणं तत्थ तत्थ बहूओ वणराईओ' पण्णत्ताओ' एकोरुकद्वीपे खल द्वीपे तत्र तत्र देशे वदन्योSनेक प्रकारका वनराजयः प्रज्ञप्ताः - कथिताः । 'ताओ णं वणराईओ किण्हाओ किन्होभासाओ जान रम्मानो' वाः खलु जनराजयः कृष्णाः कृष्णावभासाः यावत् - नीला नीलावभासाः रम्याः 'महामेहणिकुरवभृयाओ' महामेघनिकुरम्बभूता:: गुम्मा दसद्ध वण्ण कुसुमं कुसुमति' ये गुल्म पांचों वर्णों वाले कुसुमों को उत्पन्न करते हैं । 'विधूषरग लाहा - जेण वाय विधूयग्गसाला' इनकी शाखाएं अग्रभाग में पचन के झोकों से सदा हिलती रहती हैं । अतः ये 'एगोरुव दीवस बहु समरमणिजं भूमिभागं मुक्कपुष्कपुंजोदयारकलियं करेंति' एकोरुक द्वीप के बहु समरमणीय भूमि भाग को मानों पुष्प पुंजों से ही ढक रहे हैं- ऐसा प्रतीत होता है तात्पर्य ऐसा है कि गुल्मों की अग्रशाखाएं जब वायु के झकोरों से प्रकम्पित होती हैं तो उनसे अनेक पुष्प जमीन पर नीचे गिरते हैं- अतः ऐसा प्रतीत होता है कि मानो ये उस एकोरुक द्वीप के बहु समरमणीय भूमि भाग पर पुष्पों की वर्षा कर रहे हैं। 'एगोरुपदीवेर्ण तत्थ २, बहु वणराईओ पण्ण'साओ' एकोहरु द्वीप में अनेक स्थानों पर अनेक प्रकार की वनराजियां भी हैं 'ताओ णं वणराईओ किपहाओ किण्हो मालाओ जाव रम्माओ
मा गुमी यांचे वर्णुवाजा पुण्याने उत्पन्न अरे छे. 'विधूत्रगगसाहा जेण वाय विधूवगसाला' तेनी शाखाओ डाजीयों पवनना ओम्थी सहा हासती रहे छे. तेथी ते 'एगोरुय दीवस्त्र बहुसमरमणिज्जं भूमिभागं मुकपुल्फपुर जात्रयार कलियां करेति' ३४ द्वीराना महु समरभाषीय भूमिभागने मानो चुण्याना પુોથીજ ઢાંકી દે છે. એમ જણાય છે. આ કથનનુ' તાત્પ એ છે કે શુક્ષ્માની અગ્ર શાખાએ જ્યારે પવનના ઝપાટાથી ક'પાયમાન થાય છે. ત્યારે તેમાંથી અનેકપુષ્પા જમીન પર નીચે પડે છે. તેનાથી એવું જણાય છે કે જાણે આ એકેરૂક દ્વીપના બહું સમરમણીય ભૂમિભાગ પર પુષ્પાને વરસાદ परसावी रह्या छे. 'एगोरुय दीवेण तत्थ तत्थ बहूओ वणराइओ पण्णत्ताओ' એકારૂક દ્વીપમાં અનેક સ્થાનેાપર અનેક પ્રકારની સુદર વનસ્પતિયે પણ છે. (તાઓ पण वराईओ किव्हाओ किन्हो भासाओ जाव रम्माओ महामेघनिकुर बभूयाओ'
Page #541
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ १.३४ एकोरुकद्वीपस्याकारादिनिरूपणम् ५१७ नवजलधर वदतिशयित पामगर्णाः 'जाब महतीं गंध दणि यंती मोपासादीयायो' यावन्महती गन्धघ्राणी नुश्चन्त त्यजन्तः पालाहीयाः-दर्शनीयाः अभिरूपाः, इति।४।
_ 'एगोरुष दीके तत्थ २ बहवे सत्तंगा णाम दुमजणा पण्णासा-समकाउसो' एकोरुकद्वीपे तत्र तत्र देशे बहशेऽनेश सचानानाम हुमगणाः पता:-कथिताः श्रमणा-युष्मन् ! तत्र मत्तो-मदः प्रमोदरतरूपाङ्गं कारणं येषु से मत्तागा 'जहा से चंदप्पममणिसिलागवरलीधुपयरवारुगी सुनाय पत्त-पुष्क-फल-चोयणिमहामेघनिकुरंषभूयाओं ये बन राजियाँ अत्यन्त सघन शोने से कहीं २ काली २, मेघ जैसी दिखती हैं इनमें से जो प्रकाश पुंज निकलता है बह भी काला ही प्रतीत होता हैं यावत् थे वनराजियां कहीं २, नीली भी है और नीलावभाल-नीली कान्ति बाली प्रतीत होती है फिर भी ये घडी अच्छी देखने में लगती है इन्हें देखने पर देखने वाले तो यही समझते है कि मानों ये बडे २, मेघों की घटाएं ही यहां एकत्रित हुई है। 'जाव महती गंधद्धाणिं मुयंतीभो पालादीयाओ' इन बाजियों के भीतर से जो गन्ध की राशि निकलती है वह ब्राणेन्द्रिय को बिलकुल सराबोर कर देती है उसे भर देती है और तृप्त कर देती है ये सब ही राजियां पंक्तियां प्रासादीया है दर्शनीय है अभिरूप और प्रतिरूप है.
'एगोरुय दीवे तत्थ २, बहावे मत्तंगा णाम दुमगणा पण्णत्ता लम. णाउसो!' एशोरु जीप में धन तत्र जहाँ तहाँ स्थानों में अनेक मत्तागा नाम के दुषमण हैं, हे श्रमण आयुष्मन् ! वे मस-मद अर्थात् प्रमोद के कारण भूत होने से उनका नाम प्रसाङ्ग ऐसा पड़ा है । वे किस प्रकार આ વનરાજી અત્યંત ગાઢ હોવાથી કયાંક કયાંક કાળી કાળી મેઘની ઘટા જેવી દેખાય છે. તેમાંથી જે પ્રકાશ પુંજ નીકળે છે, તે પણ કાળજ જણાય છે. યાવત્ અ વનરાજીબો ક્યાંક કયાંક નીલ વર્ણની પણ હોય છે. તેથી નીલાવભાસવાળી જણાય છે. તે પણ એ દેખવામાં ઘણી જ સુંદર લાગે છે. તેને જેનારા તે તેને જોતાં એવું જ સમજે છે કે જાણે આ મેટામેટા મેઘ-વાદળાઓની घटासा सहियां की थयेटा छ 'ज व महती गधद्धाणि मुयतीओ पासादीयाओ આ વનરાજીની અંદરથી જે ગંધરાશી નીકળે છે. તે ધ્રાણેન્દ્રિયને બિસ્કુલ સરાબેર-તર કરી દે છે. અર્થાત તેને ભરી દે છે. અને તૃપ્ત કરી દે છે. આ બધીજ રજીએ પ્રાસદીય છે. દર્શનીય છે. અભિરૂપ અને પ્રતિરૂપ છે. ___'एगोरुयदीवेण तत्थ तत्थ बहवे मत्तंगा णाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो' એકેક કપમાં જ્યાં ત્યાં અનેક સ્થળે મત્તાંગોના કુમગણે છે. હે શ્રમણ આયુમન્ તે મત્ત-મદ અથત પ્રમોદના કારણુ રૂપ હોવાથી તેનું નામ મત્તાંગ
Page #542
--------------------------------------------------------------------------
________________
५.८
जीवामिगमक्षत्रे ज्जाससार-बहुबत्तिसंसारकाळसंधियासवा' यथा ते चन्द्रप्रममणिशलाका सीधुपबरवारुणीशुजातपत्रपुष्प-फल चोयनिर्याससार-बहुद्रव्ययुक्ति संभारकाल सन्धितालबार, यथा चन्द्रमभादयो रसविशेषा बहुपकाराः तत्र-चन्द्रः-कपूरः चन्द्रमा वा तस्येव प्रभा-आकारो यस्याः सा चन्द्रमभा, मणिशलाकेव-मणिमरकतादि स्तस्याः शलाका मणिशलाका: तवर्ण सदृशा रसविशेषाः सीधुपक्वेशु(सं-सीधु पारा च सा वारुणी-पण्डदू-दूर्माजातीयो वनस्पतिविशेषः पता, पुनश्श-सुजाताना सुपरिपाकावस्यां प्राप्तानार पत्राणां पुष्पाणां फलानां चोयानां गन्धद्रव्याणां च निर्यालस्य सारे बहूनां द्रव्याणां युक्तैः-संयोजनस्य के होते हैं इम्य पर उसके गुण और रस की सदृशता दृष्टान्त द्वारा कहते हैं 'जहा ले' इत्यादि, 'जहा से चंदप्पभमणि लिलागनरसीधुप. वरामणीजायपत्तपुष्फफलचोयनिवास सारघहुदाजुत्ति संसारकाल संधिधासका चन्द्र लाल कपूर का तथा चन्द्रमा का है उनका रस चन्द्रप्रभा अर्थात् पपूर अथवा चन्द्र के जैला वर्ण वाला होता है, तथा मणिशलाका-अर्थात् मणि मरफत आदि मणि की शलाका-सली गाढा होने से लली दार और मणि के वर्ण वाला रस होता है तथा घर सीधु घर श्रेष्ठ लोधु-सीधु का अर्थ है पकाये गये ईक्षु का रस वह जैसा होता है. तथा अक्षर वारूणी अर्थात् श्रेष्ठ-उत्तम वारूणी, वारुणी नाम गण्ड दूर्वा का है एक इक्षुशी जाति है उसका जैसा रस छोता है । तथा सुजात-अर्थात् परिपाक अवस्था को प्राप्त-पके हुए, या निर्यास्त भार पदका पत्र पुष्प आदि सबके साथ संध होता है એવું પડેલ છે તે કેવા પ્રકારના હોય છે ? તે પ્રશ્નના ઉત્તર રૂપે તેના ગુણ मन तनी समानता दृष्टांत द्वारा ४ छे. 'जहा से' त्यादि
'जहा से चप्पभमणिसिलागवरसीघुपवर वारुणीसुजाय पत्तपुप्फरलचोय निज्जाससारबहु दव्वजुत्तिस मारकाल धियासवा' यद्रनाम ४५२ भने द्रभानु છે. તેનો રસ ચંદ્રપ્રભા અથવા કપૂર અથવા ચંદ્રના જેવો વર્ણવાળો હોય છે તથા મશિલાકા અર્થાત્ મણિ મરકત વિગેરે મણિ વિગેરેની શલાક - સળી, જાડી હવાથી સળી જે, મણના વર્ણ જે, રસ હોય છે તથા વરસિંધુવર શ્રેષ્ઠ સી ધુ અર્થાત્ પકાવેલ સેલડીનો રસ તેના જે હેય છે તથા પ્રવર વારૂણી અર્થાત્ શ્રેષ્ઠ ઉત્તમ વારૂણી વારૂણી ગંદુને કહે છે તે સેલડીની એક જાત છે. તેના જે રસ હોય છે. તથા સુજાત અર્થાત પરિપાક અવસ્થાને પ્રાપ્ત થયેલ એટલે કે પાકા થયેલ. અહિયાં નિયંસ સાર એ પદ પત્ર, પુષ્ય વિગેરે તમામની સાથે લગાવવામાં આવે છે. તેથી પાકેલા
Page #543
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ ३.३ २.३४ एकोरुकद्वीपस्याकारादिनिरपणम् ५१९ संमारै माचु काल सन्धिता स्वस्वेचिने-काले संयोनिता ये आसवा: अपक्वेक्षुरसा ते तथाविधाः, 'महुमेरगरिटाभदुद्ध जाती पसलमेल्लम सत्ताउखजूर मुदियासारका दिसायण सुपक्वखोय रसवरसराणरसगंध फारसजुत्तबलबीरिय परिणामा' मधुमेरेय शरिष्टाम दुग्धजाति प्रसन मेल्लष्कशतायुः खजूर मृद्रीकासार कापिशायन सुपक्वक्षोदरसबरमुरा तथा-अधु-पुष्परस:, मेरेयं पातकीपुष्पगुड - धानाऽम्बुमिः संयोजितो रस एव रिष्टं-फेनिलं तर्णामाः तत्सशी, दुग्धनाती: सदृशी, प्रसन्नीरसविशेष:, मेल्लकोऽपि रसदमिन्न, शतायुः-मास्वादतो दुग्ध जिससे पके हुए पत्तों का पुष्पों का फलों का और-मन्ध द्रव्यों का जो निर्यात हार अर्थात् सारभूत रस ऐले जो ये रस होते हैं इस पज्ञार के ऊंचे ऊंचे रस द्रव्यो के संमिश्रणली प्रचुरता झाले तथा अपने अपने उचित काल में संयोजित करके बनाये हुए जो आलव-संमिश्रित रस जैसा मधुर और सुगन्धित होता है वैले ले मन्तांग द्वमगण हैं। फिर कैसे हैं-'मधुमेरगरिहाभदुद्ध जाई पलन्न मेल्लगक्षताउखज्जूर मुदियासारकाविलायणखोयर सदरमुरा जले-मधु-पुष्प रस, मैरेयगुडधानी (भुने हुए धान) और पानी ले संमिलित कर धात की पुष्पों को पक्षाने पर जो रस होता है वह मेरेय कहलाता है, रिष्टाभा रिष्ट फेन वाले पदार्थ उनका जो श्वत्तवर्ण होता है उस के जैसी आमावाला रस विशेष दुग्ध जाति अर्थात् दूध के स्वाद जैसे स्वाद वाले रस दुग्ध जाति रस कहलाता है वह रस विशेष, तथा प्रसा-जो रस स्वच्छ स्फटिक जैसा होता है जो मन को प्रसन्न करने वाला होने से પાનડાઓનેપાકેલા પુષ્પને પાકેલા ફળને અને ગંધ દ્રવ્યને જે નિર્યા સસાર અર્થાત્ સારભૂત જે રસ હોય છે આવા પ્રકારના ઉંચા ઉંચા રસ દ્રના સંમિશ્રણની પ્રચુરતાવાળા તથા પિત પિતાના ઉચિત કાળમાં સંચે
જીત કરીને બનાવેલા જે આસવ સંમિશ્રિત મધુર રસ વિશેષ રસ જેવો મીઠે અને સુંગધવાળ હોય છે, એવા તે મત્તાંગદ્ગમ ગણે છે. વળી તે કેવા छे १ तेनु वएन त ड छ 'महुमेरगरिद्वाभदुद्धजाई पसन्न मेल्लग मताउ खज्जर मुहिया सारकाविसायणखोयरसवरसुगम मधु १०५२स. મેરેય ગોળ ધાણા અને પાણીમાં મેળવેલા ધાતી પુષ્પને પકવવાથી જે રસ થાય છે, તે મેરેય કહેવાય છે. રિષ્ટાભ-નિષ્ટ એટલે કે ફીણવાળે પદાર્થ તેને જે શ્વેત વર્ણ હોય છે તેના જેવી આભા-કાંતીવાળે રસ રિશેષ દુગ્ધ જાતી દૂધના સ્વાદ જેવા સ્વાદવાળો રસ દુગ્ધજાતીને રસ કહેવાય છે તે રસ વિશેષ, તથા પ્રસન્ન એટલે કે જે રસ સવચ્છ સ્ફટિકના જેવું હોય છે. અને
Page #544
--------------------------------------------------------------------------
________________
५२०
जीवामिगमसूत्र तत्र शत-शतवर्षाणि आयु जर्जीवित कालो यस्पानान्सुरक्षितं भवेत् तत्-शतायु. रिति कथ्यते, शतवर्षायुः प्रदोरसविशेष इत्यर्थः, 'खज्जूर-मुदियासार' खजूरमृद्वीकयोसारस-वर्जूर-द्राक्षाभ्यां निष्प नो रसविशेषः पिशायनं 'कापिश्यां फक्' इति पाणिनि सूत्रेण निपात्यते तच्च विशिष्टं मधु एकसाना-सुपरिपाकगतानाम्
ओषधीनां या क्षोदश्चूगस्तचद्सनिष्पनावरसुराः 'सुरा प्रत्यक् च वारुणी' इत्यमरः' रसनिसारणकाले प्रथमतो निःसारितरसाः येषु ते तथाविधा मदोत्पादका हर्षहेतवः द्रुमगणाम्तन्न सन्ति । एते रसविशेषः कथंभूता इत्याह-वनगंधरसफासजुत्तबलवीरिय परिणामा' इति, प्रशस्तेन वर्णन, प्रशस्तेन रसेन-स्वादिष्टेन, प्रशस्तेन गन्धेन-सुरमिगन्धेन, प्रशस्तेन रूपर्शेन चाऽपि युक्ताः, पुनश्च ते बलहेतको वीर्य उसका नाम प्रसन्न रखा गया है ऐसा रस विशेष, मेल्लक-जो दूसरे रस के मिलने पर बल्ल कारण होता है ऐसे रस विशेष का नाम मेल्लक है शतायुःएक ऐसा रह होता है जिसके सेवन करने से आयु सौ वर्ष तक सुरक्षित रह सकता है अर्थात आयु बढाने वाले रस विशेष का नाम शतायु है, तथा खजूर मृद्रीका (द्राक्षा) सार-अर्थात् खिजूर
और द्राक्षा से निष्पन्न सार भूल रस, तथा कापिशायन कपिश-धूम्र वर्ण का गुड निष्पन्न रस विशेष, तथा क्षोदरल-क्षोद-चूर्ण परिपक्व मधु काष्ठादि औषधियों के चूर्ण का रस होता है जो प्रथम चार में निकलता है अर्थात् प्रथम नम्बर के रस को घर सुरा करते हैं. जैसे पूर्वोक्त सह प्रकार दो रस होते हैं, वे रल किस प्रकार होते है 'वन्नगंध रस फासजुत्ता' वे पूर्वोक्त रस प्रशस्त वर्ण शुक्लादि से, प्रशस्त गंध सुरभि गन्ध से, प्रशस्त रल इक्षु गुड शर्करा पत्रपण्डिका मिसरी के જે મનને પ્રસન્ન કરવાવાળે હેવાથી તેનું નામ પ્રસન્ન એ રીતે રાખવામાં અવેલ છે એ રસ વિશેષ મલક જે બીજા રસના મેળવવાથી બળ કરનાર બલ વધારનાર હોય છે, એવા રસ વિશેષનું નામ મેલક છે. શતાયુ, એ એક એ રસ હોય છે કે જેના સેવન કરવાથી એ વર્ષનું આયુષ્ય ભોગવી શકાય છે. અર્થાત આયુષ્યને વધારનારા રસનું નામ “શતાયુ છે. તથા ખજસૂર મુદ્રિકાસાર અર્થાત્ ખજૂર અને દ્રાક્ષમાંથી બનાવેલ સારભૂતરસ, તથા કાપિશાયન, કાપિશ ધૂંવાડાના જેવા ગેળમાંથી બનાવેલ રસવિશેષ તથા દરસ ક્ષેાદ ચૂર્ણ પરિ પકવ મધુર કાષ્ઠ વિગેરે ઔષધિના ચૂર્ણને રસ મધ કે જે પહેલી જ વારમાં નીકળે છે. અર્થાત્ પહેલા નંબરના રસને વર સુરા કહે છે. જેમ પૂર્વોક્ત બધા પ્રકારના રસ હોય છે. તે રસે કેવા પ્રકારના હોય છે તે હવે બતાવવામાં भाव छ 'वण्ण गधरस फासजुत्ता' त पूर्वरित २स प्रशस्त वाणु मेरो ।
Page #545
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेययोतिका टीका प्र.३ ७.३ ४.३४ एकोरुकद्वीपस्याकारादिनिरूपणम्
५२१
· परिणामे परिपाके बलवीर्य हेतवो भवति, 'मज्ञ्जविधि बहुप्पगारा' मस्य विधिना विधानरीत्या यदि गण्यन्ते तदेते रसा आसवारिष्टाऽवले क्वाथ वटिकादिभिदेव प्रकाराः 'तदेवं ते मत्तंगा वि दुमगणा' तदेवम् - बहुरसभेदवन्तस्तेऽपि मानाद्रुमगणा ज्ञेयाः किं ते वनपालादिना समारोप्यन्ते ? तत्राह - 'अणेग बहुविविहवीससा परिणयाए मजविद्दीए उत्रवेया' अनेक बहुविविधविस्रपा परिणतेन भनेको व्यक्तिभेदात् बहु प्रभूतम्, यथास्यात्तथा विविधो-जाति भेदान्नानाप्रकारो विधिः- स च - केनापि लोकपालादिना निष्पादितोऽपि न भवेचत आह-विस्रसा जैसे प्रशस्त रस से, प्रशस्त स्पर्श से मृदु स्निग्ध उष्ण स्पर्श से युक्त होते हैं।
अब उन रसों के गुण का वर्णन करते हैं- 'बलचीरिय परिणामा ' पूर्वो सब रस फिर बल, शारीरिक बल, वीर्य आन्तरिक बल इन दोनों में परिणत होने वाले होते है अर्थात् वे रस बल और वीर्य को बढाने वाले होते हैं । 'मज्जविधि बहुष्पगारा' मद्य अर्थात् प्रमोद जनक रस विशे के विधान से बहुत प्रकार के बताए गये हैं- जैसे-आलव, अरिष्ट अथ
क्वाथ टिकादि भेद होते हैं। पूर्वोक्त दृष्टान्नों को मत्तांग म गणों पर घटाते हैं- 'एवं मत्तंगावि दुमगणा' इन्ही पूर्वोक्त प्रकार के
-
जैसे रस वाले वे मत्तांग नाम के दुमगण एकोरुक दीप में होते हैं। क्या द्रुमगण किसी लोकपाल तथा वनपाल आदि द्वारा लगाये जाते हैं ? इस शंका का निराकरण करने के लिये सूत्रकार कहते हैं- 'अणेगबहुविविहवीससा परिणयाए बज्ज विहीए उववेया' अनेक व्यक्ति भेद ले
शुभ्साहि वाधु थी, प्रशस्त गंध, मेटले } सुरभि गंधधा, सेलडी, गोज, सा१२, અને મત્સ્યંડિકાના જેવા પ્રશસ્ત રસથી પ્રશસ્ત સ્પર્શથી, મૃદુ, સ્નિગ્ધ ઉષ્ણુ સ્પર્શથી યુક્ત હાય છે.
डवे मे रसोना गुणानु वर्षान अवामां आवे छे. 'बलवीरिय परिणामा ' કિત બધા રસા પછા ખળશારીરિક ખળ-વીય આંતરિક બળ આ બન્નેમાં પરિણત થવાવાળા હૈાય છે. અર્થાત્ આ રસ મળ અને વીર્યને વધારનારા हाय छे 'मज्जविहि बहुत्पगारा' भद्य अर्थात् प्रमोद १।२४ २स विशेषना વિધાનથી धारना तावत्रामां भाव्या छे. नेम आसव, अरिष्ट, यवसेर, કવાથ વટિકા વિગેર તેન ભેટા હોય છે. હવે પૂર્વોક્ત દૃષ્ટાંતેને મત્તાગ દ્રુમગ@ા પર घटावे छे. 'एव' मत्तावि दुमगणा' या पूर्वेत अरना रस नेवा रस વાળા તે મત્તાંગ નામના દ્રુમગણુ એકરૂક દ્વીપમાં હોય છે શુ? તે પ્રેમગણુ કોઇ લાકપાલ તથા વનપાલ વિગેરે દ્વારા લગાવવામાં આવે છે? આ શંકાનુ નિવારણ કરવા सूत्रार उडे के है 'अगबहुविविहवीससापरिणयाए मज्ज
जी० ६६
Page #546
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगम स्वभावत एव परिणाम प्राप्तेन मद्यविधिना वोक्त रसविधिना उपपेताः युक्ताः पुनश्च 'फलेहि पुण्णा' फलैः पूर्णा संभृताः सन्तः 'दिसटुंति' दलिधातुः चूर्णी. करणे विकासे च तत्र दर्तमानादळेः 'दलिपल्पोर्विसहवंफौ' 'माकृत व्याकरणे८-४-१७६' इति सूत्रेण दलेर्धातोः विसदादेशः अतो विसति' इत्यस्य दलन्ति-विकासन्ती-त्यों बोध्य एवमग्रेऽपि । 'कुसविकुस विसुद्धरुक्खमला जाव चिटुंति' कुशविकुश विशुधवृक्षमूलाः यावच्छन्देन-मूळकन्दादिमन्तः प्रसाद नीया अभिरूपा प्रतिरूपास्तिष्ठन्तीति । ___अथ द्वितीयकल्पवृक्षजातिस्वरूपमाख्यानुमाह-'एगोरुयदी इत्यादि, 'एगोरूव दीवे तत्थर, एकोलकद्वीपे खलु तत्र तत्र देशे 'वहवे मिगंगया णाम दुमगणा पणत्ता समणाउसो' बहवो भूगडा नाम द्रुमगणा:-कल्पवृक्षाः प्रज्ञप्ताकथिताः हे श्रमण आयुष्मन् । तत्र भृतं भरणं पूरणमित्यर्थः तत्र भरणे बहुत और विविध-नाना प्रभारक जाति भेद को लेकर अपने स्वभाव से ही ये वहां अनादि काल से रहते हैं ये लोकपाल आदि के लगाये हुए नहीं होते हैं। वे स्वाभाविक रूप से परिणत ऐली मद्य विधि से युक्त होते हैं। वे 'फलेहि पुण्णा' फलों से लदे हुए 'घिस्दृति' विक सित होते रहते हैं। और 'कुमविकुल चिसुद्धरुक्खमूला' इन वृक्षों के मूल दर्भ आदि घाम से विशुद्ध-रहित होते हैं ऐसे थे मत्तांग द्रुमगण प्रासादीय दर्शनीय अभिरूप और प्रतिरूप होते हुए वहां रहते हैं। यह मत्तांग नाम के प्रथम कल्पवृक्ष का वर्णन हुआ ॥१॥
द्वितीय जाति के कल्पवृक्ष का स्वरूप इस प्रकार से है 'एगोरुष दीवे तत्य २, बहवे गिंगया णाम दुमगणा पण्णत्ता' हे श्रमण आयुष्मन् ! उम्स एगोरुक नाम के द्वीप में जगह २, अनेक भृत्ताङ्ग नाम के कल्पवृक्ष हैं ये कल्पवृक्ष वहां के निवासी मनुष्यों को अनेक प्रकार विहीए उववेया' अने: व्यतिना था विविध मन माना जति ભેદને લઈને પિતના સ્વાવથીજ તે અનાદિ કાળથી ત્યાં રહે છે. આ લોકપાલે વિગેરેએ લગાવેલ હોતા નથી. તેઓ સ્વાભાવિક રૂપથી પણિત એવી મધ विधि (प्रमोहनxal)थी यु. डाय छे. मने 'कलेहिं पुण्मा' जोशी हायेan 'विसट्टति' विस्ति यता २ छ. मने 'कुमविकुसविसुद्धरु- खनृला' या वृक्षाना મૂળ દર્ભ વિગેરે ઘાસથી વિશુદ્ધ રહિત હોય છે. એવા આ મત્તાંગ કુમગણું પ્રાસાદીય, દર્શનીય, અભિરૂપ, અને પ્રતિરૂપ હોય છે. અને ત્યાં રહે છે.
આ મત્તાંગ નામના પહેલા ક૯પ વૃક્ષનું વર્ણન થયું. એ ૧ |
वे भी ततना ४५वृक्ष २१३५ मतावामा भाव छे. 'एगोरुय दीवे तत्थ तत्थ भिगंगयाणाम दुमगणा पण्णत्ता' 3 श्रम मायुधमन ! त
Page #547
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमैयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ २.३४ एकोरुकद्वोपस्याकारादिनिरूपणम् ५२३ अङ्गानि कारणानि भरणक्रिया भरणीयं भाजनं वा स्थालादिकं पृथक् न भवति इति भरणसंपादकत्वाद् रक्षा अप भृताङ्गाः कथयन्ते 'जहा से बारग घटक करगकलसकरिपायकंचणिय उदकवणसु पविठ्ठगपारीचसक भिंगार करोडिया सरगपरग पत्तीदालमल्लगचबलिय दकवारक विचित्तवट्टक मणिमट्टक मुत्तिचारुपीणया कंचणमणि-रयणभत्तिचित्ता' यथा ते बारक घटकरककलशकर्करी पादकाचनिका उदकवार्धानी सुपतिष्ठा पारीचषक भृङ्गार करोटिका खरकपरकपात्री स्थाल मल्लकचलपितदकबारक विचित्र वर्तक मणिवत्तक शुक्ति चारु पीनका कञ्चनमणिरत्नभक्तिचित्राः, तत्र बारको मरुदेश प्रसिद्धो माङ्गल्यघटः घटको लघुघटः, कलशो महाघटः करकोऽपि घट एव कर्करी घटविशेषरूपा, पादकाचनिका-पादधावनयोग्या काश्चनके वर्तन आदि पदार्थों को देते रहते हैं, 'जहा से पारगघटककरगकलसकरि पायकंचणिय उदंशद्धणि पविठ्ठग पारीचलक भिंगार करोडिघा सरगपरगपत्ती बालमल्ल गलिय दकचारक विचित्त वक मणिवक सुत्तिचारु पीणया कंचण मणिरयण भत्तिचित्ता' मार. वाड़ में प्रसिद्ध जो माङ्गल्य घट है उसका नाम बारक है. इससे जो छोटा घट होता है उसका नाम घट है उसकी अपेक्षा जो महाघट होता है उसका नाम कलश है करक नामा भी फलश का ही है कर्करी , छोटी सी जो कलशी होती है उसका नाम है । जिस से पैर धोये जाते हैं और जो सुवर्ण की बनी होती है ऐसी पात्री का नाम पादकाञ्चनिका है जिसमें से पानी भर कर पिया जाता है उसका नाम उदक है लंतिका नाम व मी तथा लोटा भी कहते है । पुष्पों के धरने के पात्र का એકરૂક નામના દ્વીપમાં સ્થળે સ્થળે અનેક ભૂત્તાંગ નામના ક૯પ વૃક્ષે છે. એ કલ્પવૃક્ષે ત્યાં રહેવાવાળા મનુષ્યને અનેક પ્રકારના વાસણ ભાજન વિગેરે पहा माया रे छ. 'जहा से वारगघटक करगकलसककरिपायक चणि उदंक वद्धणिसु पविट्ठग पारीच तकभिगार करोडिया सरगपरगपत्ती बालमल्लग चवलियग दकवारक विचित्त वट्टक मणिबट्टक सुत्तिचारु पीणया कंचणरयणमणिभत्तिचित्ता' મારવાડમાં પ્રસિદ્ધ જે માંગલ્ય નામને ઘડો છે તેને “વારક' કહે છે. તેનાથી નાના ઘડાને ઘડે કહે છે. તેના કરતાં જે મહા ઘટ હોય છે. તેને કલશ કહે છે. કરક એ નામ પણ કલશનું જ છે. નાના કળાને કર્કરી કહે છે, જેનાથી પગ દેવામાં આવે છે. અને જે નાની બનાવેલી હોય છે. એવા પાત્રનું નામ પાદકોચનિકા” છે, જેમાં પાણી ભરીને પીવામાં આવે છે. તેનું નામ ઉદંક છે,
Page #548
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगम मयीपात्री, उदको येनोदकं मुदश्चते वार्दानी गलतिको, यद्यपि करकरी वा नीनां न कश्चिद्विशेषस्तथापि संस्थानादिकृतो भेदो लोकादवगन्तव्यः । सुपतिष्ठका पुष्पपात्र विशेषः, पारी घृतादि स्नेहभाण्डम् चपकः पानपात्रम् श्रृंगार कनकालका 'झारी' इति प्रसिद्धः, शरकपरशौ पात्रविशेषो पानीस्थाले लोकप्रसिद्ध एच मल्लक-शराबविशेषः चपलितं-पात्रविशेपः दकवारको जलघटः विचित्राणि विविध चित्रोपेतानि वत्तकानि-मोजनकालोपयोगि-घृतादि पात्राणि तान्येव मणि वर्तकानि मणि मधानकानि वर्तकानि शुक्तिश्चन्दनाद्याधारभूताः शेषास्तु पात्रविशेषास्तत्तत्कालपसिद्धा लोकतो यथाशक्यं ज्ञातव्या । एते भाजनविधयः कथम्भूताः ? इत्याह 'कंचणमणिरयणभत्तिचित्ता' काञ्चनमणि रत्नानमिक्तयो विच्छित्तयस्ताभिवित्राः । 'भायणविधीए' भाजनविधिना भाजन-विधिमधिकृत्य 'बहुनाम सुप्रतिष्ठक है घी तेल रखने के पात्र का नाम पारी है पान पात्र का नाम चपक है झारी का नाम भृगारक है शरक पात्र विशेष का नाम है स्थाली और पात्री ये तो प्रसिद्ध ही हैं। जल भरने के घटका नाम दकदारक है भोजन काल में उपयोगी जो घृतादि रखने के पात्र है उनका नाम यहां वर्तक शब्द से कहा गया है ये पात्र उन कल्प वृक्षों के दिये जाते हैं पर वे सब मणि के बने हुए दिये जाते हैं तथा ये सब पात्र विविध प्रकार के चित्रों से युक्त होते हैं यही बात यहां मणिवर्तक शब्द से प्रकट की गई है घिसकर जिस में चन्दन आदि रखे जाते है उसका नाम शुक्ति है बाकी के जो और यहां पात्र कहे गये हैं उन्हें लोक से था संप्रदाय विशेष से जान लेना चाहिये. इन सब पात्रों के ऊपर सुवर्ण से मणियों से और रत्नों से नाना प्रकार વંતિકાને વધની તથા લેટે પણ કહે છે. પુ રાખવાના પાત્રનું નામ સુપ્રતિષ્ઠક છે ઘી તેલ વિગેરે રાખવાના વાસણનુ નામ “પારી છે. પાન પાત્રનું નામ “ચષક છે. જારીનું નામ ભંગારક છે. શરક એ પાન વિશેષનું નામ છે. થાળી અને પાત્રી આ બને પ્રસિદ્ધ છે. પાણી ભરવાના ઘડાનું નામ “દકવારક છે જમતા. વખતે ઘી વિગેરે રાખવામાં ઉપયોગી એવું જે પાત્ર છે. તેને અહિયાં “વર્તાક શબ્દથી કહેલ છે, આ પાત્ર એ ક૯પવૃક્ષોથી અપાય છે પણ તે બધા મણિચાના બનાવવામાં આવેલ અપાય છે. આ બધા પાત્રો અનેક પ્રકારના ચિત્રોથી યુક્ત હોય છે. એજ વાત અહિંયા “મણિવક એ શબ્દથી પ્રગટ કરવામાં આવેલ છે. ચંદન વિગેરે ઘસીને જેમાં રાખવામાં આવે છે તેનું નામ “શુક્તિ છે. બાકીના બીજા જે પાત્રો અહિયાં બતાવવામાં આવ્યા છે. તેને લેક રૂઢીથી અથવા સંપ્રદાય વિશેષથી સમજી લેવા જોઈએ. આ બધા પાત્રોની ઉપર સેનાથી મણિથી, અને પાથી અનેક પ્રકારના ચિત્રોની રચના કરવામાં આવેલ
Page #549
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमैयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ ७.३४ एकोहकद्वीपस्याकारादिनिरूपणम् ५२५ प्पगारा' बहुप्रकाराः एकै कस्मिन् विधौ अवान्तरानेकभेदसद्भावादिति । 'त हेव ते भिगंगया वि दुमगणा' तथैव ते भृताङ्गा अपि द्रुमगणाः 'अणेग बहुविविहीससा परिणयाए' अनेक बहुविविधमकारेण विसापरिणतेन-स्वभानत एव परिणतेन वित्रसापरिणामेनानेकाकारतया परिणतेन न तु केनचित्तथा संपादिता इति । 'भायणविधीए उववेया' भाजनविधिनोप पेता:-युक्ताः, 'फलेहिं पुण्णा विसट्टति' फलैः पूर्णा दलन्ति-दिकसन्ति 'कुसक्कुिस जाव चिट्ठति' कुशवकुश विशुद्ध क्षमूळा: मूलकन्दादि मन्तो यावत् प्रासादनीया अभिरूपाः प्रतिरूपास्तिष्ठन्तीति २ । के चित्रों की रचना की गई होती है भाजन विधि अनेक प्रकार की होती है-अर्थात् भाजन अनेक प्रकार के होते है क्योंकि इनके अवान्तर भेदों की गिनती नही है-इसलिये 'मिगंगया विदुमगया तहेव' ये जो भृताङ्ग जाति के कल्पवृक्ष है वे भी एक प्रकार के न हो कर अनेक प्रकार के ही होते है। तभी तो ये भिन्न २, जाति के रूप में परिणत होते रहते है । 'अणेग बहु विविस्वीसला परिणाए' इनका जो इस प्रकार से विविध पात्रों के देने रूप परिणाम है रखा भाविक है किसी के द्वारा किया गया नहीं होगा 'मायणविहीर उक्वेया' इस तरह भाजन प्रदान करने की विधि से युक्त हए ये भृत्ताङ्ग जाति के कल्पवृक्ष 'फलेहिं पुण्णा विरूदृति' फलों से भरे हुए विकसित होते रहते हैं और बिन २, प्रकार के पात्रों को प्रदान करते रहते हैं। 'कुस विकुस जाब चिट्टलि' इनकी भी नीचे की जमीन पर ऋश आदि नही होते है ये प्रशस्त मूल आदि विशेषणों वाले होते है ॥२॥ હેય છે. ભાજન વિધિ અનેક પ્રકારની હેય છે. અર્થાત અનેક પ્રકારના ભાજન વાંસ હોય છે. કેમકે તેના અવાર ભેદોની ગણત્રી થઈ શકે તેમ નથી તેથી 'भिंगगया वि दमगया तहेव' २ मा मृतांस तीन ४८५ वृi छे, ते ५५ એક પ્રકારના ને હેઈ અનેક પ્રકારના જ હોય છે. ત્યારે જ તેઓ જૂદી જુદી
तन पात्रोना ३५मा पारित थता र छ. 'अणेगबहु विविहवीससा परिणयाए, मा प्रभारी विqध पात्रान मायका ३५ मा २ परिणाम छ, ते स्वाभावि:०४ छे. ना २ ४२वामां माता नथी. 'भायणविहींए उववेया' આ રીતે ભજન પ્રદાન કરવાની વિધિથી યુક્ત એવા આ ભૂતાંગ જાતિના ४६५ वृA 'फलेहिं पुण्णा विसति' माथी मान विसित थता २४ छे. मन । भू ५२ना पात्र माया ४२ छे. 'कुविकुस जाव चिदंति' તેની નીચેની જમીન પર પણ કુશ વિગેરે હોતા નથી. અને તે બધા પ્રશસ્ત મૂળ વિગેરે વિશેષવાળા હોય છે, જે ૨ |
Page #550
--------------------------------------------------------------------------
________________
५२६
जीवामिगमले ____ अथ तृतीयकला वृक्षस्वरूपमाख्यातुमाह-'एगोरुय दीवेणं' इत्यादि, 'एगोरुयदीवे' एकोरूकद्वीपे खल्ल द्वीपे 'तत्य२' तत्र तत्र देशे 'वहवे हडियंगाणाम दुमगणा पन्नता समकाउसो' बहवोऽनेकमकारा त्रुटितागा नाम द्रुमगणा:-- वाद्यनिशेषरूपाः प्रज्ञता:-कथिताः हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! 'जहा से आलिंग मुयंग-पणवपडहदहरगकरडिडिडिम भंभाहोरंभ कणियार खरगुही- मुगंद संखियपरिलीवचा परिवाइणि सवेणुवीणासुघोस विवंचीमहई कच्छमीरिगसिगातल. ताल कंसलालसुसंपउत्ता' यथा ते आलिङ्गय मृदङ्ग पणगपटह दर्दरककरटीडिडिमभंमाहोरम्म-क्वणित खामुखी मुकुन्द गंखिका परिलीय चक परिवादिनी वंशवेणु-वीणासुघोप विपश्ची महती कच्छपीरिगसिकाः तलताल कांस्यतालमसं. प्रयुक्ताः, तत्र-आलिग्यो नाम यो बादकेन मुरज आलिंग्य वायते उरसि निघाय
तृतीय कल्पवृक्ष का स्वरूप कथन-'एगोरुय दीवे णं दीवे तरथ २, बहवे तुडिधंगा गाम दुषगणा पण्णत्ता०' हे श्रवण अयुष्मत् ! एकोरुक नाम के छोप में जगह २, अनेक त्रुटितांग जाति के कल्पवृक्ष कहे गये हैं । इन कल्पवृक्षों के द्वारा वहां के मनुष्यों की वाद्य की आवश्यकता की पूर्ति की जाती है यही बात इस सूत्र द्वारा यहाँ समझाई गई है 'जहा ले-आलिंग मुयंग पणब पडह दद्दरगकडिडिडिम भंभाहोरं अकपिणयार रखरमुक्षिमुगुद संखिय परिली बच्चन परिवाइणिवंस वेणुवीणासुधोलविवंचि महलिकच्छभिरिगलिगा तल ताल कंस ताल सुसंपउत्ता' जो बाजा बजाने वाले के द्वारा गोद में रखकर बजाया जाता है इस वाद्य का नाम आलिंडप है मृदङ्ग नाम का बाजा जग प्रसिद्ध है या छोटा होता है ढोल चाहे बड़ा हो या छोटा हो इसका
हवे श्रीन ४८५ वृक्षना २१३५नु थन ४२वाभा मा छे. 'एगोरुय दोवेणं दीवे तत्थ तत्थ बहवे तुडियांगा णाम दुमगणा पण्णत्ता' 8 श्रभर આયુમન્ ! એકેક નામના દ્વીપમાં સ્થળે સ્થળે અનેક ત્રુટિતાંગ જાતના કહાવો હેવાનું કહેલ છે. આ કલ્પવૃક્ષ દ્વારા ત્યાંના મનુષ્યની વાઘની આવશ્યતાની પૂર્તિ કરવામાં આવે છે. એજ વાત આ સૂત્ર દ્વારા અહિયાં समलवामा मावी छे 'जहा से आलिंगमुगपणवपटह दहरगकरविडिडिमभभाहोरभकणियारखरमुहि सुगुदसखियपरिलीवच्चगपरिवाइणि वंस वेणु वीणा सुधोस विवंचिमहति कच्छभिरिगसिगातलतालकसतालसुम पउत्ता' रेने વાજા વગડવાવાળા ખેાળામાં રાખીને વગાડે છે, એવા વાજાઓને આલિંડય' કહે છે. મૃદંગ નામનું વાજુ જગ જાહેર છે. તે નાનું હોય છે. દેવા, મેટે કેય કે ના હોય તેને પણ કહેવામાં આવે છે, ઢોલનેજ
Page #551
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीका .३ .३ खू.६४ एकोहकमीपस्याकारादिनिरूपणम् ५२७ पाद्यते इत्यर्थः, मृदङ्गो लघुर्मर्दला, पणको भाण्डपटहो लघुपटहो वा, पटडो लोक पसिद्ध एव, ददरका यस्य चतुर्मिश्चरणैरवस्थानं भुवि तथा सगोधा चविनरो पायविशेषः करटीलोक-मसिधैव' डिडिमः प्रथमप्रस्तावमा सूचकः पणवविशेष: भंभाढक्कानिः वनानीति संपदायः, होरंभा महादको क्रणिता वीणाविशेषरूपा खरमुखी-काहला मुकुन्दो मुरजवाधविशेषो यः प्रायोऽमिलीनं वाचते शखिका छघुशंखरूपा अस्याः स्वर ईपत्तीक्ष्णो भवति न तु शंखवदतिगंभीरः परिली. नाम पणव है ढोल का ही जो एक प्रकार का आकार प्रकार कृत भेद होता है उसका नाम पटह है जो चार पाद बाली काष्ठ की चौको पर रखकर बजाया जाता है और जो गोधा विगेरे प्राणियों के चमडे से मढा होता है उसको नाम ददरक कहलाता है करटी भी एक जाति का लोकप्रसिद्ध वाद्य विशेष है प्रथम प्रस्तावना का सूचक जो पणच विशेष है उसका नाम डिडिम है भंसा और ढका ये भी एक प्रकार के वाद्य विशेष है इनमें से जो शब्द निकलता है वह भर भर जैसा निकलता है होरंभा भी ढका ही जैसा होता है परन्तु यह ढक्का की अपेक्षा बड़ा होता है कणित एक प्रकार की विशेष वीणा होती है खरमुखी भी एक प्रकार का वाद्य विशेष है-जिसे मुंह से फूंक देकर बजाया जाता है-इले बुन्देलखण्डी भाषा में रमतूला कहते हैं-इसका आकार प्रकार गधे के मुख जैसा होना है मुकुन्द भी एक प्रकार का वाजिंत्र शेता है । यह तबला के
आकार का होता है पर कुछ २, लम्बा होता है और दोनों तरफ से. बजाया जाता है शंखिका यह खर शंखिका और ईषत्तीक्ष्ण शंखिका એક પ્રકારને આકાર પ્રકારના ભેદ જેવો હોય છે. તેનું નામ પટલ છે જે ચાર પાયાવાળી લાક્કાની ચેકી પર રાખીને વગાડવામાં આવે છે, અને જે ઘ વિગેરે પ્રાણિના ચામડાથી મઢેલ હોય છે, તેનું નામ દર્દક કહેવાય છે. કરટિ પણ લોકપ્રસિદ્ધ એક જાતનું વાદ્યવિશેષ છે પહેલી પ્રસ્તાવનાનું સૂચક જે પણવિશેષ છે, તેનું નામ ડિડિમ છે. ભંભા અને ઢકકા એ પણ એક પ્રકારનું ઢેલ નામનું વાદ્ય વિશેષ છે. તેમાંથી જે અવાજ નીકળે છે, તે ભર ભર જે નીકળે છે. હોરંભા નામનું વાદ્ય વિશેષપણ ઢાકાના જેવું જ હોય છે. પરંતુ તે ઠકકા કરતાં મેટું હોય છે. કવણિત એ એક પ્રકારની વિશેષ વીણા હોય છે. ખરમુખી પણ એક પ્રકારનું વાદ્ય વિશેષ છે જેને મેઢથી ફંકમારીને વગાડિવામાં આવે છે, તેને બુંદેલખંડની ભાષામાં “રમતુલા કહે છે. તેનો આકાર ગઘેડાના મુખ જે હોય છે. મુકુંદ પણ એક પ્રકારનું વાજીંત્ર હેય છે. તે તબલાના આકારનું હોય છે. પરંતુ તેનાથી કઈક લાંબુ હોય છે. અને બને
Page #552
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवाभिगम
५१८
वच्छको तृणरूपवाप्यविशेषौ परिवादिनो सप्ततन्त्री वीणा, वंशो लोकप्रसिद्धः वेणुर्वेश विशेष, वीणा प्रसिद्धा, सुघोषा पीणाविशेषाः, विपञ्ची-तन्त्री वीणा, महनी-शत्रिका नारद ऋषेः वीणा, कच्छपी - भारत्याचीणा, रिगसिका घर्ण्यमाणवाद्यविशेषः, एते वाद्यविशेषाः कथम्भूताः इत्याह- 'तलताळकंसता संपत्त तलताला:- हस्तपुटवाला: कांस्यतालाच लोक प्रसिद्धा एव, एतैः - वळतालकंसताः विशेषैः सुसंप्रयुक्ताः - मृसुष्ठु अतिशयेन सम्यग् यथोक्तरीत्या प्रयुक्ताः के भेद से दो प्रकार की होती है जो विशेष जोर देकर मुंह से बजायी जाती है वह खराखिका है और जो थोड़ा जोर देकर मुह से बजायी जाती है वह ईषन्तीक्षण शंखिका कहलाती है यह शंखिका शङ्ख के जैसे अति गंभीर स्वर वाली नहीं होती है । परिली एवं दचक ये भी दो वादिन
-
ये घास के तृणों को गूंथ कर बनाये जाते हैं। परिवादिनी - नाम वीणा का है इसमें सात तार होते हैं। वंश-नःम बांसुरी का है वीणा, सुघोषा विपची महती, कच्छपी, ये सब वीणा के ही भेद हैं महर्षि नारद जिस वीणा को अपने पास सदा रखते हैं उस वीणा का नाम महती है सरस्वती जिल वीणा को अपने हाथ से बजाती है उसका नाम कच्छपी है घमाण जो वाद्य विशेष होता है उसका नाम रिगसिका है हस्त पुट ताल का नाम तल ताल है काँसे का जो बाजा होता है कि जो ताल देवर बजाया जाता है उसका नाम कांश्य ताल है इन सब वादियों से ये त्रुटितांग जाति के कल्पवृक्ष युक्त होते हैं अतः ये ऐसे ज्ञात होते हैं कि इन्हें गान विद्या में गंधर्व शास्त्र में निपुण व्यक्तियों ने
માજુથી વગાડી શકાય છે. ‘શ’ખિકા’ એ ખરશંખિકા અને ત્તીક્ષ્ણ શખિકાના ભેઢથી બે પ્રકારની હૈાય છે. જેને વિશેષ જોર દઇને મેઢાથી વગાડવામાં આવે છે, તેને ખશખિકા કહે છે અને જેને ઘેાડુ જોર દઇને માઢાથી વગાડવામાં આવે છે. તેને ‘ઇત્તીક્ષ્ણ શખિકા’ કહેવામાં આવે છે. આ શખિકા શંખના જેવા અત્યંત ગભીર સ્વર વાળી ડાતી નથી ‘પરિલી' અને વચકા’ આ પણુ એ વાજીંત્ર છે. તે ઘાસના તણખલાઓને ગુથીને બનાવવામાં આવે छे. 'परिवाहिनी' पीछा नाम छे. तेने सात तार होय छे. वांसजीने 'व'श' पशु हे छे वीषा, सुघोषा, विषयी, भडती, उच्छपी, या मघा वीधानान ભેદે છે. મહાષિ નારદ જે વીણાને સદા પેાતાની પાંસે રાખે છે. એ વીણાનું નામ મહતી છે જે વીણાને સરસ્વતી પેાતાના હાથથી વગાડે છે. તે વીણાનુ નામ કચ્છપી છે. માન જે વાદ્ય વિશેષ હાય છે, તેનું નામ રિગસિકા’ છે. હસ્તપુર તાલનું નામ તલતાલ છે કાંસાનું જે વાજું હાય છે, કે જે તાલ દઇને આ બધા વાજી ંત્રોથી આ
આવે છે. તેનુ નામ કશ્યતાલ છે. કલ્પવૃક્ષા યુક્ત હોય છે. તેથી
વગાડવામાં ત્રુટિતાંગ જાતના
Page #553
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
यद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.३४ एकोरुकद्वीपस्थाकारादिनिरूपणम् ५२९ दाः आतोयविधयः पुनः कथम्भूताः ? इत्याह-'आतोज्जविहि णिउण गंधव्य य कुसलेहि फंदिया' अतोयविधिनिपुणगान्धर्वसमयकुशलैः स्पन्दिताः, तत्रातोविधौ ये निपुणा गान्धर्वसमये नाटयशास्त्रे कुशलाः-दक्षास्तैः स्पन्दिताः व्यापा.
वादिता इति भावः पुनः कीरशास्तत्राह-'तिट्ठाणकरणसुद्धा त्रिस्थानकरण दाः, तत्र त्रिषु आदि मध्यावसानेषु स्थानेषु करणेन-क्रिया-यथोक्तवादन यया शुद्धा:-निर्दुष्टाः न तु अस्थानकरण-व्यापाररूपदोषेण कलङ्किताः 'तहेव तरियंगया वि दुमगणा' तथैव-तस्पकारेणेत्र ते त्रुटिनाङ्गा:-त्रुटिताङ्गनामका । इस प्रकार से सिस्वा वुझा तैयार किया है यही बात आगे के सूत्र ठ से प्रकट की गई है 'आतोज्जयिहि निउणगंधव समय कुसलेहिं दिया' जिस प्रकार गंधर्व आतोद्य विधि में निपुण होते हैं और धिर्व शास्त्र में दक्ष होते हैं अतः वे जिस वादिन को चाहते हैं उम दिन को तैयार कर लेते है और पजाते है इसी प्रकार से जो दिन यहां के मनुष्यों को आवश्यक होता है वही वादिन वे कल्प क्ष उन्हे दे देते हैं-अतः उसी वादिन की प्रदान विधि में वे त्रुटितांग कल्पवृक्ष व्यापार युक्त होते हैं और वे उन्हें उन्हीं वादिन्नों को देते हैं। नथा 'तिट्ठाण करणसुद्धा' ये कल्पवृक्ष वादिन वादन क्रिया में निपुण व्यक्ति की तरह वादित्र तथा गाने की विधि में त्रिस्थान करण से आदि मध्य अवसान रूप तीनों स्थानो से शुद्र होते हैं । अस्थानकरण व्यापार रूप दोष से कलकिन नहीं होते हैं । 'तहेव ते तुरियंगया वि दुमगणा' તેઓ એવા જણાય છે કે આમને ગાનવિદ્યામાં, ગંધર્વ શાસ્ત્રમાં નિપુણ વ્યક્તિઓએ જ આ પ્રકારથી શીખવીને તૈયાર કરેલ છે એજ વાત હવે પછીના सूत्रपायी प्रगट ४२वामा मापी छे 'आतोज्जविधीनिउणधव्वसमयकुसलेहि फंदिया' २ प्रमाणे 14° माताध विधिमा नियुष्य डायथे. अने आ શાસ્ત્રમાં ચતુર હોય છે. તેથી તેઓ જે વાજાને ચાહે છે, તે વાજાને તૈયાર કરી લે છે. અને તેને વગાડે છે. એ જ પ્રમાણે જે વાજીંત્ર ત્યાંના મનુષ્યોને જરૂરી હોય છે. તે જ વાજીંત્ર તે કલ્પવૃક્ષ તેને આપે છે. તેથી એ વાજીત્રની પ્રદાનવિધિમાં ત્રુટિતાંગ કલપવૃક્ષ વ્યાપાર યુક્ત હોય છે. અને તેઓ તેમને
पात्र माचे छ. तथा 'तिद्वाणकरणसुद्धा' मा ४६५वृक्ष वा पाहन કિયામાં નિપુણ વ્યકિતની જેમ વ જીત્ર તથા ગાવાની વિધિમાં વિસ્થાનકરણથી અર્થાત્ આદિ, મધ્ય અને અવસાન રૂપ ત્રણે સ્થાનેથી શુદ્ધ હોય છે. અવ. स्थान ४२१ व्यापार ३५ पिया asत होता नथी. 'तहेव ते तरियंगयावि दुमगणा' तथा गावानी विधामा भने पात्राने मनापानी विधामा यतुर
जी० ६७
Page #554
--------------------------------------------------------------------------
________________
५३०
जीवामिगमक्ष द्रुमगणा: घृक्षाः अपि 'पणेग बहुविविवीससा परिणयाए' अनेक बहुविविधविसापरिणतेन तत्र अनेको व्यक्ति भेदात् बहुमभूतं यथा स्यात् तथा विविधो माति भेदतो नानाप्रकारेण ते, न केनापि लोकपालादिना संपादिता। किन्तु विसमापरिणतेन विसखा-स्वभावेनैव ताशपरिणाममाप्तेन । 'ततस्तितघण पसिराए चउनिहाए आतोग्ज-विहीए उकवेया' तसविततघनशुपिरेण चतुर्विधेन आवोधविधिनोपपेनाः, तत्र ततं वीणादिक, विततं-पटहादिवस्, घनकास्यसालादिकम्, शुपिरं-वंशादिकम् एतद्रूपेण सामान्यतऋतुर्विधेन-चतुःमकारेण अतः बजाने की विद्या में एवं वादिनों के निर्माण करने की विद्या में चतुर गन्धर्यों की तरह निपुग ये त्रुटिनांग जानि के फल्पक्ष भी हैं वे कल्पवृक्ष 'अणेग बहु विविहबीलला परिणोयाए तत वितत घण सुसिराए च उब्धिहाए आतोज्जनिटीए उबवेषा' अपने अनेक वादित्र प्रदानरूप कार्य में स्वाभाविक रूप से परिणाम बाले होने हैं अर्थात् हमका यही तत वितत, घन, सुपर रूप अनेक प्रकार के दादित्रों को देनेरूप कार्य है इस प्रकार के कार्य करने रूप परिणाम वाले होते हैं इन्हें किसी ने बनाया नहीं है न पूर्वोक्त वादिनी की सप प्रशारता इन्हीं तत, वितत घन, और सुपर रूप चार वादिनों में ही समा जाती है तत में वीणा. दिकों का समावेश हो जाता है वितत में पटह ढोल आदिको का समावेश हो जाता है, घन में कांस्पतालादिकों का समावेश हो जाता है और सुषिर में वास्तुरी आदिका समावेश हो जाता है इसी चार प्रकार की वाद्यविधि के सम्पन्न करने में ये कल्पवृक्ष तत्पर रहते हैं એવા ગંધની જેમ નિપુણ આ ત્રુટિતાંગ જાતીને કલપ વૃક્ષો પણ છે. से मथा ४६५वृक्षो 'अणेगबहुविविह वीसमा परिणायाए तत वितघणसुस्रािए चउबिहाए आतोन्जविहीए उववेया' पाताना वा महान ३५ सने मां સવાભાવિક રીતે પરિણામવાળા હોય છે. અર્થાત્ તેનું તત, વિતત, ઘન, સુષિર, રૂપ અનેક પ્રકારના વાછત્ર આપવા એજ કાર્ય છે. આવા પ્રકારનું કાર્ય કરવા રૂપ પરિણામ વાળા હોય છે. તેને કેઈએ બનાવેલ નથી. એ પૂર્વોક્ત વાજીંત્રની બધીજ પ્રકારતા આજ તત, વિતત, ઘન અને સુષિર રૂપ ચાર વાત્રોમાંજ સમાઈ જાય છે. તતમાં વીણ વિગેરેનો સમાવેશ થઈ જાય છે વિતતમાં પટ-ઢોલ વિગેરેનો સમાવેશ થઈ જાય છે “ઘ' માં કાંસ્ય તાલાદિકને સમાવેશ થઈ જાય છે. અને સુષિરમાં વાંસળી વિગેરેનો સમાવેશ થઈ જાય છે. આ ચાર પ્રકારની વાદ્યવિધિને મેળવવામાં આ કલપ વૃક્ષો દત્ત शित्त २९ छे. तथा 'फलेहि पुण्णा' णोथी पातमा सरे हाय छे.
Page #555
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमैयद्योतिका टीका प्र.१ उ.३ ६.३४ एकोरुकद्वीपस्याकारादिनिरूपणमे ५३१ वायविधिना उपपेता:-युक्ताः, 'फलेहिं पुण्णा विसंहति३' कुशविकुश विशुद्धवृक्ष मूलाः मूलकन्दादिमन्तो यादर-प्रसादनीया दर्शनीया अमिरूपा प्रतिरूपा स्तिष्ठन्ति वर्तन्ते-इति ३॥ ___ अथ चतुर्थकलरवृक्षस्वरूपमाह-एगोख्य दीवेणं' इत्यादि, 'एगोरुय दीवेणं दीवे' एकोरूकद्वीपे खलु द्वीपे 'तत्थर' तत्र हुन्न देशे 'बहवे दीवसिहा णाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो' वहयोऽने के द्वीपशिखा लाम-दीपशिखा इव दीपशिखाः दीपवत् प्रकाशकत्वात् अन्यथा-हत्राग्नेरभावात् दीपशिखानामपि तत्रासंभवात्, तादृशा द्रुमगणाः कलाक्षाः प्रज्ञमा:-कवितार, हे श्रमण आयुष्मन् ! 'जहा से संझाविरागसमए नदणि हिपतिणो दीचियाचकवाल विदे' यथा ते सन्ध्यातथा 'फलेहिं पुण्णा.' फलों से भी परिपूर्ण होते हैं इनके नीचे की जमीन भी 'कुसविकुलविस्तुद्धरुक्खमूला जाब चिटुंति' कुश एवं विकुश से विहीन रहती है नया ये भी प्रशस्त मूल स्कंध आदि वाले होते हैं। तात्पर्य यही है कि जिस प्रकार यहां पर वादिन अनेक प्रकार के होते हैं वैसे ही यहां के थे कल्पवृक्ष भी अनेक प्रकार के होते हैं।
चतुर्थ कल्पवृक्ष का स्वरूप कथन ___'एगोरुष दीवे' एलोरुक द्वीप में 'तत्य तस्य' जगह २, 'घहवे दीध सिहा णाम दुमगणा पणत्ता समभाउलो!' हे श्रारण आयुष्मन् ! अनेक दीप शिखा नाम के कल्पवृक्ष कहे गये हैं । दीप में से जैसा प्रकाश निकलता है वैसा ही प्रकाश इनमें से निकलता है इसी कारण इनका नाम दीप शिखा कहा रया है यहां अग्नि नहीं होती है अतः यहां दीपों की शिखा का भी अभाव है पर यहां जो प्रकाश होता है तेमनी नयनी भीन ५५ 'कुस विकुसविसुद्धरुक्खमूला जाव चिति' पुश भने વિકુશ વિનાની જ હોય છે. તથા તે પણ પ્રશeત મૂળ કંધ વિગેરે વાળા હોય છે. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે જેમ અહિયાં અનેક પ્રકારના વાજીત્ર હોવાનું કહેલ છે. એ જ પ્રમાણે ત્યાંના આ કલ્પવૃક્ષે પણ અનેક પ્રકારના હોય છે. ૩
हवे याया ४८५वृक्षना २१३५तुं ४थन ४६वाम गावे छे. 'एगोरुयदीवे' ३४ वीपमा 'तत्थ तत्थ स्थजे स्थणे. 'बह वे दीवसीहाणाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो' है अभए मायुसन हाशिमा नामना मने ४६५वृक्षो કહ્યા છે દીવામાંથી પ્રકાશ નીકળે છે, એ જ પ્રકાશ આમાંગી પણ નીકળે છે, તેથીજ તેનું નામ દીપશિખા એ પ્રમાણે કહેલ છે. અહિયાં અનિ હોતી નથી. તેથી અહિયાં દીવાની શિખાને પણ અભાવ છે. પરંતુ मडिया २ मा डाय छ, तर ४६५वृक्षोमाथा आवत। डाय छे. 'जहासे
Page #556
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमसूत्रे
५३२
>
विरागसमये नवनिधिपतेर्दीपिका चक्रवाकवृन्दम्, तत्र संध्यारूपो विरुद्ध स्विमिररूपत्वात् रागः संध्याविरागस्वत्समये तदवसरे नवनिधिपते चक्रवर्तिन इत्र दीपिका चक्रवालवृन्दं तत्र हवा दीपा दीपिकाः तासां दीपिकानां चक्रवालं - चक्रसमूहः सर्वतः परिमण्डलरूपं वृन्दम् तव कीटक साह'भूयवपिलित्तणेहे' प्रभृतिपर्याप्तस्नेहम् तत्र प्रभृताः भूयस्यः स्थूलाः वर्त्तयः दशा यस्य तस्था एवं पर्याप्तः - परिपूर्णः स्नेहस्तेन्यादिरूपो यस्य त् पर्याप्तस्नेहम् 'घणि उज्जालि तिमिरमद्दन्' वणगोज्वालित तिमिरमर्दकम् रात्र घणिय देशी शब्दोऽतिशयार्थः तेन अतिशयोज्वालितम् अतएव तिमिरमर्दकम् अन्धकार विनाशकं तद्वृन्दम्, पुनः किं विशिष्टं दीपिका चक्रवाधवृन्दम् ? तत्राह 'कणग' इत्यादि । ' कणगणिगर कुसुमित पाळियातय वणप्पमासे' कनकनिकर - कुसुमित पारिजातकवनप्रकाशम्, तत्र कनकनिकरः- सुवर्णराशिः कुसुमितं च तत् पारिजातकवनं चेति कुसुमित पारिजातकवनम् अनयोः प्रकाशेन तुल्यः प्रकाशो विद्यते यस्य तत् कनकनिकर कुसुममित पारिजातरुवनप्रकाशम् एतत्तेषां तेजोवर्णनं कृतम् | अब दीपशिखा द्रुमगणवर्णनं क्रियते 'कंचणमणि रयण त्रिमल यह इन्हीं कल्पवृक्षों से होता है 'जहा से संझाविरागसमए नवणिहि पणो दीविया चकवालविंदे पभूयवपिलित्तणेहिं चणिउज्जालिय तिमिरमद्दए' अतः जिस प्रकार संध्या के समय में नव निधिपति अर्थात् चक्रवर्ती के यहां का दीपिका वृन्द कि जिस में अच्छी तरह से वृत्तियां जल रही हों और जो तैल से भरपूर हो प्रज्वलित होता हुआ शीघ्रा के साथ तिमिर का विध्वंसक होता है और जिसका प्रकाश 'कणगनिगरकुसुमितपालि यातयवण्णप्पा' कनक निकर के जैसे प्रकाश वाले कुसुमों से युक्त पारिजातक (देव वृक्ष विशेष) के वन के प्रकाश जैसा-प्रकाश होता है तथा 'कंचन मणिरयणविमल महरिय तणिज्जुज्जल विचित्तदंडादि दीवियाहिं' जिन दीपिकाओं संझा विरागसमए नवविहि पद्मपणे दीविया चक्रवालविंदे पभूयवत्तिपलित्तणेहिं घणिउज्जयितिमिरमद्दए' तेथी प्रेम संध्या समये नव निधियति अर्थात् ચક્રવર્તિને ત્યાં દીપિકારૃં દિવાને સમૂહ કે જેમાં સારી રીતે મત્તીચે ખળતી હાય અને જે તેલથી ભરપૂર હાય, પ્રજ્જવલિત થઇને એક દમ २मधठारना नाश पुरीहे छे भने लेना अांश 'कणगनिगर कुसुमितपालिया तयवणप्पगाखो' उन निम्रना नेवा अाशवाणा सुभेोथी युक्त सेवा पारि 'लतठना बनना अहारा वन प्राश होय छे, तथा 'कंचणमणिरराण विमल
Page #557
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ ३.३ १.३४ एकोरुकद्वीपस्याकारादिनिरूपणम् ५३३ महरिह तवणिज्जुज्जक विचिवदंडाहिं दीवियाहि' काञ्चनमणिरत्न विमलमहाह तपनीयोज्वलं विचित्रदण्डाभि दीपिकाभिः तत्र काश्नमणिरत्न-विमला: काश्चनमणिरत्नरत् स्वाभाविकागन्तुकमलरहिताः, तथा महाई-रहोत्सवा है तपनीय-सुवर्णविशेषः तद्वदुज्ज्वलानि विचित्रवर्णानि दण्डानि याला सास्तथा इस्थं भूतामिः दीपिकाभिः कीदृमीभिः इत्याह 'सहसा पज्जकिऊसवियणिद्ध तेथदिपंतविमलगहमणसमप्पमाहि' सहसा प्रज्वलितोत्सर्पितस्निग्धतेजो दीव्यद् विमलग्रहगणसमममाभिः, तत्र सहसा समकालं प्रज्वलितं च तद उत्सर्पितं च रत्त्युस्सपणेन तथा स्निग्धं-मनोहरं न तु नेत्रकटुतेजः ते दीप्यमानाः देदीप्यमानास्वामिः, तथा विमलोऽज शरत्कालिक रजनी गतत्वेन निमलो ग्रहगणो ग्रहसमूह-स्तेन समा ममा कान्तिासां तास्तामा, पद. द्वयोः समाहारद्वन्द्वः, 'वितिमिरकरमूरपसरिउज्जोय चिल्लियाहि' वितिभिरकर दीवेटों-पर ये दीपोंकी पंक्तियां रखी गई हो वे दीवेट कंचन के बने हो, मणियों के बने हों और रत्नों के बने हों फिजिनमें न स्वाभाविक मैल हो और न आगन्तुक मैल हो ऐसे निर्मल हों तथा जो महोत्सव के समय में ही स्थापित करने के योग्य हो तथा जिन दीवेटों के दण्ड तपनीय सुवर्ण विशेष-ले दीप्त हो और जिनके ऊपर वह दीपावली 'सहसा पज्जलिय अलवियणितेय दिपंतविमलमहगणसमपमाहि' एक साथ ही एक ही स्त्रय जलाई गई हो और बत्ती को उसकेर कर जो अधिक प्रभा कालीकी गई हो और इसी से जिनकालेज ऐलामनोहर हो गया हो जैसा कि शरत्कालकी राशि में धूलि वगैरह रूप आवरण के अभाव से ग्रहगणों का-चन्द्र आदिकों का हो जाता है 'चितिमिरकर महरियत वणिज्जुज्जल विचित्तदंडाहि दी वेयाहि' रे दीवायानी दीव। ५२ मा દીવાઓ ની પંક્તિ રાખવામાં આવી હોય, તે દીવેટો સુવર્ણની બનેલી હોય છે મણિની બની હોય છે, અને રાની બની હોય છે, કે જેમાં સ્વાભાવિક મેલ ન હોય, તેમ આગંતુક મેલ પણું ન હોય, એવી નિર્મલ હોય, તથા જે મહોત્સવના સમયેજ સ્થાપિત કરવા લાયક હય, તથા જે દીવેટોને દંડ તપનીય કહેતાં સુવર્ણ વિશેષથી પ્રકાશમાન હોય અને જેના ઉપર એ દીપાવલી हीवानी ५४ती 'सहसा पज्जलिय ऊसवियणिद्धतेय दिपंत विमलगहगणसमप्पमाहिए એકી સાથે અને એક જ સમયે પ્રગટવામાં આવી હોય અને તેથી જ જે તેજ એવું મનહર બની ગયું હોય છે કે જેમાં શરદુકાળની રાત્રિમાં ધૂળ વિગેરે भावना मनावथा ईगीय विगैरे अडातुं ते हाय छे. 'वितिमिरकर सूरपसरिय उज्जोयचिल्लियाहि" मन मारने नाश ४२नारा २पाणा
Page #558
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवाभिगमस्टे सूर्य प्रस्नोयोत दीप्यमानाभिः, तत्र वितिमिराः उज्ज्वलाकारा:-किरणा यस्य अप्तौ वितिमिरकरः- समुज्वलोकरणः स चासौ मूरश्च तस्येव प्रसूत उद्योत:प्रभा समूहः तेन 'चिल्लि पाहि' देशी शब्दोऽयम् दीप्यमानामिरित्यर्थ', 'जाल ज्जल पहसियामिरामा हि' ज्वाले.ज्ज्वल महसिताभिरामामिः तत्र ज्वाला एच यदुज्दलं प्रहसिबमिव महसित प्रहसनं तेन अभिरामा:-रमणीयास्ताभिर्दीपिकामि: 'सोभेमाणा' शोभमानाः 'हेव ते दीवसिहा वि दुमगणा' तथैव ते द्वीपशिखा थपि द्रुमगणाः ‘णेगबहु विविवीससापरिणयाए उज्जोयविहीए उबवेया' 'अणेगबहुविविध-दिसापरिण तेन उद्योतविधिनोपपेताः 'फलेहिं पुण्णा' फलैः पूः 'विसट्टलि' दलन्ति-विकसन्ति 'कुसविकुम वि० जाव चिट्ठति' कुशवि. कुश विशुद्ध क्षमूला मूल दन्तः कन्वन्तो यावत्तिष्ठन्ति इति ।४। सूर पलरिय उज्जोध चिल्लियाहिं' और जो अन्धकार विनाशक हिरणों शले सूर्य की फैली हुई प्रभा के जैसी चमकीली पनी हुई हो तथा-'जालजलपसिधाभिरामादि' जो अपनी मनोहर उज्दल प्रभा ले मानो हंछ सी रही हो ऐसी प्रनीति में आरही हो तो जैसी-'सोभेसागा' वह दीपावली शोभित होती है 'तहेब' उसी तरह से 'ते दीव सिहा कि दुमपणा' दीपशिखा नाम के कल्पवृक्ष भी 'अणेग बहु विधिहवीलता परिणघाए उज्जोयविहीए उक्वेषा फलेहिं पुण्णा' अनेक विविध प्रकार के उद्योत परिणाम से स्वभावतः परिणत होने बाली उद्योत विधि से युक्त होते हैं तथा-फलों से परिपूर्ण यने रहते हैं इनका भी नीचे का नाम 'कुलविकुस' कुश और विकुश से रहिल होता है और ये भी प्रशस्त मूल आदि विशेषगों वाले होते है। तात्पर्य यही है कि जिस प्रकार से यहां दीपक अनेक प्रकार के होते हैं सूर्यना वय ५४ शनापी यमसी मने लय तथा 'जालुज्जल पहसि याभिरामाहि' २ पोतानी मनोहर मन EN२९ असाथी माना सी २४० होय, मेवी मात्री थती हाय तो हीमा व 'सोभेमाणा' माय मान थ.य छे, 'तहेव' मे प्रमणे 'ते दीव सिहावि दुमगणा' हीपशिमा नामना ४६५ वृक्षपाय 'अणेगबहु विविहवीप्सापरिणयाए उज्जोयविहीए उववेया फळे हिं पुण्णा' विवि५ ५४२ना भने धोत परिणामथा स्वमाया परिणत થવાવાળી ઉદ્યત વિધીથી યુક્ત હોય છે તથા ફળથી પરિપૂર્ણ બનીને २९ छ. तेनी नायने। माग 'कुस विकुस' हुश अन विश विनाना હોય છે અને તે પણ પ્રશસ્ત મૂળ વિગેરે વિશેષ વાળો હોય છે. આ કથનનું તાત્પર્ય એજ છે કે જેમ અહિયાં અનેક દીવાઓ હોય છે, એજ
Page #559
--------------------------------------------------------------------------
________________
ज्योतिषिक देवाधिदेव
प्रमेयधोतिका टीका म.३ उ.३ ७.३४ एकोस्कद्वीपस्याकारादिनिरूपणम् ५३५ ___ भय पञ्चमकल्पवृक्षस्वरूपमाह 'एगोरुय दीवे' इत्यादि 'एगोल्य दीवेणे' एको. सक द्वीपे खलु 'तस्थ २' तत्र तत्र देशे 'वहवे-'जोइसियाणामदुमक्षणा पण्णता समणाउसो' बहवो ज्योतिषिका नाम द्रुमगणाः प्रज्ञप्ता:-कषिताः, हे श्रमण आयुष्मन् ! ज्योतींषि ज्योतिषकाः देवाः से एव ज्योतिषिकाः, अब ज्योतिषिक शदेन ज्योतिष्क देवाधिपतित्वात् सूर्य प्रत्यते सूर्य प्रकाशकारित्वेन वृक्षा अपि ज्योतिषिकाः कीदृशास्ते ? तबाह-'जहा से अधिकागयसरय सरमंडल पड़त. उक्कासहस्सदिपंतविज्जुज्जालहुयवहनिर्धमजलिय निद्धंत धोयतत्त तवणिज्ज किन्नु पाप्सोयन वाकुसुम विमउलिय पुनमणिर षणकिरण मञ्च हिंगुलयणिगर रूचावैसे ही वे कल्पवृक्ष भी अनेक प्रकार के होते हैं ।।।
पांचवें कल्पवृक्ष का स्वरूप कथन _ 'एगोरुय दीवेणं उस एकोरुक नाम के द्वीप तथ्य २' जाह २ 'यहवे जोतिरिया णाम दुमक्षणा पता अनेक ज्योतिषिक नाम के द्रुमगण कल्पवृक्ष-कहे गये हैं यहां ज्योतिषिक शब्द से ज्योतिषित देव लिये जाते हैं यहां ज्योतिषिक देवाधिपति सूर्य होने से सूर्य गृहीत हुआ है जैसा सूर्य सर्वत्र प्रकाश करता है वैसा ही प्रकाश ये ज्योतिपिक कल्पवृक्ष भी करते हैं-अतः प्रकाशकारित्व की समानता को लेकर इन पृक्षों का नाम भी ज्योतिषिक ऐला हो गया है ऐसे वहां ज्योनिषिक नामक द्रुमगण हैं-हे श्रमण आयुष्मन् ! वे कैसे हैं ? उनका वर्णन करते हैं-'जहा से अचिरुग्णयसरयसूरमंडलपडतासहस्त दिप्पल विज्जुनालहुयवह निर्धमजलिय निद्धंन धोयत्तत्ततवाणिज्ड मिसुथा પ્રમાણે આ કલપવૃક્ષ પણ અનેક પ્રકારના હોય છે. ૪
पायमा वृक्षना स्व३५नु वे ४थन ४२वामां आवे छे. 'एगोव्य दीवेणं' ते ३४ नामना द्वीपमा 'तत्थ तत्थ' स्थणे स्थणे 'ववे जोतिसिया णाम दुमगणा पण्णत्ता' अन यातिषि नामना भग ४५वृक्ष द्या छ. गडियां
તિષિક શબ્દથી તિષિકદેવ લેવામાં આવેલ છે. અહિયાં તિષિક દેવના અધિપતિ સૂર્ય હોવાથી સૂર્યને ગ્રહણ કરાયેલ છે. સૂર્ય જે પ્રમાણે સર્વત્ર પ્રકાશ કરે છે. એ જ પ્રમાણેનો પ્રકાશ આ તિષિક નામના ક૫ વૃક્ષો પણ કરે છે. તેથી પ્રકાશ કે રિતાના સમાન પણને લઈને આ વૃક્ષેના નામ પણ જ્યોતિષિક એ પ્રમાણે થયા છે એવા એ જોતિષિ; નામના દ્રગણ છે है श्रभर मायभन् । सेवा छ ? तनु वय न ४२वाभा भाव छ, 'जहाले अविरुग्गय सरय सूरमडलपडत उक्कासहस्सदिप्प विज्जुज्जालहवह निद्रमअलिय निदंत घोयतत्ततवणिज्ज फिस्रयासोयजवाकुसमविमउलियजमणिरयण
Page #560
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमले हरेगा ' यथा से अचिरोद्गत-कालोदित्त शरस्मयमण्डपठदुल्कासहस दीप्यमान विधुज्जाद यह निधूप्रज्वलित निर्मातधीततप्तपनीयकिंशुका. शोक नपाकुसमविमुकुलित पुजमणि रत्नकिरण जात्यहिड्गुलक निकररूपाति. रेकरूमा, दत्र कल्पक्षाः कीशा इति तेषां रक्तवर्ण वर्ण यति-'जहा तेथचिहागर' इत्यादि, अचिरोद्गता तहकालोदितं शरत्कालिक सूर्यमण्डलम्, यया पा पत्तदुलकासह दीप्यमानं विद्युज नालम् विद्युहकम् यथा निधूमो धृमरहितो जालियो दीप्तो पो हुमबहः अग्नः निधूम उबलिरपदयोः परनिपात: सौत्रत्वाद, तथा नि.निमग्नि संयोगेन शापितं पुनश्च धोतं-शोधितं पुनस्तप्तं च तादृशं तपनीयं-सुवर्णविशे। तथा-भत्र कुमुप शब्दम्य शुिक्राशोम-जपाशब्दैः सह प्रत्येकं सम्बन्धम्तेन विमुकुलितं विकसितमफुल्लिर यत् विशुफकुसुमम् अशोक कुलपम्, जपाकुसुपं चेति, ते पुजः, समुदाय, तथ। मणिरत्नानां किरणाः, तथा जात्यहि गुलकनिकरः शुद्धः-जातीय हिंगुळकसमुदायः, एतेषां पूर्वोक्तानामचिः रोद्गतशरत्सूर्यादीनां रूपेभ्योऽतिरेकेण अतिशयेन यथायोग्यं वर्णतः प्रभया च रूपं-स्वरूपं येषां ते तथा! 'तहेव ते जोइसिया वि दुमगणा' तथैव अचिरोद्गत सोय जवा कुस्तुमविमउलिय पुज मणिरयणकिरण जच्चहि गुलय णिगररूबाइ रेगरूवा' जैसा अचिरोद्गत तुरंत उदित हुवा शरद कालका सूर्य मण्डल, गिरता हुभा उल्का सहन, चमकती हुई विजली ज्वाला सहित निर्धूम प्रदीप्त अग्नि, अग्नि संयोग से शुद्ध हुमा तप्ततपनीय सुवर्ण विकसित हुए किंशुक पुष्पों अशोक पुष्पों,
और जपापुष्) का समूह, मणियों एवं रत्नों की किरणे एवं श्रेष्ठ 'जातिवं' हिंगुलका समुदाय अपने२ स्वरूप से अधिक सुहावना लगता है-या अधिक तेजस्वी होता है 'तहेव ते जोनिसिया वि दुमगणा' उसी प्रकार से ये ज्योतिषिक अल्पवृक्ष भी हैं अर्थात् सूर्यादिक के जैसे प्रकाश देने वाले ये कल्पवृक्ष भी अधिक तेजस्वी होता हैं। 'अणेग यह किरण जच्च हि गुलुय णगर रूबाइरेगरूवा' म तरतना l श२६ કાળને સૂર્ય પડતી એવી ઉલકા સહસ, ચમકતી વિજળીની વાલા સહિત ધૂમાડા વગરના અગ્નિના સંગથી શુદ્ધ થયેલ તપેલું સેતું, ખીલેલા કેસુડાના પુપિ, અશોકના પુપ, અને જપા-જાસ્વતિના પુપને સમૂહ, મણિ અને रत्नान।२२। मन श्रेष्ठ 'जातिवत' हगणानी समुदाय पातयाताना २१३५ थी वधारे । मायमान सा छे अथवा पधारे तस्वी हाय छे. 'तहेव ते जोतिसयावि दुमगणा' मे०४ प्रमाणे मास्यातिषिः भग। ५५ छ. अर्थात् સૂર્ય વિગેરેની જેમ અધિક પ્રકાશ આપવાવાળા આ કલ્પવૃક્ષો પણ અધિક
Page #561
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयथोतिका टीका प्र.३ उ. ३ सू.३५ एकोरुकद्वीपस्याकारादिनिरूपणम्
"
सूर्यादिवदेव ते ज्योतिषिका अपि द्रुमगणाः, 'अणेग बहुविविहवीससा परिण याएं उज्जयविदीए उपवेया' अनेक बहुविविध दिवसापरिणतेन उद्योत विधिना • उद्योत प्रकारेण उपपेंता युक्ताः 'मुद्दलेस्सा' शुभलेश्याः अथ यदि सूर्यमण्डल त् इक्षा अपि प्रकाशकास्तर्हि सूर्यादिवदेव दुर्निरीक्ष्यत्व तीव्रत्व जङ्गमत्वादि धर्मोपेता अपि ते वृक्षा भविष्यन्तीश्यत आह- 'सुइलेस्सा' शुभलेश्याः शुभाः तेजः पद्म शुक्लरूपाः सुखा सुखकारिणी वा लेश्या येषां ते शुभलेश्याः सुखलेश्या वा, तथा वा अपि 'मंदलेक्सा' मन्दा तीव्रता रहिता लेश्या येषां ते मन्दलेश्याः, अतएव 'मंदावलेस्सा' मन्दातपलेश्याः, मन्दातपः- मन्दो य आतपः सूर्यप्रकाशस्तत्सदृशा लेश्या येषां ते मन्दात्पलेश्याः, सूर्यमण्डळाद्यातपस्य तेजो था दुस्सहं भवति न तथा तेषां वृक्षाणां तेजो दुःसह मित्यर्थः, 'कूडा इव ठाणठिया' कूटानीव स्थानस्थिताः, तत्र कूटानि पर्वतादि शृङ्गाणि तद्वत् स्थानस्थिताः स्थिरा इत्यर्थः, समयक्षेत्र बहिर्वर्त्तिनो ज्योतिका इत्र ते वृक्षा अवभासयविविहवी से सापरिणयाए उज्जोयविहीए उववेद्या' इस प्रकार की वस्वभाव से ही परिणत होने वाली अनेक रूपवाली उद्योत विधि से युक्त होते हैं । 'सुहलेस्सा' इनकी लेइया सुख कारिणी है. सूर्यादिक के प्रकाश जैसी दुर्निरीक्ष्य नहीं है आतापकारिणी नहीं है 'मंदलेस्सा' किन्तु मंद है तथा 'मंदायवलेस्सा' इनका जो आताप है वह भी मन्द है तीव्र नहीं है सूर्यातप समयानुसार दुःसह भी होता है वैसा इनका आताप प्रकाश दुःसह नहीं है 'कूडा इव ठाणठिया' जिस प्रकार पर्वतादि के शिखर एक स्थान पर बने रहते हैं-खड़े रहते
- अचल रहते है- अर्थात् समय क्षेत्र से बाहर रहा हुवा जैसा ज्यो. तिष्क मण्डल एक स्थान पर अचल कहा गया है वैसे ही ये भी अपने
तेन्स्वी छे, 'अोग विविहवीससां परिणाए उज्जयविहीए खवेया' मा પ્રકારના સ્વભાવથીજ પરિણત થવાવાળા અનેક રૂપવાળી ઉદ્યોત વિધિથી યુકત होय छे. 'सुइलेस्सा' तेभनी बेश्या सुभारिणी होय छे. सूर्य विगेरेना अभ શની જેમ ન જોઈ શકાય તેવી તીવ્રરૂપ હેાતી નથી. તેમ તાપ પહેાંચાડવાવાળી पशु नथी 'म'दलेस्मा' तेनी बेश्या सुभ उरवावाजी छे. या भह है. तथा 'मंदावलेस्सा' तेने, ने याताय छे, ते दाशुभह छे, तीव्र नयी. सूर्यना તડકે સમય પ્રમાણે અસહ્ય પણ હાય છે. આના તપનામ પ્રકાશ એવા असा होता नथी. 'कूडाइव ठाणठिया' प्रेम पर्वत विगेरेना शिमरो भे સ્થાન પરજ સ્થિર રહે છે. અર્થાત્ અચલ રહે છે, અર્થાત્ સમય ક્ષેત્રની મહાર રહેલ જેમ જ્યાતિષ્કમડળ પણ એક સ્થાન પર અચળ રહે છે, એજ
जी० ६८
Page #562
--------------------------------------------------------------------------
________________
५२८
भीमाभिगम न्तीति भावः। 'अन्नमान-समोगाहाहि लेस्साहि' अन्योऽन्य समयगादाभिलेश्यामि सहितास्ते वृक्षाः 'साए पभाए सपएसे सम्बो समंता ओमासंति' ते वृक्षाः स्वकीयया प्रभया स्वमदेशान् सर्वतः सर्वासु दिक्षु समन्ताद सामस्त्येन अवमासन्ते 'उज्जोउ ति पभासे ति उद्योतन्ते सभासन्ते 'कुसक्कुिप्त वि जाव चिटुंति' कुशविकुश विशुद्ध वृक्षमूला यावत् मूलकन्दादिमन्तः प्रासदीया दर्शनीया अमि. रूपाः पतिरूपस्तिष्ठन्तीति, व्याख्यानं पूर्ववदेव ज्ञातव्यमिति ५॥ मू० ॥३५॥
मूलम् -एगोरुय दीवे तत्थ २ वहवे चित्तंगा णाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो! जहा से पेच्छाघरे विचित्ते रम्मे वरकुसुमदाममालुज्जले भालंत मुक्कपुप्फपुंजोवयारकलिए विरल्लि विचित्त मल्लसिरिदाममल्लसिरि समुदयप्पगम्भे गंथिम वेढिम प्ररिम संघाइमेण मल्लेण छेयसिप्पियं विभागरइएण सव्वओ चेव समणुबद्ध पविरललंबंत विप्पइट्ठहिं पंचवण्णेहि कुसुमदामहिं सोभमाणेहिं लोभलाणे वणमालकयगाए चेव दिप्पमाणे तहेव ते चित्तंगया वि दुमगणा अणेगवहुविविह वीससा परिणयाए मल्लविहीए उववेया कुपविकुलविसुद्ध जाव चिटुंति६। एगोस्य स्थान पर अचल रहते हैं 'अन मन्न समोगाढाहिं लेस्साहि साए पभाए सपदेसे सम्वो लमंता ओभासेंति' एक दूसरे में समाये हुए अपने प्रकाश द्वारा ये अपने प्रदेश में रहे हुए पदार्थो को सय दिशाओं में सम्पूर्ण रूप से प्रकाशित करते हैं 'कुल विकुस जाप चिट्ठति' इन पदों का व्याख्यान पूर्व के ही जैसा है। तात्पर्य यही है कि जैसे ये प्रकाश शील पदार्थ विविध प्रकार के हैं सभी प्रकार से ज्योतिषिक नामक कल्पवृक्ष भी अनेक प्रकार के हैं। सूत्र ३५॥ प्रमाणे मा ५४ पोताना स्थान ५२ सय २७ छे. 'अन्नमन्नसमोगाढाहि लेस्साहि साए पभाए सपदेसे सव्वओ समता ओभासेति' से, मीतमा સમાવેલા પિતાના પ્રકાશ દ્વારા આ પિતાના પ્રદેશમાં રહેલા પદાર્થોને બધીજ त२५थी गधा हिशयामा सपू पाथी प्रशित ४२ छ. 'कुस विकुसजाव चिति' मा ५होना म ५सा हा प्रभाग छ वानु तात्पर्य सका છે કે જેમ આ પ્રકાશશીલ પદાર્થ અનેક પ્રકારના હોય છે, એજ પ્રમાણે આ જાતિક નામના ક૫ વૃક્ષ પણ અનેક પ્રકારના છે. સૂ. ૩પા
Page #563
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमैयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ शु.३६ पकोरुकद्वीपस्थितमगणवर्णनम् ५३९ दीवे तत्थर बहवे चित्तरसा णाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो ! जहा से सुगंधवरकलमसालि विसिट निरूवयदुद्धरद्धे सारयघयगुड खंडमहुमेलिए अइरसे परमण्णे होज उत्तम वपणगंधमंते रणो जहा वा चक्वट्टिस्स होज्ज णिउणेहि सूयपुरिसेहि सजिएहिं वाउकप्पलेय सित्ते इव ओदणे कलमलालिणिवत्तिए विपक्के सव्वप्फमिउ विसयलगल सित्थे अणेगसालणगसंजुत्ते अहवा पडिपुण्ण दवुनखडेसु सक्कए वण्णगंधरसफरिसजुत्त बलबीरिय परिणामे इंदिय बलपुद्विवद्धणे खुप्पिवासमहणे पहाण कुहियगुलखंडमच्छंडी घयउवणीए पमोयगे साहसमियगन्भे हवेज परमइट्रंगसंजुत्ते तहेव ते चित्तरसा वि दुमगणा अणेगबहुविविह वीससा परिणयाए भोयणविहीए उववेया, कुसविकुस विसुद्ध जाव चिटुंति७। एगोरुय दीवेणं तत्थ तत्थ बहवे मणियंगाणाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो ! जहा से हारद्ध. हार वट्टणगमउडकुंडलवामुत्तग हेमजाल मणिजालकणगजालग सुत्तगउच्चिइयकडगा खुड्डिय एगावलि कंठसुत्तपगरिय उरक्खंध गेवेज सोणिसुत्तगचूलामणिकणग तिलगफुलसिद्धस्थय कण्णवालि ससिसूर उलभचकगतलभंगतुडियहत्थमालगवलक्खदीणारमालिया चंदसूरमालिया हरिसय केयूरवलय पालंब अंगुलेजग कंचीमेहलाकलाब पथरगपाडिहारिय पाउन्जलघंटिय खिखिणि रयणोरुजालस्थिमियवरणेउरचलणलालिया कणगणिगरमालिया कंचणमणिरयणभत्तिचित्ता भूलगविहि बहुप्पगारा तहेव ते मणियंगा वि दुसगणा अणेगबहुविविह वीससा परिणयाए भूमणविहीए उक्वेया, कुपत्रिकुस विसुद्ध जाव चिटुंति। एगोरुय दीवे तत्थर बहवे गेहागारा नाम दुमग़णा पण्णत्ता सम
Page #564
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवाभिगमसू त्रै
५४०
नाउसो ! जहा से पागारहालगचरिय दारगोपुर पासाया कासतलमंडव एगसाल विसालग तिसालगचउरंस चउसालगन्भघरमोहणघर वलभिघर चित्तसालमालयभत्तिघर वहतंस उरंस नंदियावत संठियायत पंडुरतल मुंडमालहम्मियं अहवणं धवलहरअद्धमागह विब्भमसेलद्ध सेल संठिय कूडागारड्डू सुविहिकोट्ठग अणेगघर सरणलेण आवण विडंगजालचंद णिज्जूह अपवरक दो वारिय चंदसालियरूव विभत्तिकलिया भवणविहि बहुविगप्पा तहेव ते गेहागारा वि दुमगणा अणेग बहुविविह वीससा परियाए सुहारुहण सुहोताराए सुहनिक्खमणप्पवेसाए दद्दरसोप्राणपंति कलियाए पइरिक्काए सुहविहाराए मणोऽणुकूलाए भवणविहीए उववेया, कुसविकुविसुद्ध जाव चिट्ठति ९ । एगोरुयदीवे तत्थर बहवे अणिगणा णामं दुमगणा पण्णत्ता समपाउसो ! जहा से अगसो आजिणन खोम कंबल दुगुल्लकोसेजकालमिग पट्टचीणंसुय वरणातवार वणिगय तुआ भरणचित्तसहिणगकल्लाणगभिंगिणीलकज्जल बहुवण्णरत्तपीयसुकिलमक्खयमिगलभिहमप्फ रुण्णग अवसरत्तगसिंधु असभदानिलवंगकलिंग नेलिणतंतु मय भत्तिचित्ता वत्थविहि बहुप्प - कारा हवेज्जवरपट्टणुग्गया वण्णरागकलिया तहेव ते अणियणा वि दुमगणा अणेग बहुविविह वीससा परिणयाए वत्थ विहीए उववेया कुसविकुसविसुद्ध जाव विट्टंति१० ॥ सू० ३६॥
छाया - एकोरुकद्वीपे तत्र तत्र वहवचित्राङ्गानाम द्रुमगणाः प्रज्ञप्ताः श्रमणायुष्मन् ! यथा तत् प्रेक्षागृहं विचित्रं रम्यं वरकुसुमदाम-माकोज्वळ भासमानमुक्त पुष्पपुञ्जोपचारकलितम्, विरल्लित विचित्र माल्य श्रीदाममाल्य श्रीसमुदाय प्रगल्भं ग्रन्थिम वेष्टिम पूरिम संघातिमेन माल्येन छेक शिल्पि विभागरचितेन सर्वत एव समनुवदूधम्मविरलम्बमान विपकृष्टेः पञ्चवर्णैः कुसुमदामभिः शोभ
Page #565
--------------------------------------------------------------------------
________________
५४१
प्रतिका टीका प्र.३ उ. ३ छू.२६ एकोरुकद्वीप स्थितद्रुमगणवर्णन मानैः शोभमानं वनमाळकृतानमेव दीप्यमानम्, तथैव ते चित्राङ्गका अपि द्रुमगणः अनेक बहुविविध वित्रसावरिणतेन माल्यविधिन्ना उपपेताः कुशविकुश विशुद्ध यावतिष्ठन्ति ६ । एकोरुरुद्वीपे तत्र तत्र वदवश्चित्ररसा नाम दुवगणाः प्रज्ञप्ताः श्रमणा युष्मन् ! यथा तत् सुगंधावर कळमशालिविशिष्ट निरुपहरु दुग्धराद्धम्, शारद घृतगुडखण्डमधुमेकित मतिरसं परमान्नं भवेत् उत्तमवर्णगन्धवद राज्ञो यथा वा चक्रवर्त्तिनो भवेत् निपुणेः सूपपुरुः सज्जितैः चष्फल सेकसिक्त इचौदनः कलमशालि निर्वर्त्तितो विपक्वः सवाष्पमृदु विशदसकल सिक्थः अनेक शालनकसंयुक्तः अथवा परिपूर्ण द्रव्योपस्कृतः वर्णगन्धरसस्पर्शयुक्तवचवीर्यपरिणामः इन्द्रियबलपुष्टिवर्द्धनः क्षुत्पिपासामथनः प्रधानक्वथित गुड खण्ड मत्स्यण्डिका घृतोपनीतः प्रमोदकः कक्ष्ण समितगर्भो भवेत् परमेष्टाङ्ग संयुक्त स्वथैव ते चित्ररसा अपि द्रुमगणा अनेक बहुविविध वित्रसापरिणतेन भोजनविधिनोपपेताः कुशविकुश विशुद्ध यावतिष्ठन्ति ७ । एकोरुकद्वीपे खलु तत्र तत्र बहवो मण्यङ्गानाम द्रुमगणाः प्रज्ञप्ताः श्रमणायुष्मन् ! यथा ते हारार्द्धहारवर्तनक मुकुट कुण्डल वामुत्तग हेमजाल मणिजाल कनकजाळक-सूत्रोकोच्यायित कटकक्षुद्रकैकावलि कण्ठसूत्रमकरिकोरः स्कन्धग्रैवेयक श्रोणीसूत्रक चूडामणि कनकतिलकपुल्ल सिद्धार्थककर्णपालिशशि सूर्यऋषभचक्रकतल भंग त्रुटितदस्त माळकर कक्षदीनारमालिका चन्द्रसूर्यमालिका हर्षक केयूरवलय मालम्बाङ्गुलीयककाञ्ची मेखलाकलापमतरकमातिहारिक पादोज्ज्वल घण्टिका किङ्किणीरत्नोरुजाकस्तिमित वरनूपुरचरणमळिका कनकनिकरमाळकाकाञ्चन मणिरत्नभक्तिचित्रा भूषणविधि बहुमकारा स्वथैव ते nort अपि द्रुमगणाः अनेक बहुविविध विस्रसापरिणतेन भूषण-विधिनोपपेताः कुशविकुश विशुद्ध यावतिष्ठन्ति ८ । एकोवकद्वीपे तत्र तत्र बहवो गेहाकारानाम द्रुमगणाः प्रज्ञप्ताः श्रमणायुष्यन् ! यथा ते माकाराट्टालक चरिकद्वार गोपुरमासा दाको तल मण्डपे शाळ-द्विशालक त्रिशालक चतुरस्र चतुःशाक गर्भगृह मोहनगृहवळभी गृह चित्रशालपालकभक्तिगृह वृत्तत्रयंत्र चतुरस्रनन्दिकावर्त संस्थितायतपाण्डुरतलम्ण्डनालहर्म्यम् अथवा खलु धवलहरादूर्द्ध मागध-विभ्रमशैलादूर्धशैल संस्थित कूटाकारस्थ विधि कोष्टकानेकगृह-सरणलयनापण विडंक जाल चन्द्र नियू हा पचरक द्वार चन्द्रशालिकारूप विभक्ति कलिता भवन विधिवहुविकल्पाः तथैव ते गेहाकारा अपि द्रुमगणाः अनेकवहुविविवित्र सापरिणताः सुखारोहणेन सुखोत्तारेण सुखानिष्क्रमणः प्रवेशेन दर्दरसोपानपंक्तिकलितेन प्रतिरिक्तेक सुखविहारेण मनोऽनुकूलेन भवनविधिनोपेताः कुशविकुश विशुद्ध वृक्षमूळा यावत्तिष्ठन्ति ९ । एकोरुकद्वीपे तत्र तत्र वस्त्रोऽनग्नानाम द्रुम गणाः प्रज्ञताः श्रमणायुष्मन् ! यथा ते अनेक आजिनकक्षौमकम्बलदुकूलकौशेय कालमृत पहुचीनांशुकरणात वरवणि• गयतु आमरण चित्रश्लक्ष्ण कल्याणक भृङ्गीनांकज्जल - बहुवर्ण रक्तपीतशुक्ल
-
Page #566
--------------------------------------------------------------------------
________________
બહેર
जीवाभिगमसूत्रे
म्रक्षितमृगको महेम अदरुत्तरंग सिन्धुऋषभ - तामिलवंग कलिङ्ग नेलिन तन्तुमय भक्तिचित्रा वस्त्रविधि बडुपकाराभवेयुर्वर पवनोद्गताः वर्णराग कलितास्तथैव ते अनग्ना अपि द्रुमगणाः अनेकवहुविविध विस्रसापरिणतेन वस्त्रविधिनोपपेराः कुशविकुश विशुद्ध यावत्तिष्ठन्ति १०॥ सू० ३५ ॥
टीका- ' एगोदीवे' इत्यादि । ' एगोरुपदीवे तत्थ २ एकोरुकद्वीपे तत्र तत्र देशे 'वहवे चितंगा णाम दुमगणा पन्नत्ता समणाउसो' बहवोऽनेके चित्राङ्गा नाम द्रुमगणाः- कल्पवृक्षाः प्रज्ञप्ताः - कथिताः हे श्रमण आयुष्मन् ! चित्राणि - नानाविधानि अङ्गानि वस्तुविभागरूपाणि तत्संपादकत्वाद् वृक्षा अपि चित्राङ्गाः कथ्यन्ते । 'जहा से पेच्छाघरे' यथा तत् प्रेक्षागृहम् - नाटयशाला 'विचित्ते' विचि' त्रम्-नानायकारक चित्रोपेतम् अवएव 'रम्मे' रम्पम् - द्रष्टृणां मनस आल्हादजनकम्, पुनः कथं भूतं प्रेक्षागृहम् तत्राह - 'वरकुसुमदाममालुज्जले' वरकुसुम
छठे कल्प के वृक्ष का वर्णन
'एगोरु दीवे तत्थ २ पहवे चित्तंगा नाम दुमगणा पण्णत्ता' इ० टीकार्थ- हे भ्रमण आयुष्मन् ! उस एकोरुक नाम के द्वीप में जगह २ 'बहवे चित्तगा नाम दुमगणा पण्णत्ता' अनेक चित्राङ्ग नाम के कल्पवृक्ष कहे गये हैं । ये कल्पवृक्ष मांगल्य के कारण मृत अनेक प्रकार के चित्रों को प्रदान करते हैं इस लिये उनके प्रदाना होने के कारण उनका नाम भी चित्राङ्ग हो गया है वे कैसे हैं उनका वर्णन करते हैं- 'जहा से पेच्छाघरे' जैसा कोई प्रसिद्ध प्रेक्षागृहनाट्यशाला हो 'विधित्ते' नाना प्रकार के चित्रों से युक्त होकर 'रम्मे' देखने वालों के मन को आहलाद देता है, और जिस प्रकार वह 'वर कुसुमदाम मालुज्जले '
हुवे छट्ठा उस्य वृक्षतु वर्षान अश्वामां आवे छे 'एगोरुग दीवे तत्थ तत्थ बहुवे चित्तंगा णाम दुमगणा पण्णचा' हत्याहि.
ટીકા-ડે શ્રમણુ આયુષ્મન એ એકેક નામના દ્વીપમાં સ્થળે સ્થળે 'बहवे चित्तंगा नाम दुमगणा पण्णत्ता' चित्रांग नाभना ने यवृक्षा उडेल છે. આ કલ્પવૃક્ષો માંગલ્યના કારણભુત અનેક પ્રકારના ચિત્રા આશ્ચર્ય જનક વસ્તુ આપતા રહે છે. તેથી ચિત્રા આપનાર હૈાવાથી તેનુ નામ પણ ચિત્રાંગ એ પ્રમાણે થયેલ છે. તે કેવા છે ? તે સંબંધમાં તે વૃક્ષોનું હવે વર્ણન કર્ वामां आवे छे. 'जहा से पेच्छा धरे' प्रेम प्रसिद्ध प्रेक्षाथडे नाटउशाजा होय, 'विचित्ते' ते अने! अहारना यित्रोथी युक्त थाने 'रम्मे' हेभवावाजाना भनने अत्यंत प्रसन्नता उत्पन्न ४रे हो, भने प्रेम ते 'वरकुसुम दाम मालुज्जले' श्रेष्
Page #567
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
-
-
-
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ ३.३ २.३६ एकोहकसरीपस्थितनुमगणवर्णनम् ५४३. दाममालोज्वलम् वरकुसुपदाम्नां माला:-श्रेयस्वामिरुज्वलम् अतिशयितशोभाकारकम् 'भासंतमुक्कपुप्फ पुंजोवयारकलिए' भासमानमुक्त पुष्पपुञ्जोपचारकलितम् विकासितवया मनोहारत्या भासमानो दीप्यमानो मुक्तो यः पुष्पपुखोपचारस्तेन फलितं युक्तम् 'विरल्लिय विचित्तमल्लसिरिदाममल्लसिरि समुदयप्पगम्भे' विरल्लित विचित्र माल्य श्रीदाम माल्यश्री समुदय प्रगलमम्, तत्र विरल्लितानि-- विस्तारितानि विचित्राणि यानि माल्यानि श्रीदाममाल्यानि च-ग्रथित पुष्पमालाः तेषां या श्रीसमुदायः-- शोमामकर्षः तेन प्रगल्भम-अतीव परिपुष्टम् 'गंथिमवेदिमरिमसंघाइमेण मल्लेण छैयसिप्पिविभागरइएण' ग्रन्थिमवेष्टिम पूरिमसंघातिमेन माल्येन छेशिल्पिविभागरचितेन, तत्र ग्रन्थितं कौशलातिशयात्- पुष्पाणां प्रन्थिसमुदायेन निसितम्, सूत्रेण प्रथितं चा वेष्टिमम्-पुष्पसमुदायेन वेष्टयित्वा वेष्टयित्वा यनिर्मित तत् संघातिमम्-संघातेन समूहेन निर्मितम्, यत् पुष्पाणां परस्परतोनाल संघातेन संघातितम् पुष्पं पुष्पेण परस्परं नालपदेशेन संयोज्य संयोज्य निर्मितम् । एवं विधेन चतुष्प्रकारकेण माल्येन माल्या कीदृशेन ? इत्याह-छेकश्रेष्ठ पुष्पों की सुन्दर २, मालाओं से अतिशय रूप में शोभित होता है, 'भासंत मुक्कपुप्फपुंजोवयारकलिए' तथा-विकसित होने से मनोहर बने हुए दीप्यमान ऐसे इधर उधर पडे पुष्प पुंजो से वह जैसा सुहावना लगता है 'विरल्लिय विचित्त सिरिदाममल्ल सिरि समुदयप्पगम्भे' तथा जैसा वह विरल पृथक पृथक् रूप से स्थापित की हुई विविध प्रकार की गूथी हुई मालाभों की शोभा के प्रकर्ष से जनमन हर्षक होता है. 'गंथिम वेढिम परिमसंघाइमेणं मल्लेण छेगसिपि विभागरइएणं सन्द ओचेच समणुबद्धे' ग्रन्थित जो चातुर्यता से फूलों की परस्पर गांठों से गूंथी हुई अथवा सूत्र से गूथी गई होती है-वेष्टित आपस में एक दूसरी माला के साथ तरके ऊपर तर करके धुण्यानी हर सु२ माणासाथी सत्यत मायमान हाय छ 'भासतमुक्क पुष्फपुजोवयारकलिए' तथा विसित हावाथी ते अत्यंत शलायमान मागे छे. "विरलियविचित्तसिरिदाममल्लसिरिसमुदयप्पगमे' तथा विस र જુદા જુદા સ્થાપિત કરવામાં આવેલ અને અનેક પ્રકારથી ગુંથવામાં આવેલ भागासोनी शासाना थी न भनने हुष 6 छे 'गंथिम वेदिह पूरिमसंधाइमेण' मल्लेण छेगसिपिविभागरइएणं सव्वओ चेव समवद्ध' थिम એટલે કે ચાતુર્યતાથી કુલની પરપર ગાંઠેથી ગુંથવામાં આવેલ અથવા દોરાથી ગૂંથવામાં આવેલ હોય છે વેષ્ટિત પરસ્પર એક બીજી માળાઓની સાથે ઉપર નીચે કરીને ગૂંથેલ હોય છે. પૂરતિ કોઈ આકૃતિ વિશેષના છિદ્રોમાં રૂપ
Page #568
--------------------------------------------------------------------------
________________
48
fterभिगमसूत्रे
शिल्पिना - परमर क्षेण कळावता विभागरचितेल- विभक्तिपूर्वक कृतेन 'सव्वओ 'चैव समनुषधे' सर्वः सर्वासु विक्षु समनुवदधम् 'पविरललंयंत विप्पडडेहिं ' प्रविरल - मानविप्रकृष्टैः वत्र मविरलैः पृथक् पृथक् भूतैर्लम्माः तत्र प्रवि एलत्वं मनागपि असंहतत्त्रमात्रेण भवति, तो विप्रकृष्ट प्रतिपादनायाह-त्रिमं कुष्टैर्महदन्तराः 'पंच वण्णेहिं पञ्चवर्णै:- काळनीलादिविशिष्टेः 'कुसुमदामेहिं' कुसुग्दामभिः - पुष्पमालाभिः 'सोभमाणेहि' शोभमानैः सुन्दरैस्तैः 'सोममाणे' शोभमानम् 'वर्णमालकगए चैव दिपमाणे' वनमाला वन्दनमाला कृता अग्र भागे यस्य तत् वनमालकृताग्रम् तथाभूतं संदीप्यमानम् अतिशयेन शोभमानं भवति । तत्र ते चित्तंगया वि दुमगणा' तथैव प्रेक्षागृहमिव ते चित्राङ्गका अपि गंधी गई होती है पूरित किसी आकृति विशेष के छिद्रों में पुष्पों को भर भर कर चतुराई के साथ की गई होनी है और संघातिमपुष्पों के वृन्द जिसमें एक दूसरे पुष्पों के वृन्दों के साथ संघातित कर मिलाकर गूंथे गये होती है. ऐसी ग्रन्थित, वेष्टित, पूरित और संघातिम के भेद से मालाएं चार प्रकार की होती है-सो चतुर कारीगर के द्वारा गंधी गई ये चारों प्रकार की मालाएं जिसमें बड़ी ही चतुराई के साथ सजाकर मत्र ओर रखी गई हों और इनके द्वारा जिसकी सौन्दर्य वृद्धि में अधिकता आगई हो' तथा 'पविरललंयत विप्पट्टे हिं' अलग अलग रूप से दूर-दूर पर लटकती हुई ऐसी 'पंचवण्णेहिं' पांच वर्णो वाली 'सोममाणेहिं' सुन्दर फूल मालाओं से 'सोभमाणे' शोभायमान 'वणमालयग्गए' जो विशेष रूप से सजाया गया हो तथा अग्रभाग में लटकाई गई वनमाला से जो विशेष रूप से चमक रहा हो तो ऐसा वह प्रेक्षा गृह जितना अधिक शोभा की वृद्धि से जो शोभा का
do
ભરી ભરીને ચતુરાઈપૂર્વક કરવામાં આવેલ હાય છે . અને સંઘાતિમ પૂષ્પાના સમૂહ જેમાં એક બીજા પુષ્પાના સમૂહની સાથે સાતિમ કરીને અર્થાત્ भेजवीने शूथैव होय छे. सेवी प्रथित, वेष्टित, पूरित, मने सधतिभना ભેદથી ચાર પ્રકારની માળાએ હાય છે. ચતુર કારિગર દ્વારા ગૂચવામાં આવેલ
આ ચારે પ્રકારની માળાએ કે જેમાં ઘણીજ ચતુરાઈની સાથે સમજાવીને બધી તરફ રાખવામાં આવેલ હાય, અને તેના દ્વારા જેના સૌદય વૃદ્ધિમાં વધારો थयेस डाय तथा 'पविरलल'ब' व विप्पट्टे हि अलग अलग ३ये दूर दूर सरगुती मेवी 'प'चवण्णेहिं' यांथ वर्षावाणी सुन्दर सभासाथ 'सोभमाणे' शोभायभान 'वणमालयग्गए' ने विशेष ३५थी सन्भववामां आवे हाय, तथा અગ્રભાગમાં લટકાવવામાં આવેલ તારણથી પણ જે વિશેષ પ્રકારથી ચમકી રહેલ
Page #569
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ सु.३६ एकोकद्वीपस्थितगमगणवर्णनम् ५४५ द्रमगणाः 'अणेग बहुविविड वीससापरिणयाए' अनेकबहुविविध विस्रसापरिणतेन 'मल्लविहीए उयवे या' माल्य-विधिनोपपेताः-युक्ताः सन्तः 'कुप्सवि कुस विसुद्ध जाव चिट्ठति' कुशविकुश दिशुद्ध वृक्षमूलाः मूलवन्तः कन्दवन्तो यावत्तिष्ठन्ति इति षष्ठकल्पक्षस्वरूपं वर्णनस् ६। ___'एगोरुयदीवे णं दीवे तत्थ २ वहवे चित्तरसाणाम दुमगणा पणता समणाउसो।' एकोरुकद्वीपे खज द्वीपे तत्र तत्र देशे बहवश्चित्ररसाः चित्रो मधुरादि भेदभिन्नत्वेन अनेकमकारक आस्वादयित्रणामाश्चर्यकारी तृप्तिकारी वा रसो येषां ते चित्ररसा नाम द्रुमगणा वृक्षाः प्रज्ञप्ता:-कथिताः हे श्रमण आयुष्मन् ! 'नहा धाम बन जाता है 'तहेव ते चित्तं गया वि दुमगणा' उसी तरह से ये चित्रांग जाति के कल्पवृक्ष भी 'अणेग बहु विविहवीससापरिणयाए मल्लविहीए उववेया' स्वभावतः अनेक प्रकार की माल्य विधि से परिणत होकर सुशोभित होते रहते हैं। 'कुल विकुल जाव चिटुंति' इन पदों का अर्थ पूर्वोक्त जैसा ही है ।६।
सातवें कल्पवृक्ष के स्वरूप का वर्णन इस प्रकार से है'एगोरुय दीवे तत्थ २, यह चित्तरसा णाम दुमगणा पण्णता समणाउसो' हे श्रमण आयुष्मन् ! उस्ल एकोरुक नाम के द्वीप में अनेक चित्ररस नाम के कल्पवृक्ष जगह२, कहे गये हैं। इनका मधुर
आदि नाना प्रकार का रस भोक्ता जनों को आश्चर्य कारी होता है एवं तृप्त कारी होता है अतः इस अनेक विध रस के सम्बन्ध से इन वृक्षों का नाम भी चित्र रस हो गया है वे किस प्रकार के होते हैं ? सो હેય, એવું તે પ્રેક્ષાગ્રહ જેટલા વધારે શેભાની વૃદ્ધિથી જે શેભાનું ધામ सनी लय छे. 'तहेव चित्तंगया वि दुमगणा' को प्रमाणे २ यित्रin andal ४६५ ५ 'अणेगवह विविहवीसखापरिणयाए मल्लविहीप उववेयो पसाવતા અનેક પ્રકારની માલ્ય વિધિથી પરિણત થઈને સુશોભિત થતા રહે છે 'कुसविकुस जाव चिट्ठति' २५॥ पनि पाउai LAL प्रमाणे छ. १,
हवे सातमा ५६५ वृक्षन। २१३५नु प न ४२वामा मावे छे 'पगोरुय दीवे तत्थ तत्थ बहवे चित्तरसाणाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो' है श्रम આયુશ્મન એ એકરૂક નામના દ્વીપમાં સ્થળે સ્થળે અનેક ચિત્ર રસ નામના વૃક્ષે કહ્યા છે. તેનો મીઠે વિગેરે અનેક પ્રકારને રસ ભોકતાઓને આશ્ચર્ય કારક હોય છે, અને તૃપ્તિ કારક હોય છે, તેથી આ અનેક પ્રકારના રસના સંબંધથી આ વૃક્ષનું નામ પણ ચિત્રરસ એ પ્રમાણેનું થઈ ગયેલ છે. તેઓ
जो० ६९
Page #570
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
जीवाभिगमसे से यथा-तत् परमान्नं पाचिन दुग्धजन्यं पायसमित्यर्थः भवेदित्यप्रतनेन सम्बन्धः झिमाकारकं परमान्न तवाह-'मुगंध' इत्यादि, 'सुगंधवरकला-सालिदिसिह णिरु. बहतदुद्धरद्धे' सुगन्धवर कलमशालि विशिष्ट निरूपहनदुग्धराद्धम् तत्र सुगन्धाः भवरगन्धोपेताः वरा:-प्रधानाः दोपरहिताः क्षेत्रकालादि सामग्रीसंपादितात्मलामा इत्यर्थः कलमशालेः शालिविशेषस्य निस्तुपास्तण्डुलाः यत् च विशिष्ट विशिष्टगवादि संबन्धि निरुपहतं पाकादिभिरविना शतं दुग्धं क्षीरं तः राद्धम्-चितम, तथा 'सारयधयगुडखंडमहुलिए' शारदघृतगुडखण्डयधुमेलितम्, तत्र शारदं शरत्कालिकं घृतं गुडखण्ड प्रसिद्धं पधु-शकिरा परपर्यायं मेलितं यत्र परमान्ने तत तया-अतएव 'अतिरसे' अतिमम्-उत्तमवर्णगन्धरसयुक्तम्, किं तत ईदृक तत्राह-'परम्ण्णे' परमान्नं पायसम् ‘खीर' इति लोक पसिद्धम्, 'होजना' भवेत् उत्तमवण्णगंधर्म' उत्तमवर्णगन्धयुक्तमिति 'रण्णो जहा वा चक्वहिस्स होजा' उनका वर्णन करते हैं-'जहा से सुगंध बरकलपखालिविलिट्टणिस्वहया दुद्धरद्धे जिस प्रकार से परान-दुग्धपाक-खीर-प्रवरगन्धोपेत श्रेष्ठ दोष विहीन-क्षेत्रकाल आदि रूप विशिष्ट सामग्री से जिनकी उत्पत्ति हुई हो ऐसे शाल विशेष के कण विहीन चावलों से जो निष्पन्न किया गया हो और विशिष्ट गदादि सम्बन्धी दुग्ध द्वारा कि जो पाकादि से अविना. शित होकर रूप रसादि से विशिष्ट-श्रेष्ठ स्वादिष्ट हो गया हो पकाया गया हो तथा-'सारयघयगुड खंडमहुमेलिए' जिसमें शरद काल में निष्पन्न हुआ घृन तथा गुडखाण्ड-सध शर्करा मिलाई गई हो अतएव जो 'अतिरसे' उत्तम दर्ण गंध रस वाला हो गया हो, तो वह जैसा श्रेष्ट परमान-पायस (वीर) होता है केला होता है सो दृशान्त करते हैं-'जहावा' इत्यादि । 'जहा वा उत्तम वणगंधमंते रणो चक्कवट्टिस्स
वा प्रा२ना हाय छ १ तमान हवे - ४२वामां आवे छे. 'जहा से सुगंधवरकलमसालि विसिद्धणिरूवय दुद्धरद्धे' के प्रम ऐ ५२मान्न l मार શ્રેષ્ઠ ગંધથી યુક્ત દેષ રહિત ક્ષેત્રકાલ વિગેરે રૂપ વિશેષ પ્રકારની સામગ્રીથી જેની ઉત્પત્તી થઈ હોય, એવી ડાંગર વિશેષના કણ રહિત ચેખાથી જે બનાવવામાં આવેલ હોય, અને વિશેષ પ્રકારના ગાય વિગેરેના દુધ દ્વારા કે જે પાકાદિથી નાશ પામ્યા વિના રૂપ રસ વિગેરેથી શ્રેષ્ઠ સ્વાદિષ્ટ થયેલ હેય, અર્થાત્ ५४वामां आवेत हाय तथा 'सारयघय गुडखड महुमेलिए' मा १२६४मां નિષ્પન્ન થયેલ ઘી, ગોળ, ખાંડ, મધ, સાકર, મેળવવામાં આવેલ હોય, અને तथा २ 'अतिरसे' उत्तम सेवा वा भने गधयुत / गयेस डाय तो તે પાયસ-દૂધપાક કેવું ઉત્તમ હોય છે, એ કેવું શ્રેષ્ઠ હોય છે ? તે સૂત્રકાર
Page #571
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमैयद्यौतिका टीका प्र.३ उ.३ १.३६ एकोरुकद्वीपस्थितद्रुमगणवर्णनम् ५४७ यथा वा राज्ञश्चक्रवत्तिनः परमान्नं भवेद ! चक्रवर्तिनः परमानं कल्याण भोजन मिति मसिद्धम् तथाहि-चक्रवत्ति सम्बन्धिनीनां पुण्डेनवारिणीनां निरातङ्कानां लक्षसंख्यकानां गा अधिक्रमेण पीतगोक्षीराणां माध्यत् पर्यन्ते यावदेवादृश्याः सर्वगोक्षीराया एकस्याः गोः सम्बन्धि यत् क्षीरं तत्प्राप्तकलमशाकि परमान्नरूपम नेक संस्कारक द्रव्य संमिश्र कल्याण-भोजनमिति प्रसिद्धम् यथैतत् राज्ञश्चक्रवर्तिनः परमान्नं वत्सहमित्यर्थः "णि उणेहि सूदपुरिसेहि सज्जिएहि चाउकप्पसे असित्ते इव' निपुणः-परमदः यूपपुरुपैः-पाचकः सन्जिता-निष्पादितः चत्वारः कल्या उत्कालनरूपा यत्र स चासौ सेकश्व तेन सिक्त इब' पाकहोज्ज' जैसा उत्तम वर्ण, गंध वाला चक्रवर्ती राजा का परमान्न पायस होता है वह चक्रवर्ती राजा हा पायस-खीर-कल्याण भोजन के नाम से प्रसिद्ध है। वह इस प्रकार से बनता है-पुण्डू जाति के इक्षु-गन्ने को चर ने वाली नीरोग चक्रपती के जिनकी लाख गायों के दूध को पचास हजार गायों को पिलाते हैं पचास हजार गायों का दूध पचीस हजार गायों को पीलाते है इस प्रकार आधे आधे के क्रम से पिलाते पिलाते अन्त में लब गायों के दूध को पी गई हो उस प्रकार की एक गाय के दूध का पापस बने उसमें कलम शालि जाति के चावल डाले जाते हैं और अनेक प्रकार के सेवा आदि संस्कारिक द्रव्य मिलाये जाते हैं। ऐसा चक्रवती की खीर शल्याण भोजन के नाम से प्रसिद्ध हैं। जैसा-कि राजा चक्रवती का एरमान हो उसी प्रकार का यह पूर्वोक्त परमान भी होता है वह परमान-णिउणेहिं सूयपुरिसेहि सज्जिए चाउकप्प से आलिते हम ओदणे' परम दक्ष पाचकों द्वारा निष्पादृष्टांत द्वारा मताव छ 'जहा ना' रेमो 'उत्तमवण्णगधम रण्वोचकवहिस्स होज्ज' व त्तभप, मध, वाणे। यति सानु परभान पायस डाय છે. ચક્રવર્તી રાજાને પાયસ-દૂધપાક કલ્યાણ ભજનના નામથી પ્રસિદ્ધ છે. તે આવી રીતે બનાવવામાં આવે છે. પુંડ્ર જાતીની ઈક્ષુ કહેતાં શેલડીને ખાવાવાળી એવી ચક્રવતીની કે જે એક લાખ ગાના દૂધને પચાસ હજાર ગાને પાવામાં આવે છે પચાસ હજાર ગાયનું દૂધ પચીસ હજાર ગાને પાવામાં આવે છે આ રીતે અધ અર્ધાના ક્રમથી પીવરાવતાં પીવરાવતાં છેવટે બધી ગાના દૂધને પી ગયેલ એવા પ્રકારની એક ગાયના દૂધને દૂધપાક બનાવવામાં આવે અને તેમાં કલમ શાલિ નામની જાતના ઉત્તમ ચોખા નાખવામાં આ અને અનેક પ્રકારના મેવા વિગેરેથી સંસ્કારિત પદાર્થો મેળવવામાં આવે, આવા પ્રકારને ચક્રવર્તીને દૂધપાક ઠલવાણ ભેજનના નામથી પ્રસિદ્ધ છે. જેવી રીતે રાજ ચકાતીનું પરમાન હોય, એવા જ પ્રકારનું આ પર્વોક્ત પરવાન્ન
Page #572
--------------------------------------------------------------------------
________________
५४८
जीयाभिगमसूत्र शास्त्रामिक्षा हि ओदनेषु सौकुमार्योस्पादनाय सेकविषयान् चतुरः कल्पान् विदधति, इत्थं भूनः 'ओदणे' ओदनः 'कलमसालि-णिवत्तिए विपक्के' कळमशालि नितितः कलमशालिभिनिरक्तिः कलमशालिमय इत्यर्थः विपक्को विलक्षण परिपाकमागतः 'सन्दाफमिउबिसयसगलसित्थे' सदापविशदसकलसिक्धः, सवाप्पानि-वाष्पं मुञ्चन्ति मृदुनि-कोमळानि चतुष्कल्प सेकादिना परिकमितत्वात् विशदानि सर्वथा तुपादि मलापगमात् सकलानि पूर्णानि सिक्थानि कणाः यत्र स तथा 'अणेगसाळणगसंजुत्ते' अनेकशाल नकसंयुक्तः, अनेकानि शाळनकानि-द्राक्षापुष्पफलमभृतीनि तैः संयुक्त ओदनो भवेत, इत्यग्रिमेण दित किया जाता है और पाक शास्त्राभिज्ञ रसोहओं के द्वारा उसमें विशेष सुस्वादु सुवर्ण आदि लाने के लिये फिर चार कल्प किये जाते हैं-अर्थात् उसमें से भाड निकाल कर उसे चार बार पुनः थोडी देर के लिये अग्नि पर रखा जाता है इससे उस ओदन में विशेष चिकना हट और नरमाई आजाती है इसी का नाम वल्प है। ऐसा वह ओदन भात जो कि 'कलम सालिगिन्दत्तिए विपक्के' कलम शालि -विशेष कीमती धान्य के चावलों का बना हुआ होता है तो वह इस स्थिति में-'सव्वप्फमिउविसयसगलसित्थे अणे सालणग संजुत्ते' वह भात वाष्प को छोड़ता हुश्रा अपने समस्त चावलों के दाने २ में पक जोता है नरम हो जाता है, और तुषादिरूप मैल के अपगम से बिलकुल विशद निर्मल हो जाता है फिर उसमें अनेक-शालनक-मेवा द्राक्षा, पुष्प, फल आदि मिला दिये जाते हैं तो ऐसा वह ओदन एक पर डाय छे. से ५२मान्न ‘णि ठणेहिं सूयपुरिटेहि सज्जिए चाउकापसे आसित्ते इव ओदणे' ५२म यतु२ सध्याच्या द्वारा समाहित ४२वामां आवे છે. અને પાક શાસ્ત્રને જાણવાવાળા રસોઈયાઓ દ્વારા તેમાં વિશેષ સ્વાદ લાવવા તથા સુવર્ણ વિગેરે લાવવા માટે તેના ફરીથી ચાર કલપ કરવામાં આવે છે. અર્થાત તેમાંથી ઓસામણ કહાડીને તેને ચારવાર શેડી ડી વાર માટે અગ્નિ પર રાખવામાં આવે છે. તેથી ભાતમાં વિશેષ ચિકણાઈ અને નરમાઈ આવી જાય છે. તેનું જ નામ ક૯પ છે. એવો તે ભાત કે જે 'कलममालि णिवचिए विपक्के' सम नि विशेष शटले हीमती धान्यना योमाना अनाव डाय छे. तो मा स्थितिमi a 'सव्वाफमिउविसय मुगल सित्थे अणेगनालणगनजुत्ते' ते मात मा५ पराणने छौउता छ।उता मया ચોખાના દાણે દાણે ચડી જાય છે. અર્થાત નરમ થઈ જાય છે. અને તુષાર વિગેરે રૂપ મેલના નીકળી જવાથી એક દમ નિર્મલ થઈ જાય છે. તે પછી તેમાં અનેક પ્રકારને મે જેમકે દ્રાક્ષ, પુ૫ ફલ વિગેરે મેળવવામાં આવે
Page #573
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ. है .३६ एकोरुको स्थितद्रुम गणवर्णनम् ५४९ सम्बन्धः, 'पदिपुण्ण दबुबक्खडे परिपूर्णपोपस्कृत:, तज परिपूर्णानि द्रव्याणि एला मभृतीनि तः उपस्कृतानि-नियुक्तानि यत्र ल तथा, 'सु पक्कए' सुसंस्कृत:यथोक्त-मात्रव्यापारादिना परमसंस्कारापनीतः । 'वण्णगंधरसफरिस जुत्तवलवीरियपरिणामे' वर्णगंधरसस्पर्शयुक्त बलवीर्यपरिणामः, तत्र वर्णगन्धरसस्पर्शाः सामर्थ्यादतिशायिनस्तयुक्खा वलवीय हेतवश्व परिणामा आवतिकाले यस्य स तया, अतिशायिभिर्वर्णादिभि बलवीर्य हेतु परिणामैश्वोपपेत इत्यर्थः तत्र वलं शरीरं वीर्यमान्नरोत्साहः । 'इंदिय बल पुटिबद्धणे' इन्द्रिय बळपुष्टिवर्धनः इन्द्रियाणां चक्षुरा. दीनां बलं स्व स्वविषय ग्रहण पटुत्वं तस्य पुष्टिः-अतिशयित पोषस्तां बद्धयति प्रकार का विशिष्ट खाद्य बन जाता है, 'अहवा पडिपुण्ण दम्वुवखडे सुसक्कए वण्ण गंधर फारिसजुत्तश्ल वीरियपरिणामे' अधक्षा वह इस स्थिति में निष्पन्न हुआ भात जय-परिपूर्ण द्रव्यों से उपस्कृत हो जाता है-एलाइची आदि सुगंधित पदार्थों से युक्त कर दिया जाता है और 'सुसक्कए' यथोक्त मात्रा में बघार देकर सुसंस्कार युक्त शिया गया हो चण्णगधरसफरिसजुत्सबल दीरियपरिणामे' तष उससा परिपाक पल-शारीरिक बल का और वीर्य आन्तरिक शक्ति का वर्धक हो जाता है-क्योंकि वह वर्ण, गंध रल और स्पर्श इन गुणों की विशिष्टता से संपन्न हो जाता है तथा यह 'इंदियनल पुष्टिवद्धणे' भात-ओदन उप. भोग करने पर इन्द्रियों में इतनी बलिष्ठना भर देना है कि जिस से वे अपने-अपने विषय को ग्रहण करने में पटु बनी रहती है। यह पटुता उनमें कम नहीं होने पाती है प्रत्युन इसको उल से पोषण ही છે. તે એવા પ્રકારનો તે ભાત એક વિશેષ પ્રકારનું ખાદ્ય બની જાય છે. 'अहवा पडिपुण्ण दवु खडे सुसक्कए वाणगंवरसफरिसजुत्तबलवीरिय परिणामे' मा मा स्थितिम त मनावा यावे मात न्यारे सपथ પદાર્થોથી સંપાદિત કરવામાં આવે છે, ઇલાયચી વિગેરે સુગંધદાર પદાર્થોથી साहित ४२१ामा मा छ, २५ने 'सुसक्कए' यात प्रभाथी पहारीन म २४२ युक्त ४२वामां आवेद डाय, 'वण्णगंधरसफरिसजुत्तवलवीरिय परिणामे' त्यारे तनो परिपा मग शरीर सपा मणने तथा वीय त२ि શક્તિને વધારનાર બને છે. કેમકે તે વર્ણ, ગંધ, રસ અને સ્પર્શ, આ ચારે પ્રકારના ગુણેની વિશિષ્ટતાથી સંપન્ન થઈ જાય છે. તથા આ ભાતને 'इंदियवल पुट्ठिवड्ढणे' प ४२माथी छवियोमा म २४ छे. रथी તે ઈદ્રિ પિતાના વિષયને ઝડણ કરવામાં તત્પર રહે છે. અને તેની શકિત
Page #574
--------------------------------------------------------------------------
________________
५५०
जीवाभिगमन इति य स तथा 'खुप्पिवासमहणे' क्षुत् पिपासामथनः क्षुद पिपासे मथ्नाति विनाशयति यः स तथा, 'पहाण कुथियगुडखंडमच्छं उघय- उवणीए' प्रधान क्वथितगुडखण्ड मत्स्यप्डीघृतोपनीतः, प्रधान:-सुन्दरः सथितः क्वायरूपा कृतः प्रधानतया निष्पादित इत्यर्थः गुडः तादृशं वा खण्ड तादृशी दा मरस्यण्डी. मिसरीति भाषा प्रसिद्धा तादृशं घृतं च तानि उपनीतानि-योजितानि यस्मिन् स तथा 'पमोयगे' प्रमोदकः आहादजनकः 'सण्ह समियगम्भे' इलक्षण समितगर्भः, तत्र अतिश्टक्षणतया समितः परिणतः गमः आन्तरो भागो यस्य स तथा अति.
क्षणीभूत-कणिकामूलदल इत्यर्थः । 'हवेज्ज' भवेत् 'परमइटुंग संजुत्ते' परमेष्टाङ्ग संयुक्त', परमम् इष्टम् अत्यन्तवल्ल पम् गङ्गम् अगभूतं तदुपयोगि द्रव्यं तेन संयुक्तः 'तहेब ते चित्ताला वि दुमगणा' तथैव परमानादिवदेव चित्तरमा अपि द्रुमगणाः 'अणेग बहुविविह वीससापरियाए' अनेक बहुविविधविस्रतापरिणतेन 'भोजण मिलता है. 'खुप्पिवास महणे' यह क्षुधा और पिपासा का भी मिटाने वालो होता है । 'पहाण युधिय गुल खंड मच्छडिघय उवगीए' अतः यह एक उत्तम पदार्थ बन जाता है तथा-जब इसमें गुड गलाकर डाला जाता है या खांडकी चासनी धनाफर या मिसरी की चासनी बनाकर डाली जाती है तथा उसी प्रकार का अर्थात् तपाया हुआ घी डाला जाता है तब यह पमोयगे' हर्षवर्धक होता है 'साह समियगम्भे' और जप लक्षणता-चिकना से जिसका अन्दर परिणत होजाता है तप दह अस्पनरम और चिकना होता है-'तहे' उसी प्रकार 'ते चित्तरसावि दुमगणा'वे चित्ररस नामके पाल्पवृक्ष भी 'अणेग यहु विविहवीसमा परिनाए' भोजन विहीए उपवेया' अनेक प्रकार की भोजन रूप सामग्री से साछी थती नधी. तनाथी छवियानी शतिभा वा थाय छ 'खुप्पि वासमहगे' मात भूभ मते तरसने पर भट341 वाणे होय छे. 'पहाणकुथिय गुल व ड मच्छडिघाय उवणीए' तथा ते मे उत्तम पाथ બની જાય છે તથા જયારે તેમાં ગોળ નાખીને ઓગાળમાં આવે છે. અથવા ખાંડની ચાસણી બનાવીને અથવા સાકરની ચાસણી બનાવીને નાખવામાં આવે તથા એજ પ્રમાણે અર્થાત્ ઘી ગરમ કરીને તેમાં નાખવામાં આવે, ત્યારે તે पमोयो' ७ वधारनार भने छ. 'सहसमिय गम्भे' म न्यारे १२६॥ તેની અંદર ભાગ ચિકાસ વાળો બની જાય છે, ત્યારે તે અત્યંત નરમ અને !ि थ5 14 छे. 'तहेव' मे२४ प्रमाणे ते चित्तरमा वि दुमगणा' ते यित्र२५ नामना ४८५gan ५ 'अणेगबहुविविहवीससा परिणयाए भोयणविहीए अवेया' मन मारनी सासन सामश्रीथा युद्धत ३.५ छ. मा १२
Page #575
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतका टीका प्र.३ १.३ ३.३६ एकोरुकछीपस्थितनुमगणवर्णन र ५५१ विहीए उबवेया' भोजन विधिनोपपेक्षाः 'कुसविकुम वि० जाब चिट्ठति' कुशदिकुश विशुद्ध वृक्षमूला: मूलबन्तः कन्दवन्तो यावन्तो याचत्तिष्ठन्तीति, सप्तमकल्पवृक्ष स्वरूपवर्णनम् ॥७॥ __'एगोरुय दीवे णं तस्थ २ देसे वह एकोहाद्वीपे खलु द्वीपे तत्र तत्र देशे बहवः-अनेके 'मणियंगा णाम दुमगणा पणत्ता समणाउसो' मण्यङ्गा, मणि मयानि आमणानि थाधाराधेयोपचारात मणीति तान्येव अङ्गानि-अवयवा येषां ते मण्यङ्गाः-भूषणसंपादका नाम द्रुमगणा:-कल्पवृक्षाः प्रज्ञप्ताः-कथिताः हे श्रमण-आयुष्मन् ! 'जहा से' यथा ते 'हाराहार घट्टपगमउडकुंडल वामुत्तग हेमजाल मणिजाल कणगजालग सुत्तग उच्चिइय कडगा-खुडिय एकालिकंठ सुत्तमगरि मउरषखंधगेवेज्ज सोणिसुत्तगचूडामणि कणा विलग फुल्ल सिद्धन्थय युक्त होते हैं यह इस प्रकार का उनका परिणमन स्वाभाविक है परकृत नहीं है 'कुसविकुत०' इत्यादि पदों का अर्थ पूर्वोक्त जैसा ही है ७॥
८-आठवे पल्पवृक्ष के स्वरूप का प्लथन
'एगोरुय दीवे तत्थ २ बहवे मणियंगाणाम दुनगणा पण्णत्ता समणा उसो' हे श्रमण आयुष्मन् ! उस एकोहक नाम के द्वीप में जगह २ अनेक मण्यङ्ग नाम के कल्पवृक्ष कहे गये हैं यहां-मणिमय आभरणों को ही आधाराधेय के उपचार मणिनाम से कहा इस कारण मणिरूप अवयवों वाले- वे मण्यङ्ग कल्पवृक्ष होते हैं। इन से वहां के निवासियों को मणिमय आभूषण प्राप्त होते रहते हैं। वे किस प्रकार के आभू षणों को देने वाले होते हैं-इस दृष्टान्त कहते हैं- 'जहा से हाराहार वट्टणगम उड कुंडल सामुत्तम हेम जाल मणिजाल कणगजालग सुत्ता તેનું પરિણમન સ્વાભાવિક છે. તેમ પરકૃત અર્થાત્ બીજાથી કરવામાં આવેલ नथी. 'कुसविकुस' इत्यादि पहेनि। अथ ५७ ४ा प्रमाणेना। ॥७॥
हवे मामा ४८५ वृक्षन। २१३५नु थन. ४२वामां आवे छे 'एगोस्य दीवेणं दीवे तत्य तत्थ बहवे मणियगा नाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो શ્રમણ આયુષ્યન્ તે એકરૂક નામના દ્વીપમાં સ્થળે સ્થળે અનેક મહેંગ નામના કલપ વૃક્ષો કહ્યા છે. અહિયાં મણિમય આભરને જ આધાર અને આયના ઉપચારથી મણિનામથી કહેલ છે. તેથી મણિરૂપ અવયવે વાળા એ મર્મંગ નામના ક૯૫ વૃક્ષો હોય છે. ત્યાં રહેનારાઓને તેમાંથી મણિમય આભરણે પ્રાપ્ત થતા રહે છે. તે કેવા પ્રકારના આભૂષણે આપે છે ? તે सूत्रा२ मा नायनां सत्रमा द्वा२। हे छे. 'जहा से हाराहार वणगमउह. कुडल वामुत्ता हेमजाल मणिजाल कणगजालग सुत्तग उच्चिइयकडग खडडिय
Page #576
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीनाभिगमसूर्य
घण्णवालि ससिसूर-उसम चक्कातल भंगतुडिय इस्थमालय दलक्खदीणार मालिया' हाराहार तनक मुकुट कुण्डल दामोत्तग हेमजाल मणिजालकनकजाल सूत्र कोच्चयित कटक क्षुकैकादलि कण्ठ सूत्रमकरिकोरः स्कन्धवेय श्रोणी मूत्रकचूडामणि कनकतिलक पुष्पक सिद्धार्थक कर्णपालि शशिभूर्यऋषभचक्र कतल भङ्कक त्रुटित हस्तमालका-लक्षदीनार मालिकाः, तत्र हारोऽष्टदशसरिका, अर्धारो. नवसरिका, वर्तनका-कर्णाभरणविशेषः, मुकुट, कुण्डलम्, लोक-मसिद्धमेव, चामोत्तकं हेमनाल सच्छिद्र सुवर्णालङ्कारविशेषः एवम्-मणिजाळ कनकजाले अपि कर्णाभरणविशेषरूपे एव, अनयो शो लोकादय सेयः, सनकम्-सुवर्ण सूत्रम् सच्विय फडग खुडूडिय एकावलकंठसुत्तमगरिपाउरखंधगेवेज्ज लोणिसुत्तम- चुडामणि मग तिला फुल्ल लिदत्यय कण्णवालि ससिसूर उसमचरगतलभंग तुडिय हस्थ मालगवलक्ख दीणार मालिया जिस प्रकार से थे जगप्रसिद्ध आभूषण है जैले-कि हार, आहार, वेष्टनक, मुकुट, कुण्डल, वामोत्तक, हेमजाल, मणिजाल, कनक जाल, सुवर्ण सूत्र, अच्चयित कटक, क्षुद्रिका (मुद्रिका) एकावलि हा, कंठसूत्र मकरिका, उरस्कन्ध ग्रैवेघश, श्रेणीमत्र, चूडामणि, कनकतिलक, पुष्पक्ष, सिद्धार्थक, पर्णशाली, शशि, सूर्य, ऋषभ, चक्रातल भङ्गक, त्रुटित, हस्तमालक और दरक्ष इनमें अठारहलरों का हार होता है नौ लरों का अर्धहार होता है जो कर्ण का आभाण विशेष होता है उस का नाम वेष्टलक है मुकुट और कुण्डल ये प्रसिद्ध ही हैं। छिद्र सहित जो सुवर्ण का आभरण विशेष होता है उसका नाम चामोत्तर-हेमजाल है मणिजाल और कनकजाल ये भी कोनो के एक वलिक'ठ सुत्तमगरि मउरव खंधगेवेज सोणिसुत्तग चूडामणि कणगतिलग फुल्लसिद्धत्थय कण्णवालिससिसुरउसभ चक्कगतलभंगतुडियहत्थ मालगवलक्ख दोणारमालिया' के प्रमाणे मा प्रसिद्ध मानुषो छ भ डा२, सहार, वेष्टन. मुकुट, दुस, पामत, रमलत, मशिला, पनsanel, सुसूत्र, भयवित८४, शुद्रिी, (भुद्रिी) पति, सूत्र, भ२ि४, ७२२४५, वय, श्रेणीसूत्र, यूडामणि, नतिय, ०५४, सिद्धार्थ, ४ पाली शशि, सूर्य, अषम य, तसल, वटित, हस्तमास, सन सक्ष, मा માં અઢાર સેરોવાળો હાર હોય છે નવસેરોવાળે અર્ધહાર હોય છે. કાનનું જે આભરણ વિશેષ હોય છે, તેનું નામ વેષ્ટનક છે મુકુટ અને કુંડલ એ પ્રસિદ્ધજ છે. છિદ્રવાળું જે સોનાનું આભૂષણ હોય છે, તેનું નામ “વામોત્તક હેમાલ છે. મણિજાલ અને કનકાલ, એ પણ કાનના આભરણ વિશેષજ છે.
Page #577
--------------------------------------------------------------------------
________________
५५३
प्रमैrधोतिका टीका प्र०३ उ. ३ सु. ३६ एकोरुकद्वीप स्थित गणवर्णनन् उच्चयितकटकानि-उच्चीभूतवलयानि, क्षुद्रिका - अंगठी' इति लोक प्रसिद्धा, एकावळिका - विचित्रमणिकृता एक सूत्रिका, कण्ठसूत्रम् मसिद्धम् मकरिकामकराकार आभरणविशेषः, उरःस्कन्धग्रैवेयकम् उरः स्कन्धं ग्रीवां चाभिव्याप्यतिष्ठति तत् हृदयाभरणविशेषः, श्रोणीसूत्रम् - कटिसूत्रकम् चूडामणिर्नाम शिरो भूषणम्, कनकतिलकम् - कलाटाभरणम्, फुल्लकं पुष्पाकारळ लाटाभरणम् सिद्धा र्थकं सर्प रममाणसुवर्णकणरचित आभरणविशेषः, कर्णपाली - कर्णोपचित विभाग ही आभरण विशेष हैं। इनमें अन्तर क्या क्या है यह लोक से जानना चाहिये सोने का जो सूत्र - डोरा होता है जिसे सुवर्णोप नयन कहते हैं उसका नाम सूत्रक है जो योग्य वलय कड़ा होता है उसका नाम उच्चयित कटक है। वींटी का नाम क्षुद्रिका दूसरा नाम मुद्रिका है. विचित्र मणियों से बनाई गई एक डोरे की जो माला होती है उसका नाम एकावलिका है कण्ठ सूत्र प्रसिद्ध ही है मकर के आकार का जो सोने का आभूषण होता है उसका नाम मकरिका है हृदय-उरछाती स्कन्ध कंधे को व्याप्तकर के जो रहता है उसका नाम उर: स्क न्ध ग्रैवेयक है करधनी (कन्दोरा) का नाम श्रोणि सूत्र है शिरोरत्न का नाम चूडामणि है सुवर्ण का जो तिलक होता है उसका नाम कनक तिलक है वह ललट का आभरण है । पुष्प के आकार के जो ललाट का आभरण होता है उसका नाम पुष्पक है वुन्देल खण्डी भाषा में इसे सोने की टिकली कहते हैं । सिद्धार्थक भी एक प्रकार का आभारण
તેમાં શું ફેર છે ? તે લેાક વ્યવહારથી સમજી લેવું જોઇએ. સેનાના જેસૂત્ર દેર હાય છે, કે જેને સૂણેŕપ નયન કહેવામાં આવે છે. તેનુ' નામ સૂત્રક છે જે ચેાગ્યવલય (લેાયા) હાય છે તેનુ નામ ઉચ્ચયિત કટક એ પ્રમાણે છે, વી'ટી નુ' નામ ક્ષુદ્રિકા અને તેનુ' બીજું' નામ મુદ્રિકા છે. વિચિત્ર પ્રકારના મણિચેથી બનાવવામા આવેલ એક દારાની જે માળા હાય છે. તેનુ' નામ એકાવલિકા છે. કૅ'સૂત્ર પ્રસિદ્ધજ છે. મઘરના આકારનું જે સેાનાનું આભૂષણ હાય છે. તેનું નામ મારિકા છે.
હૃદય, ઉર છાતિ સ્કંધ ખભાને ન્યાસ કરીને જે રહે છે, તેનું નામ ઉરસ્ક ધ ગ્રૂવેયક છે. કરધનીનું નામ (કોરે) શ્રેણી સૂત્ર છે. શિરા રત્નનું નામ ચૂડામિણ છે. સેનાનુ જે તિલક હાય છે તેનું નામ કનકતિલક છે તે કપાળનું આભૂષણુ છે. પુષ્પના આકારનુ' જે કપાળનુ' આભૂષણ àાય છે, તેનુ નામ પુષ્પક છે. ખુંદેલ ખંડની ભાષામાં તેને સેાનાની ટિકળી કહે છે. સિદ્ધા કપણું એક પ્રકારનું આભૂષણ વિશેષજ છે. આ આભરણુમાં સાઁવ પ્રમાણના
जी० ७०
Page #578
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगम
६५४
भूषण विशेषः शशिसूर्य ऋषभाः स्वर्णमयचन्द्र कादिरूपा आभरणविशेषाः, चक्रकंचक्राकार आभूषणविशेषः, तलभङ्गकं त्रुटितं च वाह्वाभरणम्, हस्तमालकम् - माळाकारं हस्ताभूषणम्, चलक्षम् - गलमूषणम् दीनारमालिका - दीनाराधाकृति मणिकमाला | 'चंदनूरमालिया' चन्द्रसूर्यमालिका - चन्द्रसूर्याकार मणिकामय आभरण वि. शेषः 'दरिसय केयूर वलय पार्लव अंगुठेज्जग कंचीमेंडला कळाव पयरगपाडिहारिय पाउज्जाल घंटिय खिखिणि ग्यणोरुनालत्थिमियबरनेउर चलणमालिया हर्षक फेयूर वलव मालम्वाङ्गुली क काञ्चीमेखला कलाप मतरक प्रतिहारिकपादजाल घण्टिकाकिङ्किणी रत्नोरुनाल स्विमित वरनूपुर चरणमालिका, तत्र हर्पकं - भूषण विशेषः, केयूरम् - अङ्गदम् बल्यम्-कंकणस्, मालस्वकं झुम्नकं भूषणविशेषः, अंगुलीयकं प्रसिद्धम्, काञ्ची, मेखला, कलापः एते स्त्रिय आभरणविशेषाः प्रतरकंवृत्त प्रतल आभरणविशेषः प्रातिहारिकम् - आभरणविशेषः पादोज्वलघण्टिका विशेष ही है इस आभरण में सर्पप प्रमाण सोने के कण भरे जाते हैं और यह नणियों का बना हुआ होता है कर्ण पाली - वह आभरण विशेष है जो कानों में लटकता हुआ पहिना जाता है जैसे कि आज कल के टोप्स आदि चन्द्रमा के आकार का जो आभरण होता है उसका नाम शशि आभरण है यह मस्तक के ऊपर वालों को संयमित करने वाला होता है इसी प्रकार का सूर्य के आकार का जो आभरण होता है उसका नाम सूर्याभरण है यह भी मस्तक के ऊपर ही पहिरा जाता है इसे बुन्देल खण्डी भाषा में केकर पान कहते हैं वृषभ के आकार का आभरण होता है उसका नाम वृषभाभरण है छोटे २ बच्चों को यह गले में पहिराया जाता है-इसे बुन्देल खण्डी भाषा में कठला कहते हैं । कठले के जो ताबीज होते हैं उनमें किन्हीं २, ताबीजों में बैल का સેાનાના કણે। ભરવામાં આવે છે અને આ મણિચાના બનાવવામાં આવે છે. કણુ પાલી એ આભૂષણુ વિશેષ છે જેને કાનામાં લટક વીને પહેરવામાં આવે છે. હાલમાં જેમ ટોપ્સ વિગેરે ચન્દ્રમાના આકારના અ ભૂણે ડેાય છે. તેવું તે હોય છે. તેને શિશ આભરણુ પણ કહે છે. તે માથાના વાળેને જોડીરાખવા વાળુ' હાય છે. એજ પ્રમાણે સૂર્યંના આકારનુ જે આભરણુ હેાય છે તેનું નામ સૂર્યાભરણુ છે. એ પણ માથાની ઉપરજ પહેરવામાં આવે છે. તેને બુંદેલ ખંડની ભાષામાં ક્રેકર પાન કહે છે. વૃષભના આકારનું જે સેનાનુ આભૂષણુ હાય છે, તેનું નામ વૃષભાભરણુ છે. તે નાના નના બચ્ચાઓને ગળામાં પહેરવવામાં આવે છે. તેને ખુદેલખડની ભાષામાં કલે કહે છે કંડલામાં જે તાવીજ હાય છે, તેમાં કેાઈ ફાઈ તાવીજેમાં ખળાના આકાર
Page #579
--------------------------------------------------------------------------
________________
। ना
-
.
.
का
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ ६.३६ पकोरुकद्वीपस्थित गुमगणवर्णनम् ५५५ पादेषु जालवृतयो घण्टि का-घटिका, किङ्किणी क्षुद्रघण्टिका, रत्नोरुजालं रत्नमयं जंघयो पलम्बमानं शृखलारूपं कटिदयस्कम् 'रुणदोरा' इति प्रसिद्धम् स्तिमि. तवरनूपुरम् चरणमालिका संस्थानविशेपकृतपादा भरणस्, 'कणगणिगरमालीया' कनकनिकरमालिका एते चाभरणविशेषाः, संप्रदायतो लीकतश्च यथायथं ज्ञातव्याः, कथंभूता एते आभरणविशेषास्तवाह-कंचणमणि' इत्यादि, 'कंचणमणिरयण भनिचित्ता' काञ्चनमणिरत्नानां भक्त्या-विच्छित्या चित्रा:-विलक्षणाः 'भूसणविहि बहुप्पगारा' भूषण विधिना बहुपकारा:-अनेकाकाराः 'तहेच ते मणियंगा वि दुमगणा' तथैव हारादिवदेव ते मण्यङ्गा अपि द्रुमगणः, 'अणेग बहुविविहदीससा आकार उत्कीर्ण-खोदा हुआ होता है । चक्र के आकार वाले आभूषण का नाम चक्रका है तल भङ्गक और त्रुटिक से घाटुओं के आभरण विशेष है हस्तमालक-हाथ का आभूषण विशेष है, वलक्ष गलेका आभूषण दीनार मालिका, दीनार-मुहरों के आकार के मणियों से बनी हुई मुक्ति माला नाम का आमरण विशेष है 'चन्द लूर मालिया, हरिसय, केयूरवलय पालंब अंगुलेज्जगकंची मेहला प.लावपयरग पाडिहारिये पाय जाल घंटियखिखिणिरयणोरूजालस्थिमियावरणेउरचलण मालिया' चन्द्र सूर्य मालिका, यह चन्द्र सूर्य के आकार वाले मणको की माला होती है हर्षक, केयर, बलय, पालम्पनक-झुमका अंगुलीयक, काची मेखला, कलाप प्रतरक प्रातिहारिकपादो-ज्जूल घटिका, किङ्किणीक्षुद घंटिका, रत्नोरुजाल बनूपुर चरण पालिका ये सब आमरण विशेष है 'कणगणिगर मालिशा, कंचणणिरघणत्तिचित्ता भूसण विहिકેતરવામાં આવેલ હોય છે. ચક્રના આકારવાળા આભૂષણનું નામ ચકક છે. તલભેગક અને ટિક તે બાહુ હાથના આભરણ વિશેષ છે. હસ્તમાલક હાથનું આભૂષણ વલક્ષ ગળાનું આભૂષણ, દીનાર માલિકા, દીનાર મહારના આકારના મણકાઓથી બનાવવામાં આવેલ મુક્તિમાળા નામનું આભરણ વિશેષ છે. 'चंद सूरमालिया, हरिमय केयूर वलय पोलब अगुलेज्जगक ची मेहलाकलावपयरगपाडिहारिये पायजाल घंटिय खिखिणिरयणोरुजालस्थिमिय परणे उर चरणमालिया' यंद्र स्य' मालि21 ' सूर्य ना मारवाणा भयानी भामा य छे. र, यू२, पतय, मास, सुभामुखीय, ४iयी-भेमला, કલાપ, પ્રતલક, પ્રાતિહારિક, પદોજજૂલ ઘટિકા, કિકિ મુદ્રઘંટિકા (ઘંટડી). २स्नेतरा मन नूपूर २२ मानिस ! ५। भारए विशेष छे. 'कणगणि गरमालिया, कचणमणियरयणभत्तिचिना भूषणविहि बहु पगारा तहेच मणि
न .
Lu...
Page #580
--------------------------------------------------------------------------
________________
५५६
जीवामिगमसूत्रे परिणयाए भृसणविहीए उबवेया' अनेक व्हुविविध विस्रसापरिणतेन भूपणविधिनोपेता:-युक्ताः, फलैपूर्णा 'विसति' दलन्ति-विकसन्तीत्यर्थः, 'कुसविकुस वि० जाव चिट्ठति' कुशविकुश विशुद्ध वृक्षाला मूलवन्तः कन्दवन्तः यावत् मासादीया दर्शनीया अभिरूपाः प्रतिरूपास्तिष्ठति । इत्यष्टमकल्पवृक्षवर्णनम् ।८। ___ 'एगोरुयणं दीवे तत्थर' एकोषकद्वीपे तत्र तत्र खलु 'वहवे गेदागारा णाम दुम गणा पण्णत्ता समणाउसो!' बहवः गेहाकारा नाम द्रुमगणाः कल्पवृक्षाः प्राप्ताःकथिताः हे श्रमण आयुष्मन् ! 'जहा से' यथा ते 'पगारट्टालग चरियदारगोपुर बहुप्पगारा तहेव ते मणियंगा वि दुमगणा अणेग बहुविविहवीससा परिणताए भूसणविहीए उववेया कुस वि० जाव चिटुंति' और कनक निकर मालिका, ये सब ही आभूषण हैं और ये कितनेक सुवर्ण की रचना से, कितनेक मणियों की रचना से और कितनेक रत्नों की रचना से चित्रित सुंदर होते हैं। इनकी जातियां अनेक प्रकार की होती है। इसी प्रकार से ये मण्यङ्गनाम के कल्पवृक्ष भी अनेक प्रकार की भूषण जातियों के रूप स्वतः स्वभाव से परिणत हो जाते हैं बाकी के 'कुस विकुस' आदि पदों का अर्थ स्पष्ट है ॥८॥
९ नौवें कल्पवृक्ष के स्वरूप का वर्णन
'एगोरुय दीवे तत्थ २' उस एकोरुक नामक द्वीप में जगह २, 'बहवे गेहागारा णाम दुमगणा पणत्ता समणाउसो' हे श्रमण ! आयुष्मन् ! अनेक गेहाकर नाम के कल्पवृक्ष कहे गये हैं। वे किस प्रकार के होते हैं वह दृष्टान्त ले समझाते हैं-'जहा से पागारहालग यगा वि दुमगणा अणेगबहुविविहवीससापरिणताए भूसणविहीए उववेया कुसविकुस जाव चिटुंति' मने उन नि४२ भाति, म मया माभूषर વિશેષ જ છે. અને તે પૈકી કેટલાક સેનાની રચનાથી તથા કેટલાક મણિચોની રચનાથી અને કેટલાક રોની રચનાથી ચિત્ર વિચિત્ર સુંદર જ ય છે. તેની અનેક પ્રકારની જાતે હોય છે. એ જ પ્રમાણે આ મહેંગ નામના કલ્પવૃક્ષો પણ અનેક પ્રકારના ભૂષણેના રૂપથી સ્વતપોતાની મેળેજ એટલેકે સ્વાભાવિક રીતે જ પરિણત થઈ જાય છે. બાકીના કુશ વિકુશ વિગેરે પદેને અર્થ સ્પષ્ટ છે૮
6 नवमा ४६५वृक्षना २१३५नु न ४२वामां आवे छे. 'एगोरुय दीवेणं दीवे तत्थ तत्य' से ३४ नामना द्वीपमा स्थणे स्थणे 'बहवे गेहा गारा णाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउनो' श्रमर मायुभन् ! गडा२ न'भना અનેક ક૯૫વૃક્ષે કહેવામાં આવેલ છે. તે કેવા પ્રકારના હોય છે તે દૃષ્ટાંત द्वारा सूत्रा२ मताव छे. 'जहा से पागारट्रालगचरियदार गोपुर पामाया
Page #581
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ .३६ एकोरुकद्वीपस्थितद्रुमगणवर्णनम् ५५५ पासायाकासतलमंडव एगसाल विसाल तिसालग चउरं स चउमाल गमघरमोहण घरवल भिघर चित्तसालमालयभत्तिघरवतंस चतुरंसणंदियावत्तसं ठयायय पंडुर. तल मुंडमाल इम्मियं' माकाराहालक चरिकद्वारगोपुर प्रासादाकाश्तल माडपैकशाल द्विशालक विशालक चतुरस्र चतुशालगर्भगृह मोहनगृहनलमीगृह चित्र शालमालकभक्तिगृह वृत्तव्यस्र नन्दिकावर्त संस्थितायत पाण्डुतलमुण्डमालहम्, तत्र माकारो वमः, अट्टालका-प्रासादोपरिवाश्रयविशेषः, चरिकानगर पाका. रान्तमूले अष्टहस्तममाणो मार्गः, द्वारं स्पष्टम्, गोपुरं पुरद्वारम्, प्रासादः मसिद्धः परियदार गोपुर पासायाकास तल मंडव एग साल विलालगतिलाल गचउरंस च उसाल गम घर मोहण घर वलभिघर चित्तलाल मालयभत्ति घर वट्टतंसचतुरंसणंदियावत्त संठियायत पंडुरतल मुंड माल हम्मियं' जिस प्रकार से संसार में प्राकार, अट्टालक, चरिका, द्वार, गोपुर, प्रासाद, आकाशतल, मंडप, एकशाल, द्विशाल, त्रिशाल, चतु रन, चतुःशाल गर्भगृह, मोहन गृह, बलभी गृह, चित्रशाल मालक भक्ति गृह, वृत्त, वस्त्र, चतुरस्त्र, नंदिका वत्त, संस्थितायत पाण्डुरतल मुण्डमाल हH, इनमें कोट का नाम प्राकार हैं जो नगर या राजमहल के चारों ओर होता है प्रासाद के ऊपर जो आश्रम विशेष होता है उसका नाम अट्टालक है इले आजकल की भाषा में अटारी नाम से कहा जाता है नगर और प्राकार के बीच में जो आठ हाथ प्रमाण रास्ता रहता है उसका नाम चरिका है । दरवाजे का नाम द्वार है नगर के प्रधान द्वार का नाम गोपुर है राजमहल का नाम प्रासाद है शिलकुल कासतलम डव एगसाल विसालगतिसालगचउरसच उसालगभघरमोहणघर वळभिघर चित्तसाल मालय भत्तिधर वट्ट तस चउरस गंदियावत्तसठिया यतपंडुरतलमुंडमालाहम्मिय' हे प्रमाणे अगत्मा प्रा१२, भट्टीत४, यति, दार, गोपुर, प्रासाह, शत, भ७५, ४, विशाल, त्रिa, ચતુરન્સ, ચતુશાલ, ગર્ભગૃહ, મોહનગૃહ, વલભીગૃહ, ચિત્રશાલ માલક, मति, वृत्त, २५स, यतुरन, न त', सस्थितायत, पाडतल, મુડમ લહમ્મ, તેમાં કેટનું નામ પ્રાસાદ છે કે જે નગર અથવા રાજમહેલની ચારે તરફ હોય છે. પ્રાસાદની ઉપર જે આશ્રય વિશેષ હોય છે. તેનું નામ અદ્યાલક છે. તેને હાલની ભાષામાં અટારી કહેવામાં આવે છે. નગર અને પ્રકારની વચમાં આઠ હાથ પ્રમાણને જે રસ્તે રાખવામાં આવે છે, તેનું નામ ચરિકા છે. દરવાજાનું નામ દ્વાર છે. નગરના મુખ્ય દરવાજાનું નામ ગેપુર છે.
Page #582
--------------------------------------------------------------------------
________________
५५८
जीवामिगमत्र आकाशतलं कूटाद्याछिन्न-कुटिमम्, मण्डप:-छायार्थ पटादिमय आश्रयविशेषः एकशाल द्विशाले भवनविशेपो त्रिशालमपि भवनविशेषः, चतुरसं चतुः शालं च भवनविशेषः, गर्भगृहं-सर्वतोवत्तिं गृहान्तरम् अभ्यन्तरगृहम्, मोहनगृहं-शयनगृहम्, बल मीगृहं, चित्रशालमालकम, भक्तिगृहम् वृत्तव्यस्रचतुरस्रम्, नन्दिकावतः पासादविशेषः तहत् संस्थितायत पाण्डुरतलमण्डुमालहर्यम्-उपरि आच्छादनसाफ छन को भूमि का नाम आकाश तल है यह निरावृत्त प्रदेश रूप होता है। छाया आदि के निमित्त जो तम्बू तान लिया जाता है उसका नाम अण्डप है एक शाल विशाल ये भवन विशेष होते है । तीन शाला वाले और चार शाला वाले भी भवन ही होते हैं और विशेष भवन के रूप में बनाये जाते हैं शाला शब्द का अर्थ खण्ड है जो भवन दो खण्ड वाले होते हैं वे द्विशाल भवन है इसी तरह से आगे भी समझ लेना चाहिये जो मकान चौखूटा होता है वह चतुरस्र गृह है घर के नीचे जो भोहरा होता हैं उसका नाम गर्भ गृह है शयन घर को मोहन गृह कहते है छाजो वाला जो घर होता है उसका नाम वलभी गृह है चित्रशालालय-जिसमें अनेक प्रकार के चित्रों से सुसज्जित स्वतंत्र प्रकोष्ठ होता है ऐसे गृह का यह नाम है वृत्त जो गोल आकार में पनाया जाता है वह वृत्त घर त्रिकोण के आकार में बना होता है उसका नाम न घर हैं चौखूटे आकार के बने हुइ घर का नाम चतुरस्त्र घर है नन्दिकावते स्वस्तिक के जैसा जो आलय होता है રાજમહેલનું નામ પ્રાસાદ છે. એકદમ સાફ અગાશીના તળીયાનું નામ આકાશતલ છે. આ નિરાવૃત્તપ્રદેશ હોય છે. છાયા વિગેરેને માટે જે તબૂતાણુવામાં આવે છે. તેનું નામ મડપ છે. એક શાલ દ્વિશાલ, આ ભવન વિશેષ હોય છે ત્રણ શાલાવાળા અને ચાર શાળા વાળા પણ ભવન જ કહેવાય છે. અને વિશેષ ભવન રૂપે બનાવવામાં આવે છે. શાલા શબ્દનો અર્થ ખંડ છે, જે ભવન બે ખંડવાળા હોય છે. તેને દ્વિશાલ ભવન કહેવાય છે. એ જ પ્રમાણે આગળ પણ સમજી લેવું. જે મકાન ચખૂણિયું હોય છે તે ચતુરસગ્રહ કહે વાય છે. શયનભવનને મેહનગ્રહ કહે છે. છાજાવાળું જે ઘર હોય છે, તેનું નામ વલભીગૃડ કહેવાય છે. ત્રિશાલાલય જે અનેક પ્રકારના ચિત્રોથી સુસજજીત સ્વતંત્ર ગૃહ હોય છે, તેવા ગૃહનું નામ ચિત્રશાલાલય કહે છે. વૃત્ત એટલેકે જે ઘર ગોળ આકારનું બનાવવામાં આવે છે, તે વૃત્તઘર કહેવાય છે. જે ઘર ત્રિકેણુકાર બનાવવામાં આવે છે. તેને ચુસવર કહે છે. ખૂણિયા બાકારનું બનાવવામાં આવેલ ભવનને ચતુરસ ઘર કહેવાય છે. નંદિકાવર્ત
Page #583
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिकाटीका प्र.३ ३.३.३६ एकोषकद्वीपस्थितमगणवर्णनम् ५५९ रहितं शिखरादि रहित हय॑म् ! 'अहवणं धवलहर अद्धमागहक्किममसेलद्ध सेलसंठिय कूडागारसुविहिकोढग अणेगघरसरणलेण आवण डिगजालविंदणि. ज्जूह अवचरक दोबारिय-चंदसालियरूवविभत्ति कलिया' अथवा खलु धरलगृहार्द्ध मागविभ्रमशैला शैलसंस्थित कुटाकाराढय सुविधिकोष्ठकानेक गृहसरणलयन. आपण विडंकजालवृन्द निव्यूहापवर कदौवारिक चन्द्रशालिकारूपत्रिभक्ति कलिताः तत्र-धवलगृहं सौधम्, अर्धमागध विभ्रमाणि गृहविशेषाः, शैलाचशेल संस्थितानि उसका नाम नन्दिका वर्त गृह है जिसकी नीचे की भूमि शुभ्र हो और ऊपर जिस पर छान-छप्पर न हो ऐले आंगन वाले घर का नाम पाण्डु रतल मुण्ड माल गृह है धनिक जनों के रहने के मकान का नाम हर्य है 'अहव णं धवलहर अद्धमागह विभम खेलद्ध खेल संठिध कूडा. गारड सुविहिकोहा अणेग घरसरणलेण आक्षण विडंग जालविंद णिज्जूह अवरक दोबारिश चंद सालिग रूवा विभत्ति कलिया अवण विहिबहु विकप्पा' धवलगृह-सौध अर्धगृह मागधगृह एवं विभ्रमगृह, शैलार्धगृह, शैल संस्थितगृह, कूडाकार गृह, सुविधि कोष्टक गृह, शरण लयन आपण, इत्यादि रूप से भवनों के खेद अनेक होते है. इनमें अर्ध गृह मागध गृह और विभ्रम गृह ये कोई विशेष प्रकार के घर होते है पहाड़ के अर्ध भाग का जैसा आकार होता है इस आकार का को घर होता है उसका नाम शैलाद्ध गृह है तथा पर्वत का जैसा आकार होता है इस आकार का जो घर होता है वह शैल संस्थिन
સ્વરિતકના જેવું છે ઘર હોય તેનું નામ નંદિકાવર્તગ્રહ કહેવાય છે જેની નીચેની ભૂમિ શુદ્ધ હોય અને જેની ઉપર છાજ-છાપરૂ. ન હોય એવા આંગણું વાળા ઘરનું નામ પાંડુરૂલ મંડમાલ ગૃહ કહેવાય છે. ધનવાનને રહેવાના महाननु नाम 'भ्य' छे. 'अहव णं धवलइर अद्धमागह विभम सेलद्धसेल सठिय कूडागारद्वसुविहिकोढग अणेगघरसरणलेण अविण विंडंग जालविदणिज्जूह अवरक दोवारिय चंदसालिय स्व विभत्तिकलिया भवणविहि बहुविकप्पा' पसગૃહ સૌધ, અર્ધગ્રહ માગધગૃહ અને વિભ્રમગૃહ, શૈલાર્ધગૃહ, શિલ સંસ્થિતગૃહ કૃડાકારઘર, સુવિધિbષ્ટકઘર, અનેગૃહ, શરણુલયન, આપણ વિગેરે પ્રકારથી ભવનેના અનેક ભેદો હોય છે. તેમાં અર્ધગૃહ, માગધગૃડ, અને વિભ્રમગૃહ આ કેઈ વિશેષ પ્રકારના ઘર હોય છે. પહાડના અર્ધભાગને જે આકાર હોય છે, એ આકારનું જે ઘર હોય છે, તેનું નામ શૈલાઈઝૂડ છે. તથા પર્વતને જે આકાર હોય છે, તેવા આકારનું જે ઘર હોય છે, તે શિલ
Page #584
--------------------------------------------------------------------------
________________
५६०
जीवामिगमत्र पर्वताकाराणि गृहाणि कुटाकाराय शिखराकृतिकानि 'मुविहि-कटग' मुविधि: कोष्ठ कानि, 'अणेघा' अनेकाः गृहाः 'आवण' आपणा-टूटाः इत्यादिका भवनविधयो बहुविकल्पाः इत्यन्वयः। विटंका-कपोतपाली, जालवृन्दो गवाक्ष. समूह 'णिज्जू' नियुह द्वारोपरितन पावविनिर्गतदारुः 'अपयरका 'दोवारिय' द्वारिकः 'चंदसालिय' चन्द्रशालिका-शिरोगृहम् 'स्वविभत्तिचित्ता' इत्येवं गृह है पर्वत की चोटी का जैसा आकार होता है ऐसे आकार वाला जो घर होता है वह कूडाकार गृह है जिस घर में अनेक कोठे अच्छे प्रकार के बने होते हैं वह सुविधिकोष्ठक है जिस घर में एक से प्रमाण के अनेक घर बने रहते हैं वे अनेक घर कहलाते हैं। दुकान का नाम आपण है बाजार में जिस प्रकार से प्रत्येक वस्तु यथास्थान मिलती है उसी प्रकार से जिस घर में प्रत्येक उपयोगी वस्तुएं यथास्थान पर रखी हुई मिलती हैं ऐसे घर का नाम आपण गृह कहते है इत्यादि रूप से भवनों की विधियां अनेक प्रकार की है कापोत पाली-छज्जा का नाम विटंक है इसके आकार के जो घर है वे भी यहां विटंक शब्द से गृहीत हुए हैं जाल वृन्द नाम गवाक्ष का है द्वार के ऊपर के भाग में निकला हुआ जो काष्ठ होना है उनका नाम नियूंह है अपवरक नाम छोटी २, कोठरियों का है छत्त के ऊपर जो घर होता है उसका नाम शिरो गृह है इस तरह भवन विधियां गृह प्रकार-अनेक भेदों वाले हैं 'तहेव સંસ્થિત ઘર કહેવાય છે. પર્વતના શિખરને જે આકાર હોય છે, એવા આકારવાળું જે ઘર હોય છે, તે કૂડાકાર ઘર કહેવાય છે. જે ઘરમાં અનેક પ્રકારના સારા કેઠાઓ બનાવવામાં આવેલ હોય, તે સુવિધિ કેઠક કહેવાય છે. જે ઘરમાં એક સરખા આકારવાળા અનેક ઘરે બનાવેલા હોય છે, તે અનેક ઘર કહેવાય છે દુકાનનું નામ પણ છે. બજારમાં જે પ્રમાણે દરેક વસ્તુઓ યોગ્ય સ્થાને મળે છે, એ જ પ્રમાણે જે ઘરમાં દરેક ઉપયોગી વસ્તુઓ યથાસ્થાન પર રાખેલ મળે છે, તેવા ઘરનું નામ પણ આપણું ગૃહ કહેવાય છે ઈત્યાદિ પ્રકારથી ભવનની અનેક પ્રકારની વિધિ છે. કાતિપાલી છજાનું નામ વિટંક છે. તેના આકાર જેવું છે ઘર હોય તે પણ અહિયાં વિટંક શબ્દથી ગ્રહણ કરાય છે. જાલવૃન્દ ગવાક્ષ બારીને કહે છે, તેનું નામ નિર્વ્યૂહ છે. અપવરક નાની નાની ઓરડીને કહે છે અગાસીની ઉપર જે ગ્રહ હોય છે તેનું નામ શિરાગ્રહ છે. આ પ્રમાણે ભવન વિધિ ભવન પ્રાકાર વિગેરે અનેક ભેદેવાળી हाय छ, 'तहेव ते गेहाकारा वि दुमगणा' ५। प्रभो ते अड।४।२ नाभास
Page #585
--------------------------------------------------------------------------
________________
1
प्रमेयधोतिका ठीका प्र.३ उ. ३ सू०३६ एकोरुकद्वीप स्थितद्रुमगणवर्णनम्
-
रूपाभिः विभक्तिभिः - विच्छित्तिभिः कलिताः - युक्ताः 'भवणविहीवहुविकप्पा' भवनविधि बहुविकल्पाः - मवनविधिना अनेकप्रकाराः, 'तहेच ते गेहागारा वि दुमगणा' तथैव प्राकारादिवदेव ते गेहाकारा अपि द्रुमगणाः 'अणेग बहुविवि-वीससापरिणयाए' अनेक बहुविविधविस्वासापरिणतेन भवन विधिना, कथं भूतेन भवनविधिना तत्राह - 'सुहारुहाए सुहोत्तराए' सुखारोहणेन सुखोत्तारेण, सुखेनारोहणमूर्ध्वगमनं यस्य तेन सुखेन अधस्तादवतरणं यस्य स तथा तेन, 'सुइनिकखandre' सुखनिष्क्रमण प्रवेशेन सुखेन - अनायासेन निष्क्रमणं निर्गमः प्रवेशच यत्र स तथा तेन 'दद्दरसोपानपतिकलियाए' दर्दरसोपानपङ्क्ति कलितेन दर्दरा - घनीभूता सोपानपङ्क्तिस्तया कलितेन युक्तेन 'पइरिकाए' प्रतिरिते गेहागारा वि दुमगण।' इसी प्रकार से वे गृहाकार नाम वाले कल्पवृक्ष भी 'अणेग बहु विविधवीससा परिणयाए सुहारूहणे, सुहोतराए सुह निक्खमणप्पवेसाए, दद्दर सोपाण पंति कलियाए परिक्काए सुह विहाराए, मणोऽणुकूलाए, भवग बिहीए उववेघा' अनेक प्रकार की बहुन सी स्वाभाविक भवन विधि से भवनों की रचना रूप प्रकार से कि जिन भवनों के ऊपर चढने में और नीचे उतर ने में किसी भी प्रकार का परिश्रम - खेद - थकावट नहीं होता है सुख पूर्वक जिनपर
५६१
ढा और उत्तरा जा सकता है-आनन्द के साथ जिनके भीतर जाना होता है और आनन्द के साथ ही जिनसे बाहर निकलना होता हैतथा - जिनकी सोपान पड़ियां दर्दरी घनीभूत पाम पाम में होती है, और जिसमें विशालता को लेकर बिहार सुख प्रद ही होता है, एवं जो मनोनुकूल होती है उस प्रकार की भवनविधियों से युक्त होते हैं 'कुम० जाव चिति इन पदो का अर्थ पूर्वोक्त जैसा ही है तात्पर्य
म्यवृक्षेो यस्यु 'अणेग वहुविविध वीससा परिणयाए सुहारुहणे, सुहोत्तराए सुनिक्खमण पवेसाए, दद्दरखोपाण पतिकलियाए पइरिनस्वाए सुहविहाराए, मणोऽणु कलाप, भवणविहीर उववेया' भने प्रहारनी घाली सेवी स्वाभावि भवनविधिथी અર્થાત્ ભવનાની રચના રૂપ પ્રકારથી એટલે કે જે ભવનેાની ઉપર ચડવામાં અને નીચે ઉતરવામાં કાઈ પણ પ્રકારના પરિશ્રમ-ખેદ-થાક લાગતા નથી અને જેના પર સુખ પૂર્વક ચડાય ઉતરાય છે. તથા આનંદ પૂર્ણાંક જેની અંદર જઈ શકાય છે, અને આનદ પૂર્વક જેની બહાર નીકળી શકાય છે. તથા જેના પગથિયા ઘનીભૂત પાસે પાંસે હૈાય છે. અને જેના વિશાળ પાને લઇને જવા આવ વાસ્તુ' સુખદ થાય છે. અને જે મનને અનુકૂલ હોય છે. એવા પ્રકારની ભવન विधियोथी युक्त होय छे. 'कुसविकुस जाव चिट्ठति' आा पहोना अर्थ पढेतां
जी० ७१
Page #586
--------------------------------------------------------------------------
________________
५६२
जीवामिगमला क्तेन-विशालेन, 'सुहविहाराए' सुखरिहारेण-सुखः सुखरूपः विहारो गमनागमनं यत्र स तथा सेन 'मणोणुकूलाए' मनोऽनुक्लेन 'भवणविहीर' भवनविधिनाभवनप्रकारेण 'उबवेवा' उपपेताः, 'कुसविकुस विसुद्ध जाव चिहति' कुशविकुश विशुद्ध वृक्ष मूलाः पूल मन्दमन्तो यावत् तिम्ठन्तोति नत्रमः कल्पवृक्षः ॥९॥ ___ 'एगोरुय दीवेणं दीवे' एकोरुकद्वीपे 'तत्थ तत्थ बहवे मणिगणा णाम दृमगणा एण्णत्ता लमणाउसो' तत्र तत्र वहः अनग्नाः विचित्र विविषवस. दायित्वात् न विद्यन्ते नग्नास्तत्कालीनास्त-देशस्थाश्च जना येभ्यः ते अनग्ना नाम द्रुमगणा:-कल्पवृक्षाः यज्ञप्ता:-कथिताः हे श्रमण आयुष्मन ! 'जहा से' यथा ते 'अणेगसो' अनेकशः 'आजिणग खोम कंवल दुगुल्ल कोसेज्जकालमिग पट्टचीणं सुयवरणातवारवणिगयतुश्रामरण चित्तसहिणण कल्लाणगमिगिणील कज्जलपहुयही है कि-जैले यहां घर रनेक प्रकार के होते हैं-वैसे ही ये कल्पवृक्ष भी अनेक प्रकार के होते हैं ॥१॥
१०-दशवे कल्पवृक्ष का स्वरूप कथन
'एगोरुय दीये तस्य २, वह अणिगणा णाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउलो' हे श्रमण आयुष्मन् ! उस एसोरुक द्वीप में जगह २, अनग्न नाम के बहुत से कल्पवृक्ष कहे गये हैं। ये विविध प्रकार के वस्त्रों के प्रदाता होते हैं-अतः उस काल के और उस देश के मनुष्य इनके कारण कभी नग्न नहीं रहते हैं इसी कारण इनका नाम अनग्न कहा गया है उन वस्त्रों का वर्णन करते हैं 'जहा से अणेगसो ओजिणगखोम कंबल दुगुल्लकोसेज फाल निग पट्ट चीणंयवरणात वार वणि गय तुपाभरणचित्तप्तहिणगशल्लाणग भिगिणीलकज्जल बहु કહ્યા પ્રમાણે જ છે. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે જેમ અહિયાં અનેક પ્રકારના ઘરે डाय छ, ४ प्रभाये ॥ ४६५वृक्ष५९] भने ५४।२ना हाय छे. । ९ ।
वे सभा ४६५वृक्षन। २१३५नु ४थन ४२वामां आवे छे. 'एगोरूय दीवे तत्थ तत्थ बहवे अणिगणाणाम' दुमगणा पण्णत्ता सरणाउसे' ३ श्रम આયુશ્મન એ એકરૂકદ્વીપમાં સ્થળે સ્થળે અન નામના ઘણાજ કલ્પવૃક્ષ હેવાનું કહેલ છે. તેઓ અનેક પ્રકારના વસ્ત્રોને આપવાવાળા હોય છે. તેથી તે કાળના અને તે દેશના મનુષ્ય વસ્ત્રોના કારણે કોઈ સમયે નગ્ન રહેતા નથી. તેથી જ તેમનું નામ અનગ્ન કહેવામાં આવેલ છે. તે વસ્ત્રોનું વર્ણન ४२तां सूत्र२ ४ छ, 'जहा से अणेसो आजिणग खोमकंबल दुगुल्ल कोसेज काल मिगपट्टचीणंसुय वरणातवारपणिय तुआभरण चित्तसहिणग
Page #587
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ २.३६ एकोरुकद्वीपस्थितटमा णवर्णनम् ५६३ वण्ण रत्तपीत मुकिल्ल मक्खियमिगलोम हेमरुप्पक्षणम अवसरत्तग सिंधुओस भदामिलवंग कलिंग नेलिण तंतुमयभत्तिचित्ता' आजिनक क्षौम कम्बल दुकूल कौशेयकाल मृगपट्टचीनांशुक वरणातबार वणिगयतु आभरण चित्रश्लक्ष्णकल्याणकभृङ्गीनीलकज्जल बहुवर्णरक्तपीतशुक्ल म्रक्षित मृगलोम हेमरुप्यवर्णक अबरुत्तरग वण्णरत्तगपीत सुक्किल मक्खिय मिगलोभ हेमरुप्पण्णग अवसर त्तग सिंधु ओलभदामिलवंकलिंगनेणिलतंतुमयअत्तिचित्ता' जैसे जगप्रसिद्ध वस्त्र अनेक प्रकार के होते -वधा-आजिनम-चर्मवस्त्रक्षौम-झपास का वस्त्र कंधल-प्रसिद्ध है दुकूल, कौशेय-रेशमीवस्त्रकालमृगपट्ट-फाले मृग के चमड़े से बना हुआ वस्त्र चीनांशुम-चीन देश का बना हुआ वस्त्र 'वरणातवा रवणिगयतु' देश विशेष प्रसिद्ध ये भी कोई वस्त्र विशेष ही समझें, आभरणवस्त्र आभरणों से विचित्र वस्त्र जिस पर नाना प्रकार के आभरणों के वेल बूटों द्वारा चित्रक हुए होते हैं ऐसे, बारीक तन्तुओं द्वारा चुने गये वस्त्र कल्याणक वस्त्र मौके मौके पर पहिरने के योग्य आनन्द प्रवस्त्रा, भृगी नील कज्जल भौरें के जैसे नील वर्ण वाले वस्त्र, इज्जलवर्णवस्त्र-ज्जल के वर्ण जैसे काले वस्त्र, रक्तवस्त्र, लाल वस्त्र पीतवस्त्र-पीलेवस्त्र शुक्लवस्त्र, अक्षतवस्त्र-बीच में नहीं फटा हुआ वस्त्र, नीनवस्त्र, मृगलोमवस्त्र मृग के रोमों का बना हुआवस्त्र, हेमवस्त्र-सोने के तारों से घना कल्लाणगभिगिणी लकज्जल बहुवण्ण रत्तपीत सुकिलमक्खय मिगलोमहेमप्फरूण्णग अवसरत्तग सिंधुओसभड़ामिलव'गकलिंगनेणिलत'तु मयभत्तिचित्ता' २५ ॥ પ્રસિદ્ધ વસ્ત્રો અનેક પ્રકારના હોય છે. જેમકે આજનક ચામડાના વસ્ત્ર, લીમ કપાસના વસ્ત્રો, કંબલ ઉનને વસ્ત્રો પ્રસિદ્ધ છે. દુકૂલ વૃક્ષની છાલમાંથી બનાવેલ વસ્ત્ર કૌશય રેશમી વસ્ત્ર, કાલમૃગપટ કાળા મૃગના ચામડાથી બનાવવામાં આવેલ વસ્ત્ર, ચીનાંશુ ચીન દેશમાં બનાવવામાં આવેલ વસ્ત્ર .'वरणातवारवणिगयतु' देश विदेशमा प्रसिद्ध मेQ आप पर विशेष નું જ નામ છે. આભરણ વસ્ત્ર આભૂષણોથી વિચિત્ર વસ્ત્ર, જેના પર અનેક આભરણની વેલબૂટો દ્વારા ચિત્ર કહાડવામાં આવેલ હોય એવા વ, જીણા તારાથી બનાવવામાં આવેલ વસ્ત્ર, કલ્યાણક વસ્ત્ર, સમયે સમયે પહેરવા ગ્ય આનંદ આપનારા વસ્ત્ર, ભંગીનીલકજજલ ભમરાના જેવા નીલ વર્ણવાળા વચ્ચે, કાજલવર્ણ વસ્ત્ર, કાજળના જેવા વર્ણવાળા કાળાવ રક્તવર્ણવાલાવસ્ત્રો લાલ વસ્ત્રો પીતવસ્ત્ર, પીળાવà શુલ વસ્ત્ર, સફેદ વસ્ત્ર, અક્ષતવસ્ત્ર, વચમાં ફાટયા શિવાયના વ, નવીન વચ્ચે, મૃગલેચત વસ્ત્ર, મૃગના રૂંવાટના બનાવેલ .
Page #588
--------------------------------------------------------------------------
________________
रणा
मला तिमलिक मुवण अवरुत्तर उत्तर
५६४
जीवामिगमस्त्रे सिन्धुऋषमतामिलबङ्गकलिङ्गनेलिन तन्तुमयभक्तिचित्राः, तत्र-आजिनकं चर्ममयवस्त्रम्, क्षौमम्-कासवस्त्रम्, कम्बलं प्रसिद्धम्। दुकूलम् - श्लक्ष्णवस विशेष: 'कोसेज्ज' कौशेयम् विलक्षणकीटतन्तुनिर्मितम्, 'कालमृर पट्ट' कालमृगपट्टाकालमृगचर्म 'चीणांसुय' चीनांशुकम् चीनदेशोभवोवस्त्रविशेषः, नानादेश प्रसिद्धः 'वरणातवार वणिगयतु' इति पाठशुद्धेः कर्तुमशक्यत्वाद् यथादेशं यथा संप्रदाय वस्त्रजाति विशेषमधिकृत्य व्याख्येयम् । 'आभरणचित्तं' आमरणचित्राणि-आभ. रणविचित्राणि 'सहिणग' इलक्ष्णानि-मूक्ष्मतन्तु निष्पन्नानि 'कल्लाणग' कल्याण कानि-परमलक्षणोपेतानि-भिगिनीलकज्जल' भगीनीलकज्जलेति, तत्र-भृङ्गीकीटविषः, नीलं-रागविशेषः तया-कज्जलं' प्रसिद्धम्' 'बहुवण्णरत्तपीतमुक्किल्ल' बहुवर्णानि रक्तपीतशुक्लानि 'मक्खियमिगलोम' म्रक्षितं तैलादिना स्निग्धीकृतं यत् मृगलोम 'हेमरुप्पवण्णग' हेमरूप्यवर्णकं-सुवर्णरजतवर्णात्मकम् 'अवरुत्तगसिंधु ओसभदामिलवंगकलिंग नेलिण तंतुमयभत्तिचित्ता' अवरुत्तरगसिन्धुऋषमतामिलबङ्गकलिङ्ग नेलिन तन्तुमयचित्राः तत्र-अपर:-पश्चिमदेशः, उत्तरः-उत्तरदेश, सिन्धुदेशविशेष: 'ओसभ' इति ऋषभः संपदाय गम्यो देशः, तामिलबङ्ग कलिङ्ग नेलिनाः देशविशेषाः-मसिद्धाः एतद्देशोद्भवा ये तन्तवः-सूक्ष्मतन्तवः, मन्मयायाः भक्तयो विच्छित्तयो विशिष्टरचनाः तामिश्चित्रा इत्यादिकाः 'वत्थविहिबहुप्पगारा हवेज्न' वखविधिना बहुपकारा भवेयुः 'वरपट्टणुग्गया' वरपत्नोद्गतार, हुआ वस्त्र अपरवस्त्र-पश्चिमदेश में बना हुआ वस्त्र,-उत्तर देश में बना हुआ वस्त्र, सिन्धुवस्त्र,-सिन्धु देश में बनो हुआ वस्त्र, ओसभ ऋषभ नामके देश के वस्त्र, तामिलवस्त्र-तमिल प्रदेश में बना हुआ तमिल देश का वस्त्र, बङ्गवस्त्र-बंगाल देश में बना हुआ बंगाल का वस्त्र, इसी प्रकार से कलिङ्गवस्त्र-कलिङ्ग देश में बना हुमा कलिङ्ग देश का वस्त्र, नेलिणन्तु-वस्त्र सूक्ष्म तन्तुओं से बना हुआ पतला वस्त्र, इत्यादि विविध प्रकार की रचना वाले वस्त्र जैसा तत्तद्देश भेद से अनेक प्रकार के होते हैं और 'वरपट्टणुग्गया' श्रेष्ठ पत्तन के अर्थात् હેમવત્ર, સેનાના તારથી બનાવવામાં આવેલ વસ્ત્ર, અપરવસ્ત્ર, પશ્ચિમદેશમાં બનાવવામાં આવેલ વસ્ત્ર, ઉત્તરવસ્ત્ર, ઉત્તર પ્રદેશમાં બનાવવામાં આવેલ વસ્ત્ર, સિંધુવસ્ત્ર, સિધુ દેશમાં બનેલા વ, સભ, રાષભ નામના દેશમાં બનેલા વો, તામિલવસ્ત્ર, તામિલપ્રદેશમાં બનાવવામાં આવેલ વસ્ત્ર, બંગવસ્ત્ર, બંગાળ દેશમાં બનાવવામાં આવેલવસ્ત્ર, એજ પ્રમાણે કલિંગવસ્ત્ર, કલિંગદેશમાં બનાવવામાં આવેલવસ્ત્ર, નલિતવસ્ત્ર, જીણુતારથી બનાવવામાં આવેલ જીણું વસ્ત્ર, 'ત્યાદિ અનેક પ્રકારની રચનાવાળા વસ્ત્રો જેમ તે તે દેશ પ્રદેશના ભેદથી અનેક
Page #589
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमैयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ २.३६ एकोषकद्वीपस्थितद्रुमगणवर्णनन् ५६५ वरपत्तनं तत्तत् प्रसिद्धपत्तनं तस्मादुद्गताः-विनिर्गताः 'वण्णरागकलिया' वर्ण रागकलिताः वणरनेकैमंजिष्ठादिभिः कलिताः युक्ता', 'तहेव से अणियणावि दुमगणा' तथैव ते अनग्ना अपि द्रुपगणा:-कल्पवृक्षाः 'अणेगबहुविविहवोसला परिणयाए वत्थविहीए उववेया' अनेकवहुविविधविस्रसापरिणवेन वस्त्रविधिनोपेता:'कुपविकुस वि० जाव चिट्ठति' कुशविकुश विशुद्ध वृक्षमूला यावत् तिष्ठन्तीति ।३६। ____ मूलम्-एगोरुय दीवेणं भंते ! दीवे मणुयाणं केरिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्ते ? गोयमा! तेणं मणुया अणुवमतर सोमचारुरूवा भोगुत्तमगयलक्खणा भोगसस्लिरीया सुजाय सव्वंगसुंदरंगा सुपइट्रियकुम्मचारुचलणा रत्तुप्पलपत्तम उयसुकु. मालकोमलतला नगनगरसागरमगर चर्ककबरंकलक्खणंकिय चलणा अणुपुत्वसुसाहतंगुलीया उण्णयतणुतंबणिद्धणखा संठियसुसिलिगूढगुप्फा एगीकुरुविंदाकतवट्टाणुपुत्वजंवा समुग्गणिमग्गगूढ जाणू गयससणसुजायसपिणभोरू वरवारणमत्ततल्लविक्कमविलासियगई सुजायवरतुरगगुज्झदेसा आइण्णभिन्न २, देशों में वहां की संस्कृति के अनुसार इनका निर्माण होता 'यणरापलिया' तथा मंजिष्ठादि रंगों से ये जैसे भिन्न २ देश की पद्धति के अनुसार रंगे होते हैं 'तहेच ते अणियणा वि दुमणा' इसी प्रकार से णे अनग्न नाम के कल्पवृक्ष भी 'अणेग यहु विविधीससा परिणयाए वस्यविहीए उववेया' अनेक बहुत प्रकार की स्वाभाविक वस्त्र, विधि से परिणत होते हैं 'कुस विकुस' इत्यादि, पदों का अर्थ पूर्वोक्त जैसा ही है सूत्र-३६।। ।।
२ना हाय छ, भने 'वरपट्टणुग्गया' श्रेष्ठ पत्तनथी अर्थात् नु । शाम त्यांनी त्यांनी संस्कृती प्रमाणे तेनु निर्माणु थाय छे. 'वण्णरागकलिया' તથા મંજીષ્ઠાદિ રંગથી જેમ જૂદા જૂદા દેશની પદ્ધતિ અનુસાર રંગવામાં मावेस डाय छे. 'तहेव ते अणियणा वि दुमगणा' ते प्रमाणे मा मनन नाना ४६५वृक्षा ५ 'अणेग बहु विविहवीस सापरिणयाए वत्यविहीए उववेया' भने ५२नी स्वाभावि पर विधिथी परिशुत डाय छे. 'कुसविकुस' त्यहि पहानेम पडai sil प्रभार सभval. ॥ सू. 360
Page #590
--------------------------------------------------------------------------
________________
५६६
जीवामिगम होठवणिरुवलेवा पमुइयवस्तुरिय सीह अइरेगवट्टियकडी साहयसोणंदमुसलदप्पणणिगरितवरकणगच्छरु सरिसवरवइरवलियमज्झा उज्जुयलमसंहिय सुजाय जच्च तणुकलिणणिद्ध आइनलडह सुकुसालमउयरमणिज्जरोमराई गंगावत्तपयाहिजावत तरंग भंगुररविकिरण तरुणबोहिय अकोलायंतपउमगंभीर वियडणाभी झलविहगसुजायपीण कुच्छी झसोदरा सुइकरणा पम्हवियडणाभा लण्णयपासा संगयपासा सुंदरपासा सुजायपाला मियमाझ्यपीणरइदपासा अकरुंडुय कणगरुयग निस्सलसुजाय निरुवहयदेहधारी पलत्थ बत्तीसलक्खणधरा कणगलिलातलुज्जल पसत्थ समतलोवचिय विच्छिन्न पिहुलवस्था सिरिवच्छंकियवच्छा पुरवरफलिहवट्टियभुया भुयगीसरविउलभोग आयाणफलिहउच्छूढ दहिबाहू जूयसन्निभपीणरतियपीवरप उट्ट संठियसुसिलिट्ठ विसिट घणथिर सुबद्ध सुनिगूढपव्वसंधी रत्ततलोवइयमउयमंसल पसस्थलक्खण सुजाय अच्छिद जालपाणी पीबरवट्टिय सुजायकोमलवरंगुलीया आयंवतलिगसुचिरुइरणितणक्खा चंदपाणिलेहा सूरपाणिलेहा संखपा. णिलेहा चक्रपाणिलेहा दिसासो अस्थिय पाणिलेहा चंदसूरसंखचकंदिसाओ अस्थिय पाणिलेहा अणेगवरलक्खणुत्तम पसत्थ सुचिरइंदपाणिलेहा वरमहिसवराहलीहरू दूल उसभणागवर पडिपुन विउल उन्नयखंधा च उरंगुलसुप्पमाणकंबुवर सरिसगीवा अवट्रिय सुविभत्त सुजाय चित्तमंसूमंसलसंठियपसत्थ सद्दूलविउलहणुया ओयत्रियलिलप्पवाल बिंबफलसन्निभा हरोट्रा . पंडुरससिसगलक्मिलनिम्मलसंखगोखीर फेणदगरयमुणालिया
Page #591
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयंघोतिका ठीका प्र.३ उ.३ ३.३७ एकोरुकमनुष्याणामाचारादिनिरूपणम् ५६७ धवल तसेढी अखंडता अप्फुडियता अविरलंता सुजायदंता एगदंत सेटिव्व अगदंता हुतवह निर्द्धतधोयतन्ततवणिज्जरत्ततलतालुजीहा गरुलायय उज्जुतुंगणाला अवदालियपोंडरीयणयणा कोकासियधवल पचलच्छा आणामियचावरुइल किण्हन्भराइय संठियसंगय आयय सुजाततणुक सिणनिद्धभूमचा अल्लीपमाण जुत्तसवणा सुरतवणा पीणसंसलकबोल दे सभागा अचिरुग्गय बालचंद संठियपसत्यवित्थिन्न समणिडाला उडुवइ पडिपुण्णसोमददणा छत्तागारुत्त मंगदेला घनणिचिय सुबद्धलक्खपण कूडा गारणिभपिंडियसिहसा दाडिमपुप्फपगासतवनिज्ज सरिसनिम्मलसुजाय के संत के सभूमी सामलिबोंडघणणिचिय छोडियमिउविसय पसत्थसुहुतलक्खण सुगंधसुंदर भुयमोयगभिंग णीलकज्जल पहट्टभ मरगणणिर्द्धाणि कुरंवनिषियकुंचियचियपयाहिणावत्तमुद्धसिरया लक्खलवंजणगुणोववेया सुजायसुविभत्त सुरुवगा पासाईया दरिसणिज्जा अभिरुवा पडिरूवा । ते णं मणुया हंसस्सरा कोंचस्तरा नंदिघोसा सीहस्सरा सीहघोसा मंजुस्सरा मंजुघोसा सुस्सरा सुस्सरणिग्घोला छाया उज्जोइयंगमंगा वज्जरिसभनारायसंघयणा समचउरंससेठाण संठिया सिणिद्ध छवीणिरायका उत्तमपसत्थ अइसेस निरूदमतणू जल्लमलकलंकसेयरय दोसवज्जियसरीरा निरुक्लेना अणुलोभवाउवेगा कंकग्गहणी कवोयपरिणामा सउणिव्व पोसपिटुं तरोरुपरिणया विग्गहिय उन्नयकुच्छी परमुप्पलसरिलगंधणिस्साससुरभिवद्णा अट्टधणुसयं ऊसिया तेर्सि मणुयाणं चउलट्टि पिट्टिकरडंगा पण्णत्ता समणाउसो ! | ते णं मणुया पगइभइया पगइविणीयगा पगइउवसंता पगइपयणुकोहमाणमायालोभा
Page #592
--------------------------------------------------------------------------
________________
५६४
जीवामिगमले मिउमद्दवसंपण्णा अल्लीणा भद्दगा विणीया अपिच्छा असंनि. हिसंचया अचडा विडिमंतरपरिवसणा जहिच्छियकामकामिणो य ते सणुयगणा पण्णत्ता सपणउसो!। तेसिं गं भंते ! मणुयाणं केवइकालस्म आहारहे समुपज्जइ ? गोयमा ! घउस्थभत्तरुल आहारट्टे समुप्पज्जह ।।सू०३७॥
छाया- एकरूप द्वीपे खल भदन्त ! द्वीपे मनुजाना कीदृश आकार मात्र प्रत्यवतारः प्रज्ञप्तः ? गौतम ! ते खलु मनुजाः अनुपमतरसोमचारुरूपाः भोगोत्त. मगतलक्षणाः मोगप्तश्रीका: सुजातसर्वाद मन्दराङ्गा सुपतिष्ठितकूर्मचारूचरणा रक्तो. हाल मृदुसुकुमारकोसकरलाः नगनगरसागरमकर चक्राङ्गराङ्गलक्षणाङ्कितचरणाः आनुपूयं सुसंहताहुलीयाः उन्नततनुताम्रस्निग्धनखाः संस्थितसुश्लिष्टग्रहगुल्माः एगीकुरुविन्दावर्त्तवृत्तानुपूर्व्यजड्डाः समुद्गकनिमग्नग्रह नानवः, गजश्वसनसृजातसनिमोरवः वर वारण मत्ततुल्यविक्रमविलासितगतयः सुजातवरतुरगगुह्यदेशाः आकीणहयइत्र निरूपलेपाः प्रमुदितवरतुरगसिंहातिरेकवृत्तकटयः संहतसोनन्दमुशल दर्पण निगरित्तवरकनकत्सरू सदृश वसनवलितमध्याः , ऋजु कसमसंहित सुजात जात्यतनुरुण स्निग्धादेवलडह(सुन्दर) सुकुमारमृदुरमणीयरोमराजयः गगावर्तमदक्षिणावर्त गरग मंगुर रविकिरण बोधिता कोशायमान पद्माम्मीर विकटनामयः झविहगसुनातपीनकुक्षयः प्रयोदाः शुचिकर्णाः पद्मविकटनामाः सनतपाः संगतपाः सुन्दरपार्थाः सुजातपाः मितमात्रिकपीनरतिदपार्था अकरूण्डुककन करूच : निर्मलसुनातनिरूपहतदेहधारिणः, प्रशस्त द्वात्रिंशल्लक्षणधराः कनकशिलातलोज्वल प्रशस्तसमतलोपचितविस्तीर्ण पृथुलबस्तयः श्रीवत्सांकितवक्षस: पुरवरपरिघवृत्तभुनाः, भुजगेश्वरविपुलमोगादामपरिधोक्षिप्त दीर्घवाहवः युगसन्निभपीनर तदपीररप्रपुष्टसंस्थित मुश्लिष्ट विशिष्ट घनस्थिरसुबद्ध सुनिगूढप वसन्धयः रक्ततळोपचितमृदुकासलपशस्तलक्षणसुजाताच्छिद्रजालपाणयः पीव. रवृत, सुजात कोमलवरांगुलीयाः आताम्रलिन (पतल) शुचि रूचिरस्निग्धनखाः चन्द्रपाणिरेखाः सूर्यपाणिरे वाः शङ्ख मणिरेखाः चक्रपाणिरेखाः दिक्सौवस्तिकपाणिरेखाः चन्द्र सुर्य शङ्ख चक्र दिव सौवस्तिकपाणिरेखाः अनेकवरलक्षणोत्तमप्रशस्त शुचिरतिदपाणिरेखाः वरमहिषवराहसिंहशाल ऋषभनागवरमतिपूर्ण विपुलोनमस्कन्याः चतुरंगुल सुपमाणकम्युबरसदृशग्रीवाः भवस्थित मुविभक्त सुजातचित्रइमश्रु: मांसल संस्थित प्रशस्तशार्दूलविपुलहनुकाः ओयविय (परिकर्मित)
Page #593
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेययोतिका टीका प्र.३ उ.३ स.३७ एकोरुकद्वीपस्थानामाकारभावादिकम् ५६९ शिकामवाल विम्बफलसनिभाधरोष्ठाः पाण्डुरराशि शकलविमलनिर्मल शङ्खगोक्षीर फेनोदकरजोमृणालिकाः धरलदन्तश्रेगयः अखण्डदन्ताः अस्फुटितदन्ताः अविरलद न्ताः सुनातदन्ताः एकदन्तश्रेणिरीवानेकदन्ताः हुतवह निर्मातधौततमतपनीयर तवालजिह्वाः गरुडायतऋजुतुङ्गनासाः अवदाळितपुण्डरीकनयनाः कोकासितधः बलपरलाक्षाः आनामितचापरुचिरकृष्णाभ्रराजिकसंस्थितसंगताय सुजाततनुकु. डणस्निग्धभ्रुः आलीनप्रमाणयुक्तश्रवणाः सुश्रवणा: पीनमांसलरूपोलदेशभागाः अचिरोद्गतबालचन्द्रसंस्थितप्रशस्त विस्तीर्णसमललाटाः उडुपतितिपूर्णसोमवदनाः पत्राकारोत्तमाङ्गदेशा घननिचितमुबद्धलक्षणोन्नत कूटाकारनिभपिण्डितशीर्षाः दाडि मधुष्यपकाशवपनीयसदृशनिमलसुनात केशान्तकेशभूमयः, शात्मलियोण्डधननिचि. तृछोटितमृदुविशदप्रशस्तसक्षमलक्षणसुगन्धसुन्दर सुजयोचकभृङ्गीनीलकज्जलप्रहृष्टभ्र मरगणस्निग्धनिकुरम्बनिचितकुश्चितचितपदक्षिणावर्त्तमूशिरोजाः लक्षणव्यञ्जन गु. णोपपेताः सुजातसुविभक्तसुरूपकाः मासादीयाः दर्शनीयाः अभिरूपाः प्रतिरूपाः। ते खलु मनुनाः सस्वराः क्रौचस्वराः नन्दिघोषाः सिंहस्वराः सिंहघोषाः मन्जुस्वराः मज्जुघोषाः सुस्वरा मुस्वरनिॉंपा छायोयोतिताङ्गाङ्गाः वज्रऋषभनाराच संहननाः समचतुरस्रसंस्थानसंस्थिताः स्निग्धच्छवयः निरातङ्काः उत्तमप्रशस्तातिशय निरूपमतनवः जल्ल मल कलङ्कश्वेनरजोदोषवजितशरीरा: निरूपलेपा: अनुलोमवायुवेगा: कामहणयः कपोतपरिणामाः शकुनिरिवषोसपृष्ठान्तरोल्परिणताः विगृहीतोभातकुक्षयः पदमोत्पलसदृशगन्धनिः श्वाससुरमिवदनाः अष्टधनुशतमुच्छिताः। तेषां मनुजानां चःषष्टिपृष्ठकरण्डका: प्रज्ञप्ताः श्रप्रणायुष्मन् ।। ते खलु मनुजाः प्रकृतिभद्रका प्रतिविनीतकाः प्रकृत्युपशान्ताः पतिपत्तनुक्रोधमानमायालोमाः मृदुमादवसंपन्नाः अलीनाः भाकाः बिनीताः अल्पेच्छाः असन्निधिसंचयाः अच. ण्डाः विडिमतरपरिवसनाः यादृच्छिककामकामिनश्च ते मनुजगणा: यज्ञप्ता: श्रमणायुष्मन् ! | तेषां खलु प्रदन्त ! मनु नानां कियता कालेन आहारार्थः समुत्पधन्ते ? गौतम ! चतुर्थ मक्तत्याहागः समुत्पद्यन्ते ॥० ३६॥
टीका-'एगोरुय दीवेणं भंते ! दीये' इत्यादि। 'एगोरुय दीवे णं भंते ! दीवे एकोरूकद्वीपे खल भदन्त ! द्वीपे 'मणुयाणं केरिसए आयारभाव डोयारे पण्णत्ते'
'एगोरुप दीवे णं भंते ! दीवे मणुयाणं केरिसए आगारभाव पडो यारे पण्णते-इत्यादि । सूत्र-३६ ।
टीकार्थ-गौतमने इन सूत्र द्वारा प्रभुश्री से ऐसा पूछा है-हे 'एगोल्यदीवेणं भंते ! दीवे मणुयाणं केरिसए आगारभावपड़ोयारे पण्णत्ते' त्या ટીકાર્ય–શ્રીગૌતમસ્વામીએ આ સૂત્રદ્વારા પ્રભુશ્રીને એવું. પૂછયું છે કે जी० ७२
Page #594
--------------------------------------------------------------------------
________________
५७०
जीवामिगमत्र मनुनाना प्रथमयुग्मिनां कीदृशा-किपाकारका आकारभावप्रत्यक्तारम्-शरीराका. रादिस्वरूपलक्षणः प्रत्यवतारः प्रज्ञप्ता-कथित इति प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'ते णं मणुया' ते खल युग्मिमनुजाः 'अणुवमतर. सोमचारुरूवाः' अनुपमतरसोमचारुरूपाः चन्द्रयत् अत्यन्त सुन्दररूपवन्तः 'भौगुतमगयलक्खणा' भोगोत्तमगतलक्षणाः अत्रोत्तम शब्दस्य परनिपातः प्राकृतत्वात् तेन उत्तमाश्च ते भोगाश्चेति उत्तमभोगाः, तद्गतानि तत्समूचकानि लक्षणानि येषां ते तथा उत्तमभोगमचकलक्षयुक्ता इत्यर्थः । 'भोगसस्सिरीया' भोगसश्रीका:-भोगेनशरीरेण सश्रीकाः शोभायुक्ताः 'मुजायसव्यंग मुंदरंगा' सुजात्सर्वाङ्ग सुन्दराजाः सुजातानि यथोक्तप्रमाणोपेतत्वेन शोभनजन्मानि यानि सर्वाणि उराशिरः प्रभृत्यगानि, तैः सुन्दरसङ्ग शरीरं ये पां ते तथा । 'सुपइटिप कुम्पचारुचलणा' सुप्रतिष्ठित कूर्मचारुचरणाः सुपतिष्ठिते सुन्दराकारेण स्थिते कूर्मवत् कर्यपृष्ठवदुन्नते चरणे येषां ते तथा, 'रत्तुप्पलगत्तम्उय सकुमाक कोपलतला' रक्तोत्पल पत्र मृदुकसकुमार. भदन्त ! उस एकोरुक द्वीप में रहने वाले मनुष्यों पा श्राकार भाव का प्रत्यवतार अर्थात् आकारादि रूप वगैरह-कैसा कहा गया है? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते है-गोयमा !' हे गौतम ! 'तेणं मणुया' एकोरुक द्वीप के मनुष्य 'अणुधमतरलोमचारुरूवा' चन्द्रमा की तरह बहुत अधिक सुन्दर रूपघाले होते है 'भोगुत्तमगधलक्खणा' वे मनुष्य उत्तम २, भोगों के सूचक लक्षणों वाले होते हैं। 'भोग लस्सिरीया' भोग जन्य श्री शोभा से युक्त होते हैं। 'लुजाय लव्वंग सुंदरंगा' शरीर प्रमाण के अनुसार प्रमाणोपेत मस्तक आदि उनका अंग जन्म से ही अधिक सुन्दर होने से उसका शरीर सुन्दर होता है 'सुपइट्ठिय कुम्भचारूचलणा' सुन्दर आकार वाले तथा कच्छपकी पीठ जैसे उन्नत चरण वाले होते हैं હે ભગવન તે એકરૂક દ્વીપમાં રહેવાવાળા મનુષ્યને આકાર ભાવનો પ્રત્યવતાર અર્થાત્ આકાર વિગેરે રૂપ કેવું કહેલ છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रभुश्री गीतमस्वामीन ४३ छ । 'गोयमा ! 3 गीतम! 'वेणं मणुया' ३४ द्वीपना ते मनुष्य। 'अणुवमतर सोमचारुख्वा' यद्रनी म घor पधारे सु१२ ३५वाणी डाय छ 'भोगुत्तमगयलक्खणा' ते मनुष्ये। उत्तम उत्तम मागीना सूयसक्षणे पण काय छे. 'भोगसस्सिरीयो' सामान्य श्री नाम शामाथी युत डाय छे. 'सुजायसव्व गसुदरगा' AN२ना प्रभार अनुसार प्रमाणु युक्त મસ્તક વિગેરે તેઓનું અંગ જન્મથી જ અત્યંત સુંદર હોવાથી તેમનું શરીર सु२ सय . 'सुपइद्विय कुम्म चारू चलणा' सु१२ मा ४२ तथा ४ायमा ना qांस 24 न्नत युवाणा हाय छ, 'रतुप्पलपत्तमउयसुकुमालकोमल
Page #595
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र. ३ . ३ . ३७ एकोरुकद्वीपस्थानामाकारभावादिकम् ५७१ कोमलतलाः तत्र - रक्तोत्पलपत्रवत् लालिमायुक्तं पुनश्च मृदुकं मार्दवगुणोपेतम् अकर्कशम् अतएव सुकुमारं कोमलं तलं चरणतलं येषां ते तथा, नगनगर सागर मगर चक्कं कषरं कलक्खर्गकिय चळणा' नगनगर सागरम कर चक्राङ्कधराङ्कलक्षणाङ्कितचरणाः, तत्र नगो-गिरि नगर सागर मकर चक्राणि प्रसिद्धानि, अङ्कधरश्वन्द्रस्तस्याङ्को लांछन एवं रूपैर्लक्षणैरुक्तवस्त्वाकार परिणताभिः रेखाभिरङ्किते चरणे येषां ते तथा, 'अणुपुञ्च सुसा हतंगुलीया' आनुपूर्व्यं सुसंहतागुळीयाः, आनुपूर्व्येण - परिपाटया वर्द्धमाना होयमानाः सुसंहताः - अविरलाः अंगुलयः पादाग्रावयवा येषां ते तथा, 'उण्णयतणु तंबणिद्धणखा' उन्नततलु ताम्रस्निग्धनखाः, तत्र उन्नता मध्ये तुंगाः तनवः - मतलाः ताम्रा रक्तवर्णाः स्निग्धाः - स्निग्धकान्तिमन्तः नखाः - पादगता येषां ते तथा, 'संठियसु सिलिगुफा' संस्थितसु श्लिष्ट'तुप्पल पतमय सुकुमाल कोमलतला' इनका वरण तल रक्त - लाल होता है एवं उत्पल के पत्र के जैसा वह मार्दव गुण से युक्त रहता हैकठोर नहीं होता तथा शिरीष पुष्प के जैसा वह कोमल होता है 'नगनगर सागर मगर चक्कंधरं कलक्खणंकियचलणा' इन के चरणों में पहाड़ नगर सागर समुद्र मकर-मगर, चक्र एवं अङ्कधर चन्द्रमा इनके चिह्न, रहते है अर्थात् इन आकार की उनके चरणों में रेखाएं होती है 'अणुपुच्वसु साहयंगुलिया' इनके पैरों की अंगुलियां जैसी जहाँ प्रमाण में पडी और छोटी होनी चाहिये वैसी वह वहां संहत - मिली हुई होती है 'उण्णयतणु तंपणिद्धणखा' इनके पैरों की अंगुलियों के नख बन्नत ऊंचे उठे हुए पतले, ताम्र- लालवर्ण के और स्निग्ध-स्निग्ध कान्ति शाली होते हैं । 'संठिय सुसिलिङ गुप्फा' इनके
तला' तेना थरथुनु' तजीयु सात होय छे. ते उत्त भजना પાનના જેવા મૃદુતા ગુણુવાળા હોય છે, અર્થાત્ કઠોર હાતા નથી. તથા शिरीषना पुष्पना नेवाते असण होय छे. 'नगनगरसागर मगर कधर कलक्खणकियचलणा' तेभना यरशोभां पहाड, नगर, सागर, समुद्र, भ१२-भधर, राई, भने उधर यद्रमां मेशना सिहती होय छे. अर्थात् २मा आठारौनी रेखाओ तेखाना यरोमां होय छे. 'अणुपुव्वसुसाइ यंगुलिया' तेभना પગાની આંગળીચે પ્રમાણુ સરની એટલે કે નાની મેટી જ્યાં જે પ્રમાણની હાવી જોઇએ તેવીજ ત્યાં ત્યાં મળેલી રહે છે, 'रण्णयतणु तं बणिद्धणखा' तेभना पानी सांगजीयोना नमो उन्नत 'थे ઉઠેલા પાતળા, લાલવણુંવાળા અને સ્નિગ્ધ, ચિકાશયુક્ત કાંતીવાળા હોય છે. ''ठियसुसिलिगुफा' तेगोना गुटट्टू (गोडी उपरनी गांठ) प्रभाषायेत
-
Page #596
--------------------------------------------------------------------------
________________
५७२
जीवाभिगमस्त्र गूढगुल्फा, संस्थिता-सम्यकू स्वरूपप्रमाणतया स्थिती मुश्किटौ-मुघनी गृढौ मांसलत्वादनुपलक्ष्यो गुल्फो-घुटिको येषां ते तया, 'एणीकुरुविदावत्त वहाणुपुनजंघा' पणीकुरु विन्दावर्त्तवृत्तानुपूर्यजत्राः' तत्र एणी-हरिणी, कुरुविन्दःतृणविशेषः, वर्त मूत्रवलनकम्, एतानीववृत्ते-वर्तुले आनुपूयेण-क्रमेण अर्व स्थूलत रे जंघे येषां ते तथा, 'समुग्गणिमग्ग गूढ जाण' समुद्गक निमग्नगूढ जानवः समुद्गनिमग्ने संपुटान्तः स्थिते इव मांसलत्वादनुपलक्ष्ये जानुनी येषां ते तया, 'गयससण सुजात-सण्णिभोर' गजश्वसनमुजातसन्निमोरवा, गजस्य हस्तिन: श्वसन:-शुण्डादण्ड: मुजात:-मुनिष्पन्नः तस्य सन्निमी-हल्यो ऊरू-जंधे येषां ते तथा, 'वरवारणमत्ततुल्ल विक्कम विलासितगई' चरवारणमत्ततुल्यविक्रमविलासितगतयः, तत्र परम्-धानो भद्रजातीयो यो मत्तवारणो हस्ती तस्य विक्रमश्चक्रमणं तद्वत् विलासितं विलास संजातो यस्य, विलासिता विलासक्ती गतियेषां ते तथा, 'सुजातवरतुरगगुज्झ देसा' सुनातवरतुरगाह्मदेशाः वरतुरगस्येव गुल्फ-टुकने-घमाणोपेत होते हैं सघन होते हैं, मांसल होने से गूद होते हैं वे अलग दिखने में नहीं आते हैं 'एणी कुमविंदावत्तवट्टाणु पुग्धजंघा' इनकी दोनों जंघाएं हरिणी की जांघों जैसी क्रमशः स्थूलस्थूलतर होती हैं और कुरुविन्द नाम के तृण विशेष और वर्त-घटे हुए सूत की रस्सी के जैसी गोल होती हैं तथा दोनों जानु-घुटनेंइनके मांसल होने से समुद्ग-संपुट में रखे हुए की तरह अनुपलक्ष्यनहीं जाना जासके ऐसा होते हैं 'गयससणसुजातसणिभोरू' इन के दोनों उरु हस्ती के शुण्डादण्ड के सम्मान सुन्दर गोल और पुष्ट होते हैं 'वरधारणमत्ततुल्ल विक्कमविलासिथ गई' मदोन्मत्त हाथी के समान घलनेके विलास से युक्त इनकी गति होती है 'सुजातघरतुरगगुज्झदेसा' इनका गुह्य प्रदेश श्रेष्ठ घोड़े के गुह्य प्रदेश के હોય છે. સઘન હોય છે. માસલ “પુષ્ટ હોવાથી ગૂઢ હોય છે. તેઓ અલગ हमपामा भावती नथी. 'एणीकुरूविदावत्तवद्राणुपुत्वजधा' तेमनी मन्त । હરિણાની જાંઘે જેવી ક્રમશઃશૂલ અને સ્કૂલતર ચઢઉત્તરની હોય છે. તથા કુરૂવિંદનામના તૃણ વિશેષ અને વર્ત–વણેલા સૂતરની ડેરીના જેવી ગેળ હોય છે. તથા તેમના બને છેઠણે માંસ યુક્ત હોય છે. સમુદ્ર-સંપુટમાં રાખેલાની भान ll न शय थे। हाय छे. 'गयसण सुजातसण्णिभोरू' तेसोना બને ઉરૂઓ હાથીની ગુંડાદંડના જેવા સુંદર અને ગોળ તથા પુષ્ટ હોય છે, 'वरवारण तत्ततुल्लविक्कम विलासियगई' मन्मत्त साथीना सेवा विसास युक्त तमानी गति डाय छे. 'सुजातवरतुरगगुज्झदेसा' तमानी शुद्ध प्रदेश ४
Page #597
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ ३.३ .३७ पकौरुकद्वीपस्थानामाकारभावादिक र ५७३ सुजातः मुगुप्तत्वेन निष्पन्नो गुह्य देशो येषां ते तथा, 'आइण्णहब णिरुपलेवा' अकोणहय इव निरुपलेपाः आकीर्ण हय इन जात्याश्चइव निरुपलेपाः जात्यधोहि मूत्राघननुलिप्तशरीरो भवति, तथा निरुपलेपशरीरा इति 'पमुइयवस्तुरयसीह अतिरेगवट्टियकडी' प्रमुदितवर-तुरगसिंहातिरेक पतित टयः, स्त्र प्रमु. दिता-रोगाधभावेनातिपुष्टः यौवन याप्त इत्यर्थः एवं विधो यो वरतुरगः दरसिंहश्च तद्वत् वनिता वर्तुला कटिर्येषां ते तथा, 'साहय सोणंदमुसलहप्पणणिगरिय-घरकणगच्छरुसरिसवरबइर वलियमग्झा' संहृतसौनन्दमुनल-दर्पण निगस्तिवरकनकत्सरु सदृशवरवज्रवलितमध्याः, सत्र संहन-संकुचितं सोनन्दं विवाटिका (तिपाई) इति प्रसिद्धा, मुसलं-प्रसिद्ध दर्पण शब्देनायवे समुदायोपचाराद दर्पण गण्डो गृह्यते यो हस्तेन गृह्यते तथा निगरित शुद्धीकृतं यद् घरकन तस्य सरु: समान सुगुप्त होता है 'आइण्णहओव्वणिरूवलेवा' आकीर्ण हय श्रेष्ठ आकीण जाति के घोडे के जैसा इनका शरीर मल मूत्रादि से निरूप लिप्स रहता है । 'पमुइय वर तुरय सीह अतिरेगष्ट्रिय कडी' रोगादिक के अभाव से अति पुष्ट हुए घोड़े और सिंह की कटि से भी अतिशय अधिक इनकी गोल कृश कटि होती है-अर्थात् ये बहुत ही अधिक पतली कमर वाले होते हैं 'साहय लोणंद मुसलदपण णिगरियवर कणगच्छरुसरिसवरवरवलियमज्झा' इनका वह मध्य भाग बीच से इस आकार का पतला होता है-कि जैला संकुचित किया हुआ सोनन्द अर्थात् लिपाई जिसके पाये सकुडलिये गये हों तब जैसा आकार होता है वैसे आकार वाला तथा उकृत मुसल का मध्य भाग बीच से जिस आकार का पतला होता है और दण यहाँ दर्पण धेसना गुह्य प्रदेश समान मत्यत शुत अाय छे. 'आइण्णहोव्वणिरूव लेवा' શ્રેષ્ઠ આકીર્ણ જાતના ઘડાના જેવા તેમના શરીર મલમૂત્રાદિથી નિરૂપલિસ म२७या दिनाना डाय छे. 'पमुइयवर तुरियसीह अतिरेगवट्टियकडी, शाहिना અભાવથી અત્યંત પુષ્ઠ થયેલ ઘોડા અને સિંહની કમ્મર કરતાં પણ અત્યંત અર્ષિક પાતળી કમ્મરવાળા હોય છે. અર્થાત્ તેમની કમ્મર ગોળ અને કૃશ
तां पातमी हाय 'साहन सोण'द मुसल ६षणगिरियकरणगच्छरूसरिस परवइरवलियमज्झा' तमना ते मध्यमा वयमांथी सेवा याताय छे. म સંકુચિત કરવામાં આવેલ વીનન્દ અર્થાત્ સિપાઈ અર્થાત્ ત્રણ પાયાવાળી ઘડી હોય કે જેના પાયાઓ સકેચી લીધેલા હોય, ત્યારે તેને જે આકાર હોય છે, એવા આકારવાળા તથા ઉંચે કરેલ મુસલ સાંબેલાને મધ્યભાગ વચમાંથી જે પાતળો હોય છે, તથા દર્પણ અહિયાં દર્પણ શoથી દઈને
Page #598
--------------------------------------------------------------------------
________________
५७४
जीवाभिनमसूत्रे
खङ्गमुष्टिः एते सर्वे पदार्थाः मध्ये तनवः उभयोः पार्श्वयोस्थूळा भवन्ति तैः तेषामिवेत्यर्थः, तथा-वरवज्रस्येव क्षामः वलितो वळित्रयोपेतो मध्यभागो येषां ते तथा 'उज्जुयसम संहित सुजावजच्च तणुकसिणणिद्ध आदेज्जकडह सुकुमालमउय रमणिञ्जरोमराई' ऋजुकसमसंदित सुजातजात्य तनुकृष्ण स्निग्धादेयळडद्द सुकुमार- मृदुक रमणीय रोमराजयः, तत्र ऋजुका - अवक्रा, समा न क्वापि कुटिला, संहिता - सन्ततिरूपेण व्यवस्थिता न तू अपान्तराल व्यवच्छिन्ना सुजाता - सुजन्मा न तु कालादि वैगुण्याद् दुर्जन्मा अतएव जात्या - प्रधाना, तन्वी कृशा न तु शब्द से दर्पण का गण्ड- हाथ में पकडने का डंडा लिया जाता है उसके जैसी शुद्ध किये गये सोने से बनी हुई मूंठ होती है, ये सब पदार्थ बीच से पतले और ऊपर नीचे स्थूल होते हैं इनके जैसा उनका मध्य भाग होता है वैसा, वर श्रेष्ठ-वज्र का जैसा आकार होता है वैसा उनको कटिभाग सदा निवलि से विराजित रहता है । 'उज्जयसमसंहिय सुजाय उच्चतणुकणिणिद्ध आदेज्जलडर सुकुमालमउय रमणिज्ज्ञरोमराई' इन के शरीर की रोमावलि सघन होती है वह टेडी मेडी नहीं होती है अर्थात् किसी भी जगह वह वक्र नहीं होती है सम रहती है सघन होने पर भी अन्तर से भी व्यवस्थित रह सकती हैइसके लिये कहा गया है वह ऐसी नहीं है किन्तु शरीर का कोई मा भी ऐसा प्रदेश नहीं बचता है कि जहां पर वह अन्तर रहित हुई घनी भूत न हो यह सुजात - सुन्दर रूप से जन्म से ही होती है तथायह स्वभावतः ही पतली होती है मोटी-स्थूल-नही होती। खूब काली હાથા અર્થાત્ હાથમાં પકડવાના હાથેા ગ્રહરુ થયેલ છે. તેને જેવી શુદ્ધ કરવામાં આવેલ સેનમાથી મનાવવામાં આવેલ સૂઢ હાય છે, આ બધા પદાર્થો વચમાંથી પાતળો અને ઉપર નીચે સ્થૂલ જાડા હૈાય છે. તેના જેવા તેમના મધ્યભાગ અર્થાત્ કટિપ્રદેશ પાતળા હાય છે. તથા વ-શ્રેષ્ઠ વને જેવા આકાર હોય છે. એવા તેમના કટિભાગ હમેશાં ત્રિવલીથી શેશભાયમાન होय है 'उज्जुय समस हिय सुजायजच्च तणुक सिण णिद्ध आवेज लइह सुकु माल मउयरमणिज्जरोमराई' तेभना शरीरनी शेभ पति सधन होय छे. તે આડી અવળી હાતી નથી. અર્થાત્ કોઈ પણ સ્થળે તે વાકીચૂકી હેાતીનથી. સરખીજ રહે છે. સઘન હેાવા છતાં પણુ અન્તરથી પણ વ્યવસ્થિત રહી શકે છે. તેથી કહેવામાં આવેલ છે કે તે રામરાજીએવી નથી પણ શરીરને ઠાઇ પણ ભાગ એવેનથી રહેતા કે જ્યાં તે અંતર વિનાની થયેલ ઘનીભૂત ન હાય, આ સુજાત જન્મથીજ સુંદર રૂપવાળી ાય છે. ત્થા તે સ્વાભાવિક રીતે જ પાતળી હાય છે. જાડી હાતી નથી. મજ કાળી હાય છે, માંકડાના
Page #599
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेययोतिका टीका प्र.३ ३.३.३७ एकोहकडीवस्थानामाकारभावादिकम् ५७५ स्थूग, कृष्णा न तु मर्कटवर्णा, कृष्णापि किश्चिन्निर्दीप्तिका भवतीत्याद-स्निग्धा'चिक्कणा' आदेया-दर्शनपथमुपगता सती पुनः पुनः आकांक्षणीया लडहा सलवणिमा-लावण्ययुक्ता अतएव आदेया इति भावः, सुकुमारा-सुकुमारत्वमपि किश्चित्कर्कशस्पर्श भवेतत्त आह-मृदुला-अतिकोमला अतएव रमणीया मनोरमा रोमराजि:-रोमावलियेषां ते तथा, 'गंगावत्तपयाहिणावत्त वरंश भंगुर रविकिरण तरुणवोधिय अकोसायंत पउमगंभीर वियडणाभी' गङ्गावर्त प्रदक्षिणावर्त्ततरंगभंगुर रविकिरणतरुगबोधिताकोशायमानपद्मगंमोर विकटनामयः, तत्र गङ्गाया भावता-पयसां विनमः तद्वत् प्रदक्षिणावर्ती न तु वामावताः तरङ्गा-इच तरङ्गाः तिस्रो वलयः ताभिभारा वक्रा रविकिरण स्तरुणैरमिनवैः वोधितं विकसितं सत् थकोशायमानं प्रफुल्लितं पद्म-कमलं तद्वत् गम्भीरा चिकटा-विशाला च नाभियेषा ते तथा, 'झसविहग सुजातपीणकुच्छी' झषविहम सुजातपीनकुक्षयः झपो मत्स्यः विहगः पक्षी तयोरिव सुजातो सुनिष्पन्नौ जन्मदोषरहिती पीनौ उपचितौ पुष्ठौ कुक्षी उदरोभयभागौ येषां ते तथा, 'झसोदरा' झपोदराः कृशोदर होती है. मर्कटवर्ण के जैसी मट मैली नहीं होती स्निग्ध-चिकनी होती है-अदेय होती है-यदि यह एक वार भी देख ली जाती है तो पुन: पुन: देखने की दर्शक की इच्छा जगती रहती है लावण्य युक्त होती है सुकुमार होती है-अति कोमल होती है ऐसा रमणीय इनकी रोषरजि होती है ____तथा--'गंगावत्त पयाहिणावत्ततरंगभंगुररविकिरणतरुणबोधियअकोसायंतपउमगंभीरविथडणाभी' इनकी नाभि गंगा की प्रदक्षिणावर्त्तवाली भ्रमि-भौर के जैसी होती है तथा तरङ्ग के जैसी त्रिवली से वह भुग्न टुकडे-टुकडे रूप में होनी है एवं तरुण-अभिनव-रवि किरणों से घोधित हुए-खिले कमल के समान विशाल होती है । 'झसविहगसु. जातपीणकुच्छी' कुक्षि-पेट-इनकी झषपछली और बिहग पक्षी की कृक्षि વર્ણ જેવી મલીન હોતી નથી. નિગ્ધ ચીકણી હોય છે. અર્થાત્ તે એક વાર પણ જોવામાં આવે તે વારંવાર તેને જોવાની જેનારની ઈચ્છા થતી રહે છે. સૌદર્ય યુક્ત હોય છે. આવી રમણીય તેમની રેમરાજ હોય છે.
तथा 'गंगावत्तपयाहिणावचतरंगभंगुर रवि किरण तरुण बोधिय अकोसाय' तपउमग'भीरवियडणाभी तमनी नानी मानी क्षिात वाली प्रभि-परीय। જેવી હોય છે. તથા તરંગને જેવી વિવલીથી તે ભગ્ન એટલે કે ખંડ ખંડના રૂપ હોય છે. તથા તરૂણ અને અભિનવ સૂર્યના કિરણેથી બોધિત થયેલ भात भाता भणना २ विशाण हाय छे 'झस विहग सुजात
Page #600
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवाभिगमसूत्र धन्त इत्यर्थः 'सुइकाणा' शुचिकरणा:-शुचीनि पवित्राणि निरूपछेपस्वाद करणानि इन्द्रिाणि येषां ते ज्या, 'रम्ह वियडणाभा' पदाविकटनामया-पद्म-कमलं तद्वत सदाकारा विकटा-विशाळा नाभिर्येपां ते तथा 'सण्णयपामा' सन्नतपार्धा, सम्यक् क्रमेण अधेऽधः नते पायें येषां ते तया, 'संगतपासा' संगतपा:सङ्गते-देहपमाणोचिते पायें येषां ते तया, अतएव 'संदरपासा' सुन्दरपार्धाः 'मुनातपासा' सुजातपा:-जन्मजातसुन्दरपाश्र्वाः 'मियमाइय पीणरतिय. पासा' मितमात्रिकपीनरतिदप,वाः, मिते-परिमिते मात्रिके मात्रया उपेते अन्यूनाधिके पौने-उपचिते रतिदे-आनन्दप्रदे पावें येषां ते तथा, 'अकरंड्यकणगरुयगनिम्मल सुजाय निरुवहयदेहधारी' अकरण्इककनकरुवा निर्मळ मनात निरुाहतदेहधारिणः, तत्र अविद्यमानं मांसलत्वेन अनुपलक्ष्यमाणं करण्डुकं पृष्ट. जैसी सुजात-सुन्दर और पुष्ट होती है 'झसोदरा' इनका उदर मत्स्य के उदर जैप्ता क्रश होता है 'सुकरणा' इनके करण अर्थात् इन्द्रियां पवित्र और निर्लिप्त होते है पम्हवियडणाभी' इनकी नाभिकमल के जैमी विशाल होती है 'सणघपासा' अच्छे रूप में क्रमशः इनके दोनों पार्थ भाग नीचे २, नत-झुके हुए होते हैं। 'संगतपासा' और वे देह प्रमाण उपचित-पुष्ट-होते हैं अतएव 'सुदर पाला' वे दोनो पार्श्वभाग इनके बडे सुहावने लगते हैं। 'सुजातपासा' इसी कारण वे सुजात जन्म से ही सुन्दर पाच वाले कहे गये हैं। मितमाझ्य पीणरतियपामा'
और इसी कारण वे उनके दोनों पाच भाग परिमित न कमती न बढती किन्तु मात्रोपेत, पुष्ट एवं आनन्द दाधक वर्णित किये गये हैं। 'अकड. यकणगरूयग निम्मलसुजाय निरूवय देहधारी' वे ऐसे देह के धारी होते पीणकुच्छी' Yक्षी ४३i घटना ५४मान मातमना अष नामनी माछवीना भने ५क्षीन। ये वो सुनत सुंदर भने पुष्ट डाय छे. 'जसोदरा' तभनु पेट भासीना पेट व श यातणु डाय छे. 'सुइकरणा' तमना २५ अर्थात् छद्रियो सत्यत पवित्र भने निति डाय छे. 'पम्हा वियड़णामी' भनी नामी भजन व विशाल डाय छे. 'सण्णयपासा' भश तमना मन्त्र पाश्वमा नीय नाय ना लाय छे 'संगतपासा' भने ते हेड प्रभाए पथित नाम पुष्ट डाय छे 'सुंदरपासा' ते मे 341वभाग-५७॥ घास सुह२ डाय छे. 'सजातपासा' या १२ तसे सुनत अर्थात् मथीसु२ ५४ावा ४ामा मावेश छ मितमाइय पीणरतियपासा' मने ४ ४२ तमानाय भन्न पावભાગે પરિમિત હોય છે એ છાવત્તાં હોતા નથી પરંતુ પ્રમાણે પત, પુષ્ટ અને मानहाय पान ४ामा सावेत छे 'अकरुंडुय कणगल्यगनिम्मल सुजाय निम्बय देहधारी' तो मेवा शरीरने धारण १२वावाणा हाय छे मना
Page #601
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयोतिकाटीका प्र.३ उ.३९.३७ एकोस्कद्वीपस्थानामाकारभावादिकम् ५७७ शास्थिकं यस्य स अरण्डुकस्तम् तथा कनकस्येव रुचको रुचिःप्ति स निर्मल: स्वाभाविकागन्तुकरलरहितः सुजातो-गर्भजन्म दोषरहितः, निरुपहता-ज्यराधुप घातरहितः, एवंविधो यो देहस्तं धारयन्तीत्येवं शीला ये तथा, तथा 'पमन्य बत्तीसलरखणधरा' द्वात्रिंघल्लक्षणानि प्रशस्तानि अप्रशस्तानि च भवन्ति त ते प्रशस्त द्वात्रिंशल्लक्षणधराः, 'कणगसिला तलुज्जल पसस्थसमग्लोवचियविस्थिन्नपिहुलबत्थी' कनकशिलातळोज्वल प्रशस्त समतलोपचित विस्तीर्णपृथुलबस्तयः तत्र कनकशिलातळवदुज्ज्वला प्रशस्ता समता उपचिता मांस विस्तीर्णा सर्वतो. विधाला पृथुला परिपुष्टा बस्तिः नारधोभागो येषां ते तथा 'सिरिवच्छंकिय. वच्छा' श्रीवत्साङ्कितवक्षसः, तत्र श्रीवस्सो लांछन विशेषः तेनाङ्कितं वक्ष उरो येषां ते तथा, 'पुरवरफलिह वट्टिय भुया' पुरवर परिघवर्तित भुजाः, तत्र पुरवरपखि महानगरद्वारकपाटागला तद्वद् वत्तितौ वृत्तौ पुष्टौ च भुनी येषां ते तथा, हैं किजिसके पृष्टकी हड्डी नहीं दिखती है, कनक के समान जो दीप्ति वाला होता है, निर्मल-स्वाभाधिक एवं आगन्तुक मल से जो रहित होता है गर्भजन्म के दोष से रहित होता है और निरूपहत होता है-ज्वरादि रूप उपघात से विहीन होता है 'पसस्थयत्तीसलक्खणधरा' ये प्रशस्त यत्तीस लक्षणों के धारी होते हैं। 'कणगसिलातलुजल पलत्थ समयलोवचिय विस्थिन्नपिलवस्थी' इनका चक्षास्थल कनक की शिला के तल जैसा उज्ज्वल होता है, प्रशस्त होता है, समतल होता है, उपचिन-पुष्ट होता है-मांसल होता है ऊपर की ओर और नीचे की ओर विस्तीर्ण होता है तथा दक्षिण और उत्तर की ओर वह पृथुल होना है। 'सिरियच्छंकियवच्छा पुरवर फलिहवाहियभुशा, सुयगीलर दिपुलभोगायाण फलि. ह उच्छढ दोहबाह तथा उनका वह वक्षःस्थल श्री वत्स के चिद से युक्त उच्छूढदीहमाहू' तथा साना मे पक्षस्यको श्रीवत्सना यि वाणा વાંસાના હાડકાં દેખાતા નથી સેનાના જેવી દીપ્તિવાળા હોય છે, નિર્મલ સ્વાભાવિક તથા આગંતુક મળ વિનાના હોય છે. સુજાત હોય છે, અર્થાત્ ગર્ભજન્મ દોષ વિનાના હોય છે, અને નિરૂપહત હોય છે. એટલે કે તાવ ॐ 16टी विगेरे पधात विनाना काय छे. 'पत्थसबत्तीस लक्खणधरा' तसा उत्तम व मत्रीशक्षकाने या ४२वापामा डाय है, कणगसिलातलज्जल पसत्थसमयलोवचियवित्थिन्नपिहलवत्थी' तना वक्षस्था सानानी शिलाना તળીયા જેવા ઉજજવલ હોય છે. અત્યંત પ્રશસ્ત હોય છે. સમતલ હોય છે. ઉચિત પુષ્ટ હોય છે. માંસલ હોય છે. ઉપરની બાજુ અને નીચેની બાજુ विस्तृत हाय छे. तथाक्षिण भने उत्त२नी मा ते पृथुत साय छे. सिरिबन्छकियवच्छा पुरवरफलिह वट्टियभुया भुयागीसर विपुलभोगआयाणफलिह
मी०७३
-
Page #602
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
.५७८
जीयामिगमसूत्र 'भुयगीसर विपुलभोग आयाण फलिह उच्छूढदीवाह' भुजगेश्वर विपुल मोगा दान परिघोरिक्षप्त दीर्घबाहकः, तत्र भुजगेश्वर -सर्पराजस्तस्य लिपुलो यो भोगः शरीरम्-तथा-यादीयते-द्वारस्थगनाथ गृयन्ते इत्यादानास चासौ परिधोऽगळा 'उग्छूति' उक्षिाः स्वस्थानादु क्षिप्त जीकृतः निष्कास्य ततो द्वार पृष्ठमागे दत्त इत्यर्थः तद्वद् दीर्घो-लम्बायमानी बाहू येषां ते तथा, 'जूएसन्निपीणरतियपीवरपउछ संठियमुसिलिट्ठ विसिट्टघण थिर मुबद्ध मृनिगूढ पञ्चसंघी' यूपसन्नि. भरतिदपीवर प्रकोष्ठसंस्थित सुशिलष्टविशिष्ट धनस्थिर सुबद्ध मनिगृहपर्वसन्धयः तत्र यूप सन्नि मौ-यूपः शक्राटावयबविशेषः यो पम स्कन्धोपरिम्याप्यते उत्स. हशी वृत्तत्वेन आयतत्वेन च तत्तुल्यौ सांसलो रतिदौ पश्यतां दृष्टिसुखदौ पीवर मकोष्ठको अकृशकलाचिकौ येषां ते तथा सस्थिताः-संस्थानविशेपवन्तः मुश्विष्टाः मुघना: विशिष्टा:-प्रधानाः, घना निविडाः, स्थिरा:-नातिश्लयाः, सुबद्धाः स्नायुमिः-सुष्टु नद्धः, निगहाः पसन्धयः-अस्थिसंधानानि येषां ते तया, होता है इनकी दोनों भुजाएँ महानगर के अर्गला के जैसी लम्बी होती हैं। इनके दोनों बाद शेषनाग के विपुल शरीर के जैसे एवं स्वस्थान से खेचकर द्वार पृष्ठ में दिये गये परिध के जैसे लम्बे होते हैं। 'जूप. सन्निभपीणरतिय पीवरपउनु सठिय सुलिलिट्ठ विसिढ घणधिर सुबद्ध सुनिगूढपवलंधी' इनकी दोनों हाथों की कलाईयां हथेली गोल और लम्बी होने से युग बैलों के कन्धे पर रखे जाने वाला जुना के जैसी मज बत होती है, मांसल होती है देखने वालों को आनन्द प्रद होती हैं और पतली नहीं होती हैं तथा इनकी अस्थि संधियां संस्थान विशेष संपन्न होती है सुश्लिष्ट होती हैं सघन होती हैं उत्तम होती हैं पास-पास में होती हैं स्थिर होती है अति शिथिल नहीं होती हैं और स्नायुधों से अच्छी तरह वे जकडी हुई होती है एवं निगूढ रहती है। 'रत्तनलोवाय હોય છે. તેઓની બને ભુજાઓ મહાનગરની અર્ગલાના જેવી લાંબી હોય છે. તેમને બન્ને બાહૂ શેષનાગના વિશાળ શરીરના જેવા અને સ્વસ્થાનથી ખેંચીને द्वार पृष्टमा सवामां आवेत परिधना २ मा हाय छे 'जयसन्नि भपीणरतियपीवर पउट्ठ संठिय सुसिलिठ्ठ विसिट्ठ धणथिर सुबद्ध सुनिगूढ पव्वसंधीं' તેમના બનને હાથના કાંડાઓ ગેળ અને લાંબા હેવાથી યુગ બળદના ખાંધપર રાખવામાં આવતા જૂચરાના જેવા મજબૂત સોહામણું હોય છે. અને માંસલ પષ્ટ હોય છે. જેવાવાળાને ખૂબજ આનંદ આપનાર હોય છે. અને પાતળા હૈતા નથી. તથા તેના હાડકાને સંધી ભાગ સંસ્થાન વિશેષથી સંપન્ન હોય છે સુશ્લિષ્ટ હોય છે સઘન હોય છે. ઉત્તમ હોય છે નજીક નજીક હોય છે સ્થિર હોય છે. અત્યંત શથિલ હોતા નથી, અને સ્નાયુઓથી સારી રીતે જકડાયેલ
Page #603
--------------------------------------------------------------------------
________________
"
प्रमेयोतिका टीका प्र. ३ उं. ३.३७ एकोरुकद्वीपस्थानामाकारभावादिकम् ५७५ 'रततळीवइयमउय मंसल पत्थलक्खणसुजाय अच्छिदजालपाणी' रक्ततलोपचित मृदुकमांसल प्रशस्तलक्षण-सुजाताच्छिद्र जालपाणयः, तत्र रक्ततलौ-अरूणौ श्रधोभागे उपचित्तौ - उन्नतौ औपचारिक वा क्रमेण हीयमानोपचय मृदुकौ - कोमको मांसल - परिपुष्टौ प्रशस्तशुभचिह्नयुक्तौ लक्षणौ सुजातौ जन्मतः सुव्यवस्थित अच्छिद्रजालौं - अन्तरालरहिताङ्गुति समुदायौ एतादृशौ पाणौ दस्तों येषां ते तथा, 'पीवर वट्टिय सुजायकोमलवरंगुलिया' पीवर वृत्तसुजातकोमलवरागुजिंकाः, तत्र पीवराः - शरीरौचित्येन स्थूला वृत्ता वर्तुलाः सुजाताः सुव्यवस्थिताः कोमला वरा मस्तलक्षणोपेता अगुलयो येषां ते तथा 'आतंत्रचलिण सुचिरुइरणिदणक्खा' आताम्र तलिन शुचि रुचिर स्निग्धनखाः, आताम्राः - ईषद्रक्ताः तकिना:- प्रतलाः शुचयः - पवित्राः-निर्मला रुचिरा मनोज्ञाः स्निग्धाः - चिकणा मंडलपत्थ लक्ष्खण सुजाय अच्छिद जालपाणी' इनके दोनों हाथ रक्त तल वाले होते हैं-अरुण होते हैं- उपचित होते हैं-अधोभाग पुष्ट होते हैं, उन्नत होते हैं-नीचे की ओर अधिक झुके रहते हैं। मृदुलचिकने, मांसल - मजबूत, प्रशस्त लक्षण युक्त, सुन्दर - आकार संपन्न, और छिद्र रहित अंगुलियों वाले होते हैं । 'पोथरचट्टिय सुजाय कोमलवरंगुलिया' ये अंगुलियां इनकी पीयर मजबूत होती हैं वृत्त - गोलाकार होती हैं- सुजात - सुन्दर होती हैं एवं कोमल होती हैं 'आतंयतलिणसुचि
हर जिद्धणखा चंद्रपाणि लेहा, सुरपाणि लेहा संखपाणि लेहा, चक्क -- पाणिलेहा, दिसासो थियपाणिलेहा' हाथों के अंगुलियों के नख कुछ २' लाल होते हैं, तीन-पतले होते है, शुचि-पवित्र होते हैं-साफ होते हैं, रूचिर - मनोहर होते हैं, स्निग्ध-चिकने होते हैं। रूक्षता से हीन होय छे. अने गुप्त रहे छे 'रचतलोवइय मउय मंसलपसत्थलक्खणमुजाय अच्छिद जालपाणी' तेभनामे हाथो शतातणीया वाजा होय छे. अर्थात् तेभनी हथेली એ લાલ હૈાય છે. ઉપચિત હૈાય છે. અર્થાત્ નીચેના ભાગપુષ્ટ હૈાય છે. ઉન્નત डोय छे. नीथेनी तर३ जुलैला रहे है. भृत शिवाजा, मांसल, भभूत, પ્રશસ્ત લક્ષગ્નવાળા, સુંદર આકારવાળા અને છિદ્રોવિનાની આંગળીયાવાળા डाय थे. 'पोवर त्रयि सुजाय कोमलवर गुलिया' तेभनी मांगणीयो यीवर भन्भूत होय छे. वृत्त-गौण भारवाणी होय छे. सुन्नत भने सुन्दर होय छे. 'आतंबलिण सुचिरुरणिद्वणखा, चंद्रपाणि नेहा, सूरपाणिलेहा, संखपाणिलेहा, चकपाणि लेहा, दिमासोअस्थियपाणिलेद्दा' तेमना हाथोनी भांगजीयानां नथे। કંઈક કઈક લાલ હોય છે. તલીન કહેતાં પાતળા હોય છે. શુચિનામ પવિત્ર होय छे. अर्थात् साई होय छे. ३रितां भनोहर होय छे, स्निग्ध
Page #604
--------------------------------------------------------------------------
________________
D
५८०
जीवामिगमस्त्र नखा येषां ते तथा, 'चंदपाणिलेहा' चन्द्रपाणिरेखाः, चन्द्रइच चन्द्राकारा पाणि. रेखा-हस्तरेखा येषां ते तथा, 'मुरपाणिलेहा' सूर्यपाणिरेखा, सूर्य इत्र सूर्याकारा पाणिरेखा येषां ते तथा, 'संखपाणिलेहा' शङ्खपाणिरेखा:, शङ्ख इव शङ्खाकारा पाणिरेखा येषां ते तया, 'चक्रपाणिलेहा' चक्रपाणिरेखा, चक्र इव चक्राकारा पाणिरेखा येषां ते तथा, 'दिसासोअस्थिय पाणिलेहा' दिक् सौवस्तिक पाणिरेखाः, दिक् प्रधानः स्वस्तिकः दक्षिणवतः स्वस्तिका तदाकारा पाणौ रेखा येषां ते तथा, 'चंदमूरसंखचक्कदिसा सो अस्थिय पाणिलेहा' चन्द्रसूर्यशङ्ख चक्र. दिक्सौवस्तिक पाणिरेखाः, पूर्वोक्त मेव विशेषण पञ्चकं प्रशस्तता प्रकर्ष सूचनाय संग्रह्य कथितमिति न पौनरुत्यम् । 'अणेपवरलकावणुत्तम पसत्य सुचिरतिय पाणिलेहा' अनेकवरलक्षणोत्तम प्रशस्त शुचिरतिद पाणिरेखाः, अनेक वरैःप्रधानः लक्षणे रुत्तमाः प्रशस्ता:-प्रशंसास्पदीभूताः शुचयः-पवित्रा:-निर्मला: रतिदाः-पीत्युत्पादकाः पाणिरेखा येषां ते तया, 'वरमहिसवराह सीहसल होते हैं। इनके हाथों में चन्द्र के आकार की रेखाएँ होती हैं, सूर्य के आकार की रेखाएँ होती हैं शंख के आकार की, चक्र के आकार की
और श्रेष्ठ दक्षिणावर्त्त वाले स्वस्तिक के आकार की रेखाएँ होती है 'चंदसरसंखचकंदिसासोास्थिय पाणिलेहा अणेवरलक्खणुत्तमपसस्थ सुचिरतियपाणिलेहा' इस तरह चन्द्र, सूर्य, शंख, चक्र, और श्रेष्ठ स्व. स्तिक की रेखाएँ इनके हाथो में होती है तथा इनको और भी सुन्दर२, उत्तम लक्षण वाली बहुन रेखाएँ होती हैं अतएव वे प्रशस्त-प्रशंसा के योग्य होते हैं, पवित्र होते हैं और अपने २, फल देने रूप कर्तव्य के अनुसार निष्पन्न हुई रेखाओं वाले होते हैं। 'वरमहिसवराहसीह सद्ल उलभनागवर पडिपुग्णविउल उन्नयखंधा' इनके दोनों स्कंधચિકણા અને રૂક્ષતા વિનાના હોય છે. તેમના હાથમાં ચંદ્રના આકારની રેખાઓ હોય છે. સૂર્યના આકાર જેવી રેખાઓ હોય છે. શંખના આકાર જેવી, ચક્રના આકાર જેવી, અને ઉત્તમ દક્ષિણ વર્તવાળા સ્વસ્તિકના આકાર જેવી રેખાઓ हाय छे 'चंदसूरसंख चक्कदिसासोअस्थिय पाणिलेहा अणेगवरलक्खणुत्तमपसत्थ सुचिरतियपाणि लेहा' मा प्रभारी द्र, सूर्य, शम, य: भने श्रेष्ठ स्वस्तिना જેવી રેખાઓ તેમના હાથમાં હોય છે. તથા અનેક બીજા પણ સુંદર સુંદર ઉત્તમ લક્ષણે વાળી ઘણીજ રેખાઓ હોય છે. તેથી જ તેઓ પ્રશસ્ત પ્રશંસા કરવાને ચગ્ય હોય છે. પવિત્ર હોય છે. તથા પેત પિતાના ફળ આપવા રૂપ zतव्य प्रमाणे नाणेदी २ामे पाडाय छे. 'वरमहिस वराहसीह सद्दुल उसभणागवरपडिपुण्णविउल उन्नयखंघा' तमना भन्न मनामी ली
Page #605
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमैयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ १.३७ एकोरुकद्वीपस्थानामाकारभावादिकम् ५८१ उसमणागवर पडिपुण्णविउल उन्नयखंधा' वरमहिषवराह सिंहशार्दूल वृषभ नागवरं परिपूर्ण विपुलोन्नत स्कन्धाः , तत्र वरमहिष:-प्रधानमहिषा, वराहावर शब्दस्यापि सम्बन्धात् वरवराहः-वनशूकरः, सिंह:-केशरी, शार्दूलो व्याघ्रः, वृषभो वलीवर्द। नागवर-प्रधानगजः एतेषामित्र परिपूर्णो-स्वप्रमावणाहीनो, विपुलौ विस्तीणों उन्नतौ च स्कन्धौ येषां ते तथा; 'चउरालसुप्पमाण कंबु. वर सरिसगीवा' चतुरङ्गुल सुप्रमाण कम्बुवर सदृशग्रीवाः, चतुरगुलं स्वशरीरापेक्षया चतुरङ्गुलपरिमितं सु-सुष्टु शोभनयमाणं यस्याः सा तथा कंवर सदृशी छन्नतया बलिन्नययोगेन च प्रधान शङ्ख सनिमा ग्रीवा येषां ते तथा, 'अवडिय सुविभत्तसु जाय वित्तमंसू' अवस्थित मुविभक्त सुजात चित्रश्य श्रवः, तत्र अवस्थितानि-अवर्धन शीलानि सदाकालं तथारूपेणैवाचस्थितानि मुविभक्तानि विविक्तानि सुजातानि मुष्ठुराया समुत्पन्नानि मश्रूणि कूर्च केशाः पुरुषमुखोपरि समुद्भूत केशसमूहः 'दाढी-मूंछ' इति प्रसिद्धानि येषां ते तथा 'मंसल संठियपसस्थ सदगुलविउल दृणुया' मांसल संस्थित प्रशस्त शार्दूल कि पुल हनुकार, मांसलं पुष्टम् तथा संस्थितं-शुभ संस्थानेन संस्थितं तेन प्रशस्तं कमलाकारत्वात् शुमलक्षणोपेतं शार्दूला-व्याघ्रस्तस्येव विपुलं विस्तीर्ण हनुकंकंधे वनशकर-जंगली सुभर, सिंह, शादुल, वृषम एवं श्रेष्ठ गज के स्क. न्धों के जैसे भरे हुए विकसित रहते हैं, और परिपूर्ण प्रभाववाले होते हैं, विस्तीर्ण होते हैं, उन्नत होते हैं । 'चतुरंगुलस्तुप्पमाणकंवुपरस. रिसगीवा' चतुरगुलपरिमिल होने से शोभन प्रमाणवाली एवं वलित्रय से युक्त होने के कारण स्तुन्दर शंख जैसी इनकी ग्रीवा होती हैं। 'अवष्टि. यसुविभत्तसुजाघ चित्त मंसू मंसल संठिय पसत्यसद्दूल विउलहणुपा' इनकी दाढी अवस्थित सदा एक समान रहने वाली सुविभक्त अलग. अलग सुजात-सुन्दर रूप से बनी हुई विचित्र होती है और मांस से भरा हुआ पुष्ट तथा सुन्दर संस्थान से युक्त होने से प्रशस्त और व्याघ्र સૂવર, સિંહ, શાર્દુલ, અને ઉત્તમ હાથીના ખભાઓના જેવા ભરેલા અને વિશાલ રહે છે. અને પરિપૂર્ણ પ્રભાવવાળા હોય છે. વિસ્તૃત હોય છે. અને ઉન્નત डाय छे. 'चतुरंगलसुप्पमाण कंबुवरसरिसगीवा' यार मांजरेसा मापना हावाया ચગ્ય પ્રમાણુવાળી અને ત્રણ રેખાઓ વાળી હોવાથી સુંદર પાંખ જેવી તેમની श्रीवा-गाय छ, 'अवद्रिय सुविभत्त सुनाय चित्तमंसूमंसल्ल सठियपसत्थसददल विउलहणुया' भनी हालिमपस्थित अर्थात् सहा मे सभी २२वावाणी સુવિભક્ત અલગ અલગ સુજાત સુંદર પણાથી શોભાયમાન અને વિચિત્ર હોય છે. તથા માંસથી ભરલ પુષ્ટ તથા સુંદર સંસ્થાનથી યુક્ત હોવાથી
Page #606
--------------------------------------------------------------------------
________________
५८२
जीवामिगमस्टे चिबुकम् अधरोष्ठाधो भागः ‘ड ढी' इति मसिद्धं येषां ते तथा, 'ओय. वियसिलपवालविवफलसन्निभाधरोहा:' ओयवियशिला प्रवालविलम्ब फलसन्निभाधरोष्ठाः तत्र-ओविय' इति देशी शब्दः परिकर्मितार्थवाचकस्तेन
ओयवियं-परिकमित्तं शिलामवालं शिलारूपं प्रवालं-विद्रुम, विम्बफलं-स्वनामख्यातो रक्तवर्णफळविशेषः तयोः सन्निभा रक्ततया तत्सदृशः अधरोष्ठः अधस्तन ओष्ठो येषां ते तथा, 'पंडुरससि सगळ विमल निम्मल संखगोखीर फेगदगरय मुणालिया धवलदंतसेढी' पाण्डुरशशिशकल विमलनिर्मलशङ्ख गोक्षीर फेनदकरजोमृणालिका धवलदन्तश्रेणयः, तत्र-पाण्डुरं यत् शशिशकलम-चन्द्र मण्डलखण्डम् -अकलङ्कश्चन्द्रभाग इत्यर्थः विमल-आगन्तुकमलरहितः मध्ये निर्मश्च-स्वामात्रिकालवर्जितः शलो गोक्षीरं फेनश्च दकरजश्व वाताहत जलकणः, मृणालिकाच पमिनी सूत्रं तद धवला-स्वच्छा दन्त श्रेणिः-दन्तपंक्तिः येषां ते तथा, 'अखंड दंता' अखण्डदन्ताः- अत्रुटिताः परिपूर्णाकारा दन्ता येषां ते तथा 'अडियदंता' अस्फुटिरदन्ता-अनर्जरदन्ताः, 'अविरलदंता' अविरलदन्ताः निरन्तरालाः परस्परं घनीभूता दन्ता येषां ते तथा, अतएव 'मजायदंता' सुजात के जैसी विस्तीर्ण हनुक-चिवुक अधरोष्ठ के नीचे का भाग होता है। 'ओयश्यिसिलप्पवाल बिंधफलसन्नि माहरोठा' इनके अधरोष्ठ-नीचे के
ओष्ठ घर्षण आदि से परिक्रमित किया हुआ शिलारूप प्रवाल-असली नंगा के समान एवं पिम्ब फल कुन्द फल के सलान लाल वर्ण वाले होते है। पंड्डरससिछगल विमल निम्मल संख गोखीर फेगदगरगमुणालिया धवल दतसेढी' इनकी दंतश्रेणी पांडुर-श्वेन-चन्द्रमा के टुकडो जेपी विमल उज्जवल तथा निर्मल-स्वच्छ शंख के जैसी गाय के दूध के जैसी फेन जैसी पक्षन ले उडे हुए जल कण के जैसी एवं कमल नाल के तन्तु जप्तीशश-धवल-होती है। 'अखंडदंता, अप्फुडियदला. अविरलदंता, सुजा. तदंता एगदंनसे ढिवणेगदंता, हुनवह निदंतधीत तत्त तवणिजरत्त પ્રશસ્ત અને વાઘની ડાઢી જે વિરતૃત હનુક-ચિબુક નીચેના હોઠની नायनी मा हाय छे. 'ओयविय सिलप्पवाल बिंबफलसन्निभाहरोदा' तमन। ઓક્ટ અધરોષ્ઠ ઘર્ષણ વિગેરેથી પરિકમિત કરવામાં આવેલ શિલાપ્રવાલ અસલ સગાના જેવો અને બિંબફલ, કુંદ ફલના જે લાલ રંગવાળે હોય छ. 'डुर ससि छगल विमल निम्मल संख गोखीरफेणगरयमुणालिया धवल રંતરેઢી તેઓની દંત પંક્તિ પાંડુર પેળી અર્થાત ચંદ્રમાના ટુકડા જેવી વિમલ, ઉજજવલ, અને નિર્મલ અર્થાત્ સ્વચ્છ શંખના જેવી ગાયના દૂધ જેવી, भीश व शुभ्र अर्थात् घोजी डाय छे. 'अखंड दंता, अप्फुडीयदंता, अविपलता, सुजातदंता, एगदतसे दिव्व अणेगद् ता, हुतवह निद्धंत धोततस्त
Page #607
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयोतिका टीका प्र.३ उ.३ ५.३७ एकोरुकद्वीपस्थानामाकारभावादिकम् ५८३ दन्ताः जन्मदोष रहितदन्ताः 'एगदंत सेढिन्च अगदंता' एक दन्त श्रेणिरिव एका दन्तंभेणिरिव अनेकादन्ता येषां ते तथा, तथा परस्परानुपलक्ष्यमाण दन्तविभागस्वाद् एकदन्त श्रेणिरिव अनेके द्वात्रिंशदन्ता अवस्थिता येषां ते तथा, 'हुतवह णित्तधोय तत्त तवणिज्जरत्त नलतालु जीहा' हुतवह निर्मातधौततप्ततपनीयरक्ततलतालुजिह्वाः, हुत बहेन-बहिना निर्मात अतएव धौतं शोधितमलं तप्तं संतापितं यत् तपनीयं सुणविशेषः तद्वत् रक्ततले लोहितरूपे तालु जिवे येषां ते तथा, 'गरुलायय उज्जुतुंगणासा' गरुडायत ऋजुतुंग नासा, गरुडस्य-पक्षिराजस्येव आयता दीर्घा ज्वी सरला तङ्गा उन्नता नतु पर्वतीयबत् चिपिटा नासा नासिका येषां से तथा, 'अवदालिय पौडरीयणयणा' अबदालितपुण्डरीक नयनाः, अबदालित्तं सुर्यकिरणैविकाशित यत् पुण्डरीकं श्वेतकमलं तत्तुल्ये नयने-नेने येषां ते तथा 'कोकासित धवल पत्तलच्छा' कोकासित धवल पत्रलाक्षाः, कोकासित-विकसितश्वेतकसले सद्वव तल तालु जीहा' ये एकोषक द्वीपचाली मनुष्य अखण्ड दांतों वाले होते है-अर्थात् परिपूर्ण दंतों वाले होते है-इनके दांत कभी भी जर्जरित नहीं होते हैं दांतों की पंक्ति इनकी विरल छुटी-छुटी नहीं होती है-ये अविरल-परस्पर संलग्न दन्तपंक्ति वाले होते हैं । अतएव-इनके दांत जन्म दोष से सर्वथा विहीन रहते हैं और इनके वे अनेक दांत एक दन्तश्रेणि के जैसे प्रतीत होते हैं इनके पूरे बत्तीस दांत होते हैं इनका तालु और जीभ अग्नि में तपाकर धोए गये और पुनः तप्त किये गये तपनीय सुवर्ण के जैसे लालवर्ण के होते है 'गरुलायय उज्जुत्तुंगणाला' इनकी नासिका गरुड की नासिका के जैसी लंबी ऋजु-लिधी और तुग -ऊँची होती है 'अवदालिय पोंडरीयणयणा' कोकासियधवलपत्तलच्छा, त्वणिज्जरत्ततलतालुजीहा' मा ३५ द्वीपमा २९वावाणा मनुष्य। मम દાંતાવાળા હોય છે. અર્થાત પરિપૂર્ણ દાંતે વાળા હોય છે તેઓના દાંતે કેઈ અવસ્થામાં જર્જરિત થતા નથી. તેઓ અવિરલ કહેતાં પરસ્પર એક બીજાને લાગેલ એવી દાંતની પંક્તિવાળા હેય છે. તેથી જ તેમનાં દાંતે જન્મ દેષથી રહિત જ રહે છે. અને તેઓના તે અનેક દાંતે એક દંતપંક્તિના જેવા જણાય છે. તેઓને પૂરેપૂરા બત્રીસ દાંતે હોય છે. તેઓનું તાલ અને જીભ અગ્નિમાં તપાવીને દેવામાં આવેલ અને ફરીથી તપાવેલ તપનીય કહેતાં તપા
हा सुना २१ सपना डाय छे. 'गरुलायय उज्जुतुगणासा' तेनु ना १३उन न सांभु साधु सने यु मन भरावहार हाय छे. 'अवदा लिय पो डरी यणयणा' कोकासिथघवल पचलच्छा आणामियचावरुइल किण्हदभराइय
Page #608
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगम
५८४
धवले पत्रले - पक्ष्मयुक्ते व अक्षिणी नेत्रे येषां ते तथा, 'आणामियचावरुलकिण्हमराह से ठप संगय आयय सृजाय उणुकसिणनिद्धभूमया' आनामित चाप रुचिर कृष्णाभ्रराजिसंस्थित सगतायत सुजात तन्नु कृष्णस्निग्ध भुवः, रात्र आनामितम् - ईपदारोक्तिम् यद् धनुः तद्वद् रुचिरे संस्थान भावतो रमणीये, कृष्णाभ्रराजीव संस्थिते संगते - यथोक्तममाणोपपन्ने आयते दीर्घे सृजायेसुनष्पन्ने तनू - उनुके लक्षण परिमितवारपङ्क्तयात्मकत्वात् कृष्णे-काळिमोपेते स्निग्धे भ्रुवौ येषां ते तथा, 'अल्ली गप्पमाण जुत्तसवणा' आलीन प्रमाण युक्त श्रवणा', थालीनौ मस्तकमित्तौ किञ्चिल्लग्नौ ममाणयुक्तौ स्वप्रमाणोपेतौ श्रवणौ फण येषां ते तथा, विशालकर्णा इत्यर्थः, 'सुस्वणा' अत एव सुश्रवणाः 'पीणमंसल कवोल देसमागा' पीन मांसलकपोलदेशभागाः, पीनः पुष्टौ मांसल :आणामियचावरूइल भिराइयसंठिय संगय आपय सुजाव तणुकसिण निद्रभूमा अल्लीणप्पमाणजुस सवणा' सूर्य किरणों से विकाशित श्वेत पुण्डरीक के जैसी इनकी दोनों आँखें होती हैं, तथा वे विकसितखिले हुए श्वेत कमल के जैसी-फोनों पर लाल बीच में काली और धवल और पक्ष्म पुट वाली होती हैं इनकी भौंएँ ईषत् - आरोपित धनुष के समान वक्र होती है, रूचिर - संस्थान की अपेक्षा रमणीय होती है, कृष्ण अभ्रपंक्ति के जैसी काली होती हैं अपने प्रमाण के अनुकूल सघन होती हैं, दीर्घ होती हैं, सुनिष्पन्न जन्म रहित होती हैं, पतली होती हैं काली और स्निग्ध होती हैं । इनके कान नम्नक के भाग तक कुछ २ लगे हुए होते हैं और अपने २ प्रमाण के अनुरूप होते हैं । अर्थात् ये विशाल कानों वाले होते हैं । 'सुहसवणा, पीणमं मलकवोल देत भागा,
संठिया सगयआयय सुजाय तणुकसिण द्विभूमया अल्लोणप्पमाण जुत्तसवणा' સૂર્યના કિરણેથી ખીલેલા શ્વેત કમળના જેવી તેઓની અને આખા હાય છે તથા તેઓ ખીલેલા શ્વેત કમળોના જેવી એટલે કે ખૂન્નુા પરલાલ વચમાં કાળી, અને ઘાળી અને પાંપણેા વાળી હાય છે. તેમની ભ્રમરે કઈક ચઢાવેલા ધનુષના જેવી વાંકી હાય છે. ચિર એટલે કે સંસ્થાનની અપેક્ષાથી રમણીય હાય છે કૃષ્ણમેઘની પક્ત જેવી કાળી હાય છે, પેાતાના પ્રમાણને અનુકૂલ સઘન ાય છે. દીઘ લાંખી હાય છે. સુનિષ્પન્ન અર્થાત્ જન્મદોષ વિનાની હાય છે. પાતળી હાય છે કાળી અને સ્નિગ્ધ ચિકણી હાય છે, તેમના કાને માથાના ભાગ સુધી કઇક કંઇક ચાંટેલા હૈાય છે. અને પેાત પેાતાના પ્રમાણાનુ રૂપ હાય છે. અર્થાત્ તેએ વિશાળ કાનેાવાળા હોય છે, 'सुरस्रवणा, पीण मसलकवोल सभागा अविरुग्गयबालच दस ठिय पसत्वत्थिष्ण समणिडाला
Page #609
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयोतिका ठीका प्र. ३४.३.३७ पकोरुकद्वीपस्थानामाकारभावादिकम् ५८५
उपचितः कपोळयो देशभागो मुखावयवो येषां ते तथा, 'अचिरुग्गय बालचंदसं ठियपसत्य विस्थिन्नसमणिडाला' अचिरोद्गत बालचन्द्र संस्थितप्रशस्त विस्तीर्ण समललाटाः, तत्र अचिरोगतो यो बाळचन्द्रोऽष्टमी चन्द्रस्तद्वत् संस्थितं मस्तं विस्तर्ण समं - समतलं च कलाटं येषां ते तथा, अथवा 'निव्वणसमलङ्कमट्ठ चंदद्धसमनिडाळा' निर्वणसमलष्ट मृष्टचन्द्रार्ध पमकलाटा, तत्र- निर्वणं-विस्फोट. कादि सतरहितं समं - समतल भूतम् अतएव लष्टं - मनोज्ञं - मृष्टं - मसृणं चन्द्रार्द्धसमम्-अष्टमीचन्द्रसदृशं ललाटं येषां ते तथा । 'उडुपरिपडिष्ण सोध्मचयणा' बहुपति परिपूर्ण सोमवदना, तत्र परिपूर्णः - पौर्णमासीयः उडुपतिश्चन्द्रः तद्वत् सौम्यं शान्तं वदनं मुखं येषां ते तथा, 'छत्तागारुत्तमंगदेसा' छत्राकारोनमाङ्गदेशा, छत्राकारः - छत्रसदृश उत्तमाङ्ग रूपो देशो येषां ते तथा, 'घगणिचिय सुबद्धलक्ख गुण्णय कूडा गारणिमपिंडिय सिरसे' घननिचित सुबद्धलक्षणोन्नकूटागार निमपिण्डित श्रीषः, तत्र घनत्वेन निचित्तं - अतिशय निविडं सुबद्धं सुष्ठु स्नायुअविवालचंद संठियपसत्यविस्थिष्ण समणिसाला उडुबइपडिपुण्ण सोमवयणा उत्तागारूत्तमंगदेसा' इसी कारण उन्हें सुश्रवण वाला कहा गया है इनकी कपोल पाली पीन और मांसल होती है इनका निडालभाल प्रदेश - ललाट अचिरोद्गत चालचन्द्र के जैसा होता है अर्थात् अचिरोग अष्टमी के चन्द्रमा के जैसा आकार वाला होता है एवं प्रशस्त विस्तीर्ण चौडा और समतल होता है। इनका सुख पौर्णमासी के चन्द्रमण्डल जैसा सौम्य होता है । इनका उत्तमाङ्ग - मस्तक - रूप प्रदेश उघडा हुआ छत्र का जैसा आकार होता है वैसे आकार वाला होता है । 'घणणिचिय सुबद्ध लक्खणुण्णय कूडागार भिविडिय सिरसेदा डिम पुष् पगावणिज्ज सरिख निम्मल सुजाय के संत के सभूमी' इनका मस्तक घन सघन पोलाण वाला नही होने से निषिड होना है उव पड़िपुण्ण सोमणा छत्तागारुत्तमंग देखा' मे भरणे तेमाने सुश्र વાળા કહ્યા છે. તેઓની કપાલ પાલી પીન અને માંસલ હાય છે, તેઓના ભાલ પ્રદેશ અર્થાત લલાટ તરતના ઉગેલા ભાલચંદ્રના જેવા આકારવાળા હાય છે અર્થાત્ તરતના ઉગેલા અષ્ટમીના ચન્દ્રમાના આકાર જેવા ઢાય છે. તથા પ્રશસ્ત વિસ્તૃત પહેાળા અને સમતલ ઢાય છે. તેનું મુખ પુનઃના ચદ્રમ`ડલ જેવું સૌમ્ય હેાય છે. તેઓનુ ઉત્તમાંગ કહેતા મસ્તકને પ્રદેશ ઉઘાડવામાં भावेत छत्रनेो भेवे। भाार होय हे, मेवा आहार वाणी होय छे. 'घणणिचियसुबद्धल खणुण्णय कूडागारणिभपिंडियसिर से दाडिमपुप्फ गांसतवणिज्ज सरिस निम्मल सुजा कसत भूमी' तेनु' भस्त धन सघन चासाबुवाणु
जी० ७४
Page #610
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगम घवं लक्षणं- शुभलक्षगोपे ठम् उन्नतं-मध्यमागे उच्चम् कूटाकारनिमं-शिखराकार. सदृशं पिण्डितं-पापाणवस्पिण्डीभूतं शीप येषां ते तथा, 'दाडिम पुष्फागासतवणिज्ज सरिसनिम्मलसुजायके संत केसभूमी' दाडिम पुष्पपकाशतपनीय सशनिर्मळमुजातकेशान्तकेशभूमयः, तत्र-दाडिमपुष्पप्रकाशा-दाडिमपुष्पवर्णा ईष. द्रक्ता तथा तपनीयेन सुवर्ण विशेषेण सदृशाः ईप-पीतत्वेन सुवर्णवर्णाः निर्मला: -स्वभाविकागन्तुकमलरहिताः, सुजाता:-मुसंस्थिता केशान्ताः-केशचरणभागाः, तथा पूर्वोक्त स्वरूपाः केशभूमिश्च केशोत्यत्ति स्थानभूता मस्तक त्वग्येषां ते तया, 'सामलि घोड घणणिचिय छोडियमिउविसयपसत्थ सुहुमळवखणसुंगध सुंदर भुयमोयगमिगिणीलकउजळ पहट्ट भमरगणणिद्ध णिकुरुंवनिचियकुंचिय चिय पयाहिणावत्तमुद्धसिरया' शाल्मलीबोण्ड घननिचितछोटितमृदु विशद प्रशस्त सूक्ष्मलक्षण सुगन्धसुन्दर भुजमोचक भृङ्गानीळ कज्जल हट भ्रमर गण स्निग्ध निकुरम्बा स्नायुओं से वह सुषद्ध होता है और प्रशस्त लक्ष गों से समन्वित (दृढ) होता है तथा जेसा कूट-शिखर का भाकार होता है वैसा आकार वाला होता है और पाषाण की जैसी विण्डी होती है ऐसी पिण्डी के समान वह मजवून और गोल होती है इनके मस्तक के केशों का अग्रभाग, तथा मस्तकके ऊपर की चमडी कि जिसमें केश उत्पन्न होते हैं दाडिम पुष्प के प्रकाश-वर्ण जैले कुछ लालिमा वाला होता है एवं तपनीय सुवर्ण के जैसा कुछ पीत वर्ण वाला और आगन्तुक मलरहित होने से निर्मल होता है 'सामलिघोंडघणणिचिय छोडिय मिउविसय पसत्थ सुहम लक्खण सुगंध सुंदर भुश्मोयग भिगिणील जलपट्टभमरगणणिद्ध णिकुरंपनिचिय कुंचियचियपचाहिणा वत्त मुद्धमिरया' इनके मस्तक ન હોવાથી નિબિડ ગાઢ હોય છે. તે સ્નાયુઓથી સુબદ્ધ હોય છે. અને ઉત્તમ એવા લક્ષણેથી સમન્વિત (દઢ) હોય છે. તથા જે પ્રમાણે (ફટ) શિખરનો આકાર હોય છે. એવા આકારવાળું હોય છે. તથા પાષાણ અર્થાત્ પત્થરની પિંડી જેવી હોય છે. એવી પિંડીની માફક મજબૂત અને ગળ હોય છે. તેમના મસ્તકના કેશને અગ્રભાગ તથા માથાના ઉપરની ચામડી કે જેમાં વાળ ઉગે છે, તે દાડમના પુષ્પના પ્રકાશ વગ જેવા કંઈક લાલિમા વાળી હોય છે. તેમજ સેનાના વ જેવા કંઈક પીળાશ યુક્ત તેમના વાળો હોય છે. તથા આગન્તુક મલથી રહિત હોવાથી તે નિર્મલ હોય છે. 'सालि बोंद घणणिचिय छोडियमिउविसयपसत्य सुहुम लक्खण सुगधनदरभुय मोयाभिगिणीलकज्जलपहट्ट भमरगणणि? णिकुरव निचिय कुंचिय चियपदाहिणावद्ध मुद्धसिरया' तमाना भरत: ६५२ २ वाणे डाय छे, ते 634। छता
Page #611
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमैयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ २.३७ ऐकोलंकद्वीपस्थानामाकारभावादिकम् ५८७ निचित कुश्चित चित प्रदक्षिणावर्तमूर्द्धशिरोजाः, तत्र-छोटिता: विच्छिन्नीकृता अपि मूर्द्धनाः शाल्मल्या:-वृक्षविशेषस्य यद वोण्डं फलं तद्वद् घननिचिता स्वभावत एवातिशयेन निविडा अवसिष्ठन्ते तथा मृदब कोमलाः विशदा निर्मला! प्रशस्ता-प्रशंसास्पदीभूताः, सूक्ष्माः-लक्ष्णा: लक्षणवन्तः मुगन्धा:-परमगन्धो. पेताः अत एव सुन्दरा तथा-भुजमोचक: कृष्णवर्णरत्नविशेषः, भृङ्गो-भ्रमरः, नीलो-नीलमणि:-मरकतमणिः, कज्जलम्-प्रसिद्धं प्रहृष्टः प्रमुदितो भ्रमरगणः तरुणावस्थायां भ्रमरोऽतीवकृष्णो भवत्यतः प्रहृष्टविशेषणग्रहणम् । त इव स्निग्धा निकुरम्भभूताः सन्तः निचिताः नतु विकीर्णाः सन्तः कुञ्चिताः ईषद कुटिला: कुडूमलीभूताः पदक्षिणावर्ताश्च मूर्द्धनि-मस्तके शिरोजाः केशा येषां ते तथा, 'लक्खणबंजण गुणोववेया' लक्षणव्यञ्जनगुणोपपेवार, लक्षणानि-स्वस्तिकादीनि, व्यञ्जनानि-मपीतिलकादीनि गुणा:-क्षान्त्यादय एमिरुपपेताः युक्ताः-गाम्भीऊपर जो केश-बाल-होते हैं वे छोटित-खुले-खुले शिये जाने पर भी स्वभाव से ही शाल्मली वृक्ष विशेष के फल जैले घने होते हैं, निचित -अत्यन्त निविड होते हैं मृदु-नरल-होते हैं विशद निर्मल-होते है, प्रशस्त-प्रशंसास्पद होते हैं सूक्ष्म होते है-बडे २ नहीं होते हैं लक्षण वाले होते हैं, सुगन्ध से युक्त रहते हैं, सुन्दर होते हैं तथा भुजमोचक नामक रश्न विशेष के समान, नीलमणि-घरकत मणि के समान कज्जल के सलान, हर्षित हुए भ्रसर के समान अत्यन्त काले और स्निग्ध होते हैं ये निचित होते हैं अर्थात् इधर उधर विखरे हुए नहीं होते हैं घुघराले होते हैं और प्रदक्षिण आवर्त वाले-दाहनी तरफ झुके हुए होते हैं । 'लक्खणवंजणगुणोषवेया' थे एकोरुक द्वीप निवासी मनुष्य स्वस्तिय आदि लक्षणों से, मश तिलक आदि व्यञ्जनों से और પણું સ્વભાવથીજ શામલી વૃક્ષવિશેષના કુલના જેવા ગાઢ હોય છે. નિશ્ચિત અત્યંત લાગેલા હોય છે. મૃદુ નરમ હોય છે. વિશદ નિમલ હોય છે. પ્રશાંત પ્રશંસા કરવા ગ્ય હોય છે. સૂક્ષમ હોય છે. મોટા મોટા હતા નથી. પ્રશસ્ત લક્ષણવાળા હોય છે. સુગંધ યુક્ત હોય છે. સુંદર હોય છે. તથા ભુજમેચક નામના રત્નવિશેષ પ્રમાણે, નીલમણિ મરકતામણિ સમાન, કાજલ સમાન. હર્ષિત થયેલ ભમરાની જેમ, અત્યંતકાળા અને સ્નિગ્ધ સુંવાળા હોય છે. તેઓ નિશ્ચિત હોય છે. અર્થાત આમતેમ વિખરાયેલા હતા નથી. ઘુઘરાળા હોય छ. मने क्षिय भगवा अर्थात् भानु जुस डाय छे. 'लाखण. पंजणगुणोववेया' मा ३४ द्वीपमा २२वावा मनुष्य स्वस्ति वगैरे લક્ષણેથી મશીતિલક વિગેરે વ્યંજનથી અને ક્ષત્તિ વિગેરે સદ્દગુણેથી યુક્ત
Page #612
--------------------------------------------------------------------------
________________
५८८
जीवामिगमस्त्र योदि गुगोपपेता इत्यर्थः, सुजायमुविमत्तमुरूवगा' सुजात मुविभक्त मुरूपकाः, सुजातं-मुनिष्पन्नं जन्मदोषरहितत्वात्, मुविभक्तम्-अगमत्यगोपाङ्गानां यथा स्थान स्थितत्वात् मुरूपं समुदायगतं येषां ते तथा। 'पासाईया' प्रसादिकाः 'दरिसणिज्जा' दर्शनीयाः, 'अभिरूवा' अभिरूपाः, 'पडिरूपा' मतिरूपा इति ।
ते मणुया इंसस्सरा' ते-एकोरुकद्वीपकाः खलु मनुजाः हंसस्वराः, इंसस्य पक्षिविशेषस्य स्वरवत् मधुरः स्वर:-शब्दो येषां ते हंसस्वराः, 'कोच. स्सरा' क्रोश्चस्वरा:-क्रौञ्चाभिधपक्षिशब्द सदृशशब्दवन्तः अनायास विनिर्गतस्यापि स्वरस्य दीर्घदेशव्यापित्वात् 'नंदिघोसा' नन्दिघोषा:-नन्दिर्नामद्वादशविधवाद्य. विशेषसंमिश्रितस्वर सदृशस्वरयुक्तो वाधविशेषः, तद्वत् घोपो ध्वनिर्यपां ते नन्दि. घोषाः, 'सीहस्सरा' सिंहस्वराः 'सीहघोसा' सिंहघोपाः 'मंजुस्सरा मंजुघोसा' क्षान्ति आदि सद्गुणों से युक्त होते है। 'सुजाय सुविभत्त सुरुवगा पासाईयो दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा' उनका रूप बड़ा ही अच्छा स्वरूप वाला होता है क्योंकि उसके प्रत्येक अवयव जन्म जात अपने२, पूर्ण प्रमाण से युक्त होते हैं ये प्रासादिक होते हैं दर्शनीय होते हैं अभि. रूप होते हैं और प्रतिरूप होते हैं 'तेणं मणुया हंसस्सरा, कोचस्सरा, नंदिधोसा, सीहस्सरा, सीह घोसा, मंजुस्तरा, मंजुघोसा, सुस्सरा, सुस्सरणिग्घोसा छाया उज्जोतियंगमंगा' ये मनुष्य हंस के स्वर जैसे स्वर वाले होते हैं क्रौंच पक्षी के स्वर जैसे अनायास निकलने पर भी दीर्घ देश व्यापी स्वर वाले होते हैं नंदिके घोष-गर्जना वाले होते हैं अर्थात् यह नन्दि-बारह प्रकार के वाद्य विशेषों का जैसा संमिश्रित स्वर होता है उस प्रकार के वाद्य विशेष कानास नन्दि है उसके जैसी ध्वनि वाले सिंह के स्वर जैसे गंभीर स्वर वाले होते हैं सिंह के जैसे घोषहाय छे. 'सुजायसुविभत्तसुरूवगा, पासाईयो दरिसणिज्जा अभिरुवा पष्टिरूवा' त्यानु રૂપ ઘણું જ સુંદર સ્વરૂપવાળું હોય છે. કેમકે તેમના દરેક અવયવ જન્મથીજ પિત પિતાના પૂર્ણ પ્રમાણુથી યુક્ત હોય છે. તે બધા પ્રાસાદીય હોય છે. દર્શનીય हाय छे. अभि३५ .य छ भने प्रति३५ डाय छे. 'तेणं मणुया हसस्सरा, कांचमग नदिघोसा, सीहस्सरा, सीह घोसा मजुस्सरा, मजुघोसा, सुरसरा, सुस्सरणिग्धोंसा, छोया उज्जोतियगमगा' मा मनुष्य। सना २१२ २१॥ २१२ વાળા હોય છે. કૌચક્ષિના સ્વરની જેમ અનાયાસ નીકળવા છતાં પણ દીધું દેશવ્યાપી સ્વરવાળા હોય છે. નંદિના ઘેષ જેવા ઘેષ ગર્જનાવાળા હોય છે. અર્થાત તે નદિ કહેતાં બાર પ્રકારના વાઘવિશેષનું નામ નંદિ છે. તેના જેવા વિનિવાળા, સિંહના સ્વર જેવા ગંભીર સ્વર વાળા હોય છે. સિંહના જેવા
Page #613
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रमैयद्योतिका टीका प्र. ३ उ. ३ . ३७ पकोरुकद्वीपस्थामामाकारभावादिक र ५८९ मज्जुघोषः - प्रियध्वनिमन्तः 'सुस्तरा सुस्सरणिग्घोसा' सुस्वराः - सुस्वरवन्तः सुस्वर निर्घोषा : 'छाया उज्जोद्दयंगमंगा' छायोद्योतिताङ्गमत्यङ्गा छायया शरीरप्रमया उद्योतितानि अङ्गप्रत्यङ्गानि येषां ते तथा 'दज्जरितमनारायसंघपणा' वज्रऋषभनाराच संहनिनः, 'समचउरंससठाणसंठिया' समचतुरस्र संस्थानसंस्थिताः 'सिणिद्धछवी' स्निग्धच्छवयः - स्निग्धकान्तयः - स्निग्धा उदात्तवर्णा सुकुमारा च छविः त्वक् येषां ते तथा, 'निरायंक उत्तम पसत्थ असेसरिरुवमतणू उत्तम प्रशस्तातिशेष निरूपमतनत्रः निरातङ्का रोगरहित अतएव उपमा उत्तमलक्षणोपेता प्रशस्ता प्रशस्त गुणयुक्ता च तथा अतिशेषा-कर्मभूमिजमनुष्यापेक्षयाऽतिशयवती अतएव निरूपमा उपमारहिता तनुः शरीरं येषां ते तथा । 'जल्ल मलकलंक सेयरयदो सवज्जियसरीरा' जल्ळमलकलङ्कस्वेद रजोदोषवर्जितशरीराः- जल्लं - शरीरमळम् मलम् - आगन्तुकमलम्, कळङ्कः- अनिष्ट सूचकः शरीरजातश्चिह्नविशेषः, ध्वनि वाले होते हैं तथा इनका स्वर मंजु-बड़ा मीठा-सुनने में आन दोत्पादक होता है घोष भी इनका ऐसा होता है अत एव ये सुस्वर वाले कहे गये हैं, और सुस्वर से युक्त घोष वाले कहे गये हैं, 'छाया उज्जोतियंगमंगा' इनका प्रत्येक अंग-अंग कान्ति से चमकता रहता 'वज्जरिसभनाराय संघयणा' ये वज्रऋषभनाराच संहनन वाले होते हैं । 'समचउरंस संठाणसंठिया' इनका समचतुरस्र संस्थान होता है 'सिणिद्धछवी' इनकी कान्ति स्निग्ध होती है 'णिरायका' ये आतंक - व्याधि रहित होते हैं 'उत्तमपस्थ असेल निरुवमहणू' इनके शरीर उत्तम, प्रशहा, अतिशय शाली और निरुपम होते हैं । 'जल्लमल्लकलंक सेयर दोस वज्जिय सरीरा' इनके ये शरीर उल्ल-शरीर से उत्पन्न मल सामान्य-मैल आदि दोष से रहित होते हैं। कलङ्क ઘાષ–નિવાળા ડાય છે તથા તેને વર મનુલ મીઠો એટલે સાંભળવામાં આનંદ જનક હાય છે. તેના ઘેષ પણ આનંદ જનકજ હાય છે. તેથીજ એ सारा स्वरथी युक्त घोषवाजा मुडेस हे. 'छायाउज्जोतियं'गमगा' तेभनु प्रत्ये मग अंतिथी यमस्तु रहे छे. 'वज्जरिसभ नाराय संघयणा' ते १०४ ऋषल नाराय सहेनन वाजा होय छे, 'समचउरं स स ठाणसं ठिया' तेथेानुं संस्थान सभयतुरस यतुष्ष होय है. 'सिद्धिछत्री' तेमनी उति स्निग्ध होय है. 'णिराव का' - ते यांत-व्याधि रहित होय छे 'उत्तम पत्थ अइसेस निरू. घूमतणू' तेखाना शरीर उत्तम, प्रशस्त, अतिशय शाणी, भने नियम हाय छे. 'जल्ल मल्ल 'कसेयरय दोस्र वज्जियसरीरा' तेथे ना शरीर ४ शरीरथी ઉત્પન્ન થયેલ પળ, મલ સામાન્યમેલ વિગેરે ક્રોષથી રહિત હાય છે. કલ`ક અનિષ્ટ સૂચક ચિહન, પરસેવ અને ધૂળ હાય વિગેરેથી રહિત
ૐ
Page #614
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामि नमसूत्रे
५९०
,
स्वेद : ' पसीना' इति प्रसिद्धः, रजः - उड्डीयसंलग्नो रजः कणः, इत्यादि दोषवर्जितं शरीरं येषां ते तथा, 'निरुत्रलेवा' निरुपलेपाः - मलमूत्रादिले पर हिताः 'अणुलोमा उवेगा' अनुलोमवायुवेगाः अनुलोमः - अनुकूलः वायुवेगः - शरीरान्तवैर्त्तित्रायुसंवारो येषां ते तथा वायुगुल्मरहितोदरमध्यम देशा इत्यर्थः, उदरमध्यप्रदेशगतचायुगुल्मबामनुकूलवायु वे गस्यासंभवात् । 'कंकरगहणी' कङ्कग्रहणयः, कङ्कस्य तन्नामख्यातपक्षिविशेषस्य ग्रहणिः गुदाशयो येषां ते तथा नीरोगवर्चस्कतया निर्लेप गुदाशया इत्यर्थः, 'कवोयपरिणामा' कपोतपरिणामाः, कपोतस्येव परिणाम आहारपाको येषां ते तथा, कपोतस्य जठराग्निः पापाणकणानपि जरयतीति प्रसिद्धिः तद्वत्तेषामाहारपाको भवति न जातु चित्तेषामनर्गळाहारग्रहणेऽपि अजीर्णदोषाः संभवन्तीत्यत उक्तं कपोतपरिणामा इति । 'सउणिव्वपोसपिद्वं वरोरुपरिणया' शकुनेवि पोसष्पृष्टान्तरोपरिणताः अत्र निष्ठान्तस्य परनिपातः, अनिष्ट सूचक चिह्न पसीने और धूलि से विहीन होते हैं । 'निरूवलेवा अणुलोम वाडवेगा कंक गहणी कवोयपरिणामा' किसी भी प्रकार का उपलेप इनके शरीर पर नहीं होता है 'अणुलोमवाउवेगा' वातल्म - वात गोला से रहित उदर भाग वाले होने से अनुकूल वायु वेग वाले होते हैं क्योंकि उदर स्थित बात गोले वाले का वायु वेग अनुकूल नहीं हो सकता है 'कंरुग्गहणी' जैसे कंक नाम के पक्षी का गुदा भाग निर्लेपहोता है उसी प्रकार इनका गुहा भाग नीरोग मल वाले होने से निर्लेप गुदाशयवाले होते हैं । 'कत्रोपपरिणामा' जिस प्रकार कबूतर की जठराग्नि कंकर को भी पचा सकती है इसी प्रकार की इनकी जठराग्नि होने से ये कपोत परिणाम वाले कहे जाते है । अर्थात् ये कपोत के जैसी पाचन क्रिया वाले होते है । 'सउणिव्व पोस पितरोरुपरिणया' छे, 'णिरुवदेवा अणुलोमवाउवेगा, कंकग्गहणी कवोयपरिणामा' पशु प्रारना उपक्षेय होता नथी. 'अणुलोमवाउ वेगा' वातभ-वायुना गोणाथी रहित ७४२ ભાગ વાળા હાવાથી અનુકૂળ વાયુ વેગવાળા હાય છે. કેમકે પેટમાં રહેલ वायुना गोजावाजानेो वायुवेग अनुज होतो नथी 'क'कगहणी' જેમ ક નામના પિના શુઢાના ભાગ નિલે॰પ મલરહિત હાય છે. એજ પ્રમાણે તેમને गुहाना लाग भत वगरने होवाथी निर्लेप गुहाशयवाजा होय छे. 'कवोय परिणामा' प्रेम उतरनी महारानि अंकुशने ययु पथावी शडे हे. मेन प्रभावे એમની જઠરાગ્નિ હાવાથી કપાત પરિણામવાળા કહેવાય છે. અર્થાત્ તે हष्णुतरना श्रेवी पायन डियावाणा होय छे. 'सउणिन्त्र पोखपिट्ठ' तरोरूपरिणया'
Page #615
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेययोतिका टीका प्र.३ ३.३ २.३७ एकोषकद्वीपस्थानामाकारभावादिकम् ५२१ तेन शकुनेरिव परिणतपोसपृष्टान्तरोवा-शकुनेः पक्षिण इव परिणतः पुरीपोत्सर्ग निर्लेपतया सुपरिणामं माप्त पोस:-अपातदेशः, पृष्ठं पृष्ठभागः अन्धरं-पृष्ठोदर योरन्तराळभागः ऊरुश्च येषां ते-तथा। 'विग्गहिय उन्नयकुच्छी' विगृहीतोनत
क्षया-विगृहीता मुष्टिग्राह्या उन्नता च कुक्षिरुदरभागो येषां ते तथा, 'पउमुप्पल. सरिसगंधणिस्तासमुरभिवदणा' पद्मोत्पलसहश गन्ध नि श्व ससुरभिवदनाः तत्रपद्म-कमरम् उत्पलं नीलकमलम् अथवा पझं पनकाभिधानं गन्धद्रव्यम् उत्पलम्उत्पलकुष्ठं गन्धद्रव्यविशेष एव तयोर्गन्धेन-सौरभ्येण सदृशः समो यो निःश्वासः घ्राणवायुः तेन सुरमि-सुगन्धयुक्तं वदनं मुखं येषां ते तथा । 'अधणुसरं उसिया' अष्टधनुशतमुच्छ्रिता:-अष्टधनुशवोच्छायवन्तः। तेसि मणुयाणं' तेषामें कोरुकाणां खलु मनुनानाम् 'चउसटिपिष्टि करंडगा पन्नता समणाउसो !' चनुः षष्टिः-चतुः षष्टिसंख्या परिमिता पृष्ठ करण्डका: यज्ञप्ता:-कथिताः हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! 'ते णं मणुया पगह भदगा पगइविणीयगा' ते खल्लू मनुजाः प्रकृति भद्रका.प्रकृस्या-स्वमावेनैवभद्राः सरलाः प्रकृति विनीतकार, प्रकृत्यैव विनयान्विताः इनका अपान देश-गुदाभागपुरी पोत्सर्ग के लेप रहित होता है तथा पृष्ट भाग तथा उदर और पृष्ट का बीच का भाग तथा ऊरू जाधे ये सय सुन्दर परिणत सुन्दर संस्थान वाले होते हैं। 'विग्गहिय उन्नय कुच्छ।' उनका पेट का भाग इतना कृश-पतला होता हैं कि वह मुट्ठी में आसकना है। इनका नि:श्वास सामान्य कमल नील कमल तथा गन्ध द्रव्य के समान सुगन्धित होने से इनका मुख सुगन्ध वाला होता है । 'अट्ट. धणुप्तयं उसिया' आठसौ (८००) धनुष के ऊंचे होते हैं 'लेमि मणुयाणं चउसटिपिद्विकरंडगा०' हे श्रमण आयुष्मन् ! उन मनुष्यों की पृष्ठ करंडक अर्थात् पसलियां की हड्डियां चौसठ (६४) होती हैं. 'तेणं मणुया पगतिभद्दगा, पगति विणीतगा, पगति उवसंता पगतिपयणु તેઓને અપાન દેશ અર્થાત ગુદા ભાગ પરિષેત્સર્ગના લેપ વિનાને હોય છે. તથા પૃષ્ઠભાગ તથા ઉદર અને પૃષ્ઠની વચ્ચેનો ભાગ તથા જાધિ આ બધા सु२, परिणत, मन सु२ संस्थान पाय छे. 'विग्गहिय उन्नयकुच्छी' તેમના પેટને ભાગ એટલે પાતળું હોય છે કે તે મૂઠીમાં આવી જાય છે. તેઓને નિ:શ્વાસ સામાન્ય કમલ, નીલકમલ, તથા ગન્ધ દ્રવ્યની સમાન सुगन्धित पाथा तथानु भुम सुरमिगधवा हाय हो. 'अट्ट धणुमय उसिया' ८०० माइसे। धनुष २८ता या हाय छे. 'तेसि मणुयाण चउस द्विपिट्टिकर'डगा.' है श्रम सायुज्यमन् त मनुध्यानी यांसजायोना ४i (६४) यास डाय छे. 'ते णं मणुया पगतिभदगा, पगति विणीतगा, पगति
Page #616
--------------------------------------------------------------------------
________________
५९२
जीवामिगम 'पगइ उपसंता' पकत्युरशान्ताः-स्वभावत एव शान्ताः 'पगह पयणुकोहमाणमा. यालोमा' प्रकृत्यैव प्रतनु कोधमानमायालोमा:-स्वभावत एव अतिमन्दीभूतकवाय चतुष्ट पवन्त इत्यर्थः, 'खिउमदवसंयण्णः' मृदुमादवसंपन्नाः, मृदु-मनोज्ञ परिणाम सुवाई यन्माद तेन सपन्नाः 'अल्लोणा' आठीना:-आ-समन्तात् सर्वासु किय सु लीना गुप्ता नील रण चेष्टाकारिण इति भावः । 'मदगा' भद्रका:-सकल. तरक्षेत्र कल्याण मागिन:, 'विणीया' विनीताः-वृत्पुरुषविनयकरणशीलाः, 'अप्पेछ।" अल्पेच्छाः अल्पशब्दोऽत्रा भाववाचकः तेन अल्पेच्छा इति इच्छावर्जिनाः मणिकनकादि प्रतिबन्धरहिता, अत एव 'असंनिहिसंचया' असंनिधिसंच गा, न विद्यते सन्निधिरूपः संचयः कस्यापि वस्तु जातस्य संग्रहो येषां ते तथा अन एव 'अचंड' अवण्डा' अङ्कग इत्यर्थः विडिमंतरपरिवसणा' विडिमान्तर परिवसनाः विडिमान्तरेषु प्रसादायाकृतिपु शाखान्तरेषु परिवसनम् थाकारमावासो येषां ते तया, 'जहिच्छिय कामकामिणो य' यथेप्सित कामकामिन:- यथेप्सितान् मनोवांछितान् कामान् शब्दादीन् कामयन्ते इत्येवंशीला: 'ते मणुयगणा पण्णता समणाउसो' पूर्वोक्तलक्षणयुक्ता स्ते एकोरुक वास्तव्या कोह माणमायालोभा, मिउमद्दवसंपन्न, अल्लीणा भद्दगा, विणीता, अप्पेच्छा,' ये मनुष्य स्वभावतःभद्र परिणाभी होते हैं स्वभावतः ही विनयशील होते हैं, स्वभाव से ही शान्त होते हैं, स्वभाव से ही ये अल्प कषाय वाले अल्प क्रोध, मान, माया और लोभ-वाले होते हैं स्वभाव से ही ये मृदु-मार्दव सम्पन्न होते हैं. स्वभाव से ही ये विनय
आदि मद्गुगों वाले होते है इस प्रकार स्वभावतः भद्रक और विनीत भाव से युक्त हुए ये अला इच्छा वाले होते हैं 'असंनिहि संचया' इसी कारण ये कोई वस्तु का संचय संग्रह करने वाले नहीं होते हैं और 'अचंडा' ये क्रूर परिणामों वाले नहीं होते हैं। 'विडिमंतर परिव सणा' वृक्षा की शाखाओं के मध्य में रहते हैं 'जहिच्छिय कामगा. उपस ता, पगति पयणु कोहमाण माया लोभा, मिउमद्दवस पन्ना, अल्लीणा भद्दगा, विणीता, अप्पेच्छा' से मनुष्ये। माथी म पनियाभवाणा डाय छे. साव થી જ વિનયશીલ હોય છે સ્વભાવથીજ અ૫ કષાયવાળા, અ૯૫ ક્રોધ, માન, માયા, અને લેભ વાળા હોય છે. તેઓ સ્વભાવથીજ મૃદુ માર્દવ સંપન્ન હોય છે. એ જ પ્રમાણે સ્વભાવથી ભદ્રક અને વિનીત ભાવથી ચુકત થયેલા तमा अ६५ ४२७ डाय है. 'असनि हि सचिया' मेरी हो । परतुनी सड ४२वा नथी. मने 'अचंडा' । ३२ परिणामवाण होता नथी. 'विडिम'तर परिवसणा' वृक्षानी शामासानी मध्यमा २७ छ 'जहिच्छिय कामगामिणो य ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो' तया से मनुष्या पानानी
Page #617
--------------------------------------------------------------------------
________________
shrafter टीका प्र.३ उ. ३ सू.३७ एकोरुकद्वीपस्थानामाकारभावादिकम् ५९३
2-19-2010
मनुजगणाः प्रज्ञप्ताः - कथिताः हे भ्रमण आयुष्मन् ! 'तेसि णं भंते ! मणुयाणं' पामेstoniai खल भदन्त ! मनुजानाम् 'केवडकाळस्स आहारट्ठे समुप्पज्जइ' कियति काले अत्र सप्तम्यर्थे पष्ठी तेन किति काळे गते सति पुनराहारार्थ:आहारप्रयोजनं समुत्पद्य से, एकदा भोजनानन्तरं पुनः कियता कालेन आहार विप यिणी इच्छा समुत्पद्यते इति मनः, श्रीभगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'उत्थमत्तस्स - आह रट्टे समुपज्ज' अत्रापि सप्तस्वर्थे षष्ठी तेन चतुर्थ भक्ते अतिक्रान्ते सति अहारार्थः- आहार प्रयोजनं समुश्ययते, यद्यपि सरसाहारित्वे नैतावत्कालिकी, तेषां क्षुद्वेदनोदयाभाव देव अभक्तार्थता न तु कर्म निजरायै तपः तथापि अभक्तार्थत्वात् चतुर्थभक्तस्येति कथनमिति ||५० ३७ ॥
मिणो य ते मणुघगणा पण्णत्ता समणाउसो' तथा ये मनुष्य अपनी इच्छा के अनुसार स्वतन्त्रता पूर्वक विचरण करते हैं इस प्रकार से हे श्रमण आयुष्मन् ! इन एकोरुक द्वीप वासी मनुष्यों के परिचय के सम्बन्ध में ऐसा मैंने कहा है 'तेसि णं भंते! केवतिकालस्स आहारडे समुप्पज्जइ' हे भदन्त । इन एकोरुक द्विप के मनुष्यों को एक बार आहार कर लेने पर पुनः आहार की इच्छा कितने काल के व्यतीत होने पर होती है ? 'गोमा ! चत्भन्तस्स आहारट्ठे समुप्पा' हे गौतम! उन मनुष्यों के चतुर्थ भक्त अर्थात् एक दिन को छोड़कर दूसरे दिन आहार की इच्छा होती है क्योंकि क्षुधा वेदनीय कर्म का उदय इनके एक दिन को छोड़कर दूसरे दिन ही होता है इसलिये अभक्तार्थता में इनके कर्मों की तपोजन्य निर्जरा नहीं होती है । क्योंकि इनके इन्छा पूर्वक भोजन का त्याग नहीं होता है । सून्न- ३७ ॥
ઇચ્છા પ્રમાણે સ્વતંત્રતા પૂર્વક વિચરણ કરે છે. આ રીતે હૈં શ્રમણુ આયુષ્મન્ આ એકારૂક દ્વીપમાં નિવાસ કરવાવાળા મનુષ્યેાના પરિચયના સંબંધમાં આ प्रभाथे में' ऽधुं थे, 'तेसि णं भंते ! केवतिकालस्स आहारट्टे समुत्पज्जइ' डे ભગવત્ આ મનુષ્યેને એકવાર આહાર કર્યાં પછી ફરી અહાર કરવાની ઈચ્છા भेटलो भाज वीत्या च्छी थाय छे ? 'गोयमा ! चउत्थभत्तस्व आहार समुत्पज्जइ' હે ગૌતમ 1 એ એકેરૂક દ્વીપના મનુષ્યને ચતુર્થાં ભકત અર્થાત્ એક દિવસ છેડીને ખીજે દિવસે આહાર કરવાની ઈચ્છા થાય છે. કેમકે ક્ષુધા વેદનીય ક્રમ ના ઉદય તેમને એક દિવસ હૈાડીને ખીજે દીવસેજ થાય છે. તેથી અભકતાતામાં તેને તપેાજન્ય કર્મોની નિરશ થતી નધી. કેમકે તેઓને ઈચ્છા પૂર્વક ભાજનને ત્યાગ થઈ શકતુ નથી. ॥ સૂરા
जी० ७५
Page #618
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमसूत्रे
मूलम् - एगोरुय मणुईणं भंते ! केरिलए अगारभाव पडोचारे पन्नत्ते ? गोयमा ! ताओ णं मणुईओ सुजाय सव्वंग - सुंदरीओ पहाण महिलागुणेहिं जुता अच्यंत विसप्पमाण पउम सूउमालकुम्मसंठिया विसिटुचलगा उज्जुमिउय पीवर निरंतर पुटु संहियंगुलीया उष्णमरतियनलिणतबसुईणिद्धणखा रोमरहियवहलटुसंठिय अजहण्ण लक्खण अकोप्प जंघजुयला सुणिम्मिय सुगूढजाणू मंडल सुबद्धसंधी कयलिक्खंभातिरेग संठियणिव्वणसुकुमालन उयकोमल अविरयसम संहित सुजातवहपीवरणिरंतरोरु अट्ठावयवीघीपट्टसंठिय पसंत्थ वित्थिन्न पिहुलसोणी वदणायामप्यमाणदुगुणित विसाल मंसलसुबद्ध जहणवरधारणीओ वजविराइयपसत्थलक्खणणिरोदरा तिवलिबलियतणुणमियमज्झिमाओ उज्जुयसस संहियजच्चतणुकसिण णिद्धआदेजलडह सुविभत्तसुजायकंत सोभंत रुइलर मणिज्जरोमराई गंगावत्तवाहिणात्ततरंग अंगुररविकिरण तरुण बोहिय अकोसायंत पउसवणगंभीरवियडणाभी अणुब्भडपसत्यपीण कुच्छी सपणयपासा संगयपासा सुजायपासा, मितमाइयपीणरइयपासा अकरंडुयकणगरुयग निम्मलसुजायणिरुवहय गायलट्टी कंचनकलससमपमाणसससंहिय सुजायलट्टचूचूय आमेलगजमलजुगलवट्टिय अव्सुण्णयरतिय संठियपयोधराओ भुयंगणुपुत्रतणुयगोपुच्छवह समसंहिय णमिय आएजललियवाहाओ तंबहा मंसलग्ग हत्था पीवर कोमलवरंगुलीओ णिद्धपाणिलेहारविससिख वसोत्थिय सुविभन्न सुइरतियपाणिलेहा पीणुष्णयकक्खवत्थिदेसा पडिपुण्णगल्लकबोला चउरंगुल सुप्पमाण
५१४
Page #619
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ ३.३ सू.३८ प्रकोरुकः मनुजीनामाकारादिकम् ५९५ कंबुवरसरिसगीवा मंसलसंठियपसत्थहणुया दाडिमपुप्फप्पगासपीवरकुंचियवराधरा सुंदरोत्तरोटा दधिदभरयचंदकुंदवासंतिमउल अच्छिदविमलदसणा स्तुप्पलपत्तम उयसुकुमालतालुजीहा कणयवरमउल अकुडिल अब्भुग्गय उज्जुतुंगणाला सारयणवकमल. कुमुदकुवलयविमुक्कदलणिगरसरिसलक्खण अंकियकतणयणा पत्तल चवलायंत तंबलोयणाओ आणामितचावरुइल किन्भराइ संठियलंगय आययनुजायकलिगणिद्धभमुया अल्लीणपमाणजुत्तसवणा पीणभटूरमणिजगंडलेहा चउरंसपसस्थसमणिडाला कोमुइरयणिकरविमलपडिपुन्न सोमवयणा छन्तुन्नय उत्तिमंगा कुडिलसुसिणिद्धदीहसिरया छतज्झयजुगथूभदामिणिकमंडलकलसवाविसोस्थिय पडागजवमच्छकुस्मरहबरमगरसुकथाल अंकुस अट्टावयवीइ सुपइट्रकमयूर सिरिदासाभिसेथ तोरणमेइणिउदधिवरभवणगिरिवर आघसललियगय उसससीहचमर उत्तम पसत्थवत्तीसलक्खणधराओ हलसस्लिमईओ कोइलमधुरगिर सुस्सराओ कंता सव्वस्स अणुनयाओ वनगयवलिपलियावंग दुव्वण्णवाही दोभग्गसोगमुकाओ उच्चत्तेग य नराण थोवूण मूसियाओ सभावसिंगारागार चारुबेला, संगसगयहलिय अणियचेट्रिय विलास संलावणिउण जुत्तोवयारकुलला सुंदरथणजहणवदणकरचरणणयणमाला वणलादपणजोवणविलासकलिया नंदणवणविवरचारिणीउव्य अच्छराओ अच्छेरंग पेच्छणिज्जा पासाइथाओ दरियाणिज्जाओ अभिरूवाओ पडिरूवाओ। तासि णं भंते ! मणुईणं केवइकालत आहारटे ससुपज्जइ ? गोयमा ! चउत्थ भत्तस्स आहारट्टे समुप्पजइ ॥सू० ३८॥
Page #620
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमस्त्र __ छाया-एकोरुक मनुजीनां भदन्त ! कीश आकारभावसत्यवतारः पवत: ? गौतम ! ताः खलु मनुज्यः सुजातसङ्गिसुन्दर्य: प्रधान-महिलागुणयुक्ता अत्यन्त विसर्पस्पन सुकुमार कूर्मसंस्थित विशिष्टचरणाः ऋजुमृदुक पीवर निरन्तर पुष्टसंहतागुलयः उन्नतरविदतलिनताम्रशुचिस्निग्धनखाः रोमरहित वृत्तलष्टसंस्थिता जघन्य प्रशस्तलक्षणाकोप्यजंघयुगलाः सुनिर्मित मुगूढजानुमंडळ सुबद्धसन्धयः कदलीस्तम्भातिरेक संस्थित निर्वग सुकुमार मृदुककोमलाविरळसमसंहितसुनातवृत्तपीवर निरन्तरोरवः, अष्टापदवीचि पट्टसंस्थित प्रशस्त विस्तीर्ण पृथुळ श्रोणयः वदनायाम प्रमाण द्विगुणित विशालमांसल सुखद जघनवरधारिण्यः वज्रविराजित प्रशस्तलक्षणनिरुदराः विश्लीवलितत्तनुनमितमध्यिकाः ऋजुकसमसंहितजात्यतनुक कृष्णस्निग्धादेयलडइललित सुविभक्त सुजातकान्तशोभमान रुचिररमणीयरोमराजयः गंगायत्त प्रदक्षिणावर्ततरङ्ग भगुररविकिरणतरुणयोधिता कोशायमान पद्मवनगम्भीर विकटनाभया अनुद्भट प्रशस्तपीनकुक्षयः संनतपाश्र्धाः सङ्गपाश्चीः सुजातपाः मित्रमात्रिकपोनरतिदपाश्चा: अकरण्डकनकरुचकनिमलसुजात निरुपहतगात्रयष्टयः काञ्चनफलश समममाण समसंहितसुजातलष्टचुचूकामेलकयमलयुगल वर्तिताभ्युम्नतरतिद संस्थितपयोधराः भुजङ्गानुपूयंतनु के गापुच्छवृत्तसमसंहित नतादेयललितबाह्यः ताम्रनखाः मांसकाग्रहस्ताः पीवरफोमलपरागुळयः स्निग्धपाणिरेखाः रविशशिशङ्खचक्र स्वस्तिक सुविभक्त भूचिरतिदपाणिरेखाः पीनोन्नतकक्षवस्तिदेशा: परिपूर्णगल्ळकपोला: चतुरङ्गुलमुप्रमाण कम्बुवरसदृशग्रीवा मांसवसंस्थित प्रशस्तहतकाः दाडिमपुप्परकाशपीवर कुञ्चित. वराघराः सुन्दरोत्तरोष्ठाः दधिदकरजश्चन्द्रकुन्दवासन्तीमृदुलाछिद्रविमकदशनाः रक्तोत्पलपत्रमृदुकसुकुमारतालुजिहा। कणकवर मृदुबकुटिलाभ्युद्गतऋजुतुङ्गनासाः शारदनवकमलकुमुदकुवलय विमुक्तदल निकर सहशलक्षणाङ्कितकान्तनयनाः पत्रक चपळायमानताम्रकोचना आनामितचापरुचिरकृष्णाभ्रराजिसंस्थितसङ्गतायत सुजा. तकृष्णस्निग्धभ्रमः आलीनप्रमाणयुक्तश्रवणाः पीनमृष्टरमणीय गण्डरेखाः चतुरस्त्र प्रशस्तसमललाटाः कौमदीरजनिकरविमलपरिपूर्णसौम्यवदना छत्रोन्नत्तोत्तमाङ्गाः कुटिळसुश्लिष्टदीर्घशिरोजाः छत्रवजयुगरतूपदामिनिकमण्डलुकलशवापीस्वस्तिकपत्ताकायवमत्स्य कूर्मरथवरमकरशुकस्थालाङ्कशाप्टापदवीज सुप्रतिष्ठकमयुरश्रीदामाभिषे तोरणमेदिन्युदधिवरमवनमिरिवरादर्शललितगजऋषभसिंह चामरोत्तमप्रशस्त द्वात्रिंशल्लक्षणधराः हंससहमतयः कोकिला धुरगीः मुस्वराः कान्ताः सर्वस्यानुनवाः व्यपगतवलिपलिताः व्यङ्गदुर्वणव्याधि दौर्भाग्यशोकमुक्ताः उच्चत्वेन च नराणां स्तोकेनोच्छ्रिताः सभावशृङ्गारागारचारुवेपार, संगतगत. इमिन-मणितचेष्टित विलाससंकापनिपुणयुक्तोपचारकुशलाः सुन्दरस्तन जघन
Page #621
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीका ग्रं.३ उ.३ सू.३८ एकोरुक० मनुजीनामाकारादिक ५५७ वदनकरचरणनयनमाला वर्णलावण्ययौदनविलासकलिताः नन्दनवनस्विर चारिण्य इव अप्सरसः, आश्चर्यप्रेक्षणीयाः प्रासादीयाः दर्शनीयाः अभिरूपाः प्रतिरूपाः । तासां खल भदन्त ! मनुजीनां कियति काले आहारार्थे समुत्पद्य ? चतुर्थभक्तस्याहारार्थः समुत्पद्यते ॥७०३८.।
टीका-अथ युगलधर्म समानेऽपि माभूत् पक्तिभेद इति युग्मिनी स्वरूपं प्रश्नयनाह-'एगोरुय मणुईणं' इत्यादि । 'एगोरुय मणुईणं भंते' एक रुकमनुजीला भदन्त ! 'केरिसए आगारभावपडोयारे पन्नत्ते' कीदृशः-कि.माकारव: आकार भावप्रत्यवतारः स्वरूपं प्रज्ञप्तः कथित इति प्रश्ना, भगवानाह-गोयमा' इत्यादि 'गोयमा !' हे गौतम ! 'ताओ णं अणुई श्रो' ताः खलु मनुज्जः 'सुजाय सवंग सुंदरीओ' मुजात सर्वाङ्ग सुन्दय:, सुजातानि यथोक्तप्रमाणोपेतया शाश्नजन्मानि सर्वाणि अङ्गानि-शिरः प्रभृतीनि यास ताः, अतएव सुन्दर्य:-सुन्दराकाराः। 'पहाणमहिलागुणेहि जुत्ता' प्रधानमहिलागुणैर्युक्ताः-प्रधानाः ये हिलागुणा:पियंवदत्व भचिन्तानुवर्तकत्वादयस्तैर्युक्ता इति । 'अच्चंत विसप्पम ण एउम सुकुमाल कुम्मसंठियविमिट्टचलगाओ' अत्यन्त विसमृदु सुकुमार मसंस्थित
'एगोरुपमणुई णं भंते ! के रिसए आमारभाव पडोधारे पानत्ते' इत्यादि मूत्र-३८॥
टीकार्थ-हे भदन्त ! इन एकोहक द्वीप की मनुष्य स्त्रियों का रूप आदि कैसा कहा गया है ? उत्तर में प्रभुश्री गौतम स्वामी को कहते हैं-'गोयमा! तामोणं मणुईओ सुजायसव्चंगसुंदरीओ पहाण महिलागुणेहिं जुत्ता अच्चन विसप्पमाण पउन सुकुमाल कुंम संठित विसिट्ठ चलणा उज्जुमिउय पीधर निरंतर पुढ साहितंगुलीया' हे गौतन ! एकोरुक द्वीप की मनुष्य स्त्रियां यथोक्त प्रमाण में उत्पन्न हुए समस्त अंगों से विशिष्ट होने के कारण बड़ो सुन्दर होती है। प्रधान महिला गुणों से-वे प्रियंवदत्व भतीचित्तानुवर्तकत्व-प्रिय बोलनेवाली पति के विचारो को माननेवाली आदि गुणों से युक्त होती हैं। उनके दोनो पैर
'एगोरुय मणुईणं केरिसए आगारभावपडोयारे पन्नत्ते' त्यात
ટીકાર્થ–હે ભગવન ! એ એકરૂક દ્વીપની મનુષ્ય સ્ત્રિનુ રૂપ વિગેરે કેવું કહેલ છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે 'गोयमा ! ताओणं मणुईओ सुजायसम्बंग सुदरीभो पहाणमहिला गुणेहिं जुता अच्चंत विसप्पमाण पउम सकुमाल कुभ संठितविसिटुचलणा, उज्जुमिउय पीवर. निरंतरपुट्ट साहितगुलीया' 3 गौतम ! ४।३४ द्वीपनी मनुष्य लिया ચોક્ત પ્રમાણથી ઉત્પન્ન થયેલા સઘળા અંગોથી વિશિષ્ટ હેવ ના કારણે ઘણીજ સુંદર હોય છે. પ્રધાન મહિલા ગુણોથી એટલે કે તેઓ પ્રિય બોલવા
Page #622
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमले विशिष्टचरणाः, अत्यन्त विसर्पन्तो चलन्तावपि मृदूनां मध्ये मृकुमारी-मनोझौकूर्मवत् कूर्मपृष्टवद् संस्थिती उन्नतत्वेन कच्छपपृष्ठ संस्थानसंस्थिती विशिष्टौ चरणौ यासां तास्तथा, 'उन्जुमिउय पीवर निरंतरपुट्टसाहियंगुलीया' ऋजुमृदुकपीवर निरन्तर पुष्टसंहता अंगुलयः, ऋज्य: सरला न तु वक्राः मृदुकाः कोमला: पोवरा:-उचिताः निरन्तरा:-परस्परान्तररहिताः पुष्टा:-मांसलाः संहताश्च मुश्लिष्टा अंगुल्या-पादाङ्गुलयो यासां तास्तथा, 'उण्णयतियवलिण तंबसुइणिद्ध नखा' उन्नतरतिद तलिन ताम्रशुचिस्निग्धनत्वाः' तत्र उन्नता:-अभ्युन्नताः रतिदाः, तलिना:-प्रतलाः, ताम्रा ईपद्रक्ताः शुचयः-पवित्राः स्निग्धाप नखा यासा तास्तथा, 'रोगरहिय वट्टलट्ठसंठिय अजहण्ण पसत्थ लक्खण अकोप्प जंघजुपला' रोमरहित वृत्तलष्टसंस्थिताजघन्य प्रशस्तलक्षणा कोप्यजंघ युगलाः रोमरहितं वृत्तं वर्तुलं लष्टं संस्थितम्, तथा अजघन्यनि-उत्कृष्टानि लक्षणानि यत्र तद तधा, एताशकोप्पम द्वेष्यं मोतिकरमित्यर्थः जङ्घा युगलं यामां तास्तथा, 'मुणिमिमय सुगढजाणुमंडलमुबद्धसंधी' सुनिर्मित सुगूढ जानुमण्डल मुबद्ध चलते समय बहुत सुन्दर रीति से चलते हैं पद्म के जैसे ये सुकुमार होते हैं। इनका संस्थान कूर्म कच्छप की पीठ के जैसा उन्नत होता है। इनके चरणों की अगुलियाँ ऋजु-सीधी छिद्र रहित पीवर-पुष्ट रहती हैं और संहत आसपास में एक दूसरी अंगुलि से सटी हुई रहती है। 'उण्णयरतियतलिणतंबसुक्षणिद्धणखा' इनके नख उन्नत होते हैं रति मद होते हैं, तलिन-पतले होते हैं, ताम्र-ईषद्रक्त होते हैं शुचि-पवित्र रूफ होते है और स्निग्ध होते हैं । 'रोम रहिय बट्ट लट्ठ संठिय अज. हण्ण पसत्यलक्खण अकोप्प जंघजुयला' इनका जंघा युगल रोम रहित गोल, सुन्दर होता है और उत्कृष्ट लक्षणों वाला होता है तथा-अद्वेष्य વાળી, પતિના વિચારને અનુસરનારી વિગેરે ગુણવાળી હોય છે. તેમના બેઉ પગ ચાલતી વખતે ઘણુજ સુંદર રીતે ચાલે છે પદ્મના જેવા તે સુકુમાર હોય છે તેઓનું સંસ્થાન કાચબાના વાંસાની જેમ ઉન્નત હોય છે. તેમના પગની આંગળીયે ત્રાજુ સીધી છિદ્રવિનાની પીવર પુષ્ટ હોય છે. અને પરસ્પર सात तास मी सांगलीयान भगीन २ छ. 'उन्नयरतिय तलिण तवसुइणिद्धणेखा' तयाना नमे उन्नत हाय छे. भान मह डाय छे. તલિન કહેતાં પાતળા હોય છે. તામ્ર ઈષદ્રકત હોય છે. શુચિ પવિત્ર હોય છે. मन स्निग्ध डाय छे. 'रोमरहिय चट्टल्दुसठिय अजहण्ण पसत्थलक्खग अकोप्प जघजुयलो' भनी धा युग रामविनानुगण सु१२ हाय छे. मने जट लक्षणे! वाणु डाय छे. तया स्मद्वेष्य सु४२ वाणे ते हाय है. 'सुणिम्मिय
Page #623
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.३८ एकोहक मनुजीनामाकारादिक इ ५९९ संघया, तत्र-सु-सुष्टु अतिशयेन निर्मिते-रचिते सुग्ढे-मांसलतयाऽनुपलक्ष्ये ये जानुमण्डले ताभ्यां सुबद्ध दृढस्नायुक्त्वादश्लथः संघि:-जानुपन्धिभागो यासां तास्तथा, 'कलिक्खंभातिरेग संठिय णिवण सुकुमाल मउय कोमन्छ अहिरल समसंहित सुनात वट्टपीवर गिरतरोरू' कदलीस्तम्मातिरेक संस्थित निगमकुमार मृदुककोमलाविरलसमसंहत सुजातवृत्तपीचरनिरन्तरोरवः तत्र कदलीस्तम्भाभ्यामतिरेकेण अतिशायितया कदलीस्तस्मसंस्थानापेक्षयाप्यतिशयेन सौन्दर्ययुक्त संस्थितं ययोस्ती निर्बणी-विस्फोटकादिक्षतवजितो अतएन सुझुपारी चिकणौ मृदुकौ-मार्दवगुणसंपन्नी, अतएव कोमलौ-वहिर्भागापेक्षय पेशको अवि. रलो-परस्परासन्नौ समौ प्रमाणतस्तुल्यो सन्तौ संहती-समश्रेणिस्थिती सुजातीमुनिष्पन्नौ-जन्मजावदोषजितौ वृत्तौ-वर्तुलौ पीवरौं पुष्टी निरन्तरों परस्परनिर्विशेषो-ऊरू यासां तास्तथा, 'अट्ठावयवीची पटसंठिय-पसत्य वित्पिन्न पिहु. सुन्दर लगने वाला होता है 'सुणिम्मिथ यूहजाणु मंडल सुबद्ध संधी' इनकी संधि सुनिर्मित एवं सुगढ-अनुपलक्ष्य उपर ले नहीं दीखने वाले जानु मण्डल से सुषद्ध होती है-दृढस्नायु युक्त होने से अशिथिल होती है 'कलिक्खंभातिरेक संठिय निव्वण सुकुमालयउय क्षोमल अविरल समसहित सुजात वह पीचर णिरंतरोरू' इन के दोनों उरू हदली स्तम्भ के जैसे आकार वाले होते हैं, रिव्रण-विस्फोटक-फोडे आदि से रहित होते हैं सुकुमार सुहाले होते हैं, मृदु होते कोमल होते हैं अविरल होते हैं-परस्पर निकट-पास पाल में होते है सम होते हैं-प्रमाण में बराबर होते हैं सहित होते हैं जुटे हुए होते है सुजान-सुनिन्नवृत्त गोल आकार के होते हैं पीवर-पुष्ट होते हैं और आपल में नि: शेष-समान-एफ से-होते हैं । 'अट्टाक्यवीची घट्ट संठिय पथ विधि गूहजाणुमदल सुबद्धसंधी' तमानी सधी सुनिमित मने सुगूढ मेट 6u.था ન દેખાય તેવા જાનુ મંડલથી સુબદ્ધ હોય છે. દેઢ સ્નાયુ યુક્ત હોવાથી અશિથિલ हाय छे. 'कयलिख भातिरेक संठियनिव्वण सुकुमालमउय कोसल रिल समसहितसुजातवट्टपीवरणिरतरोरू' माना गन्ने ७३॥ (घ) ना સ્તંભન જેવા આકારવાળા સુંદર હોય છે, નિર્વાણ વિટક એટલે કે ફલ્લા વિગેરે વિનાના હોય છે. સુકુમાર અને શોભાયમાન હોય છે મદુ કેમળ હોય છે. અવિરલ હોય છે પરસ્પર એક બીજાની નજીક નજીક હોય છે. સમ કહેતાં સરખા હોય છે. પ્રમાણસરના હોય છે. સહિત હોય છે. એક બીજાને લાગે છે. સુજાત અને સુપિન્ન હોય છે ઘર નામગોળ આકારના કાય છે, પીવર પુષ્ટ હોય છે. અને આપસમાં નિર્વિશેષ સરખા એક જેવાજ
Page #624
--------------------------------------------------------------------------
________________
६००
जीवामिगमस्वं लसोणी' अष्टापदवीचि पसंस्थित प्रशस्त-विस्तीर्ण पृथुलश्रोणया, वीचिविगत घुणाधक्षत एवं विधो योऽष्टापदपट्टा धूत फलकपट्टः तद्वत् संस्थिता तत्सदृश संस्थानवली प्रशस्ता सुन्दरा विस्तीर्णा पूर्वापरभागविस्तारयुक्ता पृथुला-स्थाश्रोणि:-कटेर नमामो यासां तास्तथा 'वदणायामप्पमाणदुगुणित विसामसळ मुबद्ध जहण वरधारणीओ' वदनायाममयाण द्विगुणिन विशालमंसल सुबद. जघनवरधारिण्यः, तत्र वदनायामप्रमाणस्य-मुखदैर्य द्वादशाङ्गुलममाणं तस्माद द्विगुणितं द्विगुणं-चत विशत्यङ्गुलं विशालं घिरतीर्ण मांसलं पुष्टं सुबद्धम् अीव सुबद्धावयव न तु एतादृशं जघनवरं-वरजघनद्वयं धारयन्ति एवं शीला यास्तास्तथा, 'वज्जविराइय पसस्थलवखण गिरोदरातिवलिबलिय तणु णमिय मज्झि गयो' वन विराजिन प्रशस्तलक्षण-निरुदरा त्रिवळिचलितनुनमितमध्यिकाः न पिहल लोणी' इमकी श्रोणि-कमर के पीछे का भाग धुण आदि से अक्षत जो अष्टापद-धून फलफ उसके पृष्ठ के आकार जैसी होती है प्रशस्त होती है विस्तीर्ण होती है और लम्बी होती है-तथा-मोटी होती है 'वदणायामप्पमाण दुगुणित विसाल मंसल सुपद्ध जहणवर धारणीओ' बारह अंगुल मुख प्रमाण से द्विगुणित-चौबीस अंगुल प्रमाण इनका जघन प्रदेश होता है और यह विशाल, मांसल एवं सुबद्ध होता है स्नायुयों से अच्छी तरह जकड़ा हुआ रहता है 'वज विराइय पसत्यलम्वणिरोदरा' ये अल्पोदर वाली याचिकृत उदर से हीन होती हैं, उनका यह उदर क्षाम होने ले कृश-होने से बज्र की तरह सुशोभित होता है तथा सामुद्रिक शास्त्रोक्त प्रशस्त लक्षणों से युक्त होता है 'लिवलो बलियतणुणमिय मज्झितो उजुघ सम सहित डाय छे. 'अठ्ठावयवीची पट्ट सठिय पनत्थ वित्थिन्न पिहुलसेणी' तमानी श्रेष् એલે કે કેડની પાછળ ધુ વિગેરેના ક્ષત વિનાની જે અષ્ટાપદ ઘન ફલકના પૃષ્ઠના આકાર જેવી હોય છે. પ્રશરત હોય છે. વિરતીર્ણ હેય છે અને
मी हाय छे तथा भाटी डाय छे. विदगायामप्पमाणदुगुणित विसाल मसल सुबद्ध महणवर धारणीओ' मार Hina भुभ प्रभागुथी नभए२.वीस આગળ પ્રમાણને તેઓને જઘન પ્રદેશ હોય છે. તે સ્નાયુઓથી સારી રીતે ४४.2 २ छ. 'वज्जविराइयपसत्थ लक्खणणिरोदरा' तो म५४२ વાળી અને વિકૃત ઉદરથી રહિત હોય છે તેઓનું આ ઉદર ક્ષામ હોવાથી કૃશ હોવાથી વજની જેમ સુશોભિત હોય છે, તથા સામુદ્રિક शालेत प्रशस्तक्षथी युत सय छे. तिवलिवलियतणुण मगमज्झियातोज उज्जुयसमसहित जच्च तणुकसिणणिद्ध आदेजलउड् सुविभत्त सुजाय
Page #625
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतका टीका प्र.३ ३.३ ३.३८ एकोरुक० मनुजीवानामाकारादिकम् ६०१ तत्र वज्रवद्विराजितं क्षमात्वेन तथा प्रशस्त लक्षणं सामुद्रिकशास्त्रोक्त प्रशस्त गुणोपेतं-निरुदरं-कृशोदरं यासां तास्तथा, यथा त्रिील वलितम्-चलिर्नामनाभेरुपरि उदरगता रेखा, तिसृणां क्लीनां समाहारः त्रिवलि उदरगतरेखात्रयं, तेन बलितम्-ईपद्वक्रीभूतं तनुनमितम् ईपन्नम्रोभूतं मध्यं शरीरमध्यभागो यासां वास्तथा, 'उज्जुयसमसंहितजच्च तणुकसिणणिद्ध आदेज्जलडह मुविभत्त सुजातकंत सोभतरुइल रमणिज्जरोमराई' ऋजुक समसंहितजात्य तनुकृष्ण स्निग्धादेय. कलित मुविभक्त सुजातकान्त शोभमानरुचिररमणीयरोमराजयः, तत्र-ऋजुकानां समानां-तुल्यानाम्, संहितानां-सन्तताम् न तु अपान्तराल व्यवच्छिन्नानाम् जन्मयातानाम्. तनूनों सूक्ष्माणाम्, कृष्णानां - भ्रमरावत् कृष्णवर्णानां स्निग्धानां-सतेजस्कानां न तु रक्षाणां आदेयानां दृष्टिग्राह्याणां 'लडाइ' ति ललितानां सुविभक्तानां सुष्टु विभाग प्राप्तानां परस्पराऽश्लिष्टानां मुजातानां सुष्टुतया समुद्गतानाम् कान्तानां-कमनीयानाम् अतएव शोभमानानां-शोभासंपन्नानां, रुचिराणां-कान्तियुक्तानां, रमणीयाना-पृष्टजन मनोहारकाणां रोम्णां तनूरुहाणां राजिः-पङ्क्तिांसा तास्तथोक्ताः 'गंगावत्त पयाहिणावत्त तरंग भंगुररविवि रणजच्च तणुकसिणणिद्ध आदेज लड़ह सुविभत्त सुजोतकंन सोभंत रुहल रमणिज्ज रोमराई' इनके शरीर का मध्य भाग त्रिवली तीन रेखाओं से वलिन-मुडा हुआ होता है. पतला-कृश-होता है, नमित होता है-ईषत् नम्र होता है, इनकी रोमराज सरल होती है समबराबर होती है, सघन होती है, बीच २ में छूटी हुई नहीं होती हैं कृत्रिम नहीं होती है-स्वाभाविक होती है पतली होती है, काली होती है, स्निग्ध होती है, आदेय-सुहावनी होती है ललित-सुन्द-होती है, सुविभक्त-अलग-अलग होती है, सुजात-जन्म दोष रहित होती है कान्त मन को हरने वाली होती है शोभा युक्त होती हैं, रुचिर होती है और रमणीय होती है। 'गंगावत्तपत्राहिणावत्त रंग भंगुर रवि कंत सोभतरुइलरमणिज्जरोमराई' भनी शरीरने। मध्यमा जय मायाथा વળે હોય છે. પાતળે અર્થાત કંઇક કુશ હોવાને લીધે નમેલ હોય છે. ઈષત્ નમેલ હોય છે. તેઓની જેમ પંકિત સરલ હોય છે સમ બરાબર સરખી હોય છે. સઘન ગાઢ હોય છે. વચમાં વચમાં છૂટેલી હતી નથી. કૃત્રિમ હોતી નથી. સ્વાભાવિક હોય છે પાતળી હોય છે, કાળી હોય છે સિનગ્ધ હોય છે. આદેય કહેતાં સોહામણી હોય છે. લલિત એટલે કે સુંદર હોય છે. સુવિભકત અલગ અલગ હોય છે. સુજાત જન્મદેષ વિનાની હોય છે. કાંત મનને હરણ કરવાવાળી હોય છે, શોભાયમાન હોય છે. અને રમણીય
मो० ७६
Page #626
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवा मिगमसूत्रे
६०२
तरुणोहिए आकोसात पउम गंभीर विग्रडणाभी' गङ्गावर्त प्रदक्षिणावर्ततरङ्गभगुररविकिरणतरुण बोधिताकोशायमान झगम्भीरविकटनाभयः, तत्र - गङ्गायाः आवर्ती विभ्रमः स इव दक्षिणावर्ताः न तु शमावलीः तरङ्गा इव तरङ्गास्तिस्रो वलयस्तभिर्मगुरा विच्छित्तियुक्ताः रविकिरणैस्तरुणः बौधित विकासीकृतं सत् अकोशायमानं - विकची मवत् पद्म-कमलं तद्वद् गम्भीरा गर्त्तवद्वेषयुक्ता विकटा - विशाळा च नाभिर्यासां तास्तथा, 'अणुमड पसत्यपीण कुच्छी' अनुद्भट परास्तपीन कुक्षयः अनुद्भटौ - अनुवर्णो प्रशस्त पीनौ कुक्षी यासां तास्तथा, 'सण्गपपासा' सन्नतपावी' 'संगयपासा' सङ्गत पात्र : 'सुजायपासा' सुजातपाः, एतानि पदानि पूर्वव्याख्यात मनुज कुक्षिचद व्याख्ये यानि, 'मियमाइयवीण रहयपासा' मितमात्रिक पीनर दिपाः, तत्र मिते - परमिते मात्रिके - मात्रयोपेते पीने - उपचिते रविदेप्रीतिकरे पार्श्वे यासां तास्तथा 'अकरंड पकणगरुपण निम्मल सुजाय णिरुवहयगायलट्ठी' अकरण्डककनकरुचक निर्मल-सुजात निरु 'हतगात्रयष्टयः, तत्र अविद्यमानं किरण तरुणवोहिय अकोसावंत पत्रमवण गंभीरविघडणाभी' गंगा की भौंर के समान प्रदक्षिणावर्त वाली, त्रिवल से भुग्न तथा मध्याह के रवि किरणों से विकसित हुए कमल के जैसी गंभीर एवं विशाल इनकी नाभि होती है 'अणुग्भडपसत्य पीण कुच्छी' अतुलवण-उग्रता रहित प्रशस्त, और पीन इनकी कुक्षि-उदर भाग होती है. 'सण्णयपासा' इनके दोनों पार्श्व भाग कुछ कुछ झुके हुए होते हैं । 'संगपपासा' अतएव वे संगत पार्श्व वाली और 'सुजायपासा' सुजात पार्श्व वाली होती है । इन पदों का विस्तृत अर्थ पहले आचुका है. 'मियमाइयपीण रहयपासा' इनके दोनों पार्श्व मित-परिमित, अपने-अपने प्रमाण युक्त, पुष्ट और रतिप्रद-आनन्दवर्धक होते हैं । 'अकरंडुयकणगडेय छे. 'गंगावत्तपयाहिणावत्त तरंग भंगुर रवि किरण तरुण वण्णेहिय अकोसायं तपमणगंभीरवियढणाभी' गंजानी ભમર-મળના જેવા પ્રદક્ષિણા વવાળી ત્રિવલીથી યુકત તથા મધ્યાહનના સૂર્યના કિરાથી વિકસિત થયેલા उभजना बनना लेवी गंभीर भने विशाण तेथोनी नाली होय छे. 'अणुभ उपसत्य पीण कुच्छी' अनुस्मथु उग्रता विनानी प्रशस्त खाने पीन तेयोनी सुश्री तर यछे 'सण्णयपासा' तेयोना भन्ने पार्श्व लागो ३६६६६४ जुम्ला होय छे. 'संगयवासा' मोसा पार्श्ववाणी होय हे 'सुजातपासा' सुनत पार्श्व वाणी होय छे. या महोनो विस्तार पूर्वनो अर्थ पडेसां भावी गयेस छे. 'मियमा इय पीणरइयपासा' तेयोना अपार्श्व पडमा भित परिमित यात पोताना प्रभाणुथी युक्त चुष्ट ने आनंद आपवावाजा होय . 'अकर डुय कणगरुग
-
-
Page #627
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ खू.३८ एकोरुक० मनुजीवानामाकारादिकम् ६०३ मांसलस्वेन अनुपलक्ष्यमाणं करण्डक-पृष्ठवंशास्थिकं कनकस्येव रुचकोरुचिर्यस्या:सा निर्मला-स्वाभाविकागन्तुकमलरहिता सुजाता जन्मदोषरहिता निरुपहताज्वरादिदंशादि दोषोपद्रवरहिता एवं भूता गात्र यष्टिविधते यासा तास्तथा, 'कंचण कलससमप्पमाण समसंहय सुनाय-लठ्ठच्चुय आमेल गजमलजुगल चट्टिय अन्भुण्णयरइयसंठिय-पयोधराओ' काञ्चनकलशसमभमाणसमसंहत सुजातलष्ट-चुचुकामेलकयमलयुगलचतिताभ्युम्नतरतिदसंस्थितपयोधराः तत्र काश्चनकलशसम प्रमाण ययोस्ती तथा सौ-परस्परतुल्यौ संहतो परस्परमत्यन्तश्लिष्टौ अनयोरन्तराले मृणालसूत्रमपिप्रवेश न लभते एतादृशौं सुनाती-जन्मदोपरहिती लष्टचूचुकामेळको-मनो. रुयग निम्मल सुजाय णिरुवयणाय लट्ठी' इनका शरीर इतना अधिक मांसल पुष्ट होता है कि उसमें पललियां और पीठ की हड्डी दिखाई नहीं पड़ती है तथा वह उनका शरीर ऐली कान्ति वाला होता है कि जैसी कान्ति बाला सुवर्ण होता है आगन्तुक और स्वालाविक किसी भी प्रकार का मैल उनके शरीर पर उत्पन्न नहीं होता है जन्म के दोषों से विहीन होता है एवं ज्वर आदि रोगो के उपद्रवों से यह बिलकुल रहित होता है 'कंचणकलस समप्पमाण लष सहय सुजात लहचूचुय आमेलग जमल जुगल वष्ट्रिय अन्भुग्णय रतिय संठिय पयोधराओ इनके दोनों स्तन कंचन के कलश जैसे गोल मटोल होते हैं, अथवा कंचन के कलश जैसे मोटे प्रमाण में होते हैं या उनके जैसे बड़े होते हैं इनमें एक बडा हो एक स्तन छोटा हो ऐसे ये नहीं होते हैं किन्तु प्रमाण में दोनों परापर होते हैं ये इतने विशाल एवं मोटे होते हैं कि आपस में दोनों ऐसे सटे हुए होते है कि इनके बीच में से होकर मृणाल तन्तु-कमल निम्मल सुजाय णिरुवहयगायलट्ठी' तेयानु शरीर थेट मधुमासद पुष्ट छाय છે કે જેથી તેમની પાંસળી અને વાંસાના હાડકા દેખાતા નથી. તથા તેઓના શરીરે એવી કાંતીવાળા હોય છે કે આગતુક અને સ્વાભાવિક કઈ પણ પ્રકારને મેલ તેઓના શરીર પર ઉપન થતો નથી. જન્મના દૈષોથી રહિત હોય છે. અને જવર વિગેરે રોગના ઉપદ્ર વિનાની હોય છે. 'क' चणकलस समप्पमाण समसंहय सुजात लटू चूचुय आमेलग जमल जुगलवट्रिय अभुण्णयरतिय संठियपये धराओ' तमना मन्ने २तना सोनानां वश मेवा ગોળ મટેળ હોય છે, અથવા કંચનના ઘડાના જેવા મોટા હોય છે. અથવા સુવર્ણના જેવા તેજસ્વી અને અત્યંત આકર્ષક હોય છે. એક સ્તન માટે હોય અને એક નાનું હોય તેવા એ હાતા નથી, પરંતુ તે અને પ્રમાણમાં બરાબર હોય છે. એ એટલા વિશાળ અને મોટા હોય
Page #628
--------------------------------------------------------------------------
________________
६०४
जीवामिगम ज्ञस्तनमुखशेखरौ यमलौ-समश्रेणिको युगों-युगलरूपी वर्तितौ-वर्तिकाविवचितो कठिनी इत्यर्थः, अभ्युन्नत्तौ-उपयुधितो रतिदसंस्थिती रतिदा भीतिदा संस्थितिः संस्थानम् आकार-विन्यासो ययोस्तो रतिदसंस्थितौ एतादृशौ पयोधरौं कुचौ यासां तास्तथा 'भुपंगणुपुव्वतणुयगोपुच्छ बट्टसंहियसम आएग्ज कलिय वाहाओ' भुजङ्गानुपूर्व्यतनुक गो पुच्छवृत्तसमसंहितनतादेयललितवाहवः, तत्र भुजद्गगरीवत् आनुपूर्येण क्रमेण अधोऽधो मागे इत्यर्थः तनुको अतएव गोपुच्छरद वृत्तो समो-परस्परतुल्यौ संहितो रवशरीरसंश्लिष्टी नतो स्कन्धदेशस्य नतत्वात् नम्रोनाल का सूत्र भी नहीं निकल सकता है ये सुजात दोप से रहित होते हैं इन स्तनों के अग्रभाग में जो चुचुक होते हैं-वे उनसे अलग ही पड़ते हैं सो ऐला प्रतीत होता है कि मानों इनके उपर शेखर मुकुटही रखने में आया हो वे स्तन आगे पीछे उत्पन्न नहीं होते है-किन्तु एक साथ उत्पन्न होते हैं और एक ही साथ वृद्धिंगत होते हैं वक्ष स्थल पर ये विषम श्रेणि में स्थित नही हैं किन्तु समणि में स्थित है आमने सामने ये एक दूसरे के समान उन्नत अवस्था वाले ऊँचे उठे हुए होते हैं इनका संस्थान आकार अत्यन्त सुन्दर प्रीतिकर होता है. 'भुयंगणुपुब्धतणुय गोपुच्छ व सम सहिय णमियआएज्जललिय बाहाओ' इनके दोनों याहु भुजंग की तरह क्रमशः नीचे की ओर पतले होते हैं गोपुच्छ की तरह वे वृत्त-गोल होते हैं आपस में वे समानता लिये हुए होते हैं संहत-अपनी२, संधियों से वे सटे हुए रहते हैं,
છે કે પરસ્પરના બને એવા લાગતા હોય છે કે તે બનેની વચમાથી મૃણાલતંતુ અર્થાત્ કમલ નાલને તાંતણે પણ નીકળી શકતો નથી, તેઓ સુજાતા અર્થાત્ જન્મ દેપથી રહિત હોય છે. આ સ્તનના અગ્રભાગમાં જે સુચક (દીટી) હોય છે તે તેનાથી જુદીજ જણાઈ આવે છે. તે એવી જણાય છે કે મને આ સ્તનપર શેખર અર્થાત્ મુગુટ જ રાખવામાં આવેલ હૉય છે. આ સ્તને આગળ પાછળ ઉત્પન્ન થતા નથી પણ એક સાથેજ ઉત્પન્ન થાય છે. અને એકીસાથે જ વધતા રહે છે. વક્ષસ્થળ છાતી પર તેઓ વિષમશ્રેણીથી રહેતા નથી. પરંતુ સમશ્રેણીમાંજ રહેલા હોય છે. સામસામા તે એક બીજાના સરખી ઉન્નતાવસ્થાવાળા અને ઉંચે ઉઢેલા હોય છે. તેઓનું સંરથાન આકાર અત્યંત સુંદર અને પ્રીતીજનક हाय छ 'भुय गणुपुव्वतणुय गोपुच्छवसमसहियणमिय आएज्जालयवाहाओ' તેઓના બને બાહુઓ ભુજગની જેમ ક્રમશઃ નીચેની તરફ પાતળા હોય છે. ગાયના પુછડાની જેમ વૃત્ત ગોળ હોય છે. તેઓ પરસ્પરમાં સમાનતાવાળા હોય છે. સંહત–પોત પોતાની સંધીયેથી તેઓ મળેલા રહે છે. નત-નમ્ર એટલે કે
Page #629
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमैयद्योतिका टीका प्र.१ उ.३ २.३८ एकोषक: मनुजीवानामाकारादिकम् ६०५ आदेयौ अतिसुन्दरौ ललितौ-मनोज्ञचेष्टा कतिौ वाहू यासां तास्तथा 'तवणहा' ताम्रनखाः, ईपद्रक्तनखाः 'मंसलर गहत्था' मोपलाग्रहस्ताः-परिपुष्टकराग्रभागाः 'पीवरकोमलवरंगुलीओ' पीवरकोमलकरालिकाः, पीवरा:-स्थूलाः कोमला. वरा:-प्रमाणलक्षणोपेतस्वेन श्रेष्ठा अंगुलयो विद्यन्ते यासा तास्तथा, 'णिद्ध पाणिलेहा' स्निग्धपाणिरेखाः 'रविससि संखचक्कसोस्थिय सुविभत्त सुविरतिय पाणिलेहा' रविशशिशङ्खचक्र स्वस्तिक सुविभक्त मुविरक्ति पाणि रेखाः, तम रविश शङ्खचक्र स्वस्तिका एव सुविभक्ताः-सुपटा:- सुविरचिताः स्पष्टतया दृष्यमानाः एतादृश्यः पाणिरेखाः यासां तास्तथा, 'पीगुण्णयकक्ख वस्थिदेसा' पीनोन्नत. कक्षनस्तिदेशाः, पीना उपचिता उन्नता अभ्युन्नताः कक्षवरितदेशा कक्षयोः-हस्तमूलाधोभागयोः, बस्तेः-नाभेरधोभागस्य च देशो यासां तास्तथा, 'पडिपुण्णगल्लकवोला' परिपूर्णगल्लकपोलाः, परिपूर्णो मांसलल्धेन स्थूलो गल्लौ गण्डदेशी च यांसां तास्तथा, 'चउरंगुल सुप्पमाण कंत्रुवर सरीसगीदा' चतुरगुल सुममाण कम्बुवर सदृशग्रीवाः चतुरगुलं-चतुरङ्गुलपमितं सु-सुष्टु शोभनं माणं यस्याः सा तथा कम्वुवरेण प्रधानशङ्खन सहशी छन्नतया बालत्रययोगेन च प्रधानशङ्ख. तुल्या ग्रीवा यासां तास्तथा, 'मंसलसंठिय पसत्थहणुया' मांसलसंस्थित प्रशस्तह. नुका:-मांसलं पुष्टं संस्थित शुभाकार प्रशस्तं च हनुकं चिबुकं यासां वास्तथा नत-नम्र झुके हुए होते हैं आदेय अति सुन्दर होने से उपादेय होते हैं और ललित मनोज्ञ चेष्टा से युक्त होते है । 'तंदणहा' इनके नख ताम्र होते हैं-कुछ२, ललाई लिये हुए होते हैं '
मंलग्न हत्था' इनका पंजा मांसल-पुष्ट शेता है 'पीसकोमलवरंगुलीओ' इनकी अंगुलियां पीवर-विशेष-मजबूत होती है कोमल होती है एवं उत्तम होती है, 'णिद्धपाणिलेहा' इनके हथेलियों में जो रेखाएं होती हैं-वे स्निग्ध होती हैं 'रवि ससि संखचक्क सोस्थिय सुविभत्त स्तुविरक्ष्य पाणिलेहा' इनकी हथेली मांसल-पुष्ट होती है सुन्दर आकार की होती है और हथेली में નમેલા હોય છે. આદેય અર્થત અત્યંત સુંદર હાવાથી ઉપાદેય અર્થાત મનને गर्भ तवा डाय छे. सन सरित हितो भनाज्ञ थेट प. उाय छे. 'तंबणहा' तेयाना न त ele हाय छे, अर्थात् ४४४ ४ सातिमा प. डाय 8. 'पीवरकोमलवर'गलीओ' तयानी मागणीसा पावर विशेष भरभूत डाय छे. मिस डाय . अन उत्तम होय छे. “णिपाणिलेहा' भनी यति ચામાં જે રેખાઓ હોય છે, તે નિ સુંવાળી હોય છે. સુંદર આકારવાળી खाय छे. सन प्रशस! ३२१॥ येोय होय छे. 'रवि सिसंखचक्कसोस्थिय सुनिरक्ष्य पोणीलेहा' तमनी हथेली मांसद पुष्ट होय छे. सुं२ मारनी होय ले,
Page #630
--------------------------------------------------------------------------
________________
६०६
जीयामिगम 'दाडिमपुप्फप्पगासपीवरकुचियवराधरा' दाडिमपुष्पप्रकाशपीवरकृश्चितराधरा, तत्र दाडिमपुप्पवत् प्रकाशः रक्त इत्यर्थः, पीवर:-उपचितः, कुश्चित:-आकुचितो मनाग वलितो परः प्रधानोऽधर:-अधरौष्ठो यासा तास्था, 'सुंदरोत्तरोहाः सुन्दरोत्तरौष्ठाः 'दधिदगरयचंद-कुंदवासंति मउल अच्छिद्द विमलदसणा' दधिदकरजश्चन्द्रकुन्द-वासन्तीमुकुलाच्छिद्र चिमलदशनार, तत्र दधि लोक प्रसिद्ध दकरजो-जलकणः, चन्द्रा शशी कुन्द-कुन्दकुसमम् वासन्तीमुकुलंवासन्तीकलिका तद्वत् शुक्लाः अच्छिद्रा:-विवररहिताः विमला:-मलरहिताः दशनाः दन्ता यासां तास्तथा, 'रत्तुप्पलपत्तम उय सुकुमालतालुजीहा' रक्तोत्पण पत्र मृदुल सुकुमारतालुजिहाः, तत्र रक्तोत्पलपत्रवद मृदुके सुकुमारे तालजिहये सूर्य, चन्द्र, शंख, चक्र एवं स्वस्तिक की रेखा होती है ये रेखायें प्रशस्त प्रशंसास्पद होती है 'पीगुण्णयणकक्खपत्धिदेसा' कुछ कुछ ऊंचा इठा हुआ ऐसा पक्ष प्रदेश एवं नाभी के नीचे का भाग जिनका रम. णीय है ऐसी 'पडिपुण्ण गल्ला वोला' परिपूर्ण एवं पुष्ट जिनक कपोल (गाल) प्रदेश है ऐसी एवं 'चउरंगुल सुपमाण कंवर सरीसगीवा' इनकी ग्रीन पूर्ण मांसल-पुष्ट चार आंगुर प्रमाण शंख के जैसी तीन रेखा युक्त होती है 'मंसल सं ठय पसत्य हणुपा ठोहो-होठ के नीचे का भाग मांसल-पुष्ट होता है सुन्दर आकार वाली होता है.
और प्रशस्त होता है. 'दाडिमपुप्फप्पगास पीवर कुंचिय धराधरा' इनके अधरोष्ठ दाडिम-अनार के-पुष्प जैसे प्रकाशवाले सुहावने होते हैं अर्थात् लाल और चमकदार होते हैं, पीवर-पुष्ट होते है एवं आकुञ्चित कुछ२, वलिप्त होते हैं अत एव वे देखने में बडे अच्छे અને તે હથેલીની અદર સૂર્ય ચ દ્ર, શંખ, ચક, અને સ્વસ્તિકની રેખાઓ होय छे. ते ३॥ प्रशसार डोय छे. 'पोपुण्गयणकक्खवत्थिदेसा' તેઓના કાખને ભાગ કંઈક ઉચે ઉપડેલ હેય છે. તેમજ હૂંટીની નીચે मा सेसने सु२ हाय छ 'पडिपुण्ण गल्लकवोला' तेभनी ४पास प्रश मर्थात गासनो माग परिपूष्णु भने पुष्ट हाय छे. 'चउरंगुल सुप्पमाण कबु घरसरिसगीवा' तमना गणाना सा मांसल पुट २.२ म ण तथा प्रधान न मा४२ २३ र २मा युत आय छे. 'मसल संठिय परत्थ हणुया' भनी हाढा (38नी नीयन सस) मांसल भने युट तक सुंदर मारना डाय छ भने प्रशसार५४ डाय छे. 'दाडीमपुप्फ पगारपीवर कुंचिथवरा પ’ તેઓના અધરેષ્ઠ દાડમના પુપની જેવા પ્રકાશવાળા અને સોહામણા હોય છે. અર્થાત્ લાલ અને ચમકદાર હોય છે. પીવર કહેતાં પુષ્ટ હોય છે.
Page #631
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.३८ एकोहक मनुजीवानामाकारादिकम् ६०७ यासां तास्तथा, 'कणवीरमु उल अकुडिल अब्भुग्गतउज्जुतुंग णासा' करवीरमुकुला-कुटिलाभ्युद्गत ऋजुतुङ्गनासाः, तत्र-करवीरघुकुलं-इणिकार कलिका तद्वत् अकुटिला अवका अभ्युद्गता उपयुत्थिता ऋज्वी सरला सती तुङ्गा-तीक्ष्णा एवंविधा नासा यासा तास्तथा, 'सारदणवकमलकुमुदकुवलय विमुक्कदलणिगर सरिसलक्खण अंकियकंतणयणा' शारदनबकमलकुमुदकुवलय विमुक्तदलनिकर सदृश लक्षणाङ्कितकान्तनयनाः तत्र-शरदि भवं शारदं नवनवीनं कमळ सूर्यविकासि. हमदं चन्द्रविकासि कुवलयं नीलोत्पलं एतेषां यो विमुक्त पृथग्मृतो दलनिकरः पत्र समुदाय स्तत्सदृशे लक्षणाङ्कित आयतदीर्घ-शुभलक्षणयुक्ते अतएव कान्ते मनोज्ञे नयने-नेत्रे यास तास्तथा, 'पत्तलचवलायय तंबलोयणाभो' पलचपला. यमान ताम्रलोचना:, पत्रले-पक्ष्मले चपलायमाने चापल्ययुक्ते ताने ईपन कते दिखाई देते हैं । 'सुदरोत्तरोटा' ऊपर का होठ भी इनका बडा सुहा. बना होता 'दधिदगरय चंद कुंदवासंति भउल अच्छिद्द विमतदसणा' इनके दाँत दधिके जैसे शुभ्र होते हैं, पानी के कण जैसे निर्मल होते हैं चन्द्र के जैसे अकलङ्क होते हैं कुन्द पुष्प के जैसे लफेद होते हैं, वासन्ती कली की तरह शुन्न होते हैं बीच में इनकी पतियां छेद विहीन होती है अतएव इनमें अत्यन्त धवलता रहती है 'रचप्पलपत्त मउय सुकुमालतालु जीहा' इनके तालु और जिह्ना ये दोनों रक्त कमल के पत्र की तरह लाल होते हैं, मृदु नरम होते हैं, और विशेष सु. मार होते हैं 'कणवीर मुउल अकुडिल अब्भुग्गत उज्जुतुंगणासा' पनकी नासिका कनेर की कली के जैसी होती है अकुटिल-सीधी होती है डेढि नहीं होती है अग्रभाग में प्रमाणानुसार कुछ २, ऊंची उठी हुई અને આકુંચિત કંઈક કંઈક વળેલા હોય છે. તેથી જ તેઓ દેખવામાં ઘણાજ सु२ माय छे. संदरोत्तरोद।' तमना उपना 18५९घान साहामाया डाय छे. 'दधिदगरय चंदकुंद वासंति मरल अच्छिद्द विमल दसणा' तयाना हाती દહિના જેવા સફેદ હોય છે. પાણીના બિંદુ જેવા નિર્મળ હોય છે. ચંદ્રની જેમ નિષ્કલંક હોય છે. કદ પુષ્પની જેમ સફેદ હોય છે. વાસન્તીની કળીની જેમ ધવલ હોય છે. તેની પંક્તિ વચમાં દેદ વગરની હોય છે. તેથી જ તેમાં भत्यात श्वेतपान २९ छे. 'रत्तुप्पल पत्तमउय सुकुमाल तालुजीहा' तेमना ताg અને જીભ એ બેઉ લાલ કમળના પાનની માફક લાલ હોય છે. મૃદુ કહેતાં नरम हाय छे. मन विशेष सुमार हाय छे. 'कणवीर मुउल अकुडिल अन्मु. गय सज्जुतुगणाम्रा' तेमनी नासिर ३सुनी जीना पाय छ, भटिस
Page #632
--------------------------------------------------------------------------
________________
අපර
जीवामिगमसू
च लोचने यासां तास्तथा, 'आणामिय चारुहल किण्हन्भराहसंठिय संगय भायय सुजात कसिण णिद्धमया' आनामित चापरुचिर कृष्णभ्रराजी संस्थित संगतायत सुजात कृष्णस्निग्धभ्रुत्रः तत्र आनामित ईपन्नामितो यवापो धनुस्तद्वद् चक्रतया रुचिरे संस्थानभावतो रमणीये कृष्णाभ्रराजिरि कृष्णमेघपङ्क्तिरिव संस्थिते संगते यथोक्त प्रमाणोपपन्ने आयते - दीर्घे सुजाते सुनिष्पन्ने कृष्णे कालिमोपेते स्निग्धे स्निग्धच्छायोपेते व यासां तास्तथा 'अल्लीणपमाण जुचसवणा' आळीनप्रमाण युक्तश्रवणाः, आलीनौ मस्तकमित्तौ किञ्चिः लग्नौ प्रमाणयुक्त-स्वप्रमाणोपेतौ श्रवण - कर्णौ यासां तास्तथा, 'पीणमह रमणिज्जगंडलेहा' पीनसृष्ट रमणीगण्ड लेखा', तत्र पीना मांसला मृष्टा चिकणा अतएव रमणीया गण्डलेखा - कपोळपाली यासां तास्तथोक्ताः 'चउरंस पसत्य समणिडाला' चतुरस्रप्रशस्तसमललाटाः, चतुर्षु होती है चपटी नहीं होती ऋज्वी-सरळ एवं तुङ्ग तोते की चोंच जैसी तीखी होती हैं 'चारदणय कमलकुमुदकुवलयविमुक्क दल निगर सरिस लक्खण अंकियकंतणपणा' इनके दोनों नेत्र सूर्य विकाशी शरद काल का कमल एवं चन्द्र विकाशी कुमुद कुवलयनील कमल इन से जुदा पड़ा हुआ जो पत्र समृह होता है उसके जैसी कुछ श्वतता कुछ लालिमा कुछ इषामना लिये हुए बीच में कृष्ण पुतलियों से अनि होने से ये बहुत कान्त सुन्दर लगते हैं 'पत्तल चवलाय तंव लोयणाओ' फिर उनके नेत्र पक्ष्म पुट से युक्त होते हैं स्वभावतः चपल बने रहते हैं कर्ण तक लम्बे होते हैं और फोरों पर ईषत् रक्त होते हैं 'आणामिय चापरूद्दल किण्डम्मर / इसठियसंगत आयय सुजातक सिद्धिमुया' इनफी दोनों भौंएं कुछ२ नम्रीभूत किये गये धनुष
કહેતા વાંકી ચૂકી નહી પણ સીધી હેાય છે. અગ્રભાગમાં પ્રમાણાનુસાર કંઇક ઉંઉંચી હાય છે. ચપટી હાતી નથી. ઋજવી સરલ અને તુંગ કહેતાં પાપટની यांय नेवी तीमी होय छे. 'सारद णत्र कमल कुमुद कुत्रलय विमुक्कदल णिगरसरिखलक्खणअ'कियक' तजयणा' तेभना मन्ने नेत्रा सूर्य विनाशी शरह ઋતુનુ કમળ અને ચંદ્ર વિક શી કુમુદ કુવલય નીલકમળ એ ખન્નેમાંથી અલગ પડેલા એવા જે પત્રના સમૂહ હાય છે. તેના જેવી કઈક શ્વેતતા અને કંઇક લાલાશ અને કંઇક કાળાશવાળા અને વચમાં કાળી પુતળીચેાથી આ કિત होवाथी ते अत्यन्त सुहर लागे छे 'पत्तल चवलायत बलोयणाओं वजी तेखाना નેત્રા પાંપણેાવાળા હેાય છે. સ્વભાવથીજ ચપલ હાય છે. કાન સુધી વાંમા होय छे भने ।रयर ४४६ साल होय छे, 'आणामियचाप रूइल किन्हव्भ राह सठिय सांगत आयय सुजात कसिणणिद्धभमुया' तेभनी भन्ने भ्रमरे।
Page #633
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयघोतिका टीका म.३ उ.३९.३८ एकोरुक० मनुजीवानामाकारादिकम् ६०९ अस्रेषु-कोणेषु पूर्वपश्चिमदक्षिणोत्तररूपेषु प्रशस्तमहीनाधिकलक्षत्वात् समम्चतुर्दिक्षु समममाणं लल टं यास तास्तथा 'कोमुई रयणीयरविमलपडिपुन्न सोम्मवयणा' कौमुदीक रजनीकर विमल परिपूर्णसौम्यवदनाः तत्र कौमुदीकार्तिकी पूर्णिमा तस्याः रजनीकरश्चन्द्रस्त द्वत् विमलं शरद् ऋतुमभावाद्विगत रजोमल परिपूर्ण पूर्णिमा वत्तित्वात् तद्वत् सौम्यम् आहादजनकं वदनं यासा तास्तथा 'छत्तुमय उत्तिमंगा' छत्रोन्नतोत्तमाङ्गाः छत्राकारं छत्र सदृशमुन्नतमुत्तमाङ्गं यासा तास्तथा, 'कुडिलमुसिणिद्धदीहसिरया' कुटिल सुस्निग्धदीर्घशिराजाः, तत्र कुटिला चक्राः कुस्निग्याः चिक्कगाः दीर्घाः लम्बनानाश्च शिरोजा:-मस्तककेशा यासा तास्तथा 'छत्त२ ज्झय२ जुग३ थुभ ४ दामिणि५ कमंडलु६ कलस७ वाविसो८ स्थिय९ पडाग१० जव११ मच्छ १२ कुम्भ १३ रहबर १४ मगर१५ सुकथाल अंकृस१७ अठावयवीइ १८ सुपटक १९ मयूर२० सिरिदामि२ १ से य २२ तोरण२३ मेइणि उदधिवर२५ भवण२६ गिरिवर२७ आयस२८ ललियगय२९ उसभ३० सीह३१ चमर३२ उत्तमपसत्य वत्तीसलक्खणधराभो' छत्र १ ध्वज२ युग३ के समान टेढी होने से इनका संस्थान रमणीय होता है कृष्ण मेघमाला के जैसी काली होती है संगत-अपने प्रमाण के अनुकूल होती हैं, आयत जितनी लम्बाई होनी चाहिये उतनी लम्बाई चाली होती है सुजात होती है-अपने ढंग से ही ये उत्पन्न होती है कृश होती हैं, स्निग्ध होती हैं 'अल्लीणपमाणजुत्तसवणा' इनके दोनों कान आलीन मस्तक तक कुछ २, लगे हुए रहते हैं और प्रमाण युक्त-अपने२, प्रमाण से सहित होते हैं पीणमट्टरमणिज गंडलेहा' इनकी कपोलपाली -गाल और कान के बीच का भाग पीन-मांसल-पुष्ट-भरावदार होती है मृष्ट-चिकनी होती है, अतएव यह रमणीय होती है 'चउरंस पमस्थ કંઈક કંઈક નમાવેલા ધનુષની જેમ વાંકી હોવાથી તેમનું સંસ્થાન રમણીય લાગે છે, કાળા મેઘના સમૂહ જેવી કાળી હોય છે. સંગત પિતાના પ્રમાણ સરની હોય છે. આયત અર્થાત્ જેટલી તેની લંબાઈ હોવી જોઈએ એટલી લંબાઈ વાળી હોય છે. સુજાત હોય છે. પિતાના ઢંગથીજ તે ઉત્પન્ન થાય છે ४२५ डेरय छे. मने स्निग्ध हाय छे. 'अल्लीण पमाण जुत्तसवणा' तमना 26
ने मामीन अर्थात् भरत सुधा , ४४४ सासर २९ छे. 'पीण मट्टर मणिज्ज गडलेहा' मनी पर पति स भने छाननी पश्यना ભાગ પીન માંસલ પુષ્ટ હોય છે. મૃષ્ટ ચિકાશવાળો હોય છે તેથી જ તે २भीय हाय छे. 'चउरस पसत्थ समणिडाला' तमनु साट यतु२ख ५६
जी० ७७ .
Page #634
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीयामिगम स्तूप४ दामिनी५ कमण्डलु ६ कलश वापी८ स्वस्तिका, पताक १० यवो११ मत्स्य १२ कूर्म १३ रथवर १४ मकर १५ गुकस्याला १६ इशा १७ ष्टापदवीची१८ सुपतिष्ठक१९ मयूर२० श्रीदामा२१ भिषेक २२ तोरण२३ मेदिनी२४ उदधिवर२५ भवन२६ गिरिवरा२७ दर्शललित२८ गज २९ ऋपम३० सिंह३१ चमरोत्तम३२ प्रशस्त द्वात्रिंशल्लक्षणधराः, तत्र छत्रं लोकप्रसिद्धम् १, ध्वजः२, युगः३, स्तूपः-स्तम्भः४,दामिनी-पुष्पमाली५, कमण्डलु:-तापसपानी य पात्रम् ६, कलश:७, वापी८ स्वस्तिकः ९ पताका१० ययो-धान्यविशेष:११, मत्स्यः१२ कूर्मा१३ इमो पसिद्धौ, रथवरः१४, मकरः१५ शुकस्थाल-भुकमोजनपात्रम् एतन्माङ्गलिकचिह्नविशेषः१६, अङ्कुश:१७, अप्टापदधीचिः-धूतफलकम् १८ सुपतिप्ठकं स्थापनकम् १९ मयूरः-प्रसिद्धः२० श्रीदामसुन्दर मालाकार आभरणविशेषः १२, अभिषेक:-कमलाभिपेकः हस्तिद्वयक्रियमाणाभिषेकयुक्तलक्ष्म्याकारश्चिह्न विशेषः २२, तोरणम् २३, मेदिनी-मेदिनीभृतराजा २४, उदधिः-समुद्रः २५, वरभवनं-प्रासादः २६, गिरिवरः-धानपर्वतः २७, आदर्श:-दर्पणम् २८, ललितगजो मनोज्ञदन्ती २९ ऋषभो गौः, ३० सिंहःसमणिडाला' इनका ललाट चतुरस्र-पूर्व पश्चिम दक्षिण उत्तर ऐसे चारों कोनों में परायर प्रमाण वाला और समतल वाला होने से रमनीय होता है 'कोमुहरयणिझर विमलपडिपुनसाम्प्रत्यणा' इनका सौम्य मुख कार्तिकी पूर्णमासी के न्द्र की तरह विमल होता है और परिपूर्ण होना है 'छत्तुन्नय उत्तिमंगा' छत्र के जैले आकार वाला ऊपर से गोल इनका मस्तक होता है 'कुडिल लुसिणिद्ध दीहप्सिरा' इनके मस्तक के केश कुटिल-वक होते हैं, सुस्निग्ध होते हैं और लम्बे होते हैं । 'छत्तज्झयजुगथूमदामिणि कमंडलुफलसवाविसोत्थियपडाग जव मच्छ कुम्भर स्वरमगरस्सुकथ लअंकुमअट्ठाश्यवीईसुपटक मयूर પશ્ચિમ દક્ષિણ અને ઉત્તર એમ ચારે ખૂણાઓમાં પ્રમાણ સરના અને સમતલ वाणा पाया माय डाय छे. 'कोमुइरयणिकरविमलपडिपुन्नसोग्मवयणा' તેનું સૌમ્યમુખ કાર્તિકી પૂર્ણમાસીના ચંદ્ર જેવું નિર્મલ અને પરિપૂર્ણ હોય છે 'छत्तुन्नय उत्तमगा' छत्रना 24 मारवाणु परथी गण तेनु भरत डाय छे. 'कुडिल सुसिणिद्ध दीह सिरया' तेना माथाना सुटित ist हाय छे. सुस्निग्ध डाय छे. म cin लेाय छे. 'छत्तज्झयजूगथूमदामिणि कमडलु कलस वावि सोस्थिय पडागजव मच्छ कुम्भ रहवर मगर सुकथाल अकुस अट्ठावय वीई सुपईटक मयूरसिरिदामाभिसेय तोरण मेइणि उदधिवर भवणगिरिवर
Page #635
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमैयद्योतिका टोका प्र.३ उ.३९.३८ एकोरुक० मनुजीवानामाकारादिकम् ६११ मृगेन्द्रः ३१, चमरः ३२ एतानि उत्तमानि-प्रधानानि प्रशस्तानि-सामुद्रिक शास्त्रेषु प्रशंसास्पदी भूतानि द्वात्रिंशल्लक्षणानि चान्य त्रैवंविधानि लभ्यन्ते, तथाहि-'छत्रं १, तामरसं २, धन् ३, स्थवरो ४, दम्भोलि ५, कूर्मा ६, ऽङ्कुशा ७, वापी ८, स्वस्तिक ९, तोरणानि १०, च सरः ११, एश्चाननः १२, पादपः १३, चक्रं १४, शङ्ख १५, गजौ १६, समुद्र १७, कलशौ १८, प्रासाद १९, मत्स्यौ २०, यवो २१, यूप २२, स्तूर २३, कमण्डलू २४, यवनिभृत् २५, सचामरो २६, दर्पणम् २७, ॥१॥ उक्षा २८, पताका २९, कमलाभिषेकः ३०, मुदाम ३१, केकी ३२ घन पुण्यभाजाम् । इति । 'हंससरिसगईओ' हंस सदृशगतया, हंसस्य सदृशी गतिर्गमनं यासां तास्तथा, 'कोइल मधुर गिर सुस्सराओ' कोकिलमधुरगी: मुस्वराः, कोकिलस्य यामधुरा गिरः तद्वत् सुस्वरा यासांतास्तया, 'कता' कान्ता:-कमनीयाः सर्वेषाममिमताः, 'सबस्स अणुनयाओ' सर्वस्यानु नता न कस्यापि द्वेष्याः, 'वय गय लिपलिया' व्यपगतवलिपलिता, तत्र वलि:शैथिल्य समुद्भवश्चमविकारः पलितं-जरया केशशौक्यम्-व्यपगते वलिपलिते सिरिदामाभिसे यतोरणमेइणि उदधिवर अवण गिरिधर आयंतललियगयउसभसीहचमरउत्तम पसत्यवत्तीस लक्खगधराओ' छत्र १, ध्वज, २, युग ३, स्तूप ४, दामिनी ५, पुष्प माला कमण्डलु ६, कलश ७, वापी ८, स्वस्तिक ९, पताका १०, यव ११, मत्स्य १२. कुम्भ १.३, रथवर-श्रेष्ठरथ १४, सकर १५, शुक स्थाल १६, अङ्कुश १७, अष्टा पद वीचि पूत फलक १८, सुप्रतिष्ठक-स्थापनक १९, मयूर २०, श्री दाम मालाकार आभरण विशेष २१, अभिषेक-झमलाभिषेक युक्त लक्ष्मी जिसका दो हाथियों से अभिषेक किया जाता है ऐसा चिह्न २२, तोरण-२३, मेदिनी-पृथिवी पति-राजा २४, उदधिवर-समुद्र२५, भवन
आय'स ललिय गय उसभ सीहचमरउत्तमपसत्थबत्तीसलक्खणधराओ' છત્ર , ધજા ૨, યુગ ૩, સ્તુપ ૪, દામિની પ, પુષ્પમાલા કમંડલ ६, २२ ७, १८, स्व1ि3, पता १०, यव ११, मत्स्य १२, કુલ ૧૩, રથવર શ્રેષ્ઠ રથ ૧૪, મઘર ૧૫, શુકWાલ ૧૬, અંકુશ ૧૭, અષ્ટાપદ વીચિ–પૂતફલક ૧૮, સુપ્રતિષ્ઠક- સ્થાનિક ૧૯, મયૂર–મેર ૨૦, શ્રી દીમમાળાના આકારનું આભરણ વિશેષ ૨૧, અભિષેક કમલાભિષેક અભિષેક યુકત લક્ષમી કે જેને અભિષેક બે હાથથી કરવામાં આવે છે, એવું ચિહ્ન २२, २५ २३, महिनी-पी पति- २४, धि१२ प्रभु २५, मन
Page #636
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
६१२
जीवामिगम यासांतास्तथा जराजन्य शरीरके शवैम्प्यरहिता इत्यर्थः, 'वंगदुन्धण्ण वाही दो. भग्गसोगमुकाओ' व्यंगदुर्वर्ण व्याधिदौर्माग्य शोकमुक्ताः, तत्र विरदमङ्ग व्यङ्गम् विकारवानवयवः दुर्वर्णो विकृतशरीरच्छविः, उपाधिः-ज्वरादिः दौमाग्यं शोवश्व एतैर्मुक्ता रहिता स्तास्तथा, तेषां व्यगादेः स्वप्नेप्यसंमवात् 'उच्चत्तेणय नराण थोवूगमसियाओ' उच्चत्वेन च नराणां स्तोकेनोच्छ्रिताः, उच्चरवेन च नराणां स्तोकमनं यथा स्यात्तथा उच्छ्तिा किञ्चि-यूनाष्ट धनुः शतोन्छ्या इत्यर्थः 'सभाव सिंगारागारचारुवेसा' स्वभाव जन्य एव शृङ्गारः स्वभावशृङ्गारः प्रमाणो. पेत यथावस्थितसुन्दर शरीरावयवजन्यसौन्दर्यवान् नतु वाह्य रस्त्रभृपणादि जन्यः, प्रासाद २६, गिरि-वर-श्रेष्ठ पर्वत २७, दर्पण २८, ललित गज श्रेष्ठ २९, वृषभ ३०, सिंह ३१, एवं चमर ३२, इन सामुद्रिक शास्त्र प्रसिद्ध श्रेष्ठ बत्तीस लक्षणों को ये धारण करती है 'हंससरिसगहओ' हंस के जैसी इनकी गति-चाल होती है 'कोइलमधुर गिरसुस्तराओं' कोयल की मधुरवाणी के जैसा इनका सुन्दर मधुर स्वर होता है-'सबस्स अणुन. याओ ववगयलिपलिया, वंगदुवण वाही दोभग्गसोगमुक्कामो ये बहुत ही अनुपम सुन्दर होती हैं ये सथके लिये अनुनयविनयवाली होती है इनके शरीर में किंचित् भी शैथिल्य समुद्भव चर्म विकार नहीं होता अर्थात् शरीर में इनके खाल का कुकर-संकोच जाना रूप विकार नहीं होता। बाल इनके सफेद नहीं होते हैं-इन के अंग विकृत नहीं होते हैं अर्थात् हीनाधिक होने रूप विकार से रहित होते हैं-शरीर की छवि में किसी भी प्रकार की विकृति नहीं आती है व्याधि से ज्दरादि रोग से ये सदा मुक्त रहती हैं दुर्भाग्य का इनके लेशमात्र भी नहीं होता है शोक का इनके नामो निशान भी नहीं होता है अर्थात् ये सदा हर्षित પ્રાસાદ ૨૬, ગિરિવર શ્રેષ્ઠ પર્વત ૨૭, દર્પણ ૨૮, લલિતગજ-શ્રેષ્ઠ હાથી ૨૯, વૃષભ ૩૦, સિંહ ૩૧, અને ચમાર ૩૨, આ સામુદ્રિક શાસ્ત્રમાં પ્રસિદ્ધ શ્રેષ્ઠ सेवा मत्रीसे क्षयाने तेथे धारण २ छ. 'हस सरिसगइओ' सना रेवी तानी गति-यास डाय छे. 'कोइल मधुरगिरसुस्सराओ' यानी भधु२ quelan । सुर भने मधु२ तमानी २१२-४४ाय छे. 'सव्वस्म अणुनयाओ ववगयवलिपलिया, वंग दुबण वाही दोभग्गसोगमुकाओ' તેઓ ઘણીજ અનુપમ સુ દર હોય છે. તેઓ બધા પ્રત્યે વિનયવાળી હોય છે. તેઓના શરીરમાં જરાય શિથિલતા યુકત ચર્મવિકારો હોતા નથી. અર્થાત્ તેમના શરીરમાં ચામડી સંકેચાઈ જવારૂપ વિકાર હેત નથી. તેઓના વાળ સફેદ હોતા નથી, તેઓના અંગ વિકૃત હોતા નથી. અર્થાત્ જૂનાધિક હેવારૂપ
Page #637
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेययोतिका टीका प्र.३ उ. ३.३८ एकोरुक० मनुजीवानामाकारादिक ९ ६१३ Rarea आकारः शरीरकृतिः, तथा चारुः सुन्दरः वेपः वस्त्रभूषणादि रूपो वा यासां तास्तथा । 'संगयगय हसिय भणियचेडिय विकास लावणिउण जुत्तोवयार कुसला' सङ्गगत हसित मणितचेष्टितविलास संलापनिपुणयुक्तोपचारकुशलाः, तत्रसंगतम् उचितं यद् गतं गमनं हंसीगमनवत् हसितं - इसनं कपोलविकाशि प्रेम संदर्शिच, भणितं - मणनं वाणीविलासः दुर्लक्ष्य चेष्टितं चेप्टन शरीरकम्पनादिरूपं, संलापः - परस्परसंभाषणं, तत्र निपुणाः कुशलास्तथायुक्ताः संगता ये उपचाराः लोकव्यवहारा स्तत्र कुशलाः दक्षा इति । पूर्वोक्तमेवार्थसंगृह्याह- 'सुदर थणजहण वदणकरचळणणयणमाळा' सुन्दरस्त नजघन्वदनकरचरणनयनमालाः, स्पृष्टम् ' दण्णलावण्णजोन्त्रणविलासकलिया' वर्णलावण्ययौवनविलासकलिता', ही रहती हैं 'उच्चतेण घ नराण थोडूण मूसियाओ' इनके शरीर की ऊंचाई अपने २, पतियों के शरीर से किञ्चित् न्यून रहती है एशेरुक द्वीप के मनुष्यों के शरीर की ऊंचाई आठ सौ धनुष की होती है तो ये एकोरुक द्वीप की महिलाएं कुछ कम आठ सौ धनुष के शरीर की ऊंचाई वाली होती है 'सभाव सिंधाराणार 'चारुवेसा' यों तो स्वभाव ही इनका प्रमाणोपेत यथावग्थिन जो जैसे होने चाहिये वैसे वैसे सुन्दर अवयव जन्य सौन्दर्य वाली शरीरा कृति होने से इन का शरीर स्वाभाविक श्रृंगार वाला होता ही है किन्तु बाह्य वस्त्राभूषण जन्य नहीं फिर भी वस्त्राभूषण रूप सुन्दर वेप से सुसज्जित होती है 'संगयं गय हसिय भणिय चेडिष विलास संलावणिउजुत्तोषधारकुसला' ये
વિકાર વિનાના હાય છે. શરીરની કાંતીમાં કાઇ પણ પ્રકારની વિકૃતિ આવતી નથી. વ્યાધિથી તાવ વિગેરે રાગથી તેઓ હંમેશાં મુકત હાય છે. લેશમાત્ર પણ દુર્ભાગ્ય તેમાં હાતુ નથી. તેઓને શેકનુ નામનિશાન પણ હતું नथी. अर्थात् तेथेो हु'भेशां मन भग्न रहे छे. 'उच्चतेण नराग थोवूण मुखियाओ' तेयोनी या पोत घोताना पतियाना शरीरथी ४४९ न्यून હાય છે. એકેક દ્વીપના મનુષ્યના શરીરની ઉંચાઇ આસા ધનુષની હાય છે. તે આ સ્ત્રિયાના શરીરની ઉંચાઇ કંઇક એછા આઠસેા ધનુષ પ્રમાણની होय . 'प्रभाव सिंगारागार चारुवेसा' मामतो खलावन प्रभाषित યથાવસ્થિત અવયવા જેમ હાવા જોઈએ એવાજ સુ ંદર અવયવ જય સૌન્દ વાળી શરીરની આકૃતિ હાવાથી તેઓના શરીર સ્વાભાવિક શૃંગારવાળા જ ડાય છે પરતુ બહારના વસ્ત્રાભૂષણુ જન્ય સુંદરપણું... હેતુ... નથી. તે પણ વઆભૂષણ ३५ सुदृ२ वेषभी सुसभ्लत होय छे. 'संगयगयहसियमणिय चेट्ठिय विलास संलाव
Page #638
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामि गम
६१४
तत्र वर्ण:- कृष्णगौरादिः, कावण्यम् - आकारस्य स्पृहणीयता यौवनविलासःस्त्रीणां चेष्टाविशेषः एमिः कळिता युक्ता तास्तथा, 'नंदणवणविवरचारिणी उच्चअच्छराको' नन्दनवन विवरचारिण्य इत्र अप्सरसः नन्दनवनस्य विवराणि लतागृहाणि तेषु चरितुं शीलं यासां ताः, एतादृइयोऽप्सरसइव 'अच्छे रग पेच्छणिज्जा' आश्वर्यप्रेक्षणीयाः - आश्रर्यजनकं प्रेक्षणं दर्शनं यासां तास्तथा 'पासाई - याओ' मासादिका', 'दरिस णिज्जाओ' दर्शनीयाः, 'अभिरुवाओ' अभिरूपाः 'पडिरूपाओ' प्रतिरूपाः । 'तासि णं भंते ! मणुई णं' तासां खलु मदन्त ! मनुजी नाम् 'केवर कालस्स' अत्र सप्तम्यर्थे पष्ठी, तेन कियति काले ' आहारहे' आहास्वभावतः ही हंसी के गमन तुल्य सुन्दर गमन क्रिया युक्त होती हैं। इनका हास प्रेम प्रदर्शक है और दोनों कपोल विकसित हो जावे ऐसा होती है इनकी पोल चाल घड़ी गंभीर होती है चेष्टाएं अंग प्रत्यंग को ढंकना, उनको फिर देखना आदि रूप तथा आंखों का मटकाना आदि रूप विलास अपने पति के साथ संभाषण करने का चातुर्य इन सब में ये बहुत अधिक निपुण होती हैं तथा युक्त-संगत जो उपचार लोक व्यवहार हैं- उनमें भी ये अधिकदक्षहोती हैं ये सब विशेषण पति की अपेक्षा से ही समझना चाहिये क्योंकि उस क्षेत्र के स्वभाव से उसके पर पुरुष के प्रति अभिलाषा की संभावना ही नही होती है 'सुंन्दर थणजहणवदणकर चलणणयणमाला' इनके स्तन, जघन, वद्दन मुख णिउगजुत्तोवयारकुसला' तेथे स्वभावथीन इंसिलीना गमन तुझ्य सुंदर गभन ક્રિયાવાળી હાય છે. તેઓનુ` હાસ્ય પ્રેમ પ્રદરક હોય છે. અને બેઉ કપાલે વિકસિત થઇ જાય એવા હોય છે. તેની વાણી ઘણીજ ગંભીર હોય છે. ચેષ્ટાએ અંગ પ્રત્યગાને ઢાંકવા, પાછા તેને જોવા વિગેરે રૂપ તથા આંખાને મટકાવવી વિગેરે રૂપ વિલાસ, પેાતાના પતિની સાથે સંભાષણ કરવા રૂપ ચાતુર્ય આ બધામાં તેએ ઘણીજ વધારે નિપુણુ હાય છે તથા યુકત સંગત જે ઉપચાર નામ લેકવ્યવહાર છે, તેમાં પણ ઘણીજ વધારે દક્ષ-ચતુર હાય છે. આ બધા વિશેષણા પતિની અપેક્ષાથી સમજવા. કેમકે તે ક્ષેત્રના રવભાવથી खोने पर पुष अत्ये मलिदाषानी संभावना होती नथी. 'सुंदर थण ज्रइण वदण करचलणणयणमाला' तेथेाना स्तनों, धन, वहन, भुख हाथ, यञ, नेत्र, विगेरे मधान अगो अत्यंत सुंदर होय छे. 'वण्णलावण्ण जोव्वण विलास कलिया' तेथे। गौर विगेरै वर्षा थी, सावएयथी, यौवनथी, मने विलासथी, હમેશાં યુકતજ મનીને રહે છે, ફેમકે ત્યાં ક્ષેત્રસ્વભાવથી વૃદ્ધ અવસ્થા -
-
Bann
Page #639
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयोतिका टीका प्र०३ ०३.३८ एकोरुक० मनुजीवानामाकारादिकम् ६१५ रार्थ:- आहार प्रयोजनं 'समुपज्जई' समुत्पद्यते कियतिकाले गते सते पुनरा हारविषयिणी इच्छा प्रादुर्भवतीति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि 'गोयमा' हे गौतम! 'चउत्थमंत्तस्स आहाडे समुप्पज्जइ' चतुर्थमक्ते तृतीयदिवसे आहारार्थः समुत्पद्यते, यद्यपि सरसाहारित्वेनैतावत्कालं तासां क्षुद्वेदनोदयाभावादेवा
हाथ पैर नेत्र आदि सब ही बहुत सुन्दर होते हैं 'बण्णलावण्ण जोठवण विलासकलिया' ये गौरादि वर्ण से, लावण्य से, यौवन से और विलास से सर्वदा युक्त ही बनी रहती है क्योंकि वहां क्षेत्र स्वभाव से वृद्धावस्था नही आती है 'णंदण वणविवरचारिणी उन्द अच्छराओ' ये ऐसी प्रतीत होती है कि मानों नन्दन वन में भ्रमण करने वाली अप्सराएं हैं इसलिये ये 'अच्छेरग पेच्छणिजा' ये आश्चर्य से प्रेक्षगीयदेखने योग्य होती है. अर्थात् जो इन्हें देखता है उसे यही विस्मय होता है कि ये मनुष्य स्त्रियां दें या अप्सराएं हैं । 'पासाईयाओ दरिस णिजाओ, अभिरूवाओ, पडिरूवाओ' ये प्रासादिक होती हैं दर्शनीय होती हैं अभिरूप होती हैं और प्रतिरूप होती है इन पदों का अर्थ पीछे यथास्थान लिखा जा चुका है।
'तासिणं भंते । मणुईणं केवइ कालस्स आहारडे समुप्पन' हे भदन्त ! इन मनुष्य स्त्रियों की आहारेच्छा कितने काल के बाद होती है अर्थात् एकबार आहार कर लेने के बाद पुनः आहार करने की इच्छा
वती नथी. 'णदणवणविवरचारिणी ऊब अच्छराओ' तेथे। शेषी प्रतीत आहारट्टे समुप्पज्जद्द' हे गौतम! तेथे सरस आहार उरे हे, तेथी खाने થાય છે કે જાણે નદન વનમાં ફરવાવાળી અપ્સરાએ જ હાય, તેથી તેઓ 'अच्छेरग पेच्छणिज्जा' आश्चर्यथी प्रेक्षणीय नेवासाय होय छे, अर्थात् तेथे। ને જેએ દેખે છે, તેમને એજ અશ્ચય થાય છે કે તેએ મનુષ્ય શ્રિયા છે ? अप्सराओ छे ? 'पासाइयाओं, दरिसणिज्जाओ अभिवाओं, पडिवाओं' તેએ પ્રાસાદીય હાય છે. દશ”નીય હાય છે. અભિરૂપ હાય છે. પ્રતિરૂપ હોય છે. આ પદ્માને અ પહેલાં આપવામાં આવી ગયેલ છે.
'ता िणं भते ! मणुईणं केवइकालस्स आहारट्टे समुप्पज्जद्द' हे भगवन् આ મનુષ્ય શ્રિયાને આહારની ઇચ્છા કેટલા કાળ પછી થાય છે ? અર્થાત્ એકવાર આહાર કરી લીધા પછી ફરીથી આહાર કરવાની ઇચ્છા તેને કયારે
Page #640
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमसूत्रे
६१६
भक्तता किन्तु न कर्मनिजरार्थं तासां तत्तपः तथापि अभक्तार्थत्वमाधयत् चतुर्थ मक्तशब्देन कथितमिति ॥ ०३८||
मूलम् - तेणं भंते! सणुया किमाहारमाहारेंति ? गोयमा ! पुढवि पुप्फफलाहारा ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो ! । तीसे णं भंते! पुढवीए केरिसए आसाए पण्णत्ते ? गोयमा ! से जहा णामए गुलंइ वा खंडेइ वा सक्कराइ वा मच्छंडियाइ वा मिसकंदेइ वा पप्पडसोयएइ वा पुप्फउत्तराइ वा पउमुत्तराइ वा अकोसियाइ वा विजयाइ वा महाविजयाइ वा आर्यसाइ वा उवमाइ वा अणोवमाइ वा चाउरके गोखीरे उठाणपरिणए गुडखंड मच्छंडि उवणीए मंदरिग कढिए वण्णेणं उववेए जाव फालेणं, भवेयारूत्रे सिया ? नो इणट्टे समट्टे, तीसे णं पुढवीए एतो इयराए चेव जाव मणामतराए वेद आसाए णं पपत्ते,
इन्हें कर होती है ? इसके उत्तर में प्रभु करते हैं-'गोयमा ! चत्थभत्तस्स आहाडे समुपज्जद्द' हे गौतम! ये सरस आहार करती हैं इसलिये इन्हें खाने के दूसरे दिन आहार की अभिलाषा नहीं होती है तीसरे दिन आहार करती है इनके क्षुधा वेदनीय के उदय के अभाव से ही इनमें एक दिनकी अभक्तता है यह अभक्तता इनके कर्मों की निर्जरा का कारण भूत नहीं होती है क्योंकि यह तपः रूप नहीं है कर्मों की निर्जरा तो तपः साध्य होती है । तथापि इसको अभक्तार्थता के साधर्मं चतुर्थ भक्त शब्द से कह दिया है ॥ सृत्र - ३८ ॥
थाय हे ? या प्रश्नना उत्तरमा प्रलुश्री छे 'गोयमा ! चउत्थ भत्तरस એક વખત આહાર કર્યા પછીના ખીજે દિવસે આહાર કરવાની ઇચ્છા થતી નથી. ત્રીજે દિવસે આહાર કરે છે. તેમને ક્ષુધાવેદનીયના ઉદયના અભાવથીજ તેઓમાં એક દિવસનુ' અભક્તપણૢ -અહારની અનિચ્છા રહે છે. આ અભક્ત પશુ' તેઓના કર્મની નિર્જરાના કારણભૂત હેતું નથી, કેમકે આ તપ રૂપ હેતુ' નથી. કર્માંની નિરાતેા તપઃ સાધ્ય હોય છે, છતાં પણ તેને અભક્તા તાના સાધમ થી ચતુર્થ ભક્ત શબ્દથી કહેવામાં આવેલ છે. ! સૂ. ૩૮ ૫
Page #641
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिकारीका प्र.३ ७.३ सू.३९ एकोषकस्थानामाहारादिकम् ६१७ तेसिणं भंते ! पुष्फफलाणं केरिसए आसाए पण्णत्ते ? गोयमा! से जहा णामए चाउरंतचकवष्टिस्त कल्लाणे पवरसोयणे सय. सहस्सनिष्फन्ने वण्णेणं उववेए गंधेगं उववेए रलेणं उववेए फासेणं उववेए आसाइणिजे वीसायणिज्जे दीवणिजे विहणिजे दप्पणिज्जे मयणिज्ने सच्विंदिय गायपल्हायणिजे, अवेयारूवे सिया? णो इण? समझे, तेसिणं पुप्फफलाणं एत्तो इट्टत्तराए चेव जाव आस्साएणं पण्णत्ते। तेणं मणुया तमाहारमाहारित्ता कहि वसहिं उति? गोयमा ! रुक्ख गेहालयाणं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो!। ते णं भंते ! रुक्खा कि संठिया पण्णत्ता? गोयमा! कूडागार संठिया पेच्छाघर संठिया सत्तागार संठिया झयसंठिया थूमसंठिया तोरणसंठिया गोपुरवेइयचोप्पालगसंठिया अहालगसंठिया पासायसंठिया हम्मतलसंठिया गवक्खसंठिया बालग्गपोत्तियसंठिया वलभीसंठिया अण्णे तत्थ बहवे वरभवण सयणासणविसिठ्ठ संठाणसंठिया सुहसीयलच्छाया णं ते दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो!। अस्थि णं भंते ! एगोरुयदीव दीवे गेहाणि वा गेहायणाणि वा ? णो इण? समटे, रुक्खगेहालयाणं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो!। अस्थि णं भंते ! एगोरुय दीवे २ गामाइ वा णगराइ वा जाव सन्निवेसाइ वा ?, णो इणटे समटे, जहिच्छियकासगामिणो ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो ! । अस्थि णं भंते ! एगोरुय दीवे२ असीइ वा मसीइ वा कसीइ वा पणीइ वा वणिज्जाइ वा ?, नो इणट्रे समटे, बवगय असिमसिकिलिपणियवाणिज्जा णं ते मणुयगणा पपणत्ता समणाउसो ! । अस्थि णं भंते ! एगोस्य दीवे हिर
जी० ७८
Page #642
--------------------------------------------------------------------------
________________
६१८
जीवामिगमले पणेइ वा सुवन्नेइ वा कंसेइ वा दूसेइ वा मणीइ वा मुत्तिएइ वा विउलधणकणगरयणमणिमोत्तियसंखसिलप्पबाल संतसार सावएज्जेइ वा ?, हंता अस्थि, णो चेद गं तेसिं मणुयाणं तिब्वे ममत्तभावे समुप्पज्जइ । अस्थि णं एगोरुयदीवे२ शयाइ वा जुवरायाइ बा ईसरेइ वा तलबरेइ यश माडंदियाइ वा कोडुवियाइ वा इभाइ वा सेट्रीइ वा सेणावतीइ वा सत्थवाहाइ वा ? णो इणटे लमढे, ववगर इड्डी सज्ञारा णं ते अणुगगणा पण्णत्ता सखणाउसो!। अस्थि णं अते ! एगोरूय दीवे२ दासाइ वा पेसाइ वा लिस्लाइ वा भयगाइ वा भाइल्लगाइ वा कम्मगर पुरिसाइ वा ? णो इणटे लमहे, ववगय आभिओगिया णं ते मणुयगणा पण्णता समजाउलो । अस्थि णं संते! एगोस्य दीवे दीवे मायाइ वा पियाइ वा सायाइ वा भइणीइ वा भज्जाइ वा पुत्ताइ वा धूयाइ वा सुण्हाइवा ? हंता अस्थि, नो घेवणं तेसि णं मणुयाणं तिये ऐमवंधणे लमुप्पज्जइ, पयगुपेसवंधणाणं ते मणुयगणा पणत्ता लमणाउसो!। अत्धि गं भंते ! एगोरुय दीवे २ अरीइ वा बेरिएइ वा घायएइ वा वहाइ वा पडिणीएइ पञ्चमित्तेइ वा ? जो इणटे समटे, बबरायदेशणुवंधाणं ते मणु. यगणा पण्णत्ता लमणाउसो।। अत्थि णं भंते! एगोरुए दीवे२ मित्ताइ वा वंतसाइ वा घडिताइ वा लहीइ वा सुहियाइ वा महाभागाइ वा संगतियाइ वा ?, जो इणटे समटे वदगयपेम्मा ते मणुयगणा पण्णता लमणाउलो!। अस्थि ण संते! एगोरुय दीवेर आबाहाइ वा विबाहाइ अण्णाइ वा सदाइ वा थालिपाकाइ वा चेलोवणयणाइ वा सीमंतुण्णयणाइ वा मयपिंड निवेयणाइ वा ? णो इणटे समझे, बवगय आवाह विबाह जपण
Page #643
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ ७.३९ एकोरुकस्थानामाहारादिकम् १९ भद्द थालिपाग चोलोवणयण सीमंतुण्णय णमतपिंडनिवेयणा णं ते मणुयगणा पण्णता समणाउसो! |सू०३८॥ .
छाया-ते खल्ल भदन्त ! मनुजाः किमाहारम् आहारन्ति ? गौतम ! पृथिवीपुष्पफलाहारास्ते मनुजगणाः प्रज्ञप्ता: श्रमणायुष्मन् ! तस्याः खल्ल भदन्त ! पृथिव्याः कीदृश आस्वादः प्रज्ञतः ? गौतम ! स यथा नामकः गुड इति वा खण्डमिति वा शर्करा इति वा मत्स्यण्डिकेति था विसकन्द इति वा पर्पट. मोदकमिति वा पुष्पोत्तरमिति का पदोत्तरपिति या अकोशितमिति वा, विजयेति वा महाविजयेति वा आदशोपसेति वा अणोदसातिना चतुष्कं मोक्षीरं चतुः स्थान परिणतम् गुड़ खण्डमत्स्यण्डिकोपनीदं मन्दाग्निकृतं वर्णेनोएपेतं यावत्स्पर्शन; भवे. देतद्रूपं स्यात् ? नायसर्थः समर्थः तस्याः खलु पृथिव्याः इत इष्टतर एक यावद् मनोऽमतर एव आस्वादः खलु प्रज्ञप्तः, तेषां खलु भदन्त ! पुष्पफलानां कीदृश आस्वादः खल्ल प्रज्ञप्तः, ? गौतम ! स यथा नामकः चातुरन्तचक्रवत्तिनः कल्याणं मवरभोजनं शत सहस्रनिष्पन्नं वर्णेनोपपेतं गन्धेनोपणेत र सेनोपपेतं स्वर्शनोपपेतम् आस्वादनीयम् बिस्वादनीयं दीपनीयम् वृहणीय दर्पणीयं मदनीयं सर्वेन्द्रियगात्रप्रल्हादनीयं, मवेदेतद्रपः स्यात् १, नायमर्थः समर्थः, तेषां खलु पुष्पफलानाम् इत इष्टतर एव यावा आस्वादः खलु प्रज्ञप्तः । ते खल्लु भदन्त ! मनुजाः माहारमा हाय कुत्र बसतौ उपयान्ति ? गौतम ! वृक्षगृहालयाः खलु वे मनुजगणाः प्राप्ताः श्रामणायुष्मन् ! ते खच्च मदन्त ! वृक्षाः किं संस्थि मा प्रज्ञता ? गौतम ! कूटागार संस्थिताः प्रेक्षागृहसंस्थिताः छत्राकारसंस्थिताः ध्वजसंस्थिताः स्तूपसंस्थिताः तोरणसंस्थिता. गोपुर वेदिका-चोप्पालकसंस्थिताः अहालकसंस्थिताः मासाद संस्थिताः इयंतल संस्थिताः गवाक्षसंस्थिताः बालाप्रपोतिकासंस्थिताः वलभी. संस्थिताः अन्ये वत्र बहवो दरभवनशयनासनविशिष्टसंस्थानसंस्थिताः सुख शीतलच्छायाः खलु से द्रमगणा: प्रज्ञाप्ताः श्रमायुष्मन् ! सन्ति खलु भदन्त ! एकोहक द्वीपे द्वीपे गृहा वा गृहायनानि का ? नायमर्थः समः, वृक्षगृहाळयाः खलु ते मनुजगणाः प्रज्ञप्ताः श्रमणायुज्मन् ! अस्ति खलु मदन्त ! एकोहक द्वोपे द्वौपे ग्राम इति वा लागरमिति वा यावत सनिवेश इति वा, नायम: समर्थः, यच्छित कामगामिनस्ते मनुजगणाः प्रज्ञप्ताः श्ररणायुप्मन् ! अस्ति खल भदन्त ! एकोहीपे द्वीपे अतिरिति वा मपी इति वा कृपिरिति वा पण्यमिति वा वाणिज्यमिति वा, नायमर्थः समर्थः, व्ययगवासिमपी कृपिपण्यवाणिज्याः खलु वे मनुजगणाः ममताः श्रमणायुप्मन । अस्ति खल्न भदन्त ! एकोस्कद्वीपे
Page #644
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमत्र द्वीपे हिरण्यमिति वा, सुवर्णमिति वा कांस्यमिति वा दुष्यमिति वा मणिरिति वा मुक्तिकेति बा, विपुल धनकनकरत्नमणिमौक्तिकशब्दशिलामबालसन्त सारस्वापतेयमिति का ? हमा, अस्ति, नैव खलु तेषां मनुजानां तीवो ममस्वभावः समुपपद्यते । अस्ति खलु भदन्त ! एकोहकद्वीपे द्वीपे राजेति वा युवराज इति वा ईश्वर इति वा तलवर इति वा माडम्बिक इति वा कौटुम्बिक इति वा, इभ्य इति वा, श्रेष्ठीति वा सेनापतिरिति वा सार्थवाह इति वा ? नायमर्थः समर्थः व्यपगतऋद्धि सत्काराः खलु ते मनु नगणाः प्रज्ञताः श्रमणायुष्मन् ! अस्ति खलु भदन्त ! एकोरुक द्वीपे २ दास इति वा प्रेष्य इति वा शिष्य इति वा भृतक इति वा, मागिक इति वा, कर्मकर पुरुप इति दा ? नायमर्थः समर्थः, व्यपगतामि योगिकाः खल् ते मनुजगणाः प्रज्ञप्ताः अगणायुष्मन् ! अस्ति खल्ल भदन्त ! एको. रुक द्वीपे द्वीपे माता इति वा, पिता इति वा, भ्राता इति वा, भागिनीति वा, भार्येति वा पुत्र इति वा दुहितेति वा स्नुषेति वा ? हन्त अस्ति, नेद खलु तेषां खल मनुजानां तीव्र प्रेमबन्धनं समुपपद्यते, मतनुप्रेमबन्धनाः खलु ते मनुजगणाः प्रज्ञप्ताः श्रमणायुष्मन् ! अस्ति खल्ल भदन्त ! एकोहक द्वीपे द्वीपे अरिरिति वा वैरिक इति वा घातक इति वा, वधक इति वा प्रत्पनीक इति वा प्रत्यमित्र इतिवा ? नायमर्थः समर्थः व्यपगत वैरानुबन्धाः खल ते मनुजगणाः प्रता: श्रमणायुष्मन् ! अस्ति खलु भदन्त ! एकोहक द्वीपे२ मित्रमिति वा वयस्य इति वा घडिआ इति वा सखा इति वा सुहृदिति वा महाभाग इति वा सांगतिक इति वा ? नायमर्थः समर्थ: व्यपगत प्रमाणस्ते मनुजगणाः प्रज्ञप्ताः श्रमणायुष्मन् ! अस्ति खलु भदन्त ! एको रुकद्वीपे द्वीपे आवाह इति वा विवाह इति या यज्ञ इति वा श्राद्धमिति वा स्थाळी पाक इति चा चौलोपनयनमिति वा सीमन्तोन्नयन मिति वा मृत पिण्ड निवेदनमिति वा ? नायमर्थः समर्थः, व्यपगतावादविवाह यज्ञ श्राद्ध स्थालीपाक चौलोपनयन -सीमन्तोन्नयनमृतपिण्ड निवेदनास्ते मनुज गणाः प्रज्ञप्ताश्रमणायुष्मन् ॥३८॥ ____टीका-तेणं मंते ! 'मणुया' इत्यादि, 'तेणं भंते ! मणुया किमाहारमाहारेति' ते खल एकोरुक द्वीपिका मजाः भदन्त ! किम्-कीदृशमाहार माह
'ते णं भंते ! मणुया किमाहार माहरेंति' इत्यादि ।।सूत्र-३८॥
टीकार्थ-हे भदन्त ! एकोरुक मैप के मनुष्य कैसा आहार करते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! पुढवि पुप्फ फला.
'ण मते ! मणुया किमाहार माहरे'ति' त्याह
ટકાર્થ– હે ભગવન એકરૂદ્વીપના મનુષ્ય કે આહાર કરે છે? આ प्रश्न उत्तरमा प्रसुश्री ४९ छे । 'गोयमा ! पुढवि पुष्फफलाहारा ते मणुयगणा
Page #645
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमैयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ सा. ३९ एकोरकस्थानामाहारादिकम् ६२१ रवीति पश्ना, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि 'गोयमा' हे गौतम ! 'पुढवी पुष्फफगहारा ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो' पृथिवी पुष्पफलाहारास्ते मनुजगणाः प्रज्ञप्ताः हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ते पृथिवी पुष्फलानि आहारा र्थमाहरन्तीत्यर्थः, एवं भूता मनुजगणाः कथिता इति, 'तीसेणं भंते ! पुढवीए' तस्या आहार्थतया उपादीयमानायाः खल्लु पृथिव्याः 'केरिप्तए आसाए पण्णत्ते' कीदृशा-किमाकारक आस्वादः रसः प्रज्ञप्त:-कथित इति प्रश्ना, भगवानाह'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'से जहा गामए' स यथा नामकः 'मुळेइवा' गुड इति या इक्षुरसक्यायो गुडः, 'खंडेइ वा' खण्डमिति वा खण्डं गुडविकारः, 'सक्कराइ वा, शर्करेति वा शर्कराकाशादि प्रभवा 'मच्छंडियाइ वा' मत्सण्डिकेति चा, मत्सण्डिका खण्डशर्करा विसरीति भाषापसिद्धाः, 'मिसकंदेइ वा' विसकन्दमिति वा, विसकन्दं-कमल-मूलम्, 'पप्पडमोएइ पा, पर्पटमोदक इति वा स च खाधविशेष:, "पुप्फउत्तराइ वा' पुरुषोत्तरेति वा, पुष्पविशेष निष्पन्ना हारा ते मणुयाणा पण्णता समणाउसो' हे श्रमण आयुष्मन् गौतम ! वे एकोरुक द्वीप के मनुष्य पृथिवी पुष्प एवं फलों का आहार करते हैं 'तीसे णं भंते ! पुढवीए के रिसए आसाए पण्णत्ते हे बदन्त ! उस पृथिवी का कैसा आस्वाद रस-काहा गया है ? उत्तर में प्रभु काते हैं-'गोषमा! से जहाणामए गुलेइवा खंडेइ वा सक्राइचा मच्छंडिया इवा भिसा कंदेह वा पपड मीथएइ वा पुष्प उत्तरा या पउमुत्ताधा, अकोसिचाइ वा, विजयाद वा, महा विजयाह का' हे गौतम ! जैला गुड़ का स्वाद होता है, खांड का स्वाद होता है, शक्कर का स्वाद होता है मिसरी का स्वाद होता है कमल कन्द का स्वाद होता है पट मोदक खाद्य विशेषका स्वाद होता है 'पुष्पोत्तर-पुष्प विशेष से बना शकर का जैसा स्वाद हो पद्मोत्तर-कमल विशेष से उत्पन्न शकर अफोशित पण्णत्ता समणा उप्लो' श्रमहा मायुष्यभन् गौतम ! ३४ दीपन॥ मनुष्ये। पृथ्वी, ४०५, मन सोन! माहा२ ४३२. 'तीसे णं भते ! पुढवीए केरिसए आवाए पण्णत्ते' हे सगरन से पृथ्वीना । मास्कार-२स ४ो छ १ मा प्रक्षना उत्तरमा सुश्री छ ? 'गोयमा ! से जहा नामए गुलेइवा, खडेइवा, सक्कराइवा, मच्छडियाइवा, भिसक देइवा, पप्पडायपइवा, पुप उत्तराइवा, पउमुतराइवा, अकोसियाइवा, विजयाइया, महाविजयाहवा' गौतम ! गणना। स्वाह होय છે, ખાંડને જે સ્વાદ હોય છે, સાકરને સ્વાદ જેવું હોય છે, મિસરીનો સ્વાદ જે હેય છે. કમલકંદન રવાદ જે હેય છે, પર્પટદકને જે સ્વાદ सय छ 'पुप्पोत्तर' पु०५ विशेषथी नावे सा२ने। स्वाहा डाय छ, पशोत्तर
Page #646
--------------------------------------------------------------------------
________________
६२२
जीवामिगमसूत्र शर्करानातिः 'पउमुत्तराइ वा 'पद्मोत्तरेति वा कमलविशेष निष्पन्ना शर्कराजातिः 'अकोसियाह वा' अकोशितेति वा, 'विजयाइ वा' विजयेति वा, 'महाविजयाइ वा' महाविजयेति वा, 'आयसाइ वा, आदर्शेति वा, 'उबमाइ वा' उपमेति वा 'अणोरमाइ बा' अनुपमेति वा, पते अकोशितादयो मधुरद्रव्य विशेषा कोकतोऽव. सेया इति । 'चाउरकके गोखीरे' चातुरक्ये गोक्षीरम् 'चउहाणपरिणए' चतु:स्थानपरिणतम् तत्र-चातुरक्यमिति चतुर्वारपरिणतम्-तथाहि-पुण्डजातीयेशुचारिणी नामनातङ्कानां कृष्णानां गवां यत्क्षीरं तच्चतमभ्यो यथोक्तगुणाभ्यो गाभ्यः पान दीयते, वासा ताशीनां चतसृणां गवां यत्क्षीरं तत्तिसभ्यस्तादृशीभ्यो गोभ्यः पानं दीयते, तासां ताशीनां गवां यत्क्षीर तद् द्वाभ्यां गोभ्यां पानं दीयते, तयो ईयोस्ताहश्योर्गवोर्थत्क्षीर तदेवस्यास्ताश्या गोः पानं दीयते, तस्या यत्क्षीरं तत् चातुरक्यं क्षीर मोच्यते, एवं चतुः स्थानपरिणतं-पतुर्मिः स्थानः परिणाम प्राप्तम् पुनः कीदृशमित्याह-गुडखंडमच्छंडिय उवणीए' गुडखण्ड मत्स्यण्डिकाभिरुपनीत मिलितम् ‘मंदग्गिकढिए' मन्दाग्निकथितम्-मन्दाग्निना पाचित मित्यर्थः 'वण्णेणं विजया महा विजया भादर्श-उपमा अनुपम ये कोशितादि मधुर द्रव्य विशेष है तो लोक ले जान लेना चाहिये, इन सब का जैसा स्वाद होता है अथवा-'चाउरक के गोखीरे चउहाण परिणए गुडखंडमच्छडियउवणीए मंदग्गिकढिए घण्णेणं उरवेए जाव फासेणं' अथवा-चतुःस्थान परिणतचार गापों के दूध को तीन गायों को पिलाना, तीन गायो के द्ध को दो गायों को पिलाला दो घायों के दूध को एक गायकोपिलाना, दो गायों के दूध को एक गाय को पिलाना ऐले चतुः स्थान परिणत हुए गो दूध को कि जिसमें गुड, खांड या मिलरी मेवा के साथ प्रमाण में मिलाई गई हो और फिर जो मंद मंद अग्नि पर पकाया गया हो ऐसा वह गोदुग्ध एक विशेष प्रकार के वर्ण से गन्ध से रस से स्पर्श से युक्त बन जाता કમલ વિશેષથી બનાવેલ સાકરને સ્વાદ જેવો હોય છે, કેશિત વિજ્યા, મહાવિજ્યા, આદર્શ ઉપમાં અનુપમા આ અકેશિત વિગેરે મધુર દ્રવ્ય વિશેષ છે. તે લેકવ્યવહારથી સમજી લેવા જોઈએ આ બધાને જે સ્વાદ હોય છે, मया 'चउरक्के गोखीरे चउढाणपरिणए गुडख डमच्छडियउवणीए, मदगिकदिए वण्णेणं उबवेए जाव फासेणं' यतुःस्थान परिशुत-यार आयोना इधने त्रय ગાયને પીવરાવવું, ત્રણ ગાયનું દૂધ બે ગાયને પીવરાવવું અને બે ગાયનું દૂધ એક ગાયને પીવડાવવું. આ પ્રમાણે ચાર સ્થાન પરિણત થયેલા ગાયના આવા દૂધમાં જેમ ગેળ, ખાંડ, અથવા સાકર અને મેવાને પ્રમાણસર મેળવવામાં આવેલ છે અને તે પછી ધીમા અગ્નિ પર પકાવવામાં આવેલ હોય, એવું તે
Page #647
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
-
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ ७.३ रु.३९ एकोषकस्थानामाहारादिकम् ६३ उववेद' वर्णेन उपवेतं युक्तम् 'जाव फासेणं' यावस्पर्शन, अत्र यावत्पदेन गन्धेन युक्तं, गौतमः पृच्छति 'भवेयारवे सिया' भवेदेतद्रूपः पृथिव्या आस्वादः स्यात् कदाचित् किमिति प्रश्नः, भगवानाह-भोयमा' हे गौतम ! 'नो इणद्वे समडे' नायमर्थः समर्थी, नहि गुडादि रससह शो रसः पृथिव्याः किन्तु तीसे णं पुढवीए तस्याः खलु पृथिव्याः 'एत्तो इट्टयराए चेव जाच सणामतरा ए चे ३ आसाए णं पण्णत्ते' इतो गुडादिस्य इष्टतर एक यावत् कान्तवर एव मियतर पत्र मनोझतर एव मनोऽमतर एव आस्वादः खल्लु प्रज्ञप्तः । 'तेसि णं भंते ! पुए फलाणं केरिसए आसाए पणते तेषां खलु भदन्त ! पुष्पफलानां कीदृशः आस्वादो रसः मनप्ता-कथित इति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयसा' हे गौतम ! 'से जहा णामए' है और इस गोक्षीर का जैसा अनुपमा स्वाद होता है श्रीगौतमस्वामी प्रमुश्री से पूछते हैं तो क्या हे भदन्त ! 'इमेयारवे लिश एल प्रकार का स्वाद वहां की पृथिवी का होता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री करते हैं'जो इणटे समढे' हे गौतम ! इस कथन का ऐला अर्थ समर्थ नहीं होता है-अर्थात् गुड आदि के रस जैसा स्वाद वहां की पृथिवी का नहीं होता है-'तीसेणं पुढवोए एत्तो इतराए चेव जाच सणामलराए चेव आमाए णं पण्णत्ते' किन्तु उस उस पृथिवी का स्वाद तो-इनके दल की अपेक्षा भी अधिक इष्टतर ही होता है यावत्-कान्त तर ही होता है प्रियनर ही होता है मनोज्ञतर ही होता है और मनोऽ तर ही होता है तेसिणं भंते ! पुप्फफलाणं केरिसए शासाए पण्णत्ते' हे भदन्त ! बशा के उन पुष्प एवं फलों का स्वाद कैसा होता है ? इनके उत्तर में प्रसुश्री कहते ગાયનું દૂધ એક વિશેષ પ્રકારના વર્ણથી, ગંધથી રસથી સ્પર્શથી યુક્ત બની જાય છે, આ ગે દુધનો જે અનુપમ સ્વાદ હોય છે, શ્રીગૌતમસ્વામી પ્રભુશ્રીને पूछे छे मावन 'इमेयारूवेसिया तो शु मावा प्ररने। स्वाद त्यांनी पृथ्वीना हाय छ ? या प्रश्ननउत्तरमा सुश्री ४९ छ । 'णो इण्टे समढे' હે ગૌતમ! આ કથનનો એવો અર્થ સમર્થિત થતું નથી. અર્થાત્ ગોળ विगेरेन। २सना र स्पाई त्यांनी पृथ्वीना तो नथी. 'तीसे ण पुढवीए एत्तो इतराए चेव जाव मणामतराए चेव आसाए ण पण्णत्ते' ५२त से પૃથ્વીને સ્વાદ તે તેને તેના રસ કરતાં પણ વધારે ઈષ્ટતર જ હોય છે. ચાવ કાન્તતરજ હોય છે. પ્રિયતરજ હોય છે. મનોજ્ઞતરજ હોય છે. અને भनेोऽमत२१ डाय छे. 'तेसिं णं भवे ! पुप्पफलाणं केरिसए आसाए पण्णवे' હે ભગવન ત્યાંના એ પુછપ અને ફલેને સ્વાદ કેવો હોય છે ? આ પ્રશ્નના इत्तरमा प्रभुश्री ३ छे' मा। से जहानामए चाउरत चकवट्टिस्स कल्लाणे
Page #648
--------------------------------------------------------------------------
________________
६२४
जीवामिगम स यथा नामकः 'चाउरत चक्क टिम्स' चातुरन्तचक्रवर्तिनः चतुषु अन्तेपु समुद्र त्रय हिमवद परिच्छिानेषु चक्रे ग-चक्रवत्सर्वतः समन्ताद् वर्तितुं शीलं यस्य स तथा तस्य 'कल्लाणे पबरसोरणे' कल्याणकान्त सुखावह मवरभोजन-विशिष्ट भोजन सय सहस्स निष्फन्ने' शतसहस्र निष्पन्नम् लक्षगोक्षीरसंपादितम्, तथाहिचक्रपत्नि सम्बन्धि नीनां-पुण्ड्रेक्षुचारिणीनामनातवानां गवां लक्षस्य याक्षीर तस्य पश्चाशत्सहस्र गोयः पानं दोयते एवम द्धक्रमेण पीतगोक्षीराणां गवां पर्यन्ते यावदेशस्याः गोः सम्बन्धि यत् क्षीर तत्माप्तकलमशाल परमान्नरूपमनेकसंस्का. एक द्रव्यसमिश्र यद् भोजनंवर पाल्पाणवर भोजनं पथरते, तद् यादृशास्वादक मवेत ताशास्व'दोपेतम् पुलस्तत् कीदृशम् ? इत्पाह-'वष्णेणं उववेए' वर्णेनाति शायिना शुक्लेनोपपेतं युक्तम् 'गंधेणं अवः' गधेनातिशायिना सुरमिनोपते -गोयमा! ले जहा नामए चाउरंत पावहिस्ल कल्लाणे पवर. ओयणे सतलहाल निष्फन्ने चणेणं उदए गंघेणं उदए, रसेण उधघेए फाणं उबवेए' जैसा चातुरन्त चक्रवर्ती क्षा भोजन जो कल्याण भोजन के नाम से प्रसिद्ध है यह चक्रवती का कल्याण भोजन इस प्रकार होता है-चक्रवर्ती की ही गाये हों और वे पुण्ड जाति के उत्तम इक्षु को चरने वाली हो शरीर में नीरोग हो वैसी एक लाख गायों का दूध पचाल हजार गायों को पिलाया जाये, और पचास हजार गायों का दुध पचील हजार गायों को पिलावे इस तरह से आधी गायों को पिलाने के क्रम से वैसे दूध को पी हुई गायों के अन्तिम श्री एकनाथ का जो दूध को उम दूध भी बनाई हुई खीर जिसमें अनेक प्रकार के मेंवे आदि संस्कारक द्रव्य डाले गये हों वह कल्याण प्रवर भोजन चक्रवर्ती का कहलाता है वह वर्ण शुक्लवर्ण से गन्ध से सुरभिगन्ध से रस से मधुरादि रस से, स्पर्श से मृदृग्निपवर भोयणे सत्तसहस्स निष्कन्ने वण्णेण उत्रवेए गधेणं उचए रसेणं उववेए फासेणं उरवेए' भयातुरंत यति सानुमान २ ध्याएनना નામથી પ્રસિદ્ધ છે. ચક્રવર્તિ રાજાનું તે કલ્યાણ ભોજન આ રીતે બને છે. ચક્રવત્તિની જ ગાયે હોય, અને તે પુંડ્ર જાતીની ઉત્તમ શેલડીને ચરવાવાળી હોય, શરીરથી નિગી હેય, એવી એક લાખ ગાયોનું દૂધ પચાસ હજાર ગાને પીવરાવવામાં આવે, પચાસ હજાર ગાયનું દૂધ પચીસ હજાર ગાને પીવરાવવામાં આવે, આ રીતે અધિ અધિ ગાને ક્રમથી દૂધ પીવરાવતાં પીવરાવતાં એવી રીતે દૂધને પીનારી છેવટની એક ગાયનું જે દુધ હોય છે એ દૂધથી બનાવેલ દૂધપાઠ કે જેમાં અનેક પ્રકારના મેવા વિગેરે સંસ્કાર વાળા પદાર્થો નાખવામાં આવ્યા હોય તે ચફેવતિ રાજાનું
Page #649
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेययोतिका का प्र.३ उ.३ २.३९ एकोस्कस्थानामाहारादिकाम् ६२५ तदा 'रसेणं उववेए' रसेनातिशायिना मधुरादिनोपपेतं तं युक्तम् ‘फासे गं उपवेए' स्पर्शेनातिशायिना मृदुस्निग्धादिनोपपेतम् 'आसाइणिज्जे' आस्वादनीयं सामान्यतः कल्याणभोजनम् 'वीसाइणिज्जे विस्वादनीयं विशेषतः आस्वादनीयम् 'दीवणिज्जे' दीपनीयम्-जठराग्नि प्रज्वालनम्, 'विहणिज्जे' वृहणीयं धातूपचयकारित्वात् 'दप्पणिज्जे' दर्पणीयं समुत्साह वृद्धिहेतुकत्वात् 'मयणिज्जे' मदनीयंहषोत्पादकत्वात 'सविदियगायपल्हाणिज्जे' सन्द्रियगावमल्हादनीयं-आनन्द. जनकत्वात, गौतमः पृच्छति- भवेयाख्वे सिया' भवेदेतावद्रूपः चक्रवर्तिपरमभोजन सहशास्त्रादः पुष्पफलानां स्यात् कदाचित् किमिति प्रश्न: भगवानाह-गोयमा' हे गौतम ! 'णो इगट्टे समढे' नायमर्थः समर्थः किन्तु 'तेसिणं पुप्फफळाणं' तेषां पुष्पफलानाम् एत्तो इतराए चेव जाव भासाए णं पणत्ते' इत:-परमग्धादि रूप से युक्त जैसा होता है वह 'आलायणिज्जे' आस्वादनीय होता है, विसायणिज्जे' विशेष रूप से स्वाद के योग्य होता है, 'दीवणिज्जे' दीपनीय होता है-जठराग्निकावर्धक होता है 'विहणिज्जे' बृहणीय होता है-धातु आदि का वृद्धिकारक होता है, 'दप्पणिज्जे' दर्पणीय होता है-उत्साह आदि की वृद्धि करने वाला होता है 'मय. णिज्जे' मदनीय होता है-हर्षोत्पादक होता हैं, 'सबिदियणायपल्हाय. णिज्जे' और समस्त इन्द्रियों को एवं शरीर को प्रह्लादनीय-आनन्दव. धंक होता है श्रीगोलमस्थामीकहते हैं तो क्या हे भदन्त ! 'भवेयारवे सिया' इसी तरह का स्वाद वहां के पुष्प फलों का होता है ? उत्तर में प्रभु श्री कहते हैं जो इण समढे' हे गौतम ! इस कथन से यह अर्थ समर्थ नहीं होता है क्योंकि-'तेसिणं पुप्फफलाणं एत्तो इत्तराए चेव जाव કલ્યાણ પ્રવર ભજન કહેવાય છે તે વર્ષની અપેક્ષાએ શુકવ વણથી ગન્ધની અપેક્ષાથી સુરભિ ગંધથી અર્થાત સુગંધથી રસની અપેક્ષાએ મધુર વિગેરે રસથી भने २५शनी अपेक्षा भृड स्निग्ध विगेरे पाथी सुत हाय छे. 'आघा यणिज्जे' पाहनीय हाय छे. वीसायणिज्जे' शेष ३५थी पाहाणे डाय छे. 'दीवणिज्जे दीपनीय होय छे. अर्थात १४२॥जितने वधारना२ डाय है. 'विह. णिज्जे' लक्षीय घात विरेने पधारना२ डाय छे. मेरो शत १५ खाय 'दप्पणिज्जे' ६५०ीय डाय छे. साड (वने पधारना२ लय छे. 'मयणिज्जे' महनीय हाय छे. हरपा डाय छे. 'सविदियगायपल्हा यणिज्जे' भने सधणी द्रियान भने शरीरने पडसाहनीय भान १
य छे. श्रीगौतमस्वामी ४ छे , ७ मापन 'भवेया रु.वेसिया' तो ત્યાંના પુષ્પ અને કળાનો સ્વાદ આ પ્રકારના હોય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં मधुश्री छ, 'जो इण्टे समदे' गौतम ! २॥ ४थनथी समर्थ समति
Page #650
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
जीवाभिगमन ६२६ भोजनास्वादाव पुष्पफलानामास्वाद इष्टतर एव यावद-प्रियतर एव कान्ततर एवं मनोज्ञतर एव मनोऽमतर एव आस्वादः खल प्रज्ञप्तः कथित इति ।
'ते णं भंते ! मणुया' ते खल भदन्त । एकोहरुद्वीपका मनुजाः 'तमाहारमाहरिता' तमाहारमनन्तरवर्णित स्वरूपकमाहारमाहार्य-उपभुज्येस्वर्थः 'कहिवसहि उति' कुत्र-कस्मिन् स्थाने-गृहविशेषे वसति-वासं उपयन्ति उपगच्छन्ति शयनाद्यर्थमिति प्रश्नः भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'रुक्खगेहालयाणं ते-मणु यगणा पण्णत्ता समणाउसो' घृक्षगेहालयाः खल ते मणुजगणाः प्रज्ञप्ता:-कथिताः हे श्रमण ! आयुष्मन् ! वृक्षरूपाणि गृहाणि थालया, येषां ते तथा । अथै ते गेहाकारावृक्षाः किं स्वरूपाः इति पृच्छति-'ते भंते ।' इत्यादि, 'ते णं भंते ! रुस्खा कि संठिया पण्णत्ता' ते खल्ल वृक्षाः यत्र ते वसतिमुपयन्ति ते कि संस्थिताः कीदृश संस्थानकातो भवन्तीति प्रश्नः, मग आसाएणं पण्णत्ते' यहां के फलों का आस्थाद इस चक्रवर्ती के भोजन से भी इष्टतर ही होता है यावत् मनोऽमतर ही होता है 'ते गं भंते ! मणुया तमाहारमाहारित्ता कहिं वसा उति' हे भदन्त ! वे एकोरुक द्वीप निवासी मनुष्य इस प्रकार का आहार करके कहाँ निवास करते हैं अर्थात् शयन आदि के लिथे ये किस गृह विशेष में जाते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु श्री कहते हैं 'रुक्खगेहालया णं ते मणुषगणा पण्णता समणाउसो' हे श्रमण आयुष्मन् गौतम ! वे एकोस द्वीप निवासी मनुष्य गृहाकार परिणत वृक्ष ही के घर वाले होते हैं अर्थात् सोने आदि के लिये वृक्ष रूप गृहों पर जाते हैं क्योंकि इनके वृक्ष ही गृह रूप होते हैं 'ते णं भंते ! रुक्खा कि संठिया पण्णता' हे भदन्त ! वे वृक्ष कैसे थत नथी. भले 'तेसि गं पुः फफलाणं एचो इट्टतराए चेव जाव आसारणं पण्णते. त्यांना सेना स्वाद मा शतना यत्तिन लेनिथा ५६य ४ाट. त२१ होय छे. यावत मनात होय छे. 'ते ण भते ! मणुया तमाहार माहरित्ता कहिं वहिं उति' हे भगवन मे४३४ मा वापत મનુષ્ય આવા પ્રકારને આહાર કરીને કયાં નિવાસ કરે છે ? અર્થાત્ શયન વિગેરે માટે કયાગૃહ વિશેષમાં જાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે छेहरुक्खगेहालया णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो' श्रमए मायु भन्
તમ! એકરૂક દ્વીપમાં રહેવાવાળા તે મનુષ્ય ગૃહાકારથી પરિત વૃક્ષોના જ ઘરે વાળા હોય છે અથર્ સુવા બેસવા વિગેરે માટે વૃક્ષ રૂ૫ ગૃહમાં तय छ तभाना 8 ३५ वृक्षाहाय छे. 'ते णं भाते ! रुक्खा कि मठिया पण्णत्ता'लगवन् वृक्षावा डाय छ । मा प्रश्न उत्तरमा सुश्री छ ।
Page #651
--------------------------------------------------------------------------
________________
% 3
D4
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.३९ एकोरुकस्थानामाहारादिकम् वानाइ-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'कडागारसंठिया' कूटाकारसंस्थिताः कूटं-शिखरं ताशसंस्थानवन्तः रुदाकारेण परिणताः वृक्षाः 'पेच्छाघरसंठिया' प्रेक्षागृहसंस्थिताः प्रेक्षागृहवत् संस्थिताः-नाट्यशालाकारेण परिणताः 'सत्तागारसंठिया' सत्राकारसंस्थिताः-सत्रं- दानशाला बदाकारपरिणताः 'झयसंठिया' ध्वजसंस्थिताः-ध्वजासंस्थानसंस्थिताः 'थूभसंठिया' स्तूपसंस्थिताः 'तोरण संठिया' तोरण सदृश संस्थानसंस्थिताः 'गोपुर वेइय चोप्पालगसंठिया' गोपुरवेदिका चोप्पाळकसंस्थिता, तत्र गोपुर-पुरद्वारम् वेदिका-उपवेशन योग्या भूमिः, चोप्पाल-मत्तवारणं तत्सदृशसंस्थानेन संस्थिता: 'अट्टालगसंठिया' अट्टालकसंस्थिताः-अट्टालक-मासादोपरिभागस्तदाकारपरिणताः, 'पासायसंठिया' प्रासादसंस्थिताः-पासादो राज्ञो गृहं तत्सदृशाः, 'हम्मतलसंठिया' हयंतलहोते हैं ? उत्तर में प्रभु श्री कहते है 'गोयमा ! कूडागार संठिया, पेच्छा. घरसंठिया, सत्तागारसंठिया, झथसंठिया, थूमसंठिया, तोरणलंठिया, गोपुरवेदय चोप्पालगठिया' हे गौतम ! ये वृक्ष जैसा-आकार गिरिशिखर का होता है ऐसे आकार बाले गोल होते हैं अर्थात् ऐले वृक्ष सर्वथा स्थिर होते हैं तथा फोई २ वृक्ष प्रेक्षागृह-रंगशाला के जैसे होते हैं, कोई -कोई वृक्ष छत्र के जैसे आकार वाले होते हैं कोई २ वृक्षा ध्वजा के जैसे आकार वाले होते हैं, कोई कोई वृक्ष स्तूप के जैसे आकार वाले होते हैं, कोई २, वृक्ष तोरण के जैसे आकार वाले होते हैं कोई २, वृक्ष गोपुरनगर के प्रधान द्वार के जैसे आकार वाले होते हैं, कोई २, वृक्ष वेदिका चबूतरी के आकार वाले होते हैं कोई २, वृक्ष चोप्पाल-मत्त हाथी-के आकार वाले होते हैं 'अट्टालगसंठिया, पासादसंठिया, हम्मतलसंठिया, 'गोयमा ! कूड़ागारसठिया, पेच्छाघरसठिया, सत्तागारसठिया, झयसठिया, थूमसठिया, तोरणसठिया, गोपुरवेइयचोप्पालगसठिया' है गौतम । मा વૃક્ષ જે ગોળ આકાર પર્વતના શિખરને હોય છે. એવા આકારવાળા ગોળ હોય છે. અર્થાત એવા વૃક્ષો સર્વથા સ્થિર હોય છે. તથા કઈ કઈ વૃક્ષ પ્રેક્ષાગૃહ રંગશાળાના જેવા હોય છે કઈ કઈ વૃક્ષ છત્રના જેવા આકારવાળા હોય છે. કેઈ કઈ વૃો ધજાના જેવા આકારવાળા હોય છે. કઈ કઈ વૃક્ષો ત્પના જેવા આકારવાળા હોય છે. કેઈ કોઈ વૃક્ષો તરણના જેવા આકારવાળા હોય છે. કઈ કઈ વૃક્ષે ગેપુરનગરના મુખ્ય દ્વારના જેવા આકારવાળા હોય છે. કઈ કઈ વૃક્ષ વેદિકા ચબૂતરીના આકાર જેવા આકાર વાળા હોય છે. કોઈ કે વૃક્ષે પાલ-મત્ત હાથીના જેવા આકાર વાળા હોય છે. "अहाला सठिया, पासाद् सठिया, हम्मतलस'ठिया, गवक्खसठिया, बालग
Page #652
--------------------------------------------------------------------------
________________
६२८
जौवाभिगमसूत्रे
संस्थिताः, हर्म्य शिखररहितं धनिनां गृहं तत्सदृशाः ' गवक्खसंठिया ' गवाक्षसंस्थिताः गवाक्षो हम्जाले तादृशा: 'बाळग्गपोतियसंठिया' वालाग्रपोतिकसंस्थिताः तत्र वालाग्रपोतिका नाम जलस्योपरिमासादः 'वळभीसंठिया' वलभी संस्थिताः, तत्र वळमी छदिराधारस्तत्मधानकं गृहम्, 'अण्णे तत्थ वहवे वरभवण सणासण विसिद्धठाणसंठिया' अन्ये तत्र वहवो नरभवनशयनासन विधिष्टसंस्थानसंस्थिताः 'सुहसीयलच्छाया' शुभशीतलच्छायाः शुभा शीतला छाया येषां से तथा, 'ते दुमगणा पण्णत्ता समाउसो' ते द्रुमगणाः- कल्पवृक्षाः यथोक्त वर्णित स्वरूपाः मज्ञप्ताः कथियाः हे श्रमणायुष्मन् । 'अत्थि णं भंते ! एगोरूय गवक्खसंठिया, वालगपोइयसंठिया, बलभीसंठिया' कोई २, वृक्ष अटारी - महल के उपर के भाग जैसे आकार वाले होते हैं कोई २, वृक्ष राजमहल के जैसे आकार वाले होते हैं कोई वृक्ष शिखर विहीन धनिकों के गृह के जैसे आकार वाले होते हैं कोई २, वृक्ष गवाक्ष झरोंखे-के जैसे आकार वाले होते हैं, कोई २, वृक्ष वालाग्रपोतिका-जल के ऊपर बने हुवे प्रासाद के जैसे आकारवाले होते हैं, कोई कोई वृक्ष वलभीछज्जे के जैसे आकार वाले होते हैं' 'अण्णे तत्थ वहवे वरभवणसयणासण विसिह ठाणसंठिया' और भी जो वहां वृक्ष होते हैं वे भी कितने क श्रेष्ठभवन के जैसे विशिष्ट आकार वाले, कितनेक शयन के जैसे विशिष्ट आकार वाले, कितनेक आसन के जैसे विशिष्ट आकार वाले होते हैं 'सुहसीयलच्छाया' इन वृक्षों की छाया शुभ और शीतल होती है 'ते दुमगणा पण्णत्ता०' हे श्रमण आयुष्मन् ! इस प्रकार के आकार 1 पोइस ठिया वलभीस ठिया' अर्थ हैं। वृक्षो अटारी भाडेनां उभरना लाग જેવા આકારવાળા હૈાય છે. કાઇ કાઇ વૃક્ષા રાજમહેલના આકાર જેવા આકારવાળા હાય છે. કાઈ કાઇ વૃક્ષેા શિખર વગરના ધનવાનેાના ઘરના જેવા આકારવાળાં હાય છે. કેાઈ ફાઈ વૃક્ષે ગવાક્ષ અરૂખાના જેવા આકારવાળા હાય છે. કાઈ ફાઈ વૃક્ષેા વાલાપેતિકા પાણીની ઉપર બનાવેલા પ્રાસાદ સહેલના જેવા આકારવાળા હાય છે. કૈઇ કોઇ વૃક્ષેા વલભીછજાના જેવા आहारवाणा होय . 'अण्णे तत्थ बहवे वरभघणसयणासण विविध संठाण सठिया' मील यागु त्यां ने वृक्ष होय छे. ते अधा या डेटलाई उत्तम ભવનેાના જેવા વિશેષ પ્રકારના આકરવાળા કેટલાક શયનના જેવા વિશેષ પ્રકારના આકારવાળા, કેટલાક આસનના જેવા વિશેષ પ્રકારના આકારવાળા होय छे. 'सुहसीयलच्छाया' मा वृक्षानी छाया शुल भने शीतल हाय है. 'वे दुमगणा पण्णत्ता' हे श्रम आयुष्मन भाषा प्रहारना भारवाणा भा
Page #653
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमैयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ १.३९ एकोसकस्थानामाहारादिकम् ६२९ दीवे दीवे' सन्ति खलु भदन्त ! एकोरुकद्वीपे द्वीपे 'गेहाणि वा गेहायणाणि वा' गृहा वा गृहायनानि वा, गृहा अस्मद्गृह सहशा-स्था, गृहायनानि, तन गृहाणाम् अयनं मार्गः गृहपङ्क्तों गमनमार्गः, तानि संति किं वा ? इति प्रश्नः, भगवानाह'गोयमा' हे गौतम ! 'णो-इणढे समढे' नायमर्थः समर्थः-तत्र गृहादिकानि न सन्तीत्यर्थः, यतस्ते 'रुक्ख गेहालया णं ते मणुयाणा पण्णत्ता समणार सो वृक्ष गेहालयाः खलु ते मनुजगणाः मज्ञप्ताः हे श्रमणायुष्मन् ! वृक्षा एवं तेषां गृहादयः, वृक्षमात्राश्रयमाश्रित्य ते मनुना वसन्ति न तु तदतिरिक्त गृहादेस्तेपायकतेति भावः । 'अस्थि णं भंते ! एगोरुय दीवे दीवे' अस्ति खल भदन्त । एकोरुकद्वीपे द्वीपे 'गामाइ वा ग्रामा इति वा 'णगराइ वा नगराणीति चा 'जाव संनिवेसाइ वा' यावत्सन्निवेशा इति चा, यावत्पदेन खेटर बटादीनां सग्रहो अवतीति प्रश्ना, भगवानाह-'णो इगटे समढे' नायमर्थ समर्थः तत्र एकोरुकीपे ग्रामादयो न भवन्तीति भावः । 'जहिच्छिय कामगामिणो ते मणुयगा पण्णत्ता समणाउसो' वाले ये वृक्ष कहे गये हैं। 'अस्थि णं भंते ! एगोख्य दीवे दीवे गेहाणि वा गेहायणाणि वा' हे भदन्त ! एकोरूप नाम के द्वीप में घर अथवा घरों के बीच का मार्ग हैं क्या इसके उत्तर में प्रभु श्री कहते हैं-'णो इगट्टे समढे' हे गौतम ! ऐसा अर्थ समर्थ नहीं है। 'सक्खगेहालयाणं ते मणुपा पणत्ता' क्योंकि वृक्ष ही आश्रयस्थान जिन्हों का ऐसे ही वे-मनुष्य कहे गये हैं। अतिय भंते ! एगोरुष दीये २, गामाइ चा नगशह या जाच शनिवेसाह वा' हे भदन्त ! एकोक दीर में क्या ग्राम या नगर यावत् सनिवेश हैं-यहां यावत्पद ले खेट-बैट आदिको का ग्रहण हुआ इसके उत्तर में प्रभु श्री पाहते हैं- 'जो इणढे समडे' हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् यहां पर ग्राम आदि कुछ भी ga 1 छे. 'अस्थि णं भते ! एगोख्य दीवे गेहाणिवा मेहायाणि वा' હે ભગવન એકેક નામના દ્વીપમાં ઘર અથવા ઘરોની વચ્ચે રસ્તે છે ? मा प्रश्न उत्तरमा अनुश्री ४ छ , जो इण? समढे' गौतम मेवा अथ समर्थित थत नथी. 'रूख गहालयाणं ते मणुया पण्णत्ता' मह वृक्षा०८ २माना माश्रयस्थान ३५ छे, मेवा०४ ते मनुष्य! ४६ छ, 'अस्थि ण भते ! एगोरुय दीवे दीवे गामाई वा नगराई वा, जाव सन्निवेसाइ वा' ભગવન એકરૂક દ્વીપમાં ગ્રામ અથવા નગર કે સન્નિવેશ છે? અહીયાં વાવ૫દથી ખેટ, કટ વિગેરે પદે સંગ્રહ થયેલ છે આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી गौतमपाभी२ हे छे , 'णा इणद्वे समडे' है गौतम ! मा २मर्थ परामर નથી. અર્થાત ત્યાં આગળ ગામ વિગેરે કંઈ પણ નથી. કેમકે ત્યાંના મનુષ્ય 'जहिच्छिय कामगामिणो ते मणुयगणा पण्णता,' पातानी ४२ प्रमाणे गमन
Page #654
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवाभिगमस यथेच्छितकामगामिनः स्वेच्छानुसार गमनशीला न तेषां ग्रामादीनामावश्यकता वर्तते, एताशास्ते मनुज गणाः प्रज्ञप्ताः कथिताः हे श्रमणायुष्मन् ! 'अस्थि णं भंते ! एगोरुप दीवे २' अस्ति खल्ल भदन्त ! एकोरुकद्वीपे खलु द्वीपे 'असीइ वा' असिरिति वा असिः-खड्गा, इति वा 'मसीइ ।' मपी-कज्जलं 'स्याही' इति प्रसिद्धं मपीपात्रं वा यमुपजीव्य लेखका उपजीवन्तीति । 'कसीइ वा कपीरिति वा कृषिः कर्षणम् :रणीति का पण्यमिति वा, पण्यं-क्रयाणकम् 'दणिज्जाइ वा' वाणिज्यमिति वा, वाणिज्यं-क्रयविक्रयरूपं वा तत्रास्ति किम् ? भगवानाइ-'नो इणढे समढे' नायमर्थः समर्थः, 'ववगय असिमसि कसि पणियवाणिज्जाणं ते मणुयगणा पण्णता सनणाउसो' व्यपगतासिमषीकृषि पण्यवाणिज्याः खल खड्गादि व्यापाररहितास्ते मनुजगणाः प्रज्ञप्ता:-कथिताः हे श्ररणायुष्मन् ! 'अत्यि णं भंते ! एगोरुयदीवे२, अस्ति खल भदन्त ! एकोरुकद्वीपे द्वीपे 'हिरण्णेइ वा' हिरण्पमिति वा, हिरण्यं सुवर्णविशेषः, 'सुण्णेइ वा सुवर्णमिति वा 'कंसेइ वा' कांस्यमिति बा, कास्यं त्रपुताम्रसंयोगजन्य धातुनिमितपात्रविशेषः, 'सेइ वा' नहीं है क्योंकि यहां के मनुष्य 'जहिच्छिय कामगामिणोते मणुपगणा पणात्ता' अपनी इच्छा के अनुसार गमन करने वाले होते हैं । इनके ग्राम आदि की आवश्यकता भी नहीं होती हैं 'अस्थि गं भंते ! एगो. रूय दीये अतीति वा मसीइ वा कसीह वा पणीति वा वणिजति वा' हे भदन्त । वहां पर क्या अखि, मपी, कृषि, पश-ऋयाणक-और वाणिज्य- व्यापार-ये छह कर्म होते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु श्री कहते हैं-'णो हटे समढे' हे श्रमण आयुष्मन् गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् वहां पर असि मषी आदि कर्म नहीं होते हैं ये कर्म तो कर्म भूमि में ही होते हैं अकर्मभूमि में नहीं होते हैं । 'अस्थि णं भंते । एगोख्य दीवे णं दीवे हिरणेति वा सुवानेति वा कलेति वा दुसे ति था કરવાવાળા હોય છે. તેઓને ગામ વિગેરેની આવશ્યકતા પણ હોતી નથી. 'अस्थि णं भाते ! एगोस्य दीवे असीति व , मसीइवा, पणी तवा, वणिज्जति ar હે ભગવન ત્યાં તે એકે રૂક દીપમાં અસિ, મિષી, કૃષિ ખેતિ પર્ય વેચવાનું સ્થાન અને વાણિજ્ય વ્યાપાર આ છ કામ થાય છે? આ પ્રશ્નના उत्तरमा प्रमुश्री गीतभाभी२ ४३ छ 'णो इणटे समढ़े 3 श्रम आयु भन् ગૌતમ! આ અર્થ બરોબર નથી. અર્થાત ત્યાં આગળ અસિ, મણી, વિગેરે કર્મો થતા નથી. આ કમે તે કર્મભૂમિમાં જ થાય છે. અકર્મભૂમિમાં થતા श्री. 'अस्थि णं भवे! एगोरुयदीवेणं दीवे हिरण्णेति वा, सुवण्णे तिवा, क.
Page #655
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ २.३९ एकोषकस्थानासाहारादिकम् ६३१ दृष्यमिति वा तन्तुसन्तानसंमवं वस्त्रं दृष्यम् 'मणीइ वा मणिरिति वा 'मुत्तिएत्ति वा मौक्तिकमिति वा 'विउलधणकणगरपणमणिमोत्तिय संखसिलप्पवाल संतसारसावएज्जेति वा विपुलधनकनकरत्नमणिमौक्तिकशङ्ख शिलाप्रबालानि मसिदानि, एतद्रूप सत्सारस्वापतेयमिति प्रधानद्रव्यमिति का, भगवानाह-'हंसा अस्थि' हन्त सन्ति ते हिरण्यादय इति किन्तु णो चेव णं तेसिं मणुयाणं' नव खलु तेषां मनुजाना कोरुकहींपवासिनाम् तत्र सुवर्णादि धनेषु तिध्वे ममत्तभावे समुपज्जई तीवो ममस्वभाव समुपपद्यते, समय क्षेत्रवासिनामिव तेशं धनादौ ममत्वं न भवतीति भावः 'अस्थि ण भंते ! एगोरुयदीवे णं दीवे' अस्ति खलु भदन्त ! एकोरुकद्वीपे खलु द्वीपे 'रायाइ वा राजा इति वा चक्रवतीदिः 'जुबरायाइवा' युवराज इति वा-राजपदामिपितो राजपुत्रादिः 'ईसरेइ वा' ईश्वरो. भोगिकादिरिति वा, तलवर इति वा, तलवर:-सन्तुष्टना पतिमदत्तसौवर्णमालं मणीति वा मुत्तिएति वा विपुलधणकणगरयणमणिमोतिय संम्वसिल. प्पवाल संतसार सायएज्जे तिवा' हे भदन्त ! उस एकोरुक द्वीप में क्या बांदी, सुवर्ण, कांसा, पु, ताम्र, दृष्य-वस्त्र, मणि, लौक्तिक आदिधातुएं होती है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं 'हंता अस्थि छां गौतम ! ये सब वहां पर भी होती है। परन्तु 'णो चेवणं तेर्सि मणुयाणं तिव्यममा त्तभावे समुप्पजई' वहां के मनुष्यों का इनके प्रति तीव समस्थ भाव नहीं होता है-जैसे कि ढाई द्वीप में कर्मभूमिज मनुष्यों का इनके प्रति तीव्र ममत्व भाव होता है। 'अस्थि णं भंसे ! एगोरुय दीवेणं दीवेरायाह वा जुवरायाह वा, ईसरेह वा तलवरेइ वा माडंविधाइ वा कोडंधिया वा इन्भोह वा सेट्ठी वा०' हे भदन्त ! उस एकोहक छीप में यह राजा है सेतिवा दूसेति वा मणाति वा मुत्तिएत्तिवा, विपुलधणकणगरयणमणिमात्तिय संखसिलप्पवाल सतमारसावएन्जेति वा' , मापन् मे मे ३४ दीपमा यी, सोनु, स, पु, ताम्रध्य-पत्र, भथि, भाति, पिणेरे धातुमा हाय छे? भा प्रशन उत्तरमा प्रभुश्री गौतमस्वामीन ४ छ। 'हता अस्थि' है। गौतम! मा मधी तुमी त्या मा पर थाय छे ५२'तु 'जो चेव णं तेसिणं मण्या तिव्वे ममत्तभावे ममुपज्जइ' त्यांना मनुष्याने मा वस्ती પર તીવ્ર મમત્વભાવ હોતું નથી. કે જેવી રીતે અઢાઈ દ્વીપના કર્મભૂમિજ मनुध्यान से परत। ५२ तीव्र भभावमा हाय छे. 'अस्थि ण भते । ए. गोरूय दीवे ण दीवे रायाइवा, जुवरायाइवा ईसरेवा, तलबरे इवा, माडबियाइवा कोडुचियाइवा, सेट्रोइवा.' है भगवन् मे से।३४ द्वीपमा मा शत छ, मा યુવરાજ છે, આ ઈશ્વર છે, આ તલવર છે, અર્થાત્ પ્રસન્ન થયેલા રાજાએ
Page #656
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवाभिगमस्त्र कृतशिरस्कः चौरशोधाधिकारी । “मार्ड वियाइ वा माण्ड विक इति, छिबभिन्नजनाश्रयाधिपतिः 'कोडवियाइ वा' को टुम्बिक इति वा, कौटुम्विका कतिपय. कुटुम्बपभुः 'इ० माइ वा इभ्य इति बा' इशो हस्ती तत्पमाणं द्रव्यमहनीति इभ्यो धनिकः 'सेटोइ वा श्रेष्ठीनि वा-कक्षम्पाध्यासिसौवर्णपट्टालङ्कृतशिराः नगरप्रधानन्यवहति भावः 'सेणाईति वा' सेनापतिरिति का, सेनानायकः, 'सत्यव हाइपा' सार्थवाह इति वा, यो हि गणिमादि क्रयाणकं गृहीत्वा देशान्तरं गच्छन् सहचारिणां मार्गे महायको भाति स सार्थवाहः, भगवानाह-'णो इण्डे समडे' नायमर्थः सपर्यो, विवगयइडी सक्काराणं ते मणु यगणा-पण्णवा समणा. उसो !' व्यपगत ऋद्धिमत्काराः खलु व्यपगताऋद्धि विमवैश्वर्य सत्कारश्च येभ्यस्तेयह युवराज है यह इश्वर-भोगिक आदि है यह तलयर हैं-संतुष्ट हुए नरपति द्वारा दिया गया जिसके मस्तक पर सौवर्ण का पट्ट अलङ्कृत हो रहा है ऐसा थानेदार जो नगरादि में चोरों की छानवीन किया करता . है उन्हें दण्डित करता है यह मांडविक छिन्न भिन्न वसति का स्वामी है, यह कौटुम्बिक है- कतिपय कुटुम्ब का स्वामी है, यह इभ्य-हस्ति प्रमाण द्रव्य का मालिक है, यह श्रेष्ठि-लक्षाधिपति है यह सेनापति है, यह सार्थवाह-गणिमादिक क्रघाणक को बेचने के लिये देशान्तर जाते हुए जो अपने सहचारियों को मार्ग में सहायक होता है ऐसा वह संघाधिपति है, 'क्या ऐसा व्यवहार होता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'यो इणढे सम?' हे गौतम ! वहाँ पर ऐसा व्यवहार नहीं होता है क्योंकि-'बवगयइदी सक्कारा णं ते मणुयाणा पण्णत्ता समणाउसो' हे श्रमण आयुष्मन् ! ये सब एकोहरु द्वीप वासी मनुष्य ऋद्धि, આપેલ સોનાના પટ્ટ જેના માથા પર શોભે છે, તેવા થાણદાર (મામલતદાર) કે જે નગર વિગેરેમાં ચોરોની શેધ ખેળ કરે છે. તેમને દંડ કરે છે તેને તલવર કહે છે આ માડંબિક છિન્ન ભિન્ન વસતિને સ્વામી છે. આ ઈભ્ય હાથીના જેટલા પ્રમાણ વાળા દ્રવ્યને માલીક છે, આ શેઠ અર્થાત લક્ષાધિપતિ છે આ સેનાપતિ છે. આ સાર્થવાહ છે, ગણિમ ધરિમ, વિગેરે વેચવા ગ્ય પદાર્થને વેચવા દેશાન્તરમાં જનારાઓને તેમની સાથે જેઓ સહચારીસાથે રહેવાવાળાઓને માર્ગમાં સહાયક હોય છે. એ તે સંઘને અધિપતિ છે. શું ? એ વ્યવહાર થાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી गौतभस्वामीन ४३ छ, 'णो इणटे समढ़े. गौतम ! त्यो भा भव। व्यवहार थत नथी. भ ‘ववगय इड्ढी सक्कारा णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समगाउसो' है श्रमाय मासुमन मा आधा ३४ द्वीपमा रहेवावा मनुध्ये।
Page #657
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.३९ एकोरुकस्थानामाहारादिकम् ६३३ तथा, ते मनुजगणाः प्रज्ञप्ता:-कथिताः, हे श्रमणायुप्मन् । 'अस्थि णं भंते ! एगोरुयदीवे' अस्ति खलु भदन्त ! एकोहीपे द्वीपे 'दासाइ बा' दास इति वा, क्रयक्रीतो दासः दासीपुत्रो वा 'पेसाइ वा' घेच इति वा प्रेषणाहों दूतादिः, "सिरसाइ वा' शिष्य इति या उपाध्यायोपालक-शिक्षणीय इत्यर्थः 'भयगाइ वा' भृतक इति वा यत्कालमवर्षि कृत्वा वेतन कर्मकरणाय नियुक्तः स मृतका 'माइल्लपाइ वा भाषिक इति पा-द्रव्यांशमाहीमाणिकः, 'कमकर पुरिसाह वा' कर्मकरपुरुष इति वा, भगवालाह-'को इण समढे नायमर्थः समर्थः न तम दासादयो भवन्ति, किन्तु-विधाय आभिगिया णं ते अणुयगणा पणा समणाउसो' व्यपणताभियोशिशः खलु उपपगदर आषियोगिक दासादि कर्सयेभ्यरते स्था, मनुजमणाः मता--कविताः हे श्रम गायुष्मन् ! 'अस्थि भंते ! एगीरुपीव दीदे' अस्ति खलु मदन्त ! एकरुपता द्वापे 'पायाइ दा' माता इति वा' माता-जनली पियाइ वा पिता इति वा पिता जनकः 'भायाइ बा' भ्राता सहोदरः, 'भइणीइ घा' शभिनीति वा, भोगनी सहोदरा 'मज्जा वा भार्या इति वा, भार्या, पत्नी 'पुजाइ वा' पुत्र इति वा, 'धृवाइ वा धृता इति तत्र धूता दुहिता पुत्रीत्यर्थः, 'सुहाइ वा स्नुपा-पुत्रवधूः, एते पूर्वोत्तरस योजना सन्ति न वेति प्रश्न:, भगवानाह-'हंता अस्थि इन्स, सन्ति, एते जननी जन कादयो भवन्ति किन्तु 'णो चेव तेसि मणुशाणं लिये पेगवंधणे सुपएज्जई नैव खलु विभव, ऐश्वर्थ, और सरकार आदिमों से रहित होते हैं इनमें सब में समानता ही होती है विषमता नहीं होती है अधि णं भंते ! एगोरुय दीवे दीवे मायाह वा पियाह का साधा था, अइजीह वा, अन्नाइवा, पुत्ताइ वा, थुघाइ वा सुझाह का, हे सदा । एकोकरू द्वीप में 'पह माता है, यह पिता है, यह भाई है, यह बहिन है, यह मार्ग है, यह पुत्र है, यह दुहिता-पुत्री-है, यह स्तुपा-पुत्रमधू है' इत्यादि व्यवहार होना है क्या ? इसके उत्तर में प्रभु श्री कहते हैं-हे गौतम ! 'हना अलिय' हां वहाँ ऐसा व्यवहार होता है, परन्तु 'यो वेत्रगं तेल गं अणुयाणं तिथे અદ્ધિ, વિભવ, એશ્વર્ય અને સત્કાર વિગેરેથી રહિત હોય છે તેઓ બધામાં समानपा होय छ ? विष५ पाकोतु नथी. अधि भते ! एगोरुय दावे दीवे मायाइवा, पियाइवा, भायाइव', भइणीवा, भज्जाइवा, पुत्ताइवा धु. याइवा सण्डाइवा' है मगर सो३४ द्वीप मा भाता छे, गा पिता छ, આ ભાઈ છે, આ બહેન છે, આ સ્ત્રી છે આ પુત્ર છે, આ પુત્રી છે. આ નુષા પુત્રવધુ છે આવા પ્રકારને વ્યવહાર હોય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુત્ર गातभस्वामीन अछे हे गौतम । 'हता अस्थि' हा त्यां से माना
जी. ८०
Page #658
--------------------------------------------------------------------------
________________
६३४
जीवामिगमत्र तेषामेक रुकमनुजानां तत्र-मातापित्रादौ तीव्रः प्रेमवन्धनः समुत्पद्यते प्रेमवन्धो न जायते तत्राह-पयणु' इत्यादि, 'पदणुपेटजवंधणाणं ते मणुपपणा पाया ससणाउसो' पत्नु पेमवन्धवाः-प्रेबन्धनहितारते रतुजगणाः पज्ञप्ताः-फाथिताः हे श्रमणायुष्यन् ! 'अस्थि णं सते ! एगेरुपदीने २' अस्ति खलु भदन्त ! एकोरुकद्वीपे द्वीपे 'अरीति वा नेरिणति का' अरिरिति वा, वैरिरिति चा, तत्रारि:-सामान्यशत्रः, वैरिः-जातिनिवन्धमता , यथा-सप्तकुलयो, 'घायएइ वा घातक इति वा, घाटको योस्पेन घातगति 'चहएइ का' वधक इति ' स्वयं हन्ता व्यथको वा पेदिता ताडकः पहिणीएइ वा' प्रत्यवीय इति च, प्रत्यनीफश्छिद्रान्वेषी का पधारकः 'पच्चरितेइ का' प्रत्यमित्र: गः पूर्ववित्रं भूत्वा पश्चादमियो जारः अगितहामी नातिना, अपानाम-'नो हे समडे' पेमपंधणे लप्पन उन अनुष्यों को माता पिता आदिकों में तीन स्नेहानुबंध नहीं होता है क्योंकि श्यणुपेजजवंधणा णं ते मणुधगणा पण्णत्ता समजाउसो' हे अमन आयुष्मन् ! यहां के निवाली मनुष्य अल्प प्रेम बन्धन वाले कहे गये है 'अस्थि ण भंते ! एगोल्प दीवे २, दालाइ वा, पेशाध बा, पिलाइ हा, अगाइ वा, भारलगाइ वा, कामगरपुरिसाइ खा' हे भदम ! एमोलक द्वीप में 'वह दास है-क्रय क्रीत नौकर है, या प्रेम है-दूतादिया है, यह शिष्य है, यह भृतक हैनियत अधि ल ल देकर रखा गया काम कारने वाला मनुष्यहै, यह भागीदार हो, यह कार्यकर पुरुष है ऐसा व्यवहार होता है क्या? इसके उत्तर में प्रभुनी कहते हैं-हे गौतम! 'जो इगडे सभडे' ऐसा अर्थ समर्थ नहीं है-अर्थात् ना पहा आदि का व्यवहार नहीं होता हैव्यवहार डाय से. ५२'तु को चेव णं वेसिणं मणुयाणं विन्ने पेमबंधणे समुप्प કag તે મનુષ્યોને માતા, પિતા, વિગેરેમાં અત્યંત ગાઢ સ્નેહાનુબંધ હોતે नथी, भो ‘पयणुपेज्जब धणा णं मणुयगणा पण्णत्ता लमणाउसो' 8 શ્રમણ કાચુશ્મન ! ત્યાંના રહેવાવાળા મનુષ્યો અ૫ પ્રેમબંધનવાળા કહ્યાા છે. 'अस्थि ण भवे ! एगोरुय दीवे दीवे दाखाइवा, पेसाइवा, सिस्साइवा, भयगाइवा. भाइल्लगाइवा. कम्मगरपुरिसाइवा' से मन से ३४ीमा 'म हास છે. ખરીદેલે નેકર છે, આ પ્રખ્ય છે. અર્થાત્ દૂત વિગેરે છે, આ શિષ્ય છે, આ ભૂતક છે. અર્થાત નકકી કરેલ મુદત સુધી પગાર આપીને રાખવામાં આવેલ કામ કરનાર મનુષ્યને ભૂતક કહે છે. આ ભાગીદાર છે. આ કાર્યકર પુરૂષ છે. આવા
रन व्यवहार थाय छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रश्री छे , 'जो इणट्रे समटे 3 गीतम! म अथ परामर नथी. अर्थात त्यां हास विशेष व्यवहार
Page #659
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेययोति का ठीका प्र.३ उ. ३ . ३९ एकोरुकस्थानामाहारादिकम्
६३५
नायमर्थः समर्थः नैते आर्यादयो भवन्ति यतः 'ववयवेराणुबंधाणं ते मणुय'गणा पण्णत्ता समणाउलो' व्यपगत वैरानुबन्धास्ते मनुजगणाः प्रज्ञप्ताः हे श्रमणायुष्मन् ! व्यपगतः ranisgarधः सम्वन्धो येस्पस्तथा भूतास्ते मुक्तिमार्गावरोधकारणभूते कृतपूर्वमवादि विषयेऽपि पश्चात्तापं कुर्वन्तीति । क्योंकि - 'वगत आभिओमियाणं ते मणुघमणा पण्णत्ता समणाउसो' श्रमण आयुष्य | इनके अनियोगिक कर्म नहीं होता है अर्थात् वहां के व्यक्ति किसी के दबाव में आकर या पैसा के दास बनकर किसी के दास आदि नहीं होते है | 'अस्थि णं भंते । एवोरुवदीवे अरीति वा बेरिएति या घातकति वा वह एह वा पडिणीपति या पच्चामित्ते वा' हे भदन्त ! एवोरुक द्वीप में 'यह अरि है - सामान्यतः शत्रु है, यह वैरी है विशेष किसी कारण वश वैरभाव से युक्त है यह वैरभाव कहीं २, स्वाभाविक होता है - जैसा भए (वर्ष) और नकुरु (फोला) में होना है यह घातक है मरवाने वाला है यह पधक है-स्वयं मारने वाला है अथवा थप्पड आदि द्वारा पीडा पहुंचाने वाला है यह प्राथमिक है - कार्य का विनाशक है यह प्रत्यमित्र है जो पहिले मित्र होकर भय शत्रु हो गया है अथवा जो मित्र का सहायक है वह मत्यवित्र कहलाता है- 'ऐला व्यवहार होता है ? इसके उत्तर में प्रभु श्री कहते हैं-'णो हण्डे समहे' tata ! ऐसा अर्थ अनर्थ नहीं है क्योंकि 'बकाय वेराणुवंषाणं ते मणुपनणा पण्णत्ता' हे श्रमण आयुष्मन् ! यहां के मनुष्यों में वैरानुबंध थन। नथी, भुट्टे 'ववगय आभियोगियाणं ते मणुयगणा पण्णा समणाउसो' डे શ્રમણ આયુષ્યમન્ ! તેએને અભિચાગિક નામનુ કેમ થતું નથી. અર્થાત્ ત્યાંની વ્યક્તિ કેાઈના દબાણમાં આવીને અથવા પૈસાના દાસ બનીને કાઈના દાસ विगेरे जनता नथी. 'अस्थि णं भते ! एगोरुयदीवे अरोति वा, वेरिति घा घावाति वा, वहes वा, पडिणीपति वा, पच्चारित्ते इवा' हे भगवन् । ३४ દ્વીપમાં આ રિ છે, અર્થાત્ સામાન્ય શત્રુ છે, આ વૈરી છે. અર્થાત્ કેાઈ વિશેષ કારણવશાત્ મા વૈરભાવ રાખનાર કયાંક કયાંક સ્વાભાવિક હૈય છે જેમકે સાપ અને નેળીયામાં હોય છે. ાવાત છે. અર્થાત્ ભરાવનારા છે. આ વધક છે. અર્થાત્ પેાતેજ સારવાવાળા છે. મથવા થડ વિગેરે દ્વારા પીડા પહોંચાડનાર છે, આ પ્રત્યમિત્ર છે, અર્થાત્ જે પહેલા મિત્ર હાય અને પછીથી શત્રુ બની ગયેલ હાય અચવા જે અમિત્રને સહાય કરવાવાળા હાય તે પ્રત્યમિત્ર કહેવાય છે. આવે વ્યવહાર થાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે છે है 'णो इणट्टे खमट्टे' हे गौतम! या अर्थ गरोणर नधी उभडे 'वाय बेराणु बघाण ते मणुयंगणा पण्णत्ता' हे श्रम आयुष्मन् त्यांना मनुष्याभां वैरा
!
Page #660
--------------------------------------------------------------------------
________________
लीवाभिगमन्त्र 'अत्थि णं एगोरुयदीवे दीवे' अस्ति खल्ल एकोषकद्वीपे द्वीपे 'मित्ताइ वा' मित्रमिति वा, 'वयंसाइ बा' वयस्य इति वा वयस्यः समानवया: गाढतरप्रेमयुक्तः 'घडिआइ वा' घडा इति वा 'घडिया' इति देशी शब्दः गोष्ठीवाची, तेन घडिमा गोष्ठी 'सहीति वा' सखा इति का, तर सखा-समानखानपानादौ इदचारी मुहियाइ वा' सुहद इति वा सततसहचारी हितोपदेशदायी च 'महाभागाइ वा महाभाग हदि वा 'संगइयाइ वा' सांगलिक झवि वा, तर सागतिक सङ्गविषाघटितः संगतिशीलः परिचित इत्यर्थः, भगवानाह-'णो इण्डे सम' नायमर्थः समर्थः यतः 'दरगयपेम्मा ते मणुयगणा पण्णत्ता समकाउसो' करपात-मास्ते मनुजगणाः प्रज्ञप्ताः हे श्रमणायुष्मन् । न च खलु तेपाये कोकानुजानां समरूपं बन्धनं समुत्पद्यते इति । 'अस्थि भंते ! एगोष्यही वे२' अस्ति खलु महन्त ! एकोहकडीपे द्वीपे 'मावाहाइ चा' नहीं होता है 'अस्थि णं अंते एगोरुष दीये २, मित्ताह वा, वयंसाहा, घडिशइ का, लदीवा, सुक्षिणा ' हे सदन्त ! एकोरुक द्वीप में 'यह मित्र है यह क्या है-समान विधा वाला और गाढनर प्रेम से युक्त है यह घटित है यह देशी शाई गोष्ठी दाची वहां गोष्ठी-मित्र मण्डली है यह लखा है-खान पाल शादि में साथ रहने वाला है यह सुहृद हैंनिरन्नर साथ रहने वाला है और हित का उपदेश दाता है-'महाभा. गालि वा, संगतियालि का,' यह रहा भाग्यशाली है, यह सांगतिक हैसंगति करने वाले जो मित्र बन गया है वह है 'ऐसा व्यवहार होना है ? इसके उत्तर में प्रभु श्री रहते ह-हे श्रवण आयुष्मन् ! 'जो इणढे समडे बघायला ते बांधणणा पण्णासा' यह पर्थ लमर्थ नहीं है वहां कोई किसी का ननित्र म बयस्य आदि हैं क्योंकि दे मलुण्य प्रेमानुषन्ध रहित होते हैं। 'अस्थि णं भंते ! एमोस्य दीवे २, स्थावाहाति मधडात नथी. 'अस्थि णं भते । एगोरुचदीवे दीवे, मित्ताइ वा, वय'साइ वा घडियाइवा, सहीवा, सुहियाइवा' समन् ! ते ३४ दीयमा २५ भित्र છે આ વયસ્ય સમાન ઉમ્મરવાળે અને ગાઢ પ્રેમથી યુક્ત છે, આ ઘટિક છે, આ દેશી શબદ છે તે ગોષ્ઠિવાચી છે. ગોઠી-મિત્ર મંડલીને કહે છે. આ સખા છે. અર્થાત્ કાયમ સાથે રવાવાળો છે. અને હિતનો ઉપદેશ કરનાર છે. 'महाभागातिवा, संगतियाति या' मा मह सायशादी छे, म सांगति छ, अर्थात् સંગતિ કરવા માત્રથી જે મિત્ર બની જાય છે તે સાગતિક કહેવાય છે આ प्रश्नना उत्तरमा प्रसुश्री गौतम स्वामी से है णो इणदे समदेववगयपेम्मा से मणुयगणा पण्णत्ता' मा पथ प२।१२ नथी. भ ते भनुष्य। भानुमच विनाना हाय छे. 'अस्थि णं भते । एगोरुय दीवे दीवे अबाहातिवा, विवाहति
Page #661
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रद्योतिका ठीका प्र. ३ उ.३ ६.३९ एकोरुकवाना माहारादिकर
દુ
9
आवाद इति वा उत्सवाद आहूयन्ये स्वजना यत्र स आवाह: -- विवाहात्पूर्वं ताम्बू कादिदानोत्सव:, 'वीवाहाइ वा' इति वा विवाहः परिणयनमित्यर्थः 'जण्णाइ वा ' यज्ञ इति वा' यज्ञः प्रसिद्धः 'सड्ढाइ वा' श्राद्धमिति वा 'थालिपाकाइ वा' स्थाकीपाक इति वा स्थालीपाको 'वधूभ्यां चरुनिवेदनम् 'चोलोवण यणाइ वा' चलो. पनयनमिति वाचलोपनयनं शिखाधारणसंस्कारविशेषः 'सीमंतृण्गयणाइ वा ' सीमन्तोन्नयनमिविया, सीमन्तोन्नयनं गर्भसंस्कारविशेषः 'मपिंड निवेषणाड़ वा' मृतपिण्डनिवेदन मिति वा मृतेभ्यः पितृभ्यः तृतीयनवमादि दिनेषु कुलाचारेण श्मशाने पिण्डदानम् भगवानाह - 'जो इमडे समट्ठे' नामः समर्थः यतः - 'चचगय आवादविवादजण्ण सदूधथापि गचोलोच्णयनसीमं तुष्णष्णमय पिंड निवेयणाणं ते मणुवगणा पण्णत्ता समणाउसो' व्यपगतावाहविवाह यज्ञ श्राद्ध स्थालीपाकचौलोवा, विवाहाति वा, जण्णा वा, सद्दाह वा थालिपाकार वा, बेटोवणषनाह वा, सीमंतुण्णघणाह वा, पडिनिवेदणार या' हे भदन्त ! उस एगोरुक द्वीप के मनुष्यों में 'आवाह - विवाह आदि उत्व में जहां जन बुलाये जाते हैं और उन्हें लाम्बूलादि देकर सस्कृत किया जाता हो ऐसा काम - होता है क्या ? विवाह होता है क्या ? यज्ञ होता है क्या ? वर वधू को खाना पीना दिया जाता है क्या चौल कर्म उपनयन संस्कार होता है क्या ? सीमन्तोन्नयन संस्कार होता है क्या ? मरे हुए पिता को तृतीय नौवें आदि दिनों में पिण्डदान किया जाता है क्या ? इसके उसर में प्रभुश्री कहते हैं - हे श्रमण आयुग्मन् ! 'को हणडे लमट्टे' यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् वहां आवाह - विवाह आदि कुछ भी नहीं होता है क्योकि ये मनुष्य आगाह विवाह अण्ण सहयालि पान०' इन आधार विवाह, यज्ञ, श्राद्ध, स्थालीपा, आदि पूर्वोक्त कार्यों से रहित
वा, जण्गाइवा, साइबा, थालिपाकाइबा, चेलोवजयगोइवां, खीम तुण्णयणाइवा मयपिंड णिवेदणाइवा' हे भगवन् मे मेोइड द्वीपसां 'भाई-विवाह विगेरे ઉત્સવમાં કે જ્યાં જનસમૂહને ખેલાવવામાં આવે છે, અને તેઓને પાન સેાપારી વિગેરે આપીને સત્કૃત કરવામા આવે છે, એવા કામે થાય છે? વિવાહ થાય છે ? યજ્ઞ થાય છે? વર વધુને ખ વાપીત્રાનુ' દેવામાં આવે છે શું ? ચૌલકમ અને ઉપનયન સસ્કાર થાય છે ? સીમન્તાન્નયન સંસ્કાર થાય છે ! અરેલ-પિતાને ત્રીજે કે નવમાં વિગેરે દિવસે પિંડદાન કરવામા આવે છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં अलुश्री गौतमस्वाभीने 'णा इगट्टे समट्टे मा अर्थ मरोर नधी. અર્થાત્ ત્યાં આવાહ–વિવાહ વિગેરે કઈ પણ થતુ' નથી કેમકે તે મનુષ્યે 'वत्रगण आवाइविवाह जन्गसद्ध थालिपाग' या भावाड, विवाह, यज्ञ श्रद्ध
Page #662
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवाभिगमसूत्रे पनयन सीमन्तोन्नयनमृतपिण्ड निवेदनारले मनुजगणाः प्रज्ञप्ताः हे श्रमणायुष्मन् ! एकोरुकमनुमानामादाह विवाहादिकाः क्रिया न भवन्ति युगलिकत्वेन तादृश क्षेत्रकालस्व मारलः पूर्वोक्त संस्कारस्थानावश्यकत्वादिति भावः ॥मु० ॥३९॥ ____ मूलम्-अस्थि ण अंते ! एगोरुय दीवे दीवे इंदमहाइ वा खंदमहाइ वा रुद्दमहाइ वा सिरमहाइ वा वेसमणमहाइ वा मुगुंदमहाइ वा णायसहाइ वा जखमहाइ वा सूलमहाइ बा कूवमहाइ वा तलायणईमहाइ वा, दहमहाइ वा एन्वयमहाइ वा रुखोत्रण महाइ वा चेहयमहाइ वा थूभलहाइ वा ? णो इणहे समटे बवायलहमहिलाणं ते अणुयगणा पणत्ता लमणाउलो।। अस्थि णं भंते ! एगोरुय दीवे दीवे गडपेच्छाइ वा पहपेच्छाइ वा जल्लपेच्छाइ मल्लगेच्छाइ वा मुष्टिचपेच्छाइ वा विडंबनपेच्छाइ वा कहगपेच्छाइ वा पवगपेच्छाइ वा अक्खायगच्छाइ वा लासगपेच्छाइ वा लंखपेच्छाइ वा मंसपेच्छाइ वा तूहलपेच्छाइ वा तुंबवीणदेच्छाइ का कावपेच्छाइ वा मागहच्छाइ बा ? णो इणटेसमटे, ववमयकाउहल्ला ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो ! । अस्थि णं भंते ! एगोरुय दीवे दीवे सगडाइ वा रहाइ वा जाणाइ वा जुम्गाइ वा गिल्लीइ वा थिल्लोइ वा पिल्लोइ वा पवहणाइ वा लिवियाइ वा संदमाणियाइ वा ? णो इनष्ठे समटे, पादचारविहारिणो णं ते भणुस्लगणा पण्णत्ता समणाउसो!। अस्थि णं भंते ! एगोरुय दीवे णं दीवे आसाइ वा हत्थीइ वा उहाइवा गोणाइ वा महिलाइ वा खराइ वा घोडाइ होते हैं। यहां का क्षेत्रकाल ऐले हो स्वभाव का होना है तथा युगलिक होने से इन्हें ऐसे पूर्थोक्त संस्कारों की आवश्यकता नहीं होनी ॥३९॥ ઘાલીપાક વિગેરે પૂર્વોક્ત કાર્યોથી રહિત હોય છે. ત્યાન ક્ષેત્રકાળ એવા જ સરભવન હોય છે. તથા તે યુગલિક હોવાથી તેઓને આવા પૂર્વોક્ત સંસ્કારની આવશ્યકતા હોતી નથી. સૂ. ૩૯ ૫
Page #663
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ खू.४० ए० इन्द्रमहोत्सवादि वि. प्रश्नोत्तगः ६६९
%3D
वा अजाइ वा एलाइवा? इंता अस्थि, नोवेवणंतेसिस)याणं परिमोगत्ताए हव्यमानच्छंति । अस्थि गां अंले एगोरुय दीवे दीवे सीहाइ वा वधाइ वा विगाइ वा दीवियाइ वा अच्छाइ वा परसराइ वा तरच्छाइ वा लियालाइ वा विडालाइ ना सुणगाइ वा कोलसुणगाइदा कोकंतियाइ वा दल गाइ वा चित्तलाइ वा चिल्ललगाइदा ? हंता अस्थि नो वेवणं ते अण्णमण्णास तेर्सिवा मणुयाणं किंचि आवाहं वा पनाह वा उपायंति का छविच्छेदं वा करेंति, पगइमहगाणं ते लावयगणा पण्णता समणाउसो!! अस्थि णं भंते ! एगोरुय दीवे ण दीवे सालीइ वा वीहीइ वा गोधूमाइ वा जवाइ वा लिलाइ वा इक्खूइ का ? हंता ! अस्थि, नो चेव तेलि मणुयाणं परिभोगत्ताए हनमागच्छति । अस्थि णं भंते ! एगोरुष दीये दीने गत्ताइ का दरीइ वा घसीइ वा भिमूह का ओवाएइ वा विलमेइ वा विजलेइ वा धूलीइ वा रेणूइ वा पंकेइ वा चलणीइ वा ? णो इणटे समटे, एगोरुय दीवे णं दीये बहुलमरमणिज्जे भूमिमागे पण्णत्ते सखणाउसो!। अस्थि णं भंते ! एगोरुय दीवे दीवे खाण्इ वा कंटएइ वा हीरएइ या सकराइ वा तणकश्वराइ वा पत्तकयवराई वा असुईलि वा पूइयाइ वा दुनिमगंधाइ बा अचोक्खाइ वा ? णो इणट्रे समढे, वचगयखाणु कंटगहीरयसकर तणकयवर पत्तकयवर असूइपूइ यदुभिगंधमचोकरने णं एगोरुयदीवे पण्णत्ते समणाउसो!। अत्थि णं संते ! एमोरुय दीवे दीवे दसाइ वा मसगाइ वा पिसुयाइ वा ज़्याइ वा लिक्खाइ वा ढंकुणाइ वा ? वा? णो इणट्रे समटे, वरगयदंसमलगपिसुयजय लिक्खटंकुगेणं एगोरुय दीवे पणते लमणाउलो !। अस्थि णं भंते ! एगोरुय
Page #664
--------------------------------------------------------------------------
________________
૪૦
जीवाभिगमसूत्रे
दीवे दीवे अहहि वा अयगराइ वा महोरगाइ वा ? हंता अस्थि णो वेव णं ते अस्स तेर्सि वा अणुयाणं किंचि आवाहं वा पवाहं वा छविच्छेयं वा करेंति, पगइमद्दगाणं ते वालगगण पत्ता समणाउलो ! | अस्थि णं भंते! एगोरुय दीवे दीचे गहदंडाइ वा महसुसलाइ वा गृहयज्जियाइ वा गहजुद्वाइ वा गहसंघाडगाई वा गहअवसव्वाइ वा अम्माइ वा अवरुकखाइ संझाइ वा धननगराइ वा गजियाइ वा विज्जुयाइ वा उक्कापायाइ वा दिसाद हाइ निघाचाइ वा पंसुविटी वा जुवगाइ वा अखालिसाइ वा धूमियाइ वा नहियाइ वा रउघाया वा दोवरागाइ वा सूरोवरागाह चंद परिवेसाइ वा सुरपरिवेसाइ वा पडिवंदाइ वा डिसूराइ वा इंदधणूइ वा उद्गमच्छाइ वा अबोहाइ वा कविहसियाइ पाईणवायाइ वा पडीणवायाइ वा जाव सुद्धवायाइ गामदाहा वा नगद हाइ वा जाव सणिवेतदाहाइ वा पाणवखयजणस्वय कुलक्खय धणक्खयवसणभूषनणारिवाद वा ? णो इण्डे समट्टे ॥ सू० ४०॥
1
छाया - अस्ति ख भहन्त । एकोरुपद्वीपे द्वीपे इम इति वा स्कन्दमह इति वा रुद्रम इति वा शिवग्रहइति वा वैश्रमणमद इति वा मुकुन्दमह इति वा नागमद इति वा रक्षमह इति वा भूतमह इति वा कूपसह ति वा तडागनदीमह efa e इति वा पर्वतमह इति वृक्षारोपण५६ इति वा चैत्यसह इति वा स्तूपमद्द इति वा ? नायमर्थः समर्थः व्यपगतमहमहिमानस्ते मनुजगणाः मशप्ताः श्रमणा युष्मन ! अस्ति खलु भदन्त । एकोरुरुद्वीपे द्वीपे नटप्रेक्षेति वा नाटयप्रेक्षेति वा जल्लप्रेक्षेति वा मल्लप्रेक्षेति मौष्टिकपेक्षेथि वा विम्बकमेति वा कवकमेक्षेति वा प्लाकमेति वा आख्यायक मेक्षेति मा लासकप्रेक्षेति वा लेखप्रेक्षेति वा मखप्रेक्षेत वा तूणिकप्रेक्षेवि वा तुम्णायेति वा कारवमेक्षेति वा मागधप्रेक्षेति वा ? नायमर्थः समर्थः, व्यपगतौतूहल:- खलु ते मनुजगणाः प्रज्ञप्ताः श्रमणायुष्मन् अस्ति खलु भदन्त ! एकोरुरुद्वीपे द्वीपे शकटमिति वा रथ इति वा यानमिति वा युग्यमिति वा मिल्कीनि वा विल्लीति वा पिल्ली वा प्रणमिति वा शिबिकेति वा स्यन्दमानिकेति वा नामः समर्थः पादचारविहारिणः खलु ते मनु
1
Page #665
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
प्रमेयद्योतका टीका प्र.३ उ.३ १.४० ए० इन्द्रमहोत्लवादि वि. प्रश्नोत्तराः ६४१ जगणाः प्रज्ञप्ताः श्रमणायुष्मन् ! अस्ति खलु भदन्छ ! एकोसम्द्वीपे द्वीपे अश्व इति वा हस्तीति वा उष्ट्र इति वा गोण इति वा महिष इति चा खर इति वा घोंटक इति वा अजेति वा एडकेति बा ? हन्तु अस्ति, नेत्र खलु तेषां मनुजानां परिभोगतया हव्यमागच्छन्ति । अस्ति खलु महन्त ! एक कद्वीपे द्वीपे सिंह इति वा व्याघ्र इति वा वृक इति वा द्वीषिका इति वा ऋक्ष इति वा पराशर इति तरक्ष इति वा शृगाल इति वा विडाल इति वा शुनक इति वा कोलशुनक इति वा कोकदन्तिकेति वा शशक इति वा चित्रल इति वा चिल ठकर इति वा ? हन्न अस्ति, नैव खलु ते अन्योऽन्यस्य तेषां वा मनुजानां किञ्चिदावाधां वा प्रयाधां वा उत्पादयन्ति वा छविच्छेदं वा कुर्वन्ति, प्रकृतिभद्रकाः खलु ते श्वापदगणा: मज्ञप्ताः श्रमणायुष्मन् ! अरिख खलु भदन्त ! एकोनापे द्वीपे शालिरिति का ब्रीहिरिति वा गोधूम इति वा रव इस वा तिल इति इनुरिति या? हन्त अस्ति, नैव खलु तेषां मनुजाणों परिभोगत्या हव्यमागच्छन्ति । अस्ति खलु भदन्त ! एकोरुकद्वीपे द्वीपे भर्ता इति वा दी इति वा घंपी इति वा भृगुरिति अवपात इति वा विषममिति वा विजलमिति वा धूलिरिति वा रेणुरिति वा पङ्क इति वा चलनीति वा ? नायमर्थः समर्थः, एकोरुकद्वीपे खल्ल द्वीपे बहुसमरमणीयः भूमिभागः यज्ञप्तः श्रमणायुषान् ! । अस्ति खल्ज सदन्त । एशोरुमद्वीपे द्वीपे स्थाणुरिति वा कण्टक इति वा हीरक इति वा शर्करा तृणाचवर इति वा पत्रकचवर इति वा अशुचिरिति वा पूतिकमिति वा दुरभिगन्ध इति वा अचोक्ष इति वा ? नायम: समर्थः, व्यपगत स्थाणुकण्टकहीरक शर्करा तृणाचवरपत्रः कचवराशुचि पूतिकदुरभिगन्धाचोक्षः खल्लु एकोरुकद्वीपः प्रज्ञप्तः श्रमणायुष्मन ! अस्ति खलु भदन्त ! एकोरुकद्वीपे द्वीपे दंश इति वा मशक इति वा पिशुक्र इति वा यूकेति वा लिक्षेति वा ढंकुण इति वा ? नायमर्थः समर्थः, व्यपगतदंशमनकपिशुक यूकालिक्षाढकुणः खलु एकोरुकद्वीपः प्रज्ञतः श्रनणायुष्मन् ! । अस्ति खल्ल भदन्त ! एकोरुकद्वीपे द्वीपे अहिरिति वा अजगर इति वा महोरग इति वा ?, इन्त ! अस्ति नैव खलु ते अन्योऽन्यस्य तेषां वा मनुजानां किञ्चिदावाधां दा पवार्धा वा छविच्छेदं वा कुर्वन्ति, प्रतिभद्रकाः खलु ते व्यालगणाः पज्ञप्ताः श्रमणायुष्मन् ! अस्ति खल भदन्त ! एकोरुकद्वीपे द्वीपे ग्रहदण्ड इति वा ग्रह मुशलमिति वा ग्रहणजितमिति वा ग्रहयुद्धमिति का ग्रहसंघाट कमिति वा ग्रहापसव्यमिति अभ्रति वा अभ्रवृक्ष इनि वा सन्ध्येति वा गन्धर्वनगरमिति वा गर्जितमिति विद्युदिति उल्कापात इति वा दिगदाह इति वा निर्घात इति वा पांसुवृष्टिरिति वा यूपक इति वा यक्षादीप्तमिति वा धूमिके ति वा महि केति वा रजउद्धात इति वा
जी०८१
Page #666
--------------------------------------------------------------------------
________________
६४२
नीवाभिगमसूत्र चन्द्रोपराग इति वा, सूर्योपराग इति वा चन्द्रपरिवेष इति वा सूर्यपरिवेष इति वा भतिचन्द्र इति वा पतिसूर्य इति वा इन्द्रधनुरिति वा उदकमत्स्य इति वा अमोघ इति वा कपिइसितमिति वा प्राचीनवात इति वा प्रतीचीनवान इलि वा यावर शुद्धचात इति वा ग्रामदाह इति वा नगरदाह इति वा यावत् सन्निवेशदाह इति वा प्राणक्षय जनक्षयकुलक्षयधनक्षयव्यसनभूतानार्या इति वा ? नायमर्थः समर्थः ॥२०४०॥
टीका-'अस्थि णं भंते !' इत्यादि, 'अस्थि णं भंते ! एगोरुयदीवे पं दीवे' अस्ति खलु भदन्त ! एकोहकद्वीपे खल द्वीपे 'इंदाह'इदा' इन्द्र सह इति वा तत्र महः प्रतिनियत दिवसमावी उत्सवः इन्द्रमधिकृत्य संपायमान उत्सव इन्द्रमह इति एवमग्रेऽपि स्कन्दोत्सवादयो ज्ञातव्याः । 'खंदमहाइ वा स्कन्दमह इति वा सत्र स्कन्दः कार्तिकेयस्तस्योत्सव इत्यर्थः 'रुद्दमहाह वा' रुद्रमहइति को रुद्रो यक्षाधिपतिस्तस्य महः उत्सवः । 'सिक्महाइ चा' शिवमह इति वा 'वेसमण महाइ वा' वैश्रमणः कुवेर उत्तरदिग्लोकपालस्तस्योत्सवः । 'मुगुंदमहाइ वा मुकु
'अस्थि णं भंते ! एगोरुप दीवे २, इंद भाइचा'-इत्यादि।।
टीकार्थ-हे भदन्त ! एकोरुक द्वीप में 'इंद महाइथा' इन्द्र मोहत्सव अमुक प्रकार होने वाले उत्सव का इन्द्रमहोत्लय नाम है यह जो उत्सव इन्द्र को लक्ष्य करके किया जाता है उसका नाम इन्द्र मह है। इसी तरह से आगे के उत्सव समझ लेना चाहिये 'खंदमहार या' कातिकेय का नाम स्कन्द है इस स्कन्द को लक्ष्य करके किये गये उत्सव का नाम स्कन्दोत्सव है 'रुद्दमहाहवा' यक्षों के अधिपति का नाम रुद्र है इस रुद्र को लक्षित करके किये गये उत्सव का नाम रुद्रोत्सव है। 'सिव महाइ वा' शिव नाम महादेव का है इस महादेव-शाङ्कर-को लक्षित कर के किये गये उत्सव का नाम शिवोत्सव है 'धेसमण महाए वा' बश्रमण नाम कुवेर का है यह उत्तर दिशाका एक लोकपाल है इस कुवेर को लक्षित कर होने वाले उत्सव का नाम वैश्रवणोत्सव हे
बत्थि णं भते ! एगोश्य दीवे दीवे इंद महाइवा' त्याह
अर्थ-भगवन् मा ३४ द्वीपमा 'इंद महाइवा' 'महोत्सव भभु પ્રકારના ઉત્સવનું નામ ઈદ્રમહોત્સવ છે. આ ઉત્સવ ઈન્દ્રને લય કરીને કરવામાં આવે છે. એ જ પ્રમાણે આ પછીના ઉત્સના સંબંધમાં પણ સમજી લેવું જોઈએ. सद महाइवा' ति ध्यतुं नाम २४ छे. मा २४ने उद्देशाने ४२वीमा भावनात्सतुं नाम २४४ महोत्सव छे. 'रुद्दमहाइवा' यान। मधिपतिर्नु નામ રૂદ્ર છે. આ રૂદ્રને ઉદ્દેશીને કરવામાં આવેલા ઉત્સવનું નામ રૂદ્ર મહોત્સવ छ. 'सिवमहाइवा' शिवनाम महावर्नु छे. भा महादेव श४२२. जशीन
Page #667
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ रु.४० ए० इन्द्रमहोत्सवादि वि. प्रश्नोत्तराः १४६ न्दमह इति बा-मुकुन्दः कृष्णः तमधिकृत्य क्रियमाण उत्सवः, 'णागमहाइपा' नागो नागकुमारो भवनपतिविशेषः तस्य मह उत्सवः । 'जक्ख महाइ वा' यक्षमा इति 'भूतमहाइ वा भूतमह इति वा, तत्र यक्षभूतौ व्यन्तर विशेषौ तयोमह उत्सवा 'कूवमहाइ चा' कूपमह इति वा, नवनिर्मापित कूपस्योत्सवः, 'तलायणईमछाइ वा' तडागनदीमह इति वा, वडागः नदी चेति द्वयं प्रसिद्धं 'दहमहाइ वा इदमह इति वा, तत्रऽगाधजलो हुदः तस्योत्सवः, 'पन्चयमहाइ वा' पर्वतमह इति वा, 'रुक्ख'मुगुंदमहाइ वा' मुकुन्द नाल कृष्ण का है इस कृष्ण को लक्षित कर किये गये उत्सव का नाम मुकुन्दोत्सव है 'णागमहाइ वा नाग नाम नाग कुमार का है यह भश्नपति देव का एक भेद है इस नाग कुमार को लक्षित कर किये गये उत्सव का नाम नागोत्सव है 'जक्ख महाद वा' यक्ष यह व्धन्तर देवों का एक भेद है इस पक्ष को लक्ष्य करके किये गये उत्सव का नाम यक्षोत्सव है 'भूत महाइ वा भूत भी व्यन्तर देवों का ही एक भेद है हल भूत को लक्ष्य कर किये गये उत्सव का नाम भूत मह है 'कूय महाइ वा' नये बनाये गये कूप को लक्षित कर किये गये उत्प्लव का नाम कूप महोत्सव है 'तलायणई महाइ वा' तालाप एवं नदी को लक्षित कर किये गये उत्सव का नाम तडागमह
और नदी मह है 'दह महाइ वा पन्धय महाइ वा' अगाध जल वाले जलाशय को हूद कहते हैं ऐसे हूद विशेष को एवं पर्वत को लक्षित कर ४२वामा मावस सपनु नाम शिवोम छे. 'वेसमण महाइवा' मनाम કુબેરનું છે તે ઉત્તર દિશાને એક લેકપાલ દેવ છે આ કુબેરને ઉદ્દેશીને થવા पा सकतु नाम वैश्रवणात्मक छे. 'मुगुद महाइवा' भुनु नाम यनु छ. सेयन देशीन थना। सनु नाम भुहोत्सव छे. 'णागमहाइवा' નાગનામ નાગકુમારનું છે, આ ભવનપતિ દેવના એક ભેદ રૂપ છે. આ નાગકુમારે छ २ अशी स्वामी मावस उत्सव नाम नागोत्सव छ. 'जक्खमहाइवा' યક્ષ એ વ્યન્તર દેવને એક ભેદ છે. આ યક્ષને ઉદ્દેશીને કરવામાં આવેલ
सपनु नाम यात्स4 छ, 'भूतमहाइवा' भूत ५] व्यन्त२ हेवना४ मे છે. આ ભૂતને ઉદ્દેશીને કરવામાં અાવનારા ઉત્સવનું નામ “ભૂતમહોત્સવ” છે. 'कुव महाइवा' ना मनापामा गाय पाने शीन ४२पामा मा ५ भात्सप छे. 'तलावणई महाइवा' तणाव भने नतीने शीने ४२पामा मावेत उत्सवनु नाम '
त नही भडास ४ाय छे. 'दहमहाइवा पव्वय महाश्या' અગાધ પાણીવાળા જળાશયને ' એવા હદ વિશેષને અને પર્વતને
Page #668
--------------------------------------------------------------------------
________________
६४४
जीवामिगमसूत्रे
7.
रोवणमहाइ वा' वृक्षारोपणमह इति वा, 'चेइयमहाइ वा' चैत्यमह इति वा चैत्यं यक्षायतनम् 'धूममदाइ वा' स्तूपमद इति वा स्तूपः पीठविशेषः तस्य मह उत्सवः, भगवानाह - 'णो इणट्ठे समट्ठे' नायमर्थः समर्थः एतेषामिन्द्रादीनामुत्सवा न भवन्तीत्यर्थः यतः - 'ववगयमहमहिमाणं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो !' व्यपगतमहमहिमानः खलु ते - एकोरुकद्वीपक मनुजगणाः मझताः कथिताः हे श्रमणायुमन् ! 'अस्थि णं भंते! एगोरुपदीवे दीये' अस्ति खलु भदन्त ! एकोरुकद्वीपे द्वीपे 'गड पेच्छाइ वा' नटप्रेक्षेवि चात्र नटाः -- नाटयकर्तारः तेषां प्रेक्षा- मेक्षणकं कौतुकदर्शनोत्सुकजनसमुदायः, 'जट्टपेच्छाइ वा' नृत्यानृत्यकतीर स्तेपां प्रेक्षणकं तदर्श - किये गये उत्सव का नाम हद महोत्सव और पर्वत महोत्सव है 'रुक्खरोवणमहाहवा, चेहष महाद वा' वृक्षारोपण करने को लक्षित करके एवं यक्षायतन को लक्ष्य करके किये गये उत्सव का नाम वृक्षारोपण मह और यह है 'धूम महाहवा' पीठी विशेष का नाम स्तूप है इस स्तूप को लक्षित करके किये गये उत्सव का नाम स्तूप मह है सो हे भदन्त ! ये सब महोत्सव क्या उस एकोरुक द्वीप में होते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-' णो णडे समट्टे' हे गातम ! यह अर्थ समर्थ नही है अर्थात् ये इन्द्रादिमह (उत्सव यहां पर नहीं है । क्योंकि- 'वचगयममहिमाणं ते मणुवगणा पण्णत्ता समणाउसो !' हे श्रमण आयुष्म न ? ये एकोरुक द्वीप निवासी भनुष्य उत्सव करने की महिमा से विहीन न् होते है । 'अत्थि णं भंते एगोरुय दीवेणं दीवे गड पेच्छाइ वा' हे भदत! उस एकोरुक द्वीप में क्या नटों के खेल होते हैं ? 'नपेच्छाइ वा' नृत्य करने वालों के नृत्य को देखने के लिये उत्कंठित हुए मनुष्यों
ઉદ્દેશીને કહેવામા આવેલ મહેાત્સવનુ' નામ 'હદમહોત્સવ' અને પત મહોત્સવ’ छे. 'रुखरोत्रणमहाइवा चेइय माइवा' वृक्षाशययुरवाने उद्देशीने अने यक्षाયતનને ઉદ્દેશીને કરવામાં આાવેલા ઉત્સવનુ નામ વ્રુક્ષાાણુ મહત્સવ અને चैत्य महोत्सव छे. 'थूभ महाइवा' पीठी विशेषतुं नाम स्तूप हे. मा स्तूपने ઉદ્દેશીને કરવામાં આવેલા ઉત્સવનુ નામ સ્તૂપમહાત્સવ છે. તેા હે ભગવન્ આ બધા જ મહાત્સવેા એ એકારૂક દ્વીપમાં થાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં अलुश्री गौतमस्वामीने हे छेडे 'णा इणट्टे समट्टे' हे गौतम! या अर्थ समर्थ नथी. अर्थात् मा इन्द्राहि महोत्सव। त्यां थता नथी. भ 'ववगय महमहिमाणं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो' हे श्रमाणु आयुष्मन् ! आ એક દ્વીપમાં રહેવાવાળા મનુષ્ય ઉત્સવ કરવાના મહિમા વગરના હાય છે. •अस्थि णं भंते ! एगोरुय दीवे णं दीवे णड़वेइच्छाइव' हे भगवन् से थे. ३४ द्वीपसां शु नटोना मेस थाय छे ? 'नट्टपच्छाइवा' नृत्य उरवावाणाना
Page #669
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमैयद्योतिका टीका .१ उ.३ १.४) ए० इन्द्रमहोत्सवादि वि. प्रश्नोत्तरा: ६५ नोत्सुकजनमेलकः 'जल्लपेच्छाइ दा' जल्लनेक्षेति वा, तन जल्ला वरना खेलका स्तेषां प्रेक्षा-प्रेक्षणकम् 'मल्लपेच्छाइ बा' मल्लपेक्षेति बा, तत्र मल्ला:-बाहुयुद्धकारिणः, 'मुद्वियपेच्छाइ वा मौष्टिकप्रेक्षेति वा, ते एव मल्ला:, मौष्टिकाः ये मुष्टिभिः प्रहरन्ति । 'बिडंबगपेच्छाइ का विडम्व क्षेखि वा वन विडम्वका:विषकाः मुखविकारादिभिर्जनहास्योत्पादकारलेषा प्रेक्षणमिति । 'कहा पेच्छाइ चा' कथकप्रेक्षेति वा तत्र कथकाः सरलकथा कथनेन | तृणां रसोत्पादकास्तेषां मेक्षणकम्, 'पवगपेच्छाइ वा लवगमेक्षेति बा, तत्र प्लवकास्ते ये अम्पादिभिर्गवा दिकमुत्प्लवन्त नद्यादिकं वा तमिल से उत्तीदि लखन कारिण इत्यर्थः 'अक्खायग पेच्छाइ वा आख्यायकक्षेति वा-आख्यात शुभाशुभमिति-आख्यन्यकास्तेषां का मेला भरता हैं क्या ? 'जल पेच्छाइ वा वस्त्रा-डोरी पर खेलने बालों के खेल को देखने वालों का मेला अरता है क्या ? 'मल्लपेच्छाह वा' भुज युद्ध करने वाले अल्लो के भुज युद्ध को देखने के लिये मनुज्यों का मेला भरताश्या ? 'बुष्ट्रिय ऐच्छाह वो' बुष्टि युद्ध करने वालों के मुष्टि युद्ध को देखने चाक मनुष्यों का मेला भरता है क्या ? 'विडंग पेच्छाइ वा मुख विशार आदि विविध विक्रियाओं द्वारा मनुः व्यों को हराकर चित्त को विनादित करले थाले चिदूषक जनों की चेष्टाओं को देखने के इच्छुक जनो का मेला भरला है क्या? 'महग पेच्छाइ वा सरस कथा के सहने श्रोताओं को रसोत्पादन करने वाले कथक जनों की कथाओं को सुनने के लिये भक्त मानवों का मेला भरता है क्या ? 'पचा पेच्छाह वा प्लवकजनों की उछल कूद को देखने वालों का मेला भरा क्या ? 'अक्खायण पेच्छाइ बा' शुभा शुभ का आख्यान करने वालों की जो सभा भरती है, उसका नृत्याने ना भाटे पाणा थये। मनुष्याने भो मराय छ ? 'जलपेच्छा દવા ગરવા દેરી પર ખેલ કરવા વાળાઓના ખેલને જોવાવાળાઓને મેળે सराय छ ? 'मल्लपेच्छाइवा' पाहु युद्ध ४२वामलाना माई युद्धन नेवा भाटे मनुष्याना भेजे। सराय छ १ 'मुद्रियपेच्छाइवा' मुष्टियुद्ध ४२१! पाणासाना भुष्टियुद्धने नवादा मनुष्याना भेणे सराय १ 'विड़बगपेच्छा ફૂવા” મુખવિકાર વિગેરે અનેક પ્રકારની વિકિયાઓ દ્વારા મનુષ્યને હસાવીને ચિત્તને પ્રસન્ન કરવાવાળા વિદૂષક જનોની ચેષ્ટાઓને જેવા ઈછનારા मनुष्याना भेजे। सराय छ? 'कहापेच्छाइ वा' सुह२ ४थामा वामां શ્રોતાઓને રસ ઉપજાવનારા કથક જનની કથાઓને સાંભળવા માટે मत ३५. मनुष्याना गणे। माय ? 'पवग पेच्छाइवा' 6 ३२१ मनुष्यानी नेनारामान भणे मराय छे ? 'अक्खायग
Page #670
--------------------------------------------------------------------------
________________
ફર્
जीवामिगमसूत्रे
प्रेक्षा- प्रेक्षणम् 'लास गपेच्छाइ वा' लासकमेक्षेति वा, लासकाः ये रासकान् ऐति हासिक गीत गायन्ति ते जयशब्दप्रयोक्तारो वा लासकास्तेषां प्रेक्षा 'लंखपेच्छा वा' लेखप्रेक्षेति वा, लङ्का महावंशात्र प्रारुह्य नृत्यकचरिः 'मंखपेच्छाह वा ' मा क्षेति वा, महा ये चित्रपट्टादिहस्ताभिक्षां चरन्यि, 'तूणइल्ल पेच्छावा' तूगइकप्रेक्षेति वा तूणानामक वाद्यवादकास्तेषां प्रेक्षा, प्रेक्षणकमित्यर्थः 'तुंवीण पेच्छावा' तुम्बीणामेक्षेति चा, तुम्नवीणा अलावुफलनिर्मिता विशेषरचनयानि मिना वीणा 'कावपेच्छाड़ बा' कावपेक्षेति वा, कावा:- कावडिका वाहकास्तेषां प्रेक्षा । 'माग पेच्छा व ' सागघपेक्षेति वा मागधाःस्तुतिपाठकास्तेषां प्रेक्षा वा एतानि मेला भरता है क्या ? 'लाभग पेच्छाइ बा' लासक जनों के ऐतिहा fee रातों-गीतों को गाने वालों अथवा जय जय शब्द बोलने वालों के लास्य को देखने वालों का मेला भरता है क्या ? 'लेख पेच्छाइ वा मंत्र पेच्छाइ वा, तू गहल्ल पेच्छाइ वा' लख-वांस पर चढकर खेलने वालों के खेल को देखने वालो का मेला भरता है क्या ? मंख - चित्र पहक हाथ में लेकर हर एक घर से भिक्षा मांगने वालों को देखने बालों का मेला भरता है क्या ! तृणा नामक वाद्यविशेष को बजाने वालों के उस वाद्य बजाने की कला को देखने वालों का मेला भरता है क्या ? 'तुंत्र वीण पेच्छाइ वा' तूंबडी की वीणा बजाने वालों की वादन क्रिया को देखने वालों का मेला भरता है क्या ? 'काव पेच्छा वा' कंधे पर कावड लिये फिरने वालों की विचित्र प्रकार की लीलाक्रीडा - को देखने वालों का सेला है क्या ? 'सागह पेच्छाइ वा' स्तुति पेच्छाइवा' शुल भने अशुभतु साभ्यान हरवावाजाभोनी ने सला भराय છે. તેનેા મેળા ભરાય हे ? 'लोसग पेच्छाइवा' सास नानी अर्थात् ઐતિહાસિક રાસ ગરબા ગાવાવાળા અથવા જય જય શબ્દા ખેલવાવાળાઓના सास्यने लेनारायनो भेजो लराय छे ? 'लखपेच्छ इवा मंस्वपेच्छाइवा, तूणइल्लपेच्छाइवा' स ंज-वांस પર ચઢીને રમત કરવાવાળાઓની રમતને જેનામા મનુષ્ચાના મેળેા ભરાય છે ? મખ-ચિત્રપટ હાથમાં લઇને દરેક ઘરમાં ભિક્ષા માગનારાઓને જોનારાએ ના મેળે ભરાય છે ? તૂર્ણ નામના વાદ્ય વિશેષને વગાડવાવાળાઓના તે વાદ્ય વગાડવાની કળાને દેખનારાઓના મેળેા लशय छे ? 'तू चवीण पेच्छा इवा' तुगडीनी वीणा वगोडवावाणागोनी वाहन छियाने नारायनो भेणेो लराय छे ? 'कामपेच्छाइवा' जमा पर अवड લઇને ફરવાવાળાએની વિચિત્ર પ્રકારની લીલા કીડાને જોનારાઓને મેળે अराय छे ? 'मागहपेच्छा इवा' स्तुति पाठ ४२वावाजा भागध बनाना स्तुति
Page #671
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिकाटीका प्र.३ उ.३ ७.४० ए० इन्द्रमहोत्सवादि वि. प्रश्नोत्तराः ६४७ पूर्वोक्तानि नटपेक्षादीनि प्रेक्षणकानि तत्र भवन्ति विम् ? भगवानाह-'णो णद्वे समडे' नायमर्थः समर्थः यतः 'ववरगयकोउहल्लाणं ते मणुअगणा पणत्ता समणाउसो' व्यपगत कौतूहलाः खल्लु ते मनुजगणाः प्रज्ञप्ता हे श्रमणायुष्मन् ! 'अन्थि णं भंते ! एगोरुयदीवे दीवे' अस्ति खलु भदन्त ! एकोरुकढीप द्वीपे 'सगडाइ वा' शकटमिति वा' शकट-लोकप सिद्धम् ‘रहाइवा' रथ इति वा पत्र स्थो द्विविधाक्रीडारथः संग्रामस्थश्च, तत्र संग्रामरथस्य प्राकारानुसारिणी फलशमयी वेदिका भवति, क्रीडारथस्य सान भवतीत्ययमेव विशेष: 'जाणाड या' यानमिति वा यायन्ते-गम्यन्ते अनेनेति यानं गन्नादि, 'जुग्गाड वा' युग्य मिति वा तत्र युग्यमिति गोल्लदेशमसिद्धं द्विहस्तभयाणं चतुरस्त्रवेदिकोएशोभितं पुरुषद्वयोरिक्षप्त पाठक मागधजनों के स्तुति पाठ को सुनने वालों का मेला मरता है क्या? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-हे गौतम ! 'णो इणटे समद्दे' यह अर्थ समर्थ नहीं है-अर्थात् ये नट के खेल आदि वहां पर नहीं होते है 'क्योंकि 'वक्गयको उहल्लाणं तेमणुयगणा षण्णत्ता' हे श्रमण आयुष्मन् वे मनुष्य गण कौतुहल ले विहीन होते हैं । अर्थात् उनके मन में किसी प्रकार का कौतूहल आदि देखने की इच्छा नहीं होती है, 'अस्थि णं भंते ! एगोरुय दीधे दीवे लगडाह का रहाइवा, जाणाइ था, जुग्गा वा गिल्लीह वा थिल्लीति वा पिल्लीइ वा, पवणाणि वा सिचाइ वा लंदनाणियाइ वा' हे भदन्त ! उस एगोरुक द्वीप में क्या माडा होता है ? रथ होता है रथ दो प्रकार का होता है भीडा रथ और संग्राम रथ, संग्राम रथ में अनेक प्राकार के आकार की काष्ठ नयी वेदिका होती है और क्रीडा रथ में वह नही होती है। यान-गाडी होती है ? युग्छ गोल्ल देश प्रसिद्ध પાઠને સાંભળનારાઓને મેળે ભરાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌतभस्वामीन ४ 'इणद्वे खमट्टे' अथ मरेम२ नथी. अर्थात् भा नटोना मेव विशेरे त्यां डाता ना. म 'ववगय कोउहल्ला ण ते मणुयगणा पण्णत्ता' श्रम आयुसन ! ते मनुष्यग] तुडस पिनाना डाय છે. અર્થાત્ તેઓના મનમાં કઈ પણ પ્રકારનું કૌતુક જોવાની ઈચ્છા હતી नथी. 'अस्थि णं भते! एगोरूयदीवे दीवे सगडाइवा, रहाइवा, जाणाइवा, जुग्गा इवा, गिल्लीइवा, थिल्लीतिबा रिल्लोइवा, पवहणाणि वा, सियाइवा, सदमाणी श्वा' सावन । ३४ीपwi शुभ हाय छ १ २थ य छ १२थ બે પ્રકારના હોય છે. તેમાં એક કીડા રથ અને બીજો સંગ્રામ રથ કહેવાય છે સંગ્રામરથમાં અનેક પ્રકારના આકારની લાકડાની વેદિકા હોય છે. અને ફીડા રથમાં તેવી વેદિકા હોતી નથી. યાન ગાડી હોય છે? યુગ્ય ગોલ્લદેશ પ્રસિદ્ધ
Page #672
--------------------------------------------------------------------------
________________
६४८
जीवामिगमत्रे यानं जपानमित्यर्थः, ''ल्लीइवा' गिल्लीति वा उत्र मिल्ली या हरिटन उपरिकोल्लरूपा स्थालीपा-या मनुष्यं मिलती प्रतिभाति सा अथवा पुरुषद्वयो क्षिप्ता डोलिका, 'थिल्लीति वा 'थिल्ली यानविशेषरूपा, यद् लाटदेशे अड्डपल्लाणमिति प्रसिद्धं यानं वदन्यदेशे थिल्लिरित्युच्यते, 'पिल्ली वा' पिल्किरिवि वा. पिल्ली :- लाटदेशन सिद्धं यद् उपभ्राणनाम्ना मसिद्ध यानविशेषं तदन्यदेशे पिल्लिरियुच्यते, 'पवहणा इवा' महणमिति वा प्रवहणं - नौका 'सिवियाइ वा' शिविका इति वा कूटाकार आच्छादितो जम्शनविशेष: ' पालखी' लोक प्रसिद्ध', 'संमाणिवाह वा स्यादसालिको पुरुष प्रमाणो जम्पानविशेषः सापि शिविका विशेषरूपैवेति । भगवानाह - 'ज' इण्डे समदे' नायमर्थः समर्थः, यतः 'पादचारविहरिणो ण ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो' पादचार विहारिणः खलु से मनुजरुणा प्रज्ञप्ताः - कथिताः हे भ्रमणः युष्मन् ! पादचारित्वेन तेषां न शकटादीनामावश्यकनेति । 'अन्थि णं भंते ! एगूरुय दीवेणं दीवे' अस्ति खलु मदन्त ! एकोरुकदीपे खलु द्वीपे 'आसाइ वा इत्थी वा ' चतुष्कोण वेदिका युक्त जंपान जिसे दो पुरुष उठाते हैं ऐसा यान - शेता है क्या ? बिल्ली हाथी के उपर रखा जाने वाला थाली के आकार का आसन होता है क्या ? बिल्ली - पिल्ली-लाट देश प्रसिद्ध दोनों एक प्रकार के विशेष यान होते हैं क्या ? प्रवहण - जहाज होता है क्या ? शिविका - पालखी होती है क्या ? व्यन्दमानिका - विशेष प्रकार की पालखी होती है क्या ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं - हे गौतम ! ' को इण्डे समड़े' यह अर्थ समर्थ नहीं है क्योंकि 'पादचारविहारिणों णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाहमो' वे मनुष्य हे श्रमण आयुष्मन् ! पादचारी ही होते हैं । ये घट आदि में बैठकर नहीं चलते हैं । 'अत्थि णं भंते! एगोरुवदीचे दीवे साह या, इत्थीह या उद्दाह या गोणाई वा,
ચતુર્કાણુ વેદિકા યુક્ત યાન વિશેષ પાલખી કે જેને બે પુરૂષા ઉઠાવે છે. આવા ચાના ઢાય છે ? ગિલ્લી એટલે હાથીના ઉપર રાખવામાં આવનારા થાલીના આકારનુ આસન હોય છે? થિલ્લી પિલ્લી લાટદેશ પ્રસિદ્ધ બન્ને એક પ્રકારના યાન વિશેષ છે તેવા યાનવિશેષ ત્યાં હોય છે ? પ્રવહેણ જહાજ હાય છે? શિબિકા પાલખીડાય છે ? સ્યન્તમ નિક વિશેષ પ્રકારની પાલખી હોય છે ? આ प्रश्नना उत्तरभां प्रभुश्री गौतमस्वाभीने अड्डे में डे हे गौतम! ' पादचार विहारिणो ण ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो हे श्रमायु आयुष्यभन्! ते
મનુષ્યે પગથી ચાલનારાજ દ્વાય છે. તેએા ગાડા વિગેરેમાં બેસીને ચાલતા नथी. 'अत्थि णं भ'ते ! एगोरूयदीवे दीवे, आखाइवा, हत्थीइवा, उट्टाइवा,
Page #673
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र. ३ रु. ३.४० ए० इन्द्रमहोत्सवादि वि. प्रश्नोत्तराः ६४९
C
अश्व इति चा' अश्वः - जात्या शीघ्रगमनशीलः, हस्ती इति वा, 'उहाइवा' उष्ट्र इति वा 'गोणाइवा' गौरिति वा, गौ:-बलीवर्द, घोटक उतिया, घोटकः सामाम्याश्वः यः 'टट्टू' इति प्रसिद्ध', 'अजाह वा' अन इरि दा 'एलाडवा' एडकउम्र इति वा, भगवानाह - 'हंता अस्थि' हन्त सन्ति, अश्वादयो भवन्ति कोरुक द्वीपे इत्यर्थः किन्तु 'णो चेवणं वेसि मणुवाणं परिभोगणार मागच्छति' नैव खलु ते अथादयस्तेषामेको रुकमनुजानां परिभोगता आरोहणादि तथा उपभोगाय कदाचिदपि नागच्छन्ति पादविहारिण एव ये यन्तीथि 'अस्थि णं भंते ! गोरुपदीवे दोघे ' अस्ति खलु भदन्त ! एकोरुक द्वीपे द्वीपे 'सीहाइवा' लिवइति, सिंह: - केसरी 'बग्घाइवा' व्याघ्राः शार्दूलहन वा 'विमाइ वा' वृकइति वा, वृरु: - 'भेडिया' श्वान जातिको हिंसक वन्यपशुः इति सिद्धा 'दीविया इरा' द्वीपिक इति वा, द्वीपिकश्चित्रकः 'चीता' इति प्रसिद्ध', 'अच्छाई व ' ऋक्ष इति वा ऋक्षो - भल्ला, 'पररसराइ वा पराकर इद्रे वा, पराशरः गण्डाभिधः पशुः 'गेंडा' इति प्रसिद्धः 'तरच्छाइ वा' ठरक्ष इति वा' सच मृगपक्षको व्यवजातीयः
महिसा था, खराइ वा घोडाइ वा अजाह वा, एलाइ वा' हे भदन्त ! एकोरुक द्वीप में क्या अश्व जातिवंत शीघ्र गाली उत्तम घोडा होते हैं ? हाथी होते हैं ? ऊंट होते हैं ? गाय बैल होते हैं ? भैंस भैसा होते हैं ? गधे होते हैं ? घोटक सामान्य घोड़ा जो टट्टू बहलाते है वे होते हैं ? अजा-बकरी बकरा होते हैं ? भेंड ऊरणिया होते हैं? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'हंता अस्थि' हां गौतम ! एकोरुक द्वीप में ये सब प्राणि होते हैं ! परन्तु 'णो चेव णं तेसि मणुवाणं परिभोगस्ताए व्ययागच्छंति' ये सब उन मनुष्यों के काम में नहीं आते हैं। क्योकि ये मनुष्य पाद विहारी ही होते हैं तथा इनका दुग्ध भी ये लोग काम में नहीं लेते
-
હું ભગવન્
गोणाइवा, महिसाइवा, खराइवा, घोड़ाइयां, अजाइवा एलाइवा, ' એકેક દ્વીપમાં ઉત્તમ જાતવંત શીધ્રગામી ઘેાડાએ હાય છે ? હાથીએ વ્હાય છે ? ઉંટ હાય છે ? ગાય અને ખદે હાય છે ? બેસે અને પાડાએ હાય છે ? ગધેડાએ હાય છે ? સામાન્ય પ્રકારના ઘેાડા કે જેને ટ કહેવામાં આવે છે તે હાય છે ? મકરી અને એકડાએ હાય છે? ભેડ ઘેટી અને ઘેટાએ ાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમ સ્વામીને કહે છે કે દૂંત્તાધિ’હા ગૌતમ ! કેરૂક દ્વીપમાં આ બધા आणियों होय छे. परंतु 'णो चेत्र णं तेसि मणुवाणं परिभोगत्ताए हव्यमागच्छंति' આ બધા તે મનુષ્યના કામમાં આવતા નથી. કારણ કે આ મનુષ્યેા પગથી ચાલવાવાળાજ હાય છે, તથા તું દૂધ પણ તેએ કામમાં લેત નથી.
4
जो० ८२
Page #674
--------------------------------------------------------------------------
________________
h
६५०
जीवामिगमसूत्रे
,
श्वापदविशेषः, 'सियालाइ चा' भंगाल इति वा 'विडालाइदा' चिडाळ इति वा, सच मार्जार: 'सुणगाडवा' शुनक इति वा स च श्वा 'कोलसुणगाडवा' कोलशुनक इति वासच ग्रामस्करः 'कोकंवियाइ वा' कोकन्दिका सा या रात्री 'कोको' शब्द करोति 'लोमडी' इति प्रसिद्धा 'सगाइवा' शक इति वा 'खरगोस' 'ससका' इति प्रसिद्धः 'चित्तलाइ वा' चित्रल इवि वा, चित्रल: चित्रवर्णो मृगाकारो द्विखुरः पशुविशेषः, 'चिल्लाई वा' चिल्लक इति वा श्वापद पशुविशेषः, एते तंत्र भवन्ति किम् ? भगवानाह - 'हंता अस्थि' हन्त, गौतम | एकोरुक द्वीपे सिंहादयः सन्ति किन्तु 'नो चेव णं ते अण्ण्णरस तेसिं वा यणुयाणं' नैव खल्ल हैं। ' अस्थि णं भंते! एगोरुय दीवे दीवे सीहाइ वा वरघार वा दिगाइ वा दीवियाइ वा अच्छाइ वा पररसराइ वा तरच्छाइ वा सियालाइ वा, fastलाइ वा सुणगाति वा कोलसुणगोति या कोकंतियाइवा रूसगाति वा, चितलाति वा विल्ललगाति वा' हे भदन्त । एकोरुक द्वीप में सिंह होते हैं क्या ? व्याघ्र होते हैं क्या? भेडिया-वृक होते हैं क्या? दीपी-चीता होते हैं क्या ? ऋच्छ भालु होते हैं क्या ? परासर - गेंडा होता है क्या ? तरक्ष- मृग को खाने वाले हिंसक जानवर विशेष होते हैं क्या ? सियाल होते हैं क्या ? पिडाल होते हैं क्या? शुनक - कुसे होते हैं क्या ? कोल शुनक - ग्राम सूकर-गंड सूर- होते हैं क्या? रात्रि में 'कोको' शब्द करने वाली कोकंतिका - लोमडी होती है क्या? शशक खरगोशहोते हैं क्या ? चित्रल- चितकावर जंगली जानवर जो मृग के आकार का दो खुर वाला होता है वे सर्व प्राणि यहां होते हैं क्या ? और चिल्लanrarve पशु विशेष होते हैं क्या ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैंहे गौतम | 'हंता अस्थि' हां, ये सब जानवर वहां होते हैं । परन्तु -' - 'नो 'अत्थि णं भंते ! एगोरूय दीवे दीवे सीहाइ था, वरधाइ वा, विगाइ वा, दीवियाइ वा, अाइ वा परखराइवा, तरच्छाइ वा, सियालाइवा, विडालाइवा, सुणगाति वा, कोलसुणगातिवा, कोक तियाइवा, ससगातिया, चित्तलातिवा, चिल्कलगातिवा,' हे ભગવન એક દ્વીપમાં સિંહુ હાય છે ? વાઘ હોય છે ? ભેડિયા-અર્થાત્ નાર રાય છે ? ચિત્તાએ હાય છે ? રી હાય છે? ગેંડાએ હાય છે ? તરચ્છ મૃગેાને ખાનારક હિંસક પશુ વિશેષ હાય છે ? શિયાળિયા હોય છે ? ખિલાડાએ હાય છે? કુતરાએ હાય છે ? ભુંડ હાય છે ? રાતમાં ‘કેકે' એવા શબ્દે કરવાવાળી લેાંકડી ત્યાં હાય છે ? સસલાએ હાય છે ચિત્રલ ચિત કાખર જ'ગલી જાનવર જે મુગના આકારનુ એ મરીયેાવાળુ હાય છે, તે ત્યાં સ`પ્રાણિ હોય છે ? અને ચિલ્લલક શ્વાપદ્ર પશુ વિશેષ હોય છે ? આા પ્રશ્નના ઉત્તરમાં अनुश्री हे छे ! हे गौतम ! 'हंता अस्थि' हा या अधा नवरे। त्यां हाय
-
Page #675
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमैयद्योतिकाटीका प्र.३ उं.३ .४० ए० इन्द्रमहोत्सवादि वि. प्रश्नोत्तरा: ६५९ ते सिंहादयः अन्योन्यस्य तेषां वा मनुजानाम् "किंचि आवाहं वा पाहं वा उप्पायति वा' किश्चिदाबाधां वा ईषद्बाध प्रवाधां वा प्रकर्षण वाधाम् उत्पाद: यन्ति-कुर्वन्ति वा 'छविच्छेयं वा-करेंति' छविच्छेद-चमकतनादिकं वा न कुर्वन्ति, एमिरेषां न कापि बाधा क्रियते इति भावः, कुतस्ते श्वापदा हिंसका अपि बाधां न कुईन्ति तत्राह-पगइ पदमा णं ते 'सावयगणा पण्णचा समणा. उसो' प्रकृति भद्रकाः स्वभावत एक सरलाः खलु ते श्वापदगणाः प्रज्ञप्ता:कयिताः, हे श्रमणायुष्मन् ! 'अस्थिय मंते ! एगोरुय दीवे दीवे' अस्ति खछ भदन्त ! एकोहक द्वीपे द्वीपे 'सालीइ वा शालिरिति वा शालिः-फलम: 'चीही इवा' ब्रीहिरिति वा 'गोधूमाइ बा' गोधूमइति वा 'जवाइ वा' यव इति वा 'तिलाइ वा तिल इति वा 'इक्खूड का' इनुरिति वा ? भगवानाह-'हंता अत्यि'
चेव णं ते अगमणस तेहिवा मणुया णं किंचि आषाहं वा पवाहं वा उपायति वा छविच्छेषं वा करेंति' ये जानवर आपस में एक दूसरे को अथवा उस मनुष्यों को थोडी सी भी बाधा था बहुत बाधा नहीं उत्पन्न करते हैं उनके शरीर को काटते नहीं हैं फाड़ते नहीं है. इत्यादि कुछ भी क्रिया नहीं करते हैं। ये मांस भक्षक होने पर भी किस कारण से ऐसा काम नहीं करते हैं तो इसके लिये सूत्रकार ने बताया है कि 'पगतिममाणं हे सावध अणा पण्णता०' वे श्वापद-जंगली जानपर प्रकृति से ही भद्रक सरल-होते हैं। 'अयि णं भंते ! एगोरुय दीवे दीवे सालीलिया, बीहिया गोधूमाइ ना, जवाइवा, तिलाइ वा इक्खूह वा' हे लहन्त ! एकोषक द्वीप में शाली-धान्य विशेष होता है क्या? ब्रीहि धान्य विशेष होता है क्या ? गोधूम गेहूं होते हैं क्या ? जो छे. परंतु ‘णो चेव णं ते अण्णमणस्य वेसिंवा, मणुयाणं किंचिआवाहवा पवावा, उप्पायतिवा, छविच्छेयं' वा करें ति' मा नपरे। ५२२५२मां से બીજાને અથવા તે મનુષ્યને છેડી કે વધારે પ્રમાણમાં બાધા કરતા નથી, તેઓના શરીરને કરડતા નથી. ફાડતા નથી વિગેરે કંઈ પણ હરકત પહોંચાડતા નથી. આ માંસ ભક્ષક હોવા છતાં પણ શા કારણથી આવા કામ કરતા નથી ? २५ माटे सूत्रधरे यु छ , 'पगतिभद्दगा " ते साक्यगणा पण्णत्ता' ते श्वा५ ली नपरे। प्रकृतिथी मद्र स२८ खाय छे. 'अत्थि ण भंते एगो. रुय दीवे दीवे वालीतिवा, वीहिया. गोधूमाइवा, जवाइवा, विलाइवा, इक्खइवा' હે ભગવન ! એ કેરૂક ઢીગમાં શાલીધાન્ય વિશેષ હોય છે ? વીહિ ધાન્ય વિશેષ હોય છે ? ઘઉં હોય છે? જવ હોય છે ? તલ હોય છે? સેલડી હોય છે ?
Page #676
--------------------------------------------------------------------------
________________
६५२
जीवामिगमत्र हन्त गौतम ! सन्ति एकोरुक द्वीपे शालिव्रीहि यवादिकाः, किन्तु 'नो चेव गं तेसिं मणुयाणं परिमोगत्ताए हव्वमागच्छंति' नैव खल्ल ते शाल्यादयः तेषा. मेकोरुकमनुजानां परिभोगतया-उपभोगाय कदाचिदपि आगच्छन्तीति । 'अस्थि ण भंते ! 'एगोरुय दीवे दी' अस्ति खल्ल भदन्त ! एकोरुक द्वीपे द्वीपे 'गत्ताइ वा' गर्ता इति वा, गती अप्रमती खड्डा, 'दरीइ वा' दरी इति वा, दरी मूपिकादिककृता लषी खड्डा, 'घसीइ वा' घसी इति वा, घसी-भूमिरजः 'भिगुत्ति वा भृगुरिति था, पर्वत शिखररूप प्रपातस्थानम् 'ओवाएइ वा अवपात इति वा, अपानो निम्ना भूमिः यत्र जनः स प्रकाशेऽपि पतति, 'विसमेइ चा' विषममिति वा, विषमम्-उच्चनीचत्वेन दुरारोहावरोस्थानम्, 'विज्जलेइ वा' विजलमिति बा, बिजलें शुकमायकदमस्थानम्, 'धूलीइ वा' धूलिरिति वा होते हैं क्या ? तिल होते हैं क्या ? इक्षु होते है क्या ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-हता अस्थि' हा गौतार! ये व वहां होते हैं। किन्तु 'णो चेव
तेलि मणुष्याणं परिमोत्ताए हवागच्छति' वे वहां के मनुष्यों के खाने आदि के काम में नहीं पाते हैं 'अस्थि णं भंते ! एगोरुय दीवे दीये भत्ताइ वा दी हया घसीह का, भित्ति बा, ओवाएइ वा, विस मेइ बा, बिज्जलेह था, रेणूह वा, पंकेइ वा चलणीइ बा हे भदन्त ! उस एकोहक छीप में बडे २, गत्त-खड़े-होते हैं क्या दरी-मूषिकों द्वारा किये गये छोटे २, गड़े-चिल-होते हैं क्या ? घसी फटी हुई लकीर बाली भूचि होती है क्या ! भृगु-पर्वत-शिखरादि उच्चप्रदेशहोते हैं क्या ! अनपात-ऐसे भी स्थान होते हैं क्या! कि जहां पर मनुष्य प्रकाश में भी गिर पड़े ! विषम ऐसे भी स्थान होते हैं क्या ! कि जहां अनुष्य का चढना उतरना कठिन होता है ऐसे भी स्थान
या प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४७ छ 'हता अस्थि' गौतम । म। मधुर त्यां डाय छे. परंतु ‘णो चेत्र णं वेसि सणुयाण परिभोगत्ताए हव्वमागच्छ नि' ते धान्यो त्यांना मनुध्ये न! म'डार माहिना अममा माता नथी. 'अत्थि ण भते! एगोरुयदीवे दीचे गत्ताइवा, दरीइवा, घलीइवा, भिगुत्ति वा ओवाएइवा, विसमेइवा,' है गन । यो३४ द्वीपमा भोट माटा ગર્તા ખાડા હોય છે ? દરી ઉંદરડાઓ દ્વારા કરવામાં આવેલ નાના નાના ખાડા હોય છે? અર્થાત્ નાના દરે હોય છે? ઘસેલી અર્થાત ફાટેલી તરાડવાળી જમીન હોય છે? પર્વત શિખર વિગેરે ઉંચા પ્રદેશો હોય છે. આવપાત એવા સ્થાને હોય છે? કે જ્યાં મનુષ્ય પ્રકાશમાં પણ પડી જાય ? વિષમ એવા સ્થાને હોય છે? કે જ્યાં મનુષ્યને ચઢવા ઉતરવાનું કઠણ બને ? જ્યાં થાડી
Page #677
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमैयद्योतिका टोका म.३ ३.३ यू.४० ए० इन्द्रमहोत्सवादि वि. प्रश्नोत्तराः ६५३ रेणूइ वा रेणुरिति-रजो बा, 'पंकेश का एक इति वा जलाविछ कर्दमः 'चल णीद वा चलनीति वा, चलनीचरणमात्रस्पी इदम एव, भगवानाह-'णो इणढे समठे' नायमर्थः समर्थः यतः एगोरुष दीवेणं दीवे' एकोरुक द्वीपे खल्ल द्वीपे 'बहुसमरमणिज्जे भूविशागे पणत्ते सम्मणा उसो' बहुसमरमणीयः भूमिभागः मज्ञप्तः हे श्रमणायुष्मन् ! 'अस्थि णं भंते ! एशोरुपदीवे दीवे' अस्ति खलु भदन्त ! एकोरुक द्वीपे द्वोपे 'खाणूइ बा' स्थाणुरिति पा स्थाणुः-उत्खातितधान्यमूल मृन काष्ठं वा 'कंटएइ वा इ.ण्टक इतिवा, 'होरएइ वा' होरकमिति चा, सूची मुखकाष्ठविशेष?, 'सक कराइ पा शकश इति वा शर्करा लघु प्रस्तर खण्डरूपा 'तणकश्वराइ वा वणकचर इति का पत्तायवराइ वा' पत्र कचवर होते हैं क्या ? कि जहां पर थोडे पानी का कीचड़ हो ? क्या ऐसे भी स्थान होते हैं जो धृलिन्दाले रेणुबाले एवं पङ्क-कीचड-बाले हों तथा बिजल-क्या ऐले भी स्थान होते है कि जिन में पैराम लिप्त हो ऐसे विना पानी का कीचड-झाद रहता हो ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'
गोटे सलहे गौतम ! यह अर्थ लर्थ नही है-अर्थात् वहाँ पर गर्त आदि बाले स्थान नहीं हैं क्योंकि-'बहु समरमणिज्जे भूमि भागे पण्णत्ते समजाउसो' हे श्रमण आयुगमन । वहां का भूमिभाग बहुस्सम-समतल और रमणीय कहा गया है। 'अस्थि णं भंते ! एगोरुय दीवे दीये हे भदन्त ! एकोस नाम के द्वीप में 'खाणूह था' क्या स्थाणु-उखाडे गये धान्य का सूल टूठ होता है ? 'कंटएइ वा' कंटक होते हैं ? 'हीरएति पा' हीक-जिसका मुख शचि के सुख के जैसा तीक्षा होता ऐसा काष्ठ विशेष-होता है क्या ? 'सकराति वा' પાછું વાળ કાદવ હોય એવા સ્થાને હોય છે? જે ધૂળ વાળા રતવાળા અને કાદવવાળા હોય એવા સ્થાને હોય છે ? અને જેમાં પગ મૂકવાથી બગડે એવા પણ વિનાને કાદવ હોય તેવા સ્થાનો હોય છે ? આ પ્રશ્નના उत्त२२ प्रमुश्री गौतमत्वामीन छ । 'णा इणटे समढे' हे गौतम ! ! म समय नथा. अर्थात् त्यो मापा २थान होता नथी भडे 'बहु समरमणिज्जे भूमिभागे पण्णते समणा उसो म मायुष्मन् । त्यांनी भूमिमा माउसम
४ स२ । भने २भय सुह२ साय छे 'अस्थि णं भंते ! एगोरुअ दीवे दीदे' हे भगवन् ! 11३४ नामना दीपभा 'साण्डया' मायामामात धान्यना भूण ४॥ य छे ? 'क टरजा' टस हाय छ ? हिरएइका' ही२४-२नो मय. ભાગ સેઈની અણ જે તીક્ષણ હેય એવું એક જાતનું કાષ્ઠ વિશેષ હોય છે ? 'सकराइवा' नाना ५०यशन। ४४७१ ५३५ सा४२ हाय ? 'तण कयवराइवा'
Page #678
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीचामिगमस्टे इति वा, पाण्येव कववरः 'असुईइ वा' अशुचिरिति वा अशुचिः श्लेमादिदेह. मलम् 'पूइय'इ वा पूतिकमिति बा, पूतिक कुथितं स्त्र स्वभावच लतं दुर्गन्धिवस्तु. जातम् 'दुम्मिगंधाइ वा दुरमिगन्ध इति वा; मृतकले वरादिजन्यमिव 'बचोक्खाइ वा' अचोक्ष मिति वा-अचोक्षमपचित्रमस्थ पादिन भगवानाह-'णो इणढे समठे' नायमर्थः समर्थः, यतः वयगयखाणुकंटकहीरगसककर तणकयवर पत्तकायवर अमुइ पूल्य दुभिगंधमचोक्खेणं एगोरु पदोवे पण्णते समगाउसो' पगत स्थाणुएण्टक हीरकशर्करा तृणरुचवर पत्रसववराशुचि पूतिक दुर्राभगन्धाचोक्षः खलु एक रुक द्वीपः प्रज्ञप्तः हे श्रमणायुजन् ! 'अस्थि णं भंते ! एग रुष दीये दीवे' अस्ति खलु भदन्त ! एकोहक द्वोपे द्वीपे 'दंसाहवा' दंश इति वा 'मसगाइ वा मशक इति वा एतो लोकपसिद्धौ ‘पिसुगाइ वा पिभुक इति या 'जुयाइ या' यक्षा इति वा, लघु प्रस्तरों की खण्ड रूप शर्करा होती है ? 'तण करबराह या तृणों का कूड़ा-कचरा होता है क्या ? 'पत्तचकरा पा' पत्तों का कूडाकचरा होता है क्या? असुइ वा अपविन्न पदार्थ होता है क्या ? 'पूतियाति वा पूतिक-स्वभाव से चलत दुर्गन्धी सडांश से भरा हुआ पदार्थ होता है क्या ? 'दुभिगंधाइ वा जिलशी गंध चूरी हो ऐसा होला है क्या? 'अचोक्खाइ था' मृतकलेवरादि के जैसा होता है क्या? इसके उत्तर में भभुनी कहते है-'जो इण लमट्टे' हे गोतम ! ऐसा अर्थ समर्थ नहीं है क्योंकि-'श्वगयखाणुकंटक हीरगसकरतण कायवरपसकयवर अलुइ पूतिय दुनिभगंध सचोक्खे णं एगोरुय दीवे पत्ते' हे श्रमण आयुष्मन् ! वह एगोरुक द्वीप स्थाणु कण्टक, होरक, शर्करा, तृणकचथर, पत्तकाचवर अशुचिता आदि से रहित होता है अस्थि णं अंते ! एगोरुष दीवे दीये दलाइ था, मस्तगाइ वा पिलुयाइ शानाय हाय ? 'पत्तकचवराइवा' पानापान ध्य। डाय छ ? 'असुइवा' मपवित्र पहा हाय छे ? 'पूतियातिवा' पूति २३सायी यसायमान थी सरस पहा काय छ १ 'दुभिगधाइवा' २नी गध पराम हाय तवा पहा हाय ? 'अचोक्खाइवा, भृत वाहिना का डाय छ १ मा प्रश्नना उत्तरमा प्रसुश्री ४ छ ‘णी इणटे समढे' हे गौतम ! २५ सय परामर नथी. भ. 'बवगयखाणु कटक होरगरकर तणकयवर पत्तकयवर असुइ प्रतिय अभिगंधमचोखणं एगोरुय दीये पण्णत्ते श्रम मायुभन् त ३४ द्वीप स्था, 1, १४२१, भ२डीया, घासना ध्यरा, ५ ना ध्यरे।, माया सिरिनाना हाय छ, 'अस्थि ण भते ! एगोरुयदीवे दीवे दसावा, मसगाइवा, पिसुयाइवा, जुयाइ वा, लिक्खाइ वा, ढंकुणाइवा' भगवन् -
Page #679
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयोतिका टीका प्र. ३ . ३ सू.४० ए० इन्द्रमहोत्सवादि वि. प्रश्नोत्तराः ६५५
'लिक्खाइ वा' fear ofत वा ढकुणाइ वा ठेकुण इति वा ढंकुणो-म कुणः ? इति प्रश्नः, भगवानाह - 'णो इट्ठे समट्ठे' नायसर्थः समर्थः यतः 'वगममसमपिसुयज्य छिवढं कुण एगुरुपदीवे पण्णत्ते समणाउसो ! व्यपगतदेशमशक पिशुकयूकाढकुण एकोरक द्वीपः प्रज्ञः हे श्रमणायुष्मन् 'अस्थि णं भंते ! एगोरुय दीवे दीवे' अस्ति खल भदन्त । एकोरुक द्वीपे द्वीपे 'अही वा' अहि - सर्प इनि वा 'जयगराइ ar' aaaat sfa वा, अनगरः स्थूलकाया सर्प': 'महोरगाइ बा' महोरग इति वा, विशाल कायः सर्प इसि प्रश्नः, भगवानराह'हंता अस्थि' इन्त, गौतम सन्ति सर्पायो जन्तव इति, किन्तु 'नोवेव णं ते वा जुधाइ वा लिक्खाह वा ढकुणाइ वा' हे भदन्त । एकोरुक द्वीप में दंश, शक, पिस्सू जू लोख, या मत्कुण-सटमल - होते हैं क्या ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'जो इट्टे समट्टे' हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् यहां देश-बिच्छ्र-आदि डंक से काटने वाले और मशब-मच्छर वगैरह ये एक भी नहीं होते हैं। क्योंकि-'गयसमसकपिय जूथ लिक्खर्दिकुणे णं एगोरुय दोवे पणन्ते' क्योंकि हे श्रमण आयुष्मन् ! यह एकोरुक द्वीप देश शक, पिस्सु, जू, लीख और मत्कुण इन से सर्वा रहित कहा गया है 'अस्थि णं भंते ! एगोरुव दीवे दोबे अहीर वा, अथगराह वा, बोरगाह वा' हे भदन्त ! एकोहरू द्वीप में क्या सर्प होते हैं ? अजगर होते हैं ? या महोरग महाकाय वाले सर्प विशेष होते हैं ? इसके उसर में प्रभुश्री कहते है - 'हता, अस्थि' हां गौतम ! ये सर्प आदि जीव यहां एकोरुरू द्वीप में होते हैं किन्तु 'नो चेवणं ते अन्न जन्नस्स तेर्सिंचा मणुयार्ण किंचि ३४ द्वीपसां दृश, भृशम् (२७२, दिस्सू, ू, सीम अथवा भाईड होय हे ? आ अश्नना उत्तरमां अलुश्री गौतमस्वाभीने हे } 'जो इट्टे समट्टे' हे गौतम! આ આ ખરેખર નથી. અર્થાત્ ત્યા દશ, મશકપિસ્સુ જૂ લીખ વીછી વિગેરે ડંખથી કરડવાવાળા અને મચ્છર વિગેરે ઉપદ્રવ કરવાવાળા જીવા હાતા નથી. 'जगद समपिसुयजूय लिक्खर्दिकुणेणं एगो यदीवे पण्णत्ते' हे श्रम આયુષ્મન્ મ એકાક દ્વીપમાં દશ, મચ્છર પિસ્સુ જૂ, લીખ અને માકડ विनाना हाय हे. ते वामां आवे छे 'अस्थि णं भवे ! एगोरुय दीवे दीवे हीईवा, अयगराइवा, महोरगाइवा' हे भगवन् ! थे । ३ द्वीपसां सर्दी હાય છે? અજગર હાય છે? અથા મહેારગ હાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં अलुश्री गौतमस्वाभीने छे 'हता अस्थि' हा गौतम | या सर्यो विगेरे वाहियां मा मेोइड द्वीपभा होय छे, परंतु 'तो चेव र्ण ते अण्ण
Page #680
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमस्त्रे अन्नमन्नस्स' नैव खल्ल ते सदियोऽन्योन्यस्य परस्परम् 'तेर्सि वा मणुयाणं किंचि आवाई वा पारा वा छविच्छे यं वा करेति' लेप वा एकेक मनुजानामावाधा मीषद् वाधां वा बाधां वा छविच्छेदं शरीर कतनादिकं वा न कुर्वन्ति, कुत एवं तबाह-पगइममाणं ते बाळगणा पन्नता समणाउसो' प्रकृति मद्रका:-स्वभावत एव सरला ते खलते व्यालपणाः रूपीः मज्ञप्त-ऋथिताः हे श्रमणायुमन् ! 'अधिणं भंते ! एनोरुयदीवे दीवे अस्ति खलु भदन्त ! एकोरूकद्वीपे खलु द्रोपे 'महदंडाइवा' ग्रहदण्ड इलिना, ग्रहदण्डः दण्डाकारो समुदाया, स चाकाशे दृश्यमानो लोकेऽनीव निपातहेको भवति । एवं 'गह मुसलाइ वा ग्रहमुशलाकारो ग्रह मादायः गाजियाइ नाप्रनितमिति बा-ग्रहसंचारजन्या ध्वनिः, 'महजुद्धाइ वा' ग्रहयुद्धमितिका, एकग्रहमध्याद द्वितीयस्य संचरणम्, द्वयोहयोरेक नक्षत्रे दक्षिणोत्तरेण समश्रेणियाऽवस्थानं दा 'महसिंघाडगाड वा' ग्रहशृङ्गाट कमिति वा-शृङ्गाटकाकार त्रिकोणो बहसमुदायः 'गहअक्सवाइ वा' ग्रहापसव्यमिति बा, सदा चन्द्रो ग्रहाणां नक्षत्राणां च दक्षिणमागे गति कुर्याचदा ग्रहापसव्यमिति कथ्यते, उसाच-दक्षिणेनापसव्यं स्याद्-उत्तरेण मदक्षिणम् । प्रहाणां चन्द्रमाज्ञेयो, नक्षत्राणां तथैव च' 'ग्रहयुद्धाध्यायः' 'अभाइ वा' अभ्रमिति बा-सामान्याकृतिको मेघः, 'अमरक्खाइ बा' अभ्रक्ष इति वा-गगनेआवाहं वा पदाहं वा छविच्छेयं का करेंति' वे आपस में एक दूसरे जीव को या वहां के मनुष्यों को थोड़ी सी सी सामान्य रूप से भी बाधा नहीं पहुंचाते हैं, विशेष रूप ले भी बाधा नहीं पहुंचाते हैं
और न उनके शरीर आदि का छेदन भेदन आदि ही करते हैं। क्योकि 'पगइ भद्दमा णं हे बालगणा पचनता समकाउसो' हे श्रमण आयुष्मन् ! ये सर्प आदि प्रकृति से भद्र होते कहे गये हैं । 'अस्थि णं भंते ! एगोरुघ दीवे दीये महदंडाइ हा गह मुसलाइ वा, गहणज्जियाइ वा गहजुद्धाइ हा मह संघाडगाइदा मह अथवाइ या अभाइ क्षा, मण्णस्स तेसिं वा मणुयाण किचि सावाहं वा, पवाईवा, छविच्छेय वा करें ति' तसे। ५२२५२ मे मील ने मथवा त्यांना मनुष्याने सामान्य પ્રકારથી થેડી પણ બાધા પહોંચાડતા નથી અને વિશેષ પ્રકારથી પણ બાધા પહોંચાડતા નથી. તેમજ તેઓના શરીર વિગેરેનું છેદન ભેદન પણ કરતા નથી. भडे 'पगइभद्दगा गं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो' श्रम। मायु भनू આ સર્પ વિગેરે પ્રકૃતીથીજ ભદ્ર હોય છે. તેમ કહેવામાં આવેલ છે, __'अत्थि णं भंते ! एगोश्य दीवे दीवे गहदंडाइवा, गह मुसलाइवा, गह गज्जियाइवा गहजुद्धा ईवा गह संधाडगाइन गह अवसव्वाइवा, अभाइवा,
Page #681
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ स.३ २.४१ ए० इन्द्रमहोत्सवादि वि. प्रश्नोत्तरा: ६५७ वृक्षाकारोऽभ्रपरिणामः, उक्तश्च-'दधिसदृशाम्रो नीलो भानुच्छ दीवमध्यगोऽभ्रतरु इति । संझाइ वा' सन्ध्येति वा, अहोरात्रस्य यः सन्धिा सा सन्ध्या, उक्तञ्च'अर्धास्तमितानुदितात, सूर्यादस्पष्टभं नमो यावत् । तावत्संध्याकालश्चिनरेतैः फलं चास्मिन् ॥१॥ किश्च- अहोरात्रस्य यः सन्धिः, सा च संध्या प्रकीर्तिता। द्विनाडिका भवे साधु याददाज्योति दर्शनम् । ॥१॥ सन्धिकाले रक्तनीलाधन परिणतिरूपा, गंधवनगराइ वा गन्धर्वनगरमिति वा, गन्धर्वनगरम्-देवभवन मासादोपशोभित नगराकारतया तथाविधनभः परिणत पुद्गलराशिरूपम् ‘गज्जियाइ अभरूक्खाइ वा, संझाइ वा, गंधवनगराइ वा, गजिया वा, विज्जु. याइ वा उक्का पायाइ वा, दिसादाहाइ बा, णिग्धायाइ वा, पंसु वट्टीइ वा, जुवगाइ वा' हे भदन्त ! एशोरुक द्वीप में शिखा बाले ग्रह का उदित होना, ग्रह दण्ड-अनिष्ट लूचक दण्डाभार ग्रह समुदाय, ग्रह मुसलमुशल के आकार का ग्रह समुदाय, ग्रह गर्जित-ग्रह संचार से होने वाली ध्वनि, ग्रह युद्ध एक ग्रह के मध्य से दूसरे ग्रह का संचरण, अथवा दो ग्रहों का एक नक्षत्र पर दक्षिण अथवा उत्सर में लमश्रेणि से आना ग्रहसंघाटक-दो ग्रहों का युग्मरूप से एक नक्षत्र रहना, ग्रहापसव-ग्रहों का वाम (बांया) भाग से दक्षिण भाग में चलना अर्थात् ग्रहों का व्यतिक्रमण-चक्र-होना, अभ्रसामान्याकृति वाले मेघों का उत्पन्न होना, अभ्र वृक्ष के आकार का बादलों का परिणाम, सन्ध्या-राते नीले बादलों का परिणाम, गन्धर्धनगर-देव भवन प्रासाद से शोभित नगर के प्रकार से परिणत आकाश में मेघ पुद्गल राशि का होना अध्भरुक्खाइपा, संझाइवा, गधन्वनगराइवा, गज्जियाइवा, विज्जुयाइ वा उक्कापायाई ना, दिसादाहाइ वा, णिग्यायाइ वा, पंसुविट्ठीइा, जुबगाईवा' हे ભગવન એ રૂક દ્વીપમાં શિખાવાળાગ્રહનુ ઉદય ૫ મવું, ગ્રહદંડ-અનિટ સૂચક દંડાકાર ગૃહસમુદાય, ગ્રહમુસલ-મુસલના આકારને ગ્રહ સમુદાય ગ્રહ ગજીત, -ગ્રહના સંચારથી થવાવાળી દવનિ, (અવાજ) ગ્રહયુદ્ધ-એક ગ્રહની મદમાંથી બીજા ગ્રહનું સંચરણ, અથવા બે ગ્રહોનું એક નક્ષત્રપર દક્ષિણ અથવા ઉત્તરમાં સમશ્રેણીથી આવવું. ગ્રહ સંધાટક બે હેનું યુમરૂપે એક નક્ષત્રમાં રહેવું.
હાપસવ ગ્રહોનું વામ ડાબી બાજુથી દક્ષિણ જમણી બાજુ ચાલવું. અર્થાત ગ્રહનું વ્યતિક્રમણ એટલે કે વક્ર થવું. અશ્વસામાન્ય આકૃતિવાળા મેનું ઉત્પન્ન થવું. અમ્રવૃક્ષના આકારના વાદળાઓનું પરિણામ, સંધ્યા રાતા નીલા વાદળા એનું પરિણામ ગંધર્વનગર-દેવભવન પ્રાસાદથી શેભતા નગરના આકારથી પરિણત થયેલા આકાશમાં મેઘ યુગલ રાશિનું થયું વિદ્યુત વાદળ વિના
जी० ८३
Page #682
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
-
काशमविवाह इति वा पतता रूपाणि समछिनाग्नि
६५८
जीवामिगमक्ष वा' गजितमिति वा. अभ्राभावे मेंघध्वनिः. विजुयाइ वा विद्युदिति बा, अनभ्रा. विधुच्चमत्कृतिः, 'उक्कापायाइ बा' उल्कापाव इति वा' उल्का-स्वर्गाच्च्यवमानस्य देवस्य यादृशो वर्णस्तत्मशवर्णा, तस्यापातः पतनं आकाशे संमृछिताग्नि ज्वालानिपतनरूपः उक्तञ्च-'दिवियुक्तशुभफलानां पततां रूपाणि यानि तान्युल्का' इति, 'दिसादाहाइ वा दिग्दाह इति वा, कस्यांश्चिदेकस्यां दिशि छिन्नमूलाग्नि ज्वालाकरालिताकाशप्रतिमासरूपः, दिग्दाहस्य फलं यथा
दाहोदिशां राजभयाय पीतो देशस्य नाशाय हुताशवर्णः ।
यच्चारुणः स्यादपसवश्वायुः, सस्यस्य नाशं स करोति दृष्टः' ।१॥ 'णिग्यायाह वा' निर्घात इति वा-निर्घातो विद्युत्मपतनध्वनिः, 'पंसु. विट्ठीइ वा पांशुवृष्टिरिति वा गगनतो धूलिवर्षणम्, 'जुगाइ वा' यूपक इति वा, यत्र संध्याप्रमा चन्द्रप्रभा च युगपद् भवतः स यूपक इति कथ्यते सन्ध्या. प्रभाचन्द्रमभयोनिश्रत्वं यूपक इति । उक्तञ्च-'संझच्छेयावरणो, उजूदगो मुक्कदिणतिन ।' सन्ध्याछेदावरणस्नु यूपा शुक्लदिनानि त्रीणि, इतिच्छाया । स च शुक्ल. पतिपदिषु त्रिषु दिनेषु भवति तत्र सन्ध्याविभागो न लक्षितुं शक्यते स इति । गजिह-विना बादल के मेघ ध्वनि होना, विशुन-विना बादल के बिजली का चमकना, उल्कापाल-आकाश में संमूर्छिम अग्नि ज्वाला का गिरना, दिग्दाह-किसी एक दिशा में छिन्न स्चूल अग्नि ज्वाला का भयानक प्रतिभा होना, निर्यात-बिजली के पड़ने का कडाका, पांशु वृष्टि-आकाश से धूलि का गिरना, यूपक उसको कहते हैं, जिस दिन संध्या की प्रभा और चन्द्रमा की प्रभा एक साथ मिली हुई होती है जिससे संध्या का पता नहीं चलता है इसीलिये कहा 'संध्या प्रभा चन्द्र प्रभयोर्मित्वं यूपकेः' कहा भी है 'संझच्छेया वरणो०' अर्थात् संध्या छेइ-संध्याके विभाग मे आवरण हो जावे-संध्या का पता नहीं चले वही यूपक वही बालचन्द्र का दिन है वह शुक्ल पक्ष की વિજળીનું ચમકવું. ઉલકાપાત આકાશમાં સંમૂર્ણિમ અગ્નિજવાલા પડવી, દિગ્દાહ કેઈ પણ એક દિશામાં છિન્નમૂળ અગ્નિવાલાને ભયંકર પ્રતિભાસ થવો, નિર્ધાત વિજળી પડવાના કડાકા, પાંશુવૃષ્ટિ આકાશમાંથી ધૂળ પડવી, જે દિવસે સંધ્યાનો પ્રભા અને ચંદ્રમાની પ્રભા એક સાથે મળી હોય તેને ચૂપક કહે છે કે જેથી સંધ્યા થયાનું જાણી શકાતું નથી. તેથી જ કહ્યું છે કે 'सध्या प्रभा चन्द्रप्रभयो मिश्रत्वं यूपक.' मी पय ४यु छ। 'सझच्छेयावरणो०' અર્થાત્ સંધ્યાછેદ–સ ધ્યાના વિભાગમાં આવરણ આવી જાય, સંધ્યા જાણી ને શકાય, તેજ યુપક તેજ બાલ ચંદ્રને દિવસ, અને એજ શુકલ પક્ષનો પડવો વિગેરે ત્રણ દિવસમાં થાય છે. અર્થાત્ પ્રતિપદા વિગેરે ત્રણ દિવસમાં થાય
Page #683
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र. ३. उ. ३ सू.४१ ए० इन्द्रमहोत्सवादि वि. प्रश्नोत्तराः ६५९ 'क्वालिचा वा' यक्षादीप्तकमिति आकाश दृश्यमानमग्निसहित पिशाचरूपम् | 'धूमियाइ वा' धूमिकेति वा' धूमिका नाम या रूक्षा प्रविरळा धूमामा दृश्यते ! 'महियाइ वा 'महिकेति वा महिका या स्निग्धा घनाघनत्वादेव भूमी घसारिता तृणाद्यग्रस्थित जलकणदर्शनत उपलक्ष्यमाणा धूमासा । 'रउग्वाह वा' रजउद्धात इति वा रजसा सूक्ष्मधूलिकया दिशां व्याप्तत्वस् 'भद्य रजस्वलादिशः' लोके कथ्यते । 'चंदोवरागाइ वा' चन्द्रोपरागश्चन्द्रग्रहणमिति वा 'सरोवरागेइ वा' सूर्योपरागः सूर्यग्रहणमिति वा । 'चंद्रपरिवे साइवा' चन्द्रपरिवेष इवि वा 'सुरपरिवेसाड़ वा' सूर्यपरिवेष इति वा' परिवेषो नाम चन्द्रसूर्य योश्चतुर्दिक्षु गोलाकार परिमण्डलम् | 'पडिचंदाइ वा' प्रतिचन्द्र इति वा उत्पातादि सूचको द्वितीयश्चन्द्रः मतिचन्द्रः चन्द्रसमीपे यदा
प्रतिपदा आदि तीन दिनों में होता है प्रतिपदा द्वितीया और तृतीया, इन तीन दिनों में प्रायः संध्या विभाग दुर्लक्ष्य हो जाता है ।
यक्षादीस - आकाश में दिखने वाली अग्नि लहित पिशाच का रूप, धूमिका- रुक्ष - बिनाजलकण की छुट्टी- छुटी धूआं जैसी होता है, महिकास्निग्ध घन, तथा घन होनेसे ही भूमि पर फैली हुई तृण के अग्र भाग में जलकणों के देखने से जानी जाती हुई धूआं जैली होती है। रजउद्धात सूक्ष्म धूलि से दिशाओं का भर जाना, उस समय दिशा रजस्वला है, ऐसा लोक कहते हैं । चन्द्रोपराग - चन्द्र ग्रहण, सूर्यो पराग सूर्य ग्रहण, चन्द्रपरिवेष - चन्द्र के चारों तरफ होने वाला . गोलाकार परिमण्डल-गोल कुंडाला, एवं सूर्यपरिवेष सूर्य के चारों तरफ होने वाला परिमण्डल प्रतिचन्द्र एक चन्द्र से दूसरा चन्द्र दिखना, एवं प्रति सूर्य-दो सूर्यो का दिखना, इन्द्र धनुष-धनुष के आकार का
છે. એટલે કે પડવા, ખીજ અને ત્રીજ81 ત્રણ દિવસમાં ઘણે ભાગે સ ધ્યા વિભાગ દુર્લક્ષ્ય થઈ જાય છે, યક્ષાદીસ-માકાશમાં દેખાવાવાળા અગ્નિ સહિત પિશાચનું રૂપ ભૂમિકા રૂક્ષ પાણિના બિંદુ શિવાય શ્રૃતિ ટિ આકળ જેવી होय छे. महिला - स्निग्ध, धन, तथा धन होवाथीन भीन पर सायली ઘાસના અગ્રભાગમાં પાણીના બિંદુઆના જોવાથી જાણવામાં આવેલ વાડા જેવી હાય છે. રજઉદ્ઘાત થી ધૂળથી દિશાએ ભરાઈ જવી. તે સમયે દિશા રજસ્વલા છે તેમ લેકા કહે છે. ચ ંદપરાગ-ચંદ્રગ્રહણુ, સૂર્યેૉંપરાગ સૂર્ય મહેસુ, ચંદ્ર પરિવેષ ચદ્રની ચારે બાજુ થવાવાળુ' ગાળ આકારનું પરિभौंडस, अर्थात्, गोफ डुडाणु', 'सूर्यपरिवेप' सूर्यनी यारे भानु थवावाणु परि
Page #684
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमसूत्रे
तनुधनोभवेत्तदाचन्द्रमकाबाद् द्वितीयचन्द्र इव तत्र लक्ष्यते 'पडिराइवा' प्रतिसूर्य इति वा' एवं प्रतिनूर्योऽपि, उक्तहि - 'उदयात्मभृति महरेकदिनं यावत् तनुधनोऽर्क समीपे यदा भवति तदा अर्करश्मिवशात्तत्र द्वितीयोऽर्क इव लक्ष्यते स प्रतिसूर्य उच्यते, एवमस्तसमयेऽपि संभवति' इति । 'इंधणुइ ना' इन्द्रधनुरिति वा सन्ध्या समये धनुराकारा नानावर्णा रेखा, 'उदगमच्छाइ वा' उदकमत्स्य इति वा उदकमह्यः तात्कालिकष्ट सूचको गगने दृश्यमान इन्द्रधनुष एव खण्डरूपः 'अमोहाइ वा' अमोघ इति वा, अमोघः- सूर्यास्तनन्तरं तत्कालमेव सूर्यविम्वान्निस्सृतागगने शकटोद्धिसंस्थिता वृष्ट्यादि सूचिकाश्यामादिरेखा 'कविहसियाइ वा' कपि उसितमिति वा, अकस्मान्नमसि श्रूयमाणं वा नरमुखसदृशस्य विकृतमुखस्य हसनज्ज्वलभीमशब्दरूपम्, 'पाईणवायाइ वा 'प्राचीनवात इति वा 'पडीणवायाइ वा ' प्रतीचीनवात इति, 'जाव' यावत् 'सुद्धवायाइ चा' शुद्धवात इति वा अत्र यावत्पदेन प्रज्ञापन प्रथमपदोक्ता एकोनविंशविवदिश्वायुकायभेदाः संग्राह्याः- तथाहि'पाईणवाए१, पडीणवाएर, दाहिणवाएर, उदीणवाए४, उढाचाए५ अहोवाए६ तिरियवाए७ विदिसीवाए८ वाउन्मामे९ वाउकलिया१० वायमंडळिया ११ नाना वर्ण वाली रेखा, उदकमत्स्य - तत्काल में होने वाली दृष्टि का सूचक उसी इन्द्र धनुष का टुकडा, अमोघ सूर्यास्त के बाद आकाश में तत्काल सूर्य बिम्व से निकलती हुई शकट के ओषण के आकार की वृष्टि आदि की सूचक श्याम आदि वर्ण वाली रेखा, कपिहसित-अकस्मात् आकाश में सुनाइ देने वाला भयंकर शब्द प्राचीन वात- पूर्व का वायु प्रतीचीनवायु-पश्चिम का वायु यावत् शब्द वायु | वायु १९ उन्नीस प्रकार का प्रज्ञापना सूत्र के प्रथमपद में कहा गया है वे उन्नीस प्रकार के वायु इस प्रकार है- पूर्व वात १, पश्चिम दात २, दक्षिण यात ३, उत्तर મડળ, પ્રતિચંદ્ર-એક ચ'દ્રથી ખીજા ચદ્રનુ' દેખાવુ એવ પ્રતિ સૂર્ય-એ સૂર્યનું દેખાવું, ઈંદ્ર ધનુષ, ધનુષના આકારની અનેક ર'ગેાવાળી રેખાનું આકાશમાં દેખાવું. ઉદકમત્સ્ય-તત્કાલમાં થવાવાળી વર્ષોં સૂચક, એ જ ઈદ્રધનુષનેા ખંડ, અમેાઘ-સૂર્યાસ્ત પછી આકાશમાં તેજ વખતે સૂર્ય બંખમાંથી ગાડાના એ ધણુના આકારને વરસાદ વરસવાની સૂચના ખતાવનારી શ્યામ વિગેરે રંગની રેખા, કપિહસિત-અસ્માત આકાશમાં સંભળાનાર ભયંકર શબ્દ, પ્રાચીવાત પૂના વાયુ, પ્રતીચીનવાયુ-પશ્ચિમના વાયુ ચાવત્ શબ્દથી ૧૯ ઓગણીસ પ્રકારના વાયુ પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના પહેલા પદમાં કહેલ છે. તે ૧૯ ઓગણીસ વાયુ આ પ્રમાણે છે. પૂવાત ૧, પશ્ચિમવાત ૨, દક્ષિણુવાત ૩, ઉત્તરવાત
६६०
-
Page #685
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमैयद्योतिका टोका प्र.३ उं.३ १.४१ एं० इन्द्रमहोत्सवादि वि. प्रश्नोत्तराः ६६१ उक्कलियावाए १२ मंडलियावाए १३ गुनावाए १४, झंझावाए १५ संवाए १६ घणवाए१७ तणुवाए१८ सुद्धवाए१९' इति छाया-पाचीनवात:१ प्रतिची नवात:२ दक्षिणवातः३ उदीचोनवातः ४ ऊर्ध्ववात:५ अधोवातः६, तिर्यग्वातः७ विदि. ग्वाता८ वातोद्भाम:९ वातोस्कलिका१० वातमण्डलिका ११ उत्कलिकावातः१२ मण्डलिकावात:१३ गुञ्जाबात:१४ झञ्झावातः१५ संवर्त्तवात १६ घनवातः१७ तनुवात:१८ शुद्धवातः१९ इति । 'गामदाहाइ वा' ग्रामदाह इति वा 'नगरदाहाइ वा' नगरदाह इति वा 'जाव सनिवेसदाहाइ वा' यावत् सन्निवेशदाह इति वा यावत्पदेन खेटकवटादीनां संग्रहा, तत्र ग्रामदाहायसंभवात्तजनितः प्राणक्षयादिरपि न भवतीत्याह-'पाणक्खय' इत्यादि । 'पाणक्ख यजणक्खयकुलक्खयधणक्खय वसणभूयमणारियाइ वा' पाणक्षयजनक्षयकुलक्षयधनक्षय वसनभूतानार्या इति वा, माणक्षयादयोहि व्यसनभूता दुःखरूपा अतएव अनार्याः ते तत्र एकोरुकवात ४, उर्ध्व पात ५, अधो वात ६, तिर्यग्वात ७, विदि ग्बात ८, वातोदाम ९, दातोत्कलिका १०, दात मण्डलिका ११, उत्व लिका वात १२, मण्डलिका वात १३, गुंजा बाप्त १४, झंझा वात १५, सवतवात १६, घनवात १७, तनु वात १८, और शुद्ध वात १९। 'गाम दाहाइ वा,' ग्राम दाह 'नगर दाहाइ वा नगर दाह 'जाक्ष सन्निवेल दाहाइ वा यावत् सनिवेश दाह-यावत्पद से खेट दाह, कर्बट दाह मडव दाह इत्यादि का ग्रहण होता है, इन ग्राम दाहादि की असंभावना से यहां प्राणक्षयादि नही होते है वह कहते हैं-'पाणक्खय जणक्खय कुलवखय धणक्खय, बसणभूतमणारिया ति बा' प्राणक्षय, जनक्षय, कुलक्षय, धनक्षय व्यसन-कष्ट आदि अनार्य-उत्पात-होते हैं क्या ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'जो इणढे समडे' हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है ४. Eqand ५, मधेावात, तिपात ७, वात ८, पाताभ्राम ८ વાતેકલિકા ૧૦, વાતમંડલિકા ૧૧, ઉત્કલિકાવાત ૧૨, મંડલિકાવાત ૧૩, ગુજરાત ૧૪, ઝંઝાવાત ૧૫, સંવત વાત ૧૬, ઘનવાત ૧૭, તનુવાત ૧૮, भने शुद्धपात १८, 'गामदाहाइवा' महा 'नगर दाहाइवा' नगाड 'जाव मन्निवेसदाहाइवा' यावत् सन्निशहा यावत् ५४थी मेटहाई, भमहार ઈત્યાદિનું ગ્રહણ થાય છે. આ ગ્રામદાહ વિગેરેની અસંભાવનાથી ત્યાં પ્રાણ નાશ विशेष यता नथी । ४ । 'पागक्खय जणक्खय कुलक्खय धणक्ख य, वसणभूत मणारियातिवा,' प्राणुक्षय, नक्षय, क्षय, धनक्षय, व्यसनકારક અનાર્ય ઉપદ્રવ, ઉત્પાત થાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમ वाभान छ, 'णो इण खम' गौतम! म म पर नथा.
Page #686
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमस्टे द्वीपे भवन्ति न वेति प्रश्नः, भगवानाह-'णो णटे समढे' नायमर्थः समर्थः । गौतम ! एते ग्रहदण्डादयो धनक्षयान्ताः एकोरुकद्वीपे न भवन्तीति । अयं भाव:अत्र 'नोह गट्टे सम?' अनेन पदेन पूर्वोक्त सर्ववस्तूनां-निषेधः सिध्यति-किन्तु अत्र वायुनां यो निषेधः सः अमुखहेतुभूतविकृतरूपवायुविषयको बोध्यः न तु सामान्यवायुविषयकः सुख हेतुभूतसामान्य पूर्वा दिवातस्य तत्रापि संभवादिति ॥२० ४१॥
मूलम्-अस्थि पं भंते ! एगोरुष दीवे दीवे डिबाइ वा डम__ राइ वा कलहाइ वा वोलाइ वा खाराइ वा वेराइ वा विरुद्ध
रजाइ वा?, णो इणठे समटे, वगय डिंबडमरकलहबोलखारवेरविरुद्धरजाणं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो!। अत्थि णं भंते ! एगोरुथदीवे दीवे महाजुद्धाइ वा महासंगामाइ वा महासत्थानबडणाइ वा महापुरिससन्नाहाइ वा महारुहिरपडणाइ वा नागवाणाइ वा खेबाणाइ वा तामसबाणाइ वा णो इणद्वे समढे ववषयवेराणुबधाणं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो! अस्थि णं भंते ! एगोरुय दीवे दीवे दुब्भूइयाइ वा कुलरोगाइ वा गामरोगाइ वा णगररोगाइ वा मंडलरोगाइ बा सिरोवेयणाइ वा अच्छिवेयणाइ वा कण्णवेयणाइ वा णकवेयणाइ वा दंतवेयणाइ वा नखवेयणाइ बा कासाइ वा सासाइ वा जराइ वा दाहाइ अर्थात्-प्रहदण्ड, ग्रहमुसल आदि ये मब उत्पात वहां नहीं होते हैं। यहां सारांश यह है कि-यहां 'नो इणढे सम?' इस पद से पूर्वोक्त सष वस्तुओं का निषेध सिद्ध होता है किन्तु यहां जो वायु विषयक निषेध है वह असुख का हेतुभून दिकृत-प्रतिकुल वायु का निषेध परक है किन्तु सुखोत्पादक सामान्य वायु का निषेध नही है. क्योंकि सुख का हेतुभूत सामान्य पूर्वादि वायु का वहां भी मद्भाव है ॥ सूत्र ४१॥ અર્થાત ગ્રહ દડ ગ્રહ મુસલ, વિગેરે આ બધા ઉત્પાતે ત્યાં થતા નથી. આ ४थन। सा२छे ४ महियां 'णो इणद्वे समडे' मा ५४या पडता ४९ પ્રશ્ન વાક્યના તમામ પ્રશ્નોને નિષેધ થાય છે. પરંતુ અહિયાં જે વાયુના સંબંધમાં નિષેધ છે, તે અસુખના કારણ રૂપ વિકૃત–પ્રતિકુળ વાયુને નિષેધ બનાવનાર છે. પરંતુ સુખકારક સામાન્ય વાયુને નિષેધ નથી. કેમકે સુખના કારણરૂપ સામાન્ય પૂર્વાદિ વાયુને સદૂભાવ ત્યાં પણ છે જ સૂ ૪૧ |
Page #687
--------------------------------------------------------------------------
________________
E
प्रद्योतिका टीका प्र.३ उ०३ सु. ४२ एको० डिवडमर - फलहादिनिरूपणम् ६६३ वा कच्छुइ वा खसराइ वा कुट्टाइ वा कुडाइ वा दगोयराइ वा अरिसाइ वा अजीरगाइ वा भगंदराइ वा इंदग्गहाइ वा खंदगहाइ वा कुमारग्गहाइ बा नागग्गहाइ वा जबखग्गहाइ वा भृतग्गहाइ वा उत्रेयग्गहाइ वा धणुग्गहाइ वा एगाहियग्गहाइ वा बेयाहियगहियाइ वा तेयाहियगहियाइ वा चाउत्थगाहियाइ वा हिययसूलाइ वा मत्थगसूलाइ वा पाससूलाइ वा कुक्षिसुलाइ वा जोणिसूलाइ वा गाममारीइ वा जाव सन्निवेसमाइ वा पाणक्य जाव वसणभूयमणारियाइ वा ? णो इणट्रे समट्टे, ववगयरोगायका णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो ! | अस्थि णं भंते । एगोरुय दीवे दीवे अतिवालाइ वा मंदवासाइ वा सुट्टीइ वा दुव्वुट्टीइ वा उच्दाहाइ वा पवाहाइ वा दगुब्भेयाइ वा दगुप्पीलाइ वा गामवाहाइ वा जाव सन्निवेसवाहाइ वा पाणक्य जाव वसणभूयमणारियाइ वा ? णो इणट्टे समट्टे aarदगोवदवाणं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो ! | अस्थि णं भंते ! एगोरुय दीवे दीवे अयागराइ वा तंवागराइ सीसागराइ वा सुवण्णागराइ वा रयणागराड़ वा वइरागराइ वा वसुहाराइ वा हिरण्णवासाइ वा सुवण्णवासाइ वा रयणवासाइ वा वइरवासाइ वा आभरणवासाइ वा पत्तवासाइ वा फलवालाइ वा बीयवासाइ वा मल्लवालाइ वा गंधवासाइ वा वण्णवासा वा चुण्णवासाइ वा खीरखुट्टी वा रयणवुट्टीइ वा हिरण्णवुट्टीइ वा सुवण्णवुट्टीइ वा तहेव जाव चुण्णवुट्टीइ वा सुकालाइ वा दुकालाइवा सुभिक्खाइ वा दुभिक्खाइ वा अप्पग्घाइ वा महग्घाइ वा काइ वा महाविक्याइ वा सण्णिहाइ वा संचयाइ वा निधीह वा रिपोराणाइ वा पहीणसामियाई वा पहीणसेउयाइ वा
Page #688
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगम पहीणमग्गाइ वा पहीणगोत्तागाराइ वा जाइं इमाइं गामागरणगरखेडकब्बडमडंबदोणमुहपट्टणासमसंवाहसन्निवेसेसु सिंघाडगतिगच उक्चच्चर चउम्मुहमहापहपहेसु णगरणिद्धमणसुसाण गिरिकंदरसंतिसेलोक्ट्राणभवणगिहेसु सन्निक्खित्ताई चिटुंति ? नो इणटे समटे । एगोरुय दीवे गं भते ! दीवे मणुयाणं केव
इयं कालं ठिई पण्णता ? गोयमा! जहन्नेणं पलिओवमस्स __ असंखेजइमागं असंखेनइभागेण ऊणगं उक्कोसेण पलिओवम___स्त असंखेजहभागं । ते णं भंते ! मणुया कालमासे कालं किच्चा
कहिं गच्छंति कहिं उववजंति ? गोयमा! ते णं मणुया छम्मासा. ___ वसेलाउया मिहुणयाइं पसवंसि अउणासीइ राइं दियाई
मिहुणाई सारक्खंति संगोविंति य, सारक्खित्ता संगोवित्ता उस्तसित्ता निस्सासित्ता कासित्ता छीइत्ता जंभइत्ता अकिट्टा अब्बहिया अपरियाविया पलिओवमस्ल असंखिजइभागं परियाविय सुहसुदेणं कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति, देवलोय परिग्गहाणं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो ! ॥सू० ४२॥
छाया-अस्ति खल खदन्त ! एकोरुक द्वीपे द्वीपे डिम्ब इति वा डमर इति वा कलह इति वा बोल इति वा क्षार इति वा वैरमिति वा विरुद्धराज्यामिति वा ?, नायपर्थः समर्थः 'व्यपगतडिम्बडमरकलहबोलक्षारवैरविरूद्धराज्याः खल्ल ते मनुज. गणाः प्रज्ञाः श्रपणायुष्मन् ! अस्ति खलु मदन्त ! एकोरुकद्वीपे द्वीपे महायुद्ध इति वा महासंग्राम इति वा महाशस्त्रनिपतनमिति चा महापुरुषसन्नाह इति वा महारूधिरपतनमिति वा नागवाण इति वा खेवाण इति वा तामसबाण इति वा नायमर्थः समर्थः व्यगतवेरानुबन्धाः खलु ते मनुज गणाः प्रज्ञप्ताः श्रमणायुष्मन् ! अस्ति खल भदन्त ! एकोहक द्वीपे द्वीपे दुर्भुनिक इति वा कुलरोग इति वा ग्रामरोग इति वा नगररोग इति वा मण्डलरोग इति वा शिरोवेदनेति वा अक्षिवेद. नेति वा, कर्णवेदनेति वा नासिकावेदनेति वा दन्तवेदनेति वा कास इति वा श्वास इति वा ज्वर इति वा दाह इति वा कच्छूरिति वा खसर इति वा कुष्ठ
Page #689
--------------------------------------------------------------------------
________________
'प्रमेयधोतिका ठीका प्र.३ उ. ३.४२ पको० डिवडमर-फलहादिनिरूपणम् ६६५
इति वा कुड इति वा दगोदर इति वा अर्श इति वा अजीरग इति वा भगन्दर इति वा इन्द्रग्रह इति वा स्कन्दग्र इति वा कुमारग्रह इति वा, नागग्रह इति वा यक्षग्रह इति वा भूतग्रह इति वा उद्वेगग्रह इति वा धनुग्रह इति वा एकाहिकाग्रह इति वाहिक इति वा व्याधिकग्रह इति वा चतुरादिग्रह इति वा हृदयशूलमिति 'वा, मस्तकशूलमिति वा, पार्श्वशूलमिति वा कुक्षिशूलमिति वा योनिशुलमिति वा, ग्राममारी इति वा यावत् सनिवेशमारी इति वा, प्राणक्षय यावद् व्यसनभृतानार्यां इति वा ? नायमर्थः समर्थः, व्यपगतरोगातङ्का खलु ते मनुजगणाः प्रज्ञप्तः श्रमणायुष्मन् ।। अस्ति खल्ल भदन्त ! एकोरुक द्वीपे द्वीपे अतिवर्ष इति वा मन्दवर्ष इति वा सुवृष्टिरिति वा दुर्वृष्टिरिति वा उद्वाह इति वा प्रवाह इति दकोदभेदइति वादकोत्पलेति वा ग्रामवाह इति वा यावत् सन्निवेशवाद इति वा माणक्षय० यावद् व्यसनभृतानाय इति वा नायमर्थः समर्थः व्यपगतोदोपद्रवाः खलु ते मनुजगणाः प्रज्ञताः श्रमणायुष्मन् ! अस्ति खलु भदन्त ! एकोरुक द्वीपे द्वीपे भय आकर इति वा ताम्राकर इति वा शीसकाकर इति वा सुवर्णाकर इति वा रत्ना कर इति वा वाकर इति वा वसुधारेति वा हिरण्यवर्ष इति सुवर्णवर्ष इति वा वर्ष इति वा वज्रवर्ष इति वा आभरणदर्प इति वा पत्रवर्ष इति वा पुष्पवर्ष इति वा फळवर्ष इति वा चीजवर्ष इति वा माल्यवर्ष इति वा गन्धवर्ष इति वा वर्णव इति वा चूर्ग इति वा क्षीरदृष्टिरिति वा रत्नवृष्टिरिति वा हिरण्यवृष्टिरिति वा सुवर्णवृष्टिरिति वा तथैव यावद् चूर्णवृष्टिरिति वा, सुकाल इति वा दुष्काळ इति वा इति वा दुर्भिक्ष इति वा अल्पार्थ्यमिति वा महामिति वा क्रय इति वा महाविक इति वा सन्निधिरिति वा सञ्चय इति वा निधिरिति वा निधानमिति वा चिरपुराणमिति वा, महीणस्वामिकमिति वा प्रहीणसेतुकमिति वा प्रहीणमार्गमिति वा महीण गोत्रागारमिति वा यानि इमानि नामाकरनगर खेटकर्यट
"
द्रोणमुपाश्रमसंघ हम न्नवेशेषु सिंधाडकत्रिकचतुष्कचत्वरचत मुग्वमहायपथेषु नगर निर्धमनश्मशानगिरिकन्दरसच्छेलो पस्थानभवनगृहेषु संनिक्षिप्तानि तिष्ठन्ति ?, नायमर्थः समर्थः । एकोरुक द्वीपे खलु मदन्त ! द्वीपे महान कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! जघन्येन पल्योपमस्य अमरूपेयमागम् असं ख्येयभागेनोनकम् उत्कर्षेण परशेपमस्यासंख्येयभागम् । ते खलु भदन्त | मनुजाः कालमासे कालं कृत्वा कुत्र गच्छन्ति ? कुत्रोत्पद्यन्ते गौतम ! ते वल मनुजाः पण्मासावशेषायुष्का मिथुनकानि ममत्रन्ति, एकोनाशीति रात्रिं दिवानि मिथुनानि संरक्षन्ति संगोपयन्ति च संरक्ष्य संगोप्य उच्छ्वस्य निश्वस्य कामित्या वा जृम्भयित्वा अक्लिष्टा अन्यथिता अपरितापिताः सुखं सुखेन कालमासे कालं
जी० ८४
Page #690
--------------------------------------------------------------------------
________________
६६६
जोयाभिगमसूत्रे
कृत्वा अन्यतरेषु देवलोकेषु देवतया उपपचारो भवन्ति, देवलोकपरिग्रहाः खल से मनुजगणाः प्रज्ञप्ताः श्रमणायुष्मन् ! ॥५० ४१॥
टीका- 'अस्थि णं मंते' इत्यादि । 'अत्थि णं भंते ! एगोरुयदीवे णं दीवे' अस्ति खल भदन्त ! एकोरुकद्वीपे खलु द्वीपे ठिवाइ वा डिम्ब इति वा डिम्बः स्वदेशोत्थो विप्लवः 'डमराइ वा ' उमरः परराजकृत उपद्रव इति वा 'कलहाइ चा' कलह इति वा, कलहो वाग्युद्धम्, 'बोलाइ चा' वौल इति वा वोलो दहूनामार्त्तानाम् अव्यक्ताक्षररूपः कलकलध्वनिः 'खाराइ चा ' क्षार इति वा क्षारः परस्परं मारस
'वेराइ वा' वैरमिति वा वैरं परस्परमसहमानतया हिंस्यहिंसकताध्यवसायः, 'विरुद्धरज्जाद वा' विरुद्धराज्यमिति दा भगवानाह - 'णो इणट्टे समट्टे' नायमर्थः समर्थः यतः 'चव डिंबडमरकलह बोलखारवेर विरुद्धरज्जा णं ते मणुयगणा षण्णत्ता समणाउसो !" व्यपतडिम्बडमरकलहबोळक्षार वैर विरुद्ध राज्याः खलु ते मनुजगणाः प्रज्ञप्ताः श्रमणायुष्मन् ! 'अस्थि णं भंते ! एगोरुयदीवे दीवे' अस्ति खल भदन्त । एकोरुकद्वीपे द्वीपे 'महाजुद्वाइ चा महायुद्धमिति वा महायुद्धं
're णं भंते एगोरुय दीवे दीवे डिवाइवा डमराहवा' इत्यादि । टीकार्थ - हे भदन्त ! एकोरुक नाम के द्वीप में डिव-स्वदेश का विनाश - उमर - अन्य देश द्वारा किया गया आक्रमण 'कलहाइवा' वाणी की लढ़ाई झगड़ा क्लेश वोलाइवा' दुःखित जीवों का कलकलाट 'खाराइवा' परस्पर में वैर इर्ष्या भाव, 'वेराइया' परस्पर में हिंस्य हिंसक भाव 'विरुद्धरजाइवा' विरुद्ध विरोधी का आक्रमण राज्य ये सच वाते होती है क्या ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं । 'णो उट्टे समट्टे' हे गौतम ये सब बाते वहाँ नहीं होती है क्योंकि 'ववगय डिंव डमर कलह बोल खार वेर, विरुद्ध रज्जाणं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो' हे श्रमण आयुष्मन् ! वहाँ के मनुष्य डिंब डमर कलह वैर आदि से स्वभावतः
ટીકા
ए
'अस्थि णं भते ! एगोरुय दीवे दिवे डिंबाइवा, डमराइ वा' इत्यादि હૈ ભગવત્ એકેક નામના દ્વીપમાં ડિમ સ્વદેશના વિનાશ उभर अन्य देश द्वारा श्वासां भावेत भाम्भयु 'कलहाइवा' वालीनी लडाई 'अधडे देश 'बोलाइवा' दुःखी भवनो का 'खाराइवा' परस्परमां वैर- धर्ष्या लाव 'विरुद्धरज्जाईवा' विरुद्ध विराधिराभ्यनु आम आ तभाभ त्यां हाय छे? या प्रश्नना उत्तरमां प्रभुश्री गौतमस्वाभीने हे छे है 'णो इणट्टे समट्टे' हे गौतम! या तभाभ ममते। त्यां होती नथी. डेभ} 'ववगय डिंबडमर कलह बोल खारवेर विरुद्धरताणं ते मणुयगणा पण्णत्तो भ्रमणाउसो ।' हे श्रभव આયુષ્યમન ત્યાંના મનુષ્યા ડિ’ખ, ડમર, કલહ વૈર વિગેરેથી સ્વભાવથીજ રહિત
Page #691
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमैयद्योतका टीका प्र.३ उ.३ २.४२ एको० डिवडमर-कलहादिनिरूपणम् ६६७
मार्यमाणमारकमावेन युद्धम् 'महासंगामाइ वा' महासंग्रामा:-चेटककोणिकयोरिव रथमुशलसंग्रामरूपः, 'महासत्थनिवडाइ वा महाशस्त्रनिपतनमिति वा, महाशस्त्राणि वक्ष्यमाणानि नागवाणादीनि तेषां निपतनम्, महाशस्त्रत्वं च नागवाणादीनां विचित्रशक्तिमत्त्वात्, 'महापुरिससंगाहाइ वा महापुरुषसन्नाह इति वा, महापुरुषाणां वासुदेव बलदेव चक्रवादीनां सन्नाहः कवचादिना सज्जीभवनमिति, 'महा रुधिरपडणाइ वा महारुधिरपत्नमिति बा, युद्धादौ बहुरुधिरस्य पतनमिति, तथा-'नागावाणाइवा' नामवाण इति वा नामरूपो वाणस्तथाहि-नागवाणो धनुपि ही रहित होते हैं 'अस्थि णं भंते' एगोरुय दीवे दीवे महाजुद्धाहवा महासंगामाइवा महासस्थनिवडणाइवा' हे भदन्त ! एगोरुक द्विप में आपस में मारने की भावना वाला युद्ध महायुद्ध होता है। क्या ! महासंग्राम चेटक और कोणिक का रथमुसलसंग्राम जैला सुव्यवस्थित महासंग्राम होता है क्या? महाशस्त्रनिपतन नागवाण आदि जो आगे कहे जायेंगे उन महाशस्त्रों का एक दूसरे के उपर गिराने का प्रयोग किया जाता है क्या? ये नागवाण आदिकों को जो महाशस्त्र कहा गया है वह उनकी विचित्र शक्ति सत्ता को लेकर कहा गया है। 'महापुरिस लंणाहाइ वा' महपुरुष जो चक्रवर्ती वासुदेव बलदेव आदि है उन महापुरुषों के कवच
आदि से सज्जित होना होता है क्या ? 'महारुधिर पडणाद वा' युद्ध में महारुधिर का गिरना होता है ? 'नागवाणा वा नागवाणों का उपयोग किया जाता है क्या? यह नाशवाण जय धनुप पर आरोपित किया जाता है तब तो इसका वाण जैसा ही आकार रहता है और जव यह धनुष पर चढाकर छोडा जाता है । तब यह जाज्वल्य मान काय छे. 'अस्थि णं भते ! एगोरुय दीवे दोवे महाजुद्धाइवा, महासगामाइवा, महासत्थनिवड़णाई वा' 8 लगवन् मे है।३४ द्वीपमा ५२२५२ने भारपानी भावना વાળું યુદ્ધ કે મહાયુદ્ધ થાય છે? મહા સંગ્રામ-એટલે કે ચેટક અને કણિકના રથમુશલ સંગ્રામ જે મહા સંગ્રામ થાય છે ? મહાશસ્ત્રનિપાત-નાગબાણ વિગેર કે જે હવે પછી કહેવામાં આવશે તે મહાશત્રે એક બીજાના પર મારવા રૂપ પ્રાગ કરવામાં આવે છે? ખાણ વિગેરેને જે મહાશસ્ત્ર કહેવામાં આવ્યા छ. ते तना वियित्र शठितमत्तान छन छ'महापुरिस सणाहाइवा' મહાપુરૂષ વાસુદેવ બલદેવ ચકવતી વિગેરે કહેવાય છે. તેવા મહાપુરૂષોનું કવચ विश्था सा थवान थाय छ ? 'महारुधिरपडणाइवा' युद्धमा महाधिर ५४ानु थाय छ ? 'नागवाणाइवा' नाग मायने ५या ४२वाम मावे छे. १ આ નાગબાઇ જ્યારે ધનુષપર આરોપિત કરવામાં આવે છે, ત્યારે તેને આકાર બાણ જેજ ફેર છે, અને જયારે તેને ધનુષ પરથી છોડવામાં આવે
Page #692
--------------------------------------------------------------------------
________________
६६८
जीवामिगमसूत्रे
आरोपितो वाणाकारो मुक्तश्च जाज्वल्यमानाऽह्योल्कादण्डरूपः, परशरीरे संक्रा वो नागपाशत्वं प्राप्नोति । एवमेवाग्रे वाणान्तराणामपि महात्म्यं ज्ञातव्यम् । 'खे बाणाई वा' खे बाण इति वा खे वाणः आकाशगामीवाणः, आकाशगमनशक्तिमचाद, 'तामसवाणा वा' तामसवाण इति वा सकलरणव्यापि महान्धकार परि मनरूपशक्तिमात् । 'नो इणट्टे समट्टे' नायमर्थः समर्थः यतः 'ववगयवेराणुबंधाणं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणउसो !' हे श्रमणायुष्मन् ते एकोरुकद्वीपगता मनुजगणा व्यपतचैरानुबन्धाः प्रज्ञप्तास्ततो न तेपां महायुद्धादि प्रयोजनमिति । 'अस्थि भंते ! एगोरुयदीवे दीवे' अस्ति खलु भदन्त । एकोरुकद्वीपे द्वीपे दुग्भूइयाइ बा' दुर्भूतिकमिति वा अशिवस 'कुळरोगाइ वा, कुछरोग इति वा - कुल
1
होता हुआ शीघ्र उल्कादण्ड रूप हो जाता है और शत्रु के शरीर में प्रविष्ट होकर नाग रूप में परिणत हो जाता है और फिर नागपाश वनकर उसके शरीर को बांध लेता है इसी प्रकार दूसरे दाणों का भी माहात्म्य जान लेना चाहिये | 'खे वाणाइ वा' आकाश गामी वाणों का उपयोग किया जाता है क्या ? ' तामसवाणाइ वा' तामस वाणों का समस्त युद्ध में अन्धकार कर देने वाले वाणों का उपयोग किया जाता है क्या ?
...इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं 'णो इणट्टे समट्ठे' यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् वहां महायुद्ध आदि होते नहीं है क्योकि 'aare वेणुबंधाणं ते मणुषगणा पण्णत्ता नमणाउसो' उनके परस्पर में वैरानुबन्ध नहीं होता है इसलिये उनके महायुद्ध आदि का प्रयोजन ही नहीं होता है | 'अस्थि णं भंते' एगोरुय दीवे दीवे' हे भदन्त ? एकोरुक द्वीप में 'दुभूइयाइ वा' दुर्भूतिक वहाँ विभूति नष्ट हो जाय ऐसा अशिव होता
ત્યારે તે જાજ્વલ્યમાન થઈને એકદમ ઉકા દંડ રૂપ બની જાય છે, અને શત્રુઓના શરીરમાં પ્રવેશીને નાગ રૂપે પરિણમી જાય છે. અને પછી નાગ પાશ રૂપ મનીને તેના શરીરને માંધી લે છે. આજ પ્રમાણે ખીજા માથેાનુ महात्म्य या सम सेवु लेखे खे वाणाइ वा' माउशमां गमन उरवावाजा मोनो उपयोग वामां आवे छे ? ' तामसबाणाइवा' तामस मोनो मेट સઘળી યુદ્ધ ભૂમીમાં અધારૂ' કરવાવાળા માણેાના ઉપયેાગ કરવામાં આવે છે ? आा अश्नना उत्तरसां अलुश्री गौतमस्वार्थाने हे छे ! 'णो इणट्टे समट्टे' हे ગૌતમ આ કથન ખરાખર નથી. અર્થાત્ ત્યાં મહાયુદ્ધ વિગેરે થતા નથી. કારણુ
'ववयवेराणु धाणं ये मणुयगणा पण्णत्ता तेथेाने परस्परमां वैरानुबंध थतेो नथी, तेथील तेखाने महायुद्ध विगेरेनी ४३२ ४ होती नथी. 'अस्थि णं भवे एगोरुय दीवे दीवे' हे भगवन् मे३४ द्वीपमा 'दुम्भूइयाइवा' हुभूति अर्थात्
Page #693
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ २.४२ एको० डिंबडमर-कलहादिनिरूपणम् ६६९ क्रमागतो रोगः 'गामरोगाइ वा ग्रामरोग इति वा-ग्रामव्यापीरोगः, 'णगररोगाइ वा' नगररोग इति वा नगरव्यापीरोगः 'मंडलरोगाइ वा' मंडलरोग इति वा जनसमुदायव्यापी रोगः, 'सिरोवेयणाइ वा शिरोवेदनेति वा शिरोमागे समुद्भूता पीडा एवं 'अच्छिवेयणाइ वा' अक्षिवेदनेति वा 'कण्णवेयणाइ वा' कर्ण वेदनेति वा' णकवेयणाइ दा' नासिकावेदनेति बा, 'दसवेयणाइ वा' दन्त वेदनेति वा 'णखवेयणाइ वा' नख वेदनेति वा-अक्षिवेदनादयः मसिद्धाः। 'कासाइ दा' कास इति वा-कफवायुजनितो रोगः 'खांसी' इति मतिद्धा 'सासाइ वा' श्वास इति वा, अयमपि कफवातजनितो रोग एवेति । 'जराइ का' उधर इति वा दातमिश्रित पित्तरोगः, 'दाहाइ बा' दाह इति वा, विकृतपिचबाहुल्यजनितो रोगः 'कच्छूइ वा कच्छूरिति चा कच्छू। खर्जनप्रधानो रोगविशेषः, 'खसराइ वा खसर इति वा 'खस' इति लोकमसिद्धो रोगः 'कुटाइ वा' कुष्ठमिति वा प्रसिद्धम्, है क्या ? 'कुलरोगाह बा' वहां कुलोग कुल क्रम से आने वाले रोग होता है क्या? 'गामरोमाइया' ग्राम रोग लभस्त ग्राम व्यापीरोग होता है क्या ? 'णगररोगाइ वा' नगररोग नगर व्यापी रोग होतो है क्या ? मंडलरोगाइ चा 'मंडलरोग-जन समुदाय छापीरोग होता है क्या ? 'सिरोवेषणाइ वा वहां पर शिरोवेदना होती है क्या ? 'अच्छि. वेयणाइ वा कण्णवेयणाइ वा षक वेषणा का, दंनवेधणाइ वा इली प्रकार अक्षिवेदना वेदना नासिकावेदना एवं दन्तवेदना आदि होती है क्या ? 'णखवेयणाइया, कासाइ वा, सासाइ , जराहदा, दाहाह वा, कच्छू बा, खसराइ वा' इसी प्रकार नख वेदना-खासी-श्वास-दमा ज्वर-दाह-खाज-खसरा 'कुटाइबा, कुडाइ वा, दशोदाइ का, अरिसाइ विभूति नाश पामे तेवो भशि हु होय छे ? 'कुलरोगाइवा' त्या पुस शस अर्थात ४२ भथी थापा शाखाय छ १ 'गामगेगाहवा' यामशा अर्थात् समय जाममा व्यास थापाले ३ावावाणे शक डाय छ ? 'नगर रोगाईवा' ना२शश नसभा व्यास थापाणे ३हाय छे ? 'मडलरोगावा' भसरे। अर्थात नसभुहारमा व्याप्त थापाणे शालेय छ ? 'सिरोवेयणाइवा' त्या शिवहना अर्थात भरत पी डाय छे ? 'अच्छिवेयणाइनमा कण्णवेयणाइवा, णक्कवेयणाइवा, दंतवेयणाईवा' से शत मक्षिवहना, मांस સંબધી પીડા, કાન સંબંધી પીડા, તથા નાક સંબંધી પીડા અને દાંત संधी पीडा विगैरे हाय छ ? 'णखवेयाइवा, कासाइवा, सासाइवा, जराइवा दाहाइवा, कच्छवा, खसरा इवा' तथा नमवेदना, GU२स श्वास, हम, ताप हो जाद२ पसं२१ म२ 'कुटाइवा, कुडाइवा, दगोदराइवा, अरिसावा अ.
Page #694
--------------------------------------------------------------------------
________________
६७०
जीवामिगम 'कुडाइ वा कुड इति वा, कुडः डमरुवातनाम्ना प्रसिद्धो रोगविशेषः 'दगोयराइ वा' जलोदरेति रोगो लोकमसिद्धः, 'अरिसाइ वा' अर्श इति वा 'बवासीर' इति लोक प्रसिद्धः 'अजीरगाइ वा अजोरग इति वा अपक्याहारजन्यउदररोगविशेषः 'अजीर्ण' इति प्रसिद्धः 'भगंदराइ वा' भगन्दर इति वा, गुदास्थानसमुद्भवो नाडीव्रगविशेषः । ग्रहरोगमधिकृत्य श्री गौतम स्वामी प्रश्नयति-इंदग्गहाइ वा' इन्द्रग्रह इति वा ग्रहशब्दोऽत्र-आवेशार्थको रोगरूपस्तेन इन्द्रग्रह इति इन्द्राधिष्ठित आवेशः स्वनाम्ना, प्रसिद्धो रोग विशेष इत्यर्थः एवमग्रेऽपि सर्वत्र । एवम्-'खंदग्गहाइ वा' स्कन्द्ग्रह इति वा, स्कन्दः कार्तिकेयः 'कुमारग्गहाइ वा' कुमारग्रह इति वा-बालग्रह इति लोकमसिद्धः. 'णागग्गहाइ वा नागग्रह इति वा 'जक्खग्गहाइ वा, यक्षग्रह इति वा, 'भूतगगहाइ वा' भृतग्रह इति वा 'उन्वेयग्गहाइ वा' उद्वेगग्रह इति वा, शोकादि जन्य आवेशः 'धणुग्गहाइ वा धनुग्रह इति वा, धनुर्वाताभिधो रोगविशेषः ‘एगाहियग्गहाइवा' एकाहोरात्रमात्रस्थायीवर विशेषः स च एकमहोरात्रमन्तरे मुक्त्वा द्वितीयदिने, मनुष्यं गृहातीत्यत एकाहिकग्रह इत्युक्तम् 'एकान्तराज्वर' इति नाम्ना प्रसिद्धः, 'वेयाहियग्गहाइ वा द्वयाहिकग्रह वा, अजीरगाह वा'-कुष्ठ-कोढ-कुडा-डमरुवात-जलोदर-अर्श-पवासीर, अजीरग-अजीर्ण-उदर रोग विशेष, एवं 'भगंदराइ' वा भगंदर, गुदा स्थान पर होने पाला नाडीव्रण नासूर ये सब रोग होते है क्या ? 'इंदग्गहाइ या, खंदग्गहाइ वा, कुमारगहाइ वा, जाग्गहाइ वा, जखग्गहाइ था, इसी तरह इन्द्र ग्रह इन्द्र के आवेशजन्य रोग इन्द्र ग्रह रोग कहलाता है, इसी प्रकार स्कन्दग्रह कुमारग्रह नागग्रह यक्षग्रह 'भृतगहाइ वा, भूतग्रह' 'उन्वेयग्गहाइ वा, उद्वेगग्रह शोकादिजन्य आवेश, 'धणुग्गहाइ वा धनुर्ग्रह धनुर्वात नामकरोग 'एगाहियग्गहाइ वा' एकाहिक ग्रह दिन रात रहने वाला एकान्तरिक का ज्वर रोग 'वेया जीरगाइवा 33-316 31 उभात २ २५०-६२८ अल तथा 'भग दराइवा' मगर, गुहा स्थान ५२ थापाण! नाडीaey नासूर । सपा शेगी त्या मे।३४ द्वीपमा डाय छे ? 'ईदगाहाइवा, खदग्गहाइवा, कुमार गगहाइवा, णागगहाइवा, जक्खगहाइवा' तथा चन्द्रग्रह ४न्द्रनामावेशया थना। રોગ ઈન્દ્રગ્રહ રોગ કહેવાય છે તે જ પ્રમાણે પદગ્રહ કુમારગ્રહ, નાગગ્રહ यक्ष, 'भूतगाहाइवा' सूत उव्वेयगगहाइवा' देशल शहिया थनार भावेश 'धणुग्गहाइवा' धनु धनुर्वात नाभने। रोग 'एगाहियग्गहाइवा, मे. हि शतह २डेवावाणे तश्या ताव 'वेयाहियगाहाइवा' यहि
Page #695
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रद्योतिका टीका प्र. ३ उ. ३.४२ एको डिवडमर - प लहादिनिरूपणम् ६७१
·
इति वा, दिनद्वयमन्तरे मुत्वा तृतीयदिनग्राहीज्वरः 'वेयांतर' इति प्रसिद्धः, 'तेयाहिय हाइ वा' त्र्याहिकग्रह इति वा, दिनत्रयमन्तरे मुत्वा चतुर्थदिनग्राहीवर 'तेजरा' इति प्रसिद्धः 'चाउत्थगाहियाइ वा' चतुर्थादिकग्रह इति वा, दिनत्रयमन्तरे मुक्त्वा चतुर्थ दिनग्राहीज्वरः 'चोथियाज्वर' इति प्रसिद्धः 'हिययसलाइ वा ' हृदयशूलमिति वा, हृदये शुलरूपेण जायमानो रोगविशेषः । एवम् ' मत्थगनुलाई वा' मस्तकशूलमिति वा 'पाससूलाइ वा' पार्श्वशूलमिति वा, 'कुच्छिमूलाइ वा ' कुक्षिशुलमिति वा, 'जोणिस्लाइ वा' योनिशुलमिति वा, 'गाममारी वा' ग्राममारी इति वा, 'जाब संनिवेसमारोह वा, यावत् सन्निवेशमारी इति वा, अत्र यावत्पदेन ' आकर नगर - खेटकबंटमडंब - द्रोणमुख-पत्तनाऽऽश्रम संवाहानां संग्रहः तेन - आक रमारीति वा नगरमारीति वा, इत्यादि पदेषु मारी शब्द संयोजनेनाऽऽलापको विधातव्य इति । एभिरिद्रग्रहादिभिस्तत्र 'पाणक्खयजाव वसणभृयमणारियाई वा माणक्षय यावत् जनक्षयकुलक्षयधनक्षयव्यसन भूतानार्यां इति वेति प्रश्नः, भगवाfourists at auाहिक ग्रह-दोदिन छोड़कर आने वाला वे आन्तरा ज्वर रोग 'तेयाहियग्गहातिवा' व्याहिक ग्रह- तीन दिन के बाद आने वाला तेजराज्वर 'चाउरथगाहियाह वा' चौथियाज्वर 'हिययसलाइ वा ' हृदयशूल - हृदय रोग, 'मत्यगसूलाइ वा' मस्तक शूल - मस्तक का रोग, 'पासलाइ वा' प्राव' शूल पसलिका दुखना 'कुच्छिलाइवा' उदर रोग, 'जोणिसुलाइ वा' योनिशल 'गामधारीह वा' 'ग्राममारी ग्राम में मारी मरकी आदि होना 'जाव सन्निवेसमारोह वा' यावत् आकर मारी नगरमारी एवं खेट कर्वट महम्बद्रोण मुख पट्टन, आश्रमसंग्रह सन्निवेशमारी इन इन्द्र ग्रहादिरोगो से वहां 'पाणक्खय जाव वसणभूम्मणारिवाइ वा' प्राणक्षय, यावत्- कुलक्षय एवं धनक्षय, ये सब कष्ट भूत अनार्ययह मे हिवसने यांतरे भावनाशे ताव 'तेयाहियग्गहातिवा' वायु हिवसने आंतरे भावना। नाव " चात्थगाहियाइवा' येोथियो ताव 'हियय सूलाइवा' हृदयशून हृदयरोग 'मत्थलाइवा' भस्त शुद्ध भाथाने रोग 'पाससृलाइव।' पार्श्वशू पांसनीय दुःजवी' ते 'कुच्छिसूलाइवा' उदररोग 'जोणिसूलाइवा योनीशुल 'गाममारीइ वा' ग्रामभारी भरडी विगेरे ने भाषा गाभभां देसाई नार होय छे तेवा रोगो 'जाव सन्निवेसमारीइवा' यावत् आरभारी नगर મારી એવં ખેતમારી, કટ મારી, મઢમ્મ, દ્રોણુમુખ પટ્ટન આશ્રમ સ’વાહે, સન્નિવેશમારી, વિગેરે રાગેા ત્યાં હાય છે? તેમ આ ઇંન્દ્રગ્રહ વિગેરે રાગેથી त्यां 'पाणक्य जाव वसणभूयमणारियाडवा' आयुक्षय यावत् सक्षय तथा ધનક્ષય આ બષા કષ્ટ કારક અના ઉપદ્રવે ત્યાં હાય છે ?
Page #696
--------------------------------------------------------------------------
________________
. .
.
. . . .
. .
जीवामिगम
नाह-'यो इणढे मम?' नायमी समर्थः, महायुद्धा दारभ्य कुलक्षयाधनार्यान्ता आपदः एकोल्सद्वीपे न भवन्ति यतः 'वयरोगायंकाणं ते मणुयगणा पणत्ता 'समणाउसो' व्यपगतरोगात डाः, व्यपगता विनष्टारोगा ज्यरादयः आतङ्काः सधो. 'घातिशलादयो येश्यस्ते तथा ते मनुजगणाः प्रमशा:-कथिताः, हे श्रमणायुष्मन् ॥
'अस्थि णं भंते । एगोरुयदीवे दीवे' अस्ति खल्ल भदन्त ! एकोस्कद्वीपे द्वीपे 'अइवासाइ वा' असिवर्प इति बा, अतिवर्ष:-वेगतः प्रमाणतोऽविकं जलपतनमित्यर्थः 'संदवासाइ वा मन्दवर्ष इति वा, मन्दवर्षः शनैः शनैः प्रयोजनादल्पं वा वर्ष गम्, 'सबुटीह का मुवृष्टिरिति वा, धान्यादिनिष्पचिगुणयुक्ता सुवृष्टिरिति । 'दुव्बुही वा' दुर्वृष्टिरितिवा धान्यायनिष्पत्तिहेतुका, 'उन्बाहाइ वा' उद्वाह इति वा, उत्कर्षेण जल बहनम् 'पाहाइ वा प्रवाह इति वा प्रवाहो जलपूरः 'दगुब्भेउपद्रव-होते है क्या? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं जो इणटे समझे हे गौतम ! ये चन्द्र ग्रह से लेकर धनक्षयान्त आपत्तियां एकोरुक द्वीप में नहीं होती है। क्योकि 'ववगयरोगायंशाणं ते मणुधगणी पण्णत्ता सम णाउसो' हे श्रमण आयुष्यन् । वे मनुष्य रोग एवं आतङ्क से रहित होते है। 'अस्थि णं अंते ! एगोरुष दोदे दीवे अतिवासाइ वा' हे भदन्त ! एशोरुर द्वीप में अस्थन देन होने वाली अतिवृष्टि होती है क्या ? 'भेद वानातिवा' भेद दृष्टि धीरे धीरे होने वाली प्रयोजन से कम वृष्टि होती है क्या ? 'सुवुडीह वा' सुवृष्टि-धान्यादि की निष्पत्ति करने वाली वृष्टि वरसाद होती है क्या ? 'दुवुट्टीहवा धान्यादिकी निष्पत्ति नहीं करने अथवा अपश्योजिका वृष्टि होती है क्या ? 'उच्चाहाति वा जिस वर्षा से पानी का प्रवाह बहुत उचेर स्थानों तक पहुंच जावे ऐसी वृष्टि होती है
मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री हे है णो इणट्रे समटे हे गौतम ! 21 આ ઈદ્રગ્રહથી લઈને ધનક્ષય સુધીની આ પત્તિ એકરૂક દ્વીપમાં હતી નથી
भो 'ववगयरोगायंकाणं ते मणुथ गणा पापाता समणासो' श्रम भायुमन તે મનુષ્ય રોગ અને આતક વિનાના હોય છે
'अस्थि णं भ ते ! एगोरुय दीवे दीव अतिवासाइवा' मान! |३४. द्वीपमा गपू थनारी अतिवृष्टि थाय छे ? 'भेदवासातिवा' हलिट धामे धीमे थनारी प्रयासनथी माछी वृष्टि थाय छ ? 'सुवुद्रीइवा' धान्य विगैरेनी उत्पत्ति ४२वावाणी वृष्टि १२साह थार छ १ दवदीइवा' धान्याहिनी उत्पत्ति न २वाबाजी अथवा अयन विनानी वृष्टी थाय छ ? 'उव्वाहातिवा'२ १२साथी પાણીનો પ્રવાહ ઘણે ઉચે સુધી પહોંચી જાય તે વરસાદ થાય છે ? _ 'पवाहाइवा' २ १२साथी ५एगीनु ५२ भावी तय सेवा परसा थाय छ?
Page #697
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेययोतिका टीका प्र.३ ७.३ सु ४२ डिवडमर-कलहादि निरूपणम् ६७३ याइ चा' उदकोभेद इति वा पर्वतात्पत्ति मुद्देदजन जलवहनम् भूपिनुद्भिद्य. जलनिस्सरणं वा 'दगुप्पीलाइ बा' उदकोत्पीडेति वा जळस्योचैः प्लवनम् 'गामपाहाइवा ग्रामवाहा इति वा, ग्रामस्य जलपूरेण वहनम् 'जाव संनिवेसवाहाइ वा' यावत् सनिवेशवाह इति वा, यावत्पदेन-आकरनगरखेटकटगडम्बद्रोणमुखपत्त. नाश्रमसंवाहानां ग्रहणं भवति, तत्र ग्रामादीनां जलपूरेण वहनमिति वा पाणक्खय० जाव वसणभूयमणारियाइ वा प्रागक्षय यावत् जनक्षय कुलक्षयधनक्षयायसनभूतानार्या इति वा प्राणक्षयादयो लोकानां व्यसनभूताः आपद्भूता बनार्याः-पापा. स्मकाः ते एते एकोरुकनिवासिनां भवन्ति किमिति प्रश्नः, भगवानाह-'णो इणटे समडे' नायमर्थः समर्थः, एते अविवर्षादयोऽनार्याः एकोरुकवासिनां न भवन्ति क्या ? 'पवाहाइ वा जिस वृष्टि से ऐसा प्रवाह-जल का पूर-आ जावे ऐसी पुष्टि होती है क्या ? 'दगुठभेयाइ वा' क्या ऐसी वृष्टि होती है कि पर्वत से पड़ने के कारण जमीन के भीतर खड्डे पड जावे, अथवा जमीन के भीतर से भी पानी बाहर निकलने लग जावे 'दगुप्पीलाह वा' क्या ? ऐसी वृष्टि होती है कि जिससे पानी का प्रवाह टकर खाकर इधर उधर फैल जाये गामशाहाइ वा क्या ऐसी वहां वृष्टि होती है जो ग्राम को बहा ले जाये ? 'जाव संनिवेसवाहाइ वा' यायत् सन्निवेश को वहा ले जावे ! यहां शामपद से आकर चाह नगरवाह खेट वाह त्यादि पदों का ग्रहण हुआ है ऐसे जल के उपर व से 'पाणक्खयजाज वखणभून मणारियाह वा' क्या वहां जो प्राणियों का विनाश हो ? यहां यारत् कान्द से 'जनक्षय धनक्षय कुलक्षय' इन पदों का संग्रह हुआ है इस तरह कैप्ते हे भदन्त ! क्यो यहाँ एकोरुक द्वीप निवासियों को पाटों का सामना करना पड़ता है ! इसके जुत्ता में प्रभुश्री करते है-'यो अणडे लम्हे' हे
'दगुब्भेयाइव' मेवा १२साई .य छ, ४ पत५२थी ५३वाने भरणे જમીનમાં ખાડા પડી જાય? અથવા જમીનની અંદરથી પણ પાણી બહાર नीsी मा १ 'दाप्पीलाइवा मे १२साह थाय छे मीना प्रवाह ८७२ माधन पामतेम ३ ५ ? 'गामवाहाइवा' त्या शेव। परसा थाय छ २ मामा गाभर वाणी तय 'जाव स निवेसवाहाइवा' यावत् सनिवेशने वहीन स (ગામને તાણું) જાય? અહી ચા યાવરપદથી આકરવાહ, નગરવાહ, ખેટવાહ વિગેરે पहोना सई थयो । शतन पासीन upथी 'पाणालय जाव वसणभूतमगारियादमा' या प्रशियाना विनाश थाय यावत् सनसय ५ 'क्षय याय ga ક્ષય થાય આવા પ્રકારના ઉપદ્રનો એકેક દ્વીપ વાસિયોને સામનો કરવો 43 छ ? सा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ५ छ ‘णो इणढे सम?' हे गौतम !
जी. ८५
Page #698
--------------------------------------------------------------------------
________________
ን
६७४
जीवामिगमसूत्रे
यतः 'ववगदगोवदत्राणं ते मणुप्रमणा पण्णत्ता समगाउसो !' व्यपगतद कोपद्रवाः, व्यपगताः - विनष्टा उदकानामुपद्रवाः विदृष्ट्यादिरूपा येभ्यस्तथा भूतास्ते water द्वीपनिवासिनो मनुजगणाः- मन्त्रताः कथिताः हे श्रमणायुष्मन् । इति । 'अस्थि णं भंते । एगोरुयदीवे दीवे' अस्ति खलु भदन्त ! एकोरुक द्वीपनामके द्वीपे 'अयागराइ वा' अय आकर इति वा अपसो लोडस्य आकरः उद्भवस्थान स विद्यते नवेव गौतमस्य पश्नः, एवमग्रेऽपि आकर विषयकः मन उन्नेयः । 'बागरा वा' ताम्राकर इति वा, ताम्रस्य धातुविशेषस्याकरः 'सीसागराइ वा ' शीसकाकर इवि वा, शीस का 'सीला' इति लोकम सिद्धः, 'सुवण्णारावा' सुवर्णाकर इति वा 'श्यणागराइ वा' रत्नस्य वज्रवैदेिराकर इति वा, 'वहरागराड़ वा' वज्राकर इति वा, वज्रं - हीरक्स् 'वसुहाराइ वा' वसुधारेति वा, वसुधाराधारारूपेणाकाशतः पतिता सुवर्णदृष्टिः, 'हिरणवासावा' हिरण्यस्य- रजतस्य वर्ष सामान्यतो दर्पणम् इति वा 'सुवासा वा' सुवर्णव इति वा, 'रयणवासाइ गौतम । यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् ये फक्त अतिवृष्टि अनावृष्टि आदि उपद्रव वहाँ पर नहीं होते है । क्योंकि 'पपगवद्गोददवाणं ते मणुयगणा पण्णा समाउसो' वे मनुष्य हे श्रमण आयुष्मन् जलीय उपद्रव से सर्वथा रहित होते हैं 'अस्थि णं भंते ! एगोरुप दीवे दीवे अयागराह वा लम्बागराह वा सीसागराह वा सुवण्णागराइ वा रयणागराह वा वसुहारा वा हिरण्णवासा वा 'हे भदन्त ! क्या उस एकोरुक नाम के द्वीप में लोह की खाने है ? ताम्बे की खाने है ? सीसे की खाने है ? सुवर्ण की खाने है ? रनों की खाने है ? बज्र हीरे की खाने है ? तथा वसुधारा-शदा - रुप से खोनेषों की वृष्टि होती है क्या ? हिरण्य की वर्षा होती है ? 'सुण्णवालाठवा' सुवर्ण को वर्षा होती है ? 'रयण
-
આ અર્થ ખરાખર નથી અર્થાત્ આ પ્રમાણે કહેવું તે ચૈગ્ય નથી, એટલે કે या पूर्वोक्त अतिवृष्टि, अनावृष्टि विगेरे उपद्रवत् थता नयी. 'ववगयद्गो वदत्राणं ते भगुयगणा पण्णता सपण'उसो' ते मनुष्ये संधी उपद्रवे। विनाना होय छे 'अत्थि णं भंते! गराइबातम्या गराइवा सीसागर इवा सुरण गराइया वसुराइरा' हिरण्णवासा इवा' हे भगवन् ! मे भेो છે તાંમાંની ખાણુ! છે? સીસાની ખાણેા છે? ખાણુ! છે ? વજ્રની ખાણુ! છે? હીરાની ખાણેા છે ? તથા વસુધારા ધારા प्रवाहधी सोनेयानी वृष्टि थाय ? हिरएयनो वरसाई थाय हे ? 'सुवण्णवा साह वा' सोनाना वरसाह थाय है ? 'रयणवासाइवा रत्नाना वरसाह थाय छे ?
श्रम आयुष्मन् स एगोरुय दोवे दोवे अयारयण गराइत्रा वइरागरा इवा द्वीपमां सोमउनी माओ। ખાશે છે ? રત્નાની
સેાના ની
Page #699
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेययोतिका ठीका प्र.३ उ. ३ . ४२ डिवडसर - कलहादि निरूपणम्
६७५
ar' रत्नवर्ष इति वा, 'इवालाइ वा' वज्रवर्षः, कार्यविया, 'आमरणा साइ वा' आभरणम् - अलङ्कारस्तस्य नर्ष इति वा 'पचवासा वा' पत्राणां वर्ष इति वा, 'पुष्कवासाइवा' पुष्पवर्ष इति ना, 'फलवासा चा' फलदृष्टि 'बीयवासाइवा' बीजदर्प इति वा, 'मल्लवासाह ना' माल्यवर्ष इति वा 'गंधवासाइ वा' गंधवर्ष इति वा गन्धद्रव्यस्य दर्पणम् 'वण्णवासाइ वा' वर्णवर्ष इति वा, विलेपनवर्षणम् 'चुष्णदासाइवा' चूर्णवर्ष इति वा, गन्धद्रव्यचूर्णवर्षणम्, 'खीरखु ही वा' क्षीरवृष्टिरिति वा, क्षीरसदृशजलस्य वृष्टिरित्यर्थः, विशेषतो वर्षणं वृष्टि, 'रणबुडी वा' रत्नवृष्टिरिति वा, 'हिरण्णबुडी वा' हिरण्यवृष्टिरति वा, 'सुब
वुडी ' सुष्टिरिति वा, 'दहेब जाब चुण्णबुडीइ बा' तथैव यावद चूर्णष्टिरिति वा, अत्र यावत्पदेन सुवर्णदृष्टिः, रत्नवृष्टिः, वज्रदृष्टिः, आमरणहृष्टिः, तथा - पत्र पुष्प फलवीजमाल्यगन्धवर्णवृष्टिनां संग्रहो भवतीति । 'सुकालाइ वा ' वासावा' रत्नों की वर्षा होती है ? 'बहरवासावा' वज्र हीरों की वर्षा होती है 'आभरणवासाहवा' आभरणों की वर्षा होती है ? 'पुप्फवासा वा' पुष्षों की वर्षा होती है ? 'फलवासाह वा फरों की वर्षा होती है ? 'वीवासह वा' वीजों की वर्षा होती है ? 'मल्लवाखाइ वा ' मालाओं की वर्षा होती है ? 'गंधवाह वा गन्ध गन्धद्रव्य की वर्षा होता है ? 'वण्णवासाह वा' विलेपन-पिष्ट द्रव्य विशेष की वर्षा होती है ? 'चुण्णवासाह वा' मन्त्र द्रव्य के चूर्ण की वर्षा होती है ? 'खीरबुडीह वा' दूध की वृष्टि होती है ? 'हिरण्णचुडीह वा' हिरण्य-चांदी की दृष्टि होती है ? 'सुवण्णवुडीह वा' सुवर्ण की दृष्टि होती है । 'सहे जाव चुण्णबुडीह या' यावत् चूर्ण की वृष्टि होती । यहाँ यापद से रश्न वृष्टि आदिकों का ग्रहण हुआ है। वर्षा में सामान्य रूप से वृष्टि
L
'वरवाखाइवा' व हीराना वरसाह थाय छे ? 'आभरणत्रासाइ वा' भालरथेन। व२साह थाय छे ? ‘पत्तवासाइवा' पानडायोनी वरसाह थाय छे 'पुप्फवाखाइवा' पुण्याना वरसाह थाय छे ? 'फलनाखाइवा' सोनो वरसाद थाय छे ? 'बीयवा साइवा' मीना परसाह थाय छे ? 'गल्डवाद्याइव ।' भासामाना वरसाह थाय
? 'गंधवाखाइ वो' अन्ध द्रव्याना वरसाह थाय हे ? 'वण्णवासाइवा' विसेचन पिष्ट द्रव्य (पीडी) विशेषना वरसाह थाय छे ? 'चुण्णवासाइवा' गन्धद्रव्यनाथूथुना १२साह थाय छे ? खीरबुट्टीइवा' दूधना वरसाई थाय छे ? 'रयणवुट्टीइवा' रत्नाना वरसाह थाय छे ? 'हिरण्णवुट्टीइ वा' हिरएय यांहीना १२साह थाय छे ? 'सुवण्णवुट्टीचा' सोनानो वरसाई थाय छे ? 'देव जाव चुण्णवुडीइवा' યાવત્ ચૂર્ણના ૧૩ દ થાય છે. સહિયાં રાવપદથી રત્નવૃષ્ટિ વિગેરે પડે
Page #700
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमले ६७६ मुकाल:-उपवादि रहितः कालः 'दुकालाइ वा दुकाउ इति पा ले रहवः कालः, 'मुभिक्खाइ वा भिक्ष इति जा, सायादिनिप्पत्तिरूपः, 'दुमिकालाइ वा दुर्मिक्ष इखि वा-सस्थायभावरूपः, 'अप्पग्याइ वा अल्पाघ इति वा-अरगमूल्येन वस्तु. माप्तिः, 'महग्याइना' महार्घ इति वा, बहुमूल्येन वस्तु पाप्तिः 'कयाइ बा' क्रयाक्रयणकमिति वा, मूल्येन दस्तुन आदानम् 'महाविक्काइ वा महाविक्रय:-महाविक्रयणकमिति वा, वहुमूल्येन वस्तुनः पदानम् 'सगिहीई वा' सनिधिरितिवा 'संचयाइ वा संचघ इति वा, सत्यपि वस्तुनि पुनस्तस्य संग्रणम्, 'निधीदवा' निधिरिति वा, बहुमूल्यवस्तुस्थापनम् 'निहाणाहवा' निधानमिति वा, भूम्याद्यन्तः स्थापितधनादिकम् 'चिरपोराणाइ वा चिरपुराणमिति चा, चिरपतिष्ठिात्न पुराणं चिरकालस्थापितम् । अतएव 'पहीणसामियाइ वा' प्रही स्वामिकमिति वा महीण:होती है और वृष्टि में घनी वृष्टि होती है इसी तरह 'सुकालाइ वा' उस एकोहक छीप में सुकाल रहता है यश 'दुकालाइ वा दुष्काल होता है। 'सुभिक्खाह का' सूभिक्ष धान्यादि की निष्पत्ति रूप होता है या 'दुभिक्खाइ वा दुर्भिक्ष धान्यादि की निष्पत्ति का अभाव रूप होता है। 'अप्पग्धाइ वा वस्तुऐं अल्प मूल्य में मिलती है ? 'महरघाइ वा' बहुत मूल्य में मिलती है ? 'कयाइ महाविक्कयाइ वा वहां वस्तुओं की खरीदी होती है ? या बहुत अधिक विक्री होती है ? 'सणेहीइ वा' लोगों के वहां भोग्य पदार्थों का संग्रह होता है ? 'संचयाइ वा वहां के लोग वस्तुओं के होते हुए फिर आगे के लिये संचय करते है ? 'निधी वा बहु मूल्य घस्तुओं का संग्रह होता है ? 'निहाणातिवा' लोग वहां द्रव्य को जमीन में गाढकर रखते है ? 'चिरपोराणाइया' यहां पर लोग ગ્રહણ કરાયા છે. વર્ષાકાળમાં સામાન્ય રીતે વરસાદ થાય છે ? અને વર્ષો
mमा धारे प्रमाथी १२साह थाय छ ? शत 'सकालाइवा' से मेछ। ३४ द्वीप सुट २९ ? अथवा 'दुक्कालाइवा' हुण हाय छे १ 'सुभि क्खाइमा धान्यादी पत्ति ३५ सु डाय छ १ 'दुभिक्खाइवा' धान्याहिनी उत्पत्तिना मला१३५ हुण डाय छ ? 'अप्पग्बोइवा' वस्तु मह५ भूव्यथा सोधी भणे छ ? अथवा 'महग्याइवा' मुख्यथा (भांधी) भजे छ ? 'कया इमहाविकयाइवा ci पस्तुशानी परी थाय छे १ अथ पधारे प्रभाथी क्या थाय छे १ 'सणेहीइवा' साली त्यां साम्य पहानी संग्रह रे ? 'सचयाइवा' त्यांना
सोडावा छमविष्य माटे सयय ४२ छ। 'निधीइवा मधिः भृश्यवाणी परतुमाना सह थाय छ १ 'निहाणातिवा' त्यां स धनने ४मी माटे छे ? 'चिरपोराणाइवा त्यांना पांस
Page #701
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ १.४२ डिंबडमेर-कलहादि निरूपणम् ६७७ नमः स्वामी-धनस्थामी यस्य तत्तथा-अत्लामिक द्रव्यजातम्, 'पहीण सेउय' महीणसेचकम्-महीणाः प्रणष्टाः सेक्तारः सेचकाः धनाक्षेतारो यस्य तत् संमति न तत्र धनस्थापिता वर्तते एतादृशं स्थानम्, अथवा महीणसे नुक्रमिति, पहीण सेतुः गमनागमनभूमियस्य सत् । सुमेरुनावनतत्वेन 'पहोणमगाहाइवा' महीणमार्ग मिति वा महीणः प्रणष्टः मार्गः जनानां गमनागमनं यस्य तत् । 'पहीण गोतागा. राइ वा प्रहीणगोत्रागारमिति दा, पहीणं मणष्टं गोत्रागारं तत्स्वामि गोत्रीयज. नस्यापि अगार यस्य नव, निक्षितधनराशि स्वामिनो गोगीयजनोऽपि न जीव तीत्येतादृशं स्थानम् । एतानि वस्तूनि सन्ति किम् ? तथा-'जाई इमाई' यानि इमानि 'गागागरनगरखेडकबडारडं बदोणमुइपट्टणासमसंसहसन्निवेसेसु' ग्रामाकरनगरखेटकर्बटमडम्वद्रोण खात्तनाश्रमसंवाह सन्निवेशेपु सिंघाड गतिगच उक्क बच्चरअपने पास पुरानी वस्तुएं संग्रहित करते हैं ? बहुत पुराना होने से 'पहीण सामियाइ वा' वहाँ ऐसा भी द्रव्य होता है, कि जिसका कोई स्वामी न हो! 'पहीणसेउयाइ दा' ऐसा भी वहां द्रव्य होता है, कि जिसमें फिर को धन जमा करने वाला जन भी न हो। 'पहीणमग्णाइ वा' जिनकी भूमी जाने आने योग्य नही हो । 'पहीणगीत्तागाराइ वा वहां ऐसे भी धन स्थान होते है कि यहां धन रखने वालों के गोनका फोह भी मलुप्य न वचा हो अर्थात् सघ मर गये हो और उसका घर भी नष्ट हो गया हो, वहां ऐसे स्थान होते है क्या फिर 'जाइ इमाइं गामागर णार खेडकपडभडंव्यदोगदपट्टणासमसंवाहसमिशेलेलु' जो थे वहां ग्राम, आशर, नगर, खेट, कट, मडंब, द्रोणमुख, पत्तन, आश्रम, संसाध और सभिधेशा है उनमें तथा उनमें जो 'सिंघाडग' शृङ्गाटक के आकार जैसे रास्ते है 'तिगचउक्कचच्चर चउम्प्नुहमहोपहेलु' त्रिक तीन नुनी वस्तुमान। सड डाय छ ? घायु हुनु डापाथी 'पहीणसमियावा' त्यां स य द्रव्य हाय रेन भासी नाय ? 'पहीणसे उयाइवा' ત્યાં એવું પણ ધન હોય છે કે જેમાં પાછું, કઈ જમા કરાવનાર માણસ सहाय मयानी भूभी १ मा योग्य नाय 'पहीणगोत्तागाराइवा' ત્યાં એવા પણ ધનસ્થાને હોય છે કે ત્યાં ધન રાખવાવાળાઓના વંશને કેઈ પણ માણસ બચ્યું ન હોય ? અર્થાત્ બધાજ મરી ગયા હોય ? અને तेनु घ२ ५५ ना। ५.भ्यु हाय ? वा स्थाना डाय छे ? 'जाई इमाई गामागरणगरखेडकव्यङमबदोणमुहपट्टणासमवाहसन्निवेमेस' मा त्यां याम આકર નગર ખેટ કર્બટ મડંબ દ્રોશમુખ પત્તન અશ્રમ, સંવાહ અને सनिवेश छ, तभा तथा तारे 'सिंघाडग' शिराना मा२ २१।२६तामा
Page #702
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
-
-
६७
जीवामिगम चउम्मुहमहापहपहेसु' श्रृङ्गाट कत्रिकचतुष्कचत्वरचतुर्मुखमहापथपथेषु 'नगरणिद्धमणमुसाणगिरिकंदरसंतिसेलोवठ्ठाण भवणगिहेसु' नगरनिधमनशमशानगिरिकन्दरसच्छे कोपस्थानभवनगृहेपु. हिरण्यसुवर्णादिबहुमत्पद्रयाणि 'संनिक्खित्ताई चिट्ठति' सन्निक्षिप्तानि तिष्ठन्ति किम् ? इति प्रश्ना, भगवानाइ -'णो इणढे समढे' नायमर्थः समर्थः नैतानि अय आफरादीनि एकोरुक द्वीपे भवन्तीति भावः ।
एकोरुकमनुनानां स्थिति दर्शयितुं प्रश्नन्नाह-'एगोरुयदीवे गं' इत्यादि, 'एगुरुयदीवे णं भंते ! दीवे' एकोरुकद्वीपे खलु भदन्त । द्वीपे 'मणुयाणं केवइयं कालं ठिई पनत्ता ?' मनुमानां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता-कथितेति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जहन्ने] पलिओवमस्स असंखेज्जह भाग असंखेज्जइमागेण ऊगर्ग' जघन्येन पल्योपमस्यासंख्येयभागम् मार्ग वाले रास्ते हैं 'चक' चार मार्ग वाले रास्ते है। चत्वर चतुर्मुख मार्ग है और महापय रूप भार्ग है। उनमें एवं 'णगर णिद्धमणसुसाण. गिरिकंदरसेलोवट्ठाण भवणगिहेसु' नगर की नाली गटर में श्मशानों में गिरि एवं गिरि की कन्दराओं में ऊंचे पर्वत इत्यादि स्थानों में 'सनिक्खित्ताई चिटुंति' द्रव्य गड़ा हुआ होता है ? इसके उत्तर में प्रभु श्री कहते है-हे गौतम ! 'णो इणढे समढे' यह अर्थ समर्थ नही है-अर्थात् पूर्वोक्त प्रश्न की विषय भून कोई भी वान वहां नहीं होती है और न ग्रोमादिकों में कहीं पर भी घन गड़ा हुआ रहता है। __ अव सूत्रकार एकशेरुक द्वीप के मनुष्यों की स्थिति कहते हैं-'एगोरुय दीवेणं भंते दीवे मणुयाणं केवतियं कालंठिई पण्णत्ता' हे भदन्न एके रुक 'छीप के मनुव्यों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? उत्तर में
छ, 'तिग चउकचच्चर च उम्मुहमहापहेसु' ४ि मा वाणा २२तामा हाय છે. ચાર માર્ગવાળા રસ્તા છે. ચવર ચાર રસ્તા ભેગા થતા હય તે ચેક तथा मा५५ ३५ भागभा तथा ‘णगरणिद्धमणमुसाणगिरि कंदरसेलोवट्ठाण भवणगिहेसु' नानी ना ४२मा स्मशानामा ५त मे ५'तानी शुशम्मामा
या ५त विशेष स्थानमा 'सनिविखचाई चिट्ठति' हटाये धन डाय छ मा प्रशन उत्तरमा प्रमुश्री गौतमसाभार ४ छे 'णों इणठे सम है ગૌતમ ! આ અર્થ બરાબર નથી. અર્થાત્ પૂર્વોક્ત પ્રશ્ન સંબંધી કોઈ પણ વાત ત્યાં હતી નથી. તેમજ ગામો વિગેરેમાં કયાંય પણ ધનદટાયેલું હોતું નથી
હવે સૂત્રકાર એ રૂક દ્વીપના મનુષ્યની સ્થિતિનું વર્ણન કરે છે. 'एगोरुयदीवणं भते । दीवे मणुयाण' केवतिय काल ठिई पण्णत्ता' भगवन् એકરૂક દ્વીપના મનની સ્થિતિ કેટલા કાળની કહેવામાં આવી છે
Page #703
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ ३.३.४२ डिबडमर-कलहादि निरूपणम् ६७९ असंख्येयभागेनोनकम् 'उक्कोसेण-पलिओचमस्स असंखेज्जहभागं' उत्कर्षण पल्योपमस्यासंख्येयभागम् । 'ते णं भंते ! मणुया' ते एकोकद्वीपनिवासिनः खल्ल भदन्त ! मनुजाः मनुष्याः 'कालमासे कालं किच्चा' कालमसे कालं कृत्वा 'कहिं गच्छति कर्हि उववज्जति' कुत्र-कस्मिन् स्थाने गच्छन्ति त्या कुत्र कस्मिन् स्थाने उत्पद्यन्ते इति गौतमस्य प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'ते णं मणुया' ते खलु-एकोषकद्वीपीय मनुजाः 'छम्मासावंसेसाउया' षण्मासावशेषायुषः कृतपरभवायुर्वन्धा इति गम्यम् 'मिहुणयाइं पसवंति' मिथुनकानि प्रमुबते-समुत्पादयन्ति, 'अउणासीइं राइंदियाई मिहुणाइ सारखंति संगोवितिय' एक नाशीति रात्रिदिवानि-अहोरात्राणि मिथुनकानि संरक्षन्ति संगोपायन्ति च, संरक्षन्ति उचितोपचारकरणतः पालयन्तिप्रभु श्री कहते है 'गोयमा!' हे गौतम ! इनका जहन्नेणं पलिश्रोमस्स असंखेजहभागं असंखेज्जइ भागेण ऊणगं' अपने असंख्यातवे भाग से होन पल्पोपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण जघन्य स्थिति है और 'उकोसेणं पलिभोवमल असंखेज्जइ भागं' उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण है 'ते णं भंते ! मणुस्सा कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छंति, कहिं उययज्जलि' हे भदन्त वे मनुष्य काल मासमें मरण करके कहां जाते है ? कहां उत्पन्न होते है ? उत्तर में प्रभु श्री कहते है 'गोयमा' तेणं मणुया छम्मासायसेसाउया मिटुपयाइ पसवेंति, अउणासीई राइं दियाई मिहुणाई सोरक्खेंति संगोविंतिय 'हे गौतम ! जब उनकी छह मालकी आयुशेष रहती है तब वे पुत्र और पुत्री रूप जोड़े को उत्पन्न करते है अस्सीमे एक कम-७९ दिन तक वे उस जोडे
मा प्रश्नाना उत्तरमा प्रमुश्री गौतमस्वामीन ४९ छ 'गोंयमा ! गौतम । तयानी स्थिति 'जहण्णेण पलिओमरस असखेज्जइभाग असखेजइमागेण ऊणग" પોતના અસંખ્યાતમા ભાગથી ઓછા પલ્યોપમના અસંખ્યાતમા ભાગ પ્રમાણ ४३-4थीछे सने 'उक्कोसेगं पलिओवमस्स असंखेज्जइभांग' GAष्ट स्थिति पक्ष्या. ५मना असण्यातमा माग अमायनी छे. 'तेणं भ ते ! मणुस्सा कालमासे काल किन्चा कहिं गच्छति, कहि उवज्ज ति' मगन् त मनुष्य बना सव. સરે કાળ કરીને કયાં જાય છે અને કયાં ઉત્પન્ન થાય છે? આ પ્રશ્નના उत्तरमा प्रभुश्री ४ छेउ गोयमा । तेणं मणुया छम्मासावसेसाउया मिहणयाई पसवे ति, अउणासीइं राइंदियाई मिहुणाई सारक्खें ति संगोविंति' गीतम જ્યારે તેઓનું છ માસનું આયુષ્ય બાકી રહે છે ત્યારે તેઓ પુત્ર અને પુત્રી રૂપ જેડાને ઉત્પન્ન કરે છે. અને ૭૯ ઓગણ્યાસી દિવસ પર્વત તેઓ એ. જેડલાનું પાલન પિષણ કરે છે, અને તેને સારી રીતે સંભાળે છે,
Page #704
--------------------------------------------------------------------------
________________
હ૮૦
जीवामिगमस्ये अनामोगेन हस्तावकृप्टेभ्यः। 'सारक्वित्तार' संरक्ष्य संक्ष्य 'संगोषित्ता' संगोप्य 'उस्तसित्ता, निस्ससित्ता' उच्छ्वस्य निश्वय-उच्छ्वासं कृत्वा निश्वासं कृत्वा श्वासोच्छ्वासं गृहीत्वेत्यर्थः 'कासित्ता' कासित्वा-कासं विधाय 'छीइत्ता' क्षुत्वा क्षुत्वं विधाय 'अविहा' अक्लिष्टाः स्वशरीरोत्यक्लेशवजिताः 'अव्व हिया' अव्यथिता:-परेणाऽनापादितदुःखाः, 'अपरियाविया' अपरितापिता:स्वतः परतो वा अनुपजातकायमनः परितापाः, 'मुहं सुहेणं' सुखं सुखेन सुवपूर्वकं 'कालमासे कालं किच्चा' काळयासे-कालदिने आयुर्दलिपक्षये कालं-मरणं कृत्वा 'अन्नयरेसु देवलोएसु' अन्यतरेषु देवलोकेषु-भवनपत्यादीशानान्तदेवलोकेषु 'देवत्ताए उबवत्तारो भवंति' देवत्वेन उपपत्तारो भवन्ति समुत्पद्यन्ते स्वसमाना. युष्पसुरेष्वेव तदुत्पत्तिसंमवात् । अत्र कालपासे इति व्यनेन तत्काल तद्देश भाविमनुजानामकालमरणामाः सूचितः, अपर्याप्तकान्तमुहर्तकालान्तरमनपर्वत का प्रति पालन करते है, उसे अच्छी तरह संभाल कर रखते है, 'सार. खित्ता संगोवित्ता' उसी अच्छी तरह पालन और संभाल करके 'उस्ससित्ता, निस्सासित्ता, कासित्ता, छीईत्ता, अभिटा, अव्याहत्ता, अपरियाविया फिर चे उच्छ्वाल निःश्वास लेकर खास कर एवं छींक लेकर विना किसी क्लेश के भीति विना सथा विना किसी परिताप के 'सुहं सुहेण' शान्ति पूर्वक 'कालमाले कालं किच्चा मरण के अवसर में मरकर 'अन्न रेसु देवलोएसु देवत्ताए उबवत्तारो भवंति' भवन पत्यादिइशान देव लोक तक के किसी एक देव लोक में उत्पन्न हो जाते है। अर्थात् अपनी आयु के समान आयुबाले देवों में ही इनकी - उत्पत्ति होती है। इनका अकाल में मरण नहीं होता है क्योकि असं ख्यात वर्षायुष्क आयुवालों को अनपवर्तनीय आयुशला सिद्धार में कहा गया है. यही वात प्रष्ट करने के लिये काल माले' इस शब्द का 'सारखिता लगोवित्ता' तेनु सारी रीत पासन पौष ४शन. 'उस्सासित्ता, निस्सासिवा कासिता छीईत्ता अकिट्रा अवहिता अपरियाविया'त पछी तसे। ઉછવાસ નિ શ્વાસ લઈને ખુ ખારે ખાઈને છી કીને કંઈ પણ કલેશ ભોગવ્યા पिन तथा ५९ on-न परिताप विना 'सुह सुहेण' शान्ति पूर्व 'कालमासे फाल किच्चा' सना अवसरे उरीने 'अन्नय रेसु देवल'एसु देवत्ताए उबवतारो भवति' भवनपतिथी शान सुधीना व पै. પણું એક દેવલોકમાં ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. અર્થાત્ પોતાના યુગ્મ સરીખા આયુષ્યવાળા દેવલેકમાંજ તેઓની ઉત્પતી થાય છે. તેઓનું સ્કાલમરણ થતું નથી. કેમકે અસંખ્યાત વર્ષાયુષ્ક આયુષ્ય વાળાઓને અનપવર્તનીય આયુષ્યવાળા
Page #705
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र. ३ उ०३ द. ४३ आभाषिकद्वीपनिरूपणम्
६८१
नीयायुकत्वात् । 'देवलोयपरिग्गहियाणं ते मणुवगणा पण्णत्ता समणाउसो !' देवलोकपरिग्रहादाः देवलोक एव भवनपत्यादीशानान्तरूपस्तथाक्षेत्र स्वाभाव्यात्त द्योग्यायुर्वन्धनेन परिगृहीतो यैस्ते तथाभूतास्ते मनुजगणाः प्रज्ञप्ताः हे श्रमणा युष्मन्निति । ०४२||
मूलम् - कहिं णं भंते! दाहिणिल्लाणं आभालिय मणुस्साणं आभासिय दीवे णामं दीवे पण्णत्ते ? गोयमा ! जंबूद्दीवे दीवे मंदरस्स व्वयस्स दाहिणेणं चुल्लहिमवंतस्स बासहरपवयस्स दाहिण पुरत्थिमिल्लाओ चरिमंताओ लवणसमुदं तिन्नि जोयणसयाई ओगाहित्ता एत्थ णं आभासिय मणुस्साणं आभासिय दीवे णामं दीवे पण्णत्ते, सेलं जहा एगोरुयाणं णिरवसेसं सव्वं । कहि णं भंते! दाहिणिल्लाणं वेसालियमणुस्साणं पुच्छा, गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं चुहिमवंतस्स वासहरपब्वयस्स दाहिणपच्चत्थिमिल्लाओ चरिमंताओ लवणसमुदं तिणि जोयण० सेसं जहा एगोरुयाणं । कहि णं भंते ! दाहिणिल्लाणं णंगोलियनणुस्वाणं पुच्छा, गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्त पव्त्रयस्स दाहिणेां चुल्लहिमवंतस्स वासहरपव्यपस्स उत्तरपन्चत्थिमिल्लाओ चरिमंताओ लवणसमुहं तिमिण जोयणसवाई० से जहा एगोरुव मणुस्साणं ॥ झु० ४३ ॥
यहां प्रयोग किया गया है। 'देपलोयपरिमाहियाणं ते म पण्णत्ता 'समणउसो' हे श्रमण आयुष्यन् । ये मनुष्य उस प्रकार के क्षेत्र के स्वभाव से हो देव संबंधी आयु का बंध करने से भवन पति से ईशान देव लोक तक के देवलोक के सिवाय अन्यलोक में उत्पन्न होने वाले नहीं होते है || सृ० ४२ ॥
सिद्धांत हे छे. खेर वात अगर ४२ भाटे 'कालमासे' मे पहने। मड्डियां प्रयोग १रेस छे. 'देवलोयपरिगाहियाणं ते मणुयगणा पण्णत्ता समाउसो' હે શ્રમણુ આયુષ્મન્ તે મનુષ્યે તે પ્રકારના ક્ષેત્રના સ્વભાવયીજ દેવ સ ંબધી આયુષ્યના બંધ કરવાથી ભવનપતિથી ઇશાન દેવલેાક સુધીના ફેલેાક સિ વાયના બીજા દેવલેાકમાં ઉત્પન્ન થતા નથી, ા સૂ. ૪૨૫
नी० ८६
Page #706
--------------------------------------------------------------------------
________________
६८२
जीवामिगमसूत्रे छाया-कुन खलु भदन्त ! दाक्षिणात्यानाषाभाषिकमनुष्याणाम् आभाषिक द्वीपो नाम द्वीपः प्रजातः ? गौतम ! जम्बूद्वीपे द्वीपे मंदरस्स पर्वतस्य दाक्षिणेन क्षुद्रहिमवतो वर्षधरपर्वतस्य दक्षिणपौरस्त्यात् चरमान्तात् लवणसमुद्रं त्रीणियोजनशतानि अवगाह्य अत्र खलु आयापिक मनुष्याणाम् आपिकद्वीपो नाम द्वीपः प्रज्ञसः । शेपं यथा एकोरुकाणां निरवर सर्वम् । कुत्र रहलु भवन्त ! दक्षिणात्यानां वैशालिक मनुष्याणां पूछा गौतम ! जम्बृट्टीपे द्वीपे मदरस्य पर्वतस्य दक्षिणेन क्षुद्रहिमवलो वर्षधरपर्वतस्य दक्षिण पाश्चात्यचरातात् लवणसमुद्रं त्रीणि योजनशतानि शेपं यथा ए को रुकाणाम् । कुन खलु दन्त ! दक्षिणात्यानां नाङ्गोलिक मनुधरणां पृछा, गौतम! वृद्वीपे ही मादस्य पर्वतस्य दक्षिणेन क्षुद्रदिमरतो र पंधरपर्वतस्य उत्तरपाश्चात्यात चमान्तात् लवणसमुद्रं त्रीणि योजनशतानि० शेष यथा एकोरुकमनुष्याणाम् ॥ ० ४३॥
टीका-एको रुकमनुष्याणां स्वरूपादिव मुपचपर्य आभाषिकमनुष्याणां स्वरूपा. दिकमुपर्णरितु प्रश्नयनाइ-'कहि गं भते !' इत्यादि । 'कहिणं भंते ! दाहिजिल्लाणं मायासियमणुरसाणं' हुन लु भवन्त ! दाक्षिणात्यानामामाषिक मनुष्याणाम् आभासियदीवे मामंदीवे पण आभाविपद्वीपो नाम द्वीप: घज्ञत:-कथितः, इति प्रश्ना, भगवानाह-गोयमा' इत्यादि 'गोयमा' हे गौतम ! 'जबुद्दीवे दीवे' जम्बृद्वीपे द्वीपे मंदस-पच्चर रस दाहिजेणे' मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणेन-दक्षिणस्यां निशि 'चुल्लहिमवंतस्स वासहरपब्वयस्स' क्षुद्रहिमवतो वर्षधर पर्वतस्य दाहिणपुरथिमिल्लाओ चरिमंताओ' दक्षिणपौरस्त्यात् आग्नेयकोणात्
'कधि णं संते ! बाहिणिल्लार्ण आभारिपच मणुम्लाण' इत्यादि ।
टीझार्थ-हे भदा दक्षिण दिशा के आभाषिक मनुष्यों का आभाषित नामका द्वीप कहां पर है ? उत्तर में प्रभु श्री कहते है'गोयमा' जवुद्दीवे दीये मंदरास पव्वयस्स दाहिणे णं चुल्लहिमवंतस्स घासहर पच्छरस्त दाहिण पुरथिमिल्लामो परिमंताओ' हे गौतम ! इस जम्बूद्वीप में मन्दर पर्वत की दक्षिण दिशा में क्षुद हिमवंत नाम का वडा सुंदर पर्वत हैं उसके दक्षिण पोरस्य अग्नि कोण के चरमान्त से
'कहिण भते ! दाहिणिल्छीण आननियमणुस्त्राण' त्या
ટીકર્થ – હે ભગવન્ દક્ષિણ દિશાના આભાષિક મનુષ્યને આભાષિક नाभन द्वी५ या भाव छ ? २५ प्रश्न उत्तम असुश्री हे छे 'गोयमा ! जंबुद्दीवे दीने म दरस्स पबयस्त दाहिणेणं चुल्लहिमवंतस्स बासहरपवयस्स दाहिणपुरथिमिल्लाओ चरिम ताओ' गीतम! माझी५मा म २५ तनी हशिय દિશામાં ક્ષુદ્રહિમવંત નામને સુંદર પર્વત છે. તેના દક્ષિણ પરત્યે અગ્નિ
Page #707
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्यतिका टीका प्र.३ उ.३ लू.४३ आभापिकद्वीपनिरूपणम्
ભૈકું
चरमान्तात् 'लक्षणसमुदं तिनि जोवणसयाई बोगाद्दित्तः व्यनसमुद्रं त्रीणि योजनशतानि अवगाद्या 'एस्थ णं णामाविषणुस्साणं आभातियदीवे णामं दीवे पण्णत्ते' अत्र खलु आभाषिक मनुष्याणाम् आभाषिकद्वीपो नामद्वीपः पज्ञतः, 'सेसं जहा एगोरुयाणं निरवसेसं सव्वं' शेष यथा एकोरुकाणां निरवशेष सर्वम् एकोरुकमनुष्यवदेव आभाषिक द्वीपस्य वर्णनम् आभाषिक मनुष्यस्वरूपादिकं च सर्वे निरव शेष वक्तव्यम् । 'कहि णं भंते कुत्र खलु भदन्छ । 'दादिजिल्लाणं वेसालिय मणुस्वाणं पुच्छा' दाक्षिणात्यानां वैशालिकमनुष्याणां वैशालिक नामको द्वीपः प्रज्ञप्तः इति पृच्छया संगृह्य मे घनः भगवानाह - 'गोयमा' हे गौतम | 'जंबुद्दीचे णं दीवे' जम्बूद्वीपे खलु द्वीपे 'मंदरस्स एव्वयस्स' मन्दरनामकस्य पर्वतस्य 'दाहिणे णं' दक्षिणेन 'चुल्ल हिमवंतस्स वासहरपव्वयस्स' चुछदिमरतो वर्षघरपर्वतस्य दाहिणपच्चरिथमिल्लाओ चरिमंताओ' दक्षिणपाश्चात्यात् नैऋतकोणादित्यर्थः चरमा'लवणसमुदं तिनि जोषणाई ओगाहिता' लवण समुद्र में तीन सौ योजन जाने पर इसी स्थान पर 'एत्थ णं आमालिष मणुहसाणं आमाfar दीवे णामं दीवे पण्णत्ते' आभाषिक मनुष्यों का आभाषिक नाम का द्वीप है । 'सेसं जहां एगोरुपा णं णिरवसेसं सव्वं' इस द्वीप के सम्बन्ध में एवं यहां के मनुष्यों के सम्बन्ध में बाकी का और सब कथन rator द्वीप के प्रकरण में जैला किया गया है वैसा ही जान लेना चाहिए । 'करिणं मंले ! दाहिणिल्लाणं वेसालिय वेसानिय मणुस्साणं पुच्छा' हे भदन्त ! दक्षिण दिशा के वैशालिक वैषाणिक मनुष्यों का वैशालिक वैषाणिक नामका द्वीप कहां पर है। उत्तर में प्रभुश्री कहते है 'गोयमा' जंबूद्दीवे दीवे मारल पन्चयस्य दाहिणे णं चुल्लहिमवंतस्स वासहरपव्वयस्स दाहिण पच्चत्थिमिल्लाओ चरिमताओ समुद्द
भूयाना थरभान्तथी ‘लवणखमुदं तिन्नि जोयणसयाई जोगाहित्ता' सवायु समुद्रमां त्रयुसो योजन लय त्यारे 'एत्थणं आभासियमणुस्वाण' आभाखिय दीवे णाम दीवे पण्णत्ते' ४ स्थानपर आलाषिक मनुष्योनो आभाषिषु नाभनेा द्वीप छे, 'सेस' जहा एगोरुय णं णिरवसेसं सव्व' मा द्वीपना संबंधां तेभन त्यांना મનુષ્ચાના સંબ ંધમાં ખાકીનું તમામ કથન એકારૂક દ્વીપનાં પ્રકરણમા જે પ્રમાણે 'हेवामां आवेल छे भेज प्रमाये समल सेवु' ले 'कहिणं भवे । दाहिणिल्लाण वेसालिय वेसायि मगुस्खाण पुच्छा' हे भगवन् ! हक्षिशु हिशाना वैशासि અને વૃષાણિક મનુષ્યેાના વૈશાલિક અને વૈષાણિક નામના દ્વીપ કયાં આવેલ છે प्रश्न उत्तर प्रतागने से छेडे 'गोमा ! जंबूदी वे दीवे मंदराव दहिगे चुल्लईमवंत दद्दिन
Page #708
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमले न्तात् 'लवणसमुई तिनि जोयणसयाई' लवणसमुद्रं त्रीणि योजनशतानि अवगाह्यात्र खलु दाक्षिणात्यानां वैशालिकमनुष्याणां पैशालिक नामको द्वीपः प्रज्ञप्त:-कथितः 'सेसं जहा एगोरुयाणं' शेपं यथा एक रुकद्वीप निवासिनां मनुष्याणां कथितं तदे. तत्सर्व निरवशेषमिह वक्तव्यमिति । 'कहिणं भंते !' कुत्र खलु भदन्त ! 'दाहिणिल्लाणं गंगोलियमणुस्साणं पुच्छा' दाक्षिणात्यानां नाङ्गोलिकमनुष्याणां नाङ्गोलिको नाम द्वीपः प्रज्ञप्त:-कथित इति पश्ना, 'भगवानाह-'गोयमा' हे गौतम ! 'जबूदीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणणं' मन्दरनामकस्य पर्वतस्य दक्षिणेन 'चुल्ल हिमवंतस्स वासहरपव्ययस्स' चुल्लहिमवतो वर्षधरपर्वतस्य 'उत्तरपच्वथिमिल्लाओ चरिमंताओ' उत्तरपाश्चात्यात् वायव्यकोणादित्यय: तिन्नि जोयणस्स सेसं जहा एगोरुयाणं 'हे गौतम' इस जंबूदीप नाम के वर्तमान सुमेरु पर्वत की दक्षिण दिशा की ओर रहे हुए क्षुद्र हिमवंत पर्वत के दक्षिण पश्चिम नैऋत कोण के चरमान्त से लषणसमुद्र में तीनलो योजन जाने पर ठीक इसी स्थान पर दक्षिण दिशा के वैशालिक वैषाणिक मनुष्यों का वैशालिक (वैषाणिक) नामका द्वीप है। वाकी का इसके सम्बन्ध में शेष और सष कथन एकोहक के प्रकरण जैसा ही है। ___कहि मंते' दाहिणिल्लाणं गंगोलियमणुस्साणं पुच्छा' हे भदन्त । दक्षिण दिशा के नांगोलिक मनुष्यों का नांगोलिक द्वीप कहाँ पर है। उत्तर में प्रभुश्री कहते है 'गोयमा' जंबूहीवे दीवे मंदरस्स पयस्त दाहिणे चुल्ल हिमवतस्स वालहरपव्वयस्स उत्तर पच्चस्थिमिल्लाओ चरिमंताओ लवणसमुदं तिणि जोयणसयोई सेसं जहा पच्चस्थिमिल्लाओ चरिम ताओ लवणसमुदं तिन्निजोयण सयाई सेस जहा एगोरुय माणुस्वाण' 8 गौतम | मा दीपा सुभे३ पतनी क्षि हा त२३ રહેલા ક્ષુદ્રહિમવંત પર્વતના દક્ષિણ, પશ્ચિમ નૈિત્ય ખૂણાના ચરમાન્તથી લવણ સમુદ્રમાં ત્રણ જન જવાથી બરોબર એજ રથાનપર દક્ષિણ દિશાને વૈષાણિક અને વૈશાલિક મનુષ્યના વૈષાણિક અને વિશાલિક નામના દ્વીપ છે. એટલે કે વૈશાલિક મનુષેના વૈશાલિક દ્વીપ અને વૈષાણિક મનુષ્યનો વૈષાણિક દ્વીપ છે. આ સંબંધમાં બાકીનું તમામ કથન એકેરૂક દ્વીપના કથન પ્રમાણેનું જ કહેલ છે.
'कहि णं भवे ! दाहिणिल्लाण गंगोलियमणुस्साण पुच्छा' 8 भगवन् દક્ષિણ દિશાના નાગોલિક મનુષ્યોને નાંગલિક દ્વીપ કયાં આવેલ છે? આ प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री गौतमस्वामीन ४ है 'गोयमा । जबूरीवे दीवे मदस्स पव्वयस्स उत्तरपच्चस्थिमिल्लाओ चरिम दाओ लवणसमुदं तिण्णि जोयणसयोइ सेस जहा एगोरुयमणुस्साण' हे गौतम ! उत्तर पश्चिम . દ્વીપના મંદર પર્વતની દક્ષિણ દિશામાં આવેલ મુદ્રહિમવંત પર્વતના વાયવ્ય
Page #709
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका का प्र.३ उ.३ सू.४४ हय कर्णद्वी पनिरूपण स् चानान्तात् 'लपण समुदं तिनि जोषणमया६०' करण पमुद्रं त्रीणि योजनशतानि अवगाह्यात्र खलु नाङ्गोलिकमनुष्याणां नाङ्गोलिकनालको द्वीपः प्रज्ञप्तः, 'सेसं जहा एगोरुपमणुस्सा शेषं यथा एकोरुकमनुष्याणाम् एतदतिरिक्त सर्वमेकोरुकमनुज्यपकरणवदेव ज्ञातव्यम् ।।सू. ४३॥ हयकर्णद्वीपं वर्णयितुमाह-'कहिणं भंते !' इत्यादि।
मूळम् कहि णं अंते ! दाणिहिल्लाणं हयकण्णमणुस्साणं हयकण्णदीवे णाम दीवे पन्नत्ते? गोयमा! एगोरुयदीवस्स उत्तरपुरथिमिल्लाओ चरिमंताओ लवणसमुदं चत्तारि जोयणसयाई
ओगाहित्ता एत्थ ण दाहिणिल्लाणं हयकपणमणुस्लागं हयकागदीवे जाम दीवे पन्नत्ते, बत्तारि जोयणलयाई आयामविक्खंभेणं, बारसजोयणलया पन्नट्टी किंचि विसेसृणा परिक्खेत्रेणं, से णं एगाए पउमवरवेइयाए अवसेसं जहा एगोरुयाणं। कहि पं भंते ! दाहिणिल्लाणं गयकण्णमणुस्साणं पुच्छा, गोयमा! आभासिय दीबस्स दाहिणपुरथिमिल्लाओ चरिमंताओ लवणसमुइं जोयणस्याईलेसं जहा हयकपणाणं। एबं गोकण्ण
भणुस्साणं पुच्छा, वेसाणिय (वेसालिय) दीवस्त दाहिणपच्चथिमिल्लाओ चरिमंताओ लवणससुई चत्तरि जोषालयाई सेसं जहा हरकपणाणं। सक्कुलिकण्णाणं पुच्छा, गोयमा! गंगोएगोरुपमणुस्साणं' हे गौतम उत्तर पश्चिम इम जम्बूदीप के मन्दर पर्वत की दक्षिण दिशा में दर्लान क्षुद्र हिमवन एवैत वायव्य कोण के चरमान्त से लक्षण सम में तीनसी योजन जाने पर ठीक इसी स्थान पर दक्षिण दिशा के नांगोलिक मनुष्यों का नांगोलिक नामका द्वीप है इस द्वीप और द्वीप मनुष्यों के सम्बन्ध में और सघ मादीमा कथन एकोरुक के प्रकरण में जैसा लिखा जा चुका है वैसा ही है। ॥४३ः। ખૂાના ચરમાન્તથી લવણ સમુદ્રમાં ત્રણસો જન જવાથી બરાબર એજ સ્થાન પર દક્ષિણ દિશાના નાગલિક મનુષ્યાને નાંગલિક નામને દ્વીપ આવેલ છે.
આ દ્વીપ અને દ્વીપમાં રહેલા મનુષ્યના સંબંધમાં બીજુ તમામ બાકીનું કથન એકરૂક દ્વીપના પ્રકરણમાં જે પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે. એજ प्रमाणे नय. ॥ सू. ४३ ॥
Page #710
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमवे लिय दीवस्त उत्तरपच्चथिमिल्लाओ चरिमंताओ लवणसमुह चत्तारि जोयणसयाई सेसं जहा हयकण्णाणं । आयंसमुहाणं पुच्छा, हयकण्णदीवस्स उत्तरपुरथिमिल्लाओ चरिमंताओ पंचजोयणसयाई ओगाहित्ता एत्थ णं दाहिणिल्लाणं आयंसमुहमणुस्साणं आयंसमुहदीवे णाम दीवे पन्नत्ते, पंच जोयणसयाई आयामविखंभेणं। आसमुहाईणं छ सया, आलकन्नाईणं सत्त, उक्कामुहाईणं अट्ट, घगदंताईणं जाव नव जोयणसयाई, एगोरुय परिक्खेको नव चेव लयाई अऊणपन्नाई।
बारसपन्नटाई हयकण्णाईणं परिक्खेत्रो ॥१॥
आयलमुहाईणं पन्नरसे कालीए जोयणसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं, एवं एएणं कमेणं उवउंजिउण णेयव्वा चत्तारि चत्तारि एगपमाणा, णाणत्तं ओगाहे, विक्खंभे परिक्खेवे, पढमबीय तईय चउक्काणं उग्गहो विक्खंभो परिक्खेवो भणिओ। चउत्थ चउक्के छजोयणसवाइं आयामविक्खंभेणं अटारस सत्ताउए जोयणसए परिक्खेवेगं । पंचमचउक्के सत्त जोयणसयाइं आयामविक्खंभेणं बावीसं तेरसोत्तरे जोयणसए परिक्खेवेणं । छट्ठचउक्के अट्रजोवणलयाई आयामविक्खंभेणं, पणवीसं एगूणतीसं जोयणसए परिक्खेवणं । सत्तमचउक्के 'नव जे.यणसयाइं आयालविश्खंभेणं, दो जोषणसहस्साइं अट्ठ पणयालं जोयणसए परिकलेवेणं ।
जस्स य जो विक्खंभो ओगाहो तस्ल तत्तिओ चेव। पढमाइण परिरओ सेसाणं जाण अहिओ ३ ॥१॥
सेसा जहा एगोरुय दीवस्स जाय सुद्धदंत दीवे देवलोग परिगगहियानं ते मनुषगणा पण्णत्ता समणाउसो! कहि णं भंते ! उत्तरित्यागं एमाल्य मणुस्साणं एगोरुय दीवे णामं दीवे
Page #711
--------------------------------------------------------------------------
________________
६८७
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.४३ हयकर्णद्वीपनिरूपणम् पण्णत्ते ? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्त पव्वयस्स उत्तरेणं सिहरिस्स वासहरपव्वयस्स उत्तरपुरथिमिल्लाओ चरिमंताओ लवणसमुदं तिन्नि जोयणसहस्लाइं ओगाहित्ता, एवं जहा दाहिणिल्लाणं तहा उत्तरिल्लाणं भाणियव्वं । णवरं सिहरिस्त वासहरपव्वयस्ल विदिसासु एवं जाव सुद्धदंतदीवे ति जाव से तं अंतरदीवया ॥ से किं तं अकम्मलगमणुस्सा ? अकम्मभुमगमणुस्सा तीसविहा पन्नत्ता तं जहा-पंचहिं हेमवएहिं एवं जहा पण्णवणापदे जाव पंचहिं उत्तरकुरूहिं, लेतं अकम्म भूमगा। से किं तं कम्मभूमगा ? कम्मभूमगा पण्णरसविहा पन्नत्ता, तं जहा-पंचहिं भरहहिं पंचहि एरवएहिं पंचाहिं महाविदेहेहि, ते समासओ दुविहा पन्नत्ता, तं जहा-आरिया मिलेच्छा एवं जहा पण्णवणापदे, जाव सेत्तं आरिया, सेत्तं गमवकंतिया सेतं मणुस्सा ॥सू०४४॥
छाया-कुत्र खलु भदन्त ! दाक्षिणात्यानां हयगण मनुष्याणां हयकर्ण द्वीपो नाम द्वीपः प्रज्ञतः ? गौतम ! एकोरुकद्वीपस्य उसरपौरस्त्यार चरमान्तात् कवण समुद्रं चत्वारि योजनशतानि अवगाह्य अन्न खलु दक्षिणात्यानां इयकर्ण मनुष्याणां हयकर्णद्वीपो नाम द्वीपः प्रज्ञप्तः, चत्वारि योजनशतानि आयामविष्कम्भेण द्वादश योजनशतानि पञ्चषष्ठानि किञ्चिद्विशेपोनानि परिक्षेपेण, स खलु एकया पदव रवेदिकया, शेषं यथा एकोरुकाणाम् । कुत्र खल भदन्त ! दाक्षिणात्यानां गजकर्णमनुष्याणां पृच्छा, गौतम ! आभाषिक द्वीपस्य दक्षिणपौरस्त्यात चरमानतात लवणसमुद्रं चत्वारि योजनशतानि, शेष यथा-हयफर्णानाम् । एवं गोकर्ण मनुः याणां पृच्छा, वैषाणिक (वैशालिक) द्वीपस्य दक्षिणपाश्चात्यात् चरमान्तात् लवणसमुद्र चत्वारि योजनशतानि शेष यथा इयरर्णानाम् । शकुळीकर्णानां पृच्छ”, गौतम ! नाङ्गोलिक द्वीपस्योत्तरपाश्चात्यात् चरमान्ताद् ळवणसमुद्रं चत्वारि योजनशतानि, शेष यथा हयकर्णानाम्। आदर्शमुखानां पृच्छा, हगणद्वीपग्योतरपोरस्त्यात् चरमान्तात् पञ्चयोजनशतानि अवगाह्यात्र खल दाक्षिणात्याना मादर्शमुखमनुष्याणा मादर्शमुग्व द्वीपो नाम द्वीपः प्रज्ञाः, पञ्चयोजनशतानि बाया. मविष्कम्भेण, अश्वमुखादीनां पेट्शतानि, अर्श्वकर्णादीनां सप्त उल्का मुखादीना
Page #712
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
-
-
-
जीवामिगमसूत्र मष्टौं, घनदन्तादीनां यावन्नवयोजनशतानि । एकोकपरीक्षेपो, नश्व शतानि, एकोनपञ्चाशत् । द्वादशपश्चषष्ठानि हयकर्णादीनां परिक्षेपः ॥१॥' आदर्शमुखा. दीनां पञ्चदशे काशीजानि योजनशतानि किञ्चिद्विशेषाधिकानि परिक्षेपेण । एवमे तेन क्रमेण उपयुज्य नेतव्यानि चत्वारि चत्वारि एकप्रमाणानि, नानात्वम् अब गाहनायाम, विष्कम्मः परिक्षेपः, प्रथमद्वितीयत्तीयचतुष्कानाम्, अग्रहो विष्कम्भः परिक्षेपो भणितः। चतुर्थ चतुष्के षड्योजनशतानि आयामविष्कम्भेण, अष्टादश सप्तनवतानि, योजनशतानि परिक्षेपेण । पञ्चमचतुष्के सप्नुयोजनशतानि आयामविष्कम्भेण, त्रयोद्वाविंशति योजनशतानि त्रयोदशोत्तराणि परिक्षेपेण । षष्ठचतुष्के अष्टयोजनशतानि, आयामविष्कम्भेण, पञ्चविंशतियोजनशतानि एकोनत्रिंशानि परिक्षेपेण । सप्तमचप्के नवयोजनशतानि आयामविष्कम्भेण, द्वे योजनसहस्रेऽष्ट पञ्चचत्वारिंशानि चोजनशतानि परिक्षेपेण । 'यस्य च यो विष्कम्भः, अवगाहस्तस्य तावत्कएव । प्रथमादीनां परिरयः, शेषाणां जानीहि अधिकस्तु ।।१ ।
शेषा यथा एकोरुकढीपस्य यावत् शुद्धदन्तद्वीपः, देवलोकपरिगृहीताः खलु ते मनुजगणाः प्राप्ताः श्रमणायुष्मन् ! कुत्र खलु भदन्त ! औत्तराणामेकोरुकमनुष्याणा मेको रुकवीशे नाम द्वीपः प्रज्ञप्त्तः ? गौतम ! जम्बूद्वीपे डीपे मन्दरस्य पर्वतस्योत्तरेण, शिखरिणो वर्षधरपर्वतस्योत्तरपौरस्त्यात् चरमान्ताव लवणसमुद्र त्रीणि योजनशतानि अग्राह्य एवं यथा-दाक्षिणात्यानां तयौतराणां भणितव्यम् । नवरं शिखरिणो पधरपर्वतस्य विदिशासु, एवं यावत् शुद्धदन्त द्वीप इति यावत् ते एते अन्तरद्वोपकाः ॥ अथ के ते अर्म भूमिकमनुष्याः ? अर्मभूमिकमनुष्याः त्रिंशद्विधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-रश्चमि माता, एवं यथा प्रज्ञापनापदे यावत् पश्च भिरुत्तरकुरूभिः. ते एते अकर्मभूमिकाः । अथ के ते कर्मभूमिका ? धर्मभूम्किा : पञ्चदशविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-पञ्चभिर्भरतः पञ्चभिररस्तैः एञ्चभिर्महाविद है, ते समासतो द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-आर्या म्लेच्छाः, एवं यथा प्रज्ञापनपदे यावद ते एते आर्याः, ते एते गर्भव्युत्क्रान्तिकाः, ते एते मनुष्याः ॥मू०४४॥
टीका-'कहिण भने !' कुत्र खलु-कस्मिन् स्थाने खलु भदन्त ! 'दाहिणि हळाणं हयका मणुप्साणं' दाक्षिणात्यानाम् - दक्षिणदिवस्थितानाम्, अन्तरद्वीपा: 'कहिण भते ! दाहिणिल्लाणं हरकणमणुस्साणं हयव एणदीवे'-इत्यादि
टीकार्थ-हे भदन्त । दक्षिण दिशा के हयकर्ण मनुष्यों का हयकर्ण नामका जीप कहां पर है अन्तर छीर छप्पन-५६ होते हैं उनमें अठाईप
'कहि ण भ ते दाहिणिल्ला णं हयकण्ण मणुस्वागं हयझण्णदीवे' या ટીકાર્થ–હે ભગવન દક્ષિણ દિશ ના હયકર્ણ મનુષ્યોને હયકર્ણ નામને દ્વીપ કયાં આવેલું છે? અંતર દ્વીપે ૫૬ છપ્પન હોય છે, તે પૈકી ૨૮ અઠયાવીસ
Page #713
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीका प्र.उ.३ सू.४४ हयकर्णद्वीपनिरूपणम् ___ ६८९ षट्पञ्चाशत् सन्ति तेषु एकोरुकादयोऽष्टाविंशतिर्दक्षिणस्यां दिशि तत्र टाविंशतिः रेव, उत्तरस्यां दिशीत्यत्र दक्षिणा दिस्थितान्तरद्वीपानां प्रकरण मित्यतो दाक्षिणा त्याना मित्युक्तम्, हयर्णिमनुष्याणाम्, 'हयकण्ण दीवे नामं दीवे पण्णत्ते' दयकर्ण द्वीपो नामद्वीप: यज्ञप्तः, हे भदन्त ! हयकर्णमनुष्याणां हयकर्णद्वोपो नाम निवासस्थानं कुत्र कथित इति पश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे नौतम ! 'एगोरूयदीवस्स' एकोरुनानक द्वीप 'उत्तरपुरथिमिल्लाओ चरिमंताओ' उत्तरपौरस्त्याव-उत्तरपूर्व-ईशानकोणे विद्यमान व चरमान्तात् 'लवणसमुद्द चलारि जोयणसयाई ओगाहित्ता' लवणसमुद्रस्यारि योजनशतानि अबाह्य--व्यतिक्रस्य "एत्थ णं दाहिणिल्लाणं इयकण्णमणुस्साणं' अत्र खलु दाक्षिणात्यानां हमकर्णश्नु. व्याणाम् हयाण्ण दीवे णामं दीवे पणत्ते' 'हयक्षद्वीपो नामद्वीप प्रज्ञप्त:-कथितः, दक्षिण दिशा में और वैसे ही अठाईस उत्तर दिशा में होते है यहां दक्षिण दिशा के अन्तर ही का प्रकरण होने से 'दाहिणिल्लाण' ऐसा कहा है। इसके उत्तर में प्रभुश्री कहले हैं-'गोयमा ! एउगोरुष दीवस उत्तर पुरथिमिल्लाओ चरिमंलाओ लमशालाई सत्तारि जोयण लयाई ओगा. हित्ता एत्थणं दाहिल्लिाणं हयाण्णमणुरुशाणं हथकपणदीवे णासंदीवे पण्णत्ते' एको रुक द्वीप के ईशान कोने में विद्यमान चरमान्त ले लक्षण समुद्र में चार की योजना चलने पर इसी स्थान में दक्षिण दिशा के हयकर्ण मनुष्यों का जयकर्ण नामका द्वीप है । तात्पर्य इस कथन का ऐसा है कि एकोहावीप के पूर्व घरमान्त से ईशान दिशा में लवण समुद्र में चारसी योजन जाने पर यहां क्षुल्ल हिमंत पर्व की दाढा आती है तो इस दादा के ऊपर जम्बृद्धीपक्षी वेदिका के अला भाग से चार हौ योजन के अन्त में दाक्षिणात्य शिक्षण मनुष्यों का यह यकणं नामका द्वीप कहा गया है। यह द्वीप की 'चत्तारि जोशणसी દક્ષિણ દિશામાં અને બીજા ૨૮ અષ્ઠયાવીસ ઉત્તર દિશામાં હોય છે અહિયાં हक्षा हिशान तर दीयानु प्र४२६ पाथी 'दाहिणिल्लाणं' के प्रमाणे ४ . २॥ प्रश्नना उत्तम प्रभुश्री गौतमत्वामीने हे छ 'गोयमा ! एगोरुय दीवस्स उत्तरपुरथिमिल्लाओ चरिमंताओ लवगसमुदै चत्ता र जोगणसयाई ओगाहित्ता एत्थ ण दाहिणिल्लाणं हयकण्णमणुम्माण हयकण्ण दीवे जाम दीये पण्णत्ते' ठी३४ दीपना शान भूयामा मावस यरमन्तधी ale समुद्रमा ચાર જન સુધી જવાથી એજ થાનપર દક્ષિણ દિશા દાકર્ણ મનુ એને હકણું નામ હિપ આવેલ છે
આ કથનનું તાત્પર્ય એવું છે કે એકરૂક દ્વીપના પૂર્વ ચરમાન્તથી ઇશાન દિશામાં લવણ સમુદ્રમાં ચાર જન જવાથી ત્યાં સુલ હિમવંત
मी० ८७
Page #714
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमस्से अयं भावः-एकोरुकद्वीपस्य पूर्वस्मात् चरमान्तात् उत्तरपूर्वस्यां दिशि लवणसमदं चत्वारि योजनशतानि अरगाह्याऽत्रान्तरे क्षुल्लहिमवद दंष्ट्राया उपरि जम्बूद्वीपवेदिकान्तादपि चतुर्यो जनशतान्तरे दाक्षिणात्यानी हयकर्णपनुष्याणां इयकर्णद्वीपो नाम द्वीपर कथित इति । स च 'चत्तारि जोयणसयाई आयाम विक्खंभेणं चत्वारि योजनशतानि आयामविष्कम्भेण कथितः आयामो दैर्ध्य विष्कम्भो विस्तारः, त्यो समाहारस्तेन 'वारसजोयणसया पन्नही किंचि विसेमूणा परिक्खेवेणं' द्वादशयोजन. शतानि पञ्चषष्टानि पञ्चषष्टयधिकानि किश्चिद्विशेषाधिकानि परिक्षेपेण । 'से गं एगाए पउमवरयेदियाए सेसं जहा एगोरूयाणे' स खलु हयकर्ण द्वीप एकया पनवर वेदिकया अवशेष यथा एकोरुकाणा यथैव एकोरूक द्वीपे पदमवरवेदिकाया अनेकविधद्रुमशतावृतवनस्य दनपण्डस्य च वर्णनं कृतं तयैव हयकर्णद्वीपोऽपि पद्मवरवेदिकाया अनेकविधद्रुमोपलक्षितवनस्य वनषण्डस्य च वर्णनं पूर्वव बोध्यम् ॥५॥ आयामविवखंभेणं' लम्बाई एवं चौड़ाई चार सौ गोजन की है। बारसजोषणसया पनही किंचियिले कृणा' परिक्खेदेणहलकी परीधि कुछ अधिक बारहलो पेंसठ योजन की है। 'सेणं एगाए पउनवरवेदियाए अवसेसं जहा एगोरुयाणं' यह द्वीप एक्ष पद्मवर वेदिका से चारों ओर घिरा हुआ है। इत्यादि रूप से सब कथन इस के वर्णन के सम्ब. न्ध में जैसा कि एशोरुक द्वीप के प्रकरण में किया गया है वैसाही वह यहां पर कहना चाहिये । अर्थात् ग्रह हथकर्णद्वीप भी एक पद्मवरवेदिका एवं अनेक प्रकार के वृक्षो से सुशोभित घन एवं वनषंड से घिरा हुया है उन बनना एवं बनखंडको वर्णन पहिले कहे गये अनुसार समझ लेना चाहिये। પર્વતની દાઢા આવે છે તે દાઢાની ઉપર જબુદ્વીપની વેદિકાના અંત ભાગથી ચારસે ચોજનન અંતરમાં દક્ષિણ દિશાનો હયકર્ણ મનુષ્યોના હયકર્ણ નામને द्वीप ४ह्यो छे. मा दीपनी 'चत्तारि जोयणमयाइ आयामविक्ख मेणं' माध पहाणा यारसा यानी छे. 'बारस जोयणसया पन्नटी किंचिविसेसूणा परिक्खेवेणं' तनी परिधी ४४४ पधारे मारसे। पास येशननी छे. 'से णं एगाए पउमवरवेइयाए अवसेस जहा एगोल्याणं' ५। ५ श्ये ५१२ हाथी ચારે તરફ ઘેરાયેલો છે. ઈત્યાદિ પ્રકારથી તેનું સઘળું વર્ણન જેમ એકેરૂક દ્વિીપનું વર્ણન તે પ્રકરણમાં કર્યું છે એજ પ્રમાણે સમજી લેવું. અર્થાત્ આ હયકર્ણ દ્વીપ પણ એક ક્વવર વેદિકા અને અનેક પ્રકારના વૃક્ષોથી ભયમાન વન અને વનખ ડથી ઘેરાયેલ છે. તે વનનું અને વનખંડનું વર્ણન પહેલાં કહેલ પ્રકારથી સમજી લેવું જોઈએ.
Page #715
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ ३.३ ५.४४ हयकर्णद्वीपनिरूपणम्
हयकर्णमनुष्याणां यशणद्वीपं निरूप्य गजकर्गमनम्मान गजकर्णद्वीपं निरूपयितुं प्रश्न यन्नाइ-'कहिणं भंते !' इत्यादि, 'कहिणं संते दाहिणिल्लाणं गज. कण्णमणुस्साणं पुच्छा' कुन-कस्मिन स्थाने खलु भदन्त ! दाक्षिणात्यानां गजकर्णमनुष्याम्, गजकर्णारूपो नाम द्वीप प्रज्ञा:-कथितः ? इखि पृच्छ या संगृह्यते, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'आभासियदीवरस' आमापिकनामक द्वीपस्य 'दाहिणपुरथिमिल्लाओ चरिगंनाओ' दाक्षिणपौरस्त्यात
आग्नेयकोणस्थितात् चरमान्तात् 'लरणसमुदं चत्तारि जोयणसयाई सेसं जहाहयकण्णाण' लवणसमुद्रं चत्वारि योजनशतानि शेपं यथा हपकर्णानाम्-आभाषिक द्वीपस्य पूर्वस्मात् चरमान्तात् दक्षिणपूर्वस्यां दिशि चत्वारि योजनशतानि लवण समुद्रमवगाह्यात्रान्तरे क्षुल्लाहिमवदंष्ट्राया उपरि जम्बूद्वीपवेदिकान्तात् चतुर्योजनशतान्तरे गजकर्णमनुष्याणां गजकर्णद्वीपो नामद्वीपः प्रज्ञाः, अख्यायामष्किम्भपरिधिपरिमाण हयकर्णद्वीपवद, जथाहि-स च चत्वारि योजनशतानि आयामविकम्भेण, द्वादशयोजनशतानि पश्चपष्टयधिकानि किञ्चिद्विशेषाधिकानि परिक्षेपेण ___ 'कहि णं भंते' दाहिणिल्लाणं गजकण्ण नणुस्वाणं पुच्छ।' 'हे भदन्त' दक्षिण दिशा के गजकर्ण मनुष्यों का गजकर्ण नामका दीप कहां पर है ? इसके उत्तर में प्रभुत्री कहते है 'भोयमा' आभासियदीवस्स दाहिजपुर स्थितिल्लाओ चरिमंताओ लक्षणसमुदं चत्तारि जोयणसयाइं से सं जहा इयतणाणं' हे गौतम आभाषिक द्वीप के
आग्नेय कोल स्थित घरमाल से लक्षण समुद्र में आगे चाव सौ योजन घुसने पर क्षुद्र हिलवान पर्वत भाता है-इस क्षुद हिमवान पर्वत की दंष्ट्रा के उपर जम्बूद्वीप के वेदिकान्त से चार सो योजन के अन्तर में गजकर्ण मनुष्यों का यह गजकर्ण नाम का ही कहा गया है। यह छीप चार सौ योजन की लम्बाई चौड़ाई वाला है और कुछ अधिक
'कहि णं भंते! दाहिणिल्लाणं गजकण्णमणुस्खाणं पुच्छा' 8 सावन દક્ષિણ દિશાના ગજકર્ણ મનુષ્યોને ગજકર્ણ નામને દ્વીપ કયાં આવ્યા છે? मा प्रश्न उत्तरwi प्रसुश्री. गौतमस्वामीन ४ छ ॐ 'गोयमा ! आभासिय दीवस्स दाहिणपुरस्थिमिल्लाओ चरिमताओ लवणखमुई चत्तारि जोयणसयाइ सेस' जहा हयकण्णणं' गौ म ! मासापि द्वीना मसियामा रहे ચરમાન્તથી લવણ મદ્રમાં ચાર જન જવાથી ક્ષુદ્રહિમવાન પર્વત આવે છે. આ મુદ્ર હિમાવાન પર્વતની દાઢા ઉપર જમ્બુદ્વીપના વેદિકાન્તથી ચારસો જનના અંતરે ગજકર્ણ મ ને ગજકર્ણ નામનો ક પ કરવ છે. આ દ્વીપ ચારસો यासननी
" दाणे: छे म. .. मासे १ २:
Page #716
--------------------------------------------------------------------------
________________
६९२
जीवाभिगमसूत्र प्रज्ञप्तः, एवम नेकविधद्रुमोपेतवनस्य पदमबरवे दिसाया वनपण्डरच वर्णनमेको. रुहद्वीपत्रदेव विज्ञेयमिति १६:९ ___एवं गोकगमणुस्सा णं पुच्छा' हे भदन्त ! दाक्षिणात्यानां गोकर्णमनु
पाणां गोकर्णनामको द्वीपः प्रज्ञाप्त इति मश्नः, भगवानाह-'गोयणा' हे गौतम ! 'वेसाणियदीपस्स' बषाणिक (बैशालिक) द्वीपस्य 'दाहिणपच्चस्थिमिल्लाओ चरिमंताओ' दक्षिणपाश्चात्यात् चरणान्तात् चत्वारि योजनशतानि 'सेसं जहा हरकण्णाण' शेषं सर्व प्रकरणं यथा इयकर्ण मनुष्याणां तथैवात्र निज्ञेयम् तथाहि लणसदमयमाह्यान्तरे क्षुल्लहिमवदंष्ट्राया उपरि जम्बूद्वीप वेदिकान्तात् चतुर्कननशतान्तरे गोर्ण मनुष्याणां गोकर्णद्वीपो नापद्वीपः मतः, स च चत्वारि योजनशतानि जायामविष्कम्भेग द्वादशपञ्चपप्ठानि योजनशतानि किञ्चिहिशेपाधारह सौ पैलट भोजन की इसकी परिधि है यहां पर भी एकोरुक द्वीप की तरह पावर वेदिका है और इनवण्ड है हन का वर्णन सय एशोरुक द्विप के जैसा ही है। ___एवं गोकण्णमणुस्साणं पुच्छा' 'हे भदन्त' दक्षिण दिशा के गोकर्ण मनुष्यों का गोकर्ण नामका द्वीप कहाँ पर है। इसके उत्तर में प्रभुश्री फाहते है। 'गोयमा बेमाणियदीवस्त दाक्षिणपच्चथिमिल्लाओ चरिमंताओ लवणसमुदं चत्तारि जोयणसयाई सेसं जहा हय का गाणं' हे भौतम वैषाणिक द्वीप के दक्षिण पाश्चात्य घरमान्त से चार सौ योजन लवण समुद्र में घुस जाने पर आगत क्षुद्र हिमवान पर्वत की दाढा पर जम्बूद्वीप की वेदिका के अन्त ले चार लो योजन के अन्तर में गोक्षण मनुष्यों का यह गोकर्ण नामका दीप कहा गया है। यह द्वीप भी चारलौ योजन का लम्बा चौड़ा है और कुछ अधिक थारह
તેની પરિધિ છે અહિયાં પણ એકરૂક દ્વીપની જેમ પાવર વેદિકા છે. અને 'વનખડ છે. તેનું તમામ વર્ણન એકરૂક દ્વીપના વર્ણન પ્રમાણે જ છે.
'एब गोकण्णमणुस्साणं पुच्छा' 8 सावन् ! दक्षिण हिशाना गे' મનુષ્યને ગોકર્ણ દ્વીપ કયાં આવેલ છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમ स्वाभी४ छ त 'गोयमा ! वेसाणियदीवस्स दाहिणपच्चस्थिमिल्लाओ चरिम ताओ लवणसमुद चत्तारि जोयणसयाइ सेस जहा हयकण्णाणं' 3 गीतम! વૈષાણિક દ્વીપના દક્ષિણ પશ્ચિમના ચરમાતથી ચારસે જન લવણ સમુદ્રમાં જવાથી ત્યાં આવેલ સુદ્રહિમવાનું પર્વતની દાઢા પર જમ્બુદ્વીપની વેદિકાના અન્તથી ચાર એજનના અંતરમાં ગોકર્ણ મનુષ્યોનો આ ગોકર્ણ નામને દીપ કહેલ છે. ૨. દીપ પણ ચાર એજનની લાઈ પહોળાઈ વાળા છે.
Page #717
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३.३ सू.४४ हथकर्णद्वीपनिरूपणर धिकानि परिक्षेषेण प्रज्ञा, हयाणद्वीपवदेव अत्रापि पद्मवर वेदिकाया विविध द्रुमशतावदनल्य नपण्डस्य च वर्णनं कर्तव्यमिति । ___साकुलिकण्णा णं पुच्छ' कुत्र खलु हे भदन्त ! दाक्षिणात्यानाम् शप्कुली कर्णानां मनुष्याणां शक्कु लोकर्ण द्वीपो नागद्वोपः प्रज्ञप्त:-काथित इति पृच्छया संगृह्यते प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' हे गौतम ! ‘णांमोलिपदीवरस' नाङ्गोलिकद्वीपस्य 'उत्तरपञ्चस्थिभिल्लाओ चरिसंताओ' उत्तरपाश्चात्यात् चरमानना 'लक्षण साई' लवजमाद्रम् 'चतारि जोयणसयाई' चत्वारि योननशतानि 'सेसं जहा हयगाण' शेष यथा महानास, अधमर्थः-नाङ्गोलिकद्वीपस्य पश्चिमोत् चरमान्तात् उनपश्चिमायां दिशि चत्वारि योजनशतानिलकणसमुद्रमवगाह्य अत्रा. न्तरे क्षुलहियवत्पदेशोपरि जम्बूद्वीपवेदिकान्सात् चतुर्थोजनान्तरे दाक्षिणात्यानां शष्कुलीरुर्ण नुप्याणां शुष्कुलीकर्णद्वीको नामद्वीप प्रज्ञप्तः । स च शकुलकर्ण सौ पैंसठ योजन की इनकी परिधि है। हथकण द्वीप की तरह यहां पर भी पायरवेदिका और विविध वृक्षों से आवृत हुए धन का और वन षण्ड का वर्णन कर लेना चाहिये। _ 'सबकुली अण्णाणं पुच्छा 'हे अदन्त ! दक्षिण दिशा के शकुली कर्ण मनुष्यों का शष्अली कर्ण नामका द्वीप कहां पर प.हा गया है ? इसके उत्तर में सुश्री कहते है गोया जांगोलियदीवस्त उत्तर पच्चत्थि. मिल्लाओ चरितानी लषणसमुई चत्तारि जोधणसपाइंलेसं जहा हरकण्णा' हे गौतम ? नाङ्गोलिक छीप के उत्तर पाश्चात्य घरमान्त से लक्षण समुद्र में चार सौ योजन भीतर जो पार नागत क्षुद हिमवान पर्वत की दाढा पर जम्बूद्वीप को वेदिका के अन्त मे चार सौ योजन અને કંઈક વધારે બારસો પાંસઠ જનની તેની પરિધિ છે હકણું કપની જેમ અહીંયા પણ પદ્વવર વેદિકા અને જૂદા જુદા વૃક્ષોથી ઘેરાયેલ વનનું અને વનખંડનું વર્ણન કરી લેવું ___'सक्कुलीकण्णाणे पुच्छा' श्री गौतमस्वामी मा सूत्रांशथी प्रसुश्रीने छ છે કે હે ભગવન દક્ષિણ દિશાની શક્લીકણું મનુષ્યનો શખુલીકર્ણ નામનો દ્વીપ કયાં આવેલ છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે 'गोयमा ! गंगोलियदीवस उत्तरपच्चथिमिल्लाओ चरिमंताओ लवणसमुह चनारि जोयणस्याई सेसं जहा हरकण्णाण' गौतम! नांगातिदीपना लत्तर પશ્ચિમના ચરમાતથી લવણ સમુદ્રમાં ચાર ચાજન અંદર જવાથી આવેલ ક્ષહિમવાન પર્વતની દાઢા પર જમ્બુદ્વીપની વેદિકાના અન્તથી ચાર જ નના અંતરમાં દક્ષિણ દિશા શખુલીકર્ણ મનુષ્યને શબ્દુલકર્ણ નામને
Page #718
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवाभिगमसूत्रे द्वीप आयामविष्कम्भेण चत्वारि योजनशतानि द्वादशएञ्चपष्टानि योजनशतानि किञ्चिद्विशेषाधिकानि परिक्षेपेण, पदमवर वेदिका वनपण्डमनुष्यादि स्वरूपं च सर्वमपि ए कोरुकद्वोपज्ज्ञाव्यम् । 'आयसमुहाणे पुच्छ।' आदर्श मुखानां पृच्छा' हे भदन्त ! दाक्षिणात्पानामादर्शमुखमनुष्याणां कुत्र आदर्शमुखनामको द्वीप: प्रज्ञप्तः, इति प्रश्नः, भगवामाह-'गोयमा' हे गौतम ! 'हयकण दीवस्स' हयकर्ण नामकद्वीपस्य 'उत्तरपुरस्थिमिल्लाओ चरिमंताओं' उत्तरपौरस्त्यात् चरमान्तात् 'पंचजोयणसयाई ओगाहित्ता' पञ्चयोजनशतानि कवणसमुद्रमवगाह्य 'एस्थ णं दाहिजिल्लाणं आयंसमुहमणुस्साण' अत्र खलु दाक्षिणात्यानाम् आदर्शमुखमनुष्याणाम् 'आयसमुहदीवे णाम दीवे पन्नत्ते' आदर्शमुखद्वीपो नासद्वीपः पज्ञप्तः 'पंचजोयण सपाई आयामविक्खं भेणं' स चादशेमुखद्वीपः आयाविष्कम्भेण पञ्चयोजनशतानि के अन्तर में दाक्षिणात्य शकुली कर्ण मनुष्यों का शष्कुलीकर्ण नामका द्वीप कहा गया है। यह शकुलीकर्ण डीप चार सौ योजन का लम्बा चौड़ा है। इसकी परिधि कुछ अधिक वारह सौ पैंसठ योजन की है।
शेष वर्णन एकोरूक दीप के प्रकरण जैसा जानना चाहिये ?
'आयसमुहाणं पुच्छा' हे भदन्त ! आदर्श मुख मनुष्यों का आदर्श मुख नानको द्वीप कहाँ पर कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते है। हे गौतम 'हघकपणदीवस्स उत्तरपुरस्थिमिल्लाओ घरिमं. ताओ पंचयोजणसयाई ओगाहित्ता एस्वर्ण दाहिणिल्लाणं आयंसमुह मणुस्साणं आयंसमुहदीवे णामं दीवे पण्णत्ते' हयकर्ण द्वीप के ईशान कोने के चरमान्त ले लवण समुद्र में पांच सौ योजन प्रविष्ट होने पर वहां खागत स्थान पर दक्षिण दिशा के आदर्श मुख मनुष्यों का मादर्श मुख नामका द्वीप कहा गया है। यह द्वीप 'पंजोयणसयाई દ્વિીપ કહ્યો છે આ શબ્દુલકર્ણદ્વીપ ચાર જનની લઆઈ પહોળાઈ વાળે છે. તેની પરિધિ કઈક વારે બારસો પાંસઠ જનની છે. બાકીનું વર્ણન એકરૂક દ્વીપના પ્રકરણ પ્રમાણે સમજવું.
'आयसमुहाणं पुच्छा' 8 समन् माइश भुम मनुष्यानो माइश भुम નામને દ્વીપ કયાં આવેલ છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે छे 'गोयमा ! यकण्णदीवस्व उत्तरपुर थिमिल्लाओ चरिमंताओ पंचजोयणसयाई ओगाहिता एत्थ णं दाहिणिल्लाणं अयंसमुहमणुस्साणं आयंसमुहदीवे णाम दीवे पण्णत्ते' ६ गीतमा दीन शान माना यरमा-तथी सवसमुद्रमा પાંચસો જન પ્રવેશ કરવાવી ત્યાં આવેલ સ્થાન પર દક્ષિણ દિશાના આદર્શ मनुष्याना साहश भुम नामनेद्वाप हो . म. द्वीपनी 'पंच जोयण सयाई
Page #719
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयचोतिका टीका प्र.३ उ.३ २.४४ रुयकर्णद्वीपनिरूपणम् प्राप्ताः अयं भावः एतेषां हयकर्णगजकर्णगोकर्णशष्कुलीकर्णानां चतुर्णा द्वीपानां परतो यथाक्रमम् उत्तरपौरस्त्य-दक्षिणपौरस्त्य दक्षिणपाश्चात्य विदिक् चरमान्तात् पञ्चयोजनशतानि लवणसमुद्रमवगाह्य पञ्चयोजनशतायामविष्कम्भा एकाशीत्यधिक पञ्चदशयोजनसतपरिक्षेपाः पद्मवरवेदिका वनषण्डमण्डित बाखमदेशा जम्बुद्वीप वेदिकान्तात् पञ्चयोजनशनपमाणान्तरा आदर्शमुख-मेण्दमुखाऽयोमुखनामान श्वत्वारो द्वीश वक्तव्याः, तथाहि-हयकर्ण द्वीपस्य परत आदर्शमुखो द्वीपः १, गजकर्णद्वीपस्य परतो मेंण्मुखो नामद्वीपः२, गोकर्णद्वीपस्य परतोऽयोमुखो नाम द्वीपः ३, शष्कुलीकर्ण द्वीपस्य परतो गोमुखनामको द्वीपो दर्तते ४ । अत्र
आयाम विखंभेणं' लम्बाई और चौड़ाई में पांच सौ योजन का है। 'आयंसमुदाणं छ सया' आदर्श मुख आदि द्वीपों का छ सौ योजन का अवगाहन लवण समुद्र में है। इस कथनका तात्पर्य ऐसा है-हयकर्ण गजकर्ण गोकर्ण और शकुलीकण इन चारों द्वीपों के बाद जो उत्तर पौरत्यादि विदिशाओं के चरमान्त से पांच पांच सौ योजन लक्षण समुद्र के अवगाहन से आदर्श मुख, मेढ़मुख, अयोमुख और गोमुख नाम के द्वीप है वे पांच पांच सौ योजन के लम्बे चौडे हैं । इनकी परिधि का प्रमाण पन्द्रह सौ इक्यासी योजन का है। ये सवदीप पावर वेदि. काओं एवं वन खण्डों से मण्डित बाह्य प्रदेशों वाले हैं तथा जम्बद्रीप की वेदिका के अन्त ले पांचसो योजन के अन्तर में ये व्यवस्थित है इसतरह-हयकर्ण द्वीप से आगे आदर्श मुख द्वीप हैं, गजकर्ण से आगे मेढमुख द्वीप है. गोकर्ण द्वीप से आगे अयोमुख द्वीप है। और शप्कुलकर्ण से आगे गोमुख द्वीप है। इसी तरह इन आदर्श मुख आयामविक्खभेग' मा पा पांयसे। याननी छे. 'आयसमुहाणं छसया' આદર્શમુખ વિગેરે દ્વીપનું અવગાહન લવણ સમુદ્રમાં છ સો જનનું છે.
मा थनन तात्५य स छ । यम, १४४, गेय भने श. ખુલીકર્સ આ ચારે દ્વીપોની પછી જે ઉત્તર પરરત્યાદિ વિદિશાઓના ચરમાતથી પાંચ પાંચસો જન લવણ સમુદ્રમાં અવગાહન કરવાથી આદર્શન મેઢમુખ અમુખ અને મુખ નામના દ્વીપ છે તે બધા પાંચસો પાંચસો જનની લંબાઈ પહોળાઈ વાળા છે. તે બધાની પરિધિનું પ્રમાણ પંદરસે એક્યાસી
જનનું છે. આ બધા દ્વીપ પધવર વેદિકાઓ તથા વનણંડાથી મંડિત બાહ્ય પ્રદેશ વાળા છે. તથા જંબુદ્વીપની વેદિકાના અંતથી પાંચસો જનના અંતરમાં વ્યવસ્થિત છે. આ રીતે હયકર્ણ હીપની આગળ આદર્શ મુખ દ્વીપ છે ગજકર્ણ દ્વીપની આગળ મેઢખ દીપ છે. ગોકર્ણદ્વીપની આગળ અમૃખ દ્વીપ છે. અને શક્કલકર્ણની આગણ મુખ દ્વીપ છે. એ જ પ્રમાણે આ આદર્શરુખ
Page #720
--------------------------------------------------------------------------
________________
६९६
जीवाभिगमसूत्रे
आदर्शमुखद्दोषस्य अलापकः सूत्रे एक पदर्शितः, शेपाणां त्रयाणां मेण्मुखायो मुख गोमुखानामालापकपकारः स्वयगृहनीय छति ।
'आसमुहाई णं छसया' अश्वमुखादीनां चतुर्णानरमुख हस्तिमुखसिंहमुख व्याघ्रमुखद्वीशनां षड्योजनशतानि अवगाहनं लवणसमुद्रमध्ये ज्ञादव्यम् ।
अय भावः एतेपमादर्श मुख मे सुखायो मुखगमुखद्वीपानां परद भूयोऽपि यथाक्रमम् उत्तरपौरस्त्य - इक्षिणपौरस्त्य - दक्षिणपाश्चात्योत्तरपाश्वात्यविदिक् चरमान्तात् प्रत्येकं पट् षट् योजनशनानि लवणसमुदमवगाह्य पयोजनशठायामविष्कम्भाः सप्तनवत्यधिकाष्टादश योजनशत परिक्षेमाः पद्मवरवेदिका चण्डमण्डित बाह्यपदेशाः जम्बूद्वीपवेदिकान्तात् पयोजनशतममाणान्वरा अश्त्रमुखहस्तिमुखसिंहमुख व्यालमुखनामका चत्वारो द्वीपा भवन्तीति वक्तव्याः व्याहिआदर्शमुग्वद्वीप परत : मुनामको द्वीपो भवति तथा मेण्मुखद्वीपस्य परतो. हस्तिमुखनामको द्वीपो भवति, दया-जयोमुख द्वीपस्य परतः सिंहमुखनाम को द्वीपो भवति तथा गोमुखीपस्य पश्तो व्याघ्रमुख नामको द्वीपो भवति इति ॥ द्वीपादिकों से आगे यथाक्रम से उत्तरपौरस्त्यादि विदिशाओं के चरमान्त से लवण समुद्र में छ छ सौ योजन पर अश्वमुख हस्तिमुख, सिंह मुख, और व्याघ्र सुत्र नाम के द्वीप है, ये प्रत्येक छतो छ सौ योजन के लम्बे चौडे बताये गये है। इन सब की प्रत्येक की परिधि अठारह सौ सतानवे - १८९७ - योजन की है। जम्बूद्वीप की वेदिका के अन्त से इनका अन्तर का प्रमाण ६ सौ योजन का है. इस तरह आदर्शमुख द्वीप से आगे अमुख छोप है. मेहमुख द्वीप से भागे हरिमुख द्वं प है । अयोमुख द्वीप से आगे सिंह मुख द्वीप है और गोमुख से आगे व्याघ्रमुख द्वीप है इन दोषों से भी आगे और भी चार द्वीप है जो
1
વિગેરે દ્વીપાની આગળુ કમાનુસાર ઉત્તર પૌરસ્ત્યાદિ વિદિશા ગ્માના ચરાન્તથી લવણુ સમુદ્રમાં છસે છસેા યેજન પર અશ્વમુખ, હસ્તિમુખ. સિદ્ધમુખ અને વ્યાઘ્રમુખ નામના દ્વૈપે છે. તે દરેક છસે છસે। યેાજનની લગાઇ પહેાળાઈ વાળા છે તે બધાની એટલેકે દરેકની પિરિધ અઢારસે સત્ત છુ યેાજનની છે જમ્બુદ્વીપની વેદિકાના અંતથી તેમના અંતરનું પ્રમાણૂ છસેા ચેાજનનુ બતાવેલ છે. આ રીતે ક્રમથી આદશ મુખ દ્વીપની આગળ અશ્વમુખ દ્વીપ છે. મેડ્રમુખ દ્વીપની આગળ હસ્તિમુખદ્વીપ છે, અયામુખદ્વીપની આગળ સિ’હુમુખ દ્વીપ છે. અને ગેામુખદ્વીપની આગળ વ્યાઘ્રમુખદ્વીપ છે. આ દ્રીપેાથી પશુ આગળ બીજા પણ ચાર દ્વીપેા છે. જે ઉત્તર પૌરસ્ત્યાદિ ચરમાન્તથી લવણુ
Page #721
--------------------------------------------------------------------------
________________
६९७
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ १.४४ हयकर्णद्वीपनिरूपणम्
'आसकगाई सत्त' अश्वकर्मादीनां सप्उयोजनशतानि अवगाहनं लवणस मुद्रे । अयं भावः-अश्वमुखादीनां चतुर्णागश्वप्नु खहस्तिसुखसिंहमुख व्याघ्रमुखानां दीपानां परतो यथाक्रमम् उत्तरपौरस्त्यादि चरमान्तात् प्रत्येकं सप्तसप्तपोजनशतानि लवणसमुद्र मयाह्य सप्तयोजनायामविष्कम्भा. प्रयोदशाधिक द्वाविंशतियो. जनशतपरिश्या पदावरचेदिका वनषण्डमण्डितबाह्यप्रदेशाः जम्बूद्वीपवेदिकान्तात् सप्तयोजनशतममाणान्तरा अश्वकर्ण सिंहककर्णकर्णप्रावरण नामकाश्चत्वारो द्वीपा भवन्तीति ज्ञातव्याः, तथाहि-भामुख नाम द्वीप परतोऽश्वकर्णनामको द्वीपो भवति तथा-हस्तिमुखद्वीपस्य परतः सिंहकर्णनामको द्वीपो भवति, तथा-सिंहमुखद्वीपस्य परतोऽकर्ण नामको द्वीपो भवति, तथा-व्याघ्रमुख नामक द्वीपस्य परत: कर्णधावरण नामको द्वीपः, एते द्वीपाययोक्तायामविकास परिरयगुता भवन्तीति ।। ___ 'उकामुहाई णं अट्ठ' उरकामुखादीनाम्--उल्कामुख मेघमुख विद्युम्मुख विद्यु. दन्तनामकानां चतुर्णा द्वीपानामष्टयोजनशतानि अनगाहनं लरणसमुद्रे, अयं भाव:उत्तर पौररस्मादि घरमान्त के लक्षण समुद्र में सात साखौ योजन जाने पर आते है इनकी लम्बाई चौडाइ लात सात सौ योजन की है
और परिधि का प्रमाण प्रत्येक को चाईस सौ तेरह-२२१३ योजन का है जम्बूद्वीप की वेदिका के अन्त से इनका सात सौ योजन का अन्तर हैं । इस तरह अचानुव दीप से आगे अश्वकर्ण द्वीप है इस्तिमुख से ओगे सिंह कर्णद्वीप है, सिंहमुख से आगे अकर्णद्रीप है और घाघ्रमुख से आगे कण प्रापरण द्वीप है यही बाल 'आसकपणाई हस्त' इस नून पाठ द्वारा स्पष्ट की है ये सब अश्वकर्णादिक चारों द्वीप पदाबर वेदिकाओं और वनखण्डों से मंडित वाद्य प्रदेशो वाले है।
'वकामुराहणं अg' उल्कामुख मेघमुख विद्युन्मुख और उत्तर સમુદ્રમાં સાત સાતસો રોજન દૂર જવાથી આવે છે. તેમની લંબાઈ પહોળાઈ સાત સાત જન છે અને દરેકની પરિધિનું પ્રમાણ બાવીસે તેર
જનનું છે. જંબૂદ્વીપની વેદિકાને અંતથી તેમનું સાત જનનું અંતર છે. આ રીતે અશ્વમુખદ્વીપની આગળ અશ્વકર્ણદ્વીપ છે. અતિમુખની આગળ સિંહકર્ણદ્વીપ છે. સિંહમુખદ્વીપની આગળ અકર્ણદ્વીપ છે. અને બે ઘમુખની माग प्रायद्वीप छ. मेरी वात 'आरकण्णाईगं मन' मा सत्रा। દ્વારા સ્પષ્ટ કરેલ છે. આ અશ્વકર્ણાદિ ચારે ડીપ પાવર વેદિકાઓ અને વનડેથી શોભાયમાન બાહ્યપ્રદેશવાળા છે.
'उक्कामुहाईणं अट्ठ' GIमुम, मेवभुम, विधु-भुम गने त्त२ पौरस्त्यना सी० ८८
Page #722
--------------------------------------------------------------------------
________________
६९८
जीवामिगमक्ष एतेषामश्वकर्णसिंहकीकर्णकर्णमाबरणनायकद्वीपानां चतुर्णा परतो यथाक्रमम् उत्तरपोररत्यादि विदिक्चरमान्वाद प्रत्येक मष्टौ अष्टौ योजनशतानि लवणसमुद्रमदगाघाष्टयोजनशतायामविष्कम्भा एकोनत्रिंशदधिक पञ्चविंशति योजन शतपरिक्षेपाः पद्मवरवेदिका वनपण्डसण्डित बाह्यप्रदेशाः जम्बूद्वीपवेदिकान्ताद् अष्टयोजनप्रमाणान्तरा उल्कामुख मेघमुख विद्युन्मुख विद्युदन्ताभिधानाश्वस्वारो द्वीपा भवन्तीति ज्ञातव्याः, तयादि-अश्वकर्णद्वीपस्प परत उल्कामुखो द्वीपो भवति, तपा-सिंहकर्णद्वीपस्य परतो मेघमुखद्वीपनामको द्वीपो भवति, तथाअकर्णनामक द्वीपस्य परतो विद्युन्मुखनामको द्वीपो भवति, तथा-कर्णमावरण द्विपस्य परतो विधुदन्तनामको द्वोपो भवतीति ।। 'घणदंताई णं जाव णव जोयण सयाई' घनदन्तादीनां यावन्ननयोजनशतानि, अयं भाव उल्कामुखादीनां चतु.
म् उल्कामुख मेवमुख विद्युन्मु व विद्युदन्तनामकान द्वीपानां परतो यथाक्रमम् पौरस्त्यादि चरमान्त से विद्युत नाम के जो चार द्वीप है वे आठ आठ सो योजल की लम्बाई चौड़ाई वाले हैं लबा समुद्र में आठ साठ सौ योजल आगे जाने पर थे आते है इनकी प्रत्येक की परिधि का प्रमाण २५२९ पचीसली उन्तील शेजन का है। ये भी खप द्वीप पद्मवर वेदिका और बनखण्ड से मंडित याह्य प्रदेशों वाले ई जम्बूद्रीपकी वेदिका के अन्त से इनका अन्तर आठलो शोजनका है इस प्रकार अश्वकर्ण से आगे उत्तर पौररत्यादि घरमान्त ले श्राउ लौ योजन लषण समुद्र में जाने पर उल्कामुख द्वीप है मिहकर्ण से आगे आठ सौ योजन लवण समुद्र में जाने पर मेघमुख द्वीप है अकर्ण से भागे आठ सौ योजन लवण समुद्र में जाने पर विद्युन्मुख दी है और कर्णप्रावरण से आगे आठ सौ पोजन लघणसमुद्र में जाने पर विद्यहन्त द्वीप है. 'घणदंताईणं जाव गोषणस्थाह' इसी तरह उल्कामुखादि चार ચરમાન્ડથી બ્રુિત્ત નામના ચાર દ્વીપ છે. તે બધા આ જનની લંબાઈ પહેળાઈ વાળા છે. તે દરેકની પરિધિનું પ્રમાણ ૨૫૨૯ બે હજાર પાંચ ઓગણવીસ જનનું છે. તે બધા દ્વીપ પણ પદ્વવર વેદિકા અને વનખંડથી ' શોભાયમાન બાહાપ્રદેશો વાળ છે જંબુદ્વીપની વેદિકાના અંતથી તેમનું અંતર આઠસે જનનું છે. આ રીતે અશ્વકથી આગળ ઉત્તર પૌરરત્યાદિ ચરમાતથી આઠ જન લવણ સમુદ્રમાં જવાથી મેઘમુખ દ્વીપ આવે છે. અકર્ણ દ્વીપની આગળ આઠસો જન લવણ સમુદ્રમાં જવાથી વિદ્યમુખદ્વીપ આવે છે અને કર્ણપ્રાવરણદ્વીપથી આઠ પેજન લવણ સમુદ્રમાં જવાથી વિદ્યન્ત નામને દ્વીપ આવે છે.
'घणदताईणं जाव णव जोयण सयाई' भन्द शत भुम विगेरे
Page #723
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमैयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ झु.४४ हयकर्णलीपनिरूपणम्
-
उत्तरपौरस्त्यादि चिदिकवरमान्ताद पत्येकं नव ना योजनशतानि लबालमुद्रमयगाह्य नवनवयोजनशतायामविष्कम्भाः पञ्चचत्वारिंशदधिकाप्टाविंशतियोजनशत. परिक्षेपाः पदमवस्वेदिका धनपण्ड समुल्लसित बायप्रदेशाः जम्बूदीपवेनिशान्तात् नवयोजनशरममाणान्तरा घनदन्तलष्टदन्तगूढ दन्त सुद्धदन्तनालानचत्वारो द्वोपा भवन्तीति । तथाहि-उल्कामु व द्वीपस्य परतो घनहन्तनामको द्वीपो भवति तथामेघमुख नामकद्वीपस्य परतो लष्टदन्तनामको द्वीपो भवति तथा-विद्युन्मुखनामक द्वीपस्य परतो गूढदन्तनामको बोयो भवति, तथा-विद्युदन्तनामक द्वीपस्य परतः शुद्धदन्तनामको द्वीपो भवतीति । अत्रैकोरुकादोना मन्तरद्वीपानामबाहनामायामविष्कम्भं च पदरी, सम्पति तेषां परिक्षेपपरिमाणं गायया प्रदर्शयति 'एयो. रुयपरिक्खेको' इत्यादि एकोपरिक्षेष इति एकोरुजादीनाम्-एकोरुकामापिक वैषाणिकनाङ्गोलिकानां चतुर्मा द्धोपानां प्रथमचतुष्कस्येत्यर्थः परिक्षेपः-परिधिः 'नवचेव सयाई अजगन्नाइ' नवचैव शतानि एकोनपञ्चाशानि, एकोनपञ्चा द्वीपों से आगे यथाक्रम ले उत्सर पौरस्त्यादि विदिशाओं की दर मात से नौ नौ सौ योजन लवण समुद्र में आगे जाने पर नौ नौ लौ योजन के लम्बे चौडे एवं आठाईस सौ पैतालीस-२८४५ योजन की परिधि वाले तथा पद्मवर वेदिका और वनखण्ड से मंडित याह्य प्रदेशों वाले घनदन्त, लष्टदन्त, गूढदन्त और शुद्धपन्त नाम वाले चार द्वीप है इस तरह उलझामुख से आगे नोसो भोजन लबण समुद्र में जाने पर घनदन्त द्वीप है. मेरमुखले आगे बालो योजन लक्षण समुद्र में जाने पर लष्टदन्त द्वीप है विद्युन्मुख से आगे नो भो योजन लक्षण समुद्र में जाने पर गूढदनल द्वीप है एवं विशुदत से आगे नौ ल योजन लवण समुद्र में जाने पर शुद्धदन्त द्वीप है। यह एकोकादि अन्तर द्वीपों की अवगाहना तथा आयाम विशम्भ कहकर अब उनका परिक्षेप कहते ચાર દ્વીપની આગળ કમાનસાર ઉત્તર પિરસત્યાદિ વિદિશાઓના ચરમાન્તથી નવસે નવસે જન લવણ સૈમદ્રમાં આગળ જવાથી નવસો નવ જન લખાઈ પહોળાઈ વાળા તેમજ ૨૮૪૫ અઠયાવીસ સે પિસ્તાળીસ જનની પરિધિવાળા તથા પાવર વેદિક તથા વનખંડથી સુશોભિત બાહ્ય પ્રદેશવાળા ઘનદત્ત, કષ્ટદત્ત. ગૂઢદન્ત અને શુદ્ધદન્ત નામના ચાર દ્વિીપ છે. એજ પ્રમાણે ઉલ્કામુખની આગળ નવસો ચેાજન લવણ સમુદ્રમાં જવાથી લષ્ટદન્ત દ્વીપ આવે છે. વિદ્ય—ખની આગળ નવસે જન લવણ સમુદ્રમાં જવાથી ગૂઢદત્ત દ્વીપ આવે છે. તથા વિદ્યતથી આગળ નવસે એજન લવણું સમુદ્રમાં જવાથી શુદ્ધ દન્તદ્વીપ આવે છે.
આ પ્રમાણે એ કેમરૂક વિગેરે અન્તર કીપની અવગાહના તથા તેના
Page #724
--------------------------------------------------------------------------
________________
goo
जीवामिगमत्र शदधिकानि नव योजनशतानि (९४९) एकोनपश्चाशदधिक नव भोजनपरिमितः परिधिरेकोरुकादि द्वीपानां चतुर्णा भवतीति। ___अतोऽग्रे प्रत्येकस्मिन् चतुपके पूर्व-पूर्व चतुष्कपरिधिममाणे पोडशाधिके नियते प्रक्षिप्तेऽग्रेवन परिधिपरिमाणं समायाति तत् आह-वारसपण्णढाई हपकण्णाईण परिक्खेतो' हयकर्णादीनां-हयकर्ण-गोकर्ण-शकुळीकर्णानां द्वितीय चतुष्कगतानां चतुर्गा द्वीपानां परिक्षेत्रः-परिधिः द्वादशयोजनशतानि पञ्चपष्टय. धिका (१२६५) पश्चपष्टयधिक द्वादशशतयोजनपरिमितः परिधिः हयकर्णादीनां चतुर्णा द्वीपानां भवतीति ।।१।।
'आयसमुहाईणं पन्नरसेकासीए जोयणसए किंचिविसेसाहिए परिषदेवेग आदर्शमुखादीना मादर्शमुखमेण्द्रग्वादयोमुख गोमुख द्वीपानाम् एकाशीत्यधिक पश्चदशोजन मतानि १५८१ मिश्चिद्विशेषाधिकानि परिक्षेपेण 'एवं एएणं कमेणं उवउंजिऊण णेयमा, चत्तारि चत्तारि एगप्पमाणा' एवमेतेन उपयुक्तक्रमेण पूर्वोकावगाहना-विष्कम्मपरिधिप्रमाणरूपेण उपयुज्य प्रत्येक चतुष्कगता श्चत्वार चत्वारः परसारमे सप्रमाणा नेहव्या ज्ञापार, यथा एफस्मिन् चतुष्के आधद्वीपस्य यद् अवमाहना-विष्कम्मपरिधिपरिमाणं भवति तदेव परिमाणं शेपाणां त्रयाणां द्वीपानां भवति चतुर्णामेक प्रमाणत्वं बोध्यम् । है 'एगोरुय परिक्खेयो' इत्यादि, 'एगोरुय परिक्खेवो' एफोरुक आदि चार द्वीपों का परिक्षेप नौ सौ गुनचास-९४९ योजन का है हयकर्ण आदि द्वीपों का परिक्षेप प्रमाण 'धारसपन्नहाई' बारह सौ साठ १२६५ योजन का है 'आयंसमुहादीणं' आदर्शमुख आदिकों का परिक्षेष प्रमाण 'पन्नर सेकासीए जोयणसए' पन्द्रह सौ इक्यासी १५८१ योजन का है. परिधि के प्रमाण को यहाँ से सर्वत्र यह कुछ विशेषाधिक है ऐसा समझना चाहिये 'एवं एलेणं कमेण उपजिऊण थव्या चतारिर पप्पमाणा' इस क्रम से जोड़कर चार चार द्विपों का प्रमाण परस्पर
माय विहीन हवे तना ५२२५ ४ामा भाव 2. 'एगोरय परिक्खेत्रो' ।३४ विगेरे यार दीवानी परिक्ष५ नक्सा भागापयास ८४८ याननी छ. ५४ विगेरे दीयाना परिक्ष पर्नु अमाएर 'बारसपन्नडाइ' पारसे। पास ये ननु छे. 'आयंसमुहादीण' भादश भुम विगेरे दीवाना परिक्षेपर्नु प्रमाण 'पन्नरसेकासीए जोयणसए' १५८१ पासोमेश्यासी योननु छ. तथा पाधि प्रमाय महिथी मधे ते ७ विशेषाधि छ तेम सा. 'एवं एएणं कमेणं उवऊ जिऊण णेयव्वा चत्तारि चत्तारि एगप्पमाणा' २॥ प्रमाण મેળવીને ચાર ચાર દ્વીપનું પ્રમાણ પરસ્પર સરખું સમજવું.
Page #725
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रद्योतिका ठीका प्र. ३ उ. ३ . ४४ हयकर्णद्वीपनिरूपणम्
७०१
'णाणते' नानात्वं परस्परं भेदस्तु चतुष्कमपेक्ष्य भवति कुत्र कुत्रेत्पाद - 'ओगा व परिवखेचे' अवगाहे विष्कम्भे परिक्षेपे, तथाहि एकचतुष्कापेक्षयाऽन्यान्य चतुष्केषु प्रत्येकमेकैकशतयोजनवृद्धधा- अवगाहनाऽव्यामविष्कम् परिमाणं भवति, परिधिपरिमाणं तु षोडशोत्तर त्रिरात (३१६) योजनहृद्धया प्रत्येक चतुष्के भवतीत्येतदेव नानाव मत्रेति । तदेव दर्शयति- 'पढमवीय' इत्यादि, 'पढवीत चकाणं उग्गहो विक्खंभो परिक्खेदो भणिओ' प्रथम द्वितीय तृतीयचतुष्काणाश्र्. अवग्रहः अत्रणाहना विष्कम्भः परिक्षेत्रः सूत्रे एवं भणित:कथितः, अन्यत् प्रदर्श्यते = 'चउत्थ- चउक्के' इत्यादि, 'चउत्थचउनके छ जोयणसवाई आमासचिव खमेणं' चतुर्थचतु के पयोजनशतानि आयामविष्कम्भेणदैयविस्ताराभ्यां पयोजनशतममाणक चतुर्थ चतुष्को भवति । 'अहारसत्ताणउत्ते जोयस' सप्तनवत्यधिकाष्टादशयोजनशतानि । (१८९७) परिक्षेपेण द्वीपा भन्Pata पंचमच सत्तजोयणमयाई आयामविवखभे' पञ्चमचतुष्के सप्तसमान ही समझना चाहिये 'णाणलं ओगाहे, विक्खंभे, परिक्खेवे' इस तरह के कथन से यह भली भांती समझ में आ जाता है, कि अवगाह में विष्कम्भ में और परिक्षेप में प्रत्येक की अपेक्षा से नानात्व भिन्नता है इस में प्रथम द्वितीय तृतीय चतुष्कों का अवगार-आयाम विष्कम्भ और परिक्षेत्र को लेकर यहां सूत्र से ही स्पष्ट कर दी है 'यही वान' पदमपीयलक्ष्य बकाणं उग्गहो विक्खं यो परिक्खेवो भणितो' इस सृत्रद्वारा सूर कारने समझा है । 'चक्थचउक्के' चतुर्थ चतुष्क में 'छजोयणमयाः' आयाम विक्खंभेण अहारसत्ताणवते जोयणसते परिक्खेवेणं' चौथे चतुष्क के अश्वमुखादि द्वीपों की लम्बाई चौड़ाई छह 'मौरोजन की है और परिधि अठार सौ सतानवे - १८९७ योजन से
'णाणत्तं ओंगा हे, 'विक्खंभे, परिक्खेवे' या अभाऐना स्थनथी से सारी रीते સમજાય જાય છે કે અવગાહનામાંવિકભમાં, અને પક્ષેિપમાં દરેકની અપેક્ષાથી જુદાપણું આવે છે. તેમાં પહેલા બીજા, ત્રીજા અને ચેથાના અવગાહુ આયામ વિષ્ણુભ અને પરિક્ષેપને લઈને અહીયાં સૂત્રમાંજ સ્પષ્ટતા કરી છે. એજ वात 'पढम बीया तइय चउक्काणं उग्गहो, विक्खभो, परिक्खेवो भनियो' मा સૂત્રપથી સૂત્રકારે સમજાવેલ છે.
'चरत्थ चउक्के' थोथा तुष्टुभां 'छ जोयणसयाई आयाम विक्ख भेणंagreed जोयसर परिक्खेवेणं यथा यतुष्टना अश्वमुख विगेरे द्वीपे ની લખાઇ પહેાળાઇ સે છસો ચેાજનની છે. અને પરિધિ ૧૮૯૭ અઢારસે सत्तालु योन्नथी ४६४ वधारे छे. 'पंचम चउक्के सत्त जोयणसयाई आयाम
Page #726
--------------------------------------------------------------------------
________________
७०२
जीवामिगमले योजनशतानि आयामविष्कम्भेण द्वीपा भजन्ति, 'वावीसं तेरसोत्तरे जोयणसए परिक्खेवेणं' त्रयोदशोत्तर द्वाविंशतियोजनशतानि परिक्षेषेण द्वीपा भवन्ति । 'छट्ट चउक्के अट्ठजो यणसयाइ आशमविवखंभेणं' पाठवतुष्केऽयोजनशतानि आयामविष्कम्भेण द्वोश भवन्ति, तथा-'पणवीसंगूणतीसजोयणसए परिक्खेवेणं' एकोनत्रिंशदधिक पश्चविंशतियोजनशतानि परिक्षेपण । 'सत्तरचउक्के नवजोयण. सयाई आयामरिक्खभेगे' समवतु के नवयोजनसतानि आयामविष्कम्भेण, तथा-'दो जोरणसहस्साई अट्ठपणवाले जोयणसए परिक्खेवेणं' द्वे योजनसहसे पञ्चचत्वारिंशदधिकानि अष्टयोजनशतानि (२८४५) परिक्षेपेण द्वीपा भवन्ति । अथ सर्वेषां चतुष्काणामरगाहनाविष्कम्म पदिधिपरिमाणज्ञानार्थ गाथामाह'जस्स य जो' इत्यादि, 'जस्स य जो दिक्खंभो' यस्य चतुष्कस्य यो यावत्परिमितो कुछ अधिक है 'पंचमच इक्के सत्तजोयणसथाई आयामविक्खंभेणे घावीस तेरसोत्तरे जोयणलए परिक्खेवेणं' पंचम चतुष्क में अर्श्वकर्ण
आदि द्वीपों की लम्बाई चौडाइ सात सौ योजन की है। और परिक्षेप कुछ अधिक बाइस सौ तेरह-२२१३ योजन का है 'छ? चउक्के अट्ठ जोयणसयाई आयामविकावंभेणं पणवीसंगुणतीस जोधणसए परि
खेवेणं' छठे चतुष्क में उल्कामुख आदि द्वीपों की लम्बाई चौड़ाई आठ सौ योजन की है और परिक्षेप कुछ अधिक पचीस सौ गुनतीस २५२९ योजन का है 'सत्तमचउक्के नव जोयणसघाई आयाम विक्ख भेणं दो जोयणसहस्साई अट्ठ पणयाले जोयणलए परिक्खेवेणं' छठे चतुष्क में लम्बाई चौडाई नौ सौ योजन की है और परिक्षेप कुछ अधिक दो हजार आठ सौ पैंतालीम-२८४५ योजल का है। यहां इस विषय में गाया 'जस्म जो विखं को ओगाहो तस्म तत्तिओ चेव' विखंभेग बावीसं तेरसोत्तरे जोयणसए परिवखेवेण' पांयमा यतुमा म કર્ણ વિગેરે દ્વીપની લ બાઈ પહોળાઈ સાત જનની છે. અને પરિક્ષેપ * पधारे २२१३ मावीससे। तर योनी छे. 'छद्र चउक्के अट्ट जोयणसयाइ आयाम वे खम्भेग पगवीस गुणतोमजोयणसर परिक्खेवणे' ७४! यतुमा ઉલકામુખ વિગેરે દ્વીપેની લંબાઈ પહોળાઈ આઠ જનની છે. અને પરિ. २५ ४४४ धारे ५२योससे मागायत्रीस २५२८ योजनाछे. 'सत्तम चउनके नवनोयण सयाई ओयामविक्खंभेणं दो जोयणसहस्साई अटू पणशले जोयणसए परिक्खेवेग' स तमा यतुमा मा पहाणा नपसे। यानी छ भने પરિક્ષેપ કંઈક વધારે ૨૮૪૫ બે હજાર આઠસો પિસ્તાળીસ એજનને છે. मा समयमा मा प्रभागेना गाथा उस छे. 'जस्स जो बिक्खंभो ओगाहो
Page #727
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेययोतिका टीका प्र.३ उ.३ २.४४ हयकर्णद्वीपनिरूपणम्
७०३ विष्कम्भ:-आयामविष्कम्भो भवति 'तस्स तत्तियो चेव ओगाहो' तस्य चतुष्क स्याऽवगाहस्तावक एव भवति । तत्र 'पढमाईण परिरओ' प्रथमादीनां चतुष्काणां यावस्परिमितः परिरया-परिधिर्भवति 'सेसा णं जाण अहिओ' शेषाणां प्रथमादिभ्योऽग्रेऽतनानां परिरयोऽधिको भवति, अयं भावः-पूर्वपूर्वपरिरयपरिमाणे उत्तरोत्तरपरियपरिमाण प्रत्येकं षोडशोत्तरत्रिशत प्रक्षेपेणाधिकं भवतीति 'जाण' जानीहि । 'सेसा जहा एगोरुयदीवस्स' शेषा अवशिष्टा वक्तव्यता यथा-येनप्रकारेण एकोरुकद्वीपस्य कथिता तथैव सर्वेषां द्वीपानां ज्ञातव्येति । कियत्पर्यन्तमित्याह-'जाव सुद्धदंत दीवे' यावत्-द्वितीयचतुष्कगत हयकर्ण द्वीपादारभ्य सप्तमचतुष्कगताऽष्टाविंशतितमशुद्ध दन्त द्वीपश्यन्तम् एकोरुकद्वीपबद् ज्ञातव्यमितिभावः । ___ एतेषामेव द्वीपानामवगाहायामविष्कम्भपरिरय (परिक्षेप) परिमाणसंग्रह गाथा आहअर्थात् जिस चतुष्क का जितना विष्कम्भ है उस चतुष्क की उतनी ही अवगाहना है 'पढवाइयाण परिरओ जाण सेसाणअहिओउ' प्रथम आदि चतुष्कों का परिक्षेप जितना कहा गया है उनके परिक्षेत्र प्रमाण में अधिकता होती जाती है इसका तात्पर्य यह है कि पूर्व पूर्व के चतुष्क के परिधि परिमाण में प्रत्येक में तीनसो सोलह मिलाने से आगे का परिधि परिमाण अधिक अधिक होता जाता है यही माद 'पदमाइयाणपरिरओ, लेसा णं जाण अहि. ओउ' इस गाथाई से प्रकट होता है 'सेसा जहा एगोख्यदीवस्स जाव सुद्धदन्तीवे' शेष सब द्वीपों की वक्तव्यताएकोरुक द्वीप के जैसी समझ लेनी चाहिये, अठाइसा शुद्धदना द्वीप तक इन द्वीपों के अवगाह आयाम विष्कम्भ, और परिरथ परिधि-इनके परिमाण की संग्रह गाथाएं तस्स तत्तिओ चेव' मात्र यतु । २a (qozr , ते यानी मेटली ११ अमाना है. 'पढमाइयाण परिरओ जाण सेसाण अहिओउ' ५। विगैरे ચતુર્કને પરિક્ષેપ એટલે કહેલ છે, તેના પરિક્ષેપ પ્રમાણમાં અધિકપણું થતું જાય છે.
આનુ તાત્પર્ય એ છે કે પહેલાના ચતુષ્કની પરિધિના પરિમાણમાં દરેકમાં ૩૧૬ વણસે સેળ મેળવવાથી આગળની પરિધિનું પરિમાણ વધારે વધારે थतु य छ, मे मा 'पढमाइयाण परिरओ सेसाणं जाण अहिओउ' मा
यथा याय छे. 'सेसा जहा एगोरुयदीवस्स जाव सुद्धदत दीव' शेष सधा દ્વિીપનું કથન એકેક દ્વીપના કથન પ્રમાણેનું સમજી લેવું અઠયાવીસમા શકદંત દ્વીપ પર્યત આ દ્વીપેની અવગાહના, આયામ, વિન્કંભ અને પરિ२य परिधिना परिमारानी सब गाथा-सा मा प्रमाणे छे. 'पढमम्मि तिन्नि उ
Page #728
--------------------------------------------------------------------------
________________
७०४
जीयामिगमध्ये
'पढमंमि तिन्नि उ स्या सेसाण स उत्तरा नन उ जाव ।
ओमाहं विक्कंभ दीवाण परिरयं नोच्छं ॥१॥ पढम चउक्क परिरया वीय चउक्कस्स परिरमो अहियो' सोटेहि तिहि उ जोयणसएहि एवमेव सेसाणं ॥२॥ एगोरुप परिक्खेवो णव चेव सयाई अउण पन्नाई। वारस पहाई हयकाण्गाणं परिक्खेवो ॥३॥ पण्णरस एक्कासीया आयंसमुहाण परिरयो होइ । अट्ठारस सत्त नउया आसमुहाणं परिक्खेवो ॥४॥ बाबीसं ते राह परिक्खेवी होई आसकगाणं । एणवीस अउणतीसा उक्कामुह परिरओ होइ ।।५। दो चेत्र सहस्साइ अटेयसया वंति पणयाला।
घगदंत दीपाणं विसेस महिनो परिक्खेको ॥६। व्याख्या-पढमगि प्रयमे द्वोपचतुष्के एकोकादि के चिन्त्यमाने त्रीणि योजनशतानि अनगाह-लवग समुद्रावणाहं निष्कम्भं च विष्कम्भनाइमाद आयामोपि गृधने वि सम्मायामयोस्तुल्यपरिमाणत्वात्, तेन विष्कम्भमायामं च जानीहीति क्रियाशेपः, 'सेसाणं' इत्याठि, शेषाणां पण्णां द्वीचतुष्काणां वानि इस प्रकार से हैं-'पढमम्मि तिन्नि उसया' इत्यादि गाथाएं छह हैं जो टीका में दी हुई है इन गाधाओं को व्याख्या इस प्रकार से प्रधान होर चतुष्क के-एकोरुक आदि चार द्वीपों के-विचार में इन चारों एकोक आभाषिक वैषाणिक, नांगोलिक-द्वीपों की अवगाहना और लम्बाई चौड़ाई तीन सौ योजन की है ऐसा जानना चाहिये इस तह यह अचमारना, लम्ब ई चौहाई आगे २ के प्रत्येक चतुष्क में एक एक सौ को अधिसता से बहनी गई है अन्तिम जो घरदन्त आदि चार द्वीप हैं उनमें यह नौ भायोजन तक हो जाती है इस प्रकार दूसरे चतुक के जयकर्णवीर, गजकर्णनीप, सया' या छ या छ रे संत eltमा पपामा भावेस छे. એ ગાથાઓને અર્થ આ પ્રમાણે છે. પહેલા દ્વીપચતુષ્કના એકેક વિગેરે ચાર દ્વીપે ના વિચારમાં આ ચારે એકરૂક, આભષિક, વાણિક, નગેલિક દ્વીપની અવગ હતા અને લંબાઈ પહેળાઈ ત્રણ જનની છે. તેમ સમ જવું. આ રીતે આ અવગાહના અને લંબાઈ પહોળાઈ આગળના દરેક ચતુષ્કમાં એકસે એકસના અધિક પણાથી વધે છે. છેલ્લા જે ઘનદન્ત વિગેરે ચાર દ્વીપ છે, તેમાં તે નવસો જન સુધી થઈ વાય છે. આ રીતે બીજા ચતુષ્ક ના હયકર્ણ દ્વીપ, ગજકર્ણદ્વીપ, મેકર્ણદ્વીપ, શક્લીકર્ણદ્વીપમાં અવગાહના
Page #729
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रद्योतिका टीका प्र.३ उ. ३.४४ हयकर्णद्वीपनिरूपणम्
७०५
श्रीणि शातनि प्रत्येकं शतोत्तराणि कर्त्तव्यानि तथाहि - अवगाहनाविष्कम्भं तावद् जानीयात् यावद् नवशतानि तद्यथा = द्वीतीयचतुष्के चत्वारि योजनशतानि तृतीये द्वीषचतुष्के पञ्च योजनशतानि चतुर्थे षट्शतानि पञ्च में सप्तशतानि षष्ठे अष्टौ शतानि, सप्तमे नवशतानीति । अत ऊर्ध्वम्- 'परिरयं वोच्छे' एकोरुकप्रभृति द्वीपान परिस्यं - परिक्षेपपरिमाणं वक्ष्ये कथयिष्ये इति ॥
चार
गोकर्णद्वीप, शष्कुलीकर्णद्वीप इनमें अवगाहना और लम्बाई चौडाई सौ योजन की हो जाती है तृतीयद्वीप चतुष्क में आदर्शमुख, मेण्द्रमुख, अयोमुख, - गोमुख, -इन चार द्वीपों में पांच सौ योजन की अवगाहना और लम्बाई चौडाई हो जाती है चतुर्थद्वीपचतुष्क में - अश्व• मुख, हस्तिमुख, सिंहमुख व्याघ्रमुख, इन चार द्वीपों में अवगाहना और लम्बाई चौडाई छह सौ योजन की हो जाती है। पंचम द्वीप चतुष्क में अश्वकर्ण सिंहकर्ण, अकर्ण, कर्णप्रावरण इन द्वीपों में अवगाहना एवं लम्बाई चौडाई प्रत्येक की सात सौ सात सौ योजन की होती है छट्टे द्वीप चतुष्क में - उल्कामुख मेघमुख विद्युन्मुख, विद्युद्दन्त- इन चार द्वीपों में अवगाहना एवं लम्बाई चौडाई प्रत्येन की आठ सौ योजन की हो जाती है इसके बाद सातवें द्वीप चतुष्क में घनदन्त लष्टदन्त गढदन्त और शुद्ध दन्त, इन चारद्वीपों में अवगाहना एवं लम्बाई चौडाई प्रत्येक की नौ नौ सौ योजन की होती है परिश्य परिधि के परिमाण के सम्बन्ध में ऐसा विचार है - प्रथमद्वीप चतुष्क में परिधि का परिमाण कुछ अधिक
·
ww
અને લંબાઈ પહેાળાઇ ચાસેા ચેાજનની થઇ જાય છે. ત્રીજા દ્વીપ ચતુષ્કમાં श्याद्दर्शभुभ, भेढ्रभुज, मयोभुम, गोभुम, मा यार द्वीपोभां यांयसेो येोन्न ની અવગાહના અને લંબાઇ પહેાળાઈ થઈ જાય છે. ચાથા દ્વીપ ચતુષ્કમાં અશ્વમુખ, હસ્તિમુખ, સિંહુમુખ, વ્યાઘ્રમુખ આ ચાર દ્વીપામાં અવગાહના અને લખાઇ પહેાળાઈ છસેા ચેાજનની થઈ જાય છે. પાંચમાં દ્વીપ ચતુષ્કમાં અશ્વકણ, સિ'હૅક, અક, અને કણ પ્રાવરણુ આ ચાર દ્વીપામાં અવગાહના અને લખાઇ પહેાળાઇ દરેકની સાતસેા ચૈાજનની થઇ જાય છે. છટ્ઠા દ્વીપ ચતુષ્ટમાં ઉલ્કામુખ, મેઘમુખ, વિદ્યુત્સુખ, વિદ્યુત આ ચાર દ્વીપામાં અવગાહના અને લખાઈ, પહેાળાઇ દરેકની આસે આઠસેા ચેાજનની થઈ જાય છે. તે પછી સાતમાં દ્વીપ ચતુષ્કમાં ઘનદત, લબ્ઝદંત, ગૂઢદત અને શુદ્ધંત આ ચાર દ્વીપામાં આવગાહના અને લખાઇ પહેાળાઇ દરેકની નવસે નવસેા ચેાજનની થઈ જાય છે. પરિરય-પરિધિના પરિમાણુના સ ́મધમાં આ પ્રમાણેના વિચાર છે. પહેલા દ્વીપ ચતુષ્ટમાં પરિષિનું પ્રમાણુ કંઈક વધારે
नी० ८९
Page #730
--------------------------------------------------------------------------
________________
७०६
जीपामिगम प्रतिज्ञातमेव दर्शयति-'पढम चउक्क' इत्यादि, प्रथमचतुष्कपरिरयाप्रथमद्वीपचतुष्कपरिरयपरिमाणात् द्वितीयचतुष्कस्य-द्वितीयद्वीपचतुष्टयस्य परिरया-परित्यपरिमाणमधिकः पोडशैः-पोडशोत्तर स्त्रिभिर्योजनशतैः एवमेव, अनेनैव प्रकारेण शेषाणां-द्वीपचतुष्काणां परिरयपरिमाणमधिकं पूर्व पूर्व चतुष्क परिरयपरिमाणात पोडशोत्तरत्रिंशतयोजनाधिकं ज्ञातव्यम्, एतदेवानिमगाथया दर्शयति-'एगोरुप' इत्यादि, एकोरुकपरिक्षेपः-एकोरुकद्वीपोपलक्षित प्रथमद्वीप चतुष्कपरिक्षेपो नवशतानि एकोनपञ्चाशानि-एकोन पञ्चाशदधिकानीत्यर्थः । ततत्रिषु योजनशतेषु प्रक्षिप्तेषु 'हयकण्णाणं' इति इयकर्ण प्रभृतीनां चतुर्णा द्वीपानां परक्षेपो भवति, स च द्वादशशतानि पञ्चषष्टानि-पञ्चपष्टयधिकानि । तत्रापि त्रिषु योजनशतेषु पोडशोत्तरेषु प्रक्षिप्तेषु 'आयसमुहागं' इत्यादि, 'भायं समुहाण आदर्शमुख प्रभृतीनाम् तृतीय चतुष्कस्थितानां चतुर्णा द्वीपानां परिरय परिमाणं भवति । तच्च पञ्चदशयोजनशतानि एकाशीत्यधिकानि । ततो भूयोऽपि त्रिषु योजनशतेषु पोडशोतरेषु पक्षिप्तेषु 'आसाहाणं' इति अश्यमुख प्रभृतीनां चतुर्थ चतुष्कस्थितानां चतुर्णा द्वीपानां परिक्षेपः, तद्यथा-अष्टादशयोजनशतानि सप्तनवत्यधिकानि । तेष्वपि त्रिषु योजनशतेपु पोडशोत्तरेषु पक्षिप्तेषु 'आस. नौ सौ गुनचास-९४९ योजन का कहा गया है, इस परिमाण में तीन सौ सोलह-३१६ योजन पिलाने से आगे के द्वितीय.द्वीप चतुष्क के परिरय का परिमाण आजाता है इस तरह द्वितीय द्वीप चतुष्क का परिरय परिमाण धारह लौ पैसठ १२६५ योजन का आ जाता है तृतीय द्वीप चतुष्क का परिरछ परिमाण १२६५, ३१६ जोडने से पन्द्रह सौ इक्यासी. १५८१ योजन का परिश्य परिमाण आ जाता है १५८१ योजनों में ३१६ जोड देने से चतुर्थ द्वीप चतुष्क का परिरय परिमाण निकल जाता है और यह अठारह सौ सतानवे १८९७ योजन का होता है। इसमें ३१६ ૯૪૯ નવસે એગણ પચાસ એજનનું કહેલ છે. આ પરિમાણમાં ૩૧૬ ત્રણ સે સોળ જન મેળવવાથી આગળના બીજા દ્વીપ ચતુષ્કનું પરિરય પરિમાણ આવી જાય છે. આ રીતે બીજા દ્વીપ ચતુષ્કનું પરિરય પરિમાણુ બારસો પાંસઠ ૧૨૬પ જનનું થઈ જાય છે. ત્રીજા દ્વિીપ ચતુષ્કના પરિરયનું પરિમાણ ૧૨૬૫ બારસો પાંસઠમાં ૩૧૬ ત્રણ સેળ ઉમેરવાથી ૧૫૮૧ પદરસો એકાશી જિનનું પરરય પરિમાણ આવી જાય છે. ૧૫૮૧ પંદરસો એકાશી એજનમાં ૩૧૬ ત્રણસો સેળ ઉમેરવાથી ચેથા દ્વીપ ચતુષ્કનું પરિરય પરિમાણ નીકળી આવે છે. અને આ ૧૮૯૭ અઢારસો સત્તાણુ જનનું થાય છે. તેમાં ૩૧૬
Page #731
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ २.४४ हयकर्णद्वीपनिरूपणम्
७०७ कन्नाणं' अश्वकर्ण प्रमुखाणां चतुर्णा द्वीपानां परिक्षेपो भवति तद्यथा-द्वाविंशति योजनशतानि त्रयोदशानि त्रयोदशाधिकानि । ततो भूयोऽपि त्रिपु योजनशतेषु पोडशोत्तरेषु प्रक्षिप्तेषु उल्कामुखपरिरथा, उल्कामुख द्वीपचतुष्कपरियपरिमाणं भवति तद्यथा-पञ्चविंशतियोजनशतानि एकोनत्रिंशानि, एकोनत्रिंशदधिकानि। ततः पुनरपि त्रिषु योजनशतेषु द्वीपोडशोत्तरेषु प्रक्षिप्लेषु घनदन्तद्वीपानां घनदन्त प्रमुखसप्तमद्वीप चतुष्कस्य परिक्षेषा, तघशा-टे सहले अष्टौशतानि पञ्चचत्वारिशानि पञ्चचत्वारिंशदधिकानि, विसेसपहिओ' इति पदमन्तेऽभिहितत्वात् सर्वत्रापि अभिसम्बन्धनीयम् तेन सर्वत्रापि किश्चिद्विशेषाधिकमुक्तरूपं परिरयपरिमाणं ज्ञातव्यमिति ॥६॥
तदेवमे ते मन्दरपर्वतस्य दक्षिणे हिमवति पर्वते चतम्रध्वपि विदिक्षु व्यवस्थिताः सर्वसंख्ययाऽष्टाविंशति द्वीपाः । जोड देने पर पंचम हीप चतुष्का परिरथ परिमाण निकलता है और यह बाइस सौ तेरह २२१३ योजन का होता है इस परिस्थपरिमाण में ३१६ जोडने पर छठवें द्वीप चतुक का परिश्यपरिमाण पचीस सौ गुनतीस २५२९ योजन का आ जाता है इसी तरह छठवें दीप चतुष्क के परिरयपरिमाण में ३१६ जोडने पर सातवें द्वीप चतुष्का का परिस्थपरिमाण आ जाता है और यह कुछ अधिक २८४५ योजन का होता है परिरय के प्रत्येक चतुष्क परिमाण ले 'कुछ अधिक ऐसा विशेषण लगाना चाहिये गा० ॥६१॥
ये अन्तर्वीप अट्ठाईस हैं और मन्दर पर्वत के दक्षिण भाग में हिमवत पर्वत की चारों विदिशाओं अर्थात् उसके चारों कोनों पर है। ત્રણસો સોળ ઉમેરવાથી પાંચમાં દ્વિીપ ચતુષ્કના પરિચયનું પરિમાણ નીકળી આવે છે. અને તે ૨૨૧૩ બાવીસો તેર જન થાય છે. તેમાં ૩૧૬ ઉમેરવાથી છઠા દ્વિપ ચતુષ્કના પરિરયનું પરિમાણ ૨૫૨૯ પચ્ચીસસો ઓગણત્રીસ
જનનું થઈ જાય છે. એજ રીતે છઠા દ્વીપ ચતુષ્કના પરિરય પરિમાણ ૩૧૬ ઉમેરવાથી સાતમા દ્વિપ ચતુષ્કના પરિશ્યનું પરિણામ આવી જાય છે. અને તે કંઈક વધારે ૨૮૪૫ એજનનુ થાય છે. પરિરયના દરેક ચતુના પરિમાણથી કંઈક વધારે એમ વિશેષણ લગાવવું જોઈએ કે ગા. ૬
આ અંતર કી અયાવીસ છે અને મંદિર પર્વતના દક્ષિણ ભાગમાં હિમવંત પર્વતની ચારે વિદિશાઓમાં અર્થાત્ તેના ચારે ખૂણા પર છે.
Page #732
--------------------------------------------------------------------------
________________
७०८
मन्दरस्य दक्षिणे क्षुद्र हिमवत्पर्वतस्य विदिशा
22
"9
39
| अष्टाविंशत्यन्तरद्वीपको कम् । (१) प्रथमचतुष्कम् ॥
अवगा. आयामवि.
यो.
यो
49
३००
उत्तरपौरस्त्य दक्षिणपौरस्त्य ३०० दक्षिणपाश्चात्य
३००
उत्तरपाश्चात्य ३००
३००
OVERLO
इनके नाम क्रमशः इस प्रकार से हैंदक्षिणदिशा के मनुष्यों के अन्तरद्वीपों के नाम- अवगाहनादिका चित्र -- १ प्रथम २ द्वितीय ३ तृतीय ४ चतुर्थ ५ पंचम ६ षष्ठ ७ सप्तम
३००
३००
३००
દ્વીપ દ્વીપ ૨ આાભાષિક ગજક દ્વીપ દ્વીપ
जीवामि गमसूत्रे
चतुष्क चतुष्क चतुष्क चतुष्क चतुष्क चतुष्क चतुष्क १ - एकोरुकद्वीप - हयकर्ण आदर्शमुख अश्वमुख अश्वकर्ण उल्कामुख घनदन्त द्वीप द्वीप द्वीप द्वीप द्वीप द्वीप
परिधियो द्वीपना०
९४९ एकोरुक ९४९ | आमापिक
९४९ | वैषाणिक (वैशालिक)
९४९ नाङ्गोळिक
२ - आभाषिक - गजकर्ण मेण्ढमुख हस्तिमुख सिंहकर्ण मेघमुख लष्टदन्त द्वीप द्वीप द्वीप द्वीप द्वीप द्वीप द्वीप ३- वैषाणिक- गोकर्ण अयोमुख सिंहमुख अकर्ण विद्युन्मुख गूढदन्त द्वीप द्वीप द्वीप द्वीप द्वीप द्वीप द्वीप ४- नांगोलिक - शष्कुली गोमुख व्याघ्र कर्णप्रावरण विद्युद्दन्त शुद्धदन्त द्वीप कर्ण द्वीप द्वीप मुखद्वीप द्वीप द्वीप द्वीप
ઢ વૈષાણિક ગાકણુ દ્વીપ દ્વીપ ૪ નાંગેાલિક શશ્કેલીકણું દ્વીપ દ્વીપ
તેના નામેા ક્રમથી આ પ્રમાણે છે.
દક્ષિણ દિશાના મનુષ્યેાના અંતરદ્વીપાના નામેા અને અવગાહનાદિ अ. यतुष्ठ द्वि. चतुष्ठ तृ. तुष्टुरा, यतुष्ठ यं यतुष् षष्ठ यतुष्ठ स. यतुष्ठ ૧ એકાક હયક આદશમુખ અશ્વમુખ અશ્વક દ્વીપ દ્વીપ દ્વીપ
ઉલ્કામુખ ઘનઃન્ત દ્વીપ દ્વીપ
મેદ્રમુખ
દ્વીપ
હસ્તિમુખ સિંહૅક' મેઘમુખ લષ્ટઇન્ત દ્વીપ દ્વીપ દ્વીપ થ્રીપ સિહંમુખ અકણું વઘુન્મુખ ગૂઢદન્ત દ્વીપ દ્વીપ દ્વીય દ્વીપ ગોમુખ વ્યાપ્રમુખ ક પ્રાવરણ વિદ્યુÈન્ત શુદ્ધઈ ત થ્રીપ દ્વીપ દ્વીપ દ્વીપ
રીપ
અાસુખ
દીપ
Page #733
--------------------------------------------------------------------------
________________
५००
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ कु.४४ हयकर्णद्वीपनिरूपणम्
७०९ (२) द्वितीय चतुष्कम् ॥ द्वीपनाम | विदिशा । अचगा. यो. आयामवि, यो परिधियो. | द्वीपनाम एकोरुक उत्तरपौरस्त्य ४००
४०० १२६५ हयकर्ण आभाषिक दक्षिणपौरस्त्य ४०० ४०० १२६५ गजकर्ण वैषाणिक दक्षिणपाश्चात्य
४०० १२६५ गोकर्ण (वैशालिक) नाङ्गोलिक उत्तरपाश्चात्य । ४०० ४०० । १२६५ शष्कुलकर्ण
(३) तृतीय चतुष्कम् ।। द्वीपनाम | विदिशा अवगा.यो. आयामवि. यो. परिधियो. द्वीपनाम इयकर्ण
उत्तरपौरस्त्य । ५०० ५०० १५८१ आदर्शमुख गजकर्ण दक्षिपौरस्त्य । ५०० ५०० १५८१ मेण्दमुख गोकर्ण दक्षिणपाश्चात्य ५००
१५८१ अयोमुख शष्कुलीकणे उत्तरपाश्चात्य
५०० १५८१ गंमुख
(४) चतुर्थकम् ।। द्वीपनाम - विदिशा अवगा.यो. पायामवि.यो. परिधियो द्वीपनाम आदर्शमुख उत्तरपौरस्त्य । ६०० ६०० १८९७ । अश्वमुख मेण्टमुख दक्षिणपोरस्त्य ६०० ६०० १८९७ हस्तिमुख अयोमुख | दक्षिणपाश्चात्य ६००
१८९७ सिंहमुख गोमुख । उत्तरपाश्चात्य । ६००
१८९७ व्याघ्रमुख १-अवगाहना-३०० ४०० ५०० ६०० ७०० ८०० ९००
योजन योजन योजन योजन योजन योजन योजन २-लंबाई चौडाई-३०० ४०० ५०० ६०० ७०० ८०० ९००
योजन योजन योजन योजन योजन योजन योजन ३-परिधि- ९४९ १२६५ १५८१ १८९७ २२१३ २५२९ २८४५ योजन योजन योजन योजन योजन योजन यो. कुछ
अधिक १ भगाना ३०० ४०० ५०० ६०० ७०० ८०० ८००
જન જન જન જન જન જન જન २८माध-पडा 3०० ४०० ५०० १०० ७०० ८०० ८००
જન જન જન જન જન જન જન 3 परिधि- ८४८ १२६५ १५८१ १८८७ २२१३ २५२८ २८२६० જન જન જન જન જન જન જન
(&03 पधारे)
६००
Page #734
--------------------------------------------------------------------------
________________
७००
७००
अश्वर्ण
८००
प्रात्य
८००
७०
जीवामिगमस्से (५) पञ्चमचतुष्कम् ॥ द्वीपनाम | विदिशा (अवगा यो | आयामचि. यो परिधियो | द्वीपनाम अश्वकर्ण उत्तरपौरस्त्य । ७००
२२१३ । अश्वकर्ण हस्तिमुख दक्षिणपौरस्त्य । ७०० ७०० | २२१३ सिंहकर्ण सिंहमुख दक्षिणपाश्चात्य ७००
२२१३ अकर्ण व्यानमुख | उत्तरपाश्चात्य । ७००।
| २२१३ कर्णप्रावरण (६) पष्ठ चतुष्कम् ॥ द्वीपनाम विदिशा अवगा.यो. आयामवि.यो. परिधियो । द्वीपनाम
उत्तरपोरस्त्य ८०० ८०० २५२९ उल्कामुख सिंहकर्ण दक्षिणपौरस्त्य ८००
२५२९ मेघमुख अकर्ण दक्षिणपाश्चात्य ८०० ८०० २५१९ विद्युन्मुख कर्णप्रावरण उत्तरपाश्चात्य ।
८०० २५२९ विद्युदन्त
(७) सप्तम चतुष्कम् ॥ द्वोपनाम बिदिशा अवगा. यो. आयामवि.यो, परिधियो, । द्वीपनाम उल्कामुख उत्तरपौरस्त्य ९००
२८४५ वि. घनदत्त मेघमुख दक्षिणपौरस्त्य ९००
२८४५, लष्टदत्त विद्युन्मुख दक्षिणपाश्चात्य
९०० २८४५, गूढदन्त विद्युदन्त उत्तरपाश्चात्य | ९०० । ९०० २८४५,, शुद्धदन्त 'एतेऽष्टाविंशतिदीक्षिणात्या अन्तरद्वीपाः भतिचतुष्क स्वस्वापेक्षया समानप्रमाणाः सन्धि' एवम्-औतराहा अपि अष्टाविंशतिरन्तरद्वीपाः मतिचतुष्कं स्वस्वापेक्षया समानममाणाः सन्ति इत्येवं सर्वे पट्पञ्चाशद् (५६) अन्तरद्वीपा भवन्तीति' अत्र किश्चिद्विशेषाधिकेति पदं सप्त चतुष्कशते सर्वस्मिन्नपि परिधिपरिमाणेऽव सातव्यमिति । ___ अथै तेषां गतिमाह-'देवलोग इत्यादि, 'देवले गपरिरगहिया णं ते मणुया पण्णचा समणाउसो' ते खलु मनुजा देवलोकपरिर हावाः देवलोको भवनपत्यादि
अव इनकी गति का वर्णन करते हैं शेष इनके आगे के जो अन्तरद्वीप है उनके परिक्षेष प्रमाण में अधिकता होती जाती है
"देवलोक परिहिया णं ते मणुया पण्णत्ता समणाउसो"
હવે તેની ગતિનું વર્ણન કરવામાં આવે છે. બાકીના તેના પછીના જે અંતર દ્વિપે છે. તેના પરિક્ષેપ પ્રમાણમાં અધિક પાગુ થતું જાય છે. એથીજ ४ो छ । 'देवलोकपरिग्गहियाण' ते मणुया पण्णचा खमणाउसो' हे श्रम आयु भन्
९००
Page #735
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.४४ हयकर्णधीपनिरूपणम् रूप एव, तथा क्षेत्रस्वामाच्या तयोग्यायुर्वन्धनेन परिगृहीतः पुनर्जन्मत्वेन स्वीकृतो यैस्ते तथाभूताः देवलोकगामिन एव ते मासा हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! इति ।
पूर्वं दाक्षिणात्यना मेकोरुकाधष्टाविंशत्यन्तरद्वीपानां वर्णनं कृतम्, साम्प. तम्-औचराहाणा मेकोरुकायष्टाविंशत्यन्तरद्वीपानां वर्णनावरः, ते च क्षुद्रहिमवत्तुल्यवर्णप्रमाणपद्म हुदप्रमाणायामविष्कम्भादगाह पुण्डरीकहदोपशोमिते शिखरिणि वर्षधरपर्वते लवणसमुद्र जलसंस्पर्शादारभ्य यथोक्तप्रमाणान्तराश्चतसृषु विदिक्षु एकोकादि तुल्यनामानोऽक्षुण्णापान्तरालायामविष्कम्भा औतरा 'उत्तरिल्लाणं' इत्यादि 'कहिणं भंते ! कुत्र ख भदन्त ! उत्तरिल्लाणं' अष्टाविंशति संख्यका अन्येऽन्तरद्वीपाः सन्तीति तान् प्रदर्शयितुमाह-'कहिणं भते !
औत्तराहाणाम् उत्तरदिकस्थितानाम् 'एगोरुयषणुरसाणं' एको रुकमनुष्याणाम् 'एगोरुपदीवे णामं दीये पण्णत्ते' एक कद्वीपो नायद्वीपः प्रज्ञता- कथितः ? इति प्रश्नः। भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयना' हे गौतम !'जंबुद्दीवे
हे श्रमण आयुष्मन् ! इन सब अन्तरद्वीपों के मनुष्य देवलोक का परिग्रहजिन्हो के ऐसे ही होते हैं । अर्थात् ये अन्तरद्वीपज मनुष्य भवनपत्यादि इशानान्त देवगतिके सिवाय अन्य गतियों में जन्म नहीं लेते हैं।
यहाँ तक दक्षिण दिशा के एकोकादि अन्तरद्वीपों का वर्णन करके अब उत्तर दिशा के एकोकादि अन्तरद्वीपों का वर्णन करते हैं, 'कहिणं भंते ! उत्तरिल्लाण' इत्यादि कहिणं भंते उत्तरिल्लाणं एगोल्य मणुस्ताणं एगुरुयदीवे णामं दीवे पणत्त इस सूत्र द्वारा गौतलस्वामीने प्रभु ले ऐसा पूछा है-हे भदन्त' उत्तर दिशा के एकोरुक मनुष्यों का एकोस नाम का द्वीप कहां पर कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभु श्री कहते हैं! આ બધા અંતરદ્વીપના મનુષ્ય દેવલેકને પરિગ્રહ જેઓએ કર્યો છે એવાજ હોય છે. અર્થાત્ આ અન્તદ્વીપમાં થનારા મનુષ્ય ભવનપત્યાદિ ઈશાના દેવ ગતિ શિવાય અન્ય ગતિમાં જન્મ લેતા નથી. અહીં સુધી દક્ષિણ દિશાના એકેરક વિગેરે અન્તર દ્વીપનું વર્ણન કરીને હવે ઉત્તર દિશાના એકરૂક વિગેરે અન્તર દીપનું વર્ણન કરવામાં આવે છે - 'कहि ण भंते ! उत्तरिल्लाण' या
'कहि ण भते ! उत्तरिल्लाणं एगोरुयमणुस्साण एगोरुयदीवे णामं दीवे पण्णत्ते' मा सूत्रा। श्री. गौतमस्वामी प्रभुश्रीन से पूछयु छ 3હે ભગવન્ ! ઉત્તર દિશાના એકરૂક મનુષ્યને એકેરૂક નામને દ્વીપ કયાં કહેવામાં આવેલ છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે
Page #736
--------------------------------------------------------------------------
________________
७१२
जीवामिगमले दीवे' जम्बूदीप नामके द्वीपे 'मंदरस्स पब्वयस्स' मन्दरनामकपर्वतस्य 'उत्तरेण' उत्तरेण-उत्तरस्यां दिशि 'सिहरिस्स वासधरपब्वयस्स' शिखरिणःशिखरि नामक वर्षधरपर्वतस्य 'उत्तरपुरस्थिमिळाओ चरिमंतायो' उत्तरपौरस्त्यात् चरमान्तात् 'लवणसमुदं तिनि जोयणसयाई ओगाहित्ता' त्रीणि योजनशतानि लवणसमुद्रं व्यतिक्रम्य 'एवं जहा दाहिणिल्ला णं तहा उत्तरिल्लाणं, भाणियन्त्र' एवं यथा-दाक्षिणात्याना मेकोरुक मनुष्याणां वर्णनं कृतं तथैवोत्तराणामपि वर्णन भणितव्यम् । 'गवरं' नवरम्-विशेषोऽयम्-तत्र दाक्षिणात्यकोरुकादि प्रकरणे क्षुद्रहिमवद्वपंधरपर्वतस्य विदिशासु' इति मोक्तम् अत्रौत्तरैकोरुकादि प्रकरणे 'सिहरिस्स वासहरपब्जयस्स विदिसामु' शिखरिणो वर्षधरपर्वतस्य विदिक्षु इति वक्तव्यम् । कि नामक द्वीप पर्यन्तम् ? इत्याद-‘एवं जाव' इत्यादि, एवम्-अनेन प्रकारेण 'जाव सुद्धदंतदीवेत्ति' यावत् - शुद्धदन्तद्वीप इति सप्तम चतुष्कस्यान्तिम'गोयमा' जम्बूद्दीचे दीवे मंदस्त पव्वयस्स उत्तरेणं सिहरिस्स वासहर पव्वयस्त उत्तरपुरस्थिमिल्लाओ चरिमंताभोलवणसमुदं तिणि जोयणसथाई भोगाहित्ता एवं जहा दाहिणिल्लाण तहा उत्तरिल्लाणभाणियन्वं, णवरं सिहरिस्त वासहरपव्वयस्स विदिसासु एवं जाव सुद्धदंत दीवे. त्तिजाव सेत्तं अंतरदीवगा' जम्बू द्वीप नाम के इस द्वीप में जो सुमेरु पर्वत है उसको उत्तर दिशा में जो शिखरी नाम का वर्षधर पर्वत है उसकी ईशान दिशा के चरमान्त से, लवणसमुद्र में तीन सौ योजन चलने पर जैसा कि दक्षिण दिशा के एकोरुक मनुष्यों का द्वीप कहा गया है उसी तरह से उत्तर दिशा के एकोरुक मनुष्यों का भी एकोरुक नाम का द्वीप कहा गया है ये उत्तर दिशा के अन्तरद्वीप शिखरी पर्वन की दाढाओं पर है और ये उसकी विदिशाओं में हैं। शुद्धदन्त'गोयमो ! जम्बुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेण सिहरिस्स वासहरमव्वयस्म उत्तर पुरथिमिल्लाओ चरिमताओ लवणसमुद्द तिनि जोयणसयाई ओगाहित्ता एवं जहा दाहिणिल्लाण तहा उत्तरिल्लाण भाणियव्व नवर' सिहरिस्स वामहर पव्वयस्स विदिमासु एवं जाव सुद्धदंत दीवेचि जाव से तं अतरदीवगा' भूदी५ નામના આ દ્વિપમાં જે સુમેરૂ પર્વત છે તેની ઉત્તર દિશામાં શિખરી નામને જે વર્ષધર પર્વત છે તેની ઈશાન દિશાના ચરમાન્તથી લવણ સમુદ્રમાં ત્રણ
જન ચાલવાથી જેમ દક્ષિણ દિશાના એકેક મનુષ્યોને દ્વિપ કહેલ છે, તેજ રીતથી ઉત્તર દિશાના એકેરૂક મનુષ્યને પણ એકરૂક નામને દ્વીપ કહેવામાં આવેલ છે. એ ઉત્તર દિશાને અંતરીપ શિખરી પર્વની દાઢાએ પર આવેલ છે. અને તે તેની વિદિશાઓમાં છે. શ્રદ્ધદંતદ્વીપ પર્યન્તના બધા
Page #737
--------------------------------------------------------------------------
________________
%
D
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३.४४ हयकर्णद्वीपनिरूपणम्
७१३ शुद्धदन्तद्वीपो वर्तते तावत्पर्यन्तमिति, एकोरुक द्वीपादारभ्याऽष्टाविंशतितमशुद्धदन्त द्वीप पर्यन्ताना मौत्तराणामष्टाविंशत्यन्तरद्वोपानां सर्व वर्णनं पूर्पबदेव वाच्यमिति, 'जाव' इति, यावत्मकरण समाप्ति पर्यन्तमिति । उपसंहरन्नाह-से तं अंतरदीवगा' ते एते अन्तरदीपका इति, ते-ये पूर्व प्रदर्शिताः एते-अनोपदर्शिता अन्तरद्वीपा यथाक्रमं प्रदर्शिता इति ॥ ____ 'अन्तरद्वीपक मनुष्यान् निरूप्याकर्मभूमक मनुष्यान् निरूपयितुमाह-से कि तं' इत्यादि, 'से कि त अकम्भभूमग मणुस्सा' अथ के ते अकर्मभूमक मनुष्याः ? इति प्रश्नः, भगवानाह-'अकम्भभूमग मणुस्ता तीसवीहा पनत्ता' अकर्मभूमकमनुष्या स्त्रिंशद्विधा:-त्रिंशत्यकारकाः प्रज्ञप्ताः-कथिताः, 'तं जहा' तद्यथा-'पंचहि हेमवएहि पञ्चभिहमवतैः, 'एवं' एवम्-अनेन प्रकारेण पञ्चभिमत्रतैः, पञ्चभिर्हरिवर्षः, पञ्चभिः रम्यकवः, पञ्चभिर्देवकुरुभिः, पञ्चभिरुत्तरकुरुभिरितित्रिंशत्क्षेत्रभेदै स्तदुत्पन्ना मनुष्या अपि त्रिंशद् भवन्ति इति । एतदेव 'जहा' इति सूत्र पदेन प्रदश्यते-'जहा' इत्यादि, 'जहा पण्णवणापदे जाव पंचहि उत्तरकुरुहि यथा छीप तक ये अन्तरद्वीप यहां अठाईस हैं। इन सबका वर्णन दक्षिण दिशा के अन्तरद्वीपों के वर्णन जैसा ही है। इस तरह यहां तक अन्तरद्वीपों का वर्णन किया गया है यहां तक अन्तरद्वीपों के मनुष्यों का निरूपण करके अब अफर्मभूमिकमनुष्यों का निरूपण करते हैं-'से कि तं' इत्यादि। ____ 'सेकि ते अकस्मभूमगमणुस्सा' हे भदन्त ! अकर्मभूमिक मनुष्य कितने प्रकार के हैं ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-हे गौतम' अकम्मभूमगमणुस्सा तीनवीचा पण्णत्ता' अकर्मभूमक मनुष्य तीस प्रकार के कहे गये हैं। 'तं जहा' जो इस प्रकार से हैं-'पंचहिं हेमवएहि पांच हैमवत क्षेत्र के मनुष्य 'एवं जहा पण्णवणा पदे जाव पंचहिं उत्तरकुरुहिं' મળીને અઠયાવીસ અંતરીપ અહિં કહેલ છે. તે બધાનું વર્ણન દક્ષિણ દિશાના અંતર દ્વીપના વર્ણન પ્રમાણે જ છે. આ રીતે આટલા સુધી અંતર દ્વિીપનું વર્ણન કરવામાં આવેલ છે આ રીતે આટલા સુધી અંતરદ્વીપના મનુષ્યાનું નિરૂપણ કરેલ છે. हवे मम भूमिना मनुष्योनु नि३५ ४२वामां आवे छे. 'से कि' त' या
'से किं त अकम्मभूमग मणुस्सा' मगवन् २०४म भूमिना मनुष्या કેટલા પ્રકારના છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે હે ગૌતમ! 'अकम्मभूमग मणुस्सा तीप्त विहः पण्णत्ता' मभूमिना मनुष्य त्रीस प्रारना
पामा भावले. 'त जहा' २ मा प्रमाणे छे. 'पंचहिं हेमवएहि' यांच्य प्रा२ना उभपतक्षेत्रना मनुष्य। 'एवं जहा पण्णवणापदे जाव पचहि उत्तर
जी० ९०
Page #738
--------------------------------------------------------------------------
________________
७१४
जीवामिगमसूत्रे
प्रज्ञापनायाः प्रथमे पदे कथितं यावत्पश्चभिरुत्तरकुरुभिरिति-अकर्मभूमक मनुव्याणां वर्णनं कृतं तदनुसारेणैवात्र ज्ञातव्यम् ।
अकर्मभूमकमनुष्यान् निरूप्य कर्मभूमकान्निरूपयितुं प्रश्नयन्नाह - 'से किं तं' इत्यादि, 'से किं तं कम्मा' अथ के ते कर्मभूमकाः, कर्मभूमका मनुष्याः कियन्तो भवन्तीति प्रश्नः, भगवानाह - 'कम्मभूमगा मणुस्सा पण्णरसविहा पन्नता' कर्मभूमकाः कर्मभूमिषु समुत्पन्ना मनुष्याः पञ्चदशविधा :- 'पंचदशमकारकाः प्रज्ञप्ताः कथिताः, 'तं जहा ' तद्यथा पंचहि भरहेहिं' पञ्चभिर्भरते: 'पंचहि एरवएहिं' पञ्चभिरैरवतैः 'पंचहि महाविदेहेर्हि' पञ्चभिर्महाविदेहैः तथा च पञ्च
"
पांच हैरण्यवत पांच हरिवर्ष क्षेत्र के मनुष्य पांच रम्यक क्षेत्र के मनुध्य और पांच देवकुरु के मनुष्य और पांच उत्तरकुरु के मनुष्य इस प्रकार से ढाई द्वीप में ये तीस भोगभूमियां प्रकर्मभूमियां है। इन अकर्मभूमियों में जो उत्पन्न हुए मनुष्य है वे अकर्मभूमक मनुष्य कह लाते हैं। और इन्हें इली से तीस प्रकार के कहा गया है 'से त्तं अक
भूमगा' इस प्रकार से अकर्मभूमकों के सम्बन्ध में यह कथन किया गया है इनका विस्तृत कथन प्रज्ञापना पद में प्रज्ञापना सूत्र के प्रथम पद में हुआ है अतः वहीं से यह विषय जिज्ञासुओं को जान लेनाचाहिये । 'से किं तं कम्मभूमगा' हे भदन्त । कर्मभूमक मनुष्य कितने प्रकार के है इसके उत्तर में प्रभुश्री गौतमस्वामी को कहते है-हे गौतम! कर्मभूमक मनुष्य 'पण्णरस विहा पण्णत्ता' पन्द्रह प्रकार के कहे गये है 'तं जहा ' जैसे- 'पंचहि भर हेहिं पंचहिं एरवएहिं पंचहि महाविदेहेहिं' पाँच भरत
1
कुरुद्दि" पांथ अारना हैरएयवत क्षेत्रना मनुष्य यांय अारना हरिवर्ष क्षेत्रना મનુષ્ય પાંચ પ્રકારના રમ્યકક્ષેત્રના મનુષ્ય અને પાંચ પ્રકારના દેવકુરૂના મનુષ્યા અને પાંચ ઉત્તરકુરૂના મનુષ્ય આ રીતે અઢાઇ દ્વીપમાં આ ત્રીસ ભાગભૂમિ અકમ ભૂમિ છે. આ કમ ભૂમિયામાં ઉત્પન્ન થયેલા જે મનુષ્યેા છે, તેએ અક ભ્રમક મનુષ્યા કહેવાય છે. અને તે બધા મળીને ત્રીસ પ્રકારના अहेवामां आवे छे. 'से त्तं अकम्मभूमगा' या रीते अम्भ भूमियाना सभधभां કથન કરવામાં આવેલ છે. આનુ સવિસ્તર કથન પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના પ્રજ્ઞાપના પદમાં કરવામાં આવેલ છે. તેથી જીજ્ઞાસુઓએ તે ખધુ ત્યાંથી જાણી લેવું
'से किं तं कम्मभूमगा' हे भगवन् उर्भ भूमिना मनुष्यो डेंटला अहारना उद्या છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે હું ગૌતમ ! ક્રર્મોभूभिना मनुष्ये। 'पन्नरस विद्या पण्णत्ता' यन्नर अारना डेवामां आवे छे. 'त' जहा' ते भा प्रभा] लघुवा भई 'प'चहि' भरहेहि, पंचहि एवएहि, पचहिं
Page #739
--------------------------------------------------------------------------
________________
च्छानां स्वल्परा अनुद्धिप्राप्ता लादि, एवं जहा पातव्यम्
प्रमैयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.४४ हयकर्णद्वीपनिरूपणम् भरत, पञ्चरवतः पञ्चमहाविदेहभेदात् पञ्चदशमकारकाः कर्मभूमकमनुष्या भवन्तीति । 'ते समासओ दुविहा पन्नत्ता' ते कर्मभूयका मनुष्याः समासतः-संक्षेपेण द्विविधाः-द्वि प्रकारकाः प्रज्ञप्ताः-कथिता, द्वैविध्यं दर्शयति-तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा' तद्यथा-'पायरिया मिलेच्छ।' आर्याः स्लेच्छाश्व, तत्र म्ले. च्छानां स्वल्पत्वात्प्रथमं म्लेच्छा वर्ण्यन्ते-ठलेच्छाः शकयवनादिभेदैरनेकविधाः। आर्या ऋद्धिमाप्ता अनृद्धिप्राप्ता इहि द्विविधाः । एते द्वये भेदानुभेदैर्वहुविधा भवन्ति, तत्पज्ञापनातिदेशेनाह ‘एवं जहा' इत्यादि, 'एवं जहा पण्णवणापदे जाव से तं आरिया' एवं यथा यज्ञापनाया: प्रथमे पदे कथितं तथैवात्रापि ज्ञातव्यम् फियत्पर्यन्तं प्रज्ञापनाप्रकरणं ज्ञातव्यं तमाह-'जाव' इत्यादि, 'जाव से तं आरिया' यावत्ते एते आर्याः, इति पर्यन्तमिति । 'से तं गमवकंतिया' ते एते गर्भव्युस्क्रान्तिका जीवा निरूपिताः, 'से तं मणुस्सा' ते एते उपर्युक्तक्रमेण मनुष्या स्त्रिविधा अपि निरूपिता इति ।।लू० ४४॥ क्षेत्रों के पांच ऐरवत क्षेत्रों के और पांच विदेहों के सब मिलकर पन्द्रह कर्मभूमियों की अपेक्षा मनुष्य पन्द्रह प्रकार के हो जाते है। ते समासओ दुविहा पन्नत्ता' थे कर्मभूमिक मनुष्य संक्षेप से दो प्रकार के होते है 'तं जहा' जैले 'आरिया मिलेच्छा' आर्य और म्लेच्छ, म्लेच्छ शक सूत आदि है । 'एवं जहा पण्णवणापदे जाब खेत आरिया' प्रज्ञापना के प्रथम पद में आर्य प्रकरण तक इल सम्बन्ध में कथन किया है अतः वैसा ही बहस कथन यहां पर भी आर्यों के सम्बन्ध में कर लेना चाहिये 'सेत समक्क्रलिया' इस प्रकार से गर्भज जीवों का यहां तक निरूपण हो जाता है। 'खेतं पण्णुस्ता' इन के निरूपण हो जाने पर तीन प्रकारके मनुष्योका निरूपण भी समाप्त हो जाता है।४४॥ महाविदेहेहि' पाय प्रश्न मरतक्षेत्रना पाय मारना भरपतक्षेत्रना मने पाय પ્રકારના મહાવિદેહ ક્ષેત્રના એ પ્રમાણે બધા મળિને પંઘર પ્રકારની ४म भूमिना भनुध्यो ५५ ५२ प्रान! 2 mय छे. 'ते समास ओ दुविहा पन्नत्ता' मा भभूमिना मनुष्यो सपथा में प्रा२ना थाय छे. 'त' जहा" नभई 'आरिया मिलेच्छा' मा भने २७, म्होछ श४, सूत विगेरे छे. 'एवं जहा पण्णवणापदे जान से तं आरिया' प्रज्ञापन सूत्रना पड़ता પ્રજ્ઞાપના પદમાં આર્ય પ્રકરણ સુધી આ વિષયનું કથન કરેલ છે. તે જ પ્રમાણે ते सघणु ४थन सडियां यन्मयाना समां सभ७ : 'से तगम्भ वक्क तिया' मा शत माटमा सुधी ४ वा नि३५ य नय छे. 'से त्त मणुस्सा' यस वर्नु नि३५ वाथी त्रय ना मनुष्य। न नि३५] थ य छे. ॥ ४४ ॥
Page #740
--------------------------------------------------------------------------
________________
नोवाभिगमस ते एते मनुष्या निरूपिताः, सम्पति-देवान् निरूपयितुमाह-'से किं तं देवा' इत्यादि,
मूलम् ले किं तं देवा ? देवा चउब्बिहा पन्नत्ता तं जहा भवणवासी वाणमंतरा जोइसिया वेमाणिया। से किं तं भवणवासी ? भवणवासी दसविहा पन्नत्ता, तं जहा-असुरकुमारा जहा पण्णवणापदे देवाणं भेओ तहा भाणियवो जाव अणुत्तरोववाइया पंचविहा पन्नता तं जहा-विजयवेजयंत जाव सव्वट्ठसिद्धगा, से तं अणुत्तरोववाइया । कहि णं भंते ! भवणवासि देवाणं भवणा पन्नत्ता, कहि णं भंते ! भवणवासी देवा परिवसंति ? गोयमा ! इमीसे रयणप्पभा पुढवीए असी उत्तर जोयणसयसहस्स बाहल्लाए एवं जहा पण्णवणाए जाव भवणवासाइया, एत्थ णं भवणवासीणं देवाणं सत्त भवणकोडीओ बावत्तरि भवणावाससयसहस्सा भवतीति मक्खायं। तेणं भवणा बाहिं वट्टा, अंतो समचउरंसा, अहे पुक्खरकणिया संठाणसंठिया भवणबण्णओ भाणियत्वो जहा ठाणपदे जाव पडिरूवा। तत्थ णं बहवे भवणवासी देवा परिवसंति, असुरा णाग सुवण्णा य जहा पण्णवणाए जाव विहरति । कहिं गं भंते! असुरकुभाराणं देवाणं भवणा पन्नत्ता? पुच्छा एवं जहा पण्णवणा ठाणपदे जाव विहरति । कहिं णं भंते! दाहिणिल्लाणं असुरकुमारदेवाणं भवणा पुच्छा एवं जहा ठाणपदे जाव चमरे, तत्थ असुरकुमारिंदे असुरकुमारराया परिवसइ जाव विहरइ ॥सू०४५॥
छाया-अथ के ते देवाः ? देवाश्चतुर्विधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-भवनवासिनो वानन्यन्तरा ज्योतिष्का वैमानिकाः । अथ के ते भवनवासिनः । भवनवासिनो दशविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-असुरकुमाराः यथा प्रज्ञापनापदे देवानां भेदस्तथा भणि
Page #741
--------------------------------------------------------------------------
________________
healfaका टीका प्र. ३ उ. ३ . ४५ देवस्वरूपवर्णनम्
७७
''
तव्यो यावदनुत्तरोपपातिकाः पञ्चविधाः प्रज्ञप्ताः तथवा- विजयवैजयन्त यावत् सर्वार्थसिद्धिकाः ते एते अनुत्तरोपपातिकाः कुत्र खलु भदन्त ! भवनवासिदेवानां भवनानि ज्ञतानि कुत्र ख भदन्त ! भवनवासिदेना । परिवसन्ति ? गौतम ! एतस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्या अशीत्युत्तरयोजनशतसहस्रवाहल्यायाः, एवं यथा प्रज्ञापनायां यावत् भवनवासादिकाः अत्र खलु भवनवासिनां देवानां सप्तभवनकोटयः द्विसप्ततिभवनावास शतसहस्राणि भवन्तीत्याख्यातम्, वानि खलु भवनानि बहिर्वृत्तानि, अन्तः समचतुरस्त्राणि, अधस्तलभागेषु पुष्करकर्णिकासंस्थितानि, Heat भणितव्यो यथा स्थानादे यावत्मविरूपाणि । तत्र खल बहवो भवनवासिनो देवाः परिवसन्ति असुरा नागसुवर्णाश्च यथा मज्ञापनायां यावद्विहरन्ति । कुत्र खलु भदन्त । असुरकुमाराणां देवानां भवनानि प्रज्ञप्तानि पृच्छा एवं यथा प्रज्ञापना स्थानपदे यावद् विहरन्ति । कुत्र खलु भदन्त । दाक्षिणात्याना मसुरकु· मारदेवानां भवनानि पृच्छा' एवं यथा स्थानपदे यावच्वमरः, तथाऽसुरकुमारेन्द्रोऽसुरकुमारराजाः परिवसति यावद्विहरति । ०४५ ||
टीका- 'से किं तं देवा' अथ के ते देशः, देवानां भवनवासिभृतीनां कियन्तो भेदा भवन्तीति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'देवा चउन्विा पन्नचा' देवाश्चतुर्विधाः प्रज्ञयाः 'तं जहा' तथा 'भवणवासी' भवनवासिनो देवा', 'वाणमंदरा' वानव्यन्तराः वने भवा वानाः वानाश्च
इस तरह संक्षेप और विस्तार से मनुष्यों का निरूपण करके अव देवों का निरूपण प्रारम्भ किया जाता है ।
'से किं तं देवा ! - देवा चविवहा पत्ता' इत्यादि' सूत्र - ४३ || टीकार्थ- गौतमस्वामीने प्रभु से पूछा है-हे भदन्त ? देव कितने प्रकार के है ? उत्तर में प्रभु ने कहा है । 'गोयमा देवा चव्वहा पन्नत्ता' हे गौतम ? देव चार प्रकार के कहे गये है- 'तं जहा' जैसे 'भवणवासी, वाणमंतरा, जोसिया, वेवाणिया' भवन वाखी, वानव्यन्तर, ज्योतिઆ રીતે સક્ષેપ અને વિસ્તાર પૂર્વક મનુષ્યાનુ નિરૂપણુ કરીને હવે દેવાનુ નિરૂપણ કરવામાં આવે છે.
'से किं तं देवा ? देवा चउव्विा पण्णत्ता' त्याहि
ટીકા”—આ વિષયમાં શ્રીગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વિનમ્રભાવે પૂછ્યુ કે હું ભગવન્ દેવ કેટલા પ્રકારના કહેવામાં આવેલ છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં अनुश्री छु ! 'गोयमा ! देवा चउत्रिहा पण्णत्ता' हे गौतम | हे यार अठारना उडेवामां आवे छे, 'त' जहा' ते या प्रभो हो, 'भवणवासी, वाणम तरा जोइसिया, वैमानिया' भवनवासी, वान अन्तर, ज्योतिष्ठ ते वैभानि
Page #742
--------------------------------------------------------------------------
________________
७१८
जीवाभिगम
ते व्यन्तरा वानव्यन्तरदेवविशेषाः किल्विष देवा: 'जोहसिया' ज्योतिष्काःचन्द्रसूर्यादयः 'वेमाणिया' वैमानिकाः । चतुर्विधदेवेषु मध्ये प्रथमोपात्तभवनवासिदेवान् निरूपयितुं प्रश्नयन्नाह - 'से किं तं' इत्यादि, 'से किं तं भवणवासी' or a a Heater ? भवनवासिदेवानां कियन्तो भेदा इति प्रश्नः, भगवानाह - 'भवनवासी देवा दसविदा पन्नत्ता' भवनवासिनो देवाः दशविधा: - दशम कारकाः प्रज्ञप्ताः - कथिताः, दशविधत्वमेव दर्शयति- 'तं जहा ' तद्यथा - 'असुरकुमारा जहा पण्णवणापदे देवाणं भेदो तहा भाणियन्त्र' असुरकुमारा यथा प्रज्ञापना पदे - प्रज्ञापनायाः प्रथमे प्रज्ञापनापदे देवानां सर्वेषां भेदः तथा भणितव्यः, प्रज्ञापनायाः प्रथमपदानुसारेण भवनवासि प्रभृतिनां देवानां भेदोऽत्रापि वक्तव्यः, असुर-नाग - सुबर्ण-विद्यु- दग्नि- द्वीपो - दधि- दिशा - पवन - स्वनित कुमारपर्यन्तं षिक और वैमानिक 'सेकिं तं भवणवाली' हे भदन्त ? भवनवासी देव कितने प्रकार के है ! उत्तर में प्रभुश्री कहते है - हे गौतम' भवनवासी देव 'दविहा पन्नत्ता' दश प्रकार के कहे गये है' 'तं जहा' जैसे 'असुरकुमारा जहा पण्णवणा पदे देवाणं भेओ तहा भाणितव्वो जाव अणुत्तरोवाइया पंचविहा पण्णत्ता' असुर कुमार नागकुमार इत्यादि दश भेदों का वर्णन तथा वानव्यन्तरादि समस्त देवों के भेदों का वर्णन प्रज्ञापना सूत्र के प्रथम पद में पांच प्रकार के अनुत्तरोपपातिक देवों तक किया गया है । अतः वह सब वर्णन वहां से देख लेना चाहिये प्रज्ञापना के प्रथम पद् में भवन वासी देवों के दस भेद इस प्रकार से कहे गये है-असुर कुमार, सुपर्णकुमार, विद्युत्कुमार, द्वीपकुमार, उदधिकुमार, दिक्कुमार, पवनकुमार, स्तनितकुमार, १० ये दस भवन वासी देव है । प्रज्ञापना
'से किं तं भवणवासी' हे भगवन् भवनवासी हेवी टना प्रहारना डेवाभां આવ્યા છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે હે ગૌતમ ! ભવનવાસી वे 'दविहा पण्णत्ता' इस प्रारना हेवामां आवे छे. 'त' जहा' ते मा प्रमाणे छे 'असुरकुमारा जहा पण्णत्रणापदे देवाणं भेओ तहा भणितव्वो जाव अणुत्तरोववाइया पंचविहा पण्णत्ता' असुरकुमार नागकुमार विगेरे भी इस अठाરના ભવનપતિ દેવાનું વર્ણન તથા વાનભ્યન્તર વિગેરે સઘળા દેવાના ભેદોનુ વર્ણન પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના પહેલા પદમાં પાંચ પ્રકારના અનુત્તરે પપાતિક દેવાના કથન સુધી કરવામાં આવેવ છે. તેથી તે સમસ્ત કથન ત્યાંથી ોઇ લેવું પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના પહેલા પદમાં ભવનવાસી દેવાના દસ ભેદો આ રીતે કહેવામાં આવેલ છે. અસુર કુમાર ૧, નાગકુમાર ૨, સુવણુ કુમાર ૩, વિદ્યુત્ક્રમાર ४, अभिभार, दीपकुमार, अधिभार ७, हिदुभार ८, पवनडुभार
.
Page #743
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ १.३ खू.४५ देवस्वरूपवर्णनम्
७११ भवनवासिनो दशविधा देवा भवन्तीति। कियत्पर्यप्त प्रज्ञापना प्रथमपदोक्तदेव भेदो वक्तव्यस्तत्राह-'जाव' इत्यादि, 'जाव अणुत्तरोवधाइया पचविता पन्नत्ता यावत्यावत्पदेन- भवनपति- वानव्यन्तर -ज्यौतिष्ककल्पोपपन्नकल्पानातवेयकदेवाः संग्राद्याः, ततः अनुत्तरोपपातिकदेवप्रश्नश्चग्राह्य', उत्तरमाह-अनुत्तरोपपातिकाः पञ्चविधा:-पञ्चपकारकाः प्रज्ञप्ताः, 'तं जहा' तद्यथा-'विजयजयंत जाई सनसिद्धगा' विजयवैजयन्त यावत् सर्वार्थसिद्धकाः विजयवैजयन्त जयन्तापगजितमर्वार्थसिद्धदेवाः 'से तं अनुत्तरोववाहया' ते एसे अनुत्तरोषपात्तिकाः, इति पर्यन्तं प्रज्ञापनायाः प्रयमपदोक्त प्रकरणं वाच्यम् । अथ प्रज्ञापनायाः द्वितीय स्थानपदोक्तभवनवासिनी देवानां भवनम तिवादनार्थमाह-'कहिणं मं!' इत्यादि. के प्रथम पदोक्त देवों के भेद कहां तक कहना चाहिये उन पर कहते है. 'जाव इत्यादि' जाव अणुत्तरोववाहया पंच विना पण्णता यावत , यहां यावत् पद से यहां भवनपति-बानव्यन्तर-ज्योतिक कल्पोपपत्र,कल्पातीत ग्रैवेयक देवों का तथा अनुत्तरोषपातिक देवों के विषयक प्रश्न ग्रहण करना चाहिये । उत्तर में भगवान कहते है। हे गौतम अनु. तरोपपातिकदेव पांच प्रकार के कहे गये है 'तं जाहा' जैसे 'विजयवेजयंत जाव सम्पट्ट सिद्धगा' विजय-वैजयन्त-जयन्त-अपराजित और सर्वाथसिद्धदेव ! 'सेत्तं अणुत्तरोवाइया' ये अनुत्तरोषपतिक देव है। यहां तक का वर्णन श्रीप्रज्ञापना के प्रथम पदोक्त प्रकरण से जानना चाहिये इसके आगे प्रज्ञापना के द्वितीय स्थान पदोक्त लवनदानी देवों के भवन आदिका वर्णन करते है___'कहिणं भंते' इत्यादि । 'कहिणं भंते ! भलणवासि देवाणं भवणा ૯ અને સ્વનિતકુમાર ૧૦ આ રીતે દસ પ્રકારના ભવનવાસી દેવે કહ્યા છે. પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના પહેલા પદમાં કહેવામાં આવેલ દેના ભેદે કેટલા સુધી ४। नियत समयमा सूत्रा२ 'जाव' त्यादि सूत्र छ 'जाव अनु. त्तरोववइया पंचविहा पण्णता' यावत से पहथा महिया वनपति, वानव्यन्तर,
જ્યોતિષ્ક, કલાપપન્ન. કપાતીઅ, નવયક દેનું તથા અત્તરાયપાતિક દેના સંબંધમાં પ્રશ્ન કહે જોઈએ એ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે હે गौतम अनुत्तरोपपातिहे पाय माना अपामा मावेस छ. 'तौं जहा ते या प्रमाणे . "विजयवेजयंत जाव सव्वद सिद्धगा' विय, वै४५न्त, न्यन्त मरात सने साथ सिद्धव, ‘से तं अणुत्तरोववइया' 20 या मनुत्त३। પપાતિક દે છે. આટલા સુધી પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના પહેલા પદમાં કહેલ પ્રકરણથી સમજવું. આના પછીનું શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના બીજા સ્થાન પદમાં કહેલ ભવનવાસી हवाना सपन विगेरेनु वान वामां आवे छे. 'कहिण भते !' इत्यादि
Page #744
--------------------------------------------------------------------------
________________
OmHDOORHTTPmmaNam.
ទេប៉ុល
जीवाभिगमन कहिणं भंते । कुत्र खच भदन्त ! 'भवनवासि देवाणं भवणा पन्नत्ता' भवनवा. सिदेवानां भवनानि निवासस्थानानि प्रज्ञप्तानि कथितानि तथा 'कहिण भंते ! भव. नवासिवा परिवति' कुन खलु भदन्त ! भवनवासिदेवाः परिचसन्तीति प्रश्नः अगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'इमीसे रयणप्पभाए पुढ़वीए' एतस्याः रत्नममायाः पृथिव्याः 'असी उत्तरजोयणलयसहस्स वाहल्लाए' अशी. स्युसरयोजनशतसहस्त्रबाहल गया:-अशीत्युत्तरम्-अशीतिसहस्राधिकं योजनशतसहसं बाहय पिण्ड भावो यस्याः सा तथोक्ता, तस्या उपरि एक योजनसहस्रमवगाय अधस्तादेकं योजनसहस्रं वर्जयित्वा मध्ये अष्टसप्त ते अष्टसप्तति सहस्राधिकेयोजनशतसहस्र अयमेशाशय:-'एवं जहा पण्णवणाए जाव भवणवासाइया' इति प्रकरणस्य । 'एत्थ णं भवणमासिणं देवाणं सत्तमवणकोडीओ पावत्तरि भवणावास. सयसहस्सा भवतीति मक्खाय' अत्र खल्लु-एतस्मिन् स्थाने भवनवासिनां देवानां पण्णत्ता' हे भदन्त ? भवनवासि देशों के भवन कहां पर कहे गये है ? 'कहिणं अंते' 'भवणवासी देक्षा परिवति' तथा-हे भदन्त ! भवनवासी देव कहां पर रहते है ? हलके उत्तर में प्रलु श्री कहते है ? __ गोयना' हमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असी उत्तर जोयण सय. सहरसबाहल्लाए 'हे गौतन' १ लाख ८० हजार योजन की मोटी इस रत्नप्रभा पृथिवी के उपर नीचे के एक एक हजार योजन को छोडकर वीच के १ एक लाख ७८ अठहत्तर हजार योजन परिमित भाग में 'एवं जहा एण्णवणाए जाव भवणवासाइया' इस प्रकार जैसा प्रज्ञापना. सूत्र के द्वितीय स्थान पद में कहा है वैसाही समझ लेना चाहिये, एत्थणं ते भवणवासीण देवाणं लत्तअक्षणकोडीओ बापतरि भवणा वाससय
'कहि गं भवे ! भवनवालि देवाणं भवणा पण्णत्ता' है भगवन् सपनवासी हवाना सपने। ४i ४॥ स्थणे हे छ ? 'कहिणं भते ! भवणवासी देवा परिवप्तति' तथा समपन सवनवासी हेवा या २३ छ ? मा प्रश्ना
तरम प्रसुश्री गौतभस्वामीन ४ छ । 'गोंयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असी उत्तर जोयणसयसहस्सबाहल्लाए' 3 गौतम ! १ मे सास ८० એંસી હજાર યોજનાની વિસ્તારવાળી સ્થળ આ રતનપ્રભા પ્રીની ઉપર અને નીચેના ભાગમાં એક એક હજાર યોજનને છોડીને વચ્ચેના એક લાખ ૭૮ म४योतेर १२ योगन प्रमाण सागमा 'एव जहा पण्णवणाए जाव भवण वासाइया' मा शत प्रज्ञायना सूत्रना स्थानमा प्रमाणे वामां माव. स छे. ते प्रमाणे ४थन सभ से 'एत्थ णं ते भवणवासीण देवाण सत्त भवण कोडोओ बावत्तरि भवणावाससयसवस्सा भवतीति मकखाय"
Page #745
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयोतिका टीका प्र.३ ३.३ सू०४५ देवस्वरूपवर्णनम्
७२१
द्विसप्ततिलक्षाधिक सप्तकोटि संख्यकानि (७७२०००००) मरनानि भवन्तीति बाख्यातम् । तत्र तत्प्रमाणमेवं भवति - चतुः षष्टिः (६४) शतसहस्राणि भवनानि अनुरकुमाराणाम् । चतुरशीतिः (८४) शतसहस्राणि नागकुमाराणाम् । द्विसप्ततिः ( ७२ ) शतसहस्राणि सुवर्णकुमाराणाम् । पण्णवतिः (९६) शतसहस्राणि वायुकुमा राणाम् । शेषाणां षण्णां प्रत्येकं षट्सप्ततिः (७६) शतसहस्राणि भवनानि भवPatra | ततः सङ्कलनया यथोक्ता द्विसप्ततिलक्षाधिकसप्तकोटि (७७२०००००) भवनसंख्या भवति ।
एतेषां दशानां भवनवासिनां क्रमशो भवनसंख्यामदर्शकं ----
कोष्ठकम्
क्रमाङ्काः
१
mr 203 v
नामानि
असुरकुमार भवनानि
नागकुमार भवनानि
भवनानि
सुवर्णकुमार भवनानि विद्युत्कुमार afaकुमार भवनानि द्वीपकुमार भवनानि उदधिकुमार भवनानि दिक्कुमार भवनानि
पवनकुमार भवनानि स्वमितकुमार भवनानि
भवनसंख्या
६४०००००
८४०००००
७२०००००
७६०००००
७६०००००
७६०००००
७६०००००
७६०००००
९६०००००
७६०-८०००
सर्वसंख्या - ७७२०००००
सहस्सा भवतिति मक्खायें' वहाँ पर भवनवासी देवों के सात करोड बहत्तर लाख - (७७२०००००) भवन है । ऐसा मैने तथा पूर्व के अन्य तीर्थकरों ने भी कहा है । इनका सात करोड बहत्तर लाखका प्रमाण इस प्रकार से है चौसठ लाख ६४ भवनतो असुर कुमारों के है। चौरासी ८४ लाख नागकुमारों के है बहत्तर ७२ लाख सुवर्णकुमारों के है ।
એ રીતે ભવનવાસી દેવેના ૭ સાત કરાડ ૭૨ એતિર લાખ ભવનેા છે, એ પ્રમાણે મેં તથા મારી પહેલાના અન્ય બધાજ તી'કર દેવેએ પણ કહેલ છે, તેમેના છ સાત કરોડ ૭૨ ખેતેર લાખનુ' પ્રોણુ આ પ્રમાણે છે. ૬૪ ચેાસઠ લાખ ભવનાવાસે તે અસુરકુમારેશના છે ૮૪ ચેાર્યશીલાખ નાગકુમારાના છે. છર ખેતર લાખ સુવ કુમારના છે. ૯૬ છન્નુ લાખ વાયુકુમારાના છે. તથા બાકીના છ એટલે કે વિદ્યુત્સુમાર, અગ્નિકુમાર, દ્વીપકુમાર, ઉદધિકુમાર,
जो० ९१
Page #746
--------------------------------------------------------------------------
________________
७२३
दीयामिगमने 'ते णं भवणा बाहिं वट्टा अंतो समचउरंसा, हेहा पुक्खरकणिया संठाणसंठिया भवणवण्ण भो भाणियवो जहा ठाणपहे जाव पडिरूवा तानि च भानानि वहिवृत्ताकाराणि अन्त समचतुरस्राणि अधस्तलमागेषु पुष्करकणिकासंस्थानसंस्थितानि 'भवणवण्णभो भाणियब्यो जहा ठाणपदे जाव पडिरूवा' अतः परं भवनवर्णको वर्णयितव्यो यथा प्रज्ञापनायाः स्थानाख्ये द्वितीयपदे कृत स्तेनैव रूपेण स च ताव यावत् 'पडिरूवा' पदम् 'तस्थ णं वहवे' इत्यादि, 'तत्थ ण बहवे भवणवासीदेवा परिवसंति' तत्र तेषु अनन्तरोदितस्वरूपेषु भवनेषु खलु वहयोऽनेकजातीयका:-अनेकपकारका अवनवासिनो देवाः परिवसन्ति । तानेव भवनवासिनो देवान् जातिभेहत आह-'असुरा' इत्यादि 'असुरा लागसुदन्नाय असुरकुछियानवे ९६ लाख बायुकुमारों के है। शेष ६ छहों के विद्युत्कुमार, अग्निकुमार, दीपकुमार, उदधिकुमार दिक्कुमार और स्तनितकुमार इन प्रत्येक के छिहत्तर छिहत्तर ७६ लाख भवन है। इन सवको जोडने से पूर्वोक्त लात करोड बहत्तर लाख-७७२००००० भवन हो जाते है जिसका कम से 'तेणं भक्षणा बाहिं बट्टा अंतो सलचउर्रसा अहे पुक्खरकणिया संहाणसंठिया भवणानो भाणियचो जहा ठाणपदे जाब पडिरूवा' ये भक्षन बाहर में वृत्त आहार वाले होते है। भीतर में समचतुत्र-समचतुष्कोण एवं तले में पुष्कर कार्णिका जैसे होते है। प्रज्ञापनासूत्रके स्थान नाम के द्वितीयपद में इन भवनों का जैल्ला वर्णन है वैसा ही यहां समझ लेना चाहिये यह वर्णन 'पडिरुवा' पद तक कर लेना चाहिये । 'तत्थ ण घहले भवणवाली देवा परिवमंति' इन्हीं अनन्तरोदित स्वरूप बाले भवनों में अनेक प्रकार के अर्थात् दस प्रकार के દિકુમાર અને સ્વનિતકુમાર આ છએ ના ૭૬ છેતેર ૭૬ છોતેર લાખ ભવને છે આ બધાને મેળવવાથી પહેલા કહ્યા પ્રમાણે ૭૭૨૦૦૦૦૦ સાત કરોડ બોતેર લાખ ભવને થઈ જાય છે. તેનું વર્ણન સૂત્રકારે આ પ્રમાણે ४३८ छ. 'ते गं भवणा बाहिं वट्टा अतो समचउरसा आहे पुक्खरकणिया संठाणसठिया भवणाओ भाणियवो जहा ठाणपदे जाव पडिरूवा' मा सपना બહારથી વૃત્ત–ગોળ આકારના હોય છે. અંદરના ભાગમાં સમચતુસ્ત્ર ચોખંડા અને નીચેના ભાગમાં પુષ્કરકણિકાના આકાર જેવા હોય છે. પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના સ્થાનપદ નામના બીજા પદમાં તે બધા ભવનેનું વર્ણન કરવામાં આવેલ છે, તે જ પ્રમાણે તે તમામ વર્ણન અહિ પણ સમજી લેવું જોઈએ. આ વર્ણન 'पडिलवा' से ५४ सुधी महीया री से.
___ 'तत्थ गं बहवे भवणवासी देवा परिवसति' । पूवरित सपनामा भने પ્રકારના અર્થાત્ દસ પ્રકારના ભવનવાસી દે રહે છે. તેઓના નામ આ
Page #747
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रभैयद्योतिका टीका प्र. ३ उ. ३ . ४५ देवस्वरूपवर्णनम्
૭૨૩
माराः, नागकुमाराः, सुवर्णकुमाराः, विद्युत्कुमाराः, अग्निकुमाराः, द्वीषकुमाराः, उदधिकुमाराः, दिक्कुमाराः, पवनकुमाराः, स्वनितकुमाराः १०, 'जहा पण्णवण्णाए जाव विहरति यथा ज्ञापनायां यावद्विहरन्ति अत्रैषां वर्णने यावत्पदेन 'चूडामणि मउडरपणा' इत्यादि परिपूर्णः प्रज्ञापनायाः स्थानपोक्रपाठी ग्राह्यः ।
अथ भवनवासदेवानां मध्ये प्रथममरकुमारदेववक्तव्यतामाह - 'कहिणं भंते! असुरकुमाराणं' इत्यादि, 'कहि णं भंते ! असुरकुमाराणं देवाणं भवणा पन्नता पुच्छा ।" कुन खलु भरन्त ! भवनवासिदेवानां मध्ये अमरकुमाराणां देवानां भवनानि ज्ञतानि तथा कुत्र खलु भदन्त । असुरकुमारा देवाः परिवसन्तीति पृच्छया संगृह्यते प्रश्नः, उत्तरयति - ' एवं जहा पण्ययपाठानपदे जाव विहरंति' एवम् उक्तप्रकारेण या प्रज्ञापनाया द्वितीयस्थानपदे वक्तव्यता भणिता सा वक्तभवनवासी देव रहते है इन के नाम कहते है 'असुरा नागसुवन्ना जहा पण्णवणाए जाव विहति' जैसे असुर कुमार नागकुमार सुवर्णकुमार विद्युत्कुमार अग्निकुमार, दीपकुमार, उदधिकुमार, दिक्कुमार, पवनकुमार और स्तनितकुमार, इनका पूरा वर्णन 'चूडामणिमउडरयणा' इत्यादि । जैसा कि प्रज्ञापना लूनके द्वितीय स्थान पद में याव विहरन्ति तक पाठ कहा गया है वह सब वर्णन यहां कर लेना चाहिये
I
अब यहां भवनवासी देवों में से प्रथम असुर कुमार देवों की वक्तव्यता कहते है- 'कहि णं भंते !' इत्यादि 'कहि णं भते ।' असुरकुमा राणं देवाणं भवणा पुच्छा' हे भदन्त ? भवनवासियों में असुरकुमार देवों के भवन कह पर कहे गये हैं ? तथा ये असुरकुमारदेव कहाँ पर रहते है 'एवं जहा पण्णवणाठाणपदे जाव विहरति ' जिस प्रकार से प्रज्ञापना सूत्र के स्थानपद में असुरकुमारों की वक्तव्यता यावत् विहरन्ति तक
प्रभाये छे. 'असुरा नागसुवण्णा य जहा पण्णवणाए जाव विहरति असुरकुमार नागकुमार, सुवाशु कुमार, विद्युत्कुमार, अग्निकुमार, द्वीपकुमार, धिकुमार, हिमकुमार, पवनकुमार भने स्तनितकुमार तेथे संपून 'चूडामणि मउड रयणा' इत्यादि अारथी हेवामां आवे छे ? ते अज्ञापना सूत्रना मी स्थान हम 'जाव विहरति मे धन पर्यन्त या वामां आवेस છે. તે બધુ જ વર્ણન અહિયાં કરી લેવુ.
હવે ભવનવાસી દેવામાં પહેલા જે અસુરકુમાર દેવે છે, તેએનુ` કથન ४२वामां आवे छे. 'कहि णं भ'ते !' त्याहि
'कहि णं भ'ते ! असुरकुमाराणं देवाणं भवणा पुच्छा' से लगवन् ! ભવનવાસીચેમાં અસુરકુમાર નામના જે ભવનવાસી દેવે છે, તેઓના ભવને કયાં કહેવામાં આવ્યા છે ? તથા આ અસુરકુમાર દેવા કયાં આગળ રહે છે?
Page #748
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमस्से व्यता इहापि भणितव्या, 'गोयमा' इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए' इत्यारम्य 'जाव विहरंति' यावद् दिव्यान् भोगभोगान् भुञ्जानो विहरन्ति, इति पर्यन्तमिति ।
पूर्व सामान्यतोऽसुपकुमाराणां भवनादिप्रदर्शितम् ते चासुरकुमारा दाक्षिणात्या औत्तरायति द्विविधा भवन्ति, तत्र प्रथमं दाक्षिणात्यासुरकुमाराणां भव. नादि वक्तव्यतामाह-'कहिणं भंते ! दाहिणिल्लाणं' इत्यादि । ___ 'कहिणं भंते ! दाहिणिल्का णं अमरकुमारदेवाणं भवणा पुच्छा' हे भदन्त ! कुत्र खल्ल दाक्षिणात्याना मसुरकुमारदेवानां भवनानि प्रज्ञतानि, तथा कुत्र खलु भद. न्त ! दाक्षिणात्या असुरकुमारदेवाः परिवसन्तीति पृच्छाया संगृह्यते प्रश्नः, उत्तरमाइ' -'एवं जवा ठाणपदे जाव चमरे, तत्थ अमुरकुमारिंदे असुरकुमारराया परिवसइ कही गई है वही वक्तव्यता यहां पर भी समझ लेनी चाहिये वह 'इमीसे रयणपभाए पुढवीए' यहां से लेकर 'जाव विहरंति' यावत् वे अस्तुरकुमारादि देवों वहांपर दिव्य मोगों को भोगने का अनुभव करते हुए रहते है यहां तक का वर्णन कर लेना चाहिये, पूर्व सूत्र में सामान्यतः असुरकु मारो के भवनों का वर्णन किया, वे असुर दाक्षिणात्य-दक्षिण दिग्यासी -तथा औत्तर-उत्तर दिग्बासी ऐसे दो प्रकार के होते हैं ! उनमें पहले दाक्षिणात्य असुरकुमारों के भवन आदिका वर्णन करते है 'कहि णं भंते दाहिणिल्लाण' इत्यादि । 'कहिणं भंते दाहिणिल्लाण' असुरकुमार देवाणं भषणा पुच्छा' हे भदन्त ? दाक्षिणात्य असुर कुमार देवों के भवन कहां है। तथा कहाँ पर दाक्षिणात्य असुरकुमार देव रहते है ? 'एवं जहा पण्णवणा ठाणपदे जाव विहरति, २ प्रमाणे प्रज्ञापना सूचना मागत स्थान५४मा सु२मारोतुं ४थन 'जाव विहरति' से सूत्राश पर्यन्त वामां આવેલ છે. તે તમામ કથન અહીંયાં પણ સમજી લેવું. તે આ પ્રમાણે છે.
'इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए' मा सूत्रांशथी सधने 'जाव विहरवि' यावत् ते અસુરકુમારાદિ દેવે ત્યાં દિવ્ય ભેગોને ભેગવવાને અનુભવ કરીને સુખપૂર્વક નિવાસ કરે છે. આટલા સુધીનું પ્રજ્ઞાપનાસૂત્રનું વર્ણન અહિયાં કરી લેવું જોઈએ. પૂર્વ સૂત્રમાં સામાન્ય રીતે અસુરકુમારના ભવનેનું વર્ણન કરવામાં આવેલ છે. તે અસુરકુમાર દે દક્ષિણ દિશામાં તથા ઉત્તર દિશામાં નિવાસ કરનારા એ રીતે દક્ષિણાત્ય અને ઔત્તર એમ બે પ્રકારના હોય છે. તે પૈકી પહેલા દાક્ષિણાત્ય અસુરકુમાર દેના ભવને વિગેરેનું વર્ણન કરવામાં भाव छ. 'कहि णं भते ! दाहिणिल्लाणं' (त्यादि
'कहि णं भते! दाहिणिल्लाणं असुरकुमारदेवाणं भवणा पुच्छा' के ભગવદ્ ! દક્ષિણ દિશામાં નિવાસ કરનાર અસુકુમાર દેના ભવને કયાં આવેલા છે તથા તેઓ કયાં નિવાસ કરે છે? આ પ્રશ્ન પૂછા એ શબ્દ પ્રોગથી
Page #749
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ ७.४५ देवस्वरूपवर्णनम्
७३५ जाब विहरइ' एवं यथा स्थानपदे घज्ञापनाया द्वितीयपदे कथितं तथाऽत्रापि ज्ञातव्यं यावच्चमरस्तत्र असुरकुमारेन्द्रः अनुरकुमारगनः परिवसति यावद विहरतीति । अत्र-'गोयमा ! जंबूदोवे दोवे' इत्यारभर 'दिवाई भोगमोगाई मुंत्रमाणे विहरइ' इति पर्यन्तं दाक्षिणत्यासुरकुमारवक्तव्यता सर्वाऽपि-प्रज्ञापनायाः स्थानपदोक्ता ग्राह्येति ।मु० ४५||
पूर्व चमरसूत्रे लिहं परिसाणं' इत्युक्तम्, ततश्चपरस्य परिषद्विशेषपरिज्ञानाय सूत्रमाह-'चमरस्त णं भवे ।' इत्यादि,
मूलम्-धमरस्त णं भंते! असुरिंदस्त असुररन्नो कई परिसाओ पन्नत्ताओ? गोयमा! तओ परिलाओ पन्नताओ तं जहा-समिया चंडा जाया, अभितरिया लमिया मज्झिमिया चंडा बाहिरिया च जाया। चमरसल णं भंते! असुरिंदस्त यह पृच्छा शब्द से ग्रहण किया जाता है ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभुश्री कहते है 'एवं जहा ठाणपदे जाव चमरे तत्य असुरकुमारि देवा असुरकुमारराया परिवलाइ 'जाब विहरई' हे गौतम इस प्रकार जैला प्रज्ञापना के स्थानपद में कहा गया है वसा ही यहां पर भी जान लेना चाहिये यहां तक कि वक्ष चमर असुरेन्द्र असुरकुमार राजा रहता है। इसका प्रया वर्णन यहाँ समझना चाहिये यहां तक कि 'गोषमा' 'जंबूद्दीवे दीवे' यहां से लेकर वह चन्नर असुरेन्द्र असुरकुमार राजा 'दिवाई भोगयोगाई भुंजमाणे विहरई' दिन भोग भोगों का अनुभव करता हुआ रहता है यहां तक दाक्षिणात्य असुरकुमारों का सष वर्णन प्रज्ञारना के स्थान पदोक्त यहां भी समझ लेना चाहिये ।।सूत्र-४५॥ उपस्थित ४२पामा मावत छ. मा प्रश्न उत्तरमा प्रसुश्री छ एव जहा ठाणपदे जाव चमरे तत्थ असुरकुमारिंदे असुरकुमारराया परिवसइ जाब विहरह' હે ગૌતમ આ રીતે જે પ્રમાણે પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના સ્થાનપદમાં કહેવામાં આવેલ છે તે જ પ્રમાણેનું કથન અહી યાં પણ સમજી લેવું તે કથન અમર અસુરેન્દ્ર અસુરકુમાર રાજા હોય છે. આટલા સુધીનું પુરે પુરૂં અહિયા સમજી લેવું मर्थात् प्रसुश्री गौतमस्वामीने उत्तर भापता 'गायमा । जवुदीवे दीवे से शप प्रयोगधी मार लानत सभ२ मसुरेन्द्र मसु२पा२ २it 'दिव्याई भोग भोगाई भुजमाणे विहरइ' ०५ an लेागाने। मनुलव ४२ता या त्यां रहे છે. આટલા સુધી દક્ષિણાય અસુરકુમાર દેવેનું પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના સ્થાનપદમાં કહેલ તમામ વર્ણન અહીંયા પણ સમજી લેવું ૫ ૪પા
-
-
Page #750
--------------------------------------------------------------------------
________________
७२६
जीवामिगमसूत्रे
असुररन्नो अभितर परिसाए कइ देवसाहस्सीओ पन्नत्ताओ ? सज्झिम परिसाए कई देवसाहस्सीओ पन्नत्ताओ ? बाहिरपरिसाए कई देवसाहस्सीओ पन्नत्ताओ ? गोयमा ! चमरस्सणं असुरिंदस्स असुररन्नो अभितरियाए परिसाए चडवीसं देवसाहसीओ पन्नताओ, मज्झिमियाए परिसाए अट्ठावीसं देवसाहसीओ पन्नत्ताओ, बाहिरियाए परिसाए वत्तीस देवसाहस्सीओ पन्नताओं ! चमरस्त णं भंते! असुरिंदस्स असुररण्णो अभितरियाए परिसाए कई देविसया पन्नत्ता ? मज्झिमियाए परिसाए कई देविया पण्णत्ता ? बाहिरियाए परिसाए कइ देविसया पन्नत्ता ? गोयमा ! 'चमरस्स णं असुरिंदस्ल असुररन्नो अभितरियाए परिस.ए अट्टा देविसया पन्नत्ता, मज्झिमियाए परिसाए तिन्नि देविसया पन्तत्ता, वाहिरियाए अड्डाइजा देविसया पन्नता । चमरस्त णं भंते ! असुरिंदस्त असुररन्नो अभितरियाए परिसाए देवाणं केवइयं कालं ठिई पन्नता ? मज्झि मिया परिसार देवाणं केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता बाहिरियाए परिसाए देवाणं केवइयं कालं ठिई पन्नता, अभितरियाए परिसाए देवीणं केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता, मज्झिमियाए परिसाए देवीणं केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता, बाहिरियाए परिसाए देवीणं केवइयं कालं ठिई पन्नता ? गोयला ! चमरस्त णं असुरिंदस्स असुररन्नो अभितरियाए परिसाए देवाणं अड्डाइज्जाई पलिओदमाई ठिई पन्नत्ता, नज्झिमियाए परिसाए देवागं दो पलिओ माई ठिई पन्नत्ता, बाहिरियाए परिसाए देवाणं दिवङ्कं पलिओसाई ठिई पन्नत्ता, अग्भितरियाए परिलाए देवीणं दिवडूं पलिओषमं ठिई पन्नत्ता, मज्झिमियाए परिसाए देवीणं पलिओनं ठिई पन्नत्ता, बाहिरियाए परिसाए देवी अपलिओवमं ठिई पन्नत्ता । से केणçणं भंते ! एवं
Page #751
--------------------------------------------------------------------------
________________
७२०
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ ७.३ सू.४६ देवस्वरूपवर्णनम् वुच्चइ, चमरस्ल असुरिंदस्स तओ परिलाओ एन्नताओ, तं जहा-समिया चंडा जाया अभितरिया लमिया मज्झिमिया चंडा बाहिरिया जाया ? गोयमा ! जसरस्ल णं असुरिंदल असुररन्नो अभितरपरिसा देवा वाहिया हव्यमागच्छंति, नो अव्वाहिया मज्झिम परिसाए देवा वाहिया हबमागच्छंति, अव्वाहिया वि। बाहिरपरिला देवा अशाहिया हवसागच्छति अदुत्तरं च णं गोयमा ! चमरे असुरिंदे असुरराया अन्नयरेसु उच्चावएसु कज कोडुबिएसु समुप्पन्नेसु अभितरियाए परिसाए सद्धिं संमइ संयुच्छणा बहुले विहरइ, मज्झिमाए परिसाए सद्धिं पयं पवंचे माणे२ विहरइ, बाहिरिसाए परिसाए सद्धिं पयं पवंचेमाणे२ विहरइ से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं वुचइ चमरस्त णं असुरिंदरुल असुरकुमाररणो तओ पहिलाओ पन्नत्ताओ, समिया चंडा जाया अभितरिया ससिया मज्झिमिया चंडा बाहिरिया जाया ॥तू०४६॥ ___ छाया-चमरस्य खलु भदन्त ! असुरेन्द्रस्यासुरराजस्य कति पर्पदः प्रज्ञप्ताः गौतम ! तिस्रः पर्षदः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-समिता चण्डा जाता आभ्यन्तरिका समिता माध्यमिका चण्डा वाह्या च जादा सरस्य खलु मदन्त ! यस्सुरेन्द्रस्या. सुरराजस्याऽऽभ्यन्तर एदि कतिदेवसाहस्त्र्य प्रज्ञप्ताः ? अध्ययर्पदि कति देवसाहस्यः प्राप्ताः ?, बाह्यपर्वदि कतिदेव साहस्त्र्यः प्रज्ञप्याः १, गौतम ! चमरस्य खलु असुरेन्द्रस्यासुरराजस्याभ्यन्तर पदि चतुर्विशतिर्देवसाहरव्यः प्रज्ञप्ताः मध्यमपर्षदि अष्टाविंशतिर्देवसाहस्यः प्रज्ञा, बाह्य पर्पदि द्वात्रिंशदेवलाहस्त्यः प्रज्ञप्ताः। चमरस्य खल्ल भदन्त ! अनुरेन्द्रस्यासुरराजस्याभ्यन्तरिकायां पर्ष दि कतिदेवीशतानि प्रज्ञप्तानि ? माध्यमिकायां पर्षदि कति देवीशतानि पज्ञप्तानि ? बाह्यायां पर्षदि कति देवी शतानि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! चमरस्य खल्लु अमरेन्द्र. स्यामराजस्य आम्पन्तरिकाशं पर्षदि अर्द्ध चतुर्थानि देवीशतानि प्रज्ञ प्तानि, माध्यमिकायां पर्षदि त्रीणि देवीशतानि प्रज्ञप्तानि, बाह्यायां एर्षदि अर्द्ध तृतीयानि देवीशतानि प्रज्ञप्तानि। चमरस्य रहलु भदन्त ! असुरेन्द्रस्या
Page #752
--------------------------------------------------------------------------
________________
७२८
जीवानिगम सुरराजल्याभ्यन्तरिकायां पदि देवानां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? माध्यमिका पर्षदि देवानां कियन्न कालं स्थितिः प्राप्ता ? वाह्यायां पर्षदि देवानां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ताः ? आभ्यन्तरिकायां पर्षदि देवीनां कियन्तं कालं स्थितिः प्रजाता, माध्यमिकायां पर्पदि देवीनां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ताः, वाह्यायां पर्षदि देवीनां कियन्तं झालं स्थितिः प्राप्ता, ? गौतम ! चमरस्य खल्ल असुरेन्द्रस्य अमरराजस्याभ्यन्तरिकायां पर्पदि देवानामर्द्ध हतीयानि पल्पो. पमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता, माध्यमिकायां पदि देवानां द्वे पल्योपमे स्थितिः प्रज्ञप्ता, बाह्यायां पर्पदि देवानां द्वचई पल्योपमं स्थिति प्रज्ञप्ता, आभ्यन्तरि कायां पदि देनीनां यद्धपल्योपमं स्थितिः प्रज्ञप्ता, माध्यमिकायां पर्षदि देवीनां पत्योपमं स्थितिः प्रज्ञप्ता, वाह्यायां पर्पदि देवीनामर्द्धपल्योपमं स्थितिः पज्ञप्ता । तत्केनाथन भदन्त ! एवमुच्यते चमरस्त्र असुरेन्द्रस्यासुरराजस्य तित: पर्षदः प्रज्ञप्ताः तद्यथा-समिना चण्डा जाता, आभ्यन्तरिका समिता, माध्यमिका चण्डा, वाह्या जाता ?, गौतम ! चमरस्य खलु असुरेन्द्रस्यासुरराजस्याभ्यन्तर पर्षदेवा व्याहता हव्यमा गच्छन्ति, नो अव्याहृताः माध्यमिक परिषदेवा व्याहता हव्यमागच्छन्ति अव्याहता. अपि वाद्यपरिषदेवा अव्याहता हव्यमागच्छन्ति, अथोत्तरं च खल गौतम! चमरोऽसुरेन्द्रोऽसुरराजोऽन्यतरेपू च्चावचेषु कार्यकौटु भित्रकेषु समुत्पन्नेषु आभ्यन्तरिकया एपदा साई संमति संपृच्छनावहुलो विहरति, माध्यमिकया पर्षदा सार्द्ध पदं प्रपञ्चयन् प्रपञ्चयन् विहरति, तत् तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते चमरस्य खलु असुरेन्द्रस्थ असुरकुमारराजस्य खल तिस्त्रः पर्षदः प्रज्ञप्ताः तद्यथा-समिता, चण्डा, जाता, आम्वन्तरिका समिता, माध्यमिका चण्डा, वाया जाता, (सू० ४६॥ ____टीका-'चमरस्त णं भवे!' चमरस्य खल्ख भदन्त ! 'असुरिंदस्त असुररनो' असुरेन्द्रस्यासुरकुमारराजस्य 'कापरिसाओ पन्नत्तामो' कति-कियत्संख्यका: ____चमर सूत्र में कथित तीन परिषदाओं का कथन करते हैं 'चमरस्स णं भंते' इत्यादि । 'चमरस्स णं भंते, असुरिंदस्त असुररन्नो कापरिसाओ पन्नताओ' इत्यादि । ___टीकार्थ-हे भदन्त ? असुरेन्द्र असुरराज चमरेन्द्र की कितनी परिषदाएं कही गई है ? उत्तर में प्रभु श्री कहते है-'गोयमा! तओ परिसाओं
હવે ચમર સૂત્રમાં કહેવામાં આવેલ અસુરરાજ ચમરેદ્રની ત્રણ પરિ पहासातुं वन ४२वामां आवे छे. 'चमरस्स णं भते !' त्या
टी - 'चमरस्त णं भते ! असुरिंदस्स असुररन्नो कइ परिसाओ पण्णत्ताओ' હે ભગવન્ અસુરેન્દ્ર અસુરરાજ ચમરઈન્દ્રની કેટલી પરિષદાઓ કહેવામાં આવી
Page #753
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेययोतिका टीका प्र. ३ . ३ . ४६ देवस्वरूपवर्णनम्
७२९
पद: प्रज्ञप्ताः कथिता इति परिषत्संख्याविषयकः मनः भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'तओ परिसाओ पन्नताओ, तिस्रः - त्रिसंख्यकाः पद :- सभाः प्रज्ञप्ताः - कथिता इवि, 'तं जहा ' तद्यथा - 'समिया चंडा-जाया' समिता नाम्नि प्रथमा, चंडा द्वितीया, जाता तृतीयेति 'अमिरिया समिया' तत्राभ्यन्तरका पर्पव समिताऽभिधाना प्रज्ञप्ता 'मज्झे चंडा' माध्यमिका चण्डा नाम्नी द्वितीया 'बाहिच जाया' वाह्या च पर्यंत जाताभिधाना तृतीया भवतीति' 'चमरस्स णं भंते । चमरस्य खलु भदन्त ! 'असुरिंदरूस असुररन्नो' असुरेन्द्रस्यासुरराजस्य 'अन्तरपरिसाए' आभ्यन्तरिकाभिधानाय प्रथमपरिषदि 'कइ देव साहसीओ' पन्नताओ कति-कियत्संख्यका देवसाहस्त्रयः कियत्संख्यकानि देवसहस्राणि प्रज्ञता ? - कथिता 'मज्झिमरिसाए कहदेवसाहस्सीओ पन्नत्ताओ' माध्यमिकायां चण्डाभिधानायां वर्षदि कति - कियत्संख्यका देवसाहस्त्रयः -कियFifa aaraण प्रज्ञयानि - कथितानि 'बाहिरपरिसाएकइदेवसाहस्सीओ पन्नत्ताओ' बाह्यायां तृतीयस्यां जाताभिधानायां परिषदि कति-कियत्संख्यका पन्नत्ताओं' हे गौतम असुरेन्द्र असुरराज चमर की तीन परिषदाएं कही गई है ? 'तं जहा ' जो इस प्रकार से है- 'समिधा, चंडा जाया' पहिली समिता परिषद दूसरी चण्डा परिषदा और तीसरी जाता परिषदा इनमें 'अभितरिया समिया, सज्झे चंडा, याहिंच जाया' इन में जो आभ्यन्तर सभा है उसका नाम समिता है, मध्य की जो सभा है उसका नाम चंडा है, और जो बाह्यसभा है उसका नाम जाया सभा है । 'चमरणं भंते' असुरिंदर असुररनो अमितरपरिसाए कह देव साहसीओ पनन्ताओ' हे भदन्त ? असुरेन्द्र असुरराज चम रेन्द्र की आभ्यन्तर सभा में कितने हजार देव है 'मज्झिमपरिसाए कह देव साहसीओ पनाओ' मध्यम परिषदा में कितने हजार देव है ?
છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં ભગવાન શ્રીમહાવીર પ્રભુ શ્રીગૌતમસ્વામીને કહે છે કે 'गोमा ! ओ परिखाओ पन्नत्ताओ' से गौतम । असुरेन्द्र असुररान यमरनी त्रयुपदिषहा हेवामां आवे छे. 'त' जहा' ते अछे 'समिया 'च'ड़ा जाया' पलेटी समिता परिषदा, मील थंडा परिषदा भने भील लता ukue . Ani 'fen’akuı afĦui, à a'sı, aıfg'a ait aui આભ્યંતર પરિષદા છે, તેનું નામ મિતા છે. મધ્યની જે પરિષદા છે, तेनु નામ ચંડા છે. અને જે ખાદ્ય પરિષદા છે, તેનુ' નામ જાયા છે.
'चमरस्त णं भ'ते ! असुरिंदस्स असुररन्नो अभितरपरिसाए कहदेव साहसीओ पन्नत्ताओ' हे भगवन् असुरेन्द्र असुररान भरेन्द्रनी मान्यन्तर समाभां डेंटला हुन्नर हेवा उद्या हे ? ' मज्झिमपरिसाए कइ देव साहसीओ
जी० ९२
Page #754
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमसूत्र ७३० देवसाहस्या-कियत्संख्यकानि देवसहरमाणि प्राप्तानि-कयितानीतिप्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्पादि, 'मोयमा' हे गौतम! 'चमरस्सणं अमरिदस्स असुररन्नो' चमरस्य खल्ल असुरकुमारेन्द्रस्य असुरकुमारराजस्य 'अभितरपरिसाए' अभ्यन्तरदि-प्रथमसभायां समिताभिधानायाम् 'चउवीस देव. साहस्सीयो पानत्ताओ' चतुर्विंशति:-चतुर्विंशतिसंहसका देवसाहस्यः देवसहस्राणि प्रज्ञप्तानि-शयितानि तथा-'मझिझियाए परिसाए' साध्यमिकायां द्वितीयस्यां चण्डाभिधानायां पदि 'अठ्ठावीसं देवसाहरसीनो पन्नत्ताओ' अष्टाविंशतिसंख्यका देवसाहस्यः-देवसहस्त्राणि घज्ञप्तानि-कथितालि 'वाहि. रियाए परिसाए बत्तीसं देवसाहरुटीयो पनत्ताओ' बाह्यायां तृतीयस्यां जाताभिधानायां पर्षदि-सभायां हानिशत्संख्यका देवसाहत्यः-देवसहस्राणि प्रज्ञप्तानीति ॥ 'चमरस णं भंते ! चमरस्य खलु भदन्त ! 'असुरिंदस्स असुररणों' अमरकुमारेन्द्रस्य असुरक्छुपारराजस्य 'अभितरियाए परिसाए' आभ्यन्तरिझायां प्रथमायां अमिताभिधानायां पर्पदि 'कइ देविसया पन्ना कति-झियत्संख्यकानि 'बाहिरिथाए परिसाए कह देवसाहसीओ पन्नताओं वाय परिषदा में कितने हजार देव है ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभु श्री कहते है-'गोयमा! चमरस्त णं असुरिंदरल असुररनो' हे गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर की 'अमितपरिसाए' आभ्यन्तर परिषदा में 'चउबीसं देव साहस्सीओ पन्नताओ' चोख २४ हजार देव कहे गये है। 'मज्झमि. याए पदिसाए अट्ठावीसं देव लाइस्लीओ पन्नताओ द्वितीय माध्यमिक सभा में अठाइल २८ हजार देव कहे गये है। 'बाहिरिचाए परिसाए बत्तीस देव साहस्सीओ बाह्य परिषदा वत्ती ३२ हजार देव कहे गये है। 'चमरक्षणं भंते ! असुरिंदरुल अलुर रन्नो अस्तिरियाए परिसाए पन्नताओ' मध्यम परिषद्यामा टस स२ हेवा हे छ १ 'बाहिरियाए परिसाए कह देव साहस्धीओ पन्नत्ताओ' या परिषदमा टसा १२ हेव। २७ छ. मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४३ छ, 'गोयमा ! चमरस्स ण अमरिंदस्व असररन्नो' गौतम! मसुरेन्द्र मसु२२।४ यभरनी 'अभितरपरिसाए' भयन्त२ परिषदामा 'चउनीस देव साहस्सीओ पन्नत्ताओ' २४००० यापीस डलर हेवे। हाछे 'मज्झमियाए परिसाए अट्ठावीस देवसाहस्सीओ पन्नत्ताओ' मील मध्यम परिषतामा म४यावीस तर हेवे! ह्या छ 'वाहिरियाए परिसाए बत्तीस' देव साहस्सीओ' या परिषदाम 3२००० मत्रीस १२ । ह्या .
'चमरस्स ण असुरिंदस्त असुररन्नो अभितरियाए कति देविसया पण्णत्ता' હે ભગવન અસુરેન્દ્ર અમુરરાજ ચમરની આક્યતર પરિષદામાં કેટલા સે
Page #755
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका का प्र.३ २.३ २.४६ देवस्वरूपवर्णन
७३१ देवीशतानि प्रज्ञशानि-कथितानि, तथा-'अज्झिभियाए परिसाए' माध्यमिकायां द्वितीयस्यां चण्डाभिधानायां पनि कर देविसया पन्नत्ता 'कति-कियत्संख्यकानि देवीशतानि प्राप्तानि-कथितानि तथा-'बाहिरियाएपरिसाए कइ देविसया पन्नता' वाह्यायां तृतीयस्यां जाताभिधानायां पर्षदि कति-कियत्संख्यकानि देवीशतानि प्रज्ञप्तानीति चमरस्य देवीसंख्याविषयक प्रश्न:, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'चपरस्स णं असुरदस्त असुररको चमरस्य खलु असुरेन्द्रस्यामुरराजस्य 'अमितरियाए परिसाद' अभ्यन्तरिकायां प्रथमायाँ समिताभिधानायां पर्पदि 'अधुट्टा देविसया पन्नचा' अर्द्धचनुानि देवीशतानि-अर्धाधिकाति त्रीणि देवीशतानि प्रज्ञप्तानि, तथा-'मज्झिमियाए परिसाए' माध्यमिकायां चण्डाभिधानायां पर्षदि तिनि देविसया पत्ता' निसंख्यानि देवीशतानि प्रज्ञप्तानि, तथा. 'बाहिरियाए अड्डाइज्जा देविसया पन्नत्ता' बाह्यायां जाताविधालायां तृतीयस्यां कति देविसघा पण्णता हे भदन्त अनुरेन्द्र असुरराज की आभ्यन्तर परिषदा में कितनी लौ देवियों कही गई है ? 'मज्झिमियाए परिसाए कइदेविसया पण्णता' अषमा परिषद में कितनी सी देवियां कही गई है ? 'वाहिरिसाए परिसाए कति देबिसया पणत्ता तथा बाह्य परिषदा में शिवानी सो ऐविधा कहीं बाई ? जन्तर में प्रभुश्री कहते है 'गोयना अवर स्लणं अटुरिंदरस असुररनो अभितरियाए परिसाए अधुढा देविलया पासा' हे गौतम ! असुरेन्द्र असुर - राज चमरेन्द्र की आभ्यन्तर परिषदा काढे तीबतौ ॥ देधियां कही गइ है। 'अज्झिमिधाए परिमाए तिनि देविल्या पन्नत्ता' मध्यमिका सभा में तीन ३ सौ देवियों कही गई है 'बाहिथियाए अडाइज्जा देविलया पन्नत्ता' और बाह्य स्तमा दाह २॥ देबियां कही गई है। चारस्वर्ण मते ! अरिदस्त अटुरो' हे पदन्त । अस्तुरेन्द्र असुरराज देवियो वामां आवेश १ 'मजिशमियाए परिसाए कति देविसया पण्णत्ता बाहिरियाए परिसाए कइ देविसया पण्णत्ता' मध्य पश्षिामा ३ से ४ દવાઓ હેવાનું કહેલ છે તથા બાહી પરિષદામાં કેટલા સે દેવિયો હોવાનું
वामां मावत छ ? या प्रश्न त्तरमा सुश्री छे 'गोयमा ! चमरस्त्र ण असुरिदस्स असुररन्नों अभितरियाए परिसाए अधुदा देविसया पण्णत्ता' 8 ગતિમ! અસુરેન્દ્ર અસુરરાજ ચમરેન્દ્રની આભાર પરિષદામાં ૩૫૦ सा नसोवियो हाना छ, 'मझिमियाए परिमाए तिन्ति देविसया पन्नत्ता' मध्यभि सलामा ३०० एसे हरियो वामां मावस छे. 'वा. हिरियाए परिसाए अढाइजजा देविसया पन्नत्ता' मन मा परिषामा २५० मासा वायो ४ही छ. 'चमररस जम! असरिदस्त असररण्णा' है
Page #756
--------------------------------------------------------------------------
________________
७३হু
जीवा मिगमसूत्रे
पर्षद अर्द्धतृतीयानि देवीशतानि - अर्द्धाधिकद्विश्वानि एज्ञप्तानि - 'चमरस्स णं भंते ! after great मरस्य खलु भदन्त । असुरकुमारेन्द्रस्य असूरकुमारराजस्य 'अभितरियार' अभ्यन्तरिकायां समिताभिधानायां प्रथमायां पर्षदि 'देवाणं केवइयं कालं ठिई पत्ता' देवानां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञष्ठा ? तथा - 'मज्झि मियाए परिसयाए देवाणं केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता' माध्यमिकायां चण्डाभिधानायां द्वितीयस्यां पर्षद देवानां कियन्तं कालं स्थितिः - आयुष्यकालः प्रज्ञप्ता ? तथा - 'बाहिरियाए परिसाए देवाणं केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता' वाद्यायां तृतीयस्यां जाताभिधानायां पदि देवानां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता, एवम् हे भदन्त ! आभ्यन्तरिकायां प्रथम पर्पदि देवीनां स्थितिः कियन्तं कालं भज्ञप्ता तथा 'मज्झि मियाए परिसाए देवीणं केवइयं कालं ठिई पनवा' माध्यमिकायां चण्डाभिवानायां पदि देवीनां कियन्तं कालं स्थितिः घज्ञप्ता, तथा - 'बाहिरियाए परिसाए देवणं केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता' वाह्यायां तृतीयस्यां जाताभिधानायां पर्यदि
atri faari काल स्थितिः यज्ञप्तेखि प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोमा' हे गौतम ! ' चमरस्स णं असुर्रिदस्त अमुररन्नो' चमरस्य खलु असुरकुमारेन्द्रस्य असुरकुमारराजस्य 'अभितरियाए परिसाए' अभ्यन्तरिकायां समिताभिधानायां पर्पदि 'देवाणं अड्डाइज्जाई पलिओसा ठिई पन्नता' देवाना
मर की 'अभितरियाए परिमाए देवाणं केवहयं कालं ठिई पन्नता' आभ्यन्तर सभा के देवों की कितने काल की स्थिति कही गई है ? 'मझिमियाए परिसाए देवाणं केवहयं कालं ठिई पन्नत्ता' मध्यम परिपदा के देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? तथा 'बाहिरियाए परिसाए देवाणं केवइयं कालं ठिई पन्नता' बाह्य परिषदा के देवों की कितने काल की स्थिति कही गई है ? इसके उत्तर में प्रभु श्री कहते है - 'गोयमा ! चमरस्त्र णं असुरिंदस्स असुररनो अभितरियाए परिसाए देवाणं अड्डाइज्जाई पलिओषमाह ठिई पण्णत्ता' हे गौतम असुरेन्द्र असुरराज चमर की आभ्यन्तर सभा के देवों की स्थिति
लगवन्! असुरेन्द्र असुरान भरनी 'अभितरियाए परिसाए देवाण केवइय काल' ठिई पण्णत्ता' अभ्यन्तर परिषहाना हेवानी डेंटला अजनी स्थिति महेवामां मावेस छे ? 'मझिमियाए परिसाए देवाणं केवइयं काल टिई पण्णत्ता' मध्यभ परिषहाना हेवानी स्थिति डेंटला हाजनी उडेवासा आवे छे ? तथा 'बाहिरियाए परिखाए देवाण' केवइय' काल' लिई पण्णत्ता' मा परिषहना हेवानी स्थिति डेंटला अजनी उडेवामां आवे छे ? या प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री हे छे ! गोयमा !
·
मरणं असुरिदख असुररन्नो अन्भितरियाए परिसाए देवाणं अड्ढाइज्जाइ पक्रियोवमाइ ठिई पण्णसा' हे गौतम! असुरेन्द्र सुशन यमरनी आल्य
!
Page #757
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमैयद्योतिका टीका प्र.२ उ. ३ खू.४६ देवस्वरूपवर्णनम्
७३३
मर्द्ध तृतीयानि पत्योषमानि अर्धाधिकानि द्विपल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता, तथा 'मझिमिया परिसाए' माध्यमिकायां चण्डाभिधानायां पर्षद 'देवाणं दो पलिओ माई ठिई पन्नता' देवानां द्वे पल्योपमे - पल्योपमद्वयं यावत् स्थितिः मज्ञप्ता, तथा - 'बाहिरियाए परिसाए' बाह्यायां जाताभिधानायां पर्पदि देवगणं दीवÇ पलिओोरमं ठिई पन्नता' देवानां द्वच सार्द्धकै पल्योपमं यावत् स्थितिः प्रज्ञप्ता, 'अपिरियार परिसाए देवीणं दीवहूं पलिओम' आभ्यन्तरकाय देवनां द्वय पल्योपमं स्थितिः प्रज्ञाः तथा - 'मज्झिमि - या परिसाए देवीणं पलियोषमं ठिई पन्नत्ता' माध्यमिकायां पर्पदि देवीनां पल्थोपमं यावत् स्थितिः मज्ञा, बाहिरियाए परिसाए देवीणं अद्धपलिओम' ठिई पत्ता' वाह्यायां जाताभिधानायां पर्षदि देवीनामर्द्ध पल्योप यादव स्थितिः प्रज्ञा कथितेति भगवत उत्तरमिति ॥ सम्पति - आभ्यन्त रिकादि व्यपदेशकाri fuपृच्छिषु रिदमाह - ' से केण ेणं ते! एवं बुच्च ' अथ केनार्थेन केन कारणेन भदन्त ! एव मुच्यते - 'चपररस असुर्रिदस्स असुररन्नो अढाइ पल्पोपन की कही गई है 'मज्ज्ञिमियाए परिसाए देवाणं दो पलि ओवनाई ठिई पला' मध्यमपरिषदा के देवों की स्थिति दो पल्वोपय की कही गई है और 'बाहिरियाए परिसाए देवाणं दीवडू पलिओ मं ठिई पण्णा' बाह्य परिषदा के देखों की स्थिति डेढ १ || पल्ोपन की कही गई है 'भरियाए परिसाए देवीणं दीप पलिओदनं' तथा आभ्यन्तर परिषदा की देवियों की स्थिलि डेढ १॥ पयोम की कही गई है 'मझिमियाए परिसाए देवीणं पलिभोपलं टिई पण्णत्ता' यध्यमा परिषदा की देवियों की स्थिति एक पत्घोषम की कही गई है। 'बाहिरिया परिसाए देवीगं अद्धपलि ओपमं' और बाह्य परिषदा की देवियों की स्थिति आधे पत्थोपम की कही गई है। 'से केहेणं संते ! एवं बुच्चए ' हे भदन्त ! ऐसा आप किस पारण से कहते है कि 'चमरस असुरिं
न्तर सलाना हेवेनी स्थिति पढि पयोषन वामां आवे छे. 'मज्झ मियाए परिसाए देवाणं दो पलिओमाई ठिई पन्नत्ता' मध्य परिषद्वाना हेवानी स्थिति मे पहएभनी उस छे भने 'बाहिरियाए परिवार देवाणं दीवड्ढ पलिओम ठिई पण्णत्ता' बाह्य परिवहाना हेवेनी स्थिति ॥ होढ पस्योपभनी अडेस छे. 'अभितरियाए परिसार देवीण दीवड्ढ पलिओक्स' तथा आभ्यन्तर परिषहानी देवियोनी स्थिति ॥ होट पहनोमनी डे छे. 'मज्झिमियाए परिसाए देवी पलिओम' मध्यम परिषहनी हेवियानी स्थिति मे पस्यो भनी हे छे. 'बाहिरियाए परिवाप देवीण अद्ध पलिओम' भने माघ परिषहानी देवियोनी स्थिति अर्धा यहयोयमनी डेस छे. 'से केणदृणं भवे ! एव' वुच्चइ' हे भगवन्! आप मे शा हारथी उसे 'मरस अ
Page #758
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीयामिगमसूत्रे
७
तभी परिलाओ पन्नत्ताओ' चमरस्यानुरकुमारेन्द्रस्य मुस्कुमारराजस्य तिस्रः पर्पद' भज्ञता - 'तं जटा' तद्यथा-'समिया चंडा जाया' समिता चण्डा जाता 'अतिरिया समिया' आभ्यन्तरिका समिता 'मज्झिमिया चंग' माध्यमिका चण्डा 'बाहिरिया जाया' वाया जाता, इत्येवमन्तर प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा । इत्यादि, 'गोमा' हे गौतम ! 'चमरस्स णं अतुर्रिदस्स असुररन्नो' चमरस्य खलु असुरकुमारेन्द्रस्य असुरकुमारराजस्य 'अविर परिसा देवा' आभ्यन्तर पर्यत्का:प्रथम बन्धिनो देवाः 'वाहिया हन्यमागच्छेति नो अन्त्राहिया' व्याहता आहूताः सन्तः 'हवं' शीघ्रं यथास्यात् तथा आगच्छन्ति नो अव्यहता आगच्छन्ति, 'मज्झिम परिसाए' माध्यमिकायां द्वितीयस्यां चण्डायां पर्पदि स्थिता देवा: 'वाहिया हव्य मागच्छेति अन्वाहिया वि' व्याहता आताः शीघ्रमाग च्छन्ति अव्याहा अपि शीघ्रमागच्छन्ति मध्यममतिपत्तिविषयत्वात् 'बाहिर दस्त तओ परिलाओ पण्णत्ताओ' असुरेन्द्र चमर की तीन परिषदाएं है 'समिया चंडा जाया' पहिली समिता दूसरी चंडा और तीसरी जाया इनमें जो आभ्यन्तर सभा है उसका नाम समिता है मध्यमा जो परिषदा है उसका नाम चंडा है और 'बाहिरिया जाया' वाद्य जो परिषदा है उसका नाम जाया है। इसके उत्तर में गौतम से प्रभुश्री कहते है 'गोवा । चमरस्सणं असुरिंदस्त असुग्रन्नो अभितर परिला देवा चाहिता हन्याच्छंति, जो अवाहिता' हे गौतम! असुरेन्द्र असुरराज की जो आभ्यन्तर परिपक्ष है, उस परिषदा के देव जब बुलाये जाते है तब ही आते है । वे बिना बुलाये नही आते है ! 'नज्मिपरिसाए देवा वाहिता माग गच्छति' अन्वाहिला दि' मध्यम परिषदा के जो देव है के बुलाये जाने पर भी आते है और नहीं बुलाये जाने पर भी आते है 'बाहिर परिसा
भरनी । परिषहा है. भने लया. तेमां रे ध्यभाने परिषहा हे तेनु
रिंदस् त परिसाओ पण्णत्ताओ' सुरेन्द्र 'समिया चंद्रा जाया' पहेली समिता मील थंडा माभ्यन्तर परिषहा है तेनु' नाम समिता हे नाम थंडा हे भने 'बाहिरिया जाया' मा ने परिषा हे तेनुं नाम लया है ? या अश्नता उत्तरभां श्रीगीतभस्वामीने प्रभुश्री डे हे } 'गोयमा ! चमरस्वणं असुरि दस्स असुररणा अभितर परिता देवा वाहिता हन्यमागच्छति जो अव्त्राहिता' हे गौमत | सुरेन्द्र असुररान्नी ? माभ्यन्तर परिषदा है, તે પરિષદાના દેવે જો ખેલાવવામાં આવે તેજ આવે છે. તેએા એલાવ્યા बगर गावता नथी. 'मज्झिमपरिसाए देवा वाहिता हव्यमागच्छति, अन्वाहिता વિ' મધ્યમ પરિષદાના જે દેવે છે તેઓને ખેલાવવામાં આવે તે પશુ આવે हे भने विना मोक्षाच्या पथ आहे 'बाहिरपरिखा देवा अण्वादिता दव्ष
Page #759
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमैrद्योतिका टीका प्र. ३ उ. ३.४६ देवश्वरूपवर्णनम्
७३५
परिसा देवा' बाह्यपरिषत्का देवा' 'अव्वारिया हन मागच्छति' अव्याहृता अनाहुना एव शीघ्र मागच्छंति अति लघु वादिति । 'अदुत्तरं च णं गोयमा !' अथोतरं च खलु गौतम ! अभ्पन्तरिकादि व्यवहारकारणमन्यदुत्तरं कथयामि - 'चमरे असुरिंदे असुरराया' चमरोऽसुरेन्द्रोऽसुरराज: 'अायरेसु उच्चावचेसु' अन्यतरेषूच्चावच्चेषु शोभना शोभनेषु 'कज्जक इंवेस' कौटुम्बिकेषु कार्येषु कुटुम्बे भवानि कौटुम्बिका नि-स्वकीयराष्ट्र विषयानि यादृश कार्येषु 'समुपन्ने' समुत्पन्नेषु 'अप्रितरियाए परिसाए सद्धि' अस्वन्तरिकया प्रथमया पर्षदा सार्द्धम्, 'संमइ संपुच्छणा बहुले' सम्प्रति संपृच्छता बहुल: 'चिरई ' विहरति, संमत्या - उत्तमषा मच्या बुद्धया या संपूच्छना पर्यालोचनं तथापि विहरति - आस्ते स्वल्पमपि प्रयोजनं प्रथमतस्तया सह पर्यालोच्य विदधातीति भावः । 'ममिमपरिसाए सद्धिं पयं पर्वचेवाणे एवं चेमाणे विहर' माध्यमिकया पदा सार्द्धं यदाभ्यन्तरिकया पर्षदा सह पर्यालोच्य कर्तव्यsया निश्चितं यद देवा अव्वाहिता माग गच्छति' तथा बाह्य परिषदा के जो देव है वे विना बुलाये ही आते है उन्हें बुलाने की आवश्यकता नहीं होती है । 'अदुत्तरं चणं गोयमा' चमरे असुरिंदे असुरराया अन्मघरे उच्चावसु कज्ज कोडंबे समुपपन्ने अतिरिणए परिवाए मद्धिं संमह संपुच्छणा बहुले विहर' दूसरी बात यह है कि हे गौतम । जब असुरेन्द्र असुरराज को कुटुम्ब संबंधी कोई ऊंचानीचा काम आजाता है-तब वह आभ्यन्तर परिषदा के साथ इस सम्बन्ध में उनकी संपति लेते हैं उनसे पूछ ताछ करते हैं 'मज्झिमपरिसाए सद्धिं पयं पर्वचे माणे २ विहरह' तथा आभ्यन्तर परिषदा के देवों के साथ जो कार्य करने के लिये निश्चित किया जा चुका है उनकी वह मध्यम परिषदा के देवों को सूचना देता है और वह कार्य किस लिये करने को चिचामागच्छति' ते माह्य परिषदना ने देवे छे. तेथे वगर गोसाव्ये भावे छे. तेथेाने मोहाववानी ४३२ रडेती नथी. 'अदुत्तरं च णं गोयमा ! चमरे असुरिंदे असुरराया अन्नयरेसु उच्चावएसु कज्ज कोडुं वेसु समुत्पन्नेसु अभितरि या परिसाए सद्धि समइ खपुच्छणा बहुले विहरइ' मील वात शो छे હે ગૌતમ ! જ્યારે અસુરેન્દ્ર અસુરરાજ તે કુટુંબ સંબ ંધી કાઇ સારૂં નરસુ કામ આવી પડે છે, ત્યારે તે આભ્યન્તર પરિષદાની સાથે તે સંખ’ધમાં તેએની संभतिले छे. तेथाने पूछ५२छ रे छे. 'मज्झिमपरिसाए सद्धि पयं पवचेमाणे पव'चेमाणे विहर' तथा आभ्यन्तर परिषहाना हेदानी साथे ? १२જાના નિશ્ચય કરેલ હાય છે તે બામતમાં તેઓ મધ્યમ પરિષદાના દેવાને
Page #760
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमध्ये ७३६ पदम, तत्प्रपञ्चगन् मपञ्चयन् विहरति एवमिदमस्माभिः पर्यालोचितमिदं कर्तव्य. मन्यथा दोष इति विस्तारयन्नास्ते इति । 'बाहिरियाए परिमाए सदि पर्यटेमाणे पय डेमाणे विहरइ' बाह्यया पर्षदा साद्ध यदाभ्यन्तरिकया पपदा सह पर्यानोचित माध्यमिकया सह गुणदोपप्रपञ्च कथनतो विस्तारित पदं वह पश्चयन् प्रपञ्चयन् विहरति आज्ञापधारः सन् अवश्य कत्तव्यर्तव्यतया निरूपयन२ तिष्ठति, यथेदं भवदभिः कर्तव्यम् इदं न कत्र्तव्यमिनि, तदेव या एकान्ते गौरवमेव केवलं बाप्नोति, यया च सहोत्तममतित्वाव स्वल्पमपि कार्य प्रथमत एव पयर्यालोच. नायां चात्यन्तमभ्यन्तरा विद्यते इत्यास्यन्तरिका प्रथमा भवति, या तु गौरवाहाँ रित किया गया है इसे विस्तार के साथ उन्हें समझाता है 'याहिरियाए परिसाए सद्धिं पयं पयंडे माणा २ विहरह' फिर वात्य परिषदा के दचों को विचारित लिये गये कार्य करने के लिये आदेश देता है 'ले तेणदेणं गोयना ! एवं वुच्चई चलरल गं सुरिंदल असुरकुमाररणो तो परिसाओ पण्णत्ताओ समिया चंडा जाला'-इसी कारण हे गौतम ! मैंने ऐसा कहा है कि सुरेन्द्र असुरकुमार शाज की समिता चण्डा,
और जाया नार की तीन परिषदाएं है। 'अभितरिया ममिया, मज्झमिया चंडा पाहिरिया जाता' उनमें एक आभ्यन्तर परिषदा है की जिनका नाम समिता है दूसरी शम परिपदा है जिसका नाम चंडा है .
और तीसरी बाह्य परिषदा है जिसका नाम जाता है तात्पर्य हम कथन का यही है कि जो आभ्यन्तर परिषदा है वह केवल एक गौरव की वस्तु है इसके साथ चमर उत्तम मलि वाले होने के कारण थोड़ा मा સૂચના આપે છે. અને એ કાર્ય કરવાનો વિચાર શા માટે કરવામાં આવેલ छ २ मा विस्तार पू४ तेशान सभातवे छे. 'बाहिरियाए परिसाए सद्धि पय पय डे माणे पडेमाणे विहरइ' मने माह्य परिषहाना है। साथै विया२पाम मा आय ४२वानी माज्ञा गाचे छ. 'से टेणट्रेण गोयमा ! एव वुच्चइ चमरम्स " असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णा तओ परिसाओ पण्णत्ताओ समिया च डा जाया' मा १२थी , गौतम ! में सयु ह्यु छ ॐ मसुरेन्द्र અસુરરાજની સમિતા ચંડા, અને જાયા એ નામની ત્રણ પરિષદાઓ છે. 'अभिनरिया समिया, मज्झमिया चडा, बाहिरिया जाया' तमां से माय' તર પરિષદા છે કે જેનું નામ સમિતા છે. બીજી માધ્યમ પરિષદા છે, જેનું નામ ચંડા છે. અને ત્રીજી બાહ્ય પરિષદા છે જેનું નામ જાયા છે
આ કથનનું તાત્પર્ય એજ છે કે જે આભ્યન્તર પરિષદા છે, તે કેવળ એક ગૌરવની વસ્તુ છે, તેની સાથે અમર ઉત્તમ બુદ્ધિમાન હોવાના કારણે
Page #761
--------------------------------------------------------------------------
________________
७३७
-
-
प्रमेयधोतिकारीका प्र.३ उ.३ २.४६ देवस्वरूपवर्णनम् पर्याकोचितं चाभ्यन्तरिकया पर्षदा सहावश्यकर्तव्यतया निश्चितं न तु प्रथमत:सालि गौरवे पोलोचनायां च सध्यमे भागे दर्तते इति माध्यमिका, या तु गौरवं न कदाचिदपि अहमिति ल च यया सह कार्य पर्यालोचति केवलमादेश एवं यस्मै दीयवे सा गौरवान पोलोचायाच बहिमोगो त इति वाह्या ।। भी कार्य क्यो न हो सई प्रथम उम्मका विचार करता है इसके साथ चिना विचारे चमचन्द्र अपनी इच्छा से कुछ भी काम नहीं करता है अत: चमरइन्द्र इस दृष्टि से इस मा को गौरव भून मानता है और सर्व प्रथम्य विचार विनिम्न में से ही सावता मानता है अतः विचार गोष्ठी सर्व प्रथम आदरणीय होने के कारण इस सभा का नाम आभ्यन्तर सभा कहा गया है। आभ्यन्तर सभा के साथ जो कर्तव्य कार्य करने के लिये निश्चित हो चुका है। वह फिर जिसमा में स्तुमाया जाना है उस कार्य को लागू करने में और मरने क्या लाम और क्या हानि है किस को इस विषय पर विवाद है इन सब बातों को जहां शङ्का समाधान पूर्वक स्तुमाया जाता है समझाया जाता है ऐली उला सभा का नाम मध्यम परिषदा है आपन्तर एवं मध्य परिषदा द्वारा विचारित किये गये कार्य को चालू करवाने का आदेश जिन्हें दिया जाता है वह वाय सभा है इस पाहा परिषदा का कोई बमरेन्द्र की दृष्टि में गौरव नहीं होता है मध्यम परिषदा आन्तर परिषदा के जैसा गौरव થોડું પણ કાર્ય કેમ ન હોય પણ સર્વ પ્રથમ તેને વિચાર કર્યા વિના ચમરઈન્દ્ર પિતાની સ્વેચ્છાથી કંઈ પણ કાર્ય કરતા નથી તેથી અમરેન્દ્ર આ સભાને ગૌરવશાલી માને છે. અને સૌથી પહેલાં વિચાર વિનિમય કરવામાં આ પરિ. પદાને જ સાધનભૂત માને છે, તેથી વિચાર વિનિમયમાં સૌથી પહેલા અત્યંત આદરણીય હેવાથી આ સભાનું નામ આભ્ય - ર સભા આ પ્રમાણે કહેલ છે.
આભ્યન્તર સભાની સાથે જે કર્તવ્ય કાર્ય કરવાનો નિશ્ચય થઈ ગયેલ હેય છે, તે નિશ્ચય પાછે જે સભામાં સંભળાવવામાં આવે છે, તે કાર્ય કરવામાં અને ન કરવામાં શું લાભ અને શું ગેરલાભ છે, એ વિષયમાં કેને કેને વધે છે. આ તમામ બાબતોને જ્યાં શંકા સમાધાન પૂર્વક સંભળાવવામાં આવે છે, સમજાવવામાં આવે છે, એવી તે સભ'નું નામ મધ્યમ પરિષદા છે.
આભ્યન્તર અને મધ્યમ પરિષદા દ્વારા સંપાદિત વિચારિત કરવામાં આવેલ કાર્યને ચાલુ કરવાનો આદેશ જેને આપવામાં આવે છે, તે બાદ્ય સભા છે. રમા બાદ પરિષદાન ચમરેન્દ્રની દષ્ટિમાં કંઈજ મહત્વ હોતું નથી. મધ્યમ પરિષદા પર આભ્યત્તર પરિષદાનું જેમ ગૌરવ હોતું નથી. તેમ તેના
जी०:९३
Page #762
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीवामिन
यथोक्त क्रमेणाभ्यन्तरिकादि व्यवहारकारणं कषितम्, सम्पति=पकरणमुपमं हरनाद-से ते ण" इत्यादि, 'से ते हे गोया ! एवं वद् तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते = 'नमरसणं' अरिदास कुमारको चमरम्य सल असुरकुमारेन्द्रस्यासूरकुमारराजस्य 'तथो परिमाओ पनचाओ' तिस्रः पर्षदः प्रज्ञताः 'समिया चंडा जाया' समिता चण्डा जाटा 'रियासमिया' आम्प वरिका समिता 'मसिमिया चंडा' माध्यमिका नष्टा 'चाहिरिया जागा' वाटा जाता अत्र संग्रहणी गायाद्वयं भवति-
1
'चउवीस वीसा. पत्नीसम्सदेव चमरम् | घुट्टा तिग्नि का डाइना देना ||२|| उडाउज्जाय अाज्जाय दोनिय दिपदि मेण देन दिई । पळियं दिण्डूमेरी अद्धी देण परिला ॥२॥ चतुविशतिरष्टाविंशति हासहस्राणि देवनमस्य । az aquila (340) sito (300)
तथाऽर्द्ध तृतीयानि (२५०) देवीशतानि ॥१॥ भर्द्ध तृतीयानि (२) द्वेच (२) द्वप पत्योप (१३) गेण देवस्थितिः । पल्यं द्वयर्स (१||) मेकमर्डे (II) देवीनं प|ि२| इविच्छाया ॥ मायां देवाविंशतिः सहस्राणि द्वितीयस्यां समय देना सहस्राणि तृतीयस्यां सभार्या देवाः द्वात्माणि देव्यय प्रयमायां सार्वत्रिसहस्राणि द्वितीयस्य देव्यखीणि सरम्राणि । तृतीयस्यां देव्यः सार्द्धं द्विसह नहीं होता है इस पर चमर का मध्यम रूप से ही गौरव रहता है आभ्यन्तर परिषदा पर उत्तम रूप से गौरव रहता है पाय परिषदा के साथ
मर कर्त्तव्य कार्य की पर्यालोचना नहीं करता है- केवल उसे आलो. चित कार्य को संपादन करने का ही वह आदेश देता है हम तरह से इन तीन सभाओं के नाम निर्देश होने का कारण है इन तीन सभाओं में देवों की एवं देवीयों की संख्पा तथा उनकी स्थितियों की संग्रह करके प्रकट करने वाली दो गाथाएं हे 'घवीस' इत्यादि । इन दोनों
પણ ચમરેન્દ્રનુ મધ્યમ રૂપથી જ ગૌરવ રહે છે, આભ્યન્તર પરિષદા પર ઉત્તમ રીતે ગૌરવ ડાય છે. બાહ્ય પરિષદાની સાથે ચમરઈન્દ્ર ન-કાર્યના વિચાર કરતા નથી. કૈવલ વિચાર કરવામાં આવેલ કાર્યને સપાદિત કરવાના આદેશ જ તેને આપે છે. આ કારણેાને લઈને આ ત્રણ સભાએાના નામ નિર્દેશ થયેલ છે. આ ત્રણે સભાના ધ્રુવે અને દૈવિયેાની સ ંખ્યા તથા તેની स्थितिना सहने अगर ४२वावाणी में गाधाओ। हे, 'चटवीर' त्यादि
Page #763
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
योतिका टीका.३ १.३ १.४७ औत्तरदिग्वयं सुरकुमारनिरूपणम् . ७३९ स्राणि । तथा प्रयमार्या देवायुः सार्धापल्योपमानि, द्वितीयस्यां देवायु: द्वीपत्योपम तृतीयस्थां देवायुः साकपल्योपमम् देवीनां प्रथमायां द्वयर्धं पल्योपम द्वीतीयस्यामेकपल्योपम' तृतीयस्यां देवीनामायुरधं पल्योपमं भवतीति गाथार्थः।
चमर समास्थित देवदेवीनां संख्यास्थिति परिज्ञानकोष्ठकम् समानाम आम्पन्तरिका समिता माध्यमिका चण्डा बाह्या जाता देवसंख्या २४०००
२८०००
३२००० देवीसंख्या ३५०
३२०
२५० देवस्थितिः सार्दै द्वे (२॥) पल्पोषमे द्वे (२) पल्योषमे साकं(१॥) पल्योपमम देवीस्थितिः साईक(१॥) पत्योपममम् एकं (१) पल्योपमम् अर्द्ध (i) पल्योपमम्
॥० ४६॥ दाक्षिणात्यानसुरकुमारान्निरूप्यौत्तरान् असुरकुमारानिरूपयितुं प्रश्नयनाइ'कहि णं भंते ! उत्तरिल्लाणं' इत्यादि, ___मूळम्-कहि णं भंते ! उत्तरिल्लाणं असुरकुमाराणं भवणा पन्नत्ता जहा ठाणपदे जाव वली, एत्थ णं वइरोयणिंदे वइरोयणराया परिवसइ जाव विहरइ । वलिस्स णं भंते ! वइरोयणिदस्स वइरोयण रन्नो कइ परिसाओ पन्नत्ताओ ? गोयमा! तिन्नि परिसा पन्नत्ता तं जहा-समिया चंडा जाया, अभितरिया समिया, मज्झिमिया चंडा, बाहिरिया जाया। बलिस्लणं वइरोयणिदस्स वइरोयणरन्नो अभितरियाए परिसाए कइ देव सहस्सा ? मज्झिमियाए परिसाए कइ देवसहस्सा, जाव बाहिरियाए परिसाए कइ देविलया पन्नत्ता? गोयमा! वलिस्ल णं वइरोयर्णिदस्स वइरोयण रन्नो अभितरियाए परिसाए वीसं देवसहस्सा पन्नत्ता, मज्झिमियाए परिसाए चउवीसं देवसहस्सा पन्नत्ता, वाहिरियाए परिसाए अट्ठावीसं देवसहस्ला पन्नत्ता, अभितरियाए परिसाए अद्धपंचमा देविसया मज्झिमियाए परिसाए गाथाओं आ अर्थ पूर्वोक्त रूप से स्पष्ट है। इसका कोष्ठक भी टीका में दिया गया है ॥४६॥ આ બન્ને ગાથાને અર્થ પક્ત રીતે સ્પષ્ટ જ છે, અને તેનું કોષ્ટક પણ સંસ્કૃત ટીકામાં આપવામાં આવેલ છે. જે સૂ ૪૬ !
Page #764
--------------------------------------------------------------------------
________________
७४०
जीवामिगम चत्तारि देविलया पन्नत्ता, बाहिरियाए परिसाए अधुट्टा देविसया पन्नत्ता। वलिस्स ठिई पुच्छा जाव बाहिरियाए परिसाए देवीणं केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता ? गोयमा! वलिस्स णं वइरोयणिदस्त बइशेषणरन्नो अभितरियाए परिसाए देवाणं अधुट्ट पलिओवमा ठिई पनत्ता, मज्झिमियाए परिसाए तिन्नि पलिओक्साई ठिई पन्नत्ता, बाहिरियाए परिलाए देवाणं अड्डाइजाई पलिओवमाई ठिई पन्नता, अभितरियाए परिसाए देवाणं अडाइजाइं पलिओनसाइं ठिई पन्नत्ता, मझिमियाए - परिलाए देवाणं दो पलिओश्माई ठिई पन्नत्ता, बाहिरियाए -परिसाए देवाणं दिवढें पलिभोक ठिई पन्नत्ता, सेसं जहा
चमरस्त असुरिंदल असुरकुमाररणो ।सू० ४७॥ - - छाया-कुत्र खलु भदन्छ ! औत्तराणामलरकुमाराणां भवनानि प्रज्ञप्तानि, यथा-स्थानपदे सावदलिा, अन्न वैरोचनेन्द्रो वैरोचनराजः परिवसति यावद्विहरति । दछे खल्लु भदन्त ! वैरोचनेन्द्रस्य वैरोचनराजस्य कति पर्पदः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! तिस्रः पर्षदः प्रज्ञप्ताः तबधा-समिता चण्डा जाता, आभ्यन्तरिका समिता, माध्यतिका चण्डा, वाह्या जाता। बलेः खलु वैरोचनेन्द्रस्य वैरोचनराजस्थाम्यन्तरिकायां पपदि कवि देवतहस्राणि पज्ञाप्तानि साध्यमिझायां पर्पदि कति देव सहस्त्राणि यावद् वाह्यायां पदि कति देवीशतानि मज्ञप्तानि ? गौतम ! वले. खल वैरोचनेन्द्रस्य वैरोचनराजस्याऽऽ एन्तरिकायां पर्षदि विशतिर्देवसहस्राणि मज्ञप्तानि, माध्यमिकायां पदि चतुर्विंशतिर्देवतहखाणि प्रज्ञप्लानि वाहयायां .पर्षदि अष्टाविंशविदेवसहस्त्राणि प्रज्ञप्लानि, आभ्यन्तरिकायां पर्षदि अपञ्चमानि 'देवीशतानि घज्ञप्तानि माध्यमिझायां पयदि पत्वारि देवीशतानि मज्ञप्तानि वाइयायां पर्व दि अर्द्धचतुर्थानि देवीशतानि प्रज्ञप्तानि । बलेः स्थितौ पृच्छा यावद् 'बाहयायां पर्पदि देवीनां भियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता गौतम! वळे खलु वैशेच नेन्द्रस्य वैशेचनराजस्य आभ्यन्तरिकायां पर्पदि देवानामर्द्धचतुर्थानि पल्योपगानि स्थितिः प्रज्ञप्ता, माध्यमिक्षायां पदि देशनां त्रीणि पल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता बाह्यायां पर्षदि देवानाम् अर्द्धतृतीयानि पल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता, माध्यमि काय पर्पदि देवीनां द्वे पल्योएमें स्थितिः प्रज्ञप्ता, वाहुयायां पर्पदि देवीनां द्वय, एल्योपमं स्थितिः प्रज्ञप्ता, शेष यथा-चमरस्यासुरेन्द्रस्यासुरराजस्य ।।सू०४७॥
Page #765
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रद्योतिका टीका प्र.३ उ. ३ . ४७ औत्तरदिग्वर्त्यसुरकुमार निरूपण ૭૨
टीका- 'कहि णं भंते ! उत्तरिल्लाणं असुरकुमाराणं भवणा पन्नत्ता' कुत्र कस्मिन् स्थाने खल भदन्त । अतराणामसुर कुमारदेवाना भवनानि प्रज्ञप्तानि - कवितानीति भवनाधिकरणविषयकः प्रश्नः, उत्तरयति मज्ञापनातिदेशेन 'जहा ' इत्यादि, 'जा ठाणपदे जाव वळी' एस्थ णं वइरोयणिदे वहशेयणराया पडिवसर जाव विहर' यथा प्रज्ञापनायां स्थानपदे - स्थानाख्ये द्वितीये पदे तथा तावद्वक्तव्यं यावद्वलिः, अत्र खल्ल वैरोचन्द्रो वैरोचनराजः प्रतिवसति यावद्विहरति ततऊर्ध्व मपि तावद्वक्तव्यं यावद् दिव्यान् भोगभोगान् भुञ्जानो विहरति इति पर्यन्तं स्थानपदोक्तपाठः संग्राह्यः ।
इस तरह से दक्षिण दिशा के असुरकुमारों का निरूपण करके अब सूत्रकार दक्षिण दिशा के असुरकुमारों का निरूपण करते है ' कहिणं भंते! उत्तरिल्लागं असुरकुमाराणां वा पण्णता' इत्यादि । टोकार्थ - इसमें गौतम ने प्रभुश्री से ऐसा पूछा है- 'कहिणं भंते ! उत्तरिल्लाणं असुरकुमाराणां भवणा एण्सा' हे मदन्त ? उत्तरदिग्वर्ती असुरकुमारों के भवन वहां पर कहे गये हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं 'जहा ठाणपदे जाब चली' हे गौतम । प्रज्ञापना के द्वितीय स्थान पद में वलि प्रकरण तक जैला कथन किया गया है वैलाही यहाँ पर भी कह लेना चाहिये। 'एत्थ णं वधरोयणिदे बहरोगणराया परिवलह जाव विहरद्द' यहां वैरोचनेन्द्र वैरोचनराजरलि रहना है यावत दिव्य भोग भोगों को भोगता हुआ रहता है। अब बलि की परिषदा का वर्णन करते हैं 'बलिस्स णं भंते' इत्यादि 'बलिस णं भंते बइरोयणिदस्त बहरोयणरन्नो આ રીતે દક્ષિણુ દિશાના અસુરકુમાર દેવાનુ નિરૂપણુ કરીને હવે સૂત્રકાર उत्तर हिशाना असुरकुमार देवानुं नि३पशु छे 'कहि णं' भते | उत्तरिल्ला णं असुरकुमाराणं भवणा पण्णत्ता' त्याह
ટીકા-આ સૂત્ર દ્વારા શ્રી ગૌતમાસીએ પ્રભુશ્રીને એવું પૂછ્યું छे 'कहिणं भवे ! उत्तरिल्लाणं असुरकुमाराणं भवणा पण्णत्ता' हे भगवन् ! ઉત્તર દિશામાં આવેલ અસુરકુમારેતા ભવના કયાં કહેવામાં આવેલ છે ? मा प्रश्नना उत्तरभां अनुश्री हे छे ! 'गोयमा ! जहा ठाणपदे जाव चळी' હે ગૌતમ ! પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના ખીજા સ્થાન પદમાં અલિ પ્રકરણ સુધી જે પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણે અહીયા પણ સમજી લેવુ' ોઇએ. 'एत्थ णं वइरोयणि दे वइरोयणराया परिवछड़ जाव विहरइ' अहींया वैरोय. નેન્દ્ર વૈરાચન રાજ ખલિ રડે છે, યાત્ દિવ્યભેગેને ભાગવતા થકા રહે છે. આ કથન સુધિનું પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના સ્થાનપદનુ` કથન ગ્રહણ કરવું જોઈએ,
Page #766
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमंसूत्रे
सम्मति-वलेः पर्ष निरूपणार्थमाह- 'बलिस्स णं भंते' इत्यादि, 'वळिस्सणं भंते ! वइरोयदिस्स वइरोयणरन्नो' चलेः खलु भदन्त । वैरोचनेन्द्रस्य वैरोचन राजस्य 'कइ परिसाओ पन्नत्ताओ' कति कियत्संख्यकाः पर्षदः - सभाः प्रज्ञप्ताःकथिता इति प्रश्नः, भगवानाइ 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'तिष्णि परिसा पत्ता ' तिस्रः - त्रिप्रकारकाः पर्षदः - सभाः प्रजाः पर्वत् त्रैविध्यं दर्शयति - 'तंज' इत्यादि, 'तं जहा' तद्यथा - 'समिया चंडा जाचा' समिता चण्डा जाता 'अतिरिया सहिया' आम्यन्तरिका समिठा 'मज्झिमिया चंडा' माध्य मिका चण्डा 'बाहिरिया जाया' वाया जाता 'दलिरस णं भंते । वइरोयदिस्स वइरोयणरन्नो' बलेः खलु भदन्त ! वैरोचनेन्द्रस्य वैरोचनराजस्य 'अतिरियाए परिसाए कई देवसहरसा पण्णत्ता' आम्यन्तरिकायां पर्षदि-सभायां कतिकियत्संख्यकानि देव सहस्राणि प्रज्ञप्तानि, तथा - ' मज्झिमियाए परिसाए कह कह परिसाओ पनसाओ' हे भदन्त ! वैरोचनेन्द्र वैरोचराजमलिकी कित नी परिषदाएं कही गई है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'गोयमा ! तिन्नि परिसा पत्ता' हे गौतम' वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलि की तीन परिषदाएं कही गई है 'तं जहा' जैसे 'समिया चंडा जाया' समिना चंडा और जाया इनमें 'अभितरिया समिया' जो आभ्यन्तर सभा है उसका नाम समिता परिषदा है । 'मशिमिया चंडा' मध्यमा सभा का नाम चंडा है 'बाहिरिया जाघा' और जो बाह्या सभा है उसका नाम जता परिषदा है 'बलिस णं भंते बहरोयजिंदस्स वहरोवणरत्रो अभि तरियाए कइ देव सहस्सा पण्णत्ता' हे भदन्त । वैरोचनेन्द्र वैरोचनराजबलि की अभ्यन्तर परिषदा में कितने हजार देव कहे गये हैं । तथा 'मज्झिमियाए परिसाए कहदेव सहस्ता पण्णत्ता' मध्यमा परिषदा में
હર્ષર
हवे अविन्द्रनी परिषद्वानु वर्णन वामां आवे छे 'बलिस् णं भवे' धत्याहि 'वलिस्स णं' भंते! वइरोयणिदस्य वइरोयणरण्णा कइ परिक्षाओ , पण्णत्ताओ' हे भगवन वैशयनेन्द्र वैशयनशन मसिनी परिषहा। सी उस छे ? या प्रश्नना उत्तरमा अलुश्री उडे छे ! 'गोयमा ! तिन्न परिक्षा पन्नत्ता' हे गौतम! वैशयनेन्द्र वैरेरायनराज पसिनी परिष। वामां यावेस छे. 'त ं जहा ' म 'समिया चौंडा जाया' समिता, थंडा भने लया तेमां 'अभितरिया समिया' के साम्यन्तर સભા છે તેનું નામ સમિતા परिषधा मे प्रभा छे. 'मज्झमिया चंडा' मध्यम सुभानु नाम थौंडा मे प्रमाये छे 'बाहिरिया जाया' मने मे माह्य सभा छे, तेनु नाम लता परिषद छे, 'बलिस्स णं भवे ! वइरोयणिंदरस वइरोयणरण्णा अभितरिया
Page #767
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र. ३ उ. ३ सु. ४७ औत्तरदिग्वर्त्य सुर कुमार निरूपण
Cá
देवसहसा पण्णत्ता' माध्यमिका द्वितीयस्यां चण्डाभिधानायां पदि कतिकियत्संख्यकानि देवपहस्त्राणि ज्ञानि 'जात्र बाहिरियार परिसाए कह देसिया पण्णत्ता' यावद् पाद्यायां पर्षदि कति देवीशतानि प्रज्ञप्तानि अत्र यात्रत्पदेन 'वाहिरि या परिमाप कई देवसहस्ता, अरियाए परिसाए कह देविसया, मज्झिमयाए परिसाए कई देविया' इति सग्राह्यम् । बाह्या तृतीयस्यां जाताभिधानायां
दिति देवस्राणि मज्ञप्तानि तथा-अभ्यन्दरिकायां समितायां पर्प दि कति देशवानि प्रज्ञप्तानि, माध्यमिकायां चण्डायां वर्षदि कति देवीशतानि मष्ठानि तथा बाह्यायां तृतीयस्यां जादाभिधानार्थ पर्पादि कति देवी शतानि प्रज्ञप्तानीति प्रश्नः भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'लिस ' वइरोयदिस्स वइरोयणरन्नो' बलेः खलु वैरोचनेन्द्रस्य चैरोचनराजस्य 'अभितरियाए परिसाए वीसं देव सहस्सा पन्नता' आभ्यन्तरकार्या कितने हजार देव कहे गये है ? 'जाब बाहिरियाए परिसाए कह देविसया पनसा' बाह्यपरिषदा के देवों की संख्या के प्रश्न को लेकर वाह्य परिषदा के देवियों के प्रश्न तक का पाठ यहां लेना चाहिये जैसे'बाहिरियाए परिसाए कइदेव सहस्सा पन्नत्ता' इत्यादि । बाह्य परिपदा में कितने हजार देव कहे गये हैं? तथा वैरोचनेन्द्र वैरोचनराजबलि की आभ्यन्तर परिषदा में कितनी सौ देवियां कही गई हैं ? मध्यमा परिपदा में कितनी सौ देवियां कही गई है तथा बाह्य परिषदा में कितनी सौ देवियां कही गई है। इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'गोयमा' पलिस णं वइरोयदिस्स वहशेषणरनो अभितरियाए परिसाए दीसं देवसहता पण्णत्ता' हे गौतम' वैरोचनेन्द्र वैगेन राजवलि की अभ्य
परिसाए कइ देव सहस्वा पण्णत्ता' हे भगवन् वैशयनेन्द्र वैशयनरान जसि ईन्द्रनी मान्यन्तर परिषहाभांसा उन्नर हेवे देवास मावेस हे ? 'जाव बाहिरियाए परिसाए कइ देविसया पण्णत्ता' मा परिषहान हेवानी सभ्याना પ્રશ્નથી લઈને ખાદ્ય પરિષદાની વૈચિાની સખ્યાના પ્રશ્ન સુધના પાઠ અહ્રિયાં श्रह १२ मे. भठे 'बाहिरियाए परिसाए कइ देव सहस्वा पण्णत्ता' ઇત્યાદિ ખાદ્ય પરિષદામાં કેટલા હજાર દેવાઢવામા આવેલ છે ? તથા વૈરેચનેન્દ્ર વૈરાચનરાજ મલીન્દ્રની અ ચતર પરિષદામાં કેટલા સે દૈવિયે ડેલ છે ? મધ્યમ પરિષદામાં કેટલા સે દૈવિ કહેવામાં આવેલ છે? તથા બાહ્ય પરિષદામાં કેટલા સે। દેવિયેા કહેલ છે? આ પ્રશ્નના ઉત્ત૬માં પ્રભુશ્રી 'गोयमा ! वलस्वणं वइरोयणि दस्स वइरोयणरण्णा अभि तरियाए परिसाए वीसं देव सहस्सा पण्णत्ता' हे गौतम! वैशयनेन्द्र वैरेयनराष्ट्र
Page #768
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगम
७४४
प्रथमाणं पदि विशतिरसदस्माणि शतानि तथा-'मज्झिमियाए परिसार माध्य. मिकायां द्वितीयस्यां चटामियानायां एपदि 'उनीले देवसरमा पन्नता' चतु. विशति देवसहस्राणि महप्तानि, नया-'बाहिरियाप परिसाए बापया वतीय जाताभिशनायां पपदि 'पीसं देवसहरमा पन्नत्ता' अष्टाशिति देवसदलाण प्रज्ञप्तानि-यथितानि, त्या-रले वैरोचनेन्द्रमा अभितरिणाप परिसाए' आभ्यतरिकायां प्रथमायां पदि समितानिधानासम्, 'हपंचधा देविमा' बर्द्ध पञ्चमानि-सा/नि चामि देवीशाल प्रज्ञान, गरिवसिगार परिसार माध्य. मिकायां एपदि तारि दविलया पन्नत्ता' चन्वारि देवीमहानि पज्ञानि, 'बाहिरियाए परिसाए उधुढा देविसरा पणता' बायागं पर्षदि अर्धवतुर्धानि देवीशतालिज्ञप्तानीति । 'लिरम 'ठईए पुच्छ।' बलेः खस भदन्त ! वैरोचने न्द्ररय वैरोचन राजस्व रियो पृछा- प्रश्न कियापर्यन्तं प्रजनस्तत्राह-जाव वाहिरियाए परिसाए देवीण के इय काल टिई पण्णका' इति पर्यन्तम्, यथा-आभ्यन्सर परिषदा में बीस हजार देव कहे गये हैं 'मज्झिमियाए परिसाए चउवीसं देवसरमा पत्ता ' मध्यमा परिपदा में चौवीस हजार देव कहे गये हैं 'बाहिरिसाए परिलाए अायोशं देवमहस्सा एण्णसा' वाद्यपरिषदा अठाईस २८००० हजार देव साहे गधे तथा-'अग्नितरियाए परिमाए अद्धपचाला देविनिया पण्णत्ता झिम्मिमाए पनिसाए चत्तारि देविनिया पण्णता हारशर परिसाए अछुट्टा देविसया पण्णत्ता' वैरोचनेन्द्र वैरोचनराजलि भी प्रापार परिषदामें साढे चारसो ४५०) देवियां ममा परिपदा में चासो ४०० देवियां और बाह्य परिषदा में साढे तीनमा देदियां कही गई हैं 'पलिल ठिईए पुच्छा जाय बाहिरियाए परिसाए देवीणं केन्श्यं काल ठिई पन्नत्ता' यहां बलिइन्द्र की तीनों सभा मतीन्द्रनी भायन्त२ परिपामा वीस १२ । Fan . 'मझिमियाए परिसाए चउवीस देवसहस्सा पयत्ता' मध्यमा परिक्षामा योवीस &m२ देवे। ४ा छे. 'बाहिरियाए परिमाए अट्ठावीस देवमहस्सा पण्णत्ता' मा परिहामा सध्यावीस १२ २८००० ३। . तथा 'अभितरियाए परिसाए अद्धपंचमा देविसया पगत्ता बाहिरियाए परिसाए अधता देविसया पण्णत्ता वैशयनेन्द्र વૈરાચનરાજ બલિની આભ્યન્તર પરિષદામાં ૪૫૦ સાડા ચારસે દેવિ કહી છે. મધ્યમ પરિષદામાં ૪૦૦ ચારસે દેવિ કહી છે, અને બાહ્ય પરિષદામાં ૩૫૦ સાડા ત્રણ દવ કહેવામાં આવેલ છે. ___'बलिरस ठिईए पुच्छा जाव वाहिरियाए परिसाप देवींण के ईय काल ठिई पण्णत्ता, 20 प्रश्न मलीन्द्रनी समान व वियानी स्थितिना सम
Page #769
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र. ३ उ. ३ सू ४७ औत्तरदिग्वर्त्यसुरकुमारनिरूपणम्
७४५
न्तरिकायां समितायां पर्षदि देवानां कियन्तं कालं स्थितिः पज्ञप्ता, माध्यमिकायां चण्डायां पर्षदि देवानां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता, वाह्यायां जाता पर्पदि देवानां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता, तथा वाभ्यन्तराणं पर्षद देवीनां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता, माध्यविकायां पर्पदि देवीनां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता, बाह्यायां पर्षदि देवीनां कियन्तं कालं स्थिति मज्ञण्डा - कथितेति पर्यन्तं मनः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोसा' हे गौतम! 'बलिरस णं arties arयणरन्नो' वळेः खलु वैरोचनेन्द्रस्य वैरोचनराजस्य 'अभितरियाए परिसाए ! आभ्यन्तरिकामा पर्पदि 'देवा अधुलियोनमा ठिई पन्नत्ता' देवानामर्द्ध चतुर्थानि भर्द्धाधिकानि त्रीणि पल्योग्पानि हिति:- अयुष्यकाल : प्रज्ञप्ता, 'सज्झिमिया परिसाए विनि पलिभोवमाई टिई पनचा' माध्यमिकायां चण्डाभिधानायां द्वितीयस्यां पर्षद श्रीणि पल्योगमानि देवानां स्थितिः प्रज्ञप्ता, 'बाहिरियाए परिसाए देवाणं इज्जाई पछिभोक्ताः लिई पुन्यता' पायां के देव देवियों की स्थिति के विषय का प्रश्न समझ लेना चाहिये जैसे हे भदन्त ! वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज की आभ्यन्तर परिषदा में देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? लध्वमा परिषदा में देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? तथा बात्य परिषद में देवी की स्थिति कितने काल की कही गई है ? इसी तरह आभ्यन्तर परिषदा में देवियों की स्थिति किसने काल की कही गई है ? मध्यमा परिषदा में देवियों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते है ? हे गौतम ! वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज की आभ्यन्तर परिषदा के देवों की स्थिति साढे तीन ३॥ पत्योषन की कही गई है । मध्यमा परिषदा के देवों की स्थिति तीन पल्योपम की कही गई है ? और बाह्य परिषदा
-
ધમાં કરેલ છે. જેમકે હે ભગવન્ વેરાચરન્દ્ર વૈરાયનરાજ બલીની આભ્યન્તર પરિષદમાં દેવાની સ્થિતિ કેટલા કાળની કહેવામાં આવેલ છે ? મધ્યમા પરિ ષદામાં દેવાની સ્થિતિ ફૅટકા કાળની કહેલ છે ? તેમજ ખાદ્ય પરિષદામાં દેવેાની સ્થિતિ કેટલા કાળની કહેલ છે ? એજ રીતે આભ્યન્તર પરિષદામાં દેવિયેાની સ્થિતિ કેટલા કાળની કરેલ છે? મધ્યમાં પરિષદમાં દેવિચેની સ્થિતિ કેટલા કાળની કહેલ છે ? બાહ્ય પરિષદામાં કેવિયેાની સ્થિતિ કેટલા કાળની કહેલ છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે ગૌતમ ! વેરાચનેન્દ્ર વેરાચનરાજની આભ્યન્તર પરિષદાના દેશની સ્થિતિ ૩! આડાત્રણ પક્ષ્ચાપમની કહેવામાં આવેલ છે મધ્યમા પરિષદના દવેાની સ્થિતિ ત્રણ પયેપમની કહી છે, અને બાહ્ય પરિષદાના દેવાની સ્થિતિ રા અઢિ પલ્યાપમની जी० ९४
Page #770
--------------------------------------------------------------------------
________________
F
जीवामिगमसूत्रे
पर्षदि देवानामतृतीयानि - अर्धाधिके द्वे प्ल्योपमे देवानां स्थितिः प्रज्ञप्ता, 'अभितरियार परिसाए' आभ्यतरिकायां पर्पदि देणं' देवीनाम् ' अड्डाइज्जाई' पलिओदमाई ठिई पन्नता' साधे द्वे अर्द्धाधिके द्वे पल्योपमे स्थितिः प्रज्ञप्ता, 'मझिमिया परिसाए देवीणं' माध्यमिकायां पर्षदि देवीनाम्, 'दो पलिओदमाई ठिई पत्ता' द्वे पल्योपमे स्थितिः प्रज्ञप्ता, तथा - 'बाहिरियाए परिसाए देवी जं' वायां तृतीयस्यां जाताभिधानायां पर्षदि देवीनाम्, 'दीवडू' पलिओचमं ठिई पन्नता' द्वयदर्घमर्धाधिकमेकं पल्योपमं स्थितिः प्रज्ञप्सेति । अत्र वळेः सभासंबन्धि देवदेवीनां संख्यायाः स्थितेश्व परिमाणमरूपिके द्वे संग्रहगाये यथा'वीसउ चउवीस अठ्ठावीस सहस्सा य होंति देवाणं । अद्धपण - चउ - दूधुट्ठा, देसिसया चलिस्स परिसानु ॥१॥ मधुट्टा तिष्णि अड्डाइजाइ होंति पलिय देव ठिई । अड्डा इज्जा दोणि य, दीड्र देवीण ठिइ कमसो ॥ २ ॥ छाया - विंशतिस्तु चतुर्विंशतिः, अष्टाविंशतिथ सहस्राणि च भवन्ति देवानाम् । अर्धपञ्चम-चतुरचतुर्थानि देवीशतानि वळे: पर्पत्सु ॥ १ ॥
|
अर्ध चतुर्थानि त्रीणि अतृतीयानि भवन्ति पत्यानि देवस्थितिः । अर्घ तृतीये (सादर्धे द्वे च द्वदुर्ध (सादधैकं पल्योपमं) देवीनां स्थितिः क्रमशः अनयोरर्थस्तु मात्र मरूपितवदेवेति ॥
'सेसं जहा चमरस्स असुरिंदस्स असुररन्नो' शेषं यथा चमरस्यासुरेन्द्रस्य असुरराजस्य, अयं भावः- से केणद्वेण भंते' इत्यायवान्तरमश्नोत्तरमकरणमवगन्तव्यमिति ॥ सू० ४७ ||
के देवों की स्थिति दाइ २ पल्योपम की कही गई है तथा आभ्यन्तर परिषदा की देवियों की मध्यमा परिपदा की देवियों को और वाह्या परिषदा की देवियों की स्थिति क्रमशः ढाइ पत्थोपस की दो पल्पोपम की और डेढ़ पल्पोपम की कही गई है। इस विषय में दो संग्रह गाथाएं टीका में दी गई है। 'सेसं जहा चमररस असुरिंदरस असुररन्नो' याकी
કહી છે. તથા આભ્યન્તર પરિષદાની ધ્રુવિચાની સ્થિતિ રા અઢિ પલ્યાપમની કહી છે મધ્યમા પરિષદાની ધ્રુવિચાની સ્થિતિ એ પાપમની ઇંહી છે અને બાહ્ય પરિષદાની ધ્રુવિચાની સ્થિતિ ૧૫ પત્યેાપમની કહેવામાં આવેલ છે. આ વિષયમાં એ સ’ગ્રહ ગાથાએ કહી છે જે સ'સ્કૃત ટીકામાં આપવામાં આવેલ છે.
'सेस जहा चमरस्स असुरिंदरस असुररन्ना' माडीनु मीनु तमाभ भी અલિઈન્દ્ર સ`ખ"ધી કથન અસુરેન્દ્ર અસુરરાજ ચમરના પ્રકરણુના કથન પ્રમાણે જ
Page #771
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रद्योतिका टीका प्र.३ उं.३ ४.४८ नागकुमाराणां भवनादिद्वारनिरूपणम् ७४७
दक्षिणोवरासुरकुमाराणां भवनादीनि निरूप्य नागकुमाराणां तानि दर्शयितुमाह- ' कइ णं भवे । नागकुमाराणं' इत्यादि ।
मूळम् - कहि णं भंते ! नागकुमाराणं देवाणं भवणा पन्नत्ता, जहा ठाणपदे जाव दाहिणिल्ला वि पुच्छियव्वा जाव धरणे, एत्थ नागकुमारिंदे नागकुमार राया परिवसइ जाव विहरइ । धरणस्स णं भंते! नागकुमारिंदस्स नागकुमाररन्नो कइ परिसाओ पन्नताओ ? गोयमा ! तिन्नि परिसाओ, ताओ घेव जहा वमरस्स | धरणस्सं णं भंते! नागकुमारिंदस्स नागनागकुमाररन्नो अभितरियार परिसाए कई देवसहस्सा पन्नत्ता जाब बाहिरियाए परिसाए कइ देवीसया पन्नत्ता ? गोयमा ! धरणस्ल णं नागकुमारिंदस्स नागकुमाररन्नो अभितरियाए परिसाए सट्ठि देवसहरुलाई, मज्झिमियाए परिसाए सत्तरिं देव सहरसाई, बाहिरियाए परिसाए असीइं देवसहस्साई, अभि तरियाए परिसाए पष्णतरं देविस पन्नत्तं, मज्झिमियाए परिसाए पण्णासं देविसयं पन्नत्तं, बाहिरियाए परिसाए पणवीसं देविस पन्नन्तं ॥ धरणस्स णं रन्नो अभितरियाए परिसाए देवाणं केवइथं कालं ठिई पन्नत्ता, मज्झिमियाए परिसाए देवाणं केवइयं कालं ठिई पन्नन्ता, बाहिरियाए परिसाए
का और सब कथन इस बलि इन्द्र के प्रकरण में असुरेन्द्र असुरराज चमर के प्रकरण में जैसा कहा गया है वैसा ही जानना चाहिये तथा व 'से केणं अंते' इत्यादि प्रश्नोत्तर यथा - हे भदन्त । ऐसा आप किस कारण से कहते हैं इत्यादि प्रश्नोत्तर से जिस प्रकार वहां कहा है वैसा ही कथन समझ लेवें ||सू० ४७ ॥
समल तेवु' ते अमर 'से केणट्टेण भवे !' त्याहि अस्थी हे भेम-हे ભગવન્ ! આપ એવું શા કારણથી કહેા છે ? ઇત્યાદિ પ્રશ્નોત્તરથી જે રીતે ત્યાં કહેવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાથે અહિયાં પણ સમજી લેવું ! ૪૭ ॥
Page #772
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमस्त्र देवाणं केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता ? अभितरियाए परिसाए देवीणं केवइयं ठिई पन्नत्ता ? मज्झिमियाए परिसाए देवीणं केवइयं कालं ठिई पन्नता? बाहिरियाए परिसाए देवीणं केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता ? गोयमा ! धरणस्सणं रन्नो अभितरियाए परिसाए देवाणं सातिरेगं अद्धपलिओवमं ठिई पन्नत्ता, मज्झिमियाए परिसाए देवाणं अद्धपलिओवमं ठिई पन्नता, वाहिरियाए परिसाए देवाणं देसूणं अद्धपलिओवमं ठिई पन्नत्ता, असितरियाए परिसाए देवीणं देसूणं अद्धपलिओवमं ठिई पन्नता, मज्झिसियाए परिसाए देवीणं साइरेगं चउभागपलिओबमं ठिई पन्नता, वाहिरियाए परिसाए देवीणं चउभागपलिओवमं ठिई पन्नता, अटो जहा चमरस्ल । कहि णं भंते! उत्तरिल्लागं नागकुमाराणं जहा ठाणपदे जाव विहरइ ॥ भूशाणं दस्तक भंते ! नागकुमारिदस्त नागकुमाररन्नो अभितरियाए- परिवाए कह देव लाहलीओ पन्नताओ, मज्झिमियाए परिलाए कइ देवसाहरूसीओ पण्णताओ, बाहिरियाए परिसाए कह देवसाहरूलीओ एण्णताओ, अभितरियाए परिसाए कइ देविसया पण्णता ? मज्झिलियाए परिसाए कइ देविलया पन्नत्ता बाहिरियाए परिसाए कइ देविलाया पन्नत्ता? गोथमा ! भूयाणदस्त पं. नागकुमारिंदरम नागकुमार रन्नो अभितरियाए परिसाए पन्नासं देवसहस्सा पन्लता, मज्झिमियाए परिसाए लट्टि देवसाहस्लीओ पन्नताओ बाहिरियाए परिसाए सत्तरि देवसाहस्लाओ पन्नत्ताओ, अभितरियाए परिलाए दो पणवीसं देविसयाणं पन्नत्ता, मज्झिमियाए परिसाए दो देविसया पन्नता, बाहिरियाए परिसाए पण्णत्तरं देविसयं पन्नत्तं ॥
Page #773
--------------------------------------------------------------------------
________________
यतिका ठीकाम. ३ उ. ३ क्षु.४८ नागकुमाराणां भवनादिद्वारनिरूपणम् ७४५
भूयानंदस्स णं भंते! नागकुमारिंदस्स नागकुमाररन्नो अभितरिया परिसाए देवाणं केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता जाव बाहिरियाए परिसाए देवीणं केवइयं कालं ठिई पन्नता ? गोयमा ! सूयानंदस्स णं अहिंमतरियाए परिसाए देवाणं देसूर्ण पलिओवमं ठिई पन्नन्ता, सज्झिनियाए परिसाए देवाणं साइरेगं अद्धपलिओ ठिई पन्नता बाहिरियाए परिसाए देवाणं अद्धपलिओवमं टिई पन्नत्ता अभितरियाए परिलाए देवीणं अद्धपलिओवमं ठिई पन्नता मझिमियाए परिसाए देवीणं देसृणं अद्धपलिओदनं ठिई पन्नत्ता, बाहिरियाए परिलाए देवीणं साइरेगं चउभागं पलिओदनं ठिई पन्नता, अट्टो जहा मर स्स, अवसेसाणं वेणुदेवादीणं महाघोसपजवसाणाणं ठाणपद वत्तव्वया निरवयवा भाणियना, परिसाओ जहा धरणभूयाणं दाणं (सेसाणं भवणवर्द्धनं) दाहिणिल्लाणं जहा धरणस्स उत्तरिल्लाणं जहा भूयाणंदस्स परिमाणं पि दिई वि ॥ सू० ४८ ॥
छाया - कुत्र खलु भदन्त ! नागकुमाराणां देवानां भवनानि मानि ? यथा स्थानपदे याबद् दाक्षिणात्या अपि प्रष्टव्या यावत्, घरणोऽत्र नागकुमारेन्द्रो नागकुमारराजः परिवसति यावद विहरति ॥ धरणस्थ खलु भदन्व | नागकुमारेन्द्रस्य नागकुमारराजस्य कति पर्पदः मज्ञप्ताः ? गौतम ! वित्रः पर्पदः, ता एव यथा चमरस्य । धरणस्य खल्लु भदन्त | नागकुमारेन्द्रस्य नागकुमारराजस्य आभ्यन्तरकाय पर्ष दि कति देवसहस्राणि मज्ञप्तानि यावद बाह्यायां पर्षदि कवि देवीशतानि मज्ञप्तानि ? गौतम | वरणस्थ खलु नागकुमारेन्द्रस्य नागकुमारराजस्य आभ्यन्तरिकायां पर्षदि पष्टिर्देव सहस्राणि माध्यमिकायां पर्षदि सप्ततिर्देनसहस्राणि, बाह्यार्या पर्षद अशीतिर्देवसहस्राणि आभ्यन्तरिकायां पर्षदि पञ्च प्ठतं देवीशतं माध्यमिकायां पदिपञ्चाशदेवीशतं घज्ञप्तम् वाह्यायां पदि पञ्चविंशतिर्देवीशतं मज्ञम् | धरणस्य खलु राज्ञ अभ्यन्तरिकायां पर्पदि देवानां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञता, माध्यमिकायां वदि देन विन्तं कालं स्थितिः मज्ञता ? वाद्या पर्पदि देवानां कयन् कालं स्थितिः प्राप्ता ? आन्तरिकायां पर्पदे देवीनां कियन्तं कालं स्थिति प्रज्ञा ? मध्यमिकायां पर्पदि देवोनां पित्यं काल स्थितिः प्रज्ञप्ता,
"
Page #774
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगम
|
ह्यादि देवीनां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञता ? गौतम | धरणस्य राज्ञ अभ्यवरिकायां पर्पदे देवानां सातिरेकपल्योपमं स्थितिः प्रज्ञप्ता, माध्यमिकायां पर्पदि देवानामपल्योपमं स्थितिः प्रज्ञप्ता, वाह्यायां पर्पदि देवानां देशोनमदुर्घ पल्पोपमं स्थितिः प्रज्ञप्ता, आस्यन्तरिकायां पर्पादि देवीनां देशांनगदू पल्योपमं स्थितिः प्रज्ञप्ता, माध्यमिकायां पर्पदि देवीनां सातिरेकं चतुर्भागएल्योपमं स्थिति ज्ञप्ता, बाह्यायां पर्पादि देवीनां चतुर्भागपल्योपमं स्थितिः प्रज्ञप्ता, अर्थो यथा चमरस्य । कुन खल्लु भदन्त ! औत्तराणां नागकुमाराणां यथा स्थानपदे याव द्विरधि | भूतानन्दस्य खलु भदन्त ! नागकुमारेन्द्रस्य नागकुमारराजस्याभ्यन्तरिकायां पर्पादि कति देवसाहसरच्यः प्रज्ञष्ठाः साध्यमिकायां पर्पादि कवि देवसाहस्त्रयः प्रज्ञप्ता । आभ्यन्वरिकायां पर्पदि कति देवीशतानि, माध्यमिकायां पर्षदि कवि देवीशवानि प्रज्ञसानि, वाह्यायां पर्पदि कति देवोशतानि महतानि ? गौतम ! भूतानन्दस्य खलु भदन्त | नागकुमारेन्द्रस्य नागकुमारराजस्याऽऽभ्यन्तरिकायां पर्पादि पञ्चाशदेव सहस्राणि प्रज्ञप्तानि माध्यमि कायां पर्षदि पष्टिर्देव साहसस्त्रयः प्रज्ञप्ताः वाह्यायां पर्पदि सप्ततिर्देव साहसस्त्रयः प्रज्ञप्ताः, आभ्यन्तरिकायां पर्पदि द्वे पञ्चविंशे देवीशते प्रज्ञप्ते, माध्यमिकायां पर्षदि द्वेदेवीशते प्रज्ञप्ते, बाह्यायां पर्षदि पञ्च सप्तं देवीशतं प्रज्ञप्तम् । भूता नन्दस्य खच भदन्त | नागकुमारेन्द्रस्य नागकुमारराजस्य अभ्यन्त रिकार्या पदि देवानांकितं कालं स्थितिः प्रज्ञप्aा, यावदूवाद्यायां पर्षद देवीनां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? गौतम ! भूतानन्दस्य खल्ल आभ्यन्तरकार्या पर्षद देवानां देशोनं पल्योपमं स्थितिः प्रज्ञना, साध्यमिकार्या पर्षद देवानां सातिरेकमर्द्ध पल्योपम स्थितिः प्रज्ञप्पा, बाह्याशं पदि देवानामदुर्धपल्योपम स्थितिः प्रज्ञता, माध्यमिकायां पर्पादि देवीनां देशोनमदर्धपल्पोपमं स्थितिः मज्ञप्ता, बाह्यायां पर्पदि देवीनां सातिरेकं चतुर्भागवल्पोपमं स्थितिः प्रज्ञना, अर्थों यथा चनरस्य । अवशेषाणां वेणुदेवादीनां महाघोषपर्यवसानानां स्थानपदवक्तव्यता निरवयवा भणितव्या, पर्षदो यथा धरण - भूतानन्दानाम् (शेषार्णा भवतीनाम्) दाक्षिणात्यानां यथा धरणस्य औचराणा यथा भूतानन्दस्य, परि माणमपि स्थितिरपि ॥०४८||
७ १०
दक्षिण तथा उत्तर के असुरकुमारों के भवनादि का वर्णन करके अपनागकुमारों के भवनादिका वर्णन करते हैं।
દક્ષિણ અને ઉત્તર દિશાના અસુરકુમારના ભત્રનાદિ દ્વારેનુ વર્ણન કરીને हवे नागभारोना लवनाहि द्वारातुं वर्थेन वामां आवे छे. 'कहि णं भवे
Page #775
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र. ३ उ. ३ सू.४८ नागकुमाराणां भवनादिद्वारनिरूपण ७५१
टोका- 'कहि णं भंते ! नागकुमाराणं देवाणं भवणा पन्नत्ता' कुत्र कम्मिन् स्थाने खलु भदन्त ! नागकुमाराणं देवानां भवनानि प्रज्ञप्तानि कथितानीति प्रश्नः, उत्तरयति प्रज्ञापनातिदेशेन - 'जहा' इत्यादि, 'जहा ठाणा दे दाहिल्ळाविच्छिन्ना जाव धरणे एत्थ नागकुमारिंदे नागकुमारसया परिसर जाव विरह' एव यथा ज्ञापनायां स्थानाख्ये द्वितीय पदे तथा वक्तव्यं यावदाक्षिणात्या अपि नागकुमाराः प्रष्टव्या य व धरणनामकोऽच नागकुमारेन्द्रो नागकुमारराजः परिवति यावद्विहरति इति पर्यन्तं स्थानपदोक्तः पठो संग्रह्यः ।
सम्प्रति-धरणेन्द्रस्य पर्षन्निरूपणार्थमाह- 'घरणस्स णं भते !' इत्यादि, धरणग्स णं भंने' धरणस्य- धरणनामकस्य खल भदन्त | 'नागकुमारिदस्स नागकुमार नो' नागकुमारेन्द्रस्य नागकुमारराजस्य 'कइ परिसाओ पन्नत्ताओ' कति-क्रिय
'कहिणं भंते ।' नागकुमाराणं देवाणं भणा पण्णत्ता ? इत्यादि । टीकार्थ- श्रीगौतमस्वामीने प्रभुश्री से ऐसा पूछ। है है भदन्त | नागकुमार देवों के भवन कहां पर है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं । 'जहा ठाणपदे जाव दाहिणिल्लाचि पुच्छियव्वा जाव धरणे' हे गौतम इस सम्बन्ध में जैसा कथन प्रज्ञापनासूत्र के द्वितीय स्थान पद में किया गया है वैसा ही वह कथन यहां पर भी समज लेना चाहिये यावत् दाक्षिणात्य-दक्षिणदिशावर्ती नागकुमार देव कहाँ पर रहते हैं ऐसा भी पूछना चाहिये और वहां पर नामकुमारों का इन्द्र एवं नागकुमारों का राजा धरण रहता है इस पाठ तक का पाठ यहां वहां से लेकर कह लेना चाहिये । 'घरणस्स णं भंते' नागकुमारिदस्य नागकुमाररण्णो कति परिसाओ' हे भदन्त ! नागकुमारों के इन्द्र और नागकुमारों के राजा धरण की कितनी परिनागकुमारदेवाणं भवणा पण्णत्ता' हत्याहि
ટીકા –શ્રીગૌતમસ્વામી નાગકુમારેાના સંબધમાં પ્રશ્ન કરતાં પ્રભુશ્રીને 'कहिणं भवे ! नागकुमारदेवाणं भक्षणा पण्णत्ता' हे भगवन् ! नागકુમાર દેવાના ભવનેા કયાં કહ્યા છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી શ્રીગૌતમ स्वाभीने हे छे ! 'जहा ठाणपदे जाव दाहिणिल्ला वि पुच्छियव्वा जाव धरणे' हे ગૌતમ ! આ વિષયમાં પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના બીજા સ્થાનપદમાં જે પ્રમાણેનુ કથન કરવામાં આવેલ છે. એજ પ્રમાણેનું કથન અહીયાં પણ કહી લેવું જોઈએ. યાવત્ દાક્ષિણાત્ય દક્ષિણ દિશામાં રહેવાવાળા નાગકુમાર દેવ કર્યાં રહે છે? આ પ્રમાણે પ્રશ્નોત્તર કરીને તે કથન ‘ત્યાં નાગકુમારોના ઈંદ્ર તથા નાગકુમારે ના રાજા ધરણ રહે છે ? આ પાઠ પન્ત ત્યાંનું કથન અહિંયાં કહેવુ ોઇએ 'घरणस्स णं भंते ! नागकुमारिदस्स नागकुमाररण्णा कति परिखाओ
Page #776
--------------------------------------------------------------------------
________________
७५२
% 3D
जीवामिगमस्त्रे संख्यकाः पर्पद:-सभाः प्रज्ञप्ता:-ऋथिता इति १३, भगवानाड-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा !' हे गौतम ! तिन्नि परिसाओ पण्णत्ताओ' तिस्रः एपंदा, पज्ञप्ताः, 'ताओ चेव जहा चमरम्स' ता एक परिपदो यथा चमरस्य, यथा चमरेन्द्रस्य, तिस्त्र : पर्पद: कथित रतया धरेन्द्रस्यापि समिता चण्डा जाता, आभ्यन्तरिका समिता, माध्यमिशा चण्डा, बाया जाता, एवं रूपेण तिम. पर्प दो धरणेन्द्रस्यापि ज्ञाव्य इति । 'धरणलणं भंते धरणस्य खल्ल भदन्त ! 'नाग कुमारिदस्स नागनुपाररन्नो' ना कुमारेन्द्रस्व नामकुमारराजस्य अपितरियाए परिमाए कइ देवसहपा (मत्ता' अतिरिमार्ग प्रथमार्ग पर्पदि कति देवसहस्राणि घशमानि-कथिनागि जान वाहिरिया परिसाए कह देनीया पणत्ता' याग्द् वाह्यायां पर्पदि वति देवीगतानि मज्ञप्तानि, अत्र यात्पदसंग्राह्यपाठ स्यार्थों यथा धरणेन्द्रस्य माध्यामिकायां द्वितीयस्यां पर्षदि कति देवसहस्राणि प्रज्ञानि, वाह्यायां पर्षदि कहि देवमहाणि प्रज्ञप्तानि, आम्पन्तरिकायां पर्ष दि षदाएं कही गई है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं । 'गोयमा ! 'तिणि परिसाओ पण्णत्ताओ' हे गौतम! नागकुमारों के इन्द्र और नागकुमारों के राजा धरण की तीन परिषदा कही गई है 'ताओचेर जहा चमरस्स उनके नाम वही है जो चनर इन्द्र की परिपदा के हैं। 'धरणस्म णं भंते । णागकुमाग्दिम्य पागकुमाररणो भितरिचाए परिसाए पति देवस हस्सा पण्णत्ता' हे भदन्त । नागकुमारेन्द्र नामकुमार राज धरण की आभ्यन्तर सभा में दिलने हजार देव हैं ? 'जाय बाहिरियाए परिसाए कति देवी सया पगत्ता' यावत् बाह्या परिषदा में कितनी सौ देवियां हैं ? यहां धावत् शब्द से ऐमा पाठ गृहीत हुआ है कि-धरण के मध्यम पण्णत्ताओ' से लगन् नागभारे ना ४ भने नागभाराना रात ५२नी કેટલી પરિષદાઓ કહેવામાં આવેલ છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે 'गोयमा । तिणि परिसाओ पण्णताओ' हे गौतम! नागमा। । ईन्द्र भने नागभाना २१ ५२६ नी वन परिषदासाहेस छे. 'ताओ चेव जहा चमरस्स' तेना नाम यमर छन्द्रनी परिषदाना नामी प्रमाणे या धरणस्स गंभ ते ! णागकुमारी दस्त नागकुमाररण्णो अभितरियाए परिसाए कति देवसहस्सा पण्णत्ता' હે ભગવન નાગકુમારે નાગકુમાર રાજ ધરણની આ ન્સર સભામાં કેટલા डलर १३ ? 'जाव बाहिरियाए परिसाए कति देवी सया पण्णत्ता' यावत् બાહા પરિષદામાં કેટલા સે દેવિ કહેલ છે? અહી યાં યાવત્ પદથી એ પાઠ ગ્રહણ કરાવે છે કે દર ગની મધ્યમ પરિષદામાં કેટલા હજાર દે છે ? બાહ્ય સભામાં કેટલા હજાર દે છે? આભ્યન્તર સભામાં કેટલા સે દેવિયે
Page #777
--------------------------------------------------------------------------
________________
CRA
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.४८ नागकुमाराणां भवनादिद्वारनिरूपणम् ७५३ कति देवीशतानि प्रज्ञप्तानि, माध्यमिकाथा पर्षदि कति देवीशतानि प्रज्ञप्तानीति, तथा बाह्यायां पर्षदि कति देवीशतानि प्रज्ञतानि-कबितानीति घना, भगवानाह 'गोयमा ! इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'धरणसणं' धरणस्य खल्लु 'नागकुमारिदस्स नागकुमाररन्नो' मागकुपारेन्द्रस्व नामकुमारराजस्य 'अधितरियाए परिसाए सहि देवसहस्साई' अस्पतरिकायां पर्पदि चण्डाभिधानायां षष्टिदेवसहस्त्रानि प्रज्ञप्तानि, 'सज्जियाए परिसाए सत्तर देवसहरसाई माध्यमिकायां चण्डाभिधानायां द्वितीयस्यां पर्षदि सप्तति देवसहस्राणि प्राप्त नि तथा-'बाहिरियाए परिसाए अमोइदेव सहस्पाई' व ह्यायां जाताभिध नाणं तृतीयस्यां पर्षदि अशीतिर्देवसहस्त्राणि प्लानि, एवम्-'अभिनरियाए परिसाए' आभ्य तरिका समितासिधाला प्रथमाया पदि 'एणसत्तर देवी सय पन्नत' पश्च सप्त-पञ्चसप्तत्यधिक देवीशवं प्रज्ञप्तं कथितम्, तथा-मज्झिनियाए परिसाए एण्णास देविसयं पन्नत्तं माध्यमिका पदि पञ्चाशतं- एञ्चाशदधिक सभा में कितने हजार देख है ? वात्य सभा में कितने हजार देव हैं ? आभ्यन्तर सभा में कितनी लौ देवियां है। मध्यमा सभा में जितनी सौ देवियां है? इसके उत्तर में प्रशुश्री कहते हैं 'धरणलणं पागकुमारिंदरम' नागकुमाररनो अभित्तिरिधाए परिलाए सदेिवसहरसाई, मज्झिमियाए परिसाए सत्तति देवसहमताई, चारिरिचाए अनीतिदेवसहस्साई' हे गौतम ! नागकुमारेन्द्र मागकुमार राज चरण की - न्तर परिषदा में ६० हजार देव है। घास परिषदा में ७० हजार देव और बाह्य परिषदा में ८० हजार देव है । तथा-'अनितरपरिहार पण. सत्तरं देवीसयं पणतं मज्झिनियाए परिक्षाए णासं देवीलयं पणतं, बाहिरियाए परिसाए पणवीसं देवीनुयंप' नामकुमारेन्द्र नाराकुमारराज धरण की आभ्यन्तर परिषदा में १७५ देवियां हैं। मध्यन परिषदा में છે? મધ્યમા સભામાં કેટલા સે દેવિ છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી
छ'धरणस्स णं णागकुमारिंग्स नागकुमारणो अभितरि पाए परिसाए सट्टि देवसहस्साई, मज्झिमियाए परिखाए सत्तार देव सहस्साई, वाहिरियाए अमीति देव सहस्साई' गौतम । नागारेन्द्र न ५२ २११ घरधनी આભ્યતર પરિષદમાં ૬૦૦૦૦ માઈઠ હજાર દે છે મધ્યમ પરિષદામાં ૭૦૦ ૦૦ સિતેર હજાર દે છે, અને બાહ્ય પરિષદામાં ૮૦૦૦૦ એંસી હજાર हे छ. तथा 'अभितरियाएपरिसाए पप्णसत्तरं देवीसय पण्णत्तं, मज्झिनियाए परिसाए पण्णासं देवीसय पण्गत, बाहिरि याए परिसाए पणवीसं देवी सय पण्णत्तं' नागामारेन्द्र नागभा२ २२४ घरनी शाक्य-त२ परिपामा १७५
जी० ९५
Page #778
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमस्टे ७५९ देवीशतं प्रज्ञप्तम्, 'बाहिरियाए परिसाए पप्णवीसं देविस्यं पारतं' वाह्यायां जाताभिधानायं पर्षदि पञ्चविंशत-पञ्चविंशत्यधिक देवी शतं प्रज्ञतम् इति पर्व । द्विषयफ मुत्तरमिति । सम्पति-धरण पर स्थित देव देवीनां स्थिति दर्शयितमाह'धरणस्स णं' इत्यादि, 'धरणस्स णं ग्नो' हे पदन्त ! धरणस्य नागकुमारेन्द्रस्य नागकुमारराजस्य 'यभितरियाए परिसार' आभ्यन्तरिकायां समिताभिधानार्या पर्षदि 'देवाणं केवइयं कालं ठिई पत्ता' देवानां किया कालं स्थिति:-आयुष्यकाळा-प्रज्ञप्ता, तथा-'मज्झिमियाए परिसाए' माध्यमिकायां पर्पदि 'देवाणं कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता तथा 'वाधिरियाएपरिसाए' जाताभिधानायां पर्पदि 'देवाणं केवइयं कालं ठिई पानत्ता' देवानां कियातं कालं स्थिति प्रज्ञप्ता-कथिता तथा-'अभितरियाए परिसाए' आभ्यन्तरिका समितायां पर्पदि 'देवीणं केवश्यं फाल ठिई पन्नता देवीनां मियन्तं कालं स्थिति: जप्ता, तथा 'वाहिरियार १५० देवियाँ है । बाय परिषदा में १२५ देवियां है। अव धरणेन्द्रकी परिषत के देव देविघों की स्थिति कहते हैं-'धरणस्स णं रनो' इत्यादि 'धरणस्सणं रनो अभितरियाए परिसाए देवाणं केवतियं कालंठिती पण्णसा' नागकुमारेन्द्र नागकुमारराजधरण की आभ्यन्तर परिषदा के देवों की कितने काल की स्थिति कही गई है। 'मज्झिमियाए परिसाए देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता' मध्यमा सभा के देशों की कितने काल की स्थिति कही गई है। 'वाहिरियाए परिसाए देवाणं केवतियं कालं ठिनी पण्णत्ता' और बाह्या परिषदा के देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है। इसी प्रकार से नागकुमारेन्द्र नागकुमारराजघरण की એકસો પંચોતેર દેવિ છે. મધ્યમ પરિષદામાં ૧૫૦ દેસો દેવિ છે. બાહ્ય પરિષદામાં ૧૨૫ સવાસે દેવિ છે.
હવે ધરણેન્દ્રની પરિષદના દેવ દેવિયોની સ્થિતિ કહેવામાં આવે છે. 'धरणस्स णं रन्नो' त्यादि
'धरणस्स गं रन्नो अभितरियाए परिवाए देवाण' केवतियं काल ठिई Torar” હે ભગવદ્ નાગકુમારેન્દ્ર નાગકુમાર રાજ ધરણની આભ્યન્તર પરિષદાના देवोनी स्थितिमा नी वामां मावस छ ? 'मन्झिमियाए परिसाए देवाणं केवइय काल ठिई पण्णता' मध्यभा समानावानी स्थिति सानी B छे १ 'बाहिरियाए परिसाए देवाण केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता' भन माह પરિષદા દેવાની સ્થિતિ કેટલા કાળની કહેવામાં આવેલ છે ? એજ પ્રમાણે नागभारेन्द्र नागभार २२४ घनी 'अभि तरियाए परिसाए देवीण केवइय काळे ठिई पण्णत्ता, मज्झमियाए परिसाए देवीण देवइयं काल ठिई पण्णत्ता
Page #779
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.४८ नागकुमाराणां भवनादिद्वारनिरूपणम् ७५५ परिसाए' वाद्यायां जातायां पपदि 'देवीणं केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता' देवीनां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता-कवितेलि स्थितिविषयक: प्रश्ना, भगवानाह'गोयमा' इत्यादि, 'गोयला' हे गौतम ! 'धरणस्स रन्नो' धरणस्य नागकुमारेन्द्रस्य नागकुमारराजस्य 'अमितरियार परिसाए' आभ्यन्तरिकायां समिताभिधानायां पर्षदि 'देवाणं साइरेगं अद्धलि भोवमं ठिई पन्नत्ता' देवानां सातिरेकमर्धपल्यो. पमं स्थितिः प्रज्ञप्ता, 'मज्झिमियाए परिसाए देवाणं' माध्यमिकाया द्वितीयस्या चण्डामिधानायां पदि देवानाम् 'अद्धलिओवम ठिई पन्नत्ता' अद्धएल्योपमप्रमाणा स्थितिः प्रज्ञप्ता, तथा-'बाहिरियाए परिसाए देवाण' बाह्यायां जाताभिधानायां पर्षदि देवानाम् 'देस् णं अद्धपलिओवम ठिई पन्नत्ता' देशोनं-देशतोन्यूनमर्धपल्योपन स्थितिः प्रज्ञप्ता, एबम्-धरणेन्द्रस्य नागकुमारराजस्य 'अन्मि'अभितरियाए परिसाए देवीणं केवतियं कालं ठिती पण्णता मज्झसिघाए परिसाए देवीणं केवयं कालं ठिती पण्णत्ता वाहिरियाए परिसाए देवीणं केवइथं झालं ठिई पण्णत्ता आम्धन्तर परिषदा की देवीयों की स्थिति मिलने काल की है ? मध्यमा परिषदा के देवीयों की स्थिति कितने काल की है ? एवं बाह्य परिषदा के देवीयों की स्थिति कितने बाल की है ? इलके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं 'गोयमा धरणसारको अभितरियाए परिसाए देवाणं साइरेगं अद्धपलिओजम ठिई पन्नता' हे गौतम ! नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज धरण की आभ्यन्तर परिषदा के देशों की स्थिति कुछ अधिक अद्ध पल्योपम की है झिमिशाए परिसाए देवाणं अद्धपलिओवम ठिई पण्णसा'
मध्यम्द परिषदा के देशों की स्थिति-आयुष्काल-अर्द्ध पल्पोपम की है 'वहिरियार परिसाए देवाणं देसूणं अद्धपलिओवमं ठिई पण्णत्ता' बाह्य बाहिरियाए परिसाए देवीण' केवइय काल ठिई पण्णत्ता' AGयन्त२ परिषहानी દેવિયેની સ્થિતિ કેટલા કાળની છે ? મધ્યમ પરિષદાની દેવિયાની સ્થિતિ કેટલા કાળની છે? તેમજ બાહ્ય પરિષદાની દેવિયની સ્થિતિ કેટલા કાળની छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४९ छ में 'गोयमा ! धरणस्स रण्णो अभित. रियाए परिवाए देवाणं साइरेग अद्धपलिओवम ठिई पण्णत्ता' गीतम! નાગકુમારે નાગકુમારરાજ ધરણની આક્યુતર પરિષદાના દેવાની સ્થિતિ ४४ वारे मध यस्योपभनी छे. 'मज्झिमियाए परिसाए देवाणं अद्धपलिओवम ठिई पगत्ता' मध्यम परिषहाना हेवोनी स्थिति मायुष्या पक्ष्ये।५मनी छे. 'वाहिरियाए परिसाए देवाणं देसूणं अद्ध गलि ओवम ठिई पण्णत्ता' माह પરિષદાના દેવેની સ્થિતિ કંઈક કમ અર્ધ પલ્યોપમની છે. એ જ પ્રમાણે
Page #780
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगम
७५६
वरियार परिसाए देवीणं' आभ्यन्तरिकायां समिताभिधानायां प्रथमायां पर्पदि देवीना 'देणं अद्धपगोवमं ठिई एन्दत्ता' देशोनं-देशतो न्यूनमदुर्धपल्योपम स्थितिः प्रज्ञप्ता, 'मन्झिमियाए परिसाए देवीणं' माध्यमिकायां चण्डाभिधानायां पर्पदि देवीनाम् 'साइरेगं चउमागपलिओनम ठिई एन्नता' सातिरेकं चतुर्भाग पल्योपमं पल्योपमस्य सातिरेकचतुर्थी मागः स्थितिः प्रज्ञप्ता, तथा - 'बाहिरियाए परिसाए देवीणं' वाह्यायां जाताभिधानायां चरमायां पर्पदि देवीनाम् 'चउभाग पलिओम ठिई पन्नत्ता' चतुर्भाग पल्योपमस् पल्योपमस्य चतुर्भागप्रमाणास्थिति भवतीति । 'अहो जहा चमरस्स' अर्थों यथा चमरस्य,
अयं भावः - भदन्त ! धारणस्य नागकुमारेन्द्रस्य नागकुमारराजस्य केन कारणेन तिस्रः पर्पदः प्रज्ञप्ताः, समिता चण्डा जाता आभ्यन्तरिका समिता, माध्यमिका चण्डा, वाया जातेत्यादिकं सर्वे चमरासुरकुमारेन्द्रासुरराजवदेव ज्ञातव्यमिति ||
परिषदा के देवों की स्थिति कुछ कम अर्द्धपल्योपम की है इसी तरह नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज धरण की आभ्यन्तर परिषदा की देवियों की स्थिति 'देवतृणं अपलिओन ठिई पण्णत्ता' कुछ कम अर्द्ध पत्योपस की स्थिति कही गई है 'झिमिधाए परिसाए देवीणं साइरेगं चभागपलिओदमं ठिई पण्णत्ता' मध्यमा परिषदा के देवियों की स्थिति कुछ अधिक पल्पोपन के चतुर्थ भाग प्रमाण है 'अट्टो जहा चमरस्स' इस सूत्र पाठ का ऐसा तात्पर्य है - हे भदन्त । नामकुमारेन्द्र-नागकुमा रराज वरण की ये तीन परिषदाएं किस प्रकार से आपने कहीं हैं ? तो हे गौतम! तुम्हारे इस प्रश्न का उत्तर असुरकुमारेन्द्र असुरकुमारराज
मर के प्रकरण में जैसा इस म्बन्ध में कहा गया है वैसा ही है अतः (- समुच्चय) वहीं से यह समझा जा सकता है ?
નાગકુમારેન્દ્ર નાગકુમારરાજ ધરણુની આભ્યન્તર પરિષદાની દૈવિયેાની ફેકૂળ अद्धपलिओम' ठिई पण्णत्ता' भ अर्ध पयेोयभनी छे. 'मज्झमियाए परिसाए देवीणं साइरेग' चउभागपलिओम' ठिई पण्णत्ता' मध्यमा परिषहानी हेवियानी स्थिति ४६ पधारे पयोभना योथा लाग प्रभाशुनी छे. 'अट्ठो जहा વરરસ' આ સૂત્રપાઠનું તાત્પર્ય એવું છેકે હે ભગવન્ નાગકુમારેન્દ્ર નાગકુમાર રાજ ધરણુનીએ ત્રણ પરિષદાઓ શા કારણથી આપે કહી છે ? ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે હું ગૌતમ ! આ તમારા પ્રશ્નના ઉત્તર અસુરકુમારેન્દ્ર અસુરરાજ ચમરના પ્રકરણમાં આ વિષયમાં જેવું કથન કરવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણે છે. જેથી ત્યાંથીજ આ પ્રશ્નના ઉત્તર સમજી લેવા. આ રીતે ઔધિક નાગકુમારતુ અને દક્ષિણ દિશાના નાગકુમારનુ નિરૂપણુ કરીને હવે સૂત્રકાર ઉત્તર દિશામાં
Page #781
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमैयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ २.४८ नागकुमाराणां भवनादिद्वारनिरूपणम् ७५७
औधिकनागकुमारान् दाक्षिणात्यांश्च तान् निरूप्योत्तर नागकुमारान्निरूपयितुमाह-'कहि णं भंते ! उत्तरिल्लाणं' इत्यादि,
'कहिण भंते ! कुन-कस्मिन् स्थाने खल्लु भदन्त ! 'उत्तरिल्लाण नाग कुनाराणां भवनानि प्रज्ञानि इति प्रश्नः, उत्तरति-'जहाठाणापदे जाव विहरह' यथा-स्थानपदे प्रज्ञापनाया स्थानाख्ये द्वितीयपदे यावत्-मोगमोगान् भुञ्जानो विहरति, इत्यन्तं कथितं तथैवात्रापि ज्ञातव्यम् ।
सम्पति-भूतानन्दस्य पर्षन्निरूपणार्थ माह-'भूयाण इस णमंते' इत्यादि, 'भूयार्णदस्स ण भंते !' भूतानन्दस्य खलु भदन्त ! 'नागकुमारिंदस्स नागकुमाररनो' नागकुमारेन्द्रस्य नागकुमारराजस्य 'अमितस्थिाए परिसाए' आम्यन्तरिकायां सषिताभिधानायां प्रथमायां पर्षदि कइ देसाहसीमो पन्नत्ताओ' कति देवसाहत्या-देवपहस्राणि प्रज्ञप्ता । 'मज्झिमियाए परिसाए' माध्यमिकायां पर्पदि 'कह देव साहस्ती भो पन्नताओ' कति देवसहस्त्राणि प्रज्ञप्लानि, 'बाहिरियाए परि
इस तरह औधिक नागकुमारों का एवं दक्षिण दिशा के नाग कुमारों का निरूपण करके अब्ब सूत्रकार उत्तर दिशा नागकुमारों का निरूपण करते है-'कहिणं मंते। उन्तरिल्लाणं नामकुमाहाणं भवणा पण्णत्ता' हे भदन्त ! उत्तर दिशा के नागकुमारों के भवन कहां पर है ? उत्तर में प्रभुश्री कहले है हे गौन ! प्रज्ञापनासूत्र के स्थानपद नामक क्षितीय पद में कहे गये पाठ के अनुसार उन ना कुमारों के भवन है और वे वहां दिव्य मोग उपभोग भोगते हुए रहते हैं। ___ अब भूतानन्द के परिषत् का निरूपण करते है 'भूयाणंदसणं णागकुमारिदस्त नागकुमाररको अभिसरियाए परिसाए कत्ति देवसाहस्सीओ पण्णशाओ' हे भदन्त ! लागकुमारेन्द्र नागकुमारराज भूता. नन्द की आभ्यन्तर परिषदा में कितने हजार देव कहे गये हैं ? नागकु. रसुवामा नागमोशनु नि३५५, ४२ छे. 'कहिण भते ! उत्तरिल्लाणं नागकु. माराणं भवणा पण्णचा' है भगवन् त्त२ हिशाना नागभारोना भवना या આવેલા છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે હે ગૌતમ 'જ્ઞાપના સૂત્રના સ્થાન નામના બીજા પદમાં કહેવામાં આવેલ પાઠ પ્રમાણે એ નાગકુમારના ભવને છે. અને તેઓ એ લાવનમાં ભેગે પગને ભોગવતા થકા રહે છે,
वे भूतान हनी परिषानुन ४२१ामा मावे छे. 'भूयाणंदस्य णं णागकुमारिदस्स नागकुमाररण्णो अभि तरियाए परिसाए कति देवसाहसीओ पण्णarો' હે ભગવન નાગકુમારેન્દ્ર નાગકુમારરાજ ભૂતાનંદની આત્યંતર પરિષદામાં કેટલા હજાર દેવે કહેવામાં આવેલ છે? નાગકુમારોને ઈદ્ર ભૂતાનંદ છે. અને
Page #782
--------------------------------------------------------------------------
________________
હૈ
जीवामिगमसूत्रे
,
साए कइ देवसाहसी भी पन्नताओ' बाह्यायां जाताभिधानायां पर्षदि कति देवसाहस्त्रयः प्रज्ञप्ता', 'अतिरियाए परिसाए कई देविसया पन्नत्ता' आम्यन्तरि कायां समिताभिधानायां पर्षदि कवि देवीशतानि प्रज्ञवानि 'मज्झिमियाए परिसाए कई देविसया पन्नत्ता' माध्यमिकायां पदि कति देवीशतानि मज्ञप्तानि तथा - 'बाहिरियाए परिसाए कई देविसया पन्नता' कह्यामं जाताभिधानायां पदि कति देवीशतानि प्रज्ञप्तानीति पश्नः भगवानाइ - 'गोरमा' हे गौतम! 'भूयानंदस्स णं नागकुमारिदस्त नागकुपाररन्नो' भूतानन्दस्य खद्य नागकुमारेन्द्रस्य नागकुमारराजस्य 'अमिरियाए परिसाए' अन्तरिकायां समिताभिधानायां पर्व दि 'पन्नासं देवसाहस्सीओ पन्नता मो' पचारादेव सहस्राणि-मज्ञप्तानि कथितानि 'मझिमियाए परिसाए' माध्यमिका पर्पदि 'सद्धि देवसाहस्सीओ मारो का इन्द्र भूतानन्द और यह उत्तर दिशा के नामकुमारों का राजा है 'मझिमियाए परिलाए कह देवसाहस्त्रीओ पन्नत्ताओं' इसकी मध्यमा परिषदा में किसने हजार देष कहे गये है तथा 'बाहिरियाए परिसाए कहदेव लाही पण्णत्ता' इसकी बाह्य परिपदा में कितने हजार देव कहे गये हैं। इसी तरह 'अतिरिए परिसाए कह देसिया पण्णत्ता ? मज्झमियाए परिवार कइ देविसया पण्णत्ता, 'बाहिरियाए परिसाए कह देवीसया पण्णस' भूनानन्द की आभ्यन्तर परिषदा में कितनी नौ देवियां कही गई है। मध्यमा परिषदा में कितनी सौ देवियां कही गई है ? बाह्य परिक्षा में कितनी सौ देवियां कही गई है ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं 'भूशणं दस्त - नागकुमारिंद रस- नागकुमार अतिरियार परिए एना देवसहरूला पन्तत्ता' हे गौतम! नामकुमारेन्द्र नागकुमारराज भूनानन्द की आस्प्रकार परि पदा में ५० हजार देव कहे गये हैं मध्यम परिषदा में 'सहि देवसाह
मे लुतानहं उत्तर द्विशना नागकुमारीनो न छे 'सज्झिमियार परिसाए कई 'देवसाहस्सीओ पन्नत्ताओ' तेनी मध्यमा परिषद्यामां डेंटला डेलर हेवा उद्या हे ? तथा 'बाहिरियाए परिसाए कइ देवमाहरसीओ पन्नताओ' तेनी 'ह्या परिषहाभां डेंटला उत्तर देवा उद्या हे ? ते प्रमाये 'अभितरियाए परिसाए देवि
या पण्णत्ता, बाहिरियाए परिसाए कई देविसया पण्णत्ता' भूनान हनी शाक्य-नर ષિમાં કેટા સે કેવિયેા કહે છે ? મધ્યમા પરિષામા કેટલા સે। દેવચે કહે છે? અને ખાદ્ય પરિષદમાં કેટલા મા દેવો કહેલ મા આવેગ છે ? या प्रश्नना उत्तरमा प्रभुश्री गौतमस्मीने हे छे 'भूयानंदस्स नागकुमारि दसून नागकुमाररन्नो अतिरियाए परिखाए पन्नास देव सहस्सा पन्नत्ता' हे ગૌતમ ! નાગકુમારેન્દ્ર નાગકુમારરાજ ભૂતાનની આભ્યન્તર પરિષદામાં
Page #783
--------------------------------------------------------------------------
________________
ergom
-
प्रमेयधोतिका सीका प्र.३ उ.३ खू.४८ नागकुमाराणां भवनादिद्वारनिरूपणम् ७५९ पन्नत्तायो' षष्टिः सहस्राणि-पष्टिसहस्रपरिमिता देवा भवन्तीति, बाहिरिचाए परिसाए' बाह्य यां पर्षदि 'सत्तरि दे साहस्पीभो पन्नताओ' सप्तति देनमा स्त्राणि प्रज्ञप्तानि, ज्या-'अभिरिमाए परिसाए' आभ्यन्तरिका समिताभिधानाणं पपदि दो पणवीसं देविसयाण पन्नता' पञ्चविंशे-पश्चविंशत्यधि के द्वे देवीश ते प्रज्ञप्ते-कथिते 'मझिविवाह परिमार' माध्यमिक्षायां पर्षदि 'दो देविमया पन्नत्ता' परिपूर्णे द्वे देवीशने प्रज्ञप्ने, तथा-'बाहिरियाए परिसाए' वाह्या पर्षदि 'एणसत्तरं देविसर पनत्तं पश्च सप्तं-१ञ्च सप्तत्यधिक देवीशतं शज्ञप्तमिति । __ भूतानन्दीय पर्षत् स्थित दे देनां स्थितिमानं दर्शयि प्रश्न यन्नाह-धृयादस्स' इत्यादि, 'भूपागदमण भने' भूनानन्दम खलु भइन्त ! 'नागकुमारि दस्स नागकुमाररन्नो' नागकुवारेन्द्रस्य नागकुमारराजस्य 'अभिवरियाएपरिसाए' आभ्यन्तरिकायां पर्पदि देवाण केवायं कालं ठिई पन्नत्ता' देवानां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता-कथिता. 'जाव' यावत् माध्यमिकानों पर्पदि देवाना कियन्तं स्सीओ पन्नताओ' ६० हजार देख कहे गये हैं 'बाहिरियाए परिलाए' बाह्य परिषदा में 'सत्तरदेवशाहरूसीओ पन्नताओ' ७० सत्तर हजार देव कहे गये हैं । तथा-'अभिमरियाए परिसाए' आभ्यन्तर परिषदा में 'दोपण्णवीसं देविलवाणं एन्नत्ता' २२५ देवियां कही गई । 'मज्झिमि. याए परिसाए दो देविसया पन्नत्ता' परिषदा में दो सौ देवि कही गई है 'बाहिरियाए परिसाए पण्णसत्तरं देविलयं पन्नत' पाह्य परिषदा में २२५ देवियां की गई है भूनानन्द की परिषदास्थित देव देवियों की स्थिति काल का कथन करते हैं। 'भूतानंदस्मण भंते' नामकुमारिंदम्स नागकुमाररन्नो अभितरियोए परिसाए देवाणं केवइयं कालंठिई पन्नत्ता' हे भवन्त ! नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज भूनानन्द की आभ्यन्तर परि५०००० ५यास १२ । सो छे मध्यम परिषामा 'सटि देवसाहस्सीओ पत्नत्ताओं' १०००० मा १२ वा द्या. 'बाहिरियाए परिसाए' मा परिषामा 'सत्तरि देव साहस्सीओ पन्नत्ताओ' ७०००० सित नरहे। जहा. तथा 'अभितरियाए परिमाए' मान्यत२ परिषामा 'दो पण्णवीस देविसया पन्नत्ता' २२५ से। पयास वियो डस छे. 'मज्झिमियाए परिसाए दो देविमण पन्नत्ता' मध्यमा परिषदमा २०० असे क्यिा ४ 'बाहिरियाए परिसाए पण्णत्तर देविसय पण्णत्त' या परिषामा १२५ मे से ५यास हेवियो ।
હવે ભૂતાનંદની પરિષદમાં કહેલ દેવ દેવિની સ્થિતિ નું કથન ४२वामां आवे छे. 'भूतानंदस्स ण भते । नागकुमारिदम्स नागकुमारण्णो भभितरियार परिसाए देवाणं केवइय काल ठिई पप्णचा' भगवन् नागाभा
Page #784
--------------------------------------------------------------------------
________________
ame
%
जीवामिगमस्त्र काल स्थिति यज्ञप्ता. तया- वाह्यायां पर्षदि देवानां फिरन्तं झालं स्थिति मशता, एवम्-आन्तरिका पदि देवीनां शियन्तं कालं स्थिति मज्ञता माध्यमिफायां पर्पदि देवीनां शियन्त कालं स्थिति जसा था-'बाहिरियाए परिसाए देवीणं केवयं कालं ठिई पन्नत्ता' वाया पर्पदि देवीनां कियन्तं कालं स्थिति. प्रज्ञप्तेति श्न:, भगवाना-पमा' इत्यादि, 'गोर सा' हे गौतम ! 'भूयाणदस्स णं अभितरियाए परिस' भृतानन्दस्य र लु अ.भ्यन्न रिकार समिताभिधानार पदि 'देवाएं देरणं पालम दिई नसा देवदेशीन एल्यो स्थिति मज्ञप्ता, 'मझिरियाए परिमाए' माध्यम काय चण्डाभिधानादि 'देवाणं साइरेग अद्ध लबोच टिई पत्ता' देवानां सादिरेकर एल्योएम स्थितिज्ञता, तथा - 'बाहिरिगाए परिसाए देवाण' बाह्यायां जाताभिधानायां पर्षदि देवानाम् 'अजपालो मं दिई एमत्ता' धपल्यापमं स्थितिः षदा के देवो की रिति-आयुकाल-शितनी कही गई है। इसी तरह से प्रध्यमा परिपदा के देवों की स्थिति फितली की गई है? वाया परिषदा के देवों की स्थिति किनी कही गई है ? तधा-आमन्तर परिषदा देवियों की स्र्थाित कितनी ही गई है मध्यमा परिषदाकी देवियों की स्थिति कितनी कही गई है। वहय परिषदामी देवियों की स्थिति कितनी कही गई है ? इसके उत्तर में मसुश्री कहते हैं 'गोयमा' भूता. नंदस्स अतिरिमाए परिकार देवाणं देसूण पलिमोवमंठिनी पण्णत्ता' हे गौतम ! भूनानन्द बी आस्तर परिपदा के देवों की स्थिति कुछ कम एक पल्यापम की कही गई है 'मज्झिमियाए परिसाए देवाणं साइरेगं अदलिओवन ठिनी पण्णता' मध्यमा परिषदा के देवों की कुछ अधिक आधे लोपम की स्थिति कही गई है 'बाहिरियाए परिરેન્દ્ર નાગકુમારાજ ભૂમાનંદની આત્યંતર પરિષદાના દેવોની સ્થિતિ–આયુષ્યકાળ કેટલી કહેલ છે ? અજ પ્રમાણે મધ્યમા પરિષદાના દેવાની સ્થિતિ કેટલી કહેલ છે ? તથા બાહ્ય પરિષદાના દેવેની સ્થિતિ કેટલી કહેલ છે ? તથા અન્ય તર પરિષદાની દેવિની સ્થિતિ કેટલી કહેલ છે? મધ્યમા પરિષદાની દેવિની સ્થિતિ કેટલી કહેલ છે? અને બાહ્ય પરિષદાની દેવિની સ્થિતિ કેટલી કહેલ छ १ मा प्रश्न 11 उत्त२५i प्रसुश्री गौतमस्वामीन ४९ छ है 'गोयमा ! भूतान दम्स अभि तरियाए परिवाए देवाणं देसूर्ण पलिओक्म ठिई पण्णत्ता' ગૌતમ ! ભૂતાનંદની અત્યંતર પરિષદાના દેવોની સ્થિતિ કંઈક ઓછી से पत्ये ५भनी ४ माद थे 'म जिझमियाए परिसाए देवाण साइरेग अद्धपलि ओवम ठिई पण्णता' मध्यमा परिषहाना हेवानी स्थिति ४५ धारे
Page #785
--------------------------------------------------------------------------
________________
HOMEOPAHIRGE
कालकान
प्रमेयधोतिकाही हा प्र.२ १.३.४८ नागकुमाराणां भवनादिद्वारनिरूपणम् ७६१ प्रसप्ता, एवम्-भृतानन्दस्य नागकुमारेन्द्राय 'अभितरियाए परिसाए' आभ्यन्तरिकायां समिताभिधानायां पर्पदि देवानाम् 'अद्वपलिभोनम ठिई पन्नत्ता' भद्धपल्योपमपमाणात्मिका स्थितिः प्रज्ञला, तथा-'मज्झिमियाए परिसाए देवीणं' माध्यमिकायां पर्षादि देवीनाम् 'देसू णं अद्धपलिओवयं ठिई पन्नन्ना' देशोनंदेशन्यूनम् अर्धपल्योपम स्थितिः प्रज्ञप्ता, तथा-'वाहिरियाए परिसाए देवीणं' बाह्यायां पर्पदि देशीनाम् 'साइरेग चउभागपलिओवम' पल्योपमस्य चतुर्थभाग परिमितं स्थिति: पज्ञप्ता 'अत्यो जहा च सरस्स' अर्थों यथा चमरस्य चमरस्यअसुरकुमारराजस्य पदः समितादिनामव्यपदेश करणं यथायथं तत्केनार्थेन भदन्त । एवमुच्यते, इत्यादि पश्नोत्तरप्रकरणे करितं तथैव भूतानन्दस्य नागकुमारेन्द्रस्य नागकुमारराजस्य पर्पदः सरिता-चण्डाजातानामाभ्यन्तरिका माध्य. मिका बाह्याभिधानकारणं ज्ञातव्यमिति । 'अबसे साणं देणुदेवादीणं महाघोस साए देवाणं अद्धपलिओचम ठिई पण्णत्ता' बाह्य परिषदा के देवों की स्थिति भवस्थिति आधे पल्यापम की कही गई है। इसी तरह से 'अमितरियाए परिसाए देवीणं अद्धपलि भोवमं ठिई पणत्ता' नागकुरेन्द्र नागकुमारराज भूतानन्द की आभ्यन्तर परिषदा की देवियों की स्थिति आधे पल्योपन की कही गई है। 'मज्झिमियाए परिसाए देवीणं अद्धपलिभोवमं ठिई पण्णता' मध्यमा परिषदा की देविकों की स्थिति कुछ कम आधे पल्योपम की कही गई है। 'बाहिरियाए परिसाए देवीणं साइरेगं चउभागपलिओवम ठिई पन्नत्ता' याह्या परिषदा की देवियों की कुछ अधिक पल्प के चतुर्थ भाग प्रमाण स्थिति कही गई है ! 'अत्यो जहा चमरस' यहां हे अदन्त ! इनकी समितियों का ऐसा नाम क्यों कहा गया है। इस तरह के प्रश्न का उत्तर जैसा चमर के प्रकरण में मा५श्या५मनी व 'बाहिरियाए परिसाए देवाण अद्धपलिओवम ठिई पण्णत्ता' ह्या परिवाना वानी स्थिति स्थिति अर्धा ५८ये।५मनी हेस
छ । प्रभो 'अभितरियाए परसाए देवीणं अद्धपलि शेवम ठिई पण्ण રા’ નાગકુમારેન્દ્ર નાગકુમારરાજ ભૂતાનંદની અત્યંત પરિષદાની દેવિયેની स्थिति अर्धा पक्ष्यापभनी अवामा मास छे. 'मज्झिमिया परिमाए देवीणं देसूणं अद्धपलिओवम ठिई पण्णत्ता' मध्यमा ५२पहानी वियानी स्थिति इन अर्धा त्योभनी aa छ 'वाहिरियाए परिसाए देवीणं साइरेग' चतभागपलिओवम ठिई पन्नत्ता' मा परिषहानी हरियानी स्थिति x पधारे पस्यना याथा भाग प्रमाण वामां पीछे 'अत्थो जहा चमरस्त' અહિયાં હે ભગવન તેમની સમિતિઓના એ પ્રમાણેના નામે કેમ કહ્યા
जी. ९६
Page #786
--------------------------------------------------------------------------
________________
८६३
जीवामिगमन पज्जवसणाणं ठाणवत्तश्या निश्चयवा भागियच्या अवशेषाणामसुरकुमार नागकुमारराज व्यतिरिक्तानां वेणुदेवादीनां महापपर्यवसानाना-महाघोपान्तानां स्थानाख्य प्रज्ञापनागत द्वितीयपदवक्तव्यता निरव शेषा गणितव्या।
पर्षद्विपये यन्नानात्वं सदाह-मूत्रकार:-'परिमाओ जहा-धरण भृयाणंदाणे' दाहिणिल्लाण जहा धरणस्स उत्तरिल्लाणं जहा सृयाणंदरस, परिमाणवि ठिई वि' पर्षदो यथा-धरण-भूतानन्दयो', दक्षिणात्यानां यथा धरणस्य, औतराणां यथा-भूतानन्दस्य, परिमाणमपि स्थितिरपि, इतिच्छाया । वेणु देवादीनां भवनपतिराजानां पर्षदो यथा-येन प्रकारेण धरणस्य भूतानन्दस्य च कथिता स्तर वेणुदेवादि महाघोपपर्यन्तानां सर्वेषां भवनपतिराजानामपि वक्तव्याः ।
विशेषरस्वयम्-दाक्षिणात्यानां-दक्षिणदिग्वतिनां भवनतिराज सम्बन्धिः नीनां पर्पद वर्णनं यथा धरणस्य भवनपतिराजस्य तथा ज्ञातव्यम् ! औत्तराणाम् दिया गया है उसी प्रकार से वही उत्तर जानना चाहिये 'अवसेसाणं वेणुदेवादीणं महाघोसपज्जवलाणं ठाण पदयत्तच्या निरपयवा भाणियच्या' बाकी के वेणुदेव आदि ले लेजर महाघोष तक के भवनपतियों की वक्तव्यता जैसी प्रज्ञापना के द्वितीय पद में कही गई है वैसी ही वह पूरी यहां पर भी कह लेनी चाहिये । परिषदा के विषय में जो भिन्नता है उसे लूत्रमार स्वयं परिलाओ जहा धरण भूत्राणं दाणं दाहि जिल्लाणं जहा धरणस्त उत्तरिल्लाणं जहा भूयाणंदस्त परिमाणंपिठिई वि' इस सूत्राठ से बताया है दक्षिण दिशाके असुरकुमार की पर्षदा धरणेन्द्र की परिर्पदा के समान है एवं उत्तरदिशा के असुरकुमारी की परिषदा भृतानन्द की परिषदा के जैसी है वेणुदेव से लेकर महाघोषः पर्यन्त के अचनपतिराजाओं की परिषदा जैसी धरणेन्द्र एवं भूतानन्द की છે ? એ રીતના પ્રશ્નનો ઉત્તર જે રીતે ચમરના પ્રકરણમાં આપવામાં આવે स छ, मेरी प्रभारीने उत्तर महियां ५ समो . 'अवसेसाणं वेणुदेवा दीण महाघोसपज्जवसाण ठाण गवत्तव्वया निरवयवा भाणियव्वा' मीन राव વિગેરેથી આરંભીને મહાઘોષ સુધીના ભવનપવિત્યાનું કથન પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના બીજા પદમાં કહેલ છે એજ પ્રમાણે એ પૂરે પૂરું કથન અહિ પણ કહી લેવું જોઇએ પરિષદના સંબંધમાં જુદા પણું આવે છે. તેને સૂત્રકાર
तर परिसाओ जहा धरणभूयाणंदाणं दाहिणिल्लाणं जहा धरणस्स उत्तरिल्लाणं जहा भूयाण दस्स परिमाण पि ठिई वि' मा सूत्र पा४थी हे छे. इक्षिण દિશાના અસુરકુમારની પરિષદાઓ ધરણેન્દ્રની પરિષદાની સમાન છે. અને ઉત્તર દિશાના અસુરકુમારની પરિષદ ભૂતાનન્દની પરિષદની સરખી જ છે. વેણ
Page #787
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्यौतिका टीका नं. ३ उ. ३ . ४८ नांगकुमाराणां भवनादिद्वारनिरूपणम् ७६३
-
उत्तरदिग्वर्तिनां च भवन रविराज सम्बन्धिनीनां वर्णनं यथा भूतानन्दस्य भवनपतिराजस्य तथा वक्तव्यम् । तथा वत्तस्पद्रव देवदेवीनां परिमाणमपि स्थितिरपीति परिमाणस्थिति वर्णनं च दाक्षिणात्यानां धरणमागत देवदेवीनामिव औतराणां च भूतानन्दसागत देवदेवीनामिव वेणुदेवादि महाघोष पर्यन्तानां भवनपतिराजानामपि विज्ञेयमिति । एषाम सुकुमारादीनां सर्वेषां भवनपतीनां भवननानात्वम् इन्द्रनानात्वं परिमाणनानात्वं चैवाभिः सप्तभिर्गाथाभिर्विज्ञातव्यम्, तामा: - 'चउसकी असुराणं१, चुलसीई चेद होइ नागाणं २ | बावतारं सुवन्ने३, बाउकुमाराण छन्नउई ४ ||१||
'
परिषदा कही गई है वैसी ही समज लेवें, विशेषता यही है की दक्षिणदिग्वर्ति भवनपतिराज की परिषदा का वर्णन जिस प्रकार धरणेन्द्र भवनपतिराज की परिषदा का वर्णन है वैसा समज लेवें, उप्तरदिशा के भवनपतिराज की परिषदा का वर्णन भवनपतिराज भूनानन्द की परिषदा के वर्णन जैसा ही है उस उस परिषदा के देव देवियों के परिमाण एवं स्थिति का वर्णन दक्षिणदिशा के धरणेन्द्र की सभा के देवदेवियों के परिमाण जैसा ही कह लेवें, और उत्तर दिशा के वेणुदेवादि महाघोष पर्यन्त के देवदेवियों का परिमाण भूतानन्द की सभा के देवदेवियों के परिमाण जैसा ही कहा है ये सभी असुरकुमारादि भवनपतियों के केवल भवनों में इन्द्रों में भिन्नता है - वह इन सात गाथाओं द्वारा जान लेना चाहिये, वे गाथाएं संस्कृत टीमें दी गई है। इन गाथाओं की व्याख्या इस प्रकार है-यहां दक्षिण और उसर इस प्रकार दोनों
દેવથી લઈને મહાથેાષ સુધીના ભવનપતિ રાજાએાની પરષદ ધરણેન્દ્ર અને ભૂતાનન્દની પરિષદ જેવી કહી છે તેજ પ્રકારની છે. વિશેષતા કેવળ એજ છે કે દક્ષિણ દિશાના ભવનપતિરાજની પરિષદાતુ વર્ષોંન જે પ્રમાણે ધરણેન્દ્ર ભવન પતિરાજની પરિષદાનું વર્ણન કહેલ છે. તેજ પ્રમાણે સમજવું. અને ઉત્તર દિશાના ભવનપતિરાજની પરિષદાનું વન ભવનપતિરાજ ભૂતાનન્દની પરિષદા ના વર્ચુન પ્રમાણેજ છે. તે તે પરિષદાના દેવ દેવિયાના પરિમાણુ અને સ્થિતિનું વર્ણન દક્ષિણ દિશાના ધરણેન્દ્રની સભાના દેવ દેવાના પરિમાણ પ્રમાણેજ છે, અને ઉત્તર દિશાના વેણુદેવથી લઈ મહાધેાષ સુધીના દેવ દેવચેાનું પરિમાણુ ભૂતાન દની સભાના દેવ વિયેાના પરિમાણુ પ્રમાણે છે અસુરકુમારાદિ બધાજ ભવનપતિયાના કેવળ ભવનેામાં કેંદ્રોમાં અને પરમાણુના કથનમાં જુદા પણુ તે માની સંસ્કૃત ટીકામાં આપવામાં આવેલ સાત ગાથાઓથી સમજી લેવુ', એ ગાથાઓની વ્યાખ્યા આ પ્રમાણે કરવામાં આવેલ છે મામાં દક્ષિણ અને
छे.
Page #788
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमस्से दी३५ दिसा६ उदहीणं७ विज्जुकुमारिंद८ थणिय९ मग्गीण१०॥ छण्हपि जुयलयाणं, छावत्तरिओ सयसहस्सा ॥२॥ चोत्तीसार चोयाला२, अदृत्तीसं च लयसहस्साई । पण्णा४ चत्तालीसा१०, दाहिणओ होति भवणाई ॥३॥ तीसा१ चत्तालीसा२, चोत्तीसं३ चेव मयसहस्साई। छायाला छत्तीसा१०, उत्तरओ होति भवणाई।४। चमरे१ धरयो२ तहवेणुदेव३ हरिवंत४ अग्गिसिहे ५ य । पुण्णे६ जलकंतेय, अमिए८ लंबेय घोसे १८या।५। बलि १ भूपाणंदे२ येणुदालि ३ हरिस्तह ४ अग्गिमाण५ वविसिटे६। जलप्पभ७ अभियवाहण ८ एभंगणे९ चेव महघोसे १० ॥३॥ चउसट्ठी१ सट्ठी२ खल्ल, छच्च सहस्साउ अनुरवज्जाणं । सामाणियाउ एए, चउगुणा आयर खाउ, 101 (चतुःषष्टिरसुराणां चतुरशीति भवति नागानाम् । द्वासप्ततिः सुवर्णानां वायुकुमाराणां पग्णवतिः ॥१॥ द्वीपदिशोदधीनां विद्युत्कुमारेन्द्रस्तनिताग्नीनाम् । पण्णामपि युगळकानां षट्सप्ततिः शतसहस्राणि ॥२॥ चतुर्विंशच्चतुश्चत्वारिंश दष्टत्रिशच्च शतसहस्राणि । पञ्चाशच्चत्वारिंशदक्षिणतो भवन्ति भवनानि ॥३॥ त्रिशच्चत्वारिंशच्चतुस्विंशच्चत्र शतसहस्राणि । पट् चत्वारिंशत् पत्रिंशदुत्तरतो भवन्ति भवनानि ॥४॥ चमरो धरणस्तथा वेणुदेवो हरिकान्तोऽग्निसिंहश्च । पूर्णो जलकान्तश्वामितो लम्बथ घोपश्च । । ५॥ चलिर्भूतानन्दो वेणुदाली हरिस्सह अग्निमाणव विशिष्टः जळपभोऽमितवाहनः ममजनश्चैत्र महाघोपः ॥६॥ चतुषष्टिः खल्ल पट् च सहस्राणित्वसुर वर्जानाम् ।
सामानिकास्तु एते चतुर्गुणा आत्मरक्षकास्तु । ७॥ अथासां गाथानां व्यख्यामाह-तत्र पूर्व दक्षिणोत्तरेति दिगद्वय वर्जित्तानां भवनपतीनां समुच्चयेन समील्य भवनसंख्या प्रदर्शयति-'चउसही' इत्यादि दिशाओं में रहने वाले भवनदासियों के भवनों की समुच्चयरूप से मिलाकर संख्या कहते हैं।
ઉત્તર અને દિશામાં રહેવાવાળા ભવનવાસી દેવોના ભવનોની સંખ્યા સમુથય રૂપે મેળવીને કહેવામાં આવેલ છે વરસી ઈત્યાદિ ૧ અસુરકુમારોને
Page #789
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका ठीका प्र.३ उ.३ सू.४८ नागकुमाराणां भवनादिद्वारनिरूपण- ७६५ गाथा १-२।। असुरकुमाराणां च षष्टि मदनलक्षाणि६४। नागकुमाराणां चतुर शीति भवनलक्षाणि ८४ ।
सुवर्णकुमाराणां द्वासप्तति भवनलक्षाणि ७२ । वायुकुमारराणां पग्णवति भवनलक्षाणि ९६॥ ना.११ द्वीपकुमार-दिवकुमारो-दधिमार-विद्युम्कुमार स्तनितकुमारा-मकुमारेति पण्णां भवनपतीनां प्रत्येकं पटसप्तदि-पट्सप्तति संख्यकानि भवनानि सन्ति ||गा. २॥ ___ अथ दक्षिणोत्तरदिग्पत्ति भजीतां पृषक पृथग विषिच्य भइनसंख्या प्रदर्शयितुकामः प्रथमं दक्षिणदिग्बत्ति भवनपसीनां भवनसंख्यां प्रदर्शयति'चोत्तीसा' इत्यादि गा. ३ ।।
'चउसही' इत्यादि गाथा १-२ । असुरकुमारों के भवन चौसठ ६४ लाख है इसी प्रकार नागकुमारों के चौराली ८४ लाख, सुवर्णकुमारों के बहसा ७२ लाख, वायुकुमारों के छियान ९६ लाख, भवन है । गा. १ ॥ 'दीबंदिसा इत्यादि गा. २॥ द्विपकुमार, दिक्कुमार, उदधिकुमार, विधुकुमार, रतनिलकुमार और अग्निकुमार इन छह भवनपत्तियों के प्रत्येक (एक एक के) छिहत्तर छिहत्तरे ७६-७६-लाख भवन है इसी को लेकर गायाकार ने कहा है
'दीबदिखाउदहीणं विज्जुकुमाधिणियमगीणं ।
छण्हं पि जुपलयाणं छावन्तरिओ यसहस्सा ।।गा २॥ अब दक्षिण और उत्तर दिशाओं के भजनशलियों के भवनों की संख्या का अलग अलग विवेचन करने की इच्छा से गाथाकार प्रथम दक्षिण दिग्दो भवनवालियो के भवनों की संख्या कहते हैं।
'चोत्तीसा' इत्यादि माथा ॥३॥ ભવને ચેસઠ લાખ છે. ૬૪૦૦૦ ૦૦ એજ પ્રમાણે નાગકુમારે ૮૪૦૦૦૮૦ ચેર્યાશી લાખ છે. સુવર્ણકુમાના ૭૨૦૦૦૦૦ તેર લાખ વાયુકુમારોના ८६००००० छन्तु साम सर छे. ॥ भा. १ ॥ ____'दीवदिसा' त्या . २ द्वीपमा२, ६३मार, धिमा२, सिंधु માર, સ્વનિતકુમાર અને અવિ કુમાર એ છ એને એટલે કે દરેકને છોતેર લાખ ૭૬ છોતેર લાખ ભવને છે. આ જ ભાવને લઈને ગ.થાકારે કહ્યું છે
'दीव दीसा उदहीण विज्जुकुमारि दणिवमगीणं ।
छण् पि जुयळयाण छवित्तरिओ सयसहस्सा' ।। . २ હવે દક્ષિણ અને ઉત્તર દિશાઓના ભવન વાસિના ભવનની સંખ્યાન જુદું જ વિવેચન કરવાની ઇચ્છાથી ગાથાકાર પહેલાં ભવનવાસિના सपनानी सध्यानु थन रे छे. 'चोत्तीसा' त्याल
Page #790
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगम दक्षिणदिग्दर्तिनामसुरकुमाराणां भवनानि चतुर्विशल्लक्षाणि३४, नागकुमा. राणां चतुश्चत्वारिंशल्लक्षाणि ४४, सुवर्णकुमाराणामष्टत्रिंशल्लक्षाणि ३८, वायु: कुमाराणां पञ्चाशल्लक्षाणि ५०, शेषाणां द्वीप-दिगुदधि-विधु स्वनिताग्निकुमाराणां षण्णां प्रत्येकं चत्वारिंशल्लक्षाणि (४७-४०) भवनानां सन्तीति । गा.३॥
अधोत्तरदिग्वति भवनपतीनां भवनानि प्रदर्शयति-'तीसा' इत्यादि गा.' उत्तरदिग्वतिनामसरकुमाराणां सवनानि त्रिशल्लक्षाणि३०, नागकुमाराणां चत्वारिशल्लक्षाणि४०, सुवर्णकुमाराणां चतुस्त्रिंशल्लक्षाणि३४, वायुकुमाराणा पट चत्वारिंशलक्षाणि४६, शेषाणां द्वीपदिगुदधि विद्युत्स्तनिताग्नि कुमाराणां षण्णां प्रत्येक पट त्रिंशत् पत्रिशल्लक्षाणि भवनानां सन्तीति । द्वयानां दक्षिणोत्तरभवनानां सख्यायाः संमेलने प्रत्येकेषां गाथाद्वयोक्ता समुच्चयसंख्या समागच्छतीति चोध्यम् ॥गा४॥
दक्षिण दिशा के असुरकुमारों के चोत्तीस ३४ लाख भवन है। इली प्रकार नागकुमारों के चवालीस ४४ लाख, सुवर्णकुमारों अड़नीस ३८ लाख और बायुकुमारों के पचास ५० लाख भवन है, शेष जो छह द्वीपकुमर, दिशाकुमार, उधिकुमार, विधुत्कुमार, स्तनितकुमार और अग्निकुमार, इन छहों के प्रत्येक के चालीस चालीस-४०-४० लाख भवन हैं। गा.३॥ ___ अब इसी प्रकार उत्तर दिग्पत्ती भवनवासियों के भवनों की संख्या कहते हैं-'तीसा' इत्यादि गा. ४॥ ___ उत्तर दिशा के असुरकुमारों के भवन तीस ३० लाख है। इसी प्रकार नागकुमारों के चालील ४० लाख, सुवर्णकुमारी के चौतीस ३४ लाख, और वायुकुमारों के छियालीस ४६ लाख भवन है। शेष जो
દક્ષિણ દિશાના અસુરકુમારના ૩૪૦૦૦૦ ચે ત્રીસ લાખ ભવને છે. એજ પ્રમાણેના નાગકુમારના ૪૪૦૦૦૦૦ ચુંવાળીસ લાખ, સુર્વણકુમારોના ૩૮૦૦૦૦૦ આડત્રીસ લાખ અને વાયુકુમારોના ૫૦૦૦૦૦ પચાસ લાખ ભવને છે. બાકીના દ્વીપકુમાર, દિશાકુમાર, ઉદધિકુમાર, વિદ્યુતકુમાર, અગ્નિકુમાર, અને રતનિતકુમાર એ છએને દરેકને ૪૦૦૦૦૦૦ ચાળીસ ૪૦૦૦૦૦૦ ચાળીસ લાખ ભવને છે. ગા ૩
હવે ઉત્તર દિશામાં આવેલ ભવનવાસીના ભવનોની સંખ્યાનું કથન ४२वामा भाव छ. 'तीसा' त्यादि. ४
ઉત્તર દિશાના અસુરકુમારના ભવને ૩૦૦૦૦ ૦૦ ત્રીસ લાખ છે એજ પ્રમાણે નાગકુમારોના ૪૦૦૦૦૦૦ ચાલીસ લાખ, સુવર્ણકુમારના ૩૪૦૦૦૦૦
ત્રીસ લાખ અને વાયુકમાના ૪૬૦૦૦૦૦ છેતાલીસ લાખ ભવને છે બાકીના જે દ્વીપકુમાર વિગેરે બીજી ગાથામાં બતાવવામાં આવ્યા છે, એને
Page #791
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ पू.४८ नागकुमाराणां भवनादिद्वारनिवपणम् ७६७
सम्प्रति दक्षिणोत्तरदिग्वत्तिभवनपतीनामिन्द्रनामानि पृथक् पृथग् विविच्य प्रदर्शयितुकामा प्रथम दक्षिणदिग्वतिभवनपतीनामिन्द्रनामानि क्रयेण प्रदर्शयति 'चमर' इत्यादि गा.५।
दक्षिणदिग्वत्तिनामसुरकुमाराणामिन्द्रश्चमरः१, नागकुमाराणां धरणः२, सुवर्णकुमाराणां वेणुदेवः३, विद्युत्कुमाराणां हरिकान्तः४, अग्निकुमाराणापग्नि शिख.५, द्वीपकुमाराणां पूर्णः ६, उदधिक्कुषाराणां जलशान्तः ७, दिक्छुभागणा. दीपकुमार आदि जो दूसरी गाथा में बताये गये हैं उन छहों के प्रत्येक के छत्तीस छत्तीस-३६-३६ लाख भवन है। इस प्रकार दक्षिण उत्तर दोनों दिशा के भवनपतियों के भवनों की संख्या को मिलाने से एक एक भवनपतियों के भवनों की संख्या जो प्रथम द्वितीय साया में कही गई है वह समुच्चय रूप से आ जायगी ॥ गा. ४॥
अब दक्षिण उत्तर दोनों दिशाओं के बचनपत्तियों के इन्द्रों के नाम बतलाने की इच्छा से प्रथम दक्षिण दिग्पती भवन पतियों के इन्द्रों के नाम क्रम से कहते हैं-'चमरे' इत्यादि । मा. ६॥
दक्षिण दिशा के असुरकुमारों का इन्द्र चपर है इसी प्रकार नागकुमारों का धरण २, सुवर्णकुमारों का वेणुदेव३, विद्युत्कुमारों का हरिकान्त४, अग्निकुमारोका अग्निशिख५, डीपकुमारों का पूर्ण६, उद. धिकुमारों का जलकान्त७,दिक्कुमारों का अमितगति८, वायुकुमारों का દરેકને ૩૬૦૦૦૦૦ છત્રીસ લાખ ૩૬૦૦૦૦૦ છત્રીસ લાખ ભવનો છે આ રીતે દક્ષિણ દિશા અને ઉત્તર દિશા એમ અને દિશાના ભવનપતિના ભવનેની સંખ્યા મેળવવાથી દરેક ભવનપતિયોના ભવનની સંખ્યા જે પહેલી અને બીજી ગાથામાં કહેલ છે, તે સમુચ્ચય રૂપે આવી જાય છે. મેગા કા
હવે દક્ષિણ અને ઉત્તર અને દિશાના ભવનપતિ ના ઈ દ્રોના નામ બતાવવાની ઈચ્છાથી પહેલા દક્ષિણ દિશાના ભવનપતિયોના ઈંદ્રોના નામો કેમ थीमतावे छे. 'चमरे' या
દક્ષિણ દિશાના અસુરકુમારોને ઈન્દ્ર અમર છે ૧, એજ પ્રમાણે નાગકુમારને ઈન્દ્ર ધરણ છે ૨, સુવર્ણકુમારને ઈન્દ્ર દેવ છે, ૩, વિધુ. કુમારનો ઈન્દ્ર હરિકાન્ત છે. ૪ અગ્નિકુમારોને ઈંદ્ર અગ્નિ શિખ છે. ૫, દ્વીપકુમારને ઈદ્ર પૂર્ણ છે. ૬ ઉદધિકુમારે ઈદ્ર જલકોન છે , દિકુમારોને ઈદ્ર અમિતગતિ છે. ૮, વાયુ કુમારનો ઈ દ્રા વેલમ્બ છે. ૯ અને
Page #792
--------------------------------------------------------------------------
________________
७६८
जीवाभिगम
ममित ८, कुमाराणां वेलम्बः ९, स्वनितकुमाराणां घोषः १० एते दशेन्द्राः क्रमेण दक्षिणदिग्वर्तिनां दशानां भवनपठीनां सन्तीति ॥ ५॥ अथोत्तरदिग्वभित्र नपसीनां क्रमेणेन्द्रनामान्याह - 'बलि' इत्यादि उत्तरदिग्पत्तिरामसुरक्कुमाराणामिन्द्रो वलि: १, नागकुमाराणां भूतानन्दः २, सुवर्णकुमाराणां वेणुदा:ि ३, विद्युम्कुमाराणां हरिस्तहः ४, अग्निकुमाराणांमग्निमाणचः५, द्वीपकुमाराणां विशिष्टः६, उदधिकुमाराणां जलरमा७, दिक्कुमाराणाममितवाहनःट, वायुकुमाराणां मनः९, स्वनिःकुमाराणां घोषः १ । एते दशेन्द्राः क्रमेणोत्तरदिग्वत्तिमनपतीनां सन्तीति । गा. ६ ॥
अथैषां प्रत्येकेषां सामानिकात्मरक्षकदेवानां संख्यामाद- 'चउसट्टी' इत्यादि दक्षिणदिग्वतिभवनपतीनामसुरकुमाराणां चमरेन्द्रस्य सामानिकदेवाश्रतुष्वष्टिवेलम्प९, और aftतकुमारोंका घोषलामका इन्द्र है१०, ये क्रम से दक्षिण दिशा के दशमवनपतियो के दश इन्द्र है |गा. ५॥
"
अव उत्तर दिशाके भवनपनियों के इन्द्रों का नाम क्रम से कहते - 'बलि' इत्यादि गा. ६॥
उत्तर दिशा के असुरकुमारों का इन्द्र बलि है १, इसी प्रकार नागकुमारों का इन्द्रभूगानन्दर, सुवर्णकुमारों का इन्द्र वेणुद्दाली - ३, विधुकुमारों का इन्द्र हरिह४, अग्निकुमारों का इन्द्र अग्निमाणव५, द्वीपकुमारों का इन्द्र विशिष्ट ६, उदधिकशरोंका इन्द्र जलप्रभ७, दिक्कुमारों का इन्द्र अमितवाहन ८, वायुकुमारों का इन्द्र प्रभंजन ९, और स्तनितकुमारों का इन्द्र महाघोष है १० । ये दस क्रम से उत्तर दिशा के दश भवनपतियों के दश इन्द्र है । गा. ६॥
સ્તનિતકુમારના ઇન્દ્ર ઘાષ નામના ઇંદ્ર છે. ૧૦, આ રીતે દક્ષિણદ્ધિશાના દશ ભવનપતિયોના દસ ઇન્દ્રો છે. !! ગા ५ ॥
હવે ઉત્તર દિશાના ભવનપતિયોના કેંદ્રોના નામેા કુ થી કહેવામાં આવે 'बलि' इत्यादि गा. ६
ઉત્તર દિશાના અસુરકુમારના ઇન્દ્ર પલિ છે, ૧ એજ પ્રમાણે નાગકુમારને ઈન્દ્ર ભૂતાન' છે. ૨, સુત્ર કુમારના ઈંદ્ર વેદાલિક છે. ૩, વિદ્યુકુમારીના ઇંદ્ર હેરિસહુ છે ૪, અગ્નિકુમારાના ઇન્દ્ર અગ્નિમાણુત્ર છે. ૫, દ્વીપકુમારાના ઇદ્ર વિશિષ્ટ છે †, ઉદ્ઘકુમારાના ઇદ્ર જલપ્રભ છે ૭, દિક્કુમારેાના કેંદ્ર અમિતવાહન છે. ૮, વાયુકુમારેના ઇંદ્ર પ્રભજન છે. ૯, અને સ્તનિતકુપારાના ઈંદ્ર મહાઘે ષ છે ૧૦, આ રીતે આ દસ ઉત્તર દિશાના દસ ભવનપતિયોના ૧૦ ક્રમ ઈંદ્રો છે. ! ગા. ૬
Page #793
--------------------------------------------------------------------------
________________
mmeTense
T
mated
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.५८ नागकुमाराणां भवनादिद्यारनिरूपणम् ७६९ सहस्रसंख्यकाः (६४०००) सन्ति । उत्तरदिग्वतिभवनपतीनामसुरकुमाराणां बलीन्द्रस्य सामानिकादेवाः षष्टिसहस्रसंख्यकाः ६०००० सन्ति । शेषाणां सर्वेषां प्रत्येक सामानिकदेवाः षट्सहस्राणि षट्स इस्राणि सन्ति । आत्मरक्षकदेवाश्च सामानिकदेवेभ्यश्चतुर्गुणाः सर्वेषां स्वस्वापेक्षया भवन्तीति ॥गा.७॥
॥ भवनपतीनां भवनादि प्रदर्शक कोष्ठकम् ॥ भवन दा. भ. औ. भ.सर्व दाक्षि
द्वयाना. पति संख्या संख्या संख्या णात्येन्द्र औतरेन्द्र दा.सा. औत्तर | मात्म. नामानि लक्षाणि लक्षाणि लक्षाणि नामानि नामानि च.सामा. सामा. रक्षका:
च. सा. ब. सा. असुर ३४ ,, ३० ,, ६४ , चमर वलिः ६४०००६०००० श्रा. च, कुमारा
घ. सा. भू. सा. नाग-४४,४०,८४, धरणः भूतानन्दः ६००० ६००० २४००० कुमारा
।
वे सा. वेणुदालि सुवर्ण ३८,, ३४, ७२., वेणु देव वेणुदालिः ६००० ६००० २४००० कुमारा:
हरि. हरिकान्त विधु'कु-४०,, ३६, ७६ ,, हरिकान्तः हरिस्सहः ६००० ६००० २४००० मारा:
अ. अ. मा. अग्नि ४०, ३६,७६,, अग्निशिखः अग्निः ६००० ६००० २४००० कुमारा:
माणव: पू. सा. वि. सा.. द्वीप-४०, ३६, ७६ ,, पूर्णः विशिष्टः ६.०० ६००० २४००० कुमारा उदधि ४०,,३६, ७६., जलकान्तः जलप्रभः ६००० ६००० २४००० कुमारा:
अमि. अमि. दिक्कु-४०, ३६, ७६ ,, अमित- अमित- ६००० ६००० २४००० मारा
गतिः वाहगः वेल. वे. सा. वायु ५०,१६,, ९६,, वेलम्बः पमञ्जनः ६००० ६००० २४००० कुमारा
घो.मा. म. घो. स्तमित ४०, ३६., ७६ ,, घोप: महाघोषः ६००० ६००० २४००० कुमारः।
अब इन दश भवन पतियों के एफएफ के सामानिक और आत्मरक्षकदेवों की संख्या कहते है-'च उसट्टी' इत्यादि गा.७॥
હવે દસ ભવનપતિયોના દરેકના સામાનિક અને આત્મરક્ષક દેવોની सध्या ४ छे छउमट्ठी' या . ७
जी०९७
Page #794
--------------------------------------------------------------------------
________________
७१०
लीवामिगमने दक्षिणदिशा के असुरकुमारों के इन्द्र चमरके चौसठ-६४ हजार सामानिक देव है, उत्तर दिशा के असुरकुमारों के इन्द्र धरण के साठ ६० हजार सामालिकदेव है ! बाशी के दक्षिण तथा उत्तर दोनों दिशा के भवनपतियो के इन्द्र जो धरण और भूतानन्द आदि हैं, उन सब इन्द्रों के प्रत्येक के लामालिक देश छह छह ६-६ हजार है। और आत्मरक्षकदेव सव इन्द्रों के अपने अपने सामानिक देवों की अपेक्षा से चौगुने होते है जैसे चमरेन्द्र के सामानिकदेव चौसठ ६४ हजार हैं तो इन से चौगुन दो सौ छप्पन हजार अर्थात् दोलाख छप्पनहजार २५६०००) आरमरक्षक देश होते है। इसी प्रकार बलोन्द्र के सामानिक देव साठ ६० हजार है तो इन से चौगुना दो सौ चालीस हजार अर्थात् दो लाख चालीस हजार (२४००००) आत्मरक्षकदेव होते है, शेष दक्षिण उत्तर दोनों दिशाओं के समस्त इन्द्रों के प्रत्येकके छ छ हजार लामानिकदेव है तो इनसे चौगुना चोइस चोल इजार २४०००) २४०००) आत्मरक्षादेव न्स भी इनके प्रत्येकके होते है ।गा.७॥ यह सात गाथाओक्षा अर्थ है। इनका कोष्ठक सं. टोका में देखलेना चाहिये दोक्षिणात्य सुवर्णकुमारों की परिषदा की बक्तब्धता नागकुमारराज धरण
દક્ષિણ દિશાના અસુરકુમારના ઈંદ્ર ચમરેન્દ્રના ૬૪૦૦૦ ચોસઠ હજાર સામાનિક દે છે. અને ઉત્તર દિશાના અસુરકુમારોના ઈદ્ર ધરણેન્દ્રના ૬૦૦૦૦૦ સાઈઠ હજાર સામાનિક દે છે. બાકીના દક્ષિણ અને ઉત્તર અને દિશાના ભવનપતિયોના ઈન્દ્ર જે ધરણેન્દ્ર અને ભૂતાનંદેન્દ્ર આદિ છે, તે બધા ઈન્દ્રોના દરેકના છ છ હજાર સામ નિક દે છે. અને બધા ઈદ્રોના આત્મરક્ષક દેવો પિત પિતાના સામાનિક દેવેની અપેક્ષાથી ચાર ગણા થાય છે. જેમકે ચમરેન્દ્રના સામાનિક દેવ ૬૪૦૦૦ ચોસઠ હજાર હોય છે. તેનાથી ચાર ગણુ એટલે કે બસ છપ્પન હજાર અર્થાત્ બે લાખ છપ્પન હજાર ૨૫૬૦૦૦ આત્મરક્ષક દેવો તેના હોય છે એ જ રીતે બલીન્દ્રના સામાનિક દેવ ૬૦૦૦૦ સાઈઠ હજાર છે. એનાથી ચાર ગણું બસો ચાલીસ હજાર ૨૪૦૦૦૦ બે લાખચાલીસ હજાર આત્મરક્ષક દેવ બવિંદ્રના હોય છે. બાકીના દક્ષિણ અને ઉત્તર બને દિશાઓના બધા ઈદ્રોના દરેકને છ છ હજાર સામાનિક દેવ છે. તો તેનાથી ચાર ગણું ૨૪૦૦૦ વીસ હજાર ૨૪૦૦૦ ચોવીસ હજારઆત્મરક્ષક દેવે તે દરેક ઈન્દ્રોના હોય છે. જે ગા. ૭ મે આ રીતે સાત ગાથાને અર્થે અહિયાં બતાવેલ છે તેનું કોષ્ટક સંસ્કૃત ટીકામાં જોઈ લેવું. દક્ષિણ દિશાના સુવર્ણ કુમારની પરિષદાનું સ્થાન નાગકુમારરાજ ધરણની પરિષદાના કથન પ્રમાણે
Page #795
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ ३.३ २.४९ वानव्यन्तरदेवानां भवनादिकम् ७७१ ____ पर्षद्वक्तव्यतापि दक्षिणात्यानां सुवर्णकुमाराणां नागकुमारराजधरणवत् औत्तराणां सुवर्णकुमाराणां पर्षद्वक्तव्यता औत्तरनागकुमारराज भूतानन्दवत् ज्ञातव्या, एतदमियायेणैवोक्त मूले-'परिलाओ सेसाणं भवणबईणं दाहिणिल्लाण जहा धरणस्त उत्तरिल्लाणं जहा भूयाण दस्स' इति ॥इ. ४८॥
तदेवं भवनपतीना वक्तव्यता कथिता, सम्पति-क्रम प्राप्तवानव्यन्तर वक्तव्यता दर्शयितुमाह-'कहि णं भंते ! वाणमंतराणं' इत्यादि
मूलम्-कहि of भंते ! वाणमंतरागं देवाणं भवणा (भोमेजा णगरा) पन्नता, जहा ठाणपदे जाब विहरति । कहिणं भंते ! पिसाधाणं देवाणं भवणा पन्नता, जहा ठाणपदे जाव विहरंति काल-महाकाला य, तत्थ दुवे पिलायकुमाररायाणो पिसाय इंदा परिवति जान विहरति । कहि णं भंते ! दाहिणिल्लाणं पिलायकुमाराणं जाब विहरति, काले य एत्थ पिलायकुमारिंदे पिसायकुमारराया परिवलइ महड्डिए जाव विहरह। कालस्त णं भंते ! पिसायकुमारिदरूल पिलायकुमाररन्नो का परिसाओ पन्नताओ? गोयमा ! तिन्नि परिसाओ पन्नत्ताओ. तं जहा-ईसा तुडिया दढरहा, अभितरिया ईसा, मज्झिमिया तुडिया, बाहिरिया दढरहा । कालस्सणं भंते! पिलायकुमारिस्ल पिलायकुमाररन्नो अमितश्परिसाए कई देवसाहस्सीओ पन्नताओ जाब बाहिरियाए परिसाए कइ देविसया पन्नत्ता ? गोयमा ! कालसणं पिलायकुमारिंदल्स पिसायकी परिषदा जैसी है तथा उत्तर के सुवर्णकुमारों की परिषदासी वक्तव्य ता उत्तर के नागकुमारराज भूतानन्द की परिषदा के जैसी है इली अभि. प्राय से सूत्रकारने सूल में 'परिसाओ सेसा णं भवण ईणं-दाहिणिल्लाणं जहा धरणस्त, उत्तरिल्लाणं जहा भूधाणंदरस' ऐसा कहा है।सू०४८॥ છે. તથા ઉત્તર દિશાના સુવર્ણકારોની પરિષદાનું કથન ઉત્તર દિશાના નાગ કુમારરાજ ભૂતાનંદની પરિષદાના કથન પ્રમાણે છે. આ અભિપ્રાયથી સૂત્રકારે भूमा परिसाओ सेसाणं भवणवईणं दाहिणिल्लाणं जहा धरणम्स, उत्तरिल्लाणं जहा भूयाणंदरस' में प्रमाणे त . ॥ सू. ४८ ॥
Page #796
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवा मिगमसूत्रे
कुमाररायस्स अभितरपरिसाए अट्ठ देवसाहस्सीओ पन्नत्ताओ मज्झिमयाए परिसाए दस देवसाहस्सीओ पन्नत्ताओ, बाहिरियाए परिसाए बारस देवसाहस्तीओ पन्नत्ताओ, अभितरियाए परिसाए एगं देवीसयं पन्नत्तं मज्झिमियाए परिसाए एगं देवीस पन्नत्तं बाहिरियाए परिसाए एवं देविसयं पन्नत्तं । कालस्स णं भंते! पिसायकुमारिंदस्स पिसायकुमाररण्णो अभितरियाए परिसाए देवाणं केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता, मज्झि मियाए परिसाए देवाणं केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता बाहिरि - या परिसाए देवाणं केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता जाव बाहिरियाए परिसाए देवीणं केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता ? गोयमा ! कालस्स णं पिसायकुमारिंदस्स पिसायकुमाररण्णो अभितरियाए परिसाए देवाणं अद्धपलिओवमं ठिई पन्नत्ता, मज्झिमयाए परिसाए देवाणं देणं अद्वपलिओवमं ठिई पन्नत्ता, बाहिरियाए परिसाए देवाणं सातिरेगं उभागपलिओवमं ठिई पन्नता, अभितरियाए परिसाए देवीणं सातिरेगं चउभागपलिओत्रमं ठिई पन्नता, मज्झिमियाए परिसाए देवीणं चउभागपलिओवमं ठिई पन्नत्ता, बाहिरियाए परिसाए देवीणं देणं उभागपलिओवमं ठिई पन्नत्ता अट्ठो जो चेव मरस्त एवं उत्तरस्स वि एवं णिरंतरं जाव गीयजसस्स । सु०४९। छाया - कुत्र खलु भदन्त । वानव्यन्तराणां देवानां भवनानि (भोमेयानि नगराणि) मज्ञप्तानि यथा स्थानपदे यावद्विहरन्ति । कुत्र खलु भदन्त ! पिशाचानां देवानां भवनानि ज्ञष्ठानि यथा स्थानपदे यावद्विहरन्ति काल - महाकाळौ च तत्र द्वौ पिशाचकुमारराजौ पिशाचेन्द्रौ परिवसतौ यावद्विद्दरतः । कुत्र खल भदन्त ! दाक्षिणात्यानां पिशाचकुमाराणां यावद्विद्दरन्ति, कालश्चात्र पिशाचकुमारेन्द्रः पिशाचकुमारराजः परिवसति महर्द्धिको यावद्विहरति । कालस्य खलु भदन्त । पिशाचकुमारराजस्य कति पर्षदः मज्ञप्ताः ? गौतम ! विस्रः पर्षदः महन्ताः,
,
७
Page #797
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३.४९ वानव्यन्तरदेवानां भवनादिकम् ७७३ तद्यथा-ईशा त्रुटिता हूंढरथा, आभ्यन्तरिका ईशा, माध्यमिका त्रुटिता, बाह्या दृढरथा । कालस्य खलु भदन्त । पिशाचकुमारेन्द्रस्य पिशाचिकुमारराजस्यान्य न्तरिकायां पदि कति देवसहस्राणि मज्ञप्तानि याचदाह्यायां पपदि कति देवीशतानि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! कालस्य खलु पिशाचकुमा रेन्द्रस्य पिशाचकुमारराजस्याऽऽ पन्तरिकायां पर्पदि उष्टदेवसहस्राणि प्रज्ञप्तानि माध्यमिकायां पर्षदि दशदेवसस्राणि प्रज्ञप्तानि बापायां पर्षदि द्वादश देवसहस्राणि प्रज्ञप्तानि, आय. न्तरिकायां पर्षदि एकं देवीश्तं मलप्त माध्यमिकायां पर्षदि एकं देवीशतं प्रज्ञप्तम् वाहूयायां पर्षदि एकं देवीशत प्रज्ञप्तम् । कालस्य खलु भदन्त ! विशाचकुमारेन्द्रस्य पिशाचकुमारराजस्याऽऽभपातरिकायां पर्षदि देवानां कियातं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? माध्यमिकायां पर्षदि देवानां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता, बाहयायां पर्षदि देवानां कियन्त कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता, यावद्धाह्यायां पदि देवीनां कियन्तं कालं स्थितिः प्राप्ता ? गौतम ! कालरूप खलु पिशाचकुपारे द्रस्य पिशाचकुमारराजस्याभ्यन्तरिका पदि देवान मदुर्धरल्योपमं स्थित सप्ता, माध्य. मिकायां पर्षदि देगनां देशोनमर्धलयोपम स्थितिमा , बाह्यायां पर्पदि देवानां सातिरेकं चतुर्भागपल्योपमं स्थिति: पक्षप्ता, आभ्यन्तरिकायां पर्पदि देवीनां सातिरेक चतुर्भागपल्योपम स्थिति प्रज्ञप्ता, माध्यमिकायाँ पर्पदि देवीनां चतुर्भागपत्योपम स्थितिः प्रज्ञप्ता, बाहू पायां पर्षदि देवीगं देशोनं चतुर्भागपल्योपम स्थितिः प्रज्ञप्ता, अर्थोयश्चैव चमरस्य, एकसुत्तरस्यापि, एवं निरन्तरं यावद्गीतयशसः सू. ४९॥
टीका-'कहि णं भंते' कुत्र-कस्मिन् स्थ,ने खल भदन्त ! 'वाणयंतराणं देवाणं' वानव्यन्तराणाम्, बने भवा बानाः, वानाच ते व्यन्तरा इति वानपतरा स्तेपाम 'भवणा (मोमेज्जा णमरा) पन्नता, भवनानि-'भौमे यानि नगराणि मज्ञप्तानीति
इस प्रकार से भवनपति देवों को वक्तव्यता बहकर अब सबझार क्रम प्राप्त वानव्यन्तर देवो की वक्तव्यता कहते है
'कहि णं भंते। वाणमंराणं भवणा (भोमेज्जा गरा) इत्यादि।
हे भदन्त ! किस स्थान पर वानवयन्तर देवों के भवन फहे भये है ? इसके उत्तर में प्रभुत्री कहते है-'जहा ठाणपदे जाव विहरति हे
આ રીતે ભવનપતિ દેવેનું કથન કરીને હવે સૂત્રકાર ક્રમાગત વાનन्त२ हेवोनु थन ४२ छे. 'कहिणं भते ! वाणम'तरा णं भवण' त्यात
ટીકાથે હે ભગવન વાનયંતર દેવોના ભવને કયા સ્થાન પર કહેવામાં આવેલા छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभु श्री गीतभरभीन ४९ छे ४ 'जहा ठाणरटे जाव विहरति' हे गीतम! मा विषयमा ज्ञापन सूत्रना भी स्थानमहमा २
Page #798
--------------------------------------------------------------------------
________________
७७१
जीवाभिगमस्त्र प्रश्नः, भगानाह-'जहा' इत्यादि, 'जहा ठाणपदे जाव विहरति यया स्थानपदेस्थानाख्ये प्रज्ञापनामूत्रस्य द्वितीयपदे कथितं तथेहापि वक्तव्यम् यावद्विहरन्तीति ।
अयं भाव:-अस्या रत्नप्रभापृथिव्या रत्नकाण्डस्य सहस्रयोजनवाहल्यस्योपरि एकं योजनशतमव माहय अधोऽपि एक योजनशतं वर्जयित्वा मध्येऽष्टम योजनशतेषु चान-पन्तराणं तिर्यग् असंख्येयानि नगरावासशतसहस्राणि सन्ति । एपां भौमेयनगराणां 'बहिवृत्ता' इत्यादि वर्णनं प्रज्ञापनास्थानपदतोऽत्रसेयम् । तत्र पिशाचादयो बहवो वानव्यन्तरा देवा परिवसन्ति । ते तत्र स्वेषां भवनसामा निरुदेवाग्रमहिषो पपंदनीकानीकाधिपत्यात्मरक्षक देवानामन्येषां च बहूनां वानअन्तरदेदेवीनामाधिपत्यं कुर्वन्तो यावद् भोगभोगान भुञ्जाना बिहरन्तीति सर्व गौतम ! इस सम्बन्ध में जैसा कथन प्रज्ञापना सूत्र के द्वितीय स्थानपद में किया गया है वैसा ही वह यहां पर कर लेना चाहिये अर्थात् इन वानव्यन्तरों के भवन-ौमेघनगर इस रत्नप्रभापृथिवी में रहे हुए रत्नझांड जो एक हजार योजन का पृथुल-जाडा है उसके उपर एक सौ योजन अवगाहन करके इसी प्रकार नीचे भी एक सौ योजन छोड़ार मध्य के आठ सौ योजन में वानव्यन्तरों के तिर्यक असंख्यातलाख नगरावाल है । वे लौ मेयनगर 'बहिवृत्ताः' बाहर से गोल है इत्यादि समस्त वर्णन प्रज्ञापनासूत्र के द्वितीय स्थानपद से समझ लेना चाहिये। वहां उन नगरावासों में पिशाच आदि अशुतो वानन्तरदेव रहते है वे अपने अपने अपन, सामानिफदेय, अग्रमहिषी, पर्षदा, अनीक-लेना अनीकाधिपति, आत्मरक्षक देवों पर तथा और भी दूसरे बहुत धान व्यन्तर देवदेवियों पर आधिपत्य करते हुए यावत् भोग रोगों को भोगते પ્રમાણેનું કથન કરવામાં આવેલ છે. એ જ પ્રમાણેનું કથન અહિયાં કરી લેવું જોઈએ. અર્થાત્ આ વાનcરેના ભવને ભૌમેય નગરો આ રત્નપ્રભા પૃથ્વીમાં રહેલ રત્નકાંડ કે જે એક હજાર એજનથી પૃથલ જાડું હોય છે, તેની ઉપર એક સો જન અવગાહન કરીને અને એજ પ્રમાણે નીચે પણ એક સે યે જન છેડીને વચ્ચેના આઠ સો એજનમાં વાનખ્યત્તરોના તિફ અસંખ્યાત av नसे! मासा छ लोभय नगरी 'बहिवृत्ताः' माथी गाण હોય છે. વિગેરે પ્રકારથી સઘળું તેનું વર્ણન પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના બીજા સ્થાન પદમાં કહ્યા પ્રમાણેનું સમજી લેવું. ત્યાં એ નગરાવાસમાં પિશાચ વિગેરે ઘણા વાનવ્યન્તર દે રહે છે. તેઓ પોત પોતાના ભવો, સામાનિક દે, અમહિષિ, પર્ષદાઓ, અનીકે સેનાઓ, અનીકાધિપતિ અને આત્મરક્ષક દેવે પર તથા બીજા પણ ઘણું વાનન્તર દેવ દેવિ પર અધિપતિ પણું
Page #799
--------------------------------------------------------------------------
________________
७३
प्रमेयधोतिका टीला प्र.३ १.३ प्यू.४९ वानव्यन्तरदेवानां भवनादिकर भगवदुत्तरं प्रज्ञापनातो बोध्यम् । पुन गौतमः पिशाबादीनां वानपराणां प्रातः प्रथम पिशाचविषये पृच्छति-'कहिणं भंते ! पिसागणं' इत्यादि,
'कहि णं भंते ! पिसाया ण देवाणं भवणा पम्नत्ता' कुत्र खल्लु भदन्त ! पिशाचानां भवनानि मौसेरनगराणि प्रज्ञप्तानि-कथितानीति प्रश्नः उत्तरपति 'जहां' इत्यादि, 'जहा ठाणपदे जाब बिहरंति' यथा प्रज्ञायनासो स्थानाख्ये पदे तथा वक्तव्यं यावद्विहरन्तीति पदम् । अत्र पिशाचानां भामेयनसवर्णनं सर्व वाच्यम् । तत्र पिशाचा देवाः स्वस्वपरिवारभूतानां देवदेशीनामाधिपत्यं कुर्वन्तो भोगमोगान् भुञ्जाना बिहरन्तीति पर्यन्तं सर्व प्रज्ञापनायां द्रष्टव्यमिति ।
पिशाचकुमारराजविषये प्राह-'काल' इत्यादि, 'कालमहाकालेग तत्थ दुवे पिसायकुमाररायाणो पिसायइंदा परिचसंवि जाब विहरवि' कालो महाकालच तत्र दक्षिणोत्तरदिग्पतिपिशाचानां द्वौ पिशाचकुमारराजानौ पिशाचेन्द्रौ परिवसतो यावत्पदेन महद्धिको महासौख्यौ इत्यादि स कालमहाकालपिशाचेन्द्रयोवर्णन प्रज्ञापनास्थानपदे विलोकनीयम् । हुए रहते है यह सब भगवान के उत्तर रूप में प्रज्ञापना झूम देख लेना चाहिये फिर गौतमस्वामी पिशाबादि वानव्यमरों में ले पिशाच के विषय में पूछते है-'कहिणं भंते पिसाया ' हत्यादि शाहिणं भंते ! पिसाया णं देवाणं भवणा पण्णत्ता' हे भदन्त ! पिशाचदेवों के भवन वहाँ पर कहे गये है ? इसके उत्तर में प्रसुश्री रहते है 'जहा ठाणपदे जाव विहरति' हे गौतम! प्रज्ञापनासूत्र के स्थान नामक दुसरे पद में जमा इनके सम्बन्ध में कहा गया है वैसा ही वह सब कथन यहां पर भी कह लेना चाहिये यहां पर पिशाच देवों के भौमेघनगो का सच वर्णन कर लेना चाहिये इन नगरों में पिशाच देव अपने अपने मन मानानिक કરતા થકા યાવત્ ભેગઉપભેગેને ભોગવતા થકા રહે છે. આ તમામ કથન ભગવાનના ઉત્તર વાકય રૂપે પ્રજ્ઞાપના સૂત્રમાંથી જોઈ લેવું .
ફરીથી શ્રીગૌતમસ્વામી પિશાચ વિગેરે વાનચત્તર પિંકી વિશચના સંબંધમાં पूछे छे । 'कहि ण भते ! पिसायाणं' त्यादि
'कहि णं भते ! पिसायाणं देवाणं भवणा पण्णत्ता' है भगवन् पिशाय દેવેના ભવને કયાં આગળ આવેલા છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમ स्वामीन छ'जाव ठाणपदे जाव विहरति गौतम! अक्षारना સૂત્રના સ્થાનપદ નામને બીજા પદમાં આ વિષામાં જે પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે, એ જ પ્રમાણેનું કથન અહીંયાં પણ કહેવું જોઈએ અહીંયાં પિશાચ દેના ભૌમેય નગરનું તમામ વર્ણન કરી લેવું જોઈએ એ નગરોમાં પિશાથ
Page #800
--------------------------------------------------------------------------
________________
७७६
जीवामिगमसूत्रे
अथ - औधिकान् सेन्द्र पिशाचकुमारानिरूप्य दाक्षिणात्यान् पिशाचकुमारान् निरूपयितुं प्रश्नयन्नाह - 'कहि ण भंते । दाहिणिल्लाणं' इत्यादि, 'कहि ण' भंते ।' कुत्र कस्मिन् स्थाने खल भदन्त ! ' दाहिणिल्काण' पिसायकुमाराण" दाक्षिणात्यानां पिशाच कुमाराणाम् 'जाब विहरंति' यावद्विहरन्ति । अत्र याव श्पदेन - 'मोमेज्जा नगरा पण्णत्ता' इत्यादि प्रश्नोत्तररूपेण पिशाचकुमाराणां भव. नादि वर्णनं वाच्यम् । तत्र ते स्वस्वपरिवारस्याधिपत्यं कुर्वन्तो भोगभोगान् भुञ्जाना विहरन्ति विष्ठतीति पर्यन्तं सर्वं वर्णनं तत्रैव प्रज्ञापनास्थानपदे द्रष्टव्यम् । सम्प्रति - दाक्षिणात्यपिशाचेन्द्र कालवर्णनं क्रियते 'काळेय' इत्यादि । 'काळेय एत्थ विधायकुनारिंदे विसायकुमारराया परिवसह महड्डिए जाव चिहरह' कालश्च - कालनामा चात्र पिशाचकुमारेन्द्रः पिशाचकुमारराजः परिवसति महर्द्धिको यावत् स्वपरिवारभूत देवदेवीनामाधिपत्यं कुर्वन् भोगभोगान भुञ्जानो विहरति तिष्ठतीत्यपि सर्व वर्णनं प्रज्ञापनापदादव सेयम् ।
-
Be
देव आदि परिवार रूप देव देवियां पर आधिपत्य करते हुए यावत् भोगोपभोगों को भोगते हुए विचरते रहते है । 'दाहिणिल्ला णं पिसाय कुमाराणं जाव विहरंति' अब दाक्षिणात्य पिशाचों का इन्द्र जो काल है उसका वर्णन करते है 'कालेय' इत्यादि 'कालेय तस्थ पिसायकुमारिदे पिसावराया परिवस महिडिए जाब बिहाई' वहां विशालों के भौमेघनगरों में जहां पिशाच देव रहते हैं वहां पिशाचेन्द्र पिशाचराज काल इन्द्र बसता है । वह महर्दिक आदि विशेषणों वाला है वह वहां पर अपने परिवारभूत सामानिक देव आदि देवदेवियों पर आधिपत्य करता हुआ भोगोपभोगों को भोगता हुआ रहता है यह सब वर्णन प्रज्ञापना सूत्र से समझ लेना चाहिये ।
દેવ પૈાત પેાતાના ભવન સામાનિક દેવ વિગેરે પરિવાર રૂપ દેવ દેવચા પર અધિપતિપણુ કરતા થકા યાવત્ ભેગઉપભાગેાને ભાગવતા થકા રહે છે.
હવે દક્ષિણુ દિશાના પિશાચાના ઇંદ્ર જે કાળ છે, તેનું વણુન કરતાં सूत्र४२ ४ छे ! ' दाहिणिल्लाणं पिधाय कुमाराणं जात्र विहरति' इक्षिषु हिशाना પિશાચકુમારાનુ કથન યાવત્ વિહાર કરે છે ત્યાં સુધીનું કરી લેવું, તે આ प्रमाणे छे. 'कालेय' त्याहि
'कालेय तत्थ पिस्रायकुमारि दे पिसायराया परिवसइ महिडिए जाव विहरइ' त्यां पिशायाना लौभेय नगरोमां नयां पिशाय देवा रहे छे, त्यां પિશાચેન્દ્ર પિશાચરાજ‘કાલ ઈન્દ્ર' નિવાસ કરે છે. તે મહદ્ધિક વિગેરે વિશેષણે વાળા છે, તે ત્યાં પાતાના પિરવાર રૂપ સામાનિક ફૈવ વિગેરે દેવ ધ્રુવિધા પર
Page #801
--------------------------------------------------------------------------
________________
Mhala
A
JNI
-
0
प्रमेषधोतिका टीका प्र.३ ३.३ सू.४९ वानव्यन्तरदेवानां भवनादिकम् ७७७
सम्पति-पिशाचकुमारेन्द्रस्य कालस्य पप निरूपणार्थमाह- काळस्स णं भंते ! पिसायकुमारिंदस्स पिसायकुमाररणो' कालस्य खलु भदन्त ! पिशाच कुमारे. न्द्रस्य पिशाचकुमारराजम्य 'कइ परिसाओ पन्नत्ताओ' कति पर्पदः प्रज्ञप्ता:कविता इति प्रश्नः, भगवालाह-गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'तिमि परिसामओ पन्नत्ताओ' तिस निसंख्यकाः पर्पदः-समाः प्राप्मा:कथिता इति। पर्षद स्वैविध्यं दर्शयति-'त जहा' इत्यादि, त जहा' तद्यथा-'ईसातुडिया दढरहा' ईशात्रुटिता दृढरथा 'अमितरिया ईसा' आभ्यन्तरिका ईशा 'मज्झिमिया तुडिया' माध्यमिका त्रुटिता 'बाहिरिया दढरहा' वाहथा दृढस्था । सम्प्रति-तत्परिषद्गत देवदेवी संख्यां पृच्छति-कालम्स ण भंते' कालस्य खल भदन्त ! 'पिसायकुमारिंदस्म पिसायकुमाररन्नो' पिशाबकुपारेन्द्रस्य पिशाच___ अब पिशाचकुमारेन्द्र कालकी परिषदाका निरूपण करते है 'कालस्स णं भंते' इत्यादि।
'कालस्स णं भंते' पिसायइंदस्ल पिसायरन्नो कति परिसाओ पण्णत्ताओ' हे भदन्त । पिशाचेन्द्र पिशाचराज काल की कितनी परिषदाएं कही गई है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते है । 'गोयमा तिनि परिसाओ पण्णत्ताओ' हे गौतम ! पिशाचेन्द्र पिशाचराजकालकी तीन परिषदाएं कही गई। 'तं जहा' जो इस प्रकार से आगे बताई जा रही है 'ईसा तुडियाद ढरहा इशा, त्रुटिता और दृढस्था इन में इशा परिषदा आभ्यन्तरिका परिषदा के नोसले 'मज्झमिया' तुडिया' त्रुटिता परिषदा मध्यमिका परिषदा के नाम से और 'बाहिरिया दढरहा' दृढरथा परिषदा वाह्यपरिक्षा के नाम से प्रसिद्ध है 'कालाल णं भंते ! पिसायकुमारिंदस्स
અધિપતિ પણે કરતા થકા ભેગ ઉપભેગોને ભેગવતા થકા રહે છે. આ તમામ વર્ગના પ્રજ્ઞાપના સૂત્રમાંથી સમજી લેવું.
હવે પિશાચકુમારેન્દ્ર કાલની પરિષદાનું વર્ણન કરવામાં આવે છે 'कालत्स ण भते!' छत्यादि
_ 'कालस्स णं भते ! पिसाय इदस्स पिसाय रन्नो कइ परिसाओ पन्नत्ताओ' હે ભગવન પિશાચેન્દ્ર પિશાચ રાજ કાલની કેટલી પરિષદાઓ કહેવામાં આવી छ. १ मा प्रशन उत्तरमा प्रमश्री छ , 'गोयमा ! तिन्नि परिसाओ पण्णत्ताओ' गौतम! पिशायेन्द्र पिशाय२०४ सनी ३६ परिषदा ४ामा भावी छ त जहा' रे प्रभारी छे. 'ईसा तुडिया दढरहा' ।। हिता, भने १४२था तमाशा परिषहा मास्यन्त२ि४ परिषदाना नामथी 'मज्झमिया तुडिया' त्रुटिता परिषद मध्यमि। परिषद ना नामथी भने 'बाहिरिया दढरहा' १८२५। परिष! माद्यपरिहाना नामथी प्रसिद्ध छे कालस्स णं भठे ! पिसाय
जी०१e
Page #802
--------------------------------------------------------------------------
________________
७७६
-
जीवामिगम कुमारराजस्य 'अभितरपरिप्ताए कई देव साहसीओ पन्नतामो' आभ्यन्तरिकाया मीशाभिधानायां पर्पदि सभायां कति कियत्संख्यकानि देवसहस्त्राणि प्रज्ञप्तानि कथितानि, 'जाय वाहिरियाए परिसाए कइ देविस एण्णचा' यावद् बाह्यायां पर्पदि कति देवीशतानि प्रज्ञप्तानि, अत्र यावत्पदसंग्राहयः पाटो यथा-माध्यमिकायां त्रुटिताभिशनायां द्वितीयस्यां पदि कति देवसहस्राणि प्रज्ञप्तानि तथा बाह्यायां दृढरथानिधानायां तृतीयस्यां पर्षदि कति देवसहस्राणि प्रप्तानि, एवमाभ्यन्तरिकायामीशाभिधानायां पर्पदि कति देवीशलानि यज्ञप्तानि-कथितानि तथा-माध्यमिकायां त्रुटिहाभिधानायां द्वितीयस्यां पर्प द कति देवीशतानि मज्ञतानि, तथा-बाहुयायां दृढरथामिधानायां तृतीयस्यां पर्पदि कवि देवीशतानि पज्ञप्तानि-कथितानोति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम । 'कालस्स णं पिसायकुमारिदस्त पिपायकुमारायल्स' कालस्य खल्लू पिशाचकुमारेन्द्रस्य पिशाचकुमारराजस्य 'अमितरियाए परिसाए' आश्चन्तरिकायामीशामिपिसाचकुमाररन्नो अभितरपरिसाए कह देवताहस्तीको पनत्ताओ' हे भदन्त ! पिशाचेन्द्र पिशाचमुबारराज काल की आभ्यन्तर परिषदा में कितने हजार देव कहे गये है 'जाव बाहिरियाए परिसाए कह देवी सया पणत्ता' यावत् बाह्य परिषदा में जितनी सौदेषिर्या कही गई है। यहाँ यावत्पद से-मध्यमापरिषदा सिमने हजार देश कहे गये है। और पाठ्यपरिषदा में क्षितने हजार देश कहे गये है। तथा आभ्यन्तर परिपदा में कितनी सौ देवियां कही गई है। माध्यमिका परिषदा में कितनी सौ देवियां कही गई है ? और पाहय परिषद में कितनी सौ देवियां कही गई है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते है। गोषमा' 'कालस्स णं पिसायकुमारिंदस्त पिल्लायकुमाररायस्म अप्रितरियाए परिसाए अट्ठ देव साहसीओ पनत्ताओ' हे गौतम ! पिशाचकुलारेन्द्र विशाचकुमारकुमारि दस्स पिसायकुमाररन्नो अभितरपरिसाए कइ देव बाहस्सीओं पण्णत्ता જો હે ભગવન પિશાચેન્દ્ર પિશાચકુમારરાજ કાલની આભ્યન્તર પરિષદામાં टता हा छ ? 'जाव वाहिरियाए परिसाए कइ देवीसया पण्णत्ता' ચાવત બાહ્ય પરિષદામા કેટલા સો દેવિ કહી છે? અહિં યાવત્ પદથી મધ્યમાં પરિષદામાં કેટલા હજાર દે છે? અને બાહ્ય પરિષદામાં કેટલા હજાર દેવે કહ્યા છે? તથા આ ન્તર પરિષદામાં કેટલા સે દેવિ કહી છે? મધ્યમાં પરિષદ માં કેટલા સે દેવિ કહી છે? અને બાહ્ય પરિષદામાં કેટલાસો દેવિ ४३छ ? 41 प्रशन उत्तम प्रभुश्री थे 'गोयमा ! कालस्स ण पिसायकुमारि दस्स पिसायकुमारराजस्व अभितरियाए परिसाए अट्ट देवसाह
Page #803
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रद्योत का टीका प्र. उ. ३.४९ वानव्यन्तरदेवानां भवनादिकम् ૯૭૨ धानायां पदि 'अड देवसादरसीओ पनचाओ' अष्ट देवसहस्राणि मज्ञप्तानि, तथा - 'मज्झिमपरिसाए दसदेवसाहस्सी ओ पन्नत्ताओ' माध्यमिकायां पर्पदि दशसंख्यानि देवसहस्राणि ज्ञतानि, तथा - 'बाहिरियाए परिसाए बारसदेवसाहस्सी भो पद्मत्ताओ' बाह्यपदि द्वादश देवसहस्राणि मज्ञानि एवम् - 'मरिया परिसाए एगं देविसयं पन्नत्तं' अभ्यन्तरिकायां पर्पदि एक देवीशतं प्रप्तम्, तथा - 'मज्झिमया परिसाए एवं देविस पन्नत्तं' माध्यमिकायां पर्पदि एक देवीशतं मज्ञप्तम्, 'वाहिरियाए परिसाए एवं देविस पन्नत्तं' बायां पर्षदि एक देवीशतं प्रज्ञप्तम् इति ॥
अथ पर्वतदेवदेवीनां स्थितिविषये प्रश्नयन्नाह - 'कालस्स णं' इत्यादि, 'कालस्स णं भंते!' कालस्य खड भदन्त ! 'पिलाय कुमारिदस्त पिसाय कुमाररायस्स' पिशाचकुमारेन्द्रस्य पिशाचकुमारराजस्य, 'अतिरियाए परिसाए' आभ्यराजकाल इन्द्र की आभ्यन्तर परिषदा में आठ हजार देव कहे गये है । 'मज्झिमघाए दस देव साहसीओ पन्नत्ताओ' मध्यमिका सभा में दसहजार देव कहे गये है । 'बाहिरियाए परिसाए बारसदेव साहस्सीओ पन्न ताओ' वायपरिषदा में १२ हजार देव कहे गये है । तथा 'अभितरियाए परिसाए एवं देविस पण्णत्तं 'आभ्यन्तर परिषदा में एकसौ देवियां कही गई है 'मज्झमियाए परिसाए एवं देविसयं पण्णत्तं' मध्यमिका सभा में भी एक सौ देवियां कही गई है। 'बाहिरियाए परिसाए एगं देविस पन्न' तथा वायपरिषद में भी एक सौ देवियां कही गई है।
अब उन सब की स्थिति का कथन करते है । 'कालस्स ' इत्यादि, 'कालस्य णं भंते! पिसाधकुमारिंदरस पिलायकुमारगपस्ल अविभतरिसीओ पन्नत्ताओ' गौतम । पिशान्यकुमारेन्द्र पिशाच भारराज भवनी माभ्यन्तर परिषदामां आहे तर ८००० देवे। ह्या छे, 'मज्झिमियाए दस देव साहसीओ पण्णत्ताओ' मध्यमिश्रा सलाम १०००० इस डेन्नर हेवा ह्या छे. 'बाहिरिया परिखाए बारसदेव साहसीओ पण्णत्ताओ' हे गौतम ! बाह्य परिषहाभां १२००० मार उन्नर हेवे। उह्या छे. 'अभितरियाए परिखाए एवं देविस पण्णत्त' तथा आभ्यन्तर परिषदामां थे। सेो देवियो उड्डी छे. मज्झि मियाए परिसाए एवं देविखयं पण्णत्त' मध्यमिश्र सलभां योऽसो १०० हेविया ही छे. 'बाहिरियाए परिसाए एग देविखयं पन्नत्त' मा पदिषाभां પણ એક સા વિચા કહી છે.
હવે આ ઉપરોક્ત સઘળા દેવ દેવિચૈાની સ્થિતિનું' કથન કરવામાં આવે છે. 'कालास ण" इत्यादि
'कालस्स णं भंते । पिसायकुमारिदस्य पिसायकुमार रायस्स अभितरियाए
Page #804
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमसूत्रे
न्तरिकायाम् ईशाभिधानायां पर्पदि 'देवाणं केवढ्यं कालं टिई पण्णत्ता' देवानां कियन्तं कालं स्थिति :- आयुष्यकाळः प्रज्ञप्ता- कथिता, 'मज्झिमियाए परिसाए' माध्यमिकायां त्रुटिताभिधानायां पर्पदि 'देवाणं केवइयं कालं ठिई पत्ता ' देवानां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता, तथा - 'बाहिरियाए परिसाए देवाणं केवइयं कालं ठिई पत्ता' वाद्यायां दृहत्याभिधानायां पदि देवानां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता एवम् - 'जान बाहिरियाए परिसाए देवीणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता' यावद वाह्यां पदि देवीनां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता । अत्र यावत्पदसंग्राहूयः पाठो यथा - आभ्यन्तरिकायां पर्षद देवीनां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञा, माध्यमिकायां पर्पादि देवीनां कियन्तं काल स्थितिः मज्ञप्ता, वाहयायां पदि देवीनां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्छेति मश्नः, भगवानाह - 'गोयमा ।' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'कालस्स णं पिसायकुमारिदस्स पिसायकुमाररण्णो' या परिसाए देवाणं केवहयं कालं ठिई पन्नत्ता' हे भदन्त पिशाचकुमारेन्द्र पिशाच कुमारराज कालकी आभ्यन्तर परिषदा के देयों की स्थिति कितने कालकी कही गई है । 'मज्ज्ञमियाए परिसाए देवाणं केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता' मध्यमिका परिषदा के देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है। 'बाहिरियाए परिसाए देवाणं केवइयं कालं ठिई पन्नता' बायापरिषदा के देवों की स्थिति कितने कालकी कही गई है ? इसी प्रकार से 'जाव पहिरियार परिसाए देवीणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता' यावत् बाहूयपरिषदा की देवियों की कितनेकालकी स्थिति कही गई है ? यहां यावश्पद से आभ्यन्तर और मध्यमपरिषदा का प्रश्न अन्तर्गत है । अर्थात् आभ्यन्तरपरिषदा मध्यमिकापरिषदा और बाहूया परिषदा की देवियों की स्थिति कितने काल की कही गई है। इसके
ق
परिखाए देवाणं केवइयं काल ठिई पण्णत्ता' है लगवन पिशायकुमारेन्द्र पिशायકુમારરાજ કાલની આભ્યન્તર પરિષદાના દેવાની સ્થિતિ કેટલા કાળની કડલ हे ? मज्झिमियाए परिसाए देवाणं केवइयां काल' ठिई पण्णत्ता' मध्यमि परिषहा ना हेवानी स्थिति सा अजनी उस छे ? 'बाहिरियाए परिसाए देवानं केवइय' क'ल' ठिई पण्णत्ता' माह्य परिषहाना हेवानी स्थिति डेटा अपनी
वामां भावी हे ? ०४ रीते 'जाव बाहरियाए परिसाए देवीगं केवइयां काल ठिई पण्णत्ता' यावत् माह्य परिषहानी हेवियानी स्थिति ठेवा अजनी डेस છે ? અહિયાં યાવપદ્મથી આભ્યન્તર અને મધ્યમ પરિષદાસ બધી પ્રશ્ન સમજી લેવા અર્થાત્ આભ્યન્તર પરિષદા મધ્યમિકા પરિષદા અને માહ્યા પરિષદાની ઢવિચાની સ્થિતિ કેટલા કાળની કહી છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં
Page #805
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ ७.४९ वानव्यतरदेवानां भवनादिकम्
काळस्य खलु पिशाचकुपारेन्द्ररूप पिशाचकुमारराजस्य 'अमरियाए परिसाए' आभ्यन्तरिकायाम् ईशाभिधानायां पर्पादि- उमायाम् 'देवाणं अद्धपलिओदमं ठिई पनचा' देवानामर्द्धपल्योपमं स्थितिः प्रज्ञता, तथा - 'मझियाए परिसाए देवाणं' माध्यमिकायां पर्षदि देवानाम् ' देणं अद्धपलिओक्लं ठिई पनचा' देशोन देश परिहीणम् अर्द्ध पल्योपमं स्थितिः प्रज्ञप्ता, तथा - 'बाहिरियार परिसाए देवाणं' बाहूयायां पर्षदि देवानाम् 'साइरेगं चउमागपळिओवमं ठिई पन्नत्ता' सातिरेकं चतुर्भागपल्योपमं स्थितिः प्रज्ञप्ता, एवमू - 'अभितरियाए परिसाए देवीनं' एत्रसू आन्तरिकायां पर्षद देवीनाम् 'साइरेगं चउभागपलिओचमं ठिई पण्णत्ता' सातिरेकं चतुर्भागपलयोपमं स्थितिः भज्ञता, तथा 'सज्झिमियाए परिसाए देवीणं' माध्यमिकायां पर्षद देवीनाम् 'चउमागपलिओदनं ठिई पन्नत्त' चतुर्थी पल्योपमं स्थितिः प्रज्ञप्ता, 'बाहिरियाए परिसाए देवीण' बाहूयायां पदि देवीनाम् 'देणं उत्तर में प्रभुश्री कहते है 'गोमा !' फालहम णं पिसायकुमारिंदस्स पिसायकुमाररण्णो विभतविधाएं परिसाए देवाणं अपलिओदनं ठिई पन्नता' हे गौतम | पिशाच कुमारेन्द्र पिशाचाजकालको आभ्यन्तर परिपदा के देवों की स्थिति बध्यमान आयु बाधेवल्योपमकी कही गई है । 'मज्झिमयाए परिसाए देसूणं अद्धपलिमोनं ठिई पन्नत्ता' मध्यमिका परिषदा के देवों की स्थिति कुछ कम आधे पल्योपनकी कही गई है और 'बाहिरिया परिसाए देवाणं सारेगं मागपलिओदनं ठिई पन्नत्त।' बाह्यपरिषद के देवों की स्थिति कुछ अधिक पलके बतुर्थभागप्रमाण कही गई है। इसी प्रकार 'अतिरियाए परिसाए देवी णं' इत्यादि आभ्यन्तर परिषद की देवियों की स्थिति सातिरेक चतुर्भाग रल्योपम की हैं मध्यपरिषदा की देवियों की स्थिति चतुर्भाग पल्पोपनकी कही
अलुश्री गौतमस्वाभाने छे 'गोयमा ! कालरस ण विद्यायकुमारिदस्ख पिसायकुमाररण्णो अतरियाए परिसाए देवाण अद्धपलिभोत्रम' ठिई पण्णत्ता' હૈ ગૌતમ ( પિશાચ કુમારેન્દ્ર પિશાચ કુમારરાજ કાલ ઇન્દ્રની આભ્ય તર પરિષદાના દેવાની સ્થિતિ મધ્યમાન અ યુ અર્ધાપલ્યાપમની કહેવામા આવી છે. 'मज्झमिया परिसाए देसूणं अद्धपलिओम ठिई पण्णत्ता' मध्यमा परिषदाना देवानी स्थिति गोछी अर्धा पत्येोयभनी भने 'बाहिरियाए परिसाए देवाण साइरेगं चउभागपलिओम ठिई पण्णत्ता मा परिषहाना हेवोनी स्थिति કંઈક વધારે પલ્યના ચેાથા ભાગ પ્રમાણુ કહેલ છે એજ પ્રમાણે ‘અશ્મિ' तरिया परिसाए देवीण" इत्याहि माम्यन्तर परिषहानी हेवियानी स्थिति सानि રેક કંઈક વધારે ચતુર્થાંગ પુલ્ચાપમની છે, મધ્યમા પરિષદાની દૈવિયેાની સ્થિતિ
Page #806
--------------------------------------------------------------------------
________________
७८२
जीवामिगम
च मागपलियो ठिई पन्नत्ता' देशोनं-देशपरिक्षीणं चतुर्मागवल्योपमं स्थितिः प्रज्ञप्ता | 'अहो जो चेव चमरस्त' अर्थो य एव चमरस्य । अयं भावः - 'से केणद्वेणं भंते ! एवं बुच्चर, काळस्स णं भंते । पिसायकुमारिदस्त पिसायकुमाररण्जो तमो परिसाओ पण्णखाओ व जहा-ईपातुडिया दढरहा, अभंतरिया ईसा मज्झिभिया तुडिया बाहिरिया दढरहा' इत्यादिकं प्रश्नोत्तरादिकं सर्व चमरमकरणवदेवात्र ज्ञातव्यम् । विशेषस्त्वयं यदत्र चमरस्थाने काळनामोच्चारणीयम् । ' एवं उत्तरस्स fa' एवं दाक्षिणात्य पिशाचदेवचदेव उत्तरपिशाचदेवस्यापि वक्तव्यता भणितव्या तथाहि - 'कहि णं भंते ! उत्तरिल्लाणं पिसायाणं भोमेज्जा नगरा पन्नता, कहि, है और वारिषदा की देवियों की स्थिति देश ऊन- एकदेशक्रम चतुपोप की कही गई है 'अट्टो जो चेव चमरस्स' अर्थ चमरेन्द्र का है वही समझ लेना चाहिए जैसे 'हे भदन्त । ऐसा आप किस कारण से कहते है कि काल की ये तीन इशा त्रुटिला और दृढरथा नामकी सभाएं है ? इन में ईशा का नाम आन्तरिका देता का नाम मध्य मिश्रा और दृढरथा का नाम बाह्या सभा है ? इसके उत्तर में प्रमुश्री कहते हैं । हे गौतम ! इस सम्बन्ध में समस्त कथन तथा और भी प्रश्नों का उत्तर चमरेन्द्र के प्रकरण में जैसा कहा जा चुका है वैसा ही जान लेना चाहिये | अन्तर इतना ही है कि चमर के स्थान पर कालका नाम उच्चारण कर लेना चाहिये 'एवं उत्तरस्स वि' जैसी यह पूर्वोक्त रूप से वक्तव्यता दाक्षिणात्यपिशाचकुमार देवों की कही गई है-ठीक वैसी ही वक्तव्यता उत्तरदिग्वर्ती पिशाचकुमार देवों की भी है ऐसा जानना चाहिये जैसे- 'कहि णं भंते । उत्तरिलाणं विसायाणं भोमेजा ચતુર્થાંગ પળ્યેાપમની છે. અને માહ્ય પરિષદાની દેવિયાની સ્થિતિ દેશઉન એક हेश उभ यतुर्भाग पदयेोमनी उडेल हे 'अट्ठो जो चेत्र चमरस्त' विशेष धन ચમરના કથન પ્રમાણે સમજી લેવું જેમકે હે ભગવન્ આપ એવું શા કારણથી કહેા છે કે કાલની ઈશા, ત્રુટિતા અને દૃઢરથા નામની ત્રણ સભાએ છે ? અને તેમાં ઇશાનુ નામ આભ્યન્તરિકા, ત્રુટિતાનુ' નામ મધ્યમિકા, અને દૃઢરથ:નુ નામ
प्र
મ હ્ય સભા છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે હું શૈતમ ! આ વિષયમાં તમામ કથન તથા તેથી પણ વધારેના પ્રશ્નોના ઉત્તર ચમરેન્દ્રના પ્રકરણમાં જે પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે . એજ પ્રમાણે અહિ' પણ સમજવા અન્તર એટલું ४ छेडे मडियां यभरेन्द्रना स्थानेन्द्रनु नाम अहेवु ले एवं उत्तरરણ વિ’ જે પ્રમાણેનું આ ઉપરેકત રીતનું કથન દક્ષિણુ શિાના પિશાચકુમાર દેવાના સ મધમાં કહેવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણેનું કથન ઉત્તર દિશાના
Page #807
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ ३.३.४९ वानव्यन्तरदेवानां भवनादिकप ७८३ गं भंते ! उत्तरिल्ला पिसाया देश परिवसति?' इत्यादि सर्व प्रश्नोत्तरं दक्षिणात्य पिशाचदेववदेव वक्तव्यम्, विशेषतस्वयं यत्ते मन्दरस्य दक्षिणे परिवसन्ति, एते मन्दरस्य उत्तरे परिवसन्ति, पुनश्च तत्र कालनामा पिचाचेंन्द्रः पिशाचराजा, अत्र तत्स्थाने महाकालः पिशाचेन्द्रः पिशाचराजः, इति वक्तव्यम्. पर्षद्वक्तव्यसाऽपि कालवदेव वाच्येति । _ 'एवं णिरंतरं जाव गीयजसस्स' एवमनेनैव प्रकारेण निरन्तरम्-अन्तरवर्जितं क्रमेण यावद् गीतयशसः काळमहाकालवत् सर्वा वक्तव्यता पठनीया यावत्पदेन भूतेन्द्रमुरूपप्रतिरूपतीन्द्र द्वयादारभ्य गीतयशोगन्धर्वेन्द्र मन्धर्वराजपर्यन्तं सर्व वर्णनं दाक्षिणात्य पिशाचेन्द्र कालमहाकाळवदेव वाच्यम् । पर्षद्वक्तव्यतापि तत्सदृशैव वाच्या नवरम्-इन्द्रेषु नानात्वं बक्तव्यम् तदाह-गाशद्वयेनजगरा पन्नत्ता' कहि णं भंते ! उत्तरिल्ला पिलाया देवा परिवति' इत्यादि प्रश्नोत्तर-दक्षिणात्यपिशाचों के जैसा ही है अन्तर इतना ही है कि दाक्षिणात्यपिशाचदेव मेरु के दक्षिण में रहते है और उत्तरदिशा के पिशाचदेवमेरुके उत्तर में रहते है । तथा इनका इन्द्र महाकाल है इस महाकाल की परिषदा की वक्तव्यता भी दक्षिण दिश्वती फाल की परिषदा के ही जैसी है 'एवं पिरंतरं जाच गीयजसन' जिल्ला प्रकार से यह दक्षिण दिग्वती और उत्तरदिग्दत्ती पिशाचों की बक्तव्यता प्रकट की कही गई है, इसी प्रकार की वक्तव्यता भूतों से लेकर गंधर्व देवों के इन्द्र गीतयश तक की है ऐसा जानना चाहिये इस वक्तव्यता में अपने २ इन्द्रों को लेकर ही भिन्नता है । इन्द्रों की भिन्नता दो गाथाओं से इस प्रकार से कही है पिशाचों के इन्द्र काल महाकाल है और भूतों के इन्द्र का नाम स्तुरूप और प्रतिरूप है अर्थात् पिशायभा२ हेवानु' ५५ सम वेवु नये २ 'कहि ण भंते ! उत्तरि ल्लाण पिसायागं भोमेज्झा णगरा पण्णता, कहि ण भंते उत्तरिल्ला पिसाया देवा परिवति' विगैरे प्रश्नोत्तरे। दक्षिस ना पिशायमानी भरा છે. ફકત ફેરફાર એટલેજ છે કે દક્ષિણ દિશાના પિશાચ દેવ મેરની દક્ષિણમાં રહે છે, અને ઉત્તર દિશાના પિશાચદેવ મેરૂની ઉત્તર દિશામાં રહે છે. તથા તેમને ઇન્દ્ર મહકાળ છે. આ મહાકાળની પરિષાનુ કથન પણ દક્ષિણ દિશાના
सनी परिषदाना थन प्रभारी छ. 'एव गिरतरं जाच गीयजमस्स' પ્રમાણે આ દક્ષિણ દિશાના તથા ઉત્તર દિશાના પિશાચેનું કથન કહેવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણેનું કથન ભૂતોથી લઈને ગંધર્વ દેવોના દ્રગીત ૧ સુધીનું છે તેમ સમજવું. આ સઘળા કથનમાં પિત પિનના ઈન્દ્રો
Page #808
--------------------------------------------------------------------------
________________
७८४
जीवामिगमय
'कालेय महाकाले, सुख्ख पडिरून पुग्णय य । अमरबइ माणिभद्दे, भौमे य तहा यहाभीमे ॥१॥ किन्नर किंपुरिसे खलु, सप्पुरिसे खल्ल उहा महापुरिसे ।
अइकाय महाकाए, गीयरई चेव गीययससे ॥२॥ छाया-कालश्च महाकालः सुरूपः मतिरूपः पूर्णभद्रश्च ।
अमरपति मणिभद्रः, भीमश्च तथा महामीमः ॥१॥ किन्नर किंपुरुषो खल्लु, सत्पुरुषः खलु तथा महापुरुषः ।
अतिकाय महाकायौ, गीतरतिश्चैर गीतयशाः ॥२॥ अयं भावः-पिशाचानां दाक्षिणात्योत्तराणामिन्द्रो कालमहाकको स्त इति सूत्रे प्रतिपादितमेव । एवमेव क्रमेण दक्षिणोत्तरदिग्वत्तिनां भूतादीनाम् इन्द्रयुगमनामानि यथा-भूतानां सुरूप-प्रतिरूपी द्वाविन्द्रौ स्तः । एवं यक्षाणां पूर्णमद्र-माणिमाद्रो३, राक्षसानां भीममहामीमौ४, किन्नराणां किन्नरकिंपुरुषा५, फिपुरुषाणां सत्पुरुष. महापुरुषों६, महोरगाणाम् अतिकायमहामायो७, गन्धर्वाणां गीतरति-गीतयशसौ८ । एते वानव्यन्तराणामष्टौ मुख्य भेदा भवन्ति इति ॥५० ४९॥ दक्षिण के भूतों के सुरूप और उत्तर के भूतों के प्रतिरूप ये दो इन्द्र है यक्षों के पूर्णभद्र और मणिभद्र ये दो इन्द्र है, राक्षसों के भीम
और महाभीम ये दो इन्द्र है, किन्नरों के विनर और किंपुरुष ये दो इन्द्र है कि पुरुषों के सत्पुरुष और महापुरुष ये दो इन्द्र है मोरगों के अतिकाय और महाकाय में दो इ-द्र है गंधवों के गीतरति और गीत: यश ये दो इन्द्र है । ये जानव्यन्तरों के मुख्य आठ भेद कहे गये है। काल की व्यक्तव्यता के जैसी ही वक्तव्यता गीतयशनाम के इन्द्र तक के समस्त इन्द्रों की है ॥सू० ४९।। બાબતમાંજ જુદાપણું છે. ઈદ્રોનું જુદા પણું બે ગાથાઓ દ્વારા આ રીતે બતાવેલ છે. પિશાચના ઈન્દ્ર કાલ અને મહાકાળ છે. અને ભૂતેના ઈન્દ્ર સુરૂપ અને પ્રતિરૂપ છે.' અર્થાત્ દક્ષિણ દિશાના ભૂતને ઈદ્ર સુરૂપ અને ઉત્તર દિશાના ભૂતને ઈદ્ર પ્રતિરૂપ એ બે ઈન્દ્ર છે. યક્ષના પૂર્ણભદ્ર અને મણિભદ્ર એ બે ઈંદ્રો છે. રાક્ષસોના ભીમ અને મહાભીમ એ બે ઈદ્રો છે. કિન્નરોના કિનર અને જિંપુરૂષ એ બે ઇન્દ્રો છે. જિંપુરૂષોના સપુરૂષ અને . મહાપુરૂષ એ બે ઈંદ્રો છે. મહેરોના અતિકાય અને મહાકાય એ બે ઈદ્રો છે. ગંધર્વોના ગીતરતિ અને ગીતયશ એ બે ઇકો છે. આ પ્રમાણેના આ વાનગંતોના મુખ્ય આઠ ભેદ કહેવામાં આવેલ છે. કાલના કથન પ્રમાણેનું કથન ગીતયશ નામના ઈન્દ્ર સુધી સઘળા ઈદ્રોનું સમજવું. જે સૂ ૪૯ છે
Page #809
--------------------------------------------------------------------------
________________
-साAmirror
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ ४.५० ज्योतिष्कदेवानां विमानादिकम् ७४५
तदेवमुक्ता वानव्यन्तवक्तव्या सम्पलि ज्योतिष्याणां वक्तव्यतामाह-'कहिणं भंते ! मोइसियाणं देवाणं' इत्यादि ।
मूलम्-कहिणं भंते ! जोइसियाणं देवाणं विमाणा पन्नत्ता, कहि णं भंते ! जोइसिया देवा परिवसंति ? गोयमा ! उपि दीवसमुदाणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरणिजाओ भूमीभागाओ सत्ताणउए जोराणसए उड़े उप्पइसा दसुत्तरसया जोयणबाहल्लेणं, तत्थ णं जोइसियाणं देवाणं तिरियमसंखेना जोइसियविमाणवासलयसहस्सा भवतीति मक्खायं तेणं विमाणा अद्धकविट्रकसंठाणसंठिया एवं जहा ठाणपदे चंदमसूरिया य, तत्थ णं जोइसिंदा जोइसियरायाणो परिवसंति, महड्डिया जाव विहरति । सूरस्स णं भंते ! जोइलिंदस्स जोइलरणो कह परिसाओ पन्नत्ताओ गोयमा! तिन्नि परिसाओ पण्णत्ताओ तं जहा-तुंबा तुडिया पेच्चा, अभितरिया तुंबा, मज्झिमिया तुडिया, बाहिरिया पेच्चा, सेसं जहा कालस्त, परिमाणं ठिई वि। अटो जहा चमरस्स । चंदस्त वि एवं चेव ॥सू० ५०॥
छाया-कुत्र खलु भदन्त ! ज्योतिष्काणां देवानां विमानानि प्रज्ञप्तानि, कुत्र खलु भदन्त ! ज्योतिष्का देशः परिवसन्ति ? गौतम ! ऊर्च द्वीप समुद्राणाम् ‘एतस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्याः बहुममरमणीयाद भृमिभागात् सप्तनवतानि योज नशतानि ऊर्ध्वमुत्प्लुत्य दशोत्तरशतयोजनबाहल्ये, तत्र खलु ज्योतिष्काणां देवानां तिर्यगसंख्येयानि ज्योतिविमानावासातसहस्राणि भवन्तीत्याख्यातम् । तानि खलु विमानानि अर्द्ध कपित्थक संस्थान संस्थितानि, एवं यथा स्थान पदे यावच्चन्द्रसूयौं च तत्र खल्लू ज्योति केन्द्रो ज्योतिष्करानो परिवसतः महद्धिौ
कहि णं भंते ? जोइलियाणं देवाणं विमाणा पन्नत्ता' हत्यादि।
टीकार्थ-हे भदन्त ! किस स्थान पर ज्योतिपक चन्द्र सूर्य ग्रहताग एवं नक्षत्र देवों के विमान है ? और 'कहि णं भंते' जोतिषिया देवा परि
'कहि ण भंते ! जोइसियाणं देवाण विमाणा पण्णत्ता' या
ટીકાથ–હે ભગવન તિષ્ક દેવ ચંદ્ર, સૂર્ય ગ્રહ તારા અને નક્ષત્ર रवाना विभाने। या स्थान५२ माया छ ? भने 'कहि ण भंते | जोइसिया
मी० ९९
Page #810
--------------------------------------------------------------------------
________________
७८६
जीवामिगमले यावद् विहरतः । सूर्यस्य खलु भदन्त ! ज्योतिप्केन्द्रस्य ज्योतिष्पराजस्य कति पर्षदः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! तिल. पर्षदः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा तुंवा, त्रुटिता प्रेत्या, आभ्यन्तरिका तुरवा, माध्यमिका त्रुटिता वाहत्या प्रेक्ष्या, शेष' यथा कालस्य परिमाणं स्थितिरपि, अर्थों यथा चमस्य । चन्द्रस्याप्येवमेव ॥मु०५०।। ___टीका-'कहि णं भने !' कुत्र-कस्मिन् रथाने खस भदन्त ! 'जोइसिपाणं देवाणं' ज्योतिष्काणां'-चन्द्र सूर्यग्रहतारानक्षत्राणां देवानाम् 'विमाणा पन्नता' विमानानि प्रज्ञप्तानि-कथितानि, 'कहिणं भंते' कुत्र खलु भवन्त ! 'जोइसिया देवा परिवसति' ज्योतिका देवाः परिवसन्ति ? इति गौतमस्य प्रश्नः, भगवानाह'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'उपि दीसमुदाण' उपरि द्वीप समुदाणाम् 'इमोसे स्यणप्पभाए पुढवाए' पतस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्या 'बहुसम. रमणिज्जाभो भूमिभागाओ' बहुसमरमणीयात् भूमिभागाद् रुचकोपलक्षिता 'सत्ताणउए जोयणसए उड्ड उप्पइत्ता नवत्यधिकानि सप्तयोजनशतानि (७९०) ऊर्ध्वमुत्प्लुन्य-बुद्धयाऽतिक्रम्य 'दसुत्तरस्या जोयणवाहल्लेणं' दशोत्तरयोजनशत वाइल्ये (११०) 'तत्य णं जोरसि गाणं देवाणं' तत्र-तादृशस्थाने खलु ज्योतिवसंति' कहां पर ज्योतिषक देव रहते है। इस प्रश्न के उत्तर में प्रभुश्री कहते है 'उपि दीपसमुद्दाणं इमोसे रयणप्पभाए पुढबीए घहममरमणि. ज्जाओ भूमिभागाओ वत्ताण उए जोयणलते उडूं उप्पिहत्ता सुत्तरसया जोयणबाहल्लेणं, तशण जोलियाण देश णं निश्चिमसंखेनामोजोहसियविमागावालवयसहस्सा भवतीतिमक्खाय' हे गौतम द्वीप एवं समुद्रों से ऊपर तथा इस रत्नप्रभा पृथिवी से सम्मभूमिभाग से जो रुचकप्रदेश से उपलक्षित है उसले ७९० योजन ऊपर जाने पर ११० योजनप्रमाण ऊचाईरूप क्षेत्र में तिरछे ज्यातिष्क देवों के असंख्यात. लाख विमानाचान कहे गये है ऐसा मेरा तथा रा भूतकाल के सर्व देवा परिवसंति' च्याति व यां रहे हैं? प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४३ छ है 'उप्पि दीपसमुदाणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीर बहुसमरम णिज्जाओ भूमिभागाओ सत्ताम उए जोयगसए उड्ढ उत्पतित्ता दसुत्तरसया जोयगव हल्ठेणं, तत्थ ण' जोइसियाणं देवाण तिरियमसंखेम्जा जोइसिय विमाणावाससयसहस्सा भवतीतिमक्खायं 3 गौतम ! द्वीप भने समुद्रानी 6५२ तथा આ રત્નપ્રભા પૃથ્વીના સમભૂમિભાગથી કે જે રૂચક પ્રદેશથી જણાય છે. તેનાથી ૭૦ સાત નવું જન જાય ત્યારે ૧૧૦ એકસે દસ એજન પ્રમા શુના ઉંચાઈવાળા ક્ષેત્રમાં તીચ્છ જ્યોતિષ્ક દેના અસંખ્યાત લાખ વિમાનાવાસે કહેવામાં આવેલા છે. એ પ્રમાણે મારું તથા અન્ય ભૂતકાળના સર્વ
Page #811
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ रु.५० ज्योतिष्कदेवानां विमानादिकम् ७८७ काणां चन्द्रादीनां देवानाम् 'तिरियमसंखेज्जा' नियंगसंख्येयानि 'जोइसिय बिमाणावाससयसहस्सा' ज्योतिष्कविमानावासशतसहस्राणि 'मवंतीति सक्खाय' भवन्तीत्याख्यातं मया (वर्द्ध मानेन) तथाऽन्यैरपि तीर्थकरैरिति । 'ते णं विमाणा' तानि खलु विमानानि 'अद्ध कविसंठाणसंठिया' अर्द्धशापित्य संस्थानसंहिय. तानि 'एवं जहा ठाणपदे' एवं यथा स्थानपदे स्थानाख्ये भज्ञापनाया द्वितीय. पदे तथा वक्तव्यम् । कियत्पर्यन्तमित्याह- 'जाव' इत्याह-यावत्-यावत्पदेन 'अब्भुग्गय मूसिय पहसिया इव' इत्यादि विमानाबालवर्णनमत्र वाच्यम् । तेषु तीर्थंकरों का कहना है 'ते णं विमाणा अद्ध कवि संठाणठिया एवं जहा ठाणपदे जाव चंदिमसूरिया य तत्थ णं जोतिसिंदा जोतिसरायाणो परिवति महिडिया जाब विहरति वे विमान अर्धपित्य-कैथ-के जैसे
आकार वाले हैं। 'एवं जहा ठाणपदे' इस सम्बन्ध में प्रज्ञापना के द्वितीय स्थान पद में जैसा कथन किया गया है, वैसा ही कथन यहां पर भी कर लेना चाहिये यह वर्णन कहां तक कहना चाहिये ? इस पर कहते है-'जाव इत्यादि । थावत्पद ले-'अमुरमय मुखियपहालिया इव' इत्यादि विमानावालों का वर्णन यहां कर लेना चाहिये। उन किमानावासों में वृहस्पति से लेकर अंगारक पर्यन्त के ग्र, अठाईस नक्षत्र
और तारे रहते है। इनका वर्णन यहां कर लेना चाहिये । वे ग्रह नक्षत्र तारागण अपने अपने विमानाबालों का तथा सामानिक देवों से लेकर आत्मरक्षकदेव पर्यन्तों का तथा अपनी अपनी अग्रामहिषियों का एवं ऐसे और भी बहुत से देव और देथियों पर आधिपत्य करते हुए तीर्थ ४रोनु छ. 'वे ण विमाणा अद्ध कविट्ठसठाणसंठिया एवं जहा ठाण पदे जाव चदिमसूरियाय तत्थ ण जोइसिदा जोइसियरायाणा परिवसंति महिइढिया जाव विहरति' त विमान। अर्धा ४२ हाना माना है. 'एवं जहा ठाण पद्दे' मा समाधम प्रज्ञायना सूत्रना भी स्थान५४मा २ प्रभानु ४थन કરવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણેનું કથન અહીંયા પણ સમજી લેવું તે વર્ણન ध्या सुधानु मडियां उनमे से भाटे 'जाव' या सूत्रा8थी ४८ छे. यापात्प४थी 'अभुग्गय मुसिय पहसिया इव' त्या विमानावासानु वन અહીયાં કરી લેવું જોઈએ. એ વિમાનાવાસમાં બૃહસ્પતિથી લઈને અંગારક પર્યત્તના ગ્રહો, અઠયાવીસ નક્ષત્રો અને તારાઓ નિવાસ કરે છે. તે બધાનું વર્ણન અહિયાં કરી લેવું જોઈએ. તે ગ્રહ, નક્ષત્ર, તારા ગણ પિત પિતાના વિમાનાવાસ તથા સામાનિક દેથી લઈને આત્મરક્ષક દેવ સુધીના તથા પાત પિતાની છત્રમહિષિનું એવં એવા ઘણુ દેવ અને દેવિ પર અધિ.
Page #812
--------------------------------------------------------------------------
________________
बड उप्पइत्ता नायर भूमिभागाद विव्या 'बहुसम
७८६
जीवामिगमत्र यावद् विहरतः । सूर्यम्य खलु भदन्त ! ज्योतिप्केन्द्रस्य ज्योतिष्कराजम्य कति पर्पदः पज्ञप्ताः ? गौतम ! तिस्त्र पर्षदः प्राप्ताः, तद्यथा तुंबा, त्रुटिला प्रेत्या, आभ्यन्तरिका तुम्बा, माध्यमिका त्रुटिता वाहत्या प्रेत्या, शेष यथा कालस्य परिमाणं स्थितिरपि, अर्थों यथा चमस्य । चन्द्रस्याप्येवमेव ।।०५०।। _____टीका-'कहि णं भने ! कुन-कस्मिन् रथाने खल्ल भदन्त ! 'जोइसियाणं देवाणं' ज्योतिष्काणां'-चन्द्रसूर्यग्रहतागनक्षत्राणां देवानाम् 'विमाणा पन्नता' विमानानि पज्ञप्तानि-कथितानि, 'कहिणं भंते कुत्र खलु सरन्त ! 'जोइसिया देवा परिवसंति' ज्योतिष्का देवाः परिवसन्ति ? इति गौतमस्य प्रश्नः, भगवानाह'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'उपि दीसमुदाण' उपरि द्वीप समुद्राणाम् 'इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए' पतस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्या 'बहुसम रमणिज्जाभो भूमिभागाओ' बहुसमरमणीयात् भूमिभागाद रुचकोपलक्षितात् 'सत्ताणउए जोयणसए उड़ उप्पइत्ता' नत्यधिकानि सप्तयोजनशतानि (७९०) ऊर्ध्वमुप्लुन्य-बुद्धयाऽतिक्रम्य 'दसुत्तरस्या जोयणवाइल्लेणं' दशोत्तरयोजनशत बाल्ये (११०) 'तत्य णं जोइसिरयाणं देवाण' तत्र-ताशस्थाने खल ज्योतिवसंति' कहां पर ज्योतिषक देव रहते हैं। इस प्रश्न के उत्तर में प्रभुश्री कहते है 'उपि दीवसमुदाणं नीले रयणप्पभाए पुढबीए घटुसमरमणिजजाप्रो भूमिभागाओ खत्ताणउए जोयणलते उडूं उप्पिइत्ता सुत्तरसया जोयणबाहरलेणं, तत्क्षणं जोइलियाण देवाणं निरियमसंखेचाओ जोहसिधविमाणावामध्यसहस्सा भवंतीतिमावाय' हे गौतम द्वीप एवं समुद्रों से ऊपर तथा इस रत्नप्रभा पृथिवी से समभूमिभाग से जो रुचकप्रदेश से उपलक्षित है उनले ७९० योजन ऊपर जाने पर ११० योजनप्रमाण ऊचाईरूप क्षेत्र में तिरछे ज्यातिष्क देवों के असंख्यातलाख विमालाबाल कहे गये है ऐमा मेरा तथा अन्य भूतकाल के सर्व देवा परिवसंनि' ज्योति । यो २९ ? प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४ छ है 'उप्पि दीपसमुदाणं इसीसे रयणप्पभाए पुढवीर बहुसमरम णिज्जाओ भूमिभागाओ सत्ताणउए जोयणसए उड्ढ उत्पतित्ता सुत्तरसया जोयगव हल ठेणं, तत्थ ण' जोइसियाण देवाण तिरियमसंखे-जा जोइसिय विमाणावाससयसहस्सा भवतीतिमक्खायं' है गोतम । द्वीप भने समुद्रानी 6५२ तथा આ રત્નપ્રભા પૃથ્વીના સમભૂમિભાગથી કે જે રૂચક પ્રદેશથી જણાય છે. તેનાથી ૭૦ સાતસે નેવું જન જાય ત્યારે ૧૧૦ એકસે દસ યોજન પ્રમા થના ઉંચાઈવાળા ક્ષેત્રમાં તીચ્છ તિષ્ક દેના અસંખ્યાત લાખ વિમાનાવાસે કહેવામાં આવેલા છે. એ પ્રમાણે મારું તથા અન્ય ભૂતકાળના સર્વ
Page #813
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्यौतिका टीका प्र. ३ . ३ खू. ५० ज्योतिष्कदेवानां विमानादिकम्
७८७
काणां चन्द्रादीनां देवानाम् ' तिरियमसंखेज्जा' तिर्यगसंख्येयानि 'जोइसिय विमाणावाससय सदस्सा' ज्योतिष्कविमानावासशत सहस्राणि 'भवतीति मक्खायें' भवन्तीत्याख्यातं मया (बर्द्धमानेन) तथाऽन्यैरपि तीर्थकरैरिति । 'ते णं विमाणा' तानि खलु विमानानि 'अद्ध कविसंठाणसंठिया' अर्द्धकपित्थ संस्थानसंस्थितानि ' एवं जहा ठाणपदे' एवं यथा स्थानपदे स्थानाख्ये प्रज्ञापनाया द्वितीयपदे तथा वक्तव्यम् । कियत्पर्यन्तमित्याह - 'जान' इत्याह- यावत् - यावत्पदेन 'अभुग्गय मूसिय पदसिया इव' इत्यादि विमानावासवर्णनमत्र वाच्यम् । तेषु तीर्थंकरों का कहना है 'ते णं विमाणा अद्धकवि संठाणरुटिया एवं जहा ठाणपदे जाव चंदिमसूरिया य तत्थ णं जोतिसिंदा जोतिसरायाणो परिवसंति महिडिया जाव विहरंति' से विमान अर्धकपित्थ-कैंथ के जैसे आकार वाले हैं । ' एवं जहा ठागपदे' इस सम्बन्ध में प्रज्ञापना के द्वितीय स्थान पद में जैसा कथन किया गया है, वैसा ही कथन यहाँ पर भी कर लेना चाहिये वह वर्णन कहां तक कहना चाहिये ? इस पर कहते है- 'जाय इत्यादि । यावत्पद से- 'अब्भुग्गद्य सुसियपहलिया इव' इत्यादि विमानावालों का वर्णन यहां कर लेना चाहिये। उन विमानावासों में वृहस्पति से लेकर अंगारक पर्यन्त के ग्रह, अठाईस नक्षत्र और तारे रहते है । इनका वर्णन यहां कर लेना चाहिये । वे ग्रह नक्षत्र तारागण अपने अपने विमानावासों का तथा सामानिक देवों से लेकर आत्मरक्षकदेव पर्यन्तों का तथा अपनी अपनी अग्रमहिषियों का एवं ऐसे और भी बहुत से देव और देवियों पर आधिपत्य करते हुए तीर्थ पुरोनु दु छे 'वे णं' विमाणा अद्ध कविट्ठसंठाणसंठिया एवं जहा ठाणपदे जाव चंदिमसूरियाय तत्थ णं जोइसिदा जोइसियरयाणा परिवति महिइढिया जाव विहरति' ते विभाना अर्धा उरेल अठाना भरना वे ' एवं जहा ठाण પદ્દે આ સબધમાં પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના ખીજા સ્થાનપદમાં જે પ્રમાણેનું કથન કરવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણેનું કથન અહીયા પણ સમજી લેવું તે વન श्यां सुधीनु अड्डियां वु' ले ये मे भाटे 'जाव' इत्यादि सूत्रपाठथी उस छे. यावात्यहथी 'अब्भुग्गय मुसिय पहसिया इत्र' त्याहि विमानापासोनु वर्षान અહીયાં કરી લેવુ ોઇએ. એ વિસાનાવાસેામાં બૃહસ્પતિથી લઈને અંગારક પન્તના ગ્રહે, અઠયાવીસ નક્ષત્રા અને તારાઓ નિવાસ કરે છે. તે માનુ વન અહિયાં કરી લેવું જોઈએ. તે ગ્રહ, નક્ષત્ર, તારા ગણુ પેત પેાતાના વિમાનાવાસે તથા સામાનિક દેવેથી લઈને આત્મરક્ષક દેવ સુધીના તથા પાત પેાતાની અમહિષિયાનુ એવ એવા ઘણા દેવ અને ડેવિયેા પર અધિ
--
Page #814
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
-
आयाभिगम विमानावासेषु वृहस्पत्यादयोऽङ्गारकान्ता ग्रहाः, अष्टाविंशति नक्षत्राणि तारकाच परिवसन्ति । एषां वर्णनमत्र वाच्यम् । ते तत्र स्वस्चारमानावासपरिवारभूत सामानिकदेवाद्यात्मरक्ष देव पर्यन्तानां स्वस्वायमहिषीणां बहूनामन्येषां च ज्योतिष्कदेव देवीनामाधिरत्यं कुर्वन्तो भोग भोगान् भुञ्जाना विहरन्तीति वर्णनं वाच्यम् 'चंदिममरिया य तत्थणं' चन्द्रसूयौं च तत्र खलु 'जोइसिदा जोइसरायाणो' ज्योतिप्केन्द्रौ ज्योतिष्कराजो 'परिवति' परिवसतः, कीदृशास्ते ? इत्याह-'महिडिया' महर्टिकाः, इत्यादि वर्णनमत्र वारम् । कियत्पर्यन्तमित्याह-'जाव विहरंति' यावद्विहरतः, यावरदेनात्र चन्द्रमर्यवर्णनं वाच्यम् । तो तत्र स्वेषां स्पां परिवारभूत सामानिकादि देवानां देवीनां चाधिपत्यं कुर्वन्तौ भोगभोगान् भुनानौ विहरत इति । __सम्पति-ज्योतिप्केन्द्रमूर्यस्य पर्पनिरूपणार्थमाह-'मूरस्सणं भंते !' इत्यादि 'सूरस्स णं भंते !' सूर्यस्य खलु भदन्त ! 'जोइसिंदस्स जोइसरनो' ज्योतिष्के. न्द्रस्य ज्योतिष्कराजस्य 'कइ परिसायो पन्नताओ' कति पर्पदः कियत्संख्यकाः और भोगउपभोगों को भोगले हुए रहते है। यह सब वर्णन भी यहां जान लेना चाहिये । 'चंदिमसूरिया य तत्थ ' इत्यादि, वहां पर चन्द्र
और सूर्य ये दो अपने अपने क्षेत्र के ज्योतिषियों के इन्द्र ज्योतिएकराज रहते है वहाँ से लेकर 'जाव विहरंति' वहां तक । अर्थात् वे कैसे है ? इनका वर्णन 'महिडिया' महद्धिक-मोटी ऋद्धिवाले है इत्यादि वर्णन यहां समझ लेना चाहिए अपने धिमानावास और परिवारभूत देवदेवियों पर आधिपत्य करते हुए भोगउपभोगों को भोगते हुए ज्योतिष्कदेवेन्द्र सूर्यकी परिषदाका निरूपण करते है-'वरस्स णं भंते' इत्यादि । 'सूरस्स] भंते जोतिसिंदस्म जोतिसरपणो कति परिसाओपण्णत्ताओ' हे भदन्त! ज्योतिषेन्द्र ज्योतिषराज सूर्य की कितनी परिषदाएं कही गई है। इस પતિપણું કરતા થકા અને ભંગ ઉપભેગોને ભેગવતા થકા રહે છે. અહીંયા म तमाम वन सम से, 'च दिमसूरियाय तत्थ गं' इत्याहि त्यां यद्र અને સૂર્ય એ બે પિત પિતાના ક્ષેત્રના તિષ્કના ઈદ્ર જતિષ્કરાજ रहे छे. महीयां 'जाव विहरति' मा ५४ पर्यन्त मा ४थन पर्यन्त ही वे. मात् तम। यो २९ छ १ तेनु न 'महिइढिया' भघि मोटी ઋદ્ધિવાળા છે, ઈત્યાદિ વર્ણન અહીયાં સમજી લેવું.
હવે પિતાના વિમાનાવાસ અને પરિવારભૂત દેવ દેવિ પર અધિપતિ પણું કરતા થકા અને ભેગ ઉપભેગોને ભેગવતા થકા સૂર્યની પરિષદાનું વર્ણન ४२वामां आवे छे. 'सूरस्म णं भते! त्याहि 'सूरस्स गं भते ! जोइसिदस्स जोइस
रणो कति परिसाओ पण्णत्ताओ' भगवन् च्यातिन्द्र न्येतिष सूयनी - કેટલી પરિષદાઓ કહેવામાં આવી છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે
Page #815
--------------------------------------------------------------------------
________________
मैयद्योतिका टोका मं. ३ उ. ३ सूं. ५० ज्योतिष्कदेवानां विमानादिकर
७.
प्रज्ञप्ताः - कथिता इति पर्षत्संख्ण विषयकः प्रश्नः भगवानाह - 'शोयमा' इत्यादि, 'गोयमा !' हे गौतम ! ' तिन्नि परिसाओ पन्नत्ताओ' तिस्रः त्रिसंख्यकाः पर्पदः प्रज्ञप्ता = कथिता इति । 'तं जहा ' तद्यथा- 'तुंबा तृडिया पेच्चा' तुम्बा त्रुटिता प्रेत्या, तत्र - ' अमितरिया तुंबा' आभ्यन्तरिका तुम्ब', 'मझिमिया तुडिया' माध्यमिका त्रुटिता, 'बाहिरिया पेच्चा' वाह्य प्रेत्या 'सेसं जहा बाळस परिमाणं ठिई वि' शेषं यथा कालस्य परिमाणं परिषत्त्रयस्थि देवदेवीनां सख्यापरिमाणं तथा तत्रस्थ देवदेवीनां स्थितिरपि तथैव वाच्या, 'अट्टो जहा चमरस्त' अर्थो यथा चमरस्य अर्थः ' से केण द्वेणं' इत्यादि रूपोऽर्थश्वमरवदत्रावि वाच्यः पर्षदःअभ्यन्तरिकादि नामकरणे यो हेतुः प्रदर्शितश्वमरेन्द्र प्रकरणे तथेहापि ज्ञातव्यः । 'चंदस्स वि एवं चेव' चन्द्रस्यापि एवमेव सूर्यस्य पर्षदादिकं यथा कथितं तथा चन्द्रस्यापि तथैव ज्ञातव्यमिति ॥ ०५० ॥
के उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'गोधमा ! लिणि परिक्षाओं पण्णत्ताओ' हे गौतम ज्योतिषेन्द्र ज्योतिषराज सूर्य की तीन परिषदाएं कही गई है । 'तं जहा ' जो इस प्रकार से है- 'तुवा, तुडिया, पेच्चा' तुम्बा, त्रुटिता, और प्रेस्था, इन में 'अभितरिया तुषा, मज्झमिया तुडिया बाहिरिया पेच्चा' तुम्बा नामकी परिषदा आभ्यन्तर परिषदा कहो गई है त्रुटिता नाम की परिषदा मध्यमिका परिषदा कही गई है । और प्रेत्यानाम की परिषदा बाह्य परिषदा कही गई । 'सेलं जहा कालस्स परिमाणं ठिर्ह वि' जिस प्रकार से काल की सभा के देवों का एवं देवियों का परि माण- संख्या और उनको स्थितिका कथन किया गया है । वैसा ही यहां समझ लेना चाहिए 'अट्ठो जहा चमरस्त' चमर के प्रकरण में इन सभाओं के नाम होने में हेतु प्रदर्शित किया गया है वही सब कथन
'गोयमा ! तिणि परिखाओ पण्णत्ताओ' हे गौतम! ज्यातिषेन्द्र ज्योतिष रान सूर्यानी त्रष्ह्यु परिषहाओ। उस छे. 'त जहा' ते या प्रमाये है. 'तुबा, तुडिया, पेच्चा' तुम्मा, त्रुटिता भने प्रेत्या तेमां 'अभितरिया तुबा, मझमिया तुडिया बाहिरिया पेच्चा' तेमां तुमा परिषधाने माल्य तर परिषदा उस छे. ત્રુટિતા નામની પરિષદાને મધ્યમિકા પરિષદા કહી છે. અને પ્રેત્યા નામની परिषहाने माह्या परिषदा अडेल छे. 'सेन जहा कालस्स परिमाणं टिई वि' પ્રમાણે કાળની સભાના દેવા અને કેવિયેનું પરિમાણુ, સખ્યા અને તેઓની સ્થિતિનું કથન કરવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણેનુ' કથન અહીયાં પણુ સમજી बेवु. 'अट्ठो जहा चमरस्स' यभरना अरशुभा या सलाभोना नाभी होवाना સબંધમાં કારા ખતાવેલ છે, એજ પ્રમાથેનુ' તમામ થન અહીયાં પદ્યુ
Page #816
--------------------------------------------------------------------------
________________
७९०
जीवाभिगमसूत्र ज्योतिष्कदेवास्तिर्यग्लोगे इति तिर्यग् लोकमस्तावाद् द्वीपसमुद्रवक्तव्यतामाह-'कहिणं भंते ! दीव समुदा' इत्यादि।
मूलम्-कहि णं भंते ! दीवसमुद्दा पन्नत्ता, केवइया णं भंते ! दीवससुद्दा पन्नत्ता, के महालयाणं भंते ! दीवसमुद्दा एजणत्ता, कि सठिया णं भते! दीवसमुद्दा पन्नत्ता, किमा गार भावपडोयाराणं भंते! दीवसमुद्दा पन्नत्ता? गोयमा! जंबुद्दीवाइया दीवा लवणादिया समुद्दा संठाणतो एकविहविहाणा वित्थारओ अणेगविहविहाणा दुगुणा दुगुणपडुप्पाएमाणा२ पवित्थरमाणा२ ओभालमाणवीचिया बहुउप्पलपउम कुसुदलिण सुभगसोगंधिक पोंडरीय महापोंडरीय सत्तपत्त पफुल्लकेसरोबचिया पत्तेयं पत्तेयं पउसवरवेइया परिक्खित्ता, पत्तेयं पत्तेयं वणसंढपरिक्खित्ता, अस्सि तिरियलोए असंखेना दीवलमुद्दा सयंभूरमणपज्जवसाणा पण्णत्ता समणाउसो ? । तत्थ णं अयं जंबुद्दीने णाम दीवे दीवसमुदाणं अभितरिए सबखड्डाए वह, तेल्लापूयसंठाणसंठिए बहे. रहचकवालसंठाणसठिए बढे, पुक्खरकणियासंठाणसंठिए बढे, पडिपुन्नचंदसंठाणसंठिए, एकंजोयणसयसहस्सं आयामविश्वंभेणं तिपिणजोयणसयसहस्साई सोलससयसहस्साई दोणिय सत्तावीसे जोयणलए तिपिणचकोसे अट्ठावीसं च धणुमयं तेरस अंगुलाई अहंगुलकं च किंचि विस्ताहियं परिविखेवेणं पण्णत्ते । से णं पाए जगतीए सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते । साणं जगती यहां पर भी कह लेना चाहिये 'चंदस्त वि एवं चेव' सूर्य के सम्बन्ध में जैसा यह परिषदा आदिका कथन किया गया है ऐसा ही परीषदा आदि का कथन चन्द्र के सम्पब में भी कर लेना चाहिये ॥५०॥ ही . 'चंदस्स वि एव चेव' सूर्य ना समन्धमा परिहा विरेनु પ્રમાણેનું કથન ત્યાં કરવામાં આવેલ છે. એ જ પ્રમાણેનું કથન અહીંયાં ચંદ્રના સંબંધમાં પણ કરી લેવું જોઈએ. સૂ. ૫૦ |
Page #817
--------------------------------------------------------------------------
________________
जमैयद्योतिका टीका प्र.३ २.३ तु.५१ द्वीपसमुद्रनिरूपण
७९१ अटूजोयणाई उड्ढें उच्चत्तेणं, मूले बारसजोयणाई विखंभणं, मज्झे अजोयगाइं विक्खंभेणं, उपि चत्तारि जोयणाई विक्खंभेणं, मूले वित्थिपणा, मज्झे संखित्ता, उप्पिं तणुया, गोपुच्छ संठाणसंठिया सव्ववइरामई अच्छा सहा लण्हा घडा स्ट्रा णीरया णिम्मला णिपंका निकंकडछाया सप्पमा लस्लिरीया समरीइया सउज्जोया पासादीया दरिसणिज्जा अभिरूवा पाडरूवा॥साणं जगती एकेणंजालकडएणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ता । से णं जालकडएणं अद्धजोयणं उडू उच्चत्तेणं, पंचधणुसयाई विक्खंभेणं, सव्वरयणामए अच्छे सण्हे लण्हे घट्टे णीरए णिम्मले णिप्पंके णिकंकडच्छाए सप्पभे सस्सिरीए समरीइए सउज्जोए पासादीए दरिलणिजे अभिरूचे पडिरूचे।सू०५१।
छाया-कुत्र खलु भदन्त ! द्वीपसमुद्राः प्रज्ञताः ? कियन्तः खलु भदन्त ! द्वीपसमुद्राः प्रज्ञप्ताः ? कियन्महालयाः खलु भदन्त ! द्वीपसमुद्राः प्रज्ञप्ताः ? कि संस्थिताः खलु भदन्त ! द्वीपसमुद्राः मज्ञप्ताः ? किमाकारभावपत्यवताराः खल भदन्त ! द्वीपसमुद्राः पज्ञप्ता: ? जम्बूद्वीपादिका द्वीपा लवणादिकाः समुद्राः संस्थानत एकविधविधाना विस्तरतोऽनेकविधविधाना द्विगुणं द्विगुणं प्रत्युत्पद्यमानाः प्रयुत्पद्य मानाः प्रविस्तरन्तः २ अवमासमानवीच यो बहूत्पल २मकुमुदनलिनसुभगसौगन्धिकपुण्डरीक शतपत्रसहस्रपत्र प्रफुल्ल केसरोपचिताः मन्येकं प्रत्येक पावर वेदिका परिक्षिप्ताः प्रत्येकं प्रत्येकं वनपण्डपरिक्षिप्ताः अस्विन् तियग्लो केऽसंख्येयाः द्वीपसमुद्राः स्वयंभूरमणपर्यवसानाः प्रज्ञप्ताः श्रमणायुष्मन् ! तन्त्र ग्वलु जम्बूद्वीशे नामद्वीपो द्वीपसमुद्राणामाभ्यन्तरिकः सर्वक्षुद्रको वृत्तः तेलापूप संस्थानसं स्थिती वृत्तो रथचक्रवालसंस्थानसंस्थितो वृत्तः पुष्करकणिकाथानसंस्थितो वृत्तः परिपूर्ण चन्द्रसंस्थानसंस्थितः, एकं योजनशतसहस्रमाचामविष्यम्भेण त्रीणि योजनशन सहस्राणि षोडशशतसहस्राणि द्वे च सप्तविंशतियोजनशते त्रयः क्रोशाः, अष्टाशिं च धनु: शत त्रयोदशाङ्गुलानि अ‘गुटकं च किञ्चिद्विशेषाधिक परिक्षेपेग प्रज्ञप्तः । स खलु एकया जगत्या सर्वतः समन्ताद संपरिक्षिप्तः । सा ग्वल जगती अष्टयोजनानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन, मूले द्वादशयोजनानि किन्भेग, मध्येऽष्ट योजनानि विष्कम्भेण, उपरि चत्वारि योजनानि विशम्भेण, सूळे विस्तीर्णा मध्ये संक्षिप्ता उपरि तनुका गोपुच्छ संस्थानसंस्थिता सर्व वनमयी अच्छाउदक्ष्णा.
Page #818
--------------------------------------------------------------------------
________________
७९२
जीवाभिगमपूर्व लष्टाघृष्टामृष्टानीरजानिर्मला निष्पका निष्पवटच्छाया सप्रमा सश्रीका समरीचा सोद्योता प्रासादीया दर्शनीया अभिरूपा प्रतिरूपा । सा खलु जगती एकेन जालकटकेन सर्वतः समंतात संपरिक्षिप्ता ॥ स खल्ल जालकटकः खलु अईयोजन सुर्ध्वमुच्चत्वेन, पञ्चधनुः शतानि विष्कम्मेण, सर्वरत्नमयोऽन्छ: इलक्षणः लष्टो. घृठोसृष्टो नीरजाः निर्मलो निष्कटच्छायः सप्रमा सश्रीकः समरीचः सोद्योतः पासादीयो दर्शनीयोऽभिरूपः पतिरूपः ॥० ५१॥ ____टीका-'कहिणं भवे । दीरसमुद्दा' कुत्र- कस्मिन् स्थाने खल भदन्त ! द्वीपसमुद्राः, द्वीपाः समुद्राश्च सन्तीति द्वीपसमुद्राणामवस्थानविषयकः प्रथमः प्रश्नः, 'देवइयाणं भंते ! दीवसमुद्दा' कियन्तः कियत्संख्यकाः खल मदन्त ! द्वीपसमुद्राः प्रज्ञप्ता इति द्वीपसमुद्राणां संख्याविषयको द्वितीयः प्रश्ना, के 'महालयाणं भंते ! दीवसमुदा' कियन्महाळ्या द्वीपसमुद्राः कियान महानालयं आश्रयो व्याप्यक्षेत्ररूपो येषां ते कियन्महाळयाः किं प्रमाणमहालयाः द्वीपसमुद्रा इति
ज्योतिकदेव तिर्थग्लोक में है अतः तिर्यग्लोक के प्रस्ताव से अथ सूत्रकार द्वीप एवं समुद्र के सम्बन्ध में वक्तव्यता का कथन करते है।
'कहि णं भंते ! दीवसमुद्दा पन्नत्ता' इत्यादि । टीकार्थ-गौतम ने प्रभुश्री से ऐसा पूछा है-'कहिण भंते दीवसमुद्दा पण्णत्ता' हे भदन्त ! द्वीप और समुद्र किस स्थान पर कहे गये है ? अर्थात् द्वीप समुद्रों का अवस्थान कहाँ पर है । इस प्रकार से यह प्रश्न गौतमका द्वीप और समुद्रों के अवस्थान के विषय में है। 'केवड्या णं भंते ! दीवलमुद्दा वे द्वीप समुद्र हे भदन्त ! कितने है ? यह प्रश्न उनकी संख्या के विषय में है। 'के महालया णं भंते ! दीव मुद्दा' हे भदन्त ? वे द्वीपसमुद्र कितने-बडे-विशाल है ऐसा यह प्रश्न उनकी आयामादि
તિષ્કદેવ તિલેકમાં છે, તેથી તિર્યલેકના પ્રસ્તાવથી હવે સૂત્રક ૨ द्वीप भने समुद्रना समन्धमा ४थन ४२ताहेछ 'कहि ण' भ ते ! त्यादि
'कहि णं भंते ! दीवेसमुद्दा पण्णचा' त्यादि
Aथ-श्रीगीतभस्वामी प्रसुश्री२ मे ५७यु छ है 'कहि णं भंते ! दीवसमुदा पण्णत्ता' सन्दीप भने समुद्री या स्थान ५२ ४ा छ १ अर्थात् દ્વીપસમુદ્રોની સ્થિતિ કયાં આવેલ છે? આ રીતને આ પ્રશ્ન શ્રીગૌતમસ્વામીએ द्वीप भने समुद्रीन अवस्थान समयमा पूछे छे. 'केवइया णं भाते ! दीव समुद्दा' सभवन से द्वीप समुद्री टखा छ ? या प्रश्न द्वीप समुद्रानी सध्यान समयमा डेत छे. 'के महालया णं मंते ! दीवसमुदा' हे सगन् તે દ્વીપ સમુદ્રો કેટલા મેટા વિશાળ પ્રમાણુના છે ? એ પ્રમાણેને આ પ્રશ્ન તેના
Page #819
--------------------------------------------------------------------------
________________
मा
-
प्रमेयधोंतिकाटीका प्र.३ उ.३ २.५१ द्वीपसमुद्रनिरूपणम् दीपसमुद्राणा मायादि परिमाण विषयस्तृतीयः प्रश्नः, 'कि संठियाणं भंते ! दीवसमुदा' कि संस्थिताः खलु भदन्त ! द्वीपसमुद्राः, किं कीदृश संस्थितंसंस्थानं येषां ते कि संस्थिता इति संस्थानविषयकः चतुर्थः प्रश्नः, 'किमागार भावपयोडाराणं भंते ! दीवस मुद्दा पन्नत्ता' किमाकारभारप्रत्यताराः खलु भदन्त ! द्वीपसमुद्राः प्रज्ञप्ताः, आकारभाव स्वरूपविशेषः कस्याकारभावस्य मत्यवतारो येषु ते किमाकारभावमन्यवतारा इति द्वीपसमुदाणां स्वरूविषयका पञ्चमप्रश्ना, भगवानाह-'गोयमा इत्यादि, 'गोयसा' हे गौर म ! 'जबुद्दीवाइया दीवा कवणादिया समुद्दा' जम्बूद्वीपादिका द्वीपाः, जम्बूद्वीप आदि र्येषां ते जम्बूद्वीपादिकाः जम्बूपभृतयो द्वीपा इत्यर्थः, लवणादिकाः समुद्राः लवणसमुद्र आदि येषां ते लवणसमुद्रादिकाः-लवणसमुद्रपभृतयः समुद्रा इत्यर्थः एतास्ता प्रमाणके सम्बन्ध में है। 'कि मठिया भंते' दीवसमुद्दा' उन द्वीप समुद्रों का हे भदन्त ! संस्थान आकार कैसा है ? यह उनके संस्थान के विषय में प्रश्न है। तथा-'किमाकारभाव पडोधारा णं भंते दीव समुद्दा पन्नत्ता' उन द्वीपसमुद्रों का हे भदन्त ! स्वरूप क्या है ? ऐसा यह पांचा प्रश्न उनके स्वरूप विशेष के विषय में है इन प्रश्नों के उत्तर में प्रभुश्री गौतम से कहते हैं-'गोयमा जंबूद्दीवाइया दीवा लवणाया ममुहा' हे गौतम ! जम्बूद्वीप हैं आदि में जिन्हो के ऐसे तो द्वीप है और लवण. समुद्र हैं आदि में जिन्हों के ऐंसे समुद्र है। यहां पर श्रीगौनमस्वामीने प्रभुश्री से सर्वप्रथम द्वीपसमुद्र किस स्थान पर है ? यह प्रश्न किया है। पर प्रभुश्रीने ऐसा उत्तर क्यों दिया कि जम्बूद्वीप आदि द्वीप है। और लवण समुद्र आदि समुद्र हैं। बालतो ठीक है पर इस तरह का जो नहीं भायाम किरना सभा ४२व छ. 'कि संठिया णं भते ! दीवसमुद्दा' હે ભગવન એ દીપ સમુદ્રોને આકાર કે છે? આ પ્રશ્ન તેના સંસ્થાનના समयमा ४२८ छे. तया 'किमाकारभावपडोयाराणं भंते ! दीवसमुदाणं vomત્તા” હે ભગવન એ દ્વીપ સમુદ્રોનું સ્વરૂપ કેવું છે ? એ રીતને આ પાંચમે પ્રશ્ન તેના સ્વરૂપ વિશેષના સંબંધમાં પૂછેલ છે. આ પ્રશ્નોના ઉત્તરમાં प्रभुश्री गौतमस्वामीन ४ गोयमा ! जद्दीवाइया दीवा लवणाइया समुद्दा' गीतम! पूदी५ मां माता भुस्य छे सेवा सन દ્વિીપ છે. લવણ સમુદ્ર જેની આદિમ છે એવા સમુદ્ર છે. અહીંયાં શ્રીગૌતમ સ્વામીએ પ્રભુશ્રીને સૌથી પહેલાં દીપ સમુદ્રો ક્યા સ્થાન પર આવેલ છે ? એ પ્રમાણેનો પ્રશ્ન પૂછેલ છે. પરંતુ પ્રભુશ્રીએ છે. ઉત્તર કેમ આપે કે જંબદ્વીપ વિગેરે દ્વીપ છે અને લવણ સમુદ્ર વિગેરે સમુદ્રો છે. તમારૂં
जी० १००
Page #820
--------------------------------------------------------------------------
________________
तीवामिगमही द्वीपानां समुद्राणां चादिः कथितः, एतच्चापृष्टमपि भगवता कथितमुत्तरत्रोपयोगित्वाव, गुणवते शिष्यायापृष्टमपि वक्तव्यमिति ख्यापनाय चेखि। 'संठाणओं' संस्थानतः संस्थानमाश्रित्येत्यर्थः 'एग विहविदाणा' एकविधविधानाः एकविधम् - एकपकारं विधानं येप ते एकनिधविधानाः, एकस्वरूपा इत्यर्थः एकस्वरूपता च सर्वेषां द्वीपसमुद्राणां वृत्तसंस्थानसं स्थितत्वादिति । 'वित्थारो अणेगविह विहाणा' विस्तारतो विस्तारमधिकृत्य पुनरनेकविधविधानाः, अनेकविधा. नानि-अनेकपकारकाणि विधानानि येषां ते तथा, विस्तारमधिकृत्य नानाविधविस्तारवन्त इत्यर्थः, एतदेव नानास्वरूपत्वमुपदर्शयति-'दुगुणा दुगुणं पदुप्पा. एमाणा२ पवित्थरमाणा२' हिगणं द्विगुणं यथा भवति एवं प्रत्युत्पद्यमानाः मन्यु स्पद्यपानाः, गुग्यमानाः२ इत्यर्थः प्रविस्तान्तः प्रविस्तरन्तः पकण विस्तार पूछा गया भी उनकी आदिका प्रदर्शक उत्तर दिया है वह इन पूछे गये प्रश्नों के उत्तर देने में उपयोगी है। तथा आगे भी यह काम में आनेवाला है। अथवा 'गुगवले शिष्याय अपृष्टमपि कथनीयम्' गुणशाली शिष्य के लिये नहीं पूछा गया श्री विषय कह देना चाहिये ऐसी नीति है सो इस नीति को यापन करने के लिये भी प्रभुश्रीने नहीं भी पूछे गये प्रश्न का स्वयं भी उद्भावित घरके उत्तर दिया है ये जम्बूद्वीपादिक द्वीप और लवणसमुद्र आदि समुद्र 'ठाणो एकवित बिताणा, वित्धार ओ अणेगविहविहाणा' संस्थान की अपेक्षा एक ही प्रकार के आकार वाले है। क्योंकि इनका आकार वृत्त गोल कहा गया है। तथा विस्तार की अपेक्षा इनका विस्तार नानाप्रकार का कहा गया है। यही वान 'दुगुणादुगुणं पडुप्पाएमाणा२ पवित्थरકથન તે બરાબર છે પરંતુ આ રીતને નહી પૂછવામાં આવેલ તેની આદિ બતાવનાર ઉત્તર આપેલ છે. તે આ પૂછવામાં આવેલ પ્રશ્નોના ઉત્તર આપવામાં ઉપગી છે. અને આગળ પણ આ ઉત્તર ઉપયેગી થનાર છે એટલા માટે मा शतना उत्तर हेस छे. अथवा 'गुणवते शिष्याय अपृष्ठमपि कथनीयम्' ગુણવાન શિષ્ય ન પૂકેલ વિષયના સંબંધમાં પણ કહેવું જોઈએ આ પ્રમાણેનું નીતિ વચન છે. તેથી આ નીતિને ધ્યાનમાં રાખીને પ્રભુશ્રીએ પૂછવામાં ન આવેલવિ ષના સંબંધમાં પતે એ વિષયને ઉભાવિત કરીને ઉત્તર આપેલ છે આ જંબૂद्वीप विगेरे दी। मन व समुद्र विगेरे समुद्री 'सठाणओ एकविहविहाणा वित्थारो अणेगविहाविहाणा' सस्थाननी अपेक्षाधी से २१ प्रा२ना मा१२ વાળા છે. કેમકે તેમને આક ર વૃત્ત ગાળ કહેલ છે. તથા વિસ્તારની અપેક્ષાથી તેમને વિસ્તાર અનેક પ્રકારને કહેવામાં આવેલ છે. એજ વાત 'दुगुणा दुगुणे पडुप्पाएमाणा पडुप्पाएमाणा पवित्थरमाणा परित्थरमाणा ओभा
Page #821
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका उ.३.५१ द्वीपसमुनिरूपणम् गच्छन्तः२ तथाहि-जम्बूद्वीप एकयोजनलक्षः लव गसमुद्रो द्वे योजनलक्षे धातकी. खण्डश्च त्रीणि योजनलक्षाणि, इत्यादि, 'ओमासमाणवीचिया' यवमासमाना वीचयः वल्लोला येषां ते अवभासमानबीचयः, इञ्च विशेपणं समुद्राणां स्वाभा. विकमेव, द्वीपानामपि इदं विशेषणं यथाकश्चित् संभवति, द्वीपेष्वपि इदनदनदी तडागादिषु कल्लोलसंमवादिति । तथा-ते द्वीपसमुद्राः कीदृशाः सन्तीति तान् वर्णयति-'बहु' इत्यादि, 'बहुउप्पलपउम-कुमुदनलिणसुभगसोगंधियपोडरीय महापोंडरीय सयपत्तसहस्सपत्तपफुलकेसरोवचिया' बहूत्पलपद्मकुमुदनलिननुभगसौगन्धिक पुण्डरीक महापुण्डरीक शतपत्र सहस्रपत्र प्रफुल्केपरोपचिताः, तत्रोत्पलं माणारे ओभासमाणबीचोया' हल सूत्रपाठ द्वारा समझाई गई है। अर्थात् जम्बूद्वीपका जितना विस्तार है उसकी अपेक्षा लवणसमुद्रका दूना विस्तार है। लदासमुद्र के विस्तार की अपेक्षा धालकी खण्डका दूना विस्तार है । इत्यादि 'ओभालमाणवीचिया' दृश्यमान कल्लोलो. तरंगो वाले यह विशेषण समुद्रों का तो है ही परन्तु द्वीपों का भी विशेषण हो सकता है क्योंकि उनमें भी हूद, नदी तडाग आदि है। और उनमें झल्लोलों का होना स्वाभाविक है इसी कारण ये द्वीप और समुद्र अखभालमान वीची-तार गो बाले कहे गये है अब उन द्वीप समुद्रों का वर्णन करते है- 'बहुउप्पलपउन्मकुमुदलिणस्तुभगसोगधियपोंडरीयमहापोंडरीयलयपत्तलमा पत्तपप्फुल्लसरोवचिया' प्रफु. ल्लित, एवं केशर ले युक्त ऐले अनेको उतरलो से कमलों से, पत्रों से सूर्यविकाशी हमलों से चन्द्रविक्षाशी कुदों से कुछ२ लालपर्णवाले समाणवीचिया' मा सूत्र द्वारा समनापामा मा छे. अर्थात भू. દ્વિીપને જેટલા વિસ્તાર છે તેની અપેક્ષાએ લવણ સમુદ્રને બમણે વિસ્તાર છે લવણ સમુદ્રના વિસ્તારની અપેક્ષાએ ધાતકી ખંડનો બમણે વિસ્તાર છે. छत्याहि 'ओभासमाणवीचिया' अवामी मावता तर गावाजा मा विषय સમુદ્રોનું તે છે જ પરંતુ દ્વીપનું પણ આ વિશેષણ થઈ શકે છે. કેમકે તેમાં પશુ હદ, નદી, તડાગ, (તળાવ) વિગેરે છે જ તથા તેમાં તર ગેનું હોવું સ્વાભાવિક છે. એજ કારણથી આ દ્વીપ અને સમુદ્ર અવભાસમાન વિચિ તરંગવાળા કહેવામાં આવેલ છે.
हवे से द्वीप समुद्रातुं वन ४२० मा छे. 'बहुउप्पल पउमकुमुद णलिण सुभग मोगाधिय पोंडरीय महापाडरीय सयतपत्तसहस्सपचपप्फुल्लकेसरो वचिया' मीसा भने सरथी युत सेवा भने त्योथी माथी, पत्राथा સૂર્ય વિકાશી કમળાથી, રાવિકાશી કુમુદોથી કંઈક કંઈક લાલ વર્ણવાળા
Page #822
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमसूत्रे
પરફે
कमलविशेषः, पद्मं सूर्यविकासि, कुमुदं चन्द्रविकासि, नलिनम् - ईषद्रक्तं पद्मं सुभगं पद्मविशेषः सौगन्धिकं कल्हारम्, पौण्डरीकं सिताम्बुजम् तदेव वृहन्महापौण्डकम, शतपत्रात्रे पद्मविशेषौ पत्रसंख्याकृतभेदौ, एभिः प्रफुल्लै:- विकसितैः केसरेति केसरोपलक्षितै रुपचिता उपचितशोभाका द्वीपसमुद्राः | 'पत्तेयं पत्तेय ' प्रत्येकं प्रत्येकम् एकैको द्वीपः समुद्रश्चेत्यर्थः 'पउमवर वेश्या परिक्खित्ता' पद्मवरवेदिकापरिक्षिप्ताः 'पत्तेयं पत्तेयं दणसंडपरिविखत्ता' प्रत्येकं प्रत्येकं वनपण्डपरिक्षिप्ताः सन्ति, एतादृशा: 'असि तिरिरलोए' अस्मिन् तिर्यग्लोके 'असंखेज्जा दीवमुद्दा सयंभूरमणपञ्जवसाणा' असंख्येया द्वीपसमुद्राः स्वयंभूरमणपर्यवसाना जम्बूद्वीपादयो द्वीपा स्वयंभूरमणद्वीपपर्यवसाना, लवणसमुद्रादयः समुद्राः स्वयंभूरमणसमुद्रपर्यवसानाः, 'पण्णत्ता समणाउसो !' मज्ञप्ताः कथिताः हे श्रमण ! नलिनों से पत्रों से सुभगों से पद्मविशेषों से सौगन्धिकों से विशेष प्रकार के कमलों से पौण्डरीकों से सफेद कमलों से वडे २ पुण्डरीकों से शतपत्र वाले कमलों से और सहस्रपत्रों वाले कमलों से ये द्वीप और समुद्र सदा उपचित शोभावाले बने रहते है । 'पत्तेयं पत्तय परमवर वेड्या परिक्खित्ता' ये प्रत्येक द्वीप और समुद्र पद्मवरवेदिका से घिरे हुए है 'पत्तेयं पत्तेयं वणसंडपरिक्खित्ता' ये प्रत्येक वनखण्ड से विढे हुए है - 'असि तिरियलोए असंखिज्जा दीवसमुद्दा सयंभूरमणपज्जवसाणा पण्णत्ता समणाउसो' हे श्रमण आयुष्मन् इस तिर्यग्लोक में ऐसे ये द्वीप एवं अन्तिम समुद्र स्वयंभूरम गदोपतक और अन्तिम स्वयंभूरमण समुद्र तक असंख्यात है । ' अस्सि तिरियलोए' इस सूत्रपाठ द्वारा द्वीपसमुद्रों का स्थान सूत्रकारने प्रकट किया है 'असंखेज्जा' નલિનાથી પત્રાથી, સુભગેથી પદ્મવિશેષ થી સૌગન્ધિકાથી વિશેષ પ્રકારના કમળાથી પૌડરીક સફેદ કમળેાથી મેટામેટા પૌરિકાથી શતપત્ર સાપાંખડીવાળા કમળેથી અને હજાર પાખડીવાળા કમળેાથી એ દ્વીપ અને સમુદ્ર સદા શાલાય भान थता रहे छे. 'पत्तेय' पत्तेय' परमवरवेइया परिक्खित्ता' मा हरे४ द्वीप भने समुद्रः पद्मवर वेद्विभथी घेरायेला हे. 'पत्तेय पत्तेय'वणस' डपरिक्खित्ता' || हरे द्वीप समुद्र वनमाउथी घेरायेला छे. 'अस्थि' तिरियलोप अस खिन्जा दीवसमुद्दा सयं भूरमणपज्जवखाणा पण्णत्ता समणाउसो' हे श्रमायु आयुष्भन् આ તિય Àાકમાં એવા આ દ્વીપ અને અતિમ સમુદ્રો સ્વયંભૂરમણુ દ્વીપ पर्यन्त रमते अंतिम स्वयंभूरमधु समुद्र पर्यन्त असख्यात छे. 'अस्मि तिरियलोए' मा सूत्रपाठ द्वारा द्वीप समुद्रो स्थान सूत्रभरे अगर रेल है. ‘अस्र खेज्जा' मा सूत्रपाठ द्वारा द्वीप समुद्रोनी सध्या प्रगट रेल छे. 'दुगुणा
Page #823
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेययोतिका टीका प्र.३ उ.३ २.५१ छीपसमुद्रनिरूपणम्
७२७ हे आयुष्मन् ! अस्सि विरियलोए' इत्यनेन स्थानं कथिरम् 3 संखेज्जा' इत्यनेन संख्या कथि 31, 'दुगुणा दुगुणं' इत्यादिना प्रमाणं कथितम्, 'सठाणओ' इत्यादिना संस्थान कथितमिति ।
सम्मति-आकारभावमत्यत्रता विवक्षुरिदमाह-'तत्य ' इत्यादि,
'तत्थ णं अयं जंबुद्दोवे णासं दीवे' तत्र-तेषु द्वीपसमुद्रेषु मध्ये खलु अयं यत्र वसामो वयं स जम्बूद्वीपो नाम द्वीपोऽस्ति । स कधं भू: ? तबाह-'दीयस मुद्दाण' इत्यादि, 'दीव समुदाणं अमित रिए' सर्व द्वीपसमुद्राणां सर्वाभ्यन्तरक'; सर्वा मना सामस्त्येन अभ्यन्तरः सर्वाभ्यन्तरः सर्वाभ्यन्तर एव सभ्यन्तरकः, तथाहिसर्वेऽपि शेपा द्वीपसमुद्राः जम्बुद्वीपादारभ्यागरकथितप्रकारेण द्विगुणद्विगुण विस्तरास्ततो भवति जम्बूद्वीपो द्वीपः सर्वाभ्यन्तरका, अनेन जम्बूद्वीपस्यावस्थान कथितमिति । इममेव वर्णयति-'सबखुड्डाए' इत्यादि, अयं जम्बूडीयो द्वीपः 'सखुडूडाए' सर्वक्षुल्कका सर्वेभ्योऽपि द्वीपसमुद्रेभ्यः क्षुल्लको घुरिति सर्व इस सूत्रपाठ द्वारा द्वीपसमुद्रो की संख्या प्रकट की है । 'दुगुणा दुगुणं' इस सूत्रपाठ द्वारा उनका प्रमाण बतलाया गया है 'संठाणो' इस पद द्वारा उनका संस्थान कहा गया है 'तत्य र्ण अयं जंबुद्दीचे णामं दीवे दीवसमुदणं अभिनरिए सव्वखुड्डाए चट्टे तेल्ल पूयसंठाण संठिते घट्टे रहचकवाल संठाणसंटिते बटूटे' उन द्वीप समुद्रो के वीच में सघले पहिला जम्दी नामका द्वीप की जिसमें हमलोग रहते हैं इसीलिये इसे 'दीवसमुदणं अमिलरिए' इन्न पद से विशे पत किया गया है क्योंकि समस्त द्वोपनमुद जम्बूद्वीप से लगाकर ही आगमोक्त प्रकार के अनुसार हुने २ विस्तार वाले प्रकट किया है। अब जम्बूदीप का वर्णन करते है। 'सव्वखुड्डाए' यह जम्बू दीप सबसे छोटा है। 'सच. खुइडाए' इस पद के द्वारा यह समझाया गया है। कि यह जम्वदीप दुगुण' मा सूत्र५४ ६२६ तेभ प्रभ ए मताanvi मावस छे. सटाणो' से ५४ द्वारा तन संस्थान 'तत्थ ण सय जवुहोवे णाम दीवे दीवसमुदाण अम्भितरिए सव्व बुड्डाए बट्टे तेल्लापूयस ठाणस ठिते वट्टे रहचक्कव लस ठाणस ठिवे व मेद्वीप समुद्रोमा सोथी पक्षद्वीप नामना द्वीप हे रेभा मापणे २७-ये छीये ते तने दीवसमुदाण अभितरिए' से पहथी વિશેષિત કરેલ છે. કેમકે સઘળા દ્વિપ અને સમુદ્રો જબૂદ્વીપથી આરંભીને જ આગમત પ્રકાર પ્રમાણે બમણ બમ વિસ્તારવાળા બતાવેલ છે.
दीनु वन ४२वामा मात्र छे. 'सव्वखुदाए' 241 मृद्धी सोयी नानी छे. 'सबखुड्डाए' मा ५६ ६२१ मे समन्तामा माव्यु छ ३
Page #824
--------------------------------------------------------------------------
________________
७९८
जीवामिगमसूत्रे
क्षुल्लक:, तथाहि सर्वे लवणादयः समुद्राः सर्वे च धातकीखण्डादयो द्वीपाः जम्बू द्वीपादारभ्य द्विगुणद्विगुणायाम विष्कम्भपरिधयस्ततः शेषद्वीपसमुद्रापेक्षया जम्बूद्वीपो लघुरिति । एतेन सामान्यतः परिमाणं कथितम् । विशेषवस्तु आयामादिगतं परिमाणमग्रे वक्ष्यति । तथा-'वट्टे' वृत्तः, वृत्तोऽयं जम्बूद्वीपः वृत्तत्वं तु बलयत्रदन्तः शुषिरयुक्तमपि भवतीत्यतोऽस्य वृत्तत्वं संस्थानमाश्रित्य प्रदर्शयति'तेल्ला पू५०' इत्यादि 'वेलापूपसंठाणसंठिए' 'तैलापूपसंस्थानसंस्थितः तैलेन पक्चोऽपूपस्तैलापूरः तैलेन हि पक्त्रोऽपूपः प्रायः परिपूर्णवृत्तो भवति न घृतपक्व समस्त द्वीप और समुद्रों की अपेक्षा लघु है। क्योंकि शेष द्वीपों और समुद्रो का लवणोदक आदि समुद्रों का एवं धातकी खण्ड आदि द्विपों का जो आयामविष्कम्भ एवं परिधि का प्रमाण है वह जम्बूदीप के आयाम और विष्कम्भ से तथा उसकी परिधि से दुनार होता गया है। इससे कारने जम्बूद्वीपका प्रमाण कहा है। यह सब आयाम आदिका परिमाण वे स्वयं आगे प्रकट करनेवाले हैं तथा 'वट्टे' यह जम्बूद्रीप आकार में गोल है । गोल तो वलय की तरह धीच में खाली भागवाला हो सकता है। अतः इसकी गोलाई संस्थान को लेकर कहते है । यह 'यट्टे तेल्लापुराणसंठिए' तेल में पकाये गये मालपुआ के जैसा वृत्त है तेल में पकाया हुआ पूआ अपने आकार प्रकार में ठीक रूप से परिपूर्ण रहता है घृत में पक्व पुमा ऐसा नहीं होता है वह कही कमती और कही बढती हो जाता है इसके वृत्त को पुनः प्रकट करने के लिये
આ જ ખૂદ્વીપ સઘળા દ્વીપ સમુદ્રોની અપેક્ષાથી નાના છે. કેમકે ખીજા દ્વીપે। અને સમુદ્રોલવણેાદક વિગેરે સમુદ્રોનુ તથા ધાતકીખડ વિગેરે દ્વીપેાના આયામ વિષ્ક`ભ અને પરિધિનું પ્રમાણુ છે, તે જમૂદ્રીપના આયામ અને વિષ્ણુસથી તથા તેની પરિધિથી ખમણુ ખમણું થતુ જાય છે. તેથી સૂત્રકારે જ ખૂદ્રીપનું પ્રમાણુ નાનુ કહેલ છે. અને આયામ વિગેરેનું પરિમાણુ તે पोतेन भागण प्रगट ४२शे तथा 'वट्टे' मा ४ यूद्वीप सारथी गोज छे. વલય ખàાયાની માફક વચમા ખાલીલ ગવાળા પણુ ગોળાકાર થઈ શકે છે. તેથી तेनी गोणाई संस्थानने सईने उडे छे. या गोण आहार 'वट्टे वेल्लापुयस ठाण स ंठिए' तेसभां मनाववामां आवे युमा भासमाना वो गोज छे. तेसमां પકવવામાં આવેલ પુમા પેાતાના આકાર પ્રકારથી ખરેખર રૂપે પરિપૂર્ણ રહે છે. ધીમાં મનાવવામાં આવેલ પૂઆ એવા ગાળાકારવાળા હાતા નથી. તે કયાંક એાછા વત્તા ગેળ હાય છે તેનેા ગાળાકાર અતાવવા ફરીથી આ માણેના ખીજે પશુ સૂત્રપાઠ इस छे. 'वटूदे रद्दचक्कवालस ठाण
Page #825
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोलिका टीका ५.३ ३.३ सू.५६ छीपसमुद्रनिरूपणम् इति तैलविशेषणम्, तैलापूपस्येव यत्संस्थानं तेन संस्थित इति तेलापूपसंस्थान संस्थितः । पुनश्च 'वट्टे' वृत्तः, कीदृशो वृत्तस्तवाह-रह चक्कबालसंठाण संठिए' रथचक्रवाळसंस्थानसंस्थितः, स्थस्य रथाङ्गस्य चक्रस्व अवयवे समुदागे. पचारात् चक्रवालं मण्डलं तस्येत्र यन संस्थानं तेन संस्थित इति स्थचक्रवाल संस्थानसंस्थितः । पुनरपि-'चट्टे" वृत्तः कीदृशः ? तबाह-पुक्खरकणियासंठाण संठिए' पुष्करकर्णिका संस्थानसंस्थितः, तत्र पुष्कर कणिका पद्मवीजकोशस्तस
शो वृत्तः । पुनश्च 'वटे' वृत्तः कीदृश इत्याह-पडि पुग्नचंदसंठाणसंठिए' परिपूर्णचन्द्रसंस्थानसंस्थितः परिपूर्णचन्द्रः-पूर्णिमाचन्द्रस्तद्ववृत्तः। एतेन जम्बू द्वीपस्य संस्थानं कथितमिति । सम्मति-जम्बूद्वीपस्याऽऽ सामादिपरिमागमाह'एक्क' इत्यादि, 'एक जोयणसयसहस्सं आयामविकावं भेणे' एक योजनशत'वटूटे रहचकवालसंठाणसं ठए' मुत्रकार ने यह दूसरा भी सूत्रपाट कहा है अर्थात् वह जम्बूद्वीप ऐसा गोल है, जैसी कि रथ के पहिये की गोलाई होती है रथ से वहाँ अवयष में समुदाय के उपचार से रथकाअङ्ग-चक्र-पहिया-लिया गया है 'बटूटे पुक्खरणियासंठाणसंठिए' यह जम्बूद्वीप ऐसा गोल है की जैसी पुष्कर कमल की कणिका होती है। गोलोई प्रकट करने के लिये यह तृतीय उपमान पद है अथवा 'टूटे पडिपुण्णचंदसंठाणसंठिए' चतुर्थ उपमान परिपूर्ण चंदमंडल है। जैसा परिपूर्ण- पूर्णिमा-का चंद्रमंडल अपनी गोलाई में उपस्थित रहता है, उमी प्रकार की गोलाई वाला यह जम्बूद्वीप है इस धन से जम्बू. द्वीप का संस्थान प्रकट किया गया है । अथ इसका आयामादि प्रमाण प्रकट करते है 'एक्कं जोयणसयसहस्सं आयामविखंभेणं तिणि जोयणसयसहस्साई लोलस घ सहस्प्लाई दोणि य सत्ताबीसे जोयणसंठिए' अर्थात् स दीय मेव गाणछे २६ मा २थना यानी હોય છે. રથથી સમુદાયના ઉપચારથી રથનું અંગ ચક્ર પૈડું ગ્રહણ કરેલ છે 'वटे पक्खरकग्णिया सठाणस ठिए' मा 'दीय सेवा गौण छ वा ગોળાઈ પુષ્કર કમળની કળિની હોય છે ગળાઈ બતાવવા માટે આ ત્રીજુ 6५मानपहेस छ अथवा 'वट्टे पुण्णचं दस ठाण स ठि।'युगे पनि પૂર્ણિમાનું ચંદ્ર મંડળ ગોળાકારમાં વ્યવસ્થિત હોય છે એ જ પ્રમાણેનો ગાળ આકાર વાળે આ જંબુદ્વીપ છે. આ રીતે પરિપૂર્ણ ચંદ્રનું આ ચે શું ઉપમાન પદ કહેલ છે. આ કથનથી જબૂદ્વીપનું સંરથાન બતાવેલ છે. હવે તેના मायाम विरेनु प्रभा मतावे छे. 'एक जोयणमयमास्स आय मविक्खंभेण तिणि जोयणसयसहस्साई सोलस य सहस्साई दोणिय सतावीसे लोयणसए
Page #826
--------------------------------------------------------------------------
________________
८००
जीवामिगमन सहस्रमायाम विष्कम्भेण, दैयविस्ताराभ्यामेकं योजनशतसहस्र लक्षयोजनमित्यर्थः 'तिनि जोयणसयाहस्साई' त्रीणि योजनशतसहस्राणि त्रीणि लक्षाणि 'सोलसयसहस्साई" षोडश च सहस्राणि 'दोणि य सत्तावीसे जोयणसए' द्वे योजनशते सप्तविंशत्यधिक (३१६२२७) 'तिणि य कोसे' त्रयः क्रोशाः 'अट्ठावीसं च धणुसर्य' अष्टाविंशतिधन शतानि, 'तेरसंगुलाई" त्रयोदशाङ्गुलानि 'अद्धंगुलकं च किंचि. विसेसाहिय' अडिगुळकं च किञ्चिद्विशेषाधिकम् 'परिक्खेवेण पन्नत्ते' परिक्षेपेण परिधिना प्रज्ञप्तो जम्बूद्वीपो द्वीप इति । सम्प्रति-आकारभावमत्यवतारपति. पादनार्थमाह-'से गं' इत्यादि, ‘से णं एकाए जगतीए सवयो समंता संपरिविखत्ते' स पूक्तायामविष्कम्मपरिक्षे परिमाणो जम्बूद्वीपः खल एकया जगत्या सुनगरपकारसदृश्या सर्वतः-सर्वासु दिक्षु समन्ताद-सासरत्येन संपरिक्षिप्तः सम्यग्वेष्टितोऽस्ति, अथ जगतीं वर्णयति-'साणं' इत्यादि, 'सा ण जगती' सा खल्ल जगती 'अट्ठ जोयणाई उडू उच्चत्तेणं' अर्ध्वमुपरि उच्चस्त्वेन अष्टोसते तिणि य कोले अट्ठावीसं च धनुमयं तेरस अंगुलाई अद्ध गुलकं च किंचिविसेसाख्यिं परिक्खेवेणं पण्णत्ते' ऐसेइस जम्बूदीप की लंबाई और चौडाई एक लाख योजन की है। और हमकी परिधि ३ लाख १६ हजार दो सौ सताइस योजन-३१६२२७ एवं तीनकोश २८ धनुष और १३॥ अंगुल से कुछ अधिक है। अब इमका आझार भाव प्रत्यवतार कहते है । 'से ण एककार जगतीए सवतो समता सपरिक्खेत्ते' पूर्वोक्त आयामविष्कम्भ परिक्षेप परिमाणवाला यह जम्बूदीप एक जगती से सुनगर के प्राकार जैसे कोट से चारों ओर से परि. वेष्टित है घिरा हुआ है 'सा णं जगती अट्ट जोयणाई उई उच्चत्तण मूळे पारस जोषणाई विक्खभेण, मज्झे अट्ट जोयणाई विक्खेभेणं उड़े तिण्णिय कोसे अट्ठावीस च धणुसय तेरन अंगुलाई अद्धगुलकच कि चिविसे प्राहिय परिक्कखेवेणं पण्णत्ते' सेव। भूदायनी | मने पाक એક લાખ જનની છે. અને તેની પરિધિ ૩ ત્રણ લાખ ૧૬ સોળ હજાર ૨ બસે સત્યાવીસ અને ત્રણ કેસ ૨૮ અઠયાવીસ ધનુષ અને ૧૩ સાડાતેર આગળથી કંઈક વધારે છે.
हवे तेनी मा२ मा प्रत्यवतार वामां आवे छ ‘से गं एक्काए जगतीए सव्वओ समता सपरिक्खित्ते' पूर्वरित ५ याम (Aug परिक्ष५ પ્રમાણવાળા આ જંબુદ્વીપ એક જગતીથી સુનગરના પ્રાકાર જેવા કેટથી ચારે त२६ धेशये। छे. 'माणं जगती अटू जोयणाई उड्ढ उच्चत्तेणं मूले बारस जोयणाई विक्खभेण मज्झे अट्ठजोयणाई विक्खंभेण उप्पि चत्वारि जोयणाई
Page #827
--------------------------------------------------------------------------
________________
मायाकन
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ ४.५१ होपसमुद्रनिरूपणम् योजनानि सा च-उपर्युपरि तनुननू भवन्ति वर्तते तथाहि-'मृले वारस जोयणाई विक्खंभेणं' मूले द्वादशयोजनानि विष्कम्भेग 'मज्झे अट्ठ जोयणाई विक्ख घेणं' मध्येऽष्टौ योजनानि विष्कम्भेग 'उपि चत्तारि जोयणाई विवखं भेणे' उपरिचत्वारि योजनानि विष्टम्भेण अतएव विष्कम्ममधिकृत्य 'मूळे वित्थिना' मुले विस्तीर्णा 'मज्झे संखित्ता' मध्ये संक्षिप्ता त्रिभागोनत्वात् 'उपि तणुया' उपरितनुका, मूलापेक्षया त्रिभागमात्र विस्तारमावाद ! यद्येवं तहि संस्थानेन कीदृशीति सादृश्येन संस्थानं दर्शयति-'गोपुच्छसंठाणसंठिया' गोपुच्छसंस्थानसंस्थिताः, गोपुच्छस्येव संस्थानं गोपुच्छसंस्थानम्. तेन संस्थितेति गोपुच्छमस्थानमंस्थिता ऊर्थी कृतगोपुच्छाकारेति भावः। अथ तस्याः स्वरूपमाह-ब बहरामई' इत्यादि, 'सब वइरामई सर्व वज्रमयी, सर्वात्मना-सामस्त्येन चन्नमयी वनरत्नात्मिकेत्यर्थः 'अच्छा' अच्छा-आकाशस्फटिकवदति स्वच्छा सण्डा' इलक्षणाइलक्ष्णपुद्गळस्कन्धनिष्पन्ना, श्लक्ष्णतन्तुनिष्पा पटवत् 'लण्हा' महणा घुष्टित चत्तारि जोयणाई चिक्खंभेण मृले विस्थिपणा मज्झे संखित्ता उप्पि तणुया' यह जगती आठ योजनकी उंची है वाह उपर उपर से तनु तनु पतली होती गई है जैसे मूल में इसका विस्तार १२ योजन का है। मध्य में इसका विस्तार आठ योजन का है । और उपर२ में हमका विस्तार चार योजन का है ! इस तरह मूल में विस्तीर्ण हो गई है मध्य में संकीर्ण-संकुचित हो गई है और उपर में पतली हो गई है अत एव यह- 'गोपुच्छसं ठाणसंठिता' उची हुई गाय की पूंछ का जैसा संस्थ न-आकार होता हैं ! वैसे आकार वाली हो गई है अब जगती का रूप कहते हैं। यह जाती 'सत्यवहारामई' सर्वात्मना वज्ररत्नमय है, 'अच्छा, मपटा' लपहा, घट्टा मट्ठा. णीरया, जिम्मला, विक्खंभेण मुले विच्छिन्ना मज्ज्ञे सखित्ता उपि तणुया' मा गती मा
જનની ઉચાઈ વાળી છે. ઉપર ઉપરથી તનુ તનુ પાતળી થતી ગઈ છે જેમકે મૂળમાં તેને વિસ્તાર ૧૨ એજનને છે. મધ્યમાં તેનો વિસ્તાર આઠ
જનને છે અને ઉપરમાં તેને વિસ્તાર ચાર જનો છે. એ રીતે આ જગતી મૂળમાં વિસ્તારવાળી ફેલાયેલી છે. મધ્યમાં સંકીર્ણ સંકુચિત
था। छे. ते 6५२ पातणी येत छे. तेथी। २। 'गोपुन्छस ठाण सठिता' यु ४२वामां मावेस सायना ७२ सयान-मा२ डाय છે તેવા આકાર વાળી કહેવામાં આવેલ છે.
હવે જગતીના સ્વરૂપનું વર્ણન કરવામાં આવે છે. આ જગતી બાદ बारामया' स १२ १०० २(नमय छे. 'अच्छा, सहा, लाहा, घट्टा, मदा;
जी० १०१
Page #828
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमसूत्र पटवत् । 'घट्टा' घृष्ट इब घृष्टा खरशानया पापाणपुत्तलिकावत्, 'महा' मृष्टास मृष्टा सुकुमारशानचा चिक्कणपाषाण पुत्तलिकावत् 'जीरया' नीरजा स्वाभाविक रजोरहितत्वात् 'णिम्मला' निर्मला आगन्तुकमलरहितत्वात् ‘णिप्पंका निपड्काकालिमादिरूपकलङ्करहिता 'निक्कडच्छाया' निष्कङ्कटच्छाया, निपटा निरूपघाता छाया दीप्तिर्यस्याः सा तथा, 'सप्पमा' समभा-द्रवरूपतः प्रभावती 'सस्सिरीया' सश्रीका-शोमासमा 'समरीया' सनरीचा-बहिनिगम्यमान किरणजाला, अतएव 'सउज्जोया' सोयोता वहिव्यवस्थित वस्तुजातपकाशकरी, 'पासादीया' मासादीया मनः प्रसादाय हिता तत्कारित्वात् प्रासादीया मनः महादकारिणी 'दरिसणिज्जा' दर्शनीया-दर्शनयोग्या यां पश्यतो जनस्य नेत्रे वृप्ति न प्राप्नुतः 'अमितवा' अभिरूपा' अभि-सर्वेषां द्रष्टणां मनःमसादानुकूलजिप्पंका, मिक्सरच्छाया सप्पभालस्सिरीया समरीया, ल उज्जोया पासादीया, दारिणिजा अभिरूमा पडिख्वा' आकाश और स्फटिकमणि के जैसी स्वच्छ है चिकाने स्पशवाले पुद्गगलों से पनी हुई होने के कारण यह चिकने तन्तुओं ले बने वन्न की तरह इलक्ष्ण चिकनी है घुटे हुए वस्त्रकी तरह मसृण है खरशाण से रगडी गई पापाण पुत्त लिशा की तरह घृष्ट हैं सुकुमारशाण से रगडी पापाण पुत्तलिका की तरह मृष्ट है स्वाभाविक रज से रहित होने के कारण नीरज हैआगन्तुकमेल के अभाव से निर्मल है कालिमादि कलङ्क विकल होने के कारण निष्पत है निरुाघात दीप्तिबाली होने के कारण निष्कंकट छायावाली है । स्वरूप की अपेक्षा प्रभावती है। यह विशिष्ट शोभासंपन्न होने से सश्रीक है इम में से किरणों का जाल बाहर निकलना णीरया, णिम्मला, णिप्पका, णिक्ककडच्छाया सप्पभा सस्मिरीया समरीया, सउज्जोया, पासादीया, दरिसणिज्जा अभिरुवा, पडिरूवा' म[31 अ २५टि મણિના જેવી સ્વછ છે. ચિકણા પુદ્ગલથી બનેલ હોવાથી આ ચિકણું તખ્તઓથી બનેલ વસ્ત્ર જેવી ક્ષણ ચીણી છે. ઘુટેલા સ્ત્રની જેમ મસૃણ છે ખરસ થી રગડેલ પાષાણની પુતળીની જેમ ધૃષ્ટ લીસી છે. સુકુમાર શાળથી ઘણ પાષાણની પુતળીની જેમ મૃષ્ટ મસૂથ સુંવાળી છે સ્વભાવિક રજ વિનાની હોવાથી નીરજ છે આગંતુક મેલના અભાવથી નિર્મલ છે. કાલિમાં વિગેરે કલંકથી રહિત હોવાથી નિષ્કલંક છે નિરૂપઘાત દીવાની પંક્તિના જેવી હોવાથી નિષ્કકટ છાયાવાળી છે. સ્વરૂપની અપેક્ષાથી પ્રભાવતી છે. એ વધારે
ભાવાળી હોવાથી સગ્રીક છે. તેમાંથી કિરણની જાળ બહાર નીકળતી રહે છે, તેથી તે સમરીચ છે. બહાર રહેલ વસ્તુઓને પ્રકાશ કરવાવાળી હોવાથી
Page #829
--------------------------------------------------------------------------
________________
८०३
प्रमैयद्योतका टीका प्र.३ उ.३ १.५१ द्वीपसमुद्रनिरूपणम् तयाऽभिमुखं रूपं यस्याः सा अतिरूपा अत्यन्त कमनीयेत्यर्थः । अतएव 'एडिरूवा' पतिरूपा, प्रति विशिष्टमसाधारणं रूपं यस्याः सा प्रतिरूपा अथवा प्रतिक्षणं नवं नवमिव रूपं यस्याः सा प्रतिरूपा, ॥ ___ 'साणं जगती' सा अनन्तरोक्ता खल्ल जगती 'एक्केणं जालकडएणं' एकेन जालकटकेन, जालगनि-जालकानि यानि भवनमित्तिषु लोकेऽपि प्रसिद्धानि तेषां कटकः समूहो जालकटको जालाकीर्णरम्यसंस्थान-प्रदेश विशेष पंक्तिरि. . त्यर्थः तेन जालकटकेन 'सव्वओं' सर्वतः सर्वासु दिक्षु 'समंता' समन्तात्-सामस्त्येन 'संपरिक्खित्ता' संपरिक्षिप्ता- सम्यग्देष्टितेति । सम्पति जाल कटकस्य प्रमाणमाह-'से ' इत्यादि से णं जाल कडए स खलु जालकटकः 'अद्ध जोय. रहता है अतः समीया , बहिःस्थित वस्तुओं की प्रकाशिका होने से यह सोचोता है मनकी प्रसन्नता करानेवाली होने के कारण प्रासादीया है । इसे देखतेर न मन थकता है। और न नेत्र ही थकते है-अ यह दर्शनीया है। देखनेवालों को इसका रूप बहुत ही अधिक कमनीय लगता है इसलिये यह अभिरूपा है । तथा इसका रूप जैसा रूप और कहीं नहीं हैं इसलिये अथवा क्षण में इलका रूप नया जैसा ही देखने वालों को प्रतीत होता है इसलिये यह प्रनिरूपा है 'लाणं जगली एक्केणं जालकडएणं सव्वती ससंता संपरिक्खित्ता' यह जगती एक जाल कटक से भवन को भित्तियों में बनाये गये रोशन्दानों (झरोखा) के जैसे रम्य संस्थान वाले प्रदेश विशेषों की पंक्तियों से समस्त दिशाओं की
ओर अच्छी तरह से घिरी हुई है। अब जाल कटक का प्रमाण कहते है। 'से ण जालफडएणं अद्धजोयणं उड़ उच्चत्तेणं पंचधणुसयाई विक्खं
એ સેદ્યતા છે મનની પ્રસન્નતા કરવવાવાળી હોવાથી પ્રાસાદીયા છે, તેને જોતા જોતા મન ક્યારેય થાકતું નથી તેમજ આખે પણ થાકતી નથી તેથી તે દર્શનીયા છે. જેવાવાળાને તેનું રૂપ ઘણુંજ સુંદર લાગે છે તેથી તે અભિરૂપા છે. તથા તેના રૂપ જેવું રૂપ બીજે કયાંય નથી, તેથી અથવા ક્ષણ ક્ષણમાં तेनु ३५ नवा रे नारायाने नाय छे. तथा प्रती३५। छे. 'सा णं जगती एक्केणं जालकड़एण सव्वओ समता सपरिक्खित्ता' मा गती ये જાલ કટકથી ભવનની ભી તેમાં બનાવવામાં આવેલ રોશન્દાનના જેવી રમણીય સંસ્થાન વાળા પ્રદેશ વિશેની પક્તિથી બધી દિશાથી સારી રીતે ઘેરાયેલી છે.
वे टनु प्रभा मतutti सूत्रा२ ४३ से गं जालकडएणं अद्धजोयणं उड़ढ उच्चत्तणं पंच धणुसयाई विक्खभेणं सव्व रयणामए अच्छे सण्हे लण्हे, जाव पडिरूवे' म स ससमूड सेसनी या वाणा છે, અને ૫૦૦ પાંચ ધનુષના વિસ્તાર વાળે છે-પહોળાઈ વાળે છે, આ
Page #830
--------------------------------------------------------------------------
________________
४
-
-
जीवामिगम णं उई उच्चत्तेणे' अर्द्धयोजनं द्वे गव्यूते-ऊर्ध्वमुन्चत्वेन 'पंचवणुसयाई विक्खं भेग पश्च पनुःशतानि विष्कम्भेण, इदं परिमाणमेकस्य जाककटकस्य मोक्तम् । जगत्याः प्रायो वडमध्यदेश मागे सर्वत्र जालकानि सन्ति तानि च प्रत्येक मृर्व मुच्चैस्त्वेन द्वे गव्यु से, विष्कम्भेण पञ्चधनु शतानीति । स कीदृशः ? इत्याह'सबरयणामए' सर्वरत्नमयः सर्वात्मना-सामस्त्येन रत्तायो पत्ररत्नात्मकः 'अच्छे सण्हे ळण्हे जाव पडिरूवे' 'अच्छे' अच्छ:-स्वच्छ आकाशवत् 'सण्हे' श्लक्ष्णः 'लण्हे' लण्हः अत्र यावत्पदसंग्राह्याणि पदोनि यथा-'घट्टे महे' घृष्टो मृष्टः 'जीरए' नीरजः 'निम्मले' निर्मळ: 'णिपके' निष्पङ्कः 'णिक कडच्छाए' निष्कङ्कटच्छायः' 'सप्पभे' सपभः 'सस्सिरीए' सश्रीकः 'समरी ए' समरीचः 'स उज्जोए' सोद्योतः 'पासादीर: प्रासादीयः 'दरिसणिज्जे' दर्शनीयः 'अभिस्वे' अमिरूपः 'पडीरूवे' पतिरूपः जाल कटकविशेषणपदानां पूर्ववदेवार्थः स्वयमेवोद्दनीयः ।मू५१॥
मूळम् -तीसे णं जगईए उप्पिं बहुमज्झदेसभाए, एत्थ णं एगा महई पउमवरवेइया पन्नत्ता, सा गं पउमवरवेइया अद्धजोयणं उड्डे उच्चत्तेणं पंचधणुसयाई विक्खंभेणं सव्वरयणा भेणं सबरयणामए अच्छे सण्हे लण्हे जाव पडिरूवे' यह जालकटकजालसमूहजालपडि दो कोश ऊंचा है और पांच सौ धनुष का विस्तारवाला है । चौडा है यह जाल समूह जगती के प्रायः मध्यभाग में हैं और एक जालका छह प्रमाण कहा गया है । यह जालकटक किस प्रकारका है तो कहते है।
'सम्वरयणामए' यह जालकट सर्वात्मना रत्नमय है । अच्छे है। आकाश एवं स्फटिक रत्न के जैसा परम निर्मल है । इलक्षण है लष्ट है यावत् प्रतिरूप है यहां यावत्पद से 'घट्टे मढे जीरए, णिम्मले, जिप्पं के णिक्कंकडच्छाए, सप्पभे, सस्सिरीए, सउज्जोए पासादीए, दरिसणिज्जे, अभिरुवे' इन पदों का संग्रह हुआ है इनकी व्याख्या उपर में की जा चुकी है वहां से समझ लेना चाहिये ॥५१॥ જાલ સમૂહ જગતીના મધ્યભાગમાં છે. આ પ્રમાણ એક જાળનું કહેલ છે. मा ४४
रनु छ, ते ४ छे. 'सव्व रयणामए' साल 28 સર્વ પ્રકારે રનમય છે. સ્વચ્છ છે. આકાશ અને સ્ફટિકની જેમ નિર્મલ છે. २३६५ छ, सष्ट छ, यावत् प्रति३५ 2. महीयां यावत्पथी 'घट्टे मटे णीरए णिम्मले णिप्प के शिक्क ड च्छाए, सापभे, सस्सिरीए समरीए, मउज्जोए, पासादीए, बरिसणिज्जे अभिलवे' मा पानी सडथये छे. मा ५होनी व्याच्या ५२ કરવામાં આવી ગઈ છે. તે તે ત્યાંથી સમજી લેવી. કે ૪૯ છે
Page #831
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
-
-
-
प्रमैयद्योतिका टीका x.३ उ.३ शु.५२ जगत्या: पद्मवरवेदिकायाश्चवर्णनम् ८०९ मया जगई समिया परिक्खेवेणं सबरयणामई। तीसे गं पउमवरवेइयाए अयमेयारूबे, वण्णाबाले पन्नते, तं जहावइरामया नेमा रिटामया पइटाणा वेरु लया मया खंभा सुवण्णरुप्पमया फलगा वह रामया संधी लोहितकखल ईओ सूइओ णाणामणिमया कलेवरा जाणामणिमया कलेवरसंघाडा णाणाम णिमया रूबा जाणामणिमया रूबसंघाडा, अंकमया पक्खा पक्ख. वाहाओ य जोइरलासया बंता वंसकवेल्लुया य रथयामईओ पट्टियाओ जायरूपमईओ ओहाडणीओ बईहालईओ उपरिपुंछणीओ सबसेए स्ययामए छादणे । साणं पउमवरवेइया एगमेगेणं हेमजालेणं एगमेगेणं गवकख जालेणं एगभेगेणं खिखि. णिजालेणं एगमेगणं मुन्ताजालेणं एगमेगेणं मणिजाले एगमगेणं कणयजालेणं एगमेगेणं रयणजालेणं एगमेगेणं पउमजालेणं सब्बरयणासएणं सवओ समंता संपरिक्खित्ता। ते णं तवणिज जलंबूलगा सुवण्ण पयरगनंडिया नानामणि रयणविविहहारद्धहारउबसोभियलमुदया इसिं अण्णमण्णमसंपत्ता पुठवावरदाहिणउत्तरागएहिं बाएहि मदाग २ एजमाणार कंपिज्जमाणा २ लंबमाणा२ पझंझमाणा२ लदायमाणा२ ते णं ओरालेणं मणुण्णेणं मोहरेणं क. गमणिदुइकरणं सद्देणं सम्बओ लमंत्ता आपूरेलाणा हिरीए अतीव उबसोभेमाणा उसोभेमाणा चिटुंति ॥ तीले णं परमवरइयाए तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं बहने हयसंघाडा गयसंघाडा नरसंघाडा किपणर संघाडा किंपुरिससंघाडा महोरगसंघाडा गंधजलंघाडा सहसंघाडा सव्वरक्षणालया अच्छा जान पडिरूवातीसे गं पउमबरवेइयाए तत्थ तत्थ देगे तहिं तहिं बहवे हयपंतीओ तहेव
Page #832
--------------------------------------------------------------------------
________________
८०६
जौवाभिगमसूत्र जात्र पडिरूवाओ॥ एवं हयवीहीओ जाव पडिरूवाओ ॥ एवं यमिहुगाई गयमिहुणाई जाव पडिरूवाइं ॥ तीसे गं परमवरवेइयाए तत्थ तत्थ देले तहिं तहिं वहवे पउमलयाओ नागलयाओ, एवं अलोगलयाओ चंपगलयाओ चूयलयाओ वणलयाओ बासंतियलयाओ अइमुत्तगलयाओ कुंदलयाओ सामलयाओ णिचं कुसुमियाओ जाव सुविभत्तपडिमंजरिवडिंसगधराओ सव्वरयणामईओ लाहाबोलण्हाओ घट्टाओ मटाओ जीरयाओणिस्मलाओणिप्पंकाओणिकंकडच्छायाओसप्पभाओ लमरीयाओ सउज्जोयाओ पासाईयाओ दरिसणिज्जाओ अभिरूवाओ पडिरूबाओ । से केणट्रेणं भंते ! एवं वुच्चइ पउमबरवेइया पउमवश्वेइया ? गोयमा ! पउमवरवेइयाए तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं वेड्यासु वेइया बाहासु वेड्यासीसफलएसु वेइया पुडंतरेसु खंसेसु खंभवाहासु खंभलीलेसु खंभपुडंतरेसु सूईसु सूईमुहेसु सुईफलएसु सूईपुडंतरेसु पक्खेसु पक्खबाहासु परखपुडंतरेसु बहूइं उप्पलाई पउमाइं जान सयसहस्तपत्ताई लबरयणामयाइं अच्छाई लण्हाइं लण्हाइं हाइं भट्राई गीरयाइं णिम्मलाई णिप्पंकाई णिकंकडच्छायाई सप्पभाई समरीयाई सउज्जोयाई पासादीयाई दरिलणिजाई अभिरूवाइं पडिरूवाई नहया२ वासिकछत्तसमयाइं पण्णन्ताई समणाउसो ? ले तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ पउमवरबेइया पउमवरवेइया ? पउसबरवेइयाणं भंते ! कि सालया असालथा ? गोयमा! सिय सासया सिय असालया। से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ सिय सासया लिय असासया ? गोयमा! दवट्ठयाए सासया, धगपजवेहि गंधपजयहि रसपजवोहं फासपज वेहिं असासया ।
Page #833
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ खु.५२ जगत्याः पद्मवरवेदिकायाश्चवर्णनम् ८०७ से तेणट्रेणं गोयमा! एवं वुच्चइ लिय लासया, सिय अलासया॥पउमवरवेइयाणं भंते ! कालओ केवञ्चिर होइ ? गोयमा ! ण कयावि गासी, ण कया वि गस्थि ण कया विण भविस्सइ भुविय भबइ य भविस्सइ य धुवा णियया अश्खया अव्वया अवट्रिया णिच्चा परमवरवेइया ॥सू० ५२॥
छाया-तस्याः खलु जगत्या उपरि बहुमध्यदेशभागे अत्र खल्ल एका महती पद्मवरवेदिका प्रज्ञप्ता, सा खल्छु पड्म बरवेदिका अर्द्धयोजनमूर्ध्वमुच्चत्वेन पञ्च. धनु शतानि विष्कम्भेण, सर्वरत्तमयी जगती समिता परिक्षेषेण सर्वरत्नमयी। तस्याः खलु पद्मवरवेदिकायाः अयमेतावद्रूपो वर्णावास: प्रज्ञप्तः, तद्यथा-वनमया नेमाः रिष्टमयानि प्रतिष्ठानानि वैडूर्यमयाः स्तम्भाः सुवर्णरूप्यमया फलकाः वनमयाः संधयः, लोहिताक्षमय्यः सूच्या, नानामणिमयाणि कलेवराणि नाना. मणिमयाः कलेवरसंघाटा, नानामणिमयानि रूपाणि, नानामणिमयाः रूपसंघाटा: अङ्कमयाः पक्षाः, पक्षवाहवश्च ज्योतिरसमया वंशाः, वंशकवेल्लुकानि च रजत. मय्या पट्टिकाः जातरूपमय्योऽवघाटिन्यः वज्रमरमः पुच्छन्यः सर्वश्वेतं रजतमयं छादनम् सा खल्लु पदमवर वेदिका एकैकेन हेमजालेन एककेन गवाक्षजालेन एकैकेन किंकिणीनालेन एकैकेन पद्मजालेन सर्वरत्नर येन सर्वतः समन्ताद संपरिक्षिप्ता। तानि खल्ल जालानि तपनीयलम्बममानि सुवर्णपतरकण्डि तानि नानामणिरत्नविविधहागहारोपशोभिरसमुदयानि ईपदन्योन्यमसंपातानि पूर्वापरदक्षिणोत्तराऽऽगतैतिर्मन्द मन्दमेजमानानि एजमानानि कम्पमानानि कम्पमानानि लम्बमानानि लम्बमानानि शब्दायमानानि शवायमानानि तेनो वारेण मनोज्ञेन मनोहरेण कर्णमनोनिवृत्तिकरणेन शन्देन सर्वतः समन्तात् अ पू. येमाणानि श्रियाऽजीव उपशोभमानानि उपशोभमानानि तिष्ठन्ति । तस्याः खल्ज पद्मवरवेदिकायाः तत्र तत्र देशे तत्र तत्र वह मो हयसंघाटा गजसंघाटाः, नरसंघाटाः, किनरसंघाटाः, किं पुरुषसंघाटा:, मनोरमसंघाटाः, गन्धर्वमंघाटाः वृषभसंघाटाः, सबरनमया:, अच्छाः, यावत प्रतिरूपाः। तस्याः खलु पदमबरवेदिकायास्तत्र तत्र देशे तत्र तत्र बहवो हयपंक्तयस्तथैव यारस्पतिरूपाः । एवं हयवीथयो यावस्त्रातरूपाः, एवं हयमिथनानि गजमिथुनानि यानद प्रतिरूपणि । तस्याः खलु पद्मवरवेदिकायास्तत्र उत्र देशे तत्र तत्र बहव्यः पदमलता नामलनाः एवम शाकलताः चम्पकलनाः, चूनळता वनलता वासन्तिकला अतिमुनकलताः कुन्द. लताः श्यामळता: नित्यं कुसुमिताः याद-मुविभक्तपतिमञ्जयवतमधर्यः सर्व रत्नमयः श्लक्ष्णाः पहा घृष्टा मृष्टा नीरजस्का निर्मला निप्पड्का निष्ककटच्छायाः
Page #834
--------------------------------------------------------------------------
Page #835
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ ३.३ ३.५२ जगत्याः पावरवेदिकायाश्चवर्णनम् ८०९ तीर्थरैरिति । 'सा णं पउमवरवेइया' सा खलु पद्मपरवेदिका 'अद्धजोयणं उई उच्चत्तण' अर्द्ध योजनं' द्वे गव्यते इत्यर्थः अर्वप्नुञ्चत्वेन 'पंचधणुसयाई विक्खं. भेण' पञ्चधनु शतानि विष्कम्भेण विष्कम्भा-परिरयस्तेन 'जगई समिया परि. क्खेवेणं' जगती समिका परिक्षेपेण यावत्ममाणो जगत्या मध्यभागे परिरयः वात्प्रमाण एव तस्या पद्मवेदिकाया अपि परिक्षेप इति भावः । 'सव्वरयणमई०' सर्वरत्नमयी सामस्त्येन रत्नास्मिका अच्छा श्लक्ष्णालण्हाधृष्टामृष्टा नीरजस्का निर्मला निष्पङ्का निष्कङ्कटच्छाया समभा समरीचिका सोयोता मासादीया दर्शनीया अभिरूपा मतिरूपा पद्मवरवेदिका । एषां व्याख्या पूर्वगतेति । 'सीसे णं पउमवरवेइयाए' तस्याः- पूर्वदर्शित विशेषणविशिष्टायाः खलु पद्मवरवेदिकायाः अयमेयारूवे वण्णावासे पन्नत्ते' अयम्-दक्ष्यमाणप्रकारः एतापः-एवं स्वरूपो वर्णवासा-वर्ण:-इलाघा यथाऽवस्थितस्वरूपकीर्तनं तस्या वासो निवासो पउमवरवेदिया' यह पद्मवरवेदिका अद्ध जोयणं उडूं उच्चत्तेणं' आधे योजन की ऊंची है अर्थात् दो कोश जिगनी ऊंची है 'पंचधणुप्लयाई विक्खभेण' और विस्तार में यह ५०० पांच सौ धनुष की है 'सव्वरयणामए तथा यह सर्वात्मना रत्नमय है 'जगई समिया' जितनी जगती का मध्यभाग का परिरय-परिक्षेप है उतना ही परिक्षेप इसका भी है यह पद्मवरवेदिका 'अच्छा इलक्षणा, लष्टा, पृष्टा, नीरजस्का, निर्मलानिष्पंङ्का, निष्कंकटच्छापा लामा समरीचिता लोद्योता दर्शनीया अभिः रूपा प्रतिरूपा' इन अच्छादित विशेषणों वाली है, इन विशेषणों का अर्थ जैसा ऊपर में लिखा गया है-वैमा ही यहां समझ लेना 'तीसेय पउमयरवेइयाए अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते उच्च पद्मवरवेदिका का बेदिया' मा ५१२ : 'अद्धजोयण उड्ढे उच्चत्तण' मायान रखी
यी ७. अर्थात् मे आस-पानी या वाणी छे. 'पच धणुसयाई विक्खभेणं' भने ५०० पांयसे। धनुषना विस्तार पाणी छे 'सव्वरयणामए' सवः ॥२ ते २त्नमय छे. 'जगई समिया' । गतीन। मध्य सागना પરિચય-પરિક્ષેપ છે, એટલે જ આને પણ પરિક્ષેપ (ઘેરા) છે. આ પદ્મવરवह 'अच्छा इलक्षणा, लष्टा, घण्टा, मृण्टा, नीरजरका' निर्मला, निष्प का, ( विनानी) निष्क कटन्छाया (131 विनानी) सप्रभा, समरीचिका सोद्योता, दर्शनीया, अभिरूपा, प्रतिरूपा, विगेरे विशेष! पणी छे मा विशेषशान। मथ 2 प्रभाग ५२ रुपामां भाव छ, मे प्रमाणेनाछे, 'तीसेय पउमवर वेइया अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते' ५५१२ वहिनी वर्षापास पान मा प्रभाव छे. 'त' जहा' र 'वइगमया नेमा' मा ५२१२ हनी रेनेमा
जी. १०२
Page #836
--------------------------------------------------------------------------
________________
जाभिगम
८१०
ग्रन्थपद्धतिरूपो वर्णाः- वर्णक निवेश इत्यर्थः, प्रज्ञप्तः कथित इति । 'तं जहां' तयथा - 'वारामया नेमा' वज्रमथा नेमा नेमा नाम पदमवरवेदिकाया भूमिभागाद निष्क्रान्तः प्रदेशाः ते सर्वेऽपि वज्रमया: - वजरत्नभवाः 'रिद्यामया पड़हाणा' रिष्टमयानि प्रतिष्ठानानि रिष्टो रत्नविशेषस्तद्रूपाणि प्रतिष्ठानानि मूलपादाः 'वेरुलियमा खेमा' वैरत्नमयाः स्तम्माः 'सुवणरूपमया फलगा सुवर्णमयानि फलानि 'लोहितक्खमईओ सईयो लोहिताक्षरत्नमय्यः सूचयः फळकद्वयसम्बन्धविघटनाभावहेतु पादुकास्थानीयाः । 'वरामया संधी' वज्रमयाः सन्धयः सन्धिमेला फलकानाम् अयमर्थः वत्ररत्नपूरिताः फलकान सन्धय इति । 'णाणामणिमश कलेवरा' नानामणिमायानि-अनेकविधरश्नघटितानि कलेवराणि - मनुष्यादि शरीराणि 'णाणामणिमया क्लेवरसघाडा' नानामणिमयाः वर्णावास-वर्णन इस प्रकार से कहा गया है 'त जा' जैसे 'वारामग्रा नेमा' इस पद्मवनवेदिका के जो नेम है-भूमिभाग से ऊपर की ओर निकलते हुए जो प्रदेश है । वे सब वज्रमय है अर्थात् पदमवर वेदिका के अधोभाग में जो प्रदेश है वे मय वज्रान के बने हुए है 'रिद्रामया पट्टाणा' रिष्टरत्न के इसके प्रतिष्ठान है- सृलपाद है 'वेलियमयाखंभा' वैदर्यरत्न के इसके स्तम्भ है 'सुवण्णरूपमया फलगा' सुवर्ण और रुप्य, चांदी की मिलावट से बने हुए इसके फलक है। पाटिये है 'लोभ सूईओ' लोहिताक्ष रत्न की बनी हुई इसकी सूचियां है। ये सूचीयां पादुका के स्थानापन्न होती है जो दोनों पार्टियों को आपस में संबंधित किए हुए रखती है उन्हें विघटित नहीं होने देती है | 'हरामा संघी' इसके फक्फों को जो संघिया है वे वज्ररत्न से भरी हुई है । ' ण णामणिमया कलेवरा' यहां जो मनुष्यादि शरीर के चित्र बने हुए है। वे अनेक प्रकार के मणियों के बने हुए है । 'जाणाભૂમિભાગથી ઉપરની તરફ નીકળતા જે પ્રદેશેા છે, તે બધા વા રત્નના બનેલા हाय थे, 'रिमया पट्टाणा' रिष्ट्र रत्नना तेना प्रतिष्ठान छे, पाह छे. 'वेरु लियामया खमा' वैडूर्य रत्नना तेना स्तभ्लो छे. 'सुवण्णरूप्पप्रया फलगा' सुव मने गांधीनी भेजवाणीथी मनसा तेना इस छे, पाटिया है. लोहितक्खमइयो सृई भो' बोहिताक्ष रत्ननी मरेसी तेनी सूथियो छे से सूथियो परस्पर समधित रहे छे. तेने मसग पडवा हेती नथी. 'वइरामण संघी' तेना इस अनी ने संधियो हे, ते वन रत्नथी लरेली छे. 'णाणा मणिमया कलेवरों' अडीयां મનુષ્યાદિના ચિત્રા મનાવવામાં આવેલ છે, તે અનેક પ્રકારના મણિચાના અનાवामां मापेक्ष छे. 'णाणा मणिमया कलेवरस घाडा' तथा मनुष्यना स्त्री पु३षाना
.
Page #837
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमैयद्योतिका बैका प्र.३ उ३ सू.५२ जगत्या पनवरवेदिकायाश्चवर्णनम् ८३१ कलेवरसंघाटाः मनुष्यशरीरयुग्मानि नालामणिमयानीत्यर्थः 'गाणामयारूवा' नानामणिमयानि रूपाणि रूपकाणि 'जाणामणिलया रूवसंघोडा' नानामणिमया रूपसंघाटा: रूपयुग्मानि नानामणि मयानीति । 'अ'कामया पक्खा पखवाहाओय' अङ्कमयाः पक्षाः अङ्को रत्नविशेष स्तम्मयाः पक्षास्तदेकदेशाः, पक्षवाहरश्च 'जोतिरसामया वंसा वंसक वेल्लुया य' ज्योतीरसमया वंशाः ज्योतीरसं नाम रत्नं. वन्मया वंशाः, महान्तः पृष्ठवशाः, ज्योतीरसमयानि वंशकवेल्लुकानि च वंशाश्च कवेल्लुकानि, तत्र महता पृष्ठवंशानामुमयत स्तियक स्थाप्यमानाः वंशाः कवेल्लुकानि लोकासिद्धानि 'रयया मईओ पट्टियाओ' रजतमय्यः पट्टिकाः वंशानामुपरि मणिमयकलेवरसंघाडा' तथा मनुष्य शरीर शुग्स-स्त्री पुरुष की जोडी के जो चित्र बने हुए है वे भी अनेकविध मणियों से बने हुए है 'नाणामणिमया रूवा' रूप-मनुष्य चित्रों के अतिरिक्त जो और भी चित्र है-- वे सब भी अनेक प्रकार के मणियों के बने हुए है इसी तरह 'णाणामणिमयारूव संघाडा' रूपसंघाट-अनेक जीवों की जोडी के चित्र भी अनेक प्रकार की मणियों के बने हुए है । 'अंकनया पक्खा पखवाहा ओय' इसके पक्ष आजू बाजू के भाग-रत्नों के ही बने हुए है। 'जोतिरसामयावंसा' वंशा बडे२ पृष्ठवंश इसके ज्योतिरल नामक रत्न के बने हुए है । 'वलकवेल्लुथाय' वंशकवेल्लुरू-बडे पृष्ठवंशों को स्थिर रखने के लिये उनकी दोनों ओर तिरछे रूप में लाये गये वांसभी ज्योतीरत्न के ही बने हुए है । 'दयघामईभो पहियानो' वांसों के ऊपर के छपरे पर दी जानेवाली लंबी लकडी के स्थानापन्न रखी हुई जो पट्टिकाएं है वे चांदी की बनी हुई है। 'जाललशमधीमो ओहाउणीओ' कंधाओं को हांकने के लिये जो उनके ऊपर अवघटिनिया જેડકાના જે ચિત્ર બનેલા છે, તે પણ અનેક પ્રકારના મણિના બનેલા છે. 'णाणा मणिमया रूवा' ३५-मनुष्य मित्राना ३५ शिवाय भी २ यित्री छ, ते मधा मने प्रसना भागुयाना मना छे. 'णाणामणिमयारूप संघाडा' ३५ સંઘાટક અનેક જીવોને જેડીના ચિત્ર પણ અનેક પ્રકારના મણીથી मन छे. 'कमया पक्खा पक्सवाहाओय' तन। ५७मा सामान लागी से म४ रत्नाना भने छे. 'जोतिरसामया व'सा' 'शा भाटा मोटा वश ज्योतिरस नामना नाना मनेसा छे. 'वस कवेल्लुयाय' शકવેલુક-મોટા વંશને સ્થિર રાખવા માટે તેની બન્ને બાજુમાં તીછપણુથી રાખવામાં આવેલ વાંસ પણ ચેતી રન જ બનેલા છે. 'रययामईओ पट्रियाओं' पसानी 6५२ छा५२१ ५२ रामपामा भावना२ सपा વળીયેની જગ્યાએ રાખવામાં આવનારી જે પટી છે, તે રાંદીની બનેલી છે.
Page #838
--------------------------------------------------------------------------
________________
८१५
जीवाभिगमसूत्र कंत्रास्थानीयाः, 'जायरूपमईयो ओहाडणीओ' जातरूपं-मुवर्णविशेषः तन्मयः अवघाटिन्यः आच्छादनहेतु कंचोपरि स्थाप्यमान महाममाण किलिंच स्थानीया 'वइरामईओ उरि पुंछणीओ' बज्रमय्यो वजानात्मिका अवघाटनीनामुपरि पुंछन्यः निविडतरच्छादन हेतुश्लक्ष्णतरतुणविशेषस्थानीयाः, तत्र-अवघाटनी महती, क्षुल्लिकातु पुच्छनी, इत्येव उभयोर्मेदः 'सबसेए स्ययामए छायणे' सर्वश्वेतं रजतमयं छादनम् सश्वेतं रजतमय पुंछनीनामुपरि कवेल्लुकानामध आच्छादनमिति ॥ 'सा णं परमवरवेश्या' सा खल्लु उपर्युक्ता पदमवरवेदिका 'एगमेगेणं हेमजालेणं' एककेन हेमजालेन सर्वात्मना हेममयेन लम्बमानेन लम्बमानेन दामसमूहेनेत्यर्थः 'एगमेगेणं गदक्ख नालेण' एकैकेन गवाक्षजालेन-गवाक्षाकृति रत्नविशेषदामसमूहे न 'एग गेण खिखिणो जालेग' एकैकेन किंकिणी जाछेन, किंकिण्या-क्षुद्रघण्टिकाः, तथा चैकैकेन शुदघण्टिका जाले. नेत्यर्थः 'एगयेगेणं सुत्ताजालेणं' एकैकेन मुक्तानालेन मुक्ताफलमयेन दामसमहेन 'एगमेगेगं मणिजालेणं' एकैकेन मणिमालेन मणिमयेन दामसमूहेन है। ढक्कन है वे जालरूप की बनी हुई है 'वहरामहओ उपरि पुंछणीओ इन ढक्कनों के ऊपर जो पुञ्छनी है-ढक्कनों के छेदों को बंद करने के लिये जो उनके ऊपर इलक्षणतर तृणविशेष के स्थानापन्न और ढक्कन है । जैसा कि घास के छापराओं के उपर बने रहते है-वे वज्र. रत्न की है अपघाटनी बडी होती है औ पुंछनी इसी प्रकार की छोटी होती है यही इन दोनों में अन्तर है। 'सबसेए रययामए छायणे' पुंछ. नीयों के उपर और कवेल्लमों के नीचे जो आच्छादन है वह रजत मय-चांदी का बना हुआ है । ऐसी यह वेदिका है 'सा णं पउमवरवेश्या एगमेगेणं हेमजालेणं एगमेगे णं गवखजालेणं एगमेगेणं खिखिणिजा लेणं एगमेगेण मुत्ताजालेणं, एगमेगेणं मणिजालेणं एगमेगेणं कणघजा'जातरूवमयीओ मोहाउणीओ' ४ासाने isq1 माटे तेना 6५२२ अपरिनि ढांय त त३५ २(नानी मनदी छे. 'वइरामइओ उवरि पुछणीओ' એ ઢાંકણની ઉપર જે પુચ્છની ઢાંકણુના છિદ્રોને બધ કરવા માટે તેના ઉપર જે લગતર તૃણ વિશેષના સ્થાને બીજા ઢાંકણું છે જેમ ઘાસના છાપરાઓ ઉપર બનાવેલા હોય છે તે જ ર ના છે. અવઘાટણ મોટી હોય છે, અને પછી તેનાજ જેવી નાની હોય છે. એટલું એ બન્નેમાં અંતર-જુદાઈ छ. 'सबसेए रययामए छायणे' योनी ९५२ भने ४वेनी नीयरे આચ્છાદન ઢાંકણું છે તે રજતમય ચાંદીના બનેલા છે. એવી તે વેદિકા છે. 'मा णं परमवरवेडया एगमेगेणं हेमजालेगं एगमेगेणं गवक्खजालेणं एगमेगेणं खिखिणिजालेण एगमेगेण मुचीमालेण एगमेगेणं मणिजालेण एगमेगेण कणय
Page #839
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रद्योतिका टीका प्र०३ उ. ३ खु. ५२ जंगत्याः पद्मवर वेदिकायाश्चवर्णनम् ८२३
' एगमेगेणं कणयजालेन' एकैकेन कनकजालेन वनकं पीतसुवर्णविशेषः तन्मयेन दामसमूहेन 'एगमेगेणं रयणजाले' एकैकेन रत्नजालेन 'एममेगेणं पउमजालेणं सव्वरयणामएणं' एकैकेन पद्मजालेन सर्वरत्नमयेन सर्वरत्नमय पद्मालय दाम समूहेन 'सओ समता संपरिक्खित्ता' सर्वतः सर्वासु दिक्षु समन्तात् सर्वासुविदिक्षु परिक्षिप्ता- सम्यक्परिवेष्टिता । ' ते णं जाला तवणिज्जलंबूनगा' तानि खलु जालानि दामसमूहरूपाणि हेमजालादीनि तपनीयलंबूसकानि, तपनीयमारक्तं सुवर्ण तन्मयो लंबूको दाम्नामग्रिमभागे मण्डनविशेषो येशं तानि तपनीयलम्बूकानि 'सुवण्णपयरगमंडिया' सुवर्णमतरव मण्डितानि, पार्श्वतः सामस्त्येन लेणं एगमेगेणं रथघजालेणं एगसेगेणं पडमबरजोलणं सग्घरयणाम एणं सव्वतो समता संपरिक्खित्ता' वह पद्मवर वेदिका भिन्न भिन्न स्थानों में एक एक हेमजाल से लटकते हुए सुवर्णमय मालासह से एक एक गवाक्ष जाल से लटकते हुए गवाक्ष की आकृति वाले रत्नविशेष की मालासमूह से एक एक लटकते हुए क्षुद्रघंटिका जाल से एक एक लटकते हुए चडेर घंटिका जाल से लटकते हुए मुक्ताफलमय दामसमूह से, एकएक लटकते हुए कनकजाल से पीत सुवर्णमय दामसमूह से एकएक लटकते हुए रत्नजाल से - रत्नमयदामसमूह से एक एक सर्वरत्नमय कमलों की माला के समूह से सर्वदिशाभों में और विदिशाओं में व्याप्त हो रही है । परिवेष्टित बनी हुई है । 'तेणं जाला नवणिज्जलं बूगा' ये सब दामसमूहरूप जाल तपनीय सुवर्ण के लंबूसक वाले है। अर्थात ये हिमादि के जाल अग्रभाग में तपनीय आरक्त-सुवर्ण के
-
जालेगं एगमेगेगं रययजा लेण एगमेगेण परमवरजालेण सव्वरयणा मरणं सव्वश्र खमना सपरिक्खित्ता' को पझर वेहि लुगा स्थानास भेटले हे. ४ એક બાજુ હેમજાલથી લટકતા સુષુમય માળા સમૂહથી કઇ બાજુ ગવાક્ષ જાક્ષથી લટકતા ગવાક્ષના આકારવાળા રન વિશેષની માલા સમૂહથી કેઈ ભ જુ એક એક લટતી ક્ષુદ્ર નાની નાની ઘટિકાજાલથી ઘડિસે.ના સમૂહથી કોઈ માજી એક એક લટકતા માટી માટી ઘટિકાજાળથી, લટકતા ચુકતાફળમય માયા વાળા દામ સમૂડાની માળાએથી એક એક લટકતા કમળજાલથી કમળાના સમૂહથી પીતર સુવણુ મય માળ એના સમૂડથી એક એક લટકતા રત્નજાળથી રત્નમય માળાઓના સમૂહેાથી એક એક સ રત્નમય કળાની માળાના સમૂડીથી સર્વ દિશાએથી અને વિદિશાએથી વ્યાપ્ત થઇ રહી છે. પરિવષ્ટિત વીંટળાયેલી રહે છે.
'ते ण' जाला नवणिजलंबूसगा' मा मधा हान सभूडु ३५ ला
तपा
Page #840
--------------------------------------------------------------------------
________________
८१४
जीवामिगमत्र सुवर्णपतरकेण-सुवर्णपत्रकेण मण्डितानि-सुम्रोभितानि 'णाणामणिरयणविविह. हारहारउवप्लोभियसमुदाया' नानामणिरत्न विविधहाराहारोपशोभित समुदायानि नानारूपाणां मणीनां रत्नानां च ये विविधविचित्रवर्णाः हारा अष्टादश सरिका अर्द्धहारानवसरिकास्तरुपशोभितः समुदायो येपा तानि तथा, 'ईसिं अण्ण. मण्णमसंपत्ता' ईपदन्योन्यमसंप्राप्तानि ईपत्-मनाक् अन्योन्यं परस्परमसंमातानिअसंलग्नानि, 'पुब्दावरदाहिण उत्तरागएहिं वाएहिं' पूर्वाश्रदक्षिणोत्तरागवतिः आभ्यो दिग्भ्यः समागतवायुमिः 'मंदागं मदागं एज्जमाणा कपिज्जमाणा' मन्दं मन्दं यथास्यात् तया-एज्यमानानि कम्प्यमानानि पज्यमानकम्प्यमानेत्यत्र द्विवचनं जालानां वायुकम्पनाच्छेदं दर्शयति-'लंघमाणा लंघमाणा' लम्बमानानि लम्बमानानि ईपरकम्पनवशादेव च प्रकर्पता-इतस्ततो मनाक् चलनेन प्रलम्ब मण्डनविशेषवाले हैं। 'सुषण्णपयरगमंडिया' चारों तरफ से इन पर सुवर्ण पत्र जड़ा हुभा है। 'नाणामणिरथणविविहहारद्ध धारउवलोभिय समुद्या' ये सब जाल- दामसमूह नानारूपघाले मणियों के एवं रत्नों के बने हुए हारों से १८ लडवाले हारों से एवं अर्द्धहारों से-९ लडके हारों से उपशोभित है 'ईसिं अण्णमण्णमसंपत्ता' ये एक दूसरे से अधिक दूर नहीं है-शिन्तु पालर में है और आपल में एक दूसरे से संलग्न नहीं है 'पुव्यावरदाहिण उत्तरागतेहिं वाहि' ये सब जाल पूर्व पश्चिम-दक्षिण एवं उत्तर से आगतवायु से 'मंदार्ग मंदागं एन्जमाणा कंपिज्जनाणा' मन्द मन्द रूप ले कंपते रहते हैं और जप ये विशेषरूप से कंपित्त होने लगते है । तब ये 'लंबमाणार' लम्वे २ हो जाते है-इधर વેલા સુવર્ણના લ બ્રમક વાળા છે. અર્થાત્ આ હિમાદિ જાવ અગ્રભાગમાં તપાવેલા સેનાના મ ડન વિશેષ વાળા છે. એટલેકે કઈક લાલાશવાળા અગ્રભાગ पापा छ. 'सुवण्णपयरगम डिया' तनी सारे मा सेनाना पत्रा उस छे. 'णाण मगि रयगविविहहारद्धहार उबसोभियसमुल्या' । मधी ana - भस અનેક પ્રકારના મણિયાના અને તેના બતાવેલા હારોથી ૧૮ અઢાર લડી વળા હાથી એ અહાર ૯ નવ લડી વાળા હારોથી શોભાયમાન છે. ईचि अग्गमण्यम पत्ता' मा १२ मे मीनतमी प २ नथी ५२'तुन न छे. ५ ५२२५२ मे vilam स. यांटेसा नथी. 'पुवावरदाहिण उत्तरा गतेहि वोपहि' मा मा समूह पूर्व, पश्चिम, उत्तर भने दक्षिणी मावा पवनथी म दाग मदाग एज्जामाणा कपिज्जमाणा' भ म કંપતા રહે છે. અને જ્યારે તે વિશેષ રીતે કંપિત થાય છે. ત્યારે તે “૪माणा प्रमाणा' in eiwi / लय छ, मर्थात म तम सा जय
Page #841
--------------------------------------------------------------------------
________________
मैद्योतिका टीका प्र. ३ उ. ३.५२ जगत्या पद्मवर वेदिकायाश्चवर्णनस्
८१५
मानानि मलम्बमानानीति । 'पझझमाणा पझंझमाणा' परस्पर संपर्कतः शब्दायमानानि शब्दायमानानि तानि जालानि सन्तीति, ते णं ओरालेणं मणुष्णेनं' तेन - हेमजालादि जनितेन खल्ल उदारेण स्फारेण शब्देन स च स्फारशब्दो मनः प्रतिकूलोऽपि कदाचिद्भवेत् तद आह- 'मणुणेणं' मनोऽनुकूलेन तच मनोऽनुकूलत्वं daaist भवतीत्यत आह- 'मनोहरेण' मनोहरेणं मनोहरेण मनांसि श्रोतॄणां ਰੂਸੀ चेतांसि हरति-स्वायत्ती करोतीति मनोहरस्तेनं अतएव - 'कृष्ण सणणिव्वुइक रेन' कर्णमनोनिवृत्तिकरण, श्रोतृकर्णयोर्मनसश्च निर्वृत्तिकरः सुखविशेपोत्पादक : तस्मादेव कारणान्मनोज्ञो मनोहरचेति तेन तादृशेन 'देणं' शन्देन 'सन्नओ' समता आपूरेमाणा' सर्वतः सर्वासु दिक्षु समन्तात् सर्वासु विदिक्षु अपूरयन्ति, अतएव 'सिरीए अतीव उवसोभेमाणा चिह्नति' श्रिया - शोभया अतीव - अतिशयेनोपशोभमानानि तानि जालानि तिष्ठन्तीति । 'ती से णं पउपवर वेइयाए' तस्याः उधर पसर जाते है और आपस में 'पझंझमाणा२' एक दूसरे से टकरा २ कर शब्दायमान ध्वनिवाले होने लगते हैं 'ते णं आलेणं मणुण्णे णं कण्णमणणिव्वुइकरेणं सदेणं सन्चओ समता आपूरेमाणा सिरीए अतीव उवसोमेमाणा चिट्ठति' इस अवस्था में उनसे निकला हुआ वह शब्द कर्ण और मनको बहुत सुख विशेष का उत्पादक होता है क्योंकि वह शब्द बड़ा ही मनोज्ञ होता है- समस्त दिशाओं और विदिशाओं में वह भर जाता है अतएव उस शब्द की सुन्दरता से वे जाल अत्यन्त शोभित होते रहते हैं । 'तीसे णं पउमवर वेश्याए तत्थर देसे तर्हि तर्हि वहवे ह्यसंघाडा, गयसंघाडा नरसंघाडा किण्गरसंघाडा, किं पुरिससंघाडा' उस पदमवर वेदिका के भिन्न भिन्न स्थानों पर कहीं पर अनेक हयसंघाट उत्कीर्ण है यहां संवाट शब्द साधु संघ डे की तरह छे. मने परस्थर 'पद्म'झमाणा पझझमाणा' भेड जीलनी साथै टउराध अराधने शब्दायमान रगुहार वाजा था लय छे. 'ते ण ओरालेणं मणुण्णेण कण्णमण निव्वु करेणं सदेणं सव्वओ समता आपूरेमाणा खिरीए अतीव उवसोंभेमाणा चिट्ठति' मा राते तेमांथी नीज्जेस से शब्द अन भने भनने धान सुभ વિશેષના અનુભવ કરાવનાર નિવડે છે, કેમકે એ શબ્દ ઘફેાજ મનેાજ્ઞ હાય છે. સઘળી દિશાઓમાં અને વિદિશાઓમાં તે ભરાઇ જાય છે. તેથીજ એ શબ્દના સુંદરપણાથી એ જાલસમૂહ અત્યંત શૈાભાયમાન થતા રહે છે. તિસેન परमवर वेइयाए तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं बहवे हयस घाडा, गयसंघाड़ा नरसंघाडा, किण्णरसंघाडा किपुरिसस घाडा' मे पद्मव२ वेहिना लुग नुहा स्थाना પર કયાંક કયાંક અનેક પ્રકારના હ્રયસ ઘાટ ઘેાડના યુગ્મા ચિત્રલા છે,
-
Page #842
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
Odeasi.
जीवाभिगमसूत्र खलु पद्मवरवेदिकाया: 'तत्थ तत्थ देसे तहि तहिं तत्र तत्र देशे तत्र तत्र तस्यैव देशस्य तत्र तत्रैकदेशे 'वहवे हयसंघाडा' बहवो हयसंघाटा: संघाटशब्दो युग्मयाची यथा, साधुपंघाट इत्यत्र तथा च बहूनि हययुग्मानि एवमग्रेऽपि संघाटशब्दो युग्मवाची द्रष्टव्यः, 'गयसंघाडा' गजसंघाटा: 'नरसंघाडा' नरसंघाटाः 'किण्णरसंघाडा' सिन्नरसंघाटाः 'किंपुरिससंघाडा' 'किंपुरुषसंघाटाः 'महोरगसंघाडा' महोरगसंघाटा: 'गंध सघाडा' साधसंघाटा: 'वसहसंघाडा' वृषमसंघाटा: पमयुग्मानि, कीरशानि तानि ? तत्राह-'सवरयणामया' सर्वरत्नमया:-मत्मिना रत्नमयाः विच्छा' इत्यारस्य 'पटिरूवा' इत्यन्तपादानां यावत्पदसंग्राहाणां व्याख्या पूर्व गता।
एते च सर्वेऽपि हयादि संघाटाः पूष्पाकीणकाः कथिताः, सम्पति-पतेपामेव हयादीनामष्टानां पंक्तयादि मतिपादनार्थमाह-'तीसे णं' इत्यादि, 'तीसे णं पउमयुग्मवाची है। कहीं पर भजसंघाट उत्कीर्ण है, कहीं पर नरसंघाट उत्तीर्ण है। कहीं पर किन्नरसंघाट उत्कीर्ण है। कहीं पर किंपुरुष संघाट उत्कीर्ण है। कहीं पर महोरगसंघाट उत्कीर्ण है। कहीं२ पर गन्धसंघाट उत्कीर्ण है कहीं२ पर वृषभसंबाट उत्कीर्ण है। ये सब संघाट 'सवरयणामया' सर्वात्मना रत्नमय है 'अच्छा' इत्यादि पडिरूव तक के शब्दों का अर्थ पहिले लिख पाये है ये सच हयादिमबाट पुष्पावकीर्णक फलों को बरसाने वाले कहे गये है। अब उन स्यादि आठों संघाटे का पंक्ति आदि का निरूपण करते है । 'तीलेणपउमवरचे दियाए' उस पद्मवरवेदिका के 'तत्थ देमे तहिं २' स्थानों में, 'यपंतीओ तहेव जाद पडिरूवा सयपंक्तियां है । यावत् ये सघ हयपंक्तियां प्रतिरूप है यहां यावत् शब्द से 'सर्वा रत्नमयाः, अच्छाः इत्यादि विशेषणों का संग्रह हुआ है एकदिशा में जो श्रेणि होती है उसका नाम पंक्ति है। અહિયાં સંઘાટ શબ્દ સાધુ સંઘાડાની જેમ યુગ્મ વાચી છે. ક્યાંક ક્યાંક ગજ સંવાટ હાથીના યુગ્મ ચિત્રેલા છે. કયાંક કયાંક નરસંઘાટ મનુષ્ય સુમે ત્રેિલા છે જ્યાંક કયાંક કિંનર સંઘાટ ચિત્રેલા છે. કયાંક કયાંક કિપરૂષ સંઘાટ ચિત્રેલા છે કયાંક કયાંક મહારગ સંઘાટ ચિત્રેલા છે કયાંક કયાંક ગંધર્વ સંઘાટ ચિલા છે કયાંક કયાંક વૃષભ સંઘાટ ચિન્નેલા છે. આ अधार संघाट। 'सवरचणामया' सारे २त्नभय छ 'अच्छा' त्याह 'पडिरूवा' सुधीन ने। म ५। अपामा भावी गये थे. साधा
યાદિ સંઘાટ કૅલેને વરસાવનારા છે, હવે એ હયાદિ સંઘાટની પંક્તિ विगैरेनु नि३५५ ४२वामां भाव 2. 'तीसे ण पउमवरवेइयाए' से पहभपर
Page #843
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ २.५२ जगत्याः पद्मपरवेदिकायाश्चवर्णनम् ८१७ वरवेश्याए' तस्याः खलु पद्मवरवेदिकायाः तत्थ तस्थ देसे वहि तर्हि' तत्र तत्र देशे-तत्र तत्र देशावयवे 'इय पंती मो' बढ्यो हयाक्तयः 'तहेव जाव पडिरूवा' तथैव-सङ्घाटव देव यावत्मतिरूपा, यावत्पदेन-'सम्बरयणामया अच्छा' सर्वरत्नमया अच्छा, इत्यादितोऽभिरूपपर्यन्तानां विशेषणानां यहणं भवति, एकस्यां दिशि या श्रेणिः सा पङ्क्तिः कथ्यते । 'एवं इयवीहिओ जाव पडिरूवाओ' एवं हयादि पङ्क्तिरिव हयादि वीथयोऽपि वक्तव्या यावत्प्रतिरूपाः, अत्रापि यास्पदेन 'सध्यरयणामया' सरित्नास्मिका इत्यारभ्य प्रतिरूपा एतदन्त विशेषणानि संग्राखाणि । उभयोरपि पार्श्वयोरेकैक श्रेणिभावेन यत् श्रेणिद्वयं सा वीथी। अत्र ये पूर्व
यादीनां संघाटादयः वीथी पर्यन्ता उक्तास्ते पुरुषहयादीनधिकृस्योक्ताः साम्मत. मेतेषामेव हयादीनां सीपुरुषयुग्मपतिपादनार्थमाह-'एवं हयमिहुणाई जाब पडिरूवाई एवं हयपंक्तयादिवदेव हयादि मिथुनान्यपि वक्तव्यानि सर्व रत्नात्मकानीत्या. रभ्य प्रतिरूपाणीत्यन्त विशेषणयुतानि, हयादीनां मिथुनकानि स्त्रीपुरुषयुग्मरूपाणि 'एवं च्यवीहिओ जाव पडिरूवाओ' हयादि पंक्तियों की तरह 'सन्धरयणामया' सब रत्नात्मक आदि विशेषणों वाली हयादिवीथिया है दोनों तरफ-आजू बाजू में एक एक श्रेणि भाव से जो दो श्रेणी होती है उसका नाम वीथि है पहले जो हयादिकों के संघाट आदि कहे गये है वे पुरुष हयादिकों को लेकर कहे गये है, अब उन्हीं हयादि आठों संघाटे का स्त्री पुरुषरूपयुग्म-जोडों को कहते है। 'एवं हयमिहुणाई जाव पडिरूवाई' हयादि पंक्ति की तरह वहां हयादिकों के स्त्रीपुरुषरूप जोडा भी है ये सब हयादि मिथुन भी सर्वरत्नात्मक आदि पूर्वोक्त विशेषणों वाले है। 'तीसे ण पउमवर
हाना 'तत्थ तत्थ देसे तहिं तहि नु। स्थानोमा ‘हयपतीओ तहेव जाव परिरूवा' यतिय। छे. यात ते सधी पतिय प्रति३५ छे. मही यावत् शपथी 'सव्वरयणा मया अच्छा' विगैरे विशेषगाना स थये। ये हशामा २ श्रेणी डाय छ, तनु' नाम यति छे. 'एव हयवीहिओ जाव पडिरूवाओ' या पतियानी भा३४ 'सव्वरयणा मया' स रत्नमय વિગેરે વિશેષણવાળી હયાદિ પંક્તિ છે અને તરફ આજુ બાજુમાં એક એક શ્રેણિ ભાવથી જે બે શ્રેણી થાય છે. તેનું નામ વીથિ છે. પહેલાં જે હયાદિના સંઘાટ વિગેરે કહ્યા છે તે પુરૂષ હયાદિને ઉદ્દેશી કહેલાં છે હવે એ હયાદિ આઠે સંવાટાના સ્ત્રી પુરૂષ રૂપ ચુમ જેડલાઓનું કથન કરવામાં भाव छ. 'एव हयमिहणाई, जाव परिरूवाई' स्याह तिन म त्यां હયાદિકના સ્ત્રી પુરૂષ રૂપ જેડલા પણ છે. આ યાદિ મિથુને પણ સર્વ
जी० १०३
Page #844
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीवामिगम वक्तव्यानीति ॥ 'तीसे ण पउमवरवेइयाए' तस्याः खल पदमवरवेदिकाया: 'तस्थ तत्थ देसे तहिं ताई तत्र तत्र देशे 'हि' इति तस्यैव देशस्य तत्र तत्रैकदेशे अत्राऽपि 'तत्थर देसे तहिं२' इतिवदता यत्रैका लता तत्राच्या अपि बहव्यो लताः सन्तीति प्रतिपादितं भवतीति । 'बहवे एउमलयाओ' कहव्यः पद्मलता पदमिः न्यः 'नागलयानो' नागलनाः, नागा द्वमविशेषास्ते एव लगा:-तिर्यशाखामसराभावात् नागलताः । एवं असोगळयाओ' एवम् यशोकलताः 'चंचगलयाओ' चम्पकळताः 'च्यलयाओं' चूतलता-आम्रलताः, 'वणलयाओ' वणलता वणा:तरुविशेषाः 'वासंतिय लपायो' वासन्तिकलता 'अतिमुत्तमलयाओ' अतिमुक्तकलताः 'कुंदलयाओं' कुन्दलताः 'सामन्याओ' श्यामलताःताः कीदृश्यः ? इत्याहपिच्चं कुमुमियामो नित्यं कुसुमिताः, नित्य-सर्व कालं पट्स्वपि ऋषु कम्मानि संजातानि आसामिति कुसुमिताः 'जाव' इति यावत्पदसंग्राह्याणि लताविशेष. णानीमानि-णिच्चं मउलियाओ' नित्यं मुकुलिताः मुकुलानि नाम कुमलानि कलिका इत्यर्थः 'णिच्चं लवइयाओ' नित्यं लवयिता:-पल्लविताः, णिच्च यवइया' नित्यं स्तवकिताः णिच्चं गुम्मिया' नित्यं गुल्मिताः णिचं गुच्छिया नित्यं गुच्छिाः स्वगुल्लो गुच्छविकोपी, “णिच्चं जमलियाओ' वेदियाए नत्थर देले तहि२ वरवे पउमलयाभो नागलयानो एवं असोग लयाओ' इत्यादि उल पद्मवर वेदिता के भिन्न स्थानों पर अनेक पद्मलताएं है अनेक नाग लताएं है अशोशलताएं है चंपशलताएं है। चूत. लताएं है, बनलताएं है, वासन्तिकलताएं है, अतिमुक्तकलताएं है, कुन्दलताएं है, एवं श्यामलताएं है, ये सब लताएं छहों ऋतुओं में कुसुमित रहती है गावस्पद से संग्रहीत विशेषण कहते है नित्य कुम. लयुक्त बनी रहती है नित्य पल्लवित रहती है नित्यस्तवकित रहती है नित्य कलियां गुमित रहती है, नित्य यमलित समान जानीयलना २त्नभय विगैरे पूति विशेषणे वा छे 'तीसे गं परमवरवेइयाए तत्थ तत्थ देसे तहिं तहि वह परमलयाओ नागलयाथो एवं अमोगलयाओ' पत्याहि એ પદ્મવર વેદિકાના જૂદા જૂદા સ્થાન પર અનેક યમલતા છે, અનેક નાગલતાઓ છે અનેક અશકતતાઓ છે ચંપકલતાઓ છે. આમૃલતાઓ છે. બાણુલતાઓ છે. વાસન્તિલતાઓ છે. અતિમુક્તલતાઓ છે. કુંદલતાઓ છે અને શ્યામલતાઓ છે. આ બધી લતાઓ છએ વસ્તુઓમાં પુષ્પાન્વિત રહે છે. હવે યાવત્ પદથી ગ્રહ થયેલ વિશેષણે બતાવે છે. નિત્ય કુડ્રમલ-કળિ વાળી બની રહે છે.નિત્ય પલવિત રહે છે. નિત્ય સ્તબકિત રહે છે. નિત્ય કલિયે ગુલિત રહે છે નિત્ય યમલિત સમાન જાતની લતા યુવાળી
Page #845
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीका प्र.ई उ.३ २.५२ जगत्याः पद्मवरवेदिकायाश्चवर्णनम् ८१९ नित्यं यमलिताः, यमलं नाम समानजातीयलयोयुग्मं तत्संभातम् आस्विति यमलिताः 'णिच्चं जुलिया नित्य युगलिताः युगलं सजातीय विजातीययो
तयोर्द्वन्द्वम्, 'णिच्च विणमिया' नित्यं विनता:-सर्वकालं फलभारेण ईपन्नताः 'णिच्चं पणमिया' नित्यं पणता:-सर्वकालं महता फलभारेण दुरं नताः, तथा'सुविभत्त पडिमंजरिवर्डिसगधरीओ' सुविभक्त मतिमचर्यवतंसकधर्यः, तत्र मुविभक्तिका-सुविच्छित्तिका प्रतिविशिष्टो मञ्जरीरू यो योऽवतंसका, तद्धरास्तद्धारिण्यः एषः सर्वोऽपि कुसुमितत्त्वादिको धर्म एकस्या एकैकस्या लताया उक्तः सम्प्रति-कासाञ्चिल्लतानां सकलकुसुमितत्वादि धर्मप्रतिपादनार्थ पूर्वोक्त सकलविशेषणसंग्रहमाह= णिच्चं कुसुमिय-मउलिए लवइय-थवइय-गुम्मिय विमिय पणमिय-सुविभत्त परिमंजरिवडिसगधरीओ नित्यं कुसुमित-सुकुलित पल्लवित स्तबकित-गुल्मित-गुच्छित-विनमित-मणमित सुविभक्त मतिमञ्जर्यवतंसकधर्यः एतत्पदगतानां विशेषणानामर्थः पूर्व व्याख्यात एवेति ।
पुनः किं रूपास्ता: ? इत्याह-'सरवणा मइओ' सर्वात्मना रनमय्यः, 'सण्हा. ओ' इत्यारभ्य 'पडिरूपाओ' इति पन्तानां विशेषणपदानामर्थाः पूर्वरदेव ज्ञातध्या। अतः परं पदमवरवेदिका शब्द प्रवृत्तिनिमित्तं जिज्ञासु प्रश्नयनाह-'से केण टेणं भंते !' इत्यादि, ‘से केण?णं भंते ! एवं बुच्चइ पउमवरवेझ्या परभवरवेश्या' युग्मों से युक्त रहती है तथा 'मुविमत्त पडिमंजरिवडिलमधीओ' सुविभक्त प्रतिविशिष्ट अंजरी वही है एक वडिंसक-अवतंसक-मुकुट उसको धोरण किये रहती है। 'सबरयणामई मो, सहाओ' ये सब लताएं भी सर्वात्मना रत्नमय है लक्ष्ण श्रादिविशेषणों वाली हैं इन इलक्षण आदि प्रतिरूप पर्यन्तपदों का अर्थ पहिले ही लिखा जा चुका है अतः उसी तरह से उसे जान लेना चाहिये अव्य परवरवेदिका के शब्द प्रवृत्ति निमित्त को जानने के लिये पूछते है। 'रले केणद्वेग भंते ! एवं वुच्चइ पउमदरवेदिया२' हे भदन्त ? इस पावरवेदिका का ऐसा २७ छ. तथा 'सुवित्थ पडिम जरिवडिंसगधरीओ' सुविक्षत अतिविशिष्ट माश એજ કહેવાય છે કે જે એક વડિ સગ અવતંસક મુકુટને ધારણ કરેલ રહે છે. 'सव्वरयणा मईओ सहाओ' मा ५धी सता ५ समना सब मारे રત્નમય છે. અને શ્રવણ વિગેરે વિશેષણે વાળી છે. આ શ્લણ વિગેરે પ્રતિરૂપ સુધીના પદોનો અર્થ પહેલાં જ લખવામાં આવી ગયેલ છે. તેથી એ રીતેનો અર્થ અહિયાં સમજી લેવું.
હવે પદ્મવર વેદિકના શબ્દ પ્રવૃત્તિ નિમિત્તને જાણવા માટે શ્રીગૌતમस्थाभी असुनान पूछे छे 'से केणद्वेणं भवे ! एवं बुच्चइ पउमवरवेइया पउसवर
Page #846
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमसे ८२० तत्केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-पदम्वेदिका पदमवरवेदिका, अयमर्थ:-पदमवरपेदिका इत्येवं रूपस्य शब्दस्य तत्र प्रत्तो कि निमित्तं पदमवरवेदिकायाः पदमवरथेदिके ति नामकरणे को हेरिति प्रश्नः, भगवानाह'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'पउमवर वे इया' पद्वरवेदिकायाम् 'तत्य तत्य देसे नहि तहि तत्र तत्र देशे तस्यैव देशस्य तत्र तत्रैकदेशे 'वेइयामु' वेदिकामु उपवेशनयोग्यमत्तवारणरूपासु 'वेड्यावाहासु' वेदिका पार्वेषु 'वेइयासीसफळपमु' वेदिकाशीर्षफल केषु वेदिकायाः शीपमुपरिभागस्तदेव फलकं तेषु, 'वेड्यापुडं. रेसु' वेदिकापुटान्तरेपु द्वे वेदिके वेदिकापुटम् तानि वेदिकापुटानि तेषामन्तराणि अपान्तरालानि वेदिकापुटान्तराणि तेपु, तथा 'खंभेम' सामान्यत: स्तम्भेषु तथा -'खंभवाहामु स्तम्भपार्चेपु 'खंभप्सी से सु' स्तम्भशीषु 'खमपुडंतरेस' स्तम्मपुटा. न्तरेषु द्वौ स्तम्मो स्तम्मपुटम् तेषामन्तराणि-अपान्तरालानि तेपु 'मूइस सूत्रीषु फलक सम्बन्धविघटनाभावहेतु पादुका स्थानीयासु तासामुपरीति तात्पर्याय: नाम आपने किस कारण से हुआ धनलाया है । अर्थात् इसके नामकी शन्द प्रवृत्ति में क्या कारण है ? जिससे यह पदमवरवेदिका कहलाती है। इस के उत्तर में प्रभुश्री करते है। 'गोधमा' पडमवरवेदियाए तत्थर देसे तहि२ वेदियासु दियावाहासु वेदियासीसफलएसु, वेदियापुररेसु' खंभे खंभवाहासु, ख मसीसेसु, खंभपुडतरेसु' हे गौतम ? पद्मवरवेदिका के उन उन स्थानों में-जैसे वेदिका के उपवेशनयोग्य छज्जों के ऊपर वेदिका के दोनों पाश्र्वभागों पर वेदिका के शीर्ष उपरिभागरूप फलकों के ऊपर वेदिका के पुटान्तरो में-दो वेदिकाओं के अपान्तराल में स्तम्भों के ऊपर स्तम्भों की आजू बाजू में स्तम्भों केशर्ष स्थान पर स्तम्भपुटान्तरों में-दो स्तम्भों के बीच में 'सईसु वेइया' मापन मे ५६५२ मिनु मे नाम माये ॥ २५यी કહેલ છે? અર્થાત્ તેના નામની શબ્દ પ્રવૃત્તિમાં શું કારણ છે કે જેથી એ यम१२ व ४ाय छे १ मा प्रश्न उत्तरमा असुश्री ४ छ 'गोयमा ! पउमवरवेइयाए तत्थ तत्थ देसे तहि तहि वेदियासु वेदियावाहामु वेदिया सीसफलएसु, वेदिशपुडतरेसु, खंभेसु ख भवाहासु खभसीसेसु, खंभपुडंतरेसु' હે ગૌતમ! પદ્મવર વેદિકાના એ એ સ્થાનમાં જેમ વેદિકાના ઉપવેશ યોગ્ય છજેની ઉપર વેદિકાના અને પાર્થ ભાગે પર વેદિકાના શિરોભાગ રૂ૫ ફલકેની ઉપર વેદિકાના પુરાતમાં બે વેદિકાના અત્તરાલમાં સ્તની ઉપર સ્તની આજુ બાજુમાં મતભેના ઉપરના ભાગમાં સ્તષ્ણુ પુરાતમાં
Page #847
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ ७.५२ जगत्या पद्मघरवेदिकायाश्चवर्णनम् ८२१ 'सूईमुईसु' सूचीमुखेषु यत्र प्रदेशे मूविफलकं भित्त्या मध्ये प्रविशति तत्पत्यासन्नदेशाः सुचिमुखानि तेषु सूचीमुखेषु 'मुई फलएसु' सूचीफलकेपु. मूचीभिः स व. धिताः फलकमदेशाः तेऽपि उपचारात् सूचीफलकानि तेषु सूचीमध उपरिच वर्तमानेषु 'सूईपुडंतरेसु' सूचीपुटान्तरेषु द्वे मच्यो सूचीपुट ते पामन्तरेषु 'पक्खेनु' पक्षेषु 'पखवाहासु' पक्षवाहासु-पक्षपार्थेषु पक्षाः पक्षबाहाः वेदिकैकदेशारतेषु 'पक्खपुडंतरेसु' पक्षपुटान्तरेषु द्वौ पक्षी पक्षपुट, तेषामन्तरेषु 'बहूई उप्पलाइ' वहूनि उत्पलानि-कमलानि 'पउमाई पद्मानि-सूर्यविकासीनि 'जात्र सयसहस्स पत्ताई यावत्-यावत्पदेन-'कुमु पनलिणसु मगसोगंधियपुंडरीयमहापुंडरी' इति पदानां संग्रहः। कुमुदनलिनसु मगसौगन्धिकपुण्डरीकमहापुण्डरीशतपत्रसहस्त्र पत्राणि, तत्र कुमुदानि चन्द्रविकासीनि पद्मादारभ्य सहस्त्र पत्रान्तानां च विशेषः मागेवोपदर्शितः । कीदृशानि तानि ? तत्राह-'सबरयणामयाई' इत्यादि, 'सव्वरयणामयाई सर्वात्मना रत्नमयानि. 'अच्छाई' अच्छ इत्यादि पडिरूव' इत्यसूईमुहेसु सूई फल एप्तु-सईपुडमरेलु परखेसु पक्ख वाहासु, पक्वपुडं. तरेसु' इसी तरह फलक के सम्बन्ध को विघटन नही होने देने में कारणभूत ऐसी पादुका के स्थानापन्न सूचियों के अग्रभाग के ऊपरजहां कि सूचीफलक को भेदकर बीच में प्रविष्ट होती है यहां के प्रदेश सूचीमुख कहलाते है । सूचियो से संबंधित फलकों के उपर दो सूचियों के अन्तराल प्रदेश में इसी तरह से पक्षों के ऊपर पक्षों की आजू याजू में और पक्षपुटान्तरों के ऊपर 'वहुई' उपपलाइ, परमाई जाव सयसहस्स पत्ताई सम्वरयणाजश, अच्छाई' इत्यादि अनेक उत्पल अनेक सूर्यविकाशी कमल, यावत् नलिन सुभग सौगन्धिक पुण्डरीक महापुण्डरीक शतपत्र और सहस्रपत्र खिले रहते है ये सब उत्पल से में स्तम्मानी क्यमा 'सूई सुईमुहेसु सुई फलएसु सूईपुडतरेसु पक्खेसु पक्ख वाहासु पक्खपुडतरेसु' से शत इन सबने ह न ५७१ हेवाना કારણુભૂત એવી ૫ દુકાના સ્થાનાપન્ન સૂચિની ઉપર સૂચિના અગ્રભાગની ઉપર કે જ્યાં સુચી ફલકને ભેદીને વચમાં પ્રવેશે છે, ત્યાને પ્રદેશ સૂચીમુખ કહેવાય છે. સચિના સંબ ઘવાળ ફલકોની ઉપર બે સૂચિના અન્તરાલ મધ્ય પ્રદેશમાં એજ રીતે પક્ષોની ઉપર પક્ષે ની આજુ બાજુમાં અને પક્ષ પુરાંતની 5५२ 'पहुई उप्पलाई पउमाईजाव सयसहस्स रत्ताईसवरयणामयाई, अच्छा, ઈત્યાદિ અનેક ઉત્પલ અનેક સૂર્ય વિકાશી કમલ યાવત્ નલિન, સુભગ, સૌધિક, પુંડરીક, મહાપુંડરીક, શતપત્ર અને સહસ્ત્રપત્રે ખીલેલા રહે છે. ઉત્પલથી લઈને સહસ્ત્રપત્ર સુધીના જેટલા પ્રકારના કમળ કહ્યા છે તે પ.
Page #848
--------------------------------------------------------------------------
________________
४२२
जीवामिगमसूत्र न्तानां विशेषणपदानामर्थाः पूर्वोक्तरीत्यैव द्रष्टव्या इति। पुनः कथंभूतानि पदमादीनि तत्राह-'मइया' इत्यादि, 'महया महया चासिक्कच्छत्त समयाई" महन्महद्वार्पिकच्छच समानानि, महान्ति महान्ति-महत्यमाणकानि वापिकाणि वर्षाकाले यानि पानीयरक्षणार्थ कृतानि वापिकाणि तानि च छत्राणि च तत्समा. नानि-तत् तुल्यानि 'पण्णत्ताइ समणाउसो !' प्रज्ञप्तानि-कथितानि, हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! 'से तेणटेणं गोयमा ! एवं बुच्चद पउपवरवेश्या, पउमबरवेइया' तत् सेनार्थेन, यस्मात् पद्मबाहुल्यं विद्यते तस्यां वेदिकायां तस्मादेव कारणात् हे गौतम ! एवमुच्यते यदियं पद्म स्वेदिका पदमवरवेदिकेति । अथास्याः शाश्वताशाश्व विषये पृच्छति भगवान् गौतमः-'पउमवरवेश्या णं भंते !' पद्मवरवेदिका खल भदन्त ! 'कि सासया असासया कि शाश्वती-सर्व कालभाविनी, अथवा अशाश्वती न सर्वकालस्थायिनीति पद्मवर वेदिकायाः शाश्वताशाश्वतत्व विषयमा प्रश्नः, भगवानाह-गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'सिय लेकर सहस्रपत्र तक के जितने भी कमल है, वे सब सर्यात्मना रस्नमय है अच्छे है। इन अच्छादिपदों का अर्थ पूर्वोक्त जमा हो है 'महमार बालिक्वच्छत्त समयाई ये सब उत्पलादि वर्षाकाल में उत्पन्न हुए छत्रक-छता के आकार जैसी वनस्पति विशेष के आकार जैसे ही 'लमणालो पण्णताई' हे श्रमण-आयुग्मन् ! कहे गये है। 'से तेण. हेणं गोधमा ! 'एवं चुच्चइ पउमवरवेदियो' इसी कारण हे गौतम ! इसे पद्मवर वेदिका इस नाम से कहा गया है । अर्थात् इस पद्मवर. वेदिका पदमला वाहल्य है, अतः इसका नाम पद्मवरवेदिका हुआ है 'पउनबर वेदिया णं संते' ! कि लासया असासया' हे भदन्त ? यह पद्मश्वेदिशा क्या शाश्वत है या अशाश्वत है ? ऐमा यह प्रश्न સર્વાત્મના રત્નમય છે, અને અરજી કહેતાં સુંદર છે, આ અાદિ પદોનો અર્થ पूतिशत सम । 'महया मझ्या वासिकाच्छत्त समयाइ' मा Gualla બધા પ્રકારના કમળે. વર્ષાકાળમાં ઉત્પન્ન થયેલા છત્ર છત્રીને આકાર જેવી वनस्पति विशेषना मा॥२ २१.०४ 'समणाउओ पण्णचाइ' श्रम मायुभन् કહેવામાં આવેલ છે.
से तेणटुणं गोयमा ! एवं वुच्चइ पउमवरवेडया' मा १२थी गीतम! તેને પદ્મવર વિદિકા એ નામથી કહેવામાં આવેલ છે. અર્થાત્ આ પદ્મવર વેદિકામાં પનું અતિશય પડ્યું છે, તેથી તેનું નામ પદ્મવર વેદિકા એ शतनु येत छे 'पउमवरवे इयाणं भंते ! कि सासया असाव्या' 8 सपन् આ પદમવર વેદિક શાશ્વત છે કે અશાશ્વત છે? આ પ્રમાણેને આ પ્રશ્ન પદ્મવર વેદિકાના નિત્યપણું અને અનિત્યપણુના સંબંધમાં કરવામાં આવેલ
Page #849
--------------------------------------------------------------------------
________________
अमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.५२ जगत्याः पनवर वेदिकायाश्चवर्णनम् ८२३ सासया सिय असाप्सया' स्याव-कथञ्चित् शाश्पती-सर्वकालयाविनी, स्यावकयश्चित् अशाश्वती-अनित्येति । एकस्मिन् धर्मिणि परस्परविरुद्धधर्मद्वयसमा. वेशश्रवणात् पुनौतमः प्रश्नयनाह-'से केणद्वेण भंते ! एवं वुच्चइ सिय सासया सिय असासा' हे भदन्त ! तत् केन कारणेन एवमुच्यते यत् पद्मवरवेदिका स्यात् शाश्वती स्यादशाश्वती च, नहि एकस्मिन् स्थाणौ स्थाणुत्वपुरुषत्वधर्मों संभवतः विरुद्धत्वात, तदेव हि विरुद्धयो विरुद्धत्वं यदेकस्मिन् धर्मिणि असहभाव इति अन्यथा सर्वधर्माणां सर्वत्र समावेशसंभवेन विरोधकथैवास्तमिया. दिति गौतमस्यावान्तर प्रश्ना, यद्यपि प्रकान्तमतेन विरुद्धयोधर्मद्वयोरेकत्र समा. वेशो विरुद्धः किन्तु अनेकान्तवादमाश्रित्य समर्थयितु भगवानाह- 'गोयमा' पद्मवरवेदिका के नित्यत्व एवं अनित्यत्य के सम्बन्ध में है। इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते है-'गोयमा सिथ लालया-लिय अलासया' हे गौतम ! यह पद्मवरवेदिका कथंचित् शाश्वत है और कथंचित् अशाश्वत है 'सेकेणटेणं भंते' एवं वुच्चद लिय लासया सिय, अलासया' हे भदन्त ! ऐला आप किस कारण से कहते है कि कथंचित् शाश्वत है, और कथंचित् अशाश्वत है ? ऐसा यह प्रश्न श्रीगौतमस्वामीने प्रभुश्री से इसलिए पूछा है कि एक धर्मि में परस्पर विरुद्ध दो धर्मों का समावेश होता नहीं है-नित्यकी अपेक्षा अनित्य और अनित्य की अपेक्षा नित्य विरुद्ध है दो विरोधी धर्मों में यही तो विरुद्वाता है कि वे एफ जगह साथ नहीं रहते है । यदि विरोधी धर्म भी एक जगह साथ २ रहने लगे तो फिर सब धर्म सब में रहने लग जावेंगे इस तरह विरोध छ. या प्रश्न उत्तरमा प्रमुश्री ४ छ , 'गोयमा ! सिय सासया सिय असासया' है गौतम ! । यद्भव२ वही थायित् शाश्वत छ, भने ४थयित् मशाश्वत छ. 'से केणट्रेणं भते! एवं वुच्चइ सिय सासया सिय असामया' હે ભગવન આપ એવું શા કારણથી કહે છે કે પદ્મવર વેદિકા કથંચિત્ શાશ્વત છે અને કચિત અશાશ્વત છે? આ રીતને પ્રશ્ન શ્રીગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને એટલા માટે પૂછે છે કે એક ધર્મિમાં પરસ્પર વિરૂદ્ધ એવાં બે ધર્મોને સમાવેશ થતો નથી, નિત્યની અપેક્ષાએ અનિત્ય અને અનિત્યની અપેક્ષાએ નિત્ય વિરૂદ્ધ છે. બે વિરોધી ધર્મોમાં એજ વિરૂદ્ધ પણું છે કે એક સ્થળે એ બનને એકી સાથે રહેતા નથી. જે બે વિરોધિ ધર્મો પણ એક સ્થળે એકી સાથે રહેવા લાગે તે પછી બધાજ ધર્મો બધામાં રહેવા લાગી જાય આ રીતે તે વિરોધપણુજ નાશ પામી જશે. શ્રીગૌતમસ્વામીની આ વાત સાંભળીને શ્રી મહાવીર પ્રભુ બે વિરેાધી ધર્મોને એક જ સ્થળે સમાવેશ અનેકાન્ત માન્યતામાં
Page #850
--------------------------------------------------------------------------
________________
부
Page #851
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेययोतिका ठीका प्र. ३.३.५२ जगत्था। पशवरवैदिकायाश्चवर्णनम् ८२५ freiयमतेन पर्यायेणाधान्य विवक्षायामशाश्वती पर्यायाणां प्रतिक्षणभावितया कियस्कालभावितया वा विनाशित्वदिति । 'से ते द्वेगं गोयमा ! एवं चुच्चइ सिय सासया सिय असासया' वत्तेनार्थेन तेन कारणेन हे गौतम । एवमुच्यते- पद्म वर - वेदिका स्यात् शाsaat स्यादशाश्वती । तदयमर्थः - इह द्रव्यार्थिकनयवादी taaraष्ठापनार्थमेवं वदति - यह न भवति अत्यन्तासव उत्पादो गगनकुसुमोत्पत्तिवत्, न वा भवति सतो विनाशो यथा जीवस्य अत एवोक्तम्- 'नासतो विद्यसे भावो नाभावो विद्यते सतः' इति । यौ तु येते प्रतिवस्तु उत्पाद विनाशौ तदादिपर्यायों की अपेक्षा - तथा अन्य और पुद्गलों के विघटन एवं आगमन की अपेक्षा वह अशाश्वती है । इम्वका तात्पर्य ऐसा है कि पर्यायास्तिकनय के मतानुसार द्रव्य गौण हो जाता है, और पर्याय प्रधान हो जाती है पर्यायें प्रतिक्षण परिवर्तनरूप अर्थात् बदलनेवाली होने से अथवा freeioभावी होने से विनाश धर्मवाली होती है इसलिये उस अपेक्षा वह अशाश्वती कही गई है। 'से तेण्डेणं गोयमा' एवं वुच्चद्द सिय सासया सिय असासया' इसी कारण हे गौतम । मैंने ऐसा कहा है कि पद्मवर वेदिका कथंचित् नित्य है और कथंचित् अरिश्य है जो द्रव्यार्थिकयवादी हैं वह अपने मन की प्रतिष्ठा करने के लिये ऐसा कहता है कि जो अत्यन्त असतूस्वरूप होता है आकाशपुष्प की तरह कभी भी उत्पाद नहीं हुआ करता है और जो सत् स्वरूप होता है उसका कभी आकाश की तरह विनाश नहीं होता है 'नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः' ऐसा सिद्धान्त है। फिर भी प्रति वस्तु
તથા ખીજા પુદ્ગલાના વઘન અને આગમનની અપેક્ષાથી તે આશાશ્વતી છે એનું તાત્પય' એવુ છે કે પયાર્થિ ક નયના મત પ્રમાણે દ્રવ્ય ગૌણુ થઈ જાય છે. અને પર્યાંય મુખ્ય થઇ જાય છે. અને પાંચ પ્રતિક્ષણે પરિવર્તન રૂપ અર્થાત્ ખદલાઇ જવાવાળા હાવાથી અથવા કિયત્કાલ ભાવી ઢાવાથી વિનાશ धर्मवाणा होय छे. तेथी ते अपेक्षाथी ते अशाश्वती उडेल छे 'से तेणट्टेण' गोयमा ! एब' goes सिय सासया प्रिय अमासया' ते अरथी हे गौतम! મે' એવું કહ્યુ` છે કે પમવર વેદિકા કથ'ચિત્ નિત્ય છે અને કથ'ચિત્ અનિત્ય છે. જે દ્રવ્યાથિક નયવી છે તે પેાતાનામતનું સમન કરવા માટે એવુ કહે છે કે જે અત્યંત અસત્ સ્વરૂપ ક્રાય છે, તેને આકાશ કુસુમની માફ્ક કયારેય ઉત્પાદ થતા નથી અને જે સત્ સ્વરૂપ હાય છે તેને આકાશની માફક यारेय विनाश थने। नथी. 'नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः' मे પ્રમાણે સિદ્ધાંત વચન છે. તે પણ દરેક વસ્તુમાં જે ઉત્પાદ અને વિનાશ
जी० १०४
क
Page #852
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीवाभिगम
।
भवतिरोभावमात्रम्, यथा फणिन उत्फणत्वदिफणत्वे तस्मात्सवै वस्तु नित्यमिति । एवं च द्रव्यार्थिकमतचिन्तायां भवति संशयः किं घटादिद्रव्यार्थतया शाश्वती अथवा कालमेवं रूपा ? इति वतस्तादृशसंशयनिराकरणाय तस्याः स्थितिविपये भगवन्तं भूयः पृच्छति गौतम', 'पउसवरवेइयाणं मंते' पद्मवर वेदिका खलु भदन्त | 'कालगो केवच्चिरं होई' कालतः कियन्तं कालं यावदेवं रूपा भवति - अवतिष्ठते ? इति मनः, भगवानाह - 'गोमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'ण कयाविणासी' न कदापि नासीद - भूतकाले सर्वदेव आसीत् अनादित्वात् 'ण कयाचि णत्थि' न कदापि न भवति सर्वदेव वर्त्तमानकाळे भवति सर्वदेव भावात् 'ण का वि ण भविस्स' न कदापि न भविष्यति किन्तु भविष्यत्कालेऽपि सर्वदेव भविष्यति अपर्यवसितत्वात् तदेव कालत्रयचिन्तायां में जो उत्पाद विनाश प्रतीत होते है । वे आविर्भावतिरोभावरूप ही है | जैer उत्पाद विनाशरूप आविर्भावमिरोभाव सर्पका उत्कण और विफण अवस्था में प्रतीत होता है अतः यही सिद्धान्त ठीक है । कि समस्त वस्तुएं नित्य है । इस तरह से द्रव्यार्थिक नय की इस मान्यता में ऐसा संशय होता है कि घटादिकी तरह यह पद्मवर वेदिका शाश्वती है ? अथवा काल में यह हमीप से रहने के कारण शावनी है ? इस प्रकार के संशय होने पर श्रीगोत स्वामीने प्रभुश्री से ऐसा पूछा है 'उमराणं भंते ! कालओ केवचिवरं होद' हे भदन्त । पद्मवर वैदिक काल की अपेक्षा कबतक इस रूप में रहती है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं। 'गोयला ! ण क्या चि णाली ण कचा वि णस्थिणयाविण भविस्स' हे गौतम | यह पद्मवर वेदिका पूर्व में नहीं थी દેખાય છે તે આવિર્ભાવ તિાભાવ રૂપજ છે, જે ઉત્પાદ અને વિનાશ રૂપ અવિર્ભાવ તિભાવ સર્પ' ઉત્કૃણ-*છા ફેલાવે ત્યારે અને વિષ્ણુ સૂક્ષ્ સ કાચીલે ત્યારે પ્રતીત થાય છે. જેથી એજ સિદ્ધાંત ખરાખર છે કે સઘળી વસ્તુએ નિત્ય છે. આ પ્રમાણે દ્રવ્યાર્થિક નયની આ માન્યતામાં એવા સદેઢ થાય છે કે ઘટાદિની જેમ આ પદ્રુમાર વૈશ્વિકા શાશ્ર્વતી છે ? અથવા સદા સકળ કાળમાં એ એજ રૂપે રહેવાના કારણુ શાશ્વવતી છે ? આ રીતના સ ંદેઢ थवाथी श्रीगौतमस्वामी से प्रभुश्रीने या प्रभाना प्रश्न पूछे छे 'पटप्रवर वेडया णं भते । कालओ केवचिवर होई' हे भगवन् भवर वेहि अजनी અપેક્ષાએ કયાં સુધી આ પ્રમાણેની રહે છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી श्रीगोतमस्वामी हे हे हे 'गोयमा ! ण कयात्रि णास्री ण कयावि णत्थि ण कयावि ण भविस्सव' हे गीतभ | आा यहूमवर वेट्ठिा पडेदान ती तेभ नथी।
८५६
Page #853
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीका २ ३.३ सू.५२ जगत्या पावरवैदिकायाश्चवर्णनम् ८२७ नास्तित्वप्रतिषेधं विधाय सम्प्रति-विधिाखेनास्तित्वं प्रतिपादयति-'भुवि च' इत्यादि, 'भुवि च भवइ य भविस्तइ य' अधूच्च भवति च भविष्यति च, त्रिका लावस्थायित्वात् 'धुवा' ध्रुवा-मेदिवत् सदा स्थायित्वाद ध्रुदत्वादेव 'णियया' नियता सर्वदेव स्वस्वरूपेऽवस्थितत्वाल, नियतत्वादेव च 'सासया' शाश्वतीशश्वद्भवन स्वभावत्वात्, शाश्वतत्वादेन च 'अक्खया' न विद्यते क्षयो यथोक्त स्वरूपाकारपरिभ्रं शो यस्याः साऽक्षया, सस्त गङ्गासिन्धु प्रवाह प्रवृत्तावपि पौण्डरीकहदावानेजपुद्गलविचटनेऽपि तावत्ममाणकान्यपुद्गलोच्चटनसंभवाद, अक्षयत्वादेव 'अब्बया' अव्यया अव्ययशब्दवाच्या, ईपदपि स्वरूप चलनस्य कदाचिदपि असंमवात, अध्ययत्वादेव 'अवष्टिया' अवस्थिता मानुपोत्तरऐसा नहीं है वर्तमान में यह नहीं है ऐला भी नहीं है और भविष्य. काल में यह नहीं रहेगी ऐसा भी नहीं है। किन्तु 'सुर्वि च भवद य भविस्सइ य' पहिले भी यह पद्मधरवेदिकाथी, अब भी है और आगे भी यह सदा रहेगी इस प्रकार से इलका त्रिकालची अस्तित्या है अतः यह 'धुवा' मेरु आदि की तरह ध्रुव है और ध्रव होने से ही यह 'णियया' अपने स्वरूप में नियत है। नियत होले से ही यह 'सासया' शाश्वत है शाश्वत होने से ही यह 'अक्खया' गंगासिन्धु के प्रवाह में प्रवृत्त पौण्डरीक हदकी तरह अनेक पुहमलों का विघटन होने पर भी उतने प्रमाण के अन्य पुशलों के मिल जाने से अक्षम है इसके स्वरूप का कभी विनाश नहीं होता है अक्षय होने से ही यह 'अव्वया' अध्यय है-अव्यय शब्द वाच्य है क्योंकि थोडे से भी रूप में यह अपने स्वरूप से कभी भी चलिन नहीं होनी है अध्यय होने से ही એ વર્તમાનમાં નથી એમ પણ નથી અને ભવિષ્યમાં એ નહીં હોય એમ ५) नथी. ५२ तु 'भुविच भवइ य भविस्सइय' मा ५६१२ वा पहेला પણ હતી વર્તમાનમાં પણ છે, અને ભવિષ્યમાં પણ એ સદા રહેશે. આ રીતે તેનું અરિત ત્રણે કાળમાં છે. તેથી હુવા મેરૂ વિગેરેની જેમ ધ્રુવ છે. અને ध्रुव डावाथी से 'णियया' पाताना स्व३२ नियत छे. नियत पाथी४ से 'अक्खया' 111 सिधुना प्रवाहमा प्रवृत्त योनी म मने४ पुसલોનું વિઘટન થવા છતાં, પણ એટલા પ્રમાણના બીજા પુદ્ગલે મળી જવાથી અક્ષય છે, તેના સ્વરૂપને વિનાશ કયારેય પણ થતો નથી. અક્ષય હોવાથી ते 'अव्वया' भव्यय छे. भव्यय श६ पान्य छ, भ. थामेवा १३५मा પણ તે પિતાના સ્વરૂપથી કયારેય પણ ચલિત થતી નથી. અવ્યય હેવાથીજ मे पाताना प्रभामा ‘अवडिया' मानुषात२ पतिया डा२ २२स समुद्र
Page #854
--------------------------------------------------------------------------
Page #855
--------------------------------------------------------------------------
________________
८२९
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ इ. सू.५३ वनषण्डादिक वर्णनन् अंजणेइ वा खंजणेइ वा कजलेइ वा मसीइ वा गुलियाइ वा गवलेइ वा गवलगुलियाइ वा अमरेइ वा भमरावलियाइ वा भमरपत्तगयसारेइ वा जंबूफलेइ वा अदारिइ वा परपुढेइ वा गएइ वा गयकलभेइ वा कण्हसप्पेइ वा कण्हकेसरेइ वा आगासथिग्गलेइ वा कण्हासोएइ वा किण्हलपेइ वा किण्हकणवीरेइ वा कण्हबंधुजीवएइ वा, भवे एयारूने लिया, गोयमा ! जो इण8 समटे, तेसिं णं कण्हाणं तणाणं मणीण य इत्तो इयराए चेव कंतयराए चेक पियतराए थेव मण्णुषणतराए चेक सणासतराए चेव वण्णेणं पन्नत्ते । तत्थ पंजे ते णीलगा तणाय मणीय तेसिं पं हमेयारूचे षण्णावाले पन्नते, से जहाणामा सिंगेड वा भिंगपत्तेइ वा चासेइ वा चालपिच्छेइ वा सुएइ वा सुयषिच्छेइ वा णीलीइ वा पीलीभेएइ वा जीलीगुलियाइ वा लालाएइ वा उच्चंतएइ वा वणराई वा हलहरवलणेइ वा मोरग्गीवाइ वा पारवयरगीवाइ वा अयलीकुसुमेइ वा अंजणलेसिगाकुसुमेह का जीलुप्पलेइ वा णीलासोएइ वा णीलकणवीरेइ वा, णीलबंधुजीवएइ वा, सवे एगारूवे सिया ? णो इणढे लमटे, तेसि णं णीलगाणं तणाणं मणीण य एतो इटलराए वेत्र कंततराए चेव जाव वण्णेणं पन्नत्ते, तत्थ जे ते लोहियगा तणाय मणी य, तेलि णं अयनेयारूचे वागावाले पन्नले, से जहा णामए सलगाहरेइ वा उरबसलाहरइ वा परसाहाइ वा वराहरुहिरेइ वा महिसरुहिरेइ वा बालिंदगोवएइ वा बालदिवागरेइ वा संझन्भरागेइ वा, गुंजद्धराएइ वा, जयहिंगुलएइ वा सिलप्पवालइ वा पवालंकुरेइ वा लोहितक्खमनीइ वा लक्खारसेइ वा किमिरागेइ वा रत्सकंवलेइ वा चीणपिटरासीइ वा जायसुय
Page #856
--------------------------------------------------------------------------
Page #857
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेययोतिका ठीका.प्र. रेउ. ३ . ५३ वनपण्डादिकवर्णनस्
८३१
"
11
सोइ वा सेयकणवीरेइ वा सेय बंधुजीवेद् वा भवेएयारुवे सिया ? णो इट्टे समट्टे, तेसि णं सुकिल्लाणं तणाणं मणीणय एतो इहतराए चैव जाव वण्णेणं पष्णन्ते ॥ तेसि णं भंते ! ताण य मणीणय केरिसए गंधे पन्नते ? से जहा णामए कोटूपुडाण वा पत्तपुडाण वा चोयपुडाण वा तगरपुडाण वा एलापुडाण वा चंदनपुडाण वा कुंकुमपुडाण बा उसीरपुडाण वा चंपगपुडाण मरुयगपुडाण वा दसणगपुडाण वा जाइपुडाण वा जुहियापुडाण वा मल्लिय पुडाण वा हाणमल्लिय पुडाण वा वासंतियपुडाण वा केयईपुडाण वा कप्पूरपुडाण वा अणुवायंसि उन्भिजमाणाण य णिब्भिजमाणाण य कोट्टेजमाणाण य रुविजमाणाण य उक्तिरिजमाणाण य विकिरिजमाणाण य परिभुजसाणाण य भंडाओ वा भंडं साहरिज्जमाणाणं ओराला मणुष्णा घाणमणणिव्वुडकरा सव्वओ समंता गंधा अभिणिस्सर्वति, भवेश्यारूचे सिया ? णो इट्टे समट्ठे, तेसि णं तणाणं मणीण य एतो इट्टतराए चेव जाव मणामतराए चेव गंधे पण्णत्ते । तेसि णं भंते ताण य मणीय केरिस फासे पन्नचे, से जहा णामए आईइ वा रूएइ वा बूरेइ वा णवणीएइ वा हंसगब्भतूलीइ वा सीरीसकुसुमणिचएइ वा वालकुमयपत्तरासी वा भवेयारूत्रे लिया? जो इगट्टे समट्ठे, तेसि णं तणाणं य म्हणीणय एत्तो इटुतराए क्षेत्र जाव फासे पन्नत्ते ॥ तेसि णं भंते! तणाण पुव्वावरदाहिण उत्तरागतेहिं वाएहिं मंदायं मंदायं एइयाणं वेइयाणं कंपियाणं खोभियाणं वालियाणं फंदियाणं घट्टियाणं उदीरियाणं केरिसए सहे पत्र से? से जहाणामए सिवियाए संद्माणियाए वा रहवरस वा सछत्तस्स सज्झग्रस्त सघंदयस्त सतोरणवरस्स सर्गादिघोसस्स सखिखि
Page #858
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवानिगम णिहेमजालपेरंतपरिक्खित्तस्ल हेमवयखेत्तचित्तविचित्ततिणिसकणगनिज्जुत्तदारुयागस्स सुपिणिद्धारकमंडलधुरागस्त कालायससुझयणेमिजतकम्सस्स आइण्णवरतुरगसुसंपउत्तस्स कुसलणर छेयसारहि सुसंपरिगहियस्त सरसत बत्तीसतोरणपरिमंडियस्त सकंकडवडिलगल लवावसरपहरणावरणमरियस्ल जोहजुद्धसज्जत रायंगणंसिवा अंतेपुरसि वा रस्मंलि वा मणिकोट्टिमतलंसि वा अभिक्खणं अभिक्खणं अभिघटिजमाणस्त वा णियहिमाणस्त वा जे ओराला मणुण्णा कण्णमणणिव्वुइकरा सव्वओ समंता सदा अभिणिस्तवंति, अवेएयारूवे सिया ? जो इणट्रे समटे । से जहाणामए वेयालियाए वीणाए उत्तरमंदामुच्छियाए अंके सुपइट्रियाए बंदणसारकोणपरिघट्टियाए कुसलगरणारिसुसंपरिग्गहियाए पदोसपच्चूलकालसमयंसि मंद मंद एइयाए वेइयाए कम्मियाए खोभियाए चालियाए फंदियाए घट्टियाए उदीरियाए ओराला मणुण्णा कण्णमणणिव्वुइकरा सव्वओ समंता सदा अभिणिस्तवंति, अवेएयारूवे सिया ? णो इणटे लमटे। से जहा णामए किण्णराण वा किंपुरिमाण वा सहोरगाण वा गंधवाण वा सहलालवणगयाण वा गंदणवणगयाण वा, सोमणलवणगयाण वा पंडगवणगयाण वा हिमवंतसलयमंदरगिरिगुहलमण्णागयाण वा एगओ संहि. याणं समुहागयाणं समुत्रविटाणं संनिविटाणं एसुइयपक्कीलियाणं गीयरइगंधवहरिसियमणाणं गजं पजं कत्थं पयवद्धं पायवद्धं उक्खित्तयं एकत्तयं मंदायं शचियावसाणं सत्तलरमलण्णागयं अट्टरससुसंपउत्तं छदोसविप्पमुकं एगोरसगुणालंकारं अटूगुणोववेयं गुंजंतवंसकुहरोवगूढं रत्तं तिठाणकरणसुद्धं महु समं सुल
Page #859
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीका भ.३ ४.३ २.५३ वमपण्डादिकत्रनम्
८३३ लियं सकुहरगुंजंतसतंती सुमंउत्तं तालसुसंपउत्तं ताललमं लयसुसंपउत्तं गहसुसंप उत्तं मणोहरं माउरिभियपयसंचारं सुरई सुणई वरचारुरूवं दिव्यं गेयं पगीयाणं भवेण्यारूने लिया, हंता गोयमा ! एवंभूए लिया ॥सू०५३॥
छाया-तस्याः खलु जगत्या उपरि बहिः पावरवेदिकाया अत्र खल्ल एको महान वनषण्डा प्राप्त देशोने द्वे योजने चक्रवालविष्कम्भेण जगती समकः परिक्षेपेण कृष्णः कृष्णावभासो यावत् भनेकशश्टरथयानयुग्यशिविकास्यन्दमानिकापतिमोचनाः सुरम्याः प्रासादीयाः ४, तस्य खलु वनपण्डस्यान्तबहुसभरमणीयो भूमिभागः प्रशप्तः स यथानामकः आलिङ्ग पुष्करमिति वा मृदङ्ग पुष्करमिति वा सरस्खलमिति वा करतलमिति वा आदर्शमण्डलमिति वा चन्द्रमण्डलमिति वा सूर्यमण्डलमिति वा उरभ्रचर्म इति वा वृषभचर्म इति वा वराहचर्म इति दा सिंहचर्म इति वा व्याघ्रचर्म इति वा वृकचर्म इति वा द्वीपिचर्म इति वा, अनेकशङ्कुकीलकसहस्रविततः, आवर्त प्रत्यावतश्रेणि प्रश्रेणि स्वस्तिक सौबस्तिक पुष्यमाणवर्द्धमानक उत्स्याण्डकमकराण्डक जारमारपुष्पावलि पद्मरत्रसासारवरङ्ग वासन्तीपद्मलताभक्तिचित्रैः सच्छायैः समरीचिकः सोधोते नाविधएचवणे, स्तृणैध मणिमियोपशोभितः तद्यथा-कृष्णैर्यावच्छु क्लेः। तत्र खलु यानि तानि कृष्णानि तृणानि च मणयश्व, तेषां खल्ल अयमेतावद्रपो वर्णावाप्तः प्रज्ञप्त सुधथा नामका-जीमूत इति दा, अञ्जनमिति वा खानमिति वा गुलिका इति दा गवमिति वा अवलगुटिका इति भ्रमर इति वा भ्रमराळविकेनि वा भ्रमरपत्रगतसार इति वा जम्बूफलामिति वा आर्द्रारिष्ट इति वा परपुष्ट इति वा गज इति वा गजकलम इति वा कृष्णसर्प इति वा कृष्ण केसर इति वा आकाशथिग्गलमिति का कृष्णाशोफ इति वा कृष्णकणवीर इति वा, कृष्णवाधु जीव इति वा, मवेदेताबदएः स्याद ? गौतम ! नायसर्थः समर्थः, तेषां खल कृष्णानां तृणानां मणीनां चेत, अष्टनरक एव कान्ततरक एक प्रियतरक एव मनोज्ञतरक पल मन आमनरक एव वर्णेन प्रजप्तः। तत्र खल्ल यानि पनि नीलानि तृणानि च मणयश्च, तेषां खल्ल अययेतावस्पो वर्णावामः प्रजन्तः तथानामको-भृङ्ग इति वा भृङ्गपत्रमिति वा चाप इति चापपिच्छमिति वा शुरु इति वा शुभपिच्छ, मिनि वा नोळी इति वा नाली भेद इति वा, नीलीगुटका इति वा श्यामक इति वा उच्चंतग इति वा बलराजी इति वा हलधरवसनमिति ग मयूरग्रीवेति वा पारावतम्रीवेति वा अतमीकुसममिति वा थञ्जन केशिका कुसुममिति वा नीलो
जी९ १०५
Page #860
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीयामिगर स्पलमिति वा नीलाशोक इति वा नीलझणवीरहति वा नीलवन्धुजीवक इति वा भवेदेवावपाः स्याद ? नायर्थः समर्थ, तेषां खल्लु नीलानां तृणानी मणीनां च इत इष्टतरक एन कान्ततर एवं यावर्णेन प्रज्ञप्ता, तत्र यानि तानि लोशितकानि तृणानि च मणयश्व तेषां खलु अयमेतावदूषो वर्णावार प्राप्तः तद्यथा नामकः शशकरुधिरमिति चा, उरभ्ररुधिरमिति नरधिरमिति वा बाराहरुधिरमिति वा, महिपरुधिरमिति चा वालेन्द्रगोपक इति वा बालदिवाकर इति वा रान्ध्याभ्रराग इतिवा, गुञ्जा राग इति वा आत्यहिङ्गुलुरु इति वा, शिळापासमिति वा पदालावर इति वा लोहिताक्षमणिरिति वा लाक्षारमा प्रति वा कृमिराम इति वा रक्तकम्वल इति वा चीनपिष्टराशिरिति वा जपाकुसुगमिति का, पारिजातकुसुममिति वा रक्तोत्पकमिति वा, रक्ताशोक इति वा, रक्ताणवीर इति वा, रक्तवन्धुजीवक इलिवा, भवेदेता. वद्रूपः स्याद ? नायसर्थः समर्थः, तेषां खद्ध लोहितकानां कृणानां मणीनां च इतइष्टतरक एस यावर्णन मशः। सत्र खलु गानि तानि हारिद्रकाणि तणानि च मणयश्च तेषां खलु अयमेतावद्रुपो वासः प्रज्ञाप्ता, उद्ययानायका चम्पक इति वा चम्पकत्वगिति बा, चम्पक मेद इति ना हन्द्रिति वा हरिद्राभेद इति वा, हरिद्रा. गुटिका इति वा हरितालिकति दा हरितालिशाभेद इति वा हरितालिकागुटिति वा, चिकुर इति वा, चिकुरागराग इति त्रा, वरकनक इनिबा, बरकनसनिघर्ष इति वा, सुवर्णशिल्पिक इनि वा, दरगुरुपत्रासनमिति वा गल्लनीकुमममिति बा, सकुसुममिति वा, कूष्माण्डिका कुसुममिति दा. कोरण्ट सदाम या इति रडवडामुममिति वा, घोपातकी कुसुममिति वा, सुवर्णधिकासुममिति ना, मुइरिण्यकामुममिति वा कोरण्टकवरमाल्यदाम इति वा बीयाकुमुममिति वा पीताशोक इति वा, पीतकणवीर इति वा पीतबन्धुनीक इति वा, मवेदेतावः स्यात् ? नायमर्थः समर्थः, तेषां खल हारिद्राणां तृणानां मणीनां च इत्त इष्टतरक एव यावद्वर्णन प्रक्षप्तः । तत्र खल्ल यानि तानि शुक्लानि तृणानि च मणयक्ष तेषां खलु अगमेताद्रपो वर्णावासः प्रज्ञप्तः, तथानामक: अग इति वा शङ्ग इति वा चन्द्र ति वा कुन्ट इति वा कुमुद इति वा उदकरन इति वा दधिघनमिति वा, क्षीरमिति दा, क्षीरपूरमिति वा, हंसावलीलिया, शारदिक वालारक इति वा मातधौतरूप्यपट्ट इति वा शालिपिष्टगशिरिति वा कुमुहराशिरितिका भूपाछेवाडीति का पेडणभिजे इति वा विसमिति वा मृमालिका इति वा गजदन्त इति वा लवंगदलमिति का पौण्डरीक दलमिति वा सिन्दवारमालपदाम पति श्वेतामोस इति श. तहाणवीर इति वा श्वेतबन्धुजीब इति वा, भवेदेतास्ट्रपः स्यात् ? नायमर्थः समर्थ तेपां खलु शुक्लानां तृणानन मणीनां चेत इष्टनरक एन यावद्वर्णेन प्रज्ञतः । तेषां खलु भदन्त ! तृणानां मणीनां च कीशो गन्धः प्रज्ञप्तः ? तद्यथा नामकः कोटपुटानां वा पत्रपुटानां वा,
Page #861
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रद्योतिका का म.३ उ. ३ . ५३ वनपण्डादिकवर्णनम्
૮ફેબ
,
चोयकपुटानां वा, तगरपुटानां वा एलापुटानां वा चन्दनपुटानां वा कुंकुमपुटानी वा, उशीरपुटान वा चम्पकपुटानां वा वरुवपुटाना दमनपुटानां वा जाती पुटानां वा, यूथिकापुटानां वा, मल्लिकापुटानां वा नवमल्लिकापुटानां वा, केतकीपुटानां वा, कर्पूरपुटानां वा, अनुवाते उद्भिद्यमानानां वा, निर्भिद्यमानानां वा, कुटयमानानां वा, रुविज्जमानानां वा उत्कीर्यमाणानां वा, विकीर्यमाणानां वा, परिभुज्यमानानां दा, भाण्डाद् भाण्डं संह्रियमाणानाम् उदारा मनोज्ञा घ्राणमनो निर्वृत्तिकराः सर्वतः समन्तात् गन्धा अभिनिवन्ति, भदेदेखावद्रूपः स्यात् ? नायमर्थः समर्थः, देषां खलु तृणानां मणीनां चेतः इष्टतरक एव यावद् मन आमतरक एव गन्धः भाः । वेषां स भदन्त । तृणानां मणीनां च कीदृशः स्पर्शः प्रज्ञतः ? उद्यधानापक - आजिनकमिति वा, रुतमिति वा, बूर इति वा, नवनीतमिति वा, सगर्भतुलीति वा, शिरीषकुसुमनिचितमिति वा, बालमुकुद पत्रराशिरिति वा भवेदेतावद्रयः स्यात् ? नायमर्थः समर्थ, तेषां तृणानां मणीनां datष्टतरक एव यावत् स्पर्शः प्रज्ञतः । तेषां खल भदन्त । तृणानां पूर्वापरदक्षि णोत्तरागतैवतैर्मन्दं मन्द मे जिवानां व्येजितानां कम्पितानां क्षोभितानां चालितानां स्पन्दितानां घट्टितानामुदीरितानां कीदृशः शब्दः प्रज्ञप्तः वद्यथानाषकः शिविकाया वा स्यन्दमानिकाया या, रथवरस्य वा. लच्छनस्य सघण्टाकस्य सतोरणवरस्य सनन्दिघोषस्य सकिंकिणी हेमजालपर्यन्तपरिक्षिप्तस्य हैमवतक्षेत्र चित्रविचित्र तैनिशकतक नियुक्तद्दारुकस्य सुपिनद्धारकमण्डलघुकस्य काळाय ससुकृतनेमियन्त्रकर्मण आकीर्णवर-तुरनसुसंप्रयुक्तस्य कुशलन र छेकसारथि संपरिगृहीतस्य शरशतद्वात्रिंशत्तोरणपरिमण्डितस्य सकंकटावतंसकस्य सचापशरमहरणावरण भृतस्य बोधयुद्धसज्जस्य राजाङ्गणे वा अन्तःपुरे वा, रम्ये वा मणिकुट्टिमतले अभीक्ष्णमभीक्ष्णमभिघटयमानस्य अभिनिवर्त्त्यमावस्व वा ये उदरा मनोज्ञाः कर्णमनोनिवृतिकराः सर्वतः समन्तात् शब्दाः अभिनिःस्रवन्ति भवेदेतावद्रूपः स्यात् ? नायमर्थः समर्थः तद्यथानामकः नैतालिक्या श्रीगाया उरुरमन्दा मूर्च्छिताया अङ्के समतिष्ठाया चन्दनसारकोणपरिघट्टिताया: कुगलनरनारीनु मं परिगृहीतायाः प्रदोष प्रत्यूषकालसमये मन्दं मन्दमेोजितायाः व्येजितायाः कर्मितायाः क्षोभितायाः चालितायाः स्पन्दिताया घहितायाः उदीरिताया उदारा मनोज्ञाः कर्णमनोनि तिकराः सर्वतः समन्तात् शब्दा अमिनि सन्ति भवेदेतान्द्रपः स्यात्, नायमर्थः समर्थः, तद्यथानामकः किंनराणां वा किंपुरुषाणां वा, महोरगाणां वा, गन्धर्वाणां वा, भद्रावनगतानां वा नन्दनवनगतानां वा, सीमनसवनगतानां पण्डकवनगतानां वा हिमवतमळ्यमन्दरगिरिगुहासमागतानां वा, एकतः संहितानां संमुखागतानां समुपविष्टानां घमुदितमक्रीडितानां गोवरविगन्धर्वदर्पितमनसां
2
Page #862
--------------------------------------------------------------------------
________________
८३६
जीवामिगमसूत्र गधं पधं कथ्य पदवद्धं पादबद्धमुरिक्षा प्रवृत्त मन्दं रोचितावसानं सप्तस्वर समन्वागतमष्टरसमुसंपयुक्त पदोपविषमुक्तये कादशगुणालङ्कारमष्टगुणोपेतम्, गुञ्जद् वंशकुहरोएगृढम् रक्तं विम्यानकरणशुद्धं मधुरं समं मुललितं सकुहरगुज द्वंशतन्त्रीमुसंपयुक्तं तालसुसंपयुक्तम्. बालयसम्, लयसुसंमयुक्त ग्रहसुसंप्रयुक्त मनोहरं मृदुकरिभितपदसञ्चारं सुरति सुनदि वरचालरूपं दिव्यं गेयं प्रगीतानाम्, भवतावद्रूपः स्यात् ? हन गौतम ! एवं भूतः स्यात् ९० ५३॥ ____टीका-'तीसे णं जगईए उपि तस्याः खलु जगत्याः माकार कल्पाया उपरि 'बाहि प उमवरइयाए बहिः पदमरने दिकाया-वहिवर्तीप्रदेशः 'एत्य णं एगे महं वणसंडे पन्नत्ते' अत्र-अस्मिन् खलु पहानेको वनपण्डः प्रज्ञप्त:-कथितः उत्तमोत्तमानामने कजातीयानां वृक्षाणां समुदायो वनपण्डः, तदुक्तम्
'एगजाइएहि सुक्खेहि वणं अणेगनाइएहि उसमेहिं रुक्खेहि वणसं' 'एक जातीयवृविनम्, अनेकजातीयरुत्तमवृक्षवनपण्ड इतिच्छाया ।।
इस तरह से पनचर वेदिका शब्द की प्रवृति का निमित्त प्रकट करके अघ सूत्रकार उस में जो वनखण्ड आदिक है-उन्हें दिखलाने केलिये सूत्र कहते है। 'तीसे णं जगईए उपि याहि पउमवरवे दियाए एस्थ गं' इत्यादि ।
टीकार्थ-उस्ल प्राकार कल्प जगती के ऊपर वर्तमान पद्मबर वेदिका के थाहर जो प्रदेश है उस प्रदेश में 'एगे महं वणसंडे पगत्ते' एक विशाल वनखण्ड है जहां पर अनेक प्रकार के उत्तमोत्तम वृक्षों का समु. दाय होता है उस स्थान का नाम बलरखण्ड है तदुक्तम्-'एकजाइएहिं रूखेहि घणं प्रणेगजाइएहिं उत्तमेहि रुखेहिं षणसंडे' एक जाति के के वृक्ष जिल स्थान पर होते हैं उसका नाम वन है। और अनेक जाति के वृक्ष जिस स्थान पर होते है । उसका नाम वनखण्ड है 'देसूणाई
આ રીતે પદ્મવર વેદિકા શબ્દની પ્રવૃત્તિનું નિમિત્ત પ્રગટ કરીને હવે સૂત્રકાર તેમાં જે વનખંડ વિગેરે છે તે બતાવવા નીચે પ્રમાણે સૂત્ર કહે છે. 'तीसे णं जगतीए उप्पि वाहिं पउमवरवेश्याए एत्थ गं' त्यादि
ટીકાર્ચ–એ પ્રકારના જગતીની ઉપર વર્તમાન પદ્મવદિકાની બહારને २ प्रदेश छे से प्रदेशमा ‘एगे मह वणस डे पण्णत्ते' सेविण वनमछे.
જ્યાં અનેક પ્રકારના ઉત્તમોત્તમ વૃક્ષેના સમુદાય હોય છે. એ સ્થાનનું નામ बनम छे. 'तदुक्तम्-एकजाइएहि रुक्खेहि वणं अणेगजाइएहि उत्तमेहि रुक्खेहि वणस'डे' मे तना वृक्ष २ स्थान५२ हाय छे, तेतुनाम न छे. અને અનેક જાતના વૃક્ષે જે સ્થાન પર હોય છે તેનું નામ વનખંડ છે,
Page #863
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका ४. ड.
. ५३ वनपण्डादिकवर्णनम्
८३७
'देखणाई दो जोयणाई चक्कवाल विक्खभेणं' सचैकैको बनपण्डो देशोने द्वेषोजने चक्रवालविष्कम्भेण 'जगती समए परिक्खेत्रेण' जगती समको जगत्याः समानः परिक्षेपेण, स च चनपण्डः परिक्षेपेण जगती परिमाण इत्यर्थः । स च वनपण्डः कथं भूतस्तत्राह - 'किन्हे' इत्यादि, 'किण्हे' कृष्णः छाया प्रधानत्वात्, इह खलु वृक्षाणां प्रायो मध्यमे वयसि वर्त्तमानानि पत्राणि नीलत्वाहुल्येन कृष्णानि भवन्ति तादृशपत्र संलब्धत्वात् वनपण्डोऽपि कृष्णः । न चोपचारमात्रस्वाद् वनपण्डः कृष्ण इति व्यवह्रियते विन्तु कृष्णरूपेणावभासमानत्वात्कृष्ण स्तत्राह - 'किण्होभासे' कृष्णावभासः, यावत्के भागे कृष्णानि पत्राणि सन्ति तावत्के भागे स वनण्डः कृष्णोऽचमासते, अतः कृष्णोऽवभासो यस्य स कृष्णाव भासो वषण्डः 'जाव अणेम सगडरह०' इत्यादि, अत्र यावत्पदनाद्याणि पदानि यथा - 'नीले नीलोमासे इरिए हरिओमा से सीए सीमोमासे गिद्धे विद्धोमासे दो जोयणाहं चक्क बालविक्ख मेणं जगती समए परिवखेवेण' यह बन खण्ड कुछ कम दो योजन का है और इसका चक्रबाल विष्कम्भ जगती के चक्रवाल विष्कम्भ के जैला है वह वनखण्ड किस प्रकार का है उसका वर्णन करते है ० 'किन्हे किन्होभासे जाव अोग सगड रह० " इत्यादि । छाया प्रधान होने से यह बनखण्ड कृष्ण है वृक्षों के प्रायः - मध्यमवन में वर्तमान पत्र नील रोने है इस कारण से उस वनखण्ड को कृष्ण कहा गया है क्योंकि इस अवस्था में वह कृष्ण रूप से अवभाति होता है वही बात 'किन्होभासे' इस पद द्वारा सूचित हुई है। जितने भाग में उस बनवण्ड में कृष्ण पत्र है उतने भाग में वह बनखण्ड कृष्णरूप से प्रतिभासित होता है। यहां यावत्पद से जिन विशेषणों का ग्रहण हुआ है उन विशेषणों की व्याख्या इस
'देसूणाई दोजोयणाई चक्कालवित्रख भेणं जगती समए परिवखेवेणं' मा वनખડ કઈક ક્રમ એ ચેાજનના હૈાય છે. અને તેનુ ચક્રવાલ ત્રિષ્કલ જગતીના ચક્રવાલ વિષ્ણુભની જેવા છે. તે વનખ`ડ દેવા પ્રકારના છે? તેનૢ હવે સૂત્રકાર वनउरे छे. 'किन्हे किन्होभासे जाव अणेग सगड़ रह०' त्याहि छाया प्रधान હેવાથી આ વનખંડ કૃષ્ણ વણુનુ છે. વૃક્ષેાના પત્રા પ્રાયઃમધ્યમ અવસ્થામાં વર્તમાન હાય ત્યારે નીલવ નુ હાય છે. આ કારણથી એ વનખડને કૃષ્ણ કહ્યુ છે. કારણકે એ અવસ્થામાં તે કાળા વણુ થી Àાભાયમાન હાય છે, એજ વાત 'किन्दोभासे' से यह द्वारा सूयवेस छे भेटला लागभां से वनउमां द्रुष्यु પત્ર! હાય છે એટલા ભાગમાં એ વનખંડ કૃષ્ણવ થી પ્રતિભાસિત થાય છે. અહિયાં ચાપદથી જે વિશેષાના સ'થઢ થયા છે, એ વિશેષજ્ઞેાની વ્યાખ્યા
Page #864
--------------------------------------------------------------------------
________________
८३८
जीवामिगमस्य तिचे तिनोभाले किण्ह जिहन्छाए, नीले नीलच्छाए हरिए रियच्छाए सीए सीयच्छाए घगाडि पडच्छाए रम्ने सहामेह निरंवभूए । ते णं पायका मूलमंता खधमंता तयामंता सालमंता पवालमता पत्तमता पुष्पता फलमता चीयमता अणुपुरसुनाइरुलाट नाव परिणया पाखंधी अणेगसाहप्पलादविडिमा अणेग परव्यामसुपलारिया गेज्नघणविउलट्टखंधा अच्छिपत्ता अदिरकपना अवाईणपता निर्धयजरढपंडुरपत्ता णबहरिभिसंतपत्तंधयारगंभीरदरिसणिज्जा उवविणिगायण तरुणपत्तनल्लवलोमलुज्जल चलंत किसलय सुकुमालपदालसोदियदरंकुरग्गसिहरा णिच्चं कुमुरिया णिचं मउलिया णिच्चे थवइया णिच्च गुम्मिया निच्चं गोच्छिया णिच्वं जगलिया णिच जुयलिया णिच्च विणमिया णिच्च पणमिया णिच्च मुखिय मउलिय वइय थवइय गुम्मिय गोच्छिय नमलिय विणमिय पणमिय मुवित्तपडिमंजस्विडिसगधरा मुयवरहिणमयणसलामा कोइलकोरग सिंधारगकोडलजीवजीवाणदिसुटकाविलपिंगलक्खकारंडवचकयागकलहंससारसाणे. गसउणगानहुणविरचिय सद्दुन्नध्य महुरसरनाइगमुरम्मा संविडियदप्पियममरमहुपरीपकरा परिलीयमाणमत्त छप्पयकसमासबकोलसहुरगुमण्डनायंतगुजंत देसमागा अमितरपुकफला वाहिरपत्तछन्ना ओछन्न परिग्छन्ना गीरोगा अकं. हमा साउफला गिद्ध फला नाणाविदगुच्छगुम्ममंडयगसोध्यिा विचित्तमुह केउबहुला वावीपुक्खरिणीदोहियासु य निवासिय रम्मजालघरगा पिडियनीहारिमं सुगंधि सुहसुरभि मनोहरं महया गंधद्धणि निच्च मुंचमाणा सुसेउ केउबहुला' इति । एतानि यावत्पदसंगृहीतानि पदानि व्याख्यायन्ते । ___ 'नीले नीलोभासे' नीलो नीलावभात:-दरितत्वमतिकान्तानि कृष्णत्वसंपा सानि पणी ने नीलानि भान्ति सद्योगाद् दनपण्डोऽपि नीला, न चैतदुपच.रमात्रेण प्रकार से है। हदिए हरिओमाले हरितो हरितावभास: कहीं २ यह बनखण्ड क्ति है, क्योंकि हरित रूप से ही इसका प्रतिभाल होता है। 'नीले नीलोमा' इत्यादि ‘णीलो नीलाम सः' कहीं २ किसी किमी २ प्रदेश विशेष में-यह कननीय है क्योंकि अत्यंत नीले पत्ते होने से नीलवर्ण रूम से ही इलका प्रतिभास होता है, हरित अवस्था को पार मशत छ. 'हरिए हरिओभासे - हरितो हरितावभावः' च्या या ो वनम હરિત છે કેમકે એકદમ લીલા પાંદડાને લઈને હરિતપણુ થી તેને પ્રતિભાસ થાય छ 'नीले नीलोमासे' इत्याहि 'नीलो नीलावभासः' यां यां प्रदेश વિશેષમાં આ વન નીલ છે, કેમકે નીલ વર્ણ રૂપે તેને પ્રતિભાસ થાય છે. હરિત અવસ્થાને પુરી કરીને કૃષ્ણ અવસ્થાને પ્રાપ્ત ન થયેલ પત્રો નીલ કહેવાય છે. આ મિત્રના સંબંધી નીતિમાન ચેગથી એ વનને પણ નીલ કહે છે. પત્રે પિતાની
Page #865
--------------------------------------------------------------------------
________________
shruोतिका टीका x ३ उ. ३ सू. ५३ वनपण्डादिकवर्णनम्
८३९
कथ्यते किन्तु तथा प्रतिभासनात् तथोक्तं नीलान सास। नीकोऽवसायो यस्य स तथा, तदा- 'हरिए हरिओमासे' यौवने तान्येव पत्राणि किशत्वं रक्तत्वञ्चाति क्रान्तानि ईषद्धरितानि पाण्डूनि सन्ति हरितानि इत्युपदिश्यन्ते ततस्तद्योगाद् वनपण्डोऽपि हरितः, न चैतदुपचारमात्रं किन्तु तथा घतिभासोऽप्यस्ति, अतएवाह- हरितावभासः - हरितोऽवभासो यस्य स तथा तथा 'सीए सीयोमासे' वाणदविका स्वानि वृक्षाणां पत्राणि शीतानि भवन्ति ततस्तयोगाद् वनपण्डोऽपि शीतः, न चासौ उपचारमात्रात् किन्तु गुणत एव, तथा चाह-शीवावभासः, अधोभागवर्त्तिनां व्यन्तरदेवानां च तदुद्योगे शीतवातस्पर्शः ततः स शीतो चनपण्डोऽवभासते इति । तथाकरके कृष्ण अवस्था को नहीं प्राप्त हुए पत्र वीले कहे जाते है इस पत्र संबंधी नीलिमा के योग से चन को भी नील कहा गया है । पते अपने युवावस्था में किसलय अवस्था को और अपनी लालिमा को छोड देते है- तब वे हरित अवस्था में आजाते है अतः इसके लिये कहा गया है कि यह वनखण्ड किसी २ भाग में हरा है, और हरे रूप से ही इसका प्रतिभास होता है । यह बनखण्ड कहीं कृष्ण है कहीं नील है aat efta है इत्यादि रूप से जो कहा गया है उसका कारण उस २ रूप से वहीं २ वह प्रतिभासित होता है यही बात 'किन्ही किन्हो भासे' आदि पदों द्वारा पुष्ट की गई है जय पत्र अपनी प्रौढावस्था में आते है तब उनमें से हरीतिभाग का धीरे २ अभाव रोकर शुभ्रता आने लगती है शुभ्रता में शीतलता का अर्थात् शीत वाता वास हो जाता है अतः यह वनषण्ड भी उसके योग से कहीं २ 'शीतल सीता वभासः' शीतवात स्पर्शबल है और शीतवात स्पर्शरूप से यह प्रति
ચુવાઅવસ્થામાં કિસલય કુંપળ અવસ્થાને અને પેાતાની લાલિમાને છેાડીદે છે. ત્યારે તે હરિત અવસ્થામાં આવી જાય છે. તેથીજ એ પ્રમાણે કહેલ છે કે આ વનખંડ કાઈ કાઈ ભાગમાં લીલાશ વાળા છે. અને લીલાપણાથીજ તેના પ્રતિભાસ થાય છે. આ વનખંડ કયાંક કયાંક કુષ્ણવણુ વાળા છે યાંક કયાંક નીલવણુ વાળા છે. કયાંક કયાંક હરિત હાય છૅ ઇત્યાદિ રૂપે જે કથન કરવામાં આવેલ છે, તેનું કારણ એ એ રૂપે ત્યાં ત્યાં તે પ્રતિભાસિત થાય છે.
४ वात 'किहो किण्होभासे' विगेरेधी पुष्ट श्वामां आवे हे न्यारे यान પેાતાની પ્રૌઢાવસ્થામાં આવે છે, ત્યારે હરિતપણાના ધીરે ધીરે ભાવ થઇને શ્વેતપણુ' આવવા લાગે છે. શ્વેતપણામાં શીતળતાના અર્થાત્ શીત વાયુને વાસ થઇ જાય છે. તેથી એ વનખંડ પણ તેના ચેાગથી કયાંક કયાંક શીત: शीतावभासः' शीतवायुना स्पर्शवाजी हे मने शीतवायुना स्पर्श ३ ते
Page #866
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमस् 'गिद्धे णिशोभासे तिव्वे तिव्योभासे' एते कृष्णनीलहरितवर्णाः यथा-स्वस्मिन् रूपेऽत्यर्थमुस्कटाः स्निग्धः कथयन्ते, सतश्च वीवाश्च कथ्यन्ते ततम्ब तदद्योगाद् चनपण्डोऽपि स्निग्धस्तीव्रश्चेति कथ्यते, न चैतदुपचारमा किन्तु तथा प्रतिमासोऽपि, अन एमोक्तम्-स्निग्धाय मासस्तीवाऽवभास इति इह यधपि अवभासो ज्ञानम् स च भ्रान्तोऽपि भवति यथा-मरुमरीचिकासु जलावभासः, ततो नावभास. मात्रोपदर्शनेन यथाव स्थितं वस्तु स्वरूप मुक्तं भवति किन्तु यथास्वरूपपतिपादनेन सनः कृष्णत्वादीनां तथा स्वरूप प्रतिपादनार्थमनुवादपूर्वक विशेषणान्तरमाहआलित होता है। ये कृष्ण, नील, हरित, वर्ण जिलकारण अपने रूप में अपने आप में-उत्कट स्निग्ध और तीव्र कहे जाते है । इसी कारण उनके रोग से वह वन खण्ड श्री स्निग्ध और तीव्र कहा गया है यह कथन उपचारमात्र है अवास्तविक इसलिये नहीं है कि उस रूप से उसका प्रतिभाल जो होता है। इसी कारण इस धनषण्ड के वर्णन में स्निग्धाप मास्त्र और तत्रावास इन दो विशेषणों का समावेश किया गया है। यदि कोइ ऐली आगं कामरे कि अधभास ज्ञान तो मिश्या भी होता है जैसा कि ममरीचित्रा में जलका अवधाघ विश्या होता है। इसलिये यहां पर भी ऐला अवमालमिया हो लपाता है। फिर इस अदयाल से आप वहां का अधार्थ वर्णन कैसे कर सकते हैं और कैसे वहां के यथार्थ स्वरूप को कह सकते हैं । तो इस आशंका की निवृति के लिए कृष्णस्य आदि के तथा स्वरूप प्रतिपादन निमित्त सूत्रकारने इन वक्ष्यमाण विशेषणान्तरों का कथन किया है इन से यहां उनका
પ્રતિભાસ થાય છે. આ કૃષ્ણ, નીલ, હરિત, વર્ણ જે કારણથી પિતે પિતાનામાં ઉત્કટ, નિગ્ધ, અને તીવ્ર કહેવાય છે, એ જ કારણે તેના
ગથી એ વનખ પણ સિનગ્ધ, અને તીવ્ર કહેવાય છે આ કથન માત્ર ઉપચાર રૂપે કહેલ છે. તેથી તે અવાસ્તવિક નથી કારણકે એ રૂપે તેને પ્રતિભાસ થાય છે. એથી જ એ વનખંડના વનમાં સ્નિગ્ધાવભાસ અને તીત્રા વિકાસ એ બે વિશેષાનો સમાવેશ કરવામાં આવેલ છે. જે કોઈ એવી શંકા કરે કે અવલાસ' જ્ઞાન તે મિથ્યાપણું હોય છે, જેમકે મૃગતૃણા મરૂ મરીચિકામાં ઝાંઝવામાં જલને મિથ્યા અવંભાસ થાય છે તેથી તેવી રીતે અહીંયાં પણ એ મિથ્યાવભાસ થઈ શકે છે તો પછી આ અવભાસથી ત્યાંનું યથાર્થ વર્ણન કેવી રીતે કરી શકાય? અને ત્યાંના સુથાર્થ સ્વરૂપનું વર્ણન કેવી રીતે થાય? આ શંકાના સમાધાન માટે કૃણ વિગેરેને તે રીતના સ્વરૂપનું પ્રતિપાદન કરવા માટે સવારે આ વયમાણ બીજા વિશેષણનું કથન કર્યું
Page #867
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयोतका टीका प्र.३ उ.३७.५३ वनपण्डादिकवर्णनम्
-
AAJ
'किण्हे किण्हच्छाए' इत्यादि, कृष्णवनषण्डः कस्मादित्यत आह-कृष्णच्छाया निमित्तकारणहेतुषु सर्वासां विभक्तीनां पायोदर्शनमिति वचनाद् हेत्वथें प्रथमा, तदयमर्थः, यस्मात् कृष्णा छाया-आकारः सविसंवादितया तस्य वनषण्डस्य, तस्मात् कृष्णो वनषण्डः, अयं भावः-सविसंवादितया तत्र बनषण्टे कृष्ण आकार उपलभ्यते, न च भ्रान्तावमास संपादितसत्ताका सर्वाविसंवादी भवति तस्मात् तत्ववृत्त्या स वनषण्डः कृष्णो न तु भ्रान्तावभासमात्र व्यवस्थापित इति । एवम् 'नीले नीलच्छाए, हरिए हरियच्छाए, सीए सीयच्छाए' नीलो नील. तथा स्वरूपप्रतिपादित हो जाता है किण्हे किण्हच्छाए' वह बनषण्ड कृष्ण इसलिये है कि उसकी छाया-आकार कृष्ण है, यहाँ 'कृष्ण च्छायः' पद में यह प्रथमा विभक्ति हेपर्थ में हुई है 'निमित्तकारण हेतुषु सर्वासां विभक्तीनां प्रायो दर्शनात्' इस वचन के अनुसार पञ्चम्यन्त हेतु के अर्थ में प्रथमा विभकिन भी हो जाती है । अतः इस से सूत्रकार ने यह पुष्ट किया है कि जिसकारण सर्वाविसंवादी रूप से उसकी छाया आकार-कृष्ण है, इसी कारण वह धनखण्ड कृष्ण है जब सर्वाविसंवादिरूप से वहां कृष्ण आकार उपलब्ध हो रहा है तो नियम से वहाँ कृष्णता है जिसकी सत्ता भ्रान्त अवभास से स्थापित होती है-वह सर्वा विसंवादी नहीं हुआ करता है-यहां कृष्णाकार की सत्ता सर्वाविसंवादी रूप से स्थापित है अतः वह अपने साध्य कृष्णता का अवश्य अवश्य ही साधक होता है इसी प्रकार से वह वनखण्ड किसी २ भाग में नील इसलिये है कि उसकी छाया-आकार-नील 'छ. तनाथी त्यां तेनुपा प्रा२नु प्रतिपाइन थ5 1य छ 'किण्हे किण्हच्छाए' એ વનખંડ કૃષ્ણ એ માટે કહેવાય છે કે તેની છાયા આકારકૃષ્ણ છે. અહીંયા 'कृष्णच्छायः' से पहमा या प्रथम विमति उत्पथमा ये छे. 'निमित्त कारणहेतुषु सर्वासा विभक्तीना प्रायो दर्शनात' मा क्या प्रमाणे ययभ्यन्त હતના અર્થમાં પ્રથમ વિભકિત થઈ જાય છે. તેથી સૂત્રકારે આ વચનથી એ સમર્થિત કર્યું છે કે જે કારણથી સર્વ અવિસંવાદીપણાથી તેની છાયા આકાર કૃણ છે, એ જ કારણથી એ વનખંડ પણ કૃષ્ણ છે, જ્યારે સર્વ પ્રકારે અવિસંવાદિપણાથી ત્યાં કૃષ્ણ આકાર પ્રાપ્ત થાય છે, તો ત્યાં નિશ્ચયરીતે કૃષ્ણપણુ કાળાશ છે જ કે જેની સત્તા બ્રાન્ત અવભાસથી સ્થાપિત થાય છે તે સર્વ પ્રકારે અવિસંવાદિ હાઈ શકતી નથી અહીંયાં કૃષ્ણપણાની સત્તા સવિસંવાદિ પણાથી સ્થાપિત થયેલ છે. તેથી તે પોતાના સાધ્ય કૃણપણાને જરૂર જરૂર સાધક થઈ જાય છે. તેથી જ એ વનખંડ કઈ કઈ ભાગમાં નીલા
सी० १०६
Page #868
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगम ८४२ उछाया, हरितो हरितच्छायः, शीतशीतच्छाया, एतान्यपि विशेषणानि ज्ञातव्यानिः केवलं शीतः शीतच्छाय इत्यत्र छाया शब्दः आतपपतिपक्षवस्तुवाची द्रष्टव्यः । 'घणकडियडच्छाए' घनरुटिरच्छायः, इह शरीरस्य मध्यमागे कटि: ततोऽन्यस्यापि महभाग. कटिरिच कटिरित्युच्यते, कटिस्तटमिव कटितटम्, घना-अन्यान्यशाखाप्रशाखानुप्रवेशतो निविडा कटितटे-मध्यभागे छाया यस्य स घनकटिनटच्छाय:-मध्यमागे निविडतरच्छाय इत्यर्थः अतएव 'रम्म' रम्यो रमणीयः, 'महामेहनिकुरंवशृए' महान्-जलभाराश्नतः मटकालभावी मेघनिकु. सम्बो-मेघसमूहत्तं भूतो गुणैः प्राप्त इति सहामेघनिकुरम्बभृता, महामेघन्दोपम है। इस प्रतिपादन में भी समझ लेना चाहिये 'शीत: शीतच्छायः' यहां पर छाया शब्द आकार का कथक नही है । किन्तु आतप की प्रतिपक्षी भूत वस्तु का वाचक है । अत यह वनषण्ड शीत इसलिये है कि वहां पर की छाया शीत है । 'घणक्षडियच्छाए' कटि शब्द का प्रयोग शरीर के मध्यभान में होता है फिर भी अन्य का भी मध्यभाग कटी शब्द से गृहीत हो जाता है प्लटिको यहां तर जैसा कहा है। तात्पर्य यह है कि इस वनषण्ड के मध्यभाग, जो वृक्षराजि है, उसकी शाखाएँ और प्रशाखाएँ आपस में एक दूसरे वृक्षों की शाखाओं
और प्रशाखाओं के मध्य में प्रविष्ट हो गई है अत: यहां मध्यभाग में घनी छाया रहती है हली कारण यह बरखण्ड में पहुन अधिक रमणीय है 'महामे हनि शुरधभूए' महमेहनिकुरंगभूतः देखने वालों को यह बनषण्ड ऐसा प्रतीत होता है कि मानो यह पानी के भार से अवनत हुभा महामेघों का समूह ही है अब इस वनखण्ड के पादपो વર્ણવાળું થાય છે અને એથી જ તેની છાયા આકાર નીલ હોય છે. એ પ્રમાણે આ प्रतिपादनमा ५९ समस'शीतः शीतच्छा' महीयां छाया २ मारना અર્થમાં નથી પણ તડકાના પ્રતિપક્ષ રૂપ જે છાયા છે, તે અર્થ વાચક છે. તેથી એ વનખંડ શીત એ માટે છે કે ત્યાની છાયા શીત હોય છે. 'घणकडियच्छाए' टिशनी मर्थ शरीरना मध्यमा भाटे ग्रह ४२शय છે. તે પણ અન્યને મધ્ય ભાગ પણ કટિ શબ્દથી ગ્રહણ થઈ જાય છે.
કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે આ વનખંડના મધ્યભાગમાં જે વૃક્ષની પંકિત છે, તેની શાખાઓ અને પ્રશાખાઓ એક બીજા વૃક્ષની શાખાઓ અને પ્રશાખાઓના મધ્યભાગમાં પ્રવેશેલી રહે છે, તેથી આ વનખંડ ઘણું જ સુંદર લાગે छ. 'महामेइ निकुरवभूए-महामेघनिकुम्बभून' तथा नारायाने मापनम मेनु જણાય છે કે જાણે પાણીનાભારથી નમી ગયેલા મહા મેઘાને સમૂડ જ છે,
Page #869
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रद्योतिका टीका प्र. ३ उं. ३ . ५३ वनपण्डादिकवर्णनम्
૮૪૩
,
इत्यर्थः अथ चनषण्ड गतपादपान वर्णयति - ते णं पायवा' इत्यादि ते - वनपण्डान्तर्गताः खलु पादपाः वृक्षा:- मूलवन्तः, मूलानि प्रभूतानि दूरावगाढानि च सन्ति येषां ते मूलवन्तः कन्द एषां विद्यते इति कन्दवन्तः, एवं स्कन्धचन्तःत्वग्वन्तः शाळावन्तः प्रवालवन्तः पत्रवन्तः पुष्पवन्तः फलवन्तो बीजवन्तः, इत्यपि ज्ञातव्यम्, तत्र मूलानि लोकप्रसिद्धानि यानि कन्दस्याधः घसरन्ति, कन्दास्तेषां मूलानामुपरिवर्त्तिनस्तेऽपि प्रसिद्धा एव स्कन्धः स्थूडं यतो मूलश्वाखाः प्रभवन्ति, त्वक्-छल्ली, शाला- शाखा, मत्राल:- पल्लवाङ्कुरः, पत्रपुष्प - फळबीजानि प्रसिद्धानि, 'अणुपुत्र सुजाय रुहलचट्टमाचपरिणया' आनुपूर्वीसुमातरुचिरवृत्त भावपरिणताः, आनुपूत्र्यौ-मूलादिपरिपाट्या सुजात इत्यानुपूर्वी सुजाताः रुचिरा - स्निग्धतया देदीप्यमानच्छविमन्तः, तथा वृत्तभावेन - वृक्षों का वर्णन करते है 'ते णं पायया' उखणनखंड के पादप- वृक्ष ऐसे है कि जिनके प्रभूत मूल बहुत दूर २ तक जमीन के भीतर गहरे गये हुए है ये पादप प्रशस्तन्दवाले है प्रशस्त स्कन्धवाले है प्रशस्त छालवाले हैं प्रशस्त पत्रों वाले है, प्रशस्त पुष्पों वाले है, प्रशस्तफलों वाले है और प्रशस्त बीजवाले है । जडका नाम सूल है जड के ऊपर और स्कन्ध के पहिले तक के भाग का नाम कन्द है जहां से मूल शाखाएँ फूटती है उस स्थान का नाम हन्ध है प्रचालनाम कोंपलों का है बाकी के और पत्रादिशब्दों का अर्थ प्रतीत हो है । 'आणुपुच्च 'सुजारुल वह भावपरिणया' ये सब पादप समस्त दिशाओं में एवं समस्त विदिशाओं में अपनी २ शाखाओं द्वारा और प्रशाखाओं द्वारा इस ढंग से फैले हुए हैं कि जिससे ये गोल गोल प्रतीत होते है,
f
हवे या वनमंडना वृक्षानु वर्षान अश्वामां आवे छे. 'ते णं पायवा એ વનખંડના વૃક્ષેા એવા છે કે જેના મેટા ભેટા મૂળિયા ઘણે દૂર સુધી જમીનની અંદરના ભાગમાં ઉડે સુધી ઉતરી ગયેલા છે, આ વૃક્ષેા પ્રશસ્ત પત્રાવાળા છે. પ્રશસ્ત પુષ્પાવાળા છે. પ્રશસ્ત ફળેા વાળા છે. અને પ્રશસ્ત ખીયાએ વાળા છે. જડનુ નામ મૂળ છે. મૂળની ઉપર અને સ્કંધ−થડની પહેલાના ભાગનું નામ કદ છે. જ્યાંથી ડાળેા ફ્રુટે છે તેનું નામ સ્કંધ થડ છે. પ્રવાલ કૂપળાને કહે છે. માકીના બીજા પત્રા વિગેરે શબ્દોના અર્થ સ્પષ્ટ જ છે. 'आणुपुब सुजाय रुइल बट्टभावपरिणया' मा अधा वृक्षा सघजी हिशामभां અને સઘળી વિદિશાઓમાં પાત પેાતાની શાખાઓ દ્વારા અને પ્રશાખાઓ દ્વારા એવી રીતે ફેલાએલા છે, કે જેનાથી એ ગાળ ગેાળ પ્રતીત થાય છે. મૂલ વિગેરે પરિપોટિ પ્રમાણેજ એ બધા વ્રુક્ષા સુંદર રીતે ઉત્પન્ન થયેલા છે. તેથી
Page #870
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवाभिगमसूत्र परिणताः, किमुक्त भवति ? एवं नाम सामु दिक्षु विदिक्षु च शाखाभिः प्रशाखाभिश्च प्रसूता यथा दर्तुलाः संजाता इति, आनुपूर्वी मुजाताश्च ते रुचिराव ते च वृत्तभावपरिणताश्चेति भानुपूर्वी सुजातमचिरवृत्तभावपरिणताः, तथा 'एगखंधी' ते पादपाः प्रत्येकमें कस्कन्धाः, मूत्र स्त्रीत्वं प्राकृतत्वात, तथा'अणेग साइप्पसाहविडिमा' अनेकाभिः शाखाभिः प्रशाखाभिश्व मध्यभागे विटपो विस्तरो येषां तेऽनेकशाखामशाखाचिटपाः तथा-'अणेगणरव्याम सुपसारियागेज्य घणविउलबट्टखंधा तिर्यग्वाहु द्वयमसारणो व्यामः अनेकैनरव्याम:-पुरुषव्यामः सुप्रसारितरग्राह्यः-अप्रमेया घनो-निविडो विपुलो विस्तीर्णः स्कन्धो येषां ते अनेकनरव्यामसुभसारिताग्राह्य घनविपुलत्तस्कन्धाः तथा-'मच्छिदपत्ता' अच्छि. द्राणि पत्राणि येषां ते अच्छिद्रपत्राः, अयं भावः वृक्षाणां पत्रेषु वातदोपतः काल. दोपतो वा गडरिकादिरीति रुपजायते किन्तु तेषां पत्रेषु न तथा तेन तेषु पत्रेषु छिद्राणि न भवन्तीत्यच्छिद्रपत्राः अयबा-एवं नामान्योऽन्य शाखामशाखानुमवे. भात् पत्राणि पत्राणामुपरि जातानि, येन मनागपि अन्तरालरूपं छिद्रं नोपल. मूलादि परिपाटी के अनुरूपही ये सब सुन्दर ढंग से वृक्ष उत्पन्न हुए है। अतः बडे सुहावने लगते है ये सब वृक्ष एक २ स्कन्धवाले है और अनेक शाखाओं एवं प्रशाखाओं से मध्यभाग में इनका विस्तार अधिक है टेढी फैलाई हुई दो भुजाओं के प्रमाण रूप एक व्याम होता है अनेक पुरुष मिलकर भी ऐसे अपने फैलाए गए व्याम द्वारा जिसे ग्रहण नहीं कर सकते ऐसा निविड विस्तीर्ण इनका गोल स्कन्ध है। इनके पत्र छिद्र रहित है अर्थात् वात दोप से या काल दोष से-इन वृक्षों के पत्रों में किसी भी प्रकार से छिद्र आदि नहीं होते है अथवा इन वृक्षों के पत्र आपस में शाखा प्रशाखाओं में इस तरह से सटे हुए मिले रहते है कि जिससे उनके अन्तराल में थोडासा भी छिद्र ઘણાજ સોહામણા લાગે છે. એ બધા વૃક્ષો એક એક કધવાળા છે અને અનેક શાખાઓ અને પ્રશાખાઓથી મધ્યભાગમાં એનો વિસ્તાર વધારે છે, વાંકી ફેલાવવામાં આવેલ બે ભુજાઓના પ્રમાણ રૂપ એક વ્યામ-વામ થાય છે. અનેક પુરૂષ મળીને પણ એવી ફેલાવવામાં આવેલ વામ દ્વારા જેને ગ્રહણ કરી શકતા નથી. એવું નિબીડ વિસ્તાર વાળું તેનું સ્કંધ-થડ હોય છે, તેના પાનડાઓ છિદ્રો વિનાના હોય છે. અર્થાત્ વાયુના દેષથી કે કાળ દેશથી એ વૃક્ષના પાનડાઓમાં કઈ પણ પ્રકારના છિદ્રો વિગેરે હોતા નથી. અથવા એ વૃક્ષના પાનાઓ પરસ્પરમાં શાખા પ્રશાખાઓમાં એવી રીતે ગેટીને લાગેલા રહે છે કે જેનાથી તેની અંદરના ભાગમાં થોડા સરીખા પણ
Page #871
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेययोतिका टीका प्रे. ३ उं. ३ रू. ५३ वनपंण्डादिकवर्णनम्
૮૪૧
क्ष्यते इति अतएव - 'अविरलपत्ता' अविरलपत्राः, अत्रापि हेत्वर्थे प्रथमा, ततश्चायमर्थः - यतोऽविरलपत्राः, अतोऽच्छिद्रपत्राः, अविरलपत्रत्वमेव कुतस्तत्राह - 'अवाईपत्ता' अवातीनपत्राः, वातीनानि वातोपहतानि वातेन पावितानीत्यर्थः न वातीनानि इत्यवातीनानि पत्राणि येषां ते तथा अयं भावः न उन मवलो वातः खरपरुषो वाति येन पत्राणि त्रुटित्वा भूमौ निपतन्ति ततोऽवातीन पत्रत्वादविरलपत्रा इति, अच्छिद्रपत्रस्वे प्रथमव्याख्यानपक्षमधिकृत्य कारणमाह- 'अण ईइपत्ता ' अनीतिपत्राः न विद्यते इति गई रिकादिरूपा येषां तानि अनीतीनि, अनीतीनि पत्राणि येषां ते अनीतिपत्राः, अनीतिपत्रत्वादेव अच्छिद्रपत्रा इति, 'णिधूय जरढपंडुरपचा' निर्धू जरठपाण्डुरपत्राः, निर्धूतानि - अपनी तानि जरठानि पाण्डुनि पत्राणि येभ्यस्ते निर्धूत जरठपाण्डुपत्राः, यानि वृक्षस्थानि जस्ठानि पाण्डूनि पत्राणि तानि वातेन निदुर्धूय निर्धूय भूमौ पात्यन्ते, भूमेरविच नहीं दिखलाई देता है यही वात, 'अविरलपत्ता' इस पद द्वारा पुष्ट की गई है यहां पर भी यह हेत्वर्थ में प्रथमा विभक्ति हुई है । इससे यह ध्वनित होता है कि जिस कारण ये अविरल पत्रों वाले है, इसी कारण ये अच्छिद्र पत्रों वाले हैं 'अवाइणपत्ता - अवातीन पत्रा' ये अविरल पत्रों वाले इस कारण से है कि यहाँ पर ऐसी जोर की हवा नहीं चलती है, कि जिसकी वजह से इनके पत्र डाल से टूटकर जमीन पर तोर जावे, 'अणई पत्ता' गड्डरिकादि रूप ईति यहां पत्रों में होने नहीं पाती है इसलिये भी ये अच्छिद्र पत्रो वाले हैं, 'निधूयजरढपंडुरपत्ता' इन वृक्षों पर जो पत्ते पुराने पड जाते हैं और सफेद हो जाते है वे पत्र वायुद्वारा वहां ले जमीन पर गिरा दिये जाते है तथा जमीन ऊपर पडे हुए वे पत्र भी वहां से उडा उडाकर अन्यत्र कर
"
छिद्रो हेमाता नथी, खेम बात 'अविरलपत्ता' मे पहथी पुष्ट ४२व भां આવેલ છે. અહીયાં પણુ આ હેત્વમાં પ્રથમા વિભક્તિ થયેલ છે. એનાથી એ ધ્વનિત થાય છે કે જે કારણે એ અવિરલ પત્રાવાળા છે, એજ કારણથી ते छिद्र पत्रोवाणा छे. 'अवाइणपचा- अवातोनपत्रा' मे अविरत पत्रोवाजा એ કારણથી છે કે ત્યાં એવા જોરથી હવા નથી ચાલતી કે જેના કારણે એના यानडामा डाजथी तूटिने भीन पर पडी लय 'अनइइ पत्ता' गड्डरिधि ३५ ઇતિ આ પાનાને થતી નથી. તેથી પણ એ અચ્છિદ્ર પત્રાવાળા હોય છે, 'णिद्धय जरढ पत्ता' मा वृक्ष पर तड थे! बुना था लय हे, सते સફેદ થઈ જાય છે, તે પત્રો પવન દ્વારા જમીન પર પાડી નાખવામાં આવે છે. તથા જમીન પર પડેલા તે પાનડાઓને પણ ત્યાંથી ઉડાડીને ખીજે લઈ
Page #872
--------------------------------------------------------------------------
________________
८४६
जीवामिगमत्र मायो निर्धय निळू यान्यनापसार्यन्ते इत्यर्थः। 'नवहरियमिसंतपत्तंधयार गंभीरदरिणिज्जा' नवहरितमासमानपत्राधिकारगम्भीरदर्शनीयाः, नवेन-प्रत्यग्रेण हरितेन-नीलेन भासमानेन-स्निग्धत्व त्वचादीप्यमानन पत्रमारण-दरसंचयेन यो जातोऽन्धकारस्तेन गम्भीरा:-अब्धमध्यमागाः सन्तो दर्शनीया ये ते तथा, तथा-'उवविजिग्गयणवतरुणपत्तपल्लवकोमलजलचलंत किसलय मुकुमालसोरियवरंकुरगसिहरा' उपविनिर्गतः-निरन्तरविनिर्गतर्नवतरुणपल्लवः तया कोमलमनोरुज्ज्वल, शुद्धश्चलद्भिः ईपत्करमानः किजळयैरवस्थाविशेषोपेतेः पल्लवदिशेपैः, तथा मुकुमारैः प्रवलिः पल्लवाकुरैः घोमितानि बराइकुराणि वरा रोपेतानि अग्रशिखराणि येषां ते उपविनिर्गतनवतरुणपत्रपल्लवकोमलोज्वलचलरिकशलय सुकुमारप्रचालशोभितवराङ्कुरायशिखराः। यत्राइकुरमवाळयोः कालकृतावस्थाविशेपा द्विशेपो वोध्यः । 'जिच्चं कुमृमिया णिच्चं मडलिया णिच्चं लवइया णिच्च यवहया णिचं गुलिमया णिचं गोच्छिया णिच्च जमलिया णिचं दिये जाते है, 'नवहरिभिसंतपत्तंधयारगंभीरदरिसणिज्जा' ये वृक्ष अलब्ध भागमाले होते हुए भी दर्शनीय है अल०५ मध्यभागवाले ये इसलिये है कि नवीन हरे २ पन लमृद से जो कि दीप्यमान एवं स्निग्धछालबाला है इन पर लदा घोर अन्धकार जमा छाया रहता है इन घृक्षों के बराङ्कुरोपेत अशिखर निरन्तर विनिर्गन नवतरुण पल्लवों से तथा कोमल मनोज्ञ उज्ज्वल कम्पमान धीरे धीरे हिलते हुए किसलयों से एवं मुकुमार प्रशलों से पल्लवाङ्कुरों से शोभित बने रहते हैं अङ्का और प्रयाल में कालकुन अवस्था विशेष से भेद हो जाता है। 'जिच्च कुस्सुमिया, निच्च प्रालिया, निच्चं लवदया, निच्चं वक्ष्या, निच्चं गुस्बिया निच्चं गोच्छिया, निच्चं जलिया, निच्च जुलिया,
सवाय छे. 'नवह रय भिस तपत्तंधयार गंभीरदरिस णज्जा' मा वृक्षो मसाध ભાગવાળા હોવા છતાં પણ દર્શનીય હોય છે, અલબ્ધ મધ્ય ભાગવાળા એ કારણથી છે કે નવા નવા લીલા લીલા પાનાઓના સમૂહથી કે જે દેદીપ્યમાન અને ગાઢ છાયાવાળા છે. તેના પર કાયમ અંધારા જેવી છાયા રહે છે. એ વૃના વરાંકુવાળા અગ્ર શિખરો નિરંતર નીકળેલા નવતરણ ૫૯લ
થી તથા કમળ મનેણ ઉજજવલ કપાયમાન ધીરે ધીરે હલતા સિલથી અને કેમળ પ્રવાળેથી પલવાંકુરેથી શોભાયમાન બનેલા રહે છે. અંકુર અને प्रवासमा सत भवत्या विषयी से थई लय छे. "णिच्च कुसमिया, णिच्च मउलिया, णिच्च लवइया, णिच्च थवइया, णिच्च गुम्मिया, णिच्च योच्छिया, णिच्च जमलिया, णिच्च जुयलिया, णिच्चविणमिया, णिच्च पण
-
Page #873
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीका प्र.उ.३ सु.५३ पनषण्डादिकवर्णनम् ___ ८४ जुगलिया णिच्चविणमिया णिच पणमिया णिच्च कुसुमिय मउलिय लवइय थवईय गुम्मिय गोच्छिय जमलिय जुगलिय विणसिय घणमिय सुविभत्त पंडिमंजरिवाडिसगधरा' नित्यं कुसुमिता नित्यं मुकुलिता नित्यं पल्लविताः नित्यं स्तबकिता नित्यं गुल्मिता नित्यं गुच्छिता नित्यं यमलिता नित्यं युगलिता नित्यं विनमिता नित्यं मणमिता नित्यं कुसुमितसुकुलित पल्लवित स्तचकित गुलिमत गुच्छित यमलितयुगलितविनत प्रणतमुविभक्तपिण्डमजयंवतंसकधराः, इतिच्छाया।
व्याख्यातपूर्वमिदं प्रकरणम् एतस्य व्याख्यानं पूचनदेव ज्ञातव्यम् । तया'मुयवरहिणमयणसलागाकोइलकोरगभिंगारगोडलग जीवंजीवगणंदिमुहकविळपिंगलक्खकारंडवचक्कवागकलहंगसारसाणेगसउणगणमिणविचारियस दुन्नइयनिच्च विणमिया, निच्चं पणभिया' ये वृक्ष लदा कुसुमित रहते है नित्य मुकुलित रहते है, नित्यपल्लवित रहते है निस्य स्तषकित रहते है नित्य गुलिमत रहते है नित्य गुच्छित रहते है नित्य यलिम रहते है। नित्य युगलित रहते है नित्य विनमित रहते है एवं निस्य प्रणमित रहते है इस तरह से नित्यकुसुमित, मुकुलित पल्लवित, स्तनकित गुल्मित गुच्छित्त यमलित युगलित विनमित एवं प्रणमित बने हुए ये वृक्ष सुविभक्त पिण्डवाली मंजरीरूप अवतंसक को धारण किये रहते है इन पदों का अर्थ पूर्व प्रकरण में व्याख्यात हो चूका है। 'सुयपरहिण मयणसलामा कोहलकोरण-शुक्रबहिण मदन शलाका कोकिलकोरक' इत्यादि, इन वृक्षों के उपर शुक के जोडे मयूरों के जोडे, मदनशलाका-मेना के जोडे, कोकिल के जोडे, चवाफ के जोडे, कलहंस के जोडे, सारल के जोडे, इत्यादि अनेक पक्षियों मिया' २॥ वृक्ष यम सुमित रहे छे. नित्य भुलित २९ छ, नित्य પલ્લવિત રહે છે, નિત્ય સ્તબકિત રહે છે નિત્ય ગુમિત રહે છે, નિત્ય મુચ્છિત રહે છે. નિત્ય યમલિત રહે છે. નિત્ય યુગલિત રહે છે. નિત્ય વિનમિત રહે છે. અને નિત્ય પ્રસુમિત રહે છે આ રીતે નિત્ય
सुमित, मुसित, सवित, स्तमति, गुमित गुरिछत, यमलित, યુગલિત; વિનમિત, તેમજ પ્રસુમિત બનેલા આ વૃક્ષે સુવિભકત પિંડવાળી મ જરી રૂપ અવતંસક-વસ્ત્રને ધારણ કરીને રહે છે. આ શબ્દોનો અર્થ पा सूत्रमा मतावामां मावी गये छे. 'सुयवरहिण मयणस लागा कोहल कारग सुकबरहिण मदनसलाका कोकिल कोरक' छत्याहिये वृक्षानी ५२ શુકના જોડલા, મયુરોના જોડલા, મદનશલાકા–મેનાના ડલા કોયલના જોડલા, ચકલાકના જોડલા, કલહંસના જેડલા સારસના જોડલા વિગેરે અનેક પ્રકારના
Page #874
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीयामिगमले मारसनाइयमुरम्मा' शुक्रवाहिमदनशलाकाफोकिलकोरकभृङ्गारककोंडलक जी जीवनन्दीमुखकपिलपिङ्गलाक्षकारण्डवचक्रवाककलहंससारसारूपानामनेकेपो शकु. नगणानां मिथुनै। स्त्रीपुरुपयुग्मविरचितम् इतस्ततो गतं यच्च शब्दन्नतिकम् उन्नतशब्दकं मधुम्स्वरं च नादितं नापित येषु ते तया, अतएव मुरम्या:-मुष्टुरमणीयाः, अत्र शुक्रा:-कीरा, वणिो मयूराः मदनशलाका सारिका, चक्रवाक. हंससारसा लोकमसिद्धा एव, एतदन्ये पक्षिविशेपास्तु लोकत एच झातव्याः। रथा-'संविडियदप्पियमयरमहुयरीपहरा' संपिण्डिता:, एकत्र पिण्डिभूताहप्ता मदोन्मत्ततया दध्माता भ्रमरमधुकरीणाम् पहकरा:-साता यत्र ते संपि. डिरमभ्रमरम्मधुकरीपहकराः, तथा-'पनिळीयमाणमत्तछप्पयकुममासवलोलमहुर. गुमगुयायंत गुंजतदेसमागा' परिलीयमाना:-अन्यत आगत्यागत्य श्रयन्तो मत्ताः के जोडे बैठे बैठे बहुत दूरू तक सुने जाने वाले उन्नत शब्दवाले ऐसे मधुर स्वरोपेत शब्दों को करते रहते है चहचहाते रहते हैं इससे इन वृक्षों को सुन्दरता में विशेषता आजाती है इन वृक्षों के ऊपर 'संपिडियदप्पियभमरमटुथरी पहकरा-संपिण्डिाद्रप्तभ्रमरमधुकरी पहा करा' मधुका संचयकरनेवाले उन्मत्त पिन्डीभूतभ्रमरों का और भ्रमरियों का समूहभी बैठा रहता है। 'परिलीयमाणमत्तछप्पयकुसुमासवलोलमहुग्गुमगुमायमानगुनद्देसभागा-परिलीयमानमत्त पट् पद कुसुमामवलोलमधुर गुम गुमायमान गुञ्जदेशभागाः' इन वृक्षों के इधर उधर के पास के स्थानों में बाहर से आए हुए अनेक भ्रमर बैठे रहते है ये मधुपान से मदोन्मत्त होते है। तथा किन्नरक-पुष्पपराग के पानकरने में इनकी लंपटता यनी रहती है मधुर मधुर रूप से ये गुम પક્ષિઓના જોડલાઓ બેઠા બેઠા ઘણે દૂર સુધી સંભળાતા અને ઉચ્ચ સ્વર ચકત એવા મધુર સ્વરવાળા રમણીય શબ્દો કરતા રહે છે. ચહચહાતા રહે છે. એથી એ વૃની સુંદરતામાં વિશેષ શેભા જણાઈ આવે છે એ वृक्षानी 6५२ 'सपिडियदप्पियभमर महुयरीपहकरा-सपिडितद्रप्तभ्रमरमधुकरी प्रहकरा; भवन। सबर ४२वावा भत्त पिसभूत सभरायांनी भने सभीयाना समूह ५ मे सी २९ छे. 'परिलीयमाणमत्त छप्पय कुसुमासबलोलभ गुर गुमगुमायमानगुजद्देमभागा-परिलीयमानमत्तपट्पद कुसुमासवलो लमधुरगुमगुमायमानगुरुजवेशभागा' से वृक्षानी मासपासना मागमा महारथी આવેલા અનેક ભમરાઓ બેસી રહે છે, અને મધુપાન કરીને મદેન્મત્ત બને છે. તથા કિંજલક–પુષ્પપરાગનું પાન કરવામાં તેનું લંપટ પણું જણાઈ આવે છે. તેઓ મધુર મધુર શબ્દોથી ગુમ રુમાયમાન રહે છે. અર્થાત્ ગણું
Page #875
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र. ३ उ. ३.५३ घनषण्डादिकवर्णनम्
८४९
-
षट्पदाः कुसुमासवखोलाः किंजल्कपानलम्पटाः मधुरं गुमगुमायमानाः - परिभ्रमन्वस्तै:- गुञ्जन्तः- गुञ्जाश्वयुक्ता देशभागाः प्रदेशा येषां वे परिलीयमानमत्त षट् पदकुसुमासवलोलमधुरगुमगुमायमानगुञ्जदेशभागाः, तथा - 'अभितरपुप्फफला' अभ्यन्तराणि - अभ्यन्तरवत्र्त्तीनि पुष्पाणि फलानि च येष तेऽभ्यन्तरपुष्प फला, तथा - 'बाहिर सछन्ना' बहिः पत्रे छन्नाः - व्याप्ता इति वहिः पत्रच्छना, तथा - पत्रैश्च पुष्पैश्च अवच्छन्न परिच्छन्नाः - अत्यन्तमाच्छादिताः, तथा - 'नीरोगा' नीरोगा :- रोगरहिताः शटनवर्जिताः 'अकंटगा' अण्टकाः- कण्टकरर्जिताः, नैतेषु मध्ये बलादि कण्टकिवृक्षाः सन्तीति भावः । तथा - 'साउफला' स्वादुफलाः, स्वादनि फलानि येषां ते तथा-णिफला' स्निग्धफला: स्निग्धानिस्नग्धकान्तियुक्तानि फलानि येषां ते तथा-णाणाविद गु छगु मंडवगसोदिया' प्रत्यासन्नैर्नानाविधैरनेकमकारकै छ। वृन्ताकी प्रभृतिभिः गुल्मैर्नवमालिकादिगः
"
गुमायमान- गुन गुनाते रहते हैं झंकार - किया करते है अतः वृक्षों के देशभाग उनकी गुंजार से बडे अच्छे सुहावने लगते हैं 'अभितर पुप्फफला' इनवृक्षों के पुष्प और फल उन्हीं के भीतर छुपे रहते हैं, 'पाहिरपत्तच्छन्ना' बाहर में ये वृक्ष पत्रों से आच्छादित रहते है। इस तरह ये वृक्ष पत्र और पुष्पो से 'अवच्छन्न परिच्छन्ना' सदा उत्पन्न रूप से बहुत अधिक रूप से आच्छादित बने रहते हैं 'नीरोगा' इन वृक्षों में वनस्पतिकायिक संबंधी कोई भी रोग नही होता है 'अकंटा' इन वृक्षों के बीच बबूल आदि कांटों वाले वृक्ष नही होते । इनके फल बहुत ही अधिक मिष्ट स्वादवाडे होते है स्निग्धस्पर्शवाले होते है । प्रत्यासन्न नाना प्रकार के गुच्छों से, गुल्मों से नवमालिकादि के मण्डपों से और द्राक्षा आदिक मंडपों से ये सदा सुशोभित बने
ગણાટ કરતા રહે છે, જીકાર કર્યા કરે છે તેથી એ વૃક્ષેાના પ્રદેશ ભાગેા એ પશ્ચિમેના ગુજારવથી ખૂબજ સુદર અને અત્યંત સેહામણા લાગે છે. ‘ત્રિમંતર पुप्फफला' थे वृक्षाना पुण्यो भने जो ते वृक्षोनी घटायां छुपा हे छे. 'बाहिर पत्तच्छन्ना' महारथी से वृक्षो पानामाथी असा रहे छे. या रीते ये वृक्षो पत्र! मने पुष्पथी 'अवच्छन्नपरिच्छन्ना' हा उत्तम रीते म्छाहित असा मन्या रहे छे. 'नीरोगा' या वृक्षोभां वनस्पतिथि संबंधी अध पशु रोग होता नथी. 'अकंटगा' थे वृक्षोभां व विगेरे टाका वृक्ष હાતા નથી તેના ફળેા ઘણાજ વધારે મીઠાશવાળા ઢાય છે. સ્નિગ્ધ સ્પર્શીવાળા હાય છે. સમીપવતી અનેક પ્રકારના ગુરુદેાથી, ગુલમેથી, નવમાલિકા વિગેરેના વિગેરેના મંડપેાથી એ વૃક્ષેા સદાકાળ સુશેભિત
મડપેાથી અને
દાખ
नी० १०७
Page #876
--------------------------------------------------------------------------
Page #877
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रौद्योतिका का प्र.३ उ.३ सू.५३ वनषण्डादिकवर्णनम्
६५१ सेउकेउबहुला' शुभ सेतु केतुबहुलाः शुना-अधानाः लेतगो मार्गाः आलवालपाल्योवा केतवो भना, बहुला अनेकरूपा येषां ते तथा, एतानि यात्पद. संगृहीतानि पदानि व्याख्यातानि । अथ सुभगतपदानि व्याख्यायन्ते-'अणेग सगडरहजाणजुग्गसिवियसंदमाणिय पडिनोयणा' अनेकशकटरथमायुग्यशिविकस्पन्दमानिकाप्रतिमोचनाः, तत्र शकटाः प्रसिद्धाः रथा द्विविधाः क्रीडारथाः संग्रामस्थाश्च, यानानि सामान्यतः शेषाणि वाहनानि युग्यानि गोल्लदेशप्रसिद्धानि द्विहस्तप्रमाणानि वेदिकोपशोषितानि जम्मानानि, शिक्षिका कूटाकारणाच्छादिता जम्पानविशेषाः स्यन्दमानिका:-पुरुषपमाणा जम्पानविशेषाः, अनेकेषां शकटरथादीनां प्रतिमोचनं तेषामधः छायावाहुल्याद् विस्तीर्णताच विश्रान्त्यर्थं शकटादीनां स्थापनं भवति येपु ते तथा, अतः 'सुरुमा' सुरम्या:-विशेषतोऽतिरमणीयाः, तथा-'पानादीया' सादीयाः, दर्शनीयाः, अभिरूपाः, प्रतिरूपाः इति पदचतुष्टयं व्याख्यातपूर्वम् । क्यारियां है वे शुभ है तथा उनसे उपर जो ध्वजाएं लगी है वे भी अनेकरूप वाली है यहां तक यावत्पद ले संगृहीत पदों का अर्थ हुआ अव सूत्र गत पदों की व्याख्या की जाती है 'अणेग लगड रहजाण जुग्ग० यहां रथ दो प्रकार के होते हैं, एक क्रीडारथ और दूसरे संग्राम रथ अनेक शकट गाडे अनेक रथ यान-वाहन-युग्य-तोल्लदेश प्रसिद्ध दिहस्त प्रमाण वेदिकोपशोस्ति जम्पानशिविका और रूपन्दमानिका -ये सब वाहन छाया अधिक होने का कारण इनके तल भाग में ठहरते रहते है ऐसा विस्तीर्ण तलमाग इला है इस कारण से ये 'सुरम्मा' अत्यन्तरमणीय है तथा प्रासादीयदर्शनीय अभिरूप और २४ लय मेटमा सघातनु नाम. या छ. 'सुहसेठ केउबहुला' તેના જે આલવાલ કયારાઓ છે તે સુંદર છે તથા તેના પર જે ધજાઓ લાગેલી છે તે પણ અનેક પ્રકારના રૂપવાળી છે. આટલા સુધી યાત્પદથી સંગ્રહાયેલ પદેની વ્યાખ્યા કરવામાં આવેલ છે.
वे सूत्रमा मावस पहानी व्याच्या ४२वामा माछ. 'अणेगसगइरहजाण जुग्ग०' महीयां २थ मे. १४.२ना उवामां माव्या छे. मे रथ અને બીજો સંગ્રામરથ. અનેક શકટ ગાડા અનેક રથ-યાન વાહન યુગ્ય તેલ દેશ પ્રસિદ્ધ બે હાથ પ્રમાણની વેદિકાથી શોભાયમાન જંપાન શિબિકા અને સ્થાનિકા આ બધા વાહને એ વૃક્ષોની છાયા સુંદર હોવાથી તેની તળે આરામ કરવા ઉભા રાખવામાં આવે છે, એ વિસ્તાર વાળ તળભાગ આ वृक्षाना छे. सरपथी ये 'सुरम्मा' सत्यत मीय छे. तथा प्रासाहीय
Page #878
--------------------------------------------------------------------------
________________
८५२
जीवामिगमसे अथास्य वनपण्डस्य भूमिभागो बर्यते-'तस्स णं' इत्यादि, 'तस्स णं वणसं. डम्स' तस्य खलु वनपण्ड स्य 'अंतो बडुममरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते' अन्तर्मध्ये बहुसमःसन् रमणीयो मनोज्ञ इति बहुसमरमणीयो भूमिभागः पज्ञप्तः-कथितः कि विशिष्ट. सः ? इत्याह-'से जहाणामए' इत्यादि, 'से जहाणायए' तद्यथा नामशः 'आलिंगपुकवरेइ वा' आलिङ्ग पुष्करमिति वा, आलिङ्गो मुरजो वाद्यविदोषस्तस्य पुष्करचर्मपुटकं तकिलात्यन्तसमं भवतीति तेनोपमा क्रियते-सर्वत्रसर्वेऽपि इति शमाः समुच्चये । 'मुइंगपुक्खरेइ वा' मृदङ्गपुष्करमिति वा, मृदङ्गो लोकपसिद्धो बाधविशेषस्तस्य पुष्कर मृदङ्गबुष्करमिति । 'सरतलेइ प्रतिरूप है इन पदों का अर्थ पहले आचुका है। अब इस बनखण्डकेभूमि भागका वर्णन करते है 'तसप्त णं वणसंडस्म अंतो वहसमरमगिजे भूमिागे पण्णत्ते' इस वनखण्डका जो भीतरका भूमिभाग है दाइ बहु लम है बिलकुल घराघर एकता है ऊंचा नीचा नहीं है किस प्रकार का यह सम भूमिभाग है इसको अलिङ्ग पुष्कर आदि उपमाओं से बनाते है 'से जमानामए अलिंगपुक्खरे ति वा' इत्यादि । वह भूमि. भाग ऐसा प्रतीत होता है कि जैसा, आलिङ्ग पुष्कर होता है आलिङ्ग नाम मुरज बाधिशेषका है तथा इसके उपर जो चमडा मडा रहता है उसका नाम पुष्कर है। यह आलिङ्ग पुष्कर अत्यन्त मम होता है इसी तरह वहां का वह भूमिभाग मृदङ्ग के पुष्कर जैसा अत्यन्त सम है मृदङ्ग लोकप्रसिद्ध एक प्रकार का धाविशेष है, इसका भी पुष्कर बिलकुल सम होता है ऊंचा नीचा नहीं होता है इसी प्रकार परिपूर्ण દર્શનીય, અભિરૂપ અને પ્રતિરૂપ છે. આ પદને અર્થ પહેલા આવી ગયેલ છે.
वे भी बनना भूमिमार्नु पर्थन ४२११८ मा 'तस्स णं वणखड़स्म अ तो बहु ममरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते' २पनपनी मरना જે ભૂમિભાગ છે, તે ઘણે સમ છે, બિલકુલ બરાબર એક સરખે છે, ઉચે નીચો નથી કેવા પ્રકારનો એ સમભાગ છે તે આલિંગ પુષ્કર વિગેરેની ઉપમાઓ द्वारा मताव छ. 'से जहा नामए आलिंगपुक्खरेति वा ईत्याहि भूमिमा એ જણાય છે કે જેવું આલિંગ પુષ્કર હોય છે, આ આલિંગ નામ સુરજ વ ઘવિશેષનું છે, તથા તેના ઉપર જે ચામડું મઢેલું હોય છે, તેનું નામ પુષ્કર છે. આ આલિંગપુષ્કર ઘણો જ સમ-સરખે હોય છે એજ રીતને ત્યાનો તે ભૂમિભાગ મૃદંગના પુષ્કર જે સમ-સરખે છે. મૃદંગએ લેક પ્રસિદ્ધ એક પ્રકારનું વાઘ વિશેષ છે, તેને પુષ્કર પણ બિલકુલ સરખુ હોય છે, ઉચું નીચું રહેતું નથી. એજ રીતે પરિપૂર્ણ પાણીથી ભરેલ તળાવની ઉપરનો ભાગ
Page #879
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
प्रमेयधोतिका टीका ग्रं.३ उ.३.५३ वनर्षण्डादिकवर्णन
५३ वा' लात्तलगिति श पानीयेन भृत तडागं सरस्तस्य तलम्-उपरितनो भागः 'करतलेइ वा' करदलमिलि वा करतलं प्रतीतम् 'चंदमंडलेइ वा चन्द्रमण्डल मिति चा, चन्द्रमण्डलं च यद्यपि तत्ववृत्त्या उत्तानीकृत कपित्थाकार पीठमामादापेक्षया वृत्ताले खमिति सद्तो दृश्यमानो भागो न समतलस्तथापि प्रतिभासते समतल इति तदुपादानम् ॥ 'आयंस मंडलेइ वा आदर्शमण्डलमिति वा-दर्पण. मण्डलमिति था, 'सूरमंडलेइ वा सूर्यमण्डलमिति वा, 'उरमचम्मेइ वा' उपभ्रः ऊरणः 'घेटा' इति लोकमसिद्धः 'उसमचम्सेइ वा वृषभचम, इति वा, वराह-पानी से भरे हुए तालाब का ऊपर का भाग जैसा समतलबाला होता है उसी प्रकार से यहां का भूमिभाग भी समतल वाला है ऊंचा नीचा नहीं है इसी प्रकार जैसा फरसाल के समान समभागवाला है जिस प्रकार चन्द्रमण्डल लमत्तलप्रतील होता है इली प्रकार से वहाँ का भूमिमाह भी समतलवाला है यद्यपि चन्द्र मण्डल समतलवाला नहीं होना है क्यों कि चन्द्रमंडल में उत्सानीकृत कपित्थके भाक्षार के जैसे पीठ प्रासादकी अपेक्षा ऊंचा नीचापन्य है परन्तु यहां जो लमतलता के विषय में इन्हें दृष्टान्त झोटी मे रखाया है, वह उनका दृश्यमानभाग समतल रूप से प्रतीमालित होता है इल अपेक्षा से रखागया है। इसी प्रकार से यहां का भूमिभाग 'आयसमंड लेइ वा सूरमंडलहवा' आदर्शतल के समान समतलवालाई और सूर्य मंडल जैसा समाल होता है वैसा समतल है 'उरभ०' उरभ्र नाम ऊ.ण का है जिले भाषा मे घेटा कहा जाता है इसका चमडाधिलकुल स्माल होता है इसी प्रकार-'उसमचम्मेह
જેમ એક સરખે સમતલ હોય છે ઉચે નીચે હેત નથી, એજ રીતને ' એ ભૂમિભાગ સમતલ હોય છે. જેમ કરતલ એક સરખે સમ હોય છે તેમ
એ ભૂમિભાગ પણ કરતલ જે સમતલ હોય છે. જે પ્રમાણે ચંદ્ર મંડલ એક સરખું સમ હોય છે એ જ રીતે ત્યોને ભૂમિભાગ પણ સમતલ હોય છે. યદ્યપિ ચંદ્ર મંડલ સમતલ હોતું નથી કેમકે ચ કમડલમાં ઉંચા કરેલ કાંઠાના આકાર જેવો પીઠ-પ્રાકારના જેવું ઊંચાનીચાપણું છે. પરંતુ અહીયાં જે તેને સમતલ પણાના દષ્ટાંતમાં રાખવામાં આવેલ છે, તે તેને દૃશ્યમાન દેખાતે ભાગ સમતલ દેખાય છે એ અપેક્ષાથી અહીં રાખેલ છે એજ રીતે त्याना भूमिमा 'आवंसमडलेइ वा सूरमडलेइ वा' मा तसना सरणा સમતલ વાળો છે. અને સૂર્ય મંડલ જેમ સમતલ હોય છે તે એ ભૂમિભાગ સમતલ વાળે છે “grદમ' ઉરભ્ર ઉરણને કહે છે, જેને ભાષામાં ઘેટા કહેવામાં આવે છે. તેનું ચામડું એકદમ સમતલ હોય છે, તેના જે
Page #880
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमन ३५४ चम्मेइ वा वराहचर्म इति वा, 'सीहचम्मेइ वा' सिंहचर्म इति वा, 'दग्घचम्मेह वा' व्याघ्रचर्मेति वा, 'विगचम्मेइ. वा' रुचमति वा, 'दीवीचम्मेइ वा द्वीपि-चित्रकस्तस्य चर्मेति वा, 'अणेग संकुकीलगसहस्सवितते' अनेकशङकुकीलकसहस्रवितता एतेपामुरभ्रादीनां प्रत्येकं चर्म अनेकैः शङ्कपमाणैः कीलकसहस्रः महद्भिः कीळकैरताडित पायो मध्य क्षामं भवति न समतलं भवति, अतः शङ्कग्रहणम्, विततं-विततीकृतम् ताडितं सद् यथाऽत्यन्त बहुसमं भवति तथा तस्यापि बन पण्डस्पान्तर्वद्समो भूमिभागः । पुनः कथंभूतो भूमिमागस्तत्राह-'णाणाविह पंचवन्नेहि' इत्यादि, 'णाणाविह पंचवण्णेहि तणेहि य मणोहि य उवलोभिए' नानाविध पञ्चवर्णैस्तृणैश्च मणिमियोपशोभितः कथंभूतै रतैः ? तत्राह-'अवड' वा' उसभाषा में बैलका नाम है 'वराह चम्मेह वा वराह नाम सुअर का है 'सीह चम्मेह वा सिंहा नाम शेर का है। 'बग्घ चम्मेहवा' व्याघ्र नाम सिंह की ही एक जाति के जानवर का नाम है, 'विगचम्मेह वा' वृकनार भेडिया का है 'दीवि चम्मेह वा द्वीपीनाम चीता का है 'अणेग संकुक्षीलग लहस्तावितसे' इन सब जानवरों का चमडा शङ्कप्रमाण बडी २ हजारों कीलों से जव तक ताडित नहीं होता है तब तक वह समतल वाला नहीं होता है, किन्तु वह मध्य क्षाम-पतला-रहता है
और जब वह-ताडित होता है तब वह वहुसम हो जाता है, अतः जिस प्रकार इन लवका चमडा इस प्रकार से ताडित हो जाने पर समतल वाला हो जाता है, उसी प्रकार से इस वनखंड का भी भीतरी भूमि भाग समतल वाला है 'नाणाविद पंचरणेहि तणेहि य मणीहिय उव. मोभिए' यह भूमिभाग नाना प्रकार के पंचवर्णों वाले तृणों से एवं
में भूमि समतल छ मे शत 'उखभचम्मेइ वा' वृषम अर्थात मह 'वराहचम्मे इवा' १२ (सु) सुवरने ४९ छे. 'सीइचम्मेइ वा' सिह 'वग्धचम्मे इवा' पा से मिनी १४ गत नाम छे. 'विगवम्मेइ वा' ४ मति ५४ 'दीविचम्मेइ बा' दीपि से वित्तानु नाम छ 'अणेग संकुकीला सहस्ववितते' मा मघा नपरानु या २ वा मोटा मोटा है। ખીલાથી જ્યાં સુધી ટીપવામાં આવતા નથી ત્યાં સુધી તે સમતલ બનતા નથી. પરંતુ તે મધ્યમાં પતળા રહે છે. અને જયારે તે ટીપાય છે, ત્યારે તે એક દમ સમ સરખા બની જાય છે. તેથી જે રીતે આ બધાનું ચામડું આ રીતે ટીપાયા પછી સમતલ બને છે, એ જ પ્રમાણે એ વનખડની અંદરને ભૂમિ मा समपाले। उय छे 'नाणाविह पंचवण्णेहि तणेहि य गणीहिय उव રોમિg” આ ભૂમિભાગ અનેક પ્રકારના પંચ વર્ણવાળા તૃથી અને મણિયે
Page #881
--------------------------------------------------------------------------
________________
चयप्रमौतिका ठीका प्र. ३ उ. ३ . ५३ वनषण्डादिकवर्णनम्
८५५
इत्यादि, 'आवड पच्चावडसेढी पसेढी सोत्थिय सोवस्थिय पूसमाण वद्धमाणमच्छंड कजारमार फुलावलि पउमपत्तसागरत रंगवासंविलय पउम ल्यभत्तिचित्तेर्हि' आवर्त्तप्रत्यावर्त्त श्रेणिमश्रेणि स्वस्तिक सौर्या तक पुष्पमाणवर्द्धमानकमत्स्याण्डकमकराण्डकजारमारपुष्पा चलिपद्मपत्र सागरतरङ्गवासन्तीलला झळताभक्तिचित्ररुपशोभितः अत्र आवर्त्तादीनि मणीनां लक्षणानि, तत्र आवर्ती लोकप्रसिद्धएव, एकस्यावर्त्तस्य प्रत्यभिमुख आवर्त्तः प्रत्यार्त्तः, श्रेणिस्तथाविधविन्दुजला देः पङ्किः, तस्याश्च श्रेणेः विनिर्गता या अन्या श्रेणिः सा प्रणिः, स्वस्तिको लोकमणियों से उपशोभित है यहां आगे के पदों से सबंध बताया गया हैवे तृण और मणि किस प्रकार के है सो दिखलाते है 'आवडपच्चावड सेठी सेटी सोत्थिय सोवस्थिय धूममाणवमाण मच्छंक नरडरुजार मारफुल्लावलि उमपत सागरतरंगा मं निलय मलय भत्तिचित्ते हिं' ये तृण और मणियां आयतं प्रत्यावर्त्त श्रेणी प्रश्रेणि स्वस्तिक सौवस्तिक, पुष्पमाणव वर्द्धमानक- शराव संपुट मस्स्यांडक, मकरा ण्डक एवं जारमार इन सब रचनाओं से अर्थात् आवर्त्तादिलक्षणों से युक्त है एवं पुष्पवलि पद्म पत्र सागरतरङ्ग वासन्तीलता और पद्मलता इनकी रचनाओं से जिनमें चित्र बने हुए हैं. मणिका लक्षण जो आवर्त है वह तो लोकप्रसिद्ध ही है एक आवर्तक के सामने जो दूसरा आवर्त्त होता है वह प्रत्यावर्त है इस प्रकार की जो विन्दु जैसा विन्दुसमूहों की पंक्ति है वह श्रेणि है, इस श्रेणि से जो दूसरी
થી શેાભાયમાન રહે છે. અહી' આગળના પર્દેને સબધ મતાવેલ છે.
એ વર્ણ मने भयो वा प्रहारना है ये सूत्रार बतावे छे. 'आवडढ पच्चावड्ढी सेढीपसेदी सोविय सेवत्थिय पूनमाणबद्धमाणमच्छडकमकर डकजारमारफुल्लावलि पउमपत्तसागरतरंगवास तिलय उमलय भत्तिचित्तेहि' मातृभु અને મર્શિયા આવત પ્રત્યાવત શ્રેણી પ્રશ્રેણી સ્વસ્તિક સૌવસ્તિક પુષ્યમાણુવ વસ્તુ માનક શરાવસ...પુટ માંડક, મકરાડક એવ' જારમાર આ બધી રચનાએથી અર્થાત્ આવતા વિગેરેના લક્ષણૢા વાળેા એ ભૂમિભાગ છે. પુષ્પાવલી, પદ્મપત્ર, સાગરતરંગ, વસતીલતા અને પદ્મલતા એ બધાએની રચનાથી જેમાં ચિત્રો બનેલા છે. એવે એ ભૂમિભાગ છે.
તથા
હવે આવત વિગેરે શદેશના અર્થ બતાવવામાં આવે છે. મણિનુ એક લક્ષણુ આવત છે તે તે લેાકમાં પ્રkિજ છે, તથા જલતરંગને પણુ આવત કહેવામાં આવે છે. એક આવની સામે જે ખીજુ આવત થાય છે તેને પ્રત્યાવત રહે છે. ખીદુ સમૂહાની જે પંક્તિ હોય તેને શ્રેણી કહે છે, એક શ્રેણીથી જે ખ્રીજી શ્રેણી નીકળેલી હાય છે, તેને પ્રશ્રેણી કહે છે. સાિ
Page #882
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमसूत्र मसिद्धः, सौवस्तिक पुष्पमाणवी लक्षणविशेषी लोकादेवावगन्तव्यो, बर्द्धमान शरायसंपुटं, मत्स्याण्डकमकराण्ड के को हासिद्धे एव, जारमारति मणेलक्षणविशेष लोकज्ञाप्यो, पुष्पावलि पद्मपत्रसागरत रङ्गवासातीलता पद्मलताः प्रसिद्धा एव, तासां पुष्पारल्यादि पद्मलतान्तानां भक्त या विच्छित्या चित्रैः आवर्तादि लक्षणो. पेतः, तथा- 'मच्छ एहि' सच्छायैः-विलक्षणच्छायायुक्तः 'सपरीपर्हि' समरीचिकः वहिर्गतकिरणजालस हतः, 'स उज्जोइएहि सोधोत्तैः- बहिर्व्यवस्थित समीपत्ति वस्तुस्त मप्रकाशम.रोधोतसहितैः, एवम्भूतः 'नाणाविद पंचवणेहि नानाविधपञ्च वर्गविभिन्नजातीयपञ्चरणोपतेः-तृणमणिभिश्योपशोभितो वनपण्डा, तानेव पञ्चवर्णान दर्श स्तुमाह-'त जहा' इ-यादि, 'तं जहा' यथा 'विण्हेहि जाव मुकिलेहि कृणणर्यायच्छुकतवर्णः, यावत्पदेन नीललोहितपीता.नां संग्रही भवति । एतान् पञ्चवर्णान् पृथक् पृथक् वर्णयति-तत्र थम गौतमः कृष्णवर्गविपये पृच्छति श्रेणि निकली हुई होती है यह प्रश्रेणि है साथिये प्ता नाम स्वस्तिक है, सौवस्तिक और पुष्यमाण ये दो लक्षणविशेष लोक से जानने योग्य है शरायसंपुट का नाम व मानक मत्स्याण्डक और माग. ण्डक भी मणिलक्षण विशेष है। और ये श्री रत्न परिक्षकों से जानने योग्य है । जार मार भी इमी प्रकार के प्रजिलक्षणविशेष है और ये भी जोइदियो से जानने योग्य है। 'शच्छादि पतिरीपहिं न:जोहि नागविणे' तथा ये तृण मगि सुन्दर ति से युक्त है । बाहर निकलती हुई कि जाल, नमक है नशा बाहर नही हुई निकट की वस्तुमो के समृद के प्रकाश करने वाले उद्योन से यक्त जिन पांचवर्ण दाले तृा और नानाविधानियो से मत भूमि भाग युनक है व मणियां कृष्णवर्ण, पारद् शुल्कवर्ण इलवर्णों से सशोभित है यहां यावत्पद से नील लोहित और पीलकों का ग्रहण યાને સ્વસ્તિક કહે છે. વિનિક અને પુષમણવ એ છે શબ્દનો અર્થ લેક સમૂહથી જાણી લેવો. શરાસંપુટને વદ્ધમાક કહે છે મ ય ડા ને મકરાંડ એ મણિના લક્ષણ વિશેષ છે અને એ રત્નની પર કરવાવાળા पास थी सोना, 'सन्छाएहि समरीएहिं सउपजोएहि णाणाविह पंच gorg” તથા આ તૃગ અને મણિશે સુંદર કાતિથી યુક્ત છે બહાર નીકળતી કિરણભાળે થી યુક્ત છે તથા બહાર રહેલ સમીપની વસ્તુઓના સમૂહને પ્રકાશિત કરવાવાળા ઉદ્યોત તેજથી યુકત છે. જે પ ચ વર્ણના તૃગ અને નાના પ્રકારના મણિથી એ ભૂમિમાગ ચુત છે, તે મણિ કૃષ્ણવર્ણ ય વ શુકલ વણથી સુશોભિત છે અહીયાં યાસ્પદથી નીલ, લેહિત, અને પીતવર્ણ
Page #883
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेययोतिका टीका प्र.३ ३.३ सू.५३ वनषण्डादिकवर्णनम् 'तस्थ णं जे ते किण्हा तणाय मणीय' तत्र-तेषां पश्चवर्णा तृणानां मणीनां च मध्ये खलु यानि तान कृष्णानि तृणानि ये ते कृष्णा मणयश्च 'तेसिं णं अयं एयारवे वण्णावासे पन्नत्ते' तेषां कृष्णवर्णोपेतानां तृणानां मणीनां च खल किम् अयम्-अनन्तरमुद्दिश्यमान एतावद्रपोऽनन्तरमेव वक्ष्यमाणस्वरूपो वर्णावासो-वर्णनिवेशः प्रज्ञप्त:-कथितः ? तदेव दर्शयति-से जहा णामए' तथानामकम्-'जीमूतेइ वा जीमूत इति वा, जीमूतो मेघः स पी प्रारम्भसमये जलभृतो ज्ञातव्य स्तत्सशस्तृणानां मणीनां च कृष्णवर्णः, तादृशमेघस्यैवातिकालिमसंभवात्, इति शब्द उपमाभूतवस्तूनामपरिसमाप्तियोतका वा शब्द उपमानान्तरापेक्षया समुच्चये, एवमेव सर्वत्रैव इति शब्द वा शब्दो द्रष्टव्याविति ।।
'अंजणेइ वा' अञ्जनमिति बा, तत्र अञ्जनं सौवोराञ्जनं रत्नविशेषो वा 'खंगणेइ वा' खञ्जनमिति वा खञ्जनं दीपमल्लिकामलः, 'कज्जलेइ वा कजल मिति वा कज्जलं दीपशिखा पतितम् 'मसीति वा' मपीति वा, तदेव कज्जलं हुआ है इन पांचों वर्गों का पृथक पृथक वर्णन करते हैं उनमें गौतम स्वामी प्रथम कालवर्ण के विषय में पूछते है हे भगवन् 'तत्थ णं जे ते कण्हा तणा मणीय' इन पांचवणाले तृणों और मणियों के बीच में जो कृष्णवर्णवाले तृण और मणियां है 'तेसिणं अयं एयारूवे क्षपणावासे पण्णत्ते' उनका वर्णावास वर्णन्यास इस प्रकार का होता है क्या ? 'से जहानामए जीमूतह वा' जैसा काला वर्षा के प्रारम समय में जल से भरा हुआ बादल होता है 'अंजणेतिवा' जैसा काला सौवीराजन या इस नामका रत्न विशेष होता है 'खंजणेहवा' जैमा काला-खंजनदीपमल्लिका मैल होता है 'कज लेइछा' जैसा फाला काजल होता हैदीप शिखा से गिरी हुई मधी होती है अर्थात् काजल को किसी ગ્રહણ કરાયેલ છે હવે એ પાંચે વર્ગોનું અલગ અલગ વર્ણન કરે છે તેમાં શ્રી ગૌતમસ્વામી પહેલાં કાળાં વર્ણના સંબંધમાં શ્રી મહાવીર પ્રભુને પૂછે છે કે हे भगवन 'तत्य गं जे ते कण्हा तणा मणीया से पन्य पात। मन माणुयामा २४०५ वा तय मने भणियो, 'तेसि णं अय एयारवे वण्णावासे पण्णत्ते' तो पर्यावास-पन्यास मावी शते हाय छ ? 'से जहा नामए जोमूतेइवा' वर्षान पारस समयमा reी सरेसा पाणावा ॥ हाय छे'अंजणेतिवा' २ण सीवान मथ! मे नानुन विशेष
य छे, 'ख जणेवा मन हीवानी मेख-मश २ को हाय छे. 'कज्ज. જે રૂવા” કાજળ અર્થાત દીવામાંથી ખરેલી મશ જેવું કાળું હોય છે, અથવા કાજળને તાંબાના વાસણુમાં એકઠું કરી જ્યારે તેને કોઈ નિગ્ધ પદાર્થની
मी० १०८
Page #884
--------------------------------------------------------------------------
________________
८५८
जीवा मिगमसूत्रे
)
ताम्रपत्रादिषु सामग्रीविशेषेण घोलितं मषी भवति, 'मसीगुलिया वा' मषीगुटिकेतिक घोलितकज्जलगुटिका 'गवळेवा' गवलकमिति वा गवलं महिपस्य शृङ्गम् तदपि चोपरितनत्वग्भागापसारणेन द्रष्टव्यं तत्रैव विशिष्टस्य काळिम्नः संभवादिति, 'गवलगुलियाइ वा गवलगुटिकेति वा तस्यैव महिपस्य निविडतरसारनिवर्त्तिता गुटिका गलगुटिका 'ममरेड़ वा' भ्रमर इति वा, 'भमरावलिया वा' भ्रमरावलिकेति वा, भ्रमरावलिका भ्रमरपङ्क्तिः: 'ममरपतंगसारे ना' भ्रमरपतङ्गसार इति वा, भ्रमरपक्षान्तर्गतो विशिष्टकालिमोपचितः प्रदेशः 'जंबू फळे वा' जम्बूफलमिति वा तत्र जम्बूफलं 'जामून' इति प्रसिद्धम्, 'अदारि वा' आर्द्रारिष्टः कोमळकाकः, 'परपुढे वा' परपुष्ट इति वा परपुष्टः ताम्रपानादि में एकट्ठा करके जब उसे किमी सामग्री के साथ घोल दिया जाता है तब यह विशेष रूप से काला होकर मधी काली स्याही के रूप में आजाता है इसे ही मपी कही गई है हनी लिये यहां काजल को दृष्टान्त कोटि में स्वागया है 'मी गुलिया वा' जैसी काली मपी की गुटिका होती है 'गवल' जैमा काला भैसका होता है-भैंस के सींग की उपर की खाल निकाल देने पर वह विशेष कृष्णवर्ण का होता है -- इसीलिए इसे यहां दृष्टान्तकोटि में रखा गया है 'गयलगुलियाड़ वा' जैसी काली गवलगुटिका शेती है यह गलगुटिका महिष के शृह के निविडतर सार भाग से निर्वर्त्तित होने से विशेष कालिमा वाली होती है 'मरेहना' 'जैला फाला भ्रमर होता है । 'भमरावलियाइ वा' जैसी काली भ्रमरपंक्ति होती है 'भ्रमरपतगसारे वा' जैसा भ्रमर के पक्ष के अन्तर्गत प्रदेश विशिष्टकालियावाला होता है 'जंबूफले वा' जैमा काला जामृन का फल होता है 'अदारिति वा' जैसा काला
સાથે મેળવી દેવામાં આવે છે, ત્યારે તે વિશેષ પ્રકારે કાળુ ખીને ચમકે છે. અને તેને પી કહે છે. તે ખતાવવા ઠ્ઠી કાજળને દૃષ્ટાંત કેટમાં લીધેલ 'छे 'मखीगु लाइवा' भसीनी गुटिश-गोणी नेवी आणी हाय है. 'गवल" ભેંસનું સી ગ જેવુ' કાળુ હાય છે ભેસના સીગડા ઉપરની ખાલ કાઢી લેવાથી એ વિશેષ પ્રકારશ્રી કાળા દેખાય છે તેથીજ તેને અહીં દૃષ્ટાંત તરીકે ગ્રહણ 'गवलगुलियाइवा' नेवी आणी गवसगुटिङ होय छे. या गवसशुटिम ભેંસના મીગડાના એકદમ સારભાગ રૂપ હાવાથી વિશેષ કાળાશ વાળી હાય छे 'भमरे इवा' वे हो लभरो होय छे, 'भमरावलियाइवा' भभरायोनी पति देवी श्रेणी होय हे 'भमरपत्तगयसारेइ वा' लभरामोनी यांनी २ने। लाग प्रेम विशेष अहारनी अणाश वाणी सोय ', 'ज'बूफलेइवा' 'जुडा नेवा क्षणा होय छे. 'अदारिदेवा' अगअनु' भ्यु नेवु अणु होय छे, परपुट्ठेवा'
*
Page #885
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका ठीका प्र.३ ३.३ सू.५३ वनषण्डादिकवर्णनस् कोकिलः स च कापालितो अवतीति लोकमसिद्धः 'वा' गज इति चा, गजो हस्ती 'गय कलभेइ वा' गजकलम:-गजशिशुरिति चा 'कण्डसप्पेइ वा' कृष्णसर्प इति वा 'कण्ह केसरेइ बा' कृष्ण केसर इवि दा, कृष्णकेसरो बकुलः, 'आगासधिग्गलेइ वा आकाशथिग्गलमिति वा आकाशदिग्गलं शरदि मेघविनिमुंक्तमाकाशखण्डं तहदति कृष्णम् 'कण्हासोयेति का' कृष्णाशोक इति वा 'किण्डकणवीरेह वा' कृष्णकणवीर इति बा, 'कण्हवंधुजीवेइ वा' कृष्णवन्धुनीव इति वा, एते अशोकादयो वृक्षभेदाः। भवे एयारूवे सिया' भवेत्तृणानां मणीनां कृष्णो वर्णः एतावद्रूषो जीमूतादिश्वरूपः किं स्यात् ? इत्येवमुक्ते श्रीगोतमे भगवानाह'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'गो इणटे सपढे' लायसर्थः समर्थः यदुक्तः कोमल काक होता है 'परपुढेइ था' जैसी काली कोयल होती है गए का जैसा काला हाथी होता है 'मय कलमेति वा जैसा काला हाथी का वच्चा होता है 'कण्हसप्पेह वा' जैसा काला कृष्ण लप होता है कण्ह केसरेइ वा जैसा काला कृष्ण केशर-बकुल होता है 'आमासथिग्गलेह वा' जैसा काला आकाशथिग्गल होता है शरदकाल में अघविनिर्मुक्त आकाश खण्ड होता है कहानीएति वा' जैसा काला कृष्ण अशोक होता है 'कण्ह क्षणवीरेइ वा' जैसी काली कृष्णकनेर होती है 'कणा बंधु जीवेइ वा जैसा काला बंधुजी होता है 'एयारवेनिया' तो क्या हे भदन्त ! वहाँ के तृणों का और मणियों का कृष्णवर्ण इन पूर्वोक्तजी मूतादि के जैसा ही होता है ? इस प्रकार से श्रीगौतमस्वामी के बीच में ही पूछने पर प्रभुश्री ने उनसे कहा 'गोयला' ! 'णो इणढे सनडे'
4 sal 14जी हाय हाय छे. 'गपइवा' हाथी २३ व भ महान अणे डाय छे. 'गयकलभेइवा' हाथीनु परयु । हाय छ, 'कण्हसप्पेइवा'
वो लय ४२ वि४२॥ ४ स५ ।य छे. 'कण्हकेसरेइना' २ ४ 38२ ५४ डाय छे. 'आगासथिग्गलेइवा' रे णु यश थि हाय छ. अर्थात् श२६ सभा मेथी भुत थयेर मा म हाय छ, 'कण्ह सोएइवा' । । gory मा डाय छे. 'कण्हकणवीरेइवा' वी जी ४५ ४२। डाय छे. 'कण्ह बधुजीवेइवा' पु. अणु ५०१ डेय छे. 'एयारूवे सिया' 8 सपन् । त्यांना तृणे। मन मणियोनी आतिभा मा પહેલાં કહેલ મેઘ વિગેરેના જેવી હોય છે? આ રીતે શ્રીગૌતમસ્વામીએ पयमा प्रश्न ४२वाया तना उत्तर भापतi प्रभुश्री ४९ छे , 'गोयमा ! णे। इणद्वे समटे' मा अथ सशस२ नथी. अर्थात् २वी रीत मेघ विगैरेने ४
Page #886
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमस्त्रे एवं भूतः कृष्णों वर्णों वा सणानां मणीनां च किन्तु 'तेसिणं फण्डाणं तणार्ण मणीण य' तेपी खल कृष्णानां तृणानां मणीनां च 'इत्तोइराए चेव कंततराए' इतो जीमूतादेः इष्टतरक एच कृष्णवर्णेनामीप्सिततरक एक, तत्र किश्चिदकान्तताऽपि केपाश्चिदिष्टतरा भवति ततोऽकान्तताव्यवच्छेदार्थमाह- कान्ततरक एवं अतिस्निग्धमनोहारि कालिमोपचिततया जीमृतादेः कमनीयतरक एव 'पियतराए चे। प्रियतरक एच, अतएव 'मणुगायराए चेव' मनोजतरक एव, मनसा ज्ञायन्तेअनुकूलतया च प्रवृत्तिविषयोक्रि पन्ते इति मनोहा:-मनोऽनुकूलाः ततः प्रकर्ष विविक्षायां तरप्पत्ययः, तत्र मनोहतरमपि फिश्चिमध्यम भवति ततः सर्वोत्कर्षः हे गौतम यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् जैसे जीमूत आदि कालेवर्णवाले अभी २ कहे गये है वैसे हाले वर्णवाले ये तृण और मणि नहीं है किन्तु 'सेसि कहाणं तणाणं मणीण य इत्तोष्ट्रमराए चेव कंमत राए' इन तृण मणियों का जो कृष्णवर्ण है वह इन जीमूनादिक पदार्थों से भी बहुत अधिक कृष्ण-काला है और यह उनकी कृष्णता देखनेवालों को अमचिका विषय नहीं होती है किन्तु अत्यन्न सुहावनी ही लगती है अतः अतिस्निग्धमनोहारिकालिमा से उपचित होने पर भी ये जीमूत-मेघआदि की अपेक्षा अत्यन्त कमनीय ही है 'पियतराए चेव' वियतर ही है 'मणुप्रणयरोए चे' मने ज्ञनर ही हैं जिसे मन अनुकूल मानकर अपनी प्रवृत्ति का विषय बनाता है ऐसा पदार्य ही मनोज कहा गया है । इम मनोज्ञ के साथ प्रकर्षविवक्षा में 'तर' प्रत्यय होने વર્ણવાળા તમને બતાવ્યા છે તેવા પ્રકારની કાળાશવાળા એ તૃણ અને भगियो नया. ५२ तु तेविं काहाणं तणाण मणीणय इत्तो इद्रुतगए चेव कंततराए' એ તૃણ મણિની જે કાલિમા છે તે આ જીમૂત-મેઘ વિગેરે પદાર્થોથી પણ ઘણુ જ વધારે કાળાશ છે. અને એ કાળાશવાળી જેવાવાળાને અરૂચિકર હતી નથી પરંતુ અત્યંત સહામણી જ લાગે છે તેથી અત્યંત સિનગ્ધ અને મનોહર કાળીમાંથી યુકત હોવા છતા પણ એ આ મેઘ વિગેરેની અપેક્ષાએ અત્યંત मनीय १ छे. 'पियतराए चेव' प्रियत२०४ छे. 'मणुण्णतराप चेव' मनोज्ञत२०४ છે જેને મન અનુકળ માનીને પિતાની પ્રવૃત્તિને વિષય બનાવે છે, એવા પદાર્થ જ મનેઝ કહેવાય છે. આ મને જ્ઞની સાથે પ્રકર્ષની વિવક્ષામાં ત૨૫ પ્રત્યય થવાથી “મનેડૂતર પદ બની જાય છે. આ રીતે જે અતિશય પણાથી મનને અનુકૂળ હોય છે, તે મનેzતર કહેવાય છે કેઈ કંઈ મનેતર પદાર્થ पर मध्यम हाय छे तथी मानी पाशमा स४ि पासता साट 'मणाम: तराए चेव' 2 ५६ हेपामा मावस. भनन २ पाताने शरीरात
Page #887
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेययोतिका ठीका १.३ ७.३ . ५३ वनपण्डादिकवर्णनम्
८६१
प्रतिपादनार्थमाह- 'मणामतराए चेव ' मन आमतरक एव, मनांसि आम्यन्तेआत्मवशतां नयन्ति इति मन आमतरक एव तेषां तृणानां मणीनां च कृष्णोवर्णावासः 'वण्णेणं पन्नत्ते' वर्णेन मइस कथित इति ।
अथ गौतम नीलवर्णविषये पृच्छति - 'तत्थ णं जे ते गीगा तणा य मणीण य' तत्र तेषां तृणानां मणीनां च मध्ये खलु यानि तानि नीलानि तृणानि ये ते नीला मणयश्च 'सेसि णं तेषां खलु तृगानां मणीनां च 'इमेयारूवे वण्णावासे पन्नत्ते' किम् अयम्- अनन्तोद्दिश्यमान, एतावद्रूपः- वक्ष्यमाणस्वरूपो वर्णावास - वर्णनिवेशः प्रज्ञष्टः- कथितः ? देव दर्शयति- 'से जहा णामए' उद्यथा नामकम् 'भिंगेड़ वा' भृङ्ग इति वा, भृङ्गः - (मिंगोडी' इति प्रसिद्धः पक्षशन लघुनन्तु विशेषः, 'पित्ते वा' भृङ्गपत्रमिति वा, तस्यैव भृङ्गाभिधानस्य जन्तुविशेषस्य पक्षम 'चासे वा' चाप इति वा, चापः पक्षिविशेषः 'चासपिच्छे वा' चाषपिच्छमिति वा, चापपिच्छं चापस्य पक्षः 'सुपति वा' शुक इवि वा. नीलवर्णः शुकः पक्षी 'सुपिच्छे वा' शुक्रपिच्छमिति वा 'पीलीति वा' नीली इति वा नीली 'नील' से 'मनोज्ञसर' पद निष्पन्न हो जाता है । इस तरह जो अतिशयरूप से मन के अनुकूल होता है वह मनोज्ञतर है । कोई २ मनोज्ञनर पदार्थ भी मध्यम होता है - अतः इन की कृष्णता में सर्वोत्कर्पता प्रतिपादन करने के fafe 'मणामनराएचेव' यह पद कहा गया है जो मन को अपने वश में कर देता है, वह मनोम है यहां पर भी प्रकर्ष की विवक्षा में तर प्रत्यय हुआ है। इस प्रकार के कृष्णवर्ण से युक्त यहां के मणि और तृण कहे गये है । अब श्रीगोतमस्वामी नीलवर्ण के विषय में पूछते है- 'तस्थ णं भंते नीलगा तथा य सणी व वहां पर जो नीलेवर्ण के तृण और मणि कहे गये है 'तेषि णं हमेघारूवे वण्णावासे पत्ते' उनका वर्णवास इस प्रकार कहे है क्या ? 'से जहानामए भिंगेह या भिंग वाचासे वा चासपिच्छे वा, सुरति वा सुपपिच्छेइ वा, पीलीति वा, नीली भेएह वा' जैसा नीला भृंग होता है जिसको મનેમ કહેવ ય છે. અહીયાં પણુ પ્રા'ની વિવક્ષામાં તરપૂ પ્રત્યય થયેલ છે. એવી રીતના કૃષ્ણ વણુ વાળા ત્યાંના મણિયે અને તૃણ્ણા હોય છે તેમ કહેલ છે.
हवे श्रीभतभस्वामी नीसवाना संबंधमां अनुश्रीने पूछे छे 'तत्थ णं भवेणीला तणाय मणी य' त्यां ने नीस वर्षावाणा तुमने भदियो सा छे 'वेखि णं इमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते' तेतु वर्षान आ ते ताववाभां मावेस छे से जहानामए भिगेइना भिगपत्तेइवा, चासेइबा चासविच्छेइवा सुइ वा सुयापच्छेइवा पीळीतिवा पीलीभेपइवा' भृंग नेवा नीस ना हाय है,
Page #888
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमसूत्र इति लोकप्रसिद्धः 'गोली भेइ वा नीली भेद इति वा, नीलीभेदो नीलीच्छेदः नीलखण्ड मित्यर्थः 'णीलीगुलिपाइ वा नीलोगुटिका इति वा 'सामाएति वा' श्यामाक इति वा श्यामको नीलवर्णों धान्यविशेषः 'उच्चंतएइ वा उच्चंतग इति वा, उच्चंतगो दन्तरागः 'वणराईइ वा बनराजी इति वा वनराजी लोकप्रसिद्धव, 'हलहरबसणेइ वा' हलधरवसनमिति वा, हलधरो वलदेव स्तस्य वसनंवस्त्रं इलघरवप्तनम् , तत् खल्ल नीलं भवति सर्वदेव तथा स्वामाव्यात् हलधरस्य नीलवस्त्र परिधानात, 'मोग्गीवाइ वा' मयूरग्रीवा इति वा 'पारेवयगीवाइ वा' पारावत:-कपोत स्तस्य ग्रीवा इति वा, 'अयसिकुसुमेह वा' अतसीकुसुममिति वा, 'अंजणकेसिगाकुसुमेह वा' अञ्जनकेशिकाकुमुममिति वा, अञ्जनकेशिका वन भीगोडी कहते है जैसा नीला भृङ्ग पत्र होता है जैला नीला चाप पक्षी होता है जमा नीला उसका पंख होता है। जैमा नीला रंगका शुक-तोता होता है जैसा नीली शुककी पंख होती है जैसी नीली नीली होती है, जैसा नीला नीलीभेद होता है 'णीलीगुलियाई वा' जैसी नीली नीली गुटिका होती है 'सामाएति' जैसा नीला श्यामाकधान्य होता है, 'उच्चतएतिवा' जैसा नीला उच्चतग-दन्तराग होता है। 'वणराई इवा' जैसी नीली वनराजि होती है 'हलहरबसणेइ वा जैमा नीला हल. घर-बलभद्र का वसन-वस्त्र होता है 'मोरगीवाति वा' जैसी नीली मयूर ग्रीवा होती है 'पारेवयगीवातिया' जैसी नीली पारावत परेवा कबूतर की ग्रीवा होती है 'अयति कुसुमेह वा' जैसा नीला अलसीका फूल होता है 'अंजणकेसिगा कुसुमेति वा जला लीला अंजन केशिकाकुसुम होता है 'अंजनकेशिका' बनस्पति विशेषका नाम है જેને ભગાડી કહે છે, ભૃગપત્ર જેવુનીલ હોય છે. ચાલપક્ષી જેવું નીલ હોય છે. જેવી નીલી તેની પાંખ હોય છે. શુક પેપ) જેવા નીલા રંગના હોય છે.. અને જેવી નીલરંગની તેની પાંખ હોય છે જેવી નીલી લીલ હેય છે. અને २ नीस सामने से हाय छ, 'णीलीगुलिया इशा' सीखनी शुटि गाणी 24 साली य छे. 'सामाएति वा' श्यामा नामनु धान्य सादुखाय छ, 'उच्छतएतिया' की यn (in भावाना 1 विशेष) डेय छे. 'वणराईइवा' वनराल वाली य छ, 'हलहरवसणेइवा' ५२ समर्नु परेवु की डाय छे 'मोरग्गीवाइवा' भारनी श्रीवा २वी elal डाय छ, 'पारेवय गीवा इवा' पारेवा-यूरोनी श्रीवा व वीसी डाय छे. 'अयसी कुसुमेइवा' भसीन युद्ध २५ सील Bाय छ, 'अंजण केसिगा कुसुमेइवा' म शिना दासी २ सना हाय छे 'मनमेशि।'
Page #889
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
-
अमेयचोतिका का प्र.३ उ.३ १.५३ वनषण्डादिकवर्णनम्
८६३ स्पतिविशेष स्तस्याः कुसुमम् अञ्जनके शिकाकुसुमम् ‘णीलुप्पलेइ वा नीलोत्पलमिति वा, 'णीलासोएह वा नीलाशोक इति वा, 'णीलकणवीरेइ चा' नीलकणबीर इति वा, ‘णीलबंधुनीवेएइ वा नीलबन्धुजीवक इति व', 'भवेएयारूचे सिया' भवेत् तृणानां मणीनां च एतावदपो -नीलो वर्णावासः किं स्यादिति गौतम वाक्यम् भगवानाह-'गोयमा' हे गौतम ! ‘णो इणढे साडे' नायमर्थः, समर्थः, 'तेसि णं नीळगाणं तणाणं मणीण य तेषां खलु नीलानां तृणानां मणीनां च 'एत्तो इतराए चेव' इत:-भृङ्गादेः इष्टतरक एक 'कंततराए चेव' कान्ततरक एच 'मणुमतराए चेव' मनोज्ञतरक एव 'मणामयराए चेव' मन आम्र क एव, 'दण्णेणं पन्नत्तो' वर्णेन नीलो वर्णावासः प्रज्ञप्तः-कथित इति । इसका कुसुमनीलवर्ण का होना है 'णीलुप्पलेह वा' जैसा नीला नीलो. स्पल नील कमल होता है। 'णीलामोएबा' जैसा न ला नील अशोक वृक्ष हेता है 'णीलकणवीरेइ वा' जैसी नीली नीलब नेर होती है 'जील. बंधुजीवेइ वा' जैसा नीला नील ब.धुजीवक होता है तो क्या, हे भदन्त ! वहां के तृण और मणियों का ऐसा ही नीलवर्ण होता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते है । गोयला! णो इणढे सन हे' हे 'गौतम । ऐसा अर्थ समर्थ नहीं है क्योंकि 'तेलिणं णीलगाणं तणाणं मणीण य' उन नीले तृणों को और मणियों का 'एतो इतराए चेव कंततराए चेव चण्णेणं पनसो' जो नीलाचर्ण है वह इन भङ्गादिकों की अपेक्षा से बहुत अधिक इष्टतरक शान्ततरक और मनोज्ञलरक तथा मन आम. तरक होता है अतः ये नीले तृण और मणि इल रंग से उन भङ्गादिकों को अपेक्षा बहुत अधिक इष्ट तरफ आदि विशेषणों वाले होते है। थे वनस्पति विशेषतुं नाम छ. मेनु ५०५ न बन डाय छ 'नीलुप्पले इवा' नोयस नlasम लीय छ, 'णीलासोएइवा' नी म वृक्ष बाबु य छ, ‘णील कणवीरे इबा' वी नीत, नास ४२ हाय छ. 'जीलबंधुजीवेइवा' नीस मधु०५ रे नीत गर्नु हाय छे. तो है ભગવન શું તે તૃણ અને મણિ એવા નીલ વર્ણના દેય છે? આ પ્રશ્નના उत्तरमा प्रभुश्री गीतमस्वामीन ४ ॐ 'गोयमा । णा इणट्रे सम?' 8 गौतम ! ॥ अथ ४थन मशगर नथी म तेसि णं णीलगाणं तणाणं मणीण य' से दी । मन मशियाना 'एत्तोइटुतराएचेव वण्णेणं पण्णत्ता'२ લીલે વર્ણ છે તે આ ભંગ-ભમરા વિગેરેના કરતાં ઘણો વધારે ઈષ્ટતર, કોતતરક, અને મને જ્ઞતરક તથા મન આમતરક હોય છે, તેથી આ નીલ વણના તુષ અને મણિ આ ભંગ-ભમરા વિગેરેના રંગ કરતાં પણ ઘણાજ વધારે ઈટતર કાંતતરક, વિગેરે વિશેષાવાળા હોય છે. •
Page #890
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमसूत्रे अथ रक्तवर्णविपये श्रीगौतमः पृच्छति- 'तन्थ जे ते लोहियमा तुणाय मणीय' तत्र तेषां तृणानां मणीनां च मध्ये यानि तानि लोहिनानी गाने ये ते लोदिता मणयच 'सेसिणं अरमेयारूदे वण्णावासे पन्नत्ते' तेपां लोहितवणमणीनां किम् अयम्-अनन्नरमुद्दिश्यमान एतावद्रपो वक्षामाणस्वरूपो वर्णावासा मसा-कथितः, तदेव दर्शाति-'से जहा णामए' तद्यथा नामकम् 'सप्लगहिरेइ का' शशकरुधिसमिति वा, शशकः 'ससारा खरगोश इति प्रसिद्धस्तस्य कधिरम् 'उरभरुहिरेइ वा' उरभ्ररुधिरमिति वा, उपभ्र आणः 'बेटा' इति लोकमसिद्ध स्तस्य रूधिरम्, "जरमहिरेइ वा नररुधिरमित वा 'वराहरु हरेइ वा' चराहरुविरमिति वा वराहो ग्रामशूकर स्तस्य रुधिरम् 'महिसरुहिरेइ वा महिपरुधिरमिति वा, शशकादि महिपानानां रुधिराणि शेषनीवरुधिरापेक्षश उत्कटलोहितवर्णानि भवन्ति, तत एतेषामुपादानम् । 'बालिंदगोपएड वा बालेन्द्र गोपफ इति वा वाले द्रगोपकः सद्यो जात इन्द्रगोपका, स हि प्रवृद्धः सन् ईपद्रको भवति ततो वालग्रहणम् इन्द्र गोपकः प्रथमपाइ मावी कीटविशेषः । 'बालदिदागरेइ वा' बालदिवाकर इति वा, बालदिवाकर प्रथम मुद्गच्छन् मूर्य सचातीव रक्तवर्णों भवति-तथोक्तम्
अब श्रीगौतमाचामीलोहित वर्ण के विषय में पूछते है 'तत्व णं जे ते लोहियगाणाध मणीय लेमिणं अयमेघाचे वाचासे पगत्ते' वहां जो लाल वर्णवाले तृण और मणि कहे गये हैं उनका वर्णवाम इम प्रकार होता है क्या ? 'से जहाणामए समर्माहरेश्या' जना शास-खरगोश का रूधिर लाल होता है। 'उरुभमहिरेवा' जैम्बा टाका मधिर ल ल होना है। 'परमहिरेह बा जैना मनुष्य का मचिम लाल होता है। वराहमदिरे बा' जै पा सुकर का रूधिरलाल होला है । 'महिलमहिरेह वा' जैमा ममा का मधिर लाल होता। पालिंदगोवएति वा' जैमा लाल बाल प्रथमवर्षाकालभावो इन्द्रगोपककीट विशेष होता है 'बालदिवामહવે ગીતમરી લેહિત લાલ વર્ણન સ બ ધના પ્રભુશ્રીને પ્રશ્ન કરતાં
से मान 'तत्य गंजे से लो हयगा तगा य मणी य रेमिण अयमेया. वे चण्णावासे पण्णत्ते त्यां ela ५ वाणा त सने मणिय द्या छे. तो पास-नमा प्रभा डायथे ? 'से जहानामए ससकमहिरेडवा' ससा ही साय छ, 'णरुहिरेइव।' मनुनु सही a साय छे. 'उमाहिरेवा' टानुसाही रेस हाय वराह गहिरे इवा' १२ सुनुवाडीला त्य छ, 'महिसरहिरेइवा' मे सनु सही सारा डाय छे. 'वालि दगोवएइया' पा वहिना समयमा पन्न थये। मादा ५ 8ीर विशष २१ साद डायो , 'बालदिवाक
Page #891
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ. ३ सु. ५३ वनपण्डादिकवर्णनम्
८६५
1
उदये सविता रक्तो, रक्तवास्तमयेऽपि चे 'ति । 'संझन्भरागे वा' सन्ध्याभ्रराग इति वा वर्षाकाले सन्ध्यासमयभावी अभ्ररागः 'गुंजद्धराए ।' गुञ्जार्द्धराग इति वा, तत्र गुञ्जा लोकप्रसिद्धा तस्या अर्द्ध रागो यो रक्तो भागः गुञ्जादरागः, गुञ्जाया उपरितनार्द्ध मागः कृष्णो भवति, निम्नभागस्तु अतिरक्तो भवति, ततो गुजार्द्ध ग्रहणम् 'जाति हिंगुळएइ वा' जात्यहिंगुलुक इति वा 'सिलवाह वा' शिलापवालमिति वा, शिलामवाळनामा रक्तरत्नविशेषः, 'पचालं कुरे वा' वालाङ्कुर इति वा तस्यैव प्रवालनामक रत्नविशेषस्याङ्कुरः मवाळाकुर, स खलु प्रथमोगतत्वेनात्यन्तरक्तो भवति तत स्वदुरादानमिति । 'लोहितख मणीति वा' लोहिताक्ष मणिरिति वा, रक्तवर्णो मणिविशेष लोहिताक्षमणिरिति । 'लाक्खारस एइ वा' काक्षारस इति वा, लाक्षा खलु लोकपसिद्धा, तस्या रसः, 'किमिरागे वा' मिराग इति वा 'रत्तकंबले वा' रक्तकम्बल इति वा, 'चीनरेवा' जैसा लाल बाल दिवाकर होता है जैसे कहा है 'उदये महिना रक्तो रक्तश्चास्तमयेऽविच' सूर्य उदय समय में तथा अस्त के समय में भी लाल ही होता है 'सजन्भरागेह वा' जैसा लाल वर्षाकाल में संन्ध्यासमय का अनुराग होता है 'गुंजद्धराएइ वा' जैसा लाल गुंजा का - रत्तीका - अर्द्धभाग का रंग होता है । 'जातिहिंगुळे वा' जैसा लाल शिलाप्रवाल- प्रवाल नामका रत्न विशेष होता है- 'पपालं कुरेशवा' जैसा लाल प्रबालाङ्कर होता है मवाल कोंपलका अङ्कुर प्रथमो इन होने से अत्यन्त लाल होता है इसीलिये यहां उसे दृष्टान्तकोटि में रखा गया है 'लोहितक्मणी वा' जैसा लाल लोहिताक्षमणि होता है 'लक्खार सेहवा' जैसा लोल लाक्षारस होता है । 'किमिरागेइ वा' जैसा लाल कृमिराग होता है 'रत्तकंबले वा' जैसा लाल रक्त रेखा' नेवा सास मास हिवार सूर्य होय छे. प्रेम 'उदये सविता रको रक्त श्वास्तमयेऽपिच' सूर्यना सहयना समये मने अस्ना समये य रंग सास, हाय छे, संजन्भर इवा' वर्षानी संध्या समयनो रंग सास होय छे. 'गुजद्धरागेइवा' गुल- रतिना अर्ध लागने। रंग लेव લાલ होय छे, 'जाति हिंगुलेवा' लत्य हिंगणेोन रंग वा सास होय छे. 'सिलवालेइवा' शिलाप्रवास अवस नामना त्नविशेषना रंग वो बास हाय है, ''वाल' कुरेवा' प्रवासन भरने। वर्षा नेवासास હાય છે, પ્રવાલની પળના અંકુર પહેલાજ નીકળેલ હોવાથી ઘણુાજ લાલ होय छे. तेथी मडियां तेने दृष्टांत तरी रेल हे 'लोहितक्खमणी इवा' बोहिताक्षमणि देवु साद हाय है, 'लक्खारसेवा' साक्षारस नेवा सास
जी० १०९
Page #892
--------------------------------------------------------------------------
________________
८६६
जीवामिगमसूत्रे पिहरासह दा' चीनपिष्टराशिरिति वा चीनमिति रक्तवर्णो धान्यविशेषः तस्या पिष्टं चूर्ण तस्य राशि:- पुञ्ज इति वा 'जायसुपणकुसुमेह वा' जपाकुसुममिति वा 'किं सुयकुसुमेह व किंशुककुसुममिति वा, कि शुकः - पकाशवृक्ष स्तस्य पुष्पम् 'पारिजायकुसुमेह वा' पारिजातकुसुममिति वा 'रत्तुप्पले वा' रक्तोत्पलमिति वा 'रचासोएड वा' रक्ताशोक इति वा 'रत्तकणवीरेइ वा' रक्तकणवीर इति वा 'रक्तबंधुजीवेइ दा' रक्तबन्धुजीवक इति वा, 'भवेयारूवे सिया' भवेत्तृणानां मणीनां च एतावद्रूपः किं रक्तो वर्णावास इति गौतमस्य वाक्यम् । भगवानाह - 'हे गौतम! 'नो इट्टे समड़े' नायमर्थः समर्थः 'तेसि णं लोहियगाणं तणाण य कम्बल होता है 'चीनपट्टगसीह वा' जैसी लाल चीन पिष्ट राशि होती है अर्थात् चीन नोमका लालरंगका धान्यविशेष को कहते हैं उसका पीष्ट आटा जैसा होता है 'जायसुणकुसुमेह वा' जैसा लाल जासूसका फूल होता है । 'किंकुसुमेह वा' जैसा लाल 'किंशुक - पलाश का पुष्प होता है 'पारिजाय कुसुमेह वा' जेसा लाल पारिजातक का कुसुम होता है 'रत्तुप्पले वा' जैसा लाल रक्तोत्पल होता है। 'रत्तासोएइ चा' जैसा लाल रक्ताशोक होता है 'रत्तणवीरेह वा' जैसी लाल रक्त कनेर होती है 'रक्तबंधुजीवे वा' और जैमा लाल रक्त बंधुजीवक होता है तो 'भवेएयाहवेसिया' क्या ! हे भदन्त ! उन तृण और मणिओं का ऐसा ही लाल वर्णन होता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री करते है- 'गोमा ! जो हण्डे बडे हे गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है क्यो कि 'लेसि णं लोलियगाणं तणाणय नणणय' उन रक्त तृण एवं
होय थे. 'किमिरागेइवा' भिरा ये साल होय हे 'रत्त कंबलेइवा' सास श्रमण रंग नेवासास हाय हे 'चीन विट्ठरासीइवा' थीन नामना धान्य विशेषनो पिष्ट बोट वो साल साथ छे, 'जायसुरण कुसुमेइवा' नेवासास रंग लसुना पुष्पा होय हे 'किं सुयकुसुमेइवा' विशु पाश भारानु युष्य सुनो रंग युष्य ने सास होय हाय है, 'पत्ता सोडवा सस रंग सासरे
सास से छे 'पारिजाय कुसुमेवा' पारितउनु 'तुम्पले ईवा' सुतोत्यस साल भजनो रंग वा व सास २,ताश होय छे, 'रत्तकणवीरेइवा' लेवे होय छे, 'रत्तत्र धुजीवेदवा भने नेवासा रंग सास धुलवाना होय छे 'भवेयारूवेसिया' से लगवन् शु ं से तृथे। भने મચિાના રંગ એવેાજ લાલ હાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે 'गोयमा ! णो णट्टे समट्टे' हे गौतम! अर्थ सभ्य नथी. भट्ठे 'तेसिणं लोहियमाण तणाणय मणीणय' से सास तृषो भने भथियोनो सास रंग 'एत्तो
व हे
"
Page #893
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयर्यातका टीका प्र.३ उ.३५.५३ वनपण्डादिकवर्णनम् मणीण य' तेषां खलु लोहितशाना तृणानां च पणीनां च 'एचो इतराए चेत्र जाव वण्णेणं पन्नत्ते' इत इष्टतरक एव प्रियतरक एव कान्ततरफ एच मनोज्ञत्तरक एव मन आमतरक एव लोहितो वर्णावास: 'वण्णेणं पन्नत्ते' वर्णेन मजा इति ॥ ___ अथ श्रीगौतनो हारिद्रवर्णविषये पृच्छति-'तव्य ण जे ते हालिया तणाय मणीय' तत्र-तेषां तगानां च मणीनां च मध्ये यानि तानि हारिद्राणि पीतानि तृणानि ये ते हारिद्राः पीता मण पश्च 'तेसि णं अयमेयारूवे वण्णावासे पन्नत्ते' तेषां पीतानां तुणानां च मणीनां किम् अयम् अनन्तरमुद्दिश्यमानः, एतावद्रूपावक्ष्यमाणस्वरूपो वर्णावालो वर्णशनिवेशा यज्ञप्त-कथितः ? सदेव दर्शयति-'से जहा णामए' तद्यथानामकम् 'चंपएइ वा' चम्पक इति वा 'चं पगच्छल्कीइ वा' चम्पकच्छल्लीति वा, चम्पकच्छल्ली-सुवर्णचम्पकत्वक् 'च पयभेएइ वा' चम्पकभेद इति वा, चम्प कभेदः-सुवर्णचम्पकच्छेदः, 'हालिद्दाइ वा हारिद्रा इति वा मणियों कालालवर्ण 'एत्तो इतराएचेव जाव बन्नेणं पण्णत्ते' इन शशकरुधिरादिकों से भी अधिक इष्टतर और कानातर है। यहां यावत्पद से मनोज्ञप्तर और मनोऽमतर' इन विशेषणों का ग्रहण हुआ है इन पदों का अर्थ पीछे लिखा जा चूका है। अक्ष श्रीगौतमस्वामी हारिद्र पीले वर्ण के विषय में पूछते हैं। हे भगवन् 'तत्थ ण जे ते हालिदगा तणा य मणी य' उन तृण और मणियों के बीच में जो वहां पर हरिद्रवर्ण के पीलेवर्ण के तृण और मणि है 'तेसिणं अघमेघारूचे वण्णावाले पन्नते' उनका वर्णवास वर्णविन्यास वक्ष्यमाणप्रकार से है 'हे जहा नामए चंपएइ या चंपगच्छल्लोइ वा चंपय मेएइ काहालिदाह या' जैसा सुधणं चम्पक वृक्ष पीला होता है, 'सुवर्णचम्पकवृक्षकी छाल पीली होती है, सुवर्णधम्पकको खण्डपीला होता है जैसी हल्दी पीली होती है, 'हालिहभेएइ इद्रुतराए चेव जाव वण्णेणं पण्णत्ते' मा सससाना साडी विगैरेना २ गथी ५५ वधारे ઈષ્ટતર અને કાંતતર છે. અહીંયાં યાવત્પદથી મારૂતર અને મને ગમતર આ વિશેષનો સંગ્રહ થયો છે આ પદનો અર્થ પહેલાં કહેવામાં આવી ગયેલ છે.
હવે શ્રીગૌતમસ્વામી હરિદ્ર પીળા વર્ણના સંબંધમાં પ્રભુશ્રીને પૂછે છે કે 3 भगवन् 'तत्थ णं जे ते हालिहगा तगाय मणीय' से तय। म मलि. यामा त्याने पीना तो मन मणुिये। छ, तर वासा 'तेखि णं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते' तन व विन्याय न वक्ष्यमा प्राथी छे ? से जहानामए चपएइवा, चपगच्छल्लीइवा चंपगभेएइवा हालिहाइवा' સુવર્ણ ચંપક વૃક્ષ જેવું પીણું હોય છે. સુવર્ણ ચંપક વૃક્ષની છાલ જેવી પીળી હોય છે, સુવર્ણચંપકનો ખડ જે પીળા હોય છે, હલદર જેવી
Page #894
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमले 'हालिदभेरह वा हारिदा भेद इति वा, हरिद्राभेदो हरिद्राछेदः, 'हालिगुलियाइ वा' हारिद्रागुटिका इति दा, हारिद्रासार निर्वतिता गुटिका 'हरियालियाइ वा' हरितालिका इति वा, पृथ्वी विकाररूपा लोकमसिद्धा हरितालिका, 'हरितालियाभेपड वा' हरितालिका भेद इति वा, हरितालिकाभेदो हरितालिकाछेदः, 'हरितालियागुळियाइ वा' हरितालिकागुटिकेति वा, हरितालिकासारनिर्वत्तिता. गुटिका हरितालिकासुटका, 'चि उरेइ वा' चिकुर इति वा, चिकोरो रागद्रव्यविशेषः, 'चिउरंगरागेइ वा' चिकुराङ्गगग इति वा, चिकुरसंयोगनिमित्तो वस्त्रादौ. रागश्चिकुरागराग इति । 'वरकणगेइ वा वरकनकमिति वा, वरकनकं जास्यमुवर्णम् 'बरकणगणिघसेइ वा बरकनकनिघर्ष इति वा, दरकनकस्य जात्यसुवर्णस्य य: कपपट्ट के निवर्षः स वरकनकनिधर्षः 'सुवण्णानिप्पिएइ वा' सुवर्णशिलिपकमिति वा अपार्थों लोकतोऽवसेयः 'वरपुरिसवसणेइ वा परपुरुपवसनमिति वा, वरवा जला हल्दी का टुकडा पीला होता है हालिद गुलिघाइ वा हरिद्रा. की गोली पीली होती है 'हरियालियाइ वा जैसा हरितालीला होता है 'हरितालियाभेएइ वा हरितालका खण्डपीला होता है 'हरितालिया गुलियाइ हा' हरितालकी गोली पीली होती है 'चिउरे वा' चिकुर गगद्रव्यविशेष जैसा पीला होता है 'चिकुरंगरागेइ वा' चिकृराङ्गरोग जैसा पीला होता है 'चिकुर के मंयोग से जो वस्त्रादि में राग होता है उसका नाम चिकुरागराग है 'वरकणगेह वा' जैसा श्रेष्ठ सुवर्ण पीला होता है 'वरकणगणिघ से वा' श्रेष्ट सुवर्ण की कसौटी पर की गइ घर्पणरेखा जैसी पीली होती है 'सुवणसिप्पिएइ वा' सुवर्ण शिल्पिक जैसा पीला होता है इसका अर्थ लोक से जानने योग्य है 'वर पुरिसवसणेइ वा वर पुरुप-वासुदेव-कृष्ण का वस्त्र जमा पीला होता पीली 3य छे. 'हालिदभेपइवा' हा १ २वी पीणा डाय छे. 'हालिगुहियाइवा' हनी गाजी व पीजी साय छे. 'हरियालियाइवा' हरिता २३ पीमा डाय छ 'हरितालियाभेएइवा' हरितासन गरेको पाणी डाय छे. 'हरितालिया गुलियाइवा' रितालिनी की २वी पीजी २१य छे 'चिरेइवा' थि६२ मे त पाणु द्रव्य विशेष पाहाय छे, 'चिकुरंगरागेइवा' विरामनार व पीणा डाय छे विना मेजवाथा वन विगैरेमा २ थाय छ तेतुं नम शिंग छे. 'वरकणगेइवा' श्रेष्ठ से पीय छ, 'वररुणाणिघसेइवा' उत्तम सेनान सेटि ५२ ४२१.भा मादासाट २३ पीणा हाय छे. 'सुवण्णसिप्पिएइवा' सानानु शिलि५४
पीडाय छे. 'वर पुरिसवसणेइवा' १२५३५-पासुहेव प्यनु ५२७ २
Page #895
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमैयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ १.५३ वनषण्डादिकवर्णनम् पुरुषे वरः श्रेष्ठो वरपुरुष-वासुदेवरतम्य वसनमिति परपुरुपवसनम्-वासुदेवस्य वसनं पीतमेव भवतीति तदुपादानमिति । 'सल्लई कुसुमेह वा शल्यको कुसुममिति वा, शल्यकीकुसुमं लोकत ए वादगन्तव्यमिति । 'चं पण कुसुमेइवा चम्पककुसुममिति वा, चम्पककुसुमं सुवर्णवपकुसुमपिति । 'कुहुंडिया कुसुमेह वा' कुष्माण्डी-कुसुम मिति वा, कूष्माण्डोकुसुमं पुरुषफलीकुसुमम् इति 'कोरंटगदामेइ चा' कोरण्टकदाम इति वा, कोरण्टकः-पुष्पजातिविशेषस्तस्य दाममालेति कोरण्टकदाम । 'तडबडा कुसुमेह वा' -डबडा कुसुममिति वा, तडवडा आउली तस्थाः कुसुम तडवडा कुसममिति 'घोसाडिया कुसु पेइ वा' घोषातकीकुसुममिति वा । 'सुवष्णजूहिया कुसुमे बा' सुवर्णयूथिकाकुलममिति वा, घोषातकी सुवर्ण यूथिकाकुसुमे लोकादेव ज्ञातव्ये । 'सुहरिन्नया कुसुमेइ वा' सुहरिण्यका कुसुममिति वा, मुहरिण्यका वन स्पति विशेषस्तस्याः कुसुम सुहरिण्यका कुसुममिति । 'वियगकुसुमेह वा' बीयककुमुममिति वा, बीयको वृक्षविशेषो कोक प्रसिद्धस्तस्य कुसुम मिति 'पीयासोए है 'सल्लह कुसुमेह वा शल्यशीका कुसुम जैला पीला होता है चंपक कुसुमेह वा सुवर्ण चम्पा का पुष्प जैसा पीला होता है 'कुहुंडियाकुसुमेह या' जैसा कुष्माण्ड-पुस्प फली-कोला का पुरुष पीला होता है। 'कोरंटगदामेइ वा' जैसी कोरण्डक पुष्पों की माला पीली होती है 'तडपडाकुसुमेह वा' जैसा तडपडा का फूल पीला होता है आवली का नाम लडबडा है 'घोसाडियाकुसुमेह वा जैसा घोषातकी-तोरह का पुष्प पीला होता है 'सुबण जूझ्यिा कुसुमेह वा जैसा पीला पुष्प सुवर्ण यूधिका सोना जुही-का होता है 'सुहरिन्नयाकुस्सुमेह वा सुहरिण्यका का पुष्प-वनस्पति विशेषका पुष्प जैसा पीला होता है। 'घीयग कुप्लुमेह वा दीपक वृक्ष का फल जैसा पीला होता है पोयासोएडवा' जसा पीत अशोक वृक्ष पुष्प पीला होता है । 'पीयाणवीरेइ वा जैसा पाणु य छ, 'सल्लइकुसुमेइवा' शल्यहीन यु.५२ पाणु डाय छे. 'च पक कुसुमेइवा' सुव य पातु ५०५ २ पाय छे. 'कुहुडिया कुसुमेइवा'
भांड मानुस यु पी पाणु हाय छे, 'कोर टगदामेइवा' ३४ Y०पानी मा २ पाणी हाय छ, 'तडवड़ाकुसुमेइवा' त34311 रेवा पाय हाय छे. सानु नाम त34छे. 'घोसाडिया कुसुमेइवा' ५५181 तुरियाना ०५ २३॥ पी हाय छ, 'सुवण्णजहिया कुसुमेइवा' सुप यूथि सोना हान ०५ 241 पीस डाय है, 'बीयगकुसुमेदवा' भी। वृक्षना ३३२१ पी! हाय , पायासोएइवा' पी ना ५ वा भी हाय छ, 'पीयकणवीरेइवा' पीजी ४२गुना ५ २१। पी। सय छ,
Page #896
--------------------------------------------------------------------------
________________
७
जीवामिगमसून वा' पीताशोक इति वा 'पीयकणवीरेइ वा' पीतकणवीर इति वा 'पीयबंधुनीवएइ वा पीतवन्धुजीवक इति वा । गौतमः प्राह-हे भदन्त ! 'भवे एयारूवे मिया' भवेत् किं पीतानां तृणानां मणीनामेतावटूपोऽनन्तरोदीरितस्वरूपो वर्णावोस: ? इति भगवानाह-हे गौतम ! 'जो इणढे समढे' नायमर्थः समर्थः किन्तु 'तेसिणं हरिदाणं तणाणय मणीणय' तेषां खल हरिद्राणां तृणानां मणीनां च 'पत्तो इहा. राए चेव जाव वपणेणं पन्नत्ते' इतः चम्पकादिवर्णापेक्षयाऽपि इष्टतरक एब, कान्ततरक एवं मियतरक एव मनोझवरक एव, मन आमतरक एव प्राप्त:-कथित इति । ___ अथ श्रीगौतमः शुक्लवर्णविषये पृच्छति-'तत्थ ण जे ते सुविफलगा तणा य मणीय' तत्र खलु यानि तानि शुक्लानि तृणानि ये ते शुक्ला मणयश्च 'सिणं अयमेयारूवे वण्णाचासे पन्नत्ते' तेषां खलु तृणानां मणीनां च शुक्लानामयमनन्तरोविश्यमान एतावद्रूपो वक्ष्यमाणस्वरूपो वर्णावासो वर्णकनिवेश:-मज्ञप्त:-कथित ? पीली कनेर का पुष्प पीला होता है। अथवा 'पीयवंधु जीवएइ वा' एवं जैसा पीला पुष्प पीत बंधुजीवक वृक्ष का होता है 'भवेएयारूवे सिया' तो क्या हे भदन्त ! ऐसा ही पीला वर्ण वहां के पीले तृण और मणियों का होता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री ने कहा है 'गोयमा ! णो इणवे सम?' हे गौतम । यह अर्थ समर्थ नहीं है क्योंकि 'तेसि गं हालिदाणं लणाणय मणीणय' ये हरिद्र पीले वर्णवाले तृण और मणि 'एतो इतराए चेव जाव वण्णणं पण्णत्ते' चम्पकादिवर्ण की अपेक्षा भी इष्टतर है और कान्तन्तर है प्रियतर मनोज्ञतर और मनोऽमतर है अप श्रीगौतमस्वामी शुक्लवर्ण के विषय में पूछते है 'तस्थ णं जे ते सुक्किकगा तणाय मणीय तेसिणं अयमेयाख्वे वण्णावासे पन्नत्ते' वहां उन तृणों और मणियों के
या पीयबंधुजीवेइवा' या पागा धुल वृक्षना दूत डाय छे. 'भवेश्योरूवे खिया' से लगवन् मा त्यांना तो अने भशियाना व मेवी રીતની પીળાશ વાળો હોય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને ४४ छे , 'गोयमा ! जो इगटे सम?' हे गौतम मा म समर्थित नया
भो 'सि ण हालिदाणं तणाणय मणीणय' यो पीपा पण पाणा त। मन भाये'एत्तो इट्टतराएचेव जाव वण्णेण पण्णत्ते' यहिना पीपा वा ४२ता એ તણે અને મણિને પીળે વર્ણ ઈષ્ટતર છે. કાન્તર છે પ્રિયતર છે. મજ્ઞતર છે. અને મનેષમતર છે,
वे श्रीगोतमस्वामी शुसपना समयमा प्रभुश्रीन पूछे छे 'तत्थ णं जे ते सकिल्लगा तणाय मणीय तेसि गं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते' त्यांना એ તૃણે અને મણિયમાં જે શ્વેત વર્ણના તૃછે ને મણિ છે, એની ધોળાશ
Page #897
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमैrद्योतिका ठीका प्र. ३ उ. ३ सु. ५३ वनपण्डादिकवर्णनम्
રી
तदेव दर्शयति- ' से जहाणामए' तद्यथानामकम् 'अंकेइ वा' अङ्क इति वा अङ्कोरत्नविशेषः 'संखेइव।' शङ्खः इति वा, शङ्खः सिद्धः 'च'देह वा' चन्द्र इति वा, 'कुंदे वा' कुन्द इति वा कुन्दः पुष्पविशेषः, 'कुमुएइ वा' कुमुदमिति वा, 'दयइवा' उदकरज इति वा, 'दहिघणे वा' दधिधन इति वा, 'खीरे वा' क्षीरमिति वा, 'खीरपूरेइ वा' क्षीरपूर इति वा 'हंसावळीत व हंसावलिरिति वा, हंसस्थावलिः पंक्तिरिति सावलिः | 'कौचावलीति वा' क्रौञ्चावनिरिति वा, क्रौञ्चस्य - पक्षिविशेषस्यावलिः - पंक्तिः क्रौञ्चावलिरिति, 'हारावलीति चा' चारावलिरिति वा हारस्य- मौक्तिकहारस्थावलि:- पंक्तिरिति हारावलिः | 'वलया - चळीति वा' वळयावलिरिति वा, वलयस्य- रजतनिर्मित कङ्कणम्यावलिः- पंक्तिरिति वलशवळिः 'चंदावलीति वा' चन्द्रावलिरिति वा, चन्द्राणां तडागादिपु
-
वी में जो शुल्कवर्ण के तृण और मणि है उनका वर्णन इस प्रकार कहा है क्या' से जहाणामए अंकेइ वा संखेइ वा चंदेह वा कुंदेड़ वा कुसुमेह वा 'जैसा प्रङ्करत्न शुभ्र होता है जैसा शङ्ख शुभ्र होता है जैसा चन्द्र शुभ्र होता हैं जैसा कुन्द पुष्प शुभ्र होता है जैसा कुसुम पुष्प शुभ्र होता है 'दधर एति वा' जैसा - उदकरज - उदक बिन्दु सफेद होता है 'दहिघणे वा' जेमा दविधन - जमा हुआ दही रूफेद होता है 'खोरेह वा' जैसी खेर सफेद होती है 'हंसावलीति वा' जैसी हंसों की पंक्ति सफेद होती है 'कोंचावलीति वा' जैसी क्रौंच पक्षीयों की पक्की सफेद होती है 'हारावलीति वा' जैसी हार की पंक्ती सफेद होती है । 'वलयावलीति वा' रजतनिर्मित वगों की पंक्ति जैसी सफेद होती है 'चंद्रावलीति या' तडाग आदि में, जल के भीतर प्रतिविम्बित चन्द्र या नीथे प्रभाऐनी होय छे ? ' से जहानामए अकेश्वा सखेइवा च देहवा
देवा कुसुमेइवा' ' रत्न नेवु सह होय छे, शाम वे धोणी होय છે, ચંદ્રમાના વણુ જેવા સફેદ હોય છે, કુદ પુષ્પના રંગ જેવા સફેદ હોય छे, सुभ पुण्य नेवु सह रंग होय छे, 'दयर तिवा' ४x२०४ हाजिहु भेषु सह होय छे, दहिघणेवा' भावे हाही रेवु सदेह होय है, 'खीरे इवा' भीरने व सहाय है, 'खीरपुरेश्वा' क्षीरपुर वने अभूड वा सह होय छे, 'इ'सावलीतिवा' सोनी पति नेवी सह होय छे, 'कोंचावली तिवा' डोंय पडती नेवी सट डाय छे, 'हारावलीतिवा' हारनी यति वा सह होय छे. 'वलयावलीति वा ' यांहीना मनावेस ४*४] महायानी पंडित लेवी सह होय है, 'चंदावली तिवा' तदाव विशेरेमा सनी हर अतिगिंग वाजा चंद्रनी पंडित वी
पक्षीयोनी
Page #898
--------------------------------------------------------------------------
________________
जोवाभिगमने जलान्तः पतिविम्वितानामावलिः-पंक्तिरिति चन्द्रावलिः । 'सारदीय रलाहएइ पा' शारदीय बलाहक इति वा, शारदीय:-शरत्कालसम्बन्धी वकाहको मेघ इति शारदीय बलाहक इति, 'धंधोयरुप्प पट्टे या' ध्मावधीतरूप्यपट्ट इति वा, माट: -अग्निसण निर्मलीकृतो धौतो भूमिखरण्डित हस्तसंमार्जनेन निशितीकतो यो हप्यरहो रजतपत्रम् स मातधौतरूप्यपट्टः । अथवा ध्मातेन- अग्निसंयोगेन यो धौता-शोधितो रूप्यपट्टः । 'सालिपिट्ठरासीति वा' शालिपिष्टराशिरिति वा, शालीनां तण्डुलानां पिष्टं क्षोदरस्य राशिः पुञ्ज इति वा, शालिपिटराशिरिति । 'कुंदपुष्फगमोति वा, कुन्दपुष्पगशिरिति चा, कुन्दपुष्पं लोकप्रसिद्ध वस्य राशि:समुदाय इति कुन्दपुष्पराशिरिति 'कुमुपरासीति वा कुमुदरा शिरिति वा, कुशुदा -चन्द्रविकाशि कमलाना राशिरिति कुमृदराशिगिति 'मुक्कछि बाडीति का शुष्कछिवाडी इति वा, छेवाडी नाम वल्लादि फलिका या च क्वचिदेशविशोपे शुष्का सती शुक्ला भवति इति तदुपादानम् । पेहुण मिजाति वा' पेहमिंजेति वा की पंक्ति जैसी सफेद होती है। 'सारवीचयलाह पइ वा' शारदीय शरस्काल सम्बन्धी-बलाहक-मेघ जैमा घवल होता है 'धंतोयसर. पट्टे वा' मात अग्नि के संपर्क से निर्मल किया गया पश्चात्-धौत राख आदि से मांजर और हाथ आदि से साफ कर निर्मल किया गण ग्जत पट्ट जैसा सफेद होता है 'मालिपिहानीति वा' चावल की चूर्ण शिजी मफेद होती है 'कुंद पुप्फगनीति दा' कुंद पुष्पगशि जैमी सफेद होती है 'कुमुपरामीति का कुमुद श्वन कमल की राशि जैमी मफे होनी है 'सुकाछिबाडीति वा सेमकी फली का नाम छिवाडी है या सुग्व जाने पर लफेद रो जाती है अतः शुरुकाछियाडी के जैसी सफेद हती है 'पेहुणमिजाति वा पेडण-मयूर पीच्छ के मध्यवर्ती मिञ्ज। जैलो अतीयधवल होती है 'बिसेति वा' पिम मृगाल जैमा स३ सय 2, 'सारदीयपलाहए तिवा' २२ जना पल है. मेघा पा र ), 'धत धोयह पाइजा' भात मनिना योगयी निम ४२१mi 24 सन તે પછી રાખ વિગેરેથી મજીને હાથ વિગેરેથી સાફ કરી નિર્મળ બનાવેલ याही 24 सह हाय छ, 'सालिपिगसीतिबा' यामान खोटो सहि हाय छ, 'कु'फास तिवा' १६ १८५ने। सभू । सई हाय छे. 'सक्कछिवाडी तिवा' सेमनी ५सीन 1ि 33 छे ते स तय त्यारे से 25 लय छ तशी सु2 छिी २वी २३४ डाय छे 'पेहुण मिजा pવા પણ મેરના પીછાની મદમાં રહેલ મિંજા જેવી સફેદ હોય છે, 'बोसेइवा' जिस भृयाल व स३६ हाय छे, मिणालिएतिवा' भृणालिन
Page #899
--------------------------------------------------------------------------
________________
अयरमोतिका का प्र.३ उ.३ खू.५३ वनषण्डादिकवर्णनम् पेणं मयूरपिच्छं तन्मध्यवत्तिनीमिञ्जा पेहुणमिञ्जा सा चातीव शुक्ला भवतीति । विसेति वा चिसमिति वा बिमं पकिनी कन्दः । 'मिणालिएति का' मृणालिकति वा, मृणालं पद्मतन्तुः । 'जयदंतेवि वा गजवन्त इति वा, गजो हस्सी तस्य दन्तो. गजदन्तः स चालीव शुक्लस्ततस्तदुपादानम् । 'लवादलेति वा' लादलमिति वा, लवङ्गपत्रमतीव शुक्लं भवति लहरूउदुपादानन्, 'पोडरीयदति वा पौण्डरीक दलमिति वा, पौण्डरीकं श्वेतदलम् 'सिंदुवारमल्लदामेतिवा' सिन्दुवारमाल्यदाम इति वा, सिन्दुवार: श्वेतपुष्पो वृक्षविशेष: 'सेतासोपति वा श्वहाशोक इति वा, 'सेयकणवीरेइ वा श्वेत ऋपनीर इति वा, 'सेश्बंधुनीथएइ वा देत वधु जीवक इति वा, गौतमः प्राह -श्वेएयारूवे सिया' श्वेद किं श्वेतानां तृणानां मणीनां चैताद्रूप:-अनन्तरोदीरितस्वरूपो वास इति भगान् पाह-हे गौतम ! 'णो इणटे साडे' नायर्थः समर्थः किन्तु 'तेसिणं मुक्किल्लाणं दणाणं शुक्ल होता है मिजालिलिया मिणालिशा-दिसतन्तु-जैली शुक्ल होती है 'गयदंतेति बार जदन जैसा धवल होता है। 'लवंगदलेतिया' लौंग के वृक्ष का पता जैल्ला चल होता है 'पोंडरीयदलेति वा' पुण्डरीक श्वेनसालकी पांखडी जैसी सफेद होती है सिंदुवारमल्लदा. मेति वा' सिन्दुवार पुष्पों की माला जप्ती स्वफेद होती है लेता लोएति वा' श्वेत अशोक जैला शुभ्र होता है 'लेखकणवीरेह वा श्वेत कनेर जैसी सफेद होती है लेथ बंधुजीवेहवा' श्वेत बन्धुजीव-पकुलजैसा सफेद होता है भवेएमालवेलिश' तो क्या! हे भदन्त ! ऐसा शुक्ल रूप उन तृणों का और मणियों का होता है क्या ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते है 'गोयना ! जोहणद्वे सबढे हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है क्योंकि 'तेलिणं सुविकल्लाणं तणाणं मणीण य' उन मसतन्तु वा स हाय छ, 'गयदते इवा' हाथी दांत व स हाय छ. 'लवंगदलेइवा' सविना वृक्षना पान 241 स डाय छे. 'पोंडरीय दलेतिवा' धुरी धोका भनी यांनी रेवी सहाय छ, 'सिंदुवार ' मल्लदामेतिवा' सिंहवार यानी भाणा रवी स३६ डाय छे 'सेतासोएतिवा' श्वेत म य २१ सोडाय छे. 'सेय कणवीरे इवा' घेणी २एन पु०५२ सह डाय छ, 'सेय बधुजीवेइवा' श्वेत मधुळव-म ५
स हाय छे. भवेण्यासवे सिया' है भगवन् तो शु.ये तो। अने મણિયાની વેતતા એવા પ્રકારની હોય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી गातभस्वामीन गोयमा ! णो इणदे समटे गौतम! मा मथ
मने समय नथी. भ. सि णं सुकिल्लाण तणाणं मणीणय' से तु
जी०:११०
Page #900
--------------------------------------------------------------------------
________________
८७४
जीवामिगमसूत्र मणीय' तेषां खलु शुक्लानां तृणानां मणीनां च 'एत्तो इतगए चेन जाब वष्णेणं पन्नत्ते' इत:-अनादिभ्य इष्टतरक एव प्रियतरक गव कान्ततरक एवं मनोज्ञतरक एव मन आममरफ एव, शुक्लो वर्णावासः वर्णन मशत इति।
तदेवं क्रमेण वनपण्डान्तर्गतानां तृणानां मणीनां च वर्णदरूपं कथितं सम्मति तेषां गन्धस्वरूपप्रतिपादनार्थमाह-अत्र गौतमः पृच्छति 'तेसिणं मंते ! तणाण य' इत्यादि, 'तेसिणं भंते ! तणाण य पणीण य' तेषां खल भदन्त ! तपानी मणीनां च 'केरिसए गंधे पन्नत्ते' पीशः किपाकारको सन्ध: मसात काय किं वक्ष्यमाण-वस्तूनां यादृशो गन्धो मनति तादृश स्तेपो गन्धः प्राप्तः ? तदेव दर्शयति-'से जहाणामए' इत्यादि से जहाणामप' तद्यथा नामकम् 'कोटपुडाण वा' कोष्ठ पुटानामिति वा, सोप्ट गन्धद्रव्यं तस्य पुटा कोष्टपुटा स्तेपाम् वा शब्दाः सर्वत्रापि समुच्चये, अन एकस्य पुटस्य न नामो गन्धविशेपो शुक्ल तृणों और मणियों का वह शुक्ल रूप 'एत्तो इतराए चेष जाव घण्णणं पन्नत्ते' इन प्रदर्शित अङ्क आदिकों से भी अभिक इष्ट अधिक प्रिय, अधिक कान्त, अधिक मनोज्ञ और अधिक मनोऽम कहा गया है इस प्रकार से वनखण्ड के अन्तर्गत तृणों का और मणियों के वर्ण का स्वरूप कहकर अय मुत्रकार गन्ध के स्वरूप का प्रतिपादन करते है 'तेसि णं भंते' इत्यादि इस विषय में श्रीगौतमस्वामी पूछते है 'तेसि णं भंते! तणाण य मणीण य केरिलए गंधे पण्णत्ते' इसमें श्रीगौतमस्वामी ने प्रभुश्री से ऐसा पूछा है-हे भदन्त ! वहां के तृणों का और मणियो.का कैसा गन्ध कहा गया है ? क्या आगे कहे जाने वाले कोष्ठ पुट आदि वस्तुओं का जैसा गंध होता है वैसा कहा गया है क्या? उन्हीं को कहते है 'से जहाणामए कोहपुडाण वा' जैसी गन्ध-वास-कोष्ठ गन्ध भणियाना में सई एत्तो इट्टतराए चेव जाव पण्णेणं पण्णत्ते' मा ५२ કહેવામાં આવેલ અંક વિગેરેની શ્વેતતાથી પણ વધારે ઈષ્ટ વધારે પ્રિય વધારે કાંત વધાર મનેઝ અને વધારે મનેમ કહેવામાં આવેલ છે.
આ રીતે વનખંડની અંદર આવેલ તૃછે અને મણિના વર્ણનું સ્વરૂપ બતાવીને હવે સૂત્રકાર ગંધના સ્વરૂપનું વર્ણન કરે છે. આ વિષયમાં શ્રી ગૌતમસ્વામી श्रीमहावीर प्रभुने पूछे छे हैं 'तेसि णं भते! तणाणय प्रणीणय केरिसए गधे पणत्ते' मगवन् त्यांना तु! म मशियाना व साय छ ? शु. નીચે કહેવામાં આવેલ કેષ્ટપુટ વિગેરે વસ્તુઓને ગધ જે હેય છે, તે मना मध डाय छ १ 'से जहा नामए कोट्रपुडाणवा' २वी गध-पास घुट नाभना आय व्यनी हाय छे. 'पत्तपुडाणवा' २वी पत्रपुटोना भईन ४२पाथी
Page #901
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका का प्र.३ उ.३ रु.५३ वनपण्डादिकवर्णन
८७५ निर्गच्छति द्रव्यस्याल्पत्वात् ततो बहुवचनमिति । 'पत्तपुडाण वा' पत्रपुटाना. मिति वा, पत्रं विमोत्थ परिमलकम् तस्य पुटानाम् । 'चोयडाण वा' चोयगपुटानां वा चोयगं गन्धद्रव्यम् 'तगरपुडाण वा' तगरपुटानां वा, तगर:-सुगन्ध विशेषः। 'एलापुडाण वा एलापुटानां वा, एला इलायचीति कोकमसिद्धा 'चंदणपुडाण बा' चन्दनपुटानां वा चन्दनं चन्दनाख्य सुगन्धद्रव्यविशेषः 'कुंकुमपुडाण वा' कुङ्कुमपुटानां वा कुङ्कुमं 'केसर' इति प्रसिद्धम् 'उसीरपुडाण चा' उशीरपुटानां वा, उशीर 'खस' इति प्रसिद्धं सुगन्धितणविशेष: 'चंपगपुडाण वा' चम्पकपुटानां वा, 'मरुबगपुडाण वा मरुबकपुटानां वा मरुबकं 'मरुआ' इति प्रसिद्धम् । 'दमणगपुडाण वा' दमनकपुटानां वा, दमनकं सुगन्धितपत्रयुक्ता वनस्पतिविशेषः 'जाइपुडाण वा' जातीपुटानां वा, जाती-चमेली' इति नाम्ना पुष्पविशेषः 'जू हियापुडाण वा' यथिकापुटानां वा, यूयिका 'जूही' मसिद्धा द्रव्य के पुटों की होती है पत्तडाण वा' जैसी गन्ध पत्रपुटों के विमद-ले उत्पश परिमल के पुटों की होती है 'चोयग पुडाण वा-जैसी चोयग-गन्ध द्रव्य पुटों की होती है 'नगर पुडाण वा' जैसी गन्ध तगर पुटों की होती है । 'एलापुडाण का जैली गंध इलायची के पुटों की होती है 'चंदण पुडाण या' जैसी गन्ध चन्दन के पुटों की होती है 'कुंकुमपुडाण वा जैली भन्ध कुंकुम्न के पुटों की होती है 'उसीर पुटाण वा' जैसी पन्ध खल के पुटों की होती है 'चंपक पुडाण वा' जैसो गन्ध चम्के पुटों की होती है 'मरुयगपुडाण पा' जैसी गन्ध मरू वा के पुटों की होती है 'दमनगपुडाण का' जैसी गन्ध दमनक के पुटो की होती है 'जाति पुडाण वा' जैसी गन्ध चमेली के पुष्पपुटों की होती है 'जूहियापुडाण वा' जैसी गन्ध जुही के पुष्पपुटों की होती S५न्न थयेट परिसना पटोनी डाय छे. 'चोयगपुड़ाणवा' वी 14 यायम नामना गद्रव्यनी हाय छ, 'तगरपुडाणवा' त भुटानी रवी ॥ यथे, 'एलापुडाणवा' मायाना पुटोनी वी भणीय हाय छे. 'चदणपुडाणवा' यहनना भुटानी नेवी गाय छ, 'कुंकुमपुडाणवा' मना पुटानी वी मध हाय छे. 'उसीर पुडाणवा' असना टोनी २वी गध होय छे. 'चपकपुड़ाणवा
पाना पुटानी रवी हाय छे. 'मरुयपुडाणवा' भ२वाना भुटाना २वी गाय छे. 'दमनकपडाणवा' २वी गहमनना धुटानी डाय छे. 'जाति पुङाणवा' यमेसीन। ०५ पुटानी २वी गाय छे 'जूहियापुड़ाणवा' धना पानी पी डाय छ, 'मल्लिय पुडाणवा' भEast-भागसना ०५
०५ भुटानी २वी गाय छ, 'णवमल्लिय पुडाणवा' न माना
Page #902
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
जीवामिगमस्त्र 'मल्लियपुडाण वा' मल्लिकापुटानां वा, मल्लिका 'मोघरा' इति लोकमसिद्धा 'णो मल्लियपुडाण वा' नवमल्लिका पुटानां वा 'वासंतियपुडाण वा' वासन्तिकपुटानां वा सुगन्धयुक्ता लताविशेष: 'केयई पुडाण वा' केतकीपुटानां वा, केतकी 'केवडा' लोकामसिद्धा, 'कप्पूरपुडाण वा' कर्पूरपुटानां वा, 'अणुवायसि' एतेषां कोष्ठपुटादीनामनुचाते आघायकविवक्षितपुरुषाणामनुकूले वाते वाति सति 'उभिज्जमाणाण य' उद्धिमानानां समुद्घाटयमानानाम् च शब्दः सर्वत्रापि समुच्चये, 'णिभिज्जमाणाण य' निभिधमानानाम् अतिशयेन भिधमानानां त्रोटयमानानाम् 'कोटेजनमाणाण वा' कुटयमानानां वा, पत्र पुटैः परिमितानि यानि कोष्ठादि गन्धद्रव्याणि तानि अपरिमेये परिमाणोपचाराल कोष्ठपुटानीत्युच्यन्ते तेषां कुटयमानानाम् उदूखलादी कुटधमानानामिति । 'रुविजमाणाण वा' इति इक्ष्णखंडी क्रियमाणानाम् 'उकिरिज्जमाणाण बा' उत्कीयमाणानाम्-कोप्ठादिकपुरानां कोष्ठादिद्रव्याणां वा उत्कीयमाणाहै 'सल्लियपुडाण वा' जैसी गन्ध मल्लिका-घोघरा के-पुष्प पुरों की होती है 'णोमल्लियपुडाण वा' जैसी गन्ध नषमल्लिकाके पुष्पपुटों की होती है 'वासंतियपुडाण वा' जैली प्रवासन्तिलता के पुष्पपुटों की होती है 'केयईपुडाण वा' जैसी भन्ध केण्डे के पुटों की होती है 'कापूरपुडाण वा' जैसी गन्ध कपूर के पुटों की होती है इन समस्त ' पुटों की गन्ध 'अणुवायलि' जय कि अनुकूलवायुचल रही हो-अर्थात्
आघायक पुरुष जिस तरफ बैठे हो उसी तरफ इनकी गन्ध को लेकर हया यह रही हो और ये समस्त गन्ध पुट 'उभिजमाणोण य णि. भिज्जमाणाण य छोटेजमाणाणण' उल्ल समय उद्घाटित उघाडे जा रहे हो, अतिशय रूप से लोडे जारहे हो ऊखल आदिमे कूटे जा रहे हो 'संविज्जमाणाण का' छोटे २ इनके टुकडे शिये जा रहे घो, किरिज्ज. पानी की आय हाय छे. 'वासतिय पुडाणवा' वासति सताना पु०५ धुटे। नी वी काय छे. 'केयइपुडाणवा' पाना सुटानी २वी गाय छ 'कप्पूरपुडाणवा' पूरना पुटानी वीडय छ, । सधान टोनी ५ 'अणुवायखि' स्यारे मनु वायु दाता डाय अर्थात् पास सनार ५३५ २ તરફ બેઠે હોય એ તરફની હવા ચાલી રહી હોય અને આ સઘળા ગંધ પુટો 'उभिज्जमाणाणय णिभिज्जमाणाणय कोटेजमाणाणय' से समय 6वामा આવેલ હોય તેલંઘપુને અતિશય પણુથી તાડવામાં આવતા હોય ખાડણિયા विगेरभां मांडवामा सावता हाय 'नविजमाणाणवा' नाना नाना तेना २४ ४२राता डाय 'उक्किरिज्जमाणाणवा' तन 6५२ मामा माता काय
Page #903
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका का प्र.३ ३.३ सू.५३ वनषण्डादिकवर्णनम्
८७७ नाम् उपरि क्षिप्यमाणानाम् 'विकिरिज्जयाणाण वा' इतस्ततो विपकीर्यमाणानाम् 'परिभुजमानानाम्-परिभोगायोपभुज्यमानानाम् , 'भंडाओ वा भंडं साहरिज्जमाणाणं' भाण्डात्-एकस्माद् भाण्डात् पात्राट् माण्डं-भाजनान्तरं संहियमाणानाम् कोष्ठादि शूटानाम् 'ओराला' उदाराः स्फारा, से चामनोज्ञा अपिस्युरित्यत आह-'मणुष्णा' मनोज्ञा:-धनोऽनुकूला, तच्च मनोज्ञत्वं कुतस्तत्राह'घाण' इत्यादि, 'घाणमणोणिचुत्तिकरा' घ्राणपनो नितिकराः एवं भुतास्ते 'सनो समंवा सर्वतः सर्वास विक्षु सामस्त्येन 'गंधा अमिणिस्सवंति' गन्धा अभिनिःस्रवन्ति-जिघ्रतामभिमुख निःसन्ति । श्रीगौतमः पृच्छति-भवे एयारूपे सिया' भवेद् मणीनां तृणानां च कोष्ठपुटादि सहशो गन्ध इति; भगवानाहमाणाणया' से उपर उडाये जारहे हो, बहिरिज्जमाणाणवा'-इधर उधर ये बिखेरे जा रहे हो 'परिभुज्जमाणाणमा' अपने अपने काल में इनका उपभोक्ता पुरुषों द्वारा उपयोग किया जा रहा है । 'भंडाओ वा भंड साहरिजनमाणाण या एकवर्तन ले दूसरे बर्तन में लिये जा रहे हो उस समय इनकी 'गंधा' पास मन्ध 'ओराला' बाझुत अधिक विस्तृत अवस्था से निकलती है एवं यह मणुषणा' कोऽनुकूल होती है क्यों कि यह गन्ध 'घाणमणणिन्तुतिका धाण इन्द्रियको एवं मनको एक प्रकार की शान्ति देनेवाली होती है हमार का यह सुगन्ध 'सव्वओ समंता अभिणिस्थति अनुकूल वायु के चलने पर इनकी बाल सर ओर ले चार दिशाओं में अच्छी तरह से फैल जाती है 'अवे. एयारूवे सिया तो क्या हे अदन्त ! इन तृणों की ओर मणियों की सुगन्ध इन कोष्ठपुटादिकोंक्षी लुगन्ध जैसी ही होती है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते है-'गोषता ! जो इणढे शबढे' हे गौतम ! यह अर्थ 'विकिरिज्जमाणाणवा' भामतमध्ये विभामा मानी जाय 'परिभुज्जमाणाणवा' પોતપોતાના કામમાં ઉપભોકતા પ દ્વારા ઉપયોગ કરતે હૈોય “મgો षा भडं साहरिज्जमाणाणया' से वास माथी मीनल पासमा वाम माता डाय त १५ तेनाग-पास सुम 'ओराला' घी धारे विपुल प्रभामा नीजे छ तथा थे 'मणण्णा' मनानाय छे. भ र 'घाणमण णिव्वुइकरा' प्रारन्द्रिय अन भनन शाति २५१५q.वाजी उदय छे. या प्रा२नी मा सुगध खनओ समंता अभिणिस्सव णति' मनु पवनना पापाथी धी त२३धा यारे हशामामा नारी शते वाक्य छे. 'भवेण्यासवे सिया' હે ભગવન શું આ તૃણો અને મણિની સુગધ આ કષ્ટપુટ વિગેરેની સુગંધ જેવી હોય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે
Page #904
--------------------------------------------------------------------------
________________
७८
जीवामिगमसूत्रे 'जो इण? साढे' नायमर्थः समर्थः, कि 'तेसिणं तणाणं मणीणय' रोपां खल राणानां मणीनां च, 'एत्तो हटतराए वेव जाव मणामतराए चेव गंधे पन्नते' इत: कोष्ठपुढादिद्रव्येश्य इष्टतरक एक, कान्ततरक एव, मनोज्ञतरक एव, मन आमतरक एवं गन्धः यज्ञश:-कथित इति ।
वनपण्डान्तर्गत तगमणीनां गन्धान निरूप्य सेपा स्पर्शाद निरूपयितुमाह-अत्र श्रीगौतमः पृच्छति-'तेलिणं भने' इत्यादि, 'तेसि ण भंते ! तणाण य मणीण य' तेषां खलु भदन्त ! तृणानां च मणीनां च 'केरिसए फासे पत्र कीदृशः-किमा. कारका स्पर्शः प्रज्ञाः-कथितः कि नक्ष्यमाणवस्तु स्पर्शसशस्तेषां स्पो भवति ?' तदेव दर्शति-से जहाणामए' तद्यथानामकम् 'आउणेइ या' आजिनकमिति वा, आजिनकं लक्ष्मचर्ममयं वस्नन् 'एतिवा' रूतमिति वा, स्तं श्लक्ष्णकर्पास. विशेषा 'यूरेति वा चूर इति बा, चू: इलक्षणवनस्पतिविशेषः 'गवणीतेति बा' समर्थ नहीं है। क्योंकि तलिणं तणाण यनगीण व एत्तो नराए चेवं जान प्रणामतराए चेव गंधे पत्ते' इन मणियों का गध कोष्ठ पुटादि द्रव्यो के गध की अपेक्षा इष्टतर फान्ततर मनोज्ञतर और मन आम. तर ही माना गया है अपश्रीगोतमस्मात्री तृण और मणियों के स्पर्श के विषय में भभुश्री से पूछते है, 'तेसि भंते ! तणाणघमणीयरिसए फाले पन्नत्ते' हे मदन्त ! उन तगों और भणियों का स्पर्श कैसा कहा गया है क्या ६षमाण आजिनक आदि वस्तुओं के स्पर्श जैसा होता है ? सही दिखलाते है-'ले जहा णाम ए आईणे चा रूपया' जैसा स्पर्श आजिनक चर्ममयमन्त्रका होता है जैसा स्पर्श रूई का होता है। 'रेलि दा' जैसा स्पर्श-दूरनामकी वनस्पति का होता है। ‘णवणीएति 'गोयमा ! जो इणद्वे समटे है जीतम ! ! म अमर नथी. भदेखि णं तणाणय मणीय एत्तो इट्टतरोए चेत्र जाव मणामतराए चेव पण्णत्ते' आ મણિને ગધ કેષ્ટપુટ વિગેરે દ્રવ્યોના કરતા ઈષ્ટતર, કાંતતર, માતર, મન આમતર, માનવામાં આવે છે.
હવે શ્રીગૌતમસ્વામી તૃણ અને મણિના સંબ ધમાં પ્રભુત્રીને પૂછે છે. 'सि भते ! तगाणय मणीणय केरिनए फासे पन्नते' हे सावन् को तृष्ये। અને મણિનો સ્પર્શ કે કહેલ છે ? શું આ કહેવામાં આવનાર અજીનક વિગેરે વસ્તુઓના સ્પર્શ જેવો હોય છે, અને એને સ્પર્શ હોય છે? એ જ मताव छ. 'से जहानामए आईणे इवा एदवा' २३ २५ माथन यम भय पना हाय छे. २३॥ २५॥ ३ ॥ है।छ. 'वृरे इवा' वा २५० सूर नामनी ३५तिने हाय छे. 'णवणीएइवा' २१ २५श मामाने। डाय छे.
Page #905
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र. ३ उ. ३.५३ वनषण्डादिकदर्णनय
८७९
reate मिति वा, नवनीत ' वखन' इति लोक्मसिद्धमेव, 'हंसगवतूकीति वा हंसगर्भ तुलीति वा, सिरीस कुसुमपिचति वा' शिरीषकुसुर निचय इति वा, 'बालकुमुद पतरासीति वा वाळकुमुदपत्रराशिरिति वा वालानि - अचिरकाल जातानि यानि पत्राणि तेषां राशि:- समुदाय इति वालकुमुदपत्रराशिरिति । गौतम माह - 'भवेयारू वे सिया' भवेत किं तेषां तृणानां पणीनां चेदान्तूप आजिनादिरपल्यः स्पर्शतृणानां मणीनां चेति भगवानाह - हे गौतम! 'जो इण्डे सम' नायमर्थः समर्थः न हि तेषां वृणानां मणीनां च आ जिनकादि स्पर्श तुल्यः स्पर्शः किन्तु 'तेसि णं णापय गीणय एतोहतराए चैव जान फालेण पहते' तेषां तृणानां च मणीनां च इत:- अजिन्कादि पशपेक्षया ष्टतरव एव प्रियतरक एव, कान्ततरक एव, मनोज्ञतरक एव, मन आमतरक एव स्पर्शः प्रज्ञप्त इति ।
-
तृणमणीनां स्पर्शान निरूप्य शब्दान् निरूपयितुं प्रयमाह- 'तेति णं भंते !' इत्यादि, 'तेसि णं भंते ! तणाणं तेषां खलु भदन्छ ! तृणानाम्, 'पुथ्यावरथा' जैसा स्पर्श नवनीत मक्खन का होता है 'हनीति वा ' जैसा स्पर्श हंसगर्भतूलिका होता है 'सिरीसकुसुमणिचरति वा' जैसा स्पर्श शिरीशपुष्पसमृह का होता है ' बालकुमुदन्तरासह वा' जैसा स्पर्श नवजात कुसुद पत्रों की राशिका होता है तो क्या 'भवेएयाख्वे सिया' इसी प्रकार का स्पर्श न तो और मणियों का होता है क्या ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-' णो णट्टे समट्टे' हे गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं हैं यों कि 'तेलिणं हणाण व सणीण य एतो इट्ट तराए चैव जाव फासेणं पत्ते उन तृणों का और मणियों का स्पर्श इन आजिनक आदि पदार्थों के स्पर्श से भी अधिक इष्टतर यात् अधिक मनोse कहा गया है इन तृण और वियों के स्पर्श वर्णन
'इ' सगब्भतूली तिवा' इस गर्भ तुहिनो नेवा स्पर्श होय छे. 'सिरीस कुसुम णिचएतिवा' शिरीष पुष्य समूहतो वो स्पर्श' होय है. 'बालकुमुद पत्तासी વા' જેવા સ્પર્શી નવા ઉત્પન્ન થયેલ કુમુદૃ પત્રોના સમૂહને હોય છે તે શુ 'भवेएयारूवे सिया' ०४ रीतनो स्पर्श से पृथु भने लियोना होय हे ? मा अश्नना उत्तरमां अनुश्री हे छे ! 'णा इट्ठे समट्टे' हे गातम | भा अर्थ समर्थ नधी, प्रेम 'तेखि ण तणाणय मणीणय एत्तों इट्टतराए चेत्र जाव फासेणं पण्णत्ते' ये तृथे। भने मलियानो स्पर्श या अनुन४ विगेरे पहार्थो ના સ્પર્શ કરતાં પણ વધારે ઇતર યાવત્ વધારે મનામ હેવામાં આવેલ છે. આ તૃણે। અને મણિચાના સ્પર્શનું વર્ણન કરીને હવે તેના શબ્દોના વરૂપનું વર્ણન કરવામાં આવેલ છે. આ વિષયમાં શ્રી ગૌતમરવામી પ્રભુશ્રીને
Page #906
--------------------------------------------------------------------------
________________
८८०
जीवामिगमसे दाहिण उत्तरागतेहिं वातेहि पू परदक्षिणोत्तरागीतः कदाचित्पूर्वीदागतः कदाचित्पश्चिमादागते कदाचिदक्षिणादागतेः नाचिदुत्तरादागायुमिरित्यर्थी, 'मंदायं मंदाचं पइयाणं वे हया गं' या मन्दं मन्दं स्यात् नया-एजि. तानां कपिनानाम् व्यषितानाम्, विशेषेण पितानाम् खोमिया ' क्षोभितानाम् स्वस्थानाच्च लतानाम् । एतदेव वस्तु पयायशवदेनापि पुनः कथयति-'चालिपाण' चालिकानाम् इसतो पिक्षिमानाम् परदेव पर्यायेण व्याचष्टे-'फंदयाणं' इन्दितानाम् ईपच्चलितानाम्, स्वस्थानात् चालनं कुतस्तत्राह-घहियाणे घटिकानाम् परम्परसंघाहवानाम् 'उदी रियाण' उदी. रिवानाम्, उन्-प्राबल्येन ईरितानाम्-प्रेरितानाम्, एतादृशानां तुगालाम् 'केरिसए सद्दे पबत्ते' ही:-HTER: शब्द: प्रज्ञा:-कीशो ध्वनि भवति, क्षिरमाणवस्तूनां यादृशः दो सवति तादृशः शन्दरतेषां तृणानां भवति तदेव दर्शयति-'से जहा णागए' तद्यथा नामकम् 'सिवियाए या शिविकरके अघ इनके शव्द रसरूपका वर्णन करते है जहां श्रीगौतमस्बाही पूछते हैं-'तेलिणं अंत तणाणं मणीण य पुवायरदाक्षिण उत्तरागतेहिं वातेहिं 'हे बदन्त ! इन तृणों और मणियों का जन्य पूर्व पश्चिम दक्षिण
और उत्तर से आनेवाले वायुओंले थे 'मंदाय मदायं एन्याण वेइयाण कंपियाणं' मंदबंद रूप से करिपत किये जाते है विशेषतः झम्पित किये जाते हैं बार बार शाम्पिन किये जाते है खोभिधाण चालियाणं फंदियाणं घट्टियाणं' क्षोभिन किये जाते है चलाए जाते है स्पंदित किये जाते है परस्पर संवपित किये जाते हे 'उदीरियाणं' उदीरितकिये जाते है जबर्दस्ती से प्रेरित किये जाते है उनका 'केरिसए सद्दे पण्णत्ते-क्या आगे कहे जाने वालो शिविका आदि वस्तुओं के शब्द जैमा शब्द होता है, क्या यही दलाते है 'ले जहा जामए सिवियाएवा' पछे छे से ति ण मंते ! तणाणं मणीणय पुवावरदाहिणउत्तरागतेहि पातेहि' हे सन् थे तृए। भने भणियोनी २५० पूर्व, पश्चिम दक्षि भने उत्तर दिशा मेथी मावावाणा पवनथी 'मदाय मदाय एइमाणं वेइयाणं
पियाणं' म भ प थी ४५.ववामां आवे छे, विशेष३५थी पित ३२ पाभ भाव छ, पा२२ ४पित ४२वामां मावे छे. 'खोभियाणं चालियाणं फदियाणं धटियाणं' शामित ४२पामा मा छे तावाम गाव छ, २५हित ४२वामा मा ५२६५२ संघर्ष या ४२वामां मावे छे 'उदीरियाणं' Rत ४२वामा भाव छ, वात्प्रेरित ४२१'मा २५ a वमते तेना शह 'केरिसए सद्दे पण्णत्ते' मा वाम भावना२ शिम विजे२ १२तुमाना शहरवा
Page #907
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेययोतिका टीका प्र.३ उ.३६.५३ वनपण्डादिकवर्णनस् काया वा 'संदमाणीयाए वा स्यन्दया निकाया वा 'रहबरस वा रथवरस्य वा तत्र शिविका जम्पानविशेषरूपा उपरिछादिता कोष्ठाकारा, तथा दीर्घा जम्पानविशेषः पुरुषस्य स्वप्रमाणावकाशदात्री स्यन्दमानिका, अनयोश्च शब्दः पुरुषोत्पा. टितयोः क्षुद्रहेमघण्टिकादि चलनवशतो वेदितव्या स्थश्च द्विविधो भवति संग्रामरथः क्रीडारयश्च, अत्र संग्रामस्थो ज्ञातव्यो नतु क्रीडारथः क्रीडारथस्याग्रिमविशेषणानामसं मनात, तस्य स्थस्य फलवेदिका यस्मिन् काले या पुरुषस्तदपेक्षया कटिममाणाऽक्सेया, तस्यैव रथस्य विशेषणानि दर्शयति-'सच्छत्तस्स' इत्यादि, 'सच्छत्तस्स' सच्छत्रस्य, छत्रेण सहितः सच्छत्रस्तस्य सच्छत्रस्य 'मज्झयस्स' सधजस्य-ध्वजाविशिष्टस्य 'सघंटयम सघण्टासस्य उभयपाविलम्बि महा प्रमाणघण्टोपेनस्य 'सतोरणवररूम' सहयोरणवरं प्रधानं तोरण यस्य स सतोरण वरस्तस्य 'सणंदिघोसम्स' सनन्दिघोषस्य सहनन्दिघोपो द्वादशर्यनिनादो यस्थ स सनन्दिघोषस्य 'सखिखिणि हेमजाळपेरंतपरिक्खित्तस्स स किंकिणीहेमजाल आदि के उस पुरुषों द्वारा अपने अपने स्कन्धों पर उठाये जाने पर जैसे शब्द शिविकाझी-उपर में वस्त्रादिले ढकी हुइ कोष्ठ के आकार वालो जम्पान विशेषरूपालखी की छोटी छोटी हेमनिर्मित घंटिकाओं के हिलते ममय जैसे निकलते है। तथा इली प्रहार से पालखी के आकार में कुछ वडी तथा बैठे हुए पुरुषों में अपने अपने प्रमाणानु. रूप अवकाश स्थान देनेवाली ऐसी स्पन्दमानिका की छोटी २ हेननिर्मिन घण्टिकाओं की हिलते समय जैसी शाहाज निकलती है, उसी प्रकार की आवाज इन तृणों और पणियों से वायु द्वारा हिलाये जाने पर निकलती है इसी प्रकार छत्तल सज्जयस्मा, संघटयस्त सतोरणवरस्स' जो छन से यक्त होवजा से युक्त हो दोनों ओर लटकती हुइ महाप्रमाणोपेन्द्र घंटाओं से युक्त हो उत्तमतोरण ले युक्त हो शम् तेना होय छे ? रभ से जहाणामए सिबियाएवा' 21ना से પૂરૂષ દ્વારા પિતા પોતાના ખભાઓ ઉપર ઉઠાવવામાં આવે ત્યારે જે શબ્દ શિબિકા અર્થાત પાલખીની નાની નાની સુવર્ણ નિર્મિત ઘંટડિયાના હાલવાથી થાય છે, અને એ જ રીતે પાલખીના આકારથી કંઈક મટિ તથા અંદર બલા પુરૂષને પિતાના પ્રમાણાનરૂપ અવકાશ-જગ્યા આપવાવાળી સ્પંદમાનકાની નાની નાની સર્ણની બનાવેલી ઘંટડિયાના હલવાથી જે શબ્દ
ળ છે, એજ રીતનો શબ્દ એ છે અને મણિયાને પવનથી હલાવવામાં भाव त्यारे नाणे १ का प्रमाणे 'सत्तस्स सज्जयस्त्र सघंटस्स सतोरणઆજે છત્ર યુક્ત હય, ધજાથી યુક્ત હય, બન્ને બાજુએ લટકાવવામાં जी० १११
Page #908
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगमत्र पर्यन्त परिक्षिप्तस्य सह किंकिणीभिः क्षुदघण्टिकामिः वर्तन्ते इति स कि किणीकानि यानि हेमजालानि हेसमयदामसमूहास्त: सर्वासु दिक्षु पर्यन्तेपु बहिः प्रदेशेषु परिक्षिप्तो व्यास इति सकिंकिणीहेमजालपर्यन्त परिक्षिप्तस्तस्य तथा'हेमवयखेत्तचित्तविचित्ततिणिस कणशनिज्जुतदारुयागस्स' हैमवतक्षेत्रचित्रविचित्र तैनिशककनकनियुक्तदारुकत्य, हैमवतं क्षेत्र हिमवत्पर्वतमावि चित्रविचित्र मनोहारिचित्रोपेतं तैनिशं तिनिशदारुसंवन्धी कनकनियुक्तं कनकविच्छुरित दारुकाष्ठं यस्य स हैमवत् क्षेत्रचित्रविचित्र तैनिशकनकनियुक्त दारुकाष्ठस्तस्य, तथा-'मुषिणद्धारक मंडळ धुरागस्स' सुपिनद्धारकाण्डलधुराकस्य, मुष्ठ-अतिशयेन सम्यक् पिनद. मरकमण्डलं धुरा च यस्य स सुपिनद्धारकमण्डलधुराकरतस्य, तथा-'कालायसमुकयणेमिजंतकम्मस्स' कालायस सुकतनेमियन्त्रकर्मणः, कालायसेन जात्य. कोहित सुष्टु-अतिशयेन कृत नेमे वाद्यपरिधेर्यन्त्रस्य च-अरकोपरि फलकचक्र. वालस्य कर्म यस्मिन् स कालायस सुकृतनेमिस्त्रकर्मा तस्य, 'आइण्णवरतुरग'सदिघोसस्स' नन्दिघोष द्वादश तृयों के निनादों से युक्त हो 'सखिखिणि हेमजालपेरंतपरिखित्तरस' क्षुद्रघंटिकाओं से युक्त हेमीमालाओं द्वारा जो सब ओर व्याप्त हो-'हेमवयरखेत्तचित्तविचित्त. तिणिसकणगनिज्जुत्तदात्यागस्स' तथा हिमवत पर्वत के तिनिश वृक्ष के काष्ठ से जो कि चित्रविचित्र-मनोहारि चित्रों से युक्त
और सुवर्ण खचित पना हुमा है 'सुपिणिद्धारक मंडलधुरागस्त' जिसके पहियों में आरे बहुत ही अच्छी तरह से लगे हों तथा जिमकी धुरा बटुत मजबूत हो । 'कालायससुस्यणेलिजंत कस्मत' चक्रकी धार जमीन की रगड से घिस न जावे तथा चक्र के पटिया आपस में अलग अलग न हो जावें इस अभिप्राय से जिसके पहियों पर लोहे की दन्तं मावर प्रभात सुर-थी युताय 'सणंदी घोसस्म नहधाष मार श्याना Aql वाणी हाय 'सखिं खणिहेमजालपेरतपरिविखत्तस्स' नानी નાની ઘંટડિચેથી યુક્ત સુવર્ણની માળાઓ દ્વારા જે બધી તરફથી વ્યાસ डाय छे. 'हेमवयरवेत्तचित्तविचित्ततिणिखकणानिज्जुत्तदारुयागस्स' तथा हिमपात પર્વતના તિનિશ વૃક્ષના લાકડાથી કે જે ચિત્રવિચિત્ર મને હારિ એવા सुंदर चित्रोथी युद्धत मन सोनाना तारोथी भडसा डाय 'सुपिणिद्धारकमडल धुरागरस ना मां मारा। हम ताथी सारी शत adal हाय तथा नी धुरा-धरी घolar भक्त हाय 'कालायमसुकयणमिजत कम्मरस' पानी धार सभीनमा घसावाथी घसा न लय तथा पेडना alssi એક બીજાથી જુદા ન પડી જાય એ હેતુથી જેના પર લોખંડની પાટી ચડાવ
Page #909
--------------------------------------------------------------------------
________________
८८३
भPPORT
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.५३ वनपण्डादिकवर्णनम् सुसंपउत्तस्स' आकोणवरतुरगसुसंधयुक्तस्य, आकीर्णा गुणैाप्ता आकीर्ण: जातीया वा ये वरा:-प्रधानास्तुरगा घटकास्ते सुष्टु-अतिशयेन सम्यमयुक्ताः योनिता यस्मिन् स आकीर्णवरतुरगसंमयुक्तस्तस्य, तथा-'कुमलनरछेयसारहिसु. संपरिंगडियस्स' कुशकनरच्छेकसारथिमुसंपरिगृहीतस्य, सारथि कर्मणि-अश्वचालन कार्य ये कुशला निपुणास्तेषां मध्ये अतिशयेन छे को दक्षस्तेन सारथिना सुष्ठुसम्यक् परिगृहीतस्य 'सरसय वत्तीसत्तूणपरिमंडियस्स' शरशतद्वात्रिंशत्तोणपरिमण्डितस्य, शराणां शतं प्रत्येकं येषु तानि शरशतानि, तानि च तानि द्वात्रिंशत्तूणानि च बाणाश्रयाः, इति शरशतद्वात्रिंशत्तूगानि तैमण्डितस्य, अधमर्थः-एवं खलु तानि द्वात्रिंशच्छरशतभूतानि तूणानि रथस्य सर्वतः पर्यन्तेषु अवलम्बितानि संग्रामाय उपकल्पितस्यातीव मण्डनानीव भवन्ति, 'सकंकड़बडिसगस्स' सकङ्कटा वतंसकस्य, कङ्कटं कवचं सहकङ्कटं यस्य स सकङ्कट:' साङ्कटः अवतंसा-शेखरो यस्य स सकङ्कटावस: तस्य, तथा-'स चाबसरपहरणभरियस्ल' स चापशरमहरणावरणभृतस्य, सह चापं येषां ते स चापाः ये शरवाणा: यानि च कुन्तमल्लिचढाई गइ हो 'आइण्णवरतुरगसुसंपउत्तम' अकीर्ण-गुणों से व्याप्त ऐसे श्रेष्ठ घोडे जिसमें अच्छी तरह से जूने हुए हों 'कुसलणरछेय सारहि सुसंपरिगहियरल' अश्वसंचालन रूप कार्य में कुशल ऐसे पुरुषों के बीच में जो दक्ष हैं ऐसे सारथि ले जो युक्त हो 'सरसपत्तीस तोरणपरिमंडितस्स' जिन में प्रत्येक में सौली बाण हो ऐसे ३२ बत्तीस भाथों से जो युक्त हो 'सकंफाडवडिलगल' बकतर सहित मुकुट जिसका हो 'सचावसरपहरणभरियरस' धनुषसहित वाण जिस में भरे हुए हो. तथा-कुंत-भाले-आदि प्रहरण, एवं कवच खेटक आदि आयुधों से जो परिपूर्ण हो। 'जोहजुद्ध सन्जस्स' तथा योद्धाओं के युद्ध के निमित्त जो सजाया गया हो ऐसे रहवरस्ल' संग्रामस्थ के जप कि वह 'रायं पाम मावी हाय 'आइण्णवरतुरगसुसंपयुत्तस्स' माघी गुथी व्यास मेवा उत्तम तीन घोडासा मा सारीतनतरवामां मावा हाय, 'कुसलगर छपसारहि सुसंपरिगहियस्स मय सयातनना आयमा यतु२ ५३षामा २ भात तर डाय सेवा सारथिथी२ त हाय, 'सरसवत्तीसतोण परिमांडित स्स'मा हरेमा सो सोमाय हाय सेवा मत्री माथामाथी युति हाय सककडवडिंसगरम' तर सहित भुशुटो ना हाय 'सचापसरपहर. भारयस्स' धनुष सहित माणे। मां सरेसा डाय, तथा त-माता विगैरे
डाय, 'जोहजुद्ध प्रहर। मन अक्य जेट विगैरे मायुधाथी २ परि सन्जरस'' तथा योद्धामान युद्ध भाट २२ सयाम माव्या हाय, मेवा
Page #910
--------------------------------------------------------------------------
Page #911
--------------------------------------------------------------------------
________________
मैयद्योतिका टीका . . .५३ वनषण्डादिकवर्णनम् हे गौतम ! 'णो इणढे सटे' नायमर्थः समर्थः, नहि तेषां तृणानां मणीनां च शिविकादि पद सदृशः, शब्द: किन्तु ततोऽपि विलक्षण एव । पुनश्च गौतमो वीणामधिकृत्य पृच्छति-'से जहा णामए' इत्यादि तद्यथानामकम् 'वेया. लियाए वीणाए' वैतालिक्या वीणापा: मातः सन्ध्यायां वा लोकानां श्रोतृणां पुरतो या वादनायोपस्थाप्यते सा किळ मालपाठिका तासाभावेऽपि च वाद्यते, विताले-तालासावे सति भवति या सा वैतालिकी तस्या वैतालिक्या वीणायाः 'उत्तर मंदामुच्छियाए' उत्तरमन्दामूर्छितायाः, मूर्छन मूर्छा सा सञ्जाता अस्या इति मूर्छिता, उत्तरमन्दाया-उत्तरमन्दाभिधानया मूर्छनया गन्धार-स्वरान्तर्गत्या सप्तम्या मूर्छिता, उत्तरमन्दामूर्छिता, अयमर्थ:-गान्धार स्वरस्य सप्तमर्छना भवन्ति, तथाहिहे भदन्त ! यदि पूर्वोक्त रथ के शब्द जैसा शब्द नहीं होता है तो क्या अष आगे कहे जाने वाली बीणा के जैसा शब्द होता है क्या? वही दिखलाते है 'से जहाणालए वेथालियाए वीणाए उत्तरमंदा मुच्छियाए अंके सुपरहिवाए' हे अदन्त जैली वैतालिको प्रातः अथवा सन्ध्या के समय जा वीणा सुननेवाले लाशो के समक्ष बजाने के लिये उप. स्थित की जाती है। वह मङ्गलपाठिकावोणा ताल के अभाव में भी वजायी जाती है अतः पिताल में बजायी जाने के कारण उस्म वीणा का नाम वैतालिकीवीणा कहा गया है वह पैतालिकी वीणा जत्र उत्तर मन्दा नामकी मूछना ले-गान्धार घर के अन्तर्गल सप्तमी मूच्छना से युक्त होती है तब वह उत्तर मन्दार मूच्छिता कही गई है, इसका समटे' गीतम ! म मय समय नथी. प्रसुश्रीन! याप्रमाणेने। उत्तर सासणीन વિનયપૂર્વક ફરીથી શ્રીગૌતમસ્વામી પ્રભુશ્રીને પૂછે છે કે હે ભગવદ્ જે ઉપર જણાવ્યા પ્રમાણેના રથના શબ્દ જે તેને શબ્દ નથી તે શુ આગળ કડેવામાં આવનારી વિણાને જે શબ્દ હોય છે. તે શબ્દ એ તૃગ મણિયને सय छ १ से प्रश्न उपस्थित २di श्रीगीतमयामी ४३ छ'से जहाणामर वेयालियाए वीणाए उसरमदामुच्छियाए अ के सुपइद्रियाए' 3 समन् वैत.. લિકી અર્થાત તાલવગરની અર્થાત સવારે અથવા સાંજના સમયે સાંભળનારા લકાની સન્મુખ જે વીણા વગાડવા માટે ઉપસ્થિત કરવામાં આવે છે. તે મંગલ પાઠિકાવીણા તાલના અભાવમાં પશુ વગાડય છે. તેથી વિતાલમાં વગાડવાના કારણે એ વીણાનું નામ વૈતાલિકી વીણા કહેવામાં આવે છે એ વૈતાલિકી વીણા
જ્યારે ઉત્તર મંદા નામની મચ્છનાથી ગાંધાર સ્વરની અંતર્ગત સાતમી મૂર્છાનાથી ઉત હોય છે, ત્યારે તેને ઉત્તર મંદાર મૂચ્છિતા કહેવામાં આવે છે. આ
Page #912
--------------------------------------------------------------------------
________________
૮ટફ
जीवामिगमको 'नंदीय बुहिमा परिमाय चोत्थीउ सुद्ध गंधारा । उत्तर गंधारा वि य हवई सा पंचमी मुच्छा' ॥१॥ सुहुमुत्तर आयामा छट्टी सा नियमसो उ योद्धन्वा ।
उत्तरमंदा य तहा हवई सा सत्तमी मुच्छा' ॥२॥ छाया-'नन्दी च क्षुद्रा पूरिमा च चतुर्थी तु शुद्ध गान्धाराः।
उत्तरगान्धारा अपि च भवति सा पञ्चमीमूछना ॥१॥ सूक्ष्मोत्तराऽऽयामा षष्ठी सा नियमतस्तु वोद्धव्या ।
उत्तरमन्दा च तथा भवति सा सप्तमी मूर्छना' ।।२।। इत्येवं सप्तविधा मूर्छना, तत्रोच्यते-गान्धारादि स्वरूपा-मोचनेन गीयमाना अतिमधुरा अन्यान्यस्वरविशेषाः, यान् स्वरविशेषान् कुर्वन् आस्तां श्रोतन् मछितमायान् करोति, किन्तु स्वयमपि मूछित इव तान् करोति, यदि वा स्वयमपि साक्षात् मूर्छा करोति, तदुक्तम्-- तात्पर्य ऐसा है कि गान्धार स्वर की सान मूर्च्छनाएं होती है जैसे
'नंदीय खुट्टिमा पूरिमाय, चोत्थिय सुद्धगंधारा । उत्तरगान्धारावि य हवई सा पंचमी मुच्छा ॥१॥ सुहुमुत्तरआयामा छट्ठी सा नियमसो उ योद्धव्या।
उत्तरमंदाय तहा हवई सो सत्तमी मुच्छा ॥१॥ नन्दी क्षुद्रा, पूर्णा शुद्धगान्धारा उत्तरगान्धरा मूक्ष्मोत्तर आयामा और उत्तर मन्दा ये सात मूच्छनाएँ है ये मूर्च्छनाएँ इसलिये सार्थक किये गानेवाले को और सुननेवालों को अन्य अन्य स्वरों से विशिष्ट होकर मूच्छित के जैसा कर देती है तदुक्तम् ।
'अन्नन्नसरविसेसं उप्पायंतस्स मुच्छणा भणिया,
कत्तावि मुच्छिोड्व कुणए मूच्छेव सोवेति ॥१॥ કથનનું તાત્પર્ય એવું છે કે ગાંધારે સ્વરની સાત મૂછનાઓ હોય છે. જેમકે
'नदीय खुट्टिमा पूरिमाय, चोस्थिय सुद्धगंधारा ।
उत्तरगान्धारावि य हवई सा पचमीमुच्छा' ॥ १ ॥ નદી, કુદા, પૂર્ણ શુદ્ધ ગાંધારા ઉત્તર ગાંધારા સૂત્તર આથામા અને મંદા આ સાત મૂચ્છનાઓ છે. આ મૂરનાએ એ કારણથી સાર્થક છે કે એ ગાનારાઓને અને સાંભળવાવાળાને બીજા બીજા સ્વરથી વિશિષ્ટ થઈને મૂચ્છિતના જેવા બનાવી દે છે. તેજ કહ્યું છે કે
अन्नन्नमरविसेस उप्पायं तस्स मुच्छणा भणिया ।। - कत्तावि गुच्छि भो इव कुगए मुच्छेव सेवेति ॥ १ ॥
Page #913
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रयोतिका टीका प्र.३ उ. ३ . ५३ वनपण्डादिकवर्णनम्
'अननस रविसे से उप्पायं तस्स मुन्णा भणिया । -कत्ता चि मुच्छिओ इव कुणए मुच्छेत्र सो वेति' ॥१॥ छाया - अन्यान्यस्वरविशेषान् उत्पादयतो
ना भणिता । कर्त्ताऽपि मूर्च्छित इव करोति मूर्छा श्रोतृनिति ॥ १ ॥ गान्धारस्वरान्तर्गतानां च मूर्छनानां मध्ये सप्तमो उत्तरमन्दाभिधाना ना कळात प्रकर्षप्राप्ता ततस्तदुत्पादनतया च मुख्यवृत्या वादयिता मुर्छितो भवति । अत्र वीणा वीणावतोरभेदोपचारात वीणाऽपि मूर्छिता, इत्युच्यते ॥ साऽपि वीणा यदि अङ्क सुप्रतिष्ठिता भवति तदेव मुर्छना-प्रकर्ष विदधाति नान्यथा=अत आह='अङ्के' इत्यादि, 'अङ्के सुपइट्टियाए' अङ्के स्त्रीणां पुरुषस्य वा उत्सङ्गे सुप्रतिष्ठितायाः 'चंदणसारकोण परिघट्टिया ' चन्दनसारकोण परिध हि ठायाः, चन्दनस्य सारश्चन्दनसारः जात्यचन्दनम् तेन निर्मापितो यः कोणो वादनदण्डस्तेन परिघट्टिताया: संस्पृष्टायाः 'कुसलनरनारिस संपरिगाहियाए'
·
८८७
'गान्धार स्वर के अन्तर्गत मूच्र्छनाओं के बीच में उत्तरमन्दा. नामकी मूच्र्छना जब अति प्रकर्ष को प्राप्त हो जाती है तब वह श्रोता जनों को मूच्छितसा बना देती है इतना ही नहीं किन्तु स्वर विशेषों को करता हुआ गायक भी मूच्छित के जमा हो जाता है यहां वीणा और वीणा बजानेवाले में अभेदोपचार को लेकर वीणा भी मूच्छिता कही जाती है, वह वीणा यदि अङ्ग गोद में अच्छी तरह से नहीं रखी जावे तो वह प्रकर्ष रूप से सूच्छेना को नहीं करती हैं इसलिये वीणा को अवश्य ही बजानेवाले या बजानेवाली स्त्री के उसे अपने अङ्क में अच्छे ढंग से स्थापित करनी चाहिये तभी जाकर उससे अच्छे रूप में मुच्छेना प्रकर्ष को प्राप्त हो सकती है वीणा बजानेवाला वीणा को चन्दन सारसे निर्मित वादन दण्ड से बजाता है तार पर उसे बजाने
ગાંધાર સ્વરની 'તગત સૂનામાં ઉત્તરમંદા નામની મૂર્ચ્છના જ્યારે અત્યંત પ્રકને પ્રાપ્ત થઈ જાય છે ત્યારે તે સાંભળનારાએને મૂચ્છિત જેવા બનાવીતે છે. એટલુજ નહી' પણ સ્વર વિશેષાને પ્રગટ કરતા ગાયકપણુ સ્મૃતિ જેવા બની જાય છે. અહિં વીણા અને વીણા વગાડનારાએમાં અભેદેપચાર ને લઈને વીણાને પણ સૃષ્ટિના કહેવામાં આવે છે. તે વીણા જો કે કહેતાં ખેાળામાં સારી રીતે રાખવામાં ન આવે તે તે ઉત્કટ પણાથી મૂર્ચ્છના કરતી નથી. તેથી વીણાને વગાડનાર પુરૂષ કે સ્ત્રીએ તેને ખેાળામાં સુચારૂ ઢંગથી અવશ્ય રાખવી જોઇએ. ત્યારેજ તેમાંથી સુંદર રીતે સૂના મને પ્રાપ્ત થઈ શકે છે. વીણાને વગાડનાર વીણાને ચદનના સારથી મનાવેલ
Page #914
--------------------------------------------------------------------------
________________
fterferमसूत्रे
कुशलनरनारी सुसं परिगृहीतायाः, कुशलेन - वीणावादननिपुणेन नरेण-पुरुषेण • नार्या स्त्रिया वा सु-सुष्ठु सम्यक् परिगृहीताया: 'पदोसपचुपकालसमयंसि ' मदोषपत्यृपकालसम्ये, प्रदोषे - सायङ्काले मृत्यूपे - प्रभात वेलायाम्, 'मंद मंद पडया' मन्दं मन्दं शनैः शनैः एजितायाः चन्दनसारकोपेन ईपत कम्पिताया: 'वेश्याए ' व्येजितायाः - विशेषतः कम्पनयुक्तायाः कम्पिताया:- वारं वारं कम्पन युक्ताया' एतावदेव पर्यायेण व्याचष्टे - 'खोभियाए चाकियाए फदियाए घट्टि ure उदीरिया' क्षोभितायाः चालितायाः स्पन्दितायः घट्टिताया उदीरितायाः छत्र क्षोभिताया:- सूर्छा प्राप्तायाः, चालितायाः - प्रेरितायाः, स्पन्दितायाःनखाग्रेण स्वरविशेपोत्पादनार्थमीपच्चालितायाः घहितायाः ऊधोगच्छता
eee
के ढंग से रगड़ रगड़ कर चलाता है बजाने वाले पुरुषको या स्त्री को बजाने की क्रिया में विशेष निपुण होना चाहिये ऐसा वेमा व्यक्ति वीणा को ढंग से नहीं बजा सकता है और न वह उसे अपने अङ्गगोद में सुव्यवस्थित रूप से रख हो सकता है इन्ही सब बातों को समझाने के लिये 'अंके सुपट्टियाए चंदणसारकोण पविघट्टियाए कुसलनर नारि सुसंगहियाए पदोसपच्चूमकालसममि मंदं २ एहयाए वेड्याए खोभियाए चालियाए फंदियाए घट्टियाए उदीरियाए ओराला मणुण्ना कण्णमणणिव्वुङकरा सवओो समंता सदा अभिणिस्सर्वति' ऐसा पाठ यहां लिखा गया है वीणाका वादन या तो प्रातः काल होता है या सायंकाल के समय में होता है जब वह वीणा चन्दन सार निर्मित दण्डकोण से धीरे धीरे बजायी जाती है या विशेषरूप से जोर २ से बजायी जाती है तब उससे जैसा कर्ण और मनमोहित करने वाला
વાદન દઉંડથી વગાડે છે, તાર પર તેને ખજાવવા માટે ઢંગથી ઘસી ઘસીને ચલાવે છે. વગાડનાર પુરૂષ અથવા સ્ત્રી વગાડવાની ક્રિયામાં વિશેષ પ્રવીણ હાવી જોઈએ જેવી તેવી વ્યકિત વીણાને ઢંગપૂર્ણાંક વગાડી શકતી નથી તેમ તે વીણાને પેાતાના ખેાળામાં સુવ્યવસ્થિત રીતે રાખી પણ શકતા નથી, આ ખાખત सभन्नववा भाटे 'अ' के सुपइट्टियाए चांदणसारकोणपरिघट्टियाए कुसलनरनारि सुसंप गहियाए पदोसपच्चूसकालसमय खि मदं २ एइयार वेइयाए खोभिए चलियाए फंदियाए घट्टियाए उदीरियाए ओराला मणुष्णा कण्णमणणिव्वुतिकरा सव्वओ समता सहा अभिणिस्सति' भी प्रभाना या वामां आवे छे. વીણાનુ વાદન કાંતે પ્રાતઃકાળ સવારના સમયમાં અથવાતે સાય કાળ સાંજના સમયયાં થાય છે તે વીણાને જ્યારે ચંદનસારથી બનાવેલા દડાના ખૂણુાથી ધીર ધીરે વગાડવામાં આવે અથવા વિશેષ પ્રકારથી ોર જોરથી વગાડવામાં
Page #915
--------------------------------------------------------------------------
________________
24
प्रमेयथोतिका टीका प्र.३ ३.३ २.५३ वनषण्डादिकवर्णनम् चन्दनसारकोणेन गाढतरं वीणादण्डेन सहतच्याः स्पृष्टाया इत्यर्थः 'ओराला मणुण्णा कण्णमणणिषुतिकरा' उदारा मनोज्ञाः-कर्णमनोनिवृत्तिकराः अतिशयेन विलक्षण सुखजनकाः 'सब्बो ' सर्वत:-सर्वासु दिक्षु 'समंता' सर्वामु विदिक्षु 'सहाअभिणिस्सति' शब्दा अभिनिःसरन्ति-मादुर्भवन्ति । श्रीगौतमः माह-'भवेएयारवे सिया' स्यात् कदाचित् भवे देतान्द्रुपः वीणाशब्द सदृशः स्वेषां तृणानां मणीनां च किमिति प्रश्नः, भगवानाइ-जो इणढे समढे' नायमर्थः समर्थः, नेतादृशः शब्द स्तृणानाम् ।
भगवता एतादृशे शब्देऽस्वीकृते पुनरपि गौतम उपमया पृच्छति-'से जहा णामए' इत्यादि, 'से जहा णामए' तपथानामकम् “निराण वा किंपुरिसाण वा' किंनराणां वा, किंपुरुषाणां वा 'महोरगाण या गंधच्वाण वा' म्होरगाणां वा गन्धर्वाणां वा-व्यन्तरविशेषाणां कथं भूतानां तेषां तबाह-भहमाल०' इत्यादि, भद्दसालवणगयाण वा' भद्रशाळयनगतानां वा ‘णदणवणगयाण वा' शब्द निकलता है-उससे वह शब्द अन्तरात्मा को अतिशय रूप से विलक्षण सुखका जनक होता है ऐसा कह कर श्रीगौतमस्वामी प्रभुश्री से पूछा है 'भो एयारूबे सिया' हे भदन्त ! तो क्या ऐसा शब्द उन तृणों और मणियों से भी निकलता है क्या ? हलके उत्तर में प्रभुश्री कहते है 'णो इणट्टे समटे हे 'गोतम' यह अर्थ-समर्थ नहीं है क्योंकि इस शब्द से भी अधिक इष्ट, प्रिय, कानन और मनोज्ञप्तर तथा मनोऽमतर शब्द वायु के संपर्क से उन तृणों और मणियों से निकलता है। इस वीणा के शब्द को अगवान जय अस्वीकृत कर दिया तब श्रीगौतमस्वामी फिर किन्नर आदि के शब्दों की उपमा को लेकर पूछते है से जहा नामए किण्णराणवा किं पुरिसाण वा महोरगाणवा गधन्या આવે ત્યારે તેમાંથી કાન અને મનને મોહિત કરવાવાળો શબ્દ નીકળે છે. તેથી એ શબ્દથી અન્તરાત્માને અતિશય વિલક્ષણ પ્રકારનું સુખ ઉપજે છે. આ प्रभार हाने श्री गौतमत्वामी प्रभुश्रीन पूछे छे । 'भवेएयारूवे सिया' है ભગવનું તો શું એ મધુર શબ્દ એ તૃણા અને મણિયામાંથી પણ નીકળે छ १ २ प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री गौतमस्वामीन है छेउ णे। इणट्रे समटे હે ગૌતમ! આ અર્થ સમર્થ નથી. કેમકે એ શબ્દશી પણ વધારે ઈષ્ટ, પ્રિય, કતિ, મનોજ્ઞતર, તથા મનગમતર શબ: પવનના સંપર્કથી એ તૃછે અને મણિયમાંથી નીકળે છેઆ રીતે પૂર્વોકત વિશેષણોવાળી વીણાના શબ્દને ભગવાને અસ્વીકત કરવાથી શ્રી ગૌતમસ્વામી કિન્નર વિગેરાના શબ્દના સંબંધમાં सभुश्रान छे छे. 'से जहानामए किण्णराणवा किंपुरिसाण वा महोरगाणवा
जी० ११२
Page #916
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवाभिगम
८९०
नन्दनवनगतानां चा 'सोमणसवणगाण वा' सौमनसवनगतानां वा, 'पंडगवण गयाण वा' पण्डकरनगतानां वा तत्र मेरोः समन्ततः समभूतौ भद्रशालवनं, प्रथममेखलायां नन्दनवनम् द्वितीयमेखलायां सौमनसवनम् शिरसि चूलिकायाः पार्श्वेषु सर्वतः पण्डकवनम् तत्र स्थितानामित्यर्थः पुनश्च - 'हिमवंत मलय मंदरगिरिगुद्दा समण्णागयाण चा ' हिमवन्मलगमन्दरगिरिगुहा समन्वागतानां वा, हिमवान् हिमवत्क्षेत्रस्योत्तरतः सीमाकारी वर्षभरपर्यंत, उपलक्षणम्, शेषवर्षधरपर्वतानां मलयपर्वतस्य सन्दरगिरेश्व मेरुपर्वतस्य च गुहा = गुफा तंत्र समन्त्रागतानाम्आगत्य स्थितानाम्, किन्नरादयः माय एतेषु मुदिश्वरा भवन्तीश्यत एव रोपां ग्रहणम् 'एगओ संहियाणं' एकतः संहितानाम् - संमिलितानाम्, 'संमुहागयाणं' णवा 'भद्दसालवणगवाण वा सोमणसवणगयाण वा पंडगवणगयाण या हिमवंत मलयमंदरगिरिगुहसमण्णा पाणवा' यहां से लेकर सूत्र समाप्ति के शब्दों का विस्तृत अर्थ सूत्र के अन्य में कहा जायगा यह सामान्यरूप से अर्थ किया जाता है, है भदन्त । जैसा किन्नरों का अपना किंपुरुषों का महोरगों का या गंघर्षो का जो कि भद्रसाल वन में या सोमनसवन में घा पण्डकवन में पैठे हों या हिमवान पर्वत की या मलय पर्वत की था मन्दर पर्वत की गुफा में पैठे हो 'एमओ संहियाणं' एकस्थान पर एकत्रित हुए हो 'संमुहागयाणं' या एक दूसरे के आमने सामने आए हुए हो, या एक दूसरे के समक्ष बैठे हुए हों। कोई किसी को पीठ देकर न बैठा हो 'समुदविद्वाणं' बैठी हुई अवस्था में भी इस ढंग से वेटे हो कि जिससे किसी को आपल की रगड से या संघर्ष से बाधा न हो रही हो 'संनिविद्वाणं' गंघव्वाणवा भद्दसालणयाणा सोमणखवणगयाणवा पंडगवणगयात्रा हिम'तवलयम दर्शगरिगुह समण्णागयाण वा ' આ સૂત્રપાઠથી આરંભ કરીને સૂ સમાપ્તિ સુધિના શબ્દોના અર્થ સૂત્રના અંતમા કહેવામાં આવશે. આ અધ સામાન્ય રીતે કરવામા આવે છે, તે આ પ્રમાણે છે. હું ભગવત્ કિન્નરના કિં'પુરૂષોના મારગેાના, અથવા ગ ંધર્વોના સમૃહા કે જે ભદ્રમાલ વનમાં અથવા સૌમનવસનમાં અથવા પડકવનમાં બેઠેલા હાય જો હિમવાન પતની અથવા भाश्रयवतनी गथवा हर पर्वर्तनी शुभां ठेला होय 'पगओ संहियाण' એક સ્થન ५२ मेठा थयेला साय 'स' महागया णं' भने गोठ खोलनी સામે આવેલાહાય અથવા એક ખીજાની સન્મુખ બેઠેલા ડ્રાય કોઇની પીઠ કેઇની સામે પડતી ન હાય અર્થાત્ કોઇ પીડ દઇને મેસેલ ન 'होय 'समुत्रड़ियाणं' हेही अवस्थामां पण सेवी रीते मेहता हाय } लेथी
Page #917
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयद्योतिका टका प्र.३ उ. ३ सू.५३ वनपण्डादिकवर्णन
८९९
संमुखागतानाम् पृष्ठदाने हर्पविघातोत्यत्तेः 'समुवधिद्वाणं संनिविद्वाणं' समुपवि[ष्टानां सन्निविष्टानाम्, सम्यक् परस्परानाबाधया उपविष्टाः समुपविष्टा स्तेषां समुपविष्टानाम्, सम्यक् स्वशरीरानाबाधया न तु विषमस्थानेन निविष्टा स्तेषां सन्निविष्टानाम् 'पमुदिय एक्कीलियाणं' ममुदित मक्रीडिताना, ममुदिता:प्रमोदप्रकर्ष गताः क्रीडिताः - क्रीडितुमारब्धवन्तः । 'गीयति गंधन्वहरिसियमणाणं' गीवरतिगन्धर्वदर्पितमनसाम, गीते रतिर्येषां ते गीतरतयः गन्धर्व नाटयादि, तत्र हर्षितमनसस्तेषाम्, 'गेयं पगीयाणं' गेयं गीतानाम्, इत्यग्रेण सम्बन्धः तच्च गेयं गयादिभेदादष्टविधम्, तदेव प्रदर्शयति- 'गज्जे' इत्यादि । 'गज्जं ' गद्यम्, यत्स्वरसंचारेण गीयते तद्गयम् १, 'पज्जं' पचम् यत्र तु वृत्तादि गीयते तत्पयम् २, 'कत्थं' कथ्यं कथिकादि गीयते तत्कथ्यम् ३, 'पथबद्धं' पदबद्धम् यदेकाक्षरादि यथा 'ते' ते इत्यादि ४, 'पायवर्द्ध' पादवद्धम्, यद् वृत्तादि चतुर्भागमात्रे पदे व ५ 'लक्खित्तयं' उत्क्षिप्तकम् प्रथमतः समारभ्यतथा जिस बैठने में अपने शरीर को भी अपने ही शरीर के किसी भी अवयवद्वारा बाधा न पहुंच रही हो ऐसे समसंस्थान से बैठे हो । 'मु इक्कीलियाणं' हर्ष जिनके शरीर पर खेल रहा हो और जो आनन्द के साथ क्रीडा करने में नग्न हो रहे हो' 'गीधरतिगंधव्वहरिसियमगाणं' गीत में जिनकी रति हो गन्धर्व नाट्यादि करने में जिनका मनहर्षित हो रहा हो 'गेयं पणीयाणं, इस आगे कहे जाने वाले वाक्यों से यहां संवन्ध है गेव को गोते हुओं का वह गेय गयादिके भेद से आठ प्रकारक होता है जैसे 'गज्ज'- गद्यम्-जो स्वर संचार से 'पज्ज' पद्यवृत्तरूप 'कस्थं - कथारमक - 'पचष- षट्षाद्धं - एकाक्षरादिरूप - पपविद्ध' पादविद्ध, वृत्तादिके चतुर्भाग मात्र पद में बद्ध हुआ 'उक्खि
श्रे मीलनी अथामाशुथी अनय भाषा यांयती न होय 'संनिविट्ठाण' અને જે બેઠકમાં પેાતાના શરીરને પણ પેાતાનાજ શરીરના કાઈ પણ અવયવ द्वारा डुरउत पडती न होय येता सम संस्थानथी मेसेस होय 'पमुइयपक्की लियाणं' नेता शरीर पर हर्षनाथी रह्यो हाय भने मेनं पूर्व नाथ ४२. वा तहसीन अनेसा होय 'गीयर तिगंधहरिसियमणाणं' गीतमां लेनी प्रीति होय, नाटय विगेरे अवाम नेनु मन हर्षित था रघु' डाय 'गेय ं पगीयाणं’
આ આગળ કહેવામાં આવનારા વાકચાના અહિયાં સધ છે. ગેયને ગાનારા એના જેમકે તે ગેય ગદ્ય વિગેરેના ભેદથી આઠ પ્રકારના હોય છે. જેમકે 'गज्ज' ! गद्य" गद्य ने स्वर सभारथी 'पज्ज" पद्य वृत्त३५ 'कत्थ' स्थात्भ 'पयबद्ध' यह यद्ध अक्षर विगेरे ३ये 'पर्याविद्ध' पाहविद्ध वृत्त विगेरेना
Page #918
--------------------------------------------------------------------------
Page #919
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.५३ वनषण्डादिकवर्णनम् पदोपविपमुक्तम्, पइमिदोष दिपमुक्त रहितमिति पदोषविषमुक्तम्, ते च षड् दोपा अमी--
'भीयं दुयमुष्पित्थमुत्तालं च कमसो मुणेयध्वं ।
कागस्सर मणुनासं छटोसा होति गेयस्स' ॥ छाया-'भीतं द्रुतमुप्पिच्छत्थ सुत्तालं च क्रमशो ज्ञातव्यम् ।
कास्वरमनुनासं षड्दोपा भवन्ति गेयस्य ।। तत्र-भीतम्-उत्त्रस्तम् यदुत्मस्तेन मनसा गीयते तद्भोतपुरुषनिबन्धनधर्मानुवृत्तत्वाद् भीतमुच्यते ?, द्रुतं यत् त्वरित गीयते२, उप्पिच्छं नाम आकुलम् तदुक्तम्-'प्राहित्यं उपिच्छं च आउलं रोसमरियं च' अयमर्थः-आहित्था. छिं च प्रत्येकमाकुलं रोषभृतं बोच्यते इति, आकुलताच श्वासेन द्रष्टव्या, उक्तंच 'उपिच्छ शाप्तयुक्त' मिति३, तथा-उत् मावल्येन अतितालमस्थानतालं वा उत्तालम् ४, अश्लक्ष्णस्वरेण काफस्वरम् ५. सानुनासिकमनुनासम्-नासिकाविनिगावरानुगत मित्यर्थ .६, एते पदोपा गेयस्येति । तथा-'एगारसगुणालंकार' नैषाद इन सात स्वरों वाले गेयको जैसे 'ग' गद्यम् जो स्वर संचार से गाया जाय ये सात स्थर पुरुष एवं स्त्री के नाभिदेश से निकलते है जैसे कहा है 'सत्तबरो नाभिओ' अरससुसंपउत्तं' शृङ्गारादि आठरसोंवाले गेषको 'छहोलथिप्पमुश्क' छह दोषों से की जो छह दोष इस प्रकार है
'भीयं दुधमुविधमुसालं च कमलो मुणेयध्वं ।
कागस्तर मणुणासं छद्दोसा होति गेयस्स ॥ - इस्व अनुसार-भीन दूत उपिच्छ उत्ताल ४ काकस्वर. "और अनुनास इन छह दोषों से रहित गेय को 'एगारसगुणालंकार' एकादश गुणों से अलकृत गेय को 'अट्ठगुणोववेयं आठगुणों से युक्त गेय को गेय के आठ गुण ये हैपण गेयने रम जज', गद्यम' जय २ स्वरसय २थी गावामां आवे में सात १२ पु३१ भने स्त्रीना नामिशिथी नाणे छे. रेभ हुं 3 'सत्तसरा नाभि मो अदरसा संप उत्त' ॥२ विग३ मा सावाणी गेयने 'दोस विप्प मुक्क' छ हापोया २ .५ मा प्रभार थे.
'भीय दुयमुष्पित्थमुत्ताल' च कमसो मुणेयव्व । कागस्सरमणुणास छदसा होति गेयस्स' ॥ જીત, કુત, ઉપિચ્છ ઉત્તાલ, કાકશ્વર અને અનુનાસ આ છ દોષ વિનાના न ‘एगारस गुणाल'कार' २१०॥२ गुणेथी मसत गेयने 'अद्वगुणोववेय" “6 ગુણોથી યુકત ગેયને, તે આઠ ગુણે આ પ્રમાણે છે.
भा
Page #920
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवामिगम लियं' रक्तं त्रीस्थानकरणशुद्रम्, रक्तं गे रागानुरक्तेन गहीयते तद्रक्तम्, तथा च-त्रिस्थापकरणशुद्धम् त्रीणि ग्थानानि-उरः मभृतीनि हेपु कन-क्रिया शुद्धमिति त्रिस्यानकरण-शुद्धम्, तथाहि-उरः शुन्द्रं कण्ठशुद्ध शिरोशुद्ध च, स्त्र यदि उरसि स्वरः स्वर-भृमिसानुसारेण विशालो भवति तत उरो विशुद्धम्, स एवं स्वरो कण्ठे वर्तितो भवति अम्फुटिनय तसा कण्ठविशुद्धम्, यदि पुनः शिर: म.स. सन मानुनासिको मवति ततः गिरो निशुद्धम्, अथवा यद् उर:कण्ठगिरोमिा रलेश्मणा अव्याकुलित शुद्धीयते तद् उरः घण्टरो विशुद्धत्वात् त्रिम्यान करणविशुद्ध भवतीति । मधुरं समं मुललितम् एनानि पदानि व्याख्यातपूर्वाणि । तथा-'सकहरगुतवंसततीसुमं उत्त' सकुहरगुचद् बंगनन्त्रीनुसंपयुक्तम् सकुहगेगुञ्जन् यो वंशः 'वांसुरी इति प्रसिद्धः यत्र तन्त्रीतलतान यग्रा सुगंप्रयुन भवति, सकुहरे पंगे गुञ्जति तन्त्र्या च वाघमानानं यत् तन्त्रीस्तरेण अविशुद्ध तत् सकुहरगुञ्जद्वंशतन्त्रीपंप्रयुक्तम्,-तथा तालमुसंपउन' तालमुसंमयुका परस्पराहतहस्ततालस्वरानुवतियद्गीतं तत् नालमुगंप्रयुक्तम्, त मुजरिमादीनामा घाना माहतानां योनिः यश्च नृत्यन्त्या नर्तक्याः पादोरक्षेपस्तन समं तत्तालइसंश्युक्तम् 'तालसम' तालतमम् 'लयमुसंप उत्त' लयसुगंप्रयुक्तम् गमयी दारूमयो वंशमयो वा गेय को 'मउपरि भयपयरचारं' मृदुरिभिस्वानुमार तंत्री आदि से ग्रहण किये गये स्वर से युक्त पदमंचारबाटेगेपको सुरई श्रोताओं को आनन्द जिमये आवे ऐसे सुरतिवाले गेय को 'सुणनि' सुमतिवाले अंगो के सुन्दर झुकाववाले गेय को 'वर चालावं विशिष्ट सुन्दर रूपवाले 'गेयको दिवंगेयं पगीयाणं' दिव्य ऐसे गाने को गानेवाले उन पूक्ति भिन्नगदिदेयों के मुख से जो शब्द निकलने है सो वे जसे मनोहर होते हैं तो क्या हे भदन्त ! 'मवेएघावेरिणा' इसी तरह के शब्द उन तण और मणि से निकलते हुए होते है ? हम के उत्तर में प्रभुश्री कहते है 'हंना गोषमा ! एवंभूए मिया' -गौरय ! उनके निकले टए ગ્રહણ કરવામાં આવનારા સ્વરથી ચુકત પદસ ચાર વાળા ગેયને “gg" શ્રોતા એને જેનાથી આનંદ ઉપજે એવા સુરતિવાળા ગેયને સુગનિ સુ તિવાળા भगाना सुह२ असा गेयने 'वरचारुरूव' विश) सु१२ ३५4 गेयन 'दिव्वं गेय पगीयाण' दिव्य वा जानने वा तिन मेरे દેવ ના મુખથી જે શાક નીકળે છે, અને એ જેવા મનોહર હોય છે તે शु? 'भवेयारूवे भिया लगपन राती मधुरत ये तय भने भलिया માંથી નીકળનાર શબ્દોનો હોય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે गोयमा! एवं भूएसिया' 4 गौतम पूर्वेति ॥२॥ गेय विशमाथी
Page #921
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयधोतिका टीका. उ. ए.५३ वनषण्डादिकवर्णनम्
८२७ अंगुलिकोशस्तेनातायात व्याः स्वरमकारो लयस्तमनुलरद् गेय लयसुसंप्रयुक्तमिति कथ्यते । 'महसुसंपउत्तं ग्रहसंप्रयुक्तस्, य: मम वंशनाच्यादिमिा करोगृहीतस्तन्मार्गानुसारि गेयं महसुसंयुक्तम्, 'मनोहर' मनोहर-मनोऽपिलपणीयम् । कथं श्रुतं गेयम् ? तन्नाइ-बस इत्यादि, 'मउपरिमियपर संचार' मृदुकरिभितपदसंचारम्, मृदु-मृदुना स्वरेण युक्तं न तु कठोरेण सबा बन्न इवशेऽक्षरेषु-घोलनावर विशेषेषु संचलन् गेडी प्रतिमासने लाद संचारो रिमितमित्युच्यते, मृदुरिभित देघु गनिमद्धेषु संचारी यन्त्र गेरो तद मृदुरिसितपदसंचारम् । 'सुरई सुरति, शोभना रतिः-आनन्दो यदि श्रोतमा तत् मुरति । तथा-'सुगई" मुनति, शोभना नति:-अङ्गानां नमनं रचनातोऽवसाने यहि तह सुनति शेयम्, शब्द जैसे शब्द उन ता और मारियों के होते है यहां पर जोगेश को अनेक विशेषणों से युक्त किया गया है उन विशेषणों का तथा सूत्र में आत और भी पदों की व्याख्या इस प्रकार से है-जिन किन रादिकों का यहां कथन किया गया है वे सब धन्सर देश के ही भेद है भद्रशाल आदि चार धन सुमेरुतवत पर ही है इला भद्रशालबन मेरू की लमन्ततः भूलि बा लरक सम अर्थात् नीचे की भूमि है, मेरु की प्रथम मेखला में लन्दनपन्न है इसके उपर दुम्दरी मेखला में सौमनस वन है इल से उपर चूलिका के पार्श्व भागो में चारों तरफ पण्डकवन है महाहिलवान् हेलचन क्षेत्र की उत्तर दिशा में है और यह उसकी लीना का कत्ती होने ले पर्षद पर्वन्द बाहलाता है शेष गद्य आदि के लेद के गेय आठ प्रकार का होता है जो वर्षधर पर्वतों का यह उपलक्षक है, इश्यले अन्य वर्षधर पर्वत भी जान लेना चाहिये નીકળતા શબ્દ જેવા શબ્દો એ તૃણ અને મણિના હોય છે. અહીયાં જે ગેયને અનેક વિશેષણોથી યુકત કરવામાં આવેલ હોય એ વિશેષણોને તથા સૂત્રમાં આવેલ બીજા પદેનું વર્ણન આ પ્રમાણે છે. જે કિન્નર વિગેરે અહીંયાં કથન કરવામાં આવ્યું છે, તે બધા વ્યન્તર દેનાજ ભેદ છે ભદ્રશાલ વિગેરે ચાર વને સુમેરૂ પર્વત પર જ છે તેમાં ભદ્રશાલન મેરૂની ચારે બાજની ભમી સમ અર્થાત નીચેની ભૂમિ છે. મેરૂની પ્રથમ મેખલામાં નન્દનવન છે. તેના ઉપર બીજી મેખલામાં સૌમનસ વન છે. તેની ઉપર ચૂલિકાના પાશ્વભાગમાં ચારે તરફ પંડકવન છે મહા હિમવાન્ હૈમવત ક્ષેત્રની ઉત્તર દિશામાં છે. એ એની સીમાને બતાવનાર હોવાથી વર્ષધર પર્વત કહેવાય છે. બાકિ ગદ્ય વિગેરેના ભેદથી ગેય આઠ પ્રકારનું હોય છે જેમકે વર્ષધર પર્વત એ અહિં ઉપલક્ષક છે, તેથી બીજા વર્ષધર પર્વત પણ સમજી લેવા જે ગેય સ્વર
जी० ११३
Page #922
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीदाभिगमसूत्रे
८९८
'परचारुरूवं' वरचारुरूपम्, वरम् प्रधानं चारुविशिष्ट च रूपं स्वरूपं यस्य तद् वश्चारुरूपम् 'दिव्यं' दिव्यं प्रधानम्, 'गेयं' गेयम् 'पनीयाणं' प्रणीतानां गायतांगेयस्य मानं कुर्वतां किन्नरादीनां यादृशः शब्दोऽतिमनोहरो भवति, 'भवेएयारूवे सिया' स्यात् कथञ्चित् भवेद किम् एतावद्रूपस्तेषां तृणानां मणीनां च शब्दः १ एवमुक्ते गौतमे भगवानाह - 'हंता गोयमा' इत्यादि, 'हंता गोयमा !' हन्तगौतम ! ' एवं सिया' एवम्भूतः शब्दः स्यात्तेषां तृणानां मणीनां चेति भगवता स्वीकृतम् ||म्० ५३ ॥
इति श्री विश्वविख्यात - जगदुद्दल्कभ- प्रसिद्धवाचक- पञ्चदशभाषाकलितललितकला पालापकमविशुद्ध गद्यपद्यानैकग्रन्थ निर्मापक, चादिमानमर्दक- श्रीशाहुच्छत्रपति कोल्हापुरराजप्रदत्त - 'जैनाचार्य' पदभूषित - कोल्हापुरराजगुरु - बालब्रह्मचारि - जैनाचार्य - जैनधर्म दिवाकर पूज्य श्री घासीलाल विविरचितस्य श्री जीवाभिगमसूत्रस्य ममेयद्योतिका ख्यायां व्याख्यायां तृतीयमतिपत्तौ चनपण्डादि वर्णनान्तो द्वितीयो
भागः समाप्तः ॥
जो गेप स्वर संचार से गाया जाता है वह गद्य है जो गान छन्दों के रूप में गाया जाता है वह पद्य रूप गेध है २ जो कधिकादिरूपसे गाया जाता है वह कथ्य है ३ जिस गेम में केवल एक एक अक्षर गाया जाता है वह पदवद्ध है ४ जो वृत्तादि के चतुर्भाग एकचरण में यद्ध हो वह पादवद्ध है ५ जो आरंभ से ही समारभ्यमाण होता है वह उत्क्षिप्त ६ प्रथम समारम्भ के बाद जो नाना आक्षेपपूर्वक प्रवर्तमान
સચારથી ગાવામાં આવે છે. તે ગદ્ય કહેવાય છે. ૧ જે ગાન છન્દાના રૂપે ગાવામાં આવે છે, તે પદ્યરૂપ તૈય છે. ૨ જે કથિકાઢિ પ્રકારથી ગાવામાં આવે છે. તે ખ્ય ગેય છે. ૩ એ ગાનમાં કેવળ એક એક અક્ષર ગાવામાં આવે છે. તે પદ બદ્ધ ગેય છે. ૪ જે વૃત્તાદિના ચતુર્ભાગ એક ચણુમાં બદ્ધ હાય તે પાર્દ અદ્ધ છે ૫ જે ગેય આરંભથીજ સામારભ્ય માણુ હાય છે, એ ઉક્ષિપ્ત ધ્યેય છે. ૬ પહેલા સમારંભની પછી જે નાના પ્રકારના આક્ષેપ પૂર્વક પ્રવત માન
Page #923
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रद्योतिका ठीका प्र.३ उ. ३ . ५३ वनपण्डादिकवर्णनम्
८९९
होता है वह प्रवृत्तक है ७ मध्यमा में जो सकल मूच्र्छनादि गुणों से युक्त होता हुआ धीरे धीरे संचार करता है, वह गेय के आठवां भेद हैं फिर गेय का विशेषण कहते है जिल गेय का अवसान सम्यकूरूप से भावित होता है वह रोचितावसान गेप है जो गेय छह दोषों से रहित हो उन छह दोषों का स्पष्टीकरण जो गीत गबराए हुए मन से गाया जाता है वह गीत भीत दोष से दूषित कहा गया है जो गाना जल्दी गाया जाता है वह गान का दुल नामक दोष है जिस गान को गाते समय श्वास उठ आवे और हससे गानेवाले को आकुलता हो जावे वह गेव पिच्छ दोषवाला कहा गया है- तदुक्तम्- ' उपिच्छे श्वासयुक्तम्' जो गाना अतितालबाला हो अथवा अस्थान सालवाला हो वह उत्ताल दोषवाला कहा गया है । जो गाना शिथिल कठोर स्वर से गाया जाता है वह गाना काल स्वर दोष से दूषित कहा गया है। जो जाना नाक के स्वर से गुनगुनाते हुए गाया जाता है वह अनुनासिक दोषवाला गाना कहा गया है ६ । ११ गुणों का स्वरूप पूर्वो में स्वर प्राभृत में विशेषरूप से है उनसे उद्धृत किया हुआ 'कुई वेस्मि भरतविंशाखिल' आदिद्वारा विरचित ग्रन्थ में मिलता है वहां से जान लेना चाहिये, गाने के आठ गुण इस प्रकार से हैं-जो गीत स्वर एवं कलाओं से पूर्ण करके
થાય છે તે પ્રવૃત્તક છે. છ મધ્યમામાં જે સકલ સૂના વિગેરે ગુણૢાથી યુકત થતા થતા ધીરે ધીરે સંચાર કરે છે. તે ગેય મદ કહેવાય છે. ૮ આ આઠ ભેદ ગેયના છે. હવે ગેયના વિશેષણેા મતાવવામાં આવે છે, જે ગેયનું અવસાન રમ્યક પ્રકારથી ભાવિત થાય છે તે રાચિતાવસાન ગેય છે, જે ગેય છ દોષોથી રહિત હાય એ છ દોષો આ પ્રમાણે છે, જે ગીત ગભરાયેલા મનથી ગાવામાં આવે છે, તે ગીત ભીત દોષથી દૂષિત કહેવામાં આવે છે. જે ગાન જહિંદુ જદ્ધિ ગાવામાં આવે છે. તે ગાનના દ્રુત નામના દોષ છે. જે ગાનને ગાતી વખતે શ્વાસ ચડી જાય અને તેનાથી ગાવાવાળાને આકુળતા થઈ જાય તે ગીત उच्चिन्छ होषवाणु देवाय छे. ते हवामां आवे छे. 'उप्पिच्छ श्वासयुक्तम्' ने जान अत्यंत तास वाजु होय अथवा अस्थाने तासवाणु होय ते ગાનને ઉત્તાલ દોષવાળું કહેવામાં આવે છે. જે ગાન શિથિલ કઠોર સ્વરચી ગાવામાં આવે તે ગાન કાકસ્વર દોષથી દૂષિત કહેવાય છે. જે ગાન નાકના સ્વરથી ગણુગણુતા ગાવામાં આવે તે ગાન અનુનોસિક દોષવાળુ કહેવાય છે. ૬
Page #924
--------------------------------------------------------------------------
Page #925
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रद्योतिका ठीका प्र. ३. उ. ३ सू. ५३ वनपण्डादिकवर्णनम्
९०१
होता है, वही स्वर जब कंठ में वर्तित होता हुआ अस्फुटित होता है तब वह कण्ठ विशुद्ध होता है वही स्वर जब शिर में प्राप्त होकर सानुनासिक होता है तब यह शिरो विशुद्ध होता हैं अथवा श्लेष्मा से अव्याकुल हुए उर कंठ, और शिर इन तीन स्थानों से जो गाया जाता है वह उर कंठ और शिर इन तीन स्थानों से विशुद्ध कहा गया है । अंगुलिकोश शृङ्गका दारु, लकडी का या वंश का बना हुआ होता है इसे अंगुली में पहन कर जब सन्त्री बजायी जाती है, तब उससे जो स्वर निकलता है उस स्वर का नाम लय है, इस लय के अनुसार जो गीत गाया जाता है वह लय सुसंप्रयुक्त गीत है, जो गीत प्रथमवंश तन्त्र आदि से गृहीत होता हुआ उसी के अनुसार गाया जाता है वह ग्रह सुसंप्रयुक्त गीत है, जिस गीत में तालवंश तन्त्री आदि के स्वर गीत के साथ साथ चल रहे हों वह गीत सुललित है मृदु स्वर से गाया जाय उस गीत का नाम मृदु है । घोलना स्वर विशेषों से संचार करता हुआ जब राग में आ जाता है तब वह पदसंचाररिभित
જેવા મીઠા અવાજથી જે ગીત ગાવામાં આવે તે ગીત મધુર નામના ગુણુ વાળુ' કહેવાય છે. ૬ જેમાં તાલ વશ અને સ્વર એક શિલ્પમાં જઇ રહ્યા હેય એવુ' જે ગીત છે તે ગીત સમગુણુ નામના ગુણુવાળું કહેવાય છે. જે ગાન સ્વરાને ધેાળવાના પ્રકારથી કંઠમા તરતું રહે છે, તે ગાન સુલલિત ગુણુ वाणु उडेवाय छे, सूत्रारे मन गुलामांथी डेंटला गुशाने 'रच' तित्थाण करणसुद्धं' विगेरे अारना चाहे द्वारा प्रगट ४रे छे. ३२, ४४ भने शिर એ ત્રણ સ્થાન છે. જે ગાન ઉર શુદ્ધ, કશુદ્ધ અને શિરઃશુદ્ધ હાય છે તે ગીત ત્રિસ્થાન કરશુ શુદ્ધ કહેવાય છે. છાતીથો ઉપડેલ સ્વર પેાતાની ભૂમિકા પ્રમાણે જ્યારે વિશાળ ખની જાય ત્યારે તે રાવિશુદ્ધ થાય છે. એજ વર્ વગાડવામાં આવે ત્યારે તેમાંથો જે સ્વર નીકળે છે, એ સ્વરનુ નામ લય છે,
આ લય પ્રમાથે જે ગીત ગાવામાં આવે છે, તે લય સુસ પ્રયુકત ગીત છે. જે ગીત પહેલાં વંશ તંત્રી વિગેરેથી ગ્રહણુ થઈને તે અનુસાર ગાવામાં આવે તે ગેય સુસંપ્રયુકત ગીત છે. જે ગીતમાં તાલ વશ તત્રી વગેરેના સ્વર ગીતની સાથે સાથે ચાલતા હૈાય એ ગીત સુલલિત કહેવાય છે. જે ગીત મૃદુવરથી ગાવામાં આવે એ ગીતનુ નામ મૃદુ કહેવાય છે. ધેલના સ્વર વિશેષોથી સચાર કરતા થકા જ્યારે ખરેાબર રાગમાં આવે ત્યારે તે ગીતનું
Page #926
--------------------------------------------------------------------------
________________
जोवाभिगमस्त्र सहलाता है रचना की अपेक्षा जिस गीत के अन्त में ननति होती है उस का नाम सुनति है, यह पूर्व के अनुवाद में सामान्य रूप से कहे गये पदों का स्पष्टीकरण है ।।५० ५६॥
जैनाचार्य जनश्रमदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजीमहाराजकृत 'जीचामित्र की प्रमेघद्योतिका नामक व्याख्या में तृतीय प्रनिपत्ति में वनपण्डादि वर्णनपर्यन्त का दूसरा भाग समाप्त॥
નામ પદ સંગારરિલિત કહેવાય છે. રચનાની અપેક્ષાથી જે ગીતની અંતમાં નતિ થાય છે તેનું નામ સુનતિ છે. આ પહેલાના કથનમાં સામાન્ય રીતે કરવામાં અાવેલ પદોના અર્ધનું સ્પષ્ટીકરણ છે કે ૫૩ છે
તારા તેનધર્મદિવાકર પૂજયશીઘાસંલાલજી મહારાજકૃત “છવાભિગમસૂત્ર'ની મેનિન નામની વ્યાખ્યામાં ત્રીજી પ્રતિપત્તિમાં વનપંદિ વર્ણન
સુધીને ભાગ સમાપ્ત છે
Page #927
--------------------------------------------------------------------------
Page #928
--------------------------------------------------------------------------
Page #929
--------------------------------------------------------------------------
_