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प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ रु.५ रत्नप्रभापृथिव्याः क्षेत्रच्छेद 'अस्थि दवाई" सन्ति द्रव्याणि 'वण्णमओ' वर्णतः 'काल जार घडताए चिट्ठति' काल यावत् घटतया तिष्ठन्ति, वर्णतः कालानि नीलानि लोहितानि हारिद्राणि शुक्लानि, गन्धवः सुरभिगन्धानि दुरभिगन्धानीति, रसतस्तिक्तरसानि कटु कानि कषायाणि अन्लानि मधुराणि, स्पर्शतः कर्कशानि मृदुनि गुरु काणि लघुनि शीतानि उष्णानि स्निग्धानि रूक्षाणि, संस्थानतः परिमण्डलानि वृत्तानि एस्राणि चतुरस्राणि आयतानि एतावत्संस्थानपरिणतानि यावद् घटत्या तिष्ठन किमिति यावत्पदघटित प्रश्ना, भगवानाह-'हंता अत्थि' हन्त समीति । 'इमीसे णं भवे । एतस्याः खल भदन्त ! 'रयणप्पसाए पुढवीए' रत्नममायाः पृथिव्याः ‘र रणणामगस्स कंडस्स' रत्ननामकस्य काण्डस्य 'जोयणसहस्सवाहल्लस' योजनसहस्रबाहच्छेएण छिजमाणस्त' केवली की बुद्धि से प्रतर भाग के रूप मेंखण्ड करने पर जो उसके आश्रित द्रव्य हैं वे क्या 'वाओ काल. जाव घड़त्साए चिटुंत' वर्ण की अपेक्षा कृष्ण आदि वर्ण वाले होते हैं गन्ध की अपेक्षा-सुरभि दुभि गंध वाले होते हैं क्या ? रस की अपेक्षा तिक्तरस आदि वाले होते हैं क्या? स्पर्श की अपेक्षा कर्कश आदि स्पों वाले होते है क्या? तथा-संस्थान की अपेक्षा परिमंडल आदि संस्थान वाले होते हैं क्या? परस्पर सम्बन्ध आदि रूप होकर परस्पर समुदाय रूप से रहते हैं क्या? इस तरह से पूर्वोक्त जैसा यह प्रश्न है इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'हंता, अहिष' हां गौतम ! वे द्रव्य पूर्वोक्त कथनानुसार होते हैं।
इमीलेणं भंते ! रयणप्पभाए पुढबीए स्थण जामगरल कंड हल हे छिज्जमाणस्व' जीना मुद्धिथी अतर विभागना ३३ ५' ४२ाथ तना माश्रयथा २२ रे द्रव्य छ, ते शु' 'वण्णमओ काल, जाव, घडताए चिदंति' વર્ણની અપેક્ષાથી કૃષ્ણ-કાળા વિગેરે વર્ણ વાળા હોય છે.? ગંધની અપેક્ષાથી સુરભિ, દુરભિ, સુગંધ અને દુર્ગંધવાળા હેય છે? રસની અપેક્ષાથી તિકતરસ વિગેરે રસેવળા હોય છે? સ્પર્શની અપેક્ષાથી કર્કશ વિગેરે સ્પર્શવાળા હોય છે? તથા સંસ્થાનની અપેક્ષાથી પરિમંડલ વિગેર સંસ્થાનવાળા હોય છે ? પરસ્પરમાં સંબદ્ધ વિગેરે પણુથી પરસ્પરમાં સમુદાય પણાથી રહે છે? આ પ્રમાણે પહેલાંની માફક આ પ્રશ્ન પૂછેલ છે. આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમ स्वामीन ४छे 'हंता अत्थि' । गौतम! ते द्रव्य पूर्वहित प्रश्न पश्यना - ४थन प्रमाणे हाय छे.
'इमीसे गं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए रयणणामगस्स करस्स' 8 सन् !