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________________ __ जीवामिगमक्ष त्तरशतसहस्रयोजनपरिमितम् तस्मिन् घनोदधेविंशति सहस्रयोजन पाइल्यं प्रक्षिप्यते, तेनायाति यथोक्त धनोदधि सहिताया स्तमस्तमाममा पृयिव्या उप रितनाच्चरमान्ताद घनोदधेरधस्तनचरमान्तस्यान्तरममाणमिति ७ । कित्पर्यन्त. मिदमन्तरप्रकरणं वाच्यम् ? तत्राह-'जात्र' इति, 'जाव' यावत्, अत्र यावत्पदेन तृतीय वासकाममा पृथिवीत आरभ्याधः सप्तमी पर्यन्त पृथिवीनां घननात-तनु वातावकाशान्तरमूत्राणि संग्राह्याणि, तानि च उपरितनाधस्तनचरमान्तानामन्तराणि असंख्येय शतसहस्रयोजनत्वेन व्याख्येयानि, एषु अधस्तन पृथिव्या अवकाशान्तरस्याधस्तन चरमान्त सूत्रं सुत्रकारः स्वयमेव प्रदर्शयति-'अहे सच. माए णं भंते' इत्यादि, 'अहे सत्तगाए णं भंते ! पुढवीए' अधः सम्पाः खल फा आठ हजार योजना अधिक एक लाख योजन का है उसमें घनोदधि के बील हजार मिलाने से अधस्तन थिवी के उपरितन चरमान से घनोदधि के अधस्तन चरमान्त का अन्तर अट्ठाईस हजार योजन अधिक एक लाख योजन का हो जाता है। यह अन्तर प्रकरण कहां तक कहना चाहिये ? इस पर कहते हैं'जाव' इति 'जाच' यावत् यहां यावत्पद से तीसरी पालु ताप्रभा पृथिवी से लेकर अधःसप्तमी तक की पृथिवियों के धनवात तनुवान और अब काशान्तर के सूत्रों का संग्रह करना चाहिये। उन सूत्रों का 'उपरितन अधस्तन चरलान्तों का अन्तर असंख्यात शतसहस्र योजनों का होता है। ऐसा शख्शन करना चाहिये । इनमें अधःसप्तमी पृथिवी गत अवकाशान्तर के अधस्तन घरमान्त का अन्न सूत्र सूत्रकार स्वयं दिखलाते हैं-'अहे सत्तमाए णं भंते' इत्यादि । गौतमने प्रभु से ऐसा મેળવવાથી નીચેની પૃથ્વીના ઉપરના ચરમાનથી ઘનોદધિના અધસ્તન ચરમાનનું અંતર અઠયાવીસ હજાર જન અધિક એક લાખ જનનુ થઈ જાય છે ! આ અંતર સંબંધી પ્રકરણે કયાં સુધી કહેવું જોઈએ ? તે સંબધમાં सूत्र४२ 'जाव' त्यहि सूत्र वा। ४९ . 'जाव' यावत महिया यात्५४थी ત્રીજી વાલુકાપ્રભા પૃથરીથી લઈને અધઃસપ્તમી પૃથ્વીના ઘનવાત, તનુવાત અને અવકાશ'ન્તર સંબંધી સૂત્રને સંગ્રહ કર જોઈએ. તે સૂત્રોના ઉપરિતન, અધતન ચરમાન્તનું અંતર અસંખ્યાત શતસહસ્ર રોજનું થાય છે. એ પ્રમાણે વ્યાખ્યાન સમજી લેવું તેમાં અધ: સપ્તમીમાં આવેલ અવકાશાન્તર ना मरतन यरमांतनु भत२ सूत्र सूत्रा२ २१ मतावे छे. 'अहेसत्तमाए णं भंते !' त्यात - शीतभावामी मे प्रभुने मे ५७यु छ ? 'महे सत्तमाए ण भते !पुढवीप'
SR No.010389
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages929
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size61 MB
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