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जीवामिगमसूत्र पर्याप्ताः, अपर्याप्ततागुणविशिष्टास्तु अपर्याप्ता इति । 'एवं जहा-पण्णवणापदे' । एवमुक्तक्रमेण यथा प्रज्ञापनापदे पृथिवी भेदो वर्णित स्तथैव अत्रापि विज्ञेयः तदेव प्रज्ञापना प्रथमपदं दर्शयति='सहा सत्तविहा पन्नत्ता स्निग्धाः सजविधाः प्रप्तार पृथिव्यो द्विविधाः स्निग्धाश्च खराश्च । तत्र स्निग्धाः सप्तविधाः प्रज्ञप्ताः खरा अणेगविहा पन्नत्ता' खराः पृथिव्योऽनेकविधाः प्राप्ताः 'जब असंखेज्जा' यावद संख्येयाः पृयिव्य इति बादरपृथिवीकायिकान् उपसंहरन्नाह-से तं वायरपुढवी. काइया' ते एवे चादरपृथिवीकायिका निरूपिताः । 'एवं चेव जहा पण्णवणापदे पृथिवीकायिक जिनको पर्याप्ति नाम कर्म का उदय होता है वे पर्यासक हैं और जितके पर्याप्त नाम कर्म का उदय नहीं होता है वे अपर्याप्तक हैं । 'एवं जहा पण्गदणापदे' प्रज्ञापना के प्रथम पद में जिस प्रकार से पृथिवी भेदों का वर्णन किया गया है उसी तरह से वह वर्णन यहां पर भी कर लेना चाहिये प्रज्ञापना के प्रथथ पद में इस सम्बन्ध में ऐसा वर्णन है-'लण्हा सत्तविहा पण्णता लक्षण पृथिवी सात प्रकार की कही गई है अर्थात् श्लक्ष्णा और खर पृथिवी के भेद से पृथिवी दो प्रकार की होती है इन में लक्षणा पृथिवी सात प्रकार की है और 'खरा अणेगविहा' खर पृथिधी अनेक प्रकार की है यावत् 'असंखेज्जा' असंख्यात प्रकार की ई ले तं बायर पुढबीकाइया' इस तरह से बादर पृथिवी कायिक जीवों के सम्बन्ध में यह वर्णन किया गया है ‘एवं चेव जहा છે, તેઓ પર્યાપ્ત કહેવાય છે અને જેમને પર્યાપ્ત નામ કર્મને ઉદય થત नथी तो अपर्या छे. 'एवं जहा पण्णवणापदे' प्रज्ञायना सूत्रना पड़ता પદમાં જે પ્રમાણે પૃથ્વી ચિકેના ભેદેનું વર્ણન કરવામાં આવેલ છે એ જ પ્રમાણેનું તે વર્ણન અહિયાં પણ સમજી લેવું, પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના પહેલા પદમાં પૃથ્વીકાચિકેના ભેદનું વર્ણન કરવામાં આવેલ છે. એ જ પ્રમાણેનું તે વર્ણન અહિયાં પણ સમજી લેવું, પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના પહેલા પદમાં આ સંબંધમાં એવું वन छ है 'सहा सत्तविहा पण्णत्ता' स] पृथ्वी सात प्रा२नी ही छे. અર્થાત્ લક્ષણ અને ખર પૃથ્વીના ભેદથી પૃથ્વી બે પ્રકારની હે ય છે. તેમાં
पृथ्वी सात रनी अवामा भावी छे. सन 'खग अणेगविहा पण्णत्ता' ५२ पृथ्वी मने प्रा२नी ही छ. यावत् 'असंखेजा' असण्यात प्रा२नी छे. 'से तं बायर पुढवीकाइया' मा प्रमाणे मा१२ पृथ्वी थियि श्वाना समयमा मा वन ४२पामा मावत छ ‘एवं चेव जहा पण्णवणा