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________________ प्रद्योतिका टीका प्र. ३ उ. २ ० २१ नारकाणां नरकभवानुभवननिरूपणम् ३२५ एवमेव अनेनैव अधिकृत दृष्टान्वोक्तेन प्रकारेण गौतम ! 'असम्भावपट्टत्रणाए ' असद्भाव प्रस्थापनया - असद्भावकल्पनया 'सीयवेयणिरहितो नररहितो' शीवdratreet नरके 'नेरहए उन्नटिए समाणे' नैरथिको नरकाद् उवृत्तः सन् 'जाई' इमाई इहं मणुस्सलोए हवंति' यानीमानि इह मनुष्यलोके भवन्ति शीतप्रधानानि स्थानानि, 'तं जहा तद्यथा - 'हिमाणि वा हिमपुंजाणिवा' हिमा निवा हिमपुञ्जानि वा 'हिमण्डलाणि वा हिमपडलपुंनाणि वा' हिसपटलानि वा हिमपटलपुञ्जानि वा 'तुसाराणि वा तुसारपुंजाणिवा' तुषाराणि वा तुषारपुञ्जानि वा 'हिमकुंडाणि वा हिमकुंडपुंजाणिवा' हिमकुण्डानि वा हिमकुण्डपुञ्जानि वा 'सीयाणि वा सीयपुंजाणि वा' शीतानि वा शीतपुञ्जानि वा 'ताई पासई' तानी हुआ वह अपने स्थान पर महत चाल से चलकर पहुंच जाता है - एवं वहां साता सौख्य मय होकर शेष जीवन को सुखमय निकाल देता है 'एवामेव गोपमा !' इसी तरह से हे गौतम! यह भी असत् कल्पना से समझ लेना चाहिये कि 'सीक्वेवणिएहितो नरपहितो' शीत वेदनावाले नरकों से 'नेरइए उबहिए' कोई नैरभिक उवृत हुआ और उद्घृत होकर (निकलकर) वह 'जाई इमाई इहं मनुस्वलोए एवंति' जो ये मनुष्य लोक में शीत प्रधान स्थान है - जैसे कि 'हिमाणि वा हिम पुंजाणि वा' हिम हिम पुंज, 'हिम पडलाणि वा हिमपडल पुंजाणिवा' हिम पटल, हिम पटल पुंज, 'तुसाराणि वा तुसारपुंजाणिवा' तुषार तुषार, पुंज 'हिम कुंडाणि या हिमकुंडपुंजाणिवा' हिमकुण्ड, हिन कुण्ड पुंज 'सीयाणि वा सीय पुंजाणि' शीत अथवा शीत पुत्र वगैरह 'ताई लम्बाई' पासह' उन सय स्थानों को वह देखे - 'पासिता' और देखकर 'ताई' ओगाहइ' उनमें अब છે. અને શીતલ સ્વરૂપ બનેલા તે ગજરાજ પેાતાના સ્થાન પર મસ્ત ચાલથી ચાલીને પહોંચી જાય છે, અને ત્યાં શાતા અને સુખમય મનીને માકીના भुवनने सुख पूर्व वीतावे हे. 'एवामेव गोमा !' या प्रभाये हे गौतम! आा चालु असलपना समभवी लेखे 'सीयवेयणिएहिंतो नरपहितो' शीत बेहना वाजा नरोयांथी 'नेरइए उखट्टिए' धनैरयि मडार नीज्ये हाय, भने महार नीम्जीने ते 'जाई' इमाई इह मणुस्सलोए हवति' ने भा भनुष्यसेोऽभां शीतप्रधान स्थान छे, नेमड़े 'हिमाणि वा हिमपुंजाणिवा' हिम हिमयुं 'हिमपडलाणि वा हिमपडल पु जाणिवा' डिभपटा जरइनो गोणी डिभ पटल थुन अरइना गोजाना ढगले 'हिमकु डाणिवा, हिमकुंडपु जाणिवा' हिम मुंड डिभझुंड ४ 'सीयाणिवा खीयपु'जाणिवा' शीत अथवा शीतयुन विगेरे 'ताई' सव्वाई' पास' से अधा स्थानाने ते हे छे, 'पासित्ता' भने हेमीने
SR No.010389
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages929
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size61 MB
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