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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ ०२० नारकागां क्षुत्पिपासास्वरूपम् . २७५ प्रत्यनुभवन्तो विहरन्ति-तिष्ठन्तीति । एवं जाव अहे सत्तमाए' एवं यावदधा सप्तम्याम्, रत्नममा पृथिवी नारकरदेव शर्कराममा बालकाममा पङ्कममा धूमप्रमा तमःप्रभा तमस्तमःप्रमा पृथिवीनारकाणां प्रत्येकैकस्य मुखे यदि सर्वान् समुद्रान् सर्वाश्च पुद्गलान् प्रक्षिपेत्तदा तेषां क्षुत्पिपासे नोपशाम्यत इतिभावः आलापकसूत्राणि सर्व पृथिव्यां स्वय में बोहनी मानि। सम्पति नारकाणां वैक्रियशक्ति दयितुमाह-'इसीसे गं' इत्यादि, 'इमीसे णं भंते' एतस्यां खल्ल भदन्त ! 'रयणचार पुढवीए' रस्नपभायां पृथिव्याम् 'नेरइया' नैरयिकाः प्रत्येकं किम् ‘एगत्त' एबू विउवित्तए' एकत्वं प्रभवो विकृषितुम् एकं रूपं विकुक्तुिं प्रभवः किम् अथवा-'हत्तपि पभू विउवित्तए पृथकत्वमपि प्रभवो विकुक्तुिम्, अत्र पृथक शमी नानावाची तथा च-प्रभूतानि अनेका 'खुपियासं पच्चणुठभवाना विति' भूख प्यास का अनुभव करते हुए रहते हैं। 'एवं जाव हे तमाए' इसी प्रकार का कथन भूख और प्यास के लगने के सम्बन्ध में रस्नममा पृथिवी के नारकों की तरह द्वितीय पृथिवी के लैथिको से लेकर सप्तमी पृथिवी के नैरपिकों तक में कर लेना चाहिये इन प्रभार से 'हे गौतम । नरकों में नारक जीय ऐसी भूख व प्यास की वेदना का अनुभचन करते हैं। इस सम्बन्ध में समस्त प्रविधियों के-भिन्न २ पृथिन्धियों के लैरधिकों के भूख और प्यास की वेदना के अनुबन करने में-भालाप प्रकार स्वयं ही उद्भाषित कर लेना चाहिये। अब नारकों की वैकिछ शक्ति का वर्णन करते हैं-'इमीसे णं रयणप्पभाए पुढचीए मेरइया' हे अदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी के नयिक क्या 'एगत्तं पन बिचित्तए' पकाप की विकुर्वणा करने में समर्थ हैं ? इसर में प्रभु कहते हैं -गोयला! एगत्तपि पभू તરસ લાગવાના સંબધનું કથન રત્નસા પૃથ્વીના નારકોની જેમ બીજી પૃથ્વીના તરવિકથી લઈને સાતમી પૃથ્વી સુધીના નૈરયિકના સંબંધમાં સમજી લેવું આ પ્રમાણે હે ગૌતમ ! નારક જીવ નરર્કમાં આવા પ્રકારની ભૂખ અને તરસની વેદનાને અનુભવ કરે છે આ સંબંધમાં સઘળી પૃથ્વી ના એટલે કે જુદી જુદી પ્રથ્વીમાં નિરકોની ભૂખ અને તરસની વેદનાને અનુભવ કરવામાં તેના આલાપકોને પ્રકાર સ્વયં બનાવીને સમજી લેવું જોઈએ. हवे नानी वय तिनुपएन ४२वामा भाव छ 'इसीसे ण रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया' हे मावन् ! मा रत्नप्रभा पृथ्वीना नैBिी 'पगत्तं पभू ! विउवित्तए' मे ३५नी विमा ४२वामा समय छ १ मा प्रश्ना
SR No.010389
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages929
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size61 MB
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