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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र. ३ उ. ३.५३ घनषण्डादिकवर्णनम् ८४९ - षट्पदाः कुसुमासवखोलाः किंजल्कपानलम्पटाः मधुरं गुमगुमायमानाः - परिभ्रमन्वस्तै:- गुञ्जन्तः- गुञ्जाश्वयुक्ता देशभागाः प्रदेशा येषां वे परिलीयमानमत्त षट् पदकुसुमासवलोलमधुरगुमगुमायमानगुञ्जदेशभागाः, तथा - 'अभितरपुप्फफला' अभ्यन्तराणि - अभ्यन्तरवत्र्त्तीनि पुष्पाणि फलानि च येष तेऽभ्यन्तरपुष्प फला, तथा - 'बाहिर सछन्ना' बहिः पत्रे छन्नाः - व्याप्ता इति वहिः पत्रच्छना‍, तथा - पत्रैश्च पुष्पैश्च अवच्छन्न परिच्छन्नाः - अत्यन्तमाच्छादिताः, तथा - 'नीरोगा' नीरोगा :- रोगरहिताः शटनवर्जिताः 'अकंटगा' अण्टकाः- कण्टकरर्जिताः, नैतेषु मध्ये बलादि कण्टकिवृक्षाः सन्तीति भावः । तथा - 'साउफला' स्वादुफलाः, स्वादनि फलानि येषां ते तथा-णिफला' स्निग्धफला: स्निग्धानिस्नग्धकान्तियुक्तानि फलानि येषां ते तथा-णाणाविद गु छगु मंडवगसोदिया' प्रत्यासन्नैर्नानाविधैरनेकमकारकै छ। वृन्ताकी प्रभृतिभिः गुल्मैर्नवमालिकादिगः " गुमायमान- गुन गुनाते रहते हैं झंकार - किया करते है अतः वृक्षों के देशभाग उनकी गुंजार से बडे अच्छे सुहावने लगते हैं 'अभितर पुप्फफला' इनवृक्षों के पुष्प और फल उन्हीं के भीतर छुपे रहते हैं, 'पाहिरपत्तच्छन्ना' बाहर में ये वृक्ष पत्रों से आच्छादित रहते है। इस तरह ये वृक्ष पत्र और पुष्पो से 'अवच्छन्न परिच्छन्ना' सदा उत्पन्न रूप से बहुत अधिक रूप से आच्छादित बने रहते हैं 'नीरोगा' इन वृक्षों में वनस्पतिकायिक संबंधी कोई भी रोग नही होता है 'अकंटा' इन वृक्षों के बीच बबूल आदि कांटों वाले वृक्ष नही होते । इनके फल बहुत ही अधिक मिष्ट स्वादवाडे होते है स्निग्धस्पर्शवाले होते है । प्रत्यासन्न नाना प्रकार के गुच्छों से, गुल्मों से नवमालिकादि के मण्डपों से और द्राक्षा आदिक मंडपों से ये सदा सुशोभित बने ગણાટ કરતા રહે છે, જીકાર કર્યા કરે છે તેથી એ વૃક્ષેાના પ્રદેશ ભાગેા એ પશ્ચિમેના ગુજારવથી ખૂબજ સુદર અને અત્યંત સેહામણા લાગે છે. ‘ત્રિમંતર पुप्फफला' थे वृक्षाना पुण्यो भने जो ते वृक्षोनी घटायां छुपा हे छे. 'बाहिर पत्तच्छन्ना' महारथी से वृक्षो पानामाथी असा रहे छे. या रीते ये वृक्षो पत्र! मने पुष्पथी 'अवच्छन्नपरिच्छन्ना' हा उत्तम रीते म्छाहित असा मन्या रहे छे. 'नीरोगा' या वृक्षोभां वनस्पतिथि संबंधी अध पशु रोग होता नथी. 'अकंटगा' थे वृक्षोभां व विगेरे टाका वृक्ष હાતા નથી તેના ફળેા ઘણાજ વધારે મીઠાશવાળા ઢાય છે. સ્નિગ્ધ સ્પર્શીવાળા હાય છે. સમીપવતી અનેક પ્રકારના ગુરુદેાથી, ગુલમેથી, નવમાલિકા વિગેરેના વિગેરેના મંડપેાથી એ વૃક્ષેા સદાકાળ સુશેભિત મડપેાથી અને દાખ नी० १०७
SR No.010389
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages929
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size61 MB
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