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________________ प्रमेयोतिकाटीका प्र.३ उ.३९.३७ एकोस्कद्वीपस्थानामाकारभावादिकम् ५७७ शास्थिकं यस्य स अरण्डुकस्तम् तथा कनकस्येव रुचको रुचिःप्ति स निर्मल: स्वाभाविकागन्तुकरलरहितः सुजातो-गर्भजन्म दोषरहितः, निरुपहता-ज्यराधुप घातरहितः, एवंविधो यो देहस्तं धारयन्तीत्येवं शीला ये तथा, तथा 'पमन्य बत्तीसलरखणधरा' द्वात्रिंघल्लक्षणानि प्रशस्तानि अप्रशस्तानि च भवन्ति त ते प्रशस्त द्वात्रिंशल्लक्षणधराः, 'कणगसिला तलुज्जल पसस्थसमग्लोवचियविस्थिन्नपिहुलबत्थी' कनकशिलातळोज्वल प्रशस्त समतलोपचित विस्तीर्णपृथुलबस्तयः तत्र कनकशिलातळवदुज्ज्वला प्रशस्ता समता उपचिता मांस विस्तीर्णा सर्वतो. विधाला पृथुला परिपुष्टा बस्तिः नारधोभागो येषां ते तथा 'सिरिवच्छंकिय. वच्छा' श्रीवत्साङ्कितवक्षसः, तत्र श्रीवस्सो लांछन विशेषः तेनाङ्कितं वक्ष उरो येषां ते तथा, 'पुरवरफलिह वट्टिय भुया' पुरवर परिघवर्तित भुजाः, तत्र पुरवरपखि महानगरद्वारकपाटागला तद्वद् वत्तितौ वृत्तौ पुष्टौ च भुनी येषां ते तथा, हैं किजिसके पृष्टकी हड्डी नहीं दिखती है, कनक के समान जो दीप्ति वाला होता है, निर्मल-स्वाभाधिक एवं आगन्तुक मल से जो रहित होता है गर्भजन्म के दोष से रहित होता है और निरूपहत होता है-ज्वरादि रूप उपघात से विहीन होता है 'पसस्थयत्तीसलक्खणधरा' ये प्रशस्त यत्तीस लक्षणों के धारी होते हैं। 'कणगसिलातलुजल पलत्थ समयलोवचिय विस्थिन्नपिलवस्थी' इनका चक्षास्थल कनक की शिला के तल जैसा उज्ज्वल होता है, प्रशस्त होता है, समतल होता है, उपचिन-पुष्ट होता है-मांसल होता है ऊपर की ओर और नीचे की ओर विस्तीर्ण होता है तथा दक्षिण और उत्तर की ओर वह पृथुल होना है। 'सिरियच्छंकियवच्छा पुरवर फलिहवाहियभुशा, सुयगीलर दिपुलभोगायाण फलि. ह उच्छढ दोहबाह तथा उनका वह वक्षःस्थल श्री वत्स के चिद से युक्त उच्छूढदीहमाहू' तथा साना मे पक्षस्यको श्रीवत्सना यि वाणा વાંસાના હાડકાં દેખાતા નથી સેનાના જેવી દીપ્તિવાળા હોય છે, નિર્મલ સ્વાભાવિક તથા આગંતુક મળ વિનાના હોય છે. સુજાત હોય છે, અર્થાત્ ગર્ભજન્મ દોષ વિનાના હોય છે, અને નિરૂપહત હોય છે. એટલે કે તાવ ॐ 16टी विगेरे पधात विनाना काय छे. 'पत्थसबत्तीस लक्खणधरा' तसा उत्तम व मत्रीशक्षकाने या ४२वापामा डाय है, कणगसिलातलज्जल पसत्थसमयलोवचियवित्थिन्नपिहलवत्थी' तना वक्षस्था सानानी शिलाना તળીયા જેવા ઉજજવલ હોય છે. અત્યંત પ્રશસ્ત હોય છે. સમતલ હોય છે. ઉચિત પુષ્ટ હોય છે. માંસલ હોય છે. ઉપરની બાજુ અને નીચેની બાજુ विस्तृत हाय छे. तथाक्षिण भने उत्त२नी मा ते पृथुत साय छे. सिरिबन्छकियवच्छा पुरवरफलिह वट्टियभुया भुयागीसर विपुलभोगआयाणफलिह मी०७३ -
SR No.010389
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages929
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size61 MB
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