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________________ प्रद्योतिका टीका प्र. ३ उ.२ स्तु.२० नारकाणां श्रुत्पिपासास्वरूपम् ૨૮ 'उसिपि वेयणं वेदेति' उष्णामपि वेदनां वेदयन्ति 'नो सीतोसिणं वेयणं वेदेंति' नो शीतोष्णवेदनां वेदयन्ति, 'ते बहुतरगा जे सोयवेयणं वेदे वि' ते बहुतरका ये शीतवेदन वेदयन्ति बहूनामु'णयोनित्वात् 'ते योत्रवरगा जे उणिवेयणं वेदेति' ते स्वोकतरा ये उष्णवेदनां वेदयन्ति अल्पउराणां शीतयोनित्वात् । 'तमाए पुच्छा' तमःमभायां पृच्छा, हे भदन्त नः प्रभा नारकाः किं शीतवेदनां वेदयन्ति उष्णवेदनां वा वेदयन्ति शीतोष्णां वा वेदनां वेदयन्तीति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयता' हे गौतम! 'सीयं वेषणं वेदेति' शीतां उत्तर में प्रभु कहते हैं - 'गोपमा ! सीतंपि देयणं देवेंति, उसिणंपि वेण वेदेति' हे गौतम! धूमप्रभा के नारक शीतवेदना का भी अनुभ वन करते हैं, उष्णवेदना का भी अनुभव करते हैं परन्तु 'नो सीतोसि णं वेषणं वेदेति' शीतोष्णरूप मिश्रवेदनाका अनुभवन नहीं करते हैं 'ते बहुतरगा जे सी वेषणं वेदेति' जो शीत वेदना का अनुभवन करते हैं ? ऐसे नारक जीव बहुतरक है क्योंकि यहां बहुत नारक जीवों की योनी उष्ण होती है, तथा 'ते थोक्तरणा जे उक्षिणवेदणं वेदेति' जो उष्ण 'वेदनाको अनुभवन करते हैं वे स्मोकर है क्योंकि यहां अल्पतर नारक जीवों की योनि शीत होती है 'तमाए पुच्छा' हे भदन्त ! तमः प्रभा पृथिवो के नैरयिक क्या शीत वेदना का अनुभवन करते हैं ? या उष्णवेदना का अनुभव करते हैं ? या शीतोष्णवेदना का अनुभव कहते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'गोमा । सीयं वेधणं 'गोयमा । सीतंपि वेयग' वैदेति, उसिपि वेयण' वेदेति' हे गौतम! धूभअला પૃથ્વીના નારકા શીત વેદનાને પણ અનુભવ કરે છે, ઉષ્ણુ વેદનાને પણ अनुभव रे है, परंतु 'णो सोतोखिणं वेय्णं वेदेति' शीतोष्य ३५ बेहनाना अनुभव उरता नथी. 'ते बहुतरगा 'जे खीयवेयणं वेदेति' थे। शीत वेहना ના અનુભવ કરે છે, એવા નારક જીવા બહુતરક છે. કેમકે અહિંયા મહુતરક लवोनी उपयुयोनी होय छे तथा 'वे थोक्तरगा जे. उखिणदेयण वेदे 'ति' જેએ ઉષ્ણુવેદનાના અનુભવ કરે છે. તેએ સ્નેકતર છે. કેમકે અહિયાં અલ્પતર નારક જીવાની ચેનિ શીત હાય છે. 'तमाए पुच्छा' हे गलवन् तभःप्रमा पृथ्वीना नैरायेो शुं शीत वेहनाने! અનુભવ કરે છે ? ઉષ્ણવેદનાના અનુભવ કરે છેકે શીતાણુ વેદનાના અનુભવ કરે ४१ मा प्रश्नना उत्तर भां अलु गौतमस्वामीने हे छे 'गोयमा | सीय' वेयण'
SR No.010389
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages929
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size61 MB
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