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________________ ३०० जीवामिगममी निरयेषु 'नेरइया केरिसयं उसिणवेयणं' नैरयिकाः कोशी गणवेदनाम् परशु. मवमाणा विहरति' प्रत्यनुभवन्तः प्रत्येक वेद पगानाः विहरन्ति-दिष्ठन्तीति प्रश्ना, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतन ! 'से नहा नामए' स यथानामक--अनिर्दिष्टनामशः कथित् 'कम्मारदारए मिया' कारदारकोछोहकारदारका-लोहयापुर: स्यात् कीदृशः मः ? निदार रम्य विशेषणान्यार 'तरुणे' तरुणः - मजदमानवयाः । बल बलान बलं शारीरिक सामथ्र्य नदम्या: स्तीति पकवान शारीरिक बलमिशिष्ट इत्यर्थः 'जुगव' युगवान युगं समदुःपमादिकालः स स्वेन रूपेण विद्यते यस्य न दोपदुष्टः स युगवान् अयं भावा-कालो. पद्रवोऽपि सामर्ष विघ्नहेतुर्मवति स चास्य नास्तीति महिपत्य युगवानिति विशेषणम् 'अप्पायंके' अल्पातयः अपातको वा अल्पमोऽत्रागाववाचकः ततण भंते ! णेरइएस्तु' हे भवन्त ! जिन नरकों से उण वेदना का अनुभ वन होता है उन लरकों में 'नेरक्ष्या के ग्लियं उजिणवेवणं पच्चणुमय माणा विहरंति' नैरविक जीव केसी उनवेदनाफा अनुभवन करते हैं ? इसके उत्तर में प्रलु काते हैं-'गोषमा! से जहाणामए फम्मारदारए सिया' हे धौलम ! जेल्ले कोई लहार का पुत्र हो और वह 'तमणे' जवान हो 'पलव' शारीरिक सामर्थ से शुक्रुझो 'जुग' लुपमाघम यादि काल में उत्पन्न हुआ हो 'युगवान्'ऐसा कहने का तात्पर्य यह फि इसकाल में कोई उपद्रव नहीं होता है अतः उपद्रयाभाव से शातीरिक सामथ्र्य का विकास ही होता है सोपद्रवकाल में शारीरिक सामर्थ्य हा विकास नहीं होता प्रत्युत वह सामय के विकास विन्न का हेतु ही होता हैं। 'अप्पायके' अल्प आतङ्क बालासो-अर्थात् स्वरादि रोग से मर्वधा णेरइएसु' हे भगवन् रे नीमा नानो भनुम धाय छ त नरीमा 'नेरईया केरिसय उसणवेयण पच्च गुभवमाणा विहरंति, न वी ઉધ વેદનાને અનુભવ કરે છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમસ્વામીને छ, 'गोयमा 1 से जहा नामए कम्मारदारए सिया' गीतमा भई सवारने पुत्र डाय मने ते 'तरूणे' युवान डाय 'बलवं' शारीरि सामथ्य की युत लाय, 'जुगव, सुषम सुषम विगेरे Hi SNA ये डाय, 'युगवान्' એમ કહેવાનું કારણ એ છે કે તે કાળમાં કોઈ પણ ઉપદ્રવ થતો નથી. તેથી ઉપદ્રવના અભાવમાં શારીરિક સામર્થ્યને વિકાસજ થાય છે. ઉપદ્રવવાળી સમયમાં શારીરિક સામર્થ્યનો વિકાસ થતો નથી. પરંતુ તે સમર્થ્યના વિકાસમાં विन १२९१ ३५ ९.५ छ 'अपायके' ५६५ भात पाणी डाय अर्थात् ताव
SR No.010389
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages929
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size61 MB
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