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________________ जीवा मिगमसूत्रे ६०२ तरुणोहिए आकोसात पउम गंभीर विग्रडणाभी' गङ्गावर्त प्रदक्षिणावर्ततरङ्गभगुररविकिरणतरुण बोधिताकोशायमान झगम्भीरविकटनाभयः, तत्र - गङ्गायाः आवर्ती विभ्रमः स इव दक्षिणावर्ताः न तु शमावलीः तरङ्गा इव तरङ्गास्तिस्रो वलयस्तभिर्मगुरा विच्छित्तियुक्ताः रविकिरणैस्तरुणः बौधित विकासीकृतं सत् अकोशायमानं - विकची मवत् पद्म-कमलं तद्वद् गम्भीरा गर्त्तवद्वेषयुक्ता विकटा - विशाळा च नाभिर्यासां तास्तथा, 'अणुमड पसत्यपीण कुच्छी' अनुद्भट परास्तपीन कुक्षयः अनुद्भटौ - अनुवर्णो प्रशस्त पीनौ कुक्षी यासां तास्तथा, 'सण्गपपासा' सन्नतपावी' 'संगयपासा' सङ्गत पात्र : 'सुजायपासा' सुजातपाः, एतानि पदानि पूर्वव्याख्यात मनुज कुक्षिचद व्याख्ये यानि, 'मियमाइयवीण रहयपासा' मितमात्रिक पीनर दिपाः, तत्र मिते - परमिते मात्रिके - मात्रयोपेते पीने - उपचिते रविदेप्रीतिकरे पार्श्वे यासां तास्तथा 'अकरंड पकणगरुपण निम्मल सुजाय णिरुवहयगायलट्ठी' अकरण्डककनकरुचक निर्मल-सुजात निरु 'हतगात्रयष्टयः, तत्र अविद्यमानं किरण तरुणवोहिय अकोसावंत पत्रमवण गंभीरविघडणाभी' गंगा की भौंर के समान प्रदक्षिणावर्त वाली, त्रिवल से भुग्न तथा मध्याह के रवि किरणों से विकसित हुए कमल के जैसी गंभीर एवं विशाल इनकी नाभि होती है 'अणुग्भडपसत्य पीण कुच्छी' अतुलवण-उग्रता रहित प्रशस्त, और पीन इनकी कुक्षि-उदर भाग होती है. 'सण्णयपासा' इनके दोनों पार्श्व भाग कुछ कुछ झुके हुए होते हैं । 'संगपपासा' अतएव वे संगत पार्श्व वाली और 'सुजायपासा' सुजात पार्श्व वाली होती है । इन पदों का विस्तृत अर्थ पहले आचुका है. 'मियमाइयपीण रहयपासा' इनके दोनों पार्श्व मित-परिमित, अपने-अपने प्रमाण युक्त, पुष्ट और रतिप्रद-आनन्दवर्धक होते हैं । 'अकरंडुयकणगडेय छे. 'गंगावत्तपयाहिणावत्त तरंग भंगुर रवि किरण तरुण वण्णेहिय अकोसायं तपमणगंभीरवियढणाभी' गंजानी ભમર-મળના જેવા પ્રદક્ષિણા વવાળી ત્રિવલીથી યુકત તથા મધ્યાહનના સૂર્યના કિરાથી વિકસિત થયેલા उभजना बनना लेवी गंभीर भने विशाण तेथोनी नाली होय छे. 'अणुभ उपसत्य पीण कुच्छी' अनुस्मथु उग्रता विनानी प्रशस्त खाने पीन तेयोनी सुश्री तर यछे 'सण्णयपासा' तेयोना भन्ने पार्श्व लागो ३६६६६४ जुम्ला होय छे. 'संगयवासा' मोसा पार्श्ववाणी होय हे 'सुजातपासा' सुनत पार्श्व वाणी होय छे. या महोनो विस्तार पूर्वनो अर्थ पडेसां भावी गयेस छे. 'मियमा इय पीणरइयपासा' तेयोना अपार्श्व पडमा भित परिमित यात पोताना प्रभाणुथी युक्त चुष्ट ने आनंद आपवावाजा होय . 'अकर डुय कणगरुग - -
SR No.010389
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages929
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size61 MB
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