________________
प्रमेयोतिका टीका प्र. ३.९ जीवोत्पत्तिविषयनिरूपणम्
२९
सर्वपुलाः एककालं तद्भावेन प्रविष्टपूर्वाः किमिति प्रश्नः भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोमा' हे गौतम! 'हमी से णं स्यणप्पसार पुढवीए' एतस्यां खल रत्नप्रभायां पृथिव्याम् 'सव्यपोग्गला पविपुण्दा' लोकोदरवर्तिनः सर्वे पुद्गलाः प्रविष्टपूर्वाः तदभावेन परिणतपू: संसारस्यानादित्वात् 'को चेव णं सव्वषोग्गला पविट्ठा' नैव खलु न पुनरेककालं सर्वपुलाः प्रविष्टा स्तद्भावेन परिणताः, सर्वपुद्गलानां तद्भावेन परिणतौ रत्नप्रभाव्यतिरेकेणान्यत्र सर्वत्र पुद्गलाभावप्रसङ्गात् न चैवं संभवति तथा जगत्स्वाभाव्यादिति । ' एवं जाव अहे सत्तमा ' एवं यावदधः सप्तभ्याम् एवं रत्नप्रभा पृथिवीयदेव सर्वासु शर्करादि पृथिवीषु
से - परिणत हुए हैं ? या युगपत् प्रविष्ट हुए हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते है - 'गोपमा ! हमीसेणं रथणयभाए पुढचीए सम्म पोग्ला पचिट्ठ पुग्दा' हे गौतम! इस रत्नप्रभा पृथिवी में समस्त लोकवर्ती पुल क्रमशः प्रविष्ट हुए हैं 'नो चेत्र सन्च पोगला पषिद्वा' वे एक साथ सभी पुद्गल वहां प्रष्टि नहीं हुए हैं क्योंकि यदि एक ही साथ समस्त पुद्गल रनंप्रभा पृथिवी में प्रविष्ट हुए हैं ऐसी बात मान ली जावे तो फिर शर्करा - प्रभा आदि पृथिवियों में पुलों का प्रवेश हुआ नहीं माना जा सकता है अतः यही मानना चाहिए की समस्त पुलों का प्रवेश रतप्रभादि पृथिवियों में क्रमशः ही हुआ है- अर्थात् क्रम्म २ से ही समस्त पुद्गल जगत के स्वभाव की विचित्रता होने से रत्नप्रभा आदि रूप से परिणत हुए हैं 'एच' जाब अहे सतना' रत्नप्रभा पृथिवी के विषय में जैसे कहा गया है वैसे ही शर्कराजमा पृथिवी से लेकर सातवीं
या अश्नना उत्तरमां अलु गौतमस्वामीने उहे छेडे 'गोयमा ! इमीसेण रयणप्पभाए पुढवी खन्त्र पोग्गला पविट्ठपुव्वा' हे गौतम! श्री रत्नभলা पृथ्वीमां सघणा सोम्वर्ति युगो उस यूत्र अवेशेला छे, 'नो चेव सव्व पोग्गला पविट्ठा' त्यां तेथे मधा मेडीसाथै प्रवेशेला नयी सडे ले भेड साथै સઘળા પુદ્દગલો રત્નપ્રભા પૃથ્વીમાં પ્રવેશેલા છે, એ વાંત માની લેવામા આવેતે પછી શર્કરાપ્રભા વિગેરે પૃથ્વીચામાં પુદ્ગલાના પ્રવેશ થયે તેમ માની શકાય તેમ નથી. તેથી એમજ માનવું જોઈએ કે બધાજ પુદ્ગલાના પ્રવેશ રત્નપ્રભા વિગેરે પૃથ્વીયેામાં ક્રમથી જ થયેલ છે. અર્થાત્ કમક્રમથીજ સઘળા પુદ્ગલે જગતના સ્વભાવની વિચિત્રપણાથી રત્નપ્રભા વિગેરેપણાથી પરિણત થયેલ છે. ' एवं ' जाव अहे वत्तमा' रत्नप्रभा पृथ्वीना समंधमां ? प्रभाषेनु' स्थन