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________________ प्रमैयद्योतिका टीका प्र.३ उं.३ सू.३३ समेद मनुष्यस्वरूपनिरूपणम् ४९१ एगागारा पन्नत्ता' संमूच्छिममनुष्या एकाकारा:- एकस्वरूपाः प्रज्ञप्ता:-कथिता इति संच्छिममनुष्याणां कुत्रोत्पत्ति भवतीति जिज्ञासु गौतमः पृच्छति-'कहिणं' इत्यादि, 'कहिणं भंते ! संमुच्छिममणुस्सा संमुच्छंति' कुत्र कस्मिन् स्थाने खलु भदन्त ! समृच्छिममनुष्याः संमून्छन्ति-समुत्पद्यन्ते इति प्रश्नः, भगवानाह-गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'अंतोमणुस्सखेत्ते' अन्तर्मनुष्य क्षेत्रो मनुष्य क्षेत्राभ्यन्तरे एव समुत्पद्यन्ते मनुष्याणामेव उच्चारमस्रवणाद्यशुचिस्थानेषु अन्तर्मुहूर्तकालायुष एव कालं कुर्वन्ति 'जह पण्णवणाए जाद से तं समुच्छिममणुम्सा' यथा प्रज्ञापनायां कथितं यावत् ते एते संमूच्छिसमनुष्या इति, समूच्छिसमनुष्याणां विस्तरतो निरूपणं प्रज्ञापनायाः प्रथम प्रज्ञापना पदोक्तानुसारेणैव ज्ञातव्यम्, अत्र 'जाव' यावर शब्दग्राह्याः प्रज्ञापना सूत्रक प्रथमपदोक्तास्तदालापका: यथा-'पणयालीसाए जोयणलयसहस्सेसु अड्राइज्जेसु दोवसमुद्देसु पण्णरससु कम्म एगागारा पनत्ता' हे गौतम ! संमूच्छिम मनुष्यों के सेद नहीं होते हैंक्योंकि संमुच्छिम मनुष्य एक स्वरूप वाले कहे गये हैं। 'कहिणं भंते ! समुच्छिम मणुस्सा संमुच्छंति' हे भदन्त ! इन समूच्छिम मनुष्यों की उत्पत्ति कहां पर होती है ? उत्तर में प्रशुश्री कहते हैं-'गोयमा ! अंतो मणुस्सखेत्ते' हे गौतम! थे संमूच्छिन मनुष्य मनुष्य क्षेत्र के भीतर ही उत्पन्न होते हैं। तथा मनुष्यों के ही सल सूत्रादिक रूप अशुचि वस्तुओं में ही ये उत्पन्न होते हैं और इनकी आयु केवल एक अन्तर्मुहूर्त की होती है 'जहा पण्णवणाए जाव ले त समुच्छिममनुस्सा संमुच्छिम मनुष्यों के सम्बन्ध में विस्तार से कथन प्रज्ञापना सूत्र के प्रथम पद में किया गया है अतः उसी के अनुसार यहां पर भी इनके सम्बन्ध में कथन समझ लेना चाहिये. यहां पर 'यावत्' शब्द से ग्रात्य प्रज्ञापना मूत्र उत्तरमा प्रसुश्री ४९ छे संमुच्छिम मणुस्सा एगागारा पण्णत्ता' गौतम ! સંમૂર્ણિમ મનુષ્યના કેઈપણ ભેદ હતા નથી. કેમકે સામૂર્ણિમ મનુષ્ય એકજ ५१३५मा पार्नु ४२ छ. शथी श्रीगोतमस्वामी पूछे छे है 'कहिणं भाते ! समुच्छिम मणुस्ता समुच्छिति'सावन मास भूरिभ मनुष्यानि पत्ती ४या याय छ १ प्रश्न उत्तम प्रसुश्री ४९ छ, 'गोयमा ! जतो मणुस्सखेत्ते' હે ગૌતમ ! આ સંમૂર્ણિમ મનુષ્ય મનુષ્ય ક્ષેત્રની અંદર જ ઉત્પન્ન થાય છે. તથા મનુષ્યનાજ મલ મૂત્રાદિ રૂપ અશુદ્ધ વરતુઓમાંજ તેઓ ઉત્પન્ન થાય छ. मन मानु मायुष्य 840 से मतभुडून नुन हाय छे. 'जहा पण्णवणाए जाव से तं समुच्छिमणुस्सा' स भूरिभ मनुष्याना समयमा प्रज्ञायनासूत्रमा વિસ્તારપૂર્વક વર્ણન કરવામાં આવેલ છે, તેથી તે કથન પ્રમાણે અહિયાં પણ તેના સંબંધમાં કથન સમજી લેવું જોઈએ, “થાવત્' પદથી ગ્રહણ કરવામાં
SR No.010389
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages929
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size61 MB
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