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________________ जीवामिगमत मुखाः २२, विद्युन्मुखाः २३ विधुदताः २४, घनदन्ताः २५, कष्टदन्ताः २६, गूढदंताः २७,शुद्धदन्ताः सू० ॥३३॥ टीका-'ले किं तं मनुस्मा' अथ के ते मनुष्याः, मनुष्याणां कियन्तो भेदा इति प्रश्नः, उत्तरमाह-'मणुस्सा' इत्यादि, 'मणुस्सा दुविहा पन्नता' मनुष्या द्विविधा.-द्वि प्रकारकाः प्रज्ञप्ताः कथिता-इति, वैविध्यं दर्शयति-तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा' तद्यथा-'संमुरिछसमणुस्साय गम्मदक्कंतियमणुस्साय' संमूछिममनुष्याश्च गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्याश्च, तत्र शुक्रशोणितादि सन्निपातव्यतिरेकेण जायमानाः संमूच्छिमाः शुकशोणितादि सन्निपातेन जायमानाः गर्भजाः, तथा च-गर्भनागर्भजभेदेन मनुष्या द्विविधा भवन्तीति भावः । 'से कि तं समुच्छिममणुस्सा' अथ के ते संमृच्छिममनुष्याः संमृच्छिममनुष्याणां कियन्तो भेदा इति प्रश्नः भगवानाह-समुच्छिम' इत्यादि, 'समुच्छिममणुस्सा तिर्यग्योनिक अधिकार समाप्त कर अप सूत्रकार मनुष्य के अधि. कार का कथन करते है। 'स्खे किं तं नणुस्ला-इत्यादि । टीकार्थ-से किं तं मणुस्सा' हे भदन्त ! मनुष्यों के कितने भेद हैं? । इसके उत्तर में प्रभु श्री कहते हैं-हे गौतम ! 'मणुस्सा दुविहा पण्णत्ता' मनुष्यों के दो भेद हैं 'तं जहां वे इस प्रकार से हैं-'समुच्छिम मणुस्सा य गभवतिय मणुस्सा एक संमूच्छिम मनुष्य और दूसरे गर्भज मनुष्य इनमें शुक्र शोणित आदि सम्बन्ध के विना जो मनुष्य उत्पन्न हो जाते हैं वे समूच्छिम मनुष्य है। एवं शुक शोणित आदि के सम्बन्ध से जो जीव उत्पन्न होते हैं वे गर्भज मनुष्य हैं, 'से कि तं संच्छिम प्रणुम्सा' हे भदन्त ! संमूछिम मनुष्यों के कितने भेद हैं ? उत्तर में प्रभु श्री कहते हैं-'समुच्छिम मणुस्सा તિર્યનિક અધિકાર સમાપ્ત કરીને હવે સૂત્રક ૨ મનુષ્યના અધિકારનું ४थन ४२ 2.-'से किं तं मणुस्सा' इत्याहि ___टी -'से कि त मणुस्सा' है मगवन् मनुष्ये ना सा महो ह्या छ १ मा प्रश्नना उत्तरमा प्रभु श्री गौतमत्व.भान हे छे, 'मणुस्सा दुविहा पण्णत्ता' मनुष्य में प्रश्न या छे. 'तजहा' त मे ४३ मा प्रमाणे छे समुच्छिम मणुस्खाय गम्भक ति य मणुस्साय' से सभूछि म मनुष्य भने બીજા ગર્ભજ મનુષ્ય આમાં શુક્ર અને શ્રોણિતના સંબંધ વિના જે મનુષ્ય ઉત્પન્ન થાય છે, તેઓ સંમૂર્ણિમ મનુષ્ય કહેવાય છે. અને શુક્ર શણિતના सम थी २ अरपन्न थाय छे ते गम मनुष्य पाय छे. 'से कि त समुच्छिम मणुस्सा' 3 सपन् । स भूभ मनुष्याना टस हो । छ १ मा प्रसना
SR No.010389
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages929
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size61 MB
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