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________________ ६ ३७० - जीवामिगमसूत्रे काकमपि कदाचिद तीर्थङ्करादिगुणानुमोदनाच्यनुगतां विशिष्टां भावनां भावयतः, सतो. बाह्यक्षेत्र स्वभावज वेदना सद्भावेऽपि अन्तः सातोदयो भवत्येवेति । ' अहवा कम्माणमावेणं' अथवा कर्मानुभावेन कर्मणः- बाह्यतीर्थंकरजन्मदीक्षा केवलज्ञानापवर्ग कल्याणसंभूतिलक्षणवाह्यनिमितमधिकृत्य तथाविधस्य सातावेदनीयस्य कर्मणोऽनुभावेन विपाकोदयेन कश्चित्सातं वेदयते इति ६ । 'वेयणसयपगाढाणं' वेदनाशक संप्रगाढाना वेदनाशवानि अपरिमिता वेदनाः संमगाढानि अवगाढानि येषां ते वेदनाशतसंप्रग ढाः यतो वेदनशत संप्रगाढा स्वतः 'दुक्खेणा भिदुयाणं' दुःखेनाभिद्रुतानाम् यतो वेदनाशत्तसंप्रगाढा अतो दुःखेनाभिद्रुता स्तेषाम् 'नेरइयाणं' नैरथिकाणाम् - नैरयिकजीवानाम् 'उपाओ उक्कोसं पंच जोयणसंयाई' उत्पातः, उत्पातो नाम कुम्पादिषु पच्यमानानां कुन्तादिभिर्भिद्यमा : - जीव को भी सम्पक्स के लाभ में परम हर्ष होता है इसके बाद भी उसके कभी २, तीर्थंकर आदि के गुणों की अनुमोदना करने रूप विशिष्ट अव्यवसाय वाली भावना के चितवन करते समय बाह्य क्षेत्र स्वाभाविक वेदना के सद्भाव में भी भीतर में साता का उदय हो ही जाता है 'अहंथा कम्माणुभावेणं' कोई २, नारक तीर्थङ्कर के जन्म, दीक्षा, केवल. ज्ञान और मोक्ष कल्याण के समयरूप बाह्य निमित्त को लेकर तथाविध सातावेदनीय कर्म के विपाकोदय से साता का वेदन करता है ॥६॥, . 'वेयण सय संपगाढाणं' अपरिमित वेदनाओं से युक्त हुए अतएव दुःखोंसे परे गये उन 'नेरयाणुप्पा' नैरयिकों का कुंभी आदि में पचाने से कुन्त-भाला आदि से भेदे जाने से भयत्रस्त होकर ऊपर उछलनां कम से Y પ્રમાણે આ નારક જીવને પણુ સમ્યક્ત્વના લાભમાં પરમ હેષ થાય છે. તે પછી પણ તેને કયારેક કયારેક તીર્થંકર વિગેરેના શુથેનું અનુમાદન કરવા. રૂપ વિશેષ પ્રકારના અધ્યવસાય વાળી ભાવનાનુ ચિત્યન કરતી વખતે ખા ક્ષેત્રની સ્વાભાવિક વેદનાના સદૂભાવમાં પણ અંદર સાતાના ઉદય થઈ જ જાય छे. "अहवा कम्माणुभावेणं' ४४ - नार४ तीर्थ करना भीक्षा, ठेवणज्ञान भने भक्ष उदयालुना, समय: ३५ बाह्य निमित्तने धने- "तेवा-अठारंना सात, वहनीय भुना विषा अध्यथी सातानु' वेहन४ ॥ ॥ 'ब्रॅंयणव॒यसंपगाढा ण' अपरिमित बेहनाशार्थी युक्त थयेव अतमेव दुःपोथी ५२ येता ते 'नेरइयाणुपाओ' नैरयिडाने हुली विगेरेमां- पथाववाथी, -भांसा विगेरेथी हाई वाथी, अयथा विडवणथहने पर छा भ 1.
SR No.010389
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages929
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size61 MB
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