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________________ जीवामिगमस्त्र भावादिति, 'अविसु द्रलेस्सेणं भंते ! अणगारे' अविशुद्धलेश्य:-कृष्णादिलेश्योपेतः खल भदन्त ! अनगार:-साधुः 'असमोहएणं अपाणेण' असमबहतेन-वेदनादि समुद्घातरहितेनाऽऽत्मना 'विसुद्धलेस्सं देवं देवि अणगारं' विशुद्धलेश्यं देवं देवीमनगारं किम् 'जाणइ पासइ' जानाति-पश्यति, इति द्वितीयः प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'नो इणढे समडे' नायमर्थः समर्थः, अविशुद्धलेश्यावत्वेन यथाऽवस्थितवस्तुपरिच्छेदाभावादिति ॥२॥ 'अविमुद्धलेस्से णं भंते ! अणगारे' अविशुद्धः -कृष्णादिलेश्यः खलु भदन्त ! अनगार:-साधुः 'समोहएणं अप्पाणे गं' समवहतेन-वेदनादि समवघातगनात्मना रूप से न अविशुद्ध लेश्या देव को जानता देखना है । 'अविसुद्धलेस्से णं भंते ! अणगारे असमोहएणं अप्पाणे णं विसुद्धलेस्सं देवं देवि अण गारं जाणइ पासई' हे भदन्त ! जो अनगार अविशुद्ध लेश्या वाला है और वेदनादि समुद्घात से विहीन है ऐसा वह अनगार घेदनादि ममुद्घात रहित आत्मा के द्वारा क्या विशुद्ध लेश्या वाले देव को या देवी को या किसी अनगार को क्यो जानता है और देखता है ? इस के उत्तर में प्रभु श्री कहते है-'गोयमा ! नो इणढे समढे' हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है क्योंकि अविशुद्ध लेश्या वाले यथावस्थित वस्तु को जानने वाले ज्ञान का अभाव रहा करता है । 'अविसुद्धलेस्से णं भंते ! अणगारे समोह एणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेस्सं देवं देवि अणगारं जाणइ पासह' हे भदन्त ! जो अनगार अविशुद्ध लेश्या वाला है-लेश्या की विशुद्धि से विहीन है-परन्तु वेदनादि समुद्घात गत है पाथी भविशुद्ध वेश्यावा हेपने तत। हेमात नथी. अ वसुद्धलेस्सेण भते अणगारे असमोहएणं अप्पाणं विसुद्धलेस्स देव देवि अणगार जाणइ पासइ' है ભગવદ્ જે અતગાર અવિશુદ્ધ વેશ્યાવાળા હોય છે, અને વેદના વિગેરે સમુદ્રઘાતથી રહિત છે. એવે તે અનગાર વેદના વિગેરે સમૃદ્દઘાતથી રહિત આત્મા દ્વારા વિશુદ્ધ વેશ્યાવાળા દેવને અથવા દેવીને અથવા તેવા કોઈ અણુગારને શું જાણે છે? કે દેખે છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને हे छ , 'गोयम। ! नो इणटे समटे' हे गौतम ! सा मथ मशम२ नथी. કેમકે અવિશુદ્ધ લેણ્યા વાળાને યથાવસ્થિત વસ્તુને જાણવાના જ્ઞાનને અભાવ हाय छे. 'अविसुद्धलेस्सेणं, भते ! अणगारं समोहएणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेस देव देवि अणगारे जाणइ पासइ' है मापन २ सनगार अविशुद्ध वेश्यावाणा હોય છે, વેશ્યાની વિશુદ્ધીથી રહિત છે. પરંતુ વેદના વિગેરે સમુદઘાતવાળા છે,
SR No.010389
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages929
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size61 MB
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