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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ २.१७ नारकजीवोत्पातनिरूपणम् उपवज्जति' सरीसपेभ्योऽपि आगत्य रस्नममायामुत्पद्यन्छे नारकाः पक्षिभ्योऽपि आगत्योत्पधन्ते चतुष्पदेभ्योऽपि आगत्योत्पद्यन्ते उरगेभ्योऽपि आगत्योत्पधन्ते, स्त्रीभ्योऽपि आगत्योत्पद्यन्ते, मत्स्यमनुष्येभ्योऽपि आगत्य रत्नप्रमाणं नारकाः समुत्पद्यन्ते इति । 'सेसामु इमार गाहाए अणुगंतव्वा' शेषासु-शर्कराममा प्रभृ. तिषु पृथिवीषु अनया गाथश-वक्ष्यमाण सार्द्धगाथया नारकाणां समुपद्यमानता अनुगन्तव्या-अनुसरणीया 'असन्नी खल्ल पढम' इत्यादि, 'असणी खलु पढमं' असंझिनः खलु संपूछिम पञ्चेन्द्रियाः खलु पथयां नरकपृथिवीन गच्छन्ति १, में नैरयिक जीव असंज्ञियों में से श्री आकर के उत्पन्न होते हैं और यावत् मत्स्यों और मनुष्यों में से आकरके भी उत्पन्न होते है, एके. न्द्रिय से लेकर असंज्ञो पश्चेन्द्रिय तक के समस्न जीव समूच्छिम ही होते हैं इसलिये सामान्यरूप से यहां ऐसा कह दिया गया है कि असंज्ञी जीव नरकों में-प्रथम नरक के नरकासालों में-उत्पन्न होते हैं इसी तरह से सरीसृपों-सरकार चलनेवालों में से भी आकर के जीव प्रथम नरक के नरकावासों में नारक रूप से उत्पन्न होते हैं पक्षियों में से, चतुष्पदों में से, उरमों में से, स्त्रियों में से, और मत्स्यों एवं मनुष्यों में से, आकर के जीव यहां प्रथम नरक के नरकावासों में उत्पन्न होते हैं । वाकी की पृथिवियों के नरकावासों में उत्पन्न होने के सम्बन्ध में यह डेढ गाथा है-वह इस प्रकार है 'असण्णी खलु पढम' इत्यादि । जो असंज्ञी पञ्चन्द्रिय जीव है वे तो प्रथम पृथिवी के ही नरकावासों में नारक रूप से उत्पन्न होते हैं आगे की पृथिवियों के नरका ઉત્પન્ન થાય છે. અને યાવત્ મત્સ્ય અને મનુષ્યમાંથી આવીને પણ ઉત્પન્ન થાય છે. એક ઈદ્રિયવાળા જીવોથી લઈને અસંજ્ઞી પંચેન્દ્રિય સુધીના સઘળા સંમૂર્ણિમજ હોય છે. તેથી સામાન્ય પણુથી અહિયાં એ પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે. કે અસંજ્ઞીજી નરકાવાસોમાં એટલે કે પહેલા નરકના નરકાવાસમાં નારપણાથી ઉત્પન્ન થાય છે. પરિક્ષામાંથી, ચેપગા પ્રાણીમાંથી, સર્પોમાંથી, સ્ત્રિમાંથી અને માછલીઓમાંથી તથા મજુમાંથી આવેલા જીવ આ પહેલી નરકના નરકાવાસમાં ઉત્પન્ન થવાના સંબંધમાં આ દેઢ ગાથા ४ही छ. ते सा प्रभारी छे. 'असन्नी खलु पढम' छत्या. એટલે કે જે અસંણી પંચેન્દ્રિય જીવે છે, તેઓ તે પહેલી પૃથ્વીના નરકાવાસમાં જ નારપણાથી ઉત્પન્ન થાય છે. તે પછીની પૃથ્વીના નરકા
SR No.010389
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages929
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size61 MB
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