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________________ जीवामिगम तराणि शेपं तदेव नैव खलु तानि विमानानि व्यक्त्रिजेत् एतन्महान्ति सह विमानानि प्राप्तानि श्रमणायुष्मन् ! ॥१० २७॥ ॥विर्यग्योनिकोशिशः प्रथमः ।। टीका-'अस्थि णं भंते ! विमाणाणि' अनास्तीति अव्ययपदं वहथे, तथा च सन्ति-विद्यन्ते खलु मदन्त ! विनानानि-विशेषतः पुण्यप्राणिमिमन्यन्तेतद्गत सौख्यानुभवनेन अनुभूयते इखि विमानानि 'सोस्थियाणि स्वस्तिकानि 'सोत्थियावत्ताई' स्वस्तिकावतानि 'सोस्थियप माई स्वस्तिकपमाणि 'सोस्थियक ताई स्वस्तिककान्तानि 'सोस्थियानाई स्वस्तिकवर्णानि 'सोस्थिय लेस्साई' सस स्तिकलेश्यानि 'सोथि ज्झ पाई स्वस्तिकध्वजानि 'सोत्थियसिंमाराई" स्वस्तिकश्टङ्गाराणि 'सोस्थियकूडाई' स्वस्तिस्कूटानि 'सोस्थिपमिट्ठाई' स्वस्तिक कुल कोटि के विचार में विशेषाधिकार को लेकर गौतम ! विमानों के अस्तित्व को लक्ष्य करके ऐसा पूछ रहे हैं 'अस्थि णं भंते ! विमाणाई सोस्थियानि'-इत्यादि। सूत्र २७ टीकार्थ-यहां 'अस्थि' यह अव्यय पद है और यह घटु अर्थ में प्रयुक्त हुभा है जो पुण्यात्माओं द्वारा विशेष रूप से-अर्थात् तद्गत सौख्य के अनुभवन ले-अच्छे माने जाते हैं वे विमान है यहां गौतम ने प्रभु से ऐसा प्रश्न किया है 'अस्थि गं भंते ! सोधियाणि सोत्थिया पत्ताई' हे भदन्न ! क्या स्वस्तिक स्वस्तिकावर्त, 'मोत्थियपभाई' स्व. स्तिकप्रभा 'सोत्थिय कंताई स्वस्तिक कान्त 'तोत्थिय वनाई' स्वस्तिकवर्ण 'सोस्थियलेस्लाई' स्वस्तिक लेश्या, 'सोधियज्झयाई स्वस्तिकध्वज 'सोस्थिय सिंगाराई' स्वस्तिक शृङ्गार 'लोस्थियकूडाई' स्वस्तिक कूट કુલકેટિયોને વિચાર કરતાં વિશેષાધિકારને લઈને વિમાનના અસ્તિત્વને देशाने श्रीगौतमस्वामी से पूछे छे 'अस्थि णं भंते ! विमाणाई सोत्थि याणि' त्यादि ટીકાર્ચ–અહિયાં “કરિ એ અવ્યય પદ છે. અને એ બહુલ અર્થમાં પ્રયુક્ત થયેલ છે. જે પુણ્યાત્માઓ દ્વારા વિશેષપણાથી અર્થાત તદગત સુખના અનુભવનથી સારા માનવામાં આવે તેને વિમાન કહેવામાં આવે છે. આ समयमा श्रीमातभाभी प्रभुश्रीन से ५७यु छ , 'अस्थि णं भंते ! सोस्थियाणि सोस्थियावत्ताई' है लसपन ! शु स्वस्ति, स्वस्तिवत 'सोस्थिय पभाई' वस्ति प्रभा 'सोस्थिय कंताई वस्ति sid 'सोस्थिय वन्नाइ' स्पति वर्ष 'मोत्थिय लेस्साई' स्वस्तिसेश्या, 'सोत्थियज्मयाई' स्वस्तिय १४ 'स्रोत्थियसिगाराइ' २१स्ति शुभा२ 'सोत्थियकूसाई' .
SR No.010389
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages929
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size61 MB
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