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________________ जीवाभिगम ८९० नन्दनवनगतानां चा 'सोमणसवणगाण वा' सौमनसवनगतानां वा, 'पंडगवण गयाण वा' पण्डकरनगतानां वा तत्र मेरोः समन्ततः समभूतौ भद्रशालवनं, प्रथममेखलायां नन्दनवनम् द्वितीयमेखलायां सौमनसवनम् शिरसि चूलिकायाः पार्श्वेषु सर्वतः पण्डकवनम् तत्र स्थितानामित्यर्थः पुनश्च - 'हिमवंत मलय मंदरगिरिगुद्दा समण्णागयाण चा ' हिमवन्मलगमन्दरगिरिगुहा समन्वागतानां वा, हिमवान् हिमवत्क्षेत्रस्योत्तरतः सीमाकारी वर्षभरपर्यंत, उपलक्षणम्, शेषवर्षधरपर्वतानां मलयपर्वतस्य सन्दरगिरेश्व मेरुपर्वतस्य च गुहा = गुफा तंत्र समन्त्रागतानाम्आगत्य स्थितानाम्, किन्नरादयः माय एतेषु मुदिश्वरा भवन्तीश्यत एव रोपां ग्रहणम् 'एगओ संहियाणं' एकतः संहितानाम् - संमिलितानाम्, 'संमुहागयाणं' णवा 'भद्दसालवणगवाण वा सोमणसवणगयाण वा पंडगवणगयाण या हिमवंत मलयमंदरगिरिगुहसमण्णा पाणवा' यहां से लेकर सूत्र समाप्ति के शब्दों का विस्तृत अर्थ सूत्र के अन्य में कहा जायगा यह सामान्यरूप से अर्थ किया जाता है, है भदन्त । जैसा किन्नरों का अपना किंपुरुषों का महोरगों का या गंघर्षो का जो कि भद्रसाल वन में या सोमनसवन में घा पण्डकवन में पैठे हों या हिमवान पर्वत की या मलय पर्वत की था मन्दर पर्वत की गुफा में पैठे हो 'एमओ संहियाणं' एकस्थान पर एकत्रित हुए हो 'संमुहागयाणं' या एक दूसरे के आमने सामने आए हुए हो, या एक दूसरे के समक्ष बैठे हुए हों। कोई किसी को पीठ देकर न बैठा हो 'समुदविद्वाणं' बैठी हुई अवस्था में भी इस ढंग से वेटे हो कि जिससे किसी को आपल की रगड से या संघर्ष से बाधा न हो रही हो 'संनिविद्वाणं' गंघव्वाणवा भद्दसालणयाणा सोमणखवणगयाणवा पंडगवणगयात्रा हिम'तवलयम दर्शगरिगुह समण्णागयाण वा ' આ સૂત્રપાઠથી આરંભ કરીને સૂ સમાપ્તિ સુધિના શબ્દોના અર્થ સૂત્રના અંતમા કહેવામાં આવશે. આ અધ સામાન્ય રીતે કરવામા આવે છે, તે આ પ્રમાણે છે. હું ભગવત્ કિન્નરના કિં'પુરૂષોના મારગેાના, અથવા ગ ંધર્વોના સમૃહા કે જે ભદ્રમાલ વનમાં અથવા સૌમનવસનમાં અથવા પડકવનમાં બેઠેલા હાય જો હિમવાન પતની અથવા भाश्रयवतनी गथवा हर पर्वर्तनी शुभां ठेला होय 'पगओ संहियाण' એક સ્થન ५२ मेठा थयेला साय 'स' महागया णं' भने गोठ खोलनी સામે આવેલાહાય અથવા એક ખીજાની સન્મુખ બેઠેલા ડ્રાય કોઇની પીઠ કેઇની સામે પડતી ન હાય અર્થાત્ કોઇ પીડ દઇને મેસેલ ન 'होय 'समुत्रड़ियाणं' हेही अवस्थामां पण सेवी रीते मेहता हाय } लेथी
SR No.010389
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages929
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size61 MB
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