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________________ जीवामिगमसूत्रे ५३२ > विरागसमये नवनिधिपतेर्दीपिका चक्रवाकवृन्दम्, तत्र संध्यारूपो विरुद्ध स्विमिररूपत्वात् रागः संध्याविरागस्वत्समये तदवसरे नवनिधिपते चक्रवर्तिन इत्र दीपिका चक्रवालवृन्दं तत्र हवा दीपा दीपिकाः तासां दीपिकानां चक्रवालं - चक्रसमूहः सर्वतः परिमण्डलरूपं वृन्दम् तव कीटक साह'भूयवपिलित्तणेहे' प्रभृतिपर्याप्तस्नेहम् तत्र प्रभृताः भूयस्यः स्थूलाः वर्त्तयः दशा यस्य तस्था एवं पर्याप्तः - परिपूर्णः स्नेहस्तेन्यादिरूपो यस्य त् पर्याप्तस्नेहम् 'घणि उज्जालि तिमिरमद्दन्' वणगोज्वालित तिमिरमर्दकम् रात्र घणिय देशी शब्दोऽतिशयार्थः तेन अतिशयोज्वालितम् अतएव तिमिरमर्दकम् अन्धकार विनाशकं तद्वृन्दम्, पुनः किं विशिष्टं दीपिका चक्रवाधवृन्दम् ? तत्राह 'कणग' इत्यादि । ' कणगणिगर कुसुमित पाळियातय वणप्पमासे' कनकनिकर - कुसुमित पारिजातकवनप्रकाशम्, तत्र कनकनिकरः- सुवर्णराशिः कुसुमितं च तत् पारिजातकवनं चेति कुसुमित पारिजातकवनम् अनयोः प्रकाशेन तुल्यः प्रकाशो विद्यते यस्य तत् कनकनिकर कुसुममित पारिजातरुवनप्रकाशम् एतत्तेषां तेजोवर्णनं कृतम् | अब दीपशिखा द्रुमगणवर्णनं क्रियते 'कंचणमणि रयण त्रिमल यह इन्हीं कल्पवृक्षों से होता है 'जहा से संझाविरागसमए नवणिहि पणो दीविया चकवालविंदे पभूयवपिलित्तणेहिं चणिउज्जालिय तिमिरमद्दए' अतः जिस प्रकार संध्या के समय में नव निधिपति अर्थात् चक्रवर्ती के यहां का दीपिका वृन्द कि जिस में अच्छी तरह से वृत्तियां जल रही हों और जो तैल से भरपूर हो प्रज्वलित होता हुआ शीघ्रा के साथ तिमिर का विध्वंसक होता है और जिसका प्रकाश 'कणगनिगरकुसुमितपालि यातयवण्णप्पा' कनक निकर के जैसे प्रकाश वाले कुसुमों से युक्त पारिजातक (देव वृक्ष विशेष) के वन के प्रकाश जैसा-प्रकाश होता है तथा 'कंचन मणिरयणविमल महरिय तणिज्जुज्जल विचित्तदंडादि दीवियाहिं' जिन दीपिकाओं संझा विरागसमए नवविहि पद्मपणे दीविया चक्रवालविंदे पभूयवत्तिपलित्तणेहिं घणिउज्जयितिमिरमद्दए' तेथी प्रेम संध्या समये नव निधियति अर्थात् ચક્રવર્તિને ત્યાં દીપિકારૃં દિવાને સમૂહ કે જેમાં સારી રીતે મત્તીચે ખળતી હાય અને જે તેલથી ભરપૂર હાય, પ્રજ્જવલિત થઇને એક દમ २मधठारना नाश पुरीहे छे भने लेना अांश 'कणगनिगर कुसुमितपालिया तयवणप्पगाखो' उन निम्रना नेवा अाशवाणा सुभेोथी युक्त सेवा पारि 'लतठना बनना अहारा वन प्राश होय छे, तथा 'कंचणमणिरराण विमल
SR No.010389
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages929
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size61 MB
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