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________________ जीवामिगमन ३५४ चम्मेइ वा वराहचर्म इति वा, 'सीहचम्मेइ वा' सिंहचर्म इति वा, 'दग्घचम्मेह वा' व्याघ्रचर्मेति वा, 'विगचम्मेइ. वा' रुचमति वा, 'दीवीचम्मेइ वा द्वीपि-चित्रकस्तस्य चर्मेति वा, 'अणेग संकुकीलगसहस्सवितते' अनेकशङकुकीलकसहस्रवितता एतेपामुरभ्रादीनां प्रत्येकं चर्म अनेकैः शङ्कपमाणैः कीलकसहस्रः महद्भिः कीळकैरताडित पायो मध्य क्षामं भवति न समतलं भवति, अतः शङ्कग्रहणम्, विततं-विततीकृतम् ताडितं सद् यथाऽत्यन्त बहुसमं भवति तथा तस्यापि बन पण्डस्पान्तर्वद्समो भूमिभागः । पुनः कथंभूतो भूमिमागस्तत्राह-'णाणाविह पंचवन्नेहि' इत्यादि, 'णाणाविह पंचवण्णेहि तणेहि य मणोहि य उवलोभिए' नानाविध पञ्चवर्णैस्तृणैश्च मणिमियोपशोभितः कथंभूतै रतैः ? तत्राह-'अवड' वा' उसभाषा में बैलका नाम है 'वराह चम्मेह वा वराह नाम सुअर का है 'सीह चम्मेह वा सिंहा नाम शेर का है। 'बग्घ चम्मेहवा' व्याघ्र नाम सिंह की ही एक जाति के जानवर का नाम है, 'विगचम्मेह वा' वृकनार भेडिया का है 'दीवि चम्मेह वा द्वीपीनाम चीता का है 'अणेग संकुक्षीलग लहस्तावितसे' इन सब जानवरों का चमडा शङ्कप्रमाण बडी २ हजारों कीलों से जव तक ताडित नहीं होता है तब तक वह समतल वाला नहीं होता है, किन्तु वह मध्य क्षाम-पतला-रहता है और जब वह-ताडित होता है तब वह वहुसम हो जाता है, अतः जिस प्रकार इन लवका चमडा इस प्रकार से ताडित हो जाने पर समतल वाला हो जाता है, उसी प्रकार से इस वनखंड का भी भीतरी भूमि भाग समतल वाला है 'नाणाविद पंचरणेहि तणेहि य मणीहिय उव. मोभिए' यह भूमिभाग नाना प्रकार के पंचवर्णों वाले तृणों से एवं में भूमि समतल छ मे शत 'उखभचम्मेइ वा' वृषम अर्थात मह 'वराहचम्मे इवा' १२ (सु) सुवरने ४९ छे. 'सीइचम्मेइ वा' सिह 'वग्धचम्मे इवा' पा से मिनी १४ गत नाम छे. 'विगवम्मेइ वा' ४ मति ५४ 'दीविचम्मेइ बा' दीपि से वित्तानु नाम छ 'अणेग संकुकीला सहस्ववितते' मा मघा नपरानु या २ वा मोटा मोटा है। ખીલાથી જ્યાં સુધી ટીપવામાં આવતા નથી ત્યાં સુધી તે સમતલ બનતા નથી. પરંતુ તે મધ્યમાં પતળા રહે છે. અને જયારે તે ટીપાય છે, ત્યારે તે એક દમ સમ સરખા બની જાય છે. તેથી જે રીતે આ બધાનું ચામડું આ રીતે ટીપાયા પછી સમતલ બને છે, એ જ પ્રમાણે એ વનખડની અંદરને ભૂમિ मा समपाले। उय छे 'नाणाविह पंचवण्णेहि तणेहि य गणीहिय उव રોમિg” આ ભૂમિભાગ અનેક પ્રકારના પંચ વર્ણવાળા તૃથી અને મણિયે
SR No.010389
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages929
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size61 MB
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